Wednesday, October 15, 2014

SACRED THREAD RITES (2) यज्ञोपवीत (जनेऊ-उपनयन) संस्कार :: HINDU PHILOSOPHY (4.11.1) हिन्दु दर्शन

SACRED THREAD
यज्ञोपवीत (जनेऊ-उपनयन) संस्कार
HINDU PHILOSOPHY (4.11.1) हिन्दु दर्शन 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
यज्ञोपवीत तीन तागों में लगी ग्रन्थियों से युक्त सूत की एक माला है, जिसे द्विज :- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य धारण करते हैं। यह यज्ञ और उपवीत से संयोग से बना है, जिसका अर्थ है यज्ञ से पवित्र किया गया सूत्र। साकार परमात्मा को यज्ञ और निराकर परमात्मा को ब्रह्म कहा गया है। इन दोनों को प्राप्त करने का अधिकार दिलाने वाला यह सूत्र यज्ञोपवीत है। ब्रह्म सूत्र, सविता सूत्र तथा यज्ञ सूत्र इसी के अन्य नाम है। 
सूचनाद् ब्रह्मत्त्वस्य वेदतत्त्वस्य सूचनात्। 
तत्सूत्रमुपवीतत्वाद् ब्रह्मसूत्रमिति स्मृतम्
यह सूत्र द्विजातियों को ब्रह्मत्व-ब्रह्मतत्व और वेद ज्ञान की सूचना देता है, अतः ब्रह्म सूत्र है। 
यज्ञोपवीत का प्रादुर्भाव अनादिकाल  में ही हुआ था। मानव सृष्टि रचना से ही यह उपयोगी है। सृष्टि कर्ता ब्रह्मा जी सृष्टि के समय स्वयं यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे। 
यज्ञोपवीत धारण मंत्र :: 
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। 
आयुष्यमग्रय्ं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ 
ॐ यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि। 
शुभ कर्मानुष्ठानार्थ बनाये गये अत्यन्त पवित्र, ब्रह्मा जी के द्वारा आदि काल में धारण किये गये, आयुष्य प्रदान करने वाले, सर्वश्रेष्ठ, अत्यन्त शुद्ध यगोपवीत को मैं धारण करता हूँ। यह मुझे तेज और बल प्रदान करे। ब्रह्मसूत्र ही यज्ञोपवीत है, मैं ऐसे यज्ञोपवीत को धारण करता हूँ।
देवतागण, भगवान् श्री राम, भगवान् श्री कृष्ण भी यज्ञोपवीत धारण करते थे। अतः यह ब्रह्मतेज को धारण करने वाला, समस्त देव एवं पितृ कर्मों को सम्पादित करने की योग्यता प्रदान करने वाला देवसूत्र है।  
यज्ञोपवीत स्वयं या ब्राह्मण कन्या या साध्वी ब्राह्मणी के हाथों काते गए कपास के सूत के नौ तारों को तीन-तीन तारों में बाँटकर-उमेठकर बनाये गए तीन सूत्र को 96 चौओं के नाप में तीन वृतों की तैयार की गई माला है। जिसके मूल में ब्रह्म ग्रन्थि लगाकर गायत्री और प्रणव मन्त्रों से अभिमन्त्रित किये जाने के पश्चात ही यज्ञोपवीत कहा जाता है। इसे निश्चित आयु, काल-समय, और विधान के साथ द्विज बालकों-बटुक को ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ-इन तीनों आश्रमों में श्रौत और स्मार्त विहित कर्म करने हेतु पिता, आचार्य या गुरु के द्वारा गायत्री मंत्र के साथ धारण कराया जाता है। इसी के साथ बालक का दूसरा जन्म होता है  और वह द्विज कहलाता है। उपनीत बालक को विनश्वर स्थूल शरीर की अपेक्षा अविनाशी ज्ञानमय शरीर प्राप्त होता है। इस विशेष महत्त्व को ध्यान में रखते हुए इसके बनाने में शुचिता और पवित्रता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। 
गुरु के सानिध्य में रहकर गुरुकुल में विद्याध्ययन के लिये जाने को उपनयन संस्कार कहते हैं। बालक का पिता-अविभावक गण उसे विद्याध्ययन हेतु आचार्य के पास इ जाते हैं। विद्याध्ययन की योग्यता उत्पन्न करने हेतु उसे जिस कर्म-संस्कार द्वारा संस्कृत किया जाता है वही जनेऊ, यज्ञोपवीत, उपनयन संस्कार है। इसी को व्रतबन्ध भी कहा जाता है। यज्ञोपवीत धारण करके बालक विशेष-विशेष व्रतों में उपनिबद्ध हो जाता है। द्विजों का जीवन व्रतमय होता है, जिसका आरम्भ इसी व्रतबन्ध-संस्कार से होता है। 
यगोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे।
इस व्रत बन्ध से बालक दीर्घायु, बली और तेजस्वी होता है।[कौषीतकि ब्राह्मण]
न ह्यस्मिन् युज्यते कर्म किञ्चिदा मौञ्जीबन्धनात्।   
यज्ञोपवीत होने के पहले किसी भी वैदिक कर्म करने की क्षमता द्विज में नहीं होती है।[मनुस्मृति 2.171] 
The Dwij is not entitled to perform any sacred act-Vaedik Karm prior to investiture with the girdle of sacred thread or Munj grass
संस्कारों में षोडस संस्कार प्रमुख हैं और उनमें भी उपनयन सर्वोपरि है। उपनयन के बगैर बालक किसी भी श्रौत-स्मार्त कर्म का अधिकारी नहीं होता। यह योग्यता केवल उपनयन संस्कार के अनन्तर यज्ञोपवीत धारण करने पर ही प्राप्त होती है। इसके बगैर देवकार्य और पितृकार्य नहीं किया जा सकते। श्रौत्र-स्मार्त कर्मों तथा विवाह, साँध्य, तर्पण आदि कर्मों में भी उसका अधिकार नहीं रहता। उपनयन संस्कार के पश्चात ही द्विजत्व प्राप्त होता है। इसमें समंत्रक और सस्कारित यज्ञोपवीत धारण तथा गायत्री मंत्र का उपदेश-ये दो प्रधान कर्म होते है। शेष कर्म अंगभूत हैं।
मातुर्यदग्रे जायन्ते द्वितीयं मौञ्जीबन्धनात्। 
ब्राह्मणक्षत्रिविशस्तस्मादेते द्विजाः स्मृता॥
उपनयन का अधिकार केवल द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) को है। प्रथम माता के गर्भ से उत्पत्त्ति तथा द्वितीय जन्म मौंजीबन्धन-उपनयन सस्कार द्वारा होने से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विज संज्ञा प्राप्त है।[याज्ञवल्क्य स्मृति 1.39]
ब्राह्मणः क्षत्रियोर्वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः। 
तेषां जन्म द्वितीयं तु विज्ञेयं मौञ्जीबन्धनात्॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, इन तीनों वर्णों को द्विज कहते हैं। इनका द्वितीय जन्म यज्ञो पवीत संस्कार से होता है।[शंखस्मृति 1.6]  
आचार्यस्तु पिता प्रोक्तः सावित्री जननी तथा। ब्रह्मक्षत्रविषाञ्चैव मौञ्जीबन्धनजन्मनि॥
तत्र यद् ब्रह्मजन्मास्य मौञ्जिबन्धनचिन्हितम्। 
तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते॥  
पूर्वोक्त तीनों जन्मों :- मौञ्जी बन्धन (यज्ञोपवीत) से चिन्हित जन्म में माता गायत्री और पिता आचार्य होता है।[शंखस्मृति 1.7,  मनुस्मृति 2.170]
Among the three births discussed above the birth symbolised by the investiture with the girdle of sacred thread or Munj grass, Gayatri  becomes his mother & the Guru-teacher is his father.
जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विजे उच्यते। 
विद्यया वापि विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्चते॥
ब्राह्मण माता-पिता के सविधि विवाह के अनन्तर उत्पन्न बालक ब्राह्मण है, जब उसका 5-8 वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत संस्कार होता है, तब वह द्विज (द्विजन्मा) कहलाता है और वह वेदाध्ययन तथा यज्ञाग्निरूप धर्मकार्य आदि करने का अधिकारी होता है। वेद ज्ञान प्राप्त करने से विप्र तथा ये तीनों बातें (उपनयन, वेदाध्ययन तथा यज्ञाग्निरूप धर्मकार्य) होने से वह श्रोत्रिय कहलाता है।[ब्रह्म पुराण]  
द्विधा जन्म। जन्मना विद्यया च। 
इसीलिये द्विजों का दो बार जन्म होता है और दो बार जन्म होने से ही द्विजसंज्ञा सार्थक होती है।
मनुष्य का जन्म-तीन ऋणों के कारण :: ऋषि ऋण, देव ऋण और पितृ ऋण। इन तीन ऋणों से मुक्ति बिना यज्ञोपवीत संस्कार के सम्भव नहीं है। व्यक्ति यज्ञोपवीत संस्कार के अनन्तर विहित ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके ऋषियों के ऋण से मुक्त होता है। यजन-पूजन आदि के द्वारा देव ऋण से और गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए संतानोतपत्ति करके, पितृ ऋण से उऋण होता है। यदि यज्ञोपवीत संस्कार न हो तो इन तीन कर्मों को करने का उसका अधिकार नहीं है। यह संस्कार उसके ब्रह्मचर्य व्रत और विद्याध्ययन का प्रतीक है।[तैतरीय संहिता] 
यज्ञोपवीत से पहले कामाचार, कामवाद तथा काम भक्षण जन्य दोष नहीं लगता तथा उसके कर्मों का प्रत्यवाय भी नहीं बनता। इसीलिये कोई प्रायश्चित विधान भी नहीं रहता। यज्ञोपवीत संस्कार के अनन्तर उसे ब्रह्मचर्य, सदाचार, शौचाचार, भक्ष्याभक्ष्य आदि नियमों का सावधानी पूर्वक पालन करना चाहिये। यम-नियम, संयम का पालन करना चाहिये। जितने भी संस्कार हैं, वे सब द्विजत्व प्राप्ति के उपकारक हैं। यज्ञोपवीत के पहले जातकर्मादि संस्कार भी द्विजत्व प्राप्ति में सहयोगी हैं और उसके बाद के विवाहादि संस्कार भी बिना यज्ञोपवीत संस्कार हुए सम्पन्न नहीं होने चाहिये, इसलिये यह संस्कार बहुत ही उपयोगी है। 
वर्तमान काल में किसी भी प्रकार के संस्कार का पालन समाज में लगभग नगण्य है। केवल नेग ही किया जाता है। यह सभी कुछ असम्भव भी नहीं है। महाभारत के बाद धीरे-धीरे संस्कारों का पालन न्यूनतम रह गया। स्वर्ण-द्विज केवल पेट पालन तक ही सीमित रह गये। हर आदमी नौकरी की तलाश में है और उसकी दिनचर्या में इन सख्त नियमों के पालन की संभावना न्यूनतम रह जाती है। 
अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयेद् गर्भाष्टमे वा। 
एकादशवर्ष राजनयम्। द्वादशवर्षं वैश्यम्। 
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बालक के लिये क्रम से, जन्म से अथवा गर्भ से आठ, ग्यारह और बारह वर्ष उपनयन का मुख्य काल है।[पारस्कर गृह्यसूत्र 2.2.1-3] 
गर्भाष्टमेSब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्यो पनायम्। 
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः॥
गर्भ से आठवें वर्ष में ब्राह्मण का उपनयन संस्कार करना चाहिये। गर्भ से 11 वें वर्ष में क्षत्रियों का और गर्भ से 12 वें वर्ष में वैश्यों का उपनयन करना चाहिये।[मनुस्मृति 2.36] 
The rite pertaining to initiation to education Upnayan Sanskar be performed at the age of 8 years for the Brahmn, 11th year for the Kshatriy and 12th year for the Vaeshy.
Upnayan Sanskar-rite  is a sacred ceremony performed in Hinduism for upper castes to initiate the education of the child called Brahmchari-celibate (ब्रह्मचारी). Yagyopaveet (sacred thread, यज्ञोपवीत) is drawn around the neck and the waist of the child to make him remember that he has to maintain extreme chastity & purity (of body, mind and the soul) during the period of education at the Ashram-Guru Kul of the teacher.
यदि किसी कारणवश उपरोक्त समय सीमा में यज्ञोपवीत संस्कार न हो सके तो ब्राह्मण 16, क्षत्रिय 22 तथा वैश्य बालक का 24 वर्ष की आयु में यह संस्कार कर दिया जाना चाहिये। 
आषोडशादुर्षाद् ब्राह्मणस्यानतीतः कालो भवति। 
आद्वाविंशाद्राजन्यस्य आचतुर्विंशाद्वैश्यस्य॥
आषोडशाद् ब्रह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते। आद्वाविंशात् क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विशः 
उपनयन के लिये निर्धारित समय सीमा के गुजर जाने के बाद द्विज बालक पतित सावित्रीक, सावित्री पतित अथवा व्रात्य कहलाता है। संस्कार के न हो पाने के कारण वह पतित, विगर्हित अर्थात निन्दित हो जाता है* और सभी प्रकार के व्यवहार के अयोग्य हो जाता है। धर्म -कर्मादि पर उसका कोई अधिकार नहीं रहता। वह प्रायश्चित्ती हो जाता है। ऐसे अनुपनीत के विषय में शास्त्र ने व्यवस्था दी है कि ऐसी स्थिति में अनादिष्ट प्रायश्चित करके वह पुनः संस्कार की योग्यता प्राप्त कर लेता है। अतः व्रात्य स्तोम प्रायश्चित करके उपनयन संस्कार करना चाहिये। यह व्रात्य स्तोम लौकिक अग्नि में होता है।[पारस्कर गृह्यसूत्र 2.5.36-38, इस व्रात्यस्तोम की विधि कात्यायन श्रौत सूत्र 22.4 में उपलब्ध है।] 
*अत ऊर्ध्वं त्रयोSप्येते यथाकालमसंस्कृता:।
सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिता:॥
[मनुस्मृति, विष्णुस्मृतिःसप्तविंशतितमोऽध्यायः 2.39]
उक्त समयों के बाद यथा समय संस्कार न होने से वे तीनों (विप्र-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) सावित्री से पतित होकर समाज से बहिष्कृत और व्रात्य होते हैं। 
If the Upnayan rites-ceremony (sacrament, ordination, Sanskar, investiture, धार्मिक अनुष्ठान, संस्कार) is not performed as per schedule explained above one born in the three upper castes is demoted and becomes out caste.
*सावित्री पतिता व्रात्या: सर्वधर्मबहिष्कृता
यथाकालं असंस्कृताः निर्धारित समय पर संस्कार न होने पर अतः ऊर्ध्वम् इस अवस्था के बीतने के बाद एते त्रयः+अपि ये तीनों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही सावित्रीपतिताः सावित्री-यज्ञोपवीत से पतित हुए आर्यविगर्हिताः आर्य-श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा निन्दित व्रात्याः भवन्ति ‘व्रात्या’ व्रत से पतित हो जाते हैं।[शंखस्मृति 2.9]  
‘‘अत ऊध्र्वं पतितसावित्रीका भवन्ति"॥6॥
यदि पूर्वोक्त काल में इनका यज्ञोपवीत न हो तो वे पतित मानें जावें। [आश्व.गृ.सू., सं.वि.उपनयन संस्कार]
विष्णुस्मृतिः सप्तविंशतितमोऽध्यायः ::
गर्भस्य स्पष्टताज्ञाने निषेककर्म॥27.1॥ 
स्पन्दनात्पुरा पुंसवनं॥27.2॥ 
षष्ठेऽष्टमे वा मासि सीमन्तोन्नयनं [पष्ठे]॥27.3॥  
जाते च दारके जातकर्म॥27.4॥  
आशौचव्यपगमे नामधेयं॥27.5॥ 
मङ्गल्यं ब्राहमणस्य॥27.6॥
बलवत्क्षत्रियस्य॥27.7॥
धनोपेतं वैश्यस्य॥27.8॥
जुगुप्सितं शूद्रस्य॥27.9॥
चतुर्थे मास्यादित्यदर्शनं॥27.10॥ 
षष्ठेऽन्नप्राशनं॥27.11॥
तृतीयेऽब्दे चूडाकरणं॥27.12॥ 
एता एव क्रियाः स्त्रीणां अमन्त्रकाः॥27.13॥
तासां समन्त्रको विवाहः॥27.14॥
गर्भाष्टमेऽब्दे ब्राह्मणस्योपनयनं॥27.15॥
गर्भैकादशे राज्ञः॥27.16॥
गर्भद्वादशे विशः॥27.17॥
तेषां मुञ्जज्याबल्बजमय्यो मौञ्ज्यः॥27.18॥
कार्पासशाणाविकान्युपवीतानि वासांसि च॥27.19॥
मार्गवैयाघ्रबास्तानि चर्माणि॥27.20॥
पालाशखादिरौदुम्बरा दण्डाः॥27.21॥
केशान्तललाटनासादेशतुल्याः॥27.22॥
सर्व एव वा॥27.23॥
अकुटिलाः सत्वचश्च॥27.24॥
भवदाद्यं भवन्मध्यं भवदन्तं च भैक्ष्यचरनं॥27.25॥
आ षोडशाद्ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते।
आ द्वाविंशात्क्षत्रबन्धोरा चतुर्विंशतेर्विशः॥27.26॥
अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालं असंस्कृताः।
सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः॥27.27॥ 
यद्यस्य विहितं चर्म यत्सूत्रं या च मेखला।
यो दण्डो यच्च वसनं तत्तदस्य व्रतेष्वपि॥27.28॥
मेखलां अजिनं दण्डं उपवीतं कमण्डलुम्।
अप्सु प्रास्य विनष्टानि गृह्णीतान्यानि मन्त्रवत्॥27.29॥
"यथामङ्गल वा सर्वेषाम्"[पारस्कर ग्रह सूत्र 2.2.4] 
उपर्युक्त निर्धारित उपनयन काल में मुख्य अथवा गौण वर्षों में बालक का उपनयन संस्कार न हो सके तो अपने कुलाचार की अनुकूल नवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें और पन्द्रहवें वर्ष में भी इस संस्कार को किया जा सकता है।
Those living abroad generally fail to perform the rites meant for the upper castes. They may perform them at ease, as per upper description. All those rites which were missed may be performed at the time of marriage under the guidance & supervision of expert, experienced, learned Priests-Brahmns (Purohit-Achary).
