Wednesday, December 3, 2014

GRADUATION समावर्तन संस्कार :: HINDU PHILOSOPHY (4.13) हिंदु दर्शन

GRADUATION समावर्तन संस्कार
HINDU PHILOSOPHY (4.13) हिंदु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
यह संस्कार तब किया जाता था जब बालक गुरूकुल से शिक्षा प्राप्त करके घर आता था। इस संस्कार को करने का अर्थ यह है कि बालक ने अपनी शिक्षा पूरी कर ली है और उसने ब्रह्मचर्य आश्रम को पूरा कर लिया है। इस संस्कार के साथ यह भी स्पष्ट होता था कि अब बालक युवावस्था में प्रवेश करके विवाह करने लायक हो गया है। इस संस्कार में ब्रह्मचारी-विद्यार्थी स्नान के पश्चात गुरू को गुरू दक्षिणा देते थे। तभी ब्रह्मचारी को संसार की वस्तुओं एवं सिद्धान्तों-नियमों, रीति-रिवाजों से अवगत कराया जाता था। ब्रह्मचर्य के सभी प्रतीकों को बहते जल-नदी  में प्रवाहित कर दिया जाता था। 
Samavartan Sanskar meant that the celibate had completed his education and Brahmchary Ashram-first stage in the life of a human being. Having completed his education, the disciple had to return home. The rites performed at this juncture were called Samavartan Sanskar. All the signs of his celibacy were immersed into the flowing waters of pious-holy river. He was initiated into family life and all practices, rites, ceremonies, rituals, systems were explained to him.
गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था, जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस उपाधि से स्नातक सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर, गुरु को समुचित दक्षिणा प्रदान करने पश्चात् अपने घर-परिवार, गृह स्थान के लिये प्रस्थान करता था। 
विद्याध्ययन के उपरान्त भी ब्राह्मण, आचार्य, पुरोहित शिखा पूर्ववत धारण करते हैं।  
वेद उपनयन संस्कार के अनन्तर ब्रह्मचारी गुरुकुल में निवास करता है और वहाँ वेदादि की शिक्षा ग्रहण करता है। इस संस्कार के माध्यम से उसकी विद्या पूर्ण होती है और वह मंत्राभिषेक पूर्वक गुरु की आज्ञा से स्नात होता है।ब्रह्मचर्य व्रत के चिन्ह मेखला आदि का त्याग करना पड़ता  है, जटा, लोम आदि का छेदन करके गार्हस्थ्य के उपयुक्त चन्दन, पुष्पमाला, पगड़ी, वस्त्राभूषण, अलंकार आदि का धारण होता है। जिन कर्मों का ब्रह्मचर्य व्रत में निषेध था,  जैसे दर्पण देखना, सुरमा लगाना, छाता लगाना, जूता पहनना आदि को ग्रहण करना होता है। ये सब कर्म आचार्य की देख-रेख में समन्त्रक होते हैं। फिर आचार्य को दक्षिणा देकर अपने घर में आगमन होता है। 
समावर्तन का सामान्य अर्थ है :-  गुरुकुल से शिक्षा ग्रहण अपने घर वापस लौटना। यह शिक्षा प्राप्ति का दीक्षान्त संस्कार है। इस संस्कार में ब्रह्मचर्याश्रम-विद्याध्ययन की पूर्णता होती है। उसके अनन्तर विवाह के पश्चात गृहस्थाश्रम प्रवेश की अधिकार सिद्धि होती है। वेद विद्या प्राप्तकर उसकी ब्रह्मचारी संज्ञा नहीं रहती, बल्कि वह स्नातक कहलाता है। 
आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सी:
आचार्य को दक्षिणा रूप में यथाशक्ति धन देकर प्रजातन्तु (सनातन परम्परा) की रक्षा के लिये द्विज गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे।[श्रुति] 
वेदं व्रतानि वा पारं नीत्वा ह्यभयमेव वा। 
अविप्लुप्तब्रह्मचर्यो लक्षण्यां स्त्रियमुद्वहेत्
समग्र अथवा एक या दो वेद का अध्ययन कर अस्खलित ब्रह्मचारी सुलक्षणा स्त्री से उद्वाह  (एक स्त्री को पत्नी बनाकर स्वीकार करने को उद्वाह कहते हैं) करे। वेदविद्या प्राप्त यह स्नातक विद्याव्रत स्नातक कहलाता है, क्योंकि वह वेदादि के अध्ययन एवं स्वाध्याय से महान ब्रह्मतेज से सम्पन्न होता है। अतः उस समय पिता तथा आचार्य के द्वारा भी मधुपर्क आदि के द्वारा पूज्य होता है।[याज्ञवल्कय]  
उद्वाह :: विवाह, उठाना, सँभालना, उद्वाहक, उद्वाहिक, उद्वाहित, उद्वाही, उद्वाह्य
वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वाSपि यथाक्रमम्। 
अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममावसेत्
अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन हुआ क्रम से तीनों वेद या दो वेद या फिर एक ही वेद पढ़कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे।[मनु स्मृति 3.2]  
The student may enter family life after studying 3, 2 or just one Ved by practising unbroken celibacy.
तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितु:। 
स्रग्विणं तल्प आसीनमर्हयेत्प्रथमं॥
स्वधर्म प्रसिद्ध उस ब्रह्मचारी को जो पिता से या अन्य आचार्य से वेद पढ़ चुका हो, पुष्प-माला पहना कर शय्या पर बैठाकर पहले उसका मधुपर्क विधि से पूजन करना चाहिये।[मनु स्मृति 3.3]  
In the mean while the celibate has proved himself to be a graduate having undergone studies with his father or the Guru-teacher, is garlanded and made to sit over a couch and then he is blessed with the help of Madhu Park-a sacred mixture of curd, ghee, honey, Ganga Jal & sugar.
Traditionally, in Hinduism a child or celibate is subjected to a form of prayer, in which he is treated as an image of the God, deities, demigods. The process involves his protection from the evil.
मधुपर्क :: पूजा के लिए बनाया गया दही, घी, जल, चीनी और शहद का मिश्रण या पंचामृत या चरणामृत।
गुरुणाSनुमतः स्नात्वा समावृत्तो यथाविधि। 
उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णान् लक्षणान्विताम्॥
तब गुरु से आज्ञा लेकर विधिपूर्वक समवर्तन संस्कार स्नानादि करके द्विज शुभ लक्षणयुक्त कन्या से विवाह करे।[मनु स्मृति 3.4]  
The disciple had to seek the permission-blessings of his Guru, after completing Samavartan Sanskar to return home and enter into family life, by marrying a suitable girl having pious-auspicious signs over her body. 
गुरु की आज्ञा से मंगलमय कलशों से मंत्र द्वारा पूत जल से स्नान सम्पन्न करके वह स्नातक नवीन वस्त्र-आभूषणों को धारण करके गुरु के चरणों के समीप बैठता है तो गुरु उसे आगे-भविष्य में कैसे व्यवहार करना-जीवन व्यतीत करना है, की शिक्षा देते हैं।  विद्याध्ययन पर्यन्त गुरु के समीप रहता हुआ वह ब्रह्मचर्यपूर्वक शम-दम आदि नियमों का पालन करता हुआ, अग्नि की उपासना करते हुए गुरु की सेवा-शुश्रुषा में तत्पर रहता है। घर वापसी में उसे गुरुकुल के परिवेश को छोड़कर नये परिवेश-वातावरण में प्रवेश करना होता है। घर के वातावरण में माता-पाता के स्नेह से कहीं वह नियमों के पालन से च्युत न हो जाये-भटक न जाये, शम-दमादि का उसका आचरण कहीं शिथिल न हो जाये, इसलिये गुरु उसे शिक्षा प्रदान करते हैं कि आगे भी तुम सावधान होकर यम-नियमों का दृढ़ता से सतर्क रहकर पालन करते रहना। कामवाद, कामाचार और कामभक्षण से सदा बचते रहना। नृत्य-गीतादि में अभिरुचि न रखना, सभी के साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार करना इत्यादि। विवाह हो जाने तक इन सभी नियमों का पालन करते रहना और विवाह के अनन्तर गृहस्थ धर्म के नियमों का पालन करना। [आश्वलायन स्मृति]
दीक्षान्त उपदेश :: 
सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमद:। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः। सत्यान्न प्रमदितव्यम्। धर्मान्न प्रमदितव्यम्। कुशलान्न प्रमदितव्यम्। भूत्यै न प्रमदितव्यम्। स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्। देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्।
पुत्र! तुम सदा सत्य भाषण करना। आपत्ति पड़ने पर भी झूंठ का सहारा कदापि नहीं लेना। अपने वर्णाश्रम के अनुकूल शास्त्रसम्मत धर्म का पालन-अनुष्ठान करना। स्वाध्याय से अर्थात वेदों के अभ्यास, सन्ध्यावन्दन, गायत्री जप और भगवन्नाम-गुण कीर्तन आदि नित्यकर्म में कभी भी प्रमाद मत करना अर्थात न तो कभी उन्हैं अनादर पूर्वक करना और न ही आलस्य वश ही उनका त्याग ही करना। गुरु के लिए दक्षिणा के रूप में उनकी रूचि के अनुरूप धन लाकर प्रेमपूर्वक देना। फिर उनकी आज्ञा से गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके स्वधर्म का पालन करते हुए संतान पैदा करने की परम्परा को सुरक्षित रखना, उसका लोप न करना। अर्थात शास्त्र विधि के अनुसार विवाहित धर्मपत्नी के साथ ऋतुकाल में नियमित सहवास करके सन्तानोत्पत्ति का कार्य करना। तुमको कभी भी सत्य से नहीं चूकना चाहिये अर्थात हँसी-दिल्लगी या व्यर्थ की बातों में वाणी की शक्ति को न तो नष्ट करना चाहिये और न ही परिहास आदि के बहाने कभी झूंठ बोलना चाहिये। इसी प्रकार धर्म पालन में भी भूल नहीं करनी चाहिये अर्थात कोई बहाना बनाकर या आलस्यवश कभी धर्म की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। लौकिक और शस्त्रीय-जितने भी कर्तव्य रूप से प्राप्त शुभ कर्म हैं, उनका कभी त्याग या उनकी अवलेहना-उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। यथायोग्य उनका अनुष्ठान करते रहना चाहिये। धन-सम्पत्ति को बढ़ाने वाले लौकिक उन्नति के साधनों के प्रति भी उदासीन नहीं रहना चाहिये। इसके लिये भी वर्णाश्रमानुसार चेष्टा करनी चाहिये। पढ़ने और पढ़ाने का जो मुख्य नियम है, उसकी कभी अवलेहना या आलस्यपूर्वक त्याग नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार अग्निहोत्र और यज्ञादि के अनुष्ठानरूप देवकार्य तथा श्राद्ध-तर्पण आदि पितृकार्य के सम्पादन में भी आलस्य या अवलेहनापूर्वक प्रमाद नहीं करना चाहिये।[तैत्तिरीयोपनिषद्] 
मातृ देवो भव*1। पितृ देवो भव। आचार्य देवो भव। अथितिदेवो भव। यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि। यान्यस्माक: सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि। नो इतराणि।ये के चास्मच्छ्रेया सो ब्राह्मणाः। तेषां त्वयाऽसनेन प्रश्वसितव्यम्। श्रद्धया देयम्। अश्रध्यादेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्।
