Sunday, March 15, 2015

HINDU BELIEF धार्मिक मान्यताएँ :: HINDU PHILOSOPHY (13) हिंदु दर्शन

HINDU BELIEF 
धार्मिक मान्यताएँ 
HINDU PHILOSOPHY (13) हिंदु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।   
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
चरणामृत :: 
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥
भगवान् श्री हरी विष्णु के चरण का अमृत रूपी जल समस्त पाप-व्याधियों का शमन करने वाला है तथा औषधी के समान है।
जो चरणामृत पीता है उसका पुनः जन्म नहीं होता। जल तब तक जल ही रहता है जब तक भगवान के चरणों से नहीं लगता, जैसे ही भगवान् के चरणों से लगा तो अमृत रूप हो गया और चरणामृत बन जाता है।
जब भगवान् श्री हरी विष्णु का वामन अवतार हुआ और वे राजा बलि की यज्ञ शाला में दान लेने गए तब उन्होंने तीन पग में तीन लोक नाप लिए जब उन्होंने पहले पग में नीचे के लोक नाप लिए और दूसरे में ऊपर के लोक नापने लगे तो जैसे ही ब्रह्म लोक में उनका चरण गया तो ब्रह्मा जी ने अपने कमंडलु में से जल लेकर भगवान् श्री हरी विष्णु के चरण धोए और फिर चरणामृत को वापस अपने कमंडल में रख लिया। 
वह चरणामृत माँ गंगा बन गया, जो आज भी सारी दुनिया के पापों को धोती हैं। 
भगवान् श्री राम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।
चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है। चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है।
तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है। उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते।
इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है।
तुलसी के पत्ते पर जल इतने परिमाण में होना चाहिए कि सरसों का दाना उसमें डूब जाए ।
ऐसा माना जाता है कि तुलसी चरणामृत लेने से मेधा, बुद्धि,स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।
भगवान्  का चरणामृत औषधी के समान है। यदि उसमें तुलसी पत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधीय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है। कहते हैं सीधे हाथ में तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से हर शुभ का या अच्छे काम का जल्द परिणाम मिलता है।
इसीलिए चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से लेना चाहिये।
चरणामृत लेने के बाद अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे अपना हाथ सिर पर फेरते हैं। 
चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना अच्छा नहीं माना जाता है।
इससे विचारों में सकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती है।
हजामत बनवाना-करना :: पूर्व या उत्तर की ओर मुँह करके हजामत बनवानी चाहिए। इससे आयु की वृद्धि होती है। हजामत बनवाकर बिना नहाये रहना, आयु की हानि करने वाला है।[महाभारत, अनुशासन पर्व]
मंगलवार और गुरुवार को छोड़कर हाथ-पैर के नाखून नियमित रूप से काटते रहना चाहिये। 
संध्या काल में नींद, स्नान, अध्ययन और भोजन करना निषिद्ध है। 
अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को बुधवार व शुक्रवार के अतिरिक्त अन्य दिनों में बाल नहीं कटवाने चाहिए।
सोमवार को बाल कटवाने से शिव भक्ति की हानि होती है। पुत्रवान को इस दिन बाल नहीं कटवाने चाहिए। मंगलवार को बाल कटाना मृत्यु का कारण भी हो सकता है। बुधवार को बाल, नख काटने-कटवाने से धन की प्राप्ति होती है। गुरुवार को बाल कटवाने से लक्ष्मी और मान की हानि होती है। शुक्रवार लाभ और यश की प्राप्ति कराने वाला है। शनिवार मृत्यु का कारण होता है। रविवार तो सूर्य देव का दिन है, इस दिन क्षौर कराने से धन, बुद्धि और धर्म की क्षति होती है।
मलिन दर्पण में मुँह न देखे। उत्तर व पश्चिम की ओर सिर करके कभी न सोये, पूर्व या दक्षिण दिशा की ओर ही सिर करके सोये।[महाभारत, अनुशासन पर्व]
शरीर पर तेल मालिश नहाने से पहले ही करें, बाद में नहीं। सिर पर तेल लगानि के बाद उसी हाथ से दूसरे अंगों का स्पर्श नहीं करना चाहिए।[महाभारत, अनुशासन पर्व]
पुस्तकें खुली छोड़कर न जायें। उन पर पैर न रखें और उनसे तकिये का काम न लें। धर्मग्रन्थों का विशेष आदर करते हुए स्वयं शुद्ध, पवित्र व स्वच्छ होने पर ही उन्हें स्पर्श करना चाहिए। उँगली मे थूक लगाकर पुस्तकों के पृष्ठ न पलटें।
हाथ-पैर से भूमि कुरेदना, तिनके तोड़ना, बार-बार सिर पर हाथ फेरना, बटन टटोलते रहना; ये बुरे स्वभाव-परेशानी, दाँतों से नाख़ून काटते रहना, उलझन के चिह्न हैं। अतः ये सर्वथा त्याज्य हैं।
आसन को पैर से खींचकर या फटे हुए आसन पर न बैठे। रात्रि में स्नान न करे। स्नान के पश्चात तेल आदि की मालिश न करे। भीगे कपड़े न पहने।[महाभारत, अनुशासन पर्व]
सत्संग से उठते समय आसन नहीं झटकना चाहिए। ऐसा करने वाला अपने पुण्यों का नाश करता है।
जिसके गोत्र और प्रवर अपने ही समान हों तथा जो कन्या नाना के कुल में उत्पन्न हुई हो, जिसके कुल का पता न हो, उसके साथ विवाह नहीं करना चाहिए। अपने से श्रेष्ठ या समान कुल में विवाह करना चाहिए।[महाभारत, अनुशासन पर्व]
जूठे मुँह पढ़ना-पढ़ाना, शयन करना, मस्तक का स्पर्श करना कदापि उचित नहीं है।
दूसरे के पहने हुए कपड़े, जूते आदि न पहने। अगर कोई चारा न हो तो अच्छी तरह से धो लें। इससे दूसरे व्यक्ति का जीवद्रव्य अपने शरीर में प्रविष्ट होता है, जो कि अपने साथ दूसरे व्यक्ति की बीमारियाँ भी लेकर आता है। 
किसी अपवित्र मनुष्य के निकट या सत्पुरुषों के सामने बैठकर भोजन न करे। सावधानी के साथ केवल सवेरे और शाम को ही भोजन करें। बीच में कुछ भी खाना उचित नहीं है। भोजन के समय मौन रहना और आसन पर बैठना उचित है। निषिद्ध पदार्थ यथा माँस, मछली, अंडा, लहसुन, प्याज, गाजर और कुम्भी न खायें।
प्रतिदिन सूर्योदय से एक घँटा पहले जागकर धर्म और अर्थ के विषय में विचार करे। मौन रहकर दँत धावन करे। दँत धावन किये बिना देव पूजा व सँध्या न करे। देव पूजा व सँध्या किये बिना गुरु, वृद्ध, धार्मिक, विद्वान पुरुष को छोड़कर दूसरे किसी के पास न जाय। सुबह सोकर उठने के बाद पहले माता-पिता, आचार्य तथा गुरुजनों को प्रणाम करना चाहिए।
सूर्योदय होने तक कभी न सोये, यदि किसी दिन ऐसा हो जाय तो प्रायश्चित करें, गायत्री मंत्र का जप करे, उपवास करे या फलादि पर ही रहे।
स्नानादि से निवृत्त होकर प्रातः कालीन सँध्या करें। जो प्रातः काल की सँध्या करके सूर्य के सम्मुख खड़ा होता है, उसे समस्त तीर्थों में स्नान का फल मिलता है और वह सब पापों से छुटकारा पा जाता है।
सूर्योदय के समय ताँबे के लोटे में सूर्य भगवान को जल (अर्घ्य) देना चाहिए। इस समय आँखें बन्द करके भ्रूमध्य में सूर्य की भावना करनी चाहिए। सूर्यास्त के समय भी मौन होकर संध्योपासना करनी चाहिए। संध्योपासना के अंतर्गत शुद्ध व स्वच्छ वातावरण में प्राणायाम व जप किये जाते हैं।
नियमित त्रिकाल सँध्या करने वाले को रोजी-रोटी के लिए कभी हाथ नहीं फैलाना पड़ता, ऐसा शास्त्र वचन है। ऋषि गण प्रतिदिन सँध्योपासना से ही दीर्घ जीवी हुए हैं।
वृद्ध पुरुषों के आने पर तरुण पुरुष के प्राण ऊपर की ओर उठने लगते हैं। ऐसी दशा में वह खड़ा होकर स्वागत और प्रणाम करता है तो वे प्राण पुनः पूर्वावस्था में आ जाते हैं।
किसी भी वर्ण के पुरुष को परायी स्त्री से संसर्ग नहीं करना चाहिए। पर स्त्री सेवन से मनुष्य की आयु जल्दी ही समाप्त हो जाती है। इसके समान आयु को नष्ट करने वाला संसार में दूसरा कोई कार्य नहीं है। स्त्रियों के शरीर में जितने रोमकूप होते हैं उतने ही हजार वर्षों तक व्यभिचारी पुरुषों को नरक में रहना पड़ता है। रजस्वला स्त्री के साथ कभी बातचीत न करे।
अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्दशी और अष्टमी तिथि को स्त्री-समागम न करे। अपनी पत्नी के साथ भी दिन में तथा ऋतुकाल के अतिरिक्त समय में समागम न करे। इससे आयु की वृद्धि होती है। सभी पर्वों के समय ब्रह्मचर्य का पालन करना आवश्यक है। यदि पत्नी रजस्वला हो तो उसके पास न जाय तथा उसे भी अपने निकट न बुलाये। शास्त्र की अवज्ञा करने से जीवन दुःखमय बनता है।
दूसरों की निंदा, बदनामी और चुगली न करें, औरों को नीचा न दिखाये। निंदा करना अधर्म बताया गया है, इसलिए दूसरों की और अपनी भी निंदा नहीं करनी चाहिए। क्रूरता भरी बात न बोले। जिसके कहने से दूसरों को उद्वेग होता हो, वह रूखाई से भरी हुई बात नरक में ले जाने वाली होती है, उसे कभी मुँह से न निकाले। बाणों से बिंधा हुआ फरसे से काटा हुआ वन पुनः अंकुरित हो जाता है, किंतु दुर्वचन रूपी शस्त्र से किया हुआ भयंकर घाव कभी नहीं भरता।
हीनांग (अंधे, काने आदि), अधिकांग (छाँगुर आदि), अनपढ़, निंदित, कुरुप, धनहीन और असत्यवादी मनुष्यों की खिल्ली नहीं उड़ानी चाहिए।
नास्तिकता, वेदों की निंदा, देवताओं के प्रति अनुचित आक्षेप, द्वेष, उद्दण्डता, कठोरता आदि दुर्गुणों का त्याग कर देना चाहिए।
मल-मूत्र त्यागने व रास्ता चलने के बाद तथा स्वाध्याय व भोजन करने से पहले हाथ-पैर धो लेने चाहिए। भीगे पैर भोजन तो करे, शयन न करे। भीगे पैर भोजन करने वाला मनुष्य लम्बे समय तक जीवन धारण करता है।
परोसे हुए अन्न की निंदा नहीं करनी चाहिए। मौन होकर एकाग्रचित्त से भोजन करना चाहिए। भोजनकाल में यह अन्न पचेगा या नहीं, इस प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए। भोजन के बाद मन-ही-मन अग्नि का ध्यान करना चाहिए। भोजन में दही नहीं, मट्ठा पीना चाहिए तथा एक हाथ से दाहिने पैर के अँगूठे पर जल छोड़ ले फिर जल से आँख, नाक, कान व नाभि का स्पर्श करे।
पूर्व की ओर मुँह करके भोजन करने से दीर्घायु और उत्तर की ओर मुख करके भोजन करने से सत्य की प्राप्ति होती है। भूमि पर बैठकर ही भोजन करे, चलते-फिरते भोजन कभी न करे। किसी दूसरे के साथ एक पात्र में भोजन करना निषिद्ध है। न तो स्वयं जूठा खायें और न ही दूसरों को अपना जूठा खिलायें। 
जिसको रजस्वला स्त्री ने छू दिया हो तथा जिसमें से सार निकाल लिया गया हो, ऐसा अन्न कदापि न खायें जैसे :- तिलों का तेल निकाल कर बनाया हुआ गजक, क्रीम निकाला हुआ दूध, रोगन (तेल) निकाला हुआ बादाम आदि।
रात्रि के समय खूब डटकर भोजन न करें, दिन में भी उचित मात्रा में सेवन करे। तिल की चिक्की, गजक और तिल के बने पदार्थ भारी होते हैं। इनको पचाने में जीवन शक्ति अधिक खर्च होती है; इसलिए इनका सेवन स्वास्थ्य के लिए उचित नहीं है।
जूठे मुँह पढ़ना-पढ़ाना, शयन करना, मस्तक का स्पर्श करना कदापि उचित नहीं है।
यमराज कहते हैं :- "जो मनुष्य जूठे मुँह उठकर दौड़ता और स्वाध्याय करता है, मैं उसकी आयु नष्ट कर देता हूँ। उसकी सन्तानों को भी उससे छीन लेता हूँ। जो अनध्याय के समय भी अध्ययन करता है, उसके वैदिक ज्ञान और आयु का नाश हो जाता है। जो सँध्या आदि अनध्याय के समय भी अध्ययन करता है, उसके वैदिक ज्ञान और आयु का नाश हो जाता है। भोजन करके हाथ-मुँह धोये बिना सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र इन त्रिविध तेजों की कभी दृष्टि नहीं डालनी चाहिए।[महाभारत, अनुशासन पर्व]