कामनापरक यज्ञोपवीत :: ब्राह्मण बालक को विशेष ब्राह्मणतेज से सम्पन्न करने की इच्छा हो तो पाँचवें वर्ष में बलाभिलाषी क्षत्रिय बालक का छटे वर्ष में तथा धनार्थी वैश्य बालक का आठवें वर्ष में उपनयन करना चाहिये। 
ब्रह्मवर्च सकामस्य कार्यं विप्रस्य पञ्चमे। 
राज्ञो बलार्थिन: षष्ठे वैश्येस्येहार्थिनोSष्टमे॥
ब्रह्म तेजाभिलाषी ब्राह्मण का गर्भ से 5 वें वर्ष में, बलाभिलाषी क्षत्रिय का 6 वर्ष में और धनाभिलाषी वैश्य का 8 वें वर्ष में उपनयन करना चाहिये।[मनुस्मृति 2.37]
The Brahmn who seeks the Brahm Tej (divine energy-aura-enlightenment) should be initiated into Upnayan rite from the 5th year of conception, the Kshtriy who desire power-valour should be initiated into Upnayan in the 6th year and the Vaeshy who desire wealth should be initiated into Upnayan in the 8th year. 
आषोडशाद्ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते। 
आद्वाविंशात्क्षत्रबन्धोंराचतुर्विंशतेर्विश:॥
16 वें वर्ष तक ब्राह्मण का, 22 वें वर्ष तक क्षत्रिय का और 24 वें वर्ष तक वैश्य की सावित्री का अतिक्रमण नहीं होता है अर्थात उस समय तक उपनयन हो सकता है।[मनुस्मृति 2.38] 
The Upnayan-initiation ceremony can be performed till 16th year for the Brahmn, 22nd year for the Kshtriy and 24th year for the Vaeshy, since Savitri (Rig Ved has described Savitr as a manifestation of Sun) is still in vogue-effective.
Please refer to :: MANU SMRATI (2) मनु स्मृति :: ब्राह्मण धर्म, संस्कार, गुरु-शिष्य परम्पराsantoshkipathshala.blogspot.com
उपनयन में मुख्य रूप से यज्ञोपवीत धारण होता है; परन्तु मौंजी, मेखला आदि भी धारण कराये जाते हैं। समापवर्तन के समय में उनके परित्याग की विधि है, जिसके बाद गृहस्थाश्रम में प्रवेश होता है। यदि सन्यासी यज्ञोपवीत और शिखासूत्र धारण न करे तो यावज्जीवन (जन्म भर, आजीवन, throughout the life) बने रहते हैं। 
सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च।
विशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम्॥
यज्ञोपवीत सदैव धारण किये रहना चाहिये। शिखा में ओङ्कार रूपिणी ग्रन्थि बाँधे रखनी चाहिये। शिखा सूत्र विहीन होकर (जनेऊ और चोटी न रखकर जो धर्म-कर्म किया जाता है वह निष्फल हो जाता है।[कात्यायन स्मृति 1.4]
जनेऊ धारण करना :: यज्ञोपवीत संस्कार हो जाने के बाद द्विज-जातक को इसे निरन्तर धारण किये रहना चाहिये। ब्रह्मचारी को एक तथा स्नातक को दो या अधिक-तीन, यज्ञोपवीत धारण करने चाहियें।[आश्वलायन गृहसूत्र]
 ब्रह्मचारिण एकं स्यात् स्नातकस्य द्वे बहूनि वा।
श्रौत्र स्मार्त कर्मों की निष्पत्ति के लिएयज्ञोपवीत धारण करना चाहिये। यदि उत्तरीय वस्त्र न हो तो तीसरा भी धरण किया जा सकता है। 
यज्ञोपवीत द्वे धार्ये श्रोते स्मार्ते च कर्मणि। 
तृतीयमुत्तरार्धे वस्त्राभावे तदिष्यते  
ऐसी स्थिति में बायें कंधे पर एक कपड़ा-गमछा रखा जा सकता है। 
वामहस्ते व्यतीते तु तत् त्यक्त्वा धारयेत् नवम्।  
उपवीत संस्कारित ब्रह्मसूत्र है, जिसे संस्कार के दिन से मृत्यु पर्यन्त शरीर से अलग नहीं किया जाता। यदि यह अशुद्ध हो जाये या किसी कारणवश शरीर से अलग हो जाये तो नया यज्ञोपवीत पहना जा सकता है। शरीर से कपड़ा उतारते वक्त, धागा टूट जाने पर, कंधे से खिसककर नीचे आने पर नवीन प्रतिष्ठित जनेऊ धारण करना चाहिये। 
मलमूत्रे त्यजेद् विप्रो विस्मृत्यैवोपवीतधृक्। 
उपवीतं तदुत्सृज्य धार्यमन्यन्नवं तदा॥
उपाकर्म, जनना शौच, मरणा शौच, श्राद्ध कर्म, सूर्य-चंद्र ग्रहण के अस्पृश्य से स्पर्श हो जाने पर तथा श्रावणी में यज्ञोपवीत को अवश्य बदल देना चाहिये। 
सूतके मृतके क्षौरे चाण्डालस्पर्शने तथा। 
रजस्वलाशवस्पर्शे धार्यमन्यन्नवं तदा
उपाकर्मणि चोत्सर्गे सूतद्वितये तथा। श्राद्धकर्मणि यज्ञादौ शशिसूर्यग्रहेऽपि च॥
नवयज्ञोपवीतानि घृत्वा जीर्णानि न त्यजेत्।
तीन-चार महीने में जनेऊ को सामन्यतया बदल दिया जाता।[नारायण संग्रह, ज्योतिषार्णव]
धारणाद् ब्रह्मसूत्रस्य गति मासचतुष्टये। 
त्यक्त्वा तान्यपि जीर्णानि नवान्यन्यानि धारयेत् 
नया जनेऊ धारण करने से पहले उसे अभिमन्त्रित कर लेना उचित रहता है।[गोभिल आचार भूषण]  
यज्ञोपवीत अभिमन्त्रण :: स्नानादि करके, आसन पर बैठकर नये जनेऊ में हल्दी लगाकर निम्नलिखित विनियोग मंत्र पढ़कर जल प्रवाहित करें। तदनन्तर निम्लिखित मंत्र को पढ़ते हुए एक-एक करके जनेऊ धारण करें :- 
विनियोग :- 
ॐ यज्ञोपवीतमिति मन्त्रस्य परमेष्ठी ऋषिः लिङ्गोक्तादेवता; 
त्रिष्टुप् छन्दः यज्ञोपवीतधारणे विनियोगः।
तत्पश्चात यज्ञोपवीत धारण करते हुए निम्न मंत्र पढ़ें :-
ॐ यज्ञोपवीतं परम पवित्रं प्रजापतेर्यत् सहजं पुरस्तात्। 
आयुष्यंग्रय्ं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥
ॐ यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि। 
पुराना जनेऊ उतारना :: निम्न मंत्र पढ़ते हुए पुराने उपवीत को कण्ठी जैसा बनाकर सिर पर से पीठ की ओर से अलग कर दें  :- 
एतावद्दिनपर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया। 
जीर्णत्वात् त्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथासुखम्॥  
त्याज्य यज्ञोपवीत को जल में प्रवाहित कर दें अथवा किसी पवित्र स्थान पर छोड़ दें। 
इसके बाद यथाशक्ति गायत्री मंत्र का जप करें अथवा कम से कम दस गायत्री मंत्र का जप करें और "ॐ तत्सत् श्रीब्रह्मार्पणमस्तु" कहते हुए हाथ जोड़कर भगवान् का स्मरण करें।
नये जनेऊ को अभिमन्त्रित करना ::  श्रावणी उपाकर्म के दिन वर्ष भर के लिये यज्ञोपवीत को अभिमन्त्रित करके रख लेना चाहिये। पूरी शुद्धि के साथ आसन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठें और आचमन करने के बाद अपने सामने पलाश के पत्ते अथवा किसी पात्र पर नये जनेऊ को रखकर जल से प्रक्षालित करें। तदुपरान्त निम्नलिखित एक-एक मंत्र को पढ़कर अक्षत-चावल या एक-एक फूल अथवा जल को यज्ञोपवीत पर छोड़ते जायें :-
प्रथमतन्तौ ॐ ओङ्कारमावाहयामि। द्वितीयतन्तौ ॐ अग्निमावाहयामि।   
तृतीयतन्तौ ॐ सर्पानावाहयामि। चतुर्थतन्तौ ॐ सोममावाहयामि। 
पञ्चमतन्तौ ॐ पितृनावाहयामि। षष्ठतन्तौ ॐ प्रजापतिमावाहयामि। सप्तमतन्तौ ॐ अनिलमावाहयामि। अष्टमतन्तौ ॐ सूर्यमावाहयामि। नवमतन्तौ ॐ विश्वान् देवानावाहयामि। 
प्रथमग्रन्थौ ॐ ब्रह्मणे नमः, ब्रह्माणमावाहयामि। द्वितीयग्रन्थौ ॐ विष्णवे नमः, विष्णुमावाहयामि। तृतीयग्रन्थौ ॐ रुद्राय नमः, रुद्रमावाहयामि।
इसके बाद "प्रणवाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः" मंत्र से "यथास्थानं न्यसामि" कहकर उन-उन तन्तुओं में न्यास कर चन्दन आदि से पूजन करें। फिर यज्ञोपवीत को दस बार गायत्री मंत्र से अभिमन्त्रित करें। इस प्रकार नये जनेऊ की प्रतिष्ठा करने से वह जनेऊ धारण करने योग्य हो जाता है।
यज्ञोपवीत ब्रह्मसूत्र है। गायत्री मंत्र द्वारा अभिमन्त्रित है। इसमें नौ देवताओं का वास है। अतः इसकी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिये जरूरी है कि यह सदा पवित्र रहे, जिससे इसके धारण करने वाले का बल, आयु और तेज अक्षुण्ण बना रहे। 
शौचादि के समय यज्ञोपवीत की स्थिति :: गृहसूत्रकारों ने उपवीत को शौच, लघुशंका के समय दाहिने कान में लपेटने का विधान किया है, यथा :-  
(1). "निवती दक्षिणकर्णे  यज्ञोपवीतं कृत्वा...पुरीषे विसृजेज्" [वैखानस धर्म प्रश्न 2.9.1 शौच विधि]
(2). "यज्ञोपवीतं शिरसि दक्षिणकर्णे वा कृत्वा" [बोधायन ग्रह्यशेष सूत्र 4.6.1]
(3). "...कर्णस्थब्रह्मसूत्र उदङ्मुखः। कुर्यान्मूत्रपुरीषे च..." [याज्ञवल्कयस्मृति आचाराध्याय]
(4). "कर्णस्थब्रह्मसूत्रो मूत्रपुरीषं विसृजति"
मल-मूत्र का त्याग करते समय दाहिने कान में सूत्र लपेटने के रहस्य के पीछे अनेक कारण हैं। सिर मानव शरीर में ज्ञान का केन्द्र है तथा दाहिने कान में रुद्र, आदित्य, वसु आदि देवताओं का वास है। अतः इन क्षेत्रों की पवित्रता बनाये रखने के लिये यज्ञोपवीत को कान पर रखा जाता है।
[अग्नि वेश्य गृह सूत्र 2.6 इत्यादि]
  आदित्य वसवो रुद्रा वायोरग्निश्च धर्मराट्। 
विप्रस्य दक्षिणे कर्णे नित्यं तिष्ठन्ति देवताः 
पुरुष नाभि के ऊपर पवित्र है। इसीलिये उस समय पवित्र यज्ञोपवीत को वहाँ न रखकर उर्ध्वभाग-कर्ण प्रदेश में रखा जाता है। 
मानव शरीर के मध्य में वीरकोष-अण्डकोष है। यहाँ से निकलने वाली रक्तवाहिनी नाड़ी दाहिने कान से होते हुए शरीर के मल-मूत्र द्वार तक जाती है। प्रायः लघुशंका या शौच के समय वीर्य अज्ञात रूप से स्खलित होने लगता है। यदि इसका ध्यान न रखा जाये तो जातक रोगग्रस्त हो सकता है। इस अवांच्छित प्रवाह को काबू में रखने के लिये कर्णवेध -कर्णछेदन के साथ-साथ नाड़ी को जनेऊ से बाँध दिया जाता है। इसका एक लाभ यह भी है कि यह रक्त चाप को नियंत्रण में रख कर हृदय को मजबूत बनाता है।
यज्ञोपवीत की तीन स्थितियाँ :: जनेऊ को तीन रूपों में धारण किया जाता है। 
(1). उपवीती :- जनेऊ जब बायें कन्धे से दाहिने हाथ के नीचे दाहिनी तरफ होता है तो इसे उपवीती या सव्यवस्था की स्थिति कहते हैं। सामान्य स्थिति में जनेऊ ऐसे ही पहना हुआ रहता है और सभी मांगलिक एवं देवकार्य भी सव्यवस्था में ही होते हैं। 
(2). निवीती :- जनेऊ को गले में कण्ठी की तरह (माला की भाँति) धारण करने को निवीती अवस्था कहा जाता है। तर्पण में जब सनकादि ऋषियों को जलांजलि दी जाती है तो निवीती होकर ही दी जाती है। इसी जनेऊ को जब आगे न करके पीठ की ओर माला कराकर पहना जाता है, वह भी निवीती अवस्था कहलाती है, ऐसा ग्राम्य धर्म (मैथुन कर्म) के समय करने का विधान है। 
(3). प्रचीनावीती :- जब दाहिने कन्धे से बायें हाथ के नीचे बायीं ओर किया जाता है तो इसे प्रचीनावीती या अपसव्यवस्था कहते हैं। सम्पूर्ण पितृ कर्म-श्राद्ध, तर्पण आदि अपसव्य होकर ही किये जाते हैं। 
कन्याओं का जनेऊ नहीं होता। स्त्रियों का विवाह संस्कार ही द्विजत्व सम्पादक उपनयन है। वैवाहिक वर प्रदत्त उपवस्त्र को ही विवाह तक यज्ञोपवीत की तरह लपेटना कन्याओं का उपनयन-सूत्रधारण होता है। पुरुष के लिये शास्त्रों में प्रयुक्त संस्कार शब्द जैसे उपनयन वाचक है, वैसे ही स्त्री के लिये शास्त्र वचनों में आया संस्कार शब्द उसके विवाह का बोध कराता है। "असंस्कृतः", यह पुल्लिंग शब्द "अनुपवीत:", इस अर्थ में आता है, "असंस्कृता" यह स्त्रीलिंग शब्द अविवाहिता अर्थ में आता है। अतः विवाह से भिन्न स्त्रियों का कोई उपनयन संस्कार पृथक नहीं होता। इसीलिये पुरुष को विवाह के पूर्व ही यज्ञोपवीत संस्कार करना चाहिये, जिससे पत्नी भी उपवीती हो जाये। 
संस्कारों के अनुपालन में शुचिता और पवित्रता का विशेष ध्यान रखना होता है। स्त्री के शरीर का निर्माण इस तरह हुआ है कि उसे मास में कुछ दिन (रजोधर्म-मासिक धर्म) के समय अपवित्र दशा में ही रहना पड़ता है। इसी तरह प्रसवकाल में भी वह अपवित्र दशा में रहने के लिये बाध्य होती है। पुरुष के समान स्त्री ब्रह्मचर्य धर्म का पालन रजस्वला होने पर  करने योग्य नहीं होती। अतः उनके लिये उपनयन का विधान नहीं है। 
वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृत:
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोSग्निपरिक्रमा॥
स्त्रियों का वैदिक संस्कार (विवाह विधि) ही है। स्त्रियों के लिये पति सेवा ही गुरुकुल का वास है और घर का काम धंधा ही नित्य का हवन होता है।[मनु स्मृति 2.67] 
For the women nuptial knot-marriage ceremony performed with Vaedic rituals and holy sacrifices in the fire, constitute the Vaedic Sanskar-procedure, sacrament. For them the service of the husband is residence in the Guru Kul and daily routine work is Hawan-sacrifice in holy fire.