पुत्र! तुम माता में देवबुद्धि रखना, पिता में भी देवबुद्धि रखना, आचार्य में देवबुद्धि रखना तथा अतिथि में भी देवबुद्धि रखना।[तैत्तिरिय उपनिषद] 
*1 "मातृ देवो भव" अर्थात माता देवताओं से भी बढ़कर है।
"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपि गरीयसी" अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। 
"माता गुरूतरा भूमेः" अर्थात माता इस भूमि से कहीं अधिक भारी होती हैं।
"अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामः मातृमान् पितृमानाचार्यवान पुरूषो वेदः"
अर्थात जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो तो तभी मनुष्य ज्ञानवान होगा। 
"नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया"
अर्थात माता के समान कोई साया-रखवाला नहीं है, माता के समान कोई सहारा नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय चीज नहीं है।
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाःपरं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः।मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवेकुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥ 
अर्थात पृथ्वी पर जितने भी पुत्रों की माँ हैं, वह अत्यंत सरल रूप में हैं।
आशय यह कि इन चारों को ईश्वर की प्रतिमूर्ति समझकर श्रद्धा और भक्ति पूर्वक सदा इनकी आज्ञा का पालन, नमस्कार और सेवा करते रहना। इन्हें सदा अपने विनयपूर्ण व्यवहार से प्रसन्न रखना। जगत में जो निर्दोष कर्म हैं, उन्हीं का तुम्हें सेवन करना चाहिये। उनसे भिन्न जो दोषयुक्त-निषिद्ध कर्म हैं, उनका कभी भूलकर-स्वप्न में भी आचरण नहीं करना चाहिये। हमारे-अपने गुरुजनों के आचार व्यवहार में भी जो उत्तम (शास्त्र एवं शिष्ट पुरुषों द्वारा अनुमोदित) आचरण हैं, जिनके विषय में किसी प्रकार की शंका का स्थान नहीं है, उन्हीं का तुम्हें अनुकरण करना चाहिये, उन्हीं का सेवन करना चाहिये। जिनके विषय में जरा सी भी शंका हो, उनका अनुकरण कभी नहीं करना चाहिये। जो कोई भी हमसे श्रेष्ठ :- वय, विद्या, तप, आचरण आदि में बड़े तथा ब्राह्मण आदि पूज्य पुरुष घर पर पधारें, उनका पाद्य, अर्ध्य, आसन आदि प्रदान करके सब प्रकार से उनका सम्मान तथा यथायोग्य सेवा करनी चाहिये। अपनी शक्ति के अनुसार दान करने के लिये तुम्हें सदा उदारता पूर्वक तत्पर  रहना चाहिये। अश्रद्धापूर्वक नहीं देना चाहिये क्योंकि बिना श्रद्धा के किये हुए दान आदि कर्म असत् माने गए हैं। 
 यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते। 
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥
यज्ञ तथा तप और दान रूप क्रिया में जो स्थित (निष्ठा रखता है) है वह भी सत् कहा जाता है और उस परमात्मा के निमित्त किया जाने वाला कर्म भी सत् कहा जाता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.27]  
The performer of Yagy-Holy sacrifices in fire, Tap-ascetic practices and Dan (donations, charity) and the one who has faith in these practices do represent Sat :- Purity, Austerity, Truth and the deeds (performances, practices) selfless service for the sake-cause of the Almighty do represent Sat (Purity).
यज्ञ तथा तप और दान करना और उनमें निष्ठा-विश्वास-आस्था रखना भी सत् है। लौकिक, पारमार्थिक और दैवी सम्पदा सत् स्वरूप और मोक्ष प्रदायक हैं। मानव मात्र के कल्याण के लिये निष्काम भाव से किया गया कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं जाता। जो परमात्मा को चाहता है, वो अपना कल्याण और मुक्ति चाहता है। भक्ति चाहने वाला भी भगवान् के हेतु ही कर्म करता है। ये सभी कर्म-क्रियाएँ सत् स्वरूप हैं। 
Faith in Yagy, Tap and Dan is Sat. Anything done for the sake of the God is also Sat. Pure deeds, service of the mankind without any motive-desire for return, divine activities like devotion to God, prayers of deities-demigods as a form-representative of the God-Ultimate, do grant Salvation-Assimilation in the God-Liberation. Selfless service of the man kind, never goes waste. One who loves God, loves Salvation. One who loves devotion, do perform for the sake of the God. These pure, uncontaminated, pious, righteous, virtuous performances-deeds meant for the God's cause, do grant Salvation.
 लज्जापूर्वक देना चाहिये अर्थात सारा धन भगवान् का है, मैने इसे अपना मानकर उनका अपराध-अपमान किया है। इसे सब प्राणियों के हृदय में स्थित भगवान् की सेवा में लगाना उचित था, जो मैने नहीं किया। मैं जो कुछ दे रहा हूँ, वह भी बहुत कम है। यों सोचकर संकोच का अनुभव कर्त्रे हुए दान देना चाहिये। मन में दानीपन के अभिमान को नहीं आने देना चाहिये। सर्वत्र और सब में भगवान् ही हैं, अतः दान लेने वाला भी भगवान् ही है। उनकी बड़ी कृपा है कि मेरा दान स्वीकार कर रहे हैं। यों विचार कर भगवान् से भय मानते हुए दान देना चाहिये। हम किसी का उपकार कर रहे हैं, ऐसी भावना मन में लाकरअभिमान या अविनय नहीं प्रकट करना चाहिये। परन्तु जो कुछ दिया जाये, वह विवेकपूर्वक, सुपात्र को उसका परिणाम समझकर निष्काम भाव से कर्तव्य समझकर देना चाहिये। 
 दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे। 
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥ 
दान देना कर्तव्य है-ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर अनुकारी को अर्थात निष्काम भाव से दिया जाता है, वह दान सात्विक कहा गया है।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.20]  
Satvik-pious donation is one which has been made without the desire for returns, made as a matter of duty, to a deserving person, at the right time-occasion & place. 
प्रत्येक मनुष्य को अपनी सात्विक, गाढ़े खून-पसीने की मेहनत की कमाई का छठा भाग दान-धर्म के निमित्त निकाल देना चाहिये। इसे प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्तव्य समझना चाहिये। दान के बदले में परमात्मा या किसी अन्य से कोई लाभ या प्रत्युपकार की भावना नहीं होनी चाहिये। दान का महत्व देश, स्थान, तीर्थ, अवसर से बढ़ जाता है। दान लेने वाले की पात्रता मुख्य चीज है। वेदपाठी ब्राह्मण, सदगुणी-सदाचारी भिक्षुक या कोई भी सुपात्र-व्यक्ति जिसे सहायता की आवश्यकता है, उपयुक्त है। आजकल जिस प्रकार अंधाधुंध दान की रकम संस्थाओं के नाम पर वसूलकर, आतंकियों, धर्म परिवर्तन करने वालों, व्याभिचारियों को दी जा रही है, वो सिवाय दुःख-पाप के कुछ और नहीं देती। भारत में ही लाखों की तादाद में ऐसे लोग हैं, जो देश-विदेश से दान प्राप्तकर मौज-मस्ती में उड़ा रहे हैं। जिस प्रकार दान का फल दस गुना होता है, उसी प्रकार निकृष्ट और अनुपयुक्त व्यक्ति को दिया गया दान दस गुना पाप उत्पन्न करता है। दान केवल और केवल ईमान की कमाई का फलता है। मन्दिर को प्राप्त हुई दान की राशि को तुरन्त समाज कल्याण में लगा देना चाहिये, अन्यथा गजनी, मुसलमान और अँग्रजों जैसे लुटेरों का खतरा बना ही रहता है। मन्दिर के धन को जो लोग व्यक्तिगत उपयोग में लाते हैं, उनकी सदगति नहीं होती।
The scriptures have clearly mentioned that everyone should set aside one sixth of his pious earnings for the sake of donations-charity to the deserving, disabled, needy or one in difficulty, downtrodden, poor. The Shastr advocates donations to the learned Brahmns, scholars, Pandits and the students getting education in Ashrams, Guru Kuls, which do not have any source of earnings. The society should take care of the insane, widows, disabled, fragile-sick, aged. India has traditionally saw the farmers, the rich, the traders, the kings extending help to the poor, down trodden and the lower segments of the society. One remembers his grandfather who did not carry grain to home, until-unless the wheat was distributed amongest the regular workers, poor and the needy. Huge sums of money are pouring into non deserving hands in India, now a days. The money is used for conversion to Islam or Christianity. Most of the receivers are enjoying with this money. A lot of money is falling into the hands of separatists-terrorists. Money received by Pakistan from America is utilised for terrorist activities. Wahabis are using ill gotten money to spread unrest in Kashmir. Paupers in Kashmir involved in anti national activities, have become multimillionaires with such funds. Their own children are studying in Europe & America, but the poor for whom the transactions were made are still living in extreme poverty. The temples should immediately utilise this money for social cause and upliftment of poor. Their is always the danger of invaders like Ghajni, Muslims and the Britishers who did not spare even the temples. One finds that the Pujaries-Priests of a famous temple (Kalka Devi) in Delhi use the donations entirely for their person use. The scriptures clearly mention that such people will definitely move to lower species like dogs, in their next birth. Donations made at pilgrim sites, holy rivers-reservoirs on auspicious dates and specific places like Haridwar, Kashi, Dwarka, Rameshwaram, Maha Kal-Ujjain, Tri Veni Sangam Allahabad (Pryag Raj), Nasik, Badri Nath etc. are more rewarding. However, one must not donate with the desire for returns. The donations with pious, honest money provides ten times benefits. Donations made with ill gotten money generate ten times sins and the person moves to undefined hells for millions of years.
