Wednesday, January 7, 2015

CREMATION अन्त्येष्टि संस्कार :: HINDU PHILOSOPHY (4.15) हिंदु दर्शन

अन्त्येष्टि संस्कार CREMATION
 HINDU PHILOSOPHY (4.15) हिंदु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
जीव की सदगति के उद्देश्य से मरणासन्न अवस्था में किये जाने वाले दानादि कृत्य तथा मृत्यु के तत्काल बाद दाहादि कर्म और षट्पिण्डदान अन्त्येष्टि संस्कार कहलाते हैं।अन्त्येष्टि (अन्त्य + यज्ञ) अन्त्य का अर्थ है अन्तिम और इष्टि का अर्थ है यज्ञ। यह हिन्दु का अंतिम संस्कार है। इसी को अन्त्य कर्म, और्ध्वदैहिक संस्कार, पितृमेध तथा पिण्डपितृ यज्ञ भी कहते हैं। 
निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रैर्यस्योदितो विधिः। 
तस्य शास्त्रेSधिकारोSस्मिञ्ज्ञेयो नान्यस्य कस्यचित्॥
जिन लोगों-हिन्दुओं के हेतु मंत्रों द्वारा गर्भाधान से श्मशान तक सब संस्कार की विधि कही गई है; उन्हीं लोगों को इस शास्त्र के अध्ययन का अधिकार है, अन्य किसी को नहीं।[मनु स्मृति 2.16] 
Only those who have been taught the rites beginning from impregnation to cremation-funeral, are authorised to learn-study this treatise, none else.
ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्रा वर्णास्त्वाद्यास्त्रयो द्विजाः। 
निषेकाद्या: श्मशानान्तास्तेषां वै मन्त्रतः क्रियाः
यह संस्कार भी शरीर के माध्यम से होता है। संस्कृत अग्नि से शरीर के दाह से उसकी आत्मा की परलोक में सद्गति होती है।[याज्ञवल्कय 1.2.10]  
अन्त्येष्टि संस्कार मुख्यतः दो रूपों में सम्पन्न होता है। पहला पक्ष मरणासन्न अवस्था का है और दूसरा पक्ष मृत्यु के अनन्तर अस्थि संचयन तक किया जाने वाला कर्म है। जन्म की समाप्ति मरण से होती है, इसलिये मृतक का संस्कार यथाविधि करना आवश्यक है।
मरणासन्न अवस्था में दान :: जीवन के अन्तिम समय में गोदान, सुवर्णदान, भूमिदान, तिलदान आदि का विशेष महत्व है। मरणासन्न व्यक्ति के हाथ से ये दान सम्पन्न कराने चाहिये। यदि यह सम्भव न हो तो उत्तराधिकारी या प्रतिनिधि इस कार्य को सम्पन्न कर सकता है। 
हिरन्यदानं गोदानं पृथिवीदानमेव च। 
एतानि वै पवित्राणि तारयन्त्यपि दुष्कृतम्
[महाभारत 59.5]
महादानेषु दत्तेषु गतस्तत्र सुखी भवेत्।
[गरुड़ पुराण प्रेत खण्ड 19.3]
एकैकं पावनं स्मृतम्। 
[गरुड़ पुराण प्रेत खण्ड 4.39]
ये दान गयाश्राद्ध से भी बढ़कर माने गये हैं। यदि ये दान नहीं किये गए तो प्राणी को बहुत कष्ट से यममार्ग में यात्रा करनी पड़ती है। 
और्ध्व दैहिक यैर्न दत्तानि काश्यप। 
महाकष्टेन ते यान्ति तस्माद् देयानि शक्तितः
[गरुड़ पुराण प्रेत खण्ड 19.13]  
पंच धेनु दान :: शस्त्रों में मरणासन्न व्यक्ति के द्वारा अन्तिम समय में गोदान करने तथा पंचधेनु दान करने का विशेष महत्व है। पाँच गौओं का वर्णन :- 
 (1). ऋणापनोद धेनु :- देव-ऋण, पितृ ऋण, मनुष्य ऋण एवं अन्य ऋणों से उऋण होने के लिये ऋणापनोद धेनु का दान किया जाता है। 
(2). पापापनोद धेनु :- ज्ञात-अज्ञात पापों से छुटकारा  पाने के लिये पापापनोद धेनु का दान किया जाता है। 
(3). उत्क्रान्ति धेनु :- अन्तिम समय पर प्राणोत्सर्ग में अत्यधिक कष्ट की अनुभूति होती है, सुख पूर्वक प्राण नीमकें, इसके उत्क्रान्ति धेनु का दान किया जाता है। 
(4). वैतरणी धेनु :- यममार्ग में स्थित घोर वैतरणी नदी को बिना कष्ट पार करने के लिये वैतरणी धेनु का दान किया जाता है। 
(5). मोक्ष धेनु :- मोक्ष प्राप्ति के लिये मोक्ष धेनु का दान किया जाता है। 
वैतरणी*1 :: पापी मनुष्य को मरणोपरान्त यमदूतों द्वारा यमलोक के जाया जाता है जहाँ पर उसे भयानक प्रतारणा, कष्ट भुगतना पड़ता है। वह व्यक्ति मार्ग में प्रलाप करता रहता है। इस दौरान वह अपने पाप कर्मों को याद करता है। उसे याद आता है कि उसने गुरुजनों, माता-पिता, साधु-संतों, ब्राह्मणों, गौ, सत्पुरुषों की सेवा नहीं की। दान-पुण्य, तपस्या नहीं की। उसने ताउम्र दुराचरण-दुराचार, समाज विरोधी कार्य किये। वह आतंकवाद, मार-काट में लगा रहा। वेद-शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया। परिणाम स्वरूप उसे 100 योजन छोड़ी वैतरणी से गुजरना पड़ता है जो पीप, मामाद, रक्त, दुर्गन्ध युक्त है। उसकी किनारे हड्डियों के ढ़ेर पड़े हैं। उसे वज्र के समान तीक्ष्ण चोंच वाले भयंकर पक्षी (कौए, गिद्ध आदि) नौंच-नौंच कर खाते है। पापात्मा रोता, चीखता-चिल्लाता है  मगर उसे बचाने वाला कोई नहीं होता। 
वैतरणी को पार करने में गौ दान महाफल दायक है। यह गाय इसे वहाँ मिलती है जिसकी पूँछ पकड़कर वह इसे सरलता से पार कर लेता है। वैतरणी गोदान में प्रार्थना :- 
धेनुके मां प्रतीक्षस्व यमद्वारमहापथे। 
उत्तारणार्थं देवेशि वैतरण्यै नमोऽस्तु ते॥
हे गौमाता! यमद्वार के महापथ में वैतरणी को पार करने के लिये आप मुझे वहाँ मिलना, आपको नमस्कार है। 
*1 वैतरणी :: यम के दूत जब धरती से लाए गए व्यक्ति को इस नदी के समीप लाकर छोड़ देते हैं तो नदी में से जोर-जोर से गरजने की आवाज आने लगती है। नदी में प्रवाहित रक्त उफान मारने लगता है। पापी मनुष्य की जीवात्मा डर के मारे थर-थर कांपने लगती है। केवल एक नाव के द्वारा ही इस नदी को पार किया जा सकता है। उस नाव का नाविक एक प्रेत है। जो पिंड से बने शरीर में बसी आत्मा से प्रश्र करता है कि किस पुण्य के बल पर तुम नदी पार करोगे। जिस व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में गौदान किया हो केवल वह व्यक्ति इस नदी को पार कर सकता है, अन्य लोगों को यमदूत नाक में काँटा फँसाकर आकाश मार्ग से नदी के ऊपर से खींचते हुए ले जाते हैं।
व्रत और उपवास का पालन करने से गोदान का फल प्राप्त होता है। दान वितरण है। इस नदी का नाम वैतरणी है। अत: दान कर जो पुण्य कमाया जाता है, उसके बल पर ही वैतरणी नदी को पार किया जा सकता है।
वैतरणी नदी की यात्रा को सुखद बनाने के लिए मृतक व्यक्ति के नाम वैतरणी गोदान का विशेष महत्व है। पद्धति तो यह है कि मृत्यु काल में गौमाता की पूँछ हाथ में पकड़ाई जाती है या स्पर्श करवाई जाती है। लेकिन ऐसा न होने की स्थिति में गाय का ध्यान करवा कर प्रार्थना इस प्रकार करवानी चाहिए।
शत योजन विस्तीर्ण, वैतरणी नर्क में प्रवाहित होने वाली तप्त जल से भरी हुई रक्त-पूय-युक्त, माँस, कर्दम, संकुल एवं दुर्गंधपूर्ण है। इस नदी में पापी प्राणी मरने के बाद (प्रेत शरीर धारण कर) रोते हुए गिरते हैं और भयंकर जीव जंतुओं द्वारा दंशि एवं त्रासित होकर रोते रहते हैं। पापियों के लिए इसके पार जाना अत्यंत कठिन माना गया है। यमलोक में स्थित इस नदी को पार करने के लिए धर्मशास्त्र में कुछ उपाय भी कहे गए हैं।[गरुड़ पुराण, शंखस्मृति]
भागीरथी गंगा जब पितृलोक में बहती है तब वह वैतरणी कहलाती है।[महाभारत]
वैतरणी कुरूक्षेत्र की एक नदी थी जिसकी गणना कुरूक्षेत्र की सप्तनदियों में की जाती है :-
सरस्वती नदी पुण्या तथा वैतरणी नदी, 
आपगा च महापुण्या गंगा-मंदाकिनी नदी। 
मधुस्रवा अम्लुनदी कौशिकी पापनाशिनी, 
दृषद्वती महापुण्या तथा हिरण्यवती नदी।
उड़ीसा में भी वैतरणी नामक एक नदी बहती है, जो सिंह भूम के पहाड़ों से निकल कर बंगाल की खाड़ी में धामरा नामक स्थान के निकट गिरती है।[वामन पुराण] 
यह कलिंग की प्रख्यात नदी थी :-
चित्रोत्पलां चित्ररथां मंजुलां वाहिनी तथा मंदाकिनी वैतरणी कोषां चापि महानदीम्।
पद्मपुराण में इसका वर्णन एक अत्यन्त पवित्र करने वाली नदी के रूप में किया गया है।[महाभारत-भीष्म पर्व] 
यम नदी :: 
यमस्त वैतरिणम्।[बौद्ध ग्रंथ-संयुक्तनिकाय]
वैतरणी को पार करने के पश्चात् ही जीव की सद्गति  सम्भव है।
धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करने वाला व्यक्ति, चाहे वह राजा हो या राजकर्मचारी हो या श्रेष्ठ कुल में पैदा हुआ व्यक्ति हो, उसे वैतरणी नामक नरक मिलता है। वैतरणी नदी में इनको मल, मूत्र, रक्त, चर्बी मांस मज्जा अस्थि आदि निकृष्ट वस्तुएँ मिलती हैं तथा जल और मल-मूत्र में रहने वाले कीड़े इनको सदा सताया व खाया करते हैं। नरक लोक में सूर्य के पुत्र यम रहते हैं और मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मों का दण्ड देते हैं। नरकों की संख्या 28 कही गई है, जो इस प्रकार है :- 
(1). तामिस्र, (2). अन्धतामिस्र, (3). रौरव, (4). महारौरव, (5). कुम्भी पाक, (6). कालसूत्र, (7). असिपत्रवन, (8). सूकर मुख, (9). अन्ध कूप, (10). कृमि भोजन, (11). सन्दंश, (12). तप्तसूर्मि, (13). वज्रकंटक शाल्मली, (14). वैतरणी, (15). पूयोद, (16). प्राण रोध, (17). विशसन, (18). लालाभक्ष, (19). सारमेयादन, (20). अवीचि, (21). अयःपान, (22). क्षारकर्दम, (23). रक्षोगणभोजन, 24. शूलप्रोत, (25). द्वन्दशूक,  (26). अवटनिरोधन, (27). पर्यावर्तन और (28). सूची मुख। 
वैतरणी गोदान मंत्र ::
धेनुके त्वं प्रतीक्षास्व यमद्वार महापथे। उतितीर्षुरहं भद्रे वैतरणयै नमौऽस्तुते॥
पिण्डदान कृत्वा यथा संभमं गोदान कुर्यात।
वैतरणी नदी का निर्माण :: वैतरणी गोदान में वैतरणी नदी बनाकर, गौ की पूँछ पकड़कर उसे पार किया जाता है। उसके लिये किसी शुद्ध पवित्र स्थान पर लम्बा गड्ढा खोदकर अथवा मिटटी की बाढ़ बनाकर उसमें पानी भरकर वैतरणी नदी का आकार बनाना चाहिये। गन्ने के टुकड़े काटकर एक नाव बनानी चाहिये और उसमें यज्ञ पुरुष, कपास तथा लौहदण्ड रखना चाहिये। नदी पश्चिम से पूर्व की ओर बहने वाली होनी चाहिये और पार करनेवाला उत्तर से दक्षिण की ओर जाये। आगे गाय होनी चाहिये। उसकी पूँछ में कलावे-मौली से नाव बँधी होनी चाहिये और पूजित गाय की पूँछ तथा नाव को पकड़ कर पार करने वाला उसके पीछे होना चाहिये। गौ को उस नदी को पार कराते हुए उसके सहारे स्वयं भी पार हो जाये। बाद में ब्राह्मण को गौ दान में दे दे।[गरुड़ पुराण]
मरणासन्न अवस्था के दानादि कृत्य करने के अनन्तर दाह कर्ता क्षौर एवं स्नान करके शव का संस्कार करे और अर्थी बनवा ले। तदनन्तर मृत्यु स्थान से अस्थि संचय तक के लिये पिण्ड दान करने के लिये जौ के आटे आदि से छः पिण्डों को बनाकर निम्न स्थानों पर पिण्ड दान करे। (1). जिस स्थान पर मृत्यु हुई हो, (2). घर के दरवाजे पर, (3). श्मशान मार्ग के चौराहे पर, (4). विश्राम स्थल पर, (5). काष्ठ चयन-चिता स्थल पर और (6). दाह स्थल पर। पिण्डदान के अनन्तर चिता स्थल को साफ कर देना चाहिये। अन्त में स्नान कर प्रेत के उद्देश्य से तिलतोयांजलि प्रदान करे। श्मशान से वापस लौट आये। गृहद्वार पर अग्नि आदि का स्पर्श करके घर में प्रवेश करे। 
जीव के उद्देश्य से दस दिन तक घट दान तथा दीप दान करे और दशगात्र के दस पिण्डों को प्रदान करे, इससे यातनामय देह का निर्माण होता है। आगे एकादशाह तथा सपिंडीकरण के श्राद्ध आदि करे। वर्ष के अनन्तर वार्षिक श्राद्ध तथा महालय में मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करे। जीव की सद्गति के लिये गया श्राद्ध आदि का भी विधान है। 
पंचक मृत्यु :: धनिष्ठार्द्ध, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती-इन पाँच नक्षत्रों को पंचक कहा गया है। पंचक नक्षत्रों में मृत्यु होने पर कुशों की पाँच प्रतिमा-पुत्तल बनाकर शव के साथ ही इनका भी दाह किया जाता है।  विशेष बात यह है कि मृत्यु पंचक के पूर्व हो गई हो और दाह पंचक में होना हो तो पुत्तलों का विधान करे। ऐसा करने पर पंचक शान्ति की आवश्यकता नहीं रहती। इसके विपरीत यदि पंचक में मृत्यु हो और दाह पंचक के बाद हो तो केवल शान्ति कर्म करे। इसमें पुत्तल दाह की आवश्यकता नहीं रहती। यदि मृत्यु भी पंचक में हो और दाह भी पंचक में हो तो पुत्तल दाह तथा शान्ति दोनों कर्म करे। 
देहत्याग से पहले के कृत्य :: जातक को मृत्यु से पहले यदि सम्भव हो तो गँगा आदि पवित्र नदी के तट पर ले जायें अन्यथा घर पर ही धरती पर गोबर-मिट्टी से लिपे हुए स्थान पर गंगाजल का छिड़काव करके मार्जन करा दें। उस स्थान पर मूँज-कुश आदि की चटाई पर जातक को उत्तर या पूर्व दिशा में सिर करके लिटा दें। 
दर्भाण्यादौ समास्तीर्य दक्षिणाग्राण्विकीर्य च। 
तिलान् गोमय लिप्तायां भूमौ तत्र निवेशयेत्॥...  
माथे पर तुलसी दल रखें। ऊँचे स्थान पर शालग्राम की स्थापना करें। घी का दीया सिरहाने जला दें। भगवान् के नामों का उच्चारण निरन्तर करते रहें। मरणासन्न जातक यदि कर सके तो उसी के हाथों से भगवान् की पूजा सम्पन्न करा दें अन्यथा परिवारजन यह कार्य सम्पन्न करें।[गरुड़पुराण, प्रेत खण्ड 32.86-88]  
उसके मुख में शालग्राम का चरणामृत डालते रहें। बीच-बीच में तुलसीदल मिलाकर गंगाजल भी पिलाते-मुँह में डालते रहें। इससे उसके पापों का नाश होगा और वह बैकुण्ठ लोक को प्राप्त होगा। वेद-पुराण, उपनिषद, गीता, रामायण, भागवत आदि का पाठ करते रहें। यदि उसके द्वारा किसी व्रत का उद्यापन न हो स्का हो तो उसे भी करा दें। 
मरणासन्न व्यक्ति की सद्गति के लिये दशमहादन-अष्टमहादान तथा गोदान करने का विधान है।  यदि ये पहले न किये है जा सके हों तो इस समय कर लेना चाहिये।  शीघ्रता में यदि प्रत्यक्ष वस्तुएँ उपलब्ध न हों तो अपनी शक्ति के अनुरूप निष्क्रय द्रव्य का उन वस्तुओं के निमित्त संकल्प कर ब्राह्मण को दे दें। 
मरणासन्न व्यक्ति के द्वारा अन्तिम समय में गोदान करने का विशेष महत्व है। यदि प्रत्यक्ष गोदान करना सम्भव न हो तो संकल्प पूर्वक निष्क्रय द्रव्य का दान करें। पंचधेनु का दान प्रत्यक्ष गौ के द्वारा करना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति पाँचों प्रत्यक्ष गोदान करने में असमर्थ हो तो पॉंचों के प्रतिनिधि के रूप में एक प्रत्यक्ष गौ का दान करना चाहिये अथवा निष्क्रय द्रव्य प्रदान करना चाहिये। 
गोदान का संकल्प :: यदि प्रत्यक्ष गौ देना हो तो सर्वप्रथम उसकी पूजा कर लें। यदि निष्क्रय द्रव्य देना हो तो गौ का मानसिक पूजन करें और निम्न मंत्र से प्रार्थना करें :- 
नमो गोभ्यः श्रीमतीभ्यः सौरभेयीभ्य एव च। 
नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राभ्यो नमो नमः॥
तदनन्तर त्रिकुश, तिल, जल, पुष्प और दक्षिणा लेकर (यदि निष्क्रय द्रव्य से करना हो तो वह द्रव्य भी साथ में ले लें) गोदान का निम्न संकल्प करें - 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः नमः परमात्मने पुरुषोत्तमाय ॐ तत्सत् अद्यैतस्य अचिन्त्यशक्तेर्महाविष्णोराज्ञया जगत्सृष्टिकर्मणि प्रवर्तमानस्य परार्धद्वयजीविनो ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे  कलियुगे कलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे भूर्लोके जम्बूद्वीपे स्थान भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते प्रजापति क्षेत्रे स्थाने...(काशी में करना हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते  महाश्मशाने आनन्दवने भगवत्या उत्तरवाहिन्या  भागीरथ्या  गङ्गायाः पश्चिमे भागे) बौद्धावतारे...संवत्सरे ...अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...वासरे...योगे...राशिस्थिते सूर्ये...राशिस्थिते देवगुरौ...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु यथा यथाराशिस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोम् [यदि प्रतिनिधि करे तो "अहम्" के स्थान पर गोत्रस्य (...गोत्राया:...) प्रतिनिधिभूतोऽहम्-इतना बोले] शास्त्रोक्तफलप्राप्त्यर्थं च स्वर्णशृङ्गीं रौप्यखुरां ताम्रप्रष्ठीं कांस्योपदोहनां वस्त्राच्छन्नां  यथाशक्त्यलङ्कृतां सुपूजितां सोपस्करां सवत्सां रुद्रदैवतामिमां गां [यदि गौ का निष्क्रय द्रव्य देना हो तो "गां" के स्थान पर  गोनिष्क्रयभूतद्रव्यदक्षिणाम्-इतना बोलें] ...गोत्राय  सुपूजिताय...शर्मणे ब्राह्मनाय भवते सम्प्रददे, (प्रतिनिधि करे तो सम्प्रददामि बोले) न मम। 
संकल्प जल छोड़ दें और गाय अथवा निष्क्रयद्रव्य  ब्राह्मण को दे दें।
दान लेकर ब्राह्मण बोले :- ॐ स्वस्ति। 
पंचधेनु दान के निष्क्रय का संकल्प :: हाथ में त्रिकुश, अक्षत, जल तथा पाँच धेनुओं के निमित्त निष्क्रय द्रव्य लेकर निम्न संकल्प करें :-  
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्य यथोक्तगुणविशिष्टतिथ्यादौ...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम् [यदि प्रतिनिधि करे तो "अहम्" के स्थान पर गोत्रस्य (...गोत्राया:...) प्रतिनिधिभूतोऽहं तदुद्देश्येन कहे] ऐहिकामुष्मिकानेकजन्मार्जितसमस्तपापक्षयपूर्वकदेवर्षिपितृमनुष्यादिऋणा-पनोदनार्थं ज्ञाताज्ञातमनोवाक्कायकृतसकलपापक्षयार्थं प्राणप्रयाणकाले ससुखं प्राणोत्क्रमणार्थं यममार्गस्थितां महाघोरां शतयोजनविस्तीर्णां वैतरणीं सुखेन संतरणार्थं भगवत्प्रसादात् मोक्षप्राप्तये श्रीमहाविष्णुप्रीत्यर्थं ऋणापनोदधेनुपापापनोदधेनूत्क्रान्तिधेनुवैतरणीधेनुमोक्षधेनूनां रुद्रदैवतानां निष्क्रयभूतं द्रव्यं...गोत्राय ब्रह्मनाय भवते सम्प्रददे (प्रतिनिधि करे तो कहे सम्प्रददामि)
     ऐसा कहकर संकल्प जल तथा निष्क्रय द्रव्य ब्रह्मण को दे दें। 
और्ध्व दैहिक दान :: और्ध्व दैहिक दानों में दस महादान*2 और आठ महादान*3-इन दानों का विशेष महत्व है। 
*गोभूतिलहिरण्याज्यं वासो धान्यं गुडानि च। 
रौप्यं लवणमित्याहुर्दशदानान्यनुक्रमात्[निर्णय सिन्धु-मदनरत्न का वचन]
(सवस्ता गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, घी, धान्य, गुड़, चाँदी तथा लवण) 
*3  तिलं लौहं हिरण्यञ्च कार्पासं लवणं तथा। 
सप्तधान्यं क्षितिर्गाव एकैकं पावनं स्मृतम्[गरुड़ पुराण 2.4.39]
(तिल, लोहा, सुवर्ण, कपास, लवण, सप्तधान, भूमि तथा गाय)   
दस महादान का संकल्प :: मरणासन्न व्यक्ति के लिये समयाभाव में एक साथ दस वस्तुएँ (सवस्ता गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, घी, धान्य, गुड़, चाँदी तथा लवण) के हेतु प्रत्यक्ष वस्तु के तुरन्त उपलब्ध न होने पर उनका निष्क्रय द्रव्य संकल्प करना चाहिये। 
दायें हाथ में त्रिकुश, जल, अक्षत, पुष्प तथा यथाशक्ति दक्षिणा द्रव्य लेकर यह संकल्प करें* :- 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्य यथोक्तगुणविशिष्टतिथ्यादौ...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम् [यदि प्रतिनिधि करे तो "अहम्" के स्थान पर गोत्रस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य  प्रतिनिधिभूतोऽहं तदुद्देश्येन कहे] शास्त्रोक्तफलप्राप्तिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं दशमहादानान्तर्गतरुद्रदैवत्यां ग्राम्/गोनिष्क्रयद्रव्यम्, विष्णुदैवत्यां  भूमिम्/भूमिनिष्क्रयद्रव्यम्, प्रजापतिदैवतं तिलम्/तिलनिष्क्रयद्रव्यम्, अग्निदैवतं स्वर्णम्/स्वर्णनिष्क्रयद्रव्यम्, मृत्युञ्जयदैवतं घृतम्/घृतनिष्क्रयद्रव्यम्, बृहस्पतिदैवतं वस्त्रम्/वस्त्रनिष्क्रयद्रव्यम्, प्रजापतिदैवतं धान्यम्/धान्यनिष्क्रयद्रव्यम्, सोमदैवतं गुडम्/गुडनिष्क्रयद्रव्यम्, चन्द्रदैवतं रजतम्/रजतनिष्क्रयद्रव्यम्, सोमदैवतं लवणम्/लवणनिष्क्रयद्रव्यम्, एतानि दशवस्तुनि...गोत्राय...शर्मणे ब्रह्मणाय भवते सम्प्रददे (प्रतिनिधि करे तो कहे सम्प्रददामि)
*जिस वस्तु का निष्क्रय दिया जाये, उसके लिये संकल्प में इस प्रकार कहना चाहिये :- यथा रुद्रदैवतं गोनिष्क्रयद्रव्यम्। 
ऐसा कहकर संकल्प जल छोड़ दें और दान की सामग्री ब्राह्मण को दे दें। 
दान लेकर ब्राह्मण कहे :- ॐ स्वस्ति। 
अष्ट महादान संकल्प :: तिल, लोहा, सुवर्ण, कपास, लवण एवं सप्तधान्य (जो, धन, तिल, कँगनी, मूँग, चना तथा साँवा), भूमि और गौ-इन आठ वस्तुओं को यथास्थान रखकर एक साथ दान करने का संकल्प करें। प्रत्यक्ष वस्तु के न होने पर उनका निष्क्रय द्रव्य रखकर भी संकल्प कर सकते हैं।
दायें हाथ में त्रिकुश, जल, अक्षत, पुष्प तथा यथाशक्ति दक्षिणा द्रव्य लेकर यह संकल्प करें*5 :-
*जिस वस्तु का निष्क्रय दिया जाये, उसके लिये संकल्प में इस प्रकार कहना चाहिये :- यथा तिल के लिये प्रजापतिदैवतं तिलनिष्क्रयद्रव्यम्।
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्य यथोक्तगुणविशिष्टतिथ्यादौ...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम् [यदि प्रतिनिधि करे तो "अहम्" के स्थान पर गोत्रस्य (...गोत्राया:)...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य  प्रतिनिधिभूतोऽहं तदुद्देश्येन कहे] शास्त्रोक्तफलप्राप्तिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं श्रीविष्णुलोकप्राप्त्यर्थं च प्रजापतिदैवतं तिलम्/तिलनिष्क्रयद्रव्यम्, महाभैरवदैवतं लौहम्/लौनिष्क्रयद्रव्यम्, अग्निदैवतं स्वर्णम्/स्वर्णनिष्क्रयद्रव्यम्, वनस्पतिदैवतं कार्पासम्/कार्पासनिष्क्रयद्रव्यम्, सोमदैवतं लवणम्/लवणनिष्क्रयद्रव्यम्, प्रजापतिदैवतं सप्तधान्यम्/सप्तधान्यनिष्क्रयद्रव्यम्, विष्णुदैवतां भूमिम्/भूमिनिष्क्रयद्रव्यम्, रुद्रदैवतां ग्राम्/गोनिष्क्रयद्रव्यम्, एतानि अष्ट वस्तूनि...गोत्राय...शर्मणे ब्रह्मणाय (बहुत ब्राह्मण हों तो गोत्रेभ्यः शर्मभ्यो ब्रह्मणेभ्यो विभज्य) सम्प्रददे (प्रतिनिधि करे तो कहे सम्प्रददामि)
 ऐसा कहकर संकल्प जल छोड़ दें और दान की सामग्री दक्षिणा सहित ब्राह्मण को दे दें। 
दान लेकर ब्राह्मण कहे :- ॐ स्वस्ति
देह त्याग के बाद के कृत्य :: 
क्षौर तथा स्नान :: त्रिकुश, तिल और जल लेकर स्वयं बाल कटवायें और स्नान के लिये संकल्प करें। 
प्रतिज्ञा संकल्प :: 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः नमः परमात्मने पुरुषोत्तमाय ॐ तत्सत् अद्यैतस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे  कलियुगे कलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे क्षेत्रे...(यदि काशी हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते  महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या  भागीरथ्या  गङ्गायाः वामभागे)...संवत्सरे...उत्तरायणे/दक्षिणायने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...वासरे...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम् (...गोत्राया:...) प्रेतस्य (प्रेताया:) और्ध्वदैहिकसंस्कार योग्यता सम्पादनार्थं क्षौरपूर्वकं स्नानकर्म करिष्ये।  
ऐसा संकल्प करके दक्षिणाभिमुख बैठकर क्षौरकर्म कराये। फिर स्नान करके नए वस्त्र और उपवस्त्र धारण करें। प्रायः मृतक से छटे सभी बन्धु-बान्धव परम्परा के अनुरूप मुण्डन कराते हैं। 
शव का संस्कार :: पवित्र होकर मृत प्राणी के आयें। शव का सिरहाना उत्तर अथवा पूर्व दिशा में रखने का वचन है; परन्तु परम्परा के अनुसार सिरहाना उत्तर की ओर ही रखा जाता है*5। स्नान कराने के लिये नए घड़े में जल भरकर उसमें गंगादि तीर्थजलों की भावना करें। 
*5  प्राक् शिरसं उदक् शिरसं वा भूमौ निवेशयेत्। 
[पारस्कर गृहसूत्र-हरिहर भाष्य] 
ततो नीत्वा श्मशानेषु स्थापयेदुत्तामुखम्। [गरुड़ पुराण]
सामवेदियों के सन्दर्भ में कहा गया है कि शव का सिर दक्षिण की ओर करके लिटायें:- 
"सामेतरेषामुत्तरशिर स्त्वम्"[श्राद्धतत्त्व]
दक्षिणशिरसं कृत्वा सचैलं तु शवं तथा। 
घड़े में गंगादि तीर्थजलों की भावना किये गए जल से ही शव को स्नान करायें।
नए वस्त्रों से अंगों को पोंछकर गाय के घी का लेपन करें। तत्पश्चात नया वस्त्र-कौपीन पहना दें। द्विज हो तो नया यज्ञोपवीत भी पहना दें। चन्दन का लेपन करें। फूल और तुलसी की माला पहनायें। कपूर, अगर, कस्तूरी आदि सुगन्धित द्रव्यों से पूरे शरीर का लेपन करें। मुख, दोनों आँखों, दोनों नासाछिद्रों, दोनों, कानों में सोना डाल दें। सुवर्ण के आभाव में घी की बूँदें डाल दें। कपड़े से पैर की अँगुलियों से लेकर सिर तक सरे शरीर को अच्छी तरह ढँक दें। तलवा खुला रखें। इस तरह शव को अलंकृत करके अर्थी पर कुश  कुशासन बिछाकर उत्तर की ओर सर करके लिटा दें। मूँज की नई रस्सी के साथ मौली या कच्चे सूत की रस्सी से अच्छी तरह बाँट दें। ऊपर से रामनामी चादर या सफेद चादर उढ़ा दें। पुष्प मालाओं से अलंकृत कर दें। वृद्ध व्यक्ति के शव वाहन-अर्थी को लोकचारअनुसार झण्डी आदि वैकुण्ठी के रूप में सजाना चाहिये तथा शंख, घड़ियाल, घंटा आदि वाद्यों के द्वारा भगवन्नाम संकीर्तन के साथ शवयात्रा निकालनी चाहिये। 
ट्पिण्डदान :: अर्थी की दाहिनी ओर दक्षिण दिशा में मुँह करके बैठ जायें। शिखा बाँध लें। अपसव्य होकर तिल और घी को जौ के आटे में मिलाकर प्रारम्भ से श्मशान तक के लिये छः पिण्ड बनायें। जौ के अभाव में चावल आदि के आटे से भी पिण्डदान किया जा सकता है। इसमें से थोड़ा जौ का आटा बचा लें। 
मृतस्योत्क्रान्तिसमयात् षट्पिण्डदान् क्रमशो ददेत्।   
(1). जिस स्थान पर मृत्यु हुई हो-मृतस्थान पर पिण्ड देने से भूम्यधिष्ठातृदेवता प्रसन्न होते हैं। (2). घर के दरवाजे पर-द्वारदेश में पिण्डदान से गृहवास्त्वधिष्ठातृदेवता प्रसन्न होते हैं। (3). श्मशान मार्ग के चौराहे पर पिण्डदान से शव पर कोई उपद्रव नहीं होता। (4). विश्राम स्थल पर, (5). काष्ठ चयन-चिता स्थल पर पिण्डदान से राक्षस, पिशाच आदि प्राणी हवनीय देह को अपवित्र नहीं करते और (6). दाह स्थल पर पिण्डदान से-अस्थिसंचयन निमित्तक पिण्डदान से से दाहजन्य पीड़ा शान्त हो जाती है। 
(1). शव निमित्तक पहला पिण्डदान :: दायें हाथ में त्रिकुश, तिल और जल लेकर शवनिमित्तक प्रथम पिण्ड के दान का मृति-मृत्यु स्थान पर प्रतिज्ञा संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम्...गोत्रस्य (स्त्री हो तो...गोत्राया:... बोलें)...प्रेतस्य (स्त्री हो तो...प्रेताया: बोलें) प्रेतत्वनिवृत्तिपूर्वकशस्त्रोक्तफलप्राप्त्यर्थं भूम्यधिदेवतातुष्ट्यर्थं च मृतिस्थाने शवनिमित्तकं पिण्डदानं करिष्ये। 
इस तरह संकल्प करके संकल्प जल को गिरा दें।  
(1.1). अवनेजन :: पुनः भूमि को सींच दें। इसके बाद जल, तिल, चन्दन और स्वेत पत्र लेकर अवनेजन का संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्रः...(स्त्री हो तो...गोत्रे)...प्रेत (स्त्री हो तो...प्रेते) मृतिस्थाने शवनिमित्तकपिण्डस्थाने अन्नावनेनिक्ष्व ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्। 
इस तरह संकल्प करके पितृतीर्थ (अँगूठे और तर्जनी का मूल) से प्रोक्षित भूमि पर जल गिरा दें और वहाँ पर दक्षिणाग्र तीन कुश बिछा दें।
(1.2). पिण्ड दान का संकल्प :: त्रिकुश, तिल, जल और पिण्ड लेकर (बाँयें हाथ से दाँये का स्पर्श करते हुए) पिण्ड दान का संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) मृतिस्थाने शवनिमित्तक एष पिण्डस्ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्। 
ऐसा संकल्प करके कुशों के बीच में पितृ तीर्थ से पिण्ड  दें। 
(1.3). प्रत्यवनेजन :: अवनेजन पात्र में जल, तिल, सफेद चन्दन, सफेद फूल, छोड़कर (यदि उसमें अवशिष्ट हो तो छोड़ना आवश्यक नहीं है) इसे दायें हाथ में रख लें। पुनः त्रिकुश, तिल, जल लेकर प्रत्यवनेजन (पिण्ड के ऊपर जो जल दिया जाता है उसे प्रत्यवनेजन कहते हैं) का संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) मृतिस्थाने शवनिमित्तकपिण्डोपरि मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
इस तरह संकल्प करके पिण्ड पर जल छोड़ दें और पुनः पिण्ड को उठाकर अर्थी पर शव के पास रख दें।  
तदनन्तर सव्य होकर भगवान् से प्रार्थना करें।
अनादिनिधनो देवः शङ्खचक्रगदाधरः। 
अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव
(2). पान्थनिमित्तक दूसरा पिण्ड दान :: अपसव्य होकर द्वार पर दक्षिणाभिमुख बैठ जायें।  दाँये हाथ में त्रिकुश, तिल, जल लेकर दूसरे पिण्ड दान का प्रतिज्ञा संकल्प करें :-
प्रतिज्ञा संकल्प :: 
अद्य...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम् गोत्रस्य (...गोत्राया:)...प्रेतस्य (प्रेतायाः) प्रेतत्वनिवृत्तिपूर्वकशास्त्रोक्तफलप्राप्त्यर्थं गृहवास्त्वधिदेवतातुष्ट्यर्थं निर्गमद्वारे पान्थनिमित्तकं पिण्डदानं करिष्ये।  
ऐसा बोलकर जल भूमि पर गिरा दें। 
(2.1). अवनेजन :: भूमि का प्रोक्षण कर दें। जल, तिल, सफ़ेद चन्दन और सफेद फूल लेकर अवनेजन का संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र...(...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) निर्गमद्वारे पान्थनिमित्तकपिण्डस्थाने अन्नावनेनिक्ष्व ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्। 
ऐसा संकल्प करके प्रोक्षित भूमि पर पितृ तीर्थ से आधा जल गिरा दें। वहाँ दक्षिणाग्र तीन कुश बिछा दें। 
(2.2). पिण्ड दान का संकल्प :: दाहिने हाथ में त्रिकुश, तिल, जल और पिण्ड को लेकर (बाँयें हाथ से दाँये का स्पर्श करते हुए) पिण्ड दान का संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) निर्गमद्वारे पान्थनिमित्तक एष पिण्डस्ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्। 
ऐसा संकल्प करके कुशों के बीच में पितृ तीर्थ से पिण्ड  दें। 
(2.3). प्रत्यवनेजन :: अवनेजन पात्र में जल, तिल, सफेद चन्दन, सफेद फूल, छोड़कर पात्र को दायें हाथ में रख लें। फिर त्रिकुश, तिल, जल लेकर प्रत्यवनेजन का संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) निर्गमद्वारे  पान्थनिमित्तकपिण्डोपरि अन्न प्रत्यवनेनिक्ष्य ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
इस तरह संकल्प करके पिण्ड को उठाकर अर्थी पर शव के पास रखकर सव्य होकर निम्न मंत्र से  भगवान् से प्रार्थना करें।
अनादिनिधनो देवः शङ्खचक्रगदाधरः। 
अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव॥
शव यात्रा :: आत्मीय जनों के साथ जोर से भगवन्नाम (राम नाम सत्य है, हरि बोलो गत्य है)  का उच्चारण करते हुए शव को कन्धों पर उठा लें। जो बड़े हैं उन्हें आगे कर छोटी उम्र वालों को पीछे करके यात्रा प्रारम्भ कर दें। 
(3). खेचर निमित्तक तीसरा पिण्ड दान :: चौराहा आने पर पवित्र स्थान पर शव को कंधों से उतारकर उत्तर की ओर सिर करके रख दें। 
क्रिया कर्ता अपसव्य हो जायें और दक्षिण की ओर मुँह करके बैठ जायें। दायें हाथ में त्रिकुश, जल और तिल लेकर तीसरे पिण्डदान का प्रतिज्ञा संकल्प करें :-
प्रतिज्ञा संकल्प :: 
अद्य...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम् गोत्रस्य (...गोत्राया:)...प्रेतस्य (प्रेतायाः) प्रेतत्वनिवृत्तिपूर्वकशास्त्रोक्तफलप्राप्त्यर्थम् 
उपघातकभूतापसारणार्थं चतुष्पथे खेचरनिमित्तकं पिण्डदानं करिष्ये। 
ऐसा बोलकर जल भूमि पर गिरा दें। 
(3.1). अवनेजन :: जल से भूमि का प्रोक्षण कर लें। अवनेजन पात्र में जल, तिल, सफ़ेद चन्दन और सफेद फूल छोड़कर इसे दायें हाथ में रख लें। पुनः बायें हाथ से इसमें त्रिकुश, तिल, जल लेकर का निम्न संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) चतुष्पथे खेचरनिमित्तकपिण्डस्थाने अन्नावनेनिक्ष्व ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
ऐसा संकल्प करके प्रोक्षित भूमि पर जल गिरा दें। वहाँ दक्षिणाग्र तीन कुश बिछा दें। 
(3.2). पिण्ड दान का संकल्प :: दाहिने हाथ में त्रिकुश, तिल, जल और पिण्ड को लेकर (बाँयें हाथ से दाँये का स्पर्श करते हुए) पिण्ड दान का संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) चतुष्पथे खेचरनिमित्तक एष पिण्डस्ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्। 
ऐसा संकल्प करके कुशों के बीच में पिण्ड को पितृ तीर्थ से रख  दें। 
(3.3). प्रत्यवनेजन :: अवनेजन पात्र में जल, तिल, सफेद चन्दन, सफेद फूल, छोड़कर पात्र को दायें हाथ में रख लें। फिर बायें हाथ से त्रिकुश, तिल, जल लेकर प्रत्यवनेजन का संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) चतुष्पथे खेचरनिमित्तकपिण्डोपरि अन्न प्रत्यवनेनिक्ष्य ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
इस तरह संकल्प करके पिण्ड को उठाकर अर्थी पर शव के पास रखकर सव्य होकर निम्न मंत्र से  भगवान् से प्रार्थना करें।
अनादिनिधनो देवः शङ्खचक्रगदाधरः। 
अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव॥
भगवान् के नाम का उच्चारण (राम नाम सत्य है, हरि बोलो गत्य है) करते हुए शव को उठा लें और शवयात्रा पुनः शुरू कर दें।
(4). भूत निमित्तक चौथा पिण्ड दान :: विश्राम स्थल पर पहुँचकर शव को कंधों से उतारकर उत्तर की ओर सिर करके रख दें। 
क्रिया कर्ता दक्षिण की ओर मुँह करके बैठकर अपसव्य हो बैठ जायें। दायें हाथ में त्रिकुश, जल और तिल लेकर चौथे पिण्डदान का प्रतिज्ञा संकल्प करें :-
प्रतिज्ञा संकल्प :: 
अद्य...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम्...गोत्रस्य (...गोत्राया:)...प्रेतस्य (प्रेतायाः) प्रेतत्वनिवृत्तिपूर्वकशास्त्रोक्तफलप्राप्त्यर्थम् देहस्याहवनीययोग्यताभावसम्पादकयक्षराक्षसपिशाचचादितुष्ट्यर्थं विश्रामस्थाने भूतनिमित्तकं पिण्डदानं करिष्ये। 
ऐसा बोलकर जल भूमि पर गिरा दें। 
(4.1). अवनेजन :: भूमि को जल से सींच दें। अवनेजन पात्र में जल, तिल, सफ़ेद चन्दन और सफेद फूल डालकर, इसे दायें हाथ में रख लें। पुनः बायें हाथ से इसमें त्रिकुश, तिल, जल लेकर अवनेजन का निम्न संकल्प करें :- 

अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) विश्रामस्थाने भूतनिमित्तकपिण्डस्थाने अन्नावनेनिक्ष्व ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
ऐसा संकल्प करके प्रोक्षित भूमि पर अवनेजन जल गिरा दें। वहाँ दक्षिणाग्र तीन कुश बिछा दें। 
(4.2). पिण्ड दान का संकल्प :: दाहिने हाथ में त्रिकुश, तिल, जल और पिण्ड को लेकर (बाँयें हाथ से दाँये का स्पर्श करते हुए) पिण्ड दान का संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) देहस्याहवनीययोग्यताभावसम्पादकयक्षराक्षसपिशाचचादितुष्ट्यर्थं भूतनिमित्तक एष पिण्डस्ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
ऐसा संकल्प करके कुशों के बीच में पिण्ड को पितृ तीर्थ से रख  दें। 
(4.3). प्रत्यवनेजन :: अवनेजन पात्र में जल अवशिष्ट हो तो जल डालें।अन्यथा तिल, जल, सफेद चन्दन, सफेद फूल, डालकर इस पात्र को दायें हाथ में रख लें। फिर बायें हाथ से त्रिकुश, तिल, जल लेकर प्रत्यवनेजन का निम्न संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) विश्रामस्थाने भूतनिमित्तकपिण्डोपरि अन्न प्रत्यवनेनिक्ष्य ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
इस तरह संकल्प करके पिण्ड पर पितृतीर्थ से जल छोड़ दें। 
इसके बाद पिण्ड को उठाकर अर्थी पर शव के पास रखकर सव्य होकर निम्न मंत्र से  भगवान् से प्रार्थना करें।
अनादिनिधनो देवः शङ्खचक्रगदाधरः। 
अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव॥
भगवान् के नाम का उच्चारण (राम नाम सत्य है, हरि बोलो गत्य है) करते हुए शव को उठा लें और शवयात्रा पुनः शुरू कर दें। शव को श्मशान पहुँचायें। यदि गँगा आदि नदी हो तो शव को नदी के जल में डुबाकर स्नान कराएं और उत्तर की ओर सिर करके शव को भूमि पर उत्तान देह रख दें। 
(5). साधक निमित्तक पाँचवाँ पिण्डदान :: 
चिताभूमि का संस्कार :- जहाँ कूड़ा, केश आदि न हों, ऐसी जगह को साफ-सुथरा करके गोबर और मिट्टी से लीप दें और भूमि की प्रार्थना करें :-
अपसर्पन्तु ते प्रेता ये केचिदिह पूर्वजा:।
भूमि पर कुश बिछा दें। उस स्थान पर स्वयं या सगोत्रीयों (बन्धु-बान्धवों) के द्वारा चिता बनवायें, जो उत्तर से दक्षिण तक लगभग चार हाथ लम्बी हो। चिता में तुलसी, चन्दन, बेल, पीपल, आम, गूलर, बरगद, शमी आदि यज्ञीय काष्ठ भी डालें। द्विजेतरों से चिता न बनवायें। इस चिता पर शव को लिटा दें*6  
*6  भूप्रदेशे शुचौ देशे पश्चाच्चित्यादिलक्षणे। 
तन्नोत्तानं निपात्यैनं दक्षिणाशिरसं मुखे[छन्दोग परिशिष्ट-कात्यायन] 
अधोमुखो दक्षिणादिक् चरणस्तु पुमानिति। 
सवगोत्रजैः गृहीत्वा तु चितामारोप्यते शवः
उत्तानदेहा नारी तु सपिण्डैरपि बन्धुभिः।[आदि पुराण]
पुरुष को उत्तर की ओर सिर तथा अधोमुख (नीचे की तरफ मुँह करके) चिता पर स्थापित करना चाहिये तथा स्त्री को उत्तर की ओर सिर तथा उत्तान देह करके रखना चाहिये। [शुद्धितत्वादि ग्रन्थ]
विवाहशमशाननयोर्ग्रामं प्रविशतात्।[पारस्कर गृह्य सूत्र] 
उपरोक्त वचनों के अनुसार देशाचार करना चाहिये।
चिटा के दक्षिण भाग में अपसव्य होकर दक्षिण की ओर मुँह करके  बैठ जायें। दायें हाथ में त्रिकुश, जल और तिल लेकर चितनिमित्तक पाँचवें  पिण्डदान की प्रतिज्ञा करें :-
प्रतिज्ञा संकल्प :: 
अद्य...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम्...गोत्रस्य (...गोत्राया:)...प्रेतस्य (प्रेतायाः) प्रेतत्वनिवृत्तिपूर्वकशास्त्रोक्तफलप्राप्त्यर्थं चितायां शवहस्ते  साधकनिमित्तकं पिण्डदानं करिष्ये। 
ऐसा बोलकर संकल्प जल भूमि पर गिरा दें।
(5.1). अवनेजन :: भूमि को जल से सींच दें।अवनेजन पात्र में जल, तिल, सफ़ेद चन्दन और सफेद फूल डालकर, इसे दायें हाथ में रख लें। पुनः बायें हाथ से इसमें त्रिकुश, तिल, जल लेकर अवनेजन का निम्न संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) चितायां  साधकनिमित्तकपिण्डस्थाने अन्नावनेनिक्ष्व ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
ऐसा संकल्प करके प्रोक्षित भूमि पर अवनेजन जल गिरा दें। वहाँ दक्षिणाग्र तीन कुश बिछा दें। 
(5.2). पिण्ड दान का संकल्प :: दाहिने हाथ में त्रिकुश, तिल, जल और पिण्ड को लेकर (बाँयें हाथ से दाँये का स्पर्श करते हुए) पिण्ड दान का संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) प्रेतत्वनिवृत्तिपूर्वकशास्त्रोक्तफलप्राप्त्यर्थं चितायां साधकनिमित्तक एष पिण्डस्ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
ऐसा संकल्प करके कुशों के बीच में पितृ तीर्थ से पिण्ड को रख दें। 
(5.3). प्रत्यवनेजन :: अवनेजन पात्र में जल अवशिष्ट न हो तो तिल, जल, सफेद चन्दन, सफेद फूल, डालकर दायें हाथ में रख लें। फिर बायें हाथ से त्रिकुश, तिल, जल लेकर प्रत्यवनेजन का निम्न संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) चितायां साधकनिमित्तकपिण्डोपरि अन्न प्रत्यवनेनिक्ष्य ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
इस तरह संकल्प करके पिण्ड पर पितृतीर्थ से जल छोड़ दें। 
इसके बाद पिण्ड को उठाकर अर्थी पर शव के पास रखकर सव्य होकर निम्न मंत्र से भगवान् से प्रार्थना करें।
प्रार्थना ::
अनादिनिधनो देवः शङ्खचक्रगदाधरः। 
अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव॥
क्रव्याद अग्नि पूजन :: चिता के दाहिनी ओर वेदी पर अथवा किसी पात्र में क्रव्याद अग्नि*7 की स्थापना निम्न मंत्र से करें :-
क्रव्यादनामानमग्निं प्रतिष्ठापयामि।
*कर्पूर अथवा घी की बत्ती से स्वतः अग्नि तैयार कर लेनी चाहिये। अन्य किसी से अग्नि नहीं लेनी चाहिये :-
चाण्डालाग्निरमेध्याग्नि: सूतिकाग्निश्च कर्हिचित्। 
पतिताग्निश्चिताग्निश्च न शिष्टग्रहणोचित:[निर्णय सिन्धु-देवल]
अर्थात चाण्डाल की अग्नि, अमेध्याग्नि (अपवित्र अग्नि), सूतकाग्नि, पतिताग्नि और चिताग्नि को शिष्ट लोग कभी ग्रहण नहीं करते।    
पूजन :: निम्न मंत्र से गन्धाक्षत-पुष्पादि से अग्नि की संक्षिप्त पूजा करें। 
क्रव्यादाग्नये नमः।
शवदाह* (सिर की ओर अग्नि ज्वालन) :: इसके बाद अपसव्य हो जायें। चिता पर जल छिड़कें। फिर इस क्रव्याद अग्नि को सरपत आदि पर रखकर निम्नलिखित मंत्रों को पढ़ते हुए चिता की तीन या एक परिक्रमा करके सिर की ओर आग प्रज्वलित करें*9   :-
कृत्वा तु दुष्कृतं कर्म जानता वाप्यजानता।  
मृत्युकालवशं प्राप्तं नरं पञ्चतत्वमागतम्
धर्माधर्मसमायुक्तं लोभमोहसमावृतम्। 
दहेयं सर्व गात्राणि दिव्यान् लोकान् स गच्छतु[वराह पुराण, निर्णय सिन्धु]
असो स्वर्गाय स्वाहा।
*8 पंचक में मरने पर शवदाह :: धनिष्ठार्द्ध, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती - इन पाँच नक्षत्रों को पंचक कहा जाता है। यदि कोई पंचक में मर जाता है तो वह वंशजों को भी मार डालता है। त्रिपुष्कर और भरणी नक्षत्र से भी यही अनर्थ प्राप्त होता है। 
धनिष्ठापञ्चके जीवो मृतो यदि कथञ्चन। 
त्रिपुष्करे याम्यभे वा कुलजान् मारयेद्ध्रुवम् 
तत्रानिष्ठविनाशार्थं विधानं समुदीर्यते।
दर्भाणां प्रतिमाः कार्याः पञ्चोर्णासूत्रवेष्टिताः
यवपिष्टेनानुलिप्तास्ताभिः सह शवं दहेत्। 
प्रेतवाहः प्रेतसखः प्रेतपः प्रेतभूमिपः
प्रेतहर्ता पञ्चमस्तु नामान्ये च क्रमात्। 
सूतकान्ते ततः पुत्रः कुर्याच्छान्तिकपौष्टिकम्[ब्रह्मपुराण]
ऐसी स्थिति में अनिष्ट निवारण के लिये कुशों की पाँच प्रतिमा-पुत्तल बनाकर सूत्र से विष्टितकर जौ के आटे की पीठी से उसका लेपनकर उन प्रतिमाओं के साथ शव का दाह करें। पुत्तलों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं :- प्रेतवाह, प्रेतसखा, प्रेतप, प्रेतभूमिप और प्रेतहर्ता।
पुत्तल दाह का संकल्प :: 
अद्य...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम्...गोत्रस्य (...गोत्राया:)...प्रेतस्य (प्रेतायाः) धनिष्ठादिपञ्चकजनितवंशानिष्टपरिहार्थं  पञ्चक विधिं करिष्ये।
ऐसा संकल्प करके पाँचों पुत्तलों का पूजन करें :-
पुत्तल पूजन ::  
प्रेतवाहाय नमः, प्रेतसखाय नमः, प्रेतपाय नमः, 

प्रेतभूमिपाय नमः, प्रेतहर्त्रे नमः।

इमानि गन्धाक्षतपुष्पधूपदीपादीनि वस्तूनि

युष्मभ्यं मथा दीयन्ते युष्माकमुपतिष्ठन्ताम्॥
ऐसा कहकर पाँचों प्रेतों को गन्ध, अक्षत, धूप तथा दीप आदि वस्तुएँ प्रदान कर उनका पूजन करें। 
पूजन के बाद प्रेतवाह नामक पुतले को शव के सिर पर, दूसरे-प्रेतसखा को नेत्रों पर, तीसरे-प्रेतपाय को बायीं कोख पर, चौथे-प्रेतभूमिपाय को नाभि पर और  पाँचवें-प्रेतहर्त्रे को पैरों पर रखकर उपरोक्त मंत्र से क्रम पूर्वक पाँचों पर घी की आहुति दें। जैसे :-  
प्रेतवाहाय स्वाहा, प्रेतसखाय स्वाहा, प्रेतपाय स्वाहाप्रेतभूमिपाय स्वाहा, प्रेतहर्त्रे स्वाहा
इसके बाद शवदाह करें। 
यदि मृत्यु पञ्चक के पूर्व हो गई हो और दाह पञ्चक में होना हो तो पुत्तलों का विधान करें। तब शान्ति की आवश्यकता नहीं रहती। इसके विपरीत कहीं पञ्चक में मृत्यु हो और दाह पञ्चक के बाद हुआ हो तो शान्ति कर्म करें।[निर्णयसिन्धु और धर्मसिन्धु]
नक्षत्रान्तरे मृतस्य पञ्चके दाहप्राप्तौ पुत्तलविधिरेव न शान्तिकम्। 
पञ्चक मृतस्या श्विन्यांदाहप्राप्तौ शान्तिकमेव न पुत्तलविधिः॥
[निर्णयसिन्धु उ०परि० 3]  
यदि मृत्यु भी पञ्चक में हुई हो और दाह भी पञ्चक में हो तो पुत्तल दाह तथा शान्ति; दोनों कर्म करें। 
*शिरःस्थाने प्रदापयेत्। [वराह पुराण]
कपाल क्रिया :: जब शव आधा जल जाये, तब कपाल क्रिया करें। बाँस से शव के सिर पर आघात करें यतियों की कपालक्रिया श्रीफल से करनी चाहिये और उस पर घी दाल देना चाहिये)। तदनन्तर उच्च स्वर से रोना चाहिये। 
संसार की नश्वरता का प्रतिपादन :: इसके बाद सम्बन्धीजन घास आदि पर बैठ जायें। स्वयं श्मशान ही संसार से वैराग्य उत्पन्न कर देता है। वैराग्य के बाद भगवान् और उनकी आज्ञा के अनुरूप कर्तव्य के पालन की ओर दृष्टि अवश्य जानी चाहिये। 
चिता में सात समिधाएँ डालना*10 :: एक-एक बित्ते की सात यज्ञीय लकड़ियाँ लेकर दाहकर्ता शव की सात प्रदक्षिणा करे। प्रत्येक प्रदक्षिणा के अन्त में "क्रव्यादाय नमस्तुभ्यम्'' का जाप करते हुए एक-एक समिधा चिता में डालता जाये।
*10 गच्छेत् प्रदक्षिणा: सप्त समिद्भिः सप्तभिः सह। [आदि पुराण]
दाह से अवशिष्ट अंश को जल में डालना :: अन्त में शव का किञ्चित भाग अर्थात कपोत-परिमाण (कबूतर के बराबर) जल में डाल देना चाहिये, शव को पूरी तरह नहीं जलाना चाहिये*11
*11 नि:शेषस्तु न दग्धव्यः शेषं किञ्चित् त्यजेत् ततः।
(6). अस्थि संचयन निमित्तक पिण्डदान :: 
अपरेद्युस्तृतीये वा दाहानान्तरमेव वा। [अन्त्यकर्म दीप]
इसका अभिप्राय है कि दूसरे दिन, तीसरे दिन अथवा दाह के बाद तत्काल चिता शान्तकर अपसव्य दक्षिणाभिमुख होकर दायें हाथ में त्रिकुश, टिल, जल लेकर छटे पिण्डदान का निम्न संकल्प करें :- 
प्रतिज्ञा संकल्प :: 
अद्य...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम्...गोत्रस्य (...गोत्राया:)...प्रेतस्य (प्रेतायाः) अस्थिसंचयननिमित्तक पिण्डदानं करिष्ये। 
ऐसा बोलकर संकल्प जल चितास्थल पर गिरा दें।
(6.1). अवनेजन :: भूमि को जल से सींच दें। अवनेजन पात्र में जल, तिल, सफ़ेद चन्दन और सफेद फूल डालकर, इसे दायें हाथ में रख लें। पुनः त्रिकुश, तिल, जल लेकर अवनेजन का निम्न संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) अस्थिसंचयननिमित्तकपिण्डस्थाने अन्नावनेनिक्ष्व ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
ऐसा संकल्प करके प्रोक्षित भूमि पर अवनेजन जल गिरा दें। वहाँ दक्षिणाग्र तीन कुश बिछा दें। 
(6.2). पिण्ड दान का संकल्प :: दाहिने हाथ में त्रिकुश, तिल, जल और पिण्ड को लेकर (बाँयें हाथ से दाँये का स्पर्श करते हुए) पिण्ड दान का संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) शास्त्रोक्तफलप्राप्त्यर्थं अस्थिसंचयननिमित्तक एष पिण्डस्ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
ऐसा संकल्प करके कुशों के बीच में पितृ तीर्थ से पिण्ड को रख दें। 
(6.3). प्रत्यवनेजन :: अवनेजन पात्र में जल अवशिष्ट न हो तो तिल, जल, सफेद चन्दन, सफेद फूल, डालकर दायें हाथ में रख लें। फिर बायें हाथ को दायें हाथ के नीचे रख लें और त्रिकुश, तिल, जल लेकर प्रत्यवनेजन का निम्न संकल्प करें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) अस्थिसंचयननिमित्तकपिण्डोपरि अन्न प्रत्यवनेनिक्ष्य ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
इस तरह संकल्प करके पिण्ड पर पितृतीर्थ से जल छोड़ दें और पिण्ड को नदी-तालाब आदि में गिरा दें। 
प्रार्थना :: सव्य होकर निम्न मंत्र से भगवान् की प्रार्थना करें :-
अनादिनिधनो देवः शङ्खचक्रगदाधरः। 
अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव॥
बलिप्रदान :: पिण्ड से जो अन्न बचा लिया गया था उसी को हाथ में लेकर श्मशान वासी देवों को निम्न मंत्रों को पढ़कर बलि प्रदान करें। 
येस्मिन् श्मशाने देवाः स्युर्भगवन्तः सनातना:।  
तेस्मत् स्काशाद् गृह्णीयुर्बलिमष्टाङ्गमक्ष्यम्॥
प्रेतस्यास्य शुभाँल्लोकान् प्रयच्छन्तु च शाश्वतान्। 
अस्माकमायुरारोग्यं सुखं च दत्त मे चिरम्॥
श्मशान वासिभ्यो देवेभ्यो नमः। सर्वस्वीयभागं सदीपं बलिं गृह्णन्तु। 
ऐसा कहकर दीपक के साथ अन्न बलि प्रदान करें।
अस्थि संचयन :: यदि गँगा के किनारे दाह संस्कार किया गया हो तो अस्थियों को तत्काल गँगा में विसर्जित कर दें। ऐसे में अस्थि संचयन की आवश्यकता नहीं रहती। 
चिता के शान्त हो जाने पर गाय का दूध डालकर हड्डियों को तर किया जाये। मौन रहकर पलाश की दो लकड़ियों से कोयला आदि हटाकर हड्डियों को अलग कर लें। सबसे पहले सिर की हड्डियों को अलग करें और कनिष्ठिका से चुने। अन्त में पैर की हड्डियों को एकत्र करें। कुश बिछाकर उसके ऊपर रेशम या तीसी के रेशों से बना वस्त्र बिछा दें। इसी वस्त्र पर हड्डियों को रखते जाएँ। इन्हें पञ्चगव्य से सींचकर सुवर्ण, मधु, घी, तिल मिलायें। पुनः सुगन्धित जल से तर कर दें और सर्वोषधि मिलाकर, इन सब को बाँधकर मिट्टी के बर्तन में रख दें। इसके बाद दक्षिण दिशा की ओर देखते हुए "नमोऽस्तु धर्माय" कहकर जल में प्रवेश करें, फिर "स मे प्रीतो भवतु" कहकर पात्र को जल में छोड़ दें। जल से निकलकर सूर्य का दर्शन करें और ब्राह्मणों को यथशक्ति दान दें। 
दस दिनों के भीतर गँगा में अस्थि प्रक्षेप करने से मरने वाले को वही फल प्राप्त होता है जो गँगा तट पर मरने से होता है। यदि किसी सुदूर तीर्थ में अस्थि प्रक्षेप करना हो तो अस्थि कलश को वृक्ष पर लटका दें और दस दिनों के अन्दर  तीर्थ स्थल पर जल में अस्थि प्रक्षेपन कर दें। 
यदि भूमि में गाड़ना हो तो दक्षिण से उत्तर की ओर प्रादेश मात्र (अँगूठे और तर्जनी के बीच की दूरी) लम्बा और चार अंगुल चौड़ा गड्ढा खोदकर उसमें कुश बिछाकर उस पर हल्दी के रंग से रँगा वस्त्र बिछाकर हड्डियों को उसमें रख दें। फिर गाय के घी से तर करके सुवासित जल से सींचें सर्वोषधि (मुरा, जटामांसी, वच, कुष्ठ, शिलाजीत, हल्दी, दारुहल्दी, सठी, चम्पक और मुस्ता), मिलाकर गाढ़ दें।
घट स्फोट :: इसके बाद चिता के भस्म, अंगार आदि सभी वस्तुओं को जल में सिरायें-बहा दें। इस प्रकार चिता स्थल को साफ़ कर दें। अन्त में कोई व्यक्ति क्रिया कर्ता के कन्धे पर जल से भरा घड़ा रख दे और क्रिया कर्ता पीछे की ओर देखे बगैर "एवं कदापि माभूत्" कहकर घड़े को पीछे गिरा दे। 
स्नान :: इसके बाद सभी लोग कर्ता तथा बच्चों को आगे करके दूसरे घाट पर जाकर जल को बायीं ओर घुमाकर मौन होकर स्नान करें। 
तिलोदक दान :: स्नान के बाद अपसव्य की स्थित में ही सभी लोग दक्षिण की ओर मुँह करके तिलाँजलि दें। त्रिकुश, तिल जल लेकर संकल्प करें :-
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) चितादाहजनित तापतृषोपषमनाय एष तिलतोयाञ्जलिस्ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्। 
ऐसा कहकर तिलांजलि दें। 
चौदह पीढ़ी तक बन्धु-बान्धवों को दस दिन तक प्रतिदिन वृद्धि क्रम से अर्थात पहले दिन एक, दूसरे दिन दो, तीसरे दिन तीन :- इस प्रकार अञ्जलि सँख्या बढ़ाते हुए तिलतोयाञ्जलियाँ देनी चाहियें। 
जो लोग बाहर रहते हों और मृत्यु के कुछ दिन बाद उन्हें मृत्यु का समाचार मिले तो समाचार मिलने के दिन के पूर्व दिनों की तिलतोयाञ्जलियों के साथ तिलांजलियाँ देनी चाहिये। तत्पश्चात वृद्धिक्रम से दसवें दिन तक तिलतोयाञ्जलियाँ देनी चाहियें।यदि कोई कोई मृत्यु के दस दिनों के अन्दर तिलतोयाञ्जलि न दे सके तो वह दसवें दिन सभी दिनों के लिये गिनकर एक संकल्प से सभी (55-पचपन) तिलतोयाञ्जलियाँ दे दें।
तिलतोयाञ्जलि दान के संकल्प :: 
(1). एक अंजलीदान का संकल्प :: अपसव्य दक्षिणाभिमुख होकर त्रिकुश, तिल, जल लेकर निम्न संकल्प लें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) चितादाहजनित तापतृषोपषमनाय एष तिलतोयाञ्जलिस्ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
एक तिलतोयाञ्जलि दें।
(2). दो अंजलीदान का संकल्प :: अपसव्य दक्षिणाभिमुख होकर त्रिकुश, तिल, जल लेकर निम्न संकल्प लें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) चितादाहजनित तापतृषोपषमनाय इमौ तिलतोयाञ्जली ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
दो तिलतोयाञ्जलि दें।
(3). तीन या अधिक अंजलीदान का संकल्प :: अपसव्य दक्षिणाभिमुख होकर त्रिकुश, तिल, जल लेकर निम्न संकल्प लें :- 
अद्य...गोत्र (...गोत्रे)...प्रेत (...प्रेते) चितादाहजनित तापतृषोपषमनाय इमे तिलतोयाञ्जलयः ते मया दीयते, त्वोपतिष्ठताम्।
तीन या अधिक तिलतोयाञ्जलियाँ दें।
श्मशान से वापसी :: दाह कर्ता जल से निकलकर दो सूखे वस्त्र पहन कर गीले वस्त्रों को एक बार निचोड़कर उत्तर की ओर से प्रारम्भ करके दक्षिण की ओर तक सूखने के लिये फैला दें। पुनः सभी लोग एक जगह बैठ जायें और प्रियजन के वियोग से उत्पन्न शोक को इतिहास आदि सुनाकर दूर करें। 
श्मशान से लौटने के बाद के कृत्य :: इसके बाद बच्चों को आगे करके सभी शवयात्री घर की बढ़े। 
पीछे मुड़कर न देखें और न ही किसी को आवाज़ दें। 
दरवाजे पर थोड़ी देर रुक जायें। वहाँ नीम की पत्तियाँ चबायें। आचमन करें। जल, गोबर, तेल, मिर्च, पीली सरसों और अग्नि का स्पर्श करें। फिर पत्थर पर पैर रखकर घर में प्रवेश करें। कुछ देर बैठकर भगवान् का चिन्तन करें और मृतात्मा की शान्ति की कामना करें। 
मृत व्यक्ति के हितार्थ कृत्य ::
दीपदान :: जिस दिन मृत्यु हुई है, उस दिन से प्रारम्भकर मृतात्मा के हित के लिये मृतिस्थान अथवा द्वार पर दस दिन तक प्रदोषकाल में निम्न मंत्र से मिट्टी के पात्र में तिल के तेल का दीपक जलायें। 
अन्धकारे महाघोरे रविर्यत्र न दृश्यते। 
तत्रोपकरणार्थाय दीपोऽयं दीयते मया
दीपक को धान्य पर दक्षिणाभिमुख रख दें। मृत्यु के दिन से अथवा दूसरे दिन तक प्रेत के निमित्त पीपल के वृक्ष पर घट बन्धन तथा दूध, जल दान की प्रक्रिया करें। 
इति। इस प्रकार परमपिता परमात्मा, परब्रह्मपरमेश्वर, भगवान् वेद व्यास, गणपति जी महाराज और माता सरस्वती की असीम कृपा से सस्कार सम्बन्धी यह अध्याय आज 04.04.2020 संध्याकाल 18.15 बजे पूर्ण हुआ। 
इस अध्याय में संक्षेप में हिन्दुओं के जन्म से मृत्यु पर्यन्त संस्कारों का वर्णन हुआ है।
By the grace of Almighty, Bhagwan Ved Vyas, Ganesh Ji Maha Raj and Maa Saraswati, this chapter pertaining to various acts in Hinduism has been completed and devoted to the pious, virtuous, righteous devotees of the God.
Hari Om Tat Sat.
DEATH मृत्यु :: शरीर में जब वात का वेग बढ़ जाता है तो उसकी प्रेरणा से ऊष्मा अर्थात पित्त का प्रकोप भी हो जाता है। वह पित्त सारे शरीर को घेर कर सारे सम्पूर्ण देशों को आवर्त कर लेता है और प्राणों के स्थान और मर्मों का उच्छेद कर डालता है। फिर शीत से वायु का प्रकोप होता है और वायु अपने निकलने का स्थान-छिद्र ढूढ़ने लगती है। 
दो नेत्र, दो कान, दो नासिका और एक मुँख; ये सात छिद्र हैं और आठवाँ ब्रह्मरन्ध्र है। शुभ कार्य करने वाले मनुष्यों के प्राण प्रायः इन्हीं पूर्व सात मार्गों से निकलते हैं। धर्मात्मा जीव को उत्तम मार्ग और यान द्वारा स्वर्ग भेजा जाता है। 
निम्न छिद्र  :: गुदा औए उपस्थ। पापियों के प्राण इन्हीं छिद्रों से निकलते है। 
योगी के प्राण मस्तक का भेदन करके ब्रह्मरन्ध्र से निकलते हैं और जीव इच्छानुसार अन्य लोकों में जाता है।
जीव को यमराज के दूत आतिवाहिक शरीर में पहुँचाते हैं। यमलोक का मार्ग अति भयंकर और 86,000 योजन लम्बा है। यमराज के आदेश से चित्रगुप्त पापी-पापत्मा जीव को उसके पाप कर्मों के अनुरूप भयंकर नरकों में भेजते हैं।
यमलोक का रास्ता भयानक और पीड़ा देने वाला है। वहाँ एक नदी भी बहती है जो कि सौ योजन (अर्थात एक सौ बीस किलोमीटर) चौड़ी है। इस नदी में जल के स्थान पर रक्त और मवाद बहता है और इसके तट हड्डियों से भरे हैं। मगरमच्छ, सूई के समान मुखवाले भयानक कृमि, मछली और वज्र जैसी चोंच वाले गिद्धों का यह निवास स्थल है।[गरुड़ पुराण]
अनभ्यासेन वेदानामाचारस्य च वर्जनात्। 
आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ्जिघांसति॥
वेदों का अभ्यास न करने से, अपने आचार को छोड़ देने से, आलस्य करने से और दूषित अन्न खाने से मृत्यु ब्राह्मणों को मारने की इच्छा करती है।[मनु स्मृति 5.4]  
The Brahmn invite untimely death by neglecting the study-practice of Veds, deviating from the conduct meant for the Brahmans described in scriptures, becoming lazy and eating contaminated, stale, unhealthy food.
Death is imminent, but life span is increased by adopting suitable eating habits, exercise, performing Yog.
लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च। 
अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च॥
लहसुन, गाजर, प्याज और गोबर छत्ता तथा अशुद्ध (माँस, मछली, अंडा; विष्ठा इत्यादि से होने वाले) पदार्थ, द्विजातियों के लिये अखाद्य हैं।[मनु स्मृति 5.5] 
Eating of Garlic, leeks and onions, mushrooms, meat, fish & eggs  and all plants which springing from impure substances like compost, rotten meat etc. are prohibited for the Brahmns.
All plants have medicinal value-properties. If one has to take something as medicine its allowed. during emergency there is no restriction. Regular use of these things is definitely harmful for everyone. Ayur Ved is the most advanced & developed medical science which can cure all ailments except death.
Please refer to :: AYUR VED आयुर्वेद(Chapter 1-14 & Cancer) bhartiyshiksha.blogspot.com
महाकाल भगवान् शिव ने माता पार्वती को बताए मृत्यु रहस्य :: 
(1). यदि अचानक शरीर सफेद या पीला पड़ जाए और लाल निशान दिखाई दें तो समझना चाहिए कि उस मनुष्य की मृत्यु 6 महीने के भीतर हो जाएगी। जब मुँह, कान, आँख और जीभ ठीक से काम न करें तो भी 6 महीने के भीतर ही मृत्यु जाननी चाहिए।
(2). जो मनुष्य हिरण के पीछे होने वाली शिकारियों की भयानक आवाज को भी जल्दी नहीं सुनता, उसकी मृत्यु भी 6 महीने के भीतर हो जाती है। 
(3). जिसे सूर्य, चंद्रमा या अग्नि का प्रकाश ठीक से दिखाई न दे और चारों ओर काला अंधकार दिखाई दे तो उसका जीवन भी 6 महीने के भीतर समाप्त हो जाता है।
(4). त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) में जिसकी नाक बहने लगे, उसका जीवन पंद्रह दिन से अधिक नहीं चलता। यदि किसी व्यक्ति के मुँह और कण्ठ बार-बार सूखने लगे तो यह जानना चाहिए कि 6 महीने बीत-बीतते उसकी आयु समाप्त हो जाएगी।
(5). जब किसी व्यक्ति को जल, तेल, घी तथा दर्पण में अपनी परछाई न दिखाई दे तो समझना चाहिए कि उसकी आयु 6 माह से अधिक नहीं है। जब कोई अपनी छाया को सिर से रहित देखे अथवा अपने को छाया से रहित पाए तो ऐसा मनुष्य एक महीने भी जीवित नहीं रहता।
(6). जब चंद्रमा व सूर्य के आस-पास के चमकीला घेरा काला या लाला दिखाई दे, तब 15 दिन के अंदर ही उस मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। अरूंधती तारा व चंद्रमा जिसे न दिखाई दे अथवा जिसे अन्य तारे भी ठीक से न दिखाई दें, ऐसा मनुष्य की मृत्यु एक महीने के भीतर हो जाती है।
(7). यदि ग्रहों का दर्शन होने पर भी दिशाओं का ज्ञान न हो, मन में बैचेनी छाई रहे तो उस मनुष्य की मृत्यु 6 महीने में हो जाती है। जिसे आकाश में सप्तर्षि तारे न दिखाई दे, उस मनुष्य की आयु 6 महीने ही शेष समझनी चाहिए।
(8). जिस मनुष्य को उतथ्य व ध्रुव तारा अथवा सूर्यमंडल का भी दर्शन न हो, रात में इंद्रधनुष और दोपहर में उल्कापात होता दिखाई दे तथा गीध और कौवे घेरे रहें तो उसकी आयु 6 महीने से अधिक नहीं होती।
इन दिखाई देने सम्बन्धी लक्षणों को तभी मानना चाहिये जब जातक को अन्य सभी कुछ सही दिखाई देता हो, मगर उपयुक्त वस्तुएँ ने दिखती हों। 
मौत के अन्य लक्षण :: अगर किसी व्यक्ति को रात में चंद्रमा या तारे ठीक से ना दिखाई दें, तब ऐसा माना जाता है कि उसकी मौत एक महीने के अंदर हो सकती है।
यदि किसी इंसान का बाँया हाथ लगातार फड़कता रहे, तालू सूख जाए तो उसकी मौत भी एक महीने में हो जाती है।
जिस व्यक्ति को अचानक नीली मक्खियाँ घेर लें तो ऐसा माना जाता है कि अब उसकी उम्र एक महीने ही बची है।
DEATH THE ULTIMATE TRUTH :: One has faced undergone suffering, setbacks, disasters, illness, agony, death in previous births, innumerable times, having acquired rich experience in them. They can be manoeuvred-handled quite easily. One should conquer the fear from them-face them without being afraid. These are the outcome of sins, in previous births. Activities which one is used to-experienced, practiced, repeatedly in previous births-lives are sufficient to develop skill and ability in doing-tackling them. He has the experience of death in previous innumerable lives, then why should he be afraid of it, now!? Let such events do not destabilise-disturb one, having faced and survived them, a great number of times. All sinful acts should be avoided to protect self in present and future births. These troubles can not be escaped, since they are the outcome of deeds, in last many-many births left to be experienced. So, one must face them smiling, boldly-bravely. It's good to face them at a time when health is good-body has potential to tolerate rigours-torture.
One always do so many things to improve his next births, but fails to make endeavours to rectify sinful errors-activities in present-current life. One must make efforts to safeguard the present by not indulging in sinful-unrighteous acts. 
One remembers God and the God also remember his creations. He is always with his devotees to strengthen them. So, one has to be virtuous, pious, honest, righteous.
Death is imminent and constitute an integral part of the life cycle and death cycle. One who is born must die, sooner or later. Demigods are not exception to this rule. Even the deities-goddess undergo this cycle. None of the 14 abodes :- 7 heavens and the 7 Tal are spared by it. Bhagwan Shri Ram and Bhagwan Shri Krashn took incarnation and left, as soon the deeds-purpose of their incarnation was over. All abodes under go this cycle. Bhagwan Brahma-Bhagwan Vishnu and Bhagwan Mahesh them self are bound-governed  by this rule with the life of 2 Parardh, 4 Parardh and 8 Parardh respectively. None of the abodes is spared by birth and destruction. As soon as the impact of virtues is over, the souls start descending to lower abodes. It reaches the earth, in the incarnation of human beings in a virtuous family. Here onward the next journey is decided, depending upon his deeds, virtues or sins. The sins will take him to hells. The soul may earn virtues, piousness, righteousness, honesty, devotion, values, ethics, leading to Salvation-a state of no return to earth. 
Enhancement of the flow of air in the body-blood enhances the bile juices as well. This bile covers the entire body through nervous system, blood circulatory system and the skin. It attacks-targets the soft points-centres of the other airs (heart, lungs) in the body. This lead to lowering of body temperature-cold. This cold strengthens the attack of the air in the body further, which start tracing the opening for release.
Humans have 2 ears, 2 nostrils, 2 eyes and a mouth, a total of 7 openings-outlets and the 8th is the Brahm Randhr-the ultimate outlet for the soul-Vital. The soul-Pran Vayu of pious, virtuous, righteous releases through these 7 openings. The pious-virtuous, righteous gets heaven by the sanction of Yam Raj. Chitr Gupt send him there through excellent routes by planes.
There are 2 more out lets for the release of Pran Vayu-the vital force-energy :- The anus and the pennies. The soul of the wicked-sinner leaves the body through them.
The Yogi has the ultimate outlet for the soul-the Brahm Randhr. The soul explodes the skull and leaves the body to the abodes of its choice, in a divine formation-incarnation achieved by it.
The dead-deceased gets another identical non material body which is moved to hells through a distance of 86,000 Yojan which is very painful. There Yam Raj looks at him and Chitr Gupt thereafter send him to hells, which are extremely painful-torturous. What one gets here is the outcome of his deeds? As one sows, so he gets, here. This is absolute justice.
मृत्यु एक परम सत्य :: मृत्यु एक परम सत्य है। 
मृत्यु अटल है और शाश्वत सत्य है। अत: उनसे डरना व्यर्थ है। विचलित मत होओ। डरो मत, साहस-धैर्य धारण करो। पाप-बुराई से बचो। अभी इस परेशानी से निपट लोगे तो, अगले जन्म में नहीं झेलनी पडेगी। अगले जन्म के साथ-साथ इस जन्म को भी सुधारो। भक्त व भगवान् एक दूसरे को याद करते हैं। परमात्मा भक्त से कभी विलग-अलग नहीं होता। अत: उस पर भरोसा करो। अच्छे धार्मिक सत्य कर्म करते हुए उसे याद  करते रहो। कल्याण अवश्य होगा।
मृत्यु भय व्यर्थ है। व्यक्ति समस्त प्रकार की यातनाओं, यंत्रणाओं, रोगों, व्याधि, बीमारिओं, रोगों व मृत्यु का अनुभव अनंत पूर्वजन्मों में भी कर चुका है। अत: उनसे डरना व्यर्थ है। एक यही क्रिया है, जो आत्मा स्वयं नहीं करती, फिर भी उसे इसका अनन्त बार का अनुभव है। 
दुनियाँ में हर परेशानी का समाधान है। डरो मत साहस-धैर्य धारण करो। पूर्व जन्मों के कर्मों का फल तो हर हालत में भोगना पड़ेगा, उसको टाल तो सकते हो, मगर उससे बच नहीं सकते। अभी इस परेशानी से निपट लोगे तो अगले जन्म में नहीं झेलनी पडेगी। सभी आपत्तियों, विपत्तियों, संकटों, दुखों, दर्द, परेशानियों का हँस कर स्वागत करो; उन से डरो मत, मुकाबला करो। पाप-बुराई  से बचो। दुनियां का हर संकट टल जायेगा। 
जब कभी कोई व्यक्ति श्मशान में जाता है उसे जीवन की नीरसता याद आने लगती है उह भ्रम जाल लगता है, और वह कहता है, "अरे अन्त में यहीं तो आना है, फिर धोका, बेईमानी, झूँठ, लूट, चोरी, डकैती किस लिये!? परन्तु, जैसे ही श्मशान से बाहर निकलता है, वह सब कुछ भूलकर फिर से इन्हीं गोरख धंधों में लग जाता है। क्या यही जीवन है? क्या इसीलिए जीवन है? मनुष्य जन्म अनमोल है यह मानव मात्र की सेवा, अपना उद्धार सत कर्म, धर्म के लिए ही है। 
अभी 14 मार्च 2014 को बुलंद शहर में एक स्त्री की मृत्यु हो गई। परन्तु कुछ घण्टों बाद वो फिर से जीवित हो गई। उसने बताया कि ऊपर जाने पर यह पर कहा गया ये किसे उठा लाये!? जिसे लाना था वो तो दूसरे मोह्हले में रहती है। भूल सुधार तो हो गया, परन्तु देखो गलती तो धर्म राज के यहाँ भी हो सकती है। 
एक थे शादी बाबा। गाँव सलैमपुर, कस्बा ककोड़, जिला बुलंद शहर, उत्तर प्रदेश, भारत। वो मुसलमान थे। वो कब्र में दफनाने वक्त उठ बैठे। लोगों ने कहा भूत है, भागो। उन्होंने मातम मनाने वालों को रोका और कहा कि देखो वो जो शादी पण्डित हैं, मरना तो उन्हें था, वो लोग भूल से मुझे उठा के ले गये। वहाँ जाकर देखा तो पता पड़ा कि मरना तो किसी और को था और मर कोई और गया। ख़ैर भूल सुधार तो हो गया। शादी बाबा उसके बाद 20 साल तक दिल्ली की जामा मस्जिद में हर जुम्मे को 70 मील का सफर, पैदल तय करके आते रहे। उन्हें अपने मरने-वापस जाने का मुक़र्रर वक्त बता दिया गया था और वो उसी वक्त, दिन, तारीख पर गये। उनको सलैमपुर, कस्बा ककोड़, जिला बुलन्दशहर-उत्तर प्रदेश में वैर स्टेशन के रास्ते में सीधे हाथ को पोखर में दफ़नाया गया। मेरे पिता जी ने उनकी कब्र का स्थान मुझे बचपन में दिखाया था। अब तो गाँव में किसी को यह घटना याद तक नहीं है। 
मजहब का झगड़ा यहाँ है, वहाँ नहीं। 
व्यक्ति समस्त प्रकार की यातनाओं, यंत्रणाओं, रोगों, व्याधि, बीमारीओं, रोगों व  मृत्यु का अनुभव अनंत  पूर्वजन्मों में  भी कर चुका है।  एक यही क्रिया है जो आत्मा स्वयं नहीं करती फिर भी उसे इसका अनन्त बार का अनुभव है। दुनियाँ में हर परेशानी का समाधान है। डरो मत साहस-धैर्य धारण करो। पूर्व जन्मों के कर्मों का फल तो हर हालत में भोगना पड़ेगा, उसको टाल तो सकते हो, मगर उससे बच नहीं सकते। अभी इस परेशानी से निपट लोगे तो अगले जन्म में नहीं झेलनी पडेगी। सभी आपत्तियों, विपत्तियों, संकटों, दुखों, दर्द, परेशानियों का हँस कर स्वागत करो; उन से डरो मत, संघर्ष मुकाबला करो। पाप-बुराई  से बचो। दुनियाँ का हर संकट टल जायेगा। अगले जन्म के साथ साथ इस जन्म को भी सुधारो।
भारत में हिन्दु हर वक्त अगला जन्म सुधारने की फ़िराक में रहता है और वर्तमान के कर्म-कर्तव्यों को भुला देता है। अतः सतकर्म करो, अपने दायित्वों का निर्वाह करो।  
मृत्यु  के पश्चात :: मरने के 47 दिन बाद आत्मा  यमलोक में पहुँचती है। मृत्यु एक परम् सत्य है। मृत्यु के बाद आत्मा को कर्मों के अनुरूप गति-जन्म की प्रापि होती हैं। जो मनुष्य अच्छे कर्म करता है, वह स्वर्ग जाता है,जबकि जो मनुष्य जीवन भर बुरे कामों में लगा रहता है, उसे यमदूत नरक में ले जाते हैं। सबसे पहले जीवात्मा को यमलोक ले जाया जाता है। वहाँ यमराज उसके पापों के आधार पर उसे  अनुरूप लोक और योनि प्रदान करते हैं। 
जिस मनुष्य की मृत्यु होने वाली होती है, वह बोल नहीं पाता। अंत समय में उसमें दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है और वह संपूर्ण संसार को एकरूप समझने लगता है। उसकी सभी इंद्रियाँ नष्ट हो जाती हैं। वह जड़ अवस्था में आ जाता है, यानी हिलने-डुलने में असमर्थ हो जाता है। इसके बाद उसके मुँह से झाग निकलने लगता है और लार टपकने लगती है। पापी पुरुष के प्राण नीचे के मार्ग-गुदा से निकलते हैं।
जिस वक्त जातक की मृत्यु का समय आता है, उसके कुछ दिन पहले ही गली के कुत्ते रात-विराट ऊपर की ओर मुँह करते बुरी तरह रोते हैं। जब अचानक गली और आस पास के सैकड़ों कुत्ते बुरी तरह रोने लगें तो समझ लो कि अनेकों लोग मौत के ग्रास बनेंगे। 
मृत्यु के समय दो यमदूत आते हैं। वे बड़े भयानक, क्रोधयुक्त नेत्र वाले तथा पाशदंड धारण किए होते हैं। वे नग्न अवस्था में रहते हैं और दाँतों से कट-कट की ध्वनि करते हैं। यमदूतों के कौए जैसे काले बाल होते हैं। उनका मुँह टेढ़ा-मेढ़ा होता है। नाखून ही उनके शस्त्र होते हैं। यमराज के इन दूतों को देखकर प्राणी भयभीत होकर मलमूत्र त्याग करने लग जाता है। उस समय शरीर से अंगूष्ठमात्र (अंगूठे के बराबर) जीव हा-हा शब्द करता हुआ निकलता है।
यमराज के दूत जीवात्मा के गले में पाश बाँधकर यमलोक ले जाते हैं। उस पापी जीवात्मा को रास्ते में थकने पर भी यमराज के दूत भयभीत करते हैं और उसे नरक में मिलने वाली यातनाओं के बारे में बताते हैं। यमदूतों की ऐसी भयानक बातें सुनकर पापात्मा जोर-जोर से रोने लगती है, किंतु यमदूतों को उस पर बिल्कुल भी दया नहीं करते।
इसके बाद वह अँगूठे के बराबर शरीर यमदूतों से डरता और काँपता हुआ, कुत्तों के काटने से दु:खी अपने पापकर्मों को याद करते हुए चलता है। आग की तरह गर्म हवा तथा गर्म बालू पर वह जीव चल नहीं पाता है। वह भूख-प्यास से भी व्याकुल हो उठता है। तब यमदूत उसकी पीठ पर चाबुक मारते हुए उसे आगे ले जाते हैं। वह जीव जगह-जगह गिरता है और बेहोश हो जाता है। इस प्रकार यमदूत उस पापी को अंधकारमय मार्ग से यमलोक ले जाते हैं।
यमलोक 99 हजार योजन (योजन वैदिक काल की लंबाई मापने की इकाई है। एक योजन बराबर होता है, चार कोस यानी 13.16 किमी) दूर है। वहाँ पापी जीव को दो-तीन मुहूर्त में ले जाते हैं। इसके बाद यमदूत उसे भयानक यातना देते हैं। यह याताना भोगने के बाद यमराज की आज्ञा से यमदूत आकाशमार्ग से पुन: उसे उसके घर छोड़ आते हैं।
घर में आकर वह जीवात्मा अपने शरीर में पुन: प्रवेश करने की इच्छा रखती है, लेकिन यमदूत के पाश से वह मुक्त नहीं हो पाती और भूख-प्यास के कारण रोती है। पुत्र आदि जो पिंड और अंत समय में दान करते हैं, उससे भी प्राणी की तृप्ति नहीं होती, क्योंकि पापी पुरुषों को दान, श्रद्धांजलि द्वारा तृप्ति नहीं मिलती। इस प्रकार भूख-प्यास से बेचैन होकर वह जीव यमलोक जाता है।
जिस पापात्मा के पुत्र आदि पिंडदान नहीं देते हैं तो वे प्रेत रूप हो जाती हैं और लंबे समय तक निर्जन वन में दु:खी होकर घूमती रहती है। काफी समय बीतने के बाद भी कर्म को भोगना ही पड़ता है, क्योंकि प्राणी नरक यातना भोगे बिना मनुष्य शरीर नहीं प्राप्त होता। मनुष्य की मृत्यु के बाद 10 दिन तक पिंडदान अवश्य करना चाहिए। उस पिंड दान के प्रतिदिन चार भाग हो जाते हैं। उसमें दो भाग तो पंचमहाभूत देह को पुष्टि देने वाले होते हैं, तीसरा भाग यमदूत का होता है तथा चौथा भाग प्रेत खाता है। नवें दिन पिंडदान करने से प्रेत का शरीर बनता है। दसवें दिन पिंडदान देने से उस शरीर को चलने की शक्ति प्राप्त होती है।
शव को जलाने के बाद पिंड से हाथ के बराबर का शरीर उत्पन्न होता है। वही यमलोक के मार्ग में शुभ-अशुभ फल भोगता है। पहले दिन पिंडदान से मूर्धा (सिर), दूसरे दिन गर्दन और कंधे, तीसरे दिन से हृदय, चौथे दिन के पिंड से पीठ, पाँचवें दिन से नाभि, छठे और सातवें दिन से कमर और नीचे का भाग, आठवें दिन से पैर, नवें और दसवें दिन से भूख-प्यास उत्पन्न होती है। यह पिंड शरीर को धारण कर भूख-प्यास से व्याकुल प्रेतरूप में ग्यारहवें और बारहवें दिन का भोजन करता है।
यमदूतों द्वारा तेरहवें दिन प्रेत को बंदर की तरह पकड़ लिया जाता है। इसके बाद वह प्रेत भूख-प्यास से तड़पता हुआ यमलोक अकेला ही जाता है। यमलोक तक पहुँचने का रास्ता वैतरणी नदी को छोड़कर छियासी हजार योजन है। उस मार्ग पर प्रेत प्रतिदिन दो सौ योजन चलता है। इस प्रकार 47 दिन लगातार चलकर वह यमलोक पहुँचता है। मार्ग में सोलह पुरियों को पार कर पापी जीव यमराज के दरबार में पहुँचता है जहाँ चित्रगुप्त उसके कर्मों का लेखा-जोख़ा जाँच-परखकर उसका भविष्य तय करते हैं।
इन सोलह पुरियों के नाम इस प्रकार है :- सौम्य, सौरिपुर, नगेंद्रभवन, गंधर्व, शैलागम, क्रौंच, क्रूरपुर, विचित्रभवन, बह्वापाद, दु:खद, नानाक्रंदपुर, सुतप्तभवन, रौद्र, पयोवर्षण,शीतढ्य, बहुभीति। इन सोलह पुरियों को पार करने के बाद यमराजपुरी आती है। पापी प्राणी यमपाश में बंधा मार्ग में हाहाकार करते हुए यमराज पुरी जाता है।[गरुड़ पुराण] 
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