Tuesday, June 11, 2013

MALLECHCHH म्लेच्छवंश :: CHRISTIANS & MUSLIMS

CHRISTIANS & MUSLIMS
(MALLECHCHH म्लेच्छवंश)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
राजा वेन अत्याचारी और दुराचारी था, जिसे ब्राह्मणों ने मार डाला। उसके शरीर का दोहन करके जो पुत्र पैदा हुआ वो महाराज पृथु के रूप में प्रसिद्द हुआ। पृथु ने वेन के वर्तमान जन्म के बारे में पता किया तो उसे अरब-खाड़ी देशों (Gulf countries), मरुस्थल में पाया। वेन मुक्ति के बाद वह माता पार्वती और भगवान् शिव के पुत्र के रुप में पैदा हुआ और अन्धक नाम से राक्षसों का राजा हुआ और भगवान् शिव ने उसे दण्ड स्वरूप एक करोड़ वर्षों तक अपने त्रिशूल की नोंक पर टाँगे रक्खा। उसके पश्चात वह भृंगी नाम से शिव गण कहलाया। [भविष्य पुराण]
त्रेता युग में लगभग 18 लाख साल पहले जब भगवान् राम ने समुद्र को सुखाने के लिए वाण चढ़ाया तो समुद्र ने प्रकट होकर उनकी आराधना की। तब समुद्र के कहने पर भगवान् श्री राम ने उस वाण को अरब प्रदेश-मरुस्थल में उस स्थान पर छोड़ा, जहाँ भयंकर डाकू लोग रहते थे (वर्तमान अरब देश)। 
राजा नहुष के पुत्र ययाति के 5 पुत्र हुए, जिनमें से 3 पुत्र म्लेच्छ देशों के राजा हुए। अरब देशों, फ़ारस, खाड़ी प्रदेशों, सहारा सहित पूरा यूरोप मल्लेच्छ प्रदेश कहलाता है। 
ययाति के पुत्रों से प्रारम्भ वंश :: (1). यदु से यादव, (2). तुर्वसु से यवन (Europeans, present day Jews and Christians), (3). दुह्यु से भोज, (4). अनु से मल्लेछ (Present day Muslims), (5). पुरु से पौरव। 
The Mallechchh Vansh (Muslims & Christians are a tributary of Chandr Vansh which in itself is a tributary of Sury Vansh Sun Dynasty). The Jews have heir origin in Vrahaspati-Jupiter.
गंधार नरेशों को द्रुहु का वंशज बताया गया है। ययाति के पांच पुत्रों में से एक द्रुहु था। ययाति के प्रमुख 5 पुत्र थे :-  (1). पुरु, (2). यदु, (3). तुर्वस, (4).अनु और (5). द्रुहु। इन्हें वेदों में पंचनंद कहा गया है। पांचों पुत्रों ने अपने-अपने नाम से राजवंशों की स्थापना की। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रुहु से भोज, अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुए। ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुह्मु को, दक्षिण में यदु को (आज का सिन्ध-गुजरात प्रांत) और उत्तर में अनु को मांडलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भूमंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए।[मत्स्य पुराण 48.6; वायु पुराण 99.9]
तुर्वस :: नहुष के बड़े पुत्र यति थे जो सन्यासी हो गए, इसलिए उनके दुसरे पुत्र ययाति राजा हुए। ययाति के पुत्रों से ही समस्त वंश चले। ययाति के पाँच पुत्र थे। देवयानी से यदु और तुर्वस-तर्वासु तथा शर्मिष्ठा से दृहू, अनु, एवं पुरु। यदु से यादवों का यदुकुल चला, जिसमें आगे चलकर भगवान् श्री कृष्ण ने जन्म लिया। दृहू से भोज तथा पुरु चले। तुर्वस-तर्वासु से मलेछ-मलेच्छ वंश चला। 
द्रुह्मु का वंश :: द्रुह्मु के वंश में राजा गांधार हुए। ये आर्यावर्त के मध्य में रहते थे। बाद में द्रुहुओं को इक्ष्वाकु कुल के राजा मंधातरी ने मध्य एशिया की ओर खदेड़ दिया। पुराणों में द्रुह्यु राजा प्रचेतस के बाद द्रुह्युओं का कोई उल्लेख नहीं मिलता।
प्रचेतस के बारे में लिखा है कि उनके 100 बेटे अफगानिस्तान से उत्तर जाकर बस गए और म्लेच्छ कहलाए। ययाति के पुत्र द्रुह्यु से बभ्रु का जन्म हुआ। बभ्रु का सेतु, सेतु का आरब्ध, आरब्ध का गांधार, गांधार का धर्म, धर्म का धृत, धृत का दुर्मना और दुर्मना का पुत्र प्रचेता हुआ। प्रचेता के 100 पुत्र हुए, ये उत्तर दिशा में म्लेच्छों के राजा हुए।
राजा संवरण भगवान् सूर्य की पुत्री से विवाह करके सूर्य लोक चले गए। त्रेता युग का अंत काल आने पर पृथ्वी पर लगातार 2 वर्षों तक वर्षा हुई जिससे पृथ्वी समुद्र में विलीन हो गई। तत्पश्चात झंझावातों के प्रभाव से भूमि दिखने लगी और अगस्त्य ऋषि  के तेज़ के प्रभाव से समुद्र सुख गया और 5 वर्षों में पृथ्वी वनस्पति सम्पन्न हो गई तो भगवान् सूर्य की आज्ञा से राजा संवरण अपनी पत्नी तपती, महर्षि वशिष्ठ और तीनों वर्णों के लोगों के साथ पुनः पृथ्वी पर आ गये। इसी काल में श्मश्रु पाल (दाढ़ी रखने वाले) मरुदेश (अरब, ईरान, ईराक) के शासक हुए। 
कुरु वंश के राजा क्षेमक की मृत्यु मलेच्छों द्वारा हुई। उनके पुत्र प्रद्योत ने मल्लेच्छ यज्ञ किया जिसमें मलेच्छों का विनाश हुआ। राजा प्रद्योत को म्लेच्छ हन्ता कहा जाने लगा। मलेच्छ रूप में स्वयं कलि ने ही राज्य किया था। कलि ने अपनी पत्नी सहित भगवान् नारायण की पूजा कर दिव्य स्तुति की जिससे खुश होकर भगवान् नारायण प्रकट हुए और आश्वासन दिया कि विभिन्न रुपों में प्रकट होकर वे कलि की मदद् करेंगे क्योंकि कई मायनों में कलि अन्य युगों से श्रेष्ठ है। प्रद्योत के वेदवान् और उनके सुनन्द हुआ जो बगैर सन्तति के ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। वरदान के प्रभाव से आदम और हव्यवति (हौवा-हव्वा) की उत्पत्ति हुई और तभी से आर्यावर्त सभी प्रकार से क्षीण होने लगा और मलेच्छों का बल बढ़ने लगा। द्वापर युग के 8,202 वर्ष रह जाने पर भूमि म्लेच्छों के प्रभाव में आने लगी। आदम और हव्यवति, दोनों ही इन्द्रियों का दमन करके भगवान् के ध्यान में मग्न रहते थे, मगर धूर्त कलि ने हौवा को धोखा देकर गूलर के पत्तों में लपेटकर दूषित वायु युक्त फल खिला दिया, जिससे भगवान् विष्णु की आज्ञा भंग हो गई और उनके अनेक पुत्र हुए जो सभी मलेच्छ थे। आदम पत्नी सहित स्वर्ग चला गया। उसका श्वेत नामधारी विख्यात श्रेष्ठ पुत्र हुआ, जिसकी आयु 1,200 वर्ष थी। 
