Thursday, April 24, 2014

NAMING नामकरण संस्कार :: HINDU PHILOSOPHY (4.5) हिंदु दर्शन

NAMING 
नामकरण संस्कार
 HINDU PHILOSOPHY (4.5) हिंदु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

किसी व्यक्ति, स्थान, वस्तु आदि की पहचान के लिये उसे एक नाम दिया जाता है। सनातन धर्म में व्यक्ति की पहचान उसके गुणों के अनुरूप भी होती है।
नाम अखिल व्यवहार एवं मंगलमय कार्यों का हेतु है। नाम व्यक्ति के गुणों को प्रकट करते हैं। नाम से ही व्यक्ति प्रसिद्धि-कीर्ति प्राप्त करता है। [देवगुरु वृहस्पति]
नामाखिल्य व्यवहारहेतुः शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतुः। 
नाम्नैव कीर्ति लभते मनुष्यस्ततः प्रशस्तं खलु नामकर्म॥[वीर मित्रोदय संस्कार प्रकाश]
भगवान् साधु-संतो, ऋषियों, महर्षियों, देवगणों के नाम स्मरण, उच्चारण से ही पुण्य की प्राप्ति होती है। भगवन्नाम की महिमा तो अवर्णनीय-अतुलनीय है। जातक का नामकरण संस्कार पत्रा-पंचाग और उसकी राशि के अनुरूप, उसके भविष्य में होने वाले कार्य-क्रिया कलापों का द्योतक-संकेत भी हो सकता है। 
आयुर्वर्चोऽभिवृद्धिश्च सिद्धिर्व्यवहृतेस्तथा। 
नामकर्मफलं त्वेतत् समुद्दिष्टं मनीषिभिः॥[स्मृति संग्रह]
व्यवहार की सिद्धि, आयु एवं ओज की वृद्धि के लिये नामकरण संस्कार करना चाहिये। 
नामकरण संस्कार का मुहूर्त :: 
"दशम्या मुत्थाप्य ब्राह्मणान् भोजयित्वा पिता नाम करोति" [पारस्कर गृह सूत्र 1.17.1] 
यह संस्कार दसवें दिन की रात्रि के व्यतीत हो जाने पर ग्यारहवें दिन होता है। पहले दिन तीन ब्राह्मणों को भोजन कराएं। बालक का नामकरण पिता करता है। पिता न हो तो पितामह, चाचा आदि भी यह संस्कार कर सकते हैं। 
दसवें दिन जनना शौच रहता है और अशौच में नामकरण नहीं होता। 
"एकादशेऽह्नि  नाम" [व्यास स्मृति 1.18 ] 
"अशौचे तु व्यतिक्रान्ते नामकर्म विधीयते" [शंख स्मृति] 
"अहन्ये कादशे नाम" [याज्ञवल्कय स्मृति आo 12] 
"ततो दशमे सुश्रुत संहिताऽहनि मातापितरौ कृत मङ्गल कौतुकौ स्वस्ति वाचनं कृत्वा नाम कुर्यातां यदभिप्रेतं नक्षत्र नाम वा" [सुश्रुत संहिता; शारीरo 10.24]
यदि किसी कारणवश नामकरण ग्यारहवें दिन न हो सके, तो अठारहवें, उन्नीसवें, सौवें दिन अथवा अयन के बीतने पर किया जा सकता है। कुलाचार, देशाचार के अनुरूप भी शुभ मुहूर्त यह कार्य सम्पन्न किया जा सकता है। भद्रा, वैधृति, व्यतिपात, संक्रान्ति, अमावस्या और श्राद्धों में यह शुभ कार्य निषेध है। नियत समय पर नामकरण संस्कार में गुरु तथा शुक्र के अस्त का एवं मल मासादि का निषेध नहीं है।
नाम का स्वरूप :: 
द्वयक्षरं चतुरक्षरं वा घोषवदाद्यन्तरन्तस्थम्। दीर्घाभिनिष्ठानं कृतं कुर्यान्न तद्धितम्॥अयुजाक्षरमाकान्तँ स्त्रियै तद्धितम्[पारस्कर गृह सूत्र 1.17.2-3]
बालक का नाम दो या चार अक्षर युक्त, पहला अक्षर घोषवर्ण युक्त (वर्ग का तीसरा, चौथा पाँचवाँ वर्ण), मध्य में अन्तःस्थवर्ण (य, र, ल, व आदि) और नाम का अंतिम वर्ण दीर्घ एवं कृदन्त हो, तद्धितान्त न हो यथा देव शर्मा, शूर शर्मा आदि। कन्या का नाम विषम वर्णी तीन या पाँच अक्षर युक्त, दीर्घ वर्णान्त एवं तद्धितान्त होना चाहिये यथा श्रीदेवी आदि। 
नामों की प्रणालियाँ :: नाम कुलदेवता, मास, नक्षत्र सम्बद्ध होने के आलावा व्यावहारिक भी होना चाहिये। 
तच्च नाम चतुर्विधम्। कुलदेवतासम्बद्धं माससम्बद्धं नक्षत्रसम्बद्धं व्यावहारिकं चेति। [वीरमित्रोदय-संस्कार प्रकाश]
धर्म सिन्धु के अनुसार नामों को देवनाम, मॉस नाम, नक्षत्र नाम और पुकारने वाला-सामान्य नाम में बनता गया है। उदाहरण के लिये :- 
देवनाम :- रामदास, कृष्णानुज आदि। 
चैत्रादि मासनाम :- वैकुण्ठ, जनार्दन, उपेन्द्र आदि।
नक्षत्र नाम :- नक्षत्र के नाम से अथवा नक्षत्रों के स्वामियों के नाम से यथा-अश्वयुक्, कार्तिक आदि।  
नामकरण का आधार नक्षत्र :: 23 नक्षत्रों में प्रत्येक के 4 चरण हैं। एक नक्षत्र 60 घटी तक रहता है। अतः एक चरण 15 घटी का हुआ। बच्चे के जन्म के इष्टकाल के अनुसार जिस चरण में जन्म होता है, उसी चरण में अवकहडाच चक्र के अनुसार उसी अक्षर के अनुरूप नाम पड़ता है। जन्म के समय चन्द्र जिस नक्षत्र के जिस चरण में होता है जातक का वही नक्षत्र चरण माना जाता है तथा उस नक्षत्र चरण के अक्षर पर उस जातक का नामकरण किया जाता है। 
जैसे अश्विनी में चू, चे, चो, ला आदि; भरणी में ला, लू, लो आदि। अश्विनी नक्षत्र के प्रथम चरण नाम चू से शुरू होगा यथा चूड़ामणि। द्वितीय चरण में नाम चे से शुरू होगा यथा चेतन। तृतीय चरण में नाम चो से प्रारम्भ होगा यथा चोखे लाल। यदि जन्म चतुर्थ चरण में हुआ हो तो जातक का नाम ला से आरम्भ होगा यथा लाल सिंह। 
जन्म नक्षत्र में नामकरण :: नक्षत्र के अनुसार नाम का पहला अक्षर
वृषभ राशि, कृत्तिका नक्षत्र और चौथा चरण :- पहला अक्षर: ए E, कृत्तिका) नक्षत्र के अनुसार नाम का पहला अक्षर अ A, ई I, उ U और ए E, वृषभ राशि के अनुसार नाम का पहला अक्षर :- ई, ऊ, ए, ओ, वा, वी, वू, वे, वो। नक्षत्र और उनके अक्षर :-
 क्रमांक
 नक्षत्र
 पहला अक्षर 
(1).  
अश्विनी
चू, चे, चो, ला 
(2). 
 भरणी
ली, लू, ले, लो 
(3).  
 कृतिका
अ, इ, ऊ, ऐ
(4). 
 रोहिणी
ओ, व, वि, वू
(5).  
 मृगशिरा
वे, वो, का, की
(6). 
 आर्द्रा
कू, घ, ड, छ 
(7). 
 पुनर्वसु
के, को, ह, हि 
(8).  
 पुष्य
हु, हे, हो, डा
(9).  
 अश्लेषा
डी, डु, डे, ड़ो
(10).  
 मघा
म़ा, मी, मू, मे 
(11). 
 पूर्व फाल्गुनी
मो, टा, टी, टू
(12). 
 उत्तर फाल्गुनी
टे, टा, टी, टू
(13).
 हस्त
पू , ष, ण, ठ
(14). 
 चित्रा
पे, पो, रा, री
(15).
 स्वाति
रू, रे, रो, ता
(16).
 विशाखा
ती, तू, ते, तो
(17).
 अनुराधा
ना, नी, नू , ने
(18).
 ज्येष्ठा
नो, या, यी, यू 
(19).
 मूल
ये , यो , भा , भी
(20).
 पूर्व आषाढ़
भू, ध, फ, ढ
(21).
 उत्तराषाढ़
भे, भो, जा, जी 
(22).
 वण
खी, खू, खे, खो 
(23). 
 धनिष्ठा
ग, गी, गू, गे 
(24). 
 शतभिषा
गो, सा, सी, सू 
(25). 
पूर्व भाद्रपद
से, सो, दा, दी
(26). 
 उत्तर भाद्रपद
दू,थ, झ 
(27).
 रेवती
दे, दो, चा, ची
व्यावहारिक नाम :: सामान्यतया नक्षत्रों पर आधारित नाम और बोलता नाम अलग-अलग  होते हैं। माँ-बाप अक्सर अपनी सुविधा के अनुरूप बच्चे का कोई छोटा, प्रचलित नाम रख लेते हैं। मूल-नक्षत्र नाम को गुप्त ही रखना चाहिये। मूल नाम का उपयोग शत्रु अभिचारादि, जादू-टोना, टोटका, परम्परा का अनुसार पिता को ज्येष्ठ पुत्र का नाम नहीं पुकारना होता, इसलिये अन्य कोई भी नाम अपनी सुविधा-मन की पसन्द के हिसाब से रख लेना चाहिये। 
राशि नाम :: सवा दो नक्षत्र की एक राशि होती है। प्रत्येक राशि में चार चरण होते हैं और राशि नाम भी उनके अनुरूप ही होता है। 
"यद् अभिप्रेतं नक्षत्र नाम वा" [सुश्रुत संहिता शारीर 10.24] 
जो नाम माता-पिता को अभीष्ट हो अथवा जो नाम नक्षत्र से सम्बन्धित हो वही रखना चाहिये।
"यशस्यं नामश्रेयं देवताश्रयं नक्षत्राश्रयं च" [मानव गृह्य सूत्र 1.18.2]
ऐसा नाम रखना चाहिये जो यशोवर्द्धक या यश का सूचक हो, देवता अथवा नक्षत्र पर आधारित-आश्रित हो। 
"कुमारस्य पिता द्वे नामनी कारयेत् नाक्षत्रिकं नामाभिप्रायिकम्"[ चरक शारीर 8.50]
बालक का पिता दो नाम सुनिश्चित करे पहला :- नक्षत्र के अनुरूप और दूसरा :- अपनी पसंद के अनुरूप। नक्षत्र के अनुरूप नाम होने से जातक के जन्म का समय, तिथि, वार, वर्ष, मास आदि का ज्ञान तत्काल  हो जाता है। उसके गुण, अवगुण, व्यवहार आदि का पता भी लगाया जा सकता है। ज्योतिष और आयुर्वेद एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। चिकित्सक को यदि ज्योतिष का ज्ञान है तो वह नक्षत्र के अनुकूल चिकित्सा करेगा। 
वर्णानुसार नामकरण :: चारों वर्णों के नामकरण में स्त्री और शूद्रों का नामकरण बगैर मन्त्रों के होता है। ब्राह्मण का नाम मंगल और आनन्द सूचक यथा शर्मा (अथवा कुल-गौत्र)  युक्त होता है। क्षत्रिय का नाम बल, रक्षा और शासन क्षमता का द्योतक होना चाहिये। उनके नाम के साथ वर्मा या कुल-गौत्र को भी जोड़ा जाता है। वैश्य का नाम धन-ऐश्वर्य सूचक, पुष्टि युक्त तथा गुप्त युक्त होना चाहिये। शूद्र का नाम सेवा आदि गुणों से युक्त एवं दासान्त होना चाहिये। 
"शर्म ब्राह्मणस्य वर्म क्षत्रियस्य गुप्तेति वैश्यस्य" [पा.गृ.सू. 1.17.4] 
नामधेयं दशम्यां वाSस्य कारयेत्। 
पुण्ये तिथौ मुहूर्त्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते॥2.30॥
उस बालक का दसवें या बारहवें दिन नाम करण संस्कार शुभ पुण्य तिथि, मुहूर्त्त और नक्षत्र में करना चाहिये। 
The child should be named on the 10th  or 12th day after birth, on an auspicious day & date under the influence of auspicious constellation configuration as per the advice of the astrologers.
माङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्। 
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥मनु स्मृति 2.31॥
ब्राह्मण का मङ्गलवाचक, क्षत्रिय का बलवाचक, वैश्य का धन से युक्त और शुद्र का निंदा से युक्त नाम रखना चाहिये। 
Naming of the child should be done in such a way that it reflects his traits according to his Varn-caste viz. for a Brahman it should include auspiciousness, for the Kshatriy-Marshal castes it should reflect power-valour, strength for the Vaeshy it should associate wealth money and for the Shudr it should include contemptible words to represent his low origin.
The method was used to identify one through name. In realty the names are just nouns and there is intention to degrade or insult any segment of the society.
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्। 
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुताम्॥मनु स्मृति 2.32॥
ब्राह्मण के नाम के अन्त शर्मा, क्षत्रिय के सिंह या वर्मा, वैश्य के नाम के साथ पुष्टि युक्त गुप्त जैसा शब्द तथा शुद्र के नाम के अंत में दास आदि शब्दों का प्रयोग करना चाहिये। 
The suffix of the name should be a word which can easily distinguish one caste from the other. The Brahmn should use Sharma, Kshatriy should use Singh or Verma, the Vaeshy should use Gupt and the Shudr should use a world like Dass. Sharma is auspiciousness-happiness, Singh lion is for protection, power, valour, bravery, Gupt is for trading, cultivator, business community and the word Dass is meant for those who are servants or slaves.
In broader sense each of the upper castes address themselves as the slaves of the Almighty and the more humbles ones calls themselves as the slaves of the God's slaves.
स्त्रीणां सुखोद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम्। 
माङ्गल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत्॥मनु स्मृति 2.33॥
मुख से उच्चारण करने के योग्य, सुन्दर अर्थ का द्योतक, स्पष्ट, चित्त को प्रसन्नता प्राप्त कराने वाला, मङ्गलसूचक, अन्तिम अक्षर दीर्घवर्णात्मक, आशीर्वादात्मक शब्द से युक्त स्त्रियों का नाम रखना चाहिये (जैसे यशोदा देवी)।like Yashoda Devi
The name of the woman should be easy to pronounce, having good meaning, clear, which grants pleasure to the heart, with auspicious last letter, containing blessings (benediction,आशीर्वाद, मंगलकलश, मंगलकामना) like Yashoda Devi.
लड़कियों के नाम देवियों के नाम पर नहीं रखने चाहियें यथा गँगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा।  
शर्मति ब्राह्मण स्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम्। गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रो:[विष्णुपुराण 3.10.9] 
विवाह, सभी प्रकार के माँगलिक कार्य, यात्रा, ग्रह प्रवेश आदि सभी में जन्मराशि मान-नक्षत्र नाम का प्रयोग ही किया जाता है। आजकल शादी-विवाह आदि में और यहाँ तक कि सभी माँगलिक कार्यों में बोलते नाम का प्रयोग ही किया जाता है।
विवाहे सर्वमाङ्गल्ये यात्रायां ग्रहगोचरे। 
जन्मराशिप्रधानत्वं नामराशिं न चिन्तयेत् 
देश ग्रामे गृहे युद्धे सेवायां व्यवहारके। 
नामराशिप्रधानत्वं जन्मराशिं न चिन्तयेत्॥
अजामिल को पापात्मा होते हुए भी मृत्यु काल में अपने पुत्र नारायण को पुकारने मात्र से ही सद्गति मिल गई। 
"द्वादशेऽहनि राजेन्द्र शिशोर्निष्क्रमणं गृहात्"[भविष्योत्तर पुराण]
नामकरण संस्कार के अनन्तर निष्क्रमण संस्कार को पारस्कर चुतुर्थ मास में करने के लिए कहते हैं। भूम्युपवेशन कर्म निष्क्रमण संस्कार का अंग है, अतः उसे भी इसी समय कर लेना चाहिये। 
नामकरण संस्कार के दिन प्रातःकाल ही सूतिका पुत्र-पुत्री सहित स्नानादि करके पवित्र हो जायें। सूतिका गृह को भी शुद्ध कर लें। पिता स्वयं भी स्नानादि करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें और दीप प्रज्वलित करके पवित्र आसन पर पूर्वाभिमुख हो बैठ जायें और आचमन, प्राणायाम आदि कर लें। सभी पूजन सामग्री को यथास्थान रख लें। 
तदनन्तर हाथ में त्रिकुश, पुष्प, अक्षत तथा जल लेकर निम्न संकल्प करें।
प्रतिज्ञा-संकल्प :: 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे/क्षेत्रे षष्टिसंवत्सराणां मध्ये ...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र: सपत्नीक:..शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं मम अस्य कुमारस्य बीजगर्भ-समुद्भवैनोनिबर्हणेन बला युर्वर्चोऽभिवृद्धिव्यवहारसिद्धिद्वारा श्री परमेश्वरप्रीत्यर्थं नामकरणसंस्कार तथास्य बालस्य सूर्यवलोकनसहितनिष्क्रमणकर्म भूम्युपवेशनं चैकतन्त्रेण  करिष्ये। करिष्यमाणनामककर्मसूर्यावलोकनसहितनिष्क्रमणभूम्युपवेशनकर्मणां पूर्वाङ्गतया स्वस्तिपुण्याहवाचनं निर्विघ्नतासिध्यर्थं  गणेशाम्बिकापूजनं मातृकापूजनं वसोर्धारापूजनआयुष्यमन्त्रजपं साङ्कल्पिकेन विधिना नान्दीमुखश्राद्धं च करिष्ये। 
इस प्रकार कहकर संकल्प जल छोड़ दें और गणपति-पंचांगपूजनादि सम्पन्न करें। 
ब्राह्मण भोजन संकल्प :: इसके पश्चात कर्ता नामकरण स्नस्कार कर्म करने की अधिकार सिद्धि के लिये हाथ में जल, अक्षत आदि लेकर तीन ब्राह्मणों को भोजन कराने का निम्न संकल्प करे :-
ॐ अद्य गोत्र ...शर्मा/वर्मा/गुप्प्तोSहं अस्य जातकस्य पुत्रस्य नामकरणपूर्वाङ्गतया विहितान् त्रीन् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये। 
यह संकल्प करके ब्राह्मणों को भोजन करायें या निष्क्रयभूत द्रव्य-दक्षिणा प्रदान करें। 
पंच गव्य-हवन के लिये अग्निस्थापन का संकल्प :: तदनन्तर होम-हवन का संकल्प करें। कर्ता हाथ में कुश, अक्षत, जल आदि लेकर निम्लिखित संकल्प करें :-
ॐ अद्य पूर्वोच्चारितग्रहगुणगणविशेषणविशिष्टयां शुभपुण्यतिथौ गोत्र...शर्मा/वर्मा/गुप्प्तोSहं अस्मिन् नामकरणकर्मणि पञ्चगव्यादिहोमार्थं पञ्चभूतसंस्कारपूर्वकं विधिनामानमग्निस्थापनं करिष्ते।
हाथ का संकल्प जल छोड़ दें। 
वेदी निर्माण और पंच भूसंस्कार :: तदनन्तर हवन के लिये मिट्टी अथवा बालू से एक हाथ लम्बी चौड़ी और चार अंगुल ऊँची एक वेदी बनायें और निम्न रीति से वेदी का पंच भूसंस्कार करें :-
(1). तीन पूर्वाग्र कुशाओं से वेदी को दक्षिण से उत्तर को ओर तक साफ क्र दें। उन कुशाओं को ईशान कोण में फेंक दें। 
(2). गोबर और जल से वेदी को दक्षिण से उत्तर की ओर लीप दें। 
(3). स्रुवा अथवा तीन कुशाओं के मूल से वेदी के बीच में प्रादेश मात्र (अँगुष्ठ और तर्जनी के बीच की दूरी) लम्बी तीन रेखाएँ दक्षिण से आरम्भकर उत्तर की ओर और पश्चिम से पूर्व की ओर खींचें। 
(4). उल्लेखन-क्रम  से रेखाओं से अनामिका और अँगुष्ठ के द्वारा मिट्टी निकालकर बायें हाथ में रखते जायें। तीन बार मिट्टी निकालने के बाद उसको बायें हाथ से दायें हाथ में लेकर ईशानकोण में फेंक दें। 
(5). जल द्वारा वेदी को सींच दें। 
तदनन्तर वेदी में अग्नि की स्थापना करें। किसी काँस्य अथवा ताम्र पात्र में या मिट्टी के सकोरे में स्थित अग्नि को वेदी के अग्निकोण में रखें और इसमें से क्रव्या दांश निकालकर नैर्ऋत्य कोण में डाल दें। तत्पश्चात अग्नि पात्र को स्वाभिमुख करते हुए निम्न मन्त्र के साथ अग्नि को वेदी में स्थापित करें :-
अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे। देवाँ आ सादयदिह॥ 
अग्नि को प्रज्ज्वलित रखने के लिये हवन कुंड-वेदी में थोड़ी-थोड़ी देर बाद लकड़ियाँ डालते रहें।  
अग्नि प्रतिष्ठा एवं पूजन :: तदनन्तर :-
ॐ भूर्भुव स्वः विधिनामग्ने इहागच्छ इह तिष्ठ सुप्रतिष्ठितो वरदो भव।
कहकर अग्नि की प्रतिष्ठा करके "ॐ विधिनामाग्नये नमः"  मन्त्र से गन्धादि उपचारों से अग्नि का पूजन करें।   
आचार्य तथा ब्रह्मा के वरण हेतु संकल्प :: यदि स्वयं हवन करने में सक्षम हों तो केवल ब्रह्मा का वरण करें; अन्यथा आचार्य एवं ब्रह्मा दोनों का वरण करने हेतु दाहिने हाथ में त्रिकुश, अक्षत, जल, वरण सामग्री तथा द्रव्य ग्रहण करके बोलें-निम्न संकल्प करें :- 
ॐ अद्य पूर्वोच्चारितग्रहगुणगणविशेषणविशिष्टयां शुभपुण्यतिथौ गोत्र...शर्मा/वर्मा/गुप्प्तोSहं...राशे मम पुत्रस्य करिष्यमाणशुद्ध्यर्थमपञ्चगव्यपानाङ्गहोमकर्मणि आचार्यब्रह्मणोः वरणं पूजनं च करिष्ये।
ऐसा कहकर संकल्प जल तथा वर्ण सामग्री उन्हें प्रदान करें। तत्पश्चाहत हवन की तैयारी (कुशकण्डिका) करें। 
कुश कुण्डिका :: 
प्रणीता पात्र स्थापन :- इसके पश्चात यजमान प्रणीता पात्र को आगे रखकर जल से भर दे और उसको कुशाओं से ढककर तथा ब्राह्मण का मुख देखकर अग्नि की उत्तर दिशा की ओर कुशाओं के ऊपर रखे। 
Thereafter, a wooden pot is filled with water and is covered with the Kush, while visualising the priest in the North direction of fire place & placed over the Kush grass.
अग्नि वेदी के चारों तरफ कुश आच्छादन-कुश परिस्रण :- इक्यासी कुशों को ले (यदि इतने कुश उपलब्ध न हों तो तेरह कुशों को ग्रहण करना चाहिये। उनके 3-3 के 4 भाग करे। कुशों के सर्वथा अभाव में दूर्वा से भी काम चलाया जा सकता है।) इनको 20-20 के चार भाग में बाँटे। इन चार भागों को अग्नि के चारों ओर फैलाया जाये। ऐसा करते वक्त हाथ कुश से खाली नहीं रहना चाहिये। प्रत्येक भाग को फैलाने पर हाथ में एक कुश बच रहेगा। इसलिये पहली बार में 21 कुश लेने चाहिये। कुश बिछाने का क्रम :- कुशों का पहला हिस्सा (20 +1) लेकर पहले वेदी के अग्नि कोण से प्रारम्भ करके ईशान कोण तक उन्हें उत्तराग्र बिछाये। फिर दूसरे भाग को ब्रह्मासन से अग्निकोण तक पूर्वाग्र बिछावे। तदनन्तर तीसरे भाग को नैर्ऋत्य कोण से वायव्य कोण तक उत्तराग्र बिछावे और चौथे भाग को वायव्य कोण से ईशान कोण तक पूर्वाग्र बिछावे। पुनः दाहिने खाली हाथ से वेदी के ईशानकोण से प्रारम्भकर वामावर्त ईशानकोण पर्यन्त प्रदक्षिणा करे।
81 Kush pieces are taken and grouped in to blocks of 3-3 and subsequently divided into 4 parts. These 4 segments have to be spreaded around the fire place.  The hand should not be empty while doing so. On taking 21 pieces, 20 will be placed and one will still be there in the hand. The first group of Kush grass should be kept till the Ishan Kon i.e, North-East direction beginning from the South-East direction till the North front. The second group should be laid starting from the seat of the Priest till the South-Wast direction keeping the Eastern section in front. The third group has to be placed towards West-South till North-West direction facing North and the fourth group should be placed from North-West till North-East facing east wards. Now, he should circumambulate from right hand side (keeping the hand empty), beginning from North-East to North-East i.e., reaching the same point yet again, anti-clock wise. 
प्रणीता पात्र स्थापन :: प्रणीता पात्र को वेदी के उत्तर भाग में कुशों के आसन पर रख दें। कर्मपात्र के जल से उसे भर दें। तदनन्तर वेदी के चारों ओर यथाविधि कुश बिछायें। 
पात्रा सादन :: हवन में प्रयुक्त होने वाली सभी वस्तुओं तथा पात्रों को पश्चिम से पूर्व तक उत्तराग्र अथवा अग्नि के उत्तर की ओर पूर्वाग्र रख लें। 
पवित्रक बना लें तथा प्रोक्षणी पात्र का संस्कार करें। आज्य स्थाली में घी रखकर वेदी के पश्चिम भाग में उत्तर की ओर रख लें। स्त्रुवा का सम्मार्जन कर लें। तीन समिधाओं को घी में डुबोकर मौन होकर, प्रजापति देवता के निमित्त अग्नि में छोड़ दें। तदनन्तर प्रोक्षणी के जल को दायें  हाथ की अंजलि में लेकर अग्नि के ईशानकोण से ईशानकोण तक जलधारा प्रवाहित करें। 
पञ्चगव्य तैयार करना :: नामकरण संस्कार में 10 दिन तक जनना शौच और सूतक जनित अशुद्धि बनी रहती है। अतः नामकरण के दिन शुद्धि के लिये पञ्चगव्य से सूतिका गृह का प्रोक्षण और हवन किया जाता है। सूतिका द्वारा इसे पीया जाता है।
गायत्री मन्त्र***1 के उच्चारण के साथ साथ गौ मूत्र का संकलन वरुण देव का ध्यान करते हुए किसी ताम्रपात्र अथवा दोने में किया जाता है।  उसके बाद "ॐ गन्धद्वारां" के उच्चारण और अग्निदेव का ध्यान करते हुए करते हुए गोमय-गाय का गोबर इकट्ठा किया जाता है और उसी ताम्रपात्र अथवा पलाश पुटक में रखा जाता है। "ॐ आ प्याय स्व०" का उच्चारण और चन्द्र देव का ध्यान धरते गोदुग्ध उसी पात्र में रख दिया जाता है। फिर से "ॐ दधिक्राव्णो4" के जाप के साथ पवन देव का ध्यान करते हुए दही उसी पात्र में रख देते हैं। तदनन्तर "ॐ तेजोऽसि" का जाप करते हुए गाय का घी लेकर भगवान् सूर्य का ध्यान करते हुए उसी पात्र में रख देते है। अंत में भगवान् विष्णु का ध्यान करते हुए "ॐ देवस्य त्वा०" का जाप करते हुए कुशोदक लेकर उसी पात्र में रख दें। 
पञ्चगव्य द्रव्यों को मात्रा :: एक पल गोमूत्र, उसका आधा गोमय, गोदुग्ध सात पल, दही तीन पल. गे का घी एक पल तथा एक पल कुशोदक लेने चाहियें*। [1 पल = 3 तोला 6 मासा, लगभग 40 ग्राम]
पञ्चगव्य का आलोडन :: ताम्रपात्र अथवा पलाश के दोने में स्थित उन द्रव्यों का हरितकुशों के द्वारा निम्न मंत्र से आलोडन करें :- 
ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे
इस प्रकार पञ्चगव्य बनाकर यथास्थान रख दें और हवन कार्य करें।
 ***(1). गायत्री मन्त्र :: ॐ भूर् भुवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
(2). गंधद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोप ह्रये श्रियम(3). आ प्यायस्य समेतु ते विश्वतः सोम वृष्ण्यम्। भवा वाजस्य संङ्गथे
(4). दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः। 
सुरभि नो मुखा करत्प्र च आयुँषि तारिषत्    
(5). तेजोऽसि शुक्रमस्य मृतमसि धामनामसि प्रियं देवानाम मना धृष्टं देव यजमसी।
(6). देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विवनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्॥
(7). मूत्रस्यैकपलं  दद्यात्तदर्थ गोमयं स्मृतम्। क्षीरं सप्तपलं दद्याद्दधि त्रिपल मुच्यते। आज्यस्यैकपलं दद्यात्पलमेकं कुशोदकम्
[पराशर स्मृति ]
हवन :: स्त्रुवा में घी लेकर सबसे पहले निम्न मन्त्रों से आधार एवं आज्य भाग की चार आहुतियाँ  प्रदान करें। ब्रह्मा-पुरोहित  कुशा से होता का स्पर्श किये रहें। प्रत्येक आहुति के बाद शेष घी प्रोक्षणी पात्र में डालते जायें :-
(1). ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। 
(2). ॐ इन्द्राय स्वाहा, इन्द्रमिन्द्राय  न मम। 
(3). ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम। 
(4). ॐ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम। 
अनन्वारब्ध व्याहृति होम :: उसके बाद मन्त्रों से घी के द्वारा व्याहृति होम करें। ब्राह्मण पुरोहित से कुशा का स्पर्श हटा लें। शेष बचा हुआ घी प्रोक्षणी पात्र में छोड़ते जायें। 
(1). ॐ भूः स्वाहा,  इदमग्नये न मम। 
(2). ॐ भुवः स्वाहा,  इदं वायवे न मम। 
(3). ॐ स्वः स्वाहा,  इदं सूर्याय न मम। 
पञ्चगव्य होम :: उसके पश्चात तैयार पञ्चगव्य को सामने रख लें और हरे कुशों से मंत्रोच्चारण के साथ पञ्चगव्य की आहुति प्रदान करें। 
(1). ॐ इरावती धेनुमति हि भूतँ सूयवसिनी मनवे दशस्या। व्यस्कभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः स्वाहा। इदं विष्णवे न मम। 
(2). ॐ इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। 
समूढमस्य पाँ सुरे स्वाहा। इदं विष्णवे न मम।
(3). ॐ मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः। 
मा नो वीरान् भामिनो वधीर्हविष्मन्त: सदमित् त्वा हवामहे स्वाहा। 
इदं रुद्राय न मम। 
जल का स्पर्श करें।
(4). ॐ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीयते। शं योरभि स्रवन्तु नः स्वाहा। इदमद्भयो न मम।      
(5). ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् स्वाहा। इदं सवित्रे न मम। 
(6). ॐ प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रूपाणि परिता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयँ स्याम पतयो रयीणाम् स्वाहा। इदं प्रजापतये न मम। 
प्रायश्चित्त होम (पञ्चवारुण होम) :: पञ्चगव्य हवन के अनन्तर निम्नलिखित मन्त्रों से घी द्वारा स्त्रुवा से प्रायश्चित हवन करना चाहिये। शेष घी प्रोक्षणी पात्र में डालते जायें। 
(1). ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्टा: यजिष्ठो वहिनतमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाँसि प्र मुमुग्ध्यत्स्वाहा, इदमग्निवरुणाभ्यां न मम।  
(2). ॐ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती निदिष्टो अस्या उषसो व्युष्टौ। अव इक्ष्व नो वरुणँरराणो वीहि  मृडीकँ सुहवो न एधि स्वाहा।  इदमग्नीवरुणाभ्यां  न मम।  
(3). ॐ अयाश्चाग्नेस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषजँ स्वाहा। इदमग्नये  ऽयसे न मम। 
(4). ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्त्रं यज्ञिया: पाशा वितता महान्त:। तेभिर्नो ऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्का: स्वाहा:॥ इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्य: स्वर्केभ्यश्च  न मम।   
(5). ॐ उदुत्तमं वरण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमँ श्रथाय। 
अथा वियमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा॥ 
इदं वरुणायादित्यायादित्ये  न मम। 
तदनन्तर प्रजापति देवता का ध्यान करके मन ही मन, निम्न मन्त्र का उच्चारण करते हुए आहुति दें :-
(6). मौन रहकर-बगैर बोले, 
"ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम"।
स्विष्टकृत् आहुति ::
इसके बाद ब्रह्मा द्वारा कुश से स्पर्श किये जाने की स्थिति में (ब्रह्मणान्वारब्ध) निम्न मन्त्र से घी के द्वारा  स्विष्टकृत्  आहुति दें :- 
ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।
संस्रवप्राशन ::
हवन होने पर प्रोक्षणी पात्र स घी दाहिने हाथ में लेकर यत्किंचित् पान करें। फिर आचमन करें। 
मार्जन विधि :: इसके बाअद निम्नलिखित मन्त्र द्वारा प्रणीता पात्र के जल से कुशों के द्वारा अपने सिर पर मार्जन करें। 
ॐ सुमित्रया न आप ओषधय: सन्तु। 
इसके बाद निम्न मन्त्र से जल नीचे छोड़ें :-
ॐ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्  द्वेष्टि यं च वयं द्विष्म:।
पवित्र प्रति पत्ति :: पवित्रक को अग्नि में छोड़ दें।  
पूर्ण पात्र दान :: पूर्व में स्थापित पूर्णपात्र में द्रव्य-दक्षिणा रखकर निम्न संकल्प के साथ दक्षिणा सहित पूर्ण पात्र ब्राह्मण-पुरोहित को प्रदान करें। 
ॐ अद्य नामकरणसंस्कारहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदं वृषनिष्क्रयद्रव्यसहितं पूर्णपात्रं प्रजापतिदैवतं...गोत्राय...शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे। 
ब्राह्मण स्वस्ति कहकर उस पूर्ण पात्र को ग्रहण करें। 
प्रणीता विमोक :: प्रणीता पात्र को ईशान कोण में उलटकर रख दें। 
मार्जन :: पुनः कुशा द्वारा निम्न मंत्र से उलटकर रखे गए प्रणीता के जल से मार्जन करें। 
ॐ आपः  शिवा: शिवतमा: शान्ता: शान्ततमास्तास्ते कृञ्वन्त् भेषजम्। 
उपनयन कुशों को अग्नि में छोड़ दें।  
बर्हि होम :: तदनन्तर पहले बिछाये हुए कुशाओं को जिस क्रम में बिछाया गया था, उसी क्रम में उठाकर घी में भिगोयें और निम्न मन्त्र से स्वाहा का उच्चारण करते हुए अग्नि में छोड़ दें :- 
ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित। 
मनसस्पत इमं देव यज्ञँ स्वाहा वाते धा: स्वाहा। 
कुश में लगी ब्रह्मग्रंथि को खोल दें।
सूतिका द्वारा पञ्चगव्य पान ::
हवन के अनन्तर हुतशेष (हवन से बचे हुए) पञ्चगव्य को सूतिका को पान करने के लिये देना चाहिये। वह दाहिने हाथ के ब्राह्मतीर्थ अथवा पलाश के दोने में लेकर तीन बार पञ्चगव्य का प्रश्न करें।  तदनन्तर पञ्चगव्य छिड़ककर प्रसवगृह को शुद्ध कर लेना चाहिये। 
सूतिका का सूतिका गृह से बाहर आना ::  
सूतिका को सूतिका गृह से बाहर पूजन तथा नामकरण के लिये आना होता है। इसके लियेअनेक देशाचार हैं। 
हवन कार्य हेतु वृणीत ब्रह्मा गन्धाक्षत पुष्प आदि से स्त्रुवा का पूजन कर उससे सूतिका का स्पर्श कराकर बाहर लाते हैं और वह बालक को गोद में लेकर अग्नि की प्रदक्षिणा कर पति के वाम भाग में बैठ जाती हैऔर गणेश जी आदि देवताओं को प्रणाम करके पुष्प निवेदित करती है। 
बालक के नामकरण की विधि :: शुभ लग्न एवं मुहूर्त आने पर सफेद नये कपड़े बिछाकर उसके ऊपर कुमकुम आदि के द्वारा अथवा पीपल के पत्ते पर कुमकुम आदि के द्वारा पाँच नामों को लिखें :-
पहला नाम  :: यह अपने कुल देवता से सम्बन्धित होना चाहिये।  
दूसरा नाम :: कृष्ण, अनन्त, अच्युत, चक्रधर, बैकुण्ठ, जनार्दन, उपेन्द्र, यज्ञ पुरुष, वासुदेव, हरि, योगीश तथा पुण्डरीक-इन बारह नामों में से जो अभीष्ट हो, एक नाम रखना चाहिये। 
तीसरा नाम :: यह अवकहडा चक्र के अनुसार नक्षत्र से सम्बद्ध होना चाहिये।  
चौथा नाम :: यह व्यवहारिक होना चाहिये।
पाँचवाँ नाम :: वह नाम जो स्वयं को प्रिय हो वह रखना चाहिये। 
प्रतिष्ठा ::
"ॐ भूर्भुवः स्वः बालक नामानि सु प्रतिष्ठानि भवन्तु" कहकर नामों की प्रतिष्ठा करें और गन्धादि से उनका पूजन करें। 
ब्राह्मण का नाम शर्मान्त, क्षत्रिय का वर्मान्त, वैश्य का गुप्तान्त और शूद्र का दासान्त होना चाहिये। नाम दो या चार अक्षर का सुखपूर्वक उच्चारण करने योग्य हो। कन्या का नाम विषमाक्षर होना चाहिये। नामांकित वस्त्र या अश्वत्थ-पीपल, पत्र के द्वारा शंख को लपेट कर रखें। इसके बाद पूर्व मुख बालक के दाहिने कान में पिता अथवा आचार्य के द्वारा "शर्मासि दीर्घायुर्भव" इस प्रकार शंख के माध्यम से नामों का तीन बार श्रवण करना चाहिये। 
बालक के कान में नाम कहने के बाद निम्नलिखित मन्त्र पाठ पिता को करना चाहिये। 
अङ्गादङ्गात्सम्भवसि हृदयादधिजायसे। 
आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम्॥   
बालक द्वारा ब्राह्मणों को प्रणाम करवाना चाहिये तथा ब्राह्मण उसे आशीर्वाद प्रदान करें।
अदिति के पुत्रों के नाम :: अदिति के पुत्र धाता, मित्र, अर्यमा, शक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान्, पूषा, सविता, त्वष्टा और विष्णु 12 आदित्य हैं। धर, ध्रुव, सोम, अह:, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभास ये 8 वसु हैं। हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, शर्व और कपाली, ये 11 रूद्र हैं। भगवान् सूर्य के पुत्र 2 अश्वनीकुमार देवताओं के वैद्य-चिकित्सक हैं। सत्त्व ज्योति, आदित्य, सत्य ज्योति, तिर्यग् ज्योति, सज्योति, ज्योतिष्मान्, हरित, ऋतजित्, सत्य जित्, सुषेण, सेनजित्, सत्यमित्र, अभिमित्र, हरिमित्र, कृत, सत्य, ध्रुव, धर्ता, विधर्ता, विधारय, ध्वांत, धुनि, उग्र, भीम, अभियु, साक्षिप, ईदृक्, अन्यादृक्, यादृक्, प्रतिकृत, ऋक्, समिति, संरम्भ, ईदृक्ष, पुरुष, अन्यादृक्ष, चेतस, समिता, समिदृक्ष, प्रतिदृक्ष, मरुति, सरत, देव, दिश, यजु:, अनुदृक्, साम, मानुष और विश्; ये उनचास मरुत हैं। इन सबको तू मेरे विराट रुप में देख। बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनी कुमार, ये तैंतीस कोटि देवताओं में प्रमुख हैं।
ADITY :: There are 12 Adity-Sun. When they come together around the earth, all life forms perish and the earth start looking like the shell of a tortoise. 
(1). Their names were :- (1.1). Vivaswan, (1.2). Aryma, (1.3). Poosha, (1.4). Twashta, (1.5). Savita, (1.6). Bhag, (1.7). Dhata, (1.8). Vidhata, (1.9). Varun, (1.10). Mitr, (1.11). Indr and (1.12). Tri Vikram (Bhagwan Vaman, Incarnation of Bhagwan Shri Hari Vishnu).
(2.1). Vivaswan-Sury, (2.2). Aryma, (2.3). Poosha, (2.4). Twashta, (2.5). Savita, (2.6). Bhag, (2.7). Dhata, (2.8). Vishnu, (2.9). Anshuman, (2.10). Mitr, (2.11). Indr and (2.12). Vaman. [Vishnu Puran, 1.9] 
(3). They were the Tushit Devta in Chakshush Man Vantar and they were born to Aditi as 12 Adity in Vaevaswat Man Vantar. Their names were :- (3.1). Indr, (3.2). Dhata, (3.3). Parjany, (3.4). Poosha, (3.5). Twashta, (3.6). Aryma, (3.7). Bhag, (3.8). Vivaswan, (3.9). Anshu, (3.10). Vishnu, (3.11). Varun and (3.12). Mitr. 
(4.1). Varun, (4.2). Sury, (4.3). Sahstranshu, (4.4). Dhata, (4.5). Tapan, (4.6). Savita (4.7). Gabhastik, (4.8). Ravi, (4.9). Parjany, (4.10). Twasht, (4.11). Mitr and (4.12). Vishnu. [Agni Puran, P 103]
(5). They ere born from Aditi and thus called Adity. [Bhavishy Puran, 1.14]
(6). 12 Sons of Mahrishi Kashyap (From whom the life began through sexual inter course as per the desire of Bhagwan Brahma) and Aditi (Daughter of Daksh Praja Pati) [Bhagwat Puran, 6.3]
AJNEEDH :: Son of Priy Vrat, Grandson of Manu. His 9 sons :- Nabhi, Kim Purush, Hari Varsh, Ilavrat, Ramy. Hirany Van, Kuru, Bhadr Ashw and Ketumal. Nabhi got Him Varsh which is called Bharat Varsh today.
AKOOTI :: Daughter of Swayambhuv Manu and Shat Rupa. Married to Ruchi Praja Pati. Yagy only son & only daughter :- Dakshina. She had two brothers :- Priy Vrat and Uttan Pad and two sisters :- Prasooti, married to Daksh Praja Pati and Dev Hooti married to Kardam Rishi.
Manu married Akooti by Putrika Dharm, she gave her son to her father. Yagy was the incarnation of Vishnu, and Dakshina was the incarnation of Lakshmi. Dakshina expressed the desire to marry Yagy so she was married to Yagy and had 12 sons from him.
ANART :: Son of Sharyati who was the Son of Vaevaswat Manu. Raevat was his only son.
Raevat had 100 sons, among them Kakudmi was the eldest. His daughter Rewati was married to Bal Ram Ji-elder brother of Bhagwan Shri Krashn and an incarnation of Bhagwan Shesh Nag. [Bhagwat Puran 9.2]
ARUNI :: 1 of the 3 Main Disciples of Rishi Dhaumy. Dhaumy's other two disciples :- Ved and Up Manyu.
UDDALAK :: Two sons named Nachiketa and Shwet Ketu whose name appears in three principal Upnishad :- Brahadaranyak, Chhandogy, Kath and Kaushitake Upnishad.
ASTEEK RISHI :: Son of Jaratkaru and Jaratkaru was Vasuki's sister. He stopped Janmejay's Sarp Yagy and thus saved many snakes to be burned in the Yagy. He was brought up in snake's abode and educated by Maharshi Chayvan.
AYU :: One of the 6 Sons of Pururava. He was married to daughter of Swar Bhanu. He had 4 sons namely :- Nahush, Vraddh Sharma, Rajingay and Anena. [Maha Bharat, Adi Parv, 75]
AYUSHMAN :: Daity-demon-giant, 1 of the 4 sons of Prahlad Ji, Grandson of Hirany Kashyap. His brothers were Shibi, Vashkali and Virochan. Raja Bahu Bali was Virochan's son. Prahlad Ji and Bahu Bali are present in Sutal Lo which is  more beautiful and comfortable than heaven.
ABHIMANYU :: He was the virtuous son of Arjun and Subhadra Bhagwan Shri Krashn's sister. Formerly he was the son Moon in Chandr Lok. He was married to Uttra daughter of Virat's daughter &prince Uttar's sister. Pareekshit was his son protected by Bhagwan Shri Krashn in the womb from Brahmastr targeted by Ashwatthama-Guru Draunachary's son. He is called Saubhadr as well being the son of Subhadra. His Sarthi's name was Sumitr. He killed Asmak's son; Sushen, Drag Lochan and Kund Vedh,  Shaly's brother; one of Karn's brother from Radha-chariot driver's wife; Ruk Marath-son of Shaly and Lakshman-son of Duryodhan, on the 13th day of Maha Bharat war. He was killed cruelly by seven warriors on 13th day of Maha Bharat war. At the time of his death, his wife was pregnant. She gave birth to Pareekshit. He succeeded Yudhishtar, when Pandav's went to their heavenly abode.
ADHARM :: He was married to  Hinsa and had 2 children one son called Amrat and the daughter named Nikrati. Amrat and Nikrati married to each other and had 2 sons. [Agni Puran 8] 
ADHI RATH :: He was known as Soot, Son of Saty Karm the Charioteer of king Shantnu & was married to Radha. His another name was Vikartan. He found Sury Putr Karn flowing in Ganga water is a basket and brought home home to be nourished by his wife. Later they had one son of their own.
He was in the lineage of King Yayati, Anu, Rompad, Saty Karm. [Vishnu Puran 4.13; Bhagwat Puran, 9.14]
Once he was taking bath in Ganga River he heard a child's cry. He looked around and found that the sound was coming from a box. He got it and found a newborn baby boy in it. From his clothes and body, he looked a Divine boy and from a royal family. He brought him home and brought up that child as his own. He named him Radhey. Later that boy was known as Karn and Vaikartan (because of his father's name) and Radhey (because of his mother's name.
Adhi Rath resigned from his job when Radhey grew up enough to get education. Sanjay replaced him.
Drone, (156) mentions Vrakrath, as the name of Karn's brother. [Maha Bharat 6.23.14.4]
Some other names are also mentioned in Maha Bharat as Karn's brothers, but Bhagwat Puran, 9.14 does not mention any.
ADITI :: Daughter of Daksh Praja Pati and Virini. She was married to Maharshi Kashyap (Brahma's one of the 10 Manas Putr).
AUGUST-AGASTY :: Maharshi, Son of Mitr and Urvashi. He was married to Lopamudra-daughter of King Malay Dhwaj who was an incarnation of Puranjan of Vidarbh Desh. Dradhchyut was born as their child and Dradhchyut had a son called  Idhmvah.[Bhagwat Puran, 4.7]
Mitra and Varun saw Urvashi which led to ejaculation of their semen-sperms which were kept it in a pitcher. Munivar Agasty and Vashishth Ji (reincarnation of Vashishth Rishi, son of Brahma Ji) were born from that only. Being born from a Kumbh-pitcher, both are known as Kumbhaj as well. He was a descendent of Maharshi Pulasty. He ate Vatapi Rakshas-demon. He dried ocean to help demigods trace the demons-Rakshas, He asked Vindhyachal Parvat to remain in prostration till he returned to shatter his pride.
Bhagwan Ram visited Agasty's Ashram, who was a descendant of Mahrishi Agasty. says that Agasty had a brother named Agnijivh. [Angiras Agni Puran 3]  
कौरवों के नाम :: दुर्योधन, युयुत्सु, दु:शासन, दुस्सह, दुश्शल, जलसन्ध, सम, सह, विन्द, अनुविन्द, दुर्ध्दर्ष, सुबाहु, दुष्प्रधर्षण, दुर्मर्षण, दुर्मुख, दुष्कर्ण, कारण, विविंशति, विकर्ण, शाल, सत्व, सुलोचन, चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुमित्र, शरासन, दुर्मद, दुर्विगाह, विवित्सु, विकटानन, ऊर्णनाभ, सुनाभ, नन्द, उपनन्द, चित्रबाण, चित्रवर्मा, सुवर्मा, दुर्विमोचन, अयोबाहु, महाबाहु, चित्रांग, चित्रकुण्डल, भीमवेग, भीमबल,बालाकि, बलवर्द्धन, उग्रायुध, सुषेण, कुण्डधार, महोदर, चित्रायुध, निषंगी,पाशी, वृन्दारक, दृढ़वर्मा, दृढ़क्षत्र, सोमकीर्ति, अनूदर, दृढ़संध और जरासंध।

    
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