There had been women in the past who were highly qualified, learned, enlightened, educated, well versed in warfare, administration, music, singing, dance etc. In ancient India 64 arts & sciences were taught to the women. Still the women were not expected to enchant the Vaedic hymns-Mantr. A woman dedicated to family duties in fact finds no time at all for such things. Her house is called Guru Kul, since it has the elders-Gurus to be looked after. A normal woman-girl acquires the training of house hold chores-duties, systems, procedures prevalent in that family only after joining it after marriage. These days the women are doing all sorts of jobs, without hitch.
मुख्य कर्म तथा विधि :: सबसे पहले अन्य आवश्यक सामग्रियों के अलावा विशेष सामग्रियों यथा कटिसूत्र, नवीन कौपीन, प्रावरण वस्त्र, मौञ्जी आदि की मेखला, संस्कारित यज्ञोपवीत, मृगचर्म, पलाश आदि का दण्ड तथा भिक्षापात्र आदि का संकलन क्र लेना चाहिये। 
सबसे पहले बटुक-माणवक को स्नानादि कराकर अलंकृत करके, आचार्य के पास ले आयें। आचार्य उसे मंत्रपूर्वक कटिसूत्र और कौपीन धारण करायें, मेखला बाँधें, गायत्री मंत्र के साथ माणवक की शिखा बँधवायें और मंत्र के उच्चारण के साथ एक यज्ञोपवीत भी धारण करवायें। तदनन्तर माणवक को मृगचर्म और बिना मंत्रोच्चारण के दण्ड धारण करवायें। आचार्य अपनी अंजलि में जल लेकर माणवक की अंजलि को जल से भरें और माणवक उस जल से सूर्य भगवान् को अर्ध्य प्रदान करे।  
*ॐ तच्चक्षुर्देवहितं शुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतम्॥
उपरोक्त श्लोक के उच्चारण के साथ उससे सूर्य दर्शन और सूर्योपस्थान करायें। तदनन्तर आचार्य माणवक के दक्षिण कंधे के ऊपर से दाहिना हाथ लेजाकर "मम व्रते०" मंत्र द्वारा उसके ह्रदय-छाती का स्पर्श करें। यह क्रिया हृदयालम्भन कहलाती है। तदनन्तर आचार्य माणवक  के अँगूठे सहित दाहिने हाथ को पकड़कर उससे नाम पूछें तथा किसके ब्रह्मचारी हो?, यह प्रश्न करें। आचार्य उसकी रक्षा के हेतु मंत्र पूर्वक उसे प्रजापति आदि देवताओं का संरक्षण प्रदान करें।[अ 5.11] 
गायत्री मंत्र का उपदेश :: तदनन्तर माणवक उपनयन वेदी स्थित अग्नि की प्रदक्षिणा करके आचार्य के उत्तर की ओर बैठता है, आचार्य उपनयन-हवन का कार्य सम्पन्न करते हैं और उसे ब्रह्मचर्य व्रत तथा आचार की शिक्षा प्रदान करते हैं। तदनन्तर आचार्य गायत्री मंत्र का उसके दक्षिण कर्ण में निम्न रीति से उपदेश करते हैं :-
(1). पहली बार गायत्री के प्रथम पाद "भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्" को कहकर माणवक से उसका यथाशक्ति उच्चारण करवाते हैं। पुनः गायत्री मंत्र के द्वितीय पाद "भर्गो देवस्य धीमहि" को सुनाकर उससे उच्चारण करवाते हैं। पुनः गायत्री के तृतीय पाद "धियो यो नः प्रचोदयात्" को सुनाकर उससे उच्चारण करवाते हैं।   
(2). दूसरी बार गायत्री मंत्र की आधी ऋचा "भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि" सुनाकर उससे उच्चारण करवाते हैं। फिर शेष आधी ऋचा "धियो यो नः प्रचोदयात्" को सुनाकर उससे उच्चारण करवाते हैं।   
(3). तीसरी बार में सम्पूर्ण गायत्री मंत्र "भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्" को उसके कान में सुनाकर उससे उच्चारण करवाते हैं। 
इस प्रकार तीन बार के अभ्यास से माणवक को गायत्री मंत्र का उच्चारण प्रायः सहज होने लगता है। यह गायत्री ब्रह्म गायत्री कहलाता है। इस गायत्री मंत्र के द्रष्टा ऋषि विश्वामित्र हैं, इसका गायत्री छन्द है और इसके देवता सविता-सूर्य भगवान् हैं।  
उत्तराङ्ग कर्म :: गायत्री मंत्र दान के अनन्तर माणवक आचार्य को दक्षिणा प्रदान कर उन्हें प्रणाम करता है और आचार्य आशीर्वाद देकर उसका अभिनन्दन करते हैं।
तदनन्तर माणवक उपनयनाग्नि में घी युक्त समिधा प्रदान करता है और हाथों के द्वारा अग्नि को तापकर अपने देह के विभिन्न अंगों में अग्नि का आप्यायन करता है। स्रुवमूल से वेदी से भस्म ग्रहणकर अनामिका अँगुली के द्वारा ललाट, ग्रीवा, दक्षिण स्कन्ध तथा हृदय स्थल पर मंत्र पूर्वक भस्म-त्र्यायुष् धारण करता है। यह कर्म त्रायुष्करण कहलाता है। इससे आयु की वृद्धि होती है। इसका क्रम इस प्रकार है :- 
"ॐ त्र्यायुषम् जमदग्नेः, इति ललाटे", "ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषम्, इति ग्रीवायाम्", "ॐ यद्देवेषु  त्र्यायुषम्, इति दक्षिणांसे", ॐ तन्नो अस्तु  त्र्यायुषम्, इति हृदि"। 
तदनन्तर अग्नि तथा गुरु का अभिनन्दन करना चाहिये। गुरु के अभिवादन के अनन्तर जो विद्या, अवस्था तथा तपोवृद्धजन हों, उनका भी माणवक को उस समय अभिवादन करना चाहिये। 
उसके बाद ब्रह्मचारी बटुक नये पीले कपड़े को गले में झोली की तरह डालकर दण्ड ग्रहण करके भिक्षा की याचना करता है। सबसे पहले ब्रह्मचारी को माता से "भवति भिक्षाम देहि मातः" कहकर भिक्षा माँगनी चाहिये। पुरुषों से "भवन् भिक्षां देहि" कहे। ब्रह्मचारी "स्वस्ति" कहकर भिक्षा ग्रहण करे और प्राप्त भिक्षा को आचार्य को निवेदित करे। अन्त में आचार्य को दक्षिणा प्रदानकर ब्राह्मण भोजन का संकल्प करके अग्नि को विसर्जित करे। 
उपनयन संस्कार के पहले दिन अथवा उपनयन संस्कार के दिन, उपनयन संस्कार करने वाला कुमार का पिता (अथवा उपनयन करने का अधिकारी*1), उस दिन सपत्नीक उपवास रखे। धुले हुए दो कपड़े (धोती और उत्तरीय) धारण करके संध्या वन्दनादि से निवृत्त होकर अल्पना आदि से अलंकृत शुद्ध पवित्र देश में*अपने आसन पर पूर्वाभिमुख बैठ जाये। अपने दाहिनी ओर*पत्नी को बैठा ले और पत्नी के दाहिनी ओर कुमार*(जिसका उपनयन होना है) को बैठा दे। तिलक लगा लें। शिखा बाँध लें*5। रक्षादीप को प्रज्वलित कर लें*6। पूजन सम्बन्धी सभी सामग्रियों को यथास्थान रख लें। दोनों हाथों की अनामिका अँगुलियों में पवित्री धारण कर आचमन करें तथा प्राणायाम कर लें। स्वयं को तथा पूजन सामग्री को निम्न मंत्र से जल छिड़ककर पवित्र कर लें। 
अपवित्रः पवित्रो व सर्वावस्थां गतोऽपि  वा। 
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि
*1पितैवोपनयेत्पुत्रं तदभावे पितुः पिता। 
तदभावे पितुर्भ्राता तदभावेऽपि सोदरः 
पिता पितामहो भ्राता ज्ञातयो गोत्रजाग्रजाः। 
उपानये$धिकारी स्यात्पूर्वाभावे परः परः
पिता, दादा (पिता के पिता), भाई, जाति के मनुष्य, सगोत्री और ब्राह्मण यज्ञोपवीत कराने के अधिकारी हैं। इनमें अनुक्रम से पहले कहे हुए का किसी तरह से लाभ न हो तो पिछले अनुक्रम से आगे के लाभ न होने पर ग्राह्य हैं जैसे कि पिता न होने पर दादा और पिता तथा दादा न होने पर भाई इत्यादि। यह व्यवस्था ब्रह्मण के लिए है।[मनु,षोडश संस्काराः; यज्ञोपवीतम्खंड 111]
क्षत्रिय, वैश्य बालक का उपनयन तो पुरोहित-आचार्य को ही कराना चाहिये क्योंकि उन दोनों को अध्यापन का शास्त्र के तहत अधिकार नहीं है। 
*2पुण्यक्षेत्रं नदीतीरं गुहा पर्वतमस्तकम्। 
तीर्थप्रदेशः सिन्धूनां सङ्गमः पावनं वनम्
उद्यानानि विविक्तानि बिल्वमूलं तटं गिरे:। 
तुलसीकाननं गोष्ठं वृष शून्य शिवालयः
अश्वस्थामलकीमूलं गोशाला जलमध्यतः। 
देवतायतनं कूलं समुद्रस्य निजं गृहम्॥
*संस्कार्य: पुरुषो यापि स्त्री व दक्षिणतः सदा। 
संस्कारकर्ता सर्वत्र तिष्ठे दुत्तरत: सदा॥ 
व्रतबन्धे विवाहे च चतुर्थ्यां सह भोजने। 
व्रते दाने मखे श्राद्धे पत्नी तिष्ठति दक्षिणे*4
शिशुस्त्वन्नप्राशनात्पागाचौलं बालक: स्मृतः। 
कुमारकस्तु विज्ञेयो यावन्मौञ्जीनिबन्धनम्   
  *5सदोपवीतिना भाव्यं  सदा बद्धशिखेन च। 
विशिखो व्यूपवीतश्च यत्करोति न तत्कृतम्॥  
खल्वाटत्वादिदोषेण विशिखश्चेन्नरो भवेत्। 
कौशीं तदा धारयतीति ब्रह्मग्रन्थियुतां शिखाम्॥ 
कार्येयं सप्तभिर्द भिर्दर्भैर्धार्या श्रोत्रे तु दक्षिणे।
*6देवस्य दक्षिणे पाश्र्वे  दीपं दद्याद्यथाविधि। 
दीपं न स्थापयेद्भूमौ घृत तैले न मिश्रयेत्
तदनन्तर हाथ में पुष्प अक्षत लेकर निम्न शान्ति मन्त्रों का पाठ करें :- 
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव यद् भद्रं तन्न आ सुव॥
ॐ गणानां त्वा गणपति ग्वँग् हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वँग् हवामहे निधीनां त्वा निधीपति ग्वँग् हवामहे वसो मम। 
आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥
ॐ अम्बे अम्बिकेऽम्बालिके न मा नयति कश्चन।
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्॥
स्वस्ति-वाचन आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः। 
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे-दिवे॥ 
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो नि वर्तताम्। 
देवानां सख्यमुप सेदिमा वयं देवा न आयुः प्र तिरन्तु जीवसे॥ 
तान् पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्। 
अर्यमणं वरुणं सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत्॥ 
तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत् पिता द्यौः। 
तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम्॥ 
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम्। 
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥ 
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पुषा विश्ववेदाः। 
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥ 
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मयः। 
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह॥ 
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। 
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥ 
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम। 
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥ 
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः। 
विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम॥
कल्याणकारक, न दबनेवाले, पराभूत न होने वाले, उच्चता को पहुँचानेवाले शुभकर्म चारों ओर से हमारे पास आयें। प्रगति को न रोकने वाले, प्रतिदिन सुरक्षा करने वाले देव हमारा सदा संवर्धन करने वाले हों। सरल मार्ग से जाने वाले देवों की कल्याणकारक सुबुद्धि तथा देवों की उदारता हमें प्राप्त होती रहे। हम देवों की मित्रता प्राप्त करें, देव हमें दीर्घ आयु हमारे दीर्घ जीवन के लिये दें। उन देवों को प्राचीन मन्त्रों से हम बुलाते हैं। भग, मित्र, अदिति, दक्ष, विश्वास योग्य मरुतों के गण, अर्यमा, वरुण, सोम, अश्विनीकुमार, भाग्य युक्त सरस्वती हमें सुख दें। वायु उस सुखदायी औषध को हमारे पास बहायें। माता भूमि तथा पिता द्युलोक उस औषध को हमें दें। सोमरस निकालने वाले सुखकारी पत्थर वह औषध हमें दें। हे बुद्धिमान् अश्विदेवो तुम वह हमारा भाषण सुनो। स्थावर और जंगम के अधिपति बुद्धि को प्रेरणा देने वाले उस ईश्वर को हम अपनी सुरक्षा के लिये बुलाते हैं। इससे वह पोषणकर्ता देव हमारे ऐश्वर्य की समृद्धि करने वाला तथा सुरक्षा करने वाला हो, वह अपराजित देव हमारा कल्याण करे और संरक्षक हो। बहुत यशस्वी इन्द्र हमारा कल्याण करे, सर्वज्ञ पूषा हमारा कल्याण करे। जिसका रथचक्र अप्रतिहत चलता है, वह तार्क्ष्य हमारा कल्याण करे, बृहस्पति हमारा कल्याण करे। धब्बों वाले घोड़ों से युक्त, भूमि को माता मानने वाले, शुभ कर्म करने के लिये जाने वाले, युद्धों में पहुँचने वाले, अग्नि के समान तेजस्वी जिह्वावाले, मननशील, सूर्य के समान तेजस्वी मरुत् रुपी सब देव हमारे यहाँ अपनी सुरक्षा की शक्ति के साथ आयें। हे देवो कानों से हम कल्याणकारक भाषण सुनें। हे यज्ञ के योग्य देवों आँखों से हम कल्याणकारक वस्तु देखें। स्थिर सुदृढ़ अवयवों से युक्त शरीरों से हम तुम्हारी स्तुति करते हुए, जितनी हमारी आयु है, वहाँ तक हम देवों का हित ही करें। हे देवो सौ वर्ष तक ही हमारे आयुष्य की मर्यादा है, उसमें भी हमारे शरीरों का बुढ़ापा तुमने किया है तथा आज जो पुत्र हैं, वे ही आगे पिता होनेवाले हैं, सब देव, पञ्चजन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद), जो बन चुका है और जो बनने वाला है, वह सब अदिति ही है, अर्थात् यही शाश्चत सत्य है, जिसके तत्त्वदर्शन से परम कल्याण होता है।[ऋक॰1.89.1-10]
Please refer to :: RIGVED 1.1-100 ऋग्वेद santoshkipathshala.blogspot.com
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ग्वँग् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ग्वँग् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥ 
 यतो यत: समीहसे ततो नो अभयं कुरु। 
शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः  
सुशान्तिर्भवतु। 
ॐ लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः। ॐ उमामहेश्वराभ्यां नमः। 
ॐ वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः। ॐ वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः। ॐ शचीपुरन्दराभ्यां नमः। ॐ मातापितृचरणकमलेभ्यो नमः। ॐ इष्टदेवताभ्यो नमः। ॐ कुलदेवताभ्यो नमः।ॐ ग्रामदेवताभ्यो नमः। ॐ स्थानदेवताभ्यो नमः। ॐ वास्तुदेवताभ्यो नमः।ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः। ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय श्री मन्महागणाधिपतये नम:  
उपरोक्त उच्चारण करके देवों को प्रणाम करें और हाथ में पुष्पाक्षत लेकर निम्न मंत्रों का पाठ करें :-  
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः। 
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायक:॥  
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजानन: 
द्वाद्शैतानि नामानि यः पठेच्छ्रणुयादपि॥  
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा 
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते॥ 
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम् 
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वघ्नोपशान्तये॥ 
अभिप्सितार्थसिद्ध्यर्थं  पूजितो य: सुरासुरै:। 
सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नम:॥ 
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। 
शरण्ये त्र्यम्बिके गौरी नारायणि नमोस्तु ते॥ 
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम् 
येषां हृदिस्थो भगवान् मङ्गलायतनं हरि:॥  
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव
विद्याबलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेङ्न्घ्रियुगं स्मरामि॥ 
