पितृ गण
HINDU PHILOSOPHY (6) हिंदु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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पितृ का अर्थ है पिता, किन्तु पितर शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है :- शरीर के दाह के उपरान्त मृतात्मा को वायव्य शरीर प्राप्त होता है और वह मनुष्यों को एकत्र करने वाले यम एवं पितरों के साथ हो लेता है। मृतात्मा पितृ लोक में चला जाता है।
यम को मध्यम लोक में रहने वाला देव कहा गया है। [निरुक्त]
पिता के पिता एवं पितामह पृथ्वी एवं स्वर्ग के बृहत् मध्यम लोक में रहते हैं। [अथर्ववेद]
तीन लोक हैं; उनमें से दो स्वर्ग एवं पृथ्वी सविता की गोद में हैं, तीसरा यमलोक-मध्यम लोक है, जहाँ मृतात्मा एकत्र होते हैं। [ऋग्वेद]
पितर भुलोक एवं अंतरिक्ष से आगे तीसरे लोक-पितृलोक में निवास करते हैं।[तैत्तिरीय ब्राह्मण]
मनुष्यों, पितरों एवं देवों के तीन लोक पृथक-पृथक वर्णित हैं।[बृहदारण्य कोपनिषद्]
ऋग्वेद में यम कुछ भिन्न भाषा में उल्लिखित है, वह स्वयं एक देव कहा गया है, न कि प्रथम मनुष्य जिसने मार्ग बनाया या वह मनुष्यों को एकत्र करने वाला है या पितरों की संगति में रहता है। कुछ स्थलों पर वह निसन्देह राजा कहा जाता है और वरुण के साथ ही प्रशंसित है। किन्तु ऐसी स्थिति बहुत ही कम वर्णित है।
पितरों की श्रेणियाँ ::
पितर: सोमवन्त:, पितर: बर्हिषद: एवं पितर: अग्निष्वात्ता:।
जिन्होंने एक सोमयज्ञ किया, वे पितर सोमवन्त: कहे गये हैं; जिन्होंने पक्व आहुतियाँ (चरु एवं पुरोडास के समान) दीं और एक लोक प्राप्त किया, वे पितर "बर्हिषद:" कहे गये हैं; जिन्होंने इन दोनों में कोई कृत्य नहीं सम्पादित किया और जिन्हें जलाते समय अग्नि ने समाप्त कर दिया, उन्हें "अग्निष्वात्ता:" कहा गया है।[शतपथ ब्राह्मण]
4 वर्णों के पितृ :: ब्राह्मणों के पितर अग्निष्वात्त, क्षत्रियों के पितर बर्हिषद्, वैश्यों के पितर काव्य, शूद्रों के पितर सुकालिन: तथा म्लेच्छों एवं अस्पृश्यों के पितर व्याम हैं।[नान्दीपुराण-हेमाद्रि]
Mallechchh i.e., Europeans, Australians, Americans celebrate this period as Halloween Festival.
पितरों की चारों वर्णों के लिए क्रम से कोटियाँ :: सोमपा:, हविर्भुज:, आज्यपा: एवं सुकालिन:। [मनु]
ब्राह्मणों के पितर :: अनग्निदग्ध, अग्निदग्ध, काव्य बर्हिषद्, अग्निष्वात्त एवं सौम्य नामों से पुकारे जाते हैं। [मनु]
पितरों की 12 कोटियों या विभाग :: पिण्डभाज: (3), लेपभाज: (3), नान्दीमुख: (3) एवं अश्रुमुख: (3)। यह पितृ विभाजन दो दृष्टियों से हुआ है।[शातातप स्मृति]
वायु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, पद्म पुराण, विष्णुधर्मोत्तर एवं अन्य पुराणों में पितरों के सात प्रकार आये हैं, जिनमें तीन अमूर्तिमान् हैं और चार मूर्तिमान्।
पितरों की नौ कोटियाँ :: अग्निष्वात्ता:, बर्हिषद:, आज्यपात्, सोमपा:, रश्मिपा:, उपहूता:, आयन्तुन:, श्राद्धभुज: एवं नान्दीमुखा:। [स्कन्द पुराण]
ऋषियों से पितरों की उदभूति हुई, पितरों से देवों एवं मानवों की तथा देवों से स्थावर एवं जंगम के सम्पूर्ण लोक की उदभूति हुई।[मनु]
देवगण पितरों से उदभूत माने गये हैं। यह केवल पितरों की प्रशस्ति है।
पितर लोग देवों से भिन्न थे। ऋग्वेद के "पंचजना मम होत्रं जुषध्वम्" में प्रयुक्त शब्द पंचजना: एवं अन्य वचनों के अर्थ के आधार पर ऐतरेय ब्राह्मण ने व्याख्या की है, वे पाँच कोटियाँ हैं। अप्सराओं के साथ गन्धर्व, पितृ, देव, सर्प एवं राक्षस। निरुक्त ने इसका कुछ अंशों में अनुसरण किया है और अपनी ओर से भी व्याख्या की है। अथर्व वेद में देव, पितृ एवं मनुष्य उसी क्रम में उल्लिखित हैं।
प्राचीन वैदिक उक्तियाँ एवं व्यवहार देवों तथा पितरों में स्पष्ट भिन्नता प्रकट करते हैं।
देवों एवं मनुष्यों ने दिशाओं को बाँट लिया, देवों ने पूर्व लिया, पितरों ने दक्षिण, मनुष्यों ने पश्चिम एवं रुद्रों ने उत्तर। देवों के यज्ञ मध्याह्न के पूर्व में आरम्भ किये जाते हैं और पितृयज्ञ अपरान्ह्न में। [तैत्तिरीय संहिता]
पितर लोग अपने दाहिने कंधे पर (और बायें बाहु के नीचे) यज्ञोपवीत धारण करके प्रजापति के यहाँ पहुँचे, तब प्रजापति ने उनसे कहा :- "तुम लोगों को भोजन प्रत्येक मास के अन्त में अमावस्या को मिलेगा, तुम्हारी स्वधा विचार की तेज़ी होगी एवं चन्द्र तुम्हारा प्रकाश होगा"। देवों से उन्होंने कहा :- "यज्ञ तुम्हारा भोजन होगा एवं सूर्य तुम्हारा प्रकाश"। [शतपथ ब्राह्मण]
