Saturday, April 25, 2015

DEEDS & THIER RESULT कर्म और कर्म फल :: कर्म (1)

कर्म और कर्म फल 
DEEDS & THEIR RESULT
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
जन्म-जन्मांतरों के संचित कर्म मनुष्य के निर्माण करते हैं। मृत्यु के उपरान्त मनुष्य को सूक्ष्म शरीर के साथ चित्रगुप्त जी के सामने प्रस्तुत किया जाता है जहाँ वे उसके पुण्य-पापों का लेखा-जोखा देखकर उसके भाग्य का निर्धारण करते हैं, जिसे प्रारब्ध कहा जाता है। उद्यम भी प्रारब्ध से जुड़ा हुआ है। ब्रह्मा जी मनुष्य के द्वारा अपना मार्ग बदलने के रास्ता हमेशां खुला रखते हैं। संगति मनुष्य का प्रारब्ध बदलने में सक्षम है। अच्छी संगति, अच्छी शिक्षा और प्रयत्न प्रारब्ध को लचीला बनाते हैं। लग्न, दृढ़ निश्चय, आत्म विश्वास और उचित मार्ग दर्शन किसी का भी भाग्य बदल सकता है। मैंने अपने जीवन में हजारों हाथ देखे और पाया कि भाग्य को बदला जा सकता है। प्रारब्ध कभी भी स्थिर नहीं होता। यह परिवर्तन शील है। कर्म करते रहना अत्यावश्यक है। जीव जन्म से लेकर मृत्यु तक निरन्तर कर्म रहता है। कर्म मनुष्य को प्रकृति से जोड़ता है और धर्म-कर्म परमात्मा से।
कर्म का फल भोगना ही पड़ता है भले ही वह पुण्य हो या पाप। 
मानव जन्म का मुख्य लक्ष्य है मोक्ष, परमात्मा के प्रति भक्ति और प्रेम। 
कर्म ही मनुष्य को नर्क, पाताल अथवा देवलोकों में ले जाने वाले हैं। 
केवल मनुष्य योनि में ही कर्म सम्भव हैं और इसीलिये देव-दानव दोनों ही इस योनि को प्राप्त करना चाहते हैं।
सात्विकता कर्मों से संबन्ध विच्छेद करा कर परमात्म तत्व से मिलाने वाली है। राजस प्रवृति मनुष्य को जन्म-मृत्यु चक्र में उलझाती है और तामस प्रवृति  उसे नर्क और नीच योनियों में जाती है। 
कर्म :: निष्काम भाव से किया कर्म सात्विक, कामना के लिए किया कर्म राजसिक तथा मोहवश किया गया कर्म तामस है। कार्य की सिद्धि-असिद्धि  में सम (निर्विकार) रहने वाला सात्विक, हर्ष-शोक करने वाला राजस तथा शठ और आलसी कर्ता तामस कहलाता है। परब्रह्म परमेश्वर परमात्मा के द्वारा प्राणियों की सत्ता को प्रकट करना कर्म है।
कर्म के  तीन प्रकार :- काम्य, निषिद्ध और नित्य। बिना कर्म के ईश्वर भी फल देने में समर्थ नहीं है। मीमांसा दर्शन ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हुए बहुदेववादी है। सभी कर्मों के परिणाम विधाता तय करता है जो मनुष्य को शुभ और अशुभ फल उसके जन्म-जन्मांतरों के कर्मों के अनुरूप प्रारब्ध के रूप में प्रकट करता है। पूर्व अर्जित कर्म ही शुभ-अशुभ, रोग-वैराग आदि के रूप में प्रकट होते है और फल के उपरांत नष्ट हो जाते हैं। 
कर्म के दो प्रकार ::
(1). विहित 
कर्म Ordained, prescribed, proper, fit, determined) :- (1.1). नित्य, (1.2). नैमित्तिक, (1.3). काम्य और (1.4). निषिद्ध। ऐहिक फल प्रदान करने वाले काम्य कर्म जैसे व्रत, उपवास, उपासना साधारण मनुष्य के लिए सबसे अधिक उपादेय हैं।
(2). निहित कर्म Contained, latent, entrusted, vested :- वर्णाश्रम, स्वभाव, परिस्थिति जन्य कर्म।
कर्म के 5  कारण हैं :: अधिष्ठान, कर्ता, भिन्न-भिन्न करण, नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ तथा दैव।
कार्यं Deeds, task, action, work, endeavour, act, occupation, effort, act, function, sacrifice
भूतों की उत्पत्ति और वृद्धि करने वाले विसर्ग (यज्ञ-दान आदि के निमित्त किये जाने द्रव्यादी के त्याग का) का नाम कर्म है।
कर्म संग्रह के 3 कारण :: करण, कर्म और कर्ता।
करण IMPLEMENTS :: जिन-जिन इंद्रियादिकों और साधनों द्वारा कर्म किए जाते हैं, उनका नाम करण है; जिससे कार्य की सिद्धि होती है, वो करण है।कुल तेरह करण हैं :- बहि:करण (5 कर्मेन्द्रियाँ, 5 ज्ञानेन्द्रियाँ और 3 अन्तःकरण)।   
5 कर्मेन्द्रियाँ :: पाणी-हाथ :- कार्य करना-लेना देना, पाद-पैर :- चलना-फिरना, वाक्-जीभ, होंठ और मुँह :- बोलना, उपस्थ-लिंग :- मूत्र त्याग, पायु-गुदा :- मल त्याग, 
5 ज्ञानेन्द्रियाँ :: श्रोत्र-कान :- सुनना, चक्षु-आँखें :- देखना, रसना-जीभ :- स्वाद-चखना, त्वक्-खाल :- स्पर्श-महसूस करना, घ्राण-नाक :- सूँघना, 
3 अन्तःकरण :: मन, बुद्धि, अहँकार) मन :- इच्छा, बुद्धि-विचार, सोचना-समझना, निश्चय करना, सही गलत की पहचान, विवेक, याददाश्त आदि, अहँकार :- मैं पन, घमण्ड, अभिमान। चेष्टा, प्रयास, कोशिश। 
There are 13 impliers constituting of 5 external (hands, feet, tongue, pennies, and anus), 5 internal (ears, eyes, skin, tongue, nose) and the remaining 3 rests inside the mind (Man, Intelligence and the Ego).
Coordinated efforts of FUNCTIONAL ORGANS :: (1). Hands :- giving, taking, exchange, (2). Feet :- walk, run, movement, (3). Tongue :- Speech, (4). Pennies :- Reproduction, urination, (5). Anus :- Excretion, SENSE ORGANS :: (6). Ears :- Hearing, (7). Eyes :- Seeing, (8). Skin :- Touch, (9).Tongue :- taste, (10). Nose :- Smell, INNERSELF :: (11). Man :- Desires, (12). Mind (Intelligence) :- Thoughts, Decision, Behaviour and (13). Ego :- Pride, glory.
First 10 perform externally and the remaining 3 lies inside and together make endeavours-efforts. The divine depends upon the auspicious, virtuous, righteous and inauspicious, sins, unrighteous activities of the doer, affecting the innerself, laying the foundation of destiny.
कर्म फल :: यज्ञ-दान और कर्म मनुष्यों को भोग एवं मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। जिन्होंने कामनाओं का त्याग नहीं किया है, उन सकामी पुरुषों के कर्म का बुरा-भला और मिला हुआ कर्म-तीन प्रकार का फल देता है। यह फल मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होता है। सन्यासी-त्यागी के कर्मों का कोई फल नहीं होता।
तीन प्रकार के कर्म फल :-  इष्ट,  अनिष्ट और  मिश्रित।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
कर्तव्य-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु भी मत बन और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]  
You have the right to perform-do work, but devoid of rewards (perhaps as you desire, of your choice, except when you perform meditation and asceticism for millions of years to appease the divine powers-the divinity and have your desired boons-wished fulfilled, accomplished). You should not become the means-tool for performing deeds-actions (of course you have to perform the Vihit and Nihit Karm, obligatory, essential-necessary duties) without inclination for non performance.
केवल मनुष्य योनि ही कर्म योनि है। अगर मुक्ति चाहिए तो समाज सेवा से युक्त नवीन कर्म किये जाने चाहिये। यह जन्म स्वयं के उद्धार के लिए हैं ना कि व्यर्थ करने के लिये। स्वयं का उद्धार सेवा भावना से किये गये पुण्य कार्यों से होगा। अगर कर्म केवल अपने हित के लिए किया गया तो, यह बन्धन कारी होगा। एक वक्त में केवल एक कर्म ही करना है।
प्रारब्ध ने हमारे लिये इस जन्म में कुछ कार्य नियत कर रखे हैं और पुरुषार्थ-नये करने की स्वतंत्रता, भी प्रदान की है। बढ़ती उम्र के साथ बीते वक्त में जो कुछ भी किया गया, उसका संयोजन भी साथ-साथ चल रहा है। तात्कालिक कर्म, संचित कर्म और प्रारब्ध ये तीनों मिलकर आगे का मार्ग नियत करते हैं। प्रभु ने कहा है, "कर्म करो, फल की चिंता मत करो, वो तो कर्म के अनुरूप स्वतः मिल जाना है"। जाने-अनजाने किया गया कोई भी शुभ कर्म, किसी आने वाली बड़ी मुसीबत से बचाने के लिए साथ आ खड़ा होता है। 
It's only the incarnation as a human being, which permits new ventures, deals-endeavours. Its the individual who will decide the course, which deeds he has to choose-adopt, to go to the heaven or the other way meant for the hells and the Ultimate, where the Almighty is waiting for his beloved soul to welcome-immerse in HIMSELF. Where Parmanand-extreme pleasure presides! Where there is no worry sorrow or pain! When you act like a helping hand, giver, protector, savoir you unconsciously work for attaining heaven followed by Salvation, ultimately! If you programmed for your self interests discarding others, you are bound for rebirth. Slightest deviation towards harming others is bound to open the flood gates to hells for you. Neutrality, atheism do matter a lot, depending upon the circumstances and the action taken by you.
The destiny was framed by the Vidhata-creator much-much before this birth. Still he was kind enough to provide you with the multiple opportunities to purify. Till this moment you have acted in different ways depending upon the circumstances. All these performances of this life span are summed for your credit. What you are doing at this moment is equally important! You may be rewarded by the sum total of your deeds till this moment. It may be that you are protected from a great disaster due to some pious deeds, which you performed unknowingly.
One who has understood this and is willing to surrender before the Almighty, he has achieved what others will no be able to, in infinite incarnations.
Even if one is an atheist who do not believe in God and still follow his prescribed & mandatory duties (Varnashram Dharm) towards family, society, self and the country and is eager to help the down trodden, he is bound to attain Salvation sooner or later.
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
हे धनंजय! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित होकर, कर्तव्य कर्मों को कर, क्योंकि समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में सम भाव रहने का नाम समत्व, equanimity है) ही योग कहलाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 2.48] 
Hey Dhananjay! You reject-bereft the attachment and attain equanimity in accomplishment-success and failure, establish-stabilise in Yog and perform your duties, since equanimity is Yog (assimilation in the Almighty).
Equanimity :: Weigh success & failure equally. Do not rejoice in success, do not feel sad in failure. Treat every organism as the component of the Almighty. Do not distinguish as poor or rich, upper caster or lower caste.
किसी भी कर्म, कर्म के फल, किसी भी देश, काल, घटना, परिस्थिति, अंतःकरण, बहिःकरण आदि प्राकृत वस्तु में आसक्ति न होने पर ही मनुष्य निर्लिप्तता पूर्वक कर्म कर सकता है। आसक्ति के त्याग से सिद्धि और असिद्धि में समता हो जायेगी। कर्म योगी तो केवल कर्तव्य-कर्म के ऊपर ध्यान देता है। ध्यान रूपी समता से साध्य रूपी समता स्वतः आ जाती है। सिद्धि-असिद्धि में सम होने के बाद उस समता में निरन्तर अटल रहना ही योगस्थ होना है। साधन रूपी समता अन्तःकरण की होती और साध्य रूपी समता परमात्मस्वरूप होती है। सिद्धि-असिद्धि, अनुकूल-प्रतिकूल आदि की समता अर्थात अन्तःकरण में राग द्वेष का न होना साधन स्वरूप समता है। समता का एक तात्पर्य ये भी है कि "मनुष्य हर प्राणी में परमात्मा की छवि देखे, ऊँच-नीच को ना माने, स्वयं व अन्य में अंतर ना समझे"।
One can perform unsmeared, unanointed, uncontaminated, detached, when he is not attached to any deed, reward of deeds, any country, any period of time, any incident-happening, adverse or favourable conditions, inner self or his exterior self and the characteristics related to nature. Relinquishment of attachment will provide equanimity with success and failure. The Karm Yogi has to concentrate over the duties-how best can he perform? Equanimity of meditation-concentration provides the equanimity of the ultimate goal (aim, target) :- the Ultimate, God. Having achieved equanimity with success & failure and to remain firm with this is Yog. Equanimity of ways & means is related to the inner self-the individual, while the equanimity of the goal, target, aim pertains to the Almighty. Equanimity of achievement-success or failure, favourable-against stands for loss of Rag-dwesh i.e., Attachment-enmity pertaining to means. Equanimity has a more broader meaning :- "One should see, find, observe the image of God in each and every organism-individual, big-small, highly place and the scratch". 
Having achieved equanimity one is sure to assimilate in the God and its freedom from reincarnations. Though, it appears difficult but its not impossible.
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥
इस मनुष्य लोक में कर्मों से उत्पन्न सिद्धि जल्दी मिल जाती है; इसलिये कर्मों की सिद्धि-फल चाहने वाले मनुष्य देवताओं की उपासना-पूजा करते हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 4.12] 
Those who wish-desire for success (worldly pleasures) in this world through actions; worship various demigods-deities, because by doing this they soon get the reward (success, favourable out come, success) in their actions (endeavours).
पृथ्वी लोक में मनुष्य को नवीन कर्म करने का अधिकार मिला हुआ है। सिवाय मनुष्य योनि के अन्य किसी भी अन्य योनि में और सिवाय पृथ्वी के किसी अन्य किसी भी लोक में कर्म सम्भव नहीं हैं। कर्मों की सिद्धि प्रयत्न-प्रयास, आराधना, पूजा-अर्चना, तपस्या, भक्ति, ध्यान समाधि जैसे साधनों से मिलती है। सांसारिक पदार्थ और पारमार्थिक प्रयास यथा सेवा दो अलग विपरीत मार्ग हैं। सांसारिक उपलब्धियाँ आसक्ति, कामना, ममता राग-द्वेष उसे प्रकृति से जोड़ते हैं, जबकि जप-तप उसे पारमार्थिक मार्ग-मुक्ति की ओर अग्रसर करते हैं। अपने लिए किया गया कोई भी कर्म बंधन कारक है। कर्म जन्य सिद्धि चाहने से ही कर्मों में मलिनता उत्पन्न हो जाती है। पदार्थों की इच्छा पूर्ति तो महज प्रारब्ध के अनुरूप शीघ्र ही मिल सकती है, मगर मोक्ष (मुक्ति) कर्मयोग, सेवा, सहायता, पारमार्थिक कर्मों, अपने से अन्य (भिन्न) व्यक्तियों के हेतु, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि के सहारे ही संभव है। 
Its only over the earth that the humans, unlike other creatures have the right to perform deeds (new ventures) make efforts. The reward-fruit of the deeds is available through efforts, prayers, asceticism, meditation, etc. One can choose either of the two directions: one leads to satisfaction-satiation of own desires and the other is meant for the service of the mankind-social welfare. The ventures which make the human crave for self joins (connects) himself with the nature, leading to repeated cycles of birth and death. Prayers, devotion to Almighty, asceticism, charity etc. paves the way for assimilation in the Ultimate, which is eternal. This ensures that he is freed from the clutches of pain, sorrow, grief, tortures, torments. There are the means like Karm Yog, Gyan Yog & Bhakti Yog which paves the way for Salvation.
I am following the path of Karm Yog, Gyan Yog & Bhakti Yog simultaneously. I wish to attain Moksh but only after discharging all those responsibilities-duties assigned to me by the Almighty. I want to get rid of sin accumulated in previous births. I am certain that Maa Saraswati Hanuman Ji Maharaj, Ganpati and Bhagwan Shiv helped me time & again. They are still helping me.
One should make full use of the opportunity obtained as a human being to attain Salvation.
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥
चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) को उनके गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक; मेरे द्वारा रचा गया है। उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी को तुम अकर्ता ही जानो। मुझे कर्मों के फल की कामना नहीं है, इसलिए कर्म मुझे लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो तत्त्व से मुझे जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।[श्रीमद् भगवद्गीता 4.13-14]
The Almighty who is imperishable, all pervading, creator of this universe has created the four castes-Varn along with their characteristics, duties and functions. In spite of being the creator, HE remains unattached with this action, detached like a non performer. HE is not inclined to the reward (fruit, result, outcome) of HIS actions. So, those actions do not involve-absorb HIM. 
इस चराचर में समस्त प्रणियों का उद्भव उनके प्रारब्ध-पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार सत्व, रज और तम गुणों के अनुरूप होता है। पृथ्वी पर मनुष्यों सहित समस्त जीवधारी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति के गुणों से अविभूत हैं। पशु, पक्षी, सर्प, वृक्ष आदि अपने गुणों के अनुसार उपरोक्त चारों गुणों के अनुरूप वर्णों में बँटे हुए हैं। इतना ही नहीं देवता, दानव आदि भी अपने पूर्व जन्म और प्रारब्ध के अनुरूप ही हैं। समस्त प्राणियों का कर्तव्य है कि अपने कर्तव्य कर्मों का नियम-धर्म के अनुरूप पालन करें। यह पूजा का एक रूप ही है। इन सब की उत्पत्ति करने का-कर्तापन का अभिमान-स्पृहा भगवान् को नहीं है। इस सब में परमात्मा का कुछ भी व्यय नहीं रहता अर्थात पूर्ववत ही रहता है, क्योंकि सभी प्राणियों में उसका अंश उपस्थित है। शरीर प्रकृति का अंश है और प्रकृति में ही विलय हो जायेगा। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि इस शरीर के अंग-अंश हैं और नष्ट प्रायः हैं, यद्यपि उनका परिमाण भी यथावत रहता है। धन-सम्पत्ति, नाते-रिश्तेदार इस शरीर से सम्बन्ध रखते हैं और कर्म, कर्तव्य और कर्मफल के हेतु हैं। जो भी मनुष्य कर्म करते हुए भी कर्म फल की इच्छा से मुक्त है, वो दिव्य गुण सम्पन्न हो जाता है। भगवान्  भी अपने किये गए कर्तव्य-कर्म से असम्बद्ध हैं। मनुष्य का ध्यान जब तक कामनाओं, वासनाओं, ममता, आसक्ति, फलेच्छा में रहेगा, तब तक वह संसार सागर में गोते खाता, डूबता-उतराता रहेगा। इस सबसे  दूर हटने से वह मलिनता से मुक्त होकर दिव्य आचरण वाला हो जायेगा। जो कुछ उसे मिला है, वही उसे निष्काम भाव से परहित-परमार्थ में अर्पण कर देना है। 
कर्म में कर्तव्याभिमान शामिल है। वह क्रिया, जिसमें कर्तव्याभिमान ना हो, फलदायक भी ना हो और जो फलेच्छा से रहित कर्तव्याभिमान से मुक्त दिव्य है, वो लीला है। सांसारिक मनुष्यों द्वारा कर्म होता है, मुक्त पुरुषों द्वारा क्रिया होती तथा भगवान् के द्वारा लीला होती है।
Each and every organism is tied with his destiny, which is the outcome of deeds in previous births depending upon the three basic characteristics: Satv, Raj and Tam. The Almighty created four basic (fundamental) groups of human, Varn-castes on the basis of the actions (performances, functions, duties) in this universe. A total of 84,00,000 species exist in this universe in the form of animal, birds, snakes, reptiles, trees and all other categories etc. Various other divine species like giants, demons, demigods, deities, Rakshas, Yaksh, Gandarbh too were evolved through this basis fundamental rule of nature. What is common in them is the soul-a component of the Almighty HIM SELF. Its the responsibility of each and every organism to act according to the functions allotted to him. Deviation from them bring impurity resulting in cycles of birth and death. Carrying out of these functions as per the Varnashram Dharm is a form of prayer. The body will vanish after a certain pre decided period of time. The sense organs will help the individual in discharging-performing according to the sanctioned duties, depending upon the individuals desires, motives, qualities. The wealth-accumulations will help him in redeeming his status as a divine entity, if it is utilised for the sake of helping the ones, in need (the poor, needy). Relatives, wealth are concerned with the body and are the means of action, duties and the desire for the reward. One's concern, clamour  for the desires, motives, wants will keep him struck with the world and he will continue drowning and rising up and down, in the ocean of births and rebirths. The moment he isolate himself from desires, motives, sensuality, lust, wishes he qualifies for the divinity and freedom from births and deaths. Its his pious-revered duty to invest his belongings for the service of humanity, man kind, social welfare.
The Almighty is free from the ego of having done it and so should an individual be. Nothing is lost in the creations by the God and similar is the story when an individual perform for the sake, service of mankind, society or others selflessly, relentlessly, free from motives.
Karm, deeds, action by an individual is associated with ego, action free from ego is pure if it is not turning into output, while the Karm which is free from the desire of reward and ego is divine.
Humans perform deeds, the detached make pure actions, while actions of the Almighty are divine.
The Muslims, Europeans and neo Buddhists made concerted efforts to demolish Hinduism. After independence people like Gandhi, Ambedkar, Nehru (a Muslims posing as Hindu) made efforts to wipe of Varnashram Dharm. They have succeeded partially. The politicians are doing their best to scrape the caste system unsuccessfully. New castes are emerging polluting the society beyond limits. Even the RSS & BJP are not far behind since they too are politically motivated.
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्॥
पहले भी मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्यों ने इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तुम भी पूर्वजों जैसे ही सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही करो।[श्रीमद् भगवद्गीता 4.15]
There had been people in the past who performed without the desires (motives, incentives) for attaining Salvation (Assimilation in the Almighty, Liberation). Therefore, one should also work on the lines-foot prints of the ancestors.
अर्जुन मुमुक्षु थे और अपने कल्याण चाहते थे। जनक, विवस्वान, मनु, इक्ष्वाकु आदि भी मुमुक्षु थे। मुमुक्षयों ने भी कर्म योग का तत्व जान कर कर्म किये हैं। अतः मनुष्य को निष्काम भाव से कर्म-कर्तव्य करने चाहिये। कर्म करते हुए योग में स्थित होना चाहिये और योग में स्थित होते हुए भी कर्म करना चाहिये। कर्म करना-प्रवृति और कर्म न करना-निवृति, दोनों ही मानव प्रवृति-प्रकृति के अंग हैं। दोनों से ऊपर उठना योग है। पूर्ण निवृति मनुष्य के लिये संभव नहीं है। संसार से सम्बन्ध विच्छेद करने के लिये यदि निस्वार्थ भाव से कोई कर्म किया जायेगा तो वह बंधन कारी नहीं होगा। मुमुक्षुओं ने कर्तव्याभिमान और फलेच्छा का त्याग करके कर्म किये हैं, जो बंधन कारी नहीं है।
Arjun was desirous of release from the cycles of birth and death. Prior to him various mighty kings like Janak, Vivisman, Ikshvaku and Manu attained Liberation by realizing the gist (extract, theme, central idea, nectar) of Karm-performance. Whatever has to be done, it should be done without the desire-clamour of fruit (favourable result, outcome). One should establish himself in Yog, while performing work and vice versa. To do work and not to do work, both are human tendencies. To rise above both of these is Yog. Complete freedom from non performance is impossible for the humans. The deed undertaken for the benefit of the masses-society will not be binding. There should be no selfishness in one's motives and he will be free from the repeated clutched-cycles of birth and death. Those who are desirous of Salvation are free from the pride-ego of having done (achieved, performed) some thing, without expecting a return.
People with a will to be liberated had performed like this, in the past (with success). So one should also perform the same type-pattern of actions as were done by the ancestors.
Its possible to work along with the reciting the names, verses, rhymes pertaining to the God. One can listen to songs related to the God, Bhajans, prayers etc. while driving, gardening, swimming, talking, cooking, eating or sitting, laying down silently etc. If its difficult to sleep at night; try recitation of a Shlok devoted to the Almighty and see the impact. A sound sleep comes automatically. I have been practicing it for more than 20 years, now.
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥
कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसका निर्णय करने में बुद्धिमान भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए, मैं तुमसे वह कर्म-तत्व कहूँगा जिसे जानकर तुम अशुभ (कर्म, संसार बंधन) से मुक्त हो जाओगे।[श्रीमद् भगवद्गीता 4.16]
One, the wise, enlightened too, get deluded in understanding the nature of action (work, function, endeavour, deed) and inaction? Therefore, the Almighty decided to explain-elaborate the gist of action, which liberates one  from the inauspicious (ties, bondage from actions).
भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि केवल शरीर ही नहीं अपितु मन, वाणी के द्वारा होने वाली क्रियाएँ (विचार) भी कर्म हैं। कर्म का भाव जैसा होगा वैसा ही स्वरूप वह ले लेगा जायेगा :- सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक, यद्यपि देखने में वे एक से ही लगते हैं। उपासना, साधना सात्विक है, परन्तु यदि उसे कामना पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया जाये, तो वही राजसिक तथा किसी के नाश के लिए किया जाये तो वही तामसिक हो जाती है। प्रवृति अथवा निवृति मार्ग दोनों ही मुक्ति के साधन बन जाते हैं। वही कर्म, अकर्म हो जाता है, यदि कर्ता में फलेच्छा (आसक्ति, राग, द्वेष, ममता) नहीं है, तो यह निर्लिप्तता है। इस बात को समझना कि ये दोनों ही मुक्ति के मार्ग हैं, कर्म-तत्व को जानना है। कर्म जीव को बाँधता है और अकर्म (पारमार्थिक) मुक्ति दाता है। सात्विक त्याग में कर्म करना भी अकर्म है। कर्म और अकर्म की विभाजन रेखा इतनी बारीक-महीन है कि शास्त्रों का ज्ञाता, अच्छे से अच्छा अनुभवी और तत्वज्ञ-विद्वान भी मोहित हो जाता है। कर्मयोग और त्याग में विवेक की प्रधानता से ये पारमार्थिक कर्म ही किये जाते हैं। कर्म तत्व के इस रहस्य को समझने के बाद मनुष्य भव सागर के पार उतर जाता है।
Bhagwan Shri Krashn explained to Arjun that its not only the body which perform, but the brain (thoughts, ideas and speech) too works. It is the motive (idea, concept) behind actions, which makes them Satvik-pure, Rajsik-desirous & Tamsik (contaminated, stained, slurred, polluted, wicked, vicious) by the desire of harming some one. The prayers too turn to Satvik, Rajsik or Tamsik according to the thinking of the individual. Intentional or otherwise, both type of deeds turn into zero, leading one to freedom from reincarnations, if there is no desire, attachment, allurement, enmity. Both of these are modes of Liberation if intentions are pure for the sake of improving the society-helping others. The line drawn between Karm-work and Akarm-no work is so fine that, it often confuses the most intelligent (enlightened, wise) knowing the gist, understanding of scriptures, Varnashram Dharm. Karm Yog and renunciation associated with prudence becomes devotional for the society as a whole. The purity of theme (gist, central idea, intentions) behind the thoughts is sufficient to sail through the ocean, called living world.
Its the intention which makes the motive Satvik, Rajsik or Tamsik. Good intention is Satvik and bad intention is Tamsik.
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥
कर्म का तत्व-स्वरूप भी जानना चाहिए और विकर्म का तत्व-स्वरूप भी जानना चाहिए तथा अकर्म का तत्व-स्वरूप भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्मों की गति गहन, छिपी हुई, कठिन है।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.17]
One should understand-realize the essence, gist of pious-righteous actions, vices (wretched, immoral actions, sins) and inaction because the effects, results, outcome of actions is hidden-deep. 
अन्तःकरण के भाव से कर्म के तीन भेद हैं। कर्म, अकर्म और विकर्म। सकामभाव से की गई कोई भी क्रिया कर्म बन जाती है। फलेच्छा, ममता, आसक्ति से रहित परमार्थ कर्म अकर्म बन जाता है। विहित कर्म यदि अहित की भावना अथवा दुःख पहुँचाने के भाव-इच्छा से किया गया तो वह भी विकर्म-पाप बन जायेगा तथा शास्त्र निषिद्ध कर्म तो विकर्म है ही। निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना ही अकर्म के तत्व को जानना है। कामना से कर्म होते हैं और कामना बढ़ जाने से विकर्म। समतापूर्वक किया गया विकर्म भी अकर्म बन जाता है। विकर्म के तत्व को जानना है, उसका और कामना का स्वरूप से त्याग करना है। 
कर्म की गति को कर्तव्याभिमान और फलेच्छा-सुखेच्छा के रहते जानना-समझना बेहद कठिन (क्लिष्ठ, मुश्किल) है।
Deeds-actions can be divided into three categories according to their impact over the inner self-thinking of the individual. (1). Basic: (1.1). Vested (latent, contained, entrusted) & (1.2). Ordained, prescribed (proper, determined, fit), (2). Deeds undone (inaction, having no impact over the doer) & (3). Vices (sins, wretched, criminal offences, immoral acts). Any result oriented action performance is deed. Actions made (done without desire, motive turn into deed undone, not performed). Ordained, prescribed (proper, determined, fit) performed with the desire-motive of harming others, turn into sins. Any deed against the scriptures too is  a sin. Bad intensions lead to evil, devilish, demonic, vicious, wicked deeds. Understanding of the fact that performances without involvement-attachment, is knowing the gist of deeds. Performances associated with equanimity, turn into deeds undone, how so ever intricate-horrific may they be. Understanding the gist of deeds undone and their summary rejection is essential. Its extremely difficult-intricate to know the orientation of the outcome-result of deeds due to the association of ego-pride and desire-motive for comforts-luxuries.
One has to perform till he is alive. His actions should be free from desires, motives, own benefit if he wish to attain Salvation. The deeds may be virtuous in one situation and yet a sin in another. 
कर्मण्यकर्म यः पश्येद-कर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥
जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी सभी कर्मों को करने वाला है।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.18] 
One who sees (finds, perceives, observes) inaction in action and action in inaction, he is wise-enlightened among humans. He is a Yogi-established and is the doer-performer of all actions; nothing remains to be done by him.
जब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है, कर्म करना अथवा न करना दोनों ही कर्म हैं। कोई भी कर्म करते हुए अथवा न करते हुए उससे निर्लिप्त रहना, यानि कि प्रवृति अथवा निवृति न रखना, मनुष्य को बन्धन मुक्त रखता है। यह योगी का लक्षण है। निर्लिप्तता स्वयं के लिये और कर्म संसार-प्रकृति के लिये हैं, धर्म स्वरुप हैं। परिवर्तन शील प्रकृति और निवृति का आरम्भ और अंत होता है, मगर परम निवृत तत्व-अपने स्वरूप का अन्त नहीं होता। जो बुद्धिमान है, वह इस कर्म तत्व को समझ लेता है अर्थात उसने सब कुछ जान लिया। फल की इच्छा न रखने से राग उत्पन्न नहीं होता और परमार्थ-हित करने से साधक वीतराग हो जाता है और सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। कर्म योगी सिद्धि और असिद्धि में सम रहता है। वह फलेच्छा, ममता और आसक्ति का त्याग करके केवल दूसरों के लिये कर्तव्य-कर्म करता है। करना, जानना और पाना शेष न रहने से वह कर्मयोगी अशुभ संसार बंधन से मुक्त हो जाता है। 
By the time one has relation with the nature i.e., he is alive; whether he does any thing or not, he is continuously working (functioning, performing). Whether one does any thing or not his indifference (detachment, dissociation) keeps him free from bonds-ties. Neither he intends to do nor desires to detach to remain aloof. This is the characteristics of a Yogi. Detachment is for himself and performances are for the nature i.e., for others. The nature and intentions-tendencies to detach have a beginning and end, but the own self (inner self, soul) has no end. The intelligent-prudent, grasp the gist (extract, theme) of this concept. Understanding of this concept means that he has understood every thing. Loss of desire to have the reward of deeds creates detachment and he start functioning in the interest of others-society which relinquishes him and he weighs the work and no work equally. 
He, the Karm Yogi has acquired equanimity in achievements and failures-no success. He rejects the desires for reward, affections, attachments, allurements and performs for the service-as a duty, for the sake of others (the deserving), in need. The Karm Yogi has nothing to do, know or receive and this makes him free from the inauspicious bonds (clutches, ties) in this  world-universe.
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥
जिसके सम्पूर्ण कर्मों के आरंभ कामना और संकल्प से रहित होते हैं और जिसके सभी कर्म ज्ञान रूपी अग्नि द्वारा जल चुके हैं, उसको ज्ञानी लोग भी पंडित-बुद्धिमान कहते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.19] 
One, the beginning of whose actions is without desires & determination-commitments  and whose deeds have been eliminated (vanished, burnt, covered, consumed) by the fire of wisdom (enlightenment) is recognised as a Pandit (philosopher, wise, learned, scholar) by the enlightened. 
किसी कार्य को करने का निश्चय करना-निर्णय करना संकल्प होता है। अच्छा-बुरा, हानिकारक-लाभप्रद है अथवा नहीं, यह देखना तथा नुकसान करने वाला हो तो अन्य मार्ग-पथ का चुनाव करना विकल्प तलाशना है। जब विकल्प हट जाये तब कामना रह जाती है। कर्मयोगी में संकल्प और विकल्प दोनों ही मिट जाते हैं। उसके सामने जो मार्ग है, उसमें कामना नहीं होती, परन्तु कर्म होता है। उसके द्वारा हर काम सुचारु रूप से सांगोपांग और तत्परता पूर्वक किया जाता है। उसके कार्य शास्त्र सम्मत होते हैं। उनसे किसी का अहित नहीं होता। उनमें संकल्प और कामना का अभाव रहता है। यह समझ लेना कि कर्म का सम्बन्ध शरीर के साथ है, स्वरूप (शरीरी, आत्मा) के साथ नहीं, ज्ञान है। शरीर और कर्म दोनों ही नाशवान हैं। कर्म योगी कर्मयोनि मानव शरीर में रहकर भी इसमें लिप्त नहीं होता।  कर्मों में  लिप्त होना बुद्धिमान के लिए असम्भव है। 
The decision to start some job, project, work is determination. One may opt for alternatives only after finding gains or losses, associated with what he wants to do. Failure to find alternatives, leaves behind longing-unsatisfied desires. The Karm Yogi has no choices-alternatives and motives. The path adopted by him is free from desires-longings, with the pure, pious, virtuous, righteous performances. All his deeds are perfect, associated with readiness-willingness, done-performed, smoothly-dedicatedly. His functions have the permission of the Shastr (scriptures, Philosophy). He never intends to harm anyone. Understanding of the fact that deeds are associated with the body & not with the soul is acquisition of learning-knowledge. Body as well as deeds are perishable. 
Karm Yogi utilise the human body (incarnation) for achieving the Ultimate without being attached to it. One who has understood-grasped this gist, is praised by the enlightened as learned (wise, intelligent, prudent).
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥
जो व्यक्ति कर्म और फल की आसक्ति का त्याग करके आश्रय से रहित और स्वयं में  सदा तृप्त-नित्य संतुष्ट है, वह कर्मों में लगा हुआ होकर भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.20] 
One who has given up (rejected, relinquished) attachment for the actions and their fruits, is always content with him self and is independent, though engaged in actions, is a not a doer-performer, in essence-reality.
कर्म करते हुए कर्ता का यह भाव कि शरीरादि कर्म-सामग्री मेरी है, मैं कर्म करता हूँ, कर्म मेरा औए मेरे लिए है तथा इसका मुझे यह-अमुक फल मिलेगा, तब वह कर्म फल का हेतु बन जाता है। अगर इनमें किञ्चित मात्र भी आसक्ति नहीं है तो वो कर्मफल का हेतु नहीं बनता। देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि का किञ्चित मात्र भी आश्रय न लेना निराश्रय है। उसे स्वतः सिद्ध नित्य तृप्ति का अनुभव हो जाता है। उसके सम्पूर्ण कर्म केवल संसार के हित में होते हैं। 
सांगोपांग रीति से सब कर्म करते हुए भी वह वास्तव में किञ्चित मात्र कोई कर्म नहीं करता, क्योंकि सर्वथा निर्लिप्त के साथ कर्म का स्पर्श ही नहीं होता तथा उसके सभी कर्म अकर्म  हो जाते हैं। अतः वह कर्मफल से बँधता ही नहीं। 
The thinking (understanding) of the doer that this body, the objects, materials, (aims, targets, goals) to perform are mine, the deeds are mine, I will be rewarded in this or that manner, become the motive for performance-more & more repeated performances. If one is not inclined (attached, interested) in the result oriented deeds,  he remains aloof (unstained, unslurred, untainted) from the outcome-result of the deeds. Not to seek dependence over country-place, period (era, time), object-material, individuals, situations makes one independent. He starts realising contemplation-satisfaction. All his deeds-motives are directed towards the  well being of the masses-society. This is the state when he does every thing strictly according to the dictates of scriptures-Shastr but the deeds & their out come become null and void, since he is detached (relinquished, content). He remains untied (unbonded, free) with the deeds and their out come.
The relinquished performs but is not tied by the impact, result, out come of the deeds.
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः। 
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥
जिसका शरीर और अन्तःकरण अच्छी तरह से वश में किया हुआ है, जिसने सब प्रकार के संग्रह का परित्याग कर दिया है, ऐसा इच्छा रहित कर्म योगी-मनुष्य केवल शरीर-निर्वाह संबंधी कर्म करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.21] 
One who has controlled his body and the inner self (soul, heart, ego pshyche & mind), who has rejected-relinquished the collection (storage, accumulation, possessions) of every thing, a desires free person-Karm Yogi is not tainted-slurred, while doing-discharging all his duties pertaining to the sustenance of the body.
कर्मयोगी आशा और इच्छा से मुक्त है। अतः उसका शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण स्वतः वश में हो जाते हैं। सन्यास की अवस्था में कर्मयोगी सब प्रकार के भोग-संग्रह का परित्याग कर चुका है। गृहस्थ हो, तो भी वह भोग की दृष्टि से किसी चीज का संग्रह नही करता, अपितु संसार की सेवा के दृष्टिकोण से रखता है। उसमें कामना, आशा, स्पृहा, वासना नहीं रहते। निवृति परायण कर्मयोगी केवल शरीर-निर्वाह के लायक न्यूनतम  कर्म ही करता है। क्योंकि उसका कर्म करने अथवा न करने से अपना किञ्चित मात्र भी सम्बन्ध नहीं है, इसलिए वह जन्म-मरण तथा पाप से भी मुक्त है। उसमें आलस्य-प्रमाद भी नहीं हैं। उसके शरीर, इन्द्रियांँ संयत हैं। 
Karm Yogi is free from desires-motivation. His physique, sense organs and the inner self (soul, heart, ego, sentiments, psyche  & mind) are disciplined-under control. As a hermit (wanderer, recluse), he has relinquished (rejected) the tendency to accumulate (collect, store) goods for comforts-utilisation. As a household-family member, he possess these commodities for the benefit-utilisation of others-as a component social responsibilities. He is liable to fulfill his families needs as a responsibility. He is free from desires-wants, hope, sensuality, sexuality, passions. One who has the tendency to Liberate, stocks-piles only that much goods as are needed for sustenance-subsistence. Since, he has no relation with deeds-performances or non performances, he is free from sins & birth or death. He is free from laziness & intoxication. His physique and sense organs are balanced. Mentally, he is sound-perfect.
The needs of the relinquished are barest possible, minimum. He has no desire or ambition. He performs for the sake of others and does not accumulate-acquire any thing for himself.
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥
अपने आप जो कुछ मिल जाये उससे वह संतुष्ट रहता है, जो ईर्ष्या से रहित, द्वंद्वों (हर्ष, शोक आदि) से रहित तथा सिद्धि और असिद्धि में सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.22]
One is satisfied-content with whatever comes his way through destiny (stroke of luck, fate) automatically-without efforts, is beyond enmity-envy &  disputes, has attained equanimity towards success and failure, is not bound by the deeds-actions while doing-discharging them.
कर्मयोगी निष्काम भाव से सभी कर्तव्य-कर्म करता हुआ, फल प्राप्ति की इच्छा से रहित-कर्म के अनुकूल या प्रतिकूल, लाभ या हानि, मान अपमान, स्तुति-निन्दा से अपने अन्तःकरण में दोष उत्पन्न नहीं देता। उसके लिए समस्त चराचर के प्राणी एक समान हैं। उसे किसी से भी ईर्ष्या-ग्लानि-द्वेष नहीं है। उसका मन-मस्तिष्क अन्तर्द्वन्दों, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, से मुक्त है। वह द्वैत और अद्वैत, निर्गुण या निराकार  के झगड़े-झंझट से दूर है। सिद्धि-असिद्धि में उसका सम भाव है। वह तो कर्म करते हुए भी नहीं बँधता-फिर अकर्म और कर्म न करने से तो कैसे बँधेगा!? वह तो पूर्ण रूप से निर्लिप्त है। उसे समता की प्राप्ति हो चुकी है। 
Karm Yogi does every thing without attachment with it, without the desire of reward-positive out come of it. He does not bother weather the proceeds are gain or loss, praise or slur, insult or honour, prayer or blasphemy. For him the entire world is one. All its creatures-organisms are similar-identical having the component-soul of the Almighty, in them. His mind (mood, psyche, inner self, heart, soul) are never perturbed-disturbed, by pain or pleasure, enmity or friendship. He do not care for the duality of the Almighty. He has same attitude-equanimity, towards success and failure. He is unbonded-free, while working-performing deeds and therefore, he can not be tied (tainted, slurred), when he is not performing. He has attained equanimity.
Equanimity, contentedness, self satisfaction paves the way for the Karm Yogi.
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥
जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, जो मुक्त हो गया है, जिसकी बुद्धि स्वरूप के ज्ञान में स्थित है, इस प्रकार केवल यज्ञ के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.23] 
One whose attachments have destroyed, who is free (liberated, without bonds, ties, attachments, allurements) whose intelligence is stable in enlightenment (memory of the Almighty) and he does work for the sake of Yagy-sacrifices (performs only for the sake of social benefit) only; all his Karm-deeds, which connects him with the unending cycle of birth and death are lost. He is set to get Salvation-Liberation, Assimilation in the Almighty. This is the Ultimate goal of human incarnation which connects him to eternity.
मनुष्य का घटनाक्रम, क्रियाओं, पदार्थ, परिस्थितियों, व्यक्तियों से जो सम्बन्ध-हृदय से लगाव है, वही जन्म-मरण का हेतु है। मनुष्य असंग होते हुए भी शरीर, इन्द्रियों, बुद्धि, पदार्थ, परिस्थिति आदि से सम्बन्ध मानकर सुख की चाहत में, उनसे आबद्ध हो जाता है। कर्मयोगी इनको अपने लिये नहीं मानता, अपितु संसार की ही सम्पत्ति मानकर, संसार को ही अर्पित कर देता है। उसमें अहम नष्ट हो जाता है। वह ममता, आसक्ति, कामना के प्रवाह से मुक्त हो जाता है। उसकी बुद्धि में स्वरूप का ज्ञान नित्य-निरन्तर जाग्रत रहता है। क्रिया और पदार्थ जड़ हैं, इनका स्वरूप से किञ्चित मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। ये प्रकाश्य और स्वरूप प्रकाशक-चेतन, असंग है। निस्वार्थ रूप से दूसरों की सेवा यज्ञ है। क्योंकि यज्ञ के लिये कर्म करने से सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं। अतः कर्मयोगी के सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं। मनुष्य के जीवन का महत्व इसलिए है कि वो मोक्ष के लिये यज्ञ रूपी सतत् प्रयास जारी रखे।
Attachment of the human being with the situation, events, actions, material objects and the other organisms, results in unending cycle of infinite incarnations leading to 84,00,000 species. He keeps on vibrating-rotating from one them to the other. Man is mortal but the soul is for ever. The inner self though independent, yet it gets attached with the desire for comforts with actions, commodities, body, sense organs, intelligence, situations etc. The Karm Yogi, do not consider all these for him self. He is busy with the benefit of society, masses, down trodden. His ego-pride have been lost. He has offered-provided, all his belongings for the service of man kind (social welfare, masses, public), who needs them. He no more suffers from desires, attachments (allurements, ties, bonds). His intelligence always keep him alert about the real self (soul, the component of the God) with in him.
He has realised that actions and material objects are inertial-static in nature. The real self has no permanent connection with them. The real self shows the static nature of material objects-body and actions. Selfless service is Yagy (ascetic practice, prayer, devotion, worship). 
Since, one has been busy through out his life performing for others, all his deeds have resulted in his detachment-freedom from reincarnation. He has successfully utilised the opportunity for his Liberation (Assimilation in the Almighty, Salvation).
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। 
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥
जिससे अर्पण किया जाये (स्त्रुक्, स्त्रुवा) वे पात्र ब्रह्म है, यज्ञ में अर्पित हव्य पदार्थ (तिल, जौ, घी, आदि) द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्म रूपी कर्ता द्वारा ब्रह्म रूपी अग्नि में आहुति रूपी क्रिया भी ब्रह्म है, ऐसे यज्ञ को करने वाले जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म-समाधि हो गई है, उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.24] 
Offerings-sacrifices, pots (instruments, implements) in a Yagy (Hawan, Agnihotr, sacred scarifies in holy fire) are Brahm, materials sacrificed in Agnihotr-sacrificial fire constitute Brahm, one who is making sacrifice-oblation in the fire, sacrifice and the sacrificial fire too, is Brahm and one who has attained Karm Samadhi in the Brahm, output, result-rewards obtained out of this Hawan-sacrifice by the performer too constitute Brahm-the Ultimate.
यज्ञ में अग्नि रूप हुई आहुति मुख्य है। सभी साधन साध्य रूप होने पर यज्ञ बनते हैं। यज्ञ में परमात्म तत्व वास्तविकता है। यज्ञ कर्ता के सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। अर्पण की क्रिया, पदार्थ, आहुति देने वाला, अग्नि और आहुति देने की क्रिया ब्रह्म ही हैं। कर्ता को ब्रह्म में ही कर्म समाधि अनुभव होती है अर्थात उसकी सभी कर्मों में ब्रह्म बुद्धि होती है। उसके सम्पूर्ण कर्म ब्रह्म रूप हो जाते हैं। उसे फल के रूप में भी ब्रह्म की ही उपलब्धि होती है। उसकी दृष्टि में सिवाय ब्रह्म के अन्य किसी की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। 
Sacrificial fire is the main component of the Yagy (Hawan, Agnihotr). Sacrifices offered, turn into eternal fire. All means pertaining to Yagy Karm turn into (Assimilate into the Ultimate, Eternal). All actions of the devotee-performer turn into non actions, leading him to freedom from birth and death. 
All functions (offerings, oblations, materials, performer, sacrificial fire) and the processes too turn into Brahm. The doer finds Brahm Samadhi in his actions-process. He receives the out put of the Yagy in the form of Brahm, it self. He do not find any thing independent, other than the Brahm.
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। 
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा :- परम अक्षर ब्रह्म और परा प्रकृति को अध्यात्म कहते हैं। परब्रह्म परमेश्वर परमात्मा के द्वारा प्राणियों की सत्ता को प्रकट करना  कर्म है।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.3]
Bhagwan Shri  Krishna said :- Param Akshar is a manifestation of Brahm-the Almighty (Om, Pranav, Ved, Nature, the eternal and immutable Spirit of the Supreme Being). The creative power of Almighty that causes manifestation of the living entity is called Karm.
परम अक्षर का नाम ब्रह्म है। ब्रह्म को प्रणव, वेद, प्रकृति के लिए भी प्रयोग किया गया है। परम अक्षर सर्वोपरि सच्चिदानन्दघन, अविनाशी, निर्गुण-निराकार परमात्मा का वाचक है। आत्मा का वर्णन-बखान भी अध्यात्म है। स्वभाव के अध्यात्म के साथ आने से यह जीव के होने अर्थात उसके स्वरूप का वाचक बन गया है। समस्त सृष्टि के परमेश्वर में विलय के तदोपरांत पुनः महासर्ग की शुरुआत होती है, जिसे कर्म कहा गया है। महाप्रलय के वक़्त अहङ्कार और सञ्चित कर्मों सहित प्राणियों का प्रकृति में लीन होना, परमात्मा को प्रकृति को क्रियाशीलता प्रदान करने के लिए संकल्प उत्त्पन्न करता है। यही सृष्टि की रचना, फल रहित क्रिया और फल जनक शुभ-अशुभ कर्म के कारक बन जाते हैं। फिर भी सृष्टि रचना का कर्ता होने के बावजूद परमात्मा अकर्ता ही हैं।
The Almighty is represented by the Ultimate letter vowel "ॐ" OM, called Brahm. This is used to illustrate the primary sound created at the occasion of the evolution-creation of nature, Veds, the indestructible God-who is without characteristics and form. This is spirituality-mythology and explanation of the characteristics of soul too is spirituality-mythology. Combination of organism-nature with mythology-spirituality becomes his form. At the time of destruction-dissolution, the entire nature and the organisms merge into the Almighty with their characters, tendencies, ego and appear again when evolution takes place. This process is described as Karm (action, activity, deed) performed by the God, which is without ego, indulgence-free from any reward, virtuousness or evilness. Though the Almighty is creating the nature-universe, yet-still HE is not the doer-performer, since HIS indulgence is not there. The organism who had eloped-merged into the Ultimate are reappearing according to the balance of their deeds in previous incarnations.
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना। 
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः॥
ज्ञाता (जानने वाले का नाम ज्ञाता है), ज्ञान (जिसके द्वारा जाना जाये-ज्ञान) और ज्ञेय (जानने में आने वाली वस्तु-ज्ञेय), इन तीनों से कर्म-प्रेरणा होती हैं और कर्ता (कर्म करने वाला, कर्ता), करण (जिन साधनों से कर्म किया जाए, करण।) तथा क्रिया (करना, क्रिया), ये तीनों प्रकार का कर्म-संग्रह है।[श्रीमद्भगवद्गीता 18.18] 
Knowledge, theme (content of Knowledge) and the learned person (the scholar, philosopher, Pandit, enlightened, intellectual) is inspired for Karm and the Motive (instruments, objects), Karm and the doer, leads to acquisition of Karm.
ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता के होने पर ही कर्म की प्रेरणा होती है। कर्ता अनेक हो सकते हैं; परन्तु उन सबको जानने वाला एक ही रहता है, जिसे परिज्ञाता कहा गया है। कर्म संग्रह के 3 कारण हैं :- करण, कर्म और कर्ता। क्रिया करने के साधन करण, चेष्टाएँ कर्म और इन दोनों से संबंध जोड़ने वाला कर्ता है। कर्तापन होने से अहंकृत भाव होने से कर्म संग्रह होता है, अन्यथा नहीं। 
अहंकार और लिप्सा-लिप्तता होने से ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता का संयोग कर्म प्रेरणा और संग्रह पाप-पुण्य का कारण बनता है। 
The doer is responsible for acquisition of Karm. The ego is the vehicle of acquisition in the doer. The tendency-inspiration takes place by ego. Attachment and the combination of knowledge, theme (contents-objects of knowledge) and the learned tends to fulfill the ambition (goals, target). Loss of Ego leads to vanishing of acquired Karm and ultimately Karm Fal.
कर्म योग :: self less performance without the desire of rewards. 
कर्मठ :: कुशलतापूर्वक काम करने वाला; कर्मनिष्ठ, शास्त्रविहित कर्मों को ठीक प्रकार से करने वाला, जिसने कई प्रशंसनीय और स्तुत्य कार्य किए हों, hard working, strenuous, energetic. 
कर्तव्य :: वर्णाश्रम धर्म का पालन; Duty.
स्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। 
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥
इसलिये तू हर वक्त मेरा स्मरण कर और युद्ध (स्वकार्य) भी कर। मुझ में मन और बुद्धि अर्पित करने वाला तू निःसंदेह मुझे ही प्राप्त होगा।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.7]  
The Almighty assured Arjun that he would assimilate in HIM, if he always remembered HIM, performed his duties (war against Kauravs) and directed-focused his brain-thoughts and intelligence in HIM, always-at every point of time.
मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि वो परमात्मा को सुख-दुःख, सोते-जागते, कार्य-आराम करते हुए भी स्मरण करे। यहाँ युद्ध कार्य-कलाप के लिए आया है, क्योंकि हर समय युद्ध हो ही नहीं सकता। यह भी निश्चित है कि अगर प्राणी-मनुष्य परमात्मा का स्मरण करता है, तो परमात्मा भी उसे अवश्य स्मरण करते हैं। मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ शरीर तभी शुद्ध हो सकते हैं, जब मनुष्य स्वयं को प्रभु की शरण में प्रस्तुत करे। प्रभु का स्मरण मनुष्य बोध, संबंध और क्रिया के माध्यम से कर सकता है।
The mortals must not forget that they are being watched continuously by the Almighty (sitting inside him as a soul). All his deeds fair or foul are recorded and he is made to suffer for his misdeeds, evils, wretchedness and rewarded for the virtues. Therefore, the humans should always remember HIM and act precisely. Its one's effort to remember the Almighty at all times, whether working or sitting idle, enjoying or suffering, pain or pleasure. One can not continue to fight all the time. It just indicate work, endeavours, deeds. One remembers the God and HE too reciprocate. One has to surrender before the God in To-To i.e., with his mind, intelligence and thoughts-ideas. Its possible to remember the God through realisation, relation and actions.
DESTINY-FATE प्रारब्ध-भाग्य :: Under the impact of the output, result, fruit, reward of his deeds in his previous lives, the living being could have done- achieved, whatever he liked.
Great Ascetics, clever, intelligent, prudent, mighty people have been found to be deprived off the fruits of their endeavours-efforts in the present birth as a result of evils committed by them in previous births. Obstacles, hindrances, troubles illness are the result of evils of previous births.
Imprudent, inferior, ignorant people who lack good qualities, virtues and without or low intelligence are seen to be associated with all sorts of amenities, luxuries, comforts in life without the blessings of anyone.
People indulged in brutality, cruelty, crime, deceit, misdeeds are found to be enjoying the comforts of life. There are the people, who do not work at all and still, the wealth flows towards them.
There are the people who make repeated, successive efforts, endeavours without success. They fail to obtain the desired commodity. Their wishes never materialise. It shows that the destiny is important.[Narad Puran]
Still, one should never depend upon destiny and continue his endeavours with firm determination honestly without loosing heart-steam.
The organism takes birth and dies, by virtue of the remaining deeds in the previous lives. Who so ever has taken birth in this world will die; there is no doubt in it. Age, deeds, wealth, Education and death of the living being are fixed, while he is in the womb.
यमराज और गरुड़ जी की कथा :: एक बार यमराज और गरुड़ जी एक साथ थे, जब उन्होंने एक तोते को देखा। यमराज ने उसे घूर कर देखा और आगे बढ़ गये। गरुड़ जी ने तोते को देखा तो वह बोला कि उसे यमराज के घूरने से बहुत ज्यादा डर लग रहा है, अतः वे उसे कहीं दूर छोड़ आयें। गरुड़ जी ने तत्काल उसे हजारों मील दूर एक निर्जन पीपल की खोखर में छोड़ दिया और वापस यमराज के पास आये और पूछा कि उन्होंने तोते को घूर कर क्यों देखा था। यमराज ने कहा कि उस तोते की मौत हजारों मील दूर एक पीपल के पेड़ की खोखर में काले नाग के खाने से लिखी हुई थी। इसीलिए उन्होंने यह सोचा कि कुछ ही पलों में वह तोता वहाँ तक कैसे पहुँचेगा?! अब गरुड़ जी ने कहा कि वो उसे अभी वहाँ छोड़ कर आये हैं। यमराज ने कहा कि वहाँ उस नाग ने तोते को खा लिया है। 
मार्कण्डेय कथा :: भगवान् शिव के वरदान से मार्कण्डेय का जन्म हुआ। भगवान् शिव ने कहा कि वे मात्र 7 वर्ष तक जीयेंगे। मार्कण्डेय जी के पिता ने उन्हें भगवान् शिव की आराधना शिवलिंग के पास बैठने कर करने के लिये कहा। निर्धारित समय पर यमदूत आये। उनकी हिम्मत मार्कण्डेय जी ले जाने नहीं पड़ी। अब यमराज स्वयं आये और जैसे ही उन्होंने यमपाश फैंका भगवान् शिव प्रकट हो गये और यमराज से कहा कि तुम काल हो और में महाकाल हूँ। तुम वापस जाओ। मार्कण्डेय जी अब भी जीवित हैं और उनकी आयु लाखों वर्ष में है। ईश्वर आराधना और कर्म सत्कर्म के प्रभाव से प्रारब्ध को भी बदला जा सकता है।
सात्विक कर्म :: 
नियतं सङ्गरहितम रागद्वेषतः कृतम्। 
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥
जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले-फलेच्छा से रहित पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो, वह सात्त्विक कहा जाता है। [श्रीमद्भागवत गीता 18.23]
The deeds fixed (described) in the Shashtr-ordained and performed by an individual as per procedure-without attachment, free from the ego of having done it, without the desire for reward, attachments and prejudices is Satvik.
कोई भी कर्म जो वर्ण और शास्त्र के अनुसार किसी परिस्थिति में और जिस समय शास्त्रों ने जैसा करने के लिए कहा है, वह व्यक्ति के लिए नियत कर्म हो जाता है। शास्त्र निषिद्ध कर्म नहीं करना चाहिये। नियत कर्म कर्तव्याभिमान से रहित होकर किया जाना चाहिये। राग द्वेष से रहित होकर कर्म किया जाये। कर्म का त्याग द्वेष पूर्वक न हो। कर्म के साधन-शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदि से भी राग द्वेष रहित हो। कर्म भविष्य में मिलने वाले फल की इच्छा से रहित होकर किया जाये। पदार्थ से निर्लिप्त रहते हुए, असंगतापूर्वक किया गया कर्म सात्विक है। जब तक कि अति सूक्ष्म रूप से भी कर्म की प्रकृति के साथ संगता-सम्बन्ध है, वह सात्विक है; प्रकृति से सम्बन्ध विच्छेद होते ही वह कर्म अकर्म हो जाता है। 
The Karm as per dictates of Varn, Ashram and situation is fixed for a person. One must not act against the Shastr. He should be free from ego. Physical growth, working of organs and systems takes place automatically, under the influence of nature. This realisation, detaches a person from various duties and responsibilities, eliminating ego.
Acceptance of duties, actions and responsibilities by a person and his innerself should be free from attachments, prejudices and devoid of actions. Any action performed without the desire of reward in future with detachment from actions and possessions is Satvik (Pure, pious). Satvik Karm is Satvik, till it is attached with nature even at microscopic level, otherwise it becomes Akarm-deed, action not performed.
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥
जो कर्ता राग रहित, कर्तव्याभिमान से रहित धैर्य और उत्साह से युक्त तथा सिद्धि और असिद्धि में निर्विकार है (कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है), वह सात्त्विक है। [श्रीमद्भागवत गीता 18.26] 
Doer who is free from attachments, pride and ego (feeling of having done or achieved something), possess patience and enthusiasm (zeal, morale), unstained by accomplishment (success, fulfilment, attainment) or failure is Satvik (Pious, virtuous, righteous).
साँख्य-ज्ञान योगी के समान सात्विक कर्ता का भी राग नहीं होता। सात्विक कर्ता का कामना-वासना, आसक्ति, स्पृहा, ममता आदि से सम्बन्ध न जोड़ने के कारण लिप्तता का अभाव रहता है। उसका आसुरी भावना से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसमें निर्विकार, त्यागी होने का अभिमान नहीं है। विध्न-बाधा आने पर भी उसमें धैर्य-धृति नित्य, निरन्तर, लगातार बनी रहती है। वह घृति और उत्साह से युक्त है। उसे पूरी शक्ति, ताकत, समझ, समय, सामर्थ्य लगाने पर भी काम पूरा हो या न हो पाये, सिद्धि-असिद्धि, प्रसन्नता-खिन्नता, हर्ष-शोक आदि में निर्विकार रहना है।
आसक्ति-अहंकार से रहित, धैर्य-उत्साह से युक्त, सिद्धि-असिद्धि में निर्विकार कर्ता सात्विक है। 
The devotee should abstain from the feeling of having sacrificed, detached, being defectless or that he has no ego. Feeling of being special or something, due to possessions, ego or pride should be discarded by the doer with inner strength. He should maintain his patience (calm-cool) and should not deter in spite of obstacles in difficult situations, confrontation by failures, unexpected poor performances-results, obstructions, which is within his limits and reach. He should maintain his patience and Keep up his enthusiasm, zeal and morale in adverse situations-circumstances, without losing heart.
Accomplishments or failures in spite of whole hearted efforts never create pleasure or sadness in his innerself, which are divine and out of his control.
The Satvik never demonstrate his abilities, specialities or powers. Uninvolved-he just do it.
राजस कर्म :: 
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः। 
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥18.24॥ 
परन्तु जो कर्म भोगों की इच्छा से अथवा अहंकार से और परिश्रम पूर्वक किया जाता है, वह राजस है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.24] 
The action (deed-labour) performed-done with the desire for rewards in the form of pleasures, gratification, honours, enjoyment, sex, (suffering is not included in it) or due to vanity, ego, pride is Rajsik.
मनुष्य कर्म करेगा तो उसे पदार्थ-वस्तु, सुख-आराम, भोग की उपलब्धि होगी, आदर-सम्मान मिलेगा, बड़ाई होगी आदि-आदि फ्लेच्छा से किये गये कर्म हैं। कर्म योगी का शरीर में थोड़ा अभिमान रह भी जायेगा तो वह साँख्य योगी के समान ज्यादा बाधक नहीं होगा। कोई भी कर्म स्वयं के लिये न करने से उसे कर्तव्याभिमान नहीं होगा, क्योंकि वह उसने मात्र कर्तव्य पालन हेतु किया है। कार्य के पूरा होने पर वह कर्तृत्व-अभिमान उसी कार्य में लीन हो जायेगा। 
(1). कोई कार्य करता हुआ देखे और तारीफ करे या अकेले में दूसरों की तुलना में अपने कार्य में विलक्षणता-विशेषता हो तो अभिमान-अहंकार हो ही जाता है। यह अहंकार पूर्वक किया गया कर्म राजस है। (2). फलेच्छा से किया गया कर्म भी राजस है। (3). शरीर के सुखों की प्रधानता होने से फलेच्छा की अवहेलना हो जाती है और फलेच्छा की प्रधानता होने से सुखों की अवहेलना हो जाती है। अहंकार और परिश्रम पूर्वक फलेच्छा से किया गया कर्म राजस है। राजस व्यक्ति की जरूरतें ज्यादा, परिश्रम ज्यादा (झूँट, फ़रेब, बेईमानी, छल-छंद, कपट, आपराधिक प्रवृति, चंचलता आदि की अधिकता), राग द्वेष का बढ़ना, आराम-सुख की चाहत बढ़ती ही रहती है।
Ability to perform better, excellence at work, higher educational qualification, status, intelligence-genius, cleverness, honesty, honours, expectation of rewards in future or present associated with labour are Rajsik.
Enthusiasm in doing work by minimising rest, pleasures and comforts, overloading self with hard work, targets, goals etc. is associated with demand for pleasures, joy, luxuries, intimacy, physical comforts; may ultimately result in indifference, negligence and ignorance at work.
Such people increases their needs, requirements, possessions leading to more demand, in turn more labour, associated with attachments to the body and possessions-enhancing their need for rest-due to tiredness, fatigue and ultimately little labour appeared to be too big for them.
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः। 
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥
जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला-रागी और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने वाला-हिंसक, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है, वह राजस कहा गया है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.27] 
The doer who, is attached to the desire of reward, fruits of action, greed, with violent-cruel nature, impure and is passionate-associated with pleasure (happiness, pleasure, sexuality-sensuality, lasciviouness) and pains (worries, sorrow, sadness) is Rajsik. 
राजस कर्ता रजोगुणी होने के कारण के रागी (कर्मों, कर्म फल, वस्तु, पदार्थ आदि में अभुरुचि रखने वाला) कहा गया है। उसे जो कुछ भी मिलता है, उसमें उसकी संतुष्टि नहीं होती और ज्यादा की चाहत बनी रहती है। वो हिंसक व्रती का, अपने स्वार्थ के लिए दूसरे का नुकसान करने वाला, दुःख देने वाला होता है। उसमें विवेक बुद्धि का अभाव होता है। वह जिन-जिन भोग पदार्थों का संग्रह करता है, वे सब अपवित्र हो जाती हैं। उसके आस-पास का वायुमण्डल-स्थान अपवित्र हो जाता है। वह सफलता-विफलता, अनुकूल-प्रतिकूल, परिस्थिति, घटनाक्रम, हर्ष-शोक, सुख-दुःख, राग-द्वेष में ही उलझा रहता है। इतना अवश्य है कि रजोगुणी में होश और सावधानी का पुट बना रहता है। 
One who find attraction towards actions, performances and their rewards, desirous of possessions and affections, likes, attachments is Ragi (attached). All his actions are associated with the motive-desire of returns, gains, profits. He seeks more and more of all such things, which satisfy-gratify his ego, thirst, anxiety for honours, fame, money, respect. He has no regard or concern for the troubles, tensions losses, incurred by others due to his selfishness. It causes heart burns, envy, jealousy in the have not’s-the poverty stricken. He attacks, terrorise, invades, intrudes, loots, murder others and slaughter anyone and everyone, who dare obstruct him. The envious, depressed, oppressed do feel hurt, humiliated (physically, mentally, sentimentally, spiritually) and curses do affect him. His body, all his possessions, place where he lived, burnt-cremated, buried becomes impure-inauspicious. He keeps struggling with pains-pleasures, successes-failures or favourable-unfavourable happenings. Both Rajsik and Tamsik have a common characteristic of violence and cruelty. Rajsik is conscious, careful and absorbed while Tamsik has no sense or understanding.
तामसिक कर्म :: 
अनुबन्धं क्षयं हिंसा-मनवेक्ष्य च पौरुषम्। 
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न देखकर केवल मोहपूर्वक-अज्ञानवश आरंभ किया जाता है, वह तामस है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.25] 
Actions-deeds undertaken without considering consequences, injury, ability, results, outcomes, losses, violence, destruction and own capacity-calibre out of delusion (allurement, ignorance) are Tamsik (darkness).
मूढ़ तामस की प्रधानता के कारण किसी भी कर्म और उसके परिणाम का विचार करता ही नहीं। 
बिना विचार जो करे, सो पीछे पछताये; 
काज बिगारे आपनो, जग में होय हँसाये। 
मनुष्य को कोई भी कार्य करने से पहले यह देख लेना चाहिए कि इससे अपनी या दूसरों की कोई हानि तो नहीं हो रही है। धन-समय, अपमान-निन्दा, तिरस्कार, लोक-परलोक तो नहीं बिगड़ रहा? कहीं जीवों की हिंसा-हत्या तो नहीं हो रही? इन सबसे उसका अधोपतन तो नहीं हो रहा? उस कार्य को करने की मेरी क्षमता है कि नहीं? मेरी बुद्धि-बल, सामर्थ्य, समय, कला, ज्ञान, पौरुष पर्याप्त हैं अथवा नहीं? ये सब कुछ विवेकहीन कभी भी नहीं सोचता। बुरे से बुरा काम करके भी वह गर्व-बड़ाई का अनुभव करता है। दूसरों के काम में बाधा-अवरोध उत्पन्न करना उसका स्वभाव बन जाता है और उसको तमोगुणी होने के कारण घोर नर्क-हीन  योनियों में जन्म लेना पड़ता है। 
The Tamsik doer fails to weigh his own ability, capabilities, intelligence, knowledge, vigour-vitality, manly strength, courage, spirit before beginning with the work. He acts as per his own mood, whims, fancy, caprice, will, without prudence or reasoning. It’s a part of his nature to obstruct-bully others. He seldom understand, the destruction-loss caused to others by his action; automatically leading to his own downfall, Ultimately.
Satvik devotee automatically progress (moves towards Bhakti, Salvation), due to his innerself and nature.
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः। 
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥18.28॥ 
जो कर्ता असावधान-अयुक्त, अशिक्षित-शिक्षा से रहित, ऐंठ-अकड़ वाला, जिद्दी, घमंडी, धूर्त, उपकारी का अपकार-बुरा करने वाला (दूसरों की जीविका का नाश करने वाला) तथा विषादी-शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है, वह तामस कहा जाता है। 
A doer who is careless-lacks concentration, crude-uneducated, rigid-stiff, stubborn, malicious-injurious (offensive, harmful, hostile, inimical, censurable), to the beneficent (helpful, furthering, conducive), lazy, morose, depressed, procrastinate (Unsteady, vulgar, unbending, wicked, indolent, desponding and procrastinating) is Tamsik.
The Muslim terrorists of today and invaders of the past falls in this category.The Britishers who invaded and ruled India too comes under this category.Those who converted Hindus and are still busy with this nonsense too are imprudent-Tamsik.
(1). तामसी प्रवृति का मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार नहीं करता, क्योंकि वह मूढ़ है। (2). उसे शास्त्र, सतसंग, उपदेश, अच्छी-उचित शिक्षा की प्राप्ति नहीं हुई। (3). उसका मन, वाणी, शरीर में अकड़ है, जिसके कारण वह वर्णाश्रम के अनुसार अपने से बड़े-बूढ़ों, माता-पिता, गुरु-आचार्य, आदि के साथ आदर-सम्मान, विनम्र व्यवहार नहीं करता। (4). वह शठ-जिद्दी भी है। (5). वो प्रत्युपकार नहीं करता, उलटे बुरा करने का मनोविचार रखता है। (6). वह उचित कर्म नहीं करता, अपितु नींद-आलस में रहता है। (7). इन सब कारणों से उसे सफलता (मोक्ष, मुक्ति) की प्राप्ति नहीं होती, अतः उसे विषाद, क्रोध-आक्रोश बना रहता है। (8). अविवेकी होने के कारण, उसे हर काम को करने में अधिक समय लगता है और उसका कोई काम सुचारु रूप से चलता भी नहीं है। इन आठ लक्षणों वाला व्यक्ति तामस कहलाता है। तामस वृति का विवेक से विरोध है। अतः तामस मनुष्य अधिक विषादी होता है।
The Tamsik individual is incapable of analysing, thinking, decide what to do and what not to do or to appropriate, which makes him careless.
A person, who has not studied Shastr-scriptures, has not been in the association of virtuous people or attended congregations, is devoid of preaching, is crude, illiterate or uneducated, does not bow down in front of parents, elders, teachers, respected people or the mighty, has no manners, is not mild, courteous, humble, reverential, affable or submissive, is Tamsik.
He is wicked, vicious, deceitful and unprincipled, does not accept the good advice due to his stubbornness and considers-likes his own thoughts-fancy & caprice only. He is a person who do not mind harming the people who were helpful-conducive to him. He does not like work, keeps day dreaming, prefer sleep-laying down in the bed. He suffers from sadness, despair, melancholy, depression and is sullen, ill tempered and is unsocial.
It takes him long to finish a work. He is imprudent and do not try to find ways and means to minimise effort or to make the job easier and convenient-is unable to devise short cuts.
RENUNCIATION-EMACIPATION मोक्ष संन्यास योग (18) श्रीमद्भागवत गीता santoshkipathshala.blogspot.com
नू रोदसी बृहद्धिर्नो वरूथैः पत्नीवद्भिरिषयन्ती सजोषाः।
उरूची विश्वे यजते नि पातं धिया स्याम रथ्यः सदासाः॥
हे द्यावा-पृथ्वी! आप दोनों हम लोगों के लिए अन्न दान की अभिलाषिणी और परस्पर सङ्गता है। विस्तीर्णा प्रदान करें, व्याप्ता एवं याग योग्या होकर आप दोनों हमें पत्नी युक्त महान गृह प्रदान करें तथा हम लोगों की सुरक्षा करें। हम लोग अपने अच्छे कर्म के द्वारा रथ और दास से युक्त होवें।[ऋग्वेद 4.56.4]
Hey earth & heavens, complementary of each other! You wish to donate food grains. Grant us protection, progress and houses along with wife. Let us become the possessors of charoite and servants by virtue of our pious-righteous deeds.

Contents of these above mentioned blogs are covered under copy right and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS RESERVED WITH THE AUTHOR.
संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)

Monday, April 20, 2015

COMMANDMENTS धर्माचरण :: HINDU PHILOSOPHY (14) हिंदु दर्शन

धर्माचरण COMMANDMENTS
HINDU PHILOSOPHY (14) हिंदु दर्शन 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
मानव का वैश्विक आचार धर्माचरण पर निर्भर करता है। इनके अनुशरण द्वारा ही मनुष्य विश्व में कीर्ति प्राप्त करता है और अंततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति करता है।
सनातन धर्म के 30 लक्षण :: 
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्[श्रीमद्भागवत 7.11.8]
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्[श्रीमद्भागवत 7.11.9]
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव[श्रीमद्भागवत 7.11.10]
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्[श्रीमद्भागवत 7.11.11]
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति[श्रीमद्भागवत 7.11.12]
महात्मा विदुर द्वारा प्रतिपादित धर्म के आठ अंग :: इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ। इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है।[महाभारत]
धर्म के 9 लक्षण ::
अहिंसा सत्‍यमस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्‍ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्॥‌
अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति। [याज्ञवल्क्य स्मृति 1.122]
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। 
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
संतोष, क्षमा, मन को दबाना, अन्याय से किसी की वस्तु को न लेना, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियों का निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, क्रोध न करना; ये धर्म के दस लक्षण हैं।[मनु स्मृति 6.92]
धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच (पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह, ज्ञान, विद्या, सत्य, क्रोध का त्याग ये धर्म के दस लक्षण हैं। मानव के लिये इन दस वैश्विक आचार का पालन करना अनिवार्य है। मानव किसी भी वर्ण तथा आश्रम में हो सभी को सभी आचारों का पालन करना चाहिये। स्मृतियों में वैश्विक आचार की विशद् व्याख्या की गई है।
Contentment, forgiveness, suppression of mind-self control, abstention from unrighteous appropriating anything (not to snatch, loot, belongings of others), purity-cleaning of the body, coercion of the organs (sensuality, sex, lust), wisdom-prudence, knowledge (learning, enlightenment, Tatv Gyan-Gist of the Supreme Soul), truthfulness and abstention from anger, form the ten tenets, rules for an auspicious life.
तुलसीदास जी द्वारा वर्णित धर्मरथ :: 
सुनहु सखा, कह कृपानिधाना, जेहिं जय होई सो स्यन्दन आना।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।
बल बिबेक दम पर-हित घोरे, छमा कृपा समता रजु जोरे।
ईस भजनु सारथी सुजाना, बिरति चर्म संतोष कृपाना।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा, बर बिग्यान कठिन कोदंडा।
अमल अचल मन त्रोन सामना, सम जम नियम सिलीमुख नाना।
कवच अभेद बिप्र-गुरुपूजा, एहि सम बिजय उपाय न दूजा।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें, जीतन कहँ न कतहूँ रिपु ताकें।
महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होई दृढ़, सुनहु सखा मति-धीर। [लंका काण्ड]
पद्मपुराण ::
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ॥
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत॥
ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥
धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।[पद्मपुराण, शृष्टि 19.357-358]
सनातन धर्म में चार पुरुषार्थ :: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः स धर्म। 
(जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है।[गौतम ऋषि ]
जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये, यह धर्म की कसौटी है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्॥
धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो। अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये।
महाभारत ::
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥
मरा हुआ धर्म मारने वाले का नाश और रक्षित धर्म रक्षक की रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले।[महाभारत वनपर्व 313.128]
जो व्यक्ति धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है। और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए।
मानव के लिए धर्म मनसा, वाचा, कर्मणा होता है। यह केवल क्रिया या कर्मों से सम्बन्धित नहीं है बल्कि धर्म चिन्तन और वाणी से भी संबंधित है।[वात्स्यायन]
मनु, याज्ञवल्क्य, बृहस्पति, आपस्तम्ब आदि सभी स्मृतिकारों ने देशकाल एवं अवसर की परवाह किये बिना वैश्विक आचार का पालन करने के लिये कहा है। वैश्विक आचार वे आचार हैं जिनका किसी भी परिस्थिति में, सभी वर्णों तथा आश्रमों के व्यक्तियों द्वारा किया जाना अनिवार्य है। सभी स्मृतिकारों, दार्शनिकों, ब्राह्मणों, उपनिषदों, धर्मशास्त्रों का सारभूत आचार यही हैं। 
वैश्विक आचार-आचरण के 12 नियम :: 
(1). धृति (धैर्य) :: मेधातिथि के अनुसार धनादि का नाश होने पर धैर्य रखना चाहिये। प्रारम्भ किये हुए कर्म में बाधा तथा दुःख आने पर भी विचलित न होना धृति है। संतोष धृति है। अपने धर्म से स्खलित न होना धृति है। बिना विचलित हुये कर्तव्य का पालन करना धृति है। अतः इससे प्रतीत होता है कि व्यक्ति को विपत्तिकाल में भी धैर्यपूर्वक कार्य करना चाहिये। धैर्यपूर्वक कार्य में ही व्यक्ति फलीभूत होता है। 
(2). क्षमा :: मन, वचन या शरीर से दुःख पहुँचाने वाले पर क्रोध न करना व वैर न करना। क्षमाशील व्यक्ति महान माना जाता है। मेधातिथि तथा गोविन्दराज के अनुसार दूसरे के अपराध को सह लेना क्षमा है। क्रोध आने पर भी क्रोध न करना क्षमा है। किसी के अपकार पर बदला न लेना क्षमा है। क्षमा के द्वारा ही विद्वान शुद्ध होता है। अपना अपमान सह लेना क्षमा है। अपमान को प्राप्त व्यक्ति सुख पूर्वक विचरण करता है तथा अपमान करने वाला नष्ट हो जाता है। इस लोक तथा परलोक में सुख प्राप्त करने का एकमात्र साधन क्षमा है क्षमावान् मनुष्य को व्यक्ति मूर्ख विचारते हैं, यद्यपि वह स्वयं मूर्ख-अज्ञानी होते हैं। क्षमाशील व्यक्ति ही संतोष प्राप्त कर सकता है। यदि कोई अपराध करें तब क्षमा द्वारा ही स्वयं सुख प्राप्त होता है तथा अपराधी अपराध बोध से ग्रसित हो जाता है। यही उसके अपराध की सजा है। इस प्रकार भूलों से बचने वाला व्यक्ति बुद्धिमान कहलाता है तथा भूलों पर प्रायश्चित्त कर मन को निर्मल करने वाला व्यक्ति आत्म विजय का पथिक होता है। क्षमा का सभी धर्मों में गुणगान किया गया है। क्षमा की यह भावना भारतीय संस्कृति के प्राणों में बसी है। शान्ति ही जीवन के सुख की तुला है तथा यह शान्ति क्षमा भाव के द्वारा प्राप्त होती है। अतः मानव एक दूसरे से क्षमा माँगकर तथा देकर विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
(3). दम :: दम का तात्पर्य है - DAM TRAINING DISCIPLINE-Training of the senses (Indriy, इन्द्रिय संयम) means the responsible use of the senses in positive, useful directions, both in our actions in the world and the nature of inner thoughts we cultivate. Controlling sense organs, sensuality, lust, passions. Restraint of the senses, sensuality, passions-mortification-subduing feelings; शरीर की उपरामता।मन को दुष्ट विषयों से धारण करना दम है। तपस्या करते हुए कष्ट को सह लेना दम है। मन में विकार होने पर भी मन को रोके रखना, मन को निर्विकार रखना दम है। मनुष्य का अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना दम है। ब्रह्मचारी जब वन में निवास करे तब वर्षाऋतु में आकाश के नीचे खुले स्थान में, जाड़ों में जल में शयन करें, ग्रीष्मऋतु में अग्नि के समीप निवास करना दम है। मनुष्य को सदा सुख-दुःख, ठंडा-गर्म, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों का सहन करना चाहिये। ब्राह्मण का दम दान, क्षत्रिय का दम प्रजा तथा आर्तका रक्षण, वैश्य का दम खेती व्यापार तथा पशुपालन आदि तथा शूद्र का दम ब्राह्मण की सेवा करना है। अर्थात् दम द्वारा मनुष्य सभी सांसारिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर मोह, माया, दुःख आदि अवज्ञान के बन्धनों से मुक्त होकर मोझ की प्राप्ति कर लेता है यही मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है। शरद, ग्रीष्म, वर्षा सभी ऋतुओं में एक जैसा जीवन जीने की कला है। सभी वर्णों के स्वधर्म ही उनका दम है। अपनी सभी इन्द्रियों पर विजय पाना मनुष्य का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिये।
(4). ASTEY अस्तेय :: Self restraint from stealing-theft-burglary is desirable. Stealing leads to hells. One must not steal. Stealing, storing stolen goods, selling-buying them are equivalent and leads to punishment as greatest sins.
चोरी एक ऐसा अपराध है, जो मनुष्य को नर्क ले जाता है और वहाँ से मुक्ति के तदुपरान्त हीन योनियों में जन्म प्रदान करता है। चोरी करने वाला, चोरी का माल खरीदने वाला, बेचने वाला बराबर के अपराधी हैं।
अस्तेय का अर्थ चोरी न करना है। अन्याय से किसी दूसरे का धन ग्रहण नहीं करना चाहिये। देवर्षि नारद ने अस्तेय के तीन भेद बताये हैं :- क्षुद्र, मध्यम, उत्तम। साधारण वस्तु की चोरी क्षुद्र, मध्यम वस्तु की चोरी मध्यम, तथा बहुमूल्य वस्तु की चोरी करना उत्तम साहस कहलाता है। मिट्टी से बने पात्र, आसन-कुर्सी, चैकी आदि, खाट पलंग, शैया, अस्थि, गज की अस्थि अथवा अस्थि से निर्मित माला आदि, चन्दन, देवदार आदि की काष्ठ, सिंह, व्याग्र सर्प तथा मृग आदि की खाल, बहुमूल्य प्रकार की घास-फूस शमी वृक्ष की लकड़ी, धान्य तथा पका भोजन क्षुद्र पदार्थों की परिगणित हैं। मूल्यवान सूती तथा ऊनी वस्त्र, गाय को छोड़कर अन्य पशु, स्वर्ण को छोड़कर अन्य धातु तथा धान जौ आदि मध्यम अस्तेय के अन्तर्गत आते हैं। स्वर्ण, रत्न, कौशेय (रेशमी) वस्त्र, स्त्री, पुरुष (दास), गाय, गज, अश्व आदि पशु, देवता, ब्राह्मण अथवा राजा को देय द्रव्य (धन) अथवा पदार्थ सामग्री आदि उत्तम अस्तेय के अन्तर्गत आते हैं। जिस राजा के राज्य में चोरों का निग्रह होता है, उस राज्य के यश की वृद्धि होती है। मनुष्य स्त्री, खेत, घर, कुँएं तथा बावड़ी का सम्पूर्ण जल चोरी करने पर चान्द्रायण व्रत करे। इससे प्रतीत होता है कि चोरी एक दैहिक कर्म है। चोरी करने से मनुष्य पाप की तथा अग्रसित है। चोरी करने से वस्तु सुलभता से प्राप्त तो हो जायेगी मगर व्यक्ति सुकर्मों की ओर अग्रसित नहीं हो पाता। इसलिए चोरी निषेध है तथा समाज को भी क्षति पहुँचाती है। ब्राह्मण के घर से धान्य, अन्न आदि धन को ज्ञानपूर्वक चुराये तो प्राजापत्य व्रत करने से शुद्ध होता है। चुराई हुई वस्तु वापस कर देने पर सान्तपन कृच्छ्र व्रत होता है। भक्ष्य, भोज्य, सवारी, शय्या, आसन, फूल, मूल तथा फल चुराने पर पञ्चगव्य पीना चाहिये तभी पाप की निवृत्ति होती है। मनुस्मृति झूठे वचन बोलने वाले को भी चोर मानती है।
(5). शौच :: अभक्ष्य वस्तु का भक्षण न करना, निन्दित पुरुषों का संग न करना और सदाचार में स्थित रहना। शौच दो प्रकार का होता है :- वाह्य शौच मिट्टी तथा जल से होता है, किन्तु आन्तरिक शौच लोभादि पापों के बचने से होती है। आन्तरिक शौच से जो मनुष्य शुद्ध है वही शुद्ध है दूसरा नहीं। जिन पुरुषों का अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता है, वह पुरुष हजार बार मिट्टी से तथा सौ घड़ जल से भी शुद्ध नहीं हो सकते। मिट्टी तथा जल यत्न पूर्वक प्राप्त होता है; अतः वाह्य शौच के प्रति प्रमाद नहीं करना चाहिये। शौचावस्था में जिस कर्म को दिन में करने के लिये कहा है, उससे आधा रात्रि में तथा रुग्णावस्था में उसका आधा करे तथा मार्ग में शूद्र के समान आचरण करे। मार्ग में शूद्र के समान आचरण करने के लिए इसलिए कहा है कि मार्ग में शुद्ध होने के लिए सम्भव है, मिट्टी तथा जल अप्राप्य हो। शौचाचार के पश्चात् अशौचार से भी मनुष्य की शुद्धि होती है। अशौचार तीन प्रकार का होता है :- जन्म, मरण, जीवनपर्यन्त। सद्यः शौच, एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन, छः दिन, दस दिन, बारह दिन, पन्द्रह दिन तथा एक मास तक तथा मृत्युपर्यन्त तक अशौचार होता है। यदि जन्म समय में मरण-सूतक तथा मरण-सूतक में जन्म-सूतक हो जाये तो दोनों की शुद्धि मरण-सूतक के अशौचार द्वारा होती है। यज्ञ के समय में, विवाह में, देवपूजन में तथा अग्निहोत्र में अशौचार तथा सूतक दोनों नहीं होते हैं। वाह्य शुद्धि से सभी आचार निष्फल हो जाते हैं। अन्तःकरण की शुद्धि से सभी आचार फलवती होते हैं।
(6). इन्द्रिय निग्रह :: कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना आचार है। कान, चर्म, नेत्र, जीभ, नाक, गुदा लिंग हाथ, पैर तथा वाणी दस इन्द्रियां कही गयी हैं। इसमें श्रोत, त्वचा, नेत्र, रसना तथा नासिका ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा गुदा, लिंग, हाथ, पैर, वाणी ये पाँ कर्मेंन्द्रियाँ हैं। मन को ग्यारहवाँ इन्द्रिय माना है जो उभयात्मक है। विद्वान व्यक्ति को इन्द्रियों के विषय में आसक्त नहीं होना चाहिए। इन्द्रियों के स्वतन्त्र होने से दुःख तथा उनको वश में करने से सुख प्राप्त होता है। इन्द्रियों का सारथी मन को जब तक वशीभूत नहीं किया जाता तब तक मनुष्य राग-द्वेष आदि दोष मन से दूर नहीं होता तथा मनुष्य शुभ कर्मों को प्रेरित नहीं होता। इन्द्रियों को नित्य ज्ञान के माध्यम से रोका जा सकता है अपितु इन्द्रियों का सेवन न करने से नहीं रोका जा सकता है। जो व्यक्ति अपनी निन्दा सुनकर, कोमल वस्त्र धारण कर, सुरूप या कुरूप देखकर, सरस या नीरस खाकर, सुगन्ध या दुर्गन्ध को सूंघकर मन में किसी प्रकार की हर्ष या विषाद न हो उसे जितेन्द्रिय कहा जाता है। यदि किसी एक भी इन्द्रिय को छूट दे दी तो उस व्यक्ति की बुद्धि चर्म के पात्र से जल के समान नष्ट हो जाती है। इन्द्रिय संयम का महत्त्व बताते हुए मनु कहते हैं कि - इन्द्रियों को वश करके, मन को संयमित करते हुए योग द्वारा शरीर को सुरक्षित रखता हुआ व्यक्ति सभी प्रयोजनों को सिद्ध कर लेता है। जो मनुष्य इन्द्रियों को संयमित कर लेता है उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। महर्षि दक्ष ने इन्द्रियों को वश में करने वाले मनुष्य को योगी कहा है। प्रणायाम, ध्यान, प्रत्याहार, धारणा, तर्क, समाधि ये योग के छः अग् हैं। इन्द्रिय संयम का महत्त्व बतलाते हुए कहते हैं - ‘‘जो बलपूर्वक दूसरे राज्यों को जीत लेता है वह शूर नहीं कहलाता है, परन्तु वास्तव में वही शूर है जिसने इन्द्रिय रूपी ग्राम को जीत लिया। सर्व बर्हिमुख इन्द्रियों को अन्तर्मुख करके, फिर उन इन्द्रियों को मन में युक्त करके, मन को आत्मा में समायोजित करे तथा सब भावों से रहित क्षेत्रज्ञ को ब्रह्म में मिलावे इसी का नाम ध्यान तथा ज्ञान है। अतः इससे प्रतीत होता है कि इन्द्रिय संयम महत्त्वपूर्ण कर्म है। इन्द्रियों को जीतने वाला जीवन पर विजय प्राप्त कर मोक्षत्त्व को प्राप्त होता है। 
(7). धी :: धी का तात्पर्य बुद्धि है। मेधातिथि के अनुसार सम्यक् ज्ञान, प्रतिपक्ष के संशय को दूर करना ‘धी’ है। शास्त्र आदि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति ‘धी’ है। मनुष्य बुद्धि के माध्यम से गुण तथा अवगुण को भलीभांति समझता है तथा विषयों से होने वाले राग-द्वेष को भलीभांति आकलन करके परिणाम भी निकालता है तत्पश्चात् गुण को ग्राह्य करके द्वेष का त्याग कर देता है। बुद्धि सुख, दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय में व्यक्ति को अपने कत्र्तव्य से विचलित नहीं करती है। विवेक के द्वारा ही मनुष्य जीवन के महत्त्वपूर्ण कर्तव्य-अकर्तव्य में भेद करने में सक्षम होता है। जिस प्रकार युद्ध न करने पर भी ब्राह्मण के शरीर से रक्त गिरने पर दुख होता है उसी प्रकार शास्त्राज्ञान न होने पर मनुष्य मरने पर बहुत भारी दुःख पाता है। मनुष्य को विपत्ति काल में विवेक द्वारा ही कार्य करना चाहिये।
(8). विद्या :: विद्या के अन्तर्गत ज्ञान तथा विज्ञान दोनों का समावेश होता है। ज्ञान के द्वारा मनुष्य जीवन के उद्देश्यों, परम लक्ष्य का निर्धारण करता है तथा उसी के अनुसार अपनी क्रियाओं तथा वृत्तियों का निर्धारण करता है। ऋग्वेद में विद्या को ऐश्वर्य शाली होने का कारण माना गया है। दर्शन, धर्म तथा कला के अर्थों में विद्या का प्रयोग होता है। दर्शन में विद्या का अर्थ तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली विद्या है। धर्म के अनुसार विद्या का अर्थ त्रयी (तीन वेद), धर्मशास्त्र तथा सामाजिक शास्त्र। पौराणिक तथा तान्त्रिक धर्म में विद्या का प्रयोग महादेवी दुर्गा अथवा शक्ति के मन्त्र अर्थ में होता है। कला के अर्थ में विद्या का प्रयोग कलाओं तथा शिल्पों के अर्थ में किया जाता है।
चार विद्यायें ::
(8.1). आन्वीक्षकी (तर्क अथवा दर्शन), (8.2). त्रयी (तीन वेद), (8.3). वार्ता (आधुनिक अर्थशास्त्र) (8.4). दण्डनीति (राजनीति)[ कौटिल्य]
मनु ने भी तीन विद्याओं का उल्लेख किया है। 
विद्या के चौदह  स्थान :: पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, षङ्ग सहित चारों वेद।[याज्ञवल्क्य] 
64 विद्या :: तर्कशास्त्र, साङ्ख्य, योग, लोकायत (नास्तिक दर्शन) आन्वीक्षिकी के अन्तर्गत आते हैं। पाप-पुण्य एवं काम मोक्ष की बातें त्रयी के अन्तर्गत आते हैं।[वात्सायन]
वार्ता का तात्पर्य उस शास्त्र से है जिसके अध्ययन से लोक व्यवहार का ज्ञान प्राप्त होता है। सूदखोरी, खेती व्यापार तथा गोपालन को व्यापार कहते हैं। वार्ता शास्त्र का भली-भाँति ज्ञान रखने वाले को जीविका सम्बन्धी भय कभी नहीं होता है। 
दण्डनीति से सुःशासन-दुःशासन का ज्ञान होता है। विद्या की रक्षा के उपाय बताते हुए मनु कहते हैं :- विद्या ब्राह्मण के पास आकर बोली, ‘‘मैं तुम्हारी सम्पत्ति हूँ, इसलिए मेरी रक्षा करो। मुझे असूया करने वाले व्यक्ति को प्रदान नहीं करना, जिससे मैं वीर्यशालिनी बन सकूँ"।
विद्या का उपदेश उस स्थान पर नहीं करना चाहिए, जिस स्थान पर धर्म तथा अर्थ न हो अथवा उस प्रकार की समर्पित सेवा न हो; क्योंकि ऐसे स्थान पर विद्या (उपदेश देना) बंजर भूमि में रोपे बीज के समान कभी फलवती नहीं होती है। पवित्र, संयमी, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, आलस्य रहित ब्राह्मण को वेद रक्षा के लिए विद्या का उपदेश देना चाहिए।
विद्या द्वारा प्राप्त धन अर्जनकर्ता का होता है, किन्तु जो मनुष्य अनपढ़ होते हुए भी धन संचित करते हैं, उस धन में सभी बराबर के हिस्सेदार होते हैं।[मनु] 
जिस पुरुष के आचरण में विद्या तथा तपस्या दोनों होते हैं, वही श्रेष्ठ पात्र होता है। सभी वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ माने गये हैं; किन्तु श्रेष्ठ ब्राह्मण वही है, जिसे अध्यात्म तत्व का ज्ञान है। वेद विद्या का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति देव योनि में जन्म पाता है। विद्या को सर्वश्रेष्ठ धन है, क्योंकि विद्या विनय प्रदान करती, विनय से सुपात्रता, सुपात्रता से धन, धन से धर्म तथा धर्म से सुख की प्राप्ति होती है। विद्या के द्वारा ही इहलोक तथा परलोक दोनों में सुन्दर गति प्राप्त होती है। विद्या व्यक्तिगत आचार के साथ-साथ वैश्विक आचार का भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है।[याज्ञवल्क्य] 
विद्या ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्। 
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद् धर्मः ततः सुखम्
(9). सत्य :: जिसकी सत्ता है, जिसकी विद्यमानता है, वह सत् है तथा उसी सत् के भाव को सत्य कहा जाता है। सत्य ही सबसे बड़ा दान है, सत्य ही बड़ा तप है, सत्य ही सबसे बड़ा धर्म है। ‘‘सत्य को देव कहा गया है, मनुष्य को सत्य कहा गया है। यही उसका देवत्व है जिसका सत्य में बुद्धि हो"। सत्य से बड़ा धर्म नहीं है, असत्य से बड़ा कोई पातक नहीं तथा साक्षी धर्म के रूप में सत्य बोले (जैसा देखा वैसा कहे)। प्रत्यक्ष देखने या सुनने से सत्य सिद्ध होता है। अतः साक्षी को सत्य बोलना चाहिये साक्षी की धर्म तथा अर्थ विषयक हानि नहीं होती है। जो मनुष्य असत्य कहता है तो वह उल्टे मुँह नरक में जाता है तथा मरकर स्वर्ग से पतित होता है। सत्य बोलने वाले मनुष्य को इस लोक में उत्तम कीर्ति तथा मरने पर उत्तम लोकों को प्राप्त करता है। असत्य बोलने वाला व्यक्ति वरूण के पाशों द्वारा अत्यधिक बाँधा जाता है, जलोदर से सौ वर्षों जन्मों तक ग्रसित रहता है, इसलिए साक्षी को सदैव सत्य बोलना चाहिए। मनुष्य जो भी पुण्य सञ्चित करता है, असत्य बोलने से वे सभी पुण्य नष्ट हो जाते हैं। जिस असत्य से किसी निर्दोष व्यक्ति के प्राणों की रक्षा हो रही हो, उसे बोलने में कोई पाप नहीं है। मनुष्य सदैव सत्य बोले, प्रिय बोले; अप्रिय सत्य न बोले तथा प्रिय असत्य भी न बोले, यही सनातन धर्म है। जो व्यक्ति अधार्मिक तथा असत्य ही बोलता है, वह इस संसार में सुख एवं समृद्धि नहीं प्राप्त कर सकता है। राजा का कर्तव्य है कि सत्य की सावधानी पूर्वक रक्षा करे। असत्य बोलने वाला मनुष्य मृग तथा पक्षी की योनि में जन्म लेता है। सत्यवादी मनुष्य को देवलोक की प्राप्ति होती है। सत्य का मनुष्य के जीवन में महत्त्व स्वयं सिद्ध है। नैतिक आधार पर सत्य सर्वश्रेष्ठ आचार है, जिससे सम्पूर्ण समाज या राष्ट्र का कल्याण होता है। 
(10). अक्रोध  :: क्रोध आने पर भी क्रोध न करना, उसको रोकने का प्रयास करना अक्रोध है। क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। ‘‘चुगलखोरी, दुःसाहस करना, द्रोह करना, ईर्ष्या  करना, गुणों में दोष दृष्टि रखना, दूसरे का धन हड़पने की आकांक्षा रखना, कर्कश वाणी का उच्चारण तथा कठोरतापूर्वक आचरण करना ये सब क्रोध के उत्पत्ति स्थान माने गये हैं। मनु क्रोध का उत्पत्ति स्थान लोभ को मानते हैं। क्रोध उत्पन्न होने पर मनुष्य दण्ड, वचन तथा कष्टपूर्ण आचरण द्वारा उसकी अभिव्यक्ति करता है। पुत्र तथा शिष्य के लिए दूसरे के ऊपर दण्ड न उठावे, न ही क्रुद्ध होकर मारे, न ही शिक्षा प्रदान करने को छोड़कर दोनों को प्रताडि़त करे। 
ब्राह्मण को मारने की इच्छा से केवल दण्ड उठाने वाला द्विजाति भी तामिस्त्र नामक नरक में सौ वर्षों तक घूमता रहता है। क्रोध के कारण सोच-समझकर तिनके के द्वारा मारने पर वह इक्कीस जन्म पर्यन्त तक पाप योनियों में उत्पन्न होता है। विद्वान व्यक्ति किसी भी ब्राह्मण पर दण्ड न उठावे, न तिनके से भी मारे, न ही उसके शरीर से रक्त बहावे। मनुष्य सुख तथा समृद्धि के लिए क्रोध का त्याग करे। जिस प्रकार कच्चे घड़े में पानी नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार क्रोधी मनुष्य के यज्ञ, होम, पूजा नष्ट हो जाते हैं। क्रोध शरीर को नष्ट करने वाला है, अतः क्रोध का नाश कर देना चाहिए। मनु के दस वैश्विक आचार के अन्तर्गत मानव जीवन के लक्ष्य का सारगर्भित रूप परिलक्षित है। याज्ञ, अत्रि आदि स्मृतिकारों ने भी मनु द्वारा प्रतिपादित इन दस वैश्विक आचार को स्वीकार किया है। याज्ञवल्क्य, लज्जा, अत्रि, अनसूया, अनायास मंगल, अकार्पण्य (दान) को अतिरिक्त आचार मानते हैं। 
(11). अहिंसा :: अहिंसा का सामान्य अर्थ हिंसा न करना अर्थात् किसी के प्राण न लेना। अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है, अहिंसा परम तप है, अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा परम फल है, अहिंसा परम मित्र है, अहिंसा परम सुख है। मनु ने ‘‘अहिंसा परमो धर्मः’’ अहिंसा को सभी आचार का मूल माना है। इसका यह अर्थ नहीं है कि व्यक्ति अत्याचार बर्दाश्त करे। उसे मौंका देखते हुए, स्वयं को सुरक्षित महसूस करने पर, प्रतिकार अवश्य करना चाहिये। धर्म की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को अहिंसा द्वारा ही अनुशासन करना चाहिए। अहिंसा द्वारा तपस्वी लोग इस संसार में ब्रह्मपद को प्राप्त कर लेते हैं। 
गृहस्थ द्वारा सर्वदा पाँच हत्याऐं होती हैं :- चूल्हा, चक्की, झाड़ू, ओखली तथा जल का घड़ा के द्वारा की गई हत्याओं की पाप निवृत्ति के लिये पंचयज्ञकर्म का प्रतिपादन किया गया है। मनु ने आठ प्रकार के हिंसा का उल्लेख किया है। ‘‘अनुमन्ता (अनुमति देनेवाला), विशसिता (शस्त्र से मरे हुए प्राणियों के अगें को काटने वाला), निहन्ता (मारने वाला), विक्रेता (माँस बेचने वाला), क्रेता (माँस को खरीदने वाला), संस्कत्र्ता (माँस को पकाने वाला), उपहत्र्ता (उपहार रूप में माँस को देने वाला), खादक (माँस खाने वाला); ये सभी घातक हिंसक होते हैं"। मधुपर्क, यज्ञ (ज्योतिष्टोम आदि), पितृ कार्य (श्राद्ध), देव कार्य में हिंसा करने की अनुमति, इनकी रक्षा हेतु दी गई है जो कि वेद सम्मत है (अन्यत्र कहीं नहीं)। आपत्ति काल में भी अनावश्यक हिंसा न करने की आज्ञा दी गई है। अहिंसक जीवों की हत्या करने का निषेध करते हुये कहा गया है कि ‘‘जो अहिंसक जीवों का अपने सुख (जिव्हा स्वाद, शरीर पुष्टि आदि) की इच्छा से वध करता है, वह इह लोक तथा पर लोक में सुख पूर्वक उन्नति नहीं कर सकता अर्थात मोक्ष मार्ग को प्राप्त नहीं कर सकता है। जो देवता तथा पितरों को बिना तृप्त किये दूसरे (जीवों) के माँस से अपने शरीर के माँस को बढ़ाना चाहता है, उससे बड़ा दूसरा कोई पापी नहीं है। माँस त्याग का फल सौ अश्वमेध यज्ञ के फल के बराबर है। माँस भक्षण में छूट देते हुए मनु कहते हैं कि मदिरा सेवन तथा मैथुन करने माँस भक्षण करने में दोष नहीं है यहाँ माँस शब्द का अर्थ मिठाई, मधुर पदार्थ हैं न कि पशुओं का मृत शरीर)। शरण में आये बालक तथा स्त्री की हिंसा करने वालों का प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होने पर भी उनके साथ कोई व्यवहार नहीं रखना चाहिये। अन्न के अभाव में या रोग में माँस के बिना प्राण बचना कठिन हो, श्राद्ध में, प्रोक्षण नाम के (श्रौत संस्कार) में देवताओं की आहुति से अवशिष्ट, ब्राह्मण के भोजन या देवता तथा पितर के लिये बनाये गये माँस को देवता तथा पितरों की अर्चना करके खाने वाला पाप का दोषी नहीं होता है (यह छूट केवल आपात काल में प्राण रक्षा हेतु ही है, अन्यंत्र नहीं)। 
अत्रि मुनि ने हिंसा करने वाले मनुष्य के लिये प्रायश्चित का भी विधान किया है। जो मनुष्य काष्ठ, ढेला आदि से गौ को मारता है, वह ‘‘कृच्छ’’ व्रत करे तथा जिसने गौ हत्या मिट्टी के द्वारा की है वह ‘‘अतिकृच्छ’’ व्रत करें। शम्भ ऊँट, अश्व, हाथी, सिंह, व्याघ्र वा गर्दभ की हत्या करने वाले शूद्र की हत्या के समान प्रायश्चित्त करे। बिल्ली, गोह, नेवला, मेंढक वा पक्षी को मारने वाला तीन दिन तक दुग्ध पान कर फिर पादकृच्छ्र प्रायश्चित करे। मूर्ख ब्राह्मण को मारने पर शूद्र की हत्या का प्रायश्चित्त करे। जो मनुष्य शिल्पी, कारीगर, शूद्र तथा स्त्री को मारता है वह दो प्राजापत्य प्रायश्चित करके ग्यारह बैलों का दान करे तब उसकी शुद्धि होती है। निरपराधी वैश्य या क्षत्रिय की हिंसा करने वाला मनुष्य दो अति कृच्छ्र व्रत कर बीस गौ दक्षिणा में देने से शुद्ध होता है। जो मनुष्य अधर्मी वैश्य, शूद्र तथा कुकर्मी ब्राह्मण को मारता है, उसकी शुद्धि चांद्रायण व्रत के करने तथा तीस गौवें दान करने से होती है। यदि ब्राह्मण ने चाण्डाल की हिंसा की तो वह कृच्छ्र तथा प्राजापत्य व्रत कर दो गौवें दक्षिणा में देकर शुद्ध होता है। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा किसी अन्य जाति ने यदि चांडाल की हिंसा की हो तो वह अर्द्धकृच्छ्र व्रत करने से शुद्ध हो जाता है। आत्मरक्षा के निमित्त हिंसा करने पर पाप नहीं लगता है। वशिष्ठ जी ने छः प्रकार की हिंसक मनुष्यों का उल्लेख किया है। अग्नि लगाने वाला, विष देने वाला, जिसके हाथ में शस्त्र हो, धन का चुराने वाला, खेत चुराने वाला तथा स्त्री की चोरी करने वाला। स्मृतियों में हिंसा तथा अहिंसा दोनों के यथास्थिति प्रयोग करने की आज्ञा दी गई है। मनुष्य को हिंसा करने का अधिकार विशेष आपत्तिकाल परिस्थितियों में दिया गया है अन्यथा नहीं। अहिंसा की भावना प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी है। इसके बिना मानव जाति सहित समस्त प्राणियों के बीच सुख, शान्ति, स्थापित होना असम्भव है। प्राणी की हिंसा करना पाप माना गया है। 
(11). दान :: दान को ही स्मृतियों में इष्ट तथा पूर्त भी कहा गया है। इष्टाचार अग्निहोत्रादि यज्ञों से सम्बन्धित कहे गये हैं तथा पूर्त धर्म के अन्तर्गत दान एवं उत्सर्ग का समावेश होता है। इष्ट का तात्पर्य यज्ञ तथा दक्षिणा तथा पूर्त का तात्पर्य दान तथा उत्सर्ग है। यम ने दान को गृहस्थ का परम धर्म बतलाया है। इष्ट का तात्पर्य (मण्डप के भीतर यज्ञादि का कार्य) तथा पूर्त का तात्पर्य (वापी, कूप, तड़ाग आदि का निर्माण) करवाना है। इष्ट के माध्यम से स्वर्ग तथा पूर्त के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति होती है। कलियुग में दान को ही श्रेष्ठ माना गया है। जो दान स्वयं जाकर दिया जाता है, वह उत्तम है, बुलाकर जो दान दिया जाता है वह मध्यम है, दान याचना करने पर दिया जाता है, वह निकृष्ट है तथा जो सेवा करा कर दान दिया जाता है, वह निष्फल है। अशिक्षित तथा तप से हीन व्यक्ति को दान देने से दाता नरक को प्राप्त करता है। यथा शक्ति प्रतिदिन गौ दान देना चाहिए। (सूर्य या चन्द्रग्रहण) जैसे अवसरों पर विशेष रूप से यथाशक्ति दान देना चाहिए। गोदान द्वारा मनुष्य स्वर्ग की प्राप्ति करता है। वेद का दान (केवल द्विजाति को) सभी दानों में श्रेयस्कर है, इसका दान देने वाला ब्रह्म लोक में अचल होकर सतत निवास करता है। दान इतना ही देना चाहिए, जिससे अपने कुटुम्ब के भरण पोषण में कठिनाई न हो। पुत्र तथा स्त्री को दान में नहीं देना चाहिए। भूमि  दान सबके लिये सार्थक है। अन्न तथा वस्त्र का दाता परलोक में निवास करता है। सुवर्णदान, गोदान तथा पृथ्वी दान करने वाला मनुष्य सभी पापों से मुक्ति पा लेता है। कन्या दान करके प्राप्त फल कभी भी नष्ट नहीं होता है। श्राद्ध दान देने वाला व्यक्ति दीर्घायु, सन्तान, धन, विद्या, मोक्ष, सुख तथा राज्य को प्राप्त करते हैं। कुल में दानी पुरुषों की अधिकता हो, ऐसी प्रार्थना ईश्वर से करनी चाहिए। बिना माँगे जो मिले उसे अमृत तथा माँगने पर जो मिले उसे मृत समझना चाहिये। शास्त्रोक्त दान के द्वारा प्राप्त धन धर्मयुक्त कहा गया है। अतः मनु जी के द्वारा कथित धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध वैश्विक आचार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मनु जी ने अहिंसा तथा दान को दस धर्म के लक्षण के अन्तर्गत नहीं माना है तथापि अहिंसा तथा दान अन्य आचारों में परिलक्षित होते हैं। पुरुषार्थ चतुष्ट्य (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) सभी व्यक्तियों के लाभ हेतु है। मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है। अतः वेदों को मनुष्य का प्राण धारक माना जाता है, क्योंकि वेद ही जीवन का मार्ग प्रशस्त करते हैं। वेद कर्म धारक, उपनिषद् उपासना तथा ब्राह्मण ज्ञान विषय ग्रन्थ है। वेद की शिक्षाएं उदात्त तथा महान हैं। वेदों में दार्शनिक ज्ञान ही नहीं, अपितु जीवन के प्रत्येक अंग का ज्ञान है। वेद के वचन जीवन को उन्नति की ओर अग्रसर करते हैं। वैदिक संहिताओं में अनेकों विषयों की भांति आचारिक विषयों का भी वर्णन किया गया है। वस्तुतः हृदय के विचार ही आचार के प्राण स्वरूप है। आचार क्षणिक सुख का हेतु अधिक नहीं है, जितना सम्पूर्ण जीवन को एक ठोस आधार देना है। वैदिक आचार पद्धति में ऋत के अनुरूप संसार के सारे कार्य सुचारू रूप से चलते हैं। चराचर लोक की सृष्टि, संवर्धन तथा संहार के नियामक ऋत की प्रतिष्ठा सामाजिक जीवन में की गई। वेदों, उपनिषदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, पुराणों, वेदागें आदि के जीवन दर्शन का उल्लेख स्मृतियों में किया गया।
भूमि दान की महिमा महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में भूमि दान की महिमा का वर्णन हुआ है। भगवान् श्री कृष्ण भूमि दान की महिमा का वर्णन करते हुए कहा, पाण्‍डुनन्‍दन! अब मैं सबसे उत्तम भूमि दान का वर्णन करता हूँ। जो मनुष्‍य रमणीय भूमिका दक्षिणा के साथ श्रोत्रिय अग्‍निहोत्री दरिद्र ब्राह्मण को दान देता है, वह उस समय सभी भोगों से तृप्‍त, सम्‍पूर्ण रत्‍नों से विभूषित एवं सब पापों से मुक्‍त हो सूर्य के समान देदीप्‍यमान होता है। वह महा यशस्‍वी पुरुष प्रात:कालीन सूर्य के समान प्रकाशित, विचित्र ध्‍वजाओं से सुशोभित दिव्‍य विमान के द्वारा मेरे लोक में जाता है। क्‍योंकि भूमि दान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है और भूमि छीन लेने से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है। कुरुश्रेष्‍ठ! दूसरे दानों के पुण्‍य समय पाकर क्षीण हो जाते हैं, किंतु भूमिदान के पुण्‍य का कभी भी क्षय नहीं होता। राजन! पृथ्‍वी का दान करने वाला मानो सुवर्ण, मणि, रत्‍न, धन, और लक्ष्मी आदि समस्‍त पदार्थों का दान करता है। भूमि-दान करने वाला मनुष्‍य मानों समस्‍त समुद्रों को, सरिताओं को, पर्वतों को, सम-विषम प्रदेशों को, सम्‍पूर्ण गन्‍ध और रसों को देता है। पृथ्‍वी का दान करने वाला मनुष्‍य मानों नाना प्रकार के पुष्‍पों और फलों से युक्‍त वृक्षों का तथा कमल और उत्‍पलों के समूहों का दान करता है। जो लोग दक्षिणा से युक्‍त अग्‍निष्‍टोम आदि यज्ञों के द्वारा देवताओं का यजन करते हैं, वे भी उस फल को नहीं पाते, जो भूमि दान का फल है। जो मनुष्‍य श्रोत्रिय ब्राह्मण को धान से भरे हुए खेत की भूमि दान करता है, उसके पितर महाप्रलय काल तक तृप्‍त रहते हैं। राजेन्‍द्र! ब्राह्मण को भूमि दान करने से सब देवता, सूर्य, शंकर और मैं, ये सभी प्रसन्‍न होते हैं, ऐसा समझो। युधिष्‍ठर! भूमि दान के पुण्‍य से पवित्र चित्त हुआ दाता मेरे परम धाम में निवास करता है, इसमें विचार करने की कोई बात नहीं है। मनुष्‍य जीविका के अभाव में जो कुछ पाप करता है, उससे गोकर्ण मात्र भूमि दान करने पर भी छुटकारा पा जाता है। एक महीने तक उपवास, कृच्‍छ और चान्‍द्रायण व्रत का अनुष्‍ठान करने से जो पुण्‍य होता है, वह गोकर्ण मात्र भूमि दान करने से हो जाता है। ब्राह्मण को भूमि दान करने का पुण्य और सम्‍पूर्ण तीर्थों में स्‍नान करने से जो पुण्‍य होता है, वह सारा पुण्‍य गोकर्ण मात्र भूमि का दान करने से प्राप्‍त हो जाता है। युधिष्‍ठिर ने कहा, देवेश्‍वर कृष्‍ण! आपको नमस्‍कार है। सुरेश्‍वर! मुझे गोकर्ण मात्र भूमि का दान ठीक-ठीक माप बतलाने की कृपा कीजिये। भगवान् श्री भगवान, नृपश्रेष्‍ठ पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्‍ठिर! गोकर्ण मात्र भमि का प्रमाण सुनो। पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण चारों ओर तीस-तीस दण्‍ड नापने से जितनी भूमि होती है, उसको भूमि के तत्‍व को जानने वाले पुरुष गोकर्ण मात्र भूमि का माप बताते हैं। कुरुश्रेष्‍ठ! जितनी भूमि में खुली हुई सौ गौं, बैलों और बछड़ों के साथ सुख पूर्वक रह सकें, उतनी भूमि को भी गोकर्ण कहते हैं। भूमि का दान करने वाले पुरुष के पास यमराज के दूत नहीं फटकने पाते। मृत्‍यु के दण्‍ड, दारुण कुम्‍भी पाक, भयानक वरुण पाश, रौरव आदि नरक, वैतरणी नदी और कठोर यम यातनाएं भी भूमि दान करने वालों को नहीं सतातीं। चित्रगुप्‍त, कलि, काल, कृतान्‍त मृत्‍यु और साक्षात भगवान यम भी भूमि का दान करने वाले का आदर करते हैं। राजन! रुद्र, प्रजापति, इन्‍द्र, देवता, ऋषिगण और स्‍वयं मैं, ये सभी प्रसन्‍न होकर भूमि दाता का आदर करते हैं। नरश्रेष्‍ठ! जिसके कुटुम्‍ब के लोग जीविका के अभाव से दुर्बल हो गये हों, जिसकी गौएं और घोड़े भी दुबले-पतले दिखाई देते हों तथा जो सदा अतिथि-सत्‍कार करने वाला हो, ऐसे ब्राह्मण को भूमि दान देना चाहिये; क्‍योंकि वह परलोक के लिये खजाना है। नरेश्वर! जिसके कुटुम्‍बीजन कष्‍ट पा रहें हों, ऐसे श्रोत्रिय, अग्‍निहोत्री, व्रतधारी, एवं दरिद्र ब्राह्मण को भूमि देनी चाहिये। जैसे धाय अपना दूध पिलाकर पुत्र का पालन पोषण करती है, उसी प्रकार दान में दी हुई भूमि दाता पर अनुग्रह करती है। जैसे गौ अपना दूध पिलाकर बछड़े का पालन करती है, वैसे ही सर्वगुण सम्‍पन्‍न भूमि अपने दाता का कल्‍याण करती है। भूपाल! जिस प्रकार जल से सीचें हुए बीज अंकुरित होते हैं, वैसे ही भूमि दाता के मनोरथ प्रतिदिन पूर्ण होते रहते हैं। जैसे सूर्य का तेज समस्‍त अन्‍धकार को दूर कर देता है, उसी प्रकार यहाँ भूमि दान मनुष्‍य के सम्‍पूर्ण पापों का नाश कर डालता है। कुरुश्रेष्‍ठ! जो भूमि दान की प्रतिज्ञा करके नहीं देता अथवा देकर फिर छीन लेता है, उसे वरुण के पाश से बाँधकर पीब और रक्‍त से भरे हुए नरक कुण्‍ड में डाला जाता है। जो अपने या दूसरे की दी हुई भूमि का अपनहरण करता है, उसके लिये नरक से उद्धार पाने का कोई उपाय नहीं है। जो श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों को भूमि का दान करके उसी से अपनी जीविका चलाता है, वह दुष्‍टात्‍मा मूर्ख इक्‍कीस नरकों में गिरता है। फिर नरकों से निकलकर कुत्तों की योनि को प्राप्‍त होता है। जिसमें हल से जोतकर बीज बो दिये गये हों तथा जहाँ हरी-भरी खेती लहलहा रही हो, ऐसी भूमि दरिद्र ब्राह्मण को देनी चाहिये अथवा जहाँ जल का सुभीता हो, वह भूमि दान में देनी चाहिये। राजन! इस प्रकार प्रसन्‍नचित्त होकर मनुष्‍य यदि पृथ्‍वी का दान करे तो वह सम्‍पूर्ण मनोवांछित कामनाओं को प्राप्‍त करता है। बहुत से राजाओं ने इस पृथ्‍वी को दान में दिया है और बहुत से अभी दे रहे हैं। यह भूमि जब जिसके अधिकार में रहती है, उस समय वही उसे दान में देता है और उसके फल का भागी होता है।
जो व्यक्ति श्रद्धा पूर्वक अतिथि-सत्‍कार करता है, वह मनुष्‍यों में महान धनवान, श्रीमान, वेद-वेदांग का पारदर्शी, सम्‍पूर्ण शास्त्रों के अर्थ और तत्त्व का ज्ञाता एवं भोग सम्‍पन्‍न ब्राह्मण होता है। जो मनुष्‍य धर्मपूर्वक धन का उपार्जन करके भोजन में भेद न रखते हुए एक वर्ष तक सब का अतिथि-सत्‍कार करता है, उसके समस्‍त पाप नष्‍ट हो जाते हैं। नरेश्‍वर! जो सत्‍यवादी जितेन्‍द्रिय पुरुष समय का नियम न रखकर सभी अतिथियों की श्रद्धापूर्वक सेवा करता है, जो सत्‍य प्रतिज्ञ है, जिसने क्रोध को जीत लिया है, जो शाखा धर्म से रहित, अधर्म से डरने वाला और धर्मात्‍मा है, जो माया और मत्‍सरता से रहित है, जो भोजन में भेद-भाव नहीं करता तथा जो नित्‍य पवित्र और श्रद्धा सम्‍पन्‍न रहता है, वह दिव्‍य विमान के द्वारा इन्‍द्र लोक में जाता है। वहाँ वह दिव्‍यरूप धारी और महा यशस्‍वी होता है। अप्‍सराएं उसके यश का गान करती हैं। वह एक मन्‍वन्‍तर तक वहीं देवताओं से पूजित होता है और क्रीड़ा करता रहता है। उसके बाद मनुष्‍य लोक में आकर भोग सम्‍पन्‍न ब्राह्मण होता है’।
भूमि-दान, तिल-दान और उत्तम ब्राह्मण की महिमा :: 
श्री भगवान् ने कहा :- पाण्‍डुनन्‍दन! अब मैं सबसे उत्तम भूमि दान का वर्णन करता हूँ। जो मनुष्‍य रमणीय भूमिका दक्षिणा के साथ श्रोत्रिय अग्‍निहोत्री दरिद्र ब्राह्मण को दान देता है, वह उस समय सभी भोगों से तृप्‍त, सम्‍पूर्ण रत्‍नों से विभूषित एवं सब पापों से मुक्‍त हो सूर्य के समान देदीप्‍यमान होता है। वह महा यशस्‍वी पुरुष प्रात: कालीन सूर्य के समान प्रकाशित, विचित्र ध्‍वजाओं से सुशोभित दिव्‍य विमान के द्वारा मेरे लोक में जाता है, क्‍योंकि भूमि दान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है और भूमि छीन लेने से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है। कुरुश्रेष्ठ! दूसरे दानों के पुण्‍य समय पाकर क्षीण हो जाते हैं, किंतु भूमिदान के पुण्‍य का कभी भी क्षय नहीं होता। राजन! पृथ्‍वी का दान करने वाला मानों सुवर्ण, मणि, रत्‍न, धन, और लक्ष्‍मी आदि समस्‍त पदार्थों का दान करता है। भूमि-दान करने वाला मनुष्‍य मानों समस्‍त समुद्रों को, सरिताओं को, पर्वतों को, सम-विषम प्रदेशों को, सम्‍पूर्ण गन्‍ध और रसों को देता है।
पृथ्‍वी का दान करने वाला मनुष्‍य मानो नाना प्रकार के पुष्‍पों और फलों से युक्‍त वृक्षों का तथा कमल और उत्‍पलों के समूहों का दान करता है। जो लोग दक्षिणा से युक्‍त अग्‍निष्‍टोम आदि यज्ञों के द्वारा देवताओं का यजन करते हैं, वे भी उस फल को नहीं पाते, जो भूमि-दान का फल है। जो मनुष्‍य श्रोत्रिय ब्राह्मण को धान से भरे हुए खेत की भूमि दान करता है, उसके पितर महाप्रलय काल तक तृप्‍त रहते हैं। राजेन्‍द्र! ब्राह्मण को भूमि-दान करने से सब देवता, सूर्य, शंकर और मैं, ये सभी प्रसन्‍न होते हैं, ऐसा समझो। युधिष्‍ठर! भूमि-दान के पुण्‍य से पवित्र चित्त हुआ दाता मेरे परम धाम में निवास करता है, इसमें विचार करने की कोई बात नहीं है। मनुष्‍य जीविका के अभाव में जो कुछ पाप करता है, उससे गोकर्ण मात्र भूमि-दान करने पर भी छुटकारा पा जाता है। एक-एक महीने तक उपवास, कृच्‍छ और चान्‍द्रायण व्रत का अनुष्‍ठान करने से जो पुण्‍य होता है, वह गोकर्ण मात्र भूमि-दान करने से हो जाता है।
(12). चरण स्पर्श :: हिन्दू धर्म मे अपने से बड़े के अभिवादन के लिए चरण स्पर्श उत्तम माना गया है। चरण स्पर्श से आपको सामने वाला व्यक्ति आयु, बल, यश, ज्ञान का आशीर्वाद देता है। सभी वस्तुएँ गुरूत्वाकर्षण के नियम से बँधी हैं और गुरूत्व भार सदैव आकर्षित करने वाले की तरफ जाता है, मानव शरीर पर भी यही नियम लागू होता है। सिर को उत्तरी ध्रुव और पैरों को दक्षिणी ध्रुव माना जाता है अर्थात् गुरूत्व ऊर्जा या चुंबकीय ऊर्जा या विद्युत चुंबकीय ऊर्जा सदैव उत्तरी ध्रुव से प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव की ओर प्रवाहित होकर अपना चक्र पूरा करती है। इसका आशय यह हुआ कि मनुष्य के शरीर में उत्तरी ध्रुव (सिर) से सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव (पैरों) की ओर प्रवाहित होती है और दक्षिणी ध्रुव पर यह ऊर्जा असीमित मात्रा मे स्थिर हो जाती है | यहाँ ऊर्जा का केंद्र बन जाता है, यही कारण है कि व्यक्ति सैकड़ों मील चलने के पश्चात् भी मनुष्य भी जड़ नहीं होता वो आगे चलने की हिम्मत रख सकता है।
ऐसा पैरों में संग्रहित इस ऊर्जा के कारण ही पाता है। शरीर क्रिया विज्ञानियों ने यह सिद्ध कर लिया है कि हाथों और पैरों की अँगुलियों और अँगूठों के पोरों (अंतिम सिरा) में यह ऊर्जा सर्वाधिक रूप से विद्यमान रहती है तथा यहीं से आपूर्ति और माँग की प्रक्रिया पूर्ण होती है। पैरों से हाथों द्वारा इस ऊर्जा के ग्रहण करने की प्रक्रिया को ही चरण स्पर्श करना कहते हैं।
शरीर का धर्म :: दान, परित्राण, परिचरण (दूसरों की सेवा करना)।
शरीर का अधर्म :: हिंसा, अस्तेय, प्रतिसिद्ध मैथुन।
बोले और लिखे गये शब्दों द्वारा धर्म :: सत्व, हितवचन, प्रियवचन, स्वाध्याय (self study)। 
बोले और लिखे गये शब्दों द्वारा अधर्म :: मिथ्या, परुष, सूचना, असम्बन्ध। 
मन का धर्म :: दया, स्पृहा (disinterestedness) और श्रद्धा। 
मन का अधर्म :: परद्रोह, परद्रव्याभिप्सा (दूसरे का द्रव्य पा लेने की इच्छ), नास्तिक्य (denial of the existence of morals and religiosity)। 
Contents of these above mentioned blogs are covered under copyright and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS ARE RESERVED WITH THE AUTHOR. 
संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ 
(बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
आचरण :: (1). व्यवहार, आचार, चर्या, कार्यालाप, (2). चरित्र, (3). चाल, (4). नियम, (5). शुद्धि। व्यवहार ही किसी व्यक्ति की वेश-भूषा, आकृति और उसके बोलने का ढंग, खान-पान की आदतें, रहन-सहन, प्रकृति, स्वभाव और आचार-विचार  प्रतीक है। बर्ताव, चाल चलन, चाल ढाल, चरित्र, स्वभाव, गुण, कीर्ति, व्यवहार, ढंग, नैतिकता, मर्यादा, महात्म्य, उच्चपद, conduct, behaviour, character, dealings, demeanour, moral, commandments, religious observance, custom, rule or norm of conduct.
कुत्ता पालना :: 
(1). जिसके घर में कुत्ता होता है, उसके यहाँ देवता हविष्य (भोजन) ग्रहण नहीं करते।
(2). यदि कुत्ता घर में हो और किसी का देहांत हो जाए तो देवताओं तक पहुँचने वाली वस्तुएं देवता स्वीकार नहीं करते, अत: यह मुक्ति में बाधा हो सकता है।
(3). कुत्ते के छू जाने पर द्विजों के यज्ञोपवीत खंडित हो जाते हैं, अत: धर्मानुसार कुत्ता पालने वालों के यहाँ ब्राह्मणों को नहीं जाना चाहिए।
(4). कुत्ते के सूंघने मात्र से प्रायश्चित्त का विधान है, कुत्ता यदि हमें सूंघ ले तो हम अपवित्र हो जाते हैं।
(5). कुत्ता किसी भी वर्ण के यहाँ पालने का विधान नहीं है, कुत्ता प्रतिलोमाज वर्ण संकरों (अत्यंत नीच जाति जो कुत्ते का मांस तक खाती है) के यहाँ ही पलने योग्य है।
(6). और तो और अन्य वर्ण यदि कुत्ता पालते हैं तो वे भी उसी नीचता को प्राप्त हो जाते हैं।
(7). कुत्ते की दृष्टि जिस भोजन पर पड़ जाती है वह भोजन खाने योग्य नहीं रह जाता और यही कारण है कि जहाँ कुत्ता पला हो वहाँ  जाना  नहीं चाहिए।
कुत्ते के साथ व्यवहार के कारण तो युधिष्ठिर को भी स्वर्ग के बाहर ही रोक दिया गया था।
महाभारत में महाप्रस्थानिक/स्वर्गारोहण पर्व का अंतिम अध्याय, इंद्र, धर्मराज और युधिष्ठिर संवाद में इस बात का उल्लेख है।
जब युधिष्ठिर ने पूछा कि मेरे साथ साथ यंहा तक आने वाले इस कुत्ते को मैं अपने साथ स्वर्ग क्यो नही ले जा सकता, तब इंद्र ने कहा :-         
हे राजन कुत्ता पालने वाले के लिए स्वर्ग में स्थान नही है। ऐसे व्यक्तियों का स्वर्ग में प्रवेश वर्जित है। कुत्ते से पालित घर में किये गए यज्ञ और पुण्य कर्म के फल को क्रोधवश नामक राक्षस उसका हरण कर लेते है और तो और उस घर के व्यक्ति जो कोई दान, पुण्य, स्वाध्याय, हवन और कुवा बावड़ी इत्यादि बनाने के जो भी पुण्य फल इकट्ठा होता है, वह सब घर में कुत्ते की उपस्थित और उसकी दृष्टि पड़ने मात्र से निष्फल हो जाता है।
इसलिए कुत्ते का घर मेपालना निषिद्ध और वर्जित है।
कुत्ते का संरक्षण होना चाहिए, उसे भोजन देना चाहिए, घर की रोज की एक रोटी पे कुत्ते का अधिकार है। इस पशु को कभी प्रताड़ित नहीं करना चाहिए और दूर से ही इसकी सेवा करनी चाहिए परंतु घर के बाहर, घर के अंदर नहीं।
अवारा कुत्तों को दूध रोटी डालने से राहु, केतु शांत होते हैं व जातक की परेशानी दूर होती है। 
अतिथि और गाय, घर के अंदर, कुत्ता, कौवा, चींटी घर के बाहर, ही फलदाई होते हैं।