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजय: 
येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दन:॥  
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: 
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम॥  
अनन्यास्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते 
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥ 
स्मृतेःसकलकल्याणं भाजनं यत्र जायते 
पुरुषं तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरम्॥  
सर्वेष्वारंभकार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वरा: 
देवा दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दना:॥ 
विनायकं गुरुं भानुं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान्। सरस्वतीं प्रणम्यादौ सर्वकामार्थसिध्दये 
विश्वेशम् माधवं ढुन्धिं दण्डपाणिं च भैरवम्  
वन्दे काशीं गुहां गंगा भवानीं मणिकर्णिकाम्॥ 
हाथ के अक्षत और पुष्प सामने छोड़ दें।
प्रायश्चित, गोदान संकल्प :: उपनयन से पहले गर्भाधान आदि अन्य संस्कारों के न किये जाने से उत्पन्न प्रत्यवायों के परिहार के लिये प्रायश्चित स्वरूप गोदान अथवा गोनिष्क्रय द्रव्य का संकल्प निम्न रीति से करना चाहिये। 
दाहिने हाथ में जल-पुष्प, अक्षत आदि लेकर बोलें :- 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे/क्षेत्रे...षष्टिसंवत्सराणां...मध्ये...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र: सपत्नीक:...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं अस्य कुमारस्य गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमणा न्नप्राशन, चूड़ाकरण, संस्काराणां स्व स्वकालेऽकृतानां कालातिपत्तिदोष परिहारेण  व्रात्यदोषपरिहारद्वारा/उच्छिन्नयज्ञोपवीतसंस्कारपरम्परादोषपरिहारार्थं*7
 उपनयनाधिकारसिद्धि द्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं कृच्छ्रात्मकं प्रायश्चित्तं गोनिष्क्रयदानप्रत्याम्नायेन करिष्ये; कहकर संकल्प छोड़ दें।
हाथ में देवाद्रव्य को ग्रहण कर "देयद्रव्याय नमः" कहकर गंध, पुष्पादि द्वारा उसका पूजन कर लें और निम्न संकल्प करें :- 
ॐ अद्य ममास्य कुमारस्य संकल्पितनानादोषपरिहारार्थं कृच्छ्रप्रायश्चितप्रत्याम्नायभूतगोनिष्क्रयद्रव्यदानद्वारेण उपनयनाधिकारसिद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीतये गोनिष्क्रयद्रव्यं...नाम...गोत्राय...ब्राह्मणाय भवते सम्प्रददे (यदि बाद में देना हो तो दातुमुत्सृज्ये  बोलें)। 
जिन लोगों का जनेऊ निर्धारित समय पर नहीं हुआ, वे व्रात्य दोष परिहार द्वारा शब्द संकल्प में जोड़ लें तथा जिनके पिता का यज्ञोपवीत संस्कार न हुआ हो, वे  *उच्छिन्नयज्ञोपवीतसंस्कारपरम्परादोषपरिहारार्थं शब्द संकल्प में जोड़ लें। 
ऐसा कहकर निष्क्रय द्रव्य ब्राह्मण को दे दें और निम्न प्रार्थना करें :-
गोप्रार्थना :: 
यज्ञसाधनभूता या विश्वस्याघौघनाशिनी। 
विश्वरूपधरो देवः प्रीयतामनया गवा 
संकल्प :: हाथ में जलाक्षतादि लेकर एक साथ तीनों संस्कारों (उपनयन, वेदारम्भ तथा समावर्तन) का संकल्प करें :-
ॐ अद्य...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहं अस्य कुमारस्य (दो बालक हों तो "अनयोः" तथा तीन या तीन से अधिक हों तो संकल्प में "एषां कुमाराणाम्" शब्द बोलना चाहिये)
द्विजत्वसिद्ध्या वेद्याध्ययनाद्यधिकारसिद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीतये उपनयनसंस्कार श्रौतस्मार्तकर्मानुष्ठानाधिकारप्राप्तिपूर्वकब्रह्मवर्चससिद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थ वेदारम्भसंस्कारं ग्रहस्थाश्रमार्हतासिद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थ समावर्तन संस्कार च करिष्ये। 
हाथ का जलाक्षतादि छोड़ दें। पुनः हाथ में जल लेकर निम्न संकल्प करें :-
तत्पूर्वाङ्गत्वेन अस्य कुमारस्य करिष्यमाणोपनयनवेदारम्भसमावर्तनसंस्काराणां विहितं तन्त्रेण गणेशाम्बिकयो: पूजनं स्वस्तिपुण्याहवाचनं मातृकापूजनं वसोर्धारापूजनं आयुष्यमन्त्रजपमाभ्युदयिकश्राद्धं च करिष्ये।
ऐसा संकल्प करके गणेशाम्बिका पूजन, कलश स्थापन, स्वस्ति पुण्याहवाचन, मातृका पूजन, वसोर्धारा पूजन, आयुष्य मंत्र जप तथा सांकल्पिक विधि से आभ्युदयिक श्राद्ध करें। 
उपनयन संस्कार करने की योग्यता प्राप्त करने हेतु गोदान :: उपनयन संस्कार से पूर्व कुमार का पिता स्वयं की उपनयन कर्म में योग्यता प्राप्ति के लिये प्रयाश्चित स्वरूप गोदान (निष्क्रिय द्रव्य दान) का निम्न संकल्प करे :-  
ॐ अद्य मम सकलपापक्षयपूर्वकमस्य कुमारस्य उपनयनकर्मणि मम उपनेतृत्वाधिकारसिद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वर प्रीतये कृच्छ्रत्रयप्रत्याम्नायभूतगोत्रयनिष्क्रयद्रव्यं...गोत्राय...ब्राह्मणाय सम्प्रददे। 
ऐसा संकल्प करके निष्क्रय-द्रव्य ब्राह्मण को अर्पित कर दें। 
गायत्री जप हेतु ब्राह्मण का वरण :: इसके बाद पिता आदि आचार्य गायत्री उपदेश देने का अधिकार प्राप्ति के लिये स्वयं अथवा वृत ब्राह्मण के द्वारा द्वादश सहस्त्र, द्वादशाधिक सहस्त्र अथवा अयुतगायत्री जप करायें। इसके लिये निम्न संकल्प करें और ब्राह्मण का वरण करें :- 
ॐ अध्य मम गायत्र्युपदेशाधिकारसिद्धये...
यथासंख्याकन गायत्रीजपं ब्राह्मणद्वारा कारिष्ये। 
बटुक का प्रवेश :: इसके बाद हाथ में अक्षत और फल लिये हुए बटुक को आचार्य के समीप लायें। बटुक अभी तक मनमाने ढंग से आचरण, भाषण और भक्षण आदि दोषों के परिहार के लिये तथा उपनयन संस्कार की योग्यता सिद्धि के लिये प्रायश्चित स्वरुप गोदान (गोनिष्क्रय द्रव्य) का संकल्प करे :-
ॐ अद्य...गोत्र:...बटुकोऽहं कामचारकामवादकामभक्ष्णादिदोषपरिहारेण स्वस्योपनेयत्वाधिकार सिद्धये कृच्छ्रत्रयप्रत्याम्नायगोत्रनिष्क्रयद्रव्यं...गोत्राय...शर्मणे ब्राह्मणाय सम्प्रददे।    
ब्राह्मण को गोदान (गोनिष्क्रय द्रव्य) अर्पित करें।
बटुक के मुण्डन का संकल्प :: इसके बाद आचार्य बटुक के मुण्डन के लिये दाहिने हाथ में जलाक्षतादि लेकर निम्न संकल्प करें :- 
ॐ अद्य कुमारस्यो पनयना ङ्गभूतं वपनं* (*वपनं तु भोजनात्पूर्वमेव कार्यम्)  करिष्ये।
कहकर  हाथ में लिये जल अक्षत को छोड़ दें। 
इसके बाद बटुक की शिखा को छोड़कर चूड़ाकरण स्नस्कार के अनुसार मुण्डन करायें, स्नान कराकर वस्त्र धारण कराकर पुष्पमाला से अलंकृत करके बैठायें।
ब्राह्मण भोजन संकल्प :: इसके बाद तीन ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिये दाहिने हाथ में जलाक्षतादि लेकर निम्न संकल्प करें :- 
ॐ अद्य अस्य कुमारस्योपनयनाख्ये कर्मणि पूर्वाङ्गत्वेन त्रीन् ब्राह्मणान् भोजयिष्यामि। भोजनपर्याप्तं मिष्टान्नं तन्निष्क्रयद्रव्यं वा दास्ये। 
ऐसा कहकर संकल्प जल छोड़ दें। 
तदनन्तर तीन ब्राह्मणों को भोजन करायें। कुमार को भी क्षार लवण रहित खीर (पय) आदि मधुर भोजन करायें। 
अग्नि स्थापन संकल्प :: इसके बाद आचार्य दाहिने हाथ में जलादि लेकर अग्नि स्थापन (अग्नि को अरणिमन्थन द्वारा प्रकट करने अथवा सुवासिनी द्वारा लाने का विधान है) का संकल्प करें :-
ॐ अद्य अस्मिन्नुपनयनकर्मणि समुद्भवनामाग्ने: स्थापनं करिष्ये। 
कहकर जल अक्षत छोड़ दें।
वेदी निर्माण :: सुविधा की दृष्टि से उपनयन, वेदारम्भ तथा समावर्तन संस्कार के लिये तीन वेदी बनायें और एक साथ तीनों का पंच भूसंस्कार निम्न रीति से कर लें। पहले उपनयन वेदी तदनन्तर वेदारम्भ वेदी और फिर समावर्तन वेदी का संस्कार करें। 
पंच भूसंस्कार :: 
(1). परिसमूहन :- "त्रिभिर्दर्भै: परिसमूह्य तान् कुशानैशान्यां परित्यज्य"। तीन कुशों के द्वारा दक्षिण से उत्तर की ओर वेदी को साफ करें और उन कुशों को ईशान कोण में फेंक दें। 
(2). उपलेपन :- "गोमयोदकेनोपलिप्य"। गाय के गोबर तथा जल से वेदी को लेप दें।  
(3). उल्लेखन या रेखाकरण :- "स्पयेन, स्रुवमूलेन, कुशमूलेन वा त्रिरुल्लिख्य"। स्त्रुवा के मूल से वेदी के मध्य भाग में प्रादेश मात्र (अँगूठे से तर्जनी के बीच की दूरी) लम्बी तीन रेखाएँ पश्चिम से पूर्व की ओर खींचें। रेखा खींचने का क्रम दक्षिण से प्रारम्भ कर उत्तर की ओर  होना चाहिये।    
(4). उद्धरण :- "अनामिकाङ्गुष्ठाभ्यां मृदमुद्घृत्य"। उन खींची गई तीनों रेखाओं से उल्लेखन क्रम से अनामिका तथा अँगुष्ठ के द्वारा थोड़ी-थोड़ी मिट्टी निकालकर बायें हाथ में रखते जायें और फेंक दें।   
(5). अभ्युक्षण या सेवन :- "जलेनाभ्युक्ष्य"। तदनन्तर गँगा आदि पवित्र नदियों के जल के छींटों से वेदी को पवित्र करें। 
अग्नि स्थापन :: इसके बाद सुवासिनी के द्वारा लायी गयी प्रदीप्त, निर्धूम अग्नि की स्थापना उपनयन वेदी पर निम्न मंर द्वारा करें। 
ॐ अग्निं दूतं पुरो हव्यवाहमुप ब्रुवे। देवाँ आ सदयादिह 
अग्नि के ऊपर उसकी रक्षा के लिये कुछ काष्ठ आदि डाल दें और अग्नि प्रज्चलित करें। 
बटुक का संस्कार ::  इसके बाद बटुक को आचार्य के समीप लायें। बटुक आचार्य के दक्षिण भाग में और अग्नि के पश्चिम भाग में आसन पर बैठ जाये। तब आचार्य निम्न मंत्र पढ़कर बटुक को प्रतिष्ठित करें :- 
ॐ मनो जूतिर्जषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमन्तनो त्वरिष्टं यज्ञ  समिमन्दधातु।
विश्वेदेवास इह मादयन्तामों प्रतिष्ठ       
इसके बाद आचार्य बटुक से निम्न वाक्य कहलायें :- ॐ ब्रह्मचर्यगाम्। 
बटुक बोले :- ॐ ब्रह्मचर्यगाम्।  
पुनः आचार्य बटुक से यह कहलावें :- ॐ ब्रह्मचार्यसानि। 
बटुक बोले :-  ॐ ब्रह्मचार्यसानि।
बटुक को कटिसूत्र और कौपीन धारण कराना :: इसके बाद आचार्य मौन होकर बटुक को कटिसूत्र धारण कराये। तदनन्तर निम्न मंत्र बोलते हुए कौपीन वस्त्र धारण कराये :-
 येनेन्द्राय बृहस्पतिवास: पर्यदधामृतम्।  
तेन त्वा परि दधाम्यायुषे दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे 
इसके बाद दो बार आचमन करें*8
*8(1.1). द्विवारं तालुस्पर्शगामिजलप्राशनमात्रम् न तु त्रिरावृत्तहृदयस्पर्शगामिजल प्राशनस्य द्विरावृत्ति:[संस्कार दीपक]
(1.2). "ॐ केशवाय नमः", 'ॐ नारायणाय नमः", 'ॐ माधवाय नमः" कहकर आचमन करें और "हृषिकेशाय नमः" कहकर हाथ धोयें। आचमन का जल तालुमात्र को स्पर्श करे। इसी प्रकार एक बार आचमन और करें। 
मेखला बन्धन :: इसके बाद आचर्य बटुक को खड़ाकर उसके कटि प्रदेश में प्रदक्षिणा क्रम से तीन आवृति करके प्रवर के नियमानुसार तीन या पाँच गाँठ बाँधकर निम्न मंत्र से ब्रह्मण को मूँज की, क्षत्रिय को प्रत्यञ्चा की और वैश्य को शण की मेखला धारण करायें *9। 
ॐ इयं दुरुक्तं परि बाधमाना वर्ण पवित्रं पुनती म ऽआऽगात्। 
प्राणापानाभ्यां बलमादधाना स्वसा देवी सुभगा मेखलेयम्
*9मौञ्जी मेखला त्रिवृता ग्रन्थ यश्च प्रवर संख्यया। 
त्रिवृन्मौञ्जी समा श्लक्ष्णा कार्या विप्रस्य मेखला। 
क्षत्रियस्य तु मौर्वी ज्या वैश्यस्य शणतस्तथा   
शिखा बन्धन ::  प्रणव पूर्वक गायत्री मंत्री से बटुक की शिखा बाँधें। 
ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च। 
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥ 
ॐ सूर्यनारायणाय नमः।
यज्ञोपवीत का अभिमन्त्रण :: इसके बाद निम्न मंत्रों से यज्ञोपवीत का जल से मार्जन करें तथा दस बार गायती मंत्र से उसे अभिमन्त्रित करें। 
ॐ आयो ही ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे 
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः 
तसमा अरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आयो जनयथा च नः
 यज्ञोपवीत धारण विनियोग :: आचार्य हाथ में जल लेकर निम्न प्रकार से विनियोग मंत्र बोलेन :- 
ॐ यज्ञोपवीतमित्यस्य परमेष्ठी ऋषिः त्रिष्टुप्छन्दो लिङ्गोक्ता देवता यज्ञोपवीतधारणे विनियोगः। 
कहकर जल छोड़ें। 
यज्ञोपवीत धारण ::  इसके बाद आचार्य निम्न मंत्र बोलते हुए गणेश जी सहित सभी देवताओं को स्पर्श कराकर बटुक के दक्षिण बहु को ऊपर उठाकर बायें कंधे पर यगोपवीत पहनायें। 
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। 
आयुष्यमग्रय्ं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ 
यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्वयामि।  
आचमन :: बटुक प्रत्येक यज्ञोपवीत धारण करने के बाद "ॐ केशवाय नमः", 'ॐ नारायणाय नमः", 'ॐ माधवाय नमः" कहकर आचमन करें और "हृषिकेशाय नमः" कहकर दो बार आचमन और करे। 
मृगचर्म धारण :: तदनन्तर आचार्य मौन रहकर बटुक को उत्तरीय के रूप में धारण करने का लिये मृगचर्म प्रदान करें। बटुक निम्न मंत्र बोलते हुए उसे यज्ञोपवीत की भाँति उसे धारण करे।  
ॐ मित्रस्य चक्षुर्द्धरुणं बलीयस्तेजो यशस्वी स्थविर समिद्धम्। 
अनाहनस्यं वसनं जरिष्णुः परीदं  वाज्य जिनं दधेऽहम्
दण्ड  धारण :: इसके बाद आचार्य मौन होकर पैर से लेकर मस्तक तक लम्बा पलाश दण्ड बटुक को प्रदान करें। यह दण्ड ब्राह्मण के लिये केशपर्यन्त, क्षत्रिय के लिये ललाट पर्यन्त और वैश्य के लिये नासिका पर्यन्त होता है। बटुक निम्न मंत्र बोलता हुआ उसे ग्रहण करे :-
ॐ यो में दण्डः परापतद्वैहायसोऽधिभूम्याम्। 
तमहं पुनरादद आयुषे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय 
बटुक मंत्र दण्ड को ऊपर उठाये :- 
ॐ उच्छ्रयस्य वनस्पत उर्ध्वो मा पाह्य आऽस्य यज्ञस्योद्च:
अंजलि पूरण ::   इसके बाद आचार्य जल से अपनी अंजलि भरकर निम्न तीन मंत्र पढ़ते हुए जल  बटुक की अंजलि भरे :
ॐ आपो ही ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे॥1॥
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः॥2॥ 
तस्मा अरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः॥3॥
सूर्य दर्शन ::  इसके बाद आचार्य बटुक को सूर्यदर्शन के लिये कहें, "सूर्यमुदीक्षस्व"
बटुक खड़ा होकर आचार्य द्वारा प्रदत्त अंजलिस्थ जल से सूर्य को अर्ध्य प्रदान करे। तत्प्श्चात दोनों हाथ उठाकर  मंत्रों से सूर्योपासना करे :- 
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत: शृणुयाम शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीना: स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्
हृदयालम्भन :: आचार्य बटुक के दाहिने कन्धे के ऊपर से अपना दाहिना हाथ ले जाकर हृदय  स्थल  करे  निम्न मंत्र पढ़े :- 
ॐ मम व्रते ते हृदय दधामि। मम चित्तमनुचित्तं ते ऽ अस्तु॥ 
मम वाचमेकमना जुषस्व। बृहपतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम् 
बटुक परिचय :: इसके बाद आचार्य बालक  दाहिने हाथ के अँगूठे को पकड़कर पूछे :-
को नामासि? तुम्हारा नाम क्या है?