पितरों में जो देवों के स्वभाव एवं स्थिति के हैं एवं उनमें, जो अधिक या कम मानव के समान हैं, अन्तर बताया है।[तैत्तिरीय ब्राह्मण]
पितृ गण दो प्रकार के हैं :: आजान और मर्त्य। आजान पितृलोक में हैं, परन्तु मृत्युलोक से मर कर गए पितर-पितृ मर्त्य हैं; जिनका पतन होता है। कुटुंब-सन्तान से सम्बन्ध रहने के कारण, उनको श्राद्ध-तर्पण-पिण्ड दान-पानी की आशा होती है।
पितृलोक के देवता दिव्य पितर की जमात के सदस्यगण :: अग्रिष्वात्त, बर्हिषद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये 9 दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं। पुराण के अनुसार दिव्य पितरों के अधिपति अर्यमा का उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र निवास लोक है।
पितृलोक के देवता दिव्य पितर की जमात के सदस्यगण :: अग्रिष्वात्त, बर्हिषद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये 9 दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं। पुराण के अनुसार दिव्य पितरों के अधिपति अर्यमा का उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र निवास लोक है।
TWO CATEGORIES OF PITRE :: The PITRE (root-basic) original ancestors, from whom the clan-caste chain begun, are left without offerings-prayers for their clemency-relief-worship, leading to their downfall to difficult hells.
First category of Pitre is one which is present in the divine abodes and next one forms the deceased over the earth. The second category will be the victim of the absence of these proceedings by their off springs. Whether one is born normally or through illegitimate relations; must hold prayers for the liberation-peace of the deceased soul, of their departed parents-grand parents.
पितृ गण मनुष्यों के पूर्वज हैं, जिनका ऋण उनके ऊपर है, क्योंकि उन्होंने कोई ना कोई उपकार अपने वंशजों पर किया है। मनुष्य लोक से ऊपर पितृ लोक है, पितृ लोक के ऊपर सूर्य लोक है एवं इससे भी ऊपर स्वर्ग लोक है। आत्मा जब अपने शरीर को त्याग कर सबसे पहले ऊपर उठती है तो वह पितृ लोक में जाती है, वहाँ उसके पूर्वज मिलते हैं। अगर उस आत्मा के अच्छे पुण्य हैं तो ये पूर्वज भी उसको प्रणाम कर अपने को धन्य मानते हैं कि इस अमुक आत्मा ने उनके कुल में जन्म लेकर उन्हें धन्य किया। इसके आगे आत्मा अपने पुण्य के आधार पर सूर्य लोक की तरफ बढती है। वहाँ से आगे, यदि और अधिक पुण्य हैं, तो आत्मा सूर्य लोक को बेध कर स्वर्ग लोक की तरफ चली जाती है, लेकिन करोड़ों में एक आध आत्मा ही ऐसी होती है, जो परमात्मा में समाहित होती है। जिसे दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता। मनुष्य लोक एवं पितृ लोक में बहुत सारी आत्माएं पुनः अपनी इच्छा वश, मोह वश अपने कुल में जन्म लेती हैं।
अक्रोधना: शौचपरा: सततं ब्रह्मचारिण:।
न्यस्तशस्त्रा महाभागाः पितर: पूर्वदेवताः॥
क्रोध रहित, अन्तर्वहि शुद्धि से युक्त, सर्वदा ब्रह्मचारी, न्यस्त शस्त्र इत्यादि गुणों से युक्त अनादि देवतारूप पितर होते हैं।[मनुस्मृति 3.192]
The Manes are eternal-primeval deities, free form anger, internal purity, chastity-celibacy, averse from strife and endowed with great virtues.
यस्मादुत्पत्तिरेतेषां स्तेषामप्यशेषत:।
ये च यैरुपचर्याः स्युर्नि मैस्तान्निबोधत॥
जिसके द्वारा सब पितरों की उतपत्ति हुई है, जो पितर हैं, निज नियमों से उनकी उपचर्या करनी चाहिये, यह सब विषय अब सुनिये।[मनुस्मृति 3.193 ]
Now, listen to how these Manes evolved, those who are Manes-Pitre, how they ought to be worshipped.
मनोर्हैरण्यगर्भस्य ये मरीच्यादय: सुताः।
तेषामृषीणां सर्वेषां पुत्राः पितृगणा: स्मृता:॥
हिरण्यगर्भ के पुत्र मनुजी के जो मरीचि आदि पुत्र हैं, उन सब ऋषिओं के पुत्र ही पितर कहे गए हैं।[मनुस्मृति 3.194]
The sons of Marichi etc. sages-Rishis are called Pitre-Manes. Sages like Marichi evolved from Manu who in turn evolved from Hirany Garbh.
