मोक्ष साधना
HINDU PHILOSOPHY (7) हिन्दु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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Salvation can be attained through 4 means :: Karm Yog, Gyan Yog, Bhakti Yog & Equnimity.
नश्वरता दु:ख का कारण है। संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है।
संसार के दु:ख मय स्वभाव से मुक्त होने के लिये योग-समाधि, कर्म, ज्ञान या भक्ति मार्ग अपनाया जाता है। मोक्ष जीवन की अंतिम परिणति है। अज्ञान, दु:ख से मुक्त हो सकता है। इसे जीवनमुक्ति कहते हैं।
विदेह मुक्ति में सुख-दु:ख के भावों का विनाश हो जाता है। मनुष्य देह त्यागने के बाद आवागमन के चक्र से सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है।
परमानन्द की स्थिति ही मोक्ष है। इसमें सारे द्वंद्वों का अंत हो जाता है। यह अद्वैतानुभूति की स्थिति है। अद्वैत से जो मोक्ष होता है, उसमें जड़ता-संसार से सम्बन्ध विच्छेद की मुख्यता रहती है और भक्ति से जो मोक्ष होता है, उसमें चिन्मय तत्त्व के साथ एकता की मुख्यता होती है।
मुमुक्षु को श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, ये तीन प्रकार की मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इस प्रक्रिया में नानात्व, का जो अविद्याकृत है, विनाश होता है और आत्मा, जो ब्रह्मस्वरूप है, उसका साक्षात्कार होता है। मुमुक्षु तत्वमसि से अहंब्रह्यास्मि की ओर बढ़ता है। यहाँ आत्म साक्षात्कार ही मोक्ष है।
जीवन मुक्ति की स्थिति में आत्मा ब्रह्म में लीन हो जाती है।
भेदान्तर के बाद प्रकृति शाँत हो जाती है और पुरुष मुक्त होकर निर्गुण रूप में समा जाता है। इसे ही कैवल्य-केवलता, अकेला रहना कहते है। जीवन के लक्ष्य में प्रकृति और पुरुष को अलग कर देना ही कैवल्य अर्थात मोक्ष है।
प्रकृति-ब्रह्म की अपरा प्रकृति है। जीव ब्रह्म का अंश है। ज्ञान होने के बाद ब्रह्म की तरफ आरोहण होता है। विवेक उत्पन्न होने पर औपाधिक दुख सुखादि, अहंकार, प्रारब्ध, कर्म और संस्कार के लोप हो जाने से आत्मा के चितस्वरूप होकर आवागमन से मुक्त हो जाने की स्थिति ही कैवल्य है।
चित् द्वारा आत्मा के साक्षात्कार से जब उसके कर्त्तृत्त्व आदि अभिमान छूटकर कर्म की निवृत्ति हो जाती है, तब विवेक-ज्ञान के उदय होने पर मुक्ति की ओर अग्रसारित आत्मा के चित्स्वरूप में जो स्थिति उत्पन्न होती है, उसकी संज्ञा कैवल्य है।
परामात्मा में आत्मा की लीनता और न्याय के अनुसार अदृष्ट के नाश होने के फलस्वरूप आत्मा की जन्म-मरण से मुक्तावस्था को कैवल्य कहा गया है।
जिन्होंने कर्मबंधन से मुक्त होकर कैवल्य प्राप्त किया है, उन्हें केवली कहा जाता है। बुद्धि आदि गुणों से रहित निर्मल ज्योति वाले केवली आत्म रूप में स्थिर रहते हैं। शुक देव जी, विदेह राजा जनक आदि जीवन्मुक्त थे, जो जल में कमल की भाँति, संसार में रहते हुए भी मुक्त जीवों के समान निर्लेप जीवन यापन करते थे।
मोक्ष-मुक्ति के 4 प्रकार ::
(1). सालोक्य :- इससे भगवद धाम की प्राप्ति होती है। वहाँ सुख-दु:ख से अतीत, अनंत काल के लिए है, अनन्त असीम आनन्द है।
(2). सामीप्य :- इसमें भक्त भगवान् के समीप, उनके ही लोक में रहता है।
(3). सारूप्य :- इसमें भक्त का रूप भगवान् के समान हो जाता है और वह भगवान् के तीन चिन्ह :- श्री वत्स, भृगु-लता और कोस्तुभ मणी को छोड़कर शेष चिन्ह शंख, चक्र, गदा और पद्म आदि से युक्त हो जाता है।
(4). सायुज्य :- इसका अर्थ है एकत्व। इसमें भक्त भगवान् से अभिन्न हो जाता है। यह ज्ञानियों को तथा भगवान् द्वारा मारे जाने वाले असुरों को प्राप्त होती है।
सार्ष्टि भी मोक्ष का ही एक अन्य रूप है, जिसमें भक्त को परम धाम में ईश्वर के समान ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता हैं। सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य, ये सभी भक्त को प्राप्त हो जाते हैं। केवल संसार की उत्पत्ति व संहार करना भगवान् के आधीन रहता है, जिसे भक्त नहीं कर सकता।
प्रेमी-ज्ञानी भक्त भगवान् की सेवा को छोड़कर, उक्त सभी मुक्तियाँ भगवान् द्वारा दिए जाने पर भी स्वीकार नहीं करता। वह केवल भगवान् की सेवा करके, उनको सुख देना चाहता है। भक्त प्रेम का एक ही मतलब जानता है, देना, देना और केवल देना। अपने सुख के लिए प्रेमी भक्त कोई अन्य कार्य, उपाय, उपचार नहीं करता।
संसार के दु:ख मय स्वभाव से मुक्त होने के लिये योग-समाधि, कर्म, ज्ञान या भक्ति मार्ग अपनाया जाता है। मोक्ष जीवन की अंतिम परिणति है। अज्ञान, दु:ख से मुक्त हो सकता है। इसे जीवनमुक्ति कहते हैं।
विदेह मुक्ति में सुख-दु:ख के भावों का विनाश हो जाता है। मनुष्य देह त्यागने के बाद आवागमन के चक्र से सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है।
परमानन्द की स्थिति ही मोक्ष है। इसमें सारे द्वंद्वों का अंत हो जाता है। यह अद्वैतानुभूति की स्थिति है। अद्वैत से जो मोक्ष होता है, उसमें जड़ता-संसार से सम्बन्ध विच्छेद की मुख्यता रहती है और भक्ति से जो मोक्ष होता है, उसमें चिन्मय तत्त्व के साथ एकता की मुख्यता होती है।
मुमुक्षु को श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, ये तीन प्रकार की मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इस प्रक्रिया में नानात्व, का जो अविद्याकृत है, विनाश होता है और आत्मा, जो ब्रह्मस्वरूप है, उसका साक्षात्कार होता है। मुमुक्षु तत्वमसि से अहंब्रह्यास्मि की ओर बढ़ता है। यहाँ आत्म साक्षात्कार ही मोक्ष है।
जीवन मुक्ति की स्थिति में आत्मा ब्रह्म में लीन हो जाती है।
भेदान्तर के बाद प्रकृति शाँत हो जाती है और पुरुष मुक्त होकर निर्गुण रूप में समा जाता है। इसे ही कैवल्य-केवलता, अकेला रहना कहते है। जीवन के लक्ष्य में प्रकृति और पुरुष को अलग कर देना ही कैवल्य अर्थात मोक्ष है।
प्रकृति-ब्रह्म की अपरा प्रकृति है। जीव ब्रह्म का अंश है। ज्ञान होने के बाद ब्रह्म की तरफ आरोहण होता है। विवेक उत्पन्न होने पर औपाधिक दुख सुखादि, अहंकार, प्रारब्ध, कर्म और संस्कार के लोप हो जाने से आत्मा के चितस्वरूप होकर आवागमन से मुक्त हो जाने की स्थिति ही कैवल्य है।
चित् द्वारा आत्मा के साक्षात्कार से जब उसके कर्त्तृत्त्व आदि अभिमान छूटकर कर्म की निवृत्ति हो जाती है, तब विवेक-ज्ञान के उदय होने पर मुक्ति की ओर अग्रसारित आत्मा के चित्स्वरूप में जो स्थिति उत्पन्न होती है, उसकी संज्ञा कैवल्य है।
परामात्मा में आत्मा की लीनता और न्याय के अनुसार अदृष्ट के नाश होने के फलस्वरूप आत्मा की जन्म-मरण से मुक्तावस्था को कैवल्य कहा गया है।
जिन्होंने कर्मबंधन से मुक्त होकर कैवल्य प्राप्त किया है, उन्हें केवली कहा जाता है। बुद्धि आदि गुणों से रहित निर्मल ज्योति वाले केवली आत्म रूप में स्थिर रहते हैं। शुक देव जी, विदेह राजा जनक आदि जीवन्मुक्त थे, जो जल में कमल की भाँति, संसार में रहते हुए भी मुक्त जीवों के समान निर्लेप जीवन यापन करते थे।
मोक्ष-मुक्ति के 4 प्रकार ::
(1). सालोक्य :- इससे भगवद धाम की प्राप्ति होती है। वहाँ सुख-दु:ख से अतीत, अनंत काल के लिए है, अनन्त असीम आनन्द है।
(2). सामीप्य :- इसमें भक्त भगवान् के समीप, उनके ही लोक में रहता है।
(3). सारूप्य :- इसमें भक्त का रूप भगवान् के समान हो जाता है और वह भगवान् के तीन चिन्ह :- श्री वत्स, भृगु-लता और कोस्तुभ मणी को छोड़कर शेष चिन्ह शंख, चक्र, गदा और पद्म आदि से युक्त हो जाता है।
(4). सायुज्य :- इसका अर्थ है एकत्व। इसमें भक्त भगवान् से अभिन्न हो जाता है। यह ज्ञानियों को तथा भगवान् द्वारा मारे जाने वाले असुरों को प्राप्त होती है।
सार्ष्टि भी मोक्ष का ही एक अन्य रूप है, जिसमें भक्त को परम धाम में ईश्वर के समान ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता हैं। सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य, ये सभी भक्त को प्राप्त हो जाते हैं। केवल संसार की उत्पत्ति व संहार करना भगवान् के आधीन रहता है, जिसे भक्त नहीं कर सकता।
प्रेमी-ज्ञानी भक्त भगवान् की सेवा को छोड़कर, उक्त सभी मुक्तियाँ भगवान् द्वारा दिए जाने पर भी स्वीकार नहीं करता। वह केवल भगवान् की सेवा करके, उनको सुख देना चाहता है। भक्त प्रेम का एक ही मतलब जानता है, देना, देना और केवल देना। अपने सुख के लिए प्रेमी भक्त कोई अन्य कार्य, उपाय, उपचार नहीं करता।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते॥
निराहारी-इन्द्रियों द्वारा विषयों से हटाने वाले मनुष्य के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु रस निवृत नहीं होता। परमात्म तत्व के अनुभव होने से स्थित प्रज्ञ मनुष्य का रस (चस्का, शौक, लगाव) भी निवृत हो जाता है। उसकी संसार में रस बुद्धि नहीं रहती।[श्रीमद्भगवद गीता 2.59]
One who controls (deviates, diverts) the sensualities from the worldly affairs but his interest, taste, unsatisfied desires remain as such. Once he has realises the gist of the Ultimate, all his needs are rectified, satisfied and contentment is achieved.
निराहार व्रत-उपवास, भोजन की अनुपलब्धि, बीमारी, अजीर्ण जैसे कारणों से होता है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि के द्वारा इन्द्रियों को विषयों-भोजन आदि से हटा लेना आसान है; परन्तु उसकी इच्छा, लालसा, रस, रूचि का त्याग करना आसान नहीं है। नश्वर रस जड़ता, अभाव, शोक, रोग, भय, उद्वेग आदि विकार उत्पन्न करते हैं। जब तक लालसा बनी रहेगी, तब तक रसबुद्धि की निवृति नहीं होगी। स्थिरप्रज्ञ, घोर वैरागी, विचारशील साधक परमात्मतत्व का अनुभव कर लेता है और उसकी बुद्धि स्वतः भ्रमजाल से मुक्त हो जाती है। निष्काम भाव के आते ही राग, कामना, सुखेच्छा से मनुष्य मुक्त हो जाता है। कर्मयोग में सेवा-कर्म रस, ज्ञान योग में अनुभव का रस और भक्ति योग में भक्ति प्रेम-रस प्राप्त होते हैं।
One may be hungry due to fasting, non availability of food, illness-indigestion etc. Its easy to channelise-divert the desire for food but its not so easy to forget the taste, need, desire, happiness, satisfaction received by consuming-relishing food. These faculties create defects like dullness-idiocy, scarcity, sorrow-pain, fear, anxiety. The desire for food, taste, greed will remain till satisfaction-contentment, does not arise. One-the stabilised (relinquished, enlightened), who has realised the gist of the Ultimate; find his brain-intelligence free from such illusions. Equanimity, lack of desires, expectations releases him from attachments (ties, bonds), desire for comforts (pleasures, achievements) etc. Karm Yog grants the taste-happiness from the service of the down trodden-devotees, Gyan Yog awards the happiness by virtue of enlightenment-experiences and the Bhakti Yog fills the devotee with the Ultimate pleasure i.e., Bliss-Permanand.
Satisfaction associated with equanimity & Bhakti enables one to achieve Moksh.
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥
जिस मार्ग में ज्योतिर्मय-प्रकाशस्वरूप अग्नि का अधिपति देवता, दिन का अधिपति देवता, शुक्ल पक्ष का अधिपति देवता और उत्तरायण के छः महीनों का अधिपति देवता है, उस मार्ग में शरीर छोड़कर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर (पहले ब्रह्मलोक को प्राप्त होकर) पीछे ब्रह्मा जी के साथ ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.24]
The Yogi who still has some fractional, remaining desires, motives, is taken sequentially, through the paths followed by the deity, demigod of fire, Agni, the deity of the day, the deity of bright lunar fortnight and thereafter by the deity of the Uttrayan-the six months period, during which the Sun moves from South to North; to the creator Brahma Ji & they too assimilate in the Almighty with Brahma Ji.
इस पृथ्वी पर शुक्लमार्ग में सबसे पहले अग्नि देवता का अधिकार रहता है। अग्नि रात्रि में प्रकाश करती है, दिन में नहीं क्योंकि अग्नि का प्रकाश दिन के प्रकाश की अपेक्षा सीमित है, कम दूर तक जाता है। शुक्लपक्ष 15 दिनों का होता है जो कि पितरों की एक रात है। यह प्रकाश आकाश में अधिक दूर तक जाता है। जब सूर्य भगवान् उत्तर की तरफ चलते हैं, तब यह उत्तरायण कहलाता है और यह 6 महीनों का समय देवताओं का एक दिन है। इसका प्रकाश और अधिक दूर तक फैला हुआ है। जो शुक्लमार्ग की बहुलता वाले मार्ग में जाने वाले हैं, वे सबसे पहले अग्नि देवता के अधिकार में, फिर दिन के देवता के अधिकार में और शुक्लपक्ष के देवता को प्राप्त होते हैं। शुक्लपक्ष के देवता उसे उत्तरायण के अधिपति के सुपुर्द कर देते हैं औए वे उसे आगे ब्रह्मलोक के अधिकारी देवता के समर्पित कर देते हैं। इस प्रकार जीव क्रमश: ब्रह्मलोक में पहुँच जाता है और ब्रह्मा जी की आयु पर्यन्त वहाँ रहकर महाप्रलय में ब्रह्मा जी के साथ ही मुक्त हो जाता है तथा सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्मविद :: परमात्मा परोक्षरूप से जानने वालों के लिए है अपरोक्षरुप रूप से जाननेवालों के लिए नहीं, जिन्हें यहीं पर सद्योमुक्ति या जीवन्मुक्ति बगैर ब्रह्मलोक जाये ही प्राप्त हो जाती है।
The period of bright moon light is under the control of the deity of fire Agni Dev. Fire does not produce as much light as is produced by the Sun. Sun light extends farther than the light produced by fire. Bright lunar fortnight constitutes of 15 days, which is the period dominated by the Pitr Gun (the Manes, ancestors). The light extends farther. It is followed by the period of 6 months, when the Sun turns north called Uttrayan in northern hemisphere. The sequence is such that the soul of the relinquished is passed on to the next in the hierarchy to be handed over to the creator Brahma Ji, where it stays and enjoys till the Ultimate devastation takes place and it merges with the Almighty-the Ultimate being, not to return back.
There is yet another version which explains this verse in the form of the phases of Moon. As the organism grows in virtues his status is enhanced from 1 to 16, which is the phase of the Ultimate being-the Almighty. Those with less virtues to their credit and still possess left over rewards of the virtuous, righteous, pious deeds; are promoted to the Brahm Lok in stead of being relinquished straight way to the Almighty by granting him Salvation.
अपरोक्ष क्रम में :: (1). अग्नि :- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है, (2). ज्योति :- ज्योति के समान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के समान गहरा होता जाता है और (3). अह :- दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है।इस प्रकृम में 16 कलाएँ :– 15 कला शुक्ल पक्ष + 01 एवं उत्तरायण कला = 16 हैं।(1). बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना, (2). अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है, (3). चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है, (4). अहंकार नष्ट हो जाता है, (5). संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है, (6). आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है, (7). वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है, (8). अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है, (9). जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती, (10). पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती, (11). जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने अधीन हो जाती है, (12). समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं, (13). समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है, (14). सर्व व्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव होती है। योगी-विमुक्त लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है, (15). कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है, (16). उत्तरायण कला :- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण। यहाँ उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है। सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएँ होती हैं। यही दिव्यता है।[वेदों के समान ही विभिन्न विद्वानों ने गीता की व्याख्या भी अलग-अलग की है। परन्तु मूल तत्व सब जगह एक ही रहता है]
The Yogi who still has some fractional, remaining desires, motives, is taken sequentially, through the paths followed by the deity, demigod of fire, Agni, the deity of the day, the deity of bright lunar fortnight and thereafter by the deity of the Uttrayan-the six months period, during which the Sun moves from South to North; to the creator Brahma Ji & they too assimilate in the Almighty with Brahma Ji.
इस पृथ्वी पर शुक्लमार्ग में सबसे पहले अग्नि देवता का अधिकार रहता है। अग्नि रात्रि में प्रकाश करती है, दिन में नहीं क्योंकि अग्नि का प्रकाश दिन के प्रकाश की अपेक्षा सीमित है, कम दूर तक जाता है। शुक्लपक्ष 15 दिनों का होता है जो कि पितरों की एक रात है। यह प्रकाश आकाश में अधिक दूर तक जाता है। जब सूर्य भगवान् उत्तर की तरफ चलते हैं, तब यह उत्तरायण कहलाता है और यह 6 महीनों का समय देवताओं का एक दिन है। इसका प्रकाश और अधिक दूर तक फैला हुआ है। जो शुक्लमार्ग की बहुलता वाले मार्ग में जाने वाले हैं, वे सबसे पहले अग्नि देवता के अधिकार में, फिर दिन के देवता के अधिकार में और शुक्लपक्ष के देवता को प्राप्त होते हैं। शुक्लपक्ष के देवता उसे उत्तरायण के अधिपति के सुपुर्द कर देते हैं औए वे उसे आगे ब्रह्मलोक के अधिकारी देवता के समर्पित कर देते हैं। इस प्रकार जीव क्रमश: ब्रह्मलोक में पहुँच जाता है और ब्रह्मा जी की आयु पर्यन्त वहाँ रहकर महाप्रलय में ब्रह्मा जी के साथ ही मुक्त हो जाता है तथा सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्मविद :: परमात्मा परोक्षरूप से जानने वालों के लिए है अपरोक्षरुप रूप से जाननेवालों के लिए नहीं, जिन्हें यहीं पर सद्योमुक्ति या जीवन्मुक्ति बगैर ब्रह्मलोक जाये ही प्राप्त हो जाती है।
The period of bright moon light is under the control of the deity of fire Agni Dev. Fire does not produce as much light as is produced by the Sun. Sun light extends farther than the light produced by fire. Bright lunar fortnight constitutes of 15 days, which is the period dominated by the Pitr Gun (the Manes, ancestors). The light extends farther. It is followed by the period of 6 months, when the Sun turns north called Uttrayan in northern hemisphere. The sequence is such that the soul of the relinquished is passed on to the next in the hierarchy to be handed over to the creator Brahma Ji, where it stays and enjoys till the Ultimate devastation takes place and it merges with the Almighty-the Ultimate being, not to return back.
There is yet another version which explains this verse in the form of the phases of Moon. As the organism grows in virtues his status is enhanced from 1 to 16, which is the phase of the Ultimate being-the Almighty. Those with less virtues to their credit and still possess left over rewards of the virtuous, righteous, pious deeds; are promoted to the Brahm Lok in stead of being relinquished straight way to the Almighty by granting him Salvation.
अपरोक्ष क्रम में :: (1). अग्नि :- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है, (2). ज्योति :- ज्योति के समान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के समान गहरा होता जाता है और (3). अह :- दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है।इस प्रकृम में 16 कलाएँ :– 15 कला शुक्ल पक्ष + 01 एवं उत्तरायण कला = 16 हैं।(1). बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना, (2). अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है, (3). चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है, (4). अहंकार नष्ट हो जाता है, (5). संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है, (6). आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है, (7). वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है, (8). अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है, (9). जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती, (10). पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती, (11). जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने अधीन हो जाती है, (12). समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं, (13). समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है, (14). सर्व व्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव होती है। योगी-विमुक्त लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है, (15). कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है, (16). उत्तरायण कला :- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण। यहाँ उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है। सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएँ होती हैं। यही दिव्यता है।[वेदों के समान ही विभिन्न विद्वानों ने गीता की व्याख्या भी अलग-अलग की है। परन्तु मूल तत्व सब जगह एक ही रहता है]
बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥
बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम तथा सुख, दुःख, उत्तपत्ति, विनाश, भय, अभय और अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश; प्राणियों के ये अनेक प्रकार के अलग-अलग बीस भाव मुझसे ही होते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.4-5]
Intelligence, enlightenment, disillusion, pardon, truth-austerity, self restraint-control & comforts-pleasure, pain-sorrow, training-discipline, tranquillity, evolution, destruction, fear, bravery-fearlessness, non violence, equanimity, satisfaction, asceticism, donation-charity, fame-goodwill-name, slander-defame are the 20 qualities-feelings, gestures which evolve due to the Almighty in the human beings.
मनुष्य के मस्तिष्क का विकास, सूझ-बूझ, बुद्धि-विवेक, चिन्तन-विचार शक्ति, दूरदृष्टि आदि ऐसे गुण हैं, जो उसे सन्मार्ग की ओर ले जा सकते हैं। सार-निस्सार, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य, साँख्य आदि ज्ञान के अंग हैं। मैं, मेरा, अपना, मोह है और संसार के प्रति विरक्ति असम्मोह है। अपने प्रति किये गए घोर अपराध-गुनाह, को शन करना, बर्दाश्त कर लेना और अपराधी को उसके किये गए कुकृत्य के लिए कहीं भी सज़ा न मिले, यह विचार मन में धारण कर लेना क्षमा है। ऐसा सत्य बोलना जो किसी बेगुनाह को सज़ा से मुक्त करा सके। जैसा देखा, सुना और समझा वैसा ही कहना। सत्य वह जो सुख का कारण बने। दम, शम, इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से हटाकर अपने वश में करना दम और मन को सांसारिक भोगों के चिंतन से हटाना शम है। शरीर, मन इन्द्रियों को अनुकूल परिस्थिति से हृदय में जो प्रसन्नता होती है वह सुख है। प्रतिकूल परिस्थिति, परिणाम से जो अप्रसन्नता होती है वह दुःख है। सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, भाव आदि के उत्पन्न होने को भव और लीन होने को अभाव कहते हैं। अपने आचरण, भाव आदि के शास्त्र, लोक-मर्यादा के विरुद्ध होने पर अन्तःकरण में जो अनिष्ट-दुःख की आशंका होती है, वो भय है इसके विपरीत भाव अभय-निडरता है। तन, मन, वचन और देश, काल, परिस्थिति में किसी भी प्राणी को कष्ट ने पहुँचाना अहिंसा है। अनुकूल-प्रतिकूल घटना, व्यक्ति, काल, परिस्थिति उत्पन्न होने पर भी अंतःकरण-मन में किसी भी प्रकार की विषमता का न होना समता है। कम-ज्यादा जो भी जैसा भी मिल जाये, उसी में संतुष्ट रहना संतोष-तुष्टि है। अपने कर्तव्य-धर्म के निर्वाह में किसी भी प्रकार के कष्ट, प्रतिकूल परिस्थिति का निर्वाह, व्रत-उपवास आदि तप हैं। अपनी नेक-ईमानदारी की कमाई का कुछ भाव सत्पात्र को देना दान है। अच्छे आचरण-वर्ताव, गुण, भाव, कार्यों के कारण समाज-देश में प्रसिद्धि, प्रशंसा यश है। समस्त प्राणियों में इन विभिन्न प्रकार के भावों, सत्ता, स्फूर्ति, शक्ति, आधार और प्रकाश परमात्मा से हुई प्राप्य है और वे ही इन सबके मूल में हैं। मत्त: योग, सामर्थ, प्रभाव का और पृथग्विधा: अनेक प्रकार की विभूतियों का द्योतक है। संसार में समस्त शुभ-अशुभ, विहित-निहित, निषिद्ध, सद्भाव-दुर्भावआदि सभी कुछ भवत्वतलीला है। ये जो बीस भाव प्राणियों में बताये गए हैं, प्रभु से ही संचालित हैं।
Intelligence, development of brain-mind, thoughtfulness, prudence, power to analyse and synthesise, farsightedness, memory-retention are the factors, which can guide one-humans to austerity, piousity, virtuousness, righteousness & the Ultimate-Almighty. Power to understand right or wrong, just or unjust, duty-religiosity are the organs of enlightenment-learning. The preoccupation of mind with I, My, Me, Mine & the ego are illusion-attachment and rejection of worldly possessions-attachment is relinquishment-rejection. Pardon is the quality which allows forgiveness to the culprit for his crime against one and not to think of punishing him under any circumstances. Truth is a quality to report the event as such and to protect an innocent person from punishment. Say what you saw, heard or perceived. Dam is controlling the sense organs and avoiding the subjects-objects of sensual pleasure & Sham is that tendency which forbids one from the thinking-imagination of enjoyments, comforts, luxuries of this destructible-perishable world. Pleasure is happiness attained from the situations, incidents-occurring, attainments in the heart & the pain is caused due to failure, anti-adverse situation, results. Evolution-creation of worldly goods, person, situation-incident, mood, feeling, projection is also Godly act in addition to destruction. Fear comes to one, when he acts against law, person, scriptures, ethics and the power-actions of dreaded criminals. Non violence is the tendency not to hurt-harm any organism, individual, creature through body, mind, thinking, heart-imagination and the speech.
Equanimity is the parity of adverse & favourable situation, event, occurrence, person-organism, time-cosmic era-death & life, pleasure-pain. Satisfaction means to remain content with whatever has been obtained-earned honesty, through righteous-just means. Asceticism is bearing of difficulties happily, worship of God through fasting, meditating in the lonely places and as a recluse. Donation-charity is the grant for social welfare through own honest-righteous earning to the deserving. Appreciation due to nice-good conduct-behaviour, dealing with others, goodness, qualities is name & fame. These qualities, characteristics, traits, factors comes to one from the Almighty-God, who is at the root of this universe & all that is happening. Assimilation in God, Liberation, Salvation, Yog, strength, power, capacity, impact-effect and various other auspicious qualities are the gifts of the God and whatever is happening is just an act of the Supreme Lord. These 20 qualities of humans are directed-granted by the God. Thus everything-event is a play-act of the Almighty.
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥
Those who have taken refuge under enlightenment-transcendental knowledge have attained association with the God and are neither born at the time of creation, nor afflicted at the time of dissolution.
सभी ज्ञानों से ऊपर परमात्मा और प्रकृति के भेद के जिस ज्ञान की महिमा का बखान परमात्मा ने किया है, उसको अनुभव करना ही उसका आश्रय लेना है। यह मनुष्य के सभी संशय मिटा देता है और वह ज्ञान स्वरूप हो जाता है। परमात्मा की सधर्मता का अर्थ है कर्म और भोग की प्रवृत्ति का न होना। सदा निर्विकार और निर्लिप्त रहना। इस प्रकार के लोग महासर्ग में भी जन्म नहीं लेते। जो जन्म ही नहीं ले रहा, वो मरेगा भी नहीं। उसे महाप्रलय में संवर्तक अग्नि का सामना नहीं करना होगा, जिसमें पृथ्वी पर सभी प्राणी भस्म हो जाते हैं। पृथ्वी पानी-समुद्र में डूब जाती है। चौदह लोकों में हाहाकार मच जाता है और सभी प्राणी नष्ट हो जाते हैं।
The Almighty explained the distinction between HIM and the nature-creations. This is deemed to be Ultimate knowledge. It results in removal of all doubts, confusions, distractions. Understanding it, following it with firm determination-resolve, leads one to association with the God. This is the state from which one will never fall. He becomes identical to the God and never takes reincarnations. He will never face the agony of death. One who has risen above deeds and consumption, comforts, rewards, outputs; who has become defectless (untainted, unsmeared, detached, relinquished), is not subjected to rebirth during next cosmic era, even at the time of the evolution of Brahma Ji. He will not be subjected to the fire engulfing the entire earth, when the earth is burnt-dissolution by the 12 Suns, leading to burning to all living beings and the drowning of the earth in water. None of the 14 abodes (heavens & the nether world) survives. All creatures-organisms perish.