कुमार कहे :- ...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहं बहो३। बटुक शर्मा/वर्मा/गुप्त आदि गोत्र के अपना नाम बताये। 
आचार्य पुनः पूछे :- कस्य ब्रह्मचार्येसि? तुम किसके ब्रह्मचारी हो?
कुमार कहे :- भवतः। आपका।
आचार्य कहे :- ॐ इन्द्रस्य ब्रह्मचार्यसि, अग्निराचार्यस्तवाहमाचार्यः...शर्मन्/वर्मन/गुप्त।
 इसके बाद आचार्य बटुक को पंचभूतों के लिये प्रदान करे। बटुक उन-उन दिशाओं को हाथ जोड़कर निम्न क्रम से प्रणाम करे :- 
ॐ प्रजापतये त्वा परिददामि इति प्राच्याम्। 
ॐ देवाय त्वा सवित्रे परिददामि इति दक्षिणस्याम्। 
ॐ अद्भस्त्वोषधीभ्यः परिददामि इतिप्रतीच्याम्। 
ॐ द्यावापृथिवीभ्यां त्वा परिददामि इत्युदीच्याम्। 
ॐ विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः परिददामि इत्यधः।    
ॐ सर्वेभ्यस्त्वा भूतेभ्यः  परिददामि इत्यूध्र्वम्। 
अग्नि प्रदक्षिणा :: इसके बाद करके बटुक आचार्य के दाहिनी ओर बैठे। 
ब्राह्मण वरण :: इसके पश्चात आचार्य वर्ण सामग्री लेकर*10 ब्राह्मण के वरण का संकल्प करायें :-
ॐ अद्य करिष्यमाणोपनयनहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूप ब्रह्मकर्मकर्तुं...गोत्रम्... शर्माणं ब्राह्मणमेभि: वरणद्रव्यै: ब्रह्मत्वेन भवन्तमहं वृणे। 
वरण सामग्री ब्राह्मण को प्रदान करें। 
*10 प्रत्यक्ष ब्रह्मा जी (ब्राह्मण के रूप में) उपलब्ध न होने पर कुशा से प्रतीकात्मक ब्रह्मा जी की रचना करें :- 
पञ्चाशत्कुशै: ब्रह्मा तदर्धेन तु विष्टरः। दक्षिणावर्तको ब्रह्मा वामावर्तस्तु विष्टरः
उर्ध्व केशो भवेद् ब्रह्मा लम्बकेशस्तु विष्टरः। 
इस वचन के अनुसार पचास कुशा के प्रतीकात्मक ब्रह्मा जी बनाकर ब्रह्मा जी के स्थान पर स्थापित करें।    
ब्राह्मण कहे :- ॐ  वृतोऽस्मि। 
ब्रह्मा जी की प्रार्थना :: इसके पश्चात निम्न मंत्र द्वारा ब्रह्मा की स्तुति करें :- 
ब्रह्मा जी को अग्नि की परिक्रमा कराकर अग्नि के दक्षिण में*11 आसन पर बैठा दें।
*11 उत्तरे सर्वपात्राणि उत्तरे सर्वदेवताः। उत्तरेऽपां प्रणयनं किमर्थं ब्रह्म दक्षिणे
यमो वैवस्वतो राजा वसते दक्षिणां दिशि। तस्य संरक्षणार्थाय ब्रह्मा तिष्ठति दक्षिणे
कुशकण्डिका एवं हवनविधान ::
प्रणीतापात्र  स्थापन :- प्रणीतापात्र को आगे रखकर जल से भर दें। उसको कुशों से ढँककर ब्रह्मा जी का मुँह देखते हुए अग्नि के उत्तर की ओर कुशों के ऊपर रखें। 
अग्नि (वेदी) के चारों ओर कुश आच्छादन-कुश परिस्रण :- इक्यासी कुश लें (इतने कुश न मिलें तो तेरह कुशों को ग्रहण करना चाहिये। उनके तीन-तीन के चार भाग करें। कुशों के सर्वथा अभाव में दूर्वा से भी क्रिया की जा सकती है) उनके बीस-बीस के चार भाग करें। इन्हीं चार भागों को अग्नि के चारों ओर फैलाया जाता है। ध्यान रखें कि इस दौरान हाथ कुश से खाली न रहे। प्रत्येक भाग फैलाने पर हाथ में एक कुश बच जायेगा। इसलिए प्रथम भाग में इक्कीस कुश लें। वेदी के चारों ओर कुश बिछाने का क्रम इस प्रकर है :- कुशों का प्रथम चरण (20+1) लेकर पहले वेदी के अग्निकोण से प्रारम्भ करके ईशानकोण तक उन्हें उत्तराग्र बिछायें। फिर दूसरे भाग को ब्रह्मासन से अग्निकोण तक पूर्वाग्र बिछायें। तदनन्तर तीसरे भाग को नैर्ऋत्य कोण से वायव्य कोण तक उत्तराग्र बिछायें। चौथे भाग को वायव्य कोण से ईशानकोण तक पूर्वाग्र बिछायें। पुनः दाहिने खाली हाथ से वेदी के ईशान कोण से प्रारम्भकर वामावर्त ईशान कोण पर्यन्त प्रदक्षिणा करें।
पात्रा सादन ::  हवन कार्य में प्रयोक्त सभी वस्तुओं तथा पात्रों यथा समूल तीन कुश, उत्तराग्र (पवित्रक बनाने वाली पत्तियों को काटने के लिये), साग्र दो कुशपत्र (बीच वाली सींक निकालकर पवित्रक बनाने के लिये), प्रोक्षणी पात्र (इसके अभाव में दोना या मिटटी का सकोरा), आज्यस्थाली (घी रखने का पात्र), पाँच सम्मार्जन कुश, सात उपनयन कुश, तीन समिधाएँ (प्रादेश मात्र लम्बी), स्त्रुवा, आज्य (घी), यज्ञीय काष्ठ (पलाश आदि की लकड़ी) 256 मुट्ठी चावलों से भरा पूर्णपात्र*12 (चावल से भरा काँस्य पात्र, सुवर्ण शलाका, शुष्क गोमय खण्ड, भिक्षा पात्र आदि को पश्चिम से पूर्व तक उत्तराग्र अथवा अग्नि के उत्तर की ओर पूर्वाग्र रख लें। 
*12  अष्टमुष्टिर्भवेल्किञ्चित्किञ्चिदष्टौ तु पुष्कलम्। 
पुष्कलानि च चत्वारि पूर्णपात्रं विधीयते[रेणुकारिका] 
1 किञ्चित = आठ मुट्ठी, 1 पुष्कल = 64 मुट्ठी, 1 पूर्ण पात्र = 4 पुष्कल (4 X 64 = 256 मुट्ठी) 
पवित्रक निर्माण :: दो कुशों के पत्रों को बायें हाथ में पूर्वाग्र रखकर इनके ऊपर उत्तराग्र तीन कुशों को दाँये हाथ से प्रदेश मात्र दूरी छोड़कर मूल की तरफ रख दें। तदनन्तर दो कुशों के मूल को पकड़कर कुशत्रय को बीच में लेते हुए दो कुश पत्रों को प्रदक्षिणा क्रम में  लपेट लें, फिर दायें से तीन कुशों को मोड़कर बायें हाथ से पकड़ लें  तथा दाहिने हाथ से कुशपत्र द्वय पकड़कर जोर से खींच लें। जब दो पत्तो वाला कुश कट जाये तो उसके अग्रभाग वाला प्रादेशमात्र दाहिनी ओर से घुमाकर गाँठ लगा दें ताकि दो पत्र अलग-अलग न हों। इस तरह पवित्रक बन जायेगा। शेष सबको (दो पत्रों के कटे हुए भाग तथा काटने वाले तीनो कुशों को) उत्तर दिशा में फेंक दें।  
पवित्रक के कार्य तथा प्रोक्षणी पात्र का संस्कार :: पूर्व स्थापित प्रोक्षणी को अपने सामने पूर्वाग्र रखें। प्रणीता में रखे जल का आधा भाग आचमनी आदि किसी पात्र द्वारा प्रोक्षणी पात्र में तीन बार डालें। अब पवित्री के अग्रभाग को बायें हाथ की अनामिका तथा अँगुष्ठ से और मूलभाग को दाहिने हाथ की अनामिका तथा अँगुष्ठ से पकड़कर इसके मध्यभाग के द्वारा प्रोक्षणी के जल को तीन बार उछालें (उत्प्लवन)। पवित्रक को प्रोक्षणी पात्र में पूर्वाग्र रख दें। प्रोक्षणी पात्र बायें हाथ में रख लें। पुनः पवित्रक के द्वारा प्रणीता के जल से प्रोक्षणी को प्रोक्षित करें। तदनन्तर इसी प्रोक्षणी के जल के द्वारा आज्य स्थाली, स्त्रुवा आदि सभी सामग्रियों तथा पदार्थों का प्रोक्षण करें अर्थात उन पर जल के छींटे डालें (अर्थवत्प्रेाक्ष्य)। इसके बाद उस प्रोक्षणी पात्र को प्रणीता पात्र तथा अग्नि में मध्य स्थान (असंचरदश) में पूर्वाग्र रखें।
घी को बर्तन-आज्य स्थली से निकालना :: आज्य पात्र से घी को कटोरे में निकालकर उस पात्र को वेदी के दक्षिण भाग में आग पर रख दें। घी के गरम हो जाने पर एक जलती हुई लकड़ी लेकर घी के बर्तन को ईशान भाग से प्रारम्भ कर ईशान भाग तक दाहिनी ओर घूमाकर आग में डाल दें। फिर खाली बायें हाथ को बाँयीं ओर से घुमाकर ईशान भाग तक ले जायें। यह क्रिया पर्यग्नि करण कहलाती है। 
स्त्रुवा का सम्मार्जन :: दायें हाथ में स्त्रुवा को पूर्वाग्र तथा अधोमुख लेकर आग पर तपायें। पुनः स्त्रुवा को बायें हाथ में पूर्वाग्र ऊर्ध्वमुख रखकर दायें हाथ से सम्मार्जन कुश के अग्रभाग से स्त्रुवा के अग्रभाग का, कुश के मध्य भाग से स्त्रुवा के मध्य भाग का और कुश के मूलभाग से स्त्रुवा के मूलभाग का स्पर्श करें अर्थात स्त्रुवा का सम्मार्जन करें। प्रणीता के जल से स्त्रुवा का प्रोक्षण करें। उसके बाद सम्मार्जन (झाड़ना–बुहारना, साफ़ करना) कुशों को अग्नि में डाल दें। 
स्त्रुवा का पुनः प्रतपन :: अधोमुख स्त्रुवा को पुनः अग्नि में तपाकर अपने दाहिनी ओर किसी पात्र, पत्ते या कुशों पर पूर्वाग्र रख दें। 
घी के बर्तन की स्थापना :: घी के बर्तन को आग से उतारकर अग्नि वेदी के पश्चिम भाग में उत्तर की ओर रख दें। 
घी का उत्प्लवन :: घी के बर्तन को सामने रख लें। प्रोक्षणी में रखी हुई पवित्री को लेकर उसके मूलभाग को दाहिने हाथ के अँगूठे तथा अनामिका से बायें हाथ के अँगूठे तथा अनामिका से पवित्री के अग्रभाग को पकड़कर कटोरे के घी को तीन बार ऊपर उछालें। घी का अवलोकन करें और यदि घी में कोई विजातीय वस्तु हो तो उसे निकलकर फेंक दें।  तदनन्तर प्रोक्षणी के जल को तीन बार उछालें और पवित्री को पुनः प्रोक्षणी पात्र में रख दें।
तीन समिधाओं की आहुति :: ब्रह्मा का स्पर्श करते हुए बायें हाथ में उपयमन (सात) कुशों को लेकर हृदय-छाती पर बायाँ सटाकर, तीन समिधाओं को घी में डुबोकर, मन से प्रजापति देवता का ध्यान करते हुए, खड़े होकर मौन रहते हुए, अग्नि में डाल दें। तदनन्तर बैठ जाएँ।
पर्युक्षण (जलधारा बहाना) :: पवित्रक सहित प्रोक्षणी पात्र के जल को दक्षिण हाथ की अञ्जलि में लेकर अग्नि की ईशान कोण से ईशान कोण तक प्रदक्षिणा क्रम से जलधारा गिरायें। पवित्रक को बायें हाथ में लेकर फिर दाहिने खाली हाथ को उलटे अर्थात ईशान कोण से उत्तर होते हुए ईशान कोण तक ले आयें (इतरथावृत्तिः) और पवित्रक को दायें हाथ में लेकर प्रणीता में पूर्वाग्र रख दें।
अग्नि प्रतिष्ठा :: पूर्व में वेदों में स्थापित अग्नि की निम्न मंत्र से अक्षत छोड़ते हुए प्रतिष्ठा करें :- 
ॐ समुद्भवनामाग्ने सुप्रतिष्ठतो वरदो भव। 
तदनन्तर अग्नि देव का ध्यान करें। 
अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनम्। 
सुवर्णवर्णममलमनन्तं विश्वतोमुखम्॥ 
सर्वतः पाणिपादश्च सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः 
विश्वरूपो महानग्निः प्रणीत: सर्वकर्मसु
ॐ चत्वारि शृंङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्ष सप्त हस्तासो अस्य। 
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्या आविवेश 
ॐ भूर्भुवःस्वः समुद्भवनाम्ने अग्नये नमः। 
सर्वोपचारार्थें गंधाक्षत पुष्पाणि समर्पयामि
कहकर अग्नि का पूजन कर लें।  
अग्नि को काष्ठ छोड़कर तथा वेणु धमनी से अथवा हाथ के माध्यम से फूँककर प्रज्वलित करें (धमनीमन्तरा कृत्वा तृणं वा काष्ठमेव वा। मुखेनोपधमेदग्निं मुखादग्निरजायत॥अग्नेर्वेणुस्पर्शस्तु न कार्यः। न वेणुनाग्निं सस्पृशेत्)। तदनन्तर हवन करें। 
हवन विधि :: पहली आहुति प्रजापति देवता को दी जाती है। तदनन्तर देवराज इन्द्र, अग्निदेव तथा सोमदेव को आहुति का विधान है। इन चार आहुतियों में पहली दो आहुतियाँ आधार नाम वाली हैं और तीसरी-चौथी आहुति आज्य भाग से जानी जाती है। ये चारों ही घी से देनी चाहियें। इस आहुतियों को देते वक्त ब्राह्मण कुश के द्वारा हवनकर्ता के दाहिने हाथ को स्पर्श किये रहे। यह क्रिया ब्रह्मणान्वारब्ध कहलाती है। 
दाहिना घुटना पृथ्वी पर लगाकर स्त्रुवा में घी लेकर, प्रजापति देवता का ध्यान करके निम्न का मन में ही उच्चारण करके प्रज्वलित अग्नि में आहुति दें।
(1). ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। इस श्लोक का उच्चारण करके वेदी के मध्य भाग में आहुति दें। (स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी पात्र में छोड़ें।)
आगे की तीन आहुतियाँ इस प्रकार हैं :-
(2).  ॐ इन्द्राय  स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम। इस श्लोक का उच्चारण करके वेदी के मध्य भाग में आहुति दें। (स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी पात्र में छोड़ें।)
(3).  ॐ अग्नये स्वाहा, इदअग्नये न मम। इस श्लोक का उच्चारण करके वेदी के मध्य भाग में आहुति दें। (स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी पात्र में छोड़ें।) 
(4). ॐ सोमाय  स्वाहा, इदं सोमाय न मम।  इस श्लोक का उच्चारण करके वेदी के मध्य भाग में आहुति दें। (स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी पात्र में छोड़ें।)
नवाहुति ::
(1). ॐ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम। 
 (2).  ॐ भुवः स्वाहा, इदं  वायवे न मम। 
(3). ॐ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम। 
(4). ॐ त्वं नो अग्नि वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः। 
यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषासि प्र मुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा॥ 
इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
(5).  ॐ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। अव इक्ष्व  नो वरुणरराणो वीहि मृडीक सुहवो न एधि स्वाहा इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