नास्तिक मनुष्यों के साथ कोई प्रतिज्ञा-वादा, निश्चय न करे। 
माता-पिता, गुरु के साथ कभी हठ नहीं ठानना चाहिए। गुरु प्रतिकूल बर्ताव करते हों तो भी उनके प्रति अच्छा बर्ताव करना ही उचित है। गुरु की निंदा मनुष्यों की आयु नष्ट कर देती है। महात्माओं की निंदा से मनुष्य का अकल्याण होता है।
सिर के बाल पकड़कर खींचना और मस्तक पर प्रहार करना वर्जित है। दोनों हाथ सटाकर उनसे अपना सिर न खुजलाये। विद्यार्थी को शारीरिक दण्ड न दें और न ही उसकी सार्वजनिक भर्त्सना ही करें। 
शयन, भ्रमण तथा पूजा के लिए अलग-अलग वस्त्र रखें। सोने की माला कभी भी पहनने से अशुद्ध नहीं होती।
सदा उद्योगी बने रहें, क्योंकि उद्योगी मनुष्य ही सुखी और उन्नतशील होता है। प्रतिदिन पुराण, इतिहास, उपाख्यान तथा महात्माओं के जीवन चरित्र का श्रवण करना चाहिए। इन सब बातों का पालन करने से मनुष्य दीर्घ जीवी होता है।
पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने सब वर्ण के लोगों पर दया करके यह उपदेश दिया था। यह यश, आयु और स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला तथा परम कल्याण का आधार है।
पूजा आराधना सम्बन्धी मान्यताएँ :: सुखी और समृद्धिशाली जीवन के लिए देवी-देवताओं की पूजा-आराधना की जाती है, जिसमें शास्त्रीय विधि-विधान का पालन किया जाता है।
(1). सूर्य भगवान्, गणेश जी महाराज, माँ दुर्गा, भगवान् शिव और भगवान् विष्णु; ये पंचदेव हैं, जिनकी पूजा सभी शुभ कार्यों में अनिवार्य रूप से की जाती है। प्रतिदिन पूजन करते समय इन पंचदेव का ध्यान करना चाहिए। माँ लक्ष्मी की कृपा और समृद्धि हेतु इनका ध्यान-पूजन नियमित रूप से किया जाना चाहिए।
(2). भगवान् शिव, गणेश जी और भैरव को तुलसी नहीं चढ़ाई जाती।
(3). माँ दुर्गा को दूर्वा (एक प्रकार की घास) नहीं चढ़ाई जाती। यह गणेश जी को विशेष रूप से अर्पित की जाती है।
(4). सूर्य भगवान् को शंख के जल से अर्घ्य नहीं दिया जाता।
(5). तुलसी का पत्ता बिना स्नान किए नहीं तोड़ना चाहिए। अशुद्ध स्त्री को कभी भी माँ तुलसी के समक्ष नहीं जाना चाहिए। रविवार, एकादशी, द्वादशी, संक्रान्ति तथा सँध्या काल में तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ना चाहिए। रविवार को तुलसी को जल भी नहीं दिया जाता। कोई भी पत्ता, फूल दिन ढ़लने के बाद नहीं तोड़ना चाहिये।
(6). देवी-देवताओं का पूजन दिन में पाँच बार करना चाहिए। सुबह 5 से 6 बजे तक ब्रह्म मुहूर्त में पूजन और आरती होनी चाहिए। इसके बाद प्रात: 9 से 10 बजे तक दूसरी बार का पूजन। दोपहर में तीसरी बार पूजन करना चाहिए। इस पूजन के बाद भगवान् को शयन करवाना चाहिए। शाम के समय चार-पाँच बजे पुन: पूजन और आरती। रात को 8-9 बजे शयन आरती करनी चाहिए। जिन घरों में नियमित रूप से पाँच बार पूजन किया जाता है, वहाँ सभी देवी-देवताओं का वास होता है और ऐसे घरों में धन-धान्य की कोई कमी नहीं होती है।सामान्य परिस्थियों में एक गृहस्थ के लिये यह सम्भव नहीं है, मगर मन्दिर में इसका पालन कठोरता से किया जाना चाहिये।
(7). प्लास्टिक की बोतल में या किसी अपवित्र धातु (एल्युमिनियम, लोहा, स्टील) के बर्तन में गँगाजल नहीं रखना चाहिए। गँगाजल ताँबे के बर्तन में रखा जा सकता है।
वर्तमान काल में प्लास्टिक का प्रचलन इतना ज्यादा है कि पीने के पानी के पाइप, बोतलें आदि सभी इसकी बनी होती हैं।
(8). यदि घर में स्त्रियाँ अपवित्र अवस्था में हों तो पुरुषों को शंख नहीं बजाना चाहिए। 
(9). मन्दिर और देवी-देवताओं की मूर्ति के सामने कभी भी पीठ दिखाकर नहीं बैठना चाहिए।
(10). केतकी का फूल शिवलिंग पर अर्पित नहीं करना चाहिए।
(11). किसी भी पूजा में मनोकामना की सफलता के लिए भेंट दक्षिणा अवश्य चढ़ानी चाहिए। ज्योतिषी, चिकित्सक, हस्तरेखा परीक्षक को अवश्य देनी चाहिए। 
(12). दूर्वा (एक प्रकार की घास) रविवार को नहीं तोड़नी चाहिए।
(13). माँ लक्ष्मी को विशेष रूप से कमल का फूल अर्पित किया जाता है। इस फूल को पाँच दिनों तक जल छिड़क कर पुन: चढ़ा सकते हैं।
(14). भगवान् शिव को प्रिय बिल्व पत्र छह माह तक बासी नहीं माने जाते हैं। इन्हें जल छिड़क कर शिवलिंग पर अर्पित किया जा सकता है।
(15). तुलसी के पत्तों को 11 दिनों तक बासी नहीं माना जाता है। इसकी पत्तियों पर हर रोज जल छिड़कर भगवान् को अर्पित किया जा सकता है।
एक बार चढ़ाये गये नैवेद्य, प्रसाद, फल-पुष्पों, मालाओं को पुनः पूजा के लिए प्रयोग न करें। 
(16). फूलों को किसी पवित्र पात्र में रखकर देवी-देवताओं को अर्पित करना चाहिए।
(17). ताँबे के बर्तन में चन्दन, घिसा हुआ चन्दन या चन्दन का पानी नहीं रखना चाहिए।
(18). यथासम्भव दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलते हैं, वे रोगी होते हैं। 
(19). बुधवार और रविवार को पीपल के वृक्ष में जल अर्पित नहीं करना चाहिए।
(20). पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखकर करनी चाहिए। यदि सम्भव हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में पूजा अवश्य करें।
(21). पूजा करते समय आसन मूँज, बाघ या काले हिरण की चर्म, ऊनी हो तो श्रेष्ठ रहेगा।
(22). घर के मन्दिर में सुबह एवं शाम को दीपक अवश्य जलायें। एक दीपक घी का और एक दीपक सरसों के तेल का जलाना चाहिए।
(23). पूजन-कर्म और आरती पूर्ण होने के बाद उसी स्थान पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएं अवश्य करनी चाहिए।
(24). भगवान् के श्री चरणों की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान् के समस्त अंगों की कम से कम सात बार आरती करनी चाहिए।
पूजा आराधना सम्बन्धी मान्यताएँ :: सुखी और समृद्धिशाली जीवन के लिए देवी-देवताओं की पूजा-आराधना की जाती है, जिसमें शास्त्रीय विधि-विधान का पालन किया जाता है।
(1). सूर्य भगवान्, गणेश जी महाराज, माँ दुर्गा, भगवान् शिव और भगवान् विष्णु; ये पंचदेव हैं, जिनकी पूजा सभी शुभ कार्यों में अनिवार्य रूप से की जाती है। प्रतिदिन पूजन करते समय इन पंचदेव का ध्यान करना चाहिए। माँ लक्ष्मी की कृपा और समृद्धि हेतु इनका ध्यान-पूजन नियमित रूप से किया जाना चाहिए।
(2). भगवान् शिव, गणेश जी और भैरव को तुलसी नहीं चढ़ाई जाती।
(3). माँ दुर्गा को दूर्वा (एक प्रकार की घास) नहीं चढ़ाई जाती। यह गणेश जी को विशेष रूप से अर्पित की जाती है।
(4). सूर्य भगवान् को शंख के जल से अर्घ्य नहीं दिया जाता।
(5). तुलसी का पत्ता बिना स्नान किए नहीं तोड़ना चाहिए। अशुद्ध स्त्री को कभी भी माँ तुलसी के समक्ष नहीं जाना चाहिए। रविवार, एकादशी, द्वादशी, संक्रान्ति तथा सँध्या काल में तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ना चाहिए। रविवार को तुलसी को जल भी नहीं दिया जाता। कोई भी पत्ता, फूल दिन ढ़लने के बाद नहीं तोड़ना चाहिये।
(6). देवी-देवताओं का पूजन दिन में पाँच बार करना चाहिए। सुबह 5 से 6 बजे तक ब्रह्म मुहूर्त में पूजन और आरती होनी चाहिए। इसके बाद प्रात: 9 से 10 बजे तक दूसरी बार का पूजन। दोपहर में तीसरी बार पूजन करना चाहिए। इस पूजन के बाद भगवान् को शयन करवाना चाहिए। शाम के समय चार-पाँच बजे पुन: पूजन और आरती। रात को 8-9 बजे शयन आरती करनी चाहिए। जिन घरों में नियमित रूप से पाँच बार पूजन किया जाता है, वहाँ सभी देवी-देवताओं का वास होता है और ऐसे घरों में धन-धान्य की कोई कमी नहीं होती है। सामान्य परिस्थियों में एक गृहस्थ के लिये यह सम्भव नहीं है, मगर मन्दिर में इसका पालन कठोरता से किया जाना चाहिये।
(7). प्लास्टिक की बोतल में या किसी अपवित्र धातु (एल्युमिनियम, लोहा, स्टील) के बर्तन में गँगाजल नहीं रखना चाहिए। गँगाजल ताँबे के बर्तन में रखा जा सकता है।
वर्तमान काल में प्लास्टिक का प्रचलन इतना ज्यादा है कि पीने के पानी के पाइप, बोतलें आदि सभी इसकी बनी होती हैं।
(8). यदि घर में स्त्रियाँ अपवित्र अवस्था में हों तो पुरुषों को शंख नहीं बजाना चाहिए। 
(9). मन्दिर और देवी-देवताओं की मूर्ति के सामने कभी भी पीठ दिखाकर नहीं बैठना चाहिए।
(10). केतकी का फूल शिवलिंग पर अर्पित नहीं करना चाहिए।
(11). किसी भी पूजा में मनोकामना की सफलता के लिए भेंट दक्षिणा अवश्य चढ़ानी चाहिए। ज्योतिषी, चिकित्सक, हस्तरेखा परीक्षक को अवश्य देनी चाहिए। 
(12). दूर्वा (एक प्रकार की घास) रविवार को नहीं तोड़नी चाहिए।
(13). माँ लक्ष्मी को विशेष रूप से कमल का फूल अर्पित किया जाता है। इस फूल को पाँच दिनों तक जल छिड़क कर पुन: चढ़ा सकते हैं।
(14). भगवान् शिव को प्रिय बिल्व पत्र छह माह तक बासी नहीं माने जाते हैं। इन्हें जल छिड़क कर शिवलिंग पर अर्पित किया जा सकता है।
(15). तुलसी के पत्तों को 11 दिनों तक बासी नहीं माना जाता है। इसकी पत्तियों पर हर रोज जल छिड़कर भगवान् को अर्पित किया जा सकता है।
एक बार चढ़ाये गये नैवेद्य, प्रसाद, फल-पुष्पों, मालाओं को पुनः पूजा के लिए प्रयोग न करें। 
(16). फूलों को किसी पवित्र पात्र में रखकर देवी-देवताओं को अर्पित करना चाहिए।
(17). ताँबे के बर्तन में चन्दन, घिसा हुआ चन्दन या चन्दन का पानी नहीं रखना चाहिए।
(18). यथासम्भव दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलते हैं, वे रोगी होते हैं। 
(19). बुधवार और रविवार को पीपल के वृक्ष में जल अर्पित नहीं करना चाहिए।
(20). पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखकर करनी चाहिए। यदि सम्भव हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में पूजा अवश्य करें।
(21). पूजा करते समय आसन मूँज, बाघ या काले हिरण की चर्म, ऊनी हो तो श्रेष्ठ रहेगा।
(22). घर के मन्दिर में सुबह एवं शाम को दीपक अवश्य जलायें। एक दीपक घी का और एक दीपक सरसों के तेल का जलाना चाहिए।
(23). पूजन-कर्म और आरती पूर्ण होने के बाद उसी स्थान पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएं अवश्य करनी चाहिए।
(24). भगवान् के श्री चरणों की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान् के समस्त अंगों की कम से कम सात बार आरती करनी चाहिए।
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दिशा शूल :: पूर्व दिशा में सोमवार और शनिवार, पश्चिम दिशा में रविवार और शुक्रवार तथा दक्षिण दिशा में गुरुवार को त्याज्य है। बुधवार तो सर्वथा त्याज्य है।अत्यावश्यक होने पर रविवार को पान या घी खाकर, सोमवार को दर्पण देखकर या दूध पीकर, मंगल को गुड़ खाकर, बुधवार को धनिया या तिल खाकर, गुरुवार को जीरा या दही खाकर, शुक्रवार को दही पीकर और शनिवार को अदरक या उड़द खाकर प्रस्थान किया जा सकता है। यदि एक दिन में गंतव्य स्थान पर पहुँचना और फिर वापस आना निश्चित हो तो दिशाशूल विचार की आवश्यकता नहीं है।
AFTER VISITING THE TEMPLE SIT OVER THE STAIRS AND RECITE THIS VERSE :: After darshan in the temple, sit down on the stairs-platform outside for a while. 