विराटसुताः सोमसद: सध्यानां पितरः स्मृता।
अग्निष्वात्ताश्च देवानां मारीचा लोकविश्रुताः॥
विराट के पुत्र सोमसद साध्यगण के पितर हैं। मरीचि के प्रसिद्ध पुत्र अग्निष्वाता देवताओं के पितर हैं। [मनुस्मृति 3.195]
Somsad-the sons of Virat, are the Manes of Sadhygan. Agnishvata the famous sons of Marichi are the Manes of demigods.
देव-कृत्य एवं पितृ कृत्य :: देव-कृत्य करने वाला यज्ञोपवीत को बायें कंधे एवं दाहिने हाथ के नीचे रखता है एवं पितृ-कृत्य करने वाला दायें कंधे एवं बायें हाथ के नीचे रखता है। देव-कृत्य पूर्व की ओर या उत्तर की ओर मुख करके आरम्भ किया जाता है किन्तु पितृ-यज्ञ दक्षिणाभिमुख होकर आरम्भ किया जाता है। देव-कृत्य का उत्तर-पूर्व (या उत्तर या पूर्व) में अन्त किया जाता है और पितृ-कृत्य दक्षिण-पश्चिम में समाप्त किया जाता है। पितरों के लिए एक कृत्य एक ही बार किया जाता है, किन्तु देवों के लिए कम से कम तीन बार या शास्त्रानुकुल कई बार किया जाता है। प्रदक्षिणा करने में दक्षिण भाग देवों की ओर किया जाता है और बायाँ भाग पितरों के विषय में किया जाता है। देवों को हवि या आहुतियाँ देते समय 'स्वाहा' एवं 'वषट्' शब्द उच्चारित होते हैं, किन्तु पितरों के लिए इस विषय में 'स्वधा' या 'नमस्कार' शब्द उच्चारित किया जाता है। पितरों के लिए दर्भ जड़ से उखाड़कर प्रयुक्त होते हैं किन्तु देवों के लिए जड़ के ऊपर काटकर। [कौशिक सूत्र]
ॠग्वेद ने देवों एवं पितरों के लिए ऐसे शब्दान्तर को व्यक्त किया है। शतपथ ब्राह्मण ने देवों को अमर एवं पितरों को मर कहा है।
देव एवं पितर की पृथक कोटियाँ :: देव एवं पितर पृथक कोटियों में हैं। पितर देवों की कुछ विशेषताओं को अपने में रखते हैं।
पितर सोम पीते हैं। [ऋग्वेद]
पितरों ने आकाश को नक्षत्रों से सुशोभित किया (नक्षत्रेभि: पितरो द्यामपिंशन्) और अंधकार रात्रि में एवं प्रकाश दिन में रखा। पितरों को गुप्त प्रकाश प्राप्त करने वाले कहा गया है और उन्हें 'उषा' को उत्पन्न करने वाले घोषित किया गया है। यहाँ पितरों को उच्चतम देवों की शक्तियों से समन्वित माना गया है। भाँति-भाँति के वरदानों की प्राप्ति के लिए पितरों को श्रद्धापूर्वक बुलाया गया है और उनका अनुग्रह कई प्रकार से प्राप्य कहा गया है।
पितरों से सुमति एवं सौमनस (अनुग्रह) प्राप्त करने की बात कही गयी है। उनसे कष्टरहित आनन्द देने एवं
यजमान-यज्ञकर्ता को एवं उसके पुत्र को सम्पत्ति देने के लिए प्रार्थना की गयी है।[ऋग्वेद]
ऋग्वेद एवं अथर्व वेद ने सम्पत्ति एवं शूर पुत्र देने को कहा है।
वे पितर जो वधु को देखने के लिए एकत्र होते हैं, उसे सन्ततियुक्त आनन्द दें। [अथर्व वेद]
हे पितरो, इस पत्नी के गर्भ में आगे चलकर कमलों की माला पहनने वाला बच्चा रखो, जिससे वह कुमार पूर्ण विकसित हो जाए।[वाजसनेयी संहिता]
पितरों की तीन कोटियाँ :: काव्य, बर्हिषद एवं अग्निष्वात्त्।[वायुपुराण]
वायु पुराण ने तथा वराह पुराण, पद्म पुराण एवं ब्रह्मण्ड पुराण ने सात प्रकार के पितरों के मूल पर प्रकाश डाला है, जो कि स्वर्ग में रहते हैं, जिनमें चार तो मूर्तिमान् हैं और तीन अमूर्तिमान्।
शतातप स्मृति ने 12 पितरों के नाम दिये हैं; पिण्डभाज:, लेपभाज:, नान्दीमुखा: एवं अश्रुमुखा:।
स्तुति :: त्रुटि करने वाले मनुष्य होने के नाते यदि हम आप के प्रति कोई अपराध करें तो हमें उसके लिए दण्डित न करें। वे देव एवं प्राचीन पितर, जो इस स्थल (गौओं या मार्ग) को जानते हैं, हमें यहाँ हानि न पहुँचायें। [ॠग्वेद]
The sons of Marichi etc. sages-Rishis are called Pitre-Manes. Sages like Marichi evolved from Manu who in turn evolved from Hirany Garbh.
Somsad-the sons of Virat, are the Manes of Sadhygan. Agnishvata the famous sons of Marichi are the Manes of demigods.
Barhishad-the sons of Atri, are the Manes of Giants, Demons, Yaksh, Gandarbh, Rakshas, Suparn and Kinnars.