(6). ॐ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्वमया असि। 
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज स्वाहा॥ इदमग्नये ऽयसे न मम। 
(7). ॐ ये ते शतं ये सहस्त्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्त। 
तेभिर्नो ऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहाः॥ 
इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विष्वभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च  न मम। 
(8). ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमश्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवनागसोऽअदितिये स्याम स्वाहा॥ इदं वरुणायादित्यायादितये न मम। 
तदनन्तर प्रजापति देवता का ध्यान करके मन में निम्न मंत्र का उच्चारण मौन रहकर करें और आहुति दें। 
(9). ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।  
स्विष्टकृत् आहुति :: इसके बाद ब्रह्मा द्वारा कुश से स्पर्श किये जाने की अवस्था में निम्न मंत्र से घी से स्विष्टकृत् आहुति दें :- 
ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम। 
संस्त्रवप्राशन :: हवन पूर्ण होने पर प्रोक्षणी पात्र से घी दाहिने हाथ में लेकर यत्किञ्चित् पान करें। हाथ धो लें। फिर आचमन करें। 
मार्जन विधि :: निम्नलिखित मंत्र द्वारा प्रणीता पात्र के जल से कुशों के द्वारा अपने सर पर मार्जन करें। 
ॐ सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु। 
इसके बाद निम्न मंत्र से जल नीचे छोड़ें :- 
ॐ दुर्मित्रियास्तस्मै योस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः।  
पवित्रप्रतिपत्ति ::
पूर्व में स्थापित पूर्ण पात्र में द्रव्य-दक्षिणा रखकर निम्न संकल्प करके दक्षिणा सहित पूर्ण पात्र ब्राह्मण-पुरोहित जी को प्रदान करें :-
ॐ अद्य उपनयनाङ्गहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदं पूर्णपात्रं सदक्षिणाकं प्रजापतिदैवतं...गोत्राय...शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे।
ब्रह्मा (ब्राह्मण-पुरोहित जी) "स्वस्ति" कहकर उस पूर्णपात्र को ग्रहण कर लें। 
प्रणीताविमोक :: प्रणीता पात्र को ईशानकोण में उलटकर रख दें। 
मार्जन :: पुनः कुशा द्वारा निम्न मंत्र से उलटकर रखे गए प्रणीता के जल से मार्जन करें :-
ॐ आप: शिवाः शिवतमा: शान्ता: शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्। 
तदनन्तर पहले बिछाए हुए कुशाओं को जिस क्रम से बिछाये गए थे, उसी क्रम से उठाकर घी में भिगोए और निम्न मंत्र का उच्चारण कर अग्नि में डाल दे :- 
ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित। 
मनसस्पत इमं देव यज्ञ स्वाहा वाते धाः स्वाहा
कुश में लगी ब्रह्मग्रंथि को खोल दें। 
कुमार का अनुशाशन :: इसके बाद आचार्य कुमार को उपदेश प्रदान करें:-
आचार्य कुमार से कहें :- "ब्रह्मचार्यसि" (हे बालक!तुम मेरे ब्रह्मचारी हो)।
बटुक कहे :- "असानि" (गुरुदेव! मैं आपका ब्रह्मचारी हूँ।)  
आचार्य कहें :- "अपोऽशान" (तुम सर्वदा अपोशान विधि से ही अन्न-भक्षण करना) 
बटुक कहे :- "अश्नानी" (गुरुदेव! में अपोशान विधि से ही अन्न ग्रहण करूँगा अर्थात आचमन करके ही भोजन करूँगा)। 
आचार्य कहें :- "कर्म कुरु" (ब्रह्मचारी कर्म करो)
बटुक कहे :- "करवाणि" गुरुदेव!मैं आज्ञा का पालन करूँगा-कर्म करूँगा)। 
आचार्य कहें :- "मा दिवा सुषुप्था" (तुम दिन में शयन मत करना)।
बटुक कहे :- "न स्वपानि" (गुरुदेव! में दिन में शयन नहीं करूँगा)। 
आचार्य कहें  :- "वार्च यच्छ" (तुम वाणी पर संयम रखना)। 
बटुक कहे :- "यच्छानि" (गुरुदेव! में अपनी वाणी पर संयम रखूँगा)। 
आचार्य कहें :- "समिधमाधेहि" (तुम समिधा लाओ)। 
बटुक कहे :-   "आदधानि " गुरुदेव! मैं समिधाधन करुँगा)।
आचार्य पुनः कहें :-"अपोऽशान" (तुम सर्वदा अपोशान विधि से ही अन्न-भक्षण करना) 
बटुक कहे :- "अश्नानी" (गुरुदेव! में अपोशान विधि से ही अन्न ग्रहण करूँगा अर्थात आचमन करके ही भोजन करूँगा)। 
लग्नदान :- इसके बाद बटुक गायत्री मंत्र ग्रहण में अधिकार प्राप्ति के लिये लग्नदोष की शान्ति के लिये दान का निम्न संकल्प करे :- 
ॐ अद्य कुमारस्य सावित्रीग्रहणलग्नात्...स्थानस्थितै: दुष्टग्रहै: सूचितदुष्टफलनिवृत्तिपूर्वकशुभफलप्राप्तये आदित्यादिनवग्रहाणां  प्रीतये च इदं सुवर्णनिष्क्रियीभूतं द्रव्यं आचार्याय सम्प्रददे। 
ऐसा कहकर दैवज्ञ ब्रह्मण को दक्षिणा प्रदान करें। 
देवपूजन :: आचार्य एक काँसे की थाली में चावल बिछाकर ओंकार, व्यहृति पूर्वक गायत्री के अक्षर सहित गणेश जी और कुल देवता को सुवर्ण शलाका अथवा कुशा से लिखकर बटुक के द्वारा निम्न संकल्प पूर्वक उनका पूजन करायें :-
ॐ अद्य...गोत्र:...शर्मा मम ब्रह्मवर्चससिद्धयर्थं वेदाध्ययनाधिकारसिद्धयर्थं गायत्र्युपदेशाङ्गविहितं गायत्रीसावित्रीसरस्वतीपूजनपूर्वकमाचार्य पूजनं गणपतिपूजनञ्च करिष्ये। 
गणपति पूजन :: 
ॐ गणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे निधीनां त्वा निधिपति हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥   
ॐ भूभुर्वः स्वः सिद्धिबुद्धिसहिताय गणपतये नमः। गणपतिमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समपर्यामी॥ 
अक्षत, पुष्प, चन्दन चढ़ायें। 
गायत्री पूजन ::
ॐ ता सवितुर्वरेण्यम*13 चित्रामाऽहं वृणे सुमतिं विश्वजन्याम्।
 यामस्य कण्वोअदुहत्प्रपीना सहस्त्रधारां पयसा महिङ्गाम् 
ॐ भूभुर्वः स्वः गायत्र्यै नमः गायत्रीमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समपर्यामी।
अक्षत, पुष्प, चन्दन चढ़ायें।
*13 सर्वत्र तु वरेण्यं स्यात् जलकाले वरणियम्। गायत्री मंत्र के जप के समय वरेण्यं की जगह वरणियम् उच्चारण करना चाहिये। अतः मंत्रोपदेश में वरेण्यं के वरणियम् का भी उपदेश करना चाहिये। 
सावित्री पूजन :: निम्न मंत्र से सावित्री पूजन करें :- 
ॐ सवित्रा प्रसवित्रा सरस्वत्या वाचा त्वष्ट्रा रूपैः पूष्णा पशुभिरिन्द्रेणास्मै बृहस्पतिना ब्रह्मणा वरुणेनौजसाग्निना तेजसा सोमेन राज्ञा दशम्या प्रस्तु: प्र सर्पामी। 
ॐ भूभुर्वः स्वः सावित्र्यै नमः सावित्रीमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समपर्यामी।
अक्षत, पुष्प, चन्दन चढ़ायें।
सरस्वती  पूजन :: 
ॐ पावका नः सरस्वती  वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धियावसुः। 
ॐ भूभुर्वः स्वः सरस्वत्यै नमः सरस्वतीमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समपर्यामी।
अक्षत, पुष्प, चन्दन चढ़ायें।
गुरु पूजन :: 
ॐ बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु। 
यद्दीदयच्छवस  ऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्
ॐ भूभुर्वः स्वः गुरुवे  नमः, गुरुमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समपर्यामी।
अक्षत, पुष्प, चन्दन चढ़ायें।
गायत्रीमंत्रोपदेश :: इसके बाद अग्नि कुण्ड के समीप उत्तर-पश्चिमाभिमुख बैठा हुआ बटुक आचार्य के दोनों पैर*14 स्पर्श करे। आचार्य बटुक के अभिमुख होकर एकान्त में गायत्री मंत्र का उपदेश दें। गुरु बटुक को वस्त्र से ढँककर-आच्छादित*15 करके निम्न क्रम से गायत्री का उपदेश करें। 
गायत्री उपदेश हेतु विनियोग :: आचार्य हाथ में जल लेकर विनियोग मंत्र पढ़ें-
प्रणवस्य ब्रह्मा ऋषि:, दैवी गायत्री छन्द:, परमात्मा देवता, व्यह्रतीनां प्रजापतिर्ऋषि: गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्च्छन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवताः तत्सवितुरिति विश्वामित्रऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवता सर्वेषां माणवकोपदेश विनियोगः। 
कहकर जल भूमि पर छोड़ दें।  
गायत्री उपदेश  :- बटुक को उपदेश देते समय आचार्य पहले गायत्री का प्रथम पाद, बाद में आधी ऋचा और उसके बाद व्याहृतिसहित सम्पूर्ण मंत्र का उपदेश दें। इस प्रकार दाहिने कान में तीन बार गायत्री मन्त्रोपदेश देना चाहिये। यथा-
प्रथम बार :: 
प्रथम पाद :: ॐ भूभुर्वः स्वः तत्सवितुवरेण्यम्।  
द्वितीय पाद :: भर्गो देवस्य धीमहि। 
तृतीय पाद :: धियो यो नः प्रचोदयात्।  
द्वितीय बार :: 
प्रथम आधी ऋचा :: ॐ भूभुर्वः स्वः तत्सवितुवरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि। 
द्वितीय आधी ऋचा :: धियो यो नः प्रचोदयात्।  
आचार्य बटुक से इसका उच्चारण करायें। 
तृतीय बार :: तीसरी बार गायत्री का उपदेश एक साथ दें। 
ॐ भूभुर्वः स्वः तत्सवितुवरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि  धियो यो नः प्रचोदयात्।  
इस प्रकार तीसरी बार सम्पूर्ण गायत्री सुनाकर यथाशक्ति बटुक से उच्चारण करायें। 
*14 ब्रह्मारम्भेSवसाने च पादौ ग्राह्यौ गुरो: सदा। 
संहत्य हस्तावध्येयं स हि ब्रह्माञ्जलि: स्मृत:॥[मनु स्मृति 2.71]
नित्य वेदारम्भ करने से पहले और बाद में गुरु के चरणों को छूना चाहिये। हाथों को जोड़े हुए ही पढ़ें इसी को ब्रह्माञ्जलि कहते हैं। 
The disciple-student should touch the feet of his teacher-Guru before the beginning of the lesson and at the end of the lecture. One should do this with folded hands and this procedure is called Brahmanjali-acceptance mode.
व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरो:। 
सव्येन सव्य: स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिण:॥[मनु स्मृति 2.72]
उलटे हाथों से, (कैंची की मुद्रा में) गुरु के बायें हाथ से बायाँ और दाहिना हाथ से दाहिना पैर छूना चाहिये। 
The disciple should touch the feet of the Guru with crossed hands in such a way that his left hand touches the teacher's left foot and the right hand touches Guru's right foot.
*15 उपदेशं तु गायज्या  वाससाऽच्छादयेद् बतुकम्। 
परिसमूहन :: इसके बाद ब्रह्मचारी अग्निकुण्ड के पश्चिम की ओर बैठकर घी में डूबी हुई  लकड़ियों-समिधाओं अथवा पाँच शुष्क गोमय पिण्ड लेकर निम्न मंत्रों का उच्चारण करता हुआ हवन करे :-
(1).  ॐ अग्ने सुश्रवः सुश्रवसं मा कुरु। 
(2).   यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रुवा असी। 
(3).   एवं मा सुश्रवः सौश्रवसं कुरु। 
(4).   यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा असि। 
(5).   एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयासम्।
अग्निपर्युक्षण तथा समिदाधान :: इसके बाद प्रदक्षिणा क्रम से ईशान से उत्तर तक जल से अग्नि का प्रोक्षण करके एक समिधा को घी में डुबोकर खड़े होकर निम्न मंत्र को पढ़कर अग्नि में एक आहुति प्रदान करे :-
ॐ अग्नये समिधमाहार्ष वृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिधस्य एवमहमायुषा मेधया वर्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिन्धे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णुर्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्व्यनादो भूयासस्वाहाः।  
इसी मंत्र से घृताक्त समिधा के द्वारा दो आहुतियाँ और दें। 
तदनन्तर पूर्वरीति से "अग्नेः सुश्रव" उपरोक्त 5 मन्त्रों द्वारा सूखी समिधाओं अथवा शुष्क गोमय पिण्ड से पाँचआहुतियाँ दें। 
पुनः पूर्ववत् जल से अग्नि का प्रोक्षण करें तथा अग्नि में हाथ सेंककर निम्न मंत्रों से मुख पर हाथ फेरें :- 
ॐ तनूपा ऽ अग्नेऽसि तन्वं में पाहि। 
ॐ आयुर्दा अग्नेस्यायुर्मे देहि।  
ॐ वर्चोदा अग्निऽसि वर्चो में देहि।  
ॐ अग्ने यन्मे तन्वा ऊनं तन्म आपृण।  
ॐ मेधां मे देवः सविता आदधातु।   
 मेधां मे देवी सरस्वती दधातु।   
ॐ मेधामश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ। 
सर्वांग स्पर्श :: इसके बाद निम्न मंत्र से ब्रह्मचारी अपने सम्पूर्ण शरीर पर हाथ फेरे :-
ॐ अङ्गानि च म आप्यायताम्। 
इसके बाद निम्न मंत्रों से यथानिर्दिष्ट अंगों का स्पर्श करे :- 
ॐ वाक् च म आप्यायताम्। 
मुँह का स्पर्श करें। 
ॐ प्राणश्च म आप्यायताम्। 