Tradition is that after visiting any temple, we come out and sit for a while on the foot of the temple. 
Quietly sitting on the foot of the temple, one should recite the following Shlok.
अनायासेन मरणम्, बिना देन्येन जीवनम्।
देहान्त तव सानिध्यम्, देहि मे परमेश्वरम्॥
अनायासेन मरणम् Anayasen Maranam :- We should die with ease, without any trouble and never fall sick and be confined  to the bed, don't die by suffering but let our lives go as we go about daily life.
बिना देन्येन जीवनम् Bina denyen jeevanam :- There should be no life of dependency. Never have to be with anyone for support. Just as a person becomes dependent on others when he is paralysed, do not be paralysed or helpless. By the grace of Thakur Ji,  (Krashn Ji) life can be lived without being dependent and begging.
देहान्त तव सानिध्यम् Dehante tav sanidhyam :- Whenever death comes, let it be in God’s presence. As at the time of death of Bhishm Pitamah, Thakur (Krashn Ji) himself stood in front of him. Let life be released while having this darshan. 
देहि मे परमेश्वरम् Dehi mey Parmeshwaram :- O God! grant us such a boon.
Recite the above verse while praying to God. Do not ask for job, car, bungalow, boy, girl, husband, wife, house, money etc. (i.e., worldly things), this God himself gives you according to your eligibility.  That is why one must sit and pray this prayer after having darshan. This is a prayer, not a solicitation or begging. Prayer is not for worldly things like for home, business, job, son, daughter, worldly pleasures, wealth or other things, whatever is requested like this is begging.
The word prarthana means :- Para means special, best, highest and arthna means request. Prayer thus means ‘special and highest request’.
The darshan of God in the temple should always be done with open eyes. Some people stand there with their eyes closed. Why close our eyes, when we have come to see?  Open your eyes and look at the form of God, nij-swarup, of the divine feet, of the lotus face, of the shrangar, take full enjoyment, fill your eyes with the beautiful nij-swarup.
When you then sit outside after darshan, then meditate on the form you have seen with your eyes closed. Meditate on your own soul within, closing your eyes and if God does not appear in meditation, then go back to the temple and have darshan again.
गाय, कौए चीटी, कुत्ते आदि को भोजन प्रदान करना :: प्रत्येक घर में जब भोजन बनता है तो पहली रोटी गाय के लिए और अंतिम रोटी कुत्ते के लिए होती है। भोजन करने के पूर्व अग्नि को उसका कुछ भाग अर्पित किया जाता है, जिसे अग्निहोत्र कर्म कहते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति को भोजन करते वक्त थाली में से 3 ग्रास (कोल) निकालकर अलग रखना होता है। यह तीन कोल ब्रह्मा, विष्णु और महेश के लिए या मन कथन के अनुसार गाय, कौए और कुत्ते के लिए भी रखा जा सकता है। यह भोजन का नियम है। फिर अंजुली में जल भरकर भोजन की थाली के आसपास दाँए से बाँए गोल घुमाकर अंगुली से जल को छोड़ दिया जाता है। अंगुली से छोड़ा गया जल देवताओं के लिए और अंगूठे से छोड़ा गया जल पितरों के लिए होता है। प्रतिदिन भोजन करते वक्त सिर्फ देवताओं के लिए जल छोड़ा जाता है।
कुत्ता :: कुत्ते को भैरव महाराज का सेवक माना जाता है। कुत्ते को भोजन देने से भैरव महाराज प्रसन्न होते हैं और हर तरह के आकस्मिक संकटों से वे भक्त की रक्षा करते हैं। मान्यता है कि कुत्ते को प्रसन्न रखने से वह आपके आसपास यमदूत को भी नहीं फटकने देता है। कुत्ते को देखकर हर तरह की आत्माएं दूर भागने लगती हैं।
कुत्ता एक ऐसा प्राणी है, जो भविष्‍य में होने वाली घटनाओं और ईथर माध्यम (सूक्ष्म जगत) की आत्माओं को देखने की क्षमता रखता है। कुत्ता कई किलोमीटर तक की गंध सूँघ सकता है। कुत्ते को हिन्दू धर्म में एक रहस्यमय प्राणी माना गया है, लेकिन इसको भोजन कराने से हर तरह के संकटों से बचा जा सकता है।
कुत्ता एक वफादार प्राणी होता है, जो हर तरह के खतरे को पहले ही भाँप लेता है। प्राचीन और मध्‍य काल में पहले लोग कुत्ता अपने साथ इसलिए रखते थे ताकि वे जंगली जानवरों, लुटेरों और भूतादि से बच सके। बंजारा जाति और आदिवासी लोग कुत्ते को पालते थे ताकि वे हर तरह के खतरे से पहले ही सतर्क हो जाएं। भारत में जंगल में रहने वाले साधु-संत भी कुत्ता इसीलिए पालते थे ताकि कुत्ता उनको खतरे के प्रति सतर्क कर दे। आजकल लोग घर में कुत्ता इसलिए पालते हैं कि वह उनके घर की चोरों से रक्षा कर सके। लेकिन कुत्ता पालना खतरनाक भी हो सकता है और फायदेमंद भी इसलिए कुत्ता पालने से पहले किसी धर्मज्ञ और लाल किताब के विशेषज्ञ से सलाह जरूर ले लें। कुत्ता आपको राजा से रंक और रंक से राजा बना सकता है।
ब्राह्मण को कभी भी कुत्ता नहीं पालना चाहिये। 
कुत्ते के भौंकने और रोने को अपशकुन माना जाता है। कुत्ते के भौंकने के कई कारण होते हैं उसी तरह उसके रोने के भी कई कारण होते हैं, लेकिन अधिकतर लोग भौंकने या रोने का कारण नकारात्मक ही लेते हैं।
अपशकुन शास्त्र के अनुसार श्वान का गृह के चारों ओर घूमते हुए क्रंदन करना अपशकुन या अद्‍भुत घटना कहा गया है और इसे इन्द्र से संबंधित भय माना गया है।
सूत्र-ग्रंथों में भी श्वान को अपवित्र माना गया है। इसके स्पर्श व दृष्टि से भोजन अपवित्र हो जाता है। इस धारणा का कारण भी श्वान का यम से संबंधित होना है।
शुभ कार्य के समय यदि कुत्ता मार्ग रोकता है तो विषमता तथा अनिश्चय प्रकट होते हैं।
कुत्ते को प्रतिदिन भोजन देने से जहाँ दुश्मनों का भय मिट जाता है, वहीं व्यक्ति निडर हो जाता है।
कुत्ता पालने से लक्ष्मी आती है और कुत्ता घर के रोगी सदस्य की बीमारी अपने ऊपर ले लेता है।
यदि संतान की प्राप्ति नहीं हो रही हो तो काले कुत्ते को पालने से संतान की प्राप्ति होती है।
कुत्ता केतु का प्रतीक है। कुत्ता पालने या कुत्ते की सेवा करने से केतु का अशुभ प्रभाव समाप्त हो जाता है। पितृ पक्ष में कुत्तों को मीठी रोटी खिलानी चाहिए।
कौआ :: कौए को अतिथि-आगमन का सूचक और पितरों का आश्रम स्थल माना जाता है। इसने अमृत का स्वाद चख लिया था, इसलिए मान्यता के अनुसार इस पक्षी की कभी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती। कोई बीमारी एवं वृद्धावस्था से भी इसकी मौत नहीं होती है। इसकी मृत्यु आकस्मिक रूप से ही होती है।
जिस दिन किसी कौए की मृत्यु हो जाती है उस दिन उसका कोई साथी भोजन नहीं करता है। कौआ अकेले में भी भोजन कभी नहीं खाता, वह किसी साथी के साथ ही मिल-बांटकर भोजन ग्रहण करता है।
कौआ लगभग 20 इंच लंबा, गहरे काले रंग का पक्षी है जिसके नर और मादा एक ही जैसे होते हैं। कौआ बगैर थके मीलों उड़ सकता है। कौए को भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पहले से ही आभास हो जाता है।
श्राद्ध पक्ष में कौओं का बहुत महत्व माना गया है। इस पक्ष में कौओं को भोजन कराना अर्थात अपने पितरों को भोजन कराना माना गया है। कोई भी क्षमतावान आत्मा कौए के शरीर में स्थित होकर विचरण कर सकती है।
भादौ महीने के 16 दिन कौआ हर घर की छत का मेहमान बनता है। ये 16 दिन श्राद्ध पक्ष के दिन माने जाते हैं। कौए एवं पीपल को पितृ प्रतीक माना जाता है। इन दिनों कौए को खाना खिलाकर एवं पीपल को पानी पिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है।
श्राद्ध पक्ष में कौए को भक्ति और विनम्रता से यथाशक्ति भोजन कराना चाहिये। कौए को पितरों का प्रतीक मानकर श्राद्ध पक्ष के 16 दिनों तक भोजन कराया जाता है। माना जाता है कि कौए के रूप में हमारे पूर्वज ही भोजन करते हैं। कौए को भाजन कराने से सभी तरह का पितृ और कालसर्प दोष दूर हो जाता है।[विष्णु पुराण]
शनि को प्रसन्न करना हो तो कौवों को भोजन कराना चाहिए।
घर की मुंडेर पर कौवा बोले तो मेहमान जरूर आते हैं।
कौवा घर की उत्तर दिशा में बोले तो घर में लक्ष्मी आती है।
पश्चिम दिशा में बोले तो मेहमान आते हैं।
पूर्व में बोले तो शुभ समाचार आता है।
दक्षिण दिशा में बोले तो बुरा समाचार आता है।
कौवे को भोजन कराने से अनिष्ट व शत्रु का नाश होता।
गाय :: गाय का थलचर जंतुओं में सबसे ऊँचा स्थान है। पुराणों के अनुसार गाय में सभी देवताओं का वास माना गया है। गाय को किसी भी रूप में सताना घोर पाप माना गया है। उसकी हत्या करना तो नर्क के द्वार को खोलने के समान है, जहाँ कई जन्मों तक दुख भोगना होता है।
गाय ही व्यक्ति को मरने के बाद वैतरणी नदी पार कराती है। भारत में गाय को देवी का दर्जा प्राप्त है। गाय के भीतर देवताओं का वास माना गया है। दिवाली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा के अवसर पर गायों की विशेष पूजा की जाती है और उनका मोर पंखों आदि से श्रृंगार किया जाता है।
"धेनु सदानाम रईनाम" अर्थात गाय समृद्धि का मूल स्रोत है। गाय समृद्धि व प्रचुरता की द्योतक है। वह सृष्टि के पोषण का स्रोत है। वह जननी है। गाय के दूध से कई तरह के प्रॉडक्ट (उत्पाद) बनते हैं। गोबर से ईंधन व खाद मिलती है। इसके मूत्र से दवाएं व उर्वरक बनते हैं।
गाय इसलिए पूजनीय नहीं है कि वह दूध देती है और इसके होने से हमारी सामाजिक पूर्ति होती है, दरअसल मान्यता के अनुसार 84 लाख योनियों का सफर करके आत्मा अंतिम योनि के रूप में गाय बनती है। गाय लाखों योनियों का वह पड़ाव है, जहां आत्मा विश्राम करके आगे की यात्रा शुरू करती है।
गाय का कोई अपशकुन नहीं होता। जिस भू-भाग पर मकान बनाना हो, वहाँ 15 दिन तक गाय-बछड़ा बाँधने से वह जगह पवित्र हो जाती है। भू-भाग से बहुत-सी आसुरी शक्तियों का नाश हो जाता है।
गाय में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार होता है।
गाय का मार्ग रोकना शुभ कहा गया है।
गाय-बछड़े के एकसाथ दर्शन सफलता का प्रतीक है।
घर के आसपास गाय होने का मतलब है कि आप सभी तरह के संकटों से दूर रहकर सुख और समृद्धिपूर्वक जीवन जी रहे हैं।
गाय के समीप जाने से ही संक्रामक रोग कफ, सर्दी-खांसी व जुकाम का नाश हो जाता है।
अचानक गाय का पूंछ मार देना भी शुभ है। काली चितकबरी गाय का ऐसा करना तो और भी शुभ कहा गया है।
पंचगव्य :- पंचगव्य कई रोगों में लाभदायक है। पंचगव्य का निर्माण गाय के दूध, दही, घी, मूत्र, गोबर द्वारा किया जाता है। पंचगव्य द्वारा शरीर की रोग निरोधक क्षमता को बढ़ाकर रोगों को दूर किया जाता है। ऐसा कोई रोग नहीं है जिसका इलाज पंचगव्य से न किया जा सके।
चींटी :: हर समय हम चींटियों को नजर अंदाज करते हैं, उन्हें पैरों तले कुचल देते हैं और उन्हें काटने वाले दुष्टों से अधिक कुछ नहीं समझते। किंतु चींटी बहुत ही मेहनती और एकता से रहने वाली जीव होती है। सामूहिक प्राणी होने के कारण चींटी सभी कार्यों को बाँटकर करती है। इसमें नर चींटी की कोई भूमिका नहीं होती है।
