Wednesday, October 31, 2012

BRAHMAN VANSH ब्राह्मण वंश

BRAHMAN VANSH
 ब्राह्मण वंश
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
ब्राह्मण की सिद्धि ::
तपो यज्ञस्तथा विद्या भैक्ष्यमिन्द्रियसंयम।
ध्यानमेकान्तशीलत्वं तुष्टिर्ज्ञानं च शक्तित:।
ब्राह्मणानां महाराज चेष्टा: संसिद्धिकारिका:॥
[महा.शान्तिपर्व 9.15]
तप, यज्ञ, विद्या, भिक्षा, इन्द्रिय-संयम, ध्यान, एकान्तवास का स्वभाव, सन्तोष और यथा शक्ति शास्त्र ज्ञान; ये समस्त गुण तथा चेष्टाएं ब्राह्मणों के लिए सिद्धि देने वाली है।
हिन्दु धर्म-संस्कृति के मूलाधार :: (1). वर्ण-जाति, (2). स्मृति और (3). श्रुति। 
वर्ण जाति :: हिन्दु चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र में विभाजित है। वर्तमान काल में शूद्र वर्ण 1,000 से भी ज्यादा जातियों में विभाजित है। ये जातियाँ उनके काम के आधार पर निर्धारित होती हैं। 
श्रुति हिन्दु धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रन्थों का समूह है। श्रुति का शाब्दिक अर्थ है सुना हुआ, यानि ईश्वर की वाणी जो प्राचीन काल में ऋषियों द्वारा सुनी गई थी और शिष्यों को प्रदान की गई। इस दिव्य स्रोत के कारण ही ये सर्वोच्च, प्रामणिक और महत्त्वपूर्ण हैं। अन्य ग्रंथ स्मृति की श्रेणी में आते हैं।स्मृति का अर्थ है मनुष्यों के स्मरण और बुद्धि से बने ग्रंथ जो श्रुति के ही उपांग और व्याख्या हैं। श्रुति और स्मृति में कोई भी विवाद होने पर श्रुति को ही मान्यता मिलती है, स्मृति को नहीं। 
श्रुति में चार वेद :- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। 
हर वेद के चार भाग :- संहिता, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद्। इनके अलावा बाकी सभी धर्मग्रन्थ स्मृति के अन्तर्गत आते हैं।
स्मृतियों, धर्मसूत्रों, मीमांसा, ग्रंथों, निबन्धों महापुराणों में जो कुछ भी कहा गया है वह श्रुति की महती मान्यता को स्वीकार करके ही कहा गया है। श्रुतु ब्रह्मा जी के द्वारा निर्मित हैं। सृष्टि के नियन्ता ब्रह्मा जी हैं। उनके मुख से निकले हुए वचन प्रमाणिक हैं तथा प्रत्येक नियम के आदि स्रोत हैं। वेद शब्द श्रद्धा और आस्था के द्योतक हैं। 
मनु संहिता स्मृति है। यह वेदों की व्याख्या ही है। ईशावास्योपनिषद एक श्रुति है, इसमें ईश्वर की वाणी का उन ऋषियों द्वारा शब्दांतरण है।
स्मृति :: स्मृति का शाब्दिक अर्थ है, याद किया हुआ। ये वे ग्रन्थ हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी एक से दूसरे मौखिक या लिखित दूर से को सौंप दी गईं। स्मृति की मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। इनमें वेद नहीं आते।  रामायण, महाभारत, गीता, पुराण को स्मृति की संज्ञा दी गई है। स्मृतियों में आसान कहानियाँ और नैतिक उपदेश हैं। शंकराचार्य ने इन सभी को स्मृति ही माना है। रामायण, महाभारत और गीता पूर्ण रूप से प्रामणिक लिखित और ऐतिहासिक ग्रंथ हैं। 
मनु महाराज ने श्रुति तथा स्मृति महत्ता को समान माना है।
 "वेदो धर्ममूल तद्धिदां च स्मृतिशीले" [गौतम]
क्योंकि स्मृति और शील इन शब्दों का प्रयोग स्रोत के रूप में किया है, किसी विशिष्ट स्मृति ग्रन्थ या शील के लिए नहीं। स्मृति से अभिप्राय है वेदविदों की स्मरण शक्ति में पड़ी  परम्परायें  जिनका उल्लेख वैदिक साहित्य में नहीं है तथा शील से अभिप्राय है उन विद्वानों के व्यवहार तथा आचार में उभरते प्रमाणों से। 
"धर्मज्ञसमयः प्रमाणं वेदाश्च" [आपस्तम्ब]
श्रुति :: ये श्लोक अनुष्ठान, उत्सव, परम्परा आदि हैं, जिनमें निहित ज्ञान व इतिहास हैॆं। श्रुति-आधारित कर्तव्य श्रौत धर्म कहलाता है। श्रुति में श्रम करने वाले के लिए श्रुति समय-समय पर अपने रहस्यों को उद्घाटित करती रहती है।
जाति, स्मृति व श्रुति की रक्षा हेतु निर्धारित धर्म (कर्तव्य-समष्टि) का पालन करने वाले हिन्दु हैं। इन तीनों की रक्षा वस्तुत: निज इतिहास एवं अस्तित्व की ही रक्षा है। 
"धर्मो रक्षति रक्षित:; यतो धर्मस्ततो जय:"
श्रोत्रिय :: वह वेदज्ञ, ब्राह्मण-विद्वान जो छन्द आदि कंठस्थ करके उनका अध्ययन और अध्यापन करे, वेद-वेदांग में पारंगत, सभ्य, शिष्ट, सुसंस्कृत हो; ब्राह्मण समाज में एक कुलनाम।
प्राचीनकाल में ज्ञानार्जन का जरिया श्रौतकर्म अर्थात श्रवण, मनन और चिन्तन ही था।
ब्राह्मणों के चिर-परिचित उपनामों में श्रोत्रिय का शुमार भी है। विद्याव्यसन और अध्यापन से ही जुड़ा हुआ शब्द है श्रोत्रिय जिसका अर्थ है श्रुति अथवा वेदों का अध्ययन करनेवाला ब्राह्मण। 
जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते। 
वेदाभ्यासी भवेद् विप्रः श्रोत्रियस्त्रिभिरेव च॥ 
वह जन्म से ब्राह्मण जाना जाता है, संस्कारों से द्विज, वेदाभ्यास करने से विप्र होता है और तीनों से श्रोत्रिय है। पुराणों में कल्प के साथ एक वैदिक शाखा अथवा छह वेदांगों के साथ वैदिक शाखा का अध्ययन कर षट्कर्मों लगे ब्राह्मण को श्रोत्रिय कहा गया है। पुराणों में श्रोत्रिय ब्राह्मणों के कर्तव्यों और अधिकारों का उल्लेख है। यही नहीं राजा के प्रमुख कर्तव्यों में यह ध्यान रखना भी शामिल था कि उसके राज्य में कोई श्रोत्रिय बेसहारा न रहे। श्राद्ध आदि कर्मों में श्रोत्रिय निष्णात होते थे। श्रोत्रिय के श्रोती, सोती, स्रोती जैसे रूप भी प्रचलित हैं।
श्रोत्रिय शब्द बना है "श्रु" धातु से जिसमें मूलतः सुनने का भाव है। इससे ही बना है "श्रुत" अर्थात सुना हुआ, ध्यान लगा कर सुना हुआ, समझा हुआ, जिसे हृदयंगम किया गया हो, जाना हुआ, समझा हुआ, किसी का नाम लेकर पुकारा हुआ उच्चारण आदि। श्रुति भी इसी मूल से आ रहा है। 
श्रुति कन्या का नाम भी होता है इसका अर्थ है सुनना। चूँकि कानों से सुना जाता है, इसलिए कान को भी श्रुति कहते हैं। अफवाह, सुनी-सुनाई, मौखिक बात अथवा अन्य समाचार भी श्रुति के दायरे में आते हैं। वेदों को भी श्रुति कहते हैं क्योंकि इनका ज्ञान सुनकर ही हुआ। इसी तरह वेद मंत्र भी श्रुति कहलाते हैं। संगीत में भी श्रुति का बड़ा महत्व है। एक स्वर का चतुर्थांश श्रुति कहलाता है अर्थात यह स्वर का कण होता है। "श्रु" का रिश्ता ही श्रवण अर्थात सुनने की क्रिया से भी है। पुराणों में श्रवणकुमार की कथा भी आती है जो अपने दृष्टिहीन माता-पिता के अत्यंत सेवाभावी थे। राजा दशरथ के तीर से उनकी मृत्यु हो गई थी।
"श्रु" धातु से ही बना है श्रोता शब्द जो बोलचाल में इस्तेमाल होता है। जो "श्रुत" करने की क्रिया से गुजर रहा है वही "श्रोता" है। दिलचस्प बात यह कि श्रोता में शिष्य या विद्यार्थी का भाव भी है। श्रोता बना है संस्कत के श्रोतृ से जिसका भावार्थ है छात्र।  वेद-वेदांगों के ज्ञान में पारंगत हो चुके ब्राह्मण को श्रोत्रिय कहा जाता।
दो प्रकार की सृष्टि :- दैविक और लैंगिक। ब्रह्मा जी से ही दोनों का उदय हुआ है। दोनों में प्रमुख है, ब्राह्मण जिसका प्राकट्य सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा जी के मुख, मस्तक, सर से हुआ है। ब्रह्मा जी के पुत्रों से अनेकानेक ब्राह्मण गोत्रों का उदय हुआ है। कश्यप समस्त जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों, वनस्पति के आदि पुरुष हैं।
हिन्दु एक सांस्कृतिक प्रवाह, शाश्वत जीवन शैली है जो पूर्णतया वैज्ञानिक, तर्कसंगत समुदाय है जिसका कोई आदि-अन्त नहीं है। यह सृष्टि के साथ उत्पन्न होता है और प्रलय के साथ ही परमात्मा-ब्रह्मा जी में विलीन हो जाता है। इसके प्रवाह में अन्यानेक मत-मतान्तर, शाखाएं, मान्यताएँ उत्पन्न होती हैं और कुछ काल में नष्ट हो जाती हैं। इसके चार स्तम्भ हैं :- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष हैं और पुरुषार्थ कहलाते हैं। 
धर्म :- कर्तव्यों का पूरी निष्ठा, मेहनत, ईमानदारी, जिम्मेदारी के साथ पालन-निर्वाह वर्णाश्रम धर्म का पालन और निर्वाह ही धर्म है। 
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्। 
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥[महाभारत]
अर्थ :: सधी धर्म, कर्म का मूल अर्थ, धनोपार्जन है। 
काम :- वंश परम्परा को कायम रखना, सन्तति उत्पन्न करना ही काम है। 
मोक्ष :- सब प्राणियों को एक समान मानना और उसी प्रकार व्यवहार करना, जन्म-मृत्यु, मोह-बन्धनों, इच्छाओं से मुक्ति, परमात्मा में लीन और एकाकार हों मोक्ष है। 
GOTR (गोत्र) SURNAME :: It means clan, hierarchy, lineage. It refers to people who are descendants in an unbroken male line from a common male ancestor or patriliny. It forms an exogamous unit (विजातीय विवाह करनेवाला, गोत्रान्तर-विवाह संबंधी) with the marriage within the same Gotr being prohibited by custom, being regarded as incest. The name of the Gotr is used as a surname. It is strictly maintained because of its importance in marriages among Hindus, especially among the higher castes. Gotr denotes the progeny of a sage-Rishi beginning with the son's son. I am Bhardwaj being one from the lineage of Bhardwaj Rishi. Its an unbroken male descent-chain for more than 43 billion years. भारत में पिता-पुत्र क्रम (male lineage) को गोत्र संज्ञा प्रदान की गई है।
VANSH वंश :: परम्परा, कुल, संतति; Gotr, lineage, clan, hierarchy.  
INCEST :: Sexual relations between people classed as being too closely related to marry each other, the crime of having sexual intercourse with a parent, child, sibling or grandchild.
SAPT RISHI सप्त ऋषि :: The Sapt Rishi-meaning seven sages, are the seven Rishis who are extolled at many places in the Ved-scriptures-Hindu Mythology. The Vedic Sanhita never enumerate these Rishis by name. Brahmn and Upnishad have listed them as titles. They are regarded in the Ved as the patriarchs of the Vedic religion.
The earliest list of the Seven Rishis is given by Jaemini Brahman (2.218-221) :: Vashishth, Bhardwaj, Jam Dagni, Gautom, Atri, Vishwa Mitr and August.
Gautam, Bhardwaj, Vishwa Mitr, Jamdagni, Vashishth, Kashyap and Shandily (Atri, Bhragu) are seven sages-Sapt Rishi whose progeny is known-called by their respective Gotr even today.[Vrahad Aranyak Upnishad 2.2.6]
Gau Path Brahmn (1.2.8) :: Vashishth, Vishwa Mitr, Jam Dagni, Gautom, Bhardwaj, August and Kashyap.
The Shat Path Brahmn (2.2.4) :: Atri, Bhardwaj, Gautom, Jam Dagni, Kashyap, Vashishth, Vishwamitr.
Krashn Yajur Ved in the Sandhya-Vandan Mantr :: Angira, Atri, Bhragu, Gautom, Kashyap, Kuts, Vashishth.
Maha Bharat :: Marichi, Atri, Pulah, Pulasty, Kratu, Vashishth, Kashyap.
Vrahad Sanhita :: Marichi, Vashishth, Angira, Atri, Pulasty, Pulah & Kratu.
The difference in the series might have creeped due to different Kalp, Manvantar, Shastr Yug.
SAPT RISHI MANDAL सप्त ऋषि मण्डल :: The seven Rishi's-Big Dipper or Ursa Major occupy the constellation called SAPT RISHI MANDAL after the names of Vashishth, Marichi, Pulasty, Pulah, Atri, Angira and Kratu. There is another star slightly visible-faint companion star Arundhati (Alcor 80 Ursa Majoris), is known as Arundhati-the wife of Vashishth. 
Sapt Rishis constitutes the Hierarchy working under the guidance of the Highest Creative Intelligence, Brahma Ji (The Vidhata-The Creator). 

The renowned sages-Rishis They bring down to the earth the required Knowledge and Energies to strengthen the processes of Transition (Pralay-devastation). They are naturally the most evolved Light Beings in the Creation and the guardians of the Divine Laws.
Manvantar is the astronomical unit of time within an aeon or Kalp, a day (day only) of Brahma Ji, like the present Shwet Varah Kalp, where again 14 Manvantars add up to create one Kalp.
Please refer to :: ANCIENT HINDU CALENDAR काल गणनाsantoshkipathshala.blogspot.com
Each Manvantar is ruled by a specific Manu, apart from that all the deities, including Vishnu and Indr; Rishis and their sons are born anew in each new Manvantar, the Vishnu Puran mentions up to seventh Manvantar.
FIRST MANVANTAR (The Sapt Rishis) :: Bhragu, Atri, Angira, Vashishth, Pulasty, Pulah and Kratu. 
SECOND MANVANTAR (The interval of Swarochish Manu) :: Urja, Stambh, Pran, Nand, Rishabh, Nischar and Arvarivat.
THIRD MANVANTAR (The interval of Auttami Manu-Sons of Vashishth :: Kaukundihi, Kurundi, Dalaya, Sankh, Prav Ahit, Mit and Sammit.
FOURTH MANVANTAR (The interval of Tamas Manu) :: Jyotirdham, Prathu, Kavy, Chaetr, Agni, Vanak and Pivar.
FIFTH MANVANTAR (The interval of Raiwat Manu) :: Hirany Rom, Vedasri, Urddh Bahu, Ved Bahu, Suddh Man, Parjany and Maha Muni.
SIXTH MANVANTAR (The interval of Chakshush Manu :: Sumedh, Viraj, Havishmat, Uttam, Madhu, Abhin Man and Sahishnu.
SEVENTH MANVANTAR (Present Manvantar-The interval of Vaewasvat Manu :: Kashyap, Atri, Vashishth, Vishwa Mitr, Gautom, Jamdagni and Bhardwaj.
PREVAILING BRAHMAN GOTR :: Agasty, Atrey-Atri, Alambani, Angad, Angira, Ahabhunas, Aupamanyav, Babhravy, Bhardwaj, Bhargav, Bhakdi, Bhaskar, Chandily, Charor, Chikitas, Chyavan, Dalabhy, Darbhas, Dev, Dhananjay, Dhanvantari, Galvasay, Garg, Gautam, Gaubhily, Ghrit Kaushik, Harit-Haritas, Hukman Bhal, Jamdagni, Jatukarn, Kalabodhan (Kalaboudh, Kalabhav), Kamakayan Vishwamitr, Kanv, Kaushik, Kapi, Kapil, Kapinjal, Karmani, Kashyap, Kaundiny, Kaunsh, Kaushal-Kaushalas-Kushal, Kaushik (Koshik-Koushik), Kushik-Ghrit Kaushik, Kaustubh, Kausyagas, Kavist, Katyayan, Krashnatriy or Krashnatreey, Kundin Gowtam, Kush, Kuts, Kuts, Lakhi, Lohit, Lohit-Kowsik, Lomash, Mandavy, Marichi, Markandey, Maun Bhargav, Matang, Moudgaly, Mudgal, Mihirayan, Naedhruv, Nithunthan-Naethunth, Nydravakashyap, Nrisimhadevar, Parashar, Parthivas, Pouragutsy, Punagashell, Ratheetaras, Purang, Pradny, Rathitar, Rohiny, Rauksayan, Saminathen, Sanatan, Salankayan, Sangar, Sanak, Sanag, Sanjay, Sankhyayan, Sankrithi (Sankrityayan), Sankyanasa, Sathamarshan, Shandily, Sanas, Sandily, Shandelosy, Sawarn, Sahari Joshi, Sauparn, Savaran, Savit, Somnasser, Pratanansy, Sankrity (Sakarawar), Soral, Srivats, Sumarkanth, Suryadhwaj, Shaktri, Shaunak, Sravanvaitas, Sury, Swatantr Kabis, Tugnait, Roushayadan, Upadhyay, Upmanyu, Upreti, Vadul, Valmiki, Vardhviy, Vardhulas, Vardhyswas, Vashishth, Vats, Vatsyayan, Veetahavy, Vishnu, Vishnuvardhan, Vishnuvruddh.
BRAHMAN GOTR-LINEAGE-CLAN-HIERARCHY :: All organisms evolved from Brahma Ji and further tributaries evolved from his sons. Progeny of sages-Rishis who adopted to meditation, learning,  asceticism, teaching were called Brahmans. Main clans evolved from Angira, Atri, Gautam, Kashyap, Bhragu, Vashishth, Kuts and Bhardwaj; the first seven of these are enumerated as Sapt Rishis. Vishw Mitr was initially a Kshatriy king, who later chose and rose to become an ascetic Rishi-labelled Rajrishi. Descents of Vishwamitr are called Kaushik. Hence the Gotr was applied to the grouping stemming from one of these Rishis as his descendants.
PROMINENT BRAHMAN GOTR :: Agasty, Atrey-Atri, Alambani, Angad, Angira, Ahabhunas, Aupamanyav, Babhravy, Bhardwaj, Bhargav, Bhakdi, Bhaskar, Chandily, Charor, Chikit, Chyavan, Dalabhy, Darbh, Dhananjay, Dhanvantari, Galvasay, Garg-Gargas, Gautam, Gaubhily, Harit-Haritas, Hukman Bhal, Jamdagni, Jatukarn, Kalabodhan-Kalaboudh-Kalabhav, Kamakayan, Vishwamitr, Kanv, Kaushik, Kapi, Kapil, Karmani, Kashyap, Kaundiny, Kaunsh, Kaushal, Kaushik, Kushik, Kaustubh, Kausyagas, Kavist, Katyayan, Krashnatriy or Krashnatreey, Kundin, Kuts, Lakhi, Lohit, Lomesh, Mandavy, Marichi, Markandey, Maun Bhargav, Matang, Maudgaly-Mudgal, Naedhruv, Nithunthan-Naethunth, Nydrav Kashyap, Nrisimhadevar, Parashar, Parthivas, Pouragutsy, Purang, Pradny, Pratanansy, Ratheetaras-Rathitar, Rohiny, Rauksayan, Roushayadan, Saminathen, Sanatan, Salankayan, Sangar, Sanak, Sanag, Sanjay, Sankhyayan, Sankrati-Sankratyayan, Sankyanas, Satamarshan, Shandily, Sanas, Shandelosy, Sawarn, Saharia Joshi, Sauparn, Savaran, Savit, Somnasser, Sankrity-Sakarawar, Soral, Srivats, Sumarkant, Suryadhwaj, Shaktri, Shaunak, Sury, Swatantr Kabis, Suparn, Tugnait, Upamanyu, Upadhyay, Utsasy, Vadul, Valmiki, Vardhviy, Vardhulas, Vardhyswas, Vashishth, Vats, Vatsyayan, Veetahavy, Vishnu, Vishnuvardhan, Vishnuvruddh, Vishwamitr, Vishvagni, Vartantu, Vishwagni, Vaedy, Yask. 
The difference arises due to the listing in different in Chatur Yug, Manvantar or the Kalp. 
ब्राह्मण गौत्र और गौत्र कारक 115 ऋषि :: (1). अत्रि, (2). भृगु, (3). आंगिरस, (4). मुद्गल, (5). पातंजलि, (6). कौशिक, (7). मरीच, (8). च्यवन, (9). पुलह, (10). आष्टिषेण, (11). उत्पत्ति शाखा, (12). गौतम गोत्र, (13). वशिष्ठ और संतान (13.1). पर वशिष्ठ, (13.2). अपर वशिष्ठ, (13.3). उत्तर वशिष्ठ, (13.4). पूर्व वशिष्ठ, (13.5). दिवा वशिष्ठ, (14). वात्स्यायन, (15). बुधायन, (16). माध्यन्दिनी, (17). अज, (18). वामदेव, (19). शांकृत्य, (20). आप्लवान, (21). सौकालीन,  (22). सोपायन, (23). गर्ग, (24). सोपर्णि, (25). शाखा, (26). मैत्रेय, (27). पराशर, (28). अंगिरा, (29). क्रतु, (30. अधमर्षण, (31). बुधायन, (32). आष्टायन कौशिक, (33). अग्निवेष भारद्वाज, (34). कौण्डिन्य, (34). मित्रवरुण, (36). कपिल, (37). शक्ति, (38). पौलस्त्य, (39). दक्ष, (40). सांख्यायन कौशिक, (41). जमदग्नि, (42). कृष्णात्रेय, (43). भार्गव, (44). हारीत, (45). धनञ्जय, (46). पाराशर, (47). आत्रेय, (48). पुलस्त्य, (49). भारद्वाज, (50). कुत्स, (51). शांडिल्य, (52). भरद्वाज, (53). कौत्स, (54). कर्दम, (55). पाणिनि गोत्र, (56). वत्स, (57). विश्वामित्र, (58). अगस्त्य, (59). कुश, (60). जमदग्नि कौशिक, (61). कुशिक, (62). देवराज गोत्र, (63). धृत कौशिक गोत्र, (64). किंडव गोत्र, (65). कर्ण, (66). जातुकर्ण, (67). काश्यप, (68). गोभिल, (69). कश्यप, (70). सुनक, (71). शाखाएं, (72). कल्पिष, (73). मनु, (74). माण्डब्य, (75). अम्बरीष, (76). उपलभ्य, (77). व्याघ्रपाद, (78). जावाल, (79). धौम्य, (80). यागवल्क्य, (81). और्व, (82). दृढ़, (83). उद्वाह, (84). रोहित, (85). सुपर्ण, (86). गालिब, (87). वशिष्ठ, (88). मार्कण्डेय, (89). अनावृक, (90). आपस्तम्ब, (91). उत्पत्ति शाखा, (92). यास्क, (93). वीतहब्य, (94). वासुकि, (95). दालभ्य, (96). आयास्य, (97). लौंगाक्षि, (98). चित्र, (99). विष्णु, (100). शौनक, (101). पंच शाखा, (102).सावर्णि, (103).कात्यायन, (104).कंचन, (105). अलम्पायन, (106). अव्यय, (107). विल्च, (108). शांकल्य, (109). उद्दालक, (110). जैमिनी, (111). उपमन्यु, (112). उतथ्य, (113). आसुरि, (114). अनूप और (115). आश्वलायन।
कुल संख्या 108 ही हैं, लेकिन इनकी छोटी-छोटी 7 शाखा और हुई हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इनकी पूरी सँख्या 115 है।
ऋषि परिवारों की सदस्य सँख्या :: (1). आग्नेयः (4) :- कुमारः, केतु:, वत्स: तथा श्येन:। 
(2). आङ्गिरसः (56) :- अभिवर्त:, अहमीयू:, अयास्यः, उचथ्यः, उरुः, उर्धसद्मा, कुत्सः, कृतयशा:, कृष्ण:, घोर:, तिरश्चि:, दिव्यः, धरुणः, ध्रुव:,  भूषः, नृमेध:, पवित्रः, पुरुमीळहः, पुरुमेधः, पुरुहन्मा, पुरुदक्ष:, प्रभूवसुः, प्रियमेधः, बरुः, बिन्दुः, बृहस्पति:, भिक्षु:, मूर्धन्यान्, रहूगणः, वसुरोचिषः, विरूपः, विहव्यः, वीतहव्य:, व्यश्व:, शिशु:, श्रुतकक्षः, संवननः, संवर्तः, सप्तगु:, सव्य:,  सुकक्षः, सुदीतिः, हरिमन्तः, हिरण्यस्तूपः, अर्चन हैरण्यस्तूपः, शश्र्वत्याङ्गिरसः, विश्वाकः, कार्ण्णि:, शकपूतो:, नार्मेधः, सिन्धुक्षित् प्रैयमेधः, दीर्घतमा ओचथ्यः, कक्षीवान् दैर्घतमसः, काक्षीवती घोषा, सुहस्तो घौषेषः शबर: काक्षीवतः तथा सुकीर्तिः काक्षीवतः।
(3). अत्रेयः (38) :- अत्रिभौमः, अर्चनानाः, अवस्यु:, ईष:, उरुचक्रि:, एव्यामरुत्, कुमारः, गयः, गविष्ठिर:, गातुः, गोपवन:, घुम्नः, द्वितः, पूरु:, पौरः, प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्र:, प्रतिप्रभ:, प्रतिभानुः, बभ्रुः, बाहुवृक्त:, बुधः, यजत:, रातहव्यः, व्व्रि:, विश्वसामा, श्यावाश्वः, श्रुतवित्, सत्यश्रवाः, सदापृण:, सप्तध्रि:, ससः, सुतम्भरः, स्वस्ति:, वसूयव आग्रेयाः, अन्धीगुः श्यावाश्र्वि:, अपाला तथा विश्ववारा।
(4). आथर्वणः (2) :- बृहद्दिवः तथा भिषग्। 
(5). आपत्य: (3) :- त्रितः, द्वितः तथा भुवनः। 
(6). ऐन्द्रः (14) :- अप्रतिरथः, जयः, लव:, वसुक्रः, विमदः, वृषाकपिः, सर्वहरिः, इन्द्रः, इन्द्रो मुष्कवान्, इन्द्रो वैकुण्ठः, इन्द्राणी, इन्द्रस्य स्नुषा (वसुक्रपत्नी), इन्द्रमातरो देवजामयः तथा शची पौलोमी।
(7). काण्वः (33) :- आयुः, इरिम्बिठिः, कुरुसुतिः, कुसीदी, कृशः, त्रिशाोकः, देवातिथिः, नाभाकः, नारदः, गीपातथिः, पर्वत:, पुनर्वत्सः, पुष्टिगुः, पृषध्रः, प्रगाथ:, प्रस्कण्वः, ब्रह्मातिथिः, मातरिश्वाः, मेधातिथि:, मेध्यः, मेध्यातिथिः, वत्सः, शशकर्णः, श्रुष्टिगुः, सध्वंस, सुपर्णः, सोभरिः, कुशिकः सौभरः, अश्वसूकती काण्वायनः, गोषूक्ती  काण्वायन:, कलिः प्रागाथः, धर्मः प्रागाथः तथा हर्यतः प्रागाथः।
(8). काश्यपः (10) :- अधत्सारः, असितः, कश्यपो गरीचः, देवलः, निध्रुविः, भूतांशः, रेभः, रेभसून,  मेला तथा शिखण्डिन्याप्सरसी काश्यप्यौ।
(9). कौत्सः (2) :- दुर्मित्रः तथा सुमित्रः। 
(10). गौतम: (4) :- गोतमः, नोधाः, वामदेवः तथा एक द्युर्नोधस:।  
(11). गौपायनः (4) :- बन्धुः, विप्रबन्धुः, श्रुतबन्धु:, तथा सुबन्धु:।
(12). तापसः (3) :- अग्निः, धर्मः तथा मन्युः।
(13). दैवोदासि: (1) :- परुच्छेप:, प्रतर्दन: तथा अनानत: पारुच्छेपि:।   
(14). प्राजापत्य: (9) :- पतङ्ग:, प्रजावान्, यक्ष्मनाशनः, यज्ञ:, विमद:, विष्णुः, संवरण:, हिरण्यगर्भ: तथा दक्षिणा।   
(15). बार्हस्पत्य (4) :- अग्नि:, तपुर्मूर्धा, भरद्वाज: तथा शंयु:। 
(16). ब्राह्म: (2) :- ऊर्ध्वनाभा तथा रक्षोहा। 
(17). भारत: (1) :- अश्वमेधः, देववात: तथा देवश्रवा:। 
(18). भारद्वाजः (11) :- ऋजिश्वा, गर्ग:, नर:, पायु:, वसुः, शास:, शिरिम्बिठ:, शुनहोत्र:, सप्रथ:, सुहोत्र: तथा रात्रि:।
(19). भार्गव (14) :- इट:, कपि:, कृन्तु:, गृत्समदः, च्यवनः, जमदग्नि:, नेम:, प्रयोग:, वेन:,  सोमाहुति:,  स्यूमरश्मि:, उशना काव्य:,  कुर्मो गार्त्स्मद:  तथा रामो जामदग्न्य:।
(20). भौवन: (2) :- विश्वकर्मा तथा साधनः।
(21). माधुच्छन्दस: (2) :- अधमर्षण:, तथा जेता। 
(22). मानवः (4) :- चक्षुः, नहुष:,  नमः, गाभारदिशः 
(23). मैत्रावरुणिः (2) :- वशिष्ठ: तथा अगस्त्य: (मान्य)। 
(24). आगस्त्यः (5) :- अगस्त्यशिष्या, अगस्त्यपत्नी (लोपामुदा), अगस्त्यस्वसा (लोपायनमाता), दृळ्हच्युत:, इध्मवाहो दार्ढ़च्युत:। 
(25). यामायनः (7) :- ऊर्ध्वकृशन:,  कुमारः, दमनः, देवश्रवा:, मथितः, शङ्ख:, तथा  संकुसुत:।  
(26). वातरशन: (7) :-  ऋष्यशृङ्ग:, एतशः, करिक्रतः, जूति:, वातजूति:, विप्र जूतिः, तथा वृषाणकः। 
(27). वातायन: (2) :- अनिल तथा  उलः।
(28). वामदेव्यः (3) :- अंहोमुक्, बृहदुक्थ:  तथा मूर्धन्वान्।
(29). वारुणिः (2) :- भृगु: तथा सत्यघृति:।
(30). वर्षागिरः (6) :- अम्बरीषः, ऋजाश्व:, भयमानः, सहदेवः, सुराधा तथा सिन्धुद्वीप: (आम्बरीष:)।
(31). वासिष्ठः (13) :- इन्द्रप्रमतिः, उपमन्यु, कर्णश्रुत्, चित्रमहा, द्युम्नीकः, प्रथ:, मन्युः, मृळीकः, वसुक्र:, वृषगणः, व्याघ्रपात्, शक्ति: समा वसिष्ठपुत्रा:।
(32). वासुकः (2) :- वसुकर्णः तथा वसुकृत्।
(33). वैरूपः (4) :- अष्ट्रादंष्ट्र, नभ:प्रभेदनः, शतप्रभेदन: तथा सध्रिः
(34). वैवस्वत: (3) :- मनु:, यमः तथा यमी।
(35). वैश्वामित्रः (12) :- कुशिक ऐषीरथिः (विश्वामित्र पूर्वज:), विश्वामित्रो गाधिन:, अष्टकः, ऋषभः, कतः, देवरातः, पूरणः, प्रजापतिः, मधुच्छन्दाः, रेणुः, गाथी कौशिक: तथा उत्कीलः कात्यः।
(36). शाक्त्यः (2) :- गौरवीतिः तथा पाराशर:। 
(37). शार्ङ्गः (4) :- जरिता, द्रोण:, सारिसृक्वः तथा स्तम्बमित्रः।
(38). सर्पः (4) :- अर्बुद: काद्रवेय:, जरत्कर्ण ऐरावत:, ऊर्ध्वग्रावा आर्बुदि: तथा सार्पराज्ञी।
(39). सौर्य: (4) :- अभितपाः, धर्मः, चक्षुः तथा विभ्राट्। 
(40). सौहोत्रः (2) :- अजमीळह: तथा पुरुमीळहः।
(41). स्थौरः (2) :- अग्रियूतः तथा अग्नियूपः। 
(42).सोमपरिवार: (4) :- सोमः, बुधः, सौम्यः तथा पुरूरवा ऐकः (आयुः, नहुषः) ययातिर्नाहुषः। 
(43). ताक्ष्र्य: (2) :- अरिष्टनेमिः तथा सुपर्णस्ताक्ष्र्यपुत्र:।
Brahman communities are traditionally divided into two regional groups viz. Panch-Gaud Brahmans and Panch-Dravid Brahmans as follows :- 
कर्णाटकाश्च तैलंगा द्राविडा महाराष्ट्रकाः। 
गुर्जराश्चेति पञ्चैव द्राविडा विन्ध्यदक्षिणे॥
सारस्वताः कान्यकुब्जा गौडा उत्कलमैथिलाः। 
पन्चगौडा इति ख्याता विन्ध्स्योत्तरवासिनः॥
(1). The Karnatak, (2). Taelang, (3). Dravid, (4). Maharashtrak and (5). Gurjar are the five categories of Brahmans who live to the south of Vindhy mountains & are called Dravid Brahmans; where as Saraswat, Kanyakubj, Gaud, Utkal and Maethil & they live to the north of Vindhy mountains & are known as five Gaud Brahmns. This Shlok  identifies the caste-system present on the basis of their regional presence. The classification of Brahmns, the highest Varn, on the basis of region is not tenable (तर्कसंगत, मान्य).
PANCH GAUD BRAHMANS :: They constitute the Uttar Path-Aryavart, Northern and Eastern regions of India. According to geographical regions, from West to East they may be identified as follows.
SARASWAT :: Kashmiri Pundits, Mohyal, Raja Pur, Goud or Gaur Saraswat Brahmans, Punjabi Saraswat Brahmans, Rajasthan Saraswat Brahmans, Chitr Pur Saraswat Brahmans, Nasar Puri Sindh Saraswat Brahmans, Brahm Bhatt Brahmans.
KANY KUBJ :: Kanyakubj & Saryu Pani Brahmans.
GAUD :: Khandelwal, Dadhich, Gaur, Sanadhy, Shri Gaur Malviy.
Sanskrat Guda is a  derivation of Gud (गुड़), i.e., jaggery. It is also the name of a tribe of the Madhy Desh. Gaud is sometimes taken to mean the Gaur region of Bengal. The real meaning of the term coincides with region termed as Brahm Kshetr as depicted by this Shlok :-
ब्रह्मक्षेत्रं गुडारण्यं मत्स्यपाञ्चालमाथुराः। 
एष ब्रह्मर्षि देशो वै ब्रह्मावर्त समम्बरम्॥
ब्रह्मक्षेत्रं कुरुक्षेत्रं ब्रह्मदेशः प्रकथ्यते। 
आदिगौदर्षिदेशान्तं हर्यारण्यमिहोच्यते॥
Bengali, Utkal (Orissa), Maethil (Mithila), Panch-Dravid (Five Southern) & those from Dakshin Path (South India, including Gujarat and Maharashtra).
GUJRAT :: Trivedi Mewad Brahmns, Migrated from Mewad, Rajasthan during the period of Maha Rana Pratap to Gujarat around 434 years ago. i.e., 1,576 to 1,590 (Since, the battle of Haldi Ghati took place during June, 1,576). Prior to that only as a precautionary measure King Rana Singh Pratap  requested Brahmn Community to migrate to safe place (since Akbar was a bigot, grossly character-Lascivious & cruel Muslim emperor and could crush Brahmn Community, for performing prayers and worship continuously). Rana Pratap requested them to continue with the worship of Ek Ling Ji (Mahadev), which is still being done by all Mewad Brahmns.
During 1,280 Maha Nand Trivedi along with 999 Brahmns shifted from Mewad to Gujarat in Tahsil Bhiloda, near the Village Narsoli & established Ek Ling Ji Shivalay. This migration was due to continuous Muslim attacks on Mewad and harassing Brahmn community specifically. During 1,303 Allauddin Khilji  killed 6,40,000 Brahmn male members and threw their scared thread (Janeu-Yagopveet, जनेऊ, यगोपवीत)  in 1,600 litters of blood.  To avoid further mass killings Brahmn community migrated towards Gujarat.
They are mainly found in Jam Nagar, Morbi, Juna Ghadh and Raj Kot. Surnames like Bhatt, Kaeley, Bhaglani, Pingal, Lakhlani, Ghediy etc. are quite common.
RAJ GAUR BRAHMANS :: Bhatt Mewad Brahmans, Migrated from Mewad, Rajasthan during the period of Maha Rana Pratap to Gujarat, some 250 years ago. i.e., 1750 to 1760.
Chauriyasi Mewad Brahmans from south Gujarat, Migrated from Chittod, Rajasthan some 800 years ago to Dharam Pur near Valsad, i.e., 1,158 AD to 1,168 AD. They include-Saurashtr Trivedi Mewad Brahmans, Saurashtr Bhatt Mewad Brahmans, Pushkarna, Nagar, Khedaval, Audich, Modh, Bardai, Giri Narayan, Shri Mali, Anavil, Sidh-Rudr, Shri Gaud, Prashnor.
KANAUJIA BRAHMNS :: Kanaujiya or Kany Kubj Brahmans migrated from Kannoj, entered in Kutchh via Sindh along with Lohan & they have the surname Bhatt in Kutchh, divided as Bhuvdiyas, Vondhiyas, Sandhliy according to their village temple.
MAHARASHTR :: Deshasth, Chitpavan (Konkanasth), Karhade, Devrukhe.
KARNATAK :: Kannad, Babbur Kamme, Badaganadu, Deshasth, Havyak, Hasan Iyengars, Hebbar Iyengars, Hoysala Karnatak, Karhade, Koot, Madhv, Mandyam Iyengars, Mysore Iyengars, Niyogi, Panch Gram, Sankethi, Shukl Yajur Ved, Smarth, Srivaishnav, Sthanik, Uluch Kamme, Mysore Iyers, Asht Gram Iyers, Mulukanadu, Tuluv, Kandavar, Karhade, Maratha, Padia, Sakl Puri, Shivalli, Smarth Shivalli, Sthanik.
ANDHR PRADESH :: Niyogi, Vaediki Brahmans.
TAMIL NADU :: Iyengars (sub-divided into Vadakalai and Thenkalai), Iyers (sub-divided further into Vadam, Vathim, Brah Charanam, Asht Sahasram, Gurukkal, Dikshitar, Kaniyalar, Prathamasaki, Dravid Brahmans).
KERAL:: Namboodari, Iyers, Embranthiris, Pushpak (Ambalavasis), Sharada, Nagariks or the Brahman migrants from north India.
PANCH GAUR BRAHMANS :: Assamese, Brahm Bhatt, Bengali, Bhargav, Dadhich, Dube, Gaur.
ADI GAUR BRAHMANS :: Gaur, Tyagi, Pachauri, Gautam etc., mainly residing in Haryana, West Uttar Pradesh and Rajasthan, Gautam, Jangid, Kashmiri Pandits, Khandelwal, Khedaval, Mohyal, Kanyakubj, Kota, Kulin, Maethili, Raj Pur Saraswat, Sanadhy, Saraswat, Saryu Pani, Shakdwipi, Shri Mali, Sury Dhwaj, Tyagi.
PANCH DRAVID BRAHMANS :: Bardai, Chitpavan (Konkanasth), Daevajn, Dhim, Deshasth, Goud Saraswat, Havyak, Hoysal Karnatak, Iyers, Iyengar (Vadakalai Thenkalai), Kandavar, Kannad, Karhade, Koot, Koteshwar, Nagar, Padia, Pushpak (Ambalavasi Brahmans), Sakl Puri, Sankethi, Shivalli, Sthanik, Telugu Brahmans (Vaediki, Niyogi), Tuluv.
मैथिल ब्राह्मण :: इनको मैथिल ब्राह्मण कहा जाता है। मिथिला भारत का प्राचीन प्रदेश है, जिसमें बिहार का तिरहुत, सारन तथा पूर्णिया के आधुनिक ज़िलों का एक बड़ा भाग और नेपाल से सटे प्रदेशों के कुछ भाग भी शामिल हैं। जनकपुर, दरभंगा और मधुबनी मैथिल ब्राह्मणों का प्रमुख सांस्कृत केंन्द्र है। मैथिल ब्राह्मण बिहार, नेपाल, ब्रज-उत्तर प्रदेश व झारखण्ड के देवघर में अधिक हैं। पंच गौड़ ब्राह्मणो के अंतर्गत मैथिल ब्राह्मण, कान्यकुब्ज ब्राह्मण, सारस्वत ब्राह्मण, गौड़ ब्राह्मण, उत्कल ब्राह्मण आते हैं। 
ब्रजस्थ मैथिल ब्राह्मण :: ये वे ब्राह्मण हैं जो गयासुद्दीन तुग़लक़ से लेकर अकबर के शासन काल तक तिरहुत (मिथिला) से तत्कालीन भारत की राजधानी आगरा में आकर बस गये थे तथा समयोपरान्त औरङ्जेब के कुशासन से प्रताड़ित होकर केन्द्रीय ब्रज के तीन जिलों में आकर बस गये। ब्रज में पाये जाने वाले मैथिल ब्राह्मण जो कि मिथिला के गणमान्य विद्वानों द्वारा शोधोपरान्त ब्रजस्थ मैथिल ब्राह्मणो के नाम से ज्ञात हुए, उसी समय से ब्रज में  प्रवास कर रहे हैं। ये ब्राह्मण ब्रज के आगरा, अलीगढ़, मथुरा और हाथरस में प्रमुख रूप से रहते हैं। यहाँ से भी प्रवासित होकर यह दिल्ली, अजमेर, जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, बडौदरा, दाहौद, लखनऊ, कानपुर आदि स्थानों पर रह रहे हैं। मुग़ल शासक औरंगज़ेब  ने मिथिला सहित सम्पूर्ण भारत पर अपने शासन काल में अत्याचार किया। इस अत्याचार से पीड़ित होकर बहुत से मिथिला वासी ब्राह्मण मिथिला से पलायन कर अन्य प्रदेशों में बस गये। ब्रज प्रदेश में रहने वाले मैथिलों व मिथिला वासी मैथिलों का आवागमन भी बंद हो गया। ऐसा 1,658 ई. से लेकर 1,857 की क्रान्ति तक चलता रहा। 1,857 ई. के बाद भारतीय समाज सुधारकों ने एक आजाद भारत का सपना देखा था। मिथिला के ब्राह्मण समाज ने भी आजाद भारत का सपना देखा। स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती ने ठीक इसी समय जाति उत्थान की आवाज को बुलंद किया।  उन्होंने जाति उत्थान के लिए सम्पूर्ण भारत में बसे मिथिला वासियों से संपर्क किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि औरंगज़ेब के समय में मिथिला वासी और प्रवासी मैथिल ब्राह्मणों के जो सम्बन्ध टूट गए थे वह फिर से जुड़ गये। उन्हीं के प्रयासों से अलीगढ़ के मैथिल ब्राह्मणों का मिथिला जाना और मिथिला वासियों का अलीगढ़ आना संभव हुआ। झा, मिश्र, पाठक, औझा, शर्मा, चौधरी, ठाकुर, राँय, परिहस्त, कुंवर इनके उपनाम हैं, जिसमें से कुँवर, चौधरी, ठाकुर मिथिला देश में ब्राह्मणों (मैथिल और भूमिहार) के अलावा कोई अन्य नहीं प्रयुक्त करता। ब्रजस्थ मैथिल ब्राह्मण शर्मा उपनाम प्रयोग करते हैं। झा मैथिल ब्राह्मणों का सबसे अधिक प्रयोग में लाया जाने वाला उपनाम है। झा सिर्फ मैथिल ब्राह्मणों का उपनाम है। 
मैथिल ब्राह्मणों के वर्ग :- (1). श्रोत्रिय, (2). योग्य, (3). पंजी और (4). जयवार। इनमें उपर वाला वर्ग नीचे वाले वर्ग की कन्या से विवाह करता है। ऐसा इसलिये है, क्योकि मिथिला के राजा ने प्राचीन काल में गायत्री संध्या वंदन में ब्राह्मणों को बुलाया था। दिन के चार प्रमुख पहरों में ब्राह्मण पहुँचे। तभी से ऐसी व्यवस्था चली आ रही है। पंजी व्यवस्था मिथिला के राजा के आदेश पर शुरू हुई थी। यह दोनों ही प्रथाएँ आजकल टूट रही हैं। 
मैथिल ब्राह्मणों के साथ साथ अन्य प्रमुख ब्राह्मण समुदाय कान्य कुब्ज ब्राह्मण, भूमिहार ब्राह्मण भी मिथिला में हैं। मैथिल ब्राह्मणों का सभी ब्राह्मणों से सौहार्द है। मिथिला का आचार विचार सबके लिये अनुकर्णीय माना जाता था व  मैथिल ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ ब्राह्मण समझे जाते थे। माता सीता की जन्मस्थली जनकपुर मिथिला देश में ही है।
ब्राह्मणों के प्रकार :: जन्म से हर व्यक्ति पशु है। दैवीय सृष्टि के अन्तर्गत चार वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई। 16, 32  या फिर 64 संस्कारों के होने और वेदों की शिक्षा ग्रहण करने के बाद ही ब्राह्मणत्व की प्राप्ति होती है। वेद, शास्त्रों, इतिहास को मात्र पढ़ना ही पर्याप्त नहीं है। व्यक्ति को उन्हें समझना और उपयोग करना भी आना चाहिए। आज का ब्राह्मण महज नाम का संस्कारहीन ब्राह्मण है। केवल जनेऊ-मेखला धारण करके कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता। सभी प्राणियों की उत्पत्ति मैथुनी सृष्टि के माध्यम से कश्यप जी से हुई है। ब्राह्मणों की वंश व्यवस्था ऋषियों से है। 
(1). ब्राह्मणों के 8 वर्ग :: मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊँचे उठे हुए ब्राह्मण त्रिशुक्ल कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।  
(1.1). मात्र :- ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं, लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं; उन्हें मात्र कहा गया है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता। बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं, तो मात्र हैं। उनमें से कुछ तो यह भी नहीं हैं। वे बस शूद्र हैं। वे तरह तरह के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और रा‍त्रि के क्रिया-कांड में लिप्त रहते हैं। वे सभी राक्षस धर्मी भी हो सकते हैं।
(1.2). ब्राह्मण :- ईश्वर वादी, वेद पाठी, ब्रह्म गामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्य वादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गए हैं। तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि पुराणिकों के कर्म को छोड़कर जो वेद सम्मत आचरण करता है वह ब्राह्मण कहा गया है।
(1.3). श्रोत्रिय :- स्मृति के अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह श्रोत्रिय कहलाता है।
(1.4). अनुचान :- कोई भी व्यक्ति  वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पाप रहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह अनुचान माना गया है।
(1.5). भ्रूण :- अनुचान के समस्त गुणों  से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण कहा गया है।
(1.6). ऋषिकल्प :- जो कोई भी व्यक्ति सभी  वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है, उसे ऋषि कल्प कहा जाता है।
(1.7). ऋषि :- ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं, उन सत्य प्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्तियों को ऋषि कहा गया है।  
(1.8). मुनि :- जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्यान निष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध है, ऐसे ब्राह्मण को मुनि कहते हैं।
मात्र संज्ञक ब्राह्मणों की सँख्या अधिक है। ब्राह्मण शब्द का प्रयोग अथर्ववेद के उच्चारण कर्ता ऋषियों के लिए किया गया था। प्रत्येक वेद को समझने के लिए जो ग्रन्थ लिखे गए, उन्हें भी ब्राह्मण  कहा गया। 
(2). उपनाम :: 
(2.1). एक वेद को पढ़ने  वाले ब्राह्मण को पाठक कहा गया।   
(2.2). दो वेद पढ़ने वाले को द्विवेदी कहा गया, जो कालांतर में दुबे हो गया।  
(2.3). तीन वेद को पढ़ने वाले को त्रिवेदी कहा गया, जिन्हें त्रिपाठी भी कहने लगे, जो कालांतर में तिवारी हो गया। 
(2.4). चार वेदों को पढ़ने वाले चतुर्वेदी कहलाए, जो कालांतर में चौबे हो गए।
(2.5). शुक्ल यजुर्वेद को पढ़ने वाले शुक्ल या शुक्ला कहलाए।     
(2.6). चारो वेदों, पुराणों और उपनिषदों के ज्ञाता को पंडित कहा गया, जो आगे चलकर पाण्डेय, पांडे, पंडिया, पाध्याय हो गए। ये पाध्याय कालांतर में उपाध्याय हुआ।
(2.7). शास्त्र धारण करने वाले या शास्त्रार्थ करने वाले  शास्त्री की उपाधि से विभूषित हुए।
ऋषियों के वंशजो ने अपने  ऋषि कुल या  गोत्र के नाम को ही उपनाम की तरह अपना लिया, जैसे :- भगवान् परशुराम भृगु कुल के थे। भृगु कुल के वंशज भार्गव कहलाए, इसी तरह गौतम, अग्निहोत्री, गर्ग, भरद्वाज आदि। 
(2.8). बहुत से ब्राह्मणों को अनेक शासकों ने भी कई  तरह की उपाधियाँ दी, जिसे बाद में उनके वंशजों ने उपनाम की तरह उपयोग किया। इस तरह से ब्राह्मणों के उपनाम प्रचलन में आए। जैसे, राव, रावल, महारावल, कानूनगो, माँडलिक, जमींदार, चौधरी, पटवारी, देशमुख, चीटनीस, प्रधान। 
(2.9). बनर्जी, मुखर्जी, जोशी, शर्मा, भट्ट, विश्वकर्माजी, मैथलीजी, झा, धर, श्री निवास, मिश्रा, मेंदोला, आपटे आदि हजारों उपनाम हैं, जिनका अपना-अपना अलग इतिहास है।  
(2.10). श्रौत्रिय ब्राह्मण को सारस्वत ब्राह्मण भी कहते हैं। बिहार, बँगाल में श्रोत्रिय, मिथिला में सोती, हरियाणा, पँजाब और दिल्ली में सारस्वत कहा जाता है। 
(2.11). ये वैदिक ब्रह्मण होते है और याज्ञिक भी, वेद के ऋचाओं को याद कर वैदिक परम्परा को आगे बढाया है। गीता सहित वेद और कर्म काण्ड के सैंकड़ों श्लोकों में श्रोत्रिय का वर्णन मिलता है। सुनकर वेदों के याद रखने से इन्हें श्रोत्रिय कहा जाता है। ये हिगँलाज से चलकर कश्मीर आए। वहाँ से श्री बस्ती उतर प्रदेश आये। यहाँ से मगध राज्य में आये। आचार्य चाणक्य श्रोत्रिय ब्राह्मण थे।
आज भी गया, पटना, जहानावाद, विहार शरीफ, नालन्दा, नवादा, मुँगेर, जमुई, गिरिडीह, धनबाद, हजारीवाग, वोकारो, पुरूलिया, मेदनीपुर खडगपुर, दुमका, देवघर, जामताडा और राँची में इनकी पुरानी जमीनदारी दिखती हैं। 
(2.12). सरस्वती माँ के हाथ से जन्म लेने के कारण ये सारस्वत कहलाये। 
सरयूपारीण ब्राह्मण उत्पत्ति :: सरयूपाणी ब्राह्मण या सरवरिया ब्राह्मण या सरयूपारी ब्राह्मण सरयू नदी के पूर्वी तरफ बसे हुए ब्राह्मणों को कहा जाता है। यह कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की एक शाखा है। भगवान् श्री राम ने लंका विजय के बाद कान्यकुब्ज ब्राह्मणों से यज्ञ करवाकर, उन्हें सरयू पार स्थापित किया था। सरयू नदी को सरवार भी कहते थे। इसी से ये ब्राह्मण सरयूपारी ब्राह्मण भी कहलाते हैं। सरयूपारी ब्राह्मण पूर्वी उत्तरप्रदेश, उत्तरी मध्यप्रदेश, बिहार छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में भी होते हैं। मुख्य सरवार क्षेत्र पश्चिम में उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या शहर से लेकर पूर्व में बिहार के छपरा तक तथा उत्तर में सौनौली से लेकर दक्षिण में मध्यप्रदेश के रीवा शहर तक हैं। काशी, प्रयाग, रीवा, बस्ती, गोरखपुर, अयोध्या, छपरा इत्यादि नगर सरवार भूखण्ड में हैं।
ऐसा भी माना जाता है कि भगवान् श्री राम ने रावण वध के प्राश्चित स्वरूप, ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए भोजन और दान के लिए ब्राह्मणों को आमंत्रित किया तो जो ब्राह्मण स्नान करने के बहाने से सरयू नदी पार करके उस पार चले गए और जिन्होंने भोजन तथा दान सामग्री ग्रहण नहीं की, वे सरयूपाणी कहलाये। 
ऋग्वेद में मुख्य रूप से तीन नदियों का उल्लेख ही है। इनमें सरस्वती, सिंधु और सरयू नदी का ज़िक्र है। सम्भवतया सरयूपारीण ब्राह्मण उन्ही मूल कान्य्कुब्ज ब्राह्मणों का दल है जो कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार में बसा है। यह शुद्ध आर्यवंशी षट्कर्मा वेदपाठी आदिकालिक समूह है जो की आदिकाल से ही ब्राह्मण धर्म का अधिष्ठाता रहा है।
हिमालय पर्वत श्रंखला बहुत ही पवित्र है। यह अनन्त काल से ही ऋषि, मुनियों, तपस्वियों, साधकों का निवास बानी हुई है। नर-नारायण ऋषि भी बद्रिकाश्रम में तपस्या करते हैं। देवराज इंद्र का आतिथ्य स्वीकार कर अपनी राजधानी को लौटते हुए राजा दुष्यंत ने ऋषियों के परम क्षेत्र हेमकूट पर्वत की ओर देखा था। 
दक्षिणे भारतं वर्ष उत्तरे लवणोदधेः। 
कुलादेव महाभाग तस्य सीमा हिमालयः।
ततः किंपुरषं हेमकुटादध: स्थितम। 
हरि वर्ष ततो ज्ञेयं निवधोबधिरुच्यते॥पद्म पुराण॥ 
महर्षि पुलस्त्य, धर्मराज युधिष्ठिर से यात्रा के सन्दर्भ में बताते हैं कि :-
ततो गच्छेत राजेंद्र देविकं लोक विश्रुताम। 
प्रसूतिर्यत्र विप्राणां श्रूयते भारतषर्भ।
देविकायास्तटे वीरनगरं नाम वैपुरम। 
समृदध्यातिरम्यान्च पुल्सत्येन निवेशितम॥वाराह पुराण॥
हे राजेन्द्र लोक विश्रुत देविका नदी को जानना चाहिए जहाँ ब्राह्मणों की उत्पत्ति देखी-सुनी जाती है। देविका नदी के तट पर वीरनगर नामक सुन्दर पुरी है, जो समृद्ध और सुन्दर हैं।
देविका नदी के किनारे हेमकूट नामक किम्पुरुष क्षेत्र में ऋषि-मुनि रहा करते थे।
"देविकायां सरय्वाचं भवेदाविकसरवौ"
देविका और सरयू क्षेत्र के रहने वाले आविक और सारव कहे जाते हैं।
संभवतया सारव और अवार (तट) के संयोग से सारववार बना होगा और फिर समय के साथ उच्चारण में सरवार बन गया होगा। इसी सरवार क्षेत्र के रहने वाले सरवरिया कहे जाने लगे होंगे।
अयोध्यायां दक्षिणे यस्याः सरयूतटाः पुनः। 
सारवावार देशोयं तथा गौड़ः प्रकीर्तितः॥मत्स्य पुराण॥ 
अयोध्या के दक्षिण में सरयू नदी के तट पर सरवावार देश है, उसी प्रकार गोंड देश भी मानना चाहिए।
सरयू नदी कैलाश पर्वत से निकल कर विहार प्रदेश में छपरा नगर के समीप नारायणी नदी में मिल जाती हैं। देविका नदी गोरखपुर से 60 मील दूर हिमालय से निकल कर ब्रह्मपुत्र के साथ गण्डकी में मिलती हैं। गण्डकी नदी नेपाल की तराई से निकल कर सरवार क्षेत्र होती हुई सरयू नदी में समाहित होती है। सरयू, घाघरा, देविका (देवहा) ये तीनों नदियाँ एक ही में मिल कर प्रवाहित होती हैं।  
सरयू, घाघरा और देविका नदी हिमालय से निकलती हैं, तीनों नदियों का संगम पहाड़ में ही हो गया था। इसीलिए सरयू को कहीं घाघरा तो कहीं देविका कहा जाता हैं।[महाभारत]
यही ब्रह्म क्षेत्र है, जहाँ पर ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई थी। यथा समय ब्रह्म देश से जो ब्राह्मण अन्य देशों में गए, वे उस देश के नाम से अभिहित हुए। जो विंध्य के दक्षिण क्षेत्र में गए वे महाराष्ट्रीय, द्रविड़, कर्नाटक और गुर्जर ब्राह्मण के रूप में प्रतिष्ठित हुए और जो विंध्य के उत्तर देशों में बसे, वे सारस्वत, कान्यकुब्ज, गोंड़, उत्कल, मैथिल ब्राम्हण के रूप में प्रतिष्ठित हुए। इस तरह दशविध ब्राह्मणों के प्रतिष्ठित हो जाने पर ब्रह्मदेश के निवासी ब्राह्मणों की पहचान के लिए उनकी सर्वार्य संज्ञा हो गई। वही आगे चल कर सर्वार्य, सरवरिया, सरयूपारीण आदि कहे जाने लगे। अतः सरयूपारीण ब्राह्मणों को कान्यकुब्ज की एक शाखा रूप में प्रामाणिक नहीं समझा जाता। 
स्मृतियों में पंक्ति पावन ब्राह्मणों  का उल्लेख मिलता हैं। पंक्ति पावन ब्राह्मण सर्यूपारिणी ही होते हैं, जो कि आज भी पंतिहा या पंक्ति पावन के रूप में विद्द्मान हैं।
सरयूपाणी ब्राह्मणों के मुख्य गाँव गर्ग (शुक्ल-वंश) :: गर्ग ऋषि के तेरह लड़के-पुत्र थे, जिन्हें गर्ग गोत्रीय, पंच प्रवरीय, शुक्ल वंशज  कहा जाता है, जो कि निम्न तेरह गाँवों में विभक्त हो गये थे :- (1). मामखोर, (2). खखाइज खोर,  (3). भेंडी,  (4). बकरूआं,  (5). अकोलियाँ,  (6). भरवलियाँ, (7). कनइल, (8). मोढीफेकरा, (9). मल्हीयन, (10). महसों, (11). महुलियार, (12). बुद्धहट और (13). इसमें चार  गाँवों का नाम आता है (13.1). लखनौरा, (13.2). मुंजीयड, (13.3). भांदी, और (13.4). नौवागाँव। ये सारे गाँव गोरखपुर, देवरिया और बस्ती क्षेत्र में आज भी उपस्थित हैं। 
उपगर्ग (शुक्ल-वंश) :: इनके छ: गाँव इस प्रकार से हैं :-
(1). बरवां, (2) चांदां, (3) पिछौरां, (4) कड़जहीं, (5) सेदापार और (6) दिक्षापार। 
यही मूलत: वे गाँव हैं जहाँ से शुक्ल बंश का उदय माना जाता है यहीं से लोग अन्यत्र भी जाकर शुक्ल वंश का उत्थान कर रहें हैं। ये सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं। 
गौतम (मिश्र-वंश) :: गौतम ऋषि के छ: पुत्र थे जो इन छ: गांँवों के निवासी थे :- (1). चंचाई, (2). मधुबनी (3). चंपा (4). चंपारण (5). विडरा और (6). भटीयारी। 
इन्ही छ: गाँवों से गौतम गोत्रीय, त्रिप्रवरीय मिश्र वंश का उदय हुआ है। यहीं से उनका अन्यत्र भी पलायन हुआ है। ये सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं। 
उप गौतम (मिश्र-वंश) :: उप गौतम यानि गौतम के अनुकारक छ: गाँव इस प्रकार से हैं :-(1).  कालीडीहा, (2). बहुडीह, (3). वालेडीहा, (4). भभयां, (5). पतनाड़े और  (6). कपीसा। 
वत्स गोत्र (मिश्र-वंश) :: वत्स ऋषि के नौ पुत्र थे, जो इन नौ गाँवों में निवास करते थे :- (1). गाना, (2). पयासी, (3). हरियैया, (4). नगहरा, (5). अघइला, (6). सेखुई, (7). पीडहरा, (8). राढ़ी और (9). मकहडा।  इनके वहा पाँति का प्रचलन था। अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है। 
कौशिक गोत्र  (मिश्र-वंश) :: तीन गाँवों से इनकी उत्पत्ति बताई जाती है, जो निम्न है :- (1). धर्मपुरा (2). सोगावरी और (3). देशी। 
वशिष्ठ गोत्र (मिश्र-वंश) :: इनका निवास भी इन तीन गाँवों में बताई जाती है :- (1). बट्टूपुर  मार्जनी, (2). बढ़निया और (3) खउसी। 
शांडिल्य गोत्र (तिवारी, त्रिपाठी वंश) :: शांडिल्य ऋषि के बारह पुत्र बताये जाते हैं, जो इन बाह गाँवों से प्रभुत्व रखते हैं :- (1). सांडी, (2). सोहगौरा, (3) संरयाँ,  (4). श्रीजन, (5). धतूरा, (6). भगराइच, (7). बलूआ, (8) हरदी, (9). झूडीयाँ, (10). उनवलियाँ, (11). नोनापार और (12). कटियारी। नोनापार में लोनाखार, कानापार, छपरा भी समाहित हैं।   
इन्ही बारह गाँवों से आज चारों तरफ इनका विकास हुआ है। ये सरयूपारीण ब्राह्मण हैं। इनका गोत्र श्री मुख शांडिल्य त्रि प्रवर है। श्री मुख शांडिल्य में घरानों का प्रचलन है, जिसमें राम घराना, कृष्ण घराना, नाथ घराना, मणी घराना हैं। इन चारों का उदय, सोहगौरा गोरखपुर से है, जहाँ आज भी इन चारों का अस्तित्व कायम है।  
उप शांडिल्य (तिवारी-त्रिपाठी, वंश) :: इनके छ: गाँव बताये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं :- (1). शीशवाँ, (2). चौरीहाँ (3). चनरवटा, (4). जोजिया, (5). ढकरा और (6). क़जरवटा। 
भार्गव गोत्र (तिवारी  या त्रिपाठी वंश) :: भार्गव ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिसमें  चार गांवों का उल्लेख मिलता है, जो इस प्रकार हैं :- (1). सिंघनजोड़ी (2). सोताचक  (3). चेतियाँ  और (4) मदनपुर। 
भारद्वाज गोत्र (दूबे वंश) :: महाभारत से पहले गुरु द्रोणाचार्य, उनके पुत्र हुए। चार दूबे (द्विवेदी-दो वेदों का अध्ययन करने वाले) शिष्यों के चार गाँव :- (1). बड़गईयाँ, (2). सरार, (3). परहूँआ और (4). गरयापार। कन्चनियाँ और लाठीयारी इन दो गाँवों में दूबे घराना बसा है, जो वास्तव में गौतम मिश्र हैं, लेकिन इनके पिता क्रमश: उठातमनी और शंखमनी गौतम मिश्र थे।  
वासी (बस्ती) के राजा  बोधमल ने एक पोखरा खुदवाया, जिसमें लट्ठा न चल पाया, राजा के कहने पर दोनों भाई मिल कर लट्ठे को चलाया, जिसमें एक ने लट्ठे सोने वाला भाग पकड़ा तो दूसरे ने लाठी वाला भाग पकड़ा। जिसमें कन्चनियाँ व लाठियारी का नाम पड़ा। दूबे की गददी होने से ये लोग दूबे कहलाने लगे।  
सरार के दूबे के यहाँ पाँति का प्रचलन रहा है। अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है। 
Please refer to :: BHARDWAJ CLAN भरद्वाज वंशsantoshkipathshala.blogspot.com
सावरण गोत्र (पाण्डेय वंश) :: सावरण ऋषि के तीन पुत्र बताये जाते हैं इनके यहॉँ भी पाँति का प्रचलन रहा है, जिन्हें तीन के समकक्ष माना जाता है, जिनके तीन गाँव निम्न हैं :- (1). इन्द्रपुर (2). दिलीपपुर और (3). रकहट (चमरूपट्टी)।  
सांकेत गोत्र (मलांव के पाण्डेय वंश) :: सांकेत ऋषि के तीन पुत्र इन तीन गाँवों से सम्बन्धित बताये जाते हैं :- (1). मलांव, (2). नचइयाँ और (3). चकसनियाँ। 
कश्यप गोत्र (त्रिफला के पाण्डेय वंश) :: इन तीन गाँवों से बताये जाते हैं :- (1). त्रिफला (2). मढ़रियाँ और (3). ढडमढीयाँ।  
ओझा वंश :: इन तीन गांवों से बताये जाते हैं :- (1). करइली (2). खैरी और (3). निपनियां।  
चौबे-चतुर्वेदी, वंश (कश्यप गोत्र) :: इनके लिए तीन गाँवों का उल्लेख मिलता है।(1). वंदनडीह (2). बलूआ और (3). बेलउजां। एक गाँव कुसहाँ का उल्लेख बताते है, जो कि  उपाध्याय वंश का मालूम पड़ता है। 
सरयूपारीण वंशावली :: 49 ऋषि ही गोत्रकार हुए हैं। ऋषियों के शिष्य प्रवरकार माने जाते थे तथा उस ऋषियों के आश्रम में जो वेद, शाखा आदि पढाई जाती थीं, वही वेद, उपवेद शाखा सूत्र उस गोत्र की मानी जाने लगी, जो वर्तमान तक चलती-चली आ रही हैं। वर्तमान में सरयूपारीण ब्राम्हणों में 3, 13, 16 घर जो कहे जाते हैं, उसके पीछे एक पौराणिक सन्दर्भ है, जिसके अनुसार वेदों की रक्षा एवं उसे अगली पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए ऋषि गर्ग के आश्रम में शुक्ल यजुर्वेद के पठन-पाठन की प्रक्रिया आरंभ हुई। अतः ऋषि गर्ग को प्रथम गोत्रकार माना जाता हैं। ऋषि गर्ग के बाद गौतम, फिर शाण्डिल्य ऋषि के आश्रम में यजुर्वेद और सामवेद के अध्ययन की परम्परा आरम्भ हो गई और फिर यही तीन आश्रम आगे चल कर प्रथम कोटि के गर्ग, गौतम और शाण्डिल्य घर माने जाने लगे। उसके बाद 13 अन्य ऋषियों के आश्रमों में वेदों की अन्य शाखाओं का पठन-पाठन आरम्भ हो गया। जो आज 13 घर (आश्रम) माने जाते हैं। क्योंकि  इन तरह ऋषियों के कोई क्रम नहीं मिलते हैं, अतः इन्हें एक ही श्रेणी में माना जाने लगा। इन ऋषियों के आश्रमों में अथर्ववेद एवं धनुर्वेद आदि भी पढ़ाया जाता था, जिसे उस समय श्रेयस्कर नहीं माना जाता था। अतः आध्यात्मिक शिक्षा दे रहे गर्ग, गौतम और शाण्डिल्य ऋषियों के श्रेणी में नहीं हैं।
सरयूपारीण ब्राह्मणों के गोत्र :: गर्ग, गौतम, शाण्डिल्य (गर्दभीमुख एवं श्रीमुख), गार्ग्य, पराशर, सावर्ण्य, कश्यप, भरद्वाज, कौशिक, भार्गव, वत्स, कात्यायन, सांकृत, वशिष्ठ, गर्दभीमु, अगस्त्य, भृगु, घृत कौशिक, कौडिन्य, उपमन्यु, अत्रि, गालव, अंगिरा, जमदग्नि।चांद्रायण, वरतन्तु, मौनस, कण्व और उद्वाह, ये गोत्र सरयूपारीण में अतिरिक्त हैं।  इस तरह कुल 29  गोत्र मिलते हैं। गर्दभीमुख को अपभ्रंश होने से गर्गमुख या गरमुख भी कहते हैं।  पिंडी के प्रसिद्द तिवारी गर्दभीमुख शांडिल्य हैं। 
गौत्र में प्राप्त वंश :: (1). गर्ग-शुक्ल,चौबे, तिवारी, पाण्डेय (इटिया), (2). गौतम-मिश्र, दुबे, पाँडे, उपाध्याय, (3). शाण्डिल्य-मिश्र, तिवारी, कीलपुर के दीक्षित, प्रतापगढ़ के पाण्डेय, (4). गार्ग्य-दुबे (करवरिया), (5). परासर-पाँडे, शुक्ल, उपाध्याय, (6). भरद्वाज-पाँडे, दुबे, पाठक, चौबे, मिश्र, तिवारी, उपाध्याय, (7). कश्यप-पाँडे, दुबे, पाठक, चौबे, मिश्र, तिवारी, उपाध्याय, शुक्ल, ओझा, (8). अत्रि या कृष्णात्रि-दुबे, शुक्ल, (9). वत्स-पाँडे, दुबे, मिश्र, तिवारी, उपाध्याय, ओझा, (10). अगस्त्य-तिवारी, (11). कात्यायन-चौबे, (12). सांकृत-पाँडे, चौबे, तिवारी, (13). सावर्ण्य-पाँडे, मिश्र, (14). भार्गव-तिवारी, (15). उपमन्यु-पाठक, ओझा, पाण्डे, (16). वशिष्ठ-मिश्र, तिवारी, चौबे, (17). कौडिन्य-मिश्र, शुक्ल, (18). घृत कौशिक-मिश्र, (19). कुशिक-चौबे, (20). कौशिक-दुबे, मिश्र, (21). चांद्रायण-पाँडे और (22). वरतन्तु-तिवारी। 
जांगिड ब्राह्मण :: जांगिड ब्राह्मण अक्सर बढ़ई का कार्य करते हुए पाये जाते हैं। प्रायः साधारण पढे लिखे जाति बंधु अपने को सुथार जाति का मान कर परिचय है। सुथारी कार्य हिन्दु भी करता है लेकिन सुथार जाति नही व्यवसाय है। सुथारी कार्य हिन्दु भी मुसलमान भी वे व्यवसाय के आधार पर सुतार या खाती आदि के नाम से जाने जाते है, अर्थात व्य्वसाय का सम्बन्ध जाति से नही है। 
भारत में सुथार एक जाति है।मूलतः इनका परम्परिक व्यवसाय बढ़ई-काष्ठकारी है।
इनके सूत्रधार विश्वकर्मा के पुत्र माया के वंशज हैं। विश्वकर्मा ब्रह्माण्ड के दिव्य निर्माण कर्ता, वास्तुकार हैं।[ऋग्वेद]  
उनके पांच बच्चे थे मनु, माया, तवस्तार, शिल्पी और विश्वजना।[स्कंद पुराण] 
सुथार प्राचीन काल में बढ़ईगीरी के अलावा अन्य कार्य भी करते थे।
अंगिरा ऋषि की संतान होने के कारण अंगिरस कहलाते हैं। भुवन पुत्र विश्वकर्मा देवों के शिल्पी होने से जाँगिड कहलाये।
अंगिराअसि जांगिडः रक्षितासि जांगिड। 
द्वि पाच्चतुष्पादस्माकं सर्व रक्षतु जांगिडः 
हे जांगिड़ तू ही अंगिरा है। तू जांगिड़ होकर ही प्राणिमात्र या प्रजा का रक्षक है। जांगिड़ ही हमारे दोपाये तथा चोपाये सब की रक्षा करे।[अथर्ववेद 19.34.1]
इन्द्रस्य नाम गृह्न्त ऋषियो जांगिङं ददुः। 
देवा यं चक्रुभेषजमग्रे विष्कन्धदूषणम्
जब अंगिरा ने शाक द्वीप, क्रौंच द्वीप तथा कुश द्वीप (अफ्रीका)  को विजित कर लिया तो ऋषियों ने उस शत्रुनाशक अंगिरा-जांगिङ को इन्द्र की उपाधि प्रदान कर उन्हें प्रजाहित में शत्रुनाशक जांगिङ कहा अर्थात दुर्घर्ष सेनानायक का कार्य प्रतिपादित करने के कारण जंग विजयी के प्रतीक स्वरुप उन्हें जांगिङ कह कर सम्मानित किया।[अथर्ववेद 19.34-35] 
जंगिडास्य सक्तमधीते वेति वासौ जंगिड:  
यद्धा जांगिड्स्यपत्यं जांगिड: 
जो जांगिङ रक्तक अध्ययन कर्ता है अथवा जो अंगिरा-जांगिङ ऋषि की संतान है वह जांगिङ कहलाने का हकदार है।[अथर्ववेद संहिता]
"तंतादृशं प्रयत्नेन उत्पादित त्वा त्वाम अंगिरा इति" [ऎतरेय 3.34]
जगम्यते शत्रुन वाधिनुम इति जांगिड: जगिरतीति जंगिर:।[ब्रह्मणवंशोतिवृतम-परशुराम शास्त्री]
जो शत्रुओं का चमन करने में निरन्तर लगा रहता है वही जाँगिड़ (वीर) है।
शिल्पी ब्राह्मण :: (1). धीमान, (2). जांगिड, (3). उपाध्याय, (4). ओझ, (5). टोकं, (6). लाहोरी, (7). मथुरिया, (8). सूत्रधार, (9). रामगढिया, (10). मैथिल, (12). त्रिवेदि, (13). पिटला, (14). लौष्टा, (15). महुलिया, (15). रावत, (16). कान्य, (17). मालवीय, (18). मगध, (19). पंच्गालट, (20). सरबरिया, (21). गौड, (22). देव, कमलार, (23). विश्व ब्राह्मण, (24). कंशली, (25). विश्वकर्मा, (26). नबन्दन, (27). तंरच, (28). पांचाल, (29). आचार्य और (30). जगत्गुरु। 
ब्राह्मणों की वंशावली :: महर्षि कश्यप के पुत्र कण्वय की आर्यावनी नाम की देव कन्या पत्नी हुई। ब्रम्हा जी की आज्ञा से दोनों कुरुक्षेत्र वासनी सरस्वती नदी के तट पर गये और कण् व चतुर्वेदमय सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगे एक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहाँ आयीं और ब्राम्हणो की समृद्धि के लिये उन्हें वरदान दिया। [भविष्य पुराण]
वर के प्रभाव कण्वय के आर्य बुद्धि वाले दस पुत्र हुए, जिनके क्रमानुसार नाम :- उपाध्याय, दीक्षित, पाठक, शुक्ला, मिश्रा, अग्निहोत्री, दुबे, तिवारी, पाण्डेय और चतुर्वेदी। इनके जैसे नाम थे, वैसे ही उनके गुण थे। 
इन्होनें नत मस्तक हो माता सरस्वती को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले बालकों को भक्तवत्सला माता शारदा ने अपनी कन्याएँ प्रदान कीं, जो कि क्रमशः उपाध्यायी, दीक्षिता, पाठकी, शुक्लिका, मिश्राणी, अग्निहोत्रिधी, द्विवेदिनी, तिवेदिनी, पाण्ड्यायनी और चतुर्वेदिनी कहलायीं।
उन कन्याओं के भी सोलह-सोलह पुत्र हुए। वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम थे :- कष्यप, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्रि, वसिष्ठ, वत्स, गौतम, पराशर, गर्ग, अत्रि, भृगडत्र, अंगिरा, श्रंगी, कात्याय और याज्ञवल्क्य।
इनमें प्रत्येक के सोलह-सोलह पुत्र थे। 
मुख्य 10 ब्राह्मण वंश :: (1). तैलंगा, (2). महार्राष्ट्रा, (3). गुर्जर, (4). द्रविड, (5). कर्णटिका, यह पाँच द्रविण कहे जाते हैं और ये विन्ध्यांचल के दक्षिण में पाये जाते हैं। विंध्यांचल के उत्तर में पाये जाने वाले या वास करने वाले ब्राह्मण :- (6). सारस्वत, (7). कान्यकुब्ज, (8). गौड़, (9) मैथिल और (10). उत्कलये। उत्तर भारत के ब्राह्मण पँच गौड़ कहे जाते हैं।
अन्य प्रमुख शाखाएँ 115 हैं। उनके शाखा भेद अनेक हैं। इनके अलावा संकर जाति ब्राह्मण अनेक हैं।
उत्तर व दक्षिण के ब्राह्मणों की संयुक्त नामावली :: ये एक से दो और 2 से 5 और 5 से 10 और 10 से 84 भेद हुए हैं। फिर उत्तर व दक्षिण के ब्राह्मणों की सँख्या शाखा भेद से 230 के लगभग हैं। शाखा भेद से अन्य लगभग 300 के करीब ब्राह्मण भेदों की सँख्या निम्न हैं :- (1). गौड़ ब्राह्मण, (2). गुजर गौड़ ब्राह्मण (मारवाड, मालवा), (3). श्री गौड़ ब्राह्मण, (4). गँगा पुत्र गौड़ ब्राह्मण, (5) हरियाणा गौड़ ब्राह्मण, (6). वशिष्ठ गौड़ ब्राह्मण, (7). शोरथ गौड़ ब्राह्मण, (8). दालभ्य गौड़ ब्राह्मण, (9). सुखसेन गौड़ ब्राह्मण, (10). भटनागर गौड़ ब्राह्मण, (11). सूरजध्वज गौड़ ब्राह्मण (षोभर), (12). मथुरा के चौबे ब्राह्मण, (13). वाल्मीकि ब्राह्मण, (14). रायकवाल ब्राह्मण, (15). गोमित्र ब्राह्मण, (16). दायमा ब्राह्मण, (17). सारस्वत ब्राह्मण, (18). मैथल ब्राह्मण, (19). कान्य कुब्ज ब्राह्मण, (20). उत्कल ब्राह्मण, (21). सरवरिया ब्राह्मण, (22). पराशर ब्राह्मण, (23). सनोडिया या सनाड्य ब्राह्मण, (24). मित्र गौड़ ब्राह्मण, (25). कपिल ब्राम्हण, (26). तलाजिये ब्राह्मण, (27). खेटुवे ब्राह्मण, (28). नारदी ब्राह्मण, (29). चन्द्रसर ब्राह्मण, (30). वलादरे ब्राम्हण, (31). गयावाल ब्राह्मण, (32). ओडये ब्राह्मण, (33). आभीर ब्राह्मण, (34). पल्लीवास ब्राह्मण, (35). लेटवास ब्राह्मण, (36). सोमपुरा ब्राह्मण, (37). काबोद सिद्धि ब्राह्मण, (38). नदोर्या ब्राह्मण, (39). भारती ब्राह्मण, (40). पुश्कर्णी ब्राह्मण, (41). गरुड़ गलिया ब्राह्मण, (42). भार्गव ब्राह्मण, (43). नार्मदीय ब्राह्मण, (44). नन्दवाण ब्राह्मण, (45). मैत्रयणी ब्राह्मण, (46). अभिल्ल ब्राह्मण, (47). मध्यान्दिनीय ब्राह्मण, (48). टोलक ब्राह्मण, (49). श्रीमाली ब्राह्मण, (50). पोरवाल बनिये ब्राह्मण, (51). श्रीमाली वैष्य ब्राह्मण, (52). तांगड़ ब्राह्मण, (53). सिंध ब्राह्मण, (54). त्रिवेदी म्होड ब्राह्मण, (55). इग्यर्शण ब्राह्मण, (56). धनोजा म्होड ब्राह्मण, (57). गौभुज ब्राह्मण, (58). अट्टालजर ब्राह्मण, (59). मधुकर ब्राह्मण, (60). मंडलपुर वासी ब्राह्मण, (61). खड़ायते ब्राह्मण, (62). बाजरखेड़ा वाल ब्राह्मण, (63). भीतरखेड़ा वाल ब्राह्मण, (64). लाढवनिये ब्राह्मण, (65). झारोला ब्राह्मण, (66). अंतरदेवी ब्राह्मण, (67). गालव ब्राह्मण और (68). गिरनारे ब्राह्मण। 
कुल परम्परा के 11  कारक ::
(1). गोत्र :: गोत्र शब्द  एक अर्थ  में  गो अर्थात्  पृथ्वी का पर्याय भी है ओर 'त्र' का अर्थ रक्षा करने वाला भी हे। यहाँ गोत्र का अर्थ पृथ्वी की रक्षा करें वाले ऋषि से ही है। गो शब्द इन्द्रियों का वाचक भी है, ऋषि-मुनि अपनी इन्द्रियों को वश में कर अन्य प्रजाजनों का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्र कारक कहलाए।
व्यक्ति की वंश-परम्परा जहाँ से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। 
विश्‍वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतम:।
अत्रिवर्सष्ठि: कश्यपइत्येतेसप्तर्षय:॥
सप्तानामृषी-णामगस्त्याष्टमानां यदपत्यं तदोत्रामित्युच्यते।
गोत्रों के मूल ऋषि :– विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप। इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भरद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भरद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है।
इस तरह आठ ऋषियों की वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गए वे सभी गोत्र कहलाते हैं और वर्तमान में ब्राह्मणों के  जितने गोत्र मिलते हैं, वह उन्हीं के अन्तर्गत है।
सिर्फ भृगु और अंगिरा के वंश वाले इस परम्परा से अलग हैं। कुल दस ऋषि मूल में है। इन दसों के वंशज ऋषि लाखों हो गए होंगे और उतने ही गोत्र भी होने चाहिए।
ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहाँ कहीं भी जाते थे, वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे, जो बाद में उनके वंशधरों ने स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परम्परा आविर्भूत हुई। 
(2). प्रवर :: प्रवर का अर्थ है श्रेष्ठ अर्थात मन्त्र द्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो।अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हैं। अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए, वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि कुल परम्परा में गोत्र प्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे।
यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम ले कर अग्नि की प्रार्थना की जाती है। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह है कि अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे। अत: एव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य है। इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता है, वही प्रवर कहलाते हैं। 
त्रीन्वृणीते मंत्राकृतोवृणीते॥ अथैकेषामेकं वृणीते द्वौवृणीते त्रीन्वृणीते न चतुरोवृणीते न पंचातिवृणीते॥
किसी गोत्र के एक प्रवर, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पाँच तक होते हैं।
(3). वेद :: वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने लाभ किया है। इनको सुनकर  कंठस्थ किया जाता है। इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया, इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे, तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं। प्रत्येक ब्राह्मण का अपना एक विशिष्ट वेद होता है, जिसे वह अध्ययन-अध्यापन करता है। इस परम्परा के अन्तर्गत जातक, चतुर्वेदी, त्रिवेदी, द्विवेदी आदि कहलाते हैं। 
गौत्र प्रवर्तक ऋषि जिस वेद को चिन्‍तन, व्‍याख्‍यादि के अध्‍ययन एवं वंशानुगत निरन्‍तरता पढ़ने की आज्ञा अपने वंशजों को देता है, उस ब्राह्मण वंश (गोत्र) का वही वेद माना जाता है। इस प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं है कि जातक अन्य वेदों अध्ययन नहीं कर सकता। 
(4). उपवेद :: प्रत्येक वेद से सम्बद्ध विशिष्ट उपवेद का भी ज्ञान होना चाहिये। वेदों की सहायता के लिए कला कौशल का प्रचार कर संसार की सामाजिक उन्‍नति का मार्ग बतलाने वाले शास्‍त्र का नाम उपवेद है। उपवेद उन सब विद्याओं को कहा जाता है, जो वेद के ही अन्तर्गत हों। यह वेद के ही आश्रित तथा वेदों से ही निकले होते हैं। जैसे :- धनुर्वेद को विश्वामित्र ने यजुर्वेद से ग्रहण किया। गन्धर्व वेद को भरत मुनि ने सामवेद प्रकट किया। आयुर्वेद को भगवान् धन्वंतरि ने इसे ऋग्वेद से प्राप्त किया। स्थापत्य को विश्व कर्मा ने अथर्व वेद से प्राप्त किया। हर गोत्र का अलग अलग उपवेद होता है मगर अन्य उपवेद का ज्ञान प्राप्त करने पर किसी द्विज के लिये प्रतिबन्ध नहीं है।  
(5). शाखा :: वेदों के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है। कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था, तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होंने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।
प्रत्‍येक वेद में कई शाखायें होती हैं। 
ऋग्‍वेद की 21 शाखायें हैं। प्रयोग में मात्र 5 शाखायें :- शाकल, वाष्कल,आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन हैं।
यजुर्वेद की 101 शाखायें हैं। प्रयोग में मात्र 5 शाखायें :- काठक, कपिष्ठल, मैत्रियाणी, तैतीरीय, वाजसनेय हैं।
सामवेद की 1,000 शाखायें हैं। सभी प्रकार का गायन-वादन, मन्त्र, यांत्रिक इनमें सम्मिलित हैं। 
अथर्व वेद की 9 शाखायें पैपल, दान्त, प्रदान्त, स्नात, सौल, ब्रह्मदाबल, शौनक, देवदर्शत और चरणविद्या हैं।
इस प्रकार चारों वेदों की 1131 शाखा होती है।
प्रत्‍येक वेद की अथवा अपने ही वेद की समस्‍त शाखाओं को अल्‍पायु मानव नहीं पढ़ सकता, इसलिए महर्षियों ने 1 शाखा अवश्‍य पढ़ने का पूर्व में नियम बनाया था और अपने गौत्र में उत्‍पन्‍न होने वालों को आज्ञा दी कि वे अपने वेद की अमूक शाखा को अवश्‍य पढ़ा करें, इसलिए जिस गौत्र वालों को जिस शाखा के पढ़ने का आदेश दिया, उस गौत्र की वही शाखा हो गई।
जैसे पराशर गौत्र का शुक्‍ल यजुर्वेद है और यजुर्वेद की 101 शाखा है। वेद की इन सब शाखाओं को कोई भी व्‍यक्ति नहीं पढ़ सकता, इसलिए उसकी एक शाखा (माध्‍यन्दिनी) को प्रत्‍येक व्‍यक्ति 1-2 साल में पढ़ कर अपने ब्राह्मण होने का कर्तव्य पूर्ण कर सकता है। 
(6). सूत्र :: ऋषियों की शिक्षाओं को सूत्र कहा जाता है। प्रत्येक वेद के अपने 2 प्रकार के सूत्र हैं। श्रौत सूत्र और ग्राह्य सूत्र यथा शुक्ल यजुर्वेद का कात्यायन श्रौत सूत्र और पारस्कर ग्राह्य सूत्र है। सामाजिक, नैतिक तथा शास्त्रानुकूल नियमों वाले सूत्रों को धर्म सूत्र कहते हैं। आनुष्ठानिक वालों को श्रौत सूत्र तथा घरेलू विधि शास्त्रों की व्याख्या करने वालों को ग्राह्य सूत्र कहा जाता है।
व्यक्ति शाखा के अध्ययन में असमर्थ न हो, अतः उस गोत्र के परवर्ती ऋषियों ने उन शाखाओं को सूत्र रूप में विभाजित किया है, जिसके माध्यम से उस शाखा में प्रवाहमान ज्ञान व संस्कृति को कोई क्षति न हो और कुल के लोग संस्कारी हों।
वेदानुकूल स्‍मृतियों में ब्राह्मणों के कर्मो का वर्णन किया है, उन कर्मो की विधि बतलाने वाले ग्रन्‍थ ऋषियों ने सूत्र रूप में लिखे हैं और वे ग्रन्‍थ भिन्न-भिन्न गौत्रों के लिए निर्धारित वेदों के भिन्न-भिन्न सूत्र ग्रन्‍थ हैं।
सूत्र सामान्यतः पद्य या मिश्रित गद्य-पद्य में लिखे हुए हैं।
(7). छन्द :: उक्तानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को अपने परम्परा सम्मत छन्द का भी ज्ञान होना चाहिए। प्रत्येक ब्राह्मण का अपना परम्परा सम्मत छन्द होता है जिसका ज्ञान हर ब्राह्मण को होना चाहिए।
छंद वेदों के मंत्रों में प्रयुक्त कवित्त मापों को कहा जाता है। श्लोकों में मात्राओं की सँख्या और उनके लघु-गुरु उच्चारणों के क्रमों के समूहों को छंद कहते हैं। वेदों में कम से कम 15 प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं और हर गोत्र का एक परम्परागत छंद है। यथा :- अत्यष्टि (ऋग्वेद 9.111.9), अतिजगती (ऋग्वेद 5.87.1), अतिशक्वरी, अनुष्टुप, अष्टि, उष्णिक्ए, कपदा विराट (दशाक्षरा भी कहते हैं), गायत्री (प्रसिद्ध गायत्री मंत्र), जगती, त्रिषटुप, द्विपदा विराट, धृति, पंक्ति, प्रगाथ, प्रस्तार पंक्ति, बृहती, महाबृहती, विराट, शक्वरी। 
वेदों को भगवान् श्री हरी विष्णु ने ब्रह्मा जी को प्रदान किया और वहाँ वे ऋषि कुल परम्पराओं को प्राप्त हुए। वेद अनादि हैं और उनसे अनादि सत्य का प्राकट्य होता है। उनकी वैधता शाश्वत है। 
वेदों को श्रुति, श्रवण हेतु, जो मौखिक परंपरा के द्योतक हैं। 
(8). शिखा :: अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा-चुटिया को दक्षिणा वर्त अथवा वामा वार्त्त रूप से बाँधने की परम्परा शिखा कहलाती है।
शिखा में जो ग्रंथि देता वह बाईं तरफ घुमा कर और कोई दाहिनी तरफ। प्राय: यही नियम था कि साम वेदियों की बाईं शिखा और यजुर्वेदियों की दाहिनी शिखा होती थी। कहीं-कहीं इसमें भी भेद मिलता है।
परम्परागत रूप से हर ब्राह्मण को शिखा धारण करनी चाहिए, इसका वैज्ञानिक लाभ भीं है; लेकिन आज कल इसे धारण करने वाले को सिर्फ कर्म कांडी ही माना जाता है।
(9). पाद :: अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं। ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है। अपने-अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं।
सामवेदियों का बायाँ पाद और  इसी प्रकार यजुर्वेदियों की दाहिना पाद माना जाता है।
(10). देवता :: प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते हैं, वही उनका कुल देवता यथा भगवान् विष्णु, भगवान् शिव, माँ दुर्गा, भगवान् सूर्य इत्यादि देवों में से कोई एक आराध्‍य देव हैं। 
इसी प्रकार कुल के भी  संरक्षक  देवता या कुल देवी होती हैं। इनका ज्ञान कुल के वयोवृद्ध  अग्रजों (माता-पिता आदि) के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता  है। एक कुलीन ब्राह्मण को अपने तीनों प्रकार के देवताओं का बोध तो अवश्य ही होना चाहिए। 
(10.1).  इष्ट देवता अथवा इष्ट देवी।
(10.2).  कुल देवता अथवा कुल देवी।
(10.3).  ग्राम देवता अथवा ग्राम देवी।
(11). द्वार :: यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता) जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा कही जाती है। यज्ञ मंडप तैयार करने की कुल 39 विधाएं है और हर गोत्र के ब्राह्मण के प्रवेश के लिए अलग द्वार होता है। 
दशनाम गोस्वामी :: दशनाम गोस्वामियों की 10 शाखाएँ और 52 मढ़ियाँ हैं। पूरा दशनाम गोस्वामी समाज इन्हीं में विभक्त है। प्राचीनकाल में मढ़ियों के नाम बड़े गुप्त रखे जाते थे, ताकि अन्य पंथ या सम्प्रदाय का व्यक्ति दशनाम गोस्वामियों में शामिल न हो जाये। जब कोई व्यक्ति दशनाम संन्यासी बनता था, तब गुरू उसके कान में मन्त्र फूँकता था और उसे उसकी मढ़ी का नाम बताया जाता था। शिष्य से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह अपनी मढ़ी के बारे में सार्वजनिक रूप से कभी भी प्रकट नहीं करेगा। उस समय विभिन्न पंथों या सम्प्रदायों में आपस में बड़ा बैर रहता था। वे एक-दूसरे के खून के प्यासे रहते थे। सदा यह खतरा बना रहता था कि कहीं दूसरे पंथ या सम्प्रदाय का व्यक्ति उनके संगठन में घुसकर उनके संगठन को नुकसान न पहुँचा दे। मढ़ियों की परम्परा का विकास हजारों साल के निरन्तर प्रवाह का परिणाम है। 
ब्राह्मणों के गोत्रों और गोस्वामियों के गोत्रों में एकरूपता है। शांडिल्य गोत्र सम्बन्धित ब्राह्मणों की सँख्या पँजाब ओर बिहार में कुछ ज्यादा ही है। 
औदिच्य ब्राह्मण :: इनके सम्बन्ध में जानकारी 950 ई. के लगभग उपलब्ध है। 942 ई. में मूलराज सोलंकी ने गुजरात में अपने मामा सामंत सिंह चावड़ा जो कि तत्कालीन सत्तारूढ़ राजा थे, की हत्या के बाद अन्हीलपुर पाटन के सिंहासन पर कब्जा किया था। सत्तारूढ़ राजा और पुजारी की हत्या घृणित अपराध हैं। इन अपराधों का प्रायश्चित आत्मदाह है। जब मूलराज को राजा की हत्या के अपराधी के रूप जाना गया, तो राज्य में उसे पाप का भागी होने से बचाने के लिए राज्य का कोई श्रीमाली ब्राह्मण अन्य प्रायश्चित कराने को तैयार नहीं हुआ। गुजरात में ये याजक ब्राह्मण चावड़ा राजाओं के साथ श्रीमाल भिन्न्मल, दक्षिण राजस्थान से आये थे। श्रीमाली ब्राह्मण राज्य के सरकारी याजक थे। उनके कार्य क्षेत्र में, धर्म और न्याय शमिल था। उन्होंने मूलराज को आशीर्वाद देने और उसे राजा के रूप में घोषित करने से मना कर दिया था। किसी भी तरह, समझाने, धन, लालच, धमकी आदि का उन ब्राह्मणों पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा।
तब एक राजा के रूप में सिंहासनारूढ़ मूलराज ने प्रायश्चित के रूप में रुद्र यज्ञ करने और रुद्रमहल-भगवान् शिव को समर्पित विशाल मंदिर का निर्माण कराने का संकल्प किया। फिर भी कोई श्रीमाली ब्राह्मण पुजारी यज्ञ कराने या उसे राजा मानने को तैयार नहीं हुआ। यदि सिंहासन लंबे समय तक खाली रहे, तो अराजकता की स्थिति पैदा हो जाती है। तभी चावड़ा वंशियों ने सिंहासन पर अपने-अपने दावे पेश करने शुरू कर दिये। राज्य की सीमा पर दुश्मनों ने आक्रमण की तैयारी शुरू कर दी। शासन कायम रखने के लिये तत्कालिक कार्रवाई जरूरी थी। श्रीमाली याजक परिस्थितियों को समझने के बाद भी, व्यावहारिक रूप से स्वीकार करने और मूलराज के हत्या के कारणों और साख से एकमत नहीं थे। 
तब बड़ी सँख्या में विद्वान और बुद्धिमान ब्राह्मण परिवारों को लुभाने के लिए, उन्हें जागीर और राज्य याजक के रूप में पदों की पेशकश की गई। मूलराज के मूल प्रदेश कन्नौज से ब्राह्मण परिवारों को आमंत्रित किया गया।1,037 ब्राह्मण परिवारों का एक बड़ा कारवाँ सिद्धपुर पाटन पहुँचा। इस प्रकार उत्तर दिशा से आये ब्राह्मणों को औदिच्य ब्राह्मण कहा गया। उनकी मूल वंश परम्परा यथावत कायम रही। इन ब्राह्मणों के कुलनाम और मूलस्थान इस प्रकार थे :- जमदग्नि, वत्सस, भार्गव (भृगु), द्रोण, दालभ्य, मंडव्य, मौनाश, गंगायण, शंकृति, पौलात्स्य, वशिष्ठ, उपमन्यु, 100 च्यवन आश्रम, कुल उद्वाहक, पाराशर, लौध्क्षी, कश्यप। गँगा एवं यमुना नदियों, सिहोरे और सिद्धपुर क्षेत्रों से 105 विमान, 100 सरयू नदी दो भारद्वाज कौडिन्य, गर्ग, विश्वामित्र, 100 कान्यकुब्ज, 100 कौशिक, इन्द्र कौशिक, शंताताप, अत्री, 100 हरिद्वार क्षेत्र और औदालक, क्रुश्नात्री, श्वेतात्री, चंद्रत्री 100 नेमिषाराण्य, अत्रिकाषिक सत्तर, गौतम, औताथ्य, कृत्सस, आंगिराश, 200 विमान कुरुक्षेत्र, चार शांडिल्य, गौभिल, पिप्लाद, अगत्स्य, 132 के सिद्धपुर पाटन पर पहुँचने पर; औदिच्यों ने पुष्कर क्षेत्र (अगत्स्य, महेंद्र) के गाँव बसाए।
अयाचक (भूमिहार, बाभन, त्यागी) :: भगवान् परशुराम ने 21 बार क्षत्रियों नष्ट करके पृथ्वी ब्राह्मणों को दे दी, मगर हर बार ब्राह्मणों ने यह भूमि क्षत्रियों को लौटा दी। कुछ ब्राह्मण वंशियों ने खेती-बाड़ी, पशु पालन को अपना लिया, जो कि वैश्यों के कर्म हैं। कुछ ने युद्ध को अपनाया, जो कि क्षत्रियों के कर्म हैं। वे केवल नाम के ब्राह्मण रह गये। वर्तमान काल में तो ब्राह्मणों ने पूरी तरह स्वयं को ब्राह्मणोचित कर्मों से अलग कर लिया है और हर क्षेत्र में हाथ आज़मा रहे हैं। इस प्रकार के ब्राह्मण जो खेती-बाड़ी, युद्ध या प्रशासनिक कार्यों में लगे हैं, समयानुसार भूमिहार कहलाये। अयाचक जो याचना न करे अर्थात दान-धर्म से गुजारा न करे, अपने शौर्य, पराक्रम एवं बुद्धिमत्ता के लिये जाने जाते हैं। बिहार, पश्चिचमी उत्तर प्रदेश एवं झारखण्ड में निवास करने वाले भूमिहार, अयाचक ब्राह्मण हैं। अयाचक ब्राह्मण अपने विभिन्न नामों के साथ भिन्न भिन्न क्षेत्रों में अभी तक तो अधिकतर कृषि कार्य करते थे, लेकिन पिछले कुछ समय से विभिन्न क्षेत्रों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।
इन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, दिल्ली, हरियाणा व राजस्थान के कुछ भागों में त्यागी, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार व बंगाल में भूमिहार, जम्मू कश्मीर, पंजाब व हरियाणा के कुछ भागों में महियाल, मध्य प्रदेश व राजस्थान में गालव, गुजरात में अनाविल, महाराष्ट्र में चितपावन एवं कार्वे, कर्नाटक में अयंगर एवं हेगडे, केरल में नम्बूदरीपाद, तमिलनाडु में अयंगर एवं अय्यर, आंध्र प्रदेश में नियोगी एवं राव तथा उड़ीसा में दास एवं मिश्र आदि उपनामों से जाना जाता है। 
मगध के महान पुष्य मित्र शुंग और कण्व वंश दोनों ही ब्राह्मण राजवंश भूमिहार ब्राह्मण-बाभन थे। भूमिहार ब्राह्मण भगवान् परशुराम को प्राचीन काल से ही, अपना मूल पुरुष और कुल गुरु मानते हैं। भूमिहार पाण्डेय, तिवारी-त्रिपाठी, मिश्र, शुक्ल, उपाध्यय, शर्मा, ओझा, दुबे-द्विवेदी, राय, शाही, सिंह-सिन्हा, चौधरी, ठाकुर उपनामों (surname) का प्रयोग करते हैं। कुछ भूमिहार अब भी पुरोहिताई करते हैं। बिहार के मैथिल, प्रयाग की त्रिवेणी के सभी पंडे भूमिहार ही हैं। हजारीबाग के इटखोरी और चतरा थाने के 8-10 कोस में बहुत से भूमिहार राजपूत, बंदौत, कायस्थ और माहुरी आदि की पुरोहिती सैकड़ों वर्षों से करते चले आ रहे हैं। गजरौला, ताँसीपुर के त्यागियों का भी यही पेशा है। गया के देव के सूर्यमंदिर के पुजारी भूमिहार ब्राह्मण ही हैं। बनारस राज्य भूमिहार ब्राह्म्णों के अधिपत्य में 1,725ई.-1,947ई. तक रहा। इसके अलावा कुछ अन्य बड़े राज्य बेतिया, हथुवा, टिकारी, तमकुही, लालगोला इत्यादि भी भूमिहार ब्राह्म्णों के अधिपत्य में थे। बनारस के भूमिहार ब्राह्मण राजा ने अँग्रेज वारेन हेस्टिंग और अँग्रेजी सेना की ईंट से ईंट बजाई थी। 1,857ई. में हथुवा के भूमिहार ब्राह्मण राजा ने, अँग्रेजो के खिलाफ सर्वप्रथम बगावत की थी। अनापुर राज, अमावा राज, बभनगावां राज, भरतपुरा धरहरा राज, शिवहर मकसुदपुर राज, औसानगंज राज, नरहन स्टेट, जोगनी स्टेट, पर्सागढ़ स्टेट (छपरा), गोरिया कोठी स्टेट (सिवान), रूपवाली स्टेट, जैतपुर स्टेट, हरदी स्टेट, ऐनखा जमींदारी, ऐशगंज जमींदारी, भेलावर गढ़, आगापुर स्टेट, पैनाल गढ़, लट्टा गढ़, कयाल गढ़, रामनगर जमींदारी, रोहुआ स्टेट, राजगोला जमींदारी, पंडुई राज, केवटगामा जमींदारी, घोसी स्टेट, परिहंस स्टेट, धरहरा स्टेट, रंधर स्टेट, अनापुर स्टेट (इलाहाबाद), चैनपुर मंझा, मकसूदपुर, रुसी खैर, मधुबनी, नवगढ़ भूमिहारों से सम्बंधित हैं। इनके आलावा अन्य असुराह स्टेट, कयाल औरंगाबाद में बाबु अमौना तिलकपुर शेखपुरा स्टेट, जहानाबाद में तुरुक तेलपा स्टेट, क्षेओतर गया बारों स्टेट (इलाहाबाद), पिपरा कोय्ही स्टेट (मोतिहारी) इत्यादि हैं। दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती (जुझौतिया ब्राह्मण, भूमिहार ब्राह्मण, किसान आंदोलन के जनक), बैकुन्ठ शुक्ल (14 मई 1,934ई. को ब्रिटिश हुकूमत द्वारा फाँसी दी गई थी), यमुना कर्जी, शील भद्र याजी, मंगल पांडे 1,857ई. के क्रांति वीर, कर्यनन्द शर्मा, योगेन्द्र शुक्ल, चंद्रमा सिंह, राम विनोद सिंह, राम नंदन मिश्र, यमुना प्रसाद त्रिपाठी, महावीर त्यागी, राज नरायण, रामवृक्ष बेनीपुरी, अलगू राय शास्त्री, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, राहुल सांस्कृत्यायन, बनारस के राजा चैत सिंह ने अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष किया और वारेन हेस्टिंग की अँग्रेजी सेना को धूल चटाई थी। देवीपद चौधरी, राज कुमार शुक्ल (ने चम्पारण आंदोलन की शुरुवात की), फ़तेह बहादुर शाही हथुवा के राजा ने 1,857ई. में अँग्रेजो के खिलाफ सर्व प्रथम विद्रोह किया। काशी नरेश द्वारा बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय के लिए कई हज़ार एकड़ भूमि दान दी गई। योगेंद्र नारायण राय लालगोला (मुर्शिदाबाद) के राजा अपने दान व परोपकारी कार्यो के लिए प्रसिद्ध भूमिहार ब्राह्मण थे। 
कान्यकुब्ज शाखा से निकले कुछ लोगों को भूमिहार ब्राह्मण कहा गया। सारस्वत, महियल, सरयूपारी, मैथिल, चितपावन, कन्नड़ आदि शाखाओं के अयाचक ब्राह्मण पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में भी मिलते हैं। मगध के बाभन, मिथिलांचल के पश्चिमा तथा प्रयाग के जमींदार ब्राह्मण भी अयाचक होने से भूमिहार ब्राह्मण ही हैं। 
भूमिहार ब्राह्मण के अन्य मूल (कूरी) :: (1). कान्यकुब्ज शाखा से :- दोनवार, सकरवार, किन्वार, ततिहा, ननहुलिया, वंशवार के तिवारी, कुढ़ानिया, दसिकर, आदि। (2). सरयूपारी शाखा से :– गौतम, कोल्हा (कश्यप), नैनीजोर के तिवारी, पूसारोड (दरभंगा) खीरी से आये पराशर गोत्री पांडे, मुजफ्फरपुर में मथुरापुर के गर्ग। गर्ग गोत्री शुक्ल, गाजीपुर के भारद्वाजी, मचियाओं और खोर के पाँडे, म्लाओं के सांकृत गोत्री पाँडे, इलाहबाद के वत्स गोत्री गाना मिश्र, राजस्थान आदि पश्चिमोत्तर क्षेत्र के पुष्करणा, पुष्टिकरणा, पुष्टिकर ब्राह्मण आदि। (3). मैथिल शाखा से :– मैथिल शाखा से बिहार में बसने वाले कई मूल के भूमिहार ब्राह्मण आये हैं। इनमें सवर्ण गोत्री बेमुवार और शांडिल्य गोत्री दिघवय-दिघ्वैत और दिघ्वय संदलपुर, बहादुरपुर के चौधरी (चौधरी, राय, ठाकुर, सिंह) आदि, प्रमुख हैं। (4). महियालों से :– महियालों की बाली शाखा के पराशर गोत्री ब्राह्मण पण्डित जगनाथ दीक्षित छपरा (बिहार) में एक सार स्थान पर बस गये। एक सार में प्रथम वास करने से वैशाली, मुजफ्फरपुर, चैनपुर, समस्तीपुर, छपरा, परसगढ़, सुरसंड, गौरैया कोठी, गमिरार, बहलालपुर आदि गाँव में बसे हुए पराशर गोत्री एक्सरिया मूल के भूमिहार ब्राह्मण हो गए। (5). चित्पावन से :– न्याय भट्ट नामक चितपावन ब्राह्मण सपरिवार श्राध हेतु गया कभी पूर्व काल में आए थे। अयाचक ब्राह्मण होने से इन्होंने अपनी पोती का विवाह मगध के इक्किल परगने में वत्स गोत्री दोनवार के पुत्र उदय भान पाँडे से कर दिया और भूमिहार ब्राह्मण हो गए। पटना डाल्टनगंज रोड पर धरहरा, भरतपुर आदि कई गाँव में तथा दुमका, भोजपुर, रोहतास के कई गाँव में ये चितपावन मूल के कौन्डिल्य गोत्री अथर्व भूमिहार ब्राह्मण रहते हैं। 
कुछ भूमिहार कान्यकुब्ज की शाखा से सम्बन्ध रखते हैं, जिनका मूलस्थान मदारपुर है, जो कि कानपुर-फरूखाबाद की सीमा पर बिल्हौर स्टेशन के पास है। 1528ई. में बाबर ने मदारपुर पर अचानक आक्रमण कर दिया। इस भीषण युद्ध में वहाँ के ब्राह्मणों सहित सब लोग मारे गये। इस हत्याकांड से किसी प्रकार अनंतराम ब्राह्मण की पत्नी बच निकली थी जो कि बाद में एक बालक को जन्म दे कर इस लोक से चली गई। इस बालक का नाम गर्भू तेवारी रखा गया। गर्भू तेवारी के खानदान के लोग कान्यकुब्ज प्रदेश के अनेक गाँव में बसते हैं। कालांतर में इनके वंशज उत्तर प्रदेश तथा बिहार के विभिन्न गाँव में बस गए। गर्भू तेवारी के वंशज भूमिहार कहलाये। इनसे वैवाहिक संपर्क रखने वाले समस्त ब्राह्मण कालांतर में भूमिहार कहलाये। गढ़वाल काल के बाद मुसलमानों से त्रस्त भूमिहार ब्राह्मणों ने कान्यकुब्ज क्षेत्र से पूर्व की ओर पलायन प्रारंभ किया और अपनी सुविधानुसार यत्र-तत्र बस गए तथा अनेक उपवर्गों के नाम से संबोधित होने लगे, यथा :- ड्रोनवार, गौतम, कान्यकुब्ज, जेथारिया आदि। अनेक कारणों, अनेक रीतियों से उपवर्गों का नामकरण किया गया। कुछ लोगों ने अपने आदि पुरुष से अपना नामकरण किया और कुछ लोगों ने गोत्र से। कुछ का नामकरण, उनके स्थान से हुआ जैसे :- सोनभद्र नदी के किनारे रहने वालों का नाम सोन भरिया, सरस्वती नदी के किनारे वाले सर्वारिया, सरयू नदी के पार वाले सरयूपारी आदि। मूलडीह के नाम पर भी कुछ लोगों का नामकरण हुआ, जैसे जेथारिया, हीरापुर पण्डे, वेलौचे, मचैया पाण्डे, कुसुमि तेवरी, ब्र्हम्पुरिये, दीक्षित, जुझौतिया आदि। पिपरा के मिसिर, सोहगौरा के तिवारी, हिरापुरी पाँडे, घोर्नर के तिवारी, माम्खोर के शुक्ल, भरसी मिश्र, हस्त्गामे के पाँडे, नैनीजोर के तिवारी, गाना के मिश्र, मचैया के पाँडे, दुमतिकार तिवारी आदि भी भूमिहार ब्राह्मण हैं। 
भूमिहार ब्राह्मणों के पूर्वांचली प्रमुख उपनाम :: राय, शर्मा, सिंह, चौधरी, सिन्हा, पाण्डेय, मिश्र, तिवारी, दीक्षित, शुक्ला, शाही, प्रधान। 
प्रादेशिक उपनाम :: (1). बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में :- भूमिहार, (2). पंजाब एवं हरियाणा में :– मोहयाल, (3). जम्मू कश्मीर में :– पण्डित, सप्रू, कौल, दार-डार, काटजू आदि, (4). मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश में आगरा के निकटस्थ :– गालव, (5). उत्तर प्रदेश में :– त्यागी एवं भूमिहार, (6). गुजरात में :– अनाविल, देसाई, जोशी, मेहताद्ध-मेहता, (7). महाराष्ट्र में :– चितपावन, (8). कर्नाटक में :– चितपावन, (9). पश्चिमी बंगाल :– भादुड़ी, चक्रवर्ती, गांगुली, मैत्रा, सान्याल आदि, (10). उड़ीसा में :– दास, मिश्र, (11). तमिलनाडू में :– अयर, आयंगर, (12). केरल में :– नंबूदरीपाद, (13). राजस्थान में :– बांगर, पुष्कर्णा, पुष्टिकरणा, पुष्कर्ण, पुरोहित, रंग, रंगा एवं रूद्र, बागड़ा और (14). आन्ध्रप्रदेश में :– राव और नियोगी।
जायसवाल ब्राह्मण :: भौगोलिक आधार पर ब्राह्मण वर्ग निम्न दो हिस्सों में बँटा है :- (1). पंच गौड़ जो विंध्याचल के उत्तर में निवास करते हैं और (2). पंच द्रविड़ जो विंध्याचल के दक्षिण भाग में निवास करते हैं। 
जायसवाल ब्राह्मण गोत्र कात्यायन, उपमन्यु, गौतम, गर्ग, वसिष्ठ, गौर, भार्गव, वत्स, कौशिक, धनंजय, सस्कृत, कविस्तु, पराशर, सवर्ण, कश्यप, काश्यपा, काश्यप, भारद्वाज, शांडिल्य, मित्रा, विश्वामित्र, ऋषि, ब्रह्मचारी, गौरहर, चौरसिया, शिव, शर्मा, बराई, भगत, रसेल, राजधी वंशो से गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से जुड़ा है। 
जायसवाल पँच गौड़ में कान्यकुब्ज की शाखा है। जायसवाल मुख्यतः चंद्रवंशी या गाढ़ीवाल होते है। इनमें क्षात्रत्व एव ब्राह्मणत्व के उत्तम गुणों का प्राकट्य होता है। जायसवाल शाखा नागर भी है। जायसवालों की नागर एवं शाकाद्वीपी ब्राह्मणों से ऐतिहासिक साम्यता है। कुछ जायसवाल नेपाल या उत्तर भारत के चौरासी-चौरासिये या शिव ब्राह्मण भी कहालाते हैं। चौरासियों और नागरों के बीच नाग या नागर वेल भी विशिष्ट कड़ी है। परिस्थितिवश कुछ जायसवाल स्वर्णकार बन गए। यह शाखा उत्कल और बर्मन ब्राह्मणों में भी मिलती हैं। उत्तर भारत से गुजरात में जाकर बसे जायसवाल ब्राह्मण ठाकुर-जागीरदार कहलाते हैं। उपनाम के तौर पर ये गौर, गर्ग, भगत, वैश, दूबे, प्रसाद, चौधरी, राय, ठाकुर, साहू, मालवीय, गुप्त, शर्मा, वर्मा, वर्मन, बर्मन इत्यादि लिखते हैं।
उत्तर एवं पूर्व भारत के ब्राह्मण समान्यतः अपने नाम के साथ रंजन, चन्द्र, राम, प्रसाद, कुमार आदि लगाते हैं। 
निपुण शासक और बहादुर योद्धा रहोने के कारण इन्हें जायसवाल राजपूत या योद्धा ब्राह्मण भी कहा जाता रहा है। 
पूर्व व उत्तर पूर्व भारत एवं दक्षिण पूर्व एशिया व सुदूर पूर्व के ब्राह्मण वंशी राजा अपने नाम के साथ गुप्त, वर्मा, वर्मन, बर्मन का प्रयोग करते रहे हैं। 
गुप्त नामधारी ब्राह्मण वैधक करते रहे हैं और स्वयं को भगवान् धन्वन्तरी के वंशज कहते हैं।
महाराष्ट्र और द्रविड़ जायसवाल ब्राह्मण अटके, महाजन, काळे, प्रसाद, चौधरी, दहेले का उपनाम प्रयोग करते हैं। 
गौड़, सारस्वत एव गौड़ सारस्वत, कोंकणस्थ मे भी जायसवाल ब्राह्मण पाये जाते हैं।
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ब्राह्मण ::
भगवान् श्री राम  ने परशुराम जी से कहा :-
देव  एक  गुन  धनुष  हमारे। नौ गुन  परम  पुनीत तुम्हारे॥
हे प्रभु हम क्षत्रिय हैं हमारे पास एक ही गुण अर्थात धनुष ही है आप ब्राह्मण हैं आप में परम पवित्र 9 गुण हैं।[राम चरित मानस] 
ब्राह्मण के नौ गुण :-
रिजुः तपस्वी सन्तोषी क्षमाशीलो जितेन्द्रियः।
दाता शूरो दयालुश्च ब्राह्मणो नवभिर्गुणैः॥
रिजुः :- सरल हो, 
तपस्वी :- तप (मेहनती-परिश्रमी) करने वाला हो, 
संतोषी :- मेहनत की कमाई पर  सन्तुष्ट रहनेवाला हो, 
क्षमाशीलो :- क्षमा करनेवाला हो,
जितेन्द्रियः :- इन्द्रियों को वश में रखनेवाला हो,
दाता :- दान करनेवाला हो,
शूर :- बहादुर हो,
दयालुश्च :- सब पर दया करनेवाला हो,
ब्रह्म ज्ञानी हो।[राम चरित मानस]
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। 
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥
अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों को वश में करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर, लोक-परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा, वेद आदि में आस्था रखना, ये सब के सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।[श्रीमद्भागवत गीता 18.42]   
Equanimity, serenity, self control-restraint, peace loving, tolerance (bearing of pain, difficulty, suffering, inconvenience, hardship, torture, righteous or devout conduct to carry-out religious faith-duties), purity-austerity and cleansing (internal and external), faith in eternity, forgiveness, honesty, uprightness-simplicity of body and mind, wisdom-knowledge of Ved, Puran, Upnishad, Itihas (History) Brahmns are the natural duties-qualities of the Brahmns.
ब्रह्म कर्म, सत्वगुण की प्रधानता, ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण-लक्षण हैं। इनमें उसको परिश्रम नहीं करना पड़ता। 
शम :: मन को जहाँ लगाना हो लग जाये और जहाँ से हटाना हो वहां से हट जाये।
दम :: इन्द्रियों को वश में रखना।
तप :: अपने धर्म का पालन करते हुए जो कष्ट आये, उसे प्रसन्नतापूर्वक सहन करना।
शौच :: मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर, खान-पान, व्यवहार को पवित्र रखना। सदाचार का पालन। क्षान्ति-बिना क्षमा माँगे ही क्षमा करना। आर्जवन-शरीर, मन, वाणी व्यवहार, छल, कपट, छिपाव, दुर्भाव शून्य हों। ज्ञान-वेद, शास्त्र, इतिहास, पुराण का अध्ययन, बोध, कर्तव्य-अकर्तव्य की समझ। विज्ञान-यज्ञ के विधि-विधान, अवसर, अनुष्ठान का उचित-समयानुसार प्रयोग। आस्तिकता-परमात्मा, वेद, शास्त्र, परलोक आदि में आस्था-विश्वास, सच्ची श्रद्धा और उनके अनुसार ही आचरण। 
आजकल के ब्राह्मण में कलयुग का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है और कुछ को छोड़ कर शेष नाममात्र के ब्राह्मण हैं। केवल ब्राह्मण कुल में जन्म लेने मात्र से ही कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता; उसे ब्राह्मण उसके माँ-बाप, गुरु जनों द्वारा शिक्षा-दीक्षा से बनाया जाता है। 
A Brahmn is deemed to have self control over his senses, organs and the mind in order to fix and channelise the brain and energies as per his own will and desire. It enables him to utilise, divert or restraint his capabilities in best possible manner for the service of mankind, humanity and society.
He is capable of bearing with pain, insult, torture, difficulty, suffering, inconvenience, hardship and wretchedness, while carrying out righteous or devout conduct, duties. He restrains himself, though capable of repelling wickedness and improper conduct.
During the current cosmic era-Kaliyug the Brahmn is the most deprived lot. He has to accept various jobs for his survival in addition to performing his traditional duties, Pooja-Path (Prayers associated with enchantment of verse devoted to the Almighty), Yagy, Hawan, Agni Hotr (Holy sacrifices in holy fire), study of Veds, scriptures and guiding, motivating the public to seek Moksh.
He has to ascertain purity of body, mind and soul, senses, organs; purity of food, drinks and behavior. Maintenance of good habits of excretion, bathing are essential for him, in daily routine. He should ad-hare to pious behavior, virtuous and ethical conduct. He is always soft and polite and uses decent, dignified, distinguished language. He never uses harsh words or language.
Those who migrate to other countries forget all these things and adopt them selves to those circumstances-situations. Still the prudent never forget these and seek guidance from learned, enlightened.
He forgives, without being asked happily, though cable to punish with the strength, power and might possessed by him. He is immune to defamation, back biting and insult.
He bears simple cloths. He is simple, honest and open. He is free from cheating, cunningness,  trickery, fraud, deceit, deceiving, ill will etc.
He studies and learns Ved, Puran, Upnishad, Brahmn, Ramayan, Mahabharat, Geeta and History; acquires the knowledge of various other scriptures to understand, accept and act in accordance with them. He has the understanding and experience of do’s and do not’s of performing Vedic rites, sacrifices and scientific methods.
He has firm faith and belief in God, Ved, other Abodes (life after death, rebirth) and respects and honour them. A Brahmn is not burdened to act in accordance with them, since he is born in such families, where purity of blood has been maintained. He has the natural Brahmanical tendencies (DNA, chromosomes, genes) in him due to the atmosphere, company and association. Importance is not given to the means of livelihood-earning for living due to the presence of Satvik characters, practice, company, self study. It’s for the society to take care of him, since he is the real owner of the earth and all means of livelihood.
A Brahmn has to be an ideal person with high moral character, values, virtues and dignity. He should command respect in the society. He should purify and sanctifies himself every day, in the morning by bathing, prayers and rituals. He is a devotee of the God with simple living and high thinking. He learns and acquires the knowledge of various Vedic literature  He himself accepts donations and distributes the surplus, among the ones who are in need of them. He teaches and guides the students and disciples. He is free from ill will, anger, envy and prejudices. He is always soft and polite, with graceful-refined decent tone, language and behavior. He is revered in the society in high esteem and is ready to help anyone and everyone. He is simple and down to earth, in behavior and practice. He observes fast on festivals. He is away from wine, woman, narcotics, drugs, meat, fish and meat products. He adhere to ascetic practices and performs Hawan, Yagy, prayers and religious ceremonies as per calendar, on the prescribed dates auspicious occasions and schedule. He has conquered his desires.
Brahmns have originated from the forehead of Brahma. They are the mouth of the community and the store house of knowledge and wisdom. Teaching, educating, showing the right direction and preaching the four Varn are the pious duties of a Brahman. Anyone who is a Brahman by birth, but do not possess the Brahmnical qualities, characters, virtues, morals, wisdom is not considered to be a Brahman. The Brahmns who are corrupt in respect of food, habits, behaviour, devoid of Bhakti, devotion to God are considered to be inferior to lower castes.
Anyone who insults, misbehaves a Brahmn and invite his wrath, has his abode in the hells. His life is cursed and all sorts of pains-sorrow, tortures, insults comes to him uninvited.
दैवाधीनं  जगत सर्वं, मन्त्रा  धीनाश्च  देवता:। 
ते मंत्रा: ब्राह्मणा धीना:, तस्माद्  ब्राह्मण देवता:॥
धिग्बलं क्षत्रिय बलं, ब्रह्म तेजो बलम बलम्।
एकेन ब्रह्म दण्डेन, सर्व शस्त्राणि हतानि च॥
तात्पर्य यह है कि मनुष्य गुण से हारे हैं। त्याग तपस्या गायत्री सन्ध्या के बल से और आज लोग उसी को त्यागते जा रहे हैं और पुजवाने का भाव जबरजस्ती रखे हुए हैं। 
विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या। वेदा: शाखा धर्मकर्माणि पत्रम्
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं। छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्॥
वेदों का ज्ञाता और विद्वान ब्राह्मण एक ऐसे वृक्ष के समान हैं जिसका मूल (जड़) दिन के तीन विभागों :- प्रातः, मध्याह्न और सायं सन्ध्या काल के समय यह  तीन सन्ध्या (गायत्री मन्त्र का जप) करना है, चारों वेद उसकी शाखायें हैं तथा  वैदिक धर्म के  आचार विचार का पालन करना उसके पत्तों के समान हैं। अतः प्रत्येक ब्राह्मण का यह कर्तव्य है कि इस सन्ध्या रूपी मूल की यत्नपूर्वक रक्षा करें, क्योंकि यदि मूल ही नष्ट हो जायेगा तो न तो शाखायें बचेंगी और न पत्ते ही बचेंगे।
ब्राह्मणों के मूल निवास ::
गर्ग (शुक्ल-वंश) :: गर्ग ऋषि के तेरह लडके बताये जाते है जिन्हें गर्ग गोत्रीय, पंच प्रवरीय, शुक्ल बंशज कहा जाता है जो तेरह गांवों में बिभक्त हों गये थे। गाँवों के नाम कुछ इस प्रकार हैं :- 
(1). मामखोर, (2). खखाइज खोर, (3). भेंडी, (4). बकरूआं, (5). अकोलियाँ, (6). भरवलियाँ, (7). कनइल, (8). मोढीफेकरा, (9). मल्हीयन, (10). महसों (11). महुलियार (12). बुद्धहट, (13), इसमें चार गाँव का नाम आता है :- लखनौरा, मुंजीयड, भांदी और नौवागाँव। ये सारे गाँव लगभग गोरखपुर, देवरिया और बस्ती में आज भी मौजूद हैं। 
उपगर्ग (शुक्ल-वंश) :: उपगर्ग के छ: गाँव जो गर्ग ऋषि के अनुकरणीय थे, इस प्रकार से हैं :- 
(1). बरवां, (2). चांदा, (3). पिछौरां, (4). कड़जहीं, (5). सेदापार और (6). दिक्षापार।
यही मूलत: वे गाँव हैं जहाँ से शुक्ल बंश का उदय माना जाता है। यहीं से लोग अन्यत्र भी जाकर शुक्ल बंश का उत्थान कर रहे हैं। ये सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं। 
गौतम (मिश्र-वंश) :: गौतम ऋषि के छ: पुत्र बताये जातें हैं, जो इन छ: गाँवों के वासी थे :- 
(1). चंचाई, (2). मधुबनी, (3) चंपा, (4). चंपारण, (5). विडरा और (6) भटीयारी। 
इन्ही छ: गाँवों से गौतम गोत्रीय, त्रिप्रवरीय मिश्र वंश का उदय हुआ है, यहीं से अन्यत्र भी पलायन हुआ है। ये सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं। 
उप गौतम (मिश्र-वंश) :: उप गौतम यानि गौतम के अनुकारक छ: गाँव इस प्रकार से हैं :-
(1). कालीडीहा, (2). बहुडीह, (3). वालेडीहा, (4) भभयां, (5). पतनाड़े और (6) कपीसा। 
इन गाँवों से उप गौतम की उत्पत्ति मानी जाति है। 
वत्स गोत्र (मिश्र-वंश) :: वत्स ऋषि के नौ पुत्र माने जाते हैं, जो इन नौ गाँवों में निवास करते थे :-
(1). गाना, (2). पयासी, (3). हरियैया, (4). नगहरा, (5). अघइला, (6). सेखुई, (7). पीडहरा, (8). राढ़ी और (9) मकहडा। 
इनके यहाँ  पाँति का प्रचलन था। अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है।
कौशिक गोत्र (मिश्र-वंश) :: निम्न तीन गाँवों से इनकी उत्पत्ति बताई जाती है :-
(1). धर्मपुरा, (2). सोगावरी और (3) देशी। 
वशिष्ठ गोत्र (मिश्र-वंश) :: इनका निवास भी इन तीन गाँवों में बताई जाती है :-
(1) बट्टूपुर मार्जनी (2) बढ़निया और (3) खउसी। 
शांडिल्य गोत्र ( तिवारी,त्रिपाठी वंश) :: शांडिल्य ऋषि के बारह पुत्र बताये जाते हैं जो इन बारह गाँवों से प्रभुत्व रखते हैं :-
(1). सांडी, (2). सोहगौरा, (3). संरयाँ, (4). श्रीजन, (5). धतूरा, (6). भगराइच, (7). बलूआ, (8). हरदी, (9). झूडीयाँ, (10). उनवलियाँ, (11). लोनापार और (12). कटियारी। लोनापार में लोनाखार, कानापार, छपरा भी समाहित हैं। 
इन्ही बारह गाँवों से आज चारों तरफ इनका विकास हुआ है, यें सरयू पारीण ब्राह्मण हैं। इनका गोत्र श्री मुख शांडिल्य त्रि प्रवर है, श्री मुख शांडिल्य में घरानों का प्रचलन है जिसमें राम घराना, कृष्ण घराना, नाथ घराना, मणी घराना हैं, इन चारों का उदय, सोहगौरा गोरखपुर से है जहाँ आज भी इन चारों का अस्तित्व कायम है।
उप शांडिल्य (तिवारी-त्रिपाठी, वंश) :: इनके छ: गाँव बताये जाते हैं, जो कि निम्नवत हैं।
(1). शीशवाँ, (2). चौरीहाँ, (3). चनरवटा, (4). जोजिया, (5), ढकरा और (6), क़जरवटा। 
भार्गव गोत्र (तिवारी या त्रिपाठी वंश) :: भार्गव ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिसमें चार गांवों का उल्लेख मिलता है जो इस प्रकार है :-
(1). सिंघनजोड़ी, (2). सोताचक, (3). चेतियाँ और (4). मदनपुर। 
भारद्वाज गोत्र (दुबे वंश) :: भारद्वाज ऋषि के चार पुत्र बाये जाते हैं, जिनकी उत्पत्ति इन चार गांवों से बताई जाती है :-
(1). बड़गईयाँ, (2). सरार, (3.) परहूँआ और (4). गरयापार। 
कन्चनियाँ और लाठीयारी इन दो गांवों में दुबे घराना बताया जाता है जो वास्तव में गौतम मिश्र हैं, लेकिन इनके पिता क्रमश: उठातमनी और शंखमनी गौतम मिश्र थे। वासी (बस्ती) के राजा बोधमल ने एक पोखरा खुदवाया, जिसमें लट्ठा न चल पाया, राजा के कहने पर दोनों भाई मिल कर लट्ठे को चलाया, जिसमें एक ने लट्ठे सोने वाला भाग पकड़ा तो दुसरे ने लाठी वाला भाग पकड़ा। जिसमे कन्चनियाँ व लाठियारी का नाम पड़ा, दुबे की गादी होने से ये लोग दुबे कहलाने लगें। सरार के दुबे के यहाँ पाँति का प्रचलन रहा है। अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है।
सावरण गोत्र (पाण्डेय वंश) :: सावरण ऋषि के तीन पुत्र बताये जाते हैं इनके यहाँ भी पाँति का प्रचलन रहा है, जिन्हें तीन के समकक्ष माना जाता है। जिनके तीन गाँव निम्न हैं :-
(1). इन्द्रपुर, (2). दिलीपपुर, (3). रकहट (चमरूपट्टी)  
सांकेत गोत्र (मलांव के पाण्डेय वंश) :: सांकेत ऋषि के तीन पुत्र इन तीन गाँवों से सम्बन्धित बाते जाते हैं :-
(1). मलांव, (2). नचइयाँ और (3). चकसनियाँ। 
कश्यप गोत्र (त्रिफला के पाण्डेय वंश) :: इन तीन गाँवों से बताये जाते हैं :-
(1) त्रिफला (2) मढ़रियाँ (3) ढडमढीयाँ
ओझा वंश :: इन तीन गांवों से बताये जाते हैं :-
(1). करइली, (2). खैरी और (3). निपनियाँ।  
चौबे-चतुर्वेदी, वंश (कश्यप गोत्र) :: इनके निम्न तीन गाँवों का उल्लेख मिलता है :-
(1). वंदनडीह, (2). बलूआ और (3) बेलउजां। 
एक गाँव कुसहाँ का उल्लेख बताते है जो शायद उपाध्याय वंश का मालूम पड़ता है
ब्राह्मणों की वंशावली :: भविष्य पुराण के अनुसार ब्राह्मणों का इतिहास है की प्राचीन काल में महर्षि कश्यप के पुत्र कण्वय की आर्यावनी नाम की देव कन्या पत्नी हुई। ब्रम्हा की आज्ञा से दोनों कुरुक्षेत्र वासनी सरस्वती नदी के तट पर गये और कण् व चतुर्वेदमय सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगे एक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहां आयीं और ब्राम्हणो की समृद्धि के लिये उन्हें वरदान दिया।
वर के प्रभाव कण्वय के आर्य बुद्धिवाले दस पुत्र हुए जिनका क्रमानुसार नाम था :-
उपाध्याय, दीक्षित, पाठक, शुक्ला, मिश्रा, अग्निहोत्री, दुबे, तिवारी, पाण्डेय, और चतुर्वेदी ।
इन लोगो का जैसा नाम था वैसा ही गुण। इन लोगो ने नत मस्तक हो सरस्वती देवी को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले उन लोगो को भक्तवत्सला शारदा देवी ने अपनी कन्याए प्रदान की वे क्रमशः।
उपाध्यायी, दीक्षिता, पाठकी, शुक्लिका, मिश्राणी, अग्निहोत्रिधी, द्विवेदिनी, तिवेदिनी, पाण्ड्यायनी, और चतुर्वेदिनी कहलायीं।
फिर उन कन्याआों के भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह पुत्र हुए। वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम :-
कष्यप, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्रि, वसिष्ठ, वत्स, गौतम, पराशर, गर्ग, अत्रि, भृगडत्र, अंगिरा, श्रंगी, कात्याय, और याज्ञवल्क्य।
इनसे सोलह-सोलह पुत्र जाने जाते हैं।
मुख्य 10 प्रकार के ब्राम्हण ये हैं :-
(1) तैलंगा, (2) महार्राष्ट्रा, (3) गुर्जर, (4) द्रविड और (5) कर्णटिका। 
यह पाँच "द्रविण" कहे जाते हैं, ये विन्ध्यांचल के दक्षिण में पाय जाते हैं। 
तथा विंध्यांचल के उत्तर में पाये जाने वाले या वास करने वाले ब्राम्हण :-
(6). सारस्वत, (7). कान्यकुब्ज, (8). गौड़, (9). मैथिल और (10). उत्कलये। 
उत्तर के पंच गौड़ कहे जाते हैं। 
ब्राह्मणों की मुख्य शाखाएं 115 हैं। शाखा भेद अनेक हैं। इनके अलावा संकर जाति ब्राम्हण अनेक हैं। यहाँ मिली जुली उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हणों की नामावली 115 की दे रहा हूं। जो एक से दो और 2 से 5 और 5 से 10 और 10 से 84 भेद हुए हैं, फिर उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हण की संख्या शाखा भेद से 230 के लगभग है। और भी शाखा भेद हुए हैं, जो लगभग 300 के करीब ब्राम्हण भेदों की सँख्या का लेखा पाया गया है। उत्तर व दक्षिणी ब्राह्मणों के भेद इस प्रकार हैं :- 
81 ब्राह्मणों की 31 शाखा, कुल 115 गौत्र जिनमें मुख्य है :-
(1). गौड़ ब्राम्हण, (2). गुजरगौड़ ब्राम्हण (मारवाड,मालवा), (3). श्री गौड़ ब्राम्हण, (4). गंगापुत्र गौडत्र ब्राम्हण, (5). हरियाणा गौड़ ब्राम्हण, (6). वशिष्ठ गौड़ ब्राम्हण, (7). शोरथ गौड ब्राम्हण, (8). दालभ्य गौड़ ब्राम्हण, (9). सुखसेन गौड़ ब्राम्हण, (10). भटनागर गौड़ ब्राम्हण, (11). सूरजध्वज गौड ब्राम्हण (षोभर), (12). मथुरा के चौबे ब्राम्हण, (13). वाल्मीकि ब्राम्हण, (14). रायकवाल ब्राम्हण, (15). गोमित्र ब्राम्हण, (16). दायमा ब्राम्हण, (17). सारस्वत ब्राम्हण, (18). मैथल ब्राम्हण, (19). कान्य कुब्ज ब्राम्हण, (20) उत्कल ब्राम्हण, (21) सरवरिया ब्राम्हण, (22) पराशर ब्राम्हण, (23). सनोडिया या सनाड्य, (24). मित्र गौड़ ब्राम्हण, (25). कपिल ब्राम्हण, (26). तलाजिये ब्राम्हण, (27). खेटुवे ब्राम्हण, (28). नारदी ब्राम्हण, (29). चन्द्रसर ब्राम्हण, (30). वलादरे ब्राम्हण, (31). गयावाल ब्राम्हण, (32). ओडये ब्राम्हण, (33). आभीर ब्राम्हण, (34). पल्लीवास ब्राम्हण, (35). लेटवास ब्राम्हण, (36). सोमपुरा ब्राम्हण, (37) काबोद सिद्धि ब्राम्हण, (38) नदोर्या ब्राम्हण, (39) भारती ब्राम्हण, (40). पुश्करर्णी ब्राम्हण, (41). गरुड़ गलिया ब्राम्हण, (42). भार्गव ब्राम्हण, (43). नार्मदीय ब्राम्हण, (44). नन्दवाण ब्राम्हण, (45). मैत्रयणी ब्राम्हण, (46). अभिल्ल ब्राम्हण, (47). मध्यान्दिनीय ब्राम्हण, (48). टोलक ब्राम्हण, (49). श्रीमाली ब्राम्हण, (50). पोरवाल बनिये ब्राम्हण, (51). श्रीमाली वैष्य ब्राम्हण (52). तांगड़ ब्राम्हण, (53). सिंध ब्राम्हण, (54). त्रिवेदी म्होड ब्राम्हण, (55). इग्यर्शण ब्राम्हण, (56). धनोजा म्होड ब्राम्हण, (57). गौभुज ब्राम्हण, (58). अट्टालजर ब्राम्हण, (59). मधुकर ब्राम्हण, (60). मंडलपुरवासी ब्राम्हण, (61). खड़ायते ब्राम्हण, (62). बाजरखेड़ा वाल ब्राम्हण, (63). भीतरखेड़ा वाल ब्राम्हण, (64). लाढवनिये ब्राम्हण, (65). झारोला ब्राम्हण, (66). अंतरदेवी ब्राम्हण, 67). गालव ब्राम्हण, (68). गिरनारे ब्राह्मण।


 
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