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥
भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की अत्यन्त शुद्धि, ज्ञान के लिये योग में दृढ़ स्थिति और सात्विक दान, इन्द्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, कर्तव्य के पालन लिए कष्ट सहना और शरीर, मन तथा वाणी की सरलता उन्हें प्राप्त करने के लिये आवश्यक है।[श्रीमद्भगवद्गीता 16.1]
Bhagwan Shri Krashn said that one who recognises HIM as the Ultimate, should be fearless, has extreme purity of innerself-psyche, extreme devotion in Yog for the sake of attaining knowledge, donation of goods acquired through pure-pious means & honesty, restraint over senses, performance of Yagy-ritualistic holy sacrifices in fire, self study of scriptures, bearing of pain-turmoil for conducting own duties, responsibilities and purity of body, mind & speech.
परमात्मा को पुरुषोत्तम जानकर अनन्य भक्ति भाव से ध्यान-पूजन करने वाले के मन में भाव, आचरण प्रभाव सहित दैवी सम्पत्ति का प्राकट्य होता है। जिस मनुष्य का मन-हृदय साफ-शुद्ध होता है, वह भयहीन-निर्भय होता है। उसके अन्तःकरण, आचरण और व्यवहार में अत्यन्त शुद्धि जरुरी है। वह पाप कर्म, दुष्टता से मुक्त है। उसने परमात्म तत्व, ज्ञान प्राप्ति के लिए योग धारण किया है और उसमें उसकी दृढ़ स्थिति है। उसे समता की प्राप्ति हो गई है। वह शास्त्रोचित माध्यम से अर्जित धन का उपयोग दान, लोक कल्याण के लिए करता है। उसका अपनी इन्द्रियों, मन, भावनाओं और इच्छाओं पर पूरा अंकुश-नियंत्रण है। वह यज्ञ, हवन, अग्निहोत्र, पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, भागवत कथाओं का अध्ययन-श्रवण जैसी शास्त्र सम्मत क्रियाएँ करता है। अपने ईष्ट-परमात्मा की प्राप्ति हेतु वह स्वाध्याय करता है, जिसमें वेद, पुराण, भागवत, रामायण, महाभारत, इतिहास आदि शामिल हैं। वह अपने शास्त्र सम्मत कर्तव्य-दायित्व का निर्वाह, धूप-ताप, विध्न-बाधा, कष्ट सहकर भी बगैर दुःखी-परेशान हुए प्रसन्नता पूर्वक करता है। इससे उसमें जो आत्मबल-तपोबल उत्पन्न हुआ है, उसका उपयोग वो श्राप-बद्दुआ, दूसरे को हानि पहुँचाने में कभी नहीं करता। उसका व्यवहार शुद्ध और छल-कपट, बनावट से रहित है। उसका शरीर, मन, वचन और अन्तःकरण शुद्ध-सरल हैं।
The Almighty elaborated the divine developments-modifications in the innerself-psyche of the devotee, who recognises HIM as the Ultimate, superior to the Kshar-perishable and Akshar-imperishable beings. The devotee becomes fearless, since his mind & heart are pure, unbiased, uncontaminated, unsmeared. His behaviour is soothing, calm and polite. He is always tolerant. He is free from sins, anger, enmity, ego etc. He practices Yog for the sake of the achievement of the gist (nectar, extract, elixir) of the God. He is firmly busy with his endeavour, goal, target of Liberation. He has become equanimous. He earns through pious, pure, honest means and utilises the money for donations-charity, social welfare, welfare of the poor-needy, one in trouble-distress. He is always generous-liberal to the one in need-distress. He is always willing to help anyone in trouble physically, financially. He has firmly controlled his emotions, passions, feelings, thoughts, ideas and directed them into the Almighty only. He performs rituals, Yagy, Hawan, Holy sacrifices in fire, prayers, recitation of God's glory, listens to sermons-stories pertaining to the God, visits holy places with only one motive that is happiness of the God. He reads, listens Bhagwat, Veds, Ramayan, Maha Bharat, Purans and other stories connected with social welfare. He performs all his duties assigned by the scriptures without feeling worried or disheartened. The strength-power and energy acquired by him through these means is not wasted by him in abusing, cursing or repressing anyone. His behaviour is free from artificiality. He is non deceptive. His body, mind and speech are always pure-pious. His innerself-psyche is pure.
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥
परमात्मा ने भक्त के अन्य गुण इस प्रकार बताये :- अहिंसा, सत्य भाषण, क्रोध न करना, संसार की कामना का त्याग, अन्तःकरण में राग-द्वेष जनित हलचल का न होना, चुगली न करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना, अन्तःकरण की कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा, चपलता का अभाव।[श्रीमद्भगवद्गीता 16.2]
The Almighty continued with the description of the qualities possessed by a devotee. He added nonviolence, truthfulness, absence of anger, relinquishment-renunciation, absence of disturbance due to attachment and enmity, back biting-abstaining from malicious talk, kindness (pity, softness of heart, i.e., compassion for all creatures), shyness in doing undesired, freedom from greed, absence of fickleness to the list.
अहिंसा का तात्पर्य है शरीर, मन, वाणी, भाव आदि के माध्यम से किसी का भी किसी भी प्रकार से अनिष्ट नहीं करना। संसार से विमुख होकर परमात्मा की तरफ चलना पूरी अहिंसा है। प्रत्येक परिस्थिति में स्वयं को काबू में रखकर क्रोध न करना। क्रोध हिंसा-अनिष्ट को जन्म देता है। सत्य भाषण करना। सांसारिक सुख, मोह, बन्धनों, कामनाओं, संग्रह आदि की इच्छा का त्याग करना। शान्त रहने से मन की हलचल, अन्तर्द्वन्द नहीं होते। साधक किसी की भी बुराई या चुगली नहीं करता। वह प्राणियों पर दया करता है। अलोलुप होना-किसी भी प्रकार के लालच से बचना। उसके अन्तःकरण में सभी के प्रति कोमलता की भावना है और वह कठोर व्यवहार नहीं करता। वो ऐसे कार्य नहीं करता, जिनको करने से लज्जा महसूस हो या पछतावा हो। वह अपने कार्यों का सम्पादन सुचारु रुप से धैर्य पूर्वक करता है।
The devotee who is planning to assimilate in the Ultimate does not support violence, torture, teasing of any kind-anyone. In fact one who has started following the footprints of God is away from such activities. He exercise control over himself i.e., self restraint. He do not get angry or nourish ill will, anguish for any one. Anger leads to violence. He speaks the truth. He has deserted comforts, desires, attachments, accumulation (wealth, property). He maintains peace, tranquillity, solace of body, mind and soul. He is not perturbed under any kind of provocation. He is free from inner conflicts. He do not believe in back biting or defamation of anyone. He is a kind hearted person and takes pity over all beings. He is not a greedy person. His needs are limited. He do not become harsh, sort tempered, furious or tough towards any one, under any circumstances. He maintains balance of mind. He performs in such a way that he does not become shy or hide his face from anyone by doing any anti social activity. He performs his duties with ease, comfort in a well planned-systematic manner.
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत॥
तेज, क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, वैर भाव का न होना और मान को न चाहना, हे भरत वंशी अर्जुन! ये सभी दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 16.3]
The Almighty addressed Arjun as Bharat Vanshi and said that spirit, energy, majesty-dignity, pardon, patience, purity of the body, absence of enmity-malice and lack of desire for honour-pride are the signs-characteristics of the devotee who has attained the divine virtues-qualities.
दैवी शक्ति से सम्पन्न महापुरुषों के चेहरे पर तेज-आभा प्रकट होने लगती है। उनको देखने मात्र से ही सुख-शान्ति का आभास-अहसास होने लगता है। उनमें क्षमा जैसे गुण स्वतः प्रकट हो जाते हैं। उनका व्यवहार धैर्य और शान्ति पूर्ण होता है। उनके अन्तःकरण और बाहरी आवरण-कलेवर, आचार और व्यवहार में शुद्धि दिखाई देने लगती है। उनका किसी व्यक्ति के साथ वैर भाव नहीं होता। वे अनिष्ट करने और चाहने वालों के प्रति भी समता का व्यवहार करते हैं और मन में क्रोध-अशान्ति को आने नहीं देते। उनमें यह इच्छा नहीं रहती कि उन्हें कोई मान-सम्मान-इज्जत बख्से। ये सभी लक्षण साधु, सन्यासी, तपस्वियों के हैं। वर्तमान काल के ढोंगियों-पाखंडियों को इनकी सहायता से आसानी से पहचाना जा सकता है।
One who has attained divinity has aura over his face. His company grants solace-peace instantly. He forgive-pardon even the gravest possible sinner. He is calm and composed. His behaviour is full of patience. His innerself and the physique are neat & clean. His behaviour reflects decency, purity and honesty. He do not nurse grievances towards anyone. He do not let anger, disturbance take him over. He is equanimous even towards those who wish to harm him. He never desire and allow anyone to show honour towards him. These are the qualities-characteristics of sages, ascetics, saints. One can utilise these traits to distinguish between the real saints & the impostors of today.
The country is full of such preachers who mislead the innocent. Such people are more who preach Islam since the Muslims are generally illiterate-uneducated, ignorant. An idiot issues a Fatwa-doctrine and forces the masses to follow him. These Fatwa-doctrines are often misleading, torturous, notorious, inciting and drags the community to 15th century. They have no logic, reasoning, foundation. Hindus are also not far behind. They all do this for money, power politics.
दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥
दैवी सम्पत्ति मुक्ति के लिये और आसुरी सम्पत्ति बन्धन के लिये मानी गई है। हे पाण्डव! तुम दैवी सम्पत्ति को प्राप्त हुए हो, इसलिये तुम शोक-चिन्ता मत करो।[श्रीमद्भगवद्गीता 16.5]
The Almighty asked Arjun not to worry, since he had attained divine virtues-qualities leading to Salvation while those who earned demonic tendencies move to bondage-rebirth.
दैवी सम्पत्ति धर्म-कर्म, पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, समाज सेवा, इन्द्रिय दमन, भगवत्भक्ति, सत्कार्य आदि से प्राप्त होती है। दैवी सम्पत्ति का अर्थ है, व्यक्ति को मुक्ति-मोक्ष की तैयारी। इसके विपरीत दुर्गुण, दुर्भावना, अहंकार, ममता, कामना, सकाम सिद्धियों की प्राप्ति, इच्छाएँ, भोग आसुरी प्रवृतियों को बढ़ावा देती हैं, जो कि बन्धनकारी पुनः-पुनः जन्म-मरण प्रदायक है। मनुष्य जन्म दैवी सम्पत्ति के लिए है और कर्म योग, ज्ञान योग तथा भक्ति योग इसमें सहायक हैं।
Its not difficult to gather divine virtues. One can easily mend his ways by resorting to prayers, worship, Yog, social service, repression of passions, sensuality, sexuality, lust, speaking with calm in composed tone, good behaviour etc. One who has earned divine virtues is sure to pave his way to assimilation in God. Ego, allurements, desires, comforts, bad temperament, aggressiveness, violence, prayers with motive, always lead to demonic tendencies further leading one to rebirth. Human body is meant for making efforts for divinity. Karm Yog, Gyan Yog & Bhakti Yog are of immense help to achieve Liberation.
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥
इस लोक में दो तरह के ही प्राणियों की सृष्टि हुई है :- दैवी और आसुरी। दैवी को तो मैनें विस्तार से कह दिया है, अब हे पार्थ! मुझ से आसुरी सृष्टि के बारे में विस्तार से सुनो।[श्रीमद्भगवद्गीता 16.6]
Bhagwan Shri Krashn told Arjun by addressing him as Parth that there were only two types of creations, castes, divisions & that HE had described the divine (wise, enlightened) creations in detail at length and he was going to narrate about the demonic (ignorant) creations.
प्रकृति में दो तरह की सृष्टि है दैवी और आसुरी। दोनों शक्तियाँ एक दूसरे के विपरीत हैं। भूत सर्ग में सभी प्रकार की सृष्टि आ जाती है। परमात्मा का अंश चेतन है। प्रकृति का अंश जड़ है। जब तक चेतन अंश प्रकृति से जुड़ा है वह आसुरी सम्पदा के अंतर्गत आता है। जैसे ही वह प्रकृति से विमुख होकर परमात्मा की ओर बढ़ता है, उसमें दैवी सम्पदा का प्रादुर्भाव हो जाता है। दुराचार, अनाचार, अत्याचार करने वाले परमात्मा से विमुख होते हैं और उनका पाप निरंतर बढ़ता चला जाता है। दैवी और आसुरी शक्तियाँ दोनों ही लौकिक हैं। अलौकिक अनन्त और अपार है। लौकिक की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। जीव ने ही लौकिक को धारण कर रखा है। जब तक जीव की दृष्टि में संसार की सत्ता है, तभी तक लौकिक है। संसार की सत्ता न रहने से सभी कुछ अलौकिक है।
The nature has two types of creations acting in opposite directions. The first one tend to move towards the God, while the second one acts the other way round. The past creations govern both of them. The alert, enlightened, wise component is a the from of the Almighty. It leads one to imperishable-divine. The segment which is rigid-inertial is governed by the nature and follows the dictates of ignorance-darkness, having demonic traits. The demonic character always moves one to perishable leading to long sequence of birth & rebirth. As soon as this component start moving to the God his character changes from perishable to imperishable-divine. Those who are busy in atrocities, torture, terrorism, teasing, assassination, murders, crimes, rape, snatching frauds etc. etc. are the ignorant ones going to suffer in future. Their sin graph will continue to rise further and further. The organism is responsible to give strength to perishable character which is demonic, devilish, satanic. The moment one start ignoring the negative forces his freedom-Salvation is sure. He will start the journey to bliss-pleasure which is the Ultimate-divine. Divinity is infinite, imperishable.
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥
तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिये-निमित्त ही सब कुछ है; ऐसा मानकर मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों द्वारा फल की इच्छा से रहित होकर, अनेक प्रकार के यज्ञ और तप रुप क्रियाएँ तथा दान रूप क्रियाएँ की जाती हैं।[श्रीमद्भ गवद्गीता 17.25]
Those who want freedom from reincarnation-salvation, perform various Yagy-sacrifices, ascetic practices and donations, charity, austerity for the sake of the God, who is addressed as TAT, without the desire of any reward.
जो भी शास्त्र सम्मत योग, यज्ञ, हवन, तप, दान, तीर्थ, व्रत, स्वाध्याय, ध्यान, समाधि, शुभ कर्म आदि क्रियाएँ परमात्मा की प्रसन्नता लिये की जायें, उनमें फल की इच्छा किञ्चित मात्र भी नहीं होनी चाहिये, क्योंकि वे अपने लिये नहीं हैं। जिन साधनों से ये क्रियाएँ की जाती हैं; वे शरीर, इन्द्रियाँ अन्तः करण परमात्मा के ही हैं। कुटुम्ब, घर, मकान, सम्पत्ति भी परमात्मा का ही दिया हुआ है। समझ-ज्ञान, बुद्धि, सामर्थ्य स्वयं मनुष्य भी परमात्मा का ही है। इस भाव को लेकर समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये। प्रत्येक कर्म-क्रिया शुभ-अशुभ, निहित-विहित, निषिद्ध तथा कर्म फल का प्रारम्भ और समाप्ति भी होती है। अतः उसकी इच्छा कतई नहीं होनी चाहिये। परमात्मा की सत्ता नित्य-निरन्तर है, अतः मनुष्य को उसकी स्मृति रहनी ही चाहिये। जो संसार प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है, उसका तो निराकरण करना ही है तथा जो अप्रत्यक्ष है, उस तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का अनुभव भी करना है, जो नित्य-निरन्तर है। परमात्मा के भक्त राम, कृष्ण, गोविन्द, नारायण, वासुदेव, शिव आदि का सम्बोधन उस तत् स्वरूप भगवान् के लिये करके, समस्त क्रियाएँ शुरू करते हैं। तत् शब्द (वह, उस) अलौकिक परमात्मा के लिये ही आया है, जो कि श्रद्धा-विश्वास का विषय है, विचार का नहीं।
Tat (HE, THAT) has been used for the Almighty. Existence of God is a matter of faith not of argument, logic or discussion. HE is eternal-divine, beyond the limits of the human intelligence, vision or thought. All prayers start by remembering HIM as Ram, Krashn, Hari, Govind, Shiv, Vasudev, Narayan etc. by the devotees or simply God, Allah, Khuda, Rab, Bhagwan etc. Whatever pious, virtuous, righteous deed-endeavour is there, should be undertaken, for HIS happiness, pleasing HIM. Sacrifices in Holy fire, Yagy, Hawan, ascetic practices, Pilgrimage, bathing in Holy river-reservoirs are meant for HIS happiness, pleasing HIM, since HE has created the man. The tools of offerings, donations, wealth, body, organs, belongs to HIM. The man, his intelligence, body, thoughts, family, property, strength, capability, power are created by HIM and thus belongs to HIM, only. All deeds, habitual or compulsory, pious or evil, begins and terminates but the Almighty remains as such without any change-modification, before, after and now. One should feel HIS presence everywhere, in each & every particle, action-activity.
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥
यज्ञ तथा तप और दान रूप क्रिया में जो स्थित (निष्ठा रखता है) है वह भी सत् कहा जाता है और उस परमात्मा के निमित्त किया जाने वाला कर्म भी सत् कहा जाता है।[श्रीमद्भ गवद्गीता 17.27]
The performer of Yagy-Holy sacrifices in fire, Tap-ascetic practices and Dan (donations, charity) and the one who has faith in these practices do represent Sat (Purity, Austerity, Truth) and the deeds (performances, practices) selfless service for the sake-cause of the Almighty do represent Sat (Purity).
यज्ञ तथा तप और दान करना और उनमें निष्ठा, विश्वास, आस्था रखना भी सत् है। लौकिक, पारमार्थिक और दैवी सम्पदा सत् स्वरूप और मोक्ष प्रदायक हैं। मानव मात्र के कल्याण के लिये निष्काम भाव से किया गया कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं जाता। जो परमात्मा को चाहता है, वो अपना कल्याण और मुक्ति चाहता है। भक्ति चाहने वाला भी भगवान् के हेतु ही कर्म करता है। ये सभी कर्म-क्रियाएँ सत् स्वरूप हैं।
Faith in Yagy, Tap-ascetics and Dan-charity is Sat. Anything done for the sake of the God is also Sat. Pure deeds, service of the mankind without any motive-desire for return, divine activities like devotion to God, prayers of deities-demigods as a form-representative of the God-Ultimate, do grant Salvation (emancipation, Assimilation in the God, Liberation). Selfless service of the man kind, never goes waste. One who loves God, loves Salvation. One who loves devotion, do perform for the sake of the God. These pure, uncontaminated, pious, righteous, virtuous performances-deeds meant for the God's cause, do grant Salvation.
Salvation is the Ultimate goal of the human life.
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥
अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में प्रीति पूर्वक, तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य, जिस प्रकार से कर्म करके परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन।[श्रीमद्भागवत गीता 18.45]Listen-understand the means, method, procedure by following which, a person engage-perform his duties affectionately, religiously, piously, attains accomplishment-the Ultimate, as described by the Almighty himself.
मनुष्य को सिद्धि स्वतः ही प्राप्त हो सकती है, अगर वो अपने लिए उलझन, राग-द्वेष पैदा न करे। प्राकृतिक कर्मों को स्वार्थ-फलेच्छा को त्यागकर, तत्परतापूर्वक आचरण करने से आसक्ति का वेग पैदा नहीं होता और निर्लिप्तता उत्पन्न होती है। इससे परमात्मा की तरफ स्वाभाविक आकर्षण पैदा हो जाता है। कर्म परमात्मा से ही उत्पन्न हुए हैं और उसमें ही विलीन हो जाते हैं। अतः मनुष्य को अपने शास्त्रोचित कर्तव्य का प्रेम पूर्वक, आदर पूर्वक, नि:स्वार्थभाव से करना चाहिये। किसी भी कर्म में भाव की प्रधानता है। एक ही कर्म भाव के पृथक होने से सुखदायक अथवा दुःखदायक बन जाता है।
It’s evident that accomplishment is a natural gift to a person, who continues with his prescribed Varnashram, Righteous duties, obligations, provided, he do not create hurdles for himself through attachment, prejudices, vices etc. He should carry out all functions-obligations by discarding selfishness and involvement, happily, eagerly-earnestly, intently, readily, willingly, enthusiastically without the desire of rewards. His motto should be to help others-humanity and seek pleasure in such activities.
Performances, without attachments, lust, prejudice, desire for rewards, quenches his thirst for further natural activities and the person realises self automatically, generating attraction towards the Almighty, leading him to Salvation. At this stage all performances merge into one single stream, increasing the momentum for Salvation.
The human being should act just like a component of a machine which performs in unison with various other components without the feeling-thought of being higher-lower, big-small or greater-inferior, since all components are equally important and the machine cannot function if smallest of small of them, goes out of order. Purity of thoughts, disposition, intentions, ideas and understanding of the importance of each organ of the society, paves the way-path to assimilation in God i.e., Salvation-Moksh (emancipation, assimilation in God, liberation).
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके, मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.46] Accomplishment is attained by an individual by worshiping the Almighty, from whom all the universes, organisms, nature have evolved and by whom all the universes are pervaded, through his natural, instinctive, prescribed, Varnashram related deeds.
जिस परमात्मा से संसार पैदा-उत्पन्न हुआ है और संचालित है, जो सबका उत्पादक आधार और प्रकाशक है, जो सबमें परपूर्ण है अर्थात जो अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था, उनके रहते हुए भी जो रहता है और जो उनके लीन होने के बाद भी रहेगा तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है, उसी परमात्मा का अपने-अपने, स्वभावज-वर्णोचित स्वभाविक कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिए।
लौकिक और पारलौकिक कर्मो के द्वारा परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, परन्तु उनके करणों-उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि उनमें ममता होते ही वे वस्तुएँ अपवित्र हो जाती हैं। सिद्धि को प्राप्त करने का अर्थ है कि मनुष्य अपने कर्मों से परमात्मा की पूजा करने से प्रकृति से असंबद्ध होकर स्वतः अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। उसका प्रभु में स्वतः अनन्य प्रेम जाग्रत हो जाता है। अब उसको पाने-हासिल करने के लिए कुछ भी शेष नहीं है। किसी भी जाति, सम्प्रदाय (हिन्दु, बौद्ध, ईसाई, पारसी, यहूदी, मुसलमान), वर्ग से व्यक्ति क्यों न हो वह परमात्मा के पूजन का अधिकारी है। भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के इस संवाद :- श्रीमद्भागवत गीता का जो अध्ययन करेगा (पढ़ना, समझना, जीवन में अपनानां) उसके द्वारा परमात्मा ज्ञान से पूजित होंगे। कर्म योगी और ज्ञान योगी अन्त में एक हो जाते हैं, क्योंकि दोनों में जड़ता का त्याग किया गया है। इसी प्रकार भक्ति मार्ग भी जड़ता को मिटाता है।
One should pray to the Almighty from whom the entire Universe has evolved, who operates the world, who is the creator, producer, founder and illuminator, administrator, organiser who alone is complete amongest all; who was present before creation of infinite universes and who will remain after assimilation of infinite universes in HIM and WHO is pervaded in infinite universes, is worshipped automatically if the individual performs his natural, prescribed, Varnashram duties. Performance of the prescribed-Varnashram duties assigned to the individual, itself is worship of the God.
Duties assigned to Brahmans are :- Acquiring knowledge-learning and training for self, educating others, performing Yagy-sacrifices, accepting and making donations-charity, piousness-purity, performing natural deeds, Satvik food habits. All of his movements should be directed towards the welfare-benefit, service of the four Varn and the mankind, in whom the Almighty is pervaded. He has to perform all his duties happily, with pleasure and devotion to the God as per his dictates, with wisdom.
Kshatriy has five natural, instinctive duties :- Protecting the people, bravery, spirited, majestic actions, donations, Yagy, studies, consumption of food, leading to worship of God pervaded in all communities, automatically.
Vaeshy worship the God by his natural instincts, such as Yagy, studies, donations, accepting interest, agriculture, protection of cows (animal husbandry) and trade-business.
Shudr should perform his prescribed, natural duties-instinctive services to worship the God, inclusive of consumption of food, sleep-awakening with the realisation of presence of God in all of the four Varn. Anyone who is getting paid for the job performed by him is considered as a Shudr.
One should not develop love, affection, attachment for the services, while performing them, though these are divine-devotional, pertaining to worship through them. He just has to act as an instrument. Love, affection, attachment for worldly possessions, services, instincts, make them impure-unfit for offerings for worship.
Creation of unlimited Bliss-Ultimate love (Permanand) for God is accomplishment and nothing is left to be acquired thereafter.
Both Karm Yog and Gyan Yog merge into one single stream Bhakti Yog-devotion, by eliminating immovability-inertness through service and worship enabling detachment, resulting in immersion in Supreme Power.
जिस परमात्मा से संसार पैदा-उत्पन्न हुआ है और संचालित है, जो सबका उत्पादक आधार और प्रकाशक है, जो सबमें परपूर्ण है अर्थात जो अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था, उनके रहते हुए भी जो रहता है और जो उनके लीन होने के बाद भी रहेगा तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है, उसी परमात्मा का अपने-अपने, स्वभावज-वर्णोचित स्वभाविक कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिए।
लौकिक और पारलौकिक कर्मो के द्वारा परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, परन्तु उनके करणों-उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि उनमें ममता होते ही वे वस्तुएँ अपवित्र हो जाती हैं। सिद्धि को प्राप्त करने का अर्थ है कि मनुष्य अपने कर्मों से परमात्मा की पूजा करने से प्रकृति से असंबद्ध होकर स्वतः अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। उसका प्रभु में स्वतः अनन्य प्रेम जाग्रत हो जाता है। अब उसको पाने-हासिल करने के लिए कुछ भी शेष नहीं है। किसी भी जाति, सम्प्रदाय (हिन्दु, बौद्ध, ईसाई, पारसी, यहूदी, मुसलमान), वर्ग से व्यक्ति क्यों न हो वह परमात्मा के पूजन का अधिकारी है। भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के इस संवाद :- श्रीमद्भागवत गीता का जो अध्ययन करेगा (पढ़ना, समझना, जीवन में अपनानां) उसके द्वारा परमात्मा ज्ञान से पूजित होंगे। कर्म योगी और ज्ञान योगी अन्त में एक हो जाते हैं, क्योंकि दोनों में जड़ता का त्याग किया गया है। इसी प्रकार भक्ति मार्ग भी जड़ता को मिटाता है।
One should pray to the Almighty from whom the entire Universe has evolved, who operates the world, who is the creator, producer, founder and illuminator, administrator, organiser who alone is complete amongest all; who was present before creation of infinite universes and who will remain after assimilation of infinite universes in HIM and WHO is pervaded in infinite universes, is worshipped automatically if the individual performs his natural, prescribed, Varnashram duties. Performance of the prescribed-Varnashram duties assigned to the individual, itself is worship of the God.
Duties assigned to Brahmans are :- Acquiring knowledge-learning and training for self, educating others, performing Yagy-sacrifices, accepting and making donations-charity, piousness-purity, performing natural deeds, Satvik food habits. All of his movements should be directed towards the welfare-benefit, service of the four Varn and the mankind, in whom the Almighty is pervaded. He has to perform all his duties happily, with pleasure and devotion to the God as per his dictates, with wisdom.
Kshatriy has five natural, instinctive duties :- Protecting the people, bravery, spirited, majestic actions, donations, Yagy, studies, consumption of food, leading to worship of God pervaded in all communities, automatically.
Vaeshy worship the God by his natural instincts, such as Yagy, studies, donations, accepting interest, agriculture, protection of cows (animal husbandry) and trade-business.
Shudr should perform his prescribed, natural duties-instinctive services to worship the God, inclusive of consumption of food, sleep-awakening with the realisation of presence of God in all of the four Varn. Anyone who is getting paid for the job performed by him is considered as a Shudr.
One should not develop love, affection, attachment for the services, while performing them, though these are divine-devotional, pertaining to worship through them. He just has to act as an instrument. Love, affection, attachment for worldly possessions, services, instincts, make them impure-unfit for offerings for worship.
Creation of unlimited Bliss-Ultimate love (Permanand) for God is accomplishment and nothing is left to be acquired thereafter.
Both Karm Yog and Gyan Yog merge into one single stream Bhakti Yog-devotion, by eliminating immovability-inertness through service and worship enabling detachment, resulting in immersion in Supreme Power.
बुद्ध्या विशुद्ध्या युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
विशुद्ध-सात्विक बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के द्वारा-धैर्य पूर्वक अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भली-भाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यान योग के परायण रहने वाला, ममता रहित और शांति युक्त पुरुष, सच्चिदानन्द घन ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित होने का पात्र होता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.51-53] जो ज्ञानी-साँख्य योगी परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है, उसकी बुद्धि विशुद्ध और सात्विक हो, ताकि वह जड़ता का त्याग कर दे। साँख्य योगी का आश्रय वैराग्य है। लौकिक और पारलौकिक भोगों से उसका वैराग्य है। उसकी निर्लिप्तता कायम है। उसमें एकांत सेवन, सिद्धि असिद्धि में साम्यावस्था, अन्तःकरण, मन की निर्मलता, बनी रहती है।
वह केवल उतना ही शुद्ध-पवित्र भोजन करता है, जितना कि शरीर के निर्वाह के लिए आवश्यक है। दुनिया के प्रलोभन उसे त्रस्त नहीं कर पाते। उसकी घृति शुद्ध सात्विक है। उसकी इन्द्रियाँ नियमित-काबू-मर्यादा में हैं। शरीर, मन, वाणी संयत हैं और वह वृथा नहीं घूमता। असत्य भाषण, निंदा, चुगली से बचे। मन से राग पूर्वक संसार का चिंतन न करके केवल परमात्मा का ही चिंतन करे। ध्यानावस्था में शब्द, रस, स्पर्श, रूप, गन्ध विषय रूप-संयोग जन्य सुखों का त्याग करे। राग-द्वेष से बचे। नित्य ही ध्यान योग परायण रहे। अहंकार-हठ, बल, दर्प, मनमानी, घमण्ड, भोग-काम, स्वार्थ-अभिमान के परिग्रह-संग्रह से बचे-त्याग करे। अपने शरीर, वस्तु, प्रिय, उपयोगी-चीजों के बने रहने की इच्छा न रखे अर्थात उनके प्रति निर्मम बने। अशांति, जड़ता, हलचल से असम्बद्ध हो जाये। ममता रहित, शांत, असत् को त्यागने वाला मनुष्य ब्रह्मप्राप्ति-परमात्म प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है।
Endued with pure intelligence (prudence, reason), associated with Satvik-Pious, strong patience-firm determination, the devotee should set aside all attachments, hatred-prejudices and control-stabilise his innerself and sensuality (abandoning sound and other objects and laying aside love & hatred).