विश्वभर में चींटियों की लगभग 14,000 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। ये 1 मिलीमीटर से लेकर 4 सेंटीमीटर तक की लंबाई की होती हैं। जिन चींटियों को हम सबसे अधिक पहचानते हैं, उनमें हैं काली चींटी, मकोड़ा। पेड़ों पर रहने वाली लाल चींटी, जो काटने के लिए मशहूर है और छोटी काली चींटी, जो गुड़ आदि मीठी चीजों की ओर अद्भुत आकर्षण दर्शाती है।
चींटी के बारे में वैज्ञानिकों ने कई रहस्य उजागर किए हैं। चींटियां आपस में बातचीत करती हैं, वे नगर बनाती हैं और भंडारण की समुचित व्यवस्था करना जानती हैं। हमारे इंजीनियरों से कहीं ज्यादा बेहतर होती हैं ‍चींटियां। चींटियों का नेटवर्क दुनिया के अन्य नेटवर्क्स से कहीं बेहतर होता है। ये मिलकर एक पहाड़ को काटने की क्षमता रखती हैं। चींटियां शहर को स्वच्छ रखने में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। चींटियां खुद के वजन से 100 गुना ज्यादा वजन उठा सकती हैं। मानव को चींटियों से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।
चींटी का मुख्य कार्य है, वृक्ष तथा झाड़ी आदि के आसपास मरे हुए छोटे-छोटे जीवों को खाकर उन्हें समाप्त करना, गंदगी को दूर करना, उनके द्वारा हो सकने वाली बीमारी के भय के कारण को खत्म करना। यह कार्य इतना सूक्ष्म है कि इसे और कोई प्राणी नहीं कर सकता।
चींटियां दो प्रकार की होती हैं, लाल और काली। इनमें से लाल को अशुभ और काली को शुभ माना गया है। दोनों ही तरह की चींटियों को आटा डालने की परंपरा प्राचीनकाल से ही विद्यमान है। चींटियों को शकर मिला आटा डालते रहने से व्यक्ति हर तरह के बंधन से मुक्त हो जाता है। हजारों चींटियों को प्रतिदिन भोजन देने से वे चींटियां उक्त व्यक्ति को पहचानकर उसके प्रति अच्छे भाव रखने लगती हैं और उसको वे दुआ देने लगती हैं। चींटियों की दुआ का असर आपको हर संकट से बचा सकता है।
लाल चींटियों की कतार मुंह में अंडे दबाए निकलते देखना शुभ है। सारा दिन शुभ और सुखद बना रहता है।
जो चींटी को आटा देते हैं और छोटी-छोटी चिड़ियों को चावल देते हैं, वे वैकुंठ जाते हैं।
कर्ज से परेशान लोग चींटियों को शकर और आटा डालें। ऐसा करने पर कर्ज की समाप्ति जल्दी हो जाती है।
गाय को खिलाने से घर की पीड़ा दूर होगी। कुत्ते को खिलाने से दुश्मन दूर रहेंगे। कौए को खिलाने से पितृ प्रसन्न रहेंगे। पक्षी को खिलाने से व्यापार-नौकरी में लाभ होगा। चींटी को खिलाने से कर्ज समाप्त होगा और मछली को खिलाने से समृद्धि बढ़ेगी।
BIRTHDAY CELEBRATION :: अक्सर ऐसा देखा जाता है कि लोग अपना जन्मदिन 12 बजे यानि निशीथ काल ( प्रेत काल) में मनाते हैं। निशीथ काल रात्रि को वह समय है जो समान्यत: रात 12 बजे से रात 3 बजे की बीच होता है। सामान्य व्यक्ति इसे मध्यरात्रि या अर्ध रात्रि काल कहते हैं। यह समय अदृश्य शक्तियों, भूत व पिशाच का काल होता है। इस समय में यह शक्ति अत्यधिक रूप से प्रबल हो जाती हैं।
आसुरी ताकतें जो दिखाई नहीं देतीं, बहुधा प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, जिससे जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है और जातक दिशाहीन हो जाते है। जन्मदिन की समारोह में अक्सर ऐसा होता है।  ऐसे प्रेत काल में केक काटना, मदिरा व माँस का सेवन करने से अदृश्य शक्तियाँ व्यक्ति की आयु व भाग्य में कमी करती हैं और दुर्भाग्य उसके द्वार पर दस्तक देता है। साल के कुछ दिनों को छोड़कर जैसे दीपावली, 4 नवरात्रि, जन्माष्टमी व शिवरात्रि पर निशीथ काल महानिशीथ काल बन कर शुभ प्रभाव देता है, जबकि अन्य समय में दूषित प्रभाव देता है।
यही सब कुछ new year celebration पर लागु होता है।
रात के समय दी गई शुभकामनाएं प्रतिकूल फल देती हैं।
अग्नि को बुझा कर उत्सव मनाना अंधेरे और असुरों को निमंत्रण देना है जो कि पुण्य कर्मों को क्षीण करता है।
शास्त्रों के अनुसार दिन की शुरुआत सूर्योदय के साथ ही होती है और यही समय ऋषि-मुनियों के तप का भी होता है। इसलिए इस काल में वातावरण शुद्ध और नकारात्मकता विहीन होता है।अतः सूर्योदय होने के बाद ही व्यक्ति को जन्म दिन की शुभकामनाएं देना चाहियें, क्योंकि रात के समय वातावरण में रज और तम  कणों की मात्रा अत्याधिक होती है और उस समय दी गई बधाई या शुभकामनाएं फलदायी ना होकर अनिष्टकारी बन जाती हैं।
अंधविश्वास, टोटके और लोक परंपरा :: यदि किसी घटना का साक्ष्य, प्रमाण, पुनरावर्ती अनेकानेक लोगों के समक्ष, विभिन्न स्थानों पर, परिस्थियों में, समय पर हो तो वह रिवाज बन जाती है, भले ही उसका कोई कारण ज्ञात न हो।
यदि काली बिल्ली बाएं से दायें रास्ता काट जाये, तो थोड़ी देर के लिए रुक जाना भला। 
यात्रा के लिए जाते समय अगर कोई पीछे से टोक दे तो थोड़ी देर के लिए रुक जाना भला। 
मंगलवार को हनुमान जी की आराधना का दिन होने और गुरुवार को वृहस्पति की पूजा का दिन होने से इन दोनों दिन बाल ना कटवाना और दाढ़ी न बनवाना। 
घर, वाहन या दुकान के बाहर नींबू-मिर्च लटकाना। 
अगर कोई आगे से छींक दे तो कार्य को थोड़ी देर के लिए टाल देना भला। 
घर से बाहर निकलते वक्त अपना दाँया पैर ही पहले बाहर निकालना चाहिए। 
जूते-चप्पल उल्टे नहीं रखने चाहिए। 
रात में किसी पेड़ के नीचे नहीं सोना चाहिए क्योंकि वे रात में कार्बन डाइ ऑक्साइड छोड़ते हैं। 
रात में बैंगन, दही, कढ़ी, चने, राजमा, अरबी, छोले, चावल और खट्टे पदार्थ नहीं खाने चाहिए क्योंकि ये बादी करते हैं-गैस बनाते हैं और अपच-एसिडिटी करते हैं। 
रात में झाडू इसलिए नहीं लगाते, क्योंकि रात्रि में निशाचर, वेश्याएँ दुष्ट शक्तियाँ मुखर होती हैं। खड़ी झाड़ू की सींक से दुर्घटना हो सकती है।
अंजुली से या खड़े होकर जल नहीं पीना चाहिए, क्योंकि इस प्रक्रिया से घुटने का दर्द हो सकता है। 
बाँस का प्रयोग काठी बनाने के लिए किया जाता है। बाँस जलने पर विस्फोटक की तरह कार्य करता है और दुर्घटना हो सकती है। 
मुर्दे की काठी को घर से बाहर निकालते वक्त पैर पहले बाहर निकलते हैं।
मूर्ति पूजा :: 
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। 
हिरण्यगर्भस इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान जात: इत्येष:॥ 
जिस परमात्मा की हिरण्यगर्भ, मा मा और यस्मान जात आदि मंत्रों से महिमा की गई है, उस परमात्मा (आत्मा) का कोई प्रतिमान नहीं। अग्‍नि‍ वही है, आदि‍त्‍य वही है, वायु, चंद्र और शुक्र वही है, जल, प्रजापति‍ और सर्वत्र भी वही है। वह प्रत्‍यक्ष नहीं देखा जा सकता है। उसकी कोई प्रति‍मा नहीं है। उसका नाम ही अत्‍यं‍त महान है। वह सब दि‍शाओं को व्‍याप्‍त कर स्‍थि‍त है। [यजुर्वेद 32]
मनुष्य जिस भी मूर्त या मृत रूप की पूजा, आरती, प्रार्थना या ध्यान कर रहे हैं, वह ईश्‍वर नहीं है, ईश्वर का स्वरूप भी नहीं है।[केनोपनिषद] 
जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है यथा :- मनुष्‍य, पशु, पक्षी, वृक्ष, नदी, पहाड़, आकाश आदि; जो कुछ भी श्रवण किया आज रहा है यथा संगीत, गर्जना आदि केवल इंद्रियों का विषय है, ईश्वरीय नहीं है। ईश्वर के द्वारा हमें देखने, सुनने और सांस लेने की शक्ति प्राप्त होती है। जानकार निराकार सत्य को मानते हैं, जो कि सनातन सत्य है। वेद के अनुसार ईश्‍वर की न तो कोई प्रति‍मा या मूर्ति‍ है और न ही उसे प्रत्‍यक्ष रूप में देखा जा सकता है।भक्त भी अच्छी तरह जनता है कि मूर्ति-प्रतिमा केवल माध्यम है, भगवान् नहीं है, बल्कि उसका काल्पनिक रूप-छवि है। यह केवल भक्त को ध्यान केंद्रित करने में सहायक है।
सती प्रथा :- Hinduism do not advocate woman self immolation with the dead body of her husband. Some instances are there which are purely voluntary. Mata Sati immolated her in Yogic-divine fire and her husband Bhagwan Shiv is still present. For further knowledge Please refer to :: SATI SYSTEM & WIDOW REMARRIAGE सती प्रथा और विधवा विवाह bhartiyshiksha.blogspot.com 
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा
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Saturday, March 7, 2015

VEGETARIANISM शाकाहार :: HINDU PHILOSOPHY (12) हिंदु दर्शन

शाकाहार
VEGETARIANISM
HINDU PHILOSOPHY (12) हिंदु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
 Almost everyone who has died due to CHINESE VIRUS CORONA is a meat eater.[07.04.2020]
BIRD'S FLU :: Also known as Avian influenza it refers to the disease caused by infection with avian (bird) influenza (flu) Type A viruses. These viruses occur naturally among wild aquatic birds worldwide and can infect domestic poultry and other bird and animal species. More than 12,000 birds will be killed in Kerala since a few of them were found to possess bird's flue virus.[11.03.2020]
CORONA VIRUS DISEASE 2019 (COVID-19) :: SARS-CoV-2 virus is a betacoronavirus, like MERS-CoV and SARS-CoV have their origins in bats. China had some link to a large seafood and live animal market, suggesting animal to person spread. So far more than 300 people have died. However some people claim the number of deaths around 60,000.

Mix half spoon Lemon juice & a pinch of Sodium bicarbonate-baking soda in half glass luck warm water and drink it twice in a day. Avoid extreme cold.
कोरोना, कफ़-बलगम, खाँसी-गले में ख़राश, निमोनिया और दमा  इलाज़ (1) :: बीदाना, गुल बनफ़शा, उन्नाव, सपिसवाँ, खतनी, मुलहटी, ख़ाबीज़, बड़ी-पीपली, देसी गुलाब की पत्तियाँ, सौंठ, दाल चीनी, सौंफ और चिराता प्रत्येक 50-100 ग्राम मात्रा में एक साथ कूट लें। इस मसाले को 1/4 चम्मच, सुबह-शाम चाय में एक कप दूध और एक चम्मच चीनी के साथ मिलाकर पीयें। शुरु में पसीने का साथ बलगम निकलेगा। धीरे-धीरे छाती-फैंफड़ों और स्वाँस नली में जमा बलगम निकलना शुरु हो जायेगा। अधिक मात्रा में प्रयोग से नाक से खून आ सकता है। बहुत अधिक ठंड और गर्मी से बचें। माँस, मछली, अंडे, शराब और बीड़ी-सिगरेट और किसी भी प्रकार का नशा कदापि न करें। (2).  जुशाँदा का काढ़ा पीयें। गरम पानी में नींबू के रस में शहद और खाना सोड़ा मिलाकर पीयें। [09.05.2020]
BIRD FLU :: Bird flu occurs naturally in wild waterfowl and can spread into domestic poultry, such as chickens, turkeys, ducks and geese.  Casualties more than 15,000.
BRAIN FEVER (Variants) ::
Encephalitis, an acute inflammation of the brain, commonly caused by a viral infection.
Meningitis, the inflammation of the membranes covering the brain and spinal cord. A human version of mad cow disease called variant Creutzfeldt-Jakob disease (vCJD) is believed to be caused by eating beef products contaminated with central nervous system tissue, such as brain and spinal cord, from cattle infected with mad cow disease
Cerebritis, inflammation of the cerebrum.
Scarlet fever, infectious disease whose symptoms can include paranoia and hallucinations.
Causalities more than 20,000.
PIG MEAT-PORK :: Trichinosis, also called trichinellosis or trichiniasis, is a parasitic disease caused by eating raw or under cooked pork infected with the larvae of a species of roundworm Trichinella spiralis, commonly called the trichina worm.
SWINE FLU ::  Its known as the H1N1 virus & is a relatively new strain of an influenza virus that causes symptoms similar to the regular flu. It originated in pigs but is spread primarily from person to person. It made headlines in 2009 when it was first discovered in humans and became a pandemic-contagious disease, affecting people throughout the world or on multiple continents at the same time.
AIDS VIRUS :: Source :- Rhesus macaque-monkey.
HEALTH CONCERNS LINKED TO MEAT EATING :: These diseases may be caused by eating meat, fish or egg :- 
Heart Disease, Cancer., Stroke-since it causes  blockages in blood vessels, Diabetes, Obesity, Harmful Cholesterol, Acne, Erectile Dysfunction.
जीव हत्या-माँसाहार का परिणाम :: (1). विदेह राजा जनक ने धर्म राज से पूछा कि उन्हें किस अपराध के कारण नर्क तक आना पड़ा ? धर्म राज ने उन्हें बताया कि किसी गाय को उन्होंने चरने से रोका था। अत: उन्हें नर्क के द्वार तक आना पड़ा। गाय को घर में  प्यास रहना पड़े, घास चरने से रोका जाये, डंडे आदि से मारा जाये, काटा जाये; तो ऐसा करने वाला नरक गामी होता है। यही स्थिति गौ माँस खाने, बेचने, खरीदने वालों की भी होती है।
(2). गौ से द्रोह करने वाला, किंकर नामक नरक में, गौ के रोमों की सँख्या से हजार गुना वर्षों तक रहता है। 
(3). जो लोग प्राणियों का वध करते हैं, उन्हें रौरव नर्क में डाला जाता है, जहाँ रुरु नामक पक्षी उसका शरीर नोचते हैं। 
(4). जो पेट भरने के लिये जीव हत्या करता है, उसे महा रौरव नामक नर्क में डाला जाता है। 
दैवी प्रकृति के व्यक्ति में भय का अभाव, अन्तःकरण की स्वच्छता, तत्व ज्ञान के लिये निरन्तर ध्यान योग में स्थिति, दान, इन्द्रिय संयम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शान्ति, चुगली न करना, समस्त प्राणियों पर दया, अलोलुपता, मृदुता, लज्जा, अचञ्चलता, तेज, क्षमा, घृति, शौच, वैरभाव का न होना, अभिमान शून्यता आदि सद्गुण होते हैं। 
आसुरी प्रकृति के व्यक्ति दैवी प्रकृति के व्यक्तियों से सर्वथा भिन्न-विपरीत होते हैं। उनमें अकर्मण्यता, विवेकहीनता, अनिर्णय और अशौच प्रमुखता से पाए जाते हैं। सदाचार, सत्य का पूर्ण अभाव रहता है। "जगत की उत्पत्ति दैवीय-ईश्वरीय है", यह वे नहीं मानते। वे काम-वासना को ही जगत का हेतु समझते हैं। अल्पबुद्धि और क्रूरकर्मी होते हैं। उनकी इच्छाएँ-कल्पनाएँ ऐसी होती हैं, जिनका पूरा होना सर्वथा असंभव है। उनमें दम्भ, मान, मोह, मद की प्रधानता होती है। आशा, तृष्णा, संचय उनकी सामान्य प्रवृत्ति है। शत्रुता, बदले की भावना बनी रहती है। अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझते हैं। यज्ञ, दान, सिद्धियों की प्राप्ति दूसरों पर अधिकार और शासन तथा स्वर्ग-सुखभोग की प्राप्ति के हेतु करते हैं। अनाचार, परनिंदा, क्रोध, दर्प, दंभ अहंकार और ईश्वर से द्वेष और स्वयं को ईश्वर मानना, उनका स्वाभाविक अवगुण है। माँस, मद्य-मदिरा, अश्लीलता, मैथुन में उनकी प्रवृत्ति बानी रहती है। उनकी मनोवृत्ति (mentality), प्रवृत्ति (tendency, inclination) प्रकृति (nature) हिंसक होती है।  
असुर का अर्थ है प्राण का पोषण करने वाला। जो अपने सुख के लिये दूसरों की हिंसा करे, वह असुर है। 
आसुरी प्रवृत्ति के व्यक्ति पढ़-लिखकर विद्वान होने पर भी देहासक्ति और देहाभिमान नहीं छोड़ पाते और शब्दों का अपने हेतु अनुपयुक्त प्रयोग करते हैं।  
किसी भी शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं जिनको स्थिति के अनुरूप प्रयुक्त किया जाता है। अज्ञानी, अल्पज्ञानी, अक्सर शब्दों का गलत प्रयोग करते हैं या फिर उनका गलत अर्थ निकलते है।  संस्कृत भाषा के अन्यानेक समानार्थक शब्द विश्व की लगभग सभी भाषाओँ में मिलते है और भारत की लगभग हर भाषा में इनके अपभ्रंश मौजूद हैं। 
हिंसा का अर्थ भी इसी प्रकार गलत लगाया जाता है। किसी को दण्ड देने के लिये की गई हिंसा, हिंसा नहीं है। दस्युओं, हत्यारों, आतातियों, आतंकवादियों, आक्रमणकारियों, पापियों को मृत्युदण्ड तो कदापि हिंसा नहीं है। जबरदस्ती युद्ध थोपने पर आक्रमणकारियों को मारना हिंसा में नहीं आता। आखेट, भोजन के लिये पशुवध निंदनीय घोर हिंसा है। 
"मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तSभ्य सूयका:" 
वेद में कहीं भी गाय, घोड़े या नरबलि का विधान नहीं है। किसी भी यज्ञ में पशु के रक्त-माँस से सन्तुष्ट करने की कल्पना तो पूरी तरह से बीभस्त है। यह ईश्वर द्रोह है। परमेश्वर जगत के श्रष्टि कर्ता और पालनहार हैं, उनकी संतुष्टि माँस-मदिरा से कदापि नहीं की जा सकती। 
"मांसानां खादनं तद्वन्निशाचर समीरितम्"     
मद्य-माँस की प्रथा पूरी तरह असुरों, पाशविक, पैशाचिक प्रवृत्ति वालों की कृति है।
प्राचीन काल से मनुष्य यज्ञ-यागादि में केवल अन्न का ही प्रयोग करते थे। [महाभारत अनुशासन पर्व]
Please refer to :: SHRIMAD BHAGWAD GEETA (16) श्रीमद् भगवद्गीताsantoshkipathshala.blogspot.com
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति॥
हे अग्निदेव! आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसा रहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुँचता है।[ऋग्वेद 1.4]
हे अग्ने! तुम जिस यज्ञ में विराजमान सर्वथा रहते हो, उसमें बाधा असम्भव है।
Hey Agni Dev! You are capable of protecting the devotees. The Yagy which is free from violence (animal sacrifice) is acceptable to the demigods-deities.
Hinduism do not promote animal killing either for eating or sacrifices in holy fire & the ritualistic prayers. 
 
क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः। 
इहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन्॥
मैं माँस खाने वाली या जलाने वाली अग्नि को दूर हटाता हूँ, यह पाप का भर ढ़ोने वाली है; अतः यमराज के घर जाये। इससे अलग जो सर्वज्ञ पवित्र अग्निदेव हैं, उनको यहाँ स्थापित करता हूँ। वे हविष्य को देवताओं तक पहुँचायें, क्योंकि वे सब देवताओं को जानने वाले हैं।[ऋग्वेद 7.6.21.9] 
Veds are Almighty's words meant to control the humans from unwanted-undesirable actions-behaviour. Nothing has been said in them, which may pursue-direct one to violence, sensuality, sexuality. Veds prevent one from sin and guide-moves him to austerity, piousness, righteousness, honesty, truthfulness. 
Yagy simply means non violence, worship-prayers to God, holy sacrifices in fire, donations, and making one civilised-cultured. Cow is prayed by the descendants of demigods till today. 
Before beginning a Yagy some of it is kept out considering as the portion which engulf the insects, contaminated goods, untouchables. This is meant for the demigod of death Yam Raj.
ANIMAL HUMAN SACRIFICE पशु अथवा मानव बलि ::
मा नस्तनये नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिष:।
हमारे पुत्रों, पशुओं गायों और घोड़ों को हिंसाजनित मृत्यु से बचावें।[ऋग्वेद 1.114.8] 
Protect our sons, animals-cattle, cows, horses from violent death i.e., killing.
Hinduism does not advocate human or animal sacrifice of any kind-nature.
Quotes from Veds :: 
पशुन् पाहि, गां मा हिंसी:, अजां मा हिंसी:, अविं मा हिंसी:। इमं मा हिंसीर्द्विपादं पशुम्, मा हिंसिरेकशफं पशुम्, मा हिस्यात् सर्वा भूतानि। 
पशुओं को न मारो। गाय को न मारो। बकरी को न मारो। भेड़ को न मारो। इन दो पैर वाले पशुओं को न मारो। एक खुर वाले (घोड़े-गधे) आदि पशुओं को न मारो। किसी भी प्राणी हिंसा न करो। 
Do not kill animals. Do not kill cow. Do not kill goat. Do not kill sheep. Do not kill these animals with two legs-humans. Do not kill animals (horse, pony & donkey) with two hoops. Do not kill any animal. Veds prohibit the killing of insects as well.
इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्। 
त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम॥
उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊँट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार। [यजु.13.50]
Do not kill those animals which yield wool like sheep-goat, Yolk, camel. Do not kill four legged animals. Do not kill birds. Do not kill two legged.  
न कि देवा इनीमसि न क्या योपयामसि। मन्त्रश्रुत्यं चरामसि॥
देवों! हम हिंसा नहीं करते और न ही ऐसा अनुष्ठान करते हैं, वेद मंत्र के आदेशानुसार आचरण करते हैं। [सामवेद 2.7]
O demigods-deities! We do not resort to violence and do not make ritualistic ceremonies involving these killings. We act in accordance with the Veds-scriptures.
यः पौरुषेयेण क्रविषा समंक्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः। 
यो अध्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च॥
जो राक्षस मनुष्य, घोड़े और गाय खाता हो तथा गाय के दूध को चुरा लेता उसका मस्तक काट डालो।[ऋग्वेद]  
The Rig Ved orders the cutting of the head of the demon-monster (humans) who eats humans, cows, horses and steal the milk of the cows. 
वैश्वदेव तु निर्वृत्ते यद्यन्योSतिथिराव्रजेत्। 
तस्याप्यन्नन् यथाशक्ति प्रदद्यान्न बलिं हरेत्॥
बलि वैश्वदेव कर्म समाप्त होने पर यदि दूसरा अथिति आवे तो उसे भी पुनः पाक करके यथाशक्ति भोजन करावे। पर उस अन्न की बलि न करे।[मनु स्मृति 3.108]
If yet another guest turn up after the completion of the Vaeshv Dev sacrifices, the house hold should prepare the food yet again; but he should not make sacrifices with it.
Some misguided people draw the meaning of BALI-sacrifice as human or animal sacrifices and butcher horse, buffalo, cows, goats, hens etc. which is not permissible in scriptures. The Veds do not permit consumption of meat or sacrificing of animals.
अनभ्यासेन वेदानामाचारस्य च वर्जनात्। 
आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ्जिघांसति॥
वेदों का अभ्यास न करने से, अपने आचार को छोड़ देने से, आलस्य करने से और दूषित अन्न खाने से मृत्यु ब्राह्मणों को मारने की इच्छा करती है। [मनु स्मृति 5.4] 
The Brahmn invite untimely death by neglecting the study-practice of Veds, deviating from the conduct meant for the Brahmns described in scriptures, becoming lazy and eating contaminated, stale, unhealthy food.
Death is imminent, but life span is increased by adopting suitable eating habits, exercise, performing Yog.
लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च। 
अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च॥
लहसुन, गाजर, प्याज और गोबर छत्ता तथा अशुद्ध (माँस, मछली, अंडा; विष्ठा इत्यादि से होने वाले) पदार्थ, द्विजातियों के लिये अखाद्य हैं।[मनु स्मृति 5.5] 
Eating of Garlic, leeks and onions, mushrooms, meat, fish & eggs  and all plants which springing from impure substances like compost, rotten meat etc. are prohibited for the Brahmns.
All plants have medicinal value-properties. If one has to take something as medicine its allowed. during emergency there is no restriction. Regular use of these things is definitely harmful for everyone. Ayur Ved is the most advanced & developed medical science which can cure all ailments except death.
Please refer to :: AYUR VED आयुर्वेद(Chapter 1-14 & Cancer) bhartiyshiksha.blogspot.com
क्रव्यादान् शकुनान् सर्वान्तथा ग्रामनिवासिनः। 
अनिर्दिष्टांश्चेकशफान् टिट्टिभं च विवर्जयेत्॥
कच्चे माँस खाने वाले (गिद्ध, चील, कौवा) और गाँव-घर में रहने वाले (कबूतर) आदि का माँस न खायें। जिनके नाम का निर्देश न किया गया हो ऐसे एक खुर वाले घोड़े और गधे आदि का माँस भी अभक्ष्य है। टिटहरी पक्षी का माँस भी वर्जित है।[मनुस्मृति 5.11] 
The vultures which eat raw meat, domestic birds like pigeon, horse & donkey are excluded from the category of animals-birds, whose meat is unfit for human consumption,.
कलविङ्कं प्लवं हंसं चक्राह्वं ग्रामकुक्कुटम्। 
सारसं रज्जुवालं च दात्यूहं शुकसारिके॥
चटका, गौरैया, पपीहा, हंस, चकवा, ग्राम कुक्कुट-मुर्गा, बत्तख, रज्जूवाल, जालकाक, सुग्गा और मैना; इन पक्षियों का माँस न खायें। [मनुस्मृति 5.12]
One should not eat the meat of carnivorous birds like Chatka, Sparrow-Gouraeya-domestic bird, Papeeha, Hans, village cock, swan, duck, Tittibha (Parra Jacana, Jal Kak) Crow, Rajjuwal, Parrot and Maena-Starling.
Humans normally do not eat the meat of carnivorous. 
प्रतुदाञ्जालपादांश्च कोयष्टिनखविष्किरान्। 
निमज्जतश्च मत्स्यादान् सौनं वल्लूरमेव च॥
कठफोड़वा और जिनके चंगुल झिल्ली से जुड़े हों या जलमुर्गा, नख से विदीर्ण कर खाने वाला बाज आदि और पानी में डूबकर मछली खाने वाला पक्षी बगुला, वध स्थान का माँस और सूखा माँस वर्जित है।[मनुस्मृति 5.13] 
One should not eat the meat-flesh of the birds like Woodpecker, birds with web in their feet, Koyashti-a water bird, hawk-which cuts the meat with its claws, Wader-which dives in water to catch fish, meat from a Slaughterhouse and the dried meat.
This is just to remain healthy and live long. 
बकं चैवं बलाकां च काकोलं खञ्जरीटकम्। 
मत्स्यादान्विड्वराहांश्च मत्स्यानेव च सर्वशः॥
बगुला, बलाक, द्रोणकाक, खञ्जन, मछली खाने वाला, जलजीव मगर आदि, ग्राम्य-शूकर और सब प्रकार की मछलियाँ न खायें।[मनुस्मृति 5.14] 
Wader, crane, the raven, the wagtail-a bird, fish eater, crocodile, village-pigs, and all kinds of fishes should not be eaten.
The village pig eats human excreta and the low caste-origin people eat it. Now  a days, even the well known meat suppliers supply the pig meat by labelling as a farm product like Essex Farm.
यो यस्य मांसमश्नाति स तन्मांसाद उच्यते। 
मत्स्यादः सर्वमांसादस्तस्मामत्स्यान्विवर्जयेत्॥
जो जिसके माँस को खाता है, वो उसका माँस खाने वाला कहलाता है जो मछली खाता है वो सभी को खाने वाला होता है, इसलिए मछली न खायें।[मनुस्मृति 5.15] 
One who eats the flesh of an animal since he will be labelled-called the eater of the flesh of that particular creature-species, he who eats fish is an eater of every kind of flesh.
Water from the drains move to rivers, which carries it to the ocean. All sorts of dead bodies flow in rivers, drains and the ocean. They might be contaminated with deadly germs, virus, bacteria, fungus, microbes. As a matter of fact the Yamuna river flowing through Delhi carries deadliest carcasses and the sewer waste eaten by the fish in turn.
To be on safe side one should use only that food which is grown with the help of well water. Yamuna's contaminated water is used for farming. In Meerut vegetables are grown with the sewer water. One has seen farmers washing reddish in sewer water before bringing them to market for selling. The government is promoting the use of compost for farming, which is extremely harmful and dangerous.
Millions of people die after consuming pig, cow, fish and bird meat every year. These birds & animals eat all sorts of excreta, worms, insects and become the carrier of parasites, germs, viruses etc.
पाठीनरोहितावाद्यौ नियुक्तौ हव्यकव्ययोः। 
राजीवान्सिंहतुण्डांश्च सशल्कांश्चैव सर्वशः॥
पाठीन, बुआरी और रोहित (रोहू) मछली हव्य-कव्य के लिये प्रशस्त कही गई है। राजीव, सिंह तुण्ड और चायते वाली सब मछलियाँ खाद्य हैं (माँसाहारियों-राक्षसों के लिये, ब्राह्मणों के लिये नहीं)। [मनुस्मृति 5.16]
Three varieties of fish viz. Pateen, Buari and Rohit (Rohu, Labeo) Rohita are prescribed for offerings. Fish with Rajeev, Singh Tund and Chayte may be eaten without hesitation.
वर्जयेन् मधु मांसं च भौमानि कवकानि च। 
भूस्तृणं शिग्रुकं चैव श्लेश्मातकफलानि च॥
मधु, माँस, गोबरछत्ता, भूस्तृण, शिग्रुक, श्लेष्मातक, ये सब न खाय।[मनु स्मृति 6.14] 
One should not eat honey, flesh, and mushrooms, Bhustran, Shigruk and the Shleshmatak.
भूस्तृण :: एक प्रकार की घास किसे घटपारी भी कहते हैं; a kind of weed-grass which grow in forests. 
शिग्रुक :: सहजन;  drumstick.  
श्लेष्मातक (लभरा, लिटोरा, लसोड़ा) :: लसलसा-चिपचिपा गूदा, मँझोले आकार का पेड़ जिसके पत्ते बीड़ी बनाने के काम आते हैं, छोटे बेर की झाड़ी के बराबर फल गुच्छे के रूप में लगते हैं,  खाँसी, दमे आदि रोगों में गुणकारी; Cordia myxa. 
"अजेन यष्टव्यम्"
अज के तीन अर्थ हैं :- परमात्मा, अन्न-जिसकी उत्पत्ति के समय का ज्ञान नहीं है और बकरी।[महाभारत] 
सात्विक प्रवृत्ति वाले ऋषिगण इसका अर्थ निकलते हैं कि अन्न से यज्ञ करना चाहिये। परन्तु राक्षसी प्रवृत्ति वाले हैवान इसका मतलब माँस खाने से निकलते हैं। 
The interpretation by the virtuous is, "make use of food grains for holy sacrifices in fire, donations". One with demonic tendency says, "eat meat". 
संस्कृत में "शब्दा कामधेनवः" का अर्थ है, अनन्त अर्थ। अतः किस अर्थ को कहाँ  है यह तो विद्वान ही निश्चित कर सकता है। 
There are numerous words in Sanskrat (in Hindi & English as well) which have numerous meanings. Its only the learned who would use the appropriate-correct meaning not the ignorant. 
एक व्यक्ति यात्रा पर जाने के लिये सैन्धव लाने को कहता है तो सवारी के लिये घोड़ा लाना है न कि खाने के लिये नमक। 
If some one ask to bring Saendhav he asks for horse to ride not salt to eat.
औषधि-दवा बनाने के लिये "प्रस्थं कुमारिकामांसम्" चाहिये तो सेर भर घीकुमारी, घीकुआँरका या घृतकुमारी की बात की जाती है ना कि कुमारी कन्या के एक सेर माँस-गोस्त की। 
If one needs one ser (nearly one kilogram) of "Ghrat Kumari" an Ayur Vedic medicine-herb, he do not asks for the flesh-meat of an unmarried-virgin girl.
यज्ञ में पशु बाँधने की बात आती है। यहाँ पशु का अर्थ शतपथ ब्राह्मण से स्पष्ट होता है। 
प्रश्न :: "कतमः प्रजापतिः"?  प्रजापति अर्थात पशुओं का पालन करने वाला कौन है?
उत्तर :- "पशुरिति" अर्थात पशु ही प्रजापालक है। अर्थात जो शक्तियाँ या पदार्थ प्रजा का पालन-पोषण करने वाले हैं, उन्हें ही पशु कहा गया है। इसीलिये यज्ञों में विभिन्न प्रकार के पशुओं की चर्चा की गई है। 
"नृणा व्रीहिमय: पशुः" अर्थात मनुष्यों के यज्ञ में अन्नमय पशु का उपयोग होता आया है। 
"यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा:" अर्थात देवताओं ने यज्ञ से ही यज्ञ किया था। उनका यज्ञमय पशु था। 
"अग्निः पशुरासीत्तं देवा अलभन्त" अर्थात अग्नि ही पशु था, उसी को देवता प्राप्त हुए। 
"अग्निः पशुरासीत्तेनायजन्त। वायुः पशुरासीत्तेनायजन्त। 
सूर्यः पशुरासीत्तेनायजन्त"।
अग्नि, वायु और सूर्य को भी पशु कहा गया है।[यास्काचार्य-निरुक्त] 
"अबधनन् पुरुषं  पशुम्" यहाँ पशु को ही पुरुष कहा गया है।  
"सप्तास्यासन् परिधय स्त्रि:सप्त समिधः कृता:" 
(1). शरीरगत सात धातु ही सात परिधि हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रिय, दस प्राण और एक मन; ये इक्कीस समिधाएँ है। इनको लेकर ही आत्मा रूपी पुरुष से देवताओं ने शरीर यज्ञ किया। इस सबके सहयोग से ही मानव-शरीर की सम्यक्  सृष्टि हुई। (2). संगीत में सात स्वर ही सात परिधि और इक्कीस मूर्छनाएँ ही समिधाएँ हैं। नाद ही यहाँ पशु है। 
These illustrations are sufficient to prove that one has to select appropriate meaning, while interpreting. In all these Shloks the word Pashu is used which literally mean animal. But in real sense it meant (1). nurturer, (2). food grain, (3). humans, (4). fire, air and the Sun.
The religion which orders-doctrine against violence, sacrifice of animals-humans is against meat eating. However, it enforces punishment in the form of death and cutting of limbs of the guilty, murderers, invaders, terrorist by the state police, forces, law. It ask for punishment-killing of those who kill humans in the name of Jihad.
Eating meat invites various communicable diseases carried by the animals & birds. There is not even a single year when millions of people do not die, due to this single reason. Bird flue & meningitis are the most common-dreaded diseases. The stomach of animals like cow, pig are infested with worms as a primary host. This is one of the reasons that religion describe it as a taboo-sin to protect the innocent people. High blood pressure, sugar, anaemia, heart attack too are caused by eating of flesh, meat, eggs, fish etc. There are the people who advocate non cruelty against animals and yet eat meat-eggs. Hindu scriptures preach sacrifice which is restricted to sweets, grains, herbs, oils, ghee, scents, fruits. Meat & non vegetarian products are taboo.
There is no doubt that eating of meat, eggs  and fish is dangerous. Its a second choice when no food is available and one has to survive during emergency. Scriptures have permitted consumption of meat for those who may remain attached to piousity, virtues, righteousness for the taste of meat. Had it not been so, they would have behaved like demons, beasts, Dracula, Satan.
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति॥
हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसा रहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते हैं, वही यज्ञ देवताओं तक पहुँचता है।[ऋग्वेद संहिता 1.1.4 अग्नि सूक्त]  
Hey Agni Dev! You are capable of protecting everyone. You keep on surrounding the Hawan Kund-sacrificial free from violence (Animal sacrifice, meat) pot from all sides. These offerings reach the demigods-deities through you.
This verse clearly states that the Yagy, Hawan, Agni Hotr does not allow animal sacrifice, eating of meat.
Rig Ved prohibits sacrifice of animals, birds, humans.[ऋग्वेद 5.51.12] 
It asks the ruler to extradite-expel the meat eaters from the kingdom.[ऋग्वेद 8.101.15]
Atharv Ved desires the protection of animals.[अथर्व वेद 19.48.5]. 
It asks for the punishment to the violent.[अथर्व वेद 8.3.16]
Yajur Ved forbade killing of any organism and teaches non violence.[यजुर्वेद 12.32, 16.3]
Bhagwan Ram was a pure vegetarian.[सुंदर कांड स्कन्द 36 श्लोक 41]
Meat, fish, eggs are not meant for humans. The formation of the teeth of humans clearly shows that they are different from cannibals-canine animals. The length of cannibals intestine is 20 feet as compared to that of herbivorous and humans. The length of the intestine of herbivorous & humans is just 14 feet. Animals roam 40 to 120 kilometres in a day, consume red meat; while humans eat cooked meat and do not walk at all. Animals and humans both suffer from common disease. Animals are carriers of diseases, worms, germs, virus, bacteria, fungus, protozoan’s etc. They are found to spread brain fever, flue, plague chicken pox etc. Eating Beef or Pork invite infestation by parasites-worms.
मधु, मांसम्, मज्जनम्, ऊपर्यासनम्, स्त्रीगमनम्, अनृतवदनम्, अदत्तादानम् एतानि वर्जयेत् :- मधु-शहद, माँस, शरीर मलकर स्नान, उच्चासन, असत्य भाषण, दूसरे के द्वारा बिना दिये कुछ ग्रहण करना आदि का वर्जन-त्याग करना चाहिये।  
शुष्क मांस का सेवन :- शुष्क यानी सूखे हुए मांस का सेवन करने से भी मनुष्यों की आयु कम होती है। सूखे मांस से यहां तात्पर्य है बासी या कुछ दिन पुराना मांस। जब मांस कुछ दिन पुराना हो जाता है तो वह सूख जाता है और उस पर कई प्रकार के खतरनाक बैक्टीरिया व वायरसों का संक्रमण हो जाता है। जब कोई व्यक्ति यह मांस खाता है तो मांस के साथ बैक्टीरिया तथा वायरस भी उसके पेट में चले जाते हैं और कई प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं। ये रोग मनुष्य की आयु कम करते हैं।
न भक्षयेदेकचरानज्ञातांश्च मृगद्विजान्। 
भक्ष्येष्वपि समुद्दिष्टान्सर्वान्पञ्चनखांस्तथा॥
अकेले चलने और रहने वाले सर्पादि जीवों को, भक्ष्यों में कहे वे पक्षी जो परिचित न हों और पाँच नखवाले प्राणियों को न खाय। [मनुस्मृति 5.17]
One should not eat the animals-organism which live alone like serpents, snakes, the birds which are unfit for eating and the animals like humans having five claws (nails, fingers, toes).
