Friday, January 9, 2015

SIN पाप :: HINDU PHILOSOPHY (5.2) हिन्दु दर्शन

SIN पाप
HINDU PHILOSOPHY (5.2) हिन्दु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
उपकार करना पुण्य और पीड़ित करना पाप है।[वेदव्यास]
तीन प्रकार के पाप ::
(1). अपने जातिगत, वर्णाश्रम धर्म-कर्मों को न करना।
(2). शास्त्रोक्त विहित, निहित कर्मों को करना और
(3). इन्द्रियों को वश में न रखकर मनमाने कर्म (खान-पान, पहिरान या दुर्व्यवहार) करना।
इन तीनों प्रकार के पापों से ही पीछे जाकर प्रकीर्णक, जाति भ्रंश कर, संकरी करण, अपात्रीकरण, मलिनीकरण, उपपातक, अनुपातक और महापातक बन जाते हैं और इनके करने से मनुष्य निज पद से गिर जाता है।
वेद द्वारा विहित धर्म एवं उससे विरुद्ध अधर्म है। धर्म के आचरण से पुण्य तथा अधर्म के आचरण से पाप होता है। पुण्य से इष्ट साधन एवं पाप से अनिष्ट की प्राप्ति होती है।[जैमिनि]
पाप के सम्बन्ध में भगवान् श्री कृष्ण का रुक्मणी जी को उत्तर :: आचार्य द्रोण और भीष्म पितामह ने जीवन पर्यंत धर्म का पालन किया, किन्तु उनके किये एक पाप ने उनके सारे पुण्यों को हर लिया। जब भरी सभा में द्रोपदी का चीर हरण हो रहा था, तब ये दोनों भी वहाँ उपस्थित थे और बड़े होने के नाते, ये दुशासन को आज्ञा भी दे सकते थे, किंतु इन्होंने ऐसा नहीं किया।
भीष्म पितामह को शर-शय्या पर लेटना, उनके 101 वें पूर्व जन्म में घायल सर्प को पक्षियों से उसकी रक्षा के लिये, काँटों से ढँकना था। मगर काँटों की वजह से वो निकल नहीं पाया और चींटियों ने उसे नौंच-नौंचकर मार डाला। 
कर्ण अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध था, कोई भी उसके द्वार से खाली हाथ नहीं गया, किन्तु जब अभिमन्यु सभी युद्ध वीरों को धूल चटाने के बाद युद्ध क्षेत्र में आहत हुआ भूमि पर पड़ा था, तो उसने कर्ण से, जो उसके पास खड़ा था, पानी माँगा। कर्ण जहाँ खड़ा था, उसके पास पानी का एक गड्ढा था, किंतु कर्ण ने मरते हुए अभिमन्यु को पानी नहीं दिया। इसलिये उसका जीवन भर, दान वीरता से कमाया हुआ पुण्य नष्ट हो गया। बाद में उसी गड्ढे में उसके रथ का पहिया फंस गया और वो मारा गया।
पाँच महापातक :: ब्रह्म हत्या, सुरापान, स्वर्ण स्तेय, गुरु तल्प गमन और इन चतुर्विध पापों के करने वाले पातकी से संसर्ग रखना।
अतिपातक :: मातृ गमन, भगिनी गमन आदि।
अनुपातक :: शरणागत का वध, गुरु से द्वेष आदि।
उपपातक :: स्त्री विक्रय, सुत विक्रय आदि।
जाति भ्रंश करण पातक :: मित्र से कपट करना, ब्राह्मण को पीड़ा देना आदि।
मालिनी करण पातक :: लकड़ी चुराना, पक्षी की हत्या करना आदि।
अपात्री करण पातक :: ब्याज से जीविका चलाना, असत्य बोलना इत्यादि।
तीन प्रकार का पाप :: (1). शारीरिक-कार्मिक, (2). वाचिक और (3). मानसिक। 
पाप मनुष्य को घोर नर्कों में ले जाते हैं। पाप को प्रायश्चित, आराधना, तपस्या, दूसरों की मदद करके कम किया जा सकता है। ईश्वर की आराधना, दान-पुण्य, व्रत-उपवास, तीर्थ यात्रा, पवित्र नदियों-सरोवरों में पर्वोँ-उत्सवों पर स्नान, गरीब-मज़लूम की सहायता, धर्म-कर्म, भजन कीर्तन, साधना, तपस्या, चिन्तन-मनन आदि कुछ ऐसे उपाय हैं, जिनकी सहायता से मनुष्य पाप से मुक्ति पा सकता है।  
शारीरिक :: किसी भी प्राणी को शारीरिक आघात-कष्ट पहुँचाना। 
वाचिक :: वचनों-वाणी-शब्दों से अपमान-तिरस्कार-दिल दुखाना-क्रोध करना । 
मानसिक :: बुरा सोचना-दुर्भावना रखना-बदले की चाहत। 
(1). परस्त्री की संगति, पापियों के साथ रहना और प्राणियों के साथ कठोरता का व्यवहार करना। 
(2). फलों की चोरी, आवारागर्दी, वृक्ष पेड़ काटना।
(3.1). वर्जित वस्तुओं को लेना, (3.2). वे कसूर को मारना, जेल-बन्धन में डालना, धन की प्राप्ति के लिये मुकदमा करना। 
(4). सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करना धर्म-नियमों के विपरीत चलना। 
(5). पुरश्चरण आदि तान्त्रिक अभिचरों से किसी को मारना, मृत्यु जैसा अपार कष्ट देना, मित्र के साथ छल-छंद, झूँठी शपथ, अकेले मधुर पदार्थ खाना। 
(6). फल, पत्र, पुष्प की चोरी, बंधुआ रखना, सिद्ध की प्राप्ति में बाधा डालना और नष्ट करना, सवारी के सामानों चोरी। 
(7). राजा को देय राशि में घपला, राजपत्नी का सन्सर्ग और राज्य-देश का अमंगल।
(8). किसी वस्तु या व्यक्ति पर लुभा जाना, लालच करना, पुरुषार्थ से प्राप्त धर्म युक्त धन का विनाश करना, लार मिली वाणी, चिकनी, चुपड़ी बातें करना-बनाना। 
(9). ब्राह्मण को देश से निकालना, उसका धन चुराना, निंदा करना तथा बन्धुओं से द्वेष-विरोध रखना।
(10). शिष्टाचार का नाश, शिष्ट जनों से विरोध, नादान-अबोध बालक की हत्या करना, शास्त्र-ग्रंथों की चोरी, स्वधर्म का नाश-धर्म परिवर्तन।
(11). वेद-विद्या, संधि विग्रह, यान, आसन, द्वैधी भाव, समाश्रय-राजनैतिक गुणों का प्रतिवेश। 
(12). सज्जनों से वैर, आचार हीनता, संस्कार हीनता, बुरे कामों से लगाव। 
(13). धर्म, अर्थ, सत्कामना की हानि, मोक्ष प्राप्ति में बाधा डालना या इसके समन्वय में विरोध उत्पन्न करना।
(14). कृपण, धर्म हीनता, परित्याज्य और आग लगाना।
(15). विवेकहीनता, दूसरे के दोष निकालना, अमंगल-बुरा करना, अपवित्रता एवं असत्य वचन बोलना। 
(16). आलस्य, विशेष रूप से क्रोध करना, सभी के प्रति आतताई बन जाना और घर में आग लगाने वाला।
(17). परस्त्री की कामना, सत्य के प्रति ईर्ष्या, निन्दित एवं उदण्ड व्यवहार। 
(18). देव ऋण, ऋषिऋण, प्राणियों के ग्रहण-विशेषतः मनुष्यों एवं पित्तरों का ऋण, सभी वर्णो को एक समझना, "ॐ" औंकार  के उच्चारण में उपेक्षा भाव रखना, पाप कर्मों को करना, मछली खाना तथा अगम्या स्त्री की संगत; महापाप हैं। 
(19). तेल-घृत बेचना, चाण्डाल से दान लेना, अपना दोष छिपाना और दूसरे का उजागर करना घोर पाप हैं। 
(20). दूसरे का उत्कर्ष देखकर जलना, कड़वी बात बोलना, निर्दयता, भयंकरता और अधार्मिकता। [वामन पुराण] 
जो व्यक्ति जिस पाप से सम्पर्क रखता है उसी का कोई चिन्ह लेकर जन्म ग्रहण करता है।
REBIRTH OF THE SINNER पापी का पुनर्जन्म ::
ब्रह्म हत्यारा पुरुष-व्यक्ति मृग, कुत्ते, सूअर और ऊँटो की योनि में जाता है। इनसे मुक्ति के बाद राजयक्ष्मा का रोगी बनता है।
मदिरा पान करने वाला गधे, चाण्डाल तथा मल्लेछ (मुसलमान, अंग्रेज) बनता है और उसके दाँत काले पड़ जाते हैं।
सोना चुराने वाला कीड़े-मकोड़े और पतिंगे की योनि पाता है।उसका नाख़ून खराब होता है।
गुरु (कोई भी पूज्य व्यक्ति) पत्नी से गमन करने वाला तृण अथवा लता बनता है और इससे मुक्ति के बाद मनुष्य योनि में कोढ़ी होता है।
अन्न चुराने वाला मायावी-राक्षस होता है।
वाणी-कविता आदि की चोरी करने वाला गूँगा होता है।
धान्य का अपहरण करने वाला अतिरिक्त अंग के साथ जन्म लेता है।
चुगलखोर की नाक और मुँह से बदबू आती है।
तेल चुराने वाला, तेल पीने वाला कीड़ा बनता है।
दूसेरों की स्त्री और ब्राह्मण का धन चुराने वाला, निर्जन वन में ब्राह्मण राक्षस होता है।
रत्न चोर नीच जाति में जन्म लेता है।
उत्तम गंध का चोर छछूंदर होता है।
शाक-पात चुराने वाला मुर्गा बनता है।
अनाज की चोरी करने वाला चूहा बनता है।
पशु चोर-बकरा, दूध चराने वाला-कौवा, सवारी की चोरी करने वाला-ऊँट, फल चुराकर खाने वाला बन्दर या गृद्ध बनता है।
शहद चोर-डाँस, घर का सामान चुराने वाला-गृह काक होता है।
वस्त्र हड़पने वाला-कोढ़ी, चोरी-चोरी रस का स्वाद लेने वाला-कुत्ता और नमक चोर-झींगुर बनता है।
जो जिस पाप से सम्बन्ध रखता है उसका कोई न कोई चिन्ह लेकर पुनर्जन्म लेता है।[अग्नि पुराण ]  
One who kills a Brahmn becomes deer, dog, camel and there after suffers from tuberculosis as a human being in still next birth.
One who consumes wine becomes ass, Chandal-untouchable, Mallechchh, Muslim, European & his teeth becomes black due to decay.
One who steals gold becomes insect and on liberation from the species of insects, he will become human again but his teeth will becomes black due to decaying.
One who indulge into intercourse with the wife of his teacher or any respected person's wife, becomes tree, shrub, straw and suffers from leprosy in next birth as a human being.