Sankhy Yogi-the devotee, who wishes to attain the essence of Almighty, should have clear-clean, pure intelligence (mind). The prudence essential for Sankhy Yogi, appears through intelligence-meditation, by rejecting stability-immovability.
Possession of strong Satvik patience, does not allow the Sankhy Yogi to move away from the essence of Almighty. During meditation, he controls-rejects all allurements, attachments, prejudices, sensuality by stabilising-fixing his innerself in the memory, recitation,, meditation, remembering God. Repulasion-detachment with the worldly possessions, development of attachment-love for meditation-concentration bring him close to the Almighty.
Sankhy Yogi (devotee), prefers to live alone in solitude (isolated, away from worldly hustle and bustle), engaged in transcendental meditation, he consumes little Satvik food essential for survival, controls body, mind and speech, assert himself in profound meditation, through detachment.
He intends to remain aloof, undisturbed by the presence of people or the noises. His innerself is firmly under his control. Isolation helps him in concentration and meditation, producing happiness-bliss in him. He does not crave for appreciation from the people for his solitude, lack of sleep or comforts. He is not disheartened by the absence of comforts-luxuries. Absence of disturbances is of immense help to him.
During meditation, devotee accepts pure Satvik, light, regular food, suitable & sufficient for the body, neither in excess nor deficient, sufficient for survival, like a medicine-to satisfy hunger in such a manner that do not obstruct meditation.
It’s essential to control body, mind and speech. He should not romp purposelessly and avoid unnecessary travel. He should not utter senseless-useless words, refrain from back biting and abusive-foul language. He should speak the truth. He should speak only when it’s essential. His mind should be free from worldly affairs-problems, during meditation. He should remember the God and all of his energies should be channelised into the Almighty only. He should be cautious and aware that nothing is independent, except the God HIMSELF.
Devotee, who rejects egotism, pride, boastfulness, sensuality, force, arrogance-anger, worldly comforts-luxuries, pain, becomes calm-quite, solitude, devoid of attachments, enables-qualifies himself to sustain-realisation of Brahm.
Development of feelings of speciality-excellence regarding own characters, forcing others to own egoistic dictates, sex (passions, sensuality, sensuality, lasciviousness) anger-greed, worldly possessions acquisitions, comforts, luxuries, favourable conditions-situations, tendency to harm others, when own selfishness-egotism are struck is arrogance, which must be rejected.
One should not exert ownership in worldly acquisitions, body, senses, organs and means. With peace in the innerself, absence of disturbances-attachments-hatred and by breaking of immovability, the devotee enables-qualifies himself for realisation of Brahm.
NARAD PURAN नारद पुराण :: Attainment of Moksh-Salvation needs a teacher-Guru, who can guide and show, pave the path, which leads to assimilation in God. It’s possible through attainment of knowledge, learning, understanding and practicing the Shashtr-scriptures and Vedic literature. Self-learning (स्वाध्याय, Swadhayay), does help in the absence of a Guru.
In fact its really very-very difficult to find an enlightened-Guru who can guide a person, desirous of Moksh-Salvation, freedom from death and rebirth.
Anyone, who has been dedicated to pious deeds, prayers, ascetic practices, Yog, Bhakti, devotion and service-welfare of the mankind, successfully make his senses and sensualities, pious, pure, virtuous. His innerself becomes pure, after successive rebirths making him eligible for Salvation in the very first stage of life, i.e., Brahmchary Ashram like Suck Dev Ji Maha Raj-son of Bhagwan Ved Vyas.
The learned-enlightened has to reject Rajsik (passionate behaviour) and Tamsik (darkness, sinful acts) defects and follow the path of Satvik Karm (goodness). He should visualise, observe, see (Sakshatkar) the soul (Parmatma-The Almighty) through consciousness, meditation and intelligence. He should identify (visualise-perceive) himself in the past and the past in himself. This will help him to analyse-reason and detach from the defects-disgrace of this world and attain the position which is ever lasting.
(1). Those people (Dwij-Brahman, Kshatriy, Vaeshy), who are blessed with the knowledge, ability, capabilities of the fundamentals of Salvation, observes, understand, recognises the visualisation-glow, in their innerself and nowhere else. This glow-aura is present in each and every living being in the same proportion.
(2). The one, devoted to trans-meditation, can himself experience the presence of Almighty in his innerself by controlling his mind and concentrating in this glow-aura (आत्म प्रकाश) Atm Prakash).
(3). The one, who is not afraid of anyone and others are also not afraid of him, is capable of visualisation of self.
(4). One who is without desires and ill will, jealousy, rivalry, attains the stage of Brahm.
(5). When the man do not disgrace, tease any other being, through his thoughts (body, mind and speech) and actions, he attains the status of Brahm.
(6). When he rejects the envy, sex-lust, desires, greed leading to attachments and subject himself to asceticism, he experiences Brahmanand (Bliss, the ultimate pleasure, extreme happiness).
(7). When the person weighs the subjects to be listened, experienced, observed, the entire living world equally (equanimity) and is not affected by pains and pleasure, he assimilates in the Brahm.
(8). Equanimity in praise (prayers), abuse (blasphemy), iron-gold, comforts-sorrow, cold-heat, gain-loss, like-dislike, life-death, success-failure, raises the man to the status of Brahm.
The one who has renounced, deserted the world should control his senses and sensualities through brain power, control of emotions and passions. The intelligence, prudence and brain power can visualise the soul. The man should stabilise his emotions, with the help of learning, knowledge, education, enlightenment and free self from greed-covets, desires and eagerness.
Firm pious, virtuous, righteous determination, helps one in attainment of the Almighty.
Freedom from attachments, lust, allurements, desires and passions makes the person imperishable, un-decaying leading to Salvation, extreme eternal joy, bliss, happiness, peace and satisfaction.
There is no eye comparable to education and knowledge (enlightenment), no asceticism comparable to truth and no sorrow-grief comparable to passion-allurement. No comfort is comparable to detachment. One should perform pious, righteous, virtuous, honest, truthful, sacred, auspicious deeds and desist from sins. He should always follow behaviour, manners, methods, life style, of virtuous, holy, sacred people and lead a life of high moral values-virtues. Excellence of values and merit of virtues are the carriers for the enlightened to Salvation.
The human body, which does not generate any comfort to the possessor, gets involved in worldly, sensual enjoyments, pleasures and sensuality pertaining to lust, attraction, attachments and drags him into engross, infatuation, delusion, allurement, ignorance.
Sensuality-sensual pleasures are the root cause of pains, sorrow, worries. They enhance the pains, sorrow, worries many fold. The mind, brain, intelligence, psyche of the engrossed-infatuated becomes fickle, flirtatious, inconsistent and unsteady with delusion, allurement, ignorance. The one caught in the web of delusion becomes the object of pains, worries, sorrow, in the present and the forth coming rebirths. One who, wishes his own welfare, should control sexual desires (lasciviousness) and anger. Both of them are potential enough to destroy the good fortune and credits of the possessor. One should win over his anger-fury through asceticism, discipline, self-control and protect self from envy-prejudice, insult-respect and intoxication, frenzy through education-learning.
One should eliminate cruelty-brutality, from his nature as a sacred, religious, pious endeavour-task. Pardoning produces great strength in him. Identifying self, is the most meritorious-virtuous awakening.
Truth is the greatest means for the self-benefit. Conversation-advice to the listener is even more valuable-meritorious than truth. The deed, action, work, which is in favour of living organisms constitute the truth-reality.
One who has rejected his desire for new projects-endeavours, has no desires, does not collect, store, compile worldly possessions, has sacrificed everything, is enlightened, a scholar, philosopher, a Pandit.
One who experiences the senses-sensuality, without attachment-whose senses are under control, in his innerself (body, mind, psyche, mood and heart), is always at ease-peace.
One who, is free from defects and has the concentration of mind in God, is detached.
One who is isolated from the body, senses and organs is detached, does not recognise himself with them (devoid of oneness with them). One who cuts all bonds, attachments, attains the ultimate welfare quickly and easily.
One who does not see-entangle with any organism, does not talk, touch or communicate with anyone, qualify for great merit, virtues, credit.
One who does not involve in violence, behaves as a friend with all creatures, has no anonymity with anyone in the present birth, has realised self and exercise self restraint, does not accumulate anything, has self satisfaction, rejected all desires, inconsistency, volatility, agility, unsteadiness, leads to the accomplishment-attainment of the Ultimate.
Those who have rejected the gratification, pleasure, enjoyment, sex and suffering are never affected, involved by the grief.
One who wish to win the God, is not defeated by anyone must be ascetic, self controlled, balanced headed, thoughtful and disinterested in all sensuality.
The Brahmn (Scholar, Learned, Philosopher, Pandit, Enlightened), who absolve himself of the multiple, threefold (त्रिगुणात्मक, Trigunatmak), sensuality always reside in solitude, attains assimilation in God quickly.
One who isolates himself, in spite of the company of people, who like, obtain pleasure in sex, identifies pleasure in isolation, solitude-away from the company of women, should be considered as the one, who is satisfied with the pleasure of enlightenment, is never affected and involved by grief.
The living being is always under the control of his deeds. Auspicious (Satvik) deeds make Demigod.
Auspicious and inauspicious (Rajsik) deeds results in birth as human beings.
Inauspicious deeds (Tamsik) results in birth after release from hells; in animal, bird, insect, low species.
Accumulation of goods, property, comforts are not essential in this world. They only grow, develop and strengthen bonds and attachment and great vices, defects, sins, guilt.
Family, son, wife, body, collection of goods-everything is perishable, none belongs to the soul. Nothing is forever or regular. Only thing that matters here is one’s own auspicious-virtuous deeds and sins.
The supreme target-goal is attainable through enlightenment, auspicious deeds, purity and detailed, wide, comprehensive knowledge, only which helps in accomplishment of the feat. Attainment of God means freedom of the human soul. An auspicious person cuts the bonds of sensualities, passions, attachments, infatuation and proceeds towards the Ultimate, on the divine path. The sinner fails to cut these bonds.
Beauty, desires, touch, smell, extracts, juices, elixir, are all binding and obstruct in eliminating bonds.
Pardon, religion and rejection of sensuality help in breaking of bonds, attachments. Thought of know all, conquer-conquests of everything, accomplishment, have-have not’s, have to be eliminated.
The enlightened does not allow the development of new bonds, attachments with the help of self-control and asceticism and evolve-develop, the always comfortable, unlimited accomplishment i.e., Salvation.
Listening, reading and understanding, followed by utilisation of the preaching in the scriptures, evolve excellence-purity in intelligence. It produces mental comfort, peace, joy, pleasure and eternal progress.
Grief and fear are always ready to control and affect the foolish. They have no control over the learned-scholars. Only morons, duffers, idiots are pained by the joining-meeting of dislikes and loss of loved articles.
Anything, which has perished should not be remembered, regarded or praised, since it hinders in breaking of bonds. Anywhere-the increase of attraction, enhancement of inclination, should be treated as defective and cause of unforeseen trouble. Just by doing this renouncement-detachment takes place.
One who grieved over the events in the past, is devoid of Dharm (religion), Arth (wealth), Yash (honour, name, fame, recognition, goodwill). He just carry over the pain of the non-availability of past. It does not fill the vacuum or return the deceased, abolished. All creatures eventually meet; depart from the excellent people, incidences. He is not the only person, who has experienced-undergone the event of grief, sorrow, pain, condolences.
The person, who does not come out of trauma of grief, faces one after another painful events, simultaneously. If one encounters a physical or mental trouble and no recourse-treatment works, it should not be taken to heart. One should not be worried. The best medicine to conquer pain is not to worry about. Stop thinking about it, repeatedly. It only enhances the pain, instead of receding it. Mental grief should be overcome by controlling self, thinking and meditation and the physical pain by medicine. It’s possible only by the knowledge of Shashtr (scriptures). One should not weep in difficult times, like children.
Beauty, youth, life, accumulated wealth, possessions, good health, company of the dear ones, are momentary. They are not forever. One day or the other, they will vanish. The learned one-enlightened does not feel inclination towards them. It’s not proper to grieve over the dire trouble, danger, mistake or misfortune. In case no way out, let it be seen-observed, quietly. One should persist, continue to find a way out, instead of grieving over it.
There is no doubt that the life is associated with more of pains, than pleasures. Yet the pain caused by old age and death, are above all. It's therefore advised to ameliorate the loving soul from it.
The perishable person pained and worried by thirst, desires, longings-compulsions; still with the desire for long life-longevity, is deteriorating each and every moment.
One who stops worrying about pains and pleasures, attains the state of imperishable Brahm and Ultimate pleasure (Permanand, Bliss).
Enlightened, is always satisfied-content with whatever, he has. He does not find thirst-longing for wealth-money. Desires, longings, thirsts have no limit-end.
विधि निषेध रूप कर्म का अधिकारी मनुष्य शरीर बहुत ही दुर्लभ है। स्वर्ग और नरक लोकों में रहने वाले जीव इसकी अभिलाषा करते हैं, क्योंकि इसी शरीर में अंत:करण की शुद्धि होने पर ज्ञान अथवा भक्ति की प्राप्ति होती है। बुद्धिमान पुरुष को न तो स्वर्ग-नरक के भोग प्रधान शरीर-जो किसी साधन के लिए उपुक्त नहीं हैं अथवा न मानव शरीर की ही कामना करनी चाहिए, क्योंकि किसी भी शरीर में गुण बुद्धि और अभिमान हो जाने से, अपने वास्तविक स्वरुप की प्राप्ति के साधन में प्रमाद होने लगता है।
Human body which is the recipient of Destiny, reward, award-Karm Fal of his deeds, in one after another-repeated births and rebirths, is very rare (obtained only after passing through, 84,00,000 incarnations in lower forms), even the deities, demons, ghosts etc. wish to avail it. Inhabitants of Heavens and Hells crave for this material-physical body. In fact one is extremely lucky to have obtained it. One can perform prayers and like to attain Salvation, through it. This human body is capable to cleanse the internal faculties associated with the soul. An intelligent or enlightened, will not desire to have a divine or even the human embodiment, since they will abstain him from Liberation-Assimilation in the Almighty. Which ever body is possessed by the soul, is bound to generate intoxication-ego-pride-suffering, ultimately.
यद्पि यह मानव रुपी शरीर मृत्यु को अवश्य प्राप्त होगा तथापि इसके द्वारा परमार्थ की सत्य वस्तु की प्राप्ति हो सकती है। बुद्धिमान पुरुष को चाहिए यह बात जानकर मृत्यु पूर्व ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जिससे वह जन्म मृत्यु के चक्कर से सदा के लिए छूट जाये-मुक्त हो जाये।
Whosoever is born, is bound to die-perish. Still the human being can make use of this body for the ultimate bliss-eternal truth-ecstasy. The intelligent-enlightened should be careful enough, to understand this and subject-prepare himself for the attainment of the Ultimate, so that he becomes free from movement from one incarnation to another.
SHRIMAD DEVI BHAGWAT MAHA PURAN श्रीमद् देवी भागवत महा पुराण :: Entire Universe exhibits dual character. Human beings too show dual character. First ones are those who have attachment, belongings, passion, desire and love for this world and are called Ragi. The second type of person is one, who is free from all sorts of desires and is called the Vaeragi. The Ragi, who is attached with world, experiences and undergoes all sorts of pleasures and pains. Pleasures symbolise heavens and the pains symbolise hell. Acquisition of wealth, property, riches, prosperity, conveniences, children, wife, honour reputation, success, victory etc. by the Ragi; gives him happiness, while the non-availability of these and like, fills the desirous person with pain and unhappiness.
Efforts are made by the Ragi to acquire goods, commodities and valuables, which give him comforts. Anyone, who obstructs the collection of luxuries by him is considered to be a foe or an enemy. The person, who adds to the comforts and pleasures of the Ragi, is considered to be a friend. A clever or sagacious person keeps himself free from infatuations, attachments, possessions, allurements or compassion But the ignorant, imprudent, foolish or the stupid, always experiences great love, affection, attachment and desire for the worldly possessions, which are immaterial.
Unattached person, sages, spirituals, Yogis obtain pleasure and happiness through solitude and followings of Vedant Shastr (preaching of Ved, Puran, Upnishad, Ramayan, Bhagwat, Mahabharat, Geeta, Itihas etc.). Thoughts, discussions pertaining to worldly or sensual enjoyment, sensuality gives them pain, sadness dejection, depression and melancholy. Anyone who wishes to have salvation finds many enemies like lust, anger, pride, greed, allurement, attachment etc. The real friend or the well wisher is self satisfaction, contentment and none other than these.
A person desirous of salvation should discharge his social, ancestral, cultural, moral, religious duties and responsibilities faithfully, with devotion, dedication and honesty. He should not run away from these, since the family life is considered to be the greatest and easiest means to attain salvation. He should be content with the money earned by honest, just, genuine and proper means. He should not desire, expect anything from anyone else, must be pious-free from sins. He should perform daily routines like chores, rituals, prayers, Agnihotr, Haven, offerings and sacrifices made in the fire, offering-pouring water to the Saligram, Sun and Tulsi in the morning, facing east, regularly and north while performing evening prayers. He should offer water and food to the guests. He must speak the truth, which is neither bitter nor harmful to an innocent person. He must be pious and pure at heart, through his actions and deeds. One should crave for Sanyas-Sainthood, only after fulfilment of all of his duties, desires, contentment, and satisfaction of all his worldly gratifications, attainment of peace and purity of heart, otherwise not.
First thing to be done by the person seeking Moksh-Salvation, is to be blessed with the Janeu Ceremony (sacred loin thread), performed with the sacred thread by the parents, elders, holy persons and the family Priest, on some auspicious Muhurt-occasion, to be initiated into Brahmchary-Ascetic (initiation-beginning of education). He will stay with the Guru-the teacher having abode in forests away from city life, help him in all daily chores, agriculture, animal husbandry and learn to discipline the body, mind and soul, in addition to learning Veds, Vedant and various other faculties. He has to undertake eight essential sanctifying, purification rites, like Shum (absence of passion, peace of mind), Dum (self control, restraint, mortification, repression of feelings).
Having completed studies, learning, education, the Brahmchari should get married and enter Grahasth Ashram-family way, i.e., into the second stage of life.
One who has realized self; is intelligent, quite, neither happy nor repentant, assess gain or loss at par, performs his duties and responsibilities, as per the dictates of the Shashtr; is free from all
liabilities and mental tensions, is content-satisfied, analyses the self and attains Salvation gradually.
Videh Raja Janak, a Nirlipt (not involved) and Jeevan-Mukt (detached, free from sorrow, rejoice, attachments, pain, anonymity), isolated, detached himself, while performing the responsibilities, duties-functions of state, having all sorts of luxuries and amenities; advised Suk Dev Ji Maha Raj (Son of Bhagwan Ved Vyas)-who was spiritually pure, pious and free from sins, to get married.
The world which itself is visible, can’t hold the invisible soul. The soul is invisible, immaterial and notional. It has certain characteristics like earth, water, fire, air, sky, smell, extracts-juices, elixir, figure, touch, feeling, experience and sound. The Soul-Brahm, which in itself- is a segment of The Almighty, is always pure and free, can never be tied or bonded with the material world.
It’s the Man (मन, mind, psyche, mood, innerself), which craves for pleasures, comforts, desires, charms, lust, companions and luxuries. It’s inconsistent with unbound speeds. Man is solely responsible for the ties, bonds or salvation. Man is the sole factor behind pain or pleasure. Everything becomes pure with its purification. Seizure or salvation lies in the Man only. Solace, peace or tranquillity is associated with the Man and brings the individual close to emancipation. Differentiation like anonymity, friendship, neutrality, reside in the mind.
The feeling-thought of duality of soul with the God, arises from the ties and bonds with the perishable world. The main reason behind this is Avidya (ignorance, negative, repulsive thoughts, crime, intoxication of brain, cruelty, egotism, destruction, torture, vandalism, lust etc.). Without the essence of Avidya, Vidya can’t be experienced. It’s Vidya, which enlightens the individual and leads him to the analysis of Dharm and emancipation, ultimately. Oneness of the soul with the Almighty, eliminates the duality-differentiation.
The Karm-deeds, responsibilities, performances, attachments, egotism, impact, ties or the bonds, without involvement of the self, qualifies for the Ultimate, Moksh-Salvation, since it is considered to be the Karm not done. Purity of thoughts and actions, detachment from the world, duties performed without involvement, grants emancipation.
Dharm-Vidya, discipline of the Body, Mind and Soul helps in the attainment of the Ultimate i.e., Salvation-assimilation of the soul with the Brahm-The Almighty.
Mumukshu (मुमुक्षु, the emancipation seeker, has to move from one stage to another i.e., Vanprasth and Sanyas slowly and gradually. Senses are very powerful. They can’t be controlled or subdued easily. They create all sorts of abnormalities and disorders in the Man (mind, brain, thoughts, heart) of the immature. The Sanyasi should be free from all desires such as food, sleep, pleasure, lust or the son. The strings of lust and desires are extremely strong and powerful. Their web can’t be cut easily. The consolation of desires can be discarded, one by one only. The Sanyasi, mislead or corrupted once, has no other approach, path, means to Salvation. He has no place in the society as well.
Videh Raja Janak, a Nirlipt (निर्लिप्त, not involved) and Jeevan Mukt (जीवन मुक्त, detached, free from sorrow, rejoice, attachments, pain, anonymity), isolated, detached himself, while performing the responsibilities, duties, functions of state, having all sorts of luxuries and amenities; advised Suk Dev Ji Maha Raj (Son of Bhagwan Ved Vyas)-who was spiritually pure, pious and free from sins, to get married.
The world which itself is visible, can’t hold the invisible soul. The soul is invisible, immaterial and notional. It has certain characteristics like earth, water, fire, air, sky, smell, extracts, juices, elixir, figure, touch, feeling, experience and sound. The Soul-Brahm, which in itself-is a segment of The Almighty, is always pure and free, can never be tied or bonded with the material world.
It’s the Man, which craves for pleasures, comforts, desires, charms, lust, companions and luxuries. It’s inconsistent with unbound speeds. Man is solely responsible for the ties, bonds or salvation. Man is the sole factor behind pain or pleasure. Everything becomes pure with its purification. Seizure or salvation lies in the Man only. Solace, peace or tranquillity is associated with the Man and brings the individual close to emancipation. Differentiation like anonymity, friendship, neutrality, reside in the mind (Man).
Dharm-Vidya, discipline of the Body, Mind and Soul helps in the attainment of the ultimate i.e., Salvation-assimilation of the soul with the Brahm-The Almighty.
EXTRACT FROM :: Shrimad Devi Bhagwat Maha Puran (Suk Dev Ji visits Videh Raja Janak on the advice of Bhagwan Ved Vyas-his father). Identical text is present in Narad Puran, with other details as well.
YAM GEETA यम गीता :: यम गीता यम राज (धर्म राज) द्वारा नचिकेता से कही गई थी। यह पढने वालों व सुनने वालों को भोग प्रदान करती है। मोक्ष की इच्छा रखने वाले सत्पुरुषों को यह मोक्ष प्रदान करती है।
यम राज कहते हैं कि "यह आश्चर्य की बात है कि मनुष्य अत्यंत मोह के कारण, स्वयं अस्थिर चित्त होकर भी आसन, शय्या, वाहन, परिधान तथा गृह आदि भोगों को सुस्थिर मानकर उन्हें प्राप्त करना चाहता है"।
कपिल जी ने कहा है कि "भोगों में आसक्ति का अभाव तथा सदा ही आत्मचिंतन, मनुष्यों के लिए परम कल्याण उपाय है"।
आचार्य पञ्च शिख का कहना है कि "सर्वत्र समता पूर्ण द्रष्टि तथा ममता और आसक्ति न होना मनुष्यों के लिए परम कल्याण के साधन हैं"।
गंगा-विष्णु का कथन है कि "गर्भ से लेकर जन्म और बाल्य आदि वय व अवस्थाओं के स्वरुप को ठीक-ठीक समझना ही, मनुष्यों के लिए परम कल्याण का हेतु है"।
महाराज जनक का कथन है कि "अध्यात्मिक, आधि दैविक और आधि भौतिक दुःख आदि-अंत वाले हैं। ये उत्पन्न होकर नष्ट भी हो जाते हैं, इन्हें क्षणिक समझ कर धैर्य पूर्वक सहन करना चाहिये, विचलित नहीं होना चाहिये। इस प्रकार दु:खों का प्रतिकार ही मनुष्यों के लिए परम कल्याण का साधन है"।
ब्रह्मा जी का सिद्धान्त है कि "जीवात्मा और परमात्मा वस्तुत: अभिन्न (एक) हैं। इनमें जो भेद प्रतीत होता है, उसका निवारण ही परम कल्याण का हेतु है"।
जैगीषव्य का कहना है कि ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में जो कर्म प्रतिपादित हैं, उन्हें कर्तव्य समझ कर अनासक्त भाव से करना श्रेय का साधन है ।
देवल का कहना है कि सब प्रकार की विदित्सा (कर्मारंभ की आकांक्षा) का परित्याग आत्मा के सुख का साधन है ।
सनकादी ऋषियों का कथन है कि "कामनाओं के त्याग से विज्ञान, सुख, ब्रह्म एवं परम पद की प्राप्ति होती है। कामना रखने वालों को ज्ञान नहीं होता"।
अन्य लोगों के अनुसार प्रवृत्ति व निवृत्ति दोनों प्रकार के कर्म करने चाहिये। परन्तु वास्तव में नैष्कमर्य ही ब्रह्म है। वही भगवान विष्णु का स्वरुप व श्रेय का भी श्रेय है। ज्ञान प्राप्ति से पुरुष सन्तों में श्रेष्ठ हो जाता है। उसका परब्रह्म भगवान् श्री हरी विष्णु से कभी भेद नहीं होता। ज्ञान-विज्ञान, आस्तिकता, सौभाग्य तथा उत्तम रूप तपस्या से उपलब्ध होते हैं। इतना ही नहीं मनुष्य अपने मन से जो कुछ भी पाना चाहता है वह सब तपस्या से प्राप्त हो जाता है।
भगवान् श्री हरी विष्णु के समान कोई ध्येय नहीं है, निराहार के समान कोई तपस्या नहीं है, आरोग्य के समान कोई बहुमूल्य वस्तु नहीं है, गंगा जी के समान कोई दूसरी नदी नहीं है, जगद्गुरु भगवान् श्री हरी विष्णु को छोड़कर, दूसरा कोई बान्धव नहीं है।
ऊपर-नीचे, आगे-पीछे, देह, मन, इन्द्रिय, मुख आदि-सब में और सर्वत्र भगवान् श्री हरी विष्णु विद्यमान हैं-इस प्रकार का चिन्तन करते हुए जो प्राण त्यागता है, वह साक्षात् भगवान् श्री हरी विष्णु के स्वरूप में मिल जाता है।
वह जो सर्वत्र व्यापक ब्रह्म है, जिससे सबकी उत्पत्ति हुई है तथा यह सब कुछ जिसका संस्थान (आकार-विशेष) है, जो इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है, जिसका नाम आदि के द्वारा निर्देश नहीं किया जा सकता, जो सुप्रितिष्ठ एवं सबसे परे है, उस परापर रूप में साक्षात् भगवान् श्री हरी विष्णु ही सबके ह्रदय में विराजमान हैं। वे यज्ञ के स्वामी हैं यज्ञ स्वरूप-पुरुष हैं; उन्हें कोई तो परब्रह्म रूप से, कोई विष्णु रूप से, कोई शिव रूप से, कोई ब्रह्मा रूप से और ईश्वर रूप से, कोई इन्द्रादि नामों से तथा कोई सूर्य, चन्द्रमा और कालरूप से पाना चाहता है। ब्रह्मा से लेकर कीट तक सारी श्रष्टि को भगवान् श्री हरी विष्णु का स्वरूप ही मानते हैं। भगवान् श्री हरी विष्णु स्वयं परब्रह्म परमश्वर हैं, जहाँ पहुँच कर, जान लेने पर, पा लेने पर फिर वापस इस संसार में नहीं आना पड़ता।
स्वर्ण दान-जैसे बड़े बड़े दान, पुन्य स्थल-तीर्थों में स्नान करने पर, ध्यान लगाने पर, व्रत करने पर, पूजा करने पर, धर्म की बातें करने, सुनने पर एवं उनका पालन करने पर, अन्यय भाव से भक्ति करने पर उनकी प्राप्ति होती है।
आत्मा को रथी, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथि, मन को लगाम, इंद्रियों को घोड़े, विषयों को मार्ग की उपमा के समान, मानना चाहिये। शरीर, इन्द्रिय और मन सहित आत्मा को भोक्ता समझना चाहिये। बुद्धि रुपी सारथि अविवेकी होता है। जो मन रूपी लगाम को कस कर नहीं पकड़ता, वह परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता अपितु संसार रूपी गर्त में गिरता है। जो व्यक्ति विवेकी होता है, मन को काबू में रखता है वही परम पद को प्राप्त करता है और फिर जन्म नहीं लेता। जो मनुष्य विवेक युक्त बुद्धि रूप सारथि से संपन्न और मन रूपी लगाम को काबू में रखता है वही संसार रूपी मार्ग को प्राप्त कर भगवान् श्री हरी विष्णु के परम पद को प्राप्त करता है।
इन्द्रियों की अपेक्षा उनके विषय प्रमुख हैं, विषयों से प्रमुख मन है, मन से प्रमुख बुद्धि है, बुद्धि से प्रमुख आत्मा (महतत्व) है, आत्मा से ऊपर अव्यक्त-मूल प्रक्रति है और मूल प्रक्रति से ऊपर परमात्मा है। परमात्मा से ऊपर कुछ भी नहीं है, वही सीमा है, वही परम गति है। सम्पूर्ण भूतों में छिपा हुआ यह परमात्मा, प्रकाश में नहीं आता, दिखाई नहीं देता; परन्तु अनुभव अवश्य होता है; ध्यान करने शुद्ध बुद्धि आत्माओं को दर्शन भी देता है। सूक्ष्मदर्शी पुरुष अपनी तीव्र बुद्धि से ही उसे देख पाते हैं। विद्वान पुरुष वाणी को मन में, मन को विज्ञानमयी बुद्धि में, बुद्धि को महतत्व (आत्मा) में और महतत्व को परमात्मा में लीन करे। यही परम गति है।
यमादि नियमों-साधनों से ब्रह्म व आत्मा की एकता को जानकर मनुष्य सत्स्वरूप ब्रह्म ही हो जाता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (संग्रह न करना), ये पाँच यम है। शौच (आन्तरिक व बाहरी शुद्धि-पवित्रता), संतोष, उत्तम तप, स्वाध्याय और ईश्वर पूजा-पाँच नियम हैं। आसन बैठने की प्रक्रिया है, जिसके पद्मासन जैसे कई भेद हैं। प्राण वायु को जीतना प्राणायाम है। इन्द्रियों का निग्रह प्रत्याहार है। शुभ विषयों में चित्त को स्थिरतापूर्वक स्थापित करना धारणा है। एक ही विषय में बार-बार धारणा ध्यान है। स्वयं को ब्रह्म रूप में अनुभव करना समाधि है। जीव मुक्ति के पश्चात् ब्रह्म के साथ एकीकरण को प्राप्त होता है। ज्ञान-बोध से ही जीव स्वयं को ब्रह्म मान सकता है, अन्यथा नहीं। अज्ञान और उसके कार्यों से मुक्ति प्राप्त कर जीव अजर-अमर हो जाता है।
YAM GEETA-VISHNU MAHA PURAN :: All the seven continents, seven Lok (celestial bodies, havens over the earth) and the seven Patals (nether world, celestial bodies, hell below the earth) are the constituents of our Universe, inhabited by macro (huge and bulky), micro (small, very small, extremely small) microscopic, unicellular organisms, microbes like :- Giants, human beings, animals, trees, plants etc.). Spaces equivalent to 1/8th of the finger are not without the creatures united, tied with the Karm.
The living beings come under the control, command of Yam Raj (the God, master of death, who decides the abode of the soul after the death or its next birth, rebirth, on the basis of its Karm Fal; the son of Bhagwan Surya Narayan). The sinner, finds his next habitat in one of the 21 Hell or one of their sub divisions, depending upon the gravity of the sin, to receive punishments, tortures, agony till its sins are not neutralised.
Thereafter, the soul moves from one incarnation to another, from one abode to another, till the sum total of its Karm Fal is zero, as per the regulations of Vidhata Brahma-the creator, whose dictates are respected, by Bhagwan Sada Shiv and Bhagwan Vishnu, as well. Brahma has assigned the task of consideration-judgement of the deeds-auspicious, inauspicious, sins and method of its purification, sanitisation to Yam Raj.
However, the dictates of Yam Raj can be over ruled by Mratunjay Bhagwan Sada Shiv-the master of masters or Bhagwan Vishnu, as his domain is restricted to the sinner only and not the devotees of the God, even if they have committed some sins.
The way undifferentiated gold is moulded, cast into crown, jewellery, rings, crest and coins, thrown etc., the Almighty appear in different incarnations as Deity, Giants, humans, animals, plants, microbes etc. On being molten, purified and cast gold obtains its original purity, shine and lustre.
After passing through 84,00,000 incarnations the Jeewatma-soul obtains the body of human beings, which is routed through, one after another incarnations by its auspicious, inauspicious deeds until renunciation, when it finally merges with the Almighty. The manner in which the finest dust particles, become earth on falling, settling over it, the deities, humans too merge, emaciate with the Sanatan Param Pita Per Brahm Parmeshwar-the Ultimate, God.
The spiritualist, theologist, one who devotes his life to the service of mankind, serves the poor or the down trodden, prays to God for Salvation, becomes free from the bonds, ties, clutches of Puny (पुण्य, auspicious deeds) or pap (पाप, sins), detaches himself from the curse, harmful, painful effects and impacts of Karm Fal, in the same manner as the fire produced by the sacrifices of ghee (clarified butter) in Hawan Kund (pot used for holy sacrifices in fire). A Bhakt (devotee), who meditate can be recognised easily by these characteristics :-
One who does not deviate from his Varn Dharm (duties assigned in Ved or Vedant :- Brahman, Kshatriy, Vaeshy, Shudr).
Anyone, who has the same feelings (सम भाव, Sam Bhav-equanimity, considers each and every living species as the incarnation of the Almighty), for the dear ones, own and the opponents, enemies, others not related to him any way.
A person who do not grab-snatch the wealth-belongings of others.
One who do not kill or destroy life forms and follows the path of non violence.
A person who has not been corrupted-polluted by the Kali Yug and is free from its impact, ill effects.
The devotee, in who's heart, lives the Janardan (the God) and who meditate with deep concentration, channelizes all his efforts and energies into the God.
Who considers gold or jewels, lying unprotected in the open, as straw, dust particles.
He is free from the defects, arising out of desires, ties, attachments, passions, anonymity in the heart and is extremely pure like quartz crystal-Emerald.
Who showers love and affection to the living world like the moon light, which is free from heat and has soothing effect.
Who is free from ego, envy, detached with the means and luxuries possessed by him, pure at heart, humble, quiet, tolerant, well wisher of all the living beings and is loved by them too.
The devotee is extremely mild and placid, Vasudev-The Almighty always resides in who's heart; exactly the way, a newly blossomed Sal tree shows the presence of nectar in it.
The devotee has attained freedom from ego, envy, pride, purification from sins, through self restraint and discipline.
One who has become pure because of the presence of conch, beggar, sword of Bhagwan Shri Hari Vishnu-The God in his heart.
The devotee who has lost the darkness of his heart by the glow-Aura, brightness of Permatma-The God, as the Sun.
Anyone, who do not capture, seize, steal, the wealth or belongings of others; do not kill or destroy creatures, do not speak the untrue, use bitter words or harsh language, do auspicious works and Bhagwan Anant-The Almighty, lives in whose heart.
He do not feel envious due to grandeur or the might of others. Keeps away from blasphemy, helps or benefits the saintly people, shows kindness and favours to sages.
Possesses all amenities and prays to Bhagwan Vishnu-The God, donates liberally to the devotees of Bhagwan Janardan-The God, who lives in his heart.
The person with good sense, understanding, clean mind, has no lust for money, do not expect or seek money or favours from relatives, wife, son, daughter, father or the servants.
Person with pure, clean thoughts, ideas, busy in pious activities, enjoys the company of virtuous people and follows their conduct, keeps away from the inferior, low people, becomes free from the clutches of Karm, one who is free from the animal, brutal behaviour and is a devote of the God.
An intellectual who has attained stability, to the emergence of feelings, thoughts, ideas of oneness and towards, the web of life and death, Yam Raj-Dharm Raj and Vasudev.
Who have isolated himself from sins and recite :- Hey Kamal Nayan, Hey Vasudev, Hey Vishnu, Hey Dharni Dhar, Hey Achyut, Hey Chakra Pani (Recitation of Vishnu Shahastr Nam-thousand titles of God, signify his qualities). Kindly give us shelter, please protect us, please give us refuge.
Those virtues people, in whose hearts lives the never ending-the limit less-the infinite Bhagwan, are suitable for Vaikunth Lok or a higher abode.
None other than Bhagwan Vishnu protects the creatures-living beings or the life forms.
Those devotees, whose hearts always palpitate, beep with the recitation of Vishnu, entitles themselves for protection from Yam, Yam Doot (messanger, agent), Yam Pash (the cord that ties the soul),Yam Dand (the baton of divine justice and punishment) or Yam Yatna (यम यातना, tortures, painful punishments) and are spared.
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों में मोक्ष ही श्रेष्ठ है। 84,00,000 योनियों से गुजरने के बाद ही मनुष्य जन्म प्राप्त होता है। अतः यह जन्म अति दुर्लभ है।
"जन्तूनां नरजन्म दुर्लभतरम्"।
इसलिए प्रत्येक मनुष्य के जीवन का प्रधानतम लक्ष्य मोक्ष होना चाहिये और इसके लिये उसे दिन-रात निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिये। जो व्यक्ति विषय-भोगों में उलझकर ऐसा नहीं करता, वो निश्चय ही दो पैरों वाला पशु ही है।
Intelligence, enlightenment, disillusion, pardon, truth-austerity, self restraint-control & comforts-pleasure, pain-sorrow, training-discipline, tranquillity, evolution, destruction, fear, bravery-fearlessness, non violence, equanimity, satisfaction, asceticism, donation-charity, fame-goodwill-name, slander-defame are the 20 qualities-feelings, gestures which evolve due to the Almighty in the human beings.
मनुष्य के मस्तिष्क का विकास, सूझ-बूझ, बुद्धि-विवेक, चिन्तन-विचार शक्ति, दूरदृष्टि आदि ऐसे गुण हैं, जो उसे सन्मार्ग की ओर ले जा सकते हैं। सार-निस्सार, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य, साँख्य आदि ज्ञान के अंग हैं। मैं, मेरा, अपना, मोह है और संसार के प्रति विरक्ति असम्मोह है। अपने प्रति किये गए घोर अपराध-गुनाह, को शन करना, बर्दाश्त कर लेना और अपराधी को उसके किये गए कुकृत्य के लिए कहीं भी सज़ा न मिले, यह विचार मन में धारण कर लेना क्षमा है। ऐसा सत्य बोलना जो किसी बेगुनाह को सज़ा से मुक्त करा सके। जैसा देखा, सुना और समझा वैसा ही कहना। सत्य वह जो सुख का कारण बने। दम, शम, इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से हटाकर अपने वश में करना दम और मन को सांसारिक भोगों के चिंतन से हटाना शम है। शरीर, मन इन्द्रियों को अनुकूल परिस्थिति से हृदय में जो प्रसन्नता होती है वह सुख है। प्रतिकूल परिस्थिति, परिणाम से जो अप्रसन्नता होती है वह दुःख है। सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, भाव आदि के उत्पन्न होने को भव और लीन होने को अभाव कहते हैं। अपने आचरण, भाव आदि के शास्त्र, लोक-मर्यादा के विरुद्ध होने पर अन्तःकरण में जो अनिष्ट-दुःख की आशंका होती है, वो भय है इसके विपरीत भाव अभय-निडरता है। तन, मन, वचन और देश, काल, परिस्थिति में किसी भी प्राणी को कष्ट ने पहुँचाना अहिंसा है। अनुकूल-प्रतिकूल घटना, व्यक्ति, काल, परिस्थिति उत्पन्न होने पर भी अंतःकरण-मन में किसी भी प्रकार की विषमता का न होना समता है। कम-ज्यादा जो भी जैसा भी मिल जाये, उसी में संतुष्ट रहना संतोष-तुष्टि है। अपने कर्तव्य-धर्म के निर्वाह में किसी भी प्रकार के कष्ट, प्रतिकूल परिस्थिति का निर्वाह, व्रत-उपवास आदि तप हैं। अपनी नेक-ईमानदारी की कमाई का कुछ भाव सत्पात्र को देना दान है। अच्छे आचरण-वर्ताव, गुण, भाव, कार्यों के कारण समाज-देश में प्रसिद्धि, प्रशंसा यश है। समस्त प्राणियों में इन विभिन्न प्रकार के भावों, सत्ता, स्फूर्ति, शक्ति, आधार और प्रकाश परमात्मा से हुई प्राप्य है और वे ही इन सबके मूल में हैं। मत्त: योग, सामर्थ, प्रभाव का और पृथग्विधा: अनेक प्रकार की विभूतियों का द्योतक है। संसार में समस्त शुभ-अशुभ, विहित-निहित, निषिद्ध, सद्भाव-दुर्भावआदि सभी कुछ भवत्वतलीला है। ये जो बीस भाव प्राणियों में बताये गए हैं, प्रभु से ही संचालित हैं।
Intelligence, development of brain-mind, thoughtfulness, prudence, power to analyse and synthesise, farsightedness, memory-retention are the factors, which can guide one-humans to austerity, piousity, virtuousness, righteousness & the Ultimate-Almighty. Power to understand right or wrong, just or unjust, duty-religiosity are the organs of enlightenment-learning. The preoccupation of mind with I, My, Me, Mine & the ego are illusion-attachment and rejection of worldly possessions-attachment is relinquishment-rejection. Pardon is the quality which allows forgiveness to the culprit for his crime against one and not to think of punishing him under any circumstances. Truth is a quality to report the event as such and to protect an innocent person from punishment. Say what you saw, heard or perceived. Dam is controlling the sense organs and avoiding the subjects-objects of sensual pleasure & Sham is that tendency which forbids one from the thinking-imagination of enjoyments, comforts, luxuries of this destructible-perishable world. Pleasure is happiness attained from the situations, incidents-occurring, attainments in the heart & the pain is caused due to failure, anti-adverse situation, results. Evolution-creation of worldly goods, person, situation-incident, mood, feeling, projection is also Godly act in addition to destruction. Fear comes to one, when he acts against law, person, scriptures, ethics and the power-actions of dreaded criminals. Non violence is the tendency not to hurt-harm any organism, individual, creature through body, mind, thinking, heart-imagination and the speech. Equanimity is the parity of adverse & favourable situation, event, occurrence, person-organism, time-cosmic era-death & life, pleasure-pain. Satisfaction means to remain content with whatever has been obtained-earned honesty, through righteous-just means. Asceticism is bearing of difficulties happily, worship of God through fasting, meditating in the lonely places and as a recluse. Donation-charity is the grant for social welfare through own honest-righteous earning to the deserving. Appreciation due to nice-good conduct-behaviour, dealing with others, goodness, qualities is name & fame. These qualities, characteristics, traits, factors comes to one from the Almighty-God, who is at the root of this universe & all that is happening. Assimilation in God, Liberation, Salvation, Yog, strength, power, capacity, impact-effect and various other auspicious qualities are the gifts of the God and whatever is happening is just an act of the Supreme Lord. These 20 qualities of humans are directed-granted by the God. Thus everything-event is a play-act of the Almighty.
लब्ध्वा कथंचिन्नरजन्म दुर्लभं तत्रापि पुंस्त्वं श्रुति पार दर्शनम्।
यस्त्वातम्मुक्तौ न यतेत मूढधीः स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसद्ग्रहात्॥
यदि किसी प्रकार-पुण्य विशेष से, परम दुर्लभ मानव जन्म पाकर उसमें भी सम्पूर्ण श्रुतियों का आद्योपान्त अनुशीलन करने वाले पुरुष शरीर को पा लेने पर भी, जो मूढ़ चित्त मानव अपनी मुक्ति के लिये प्रयत्न नहीं करता, वह आत्म हत्यारा है। वह अनित्य भोगों में फँसे रहने के कारण अपने आपको विनाश के गर्त में गिरा रहा है।
"श्रोत्वयो मन्तव्यो निधिध्यासितव्य:"
आत्मज्ञान के लिये श्रवण, मनन और निधिध्यासन, इन तीन साधनों का प्रयोग करे।
कर्मत: प्राप्त हुए लोकों की परीक्षा करके-उनकी अनित्यता भली-भाँति समझकर, ब्राह्मण उनसे विरक्त हो जाये; क्योंकि कृत-अनित्य कर्म से अकृत-नित्य आत्मतत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। वह आत्मज्ञान के लिये हाथ में समिधा लेकर ब्रह्मनिष्ठ श्रोत्रिय गुरु की ही शरण में जाये।
विधि निषेध रूप कर्म का अधिकारी मनुष्य शरीर बहुत ही दुर्लभ है। स्वर्ग और नरक लोकों मे रहने वाले जीव इसकी अभिलाषा करते हैं, क्योंकि इसी शरीर में अंत:करण की शुद्धि होने पर ज्ञान अथवा भक्ति की प्राप्ति होती है। बुद्धिमान पुरुष को न तो स्वर्ग-नरक के भोग प्रधान शरीर-जो किसी साधन के लिए उपुक्त नहीं हैं अथवा न मानव शरीर की ही कामना करनी चाहिए, क्योंकि किसी भी शरीर में गुण बुद्धि और अभिमान हो जाने से, अपने वास्तविक स्वरुप की प्राप्ति के साधन में प्रमाद होने लगता है।
Human body which is the recipient of reward-award-Karm Fal of his deeds, in one after another-repeated births and rebirths, is very rare (obtained only after passing through, 84,00,000 incarnations in lower forms), even the deities, demons, ghosts etc. wish to avail it. Inhabitants of Heavens and Hells crave for this material-physical body. In fact one is extremely lucky to have obtained it. One can perform prayers and like to attain Salvation, through it. This human body is capable to cleanse the internal faculties associated with the soul. An intelligent or enlightened, will not desire to have a divine or even the human embodiment, since they will abstain him from Liberation-Assimilation in the Almighty. Which ever body is possessed by the soul, is bound to generate intoxication-ego-pride-suffering, ultimately.
यद्पि यह मानव रुपी शरीर मृत्यु को अवश्य प्राप्त होगा तथापि इसके द्वारा परमार्थ की सत्य वस्तु की प्राप्ति हो सकती है। बुद्धिमान पुरुष को चाहिए यह बात जानकर मृत्यु पूर्व ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जिससे वह जन्म मृत्यु के चक्कर से सदा के लिए छूट जाये-मुक्त हो जाये।
Who so ever is born, is bound to die-perish. Still the human being can make use of this body for the ultimate bliss-eternal truth-ecstasy. The intelligent-enlightened should be careful enough, to understand this and subject-prepare himself for the attainment of the Ultimate, so that he becomes free from movement from one incarnation to another.
मोक्ष का सुगम उपाय EASIEST WAY TO ATTAIN SALVATION :: Simplest-easiest way to achieve Salvation, Liberation, Assimilation in God, is to discharge one's own duties religiously, honestly, faithfully, honestly, piously, righteously. One should not run away from his liabilities. Its good-appreciable to perform them with dedication. Dharm means-the duty assigned to one, as an individual, as a component of the family-household, member of a society, resident of a place, country, world and the universe as a whole. As a child, a teacher, a father, a mother, as a professional etc.
Everything prescribed by the scripters-epics, leading to Sadgati (improvement of Perlok-next birth, abode) by undertaking auspicious, pious acts and rejecting inauspicious acts. Whole hearted efforts, expenses made; devotion of body, mind and soul, physique, ability, status, rights, capabilities for the welfare of others (mankind, society, world), leading to the welfare of the doer is Dharm.
Inherent prescribed, Varnashram functions-duties, devoid of virtues/excellence, are better than those belonging to others-carried out methodically with perfection, since carrying out of own righteous, natural deeds keeps the doer-performer free-untainted from sins, vices, wickedness.
To bring the devotee out of confusion, the Almighty asserts that he should immerse all his prescribed, ordained, Varnashram duties in him and come to his fore-refuse and that he will take care of the devotee, asks him not to worry as he will liberate–relieve him of all sins.
Accomplishment is attained by an individual worshiping the Almighty, from whom all the organisms have evolved and by whom the entire universe is pervaded, through his natural-instinctive, prescribed, Varnashram related deeds.
अपने कर्तव्य का मेहनत, ईमानदारी, भरोसे के साथ, धर्म समझ कर पालन करना।
धर्म का तात्पर्य है :- अपने कर्तव्य-दायित्व का भली भांति निर्वाह।
मनुष्य को चाहिये कि वह अपने कर्तव्य से भागे नहीं-विमुख न हो, उसका पूरी निष्ठा से पालन करे।
गृहस्थ धर्म का पालन सन्यास से भी उत्तम है।
पिता की भक्ति से इहलोक, माता की भक्ति से मध्य लोक और गुरु की भक्ति से इंद्र लोक प्राप्त होते हैं। जो इन तीनों की सेवा करता है, उसके सभी धर्म सफल हो जाते हैं और जो इनका निरादर करता है, उसकी सभी क्रियाएं निष्फल होती हैं। जब तक ये जीवित हैं, तब तक इनकी नित्य सेवा-शुश्रूषा और इनका हित करना चाहिये। इन तीनों की सेवा-शुश्रूषा रूपी धर्म में पुरुष का सम्पूर्ण कर्तव्य पूरा हो जाता है, यही साक्षात धर्म है।
One who serves-takes care of his father-parents, grand patents, entitles himself to the comforts-pleasures of this world, the one who is devoted to his mother attains the middle Lok (heavens which lies in the middle of the 7 heavens) and the one who renders service to his Guru-teacher gets Indr Lok. One who looks after these three, is capable of attaining all Dharm and the one, who neglects-discards them suffers from, all round failure, disaster, agony. Till, they are alive, one should do his best to please-nourish them, through service-devotion. Duties-deeds-ambitions are accomplished just by the care of the trio. This is the true Dharm.
PREPARATION FOR SALVATION मोक्ष साधना-मोक्ष मार्ग के सहायक :: यम-नियम सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के साधनों के लिए उपयोगी हैं। पुरुष के द्वारा इनका प्रयोग-पालन, उसे इच्छानुसार भोग और मोक्ष प्रदान करता है। Yam and Niyam are useful to both types of devotees. The one who works selflessly and the one who want-seek fulfilment of his desires. One who practice these is granted-blessed-provided with comforts-luxuries enjoyment and Moksh-Liberation simultaneously.
विधि निषेध रूप कर्म का अधिकारी मनुष्य शरीर बहुत ही दुर्लभ है। स्वर्ग और नरक लोकों मे रहने वाले जीव इसकी अभिलाषा करते हैं, क्योंकि इसी शरीर में अंत:करण की शुद्धि होने पर ज्ञान अथवा भक्ति की प्राप्ति होती है। बुद्धि मान पुरुष को न तो स्वर्ग-नरक के भोग प्रधान शरीर-जो किसी साधन के लिए उपुक्त नहीं हैं अथवा न मानव शरीर की ही कामना करनी चाहिए, क्योंकि किसी भी शरीर में गुण बुद्धि और अभिमान हो जाने से अपने वास्तविक स्वरुप की प्राप्ति के साधन में प्रमाद होने लगता है।
Human body which is the recipient of reward-award-Karm Fal of his deeds, in one after another-repeated births and rebirths, is very rare (obtained only after passing through, 84,00,000 incarnations in lower forms), even the deities, demons, ghosts etc. wish to avail it. Inhabitants of Heavens and Hells crave for this material-physical body. In fact one is extremely lucky to have obtained it. One can perform prayers and like to attain Salvation, through it. This human body is capable to cleanse the internal faculties associated with the soul. An intelligent or enlightened, will not desire to have a divine or even the human embodiment, since they will abstain him from Liberation-Assimilation in the Almighty. Whichever body is possessed by the soul, is bound to generate intoxication-ego-pride-suffering, ultimately.
यद्पि यह मानव रुपी शरीर मृत्यु को अवश्य प्राप्त होगा तथापि इसके द्वारा परमार्थ की सत्य वस्तु की प्राप्ति हो सकती है. बुद्धिमान पुरुष को चाहिए यह बात जानकर मृत्यु पूर्व ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जिससे वह जन्म मृत्यु के चक्कर से सदा के लिए छूट जाये-मुक्त हो जाये ।
Whosoever is born, is bound to die-perish. Still the human being can make use of this body for the ultimate bliss-eternal truth-ecstasy. The intelligent-enlightened should be careful enough, to understand this and subject-prepare himself for the attainment of the Ultimate, so that he becomes free from movement from one incarnation to another.
(1). 8 PREREQUISITES-ESSENTIALS OF SALVATION मोक्ष प्राप्ति हेतु आठ आत्म गुण [Exerts from Matasy Puran] ::
(1.1). PITY-MERCY दया :: One should take Pity-mercy on all creatures-organisms. One may be kind hearted. Kindness, pity, mercy help in paving path to Salvation. One must utilize discretion before extending a helping hand. At occasions it is misused, as a tool-means to extract some thing-favours. Think before you extend a helping hand, whether the person is deserving or not? If the help is going into wrong hands. Often people utilize the help against the person, who helped them. Be alert.
अपने दुःख में करुणा तथा दूसरों के दुःख में सौहार्द पूर्ण सहानुभूति जो कि धर्म का साक्षात साधन है।
समस्त प्राणियों पर दया करना। दयालु होना अच्छी बात है। यह मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करता है। किसी भी प्राणी पर दया करने से पहले विचार कर लेना चाहिए कि वह इस लायक है भी या नहीं। ऐसा न हो कि आपकी दया का कोई नाजायज फायदा उठा रहा हो, जैसा कि अक्सर ही होता है। कोई भी निर्णय सोच समझ कर ही करना चाहिए। दया की पात्रता भी आवश्यक है। ऐसा भी हो जाता है कि आपकी सहायता को आपके विरुद्ध ही इस्तेमाल किया जा रहा हो। अत: सावधान होकर ही ऐसा करो। दया धर्म का मूल है।
दया के समान धर्म, तप, मित्र, दान नहीं है। पुण्य का दान करने वाला मनुष्य सदा लाख गुना प्राप्त करता है। दया से धर्म की वृद्धि होती है, मनुष्य की बुद्धि सदा दान और दया में दृढ़ रहनी चाहिए।
(1.2). PARDON क्षमा :: He teased-troubled you time and again and said sorry-please excuse me, each time he offended. You pardoned him every time, he said sorry. It emboldened him and he identified a weak person in you, who can be humiliated easily-repeatedly. How long will you tolerate him? Let him be punished, otherwise he will not mend-change his ways-mentality-style of working-mode of functioning. Pardons-forgiveness only make him a bigger-dreaded criminal. Let this bud be killed in the nip. Such people deserve to be behind the bars-put in secluded-deserted-isolated places, eliminated all together, for ever. As per dictates of the Almighty one will have to be undergo the fruits of his deeds-good for good, bad for bad.
Even if they are pardoned here, they will have to suffer for their misdeeds in successive rebirths-but, who will witness this?
To forgive is divine and constitute Satvik characteristic, paying the way to divinity-Salvation.
संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो आप को बार बार दुःख पहुँचाते हैं। फिर माँफी माँग लेते हैं। जब भी उसने माँफी माँगी, आपने उसे माँफ कर दिया। इससे वह और भी कठोर और निष्ठुर हो गया। उसे आपके अन्दर एक ऐसा आदमी मिल गया, जिस को कभी भी कहीं भी प्रताड़ित किया जा सकता है, सताया जा सकता है। कब तक बर्दाशत करोगे? उसे सजा मिलने दो, अन्यथा वह नहीं सुधरेगा। ऐसी कांटे को निलने से पहले ही मसल दो। ऐसे लोगों को तो समाज से दूर जेल में ही होना ही चाहिए। उन्हें समाप्त कर दो हमेशाँ के लिए।
उन्हें यहाँ भले ही माँफी मिल जाये, भगवान् से माँफी कभी नहीं मिल सकती। परमात्मा का नियम है कर्म का फल अवश्य मिलेगा-बुरे को बुरा, भले को भला। पर वहां ये सब हम कैसे देखेंगे?
क्षमा करना एक सात्विक गुण है, जो कि दैव मार्ग-मोक्ष का द्वार खोलता है।
(1.3). CONSOLATION आश्वासन :: Assure-console the worried-pained and protect him. When one console the worried-grieved, he becomes calm and quite. In due course of time his grief is reduced considerably. He becomes normal. At occasions he is afraid of some one/enemy/invaders/terrorists/animal/ghost and you are capable of protecting him. Give him shelter-asylum, but ensure that he may not target you in future. Protection granted to dreaded enemies often back fires.
There are instances when protection was granted and the protected attacked the protector. Take the case of venomous snakes. They may attack you any time, even if you feed/protect them. Its a part of their nature. If you are capable of protecting yourself from such attacks, proceed; otherwise not.
To protect the sinner is sin.
दुःख से पीड़ित प्राणी को आश्वासन प्रदान करना और उसकी रक्षा करना। रघुकुल रीत सदा चली आई प्राण जाये पर वचन न जाई। अगर आप में सामर्थ है तो ऐसा करो अन्यथा कतई नहीं। पृथ्वीराज चौहान का उदाहरण याद रखो। 17 बार छोड़ने के बाद भी मौह्म्मद गौरी ने अन्त में बंदी बना लिया। पापी कि रक्षा करना भी पाप है। दुःख से पीड़ित प्राणी को आश्वासन प्रदान करना और उसकी रक्षा करना।
(1.4). JEALOUSY ईर्ष्या :: Jealousy create unfounded desires-competition-anonymity-rivalry, which results in tensions-unrest-instability of mind. One may become nervous. He dreams too big but make no/little effort for achieving his goal-target-ambitions. If unsuccessful in his ventures, he should remove weaknesses of his system-design-working, in stead of having ill will-grudge for others-competitors. He find other people acquiring all sorts of amenities of life and start craving for them. Envy develops hate-repulsion for those who have attained what he could not. This is a state of mind which can motivate him to commit a crime of any magnitude. It may create brain disorders. Enmity leads to sins and hell, ultimately. One should make efforts to eliminate spite-grudge and seek asylum in the Ultimate. Do not to have envy-anonymity-enmity with any one.
जगत में किसी से ईर्ष्या द्वेष न करो। दुर्योधन बचपन से ही पाण्ड़वों से ईर्ष्या रखता था। वो उनसे किसी भी बात में सानी नहीं रखता था। इसी वजह से उसने, उनके राज्य को हड़पना चाहा। उसकी तृष्णा बढ़ती ही गई और इसकी परिणति महाभारत में हुई और उसका कुल नाश हो गया। मनुष्य को जगत में किसी से भी ईर्षा-द्वेष नहीं करना-रखना चाहिये।
(1.5). PURITY-PIOUSITY-VIRTUOUSNESS :: Internal purity is connected to the mind-thoughts-ideas-concepts-visualization of things-happenings. Our soul perpetuate from one life to another vibrating from incarnation to another depending upon the deeds, our performances in respective births. Often we think-act through our perception of likes or dislikes, what pleases us make us react. We give more weightage to our relations determined by heart-attachments. Warnings come from the brain but we prefer to discard them. As a matter of fact one should think twice before acting. Ethics-virtues-purity of thoughts-righteousness-honesty leads to holiness, higher abodes, closer to the god.
External purity is equally important. it involves our behaviour-actions-dealings with others-society. What we speak is important. We should not hurt the sentiments of others. One should not insult others. One should avoid watching-listening-mixing with the wretched-vulgar-indecent. Avoid commenting over them as well. Try to adhere to truth-honesty.
Bathing in holy rivers, shrines, holy places do help us. Regular bathing is equally important since it keep one free from germs, fit and fine.
बाह्य व आन्तरिक पवित्रता-शुद्धि :- मन चंगा तो कठोती में गंगा।
बाह्य व आन्तरिक पवित्रता, दोनों ही मनुष्य के भविष्य का निर्धारण करतीं हैं, उसके अगले जन्मों को तय करतीं हैं।
(1.6). माँगलिक कार्य AUSPICIOUS DEED :: परिश्रम रहित अथवा अनायास प्राप्त हेतु कार्यों के अवसर पर उन्हें मांगलिक आचार-व्यवहार के द्वारा संपन्न करना। Events which do not involve labour or occasions which are obtained-comes up instantly, should be celebrated with auspicious rituals-Mantr-Shloks.
(1.7). HELP सहायता :: One must spend at least 1/6th of his earnings over charity-helping the needy-infirm-weak. Its essential to satisfy one self whether the person is wasting the funds provided to him over the prostitutes-narcotics-wine-criminal activities-terrorism. Do not to hold back the strings of the purse, while helping the poor-down trodden, with the earned by own labour-efforts. If the funds provided by you are used on evil-wicked acts, the recipient will drag you to the hells along with him. जहाँ तक सम्भव हो मनुष्य को जरूरत मंद व्यक्ति-असहाय-कमजोर की सहायता अवश्य करनी चाहिए। फिर भी यह आवश्यक है कि इस बात की जाँच-पड़ताल कर ली जाये कि वह व्यक्ति वास्तव में ही सहायता के लायक है भी या नहीं। कहीं ऐसा न कि आपसे प्राप्त धन से वो शराब-जुआ-वेश्या गमन आदि कर रहा हो। अगर ऐसा हुआ तो वो अपने साथ-साथ सहायता करने वाले को भी नरक में घसीट लेगा। अपने द्वारा उपार्जित द्रव्यों से दीन दुखियों की सहायता करते समय कृपणता-कंजूसी नहीं बरतनी चाहिए।
(1.8). निस्पृहता NEUTRALITY :: पराये धन और पराई स्त्री के प्रति सदा निस्पृह रहना। नारी नरक का द्वार है। दूसरे का धनसंपत्ति अगर छीनी जाती है, तो छीनने वाला नरक गामी-अधोगति को प्राप्त होता है। To remain aloof-unconcerned from the wealth and women belonging to others.
ये कर्म योग व ज्ञान योग के साधन हैं। कर्म योग के बिना ज्ञान योग की प्राप्ति नहीं होती। These are the means of Karm Yog and Gyan Yog. Gyan Yog can not be achieved-attained without Karm Yog.
वृती-अभ्यास PRACTICE :: यह यम नियम संयम आदि कठोर शारीरिक और मानसिक क्रियाओं द्वारा मन को निग्रह करने का प्रयास है। यम और नियम संसारिक व्यवहार में एकरूपता लाते हैं। शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधान और श्रद्धा यम-नियम के अंतरंग अंग हैं। मन को संसार से रोकना शम है। बाह्य इन्द्रियों को रोकना दम है। निवृत्त की गयी इन्द्रियों भटकने न देना उपरति है। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान अपमान को शरीर धर्म मानकर सरलता से सह लेना तितिक्षा है। रोके हुए मन को आत्म चिन्तन में लगाना समाधान है। परमात्मा के प्रति श्रद्धा मनुष्य को स्वयं के ऊपर नियंत्रण प्रदान करता है और मन को भटकने से रोकना है। यह यम-नियम संयम आदि कठोर शारीरिक और मानसिक क्रियाओं द्वारा मन को निग्रह करने का प्रयास है। Controlling the mind, body, organs is practice. Protecting oneself from outer negative influences is practice.
(2). 12 YAM-SELF RESTRAINT-CONTROLS यम :: अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असंगता, लज्जा, असंचय (आवश्कता से अधिक धन नहीं जोड़ना), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा, अमय। Non-violence, truth, Astey (not to steal), Asangatta (not to have unwanted-irrelevant company), shame, Asanchy, (no need to add-accumulate wealth, funds), faith in God-religion, celibacy-asceticism, silence, stability, forgiveness, Amay.
(2.1). NON VIOLENCE अहिंसा :: अहिंसा परमो धर्म। माँसाहार से सदा बचना चाहिये। व्यर्थ की हिंसा से दूर ही रहना चाहिये। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई तुम पर हमला करे और तुम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहो। डट कर मुकाबला करो और आता ताई को समूल नष्ट करो। भगवान बुद्ध और गाँधी जी की अहिंसा की नीति सदैव प्रासांगिक नहीं होती।चाणक्य नीति का अनुसरण समयानुसार उचित है। शान्ति चाहते हो तो युद्ध के लिए तैयार रहो। ब्राह्मण का वध करने वाले को बृह्म हत्या लग जाती है और वो नरक गामी होता है।
ब्रह्महत्या :: पूर्व काल में वृत्रासुर और इन्द्र में 11,000 वर्ष तक युद्ध हुआ, जिसमें इन्द्र की हार हुई और वे भगवान शिव के शरणागत हुए। इन्द्र को वरदान प्राप्त हुआ और उन्होंने प्रभु कृपा से, वृत्रासुर का वध किया, जो ब्राह्मण पुत्र था। इस लिये उन्हें ब्रह्म हत्या लग गई। वे ब्रह्मा जी की शरण में गये। ब्रह्महत्या ने इन्द्र के शरीर से हटने के लिये अन्य स्थान माँगा, तो उन्होंने उसे 4 भागों में बाँट दिया।
पहला भाग अग्नि देव को मिला। जो कोई प्रज्वलित अग्नि में बीज, औषध, तिल, फल, मूल, समिधा और कुश की आहुति नहीं डालेगा, ब्रह्महत्या अग्नि को छोड़ कर उसे लग जायेगी।
दूसरा भाग वृक्ष, औषध और तृण को मिला। जो कोई व्यक्ति मोह वश अकारण, इन्हें काटेगा या चीरेगा, ब्रह्म हत्या, इन्हें छोड़ कर उसे लग जायेगी।
तीसरा भाग अप्सराओं को मिला। जो कोई व्यक्ति रजस्वला स्त्री से मैथुन करेगा, यह तुरन्त उसे लग जायेगी।
चौथा भाग जल ने गृहण किया। जो व्यक्ति अज्ञानवश जल में थूक, मल-मूत्र डालेगा, वही ब्रह्महत्या का निवास बन जायेगा।
प्राचीन काल से ही कोई भी न्यायाधीश, इस भय से ब्राह्मण को प्राण दण्ड नहीं देता था।
(2.2). सत्य TRUTH :: सत्य व मधुर भाषण ही सत्य है। सर्वत्र सम स्वरूप, सत्य स्वरूप, परमात्मा का दर्शन ही सत्य है। सदा सत्य बोलो। मृत्यु सत्य है। परमात्मा-ब्रह्म ही अन्तिम सत्य है।
Visualisation of the Almighty who is truth, in each and every one, organism, God's creations. Experiencing-visualising the equanimity, true divinity, all around, (just speaking of truth is not sufficient). Speak the pleasant truth. Speak the truth. God is Ultimate truth-reality. Its a means to attain Salvation. But always speak the truth which is not going to harm any one, un necessarily-without reason-logic. Truth always triumphs. Truth is truth. One who do not speak the truth reserves his seat in hells.
LIE (झूंठ) :: A lie for the sake of humanity-welfare of mankind-to save an innocent person from ruin-disaster-torture-imprisonment-misery-cruelty is better than a plain truth.
एक ऐसा झूंठ जो किसी निर्दोष की रक्षा करता हो वह एक सत्य से उत्तम है। सत्य वादी नाम के तपस्वी सरस्वती के तट पर तपस्या के रहे थे।एक व्यापारी लुटेरों से बचने के लिए उनके पास आया तो उन्होंने उसे कुटिआ के अन्दर छुपा दिया। लुटेरे उसे ढूंढते हुए वहाँ आये तो, अन्दर इशारा कर दिया। भगवान श्री कृष्ण ने ऐसे सत्य को असत्य से भी हीन-बुरा माना।
सत्य ही परम मोक्ष, उत्तम शास्त्र, देवताओं में जाग्रत् तथा परम पद है।
तप, यज्ञ, पुण्य कर्म, देवर्षि-पूजन,आद्य विधि और विद्या सत्य में प्रतिष्ठित हैं।
सत्य ही यज्ञ, दान और सरस्वती है।
सत्य ही व्रतचर्या और ॐ कार है। सत्य से वायु चलती है, सूर्य तपता है, आग जलती है और स्वर्ग टिका हुआ है।
सत्यवादी देवताओं के पूजन तथा सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान का फल प्राप्त कर लेता है।
सम्पूर्ण यज्ञों की अपेक्षा सत्य का पलड़ा ही भारी है।
देवता, पितर और ऋषि सत्य में ही विश्वास रखते हैं।
सत्य ही परम धर्म और परम पद है।
यह ब्रह्म स्वरूप है। जो मनुष्य अपने, पराये अथवा पुत्र के लिये भी असत्य भाषण नहीं करते, वे स्वर्गगामी होते हैं। ब्राह्मणों में वेद, यज्ञ तथा
मंत्र निवास करते हैं। किन्तु जो ब्राह्मण सत्य का परित्याग कर देता है उसमें ये शोभा नहीं देते-उसका त्याग कर देते हैं।
अतः मनुष्य को सदैव सत्य भाषण ही करना चाहिये। [पद्मपुराण ]
(2.3). SELF RESTRAINT OVER STEALING-THEFT (ASTEY अस्तेय) :: Stealing leads to hells. One must not steal. चोरी एक ऐसा अपराध है, जो मनुष्य को नर्क ले जाता है और वहाँ से मुक्ति के तदुपरान्त हीन योनियों में जन्म प्रदान करता है। चोरी करने वाला, चोरी का माल खरीदने वाला, बेचने वाला बराबर के अपराधी हैं।
(2.4). IRRELEVANCE (not to have unwanted-irrelevant company, असंगता) : Undesirable company is always bad. One learns all sorts of evils-bad deeds-bad habits which puts him in trouble time and again. It takes one to Shaetan-devil away from the God and paves the way for Hells. Some times, one is dragged to notoriety unknowing. The parents should be extremely careful, while handling the child. He should be nursed properly. The parents should teach-elaborate-discuss the epics, scriptures along with the teachings of renowned people-sages.
(2.5). लज्जा (शर्म, हया) SHYNESS-SHAME :: पाप करने से घृणा का नाम ही लज्जा है। सामाजिक मर्यादा का पालन हर मनुष्य को करना चाहिये। लज्जा स्त्री का गहना है।To treat sin as a hate (घृणा), taboo, disgrace. Hatred towards sin is real shame. Bashfulness-modesty is like an ornament. One who cares for his parents-teachers-elders-God avoid such acts in front of them, which are not good-which are considered bad or anger them; to be done in front of others like sex, nudity, easing, urinating, smoking, drinking or the taboo. This is a manner to show respect-regard for them.
(2.6). ACCUMULATION (no need to add-accumulate wealth, funds असंचय (आवश्यकता से अधिक धन नहीं जोड़ना) :: One should have sufficient money to fulfil his needs after retirement and in an hour of need. People make investments-bank deposits for lean season. All religious ceremonies needs money and no activity can be performed without money. One should assess his needs and act accordingly. One should have sufficient funds for donation-charity and to avoid loans-begging. Accumulated wealth invites cheats-thugs-thieves-dacoits-criminals and even the state to steal-snatch it. One should not be a miser.पूत कपूत तो क्यों धन संचय, पूत सपूत तो क्यों धन संचय। जोड़-जोड़ मर जायेंगे, मॉल जमाई खायेंगे। कहते हैं धन संग्रह करने वाला उसकी रक्षा करने के लिए साँप बनता है।
(2.7). आस्तिकता, आस्था, श्रद्धा FAITH :: ईश्वर, धर्म में आस्था, विश्वास ही श्रद्धा है। Faith in God should be essential-integral part of an individual. Mutual faith too is essential in a family-household, society. Faith in the scriptures, epics, sermons of the holy souls, saints and the ruler are necessary.
An intense sense of certainty about the direction, one is going to keep in the right direction, persisting in following the teachings and practices that have been examined and seen to be productive, useful, and fruit bearing. We are the most valuable creations of God. One must have faith in Him. He is always with us. Religiosity and Atheism (a belief that there is no God) are two phenomenon, which act in opposite directions, never to meet. India is a country where, majority of populations constitute of the followers of Hinduism-The Sanatan Dharm, ancient way of life. It's a very very liberal community. इसे ईश्वरवाद भी कहा जाता है।
Religiosity makes one pious-virtuous-honest-a kind hearted person and improves the incarnations in future.
(2.8). CELIBACY-ASCETICISM (ब्रह्मचर्य) :: It connects one with the God. It retains the vigour, health, potency, memory, strength of a person. It protects one in an hour of need. The student life up to the age of 25 years is considered to be meant for celibacy. One is not supposed to interact with opposite sex during this period. While one is out of the Ashram for begging alms he has to keep his eyed down facing earth, and call every women Mata-mother.
(2.9). SILENCE (मौन) :: कम बोलना अच्छी आदत है। चुप रहना, व्यर्थ की बातचीत-बकबास-वाद विवाद से अच्छा है। इससे ऊर्जा की बचत होती है और ध्यान केन्द्रित रहता है। एकांत-वन-गुफा में रहना, घर-गृहस्थी में रहकर कम बोलने से-न बोलने से आसान है। इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता है। विवाद में फँसने से अच्छा है, बात को हँसकर टाल देना, तूल न देना, माँफी माँग लेना। जिन लोगों को हर वक्त बकर-बकर करने की आदत होती है, उनसे दूर ही रहना चाहिये। एक चुप सौ को हराता है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि जरुरत के वक्त भी मौन रहो। आवश्यकता पड़ने पर अपनी बात पूरे जोर-शोर-दबाब से कहो।
Silence is Golden. It does not detach one from the living world. It brings peace, solitude, equanimity with it. It transcends a person to the eternal. One goes beyond or outside the range of human experience-reason-belief-power of description. Silence can be used as a tool for eloquence-skilful use of language, to persuade or to appeal to the feelings, fluent speaking.
Powerful-strong pulses of brain waves start pushing through the space and are received by the devotee-seeker bringing about a complete change-metamorphosis in the thoughts pattern-ideas, granting him devotion-prudence-enlightenment. Piousness of thoughts enchant the ascetics all around-all over. Holy person generate-transmit, harmony-peace-solace-tranquillity-calm-quietness to the recipients. A stage is reached, where body consciousness, along with thoughts, pertaining to others, pervading the mind, disappear automatically, leaving behind the worshipper, enchanted with the Supreme.
(2.10). STABILITY (स्थिरता) :: One should be stable in stead of moving from one place to another. He should be not be flickering mind. Those who meditate-concentrate in God stay at one place in solitude year after year. Having adopted the life of a sage-recluse they do not turn to family way-house hold.
(2.11). FORGIVENESS-PARDON (क्षमा) :: To forgive is divine. One who is capable of containing the aggression-threat-attack may pardon the guilty but only after ascertaining that he will not be able to tease-torture again. Instead of hanging the guilty, let him be may be put to life sentence-imprisonment, till death. Mohammad Ghouri attacked India 17 times and was pardoned by Prathvi Raj Chauhan (incarnation of Dhrat Rashtr) on 16 occasions. At last he was successful. He caught and blinded Prathvi Raj Chauhan and took him to Kabul in a cage. One should be able to crush such people; or else eliminate them at once.
(2.12). LONELINESS (अमय) :: The sages-saints-ascetics wander alone and move out of the periphery-boundaries of residential areas before it becomes dark. भगवत भक्ति-भजन-चिन्तन-स्मरण एकांत में ही करना चाहिये ताकि मन की शान्ति-एकाग्रता बनी रहे। चित्त उद्विघ्न न हो, चिन्ताएँ न हों, सब तरफ शान्ति ही शान्ति हो।
(3). 12 नियम NIYAM-RULES, SANCTIONS :: शौच (बाहरी और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथि सेवा, भगवत भजन, तीर्थ यात्रा, परोपकार की चेष्टा, संतोष व गुरु सेवा। Shouch-cleanliness (external, outer and inner purity), Jap-chanting Mantr & prayers, Tap (tenacity, meditation), Hawan (Agnihotr, sacrifice in fire), faith, serving (welcoming guests), Bhagwat Bhajan (recitation of the names of God), worship, pilgrimage, efforts to help the needy (poor, down trodden, charity), contentment-satisfaction, serving the mentor (Guru-master, teacher, educator).
(3.1). शौच PURITY :: बाहरी और भीतरी पवित्रता, कामनाओं में आसक्त न होना। मन, बुद्धि, इन्द्रियां, शरीर, खान-पान, व्यवहार को पवित्र रखना। सदाचार का पालन। Cleanliness, external-outer and inner purity. Not to indulge in desires.
(3.2). जप, भगवन्नाम का उच्चारण प्रार्थना PRAYERS :: प्रतिदिन ईश्वर की आराधना करना, मन को नियंत्रित करना। One should pray to the god regularly.
(3.3). तप** ASCETICS :: कामनाओं का त्याग। जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथि सेवा, भगवत भजन, तीर्थ यात्रा, परोपकार की चेष्टा, संतोष व गुरु सेवा।Renunciation, rejection, conquering of desires.
(3.4). यज्ञ-हवन HOLY SACRIFICES IN FIRE :: परमेश्वर-शिव ही यज्ञ है।एक सद्गृहस्थ को नित्य यज्ञ, हवन बलि-वैश्व का पालन करना चाहिये। God himself is Yagy (the one who accepts all offerings).The Almighty is Yagy-all prayers-Agnihotr-sacrifices are offered to him. A house hold has to perform daily sacrifices in fire-Agnihotr.
(3.5). विश्वास FAITH :: ईश्वर के अस्तित्व-सत्ता में विश्वास। Every organism is a creation of the God and a component of HIM.
(3.6). अतिथि सत्कार WELCOMING GUEST :: वक्त बेवक्त आये हुए मेहमान का स्वागत-सत्कार। The guest may be offered water, food & place for rest. But in the present times one should be extremely careful while allowing anyone inside his house. Unless until one is sure of the identity & purpose of guest he should not be welcomed. It may prove to horrible leading to self immolation by queen Padmani.
(3.7). भगवत भजन ENCHANTING GODS NAMES :: गृहस्थ को समय मिलने पर ईश्वर का ध्यान-भजन, कीर्तन अवश्य करना चाहिए। सुबह-शाम ईश्वर आराधना, ध्यान उसकी दिनचर्या का अंग होना चाहिये। One must recite prayers pertaining to the God regularly.
(3.8). आराधना WORSHIP :: ईश्वर आराधना अत्यावश्यक है। परमात्मा ने मनुष्य को बनाया, उसका पालन-पोषण किया ताकि वह अपना भविष्य संवार सके-मोक्ष प्राप्त कर सके। God worship is an essential part of house hold's daily routine. The sole goal of one's life should be emancipation while performing his Varnashram duties honestly, religiously.
(3.9). तीर्थ यात्रा PILGRIMAGE :: मनुष्य को तीर्थ यात्रा अवश्य करनी चाहिये। इससे उसके पुण्यों का संचय होता है और पापों का नाश होता है। Pilgrimage boosts virtues and eliminates sins.
(3.10). परसेवा SOCIAL SERVICE :: दीन-दुखियों, गरीबों की सेवा, समाज सेवा अपनी सामर्थ्य में न रहकर अवश्य करनी चाहिए। One must serve the down trodden, poor, ill, needy according to his ability.
(3.11). आत्म सन्तुष्टि संतोष SELF SATISFACTION-CONTENTMENT :: दिन भर परिश्रम के बाद जो भी कुछ मिले गृहस्थ को उसी से संतोष होकर जीवन यापन करना चाहिये और अपनी सामाजिक आर्थिक स्थिति को सुधारते हुए भगवत भक्ति में लीन-संलग्न रहना चाहिये। One should be satisfied with what ever he has and continue to progress through legal honest means.
(3.12). गुरु सेवा SERVING THE ELDERS :: बड़े-बूढ़ों, गुरु जनों, माता-पिता, दादा-दादी, घर में मौजूद अन्य वृद्ध-जनों, बीमार, बच्चों की सेवा जातक के लिये स्वर्ग-उच्च लोकों के द्वार खोलती है। One must take care of his grand parents, parents and the teacher. He should discharge his duty towards them happily-religiously, honestly.
(3.6). अतिथि सत्कार WELCOMING GUEST :: वक्त बेवक्त आये हुए मेहमान का स्वागत-सत्कार। The guest may be offered water, food & place for rest. But in the present times one should be extremely careful while allowing anyone inside his house. Unless until one is sure of the identity & purpose of guest he should not be welcomed. It may prove to horrible leading to self immolation by queen Padmani.
(3.7). भगवत भजन ENCHANTING GODS NAMES :: गृहस्थ को समय मिलने पर ईश्वर का ध्यान-भजन, कीर्तन अवश्य करना चाहिए। सुबह-शाम ईश्वर आराधना, ध्यान उसकी दिनचर्या का अंग होना चाहिये। One must recite prayers pertaining to the God regularly.
(3.8). आराधना WORSHIP :: ईश्वर आराधना अत्यावश्यक है। परमात्मा ने मनुष्य को बनाया, उसका पालन-पोषण किया ताकि वह अपना भविष्य संवार सके-मोक्ष प्राप्त कर सके। God worship is an essential part of house hold's daily routine. The sole goal of one's life should be emancipation while performing his Varnashram duties honestly, religiously.
(3.9). तीर्थ यात्रा PILGRIMAGE :: मनुष्य को तीर्थ यात्रा अवश्य करनी चाहिये। इससे उसके पुण्यों का संचय होता है और पापों का नाश होता है। Pilgrimage boosts virtues and eliminates sins.
(3.10). परसेवा SOCIAL SERVICE :: दीन-दुखियों, गरीबों की सेवा, समाज सेवा अपनी सामर्थ्य में न रहकर अवश्य करनी चाहिए। One must serve the down trodden, poor, ill, needy according to his ability.
(3.11). आत्म सन्तुष्टि संतोष SELF SATISFACTION-CONTENTMENT :: दिन भर परिश्रम के बाद जो भी कुछ मिले गृहस्थ को उसी से संतोष होकर जीवन यापन करना चाहिये और अपनी सामाजिक आर्थिक स्थिति को सुधारते हुए भगवत भक्ति में लीन-संलग्न रहना चाहिये। One should be satisfied with what ever he has and continue to progress through legal honest means.
(3.12). गुरु सेवा SERVING THE ELDERS :: बड़े-बूढ़ों, गुरु जनों, माता-पिता, दादा-दादी, घर में मौजूद अन्य वृद्ध-जनों, बीमार, बच्चों की सेवा जातक के लिये स्वर्ग-उच्च लोकों के द्वार खोलती है। One must take care of his grand parents, parents and the teacher. He should discharge his duty towards them happily-religiously, honestly.
(4). अष्टांग योग ::
योगः चित्तवृत्तिनिरोधः
चित्त की वृत्तियों के निरोध योग है। [पतंजलि]
मानव कल्याण, शारीरिक-मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले अष्टांग योग का अभ्यास करना चाहिये। [पतंजलि-योगसूत्र]
यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार बहिरंग और शेष तीन अंग धारणा, ध्यान, समाधि अंतरंग नाम से जाने जाते हैं। बहिरंग साधना यथार्थ रूप से अनुष्ठित होने पर ही साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त होता है।
आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की क्रिया को अष्टांग योग कहा गया है। योग मोक्ष प्राप्ति का एक साधन है और यह मनुष्य को परमात्मा से जोड़ता है। इसकी सहायता से आत्मा के विक्षेप, मन-मस्तिष्क व शरीर के विकारों को दूर किया जाता है।
यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि इसके भाग हैं।
यम और नियम संसारिक व्यवहार में एक रूपता लाते हैं। यम और नियम शील और तपस्या के द्योतक हैं। यम का अर्थ है संयम।
(4.1). यम के प्रमुख पाँच विभाग :: अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।सामाजिक नैतिकता
(4.1.1). अहिंसा :: शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना। किसी को कष्ट, पीड़ा व दु:ख देना ही हिंसा है। इसके विपरीत सभी के प्रति हित एवं सुख का भाव रखना एवं सदैव हिंसा से बचे रहना ही अहिंसा है।
(4.1.2). सत्य :: जो चीज़ जैसी है, उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता है। सत्य बोलो प्रिय बोलो।
(4.1.3). अस्तेय :: अस्तेय का शाब्दिक अर्थ है चोरी न करना। किसी दूसरे की वस्तु को पाने की इच्छा करना मन द्वारा की गई चोरी है। शरीर से अथवा वाणी से तो दूर, मन से भी चोरी न करना।
(4.1.4). ब्रह्मचर्य :: शरीर के सर्व विध सामर्थ्य-प्रकृति द्वारा प्रदत्त शारीरिक इंद्रिय चेतना की संयम पूर्वक रक्षा ही ब्रह्मचर्य हैं।
इन्द्रियों पर संयम से ब्रह्मचर्य के पालन में सरलता रहती है। इन्द्रियों की चंचलता ब्रह्मचर्य के पालन में बाधक है। अपने लक्ष्य के प्रति सजग रहते हुए सदा पुरुषार्थी रहने से ब्रह्मचर्य के पालन में सहायता मिलती है।
(4.1.5). अपरिग्रह :: मन, वाणी व शरीर से अनावश्यक वस्तुओं व अनावश्यक विचारों का संग्रह न करने को अपरिग्रह कहते हैं।
(4.2). नियम :: शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान।
(4.2.1). शौच :: शरीर व मन की शुद्धि को शौच कहा जाता है। स्नान, वस्त्र, खान-पान आदि से शरीर को स्वच्छ रखा जाता है। विद्या, ज्ञान, सत्संग, संयम, धर्म आदि और धनोपार्जन को पवित्र रखने के उपायों से मन की शुद्धि होती है। मन की शुद्धि शरीर की शुद्धि से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
(4.2.2). संतोष :: अपनी योग्यता व अधिकार के अनुरूप अपनी शक्ति, सामर्थ्य, ज्ञान-विज्ञान तथा उपलब्ध साधनों द्वारा पूर्ण पुरूषार्थ करने से प्राप्त फल में प्रसन्न रहने को संतोष कहते हैं।
(4.2.3). तप :: जीवन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हानि-लाभ, सुख-दु:ख, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को शान्ति व धैर्य से सहन करने को तप कहते हैं।
(4.2.4). स्वाध्याय :: मोक्ष शास्त्र का अनुशलीन या प्रणव का जप; भौतिक-विद्या व आध्यात्मिक-विद्या दोनों का अध्ययन करना स्वाध्याय है। मात्र भौतिक या केवल आध्यात्मिक विद्या से कोई भी लक्ष्य को पूरा नहीं हो सकता। अत: दोनों में समन्वय आवश्यक है।
वेद ज्ञान, विज्ञान, अध्यात्म, जीवन मूल्यों के आधार हैं। वेद, इतिहास, पुराण, उपनिषद, गीता, महा भारत, रामायण आदि का अध्ययन, चिंतन, मनन, ध्यान स्वाध्याय है। व्याकरण, निरुक्त, दर्शन शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ आदि का अध्ययन भी स्वाध्याय हैं। स्वाध्याय गुरु के अभाव में अति आवश्यक है। स्वाध्याय के पश्चात जातक को प्राप्त ज्ञान-विज्ञान को समझना और जीवन में उपयोग भी करना चाहिए।
(4.2.5). ईश्वर प्रणिधान :: ईश्वर में भक्तिपूर्वक सब कर्मों का समर्पण करना और उसमें अटूट-अडिग विश्वास।
ईश्वरीय आज्ञायों को जानना और मानना भी चाहिये। मन, वाणी, सोच व कर्मों को ईश्वर के अनुरूप ढ़ालना चाहिये। कर्म करते हुए उसके अनुरूप फल को ईश्वर के आधीन समझना चाहिये। श्रीमदभगवद् गीता में वर्णित निष्काम भाव से कर्म करना चाहिये।
(4.3). आसन :: आसन से तात्पर्य है स्थिर और सुख देने वाले बैठने के प्रकार-"स्थिर सुखमासनम्" जो देहस्थिरता की साधना है। यह शरीरिक नियंत्रण द्वारा शरीर को साधने का तरीका है। जिस शारीरिक मुद्रा में स्थिरता के साथ लम्बे समय तक सुख पूर्वक बैठा जा सके उसे आसन कहा गया है। शरीर की स्थिति, अवस्था व सामर्थ्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न-भिन्न आसनों का प्रयोग किया जाता है। सामान्यतया व्यक्ति को सुखासन का प्रयोग करना चाहिए।
(4.4). प्राणायाम :: आसन जप होने पर श्वास प्रश्वास की गति के विच्छेद का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का लेना श्वास और भीतरी वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। प्राणायाम प्राणस्थैर्य की साधना है। इसके अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है और साधक अपने मन की स्थिरता के लिए अग्रसर होता है। अंतिम तीनों अंग मन:स्थैर्य का साधना है। प्राणस्थैर्य और मन:स्थैर्य की मध्यवर्ती साधना का नाम प्रत्याहार है।
प्राणायाम से ज्ञान को आच्छादित रखने वाला अज्ञान नष्ट होता है। ज्ञान के उत्कृष्टतम स्तर से वैराग्य उपजता है। कपाल-भाटी, अनुलोम-विलोम प्राणायाम के अन्तर्गत श्वसन क्रियायें हैं। ये क्रियायें मनुष्य को अनेकों रोगों से बचा सकने में सक्षम हैं। यह आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है।
(4.5). प्रत्याहार :: प्राणायाम द्वारा प्राण के अपेक्षाकृत शाँत होने पर मन का बहिर्मुख भाव स्वभावत: कम हो जाता है। फलस्वरूप इन्द्रियाँ अपने बाहरी विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती हैं। इसी का नाम प्रत्याहार है (प्रति = प्रति कूल, आहार = वृत्ति)। आँख, कान, नासिका आदि दसों इन्द्रियों को संसार के विषयों से हटाकर मन के साथ-साथ, इन्द्रियों पर संयम रखना ही प्रत्याहार है।
(4.6). धारणा :: अपने मन को अपनी इच्छा से अपने ही शरीर के अन्दर किसी एक स्थान में बाँधने, रोकने या टिका देने को धारणा कहते हैं। मन की बहिर्मुखी गति का निरुद्ध होना और अंतर्मुख होकर स्थिर होने की चेष्टा की आरंभिक दशा का नाम धारणा है।
"देशबन्धश्चितस्य धारणा"
देह के किसी अंग जैसे हृदय में, नासिका के अग्रभाग पर अथवा बाह्य पदार्थ-जैसे इष्ट देवता की मूर्ति-चित्र आदि पर चित्त को लगाना धारणा है। [योगसूत्र 3.1]
(4.7). ध्यान :: ध्यान धारणा से आगे की अवस्था है। जब उस देश विशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से प्रवाहित होता है, तब उसे ध्यान कहते हैं। धारणा और ध्यान दोनों दशाओं में वृत्ति प्रवाह विद्यमान रहता है, परन्तु अन्तर यह है कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी उदय होता है। ध्यान में सदृशवृत्ति का ही प्रवाह रहता है, विसदृश का नहीं।
नश्वर से हटकर अनश्वर का चिन्तन ध्यान है। ईश्वर के गुणों का चिन्तन करते हुए परमानन्द का अनुभव-अनुभूति ध्यान है। प्रभु की पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम व तन्मयता से चिन्तन ध्यान है। इस अवस्था में साधक विचार शून्य होकर मन-मस्तिष्क को परमात्मा में केन्द्रित करता है।
(4.8). समाधि :: ध्यान करते-करते जब परोक्ष वस्तु का प्रत्यक्ष-दर्शन होता है, उस प्रत्यक्ष को ही समाधि कहते हैं। समाधि की अवस्था में जीवात्मा में ईश्वर के सभी गुण प्रतिबिंम्बित होने लगते हैं। जीवात्मा का मात्र एक प्रयोजन मुक्ति प्राप्ति है और योगी इस प्रयोजन को समाधि से पूर्ण करता है।
ध्यान की परिपक्वावस्था का नाम ही समाधि है। चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित होता है, अपना स्वरूप शून्यवत् हो जाता है और एकमात्र आलंबन ही प्रकाशित होता है। यही समाधि की दशा कहलाती है।
धारणा, ध्यान और समाधि का सामूहिक नाम संयम है। जिसके जीतने का फल है विवेक ख्याति का आलोक या प्रकाश। समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है।
(5). अन्य मार्ग OTHER FACULTIES FOR MOKSH ::
(5.1). शम TRANQUILITY :: मन को संसार से रोकना शम है। बुद्धि का परमात्मा में लग जाना। बुद्धि की निर्मलता। मन को जहाँ लगाना हो लग जाये और जहाँ से हटाना हो वहाँ से हट जाये। निन्दा, पराजय, आक्षेप, हिंसा, बन्धन और वध को तथा दूसरों के क्रोध से उत्पन्न होने वाले दोषों को सह लेना। Enlightenment-dedication of all faculties-intellect in the divinity through absence of passions-peace of mind, quiet, rest. Channelize all of one's efforts, energy, power to assimilate in the Eternal-Ultimate. Intentional cultivating an inner attitude of tranquillity, peace of mind or contentment is a foundation on which the other practices can rest.
(5.2). दम TRAINING, DISCIPLINE :: बाह्य इन्द्रियों को रोकना दम है। इंद्रियों को वश में रखना-संयम दम है। शरीर की उपरामता। Training of the senses (इन्द्रिय संयम) means the responsible use of the senses in positive, useful directions, both in our actions in the world and the nature of inner thoughts we cultivate. Controlling sense organs, sensuality, lust, passions. Restraint of the senses, sensuality, passions-mortification-subduing feelings.
(5.3). धैर्य ENDURANCE-PATIENCE :: सहन-शक्ति, जिव्हा व जननेद्रिय पर विजय, धैर्य है। Bearing of sorrow-pains by virtue of justice. (Guts, stamina, durability, hardiness, fortitude, toleration, forbearance). Control-Victory over tongue and genitals (vagina, pennies).
(5.4). तितिक्षा FORBEARANCE :: न्याय से प्राप्त दुःख को सहने का नाम तितिक्षा है। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान अपमान को शरीर धर्म मानकर सरलता से सह लेना तितीक्षा है। Forbearance and tolerance of external situations allows one to be free from the onslaught of the sensory stimuli and pressures from others to participate in actions, speech or thoughts, that one knows to be going in a not useful, evil, wicked direction.
(5.5). दान* DONATION :: किसी से द्रोह न करना, सबको अभय देना दान है। Not to cheat-deceive anyone and grant of protection-safety.
(5.6). शूरता BRAVERY :: अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त करना। Win-over power-control each and every kind of lust-instincts.
(5.7). श्रत CONSOLE :: प्रिय, सत्य व मधुर भाषण ही श्रत है। Speaking the truth and pleasant-speech that consoles-soothes the listener.
(5.8). श्रुत VALOUR :: इच्छाओं, आकाँक्षाओं, विषय-वासनाओं का शमन।Conquering passions, sensuality, lasciviousness, desires.
(5.9). सन्यास RETIREMENT :: कामनाओं का त्याग। Renunciation, Rejection, relinquishing of the world, all needs, desires, wants. Renunciation of desires-detachment.
(5.10). धन WEALTH :: धर्म ही मनुष्यों का अभीष्ट धन है। Religiosity, piousity, righteousness is true-intended, for humans. Religion, pious, virtuous, righteous, honest, duties intended, for humans-society is the only religion.
(5.11). धर्म RELIGION :: पवित्र कार्य करना, कर्तव्य का निर्वाह ही धर्म है। Pious, virtuous, righteous duties constitute religion
(5.12). दक्षिणा GRANTS-FEES :: ज्ञान का उपदेश। Preaching, advising, Blessing with enlightenment, knowledge, eternal truth.
(5.13). प्राणायाम PRANAYAM-YOG :: प्राणायाम ही श्रेष्ठ बल है। Pranayam-Yog is the Ultimate strength. It generates-provides great strength force.
(5.14). भग VULVA :: The divine-superhuman power of God.परमात्मा का ऎश्वर्य है। Only wealth-luxury is the attainment of the Almighty.
(5.15). लाभ GAIN-ADVANTAGE :: परमात्मा श्रेष्ठ भक्ति की ही लाभ है। Great devotion-subjecting one, to the dictates of God, is excellent form of Bhakti-devotion. Devotion to the Ultimate-God is the only gain-profit, attained through this perishable body.
(5.16). भक्ति DEVOTION :: ईश्वर की शरणागति ही भक्ति है। Great devotion-subjecting one, to the dictates of God, is excellent form of Bhakti-devotion.
(5.17). ज्ञान ENLIGHTENMENT :: जिस विद्या से षड्विध ऐश्वर्य युक्त परम देवता साक्षात भगवान् हृषिकेश का ज्ञान होता है। वेद, शास्त्र, इतिहास, पुराण का अध्ययन, बोध, कर्तव्य-अकर्तव्य की समझ। विज्ञान-यज्ञ के विधि-विधान, अवसर, अनुष्ठान का उचित-समयानुसार प्रयोग। The learning which evolves the gist, nectar, elixir, understanding, knowledge pertaining to the God-Almighty.
(5.18). विद्या EDUCATION-LEARNING :: सच्ची विद्या वही है, जिससे परमात्मा और आत्मा का भेद मिट जाता है। The real learning is one which clears the difference between the soul and the Almighty. It eliminates the distinctions between the Brahm and Soul (Jeev-organism), difference between the divine and the soul disappears.
(5.19). विज्ञान SCIENCE :: छहों अंग, चारों वेद, मीमांसा, विस्तृत न्याय शास्त्र, पुराण और धर्म शास्त्र। धर्म की वृद्धि, विधि पूर्वक विद्याद्ययन करके धन का उपार्जनकर धर्म-कार्य का अनुष्ठान। Acquisition of knowledge pertaining to scriptures-Dharm Shastr, Veds, Almighty is science.
(5.20). श्री BEAUTY :: धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, श्री कहलाते हैं। निरपेक्षता आदि गुण ही शरीर का सच्चा सौन्दर्य-श्री है।True-real neutrality, absolute form. Neutrality is the real beauty. Shri means aura, diffusion light-radiance.
(5.21). सुख PLEASURE :: सुख व दुःख दोनों की भावना का सदा के लिये नष्ट हो जाना सुख है। Equanimity between pleasure and pain (comforts and sorrow) is real-true pleasure. The vanishing of the feeling of pain and pleasure is the real happiness.
(5.22). दुःख GRIEF :: विषय भोगों की कामना ही दुःख है। Desire of pleasure, passions, sensuality is real worry-pain.
Equanimity between pleasure and pain (comforts and sorrow) is real-true pleasure.
(5.23). पंडित LEARNED-SCHOLAR :: जो बंधन और मोक्ष का तत्व जनता है, वही पंडित है। One who understands the gist of attachment and Salvation is the Philosopher, Pandit, Scholar. Pandit, scholar, philosopher knows-understands the gist, extract, nectar, elixir of attachment and Salvation.
(5.24). मूर्ख STUPID :: शरीर आदि में जिसका मैं पन-अपना पन-लगाव है, वही मूर्ख है। One attached with the body, (does not think beyond the current birth, life after death and improvement of the next births). One suffering from the feeling of I, My, Me, Egotism is the real imprudent, Idiot, fool.
(5.25). सुमार्ग AUSPICIOUS COMPANY :: जो संसार की ओर से निव्रत्त करके परमात्मा की प्राप्ति करा देता, है वही सच्चा सुमार्ग है। The path which detaches the creature-organism from the world and connects-attaches with the Almighty. The path which leads to detachment and relinquishing this world is the right-correct path-way.
(5.26). कुमार्ग EVIL COMPANY :: चित्त की वहिर्मुखता ही कुमार्ग है। Misled, Bad Company, Indecent path which lures one, towards the world (rejection of the devil, bad company, wicked-wretched-evil).
(5.27). स्वर्ग HEAVEN :: सत्व गुण की वृद्धि ही स्वर्ग है। Increase-enhancement of Satv Gun-divinity.
(5.28). नरक HELL :: तमो गुण की वृद्धि ही नरक है।Increase of Tamsik-Demonic property, traits, character.
(5.29). बंधु RELATIVE :: गुरु-परमात्मा ही सच्चा भाई बंधु है।(Brother, friend, associate) True guide, preacher, master, The God.
(5.30). घर HOME-HOUSE :: Human body is the true home.मनुष्य शरीर ही सच्चा घर है।
(5.31). धनी RICH WEALTHY :: सच्चा धनी वह है, जो गुणों से सम्पन्न है, जिसके पास गुणों का खजाना है।Endowed with the goodness-Satvik Gun-properties-characterises.
(5.32). दरिद्र POOR :: जिसके चित्त में असंतोष है,अभाव का बोध है, वही दरिद्र है।Discontent-dissatisfaction in mind, feeling of scarcity.
(5.33). कृपण MISER-STOIC :: No control over his senses, working, habits.जो जितेन्द्रिय नहीं है,वही कृपण है। जो जितेन्द्रिय नहीं है,वही कृपण है।
(5.34). ईश्वर GOD :: Competence, independence and is Godliness-mind does not indulge in worldly pleasures, sensualities, passions.समर्थ, स्वतंत्र और ईश्वर वह है, जिसकी चित्त वृति विषयों में आसक्त नहीं है।
(5.35). असमर्थ INCAPABLE :: Unable Enamoured in subjects-utterly incapable-incompetent-unable. जो विषयों में आसक्त है, वही सर्वथा असमर्थ है।
(5.36). उप्रति WITHDRAWAL :: ईश्वर की शरणागति ही उप्रति है। With a proper inner attitude of tranquillity and the training of the senses, satiety, natural sense of completeness, one should not seek sensory experiences. Saturation, satisfaction may also provide an outlet to safely move to the shelter, asylum, protection of the Almighty.
(5.37). समाधान SOLUTION :: रोके हुए मन को आत्म चिन्तन में लगाना समाधान है। Resolute focus towards harmonising and balancing of mind, its thoughts and emotions, along with the other virtues, brings a freedom to pursue the depth of inner exploration and realisation.
(5.38). सदा आत्म चिन्तन MEDITATION :: अक्षर-अविनाशी पद को अध्यात्म समझना-जहाँ जाकर मनुष्य शोक में नहीं पड़ता।
(5.39). आर्जवन :: शरीर, मन, वाणी व्यवहार, छल, कपट, छिपाव, दुर्भाव शून्य हों।आस्तिकता-परमात्मा, वेद, शास्त्र, परलोक आदि में आस्था-विश्वास, सच्ची श्रद्धा और उनके अनुसार ही आचरण।
Understanding of these tenants is helpful in Salvation, Liberation, Assimilation in God-Moksh.
इनको समझ लेना ही मोक्ष मार्ग के लिए सहायक है।
गुणों और दोषों पर द्रष्टि जाना ही सबसे सबसे बड़ा दोष है।
गुण दोषों पर द्रष्टि नहीं जाना, अपने निसंकल्प स्वरूप में स्थित रहना ही सबसे बड़ा गुण है।
मनु स्मृति ::
मनु स्मृति ::
चतुर्भिरपि चैवैतैर्नित्यमाश्रमिभिर्द्विजैः।
दशलक्षणको धर्मः सेवितव्यः प्रयत्नतः॥
इन ब्रह्मचारी और चारों आश्रमी द्विजों को सदा यत्नपूर्वक दश विध धर्मों का सेवन करना चाहिये।[मनु स्मृति 6.91]
The Brahmn undergoing the four stages of life along with the first i.e., the celibate; should adopt to the ten rules practices describes here.
in fact any one any where, belonging to any faith should follow these tenets to reach the Ultimate abode.
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
संतोष, क्षमा, मन को दबाना, अन्याय से किसी की वस्तु को न लेना, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियों का निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, क्रोध न करना; ये धर्म के दस लक्षण हैं।[मनु स्मृति 6.92]
Contentment, forgiveness, suppression of mind-self control, abstention from unrighteous appropriating anything (not to snatch, loot, belongings of others), purity-cleaning of the body, coercion of the organs (sensuality, sex, lust), wisdom-prudence, knowledge (learning, enlightenment, Tatv Gyan-Gist of the Supreme Soul), truthfulness and abstention from anger, form the ten tenets, rules for an auspicious life.
दश लक्षणानि धर्मस्य ये विप्राः समधीयते।
अधीत्य चानुवर्तन्ते ते यान्ति परमां गतिम्॥
जो ब्राह्मण इन दस विध धर्मों को समझने का यत्न करते हैं और समझकर उनका अनुष्ठान करते हैं, उनको परम् गति प्राप्त होती है।[मनु स्मृति 6.93]
The Brahmn (in fact any human being) who understand these rules and follow them in day to day life, gets the Ultimate abode.
दशलक्षणकं धर्ममनुतिष्ठन्समाहितः।
वेदान्तं विधिवत्श्रुत्वा संन्यसेदनृणो द्विजः॥
एकाग्र चित्त होकर दस-विध धर्मों का अनुष्ठान करता हुआ, विधिपूर्वक वेदान्त सुनकर ऋणमुक्त द्विज संन्यास ग्रहण करे।[मनु स्मृति 6.94]
The Brahmn should follow these tenets of the Gist of the Veds-Vedant, get rid of all loans-debts (pertaining to father, mother and the demigods-deities) prescribed by the Ved-scriptures & adopt himself to the life of a hermit (ascetic, recluse, wanderer).
संन्यस्य सर्वकर्माणि कर्मदोषानपानुदन्।
नियतो वेदमभ्यस्य पुत्रैश्वर्ये सुखं वसेत्॥
सब कर्मों को छोड़कर, प्राणायाम आदि द्वारा कर्मदोषों का भी नाश करता हुआ नियत चित्त से उपनिषदों का अभ्यास कर, अपने भोजनादि का भार पुत्र को सौंपकर, आप निश्चिन्त हो सुख से घर पर रहे; (यह वेद सन्यास है)।[मनु स्मृति 6.95]
The Brahman should relieve himself from all duties-responsibilities-acts, perform Pranayam to vanish all impurities-defects, penetrating into the Upnishad (Veds, scriptures, Purans, Itihas etc.,) handover the responsibility of his food, shelter etc to his son and live with comfort in his house.
This is an alternative form of Yog (ascetic practice) for the Salvation seeker. The author has adopted himself to this life style but still keep writing these texts pertaining to the Almighty for the benefit of the masses. Let the Almighty bless the readers with prudence, love & devotion to the God.
एवं संन्यस्य कर्माणि स्वकार्यपरमोऽस्पृहः।
संन्यासेनापहत्यैनः प्राप्नोति परमां गतिम्॥
इस प्रकार कर्मों को त्यागकर, विषय-वासना से रहित हो, आत्मज्ञान के साधन में लगा पुरुष संन्यास के द्वारा पापों का नाश करके परमगति (मोक्ष) पाता है।[मनु स्मृति 6.96]
In this manner one attains the Ultimate abode of the Almighty from which return is not possible to any incarnation, destroying all of his sins, misdeeds, mal functions, guilt.
One is trying, practicing and striving for the Ultimate under HIS patronage without clamouring the result. But being selfish, wish to have the love & affection added with Ultimate devotion to HIM. Its immaterial whether it take millions or infinite births but desire to remain aloof from sins.
मोक्ष स्थली गया :: मोक्ष स्थली गयाबिहार की राजधानी पटना से करीब 104 किलोमीटर की दूरी है। देश-विदेश से लाखों हिंदु धर्माम्बली अपने परिवार के मृत व्यकित की आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना से श्राद्ध, तर्पण और पिण्डदान करने के लिए आते हैं। गयासुर नामक राक्षस को उसकी तपस्या के कारण वरदान मिला था कि जो भी उसे देखेगा या उसका स्पर्श करगे उसे यमलोक नहीं जाना पड़ेगा।ऐसा व्यक्ति सीधे विष्णुलोक जाएगा। इस वरदान के कारण यमलोक सूना होने लगा।
प्रेत शिला |
इससे परेशान होकर यमराज ने जब ब्रह्मा जी, विष्णु और शिव से यह कहा कि गयासुर के कारण अब पापी व्यक्ति भी बैकुंठ जाने लगा हैं, इसलिए कोई उपाय कीजिए। यमराज की स्थिति को समझते हुए ब्रह्मा जी ने गयासुर से कहा कि तुम परम पवित्र हो इसलिए देवता चाहते हैं कि हम तुम्हारी पीठ पर यज्ञ करें।
गयासुर इसके लिए तैयार हो गया। गयासुर के पीठ पर सभी देवता और गदा धारण कर विष्णु स्थित हो गए। गयासुर के शरीर को स्थिर करने के लिए इसकी पीठ पर एक बड़ी भारी शिला भी रखी गई। यह शिला प्रेत शिला कहलाती है।
गयासुर के इस समर्पण से विष्णु भगवान ने वरदान दिया कि अब से यह स्थान जहां तुम्हारे शरीर पर यज्ञ हुआ है वह गया के नाम से जाना जाएगा। यहां पर पिंडदान और श्राद्ध करने वाले को पुण्य और पिंडदान प्राप्त करने वाले को मुक्ति मिल जाएगी। यहां आकर आत्मा को भटकना नहीं पड़ेगा।
*DONATION CHARITY दान :: Giving alms, food, shelter, asylum, protection-safety, financial help to the needy-one who deserve.
आठ महादान ::
तिलं लौहं हिरण्यञ्च कार्पासं लवणं तथा।
सप्तधान्यं क्षितिर्गाव एकैकं पावनं स्मृतम्॥
तिल, लोहा, सुवर्ण, कपास, लवण, सप्तधान, भूमि तथा गोदान, ये आठ महादान हैं।[गरुड़ पुराण 2.4.39]
शक्तः परजने दाता स्वजने दुःखवजीविनि।
मध्वापातो विषास्वादः स धर्मप्रतिरूपकः॥
जो दाता (दान देने वाला) अपने आत्मीयों को दुःखी देखता हुए भी; दूसरों को दान देता है, वह दान धर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं जानता। मधु के सदृश दिखने पर भी परिणाम में यह विष समान होता है।[मनु स्मृति 11.9]
The donor who donate money, prefer charity ignoring his near & dear undergoing trouble, pain, sorrow for lack money, is ignorant and do not know the gist of donation. The out come of any Yagy in such a state, though appears to be like nectar-elixir, but in reality, it is like poison in yield.
Charity begins at home. One should move from family to neighbourhood followed by village, state, country & the international boundaries respectively. Ensure that donated money never passes on to non deserving, drunkards, sinners, terror mongers.
दान का पात्र :: पुराण वेत्ता पुरुष दान का सर्व श्रेष्ठ पात्र है। वह पतन से त्राण करता है, इसलिए पात्र है। ब्राह्मण शांत होने के साथ ही विशेषतः क्रियावान् हो। इतिहास-पुराणों का ज्ञाता, धर्मज्ञ, मृदुल स्वभाव का पितृ भक्त, गुरुसेवा परायण तथा देवता-ब्राह्मणों का पूजन करने वाला हो। वो गुणवान, जितेन्द्रिय, तपस्वी हो। जो ब्राह्मण श्रोतिय, कुलीन, दरिद्र, संतुष्ट, विनयी, वेदा भ्यासी, तपस्वी, ज्ञानी और इन्द्रिय संयमी हो उसे ही दिया गया दान अक्षय होता है।
अन्न दान :: अन्न के समान न कोई दान है, न होगा। कल्याण की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को उचित है कि वह अपने कुटुम्ब को कष्ट देकर भी महात्मा ब्राह्मण को दान अवश्य दे। थके मांदे अपरिचित राहगीर को जो बिना क्लेश अन्न (भोजन) देता है, वो सब धर्मों का फल प्राप्त कर लेता है। अन्न से देवता, पितर, ब्राह्मण और राहगीर को तृप्त करने वाला, अक्षय पुण्य प्राप्त करता है। अन्न दान पाप से मुक्ति दिलाता है। ब्राह्मण को दिया अन्न दान अक्षय और शुद्र को दिया गया दान महान् फल दायक है।
जल दान :: बावली, कुआँ और पोखरा बनवाना चाहिये। जिसके बनवाये गये जलाशय से गौ, ब्राह्मण और साधु पुरुष पानी पीते हैं, उसका कुल तर जाता है।पोखरा बनवाने वाला, तीनों लोक में सम्मानित होता है। मनुष्य, गन्धर्व, पितर, नाग, राक्षस तथा स्थावर प्राणी भी जलाशय का सहारा लेते हैं।जिसके पोखरे में वर्षा ऋतु में ही जल रहता है, उसे अग्निलोक का फल मिलता है। जिसके तालाब में हेमन्त और शिशिर काल तक जल ठहरता है, उसे सहस्त्र गौ दान का फल मिलता है। वसन्त और ग्रीष्म ऋतु तक पानी ठहरने पर मनीषी पुरुष अतिरात्रि और अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त करता है। जिसके पोखरे में गर्मी तक पानी ठहरता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम संकट का सामना नहीं करता।
वृक्ष लगाना :: वृक्ष लगाने वाला अपने पितर और वंशजों का भी उद्धार कर देता है और अक्षय लोकों को प्राप्त करता है। वृक्ष अपने फूलों से देवताओं, पत्तों से पितरों, छाया से समस्त अथितियों का पूजन करते है। किन्नर, राक्षस, मानव, देवता, ऋषि, यक्ष तथा गन्धर्व भी वृक्षों का आश्रय लेते हैं। वृक्ष फल और फूल से युक्त होकर इस लोक में मनुष्यों को तृप्त करते हैं। वे इस लोक और परलोक में भी पुत्रवत माने गये हैं।
पशु दान :: जो श्रेष्ठ पात्र को गौ, भैंस, हाथी, घोड़े दान देता है, वो अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है।
धन व वस्त्र दान :: जो व्यक्ति सुपात्र को धन, सुवर्ण, धान्य, वस्त्र दान करता है, वो परम गति को प्राप्त करता है।
अति दान :: गौ दान, भूमि दान व विद्या दान अति दान कहलाते हैं।
भूमि दान :: जो व्यक्ति सुपात्र को जोती-बोई एवं फलों से भरी हुई भूमि दान करता है, वो अपनी दस पीढ़ी पहले के पूर्वजों व दस पीढ़ी बाद के वंशजों को तार देता है और विमान में बैठ कर विष्णु लोक जाता है।
कन्यादान :: इस दान को महादान माना जाता है। कन्यादाता को राजा वरुण की उपाधि दी गई है। वर साक्षात् नारायण है और वधु साक्षात् लक्ष्मी। भगवान् को लक्ष्मी देकर जिस पुण्य का अर्जन होता है, वही कन्यादाता को प्राप्त होता है।
दीप दान :: दीप दान करने से मनुष्य सौभाग्य, अत्यन्त निर्मल विद्या, आरोग्य, परम उत्तम समृद्धि के साथ-साथ सौभाग्यवती पत्नी, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र तथा अक्षय सम्पत्ति पाता है। ब्राह्मण ज्ञान, क्षत्रिय उत्तम राज्य, वैश्य धन और पशु तथा शुद्र सुख की प्राप्ति करता है। कुमारी कन्या को शुभ लक्षणों से युक्त पति, पुत्र-पौत्र तथा बड़ी आयु मिलती है और कभी वैधव्य नहीं देखना पड़ता। स्वामी से वियोग नहीं होता। भयभीत परुष भय से तथा कैदी बंधन मुक्त हो जाता है। दीपदान ब्रह्म हत्या, मानसिक चितां तथा रोगों से भी मुक्ति दिलाता है। दीप का प्रकाश दान करने से मनुष्य रूपवान् होता है और दक्षिणा देने से स्मरणशक्ति तथा मेधा (धारणा शक्ति) प्राप्त होता है।
जो लोग मंदिर के दिए में सदा ही यथाशक्ति तेल और बत्ती डालते हैं, वे परम धाम को जाते हैं। जो व्यक्ति स्वयं असमर्थ होते हुए बुझते या बुझे हुए दिए की सूचना देते हैं, वे भी परमधाम के अधिकारी होते हैं। यदि कोई भीख मांगकर भी भगवान् विष्णु के सम्मुख दिया जलाता है, तो वो भी पुण्य का भागीदार हो जाता है। दीपक जलाते समय यदि कोई नीच पुरुष भी श्रद्धा से हाथ जोड़कर उसे निहारता है, तो वो भी विष्णुधाम को जाता है। दूसरों को भगवान् के सम्मुख दिया जलाने की सलाह देने वाला भी सब पापों से मुक्त हो श्री धाम प्राप्त करता है। अतः मनुष्य को यथा सम्भव भगवान् के सम्मुख या मार्ग में राहियों कि सुविधा के लिए दिया अवश्य जलाना चाहिए।[पद्मपुराण]
जो सदा सत्य बोलते हैं, पोखरे के किनारे वृक्ष लगा ते हैं, यज्ञानुष्ठान करते हैं, वे कभी स्वर्ग से भ्रष्ट नहीं होते।
पात्रस्य हि विशेषेण श्रद्दधानतयैव च।
अल्पं वा बहु वा प्रेत्य दानस्य फलमश्नुते॥
पात्र की विशेषता और श्रद्धा के तारतम्य से दान का फल परलोक में थोड़ा या बहुत अवश्य मिलता है।[मनु स्मृति 7.86]
One gets the return of his donations in next births depending upon the faith-devotion of the donor and the recipient and their mutual understanding.
सात्विक दान ::
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥
दान देना कर्तव्य है-ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर अनुकारी को अर्थात निष्काम भाव से दिया जाता है, वह दान सात्विक कहा गया है।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.20]
Satvik-pious donation is one which has been made without the desire for returns, made as a matter of duty, to a deserving person, at the right time-occasion & place.
प्रत्येक मनुष्य को अपनी सात्विक, गाढ़े खून-पसीने की मेहनत की कमाई का छठा भाग दान-धर्म के निमित्त निकाल देना चाहिये। इसे प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्तव्य समझना चाहिये। दान के बदले में परमात्मा या किसी अन्य से कोई लाभ या प्रत्युपकार की भावना नहीं होनी चाहिये। दान का महत्व देश, स्थान, तीर्थ, अवसर से बढ़ जाता है। दान लेने वाले की पात्रता मुख्य चीज है। वेदपाठी ब्राह्मण, सदगुणी-सदाचारी भिक्षुक या कोई भी सुपात्र-व्यक्ति जिसे सहायता की आवश्यकता है, उपयुक्त है। आजकल जिस प्रकार अंधाधुंध दान की रकम संस्थाओं के नाम पर वसूलकर, आतंकियों, धर्म परिवर्तन करने वालों, व्याभिचारियों को दी जा रही है, वो सिवाय दुःख-पाप के कुछ और नहीं देती। भारत में ही लाखों की तादाद में ऐसे लोग हैं, जो देश-विदेश से दान प्राप्तकर मौज-मस्ती में उड़ा रहे हैं। जिस प्रकार दान का फल दस गुना होता है, उसी प्रकार निकृष्ट और अनुपयुक्त व्यक्ति को दिया गया दान दस गुना पाप उत्पन्न करता है। दान केवल और केवल ईमान की कमाई का फलता है। मन्दिर को प्राप्त हुई दान की राशि को तुरन्त समाज कल्याण में लगा देना चाहिये, अन्यथा गजनी, मुसलमान और अँग्रजों जैसे लुटेरों का खतरा बना ही रहता है। मन्दिर के धन को जो लोग व्यक्तिगत उपयोग में लाते हैं, उनकी सदगति नहीं होती।
The scriptures have clearly mentioned that everyone should set aside one sixth of his pious earnings for the sake of donations-charity to the deserving, disabled, needy or one in difficulty, downtrodden, poor. The Shastr advocates donations to the learned Brahmns, scholars, Pandits and the students getting education in Ashrams, Guru Kuls, which do not have any source of earnings. The society should take care of the insane, widows, disabled, fragile-sick, aged. India has traditionally saw the farmers, the rich, the traders, the kings extending help to the poor, down trodden and the lower segments of the society. One remembers his grandfather who did not carry grain to home, until-unless the wheat was distributed amongest the regular workers, poor and the needy. Huge sums of money are pouring into non deserving hands in India, now a days. The money is used for conversion to Islam or Christianity. Most of the receivers are enjoying with this money. A lot of money is falling into the hands of separatists-terrorists. Money received by Pakistan from America is utilised for terrorist activities. Wahabis are using ill gotten money to spread unrest in Kashmir. Paupers in Kashmir involved in anti national activities, have become multimillionaires with such funds. Their own children are studying in Europe & America, but the poor for whom the transactions were made are still living in extreme poverty. The temples should immediately utilise this money for social cause and upliftment of poor. Their is always the danger of invaders like Ghajni, Muslims and the Britishers who did not spare even the temples. One finds that the Pujaries-Priests of a famous temple (Kalka Devi) in Delhi use the donations entirely for their person use. The scriptures clearly mention that such people will definitely move to lower species like dogs, in their next birth. Donations made at pilgrim sites, holy rivers-reservoirs on auspicious dates and specific places like Haridwar, Kashi, Dwarka, Rameshwaram, Maha Kal-Ujjain, Tri Veni Sangam Allahabad (Pryag Raj), Nasik, Badri Nath etc. are more rewarding. However, one must not donate with the desire for returns. The donations with pious, honest money provides ten times benefits. Donations made with ill gotten money generate ten times sins and the person moves to undefined hells for millions of years.
Gurudwaras abroad and Mosques-Madarsas within the country are busy sowing the seeds of discord-hatred for other communities, specifically Hindus. They collect billions as donation and pass over for terrorist activities in India. Their sole aim is power.
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥
तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिये-निमित्त ही सब कुछ है; ऐसा मानकर मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों द्वारा फल की इच्छा से रहित होकर, अनेक प्रकार के यज्ञ और तप रुप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ की जाती हैं।[श्रीमद्भागवत गीता 17.25]
Those who want freedom from reincarnation-salvation, perform various Yagy-sacrifices, ascetic practices and donations, charity, austerity for the sake of the God, who is addressed as Tat, without the desire of any reward.
जो भी शास्त्र सम्मत योग, यज्ञ, हवन, तप, दान, तीर्थ, व्रत, स्वाध्याय, ध्यान, समाधि, शुभ कर्म आदि क्रियाएँ परमात्मा की प्रसन्नता लिये की जायें, उनमें फल की इच्छा किञ्चित मात्र भी नहीं होनी चाहिये, क्योंकि वे अपने लिये नहीं हैं। जिन साधनों से ये क्रियाएँ की जाती हैं; वे शरीर, इन्द्रियाँ अन्तःकरण परमात्मा के ही हैं। कुटुम्ब, घर, मकान, सम्पत्ति भी परमात्मा का ही दिया हुआ है। समझ-ज्ञान, बुद्धि, सामर्थ्य स्वयं मनुष्य भी परमात्मा का ही है। इस भाव को लेकर समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये। प्रत्येक कर्म-क्रिया शुभ-अशुभ, निहित-विहित, निषिद्ध तथा कर्म फल का प्रारम्भ और समाप्ति भी होती है। अतः उसकी इच्छा कतई नहीं होनी चाहिये। परमात्मा की सत्ता नित्य-निरन्तर है, अतः मनुष्य को उसकी स्मृति रहनी ही चाहिये। जो संसार प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है, उसका तो निराकरण करना ही है तथा जो अप्रत्यक्ष है, उस तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का अनुभव भी करना है, जो नित्य-निरन्तर है। परमात्मा के भक्त राम, कृष्ण, गोविन्द, नारायण, वासुदेव, शिव आदि का सम्बोधन उस तत् स्वरूप भगवान् के लिये करके, समस्त क्रियाएँ शुरू करते हैं। तत्त शब्द (वह, उस) अलौकिक परमात्मा के लिये ही आया है, जो कि श्रद्धा-विश्वास का विषय है, विचार का नहीं।
Tat (HE, THAT) has been used for the Almighty. Existence of God is a matter of faith not of argument, logic or discussion. HE is eternal-divine, beyond the limits of the human intelligence, vision or thought. All prayers start by remembering HIM as Ram, Krashn, Hari, Govind, Shiv, Vasudev, Narayan etc. by the devotees or simply God, Allah, Khuda, Rab, Bhagwan etc. Whatever pious, virtuous, righteous deed-endeavour is there, should be undertaken, for HIS happiness, pleasing HIM. Sacrifices in Holy fire, Yagy, Hawan, ascetic practices, Pilgrimage, bathing in Holy river-reservoirs are meant for HIS happiness, since HE has created the man. The tools of offerings, donations, wealth, body, organs, belongs to HIM. The man his intelligence, body, thoughts, family, property, strength, capability, power are created by HIM and thus belongs to HIM, only. All deeds, habitual or compulsory, pious or evil, begins and terminates but the Almighty remains as such without any change-modification, before, after and now. One should feel HIS presence everywhere, in each & every particle, action-activity.
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥
यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अत्यावश्यक-जरूरी कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप, ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों-मनीषियों को पवित्र करने वाले हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 18.5]
नित्य, नैमित्तिक, जीविका सम्बन्धी, शरीर सम्बन्धी आदि जितने भी कर्तव्य कर्म बताये गए हैं, वे सभी अनिवार्य हैं। इतना ही नहीं, वे तो मनीषियों को पवित्र करने वाले भी हैं। दुर्गुण, दुराचार, पाप, मल को दूर करना महान आनन्द दायक है। मनीषी-विचारशील वे हैं, जो सम बुद्धि से युक्त होकर कर्मजन्य फल का त्याग कर देते हैं। यज्ञादि कर्म ऐसे मनीषियों को पवित्र करते हैं, जिनकी इन्द्रियाँ वश में हैं। जो लोग केवल सुख भोग के लिये यज्ञ, दान आदि करते हैं; उनको ये कर्म पवित्र नहीं कर पाते। अगर कोई कर्म अपनी भलाई और दूसरे का बुरा करने के लिए किया जाये, तो वो भी अपवित्र करने वाला, लोक-परलोक में भी महान दुःख देने वाला बन जाता है।
Yagy (worship sacrifices in holy fire-Hawan), Dan (gifting, charity, donations, social welfare, helping the needy in distress) and Asceticism-austerity should not be renounced. Besides these the thoughtful (Karm Yogi, Enlightened, Wise, Prudent, Intellectuals, the Learned, Scholars, the Pandits, Brahmns, Philosophers), should continue to do them, since these three purify them.
Here the stress is over the ability of the performer. The individual should be a person who is capable to perform these activities. Yagy, Dan requires money, desire and strong will power, while asceticism needs strong will power, desire, a bent of mind, dedication and deep faith in the Almighty. One should be blessed with the sense of submission, devotion and offer each and every possessions to HIM-the Almighty.
In addition to Yagy, Dan and Tap vital functions like teaching-learning, agriculture-business, eating-drinking, moving, sleeping-waking, interactions in the family and the society etc. and essential functions, actions, duties arising out of a difficult situation, must be performed by renouncing both attachment and reward.
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥
हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को आसक्ति और फलों की इच्छा का त्याग करके करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।[श्रीमद् भगवद्गीता 18.6]
यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों साथ-साथ मनुष्य को पठन-पाठन, खेती-बाड़ी, जीविका हेतु तथा नित्य कर्म खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना आदि शारीरिक कर्म और परिश्थिति जन्य आवश्यक कर्तव्य-कर्मों को आसक्ति-फलेच्छा का त्याग करके जरूर करना चाहिये।
अपनी कामना, ममता, और आसक्ति का त्याग करके कर्मों को केवल प्राणी मात्र के भले के लिए करने से कर्मों का प्रवाह संसार के लिए और योग का प्रवाह स्वयं के लिये हो जाता है। अपने हेतु किया गया कर्म बन्धन कारक हो जाता है और अपना व्यक्तित्व परमात्मा में विलय नहीं होने देता।
O Parth! All these Karm (Yagy, Dan, Tap) and various other Karm (act, actions, functions, work, performances, duties, jobs) should be performed by renouncing the attachment and desire of the Karm Fal (reward, result, out come, out put); is the sole doctrine established by the Almighty HIMSELF.
The sole and absolute doctrine of the Almighty is in favour of performance of these three acts by renouncing the fruits of actions and attachment, with dedication. It’s not possible to renounce the Fal of all Karm, since one can’t survive by renouncing them. One must renounce both attachment and reward. What is renounced by one indeed-in reality, does not belong to him but is considered to be of his own by illusion.
Quantum of Karm depends upon the desire for industry. Karm Yog is detachment from the desires of reward of industry. Karm is meant for the satisfaction or fulfilment of Rag (deep attachment to desires and motives), as well as for the abolition of desires for the Rag-attachment itself. Performance for self, enhances the Rag, while working for the benefit, upliftment and progress of the entire mankind (society), by the Karm Yogi, paves the path for his Salvation. With the abolition of Rag, one attains Salvation automatically, which is the firm opinion of the Almighty.
One who reads, studies, learn-understand and utilises Geeta, in his day-today life, automatically qualifies for SALVATION. It should be revealed only to those who are eager, desirous, interested in listening, learning, understanding the text. The ignorant, indifferent, idiot should not be compelled to read or listen this sacred text.
The Almighty descended over the earth to vanish the evil, vices, cruelty, wretchedness, sins to relinquish the earth on her request; as an incarnation known as Bhagwan Shri Krashn (Complete incarnation). HE had all other incarnations like of Bhagwan Vishnu-Narayan as well composed in HIM. Bhagwan Shri Hari Vishnu himself is a component of the Almighty. HE entered into conversation with Arjun (incarnation of Nar) to set him free from the illusion to eliminate the evil. The conversation dictated by Bhagwan Ved Vyas was inked by Ganesh Ji Maharaj for the benefit of entire mankind. This is extremely beneficial-useful during Kali Yug the present cosmic era. Chapter-18 of this conversation has great significance, as it leads the devotee to Salvation. The Param Pita Per Brahm Parmeshwar emerged with all of his powers and incarnations (Bhagwati, Sada Shiv, Maha Vishnu, Maha Brahm, Nar-Narayan etc.) through Shri Krashn showing his Virat Roop-ULTIMATE EXPOSURE.
सममब्राह्मणे दानं द्विगुणं ब्राह्मणब्रुवे।
प्राधीते शतसाहस्रमनन्तं वेदपारगे॥
ब्राह्मणेतर को दान देने के फल से अपने को सिर्फ ब्राह्मण कहने वाले ब्राह्मण को देने से होता है। विद्वान ब्राह्मण को दान (सात्विक) देने से, दान का लाख गुना और वेदपारंगत ब्राह्मण को दिये दान का फल अनन्त गुना होता है।[मनुस्मृति 7.85]
The reward-result of donations-charity to one who is just a Brahman by caste-birth, is double of the donations made to a non deserving (who is not a Brahmn). Donations made to a learned Brahmn yield hundred times the value of the donation made by one; while it multiplies infinite times if made to a Brahmn who is expert in Veds i.e., learned & enlightened.
राजसिक दान ::
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥
किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक और प्रत्युपकार के लिये अथवा फल प्राप्ति का उद्देश्य बनाकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा जाता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.21]
Rajas mode of charity-donations are the once made by the desirous people looking for returns, favours, rewards, higher abodes & are made unwillingly or to settle some previous deal or obligations.
राजस दान वह है जो कि प्रत्युपकार के हेतु किया जाये। दान लेने वाले नातेदार-रिस्तेदार, जानकर, पूर्व परिचित, पुरोहित, चिकित्सक आदि इसी श्रेणी में आते हैं। जिस दान को उच्च लोकों की उपलब्धि के लिये व्रत, त्यौहार, तीर्थ, विशिष्ट तिथि, अवसर, स्थान पर किया जाये वह भी इसी श्रेणी में आ जाता है। क्लेशपूर्वक दिया गया दान जो मजबूरी में किया गया हो, भी ऐसा ही फल देता है।
Rajas mode of charity-donations involves the desire for higher abodes. For this purpose people visit temples, undertake pilgrimage, bathes in holy rivers and sacred reservoirs. In fact its typical Indian-Hindu mentality to improve the future at the cost of present. Austerities undertaken have the sole purpose to get rid of the sins of the previous births. Hindus undertake fasting, pilgrimages and even donations, which have desires associated with them. If one is aware of the futility of such purposes, he might switch over to helping others without motive-desires, which is virtuous, righteous, auspicious. Donations which involve return of the previous receipts, hitch, pain, unwillingness too becomes Rajas. Money that goes to relatives, friends, doctors, astrologers, Priests (Purohits, Pandits, Vaedic Brahmns) ritualism too takes the form of Rajas charity, since hidden desires are always there that if I am helping some one, I too will be helped in return. So, the donations-austerities which are made just to help others, needy, one in destitute, poverty stricken, sick, diseased without the intention of any fruit, reward, return grant auspiciousness.
तामसिक दान ::
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥
जो दान बिना सत्कार के तथा अवज्ञापूर्वक अयोग्य देश और काल में कुपात्र को दिया जाता है, वह दान तामस है।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.22]
Charity made at wrong place and time, to unworthy persons or without due respect-regards to the receiver or with ridicule, is Tamas.
तामस दान असत्कार, अवज्ञा, तिरस्कार पूर्वक किया जाता है। तामस दान में शास्त्र विधि-विधान को महत्व नहीं दिया जाता। इसमें पात्रता का ध्यान नहीं रक्खा जाता। दान लेने वाले के प्रति दान देने वाले को उचित मान-सम्मान, आदर-सत्कार दिया जाना चाहिये। दान लेने वाले ने दान लेकर कृतार्थ कर दिया, यह विचार मन में बनाना चाहिये। तामस दान देने वाले की अधो गति होती है। दान का उचित समय, काल और मुहूर्त भी होता है, जिसका ध्यान रखना चाहिये। अन्न, जल, वस्त्र और औषधि का दान देने में पात्र-कुपात्र, देश, काल के स्थान पर लेने वाले की जरुरत मुख्य है। कुपात्र को अन्न, जल उतनी ही मात्रा में दें; जितने से वो पुनः हिंसा या पाप में प्रवत्त न हो पाये। कलियुग में दान का महत्व बहुत बढ़ गया है, क्योंकि यज्ञ, तप, व्रत, आदि-आदि के लिये उचित पात्र, अवसर मिलना बेहद कठिन है।
आतंकवादियों, मुस्लिम धर्म प्रचारकों, समृद्ध लोगों को दिया गया दान अवनति का कारण बनता है।
Donations should be free from slight, disobedience, disregard, affront to the recipient. The recipient deserves due honour, respect and the one who is distributing alms should be humble, polite and sympathetic to the recipient. Due regard-weightage should be given to the time, place and the recipient's ability (necessity, requirement) to get donations. One should not nurse any grudge towards the recipient. One should feel obliged that his charity has been accepted with grace. Donations made to the those, who are involved in anti social-anti religious activities, sinners, criminals, terrorists, those inclined to conversion of other's faith (Hinduism to Christianity or Islam); always yield negative results, including stint in hells. Christian missionaries indulging in conversions in the name of charity are covered in this category. Politicians, trusts, NGO's receiving funds for charity, do come under the list of negative categories. There are several Muslim organisations which are receiving aid to fan terrorism in India and abroad from Muslim countries specially Saudi Arabia, need to be curbed with firm action and determination by the world community. However, it has been found that some institutions and temples are offering free education, food, clothing, residence in India. They deserve whole hearted appreciation. In one case more than 50,000 free meals are distributed on a single day. The volume rises to 1,25,000 on specific occasions-festivals. One educational Institution is offering free meals and education to more than 12,500 needy children up to graduation level in Orissa. Donations made to them are pious, virtuous & righteous. Eligibility of the recipients matters a lot. You will find drunkards, beggars having millions in their coffers, healthy people in the disguise of sick or disabled; awards negative results to the donors.
Pot belly Mahants, Pandits, Brahmns, Purohits roaming in silk dresses, cars, living in palatial buildings, do not deserve either sympathy or charity. Most of the trusts, schools, hospitals in India are registered under charitable category to receive land at cheaper rates, but they do not serve the poor at all. They are purely commercial in nature. They charge exorbitant heavy tuition fees in additions of hundreds of other charges levied from time to time. The worst possible aspect of it is the charging of capitation fee-donation money by the schools, colleges. Donations made in the form of food, clothing, medicine water to the needy may be made without hitch-hesitation. Food-fodder offered to cows, dogs, crows, birds is always rewarding made with sympathy to them. Indians do not hesitate in offering milk to snakes, though dangerous. Kali Yug, the present cosmic era has high value-importance of charity.
Teesta Setalvad and her organisation is an example of misusing funds. Separatists in Jammu & Kashmir are fanning terrorism and anti India sentiments. The government should stop wasting money over the students of JNU, Aligarh & Jamia Millia universities. All aids facilitates to Deo Band must be curbed.
The educational institutions compel parents to shell out money in millions for admission and fees, which is not donation. It is purely extortion, exploitation. Almost all political parties in India and every where in the world collect huge sums in the name of donations.
**ASCETICS तप :: Tenacity, Renunciation, rejection-conquering all desires. कामनाओं का त्याग। अपने धर्म का पालन करते हुए जो कष्ट आये उसे प्रसन्नतापूर्वक सहन करना। मन का संतुलन बनाए रखना ही तप है। व्रत जब कठिन बन जाता है तो तप का रूप धारण कर लेता है। निरंतर किसी कार्य के पीछे पड़े रहना भी तप है। निरंतर अभ्यास करना भी तप है। त्याग करना भी तप है। सभी इंद्रियों को काबू में रखकर अपने अनुसार चलापा भी तप है।
उत्साह एवं प्रसन्नता से व्रत रखना, पूजा करना, पवित्र स्थलों की यात्रा करना। विलास प्रियता एवं फिजूल खर्ची न चाहकर सादगी से जीवन जीना। इंद्रियों के संतोष के लिए अपने आप को अंधाधुंध समर्पित न करना भी तप है।
जीवन में कैसी भी दुष्कर परिस्थिति सामने हो, तपशील मनुष्य-अपना मानसिक संतुलन नहीं खोएगा। अनुशासन एवं परिपक्वता से सभी तरह की परिस्थिति पर विजय प्राप्त करना भी एक प्रकार का तप ही है।
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥
जो तप मूढ़ता पूर्वक हठ से अपने आप को पीड़ा देकर अथवा दूसरों को कष्ट देने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.19]
The ascetic practices-Austerity performed under the influence of ignorance with foolish stubbornness by with self-torture or for harming others are Tamsik.
तामस तप में मूढ़ता पूर्ण आग्रह है, जो स्वयं को पीड़ा देकर किया जाता है। मूढ़ मनुष्य शरीरिक कष्ट को ही तपस्या मानता है। ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों को कष्ट देने के लिए तप करते हैं। वे मन माने ढंग से उपवास करते हैं, सर्दी-गर्मी-वर्षा को सहन करते हैं। जिस तप का उद्देश्य ही दूसरों को कष्ट-पीड़ा पहुँचाना है, वह पूरी तरह तामसिक है।
The ignorant stresses over self inflicting pains-tortures. He believes that straining the body is austerity-asceticism. His object is to trouble the others, at his own cost. He observe fasts in his own way-manner. He bear extreme cold, heat, rains and rough weather. His aim is to tease others, inflict injuries over others and hence this mode is Tamsik-demonic.
EQUANIMITY-The 4th means to attain Salvation :: It is the parity of adverse & favourable situation, event, occurrence, person-organism, time-cosmic era-death & life, pleasure-pain. Satisfaction means to remain content with whatever has been obtained-earned honesty, through righteous-just means. Asceticism is bearing of difficulties happily, worship of God through fasting, meditating in the lonely places and as a recluse.
स्वभाव की समभाव, समवृत्ति, समता, स्वाभाव, गम्भीरता, धैर्य, धीरज, समभाव, धृति, समचित्तता (सभी प्राणियों, परिस्थितियों, अवसरों में एक समान भाव-परमात्मा को देखना); One who remains balanced-neutral towards friend or foe, in honour or insult-disgrace, in hot or cold (conditions adverse or favourable to the body), in pleasure or pain (conditions to favourable or adverse to heart and intelligence); has attained equanimity. Considering pleasure-pain, humans, deities-demons, all organism at par.
Equanimity is such a wonderful phenomenon that can postpone-abolish the greatest dangers, including untimely death.
The moment one attain equanimity, he gets rid of sins. Equanimity abolishes favouritism, excessive stubbornness, misguided zeal. Equanimity breaks the bonds, illusion, ignorance, attachments, selfishness. Equanimity is attained easily-quickly if one make efforts to bring the misguided-frenzied to the righteous, virtuous, pious path-track, without motive (selfishness, personal gains). The Karm Yogi is detached-relinquished with ease.
The target (goal, aim) of the Karm Yogi is to identify him self with the Ultimate i.e., assimilation in the Almighty. Equanimity with the organism is to see-identify the Almighty in each and every organism. The mechanism (method, procedure) is simple. Attain equanimity of the inner self, which is obstructed by attachments, bonds, desires. These attachments can be eliminated (cut) by taking firm-proper decisions. Firm determination-practicality leads to loss-lapse of desires for worldly possessions, leading to relinquishment-breaking of bonds-ties. Karm Yog and Bhakti Yog intend to make the intelligence unilaterally devoted to the God and there after, one realise the self, soul, inner self, the Almighty. Gyan Yog leads to realisation, understanding, identification of the self leading to the framing of the intelligence unilaterally, i.e., directed-devoted to the God, only. Enlightenment is the basic-root factor behind Gyan Yog, while the determination is the basic factor behind Karm Yog and Bhakti Yog.
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
हे धनंजय! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित होकर, कर्तव्य कर्मों को कर, क्योंकि समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में सम भाव रहने का नाम समत्व, equanimity है) ही योग कहलाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.48]
Hey Dhananjay! You reject-bereft the attachment and attain equanimity in accomplishment-success and failure, establish-stabilise in Yog and perform your duties, since equanimity is Yog (assimilation in the Almighty).
Equanimity :: Weigh success & failure equally. Do not re-join in success, do not feel sad in failure. Treat every organism as the component of the Almighty. Do not distinguish as poor or rich, upper caster or lower caste.
किसी भी कर्म, कर्म के फल, किसी भी देश, काल, घटना, परिस्थिति, अंतःकरण, बहिःकरण आदि प्राकृत वस्तु में आसक्ति न होने पर ही मनुष्य निर्लिप्तता पूर्वक कर्म कर सकता है। आसक्ति के त्याग से सिद्धि और असिद्धि में समता हो जायेगी। कर्म योगी तो केवल कर्तव्य-कर्म के ऊपर ध्यान देता है। ध्यान रूपी समता से साध्य रूपी समता स्वतः आ जाती है। सिद्धि-असिद्धि में सम होने के बाद उस समता में निरन्तर अटल रहना ही योगस्थ होना है। साधन रूपी समता अन्तःकरण की होती और साध्य रूपी समता परमात्मस्वरूप होती है। सिद्धि-असिद्धि, अनुकूल-प्रतिकूल आदि की समता अर्थात अन्तःकरण में राग द्वेष का न होना साधन स्वरूप समता है। समता का एक तात्पर्य ये भी है कि "मनुष्य हर प्राणी में परमात्मा की छवि देखे, ऊँच-नीच को ना माने, स्वयं व अन्य में अंतर ना समझे"।
One can perform unsmeared, unanointed, uncontaminated, detached, when he is not attached to any deed, reward of deeds, any country, any period of time, any incident-happening, adverse or favourable conditions, inner self or his exterior self and the characteristics related to nature. Relinquishment of attachment will provide equanimity with success and failure. The Karm Yogi has to concentrate over the duties-how best can he perform? Equanimity of meditation-concentration provides the equanimity of the ultimate goal (aim, target) :- the Ultimate, God. Having achieved equanimity with success & failure and to remain firm with this is Yog. Equanimity of ways & means is related to the inner self-the individual, while the equanimity of the goal, target, aim pertains to the Almighty. Equanimity of achievement-success or failure, favourable-against stands for loss of Rag-dwesh: Attachment-enmity pertaining to means. Equanimity has a more broader meaning: "One should see, find, observe the image of God in each and every organism-individual, big-small, highly place and the scratch".
Having achieved equanimity one is sure to assimilate in the God and its freedom from reincarnations. Though it appears difficult but its not impossible.
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥
इस समत्वरूप बुद्धियोग से, सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात् बुद्धि योग का ही आश्रय ग्रहण कर, क्योंकि फल के हेतु बनने वाले, अत्यन्त दीन हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.49]
Oh Arjun! Sakam Karm (deeds performed to seek awards, gains, gratification or deeds with motive, aim, target) are considered to be extremely low as compared to equanimity (desire-motiveless action laced with wisdom, prudence, enlightenment, devotions, without attachment). Hey Dhananjay! You should seek remedy, asylum in equanimity, since one who perform for the sake of gains, become pitiable-miserable.
कर्म भी उत्पन्न और नष्ट होते हैं। उनका भी संयोग और वियोग होता है। योग समता स्थाई है और इसमें कोई विकृति नहीं आती। समता के अभाव में जीव मात्र कर्म ही करता रहेगा और परिणाम स्वरूप जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संयोग-वियोग, सुख-दुःख झेलता ही रहेगा। अतः कर्मों में समता ही श्रेष्ठ है; जिसके अभाव में शरीर में अहंता-ममता हो जायेगी, जो कि पशु बुद्धि है।
जिस प्रकार प्रकाश और अँधेरा एक साथ नहीं रह सकते, उसी प्रकार बुद्धि योग और सकाम कर्म, कभी तुल्य-समकक्ष नहीं हो सकते। बुद्धि योग परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला है।
कर्म योग को 3 शब्दों से निरूपित किया गया है :- बुद्धि, योग और बुद्धि योग। कर्म योग में योग की प्रधानता है, बुद्धि की नहीं। वैसे इन तीनों का अर्थ एक ही है। कर्म योग में व्यसायात्मिका बुद्धि की प्रधानता होने से इसे बुद्धि कहा गया है। विवेक पूर्ण त्याग की प्रधानता होने से यह बुद्धि योग हो जाता है।
ध्यान योग में मन की और कर्म योग में बुद्धि की प्रधानता है। समाधि की अवस्था प्राप्त होने तक समाधि और व्युत्थान की दो अवस्थाएं रहती हैं। बुद्धि का नियंत्रण विवेक से होता है। विवेक का असत् भाग दूसरों की सेवा में लगा देने से, त्याग सरल और शीघ्र हो।
मन का निरोध निरन्तर नहीं होता तथा समय-समय पर और एकांत में होता है। बुद्धि का एक निश्चय निरन्तर लगातार होता है।
The cycle of Karm-deeds-work is never ending. The deeds begin and complete; leading to yet another cycle-chain-sequence of deeds-endeavours, i.e., rebirth, reincarnation. Yog is forever-imperishable. Its not contaminated. In the absence of equanimity, the human will keep performing leading to unending cycle of birth & death, incarnation after incarnation. As a result of which, he will experience pains and pleasures, meeting & departing as a long non terminating chain-sequence. It leads to the conclusion that equanimity is Ultimate, in the absence of which the human grows attachment-pride, over the body, which is animal nature.
The way light & darkness can not stay together, equanimity & deeds laced with the desire for favourable outcome-gain can not be treated at par. Equanimity-Buddhi Yog results in Salvation, assimilation in God, Liberation.
Karm Yog has been described with the help of 3 words :- Buddhi (intelligence, mind, brain), Yog (asceticism, chastity, meditation, concentration, consciousness pertaining to Almighty) & Buddhi Yog (alignment of intelligence with the Almighty). Karm Yog is mainly aligned with endeavour-earning livelihood, so it is termed as commercial-industrious intelligence. Use of this intelligence through prudent relinquishment turns it to Buddhi Yog.
Dhyan Yog has the superiority of Man (psyche, mind & heart, mood, innerself) & Karm Yog has the significance-importance of intelligence. Attainment of staunch meditation has two components (1). Meditation & (2). Growth. The growth is associated-possessed by worldly progress. Meditation helps in deployment of prudence towards the Almighty helping the Yogi to relinquish and divert the offensive components thinking to the service of man kind.
The mind can not be controlled regularly. It can be controlled at intervals-occasions-from time to time, in solitude. The firmness of intelligence is a continuous process, which may deviate one from meditation.
Fine tuning of the brain through devotion may lead one to acquire equanimity leading to Moksh-Salvation.
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥
सम बुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है (उनसे मुक्त हो जाता है) इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, क्योंकि कर्मों में योग ही कुशलता है (कर्मबंध से छूटने का उपाय है)।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.50]
One who is blessed with equanimity, relinquish virtues & sins in this abode (world, earth; until either of the two is there, one will continue getting rebirth). Therefore, you should devote yourself to equanimity, since its only the Yog which is perfect amongest all deeds.
विवेक युक्त बुद्धि समता प्रदान करती है और जो समता से युक्त है, वो निर्लिप्त है; वह पुण्य और पाप से युक्त नहीं है। योग लीन व्यक्ति, मन को काबू में करके समाधि की अवस्था को प्राप्त करता है। योग एक मात्र कुशल-सर्व श्रेष्ठ कर्म है।
The intelligence laced-aided with prudence, awards equanimity. One who is associated with equanimity is detached, relinquished, under the protection of God, since he has offered all his deeds to the Almighty. He is not tainted-smeared by sins & he has already offered his virtuous, pious, righteous acts to the God. The Yogi attains the staunch meditation by controlling brain, which keeps on moving-roaming hither & thither. This is the reason, why Yog has been termed as the only, best, excellent deed. Till one survives as a house hold he may practice all this while performing his duties with devotion, whole heartedly.
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥
क्योंकि समता युक्त बुद्धिमान साधक कर्मजन्य फल का अर्थात संसार मात्र का त्याग करके जन्म रूप बन्धन से मुक्त होकर निर्विकार पद को प्राप्त हो जाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.51]
The learned, prudent, intelligent devotee blessed with equanimity rejects the fruits (results, outcomes) of the deeds i.e., relinquishing the world-freedom from birth & rebirth and achieves the ultimate uncontaminated Supreme self-The Almighty.
जो समता से युक्त हैं, वे ही वास्तव में मनीषी-बुद्धिमान हैं। जो अकुशल कर्मों से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्मों में राग नहीं रखता वो मेधावी-बुद्धिमान है।
कर्म कर्मफल में परिवर्तित जरूर होगा। उसके फल का त्याग कोई कर ही नहीं सकता। निष्काम भाव से किये गए कर्म का फल होगा तो जरूर, मगर बंधन कारी नहीं होगा। अतः कर्म जन्य फल के त्याग का अर्थ हुआ :- कर्मजन्य फल की इच्छा, कामना, ममता, वासना का त्याग। यह हर कोई कर सकता है; यदि चाहे तो। समता से युक्त होते ही राग-द्वेष, कामना, वासना, ममता जैसे दोष ना तो होंगे और ना ही पुनर्जन्म का कारण-हेतु ही होगा।आमय यानि रोग-विकार और अनामय माने निर्विकार। सत्वगुण अनामय है, साथ ही अपना स्वरूप-परमात्म तत्व गुणातीत; जिसको पाकर फिर किसी को जन्म मरण से नहीं गुजरना पड़ता। जिससे मनुष्य कर्मयोग मुक्ति, कल्याण, निवृति और परमात्मतत्व की प्राप्ति करता है।
One who is equipped with equanimity is a thinker, thoughtful, prudent-intelligent person. Being so, he has no grudge with the unskilled deeds and has no attachment with the skilled-able deeds.
A deed-venture-effort is bound to turn into result-outcome. An action has reaction and cause has effect, like the two sides of the same coin. One can not skip it. However, the deed which is performed without desire, motive, prejudice will not be binding upon the performer. So, freedom from the result of the deed means :- Rejection of further desires, affections-bonds-ties, lust (sensualities, sexuality, passions). Equanimity leads to freedom from attachments, desires, lust-sex-passions and affectations resulting in freedom from rebirth.
AMY means disease-defect & anamy means defect less. Satv (Piousity, virtuousness) Gun is anamy-free from defects-diseases and own self is like the Almighty-beyond the scope of characteristics. One who attains own self, becomes free from the cycle of birth and death. Karm Yog provides an opportunity to freedom, welfare, detachment and the God, ultimately.
Equanimity is alright but be prepared to fight, vanish-eliminate the organism-person who is troubling-harming you unreasonably.
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥
मेरा आश्रय लेने वाला भक्त-कर्म योगी सदा संपूर्ण कर्मों को करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन-शाश्वत अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.56] The Devotee, who is under the protection-patronage of God, attains the supreme eternal imperishable status-abode, with the grace of the Almighty while performing all of his Varnashram duties.
जो व्यक्ति सर्वथा भगवान् के परायण-शरणागत हो जाता है, अपना स्वतंत्र कुछ नहीं समझता, ऐसे भक्त का उद्धार स्वयं परमात्मा कर देते हैं। उसको अपने जीवन निर्वाह के लिए किसी बात-चीज की कमी नहीं होती। जिस धर्म परायण साँख्य योगी ने शरीर, वाणीं और मन का संयमन कर लिया है और एकांत में रहकर सदा ध्यान योग में लगा रहता है, उसको जिस पद की प्राप्ति होती है, वह लौकिक, पारलौकिक, सामाजिक, शरीरिक आदि सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को हमेशा करते हुए, प्रभु का आश्रय लेने वाला भक्त उनकी कृपा से प्राप्त कर लेता है। स्वतः सिद्ध परम पद की प्राप्ति अपने कर्मों, अपने पुरुषार्थ से अथवा अपने साधनों से नहीं, अपितु केवल भगवत्कृपा से होती है। यह परम पद भक्ति मार्ग से परम धाम, सत्य लोक, वैकुण्ठ लोक, गौलोक, साकेत लोक और ज्ञान मार्ग में विदेह, कैवल्य मुक्ति, स्वरूप स्थिति कहलाता है। उसके नाम अलग-अलग हैं। जहाँ भगवान् हैं; वहीं उनका लोक है। जब भक्त की अनन्य निष्ठा सिद्ध हो जाती है तब, परिच्छिन्नता का अत्यंत अभाव हो जाता है और वही लोक उसके सामने प्रकट हो जाता है अर्थात उसे जीते जी ही दिव्य लोक की दिव्य लीलाओं का अनुभव होने लगता है। अगर भक्त की धारणा यह है कि दिव्य लोक एक परम विशिष्ठ स्थान-जगह है तो, उसकी प्राप्ति तो मृत्यु के बाद ही होगी, जब भगवान् के पार्षद या स्वयं भगवान् उसे लेने के लिए आयेंगे।
भक्त महज अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन सब विहित कर्मों को सदा करते हुए भी भगवत्कृपा को प्राप्त कर लेता है।
The Devotee, who has surrendered to the Almighty, is totally under his shelter, is salvaged by the God.
A meditating Sankhy-Gyan Yogi, who has controlled his body, mind, speech, heart, senses and sensuality is concentrating over the Almighty in solitude (deep woods, remote caves, high altitude tough terrains-mountains), attains the imperishable, eternal status, position, prominence, abode.
He should continue physical, social, worldly, divine functions under the refuge of God. More he depend over the God, more he experiences the divine bliss, grace, kindness-blessings. Close proximity-imperishable abodes are the result of the mercy, will, desire of the Almighty.
The God is present everywhere. His abodes too, are present everywhere. Attainment of undistinguished faith results in loss of differentiation-multiplicity of abodes. The Devotee feels the presence of the Supreme Soul all around him with the physical-material body.
जो व्यक्ति सर्वथा भगवान् के परायण-शरणागत हो जाता है, अपना स्वतंत्र कुछ नहीं समझता, ऐसे भक्त का उद्धार स्वयं परमात्मा कर देते हैं। उसको अपने जीवन निर्वाह के लिए किसी बात-चीज की कमी नहीं होती। जिस धर्म परायण साँख्य योगी ने शरीर, वाणीं और मन का संयमन कर लिया है और एकांत में रहकर सदा ध्यान योग में लगा रहता है, उसको जिस पद की प्राप्ति होती है, वह लौकिक, पारलौकिक, सामाजिक, शरीरिक आदि सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को हमेशा करते हुए, प्रभु का आश्रय लेने वाला भक्त उनकी कृपा से प्राप्त कर लेता है। स्वतः सिद्ध परम पद की प्राप्ति अपने कर्मों, अपने पुरुषार्थ से अथवा अपने साधनों से नहीं, अपितु केवल भगवत्कृपा से होती है। यह परम पद भक्ति मार्ग से परम धाम, सत्य लोक, वैकुण्ठ लोक, गौलोक, साकेत लोक और ज्ञान मार्ग में विदेह, कैवल्य मुक्ति, स्वरूप स्थिति कहलाता है। उसके नाम अलग-अलग हैं। जहाँ भगवान् हैं; वहीं उनका लोक है। जब भक्त की अनन्य निष्ठा सिद्ध हो जाती है तब, परिच्छिन्नता का अत्यंत अभाव हो जाता है और वही लोक उसके सामने प्रकट हो जाता है अर्थात उसे जीते जी ही दिव्य लोक की दिव्य लीलाओं का अनुभव होने लगता है। अगर भक्त की धारणा यह है कि दिव्य लोक एक परम विशिष्ठ स्थान-जगह है तो, उसकी प्राप्ति तो मृत्यु के बाद ही होगी, जब भगवान् के पार्षद या स्वयं भगवान् उसे लेने के लिए आयेंगे।
भक्त महज अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन सब विहित कर्मों को सदा करते हुए भी भगवत्कृपा को प्राप्त कर लेता है।
The Devotee, who has surrendered to the Almighty, is totally under his shelter, is salvaged by the God.
A meditating Sankhy-Gyan Yogi, who has controlled his body, mind, speech, heart, senses and sensuality is concentrating over the Almighty in solitude (deep woods, remote caves, high altitude tough terrains-mountains), attains the imperishable, eternal status, position, prominence, abode.
He should continue physical, social, worldly, divine functions under the refuge of God. More he depend over the God, more he experiences the divine bliss, grace, kindness-blessings. Close proximity-imperishable abodes are the result of the mercy, will, desire of the Almighty.
The God is present everywhere. His abodes too, are present everywhere. Attainment of undistinguished faith results in loss of differentiation-multiplicity of abodes. The Devotee feels the presence of the Supreme Soul all around him with the physical-material body.
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
हे भारत! तू सर्वभाव-सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में ही चला जा। उसकी कृपा से तू परम शान्ति (संसार से सर्वथा उपरति) को और अविनाशी परम पद-सनातन परम धाम को प्राप्त हो जायेगा।[श्रीमद्भागवत गीता 18.62] Hey Bharat! You should solely-solemnly seek refuge in the Almighty by virtue of whose grace, kindness, mercy, you-the devotee will attain the highest, never ending-vanishing Supreme and Eternal abode.
लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर एवं शरीर और संसार में अहंता, ममता से रहित होकर एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भाव से अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेम पूर्वक निरंतर भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिन्तन करते रहना एवं भगवान् का भजन, स्मरण करते हुए ही, उनके आज्ञा अनुसार कर्तव्य कर्मों का निःस्वार्थ भाव से केवल परमेश्वर के लिए आचरण करना, यह सब प्रकार से परमात्मा के ही शरण होना है।
लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर एवं शरीर और संसार में अहंता, ममता से रहित होकर एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भाव से अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेम पूर्वक निरंतर भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिन्तन करते रहना एवं भगवान् का भजन, स्मरण करते हुए ही, उनके आज्ञा अनुसार कर्तव्य कर्मों का निःस्वार्थ भाव से केवल परमेश्वर के लिए आचरण करना, यह सब प्रकार से परमात्मा के ही शरण होना है।
शरीर से किंचित मात्र भी मैं-मेरापन न रखकर मनुष्य को ईश्वर की शरण में ही जाना चाहिए। मन से, शरीरिक क्रियाओं से, प्रेम पूर्वक, उसके प्रत्येक विधान में श्रद्धा रखते हुए उसका ध्यान करना चाहिए। इससे मनुष्य परमपद, पराशान्ति-शाश्वत पद को प्राप्त होता है। भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि अगर वे उनकी शरण में नहीं आना चाहते तो उस सर्वव्यापी परमात्मा की शरण में ही चले जाएँ, जो कि वे स्वयं हैं।
A stage comes in the life of a person, when he is extremely confused, unable to take decisions. He is not in a position to decide what, when, how to do. The wise man in such condition-situation, seek the advice of elder, experienced, mature people. If the solution does not come, he should adopt solitude, meditate and seek asylum in the God-leaving everything up to HIM.
Dependence over worldly-nature oriented perishable goods, person, incidences and situations results in utter confusion and indecisiveness. Nature in itself is a component of the God and dependent over the God. Then, why don’t rely over the God!? Concentration of mind, heart, body, soul and channelisation of efforts into the God, reciting his name again and again, continuance of prescribed duties, can ease most of the difficult situations. Difficulties, troubles, pains become boon-God gift as they force the individual to move to the Almighty to seek shelter in HIM. If remembrance of God occurs, at a time when the doer is happy, prosperous, hail & hearty; trouble will not dare touch him. If the human being remember God, the God too remember him. Confusions, tensions, troubles remind the human being of the existence of God. Seeking refuge solace-peace, under him, results in divine assistance and Ultimate abode. Neutrality to situations, pain, sorrow, grief, happiness brings the person out of confusion-leading him to the Supreme Lord, relieving him of all attachments-bonds.
The God is unborn, immortal, never ending, infinite, un-vanishing, embodied, without body, The Creator, The Protector & The Destroyer. All Yagy, sacrifices, offerings, ascetics, prayers, meditations are directed in to HIM. HE lives in all creatures, through HIS component-the soul, occupying heart.
One, who does not respond to the call made by the God, finds himself in the hell. God provides opportunity to each and every one, alerts them to come to HIS refuge-fold for absolute peace and highest position-status. It’s up to the human being to say yes or ignore the call. Every wish or desire is associated with its side effects as well, so beware of them, to avoid repentance later.
A stage comes in the life of a person, when he is extremely confused, unable to take decisions. He is not in a position to decide what, when, how to do. The wise man in such condition-situation, seek the advice of elder, experienced, mature people. If the solution does not come, he should adopt solitude, meditate and seek asylum in the God-leaving everything up to HIM.
Dependence over worldly-nature oriented perishable goods, person, incidences and situations results in utter confusion and indecisiveness. Nature in itself is a component of the God and dependent over the God. Then, why don’t rely over the God!? Concentration of mind, heart, body, soul and channelisation of efforts into the God, reciting his name again and again, continuance of prescribed duties, can ease most of the difficult situations. Difficulties, troubles, pains become boon-God gift as they force the individual to move to the Almighty to seek shelter in HIM. If remembrance of God occurs, at a time when the doer is happy, prosperous, hail & hearty; trouble will not dare touch him. If the human being remember God, the God too remember him. Confusions, tensions, troubles remind the human being of the existence of God. Seeking refuge solace-peace, under him, results in divine assistance and Ultimate abode. Neutrality to situations, pain, sorrow, grief, happiness brings the person out of confusion-leading him to the Supreme Lord, relieving him of all attachments-bonds.
The God is unborn, immortal, never ending, infinite, un-vanishing, embodied, without body, The Creator, The Protector & The Destroyer. All Yagy, sacrifices, offerings, ascetics, prayers, meditations are directed in to HIM. HE lives in all creatures, through HIS component-the soul, occupying heart.
One, who does not respond to the call made by the God, finds himself in the hell. God provides opportunity to each and every one, alerts them to come to HIS refuge-fold for absolute peace and highest position-status. It’s up to the human being to say yes or ignore the call. Every wish or desire is associated with its side effects as well, so beware of them, to avoid repentance later.
सम्यक्त्व के पच्चीस दोष तथा आठ गुण ::
वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट अनायतन त्यागों ;
शंकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो।
अष्ट अंग अरू दोष पचीसों, तिन संक्षेपै कहिये;
बिन जाने तैं दोष गुननकों, कैसे तजिये गहिये।
आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन (अधर्म-स्थान) और आठ शंकादि दोष; इस प्रकार सम्यक्तत्व के पच्चीस दोष होते हैं। कोई भी जीव अपने अंदर रह रहे दोषों को जाने और समझे बिना उन दोषों को छोड़ नहीं सकता। वह अपनी आत्मा में विराजमान अनंत गुणों को कैसे गृहण करे? अतः सम्यक्त्व के अभिलाषी जीव को सम्यक्त्व के इन पच्चीस दोषों को त्याग करके चैतन्य परमात्मा में मन लगाना चाहिये।
जीव के मद के आठ दोष ::
पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तौ मद ठानै:;
मद न रूपकौ मद न ज्ञानकौ, धन बलकौ मद भानै।
तपकौ मद न मद जु प्रभुताकौ, करै न सो निज जानै;
मद धारैं तौ यही दोष वसु समकितकौ मल ठानै।
(1). कुल-मद :- इस संसार में पिता के गोत्र को कुल और माता के गोत्र को जाति कहते हैं। जिस व्यक्ति के पितृपक्ष में पिता आदि राजादि पुरूष होने से उसको मैं राजकुमार हूँ, इस तरह का अभिमान हो जाता है, उसे कुल-मद कहते हैं।
(2). जाति-मद :- स्वयं को उच्च जाति यथा स्वर्ण, ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य होने का मिथ्याभिमान।
(3). रूप-मद :- शारीरिक सौन्दर्य का मद करना, सो रूप-मद होता हैं।
(4) ज्ञान-मद :- अपनी विद्या या ज्ञान का अभिमान करना, सो ज्ञान-मद होता है।
(5) धन-मद :- अपनी धन-सम्पति का अभिमान करना, सो धन-मद होता है।
(6) बल-मद :- अपनी शारीरिक शक्ति का गर्व करना, सो बल-मद होता है।
(7) तप-मद :- अपने व्रत-उपवासादि तप का गर्व करना, सो तप-मद होता है।
(8) प्रभुता-मद :- अपने बड़प्पन और प्रभुता का गर्व करना सो प्रभुता-मद कहलाता है। इस तरह कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, बल, तप और प्रभुता; यह आठ मद-दोष कहलाते हैं। जो जीव इन आठ मदों का गर्व नहीं करता है, वही आत्मा का ज्ञान कर सकता है। यदि वह इनका गर्व करता है, तो ये मद सम्यकदर्शन के आठ दोष बनकर उसे दूषित करते हैं।
छह अनायतन तथा तीन मूढ़ता दोष ::
कुदेव-कुगुरू-कुवृष सेवक की नहिं प्रशंस उचरै है;
जिनमुनि जिनश्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हैं न नमन करै है।
कुगुरू, कुदेव, कुधर्म, कुगुरूसेवक, कुदेवसेवक तथा कुधर्मसेवक; यह छह अनायतन सच्चे धर्म के अस्थान, कुस्थान या दोष कहलाते हैं। उनकी भक्ति, विनय और पूजनादि तो दूर रही, किन्तु सम्यकद्रष्टि जीव उनकी प्रशंसा भी नहीं करता है; क्योंकि उनकी प्रशंसा करने से भी सम्यक्त्व में दोष लगता है। सम्यकद्रष्टि जीव जिनेन्द्रदेव, वीतरागी मुनि और जिनवाणी के अतिरिक्त कुदेव और कुशास्त्रादि को किसी भी भय, आशा, लोभ और स्नेह आदि के कारण नमस्कार नहीं करता है, क्योंकि उन्हें नमस्कार करने मात्र से भी सम्यक्त्व दूषित हो जाता है। कुगुरू-सेवा, कुदेव-सेवा तथा कुधर्म-सेवा यह तीन भी सम्यक्त्व के मूढ़ता नामक दोष होते हैं।
सम्यक्त्व आठ अंग (गुण) और शंकादि आठ दोषों का लक्षण ::
जिन वच में शंका न धार वृष, भव-सुख-वांछा भानै;
मुनि-तन मलिन न देखे घिनावै, तत्व-कुतत्व पिछानै।
निज गुण अरू पर औगुण ढांके, वा निजधर्म बढ़ावे;
कामादिक कर वृषतैं चिगते, निज-परको सु दिढावै।
धर्मी सों गौ-वच्छ-प्रीति सम, कर जिनधर्म दिपावै;
इन गुणतै विपरीत दोष, तिनकों सतत खिपावै।
(1). नि:शंकित अंग :: सच्चा धर्म या तत्व यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है तथा अन्य प्रकार से नहीं हो सकता है; इस प्रकार यथार्थ तत्वों में अपार, अचल श्रद्धा होना, सो नि:शंकित अंग कहलाता है।
अहो, अव्रती सम्यकद्रष्टि जीव भोगों को कभी उचित नहीं मानते हैं; किन्तु जिस प्रकार कोई बन्दी इच्छा न होने पर भी कारागृह में घनघोर दु:खों को सहन करता है, उसी प्रकार अव्रती सम्यकद्रष्टि जीव अपने पुरूषार्थ की निर्बलता से गृहस्थदशा में रहते हैं, किन्तु रूचिपूर्वक भोगों की इच्छा नहीं करते हैं; इसलिए उन्हें नि:शंकित और नि:कांक्षित अंग होने में कोई भी बाधा या रुकावट नहीं आती है।
(2). नि:कांक्षित अंग :: धर्म का पालन करके उसके बदले में सांसरिक सुखों की इच्छा न करना उसे नि:कांक्षित अंग कहते है।
(3). निर्विचिकित्सा अंग :: मुनिराज अथवा अन्य किसी धर्मात्मा के शरीर को मैला देखकर घृणा न करना, उसे निर्विचिकित्सा अंग कहते है।
(4). अमूढ़द्रष्टि अंग :: सच्चे और झूठे तत्वों की परीक्षा करके मूढ़ताओं तथा अनायतनों में न फँसना, वह अमूढ़द्रष्टि अंग है।
(5). उपगूहन अंग :: अपनी प्रशंसा कराने वाले गुणों को तथा दूसरे की निंदा कराने वाले दोषों को ढंकना और आत्मधर्म को बढ़ाना (निर्मल रखना) सो उपगूहन अंग होता है। संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और प्रशम सम्यकद्रष्टि को होते हैं।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥2.57॥
सर्वत्र आसक्ति रहित हुआ, जो मनुष्य किसी शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।
One who is detached from all places, events, goods, pleasures, pains, bonds-ties, allurements, do not feel pleasure, pain or envy by receiving-attaining any auspicious or inauspicious good has a stable mind-intelligence.
जो व्यक्ति समाज में रहकर, अपने दयित्वों को पूरा करते अथवा ना पूरा के पाते हुए भी निर्लिप्त, असंबद्ध, अविचलित है, वो स्थिर बुद्धि है। उसे मान-अपमान, राग-द्वेष, स्नेह-घृणा, ईर्ष्या परेशान नहीं करते; वो स्थिर बुद्धि है। जो धन सम्पत्ति, सुख-दुःख, विपदा में एकसार है, वो स्थिर बुद्धि है। उसे किसी चीज की चाहत भी नहीं है। उसके ऊपर अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ कोई प्रभाव उत्पन्न नहीं करतीं; वो स्थिर बुद्धि है। साधना हुई या नहीं हो पाई; उसके लिए चिंता का विषय नहीं है। अच्छाई-बुराई, भला-बुरा उसके लिए महत्वहीन हैं। वह विवेकशील है। उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित, एकरस, एकरूप है। वह परमात्मा में अचल-अटल है।
One who stays in the society-family, fails or succeed in carrying out his responsibilities, is undisturbed, perturbed, detached, has a stable-balanced mind. He remains as such (neutral) with or without love, affections-relationships, in honour or abuse, dishonour, insult or attachments, hate, envy, is balanced headed. He who is unilateral-neutral with wealth-property, pleasure-pain, adverse situations (hardships, troubles, tensions, tortures), is a stable person. He does no desire for any thing. He has been able to meditate or not, could pray to God or not, are not the matter of worry, consideration, anxiety, thought, reflection, concern, apprehension. Such things-events are insignificant for him. Holiness or sinfulness are not the matters of disruption for him. He is a thoughtful-prudent person. His brain is mature, tuned, unilateral, unidirectional, dedicated to the Almighty. He is undifferentiated fro the Ultimate-Eternal. He has attained equanimity.
Stability of auspicious & prudent mind, thoughts, ideas is essential. It helps one deciding his goal of life. The goal of human life is Salvation.
MOKSH PATAMU SNAKE & LADDER GAME :: The ancient educational game of Moksh-Patamu (fall, descent) was used to teach moral behaviour in India. Of Hindu origin, it taught the players that virtuous behaviour would aid progression to Nirvan-Salvation, but evil would make the journey difficult.
It was used to teach Hindu Dharm and Hindu values to children. The game was created by the 13th century poet saint Gyan Dev. The game was played with cowrie shells and dices. This is known as Gyan Chaupad (ज्ञान चौपड़, game of wisdom) as well.
The ladders were placed on the squares of virtue, which on the original game were, Faith 12, Reliability 51, Generosity 57, Knowledge 76 and Asceticism 78.
The snakes were placed on the squares of evil and were, Disobedience 41, Vanity 44, Vulgarity 49, Theft 52, Lying 58, Drunkenness 62, Debt 69, Rage 84, Greed 92, Pride 95, Murder 73 and Lust 99.
The Square 100 represented Nirvan or Moksh, Salvation, Liberation, Assimilation in the Almighty. Also known as Param Padam, there are a hundred squares on a board; the ladders take one up, the snakes bring him down. The squares are illustrated. The top of the ladder depicts a demigod or one of the various heavens (Kaelash Parwat, Vaekunth Lok, Brahm Lok) and so on, while the bottom describes a good quality. Conversely, each snake’s head is a negative quality or an Asur (Demon, Rakshas, Giant). As the game progresses, the various Karm-deeds and Sanskar, good deeds and bad, take one up and down the board. Interspersed are plants, people and animals.
The game serves a dual purpose :- entertainment, as well as dos and don’ts, divine reward and punishment, ethical values and morality. The final goal leads to Vaekunth or heaven, depicted by Bhagwan Shri Hari Vishnu surrounded by his devotees, or Kaelash with Bhagwan Shiv, Maa Parvati, Ganesh Ji and Skand-Bhagwan Kartikey and their devotees. In this age of moral and ethical degeneration, this would be a good way of teaching values to children who think they already know more than their parents.
If Param Padam teaches moral values, Pallenkuli develops skill and quick thinking. Two players compete on a board consisting of between seven and twenty pits per player; each player has to collect the coins or shells or seeds with which the game is played, the player with the maximum number being the winner. There are nine variations of this game, each a ‘Pandi’, with regional, caste and religious variations. It was very popular among women and required a good memory and alertness, as they had to count and remember the number of coins or seeds accumulated by the opponent.
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात! विषयान् विषवत् त्यज।
क्षमार्जवंदया शौचं सत्यं पीयूषवत्॥
यदि जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना चाहते हो तो इन्द्रियों की संतुष्टि के लिए विषयों को उसी तरह त्याग दो, जैसे विष को त्याग देते हो। इन सब को छोड़कर तितिक्षा, ईमानदारी का आचरण, दया, शुचिता और सत्य इसका अमृत पियो।[चाणक्य नीति 9.1] One who is desirous of attaining Salvation (renunciation, Liberation) should reject-discard sensualities, sexuality, lust, passions like poison. One should accept forgiveness, prayers-asceticism, truth, pity, purity (piousness, righteousness, virtuousness) as nectar-elixir.
Religion means faith in God. Faith is a factor which always keeps one tied to the welfare of others. The Ultimate goal of a faithful is assimilation in the Almighty-Permanand (extreme pleasure). Nothing is left to be attained once one tastes the Ultimate Pleasure-bliss. Salvation is the core of religion.
Religion means faith in God. Faith is a factor which always keeps one tied to the welfare of others. The Ultimate goal of a faithful is assimilation in the Almighty-Permanand (extreme pleasure). Nothing is left to be attained once one tastes the Ultimate Pleasure-bliss. Salvation is the core of religion.
धर्माSSख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत्।
सा सर्वदैव तिष्ठेच्चेत् को न मुच्येत बन्धनात्॥
मनुष्य के मन में धर्मोपदेश, श्मशान घाट में मोहभंग और बीमारी के वक्त भगवान् का ध्यान कायम रहे तो वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है।[चाणक्य नीति 14.6] If the pious thoughts which evolve in the mind while listening to religious discourses, sermons-preachings, thoughts in the cremation ground-graveyard and on being ill persists, a person can achieve liberation-relinquish this world easily.
Virtuous, righteous, pious thoughts-ideas which evolve in the mind should be retained-preserved, stored in the mind and one must decide to act accordingly. Understanding-application and rigorous practice-meditation yield the desired results pertaining to renunciation-assimilation in the Almighty. Illusions, desires, passions, sensualities can be controlled through practice. One who has a strong will power aided by devotion is very close to Salvation. There is the need to analyse and identify the self.
Virtuous, righteous, pious thoughts-ideas which evolve in the mind should be retained-preserved, stored in the mind and one must decide to act accordingly. Understanding-application and rigorous practice-meditation yield the desired results pertaining to renunciation-assimilation in the Almighty. Illusions, desires, passions, sensualities can be controlled through practice. One who has a strong will power aided by devotion is very close to Salvation. There is the need to analyse and identify the self.
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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