श्वाविधं शल्यकं गोधां खड्गकूर्मशशांस्तथा।
भक्ष्यान् पञ्चनखेष्वाहुरनुष्ट्रांश्चैकतोदतः॥
पञ्चनखियों सेह, साही, गोह, गेंडा, कछुआ और खरहा तथा एक खुर और दाँत वाले पशुओं में ऊँट को छोड़कर बकरे आदि भक्ष्य हैं, ऐसा कहा गया है।[मनुस्मृति 5.18] 
Its opined that among the five clawed porcupine, hedgehog, iguana, rhinoceros, tortoise and the hare-rabbit; among the one hooped and among the teeth bearing camel should not be eaten and while the goat etc may be eaten.
छत्राकं विड्वराहं च लशुनं ग्रामकुक्कुटम्।
पलाण्डुं गृञ्जनं चैव मत्या जग्ध्वा पतेद् द्विजः॥
गोबे छत्ता, ग्राम्य शूकर, ग्रामकुक्कुट, लहसुन, प्याज और गाजर जानकर खाने से द्विज पतित होता है।[मनुस्मृति 5.19]
One who got birth in a upper caste family is degraded by eating mushrooms, village pig, village cock, garlic, onion-leek and carrot. 
The Brahman should undergo penances immediately after consuming meat, fish eggs etc. and remain alert in future not to repeat the mistake.
These are Tamsik products which distort one's intelligence, prudence and power to think.
In due course of time the-twice born, became a trade mark-copy right of Brahmns, only. In spite of all odds Brahmns survived the onslaught by the Buddhists, Christian Missionaries & Muslims, especially Aurangzeb. Now, its the turn of so called secular and the reservationists. The inborn virtues in the Brahmns will let them survive this as well.
The British brought English in India to distort-break the ethnic thread, virtues, customs, rituals, culture, values, traditions. Now, this English is spreading the Indian culture, way of life all over the world. 
अमत्यैतानि षट् जग्ध्वा कृच्छ्रं सान्तपनं चरेत्। 
यतिचान्द्रायाणं वापि शेषेषूपवसेदहः॥
उपरोक्त छः वस्तुओं में से कोई वस्तु बिना जाने खा ले तो कृच्छ्र सान्तपन या चान्द्रायण व्रत करे और शेष जितने अखाद्य कहे गए हैं, उनमें से कोई चीज खा लेने पर एक दिन का उपवास करे।[मनुस्मृति 5.20]
If any of these 6 things discussed above are unwittingly, unknowingly-by mistake, eaten one should observe Krachchhr, Chandrayan Vrat-penance. If any of the other things which are forbidden are eaten then, one may observe a day's fast.
Please refer to :: FASTING व्रत-उपवासsantoshsuvichar.blogspot.com
संवत्सरस्यैकमपि चरेकृच्छ्रं द्विजोत्तमः। 
अज्ञातभुक्तशुद्ध्यर्थं ज्ञातस्य तु विशेषतः॥
ब्राह्मण को अज्ञात भक्षण के दोषशान्त्ययर्थ वर्ष में कम से कम एक कृच्छ्र व्रत करना चाहिये। किन्तु जिसने जानबूझकर खाया हो, उसे विशेष रुप से व्रत करना चाहिये।[मनुस्मृति 5.21]
The Brahman must observe Krachchhr Vrat-penance, at least once in a year to shun the sin of eating forbidden goods knowingly. But, if the forbidden goods have been eaten intentionally then he must observe special penances prescribed for such an offence by the scriptures.
The side effects of eating the forbidden goods are drastically reduced if one is able to consume cow's urine which is effective in cancer as well. However, the cow should not eat the waste lying over the streets. It should be properly fed and well maintained. Regular consumption of Ganga Jal is also a good remedy.
This is detoxification of the body.
यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः। 
भृत्यानां चैव वृत्त्यर्थमगस्त्यो ह्याचरत् पुरा॥
ब्राह्मण यज्ञ के निमित्त अथवा भृत्यों के रक्षार्थ प्रशस्त पक्षियों का वध कर सकते हैं, इसी कारण से अगस्त्य मुनि ने पहले ऐसा किया है। [मनुस्मृति 5.22]
For the protection of the Yagy-sacrifices in holy fire, solemnised-performed by the Brahmans, some categories of birds can be killed-culminated since sage August had done it before. 
There are a number of meat eating bird which bring meat at the site of the Yagy. Vultures, crows, kites and some large birds may spoil the Yagy. Thus for the protection of the Yagy they have to be killed if they hover around.
In today's context, bird hit can destroy the aircraft.
बभूवुर्हि पुरोडासा भक्ष्याणां मृगपक्षिणाम्। 
पुराणेष्वपि यज्ञेषु ब्रह्मक्षत्रसवेषु च॥
पहले ऋषियों और ब्राह्मण-क्षत्रियों ने जो यज्ञ किये उनमें भी भक्ष्य पशु-पक्षियों के माँस के पुरोडास हुए हैं।[मनुस्मृति 5.23] 
During the ancient times the sages and Kshatriy turned into Brahmns like Vishwamitr have sacrificed some birds and animals for the sake of oblations.
पुरोडास :: यज्ञ में दी जाने वाली आहुति, जौ के आटे की टिकिया, सोमरस; cake of ground barley offered as an oblation in fire, sacrificial oblation offered to the demigods-deities, Ghee-clarified butter is offered in oblations to holy fire, with cakes of ground meal.
एतदुक्तं द्विजातीनां भक्ष्याभक्ष्यमशेषतः। 
मांसस्यातः प्रवक्ष्यामि विधिं भक्षणवर्जने॥
यहाँ तक द्विजातियों के भक्ष्या-भक्ष्य का सम्पूर्ण विचार किया गया है। अब आगे माँस खाने और छोड़ने की विधि का वर्णन किया गया है।[मनुस्मृति 5.26]
The eatables consumed or discarded by the Brahmns have been discussed, so far. Next to it procedure for accepting or discarding meat has been described. 
प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया। 
यथाविधि नियुक्तस्तु प्राणानामेव चात्यये॥
मन्त्रों से पवित्र किया हुआ माँस खाना चाहिये। ब्राह्मण को जब माँस खाने की इच्छा हो तो वह एक बार माँस खा सकता है। रुग्ण अवस्था में अन्य आहार से प्रनात्यय होने के भय से खा सकता है।[मनुस्मृति 5.27]
ऐसा केवल तभी करना चाहिये जब प्राणरक्षा हेतु यह अत्यावश्यक हो, अन्यथा कदापि नहीं। 
The Brahmn may eat meat once that is too when he is not able to restrain-control himself. The meat he has to consume should be treated with Mantr meant to purify it. He may also eat meat when he is ill and there is danger of being affected by some microbes and there is danger to life.
There are some Mantr used in rituals which can convert the meat into eatable vegetarian products by controlling the whole cycle of nature. There are Yogis who are found to be capable of converting anything into eatables of choice. In due course of time the track to trace their knowledge has been lost, but methodology is not lost. 
However a Brahman must not eat meat unless-until its essential for protecting his life. Having eaten meat he should undergo sewer penances.
प्राणस्यान्नमिदं सर्वं प्रजापतिरकल्पयत्।
स्थावरं जङ्गमं चैव सर्वं प्राणस्य भोजनम्॥
ब्रह्मा जी ने यह सब प्राणियों के लिये अन्न कल्पित किया है। स्थावर (अन्न, फल आदि), जंगम पशु-पक्षी आदि, सभी प्राणियों के भोजन हैं।[मनुस्मृति 5.28]
Brahma Ji created food grain for each and every organism. The fixed living beings i.e., trees, plants, vegetation; serve as the food for the movable-animals and birds.
चराणामन्नमचरा दंष्ट्रिणामप्यदंष्ट्रिणः। 
अहस्ताश्च सहस्तानां शूराणां चैव भीरवः॥
चरों का अन्न-भोजन (अचर :- तृण आदि), दाढ़ वालों का (व्याघ्र आदि) बिना दाढ़ के जीव हिरण आदि, हाथ वालों यानि मनुष्य का, बिना हाथ के जीव मछली आदि और शूरों का अन्न भीरु-डरपोक पशु-पक्षी हैं।[मनुस्मृति 5.29]
Brahma Ji has evolved a food chain. The fixed organism constitute the food of movable, the food of the organism with jaws-claws are the animals without jaws-claws, the food of animals with the hands are the animals without hands and the food of the beast are the fearful-timid animals.
नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्य्ऽहन्यपि। 
धात्रैव सृष्टा ह्याद्याश्च प्राणिनोऽत्तार एव च॥
खाने वाला जीव प्रतिदिन पचने खाने योग्य प्राणियों को खाकर  दोष-पाप का भागि नहीं होता, क्योंकि ब्रह्मा जी ने स्वयं ही खाद्य और खादक दोनों का निर्माण किया है।[मनुस्मृति 5.30] 
The food chain has been created by Brahma Ji-the creator, himself in such a way that the one who eats the next, is able to digest it. Therefore, one who eats the next in chain, does not commit a sin-crime and is not guilty-a sinner.
The carnivorous eat herbivorous and the herbivorous eat the vegetation. Basically the human body is devised as a herbivorous. So, when one eats animals, birds, fish egg etc., he earns sin.
यज्ञाय जग्धिर्मांसस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः। 
अतोऽन्यथा प्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरुच्यते॥
यज्ञ के निमित्त माँस-भक्षण की दैवी विधि है। इसके विरुद्ध माँस भक्षण की प्रवृत्ति राक्षसी है।[मनुस्मृति 5.31] 
There are procedures which allows the consumption of meat after going through divine procedure for ritualistic measures, which converts its nature from non vegetarian to vegetarian. Those who eat meat otherwise, follow the demonic path i.e., eat the raw or cooked meat without making a change in its basic nature.
Long ago some one described his meeting with a Yogi who instantly converted stools into sweet curd through the use of divine procedure enchanting some Mantr.
क्रीत्वा स्वयं वाऽप्युत्पाद्य परोपकृतमेव वा। 
देवान्पितॄंश्चार्चयित्वा खादन्मांसं न दुष्यति॥
खरीदकर या स्वयं कहीं से लाकर या सौगात की तरह किसी का दिया हुआ माँस देवता और पितरों को अर्पित कर खाने वाला दोषी नहीं होता।[मनुस्मृति 5.32] 
The meat eater is not at fault-not to be blamed, if he has subjected it to divine procedures before presenting it to the Manes or the Demigods before consuming it; when he has either bought it or has been presented-gifted to him by some one.
नाद्यादविधिना मांसं विधिज्ञोऽनापदि द्विजः। 
जग्ध्वा ह्यविधिना मांसं प्रेत्यस्तैरद्यतेऽवशः॥
विधि को जानने वाला ब्राह्मण सुखावस्था में अविधिपूर्वक माँस ने खाये, क्योंकि अविधि से माँस खाने वाले को जन्मान्तर में वे प्राणी खा जाते हैं, जिनका माँस उसने खाया था।[मनुस्मृति 5.33] 
The enlightened Brahman who is aware of the divine procedure for the consumption of meat should never go against the methods described in scriptures and learnt by him, since if he does so he will be eaten by those animals whose meat has been consumed by him, in the following-successive rebirths.
न तादृशं भवत्येनो मृगहन्तुर्धनार्थिनः। 
यादृशं भवति प्रेत्य वृथामांसानि खादतः॥
धन  निमित्त मृग मारने वाले को वैसा पाप नहीं लगता जैसा वृथा माँस खाने वाले को लगता है।[मनुस्मृति 5.34] 
The quantum of sin is not that great for killing a deer for money as compared to that which is earned by one by eating meat without any cause (reason, logic).
नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः। 
स प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम्॥
श्राद्ध और मधुपर्क आदि रस्मों-रिवाजों में तथा विधि नियुक्त होने पर जो मनुष्य माँस नहीं खाता, वह इक्कीस जन्म तक पशु होता है।[मनुस्मृति 5.35] 
One who has accepted the engagement for eating sacred meat duly purified with Mantrs; but fails to eat it, becomes an animal in the next 21 incarnations.
He is a person who is non Brahman and is a meat eater-non vegetarian.
Demons-Rakshas, Yaksh & Demigods too are blessed with hands, in addition to humans. Rakshas & Yaksh are meat eaters by nature and are therefore, considered to be sinners, Asur, wretched. Demigods do not eat meat and are therefore termed as Sur-pious.
असंस्कृतान् पशून्मन्त्रैर्नाद्याद्विप्रः कदाचन। 
मन्त्रैस्तु संस्कृतानद्यात्शाश्वतं विधिमास्थितः॥
ब्राह्मण कभी मन्त्रों से बिना संस्कार किये पशुओं का माँस ने खाये, किन्तु यज्ञ में मन्त्रों से संस्कृत किये पशुओं का माँस खाये।[मनुस्मृति 5.36] 
यह रावण जैसे राक्षसों के लिये कहा गया है जो जन्म से ब्राह्मण, पूजा पाठ, तपस्या करने वाले मगर दुराचारी, भ्रष्ट हैं। 
The Brahmn must not eat the meat of the animals meant for the Yagy-sacred sacrifices without the recitation of Mantrs with due procedure, meant for the conversion of its form; but he may consume the meat of the animals which have been subjected to alteration of form through secret methodology.