Somap are the Manes of Brahmns, Havishmant are the Manes of Kshatriy, Ajyap are the Manes of Vaeshy and Suklin are the Manes of Shudr.
Somap are the sons of Bhragu, Havishymant are the sons of Angira, Ajyap are the sons of Pulasty and Sukalin are the sons of Vashishth.
Agnidadh, Anagnidadh, Kavy, Barhishad, Agnishvatta and Somy are the Pitre-Manes of the Brahmns.
These major tranches of the Manes have numerous sons and grandsons.
पितृ पक्ष :: आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ पिता) के नाम से जाते हैं। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात् उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं।
माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा है। इसलिए पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिनमें हिन्दु अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है तथा प्रेत कहलाती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्योंकिआत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।
मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं :- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने मनुष्य कोअपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।
पितृपक्ष में हिन्दु मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते हैं; पितरों को स्मरण करके जल चढाते हैं; निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान देते हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है। गया श्राद्ध का विशेष महत्व है।
भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है।
APPEASEMENT OF PITRE पितृ संतुष्टि ::
देव-कृत्य एवं पितृ कृत्य :: देव-कृत्य करने वाला यज्ञोपवीत को बायें कंधे एवं दाहिने हाथ के नीचे रखता है एवं पितृ-कृत्य करने वाला दायें कंधे एवं बायें हाथ के नीचे रखता है। देव-कृत्य पूर्व की ओर या उत्तर की ओर मुख करके आरम्भ किया जाता है किन्तु पितृ-यज्ञ दक्षिणाभिमुख होकर आरम्भ किया जाता है। देव-कृत्य का उत्तर-पूर्व (या उत्तर या पूर्व) में अन्त किया जाता है और पितृ-कृत्य दक्षिण-पश्चिम में समाप्त किया जाता है। पितरों के लिए एक कृत्य एक ही बार किया जाता है, किन्तु देवों के लिए कम से कम तीन बार या शास्त्रानुकुल कई बार किया जाता है। प्रदक्षिणा करने में दक्षिण भाग देवों की ओर किया जाता है और बायाँ भाग पितरों के विषय में किया जाता है। देवों को हवि या आहुतियाँ देते समय 'स्वाहा' एवं 'वषट्' शब्द उच्चारित होते हैं, किन्तु पितरों के लिए इस विषय में 'स्वधा' या 'नमस्कार' शब्द उच्चारित किया जाता है। पितरों के लिए दर्भ जड़ से उखाड़कर प्रयुक्त होते हैं किन्तु देवों के लिए जड़ के ऊपर काटकर। [कौशिक सूत्र]
ॠग्वेद ने देवों एवं पितरों के लिए ऐसे शब्दान्तर को व्यक्त किया है। शतपथ ब्राह्मण ने देवों को अमर एवं पितरों को मर कहा है।
देव एवं पितर की पृथक कोटियाँ :: देव एवं पितर पृथक कोटियों में हैं। पितर देवों की कुछ विशेषताओं को अपने में रखते हैं।
पितर सोम पीते हैं। [ऋग्वेद]
पितरों ने आकाश को नक्षत्रों से सुशोभित किया (नक्षत्रेभि: पितरो द्यामपिंशन्) और अंधकार रात्रि में एवं प्रकाश दिन में रखा। पितरों को गुप्त प्रकाश प्राप्त करने वाले कहा गया है और उन्हें 'उषा' को उत्पन्न करने वाले घोषित किया गया है। यहाँ पितरों को उच्चतम देवों की शक्तियों से समन्वित माना गया है। भाँति-भाँति के वरदानों की प्राप्ति के लिए पितरों को श्रद्धापूर्वक बुलाया गया है और उनका अनुग्रह कई प्रकार से प्राप्य कहा गया है।
पितरों से सुमति एवं सौमनस (अनुग्रह) प्राप्त करने की बात कही गयी है। उनसे कष्टरहित आनन्द देने एवं
यजमान-यज्ञकर्ता को एवं उसके पुत्र को सम्पत्ति देने के लिए प्रार्थना की गयी है।[ऋग्वेद]
ऋग्वेद एवं अथर्व वेद ने सम्पत्ति एवं शूर पुत्र देने को कहा है।
वे पितर जो वधु को देखने के लिए एकत्र होते हैं, उसे सन्ततियुक्त आनन्द दें। [अथर्व वेद]
हे पितरो, इस पत्नी के गर्भ में आगे चलकर कमलों की माला पहनने वाला बच्चा रखो, जिससे वह कुमार पूर्ण विकसित हो जाए।[वाजसनेयी संहिता]
पितरों की तीन कोटियाँ :: काव्य, बर्हिषद एवं अग्निष्वात्त्।[वायुपुराण]
वायु पुराण ने तथा वराह पुराण, पद्म पुराण एवं ब्रह्मण्ड पुराण ने सात प्रकार के पितरों के मूल पर प्रकाश डाला है, जो कि स्वर्ग में रहते हैं, जिनमें चार तो मूर्तिमान् हैं और तीन अमूर्तिमान्।
शतातप स्मृति ने 12 पितरों के नाम दिये हैं; पिण्डभाज:, लेपभाज:, नान्दीमुखा: एवं अश्रुमुखा:।
स्तुति :: त्रुटि करने वाले मनुष्य होने के नाते यदि हम आप के प्रति कोई अपराध करें तो हमें उसके लिए दण्डित न करें। वे देव एवं प्राचीन पितर, जो इस स्थल (गौओं या मार्ग) को जानते हैं, हमें यहाँ हानि न पहुँचायें। [ॠग्वेद]
मनोर्हैरण्यगर्भस्य ये मरीच्यादय: सुताः।
तेषामृषीणां सर्वेषां पुत्राः पितृगणा: स्मृता:॥
हिरण्यगर्भ के पुत्र मनुजी के जो मरीचि आदि पुत्र हैं, उन सब ऋषिओं के पुत्र ही पितर कहे गए हैं।[मनुस्मृति 3.194] The sons of Marichi etc. sages-Rishis are called Pitre-Manes. Sages like Marichi evolved from Manu who in turn evolved from Hirany Garbh.
विराटसुताः सोमसद: सध्यानां पितरः स्मृता।
अग्निष्वात्ताश्च देवानां मारीचा लोकविश्रुताः॥
विराट के पुत्र सोमसद साध्यगण के पितर हैं। मरीचि के प्रसिद्ध पुत्र अग्निष्वाता देवताओं के पितर हैं।[मनुस्मृति 3.195] Somsad-the sons of Virat, are the Manes of Sadhygan. Agnishvata the famous sons of Marichi are the Manes of demigods.
दैत्यदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्।
सुपर्ण किन्नराणां च स्मृता बर्हिषदोSत्रिजा:॥
अत्रि के पुत्र बर्हिषद दैत्य, दानव, यक्ष, गंदर्भ, नाग, राक्षस, सुपर्ण और किन्नरों के पितर हैं।[मनुस्मृति 3.196] Barhishad-the sons of Atri, are the Manes of Giants, Demons, Yaksh, Gandarbh, Rakshas, Suparn and Kinnars.
सोमपा नाम विप्राणां क्षत्रियाणां हविर्भुजः।
वैश्यानामाज्यपा: पुत्रा वशिष्ठस्य तु सुकालिनः॥
ब्राह्मणों के पितर सोमप, क्षत्रियों के हविष्मन्त, वैश्यों के आज्यप और शूद्रों के सुकलिन हैं।[मनुस्मृति 3.197] Somap are the Manes of Brahmns, Havishmant are the Manes of Kshatriy, Ajyap are the Manes of Vaeshy and Suklin are the Manes of Shudr.
सोमपास्तु कवेः पुत्रा हविष्मन्तोSङ्गिर: सुता:।
पुलस्त्यस्याज्यपा: पुत्रा वशिष्ठस्य सुकालिनः॥
सोमप भृगु के, हविष्मन्त अङ्गिरा के, आज्यप पुलस्त्य के और सुकालिन वशिष्ठ के पुत्र हैं।[मनुस्मृति 3.198] Somap are the sons of Bhragu, Havishymant are the sons of Angira, Ajyap are the sons of Pulasty and Sukalin are the sons of Vashishth.
अग्निदग्धानग्निदग्धान् काव्यान् बर्हिषदस्तथा।
अग्निष्वात्तांश्च सौम्यांश्च विप्राणामेव निर्दिशेत्॥
अग्निदध, अनग्निग्ध, काव्य, बर्हिषद, अग्निष्वात्ता और सौम्य ये ब्राह्मणों के पितर हैं।[मनुस्मृति 3.199] Agnidadh, Anagnidadh, Kavy, Barhishad, Agnishvatta and Somy are the Pitre-Manes of the Brahmns.
य एते तु गणा मुख्याः पितृणां परिकीर्तितता:।
तेषामपीह विज्ञेयं पुत्रपौत्रमनन्तकम्॥
पितरों के जो इतने मुख्य गण हैं उनके भी असंख्य पुत्र पौत्रादि हैं।[मनुस्मृति 3.200] These major tranches of the Manes have numerous sons and grandsons.
पितृ पक्ष :: आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ पिता) के नाम से जाते हैं। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात् उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं।
"श्रद्धया इदं श्राद्धम्"
जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है अर्थात प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा है। इसलिए पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिनमें हिन्दु अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है तथा प्रेत कहलाती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्योंकिआत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।
मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं :- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने मनुष्य कोअपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।
पितृपक्ष में हिन्दु मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते हैं; पितरों को स्मरण करके जल चढाते हैं; निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान देते हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है। गया श्राद्ध का विशेष महत्व है।
"गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं"
कहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गई है।
एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति॥
अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं, जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है।
APPEASEMENT OF PITRE पितृ संतुष्टि ::
पितृसंकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥
नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः॥
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्॥
तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि॥
द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः॥
तान् नमस्यामहं सर्वान् पितृनप्युदधावपि॥
अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः॥
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः॥
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्॥
अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः॥
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः॥
नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः॥
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥
वर्ण संकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित, इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 1.42]
पितृ दोष :: इसके अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएँ होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं।
पितृ दोष :: इसके अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएँ होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं।
मनुष्यों के पूर्वज सूक्ष्म व्यापक शरीर से अपने परिवार को जब देखते हैं और महसूस करते हैं कि हमारे परिवार के लोग ना तो हमारे प्रति श्रद्धा रखते हैं और न ही इन्हें कोई प्यार या स्नेह है और ना ही किसी भी अवसर पर ये हमको याद करते हैं, ना ही अपने ऋण चुकाने का प्रयास ही करते हैं, तो ये आत्माएं दुखी होकर अपने वंशजों को श्राप दे देती हैं, जिसे पितृ-दोष कहा जाता है |
पितृ दोष एक अदृश्य बाधा है जो कि पितरों द्वारा रुष्ट होने के कारण होती है। पितरों के रुष्ट होने के बहुत से कारण हो सकते हैं। यदि मनुष्य के आचरण में किसी प्रकार की त्रुटि-गलती हो, श्राद्ध आदि कर्म ना किया गया हो, अंत्येष्टि कर्म आदि में हुई किसी त्रुटि रह गई हो तो पितृ दोष लग सकता है। इसके कारण व्यक्ति को मानसिक कष्ट-अवसाद, व्यापार में नुकसान, परिश्रम के अनुसार उचित फल का न मिलना, वैवाहिक जीवन में समस्याएँ-बाधाएँ, जीवका सम्बन्धी रुकावटें-समस्याएँ और जीवन के हर क्षेत्र में बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
पितृ दोष होने पर अनुकूल ग्रहों की स्थिति, गोचर, दशाएं होने पर भी शुभ फल नहीं मिल पाता; चाहे कितना भी पूजा पाठ, देवी, देवताओं की अर्चना की जाए।
पितृ दोष का प्रभाव ::
(1). अधोगति वाले पितरों के दोषों का मुख्य कारण परिजनों द्वारा किया गया गलत आचरण, परिजनों की अतृप्त इच्छाएं, जायदाद के प्रति मोह और उसका गलत लोगों द्वारा उपभोग होने पर, विवाहादि में परिजनों द्वारा गलत निर्णय, परिवार के किसी प्रियजन को अकारण कष्ट आदि हैं जिससे पितर क्रुद्ध हो जाते हैं और परिवार जनों को श्राप दे देते हैं और अपनी शक्ति से नकारात्मक फल प्रदान करते हैं।
(2). उर्ध्व गति वाले पितर सामान्यतः पितृदोष उत्पन्न नहीं करते, परन्तु उनका किसी भी रूप में अपमान होने पर अथवा परिवार के पारंपरिक रीति-रिवाजों का निर्वहन नहीं होने पर वह पितृदोष उत्पन्न करते हैं। इनके द्वारा उत्पन्न पितृदोष से व्यक्ति की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति बाधित हो जाती है, फिर चाहे कितने भी प्रयास क्यों ना किये जाएँ, कितने भी पूजा पाठ क्यों ना किये जाएँ, व्यक्ति और परिवार के सदस्यों का कोई भी कार्य यह पितृदोष सफल नहीं होने देता।
पितृ दोष निवारण :: यह जानना ज़रूरी है कि किस गृह के कारण और किस प्रकार का पितृ दोष उत्पन्न हो रहा है ?
जन्म पत्रिका और पितृ दोष जन्म पत्रिका में लग्न, पंचम, अष्टम और द्वादश भाव से पितृदोष का विचार किया जाता है। पितृ दोष में ग्रहों में मुख्य रूप से सूर्य, चन्द्रमा, गुरु, शनि और राहू-केतु की स्थितियों से पितृ दोष का विचार किया जाता है। इनमें से भी गुरु, शनि और राहु की भूमिका प्रत्येक पितृ दोष में महत्वपूर्ण होती है।
इनमें सूर्य से पिता या पितामह, चन्द्रमा से माता या मातामह, मंगल से भ्राता या भगिनी और शुक्र से पत्नी का विचार किया जाता है। अधिकाँश लोगों की जन्म पत्रिका में मुख्य रूप से गुरु, शनि और राहु से पीड़ित होने पर ही पितृ दोष उत्पन्न होता है, इसलिए विभिन्न उपायों को करने के साथ-साथ व्यक्ति यदि पंचमुखी, सातमुखी और आठ मुखी रुद्राक्ष धारण कर ले, तो पितृ दोष का निवारण शीघ्र हो जाता है। पितृ दोष निवारण के लिए इन रुद्राक्षों को धारण करने के अतिरिक्त इन ग्रहों के अन्य उपाय जैसे मंत्र जप और स्तोत्रों का पाठ करना भी श्रेष्ठ होता है।
यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करना चाहिये। माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आम शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है।
यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करना चाहिये। माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आम शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है।
विभिन्न ऋण और पितृ दोष :: मनुष्य के ऊपर मुख्य रूप से 5 ऋण होते हैं जिनका कर्म न करने (ऋण न चुकाने पर) व्यक्ति को निश्चित रूप से श्राप मिलता है। ये ऋण हैं :- मातृ ऋण, पितृ ऋण, मनुष्य ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण।
मातृ ऋण :: माता एवं माता पक्ष के सभी लोग जिनमें माँ,मामी, नाना, नानी, मौसा, मौसी और इनके तीन पीढ़ी के पूर्वज होते हैं। माँ का स्थान परमात्मा से भी ऊँचा माना गया है। अतः यदि माता के प्रति कोई गलत शब्द बोलता है अथवा माता के पक्ष को कोई कष्ट देता रहता है, तो इसके फलस्वरूप उसको नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। इतना ही नहीं, इसके बाद भी कलह और कष्टों का दौर भी परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी चलता ही रहता है।
पितृ ऋण :: पिता पक्ष के लोगों जैसे ताऊ, चाचा, दादा-दादी और इसके पूर्व की तीन पीढ़ी का श्राप व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करता है। पिता आकाश की तरह छत्रछाया देता है। जिंदगी भर भरण-पोषण करता है और अन्तिम समय तक सारे दु:खों को खुद झेलता रहता है। इसका प्रभाव आर्थिक अभाव, दरिद्रता, संतान हीनता, संतान को विबिन्न प्रकार के कष्ट, संतान का अपंग होने से जीवन भर कष्ट की प्राप्ति आदि।
