Wednesday, January 7, 2015

RITUALISTIC-CEREMONIAL PRACTICES IN HINDU MARRIAGE हिन्दु विवाह संस्कार :: HINDU PHILOSOPHY (4.14.2) हिन्दु दर्शन

RITUALISTIC-CEREMONIAL PRACTICES IN HINDU MARRIAGE 
हिन्दु विवाह संस्कार
HINDU PHILOSOPHY (4.14.2) हिन्दु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
समावर्तन संस्कार के अनन्तर विवाह संस्कार होता है, जो सर्वोपरि महत्व का है। विवाह के अनन्तर ही ब्रह्मचर्याश्रय अवस्था की पूर्णता होती है और गृहस्थाश्रम में प्रवेश होता है। आयु के द्वितीय भाग 25-50 वर्ष गृहस्थाश्रम के लिये हैं।
चतुर्थमायुषो भागमुषित्वाSSद्यं गुरौ द्विजः। 
द्वितीयमायुषो भागं कृतदारो गृहे वसेत्॥ 
ब्राह्मण आयुष्य के पहले चौथे भाग को (25) गुरु के आश्रम में रहकर बिताये और दूसरा हिस्सा विवाह कर गृहस्थ जीवन व्यतीत करे (25 से 50 वर्ष)।[मनुस्मृति 4.1] 
A Brahman should spend first 25 years of his life in the Ashram of the Guru to acquire education and spend the second half of his life as a house hold after marriage (between 25 to 50 years of age).
गृहस्थाश्रम अन्य सभी आश्रमों से श्रेष्ठ और उपकारक है। 
त्रयाणामाश्रमाणां तु गृहस्थो योनिरुच्यते।
इसे तीनों आश्रमों की योनि कहा गया है।[दक्ष स्मृति]   
चत्वार आश्रमाः प्रोक्ताः सर्वे गार्हस्थ्य मूलकाः। 
यथा मातरमाश्रित्य सर्वें जीवन्ति जन्तवः। 
तथा गृहाश्रमं प्राप्य सर्वे जीवन्ति चाश्रमा॥
 जिस प्रकार सभी जीव माता के आश्रय से जीवित रहते हैं, वैसे ही सभी आश्रम गृहस्थाश्रम के आश्रय से ही जीवित रहते हैं।[वशिष्ठ स्मृति 8.16] 
गृहवासो सुखार्थों हि पत्निमूलं च तत्सुखम्।
जिस प्रकार सभी आश्रमों का मूल गृहस्थाश्रम है, उसी प्रकार गृहस्थाश्रम का मूल है पत्नी-स्त्री।[दक्ष स्मृति 4] 
"न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृह मुच्यते"। 
''गृहस्थः स तु विज्ञेयो गृहे यस्य पतिव्रता''।   
गृहिणी होने से ही गृह की गृह संज्ञा है। 
कन्यादान के अधिकारी :: 
पिता पितामहो भ्राता सकुल्यो जननी तथा। 
कन्याप्रद: पूर्वनाशे प्रकृतिस्ठ: परः परः॥
पिता, पितामह, भाई, उस कुल का कोई व्यक्ति अथवा माता; ये क्रमशः पूर्व के अभाव में तदुत्तरवर्ती प्रकृतिस्थ (उन्माद आदि रोगों से रहित) होने पर कन्यादान के अधिकारी हैं।[याज्ञवल्कय स्मृति आ० 63]
जैसा की प्रचलित रीति-रिवाज़ है लड़की की शादी में निमंत्रित बड़े-बूढ़े आगन्तुक भी कन्यादान करते हैंऔर इस दौरान व्रत रखते हैं। 
देवऋषि नारद के अनुसार मातामह-नाना तथा मामा को भी कन्यादान का अधिकार है। 
यदा तु नैव कश्चित् स्यात् कन्या राजानमाव्रजेत्।
किसी के न रहने पर राजा कन्यादान का अधिकारी होता है।[वीर मित्रोदय संस्कार प्रकाश]   
विवाह-शादी :: वर-वधु के बीच यह एक पवित्र और आध्यात्मिक सम्बन्ध है, जो अग्नि एवं देवताओं के साक्ष्य में सम्पादित होता है। यह जीवन में सभी प्रकार की पर्यादाओं को निर्धारित करता है। 
इसके माध्यम से सन्तानोत्पत्ति करके पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। 
यह संस्कार संयमित ब्रह्मचर्य, सदाचार, अतिथि सत्कार तथा प्राणिमात्र की सेवा करते हुए स्वयं के उत्थान में सहज साधन के रूप में प्रतिष्ठित है। विवाह का मूल उद्देश्य लौकिक आसक्ति का तिरोभाव (अदृश्य हो जाना, अदर्शन, गोपन, छिपाव, दुराव; frost, obligate, anonymity) एक अलौकिक आसक्ति और आनन्द को प्रदान  करना है। यह पुरुष एवं स्त्री के अमर्यादित कामोपभोग को नियन्त्रित करता है। अधिकाँश धार्मिक कृत्य पत्नी के अभाव में नहीं हो सकते। पत्नी  पति की अर्धांगिनी है। पति और पत्नी दोनों ही विवाह के बाद पूर्णता को प्राप्त करते हैं। वेदमंत्रों से विवाह शरीर और मन पर विशिष्ट संस्कार उत्पन्न करता है और इससे पति-पत्नी दोनों का परस्पर अनुराग पवित्र और प्रगाढ़ होता। भारतीय-हिन्दु समाज-संस्कृति में विवाह एक धार्मिक संस्कार है। धर्म विरुद्ध काम सेवन कर सन्तान को पैदा करना गृहस्थ धर्म, देवऋण, पितृऋण तथा ऋषिऋण के विरुद्ध है। गृहस्थ धर्म का पालन जातक को वर्णाश्रम धर्म की सिद्धि में सहायक है। 
एक पत्नीव्रत तथा पतिव्रत, भारतीय संस्कृति, विवाह पद्धति की पवित्र देन हैं। यह जातक को अविच्छिन्न सम्बन्ध प्रदान करती है। यह पवित्र सम्बन्ध उसके पूर्वजन्म तथा भावी जन्म का भी अविच्छिन्न सम्बन्ध निर्धारित करती है। हिन्दु समाज में सम्बन्ध विच्छेदन की कल्पना भी नहीं है। पत्नी पतिव्रता धर्म का पालन करती है तथा पुरुष एक पत्नी व्रत के संकल्प पर स्थिर रहता है। दोनों का परस्पर अनुराग उत्तरोत्तर दृढ होता जाता है। विवाह से कन्या की भार्या संज्ञा होती है। विवाह संस्कार श्रौत्र स्मार्तानुष्ठान कर्मों की अधिकार सिद्धि और धर्माचरण की योग्यता प्रदान करता है। 
हिन्दु विवाह में देवताओं और पितरों का पूजन करके उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है।मातृकाओं की पूजा एवं वन्दना की जाती है। विवाह के लिए उपस्थित वर को विष्णुस्वरुप मानकर उसे सर्वाधिक पूजनीय माना गया है। अतएव पहले मधुपर्क से उसकी पूजा की जाती है। पाद्य, अर्ध्य, आचमनीय, विष्टर, मधुपर्क तथा गोदान; ये इस संस्कार के अंग हैं। इसके पश्चात् संकल्प पूर्वक कन्यादान होता है। इस दान को महादान माना जाता है। कन्यादाता को राजा वरुण की उपाधि दी गई है। वर साक्षात् नारायण है और वधु साक्षात् लक्ष्मी। भगवान् को लक्ष्मी देकर जिस पुण्य का अर्जन होता है, वही कन्यादाता को प्राप्त होता है। कन्या-प्रतिग्रह के पश्चात् वर अग्निदेव की प्रदक्षिणा करके वधू को स्वीकार करता है, फिर वैवाहिक अग्नि की स्थापना पूर्वक  हवन किया जाता है। इस हवन में वैदिक मंत्रों द्वारा दाम्पत्य जीवन को सुखमय, सफल तथा धर्म एवं यश से समुन्नत बनाने के लिये प्रार्थनाएँ की जाती हैं। 
वर वधु के सांगुष्ठ दक्षिण हस्त को ग्रहण करके ग्राहस्थ्य धर्म को निभाने की प्रतिज्ञा तथा आजीवन साथ रहकर परस्पर सहयोग का उद्घोष करते हैं। लाजाहोम में वधू पतिकुल और पितृकुल; दोनों की ही मंगल कामना करती है, गार्हपत्य अग्नि से पति के दीर्घ जीवन की प्रार्थना करती है। अश्मारोहण में पति अपनी पत्नी के अविचल सौभाग्य की कामना करता है। अग्नि परिक्रमा में अग्नि देव से शुभाशीर्वाद की याचना की जाती है। उस समय उत्तम पतिव्रताओं के गाथा गान की भी परम्परा है, जिससे वधू को स्वधर्म निर्वाह की प्रेरणा मिलती है तथा तदनुकूल मनोबल प्राप्त होता है। सप्तपदी में पति-पत्नी के मांगलिक दृढ़  सख्य सम्बन्ध की प्रतिष्ठा होती है। इस समय वर-वधू दोनों एक दूसरे के अनुकूल चलने की प्रतिज्ञा करते हैं। ध्रुव, अरुन्धती एवं सप्तर्षियों के दर्शनों से आजीवन सम्बन्ध की सुदृढ़ता की तथा पातिव्रत धर्म पालन की प्रेरणा मिलती है। इस प्रकार विवाह संस्कार वर-वधू दोनों के जीवन को मंगलमय बनाने, धर्माचरण करने और सुयश प्राप्त कराने की धार्मिक प्रक्रिया है। हिन्दु विवाह पद्धति पूर्णतः वैदिक होने से धर्ममय है और विवाह की प्रत्येक क्रिया वैदिक मंत्रों से उपनिबद्ध है। वैवाहिक पवित्र कृत्यों का ही पालन होने से विवाह सम्बन्ध अखण्ड सौभाग्य को देने वाला एवं गृह परिवार के लिये मंगलमय होता है। यह एक अति महत्वपूर्ण धार्मिक संस्कार है। 
विवाह संस्कार में अनेक अनुष्ठान होते हैं जिनमें कुछ प्रधान, कुछ अंगभूत तथा अन्य कुल परम्परा, रीति-रिवाजों से जुड़े हुए हैं। कन्या प्रतिग्रह पाणिग्रहण, लाजाहोम, अश्मारोहण, सप्तपदी तथा ज्यादिहोम, ये प्रधान कर्म हैं। मधुपर्क, दिन में सूर्यावेक्षण, रात्रि में ध्रुवावेक्षण, हृदयालम्भ, अभिषेक तथा चतुर्थी कर्म, ये अंगभूत कर्म हैं। शाखोच्चार, ग्रन्थिबन्धन, अन्तःपटकरण  सिन्दूरदान इत्यादि आचार प्राप्त कर्म हैं। 
मंत्र भाव :: भारतीय-हिन्दु समाज-संस्कृति में वर-वधू शादी के समय ही एक दूसरे को पहली बार देखते थे, क्योंकि स्वयंबर के अतिरिक्त प्रायः ऐसा सम्भव नहीं होता था। वर का चुनाव अपने स्तर के अनुरूप कन्या का पिता या भाई ही करते थे। रस्मों के प्रारम्भ में कन्या का पिता उन दोनों के बीच के पर्दे को मधुपर्क हेतु हटाता था और कहता था, "एक दूसरे को देखो"।  तब वर कन्या के सम्मुख कहता था 
समञ्जन्तु विश्वेदेवा समापो हृदयानि नौ। 
सम्मातरिश्वा सन्धाता समुदेष्ट्री दधातु नौ॥
आवयोः हृदयानि स्नेहयुक्तानि कुर्वन्तु विश्वेदेवाः। 
आप अपि समञ्जन्तु, मातरिश्वा वायुरपि तथैव करोतु, धाता अपि समनक्तु। 
सन्देशस्य कारयित्री सरस्वती आवयोः भोगकालानुरूपं समुचितं सम्भाषणं कारयतु।
हे कन्या! हम दोनों के हृदय तथा मन में जो भी संकल्प उठें और फिर उनके अनुसार जो हम दोनों के परस्पर व्यवहार हों, उन्हें विश्वेदेव तथा अप्देवता मंगलमय बनायें, हमारे विचार समान हों, हम दोनों के ह्रदय एक समान हों, वायु देवता तथा प्रजापति आदि देवता हम दोनों के ह्रदय समान बनायें। हम दोनों ह्रदय तथा मन से पूर्णतः एक रहें। 
Let Vishv Dev make our hearts affectionate. Let Varun Dev, Mat Rishw, Vayu and Dhata make our relation auspicious. Let Maa Saraswati make our heart & innerself compromising (working in unison). 
कन्यादान :: कन्यादान के संकल्प के अनन्तर कन्या का पिता कन्या का दाहिना हाथ वर को समर्पित करता है और कहता है  :-
कन्या कनकसम्पन्नां कनकाभरणैर्युताम्। 
दास्यामि विष्णवे तुभ्यं ब्रह्मलोकजिगिषया
विश्वम्भर: विश्म्भरः सर्वभूताः साक्षिण्यः सर्वदेवता:। 
इमां कन्यां प्रदास्यामि पितृणां तारणाय च
स्वर्णाभूषणों से विभूषित तथा स्वर्ण सदृश आभा वाली इस पवित्र कन्या को मैं विष्णुरूप आप-वर को देता हूँ। इससे मुझे ब्रह्म लोक की प्राप्ति हो। विश्व भरण-पोषण करने वाले साक्षात् भगवान् नारायण, सभी प्राणी तथा सभी देवता इस दान कर्म के साक्षी हैं। पितरों के उद्धार के लिये इस कन्या को मैं आपको प्रदान कर रहा हूँ।
उस समय प्रार्थना करते हुए कन्या के पिता वर से कहें :- 
गौरीं कन्यामिमां विप्र यथाशक्ति विभूषिताम्। 
गोत्राय शर्मणे तुभ्यं दत्तां विप्र समाश्रय 
कन्या लक्ष्मीः समाख्याता वरो नारायणः स्मृतः। 
तस्मात् कन्याप्रदानेन कृष्णो मे प्रीयताम्
हे विप्र! यथाशक्ति विभूषित इस गौरी स्वरूप कन्या को अमुक गोत्र तथा अमुक नाम वाले आपको मैंने सौंपा है, आप इसे ग्रहण करें, आश्रय प्रदान करें। कन्या को लक्ष्मी कहा जाता है और वर को नारायण कहा गया है। इसलिये कन्या के दान करने से भगवान् श्री कृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों। 
लाजाहोम*1 :: यह कन्या के द्वारा किया जाता है। कन्या अपने भाई द्वारा दिए गए शमीपत्र मिश्रित लजाओं की अग्नि में आहुति प्रदान करती है। इसमें में लाई या खील का हवन किया जाता है।  इसमें निम्न तीन मंत्र प्रयुक्त होते हैं :-
ॐ अयर्मणं देवं कन्या अग्निमयक्षत। 
स नोऽअयर्मा देवः प्रेतो मुञ्चतु, मा पतेः स्वाहा। 
इदम् अयर्म्णे अग्नये इदं न मम॥ 
ॐ इयं नायुर्पब्रूते लाजा नावपन्तिका। 
आयुष्मानस्तु मे पतिरेधन्तां, ज्ञातयो मम स्वाहा। इदम् अग्नये इदं न मम॥ 
ॐ इमाँल्लाजानावपाम यग्नौ, समृद्धिकरणं तव। 
मम तुभ्यं च संवननं, तदग्निरनुमन्यताम य स्वाहा। 
इदं अग्नये इदं न मम॥
अर्यमा देव से प्रार्थना है कि हम दोनों पति-पत्नी को एक दूसरे से अलग न करें। कन्या द्वारा लाजा की आहुति प्रदान करते हुए कहा गया है कि मेरा पति दीर्घ आयु वाला हो, आयुष्मान हो। मेरे पितृकुल के सभी बन्धु-बान्धव अभ्युदय को प्राप्त करें। अन्तिम आहुति देते हुए कन्या पति को सम्बोधित करते हुए यह कहती है :- हे स्वामिन! आपकी समृद्धि के लिये मैं इन लाजाओं की अग्नि में आहुति देती हूँ। इस आहुति से मुझ कन्या को तथा आप पति, दोनों का परस्पर अनुराग जाग्रत हो और वह पवित्र अनुराग दृढ से दृढतर होता जाये। ये अग्नि देव हमारे इस परस्पर अनुराग का अनुमोदन करें।[पारस्कर ग्रह सूत्र पार 1.6.2] 
पाणि ग्रहण :: विवाह का यह प्रधान कर्म है। 
ॐ येदैषि मनसा दूरं, दिशोऽनुपवमानो वा। 
हिरण्यपणोर् वै कणर्ः, स त्वा मन्मनसां करोतु असौ॥
वर वधू के अंगुष्ठ सहित दाहिने हाथ-पाणि को ग्रहण करता है।[पारस्कर गृह सूत्र 1.4.15]
ॐ गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथाऽसः। 
भगोअर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यन्त्वाऽदुर्गार्हपत्याय देवाः॥ 
हे कन्या! मैं तुम्हारे हस्त-पाणि का ग्रहण करता हूँ। इस पाणि ग्रहण के द्वारा तुम मेरे साथ रहती हुई दीर्घकाल तक आयुष्मती होओ। भगदेवता, अर्यमा तथा सविता, इन तीनों देव तथा देवी लक्ष्मी ने तुम्हें गार्हस्थ्य धर्म का निर्वाह करने के लिये तथा आनन्द प्राप्ति के लिये मुझे प्रदान किया है।
ॐ अमोहमस्मि सा त्वं सा त्वमस्यमोहं द्यौरहं पृथिवो त्वं सामाहमृक्त्वं तावेव विवाहावहै। प्रजाम प्रजनयावहै। संप्रियो रोचिष्णू सुमनस्यमानो जीवेव शरदः शतम॥
हे कन्या! जिस प्रकार मैं विष्णुरूप हूँ, उसी प्रकार तुम लक्ष्मीरूपा हो। तुम त्रिदेवी (महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती) की रूप हो और मैं त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) रूप हूँ। मैं साम हूँ तुम ऋक् हो, मैं द्यौ और तुम पृथ्वी हो। तात्पर्य यह है कि हम दोनों का सदा से अभिन्न सम्बन्ध रहा है।
हम दोनों परस्पर विवाह सम्बन्ध में बंधें और संयुक्त होकर पुत्र को धारण करें। हमारी सन्तान परम्परा उच्छिन्न न हो। हम पुत्र-पौत्रों की परम्परा को प्राप्त करें। 
तुम्हारे पुत्र दीर्घ आयुवाले हों। हम दोनों में परस्पर विशुद्ध प्रीति रहे, हम दोनों उत्तम यश से सुशोभित रहें। हम दोनों के मन शुभ संकल्पों, मंगलमय विचारों से सम्पन्न हों। पुत्र-पौत्रों के साथ हम सौ वर्षों को देखें, सौ वर्षों तक निरामय हो-जीवित रहें, सौ वर्षों तक हम मंगलकारी वचनों को सुनें अर्थात हम सभी इन्द्रियों से निरुपद्रव होकर दीर्घ आयु प्राप्त करें।
सप्तपदी*2  :: यह वधू तथा वर के परस्पर अनुगमन की प्रतिज्ञा है और साख्य भाव दृढ़ता को प्रदर्शित करती है। वर कहता है कि हे सखे! तुम मेरा अनुवर्तन करनेवाली होओ। इस कर्म में भगवान् विष्णु तुम्हें प्रेरित करें। 
ॐ सखे सप्तपदा भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु।
हृदयालम्भन :: वर वधू के दाहिने कन्धे के ऊपर से अपना दाहिना हाथ ले जाकर वधु के हृदय प्रदेश का स्पर्श करता है।
 ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनु चित्तं तेऽ अस्तु। 
मम वाचमेकमना जुषस्व  प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्
उस समय वह कहता :- हे कन्या! मैं अपने शास्त्र विहित व्रत आदि में तुम्हारे मन को स्थापित करता हूँ। मेरे मन के अनुकूल तुम्हारा मन हो। तुम मेरे वचनों का प्रसन्नतापूर्वक पालन-आदर करो। प्रजापति देवता मेरी प्रसन्नता के लिए तुम्हारा संयोग करें।
ॐ सुमङ्गलीरियं वधूरिमाँ समेत पश्यत। 
सौभाग्यमस्मै दत्त्वा याथाऽस्तं विपरेत न
हे विवाह देवता! यह वधू सुमङ्गली-मङ्गलरूपा है। अतः इसे आप मङ्गल दृष्टि से देखें। इस वधू को सौभाग्य प्रदान करें। इसके गृहस्थ को सुरक्षित रखें। 
सिन्दूर दान :: इसी अवसर पर वर द्वारा वधू के सीमन्त (माँग) में सिन्दूर दान की क्रिया भी सम्पन्न होती है। 
विवाह सम्बन्धी मंत्रोच्चारण से वर-वधू में परस्पर अखण्ड अनुराग, सौभाग्य वृद्धि, धर्माचरण की प्रतिज्ञा, मर्यादित काम सेवन द्वारा सन्तानोत्पत्ति आदि की मंगलकामना की जाती है। मंत्रबल, देवों तथा अग्नि के साक्ष्य में सम्पन्न होने वाले विवाह से उत्पन्न सन्तानें भी धर्माचरण से सम्पन्न होती हैं। पति और पत्नी दोनों को ही अभ्युदय की प्राप्ति होती है। विवाह केवल उत्सव नहीं है, बल्कि यह जन्म-जन्मांतर के अखण्ड सम्बन्ध को व्यक्त करने वाला अविभाज्य तत्व है।  
कन्या को पति गोत्र की प्राप्ति :: सप्त पदी के उपरान्त कन्या का गोत्र बदल जाता है और उसे अपने पति का गोत्र प्राप्त हो जाता है। धर्मराज-यमराज ने कहा है कि उदकदान अथवा वाग्दान कर्म से वर कन्या का पति नहीं हो सकता। कन्या पाणिग्रहण के बाद अपने पिता के गोत्र से च्युत हो जाती है। सप्तपदी के सात पदों के अनुक्रम के अनन्तर उसे पति के गोत्र की प्राप्ति होती है। 
नोदकेन न वाचा वा कन्यायाः पतिरुच्यते। 
पाणिग्रहणसंस्कारात्पतित्वं सप्तमे पदे॥ 
पतिगोत्रप्राप्तिरपि सप्तमपदातिक्रमे भवति। 
स्वगोत्राद् भ्रश्यते नारी विवाहात्सप्तमे पदे
ग्रहस्थाश्रम सम्बन्धी कर्म :: पति-पत्नी दोनों जीवन पर्यन्त धर्म, अर्थ तथा काम के विषय में साथ-साथ मिलकर मर्यादा में रहकर शास्त्र विहित कर्मों का अनुष्ठान करें। उन्हें परम्परा का अनुसरण करना चाहिये। 
अन्योन्यस्याव्यभिचारो भवेदामरणान्तिकः। 
एष धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयोः परः
दोनों स्त्री-पुरुष आमरण (जब तक जीयें) परस्पर मेल के साथ सभी धर्मादि कार्यों में सहयोग देते हुए रहें, यही स्त्री-पुरुष का संक्षेप में धर्म।[मनु स्मृति 9.101]  
In short the duty of both husband and wife is to live peacefully, happily, mutually helping each other in performing Varnashram Dharm-religious rites, duties, responsibilities till they survive. 
They should mutually confide, in each other, maintain their fidelity until death considering this as the highest virtuous act.
तथा नित्यं यतेयातां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ।
यथा नाभिचरेतां तौ वियुक्तावितरेतरम्
दोनों स्त्री-पुरुष को सदा ऐसे यत्न से रहना चाहिये, जिससे अलग-अलग रहते हुए भी धर्मादि कृत्यों में किसी के विरुद्ध आचरण न हो।[मनु स्मृति 9.102] 
Both husband and wife should ensure-make efforts, that they continue performing their duties towards each other even if they are not living together (the husband is out of the home or the wife has gone to her parents or for a job) without going against the scriptures with respect to their responsibilities towards each other mutually.
With the fast changing times, westernisation, impact of Muslims the norms-values are eroding fast. Both the woman and the man should control them selves and avoid indulging in sexual closeness. The women should never be free with the colleagues or the bosses. She should desists flirtation by the male. The woman should make efforts to protect her fidelity at home and work place simultaneously. Poachers are present every where.
सद्गृहस्थ शास्त्र में बताई गई विधि-निषेध रूप व्यवस्था-मर्यादा का सम्यक पालन करे। विहित दैनिक नियम, संध्या, वन्दनादी नित्य कर्मों का समुचित रूप से पालन करे। सत्पुरुषों के आचार का पालन करे। पंचमहायज्ञों द्वारा देवता, ऋषि, पितृ, अतिथि तथा समस्त प्राणियों को संतृप्त करे। न्यायोपार्जित धन द्वारा अर्थ का समार्जन करके, उसका यथा योग्य विनियोग करे। दीन-दुखियों की सहायता करे। भृत्यवर्ग :- नौकर-चाकर, कर्मचारी-सेवक एवं पोष्यवर्ग का पालन-पोषण करे। इन्द्रियों की चपलता का परित्याग करके परम् शुचिता को ग्रहण करे। शिष्टाचार का पालन करे। स्वच्छ एवं पवित्र परिधान धारण करे। शौच, संतोष, अहिंसा आदि यम-नियमों का पालन करे। तीर्थों पर आस्था रखे, अधर्म से सदा बचता रहे। निषिद्ध आचरण का सर्वथा परित्याग करे, सबके साथ मैत्री का व्यवहार रखे। अन्त्येष्टि पर्यन्त सभी संस्कारों को करे। शास्त्र और देवता में आस्तिक बुद्धि रखे, माता-पिता, गुरु आदि श्रेष्ठ जनों में देव बुद्धि रखे। प्राणिमात्र की सेवा करे। सबके साथ सद्भाव रखे। अपने लिये प्रतिकूल हो वैसा दूसरे के लिये भी न करे तथा पति-पत्नी दोनों अपनी मर्यादा तथा स्वधर्म में सदा प्रतिष्ठित रहें।
आत्मार्थ भोजनं यस्य रत्यर्थ यस्य मैथुनम्। 
वृत्त्यर्थं यस्य चाधीतं निष्फलं तस्य जीवितम्
जिस गृहस्थ के यहाँ केवल अपने लिये ही भोजन बनाया जाता है, भोग के लिये ही स्त्री सहवास होता है और शिक्षार्जन का उद्देश्य केवल धन कमाना ही होता है, ऐसे गृहस्थ का जीवन निष्फल है।[कूर्म पुराण 19.18]  
अशौच :: विस्तृत-संयुक्त परिवारों में अशौच की संभावना के कारण विवाह आदि में विघ्न न हो, इस दृष्टि से पहले सांकल्पिक नान्दीमुख श्राद्ध करा लेना चाहिये, जिससे विवाह कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हो सके। संस्कार से कितने दिन पूर्व नान्दीमुख करना चाहिये, इसके लिये निम्न प्रमाण में बताया गया है कि यज्ञ में इक्कीस दिन, विवाह में दस दिन, चौल (चूड़ाकरण) में तीन दिन तथा उपनयन में छः दिन पूर्व नान्दीमुख श्राद्ध कर लेने से कर्ता को अशौच का डर नहीं होगा। अतः विवाह के दस दिन पूर्व तक नान्दीमुख श्राद्ध किया जा सकता है। 
एकविंशत्यहर्यज्ञे विवाहे दश वासरा:। 
त्रिषट् चौलोपनयने नान्दीश्राद्धं विधीयते 
व्रत, यज्ञ, विवाह, श्राद्ध, होम, अर्चन तथा जप में कार्यारम्भ हो जाने पर सूतक नहीं होता और प्रारम्भ न होने पर सूतक होता है। यज्ञ में आचार्य आदि के वरण को, व्रत और यज्ञ में संकल्प को, विवाह आदि में नान्दीमुख को तथा श्राद्ध में पाक निर्माण को प्रारम्भ माना गया है।
व्रतयज्ञविवाहेषु श्राद्धे होमर्चने जपे। 
प्रारब्धे सूतकं न स्यात् अनारब्धे तु सूतकम्
प्रारम्भो वरणं यज्ञे सङ्कल्पों व्रतसत्रयो:। 
नान्दीमुखं विवाहादौ श्राद्धे पाक परिक्रिया
[त्रिस्थली सेतु सार संग्रह में विष्णु पुराण का वचन] 
देशाचार :: 
"विवाह श्माशान नयोर्ग्रामं प्रविश्तात्" तथा "तस्मात्तयोर्ग्रामः प्रमाणप्"
[पारस्कर  गृहसूत्र 1.8.12-13]
इस वचन के अनुसार शास्त्र की कोई स्पष्ट व्यवस्था न होने पर अथवा वैकल्पिक व्यवस्था होने पर विवाह संस्कार तथा अन्त्येष्टि आदि संस्कारों में देशाचार के अनुसार करना चाहिये। 
सगाई-तिलक :: कन्या के लिये उचित वर का चुनाव उसके भाई और पिता करते हैं। कभी-कभी गाँव का कोई प्रमुख ब्राह्मण भी इस शुभ कार्य का सम्पादन करता है। इस कार्य में पहले नाई और ब्राह्मण के द्वारा रिश्ते सुझाए जाते थे, जिन्हें पिता और भाई कन्या के गुणों, अपनी आर्थिक-सामाजिक स्थित, गोत्र, कुल आदि का परिक्षण करके ही सम्पादित करते थे। इस मामले में अक्सर कन्या की सहमति भी ले ली जाती थी। यह कार्य जमने पर लड़के के हाथ पर उसके घर-कुनबे के लोगों के सामने हथेली पर एक रुपया रखकर सम्पन्न किया जाता था। इसके बाद सगाई के लिये ग्रह-नक्षत्र की स्थिति, पत्रा दिखाकर तय की जाती थी।
सगाई की रस्म का निर्वाह लड़के-वर के घर जाकर कन्या के भाई, पिता, स्वजन पुरोहित आदि मिलकर करते हैं। उस समय वर पक्ष का पुरोहित भी उपस्थित रहता है। दोनों पुरोहित  मिलकर इस शुभ कार्य का निर्वाह करते थे।
यह कार्य मण्डप में पश्चिमाभिमुख बैठें और वर पूर्वाभिमुख बैठे।
कन्या के पिता तथा वर दोनों साथ-साथ मंत्र पूर्वक आचमन, प्राणायाम आदि करने के बाद हाथ में जल लेकर अपने ऊपर तथा पूजन सामग्री के ऊपर निम्न मंत्र के उच्चारण सहित छिड़कें :- 
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा। 
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचि॥ 
मंगलाचरण-मङ्गल गान*3  ::         
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरितासउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे॥1
दवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना ग्वँग् रातिरभि नो निवर्तताम्।
देवाना ग्वँग् सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे॥2
तान्पूर्वया निविदाहूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्।
अर्यमणं वरुण ग्वँग् सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत्॥3॥
तन्नो वातो मयोभु तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौ:। 
द् ग्रावाण: सोमसुतो मयोदश्विना भुवस्त श्रणुतं धिष्ण्या युवम्॥4॥
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमसे हूसहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥5॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्वेवेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥6॥
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभं यावानो विदथेषु जग्मयः।
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह॥7॥
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं फश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरै रङ्गैस्तुष्टुवा ग्वँग् सस्तनू भिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥8॥
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥9॥
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता म पिता स पुत्रः।
विश्वे देवा अदितिः पञ्चजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्॥10॥
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ग्वँग् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ग्वँग् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥11॥
यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु। 
शन्नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः॥ सुशान्तिर्भवतु।
श्री मन्महागणाधिपतये नमः। लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः। उमामहेश्वराभ्यां नमः। वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः। शचीपुरन्दराभ्यां नमः। मातापितृचरणकमलेभ्यो नमः। इष्टदेवताभ्यो नमः। कुलदेवताभ्यो नमः। ग्रामदेवताभ्यो नमः। स्थानदेवताभ्यो नमः। वास्तुदेवताभ्यो नमः। सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः। 
सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः।
विश्वेशं माधवं ढुण्ढ़िं दण्डपाणिञ्च भैरवम्।  
वन्दे काशीं गुहां गङ्गा भवानीं मणिमर्णिकाम्॥ 
वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ। 
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।  
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि॥
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते॥
 शुक्लांबरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशांन्तये 
अभीप्सितार्थसिदध्यर्थं पूजितो य: सुरासुरै:।
सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नम:
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। 
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥ 
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम्। 
येषां हृदिस्थो भगवान् मङ्गलायतनो हरिः॥
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम्।  
येषां हृदिस्थो भगवान् मङ्गलायतनो हरिः॥ 
जिनके हृदय में भगवान् श्री हरी का वास हो, जो स्वयं मंगलायातन हैं, उनका वास हो, उनके सदैव, सभी कार्य निर्विघ्न और मंगलकारी होते हैं। 
One who has Bhagwan Shri Hari in heart (mind & soul), accomplishes all his auspicious desires. He does not face troubles in his life. 
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चंद्रबलं तदेव।
विद्याबलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेङ्घ्रियुगं स्मरामि॥  
वह लग्न (मुहूर्त) शुभ होता है, वह दिन मंगलकारी होता है, उसी लग्न में तारे, चन्द्र, विद्या और देवता का बल होता है, जिस समय हम लक्ष्मी पति श्री विष्णु का स्मरण करते हैं। 
When one remembers Bhagwan Shri Hari, the moment becomes auspicious, having the strength of constellations, stars, Moon, enlightenment and the demigods-deities.
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः।  
येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः॥  
समृद्धि (लाभ) और विजय उनके चरण चूमते हैं, जिनके हृदय में श्याम रंग वाले पद्म समान भगवान् श्री हरी विष्णु का निवास है, उनके लिए पराजय कहाँ हो सकता है। 
One who has Bhawan Shri Hari Vishnu with Shyam colour, like lotus, in his heart (mind & soul) always gets success & victory accompanies him. He is never defeated. 
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। 
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है।[श्रीमद् भगवद्गीता 18.78] 
Presence of Almighty and his incarnations, Bhagwan Shri Krashn along with Arjun (Narayan and Nar) ensures victory, opulence, might, power, polity, domination, supremacy, glory, grandeur wealth and prosperity.
भगवान् श्री कृष्ण महायोगेश्वर तथा योगेश्वर कहे गए हैं। समस्त योग, ज्ञान उन्हीं से प्रतिपादित है। जहाँ धर्म है, वहांँ वे हैं। जब-जब धरती पर अधर्म बढ़ेगा, वे किसी न किसी रूप में उसे मिटाने के लिये आते ही रहेंगे। जब भी कोई सच्चे मन-श्रद्धा भक्ति, विश्वास के साथ उन्हें याद करेगा, वे उसको सहायता देने अवश्य पहुँचेंगे। जो भी व्यक्ति इस आख्यान का पारमार्थिक भावना के साथ प्रचार-प्रसार करेगा, उसका कल्याण अवश्य होगा। 
Bhawan Shri Krashn has been described as Maha Yogeshwar. All Yog, Gyan, Knowledge, enlightenment streams out of HIM. HE is the source of all doctrines, philosophies, mythology, mysticism. Nothing is beyond HIM. HE is all pervading, present where ever the Dharm, Virtues, Righteousness, Piousity is present. When ever and where ever the Adharm-vices, wickedness, Shaetan, devil are there, HE will come and vanish-eliminate them. When ever and where ever one calls HIM with purity of heart and dedication, HE will reach-present HIMSELF there. Who so ever spread this message with the desire-feeling of helping others will certainly be blessed by the Almighty. 
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी भली-भाँति उपासना करते है, मुझ में निरन्तर लगे रहते हुए उन भक्तों का योगक्षेम-अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा, मैं वहन करता हूँ।[श्रीमद् भगवद्गीता 9.22]  
The Almighty retreats-affirms that HE takes care of  both spiritual and material welfare of those ever-steadfast devotees, who regularly adore-worship HIM thoroughly-properly, with single-minded contemplation.
जो व्यक्ति-भक्त दृढ़ता से यह मान लेता है कि जो कुछ भी हो रहा है देखने-सुनने-समझने में आ रहा है, वह सबका सब भगवान् का ही स्वरूप है, उसकी महत्वबुद्धि फिर भगवान् के सिवाय कहीं भी नहीं होती। वे भगवान् में ही लगे रहने के कारण अनन्य (unique, close, being only one: single, whole, inalienable, identical) हैं। उनके साधन और साध्य सभी कुछ भगवान् ही हैं। इसलिए वे अनन्य होकर भगवान् का ध्यान चिंतन करते हैं। वे संसार से विमुख हो गए हैं। भगवान् द्वारा भक्त को अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति करा देना योग और उसकी रक्षा करना क्षेम है। अगर भक्त का हित किसी वस्तु को नष्ट करने में है तो भगवान् उस वस्तु को  नष्ट भी कर सकते हैं। अतः भक्त हर परिस्थिति में प्रसन्न रहता है। वह मानता है कि परमात्मा जो करता है, उसके भले के लिए ही करता है और वही सही है। योग प्राणी का भगवान् से सम्बन्ध स्थापित करता है और क्षेम जीव का कल्याण है। जीव के कल्याण हेतु जो कुछ भी आवश्यक है, वह प्रभु स्वयं ही करते हैं। 
When one determines that whatever is happening is due to the Almighty and its a form of HIM, he cling to HIM only. Since, he is devoted to the God only, he is unique-inalienable. Therefore, he worship without deviating his mind else where. He is detached from the world, family, society. Yog make the desired available to the devotee by the God; in addition to assimilation in HIM. The Almighty protects the devotee, since he has come to HIS fore. If the Almighty finds that acquisition-availability of some thing is against the benefit of the devotee, HE destroys it as well. This is the reason that the devotee is happy in all conditions. He believes that whatever is being done by the Almighty is for his welfare. Yog connects the God with the devotee-organism and his welfare is the responsibility of the God. In fact what ever is needed for the welfare of the devotee, is being done by the God HIMSELF automatically. 
देवताओं की पूजा व्यक्ति अपने काम-वासना की पूर्ति के लिए करता है, जिसमें स्वार्थ और लेन-देन की प्रवृति है, जबकि भगवान् की उपासना करने वाला स्वयं को भगवान् का (भक्त, अभिन्न अंग) मानकर करता है जिसमें हानि-लाभ का प्रश्न ही नहीं है, बल्कि एक परिवार के सदस्य का भाव है और इसमें सभी कुछ उसका है। 
Prayer-worship of the deities, demigods is done with the motive of gaining entry into the heaven which is like :- "give and take" like a "labour-worker" who earn his wages. When one is devoted to the Almighty the feeling of oneness comes, making him a component of the God-a member of the family, where motive of profit or loss goes off and the Almighty takes up the responsibility of the devotee as one of HIS own. 
स्मृते: सकलकल्याणं भाजनं यत्र जायते। 
पुरूषं तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम्॥
सर्वेष्वारम्भकार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वरा:। 
देवा दिशन्तु न: सिद्धिं ब्रह्मेशान जनार्दना:॥
प्रतिज्ञा संकल्प :: कन्या का भाई, पिता अथवा कुलजयेष्ठ हाथ में कुषाक्षत-जल लेकर निम्न संकल्प करें :- 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे/ क्षेत्रे...षष्टिसंवत्सराणां...मध्ये...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र:...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं गोत्राया:...भगिन्या: (पिता करे तो कन्यायाः कहे) भविष्योद्वाहाङ्भूतकर्मणि वरपूजनपूर्वकं वरवरणं करिष्ये। तदङ्गत्वेन कलशस्थापनं नवग्रहादीनां स्मरणं पूजनं च करिष्ये। तत्रादौ निर्विघ्नतासिद्धयर्थं गणेशाम्बिकयोः पूजनं च करिष्ये।    
कहकर हाथ का संकल्प छोड़ दें।
इसी प्रकार वर भी हाथ में कुषाक्षत-जल लेकर निम्न संकल्प करें :- 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे/क्षेत्रे...षष्टिसंवत्सराणां...मध्ये...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र:...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं गोत्राया:...भगिन्या: (पिता करे तो कन्यायाः कहे) भविष्योद्वाहाङ्भूतकर्मणि वरपूजनपूर्वकं वरवरणं करिष्ये। तदङ्गत्वेन कलशस्थापनं नवग्रहादीनां स्मरणं पूजनं च करिष्ये। तत्रादौ निर्विघ्नतासिद्धयर्थं गणेशाम्बिकयोः पूजनं च करिष्ये। 
गणेशाम्बिकादि पूजन :: तदनन्तर यथालब्धोपचार से दोनों पक्ष गणेशाम्बिका पूजन, कलश तथा नवग्रहों का पूजन करें। 
Please refer to :: गणेशाम्बिका पूजन विधिsantoshsuvichar.blogspot.com
वर पूजन :: तदनन्तर निम्न रीति से वर का पूजन करें। 
पाद प्रक्षालन :: कन्या का भाई अथवा पिता निम्न मंत्र से वर का पद प्रक्षालन करे :-
ॐ विराजो दोहोऽसि विराजो दोहमशीय मयि पाद्यायै विराजो दोहः। 
हाथ धो लें।     
तिलक :: निम्न मंगल श्लोक से वर को तिलक लगाएं :- 
कस्तूरी तिलकं ललाटपटले वक्षःस्थले कौस्तुभं नासाग्रे वरमौक्तिकं करतलं वेणुः करे कङ्कणम्। सर्वाङ्गे हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे च मुक्तावली गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपालचूड़ामणिः॥ 
अक्षत :: निम्न मंत्र से वर को अक्षत लगायें :-  
ॐ अक्षन्नमी मदन्त ह्यव प्रिया अधूषत। 
अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजा न्विन्द्र  ते हरी
माल्यार्पण :: निम्न मंत्र से वर को माला पहनायें :- 
याऽऽआहरज्जमदग्निः श्रद्धायै मेधायै कामायेद्रियाय। 
ताऽअहं प्रतिगृह्णामि यशसा च भगेन च॥ 
ॐ यद्यशोऽप्सरसामिन्द्रश्चकार विपुलं पृथु। 
तेन सङ्ग्रथिताः सुमनस आबध्नामि यशो मयि 
वर वरण का संकल्प :: कन्या का भाई वर के वरण हेतु थाल में यज्ञोपवीत, हल्दी, फल, पुष्प, नारियल आदि के साथ वर के वस्त्र रखकर और वरण द्रव्य के साथ वह थाल हाथ में लेकर निम्न संकल्प करें :-  
ॐ अद्य पूर्वोच्चारितग्रहगुणगणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ...गोत्र:...शर्मा/वर्मा/गुप्तोहं...गोत्रायाः...नाम्न्याः भगिन्या (कन्यायाः वा) भविष्योद्वाहकर्मणि एभिर्वरणद्रव्यै: अक्षतपुष्पचन्दनताम्बूलनारिकेलहरिद्रादिमाङ्लिकसूत्रद्रव्यभाजनवासोभि:...गोत्रं...शर्माणं/वर्माणं/गुप्तं वरं कन्याप्रतिग्रहीतृत्वेन त्वामहं वृणे। 
संकल्प जल छोड़ दें तथा वर्ण सामग्री वर को दे दें। 
वर "वृतोस्मि" कहे। "ॐ द्यौस्त्वा ददातु पृथिवी त्वा प्रतिगृह्णातु" कहकर ग्रहण सामग्री को ग्रहण करे। 
तदनन्तर वर निम्न मंत्र पढ़े अथवा ब्राह्मण-पुरोहित जी द्वारा कहे जाने पर सुने :- 
ॐ व्रतेन दीक्षाप्नोति दीक्षयाऽप्नोति दक्षिणाम्। 
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया  सत्यमाप्यते॥ 
दक्षिणा दान :: तदनन्तर कन्या का भाई या पिता वर आचार्य दक्षिणा और भूयसी दक्षिणा दान का संकल्प करें :- 
ॐ कृतस्य वरवृत्तिग्रहणकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं आचार्यदक्षिणां तन्मध्ये नयूनातिरिक्तदोष परिहारार्थं नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो यथोत्साहां भूयसीं दक्षिणां च विभज्य दातुमहमुत्सृज्ये।
ब्राह्मण भोजन संकल्प :: आचार्य दक्षिणा एवं भूयसी के संकल्प के पश्चात वर पक्ष ब्राह्मण भोजन का संकल्प भी करे :-  
ॐ अद्य...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहं वरवृत्तिग्रहणकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं यथासङ्ख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये।
विसर्जन :: कन्या के पिता एवं वर हाथ में अक्षत लेकर निम्न मंत्र से अक्षत छोड़ते हुए आवाहित देवताओं का विसर्जन करें :-
ॐ यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय  मामकीम्। इष्टकामसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च॥
भगवत्स्मरण-विष्णु स्मरण :: इसके बाद हाथ में पुष्प लेकर विष्णु का स्मरण करते हुए समस्त कर्म उन्हें अर्पण करे -
ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। 
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥ 
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्  
यत्पादपङ्कज स्मरणात् यस्य नामजपादपि। 
न्यूनं कर्मं भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्
ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 
हरी ओम ॐ तत्सत्
मण्डप स्थापन :: विवाह के दिन अथवा विवाह के पहले किसी अच्छे-शुभ दिन में घर के बीच-आँगन में कन्या के हाथ से सोलह, बारह, दस अथवा आठ हाथ का (जितना सम्भव हो) एक विवाह मण्डप बनाना चाहिये। मण्डप के चारों कोणों में आग्नेयादि क्रम से चार स्तम्भों-खम्बों का रोपण करें और बीच में एक खंबा लगायें। देशाचार के अनुरूप बीच के खंबे के साथ केले का तना, पत्तों के साथ लगायें। 
इन्हीं खम्बों में आग्नेयादि क्रम से निम्न नाम मंत्रों द्वारा मण्डप की नन्दिनी आदि पाँच मातृकाओं का आवाहन एवं गन्धाक्षत-पुष्पादि द्वारा पूजन करें। 
अग्निकोण (दक्षिण-पूर्व) :: 
ॐ नन्दिन्यै नमः। नन्दिनीमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि।    
नैर्ऋत्यकोण (दक्षिण-पश्चिम) :: 
ॐ नलिन्यै नमः। नलिनीमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि।
वायव्य कोण  (उत्तर-पश्चिम) :: 
ॐ मैत्रायै नमः। मैत्रायैमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि। 
वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) :: 
ॐ मैत्रायै नमः। मैत्रायैमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि। 
ईशानकोण (उत्तर-पूर्व) :: 
ॐ उमायै नमः। उमायैमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि।
मध्य में :: 
ॐ पशुवर्द्धिन्यै नमः। पशुवर्द्धिनीमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि।
मण्डप के बीच में पूर्व दिशा की ओर झुकती हुई एक हाथ लम्बी-चौड़ी, एक वेदी बना लें। उस हवन वेदी को हल्दी, गुलाल और आटे से सुशोभित करे।
हल्दात :: विवाह के लिये निर्धारित तिथि से पहले तीसरे, छटे और नवें दिन को छोड़कर किसी शुभ दिन कन्या तथा वर के घर में हल्दी हाथ-हल्दात करने की परम्परा है। इस निमित्त यथा लब्धोचार से गौरी-गणेश का पूजन करके महिलायें लोक रीति के अनुसार इस कार्य को पूरा करती हैं। 
हल्दी लगाना, कंकण बाँधना और तेल-बान :: वर-कन्या अपने-अपने घर में आचमन, प्राणायाम आदि करके गणेशाम्बिका और अविघ्न कलश का यथा लब्धोपचार पूजन करते हैं। अविघ्न कलश पर (अक्षत पुंज पर) मोदादी षड्विनायकों (मोद, प्रमोद, सुमुख, दुर्मुख, अविघ्न तथा विघ्नकर्ता)  का भी पूजन करें तथा दीपक प्रज्वलित करें।
तदनन्तर वर और कन्या के कुल पुरोहित द्वारा दूब की दो पींजुली दोनों हाथों में लेकर उन्हें हल्दी और तेल में डुबोकर निम्न मंत्र से सर्वप्रथम गणेश जी तदनन्तर कलश पर एक बार हल्दी और तेल चढ़ाना चाहिये :- 
ॐ काण्डात् काण्डात्प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि। 
एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्त्रेण शतेन च॥
इसके बाद परिवार के अन्य सदस्य कुल परम्परा के अनुसार उपरोक्त मंत्रोचारण करते हुए वर तथा कन्या के निम्न रीति के अनुसार हल्दी लगायें।
दूबों की दो पिन्जुली लेकर हल्दी सहित तेल में डुबोकर दोनों हाथों से पैर, घुटनों, कंधों तथा मांथे पर लगायें।
वर तथा कन्या स्नान के अनन्तर दोनों के कुल पुरोहित निम्न मंत्र से मांथे पर रोली का तिलक करें :- 
युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परितस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि॥
निम्न मंत्र से अक्षत लगायें :-
अक्षन्न मीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत। 
अस्तोषत सवभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजानविन्द्र ते हरी
कंकण बाँधना :: निम्न मंत्र से वर के दाहिने हाथ में तथा कन्या के बाँये हाथ में पीले कपड़े में राई, कौड़ी, लोहे  छल्ले को नारे में बाँधकर कंगन बनाकर बाँधें :- 
यदाबध्नं दक्षायणा हिरण्य ग्वँग् शतानीकाय सुमनस्य माना:। 
तन्म आ बध्नामि शतशारदायायुष्मान् जरदष्टिर्यथासम्॥
तत्पश्चात् दक्षिणा, भूयसी दक्षिणा तथा ब्राह्मण भोजन का संकल्प करें।
संकल्प :: 
कृतैतद् हरिद्रालेपनकर्मणः सङ्गतासिद्ध्यर्थमाचार्याय यथोत्साहां दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये।कृतैतद् हरिद्रालेपनकर्मणः  सङ्गतासिद्ध्यर्थ तन्मध्ये न्यूनातिरिक्तदोषपरिहारार्थं नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो भूयसीं दक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सृज्ये। कृतैतद् हरिद्रालेपनकर्मणः सङ्गतासिद्ध्यर्थ यथासंख्याकान्  ब्राह्मणान् भोजयिष्ये। 
उसके बाद निम्न मंत्रों को पढ़कर भगवान् विष्णु का स्मरण करे और कर्म भगवान् को अर्पित करे :- 
ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। 
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥ 
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्  
यत्पादपङ्कज स्मरणात् यस्य नामजपादपि। 
न्यूनं कर्मं भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्
ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 
विवाह पूर्वाङ्ग पूजन :: वर के पिता और कन्या के पिता अपने-अपने घर में विवाह के दिन अथवा विवाह के एक दिन पहले आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर आचमन-प्राणायाम आदि करके हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर मंगलाचरण (उपरोक्त अनुरूप*3) आदि मंगल मंत्रों का पाठ करें या श्रवण करें, तदनन्तर कन्या, कन्या के पिता रजोदर्शनादि दोष परिहार के निमित्त निम्न प्रायश्चित संकल्प करें। 
प्रायश्चित संकल्प :: कन्या के पिता अपने दाहिने हाथ में यथाशक्ति द्रव्य, चन्दन, पुष्प, अक्षत, दूर्वा तथा जल लेकर संकल्प :- 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या पश्चिम तीरे) स्थाने विक्रमशके बौद्धावतारे नाम्नी संवतसरे अयने ऋतौ महामाङ्गल्यप्रदमासोत्तमे...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे...वासरे राशिस्थिते चन्द्रे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते...देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु यथायर्थ राशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशेषणविशिष्टायां...शुभपुण्यतिथौ...गौत्र:...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं मम अस्याः...नाम्न्याः कन्यायाः रजोदर्शनादिदोषपरिहारद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं प्रायश्चित्तप्रत्याम्नायभूतं यथाशक्ति गोनिष्क्रयभूतद्रव्यं...गोत्राय...शर्मणे ब्राह्मणाय भवते सम्प्रददे। 
कहकर संकल्प जल छोड़ दें और दक्षिणा ब्राह्मण को प्रदान करें।
ब्राह्मण बोले :- ॐ स्वस्ति।
वर :- वर भी अतीत संस्कार जन्य दोष परिहार के लिये अपने दाहिने हाथ में द्रव्य, जल, अक्षय, पुष्प, दूर्वा लेकर प्रायश्चित का निम्न संकल्प करे :-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या पश्चिम तीरे) स्थाने विक्रमशके बौद्धावतारे नाम्नी संवतसरे अयने ऋतौ महामाङ्गल्यप्रदमासोत्तमे...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे...वासरे राशिस्थिते चन्द्रे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते...देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु यथायर्थ राशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशेषणविशिष्टायां...शुभपुण्यतिथौ...गौत्र:...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं मम गर्भाधानादिसमावर्तनान्तसंस्काराणामकरणजन्यदोषप्रत्यवायपरिहारद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं प्राजापत्यकृच्छ्रप्रत्याम्नायभूतैकगोनिष्क्रयभूतमिदं द्रव्यं...गोत्राय...शर्मणे ब्राह्मणाय भवते सम्प्रददे। 
संकल्प करके दक्षिणा ब्राह्मण के हाथ में दें और ब्राह्मण बोले :- ॐ स्वस्ति। 
तदनन्तर पंचांग पूजन करें। 
प्रतिज्ञा संकल्प :: विवाह के अंगभूत रूप में विवाह के पहले किये जाने वाले पञ्चाङ्ग पूजन का निम्न रीति से संकल्प करें :-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते भगीरथ्या: पश्चिम तीरे) स्थाने विक्रमशके बौद्धावतारे नाम्नी संवतसरे अयने ऋतौ महामाङ्गल्यप्रदमासोत्तमे ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे... राशिस्थिते चन्द्रे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते...देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु यथायर्थ राशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशेषणविशिष्टायां...शुभपुण्यतिथौ...गौत्र:...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं स्वकीयपुत्रस्योद्वाहाङ्गभूतं (वर के पिता बोलें)/स्वकीयकन्योद्वाहाङ्गभूतं (कन्या के पिता बोलें) स्वस्तिपुण्याहवाचनं मातृकापूजनं वसोर्धारापूजनम्  आयुष्यमन्त्रजपं सांङ्ककल्पिकेन विधिना नान्दीश्राद्धं च करिष्ये। तत्रादौ निर्विघ्नतासिद्धयर्थं गणेशाम्बिकयोः पूजनं करिष्ये।
हाथ का जल अक्षत आदि छोड़ दें। 
संकल्प के अनन्तर दोनों पक्ष गणेशाम्बिका पूजन, कलश स्थापन, पुण्याह वाचन, नवग्रह पूजन, मातृका पूजन, वर्सोधारा पूजन, आयुष्य मंत्र जप तथा नान्दीश्राद्ध (यदि अशौच निवृत्ति हेतु विवाह के दस दिन पहले नान्दीश्राद्ध कर लिया गया हो तो, विवाहांग पूर्व पूजन में इसकी पुनः करने की आवश्यकता नहीं है), अभिषेक आदि कर्म सम्पन्न करें। 
लोकाचार :: इसमें कोहबर (कौतुकगृह, कोष्ठवर-इस चित्रकला में नैसर्गिक लाल, काला, पीला, सफेद रंग पेड़ की छाल व मिट्टी से बनाए रंगों का प्रयोग होता है। शादी कक्ष-कोहबर घर की दीवारों को प्रजनन और जीवन के प्रतीक चित्रों से सजाया जाता है। यह मुख्य रूप से प्रजनन और जीवन का प्रतीक है)  में मातृभाण्ड की स्थापना करने की परम्परा है। 
मातृभाण्ड स्थापन एवं मातृका पूजन :: वर और वधु के अपने-अपने घरों में एक कमरे को विवाह की दृष्टि से कोहबर के रूप में निर्धारित कर लिया जाता है। उसी कमरे में मातृ भाण्ड की स्थापना तथा मातृका पूजन आदि कर्म किये जाते हैं। तदनुसार मिट्टी के चार छिद्र वाले चूल्हे पर तण्डुल गुड़ से पूर्ण चार पात्र रखें। उस पाक को अग्नि पर पकाएं, जिसे बाद में पाँच कुमार या कुमारियों के साथ वर/वधु को खिलाया जाता है। एक सकोरे में पान रखकर और उस पर अक्षत पुंज के ऊपर सुपारी रखकर पितरों का आवाहन करें और दूसरे सकोरे से ढँक कर तथा उड़द की पीठी से चिपकाकर रख दें। इसी प्रकर दूसरे सकोरे में पान के ऊपर अक्षत पुंज पर सुपारी रखकर वायु इत्यादि देवताओं का आवाहन करें और उसे दूसरे सकोरे से ढंककर उड़द की पीठी से चिपकाकर रख दें और सिन्दूर और ऐपन (चावल तथा हल्दी को एक साथ पीस कर बनाया गया लेप जो पूजा आदि मांगलिक कार्यो में प्रयुक्त पात्रों कलश आदि पर थापा या लगाया जाता है; शुभ अवसरों पर पिसे चावल के घोल से फ़र्श और दीवारों पर किया जाने वाला मंगल चिह्नों का अंकन) आदि से अलंकृत करके गुप्तागार (कोहबर) में आएं और यथास्थान रख दें। 
द्वार मातृका पूजन :: सबसे पहले गुप्तागार के द्वार के दक्षिण की तरफ निम्न मंत्रों से अक्षतों द्वारा द्वार मातृकाओं का आवाहन करें तथा गंध-पुष्प आदि उपचारों से इनका नाम मंत्रों द्वारा पूजन करें :-  
ॐ जयन्त्यै नमः। जयन्तीमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि। 
ॐ मङ्गलायै नमः। मङ्गलामावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि।  
ॐ पिङ्गलायै नमः।  पिङ्गलामावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि। 
तदनन्तर निम्न नाम मंत्रों से द्वार के बाँयी ओर दो मातृकाओं का स्थापन, पूजन करें :-
ॐ आनन्दवर्द्धिन्यै नमः। आनन्दवर्धनीमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि।  
ॐ महाकाल्यै नमः। महाकालीमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि। 
मातृका स्थापन एवं पूजन :: द्वार मातृकाओं का पूजन करने के अनन्तर कोहबर कक्ष के भीतर एक दीवार पर दक्षिण से उत्तर की ओर गोमय की सत्रह पीढ़िया-गोमयपिण्ड लगायें। उसी क्रम से गणेश जी महाराज एवं गौर्यादि षोडश मातृकाओं की निम्न नाम मंत्रों से स्थापना करें :- 
ॐ गणपतये नमः। गणपतिमावाहयामि, स्थापयामि॥1॥ 
ॐ गौर्ये नमः। गौरीमावाहयामि, स्थापयामि॥2॥   
ॐ पद्मायै नमः। पद्मामावाहयामि, स्थापयामि॥3॥ 
ॐ शच्यै नमः। शचीमावाहयामि, स्थापयामि॥4॥ 
ॐ मेधायै नमः। मेधामावाहयामि, स्थापयामि॥5॥ 
ॐ सावित्र्यै नमः। सावित्रीमावाहयामि, स्थापयामि॥6॥ 
ॐ विजयायै नमः। विजयामावाहयामि, स्थापयामि॥7॥ 
ॐ जयायै नमः। जयामावाहयामि, स्थापयामि॥8॥ 
ॐ देवसेनायै नमः। देवसेनामावाहयामि, स्थापयामि॥9॥ 
ॐ स्वधायै नमः। स्वधामावाहयामि, स्थापयामि॥10॥ 
ॐ स्वाहायै नमः। स्वाहामावाहयामि, स्थापयामि॥11॥ 
ॐ मातृभ्यो नमः। मातृमावाहयामि, स्थापयामि॥12॥ 
ॐ लोकमातृभ्यो नमः। लोकमातृ: मावाहयामि, स्थापयामि॥13॥ 
ॐ धृत्यै नमः। धृतिमावाहयामि, स्थापयामि॥14॥ 
ॐ पुष्ट्यै नमः। पुष्टिमावाहयामि, स्थापयामि॥15॥ 
ॐ तुष्टयै नमः। तुष्टिमावाहयामि, स्थापयामि॥16॥ 
ॐ आत्मनः कुलदेवतायै नमः। 
आत्मनः कुलदेवतामावाहयामि, स्थापयामि॥17॥
इस प्रकर षोडस मातृकाओं की स्थापना करके निम्न मंत्र से अक्षत छोड़ते हुए उनकी प्रतिष्ठा करें। 
ॐ मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ ग्वँग् समिमं दधातु। विश्वे देवा स इह मादयन्तामोम्३प्रतिष्ठ 
तदनन्तर गन्धाक्षत, पुष्प आदि उपचारों से मातृकाओं का पूजन करें और हाथ जोड़ते हुए कहें :-  
अनवा पूजया गणपत्यादिषोडशमातरः प्रीयन्तां न मम। 
सप्त घृत मातृका स्थापन तथा पूजन :: मातृका पूजन के अनन्तर घृतमातृकाओं का पूजन करें। षोडश मातृकाओं के उत्तर भाग में दीवार पर रोली या सिन्दूर से सात बिन्दु बनायें। 
इसके बाद नीचे वाले सात बिन्दुओं पर घी या दूध से प्रादेश (अँगूठे से तर्जनी की दूरी), मात्र साथ धाराएँ निम्लिखित मंत्र से दें :-  
ॐ वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्त्रधारम्।  
देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्वा॥
"कामधुक्ष्वः" कहते हुए गुड़ के द्वारा बिन्दुओं की रेखाओं को मिलायें। तदनन्तर निम्नलिखित मंत्रों का उच्चारण करते हुए प्रत्येक मातृका का आवाहन और स्थापन करें :- 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रिये नमः, श्रियमावाहयामि, स्थापयामि। 
ॐ भूर्भुवः स्वः लक्ष्म्यै नमः, लक्ष्मीमावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ भूर्भुवः स्वः धृत्यै नमः, धृतिमावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ भूर्भुवः स्वः मेधायै नमः, मेधामावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ भूर्भुवः स्वः पुष्ट्यै नमः, पुष्टिमावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रद्धायै नमः, श्रद्धामावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ भूर्भुवः स्वः सरस्वत्यै नमः, सरस्वतीमावाहयामि, स्थापयामि।
प्रतिष्ठा :: इस प्रकार आवाहन-स्थापना के बाद निम्न मंत्र से प्रतिष्ठा करके :-
ॐ मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ ग्वँग् समिमं दधातु। 
विश्वे देवा स इह मादयन्तामोम्३प्रतिष्ठ॥    
तत्पश्चात् "ॐ भूर्भुवः स्वः सप्तमातृकाभ्यो नमः", नाम मंत्र से यथालब्धोपचार-पूजन करें।प्रार्थना :: 
ॐ यदङ्गत्वेन भो देव्यः पूजिता विधिमार्गत:। 
कुर्वन्तु कार्यमखिलं निर्विघ्नेन क्रतूद्भवम्
अनया पूजया वसोर्धारादेवताः प्रीयन्ताम् न मम।
उच्चारण कर मण्डल पर अक्षत छोड़ दें। 
इस प्रकार विवाह पूर्वांग पूजन पूरा होगा।
बारात प्रस्थान :: 
अश्वारोहण :: अश्वारोहण से पहले वर और सहबाला (विनायक, विन्दायक, वर का भतीजा, छोटा बालक) दोनों मण्डप में पूर्वाभिमुख बैठें। वर के उपवस्त्र (दुपट्टा) के कोने में नारियल, द्रव्य, पीला चावल बँधा रहे और मौर-सेहरा, उपवस्त्र इत्यादि मान्य (जीजा, फूफा) के द्वारा बाँधा जाये। 
अश्वारोहण के पूर्व अपने घर में स्वजनों की उपस्थिति में वर तथा उसकी बगल में सहबाला सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर बैठते हैं। कुल परम्परा के अनुसार परिवार के जमाता द्वारा वर को कलंगी-जामा पगड़ी धारण कराई जाती है। पुरोहित गणेशाम्बिका आदि का पूजन करते हैं। तदनन्तर कन्या पक्ष के लोग वर पक्ष के वरिष्ठ जनों को द्रव्य सम्मान (मिलनी) प्रदान करके उन्हें विवाह हेतु आने का निमंत्रण-आमंत्रण देते हैं।
उपयुक्त क्रम अपने लोकचार के अनुसार सम्पन्न कर लेना चाहिये। तत्पश्चात् महिलायें लोकाचार के अनुसार वर को अश्वारोहण के लिये नीराजन आदि करके तैयार करती हैं। तदनन्तर वर मङ्गल वाद्यों के निनाद के साथ अश्व पर सवार होकर कन्या के पिता के घर की ओर प्रस्थान करे। साथ में वर पक्ष के कुटुम्बी, मित्र आदि सम्भ्रान्त जन बारात के रूप में जाते हैं। 
द्वार पूजा :: बारात के द्वार पर आ जाने एवं स्वागत के अनन्तर वर की द्वार पूजा सम्पन्न की जाती है। कन्या के अविभावक पश्चिमाभिमुख और वर पूर्वाभिमुख बैठकर आचमन-प्राणायाम करके :-  
ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोअपी वा। 
य: स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाहान्तर: शुचि: 
इस श्लोक को पढ़कर अपने ऊपर तथा पूजन सामग्री पर जल का प्रोक्षण करके बाहर-भीतर की पवित्रता के लिए शरीर का मार्जन करते हैं। हाथ में पुष्प लेकर :- 
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरितासउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे॥
इत्यादि मगलमंत्रो*3  का पाठ करें या श्रवण करें। तत्पश्चात् कन्यादान करनेवाला और वर दोनों जलाक्षत, द्रव्य लेकर देश, काल का संकीर्तन करके गणेश पूजन और कलश स्थापन पूजन का संकल्प करें तथा यथोपलब्ध उपचारों से गणेशाम्बिका और कलश नवग्रह आदि का पूजन करें। तत्पश्चात् कन्यादाता वर का पूजन करें। 
वर पूजन ::  कन्या के भाई अथवा पिता निम्न मंत्र से वर का पाद प्रक्षालन करें :- 
ॐ विराजो दोहोऽसि विराजो दोहमशीय मयि पद्यायै विराजो दोहः।
तिलक :: निम्न वैदिक मंत्र से अथवा मंगलश्लोक से वर को तिलक करें :- 
ॐ युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्तुष:। रोचन्ते रोचना दिवि॥ 
युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णु नृवाहसा॥ 
कस्तुरीतिलकं ललाटपटले वक्षःस्थले कौस्तुभं नासाग्रे वरमौक्तिकं करतलं वेणुः करे कङ्कणम्। सर्वाङ्गे हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे च मुक्तावली गोपस्त्रीपरिवेष्टो विजयते गोपालचूड़ामणिः॥
अक्षत लगाना :: निम्न मंत्र से वर को अक्षत लगायें :-  
ॐ अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत। 
अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया योजा न्विंद्र ते हरी 
माल्यार्पण :: निम्न मंत्र से वर को माला पहनायें :- 
ॐ याऽऽआहरज्जमदग्निः श्रद्धायै मेधायै कामायेन्द्रियाय। 
ताऽअहं प्रतिगृह्णामि यशसा च भगेन च॥
ॐ यद्यशोऽप्सरसामिन्द्रश्चकार विपुलं पृथु। 
तेन सङ्ग्रथिताः सुमनस आबध्नामि यशो मयि॥ 
तदनन्तर दाता वर को प्रदान करने के लिये कपड़े, अंगुलियक-अँगूठी, आभूषण, द्रव्य, नारियल और जलाक्षत हाथ में लेकर निम्न संकल्प करें :- 
ॐ अद्य कृतैतद् वरपूजनकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं तत्सम्पूर्णफलप्राप्त्यर्थं बार्हस्पत्यानि दक्षिणासहितानि इमानि वासांसि अग्निदैवतञ्च इदं सुवर्णाङ्गुलीयकम्...गोत्राय... शर्मणे वराय तुभ्यं सम्प्रददे।
दक्षिणा संकल्प :: इसके उपरान्त कन्यादाता और वर भूयसी दक्षिणा का संकल्प करें :- 
ॐ अद्य कृतैतद् वरपूजनकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं तन्मध्ये न्यूनातिरिक्तदोषपरिहारार्थं नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो भूयसीं  दक्षिणां विभज्य दातुमह मुत्सृज्ये।
विष्णुस्मरण ::   
                 ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। 
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥ 
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्  
यत्पादपङ्कज स्मरणात् यस्य नामजपादपि। 
न्यूनं कर्मं भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्
ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 
ॐ साम्बसदाशियाय नमः।
कन्या वरण-लोकाचार :: इसके बाद कन्या को मण्डप में लाकर पूर्वाभिमुख बैठायें और वर के ज्येष्ठ भ्राता पश्चिमाभिमुख बैठकर आचमन-प्राणायाम आदि करके गणेशादि आवाहित देवों की पूजा करें। 
कन्या भी गणेश, ओंकार, लक्ष्मी तथा कुबेर का निम्न नाम मंत्रों द्वारा पूजन करे :-
विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय। 
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते
गणेशाय नमः, गणेशमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, सर्वार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि।
ॐकाराय नमः, ॐकारमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, सर्वार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि। 
लक्ष्मयै नमः, लक्ष्मीमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, सर्वार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि।  
कुबेराय नमः, कुबेरमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, सर्वार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि।
कन्या निरीक्षण :: वर का ज्येष्ठ भ्राता कन्या पर जल छोड़े, कुंकुम-अक्षत लगाये, पुष्प छोड़े। इसके बाद कन्या की अंजलि में पाँच अंजलि चावल, फल आदि दे। 
तागपाट परिधान :: वर का ज्येष्ठ भाई कन्या को तागपाट (पटसूत्र) गणेश और कलश को स्पर्श कराकर प्रदान करे। 
देशाचार के अनुसार कन्या के हाथ में वस्त्र, आभूषण आदि प्रदान किया जाता है। 
कन्या को आशीर्वाद प्रदान करना :: इसके बाद निम्न मंत्र से वर को ज्येष्ठ भाई कन्या को आशीर्वाद प्रदान करे :- 
ॐ दीर्घायुस्त ओषधे खनिता यस्मै च त्त्वा खनाम्यहम्।
अथो त्त्वं दीर्घायुर्भूत्वा शतवल्शा विरोहतात्
कन्या के ऊपर अक्षत-पुष्प छोड़ें। 
इसके बाद वर का जयेष्ठ भ्राता भूयसी दक्षिणा देने के लिये हाथ में अक्षत, पुष्प, जल लेकर निम्न संकल्प करें :- 
ॐ अद्य...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोहं...गोत्रस्य...शर्मण...ममानुजस्य विवाहाङ्गभूते कन्यानिरीक्षणे तत्पूजने न्यूनातिरिक्तदोषपरिहारार्थं नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो भूयसीं दक्षिणा विभज्य दातुमुत्सृज्ये। 
इसके बाद कन्या को गुप्तागार में भेज दें।  
रक्षा विधान  :: 
ॐ गणाधिपं नमस्कृत्य नमस्कृत्य पितामहम्। 
विष्णुं रुद्रं श्रियं देवीं वन्दे भक्त्या सरस्वतीम्   
स्थानाधिपं नमस्कृत्य ग्रहनाथं निशाकरम्। 
धरणीगर्भसम्भूतं शशिपुत्रं बृहस्पतिम्॥
दैत्याचार्य नमस्कृत्य सूर्यपुत्रं महाग्रहम्। 
राहुं केतुं नमस्कृत्य यज्ञारम्भे विशेषतः॥
शक्राद्या देवताः सर्व मुनींश्चैव तपोधनान्। 
गर्ग मुनिं नमस्कृत्य नारदं मुनिसत्तमम्॥ 
वसिष्ठं मुनि शार्दूलं विश्वामित्रं च गोभिलम्। 
व्यासं मुनिं नमस्कृत्य सर्वशास्त्र विशारदम्
विद्याधिका ये मुनय आचार्याश्च तपोधनाः। 
तान् सर्वान् प्रणमाम्येवं यज्ञरक्षाकरान् सदा॥ 
तदनन्तर नीचे लिखे मंत्र बोलते हुए दाहिने हाथ से सरसों तथा चावल सब दिशाओं में छोड़ें :-  
प्राच्यां रक्षतु गोविन्द आग्नेय्यां गरुडध्वजः। 
याम्यां रक्षतु वाराहो नारसिंहस्तु नैर्ॠते॥       
वारुण्यां केशवो रक्षेद्वायव्यां मधुसूदनः। 
उत्तरे श्रीधरो रक्षेदैशान्यां तु गदाधरः॥ 
ऊर्ध्वं गोवर्धनो रक्षेदधस्ताच्च त्रिविक्रमः। 
एवं दिक्षु च मां रक्षेद्वासुदेवो जनार्दनः॥    
शङ्खो रक्षेच्च यज्ञाग्रे पृष्ठे खङ्गस्तथैव च। 
वामपार्श्वे गदा रक्षेद्दक्षिणे तु सुदर्शनः 
उपेन्द्रः पातु ब्रह्माणमाचार्यं पातु वामनः। 
अच्युतः पातु ऋग्वेदं यजुर्वेदमधोक्षजः॥ 
कृष्णो रक्षतु सामानि ह्यथर्वं माधव स्तथा। 
उपविष्टाश्च ये विप्रास्तेऽनिरुध्देन रक्षिताः॥ 
यजमानं सपत्नीकं कमलाक्षश्च रक्षतु। 
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं तत्सर्वं रक्षताद्धरिः 
यदन्न संस्थितं भूतं स्थानमाश्रित्य सर्वदा। 
स्थानं त्यक्त्वा तु तत्सर्वं यत्रस्थं तत्र गच्छतु॥ 
अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशम्। 
सर्वेषामविरोधेन ब्रह्म (विवाह) कर्म समारभे
गणपत्यादि समस्त देवताओं को मौली चढ़ाकर ब्राह्मणों के दाहिने हाथ में निम्न मंत्र से रक्षाबन्धन करें :- 
ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति  दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्।  
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते॥ 
इसके बाद यजमान और वर कंकुम से ब्राह्मणों को तिलक करें :- 
ॐ युञ्जति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि॥ 
युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णू नृवाहसा
तदनन्तर निम्न मंत्रों से ब्राह्मण लोग कन्यादाता और वर के दाहिने हाथ में रक्षा सूत्र बाँधें :- 
ॐ यदाबध्नं दाक्षायणा हिरण्य ग्वँग् शतानीकाय सुमनस्यमानाः। 
तन्म आ बन्धामि शत शारदायायुष्माञ्जरदष्टियर्थासम्‌॥ 
ॐ त्वं यविष्ठ दाशुवो नृँ: पाहि शृणुधी गिरः। रक्षा तोकमुत त्मना॥ 
येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो महाबलः।  
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥ 
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च रक्षां कुर्वन्तु ते सदा। 
निम्न मंत्र से मस्तक पर कुंकुम का तिलक करें :-
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। 
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
दक्षिणा दान :: 
इसके बाद रक्षाबन्धन कर्म की सफलता के लिये ब्राह्मणों को दक्षिणा दान का निम्न संकल्प करें :-  
ॐ अद्य कृतैतद्रक्षाविधानकर्मणः साद्गुण्यार्थं 
ब्राह्मणेभ्यो मनसोद्दिष्टां दक्षिणा दातुमुत्सृज्ये। 
संकल्प जल छोड़े और ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदान करें। रक्षा विधान पूरा हुआ।
विवाह विधान :: वर हाथ में चतुर्भुज दीपक लेकर विवाह-मण्डप में आये और कन्या दाता दीपक लेकर मण्डप में रखे।
वर तिलक :: कन्यादाता वर के मानते पर तिलक करे।  
उपानहत्याग :: विवाह मण्डप में उपस्थित कन्यादाता  अक्षत लेकर निम्न मंत्रों को पढ़ते हुए वर के जूतों पर छोड़े :- 
ॐ अथ वरमाह उपानहौ उपमुञ्चतु अग्नौ हविर्देयो घृतकुम्भप्रवेश:। 
तत्र स्थितो वरहोम्य  दूरेधता द्विसम्भ्रमः तस्माद् वरमाह उपानहौ  उपमुञ्चते   
ॐ अथ वरमाह्या उपानहौ उपमुञ्चते अग्नौ हविर्देया घृतकुम्भप्रवेशयाञ्चक्रुस्त्तो वराहः सम्बभूव  तस्माद्वराहो गावः सञ्जानते  ह्ययमेद्यैतदंशमभिसञ्जाते  स्वमे वैस्तपशूनामेहोतत्प्रतिष्ठन्ति  तस्माद् वाराह्य उपानहौ उपमुञ्चते।
इसके बाद वर के जूते निकवायें। 
वर से निवेदन ::  आसन के पश्चिम की ओर खड़े हुए वर  से कन्या के पिता कहें :- 
ॐ षडध्र्या भवन्त्याचार्य ऋत्विग् वैवाह्यो राजा प्रियः स्नातक इतिप्रतिसंवत्सरानर्हयेयुर्यक्ष्माणास्त्वृत्विज आसनमाहार्यह। 
कन्या के पिता पुनः कहें :-   
ॐ साधु भवानास्ताममर्चयिष्यामो भवन्तम्। 
वर कहे :-    अर्चय। 
इसके बाद दाता वर का हाथ पकड़कर आदर से आसन-पीढ़े पर बैठाये। स्वयं भी बैठकर आचमन, प्राणायाम करके हाथ में जल, अक्षत लेकर संकल्प करे :-  
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते...वैक्रमेब्दे...संवतसरे..मासे...पक्षे...तिथौ...वासरे...गौत्र:...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं...गोत्रायाः...नामान्या: कन्यायाः भर्त्रा सह धर्मप्रजोत्पादनग्रहधर्माचरणेष्वधिकारसिद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यार्थं ब्राह्मविवाहविधिना  विवाहाख्यं संस्कारं करिष्ये। तत्र कन्यादानप्रतिग्रहार्थं गृहागतं स्नातकवरं मधुपर्केणार्चयिष्ये।
विष्टर प्रदान करना :: कन्या के पिता के आलावा कोई अन्य व्यक्ति तीन बार कहे :-
ॐ विष्टरो विष्टरो विष्टरः*
तब कन्यादाता कहे :- ॐ विष्टर:प्रतिगृह्यताम्। 
वर कहे :- ॐ विष्टर:प्रतिगृह्णामि। 
यह कहकर वर दाता के हाथों से उत्तराग्र विष्टर को ग्रहणकरके निम्न मंत्र पढ़े :- 
इस मंत्र से उत्तर की तरफ अग्रभाग रखते हुए विष्टर को आसन के ऊपर रखकर वे बैठे। 
पाद्य प्रदान करना :: कन्यादाता एक पात्र में जल लेकर उसमें लावा, कुंकुम-रोली, चावल, पुष्प, सर्वोषधि डालकर हाथ में ले लें। इसके बाद कोई अन्य व्यक्ति कहे :- 
ॐ वष्र्मोऽस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्यः। 
इमन्तमभितिष्ठामि यो मा कश्चाभिदासति॥ 
तीन बार पाद्य का उच्चारण करे :- ॐ पाद्यं पाद्यं पाद्यम्। 
पुनः दाता कहे :- ॐ पाद्यं प्रतिगृह्यताम्। 
वर कहे :-  ॐ पाद्यं प्रतिगृह्णामि। 
यह कहकर वर दाता के हाथ से उत्तराग्र विष्टर को ग्रहण करके निम्न मंत्र पढ़े :- 
ॐ वर्ष्मोऽस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्यः।  
इमन्तमभितिष्ठामि यो मा कश्चाभिदासति
इस मंत्र से उत्तर की ओर अग्रभाग रखते गए विष्टर को दोनों पैरों के नीचे रखे। 
अर्ध्य प्रदान करना :: इसके बाद दूब, अक्षत, पुष्प, चन्दन मिश्रित जल को अर्ध्यपात्र में लेकर दाता से भिन्न-अलग कोई व्यक्ति यह मंत्र पढ़े :- ॐ अर्धोर्धोर्ध:। 
दात्ता कहे "- ॐ अर्ध: प्रतिगृह्यताम्। 
वर कहे :- ॐ अर्ध प्रतिगृह्णामि। 
यह कहकर दाता के हाथ से अर्ध ग्रहणकर अर्धपात्र को प्रणाम करके नीचे दिया हुआ मंत्र पढ़े :- ॐ आपः स्थ युष्याभिः सर्वान्  कामानवाप्नवानि। 
पुनः अर्ध को सिर में लगाएं और निम्न मंत्र पढ़ता हुआ अर्ध के जल को ईशान कोण में छोड़ दे।
ॐ समुद्रं वः प्रहिणोमि स्वां योनिमभिगच्छत। 
अरिष्टास्माकं वीरा मा परासेचि मत्पयः   
आचमनीय जल प्रदान :: कन्यादाता से अलग कोई व्यक्ति आचमन के लिये कमण्डलु आदि पात्र में शुद्ध जल ग्रहणकर यह वाक्य कहे :- ॐ आचमनीयमाचमनीयम्। 
दाता कहे :- ॐ  आचमनीयं  प्रतिगृह्यताम्। 
वर कहे :- आचमनीयं प्रतिगृह्णामि।
दाता के हाथ से आचमनीय जल लेकर वर निम्न मंत्र बोले :- 
ॐ आमागगन्यशसा स ग्वँग् सृज वर्चसा। 
तं मा कुरु प्रियं प्रजानामधिपतिं पशूनामरिष्टं तनूनाम्
इस मंत्र से एक बार आचमन करे। पुनः दो बार बिना मंत्र पाठ के आचमन करे और हाथ धो ले। 
मधुपर्क प्रदान करने की विधि*5 :: इसके बाद कन्यादाता काँस्य पात्र में दही, शहद और घी ग्रहण करके उसे दूसरे काँसे के पात्र से ढँककर दोनों हाथों में ले, दाता से  कोई अन्य व्यक्ति यह वाक्य कहे :- ॐ मधुपर्को मधुपर्को मधुपर्क:। 
दाता बोले :- ॐ मधुपर्क: प्रतिग्रह्यताम्। 
वर कहे :- ॐ मधुपर्क: प्रतिगृह्णामि।
वर दाता के हाथ में रखे हुए काँस्य पात्र के ढक्क्न को हटाकर देखे और निम्न मंत्र बोले :- ॐ मित्रस्य त्वा  चक्षुषा प्रतीक्षे। 
इसके बाद निम्न मंत्र पढ़कर वर मधुपर्क को दाहिने हाथ में ग्रहण करे :- ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां मधुपर्क प्रतिगृह्णामि।
वर मधुपर्क को ग्रहणकर बाँये हाथ में लेकर दाहिने हाथ की अनामिका (ताकि मूल में अँगूठा लगा रहे) से निम्नलिखित मंत्र पढ़ते हुए आलोडन करे :- 
ॐ नमः श्यावास्यायान्नशने यत्त आविद्धं तत्ते निष्कृन्तामि।
उपयुक्त मंत्र से अनामिका का अँगुली के मूल में  अँगूठा लगाकर उसी अनामिका से तीन बार प्रदक्षिणा क्रम से मधुपर्क को घुमाकर अनामिका और अँगूठे से मधुपर्कं में से थोड़ा सा भूमि पर छोड़ें, फिर घुमाकर भूमि पर छोड़ने का क्रम तीन बार करे। इसके बाद वर निम्न मंत्र बोलकर तीन बार मधुपर्क का प्रश्न-भक्षण करे :-  
ॐ यन्मधुनो मधव्यं परम ग्वँग् रूपमन्नाद्यम् तेनाहं मधुनो मधव्येन परमेण रूपेणान्नाद्येन परमो मधव्योन्नादोऽसानि।      
शेष मधुपर्क को पूर्व दिशा में असंचर देश (जहाँ कोई आता-जाता न हो) में रखवा दे। इसके बाद तीन बार आचमन करे और हाथ धो दे। 
अंग स्पर्श :: निम्न मंत्र बोलते हुए वर अपने अंगों का स्पर्श करे :- 
"ॐ वाङ्गंआस्येस्तु"-तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिका के अग्रभाग से मुख का स्पर्श करे।
"ॐ नसोर्मे प्राणोस्तु"-तर्जनी और अँगूठे से नाक का स्पर्श करे। 
"ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु"-अनामिका और अँगूठे से नेत्रों का स्पर्श करे।
"ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु"-मध्यमा तथा अँगूठे से कानों का स्पर्श करे। 
"ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु"-दाहिने हाथ की अँगुलियों के अग्रभाग से दोनों बाहुओं का स्पर्श करे।  
"ॐ ऊर्वोर्मे  ओजोऽस्तु"-दोनों हाथों से दोनों जंघाओं का सोर्स करे।
"ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा में सह सन्तु"-दोनों हाथों से सिर से पैर तक सभी अंगों का स्पर्श करे। तदनन्तर आचमन करे। 
गौस्तुति :: कन्यादाता वर के साथ एक कुशा या दूर्वा पकड़े। दाता से अन्य कोई व्यक्ति तीन बार उच्चारण करे :- गौर्गौर्गौ: 
वर निम्न मंत्र पढ़े :- 
ॐ माता रूद्राणां दुहिता वसूना ग्वँग् स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः। 
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट॥   
मम चामुकशर्मणो यजमानस्योभ्यो: पाप्मा हतः। 
"ॐ उत्सृजत तृणान्यत्तु" यह ऊँचे स्वर में कहकर दाता के हाथ से कुश लेकर ईशानकोण में छोड़ दे।
आचार :: गोदान का संकल्प करने का आचार निम्न है :- 
ॐ अद्य मधुपर्कोपयोगिनो गोरुत्सर्गकर्मण: साद्गुण्यार्थे गोनिष्क्रयीभूतमिदं (गोतृप्तयर्थं तृणनिष्क्रयद्रव्यं) द्रव्यं...गोत्राय...शर्मणे...ब्राह्मणाय दातुमुत्सृज्ये।
"ॐ स्वस्ति" ब्राह्मण कहे। 
अग्निस्थापन :: इसके बाद वर हाथ में जल-अक्षत लेकर अग्निस्थापन के लिये निम्न संकल्प करे :- 
ॐ अद्य गोत्रोत्पन्न:...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहं धर्मार्थकामसिद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीतये ब्राह्मविवाहविधिना अस्मिन् कर्मणि पञ्चभूसंस्कारपूर्वकं योजकनामाग्निस्थापनं करिष्ये।  
संकल्प जल छोड़ दें। 
पंच भू संस्कार :: एक हाथ की चतुरस्त्र-चौकोर वेदी बनाकर कुशाओं से वेदी का परिसमूहन-परिमार्जन करे और उन कुशाओं को ईशानकोण में छोड़ दे। गाय के गोबर तथा जल से वेदी को लीपे। स्त्रुवा के मूल से दक्षिण से उत्तर की तरफ तीन रेखा खींचे। उसी क्रम से अनामिका-अंगुष्ठ मिलाकर रेखाओं के ऊपर से मिट्टी उठाये और ईशानकोण में त्याग दे। पुनः वेदी पर जल छिड़के। 
काँसे की थाली में रखी हुई और दूसरी काँसे की थाली से ढँकी हुई, सुहागिन स्त्री द्वारा लाई गई अग्नि को, वर अपने सामने रखे और उस अग्नि से थोड़ा क्रव्याद अंश निकलकर नैर्ऋत्य कोण में रख दे।
पुनः निम्न मंत्र पढ़ते हुए योजक नामक उस अग्नि का वेदी पर स्थापन करे :- 
ॐ अग्नि दूतं पुरो दधे हव्यवाहपुम ब्रुवे। 
देवाँ२ आ सादयदिह॥
इसके बाद अग्नि की रक्षा के लिये कुछ समिधा छोड़ दे। जिस पात्र में अग्नि ले गई है, उसमें जल, अक्षत और द्रव्य छोड़ दे। 
संकल्प :: इसके बाद वर दार पाणिग्रहण का संकल्प करे :- 
ॐ अद्य गोत्र:...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहं अस्मिन् पुण्याहे धर्मार्थकामप्रजासन्तत्यर्थं दारपरिग्रहणं  करिष्ये।
संकल्प जल छोड़ दें।
कन्या का आचमन :: महिलायें कौतुकागार-कोहबर से हाथ में मंगल द्रव्य ली हुई कन्या को मण्डप में लायें और आसन पर पूर्वाभिमुख बैठायें।
वस्त्र चतुष्टय प्रदान करना  ::  
ॐ अद्य...गोत्रोत्पन्नोऽहं मम सकलकामनासिद्धये कन्यादानकर्मणः पूर्वाङ्गत्वेन एतद् वस्त्रचतुष्टयं...गोत्राय...शर्मणे/वर्मणे/गुप्ताय वराय भवते सम्प्रददे। 
यह कहकर वर के हाथ में चारों अहत*6 वस्त्र*7  दे दें। 
वर कहे :- स्वस्ति। 
इसके बाद वर उसमें दो वस्र कन्या को दे और दो वस्त्र स्वयं के लिये रखे। 
कन्या पूजन :: कन्यादाता कन्या का गन्धाक्षत से पूजन करे तथा तिलक लगाए। तदनन्तर कन्या वर द्वारा प्राप्त दो वस्त्रों को आचारानुसार निम्न मंत्र से धारण करे :- 
ॐ जरां गच्छ परिधित्स्व वासो भवाऽकृष्टीनामभिशस्तिपावा। शतं च जीव शरदः सुवर्चा रविं च पुत्राननु संव्ययस्वाऽयुष्मतीदं परिधित्स्व वास:॥
निम्न मंत्र से कन्या उत्तरीय वस्त्र धारण करे :-  
ॐ या अकृन्तन्नवयं या अतन्वत। याश्च देवीस्तन्तूनभितो ततन्ध। 
तास्तवा देवीर्जरसे संव्ययस्वाऽऽयुष्मतीदं परिधित्स्व वास:॥
वर का वस्त्र धारण ::  वर निम्न मंत्र से आचारानुसार स्वयं वस्त्र धारण करे और आचमन करे :- 
ॐ परिधास्यै यशोधास्यै दीर्घायुत्वाय जरदष्टिरस्मि। 
शतं च जीवामि शरदः पुरूची रायस्पोषमभिसंव्ययिष्ये॥ 
यज्ञोपवीत धारण :: इसके बाद आचारानुसार निम्न मंत्र से वर यज्ञोपवीत धरण करे और आचमन करे :- 
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। 
 आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥
निम्न मंत्र से वर उत्तरीय वस्त्र धारण करे :-  
ॐ यशसा मा द्यावापृथिवि यशसेन्द्राबृहस्पति। 
यशो भगश्च माऽविदद्यशो मा प्रतिपद्यताम्॥     
इसके बाद वर और कन्या दोनों दो बार आचमन*करें।
सम्मुखीकरण :: इसके बाद कन्यादाता वर कन्या को परस्पर सम्मुख करे अर्थात परस्पर एक दूसरे का निरीक्षण करें। उस समय वर कन्या को देखता हुआ निम्न मंत्र का पाठ करे :-
ॐ समञ्जन्तु विश्वेदेवाः समापो हृदयानि नौ। 
सं मातरिश्वा सं धता समुदेष्ट्री दधातु नौ॥
लोकाचार से वर कन्या ताम्बूल-पान ग्रहण करें।
ग्रन्थि बन्धन :: आचारानुसार कन्यादान अपनी पत्नी के वस्त्र के साथ ग्रन्थि बन्धन विप्र (सामान्यतया यह कार्य मान, फूफा, भाई आदि द्वारा सम्पन्न कराया जा रहा है)  द्वारा करायें। तत्पश्चात कन्यादाता द्रव्य, फूल, फल, अक्षादि लेकर कन्या के वस्त्र में रखकर वर के वस्त्र से ग्रन्थिबन्धन कर दें। 
शाखोच्चार या गोत्रोच्चार :: पहले वर  पुरोहित वेद मंत्र पढ़ें।  इसके बाद मंगल श्लोक और फिर प्रशस्ति पूर्वक शाखोच्चार करें। वश, गोत्र, प्रवर तथा सापिण्ड्य के निर्णय के लिये वर एवं कन्या क्रम से तीन-तीन पुरुषों का तीन-तीन बार गोत्रों का उच्चारण ब्राह्मण द्वारा किया जाता है।  
वर पक्षीय प्रथम उच्चारण :: 
पठनीय वेद मंत्र :: 
ॐ गणानान्त्वा गणपति ग्वँग् हवामहे प्रियाणान्त्वा प्रियपति ग्वँग् हवामहे निधीनान्त्वा निधिपति ग्वँग् हवामहे वसो मम। आहमाजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्ब्भधम्॥
मंगल श्लोक :: 
गौरीनन्दनगौरवर्णवदनः शृंङ्गारलम्बोदरः सिन्दूरार्चितदिग्गजेन्द्रवदनः पादौ रन्नूपुरौ। कर्णो लम्बविलम्बिगण्डविलसत्कण्ठे च मुक्तावली श्रीविघ्नेश्वरविघ्नभञ्जकरो  देवत्सदा मंगलम्॥
गोत्रोच्चार :: 
अस्यां रात्रौ (अस्मिन् दिवस वा) अस्मिन् मङ्गलमण्डपाभ्यन्तरे स्वस्तिश्रीमद्विविद्यविद्याविचारचातुरीविनिर्जितसकलवादिवृन्दोपरिविराजमान, पदपदार्थ, साहित्यरचनामृतायमान, काव्यकौतुकचमत्कारपरिणतनिसर्गसुन्दर, सहजानुभावगुणनिकरगुम्फितयश:  सुरभिकृत,  मङ्गलमण्डपस्य स्वस्तिश्रीमतः शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य प्रपोत्रः स्वस्तिश्रीमतः शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य पोत्रः, स्वस्तिश्रीमतः शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य...पुत्रः  प्रयतपाणि: शरणं प्रपद्ये, स्वस्तिसंवादेषुभयोर्वृद्धि: वरकन्यायोर्मङ्गलमास्तम् भूयास्ताम्, वरश्चिरञ्जीवी भवतात् कन्या च  सावित्री भूयात्। 
कन्या पक्षीय प्रथम शाखोच्चार ::
पठनीय वेदमंत्र ::        
ॐ पुनस्तवाऽऽदित्या  रुद्रा वसह: समिन्धतां पुनर्ब्राह्माणो वसुनीय यज्ञै:। 
घृतेन त्वं तन्वं वर्द्धस्य सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः॥
मंगल श्लोक :: 
ईशानो गिरिशो मृड: पशुपति: शूली शिवः शङ्करो भूतेशः प्रमथाधिपः स्मरहरो मृत्युञ्जयो धुर्जटि:। श्रीकण्ठों वृषभध्वजो हरभवो गङ्गाधरस्त्रयम्बक:  श्रीरुद्रः  सुरवृन्दवन्दितपद: कुर्यात् सदा मङ्गलम्॥ 
शाखोच्चार :: 
अस्यां रात्रौ (अस्मिन् दिवस वा) अस्मिन् मङ्गलमण्डपाभ्यन्तरे स्वस्तिश्रीमद्विविद्यविद्यालंङ्कारशरद्विमलरोहिणीरमणीयोदारसुन्दरदामोदरमकरन्दवृन्द-शेखरप्रचण्डखण्डमण्डलपूर्णपुरीन्दुनन्दनचरणकमलभक्तितदुपरि महानुभावसकलविद्याविनीतनिजकुलकमलकलिकाप्रकाशनैक भास्करसदाचारसच्चरित्र-सत्कुलप्रतिष्टाश्रेष्ठविशिष्टवरिष्ठस्य स्वस्तिश्रीमतः शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य प्रपौत्री:,
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य...पौत्री:,   शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य...पुत्रीयम्, प्रयतपाणि: शरणं प्रपद्ये, स्वस्तिसंवादेषुभयोर्वृद्धि:, वरकन्यायोर्मङ्गलमास्ताम्, वरश्चिरञ्जीवी भवतात् कन्या च  सावित्री भूयात्।
वरपक्षीय द्वितीय गोत्रोच्चार ::
पठनीय वेदमंत्र :: 
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। 
ब्रह्मराजन्याभ्या ग्वँग् शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च। प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृध्यतामुप मादो नमतु॥
मंगल श्लोक :: 
कौपीनं परिधाय पन्नगपते: गौरीपतिः श्रीपतेरभ्यर्ण समुपागते कमलया सार्धं स्थितमस्यासने। आयाते गरुडेऽथ पन्नगपतौ त्रासाद्वहिर्निर्गते शम्भुं वीक्ष्य दिगम्बरं जलभुवः स्मेरं शिवं पातु वः
शाखोच्चार ::
अस्यां रात्रौ (अस्मिन् दिवस वा) अस्मिन् मङ्गलमण्डपाभ्यन्तरे स्वस्तिश्रीमन्नन्दनन्दनचरण कमलभक्ति विद्याविनीतनिजकुलकमलकलिकाप्रकाशनैकभास्करसदाचारसच्चरितसत्कुल-सत्प्रतिष्ठागरिष्ठस्य स्वस्तिश्रीमतः शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य प्रपोत्रः, शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य पौत्र:, शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य पुत्रः,  
प्रयतपाणि: शरणं प्रपद्ये, स्वस्तिसंवादेषुभयोर्वृद्धि: वरकन्यायोर्मङ्गलमास्तां भूयास्ताम्, वरश्चिरञ्जीवी भवतात् कन्या च  सावित्री भूयात्। 
कन्या पक्षीय द्वितीय शाखोच्चार :: 
पठनीय वेदमंत्र ::  
आयुष्यं वर्चस्य  ग्वँग् राय स्पोषमौभ्दिदम्।  
ईद ग्वँग् हिरण्यं वर्चस्वञ्जैत्रायाविशतादुः माम्॥ 
मंगल श्लोक ::  
कौसल्याविशदालवालजनितः  सीतालतालिङ्गित: सिक्त: पंक्तिरथेन सोदरमहाशाखादिभिर्वर्धितः।रक्षस्तीव्रनिदाघपाटनपटुश्छायाश्रितानन्द कृद् युष्माकं स  विभूतयेस्तु भगवान् श्रीरामकल्पद्रुमः॥ 
शाखोच्चार ::
अस्यां रात्रौ (अस्मिन् दिवस वा) अस्मिन् मङ्गलमण्डपाभ्यन्तरे स्वस्तिश्रीमतः
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य प्रपौत्री:,
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य...पौत्री:,   शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य...पुत्री\, प्रयतपाणि: शरणं प्रपद्ये, स्वस्तिसंवादेषुभयोर्वृद्धि:, वरकन्यायोर्मङ्गलमास्तां भूयास्ताम्, वरश्चिरञ्जीवी भवतात् कन्या च  सावित्री भूयात्। 
वर पक्षीय तृतीय शाखोच्चार :: 
पठनीय वेदमंत्र :: 
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति। 
दूरंङ्गम् ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्ककल्पमस्तु
[शिवसंकल्पसूक्त 1]
हे परमात्मा! जागृत अवस्था में जो मन दूर दूर तक चला जाता है और सुप्तावस्था में भी दूर दूर तक चला जाता है, वही मन इन्द्रियों रुपी ज्योतियों की एक मात्र ज्योति है अर्थात् इन्द्रियों को प्रकाशित करने वाली एक ज्योति है अथवा जो मन इन्द्रियों का प्रकाशक है, ऐसा हमारा मन शुभ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो।  
जागृत अवस्था में मन दूर दूर तक गमन करता है। सदैव गतिशील रहना उसका स्वभाव है और उसकी गति की कोई सीमा भी नहीं है। मन इतनी प्रबल क्षमताओं से युक्त है कि एक स्थान पर स्थित हो कर भी सुदूर क्षितिज के परले पार पहुँच जाता है। वेगवान पदार्थों में वह सबसे अधिक वेगवान है।
मंगल श्लोक :: 
देवक्यां यस्य सूतिस्त्रिजगति विदिता रुक्मणि धर्मपत्नी पुत्रा: प्रद्युम्नमुख्या: सुरनरजयिनो वाहनः पक्षीराज:। वृन्दारण्यं विहारो व्रजवनिता वल्लभा राधिकाद्याश्चक्रं विख्यातमस्त्रं स जयति जगतां स्वस्तये नन्दसूनुः 
शाखोच्चार ::
अस्यां रात्रौ (अस्मिन् दिवस वा) अस्मिन् मङ्गलमण्डपाभ्यन्तरे स्वस्तिश्रीमतः शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य प्रपोत्रः, शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य पौत्र:, शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य पुत्रः,  प्रयतपाणि: शरणं प्रपद्ये, स्वस्तिसंवादेषुभयोर्वृद्धि: वरकन्यायोर्मङ्गलमास्तां भूयास्ताम्, वरश्चिरञ्जीवी भवतात् कन्या च  सावित्री भूयात्। 
कन्या पक्षीय तृतीय शाखोच्चार :: 
पठनीय वेदमंत्र :: 
ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वे आवः। 
स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च वि च:
मंगल श्लोक :: 
अंगुल्या कः कपाटं प्रहरति कुटिले माधवः किं वसन्तो नो चक्री किं कुलालो नहि धरणीधरः किं द्विजिह्वः फणीन्द्रः। नाहं घोराहिमर्दीकिमुत  खगपतिर्नो हरिः किं कपीन्द्रः चेत्थं राधाव प्रहसितवदनः पातु वश्चक्रपाणिः 
शाखोच्चार ::  
अस्यां रात्रौ (अस्मिन् दिवस वा) अस्मिन् मङ्गलमण्डपाभ्यन्तरे श्रीमतः 
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य प्रपौत्री:,
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य...पौत्री:,  शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतु: कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य...पुत्री, प्रयतपाणि: शरणं प्रपद्ये, स्वस्तिसंवादेषुभयोर्वृद्धि:, वरकन्यायोर्मङ्गलमास्तां भूयास्ताम्, वरश्चिरञ्जीवी भवतात् कन्या च  सावित्री भूयात्। 
कन्यादान विधि :: कन्यादान करने वाला अपने दक्षिण भाग में पत्नी को बैठाकर ग्रन्थिबन्धन युक्त होकर आचमन, प्राणायाम करके कन्या को पश्चिमाभिमुख बैठा लें और हाथ में पुष्प, जलाक्षत लेकर प्रार्थना पूर्वक कन्या दान का निम्न प्रतिज्ञा संकल्प करें :- 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे...नगरे/ग्रामे/क्षेत्रे  (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या: वाम भागे)...वैक्रमाब्दे...संवतसरे  श्रीसूर्ये अयने ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...वासरे...नक्षत्रे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे...राशिस्थिते...देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु यथायथं राशिस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशेषणविशिष्टायां...शुभपुण्यतिथौ...गौत्र:...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्त: सपत्निकोऽहं मम समस्तपितृणां निरतिशयानन्दब्रह्मलोकाप्त्यादिकन्यादान- कल्पोक्तफलप्राप्तये अनेन वरेण अस्यां कन्यायाम् उत्पादयिष्यमाणसन्तत्या दशपूर्वान् दशापरान् पुरुषानात्यानं च पवित्रीकर्तुं श्रीलक्ष्मीनारायणप्रीतये ब्राह्मविवाहविधिना कन्यादानं करिष्ये। 
हाथ का संकल्प जल छोड़ दें। 
प्रार्थना :: इसके बाद कन्यादाता कन्या का स्पर्श करते हुए वर से निम्नलिखित प्रार्थना करे :- 
कन्यां कनकसम्पन्नां कनकाभरपौर्युताम्। 
दास्यामि विष्णवे तुभ्यं ब्रह्मलोकजिगीषया॥
विश्वम्भर: सर्वभूता: साक्षिण्य: सर्वदेवता:।
इमां कन्यां प्रदास्यामि पितृणां तारणाय च॥ 
कन्यादान का प्रधान संकल्प ::  वर के दाहिने हाथ पर कन्या का दाहिना हाथ रखकर कन्यादाता सपत्नीक एक शंख में जल, दूर्वा, अक्षत, पुगीफल, पुष्प, चन्दन, तुलसी और स्वर्ण लेकर कन्या के दाहिने अँगूठे के पास अपना हाथ ले जाये और कन्या का भाई जलपात्र (गडुए) से जल की धारा नीचे रखे हुए कांस्य पात्र में छोड़ता रहे। उस समय दाता कन्यादान का निम्न संकल्प करे :- 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे...नगरे/ग्रामे/क्षेत्रे  (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या: वाम भागे)...वैक्रमाब्दे...संवतसरे  श्रीसूर्ये अयने ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...वासरे...नक्षत्रे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे...राशिस्थिते...देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु यथायथं राशिस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशेषणविशिष्टायां...शुभपुण्यतिथौ...गौत्र:...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्त: सपत्निकोऽहं मम समस्तपितृणां निरतिशयानन्दब्रह्मलोकाप्त्यादिकन्यादान- कल्पोक्तफलप्राप्तये अनेन वरेण अस्यां कन्यायामुत्पादयिष्यमाणसन्तत्या दशपूर्वान् दशापरान् पुरुषानात्यानं च पवित्रीकर्तुं श्रीलक्ष्मीनारायणप्रीतये...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दि-नीयशाखाध्यायिन:...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य प्रपौत्राय,...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य पौत्राय ...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य पुत्राय आयुष्मते कन्यार्थिने गोत्राय... प्रवराय...शर्मणे:/वर्मणे:/गुप्ताय वराय, (कन्यापक्षे तु) गोत्रस्य,...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य...प्रपौत्रीम्,...गोत्रस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य...पौत्रीम्,...गोत्रस्य...शर्मण:/वर्मणः/गुप्तस्य...पुत्रीम्...गोत्रोत्पन्नां नाम्नीमिमां कन्यां श्रीरूपिणीं वरार्थिनीं यथाशक्तयलंकृतां   गन्धाद्यर्चितां वस्त्रयुगचछन्नां सोपस्करानं प्रजापतिदैवतां शतगुणीकृतज्योतिष्टोमातिरात्रसमफलप्राप्तिकाम: प्रजोत्पादनार्थ (सहधर्माचरणाय)...गोत्राय...शर्मणे:/वर्मणे:/गुप्ताय विष्णुरूपिणे वराय पत्नीत्वेन तुभ्यमहं सम्प्रददे। 
यह कहते हुए कन्या के हाथ को वर के हाथ में प्रदान करें। और वर उसे ग्रहण करे। 
वर कहे :- ॐ स्वस्ति। ॐ द्यौस्त्वा  ददातु पृथिवी तवा प्रतिग्रह्णातु।
इसके बाद कन्यादाता वर से कहे :- 
ॐ यस्त्वया धर्मश्चरितव्यः सोऽनया सह। 
धर्मे चार्थे च कामे त्व्मेयं नातिचरितव्या 
वर कहे :- नातिचरामि। 
कोऽदात् कस्माऽअदात् कामोऽदात् कामायादात्। 
कामो दाता कामः प्रतिगृहीता कामैतत्ते 
इसी क्रम से कन्यादाता और वर अपने-अपने कथनों को तीन बार दोहरायें।
प्रार्थना ::
गौरीं कन्यामिमां विप्र यथाशक्ति विभूषिताम्। 
गोत्राय शर्मणे तुभ्यं दत्तां विप्र समाश्रय॥ 
कन्ये ममाग्रतो भूयाः कन्ये मे देवि पार्श्वयोः। 
कन्ये मे पृष्ठतो भूयास्त्वद्दानान्मोक्षमाप्नुयात्॥ 
मम वंशकुले जाता यावद् वर्षाणि पालिता। 
तुभ्यं विप्र मया दत्ता पुत्रपौत्रप्रवर्धिनी
कन्यादान सांगता :: कन्यादाता निम्न संकल्प पूर्वक सुवर्ण, दक्षिणा और गो-मिथुन अथवानिष्क्रय द्रव्य वर को दें। 
ॐ अद्य कृतैतत्कन्यादानकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं इदं सुवर्णदक्षिणाद्रव्यं गोमिथुनं च...गोत्राय...शर्मणे:/वर्मणे:/गुप्ताय वराय तुभ्यमहं सम्प्रददे। 
वर कहे :- ॐ स्वस्ति।   
गौ प्रार्थना :: इसके बाद हाथ में अक्षत, पुष्प लेकर गौ की प्रार्थना करें :- 
यज्ञ साधन या विश्वस्य घौघनाशिनी। विश्वरूपधरो देवः प्रियतामनया  गवा
भूयसी दक्षिणा संकल्प :: इसके बाद कन्यादाता निम्न मंत्र बोलकर भूयसी दक्षिणा का संकल्प करे :- 
ॐ अद्य कृतस्य कन्यादानकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं तन्मध्ये न्यूनातिरिक्तदोषपरिहार्थं यथोत्साहां भूयसीदक्षिणां विभज्य नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो दातुमहमुत्सृजे।
इसके बाद कन्या के पिता द्वारा प्रदान की हुई कन्या को वर ग्रहण कर निम्न मंत्र से कन्या का नाम उच्चारण करता हुआ उसे अग्नि वेदी के समीप लाये :- 
ॐ यदैषि मनसा दूरं दिशाऽनु पवमानो वा। 
हिरण्यपर्णो वैकर्ण: स त्वाः मन्मनसां करोतु। श्री अमुकी देवीति।
दृढ़पुरुष स्थापन :: वेदी की दक्षिण दिशा में जल से पूर्ण कलश एक दृढ मनुष्य के कंधे पर रखें। वह व्यक्ति कंधे पर कलश रखकर चुपचाप तब तक खड़ा रहे, जब तक कि अभिषेक न हो जाये।
परस्पर निरीक्षण :: 
इसके बाद कन्या का पिता कहे :- परस्परं समीक्षेधाम्। 
वर निम्न मंत्रों का पाठ करे और वधु को देखे :- 
ॐ अघोरचक्षुरपतिध्न्येधि शिवा पशुभ्यः सुमनाः सुवर्चाः।  
वीरसूर्देवकामा स्योना शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥
सोमः प्रथमो विवेदे गन्धर्वो विविद उत्तरः। 
तृतीयोऽग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजाः॥ 
सोमोऽददद् गन्धर्वाय गन्धर्वोऽददग्नये।  
रयिं च पुत्राश्चादादग्निर्मह्यमथो इमाम्॥  
सा नः पूषा  शिवतमा मैरय सा न ऊरू उशती विहर। 
यस्यामुशन्त्त: प्रहराम शेषं यस्यामु कामा बहवो निविष्ट्ये॥ 
इस तरह वर और कन्या एक दूसरे को देखें। 
इसके बाद वर-कन्या दोनों अग्नि की तीन प्रदक्षिणा*9  करके अग्नि के पश्चिम की ओर कुश के आसन पर अथवा चटाई पर अपने*10 दक्षिण भाग में वधू को बैठाकर स्वयं बैठे और निम्न संकल्प कर कन्या ग्रहण दोष निवृत्ति के निमित्त गोदान करे। 
*9 तीन परिक्रमा बिना किसी मंत्रोच्चार के की जाती हैं। शेष चार लाजाहोम के समय कराई जाती हैं। 
संकल्प :: 
ॐ अद्य...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहं कन्याग्रहणदोषनिवृत्त्यर्थं शुभफलप्राप्त्यर्थं च इदं गोनिष्क्रयीभूतं द्रव्यं रजतं चन्द्रदैवतं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दातुमुत्सृज्ये।
द्रव्य ब्राह्मण को दे दे। ब्राह्मण "ॐ स्वस्ति" बोले। 
विवाह होम :: 
आचार्य वरण :: इसके बाद वर हवन में आचार्य कर्म करने के लिये आचार्य का वरण करे। हाथ में वरण सामग्री एवं जल, अक्षत लेकर निम्न संकल्प वचन कहे :- 
ॐ अद्य कर्तव्यविवाहहोमकर्मणि आचार्यकर्मकर्तुम् एभिर्वरणद्रव्यै:...गोत्रं...शर्माणं ब्राह्मणम् आचार्यत्वेन  भवन्तमहं वृणे। 
आचार्य के हाथ में वरण सामग्री दें।
आचार्य कहें :- स्वस्ति, वृतोस्मि। 
आचार्य की प्रार्थना :: वर निम्न मंत्र बोलकर आचार्य से प्रार्थना करे :- 
आचार्यस्तु यथा स्वर्गे शक्रादीनां बृहस्पतिः। 
तथा त्वं मम यज्ञेस्मिन्नाचार्यो भव सुव्रत
ब्रह्मवरण :: इसके बाद हाथ में वरण सामग्री और जल-अक्षत लेकर ब्रह्मा के वरण हेतु निम्न संकल्प वचन कहे :-  
ॐ अद्य कर्तव्य विवाह होम कर्मणि कृताकृताऽवेक्षण रूप ब्रह्मं कर्मकर्तुम्  एभिर्वरणद्रव्यै:...गोत्रं...शर्माणं ब्राह्मणं बृह्मत्वेन भवन्तमहं वृणे।
ब्रह्मा के हाथ में वरण सामग्री प्रदान करें।
ब्रह्मा कहे :- वृतोऽस्मि। 
ब्रह्मा की प्रार्थना :: हाथ में पुष्प, अक्षत लेकर ब्रह्मा से प्रार्थना करें :-
यथा चतुर्मुखो ब्रह्मा सर्वलोकपितामह;। 
तथा त्वं मम यज्ञेस्मिन् ब्रह्मा भव द्विजोत्तम
ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। 
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते
कुशकण्डिका :: पुर्निमित पंच भूसंस्कार से सम्पन्न वेदी पर हवन के लिये कुशकण्डिका करें। 
प्रणीता पात्र स्थापन :: इसके पश्चात यजमान प्रणीता पात्र को आगे रखकर जल से भर दे और उसको कुशाओं से ढककर तथा ब्राह्मण का मुख देखकर अग्नि की उत्तर दिशा की ओर कुशाओं के ऊपर रखे। 
Thereafter, a wooden pot is filled with water and is covered with the Kush, while visualising the priest in the North direction of fire place & placed over the Kush grass.
अग्नि वेदी के चारों तरफ कुश आच्छादन-कुश परिस्रण :: इक्यासी कुशों को ले (यदि इतने कुश उपलब्ध न हों तो तेरह कुशों को ग्रहण करना चाहिये। उनके 3-3 के 4 भाग करे। कुशों के सर्वथा अभाव में दूर्वा से भी काम चलाया जा सकता है।) इनको 20-20 के चार भाग में बाँटे। इन चार भागों को अग्नि के चारों ओर फैलाया जाये। ऐसा करते वक्त हाथ कुश से खाली नहीं रहना चाहिये। प्रत्येक भाग को फैलाने पर हाथ में एक कुश बच रहेगा। इसलिये पहली बार में 21 कुश लेने चाहिये। कुश बिछाने का क्रम :- कुशों का पहला हिस्सा (20 +1) लेकर पहले वेदी के अग्नि कोण से प्रारम्भ करके ईशान कोण तक उन्हें उत्तराग्र बिछाये। फिर दूसरे भाग को ब्रह्मासन से अग्निकोण तक पूर्वाग्र बिछावे। तदनन्तर तीसरे भाग को नैर्ऋत्य कोण से वायव्य कोण तक उत्तराग्र बिछावे और चौथे भाग को वायव्य कोण से ईशान कोण तक पूर्वाग्र बिछावे। पुनः दाहिने खाली हाथ से वेदी के ईशानकोण से प्रारम्भकर वामावर्त ईशानकोण पर्यन्त प्रदक्षिणा करे।
81 Kush pieces are taken and grouped in to blocks of 3-3 and subsequently divided into 4 parts. These 4 segments have to be spreaded around the fire place.  The hand should not be empty while doing so. On taking 21 pieces, 20 will be placed and one will still be there in the hand. The first group of Kush grass should be kept till the Ishan Kon i.e., North-East direction beginning from the South-East direction till the North front. The second group should be laid starting from the seat of the Priest till the South-West direction keeping the Eastern section in front. The third group has to be placed towards West-South till North-West direction facing North and the fourth group should be placed from North-West till North-East facing east wards. Now, he should circumambulate from right hand side (keeping the hand empty), beginning from North-East to North-East i.e., reaching the same point yet again, anti-clock wise. 
यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ पात्र ::
(1). स्रुवा :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में घी की आहुति दी जाती है।
(2). प्रणीता :- इसमें जल भरकर रखा जाता है। इस प्रणीता पात्र के जल में घी की आहुति देने के उपरान्त बचे हुए घी को "इदं न मम" कहकर टपकाया जाता है। बाद में इस पात्र का घृतयुक्त होठों एवं मुख से लगाया है जिसे संसव प्राशन कहते हैं।
(3). प्रोक्षिणी :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में वसोर्धारा (घी की धारा) छोड़ी जाती है। यही क्रिया स्रुचि के माध्यम से भी की जाती है। 
(4). स्रुचि :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में मिष्ठान की पूर्णाहुति दी जाती है। मिष्ठान की इस आहुति को स्विष्टकृत होम कहते हैं। यह क्रिया यज्ञ अथवा हवन में न्यूनता को पूर्ण करने के लिए की जाती है।
(5). स्फ़्य :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन की भस्म धारण की जाती है।
सकोरा 
पात्रासादन (यज्ञपात्रों को यथास्थान या यथाक्रम रखना) :: हवन कार्य में प्रयोक्तव्य सभी वस्तुओं तथा पात्रों यथा-समूल तीन कुश उत्तराग्र (पवित्रक बनाने वाली पत्तियों को काटने के लिये), साग्र (आदि से लेकर आरंभ तक-पूरा, सब, कुल, समग्र) दो कुशपत्र (बीच वाली सींक निकाल कर पवित्रक (धार्मिक अनुष्ठानों में देवताओं की छवियों का स्नान और बड़ों पर पवित्र कारी पानी डालने का यंत्र) बनाने के लिये), प्रोक्षणी पात्र (अभाव में दोना या मिट्टी का स्कोरा), आज्य स्थाली (घी रखने के लिये पात्र), पाँच सम्मार्जन (सम्मार्जित झाड़ना बुहारना, साफ करना, स्नानादि मूर्ति का स्रुवा के साथ काम आनेवाला कुश या मुट्ठा, झाड़ू) कुश, सात उपनयन कुश, तीन समिधाएँ (प्रादेश मात्र लम्बी) स्त्रुवा, आज्य (घृत), यज्ञीय काष्ठ (पलाश आदि की लकड़ी), 256 मुट्ठी चावलों से भरा पूर्ण पात्र, चरु पाक के लिये तिल और मूँग से भरा पात्र आदि को पश्चिम से पूर्व तक उत्तराग्र अथवा अग्नि के उत्तर की ओर पूर्वाग्र रख लें।
वीणा
उनके आगे वीणा वादन करने वाले गायकों को बैठायें। 
वहाँ प्रादेश मात्र अग्रभाग सहित पीपल काष्ठ की कील तथा शल्लकी का काँटा, पीला सूत लपेटा हुआ एक तकुआ (spindle, चरखे-spinning wheel, में लगी लम्बी-पतली लोहे की लगभग एक फुट की छड़) जिस पर कता हुआ सूत लिपटता जाता है तथा कुशाओं की तीन पिंजूलिका (तेरह कुशाओं को लपेटकर एक पिंजूलिका बनती है) बनाकर स्थापित करनी चाहिये। ऐसी तीन पिंजूलिका स्थापित करें। गूलर के नवीन पत्ते की डाली, जिनके दोनों तरफ फल लगे हुए हों, सुवर्ण के तारयुक्त सूत्र, पुष्प, बिल्वफल सहित अन्यान्य मांगलिक पदार्थ स्थापित करें।
चरखा 
 All goods meant for the holy sacrifices in fire should be arranged in proper order. They are :- Kush-Uttragr,  two Kush leaves without middle thread for making Pavitrak, Dona or Sakora may be used if Pavitrak is not available, Pot for keeping Ghee-clarified butter, Five Kush meant for ritualistic cleaning, Seven Kush for Upnayan-Janeu (sacred loin thread), Three pieces of wood meant for burning in sacred fire,  Struva, Ghee,  Wood of Palash-Dhak meant for the Hawan, A pitcher to keep 256 fistfuls of rice, A pot filled with Til-Sesame & Mung) meant for Charu Pak. These goods should be kept ready  either moving from West to East or North of fire place facing East.
Two singers who plays Veena should be seated in front of them.
A Nail made of wood from fig tree, a thorn of Shallki, Yellow cotton thread. A spindle rod, Three Pinjulika-role made of Kush-one Pinjulika is formed by spinning 13 Kush one over each other, A branch of Gular tree having new leaves with new fruits on both sides, A thread having gold spined with it, Flowers, Bilv fruits and all other relevant goods used for auspicious rituals-occasions.
पवित्रक निर्माण :: दो कुशों के पत्रों को बायें हाथ में पुवाग्र रखकर इनके ऊपर उत्तराग्र तीन कुशों को दायें हाथ से प्रादेश मात्र दूरी छोड़कर मूल की ओर रख दें। तदनन्तर कुशों के मूल को पकड़कर कुशत्रय को बीच में लेते हुए दो कुश पत्रों को प्रदिक्षण क्रम से लपेट लें, फिर दायें हाथ से तीन कुशों को मोड़कर बायें हाथ में लें तथा दाहिने हाथ से कुश पत्रद्वय पकड़कर जोर से खींच लें। जब दो पत्तों वाला कुश कट जाये तब उसके अग्रभाग वाला प्रादेश मात्र दाहिनी ओर से घुमाकर गाँठ लगा दें, ताकि दो पत्र अलग-अलग न हों। इस तरह पवित्रक बन जायेगा।  शेष सबको-दो पत्रों के कटे हुए भाग तथा काटने वाले तीनों कुशों को, उत्तर दिशा में फेंक दें।  
MAKING OF PAVITRAK :: Two leaves of Kush should be kept in left hand eastwards and they should be covered with three Kush northward, keeping a distance of slightly-roughly equal to the distance between the thumb & the index finger with the right hand towards the root. Then hold the roots of Kush keep the three Kush in between and tie them clockwise. Now, Bind-turn the three Kush with the right hand and pull the three Kush cutting the two leaved Kush, tie it so that the two leaved Kush are not separated. This will form the Pavitrak. Through the remaining part as useless northward.
पवित्रक कार्य एवं प्रोक्षणी पात्र का संस्कार :: पूर्वस्थापित प्रोक्षणी को अपने सामने पूर्वाग्र रखें। प्रणीता में रखे जल का आधा भाग आचमनी आदि किसी पात्र द्वारा प्रोक्षणी पात्र में तीन बार डालें। अब पवित्री के अग्र भाग को बायें हाथ की अनामिका तथा अँगुष्ठ से और मूल भाग को दाहिने हाथ की अनामिका तथा अँगुष्ठ से पकड़कर, इसके मध्य भाग के द्वारा प्रोक्षिणी के जल को तीन बार उछालें (उत्प्लवन)। पवित्रक को प्रोक्षणी पात्र में पूर्वाग्र रख दें। प्रोक्षणी पात्र को बायें  हाथ में रख लें। पुनः पवित्रक के द्वारा प्रणीता के जल से प्रोक्षणी को प्रोक्षित करें। तदनन्तर इसी प्रोक्षणी के जल से आज्य  स्थाली, स्त्रुवा आदि सभी सामग्रियों तथा पदार्थों का प्रोक्षण करें अर्थात उन पर जल के छींटे डालें (अर्थवत्प्रेाक्ष्य)। इसके बाद उस प्रोक्षणी पात्र को प्रणीता पात्र तथा अग्नि के मध्य स्थान (असंचर देश) में पूर्वाग्र रख दें।
RITES PERTAINING TO PAVITRAK & PROKSHNI :: The Prokshani which was installed earlier should be kept in front. Half of the water kept in Pranita should be transferred to Prokshani vessel with the help of Achmani thrice. Now, hold the front of Pavitri with the third-Sun finger and the thumb of the left hand & root-base of of Pavitri with the third-Sun finger and the thumb of right hand and spill the water thrice kept in the Prokshani, with its middle segment. Pavitrak should be kept in the Prokshani with its front in forward direction. Again spill the water from the Pranita with Pavitrak over the Prokshani. Thereafter, spill the water from the Prokshani over Ajy Sthali, Struva and all other goods kept there for the purpose of Hawan. Thereafter, keep the Prokshani between Pranita and the fire place keeping it forward.
घी को आज्य स्थाली में निकालना :: आज्य पात्र से घी कटोरे में निकालकर उस पात्र को वेदी के दक्षिण भाग में अग्नि-आग पर रख दें। 
WITHDRAWING GHEE FROM THE AJY STHALI :: Keep the Ghee in a bowl and place it over the fire in the South of the fire place-Vedi. 
चरूपाक विधि ::  फिर आज्य स्थाली में घी डालें और चरु बनाने के लिये तिल, चावल तथा मूँग मिलायें और उनको प्रणीता पात्र के जल से तीन बार धोयें। इसके बाद किसी बर्तन में पानी भरकर उसमें तिल, चावल और मूँग डाल दें। तत्पश्चात यजमान उस चरुपात्र को हाथ में लेकर ब्राह्मण-पुरोहित से घी को ग्रहण कराकर वेदी स्थित अग्नि के उत्तर की ओर चरु को रखें और पुरोहित के हस्त स्थित घी को दक्षिण की ओर स्थापित करा दें। (ब्राह्मण-पुरोहित इन सब कार्यों को स्वतः विधि पूर्वक सम्पन्न करने में प्रशिक्षित होने चाहियें)। जिस समय चरु सिद्ध हो जाये अर्थात पक जाये, तब एक जलती हुई लकड़ी को लेकर चरुपात्र के ईशान भाग से प्रारम्भ कर ईशान भाग तक दाहिनी ओर घुमाकर अग्नि में डाल दें। फिर खाली बायें हाथ को बायीं ओर घुमाकर ईशान भाग तक ले आयें। यह क्रिया पर्यग्नि करण कहलाती है।MAKING-COOKING OF CHARU :: Pour Ghee in its pot and mix Til-sesame, rice and Mung pulse with it and wash them thrice with the water in water pot. Now, take some water in a cooking pot and put the Til, rice along with Mung pulse in it. Thereafter, the host performing Yagy-Hawan should place the pot containing Charu in the North direction of fire place, after handing over Ghee to the Brahmn-Purohit who would place the Ghee in South direction. The Priest should be well versed-trained and skilled in these routine jobs. As soon as the Charu is cooked a piece of burning wood should be moved in North-East direction reaching the same spot-point and put the wood over the Vedi-fire place. Then the left hand should be moved from from left to the North-East direction of the fire place. This process is termed as Pary Agni Karan. 
स्त्रुवा का सम्मार्जन (झाड़ना–बुहारना, साफ़ करना) :: जब घी कुछ पिघल जाये तब दायें हाथ में स्त्रुवा को पूर्वाग्र तथा अधोमुख होकर आग पर गर्म करें। पुनः स्त्रुवा को बायें  हाथ में पूर्वाग्र ऊर्ध्वमुख रखकर दायें हाथ से सम्मार्जित कुश के अग्र भाग से स्त्रुवा के अग्रभाग का, कुश के मध्य भाग से स्त्रुवा के मध्य भाग का कुश के मूलभाग से स्त्रुवा के मूलभाग का स्पर्श करें अर्थात स्त्रुवा का सम्मार्जन करें। उसके बाद सम्मार्जित कुशों को अग्नि में डाल दें।
CLEANING OF STRUVA :: After melting of Ghee, warm the Struva over the fire by keeping it in right hand. Now, keep the Struva in the left hand, lean forward and touch the middle & terminal segment of Struva with the Kush grass's middle segment with the middle and the last segment with the last-terminal segment. After that put the Kush used in the process, in fire.
स्त्रुवा का पुनः प्रतपन (गरम करना, गरमाहट पहुँचाना, तप्त करना, तपाना) :: अधोमुख स्त्रुवा को पुनः अग्नि में तपाकर अपने दाहिने ओर किसी पात्र, पत्ते या कुशों पर पूर्वाग्र रख दें।
HEATING OF STRUVA :: Now, leaning forward the Struva should be warmed and kept to the right over some pot, leaves or the Kush grass.
घृत पात्र तथा चरुपात्र की स्थापना :: घी के पात्र को अग्नि से उतारकर चरु के पश्चिम भाग से होते हुए पूर्व की ओर से परिक्रमा करके अग्नि (वेदी) के पश्चिम भाग में उत्तर की ओर रख दें। तदनन्तर चरुपात्र को भी अग्नि से उतार कर वेदी के उत्तर में रखी हुई आज्य स्थाली के पश्चिम से ल जाकर उत्तर भाग में रख दें। 
PLACEMENT OF GHEE POT & STRUVA :: Now, remove the Ghee pot from the fire place-Vedi, move it from West to East around the fire place and place it over the ground. Thereafter, the Charu pot should also be removed from the Vedi moving round from West direction & keep it to the North of the Ajy Sthali.
घृत का उत्प्लवन :: घृतपात्र को सामने रख लें। प्रोक्षणी में रखी हुई पवित्री को लेकर उसके मूलभाग को दाहिने हाथ के अँगूठे तथा अनामिका से बायें हाथ के अँगुष्ठ तथा अनामिका से पवित्री के अग्र भाग को पकड़कर कटोरे के घी को तीन बार ऊपर उछालें। घी का अवलोकन करें और यदि घी में कोई विजातीय वस्तु हो तो उसे निकालकर फेंक दें। तदनन्तर प्रोक्षणी के जल को तीन बार उछालें और पवित्री को पुनः प्रोक्षणी पात्र में रख दें। स्त्रुवा से थोड़ा घी चरु में डाल दें। 
EXUDATION OF GHEE :: The Ghee is thrown in an upward direction. The pot containing Ghee is kept in front. The Pavitri kept in the Prokshani should be held in the hand, at its base-handle, with the right hand thumb and the Sun-third finger & holding the front portion of the Pavitri with the third finger jump the Ghee upwards into the fire, thrice. Check the Ghee carefully & if anything unwanted-undesirable is present in it remove it. Keep the Pavitri again in the Prokshani. Transfer a bit of Ghee with Struva in the Charu.
तीन समिधाओं की आहुति :: ब्राह्मण-पुरोहित को स्पर्श करते हुए बायें हाथ में उपनयन (सात) कुशों को लेकर हृदय-छाती से बायाँ हाथ सटाकर, तीन समिधाओं को घी में डुबोकर मन से प्रजापति देवता का ध्यान करते हुए खड़े होकर, मौन हो, अग्नि में डाल दें और बैठ जायें। 
PUTTING THREE PIECES OF WOOD IN FIRE :: Touch the priest, hold 7 Kush straw near the chest-heart with left hand, put the three pieces of wood in the Vedi-fire pot, remember the Prajapati demigod-Devta, silently and sit down. 
पर्युक्षण (जलधारा को प्रवाहित करना) :: पवित्रक सहित प्रोक्षणी पात्र के जल को दक्षिण-उलटे हाथ की अंजलि में लेकर अग्नि के ईशान कोण से ईशान कोण तक प्रदक्षिणा क्रम से जल धारा का प्रवाह करें। पवित्रक को बायें-उलटे हाथ में लेकर फिर दाहिने खाली हाथ को उलटे-विपरीत अर्थात ईशान कोण से उत्तर होते हुए ईशान कोण तक ले आयें (इतरथावृत्ति:) और पवित्रक को दायें हाथ में लेकर प्रणीता में पूर्वाग्र रख दें। तदनन्तर हवन करें। 
POURING WATER :: Hold the Prokshani with the Pavitrak and pour-immerse water by holding it in the left palm, from North-East direction of the Vedi-fire pot bringing it back, leading to immersion. Hold the Pavitrak in the left hand move the empty right hand in opposite direction i.e., North of North-East. Hold the Pavitrak in right hand and put the Pranita in the East. Now, get ready for the holy sacrifices in fire i.e., Hawan.
Please refer to :: YAGY-HAWAN यज्ञ-हवन santoshsuvichar.blogspot.com 
पात्रा सादन :: विवाह में हवन सामग्री के अतिरिक्त अन्य उपयोगी विशेष विवाह सामग्री सम्भार को भी यथास्थान स्थापित करना चाहिये यथा शमी के पत्ते मिले हुए धन का लावा, दृढ पत्थर, कुमारी का भाई, शूर्प, दृढ पुरुष, आलेपन द्रव्य आदि। 
हवन विधान :: हवन से पहले अग्नि का ध्यान तथा गन्धाक्षत से उसकी पूजा कर लें। दाहिना घुटना जमीन पर टिकाकर स्त्रुवा में घी लेकर निम्न मंत्रों से आहुति प्रदान करें तथा उस समय ब्रह्मा कुशा से हवन कर्ता का स्पर्श किये रहें। 
होम करते समय स्त्रुवा में हुआ घी भी प्रोक्षणी पात्र में डालते जाना चाहिये। सबसे पहले आधाराज्य सम्बन्धी चार आहुतिया दें। 
आधाराज्य होम :: 
ॐ प्रजापतये (यह मन में कहें) स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।
ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम।
ये आधार संज्ञक होम है।    
ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम। ॐ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम। 
ये दोनों आहुतियाँ आज्य भाग संज्ञक हैं। 
महाव्याहृति होम :: 
ॐ भूः स्वाहा, इद इदमग्नये न मम। 
ॐ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम। 
ॐ स्वः स्वाहा, सूर्याय न मम।
इन तीन आहुतियों की महाव्याहृति संज्ञा है।
सर्वप्रायश्चित होम :: 
मया ॐ स्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः। 
यजिष्ठो वह्णितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा॥  
इदमग्निं वरुणाभ्यां न मम। 
ॐ स त्वं नो अग्नेवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। 
अव यक्ष्य नो वरुणं रराणो वीहि मुडीकं सुहवो न एधि स्वाहा॥         
इदमग्निं वरुणाभ्यां न मम। 
ॐ अयाश्चग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्वमया असि। 
अया नो यञं वहा स्यया  नो धेहि भेषज  स्वाहा
इदमग्नयेऽयसे न मम। 
ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्त्रं यज्ञिया: पाशा वितता महान्त: 
तेभिर्नो ऽध्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्का: स्वाहा
इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्य:स्वर्केभ्यश्च न मम। ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यम अथाय। 
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा॥
इदं  वरुणायादित्यायादित्ये न मम। 
ये पाँच आहुतियाँ प्रायश्चित संज्ञक हैं। 
राष्ट्रभृत् होम :: इसके बाद ब्रह्मा से अन्वारम्भ के निम्न मंत्रों से बारह राष्ट्रभृत् हवन करें :- 
ॐ ऋताषाड्रतधामाग्निर्गन्धर्व: स न इदं ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्।इदमृतासाहे ऋतधाम्नेऽग्नये गन्धर्वाय न मम॥1॥
ॐ ऋताषाड्रतधामाऽग्निर्गन्धर्वस्तस्यौषधयोऽप्सरसो मुदो नाम ताभ्यः स्वाहा। इदमोषधीभ्योऽप्सरोभ्यो मुद्भ्यो न मम॥2॥
ॐ स हितो विश्वसामा सूर्यो गन्दर्व: स न इदं ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्। इदं स हिताय विश्वसाम्ने सूर्याय गन्धर्वाय न मम॥3॥ 
ॐ स हितो विश्वसामा सूर्यो गन्दर्व: स्तस्य मरीचयोऽप्सरस आयुषो नाम ताभ्यः स्वाहा। इदं मरीचिभ्योऽप्सरोभ्यो आयुभ्यो न मम॥4॥
ॐ सुषुम्ण: सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्व:स न इदं ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्। इदं सूर्यरश्मये चन्द्रमसे गन्धर्वाय न मम॥5॥ 
ॐ सुषुम्या सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वस्तस्य नक्षत्रान्य ऽप्सरसो भेकुरयो नाम ताभ्यः स्वाहा। इदं नक्षत्रेभ्योऽप्सरोभ्यो भेकुरिभ्यो न मम॥6॥ 
ॐ इषिरो विश्वव्यचा वातो गन्दर्व: स न इदं ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्। इदमिषिराय विश्व व्यचसे वाताय गन्धर्वाय न मम॥7॥ 
ॐ इषिरो विश्वव्यचा वातो गन्दर्वस्तस्यापोऽप्सरस ऊर्जो नाम ताभ्यः स्वाहा। इदमद्भ्योऽप्सरोभ्य उरभ्र्यो न मम॥8॥ 
ॐ भुज्युः सुपर्णो यज्ञो गन्दर्व: स न इदं ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्। इदं भुज्यवे सुपर्णाय यज्ञाय गन्धर्वाय न मम॥9॥ 
ॐ भुज्युः सुपर्णो यज्ञो गन्धर्वस्तस्य दक्षिणा अप्सरसस्तावा नाम ताभ्यः स्वाहा।इदं दक्षिणाभ्योऽप्सरोभ्य स्तावाभ्यो न मम॥10॥ 
ॐ प्रजापतिर्विश्वकर्मा मनो गन्दर्व: स न इदं ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्। इदंप्रजापतये विश्वकर्मणे मनसे  गन्धर्वाय न मम॥11॥ 
ॐ प्रजापतिर्विश्वकर्मा मनोगन्धर्वस्तस्य  ऋक्समान्यप्सरस एष्टवो नाम ताभ्यः स्वाहा। इदमृक्साम्भयोऽप्सरोभ्य  एष्टभ्यो न मम॥12॥   
जयासंज्ञक होम :: इसके बाद निम्नलिखित तेरह मंत्रों से आहुति प्रदान करे :- 
ॐ चित्तं च स्वाहा, इदं चित्ताय न मम॥1॥  
ॐ चित्तिश्च स्वाहा, इदं  चित्त्यै न मम॥2॥
ॐ आकूतं  च स्वाहा, इदमा कूताय न मम॥3॥
ॐ आकृतिश्च  स्वाहा, इदमा कूतयै न मम॥4॥
ॐ विज्ञातश्च  स्वाहा, इदं  विज्ञाताय न मम॥5॥
ॐ विज्ञातिश्च  स्वाहा, इदं  विज्ञातये न मम॥6॥
ॐ मनश्च  स्वाहा, इदं  मनसे न मम॥7॥
 शक्वरीश्च स्वाहा, इदं  शक्वरीभ्यो न मम॥8॥
ॐ  दर्शश्च स्वाहा, इदं  दर्शाय न मम॥9॥
ॐ  पौर्णमासं स्वाहा, इदं  पौर्णमासाय न मम॥10॥
ॐ  वृहच्च स्वाहा, इदं  वृहते न मम॥11॥
ॐ  रथन्तरं  स्वाहा, इदं  रथन्तराय न मम॥12॥
ॐ  प्रजापतिर्जयानिद्राय वृष्णे  प्रायच्छदुग्र  पृतना जयेषु॥13॥ 
इसके बाद प्रणीता जल का स्पर्श करें और अपने ऊपर छिड़कें। उसके बाद निम्न मंत्र बोलें :- 
यथा बाण प्रहाराणां कवचं भवति वारणम्। 
तथा देवोपघातानां शान्तिर्भवति वारिणा॥
अभ्यातान होम :: इसके बाद निम्नलिखित अट्ठारह मंत्रों से अभ्यातान संज्ञक होम करें। 
ॐ अग्निर्भूतानामधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
इदमग्नये भूतानामधिपतये न मम॥1॥      
ॐ इन्द्रो ज्येष्ठानामधिपति: स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
इदमिन्द्राय ज्येष्ठानामधिपतये  न मम॥2॥
ॐ यम पृथिव्या अधिपतिः स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा।  
ॐ यमाय  पृथिव्या अधिपतये न मम*11॥3
यहाँ पुनः प्रणीता के जल का स्पर्श करें और यथा बाण प्रहाराणां...इत्यादि मंत्र से अपने ऊपर जल का छिड़काव करें। 
*11मंत्र की आहुति के अनन्तर स्त्रुवा के अवशिष्ट अंश का त्याग प्रोक्षणी में न करके किसी अन्य पात्र में करना चाहिए। 
यमाय दक्षिणे त्याग ऐशान्यां रौद्र एव च। दक्षिणाग्नेययोमध्ये पितृत्यागो विधीयते। एष त्यागोऽन्यपात्रे  स्यात् प्रोक्षणीष्वन्य एव हि
ॐ वायुरन्तरिक्षस्याधिपति: स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
इदं वायुरन्तरिक्षस्याधिपतये न मम॥4॥
ॐ सूर्यो दिवोऽधिपति: स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
इदं सूर्याय दिवोऽधिपतये न मम॥6॥  
ॐ बृहस्पतिर्ब्रह्मणोऽधिपति: स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
इदं बृहस्पतये ब्रह्मणोऽधिपतये न मम॥7॥ 
ॐ मित्रः सत्यानामधिपति: स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
इदं  मित्राय सत्यानामधिपतये न मम॥8॥ 
ॐ वरुणोऽपामऽधिपति: स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
इदं  वरुणायापामधिपतये न मम॥9॥   
ॐ समुद्रः स्त्रोत्यानामधिपति: स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
इदं  समुद्राय  स्त्रोत्यानामधिपतये न मम॥10॥ 
ॐ अन्नँ  साम्राज्यानामधिपति: स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
इदमन्नाय  साम्राज्यानामधिपतये न मम॥11॥ 
ॐ सोम ओषधीनामधिपति: स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
ॐ इदं सोमायौधीनामधिपतये न मम॥12॥ 
ॐ सविता प्रसवानामधिपति: स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
ॐ इदं सवित्रे  प्रसवानामधिपतये न मम॥13॥ 
ॐ रुद्रः पशूनामधिपति: स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
ॐ इदं रुद्राय पशूनामधिपतये न मम॥14॥ 
इसके बाद प्रणीता के जल से दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियों को प्रक्षालित करें। 
ॐ रुद्रः पशूनामधिपति: स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
ॐ इदं रुद्राय पशूनामधिपतये न मम॥15॥  
ॐ त्वष्टा रूपाणामधिपति: स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
ॐ इदं त्वष्टे रूपाणामधिपतये न मम॥16॥ 
ॐ मरुतो  गणानानामधिपतयस्ते स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्  क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
ॐ इदं मरुद्ध्यो गणानानामधिपिभ्यो न मम॥17॥  
ॐ पितरः पितामह्य: परेवरे  ततास्ततामहाः। इहं मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्वाँ स्वाहा। 
इदं पितृभ्य: पितामहेभ्य: परेभ्योऽवरेभ्यस्ततेभ्य स्ततामहेभ्यो न मम॥18॥
पुनः प्रणीता के जल से दाहिने हाथ की अँगुलियों को प्रक्षालित करें। 
आज्य होम :: निम्नलिखित पाँच मंत्रों से घी की पॉंच आहुति दें :- 
ॐ अग्निरैतु प्रथमो देवतानाँ सोऽस्यै प्रजां मुञ्चतु मृत्युपाशात्। तदयँ राजा वरुणोऽनुमन्यतां यथेयँ स्त्री पौत्रमघंनरोऽदात्स्वाहा। इदमग्नये न मम॥1॥ 
ॐ इमामग्निस्त्रायतां गार्हपत्यः प्रजामस्यै नयतु दीर्घमायुः। अशून्योपस्था जीवतामस्तु माता पौत्रमानन्दमभिविबुध्यतामियँ स्वाहा। 
इदमग्नये न मम॥2॥ 
ॐ स्वस्ति नो अग्ने दिव आ पृथिव्या विश्वानि धेह्ययथा यजत्र। यदस्यां महि दिवि जातं प्रशस्तं तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रँ स्वाहा। इदमग्नये न मम॥3॥ ॐ सुगं नु पन्थां प्रदिशन्न एहि ज्योतिष्मध्ये ह्यजरन्न आयु:। अपैतु मृत्युरमृतन्न आगाद्वैवस्वतो नो अभयं कृणोतु स्वाहा। इदं वैवस्वताय न मम॥4॥ 
पुनः प्रणीता के जल से दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियों का प्रक्षालन करें।
अन्तः पट हवन*12 :- वर वधु और अग्नि के बीच कपड़ा बाँधकर आगे कहे हुए मंत्र का उच्चारण मन ही  मन कर होता आहुति दे। यह आहुति मृत्यु देवता के लिये है, अतः इसको न वर-कन्या देखें।
ॐ परं मृत्यो अनुपरे हि पन्थां यस्तैऽ अन्य इतरो देवयानात्। चक्षुष्मते शृण्वते  ब्रवीमि मा नः प्रजाँ रीरियो मौत वीरान् स्वाहा।  
इदं मृत्यवे न मम॥5॥ 
तदनन्तर अन्तः पट हटाकर "यथा बाण प्रहाराणां"...मंत्र से प्रणीता के जल का स्पर्श करें।
*12मृत्योर्होमन्तु यः कुर्यादन्तर्धानं विना वर। 
अशुभं जायते तस्य दम्पत्योरल्पजीवनम्॥ 
लाजाहोम*13 :: पूर्वोक्त होम करने के पश्चात् लाजाहोम का विधान है। इसका क्रम यह कि वधू को आगे करके वर पूर्वमुख खड़ा हो; वर की अँजली पर वधू की अँजली रहे। इस समय वधू का भाई घी लगे हुए शमी पत्र, पलाश मिश्रित धान का लावा-खील को एक सूप-छाज में रखे। फिर उन खीलों के चार भाग करे।  उन में से एक-एक भाग को अलग-अलग अँजली से कन्या की अँजली में डाले। कन्या अपनी अँजली में प्राप्त खीलों से तीन बार आहुति दे।
निम्न मंत्र ऐ अँजली में रखे लावा में से तृतीयांश लावा अग्नि में हवन कर दे। 
 *13भृष्टव्रीहिर्भवेल्लाजा:शमीपालाशमिश्रिता:  
ताभिर्होम: वधुः कुर्यातपतिभ्रात्रसहाऽग्रया॥    
ॐ अयर्मणं देवं कन्याऽऽग्निमयक्षत। स नो अयर्मा देवः प्रेतो मुञ्चतु, मा पतेः स्वाहा। इदमर्यर्म्णे अग्नये इदं न मम॥1॥ 
निम्न मंत्र से अँजलि में स्थित आधा लावा का होम कर दे।
ॐ इयं नायुर्पब्रूते लाजा नावपन्तिका। 
आयुष्मानस्तु मे पतिरेधन्तां ज्ञातयो मम स्वाहा। इदमग्नये न मम॥2॥
निम्न मंत्र से अँजलि में स्थित सम्पूर्ण लावा का होम कर दे।
ॐ इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ समृद्धिकरणं तव। मम तुभ्यं च संवननं, तदग्निरनुमन्यतामियँ स्वाहा। इदमग्नये न मम॥3॥
इस प्रकार पहले भाग की तीन आहुतियाँ पूरी हुईं। 
सांगुष्ठ हस्त ग्रहण :: इसके अनन्तर वर वधु का अँगुष्ठ सहित दाहिना हाथ पकड़कर निम्नलिखित मंत्रों का पाठ करे :- 
ॐ गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः। 
भगो ऽअर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यन्त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः
हे वरानने! मैं ऐश्वर्य और सुसंतानादि सौभाग्य की वृद्धि के लिए तेरे हाथ को ग्रहण करता हूँ। तू मुझ पति के साथ जरावस्था को सुखपूर्वक प्राप्त हों तथा; हे वीर! मैं सौभाग्य की वृद्धि के लिए आपके हाथ को ग्रहण करती हूँ। आप मुझ पत्नी के साथ वृद्धावस्था पर्यंत प्रसन्न ए़वं अनुकूल रहिये। आपको मैं और मुझे आप आजसे पति-पत्नी भाव से प्राप्त हुए हैं। परमात्मा और सभामंडप में बैठे हुए विद्वान लोग गृहस्थाश्रम-कर्म के अनुष्ठान के लिए मुझे तुमको देते हैं।[ऋग्वेद 10.85.56] 
ॐ अमोऽहमस्मि सा त्वँ सा त्वमस्यमोम्।  
सा माहमस्मि क् त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम्
ॐ तावेवि विवहावहै सह रेतो दधावहै। 
प्रजां प्रजनयावहै पुत्रान् विन्दावहै  बहून्॥
ॐ ते सन्तु जरदष्टय सँ प्रियौ रोचिष्णु सुमनस्यमानौ। 
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं णुयाम  शरदः शतं॥ 
अश्वारोहण :: इसके बाद अग्नि के उत्तर पूर्वमुख बैठी हुई वधू का पहले से रखे हुए पत्थर पर वर दाहिना पैर रखवाये और निम्नलिखित मंत्र पढ़े :- 
ॐ आरोरेहेममश्मानमश्मेव त्वँ स्थिरा भव। 
अभितिष्ठ पृतन्यतोवबाधस्व पृतनायतः
गाथागान :: वधू के पत्थर (सिल) पर पैर रहते हुए वर निम्नलिखित गाथा का गान करे :- 
ॐ सरस्वती प्रेदमव सुभगे वाजिनीवती। 
यां त्वा विश्वमय भूतस्य प्रजायामस्याग्रत:॥
यस्यां भूतः समभवद्यस्यां विश्वमिदं जगत्। 
तामद्य गाथां गास्यामि या स्त्रीणामुत्तमं यशः॥
तदनन्तर आगे वधू एवं पीछे वर होकर एक साथ प्रणीता, ब्रह्मा तथा अग्नि की एक प्रदक्षिणा करें। इस वक्त निम्न मंत्र का पाठ करें  :- 
ॐ तुभ्यमग्रे पर्यवहन् सूर्यां वहतु ना सह।
पुनः पतिभ्यो जायां दाग्ने प्रजया सह
इसके बाद अग्नि के पश्चिम दिशा में खड़े होकर, पहले की तरह द्वितीय और तृतीय भाग से तीन-तीन बार लाजाहोम, अँगूठे के साथ हस्तग्रहण, अश्वारोहण, गाथागान और अग्नि की प्रदक्षिणा दो बार करें। इस प्रकार तीन बार करने से नौ लाजाहुति, तीन बार हस्तग्रहण तीन बार अश्वारोहण और तीन बार गाथागान हो जाता है। 
अवशिष्ट लाजाहोम :: सूप में खीलों का जो चौथा भाग बचा रहता है, कन्या के भाई द्वारा सूप के कोण की तरफ से कन्या की अँजली में दिये हुए, उस बचे हुए लावा से, वधू निम्न मंत्र बोलकर एक बार में सम्पूर्ण हवन करे :-   
ॐ भगाय स्वाहा, इदं भगाय न मम।
चौथी परिक्रमा :: तदनन्तर आगे वर, पीछे वधू होकर चौथी परिक्रमा करें। 
प्रजापत्य हवन :: पुनः बैठकर ब्रह्मा से अन्वारब्ध होकर घी से निम्न मंत्र बोलकर हवन करते हुए  स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी पात्र में छोड़ें :-
ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।
सप्तपदी :: प्राजापत्य होम के अनन्तर अग्नि के उत्तर दिशा की ओर  ऐपन से उत्तरोत्तर सात मण्डल बनाये या लावा के सात पुंज रखकर वर वधू को सप्तपद का क्रमण कराये अर्थात वधू दाहिना पैर अपने दाहिने हाथ से उस मण्डल पर रखवाये। प्रथम मण्डल पर पैर रखने पर कहे :- 
ॐ एकमिशे विष्णु सत्वा नयतु। 
हे सखे! पहले मण्डल में तुम अपना दाहिना पैर रखो, इससे तुम्हारे मनोभिलषित फलों को भगवान् विष्णु तुम्हें प्रदान करेंगे। 
इस प्रकार वर के प्रोत्साहित वचन को सुनकर वधू अपने आनन्द को प्रकट करती हुई प्रथम मण्डल में पैर रखते ही नम्र प्रार्थना रूप प्रतिज्ञा करके कहती है :-
धनं धान्यं च मिष्टान्नं व्यञ्जनाद्यं च यद्  गुहे।
मदधीनं हि कर्तव्यं वधुराद्ये पदेऽब्रवीत॥   
धन, धान्य अन्नादि मधुर व्यंजन आदि जो आपके घर में हैं,  वे सब आप मेरे अधीन करें ताकि उन पदार्थों से मैँ सास-श्वसुर, अथिति, परिजन सेवकादि की यथार्थ सेवा कर सकूँ। 
पुनः वर कहता है :- 
ॐ द्वे ऊर्जे विष्णुस्त्वा नयतु।
हे सखे! दूसरे मण्डल में तुम दाहिना पैर रखो, इससे तुम्हारे शरीरादि में भगवान् विष्णु सुन्दर बल उत्पन्न करेंगे। इस प्रकार वर के द्वारा आनन्दित वधू अपने आदर को प्रकट करती हुई वर से दूसरी प्रार्थना करती है :- 
कुटुम्ब रक्षविष्यामि ते सदा मञ्जुभाषिणी।
दुःखे धीरा सुखे दृष्ट्वा द्वितीये साऽब्रवीद्वरम्॥

मैँ आपके कुटुम्ब को पुष्ट करती हुई उसका पालन करुँगी। मीठे वचन बोलने वाली रहूँगी। कभी कटु वचन नहीं बोलूँगी। यदि दुःख आ पड़े, तो धैर्य धारण रखूँगी। आपके सुख में सुखी और दुःख में दुखी रहूँगी। 
यह सुनकर वर तृतीय पद क्रमण करने के लिये कहता है :- 
ॐ त्रीणि रायस्पोषाय विष्णुस्त्वा नयतु।
हे सखे! तीसरे मण्डल में तुम अपना पग रखो, इससे भगवान् विष्णु विशेष रूप से तुम्हारे धन की वृद्धि करेंगे। 
यह सुनकर वधू तीसरी प्रार्थना करती है :- 
ॐ पतिभक्तिरता नित्यं क्रीडिष्यामि त्वया सह।
त्वदन्यं न नरे मंस्ये तृतीये साऽब्रवीदिदम्॥

पतिपरायण होकर में सदा आपके साथ विहार करुँगी। अन्य किसी पुरुष का मन से भी चिन्तन नहीं करुँगी। 
वधू की इस प्रकार प्रार्थना सुनने के बाद वर पुनः चौथा पद क्रमण करने के लिये कहता है :- 
ॐ चत्वारि मायोभयाय विष्णुस्त्वा नयतु।
हे सखे! चौथे मण्डल में तुम दाहिना पग रखो। इससे भगवान् विष्णु तुम्हारे लिये सभी सुखों को उत्पन्न करेंगे।
लालयामि च केशान्तं गन्धमाल्यानुलेपनै:।
काञ्चनैर्भूषणैस्तुभ्यं तुरीये साऽब्रवीदिदम्॥
 
मैँ आपके चरणों से लेकर केशों तक सर्वाङ्ग की सेवा गन्ध, माल्य, अनुलेपन और सुवर्णादि आभूषणों से श्रृंगार करती हुई, सदा ही आपसे प्रेम करती रहूँगी।
वधू की इस चौथी प्रार्थना को सुनकर पुनः कहता है :- 
ॐ पञ्च पशुभ्यो विष्णुस्त्वा नयतु।
हे सखे! पाँचवें मण्डल में तुम अपना दाहिना पग रखो, इससे भगवान् विष्णु तुम्हारे गौ आदि पशुओं की वृद्धि करेंगे।
वर के इस वाक्य को सुनकर अपने आनन्द को प्रकट करती हुई वधु पाँचवीं प्रार्थना करती है :-  
सखीपरिवृता नित्यं गौर्याराधन तत्परा। 
त्वयि भक्ता भविष्यामि पञ्चमे साऽब्रवीद्वरम्॥
मैँ आपकी मङ्गल कामना के लिये अपनी सखियों के सहित गौरी की आराधना में तत्पर रहती हुई आपमें ही भक्ति-भाव रखूँगी।
यह सुनकर वर पुनः कहता है :- 
ॐ षड् ऋतुभ्यो विष्णुस्त्वा नयतु।
हे सखे! छटे मण्डल में तुम अपना पग रखो, इससे भगवान् विष्णु तुमको ऋतुओं का उत्तम समय प्राप्त कराएंगे।
यज्ञे होमे च दानादौ भवेयं तव वामतः। 
यत्र त्वं तन्न तिष्ठामि पदे षष्ठेऽब्रवीद्वरम्॥
यज्ञ, होम, दानादिकों के देने में आप जहाँ रहेंगे, वहीँ मैँ आपकी सेवा में स्थित रहूँगी। 
सातवें मण्डल में पैर के रखने पर वर वधू से यह कहता है :- 
ॐ सखे सप्तपदा भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु।
हे सखे! सातवें मण्डल में तुम अपना पग रखो, इस पग को रखने में तुम पृथिवी आदि सातों लोकों का सुख भोगने वाली और सदा हमारी आज्ञाकारणी रहो। तुम्हें भगवान् विष्णु सातों लोकों के सुख भोग प्रदान करें और हमारे में ही प्रीति रखने वाली पतिव्रता बना दें। 
इस प्रकार वर से प्रोत्साहित की गई वधू अपने आनन्द को प्रकट करती हुई वर से सातवें वचन में यह कहती है :- 
सर्वेऽन्न साक्षिणो देवा मनोभावप्रबोधिन:। 
वञ्चन न करिष्यामि सप्तमे सा पदेब्रवीत्  
मेरी इन प्रतिज्ञाओं में अन्तरयामी देवगण साक्षी रहें। मैँ कभी आपकी वंचना नहीं करूँगी। 
इन सात मण्डलों में क्रम से वधू दक्षिण पद रखने से सात की गणना होती है। वामपद की नहीं। यही सप्तपदी है। इस सप्तपदी से कन्या में दारात्वभाव निश्चित हो जाता है।
7 VOWS-OATHS TAKEN BY THE BRIDE AT THE TIME OF HINDU MARRIAGE हिन्दू विवाह में वधू द्वारा लिये गये सात वचन ::
तीर्थव्रतोद्यापनयज्ञ दानं मया सह त्वं यदि कान्तकुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद वाक्यं प्रथमं कुमारी॥1॥ 
कन्या कहती है कि हे स्वामि! तीर्थ, व्रत, उद्यापन, यज्ञ, दान आदि सभी शुभ कर्म तुम मेरे साथ ही करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूँ।
The bride wishes to be assured and says that she will come by his left side if he promised to attend Tirth-pilgrimage, fasting, opening of fast, Yagy, Dan-charity-donations and all pious activities along with her. 
हव्यप्रदानैरमरान् पितृश्चं कव्यं प्रदानैर्यदि पूजयेथा:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं द्वितीयकम्॥2॥ 
कन्या वर से कहती है कि यदि तुम हव्य देकर देवताओं को और कव्य देकर पितरों की पूजा करोगे तब ही मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूँ अर्थात पत्नी बन सकती हूँ। 
The bride wants assurance that the groom will perform prayers Yagy-Hawan-Shraddh, devoted to the ancestors and Pitr-Manes and that she be part of it. 
कुटुम्बरक्षाभरंणं यदि त्वं कुर्या: पशूनां परिपालनं च।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं तृतीयम्॥3॥ 
कन्या वर से कहती है कि यदि तुम मेरी तथा परिवार की रक्षा करो तथा घर के पालतू पशुओं का पालन करो तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूँ यानी पत्नी बन सकती हूँ।
The bride tells the groom she will be on her side only if assures to protect her and her family and that he will protect-nurture the animals. 
आयं व्ययं धान्यधनादिकानां पृष्टवा निवेशं प्रगृहं निदध्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं चतुर्थकम्॥4॥ 
कन्या वर से कहती है कि यदि तुम धन-धान्य आदि का आय-व्यय मेरी सहमति से करो तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूँ अर्थात् पत्नी बन सकती हूँ। 
The bride asks the groom that he will seeks her consent in spending and earning if he desires her to be his wife.
देवालयारामतडागकूपं वापी विदध्या:यदि पूजयेथा:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं पंचमम्॥5॥ 
कन्या वर से कहती है कि यदि तुम यथा शक्ति देवालय, बाग, कूआं, तालाब, बावड़ी बनवाकर पूजा करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूँ, अर्थात् पत्नी बन सकती हूँ।
The bride wishes to be assured that she be consented beforehand should the groom decide to contribute towards the erection of a Temple, creation of a garden, digging of a well or performing of religious rituals.
देशान्तरे वा स्वपुरान्तरे वा यदा विदध्या:क्रयविक्रये त्वम्।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं षष्ठम्॥6॥ 
कन्या वर से कहती है कि यदि तुम अपने नगर में या विदेश में या कहीं भी जाकर व्यापार या नौकरी करोगे और घर-परिवार का पालन-पोषण करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूँ यानी पत्नी बन सकती हूँ।
The bride requests that her consent be obtain should the groom decides to conduct business at home or abroad. 
न सेवनीया परिकी यजाया त्वया भवेभाविनि कामनीश्च।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं सप्तम्॥7॥ 
कन्या वर से कहती है यदि तुम जीवन में कभी पराई स्त्री को स्पर्श नहीं करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूँ; यानी पत्नी बन सकती हूँ। 
The bride requests that at no time should the groom’s affection grow lesser towards her and that his actions adhere strictly to Divine Laws. From here on she requests him to regard every female as his mother, sister or daughter.
Though the set of 7 promises made by the bride & 5 promises made by the groom is common in number yet the promises are different in different books on Hindu Marriage. But the gist remains the same-family welfare and smooth life.
5 VOWS-OATHS TAKEN BY THE GROOM AT THE TIME OF HINDU MARRIAGE हिन्दू विवाह में वर द्वारा लिये गये पाँच  वचन :: कन्या के सात वचन के उपरांत वर भी निम्नलिखित पाँच वचन देता है :-
क्रीडाशरीरसंस्कारसमाजोत्सवदर्शनम्म। 
हास्यं परगृहे यानं त्वजेत् प्रोषितभर्तका॥1॥ 
जब तक मैँ घर पर रहूँ, तब तक तुम क्रीडा, आमोद-प्रमोद करो, शरीर में उबटन, तेल लगाकर चोटी गूँथो, सामाजिक उत्सवों में जाओ, हँसी-मजाक करो, दूसरे के घर सखी-सहेलियों से मिलने जाओ, परन्तु जब मैँ पर न रहूं, परदेस में रहूँ तब इन सभी व्यवहारों को छोड़ देना चाहिये। 
विष्णुर्वैश्वानरः साक्षी ब्राह्मणज्ञातिबान्धवा:। 
पञ्चमं ध्रुवमालोक्य ससाक्षित्वं ममागताः॥2॥
विष्णु, अग्नि, ब्राह्मण, स्वजातीय भाई-बन्धु और पाँचवें ध्रुव (ध्रुव तारा), ये सभी मेरे साक्षी हैं।
तव चित्त मम चित्ते वाचा वाच्यं न लोपयेत्। 
व्रते मे सर्वदा देवं हृदयस्थं वरानने॥3॥
हे सुमुखी! हमारे चित्त के अनुकूल तुम्हें अपना चित्त रखना चाहिये। अपनी वाणी से मेरे वचनों का उल्लंघन नहीं करना चाहिये। जो कुछ मैं कहूँ, उसको सदा अपने ह्रदय में रखना। इस प्रकार तुम्हें पातिव्रत्य का पालन करना चाहिये। 
मम तुष्टिश्च  कर्तव्या बन्धूनां भक्तिरादरात्। 
ममाज्ञा परिपाल्यैषा पातिव्रतपरायणे॥4॥
मुझे जिस प्रकार सन्तोष मिले, वही कार्य तुम्हें करना चाहिये। हमारे भाई बन्धुओं के प्रति आदर के साथ भक्ति भाव रखना चाहिये। पातिव्रत धर्म का पालन करने वाली बनो। मेरी इस आज्ञा का पालन करना होगा।
विना पत्नीं कथं आश्रमाणां प्रवर्तते। 
तस्मात्त्वं मम विश्वस्ता भव वामाङ्गगामिनी॥5॥ 
बिना पत्नी के गृहस्थ धर्म का पालन नहीं हो सकता। अतः तुम मेरे विश्वास की पात्र बनो। अब तुम मेरी वामांगी बनो अर्थात मेरी पत्नी बनो। 
महत्वपूर्ण वचन :: 
मदीयचित्तानुगतञ्च चित्तं सदा मदा ज्ञाप परिपालनं च।
पतिव्रताधर्मपरायणा त्वं कुर्या: सदा सर्वमिदं प्रयत्नम्॥
मेरे चित्त के अनुसार तुम्हारा चित्त होना चाहिये। तुम्हें मेरी आज्ञा का सदा पालन करना चाहिये। पतिव्रत धर्म का पालन करती हुईं धर्मपरायणा बनो, यह तुम्हें प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये। 
वर की प्रतिज्ञाएँ :: 
धमर्पतनीं मिलित्वैव, ह्येकं जीवनामावयोः। 
अद्यारम्भ यतो मे त्वम्, अर्द्धांगिनीति घोषिता॥1॥ 
आज से धर्मपत्नी को अर्द्धांगिनी घोषित करते हुए, उसके साथ अपने व्यक्तित्व को मिलाकर एक नये जीवन की सृष्टि करता हूँ। अपने शरीर के अंगों की तरह धर्मपत्नी का ध्यान रखूँगा।
स्वीकरोमि सुखेन त्वां, गृहलक्ष्मीमहन्ततः। 
मन्त्रयित्वा विधास्यामि, सुकायार्णि त्वया सह॥2॥ 
प्रसन्नतापूर्वक गृहलक्ष्मी का महान अधिकार सौंपता हूँ और जीवन के निधार्रण में उनके परामर्श को महत्त्व दूँगा।
रूप-स्वास्थ्य-स्वभावान्तु, गुणदोषादीन् सवर्तः। 
रोगाज्ञान-विकारांश्च, तव विस्मृत्य चेतसः॥3॥ 
रूप, स्वास्थ्य, स्वभावगत गुण दोष एवं अज्ञानजनित विकारों को चित्त में नहीं रखूँगा, उनके कारण असन्तोष व्यक्त नहीं करूँगा। स्नेहपूर्वक सुधारने या सहन करते हुए आत्मीयता बनाये रखूँगा।
सहचरो भविष्यामि, पूणर्स्नेहः प्रदास्यते। 
सत्यता मम निष्ठा च, यस्याधारं भविष्यति॥4॥ 
पत्नी का मित्र बनकर रहूँगा और पूरा-पूरा स्नेह देता रहूँगा। इस वचन का पालन पूरी निष्ठा और सत्य के आधार पर करूँगा।
यथा पवित्रचित्तेन, पातिव्रत्य त्वया धृतम्। 
तथैव पालयिष्यामि, पतनीव्रतमहं ध्रुवम्॥5॥ 
पत्नी के लिए जिस प्रकार पतिव्रत की मर्यादा कही गयी है, उसी दृढ़ता से स्वयं पतनीव्रत धर्म का पालन करूँगा। चिन्तन और आचरण दोनों से ही पर नारी से वासनात्मक सम्बन्ध नहीं जोडूँगा।
गृहस्याथर्व्यवस्थायां, मन्त्रयित्वा त्वया सह। 
संचालनं करिष्यामि, गृहस्थोचित-जीवनम्॥6॥ 
गृह व्यवस्था में धर्म-पत्नी को प्रधानता दूँगा। आमदनी और खर्च का क्रम उसकी सहमति से करने की गृहस्थोचित जीवनचयार् अपनाऊँग।
समृद्धि-सुख-शान्तीनां, रक्षणाय तथा तव। 
व्यवस्थां वै करिष्यामि, स्वशक्तिवैभवादिभि॥7॥ 
धमर्पत्नी की सुख-शान्ति तथा प्रगति-सुरक्षा की व्यवस्था करने में अपनी शक्ति और साधन आदि को पूरी ईमानदारी से लगाता रहूँगा।
यतनशीलो भविष्यामि, सन्मागर्ंसेवितुं सदा। 
आवयोः मतभेदांश्च, दोषान्संशोध्य शान्तितः॥8॥ 
अपनी ओर से मधुर भाषण और श्रेष्ठ व्यवहार बनाये रखने का पूरा-पूरा प्रयतन करूँगा। मतभेदों और भूलों का सुधार शान्ति के साथ करूँगा। किसी के सामने पतनी को लाञ्छित-तिरस्कृत नहीं करूँगा।
भवत्यामसमथार्यां, विमुखायाञ्च कमर्णि। 
विश्वासं सहयोगञ्च, मम प्राप्स्यसि त्वं सदा॥9॥ 
पत्नी के असमर्थ या अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाने पर भी अपने सहयोग और कर्त्तव्य पालन में रत्ती भर भी कमी न रखूँगा।
कन्या की प्रतिज्ञाएँ ::
स्वजीवनं मेलयित्वा, भवतः खलु जीवने। 
भूत्वा चाधार्ंगिनी नित्यं, निवत्स्यामि गृहे सदा॥1॥ 
अपने जीवन को पति के साथ संयुक्त करके नये जीवन की सृष्टि करूँगी। इस प्रकार घर में हमेशा सच्चे अर्थों में अर्द्धांगिनी बनकर रहूँगी।
शिष्टतापूवर्कं सवैर्ः, परिवारजनैः सह। 
औदायेर्ण विधास्यामि, व्यवहारं च कोमलम्॥2॥ 
पति के परिवार के परिजनों को एक ही शरीर के अंग मानकर सभी के साथ शिष्टता बरतूँगी, उदारतापूवर्क सेवा करूँगी, मधुर व्यवहार करूँगी।
त्यक्त्वालस्यं करिष्यामि, गृहकायेर् परिश्रमम्। 
भतुर्हर्षर्ं हि ज्ञास्यामि, स्वीयामेव प्रसन्नताम्॥3॥ 
आलस्य को छोड़कर परिश्रमपूवर्क गृह कार्य करूँगी। इस प्रकार पति की प्रगति और जीवन विकास में समुचित योगदान करूँगी।
श्रद्धया पालयिष्यामि, धमर्ं पातिव्रतं परम्। 
सवर्दैवानुकूल्येन, पत्युरादेशपालिका॥4॥ 
पतिव्रत धर्म का पालन करूँगी, पति के प्रति श्रद्धा-भाव बनाये रखकर सदैव उनके अनूकूल रहूँगी। कपट-दुराव न करूँगी, निदेर्शों के अविलम्ब पालन का अभ्यास करूँगी।
सुश्रूषणपरा स्वच्छा, मधुर-प्रियभाषिणी। 
प्रतिजाने भविष्यामि, सततं सुखदायिनी॥5॥ 
सेवा, स्वच्छता तथा प्रियभाषण का अभ्यास बनाये रखूँगी। ईर्ष्या, कुढ़न आदि दोषों से बचूँगी और सदा प्रसन्नता देने वाली बनकर रहूँगी।
‍मितव्ययेन गाहर्स्थ्य-सञ्चालने हि नित्यदा। 
प्रयतिष्ये च सोत्साहं, तवाहमनुगामिनी॥6॥ 
मितव्ययी बनकर फिजूलखर्ची से बचूँगी। पति के असमर्थ हो जाने पर भी गृहस्थ के अनुशासन का पालन करूँगी।
देवस्वरूपो नारीणां, भत्तार् भवति मानवः। 
मत्वेति त्वां भजिष्यामि, नियता जीवनावधिम्॥7॥ 
नारी के लिए पति, देव स्वरूप होता है :- यह मानकर मतभेद भुलाकर, सेवा करते हुए जीवन भर सक्रिय रहूँगी, कभी भी पति का अपमान न करूँगी।
पूज्यास्तव पितरो ये, श्रद्धया परमा हि मे। 
सेवया तोषयिष्यामि, तान्सदा विनयेन च॥8॥ 
जो पति के पूज्य और श्रद्धा पात्र हैं, उन्हें सेवा द्वारा और विनय द्वारा सदैव सन्तुष्ट रखूँगी।
विकासाय सुसंस्कारैः, सूत्रैः सद्भाववद्धिर्भिः। 
परिवारसदस्यानां, कौशलं विकसाम्यहम्॥9॥ 
परिवार के सदस्यों में सुसंस्कारों के विकास तथा उन्हें सद्भावना के सूत्रों में बाँधे रहने का कौशल अपने अन्दर विकसित करूँगी। 
जलाभिषेक :: तदनन्तर अग्नि का पश्चिम दिशा में बैठकर दृढ पुरुष के कंधे पर रखे हुए घड़े से आम के पत्ते द्वारा जल लेकर वर वधू के माथे पर निम्न मंत्र पढ़ते हुए छिड़के :- 
ॐ आप: शिवा: शिवतमा: शान्ता: शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्। 
पुनः कुम्भ-घड़े से जल लेकर निम्न मंत्र से अपने ऊपर जल छिड़के :-  
ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन।  महे रणाय चक्षसे॥
ॐ यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः॥
ॐ तस्माऽअरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः॥
सूर्य ध्यान-दर्शन (दिन में) :: यदि दिन का विवाह हो तो वर वधू से कहे कि  सूर्य को देखो, क्योंकि यह तुम्हारे विवाह का साक्षी है "सूर्यमुदीक्षस्य"। तदनन्तर वर-वधू दोनों सूर्य के अभिमुख खड़े होकर निम्न मंत्र को  पढ़ते हुए हाथी में पुष्प लेकर सूर्य का दर्शन करें :-
ॐ तच्चक्षुदेर्वहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। 
पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शतं, शृणुयाम शरदः शतं, प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः, स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात्॥ 
और पुष्प छोड़ दें। 
ध्रुव दर्शन-ध्यान (रात में) :: यदि सूर्य अस्त हो गया हो तो रात्रि में वर वधू से कहे "धुवमुदीक्ष्व"। 
वधू कहे :- ध्रुवं पश्यामि। 
तदनन्तर वर भी ध्रुव को देखते हुए निम्न मंत्र कहे :-
ॐ ध्रुवमसि ध्रुवं त्वा पश्यामि, ध्रुवैधि पोष्ये मयि। 
मह्यं त्वादात् बृहस्पतिमर्या पत्या, प्रजावती सञ्जीव शरदः शतम्॥
यहाँ वधू को ध्रुव चाहे दिखता न भी हो, परन्तु यही कहे कि मैँ ध्रुव को देखती हूँ अर्थात मन से ध्रुव का मनन-ध्यान करती हूँ।
[पा.गृ.सू.1.8.19] 
हृदयालम्भन :: इसके बाद वर वधू के दाहिने कन्धे पर हाथ ले जाकर वधू के ह्रदय का स्पर्श करता हुआ निम्न मंत्र पढ़े :- 
ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनु चित्तं तेऽ अस्तु।
मम वाच मेकमना जुषस्व; प्रजापतिष्ट्वा  नियुनक्तु  मह्यम्
हे वधु! तेरे अन्त:करण और आत्मा को मैं अपने व्रत के अनुकूल धारण करता हूँ। मेरे चित्त के अनुकूल सदा तेरा चित्त रहे, मेरी वाणी तू एकाग्रचित्त से सेवन करे। परमात्मा तुझे मेरे अनुकूल रखे।
सुमङ्गली-सिन्दूरदान :: आचार है कि वर का पिता पुरोहित को दक्षिणा देकर उनसे सिन्दूर ग्रहणकर कुलदेवता के लिये उसमें से सिन्दूर निकाले और "कुलदेवेभ्यो नमः" कहकर समर्पित करे। इसके बाद वर सिन्दूर लेकर गणेश जी महाराज को चढ़ाकर अनामिका अँगुली के अग्र भाग वधू की माँग में रखकर अभिमन्त्रण करे और अनामिका अँगुली से वधू की माँग में सिन्दूर तीन बार लगाए। भावना करें कि मैं वधू के सौभाग्य को बढ़ाने वाला सिद्ध बनूँ-होऊँ। इस समय निम्न मंत्र पढ़े :-
ॐ सुमंगलीरियं वधूरिमाँ समेत पश्यत। 
सौभाग्यमस्यै दत्त्वा याथास्तं विपरेत च। 
सुभगा स्त्री सावित्र्याास्तव सौभाग्यं भवतु॥ 
[पा.गृ.सू.1.8.9]
सिन्दूर कर्ण (माँग बहोरन) :: इसके बाद वधू को वर के बाँयी ओर बैठायें*14 और सौभाग्यवती स्त्रियाँ  फिर से अच्छी तरह वधू की माँग में सिन्दूर भरें।
*14वामे सिन्दूर दाने च वामे चैव द्विरागमे। 
वामभागे च शय्यायां नामकर्म तथैव च 
शान्तिकेषु च सर्वेषु प्रतिष्ठोद्यापनदिषु। 
वामे  ह्युपविशेत्पत्नी व्याघ्राय वचनं यथा॥
पतिपुत्रान्विता भव्याश्चतस्त्र: सुभगा: स्त्रिय: 
सौभाग्यमस्यै दध्युस्ता मङ्गलाचारपूर्वकम् 
पतिपुत्रवती नारी सुरूपगुण शालिनी। 
अविच्छन्नप्रजा साध्वी सदया सा सुमङ्गली॥  
ग्रन्थि बन्धन :: बाद पुरोहित वधू के उत्तरीय में फल, अक्षत, पुष्प, द्रव्य आदि बाँधकर वर के उत्तरीय से ग्रन्थि बन्धन करे। 
गुप्तागार गमन :: तदनन्तर वर और वधू गुप्तागार-कोहबर में जायें, वहाँ आसन पर बैठें और वर निम्न मंत्र पढ़े :- 
ॐ इह गावो निषीदन्त्विहाश्वा ऽ इह पूरुषा:। 
इहो सहस्त्रदक्षिणो यज्ञऽ इह पूषा निषीदतु॥
सविष्कृत् हवन :: वर वधू पुनः मण्डप में आयें और सविष्कृत् आहुति अग्नि में प्रदान करें। यह आहुति ब्रह्मा से सम्बन्ध रखकर दी जाती है।
ॐ अग्नये  सविष्कृते स्वाहा, इदमग्नये सविष्कृते न मम। 
संस्त्रवप्राशन :: प्रोक्षणी में छोड़े गए घी का प्राशन कर आचमन करें और हाथ धो लें। 
मार्जन :: पवित्री को लेकर निम्न मंत्र से प्रणीता के जल से सर पर मार्जन करें :- 
ॐ सुमित्रिया न आप ओषधय: सन्तु। 
निम्न मंत्र से जल नीचे छोड़ें :- 
ॐ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि यंच वयं द्विष्म:। 
इसके बाद उस पवित्री को अग्नि में छोड़ दें। 
बर्हि होम :: इसके बाद जिस क्रम से कुश कण्डिका के समय कुषाएँ रखी गयीं थीं, उसी क्रम से उठाकर घी में भिगोकर निम्न मंत्र से अग्नि में छोड़ें :- 
ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित। 
मनसस्पत इमं देव यज्ञं स्वाहा वाते धा:॥स्वाहा। 
त्र्यायुष्करण :: होम की भस्म को स्त्रुवा से उठाकर दाहिने हाथ की अनामिका से निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए भस्म लगायें।  
ललाट में भस्म लगायें :- ॐ त्र्यायुषं जमदग्ने। 
गर्दन पर भस्म लगायें :- ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषम्। 
दाहिने कन्धे पर भस्म लगायें :- ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषम्। 
छाती पर भस्म लगायें :- ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम्। 
अभिषेक :: इसके बाद आचार्य स्थापित दृढ पुरुष के कलश के जल से दूर्वा-कुश अथवा पंच पल्लव से, निम्न मंत्रों द्वारा वर, वधू का अभिषेक करे :-  
ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रिये दधामि बृहस्पतयेष्टृवा साम्रज्येनाभिषिञ्चाम्यसौ॥1॥ 
     ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्‌। सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रेणाग्ने: साम्रज्येनाभिषिञ्चाम्यसौ॥2॥
ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्‌। अश्विनोर्भैषज्येन तेजसे ब्रह्मवर्चसायाभि षिञ्चामि सरस्वत्यै भैषज्येन वीर्यायान्नाद्यायाभिषिञ्चामीन्द्रस्येन्द्रियेण बलाय श्रिये यशसेऽभि षिञ्चामि॥3॥ 
गणाधिपो भानुशशी धरासुतो बुधो गुरुर्भार्गव सूर्यनन्दनौ।
राहुश्च केतुप्रभुतिर्नवग्रहाः कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥1॥ 
उपेन्द्र इन्द्रो वरुणो हुताशनो धर्मों यमो वायु हरिश्चतुर्भुजः। 
गन्धर्वयक्षोरगसिद्धचारणाः कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥2॥ 
नलोदधीच: सगर: पुशरुरवा  शाकुन्तलेयो भरतो धनञ्जय:
रामत्रयं वैन्यबलिर्युधिष्टिरः कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥3॥          
मनोर्मचिर्भृगुदक्षनारदा: पराशरो व्यासवसिष्ठभार्गवा:  
वाल्मीकिकुम्भोद्भवगर्गगौतमा: कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥4॥  
रम्भा शची सत्यवती च देवकी गौरी च लक्ष्मीदितिश्च रुक्मिणी। 
कूर्मो गजेन्द्र: सचराचरा धरा कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥5॥ 
गङ्गा च क्षिप्रा यमुना सरस्वती गोदावरी वेत्रवती च नर्मदा। 
सा चन्द्रभागा वरुणा असी नदी कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥6॥ 
तुङ्गप्रभासो गुरुचक्रपुष्करं गयविमुक्तो बद्री बटेश्वरः। 
केदारपम्पाशरनैमिषारकं कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥7॥
शङ्खश्च दूर्वा सितपत्र चामरं मणिः प्रदीपो वररत्नकाञ्चनम्।
सम्पूर्णकुम्भै: सहितो हुताशन: कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा॥8॥ 
प्रयाणकाले यदि वा सुमङ्गले प्रभातकाले च नृपाभिषेचने। 
धर्मार्थकामाय नरस्य भाषितं व्यासेन सम्प्रोक्त्तमनोरथं सदा॥9॥
दूर्वाक्षता रोपण :: अन्य स्त्री-पुरुष पुष्प या लावा हाथ में लेकर आचार्य के द्वारा कहे गए मंत्रों के अन्त में आशीर्वाद वचनपूर्वक वर-वधू के ऊपर पुष्प या लावा छोड़ें। इसके बाद आचार्य वर-वधू को तिलक लगाएं और देशाचार से नीराजन करें। वर के पिता आदि वधू की गोद भरें।
गणेशादि आवाहित देवताओं का पूजन :: वर-वधू वर-वधू संकल्प पूर्वक संक्षेप में आवाहित देव गणों की पूजा करें। 
आचार्य दक्षिणा :: इसके बाद आचार्य को दक्षिणा देने के लिये निम्न संकल्प वचन कहें :- 
ॐ अद्य कृतैतद्विवाहकर्मण: साङ्गतासिद्धयर्थं आचार्याय मनसोद्दिष्टां दक्षिणां दातुमहमुत्सज्ये।
ब्राह्मण भोजन संकल्प :: ब्राह्मण भोजन कराने के लिये संकल्प करें :-   
ॐ अद्य कृतस्य विवाहकर्मण: साङ्गतासिद्धयर्थं यथासंख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये।    
भूयसी दक्षिणा :: इसके बाद भूयसी दक्षिणा का संकल्प करें :-
 ॐ अद्य कृतैतद्विवाहकर्मण: साङ्गतासिद्धयर्थं तन्मध्ये न्यूनातिरिक्तदोषपरिहार्थं  नानानामगोत्रेभ्यो भूयसीं दक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सज्ये। 
विष्णु स्मरण :: इसके बाद वर हाथ में अक्षत, पुष्प, लेकर आवाहित देवताओं का विसर्जन निम्न मंत्र से भगवान विष्णु के स्मरण पूर्वक करें :- 
प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। 
स्मरणादेव तद्विष्णो: सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः॥ 
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्॥ 
ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः। 
         ॐ ॐ ॐ     
वर-वधू के तीन रात तक पालन करने के नियम ::  (1). विवाह के बाद तीन दिन तक क्षार तथा लवण  सहित भोजन करें। (2). भूमि पर शयन करें। (3). एक साथ शयन न करें। 
इस प्रकार विवाह विधि पूर्ण हुई।  
चतुर्थी कर्म 
ऐसा माना जाता है कि कन्या की देह में चौरासी दोष होते हैं। उन दोषों की निवृति हेतु प्रायश्चित स्वरूप चतुर्थी कर्म  है। 
चतुरशीति दोषाणी कन्यादेहे तु यानि वै। 
प्रायश्चित्तकरं तेषां चतुर्थी कर्म ह्याचरेत्॥
चतुर्थी कर्म से सोम, गन्धर्व तथा अग्नि द्वारा कन्याभुक्त दोष का परिहार हो जाता है। जो कन्या चतुर्थी कर्म करती है, धन-धान्य की वृद्धि करने वाली होती है और पुत्र-पौत्रों की समृद्धि कर्ता होती है। [ह्ररीत ऋषि]    
शास्त्रों के अनुसार चतुर्थी कर्म न करने से वन्ध्यात्व और वैधव्य दोष आ जाता है।चतुर्थी कर्म से पूर्व उसका पूर्ण भार्यात्व भी नहीं होता। जब तक विवाह नहीं होता उसकी कन्या संज्ञा होती है। कन्यादान के अनन्तर वह वधू कहलाती है। पाणि ग्रहण होने पर वह पत्नी होती है और चतुर्थी कर्म होने पर भार्या कहलाती है। 
अग्रदानात् भवेत्कन्या प्रदानान्तन्तरं वधूः। 
पणिग्रहे तु पत्नी स्याद् भार्या चातुर्थिकर्मणि
विवाह निवृत होने पर चौथे दिन रात्रि में पति के देह, गौत्र और सूतक में स्त्री की एकता हो जाती है।
विवाहे चैव निवृते चतुर्थेऽहनि रात्रिषु। 
एकत्वमागता भर्तुः पिण्डे गोत्रे च सूतके॥[भवदेवभट्टधृत मनु[
चतुर्थी होम के मंत्रों से त्वचा, माँस, हृदय और इन्द्रियों के द्वारा पत्नी का पति से संयोग होता है, इसी से वह पति गोत्र हो जाती है।     
चतुर्थीहोममन्त्रेण  त्वङ्सह्रदयेन्द्रियैः। 
भर्त्रा संयुज्यते पत्नी तद्गोत्रा तेन सा भवेत्
अतः विवाह के दिन से चौथे दिन, रात्रि में अर्धरात्रि बीत जाने पर जब पर यह कर्म करना चाहिये अथवा अशक्त होने पर अपकर्षण करके विवाह के अनन्तर उसी दिन, रात्रि में उसी विवाहाग्नि में बिना कुशकण्डिका किये यह कर्म किया जा सकता है।[बृहस्पति] 
वर-वधू मंगल स्नान करके पवित्र-शुद्ध वस्त्र धारणकर पूर्वाभिमुख हो आसन पर बैठ जायें। वधू को अपने दक्षिण भाग में बैठा ले। आचमन, प्राणायाम आदि करके गणेशादि देवों का स्मरण करके हाथ में कुशाक्षत, जल लेकर निम्न प्रतिज्ञा-संकल्प करें :- 
ॐ अद्य अस्या मम पत्न्या: सोमगन्धर्वाग्न्युपभुक्तत्वदोषपरिहारद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं विवाहाङ्गभूतं चतुर्थीहोमं करिष्ये।
यह कहकर संकल्प जल छोड़ें।
एक वेदी का निर्माण कर ले तथा शिखी नामक अग्नि स्थापित कर यथाविधि कुशकण्डिका सम्पादित करें। चरु (खीर) का पाक बना लें। ब्रह्मा-आचार्य का वरण करके अग्नि के दक्षिण तरफ ब्रह्मा को बैठाकर उत्तर की ओर एक जलपात्र का स्थापन करें।  तदनन्तर निम्न मंत्रों से घी से आघाराज्य होम-हवन करें। आहुति के अनन्तर स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी पात्र में छोड़ते जाएँ।
ॐ प्रजापतये (यह मन ही मन कहें) स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। 
ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम।  
ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम।  
ॐ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय  न मम। 
मुख्य होम :: घी से निम्न पाँच आहुतियां दें। आहुतियों को देने के बाद स्त्रुवा में बचा हुआ घी उत्तर दिशा में स्थापित जल पात्र में छोड़ें, प्रोक्षणी पात्र में नहीं :- 
ॐ अग्नये प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चितत्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्यै पतिघ्नी तनुस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदमग्नये न मम॥1॥  
ॐ वायो प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चितत्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्यै प्रजाघ्नी तनुस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं वायवे न मम॥2॥ 
ॐ सूर्य प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चितत्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्यै पशुघ्नी तनुस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं सूर्याय न मम॥3॥  
ॐ चन्द्र प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चितत्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्यै गृहघ्नी तनुस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं चन्द्राय न मम॥4॥  
ॐ गन्धर्व प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चितत्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्यै यशोघ्नी तनुस्तामस्यै नाशय स्वाहा।
 इदं गन्धर्वाय न मम॥5॥     
इसके बाद स्थाली पाक चरु (खीर) से हवन करें, खीर में थोड़ा घी छोड़ दें : 
"ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम" मन ही मन कहें। 
इसके बाद घी और स्थाली पाक (चरु) में स्विष्टकृते हवन करें :- 
ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम। 
नवाहुति :: पुनः घी से हवन करें, प्रत्येक आहुति से बचा घी प्रोक्षणी पात्र में छोड़ते जाएँ :- 
ॐ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम। 
ॐ भुवः स्वाहा, इदं वायये न मम। 
ॐ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम। 
ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठा:। 
यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाँसि प्र मुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा॥ 
इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम॥1॥
ॐ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती वेद्दिशठो अस्था उषसो व्युष्टौ। 
अव इक्ष्व नो वरुणँरराणो वीहि मृडीकँ सुहवो न एधि स्वाहा   
इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम॥2॥
अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्वमया असि। 
अया नो यज्ञं वहास्सया नो धेहि भेषजँ स्वाहाा॥    
इदमग्नये ऽयसे न मम॥3॥
ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्त्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्त:।
तेभिर्नो ऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा॥
इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम॥4॥
ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमँ श्रथाय। 
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसोऽअदितये स्याम स्वाहा
इदं वरुणायादित्यायादितये न मम॥5॥
ये प्रायश्चित संज्ञक हवन हैं। 
ॐ प्रजापतये (यह मन में कहें) स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। 
यह प्राजापत्य संज्ञक हवन है। 
संस्रव प्राशन :: इसके बाद प्रोक्षणी पात्र में पड़े-बचे हुए घी का प्राशन कर आचमन करें और फिर हाथ धो लें। 
मार्जन :: पवित्री से प्रणीता के जल से निम्न मंत्र पढ़ते हुए मार्जन करें :- 
ॐ सुमित्रिया न आप ओषधयः  सन्तु। 
पवित्री को अग्नि में छोड़ दें।   
पूर्णपात्र दान :: इसके बाद ब्रह्मा को पूर्ण पात्र दान करने के लिये  हाथ में जल-अक्षत लेकर निम्न संकल्प करें :- 
ॐ अस्यां रात्रौ कृतैतच्चतुर्थीहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्मप्रतिष्टार्थमिदं सदक्षिणाकं पूर्णपात्रं प्रजापतिदैवतम्...गोत्राय...शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणात्वेन तुभ्यमहं सम्प्रददे।  
ब्रह्मा को दक्षिणा सहित पूर्ण पात्र दें।   
ब्रह्मा कहे :- स्वस्ति। 
प्रणीता विमोक :: ईशान कोण में प्रणीता पात्र को उलट दें और उपनयन कुशों को अग्नि में छोड़ दें। 
बर्हिहोम :: इसके बाद जिस क्रम से कुश बिछाये गए थे, उसी क्रम से उठाकर घी से भिगोकर हाथ से ही निम्न मंत्र से अग्नि में हवन करें :- 
ॐ देवा गातुविदो गातु वित्त्वा गातुमित। 
मनसस्पत इमं देव यज्ञँ स्वः वाते धाः स्वाहा
कुश में लगी ब्रह्मग्रन्थि खोल दें।  
अभिषेक :: इसके बाद वरुण कलश से किसी पात्र में जल लेकर आम के पत्ते से वर-वधू के सिर पर निम्न मंत्र से अभिषेक करें :-  
ॐ या ते पतिघ्नी प्रजाघ्नी पशुघ्नी गृहघ्नी यशोघ्नी निन्दिता तनूः। 
जारघ्नीं ततऽ एनां करोमि। सा जीर्य त्वं मया सह श्री अमुकि देवि। 
स्थाली पाक  (खीर-चरु का ) प्राशन :: तदनन्तर निम्न चार मंत्रों द्वारा वर-वधू को स्थाली पाक (खीर-चरु) का प्राशन करायें :-
ॐ प्राणैस्ते प्राणान् सन्दधामि। 
ॐ अस्थिभिस्तेऽअस्थीनि सन्दधामि। 
ॐ माँ सैर्मा( ँ ्)सानि सन्दधामि।
ॐ त्वचा ते त्वचं सन्दधामि। 
ह्रदय स्पर्श :: इसके बाद वधू के हृदय का स्पर्श कर, वर निम्न मंत्र पढ़े :- 
ॐ यत्ते सुसीमे हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्। 
वेदाहं तन्मां तद्दिद्यात् पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत( ँ ्) शृणुयाम शरदः शतम्॥
कंकण मोक्षण :: इसके बाद वर निम्न मंत्र से वधू के हाथ में बँधे कंकण को खोलकर माता को दे दे :- 
कङ्कण मोचयाम्यद्य रक्षोघ्नं  रक्षणं मम। 
मयि रक्षां स्थिरां कृत्वा स्वस्थानं गच्छ कङ्कण॥
ग्रन्थिविमोक :: इसके बाद वर-वधू बँधे हुई ग्रन्थि-गाँठ को खोल दें।
त्रयायुष्करण :: स्त्रुवा से भस्म लेकर दाहिने हाथ की अनामिका से निम्न मंत्रों से भस्म लगायें :-  
ललाट पर भस्म लगायें :- त्रयायुषं जमदग्ने:।  
गर्दन पर भस्म लगायें :- ॐ कश्यपस्य त्रयायुषम्।  
उल्टे कन्धे  पर भस्म लगायें :- ॐ यद्देवेषु त्रयायुषम्। 
छाती पर भस्म लगायें :-  ॐ तन्नोस्तु त्रयायुषम्।
दक्षिणा :: निम्न संकल्प का उच्चारण करके आचार्य को दक्षिणा प्रदान करें :-  
ॐ अद्य कृतैतच्चतुर्थीकर्म साङ्गतासिद्धयर्थं गोनिष्क्रयभूतां दक्षिणां...गोत्राय...शर्मणे आचार्यायदक्षिणात्वेन तुभ्यमहं सम्प्रददे। 
ब्राह्मण भोजन संकल्प :: निम्न संकल्प वाक्य बोलकर ब्राह्मण भोजन कराने का संकल्प करें :- 
ॐ अद्य कृतस्य चतुर्थीकर्मण: साङ्गतासिद्धयर्थं यथासंख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये 
भूयसी दक्षिणा :: 
ॐ अद्य कृतैतच्चतुर्थीकर्मसासाङ्गतासिद्धयर्थं न्यूनातिरिक्तदोषपरिहारार्थं भूयसीं दक्षिणां विभज्य नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो सम्प्रददे।
विष्णु स्मरण :: तदनन्तर निम्न मंत्र से भगवान विष्णु का स्मरण करें और समस्त कर्म उन्हें निवेदित करें :- 
प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। 
स्मरणादेव तद्विष्णो: सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः॥ 
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्॥ 
ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः।
इस प्रकार चतुर्थी कर्म पूरा हुआ।
ग्रह पूजा दान संकल्प 
वर हाथ में जलाक्षत तथा सूर्य पूजा दान की वस्तुएँ (लाल कपड़ा, गुड़, सुवर्ण, ताम्र कलश, माणिक्य-लाल रत्न, गेहूँ, रक्त चन्दन, मसूर की दाल, धेनु का मूल्य, दान प्रतिष्ठा हेतु द्रव्य) लेकर सूर्य जनित दोषों की निवृति के लिये निम्न संकल्प करे :- 
मम अद्य करिष्यमाणविवाहसंस्कारकर्मणि 
जन्मराशे: सकाशान्नामराशे: सकाशाद्वा अमुकानिष्टस्थानस्थितश्रीसूर्यजनितदोषपरिहारपूर्वकशुभफलप्राप्त्यर्थमायुरोग्यार्थं श्रीसूर्यनारायणप्रीत्यर्थं च इमानि यथाशक्ति दानोपकरणानि...गोत्राय...शर्मणे ब्राह्मणाय  तुभ्यमहं सम्प्रददे। 
ऐसा संकल्पकर संकल्प जल तथा दान की वस्तुएँ*15 ब्राह्मण के हाथ में दे दें
*15कौसुम्भवस्त्रं गुडहेमताम्रं माणिक्यगोधूमसुवर्ण पद्मम्।
सवत्सगोदानमिति प्रणीतं दुष्टाय सूर्याय मसूरिका च[संस्कार भास्कर]  
ब्राह्मण बोले :- ॐ स्वस्ति
दान की प्रतिष्ठा के लिये जलाक्षत तथा दक्षिणा लेकर पुनः निम्न संकल्प करें :-
अद्य कृतैतत् श्रीसूर्यदानप्रतिष्ठासिद्ध्यर्थमिदं द्रव्यं रजतं चन्द्रदैवतं...गोत्राय...शर्मणे ब्राह्मणाय दातुमहमुत्सृज्ये। 
बोलकर दक्षिणा ब्राह्मण को दे दें। 
ब्राह्मण कहे :- ॐ स्वस्ति। 
गुरुपूजा दान संकल्प :: कन्यादाता-पिता हाथ में जलाक्षत तथा गुरु पूजा दान की वस्तुएँ (अश्व का मूल्य, सुवर्ण, मधु, पीत वस्त्र, चने की दाल, सैधव नमक, पीत पुष्प, मिश्री, हल्दी तथा दान प्रतिष्ठा हेतु द्रव्य) लेकर गुरु जनित दोष की निवृति हेतु निम्न संकल्प करे :- 
मम अस्याः कन्यायाः  करिष्यमाणविवाहसंस्कारकर्मणि जन्मराशे: सकाशान्नामराशे: सकाशाद्वा अमुकानिष्टस्थानस्थितश्रीगुरुजनितदोषनिवृतिपूर्वकशुभफलप्राप्त्यर्थं सौभाग्यायुरारोग्यार्थं श्रीगुरुप्रीत्यर्थंमिदं यथाशक्ति दानोपकरणं...गोत्राय...शर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे। 
ऐसा संकल्पकर संकल्पजल तथा दान की वस्तुएँ*16 ब्राह्मण के हाथ में दे दें।
*16अश्वं सुवर्ण, मधुपीतवस्त्रं स्पीतधान्यं लवणं सपुष्पम्। 
सशर्करं तद्रजनीप्रयुक्तं दुष्टोपशान्त्यै गुरवे प्रणीतम्[संस्कार भास्कर]     
ब्राह्मण बोले :- ॐ स्वस्ति
दान की प्रतिष्ठा के लिये जलाक्षत तथा दक्षिणा लेकर पुनः निम्न संकल्प करें :-
अद्य कृतैतत् श्रीगुरुदानप्रतिष्ठासिद्ध्यर्थमिदं द्रव्यं रजतं चन्द्रदैवतं...गोत्राय...शर्मणे ब्राह्मणाय दातुमहमुत्सृज्ये। 
ऐसा कहकर दक्षिणा ब्राह्मण को दे दें। 
ब्राह्मण बोले :- ॐ स्वस्ति। 
चन्द्र पूजा दान संकल्प :: कन्या दाता-पिता और वर हाथ में जलाक्षत तथा चन्द्र पूजा दान की वस्तुएँ*17 (सफेद वस्त्र, शंख, मोती, सुवर्ण, चाँदी की मूर्ती, दही, घी का बर्तन, चावल तथा दान प्रतिष्ठा हेतु द्रव्य) लेकर चन्द्र जनित डॉग की निवृति के लिये निम्न संकल्प करें :-
मम अस्याः कन्यायाः (वर करे तो मम बोले)  करिष्यमाणविवाहकर्मणि जन्मराशे: सकाशाच्चतुर्थाद्यनिष्टस्थानस्थितचन्द्रेण सूचितं सूचयिष्यमाणं च यत्सर्वारिष्टं तद्विनाशार्थं सर्वदा तृतीयैकादशशुभस्थानस्थितवदुत्तमफलप्राप्तयर्थमायुरारोग्यार्थं श्रीचन्द्रदेवप्रीत्यर्थंमिदं यथाशक्ति दानोपकरणं...गोत्राय...शर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे। 
*17घृतकलशं सितवस्त्रं दधिशंख मौक्तिकं सुवर्ण च।  
रजतं च प्रदद्याच्चन्द्रा रिष्टोपशान्तये त्वरितम्[संस्कार भास्कर]
ऐसा संकल्प करके संकल्प जल तथा दान की वस्तुएँ ब्राह्मण के हाथ में दे दें। 
ब्राह्मण बोले :- ॐ स्वस्ति। 
दान की प्रतिष्ठा के लिये जलाक्षत तथा दक्षिणा लेकर पुनः निम्न संकल्प करें :- 
अद्य कृतैतत् श्रीचन्द्रदानप्रतिष्ठासिद्ध्यर्थमिदं द्रव्यं 
रजतं चन्द्रदैवतं...गोत्राय...शर्मणे ब्राह्मणाय दातुमहमुत्सृज्ये।
ऐसा कहकर दक्षिणा ब्राह्मण को समर्पित कर दें। 
ब्राह्मण कहे : ॐ स्वस्ति।  
विवाहाग्नि परिग्रह संस्कार 
विवाह संस्कार में लाजाहोम आदि की क्रियाएँ जिस अग्नि में सम्पन्न की जाती हैं, वह अग्नि आवसथ्याग्नि, ग्रह्याग्नि, स्मार्ताग्नि, वैवाहिकाग्नि तथा औपासनाग्नि नाम से जानी जाती है। विवाह के अनन्तर जब वर-वधू अपने घर आते हैं, तब उस स्थापित अग्नि को घर लाकर यथाविधि स्थापित करके, उसमें प्रतिदिन अपनी कुल परम्परा के अनुसार साँय-प्रातः हवन करने का विधान है। गृहस्थ के लिये प्रतिदिन दो प्रकार के शास्त्रीय कर्मों को करने की विधि हैं :- श्रौत कर्म और स्मार्त कर्म।
पंच महायज्ञ आदि पाकयज्ञ*18 सम्बन्धी जो कर्म हैं, वे स्मार्त कर्म हैं। 
इनके लिये जो पाक-भोजन आदि बनता है, वह इसी स्थापित अग्नि में सम्पादित होता है। गृहस्थ के लिये जो नित्य होम विधि है, वह भी इसी अग्नि द्वारा सम्पन्न होती है। यह अग्नि कभी बुझनी नहीं चाहिये। अतः प्रयत्नपूर्वक इसकी रक्षा की जाती है। 
*18अष्टका श्राद्ध, पार्णवश्राद्ध, श्रावणी-उपाकर्म, आग्रहायणी, चैत्री, आश्वयुजी  एवं औपासन :- ये सात कर्म सात पाकयज्ञ संस्थाएँ कहलाती हैं। [पारस्कर गृह सूत्र] 
वैवाहिकेSग्नौ कुर्वीत गृह्यं कर्म यथाविधि। 
पञ्चयज्ञविधानं च चान्वाहिकीं पक्तिं  गृही॥[मनु स्मृति 3.67] 
गृहस्थ विवाह के समय स्थापित अग्नि में यथाविधि ग्रह्योक्त कर्म-होम करें तथा नित्य पञ्चयज्ञ और पाक करे। 
The holy-sacred fire created at the solemnisation of marriage, should be preserved & used to perform daily Hawan-Agnihotr and the 5 recommended Yagy along with cooking food.
The way the food is essential for the body Yagy is essential for him to modify-improve his deeds-actions & the future births.
वैश्यदेवस्य सिद्धस्य गृह्येSग्नौ विधिपूर्वकम्। 
आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥
वैश्य देव के लिये पकाए अन्न से, ब्राह्मण गार्हपत्य अग्नि में, आगे कहे हुए देवताओं के लिये प्रति दिन हवन करे।[मनु स्मृति 3.84] 
The Brahman should perform Hawan as per description that follows, into the Garhpaty Agni, for Vaeshy Dev with the cooked food grains, for the sake-satisfaction, appeasement of deities, demigods.
गार्हपत्य अग्नि का एक प्रकार है। अग्नि तीन प्रकार की है :- (1). पिता गार्हपत्य अग्नि हैं, (2). माता दक्षिणाग्नि मानी गयी हैं और (3). गुरु आहवनीय अग्नि का स्वरूप हैं॥ वेद॥ 
Garhpaty Agni is a type of fire. Veds describe fire by the name of father, mother and the Guru-teacher.
कर्म स्मार्त विवाहाग्नौ कुर्वीत प्रत्यहं गृही।
[याज्ञ वल्कय स्मृति आचा० 97] 
त्रेताग्नि संग्रह संस्कार ::
गृहस्थ को श्रौत्र तथा स्मार्त दो कर्मों का सम्पादन करना पड़ता है। स्मार्त कर्मों का सम्पादन विवाहग्नि में सम्पादित होता है और श्रौत्र कर्मों का सम्पादन त्रेताग्नि में होता है :-
स्मार्तं वैवाहिके वह्नौ श्रौत्रं वैतानिकाग्निषु। 
[व्यास स्मृति 2.16]
विवाहाग्नि-गृह्याग्नि के अतिरिक्त तीन अग्नियाँ और होती हैं जिन्हें दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य तथा आहवनीय नाम से जाना जाता है। इन तीनों अग्नियों का सामूहिक नाम त्रेताग्नि, श्रौताग्नि अथवा वैताग्नि है। 
गृहस्थ सभी श्रौत कर्मों को त्रेताग्नि में सम्पादित करें, विवाहाग्नि  में नहीं। इन तीन अग्नियों की स्थापना, उनकी प्रतिष्ठा, रक्षा तथा उनका हवन कर्म त्रेताग्नि संग्रह संस्कार कहलाता है। सनातन परम्परा के अनुरूप यज्ञों का सम्पादन किया जाता है। 
मुख्य रूप से यज्ञ संस्थान तीन प्रकार के हैं और प्रत्येक संस्था में सात-सात यज्ञ सम्मिलित हैं।
(1). पाकयज्ञ संस्था :- (1.1). अष्टका श्राद्ध, (1.2). पार्वण श्राद्ध, (1.3). श्रावणी-उपाकर्म, (1.4). आग्रहायणी,  (1.5). चैत्री, (1.6). आश्वयुजी और   (1.7).पासन  होम।इनका अनुष्ठान विवाहाग्नि में होता है और हविर्यज्ञ तथा सोमयज्ञ संस्था के कर्म त्रेताग्नि में सम्पन्न होते हैं। 
(2). हविर्यज्ञ संस्था :- (2.1). अग्न्याधेय (अग्निहोत्र), (2.2). दर्श पौर्णमास, (2.3). अग्रहायण, (2.4). चातुर्मास्य, (2.5). निरूढपशुबन्ध, (2.6). सौत्रामणियाग तथा (2.7). पिण्ड पितृ यज्ञ। 
(3). सोमयज्ञ संस्था :- (3.1). अग्निष्टोम, (3.2). अत्यग्निष्टोम, (3.3). उक्थ्य, (3.4). षोडशी, (3.5). वाजपेय, (3.6). अतिरात्र और (3.7). आप्तोर्याम।  
इन प्रधान यज्ञों के भी अनेक भेद और उपभेद हैं, जिनका विस्तृत विवरण गृह्यसूत्र और ब्राह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध है। ये सभी यज्ञादिक जातक को अपनी पत्नी के साथ सम्पन्न करने चाहियें। 
वर्तमान काल में अधिकांश संस्कार प्रायः आधुनिकता के शिकार हो गये हैं।
The chapter has been completed today and presented-dedicated to the virtuous devotees due to the grace-kindness of Bhagwan Ved Vyas, Maa Saraswati, Ganesh Ji Maha Raj and the Almighty at Noida on 21.03.2020.
हरी ओम ॐ तत्सत्
लाजाहोम मंत्र*1 ::
अर्यमणं नु देवं कन्या अग्निमयक्षत।
स इमां देवो अर्यमा प्रेतो मुञ्चातु नामुतः स्वाहा॥
ॐ अमोहमस्मि सा त्वं सा त्वमस्यमोहं द्यौरहं पृथिवो त्वं सामाहमृक्त्वं तावेव विवाहावहै। प्रजाम प्रजनयावहै। संप्रियो रोचिष्णू सुमनस्यमानो जीवेव शरदः शतम॥
ॐ इममश्मानमारोहाश्मेव त्वं स्थिरा भव।
सहस्व पृतनायतोभितिष्ठ पृतन्यतः॥
ॐ वरुणं नु देवं कन्या अग्नियक्षत।
स इमां देवो वरुणः प्रेतो मुञ्चातु नामुतः स्वाहा॥
वरुणाग्नय इदं न मम।
ॐ अमोहमस्मि सा त्व सा त्वमस्यमोहं द्यौरहं पृथिवी त्वं सामाहमृक्‌ त्व तावेव विवहावहै। प्रजां प्रजनयावहै सप्रियौ रोचिश्णू सुमनस्यमानो जीवेव शरदः शतम्॥
ॐ इममश्मानमारोहाश्मेव त्वं स्थिरा भव।
सहस्व पृतनायतोभितिष्ठ पृतन्यतः॥
ॐ पूषणं नु देवं कन्या अग्निमयक्षत।
स इमां देवः पूषा प्रेतो मुञ्चातु नामुतः स्वाहा॥
ॐ अमोहमस्मि सा त्वं सा त्वमस्यमोहं द्यौरहं पृथिवो त्वं सामाहमृक्त्वं तावेव विवाहावहै। प्रजाम प्रजनयावहै। संप्रियो रोचिष्णू सुमनस्यमानो जीवेव शरदः शतम॥
ॐ इममश्मानमारोहाश्मेव त्वं स्थिरा भव।
सहस्व पृतनायतोभितिष्ठ पृतन्यतः॥
सप्तपदी मंत्र*2  ::
इष एकपदी भव, सा मामनुव्रता भव,पुत्रान्विंदावहै बहूस्ते सन्तु जरदष्टयः॥1॥
ऊर्जे द्विपदी भव, सा मामनुव्रता भव, पुत्रान्विंदावहै बहूस्ते सन्तु जरदष्टयः॥2॥
रासस्पोशाय त्रिपदी भव, सा मामनुव्रता भव, पुत्रान्विंदावहै बहूंस्ते सन्तु जरदष्टयः॥3॥
मा यो भव्याय चतुष्पदी भव, सा मामनुव्रता भव, 
पुत्रान्विंदावहे बहूंस्ते सन्तु जरदष्टयः॥4॥
प्रजाभ्यः पंचपदी भव, सा मामनुव्रता भव, पुत्रान्विंदावहै बहूंस्ते सन्तु जरदष्ट्यः॥5॥
ऋतुभ्यः षट्‌पदी भव, सा मामनुव्रता भव, पुत्रान्विंदावहै बहूंस्ते सन्तु जरदष्टयः॥6॥
सखा सप्तपदी भव, सा मामनुव्रता भव, पुत्रान्विंदावहै बहूंस्ते सन्तु जरदष्टयः॥7॥
विवाहहोम मंत्र :: 
अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।
आरे बाधस्व दुच्छुना स्वाहा॥
अग्नये पवमानायेदं न मम।
ॐ अग्निऋषिः पवमानः पाचजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागवं स्वाहा॥
ॐ अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वचैः सुषीयेम्।
दधद्रर्थि मयि पोषं स्वाहा॥
ॐ त्वमर्यमा भवसि यत् कनीनां नाम स्वधावन् गुह्य विभर्षि।
अञ्जन्ति मित्रं सुधितं न गोभिर्यद् दंपती समनसा कृणोचि स्वाहा॥
ॐ प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव॥
यत् कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम रयीणां स्वाहा॥
*3 मंगलमंत्र :: 
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरितासउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे॥
दवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना ग्वँग् रातिरभि नो निवर्तताम्।
देवाना ग्वँग् सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तुजीवसे॥
तान् पूर्वया निविदाहूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्।
अर्यमणं वरुण ग्वँग् सोममश्विना शृणुतंधिष्ण्या युवम्॥
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमसे हूसहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्वेवेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभं यावानो विदथेषु जग्मयः।
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह॥
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं फश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरै रङ्गैस्तुष्टुवा ग्वँग् सस्तनू भिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता म पिता स पुत्रः।
विश्वे देवा अदितिः पञ्चजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्॥
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ग्वँग् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ग्वँग् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥
यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु। 
शन्नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः॥ सुशान्तिर्भवतु॥''वलिताक्षराणि"। 
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव यद् भद्रं तन्न आ सुव॥
ॐ गणानां त्वा गणपति ग्वँग् हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वँग् हवामहे निधीनां त्वा निधीपति ग्वँग् हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥
ॐ अम्बे अम्बिकेऽम्बालिके न मा नयति कश्चन।
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्॥
स्वस्ति-वाचन आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः। 
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे-दिवे॥ 
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो नि वर्तताम्। 
देवानां सख्यमुप सेदिमा वयं देवा न आयुः प्र तिरन्तु जीवसे॥ 
तान् पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्। 
अर्यमणं वरुणं सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत्॥ 
तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत् पिता द्यौः। 
तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम्॥ 
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम्। 
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥ 
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पुषा विश्ववेदाः। 
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥ 
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मयः। 
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसा गमन्निह॥ 
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। 
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥ 
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम। 
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥ 
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः। 
विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम॥ 
कल्याणकारक, न दबनेवाले, पराभूत न होने वाले, उच्चता को पहुँचानेवाले शुभकर्म चारों ओर से हमारे पास आयें। प्रगति को न रोकने वाले, प्रतिदिन सुरक्षा करने वाले देव हमारा सदा संवर्धन करने वाले हों। सरल मार्ग से जाने वाले देवों की कल्याणकारक सुबुद्धि तथा देवों की उदारता हमें प्राप्त होती रहे। हम देवों की मित्रता प्राप्त करें, देव हमें दीर्घ आयु हमारे दीर्घ जीवन के लिये दें। उन देवों को प्राचीन मन्त्रों से हम बुलाते हैं। भग, मित्र, अदिति, दक्ष, विश्वास योग्य मरुतों के गण, अर्यमा, वरुण, सोम, अश्विनीकुमार, भाग्य युक्त सरस्वती हमें सुख दें। वायु उस सुखदायी औषध को हमारे पास बहायें। माता भूमि तथा पिता द्युलोक उस औषध को हमें दें। सोमरस निकालने वाले सुखकारी पत्थर वह औषध हमें दें। हे बुद्धिमान् अश्विदेवो तुम वह हमारा भाषण सुनो। स्थावर और जंगम के अधिपति बुद्धि को प्रेरणा देने वाले उस ईश्वर को हम अपनी सुरक्षा के लिये बुलाते हैं। इससे वह पोषणकर्ता देव हमारे ऐश्वर्य की समृद्धि करने वाला तथा सुरक्षा करने वाला हो, वह अपराजित देव हमारा कल्याण करे और संरक्षक हो। बहुत यशस्वी इन्द्र हमारा कल्याण करे, सर्वज्ञ पूषा हमारा कल्याण करे। जिसका रथचक्र अप्रतिहत चलता है, वह तार्क्ष्य हमारा कल्याण करे, बृहस्पति हमारा कल्याण करे। धब्बों वाले घोड़ों से युक्त, भूमि को माता मानने वाले, शुभ कर्म करने के लिये जाने वाले, युद्धों में पहुँचने वाले, अग्नि के समान तेजस्वी जिह्वावाले, मननशील, सूर्य के समान तेजस्वी मरुत् रुपी सब देव हमारे यहाँ अपनी सुरक्षा की शक्ति के साथ आयें। हे देवो कानों से हम कल्याणकारक भाषण सुनें। हे यज्ञ के योग्य देवों आँखों से हम कल्याणकारक वस्तु देखें। स्थिर सुदृढ़ अवयवों से युक्त शरीरों से हम तुम्हारी स्तुति करते हुए, जितनी हमारी आयु है, वहाँ तक हम देवों का हित ही करें। हे देवो सौ वर्ष तक ही हमारे आयुष्य की मर्यादा है, उसमें भी हमारे शरीरों का बुढ़ापा तुमने किया है तथा आज जो पुत्र हैं, वे ही आगे पिता होनेवाले हैं, सब देव, पञ्चजन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद), जो बन चुका है और जो बनने वाला है, वह सब अदिति ही है अर्थात् यही शाश्चत सत्य है, जिसके तत्त्वदर्शन से परम कल्याण होता है।[ऋक वेद 1.89.1-10]
*पञ्चाशता भवेद् ब्रह्मा तदर्धेन तु विष्टरः। ऊर्ध्वकेशो भवेद् ब्रह्मा लम्बकेशस्तु विष्टरः दक्षिणावर्तको ब्रह्मा वामावर्तस्तु।
अथवा 
पञ्चविंशतिदर्भाणां वैन्यग्रे ग्रन्थिभूषिता। विष्टरे सर्वयज्ञेषु लक्षण परिकीर्तितम्॥ 
*संशोधित दधि, मधु, कांस्यपात्रे स्थितं घृतम्। 
कांस्येनान्येन संछन्नं मधुपर्कमितीर्यते 
मधुपर्क में दधि का प्रयोग :: 
सर्पिश्च पलमेकं तु द्विपलं मधु कीर्तितम्। 
पलमेकं दधि प्रोक्तं मधुपर्कविधी बुधै:॥ 
आज्यपलमेकं ग्राह्यं दधिः त्रिपलमेव च। 
मधु त्वेकपलं ग्राह्यं  मधुपर्क: स उच्चते 
*6 सदृशं नूतन वस्त्रं मञ्जिष्ठादिसु रञ्जितम्। 
अहतं तद्विजानीयादित्युक्तं पूर्वसूरिभिः
ईषद्धौतं नवं श्वेतं सदशं यन्न धारितम्। 
अहतं तद्विजानियात् सर्वकर्मसु पावनम्॥    
सदंश किनारीदार इति भाषायाम। 
*7च्छाद्य रक्तवासोभ्यां कन्यां शुक्लवासोभ्यां वरम्।[स्मृति तत्व]
*8स्नात्वा पीत्वा क्षुते सुप्ते भुक्त्वा रथ्योपसर्पणे। 
आचान्तः पुनरचामेद्वासो विपरिधाय च[याज्ञवल्क्य स्मृति] 
स्त्रियास्तु नाचमनं किँतु दक्षिणकर्णसपर्श:।[संस्कार रत्नमालामालायाम्]
शिष्टास्तु कर्मस्थ एवं नाचामेद् स्वयं स्पृशेत्। इति सर्वत्र श्रवणमेव स्पृशन्ति।
*10सीमन्ते च विवाहे च तथा चातुर्थ्यकर्मणि। 
मखे दाने व्रते श्राद्धे पत्नी दक्षिणतो भवेत्॥
सम्प्रदाने भवेत् कन्या घृतहोमे सुमङ्गलो। 
वामभागे भवेद्भार्या पत्नी चातुर्थ्यकर्मणी॥
व्रतबन्धे विवाहे च चतुर्थी सह भोजने। 
व्रतदाने मखे दाने श्राद्धे पत्नी तिष्ठति दक्षिणे॥
सर्वेषु धर्मकार्येषु पत्नी दक्षिणतः शुभा। 
अभिषेके विप्रपादक्षालने चैव वामतः॥  
DRAFT :: ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव यद् भद्रं तन्न आ सुव॥
ॐ गणानां त्वा गणपति ग्वँग् हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वँग् हवामहे निधीनां त्वा निधीपति ग्वँग् हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥
ॐ अम्बे अम्बिकेऽम्बालिके न मा नयति कश्चन।
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्॥
    
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा


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