Rishi August digested the demons in his stomach, who had converted themselves into vegetarian products to be served to him as lunch, before they could regain their original form as demons.
कुर्याद् घृतपशुं सङ्गे कुर्यात् पिष्टपशुं तथा। 
न त्वेवं तु वृथा हन्तुं पशुमिच्छेत् कदाचन॥
घृत या मैदा का पशु बनाकर खाय, किन्तु कभी पशु को व्यर्थ मारने की इच्छा करे।[मनुस्मृति 5.37] 
If their is  desire to eat meat, one may opt for eatables made with wheat's fine flour and ghee, but should never dream-desire of killing any animal-organism.
During festival season Hindus buy animal toys made of raw sugar for eating or distributing amongest friends, relatives, neighbours, poor, servants, labour etc. 
नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित्। 
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्॥
जीवों की हिंसा बिना किये माँस उत्पन्न नहीं हो सकता। पशुओं का वध स्वर्ग प्राप्तयर्थ नहीं होता, इसलिये माँस खाना छोड़ देना चाहिये।[मनुस्मृति 5.48]  
Meat can not be obtained without killing animals. Its detrimental to the attainment of heavenly bliss. Hence one must not eat meat.
This is very clear verdict of the Veds. More than 45% of Britishers have stopped eating meat during the last 20 years after learning the scientific evidence of its harmful effects.  
Meningitis-a brain disease acquired by the humans comes from the cow. Several viral diseases & flue originate in birds. Primary host of Tape worms are pigs and cow. Most of the birds eat insects which transmit harmful microbes, germs, viruses, bacteria, fungus etc.  in the body of eaters.
समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम्। 
प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्॥
माँस की उत्पत्ति और जीवों के वध-बन्धन को अच्छी तरह सोच समझकर, सब प्रकार के माँस भक्षण को त्याग देना चाहिये।[मनुस्मृति 5.49] 
One must reject eating of all sorts of meat by realising-understanding the origin of meat and bonding due to the killing of animals for meat.
The wise would quickly understand the implications of eating meat. It leads to acquisition of several incurable diseases leading to death and bonding of the soul for several reincarnations as inferior organisms.
Eating meat is demonic-Tamsik.
न भक्षयति यो मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत्। 
न लोके प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते॥
जो विधि को छोड़कर पिशाच की तरह माँस नहीं खाता वह संसार में सबका प्यारा होता है और रोग से पीड़ित नहीं होता।[मनुस्मृति 5.50] 
One who do not eat like a ghoul and follow the verdict given above becomes  a person revered-liked by all and do not fall ill.
पिशाच :: शव भोजी, प्रेत, भूत, हौवा, दुष्टआत्मा; ghoul, boggard, boggle, eidolon, gnome-a two legged creature which survives on meat comparable to Dracula, giants or demons.
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी। 
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः॥
पशु-पक्षी अथवा मनुष्य को मारने की आज्ञा देने वाला, उसके खण्ड-खण्ड करने वाला, मारने वाला, बेचने और मोल लेने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला और खाने वाला-ये आठों ही घातक-गुनहगार हैं।[मनुस्मृति 5.51] 
All the 8 categories of people i.e., who orders killing-slaughter, who cut-chop it into pieces, the butcher-killer, seller, buyer, cook, who serves the meat and one who eats meat, are guilty-sinners.
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति। 
अनभ्यर्च्य पितॄन्देवांस्ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत्॥
जो देवता और पितरों का पूजन किये बिना दूसरे के माँस से अपना माँस बढ़ाना चाहता है उससे बढ़कर दूसरा कोई पापी नहीं है।[मनुस्मृति 5.52] 
No one is a greater sinner than the person who want to increase his own flesh by eating the meat of others without worshipping the Manes and the demigods.
वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः। 
मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम्॥
प्रत्येक वर्ष, सौ वर्ष तक अश्वमेध करने वाला और जो बिलकुल ही माँस नहीं खाता है, इन दोनों का फल बराबर है।[मनुस्मृति 5.53]
One who perform Ashwmedh Yagy every year, for 100 years and the one who never eat meat; have the same quantum of reward.
It clearly shows that the one who do not eat meat is more virtuous than the kings who perform Ashwmedh Yagy-ritualistic horse sacrifice in which many wars are there and millions of soldiers are killed. The sin gathered by the killing of soldiers is too big to be countered.
Bhagwan Shri Ram & Shri Krashn too performed Ashwmedh Yagy but that were for eliminating the cruel, tortuous, barbarian, demonic kings & the demons too. Yagy performed by Yudhistar too had the same purpose.
फलमूलाशनैर्मेध्यैर्मुन्यन्नानां च भोजनैः।
न तत्फलमवाप्नोति यत्मांसपरिवर्जनात्॥
फल-मूल और मुनियों के हविष्यान्न खाने से वह फल नहीं मिलता, जो केवल माँस छोड़ देने से मिलता है।[मनुस्मृति 5.54] 
One will not get virtues-piousity by eating fruits, roots-rhizomes of trees-plants or the food eaten by the seers, which one can get just by discarding meat for ever.
SEER :: संत, पैग़ंबर, पैग़ंबर, सिद्ध पुरुष; ascetic, saint, prophet.
मांस भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद् म्यहम्। 
एतत्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः॥
मैं यहाँ जिसका माँस खाता हूँ, परलोक में वह मुझे खायेगा। यही माँस का माँसत्व है, ऐसा पण्डितों का कहना है।[मनुस्मृति 5.55]
The scholars have said that the peculiarity of meat lies in the fact that one who has who has been eaten in this abode will eat the current eater in the next birth-abode.
अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः। 
आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह॥
सदा आत्मा के ही चिन्तन में लगा रहे। विषयों की इच्छा रहित, निरामिष होकर, एक देहमात्र की सहायता से मोक्ष का अभिलाषी होकर संसार में विचरे।[मनुस्मृति 6.49] 
One should be busy in the meditation of the soul (the Ultimate), never crave for comforts, become pure vegetarian and make use of the body for the sake of Salvation only.
मनुष्याणां पशूनां च दुःखाय प्रहृते सति। 
यथा यथा महद् दुःखं दण्डं कुर्यात्तथा तथा॥
मनुष्य और पशुओं को दुःख देने के लिये प्रहार करने पर उन्हें जितना कष्ट हो प्रहार करता को उतना ही अधिक दण्ड करे।[मनुस्मृति 8.286] 
The punishment should be in proportion to the pain-torture afflicted-caused upon the human or the animals.
It clearly means that if an animal or a human being is killed or tortured the person performing this act has to be killed. Its very every clear here that those who advocate eating meat do deserve ultimate punishment i.e., death. The Muslims like Dr. Zakir should be hanged for misleading, misguiding Hindus and the Muslims alike. The government should introduce death penalty for cow slaughter in the constitution.
यक्षरक्षःपिशाचान्नं मद्यं मांसं सुराSSसवम्।
तद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः॥
मद्य, माँस, मदिरा और आसव ये यक्ष, राक्षस और पिशाचों की वस्तुएँ हैं। इसलिये देवताओं के हविष्य खाने वाले ब्राह्मण इन पदार्थों का इस्तेमाल न करें।[मनुस्मृति 11.95]
Wine, narcotics, meat and alcoholic extracts are meant for demons, giants. The demigods, Manes & Brahmans should never consume them. 
पानसद्राक्षमाध्वीकं खर्जूरं तालमैक्षवम्।
माध्वीकं टाङ्कपाद्वींकगैरेयं नारिकेलजम्। 
सामान्यानि  द्विजातीनां मद्यान्येकादशैव च॥       
Meat and wines (Madhy, Madira and Asav-extracts) are the goods consumed by Yaksh, Rakshas & Pishach. Therefore, the Brahmans who consume the left over offerings meant for the demigods, should not consume them.[पुलस्त्य] 
मनुष्याणां पशूनां च दुःखाय प्रहृते सति। 
यथा यथा महद् दुःखं दण्डं कुर्यात्तथा तथा
मनुष्य और पशुओं को दुःख देने के लिये प्रहार करने पर उन्हें जितना कष्ट हो, प्रहार करता को उतना ही अधिक दण्ड करे।[मनुस्मृति 8.286] 
The punishment should be in proportion to the pain, torture afflicted-caused upon the human or the animals.
It clearly means that if an animal or a human being is killed or tortured the person performing this act has to be killed. Its very-very clear here that those who advocate eating meat do deserve ultimate punishment i.e., death. The Muslims like Dr. Zakir should be hanged for misleading, misguiding Hindus and the Muslims alike. The government should introduce death penalty for cow slaughter in the constitution.
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः। 
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥
आहार भी सबको तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, तप, दान भी। तू उनके इस भेद को सुन।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.7]  
The Almighty told Arjun that food liked by the people can be distinguished into 3 categories & likewise the Yagy (sacrifices, offerings), Tap (asceticism, austerity) and donation-charity too has 3 distinctions (types, kinds).
मनुष्य की निष्ठा की पहचान उसके आहार अर्थात खाने-पीने से भी होती है। मनुष्य का स्वभाव उसके द्वारा किये गए यज्ञ, तप, दान आदि से भी प्रकट होता है। शास्त्रीय कर्मों में भी गुणों के अनुसार 3 प्रकार की रुची :- सात्विक, राजसिक और तामसिक होती है। मनुष्य रुचि के अनुरूप ही खान-पान, रहन-सहन, मित्र-दोस्त, समाज आदि में होती है। तामसिक प्रवृति के व्यक्ति मूर्ख-अज्ञानी, नीच, शास्त्र विरोधी गतिविधियाँ करने वालों, माँस-मदिरा, नशा, परनारी का सेवन करने वाले, पैशाचिक कर्म करने वालों में होती है। 
The food intake normally define the nature of a person. Similarly, his mode of prayers-worship too describes his personality. According to nature one adopts his interaction in the society like virtuous or vicious-evil. An ignorant prefers to roam with the morons, imprudent. The atheist too like to form a group (society, company) of his own. Ignorant always avoid worship-prayers or take a negative route like offering sacrifices to ghosts, evil spirits. A pious person is always busy in the discovery of the God. The Rajsik keep on performing activities which can elevate him to higher abodes, luxuries, comforts, satisfaction of desires, lust, passions. The deeds prescribed by the scriptures too are differentiated-categorised according to one's taste, choice, preferences. One with Tamsik-Demonic tendencies along with imprudent-ignorant, depraved, and those who are against the scriptures (Veds, Puran, Upnishad, Itihas) enjoy meat, wine, narcotics, passions (sexuality, sensuality) and tend to do demonic deeds.
यत् स्यादहिंसासंयुक्तं स धर्म इति निश्चय:।
अहिंसार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्
जिस कार्य में हिंसा न हो वही धर्म है। महर्षियों ने प्राणियों की हिंसा न होने देने के लिए ही उत्तम धर्म का प्रवचन किया है।[महा.कर्ण पर्व 15.36]
श्मशान के धुएं का सेवन :- श्मशान में शवों का दाह संस्कार किया जाता है। शरीर के मृत होते ही उस पर अनेक प्रकार के बैक्टीरिया व वायरसों का संक्रमण हो जाता है। ऐसे न जाने कितने शवों को प्रतिदिन श्मशान लाकर जलाया जाता है। जब इन शवों का दाह संस्कार किया जाता है, तब कुछ बैक्टीरिया-वायरस तो शव के साथ ही नष्ट हो जाते हैं और कुछ वायुमंडल में धुँए के साथ फैल जाते हैं। जब कोई व्यक्ति उस धुँए के संपर्क में आता है, तो ये बैक्टीरिया-वायरस उसके शरीर से चिपक जाते हैं और विभिन्न प्रकार के रोग फैलाते हैं। इन रोगों से मनुष्य की आयु कम हो सकती है।
One must avoid the smoke coming out of the funeral pyre, since the dead body had numerous germs, virus, bacteria, microbes which rise in the air and affect his health. Water from the wells near the grave yards must be avoided since germs, viruses penetrate the earth with rainy water.
शुष्क माँस का सेवन :- शुष्क यानी सूखे हुए माँस का सेवन करने से भी मनुष्यों की आयु कम होती है। सूखे माँस से यहाँ तात्पर्य है बासी या कुछ दिन पुराना माँस। जब माँस कुछ दिन पुराना हो जाता है तो वह सूख जाता है और उस पर कई प्रकार के खतरनाक बैक्टीरिया व वायरसों का संक्रमण हो जाता है। जब कोई व्यक्ति यह माँस खाता है तो माँस के साथ बैक्टीरिया तथा वायरस भी उसके पेट में चले जाते हैं और कई प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं। ये रोग मनुष्य की आयु कम करते हैं।
Only raw meat is fresh. Meat kept for some hours becomes stale and numerous germs, virus, fungus, microbes, algae are sure to contaminate it. Meat start decaying as soon as an animal is butchered. packed, tinned-canned, frozen, Smoked or dry meat too has numerous infectants. 
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"सन्तोष आम खाता है"
santosh is a general account. The actual translation is :: Santosh eats mango.
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(बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)