देव ऋण :: माता-पिता प्रथम देवता हैं, जिसके कारण गणेश जी महान बने। इसके बाद इष्ट भगवान् शंकर, माँ दुर्गा, भगवान् विष्णु आदि आते हैं। कुलदेवी-कुलदेवता मनुष्य को नाना प्रकार के कष्ट-श्राप आदि कर्म जनित फलों से मुक्ति दिलाते हैं; यदि उनकी उचित और सामयिक आराधना की जाये।
ऋषि ऋण :: जिस ऋषि के गोत्र में पैदा हुए, वंश वृद्धि की, उन ऋषियों की आराधना-तर्पण मनुष्य के मांगलिक कार्य सफल बनाती है।
मनुष्य ऋण :: माता-पिता के अतिरिक्त जिन अन्य मनुष्यों ने प्यार-दुलार करते हैं, ख्याल रखते हैं, समय-समय पर मदद करते हैं उनकी आराधना भी उचित फल-सहायता प्रदान करती है। पशुओं, पक्षियों भी ज्ञात-अज्ञात रूप से मनुष्य की सहायता करते रहते हैं। उनका ऋण भी मनुष्य पर है।
पितृ-दोष शांति :: सामान्य उपायों में मनुष्य-व्यक्ति को षोडश पिंड दान, सर्प पूजा, ब्राह्मण को गौ-दान, कन्या-दान, कुआं, बावड़ी, तालाब आदि बनवाना, मंदिर प्रांगण में पीपल, बड़ (बरगद) आदि देव वृक्ष लगवाना एवं विष्णु मन्त्रों का जाप आदि करना तथा प्रेत श्राप को दूर करने के लिए श्रीमद्द्भागवत का पाठ करना चाहिए।
वेदों और पुराणों में पितरों की संतुष्टि के लिए मंत्र, स्तोत्र एवं सूक्तों का वर्णन है, जिसके नित्य पठन से किसी भी प्रकार की पितृ बाधा क्यों ना हो, शांत हो जाती है।
अगर नित्य पठन संभव ना हो, तो कम से कम प्रत्येक माह की अमावस्या और आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या अर्थात पितृपक्ष में अवश्य करना चाहिए।
कुंडली में जिस प्रकार का पितृ दोष है उस पितृ दोष के प्रकार के हिसाब से पितृदोष शांति करवाना अच्छा होता है।
पितृदोष शांति के उपाय ::
(1). पितृ गायत्री मंत्र ::
देवताभ्यः पित्रभ्यश्च महा योगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः॥
इस मंत्र कि प्रतिदिन एक माला या अधिक जाप करने से पितृ दोष में अवश्य लाभ होता है।[ब्रह्म पुराण 220.143]
(2). पितृ स्तोत्र :: मार्कण्डेयपुराण में महात्मा रूचि द्वारा की गयी पितरों की यह स्तुति पितृस्तोत्र कहलाता है। पितरों की प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है। इस स्तोत्र की बड़ी महिमा है। श्राद्ध आदि के अवसरों पर ब्राह्मणों के भोजन के समय भी इसका पाठ करने-कराने का विधान है।
अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्। नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्॥
जो सबके द्वारा पूजित, अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा। तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि॥
जो इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नेता हैं, कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा। द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः॥
नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो नेता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
मन्वादीनां च नेतार: सूर्याचन्दमसोस्तथा। तान् नमस्यामहं सर्वान् पितृनप्युदधावपि॥
जो मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक हैं, उन समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी नमस्कार करता हूँ।
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्। अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः॥
जो देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
प्रजापतं कश्यपाय सोमाय वरूणाय च। योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः॥
प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु।
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे॥
सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ।
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा। नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्॥
चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ। साथ ही सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।
अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्। अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः॥
अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है।
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः। जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः॥
जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।
तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः। नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः॥
जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। उन्हें बारम्बार नमस्कार है। वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हों।
पितृ स्तोत्र का नियमित पाठ करने से भी पितृ प्रसन्न होकर स्तुतिकर्ता की मनोकामना पूर्ती करते हैं। [मार्कंडेय पुराण 94.3.13]
(3). भगवान भोलेनाथ की तस्वीर या प्रतिमा के समक्ष बैठ कर या घर में ही भगवान भोलेनाथ का ध्यान कर निम्न मंत्र की एक माला (नित्य 108) जाप करने से समस्त प्रकार के पितृ-दोष संकट बाधा आदि शांत होकर शुभत्व की प्राप्ति होती है। मंत्र जाप प्रातः या सायंकाल कभी भी कर सकते हैं।
