Sunday, June 22, 2014

INTRODUCTION OF ALPHABETS & EDUCATION अक्षरारम्भ-विद्यारम्भ संस्कार :: HINDU PHILOSOPHY (4.9) हिंदु दर्शन

INTRODUCTION OF ALPHABETS
अक्षरारम्भ-विद्यारम्भ संस्कार
HINDU PHILOSOPHY (4.9) हिंदु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। 
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः॥
अक्षरों में अकार और समासों में द्वन्द समास (संस्कृत व्याकरण में वह अवस्था जब अनेक पदों का एक पद, अनेक विभक्तियों की एक विभक्ति या अनेक स्वरों का एक स्वर होता है) मैं हूँ। अक्षरकाल अर्थात काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुख वाला धाता सबका पालन पोषण करनेवाला, भी मैं ही हूँ।[श्रीमद्भागवत गीता 10.33॥ 
The Almighty asserts that HE is the first letter of the alphabets-syllables "अ" and  HE is the "I AM-ME, MY" the dual compound among the compound words. HE is the endless time and the Ultimate time (Maha Kal Bhagwan Shiv) side by side. HE is sustainer-nurturer and omniscient, having mouth in all directions.  
वर्णमाला में सबसे पहले अकार "अ" आता है। स्वर और व्यंजन दोनों में ही अकार मुख्य है। इसके बिना व्यञ्जनों का उच्चारण भी नहीं होता। अतः यह परमात्मा की विभूति है। द्वन्द समास वह शब्द है, जो दो शब्दों से मिलकर बनता और दोनों शब्दों में प्रधानता है। अतः यह भी परमात्मा की विभूति हुआ। आदि देव परमात्मा अनन्त अनादि, कालातीत हैं। उनका कभी क्षय नहीं होता। सर्ग और प्रलय काल में समय की गणना को भगवान् सूर्य के अनुरूप-सन्दर्भ में किया जाता है। महाप्रलय में जब सूर्य भी लीन हो जाता, तब समय की गणना परमात्मा के सापेक्ष होती है। इसी वजह से प्रभु अक्षय काल हैं। सूर्य द्वारा निर्धारित काल ज्योतिष सम्बन्धित गणनाओं का आधार है, जो अक्षय काल है; वह परिवर्तनशील नहीं है। अतः अक्षर काल परमात्मा की विभूति है। परमात्मा हर वक्त हर घड़ी सभी प्राणियों को निहारते रहते हैं और सभी-सब के सब प्रकार के कार्य कलापों पर, उनकी पैनी नजर रहती है। इस लिहाज से प्रभु स्वयं अपनी विभूति स्वयं हैं।
The vowel "अ" (English has no equivalent for this sound. Its very near to A-a. A-a is close to "ए" of Hindi and Sanskrat. Almost all consonants have this sound attached with them. There are compound words which have two or more words, signifying each one of them. This leads to the Ultimate nature of this letter-alphabet, making it a form of the God. The Almighty is beyond the limits of time & is since ever, for ever. At the time of evolution & the doom's day the Sun losses its significance, since it too assimilate in the Almighty. At that occasion the Almighty is the absolute time scale, which makes HIM, HIS own excellence-Ultimate quality. The Almighty watches all living beings with HIS face in all directions, so that each and every one gets his due. This is again an Ultimate trait which makes HIM superior to all.
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्। 
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥
महर्षियों में भृगु और वाणियों-शब्दों में एक अक्षर प्रणव मैं हूँ। सम्पूर्ण यज्ञों में जप यज्ञ, स्थिर रहने वालों में हिमालय मैं हूँ।[श्रीमद्भागवत गीता 10.25] 
Bhagwan Shri Krashn said that HE is Bhragu amongest the great sages and ॐ-om  (monosyllable cosmic sound) amongest the words-speeches. Amongest the Yagy-ritualistic performances with sacrifices in Agni-fire, HE is Jap Yagy-spiritual recitation of Mantr-lyrics, rhythms and HE is Himalay mountain amongest the stationery-fixed objects.
परमात्मा ने भृगु, अत्रि और मरीचि आदि महृषियों में भृगु को अपनी विभूति इसलिये कहा है, क्योंकि उन्होंने ही परीक्षा करके बताया कि त्रिदेवों :- ब्रह्मा, विष्णु और महेश में, भगवान् विष्णु ही श्रेष्ठतम हैं। भगवान् विष्णु भृगु के चरण-चिन्हों को अपने वक्ष पर भृगुलता नाम से धारण किये हुए हैं। सबसे पहले तीन मात्रा वाला प्रणव प्रकट हुआ। तत्पश्चात त्रिपदा गायत्री और उससे वेद, वेदों से शास्त्र, पुराण आदि सम्पूर्ण वाङ्गमय जगत प्रकट हुआ। इसी प्रकार यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाओं को प्रणव के उच्चारण से ही प्रारम्भ किये जाने से परमात्मा शब्दों में प्रणव हैं। भगवन्नाम जप एक ऐसा यज्ञ है, जिसमें किसी पदार्थ या विधि-विधान की आवश्यकता नहीं है। अतः यह यज्ञों में, गलती-त्रुटि की गुंजाइश-संभावना न होनेसे श्रेष्ठतमऔर प्रभु की विभूति है। हिमालय पर्वत ऋषि-मुनियों की तप स्थली, पवित्र नदियों गँगा, यमुना का उद्गम, नर-नरायण की आदि स्थान बद्रीनाथ, केदारनाथ, कैलाश आदि का प्रमुख पवित्र स्थल होने से स्थिरों में प्रभु की विभूति है। 
Out of the Mahrishis born as the sons of Bhawan Brahma, Bhragu is entitled to be the supreme, since it was he who testified that Bhagwan Vishnu was superior amongest the Tri Dev :- Brahma, Vishnu & Mahesh. In this process he struck the chest of Bhagwan Vishnu with his feet, which was held by Bhagwan Shri Hari Vishnu and HE jokingly closed numerous eyes present in his feet granting him enlightenment & attracted curse of Maa Laxmi that his decedents would never have sufficient money to survive. The Almighty recognise him as his Ultimate form as a sage. HE is wearing the marks of Bhragu's foot over his chest as Bhragu Lata. Om (primordial sound) is the syllable which appeared before evolution followed by Gayatri-divine prayer, which resulted into the appearance of Veds, Purans, scriptures, history etc. Therefore, the God is calling it to be HIS excellent character-quality, form. The recitation of the names of the God is free from procedure, methodology, sacrifices etc. Hence, it is considered to be the best form of prayer-worship, as there is rare-minimum chance of mistakes connected with sequence, offerings etc. Himalay-Everest is the place which is liked by the sages-ascetics to perform Yog, worship, prayers being isolates. Pious rivers like Ganga, Yamuna, Sahatr Dhara, appear here. Bhagwan Nar-Narayan are still practicing asceticism there, at Badri Nath. Bhagwan Shankar occupies Kaelash with Maa Parwati as his abode. Maa Bhagwati Parwati took incarnation as the daughter of Himalay. Gangotri & Yamunotri (Char Dhams) too are located here. It continues to supply water throughout the year into rivers like Saraswati, Brahm Putr etc. It results into rains in the entire northern region of India and controls the climate throughout the world. It is the highest mountain in the world. This is the reason the God is calling it his Supreme-Ultimate form.
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। 
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा :- परम अक्षर ब्रह्म और परा प्रकृति को अध्यात्म कहते हैं। परब्रह्म परमेश्वर परमात्मा के द्वारा प्राणियों की सत्ता को प्रकट करना  कर्म है।[श्रीमद्भागवत गीता 8.3] 
Bhagwan Shri  Krishna said :- Param Akshar is a manifestation of Brahm-the Almighty (Om, Pranav, Ved, Nature, the eternal and immutable Spirit of the Supreme Being). The creative power of Almighty that causes manifestation of the living entity is called Karm.
परम अक्षर का नाम ब्रह्म है। ब्रह्म को प्रणव, वेद, प्रकृति के लिए भी प्रयोग किया गया है। परम अक्षर सर्वोपरि सच्चिदानन्दघन, अविनाशी, निर्गुण-निराकार परमात्मा का वाचक है। आत्मा का वर्णन-बखान भी अध्यात्म है। स्वभाव के अध्यात्म के साथ आने से यह जीव के होने अर्थात उसके स्वरूप का वाचक बन गया है। समस्त सृष्टि के परमेश्वर में विलय के तदोपरांत पुनः महासर्ग की शुरुआत होती है, जिसे कर्म कहा गया है। महाप्रलय के वक़्त अहङ्कार और सञ्चित कर्मों सहित प्राणियों का प्रकृति में लीन होना, परमात्मा को प्रकृति को क्रियाशीलता प्रदान करने के लिए संकल्प उत्त्पन्न करता है। यही सृष्टि की रचना, फल रहित क्रिया और फल जनक शुभ-अशुभ कर्म के कारक बन जाते हैं। फिर भी सृष्टि रचना का कर्ता होने के बावजूद परमात्मा अकर्ता ही हैं। 
The Almighty is represented by the Ultimate letter vowel "ॐ" OM, called Brahm. This is used to illustrate the primary sound created at the occasion of the evolution-creation of nature, Veds, the indestructible God-who is without characteristics and form. This is spirituality-mythology and explanation of the characteristics of soul too is spirituality-mythology. Combination of organism-nature with mythology-spirituality becomes his form. At the time of destruction-dissolution, the entire nature and the organisms merge into the Almighty with their characters, tendencies, ego and appear again when evolution takes place. This process is described as Karm (action, activity, deed) performed by the God, which is without ego, indulgence-free from any reward, virtuousness or evilness. Though the Almighty is creating the nature-universe, yet-still HE is not the doer-performer, since HIS indulgence is not there. The organism who had eloped-merged into the Ultimate are reappearing according to the balance of their deeds in previous incarnations.
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। 
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥
इन्द्रियों के समस्त द्वारों को रोककर मन का ह्रदय में निरोध करके और अपने प्राणों को मस्तक में स्थापित करके योग धारणा में स्थित हुआ जो साधक "ॐ" इस "एक अक्षर का ब्रह्म" का मानसिक उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़कर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।[श्रीमद्भागवत गीता 8.13] 
One attains the Ultimate-the Supreme Abode, when he closes all doors of the body (mouth, nostrils, eyes, ears, pennies & anus) checks the thoughts by subliming them in the heart, pulls the soul-Pran Vayu (bio impulses), in the skull, brain, cerebrum, practicing Yog, reciting-uttering the Ultimate syllable "ॐ" OM-the sacred monosyllable sound power of Spirit, mentally-silently and remembering the Almighty, while deserting the human incarnation-body.
मनुष्य-साधक शरीर त्याग करते वक्त अपना ध्यान कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से हटा ले, ताकि वे अपने स्थान पर स्थिर रहें। मन का निरोध करके उसे ह्रदय में स्थानान्तरित कर दे अर्थात ध्यान को विषयों से मुक्त करके, अपने ह्रदय में परमात्मा की मूर्ति-आकृति का अनुभव करे। प्राणों को दसवें द्वार-ब्रह्मरंध्र में रोक ले अर्थात उन पर काबू कर ले। इस प्रकार वो योग धारणा में स्थित हो जाये। इन्द्रियों और मन से कुछ भी चेष्टा न करे। इस स्थित को प्राप्त करके वो "ॐ" अर्थात "प्रणव" का मानसिक उच्चारण करे अर्थात वो निर्गुण-निराकार परम अक्षर ब्रह्म का स्मरण करे। यही वह अवस्था है, जिसमें प्रभु को स्मरण करते हुए दसवें द्वार :- ब्रह्म रंध्र से प्राणों का विसर्जन करते हुए परमगति अर्थात निर्गुण-निराकर परमात्मा को प्राप्त करे। 
The practitioner of Yog has to divert his attention from the body and the brain, thought, ideas, organs of work and experience, so that they are comfortably placed in their position-becomes motionless. The mind has to be controlled completely and forget every thing else, except the God and form a mental image of the Almighty in the heart. The bio impulses have to be concentrated in the tenth opening: the place between the eye brows called Brahm Randhr-the Ultimate opening through he scull. Having attained this state, he should start uttering-reciting "ॐ" silently-mentally. Now, he is ready-prepared to immerse in the Almighty, who is free from characteristics and form. The time is mature for him to depart the human incarnation for which he was awarded this, to assimilate in the God.
यह संस्कार क्षर (जीव) का अक्षर-परमात्मा से सम्बन्ध कराने वाला है। पाटी पूजन में "ॐ नमः सिद्धम्" लिखाया जाता है। 
इस अक्षरारम्भ को ही लोक में विद्यारम्भ संस्कार और पाटी पूजन आदि नामों से जाना जाता है। 
प्रत्येक शुभ कार्य करने से पहले गणेश जी की पूजा का विधान है। अक्षरारम्भ या विद्यारम्भ संस्कार के पहले गणेश पूजन अनिवार्य है। 
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा। 
संग्रामे सङ्कटे चैव विघ्नस्रस्य न जायते॥
गणेश जी महाराज के द्वादश नामों का स्मरण करने से विद्यारम्भ, विवाहादि संस्कारों में कोई विघ्न नहीं पड़ता।[श्री गणेश द्वादश नाम स्त्रोत्र-फलश्रुति] 
श्री गणेश द्वादश नाम स्त्रोत्र ::
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः। 
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः॥
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः। 
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि॥
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा। 
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते॥
(1). सुमुख, (2).एकदन्त, (3). कपिल, (4). गजकर्ण, (5). लम्बोदर, (6). विकट, (7). विघ्ननाश, (8). विनायक, (9). धूम्रकेतु,  (10). गणाध्यक्ष, (11). भालचन्द्र, (12). गजानन; इन बारह नामों के पाठ करने व सुनने से छः स्थानों (1). विद्यारम्भ, (2). विवाह, (3). प्रवेश, (4). निर्गम ​(निकलना), (5). संग्राम और (6). संकट में सभी विघ्नों का नाश होता है।
"प्राप्तेऽथ पञ्चमे वर्षे विद्यारम्भं तु कारयेत्"
बालक के पाँचवें वर्ष में अक्षरारम्भ संस्कार करना चाहिये।[मार्कण्डेय-संस्कार मयूख] 
गुरु के द्वारा ईश्वर का स्मरण करके बालक को लिखना-पढ़ना सिखाया जाता है। इसको पाटी पूजन भी कहते हैं। शुभ मुहूर्त में बालक को नहला-धुलाकर, स्वच्छ-नये कपड़े पहनाकर पूजा स्थल पर लाया जाता है। बच्चे के माता-पिता, स्वजन भी नहा-धोकर तैयार होकर पूजा स्थल पर आते हैं। संस्कार एवं पूजन सामग्रियों को यथास्थान रखा जाता है। अपने स्थान पर पूर्वाभिमुख बैठकर दीपक जलायें। आचमन, प्राणायाम तथा पवित्रीकरण आदि कर्म पूरे करें। 
दाहिने हाथ में जल, अक्षत, पुष्पादि लेकर अक्षरारम्भ-संस्कार सम्पन्न करने के लिये संकल्प करें।
संकल्प ::  ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे/ क्षेत्रे...षष्टिसंवत्सराणां...मध्ये...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र: सपत्नीक:..शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं...राशे:...नाम्न:...मम पुत्रस्य लेखनवाचनादिविपुविद्याज्ञानप्राप्तये श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं अक्षरारम्भसंस्कार करिष्ये। तत्पूर्वाङ्गत्वेन गणपतिसहितगौर्यादिपोडषमातृणांपूजनं स्वस्ति पुण्याहवाचनं वसोर्धारापूजनं आयुष्यमन्त्र जपं साङ्कल्पिकेन विधिना नान्दीमुखश्राद्धं च करिष्ये।
तत्पश्चात गणेश पूजन आदि कर्म सम्पन्न करें। 
देवताओं की स्थापना :: किसी वेदी अथवा काठ-लकड़ी की बनी चौकी पर नया कपड़ा बिछाकर उसके ऊपर सफेद चावलों द्वारा अष्टदल कमल की संरचना करें। 
उस अष्टदल कमल में गणेश, सरस्वती, कुलदेवता, गुरु तथा भगवान् लक्ष्मी-नारायण की स्थापना करें। 
तदनन्तर उसी वेदिका में पंक्तिबद्ध रूप से अक्षत पुंजों को रखते हुए क्रमशः नारद, पाणिनि, कपिल, कात्यायन, पारस्कर, यास्क, कपिंजल, गोभिल, जैमिनी, विश्कर्मा, आचार्य-देवगुरु वृहस्पति तथा भगवान् वेदव्यास आदि विद्या के आचार्यों की स्थापना करें। 
प्रतिष्ठा :: निम्न मन्त्र से अक्षत छोड़ते हुए सबकी प्रतिष्ठा करें :- 
ॐ एतन्ते देव सवितर्यज्ञं प्राहुर्बृहस्पतये ब्रह्मणे। 
तेन यज्ञमव तेन यज्ञपतिं तेन मामव॥ 
ॐ गणेशादीदेवाः नारदादिदेवर्षयः विद्याचार्यश्च सुप्रतिष्ठा: वरदा भवन्तु। 
पूजन ::  तदनन्तर नाममन्त्रों दे द्वारा यथालब्धोपचार सबका पूजन करें :-
(1). ॐ गणेशाय नमः सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि, नमस्करोमि।
(2). ॐ सरस्वत्यै नमः सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि, नमस्करोमि।
(3). ॐ कुलदेवतायै नमः सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि, नमस्करोमि।
(4). ॐ गुरुवै नमः सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि, नमस्करोमि।
(5). ॐ लक्ष्मीनारायणाभ्यां  नमः सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि, नमस्करोमि।
तदनन्तर ऋषियों तथा विद्याचार्यों भी नाममन्त्र से पूज करें :-
(1). ॐ नारदाय नमः सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि, नमस्करोमि।
(2). ॐ पाणिनये नमः सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि, नमस्करोमि।
(3). ॐ पतञ्जलये नमः सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि, नमस्करोमि।
इत्यादि 
पूजन के अनन्तर हाथ में पुष्प लेकर निम्न मंत्र से सभी विद्याओं की अधिष्ठात्री देवी माता सरस्वती की प्रार्थना करें और पुष्प चढ़ायें :-
सर्वविद्ये त्वमाधारः स्मृतिज्ञानप्रदायिके। 
प्रसन्ना वरदा भूत्वा देहि विद्यां स्मृतिं यशः
अंत में बोलें :- 
अनया पूजया आवाहितदेवताः प्रीयन्तां न मम।
इस प्रकार पूजन कर निम्न रीति से हवन करें। 
हवन :: किसी स्थण्डिल अथवा वेदी के पञ्चभूत संस्कार करके उसमें पुष्टिवर्धन नामक अग्नि की स्थापना करके उसका गन्धादि उपचारों से पूजन करें। तदनन्तर ब्राह्मण-पुरोहित, पण्डित जी का वरण करके कुशकण्डिका करें और फिर घी के द्वारा निम्न मंत्रों से एक-एक आहुति प्रदान करें और स्त्रुवा में बचे हुए घी को "न मम" कहकर प्रोक्षणी पात्र में छोड़ें। 
ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। 
ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदं इदमिन्द्राय न मम। 
ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम। 
ॐ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम।
इस प्रकार आधार एवं आज्य भाग की चार आहुति देने के अनन्तर गणेशादि सभी आवाहित देवताओं की नाममन्त्रों से क्रम पूर्वक पृथक-पृथक 8-8 आहुति घी के द्वारा प्रदान करें जैसे :-
ॐ गणेशाय स्वाहा, ॐ सरस्वत्यै स्वाहा ॐ कुलदेवता स्वाहा ॐ गुरवे स्वाहा ॐ लक्ष्मीनारायणायां स्वाहा, 
आदि। 
विद्याचार्यों के नाम से प्रत्येक के लिये 8-8 आहुति घी के द्वारा प्रदान करें:- 
ॐ नारदाय स्वाहा, ॐ पाणिनये स्वाहा, 
आदि।  
भूरादि नौ आहुतियाँ (प्रायश्चित होम) :: पुनः घी के साथ निम्न आहुतियाँ दें :- 
ॐ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम॥1॥ 
ॐ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम॥2॥ 
ॐ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम॥3॥ 
ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्टा:। 
यजिष्ठो वहिनतमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाँसि प्र मुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा॥  
इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम॥4॥  
ॐ स त्वं नो अग्नेवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। 
अव यक्ष्य नो वरुणँ रराणो वीहि मृडीकँ सुहवो न एधि स्वाहा॥ 
इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम॥5॥   
ॐ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञ वहास्यया नो धेहि भेषजँ स्वाहा॥ इदमग्नये य्से न मम॥6॥  
ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्त्रं यज्ञिया: पाशा वितता महान्त:। तेभिर्नो ऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्का: स्वाहा॥ इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्य: स्वर्केभ्यश्च न मम॥7॥  
ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमँ श्रथाय। 
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा 
इदं वरुणायादित्यादितये न मम॥8॥
तदनन्तर प्रजापति देवता का ध्यान करके मन में निम्न मंत्र का उच्चारण करके हुए (मौन रहकर) आहुति दें :-
ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम॥9॥   
स्विष्टकृत् आहुति :: तत्पश्चात पुरोहित-पण्डित जी द्वारा कुश से स्पर्श किये जाते हुए निम्न मंत्र से घी द्वारा स्विष्टकृत् आहुति दें :- 
ॐ अग्नये स्विष्टकृत् स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृत् न मम।
हवन पूरा होने पर संस्रव प्राशन-प्रोक्षणी पात्र से दाहिने हाथ में घी लेकर थोड़ा मार्जन एवं ब्राह्मण को पूर्ण पात्र आदि क्रियाएँ सम्पन्न करें और आचर्य-पुरोहित आदि ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदान करें।  करना चाहिये। 
अक्षरारम्भ :: देवपूजन तथा हवन करके अभ्यंग स्नान किये हुए तथा वस्त्रांलकारों और चंदनादि से विभूषित बालक को अपने समीप ले आयें और उसके द्वारा गणेशादि देवों को प्रणाम करायें। तदनन्तर पश्चिमाभिमुख बालक को पूर्वाभिमुख गुरु के सामने बैठायें।
गुरु नमस्कार :: बालक के द्वारा निम्न मंत्र से गुरु को नमस्कार करवायें :- 
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। 
चक्षु रुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः॥ 
सरस्वती प्रणाम :: गुरु को प्रणाम करने के अनन्तर बालक द्वारा निम्न मंत्र से वाग्धिष्ठात्री देवी सरस्वती को प्रणाम करवाना चाहिये :- 
ॐ सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरुपिणि। 
विश्ववन्द्ये विशालाक्षि विद्यां देहि नमोऽस्तु ते॥ 
तदनन्तर बालक के द्वारा गंधाक्षत पुष्प द्वारा गुरु तथा सरस्वती का पूजन करायें। 
गुरु द्वारा लेखन तथा वाचन :: तदनन्तर विद्या प्रदाता गुरु किसी चाँदी की पाटी अथवा काष्ठ की पाटी पर कुंकुमादि का लेपन करके उस पाटी का पूजन करके सोने अथवा चाँदी की शलाका से निम्न अक्षरादि को लिखे :- 
ॐ श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीकुलदेवतायै नमः। श्रीगुरुभ्यो नमः। श्रीलक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः। ॐ नमः सिद्धम्। 
तदनन्तर वर्णाक्षरों को भी लिखे :- 
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः। क,ख, ग, घ, ङ। च,छ, ज, झ,ञ। ट, ठ, ड, ढ,ण। त, थ, द, ध, न। प, फ, ब, भ, म। य, र, ल, व्, .श, ष, स, ह, क्ष, त्र, ज्ञ।   
इस प्रकार पाटी पर देवताओं तथा अक्षरों को लिखने के अनन्तर निम्न मंत्र से अक्षरांकित सरस्वती रूपा उस पाटी का निम्न मंत्र द्वारा गन्धादि उपचारों से पूजन करें :-
ॐ पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती। 
यज्ञं वष्टु धियावसुः
ॐ लिखित सरस्वत्यै नमः।
उसके बाद आचार्य बालक के दाहिने हाथ में लेखनी पकड़ाकर, उसके हाथ द्वारा इन अक्षरों पर तीन बार लेखनी चलवाये तथा धीरे-धीरे उच्चारण का अभ्यास कराये।
इसके बाद बालक का पिता बालक के द्वारा गुरु तथा पाटी की तीन प्रदक्षिणा कराये। बालक द्वारा गुरु को उष्णीय-पगड़ी, वस्त्र आदि प्रदान कराये। इनकी पूजा करे तथा सुवासिनियाँ कुमार की आरती उतारें। पिता आचार्य को दक्षिणा प्रदान कर निम्न संकल्प द्वारा अन्य ब्राह्मणों को भूयसी दक्षिणा प्रदान करे।  
भूयसी दक्षिणा संकल्प :: 
ॐ अद्य पूर्वोच्चारितग्रहगुणगणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ ...राशेर्बालकस्य अक्षरस्वीकारविद्यारम्भकर्मणोरङ्गत्वेन अक्षतपुञ्जेषु गणेशादिदेवानां पूजनस्य होमकर्मणश्च साद्गुण्यार्थं साङ्गफलप्राप्त्यर्थं चेमां दक्षिणां नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो विभज्य दास्ये ॐ न मम
संकल्प जल छोड़ दें और दक्षिणा प्रदान करें।  
विसर्जन :: इसके बाद आवाहित सभी देवताओं पर अक्षत-पुष्प समर्पित कर निम्न मंत्र के  उच्चारण के साथ विसर्जन करें :- 
यान्तु देवगणा: सर्वे पूजामादाय मामकीम्। 
इष्टकामसमृद्धय्र्थं  पुनरागमनाय च॥ 
भगवत्स्मरण :: हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर भगवान् का ध्यान करते हुए समस्त कर्म उन्हें समर्पित करें :- 
ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। 
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥ 
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्  
यत्पादपङ्कज स्मरणात् यस्य नामजपादपि। 
न्यूनं कर्मं भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्
ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 

    
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा

Saturday, June 14, 2014

FIRST HAIR DRESSING चूड़ा करण-मुण्डन संस्कार :: HINDU PHILOSOPHY (4.8) हिंदु दर्शन

 FIRST HAIR DRESSING 
चूड़ा करण-मुण्डन संस्कार
HINDU PHILOSOPHY (4.8) हिंदु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
"चूड़ा क्रियते अस्मिन" 
इस संस्कार के द्वारा बालक का चूड़ा अर्थात शिखा धारण करना है। इसे मुण्डन संस्कार भी कहा जाता है। इसमें मुख्य अनुष्ठेय कार्य शिशु का केशों का मुण्डन कराना है। यह संस्कार शिशु को बल, आयु और तेज प्रदान करता है। जन्म के पहले अथवा तीसरे साल में चूड़ाकर्म करना चाहिये। 
चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः। 
प्रथमेSब्दे तृतीये वा कर्तव्यं श्रुतिचोदनात्॥
सभी द्विजातियों का धर्म के लिये पहले या तीसरे वर्ष में मुण्डन करना चाहिये, ऐसा वेद कहते हैं।[मनु स्मृति 2.35] 
The Veds directs to tonsure the head of the child either in the first or the third year of the birth, for the three upper castes.
पारस्कर ग्रह सूत्र [2.1.1-2] में भी यही व्यवस्था है।
महर्षि आश्वलायन, वृहस्पति एवं देवर्षि नारद इस संस्कार को तीसरे, पाँचवें, दसवें और ग्यारहवें वर्ष में करने की छूट देते हैं। 
"चूड़ा कार्यां यथाकुलम्"
कहीं-कहीं पाँचवें वर्ष में अथवा यज्ञोपवीत संस्कार के साथ भी चूड़ाकरण संस्कार किया जाता है।[याज्ञवलक्य]  
चूड़ाकरण संस्कार में गर्भकालीन बालों को काट कर शिखा-चुटिया रखी जाती है, जिसकी उपयोगिता  इस प्रकार है :- 
सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च। 
विशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम्॥
द्विजों को सदा यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये और सदा शिखा में गाँठ-ग्रंथि लगाये रहना चाहिये। शिखा और यज्ञोपवीत के बिना वह जो कर्म करता है, वह निष्फल होता है।[कात्यायन] 
स्नाने दाने जपे होमे संध्यायां देवतार्चने। 
शिखाग्रन्थिं सदा कुर्यादित्येतन्मनुरब्रबीत्
स्नान, दान, जप, होम, सन्ध्या, देवपूजन आदि समस्त नित्य-नैमित्तिक कर्मों में शिखा में ग्रंथि लगी होनी चाहिये। 
यदि रोग या वृद्धावस्था के कारण शिखास्थान के बाल उड़ गए हों तो उस स्थान पर तिल, कुशपात्र, दूर्वा या चावल रखने का विधान है। 
"दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे शिखायै वषट्" 
शिखा तेज को बढ़ाती है, दीर्घ आयु तथा बलवर्धक भी है। इसीलिए जपादि, पाठादि के पूर्व शिखा का स्पर्श करके न्यास किया जाता है। शिखा ज्ञान शक्ति में वृद्धि करने के साथ-साथ मनुष्य को चैतन्य बनाती है। शिखा का स्थान सिर पर सहस्त्रार चक्र का केंद्र है। बुद्धि चक्र एवं ब्रह्मरंध्र के ऊपर सहस्त्र दल कमल का अधिष्ठान है। जब जातक चिन्तन, मनन आदि करता है या ध्यानलीन होता है; तब ध्यान से उत्पन्न अमृत तत्व सहस्रदल कर्णिका में प्रविष्ट करके सिर से बाहर निकलने का प्रयत्न करता है। इस समय यदि शिखा में ग्रंथि नहीं लगी होतो अमृत तत्व शरीर में ही रह कर जातक का कल्याण करता है। यही शिखा की महत्ता है। शिखा के नीचे पीयूष ग्रन्थि या पीयूषिका (Pituitary gland) जो कि एक अंत:स्रावी ग्रंथि है का निवास है। 
यह शरीर को हृष्ट-पुष्ट तथा मस्तिष्क को विकसित करती है। इसकी सुरक्षा  शिखा बन्धन जरूरी है। 
It is located in the brain, between the hypothalamus and the pineal gland, just behind the bridge of the nose. It is about the size of a pea and is attached to the brain by a thin stem of blood vessels and nerve cell projections. The frontal lobe is the biggest part of the pituitary.
पीयूष ग्रन्थि का आकार एक मटर के दाने जैसा होता है और वजन 0.5 ग्राम होता है। यह मस्तिष्क के तल पर हाइपोथैलेमस (अध श्चेतक) के निचले हिस्से से निकला हुआ उभार है और यह एक छोटे अस्थिमय गुहा (पर्याणिका) में दृढ़तानिका-रज्जु (diaphragms sellae) से ढंका हुआ होता है। पीयूषिका खात, जिसमें पीयूषिका ग्रंथि रहता है, वह मस्तिष्क के आधार में कपालीय खात में जतुकास्थी में स्थित रहता है। इसे एक प्रमुख ग्रंथि माना जाता है। पीयूषिका ग्रंथि ग्रन्थिरस का स्राव करने वाले समस्थिति का विनियमन करता है, जिसमें अन्य अंत:स्रावी ग्रंथियों को उत्तेजित करने वाले ग्रन्थिरस शामिल होते हैं। कार्यात्मक रूप से यह हाइपोथैलेमस से माध्यिक उभार द्वारा जुड़ा हुआ होता है।
"मस्तकाभ्यन्तरोपरिष्टात् सिरासन्धिसन्निपातो रोमावर्तोऽधिपति:, 
तत्रापि सद्य एव मरणम्" 
शिखा स्थान शरीर के मर्म स्थलों में प्रधान है। यहाँ चोट लगने से मृत्यु भी हो सकती है। अतः लम्बी और मोटी चोटी मर्मस्थल की रक्षा करती है।[सुश्रुत संहिता 3.6.27]  
मनुष्य के दीर्घायु, बल और तेज के उन्नयन में शिखा की भूमिका है। यह ज्ञानशक्ति को चैतन्य रखते हुए, उसे सदा अभिवृद्धि की ओर अग्रसर करती है। 
शिखा सूर्य किरणों से प्राप्त प्रकाशिनि शक्ति को आकर्षित करने एवं सहस्र दल कर्णिका तक पहुँचाने में सम्प्रेषक का कार्य करती है। शिखा रखने एवं इसके नियमों के अनुशीलन से सद्बुद्धि, सद्वृत्ति, शुचिता एवं सद्विचारों में वृद्धि होती है। 
इस संस्कार में शिखा को छोड़कर अन्य बालों को उतार देने से त्वचा सम्बन्धी रोगों का प्रभाव नहीं होता। नए बाल नहीं झड़ते और बद्धमूल हो जाते हैं। मुण्डन करने के अनन्तर सिर में मलाई आदि की मालिश का विधान है, जिससे मस्तिष्क के मज्जा तन्तुओं को स्निग्धता, कोमलता, शीतलता तथा शक्ति प्राप्त होती है, जो आगे चलकर बुद्धि के विकास में सहायक होती है। सुस्वास्थ्य के लिये मस्तिष्क का शीतल रहना अनिवार्य है। 
माता के गर्भ में आये हुए बाल अशुद्ध होते हैं और वे झड़ते रहते हैं। उनके रहते हुए शिशु की वृद्धि सही तरीके से नहीं हो सकती। इसलिये उन बालों को मुँड़वाकर शिशु की शिखा रखी जाती है, ताकि वो कर्म के योग्य हो सके। प्रायः छटे मास से दाँत निकलने लगते हैं और तीन वर्षों तक यह क्रिया जारी रहती है। इस काल में बालक के मस्तिष्क में गर्मी बनी रहती है, जिससे उसे अनेक प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस दौरान उसे शारीरिक और मानसिक परेशानियों से बचाने, रोगों से उसकी रक्षा करने तथा शरीर की उष्णता दूर करने हेतु मुण्डन की प्रक्रिया पूरी होने पर सिर पर दही और मक्खन लगाया जाता है। 
केशकर्तन पौष्टिक, आयुष्यवर्धक एवं मल रूप पाप का निवारक माना जाता है। इसी कारण प्रायः पहले और तीसरे वर्ष में मुण्डन संस्कार किया जाता है। समन्त्रक चूड़ाकरण से आयु वृद्धि और जठराग्नि सन्दीपन होती है। बल, बुद्धि तथा सौभाग्यबल बढ़ता है। चोटी को हिन्दु की पहचान के रूप में भी देखा जाता था। वर्तमान में तो चोटी रखने वालों की सँख्या नगण्य ही है। 
पौष्टिकं वृष्यमायुष्यं शुचि रूपविराजनम्।
केशश्म श्रुनखादीनां कल्पनं सम्प्रसाधनम्
केश, श्मश्रु-दाढ़ी और नख आदि के काटने से शरीर पुष्ट होता है, शक्ति में वृद्धि होती है, जातक दीर्घायु होता है, पाप का अपनोदन होता है और सौन्दर्य में वृद्धि होती है।[चरकo सूत्रस्थान 5.99] 
केशाधिवासन :: स्नानादि से निवृत्त चूड़ाकरण किये जाने वाले बालक के सिर के बालों को संकल्पित जल से विधि पूर्वक भिगोकर तथा जूड़ा बनाकर, कपड़े से बाँधकर, आच्छादित करने का कर्म अधिवासन कहलाता है। यह कर्म प्रायः चूड़ाकरण के पहले दिन रात्रि में किया जा सकता है। यदि पहले दिन सम्भव नहीं हो तो चूड़ाकरण के दिन भी प्रारम्भ में किया जा सकता है। इसमें नए पीले वस्त्र के द्वादश खण्ड करके प्रत्येक में गन्ध, अक्षत, दूर्वा, पीली सरसों तथा हल्दी (गाँठवाली) छोड़कर त्रिगुणित सूत के द्वारा बाँधकर बारह पोटलियाँ बना लेनी चाहियें। इन पोटलिकाओं को "गणाधिपं नमस्कृत्य" आदि मन्त्रों से प्रतिष्ठित करके एक पोटलिका के द्वारा बालक की शिखा के स्थान वाले बालों को दृढ़तापूर्वक बाँध लेना चाहिये। तदनन्तर बालक के दाहिने ओर के बालों की तीन चुटिया बनाकर एक-एक पोटलिका से उन्हें बाँध देना चाहिये। इसी प्रकार सिर के पीछे तथा फिर बायीं ओर भी तीन-तीन चुटिया बनाकर उन्हें एक-एक पोटली से बाँध देना चाहिये। इस प्रकार बालक के सिर में बालों के दस जूड़े बनेंगे। इस प्रकार जूड़ा बनाकर किसी कपड़े अथवा पगड़ी के द्वारा बालक के सिर को अच्छी तरह से ढँक देना चाहिये। शेष दो पोटलिकाओं में से एक छुरे-चाकू में तथा एक कैंची में बाँध देनी चाहिये।  
चूड़ाकरण के दिन बालक सहित पिता तथा माता दोनों स्नानादि से निवृत्त हो धुले हुए वस्त्रों को धारण करके आसन पर पूर्वाभिमुख बैठ जायें। पिता आचमन, प्राणायाम आदि करके सर्वप्रथम चूड़ाकरण संस्कार के दाहिने हाथ में जलादि लेकर निम्न संकल्प करे :-  
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे/ क्षेत्रे...षष्टिसंवत्सराणां...मध्ये...संवत्सरे... अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...
राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र: सपत्नीक:..शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं 
... नाम्न: अस्य कुमारस्य बीजगर्भसमुद्भवै नोनिबर्हणायुर्वर्चोऽभिवृद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं चूड़ाकरणसंस्कारं करिष्ये। तदङ्गत्वेन स्वस्तिपुण्याहवाचनं मृातकापूजनं वसोर्धारापूजनमायुष्यमन्त्रजपं साङ्कल्पिकेन विधिना नान्दीश्राद्धं च करिष्ये। तत्रादौ कर्मणः निर्विघ्नतासिध्यर्थं गणेशाम्बिकयो: पूजनं करिष्ये। 
कहकर हाथ का संकल्पादि जल छोड़ दें। तत्पश्चात गणेशाम्बिकादि पूजन कर्म करें।
ब्राह्मण भोजन संकल्प :: तदनन्तर तीन ब्राह्मणों को भोजन करने के लिए दाहिने हाथ में जल, अक्षत, द्रव्य (नकदी आदि) लेकर निम्न संकल्प करें :-  
ॐ अद्य...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहमस्य कुमारस्य चूड़ाकरण संस्कार पूर्वाङ्गतया त्रीन् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये। 
ब्राह्मणों को भोजन करायें अथवा निष्क्रय द्रव्य प्रदान करें। 
वेदी निर्माण :: पंचांग पूजन के अनन्तर हवन कार्य हेतु बालू अथवा शुद्ध मिट्टी से एक हाथ लम्बी-चौड़ी वेदी बनायें तथा उसका संस्कार करें। 
तीन कुशों के द्वारा दक्षिण से उत्तर की ओर वेदी को साफ़ करें और उन कुशों को ईशान कोण में फेंक दें। गाय के गोबर तथा जल से उस वेदी को लीप दें। स्त्रुवा के मूल से वेदी के मध्य भाग में प्रादेश मात्र (अँगूठे से तर्जनी के बीच की दूरी) लम्बी तीन रेखाएँ पश्चिम से पूर्व की ओर खींचें। रेखा खींचने का क्रम दक्षिण से प्रारम्भ करके उत्तर दिशा में होना चाहिए। तीनों रेखाओं का उल्लेखन क्रम से अनामिका तथा अँगूठे से थोड़ी-थोड़ी मिटटी निकलकर बायें हाथ में रखते जायें। सारी मिट्टी दाहिने हाथ से थोड़ी-थोड़ी निकालकर बायें हाथ में रखते जायें। बाद में सारी मिट्टी दाहिने हाथ पर रखकर ईशान कोण  की ओर फेंक दें। जल के छीटों से वेदी को सींच दें।
अग्नि स्थापना :: काँस्य या ताम्र पात्र में या नये मिट्टी के बर्तन (सकोरे) में स्थित पवित्र अग्नि को वेदी के अग्नि कोण में रखें और इस अग्नि में से क्रव्यादाश निकालकर नैऋत्यकोण में रखें। तदनन्तर अग्नि पात्र को स्वाभिमुख करते हुए वेदी में स्थापित करें और बोलें :-
ॐ सभ्यनामागन्ये सुप्रतिष्ठितो वरदो भव।
तदनन्तर "ॐ सभ्यनामागन्ये नमः" का जप करते हुए गन्ध, अक्षत और पुष्पादि से अग्नि की पूजा करें। 
कुश कण्डिका :: ब्राह्मण-पुरोहित का वरण करने के बाद प्रणीता पात्र को जल से भर दें और उसे कुशों से ढँककर ब्राह्मण का मुँख देखते हुए अग्नि के उत्तर की ओर कुशों को रख दें। कुश परिस्रण कर लें और निम्न रीति से पात्रा सादन करें :-
पात्रा सादन :: हवन कार्य में प्रयोग में आने वाली सभी वस्तुओं तथा पात्रों को पश्चिम से पूर्व तक उत्तराग्र अथवा अग्नि से उत्तर की ओर रख लें। 
चूड़ाकरण की विशेष सामग्री :: चूड़ाकरण में प्रयुक्त होने वाली विशिष्ट वस्तुओं यथा शीतल जल, मक्खन, दही अथवा घी का पिंड (मुण्डन के बाद सिर में लगाने के लिये), त्र्येणी, शल्लकी, सेही का काँटा (बनाये गए बालों के जुड़े को सुलझाने के लिये), 27 हरित कुश, ताँबे से शोधित लोहे का उस्तरा (बालों को काटने के लिये), बैल के गोबर का पिण्ड (कटे हुए बालों को रखने के लिये) यथास्थान रख लें। कुशल नाई को भी बैठा लें।
पवित्रक बना लें तथा प्रोक्षणी पात्र संकल्प करें। घी को आज्य स्थली में निकालकर वेदी के दक्षिण भाग में आग पर रख दें। स्त्रुवा का समार्जन कर लें। घी के बर्तन को यथास्थान रख दें। घी में यदि कोई वस्तु पड़ गई हो तो उसे निकाल दें। ब्राह्मण-पुरोहित का स्पर्श करते हुए बायें हाथ में उपनयन (सात) कुशों को लेकर हृदय-छाती पर बायाँ हाथ लगाकर, तीन समिधाओं को घी में डुबोकर मन से प्रजापति देवता का ध्यान करते हुए, खड़े होकर मौन रहते हुए, अग्नि में डाल दें और बैठ जायें। 
अग्नि के ईशानकोण से ईशानकोण तक प्रदक्षिणा क्रम से जलधारा प्रवाहित करें। तदनन्तर हवन करें। 
आधार-आज्य भाग संज्ञक हवन :: तत्पश्चात निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए घी की आहुति दें, स्त्रुवा में बचे हुए घी को "न मम" कहकर प्रोक्षणी पात्र में छोड़ें। 
ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। 
ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदं इदमिन्द्राय न मम। 
ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम। 
ॐ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम। 
भूरादि नौ आहुतियाँ (प्रायश्चित होम) :: पुनः घी के साथ निम्न आहुतियाँ दें :-
ॐ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम॥1॥ 
ॐ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम॥2॥ 
ॐ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम॥3॥ 
ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्टा:। 
यजिष्ठो वहिनतमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाँसि प्र मुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा॥  
इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम॥4॥  
ॐ स त्वं नो अग्नेवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। 
अव यक्ष्य नो वरुणँ रराणो वीहि मृडीकँ सुहवो न एधि स्वाहा॥ 
इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम॥5॥   
ॐ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञ वहास्यया नो धेहि भेषजँ स्वाहा॥ इदमग्नये य्से न मम॥6॥  
ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्त्रं यज्ञिया: पाशा वितता महान्त:। तेभिर्नो ऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्का: स्वाहा॥ इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्य: स्वर्केभ्यश्च न मम॥7॥  
ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमँ श्रथाय। 
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा 
इदं वरुणायादित्यादितये न मम॥8॥
तदनन्तर प्रजापति देवता का ध्यान करके मन में निम्न मंत्र का उच्चारण करके हुए (मौन रहकर) आहुति दें :-
ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम॥9॥   
स्विष्टकृत् आहुति :: तत्पश्चात पुरोहित-पण्डित जी द्वारा कुश से स्पर्श किये जाते हुए निम्न मंत्र से घी द्वारा स्विष्टकृत् आहुति दें :- 
ॐ अग्नये स्विष्टकृत् स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृत् न मम।
संस्रव प्राशन :: हवन पूरा होने पर प्रोक्षणी पात्र से दाहिने हाथ में घी लेकर थोड़ा प्राशन करना चाहिये। फिर हाथ धोकर शुद्ध जल से आचमन करें।
मार्जन :: पवित्र कुशा से प्रणीता पात्र के जल से निम्न मंत्र बोलते हुए मार्जन करें :-   
ॐ सुमित्रिया न आप ओषधय: सन्तु। 
इसके बाद निम्न मंत्र से जल नीचे छोड़ें :- 
ॐ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः। 
पवित्र प्रतिपत्ति :: पवित्रक को अग्नि में छोड़ दें।   
पूर्ण पात्र दान :: 
ॐ अद्य कृतैतच्चूडाकरणहोमकर्मणि कृताकृतवेक्षणरूप ब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदं पूर्णपात्र सदक्षिणाकं प्रजापतिदैवतं ... गोत्राय... शर्मणे ब्रह्मणे भवन्तमहं सम्प्रददे। 
कहकर संकल्प के जल सहित पूर्ण पात्र पण्डित जी को दे दें। 
पण्डित जी कहें :- ॐ स्वस्ति। 
प्रणीता विमोक :: इसके बाअद प्रणीता पात्र को ईशानकोण में उलटकर रख दें। 
मार्जन :: निम्न मंत्र से उपनयन कुशों के द्वारा उलटकर रखे गए प्रणीता के जल से अपने मस्तिष्क पर मार्जन करें :-
ॐ आप: शिवा: शिवतमा: शान्ता: शान्ततमाभिस्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्। 
उपनयन कुशों को अग्नि में छोड़ दें। 
बर्हिहोम :: कुशकण्डिका में जिस क्रम से कुश बिछाये गये थे, उसी क्रम से उन कुशों को उठायें और फिर उनको घी में भिगोकर निम्न मंत्र हुए अग्नि में डाल दें :- 
ॐ देवा गातुविदो गातुं  वित्वा गातुमित। 
मनस्समत इमं देव यज्ञँ स्वाहा वाते धा: स्वाहा 
कुश में लगी ब्राह्मण ग्रन्थि खोल दें। 
चूड़ाकरण संस्कार विधि :: बालक के काटे जाने वाले बालों को संस्कार के लिए जल से साफ़ करें-धोयें। पहले से स्थापित किये गए ठंडे पानी में गर्म पानी निम्न मंत्र बोलते हुए मिलायें :- 
ॐ उष्णेन  वाय उदकेनेह्यदिते केशान् वप। 
पुनः मौन होकर उस पानी में थोड़ा मठ्ठा-छाछ डालकर पूर्व स्थापित घी, दही या मख्खन के पिण्ड में से भी छोटा सा पिण्ड बनाकर पानी में डाल दें। 
दाहिने भाग का केश संस्कार :: 
बालों का भिगोना :: उसके बाद उत्तर की ओर मुँह किये हुए बालक का पिता अपने बाँई तरफ बैठी हुई पत्नी के दक्षिण भाग में स्थित पूर्वाभिमुख बालक के दाहिने भाग में बाँधी हुई तीनों जूटिकाओं में से दक्षिण की ओर पहली जूटिका को निम्न मंत्र पढ़ते हुए शीतोदक, उष्णोदक, मट्ठा और दही मिश्रित पानी से भिगोयें :-
ॐ सवित्रा प्रसूता दैव्या आप उन्दन्तु ते तनूं दीर्घायुत्वाय वर्चसे।
कुशों का बन्धन :: इसके बाद दक्षिण दिशा की तरफ पहली जूटिका (जुड़े) को सेही के काँटे (कँघे का प्रयोग करें) से सुलझा लें। पूर्व स्थापित सत्ताईस कुशों में से तीन कुश लेकर उनके अग्र भाग को पहली जूटिका के साथ लगाकर (कुश का मूल भाग ऊपर किये हुए) निम्न मंत्र का उच्चारण कर्त्रे हुए बाँध दें :- 
ॐ ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैंनँ हिं सी:।  
उस्तरा ग्रहण :; इसके बाद कुश युक्त केशों को बाये हाथ से पकड़कर निम्न मंत्र बोलकर उस्तरे को दाहिने हाथ में ग्रहण करें (यह नाई का काम है, मंत्रोच्चारण पण्डित जी करेंगे) :-
शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा हिं सी:। 
उस्तरे द्वारा बालों का स्पर्श :: तदनन्तर निम्न मंत्र को पढ़ते हुए उस्तरे को पहली जूटिका (लट) के बालों में लगायें :-
ॐ नि वृत्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय। 
जूटिका छेदन :: पुनः निम्नलिखित मंत्र से कुशों सहित बालों की पहली जूटिका काटें:-
ॐ येनावपत्सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्। तेन ब्रह्माणों वपतेदमस्यायुष्यं जरदष्टिर्यथाऽसत्॥ 
केश स्थापन :: इसके बाद पिता उन कुश सहित कटे हुए बालों के अग्रभाग को आगे की ओर करता हुए बालक की माँ को दे दे और माँ काँस्य पात्र में रखे हुए उत्तर की ओर स्थापित बैल के गोबर पर उन्हें रख दे। पिता कटे हुए केशों का स्पर्श होने से जल का स्पर्श करे। 
इसके बाद दाहिनी ओर की दोनों जूटिकाओं का पूर्वोक्त रीति से जल द्वारा भिगोना, सेही के काँटे द्वारा बालों को सुलझाना, जुड़े में कुशों को बाँधना, बालों से उस्तरे का स्पर्श कराना तथा बालों को काटना और उन्हें गोमयपिण्ड पर रखना आदि सभी कार्य बिना मंत्र पढ़े (अमन्त्रक) पूर्ववत् सम्पन्न करे। 
पिछले भाग का केश संस्कार :: इसके बाद पिछले भाग की जूटिका का संस्कार निम्न मंत्रों से करे। 
केशों का उन्दन :: सर्वप्रथम पिछले भाग की जूटिका में से दाहिनी ओर की पहली जूटिका को निम्न मंत्र से भिगोये :- 
ॐ सवित्रा प्रसूता दैव्या आप न्दन्तु ते तनूं दीर्घायुत्वाय वर्चसे।  
कुशों का बन्धन :: तदन्तर केशों को बिना मंत्र बोले सेही के काँटे-कँघे से अलग-अलग करके पूर्वोक्त रीति से तीन कुशों को निम्न मंत्र से जूटिका में बाँधें :- 
ॐ ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनं हि सी:।  
उस्तरा ग्रहण :: निम्न मंत्र से ताँबे से शोधित लोहे का उस्तरा ग्रहण करें :- 
ॐ शिवो नामाऽसि स्वधि तिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा ही सीः
बालों का उस्तरे से स्पर्श :: उस्तरे को निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ बालों में लगायें :- 
ॐ नि वर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय  प्रजननाय रासस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय।
जूटिका छेदन :: निम्न मंत्र से केशों का वपन-छेदन करें :- 
ॐ त्र्यायुषं जमदग्ने: कश्यपस्य त्र्यायुषम्। ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नोस्तु त्र्यायुषम्॥ 
केशस्थापन :: जल का स्पर्श करें। इस प्रकार पिछले भाग की जूटिका का छेदन करके उन बालों को पहले की तरह माँ के द्वारा गोमय पिण्ड पर रखवा दें। 
तदनन्तर पिछले भाग की बची हुई दो जटाओं की भी दो बार बिना मंत्र पढ़े सभी क्रियाएँ करें यथा केशों को भिगोना, कँघे द्वारा अलग-अलग करना, उसमें कुशों को बाँधना, उस्तरे द्वारा स्पर्श करते हुए बालों को काटकर गोमय पिण्ड-गोबर में रखवाना आदि। 
बाँये भाग का केश संस्कार :: इसके बाद बाँये भाग की तीन जटाओं का संस्कार करना चाहिये। 
केशों का उन्दन :: सबसे पहले दाहिनी ओर की पहली जटा-लट, को निम्न मंत्र का उच्चारण कर्त्रे हुए पानी में भिगोयें :- 
ॐ सवित्रा प्रसूता दैव्या आप उन्दन्तु ते तनूं दीर्घायुत्वाय वर्चसे। 
कुशों का बन्धन :: उसके बाद कँघे से मौन रहते हुए, बालों को काटें और उनके बीच में निम्न मंत्र से पूर्वोक्त रीति से तीन कुशों को बाँधें :-
ॐ ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैन  ँ ् हि  ँ ् सीः।
उस्तरा पकड़ना :: निम्न मंत्र के उच्चारण के   में पकड़ें :- 
ॐ शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा हि  ँ ् सीः। 
उस्तरे के साथ बालों को छूना :: उसके बाद निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ उस्तरे को बालों के बीच में लगायें (पण्डित जी मंत्रोच्चारण करेंगे और नाई बालों को काटेगा) :- 
ॐ नि वर्त्तयाम्ययुषेन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय। 
जूटिका छेदन :: निम्न मंत्र से केशों का वपन-छेदन करें :- 
ॐ येन भूरिश्चरा दिवं ज्योक्च पश्चाद्धि सूर्यम्। तेन ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय सुश्लोक्याय स्वस्तये। 
उसके बाद जल का स्पर्श करें। 
केश स्थापन :: इसके बाद काटे गये बालों को पूर्ववत् माता के द्वारा गोमयपिण्ड पर रखवा दें। इसी प्रकार पुनः बची हुई जटाओं को काटने की प्रक्रिया मंत्र उच्चारण के बगैर पूरा करें यथा बालों को भिगोना, कँघे से अलग करना, बालों के बीच में तीन कुषाएँ रखना, उस्तरे को हाथ में लेना, उस्तरे को बालों के बीच में लगाना, बालों का काटना, पानी का छूना और कटे हुए बालों को गोबर पर रखवाना।
इस प्रकार कुल नौ बार पिता या आचार्य शिशु के बाल कटवाने की प्रक्रिया पूरी करें। 
क्षुर भ्रमण :: उसके बाद उस्तरे को सिर के चारों ओर निम्न मंत्र से प्रदक्षिणा क्रम से तीन बार घुमायें। पहली बार समन्त्रक तथा दो बार अमन्त्रक। पहली बार निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ उस्तरा घुमायें :- 
ॐ यत्क्षुरेण मज्जयता सुपेशसा वप्त्वा वा वपति केशांँश्छिन्धि शिरो मास्यायु: प्रमोषीः।
नाई को उस्तरा प्रदान करना :: तदनन्तर पहले के घी मिले ठंडे और गर्म पानी से सिर को भिगोकर सुखपूर्वक मुण्डन के लिये निम्न मंत्र बोलकर उस्तरा नाई को दे दें :-
ॐ अक्षण्वन् परिवप। 
इसके बाद नाई उत्तराभिमुख बैठकर पूर्वाभिमुख बालक के सर का पूर्वभाग से प्रारम्भ कर अथवा उत्तर भाग से आरम्भ कर बालों का मुण्डन करे तथा अपनी कुल परम्परा या गोत्र के अनुसार शिखा-छोटी रखे। 
केश स्थापन :: इसके बाद उन सभी कटे हुए बालों को गोबर में रखकर गौशाला, कीचड़ युक्त गड्ढे या नदी के समीप गाढ़ दें। 
तत्पश्चात स्नानकर करके शुद्ध होकर बालक माता-पिता, आचार्य आदि को प्रणाम करें। वे सभी बालक को आशीर्वाद प्रदान करें। तदनन्तर कुलाचार के अनुसार उसी दिन जलाशय अथवा कुँए का पूजन भी कर लेना चाहिये। 
भस्म धारण :: इसके बाद आसन पर बैठकर स्त्रुवा से अग्नि की भस्म लेकर दाहिने हाथ की अनामिका अँगुली से उस भस्म को निम्न विधि से धारण करें। 
ललाट पर :- ॐ त्र्यायुषं जमदग्ने:।  
गर्दन पर :- ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषम्। 
दक्षिण बहुमूल में :- ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषम्। 
हृदय-छाती पर :- ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम्। 
पुनः इसी रीति से बालक को भी भस्म लगानी चाहिये। 
नाई को मेहनताना-दान :: क्षौर करने के बाद नाई को घी और चावल तथा द्रव्य अथवा निष्क्रय द्रव्य देना चाहिये। 
आचार्य-पुरोहित को गौदान और दक्षिणा :: बालक का पिता दाहिने हाथ में जल और अक्षत लेकर आचार्य को देने के लिये गौदान का संकल्प करे :- 
ॐ अद्य...गोत्र:...शर्मा, वर्मा, गुप्तोऽहं चूड़ाकरणकर्मण: सांङ्गतसिद्धयर्थं  साद्गुण्यार्थं च मनसोदिष्टं गोनिष्क्रयभूतं द्रव्यं रजतं चन्द्रदैवतं दक्षिणाद्रव्यं च आचार्याय भवते सम्प्रददे। 
आचार्य द्रव्य ग्रहणकर बोलें :- ॐ स्वस्ति। 
ब्राह्मण भोजन का संकल्प :: इसके बाद ब्राह्मण भोजन कराने का संकल्प करें :-
ॐ अद्य कृतस्य चूड़ाकरणकर्मण: सांङ्गतसिद्धयर्थं  दशसंख्याकान् यथासंख्याकान् वा ब्राह्मणान् भोजयिष्ये।
भूयसी दक्षिणा संकल्प :: इसके बाद भूयसी दक्षिणा का संकल्प करें :-
ॐ अद्य कृतस्य चूड़ाकरणकर्मण: तन्मध्ये न्यूनातिरिक्तदोषपरिहारार्थं नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो यथोत्साहं भूयसीं दक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सृज्ये। 
विसर्जन :: इसके बाद आवाहित सभी देवताओं पर अक्षत-पुष्प समर्पित कर निम्न मंत्र के  उच्चारण के साथ विसर्जन करें :- 
यान्तु देवगणा: सर्वे पूजामादाय मामकीम्। 
इष्टकामसमृद्धय्र्थं पुनरागमनाय च॥ 
भगवत्स्मरण :: हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर भगवान् का ध्यान करते हुए समस्त कर्म उन्हें समर्पित करें :- 
ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। 
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥ 
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्  
यत्पादपङ्कज स्मरणात् यस्य नामजपादपि। 
न्यूनं कर्मं भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्
ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 
ॐ साम्बसदाशियाय नमः।
इसी प्रकार कन्या का भी चूड़ाकरण संस्कार अमन्त्रक करना चाहिये। 
    
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