Tuesday, November 11, 2014

INITIATION OF STUDIES विद्यारम्भ :: HINDU PHILOSOPHY (4.12) हिन्दु दर्शन

INITIATION OF STUDIES 
विद्यारम्भ

(HINDU PHILOSOPHY (4.12) हिन्दु दर्शन) 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
प्रायः उपनयन संस्कार के दिन ही वेदारम्भ स्नस्कार कर लिया जाता है। आचार्य द्वारा ब्रह्मचारी को अपनी वेदशाखा का ज्ञान और मंत्रोपदेश कराया जाता है। 
उपनीय गुरुः शिष्यं महाव्याहृतिपूर्वकम्। 
वेदमध्यापयेदेनं शौचाचाराँश्च  शिक्षयेत्
आचार्य कुमार को उपनयन करके उसे महाव्याहृतियों के साथ वेद का अध्ययन कराये और शौचाचार की शिक्षा भी दे।
इस संस्कार में प्रारम्भ में वेदारम्भ वेदी में पंचभू संस्कार पूर्वक अग्नि स्थापन तथा हवन कर्म होता है। तदनन्तर ब्रह्मचारी बटुक को चाहिये कि वह प्रारम्भ में श्री गणेश जी आदि का पूजन कर वाग्देवी माँ सरस्वती, गुरु-आचार्य आदि का पूजन करे और उन्हें प्रणाम करके वेदमाता गायत्री का पाठ करने के अनन्तर वेदों की शिक्षा प्राप्त करे।
[याज्ञवल्कय स्मृति]
अपने वेद का सम्पूर्ण स्वाध्याय करने अनन्तर अन्य वेदों की भी शिक्षा आचार्य से प्राप्त करे। अन्त में प्रणव पूर्वक पुनः गायत्री का पाठ करके गुरु के द्वारा "ॐ विरामोस्तु" कहने पर शिष्य गुरु के श्री चरणों में प्रणाम करके विराम करे और आचार्य से अध्ययन के नियमों का ज्ञान प्राप्त करे। 
अधीत्य शाखामात्मीयां परशाखां ततः पठेत्।
सर्वप्रथम अपनी वेदशाखा का सांगोपाङ्ग अध्ययन करने के अनन्तर दूसरी शाखाओं का अध्ययन करे।[महर्षि वशिष्ठ, वीरमित्रोदय, संस्कार प्रकाश] 
उपनयन के अनन्तर आचार्य वेदारम्भ वेदी के समीप आकर बटुक को भी अपने समीप शुद्ध-स्चच्छ आसन पर बैठायें। तदनन्तर आचमन, प्राणायाम आदि करके गणेशादि देवों का स्मरणात्मक पूजन कर लें। इसके बाद निम्न रीति से वेदी पर अग्नि की स्थापना करें।
अग्नि स्थापन :: आचार्य वेदारम्भ संस्कार के लिये बनायीं गयी पंच भूसंस्कार से सम्पन्न*1  वेदी पर समुद्भव नामक अग्नि की स्थापना के लिये जल, अक्षत, पुष्प आदि लेकर संकल्प करें :- 
ॐ अद्य...गोत्रः...शर्माहमस्य माणवकस्य वेदारम्भसंस्कारकर्मणि समुद्भवनामकमग्ने: स्थापनं करिष्ये।
कहकर संकल्प जल छोड़ दें।
 *1 वेदारम्भ वेदी का संस्कार उपनयन संस्कार के समय सम्पन्न हो गया है, अतः पुनः करने की आवश्यकता नहीं है। 
इसके बाद सुवासिनी के द्वारा लायी गयी प्रदीप्त, निर्धूम समुद्भव नामक अग्नि की स्थापना वेदी पर निम्न मंत्र से करें :- 
ॐ अग्निं दूतं पुरो हव्यवाहमुप ब्रुवे। देवाँ आ सादयदिह। 
इसके बाद अग्नि के ऊपर उसकी रक्षा के लिये कुछ काष्ठ आदि डाल दें और अग्नि प्रज्वलित करें।  
ब्रह्मावरण *2 :: इसके बाद वरण सामग्री लेकर ब्रह्मा के वरण का संकल्प करें :- *ॐ अद्य...गोत्रः...शर्माहमस्मिन् वेदारम्भहवनकर्मणि कृताकृतावेक्षणादिकर्मकर्तुं... गोत्रं... शर्माणं ब्राह्मणमेर्भिरणद्रव्यैर्ब्रह्मत्वेन त्वामहं वृणे। 
वरणसामग्री ब्रह्मा-आचार्य को प्रदान करे :-   
*प्रायः परम्परा के अनुसार ब्रह्मा के न होने पर पचास कुशों में अग्नि लगाकर कुश ब्ह्मा बना लिया जाता है। इस स्थिति में ब्रह्मावरण की प्रक्रिया आचार्य द्वारा की जानी चाहिये।  
ब्रह्मा कहे :- वृतोऽस्मि। 
इसके बाद ब्रह्मा की प्रार्थना करें :- 
यथा चतुर्मुखो ब्रह्मा सर्ववेदधरः प्रभुः। 
तथा त्वं मम यज्ञेऽस्मिन् ब्रह्मा भव द्विजोत्तम 
ब्रह्मा को अग्नि की प्रदक्षिणा कराकर वेदी के दक्षिण भाग में आसन पर बैठे। 
कुशकण्डिका :: 
प्रणीता पात्र स्थापन :- इसके पश्चात यजमान प्रणीता पात्र को आगे रखकर जल से भर दे और उसको कुशाओं से ढककर तथा ब्राह्मण का मुख देखकर अग्नि की उत्तर दिशा की ओर कुशाओं के ऊपर रखे। 
Thereafter, a wooden pot is filled with water and is covered with the Kush, while visualising the priest in the North direction of fire place & placed over the Kush grass.
अग्नि वेदी के चारों तरफ कुश आच्छादन-कुश परिस्रण :- इक्यासी कुशों को ले (यदि इतने कुश उपलब्ध न हों तो तेरह कुशों को ग्रहण करना चाहिये। उनके 3-3 के 4 भाग करे। कुशों के सर्वथा अभाव में दूर्वा से भी काम चलाया जा सकता है।) इनको 20-20 के चार भाग में बाँटे। इन चार भागों को अग्नि के चारों ओर फैलाया जाये। ऐसा करते वक्त हाथ कुश से खाली नहीं रहना चाहिये। प्रत्येक भाग को फैलाने पर हाथ में एक कुश बच रहेगा। इसलिये पहली बार में 21 कुश लेने चाहिये। कुश बिछाने का क्रम :- कुशों का पहला हिस्सा (20 +1) लेकर पहले वेदी के अग्नि कोण से प्रारम्भ करके ईशान कोण तक उन्हें उत्तराग्र बिछाये। फिर दूसरे भाग को ब्रह्मासन से अग्निकोण तक पूर्वाग्र बिछावे। तदनन्तर तीसरे भाग को नैर्ऋत्य कोण से वायव्य कोण तक उत्तराग्र बिछावे और चौथे भाग को वायव्य कोण से ईशान कोण तक पूर्वाग्र बिछावे। पुनः दाहिने खाली हाथ से वेदी के ईशानकोण से प्रारम्भकर वामावर्त ईशानकोण पर्यन्त प्रदक्षिणा करे।
81 Kush pieces are taken and grouped in to blocks of 3-3 and subsequently divided into 4 parts. These 4 segments have to be spreaded around the fire place.  The hand should not be empty while doing so. On taking 21 pieces, 20 will be placed and one will still be there in the hand. The first group of Kush grass should be kept till the Ishan Kon i.e., North-East direction beginning from the South-East direction till the North front. The second group should be laid starting from the seat of the Priest till the South-West direction keeping the Eastern section in front. The third group has to be placed towards West-South till North-West direction facing North and the fourth group should be placed from North-West till North-East facing east wards. Now, he should circumambulate from right hand side (keeping the hand empty), beginning from North-East to North-East i.e., reaching the same point yet again, anti-clock wise. 
यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ पात्र ::
(1). स्रुवा :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में घी की आहुति दी जाती है।
(2). प्रणीता :- इसमें जल भरकर रखा जाता है। इस प्रणीता पात्र के जल में घी की आहुति देने के उपरान्त बचे हुए घी को "इदं न मम" कहकर टपकाया जाता है। बाद में इस पात्र का घृतयुक्त होठों एवं मुख से लगाया है जिसे संसव प्राशन कहते हैं।
(3). प्रोक्षिणी :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में वसोर्धारा (घी की धारा) छोड़ी जाती है। यही क्रिया स्रुचि के माध्यम से भी की जाती है। 
(4). स्रुचि :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में मिष्ठान की पूर्णाहुति दी जाती है। मिष्ठान की इस आहुति को स्विष्टकृत होम कहते हैं। यह क्रिया यज्ञ अथवा हवन में न्यूनता को पूर्ण करने के लिए की जाती है।
(5). स्फ़्य :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन की भस्म धारण की जाती है।
 
पात्रासादन (यज्ञपात्रों को यथास्थान या यथाक्रम रखना) :: हवन कार्य में प्रयोक्तव्य सभी वस्तुओं तथा पात्रों यथा-समूल तीन कुश उत्तराग्र (पवित्रक बनाने वाली पत्तियों को काटने के लिये), साग्र (आदि से लेकर आरंभ तक-पूरा, सब, कुल, समग्र) दो कुशपत्र (बीच वाली सींक निकाल कर पवित्रक (धार्मिक अनुष्ठानों में देवताओं की छवियों का स्नान और बड़ों पर पवित्र कारी पानी डालने का यंत्र) बनाने के लिये), प्रोक्षणी पात्र (अभाव में दोना या मिट्टी का स्कोरा), आज्य स्थाली (घी रखने के लिये पात्र), पाँच सम्मार्जन (सम्मार्जित झाड़ना बुहारना, साफ करना, स्नानादि मूर्ति का स्रुवा के साथ काम आनेवाला कुश या मुट्ठा, झाड़ू) कुश, सात उपनयन कुश, तीन समिधाएँ (प्रादेश मात्र लम्बी) स्त्रुवा, आज्य (घृत), यज्ञीय काष्ठ (पलाश आदि की लकड़ी), 256 मुट्ठी चावलों से भरा पूर्ण पात्र, चरु पाक के लिये तिल और मूँग से भरा पात्र आदि को पश्चिम से पूर्व तक उत्तराग्र अथवा अग्नि के उत्तर की ओर पूर्वाग्र रख लें।
वीणा
उनके आगे वीणा वादन करने वाले गायकों को बैठायें। 
वहाँ प्रादेश मात्र अग्रभाग सहित पीपल काष्ठ की कील तथा शल्लकी का काँटा, पीला सूत लपेटा हुआ एक तकुआ (spindle, चरखे-spinning wheel, में लगी लम्बी-पतली लोहे की लगभग एक फुट की छड़) जिस पर कता हुआ सूत लिपटता जाता है तथा कुशाओं की तीन पिंजूलिका (तेरह कुशाओं को लपेटकर एक पिंजूलिका बनती है) बनाकर स्थापित करनी चाहिये। ऐसी तीन पिंजूलिका स्थापित करें। गूलर के नवीन पत्ते की डाली, जिनके दोनों तरफ फल लगे हुए हों, सुवर्ण के तारयुक्त सूत्र, पुष्प, बिल्वफल सहित अन्यान्य मांगलिक पदार्थ स्थापित करें।
चरखा 
 All goods meant for the holy sacrifices in fire should be arranged in proper order. They are :- Kush-Uttragr,  two Kush leaves without middle thread for making Pavitrak, Dona or Sakora may be used if Pavitrak is not available, Pot for keeping Ghee-clarified butter, Five Kush meant for ritualistic cleaning, Seven Kush for Upnayan-Janeu (sacred loin thread), Three pieces of wood meant for burning in sacred fire,  Struva, Ghee,  Wood of Palash-Dhak meant for the Hawan, A pitcher to keep 256 fistfuls of rice, A pot filled with Til-Sesame & Mung) meant for Charu Pak. These goods should be kept ready  either moving from West to East or North of fire place facing East.
Two singers who plays Veena should be seated in front of them.
A Nail made of wood from fig tree, a thorn of Shallki, Yellow cotton thread. A spindle rod, Three Pinjulika-role made of Kush-one Pinjulika is formed by spinning 13 Kush one over each other, A branch of Gular tree having new leaves with new fruits on both sides, A thread having gold spined with it, Flowers, Bilv fruits and all other relevant goods used for auspicious rituals-occasions.
पवित्रक निर्माण :: दो कुशों के पत्रों को बायें हाथ में पुवाग्र रखकर इनके ऊपर उत्तराग्र तीन कुशों को दायें हाथ से प्रादेश मात्र दूरी छोड़कर मूल की ओर रख दें। तदनन्तर कुशों के मूल को पकड़कर कुशत्रय को बीच में लेते हुए दो कुश पत्रों को प्रदिक्षण क्रम से लपेट लें, फिर दायें हाथ से तीन कुशों को मोड़कर बायें हाथ में लें तथा दाहिने हाथ से कुश पत्रद्वय पकड़कर जोर से खींच लें। जब दो पत्तों वाला कुश कट जाये तब उसके अग्रभाग वाला प्रादेश मात्र दाहिनी ओर से घुमाकर गाँठ लगा दें, ताकि दो पत्र अलग-अलग न हों। इस तरह पवित्रक बन जायेगा।  शेष सबको-दो पत्रों के कटे हुए भाग तथा काटने वाले तीनों कुशों को, उत्तर दिशा में फेंक दें।  
MAKING OF PAVITRAK :: Two leaves of Kush should be kept in left hand eastwards and they should be covered with three Kush northward, keeping a distance of slightly-roughly equal to the distance between the thumb & the index finger with the right hand towards the root. Then hold the roots of Kush keep the three Kush in between and tie them clockwise. Now, Bind-turn the three Kush with the right hand and pull the three Kush cutting the two leaved Kush, tie it so that the two leaved Kush are not separated. This will form the Pavitrak. Through the remaining part as useless northward.
पवित्रक कार्य एवं प्रोक्षणी पात्र का संस्कार :: पूर्वस्थापित प्रोक्षणी को अपने सामने पूर्वाग्र रखें। प्रणीता में रखे जल का आधा भाग आचमनी आदि किसी पात्र द्वारा प्रोक्षणी पात्र में तीन बार डालें। अब पवित्री के अग्र भाग को बायें हाथ की अनामिका तथा अँगुष्ठ से और मूल भाग को दाहिने हाथ की अनामिका तथा अँगुष्ठ से पकड़कर, इसके मध्य भाग के द्वारा प्रोक्षिणी के जल को तीन बार उछालें (उत्प्लवन)। पवित्रक को प्रोक्षणी पात्र में पूर्वाग्र रख दें। प्रोक्षणी पात्र को बायें  हाथ में रख लें। पुनः पवित्रक के द्वारा प्रणीता के जल से प्रोक्षणी को प्रोक्षित करें। तदनन्तर इसी प्रोक्षणी के जल से आज्य  स्थाली, स्त्रुवा आदि सभी सामग्रियों तथा पदार्थों का प्रोक्षण करें अर्थात उन पर जल के छींटे डालें (अर्थवत्प्रेाक्ष्य)। इसके बाद उस प्रोक्षणी पात्र को प्रणीता पात्र तथा अग्नि के मध्य स्थान (असंचर देश) में पूर्वाग्र रख दें।
RITES PERTAINING TO PAVITRAK & PROKSHNI :: The Prokshani which was installed earlier should be kept in front. Half of the water kept in Pranita should be transferred to Prokshani vessel with the help of Achmani thrice. Now, hold the front of Pavitri with the third-Sun finger and the thumb of the left hand & root-base of of Pavitri with the third-Sun finger and the thumb of right hand and spill the water thrice kept in the Prokshani, with its middle segment. Pavitrak should be kept in the Prokshani with its front in forward direction.Again spill the water from the Pranita with Pavitrak over the Prokshani. Thereafter, spill the water from the Prokshani over Ajy Sthali, Struva and all other goods kept there for the purpose of Hawan. Thereafter, keep the Prokshani between Pranita and the fire place keeping it forward.
घी को आज्य स्थाली में निकालना :: आज्य पात्र से घी कटोरे में निकालकर उस पात्र को वेदी के दक्षिण भाग में अग्नि-आग पर रख दें। 
WITHDRAWING GHEE FROM THE AJY STHALI :: Keep the Ghee in a bowl and place it over the fire in the South of the fire place-Vedi. 
चरूपाक विधि ::  फिर आज्य स्थाली में घी डालें और चरु बनाने के लिये तिल, चावल तथा मूँग मिलायें और उनको प्रणीता पात्र के जल से तीन बार धोयें। इसके बाद किसी बर्तन में पानी भरकर उसमें तिल, चावल और मूँग डाल दें। तत्पश्चात यजमान उस चरुपात्र को हाथ में लेकर ब्राह्मण-पुरोहित से घी को ग्रहण कराकर वेदी स्थित अग्नि के उत्तर की ओर चरु को रखें और पुरोहित के हस्त स्थित घी को दक्षिण की ओर स्थापित करा दें। (ब्राह्मण-पुरोहित इन सब कार्यों को स्वतः विधि पूर्वक सम्पन्न करने में प्रशिक्षित होने चाहियें)। जिस समय चरु सिद्ध हो जाये अर्थात पक जाये, तब एक जलती हुई लकड़ी को लेकर चरुपात्र के ईशान भाग से प्रारम्भ कर ईशान भाग तक दाहिनी ओर घुमाकर अग्नि में डाल दें। फिर खाली बायें हाथ को बायीं ओर घुमाकर ईशान भाग तक ले आयें। यह क्रिया पर्यग्नि करण कहलाती है।MAKING-COOKING OF CHARU :: Pour Ghee in its pot and mix Til-sesame, rice and Mung pulse with it and wash them thrice with the water in water pot. Now, take some water in a cooking pot and put the Til, rice along with Mung pulse in it. Thereafter, the host performing Yagy-Hawan should place the pot containing Charu in the North direction of fire place, after handing over Ghee to the Brahmn-Purohit who would place the Ghee in South direction. The Priest should be well versed-trained and skilled in these routine jobs. As soon as the Charu is cooked a piece of burning wood should be moved in North-East direction reaching the same spot-point and put the wood over the Vedi-fire place.Then the left hand should be moved from from left to the North-East direction of the fire place. This process is termed as Pary Agni Karan. 
स्त्रुवा का सम्मार्जन (झाड़ना–बुहारना, साफ़ करना) :: जब घी कुछ पिघल जाये तब दायें हाथ में स्त्रुवा को पूर्वाग्र तथा अधोमुख होकर आग पर गर्म करें। पुनः स्त्रुवा को बायें  हाथ में पूर्वाग्र ऊर्ध्वमुख रखकर दायें हाथ से सम्मार्जित कुश के अग्र भाग से स्त्रुवा के अग्रभाग का, कुश के मध्य भाग से स्त्रुवा के मध्य भाग का कुश के मूलभाग से स्त्रुवा के मूलभाग का स्पर्श करें अर्थात स्त्रुवा का सम्मार्जन करें। उसके बाद सम्मार्जित कुशों को अग्नि में डाल दें।
CLEANING OF STRUVA :: After melting of Ghee, warm the Struva over the fire by keeping it in right hand. Now, keep the Struva in the left hand, lean forward and touch the middle & terminal segment of Struva with the Kush grass's middle segment with the middle and the last segment with the last-terminal segment.After that put the Kush used in the process, in fire.
स्त्रुवा का पुनः प्रतपन (गरम करना, गरमाहट पहुँचाना, तप्त करना, तपाना) :: अधोमुख स्त्रुवा को पुनः अग्नि में तपाकर अपने दाहिने ओर किसी पात्र, पत्ते या कुशों पर पूर्वाग्र रख दें।
HEATING OF STRUVA :: Now, leaning forward the Struva should be warmed and kept to the right over some pot, leaves or the Kush grass.
घृत पात्र तथा चरुपात्र की स्थापना :: घी के पात्र को अग्नि से उतारकर चरु के पश्चिम भाग से होते हुए पूर्व की ओर से परिक्रमा करके अग्नि (वेदी) के पश्चिम भाग में उत्तर की ओर रख दें। तदनन्तर चरुपात्र को भी अग्नि से उतार कर वेदी के उत्तर में रखी हुई आज्य स्थाली के पश्चिम से ल जाकर उत्तर भाग में रख दें। 
PLACEMENT OF GHEE POT & STRUVA :: Now, remove the Ghee pot from the fire place-Vedi, move it from West to East around the fire place and place it over the ground. Thereafter, the Charu pot should also be removed from the Vedi moving round from West direction & keep it to the North of the Ajy Sthali.
घृत का उत्प्लवन :: घृतपात्र को सामने रख लें। प्रोक्षणी में रखी हुई पवित्री को लेकर उसके मूलभाग को दाहिने हाथ के अँगूठे तथा अनामिका से बायें हाथ के अँगुष्ठ तथा अनामिका से पवित्री के अग्र भाग को पकड़कर कटोरे के घी को तीन बार ऊपर उछालें। घी का अवलोकन करें और यदि घी में कोई विजातीय वस्तु हो तो उसे निकालकर फेंक दें। तदनन्तर प्रोक्षणी के जल को तीन बार उछालें और पवित्री को पुनः प्रोक्षणी पात्र में रख दें। स्त्रुवा से थोड़ा घी चरु में डाल दें। 
EXUDATION OF GHEE :: The Ghee is thrown in an upward direction.The pot containing Ghee is kept in front. The Pavitri kept in the Prokshani should be held in the hand, at its base-handle, with the right hand thumb and the Sun-third finger & holding the front portion of the Pavitri with the third finger jump the Ghee upwards into the fire, thrice. Check the Ghee carefully & if anything unwanted-undesirable is present in it remove it. Keep the Pavitri again in the Prokshani. Transfer a bit of Ghee with Struva in the Charu.
तीन समिधाओं की आहुति :: ब्राह्मण-पुरोहित को स्पर्श करते हुए बायें हाथ में उपनयन (सात) कुशों को लेकर हृदय-छाती से बायाँ हाथ सटाकर, तीन समिधाओं को घी में डुबोकर मन से प्रजापति देवता का ध्यान करते हुए खड़े होकर, मौन हो, अग्नि में डाल दें और बैठ जायें। 
PUTTING THREE PIECES OF WOOD IN FIRE :: Touch the priest, hold 7 Kush straw near the chest-heart with left hand, put the three pieces of wood in the Vedi-fire pot, remember the Prajapati demigod-Devta, silently and sit down. 
पर्युक्षण (जलधारा को प्रवाहित करना) :: पवित्रक सहित प्रोक्षणी पात्र के जल को दक्षिण-उलटे हाथ की अंजलि में लेकर अग्नि के ईशान कोण से ईशान कोण तक प्रदक्षिणा क्रम से जल धारा का प्रवाह करें। पवित्रक को बायें-उलटे हाथ में लेकर फिर दाहिने खाली हाथ को उलटे-विपरीत अर्थात ईशान कोण से उत्तर होते हुए ईशान कोण तक ले आयें (इतरथावृत्ति:) और पवित्रक को दायें हाथ में लेकर प्रणीता में पूर्वाग्र रख दें। तदनन्तर हवन करें।
POURING WATER :: Hold the Prokshani with the Pavitrak and pour-immerse water by holding it in the left palm, from North-East direction of the Vedi-fire pot bringing it back, leading to immersion. Hold the Pavitrak in the left hand move the empty right hand in opposite direction i.e., North of North-East. Hold the Pavitrak in right hand and put the Pranita in the East. Now, get ready for the holy sacrifices in fire i.e., Hawan.
Please refer to :: YAGY-HAWAN यज्ञ-हवन santoshsuvichar.blogspot.com 
अग्नि प्रतिष्ठा :: निम्न वाक्य बोलकर अक्षत छोड़ते हुए पूर्व में वेदी पर स्थापित अग्नि की प्रतिष्ठा करें :- 
ॐ समुद्भवनामाग्ने सुप्रतिष्ठितो वरदो भव।
इस प्रकर प्रतिष्ठा करके अग्निदेव का ध्यान करें :- 
अग्नि प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनम्। सुवर्णवर्णममलमनन्तं विश्वतोमुखम्
सर्वतः पाणिपादश्च सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः। विश्वरूपो महानग्नि: प्रणीत: सर्वकर्मसु 
ॐ चत्वारि शृंङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य। 
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्या आ विवेश
ॐ भूर्भुवः स्वः समुद्भवनाम्ने अग्नये नमः सर्वोपचारार्थे गंधाक्षतपुष्पाणि  समर्पयामि। 
कहकर अग्नि का पूजन कर ले। 
उक्त मंत्रों से अग्नि की प्रतिष्ठा और पूजा करने के अनन्तर आचमन करके दक्षिण जानुओं को भूमि पर टेककर, मौन रहकर मूल और मध्य से स्त्रुवा को पकड़कर घी से हवन करें। हवन के समय ब्रह्मा कुशा से हवनकर्ता का स्पर्श किये रहें (ब्रह्मणान्वारब्ध)। इसके पूर्व द्रव्य त्याग के लिये हाथ में जल लेकर निम्न वाक्य बोलें :- 
इदमाज्यं तत्तद्देवतायै मया परित्यक्तं यथादैवतमस्तु न मम। 
तदनन्तर निम्न मंत्रों से घी की आहुति प्रदान करें। स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी पात्र में छोड़ते जायें। 
(1). ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। 
(2). ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम।
(3). ॐ अग्नये स्वाहा, इदं अग्नये न मम। 
(4). ॐ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम।
इसके बाद ब्रह्मा हवनकर्ता से कुशों का स्पर्श हटा ले (अन्नवारब्ध) और उसके बाद हवन करें।
पहले यजुर्वेद के मंत्रों से आहुति प्रदान करें :- 
यजुर्वेद के लिये आहुतियाँ ::
(1).ॐ अन्तरिक्षाय स्वाहा, इदमन्तरिक्षाय न मम। 
(2). ॐ  वायवे स्वाहा, इदं वायवे न मम। 
(3). ॐ  ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम।
(4). ॐ छन्दोभ्यः  स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम।
ऋग्वेद के लिये आहुतियाँ ::
(1). ॐ  पृथिव्यै स्वाहा, इदं पृथिव्यै न मम।
(2). ॐ अग्नये स्वाहा, इदं अग्नये न मम। 
(3). ॐ  ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम।
(4). ॐ छन्दोभ्यः  स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम। 
इसके बाद सामवेद के मन्त्रों से आहुति प्रदान करें :- 
सामवेद के लिये आहुतियाँ ::
(1).  ॐ  दिवे स्वाहा, इदं दिवे  न मम।
(2). ॐ  सूर्याय स्वाहा, इदं सूर्याय न मम। 
(3). ॐ  ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम। 
(4). ॐ छन्दोभ्यः  स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम।
इसके बाद अथर्ववेद के मन्त्रों से आहुति प्रदान करें :-
अथर्ववेद  के लिये आहुतियाँ ::
(1. ॐ  दिगभ्य: स्वाहा, इदं दिगभ्यो न मम।
(2). ॐ  चन्द्रमसे स्वाहा, इदं चन्द्रमसे  न मम।
(3). ॐ  ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम।
(4). ॐ छन्दोभ्यः स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम।
सामान्य आहुतियाँ ::
(1). ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। 
(2). ॐ देवेभ्य: स्वाहा, इदं देवेभ्यो  न मम। 
(3). ॐ ऋषिभ्यः स्वाहा, इदमृषिभ्यो न मम।
(4)ॐ श्रद्धायै स्वाहा, इदं श्रद्धायै न मम। 
(5). ॐ मेधायै  स्वाहा, इदं मेधायै  न मम। 
(6). ॐ सदसस्पतये स्वाहा, इदं सदसस्पतये न मम। 
(7). ॐ अनुमतये स्वाहा, इदं अनुमतये न मम। 
पुनः ब्रह्मा हवनकर्ता का कुशों से स्पर्श करें और निम्न मंत्रों से आहुति प्रदान करें :-
नवाहुति ::
(1). ॐ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम। 
(2). ॐ भूवः स्वाहा, इदं वायवे न मम। 
(3). ॐ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम। 
(4). ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठा:। यजिष्ठो वहिनतमः शोशुचानो विश्वा द्वेषासि प्र मुमुग्ध्स्मत्स्वाहा इदमग्नयीवरुणाभ्यां न मम।
(5). ॐ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती, नेदिष्ठो अस्या ऽ उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुण रराणो, वीहि मृडीक सुहवो न ऽ एधि स्वाहा इदमग्नीवरुणाभ्यां इदं न मम।  
(6). ॐ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्वमयाऽअसि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज स्वाहा॥ इदमग्नये अयसे इदं न मम।
(7). ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। 
तेभिर्नोअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्का: स्वाहा॥ 
इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च इदं न मम। 
(8). ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमश्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसोअदितये स्याम स्वाहा इदं वरुणायादित्यायादितये च इदं न मम।
(9). ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम (यह मौन रहकर पढ़ें)। 
स्विष्टकृत् आहुति ::
इसके बाद ब्रह्मा द्वारा कुश से स्पर्श किये जाने की स्थिति में (ब्रह्मणान्वारब्ध) निम्न मन्त्र से घी के द्वारा  स्विष्टकृत्  आहुति दें :- 
ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।
संस्रवप्राशन ::
हवन होने पर प्रोक्षणी पात्र स घी दाहिने हाथ में लेकर यत्किंचित् पान करें। फिर आचमन करें। 
मार्जन विधि :: इसके बाअद निम्नलिखित मन्त्र द्वारा प्रणीता पात्र के जल से कुशों के द्वारा अपने सिर पर मार्जन करें। 
ॐ सुमित्रया न आप ओषधय: सन्तु। 
इसके बाद निम्न मन्त्र से जल नीचे छोड़ें :-
ॐ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्म:।
पवित्र प्रति पत्ति :: पवित्रक को अग्नि में छोड़ दें।  
पूर्ण पात्र दान :: पूर्व में स्थापित पूर्णपात्र में द्रव्य-दक्षिणा रखकर निम्न संकल्प के साथ दक्षिणा सहित पूर्ण पात्र ब्राह्मण-पुरोहित को प्रदान करें। 
ॐ अद्य नामकरणसंस्कारहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदं वृषनिष्क्रयद्रव्यसहितं पूर्णपात्रं प्रजापतिदैवतं...गोत्राय...शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे। 
ब्राह्मण "स्वस्ति" कहकर उस पूर्ण पात्र को ग्रहण करें। 
प्रणीता विमोक :: प्रणीता पात्र को ईशान कोण में उलटकर रख दें। 
मार्जन :: पुनः कुशा द्वारा निम्न मंत्र से उलटकर रखे गए प्रणीता के जल से मार्जन करें। 
ॐ आपः  शिवा: शिवतमा: शान्ता: शान्ततमास्तास्ते कृञ्वन्त् भेषजम्। 
उपनयन कुशों को अग्नि में छोड़ दें।  
बर्हि होम :: तदनन्तर पहले बिछाये हुए कुशाओं को जिस क्रम में बिछाया गया था, उसी क्रम में उठाकर घी में भिगोयें और निम्न मन्त्र से स्वाहा का उच्चारण करते हुए अग्नि में छोड़ दें :- 
ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित। 
मनसस्पत इमं देव यज्ञँ स्वाहा वाते धा: स्वाहा। 
कुश में लगी ब्रह्मग्रंथि को खोल दें।
देवपूजन :: इसके बाद ब्रह्मचारी देवपूजन करने के लिये हाथ में जल, अक्षत, पुष्प, सुपारी लेकर संकल्प करे :- 
ॐ अद्य...गोत्रः...शर्माहं पूर्वोच्चारितग्रहगुणविशेषणविशिष्टायां पुण्यतिथौ मम ब्रह्मवर्चसिद्ध्यर्थं वेदारम्भकर्मणः पूर्वाङ्गत्वेन गणपतिसहितसरस्वतीविष्णुलक्ष्मीयजुर्वेदगुरूणां पूजनं करिष्ये। 
इसके बाद लकड़ी के पाटे पर दक्षिणसे उत्तर की ओर पॉंच स्थानों पर दही-चावल मिलाकर (दध्यक्षत पुंज) रखे तथा उन पर सुपारी रखे और उन पर मंत्रों से गणपति आदि देवताओं की यथाक्रम स्थापना करें :- 
(1). ॐ भूर्भुवः स्वः गणेश इहागच्छ पूजार्थं त्वामावाहयामि। इह तिष्ठ। 
(2). ॐ भूर्भुवः स्वः विष्णो इहागच्छ पूजार्थं त्वामावाहयामि। इह तिष्ठ। 
(3). ॐ भूर्भुवः स्वः स्वः सरस्वति इहागच्छ पूजार्थं त्वामावाहयामि। इह तिष्ठ। 
(4). ॐ भूर्भुवः स्वः स्वः लक्ष्मी इहागच्छ पूजार्थं त्वामावाहयामि। इह तिष्ठ। 
(5). ॐ भूर्भुवः स्वः स्वविद्ये इहागच्छ पूजार्थं त्वामावाहयामि। इह तिष्ठ।
निम्न मंत्र से अक्षत छोड़ते हुए देवों की प्रतिष्ठा करें :- 
ॐ एतं ते देव सवितर्यज्ञं प्राहुर्बृहस्पतये ब्रह्मणे। 
तेन यज्ञमव तेन यज्ञपतिं तेन मामव  
नाममन्त्रों से गन्धाक्षत पुष्पों द्वारा सबका पूजन करें। 
गुरु पूजन :: बटुक गन्ध-पुष्पादि द्वारा गुरु का पूजन करे और उनके चरणों में प्रणाम करे। 
वेदारम्भ :: इसके बाद सर्वप्रथम प्रणव व्याहृति पूर्वक गायत्री मंत्र को पढ़कर अपने वेद की शाखा का आरम्भ करें, यथा -
हरि: ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
शुक्ल यजुर्वेद का आरम्भ :: 
ॐ इषे त्वोर्जे त्वा वायस स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्टतमाय कर्मण आप्यायध्व मघ्न्या इन्द्राय भागम्प्रजावतीरनमीवा अयक्ष्मा मा व स्तेन माधश सो ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात बह्यीर्यजमानस्य पशून् पाहि 
ऋग्वेदारम्भ :: ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्न धातमम्। 
साम वेदारम्भ :: ॐ अग्न आ याहि गृणानो ह्वयदायते। नि होता सत्सि बर्हिषि।
अथर्व वेदारम्भ :: ॐ शं नो देवीरभिष्टय आयो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः। पुनः गायत्री मंत्र का पाठ करें और "विरामोस्तु" कहकर गुरु के कहने पर शिष्य उनके चरणों में प्रणाम करे और पाठ बन्द करे।  
काशी प्रस्थान :: आचारानुसार इस अवसर पर ब्रह्मचारी को वेद पढ़ने के लिये काशी भेजते हैं। 
विद्यार्थी के नियम :: आचार्य के द्वारा बुलाने पर लेते हुए शिष्य द्वारा बैठकर, बैठे हुए शिष्य द्वारा खड़े होकर, खड़े हुए शिष्य द्वारा चलते हुए, चलते हुए शिष्य को दौड़ते हुए उत्तर देना चाहिये।      
त्रयायुष्करण :: इसके बाद आचार्य बैठकर स्त्रुवा द्वारा भस्म लें और दाहिने हाथ की अनामिका अँगुली से निम्न मंत्रों का पाठ करते हुए पहले स्वयं पुनः इसी रीति से शिष्य को भी लगायें।  
ॐ त्र्यायुषं जमदग्ने: - ललाट पर भस्म लगायें।  
ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषम् - ग्रीवा में भस्म लगायें। 
ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषम् - दक्षिण बाहु के मूल में भस्म लगायें। 
ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम् - ह्रदय-छाती पर भस्म लगायें। 
अग्नि विसर्जन :: इसके बाद अक्षत छोड़ते हुए समुद्भव नामक अग्नि की पूजाकर विसर्जन करें :- 
गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थाने परमेश्वर। 
यत्र ब्रह्मदयो देवास्तत्र गच्छ हुताशन 
विष्णु स्मरण :: इसके बाद हाथ में पुष्प लेकर विष्णु का स्मरण करते हुए समस्त कर्म उन्हें अर्पण करे -
ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। 
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥ 
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्  
यत्पादपङ्कज स्मरणात् यस्य नामजपादपि। 
न्यूनं कर्मं भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्
ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 
हरी ओम ॐ तत्सत्

    
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