दोनों नासिका रंध्रों का स्पर्श करें। 
ॐ चक्षुश्च म आप्यायताम्। 
दोनों नेत्रों का स्पर्श करें। 
ॐ श्रोतञ्च म आप्यायताम्। 
क्रम से दाहिने और बायें कान का स्पर्श करें। 
ॐ यशो बलं च म म आप्यायताम्। 
दोनों भुजाओं का दाहिने से बायें और बायें से दाहिने का परस्पर एक साथ स्पर्श करें। तदनन्तर जल का स्पर्श करें। 
त्र्यायुष्करण :: तत्प्श्चात आचार्य स्त्रुवा से भस्म लेकर दायें हाथ की अनामिका के अग्रभाग से निम्न मंत्रों से बटुक के निर्दिष्ट अंगों में भस्म लगायें :- 
ॐ त्र्यायुषं जमदग्नेः - ललाट-माथे पर लगायें। 
ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषम् - ग्रीवा पर लगायें। 
ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषम् - दक्षिण बाहुमूल पर लगायें।  
ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम् - हृदय-छाती पर लगायें। 
अग्नि तथा आचार्य का अभिवादन :: तदनन्तर ब्रह्मचारी गोत्र प्रवर पूर्वक नामोच्चारण करता हुआ अग्नि तथा गुरु आदि को निम्न रीति से प्रणाम करे। 
अग्ने त्वामभिवादये...गोत्रः...प्रवरान्वितः...शर्माहं भोः। 
कहकर अग्नि को प्रणाम करे।  
बटुक अपने दाहिने हाथ से गुरु के दाहिने चरण का और बायें हाथ से बायें चरण का स्पर्श करते हुए बोले :- 
त्वामभिवादये...गोत्रः...प्रवरान्वितः...शर्माहं भोः। 
कहकर आचार्य को प्रणाम करे। 
आशीर्वाद :: आचार्य निम्न वाक्य कहकर आशीर्वाद दें :- 
आयुष्मान् भव सौम्य श्रीशर्मन्/वर्मन/गुप्त।  
बटुक अन्य श्रेष्ठजनों का भी वन्दन करे। 
भिक्षा ग्रहण :: तदनन्तर ब्रह्मचारी भिक्षापात्र लेकर दण्ड धारणकर सर्वप्रथम माता के पास जाये और निम्न वाक्य का उच्चारण कर भिक्षा माँगे :-
ब्राह्मण ब्रह्मचारी कहे :- भवति भिक्षां देहि मातः। 
क्षत्रिय ब्रह्मचारी कहे :- भिक्षां भवति देहि मातः। 
वैश्य ब्रह्मचारी कहे :- देहि भिक्षां भवति मातः। 
भिक्षा ग्रहण करने के बाद ब्राह्मचारी कहे :-स्वस्ति। 
इसके बाद पुनः "भवन् भिक्षां देहि" कहकर अन्य लोगों से भिक्षा माँगे। प्राप्त भिक्षा को यह कहते हुए गुरु को दे :- 
भो गुरो इयं भिक्षा मया लब्धा।
आचार्य की "भुङ्क्ष्व" अनुमति पाकर ब्रह्मचारी भिक्षा को स्वीकार करे। 
अग्नि पूजन :: इसके बाद गन्धाक्षत पुष्प छोड़ते हुए समुद्भवनामक अग्नि का पूजन करें :- 
ॐ भूर्भुवः स्वः समुद्भवनामाग्नये नमः समुद्भवनामाग्निं पूजयामि, सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि  समर्पयामि। 
अग्नि विसर्जन :: निम्नलिखित मंत्र से अग्नि पर अक्षत छोड़ते हुए विसर्जन करें :- 
गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थाने परमेश्वर। यत्र ब्रह्मादयो देवास्तत्र गच्छ हुताशन॥
ब्रह्मचारी के लिये नियमोपदेश :: इसके बाद आचार्य ब्रह्मचारी के लिये नियमों का उपदेश कर्रें :- "अधःशायी स्यात्", ब्रह्मचारी को जमीन पर सोना चाहिये। 
अक्षारालवणाशी स्यात्", क्षार, लवण, मधु और माँस नहीं खाना चाहिये। 
"समावर्तनपर्यन्तं दण्ड धारणम्"समावर्तन संस्कार तक दण्ड धारण करना चाहिये। "अग्निपरिचरणम्", अग्नि की उपासना करनी चाहिये। 
"ग्रत्यहं समिदाहरणम्", प्रतिदिन समिधा लानी चाहिये। 
"गुरुशुश्रूषणम्", गुरु की सेवा करनी है। 
"भिक्षाचर्या कुर्यात्", भिक्षावृत्ति से रहना चाहिये। 
मधु, मांसम्, मज्जनम्, ऊपर्यासनम्, स्त्रीगमनम्, अनृतवदनम्, अदत्तादानम् एतानि वर्जयेत् :- मधु-शहद, माँस, शरीर मलकर स्नान, उच्चासन, असत्य भाषण, दूसरे के द्वारा बिना दिये कुछ ग्रहण करना आदि का वर्जन-त्याग करना चाहिये। 
ताम्बूलम्, अभ्यङ्गम्, अञ्जम्, आदर्शम्, छत्रोपानहौ, कांस्यपात्रभोजनादीनि च वर्जयेत् :- ताम्बूल-पान, उबटन (साबुन, इत्र-फुलेल, तेल), काजल, दर्पण, छाता, जूता तथा कांस्य पात्र-बर्तन में भोजन आदि का त्याग करे। 
आचार्येणाहूत उत्थाय प्रति श्रणुयात् :- आचार्य के बुलाने पर शीघ्र उठकर उनके वचन सुने। 
शयानं चेत् आसीनः आसीनञ्चेत्तिष्ठन्तं तिष्ठन्तं चेदभिक्रामन्, अभीक्रामत्न चेद् अभिधावन् प्रतिवचनं दद्यत् :-  आचार्य के बुलाने पर लेटे हुए शिष्य द्वारा बैठकर, बैठे हुए शिष्य द्वारा खड़े होकर, खड़े हुए शिष्य द्वारा चलते हुए, चलते हुए शिष्य द्वारा दौड़ते हुए उत्तर देना चाहिये। 
स एवं वर्तमानः इहैव स्वर्गे वसति :- इस प्रकार का आचरण करने वाला ब्रह्मचारी यहाँ रहता हुआ भी मानो उत्तम लोक में निवास करता है। 
विष्णु-भगवत्स्मरण :: हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर भगवान् विष्णु का ध्यान करते हुए समस्त कर्म उन्हें समर्पित करें :- 
ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। 
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥ 
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्  
यत्पादपङ्कज स्मरणात् यस्य नामजपादपि। 
न्यूनं कर्मं भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्
ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। ॐ साम्बसदाशियाय नमः। ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 
हरी ओम ॐ तत्सत्। 

प्रत्यवाय :: वह पाप या दोष जो शास्त्रों में बताये गए हैं, नित्य कर्म के न करने से होता है। उलटफेर-भारी परिवर्तन। जो नहीं है, उसका न उत्पन्न होना या जो है उसका न रह जाना।विघ्न-बाधा। पाप। दूरदृष्टि, दुर्भाग्य।
*अथ कालस्वरुप सौरी शान्तिः।
अथ कर्ता यजमानः जन्मनः सकाशात् नवतितमवर्षे प्राप्ते, जन्मदिने, जन्मनक्षत्रे; चन्द्रानुकूल्ये शुभेऽहनि वा, कृताभ्यंगः, कृतनित्यक्रियः, कृताग्निसिद्धिः, शुभे सवस्त्रपीठासने उपविश्य, यज्ञोपवीती, आचम्य, पवित्रपाणिः प्राणानायम्य़, पंचगव्यप्राशनादिना शरीरशुद्धिं विधाय, सुवासिन्या कृतमंगलतिलकः, देवतागुर्वादींश्चाभिवाद्य, ब्राह्मणैर्दत्तानुज्ञः स्वासने उपविश्य, पुनः आचम्य, प्राणानायम्य, देशकालौ संकीर्त्य, श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं अमुकगोत्रः अमुकशर्माऽहं मम जन्मनः सकाशात् नवतितम-वर्षे प्राप्ते सूचित संभाव्यमान नानाविधरोग दृष्टिमान्द्य छायावैकृत्य भार्यापुत्रादिवियोग धनधान्यपशुक्षयादि अरिष्ट निरसनार्थं जन्मराशिजन्मलग्नाभ्यां सकाशात् गोचरेण अनिष्टस्थानस्थित आदित्यादि नवग्रहाणां उत्पन्नोत्पत्स्यमानपीडापरिहारपूर्वकं सर्वसुखावाप्तिधनधान्याद्यभिवृद्धयर्थं समस्तमंगलप्राप्त्यर्थं देशकालाद्यनुसारतः विद्वदुपदिष्टेन विधिना यथासंभृतसंभारैः यथाशक्ति यथाज्ञानतः सग्रहमखां शौनकोक्तां कालस्वरुपसौरीं शान्तिं करिष्ये। तदंगं स्वस्ति-पुण्याहवाचनं, मातृकापूजनं, नांदीश्राद्धं आचार्यवरणं च करिष्ये। तत्रादौ निर्विघ्नतासिद्धयर्थं महागणपतिपूजनं करिष्ये। इति संकल्प्य, तानि कृत्वा वृताचार्यः स्थंडिलसमीपमुपविश्य, आचम्येत्यादि० श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं अमुकगोत्रोत्पन्नेन अमुकशर्मणा यजमानेन संकल्पितकालस्वरुप-सौरी शान्तिकर्मणि वृतोऽहं यथाज्ञानतः देशकालाद्यनुसारेण एभिर्ब्राह्मणैः सह आचार्यकर्म करिष्ये। तदंगं शरीरशुद्धयर्थं पुरुषसूक्त-जप-पूर्वकम् भू-शुद्धयादि करिष्ये, आदौ निर्विघ्नार्थं महागणपति-स्मरणं च करिष्ये इत्यादि। गौरसर्षपविकिरणादि प्रादेशान्तं कर्म कृत्वा, स्थण्डिलात् पूर्वभागे वेदीं प्रकल्प्य, (अत्र केचन सर्वतोभद्रस्य (लिंगतोभद्रस्य वा) सर्वसाधारणत्वात् पीठे सर्वतोभद्रं विरच्य, तत्र ब्रह्मादि-मंडल-देवताः आवाह्य, संपूज्य, तण्डुलौराच्छाद्य, तदुपरि कलशं संस्थाप्य, वरुणं संपूज्य, कर्णिकायां देवतास्थापनमिच्छन्ति।) महीद्यौरित्यादिना कलशं संस्थाप्य, पूर्णपात्रे, अष्टदले कर्णिकायां कृताग्न्युत्तारणपूर्विकायां सुवर्णप्रतिमायां तच्चक्षुर्देवहितं मंत्रेण कालस्वरुपं सूर्यं प्रतिष्ठाप्य, तद्यथा-तच्चक्षुरित्यस्य मैत्रावरुणिर्वसिष्ठः कालस्वरुपः सूर्यः पुर उष्णिक् कालस्वरुपसूर्यावाहने विनियोगः।
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं शुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतम्॥[अ० 5.11] 
अस्यां सुवर्णमय्यां मूर्तौ प्रधानदेवतां कालस्वरुपसूर्यं साङ्गं सपरिवारं सायुधं सशक्तिकं आवाहयामि। ॐ भूः कालस्वरुपसूर्यं आवा०। ॐ भुवः कालस्वरुपसूर्यं आवा०। ॐ स्वः कालस्वरुपसूर्यं आवा०। ॐ भूर्भुवः स्वः कालस्वरुपसूर्यं आवा०। तदुत्तरतः त्र्यंबकेति मंत्रेण त्र्यंबकं आवाह्य, तदुत्तरतः नक्षत्रदेवतां नाममंत्रेणावाह्य, काण्डानुसमयेन पदार्थानुसमयेन वा सर्वान् संपूज्य, अभिषेकसमये सौरसूक्तमंत्रान् पठेत्। प्रधानदेवतासमीपे तन्मंत्रं (तच्चक्षुर्देवहितं०) अष्टोत्तरशतं अष्टाविंशतिवारं वा जप्त्वा, स्थंडिलान्तिकमेत्य, अद्येत्यादि० संकल्पित, कालस्वरुप, सौरी, शान्तिकर्मणि स्थंडिलादिसकलं कर्म करिष्ये। वरदनाममग्निं प्रतिष्ठाप्य, ध्यात्वा, ध्यानान्ते देवतोत्तरवेद्यां आदित्यादिनवग्रहानावाह्य, संपूज्य, देवदानवसंवादे० इति वरुणप्रार्थनान्तं कृत्वा स्थंडिलसमीपमेत्य समिद् द्वयेत्यन्वादध्यात्। चक्षुष्यन्तं उक्त्वा ग्रहानन्वादध्यात्। अत्र प्रधानं देवं कालस्वरुपं सूर्यं, तच्चक्षुरितिमंत्रेण समिध्, आज्य, चरु, पायस, द्रव्यैः चतुर्भिः प्रतिद्रव्यं अष्टोत्तरसहस्र अष्टोत्तरशतसंख्याकाभिराहुतिभिर्वा, मृत्युंजयत्र्यंबकं घृताक्ततिलद्र्व्येण सहस्रसंख्याकाहुतिभिः नक्षत्रदेवतां नाममंत्रेण अष्टाविंशति-अष्टसंख्याकाभिर्वाज्यद्रव्येण यक्ष्ये। शेषेण स्विष्टकृतमिति चक्षुष्यन्तं कर्म कृत्वा यजमानेन द्रव्यत्यागे कृते, ग्रहहोमं प्रधानदिहोमं विधाय स्विष्टकृतात् प्राक् विविधसूक्तपाठजपः कार्यः। तानि व सूक्तानि- श्रीसूक्तं, रुद्राध्यायं, आयुष्यमंत्रान् जपेत्। ते च ऋक् द्वयं एष वां देवा परावतो सप्तदशर्चं,  आ नो भद्रा दशर्चं, इति वा इति आयुष्यमिति च सूक्तं पठेत् ततः जप्त्वा वेदपारायणं कार्यम्। तदसंभवे पुरुषसूक्तं अग्निमीळे इति नवर्चं सूक्तं च पठेत्। ततः स्विष्टकृतादिप्रायश्चित्तहोमान्ते बलिदानं पूर्णाहुतिं च कृत्वा, संस्रावादिहोमशेषं समाप्य, स्थापितकलशोदकैः सकुटुंबं बंधुवर्गयुतं यजमानं अभिषिंचेत्। तत्र अभिषेकमंत्राः-समुद्रज्येष्ठा० शं न इंद्राग्नी० परं मृत्यो० एष वां देवा ऋग्द्वयं० परावतो सप्तदशर्चं, स्वादिष्टयेति दशर्चं, अक्षिम्यां षटभिः, यज्जाग्रत इति षण्णाम्। ग्रहमंत्रमुख्यदेवतामंत्रेत्यादीनां सर्वेषां अभिषेके विनियोगः।
(अभिषेकमंत्राणां बाहुल्यात् यथावकाशं यथाशक्ति पाठ:।)
ततो यजमानः अभिषेकवस्त्रं परित्यज्य, धृतशुक्लांबरः, अभिषेकवस्त्रं आचार्याय दद्यात्। विभूतिं धृत्वा आ नो भद्रा इति महाशांतिजपपूर्वकं देवतोत्तरपूजने कृते, मार्कंडेयादीन् प्रार्थयेत। ततः आयुर्वृद्धयै सतिलगुडसंमिश्रं दुग्धं प्राशयेत्। तत्र मंत्रः "सतिलं गुडसंमिश्रं अंजल्यर्धमितं पयः। मार्कंडेयात् वरं लब्ध्वा पिबाम्यायुर्विवृद्धये"। इति पिबेत्। 
ततः कांस्यपात्रे घृतमासिच्य, तत्र ‘रुपं रुपं’ इति मंत्रेण आज्यावलोकनं कृत्वा, तत्पात्रं सदक्षिणाकं ब्राह्मणाय दत्त्वा, गो-भू - तिल - हिरण्यादि दशदानानि कानिचित् प्रत्यक्षाणि, कानिचित् निष्क्रयद्वारा सर्वाणि वा निष्क्रयरुपेण ब्राह्मणेभ्यः दत्त्वा, तथा शतगुंजापरिमितं सुवर्णं, तन्निष्क्रयं वा विभज्य विभज्य ब्राह्मणेभ्यो दत्त्वा, अशक्तौ शतसर्षपतुलितं वा ततः विसर्जितदेवतापीठदानान्ते   तिलदानं च कृत्वा, तत्र मंत्रः  "तिलाः कश्यपसंभूतास्तिलाः पापहराः शुभाः। तिलपात्रप्रदानेन अतः शान्तिं प्रयच्छ मे"॥ इति । 
पुत्रादिकैः पुष्पमालावस्त्रादिना यजमानं (अहेर) सत्कृत्य पुरंध्रीभिः (सुवासिनीभिः) आचारात् यजमानस्य यावन्ति वयोवर्षाणि तावद्भिर्वा नीराजनैः (दीपैः) नीराजयित्वा, ब्राह्मणेभ्यः दक्षिणां दत्त्वा, तेभ्यः आशीर्वचनं गृहीत्वा, ब्राह्मणभोजनसंकल्पं कृत्वा, देवानभिवाद्य, कर्म परमेश्वरार्पणं कुर्यात्। द्विराचम्य, त्रिवारं विष्णुस्मरणं कुर्यात् इति।
इति कालस्वरुप सौरी शान्तिः। 
श्रीनारायणमुनिरुवाच :-
ब्रह्मचर्यं च गार्हस्थ्यं वानप्रस्थश्च सन्मते। 
सन्न्यास इति चत्वार आश्रमाः परिकीर्तिताः॥3.1॥ 
त्रैवर्णिकस्य चत्वार आश्रमा विहिता इमे।
तुरीयमाश्रमं तेचिन्नेच्छन्ति क्षत्रवैश्ययोः॥3.2॥
कीर्त्यमानान्मया तत्र द्विजातीनां यथोचितम्। 
ब्रह्मचर्याश्रमस्थानां धर्मानादौ श्रृणु द्विज॥3.3॥
जातकर्मादिभिः पूर्वं संस्कारैः संस्कृतोऽपि सन्। 
उपनीत्यैव लभते द्विजत्वं द्विजबालकः॥3.4॥
गर्भाष्टमेऽष्टमे वाब्दे ब्राह्मणस्योपनायनम्। 
एकादशे क्षत्रियस्य वैश्यस्य द्वादशे स्मृतम्॥3.5॥
तीक्ष्णबुद्धेर्ब्राह्मणस्य पञ्चमेऽब्देऽपि शस्यते। 
अष्टमे क्षत्रियस्यापि वैश्यस्य नवमे तथा॥3.6॥
ब्रह्मवर्चसकामो वा विप्रोऽब्दे पञ्चमेऽर्हति। 
बलार्थी मेखलां क्षत्रं षष्ठेऽर्थार्थ्यष्टमे च विट्॥3.7॥
संस्कारेष्विह सर्वेषु द्विजत्वप्रापको ह्ययम्। 
मौञ्जीबन्धनस्ततः सम्यक् कर्तव्यः स यथाविधि॥3.8॥
विप्रं वसन्ते क्षितिपं निदाघे वैश्यं धनान्ते व्रतिनं विदध्यात्।
माघादिशुक्रान्तिमपञ्चमासाः साधारणा वा सकलद्विजानाम्॥3.9॥
न जन्ममासे न च जन्मधिष्ण्ये न जन्मकालीयदिने विदध्यात्।
ज्येष्ठे न मासि प्रथमस्य सूनोस्तथा सुताया अपि मङ्गलानि॥3.10॥
जन्ममासे तिथौ भे च विपरीतदले सति। 
कार्यं मङ्गलमित्याहुर्गर्गभार्गवशौनकाः॥3.11॥
बृहस्पतेर्बलं दृा कर्तव्यमुपनायनम्। 
तस्मिंस्तु निर्बले कुर्याच्चैत्रे मीनगते रवौ॥3.12॥
स्वशाखेशबलं दृा लग्नशुद्धिं विलोक्य च। 
स्वस्वशाखानुसारेण पूर्वा व्रतमादिशेत्॥3.13॥
पितैवोपनयेत्पुत्रं तदभावे पितुः पिता। 
तदभावे पितुर्भ्राता तदभावेऽपि सोदरः॥3.14॥
शुद्धकार्पाससूत्रेण समेनात्रुटितेन च। 
स्थाने पवित्रे सङ्खयातं षण्णवत्याङ्गुलीषु च॥15॥
त्रिवृदूर्ध्ववृतं कार्यं तन्तुत्रयमधोवृतम्। 
त्रिवृतं चोपवीतं स्यात्तस्यैको ग्रन्थिरिष्यते॥3.16॥
यज्ञोपविते द्वे धार्ये श्रौते स्मार्ते च कर्मणि। 
तृतीयमुत्तरीयार्थे वस्त्राभावे तदिष्यते॥3.17॥
उपवीतं बटोरेकं द्वे तथेतरयोः स्मृते। 
एकमेव यतीनां स्यादित्याहुरपि केचन॥3.18॥
उपवीतं क्रमेण स्यात्कार्पासं शाणमाविकम्। 
सर्वेषां वा द्विजातीनां कार्पासं तत्प्रशस्यते॥3.19॥
पृष्ठदेशे च नाभ्यां च धृते यद्विन्दते कटिम्। 
तद्धार्यमुपवीतं स्यान्नातिलम्बं नचोच्छ्रितम्॥3.20॥
विप्रस्य मेखला मौञ्जी मौर्वी राज्ञो विशस्तथा। 
शाणा सा प्रवरग्रन्थिस्त्रिवृच्छ्लक्ष्णा समा मता॥3.21॥
पालाशो दण्ड आमौलेर्बैल्वो वा ब्राह्मणस्य तु।
न्यग्रोधजः खादिरो वा ललाटान्तो नृपस्य च॥3.22॥
नासान्तः पैलवो दण्डो वैश्यस्यौदुम्बरोऽपि वा। 
ऐणं रौरवमाजं च विप्रादेरजिनं मतम्॥3.23॥
उपविश्योत्तरे चाग्नेराचार्यः प्राङ्गमुखः सुधीः। 
प्रत्यङ्गमुखाय बटवे सावित्रीं समुपादिशेत्॥3.24॥
प्रदक्षिणं परीत्याग्निमुपस्थाय दिवाकरम्। 
दण्डाजिनोपवीताढयो बटुर्भिक्षेत्समेखलः॥3.25॥
ब्राह्मणक्षत्रियविशामादिमध्यावसानतः। 
भैक्षचर्या क्रमेण स्याद्बवच्छब्दोपलक्षिता॥3.26॥ 
यावत्तु नोपनयनं क्रियते वै द्विजन्मनः। 
कामचेष्टोक्तिभक्ष्यस्तु तावद्बवति सुव्रत॥3.27॥ 
कृतोपनयनः सम्यक् ब्रह्मचारी स कीर्त्यते। 
द्विजश्च सोऽथ प्रयतो वसेग्दुरुगृहे व्रती॥3.28॥
मेखलाजिनवासांसि जटादण्डकमण्डलून्। 
बिभृयादुपवीतं च दर्भपाणिर्यथाविधि॥3.29॥
ईदृशो ब्रह्मचारी च शौचाचारसमन्वितः। 
आहूतोऽध्ययनं कुर्याद्वीक्षमाणो गुरोर्मुखम्॥3.30॥
आरम्भेऽन्ते च शिरसा पादयोः प्रणमेग्दुरोः। 
छन्दांसि समधीयीत त्यक्त्वाऽनध्यायवासरान्॥3.31॥
गुरुश्च ताडयित्वापि विद्यानध्यापयेत्स तम्। 
औद्धत्यनाशनार्थत्वान्न दोषः शिष्यताडने॥3.32॥
अधोभागे शरीरस्य शनैः कुर्वीत ताडनम्। 
नोत्तमाङ्गे न हृदये दोषभागन्यथा भवेत्॥3.33॥
लालयेत्पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्। 
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्॥3.34॥
ब्रह्मचारी गुरुं नित्यं विद्याकामो जितेन्द्रियः। 
सेवेत तद्ब्रह्मचर्यं चतुष्पादित्युदीर्यते॥3.35॥
आचार्यमेव पितरौ ज्ञात्वा द्रोहादिवर्जितः। 
शिष्यवृत्त्याऽप्नुयाद्विद्यां पादोऽयं प्रथमोऽस्य हि॥3.36॥
गुरोः पत्नीं च पुत्रं च विनयान्मानयन् शुचिः। 
जितेन्द्रियोऽभ्यसेद्विद्यां द्वितीयः पाद इत्ययम्॥3.37॥
उपकारं गुरुकृतं निजजाडयविनाशनम्। 
जानन्सेवेत तं प्रीत्या तृतीयः पाद इत्ययम्॥3.38॥
आचार्यस्य प्रियं कुर्याद्वाङ्गमनःकायकर्मभिः। 
प्राणैर्धनैश्चाप्रमत्तः पादस्तुर्योऽयमस्य च॥3.39॥ 
ज्ञानं सत्यं तितिक्षा हीरमात्सर्यं धृतिस्तपः। 
शमो दमोऽनसूया च दानं यज्ञो गुणा अमी॥3.40॥
कामः क्रोधः शोकमोहौ तृष्णेर्ष्या चाकृपा स्पृहा। 
लोभोऽसूया जुगुप्सा च मानो दोषो इमे मताः॥3.41॥
त्यक्त्वा दोषान् द्वादशैतान् युक्तो द्वादशभिर्गुणैः। 
वेदाभ्यासं प्रकुर्वीत वेदार्थं च विचिन्तयेत्॥3.42॥
सायं प्रातरुपासीत वह्निं चार्कं समाहितः। 
प्रातःसन्ध्यां जपं कृत्वा गुर्वादीन्प्रणमेत्स च॥3.43॥
अभिवादनशीलस्य वृद्धसेवारतस्य च। 
आयुर्यशो बलं बुद्धिर्वर्धतेऽहरहोऽधिकम्॥3.44॥
सायं प्रातश्चरेद्बैक्षं पवित्रद्विजवेश्मसु। 
निवेद्य गुरुवे तच्च भुञ्जीत तदनुज्ञाया॥3.45॥
अनारोग्यमनायुष्यमस्वर्ग्यं चातिभोजनम्। 
अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्तत्परिवर्जयेत्॥3.46॥
नैकस्यान्नं समश्नीयान्नित्यं वर्णी ह्यनापदि। 
ब्राह्मणः काममद्याच्च श्राद्धे व्रतमपीडयन्॥3.47॥
तिष्ठेत्कृताञ्जलिर्भक्त्या गुरोरभिमुखं सदा। 
त्वमत्रोपविशेत्युक्तस्तस्यासीत पुरः स तु॥3.48॥
गुरोश्च चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत्। 
नचैवास्यानुकुर्वीत गतिभाषितचेष्टितम्॥3.49॥
गुरोर्निन्दा भवेद्यत्र सद्य उत्थाय तत्स्थलात्। 
कर्णौ पिधाय गच्छेद्वा शिक्षयेन्निन्दकान्प्रभुः॥3.50॥
दूरस्थो नार्चयेदेनं न क्रुद्धो नान्तिके स्त्रियाः। 
नचैवास्योत्तरं ब्रूयादुच्चशब्देन कर्हिचित्॥3.51॥
उदकुम्भं कुशान्पुष्पं समिधोऽस्याहरेत्सदा। 
मार्जनं लेपनं नित्यमङ्गानां च समाचरेत्॥3.52॥
नास्य निर्माल्यशयने पादुकोपानहावपि। 
आक्रामेदासनं छायां मञ्चकं वा कदाचन॥3.53॥
साधयेद्दन्तकाष्ठादीन्कृत्यं चास्मै निवेदयेत्। 
अनापृच्छय न गच्छेत्तं क्व पि स प्रियकृग्दुरोः॥3.54॥
पादौ प्रसार्य पुरतो गुरोर्नासीत कर्हिचित्। 
आस्फोटनं चाट्टहासं न कुर्यात्तत्र च स्वपिम्॥3.55॥
धावन्तमनुधावेच्च गच्छन्तं गुरुमन्वियात्। 
नोदाहरेच्च तन्नाम ब्रूयान्नापृष्टमुत्तरम्॥3.56॥
जितेन्द्रियः स्यात्सततं वश्यात्माऽक्रोधनः शुचिः। 
प्रयुञ्जीत सदा वाचं मधुरां गुरुसन्निधौ॥3.57॥
स्त्रीणां कथायाः श्रवणं कीर्तनं प्रेक्षणं तथा। 
सङ्कल्पं क्रीडनं ताभिर्निश्चयं गुह्यभाषणम्॥3.58॥
वर्जयेत्प्रयतो नित्यं तत्स्पर्शं तु विशेषतः। 
स्त्रीसङ्गिसंगं च बटुर्न कुर्यात्कर्हिचिद्व्रती॥3.59॥
गुरुवग्दुरुपत्नी च पूज्या च गुरुपुत्रकः। 
अवमानं न कुर्वीत तयोरपि कदाचन॥3.60॥
अभ्यञ्जनं स्नपनं च गात्रसम्भर्दनं तथा। 
गुरुपत्न्या न कुर्वीत केशानां च प्रसाधनम्॥3.61॥
गुरुपत्नीति युवतिर्नाभिवाद्या हि पादयोः। 
कुर्वीत वन्दनं भूमावसावहमिति ब्रुवन्॥3.62॥
अङ्गस्पर्शो न कर्तव्यो गुरुपत्न्या अपि क्व चित्। 
तेनापि व्रतभङ्गः स्याद्यतोऽत्र ब्रह्मचारिणः॥3.63॥
पितृष्वसा मातृष्वसा भ्रातृजाया च मातुली। 
गुरुपत्नीव मान्याश्च जननी भगिनी तथा॥3.64॥
गुरोस्त्यागो न कर्तव्यः कर्हिचिद्ब्रह्मचारिणा। 
कामाल्लोभाच्च मोहाच्च तं त्यक्त्वा पतितो भवेत्॥3.65॥
गुरोरप्यवप्तितस्य कार्याकार्यमजानतः। 
उत्पथं प्रतिपन्नस्य मनुस्त्यागं समब्रवीत्॥3.66॥
लौकिकं वैदिकं वापि ज्ञानमाध्यात्मिकं यतः। 
आददीत न तं क्व पि गुरुं शिष्योऽवमानयेत्॥3.67॥ 
अहेरिव गणाद्बीतः सौहित्यान्मरणादिव। 
राक्षसीभ्य इव स्त्रीभ्यः स विद्यामधिगच्छति॥3.68॥
द्यूतं पुस्तकशुश्रूषा वाटिकासक्तिरेव च। 
स्त्रियस्तन्द्रा च निद्रा च विद्याविघ्नकराणि षट्॥3.69॥
विद्यामेवमधीयानो ब्रह्मचारी गुरोर्गृहे। 
वसंस्त्रिषवणस्नयी कुसङ्गं परिवर्जयेत्॥3.70॥
पुष्पस्रजश्चदनं च रसासक्तिं च कुङ्कुमम्। 
सुगन्धिद्रव्यसम्पर्कं वर्जयेद्दन्तधावनम्॥3.71॥
अभ्यङ्गं चाञ्जनं छत्रमादर्शालोकनं तथा। 
व्रती स वर्जयेद्दयूतं गीतवादित्रनर्तनम्॥3.72॥
प्राणिहिंसां च पैशुन्यं कामं लोभं भयं तथा। 
वर्जयेन्मधु मांसं च ह्यभक्ष्यं लशुनादिकम्॥3.73॥
सन्ध्ययोश्च दिवास्वापं निशश्चाद्यन्तयामयोः। 
वर्जयेच्च प्रयत्नेन परीवादमुपानहौ॥3.74॥
अनृत्यदर्शी च भवेद्ग्राम्यगीतं च सर्वथा। 
शृणुयान्न व्रती धीरो नानृतं च वदेद्वचः॥3.75॥
न मञ्चे शयनं कुर्यान्न च ताम्बूलभक्षणम्। 
तत्तत्कालोचितं सर्वं वेदिकं विधिमाचरेत्॥3.76॥
उपाकर्म च वेदानां कुर्वीत हि यथाविधि। 
बह्वृचः श्रावणे मासि पूर्वा श्रवणाख्यभे॥3.77॥
यजुर्वेदी च तन्मासे पौर्णमास्यां विधानतः। 
मध्याह्ने तत्प्रकुर्वीत हस्तर्क्षे तत्र सामगः॥3.78॥
सङ्क्रान्तिर्ग्रहणं वापि यदि पर्वणि जायते। 
श्रावणे हस्तयुक्तायां पञ्चम्यां वा तदिष्यते॥3.79॥
अर्धरात्रादधस्ताच्चेत् सङ्क्रन्तिर्ग्रहणं भवेत्। 
उपाकर्म न कुर्वीत परतश्चेन्न दोषकृत्॥3.80॥
पौषमासस्य रोहिण्यामष्टकायामथापि वा। 
जलान्ते छन्दसां कुर्यादुत्सर्गं च द्विजो बहिः॥3.81॥
उपाकर्मदिनेऽप्येके वेदोत्सर्गं प्रकुर्वते। 
कर्मणोरुभयोरत्र ऋषीणां पूजनं स्मृतम्॥3.82॥
एवमांचारसम्पन्नमात्मवन्तमदाम्भिकम्। 
वेदशास्त्रपुराणानि गुरुरध्यापयेत्स तम्॥3.83॥
बहुनापि च कालेन परीक्ष्य ब्रह्मचारिणम्। 
उपादिशेग्दुरुर्ज्ञानं भूत्वा निष्कपटोऽखिलम्॥3.84॥
वेदं वेदौ च वेदान्वा सोऽप्यधीत्य यथारुचि। 
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा समावर्तेत च द्विजः॥3.85॥ 
गृहं वनं वा प्रविशेत्प्रव्रजेद्वा विलोक्य सः।
मन्दत्वं मध्यमत्वं च स्ववैराग्यस्य तीव्रताम्॥3.86॥
चतुर्विधो ब्रह्मचारी कथ्यते द्विजसत्तम। 
सावित्रः प्राजापत्यश्च ब्राह्मो नैष्ठिक इत्यसौ॥3.87॥ 
प्राप्योपनयनं सम्यग्गायत्रीं प्रपठन्व्रतम्। 
दिनत्रयं धारयेद्यः प्रथमः स प्रकीर्तितः॥3.88॥
द्वितीयस्तु पठन्वेदं व्रती संवत्सरं भवेत्। 
आवेदग्रहणाद्वापि द्वादशाब्दान्व्रती परः॥3.89॥
यावज्जीवं चतुर्थस्तु तिष्ठेग्दुरुकुले व्रती। 
उत्तरोत्तरतः श्रैष्ठयं ज्ञोयमेतस्य निश्चितम्॥3.90॥
अज्ञानान्मांसमिश्रं वा सुरासंसृष्टमेव वा। 
पुनः संस्कारमर्हन्ति भुक्त्वाऽन्नादि द्विजातयः॥3.91॥
सेवमानो गुरुं सोऽपि व्रतं स्वं पालयेत् दृढम्। 
अज्ञानाज्ज्ञानतो वापि तच्च्युतौ निष्कृतं चरेत्॥3.92॥ 
अकृत्वा भैक्षचरणमसमिध्य च पावकम्। 
अनातुरः सप्तरात्रमवकीर्णिव्रतं चरेत्॥3.93॥
असद्बैक्षभुजौ वान्ते नग्नस्त्रीदर्शने तथा। 
नग्नस्वापेऽभिनिर्मुक्ताभ्युदितत्वे दिवाशये॥3.94॥
श्मशानाक्रमणेऽश्वाद्यारोहे पूज्यव्यतिक्रमे। 
विना यज्ञोपवितं च भोजनादिक्रियाकृतौ॥3.95॥
प्रतिग्रहे च मण्यादेर्वृक्षसर्पादिघातने। 
एतेष्वन्यतमे दोषे जाते तच्छुद्धये द्विजः॥3.96॥ 
स्नत्वाचम्योत्तमे देशे कृत्वा त्रीन्प्राणसंयमान्। 
अष्टोत्तरसहस्रं तु प्रजपेद्वेदमातरम्॥3.97॥
प्रायश्चित्तं हि सर्वत्र व्रतभङ्गे समीरितम्। 
तच्चाग्रेऽहं वदिष्यामि सर्वेषां हि हितावहम्॥3.98॥
नैष्ठिकानां वनस्थानां यतीनां ब्रह्मचारिणाम्। 
नाशौचं कीर्तितं सद्बिः शावं सौत्यं च सन्मते॥3.99॥ 
आचार्यं स्वमुपाध्यायं मातरं पितरं गुरुम्। 
निर्हृत्य च व्रती प्रेतं सद्यः स्ननेन शुध्ध्यति॥3.100॥
न त्यजेत्सूतके कर्म ब्रह्मचारी स्वकं क्व चित्। 
सव्रतो ह्येव कुर्वीत तेषां पिण्डोदकक्रियाम्॥3.101॥
एते मया ते द्विजवर्य! धर्मा आद्याश्रमस्थस्य यथावद्दुक्ताः।
समासतोऽथाऽह्निककर्म सर्वं वदामि शुद्धं विहितं द्विजानाम्॥3.102॥
इति श्रीसत्सङ्गिजीवने नारायणचरित्रे धर्मशास्त्रे पञ्चमप्रकरणे धर्मोपदेशे ब्रह्मचर्याश्रमधर्मनिरूपणनामा तृतीयोऽध्यायः॥3॥ 
This chapter over the sacred thread of the celibate has been completed today, i.e., 09.12.2019, at Noida-INDIA and presented to the pious, virtuous, righteous readers by the grace of the Almighty, Maa Saraswati, Ganpati Maharaj and Bhagwan Ved Vyas. Let the readers progress in all walks of life.
    
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा