Thursday, September 25, 2014

SACRED THREAD (1) यज्ञोपवीत-जनेऊ :: HINDU PHILOSOPHY (4.11) हिन्दु दर्शन

SACRED THREAD (1)

यज्ञोपवीत-जनेऊ
HINDU PHILOSOPHY (4.11) हिन्दु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो कि दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है और विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। 
यज्ञोपवीत (यज्ञ+उपवीत) एक संस्कृत शब्द है। द्विज-उच्च वर्णों में, उपनयन एक ऐसा संस्कार है, जिसमें ब्रह्मचारी को जनेऊ पहनाकर  विद्यारंभ कराया जाता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। कच्चे सूत से बना यह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया यह बन्धन उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ कहलाता है। 
उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुण्डन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। यह सूत से बना वह पवित्र धागा, जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कँधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। 
यज्ञोपवीत बौद्धिक विकास के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक उन्नति का इस संस्कार में पूर्णरूपेण समावेश है। इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। "यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं" अर्थात् यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है अत्यन्त पवित्र है। प्रजापति ने स्वाभाविक रूप से इसका निर्माण किया है। यह आयु को बढ़ानेवाला, बल और तेज प्रदान करनेवाला है। गुरुकुल परम्परा में प्राय: आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न किया जाता था।
यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ यज्ञोपवित संस्कार कहलाता है।
यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है।
आदित्य, वसु, रूद्र, वायु,अग्नि, धर्म, वेद, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दायें कान में होने के कारण उसे दायें हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। पवित्र दायें कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता।
आजकल गौ माँस खाने वाले मुसलमान-राहुल, सोनिया, ममता जैसे लोग राजनैतिक लाभ के लिये जनेऊ गले में लटकाकर हिन्दुओं को बरगलाने में लगे रहते हैं और बहुसँख्यक हिन्दु इन घोर कलियुगी पतित लोगों को चुनाव जितवाने में लगे हुए हैं। 
उद्धृते दक्षिणे पाणावुपवीत्युच्यते द्विजः। 
स्वये प्राचीन आवीती निवीती कण्ठसञ्जने॥ 
दाहिने हाथ के नीचे और बायें कंधे के ऊपर यज्ञोपवीत के रहने से द्विज उपवीती-सव्य और इसके विलोम रहने पर प्राचीनावीती-अपसव्य कहलाता है और कण्ठ में जनेऊ धारण करने से निवीती कहलाता है।[मनु स्मृति 2.63] 
Wearing of the sacred thread over the left shoulder below the right hand titled the Dwij-upper castes as Upviti  or Savy and contrary to it; from right shoulder and below left hand titled him Prachinviti or Upsavy and wearing of the sacred thread round the neck titled him Niviti.
मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम्। 
अप्सु प्रास्य विनष्टानि गृहीणातान्यानि मन्त्रवत्॥
मेखला, मृगछाला, दण्ड, यज्ञोपवीत और कमण्डलु; इनमें से कोई चीज छिन्न-भिन्न हो जाये तो जल में विसर्जन करके मन्त्रोचारण पूर्वक दूसरा धारण करना चाहिये।[मनु स्मृति 2.64]  
If any of the 5 items girdle, the spotted deer skin, staff, sacred thread and his Kamandlu (water-pot) is damaged; he (Brahman or celibate) must throw it into water and accept the new by reciting sacred chants-Mantr.
आठ वर्ष की आयु में बालक का यज्ञोपवित संस्कार किया जाता है। यज्ञोपवीत-जनेऊ के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है।
विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों से बना जनेऊ धारण किया जाता है। विद्या-अध्ययन के साथ ही यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है। यह ब्रह्मचर्य आश्रम का शुभारम्भ है। 
जनेऊ का सीधा सम्बन्ध मनुष्य के स्वास्थ्य से है। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर दो बार लपेटा जाता है। इससे कान के पीछे की दो नसें जिनका संबंध पेट की आँतों से है, उन पर दबाव पड़ने से वे पूरी तरह खुल जाती हैं। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ मल-मूत्र के वेग को नियंत्रित करता है, जिससे कब्ज, अम्लीयता, पेट रोग, मूत्रेन्द्रिय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। 
मल विसर्जन के पश्चात ही हाथों आदि को धोकर जनेऊ को उतारा जाता है। उसकी बाद मुँह हाथ-पैर धोकर कुल्ला-दातुन किया जाता है, जिससे दाँत, मुँह, पेट आदि की कृमि, जीवाणुओं से रक्षा हो जाती है। 
जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है। जनेऊ धारण करने वाले जातक को लघु शंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए। दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता। 
जनेऊ धारण करने वाले को हृदय रोग नहीं होते। 
शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दायें कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक  स्थित होती है।यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकुचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लाँघ पाता।कंधे पर यज्ञोपवीत है, इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकुचन होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है।
यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियाँ-गाँठें लगायी जाती हैं । ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। 
अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। 
बिना यज्ञोपवीत धारण कये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। 
जातक को दो बार जनेऊ धारण कराया जाता है। पहला बताता है कि उसे दो व्यक्तियों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करनी है। पहला उसका स्वयं का अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का और दूसरा पत्नी पक्ष का। जनेऊ में 9-9 धागे होते हैं जो बताते हैं कि मनुष्य पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9-9 ग्रहों का भार ये ऋण है, उसे वहन करना है।  
9-9 धागों के अंदर से 1-1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें पायेंगे की इनमें 27-27 धागे होते हैं अर्थात् व्यक्ति को पत्नी और पति पक्ष के 27-27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है। 
अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 
27+9 = 36 होता है,जिसको एकल अंक 
बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है,जो 
एक पूर्ण अंक है। 
अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 
2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने से बना है,एकाकी रहना जीवन नही है।
1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है।  
जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर 
लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है। 
''यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत'' 
अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें।
इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है।
दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस,गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है।
मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है। 
दाएं कान को ब्रह्म सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। 
यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है।
यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रह्म सूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है।
बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है।
किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है।
अंडवृद्धि के सात कारण हैं। 
मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है।
दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। 
इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।
जनेऊ के लाभ ::
"ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम"। 
ब्राह्मण ब्रह्म (ईश्वर) तेज से युक्‍त हो। 
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥
जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। इसे उपनयन संस्कार भी कहते हैं। उपनयन का अर्थ है, पास या सन्निकट ले जाना। किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। हिन्दू समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म। कालांतर में इस संस्कार को दूसरे धर्मों में धर्मांतरित करने के लिए उपयोग किया जाने लगा। हिन्दू धर्म में प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। हर हिन्दू जनेऊ पहन सकता है बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे।[पार. गृ.सू. 2.2.11]
जनेऊ धारण के कारण :: हिन्दू धर्म के 24 संस्कारों में से एक 'उपनयन संस्कार' के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है जिसे 'यज्ञोपवीत संस्कार' भी कहा जाता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। प्राचीनकाल में पहले शिष्य, संत और ब्राह्मण बनाने के लिए दीक्षा दी जाती थी। इस दीक्षा देने के तरीके में से एक जनेऊ धारण करना भी होता था। प्राचीनकाल में गुरुकुल में दीक्षा लेने या संन्यस्त होने के पूर्व यह संकार होता था।
यज्ञोपवीत को व्रतबन्ध भी कहते हैं। व्रतों से बंधे बिना मनुष्य का उत्थान सम्भव नहीं। यज्ञोपवीत को व्रतशीलता का प्रतीक मानते हैं। इसीलिए इसे सूत्र (सहारा) भी कहते हैं। धर्म शास्त्रों में यम-नियम को व्रत माना गया है। बालक की आयुवृद्धि हेतु गायत्री तथा वेदपाठ का अधिकारी बनने के लिए उपनयन (जनेऊ) संस्कार अत्यन्त आवश्यक है।
दीक्षा देना :- दीक्षा देने का प्रचलन वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ किया था। प्राचीनकाल में पहले शिष्य और ब्राह्मण बनाने के लिए दीक्षा दी जाती थी। माता-पिता अपने बच्चों को जब शिक्षा के लिए भेजते थे तब भी दीक्षा दी जाती थी। हिन्दू धर्मानुसार दिशाहीन जीवन को दिशा देना ही दीक्षा है। दीक्षा एक शपथ, एक अनुबंध और एक संकल्प है। दीक्षा के बाद व्यक्ति द्विज बन जाता है। द्विज का अर्थ दूसरा जन्म। दूसरा व्यक्तित्व। 
अन्य धर्मों में यह संस्कार :- हिन्दू धर्म से प्रेरित यह उपनयन संस्कार सभी धर्मों में मिल जाएगा। यह दीक्षा देने की परंपरा प्राचीनकाल से रही है, हालांकि कालांतर में दूसरे धर्मों में दीक्षा को अपने धर्म में धर्मांतरित करने के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। इस आर्य संस्कार को सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश भिन्न-भिन्न रूप में अपनाया जाता रहा है। मक्का में काबा की परिक्रमा से पूर्व यह संस्कार किया जाता है।
सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध की प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। जैन धर्म में भी इस संस्कार को किया जाता है। वित्र मेखला अधोवसन (लुंगी) का सम्बन्ध पारसियों से भी है। 
जनेऊ पहनने के लाभ :: जनेऊ को हर उस हिन्दू को धारण करना चाहिए जो मांस और शराब को छोड़कर सादगीपूर्ण जीवन यापन करना चाहता है। हम यहां जनेऊ पहनने के आपको लाभ बता रहे हैं। जनेऊ के नियमों का पालन करके आप निरोगी जीवन जी सकते हैं।
(1). जीवाणुओं-कीटाणुओं से बचाव :- जो लोग जनेऊ पहनते हैं और इससे जुड़े नियमों का पालन करते हैं, वे मल-मूत्र त्याग करते वक्त अपना मुँह बंद रखते हैं। इसकी आदत पड़ जाने के बाद लोग बड़ी आसानी से गंदे स्थानों पर पाए जाने वाले जीवाणुओं और कीटाणुओं के प्रकोप से बच जाते हैं।
(2). गुर्दे की सुरक्षा :- यह नियम है कि बैठकर ही जलपान करना चाहिए अर्थात खड़े रहकर पानी नहीं पीना चाहिए। इसी नियम के तहत बैठकर ही मूत्र त्याग करना चाहिए। उक्त दोनों नियमों का पालन करने से किडनी पर प्रेशर नहीं पड़ता। जनेऊ धारण करने से यह दोनों ही नियम अनिवार्य हो जाते हैं।
(3). हृदय रोग व ब्लडप्रेशर से बचाव :- शोधानुसार मेडिकल साइंस ने भी यह पाया है कि जनेऊ पहनने वालों को हृदय रोग और ब्लडप्रेशर की आशंका अन्य लोगों के मुकाबले कम होती है। जनेऊ शरीर में खून के प्रवाह को भी कंट्रोल करने में मददगार होता है। ‍चिकित्सकों अनुसार यह जनेऊ के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है।
(4). लकवे से बचाव :- जनेऊ धारण करने वाला आदमी को लकवे मारने की संभावना कम हो जाती है क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघु शंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए। मल मूत्र त्याग करते समय दांत पर दाँत बैठाकर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता।
(5). कब्ज से बचाव :- जनेऊ को कान के ऊपर कसकर लपेटने का नियम है। ऐसा करने से कान के पास से गुजरने वाली उन नसों पर भी दबाव पड़ता है, जिनका संबंध सीधे आंतों से है। इन नसों पर दबाव पड़ने से कब्ज की श‍िकायत नहीं होती है। पेट साफ होने पर शरीर और मन, दोनों ही सेहतमंद रहते हैं।
(6). शुक्राणुओं की रक्षा :- दाँए कान के पास से वे नसें भी गुजरती हैं, जिसका संबंध अंडकोष और गुप्तेंद्रियों से होता है। मूत्र त्याग के वक्त दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से वे नसें दब जाती हैं, जिनसे वीर्य निकलता है। ऐसे में जाने-अनजाने शुक्राणुओं की रक्षा होती है। इससे इंसान के बल और तेज में वृद्ध‍ि होती है।
(7). स्मरण शक्ति‍ की रक्षा :- कान पर हर रोज जनेऊ रखने और कसने से स्मरण शक्त‍ि का क्षय नहीं होता है। इससे स्मृति कोष बढ़ता रहता है। कान पर दबाव पड़ने से दिमाग की वे नसें एक्ट‍िव हो जाती हैं, जिनका संबंध स्मरण शक्त‍ि से होता है। दरअसल, गलतियां करने पर बच्चों के कान पकड़ने या ऐंठने के पीछे भी मूल कारण यही होता था।
(8). आचरण की शुद्धता से बढ़ता मानसिक बल :- कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र अहसास होने से ही मनुष्य बुरे कार्यों से दूर रहने लगता है। पवित्रता का अहसास होने से आचरण शुद्ध होने लगते हैं। आचरण की शुद्धत से मानसिक बल बढ़ता है।
(9). बुरी आत्माओं से रक्षा :- ऐसी मान्यता है कि जनेऊ पहनने वालों के पास बुरी आत्माएं नहीं फटकती हैं। इसका कारण यह है कि जनेऊ धारण करने वाला खुद पवित्र आत्मरूप बन जाता है और उसमें स्वत: ही आध्यात्म‍िक ऊर्जा का विकास होता है।
कान पर जनेऊ :: मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसें, जिनका सम्बन्ध पेट की आँतों से होता है, आँतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है, जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय के रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते।
कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है। कान पर जनेऊ लपेटने से पेट सम्बन्धी  रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है। जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दाँत, मुँह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है। इसी कारण जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।
चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है। वैज्ञानिकों अनुसार बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से इस समस्या से मुक्ति मिल जाती है।
माना जाता है कि शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह काम करती है। यह रेखा दँए कंधे से लेकर कमर तक स्थित है। जनेऊ धारण करने से विद्युत प्रवाह नियंत्रित रहता है जिससे काम-क्रोध पर नियंत्रण रखने में आसानी होती है।
विद्यालयों में बच्चों के कान खींचने के मूल में एक यह भी तथ्य छिपा हुआ है कि उससे कान की वह नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है। इसलिए भी यज्ञोपवीत को दायें कान पर धारण करने का उद्देश्य बताया गया है।
जनेऊ पहने का धार्मिक और सामाजिक महत्व :: 
जनेऊ का धार्मिक महत्व :- यज्ञोपवीत को व्रतबन्ध कहते हैं। व्रतों से बंधे बिना मनुष्य का उत्थान सम्भव नहीं। यज्ञोपवीत को व्रतशीलता का प्रतीक मानते हैं। इसीलिए इसे सूत्र (सहारा) भी कहते हैं। धर्म शास्त्रों में यम-नियम को व्रत माना गया है। बालक की आयुवृद्धि हेतु गायत्री तथा वेदपाठ का अधिकारी बनने के लिए उपनयन (जनेऊ) संस्कार अत्यन्त आवश्यक है। जनेऊ से पवित्रता का अहसास होता है। यह मन को बुरे कार्यों से बचाती है। कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र अहसास होने से ही मनुष्य बुरे कार्यों से दूर रहने लगता है।
धार्मिक दृष्टि से माना जाता है कि जनेऊ धारण करने से शरीर शुद्घ और पवित्र होता है। आदित्य, वसु, रुद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाँए कान में माना गया है। अत: उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। आचमन अर्थात मंदिर आदि में जाने से पूर्व या पूजा करने के पूर्व जल से पवित्र होने की क्रिया को आचमन कहते हैं। इस्लाम धर्म में इसे वजू कहते हैं।
द्विज :- स्वार्थ की संकीर्णता से निकलकर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को, पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा जन्म कहते हैं। शरीर जन्म माता-पिता के रज-वीर्य से वैसा ही होता है, जैसा अन्य जीवों का। आदर्शवादी जीवन लक्ष्य अपना लेने की प्रतिज्ञा करना ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश करना है। इसी को द्विजत्व कहते हैं। द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म।
सामाजिक महत्व :- आदमी को दो बार जनेऊ धारण कराया जाता है। धारण करने के बाद उसे बताता है कि उसे दो लोगों का भार या जिम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का। अब एक-एक जनेऊ में 9-9 धागे होते हैं जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9-9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है। अब इन 9-9 धागों के अंदर से 1-1 धागे निकालकर देखें तो इसमें 27-27 धागे होते हैं। अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27-27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है। अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36= 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है। अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9+2= 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी (1 और 1) के मिलने से बना है। 1+1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है। जब हम अपने दोनों पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है।
जनेऊ-यज्ञोपवीत धारण करने के नियम ::
यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। एक बार जनेऊ धारण करने के बाद मनुष्य इसे उतार नहीं सकता। मैला होने पर उतारने के बाद तुरंत ही दूसरा जनेऊ धारण करना पड़ता है।
लड़की भी पहन सकती है जनेऊ : वह लड़की जिसे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं।
जनेऊ धारण का समय :- जिस दिन गर्भ धारण किया हो उसके आठवें वर्ष में बालक का उपनयन संस्कार किया जाता है। जनेऊ पहनने के बाद ही विद्यारंभ होता है, लेकिन आजकल गुरु परंपरा के समाप्त होने के बाद अधिकतर लोग जनेऊ नहीं पहनते हैं तो उनको विवाह के पूर्व जनेऊ पहनाई जाती है। यह सिर्फ रस्म अदायिगी है।
निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत।
अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके ही इसे उतारें।
किसी भी धार्मिक कार्य, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि करने के पूर्व जनेऊ धारण करना जरूरी है।
विवाह तब तक नहीं होता जब तक की जनेऊ धारण नहीं किया जाता है।
जब भी मूत्र या शौच विसर्जन करते वक्त जनेऊ धारण किया जाता है।
यज्ञोपवीत को मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। अपने व्रतशीलता के संकल्प का ध्यान इसी बहाने बार-बार किया जाए।
यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए। खंडित प्रतिमा शरीर पर नहीं रखते। धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है।
जन्म-मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है। जिनके गोद में छोटे बच्चे नहीं हैं, वे महिलाएं भी यज्ञोपवीत संभाल सकती हैं; किन्तु उन्हें हर मास मासिक शौच के बाद उसे बदल देना पड़ता है।
यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करने या बदल लेने का नियम है।
देव प्रतिमा की मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बाँधें। इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें। बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएं, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए। 
जनेऊ :: बाँए कांधे से दाएं बाजू की ओर पहना हुआ कच्चा धागा जनेऊ कहलाता है। जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है। यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे
तीन सूत्र :: जनेऊ में मुख्‍यरूप से तीन धागे होते हैं। प्रथम यह तीन सूत्र त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। द्वितीय यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं और तृतीय यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है। चतुर्थ यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है। पंचम यह तीन आश्रमों का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है। 
नौ तार :: यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने।
पाँच गाँठ :: यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।
जनेऊ की लंबाई :: यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं होती है। 64 कलाओं में जैसे- वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि।
जनेऊ-यज्ञोपवीत निर्माण विधिः :: 
ग्रामाद्बहिस्तीर्थे गोष्ठे वा गत्वाऽनध्याय वर्जित पूर्वाह्णे। 
गाँव के बाहर पवित्र जगह जहाँ पतितों का अवागमन न हो-निर्जन प्रदेश अथवा गोशालामें जाकर अनध्याय सूचित दिनों को छोड़कर अन्य दिनों में पूर्वाह्न काल में सुबह 10.40 से पहले (यज्ञोपवीत निर्माण करते समय कम से कम एक, सवा घँटा लगता है।  
कृतसंध्याष्टोत्तरशतं सहस्रं वा यथाशक्ति गायत्रीं जपित्वा। 
प्रातः सँध्या समाप्त कर यज्ञोपवीत निर्माण अधिकार सिद्धि 108-1008 के लिये अथवा यथा शक्ति गायत्री मंत्र का संयमित होकर जप करें।  
ब्राह्मणेन तत्कन्याया सुभगाया धर्मचारिण्या वा कृतं सूत्रमादाय। 
ब्राह्मण, ब्राह्मण की कन्या, सौभाग्यवती ब्राह्मणी अथवा स्वधर्म में श्रद्धा रखकर आचरण करने वाली द्विज-स्त्री (अविच्छिन्न परम्परा कालक्रम से प्राप्त उपनयन-संस्कार से संस्कृत-द्विजों की पत्नी अर्थात् व्रात्यों की स्त्री नहीं) से बना हुआ एक तार का सूत्र लें। वर्त्तमान में मिलना सम्भव न हों तो कहे गये सूत्र कारों से कुछ दक्षिणा देकर उनके हाथ से खरीदा हुआ सूत्र लें।
भूरिति प्रथमां षष्णवतीं। 
बायें हाथ की चारों अँगुलीयोंके अँत्यपर्वों पर "ॐ भूः" प्रथम व्याहृति मंत्र पढकर 96 बार वेष्टित कर वह चौआ ढाक के पत्ते पर रख दें। 
"भुवरितिद्वितीयां-ॐ भुवः"
द्वितीय व्याहृति मंत्र पढकर पुनः दूसरी बार सूत्र से 96 चौआ लगायें वह भी दूसरे पलाश के पत्र में रखें।  
स्वरितितृतीयांमीत्वा पृथक् पलाशपत्रे संस्थाप्य-ॐस्वः। 
तृतीय व्याहृति मंत्र पढ़कर  पुनः तीसरी बार सूत्र से 96 चौआ लगाकर वह भी  तीसरे ढाक के पत्तेपर रखें। 
आपोहिष्ठेति तिसृभिः, शं नो देवीत्यनेन सावित्र्या चाभिषिच्य। 
तीनों को तीर्थ जल या शुद्ध जल से "आपोहिष्ठा" 01, "जो वः शिवतमो" 02, "तस्माऽअरङ्ग" 03… इन तीनों मंत्रों से "शं नो देवी०" मंत्र से तथा गायत्री मंत्र से अभिषिक्त करें। 
"वामहस्ते कृत्वा त्रिः संताड्य"
बायें हाथ में तीनों चौओं को लेकर दायें हाथ से तीन बार ताड़न करें। 
"व्याहृतिभिस्त्रिवणितं कृत्वा" ॐ भू र्भुवः स्वः।  
इन तीन व्याहृति मंत्रों से तीनों के तार को एक जुट करके तीन गुना करें। इसमें दूसरे ब्राह्मण या खूटी की आवश्यकता रहती है। 
"पुनस्ताभिस्त्रिगुणितं कृत्वा"। 
फिर से उन तीन गुणे सूत्र को फिर से तीन गुणा करने से नवतार हो जायेंगें। इनको तकली की मदद से  या दूसरे ब्राह्मण की मदद से नवतार का एक दृढ सूत्र बनायें। 
"पुनस्त्रिवृतं कृत्वा"
इस नवतार के सूत्र को जिसको पहनाना है, उसके कँधे से कटी तक के माप अनुसार तीन गुना करें। 
"प्रणवेनग्रन्थिंकृत्वा ॐ"  
इस प्रणव मंत्र से ब्रह्म ग्रन्थि लगायें।  
द्विरावृत्याथमध्ये वै अर्धवृत्यान्त देशतः ग्रन्थि प्रदक्षिणावर्ती सा ग्रन्थि ब्रह्मसंज्ञकः। 
सूत्र के अन्त्य भाग को सूत्र के अग्र भाग के अन्दर से लेकर तीनों वृत्तो को प्रदक्षिणावत् दो बार लपेटकर सूत्र के अग्र भाग में आधी प्रदक्षिणवत् लपेटकर दृढ गाँठ लगायें। सूत के अग्रान्त भाग पर दूसरी दो गाँठ लगायें। यह तीन धागे वाली नव सूत्र की एक जनेऊ हुई।  ऐसे ही दूसरी, तीसरी आदि जरुरीयात अनुसार बनाकर ऑंकार, अग्नि, सोम, पितर, प्रजापति, वायु, सूर्य, विश्वे देवों का नवतन्तुओं में तथा ग्रन्थिओं में ब्रह्मा जी,  भगवान् श्री हरी विष्णु, भगवान् शिव का क्रम से न्यास करके पूजन करें। 
ऑंकारमग्निं नागान् सोमं पितॄन् प्रजापतिं वायुं सूर्यं विश्वान् देवान् नवतन्तुषु क्रमेण विन्यस्य संपूजयेत्। 
 "देवस्येत्युपवीतमादाय, देवस्यत्वा सवितुः ''
इन आधे मंत्र से यज्ञोपवीत को लेकर, 
उद्वयं तमसस्परीत्यादित्याय दर्शयित्वा-उद्वयं तम०   
इस मंत्र से सूर्य नारायण को बताकर, 
"यज्ञोपवीतमित्यनेन धारयेदित्याह भगवान्कात्यायनः कात्यायनपरिशिष्- यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं०" 
इस मंत्र से धारण करें,  ऐसा भगवान् कात्यायन कहतें हैं। 
जनेऊ धारण वस्त्र :: जनेऊ धारण करते वक्त बालक के हाथ में एक दंड होता है। वह बगैर सिला एक ही वस्त्र पहनता है। गले में पीले रंग का दुपट्टा होता है। मुंडन करके उसके शिखा रखी जाती है। पैर में खड़ाऊ होती है। मेखला और कोपीन पहनी जाती है।
मेखला, कोपीन, दंड, मेखला और कोपीन संयुक्त रूप से दी जाती है। कमर में बांधने योग्य नाड़े जैसे सूत्र को मेखला कहते हैं। मेखला को मुंज और करधनी भी कहते हैं। कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लम्बे टुकड़े से मेखला बनती है। कोपीन लगभग 4 इंच चौड़ी डेढ़ फुट लम्बी लंगोटी होती है। इसे मेखला के साथ टांक कर भी रखा जा सकता है। दंड के लिए लाठी या ब्रह्म दंड जैसा रोल भी रखा जा सकता है। यज्ञोपवीत को पीले रंग में रंगकर रखा जाता है।
जनेऊ धारण :: बगैर सिले वस्त्र पहनकर, हाथ में एक दंड लेकर, कोपीन और पीला दुपट्टा पहनकर विधि-विधान से जनेऊ धारण की जाती है। जनेऊ धारण करने के लिए एक यज्ञ होता है, जिसमें जनेऊ धारण करने वाला लड़का अपने संपूर्ण परिवार के साथ भाग लेता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किए गए विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है।
यज्ञोपवीत गायत्री मंत्र से शुरू होता है। गायत्री-उपवीत का सम्मिलन ही द्विजत्व है। यज्ञोपवीत में तीन तार हैं, गायत्री में तीन चरण हैं। ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ प्रथम चरण, ‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ द्वितीय चरण, ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’ तृतीय चरण है। गायत्री महामंत्र की प्रतिमा- यज्ञोपवीत, जिसमें 9 शब्द, तीन चरण, सहित तीन व्याहृतियां समाहित हैं।
संस्कार विधि :: यज्ञोपवित संस्कार प्रारम्भ करने के पूर्व बालक का मुंडन करवाया जाता है। उपनयन संस्कार के मुहूर्त के दिन लड़के को स्नान करवाकर उसके सिर और शरीर पर चंदन केसर का लेप करते हैं और जनेऊ पहनाकर ब्रह्मचारी बनाते हैं। फिर होम करते हैं। फिर विधिपूर्वक गणेशादि देवताओं का पूजन, यज्ञवेदी एवं बालक को अधोवस्त्र के साथ माला पहनाकर बैठाया जाता है। फिर दस बार गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित करके देवताओं के आव्हान के साथ उससे शास्त्र शिक्षा और व्रतों के पालन का वचन लिया जाता है।
फिर उसकी उम्र के बच्चों के साथ बैठाकर चूरमा खिलाते हैं फिर स्नान कराकर उस वक्त गुरु, पिता या बड़ा भाई गायत्री मंत्र सुनाकर कहता है कि आज से तू अब ब्राह्मण हुआ अर्थात ब्रह्म (सिर्फ ईश्वर को मानने वाला) को माने वाला हुआ।
इसके बाद मृगचर्म ओढ़कर मूँज (मेखला) का कंदोरा बाँधते हैं और एक दंड हाथ में दे देते हैं। तत्पश्चात्‌ वह बालक उपस्थित लोगों से भीक्षा मांगता है। शाम को खाना खाने के पश्चात्‌ दंड को साथ कंधे पर रखकर घर से भागता है और कहता है कि मैं पढ़ने के लिए काशी जाता हूँ। बाद में कुछ लोग शादी का लालच देकर पकड़ लाते हैं। तत्पश्चात वह लड़का ब्राह्मण मान लिया जाता है। 
जनेऊ संस्कार का समय :- माघ से लेकर छ: मास उपनयन के लिए उपयुक्त हैं। प्रथम, चौथी, सातवीं, आठवीं, नवीं, तेरहवीं, चौदहवीं, पूर्णमासी एवं अमावस की तिथियां बहुधा छोड़ दी जाती हैं। सप्ताह में बुध, बृहस्पति एवं शुक्र सर्वोत्तम दिन हैं, रविवार मध्यम तथा सोमवार बहुत कम योग्य है। किन्तु मंगल एवं शनिवार निषिद्ध माने जाते हैं।
मुहूर्त :- नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाति, पुष्य, घनिष्ठा, अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, श्रवण एवं रवती अच्छे माने जाते हैं। एक नियम यह है कि भरणी, कृत्तिका, मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, शततारका को छोड़कर सभी अन्य नक्षत्र सबके लिए अच्छे हैं।
पुनश्च: : पूर्वाषाढ, अश्विनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, ज्येष्ठा, पूर्वाफाल्गुनी, मृगशिरा, पुष्य, रेवती और तीनों उत्तरा नक्षत्र द्वितीया, तृतीया, पंचमी, दसमी, एकादसी, तथा द्वादसी तिथियां, रवि, शुक्र, गुरु और सोमवार दिन, शुक्ल पक्ष, सिंह, धनु, वृष, कन्या और मिथुन राशियां उत्तरायण में सूर्य के समय में उपनयन यानी यज्ञोपवीत यानी जनेऊ संस्कार शुभ होता है।
Upper castes in Hindus, especially Brahmans, used to wear the sacred thread around the loin. This is generally made of white coloured cotton thread. Kshatriy and Vaishy may wear threads made out of hempen and wool respectively. 
It has three to seven strands. It suggests the development of a male, from a young boy to a man. It is believed that a boy cannot be surmised as Dwij (twice born, second birth, initially one is born as an animal and education makes him a socially useful person) until he wears the Janeu. It represents initiation into education for Brahmans as well. Besides the Brahmns, Janeu thread is also worn by the Kshatriy-marshal community and Vaishy-trading-business community. The type of Janeu is different for different caste groups or sects of people of the Indian subcontinent. A celibate (pure) bachelor is supposed to wear only one thread, a married man should wear two scared threads and if the married man has a child then he wears three threads. The three strands of the thread symbolises three debts of man: (1). The debt of one's teacher, (2). The debt of one's parents and ancestors and (3). The debt of the scholars, which one ought to repay during his life span. 
During the current age it may not be possible to find even a devout (भक्त, धर्मनिष्ठ, धार्मिक, सच्चा, सरल, दिल-हृदय से समर्पित, devotee, Godly, votary, pious, devout, religious, virtuous, holy, righteous, sacred, devout, truthful, real, genuine, faithful, sincere, devout, simple, easy, effortless, straightforward, ingenious, devout, heartwarming, heartfelt, warmhearted, devout, soulful, hearty, heartfelt, warm, unpretentious, cordial), Brahmn wearing this, since it needs highest possible standards of purity and piousity. Brahmns are finding it very-very difficult to earn livelihood. They no more earn sufficient money in the form of donations, Dakshina-fees, gifts to survive. They are poverty stricken and the present regime is busy crushing them.
One is Brahm Gandh (गंध) Janeu (with 5 knots or 3 knots), which is meant for Brahmns and the other is Vishnu Gandh Janeu (with one knot), meant for other classes. In case a Brahmn desires to become scholarly in the Veds, he must wear Janeu at 5 years of age. If a Kshatriy desires to gain strength, he should wear Janeu at 6 and if a Vaeshy desires for success, he must wear the Janeu at 8 years of age. 
JANEU CEREMONY :: Brahmans celebrate the development of a boy through Upnayan Sanskar (sacred thread ceremony). The ceremony is generally observed between the ages of seven and fourteen. In case the ceremony could not take place due to any reason all through this age period, then it is required to be done before the marriage. The purpose of thread ceremony is to prepare a young man to share the responsibilities of elders. The thread is worn by the man in the company of a group chant of Gayatri Mantr. The thread is twisted in upward direction to make certain that Satv Gun (Truthfulness, Virtuousness, Righteousness, piousity, honesty) prevails. The ceremony also suggests that the wearer of Janeu can participate in the family rituals, from now on wards. 
SIGNIFICANCE OF 3 STRANDS OF JANEU :: Brahmns use Janeu thread with three strands. These three strands of Janeu represents the (1). Trinity of Brahma, Vishnu and Mahesh, (2).  Maha Saraswati, Maha Lakshmi and Maha Kali, (3). The 3 divisions of time into past, present and future, (4). The three qualities (i). Satv, (ii). Rajas and (iii). Tamas, (5).  Three states of mind, wakefulness, dream and deep sleep, (6). Three dimensions of Heaven (Swarg), Earth (Mratyu Lok) and Nether Regions (-Patal Lok) and (7). Ida, Pingla and Shushmna Nadi, through which the Kundlini (-coiled, hidden) energy reveals in Pran and realisation.
PROCESS OF WEARING JANEU :: Its sanctity is regarded to get disturbed if it is not worn properly.  (1). To attend or perform any auspicious ceremony, one should wear Janeu hanging from the left shoulder: Upviti, (2). For attending or performing inauspicious event, one should wear Janeu hanging from the right shoulder: Prachanviti, (3). In case the person wears Janeu round the neck like a garland, then, he is called as Niviti, (4). While going for daily ablutions or doing impure tasks, the holy thread must be raised and its upper part ought to be put behind ear and (5). Both male and female can wear Janeu, yet a female should wear it around the neck and (6). Following a birth or death in the family, Janeu should be removed and again a new thread ought to be worn after 15 days of event.
One must replace the old or broken thread with a new thread, at some auspicious occasion or periodically.
SIGNIFICANCE OF UPNAYAN SANSKAR :: The strands of the thread also stand for purity of thoughts, words and deeds of the wearer. Through the ceremony of Upnayan, the boy is introduced to the concept of Brahmn and thus becomes qualified to lead the life of a Brahmchari-celibate as per the guidelines of the Manu Smrati. Wearing the sacred thread is extremely significant & auspicious as it marks the beginning of education for the child.
यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात (5 या 3) ग्रंथियाँ लगायी जाती हैं। ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं।
यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र :-
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। 
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ 
जनेऊ को यदि विधि विधान से धारण किया जाये तो अनेकों अनजान बाधाओं और रोगों से रक्षा हो सकती है। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसें जिनका संबंध पेट की आंतों से है, आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती हैं; जिससे मल विसर्जन आसानी से होता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, अम्लता, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ को धर्म से जोड़ दिया गया है, जबकि इसका प्रयोग पूर्ण तय वैज्ञानिक और तथ्यों पर आधारित है।
जनेऊ पहनने से आदमी को लकवे से सुरक्षा मिल जाती है, क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए, अन्यथा अधर्म होता है। दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता। दाँये कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है। मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है।
दायें कान को ब्रह्म सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दाँया कान ब्रह्म सूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है। बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दायें कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। किसी भी उच्छृंखल जानवर का दाँया कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बँधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दाँत, मुँह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल ग्रहण नहीं किया जाता। 
आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का।
अब एक एक जनेऊ में 9-9 धागे होते हैं, जो कि व्यक्ति को बताते हैं कि उस पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9-9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है। अब इन 9-9 धांगों के अंदर से 1-1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27-27 धागे होते हैं। अर्थात् मनुष्य को  पत्नी और पति पक्ष के 27-27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है| अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3 + 6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है।
अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो बताता है कि मनुष्य का  जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1) के मिलने से बना है। 1 + 1=2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा मनुष्य को शीतलता प्रदान करता है। जब मनुष्य अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो उसे असीम शांति की प्राप्ति हो जाती है।
अंडवृद्धि के सात कारण हैं। मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है। दाँया कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है। पूरे विधि विधान से धारण किया जनेऊ हर तरह की नकारात्मक शक्तियों (भूत-प्रेत आदि) और ग्रहों के दुष्प्रभावो से भी निश्चित रक्षा करता है। 
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