One who steal food grain, will become a demon.
One who steals the scripts of the other's writings, become dumb in next birth.
One who indulge in the theft of grains, food, cereals is born with an extra limb.
Backbiters are born with foul smelling mouth and nose.
Oil thief becomes the insect, which drinks oil.
One who steal the wife of other person or Brahman's money-wealth, becomes demon in an inhabited jungle.
Jewel thief gets birth in a low caste family.
Scents thief becomes foul smelling rat. One who steal food grain becomes mouse.
One who steal vegetables-leafy vegetables becomes cock.
Animal thief becomes male goat, domestic goods thief becomes camel, fruit thief becomes monkey or vulture.
Honey thief becomes mosquito and thief of domestic goods becomes a crow.
Cloth stealer will become leprosy patient, one who enjoys juices without offering it to others, will become a dog like the priest, who depends upon the salary from the temple or misuse temples funds, Salt thief will become cricket-an insect.
One is born with the sign of the sin he committed in his previous incarnation.
Please refer to :: REBIRTH-REINCARNATION पुनर्जन्मsantoshkipathshala.blogspot.com
SINNER (Devil, satanic, wicked, vicious, corrupt, villain, wretch, enemy ) :: One is subjected-forced into the hells for thousands and thousands of years, become insect, worm, animal, tree on his release from the hells. The God provides him with an opportunity to improve by giving birth in human incarnation. This opportunity must be utilised for own sack.
THREE CATEGORIES OF SINS :: 
PHYSICAL :: The abuse is carried out physically by torture, murder, beating-thrashing, assault, tying, inflicting pain by harming bodily, over powering.
VOCAL :: Speaking harsh words, insult, abusing, making fun, cutting jokes, rejection, mental agony-turpitude, harassment.
MENTAL :: Thinking bad of others, desire for revenge, bad motives, desire for illicit relations, sensuality, passions, pride, ego, greed. 
Any deed, action, manoeuvre, preformed with bad-malafied intentions to harm others, amounts to sin. Harming others whether intentionally or without intention, chance, happening is sin. Penances, repentance, ascetics, prayers devotion to God, helping others, poor, down trodden, elders, needy, pity on others, forgiving helps in relieving-diluting the impact of sin.
(1). Company of others women, wicked and too strict behaviour.
(2). Stealing of fruits, roaming aimlessly with leisure, cutting-felling of trees.
(3). Acceptance of restricted goods, killing, beating, imprisoning, filing of false cases against others-innocents for the sake of extracting money. 
(4). Destruction of community property and acting against the religious rules, scriptures, epics, code.
(5). Killing of people through ghostly-wretched actions, torture like-comparable to death, cheating with friends, relatives, well wishers, false promise, ignoring colleagues, friends, relatives, sitting nearby. Eating sweets ignoring those sitting nearby. 
(6). Theft of vegetation, leaves, fruits, flowers, either vehicles or their components, keeping bonded labour, creating troubles-hindrances in the way of devotees busy in meditation asceticism.
(7). Contact-relations with the queen, action against the country and non payment of the state dues. 
(8). To become greedy (bait, lure, to temp, to decoy, intense desire, avarice) for a person or thing, to be greedy and to destroy the wealth-money earned through righteous-honest means. 
(9). To expel a Brahman (Pandit, scholar, learned, enlightened) from the country without any visible fault-reason, logic, snatching-looting his money, wealth, property, spoiling the money earned through righteous means, honest, pure means, envy-anguish with the relatives-friends.
(10).  Loss of decency, opposition with the descent people, murder of infants-kids, abortions, theft, stealing of scriptures, epics, holy, religious books, change-conversion from own religion and acting against the religion.
(11). Action against the Veds, Purans, Upnishads, breaking of treaties, destabilising from vehicle, seat, couch, duality in behaviour, lack of equanimity with the virtuous political thoughts, ideas, philosophy. 
(12). Rivalry-enmity with the descent people-gentle men, lack of virtues-manners, lack of ethics, attachment to bad deeds, vices, wickedness, devilish.
(13). Loss of religiosity, money, wealth, finances, budget, loss of good thoughts-ideas, prohibiting in the attainment of Liberty, Salvation, The Ultimate, Almighty.
(14) Miserliness, lack of religiosity, expelling-rejecting one from family-society  without authentic reason. Igniting-firing others possessions.
(15). Imprudence, finding faults with others, doing bad, impurity and speaking untrue-slur.
(16). Laziness, furore-being angry, anguish, becoming tyrant to all, burning homes, houses, inhabitants, huts, tents. 
(17). Desire for someone else's wife, abduction, forcefully or otherwise; luring others women, enmity for truth, bad insensitive abnormal behaviour.
(18). All sorts of debt pertaining to elders, ancestors-failure to pay debt-debt servicing, considering all castes to be equal, keeping anti opinion, negligence, rejection, opposition against the pronunciation of Om (Omkar-ॐ) :- the primordial sound created at the time of evolution, eating fish, sex with impure-wretched women are extreme sins.
(19). Selling of oil-ghee, accepting of donations-charity from a Chandal-one who performs last rights in cremation ground-extremely low caste person who lives away from the periphery of civilians-cities, hiding of own faults and exposing others are the ulterior sins.
(20). To envy others rise, always speaking the bitter, lack of pity, to act terribly like a monster, fearsome, terrible, dangerous, desolate.
Prayers, donations-charity, fasting, bathing in pious rivers, ponds-lakes on auspicious occasions-festivals, visiting holy places-holy rivers, helping poor-down trodden, weaker sections of society, participation in religious activities, chanting, recitation, singing, celebrating, remembering of God's names on auspicious occasions, meditation, asceticism, thinking-analysing God's deeds are some of the actions which helps in getting rid from sins. Sins carry the sinners to rigorous hells. On being released from them the soul goes to the species like insects, worms, animals.
पूर्वां संध्यां जपन्तिष्ठन्नैशमेनो व्यपोहति। 
पश्चिमां तु समासीनो मलं  हन्ति दिवाकृतम्॥
प्रातः संध्या में खड़े होकर (गायत्री) जप करने वाला रात के पाप को नष्ट करता है और सांय-संध्या के समय बैठकर जप करने वाला दिन के पाप को नष्ट करता है।[मनुस्मृति 2.102] 
Recitation of the Gayatri Mantr in the morning while standing removes the sins-guilt committed at night, while the recitation of the Mantr while sting in the evening removes the sins of the day.
अधार्मिको नरो यो हि यस्य चाप्यनृतं धनम्। 
हिंसारतश्च यो नित्यं नेहासौ सुखमेधते॥
अधर्मी-पापी, झूँठ ही बोलने वाले, दूसरे की हिंसा में लगे रहने  पुरुष इस लोक में सुख नहीं पाते।[मनुस्मृति 4.170] 
Atheist-one who do not follow the tenets of religion, liars, those who are busy harming others, through violent means never find comfort-solace in this world.
न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत्। 
अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन्विपर्ययम्॥
अधर्माचारी पापियों का शीघ्र नाश होता (दुर्दशा) हुआ देखकर और धर्माचरण से दुःख पाता हुआ भी मनुष्य अधर्म में मन को न लगावे।[मनुस्मृति 4.171] 
One should never deviate himself to falsehood-irreligiosity even though suffering by following the religious acts, deeds, righteousness, virtuousness, piousity, by observing the suffering of the wicked, viceful, wretched, unrighteous.
नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव। 
शनैरावर्त्यमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति॥
किया हुआ पाप पृथ्वी में बोये हुए बीज की भाँति तत्काल फल नहीं देता, अपितु धीरे-धीरे फलित होने का समय आने पर पापकर्त्ता का मूलोच्छेदन के देता है। 
The sin does not yield immediately, but results slowly and gradually like the seed sown in the soil over the earth. It vanishes the doer leaving none behind in the family.[मनुस्मृति 4.172]
Mughal dynasty in India is known for its cruelty, conversion of Hindus to Islam, killing innocent people, destroying Hindu places of worship etc. With Bahadur Shah Jafar the dynasty came to an end. However, some people through illegitimate relations survived and ruled India further. But their future is too dark-bleak. Rahul and Varun are non-entity now. They are Muslims, who adopted Gandhi as their surname.
यदि नात्मनि पुत्रेषु न चेत्पुत्रेषु नप्तृषु। 
न त्वेव तु कृतोऽधर्मः कर्तुर्भवति निष्फलः॥
यदि पाप का फल अपने आपको न मिला तो पुत्रों को, पुत्रों को न मिला तो पौत्रों को मिलता ही है। बाप का किया हुआ पाप कभी निष्फल नहीं होता।[मनुस्मृति 4.173] 
The outcome of the sins of father has to be faced by the son. If the son passes away the grandson is sure to face the result of the grand father's sin, since they all enjoyed the comforts, riches attained through sin.
If the punishment-curse does fall over the offender himself, it falls on his sons, if not on the sons, at least on his grandsons; but an iniquity (once) committed, never fails to produce fruit to him who wrought it.
Imagine the future of the grandson and the great grand son who are still busy committing sins after sins. Frauds, corruption, cheating, investments abroad, dual citizens ship and an unending trail of sins.

अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति। 
ततः सपत्नान्जयति समूलस्तु विनश्यति॥
अधर्म-पाप से कुछ काल वृद्धि होती है, उससे सभी प्रकार का वैभव दिखाई देता है। उससे शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। उसके बाद उसका जड़-मूल नाश हो जाता है।[मनुस्मृति 4.174] 
Irreligiosity, sins, wretchedness, unrighteousness yield gains temporarily for some time resulting in all sorts of comforts. One is able to win-conquer his enemy as well, but thereafter his clan comes to an end and everything perishes.
एतैर्विवादान्  संत्यज्य सर्वपापैः प्रमुच्यते। 
एभिर्जितैश्च जयति सर्वांल्लोकानिमान्गृही॥
जो इन लोगों विवाद नहीं करता, वह सब पापों से छूट जाता है। इनसे झगड़ा न करने वाला पुरुष इन (आगे कहे गये) लोकों को प्राप्त करता है।[मनुस्मृति 4.181] 
One who does not indulge in argument-quarrel with the above mentioned categories of people, is protected from all sins and gets the higher abodes-heavens describes next.
Argument-quarrel is a chain reaction and disturbs life. Under the influence of tension-anger one may commit several mistakes-sins, crimes. The quarrel-argument is a two way process. If one remain silent, the other one is left with with no alternative except to shut mouth.
पञ्च पश्वनृते हन्ति दश हन्ति गवानृते। 
शतमश्वानृते हन्ति सहस्रं पुरुषानृते॥
पशुओं के विषय में झूठ बोलने से पाँच, गौ के विषय में झूठ बोलने से दस, घोड़े के विषय में झूठ बोलने से सौ और मनुष्य के विषय में झूठ बोलने से एक हजार बांधवों को मारने का पाप लगता है।[मनु स्मृति 8.98] 
The lair under oath in the court is sinned (slurred-contaminated), adversely affected for the murder of 5 relatives for telling lies-false testimony, with respect to animals, ten relatives with respect to cows, hundred relatives with respect to horses and hundred relatives with respect to humans.
हन्ति जातानजातांश्च हिरण्यार्थेऽनृतं वदन्। 
सर्वं भूम्यनृते हन्ति मा स्म भूम्यनृतं वदीः॥
सुवर्ण के लिये झूठ बोलने से जात-अजात संतति की हत्या का फल पाता हैं। भूमि के सम्बन्ध में झूठ बोलने से सब प्राणियों को मारने का पाप लगता है। इसलिये भूमि के सम्बन्ध में कभी झूठ न बोले।[मनु स्मृति 8.99]  
The lair is sinned for killing his progeny born out of relation with his wife from the same caste or illegitimate relational from the wife from some other caste, if he tells a lie related to gold. He is sinned for vanishing the entire living world by false testimony pertaining to the land deals. 
अप्सु भूमिवदित्याहुः स्त्रीणां भोगे च मैथुने। 
अब्जेषु चैव रत्नेषु सर्वेष्वश्ममयेषु च॥
जल के सम्बन्ध में, स्त्रियों के भोग के विषय में, मैथुन के विषय में, रत्नों तथा बहुमूल्य पत्थरों के विषय में झूठ बोलने से मिथ्यावादी को वही  पाप लगता है, जो पाप भूमि के सम्बन्ध में झूठ बोलने से लगता है।[मनु स्मृति 8.100]  
The impact of the sin is the same as is caused by telling lie with respect to land deals, water, sex with women, intercourse with women, jewels and gems. 
शासनाद्वा विमोक्षाद्वा स्तेनः स्तेयाद्विमुच्यते। 
अशासित्वा तु तं राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम्
राजा से दण्डित होने या मुक्त होने पर चोर चोरी के पाप से मुक्त हो जाता है। यदि राजा चोर का शासन-ताड़ण, दण्डित न करे तो चोर का पाप उसके सर चढ़ता है।[मनु स्मृति 8.316]  
After being punished or pardoned by the king, the thief is relieved from the sin of having committed theft. If the king fails to control thefts, the sin of the thieves overpowers him leading him to hell.
What if the king himself steals the wealth of nation like the present day, politicians-MLA's, counsellors, MP's, ministers the prime minister and the president as well!? Maha Nand misappropriated with the treasure. Muslims rulers after Aurangzeb used to steal from the treasury and used to transfer wealth to some undisclosed destination like Maha Nand. The fact remains that they have to reside in the hells in proportion to their crime.
अन्नादे भ्रूणहा मार्ष्टि पत्यौ भार्यापचारिणी। 
गुरौ शिष्यश्च याज्यश्च स्तेनो राजनि किल्बिषम्
गर्भपात करने वाले का पाप उसका अन्न खाने वाले को, व्यभिचारिणी स्त्री का पाप उसके पति को, शिष्य का पाप उसके गुरु को, यजमान का पाप पुरोहित को और चोर का पाप राजा को लगता है।[मनु स्मृति 8.317]  
The sin of carrying out abortion goes to the one who eats the food of one who did that, the sin of an adulterous wife goes to her husband, the sin of the disciple goes to the Guru, the sin of the host performing religious ceremonies goes to the priest and the sins of the thieves overpower the king, if any of these is negligent in performing his duties prescribed by the scriptures.
The doctors these days are engaged in abortions whether legal or illegal for money. This leads to sin on the part of the doctor and the couple simultaneously. The scriptures forbid one to accept food from a doctor.
Most of the doctors and owners of hospitals are sure to reside in the multiple hells for millions of years.
राजभिः कृतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः। 
निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा
पापी मनुष्य राजा से दण्ड पाने पर साधु-धर्मात्माओं की तरह पवित्र होकर स्वर्ग जाते हैं।[मनु स्मृति 8.318]   
Having suffered by the punishment awarded by the king the sinner is freed from the guilt and may acquire higher abodes if his pious, virtuous deeds are remaining.
The blot of being  a criminal remains over him and he is generally discarded by the masses. But the trend is reversing in Kali Yug. The most corrupt, guilty, corrupt has become shameless and the public too do not shame them being rich, mighty and wealthy. In fact the public is ignorant in spite of spreading awakening. Moral, ethics, culture have taken back seat.
Sanjay Dutt, Salman Khan, Lalu are shameless degraded people.
The media has influenced the common man to such an extent that he is unable to think rationally. The prudence seems to have lost. The school curriculum-syllabus has no place for morality, ethics, values, virtues.

पाप लगना :: sin embark, to be stained with sin.
ब्रह्महा च सुरापश्च स्तेयी च गुरुतल्पगः।
एते सर्वे पृथग्ज्ञेया महापातकिनो नराः
ब्रह्मघाती, मद्य पीने वाला, चोर, गुरु पत्नीगामी, महापातकी हैं। 
The slayer of a Brahman, drunkard, thief and one who mates with his Guru's-teacher's wife are the gravest sinners.
[मनुस्मृति 9.235] 
Any woman of the status, age and rank of mother is covered under Guru's wife, like aunt.
चतुर्णामपि चैतेषां प्रायश्चित्तमकुर्वताम्।
शारीरं धनसंयुक्तं दण्डं धर्म्यं प्रकल्पयेत्
उपयुक्त चारों मनुष्य यदि प्रायश्चित न करें तो शारीरिक और आर्थिक धर्म सम्बन्धी दण्ड देना चाहिये।[मनुस्मृति 9.236]  
If the sinners of these four categories do not resort themselves of penances, they should be subjected to physical-corporal and financial penalties described in scriptures.
गुरुतल्पे भगः कार्यः सुरापाने सुराध्वजः।
स्तेये च स्वपदं कार्यं ब्रह्महण्यशिराः पुमान्
गुरु पत्नी के साथ सभोग करने वाले के ललाट पर भग, मदिरा पीने वाले  के सर पर मदिरा पात्र, चोर ललाट पर के कुत्ते के पंजे का और ब्रह्मघाती के सर पर बिना सर के पुरुष का आकर तपे हुए लोहे से बना दे।[मनुस्मृति 9.237]  
The forehead of the sinner who mates with his Guru's wife should be branded with the sign of vagina, drunkard's forehead with wine pot, thief's forehead with dog's claw and the killer-murderer of a Brahman should be branded with the sign of headless corpse of a human being.
धनानि तु यथाशक्ति विप्रेषु प्रतिपादयेत्।
वेदवित्सु विविक्तेषु प्रेत्य स्वर्गं समश्नुते
जो पुत्र कलत्रादि से अशक्त वेदज्ञ ब्राह्मणों को धन देता है, वह मरने के बाद स्वर्ग जाता है।[मनुस्मृति 11.6]  
One who bestow money to a Brahman enlightened with the Veds having no son or wife goes to the heaven after his death.
न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविद्यो न बालिशः।
होता स्यादग्निहोत्रस्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा
कन्या, युवती, थोड़े पढ़े लिखे, मूर्ख, पीड़ित और जिनका यज्ञोपवीत नहीं हुआ है, वे अग्निहोत्र के (होता) हवनीय कार्य न करें।[मनुस्मृति 11.36]   
Girls, adolescent-young women, low educated & illiterates, idiots, sufferers, and those who have not been initiated to Yagyopaveet-sacred thread, should not offer oblations in Agnihotr, sacred holy fire.
Each & every doctrine in Hinduism has a solid footing, foundation, reason, cause which has been given the shape of tradition, ethics since even a person of average intelligence is not capable of understanding them. This is just like one knows driving but is unable to repair it. One who knows driving may not navigate the ship or aeroplane or run a train. The women are running over to Sabri Mala Temple in spite of religious sanctions. The stupid are encouraging them. The court & the judges are just like illiterates in this regard. The communists, congressmen-who are basically Muslims, Christian are behind this all.
नरके हि पतन्त्येते जुह्वन्तः स च यस्य तत्।
तस्माद्वैतानकुशलो होता स्याद्वेदपारगः॥
यदि ये लोग हवन करें तो नर्क में जाते हैं और जिसके द्वारा कराये जाते हैं वो भी नर्क में जाता है। इसलिये जो वैदिक कृत्यों में कुशल हो और वेद का पारङ्गत हो, उसी को होता होना चाहिये।[मनुस्मृति 11.37] 
If these categories of people perform Yagy they become entitled for Hell along with one who does it for them. Therefore, only an expert is in performing Yagy and learned in Veds should conduct Yagy.
Evidence is available to prove that only those who were expert in a certain branch of Yagy were requested-assigned with the pious but extremely intricate job. This is just like using computer-mobile keys, where just by pressing one key-button something else appears over the screen.
अकामतः कृतं पापं वेदाभ्यासेन शुध्यति।
कामतस्तु कृतं मोहात् प्रायश्चित्तैः पृथग्विधैः
अनिच्छा से किया हुआ पाप वेदाभ्यास से  छूट जाता है जो और पाप जानबूझकर इच्छापूर्वक किया जाता है उसका प्रायश्चित अनेक प्रकार से अलग-अलग होता है।[मनुस्मृति 11.46]   
The sin committed unintentionally is expiated by practicing Veds (guide lines described in the Veds) & the sins committed wilfully-intentionally can be got rid of by performing various penances under taken in various manners Discussed in scriptures).
प्रायश्चित्तीयतां प्राप्य दैवात् पूर्वकृतेन वा।
न संसर्गं व्रजेत्सद्भिः प्रायश्चित्तेऽकृते द्विजः
प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते। 
तपोनिश्च्य संयुक्तं  प्रयाश्त्तिमिति स्मृतम् 
प्रायश्चित्ती होने अवस्था में चाहे वह जन्म पाप अथवा पूर्वजन्मार्जित दुर्दैव हो प्रायश्चित  करने  द्विज सज्जनों  संसर्ग न करे। "प्राय" तप और "चित्त" निश्चय  को प्रकट करता है।[मनुस्मृति 11.47]  
The Dwij-upper caste, who has undergone penances to settle the sins committed in this birth or earlier births, should avoid meeting gentlemen during that phase.
इह दुश्चरितैः केचित्केचित्पूर्वकृतैस्तथा।
प्राप्नुवन्ति दुरात्मानो नरा रूपविपर्ययम्
कोई दुरात्मा इस जन्म की दुश्चरित्रों से और कोई पूर्व जन्म के किये हुए पापों से विकृत रूप पाते हैं।[मनुस्मृति 11.48]  
Some wicked are disfigured due to sins of this birth and yet other due to the sins of their earlier births.
सुवर्णचौरः कौनख्यं सुरापः श्यावदन्तताम्।
ब्रह्महा क्षयरोगित्वं दौश्चर्म्यं गुरुतल्पगः[मनुस्मृति 11.49]
पिशुनः पौतिनासिक्यं सूचकः पूतिवक्त्रताम्।
धान्यचौरोऽङ्गहीनत्वमातिरेक्यं तु मिश्रकः[मनुस्मृति 11.50]
अन्नहर्ताSSमयावित्वं मौक्यं वागपहारकः।
वस्त्रापहारकः श्वैत्र्यं पङ्गुतामश्वहारकः[मनुस्मृति 11.51]
(दीपहर्ता भवेदन्ध: काणों  निर्वापको भवेत्। 
हिंसया रोगित्वम  व्याधि भूयस्त्वम  हिंसया॥)  
सोना चुराने वाले के नाखून खराब होते हैं। शराब पीने वाले के दाँत काले हो जाते हैं। ब्रह्मघात करने वाले को क्षय रोग होता है। गुरु पत्नी से व्यभिचार करने वाले की जननेंद्रिय  का ऊपर का चमड़ा खराब हो जाता है। चुगली करने वाले की नाक से और झूँठी बुराई-निंदा करने वाले के मुँख से दुर्गन्ध आती है। धान्य चुराने वाला अंगहीन हो जाता है। मिलावट करने वाले के अतिरिक्त अंग होते हैं।अन्न का हरण-चोरी करने वाले को मन्दाग्नि हो जाती है। विद्या चुराने वाले को सफ़ेद कोढ़ होता है और घोड़ा चुराने वाला पंगु हो जाता है। (दीपक चुराने वाला अँधा, दीपक बुझाने वाला बहरा, हिंसा करने वाला रोगी और हिंसा न करने वाला निरोगी होता है।[मनुस्मृति 11.49, 50, 51]   
The nails of one who steal gold become defective. The teeth of a drunkard become black. One who kills a Brahmn suffers from tuberculosis. One who rapes his teacher's wife or maintain illicit relations with his teachers wife; suffers venereal diseases.
Foul smell comes out of the nose of one, who back bites or reveal the secrets of his intimates. Foul smell comes out of the mouth of one who spread lies falsehood-wrong information concerning others or his intimates. A person who steals food grain, looses his limbs. Extra limbs-organs grow-develop in the body of one who adulterate. One who snatches or steals food suffers from indigestion-Mandagni. One who steals education, suffers from white leprosy. One who steals horse looses one of his legs. One steals lamp become blind and a person who blow off the lamp so that others are unable to gain from it, become deaf. The violent becomes diseased and a person who shun violence remains fit-fine and healthy. (The meat eaters acquired multiple diseases.)
एवं कर्मविशेषेण जायन्ते सद्विगर्हिताः।
जडमूकान्धबधिरा विकृताकृतयस्तथा
इस प्रकार कर्म विशेष के कारण मनुष्य जड़, मूक, अँधा, बहरा और विकृत रूप वाला और सज्जनों में निन्दित होता है।[मनुस्मृति 11.52]   
In this manner one gets birth as an idiot-ignorant, dumb or deaf, blind, disfigures due to misdeeds-sins and discarded-ignored by the gentlemen. 
चरितव्यमतो नित्यं प्रायश्चित्तं विशुद्धये।
निन्द्यैर्हि लक्षणैर्युक्ता जायन्तेऽनिष्कृतेनसः
इसलिये शरीर शुद्धयर्थ हमेशा प्रायश्चित करते रहना चाहिये। जो लोग प्रायश्चित के द्वारा पापों का नाश नहीं करते, वे कुलक्षण लेकर उत्पन्न होते हैं।[मनुस्मृति 11.53]   
Due to this reason one should continuously resort himself to penances for healthy & clean body. Those who do not subject to themselves penances, are reborn with various deformities in the body and inauspicious omens-signs.
ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः।
महान्ति पातकान्याहुः संसर्गश्चापि तैः सह
ब्रह्महत्या, मदिरापान, चोरी करना, गुरुपत्नी गमन; महापातक हैं। इन्हें करने वालों  साथ सम्पर्क, सम्बन्ध, संसर्ग रखने वाला भी महापातकी होता है।[मनुस्मृति 11.54]   
Killing a Brahman, drinking wine, stealing, mating with teacher's wife are uttermost crimes-sins. One who deals with them too get tainted with uttermost sins.
अनृतं च समुत्कर्षे राजगामि च पैशुनम्।
गुरोश्चालीकनिर्बन्धः समानि ब्रह्महत्यया
अपनी उन्नति के लिए झूँठ बोलना, राजा से चुगली करना और गुरु की झूँठी निन्दा करना; ये सभी ब्रह्महत्या के बराबर हैं।[मनुस्मृति 11.55]   
Telling lies for own progress (elevation, development), back biting (lodging false-baseless complaints, false reporting) with the king-state (police), false (wrong) depraving-slurring the Guru are grievous crimes-sins equivalent to Brahm Hatya-murdering a Brahmn.  
ब्रह्मोज्झता वेदनिन्दा कौटसाक्ष्यं सुहृद्वधः।
गर्हितानाद्ययोर्जग्धिः सुरापानसमानि षट्
पढ़े हुए वेद का अभ्यास न करके भुला देना, वेद की निन्दा, झूँठी गवाही देना, मित्र का वध करना, गर्हित-अखाद्य वस्तुओं का खाना, ये छः कर्म मदिरापान के समान हैं।[मनुस्मृति 11.56]   
Lack of practice of Veds (forgetting), depraving-slurring condemning Veds, false witness-evidence (false implicating), killing-slaying a friend, eating of discreditable-abhorrent & banned goods like meat are the six sins-offences comparable to drinking wine i.e., invite punishment meant for drinking wine. 
निक्षेपस्यापहरणं नराश्वरजतस्य च।
भूमिवज्रमणीनां च रुक्मस्तेयसमं स्मृतम्
किसी की धरोहर, मनुष्य, घोड़ा, चाँदी, भूमि, हीरा और मणि इन का अपहरण करना सोने की की चोरी के समान है।[मनुस्मृति 11.57]   
Abducting-confiscating goods given in good faith (placed in safe custody) for for protection, humans, silver, land, diamonds and gems are the sins comparable to stealing gold for punishment.
रेतः सेकः स्वयोनीषु: कुमारीष्वन्त्यजासु च।
सख्युः पुत्रस्य च स्त्रीषु गुरुतल्पसमं विदुः[मनुस्मृति 11.58]
सगी बहन, कुमारी, चाण्डाल  स्त्री और पुत्र वधु इनके  व्यभिचार गुरुपत्नी गमन के समान है।[मनुस्मृति 11.58] 
Intercourse-mating with real sister, a virgin, wife of a Chandal and son's wife are sins-crimes punishable like the penalty meant for raping teacher's wife.
File:Hindu hell.jpg
गोवधोऽयाज्यसंयाज्यंपारदार्यात्मविक्रयः।
गुरुमातृपितृत्यागः स्वाध्यायाग्न्योः सुतस्य च
परिवित्तितानुजेऽनूढे परिवेदनमेव च।
तयोर्दानं च कन्यायास्तयोरेव च याजनम्
कन्याया दूषणं चैव वार्धुष्यं व्रतलोपनम्।
तडागारामदाराणामपत्यस्य च विक्रयः
व्रात्यता बान्धवत्यागो भृत्याध्यापनमेव च।
भृत्या चाध्ययनादानमपण्यानां च विक्रयः
सर्वाकारेष्वधीकारो महायन्त्रप्रवर्तनम्।
हिंसौषधीनां स्त्र्याजीवोऽभिचारो मूलकर्म च
इन्धनार्थमशुष्काणां द्रुमाणामवपातनम्।
आत्मार्थं च क्रियारम्भो निन्दितान्नादनं तथा
अनाहिताग्निता स्तेयमृ णानामनपक्रिया।
असच्छास्त्राधिगमनं कौशीलव्यस्य च क्रिया
धान्यकुप्यपशुस्तेयं मद्यपस्त्रीनिषेवणम्।
स्त्रीशूद्रविट्क्षत्रवधो नास्तिक्यं चोपपातकम्
गौ वध करना, जाति कर्म से दूषित मनुष्यों का यज्ञ कराना, परस्त्रीगमन, अपने को बेचना, गुरु, माता, पिता की सेवा न करना, वेदाध्ययन न करना, स्मार्त अग्नि का परित्याग, सन्तान का भरण-पोषण न करना, परिवित्ति (विवाहित छोटे भाई का अविवाहित बड़ा भाई) और परिवेत्ता (विवाहित छोटा भाई) इन दोनों को कन्या देना, इन दोनों का यज्ञ कराना, कन्या को दूषित करना, सूद पर रुपया लगाना, ब्रह्मचर्य व्रत का लोप, तालाब, बाग़, स्त्री और सन्तान को  बेचना, व्रात्यता (संस्कारहीन, वर्णसंकरता), बन्धुत्याग, वेतन लेकर शास्त्र पढ़ाना, नियत वृत्ति-प्रदान पूर्वक पढ़ाना, जो वस्तु बेचने योग्य न हो उसे बेचना, सब प्रकार की खानों में अधिकारी होना, बड़ी-बड़ी कलें-यंत्र बनाना, औषधियों की जड़ खोदना, स्त्री के व्याभिचार से जीविका चलाना, मन्त्र-यन्त्र द्वारा मारण-उच्चाटन आदि, ईंधन के लिये हरे पेड़ों को काटना, अपने लिये ही रसोई बनाना, निन्दित अन्न खाना, अग्निहोत्र न कराना, किसी की चीज चुराना, ऋण न चुकाना, वेदोक्त शास्त्रों का न पढ़ाना, अभिनय करना, धान्य, ताँबा और पशु चुराना, मद्य पीने वाली स्त्री का सेवन करना, स्त्री, शूद्र, वैश्य और क्षत्रिय का वध तथा नास्तिकता, ये सब उपपातक हैं।[मनुस्मृति 11.59-66]  
Cow slaughter, performing Yagy-Hawan, Agnihotr for the depraved either by caste or deeds i.e., unworthy people, adultery, selling oneself, failure to serve-help parents & teacher, failure to read Veds as a routine, rejection of the sacred fire ignited methodically as per doctrine of the scriptures, failure to nourish-support progeny (offspring, progeny), marrying daughter with a person who's elder brother is still unmarried or the one who married prior to his elder brother or performing Yagy for either of these, intercourse with a virgin girl or own daughter, seeking interest over money, loss of chastity, selling off ponds, orchards, either women-wife or children, failure to carry out rites or absence of virtues or birth as a cross breed-mixed race, rejection of brothers, teaching of scriptures-Veds by getting salary or teaching under contract for financial gains, selling off banned-unfit (obsolete) goods, ownership of mines, manufacture of large sized machines, removing roots of medicinal herbs, earning through prostitution of wife, use of Tantr-Mantr, Yantr for killing or mesmerising (making unconscious, senseless-immobile), cutting of trees for fuel, cooking for self only, eating uneatable (meat, fish, eggs), failure to perform Agnihotr,  stealing-theft, failure to clear debt, failure to teach scriptures based on Veds, acting-dramatics, stealing food grain,  money, copper, cattle, sex with a drunkard woman, killing of woman, Shudr, Vaeshy, Kshatriy, atheistic are minor sins.
उच्चाटन मन्त्र :: (1).  उल्लूकाना विद्वेषय फट स्वाहा:, (2).   क्षौं क्षौं भैरवाय स्वाहा:,, (3). ॐ हृलीं ब्रह्मास्त्राये विद्यमने स्तम्भन धीमही तन्नो बगला प्रचोदयात। जैह्याँ 
ब्राह्मणस्य रुजः कृत्वा  घ्रातिरघ्रेयमद्ययोः।
जैह्याँ च मैथुनं पुंसि जातिभ्रंशकरं स्मृतम्
ब्राह्मण को हाथ से या लाठी (या किसी भी तरह से) से पीड़ा पहुँचाना, अत्यन्त दुर्गन्ध युक्त (लहसुन, विष्टा आदि) और मदिरा का सूँघना, दुष्टता, पुरुष के साथ मैथुन करना, ये सभी जातिभ्रंशकर (मनुष्य का अपनी जाति, आश्रम आदि से भ्रष्ट होना) पाप हैं।[मनुस्मृति 11.67]   
Torturing-paining a Brahmn with hand, baton or any other means, smelling extremely foul-pungent smelling goods & wine, cruelty, sodomy are the sins which lowers one from his caste or Varnashram Dharm.
खराश्वोष्ट्रमृगैभानामजाविकवधस्तथा।
सङ्करीकरणं ज्ञेयं मीनाहिमहिषस्य च
गधा, घोड़ा, ऊँट, मृग, हाथी, बकरा, भेड़, मछली, साँप  भैँस इनका वध संकरीकरण पाप है।[मनुस्मृति 11.68]   
Killing of donkey, horse, camel, deer, elephant, goat, sheep, fish, snake or a buffalo are termed as Sankrikaran i.e., leading to hybridisation-cross breed.
संकरीकरण पाप :: इसके प्रायश्चित के लिये कुच्छु या अतिकृच्छ व्रत करने का विधान है।
निन्दितेभ्यो धनादानं वाणिज्यं शूद्रसेवनम्।
अपात्रीकरणं ज्ञेयमसत्यस्य च भाषणम्
निन्दितों से धन लेना, रोजगार करना, शूद्रों की सेवा करना और झूठ बोलना ये अपात्रिकरण पाप हैं।[मनुस्मृति 11.69]   
Accepting (or borrowing) money & getting employment from the depraved, serving the Shudr and telling lies are the sins which makes one unfit (disqualifying, unacceptable) socially or otherwise. 
कृमिकीटवयोहत्या मद्यानुगतभोजनम्।
फलेधः कुसुमस्तेयमधैर्यं च मलावहम्
कीड़ा, कीट, (चींटी आदि) पक्षियों की हत्या करना, मदिरा के साथ भोजन करना, फल, लकड़ी, फूल की चोरी और अधैर्य (असंतोष) मलावह (मलिनीकरण) पाप हैं।[मनुस्मृति 11.70]   
Killing of insects-with or without wings, flies (butterflies etc.), birds, eating food accompanied with wine-alcohol, stealing fruits, wood, flowers and lack of patience are termed Malavah-Malinikaran (turning unclean, impure, contaminating) sins.
ख्यापनेनानुतापेन तपसाऽध्ययनेन च।
पापकृत्मुच्यते पापात्तथा दानेन चापदि
अपने पापों को लोगों में प्रकट करके पछताने से, तप तथा अध्ययन करने से पाप करने वाला पाप के दोष से मुक्त हो जाता है और यदि तप आदि करने में असमर्थ हो तो दान करके भी पाप से मुक्त हो सकता है।[मनुस्मृति 11.227] 
Confession of sins followed by repentance-penances, austerity, Tapasya-asceticism and studying the sacred text-Ved, Shastr leads to the removal of the impact of sins. If one is not able to adopt ascetics he may resort to donations.
In this era if one reveals his sins in font of wicked people there is a great danger of his being black mailed. Thus reveal the sins in front of virtuous people, enlightened Guru or the trusted people like parents. Then take a pledge not to repeat them in future under any circumstances. Remain firm-determined over this decision. 
यथा यथा नरोऽधर्मं स्वयं कृत्वाऽनुभाषते।
तथा तथा त्वचेवाहिस्तेनाधर्मेण मुच्यते
जैसे-जैसे मनुष्य अपने किये गए पापों को लोगों में ठीक-ठीक बताता है, वैसे-वैसे वह उस अधर्म के कैंचुल से साँप की तरह मुक्त हो जाता है।[मनुस्मृति 11.228]  
One gradually gets freedom from the impact of sins as he repent, observe penances & by accepting his sins in publicly. He is freed from the sins the way the snake is liberated from the exo skin, slough
Confession followed by repentance and determination not to repeat such things in future leads to purification of soul just like air and water which become free from impurities-pollutants.
यथा यथा मनस्तस्य दुष्कृतं कर्म गर्हति।
तथा तथा शरीरं तत् तेनाधर्मेण मुच्यते
जैसे-जैसे पापी का मन पाप कर्म की निन्दा करता है, वैसे-वैसे उसका शरीर (मन  आत्मा) उस पाप से छुटकारा पता जाता है।[मनुस्मृति 11.229]  
The sinner is relieved off the impact of sins over his mind, heart, body & the soul, gradually, as he himself condemn the sins committed by him.
कृत्वा पापं हि संतप्य तस्मात्पापात्प्रमुच्यते।
नैवं कुर्यात् पुनरिति निवृत्त्या पूयते तु सः
पाप करके अपने किये हुए पर पश्चाताप करे तो वह पाप से छूट जाता है। फिर ऐसा नहीं करुँगा, मन में ऐसा संकल्प करके निवृत हो जाये तो वह पवित्र हो जाता है।[मनुस्मृति 11.230]  
One is relieved off the guilt of having committed a sin by undergoing repentance-penances. He should determine that he would not repeat the offence-guilt again and is purified finally.
Please refer to :: Manu Smrati Chapter 11 santoshkipathshala.blogspot.com
एवं सञ्चिन्त्य मनसा प्रेत्य कर्मफलोदयम्।
मनोवाङ्मूर्तिभिर्नित्यं शुभं कर्म समाचरेत्
इस प्रकार मन से अच्छे और बुरे कर्मों का फल परलोक में अच्छा और बुरा मिलेगा विचारते हुए मन, वाणी और शरीर से शुभ कर्म करे।[मनुस्मृति 11.231]  
One should analyse the impact of good and bad deeds and realise that he would be subjected to the impact of these deeds in next births. He should resort to pious-virtuous, righteous, honest deeds through heart & mind, speech and the body.
अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानात्कृत्वा कर्म विगर्हितम्।
तस्माद्विमुक्तिमन्विच्छन्द्वितीयं न समाचरेत्
अज्ञान (भूल से) अथवा ज्ञान (जानबूझ कर) निन्दित कर्म को करके यदि उसके पाप से छुटकारा चाहे तो दूसरे निन्दिन के कार्य न करे।[मनुस्मृति 11.232]   
One who wants to be liberated from the impact of the sins committed knowingly or unknowingly, should not repeat the offences.
A sin done intentionally is more serious as compared to the one, done due to ignorance unintentionally. Still one must perform penances.
यस्मिन्कर्मण्यस्य कृते मनसः स्यादलाघवम्।
तस्मिंस्तावत्तपः कुर्याद्यावत् तुष्टिकरं भवेत्
जिस धर्म-कर्म प्रायश्चित आदि को करने से पापात्मा के चित्त को जब तक शान्ति न मिले, तब तक वह उस कर्म को करता रहे।[मनुस्मृति 11.233]   
The sinner who wish to be liberated from the impact of sins should continue carrying out penances till he do not feel satisfaction in his innerself.
Solace, peace, tranquillity is essential for virtuous life.
तपो मूलमिदं सर्वं दैवमानुषकं सुखम्।
तपोमध्यं बुधैः प्रोक्तं तपोऽन्तं वेददर्शिभिः
देवता और मनुष्यों के सभी सुख तपोमलक हैं, तप ही मध्य है और तप ही अन्त है, ऐसा वेदविज्ञों ने कहा है।[मनुस्मृति 11.234]   
All the comforts-bliss of demigods-deities and men have generated from the ascetics, this is the doctrine of the scholars of Veds. 
Tapasya (Austerity, ascetics) form the core of all comforts & bliss. Its eternal and present in the middle as well as termination of life.
ब्राह्मणस्य तपो ज्ञानं तपः क्षत्रस्य रक्षणम्।
वैश्यस्य तु तपो वार्ता तपः शूद्रस्य सेवनम्
ब्राह्मण का ज्ञान ही तप है, क्षत्रिय का रक्षण तप है और शूद्र का वार्त्ता (पशुपालन आदि) और शूद्र का सेवा तप है।[मनुस्मृति 11.235]   
Enlightenment-knowledge of Veds (studying, understanding, applying) is ascetics-austerity for the Brahmn, for the Kshatriy its the protection of public-subjects, for Vaeshy its animal husbandry & agriculture and for the Shudr serving the upper castes is ascetics-austerity.
One who resort to Varnashram Dharm with full dedication is an ascetic even if he is performing his domestic-household duties. It is even better when he prayers to God regularly.
ऋषयः संयतात्मानः फलमूलानिलाशनाः।
तपसैव प्रपश्यन्ति त्रैलोक्यं सचराचरम्
फल-मूल और वायु का सेवन करने वाले संयतात्मा महर्षिगण तपस्या से ही चराचर तीनों लोकों को देखते हैं।[मनुस्मृति 11.236]   
The great sages who survives just over fruits-roots and the air, visualise the three abodes (heaven, earth & the nether world) due to the strength-power granted to them by the asceticism-Tapasya. 
औषधान्यगदो विद्या दैवी च विविधा स्थितिः।
तपसैव प्रसिध्यन्ति तपस्तेषां हि साधनम्
औषध, आरोग्य, विद्या और अनेक प्रकार की दैवी स्थिति (स्वर्गादि लोक) तप से ही प्राप्त होते हैं।[मनुस्मृति 11.237]   
Medicines, good health, enlightenment-learning, higher abodes and the divinity are the outcome of Tapasya-asceticism.
यद्दुस्तरं यद्दुरापं यद्दुर्गं यच्च दुष्करम्।
सर्वं तु तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम्
जो दुस्तर (जिसे पार करना कठिन हो) जो दुरप (पाना कठिन हो), जो दुर्ग (जहाँ तक पहुँचना कठिन हो) और जो दुष्कर (जिसे करना कठिन हो), वह सब तपस्या से साध्य होता है, क्योंकि तपस्या दुर्लभ (बेहद कठिन) है।[मनुस्मृति 11.238]   
Whatever is hard to be traversed, whatever is hard to be attained, whatever is hard to be reached, whatever is hard to be performed, all (this) may be accomplished by Tapasya-ascetics, austerities; since Tapasya is a very difficult task. 
One who perform his Varnashram duties along with remembering the God can achieve all that he deserve. Nothing is difficult in this world for one who is determined, dedicated.
महापातकिनश्चैव शेषाश्चाकार्यकारिणः।
तपसैव सुतप्तेन मुच्यन्ते किल्बिषात्ततः
महापातकी तथा शेष अकार्य कर्म करने वाले, तपस्या से तप्त होकर पापमुक्त हो जाते हैं।[मनुस्मृति 11.239]   
The greatest sinners and those who perform undesirable deeds too get liberated from the impact of worst possible sins if they resort to Tapasya.
कीटाश्चाहिपतङ्गाश्च पशवश्च वयांसि च।
स्थावराणि च भूतानि दिवं यान्ति तपोबलात्
कीड़े-मकोड़े, साँप-सरीसृप, पतंग, पशु-पक्षी और स्थावर (वृक्षादि) भी तपोबल से स्वर्ग को जाते हैं।[मनुस्मृति 11.240] 
Insects, snakes, moths, bees, animals, birds and trees (plants, shrubs etc.), bereft of motion, reach heaven by the power of austerities.
By virtue of remaining pious deeds, the lower species may have the memories of their past life which pulls them into Tapasya-remembrance of the God. It leads them to higher abodes. The scriptures describe the presence of animals, insects, snakes etc. in higher abodes as well, where they perform virtuous acts and become non violent-devoted to God.
All our efforts should be concentrated over Salvation, emancipation, liberation, assimilation in God-Moksh, since one has to return back to earth after enjoying the fruits-rewards of his Tapasya, austerities done to achieve higher abodes.  
यत्किंचिदेनः कुर्वन्ति मनोवाङ्मूर्तिभिर्जनाः।
तत्सर्वं निर्दहन्त्याशु तपसैव तपोधनाः
मनुष्य मन, वाणी और शरीर से जो पाप करते हैं, उन सब पापों को तपोधन-तपस्वी शीघ्र ही अपनी तपस्या से नष्ट कर देते हैं।[मनुस्मृति 11.241]  
The Tapasvi-ascetic are able to dissolve-destroy the sins committed by them, through innerself, speech (voice, words) & the body with the help of Tapasya (ascetics, austerities) soon.
Repentance aided with penances, firmness-determination and resolve not to commit such mistakes again, leads one to purification of body, mind and the soul. He do not crave for Salvation as well. He only wish to attain Ultimate devotion in the feet of the Almighty.
तपसैव विशुद्धस्य ब्राह्मणस्य दिवौकसः।
इज्याश्च प्रतिगृह्णन्ति कामान्संवर्धयन्ति च
देवता तप से विशुद्ध ब्राह्मण का यज्ञ में दिया हुआ हविष्य ग्रहण करते हैं और उसके अभीष्टों को सिद्ध करते हैं।[मनुस्मृति 11.242]  
The demigods accept the offerings-oblations of the Brahman who has purified himself through Tapsya-austerities and grant him all he desires.
The Tapasvi has no desire left to be fulfilled.
प्रजापतिरिदं शास्त्रं तपसैवासृजत्प्रभुः।
तथैव वेदान्ऋषयस्तपसा प्रतिपेदिरे
समर्थ ब्रह्मा जी ने तपस्या से ही शास्त्र-सृष्टि को बनाया। उसी प्रकार ऋषियों ने भी तपस्या से ही वेदों को प्राप्त किया।[मनुस्मृति 11.243]   
Brahma Ji evolved life and the scriptures with the help of Tapasya. Similarly, the Mahrishi, Brahmrishi, sages too got the Veds with the help of Tapsya.
इत्येतत्तपसो देवा महाभाग्यं प्रचक्षते।
सर्वस्यास्य प्रपश्यन्तस्तपसः पुण्यमुत्तमम्
तपस्या के इस उत्तम पुण्य को देखकर देवता संसार के सम्पूर्ण सौभाग्य को तपस्या से सिद्ध बताते हैं।[मनुस्मृति 11.244]   
The excellent result of Tapsya led the demigods to proclaim the best output of luck.
Tapasya can grant all that one desires whether fair or foul. The Rakshas-demons too undertake Tapsya and demand such things which are against the humanity, from Brahma Ji. 
वेदाभ्यासोऽन्वहं शक्त्या महायज्ञक्रिया क्षमा।
नाशयन्त्याशु पापानि महापातकजान्यपि
प्रतिदिन वेदाभ्यास शक्ति के अनुसार करना, पञ्चमहायज्ञ और क्षमा (माफ़ करना, शान्ति धारण करना) ये कार्य महापातिकियों के पापों को भी शीघ्र ही नष्ट कर देते हैं।[मनुस्मृति 11.245]   
Regular-daily practice (study-follow up) of Veds as per own strength (availability of time), performance of Panch Maha Yagy and pardon, leads to the destruction of greatest sins of greatest sinners. 
Slowly and gradually one start becoming pure-free from bad habits & company as he reads and follows the sacred text.
यथैधस्तेजसा वह्निः प्राप्तं निर्दहति क्षणात्।
तथा ज्ञानाग्निना पापं सर्वं दहति वेदवित्
जिस प्रकार से अग्नि अपने तेज से क्षण भर में ही लकड़ी को भस्म कर देती है, उसी प्रकार वेदज्ञ ब्राह्मण ज्ञानरूपी अग्नि से सभी पापों का नाश कर देता है।[मनुस्मृति 11.246]   
The manner in which the fire burns the wood in a few moments by its energy the the Vedagy Brahmn too, burn all sorts of sins by virtue of his enlightenment.
Being a Brahman by birth is not enough to do such a feat. The Brahman should be enlightened and an ascetic as well.
इत्येतदेनसामुक्तं प्रायश्चित्तं यथाविधि।
अत ऊर्ध्वं रहस्यानां प्रायश्चित्तं निबोधत
यह सब यथाविधि प्रकट पापों के प्रायश्चितों को कहा। अब अप्रकट पापों के प्रायश्चितों को कहता हूँ।[मनुस्मृति 11.247]   
Penances for the revealed-disclosed sins have been described with methodology to perform them. Now, let the penances meant for removal of sins for undisclosed sins be described.
सव्याहृतिप्रणवकाः प्राणायामास्तु षोडश।
अपि भ्रूणहणं मासात्पुनन्त्यहरहः कृताः
व्याह्रति (कथन, उक्ति; भूः भुवः आदि सप्त लोकात्मक मंत्र) और प्रणव के साथ गायत्री का विधिपूर्वक प्रतिदिन सोलह प्राणायाम करने से एक मास में भ्रूणहत्या करने वाला भी पाप से छूट जाता है।[मनुस्मृति 11.248]   
One gets rid of the sin due to the abortion of a child in the womb if he recites Gayatri Mantr, aided with OM (& Bhu, Bhuvh, Sah) along with Pranayam 56 times everyday for a month.
कौत्सं जप्त्वाप इत्येतद्वासिष्ठं च प्रतीत्य ्चम्।
माहित्रं शुद्धवत्यश्च सुरापोऽपि विशुध्यति
कौत्स का "अपन:शोशुच्धम्" और वशिष्ठ का "प्रतिस्तो मेभिरुषसं""महित्रीणामवोस्तु" तथा "एतोन्विद्रं सत्वाम" इन ऋचाओं के जप करके सुरापान करने वाला भी एक मास में शुद्ध हो जाता है।[मनुस्मृति 11.249]   
The drunkard becomes purified by the recitation of the verses "Apnh Shoshuchdhm" by Kouts, "Pratisto Mebhirushsn", "Mahitrinamvostu" & "Etonvidrn Satvam" by Vashishth within a month.
सकृत्जप्त्वाऽस्यवामीयं शिवसङ्कल्पमेव च।
अपहृत्य सुवर्णं तु क्षणाद्भवति निर्मलः
सुवर्ण की चोरी कर ब्राह्मण एक मास  तक प्रतिदिन एक बार "अस्य वामस्य पलितस्य" और शिव संकल्पं  "यज्जाग्रतोदुरम्" इन मन्त्रों का जप करने से शीघ्र ही उस पाप से छूट जाता है।[मनुस्मृति 11.250]
The Brahmn who happen to steal gold, get rid of the sin by reciting "Asy Vamsy Palitasy" and Shiv Sanklpan "Yajjagratoduram" everyday for one month. 
हविष्यान्तीयमभ्यस्य नतमंह इतीति च।
जपित्वा पौरुषं सूक्तं मुच्यते गुरुतल्पगः
"हविष्यान्तमजरं स्वर्विदि""नतमहोनदुरितम्""इति वा इति मे मनः" या "सहस्त्रशीर्षा" इत्यादि ऋचाओं अथवा पुरुष सूक्त का एक मास तक प्रतिदिन पाठ करने वाला गुरुपत्नीगमन रूपी दोष से मुक्त हो जाता है।[मनुस्मृति 11.251] 
One who mated (raped) with his teacher's wife, get rid of the sin by reciting "Havishyantmanjaran Swarvidi", Natmhonduritam", "Iti Va Iti Me Manh" or " Sahastrsheersha" etc. verses or Purush Sukt everyday for one month.
एनसां स्थूलसूक्ष्माणां चिकीर्षन्नपनोदनम् ।
अवेत्यर्चं जपेदब्दं यत्किंञ्चेदमितीति  वा
स्थूल और सूक्ष्म पापों से मुक्त होने की इच्छा वाला पुरुष "अवते हेडो वरुण नमोभिः" अथवा "यत् किंचेदं वरुण दैव्ये जने" अथवा "इति वा इति मे मनः" इन ऋचा और सूक्तों का पाठ प्रति दिन एक वर्ष तक करे।[मनुस्मृति 11.252] 
One who desires to expiate sins of high or low intensity should recite "Avte Hedo Varun Namobhi:" or "Yat Kinchedan Varun Daevye Jane" or "Iti Va Iti Me Manh" for on year everyday.
प्रतिगृह्याप्रतिग्राह्यं भुक्त्वा चान्नं विगर्हितम्।
जपंस्तरत्समन्दीयं पूयते मानवस्त्र्यहात्
न लेने योग्य दान को लेकर और निषिद्ध अन्न को खाकर "तरतस्मन्दी धावति" इत्यादि ऋचाओं का पाठ तीन दिन तक करने से जातक शुद्ध हो जाता है।[मनुस्मृति 11.253]
One contaminated by accepting forbidden donation and eating prevented-uneatable food is purified by reciting "Trtsmandi Dhavti" and other related verses for three days.
सोमारौद्रं तु बह्वेनाः मासमभ्यस्य  शुध्यति।
स्रवन्त्यामाचरन्स्नानमर्यम्णामिति च तृचम्
बहुत पाप करने वाला भी "सोमरुद्रा भारयेथामसूर्यम्" और "अर्थमणं वरुणं मित्रं" इत्यादि ऋचाओं का एक मास तक नदी में स्नान करके, जप करने वाला भी शुद्ध हो जाता है।[मनुस्मृति 11.254] 
One who has committed numerous sins too gets purified by the recitation of "Somrudra Bharyethamsuryam" and "Arthmann Varunn Mitran" and other verses for three months.
Its not a licence to commit further sins. The prudent should never repeat offences having undergone penances.Repeated offences bring unbearable tortures, troubles and residency in hells.
अब्दार्धमिन्द्रमित्येतदेनस्वी सप्तकं जपेत्।
अप्रशस्तं तु कृत्वाऽप्सु मासमासीत भैक्षभुक्[मनुस्मृति 11.255]
पापी मनुष्य पाप से मुक्त होने के लिये "इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निम्" इत्यादि सात ऋचाओं का जप करे और जल में मल-मूत्रादि करने वाला एक मास पर्यन्त भिक्षा का अन्न खाकर शुद्ध हो जाता है।[मनुस्मृति 11.255] 
To get rid of the sin, the sinner should recite "Indran Mitran Varunmgnim" etc. seven verses. One who passes stools, urine, spit or through waste in water should depend over the begged food for one month.
Having copied the European style of living every one is using toilets where water is already present in the commodes.Its a sin committed unaware.
मन्त्रै: शाकलहोमीयैरब्दं हुत्वा घृतं द्विजः।
सुगुर्वप्यपहन्त्येनो जप्त्वा वा नम इत्यृचम्
शाकल होमीय मन्त्रों से एक वर्ष तक घी से हवन करने से अथवा "नम इन्द्रश्च" ऋचा को अथवा "इति वा इति मे मनः" मन्त्र का जप करने से द्विज बहुत बड़े-बड़े पाप का नाश करता है।[मनुस्मृति 11.256] 
Carrying out of Hawan aided by Shakal Homiy Mantr for one year, with the sacrifices of Ghee in holy fire or recitation of "Nmah Indrashch" verse or "Iti Va Iti me Manh" verse leads to eradication of greatest sins by the Brahmns.
महापातकसंयुक्तोऽनुगच्छेद्गाः समाहितः।
अभ्यस्याब्दं पावमानीर्भैक्षाहारो विशुद्ध्यति
महापातकी पुरुष समाहित चित्त होकर एक वर्ष तक भिक्षा के अन्न का भोजन करे और गौओं को चरावे तथा "पावमानी रध्येति" इत्यादि ऋचाओं का जप करे तो पाप से शुद्ध होता है।[मनुस्मृति 11.257] 
The greatest sinner is purified-cleansed by eating the food earned by begging and grazing the cows for one year and recitation of "Pavmani  Radhyeti" etc. verses. 
अरण्ये वा त्रिरभ्यस्य प्रयतो वेदसंहिताम्।
मुच्यते पातकैः सर्वैः पराकैः शोधितस्त्रिभिः
तीन बार पराक व्रत से शुद्ध पुरुष संयत चित्त होकर तीन बार जंगल में वेद संहिता का पाठ करने से सभी पातकों से शुद्ध हो जाता है।[मनुस्मृति 11.258] 
One cleansed through Parak Vrat is purified by the recitation of Ved Sanhita in the Jungle (forest in isolation) with balanced state of mind (cool & calm) thrice.
यतात्मनोऽप्रमत्तस्य द्वादशाहमभोजनम्।
पराको नाम कृच्छ्रोऽयं सर्वपापापनोदनः॥ 
इन्द्रिय निग्रह पूर्वक सावधान मन से निरन्तर बारह दिनों तक भोजन का परित्याग कर किये गये इस व्रत से सभी प्रकार के यानी छोटे बड़े सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।[मनुस्मृति 11.259]
One who practice this Vrat by controlling all his senses & rejecting food for 12 days, get rid of all sins.
त्र्यहं तूपवसेद्युक्तस्त्रिरह्नोऽभ्युपयन्नपः।
मुच्यते पातकैः सर्वैस्त्रिर्जपित्वाऽघमर्षणम्
तीन दिन उपवास कर संयत चित्त होकर प्रतिदिन तीन बार (प्रातः, मध्यान्ह, सायंकाल) स्नान करते समय पानी में "ऋतं च सत्यं  च" इस अघमर्षण सूक्त का तीन बार जप करे तो सभी पापों का नाश हो सकता है। [मनुस्मृति 11.250.1]
One is relieved of all sins if he recites "Ritan Ch Satyan Ch" Aghmarshan Sukt thrice, while bathing in the morning, midday-noon and the evening, staying in water, observing fast with balanced headedness (exercising control over the brain).
यथाऽश्वमेधः क्रतुराट् सर्वपापापनोदनः।
तथाऽघमर्षणं सूक्तं सर्वपापापनोदनम्
जिस प्रकार सभी प्रकार के पापों के नाशार्थ यज्ञों का राजा अश्वमेध यज्ञ है, उसी प्रकार सभी पापों का नाश करने वाला यह अघमर्षण सूक्त है।[मनुस्मृति 11.260] 
The way the Ashwmedh Yagy is greatest of all Yagy, Aghmarshan Sukt too is capable of destroying all sins.
अघमर्षण सूक्त ::
संकल्प :: जल में तीर्थावाहन, मृत्तिका प्रार्थना, मृत्तिका द्वारा अङ्ग लेपन ‘ॐ आपो हिष्ठा मयो भुवः’ इत्यादि मन्त्रों से जल द्वारा शिरः प्रोक्षण, तदनन्तर सूर्याभिमुख नाभि मात्र जल में स्नान, पुनः ‘ॐ चित्पतिर्मा पुनातु’ इत्यादि मन्त्रों से शरीर का पवित्रीकरण करने के पश्चात् अघमर्षण सूक्त का जप करना चाहिये।
अघमर्षण का विनियोग ::  
ॐ अघमर्षणसूक्तस्य अघमर्षणऋषिनुष्टुप्छन्दः भाववृतो देवता अघमर्षणे विनियोगः।
अघमर्षण सूक्त ::
ॐ ऋतं च सत्य्म चाभीद्धात्तपसोध्यजायत ततो रात्र्यजायत, ततः समुद्रो अर्णवः समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत, अहोरात्राणि विद्वधद्विश्वस्थ मिषतो वशी सूर्याच्चन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् दिवञ्ज पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः॥
अघमर्षण सूक्त के बाद मन्त्र स्नान करके प्राणायाम करें फिर मूल मन्त्र से षडङ्गन्यास करें। 

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ। 
शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥
अतः तेरे लिये कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू इस लोक में शास्त्र विधि से नियत कर्तव्य कर्म करने योग्य है अर्थात तुझे शास्त्र विधि के अनुसार कर्तव्य करने चाहिये।[श्रीमद्भागवद गीता 16.24]  
The Almighty stressed that Arjun should act according to the procedures-methods laid down (scriptural injunction) in scriptures, since he was capable of doing that.
प्राणों का मोह मनुष्य से कर्तव्य-अकर्तव्य, सभी कुछ करवा लेता है। यही कारण है कि व्यक्ति आसुरी सम्पत्ति में प्रवृत हो जाता है। क्योंकि अर्जुन दैवी सम्पत्ति को प्राप्त थे, उन्हें शास्त्र विधि के अनुरूप कर्तव्य पालन करने को कहा गया। मनुष्य पाप-पुण्य का निर्णय अपने हिसाब से कर लेता है, जो गलत है। सर्वथा स्वार्थ रहित मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता। स्वार्थ, अभिमान और दूसरों का अनिष्ट करना-सोचना पाप लगाता है। केवल शास्त्र ज्ञान पर्याप्त नहीं है, उसे मनन करना-समझना और दिनचर्या में लाना भी जरूरी है। यह आसुरी स्वभाव को मिटाता है।
The Almighty explained that one who is selfish with respect to his life do not care for the scriptures. He interpret the scriptures in his own way. One has to perform according to the procedures-methods described in scriptures. Selfishness, ego-pride, teasing others; leads to sins. This refers to demonic tendencies as well. One should read the scriptures, understand them, meditate over them, discuss them, analyse them and then act for the sake of human welfare only, instead of personnel gains. Dogmatic views pertaining to epics, history, scriptures are the root cause of sin. Arjun had attained the goodwill of the God, deities, demigods and the human being alike; through his service of mankind, as and when he got a chance. He always considered the service of humanity superior to his own benefits. One who reads-learns and employs it in his daily life, is sure to attain divinity and the Almighty ultimately.
ख्यापनेनानुतापेन तपसाऽध्ययनेन च।
पापकृत्मुच्यते पापात्तथा दानेन चापदि
अपने पापों को लोगों में प्रकट करके पछताने से, तप तथा अध्ययन करने से पाप करने वाला पाप के दोष से मुक्त हो जाता है और यदि तप आदि करने में असमर्थ हो तो दान करके भी पाप से मुक्त हो सकता है।[मनुस्मृति 11.227] 
Confession of sins followed by repentance-penances, austerity, Tpsaya and studying the sacred text-Ved, Shastr leads to the removal of the impact of sins. If one is not able to adopt ascetics he may resort to donations.
In this era if one reveals his sins in font of wicked people there is a great danger of his being black mailed.Thus reveal the sins in front of virtuous people, enlightened Guru or the trusted people like parents.Then take a pledge not to repeat them in future under any circumstances. Remain firm-determined over this decision. 
यथा यथा नरोऽधर्मं स्वयं कृत्वाऽनुभाषते।
तथा तथा त्वचेवाहिस्तेनाधर्मेण मुच्यते
जैसे-जैसे मनुष्य अपने किये गए पापों को लोगों में ठीक-ठीक बताता है, वैसे-वैसे वह उस अधर्म के कैंचुल से साँप की तरह मुक्त हो जाता है।[मनुस्मृति 11.228]  
One gradually gets freedom from the impact of sins as he repent, observe penances & by accepting his sins in publicly. He is freed from the sins the way the snake is liberated from the exo skin, slough
Confession followed by repentance and determination not to repeat such things in future leads to purification of soul just like air and water which become free from impurities-pollutants.
यथा यथा मनस्तस्य दुष्कृतं कर्म गर्हति।
तथा तथा शरीरं तत् तेनाधर्मेण मुच्यते
जैसे-जैसे पापी का मन पाप कर्म की निन्दा करता है, वैसे-वैसे उसका शरीर (मन  आत्मा) उस पाप से छुटकारा पता जाता है।[मनुस्मृति 11.229]  
The sinner is relieved off the impact of sins over his mind, heart, body & the soul, gradually, as he himself condemn the sins committed by him.
कृत्वा पापं हि संतप्य तस्मात्पापात्प्रमुच्यते।
नैवं कुर्यात् पुनरिति निवृत्त्या पूयते तु सः
पाप करके अपने किये हुए पर पश्चाताप करे तो वह पाप से छूट जाता है। फिर ऐसा नहीं करुँगा, मन में ऐसा संकल्प करके निवृत हो जाये तो वह पवित्र हो जाता है।[मनुस्मृति 11.230]  
One is relieved off the guilt of having committed a sin by undergoing repentance-penances. He should determine that he would not repeat the offence-guilt again and is purified finally.
Please refer to :: Manu Smrati Chapter 11 santoshkipathshala.blogspot.com
यदि तुम अन्य सभी पापियों से भी अधिक पाप करने वाले हो, तो भी इस ज्ञान रूपी नाव द्वारा निःसंदेह पाप-समुद्र को पार कर लोगे।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ। 
शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥
अतः तेरे लिये कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू इस लोक में शास्त्र विधि से नियत कर्तव्य कर्म करने योग्य है अर्थात तुझे शास्त्र विधि के अनुसार कर्तव्य करने चाहिये।[श्रीमद्भगवद्गीता 16.24]  
The Almighty stressed that Arjun should act according to the procedures-methods laid down (scriptural injunction) in scriptures, since he was capable of doing that.
प्राणों का मोह मनुष्य से कर्तव्य-अकर्तव्य, सभी कुछ करवा लेता है। यही कारण है कि व्यक्ति आसुरी सम्पत्ति में प्रवृत हो जाता है। क्योंकि अर्जुन दैवी सम्पत्ति को प्राप्त थे, उन्हें शास्त्र विधि के अनुरूप कर्तव्य पालन  करने को कहा गया। मनुष्य पाप-पुण्य का निर्णय अपने हिसाब से कर लेता है, जो गलत है। सर्वथा स्वार्थ रहित मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता। स्वार्थ, अभिमान और दूसरों का अनिष्ट करना-सोचना पाप लगाता है। केवल शास्त्र ज्ञान पर्याप्त नहीं है, उसे मनन करना-समझना और दिनचर्या में लाना भी जरूरी है। यह आसुरी स्वभाव को मिटाता है।
The Almighty explained that one who is selfish with respect to his life do not care for the scriptures. He interpret the scriptures in his own way. One has to perform according to the procedures-methods described in scriptures. Selfishness, ego-pride, teasing others; leads to sins. This refers to demonic tendencies as well. One should read the scriptures, understand them, meditate over them, discuss them, analyse them and then act for the sake of human welfare only, instead of personnel gains. Dogmatic views pertaining to epics, history, scriptures are the root cause of sin. Arjun had attained the goodwill of the God, deities, demigods and the human being alike; through his service of mankind, as and when he got a chance. He always considered the service of humanity superior to his own benefits. One who reads-learns and employs it in his daily life, is sure to attain divinity and the Almighty ultimately.
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। 
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥
अच्छी प्रकार अनुष्ठान किये हुए-आचरण किए हुए परधर्म-दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म (हिन्दु) श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य, पाप को नहीं प्राप्त होता।[श्रीमद्भागवद गीता 18.47] 
हिन्दु धर्म सनातन शाश्वत है।  सूर्य का पूर्व से निकलना शाश्वत है। गीता का ज्ञान पूरे विश्व-जनता  के लिये शाश्वत है। राधा और कृष्ण का प्रेम शाश्वत है। आयु और शरीर का सम्बन्ध शाश्वत है और जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु शाश्वत है।
Inherent prescribed, Varnashram Dharm, functions, duties, devoid of virtues-excellence, are better than those belonging to others-carried out methodically with perfection, since carrying out of own righteous, natural deeds keeps the doer-performer, free-untainted from sins, vices, wickedness, wretchedness. 
स्वधर्म वर्णाश्रम धर्म और उपरोक्त वर्णित सम्प्रदाय (यहाँ हिन्दु धर्म) को ही मानें-समझें। अपना धर्म अगर दूसरे से निम्न-निकृष्ट मानेंगे तो ही समस्या होगी ही। अगर आप शूद्र को वैश्य से निकृष्ट समझकर अपने को हीन समझेंगे तो समस्या उत्पन्न होगी ही। अतः अपने धर्म में स्थापित-व्यवस्थित रहें और भगवत् आराधना  करते रहें, शेष मालिक-भगवान् पर छोड़ दें। आपात काल में कोई भी किसी भी वर्ण धर्म का आलम्बन लेकर जीविका अर्जित-उपार्जित कर सकता है; परन्तु हालत सामान्य होते ही, स्वधर्म का आचरण करें। पूर्वजों ने दबाब, लालच, जान जाने के भय से अगर अन्य धर्म को अपना लिया था; तो भी कोई बात नहीं। अगर आज हालत सुधर गए हैं, परिस्थिति अनुकूल है, तो घर वापस आ जाओ,  तुम्हारा स्वागत है। आसुरी शक्तियों, दस्यु समुदाय, बुरे लोगों की संगति को भी त्याग  दो। पापकर्म, अन्याय, स्वार्थ, अभिमान को त्याग दो। डरो मत। अच्छाई का परिणाम अन्ततोगत्वा, अच्छा ही होता है। निहित-विहित कर्म करो, निषिद्ध को त्याग दो। दुर्गुण-दुराचार से बचो। विवेक, सदाचार, सतसंग, शास्त्र का  आलम्बन ग्रहण करो, सब कुछ ठीक हो जायेगा। यह कभी मत भूलो कि तुम मनुष्य हो, समर्थ हो, सबल हो, तुम्हारा जन्म हो मुक्ति  के लिए ही हुआ है। 
Natural duties-professions fixed-decided by birth, constitute the inherent tendencies. It’s better to stick to own-ancestral profession which may be full of difficulties and stress, as compared to that of others which is easy, simple, great or virtuous. Own prescribed duties should be accepted with grace and dignity, while that of others, should be discarded as prohibited and below dignity. However, during emergencies, services, jobs-works done under stress-duress, for survival, may be treated as own, for the time being only. One should revert to his Varnashram Dharm-duties, as soon as he comes out of distress-trauma. Those who were converted through deceit, threat to life, greed have the opportunity to revert back to own-ancestors faith-religion. They are welcome home. Work, task-assignment is over as soon as it is carried out, but its impressions remain over the mind & soul.
Each and every one is capable, free and has the right to modify, improve, strengthen himself by divine-virtuous characters and reject the ones which are satanic, demonic, monstrous depending upon need, nature, situation and demand. Certain common functions like simplicity, self control, restraint, soft-polite, pleasing, refined, soothing, affectionate, polished tone, language and behavior are considered to be natural for Brahmns, may be observed by all the four Varn. Individual suffering from inborn demonic experiences, impressions can easily overcome them through prudent, pious, virtuous, company-association, interest (religious gatherings) in holy literature (scriptures) sanctifying-purifying rites, blessed with divine desire.
Human body has been gifted for seeking, approaching, culminating the Supreme Soul. All divine characters are to be observed by all the four Varn as righteous duties and all demonic, monstrous, satanic defects-duties and vices-wickedness, guilt’s, have to be discarded as Adharm (irreligiosity, impiety).
Righteous-prescribed duties and the ones performed for survival without involvement, devoid of selfishness and ego for the benefit-help of the society-mankind do not taint the doer with sin or guilt.
All unnatural acts are sinful. The individual must not do-commit an act which he forbids for self. The actions associated with selfishness in a fit of revenge, rage, anger with ego, desires deserve to be rejected, since they are the root cause of crime, sin, birth & rebirth.
Different activities by different people in different situations, circumstances, conditions, atmosphere, carried out for attainment of Supreme Power Almighty-Permanand are free from sins. One should be alert to maintain natural acts free from defects.
Results of sins are numerous including hell, birth as plant, animal, insect or as a human being in a particular class, caste, creed, more, place, community, belief, religion.
The individual preaching divine characters should be aware of modifying, his own habits, behavior, working, life style, activities for which he is quite capable and eligible. Human body has been gifted to the soul to sanctify-purify. So, every attempt has to be made for progress in the right direction i.e,. the Almighty.
परोSपेहि मनस्याप किमशस्तानि शंससि। 
परेहि न त्वा कामये वृक्षां वनानि सं चर गृहेषु गोषु मे मनः॥
हे मेरे मन के पाप समूह! दूर हो जाओ। अप्रशस्त की कामना क्यों करते हो! दूर हटो, मैं तुम्हारी कामना नहीं करता। वृक्षों तथा वनों के साथ रहो, मेरा मन घर और गायों में लगे।[अथर्ववेद 6.45.1]  
अप्रशस्त :: प्रशंसा किया हुआ, प्रशंसा योग्य; expansive, smashing. 
Sins present in my heart move away from me. I do not long for anything undesirable (earning through wrong, unpious, wicked, evil means). Stay with the trees in the forests. Let my interest develop-grow in my house & cows.
Trees, shrubs, wine, plants are lower forms of organism-living beings, which are born due to the sins of their earlier births. Cows are worshipped and fed in the house, due to the presence of highly useful enzymes for humanity present in their body. One should never kill a cow, eat meat eggs.
DEATH मृत्यु :: शरीर में जब वात का वेग बढ़ जाता है तो उसकी प्रेरणा से ऊष्मा अर्थात पित्त का प्रकोप भी हो जाता है।  वह पित्त सारे शरीर को घेर कर सारे सम्पूर्ण देशों को आवर्त के लेता है और प्राणों के स्थान और मर्मों का उच्छेद कर डालता है। फिर शीत से वायु का प्रकोप होता है और वायु अपने निकलने का स्थान-छिद्र ढूढ़ने लगती है। 
दो नेत्र, दो कान, दो नासिका और एक मुँख; ये सात छिद्र हैं और आठवाँ ब्रह्मरन्ध्र है। शुभ कार्य करने वाले मनुष्यों के प्राण प्रायः इन्हीं पूर्व सात मार्गों से निकलते हैं। धर्मात्मा जीव को उत्तम मार्ग और यान द्वारा स्वर्ग भेजा जाता है। 
निम्न छिद्र :: गुदा औए उपस्थ। पापियों के प्राण इन्हीं छिद्रों से निकलते है। 
योगी के प्राण मस्तक का भेदन करके ब्रह्मरन्ध्र से निकलते हैं और जीव इच्छानुसार अन्य लोकों में जाता है।
जीव को यमराज के दूत आतिवाहिक शरीर में पहुँचाते हैं। यमलोक का मार्ग अति भयंकर और 86,000 योजन लम्बा है। यमराज के आदेश से चित्रगुप्त जीव को उसके पाप कर्मों के अनुरूप भयंकर नरकों में भेजते हैं।
Enhancement of the flow of air in the body-blood enhances the bile juices as well. This bile covers the entire body through nervous system, blood circulatory system and the skin. It attacks-targets the soft points-centres of the other  airs (-heart, lungs) in the body. This lead to lowering of body temperature-cold.This cold strengthens the attack of the air in the body further, which start tracing the opening for release.
Humans have 2 ears, 2 nostrils, 2 eyes and a mouth, a total of 7 openings-outlets and the 8th is the Brahm Randhr-the ultimate outlet for the soul-Vital. The soul-Pran Vayu of pious-virtuous-righteous releases through these 7 openings. The pious-virtuous, righteous gets heaven by the sanction of Yam Raj. Chitr Gupt send him there through excellent routes by planes.
There are 2 more out lets for the release of Pran Vayu-the vital force-energy: The anus and the pennies. The soul of the wicked-sinner leaves the body through them.
The Yogi has the ultimate outlet for the soul-the Brahm Randhr. The soul explodes the skull and leaves the body to the abodes of its choice, in a divine formation-incarnation achieved by it.
The dead-deceased gets another identical non material body which is moved to hell through a distance of 86,000 Yojan which is very painful. There Yam Raj looks at him and Chitr Gupt thereafter send him to hell, which are extremely painful-torturous. What one gets here is the outcome of his deeds? As one sows, so he gets, here.This is absolute justice.
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा