Friday, August 14, 2020

VEDIC PRAYERS वैदिक उपासना

VEDIC PRAYERS
वैदिक उपासना 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47] 
हत्वा लोकानपीमांस्त्रीनश्नन्नपि यतस्ततः।
ॐ नमों भगवते सुदर्शन वासुदेवाय, धन्वंतराय अमृतकलश हस्ताय, सकला भय विनाशाय, सर्व रोग निवारणाय, त्रिलोक पठाय,  त्रिलोक लोकनिथाये,  ॐ श्री महाविष्णु स्वरूपा,  ॐ श्री श्री ॐ  औषधा चक्र नारायण स्वाहा
वेद मंत्रों में देव शब्द के प्रयोग द्वारा देवताओं की सामूहिक स्तुति की गई है। रोग मुक्त शतायु जीवन की कामना के साथ उपयुक्त मंत्र अथर्ववेद एवं यजुर्वेद में है। दोनों ही वेदों में तत्संबंधी मंत्र ‘पश्येम शरदः शतम्’ से आरंभ होते हैं।
ऋग्वेदं धारयन्विप्रो नैनः प्राप्नोति किञ्चन[मनुस्मृति 11.261]
तीनों लोकों की हत्या करके और इधर-उधर भोजन करके भी ऋग्वेद के अभ्यासी को कुछ पाप नहीं लगता। 
One who practices Rig Ved, kills innumerable people, loiter hither & thither, takes food any where is not contaminated-slurred, sinned.
One who practices Rig Ved avoids the actions prohibited by Veds.
ऋक्संहितां त्रिरभ्यस्य यजुषां वा समाहितः।
साम्नां वा सरहस्यानां सर्वपापैः प्रमुच्यते
जो समाहित चित्त होकर ऋग्वेद संहिता, यजुर्वेद संहिता अथवा रहस्य के साथ सामवेद का तीन बार अभ्यास करता है; वह सभी पापों से छूट जाता है।[मनुस्मृति 11.262]
One who practices Rig Ved Sanhita, Yajur Ved Sanhita or the secrets of Sam Ved thrice with dedication-absolute concentration is relinquished of all sins.
यथा महाह्रदं प्राप्य क्षिप्तं लोष्टं विनश्यति।
तथा दुश्चरितं सर्वं वेदे त्रिवृति मज्जति
जिस प्रकार बड़े तालाब में फेंका हुआ मिट्टी का ढ़ेला नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार तीन बार वेद की तीन बार आवृति करने, पढने-अभ्यास करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।[मनुस्मृति 11.263]
As a clod of earth-clay, falling into a great lake, quickly dissolves, all sorts of sins are lost by the repetition of Veds thrice with due regard, concentration and practice. 
ऋचो यजूंषि चान्यानि सामानि विविधानि च।
एष ज्ञेयस्त्रिवृद्वेदो यो वेदैनं स वेदवित्
ऋग्वेद और यजुर्वेद के मन्त्र तथा सामवेद के अनेक मन्त्र; इन तीनों वेदों के अलग-अलग मन्त्रों को जानने वाला ही त्रिवृत् ब्राह्मण, वेदविद् है।[मनुस्मृति 11.264] 
One-the Brahman, who has grasped the Mantrs of three Veds Viz. Rig Ved, Yajur Ved and Sam Ved is learned-enlightened & is called Vedvid.
आद्यं यत्त्र्यक्षरं ब्रह्म त्रयी यस्मिन्प्रतिष्ठिता।
स गुह्योऽन्यस्त्रिवृद्वेदो यस्तं वेद स वेदवित्
आदि जो त्र्यक्षर ब्रह्म (ॐ ओम, प्रणव) है, जिसमें तीनों वेद स्थित हैं, वह प्रथम संज्ञक, दूसरा गुह्य त्रिवृत् है। उसे जो जानता है वह वेद विद् है।[मनुस्मृति 11.265]  
One who knows the Ultimate-initiator, three alphabet Brahm, "Primordial sound :- ॐ-Om", in which the three Veds exists, which is absolutely secret-confidential; is learned-enlightened & is called Vedvid.
पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्।
अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रमिति स्थितिः
पितरों, देवताओं और मनुष्यों का सनातन नेत्र वेद ही हैं। वेद शास्त्र अशक्य और अप्रमेय हैं।[मनुस्मृति 12.94] 
The Ved is the eternal eye of the Manes, demigods and the humans; they are beyond doubt, self proved.
या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः।
सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः
जो स्मृतियाँ वेद से बाहर हैं, जो कुतर्क युक्त हैं, वे सब परलोक के लिये निष्फल होती हैं, क्योंकि वे तमोनिष्ठ हैं।[मनुस्मृति 12.95]  
The Smraties-treatises, commentaries, doctrines, which goes out of context-reference of Veds, which contradict Veds, associated with vague-unnecessary, unwanted logic, arguments, reason are sufficient to send one to Hells, since they are Tamo Guni in nature.
There are the people (Muslims, Christians, atheists, seculars Hindus, Communists) who raise doubts due to imprudence, foolishness and try to give wrong interpretations of Veds. The Britishers and the Germans did their best to malign Veds but failed. Entire science is based over Veds and sufficient proofs are already brought forwards to prove the authenticity of Veds. This is blasphemy.
During congress regime 7 education ministers were Muslims, most of them were semi literate. Nehru-himself was a Muslim & was greatly influenced by communism-socialism. They falsified the Veds in text books and passed wrong information to the learners basically Hindus.
उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च यान्यतोऽन्यानि कानिचित्।
तान्यर्वाक्कालिकतया निष्फलान्यनृतानि च
जो कोई भी शास्त्र वेद से बहिर्भूत (जो बाहर हुआ हो, बाहर का-बाहरी, अलग-जुदा, पृथक्), वे उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं और अर्वाचीन काल के होने के कारण निष्फल होते हैं।[मनुस्मृति 12.96]   
The literature, scriptures which goes out of the domain of Veds are written and lost in due course of time. This is true for the writings of present world i.e., Modern, recent, new; as well.
चातुर्वर्ण्यं त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक्।
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात्प्रसिध्यति
चारों वर्ण, तीनों लोक, चारों आश्रम और भूत, भव्य और भविष्य; ये तीनों काल वेद से ही सिद्ध होते हैं।[मनुस्मृति 12.97]   
The Veds give sufficient proof to prove the existence of four divisions of humans species into Varn-castes (Brahmn, Kshatriy, Vaeshy & Shudr), the three abodes (Heaven, Earth & the Nether world), division of life span of humans into four stages (Brahmchary-celibate, Grahasth, Vanprasth & the Sanyas), division of time into past, present & the future.
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः।
वेदादेव प्रसूयन्ते प्रसूतिर्गुणकर्मतः
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और पाँचवाँ गन्ध; ये सब प्रसूति गुण कर्मानुसार वेद से ही उत्पन्न होते हैं।[मनुस्मृति 12.98]   
Sound, touch, colour, taste and fifthly smell are the characterises produced from the Veds just like the child-pregnancy in a woman.
प्रसूति :: गर्भवती स्त्री; Child bed, Parturition, childbirth,  expulsion of one or more new born infants from a woman's uterus, delivery, childbearing, the child receives a name after the days of the child bed have elapsed, confinement, maternity, motherhood, the feelings and needs felt by a mother for her offspring. labour.  
बिभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम्।
तस्मादेतत् परं मन्ये यत्जन्तोरस्य साधनम्
सनातन वेदशास्त्र ही सभी प्राणियों का पालन-पोषण करता है। इसलिये यह जीवों का उत्तम पुरुषार्थ है, यह हम मानते हैं।[मनुस्मृति 12.99]   
The saints-sages (Rishis, Brahm Rishi, Mah Rishi, Dev Rishi) believe that the eternal Ved Shastr nourishes-grows all creatures-organisms. Its the excellent endeavour of all living beings. 
सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च।
सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति
सेनापतित्व, राज्य, दण्ड विधान और सभी लोकों का स्वामित्व; यह सब वेदज्ञ ही करने लायक है।[मनुस्मृति 12.100]   
Only one who is well versed with Veds is qualified to become an army commander, king, justice or the master of all abodes.
वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे। 
वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना।
परमात्मा वेद वेद्य है अर्थात् केवल वेदों के द्वारा ही जाना जा सकता है। जब वह परब्रह्म परमेश्वर लोक कल्याण के लिये दशरथ नन्दन रघु नन्दन आनन्दकन्द श्री रामचन्द्र के रूप में अवतीर्ण हुआ, तब सभी वेद भी प्रचेता मुनि के पुत्र महर्षि वाल्मीकि के मुख से श्रीमद् रामायण के रूप में अवतीर्ण हुए। तात्पर्य यह कि श्रीमद् रामायण शुद्ध पदार्थ रूप में ही लोक कल्याण के लिये प्रकट हुआ है। इन्हीं कारणों से मूल रूप में सौ करोड़ श्लोकों में उप निबंध श्रीमद् रामायण का एक-एक अक्षर सभी महापातकों एवं उपपातकोंका प्रशमन करनेवाला और परम एवं चरम पुण्यका उत्पादक बताया गया है 
चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्॥ 
वेदों का अर्थ गूढ है तथा रामायण का भाव अत्यन्त सरल हैं। अतः रामायण के द्वारा ही पदार्थ जाना जा सकता है। 
काले वर्षतु पर्जन्यः पृथिवी सस्यशालिनी।
देशोऽयं क्षोभरहितो ब्राह्मणाः सन्तु निर्भयाः॥
बिना रामायण के जाने वेद का ठीक ज्ञान नहीं हो सकता। जो रामायण को नहीं जानता, वह वेद के अर्थ को ठीक नहीं समझ सकता। इसलिये :-
बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति।
अल्प श्रुतों से वेद भयभीत रहता और कहता है कि यह अपनी अल्पश्रुतता से मेरे ऊपर प्रहार कर देगा।[महाभारत, आदिपर्व 1.268]
देवराज इन्द्र ने भरद्वाज ऋषि से कहा :: "अनन्ता वै वेदाः" वेद अनन्त हैं।[तैतरीय आरण्यक]
Ved is infinite. Only a few Sukt & Shloks are available for the humans. The Shlok can open huge amounts of hidden energy when recited properly. The Shlok has a word-meaning form. It may have numerous interpretations as per the whims and knowledge of the individual. One who can catch the true messages hidden in the body of the Shlok is truly enlightened. 
मंत्र का शब्दार्थ और भावार्थ दोनों ही अलग हो सकते हैं। मंत्र किसी विशेष क्षेत्र की शक्तियों को जाग्रत करने की कुँजी-चाबी है। 
कलियुग में मनुष्यों की शक्तिहीनता और कम आयु होने की स्थिति को ध्यान में रखकर वेद पुरुष भगवान् नारायण के अवतार कृष्ण द्वैपायन श्री वेद व्यास जी ने यज्ञानुष्ठान आदि के दृष्टिगत एक वेद के चार भाग (1). ऋग्वेद, (2). यजुर्वेद, (3). सामवेद और (4). अथर्ववेद कर दिये।
ऋग्वेद की शाखाएँ :: 21
यजुर्वेद की शाखाएँ :: 101
सामवेद की शाखाएँ :: 1,000
अथर्ववेद की शाखाएँ :: 9
इन चारों की कुल मिलाकर 1,131 शाखाएँ हुईं। इन 1,131 में से केवल 12 ही मूल ग्रन्थों के रूप में उपलब्ध है :- ऋग्वेद :: 2, यजुर्वेद :: 6, सामवेद :: 2 और अथर्ववेद :: 2. इन 12 शाखाओं में से केवल 6 शाखाओं की अध्ययन शैली ही वर्तमान में उपलब्ध है। 
वैदिक ज्ञान 4 के भाग :- 
(1). संहिता :-  वेद मंत्र भाग,  
(2). ब्राह्मण :- यज्ञानुष्ठान की पद्धति के साथ फल प्राप्ति तथा विधि, 
(3). आरण्यक :- आध्यात्म बोध, सांसारिक बन्धनों से ऊपर उठाकर वानप्रस्थ-अरण्य-जंगल में स्वाध्याय, 
(4). उपनिषद् :- आध्यात्म चिन्तन के साथ ब्रह्म तथा आत्मतत्व।
ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि। वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासी:। अनेनाधीतेनाहोरात्रान्संदधाम्यृतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु। तद् वक्तारमवतु। अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम्। ॐ शान्तिः  शान्तिः शान्तिः।[ऋग्वेद शान्ति पाठ] 
मेरी वाणी, मन में और मन वाणी में, प्रतिष्ठित हों। हे ईश्वर! आप मेरे समक्ष प्रकट हों। हे मन और वाणी! मुझे वेद विषयक ज्ञान प्रदान करें। मेरा ज्ञान क्षीण न हो। मैं अनवरत अध्ययन में लगा रहूँ। मैं श्रेष्ठ शब्द बोलूँगा, सदा सत्य बोलूँगा, ईश्वर मेरी रक्षा करें। वक्ता की रक्षा करें। मेरे आध्यत्मिक, आदिदैविक और आधिभौतिक, त्रिविध ताप शान्त हों। 
My speech-word should be present in the innerself-Man & the Man-should be present in the speech. Hey Ishwar! (O God!) You should be present before me. Hey Man & speech! (O Psyche & Speech!) Kindly grant me the knowledge pertaining to the Veds. My knowledge should not wane-lost. I should continue with study regularly of Veds-scriptures & History. I will speak the excellent words, I will speak the truth; the Almighty should protect me. The speaker (of truth) should be protected. My three types of troubles :- spiritual, divine-super natural & material troubles should calm down.
अग्नि सूक्त [ऋग्वेद संहिता 1.1.1]
ऋषि मधुच्छन्दा :: वैश्वामित्र,  देवता :: अग्नि,  छंद :: गायत्री।
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। 
होतारं रत्नधातमम्॥ 
हे अग्नि स्वरूप परमात्मा! इस यज्ञ के द्वारा मैं आपकी आराधना करता हूँ। सृष्टि के पूर्व भी आप थे और आपके अग्निरूप से ही सृष्टि की रचना हुई। हे अग्निरूप परमात्मा! आप सब कुछ देने वाले हैं। आप प्रत्येक समय एवं ऋतु में पूज्य हैं। आप ही अपने अग्निरूप से जगत् के सब जीवों को सब पदार्थ देने वाले हैं एवं वर्तमान और प्रलय में सबको समाहित करने वाले हैं। हे अग्निरूप परमात्मा! आप ही सब उत्तम पदार्थों को धारण करने एवं कराने वाले हैं।[ऋग्वेद 1.1.1]
(यज्ञस्य) हम लोग विद्वानों के सत्कार संगम महिमा और कर्म के (होतारम्) देने तथा ग्रहण करनेवाले (पुरोहितम्) उत्पत्ति के समय से पहले परमाणु आदि सृष्टि के धारण करने और (ऋत्विज्ञम्) बारंबार उत्पत्ति के समय में स्थूल सृष्टि के रचने वाले तथा ऋतु-ऋतु में उपासना करने योग्य (रत्नधातमम्) और निश्चय करके मनोहर पृथ्वी और स्वर्ण सहित रत्नों के धारण करने वा (देवम्) देने तथा सब पदार्थों के प्रकाश करनेवाले परमेश्वर की (ईळे) स्तुति करते हैं।
I pray to Agni Dev! the prime Tattv of Parmatma by performing this Yagy. You were there before there was anything. With you the creation started. You are the giver of everything. I pray to you every day in all seasons. You sustain all creation and will consume it when the end comes. It is because of you that we get all the beautiful things of life. You are the source of everything beautiful.
I glorify Agni, the high priest of sacrifice, the divine, the ministrant, who is the offeror and possessor of greatest wealth.
हम अग्निदेव की स्तुती करते है (कैसे अग्निदेव?) जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले), देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज (समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले), होता (देवों का आवाहन करनेवाले) और याचकों को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से) विभूषित करने वाले हैं।
अग्नि पूर्वेभिॠषिभिरिड्यो नूतनैरुत। 
स देवाँ एह वक्षति॥
जो अग्निदेव पूर्व कालिन ऋषियों (भृगु, अंगिरादि) द्वारा प्रशंसित हैं, जो वर्तमान काल में भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानों द्वारा स्तुत्य हैं, वे अग्निदेव इस यज्ञ में देवों का आवाहन करें।[ऋग्वेद 1.1.2] 
Let Agni Dev, praised by the Brahm Rishis and prayed by the enlightened invite the demigods-deities to bless us in performing this Yagy. 
अग्निना रयिमश्न्वत् पोषमेव दिवेदिवे। 
यशसं वीरवत्तमम्॥
स्तुति किये जाने पर पोषण कर्ता अग्निदेव मनुष्यों-यजमानों को प्रतिदिन विवर्धमान-बढ़ने वाला धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर पुरूष प्रदान करने वाले हैं।[ऋग्वेद 1.1.3] 
One being prayed, Agni Dev grants ever increasing wealth, glory-honour and brave progeny (sons & grandsons).
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। 
स इद्देवेषु गच्छति॥
हे अग्निदेव! आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसा रहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुँचता है।[ऋग्वेद 1.1.4] 
Hey Agni Dev! You are capable of protecting all. You protect the Yagy which is free from violence. Offerings, sacrifices reach the demigods-deities through you. 
Agni Dev & the Brahmns are the mouth of the demigods, deities & the Almighty-God. Offerings-oblations in the Yagy, Hawan, Holi sacrifices in fire ultimately reach the God. Material objects, food grains etc. are transformed into energy when immersed in holi fire. 
अग्निहोर्ता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम:। 
देवि देवेभिरा गमत्॥
हे अग्निदेव! आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप युक्त हैं। आप देवों के साथ इस यज्ञ मे पधारें।[ऋग्वेद 1.1.5]
हवि :: यज्ञ, हवन आदि में अग्नि में छोड़े जाने वाले आहुति के द्रव्य,  घी, जल।
Hey Agni Dev! You provide the goods-offerings for Yagy, Hawan to the sacrificer along with, wisdom-enlightenment and capability to perform-conduct deeds-sacrifices, ability to organise to the organiser-host. You pure-true form of God and blessed with extraordinary characteristics, traits, qualities. Kindly attend the Yagy held by me along with the deities-demigods.
यदग्ङ दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। 
तवेत्तत् सत्यमग्ङिर:॥
हे अग्निदेव! आप यज्ञ करने वाले यजमान को समृद्धि, धन, आवास, सन्तान एवं पशु प्रदान कर जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञों के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है।[ऋग्वेद 1.1.6] 
Hey Agni! What ever goods, riches, prosperity-affluence, residence, progeny & cattle you bestow-provide to the host will be back to you through Yagy-Hawan conducted by him in future. 
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। 
नमो भरन्त एमसि॥
हे जाज्वलयमान अग्निदेव! हम आपके सच्चे उपासक हैं। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा हम आपकी स्तुति करते हैं और दिन-रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव! हमें आपका सान्निध्य प्राप्त हो।[ऋग्वेद 1.1.7] 
Hey Agni Dev! the illuminator (dispeller) of darkness, we are your pure, true-pious worshippers. We worship you through genius & keep on praising you throughout day & night. We desire your company. 
राजन्तमध्वराणां गोपांमृतस्य दीदिविम्। 
वर्धमानं स्वे दमे॥
हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञों के रक्षक, सत्य वचन रूप व्रत को आलौकित करने वाले, यज्ञ स्थल में वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुति पूर्वक आते हैं।[ऋग्वेद 1.1.8] 
We the host-household approach the Agni Dev who enhances itself, protects the Yagy, produce aura around us conducting fast, in the form of truthfulness by making prayers-requests. 
स नः पितेव सूनवेSग्ने सूपावनो भव। सचस्वा नः स्वस्तये
सुशोभन क्षेत्र के लिये और ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये, हम आपका यजन करते हैं। हमारा पाप नष्ट हो।
हे गाहर्पत्य अग्ने! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज ही प्राप्त होता है, उसी प्रकार आप भी हम यजमानों के लिये, बाधा रहित होकर सुख पूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे।[ऋग्वेद 1.1.9]
Hey Agni! You should be easily accessible to us, like a father to his son, accordingly-similarly you should be available to us-the host performing Yagy without any obstacles and remain with us for our welfare-well being.
उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे।
उप प्र यन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा॥
हे मन्त्र सिद्धि के प्रदाता परमदेव! सत्य-संकल्प से आपकी ओर अभिमुख हमें आपका अनुग्रह प्राप्त हो। शोभन दान से युक्त वायुमण्डल हमारे अनुकूल हो। हे सुख-धन के अधिष्ठाता! भक्ति भाव से समर्पित भोग-राग को आप अपनी कृपा दृष्टि से अमृतमय   बना दें।[ऋग्वेद 1.40.1]
Hey Ultimate deity! We the ones who are determined to follow the path of truth wish to have your grace-favours. The environment should favour us. Hey the master of wealth! Please make the offering by us as good as the nectar, ambrosia, elixir.
प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता।
अच्छा वीरं नर्यं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः॥
मन्त्र-सिद्धि प्रदाता परमदेव की कृपा दृष्टि के हम भागी हों। प्रिय एवं सत्यनिष्ठ वाणी की अधिष्ठात्री देवी की सत्प्रेरणा से हम अभिसिंचित हों। समस्त देवगण दिव्य ऊर्जायुक्त, जीवमात्र के लिये कल्याणकारी एवं भक्ति भाव से समृद्ध यज्ञ-सत्कर्म हेतु हमें प्रतिष्ठित करें।[ऋग्वेद 1.40.3] 
We should qualify for the blessings of the Ultimate deity who grants accomplishments. We should be quenched with the loving & truthful words due to the guidance of the deity of speech-Maa Saraswati. We should be blessed (granted, established) with divine energy-capability, devotion to perform social welfare-justice by all demigods & deities.
अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य।
आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः॥
हे अमर अग्निदेव! उषा काल में विलक्षण शक्तियाँ प्रवाहित होती हैं, यह दैवी सम्पदा नित्यदान करने वाले व्यक्ति को दें। हे सर्वज्ञ! उषाकाल में जाग्रत हुए देवताओं को भी यहाँ लायें।[ऋग्वेद 1.44.1]
हे अविनाशी, सर्व भूतों के ज्ञानी, अग्निदेव! तुम ही दाता के लिए विभिन धन ग्रहण कराओ और प्रातः काल में जागने वाले देवों को भी यहाँ लाओ।
Hey immortal Agni Dev! Amazing powers flow at the time of day break-dawn. Give this divine wealth to the person who make donations everyday. Hey All knowing! Let all the demigods-deities come to this place at dawn.
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। 
स्वस्ति नस्ताक्ष्र्यो  अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
अपरिमेय स्तुति पात्र इन्द्र और सर्वज्ञ पूषा हमें मंगल प्रदान करें। तृक्ष के पुत्र कश्यप या अहिंसित रथनेमि युक्त गरुड़ तथा बृहस्पति हमें मंगल प्रदान करें।[ऋग्वेद 1.89.6]
यशस्वी इन्द्रदेव कल्याण करने वाले हों। धन से युक्त मंगल भी पूषा करें। जिनके रथ के पहिये के वेग का कोई नहीं रोक सकता, ऐसे अश्व सूर्य और बृहस्पति हमारा उद्धार करें। 
Let honourable Indr Dev and enlightened Push Dev look to our welfare. Kashyap, the son of Traksh or non violent Garud Dev & Brahaspati perform our welfare.
स नः सिन्धुमिव नावयाति पर्षा स्वस्तये। 
अप नः शोशुचदघम्॥ 
जैसे सागर को नौका द्वारा पार किया जाता है, वैसे ही वह परमेश्वर हमारा कल्याण करने के लिये हमें संसार सागर के पार ले जाये। हमारा पाप नष्ट हो।[ऋग्वेद 1.97.8]  
The Almighty should help us sail across the ocean like the world, just as the boat sails through the ocean. Let out sins be removed-lost. 
ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम्॥
वसु, रूद्र, आदित्य आदि गण देवों के स्वामी, ऋषि रूप कवियों में वन्दनीय, दिव्य अन्न-सम्पत्तियों के अधिपति, समस्त देवों में अग्रगम्य तथा मन्त्र-सिद्धि के प्रदाता हे गणपति! यज्ञ, जप तथा दान आदि अनुष्ठानों के माध्यम से हम आपका आवाह्न करते हैं। आप हमें अभय-वर प्रदान करें।[ऋग्वेद 2.23.1]
हे मनुष्यों! जैसे विद्वान लोग सबके अधिपति, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, अन्तर्यामी परमेश्वर की उपासना करते हैं वैसे तुम भी सब गणों के स्वामी परमेश्वर की उपासना किया करो।
The head-master of Vasu, Rudr, Adity etc. Gan, honoured-revered (Wisdom of the Wise and Uppermost in Glory) amongest the Rishis like poets, masters of divine grains-assets, We invite you through Jap-recitation of prayers, other charity-donations (Sacrificial Oblations) & rites, recitations, ceremonies. Kindly bless us with the protection-asylum, desired virtuous rewards.
Please come to us by Listening to our Invocation and be Present in the Seat of this Sacred Sacrificial Altar to charge our Prayers with Your Power and Wisdom.
जानन्ति वृष्णो अरुषस्य शेवमुत ब्रध्नस्य शासने रणन्ति। 
दिवोरुच: सुरुचो रोचमाना इळा येषां गण्या माहिना गी:॥
जिनकी वाणी महिमा के कारण मान्य और प्रशंसनीय है, वे ही सुख की वृष्टि करने वाले अहिंसा के धन को जानते हैं तथा महत् के शासन में आनन्द प्राप्त करते हैं और दिव्य कान्ति से देदीप्यमान होते हैं।[ऋग्वेद 3.7.5] 
Those who's words carry weight (are meaningful), shower comforts, recognises the significance of non-violence, enjoy under abundance-affluence and has aura around them.
महत् :: महान होने की अवस्था या भाव, वह तत्व जिससे किसी वस्तु की आपेक्षिक श्रेष्ठता, उपयोगिता या आदर घटता या बढ़ता हो, जो बहुत बड़ा, अच्छा या महान् हो सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, बहुत बड़ा, महान, दार्शनिक क्षेत्रों में प्रकृति का आरम्भिक या मूल विकार, महत्तत्व, ब्रह्म, राज्य, जल-पानी; significant, important, supreme, majestic, meritorious, grandeur, great. 
जातो जायते सुदिनत्वे अह्रां समर्य आ विदथे वर्धमान:। 
पुनन्ति धीरा अपसो मनीषा  देवया विप्र उदियर्ति वाचम्॥     
 जिस व्यक्ति ने जन्म लिया है, वह जीवन को सुन्दर बनाने लिये उत्पन्न हुआ है। वह जीवन संग्राम में लक्ष्य साधन के हेतु अध्यवसाय करता है। धीर व्यक्ति  मनन शक्ति से कर्मों को पवित्र करते हैं और विप्रजन दिव्य भावना से वाणी का उच्चारण करते हैं।[ऋग्वेद 3.8.5]  
One is born to make life a beautiful experience. He makes efforts to achieve his goal-target. One who has patience, makes his deeds-endeavours pious with the help of his power to meditate & analyses. The Brahmn enchant holy-pious words (Shloks, Sukt) to purify-sanctise the whole world, by virtue of divinity.
त्रिभिः पवित्रैरपुपोद्ध्यर्कं हृदा मतिं ज्योतिरनु प्रजानन्। 
वर्षिष्ठं रत्नमकृत स्वधाभिरादिद् द्यावापृथिवी पर्यपश्यत्
मनुष्य या साधक हृदय से ज्ञान और ज्योति को भली प्रकार जानते हुए तीन पवित्र उपायों (यज्ञ, दान और तप अथवा श्रवण, मनन-चिन्तन और निधिध्यासन) से आत्मा को पवित्र करता है। अपने सामर्थ्य से सर्वश्रेष्ठ रत्न "ब्रह्मज्ञान" को प्राप्त कर लेता है और तब वह इस संसार को तुच्छ दृष्टि से देखता है।[ऋग्वेद 3.26.8] 
निधिध्यासन :: अनवरत या सतत चिंतन; contemplation.
The practitioner purifies his soul through enlightenment-knowledge & the Almighty by using three methods viz. (1). Yagy. donation & ascetics alternatively (2). listening (scriptures, epics Veds), meditating-analysing & contemplation. He attains the Ultimate knowledge-Brahmn Gyan and start perceiving the comforts-luxuries over the earth as useless-meaningless, inferior. 
ये अग्ने नेरयन्ति ते वृद्धा उग्रस्य शवस:। 
आप द्वेषो अप ह्वरो Sन्यव्रतस्य सश्चिरे  
वास्तव में वृद्ध तो वे हैं, विचलित नहीं होते और अति प्रबल नास्तिक की द्वेष भावना एवं उसकी कुटिलता दूर करते हैं।[ऋग्वेद 5.20.2] 
One is matured-grown up, who maintains his cool-patience and abolish-removes the enmity of the atheist and counter his cunningness. 
Chinese premier Xi Jinping has crossed all limits of cunningness and deserve to be punished. There is no dearth of Chanakys in India who can give him befitting reply.
कुटिलता :: चालाकी, दुष्टता, धूर्तता; cunningness.
स हि सत्यो यं पूर्वे चिद् देवा सश्चिद्यमीधिरे। 
होतारं मन्द्रजिह्वमित् सुदीतिभिर्विभावसुम्॥ 
सत्य वही है जो उज्जवल है, वाणी को प्रसन्न करता है और जिसे पूर्व काल में हुए विद्वान उज्ज्वल प्रकाश से प्रकाशित करते हैं।[ऋग्वेद 5.25.2]
Truth is ever shinning (fair, clean), makes the speech pleasing-adorable and earlier the scholars too appreciate it.
स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः। 
बृहस्पतिं सर्वगण स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः॥
हम अपना कल्याण करने के लिये वायु की उपासना करते हैं, जगत के स्वामी सोम की स्तुति करते हैं और अपने कल्याण के लिये हम सभी गणों सहित बृहस्पति की स्तुति करते हैं। आदित्य भी हमारा कल्याण करने वाले हों।[ऋग्वेद 5.51.12] 
For our welfare we pray to the deity of air (Pawan Dev), Som Dev (Moon) the master of the universe and Guru Brahaspati along with all the followers. Let Adity too take care of our well being.
अपि पन्थामगन्महि स्वस्तिगामनेहसम्। 
येन विश्वाः परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु॥
हम लोग कल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करते हैं। जगत् के स्वामी सोम की स्तुति करते हैं और अपने कल्याण के लिये हम सभी गणों सहित बृहस्पति की स्तुति करते हैं। आदित्य  भी हमारा कल्याण करने वाले हों।[ऋग्वेद 6.51.16] 
हे मनुष्यो! (येन) जिसको वीर जन (विश्वाः) सब (द्विषः) शत्रुओं को (परि, वृणक्ति) सब ओर से दूर करता और (वसु) धन को (विन्दते) प्राप्त होता है उस (अनेहसम्) न नष्ट करने योग्य और (स्वस्तिगाम्) जिसमें सुख को प्राप्त होते उस (पन्थाम्) मार्ग को हम लोग (अपि) भी (अगन्महि) प्राप्त हों। 
राजादि मनुष्य ऐसे मार्गों को बनावें, जिनमें जाते हुओं को चोरों का भय न हो और द्रव्य का लाभ भी हो। 
We should follow that righteous-pious, virtuous path, praying to Som-the master of the universe (read Almighty for Som); which is free from troubles, yielding earning-livelihood. We pray to Brahaspati with entire populace for our welfare. Let all the demigods-deities protect us. The king should make the path painless, fruitful free from tensions.
मन्त्रमखर्वं सुधितं सुपेशसं दधात यज्ञियेष्वा। 
पूर्वीश्चन प्रसितयस्तरन्ति तं य इन्द्रे कर्मणा भुवत्   
यज्ञ भावना से भावित, सदाचारी भली भाँति विवेचित, सुन्दर आकृति से युक्त, उच्च विचार (मन्त्र) दो। जो इन्द्र के निमित्त कर्म करता है, उसे पूवजन्म के बन्धन छोड़ देते हैं।[ऋग्वेद 7.32.13]
O The Almighty! Kindly bless us virtuous, righteous, pious thoughts-ideas which make us inclined to human-social welfare, high-virtuous thinking, make us handsome, since a person who performs for the sake Indr (Here God-Almighty) is relieved of the bonds-tied, attachments (leading to new incarnations) in previous births.
Pains, sorrow, diseases, troubles, torturous are the results of deeds committed in earlier births. 
शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रा वरुणावश्विना शम्। 
शं नः सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातु वातः॥
ज्योति ही जिसका मुख है, वह अग्नि हमारे लिये कल्याणकारी हो, मित्र, वरुण और अश्वनी कुमार हमारे लिये कल्याणप्रद हों, पुण्यशाली व्यक्तियों के कर्म हमारे लिये कल्याणप्रद हों तथा वायु भी हमें शान्ति प्रदान करने के लिये बहे। [ऋग्वेद 7.35.4] 
The mouth of Agni-fire, which is bright & gives us light, should be beneficial to us. Demigods-deities Mitr, Varun and Ashwani Kumars should also be beneficial to us. The auspicious deeds of pious-virtuous person should also benefit us. The air should blow so as to give us comfort.
शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।
शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः॥
द्युलोक और पृथ्वी हमारे लिये सुखकारी हों, अन्तरिक्ष हमारी दृष्टि के लिये कल्याणकारी हो, औषिधियाँ एवं वृक्ष हमारे लिये कल्याणकारी हों तथा लोकपति इन्द्र भी हमें शान्ति प्रदान करें।[ऋग्वेद 7.35.5] 
Higher abodes for the virtuous & the earth should be beneficial to us, the outer space should be good for our eyes, medicines & the trees should be beneficial to us, Dev Raj Indr the king of heaven should grant us peace, solace & tranquillity. 
शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चतस्त्र: प्रदिशो भवन्तु। 
शं न पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वाप: 
विस्तृत तेज से युक्त सूर्य हम सबका कल्याण करता हुआ उदित हो। चारों दिशाएँ हमारा कल्याण करनेवाली हों। अटल पर्वत हम सबके लिये कल्याण कारक हों। नदियाँ हमारा हित करनेवाली हों और उनका जल भी हमारे लिये कल्याणप्रद हो।[ऋग्वेद 7.35.8] 
The Sun possessing broad aura-energy should rise for our welfare. Four directions should be beneficial to us. The fixed-static mountains should be beneficial to us. The river should benefit us and their water should be for our welfare. 
शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः।
शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः॥
अदिति (देव माता, पृथ्वी) हमारे लिये कल्याणप्रद हों, मरुद्गण हमारा कल्याण करने वाले हों, भगवान् श्री हरी  पुष्टिदायक देव हमारा कल्याण करें तथा जल एवं वायु भी हमारे लिये शान्ति प्रदान करनेवाले हों।[ऋग्वेद 7.35.9]
Aditi (Mother of demigods-deities & the Earth) should be beneficial to us, Marud Gan should take care of us-do our welfare, Bhagwan Shri Hari Vishnu and other demigods-deities should nourish-nurture us & water and air (Varun Dev & Pawan Dev) should also provide peace, solace, tranquillity to us.
शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तूषसो विभातीः।
शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः॥
रक्षा करने वाले सविता (सूर्य, दिनकर) हमारा कल्याण करें, सुशोभित होती हुई उषादेवी हमें सुख प्रदान करें, वृष्टि करने वाले पर्जन्य देव हमारी प्रजाओं के लिये कल्याण कारक हों और क्षेत्रपति शम्भु भी हम सबको शान्ति प्रदान करें।[ऋग्वेद 7.35.10]
Bhagwan Sury-Sun, who protect us should look to our welfare, Usha Devi-the rays of Sun light in the morning should provide us comfort, Parjany Dev-third Adity, who reside in the raining clouds should be beneficial to us and Bhagwan Shiv the master of the universe should provide us peace, solace tranquillity. 
पर्जन्य तीसरे आदित्य हैं, जो कि मेघों में निवास करते हैं। इनका मेघों पर नियंत्रण हैं। वर्षा के होने तथा किरणों के प्रभाव से मेघों का जल बरसता है। ये धरती के ताप को शान्त करते हैं और फिर से जीवन का संचार करते हैं। इनके बगैर धरती पर जीवन सम्भव नहीं है।
शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।
शमभिषाचः शमु रातिषाचः शं नो दिव्याः पार्थिवाः शं नो अप्याः॥
सभी देवता हमारा कल्याण करने वाले हों, बुद्धि प्रदान करने वाली देवी सरस्वती भी हम सब का कल्याण करें।[ऋग्वेद 7.35.11]
All demigods-deities should bless-benefit us, Maa Saraswati-the deity of education & intelligence should grant us intelligence, prudence, wisdom and bless-benefit us. 
सुविज्ञानं चिकितेषु जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते। 
तयोर्यत् सत्यं यतरदृजीयस्तदित् सोमोSवति हन्त्ययासत्॥ 
उत्तम ज्ञान के अनुसन्धान की इच्छा करने वाले व्यक्ति के सामने सत्य और असत्य दोनों प्रकार के वचन परस्पर स्पर्धा करते हुए उपस्थित होते हैं। उनमें जो सत्य है, वह अधिक सरल है। शान्ति की कामना करने वाला व्यक्ति उसे चुन लेता है और असत्य का परित्याग करता है।[ऋग्वेद 7.104.12]
Truth & falsehood (right-wrong) both are available with the person who is looking for the excellence in knowledge. The truth is easy to grasp. One desirous of peace, solace, tranquillity accept the truth and reject the falsehood.
हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्। ऊधर्न नग्ना जरन्ते॥
सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।[ऋग्वेद 8.2.12]
Those who consume wine or narcotics resort to fighting and create trouble, violence, ragging.
Som Ras is not wine. Its an energy drink-rejuvenating drink.
त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो वभूविथ। अधा ते सुम्नमीमहे॥ 
हे आश्रयदाता! तुम ही हमारे पिता हो। हे शतक्रतु! तुम हमारी माता हो। हम तुमसे कल्याण की कामना करते हैं।[ऋग्वेद 8.98.11]
हे सबको बसाने वाले-पालनहार! हे सबमें बसने वाले! सैंकड़ों प्रज्ञाओं और बलों से युक्त! तू ही हमारा पिता, पालक और उत्पादक है। तू ही माता के समान स्नेही और शिक्षक है,अतः हम तुझसे सुख की याचना करते हैं।
वेद में सर्वत्र एक ईश्वर का ही वर्णन है। उसी की स्तुति, प्रार्थना और उपासना का उपदेश है। ईश्वर ही इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का एकमात्र सम्राट है।
शतक्रतु :: इंद्र, वह जिसने सौ यज्ञ किए हों; Dev Raj Indr, one who has performed 100 Yagy. 
Hey protector! You are our mother & father. Hey the performer 100 Yagy! We expect you to benefit-bless us.
पितृ-सूक्त :: ऋषि :- शङ्क यामायन, देवता :- 1-10, पितर :- 12-14, छन्द त्रिट्टप  और जगती :- 11   
पहली आठ ऋचाओं विभिन्न स्थानों में निवास करने वाले पितरों को हविर्भाग स्वीकार करने के लिये आमन्त्रित किया गया है। अन्तिम छ: ऋचाओं में अग्रि से प्रार्थना की गयी है कि वे सभी पितरों को साथ लेकर हवि-ग्रहण करने के लिये पधारने की कृपा करें।
The manes have been requested to accept the offerings in first eight hymns and last six hymns requests Agni Dev to come along with all Manes and accept offerings-Havi (Havy-Kavy).
उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितर; सोम्यासः। 
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु
नीचे, ऊपर और मध्य स्थानों में रहने वाले, सोम पान करने के योग्य हमारे सभी पितर उठकर तैयार हों। यज्ञ के ज्ञाता सौम्य स्वभाव के हमारे जिन पितरों ने नूतन प्राण धारण कर लिये हैं, वे सभी हमारे बुलाने पर आकर हमारी सुरक्षा करें।[ऋग्वेद 10.15.1]
सौम्य :: प्रिय, उदार, क्षमाशील, प्रशम्य; mild, benign, kindly, placable.
All of our deceased ancestors-Manes who have been placed in upper, middle and lower segments-abodes, should get up be ready to sip Somras. Those Pitr-Manes who knows-understand Veds, are benign-placable and got new lease of life  (rebirth) should come on being called-requested by us and protect us. 
इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः। 
ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवजनासु विषु
जो भी नये अथवा पुराने पितर यहाँ से चले गये हैं, जो पितर अन्य स्थानों में हैं और जो उत्तम स्वजनों के साथ निवास कर रहे हैं अर्थात् यमलोक, मर्त्यलोक और विष्णु लोक में स्थित सभी पितरों को आज हमारा यह प्रणाम निवेदित हो।[ऋग्वेद 10.15.2]
We offer homages to our Manes-Pitr who are either old or new & have moved to other places, residing with their own folk in Yam Lok, Marty Lok earth, Vishnu Lok-abode of Bhagwan Shri Hari Vishnu.   
आहं पितृन् त्सुवित्राँ   अवित्सि नपातं विक्रमणं च विष्णोः। 
बर्हियदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः॥
उत्तम ज्ञान से युक्त पितरों को तथा अपानपात् और विष्णु के विक्रमण को, मैंने अपने अनुकूल बना लिया है। कुशासन पर बैठने  के अधिकारी पितर प्रसन्नतापूर्वक आकर अपनी इच्छा के अनुसार हमारे द्वारा अर्पित हवि और सोम रस ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.3]
अपांनपात् :: एक देवता, यह निथुद्रुप अग्नि जो पानी में प्रकाशित होता हैं; person or entity.[ऋग्वेद 2.35]
विक्रमण :: चलना, कदम रखना, भगवान् श्री हरी विष्णु का एक डग, शूरता-वीरता, पाशुपत-अलौकिक शक्ति; movement, one foot of Bhagwan Shri Hari Vishnu, bravery.
I have made the enlightened Manes-Pitr and the raising of Bhagwan Shri Hari Vishnu's foot, favourable. The Manes entitled of occupying Kushasan-cushion, made of Kush grass (very auspicious in nature), are welcome to make offerings and accept Somras.
बर्हिषदः पितर ऊत्यवार्गिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्। 
त आ गतावसा शंतमेनाऽथा नः शं योररपो दधात॥
कुशासन पर अधिष्ठित होने वाले हे पितर! आप कृपा करके हमारी ओर आइये। यह हवि आपके लिये ही तैयार की गयी है, इसे प्रेम से स्वीकार कीजिये। अपने अत्यधिक सुख प्रद प्रसाद के साथ आयें और हमें क्लेश रहित सुख तथा कल्याण प्राप्त करायें।[ऋग्वेद 10.15.4]
Hey Kushasan occupying Manes! Please come towards us. The offering has been prepared for you, accept it with love. Please bring with you auspicious Prasad-blessings and make us free from troubles and grant comforts along with our welfare. 
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥
पितरों को प्रिय लगने वाली सोम रूपी निधियों की स्थापना के बाद कुशासन पर हमने पितरों का आवाहन किया है। वे यहाँ आयें और हमारी प्रार्थना सुनें। वे हमारी  करने साथ देवों के पास हमारी ओर से संस्तुति करें।[ऋग्वेद 10.15.5]
Having collected the goods liked by the Manes like Somras, we have prayed them to come and occupy the Kushasan. They should accept our prayers  and recommend to demigods-deities,  measures for our welfare.
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम॥
हे पितरो! बायाँ घुटना मोड़कर और वेदी के दक्षिण में नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञ की प्रशंसा करें। मानव स्वभाव के अनुसार हमने आपके विरुद्ध कोई भी अपराध किया हो तो उसके कारण हे पितरो! आप हमें दण्ड न दें (पितर बायाँ घुटना मोड़कर बैठते हैं और देवता दाहिना घुटना मोड़कर बैठना पसन्द करते हैं)।[ऋग्वेद 10.15.6]
Hey Pitr Gan-Manes! Please bend the left leg and sit in the South of the Vedi (Hawan Kund, Pot meant for Agni Hotr-offerings in holy fire) and appreciate-participate in our Yagy-endeavours. Hey Pitr Gan! If we have committed any mistake due to human nature against you, please do not punish us. 
The Pitr mould their left leg during prayers or Yagy and the demigods-deities fold their right leg. 
आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय। 
पुत्रेभ्य: पितरस्तस्य वस्यः प्र यच्छत त इहोर्जं   दधात॥
अरुण वर्ण की उषा देवी के अङ्क में विराजित हे पितर! अपने इस मर्त्य लोक के याजक को धन दें, सामर्थ्य दें तथा अपनी प्रसिद्ध सम्पत्ति में से कुछ अंश हम पुत्रों को देवें।[ऋग्वेद 10.15.7]
Occupying the lap of Usha Devi, having the aura like Sun-golden hue, Hey Pitr Gan! grant a fraction of your famous assets to us (your sons-descendants) along with capability to make proper use of it. 
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः। 
तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्धिः प्रतिकाममत्तु॥
(यम के सोमपान के बाद) सोमपान के योग्य हमारे वसिष्ठ कुल के सोमपायी पितर यहाँ उपस्थित हो गये हैं। वे हमें उपकृत करने के लिये सहमत होकर और स्वयं उत्कण्ठित होकर यह राजा यम हमारे द्वारा समर्पित हवि को अपने इच्छानुसार ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.8] 
Having consumed Somras, our Pitrs from the Vashishth clan have gathered here. Willing to oblige us, Dharm-Yam Raj should accept the offerings made us as per their will.  
ये तातूषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कै:। 
आग्नेयाहि सुविदत्रेभिर्वाङ् सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
अनेक प्रकार  के हवि द्रव्यों के ज्ञानी अर्को से, स्तोमों की सहायता से जिन्हें निर्माण किया है, ऐसे उत्तम ज्ञानी, विश्वासपात्र घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले कव्य नामक हमारे पितर देव लोक में साँस लगने की अवस्था तक प्यास से व्याकुल हो गये हैं। उनको साथ लेकर हे अग्निदेव! आप यहाँ उपस्थित होवें।[ऋग्वेद 10.15.9]
घर्म GHARM:: घास,  धूप, सूर्य ताप, एक प्रकार का यज्ञ पात्र, ग्रीष्म काल, स्वेद-पसीना; sweat, grass, sun light, heat of Sun, a kind of pot for Yagy, summers.
कव्य :: वह अन्न जो पितरों को दिया जाय, वह द्रव्य जिससे पिंड, पितृ यज्ञादि किए जायें; the food meant for offerings to the Manes, a ball of dough meant for performing Pitr Yagy.
स्तोम :: स्तुति, स्तव, यज्ञ, समूह-झुंड, राशि, ढेर, यज्ञ करने वाला व्यक्ति; prayers, one performing Yagy, Yagy, group-compilation.
Hey Agni Dev! Please bring our enlightened Manes known as Kavy, who are feeling thirsty, at the Yagy site, who are leaned in various kinds of Havi-offerings and the Yagy designs who sit with the Havi known as Kavy.
ये सत्यासो हविरदो हविष्या इन्द्रेण देवै: सरथं दधाना:। 
आग्ने याहि सहस्त्रं देववन्दैः परै: पूर्वैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
कभी न बिछुड़ने वाले, ठोस हवि का भक्षण करने वाले, इन्द्र और अन्य देवों  के साथ एक ही रथ में प्रयाण करने वाले, देवों की वन्दना करने वाले घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले जो हमारे पूर्वज पितर हैं, उन्हें सहस्त्रों की संख्या में लेकर हे अग्निदेव! यहाँ पधारें।[ऋग्वेद 10.15.10]
Hey Agni Dev! Please come with our Manes in thousands, who never separate from us, eats solid Havi-offerings, moves-travels along with the demigods-deities and Indr Dev in the same charoite, who pray to the demigods-deities and sit with the Havi called Gharm. 
अग्निष्वात्ता: पितर एह गच्छत सदः सदः सदत सुप्रणीतयः॥ 
अत्ता हवींषि प्रयतानि बहिर्ष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन॥
अग्नि के द्वारा पवित्र किये गये हे उत्तम पथ प्रदर्शक पितर! यहाँ आइये और अपने-अपने आसनों पर अधिष्ठित हो जाइये। कुशासन पर समर्पित हवि द्रव्यों का भक्षण करें और (अनुग्रह स्वरूप) पुत्रों से युक्त सम्पदा हमें समर्पित करा दें।[ऋग्वेद 10.15.11]
Hey excellent guides, purified by Agni Dev! Please come here and occupy your seats. Enjoy-eat the Havi offered to you, while sitting over the Kushasan and grant wealth-riches along with sons.   
त्वमग्न ईळितो जातवेदो ऽवाड्ड व्यानि सुरभीणि कृत्वी। 
प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि॥
हे ज्ञानी अग्निदेव! हमारी प्रार्थना पर आप इस हवि को मधुर बनाकर पितरों के पास ले गये, उन्हें पितरों को समर्पित किया और पितरों ने भी अपनी इच्छा के अनुसार उस हवि का भक्षण किया। हे अग्निदेव! (अब हमारे द्वारा) समर्पित हवि  आप ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.12]
Hey enlightened Agni Dev! you took this Havi, making it sweet, offered it to our Manes and they consumed to it, as per their wish. Hey Agni Dev! Now, please you accept the Havi-offerings.    
ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्म याँ उ च न प्रविद्य।  
त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व॥
जो हमारे पितर यहाँ (आ गये) हैं और जो यहाँ नहीं आये हैं, जिन्हें हम जानते हैं और जिन्हें हम अच्छी प्रकार जानते भी नहीं; उन सभी को, जितने (और जैसे) हैं, उन सभी को हे अग्निदेव! आप भली-भाँति पहचानते हैं। उन सभी की इच्छा के अनुसार अच्छी प्रकार तैयार किये गये इस हवि को (उन सभी के लिये) प्रसन्नता के साथ स्वीकार करें।[ऋग्वेद 10.15.13] 
Hey Agni Dev! You recognise our all those Manes who have gathered here and those who are not present here, we either know them or may not know them, but Hey Agni Dev! you know-recognise all of them. Please accept this Havi for their happiness-pleasure prepared as per their taste.  
ये अग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व॥
हमारे जिन पितरों को अग्नि ने पावन किया है और जो अग्नि द्वारा भस्मसात् किये बिना ही स्वयं पितृ भूत हैं तथा जो अपनी इच्छा के अनुसार स्वर्ग के मध्य में आनन्द से निवास करते हैं। उन सभी की अनुमति से, हे स्वराट् अग्रे! (पितृलोक में इस नूतन मृत जीव के) प्राण धारण करने योग्य (उसके) इस शरीर को उसकी इच्छा के अनुसार ही बना दो और उसे दे दो।[ऋग्वेद 10.15.14]
स्वराट् :: ब्रह्मा, ईश्वर, एक प्रकार का वैदिक छंद, वह वैदिक छंद जिसके सब पादों में मिलकर नियमित वर्णों में दो वर्ण कम हों, सूर्य की सात किरणों में से एक का नाम (को कहते हैं), विष्णु का एक नाम, शुक्र नीति के अनुसार वह राजा जिसका वार्षिक राजस्व 50 लाख से 1 करोड़ कर्ष तक हो, वह राजा जो किसी ऐसे राज्य का स्वामी हो, जिसमें स्वराज्य शासन प्रणाली प्रचलित हो, जो स्वयं प्रकाशमान हो और दूसरों को प्रकाशित करता हो, जो सर्वत्र व्याप्त, अविनाशी (स्वराट्), स्वयं-प्रकाश रूप और (कालाग्नि) प्रलय में सब का काल और काल का भी काल है, परमेश्वर-कालाग्नि है; Brahma Ji, Almighty, self lighting, possessing aura.
Our Pitr Gan-Manes, who have been purified by the Agni, those who themselves are like Agni-fire even without being burnt by fire, who lives in heavens with our their own will, Hey shinning Agni Dev! please make their bodies in new incarnation-rebirth as per their desire-wish, with their permission.
इमे जीवा वि मृतैराववृत्रन्नभूद्भद्रा देवहूतिर्नो अद्य। 
प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय आयुः प्रतरं दधानाः॥    
ये जीव मृत व्यक्तियों से घिरे हुए नहीं हैं, इसीलिये आज हमारा कल्याण करनेवाला देवयज्ञ सम्पूर्ण हुआ। नृत्य करने के लिये, आनन्द मनाने के लिये, दीर्घ आयु को और अधिक दीर्घ करते हुए, उन्नति के पथ पर चलें-अग्रसर हों।[ऋग्वेद 10.18.3]
These organism are not surrounded by dead human beings, hence our Yagy for the welfare of humanity has completed. Let our lives be prolonged for dancing-enjoying and progressing.
भद्रं नो अपि वातय मनो दक्षमुत क्रतुम्। 
हे परमेश्वर! हमें कल्याणकारक मन, कल्याण करने की सामर्थ्य और कल्याणकारक कार्य करने की प्रेरणा दें।[ऋग्वेद 10.25.1] 
Hey Almighty! Kindly make our innerself (psyche, mind, mood, intelligence) inclined towards human welfare, grant us ability to do welfare and inspire us to do welfare. 
सा मा सत्योक्ति: परि पातु विश्र्वतो द्यावा च यत्र ततनन्न हानि च। 
विश्वमन्यन्नि विशते यदेजति विश्वाहापो विशवाहोदेति सूर्यः॥
वह सत्य कथन सब ओर मेरी रक्षा करे, जिसके द्वारा दिन और रात्रि का सभी दिशाओं में विस्तार होता है तथा यह विश्व अन्य में निविष्ट होता है, जिसकी प्रेरणा से सूर्य उदित होता है एवं निरन्तर जल बहता है।[ऋग्वेद 10.37.2]
निविष्टि :: विश्राम करना, संभोग करना। 
That truth should protect me which extends day & night in all directions and this universe merges with another, the Sun rises and water keep on flowing. 
The Almighty is the only truth which is forever :- present, past & future. The universes keep on emerging-evolving and perishing, but the God remains as such. 
यस्तित्याज सचिविदं सखायं न तस्य वाच्यपि भागो अस्ति। 
यदीं शृणोत्यलकं शृणोति नहि प्रवेद सुकृतस्य पन्थाम् 
जो मनुष्य सत्य ज्ञान के उपदेश देने वाले मित्र का परित्याग कर देता है, उसके वचनों को कोई नहीं सुनता। वह जो कुछ सुनता है, मिथ्या ही सुनता है। वह सत्कार्य के मार्ग को नहीं जानता।[ऋग्वेद 10.71.5] 
The person who desert-depart the friend advising him "Saty Gyan-true knowledge" no one listens to him, care for him. Whatever he (prefers) to listen, is false-incorrect. He is unaware of the virtuous path of human welfare-pious deeds.
नि षु सीद गणपते गणेषु त्वमाहुर्विप्रतमं कवीनाम्। 
न ऋते त्वत् क्रियते किं चनारे महामर्क मघवञ्चित्रमर्च 
हे गणपते! आप स्तुति करने वाले हम लोगों के मध्य में भली प्रकार स्थित होइये। आपको क्रान्तदर्शी कवियों में अतिशय बुद्धिमान्-सर्वज्ञ कहा जाता है। आपके बिना कोई भी शुभाशुभ कार्य आरम्भ नहीं किया जाता, इसलिये हे भगवन्-मघवन्! ऋद्धि-सिद्धि के अधिष्ठाता देव! हमारी इस पूजनीय प्रार्थना को स्वीकार कीजिये।
हे गणपति! आप अपने भक्तजनों के मध्य प्रतिष्ठित हों। त्रिकालदर्शी ऋषिरूप कवियों में श्रेष्ठ! आप सत्कर्मों के पूरक हों। आपकी आराधना के बिना दूर या समीप किसी भी कार्य का शुभारम्भ नहीं होता। हे सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य के अधिपति! आप मेरी इस श्रद्धा युक्त पूजा-अर्चना को अभीष्ट फल को देने वाले यज्ञ में सम्पन्न होने हेतु वर प्रदान करें।[ऋग्वेद 10.112.9]
Hey Ganpati! You should be present & honoured-respected amongest your devotees. You are marvellous poet amongst the Rishis who can foresee the future. You should help us accomplish the virtuous deeds-ventures. No auspicious deed begins without your prayers-wishes. Hey the master of assets and comforts! Kindly accept my prayer to grant me desired reward like the Yagy held for obtaining the desired yield.
स इद्भोजो यो गृहवे ददात्यन्नकामाय चरते कृशाय। 
अरमस्मै भवति यामहूता उतापरीषु कृणुते सखायम्
अन्न की कामना करने वाले निर्धन याजक को जो अन्न देता है, वही वास्तव में भोजन करता है। ऐसे व्यक्ति के पास पर्याप्त अन्न रहता है और समय पड़ने पर बुलाने से, उसकी सहायता के लिये तत्पर अनेक मित्र उपस्थित हो जाते हैं।[ऋग्वेद 10.117.3] 
One who give food grain to the poor requesting it, really eats the food. Such a person has sufficient food and many friends are ready to help in an hour of need, on being asked. 
A person who help the needy is granted riches by the Almighty. 
पृणीयादिन्नाधमानाय त्वयान् द्राघीयांसमनु पश्येत पन्थाम्। 
मनुष्य अपने सम्मुख जीवन का दीर्घ पथ देखे और याचना करने वाले को दान देकर सुखी करे।[ऋग्वेद 10.117.5]  
One should look to the long life he has and grant donations to the deprecatory, prayerful to make him happy.
याचना करने वाला :: deprecatory, prayerful.
याचक :: माँगने वाला, प्रार्थी, भिक्षुक, भिखारी; solicitor, solicitant.
Donations should be made to the genuine, really needy person not the one's who use it for ulterior motives like terrorism, conversion of Hindus to Islam or Christianity.
नकिर्देवा मिनीमसि नकिरा योपयामसि मन्त्रश्रुत्यं चरामसि। 
पक्षेभिरपिकक्षेभिरत्राभि सं रभामहे॥
हे देवो! न तो हम हिंसा करते हैं, न विद्वेष उत्पन्न करते हैं, अपितु वेद के अनुसार आचरण करते हैं।[ऋग्वेद 10.134.7]  
Hey-O demigods, deities! We neither involve in violence nor generate hatred, instead we behave-conduct as per directives of the Veds.
श्रद्धयाग्नि: समिध्यते श्रद्धया हूयते हवि:। 
श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि॥ 
श्रद्धा से अग्नि को प्रज्वलित किया जाता है, श्रद्धा से ही हवन में आहुति दी जाती है; हम प्रशंसापूर्ण वचनों से श्रद्धा को श्रेष्ठ ऐश्वर्य मानते हैं।[ऋग्वेद 10.151.1]
Fire is ignited with due respect & honour-reverence, offerings are made in holy fire with respect. We consider reverence to be the excellent glory, opulence, grandeur.
श्रद्धा :: आदर, सम्मान, भक्ति, पूजा, सत्कार, धर्म,  ईमान, निष्ठा, यक़ीन;  faith, obeisance. 
श्रद्धा
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सात्विक         आसुरी
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                             राजसी       तामसी 
ऐश्वर्य :: (1). ईश्वरता-ईश्वरीय गुण, (2). आधिपत्य, (3). ईश्वरीय संपदा, ईश्वरीय विभूति, वैभव, धन संपत्ति, अणिमा, शोभा, महिमा आदि आठों सिद्धियों से प्राप्त अलौकिक शक्ति; grandeur, opulence, glory.
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। 
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥17.2॥
मनुष्यों की वह स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्विकी तथा राजसी और तामसी, तीन तरह की होती है, उसको तुम मुझ से सुनो। अर्जुन ने निष्ठा (devotion, fidelity, faith, loyalty, belief) सम्बन्धी प्रश्न पूछा, मगर उत्तर भगवान् ने श्रद्धा को लेकर दिया।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.2]
Bhagwan Shri Krashn replied to Arjun's query with respect to faith describing, it's three variants in the form of Satvik (Goodness), Rajsik (passion) and Tamsik (ignorance). 
श्रद्धा तीन तरह की होती है। वह श्रद्धा कौन सी है तो वे कहते हैं कि स्वभावजा। सङ्गजा, शास्त्रजा या स्वभावजा अर्थात स्वभाव से उत्पन्न हुई स्वतः सिद्ध श्रद्धा (reverence, faith) है? वह न संग से उत्पन्न हुई न शास्त्रों से पैदा हुई है। वे मनुष्य स्वाभाविक रुप से इस प्रवाह में बहे जा रहे हैं और देवता आदि का पूजन करते हैं। स्वभावजा श्राद्ध तीन प्रकार की होती है सात्विकी तथा राजसी और तामसी। सात्विक दैवी सम्पदा है और राजसिक आसुरी सम्पत्ति है। भगवान् भी बन्धन की दृष्टि से राजसी और तामसी दोनों को आसुरी प्रवृति ही मानते हैं। राजस मनुष्य सकाम भाव से शास्त्र विहित कर्म करते हैं जो उन्हें उच्च लोकों तक पहुँचाकर फिर वापस ले आती है। तामस मनुष्य शास्त्र विहित कर्म नहीं करते। अतः कामना और मूढ़ता के कारण अधम गति को प्राप्त होते हैं।  
Arjun asked a broad & loose question, pertaining to faith-reverence. Almighty became specific describing the three types of faith. He said that the faith developed by virtue of one's own nature-tendency as one is moving further, is Natural-in born, automatic. It did not grow due to company or by reading the scriptures. The devotees are toeing it by virtue of their traits, qualities, characteristics. This is of 3 types. When discussed in the light of bonds-ties; it is of just 2 types. The first is Satvik (Pure, virtuous, righteous, pious or just divine, eternal). The second one is Demonic which again has two organs, Rajsik and Tamsik. Rajsik faith-devotion is associated with various types of procedures, donations, rituals, prayers and elevated one to the higher abodes-heavens & one is sure to return back to earth after enjoying the reward of his endeavour. There are others who are ignorant & desirous; who do not believe in scriptures (morals, virtues, ethics, honesty, mercy etc.) and perform all sorts of wretched-sinful acts, vices & land in hells.
अघमर्षण सूक्त ::
ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। 
ततो  रात्र्यजायत  तत:  समुद्रो  अर्णव:॥
सबसे पहले तप आया, तप ने दो पदार्थ प्रकट किये। एक था ऋत, दूसरा था सत्य। ये वे शाश्वत नियम हैं, जिनसे सृष्टि हुई। तब निबिड़ अंधकार में डूबी महारात्रि उत्पन्न हुई और फिर असंख्य अणुओं से भरा हुआ महान् समुद्र उपजा।[ऋग्वेद.10.190.1]
समुद्रादर्णवादधि   संवत्सरो    अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी॥
अणुओं के महासमुद्र से ही समय की उत्पत्ति हुई। समय के साथ ही दिन और रात बने, गतिशील समय के वश में सम्पूर्ण विश्व हुआ।[ऋग्वेद.10.190.2]
सूर्याचन्द्रमसौ धाता  यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवं   च   पृथिवीं   चान्तरिक्षमथो  स्व:॥
विधाता ने जैसी कल्पना की थी, वैसे ही सूर्य और चन्द्रमा उदित हुए। आकाश छा गया, पृथ्वी प्रकट हुई, अंतरिक्ष दिखाई देने लगा, फिर वह ज्योतिर्मय लीला निकेतन झिलमिला उठा, जहाँ सृजन के ताने-बाने बुने गये।[ऋग्वेद.10.190.3]
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥ 
हे परमदेव गणेश जी! समस्त गणों के अधिपति एवं प्रिय पदार्थों प्राणियों के पालक और समस्त सुखनिधियों के निधिपति! आपका हम आवाहन करते हैं। आप सृष्टि को उत्पन्न करने वाले हैं, हिरण्यगर्भ को धारण करने वाले अर्थात् संसार को अपने-आप में धारण करने वाली प्रकृति के भी स्वामी हैं, आपको हम प्राप्त हों।[शु.यजु. 23.19]
Hey the Ultimate deity Ganesh Ji Maha Raj! You are the head of  all individuals-clans, nurturer of all organism, and all comforts. We are inviting you. You created this universe and supported the golden egg-shall from which Bhagwan Shri Hari Vishnu appeared prior to evolution. You are the master of this universe & nature. 
Here the Almighty is addressed as Ganesh Ji Maha Raj, who clear all obstacles of the devotees.
नमो गणेभ्यो गणपतिभ्यश्च वो नमो नमो व्रातेभ्यो व्रातपतिभ्यश्च वो नमो नमो गृत्सेभ्यो गृत्सपतिभ्यश्च वो नमो नमो विरुपेभ्यो विश्वरुपेभ्यश्च वो नमः।
हे जगन्नियन्ता परमदेव! इस सृष्टि में देव, पितर, गन्दर्भ, असुर, मनुष्य रूप प्रधान गण विभाग और उनके गणपतियों, चेतन-अचेतन रूप पदार्थों के अनेक उपसंघों तथा संघपतियों, तत्तद् विषयगत कला निधियों एवं उनके प्रमुख प्रवर्तकों तथा सामान्य एवं असामान्य समस्त जीवा कृतियों के रूप में मूर्तिवान् आपको कोटिशः नमन है।  
देवानुचर गण-विशेषों को, विश्वनाथ महाकालेश्वर आदि की तरह पीठभेद से विभिन्न गणपतियों को, संघों को, संघ-पतियों को, बुद्धिशालियों को, बुद्धि शालियों के परिपालन करने वाले उनके स्वामियों को, दिगम्बर, परमहंस, जटिलादि चतुर्था श्रमियों को तथा सकलात्म दर्शियों को नमस्कार है।[शुक्ल यजुर्वेद 16.25]
Hey Ultimate deity-Ganpati! I offer obeisance to you, who appears in different form like demigods, Pitr, Gandarbh, Demons, humans, heads of various groups & their followers etc.
ॐ तत्कराटाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्। 
उन कराट (सूँड़ को घुमाने वाले) भगवान् गणपति को हम जानते हैं, गजवदन का हम ध्यान करते हैं, वे दन्ती सन्मार्ग पर चलने के लिये हमें प्रेरित करें।[कृ. यजुर्वेदीय मैत्रायणी 2.9.1.6]  
We offer obeisance & concentrate over the deity-Ganesh Ji Maha Raj,  who moves his trunk (to bless) the devotees. Please guide us move over virtuous, righteous, pious path.
नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय श्रीवरद-मूर्तये नमः। 
व्रातपति को नमस्कार, गणपति को नमस्कार, प्रमथपति को नमस्कार; लम्बोदर, एकदन्त, विघ्न-नाशक, शिव-तनय श्रीवरदमूर्ति को नमस्कार है।[कृ. यजुर्वेदीय गणपत्यथर्वशीर्ष 10] 
We offer obeisance to the leader of the soldiers of Bhagwan Shiv, having long nose, one tusk, destroyer of evils-obstacles, son of Bhagwan Shiv who is always ready-willing to protect the devotees-those who come to his fold.
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।
इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि॥ 
हे प्रकाश स्वरूप परमात्मन्! व्रतों के पालक, मैं व्रत धारण करता हूँ, व्रत पालन का सामर्थ्य मुझे दो, जिससे मैं इस झूठ, छल, कपट आदि से पृथक् होकर सत्य को प्राप्त हो सकूँ।[यजुर्वेद 1.5]
हे व्रतरक्षक अग्नि! मैं सत्यव्रती होना चाहता हूँ। मैं व्रत को कर सकूँ। मेरा व्रत सिद्ध हो। मैं असत्य को त्याग करके सत्य को स्वीकार करता हूँ। 
Hey Almighty-God! I want to become follower of truth. My endeavour should be accomplished. I reject falsehood and accept the truth.
Here Agni-fire is used for the God. Ultimate truth is the God himself.
व्रतेन दीक्षामान्प्रोति दीक्षायाSSन्प्रोति दक्षिणाम्। 
दक्षिणा श्रद्धामान्प्रोति श्रद्धया सत्यमाप्यते॥
व्रत से दीक्षा की प्राप्ति होती है और दीक्षा से दाक्षिण्य की, दाक्षिण्य से श्रद्धा उपलब्ध होती है और श्रद्धा से सत्य की उपलब्धि होती होती है।[यजुर्वेद 19.30]
दाक्षिण्य :: औदार्य, सरलता, सारल्य, दक्षिण (दक्ष, कुशल, अनुकूल, प्रसन्न आदि) होने का भाव, निपुणता, कौशल, दक्षता, दूसरों को प्रसन्न या ख़ुश करने की प्रवृत्ति, उदारता, सरलता; initiation, ordination. 
दीक्षा :: संस्कार, दीक्षा, नियुक्ति, विधान; initiation, ordination.
Vrat determination-firmness (fasting), leads to initiation-ordination, ordination grants devotion and devotion grants truthfulness.
 अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्‌।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम‍उक्तिं विधेम॥
है अग्नि! हमें आत्मोत्कर्ष के लिये सन्मार्ग में प्रवृत्त कीजिये। आप हमारे सभी कर्मों को जानते हैं। कुटिलता पूर्ण पापाचरण से हमारी रक्षा कीजिये। हम आपको बार-बार प्रणाम करते हैं।[यजुर्वेद 5.36] 
Hey Agni! Let us make efforts to uplift our souls. You are aware of all our deeds. Save us from cunningness and involvement in sins. We offer you obeisance & prostration before you again & again.  
प्रणाम :: नमस्कार, अभिवादन, बंदगी, दंडवत, पराभव; obeisance, prostration.
गणानां त्वा गणपति ॅ्  हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ॅ् हवामहे निधिनां त्वा निधिपति ॅ् हवामहे वसो मम। आहमऺजानि गर्भधमा त्वमऺजासि गर्भधम्
हे समूहाधिपते! आप मेरे सब समूहों के पति होने से आपको गणपति नाम से ग्रहण करता हूं तथा मेरे प्रिय कार्यकारी पदार्थ और जनों के पालक भी आप ही हैं । इनसे आपको प्रियपति मैं अवश्य जानूं । इसी प्रकार मेरी सब निधियों के पति होने से आप को मैं निश्चित निधिपति जानूं।[यजुर्वेद 23.19]
हे "वसो" सब जगत् को जिस सामर्थ्य से उत्पन्न किया है, उस अपने सामर्थ्य का धारण और पोषण करने वाला आप को ही मैं जानूं ।सब का कारण आपका सामर्थ्य है,यही सब जगत् का धारण और पोषण करता है। यह जीवादि जगत तो जन्मता और मरता है परन्तु आप सदैव अजन्मा और अमृतस्वरूप है । आपकी कृपा से अधर्म, अविद्या, दुष्टभावादि को "अजानि" दूर फेंकू (करूं) तथा हम सब लोग आप की ही  " हवामहे" अत्यन्त स्पर्धा (प्राप्ति की इच्छा ) करते हैं।
सो आप अब शीघ्र हम को प्राप्त होओ जो प्राप्त होने में आप थोड़ा भी विलम्ब करेंगे तो हमारा कुछ भी ठिकाना न लगेगा।
तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु सूक्त  ::
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
दूर जाता जागरण में जो बहुत और उतना ही चला करता जब सब सुप्त रहते
ज्योतियों में ज्योति जो है एक वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
दैवी शक्ति से सम्पन्न जो मन जाग्रत अवस्था में दूर तक जाता है, जो सोते समय भी उसी तरह जागता है, वह ज्योतियों की ज्योति दूरंगम मेरा मन शिव-संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद  34.1.1]
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः सदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
कर्म में होते निरत जिससे मनीषी व्रती का संकल्प पूरा कराता जो यज्ञ में बन शक्ति अद्भुद् जो प्रतिष्ठित वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
जिसके द्वारा मनीषी जन यज्ञीय विधानों में कर्म करते हैं, सब प्रजाओं के भीतर जो अपूर्व शक्ति है, वही मेरा मन शिव संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद  34.1.2] 
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
ज्ञानमय, विज्ञानमय, धृतिशील सब प्राणियों में जो रहा करता है, तेज बनकर नहीं किंचित् कर्म होता बिना जिसके वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
प्रज्ञान, चेतना और धृति जिसके रूप है, प्रजाओं के भीतर जो अमृत ज्योति है, वही मेरा मन शिव संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद  34.1.3]
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्ये न यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
भूत, भावी, सतत वह जो अमृतवत् सबकुछ संजोता हविर्दाता सात रूपों में जगत विस्तार करता वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
जिस अमृतज्योति के भीतर भूत, भविष्य और वर्तमान सब परिगृतीत रहता है, जिसके द्वारा सप्तहोता यज्ञ का विधान होता है, वही मेरा मन शिव-संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद  34.1.4]
यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः यस्मिश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु।
अरे जैसे चक्र में रथ के हुआ करते साम, ऋक्,यजु में प्रतिष्ठित वह प्राणियों के चित्त ओत प्रोत जिससे वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो।
ऋक, साम और यजु जिसमें इस तरह पिरोये हुए हैं जैसे रथ के पहिये की पुट्ठी में अरे लगे रहते हैं, जिसमें प्रजाओं के समस्त संकल्प है, वही मेरा मन शिव संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद  34.1.5]
सुसारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
सारथी रथ की कुशल वल्गा लिए नियंत्रित गतिशील कर ज्यों अश्वदल अथक् द्रुत जो प्रणियों के हृदय स्थित वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।
उत्तम सारथि जैसे लगा के द्वारा घोड़ों को नियन्त्रित करता है, जैसे ही जो मनुष्यों को बारम्बार ले जाता रहता है, जो हृदय अर्थात हमारे व्यक्तित्व केन्द्र बिन्दु पर प्रतिष्ठित है, जो अज़र और वेगशील है, यह मेरा मन शिव संकल्पों से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.1.6]
दृते दृंह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्। 
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे॥
हे परमात्मा! तुम मुझे दृढ़ बनाओ। सर्वभूत मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं भी सर्वभूतों को मित्र की ही दृष्टि से देखूँ। हम परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें। सभी का एकमत हो [यजुर्वेद 36.18]
Hey Almighty! Make us strong. Everyone should be friendly to me. I should also be friendly towards them. We should be friendly mutually. We should agree with each other. 
हे अनन्तबल महावीर ईश्‍वर! 
दृते :- हे दुष्‍ट‌ स्वभावनाशक विदीर्ण कर्म अर्थात् विज्ञानादि शुभ गुणों का नाश क‌रने वाला मुझको मत रखो (मत करो), किन्तु उससे मेरे आत्मादि को विद्या सत्य-धर्मादि शुभ गुणों में सदैव अपनी कृपा सामर्थ्य से स्थित करो। 
दृँ, ह मा :- हे परम ऐश्‍वर्यवान् भगवन्! धर्मार्थ काम मोक्षादि तथा विज्ञानादि दान से अत्यन्त मुझको बढ़ा। 
मित्रस्येत्यादि :- हे सर्व सुह्र्दीश्‍वर सर्वान्तर्य्यामिन्! सब भूत प्राणिमात्र मित्रदृष्टि से यथावत् मुझको देखें।  सब मेरे मित्र हो जाएँ। कोई मुझ से किंचिन्मात्र भी वैर न करे।
मित्रस्याहं, चेत्यादि :- हे परमात्मन्! आपकी कृपा से मैं भी निर्वैर हो के सब चराचर जगत् को मित्र दृष्‍टि से अपने प्राणवत् प्रिय जानूँ।
मित्रस्य चक्षुषेत्यादि :- पक्षपात छोड़ के सब जीव-देहधारी मात्र अत्यन्त प्रेम से परस्पर अपना वर्त्ताव करें। अन्याय से युक्त हो के किसी पर कभी हम लोग न वर्त्तें।  यह परम धर्म का सब मनुष्यों के लिए परमात्मा का उपदेश किया है। सबको यही मान्य होने के योग्य है।
सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:।
हम दोनों साथ-साथ रक्षा करें। एक साथ मिलकर पालन-पोषण करें, साथ-साथ शक्ति करें। हमारा अध्ययन तेज से परिपूर्ण हो। हम कभी परस्पर विद्वेष न करें। हे ईश्वर! हमारे आध्यत्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक-त्रिविध तापों की निवृति हो।[कृष्ण यजुर्वेदीय शान्ति पाठ]  
हे परमात्मन्! आप हम दोनों गुरू और शिष्य की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों का पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें, हमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद हो, हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें।
Hey Almighty-God! Let us protect together-each other. We should nourish together and become strong. Our learning should be energetic. We should never envy-rancor each other. Our spiritual, ephemeral-gothic, physical troubles (pains, sorrow, worries) should be lost-vanish. 
स्योना पृथिवी ना भवानृक्षरा निवेशनी। 
यच्छा नः शर्म सप्रथः। आप नः शोशु चदघम्॥ 
हे पृथ्वी! सुखपूर्वक बैठने योग्य होकर, तुम हमारे लिये शुभ हो, हमें कल्याण प्रदान करो। हमारा पाप विनष्ट हो जाये।[यजुर्वेद 35.2]
Hey Prathvi (Mother Earth-Nature)! Let you become comfortable to sit and auspicious for us. Kindly look to our welfare. Our sins should be lost.
जो यह (पृथिवी) अति विस्तारयुक्त (स्योना) अत्यन्त सुख देने तथा (अनृक्षरा) जिसमें दुःख देने वाले कण्टक आदि न हों (निवेशनी) और जिसमें सुख से प्रवेश कर सकें, वैसी (भव) होती है, सो (नः) हमारे लिये (सप्रथः) विस्तार युक्त सुख कारक पदार्थ वालों के साथ (शर्म्म) उत्तम सुख को (यच्छ) देती है। 
मनुष्यों को योग्य है कि यह भूमि ही सब मूर्त्तिमान् पदार्थों के रहने की जगह और अनेक प्रकार के सुखों की करानेवाली और बहुत रत्नों को प्राप्त कराने वाली होती है, ऐसा ज्ञान करें।[ऋग्वेद :- मण्डल :-1, सूक्त :- 22,  मन्त्र :- 15, अष्टक :- 1, अध्याय :- 2, वर्ग :- 6,  मन्त्र :- 5,  मण्डल :-1, अनुवाक :- 5,  मन्त्र :-15.]
 यन्मे छिद्रं चक्षुषो हृदयस्य मनसो वातितृण्णं बृहस्पतिर्मे तद्द्धातु।   
शं नो भवतु भुवनस्य यस्पतिः॥ 
 जो मेरे चक्षु और हृदय का जो दोष हो अथवा जो मेरे मन की त्रुटि हो, बृहस्पति उसको दूर करें। जो इस विश्व के स्वामी हैं, वह हमारे लिये कल्याण कारक हों। [यजुर्वेद 36.2] 
Let Dev Guru Brahaspati remove the defects of our vision-eyes & the heart. The master of the Universe-Almighty should be beneficial to us. 
गायत्री मंत्र :: 
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। 
धियो यो नः प्रचोदयात्॥
सत्, चित्त, आनन्दस्वरूप और जगत के स्रष्टा ईश्वर के सर्वोत्कृष्ट तेज का हम ध्यान करते हैं। वे हमारी बुद्धि को शुभ प्रेरणा दें।[यजुर्वेद 36.3]   
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
The Almighty who is for ever-eternal, is consciousness in the living being & bliss; should grant us with the Ultimate pure forms of energy. He should guide our mind-brain with auspicious inspiration.
सच्चिदानन्द :: वह परमात्मा, जो सदा सर्वदा से है, मन-चित्त का नियन्त्रण करने वाला है और आनन्द स्वरूप है; the Almighty who is forever, ever since, eternal, controls our brain-mind, intellect and is Ultimate pleasure-Bliss.  
सत् :: शाश्वत, टिकाऊ न बदलने वाला; for ever-ever since, the Almighty.  
चित्त :: चेतना, विचार शक्ति; consciousness in the living being. 
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ग्वँग् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ग्वँग् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥
द्युलोक शान्त हो, अन्तरिक्ष शान्त हो, पृथ्वी शान्त हो, जल शान्त हो, ओषधियाँ शान्त हों, समस्त देवता शान्त हों, सब कुछ शान्त हों, शान्त ही शान्त हो और मेरी शान्ति निरन्तर बनी रहे।[यजुर्वेद 36.17] 
Let all the seven heavens-upper abodes of pious soul, sky-space, earth, water, medicines, deities-demigods, be at peace. Every thing should be calm & quite. Let my solace, tranquillity, peace be retained.  
शान्ति: कीजिये, प्रभु त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में, अन्तरिक्ष में, अग्नि पवन में, औषधि, वनस्पति, वन, उपवन में, सकल विश्व में अवचेतन में! शान्ति राष्ट्र-निर्माण सृजन, नगर, ग्राम और भवन में जीवमात्र के तन, मन और जगत के हो कण कण में, ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
द्युलोक :: सात स्वर्ग, उच्च लोक जिनमें सत्कर्म करने वालों, पुण्यात्माओं का निवास होता है; seven heavens-upper abodes occupied by the virtuous, pious, righteous souls like Brah Lok, Dhruv Lok, Sap Rishi Mandal.
यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु।
शं  न: कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः॥
जहाँ-जहाँ से आवश्यक हो, वहाँ-वहाँ से ही हमें अभय प्रदान करो। हमारी प्रजा के लिये कल्याण कारक हो और हमारे पशुओं को अभी प्रदान करो।[यजुर्वेद 36.17]
Hey Almighty! Kindly grant us protection as & when its essential. YOU should be favourable to our populace & cattle. 
हे परमेश्वर! आप सम्पूर्ण जगत को भयहीन करें। समस्त प्रजाओं, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों को भयहीन करें।
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रुणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥
ज्ञानी पुरुषों का कल्याण करनेवाला, तेजस्वी ज्ञान चक्षु रूपी सूर्य सामने उदित हो रहा है, उसकी शक्ति से हम सौ वर्ष तक जीयें, सौ वर्ष तक सुनते रहें, सौ वर्ष तक बोलें, सौ वर्ष तक दैन्य रहित होकर रहें और सौ वर्ष से भी अधिक जीयें।[यजुर्वेद 36.24]
Brilliant enlightenment in the form of eyes, like the Sun is rising, to benefit (for the welfare of) the enlightened (learned, philosophers, scholars, Pandit). Let us survive, listen, speak, free from debts-poverty,  for 100 years with its power-strength. 
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् :- तत् चक्षुः देवहितं पुरस्तात् शुक्रम् उच्चरत्। 
देवहितम्वे :- देवताओं के हित में स्थापित हैं। 
तत् चक्षुः :- इस जगत् के चक्षु हैं। 
शुक्रम्शु-क्लम्शुभ्र :- स्वच्छ, निष्पाप हैं। 
पुरस्तात् उच्चरत् :- वे सामने पूर्व दिशा में उदित होते हैं। हम उन सूर्य देवता की प्रार्थना करते हैं। 
पश्येम शरदः शतम् :- हे सूर्यदेव! हम सौ शरदों (वर्षों) तक देखें।  
जीवेम शरदः शतम् :- हमारी नेत्र ज्योति तीव्र बनी रहे। हमारा जीवन सौ वर्षों तक चलता रहे।   
श्रुणुयाम शरदः शतम् :- सौ वर्षों तक हम सुन सकें, हमारी कर्णेन्द्रियां स्वस्थ रहें, हम सौ वर्षों तक बोलने में समर्थ रहें।  
प्रब्रवाम शरदः शतम् :- हमारी वागेन्द्रिय स्पष्ट वचन निकाल सके। 
अदीनाः स्याम शरदः शतम् :- हम सौ वर्षों तक दीन अवस्था से बचे रहें, दूसरों पर निर्भर न होना पड़े, हमारी सभी इंन्द्रियां :– कर्मेन्द्रियां तथा ज्ञानेन्द्रियां, दोनों :– शिथिल न होने पावें। 
भूयः च शरदः शतात् :- यह सब सौ वर्षों बाद भी होवे, हम सौ वर्ष ही नहीं उसके आगे भी नीरोग रहते हुए जीवन धारण कर सकें। शरद् का अर्थ है, शरद् ऋतु, एक शरद् एक वर्ष का पर्याय है।
शं नो देवीरभिष्टयै शं नो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः॥
दिव्य गुण युक्त जल अभीष्ट की प्राप्ति और पीने के लिये कल्याण करने वाला हो तथा सभी ओर से हमारा मङ्गल करने वाला हो।[सामवेद 1.3.13]
Water having divine qualities should enable us to achieve our goal, lead to our welfare and our all round upliftment-benefit (leading to Salvation-Moksh).
हे आपः (जल), पीते समय आप काम्य दैवीगुणों से युक्त हों। वे काम्य दैवीगुण (आप से) हम में प्रवाहित हों। 
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। 
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
विस्तृत यश वाले इन्द्र हमारा कल्याण करें, सर्वज्ञ पूषा हम सबके लिये कल्याणकारक हों, अनिष्ट का निवारण करनेवाले गरुड़ हम सबका कल्याण करें और बृहस्पति भी हम सबके लिये कल्याणपद हों।[सामवेद 1.3.13] 
Dev Raj Indr who enjoys vast-wide honour-respect should benefit (shelter, protect) us,  all knowing enlightened Pusha-demigod should be beneficial to us, Garud Ji (Bhagwan Shri Hari Vishnu's carrier) who remove unforeseen troubles, should be beneficial to us and Dev Guru Brahaspati too should be beneficial to all of us. 
जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम्। 
ममेदह कृतावसो मम चित्तमुपायसि॥  
मेरी जिह्वा के अग्र भाग में मधुरता-माधुर्य हो। मेरी जिह्वा के मूल में मधुरता हो। मेरे कर्म में माधुर्य का निवास हो और हे माधुर्य! मेरे हृदय तक पहुँचो।[अथवर्वेद 1.34.2] 
The tip & root of my tongue should have sweetness. My deeds-endeavours should have sweetness (politeness) in them. Hey sweetness! Please reach my heart. 
मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्। 
वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधुसंदृशः॥ 
मेरा निकट आना, मिलना मधुयुक्त, मधुर हो। मेरा प्रत्यागमन, बिछुड़ना, वियुक्त होना मधुर हो। मैं वाणी से मधुर बोलूँ। मैं मधु-सदृश, मधु सं-दृष्टि-मधुर आकृति वाला हो जाऊँ।[अथवर्वेद 1.34.3] 
My company, arrival & departure should be pleasant.  I should speak pleasant-soothing words. I should acquire a pleasing personality. 
(मे) मेरा (नि-क्रमणम्) निकट आना, मिलना (मधुमत्) मधुयुक्त, मधुर हो। (मे) मेरा (परा-अयनम्) प्रत्यागमन, बिछुड़ना, वियुक्त होना (मधु-मत्) मधुर हो। मैं (वाचा) वाणी से (मधुमत्) मधुर (वदामि) बोलूँ। मैं (मधु-सम्-दृशः) मधु-सदृश, मधु सं-दृष्टि (भूयासम्) हो जाऊँ।
प्राणो ह सत्य वादिन मुत्तमे लोक आ दधत्। 
प्राण सत्य बोलने वाले को श्रेष्ठ लोक में प्रतिष्ठित करता है।[अथर्व वेद 11.4.11] 
One who resort to truthfulness is established in upper abodes-7 heavens, by the Almighty.
प्राण-प्राण वायु-आत्मा-परमात्मा-Almighty.
सुश्रुतौ कर्णो भद्रश्रुतौ कर्णौ भद्रंश्लोकं श्रूयासम्।       
शुभ और शिव वचन सुनने वाले कानों से युक्त मैं केवल कल्याणकारी वचनों को ही सुनूँ।[अथर्व वेद 16.2.4] 
I should listen only to those words, through my ears, which are meant only for listening to pious & Shiv Vachan-Truthfulness.
ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः।
अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्वः संमनसस्क्र्णोमि॥ 
वृद्धों का सम्मान करनेवाले, विचारशील, एक मत से कार्य सिद्धि में संलग्न, समान धुरवाले होकर विचरण करते हुए तुम विलग मत होओ। परस्पर मधुर सम्भाषण करते हुए आओ। मैं तुहें एक गति और एक मति वाला करता हूँ।[अथर्ववेद 3.30.5] 
You respect your elders, are thoughtful, busy in endeavours with one voice-unitedly, having common interest-goal, target, never depart-separate from one another. Come to me talking sweet-pacifying words. I grant you equal speed-strength and intellect-prudence. 
बड़ों की छत्र छाया में रहने वाले एवं उदारमना बनो। कभी भी एक दूसरे से पृथक न हो। समान रूप से उत्तरदायित्व को वहन करते हुए एक दूसरे से मीठी भाषा बोलते हुए एक दूसरे के सुख-दुख में भाग लेने वाले एक मन के साथी बनो।
सध्रीचीनान् व: संमनसस्कृणोम्येक श्नुष्टीन्त्संवनेन सर्वान्।
देवा इवामृतं रक्षमाणा: सामं प्रात: सौमनसौ वो अस्तु
समानगति और उत्तम मन से युक्त आप सबको मैं उत्तम भाव से समान खान-पान वाला करता हूँ। अमृत की रक्षा करनेवाले देवों के समान, आपका प्रातः और साँय कल्याण हो। [अथर्ववेद 3.30.7]  
I grant excellent eating-living habits to you; the people working in unison-together. You are blessed like demigods who protect the ambrosia from morning till evening i.e., through out the day.
तुम परस्पर सेवा भाव से सबके साथ मिलकर पुरूषार्थ करो। उत्तम ज्ञान प्राप्त करो। योग्य नेता की आज्ञा में कार्य करने वाले बनो। दृढ़ संकल्प से कार्य में दत्त चित्त हो तथा जिस प्रकार देव अमृत की रक्षा करते हैं। इसी प्रकार तुम भी सायं प्रात: अपने मन में शुभ संकल्पों की रक्षा करो।
शिवा भव पुरुषेभ्यो गोभ्यो अश्वेभ्य: शिवा। 
शिवास्मै सर्वस्मै क्षेत्राय शिवा न इहैधि॥
हे नववधू! पुरुषों के लिये, गायों के लिये और अश्वों के लिये कल्याणकारी हो। सब स्थानों के लिये कल्याण करनेवाली हो तथा हमारे लिये भी कल्याण मय होती हुई यहाँ आओ।[अथर्ववेद 3.28.3] 
Hey the  newly married bride! Come to become auspicious-beneficial to the men, cows, horses, all places-locations and all of us ( in the family, house, home).
अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः। 
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्॥
पुत्र पिता के अनुकूल उद्देश्य वाला हो। पत्नी पति के प्रति मधुर और शान्ति प्रदान करने वाली वाणी बोले।[अथर्ववेद 3.30.2]
The son should act as per his father to accomplish his tasks, projects. The wife should be devoted to the husband granting him peace & pleasure speaking sweet words. 
Its the earnest desire of the father & the Guru that his son-disciple should progress through righteous, honest, pious, virtuous means. He should follow the Karm, Gyan & Bhakti Marg. He should make efforts to attain the God through Satvik means. Let the God bless him with Anay Bhakti-devotion, Prem-love in the feet of the Almighty. He should be spiritual and pragmatic. He should be truthful & cooperative. Love and protect his progeny.
(पुत्रः) पुत्र, (पितुः) पिता का, (अनुव्रतः) अनुव्रत हो अर्थात् उसके व्रतों को पूर्ण करे। पुत्र (मात्रा) माता के साथ, (संमनाः) उत्तम मनवाला, (भवतु) हो अर्थात् माता के मन को सन्तुष्ट करने वाला हो। (जाया) पत्नी को चाहिए कि वह (पत्ये) पति के साथ (मधुमतीम्) मीठी और (शन्तिवाम्) शान्तिप्रद (वाचम्) वाणी, (वदतु) बोले।
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥  
भाई अपने भाई से प्रेम करे-द्वेष न रखें; बहन अपने बहन से प्रेम करें और विद्वेष न रखें। समान गति और समान नियमवाले होकर कल्याणमयी वाणी-मधुर वचन बोलें।[अथर्ववेद 3.30.3]
Brothers & sisters should have mutual love  & respect for each other without enmity. They follow the same rules-regulation in the family and use loving soothing-pleasing words.
There should be no ill will, rivalry, competition amongest the brother & sisters or the other members of the family.
यथा सिन्धुर्नदीनां साम्राज्यं सुषुवे वृषा। 
एवा त्वं सम्राज्ञ्येधि पत्युरस्तं परेत्य॥ 
जिस प्रकार समर्थ सागर ने नदियों का साम्राज्य उत्पन्न किया है, उसी प्रकार पति के घर जाकर तुम भी सम्राज्ञी बनो।[अथर्ववेद 14.1.43]
The manner in which Sagar-forefather of Bhagwan Shri Ram had developed a net work of rivers for nourishing humanity & crops, you should also become helpful and the queen of hearts in your in laws house.
सम्राज्ञ्येधि श्वशुरेषु सम्राज्ञ्युत देवृषु। 
नन्दान्दु: सम्राज्ञ्येधि सम्राज्ञ्युत श्वश्र्वा:॥
ससुर की सम्राज्ञी बनो, देवरों के मध्य भी सम्राज्ञी बन कर रखो, ननद और सास की भी सम्राज्ञी बनो।[अथर्ववेद 14.1.44]
You should become the empress of your father & mother in law, brothers & sisters of your husband.
You should win the heart of every one in the family of your husband and rule their hearts, through your service, manners and speech.
सर्वो वा एषोSजग्धपाम्पा यस्यान्नं नाश्नन्ती।
जिसके अन्न में अन्य व्यक्ति भाग नहीं लेते, वह सब पापों से मुक्त नहीं होता।[अथर्ववेद 9.2.9] 
One is freed from his sins if meals (food, food grains) are not shared by others. 
"अतिथि देवो भव" is an ancient Indian tradition. Feeding the guests removes-relieves, one of his accumulated sins. But times are changing fast. If you allow the entry of unscrupulous elements in your house, they may endanger your life & property. 
हिरण्यस्त्रगयं मणि: श्रद्धां यज्ञं महो दधत्। गृहे वसतु नोSतिथिः॥     
स्वर्ण की माला पहनने वाला, मणि स्वरूप यह अतिथि श्रद्धा, यज्ञ और महनीयता को धारण करता हुआ हमारे घर में निवास करे।[अथर्ववेद 10.6.4]
The guest wearing golden chain in his neck, who himself is like jewel decorated with reverence, Yagy and significance, should reside in our house. 
Its about the recognised person in the society who is well known for his ascetic practices, celibacy etc.
तद् यस्यैवं विद्वान् व्रात्यो राज्ञोSतिथिर्गृहानागच्छेत्। 
श्रेयांसमेनमात्मनो मान्येत्...॥   
ज्ञानी और व्रतशील अतिथि जिस राजा के घर आ जाये, उसे अपना कल्याण समझना चाहिये।[अथर्ववेद 15.10.1-2]
The king should consider himself obliged, if has an enlightened and dedicated guest who resort himself to fasting.
न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति। 
देवाँश्च याभिर्यजते ददाति च ज्योगित्ताभिः सचते गोपतिः सह॥ 
मनुष्य जिन वस्तुओं से देवताओं के हेतु यज्ञ करता है अथवा जिन पदार्थों को दान करता है, वह उनसे संयुक्त ही हो जाता है; क्योंकि न तो वे पदार्थ नष्ट होते हैं, न ही चोर चुरा सकता है और न ही कोई शत्रु उन्हें बलपूर्वक छीन सकता है।[अथर्ववेद 4.21.3]
The goods used by the devotee for the sake of offerings or donations to the demigods-deities, are never lost, since he gets connected to them & these goods are not destroyed, neither a thief can steal them nor an enemy can snatch them by force. 
स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्यः। 
विश्व सुभूतं सुविदत्रै नो अस्तु ज्योगे व दृशेम सूर्यम्॥ 
हमारे माता-पिता का कल्याण हो। गायें, सम्पूर्ण संसार और सभी मनुष्योंका कल्याण हो। सभी कुछ सुदृढ़ सत्ता, शुभ ज्ञान से युक्त हो तथा हम चिरन्तन काल तक  सूर्य को देखें।[अथर्ववेद 1.31.4]
Let our parents-ancestors be blessed. Let cows & the whole world be blessed. Every thing should be associated with auspicious might (& power) and auspicious knowledge-enlightenment and we should see the Sun for an infinite period.
परोSपेहि मनस्याप किमशस्तानि शंससि। 
परेहि न त्वा कामये वृक्षां वनानि सं चर गृहेषु गोषु मे मनः॥
हे मेरे मन के पाप समूह! दूर हो जाओ। अप्रशस्त की कामना क्यों करते हो! दूर हटो, मैं तुम्हारी कामना नहीं करता। वृक्षों तथा वनों के साथ रहो, मेरा मन घर और गायों में लगे।[अथर्ववेद 6.45.1]  
अप्रशस्त :: प्रशंसा किया हुआ, प्रशंसा योग्य; expansive, smashing. 
Sins present in my heart move away from me. I do not long for anything undesirable (earning through wrong, impious, wicked, evil means). Stay with the trees in the forests. Let my interest develop-grow in my house & cows.
Trees, shrubs, wine, plants are lower forms of organism-living beings, which are born due to the sins of their earlier births. Cows are worshipped and fed in the house, due to the presence of highly useful enzymes for humanity present in their body. One should never kill a cow, eat meat eggs.
इयं  या परमेष्ठनी वाग्देवी ब्रह्मसंशिता। 
ययैव ससृजे घोरं तयैव शान्तिरस्तु नः॥   
ब्रह्मा द्वारा परिष्कृत यह परमेष्ठी की वाणी रूपी सरस्वती देवी, जिसके द्वारा भयंकर कार्य किये जाते हैं, यही हमें शान्ति प्रदान करनेवाली हो।[अथर्ववेद 19.9.3]
परमेष्ठी :: पारलौकिक, भगवान् ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अग्नि आदि देव गण, एक जिन का नाम, शलिग्राम का एक विशेष भेद, विराट् पुरुष, चाक्षुष मनु, गरुड़ जी,  आध्यात्मिक शिक्षक-गुरु।
Our speech, words which may cause-yield dangerous results, should be purified by Brahma Ji to become soothing.
इदं यत् परमेष्ठिनं मनो वां ब्रह्मसंशिता। 
येनैव ससृजे घोरं तेनैव शान्तिरस्तु नः॥
परमेष्ठिन ब्रह्मा जी द्वारा तीक्ष्ण किया गया यह आपका मन, जिसके द्वारा घोर पाप किये जाते हैं, वही हमें शान्ति प्रदान करे।[अथर्ववेद 19.9.4]
The innerself (psyche, mood, intellect) nurtured-sharpened by Brahma Ji-the creator, which indulges one in worst sins should lead us to peace, solace & tranquillity. 
Kam Dev, Moon & Brahma Ji deviates the humans from devotion to worldly affairs. One has to concentrate himself in devotion to attain Moksh-Salvation, performing his worldly duties side by side.   
इमानि यानी पञ्चेन्द्रियाणी मनः षष्ठानि मे हृदि ब्रह्मणा संशितानि।
यैरेव  ससृजे घोरं तैरेव शान्तिरस्तु नः॥
ब्रह्मा जी के द्वारा सुसंस्कृत ये जो पाँच इन्द्रियाँ और छटा मन, जिनके द्वारा घोर कर्म किये जाते हैं, उन्हीं के द्वारा हमें शान्ति मिले।[अथर्ववेद 19.9.5]
The 5 sense organs & the sixth innerself which compels us to perform worst deeds-sins, should grant us peace, solace & tranquillity. 
Its the tendency of all humans to attain all sorts of luxuries-comforts through fair or foul means. One has to restraint & control his mind & heart with firm determination and divert himself to the welfare of humanity, devotion to the God. he should never neglect his duties towards the family, society and the state.
शं नो मित्रः शं वरुणः शं विवस्वांछमन्तकः। 
उत्पाताः पार्थिवान्तरिक्षा: शं नो दिविचरा ग्रहा:॥  
मित्र हमारा कल्याण करे, वरुण, सूर्य और यम हमारा कल्याण करें, पृथ्वी एवं आकाश में होने वाले अनिष्ट हमें सुख देने वाले हों तथा स्वर्ग में विचरण करनेवाले ग्रह भी हमारे लिये शान्ति दायक हों।[अथर्ववेद 19.9.7]  
अनिष्ट :: अवांछित, अशुभ, अहित, अमंगल; unwelcome, forbidding, undesirable. 
Mitr, Varun, Sury-Sun, Yam (demigods) should should perform our welfare. Changes occurring over the earth & the sky should give us pleasure-comfort. The planets wondering in the heaven should also be beneficial to us. 
पश्येम शरदः शतम्। जीवेम शरदः शतम्॥
बुध्येम शरदः शतम्। रोहेम शरदः शतम्॥ 
पूषेम शरदः शतम्। भवेम शरदः शतम्॥
भूयेम शरदः शतम्। भूयसीः शरदः शतात्॥   
हम सौ शरदों तक देखें, यानी सौ वर्षों तक हमारे आँखों की ज्योति स्पष्ट बनी रहे। सौ वर्षों तक हम जीवित रहें; सौ वर्षों तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे, हम ज्ञानवान् बने रहें। सौ वर्षों तक हम वृद्धि करते रहें, हमारी उन्नति होती रहे। सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें, हमें पोषण मिलता रहे। हम सौ वर्षों तक बने रहें। सौ वर्षों तक हम पवित्र बने रहें, कुत्सित भावनाओं से मुक्त रहें। सौ वर्षों से भी आगे ये सब कल्याणमय बातें होती रहें।[अथर्ववेद 19.67.1-8] 
शरद् शब्द सामान्यतः छः वार्षिक ऋतुओं में एक के लिए प्रयुक्त होता है। क्योंकि प्रति वर्ष एक शरद ऋतु आनी है, अतः उक्त मंत्रों में एक शरद् का अर्थ एक वर्ष लिया गया है।
Our eye sight should remain intact for 100 years. We should survive for 100 years. Our intelligence-prudence should remain intact for 100 years. and we should remain enlightened. We should continue progressing for 100 years. We should continue getting nourishment for 100 years. We should live for 100 years as virtuous, righteous, honest, truthful, auspicious free from evils-wickedness. All this should continue to be beneficial to us thereafter as well.
In Sat Yug longevity was for 400 years and in Kali Yug its just 100 years. But one may survive even more than that by practicing Yog, exercise, vegetarian limited food in a pollution free environment.
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः॥  
दैवीगुणों से युक्त जल हमारे लिए हर प्रकार से कल्याणकारी और प्रसन्नतादायक हो। वह आकांक्षाओं की पूर्ति करके आरोग्य प्रदान करे।[अथर्ववेद 6.1.1]
Water having divine properties should be beneficial to us & grant us happiness-pleasure. It should be auspicious to us. 
आपः :: जल, water.
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशम्भुवम्॥
सोम का हमारे लिए उपदेश है कि दिव्य जल, हर प्रकार से औषधीय गुणों से युक्त है। उसमें कल्याणकारी अग्नि भी विद्यमान है।[अथर्ववेद 6.1.2]
The Som-Moon has a message to humanity that the divine water has all sorts of divine medicines in it, along with the fire beneficial to humans. 
The Moon is the master of all medicines present in the vegetation & Ayur Vedic medicines (herbs, plants, shrubs etc.) The Jadi-Booti i.e., herbs grow during night in the presence of Moon light.
Hydrogen burns in the presence of oxygen to produce water & vice-versa.
2H2 + O2 → 2H2O
2 Hydrogen + Oxygen → 2 Water.
आपः प्रणीत भेषजं वरुथं तन्वे 3 मम। ज्योक् च सूर्यं दृशे
दीर्घकाल तक मैं सूर्य को देखूँ अर्थात् जीवन प्राप्त करुँ। हे जल! शरीर को आरोग्यवर्धक दिव्य औषधियाँ प्रदान करो।[अथर्ववेद 6.1.3]
Let me see-observe the Sun for long. Hey water-Varun Dev! Kindly grant divine medicines for our body. 
शं न आपो धन्वन्याः 3 शभु सन्त्वनूप्याः।
शं नः खनित्रिमा आपः शमु याः कुम्भ आमृताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः
सूखे प्रान्त (मरुभूमि) का जल हमारे लिए कल्याणकारी हो। जलमय देश का जल हमें सुख प्रदान करे। भूमि से खोदकर निकाला गया कुएँ आदि का जल हमारे लिए सुखप्रद हो। पात्र में स्थित जल हमें शान्ति देने वाला हो। वर्षा से प्राप्त जल हमारे जीवन में सुख-शांति की वृष्टि करने वाला सिद्ध हो।[अथर्ववेद 6.1.4]
Water in the desert, water present in the flooded country, state, village, water extracted from the well & the potted water should be beneficial to us.
शान्ता द्योः शान्ता पृथिवि शान्त मिदमुर्वन्तरिक्षम।
शान्ता उदवन्तीरापः शान्ता नः सन्त्वोषधीः॥
पृथ्वी-ब्रह्माण्ड, अन्तरिक्ष, समुद्र-जल, स्वर्ग, औषधियाँ शान्त हों।[अथर्ववेद 19.9.1]  
Let the heavens be at peace, the earth be at peace, the vast space that we perceive between earth and heaven be at peace, the waters of the ocean be at peace, & all the medicinal plants be beneficial to us. 
शान्तानि  पूर्वरूपानी शान्तं नो अस्तु कृताकृतम्।
शान्तं भूतं च भव्यं च सर्वमेव शमस्तु नः॥
हमारे समस्त पापकर्म शान्त-नष्ट हो जायें, भूल-चूक दुरुस्त-सही हो जायें, प्रारब्ध (पूर्व जन्मों के कर्मों का फल) सही हो जाये, समस्त दोष (राग, द्वेष, रोग, मोह) शान्त हो जायें, हमारे कहे-अनकहे दोष (प्रकट-अप्रकट दोष) शान्त-नष्ट हो जायें) [अथर्ववेद 19.9.2]
Let our Pap-Karm (Sins, evils, wickedness) be lost-neutralised, omissions and commissions be rejected-improved, our destiny be modified to become beneficial-helpful to us, all our defects viz. attachments, envy, indulgence be lost-removed to become beneficial to us, revealed-unrevealed personality disorders (Rag, Dwesh, Moh) be rectified. 
शतायु। सं गच्छध्वम् सं वदध्वम्
साथ चलें मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करें जिस पर पूर्वज चले हैं।[ऋग्वेद 10.181.2]
Let us work-walk together and follow the eternal (righteous, pious, virtuous) path adopted by our ancestors. 
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत। 
ब्रह्मचर्य के तप से देवों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की।
मानसिक और शारीरिक शक्ति का संचय करके रखना जरूरी है। इस शक्ति के बल पर ही मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है। शक्ति हीन मनुष्य तो किसी भी कारण से मुत्यु को प्राप्त कर जाता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ और इसके महत्व को समझना जरूरी है।[सामवेद 11.5.19]
Its essential to accumulate mental & physical strength-power. This life supporting strength helps one in over powering death. A weak person may die due to any reason. One should understand the meaning of celibacy-chastity.
These days millions of people are dying due to Corona. In fact these are the people who were suffering from one or the other grace disease. Their immunity level was too low since they indulged in too much sex, eating meat, eggs consuming wine and had adopted irregular life style.
भोजन से पूर्व उच्चारणीय मंत्र RECITE THESE MANTR PRIOR TO FOOD INTAKE ::
ओम् अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिण:।
प्रप्र दातारंतारिष ऊर्जंनौ धेहि द्विपदे चतुष्पदे॥
हे अन्न के भगवन्! हमें कीट आदि रहित बलकारक अन्न के भण्डार दीजिये, अन्न का खूब दान देने वाले को दु:खों से पार लगाईये, हमारे दोपायों और चौपायों को बल दीजिये।[यजुर्वेद 11.83]
O God! Kindly bless us with the food grains which is free from insects & nourishes us, help those to cross this vast ocean of misery who donate a lot of food grains, grant strength to our our cattle-animals having two or four legs. 
ओं स्तविष्यामि त्वामहं विश्वस्यामृत भोजन अग्ने 
त्रातारममृतं मियेध्य यजिष्ठं हव्यवाहन
अविनाशी, सबको भोजन देने वाले हविवाहक, विश्व का त्राण करने वाले, सबके आराध्य, युवा हे अग्निदेव! हम आपकी स्तुति करते हैं।[ऋग्वेद 1.44.5]
Hey imperishable, always young Agni Dev! You grant-give food to every one carry the offerings to the demigods-deities, remove all the troubles of this world-worshippers, we worship you.
कार्य पर जाते-आते समय प्रार्थना मंत्र MANTR WHEN GOING TO WORK ::
प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु।
प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये
मुझे ब्राह्मणों में प्याराकर। मुझे क्षत्रियों में, शूद्र वर्ग में तथा वैश्य वर्ग में प्यारा (कृणु) बना। मुझे सब देखने वाले का प्रिय बना।[अथर्ववेद 19.62.1]
Let me become dear to the Brahmns, Kshatriy, Vaeshy and the Shudr. I should become dear to all those who see me.
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। 
उस प्राण स्वरुप, दुःख नाशक, सुख स्वरुप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, देव स्वरुप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें।[यजुर्वेद 36.3]  
Let us bear, contain, establish the Almighty in our soul-innerself, who is the Supreme Soul, vanishes the sorrow, grief, worries, tensions, who is identical to Ultimate pleasure, excellent, full of aura (brightness, shine, lustre), removes-vanishes sins and is divine. Let him guide-direct us to pious, virtuous, righteous path. 
भद्रं कर्णेभिः श्रनुयाम। 
हम कानों से भद्र, अच्छे, मंगलकारी वचन ही सुनें।[यजुर्वेद 25.21] 
One should listen to virtuous, pious, soothing words. It should be the endeavour of one to follow the path of truth and honesty. Preaching, lectures, sermons by religious people should be heard-understood and utilised in life. A thorough analysis may also be carried out simultaneously. 
स ओत: प्रोतश्र्च विभू: प्रजासु। 
यह व्यापक प्रभु सभी दिशाओं में ओत प्रोत है।[यजुर्वेद 32.8]   
The Almighty is self pervading and present everywhere. He is present in each and every particle and the creature.
ॐ भूर्भुवस्व:, तत्सवितुर्वरेण्यम्; भर्गो देवस्य धीमहि; धियो यो न: प्रचोदयात्।उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।[ऋग्वेद  3.62.10]
Let us adopt the Almighty who is like our soul, kills-relieves pains-sorrow, grants bliss-pleasure, is excellent-unparalleled, energetic, relieves from sins-wickedness, evils, in our innerself-soul. Let HIM direct our mind to holy (virtuous, righteous, pious) path. 
मित्रस्य चक्षुषा समीहामहे।
हम सब एक दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखें।[यजुर्वेद 36.18]   
We should be friendly with others. Enmity must be avoided. 
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति।
उस ब्रह्म को जानकर ही मनुष्य मृत्यु को लाँघ जाता है।[यजुर्वेद 31.18]   
One who has identifies the Ultimate-the Almighty in himself, wins the death. He achieves Salvation (emancipation, Assimilation in the Ultimate, Liberation, detachment.
मा गृध:कस्य स्विद् धनम्।
किसी के धन को देखकर मत ललचाओ।[यजुर्वेद 40.1] 
One should not be tempted by other's wealth (belongings, property, women).
ईश वास्यामिदं सर्वं यत्किं च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम्॥
ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी यह चर-अचर, प्राणी-अप्राणी रूप जगत् है, यह चेतन-अचेतन रूप संसार है। उस सब में इसका स्वामी परमेश्वर सदा विराजमान रहता है। वह इसमें विद्यमान सभी प्राणियों को अपने-अपने कर्मानुसार सब प्रकार के पदार्थ प्रदान करता रहता है। मनुष्य को चाहिए कि वह उस प्रभु से जो भी कुछ अपने कर्मानुसार प्राप्त हो, उसका सन्तोष एवं त्यागपूर्वक उपभोग करे, क्योंकि यह धन सदा किसी के पास नहीं रहता अर्थात किसी का भी नहीं।[यजुर्वेद 40.1]
The universe constitutes of living-non living, inertial-variable, conscious-unconscious. The Almighty is present at all times. The living beings obtain amenities as per their deeds in earlier lives i.e., destiny. One should be satisfied with whatever he has (& continue performing Satvik, virtuous, righteous, pious, honest, truthful deeds). Wealth-riches never remain with anyone for ever.
Endeavour is essential at all times.
ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी यह चरा-अचर, प्राणी-अप्राणी रूप जगत् है, यह चेतन-अचेतन रूप संसार है। उस सब में इसका स्वामी परमेश्वर सदा विराजमान रहता है। वह इसमें विद्यमान सभी प्राणियों को अपने अपने कर्मानुसार सब प्रकार के पदार्थ प्रदान करता रहता है। मनुष्य को चाहिए कि वह उस प्रभु से जो भी कुछ अपने कर्मानुसार प्राप्त हो, उसका सन्तोष एवं त्यागपूर्वक उपभोग करे, क्योंकि भला किसका यह धन सदा रहा है अर्थात किसी का भी नहीं।[यजुर्वेद 40.1]
The Almighty is always present in all living, non living, perishable, conscious-unconscious objects. He grants all sorts of amenities to his produce-organisms. One should enjoy whatever has been granted by the God byway of destiny to him, while been unattached with it, since wealth in not for ever. 
ऋतस्य पथा प्रेत। 
सत्य के मार्ग पर चलो।[यजुर्वेद 7.45]
Always follow the path of righteousness-truth and honesty.
तन्मे मनः शिव संकल्प मस्तु। 
मेरा मन उत्तम संकल्पों वाला हो।[यजुर्वेद 34.1]    
One must resolve-vow, to purity, goodness, virtues.
अक्ष्यौ नौ मधुसंकाशे अनीकं नौ समञ्जनम्
अन्त: कृणुष्व मां हृदि मन इन्नौ सहासति
हम दोनों मित्रों की दोनों आँखें ज्ञान का प्रकाश करने वाली हों। हम दोनों का मुख यथावत् विकास वाला होवे। हमें अपने हृदय के भीतर कर लो। हम दोनों का मन भी एकमेव हो अर्थात् हम सदा ही प्रीतिपूर्वक रहें, सभी के प्रति मित्रभाव हो।[अथर्ववेद 7.36.1]
दृते दृंह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे 
हे परमात्मा! तुम मुझे दृढ़ बनाओ। सर्वभूत मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं भी सर्वभूतों को मित्र की ही दृष्टि से देखूँ। हम परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें। सभी का एकमत हो।[यजुर्वेद 36.18]
Hey Almighty! make me strong. All your creations should be friendly with me. We should be friendly with one another. We all should have one opinion-faith.
हे अनन्तबल महावीर ईश्‍वर! 
दृते :- दुष्‍ट ‌स्वभाव नाशक विदीर्ण कर्म अर्थात् विज्ञानादि शुभ गुणों का नाश क‌रने वाला मुझको मत रखो (मत करो) किन्तु उससे मेरे आत्मादि को विद्या सत्यधर्मादि शुभ गुणों में सदैव अपनी कृपा सामर्थ्य से स्थित करो। 
दृँह मा :- धर्मार्थकाममोक्षादि तथा विज्ञानादि दान से मुझको बढ़ा।  
मित्रस्येत्यादि :- सब भूत प्राणिमात्र मित्रदृष्टि से यथावत् मुझको देखें। सब मेरे मित्र हों। मुझसे कोई भी किंचिन्मात्र वैर न करे।  
मित्रस्याहं :- आपकी कृपा से मैं भी निर्वैर होकर सब चराचर जगत् को मित्र दृष्‍टि से अपने प्राणवत् प्रिय जानूँ। 
मित्रस्य चक्षुषा :- पक्षपात छोड़ के सब जीव-देहधारी प्रेम पूर्वक परस्पर व्यवहार करें। अन्याय से युक्त होके किसी पर कभी हम लोग न वर्त्तें। यह परमधर्म का सब मनुष्यों के लिए परमात्मा का उपदेश किया है। सबको यही मान्य होने के योग्य है।
All living beings in this world should see me with an amiable eye. I should (also) look at all the living beings with a friendly eye. I should be very loving and affectionate to all living beings on this earth. We all should see each other with a friendly eye. We all should be sympathetic and loving to each other.
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। 
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्
सुगन्ध युक्त, त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव समस्त प्राणियों को भरण-पोषण, पालन-पोषण करने वाले, हमें संसार सागर (मृत्यु-अज्ञान) से उसी प्रकार बन्धन मुक्त करें, जिस प्रकार खीरा अथवा ककड़ी पककर बेल से अलग हो जाती है।[ऋग्वेद 7.59.12]  
I worship Bhagwan Shiv the three-eyed Supreme deity, who is full of fragrance and who nourishes all beings; may He liberate me from the death (of ignorance), for the sake of immortality (of knowledge and truth), just as the ripe cucumber is severed from its bondage (the creeper).
इस मंत्र में 32 शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी मंत्र में ॐ लगा देने से 33 शब्द हो जाते हैं। इसे 'त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। श्री वशिष्ठ जी ने इन 33 शब्दों के 33 देवता गणों की निम्नलिखित शक्तियाँ निश्चित की हैं। इसमें 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 वषट को माना है। 
मंत्र विचार : इस मंत्र में आए प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि शब्द ही मंत्र है और मंत्र ही शक्ति है। इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।
इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं, वे देवताओं के नाम हैं यथा :-  'त्र' ध्रुव वसु 'यम' अध्वर वसु 'ब' सोम वसु 'कम्‌' वरुण 'य' वायु 'ज' अग्नि 'म' शक्ति 'हे' प्रभास 'सु' वीरभद्र 'ग' शम्भु 'न्धिम' गिरीश 'पु' अजैक 'ष्टि' अहिर्बुध्न्य 'व' पिनाक 'र्ध' भवानी पति 'नम्‌' कापाली 'उ' दिकपति 'र्वा' स्थाणु 'रु' भर्ग 'क' धाता 'मि' अर्यमा 'व' मित्रादित्य 'ब' वरुणादित्य 'न्ध' अंशु 'नात' भगादित्य 'मृ' विवस्वान 'त्यो' इंद्रादित्य 'मु' पूषादिव्य 'क्षी' पर्जन्यादिव्य 'य' त्वष्टा 'मा' विष्णु 'ऽ' दिव्य 'मृ' प्रजापति 'तात' वषट, क्रमशः प्रकट करते हैं। 
शब्द की शक्ति :- 'त्र' त्र्यम्बक, त्रि-शक्ति तथा त्रिनेत्र 'य' यम तथा यज्ञ 'म' मंगल 'ब' बालार्क तेज 'कं' काली का कल्याणकारी बीज 'य' यम तथा यज्ञ 'जा' जालंधरेश 'म' महाशक्ति 'हे' हाकिनो 'सु' सुगन्धि तथा सुर 'गं' गणपति का बीज 'ध' धूमावती का बीज 'म' महेश 'पु' पुण्डरीकाक्ष 'ष्टि' देह में स्थित षटकोण 'व' वाकिनी 'र्ध' धर्म 'नं' नंदी 'उ' उमा 'र्वा' शिव की बाईं शक्ति 'रु' रूप तथा आँसू 'क' कल्याणी 'व' वरुण 'बं' बंदी देवी 'ध' धंदा देवी 'मृ' मृत्युंजय 'त्यो' नित्येश 'क्षी' क्षेमंकरी 'य' यम तथा यज्ञ 'मा' माँग तथा मन्त्रेश 'मृ' मृत्युंजय 'तात' चरणों में स्पर्श, क्रमशः प्रकट करते हैं। 
यह मन्त्र महर्षि वशिष्ठ ने हमें प्रदान किया। आचार्य शौनक ने ऋग्विधान में इस मन्त्र का वर्णन किया है।  नियम पूर्वक व्रत तथा इस मंत्र द्वारा पायस (खीर, pudding) के हवन से दीर्घ आयु प्राप्त होती है, मृत्यु दूर  है तथा प्रकार सुख प्राप्त होता है। इस मंत्र  के अधिष्ठाता भगवान् शिव हैं। 
संगच्छध्वं संवदध्वं संवोमनांसि जानताम्।
देवाभागंयथापूर्वे सञ्जानाना उपासते 
हम सब एक साथ चलें; परस्पर एक दूसरे के साथ बातचीत करें, हमारे मन एक हो। जैसे देवता एकमत होकर अपना हविर्भाग स्वीकार करते हैं और आदर-सम्मान पाते हैं।[ऋग्वेद 10.191.2]  
Let us move (work) together harmoniously, speak together, understand each other's minds, just as the demigods have been doing from the ancient times. That why they are honoured-respected.
MORNING PRAYER प्रातः स्मरण-आराधना :: 
प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना। 
प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः सोममुत रुद्रं हुवेम॥
हे सर्वशक्तिमान् ईश्वर! आप स्वप्रकाश स्वरूप-सर्वज्ञ, परम ऐश्वर्य के दाता और परम ऐश्वर्य से युक्त, प्राण और उदान के समान, सूर्य और चन्द्र को उत्पन्न करने वाले हैं। आप भजनीय, सेवनीय, पुष्टिकर्त्ता हैं। आप अपने उपासक, वेद तथा ब्रह्माण्ड के पालनकर्त्ता, अन्तर्यामी और प्रेरक, पापियों को रुलानेवाले तथा सर्वरोग नाशक हैं। हम प्रातः वेला में आपकी स्तुति-प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 7.41.1]
यह महर्षि वशिष्ठ द्वारा भगदेवता-ईश्वर से सभी रोगों से मुक्ति पाने की प्रार्थना है। इसके प्रातःकाल श्रद्धापूर्वक पाठ करने से असाध्य से भी असाध्य रोग दूर हो जाते हैं और दीर्घायु प्राप्त होती है। 
Hey Almighty! YOU bear (inbuilt) aura, all knowing, possess & grants ultimate comforts-bliss, support Pran Vayu-life sustaining force in us, creator of Sun & Moon, has to be prayed by us-devotees. YOU maintain-nurture your devotees, Ved & the Universe, punishes the sinners & eliminates all diseases-illness. We pray to YOU in the morning.
प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता।
आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह॥
हे ईश्वर! आप जयशील, ऐश्वर्य के दाता, तेजस्वी, ज्ञानस्वरूप, अन्तरिक्ष के पुत्र-रूप सूर्य को उत्पन्न कर्ता, सूर्यादि लोकों को धारण करने वाले हैं। आप सभी को जानते वाले, दुष्टों को दण्डित करने वाले हैं। मैं आपकी स्तुति (प्रार्थना, उपासना) करता हूँ।[ऋग्वेद 7.41.2]
Hey Almighty! YOU grants victory, bliss-comforts, creator & supporter-nurturer of the Sun, sustains the universe, know everyone, punish the sinners & enlightens all. I pray to YOU.
भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगे मां धियमुदवा ददन्नः।
भग प्र णो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्नृवन्तः स्याम॥
हे ईश्वर! आप भजनीय, सबके उत्पादक और सत्याचार में प्रेरक-सत्य धन को देने वाले, ऐश्वर्य देने वाले हैं। हमें प्रज्ञा का दान देकर हमारी रक्षा कीजिए, गाय, अश्व आदि उत्तम पशुओं के योग से राज्य-श्री को उत्पन्न कीजिए। आपकी कृपा से हम लोग उत्तम मनुष्य बनें, वीर बनें।[ऋग्वेद 7.41.3]
Hey Almighty! We worship YOU-who created all, leads us to divine virtues-truthfulness, grants all sorts of amenities, prudence-intelligence, enlightenment, wealth (cows, horses etc.) and to become excellent & brave humans.
उतेदानीं भगवन्तः स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अन्हाम्।
उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम॥
हे परम पूजित ईश्वर! आपकी कृपा से और अपने पुरुषार्थ से हम लोग प्रातःकाल में तथा दिनों के मध्य में उत्तमता प्राप्त करें और सूर्यास्त के  समय ऐश्वर्य से युक्त हों। हम लोग देवपुरुषों की उत्तम प्रज्ञा और सुमति में तथा उत्तम परामर्श में सदा रहें।[ऋग्वेद 7.41.4]
Hey Almighty! We should be enriched & powerful by way of our efforts & YOUR kindness during the morning, noon & the evening. We should be ready-inclined to attain prudence-enlightenment from the learned-enlightened.
भग एव भगवां अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम।
तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुरएता भवेह॥
हे जगदीश्वर! सज्जन पुरुष आपको सकल ऐश्वर्य सम्पन्न कहते हैं, आपकी प्रशंसा और गुणगान करते हैं। आप इस संसार में हमारे अग्रणी, आदर्श, शुभ कर्मों में प्रेरित करने वाले हों। आपके कृपा कटाक्ष से हम विद्वत्व, सकल ऐश्वर्य सम्पन्न होकर, सब संसार के उपकार में तन, मन, धन से प्रवृत्त होयें।[ऋग्वेद 7.41.5]
Hey Almighty! The virtuous, righteous, pious, truthful call YOU the Ultimate Bliss-comfort and praise YOU. YOU should be our idol-role model & direct us to pious-virtuous deeds. By virtue of YOUR kindness-blessings, we should become enlightened, attain all sorts of amenities and serve the humanity with our body, mind and wealth.
समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सह चित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रयेव: समानेनवोहविषाजुहोमि 
इन पुरोहितों की स्तुति एक सी हो, इनका आगमन एक साथ हो और इनके मन (अन्त:करण) तथा चित्त (विचारजन्य ज्ञान) एकविध हों। द्वेषभाव न हो।[ऋग्वेद 10.191.3]
The Purohit-Achary preforming Yagy should enchant the Mantr in unison. Their innerself and the mental status-enlightenment should of the same level-status. They should be free from enmity.
नयसीद्वति द्विष: कृणोष्युक्थशंसिन:। नृभि: सुवीर उच्यसे
हे प्रभु! तू द्वेष करने वाले के द्वेषभाव को निश्चय ही निकाल डालता है। तू उन्हें अपना प्रशंसक बना देता है। सच्चे मनुष्यों से तू सुवीर कहलाता है। [ऋग्वेद 6.45.6]
Hey Almighty! You eliminate-remove the enmity from within us and make us appreciate-pray to YOU (seek asylum, protection under YOU). YOU are called due to the truthful devotees.
ईर्ष्याया ध्राजिं प्रथमां प्रथमस्या उतापराम्।
अग्निं हृदह्यं शोकं तं ते निर्वापयामसि 
परमात्मा की वाणी है, हे ईर्ष्या संतप्त पुरुष! हम ईर्ष्या की पहली ही वेगवती गति को, ज्वाला को बुझाते हैं। पहली के बाद वाली ज्वाला को भी बुझाते हैं। इस तरह हे मनुष्य! तेरी उस हृदय में जलने वाली अग्नि को तथा उसके शोक–संताप को बिल्कुल शान्त कर देते हैं अर्थात् मनुष्य दूसरे की वृद्धि देख कर कभी ईर्ष्या न करे। द्वेष की परम्परा का अवसान।[अथर्ववेद 6.18.1]
Envy & enmity amongest us should be eliminated making us free from pain, sorrow, worries.
इदमुच्छ्रेयो अवसानमागां, शिवे मे द्यावापृथिवी अभूताम्।
असपत्ना: पृदिशो मे भवन्तु, न वै त्वा द्विष्मो अभयं नो अस्तु
हे भाई! मैं ही तेरे साथ द्वेष करना छोड़ देता हूँ। अब यह ही कल्याणकर है कि मैं अब समाप्ति पर आ जाऊँ, शत्रुता की परम्परा का विराम कर दूँ। द्यौ और पृथिवी भी मेरे लिए अब कल्याणकारी हो जाएँ। सभी दिशाएँ मेरे लिए शत्रु-रहित हो जाएँ। मेरे लिए अब अभय ही अभय हो जाए। हम सदा निर्वैर हों।[अथर्ववेद 19.41.1]
Let us reject enmity, the earth and the space should become beneficial-Blissful to us, free from enemies. 
अनमित्रं नो अधरादनमित्रं न उत्तरात्।
इन्द्रानमित्रं न पश्चादनमित्रं पुरस्कृधि
हे प्रभु इन्द्र! हमारे लिए नीचे से निर्वैरता, हमारे लिए ऊपर से निर्वैरता, हमारे लिए पीछे से निर्वैरता और हमारे लिए आगे से निर्वैरता तू हमारे लिए कर दे अर्थात् हम सदा निर्वैर हो कर रहें। परिवार में सब मिलकर रहें।[अथर्ववेद 6.40.3]
We should reject enmity and live together like a family. 
अक्ष्यौ नौ मधुसंकाशे अनीकं नौ समञ्जनम्
अन्त: कृणुष्व मां हृदि मन इन्नौ सहासति
हम दोनों मित्रों की दोनों आँखें ज्ञान का प्रकाश करने वाली हों। हम दोनों का मुख यथावत् विकास वाला होवे। हमें अपने हृदय के भीतर कर लो। हम दोनों का मन भी एकमेव हो अर्थात् हम सदा ही प्रीतिपूर्वक रहें, सभी के प्रति मित्रभाव हो।[अथर्ववेद 7.36.1]
Our eyes should be lit with enlightenment and ours mouths should also be like that. Please give place in your heart. Our innerself should be at the same frequency-status and we should be friendly.
दृते दृंह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे 
हे परमात्मा! तुम मुझे दृढ़ बनाओ। सर्वभूत मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं भी सर्वभूतों को मित्र की ही दृष्टि से देखूँ। हम परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें। सभी का एकमत हो।[यजुर्वेद 36.18]
Hey Almighty! make me strong. All your creations should be friendly with me. We should be friendly with one another. We all should have one opinion-faith.
हे अनन्तबल महावीर ईश्‍वर! 
दृते :- दुष्‍ट ‌स्वभाव नाशक विदीर्ण कर्म अर्थात् विज्ञानादि शुभ गुणों का नाश क‌रने वाला मुझको मत रखो (मत करो) किन्तु उससे मेरे आत्मादि को विद्या सत्यधर्मादि शुभ गुणों में सदैव अपनी कृपा सामर्थ्य से स्थित करो। 
दृँह मा :- धर्मार्थकाममोक्षादि तथा विज्ञानादि दान से मुझको बढ़ा।  
मित्रस्येत्यादि :- सब भूत प्राणिमात्र मित्रदृष्टि से यथावत् मुझको देखें। सब मेरे मित्र हों। मुझसे कोई भी किंचिन्मात्र वैर न करे।  
मित्रस्याहं :- आपकी कृपा से मैं भी निर्वैर होकर सब चराचर जगत् को मित्र दृष्‍टि से अपने प्राणवत् प्रिय जानूँ। 
मित्रस्य चक्षुषा :- पक्षपात छोड़ के सब जीव-देहधारी प्रेम पूर्वक परस्पर व्यवहार करें। अन्याय से युक्त होके किसी पर कभी हम लोग न वर्त्तें। यह परमधर्म का सब मनुष्यों के लिए परमात्मा का उपदेश किया है। सबको यही मान्य होने के योग्य है।
All living beings in this world should see me with an amiable eye. I should (also) look at all the living beings with a friendly eye. I should be very loving and affectionate to all living beings on this earth. We all should see each other with a friendly eye. We all should be sympathetic and loving to each other.
संगच्छध्वं संवदध्वं संवोमनांसि जानताम्।
देवाभागंयथापूर्वे सञ्जानाना उपासते 
हम सब एक साथ चलें; परस्पर एक दूसरे के साथ बातचीत करें, हमारे मन एक हो। जैसे देवता एकमत होकर अपना हविर्भाग स्वीकार करते हैं और आदर-सम्मान पाते हैं।[ऋग्वेद 10.191.2]  
Let us move (work) together harmoniously, speak together, understand each other's minds, just as the demigods have been doing from the ancient times. That why they are honoured-respected.
समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सह चित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रयेव: समानेनवोहविषाजुहोमि 
इन पुरोहितों की स्तुति एक सी हो, इनका आगमन एक साथ हो और इनके मन (अन्त:करण) तथा चित्त (विचारजन्य ज्ञान) एकविध हों। द्वेषभाव न हो।[ऋग्वेद 10.191.3]
The Purohit-Achary preforming Yagy should enchant the Mantr in unison. Their innerself and the mental status-enlightenment should of the same level-status. They should be free from enmity.
नयसीद्वति द्विष: कृणोष्युक्थशंसिन:। नृभि: सुवीर उच्यसे
हे प्रभु! तू द्वेष करने वाले के द्वेषभाव को निश्चय ही निकाल डालता है। तू उन्हें अपना प्रशंसक बना देता है। सच्चे मनुष्यों से तू सुवीर कहलाता है। [ऋग्वेद 6.45.6]
Hey Almighty! You eliminate-remove the enmity from within us and make us appreciate-pray to YOU (seek asylum, protection under YOU). YOU are called due to the truthful devotees.
ईर्ष्याया ध्राजिं प्रथमां प्रथमस्या उतापराम्।
अग्निं हृदह्यं शोकं तं ते निर्वापयामसि 
परमात्मा की वाणी है, हे ईर्ष्या संतप्त पुरुष! हम ईर्ष्या की पहली ही वेगवती गति को, ज्वाला को बुझाते हैं। पहली के बाद वाली ज्वाला को भी बुझाते हैं। इस तरह हे मनुष्य! तेरी उस हृदय में जलने वाली अग्नि को तथा उसके शोक–संताप को बिल्कुल शान्त कर देते हैं अर्थात् मनुष्य दूसरे की वृद्धि देख कर कभी ईर्ष्या न करे। द्वेष की परम्परा का अवसान। [अथर्ववेद 6.18.1]
Envy & enmity amongest us should be eliminated making us free from pain, sorrow, worries.
इदमुच्छ्रेयो अवसानमागां, शिवे मे द्यावापृथिवी अभूताम्।
असपत्ना: पृदिशो मे भवन्तु, न वै त्वा द्विष्मो अभयं नो अस्तु
हे भाई! मैं ही तेरे साथ द्वेष करना छोड़ देता हूँ। अब यह ही कल्याणकर है कि मैं अब समाप्ति पर आ जाऊँ, शत्रुता की परम्परा का विराम कर दूँ। द्यौ और पृथिवी भी मेरे लिए अब कल्याणकारी हो जाएँ। सभी दिशाएँ मेरे लिए शत्रु-रहित हो जाएँ। मेरे लिए अब अभय ही अभय हो जाए। हम सदा निर्वैर हों।[अथर्ववेद 19.41.1]
Let us reject enmity, the earth and the space should become beneficial-Blissful to us, free from enemies. 
अनमित्रं नो अधरादनमित्रं न उत्तरात्।
इन्द्रानमित्रं न पश्चादनमित्रं पुरस्कृधि
हे प्रभु इन्द्र! हमारे लिए नीचे से निर्वैरता, हमारे लिए ऊपर से निर्वैरता, हमारे लिए पीछे से निर्वैरता और हमारे लिए आगे से निर्वैरता तू हमारे लिए कर दे अर्थात् हम सदा निर्वैर हो कर रहें। परिवार में सब मिलकर रहें।[अथर्ववेद 6.40.3]
We should reject enmity and live together like a family. 
इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम्।
क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वस्तकौ 
हे वर-वधू! यहाँ गृहस्थाश्रम के नियमों में ही तुम दोनों रहो। कभी अलग मत होओ। पुत्रों के साथ तथा नातियों के साथ क्रीड़ा करते हुए, हर्ष मनाते हुए और उत्तम घर वाले तुम दोनों सम्पूर्ण आयु को प्राप्त होओ। इस मन्त्र में आपसी प्रेम व संयुक्त परिवार का संदेश है।[अथर्ववेद 14.1.22]
Hey husband & wife! Live together following-adopting the rules of family life (house hold). never separate from each other. You should get a long life along with with your grand children enjoying life happily.
अनुव्रत: पिता पुत्रो माता भवतु संमना:।
जाया पत्ये मधु वाचं वदतु शान्तिवान् 
पुत्र पिता के अनुकूल व्रती हो कर माता के साथ एक मन वाला होवे। पत्नी पति से मधुवत् अर्थात् मधु से सनी के समान और शान्तिप्रद वाणी बोले अर्थात् सन्तान माता-पिता की आज्ञाकारी और माता-पिता सन्तानों के हितकारी हों। पति-पत्नी आपस में मधुरभाषी और मित्र हों।[अथर्ववेद 3.30.2]
The son should have the same goals-targets in life as his father adopting himself as per his mother. The wife should speak to husband in affectionate voice-terms. The progeny should be obedient and the parents should be the well wishers of the children. The husband & the wife should speak to each other affectionately like friends.
ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पय: कीलालं परिस्त्रुतम्।
स्वधा स्थ तर्पयत् मे पितृन् 
पितरों को अनेक प्रकार के उत्तम-उत्तम रस, स्वादिष्ट जल, अमृतमय औषधि, दूध घी, स्वादिष्ट भोजन, रस से भरे हुए फलों को दे कर तृप्त करो। परधन का त्याग करके अपने को प्राप्त धन का उपयोग करने वाले होओ अर्थात् जिस प्रकार पितर अर्थात् माता-पिता आदि ने हमें पाला है, उसी प्रकार हमें भी उनकी सेवा व सत्कार करना चाहिए।[यजुर्वेद 2.34]
Let us satisfy our Manes with various juices-extracts, sweet water, medicines like nectar-elixir, milk, Ghee, fruits full of juices. Let us reject-never desire for other's wealth and utilise our own wealth to serve the Manes and give them due respect-honour. 
Its a regular ceremony every year to pay homage to the Manes. Europeans celebrate Halloween festival almost over the same period as Hindus i.e., Pitr Paksh. 
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया
भाई-भाई से द्वेष न करें। बहन-बहन से द्वेष न करें। एकमत वाले और एकव्रती हो कर कल्याणी रीति से वाणी बोलें अर्थात् परिवार में सब प्रेमपूर्वक रहें। स्त्रियों को सम्मान करें।[अथर्ववेद 3.30.3]
There should be no rivalry-coemption amongest the brothers & the sisters. They should have common goal-aim and interact for each other's welfare. Everyone in the family should live with love & affection. The women folk should be revered-regarded, honoured.
यो जाम्या अप्रथयस्तद् यत् सखायं दुधूर्षति।
ज्येष्ठो यदप्रचेतास्तदाहुरधरागिति
जो मनुष्य कुलस्त्री को गिराता है। वह पुरुष और जो मित्र को मारना चाहता है ओर जो अतिवृद्ध हो कर भी अज्ञानी है। वह लोग अधोगति को प्राप्त होते हैं अर्थात् जो कुलीन स्त्री का अपमान करता है या मित्रघाती है या वयोवृद्ध हो कर भी अज्ञानी है अर्थात् परमात्मा को नहीं भजता है, वह अधोगति को प्राप्त होता है।[अथर्ववेद 20.128.2]
One who let down the honoured-revered woman, want to kill his friends, do not pray to the God, is an ignorant in spite of his old age. He moves to the lower species, abodes & hells. 
सम्राज्ञी एधि श्वशुरेषु सम्राज्ञी उत देवृषु।
ननान्दु: सम्राज्ञी एधि सम्राज्ञी उत श्वश्र्वा: 
हे वधू! तुम अपने श्वसुर, सास देवरों तथा ननदों के मध्य सम्राज्ञी हो अर्थात् वधू! अपने विद्या और बुद्धि के बल से तथा अपने कर्तव्यों से छोटे-बड़े सबके मध्य प्रतिष्ठित हो। वधू! को भी ससुराल पक्ष के लोगों को सम्मान देना चाहिए।[अथर्ववेद 14.1.44]
Hey newly wed woman-bride! You are like a queen amongest your in laws, brothers & sisters of your husband. Enhance your status-value through your learning & prudence by discharging your duties-family routine dedicatedly. 
The in laws should also respect-honour her. Its purely a give & take business. Do good have good.
अघोरचक्षुरपतिघ्नी स्योना शग्मा सुशेवा सुयमा गृहेभ्य:।
वीरसूर्देवृकामा सं त्वयैधिषीमहि सुमनस्यमाना 
हे वधू! तू घर वालों के लिए प्रिय दृष्टि वाली, पति को न सताने वाली, सुखदायिनी, कार्यकुशला, सुन्दर सेवा वाली, सुन्दर मनवाली, वीरों को उत्पन्न करने वाली और प्रसन्न चित्त वाली हो। तेरे साथ मिल कर हम सब घर वाले बढ़ते रहें।[अथर्ववेद 14.2.17]
Hey bride! You should become affectionate-darling of the family members, never teasing & comforting the husband, skilful in family welfare, good hearted-affectionate, giving birth to brave progeny & always cheerful.  The members of the family should also progress with you. 
ईश वास्यामिदं सर्वं यत्किं च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम्॥
ब्रह्माण्ड में चर-अचर, प्राणी-निर्जीव, चेतन-अचेतन सभी में परमेश्वर सदैव विद्यमान-विराजमान हैं।  ईश्वर सभी प्राणियों को उनके कर्मानुसार सब प्रकार के पदार्थ प्रदान करता रहता है। मनुष्य को चाहिए कि वह उस प्रभु से जो भी कुछ अपने कर्मानुसार प्राप्त हो, उसका सन्तोष एवं त्यागपूर्वक उपभोग करे, क्योंकि धन-सम्पत्ति किसी के पास भी स्थाई रूप  रहते।[यजुर्वेद 40.1]
The God-Almighty is present in each and every individual-organism, particle. All living beings obtain the material goods, luxuries, comforts, usable as per their destiny-deeds in their previous births. One should enjoy whatever is available to him with satisfaction-contentment, since nothing is permanent-forever in this world.
असुर्य्या  नाम  थे लोका अन्धेन  तमसावृता:।
ताॅस्ते प्रेत्यापिऺ गच्छन्ति ये के चाऺत्महनो जना:॥
वे मनुष्य असुर, दैत्य, राक्षस तथा पिशाच आदि के समान हैं, जो आत्मा-मन में जानते हुए वाणी से बोलते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं। वे कभी अविद्या रूप दु:ख सागर से पार हो परम् आनन्द को नहीं प्राप्त सकते। जो लोग आत्मा, मन, वाणी और कर्म से निष्कपट एक समान आचरण करते हैं; वे आर्य देवताओं के समान सौभाग्यशाली होकर जगत को पवित्र करते हुए, इस लोक और परलोक में अक्षय सुख भोगते हैं।[यजुर्वेद 40.3]
Those humans are Asur, Daety-Giants, demons-Rakshas and Pishach who knows-understand the truth but speak something else through through tongue and do something else. They can never overcome ignorance and attain bliss-Ultimate pleasure. Those people who are honest-resort to un-deceptive behaviour through their soul, innerself-mind, the speech & the deeds are Ary-pure breed, carrier of divinity have auspicious luck. They enjoy in this world and the next higher abodes, imperishable comforts.
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। 
महे रणाय चक्षसे
हे आप-जल! आप प्राणी मात्र को सुख देने वाले हैं। सुखोपभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें।[ऋग्वेद 10.9.1]
Hey water! You provide nourishment. Provide us with excellent eye sight & strength to enjoy the worldly goods.
Two third of human body constitute of water. Its essential for the body. It generate happiness-satisfaction after drinking when one feel thirst.
सुख से आनन्द, अनुकूलता, प्रसन्नता, शान्ति आदि की अनुभूति होती है। इसकी अनुभूति मन से जुड़ी हुई है। बाह्य साधनों से भी सुख की अनुभूति हो सकती है। आन्तरिक सुख आत्मानुभव अनुकूल परिस्थितियों-वातावरण  जुड़ा है। 
अर्थागमो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यस्य पुत्रो अर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्॥ 
देवर्षि नारद ने धर्मराज युधिष्ठिर को सुख का अर्थ समझते हुए कहा कि किस व्यक्ति के पास ये निम्न 6 वस्तुएँ हों वह सुखी है :- अर्थागम, निरोगी काया, प्रिय पत्नी, प्रिय वादिनी पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र, अर्थ करी विद्या।
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेहः नः।
उशतीरिव मातरः
जिनका स्नेह उमड़ता ही रहता है, ऐसी माताओं की भाँति, आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याण प्रद रस में भागीदार बनायें।[ऋग्वेद 10.9.2]
You should be beneficial to us just like the mother who's love overflows for the progeny.
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।
आपो जनयथा च नः॥
अन्न आदि उत्पन्न कर प्राणी मात्र को पोषण देने वाले, हे दिव्य प्रवाह! हम आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो।[ऋग्वेद 10.9.3]
Hey divine flowing liquid! You help  the vegetation-food grain grow to nourish the living beings. We desire your company for our maximum growth.
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्।
अपो याचामि भेषजम्
व्याधि निवारक दिव्य गुण वाले जल का हम आवाहन करते हैं। वह हमें सुख-समृद्धि प्रदान करे। उस औषधि रूप जल की हम प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 10.9.4]
Hey water with the divine property of removing illness! We invite you to grant us happiness and prosperity.
These prayers are addressed to Varun Dev-deity of water.
हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु
जो जल सोने के समान आलोकित होने वाले रंग से सम्पन्न, अत्यधिक मनोहर शुद्धता प्रदान करने वाला है, जिससे सविता देव और अग्नि देव उत्पन्न हुए हैं। जो श्रेष्ठ रंग वाला जल अग्नि गर्भ है। वह जल हमारी व्याधियों को दूर करके हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे।[अथर्ववेद 1.33.1]
Water having the aura like gold (when Sun light is reflected & refracted through it), provides extreme level of purity (Its a natural cleanser due to the presence of oxygen in it.), out of which demigods named Savita (Sury-Sun) & Agni-fire have evolved (Nar-water, Bhagwan Narayan Shri Vishnu evolved out it through a golden egg, leading to evolution of Sun). Which is the source of golden coloured fire. It cures all our diseases and provides us pleasure, solace & comforts. 
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यज्जनानाम्।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु
जिस जल में रहकर राजा वरुण, सत्य एवं असत्य का निरीक्षण करते चलते हैं। जो सुन्दर वर्ण वाला जल अग्नि को गर्भ में धारण करता है, वह हमारे लिए शान्तिप्रद हो।[अथर्ववेद 1.33.2]
Varun Dev-deity of water resides in it and analyse truth & falsehood. Water which has golden coloured fire in its womb should grant us solace, peace, tranquillity. 
THREE KINDS OF FIRE तीन प्रकार की अग्नि :: दावानल (jungle fire), बड़वानल fire in the ocean) और जठराग्नि (fire in the stomach)। बड़वानल-जल में उपस्थित अग्नि; fire present in water.
यासां देवा दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु
जिस जल के सारभूत तत्व तथा सोमरस का इन्द्र आदि देवता द्युलोक में सेवन करते हैं। जो अन्तरिक्ष में विविध प्रकार से निवास करते हैं। अग्निगर्भा जल हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे।[अथर्ववेद 1.33.3]
The water which appeared from the womb of fire, the extract, nectar, elixir of which is sipped by demigods-deities in the higher abodes-heavens, should grant us peace, tranquillity & solace.
शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं में।
घृतश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता, न आपः शं स्योना भवन्तु
हे जल के अधिष्ठाता देव! आप अपने कल्याणकारी नेत्रों द्वारा हमें देखें तथा अपने हितकारी शरीर द्वारा हमारी त्वचा का स्पर्श करें। तेजस्विता प्रदान करने वाला शुद्ध तथा पवित्र जल हमें सुख तथा शान्ति प्रदान करे।[अथर्ववेद 1.33.4]
Hey Varun Dev! Please look at us through your eyes granting us pleasure for our welfare and touch our skins through your body. The pure & energy giving water should give us solace, peace & tranquillity.
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। 
शं योरभि स्रवन्तु नः
हे आप-जल! पीते समय आप काम्य दैवी गुणों से युक्त हों। वे काम्य दैवी गुण आप से हम में प्रवाहित हों।[अथर्ववेद 6.1.1] 
O-Hey Water! You should be enriched with divine properties-characterises and these traits should flow into us , when we drink you. 
दैवी गुणों से युक्त आप-जल हमारे लिए हर प्रकार से कल्याणकारी और प्रसन्नता दायक हो। वह आकांक्षाओं की पूर्ति करके आरोग्य प्रदान करे।
May the auspiciousness which supports you, flow to us.
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।
अग्निं च विश्वशम्भुवम्
सोम का हमारे लिए उपदेश है कि दिव्य आप-जल हर प्रकार से औषधीय गुणों से युक्त है। उसमें कल्याणकारी अग्नि भी विद्यमान है।[अथर्ववेद 6.1.2]
The Moon says that the divine water is full of medicinal properties and has fire in it.  
आपः प्रणीत भेषजं वरुथं तन्वे 3 मम। 
ज्योक् च सूर्यं दृशे
दीर्घकाल तक मैं सूर्य को देखूँ अर्थात् जीवन प्राप्त करुँ। हे आप-जल! शरीर को आरोग्यवर्धक दिव्य औषधियाँ प्रदान करो।[अथर्ववेद 6.1.3]
Hey water! Let my body be granted with divine medicines to increase (enhance, boost) immunity, so that I am able to see the Sun for long.
शं न आपो धन्वन्याः 3 शभु सन्त्वनूप्याः।
शं नः खनित्रिमा आपः शमु याः कुम्भ आमृताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः
सूखे प्रान्त (मरुभूमि) का जल हमारे लिए कल्याणकारी हो। जलमय देश का जल हमें सुख प्रदान करे। भूमि से खोदकर निकाला गया कुएँ आदि का जल हमारे लिए सुख प्रद हो। पात्र में स्थित जल हमें शान्ति देने वाला हो। वर्षा से प्राप्त जल हमारे जीवन में सुख-शान्ति  की वृष्टि करने वाला सिद्ध हो।[अथर्ववेद 6.1.4] 
Water from various sources like desert, a place with plenty of water, in the pots i.e., stored water  and the rain water should grant us pleasure-comfort.
दिवो नु मां बृहतो अन्तरिक्षादपांस्तोको अभ्यपप्तद् रसेन।
समिन्द्रियेण पयसाहमग्ने, छन्दोभिर्यज्ञैः सुकृतां कृतेन1
विशाल द्युलोक से दिव्य अप् (जल या तेज) युक्त रस की बूँदें हमारे शरीर पर गिरी हैं। हम इन्द्रियों सहित दुग्ध के समान सार भूत अमृत से एवं छन्दों (मन्त्रों) से सम्पन्न होने वाले यज्ञों के पुण्य फल से युक्त हों।
Drops of water having divine extract have fallen over our bodies. Let us be filled-embedded with the outcome of Yagy performed with the Mantr which are like the milk-nectar, elixir, ambrosia filling us with divine aura-energy.
यदि वृक्षादभ्यपप्तत् फलं तद् यद्यन्तरिक्षात् स उ वायुरेव।
यत्रास्पृक्षत् तन्वो 3 यच्च वासस आपो नुदन्तु निर्ऋतिं पराचैः॥2
वृक्ष के अग्र भाग से गिरी वर्षा की जल बूँद, वृक्ष के फल के समान ही है। अन्तरिक्ष से गिरा जल बिन्दु निर्दोष वायु के फल के समान है, शरीर अथवा पहने हुए वस्त्रों पर उसका स्पर्श हुआ है। वह प्रक्षालनार्थ जल के समान निर्ऋति देव (पापों को) हमसे दूर करें।
The drops of water falling from the tips of the trees are like their fruits. Water-rain drops falling over our cloths-bodies, from the outer space should be like the fruit of uncontaminated air. These droplets meant for purity, should remove our sins like the Nirati Dev-the pious demons,  granting us pleasure, comforts.
अभ्यञ्जनं सुरभि सा समृद्धिर्हिरण्यं वर्चस्तदु पूत्रिममेव।
सर्वा पवित्रा वितताध्यस्मत् तन्मा तारीन्निर्ऋतिर्मो अरातिः॥3
यह अमृत वर्षा उबटन, सुगंधित द्रव्य, चन्दन आदि सुवर्ण धारण तथा वर्चस् की तरह समृद्धि रूप है। यह पवित्र करने वाला है। इस प्रकार पवित्रता का आच्छादन होने के कारण पाप देवता और शत्रु हम से दूर रहें।
वर्चस् :: रूप, तेज, कांति, दीप्ति, अन्न, विष्ठा, शक्ति-शौर्य, शुक्र-वीर्य, प्रताप, श्रेष्ठता।
The rain like the nectar-elixir should act like body scrub, fragrances, sandal wood paste & granting progressive-success like the aura. Its purifying. Having gained purity the sins should remain away from us.
तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु RESOLUTION OF THE INNERSELF :: In English there is no equivalent for Man. Its the innerself which has mind, heart & soul as its basic components. Mood, gestures are its variants. Anger, happiness, calmness are its variants. 
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे तदु सुसस्य तथैवैति। मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥
जो जागते हुए पुरुष का [मन] दूर चला जाता है और सोते हुए पुरुष का वैसे ही निकट आ जाता है, जो परमात्मा का साक्षात्कार का प्रधान साधन है, जो भूत, भविष्य, वर्तमान, सन्निकट एवं व्यवहित पदार्थों का एक मात्र ज्ञान है तथा जो विषयों का ज्ञान प्राप्त करने वाले श्रोत्र आदि इन्द्रियों का एक मात्र प्रकाशक और प्रवर्तक है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्प से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.1]
संकल्प :: प्रस्ताव, संकल्प, समाधान, प्रण, स्थिरता, चित्त की दृढ़ता, ठानना, दृढ़ निश्चय, विचार, प्रण; oath, resolution, resolve, determination.
My mind (brain, innerself, combination of mind, heart & soul) moves away from me while awake, comes near me while asleep, is the basic ingredient for face to face with the Almighty, is aware of past, present and the future, helps in acknowledging (identifying, recognising) the goods-outer world and the hearing; should be beneficial to me imbedded with the determination-firmness for devotion to the God (asylum, shelter, protection) leading to Moksh-emancipation.
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः। 
यदपूर्व यत्प्रज्ञानमुत यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥
कर्म निष्ठ एवं धीर विद्वान् जिसके द्वारा यज्ञ पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करके यज्ञ में कर्मों का विस्तार करते हैं, जो इन्द्रियों का पूर्वज अथवा आत्म स्वरूप है, जो पूज्य है और समस्त प्रजा के हृदय में निवास करता है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्प से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.2] 
My innerself should have the resolution for the welfare of populace by virtue of which dedicated and patient (determined, firm) scholars (Pandits, Brahmns, philosophers, enlightened) having acquired the knowledge of the goods & rituals associated with the Yagy extend the ceremonies pertaining to Yagy, which is a replica of the senses and like the soul, resides in the hearts of the populace;  should lead to my welfare engaged-associated with devotion to the God, leading to emacipation-Moksh.
चेतो धृतिश्च यज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु। 
यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ 
जो विशेष प्रकार के ज्ञान का कारण है, जो सामान्य ज्ञान का कारक हैं, जो धैर्य रूप है, जो समस्त प्रजा के हृदय में रहकर उनकी समस्त इन्द्रियों को प्रकाशित करता है, जो स्थूल शरीर की मृत्यु होने पर भी अमर रहता है और जिसके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्प से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.3] 
My innerself which is the reason-cause for specific & general knowledge, which is synonym to patience, which enlightens the senses in the organism, which is imperishable even after the death of the body, without which no function can be performed; should be devoted to the welfare of the humans pertaining to the resolution of devotion-dedication to the Almighty. 
Innerself is an integral part of the soul. It acquires the characterises of the environment-company in which the human being is residing-interacting. The way air is purified, it too get cleansed on being associated with pious-virtuous company. 
येनेदं येन भूतं भुवनं यज्ञस्तायते भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सप्तहोता तन्मे सर्वम्। मनः शिवसंकल्पमस्तु॥
जिस अमृत स्वरूप मन के द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्यत्सम्बन्धी सभी वस्तुएँ ग्रहण की जाती हैं तथा जिसके द्वारा सात होता वाला अग्निष्टोम यज्ञ सम्पन्न होता है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्प से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.4]
The innerself which is a replica of the elixir-nectar, acquires all sorts of knowledge in the past, present & future, which performs the Agnishtom Yagy with seven priests-performers; should be associated with the devotion to the Almighty for the welfare of humanity.
यस्मिन्नृचः साम यजूषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः। 
यस्मिंश्चित्तः सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥
जिस मन में रथ चक्र की नाभि में अरों के समान ऋग्वेद और सामवेद प्रतिष्ठित हैं तथा जिसमें यजुर्वेद प्रतिष्ठित है, जिसमें प्रजा का सब पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाला सम्पूर्ण ज्ञान ओत-प्रोत है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्प से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.5] 
The innerself in which Rig Ved & Sam Ved are employed as the axle of the chariot and Yajur Ved is saddled in it, which is full of all sorts of knowledge pertaining to the welfare means of the populace; should be associated with the devotion to the Almighty for the welfare of humanity.
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव। 
हृत् प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥
श्रेष्ठ सारथि जैसे घोड़ों का संचालन और रास के द्वारा घोड़ों का नियन्त्रण करता है, वैसे ही जो प्राणियों का संचालन तथा नियन्त्रण करने वाला है, जो हृदय में रहता है, जो कभी बूढ़ा नहीं होता और जो अत्यन्त वेगवान् है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्प से युक्त हो।[यजुर्वेद 34.6]
My innerself which like the driver of the chariot who controls & reins the horses, similarly which conducts the organisms and resides in the heart, which never grows-become old, which is the fastest entity in the world; should be associated with the devotion to the Almighty for welfare of humanity.
EVOLUTION OF LIFE-PRAYER DEVOTED TO BHAGWAN SHRI HARI VISHNU परम पुरुष (भगवान् श्री हरी विष्णु) स्तवन ::
ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
 स भूमि  ँ  ् सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥
उन परम पुरुष के सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं। वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि (पूरे स्थान) को सब ओर से व्याप्त करके, इससे दस अङ्गुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्ड में व्याप्त होते हुए उससे परे भी हैं।[यजुर्वेद 31.1]
The Almighty in HIS incarnations as Hari Vishnu has numerous-infinite heads, eyes and legs. HE has established himself above the universe at a height-distance of infinite Yojan by occupying it all over. 
पुरुष एवेदः सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥
यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होने वाला है, वह सब वे परम पुरुष ही हैं। इसके अतिरिक्त वे देवताओं के तथा जो अन्न से ही (भोजन द्वारा) जीवित रहते हैं, उन सबके भी ईश्वर (अधीश्वर-शासक) हैं।[यजुर्वेद 31.2]
HE is the Ultimate-Eternal who expresses HIMSELGF as past, present & future (HE is Maha Kal).HE is master of the demigods-deities and all those species, organism (plants & animals) which depends over food.
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥
यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुष का वैभव है। वे अपने इस विभूति विस्तार से भी महान् हैं। उन परमेश्वर की एक पाद्विभूति (चतुर्थांश), में ही यह पञ्चभूतात्मक विश्व है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं[यजुर्वेद 31.3]
Entire universe related with the past, present & the future are HIS extensions (galore, projections). HE is above all of these extensions containing this world with five elements-ingredients (basic components-Earth, Jal, Vayu, Akash, Agni-Tej) in one fourth of HIS galore. The remaining three portions of his galore contain Vaekunth, Gau Lok, Saket, Shiv Lok etc.
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं। उक्त सभी की उत्पत्ति आत्मा या ब्रह्म की उपस्थिति के कारण है। माँ भगवती-प्रकृति परमात्मा का अभिन्न अंग है। 
 त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि॥
वे परम पुरुष स्वरूपत: इस मायिक जगत से परे त्रिपाद्विभूति में प्रकाशमान हैं (वहाँ माया का प्रवेश न होने से उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है)। इस विश्व के रूप में उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है अर्थात् एक पाद से वे विश्वरूप भी हैं, इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड़ एवं चेतनमय-उभयात्मक जगत के परिव्याप्त किये हुए हैं।[यजुर्वेद 31.4] 
The Almighty is present with rest of HIS three segments as a shining entity, where the entry of Maya (illusion-mirage) is banned. Only one segment of HIS glory is visible in this world covering the inertial-non living and the living beings-conscious. 
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः। 
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥
उन्हीं आदि पुरुष से विराट् (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। वे परम पुरुष हैं। विराट के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) रूप से उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुए। पीछे उन्होंने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये।[यजुर्वेद 31.5]
The Almighty created Virat Purush (Son of Bhagwan Shri Krashn & Maa Bhagwati Radha Ji in Gau Lok). Numerous Universes were created out of the spores over the body of Virat Purush. Over one of the spores our Universe appeared. A golden shell appeared over the surface of water-Nar out of which Bhagwan Shri Hari Vishnu appeared, Bhagwan Brahma appeared out of his navel and Bhagwan Shiv beamed out of the forehead of Brahma Ji. 
Bhagwan Shiv is a form of Kal-time. He was already present prior to the appearance of the Golden Shell.
Later various abodes were created by Bhagwan Shri Hari Vishnu & Brahma Ji created various forms of life. 
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाण्यम्।
पशूँस्ताँश्चिक्रे बायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥ 
जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञ पुरुष से उसी ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये।[यजुर्वेद 31.6]
The Yagy Purush in whom every thing is sacrificed, created organisms which could survive in air, water and the land (forests, villages-community) curd, Ghee etc. 
Yagy Purush is Bhagwan Shiv called Adi Dev Maha Dev.
तस्माद् यज्ञात स र्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। 
छन्दां ँ  ्सि जज्ञिरे तस्मात् यजुस्तस्मादजायत
उसी सर्वहुत यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसी से यजुर्वेद मन्त्र उत्पन्न हुए और उसी से सभी छन्द भी उत्पन्न हुए।[यजुर्वेद 31.7]
All scriptures-Veds & their Mantr, Chhand, Shlok etc. evolved out of the Yagy Purush.
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः। 
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥ 
उसी से घोड़े उत्पन्न हुए, उसी से गायें उत्पन्न हुईं और हवि थी। उसी से भेड़-बकरियाँ उत्पन्न हुईं। वे दोनों ओर दाँतों वाले हैं।[यजुर्वेद 31.8]
हविष्य :: हवन के योग्य सामग्री; offerings for holy sacrifices in holy fire, Agni Hotr, Hawan.
Animals with hoofs like horses, cows, sheep & goats too were created by him. They teeth over both sides of the jaws. It generated goods for holy sacrifices in fire like Ghee, curd, Panchamrat.
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः। 
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥ 
देवताओं, साध्यों तथा ऋषियों ने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञ-पुरुष को कुशा पर अभिषिक्त किया और उसी से उसका यजन किया।[यजुर्वेद 31.9]
Initially the demigods-deities, Sadhy Gan & the Rishi Gan worshipped the Yagy Purush over Kush Grass-straw, and used Kush Grass for the prayers.
SADHY GAN साध्य गण :: भगवान् शिव के गण; Sadhy refers to one of the various classifications of Gan, a group of deities attached to Bhagwan Shiv. (1). Adity, (2). Visvas or Vishv Dev, (3). Vasu, (4). Tushith, (5). Abhasvaras, (6). Anil, (7). Maharajik (8). Sadhy and (9). Rudr. These are attached to Bhagwan Shiv and serve under the command of Ganesh Ji Maha Raj, dwelling on Gan Parwat identified with Kaelash, a peak of the Himalay mountain.
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। 
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते॥
पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी कल्पना की गयीं? उसका मुख क्या था, उसके बाहु क्या थे, उसके जाँघ क्या थे और उसके पैर क्या कहे जाते थे।[यजुर्वेद 31.10]
When humans were formed-created, their legs, feet, mouth, hands, legs were conceived. What were they called!?
Param Purush is identified as the Almighty HIMSELF & the Virat Purush,  who came into existence after the Almighty adopted a form as Krashn & Radha Ji became his second half. Their love making process brought forward the Virat Purush, from whom all universes appeared. 
What ever has come into existence will disappear sooner or later i.e., what ever, who so ever is born has to perish.
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः। 
करू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत 
ब्राह्मण इसका मुख था (मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए) क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने (दोनों भुजाओं से क्षत्रिय उत्पन्न हुए)। इस पुरुष की जो दोनों जंघाएँ थीं, वे ही वैश्य हुई अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए और पैरों से शूद्र वर्ण प्रकट हुआ।[यजुर्वेद 31.11]
Brahmn was his mouth-Brahmn was born out of the mouth, Kshatriy from the hands, Vaeshy from the thighs and the Shudr evolved out of his legs (of Brahma Ji).
These were divine creations. Humans and other species evolved from the wives of Mahrishi Kashyap.
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। 
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत 
इस परम पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रों से सूर्य प्रकट हुए, कानों से वायु और प्राण तथा मुख से अग्नि की उत्पत्ति हुई।[यजुर्वेद 31.12]
Moon evolved out of the innerself & the Sun from the eyes, air and the Pran-life force from the ears  and Agni-fire evolved out of the mouth, of the Ultimate being-Purush.
Brahma Ji is the creator-an extension of the Virat Purush, Maha Vishnu.
नाभ्या आसीदन्तरिक्ष शीर्ण्णो द्यौः समवर्तत। 
पद्य भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकों अकल्पयन्
उन्हीं परम पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष लोक उत्पन्न हुआ, मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ, पैरों से पृथ्वी, कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुष में ही कल्पित हुए।[यजुर्वेद 31.13]
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। 
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥
जिस पुरुष रूप हविष्य से देवों ने यज्ञ का विस्तार किया, वसन्त उसका घी था, ग्रीष्म काष्ठ एवं शरद्।[यजुर्वेद 31.14]
The demigods extended the life system-evolution as a Yagy by using the humans as offering, spring season as Ghee-butter oil, summer as wood and the winters. 
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबनन् पुरुषं पशुम्॥ 
देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्प से) पुरुष रूप पशु का बन्धन किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे। इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अति जगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकार से) समिधाएँ बनीं।[यजुर्वेद 31.15]
When the demigods-deities trapped the human being as an animal, the seven oceans became its circumference-limits. 21 Chhand-a set of Vaedic verses were as used Samidha-wood.
The humans were blessed with the secret-confidential knowledge of the Veds to make use of it to modify-improve their lives. 
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। 
तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्व साध्याः सन्ति देवा:॥
देवताओं ने (पूर्वोक्त रूप से) यज्ञ के द्वारा यज्ञ स्वरूप परम पुरुष का यजन (आराधन) किया। इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्म के आचरण से वे देवता महान् महिमा वाले होकर उस स्वर्ग लोक का सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्य-देवता निवास करते हैं। अतः हम सभी सर्वव्यापी जड-चेतनात्मक रूप विराट् पुरुष की कर बद्ध स्तुति करते हैं।[यजुर्वेद 31.16]
It was the endeavour of the deities-demigods to worship the Yagy Purush-Almighty. First one to emerge from this endeavour as Yagy was Dharm Raj-Yam Raj to regulate birth & death of the organism. The demigods enjoy the heaven by following the tenants of Dharm, an abode of Sadhy Gan.  In this manner we pray to the Virat Purush-Maha Vishnu, who is present in every non living & living, with folded hands.
EVOLUTION सृष्टि रचना-सृष्टि उत्पत्ति सूक्त :: सृष्टि की रचना-नासदीय सूक्त : यह ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 129 वां सूक्त है। इसका संबंध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। 
नासदीय सूक्त :- ऋग्वेद, ऋषि :- प्रजापति, परमेष्ठी देवता :- भाववृत्त।
जब सत् भी नहीं था, असत् भी नहीं था, तम के द्वारा तम ढँका हुआ था, तब वह निस्पन्द अवस्था में था। इस प्राण की सत्ता तब भी थी, किन्तु उसमें कोई गति न थी; आनीदवातम्’ का अर्थ है, ‘जब हवा भी नहीं थी, वह ब्रह्म अकेला अपने ही दम पर साँसें ले रहा था, वह अस्तित्व वान था! स्पन्दन का विराम हो जाने पर भी ‘वह’ था! तब एक बहुत लम्बे विराम के उपरान्त जब कल्प का आरम्भ होता है, तब "आनीदवातम् निस्पन्द" परमाणु स्पन्दन आरम्भ कर देता है और प्राण आकाश को आघात पर आघात प्रदान करता है। परमाणु घनी भूत होते हैं और उनके संगठन की इस प्रक्रिया में विभिन्न तत्व बन जाते हैं।
Nothing was present when the Almighty was there all alone in a formless state, breathing though air was not there. All pure form of energy, no particulate matter. Energy became mass-atoms. Atoms condensed to form numerous elements, molecules leading to formation of matter followed by and evolution of life. Every thing was in a state of rest-inertial stage, HE took a form and then the universe emerged.
 नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्। 
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम्॥
प्रलय-काल में असर नहीं था। सत्य भी उस समय नहीं था, पृथ्वी-आकाश भी नहीं थे। तब कौन यहाँ रहा था। ब्रह्माण्ड कहाँ था, गम्भीर जल भी कहाँ था।[ऋग्वेद 10.129.1]
इस जगत् की उत्पत्ति से पहले ना ही किसी का आस्तित्व था और ना ही अनस्तित्व अर्थात इस जगत में केवल परमात्मा ही था। तब न हवा थी, ना आसमान था और ना उसके परे कुछ था। चारों ओर समुन्द्र की भाँति गम्भीर और गहन बस अंधकार के अलावा कुछ नहीं था।
पदच्छेद अन्वय :- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्।   
तदानीम्  तब प्रलयावस्थामें (असत् + न + आसीत्) ‘अभाव’ (किसी वस्तु का न होना, उस वस्तु का “अभाव” कहा जाता है, जैसे वंध्या का पुत्र तथा “अन्योन्य अभाव” परस्पर अभाव, जैसे घट में पट का न होना तथा पट में घट का न होना।) नहीं था, (नो + सत् + आसीत्) ‘भाव’ भी नहीं था अर्थात उस अवस्था में व्यक्ता व्यक्त कुछ भी प्रतीत नहीं होता था ( रजः + न + आसीत्) लोक-लोकान्तर भी न थे। ” [(निरुक्त 4.19) के अनुसार ” लोका रजान्स्युच्यन्ते ” में लोकों का नाम रज है] (व्योम + नो) आकाश भी नहीं था (परः + यत्) आकाश से भी पर यदि ‘कुछ’ हो सकता है तो वह भी नहीं था (कुह) किस देश में (कस्य + शर्मन्) किसके कल्याण के लिये (किम + आवरीवः) कौन किसको आवरण करे। इस लिये आवरण भी नहीं था (किम्) क्या (गहनम्), (गभीरम्) गभीर, (अम्भः) जल (आसीत्) था ? नहीं।
ऋषि इस प्रथम ऋचा में व्यक्त संसार के अस्तित्व का निषेध करते हैं। प्रलयावस्था में असत् या सत् कुछ प्रतीत नहीं होता था। कोई लोक वा यह दृश्यमान आकाश भी प्रतीत नहीं होते थे। अत्यन्त गभीर जलादिक भी नहीं था। जब कुछ नहीं था तो उसका आवरण भी नहीं था। यह स्पष्ट है कि बीज की रक्षा के लिये आवरण हुआ करता है। इसी प्रकार गेहूँ, यव, चने आदि पदार्थों में आवरण होते हैं। जब आच्छाद्य नहीं था, तब आच्छादक का भी अभाव था (आ + अवरीवः) यह ‘वृ’धातु से यड्लुगन्त में लड् लकार का रूप है।
उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत् भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः स्वर्गलोक, मृत्युलोक और पाताल लोक भी नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था। वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था? उस समय गहन कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था अर्थात् वे सब नहीं थे।
Prior to evolution nothing was present. It was only the Almighty who existed every where. No air, no water, so sky. It was full of darkness after vast devastation-annihilation. It was all quit. Universe, Solar System, Earth, Heaven and Nether world too did not exist.
The space is filled with energy. The Almighty is  formless, shapeless, figure less at this stage. The energy fuses into mass and the Almighty appears as Shri Krashn.
Devastation & annihilation are cyclic and intermediate in nature like the 108 beads of a rosary. All living being assimilate-merge in Brahma ji to evolve in next Kalp.
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः। 
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास॥
उस समय न मृत्यु थी न अमृत ही था। रात्रि और दिन भी नहीं थे। वायु से शून्य और आत्मा के अवलम्ब श्वास-प्रश्वास वाला एक ब्रह्म मात्र ही था। उसके अतिरिक्त सब शून्य था।[ऋग्वेद 10.129.2]
उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत का अभाव था। रात्रि और दिन का ज्ञान भी नहीं था। उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।
उस समय न ही मृत्यु थी और न ही अमृत्व।  न ही पृथ्वी पर कोई जीवन था और न ही स्वर्ग में रहने वाले अमर लोग थे, उस समय दिन और रात भी नहीं थे। उस समय बस एक अनादि पदार्थ था (जिसे प्रकृति कहा गया है), मतलब जिसका आदि या आरंभ न हो और जो सदा से बना चला आ रहा हो।
(न + मृत्युः + आसीत्) न मृत्यु थी (न + तर्हि + अमृतम्) न उस समय अमृत था (न + रात्र्याः + अह्नः) न रात्रि और दिन का (प्रकेतः + आसीत्) कोई चिह्न था। तब उस समय कुछ था या नहीं? ब्रह्म भी था या नहीं? इस पर कहते हैं कि (अवातम्) वायुरहित (तत् + एकम्) वह एक ब्रह्म (स्वधया) प्रकृति के साथ (आनीत्) चेतन स्वरूप विद्यमान था। (तस्मात् + ह् + अन्यत्) पूर्वोक्त प्रकृति सहित ब्रह्म के अतिरिक्त (किञ्चन + न) कुछ भी नहीं था। अतः (परः) सृष्टि के पूर्व कुछ भी नहीं था। यह सिद्ध होता है।
आनीत्-प्राणनार्थक ‘अन’ धातु का ‘आनीत्’ यह रूप है, (अवातम्) वायुरहित। बिना वायु का वह एक ब्रह्म विद्यमान था। ‘जब वायु भी नहीं थी, वह ब्रह्म अकेला अपने ही दम पर सांसे ले रहा था, वह अस्तित्ववान था! केवल वह ‘एक’ ही नहीं था, किन्तु ‘स्वधा’ भी उसके साथ थी स्वधया’ यह तृतीय का एक वचन है। सायण ‘स्वधा’ शब्द का अर्थ ‘माया’ करते हैं। वास्तव में वेदान्ताभिमत अनिर्वाच्य ‘मायावाची स्वधा’ शब्द यहाँ नहीं है, किन्तु यह स्वधा ‘प्रकृतिवाची शब्द’ है। यदि जगत् के मूल कारण का नाम माया अभिप्रेत हो, तो नाम मात्र के लिए विवाद करना व्यर्थ है। तब उस मूल कारण का नाम ‘माया’ यद्वा ‘प्रकृति’ यद्वा ‘प्रधान’, ‘अव्यक्त’, ‘अज्ञान’, ‘परमाणु’ इत्यादि कुछ भी नाम रख लें।
किन्तु ‘माया’ और ‘प्रकृति’ या ‘अव्यक्त’ इत्यादि शब्द की अपेक्षा ‘स्वधा’ शब्द बहुत उपयुक्त है। क्योंकि स्व = निज सत्ता। जो निज सत्ता को धा = धारण किये हुये विद्यमान हो, उसे स्वधा कहते हैं। “स्वं दधातीति स्वधा” ~ जो अपने को धारण करती है, उसे स्वधा कहते हैं। जैसे परमात्मा की सत्ता बनी रहती है, तद्वत् जड़ जगत् के मूल कारण की भी सत्ता सदा बनी रहती है।
इसलिए उसको स्वधा कहते हैं। "सह युक्तेsप्रधाने" [अ. 2.3.19] इस सूत्रानुसार सह [सहार्थ के योग में स्वधा] शब्द का तृतीया के एकवचन में स्वधया रूप है।
That was the occasion when neither death or immortality existed. It was neither day nor night. It was just the Brahm, Almighty-God who prevailed, WHO has neither beginning not end. HE is since ever for ever. HE evolves by HIMSELF. HE is the only one WHO perpetuate none else, nothing else.
तम आसीतीत्तमसा गूढमग्रेsप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।
तुच्छ्येनाम्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्॥
सृष्टि-रचना से पूर्व सर्वत्र अंधकार ही अंधकार व्याप्त था। सब कुछ अज्ञात था। सब ओर जल ही जल था। वह पूर्ण व्याप्त ब्रह्म अविद्यमान पदार्थ से ढका था। वह एक तत्त्व तप के प्रभाव से विद्यमान था।[ऋग्वेद 10.129.3] 
Prior to evolution it was dark all around. Nothing was known. It was water all around. The Brahm was shrouded with the non existent-unknown matter. HE existed due to the Tap-ascetics.
The Brahm-Almighty was present in pure energy-unrevealed form i.e., HE was formless.
अग्रे + तमः + आसीत्) सृष्टि के पूर्व तमोवाच्य जगन्मूल कारण प्रधान था और (तमसा) उसी तमोवाच्य प्रधान से (इदम् + सर्वम्) यह वर्तमान कालिक दृश्यमान सब कुछ (गूढ़म्) आच्छादित था, अत एव (अप्रकेतम्) वह अप्रज्ञात था। पुनः (सलिलम् + आः) दुग्ध मिश्रित जल के समान कार्य-कारण में भेद शून्य यह सब था। पुनः (आभु) सर्वत्र व्यापक (यत्) जो जगन्मूल कारण प्रधान था, वह भी (तुच्छ्येन) तुच्छता के साथ अर्थात अव्यक्तावस्था के साथ (अपिहितम् + आसीत्) आच्छादित था (तत्) वही ‘प्रधान‘ या स्वधा (एकम्) एक होकर (तपसः + महिना) परमात्मा के तप के महिमा से (अजायत) व्यक्तावस्था में प्राप्त हुआ।
प्रथम ऋचा में सत् और असत् इन दोनों का विवरण इसलिए किया कि यह दोनों नहीं ज्ञात होते थे। पुनः द्वितीय ऋचा में अमृत इत्यादिकों का अभाव कथन कर उस अवस्था में भी एक परमात्मा की स्वधा के साथ विद्यमानता बतलायी गई अर्थात जगन्मूल कारण जड़ प्रकृति अव्यक्तावस्था में होने से नहीं के बराबर थी, किन्तु उसके साथ सब में चैतन्य देने वाला एक परमात्मा विद्यमान था इत्यादि वर्णन पूर्वोक्त दोनों ऋचाओं में किया गया।
अब लोगों को यह सन्देह हो कि जड़ जगत का मूल कारण क्या ”सर्वथैव शशविषाणदिवत् अविद्यमान” था जो सर्वथा नहीं होते, जैसे शशविषाण, वन्ध्यापुत्र आदि असत् होते हैं, (वैसे ही क्या माँ काली या स्वधा असत् है?)। परमात्मा ने स्वयं इस जगत को अपने सामर्थ्य से बना लिया ?
इत्यादि आशंकाओं को दूर करने के लिए आगे कहा है कि ‘तम आसीत्’ इत्यादि जगन्मूल कारण अवश्य था और उसी मूल कारण से वर्तमान कालिक यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् आच्छादित था अर्थात केवल कारण विद्यमान था, कार्य नहीं। वह कारण भी ‘तुच्छयेन’ अव्यक्तावस्था से ढका हुआ था, तब परमात्मा की कृपा से एक होकर इस वर्तमान कालिक रूप में परिणत हुआ।
सत्त्व, रज, तम इनकी साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। उस प्रकृति के प्रधान, अव्यक्त और अदृश्य आदिक अनेक नाम हैं। यहाँ वेद में उसी को ‘तमः’ शब्द से कहा है। वेदान्त में इसी का नाम ‘अज्ञान’ (अविवेक) है, क्योंकि वह ज्ञान स्वरूप परमात्मा को भी ढक लेता है।
यासां देवा दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥
जिस जल के सारभूत तत्व तथा सोमरस का, इन्द्र आदि देवता द्युलोक में सेवन करते हैं, जो अन्तरिक्ष में विविध प्रकार से निवास करते हैं। अग्निगर्भा जल हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे।[अथर्ववेद 1.33.3]
The water which contain fire in it, the basic elements of which & the Somras consumed by the demigods & Indr Dev, present in the space-heavens grant us pleasure, peace, solace & tranquillity. 
शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं में।
घृतश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता, न आपः शं स्योना भवन्तु॥
हे जल के अधिष्ठाता देव! आप अपने कल्याणकारी नेत्रों द्वारा हमें देखें तथा अपने हितकारी शरीर द्वारा हमारी त्वचा का स्पर्श करें। तेजस्विता प्रदान करने वाला शुद्ध तथा पवित्र जल हमें सुख तथा शान्ति प्रदान करे।[अथर्ववेद 1.33.4]
Hey the deity of water-Varun Dev! Have a look over us through your blessing eyes and touch us through your soothing touch (through the body). The water which gives us energy-nourishes us should grant us pleasure and peace (solace, tranquillity).
शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त संकिर।
कृतस्य कार्यस्य चेह स्फातिं समावह
हे मनुष्य! तू सौ हाथों से धन अर्जन कर और हजार हाथों से बाँट। 
सत्कर्मों से धन एकत्र करके सुपात्रों को दान दे। इस तरह अपने किए हुए की और किए जाने वाले की बढ़ती हुई फसल को इस संसार में ठीक प्रकार से प्राप्त कर। सत्पात्रों को दिया हुआ तेरा दान बढ़ती हुई फसल के समान तुझे अनन्त गुणा होकर प्राप्त होगा ।[अथर्ववेद 3.24.5]
पेड़  जड़ें भूमि से पोषण ग्रहण करके उसकी शाखाओं और फल, फूल, पत्तों  वितरित करती हैं। एक अध्यापक हजारों-लाखों योग्य शिष्यों को पढ़ाता है।
शमीमश्वत्थ आरूढ़स्तत्र पुंसवन कृतम्।
तद्वै पुत्रस्य वेदनं तत् स्त्रीष्वाभरामसी
शमी (छौकड़) वक्ष पर जो पीपल उगता है, वह पुत्र उत्पन्न करने का साधन है। यह पुत्र-प्राप्ति का उत्तम साधन है। वह हम स्त्रियों को देते हैं।[अथर्ववेद 6.11.1]
Shami is a kind of tree. When Peepal tree grow over it, it acquires the power to generate fertility in the couple to produce a son. Hence, its given to the married women.
मा प्रगाम पथो वयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिन:।
मान्त      स्थुर्नो     अरातय:॥
हे परम पिता! हम सुपथ से कभी दूर न जावें और ऐश्वर्य युक्त देव पूजा, संगति करण और दान व्यवहार से भी दूर न जावें। अदानी लोग हमारे बीच न ठहरें अर्थात् हम सुपथ पर चलें और सुपात्रों को सदा दान देते रहें।[अथर्ववेद 13.1.59]
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता:, सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं, केवलाघो भवति केवलादी
जो मनुष्य यज्ञ द्वारा देवों की (परमात्मा की) पुष्टि नहीं करता है, न ही दान द्वारा अपने साथियों की पुष्टि करता है। वह मनुष्य व्यर्थ ही भोग-सामग्री को पाता है। सत्य कहता हूँ कि वह भोग-सामग्री उस मनुष्य के लिए मृत्यु रूप ही होती है अर्थात् उसका नाश करने वाली होती है। अकेला खाने (भोगने) वाला मनुष्य केवल पाप को ही भोगने वाला होता है। धन कभी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता है।[ऋग्वेद 10.117.6] 
पृणीयादिन्नाधमानायतव्यान्द्राधीयां समनुपश्येत पन्थाम्।
ओहिवर्तन्तेरथ्येवचक्रान्यमन्यमुपतिष्ठन्तराय:॥
याचक को धन अवश्य देना चाहिए। दाता को अत्यन्त लम्बा मार्ग (पुण्य पथ) मिलता है। जैसे रथ चक्र नीचे ऊपर घूमता है, वैसे ही धन भी कभी किसी के पास रहता है और कभी दूसरे के पास चला जाता है। कभी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता है। देने वाले की धन-सम्पत्ति क्षीण नहीं होती है।[ऋग्वेद 10.117.5] 
न वा उ देवा: क्षुधमिद् वधं ददुरुताशितमुपगच्छन्ति मृत्यव:।
उतो रयि: पृणतो नोपदस्यत्युतापृणन्मर्डितारं न विन्दते
देवों ने क्षुधा (भूख) की जो सृष्टि की है, वह प्राणनाशिनी हैय परन्तु आहार करने पर भी तो प्राण को मृत्यु से छुट्टी नहीं मिलती है। देने वाले की धन–सम्पत्ति क्षीण नहीं होती है और जो दान न देने वाला है, उसको कोई सुखी नहीं कर सकता है। अपने धन को सत्कार्यों में लगाता रहूँ।[ऋग्वेद 10.117.1]
ये नदीनां   संस्रवन्त्युत्सास:  सदमक्षिता:।
तेभिर्मे  सर्वे:  संस्रावैर्धनं  सं स्रावयामसि
ये जो सदा चलते रहने वाले, कभी बन्द न होने वाले नदियों के स्त्रोत निरन्तर बजते रहते हैंय उन्हीं सब प्रवाहों के साथ की तरह मैं भी अपने धन को (सत्कार्यों में) लगातार प्रवाहित करता रहूँ ।[अथर्ववेद 1.15.3]
शतहस्त समाहर सहस्रहस्त संकिर:। 
कृतस्य कार्यस्य चेह स्फातिं समावह॥
हे मनुष्य! तू सौ हाथों से धन अर्जन कर और हजार हाथों से बाँट अर्थात् सत्कर्मों से धन एकत्र करके सुपात्रों को दान दे। इस तरह अपने किए हुए की और किए जाने वाले की बढ़ती हुई फसल को इस संसार में ठीक प्रकार से प्राप्त कर। सत्पात्रों को दिया हुआ तेरा दान बढ़ती हुई फसल के समान तुझे अनन्त गुणा होकर प्राप्त होगा।[अथर्ववेद 3.24.5]
भला कहीं कमाई से दशगुणित दान किया जा सकता है? कहाँ से लाया जाये दशगुणित धन? लोक में तो असम्भव बातें चलतीं हैं, जैसे कि सूर्य अपने उदय होने की दिशा भले ही छोड़ दे किन्तु मनुष्य अपनी दिशा नहीं छोड़ता। इस मन्त्र के ऋषि हैं भृगु अर्थात् वनस्पति। "फलैर्वनस्पति:" अर्थात् फलवान् वृक्ष वनस्पति है। वह सैकड़ों जड़ के तन्तुओं से भूमि से आहार लेकर सहस्र शाखा भागों से फल प्रदान करता है। यह मनुष्य के सामने आदर्श है। जो प्रत्येक क्षेत्र में लग जाता है। यदि तू एक गुरु से पढ़ा है तो दस शिष्य तैयार करने योग्य स्वयं को बना। एक पुस्तक पढ़ी है। तो दस पुस्तकें पढ़ाने योग्य बन। किसी से एक गुण प्राप्त कर दश गुण देने योग्य बन इत्यादि। यह सब कैसे होगा? "कृतस्य कार्यस्य चेह" जो पीछे किया है कार्य अर्थात् कर्त्तव्य उसे भविष्य में करना है। इन दोनों के बीच में "स्फातिं समावह" वृद्धि को ले आ, जीवन की लता को बढ़ा। जड़ की सौ तन्तुओं से आहार लेना कृत है और सहस्र शाखा भागों से फल प्रदान करना भविष्य में कर्त्तव्य है।
कुर्वन्नेह कर्माणि जिजिविषेच्छततं समा।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे
इस संसार में इस मानव चोले में मनुष्य धर्मयुक वेदोक्त निष्काम कर्मों को करता हुआ ही सौ वर्ष या बहुत वर्षों तक जीने की इच्छा करे। इस प्रकार धर्मयुक्त निष्काम कर्मों में लगे हुए मुझ विषयों में रमण ने करने वाले, मोक्षाभिलाषी मानव में कर्म नहीं लिप्त होता। कर्म से अलिप्त रहने का इससे भिन्न कोई और प्रकार नहीं है।[यजुर्वेद 40.2]
के के शतं वो अम्ब धामानि सहस्त्रमुत वोरुहः। 
अधा शतक्रत्वो यूयमिमं मे अगदं कृत॥ 
हे मातृवत् पोषण-गुण संपन्न औषधियो! आप सभी के सैकड़ों नाम हैं और सहस्रों अंकुर हैं। सैकड़ों कर्मों को सिद्ध करने वाली हे औषधियो! आप हमें आरोग्य प्रदान करें।[यजुर्वेद 12.76]
घृणा कारी दुष्टों का नाश ::
उप प्रागाद्देवो अग्नी रक्षोहामीवचातनः।
 दहन्न् अप द्वयाविनो यातुधानान् किमीदिनः॥
(देव:) प्रजाओं से प्राप्त, कर को राज्योन्नति में लगाने वाले गुणों से द्योतमान्‌ (अग्नि:) अग्रणी राष्ट्राध्यक्ष (उप प्रगात्‌) प्रजा के समीप हों। (रक्षोहा) वह राक्षस स्वभाव वाले मनुष्यों से रक्षा करने वाला तथा (अमीवचातन:) राष्ट्र में फैले रोगों का निवारक हो। (द्वयाविन:) खोटे हृदय वालेवानी से कुछ और कर्म से कुछ और  (किमीदन:) अब क्या हो रहा है, अब क्या हो रहा है, इस प्रकार राष्ट्रीय  घटनाओं के जानने के लिए उत्सुक, परराष्ट्रीय शत्रु (यातुधानान्‌) जो कि हमारा अहित करना चाहते हैं उन्हें (अप दहन्‌) हमारा राष्ट्राध्यक्ष नष्ट करे।[अथर्ववेद 1.28.1] 
प्रति दह यातुधानान् प्रति देव किमीदिनः।
 प्रतीचीः कृष्णवर्तने सं दह यातुधान्यः॥ 
(देवा) हे राष्ट्राध्यक्ष  (किमीदिन: यातुधानान्‌) उन छिद्रान्वेषी यातना पहुँचाने वाले परराष्ट्रीय शत्रुओं को (प्रति दह) प्रत्येक को अग्नि के अस्त्रों से नष्ट कर। हे (कृष्णवर्तने) शत्रु के काले व्यवहार करने वाले (प्रतीची:) यदि तेरे पर आक्रमण करें तो (सम्‌ दह) उन सब का अग्नेय अस्त्रों द्वारा संहार कर।[अथर्ववेद 1.28.2]
या शशाप शपनेन याघं मूरमादधे।
 या रसस्य हरणाय जातमारेभे तोकमत्तु सा॥
(या) जो शत्रुसेना (शपनेन शशाप) हमारी निन्दा करती है (मूरम्‌ अधम्‌)  मूलभूत घातक अस्त्र (आदधे) हम पर फेंकने के निमित्त लिए हुए है, (या) जो शत्रु सेना (रसस्य हरणाय) राष्ट्र की शक्ति को क्षीण करने के लिए (जातम्‌ तोकम्‌) हमारे नन्हें-नन्हें बच्चों को भी (आरेभे) पकड़ कर मार डालती है, (सा अस्तु) वह भी अपने दुष्कर्मों का परिणाम झेले।[अथर्ववेद 1.28.3] 
पुत्रमत्तु यातुधानीः स्वसारमुत नप्त्यम् ।
अधा मिथो विकेश्यो वि घ्नतां यातुधान्यो वि तृह्यन्तामराय्यः॥
(यातुधानी:) यातना  पहुँचाने वाले शत्रु के (पुत्रम्‌) अपने  पुत्र भी  (अस्तु) इसी प्रकार नष्ट हो जायें,  (स्वसारमुत नप्त्यम्‌) इनकी कन्याएँ बहिनें, स्त्रियाँ भी इसी प्रकार नष्ट हो जायें। (विकेश्य:) एक दूसरे के बाल नोचती हुईं (मिथ: विघ्नताम्‌) परस्पर लड़ कर नष्ट हो जायें, (यातिधान्य: अराय्य:) यातना पहुँचाने वाली  शत्रु सेनाएँ (वि तृह्यन्ताम्‌) आपस में ही लड़ कर नष्ट हो जायें।[अथर्ववेद 1.28.4]
 
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 संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)