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय च धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात।
(4). अमावस्या को पितरों के निमित्त पवित्रता पूर्वक बनाया गया भोजन तथा चावल बूरा, घी एवं एक रोटी गाय को खिलाने से पितृ दोष शांत होता है।
(5). अपने माता-पिता, बुजुर्गों का सम्मान, सभी स्त्री कुल का आदर-सम्मान करने और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहने से पितर हमेशा प्रसन्न रहते हैं।
(6). पितृ दोष जनित संतान कष्ट को दूर करने के लिए हरिवंश पुराण का श्रवण करें या स्वयं नियमित रूप से पाठ करें।
(7). प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती या सुन्दर काण्ड का पाठ करने से भी इस दोष में कमी आती है।
(8). सूर्य पिता हैं, अतः ताँबे के लोटे में जल भर कर, उसमें लाल फूल, लाल चन्दन का चूरा, रोली आदि डाल कर सूर्य देव को अर्घ्य देकर 11 बार निम्न मंत्र का जाप करने से पितरों की प्रसन्नता एवं उनकी ऊर्ध्व गति होती है।
"ॐ घृणि सूर्याय नमः"
(9). अमावस्या वाले दिन अवश्य अपने पूर्वजों के नाम दुग्ध, चीनी, सफ़ेद कपडा, दक्षिणा आदि किसी मंदिर में अथवा किसी योग्य ब्राह्मण को दान करना चाहिए।
(10). पितृ पक्ष में पीपल की परिक्रमा अवश्य करें। अगर 108 परिक्रमा लगाई जाएँ, तो पितृ दोष अवश्य दूर होगा।
(11). विशिष्ट उपाय ::
(11.1). किसी मंदिर के परिसर में पीपल अथवा बड़ का वृक्ष लगाएं और रोज़ उसमें जल डालें, उसकी देख-भाल करें, जैसे-जैसे वृक्ष फलता-फूलता जाएगा, पितृ-दोष दूर होता जाएगा, क्योकि इन वृक्षों पर ही सारे देवी-देवता, इतर-योनियाँ ,पितर आदि निवास करते हैं।
(11.2). यदि किसी का हक छीना है या किसी मजबूर व्यक्ति की धन संपत्ति का हरण किया है, तो उसका हक या संपत्ति उसको अवश्य लौटा दें।
(11.3). पितृ दोष से पीड़ित व्यक्ति को किसी भी एक अमावस्या से लेकर दूसरी अमावस्या तक अर्थात एक माह तक किसी पीपल के वृक्ष के नीचे सूर्योदय काल में एक शुद्ध घी का दीपक लगाना चाहिए, ये क्रम टूटना नहीं चाहिए।
एक माह बीतने पर जो अमावस्या आये उस दिन एक प्रयोग और करें :--
इसके लिए किसी देसी गाय या दूध देने वाली गाय का थोडा सा गौ-मूत्र प्राप्त करें। उसे थोड़े जल में मिलकर इस जल को पीपल वृक्ष की जड़ों में डाल दें। इसके बाद पीपल वृक्ष के नीचे 5 अगरबत्ती, एक नारियल और शुद्ध घी का दीपक लगाकर अपने पूर्वजों से श्रद्धा पूर्वक अपने कल्याण की कामना करें और घर आकर उसी दिन दोपहर में कुछ गरीबों को भोजन करा दें। ऐसा करने पर पितृ दोष शांत हो जायेगा।
(11.4). घर में कुआं हो या पीने का पानी रखने की जगह हो, उस जगह की शुद्धता का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि ये पितृ स्थान माना जाता है। इसके अलावा पशुओं के लिए पीने का पानी भरवाने तथा प्याऊ लगवाने अथवा आवारा कुत्तों को जलेबी खिलाने से भी पितृ दोष शांत होता है।
(11.5). अगर पितृ दोष के कारण अत्यधिक परेशानी हो, सन्तान हानि हो या संतान को कष्ट हो तो किसी शुभ समय अपने पितरों को प्रणाम कर उनसे प्रण होने की प्रार्थना करें और अपने द्वारा जाने-अनजाने में किये गए अपराध-उपेक्षा के लिए क्षमा याचना करें, फिर घर में श्रीमद्दभागवत का यथा विधि पाठ कराएं। यह संकल्प लें कि इसका पूर्ण फल पितरों को प्राप्त हो। ऐसा करने से पितर अत्यंत प्रसन्न होते हैं, क्योंकि उनकी मुक्ति का मार्ग आपने प्रशस्त किया होता है।
(11.6). किसी गरीब की कन्या के विवाह में गुप्त रूप से अथवा प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक सहयोग करना। यह सहयोग पूरे दिल से होना चाहिए, केवल दिखावे या अपनी बढ़ाई कराने के लिए नहीं। इस से पितर अत्यंत प्रसन्न होते हैं, क्योंकि इसके परिणाम स्वरुप मिलने वाले पुण्य फल से पितरों को बल और तेज़ मिलता है, जिससे वह ऊर्ध्व लोकों की ओर गति करते हुए पुण्य लोकों को प्राप्त होते हैं।
(11.7). अगर किसी विशेष कामना को लेकर किसी परिजन की आत्मा पितृ दोष उत्पन्न करती है तो तो ऐसी स्थिति में मोह को त्याग कर उसकी सदगति के लिए गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।
(11.8). सम्बंधित व्यक्ति को अपने घर के वायव्य कोण उत्तर-पश्चिम में नित्य सरसों का तेल में बराबर मात्रा में अगर का तेल मिलाकर दीपक पूरे पितृ पक्ष में नित्य लगाना चाहिए। दिया पीतल का हो तो ज्यादा अच्छा है। लाभ प्राप्ति के लिए दीपक कम से कम 10 मिनट नित्य जलना आवश्यक है।
प्रत्येक अमावस्या को दोपहर के समय गूगल की धूनी पूरे घर में सब जगह घुमाएं, शाम को आंध्र होने के बाद पितरों के निमित्त शुद्ध भोजन बनाकर एक दोने में सारी सामग्री रख कर किसी बबूल के वृक्ष अथवा पीपल या बड़ की जद में रख कर आ जाएँ और पीछे मुड़कर न देखें। नित्य प्रति घर में देसी कपूर जलाया करें।
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ
(बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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