Gurudwaras abroad and Mosques-Madarsas within the country are busy sowing the seeds of discord-hatred for other communities, specifically Hindus. They collect billions as donation and pass over for terrorist activities in India. Their sole aim is power.
Please refer to :: VIRTUES पुण्य santoshsuvichar.blogspot.com
इस प्रकार दिया हुआ दान ही भगवान् की प्रीति-कल्याण का साधन बन सकता है। वही अक्षय फल देने वाला है। 
अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात्। ये तन्न ब्राह्मणा: सम्मर्शिन:। युक्त्ता आयुक्ता:। अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तत्र वर्तेरन्। यथा तत्र वर्तेथा:। अथाभ्याख्यातेषु। ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिन:। युक्त्ता आयुक्त्ता:। अलूक्षा धर्मकामा स्युः। यथा ते तेषु वर्तेरन्। यथा तेषु वर्तेथा: एष आदेश:। एष उपदेशः। एषा वेदोपनिषत्। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्। एवमु चैतदुपास्यम्। 
यह सब करते हुए भी यदि तुमको किसी अवसर पर अपना कर्तव्य निश्चित करने में दुविधा उत्पन्न हो जाये, अपनी बुद्धि से किसी एक निश्चय पर पहुँचना कठिन हो जाये, तुम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाओ, तो ऐसी स्थिति में वहाँ जो कोई उत्तम विचार रखने वाले, उचित परामर्श देने में कुशल, सत्कर्म और सदाचर में तत्परतापूर्वक लगे हुए, सबके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करने वाले तथा एक मात्र धर्म पालन की ही इच्छा रखने वाले विद्वान ब्राह्मण (या अन्य कोई वैसे ही महापुरुष) हों, वे जिस प्रकार ऐसे प्रसंगों पर आचरण करते हों, उसी प्रकार का आचरण तुम्हें भी करना चाहिये। ऐसे स्थलों में उन्हीं के सत्परामर्श के अनुसार उन्हीं के स्थापित आदर्श का अनुगमन करना चाहिये। इसके अतिरिक्त जो मनुष्य किसी दोष के कारण लांछित हो गया हो, उसके साथ किस समय कैसा व्यवहार करना चाहिये, इस विषय में भी यदि तुमको दुविधा हो तो और तुम अपनी बुद्धि से निर्णय न कर सको तो वहाँ भी जो विचारशील परामर्श देने में कुशल, सत्कर्म और सदाचर में पूर्णतया संलग्न तथा धर्मकर्मी (सांसारिक धनादि की कामना से रहित) निस्वार्थी विद्वान् ब्राह्मण हों, वे लोग उसके साथ जैसा व्यवहार करें, वैसा ही तुमको भी करना चाहिये। उनका व्यवहार ही इस विषय में प्रमाण है।
यही शास्त्र की आज्ञा है, शास्त्रों का निचोड़ है। यही माता-पिता का अपने शिष्यों और सन्तानों के प्रति उपदेश है। तथा यही सम्पूर्ण वेदों का रहस्य है। इतना ही नहीं, अनुशासन भी यही है। ईश्वर की आज्ञा तथा परम्परागत उपदेश का नाम अनुशासन है। इसलिये तुम इसी प्रकार कर्तव्य एवं सदाचर का पालन करना चाहिये। 
"एतदेव व्रतादेशनविसर्गेषु"
समावर्तन संस्कार में वेदारम्भ एवं उपनयन संस्कार में विहित अधिकांश विधियों को सम्पादित किया जाता है।[पारस्कर गृह्यसूत्र] 
अत्र समावर्तने मातृपूजनादिपूर्णपात्रदानान्तमाचार्यस्य कृत्यम्। 
अष्टकलशाभिषेकादिदण्डनिधानान्तं ब्रह्मचारिण: बटो: कृत्यम्
             इसमें मातृपूजनादि से लेकर पूर्णपात्रदि दान तक का कर्म आचार्य द्वारा सम्पन्न किया जाता है। तदनन्तर अष्ट कलशों द्वारा अभिषेक से लेकर दण्ड धारण के कार्य स्नातक द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं।
सर्वप्रथम बटुक स्नान करने के लिये वर*2  (दक्षिणा) रूप से आचार्य को गौ आदि प्रदान करने का संकल्प करे। 
*2 गौर्विशिष्टतमा विप्रैर्वेदेष्वपि निगद्यते। 
न ततोऽन्यद्व्ररं यस्मात्तस्माद्गौर्वर उच्यते
वेदों तथा ब्राह्मणो द्वारा गौ को दक्षिणा के लिये सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इसलिये गौ को वर कहा गया है।[कात्यायन स्मृति 27.14] 
गोदान संकल्प :: 
ॐ अद्य...अहं स्नानाधिकारसिद्धये इमां गां गोप्रत्याम्नायनिष्क्रयभूतां दक्षिणां आचार्याय भवते सम्प्रददे।
कहकर आचार्य को गोनिष्क्रयद्रव्य प्रदान करे। 
स्नानार्थ अनुमति :: 
ब्रह्मचारी कहे :- भो गुरो! अहं स्नास्यामि। हे गुरुवर! में स्नान करूँगा। 
आचार्य कहें :- स्नाहि। स्नान करो। 
इस प्रकार गुरु की आज्ञा प्राप्त कर बटुक स्नान करे। 
इसके बाद आचार्य समावर्तन संस्कार के लिये निर्मित वेदी के समीप आकर पूर्वमुख आसन पर बैठे और सभी सामग्रियों को यथास्थान रख ले। अपने दक्षिण भाग में स्नातक को उत्तर मुख बैठा लें। तदनन्तर आचमन, प्राणायाम आदि करके गणेशादि देवों का स्मरणात्मक पूजन कर लें। 
अग्नि स्थापना :: आचार्य समावर्तन संस्कार के लिये बनाई गई पंच भूसंस्कार से सम्पन्न वेदी पर सुवासिनी के द्वारा लाई गई निर्घुम अंगारमय अग्नि को स्थापित करने के लिये हाथ में जल, अक्षत, पुष्प लेकर निम्न संकल्प करें :- 
ॐ अद्य...गोत्रः...शर्माहमस्य माणवकस्य समावर्तनसंस्कारकर्मणि वैश्वानरनामकमग्नैः स्थापनं करिष्ये। 
कहकर संकल्प जल छोड़ दें। 
निम्न मन्त्र से वेदी पर अग्नि स्थापना करें :- 
ॐ अग्नि दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे। देवाँ आ सदयादिह।
अग्नि के ऊपर उसकी रक्षा के लिये कुछ काष्ठ आदि रखकर उसे प्रज्ज्वलित करें। 
ब्रह्मावरण :: ब्राह्मण के न होने पर पचास कुशों में ग्रंथि लगाकर कुश ब्रह्मा तैयार कर लिया जाता है। इस स्थिति में ब्रह्मावरण की प्रक्रिया आचार्य द्वारा की जानी चाहिये। 
इसके बाद ब्रह्मा के वर्ण के लिये पुष्प, चन्दन, वस्त्र आदि वर्ण सामग्री लेकर संकल्प करें :- 
ॐ अद्य...बटो: समावर्तनहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षरूपब्रह्मकर्मकतुं...गोत्रं...शर्माणं ब्राह्मणमेभिः पुष्पचन्दनताम्बूलयज्ञोपवीतवासोभिः ब्रह्मत्वेन भवन्तमहं वृणे। 
यह कहकर वर्ण सामग्री ब्रह्मा (ब्राह्मण, पुरोहित, आचार्य) कोस समर्पित करें। 
ब्रह्मा कहे :- वृतोस्मि। 
आचार्य कहे :- यथाविहितं कर्म कुरु। विधि के अनुसार कर्म करो। 
ब्रह्मा कहे :- यथाज्ञानं करवाणि-अपनी बुद्धि के अनुसार करूंगा।
इसके बाद अग्नि के दक्षिण में स्थापित शुद्ध आसन पर पूर्व दिशा में अग्रभाग करके कुश बिछायें। फिर ब्रह्मा कहे :- अस्मिन् कर्मणि त्वं ब्रह्मा भव। आप इस समावर्तन कर्म में ब्रह्मा बनें। 
ब्रह्मा कहें :- ॐ भवामि-मैं बनता हूँ। 
इसके बाद बटुक ब्रह्मा की प्रार्थना करे :- 
यथा चतुर्मुखो ब्रह्मा सर्ववेदधर: प्रभुः। 
तथा त्वं मम यज्ञेस्मिन् ब्रह्मा भव द्विजोत्तम 
ब्रह्मा को अग्नि की प्रदक्षिणा कराकर वेदी के दक्षिण भाग में आसन पर बैठा दें।
कुशकण्डिका :: 
प्रणीता पात्र स्थापन :- इसके पश्चात यजमान प्रणीता पात्र को आगे रखकर जल से भर दे और उसको कुशाओं से ढककर तथा ब्राह्मण का मुख देखकर अग्नि की उत्तर दिशा की ओर कुशाओं के ऊपर रखे। 
Thereafter, a wooden pot is filled with water and is covered with the Kush, while visualising the priest in the North direction of fire place & placed over the Kush grass.
अग्नि वेदी के चारों तरफ कुश आच्छादन-कुश परिस्रण :- इक्यासी कुशों को ले (यदि इतने कुश उपलब्ध न हों तो तेरह कुशों को ग्रहण करना चाहिये। उनके 3-3 के 4 भाग करे। कुशों के सर्वथा अभाव में दूर्वा से भी काम चलाया जा सकता है।) इनको 20-20 के चार भाग में बाँटे। इन चार भागों को अग्नि के चारों ओर फैलाया जाये। ऐसा करते वक्त हाथ कुश से खाली नहीं रहना चाहिये। प्रत्येक भाग को फैलाने पर हाथ में एक कुश बच रहेगा। इसलिये पहली बार में 21 कुश लेने चाहिये। कुश बिछाने का क्रम :- कुशों का पहला हिस्सा (20 + 1) लेकर पहले वेदी के अग्नि कोण से प्रारम्भ करके ईशान कोण तक उन्हें उत्तराग्र बिछाये। फिर दूसरे भाग को ब्रह्मासन से अग्निकोण तक पूर्वाग्र बिछावे। तदनन्तर तीसरे भाग को नैर्ऋत्य कोण से वायव्य कोण तक उत्तराग्र बिछावे और चौथे भाग को वायव्य कोण से ईशान कोण तक पूर्वाग्र बिछावे। पुनः दाहिने खाली हाथ से वेदी के ईशान कोण से प्रारम्भकर वामावर्त ईशानकोण पर्यन्त प्रदक्षिणा करे।
81 Kush pieces are taken and grouped in to blocks of 3-3 and subsequently divided into 4 parts. These 4 segments have to be spreaded around the fire place.  The hand should not be empty while doing so. On taking 21 pieces, 20 will be placed and one will still be there in the hand. The first group of Kush grass should be kept till the Ishan Kon i.e., North-East direction beginning from the South-East direction till the North front. The second group should be laid starting from the seat of the Priest till the South-West direction keeping the Eastern section in front. The third group has to be placed towards West-South till North-West direction facing North and the fourth group should be placed from North-West till North-East facing east wards. Now, he should circumambulate from right hand side (keeping the hand empty), beginning from North-East to North-East i.e., reaching the same point yet again, anti-clock wise. 
यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ पात्र ::
(1). स्रुवा :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में घी की आहुति दी जाती है।
(2). प्रणीता :- इसमें जल भरकर रखा जाता है। इस प्रणीता पात्र के जल में घी की आहुति देने के उपरान्त बचे हुए घी को "इदं न मम" कहकर टपकाया जाता है। बाद में इस पात्र का घृतयुक्त होठों एवं मुख से लगाया है जिसे संसव प्राशन कहते हैं।
(3). प्रोक्षिणी :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में वसोर्धारा (घी की धारा) छोड़ी जाती है। यही क्रिया स्रुचि के माध्यम से भी की जाती है। 
(4). स्रुचि :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में मिष्ठान की पूर्णाहुति दी जाती है। मिष्ठान की इस आहुति को स्विष्टकृत होम कहते हैं। यह क्रिया यज्ञ अथवा हवन में न्यूनता को पूर्ण करने के लिए की जाती है।
(5). स्फ़्य :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन की भस्म धारण की जाती है।
सकोरा 
पात्रासादन (यज्ञपात्रों को यथास्थान या यथाक्रम रखना) :: हवन कार्य में प्रयोक्तव्य सभी वस्तुओं तथा पात्रों यथा-समूल तीन कुश उत्तराग्र (पवित्रक बनाने वाली पत्तियों को काटने के लिये), साग्र (आदि से लेकर आरंभ तक-पूरा, सब, कुल, समग्र) दो कुशपत्र (बीच वाली सींक निकाल कर पवित्रक (धार्मिक अनुष्ठानों में देवताओं की छवियों का स्नान और बड़ों पर पवित्र कारी पानी डालने का यंत्र) बनाने के लिये), प्रोक्षणी पात्र (अभाव में दोना या मिट्टी का स्कोरा), आज्य स्थाली (घी रखने के लिये पात्र), पाँच सम्मार्जन (सम्मार्जित झाड़ना बुहारना, साफ करना, स्नानादि मूर्ति का स्रुवा के साथ काम आनेवाला कुश या मुट्ठा, झाड़ू) कुश, सात उपनयन कुश, तीन समिधाएँ (प्रादेश मात्र लम्बी) स्त्रुवा, आज्य (घृत), यज्ञीय काष्ठ (पलाश आदि की लकड़ी), 256 मुट्ठी चावलों से भरा पूर्ण पात्र, चरु पाक के लिये तिल और मूँग से भरा पात्र आदि को पश्चिम से पूर्व तक उत्तराग्र अथवा अग्नि के उत्तर की ओर पूर्वाग्र रख लें।
वीणा
उनके आगे वीणा वादन करने वाले गायकों को बैठायें। 
वहाँ प्रादेश मात्र अग्रभाग सहित पीपल काष्ठ की कील तथा शल्लकी का काँटा, पीला सूत लपेटा हुआ एक तकुआ (spindle, चरखे-spinning wheel, में लगी लम्बी-पतली लोहे की लगभग एक फुट की छड़) जिस पर कता हुआ सूत लिपटता जाता है तथा कुशाओं की तीन पिंजूलिका (तेरह कुशाओं को लपेटकर एक पिंजूलिका बनती है) बनाकर स्थापित करनी चाहिये। ऐसी तीन पिंजूलिका स्थापित करें। गूलर के नवीन पत्ते की डाली, जिनके दोनों तरफ फल लगे हुए हों, सुवर्ण के तारयुक्त सूत्र, पुष्प, बिल्वफल सहित अन्यान्य मांगलिक पदार्थ स्थापित करें।
चरखा 
 All goods meant for the holy sacrifices in fire should be arranged in proper order. They are :- Kush-Uttragr,  two Kush leaves without middle thread for making Pavitrak, Dona or Sakora may be used if Pavitrak is not available, Pot for keeping Ghee-clarified butter, Five Kush meant for ritualistic cleaning, Seven Kush for Upnayan-Janeu (sacred loin thread), Three pieces of wood meant for burning in sacred fire,  Struva, Ghee,  Wood of Palash-Dhak meant for the Hawan, A pitcher to keep 256 fistfuls of rice, A pot filled with Til-Sesame & Mung) meant for Charu Pak. These goods should be kept ready  either moving from West to East or North of fire place facing East.
Two singers who plays Veena should be seated in front of them.
A Nail made of wood from fig tree, a thorn of Shallki, Yellow cotton thread. A spindle rod, Three Pinjulika-role made of Kush-one Pinjulika is formed by spinning 13 Kush one over each other, A branch of Gular tree having new leaves with new fruits on both sides, A thread having gold spined with it, Flowers, Bilv fruits and all other relevant goods used for auspicious rituals-occasions.
पवित्रक निर्माण :: दो कुशों के पत्रों को बायें हाथ में पुवाग्र रखकर इनके ऊपर उत्तराग्र तीन कुशों को दायें हाथ से प्रादेश मात्र दूरी छोड़कर मूल की ओर रख दें। तदनन्तर कुशों के मूल को पकड़कर कुशत्रय को बीच में लेते हुए दो कुश पत्रों को प्रदिक्षण क्रम से लपेट लें, फिर दायें हाथ से तीन कुशों को मोड़कर बायें हाथ में लें तथा दाहिने हाथ से कुश पत्रद्वय पकड़कर जोर से खींच लें। जब दो पत्तों वाला कुश कट जाये तब उसके अग्रभाग वाला प्रादेश मात्र दाहिनी ओर से घुमाकर गाँठ लगा दें, ताकि दो पत्र अलग-अलग न हों। इस तरह पवित्रक बन जायेगा।  शेष सबको-दो पत्रों के कटे हुए भाग तथा काटने वाले तीनों कुशों को, उत्तर दिशा में फेंक दें।  
MAKING OF PAVITRAK :: Two leaves of Kush should be kept in left hand eastwards and they should be covered with three Kush northward, keeping a distance of slightly-roughly equal to the distance between the thumb & the index finger with the right hand towards the root. Then hold the roots of Kush keep the three Kush in between and tie them clockwise. Now, Bind-turn the three Kush with the right hand and pull the three Kush cutting the two leaved Kush, tie it so that the two leaved Kush are not separated. This will form the Pavitrak. Through the remaining part as useless northward.
पवित्रक कार्य एवं प्रोक्षणी पात्र का संस्कार :: पूर्वस्थापित प्रोक्षणी को अपने सामने पूर्वाग्र रखें। प्रणीता में रखे जल का आधा भाग आचमनी आदि किसी पात्र द्वारा प्रोक्षणी पात्र में तीन बार डालें। अब पवित्री के अग्र भाग को बायें हाथ की अनामिका तथा अँगुष्ठ से और मूल भाग को दाहिने हाथ की अनामिका तथा अँगुष्ठ से पकड़कर, इसके मध्य भाग के द्वारा प्रोक्षिणी के जल को तीन बार उछालें (उत्प्लवन)। पवित्रक को प्रोक्षणी पात्र में पूर्वाग्र रख दें। प्रोक्षणी पात्र को बायें  हाथ में रख लें। पुनः पवित्रक के द्वारा प्रणीता के जल से प्रोक्षणी को प्रोक्षित करें। तदनन्तर इसी प्रोक्षणी के जल से आज्य  स्थाली, स्त्रुवा आदि सभी सामग्रियों तथा पदार्थों का प्रोक्षण करें अर्थात उन पर जल के छींटे डालें (अर्थवत्प्रेाक्ष्य)। इसके बाद उस प्रोक्षणी पात्र को प्रणीता पात्र तथा अग्नि के मध्य स्थान (असंचर देश) में पूर्वाग्र रख दें।
RITES PERTAINING TO PAVITRAK & PROKSHNI :: The Prokshani which was installed earlier should be kept in front. Half of the water kept in Pranita should be transferred to Prokshani vessel with the help of Achmani thrice. Now, hold the front of Pavitri with the third-Sun finger and the thumb of the left hand & root-base of of Pavitri with the third-Sun finger and the thumb of right hand and spill the water thrice kept in the Prokshani, with its middle segment. Pavitrak should be kept in the Prokshani with its front in forward direction.Again spill the water from the Pranita with Pavitrak over the Prokshani. Thereafter, spill the water from the Prokshani over Ajy Sthali, Struva and all other goods kept there for the purpose of Hawan. Thereafter, keep the Prokshani between Pranita and the fire place keeping it forward.
घी को आज्य स्थाली में निकालना :: आज्य पात्र से घी कटोरे में निकालकर उस पात्र को वेदी के दक्षिण भाग में अग्नि-आग पर रख दें। 
WITHDRAWING GHEE FROM THE AJY STHALI :: Keep the Ghee in a bowl and place it over the fire in the South of the fire place-Vedi. 
चरूपाक विधि ::  फिर आज्य स्थाली में घी डालें और चरु बनाने के लिये तिल, चावल तथा मूँग मिलायें और उनको प्रणीता पात्र के जल से तीन बार धोयें। इसके बाद किसी बर्तन में पानी भरकर उसमें तिल, चावल और मूँग डाल दें। तत्पश्चात यजमान उस चरुपात्र को हाथ में लेकर ब्राह्मण-पुरोहित से घी को ग्रहण कराकर वेदी स्थित अग्नि के उत्तर की ओर चरु को रखें और पुरोहित के हस्त स्थित घी को दक्षिण की ओर स्थापित करा दें। (ब्राह्मण-पुरोहित इन सब कार्यों को स्वतः विधि पूर्वक सम्पन्न करने में प्रशिक्षित होने चाहियें)। जिस समय चरु सिद्ध हो जाये अर्थात पक जाये, तब एक जलती हुई लकड़ी को लेकर चरुपात्र के ईशान भाग से प्रारम्भ कर ईशान भाग तक दाहिनी ओर घुमाकर अग्नि में डाल दें। फिर खाली बायें हाथ को बायीं ओर घुमाकर ईशान भाग तक ले आयें। यह क्रिया पर्यग्नि करण कहलाती है।MAKING-COOKING OF CHARU :: Pour Ghee in its pot and mix Til-sesame, rice and Mung pulse with it and wash them thrice with the water in water pot. Now, take some water in a cooking pot and put the Til, rice along with Mung pulse in it. Thereafter, the host performing Yagy-Hawan should place the pot containing Charu in the North direction of fire place, after handing over Ghee to the Brahmn-Purohit who would place the Ghee in South direction. The Priest should be well versed-trained and skilled in these routine jobs. As soon as the Charu is cooked a piece of burning wood should be moved in North-East direction reaching the same spot-point and put the wood over the Vedi-fire place. Then the left hand should be moved from from left to the North-East direction of the fire place. This process is termed as Pary Agni Karan. 
स्त्रुवा का सम्मार्जन (झाड़ना–बुहारना, साफ़ करना) :: जब घी कुछ पिघल जाये तब दायें हाथ में स्त्रुवा को पूर्वाग्र तथा अधोमुख होकर आग पर गर्म करें। पुनः स्त्रुवा को बायें  हाथ में पूर्वाग्र ऊर्ध्वमुख रखकर दायें हाथ से सम्मार्जित कुश के अग्र भाग से स्त्रुवा के अग्रभाग का, कुश के मध्य भाग से स्त्रुवा के मध्य भाग का कुश के मूलभाग से स्त्रुवा के मूलभाग का स्पर्श करें अर्थात स्त्रुवा का सम्मार्जन करें। उसके बाद सम्मार्जित कुशों को अग्नि में डाल दें।
CLEANING OF STRUVA :: After melting of Ghee, warm the Struva over the fire by keeping it in right hand. Now, keep the Struva in the left hand, lean forward and touch the middle & terminal segment of Struva with the Kush grass's middle segment with the middle and the last segment with the last-terminal segment. After that put the Kush used in the process, in fire.
स्त्रुवा का पुनः प्रतपन (गरम करना, गरमाहट पहुँचाना, तप्त करना, तपाना) :: अधोमुख स्त्रुवा को पुनः अग्नि में तपाकर अपने दाहिने ओर किसी पात्र, पत्ते या कुशों पर पूर्वाग्र रख दें।
HEATING OF STRUVA :: Now, leaning forward the Struva should be warmed and kept to the right over some pot, leaves or the Kush grass.
घृत पात्र तथा चरुपात्र की स्थापना :: घी के पात्र को अग्नि से उतारकर चरु के पश्चिम भाग से होते हुए पूर्व की ओर से परिक्रमा करके अग्नि (वेदी) के पश्चिम भाग में उत्तर की ओर रख दें। तदनन्तर चरुपात्र को भी अग्नि से उतार कर वेदी के उत्तर में रखी हुई आज्य स्थाली के पश्चिम से ल जाकर उत्तर भाग में रख दें। 
PLACEMENT OF GHEE POT & STRUVA :: Now, remove the Ghee pot from the fire place-Vedi, move it from West to East around the fire place and place it over the ground. Thereafter, the Charu pot should also be removed from the Vedi moving round from West direction & keep it to the North of the Ajy Sthali.
घृत का उत्प्लवन :: घृतपात्र को सामने रख लें। प्रोक्षणी में रखी हुई पवित्री को लेकर उसके मूलभाग को दाहिने हाथ के अँगूठे तथा अनामिका से बायें हाथ के अँगुष्ठ तथा अनामिका से पवित्री के अग्र भाग को पकड़कर कटोरे के घी को तीन बार ऊपर उछालें। घी का अवलोकन करें और यदि घी में कोई विजातीय वस्तु हो तो उसे निकालकर फेंक दें। तदनन्तर प्रोक्षणी के जल को तीन बार उछालें और पवित्री को पुनः प्रोक्षणी पात्र में रख दें। स्त्रुवा से थोड़ा घी चरु में डाल दें। 
EXUDATION OF GHEE :: The Ghee is thrown in an upward direction. The pot containing Ghee is kept in front. The Pavitri kept in the Prokshani should be held in the hand, at its base-handle, with the right hand thumb and the Sun-third finger & holding the front portion of the Pavitri with the third finger jump the Ghee upwards into the fire, thrice. Check the Ghee carefully & if anything unwanted-undesirable is present in it remove it. Keep the Pavitri again in the Prokshani. Transfer a bit of Ghee with Struva in the Charu.
तीन समिधाओं की आहुति :: ब्राह्मण-पुरोहित को स्पर्श करते हुए बायें हाथ में उपनयन (सात) कुशों को लेकर हृदय-छाती से बायाँ हाथ सटाकर, तीन समिधाओं को घी में डुबोकर मन से प्रजापति देवता का ध्यान करते हुए खड़े होकर, मौन हो, अग्नि में डाल दें और बैठ जायें। 
PUTTING THREE PIECES OF WOOD IN FIRE :: Touch the priest, hold 7 Kush straw near the chest-heart with left hand, put the three pieces of wood in the Vedi-fire pot, remember the Prajapati demigod-Devta, silently and sit down. 
पर्युक्षण (जलधारा को प्रवाहित करना) :: पवित्रक सहित प्रोक्षणी पात्र के जल को दक्षिण-उलटे हाथ की अंजलि में लेकर अग्नि के ईशान कोण से ईशान कोण तक प्रदक्षिणा क्रम से जल धारा का प्रवाह करें। पवित्रक को बायें-उलटे हाथ में लेकर फिर दाहिने खाली हाथ को उलटे-विपरीत अर्थात ईशान कोण से उत्तर होते हुए ईशान कोण तक ले आयें (इतरथावृत्ति:) और पवित्रक को दायें हाथ में लेकर प्रणीता में पूर्वाग्र रख दें। तदनन्तर हवन करें।
POURING WATER :: Hold the Prokshani with the Pavitrak and pour-immerse water by holding it in the left palm, from North-East direction of the Vedi-fire pot bringing it back, leading to immersion. Hold the Pavitrak in the left hand move the empty right hand in opposite direction i.e., North of North-East. Hold the Pavitrak in right hand and put the Pranita in the East. Now, get ready for the holy sacrifices in fire i.e., Hawan.
Please refer to :: YAGY-HAWAN यज्ञ-हवन santoshsuvichar.blogspot.com 
अग्नि प्रतिष्ठा :: निम्न मंत्र सेअक्षत छोड़ते हुए पूर्व में वेदी पर स्थापित अग्नि की प्रतिष्ठा करें :- 
ॐ वैश्वानरनामाग्ने सुप्रतिष्ठितो वरदो भव।
इस प्रकर प्रतिष्ठा करके अग्निदेव का ध्यान करें :- 
अग्नि प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनम्। सुवर्णवर्णममलमनन्तं विश्वतोमुखम्
सर्वतः पाणिपादश्च सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः। विश्वरूपो महानग्नि: प्रणीत: सर्वकर्मसु 
ॐ चत्वारि शृंङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य। 
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्या आ विवेश
ॐ भूर्भुवः स्वः वैश्वानरनामाग्ने अग्नये नमः सर्वोपचारार्थे गंधाक्षतपुष्पाणि  समर्पयामि। 
कहकर अग्नि का पूजन करें। इसके बाद हवन करें। 
दक्षिण जानु-जाँघ भूमि से लगाकर रखें। ब्रह्मा कुश से हवन कर्त्ता की दक्षिण बाहु का स्पर्श किये रहें (अन्वारब्ध)। हवन के पूर्व हवनकर्त्ता आचमन कर लें। 
इदमाज्यं तत्तद्देवतायै मया परित्यक्तं यथादैवतमस्तु न मम। 
मूल और मध्य भाग के मध्य से स्त्रुवा को पकड़कर निम्न मंत्रों से हवन करें और आहुति से बचा हुआ घी प्रणीतापात्र में छोड़ते जायें। 
(1). ॐ प्रजापतये स्वाहा (मन में उच्चारण करें), इदं प्रजापतये न मम। 
(2). ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम।
(3). ॐ अग्नये स्वाहा, इदं अग्नये न मम। 
(4). ॐ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम।
इसके बाद ब्रह्मा हवनकर्ता से कुशों का स्पर्श हटा ले (अन्नवारब्ध) और उसके बाद हवन करें।
पहले यजुर्वेद के मंत्रों से आहुति प्रदान करें :- 
यजुर्वेद के लिये आहुतियाँ ::
(1).ॐ अन्तरिक्षाय स्वाहा, इदमन्तरिक्षाय न मम। 
(2). ॐ  वायवे स्वाहा, इदं वायवे न मम। 
(3). ॐ  ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम।
(4). ॐ छन्दोभ्यः  स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम।
ऋग्वेद के लिये आहुतियाँ ::
(1). ॐ  पृथिव्यै स्वाहा, इदं पृथिव्यै न मम।
(2). ॐ अग्नये स्वाहा, इदं अग्नये न मम। 
(3). ॐ  ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम।
(4). ॐ छन्दोभ्यः  स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम। 
इसके बाद सामवेद के मन्त्रों से आहुति प्रदान करें :- 
सामवेद के लिये आहुतियाँ ::
(1).  ॐ  दिवे स्वाहा, इदं दिवे  न मम।
(2). ॐ  सूर्याय स्वाहा, इदं सूर्याय न मम। 
(3). ॐ  ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम। 
(4). ॐ छन्दोभ्यः  स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम।
इसके बाद अथर्ववेद के मन्त्रों से आहुति प्रदान करें :-
अथर्ववेद  के लिये आहुतियाँ ::
(1. ॐ  दिगभ्य: स्वाहा, इदं दिगभ्यो न मम।
(2). ॐ  चन्द्रमसे स्वाहा, इदं चन्द्रमसे  न मम।
(3). ॐ  ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम।
(4). ॐ छन्दोभ्यः स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम।
सामान्य आहुतियाँ ::
(1). ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। 
(2). ॐ देवेभ्य: स्वाहा, इदं देवेभ्यो  न मम। 
(3). ॐ ऋषिभ्यः स्वाहा, इदमृषिभ्यो न मम।
(4)ॐ श्रद्धायै स्वाहा, इदं श्रद्धायै न मम। 
(5). ॐ मेधायै  स्वाहा, इदं मेधायै  न मम। 
(6). ॐ सदसस्पतये स्वाहा, इदं सदसस्पतये न मम। 
(7). ॐ अनुमतये स्वाहा, इदं अनुमतये न मम। 
पुनः ब्रह्मा हवनकर्ता का कुशों से स्पर्श करें और निम्न मंत्रों से आहुति प्रदान करें :-
भूरादि नवाहुति ::
(1). ॐ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम। 
(2). ॐ भूवः स्वाहा, इदं वायवे न मम। 
(3). ॐ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम। 
(4). ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठा:। यजिष्ठो वहिनतमः शोशुचानो विश्वा द्वेषासि प्र मुमुग्ध्स्मत्स्वाहा इदमग्नयीवरुणाभ्यां न मम।
(5). ॐ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती, नेदिष्ठो अस्या ऽ उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुण रराणो, वीहि मृडीक सुहवो न ऽ एधि स्वाहा 
इदमग्नीवरुणाभ्यां इदं न मम।  
(6). ॐ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्वमयाऽअसि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज स्वाहा॥ इदमग्नये अयसे इदं न मम।
(7). ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। 
तेभिर्नोअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्का: स्वाहा॥ 
इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च इदं न मम। 
(8). ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमश्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसोअदितये स्याम स्वाहा इदं वरुणायादित्यायादितये च इदं न मम।
(9). ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम (यह मौन रहकर पढ़ें)। 
स्विष्टकृत् आहुति ::
इसके बाद ब्रह्मा द्वारा कुश से स्पर्श किये जाने की स्थिति में (ब्रह्मणान्वारब्ध) निम्न मन्त्र से घी के द्वारा  स्विष्टकृत्  आहुति दें :- 
ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।
संस्रवप्राशन ::
हवन होने पर प्रोक्षणी पात्र स घी दाहिने हाथ में लेकर यत्किंचित् पान करें। फिर आचमन करें। 
मार्जन विधि :: इसके बाअद निम्नलिखित मन्त्र द्वारा प्रणीता पात्र के जल से कुशों के द्वारा अपने सिर पर मार्जन करें। 
ॐ सुमित्रया न आप ओषधय: सन्तु। 
इसके बाद निम्न मन्त्र से जल नीचे छोड़ें :-
ॐ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्  द्वेष्टि यं च वयं द्विष्म:।
पवित्र प्रति पत्ति :: पवित्रक को अग्नि में छोड़ दें।  
पूर्ण पात्र दान :: पूर्व में स्थापित पूर्णपात्र में द्रव्य-दक्षिणा रखकर निम्न संकल्प के साथ दक्षिणा सहित पूर्ण पात्र ब्राह्मण-पुरोहित को प्रदान करें। 
ॐ अद्य नामकरणसंस्कारहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदं वृषनिष्क्रयद्रव्यसहितं पूर्णपात्रं प्रजापतिदैवतं...गोत्राय...शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे। 
ब्राह्मण "स्वस्ति" कहकर उस पूर्ण पात्र को ग्रहण करें। 
प्रणीता विमोक :: प्रणीता पात्र को ईशान कोण में उलटकर रख दें। 
मार्जन :: पुनः कुशा द्वारा निम्न मंत्र से उलटकर रखे गए प्रणीता के जल से मार्जन करें। 
ॐ आपः  शिवा: शिवतमा: शान्ता: शान्ततमास्तास्ते कृञ्वन्त् भेषजम्। 
उपनयन कुशों को अग्नि में छोड़ दें।  
बर्हि होम :: तदनन्तर पहले बिछाये हुए कुशाओं को जिस क्रम में बिछाया गया था, उसी क्रम में उठाकर घी में भिगोयें और निम्न मन्त्र से स्वाहा का उच्चारण करते हुए अग्नि में छोड़ दें :- 
ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित। 
मनसस्पत इमं देव यज्ञँ स्वाहा वाते धा: स्वाहा। 
कुश में लगी ब्रह्मग्रंथि को खोल दें।
परिसमूहन :: इसके बाद ब्रह्मचारी अग्निकुण्ड के पश्चिम की ओर बैठकर घी में डूबी हुई  लकड़ियों-समिधाओं अथवा पाँच शुष्क गोमय पिण्ड लेकर निम्न मंत्रों का उच्चारण करता हुआ हवन करे :-
(1).  ॐ अग्ने सुश्रवः सुश्रवसं मा कुरु। 
(2).   यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रुवा असी। 
(3).   एवं मा सुश्रवः सौश्रवसं कुरु। 
(4).   यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा असि। 
(5).   एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयासम्।
अग्निपर्युक्षण तथा समिदाधान :: इसके बाद प्रदक्षिणा क्रम से ईशान से उत्तर तक जल से अग्नि का प्रोक्षण करके एक समिधा को घी में डुबोकर खड़े होकर निम्न मंत्र को पढ़कर अग्नि में एक आहुति प्रदान करे :-
ॐ अग्नये समिधमाहार्ष वृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिधस्य एवमहमायुषा मेधया वर्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिन्धे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णुर्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्व्यनादो भूयासस्वाहाः।  
इसी मंत्र से घृताक्त समिधा के द्वारा दो आहुतियाँ और दें। 
तदनन्तर पूर्वरीति से "अग्नेः सुश्रव" उपरोक्त 5 मन्त्रों द्वारा सूखी समिधाओं अथवा शुष्क गोमय पिण्ड से पाँचआहुतियाँ दें। 
पुनः पूर्ववत् जल से अग्नि का प्रोक्षण करें तथा अग्नि में हाथ सेंककर निम्न मंत्रों से मुख पर हाथ फेरें :- 
ॐ तनूपा ऽ अग्नेऽसि तन्वं में पाहि। 
ॐ आयुर्दा अग्नेस्यायुर्मे देहि।  
ॐ वर्चोदा अग्निऽसि वर्चो में देहि।  
ॐ अग्ने यन्मे तन्वा ऊनं तन्म आपृण।  
ॐ मेधां मे देवः सविता आदधातु।   
 मेधां मे देवी सरस्वती दधातु।   
ॐ मेधामश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ। 
सर्वांग स्पर्श :: इसके बाद निम्न मंत्र से ब्रह्मचारी अपने सम्पूर्ण शरीर पर हाथ फेरे :-
ॐ अङ्गानि च म आप्यायताम्। 
इसके बाद निम्न मंत्रों से यथानिर्दिष्ट अंगों का स्पर्श करे :- 
ॐ वाक् च म आप्यायताम्। 
मुँह का स्पर्श करें। 
ॐ प्राणश्च म आप्यायताम्। 
दोनों नासिका रंध्रों का स्पर्श करें। 
ॐ चक्षुश्च म आप्यायताम्। 
दोनों नेत्रों का स्पर्श करें। 
ॐ श्रोतञ्च म आप्यायताम्। 
क्रम से दाहिने और बायें कान का स्पर्श करें। 
ॐ यशो बलं च म म आप्यायताम्। 
दोनों भुजाओं का दाहिने से बायें और बायें से दाहिने का परस्पर एक साथ स्पर्श करें। तदनन्तर जल का स्पर्श करें। 
त्र्यायुष्करण :: तत्प्श्चात आचार्य स्त्रुवा से भस्म लेकर दायें हाथ की अनामिका के अग्रभाग से निम्न मंत्रों से बटुक के निर्दिष्ट अंगों में भस्म लगायें :- 
ॐ त्र्यायुषं जमदग्नेः - ललाट-माथे पर लगायें। 
ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषम् - ग्रीवा पर लगायें। 
ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषम् - दक्षिण बाहुमूल पर लगायें।  
ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम् - हृदय-छाती पर लगायें। 
अग्नि तथा आचार्य का अभिवादन :: तदनन्तर ब्रह्मचारी गोत्र प्रवर पूर्वक नामोच्चारण करता हुआ अग्नि तथा गुरु आदि को निम्न रीति से प्रणाम करे। 
अग्ने त्वामभिवादये...गोत्रः...प्रवरान्वितः...शर्माहं भोः। 
कहकर अग्नि को प्रणाम करे।  
बटुक अपने दाहिने हाथ से गुरु के दाहिने चरण का और बायें हाथ से बायें चरण का स्पर्श करते हुए बोले :- 
त्वामभिवादये...गोत्रः...प्रवरान्वितः...शर्माहं भोः। 
कहकर आचार्य को प्रणाम करे। 
आशीर्वाद :: आचार्य निम्न वाक्य कहकर आशीर्वाद दें :- 
आयुष्मान् भव सौम्य श्रीशर्मन्/वर्मन/गुप्त।  
बटुक अन्य श्रेष्ठजनों का भी वन्दन करे। 
आठ कलशों के जल से अभिषेक विधि (यहाँ से आगे के कर्म बटुक स्वयं सम्पन्न करे) :: पूर्व दिशा में दक्षिणोत्तर क्रम से स्थापित जल पूर्ण, आम्र आदि के पलल्वों से युक्त ताम्र आदि के पात्र वाले आठ कलशों के चारों ओर पूर्वाग्र कुशा बिछायें। उस पर उत्तरमुख बैठकर दक्षिण से एक-एक कलश का जल लेकर बटुक अपना अभिसिंचन करे। 
प्रथम कलश से जल का ग्रहण और अभिषेक :: निम्न मंत्र से प्रथम कलश से दक्षिण चुल्लू में जल लें :-
ॐ येऽप्स्वन्तरग्नयः प्रविष्ठ गोह्य उपगोह्यो मयूखो।  मनोहास्खलो विरुजस्तनूदुषिरिन्द्रियहा तान्  विजहामि  यो रोचनस्तमिह गृह्णामि 
तदनन्तर निम्न मंत्र से अपने सर पर अभिषेक करे :- 
ॐ तेनमामभिषिञ्चामि श्रिये यशसे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय। 
द्वितीय कलश से जल का ग्रहण और अभिषेक :: 
ॐ येऽप्स्वन्तरग्नयः प्रविष्ठ गोह्य उपगोह्यो मयूखो।  
मनोहास्खलो विरुजस्तनूदुषिरिन्द्रियहा तान्  विजहामि  यो रोचनस्तमिह गृह्णामि 
उपरोक्त मंत्र से जल ग्रहण करे और निम्न मंत्र से अभिषेक करे :-  
ॐ येन श्रियमकृणुतां येनावमृशता सुराम्। 
येनाक्ष्यावभ्यषिञ्चतां यद्वां तदश्विना यशः॥
तृतीय कलश से जल का ग्रहण और अभिषेक :: 
ॐ येऽप्स्वन्तरग्नयः प्रविष्ठ गोह्य उपगोह्यो मयूखो।  
मनोहास्खलो विरुजस्तनूदुषिरिन्द्रियहा तान्  विजहामि  यो रोचनस्तमिह गृह्णामि 
उपरोक्त मंत्र से जल ग्रहण करे और निम्न मंत्र से अभिषेक करे :-
ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे॥
चतुर्थ कलश से जल का ग्रहण और अभिषेक :: 
ॐ येऽप्स्वन्तरग्नयः प्रविष्ठ गोह्य उपगोह्यो मयूखो।  
मनोहास्खलो विरुजस्तनूदुषिरिन्द्रियहा तान्  विजहामि  यो रोचनस्तमिह गृह्णामि 
उपरोक्त मंत्र से जल ग्रहण करे और निम्न मंत्र से अभिषेक करे :-
ॐ यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः॥
पंचम कलश से जल का ग्रहण और अभिषेक :: 
ॐ येऽप्स्वन्तरग्नयः प्रविष्ठ गोह्य उपगोह्यो मयूखो।  
मनोहास्खलो विरुजस्तनूदुषिरिन्द्रियहा तान्  विजहामि  यो रोचनस्तमिह गृह्णामि 
उपरोक्त मंत्र से जल ग्रहण करे और निम्न मंत्र से अभिषेक करे :- 
ॐ तस्मा अरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः॥ 
इसी प्रकार षष्ठ, सप्तम और अष्टम कलश से निम्न मंत्र से क्रमशः जल लेकर मौन रहकर ही सिर पर अभिषेक करे। 
 ॐ येऽप्स्वन्तरग्नयः प्रविष्ठ गोह्य उपगोह्यो मयूखो।  
मनोहास्खलो विरुजस्तनूदुषिरिन्द्रियहा तान्  विजहामि  यो रोचनस्तमिह गृह्णामि
मेखला निस्सारण :: इसके बाद बटुक निम्न मंत्र पढ़ता हुआ शिरोमार्ग से मेखला को निकाले :- 
ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्यदवाऽधर्मं मध्यम श्रथाय। 
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा॥ 
दण्ड और मृगचर्म का परित्याग :: तदनन्तर ब्रह्मचारी अपने पलाश दण्ड को उत्तराग्र भूमि पर रख दे, धारण किये मृगचर्म को मौन होकर उतारकर अन्य कोई वस्त्र उत्तरीय के रूप में धारण करे और दो बार आचमन कर ले। 
सूर्योपस्थान :: इसके बाद दोनों बाहुओं को ऊपर उठाकर निम्न मंत्रों से सूर्य भगवान् का उपस्थान करे :- 
ॐ उद्यन् भ्राजभृष्णुरिन्द्रो मरुद्भिरस्थात्प्रातर्यावभिरस्थाद् शसनिरसि देशसनिं मा कुर्वां विदन् मा गमय।  
उद्यन् भ्राजभृष्णुरिन्द्रो मरुद्भिरस्थाद् दिवा यावभिरस्थाच्छतसनिरसि शतसनिं मा  कुर्वां विदन् मा गमय। 
उद्यन् भ्राजभृष्णुरिन्द्रो मरुद्भिरस्थात् सायं यावभिरस्थात् सहस्त्रसनिरसि सहस्त्रसनिं मा कुर्वां विदन् मा गमय। 
दन्तधावन :: इसके बाद ब्रह्मचारी दधि अथवा तिल को दाहिने मध्यभाग (सोमतीर्थ) में लेकर, उसका सेवनकर, शिखा के अतिरिक्त समस्त मुण्डन कराकर नखादि कटवाकर, द्वादश अंगुल परिमित औदुप्बर (गूलर) के काष्ठ से निम्न मंत्र पढ़कर दन्तधावन करे :- 
ॐ अन्नाद्याय व्यूहद्व सोमो राजाऽयमागमत्। 
स में मुखं प्रमार्क्ष्यते  यशसा च भगेन च 
नासिका आदि का स्पर्श :: इसके बाद ब्रह्मचारी बारह बार जल से कुल्लाकर, सुगन्धित तेल से युक्त उबटन आदि से शरीरोद्वर्तन कर, समशीतोष्ण जल से स्नान करे तथा नूतन वस्त्र आदि धारणकर चन्दन आदि का अनुलेपन निम्न मंत्रों से नासिका, नेत्र और श्रोत्र पर  करे :- 
ॐ प्राणा पानौ मे तर्पय :- एक साथ दोनों नासिका का स्पर्श करे। 
ॐ चक्षुर्मे तर्पय :- एक साथ दोनों नेत्रों का स्पर्श करे।  
ॐ श्रोतं मे तर्पय :- एक साथ दोनों कानों का स्पर्श करे। 
पितरों के निमित्त जलांजलि :: इसके बाद दोनों हाथों को धोकर अपसव्य होकर प्राङ्मुख रहते हुए दक्षिण दिशा में भूमि पर निम्न श्रुति वाक्य से पितरों के निमित्त पितृ तीर्थ से अवनेजन (जलांजलि) प्रदान करे :- 
ॐ पितरः शुन्ध ध्वम्।   
सविता देवता की प्रार्थना :: तदनन्तर सव्य होकर आचमन करे, चन्दन से तिलक लगाकर निम्न मंत्र सविता देवता की प्रार्थना करे :- 
ॐ सुचक्षा अहमक्षीभ्यां भूयास सुवर्णा मुखेन। सुश्रुत्कर्णाभ्यां भूयासम्
नूतन वस्त्र धारण :: इसके बाद स्नातक निम्न मंत्र पढ़ते हुए नए कपड़े पहने :- 
ॐ परिधास्यै यशोधास्यै दीर्घायुत्वाय जरदष्टिरस्मि। 
शतं च जीवामि शरदः पुरूची रायस्योषमभि संव्य विष्ये॥
इसके बाद दो बार आचमन करे।
यज्ञोपवीत धारण :: धारण से पहले हाथ में जल लेकर निम्न विनियोग मंत्र बोलें :- 
ॐ यज्ञोपवीतमित्यस्य परमेष्ठी ऋषिः त्रिष्टुप्छन्दो लिङ्गोक्ता देवता यज्ञोपवीतधारणे विनियोगः।
कहकर जल छोड़ें। 
इसके बाद स्नातक निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए द्वितीय यज्ञोपवीत धारण करे :- 
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सजं पुरस्तात्।  
आयुष्यमग्य्रं प्रतिमुञ्च  शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः
पुनः दो बार आचमन करें।
उत्तरीय वस्त्र धारण :: इसके बाद ब्रह्मचारी निम्न मंत्र बोलता हुआ उत्तरीय वस्त्र धारण करे :-  
ॐ यशसा मा द्यावापृथिवी यशसेन्द्राबृहस्पति। 
यशो भगश्च माऽविन्दद् यशो मा प्रतिपद्यताम्
अंलकरणादि धारण :: ब्रह्मचारी विद्याव्रत स्नातक के रूप में गृहस्थ धर्मानुकूल अंलकार धारणकर निम्न मंत्र से पुष्माला ग्रहण करे :- 
ॐ या आहरज्जमदग्नि: श्रद्धायै मेधायै कामायेन्द्रियाय। 
ता अहं प्रतिग्रह्यामि यशसा च भगेन च 
निम्न मंत्र से पुष्पमाला धारण करे :-  
ॐ यद्यशोप्सरसामिन्द्रश्चकार विपुलं पृथु। 
तेन सङ्गग्रथिताः सुमनस आबध्नामि यशो मयि 
पगड़ी धारण ::  बाद स्नातक निम्न मंत्र से सिर पर पगड़ी धारण करे :- 
ॐ युवा सुवासाः परिवीत आगात्स उ श्रेयान् भवति जायमानः। 
तं धीरास: कवच उन्नयन्ति स्वाध्यो मनसा देवयन्त:॥ 
कर्णालंकरण धारण :: निम्न मंत्र से पहले दक्षिण-दायें कान में और फिर वाम-बाएँ कान में कर्णालंकरण (कुण्डल आदि) धारण करे :- 
ॐ अलङ्करणमसि भूयोऽलङ्करणं भूयात्।  
अंजन धारण-काजल लगाना :: निम्न मंत्र से क्रम से दाहिने और फिर बायीं आँख में काजल लगायें :-   
ॐ वृत्रस्यामि कनीनकश्चक्षुर्दा असि चक्षुर्मे देहि।
दर्पण में मुखावलोकन :: निम्न मंत्र का जाप करते हुए शीशे में मुँह देखें :- 
ॐ रोचिष्णुरसि। 
छत्र धारण :: निम्न मंत्र से छत्र (छाता) ग्रहण करें :-
ॐ बृहस्पतेश्छदिरसि पाप्मनो मामन्तर्धेहि तेजसो यशसो मान्तर्धेहि।
उपानह (जूता) पहनना :: निम्न मंत्र से स्नातक न्या जूता पहने :- 
ॐ प्रतिष्टे स्थो विश्वतो मा पातम्। 
दण्डधारण :: निम्न मंत से नया बाँस का दण्ड (छड़ी, लाठी) ग्रहण करे :- 
ॐ विश्वाभ्यो मा नाष्ट्राभ्यस्परि पाहि सर्वतः।
आचार्य को गोदान :: इसके बाद स्नातक अपने आचार्य की विधिवत पूजाकर उन्हें दक्षिणा के रूप में द्रव्यादि के अतिरिक्त गौ अथवा तन्निष्क्रयभूत द्रव्य प्रदान करने के लिये निम्न संकल्प करे :- 
ॐ अद्य...गोत्र:...शर्मा मम स्नातकत्वसिद्धये इदं वररूपेण गोनिष्क्रयद्रव्यमाचार्याय दातुमहमुत्सृज्ये। 
दक्षिणा प्रदान करें। 
स्नातक के सामान्य नियम* :: तदुपरान्त स्नातक आचार्य के मुख से गृहस्थ जीवन के लिये पालनीय नियमों को श्रद्धापूर्वक सुने। पारस्कर गृह्य सूत्र के स्नातकस्य वमान्वक्ष्याम:, में स्नातक को अनुसरण करने हेतु नियमों दिये गये हैं।
(1).  नाचने-गाने तथा बजाने का काम न स्वयं करे और न ही दूसरों द्वारा अनुष्ठित ऐसे कार्यों में भाग ले। 
(2). यदि सब कुछ ठीक हो तो रात्रि में दूसरे गाँव में न जायें और न अनावश्यक दौड़ें। 
(3). कुँए में न झाँके, पेड़ पर न चढ़े, कच्चे फल तोड़कर न गिराये, सन्धि वेला में यात्रा न करे और जीर्ण द्वार से गमन न करे तथा परस्पर मैत्री में भेद उपस्थित न करे, नग्न होकर स्नान न करे, ऊबड़-खाबड़ भूमि को न लाँघे, लज्जा जनक अमंगलकर तथा निष्ठुर वाक्यों को न बोले, सन्धि वेला में सूर्य दर्शन न करे, समावर्तन के बाद भिक्षाटन न करे। 
(4). जल में अपनी परछाईं न देखे। 
(5). अपने बछड़े को दूध पिलाती हुई गाय के बारे में दूसरे से न कहे। 
(6). उर्वर भूमि या बंजर भूमि पर खड़े होकर या कूद-कूद कर मल-मूत्र का त्याग न करे। 
(7). अपवित्र एवं निषिद्ध वस्त्र न पहने। 
(8). निष्ठापूर्वक अपने व्रत नियम का पालन करे  तथा हिंसा से अपनी तथा दूसरों की भी रक्षा करे। 
(9). सर्वतोभावेन अपनी रक्षा करे। 
(10). सभी के साथ मित्रवत व्यवहार करे। 
(11). स्नातक को समावर्तन संस्कार से तीन दिन तक व्रत रखना चाहिये। 
(12). माँस न खाये तथा मिट्टी के बर्तन में जल न पीये। 
(13). मरणाशौच से युक्त व्यक्तियों का, शूद्र का तथा जननाशौच वाले लोगों का अन्न नहीं खाना चाहिये। 
(14). धूप में मल-मूत्र का त्याग न करे। 
(15). रात्रि में दीपक जलाकर ही भोजन करे, अंधकार में भोजन न करे। 
(16). सदा सत्य बोले, मिथ्या भाषण न करे। 
तदनन्तर स्नातक गुरु के चरणों में प्रणाम कर "एकान्नियमान् करिष्यामि" इस नियमों का पालन करूँगा; ऐसा कहे।
*पारस्कर गृहसूत्र काण्ड 2, कण्डिका 7-8 ::
नृत्यगीतवादित्राणि न कुर्वात् न च गच्छेत्। 
क्षेमे नक्तं ग्रामान्तरं न गच्छेत्, न च धावेत्। 
उदपानाऽवेक्षण, वृक्षारोहण, फलप्रपतन, सन्धिसर्पण विवृतस्नान, विषमलङ्घन, शुक्तवदन, सन्ध्यादित्यप्रेक्षणभैक्षाणानि न कुर्वात्।
वर्षत्यप्रावृतो व्रजेत् "ॐ अयं में वज्रः पाप्मानमपहनत्" 
इति मन्त्रं पठन् गच्छेत्।
अपस्वात्मानं नावेक्षेत। अजातलोम्नीं विंपुसीं षण्ढं च नोपहसेत्। गर्भिणीं विजन्येति ब्रूयात्। सकुलमिति नकुलम्। भगालमिति कपालम्। मणिधनुरितीन्द्रधनुः। गां धयन्तीं परस्मै नाचक्षीत। उर्वरायामनन्तर्हितायां भूमावुत्ससर्पस्तिष्ठन्त मूत्रपूरीषे कुर्यात। स्वयं प्रशीर्णेन काष्टेन गुदं प्रमृजीत। विकृतं वासो नाच्छादयोत। दृढ़व्रतो वधत्र: स्यात्। सर्वतः आत्मानं गोपायेत्। सर्वेषां मित्रमिव स्यात्। तिस्त्रो रात्रीर्व्रतं चरेत्। अमांसाशी अमृण्मपायी स्यात्। स्त्रीशूद्रशवकृष्णशकुनिशुनां चादर्शनमसम्भाषा च तैः। शवशूद्रसूतकान्नानि च नाद्यात्। मूत्रपुरीषे ष्ठीवनं चातपे न कुर्वात्। सूर्याच्चात्मानं  नान्तर्दधीत।तप्नेनोदकार्थान् कुर्वीत। अवज्योत्य  रात्रौ भोजनम्। सत्यवदनमेव वा।
पूर्णाहुति*3 :: 
दक्षिणा दान :: इसके बाद स्नातक हाथ में गन्ध, पुष्प, अक्षत, ताम्बूल तथा दक्षिणा लेकर निम्न संकल्प वाक्य बोलकर आचार्य को दक्षिणा दे :-
*विवाहे व्रतबन्धे च शालायां वास्तुकर्मणि। 
गर्भाधानादिसंस्कारे पूर्णाहुतिं न कारयेत्
इस वचन से यज्ञोपवीत, विवाह आदि में पूर्णाहुति का निषेध किया गया है। 
ॐ अद्य कृतानां उपनयनवेदारम्भसमावर्तनकर्मणा*साङ्गतासिद्धयर्थं हिरण्यनिष्क्रयभूतं द्रव्यं आचार्याय भवते सम्प्रददे।
इसी प्रकार होता, गायत्री तथा गणेश मंत्र जापक को भी दक्षिणा प्रदान करे। 
*यदि समावर्तन उसी समय न किया जाये तो आचार्य दक्षिणा, ब्राह्मण भोजन तथा भूयसी दक्षिणा के संकल्प में से समावर्तन शब्द को हटाकर कर्मणाम् की जगह कर्मयो: (उपनयनवेदारम्भकर्मयो:) द्विवचन का प्रयोग करना चाहिये। 
ब्राह्मण भोजन संकल्प :: निम्न संकल्प वाक्य बोलकर ब्राह्मण भोजन का संकल्प करे :-
ॐ अद्य कृतानां उपनयनवेदारम्भसमावर्तनकर्मणा साङ्गतासिद्धयर्थं यथासंख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये। तेभ्यो ताम्बूल दक्षिणा च दास्ये। 
भूयसी दक्षिणा का संकल्प :: इसके बाद भूयसी दक्षिणा का संकल्प करे :- 
ॐ अद्य कृतानां उपनयनवेदारम्भसमावर्तनकर्मणा साङ्गतासिद्धयर्थं तन्मध्ये न्यूनातिरिक्तदोषपरिहारार्थं इमां भूयसी दक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सृज्ये। 
तदनन्तर ब्राह्मणों के माथे पर रोली-अक्षत लगाये।
विसर्जन :: इसके बाद अग्नि तथा आवाहित देवताओं का अक्षत छोड़ते हुए निम्न मंत्र पढ़कर विसर्जन करे :- 
यान्तु देवगणा: सर्वे पूजामादाय मामकीम्। 
इष्टकार्यसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च
गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थाने परमेश्वर। 
यत्र ब्रह्मादयो देवास्तत्र गच्छ हुताशन     
भगवत्स्मरण :: इसके बाद हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर भगवान् का ध्यान करते हुए समस्त कर्म उन्हें समर्पित करें :- 
ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। 
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥ 
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्  
यत्पादपङ्कज स्मरणात् यस्य नामजपादपि। 
न्यूनं कर्मं भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुध्यात्मना वा प्रकृति स्वभावात्।
करोमि यद्यत्  सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि॥  
ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 
ॐ साम्बसदाशियाय नमः।
महानीराजन और तिलक कर्ण :: आचारानुसार भगिनी आदि स्नातक का महानीराजन कर तिलक करें।
 

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