श्वेत का पुत्र अनुह (नूह), जिसका कीनाश नाम का पुत्र था। महल्लल उसका पुत्र हुआ। जिसका पुत्र मानगर था। मानगर के विरद और उसके भगवान् विष्णु का भक्ति परायण पुत्र हनूक हुआ। अध्यात्म तत्व प्राप्त कर, म्लेच्छ धर्म पालन करते हुए भी वह सशरीर स्वर्ग चला गया।
म्लेच्छों के धर्म :: भगवान् विष्णु की भक्ति, अग्निपूजा, अहिंसा, तपस्या,  इन्द्रिय दमन। 
हनूक के मतोच्छिल, उसके लोमक और लोमक के न्यूह हुआ। न्यूह के सीम, शम और भाव हुए। न्यूह आत्मध्यानम परायण विष्णु भक्त था। भगवान् विष्णु ने उसे स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि वो सभी जीवों के साथ नाव पर सवार हो जाये, क्योंकि 7 दिनों बाद प्रलयंकारी वर्षा का योग था। 40 दिन लगातार बारिश हुई। न्यूह 88,000 ब्रह्मवादी मुनियों के पास बदरी क्षेत्र में पहुँच गया।  संसार के शेष सभी प्राणी नष्ट हो गए। 
न्यूह पुनः भगवान् विष्णु की भक्ति में लीन रहने लगा, जिससे प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु ने उसके वंश की वृद्धि की। राजा न्यूह ने भगवान् से ऐसी लिपि प्रारम्भ करने को कहा जो दायें हाथ से बायें हाथ की तरफ चले। उसे भी भगवान् की स्वीकृति प्राप्त हो गई और हिब्रू, अरबी, फ़ारसी, उर्दू जैसी भाषाओँ का प्रादुर्भाव हुआ। यह ब्राह्मी लिपि-भाषा की अपशब्दावली है। न्यूह ने अपने पुत्रों के नाम  सिम, हाम तथा याकूत कर दिये। 
याकूत के 7 पुत्र हुए जिनके नाम हैं :- जुम्र, माजूज, मादी, यूनान, तुवलोम, सक तथा तीरास। जुम्र के 10 पुत्र हुए। 
यूनान के 4  संतानें हुईं  :- इलीश, तरलीश, कित्ती और हूदा। 
न्यूह के दूसरे पुत्र के हाम-शम के 4 पुत्र थे :- कुश, मिश्र, कूज और कनआँ। 
कुश के 6 पुत्र हुए :- सवा, हबील, सर्वत, उरगम, सवतिया और महाबली निमरूह। इनकी भी क्रमशः कलन, सिना, रोरक, अक्कद, बावुन और रसना देशक नामधारी सन्तानें हुईं। 
न्यूह के पुत्र सिम ने 500 साल तक राज्य किया। सिम के बेटे अर्कन्सद ने 434 वर्ष,  उसके पुत्र सिंहल ने 460 साल तक राज्य किया। उसके पुत्र इब्र ने भी 460 वर्ष तक शासन किया। उसका बेटा फ़लज 240 साल तक राजा रहा। फलज का पुत्र रऊ था, जिसने 235 वर्ष तक शासन किया। उसके पुत्र जूज़ ने 235 वर्ष शासन किया। उसका पुत्र नहूर था, जिसने 160 वर्ष तक  राज्य किया। नहूर का पुत्र ताहर था, जिसने 160 साल शासन किया। तहर के अविराम, नहूर और हारन नामक पुत्र हुए। माँ भगवती सरस्वती के श्राप से ये राजा म्लेच्छ भाषा-भाषी हो गये और आचार-व्यवहार में भी अधम साबित हुए। इन शासकों-राजाओं के नाम पर ही उनके राज्यों-नगरों के नाम भी पड़े। 
कलियुग के 2,000 वर्ष व्यतीत होनेपर पृथ्वी पर अधिकांश भाग में मलेच्छों का असर बढ़ गया। तभी उनका मूषा नाम का आचार्य-पूर्व पुरुष हुआ। 3,000 साल बीत जाने पर मेलच्छ देशों में शकों का राज्य कायम हो गया। कलियुग के 3,710 व्यतीत हो जाने पर प्रमर-परमार नामक राजा के यहाँ महामद-मुहम्मद, महामर नाम का पुत्र हुआ जिसने 3 वर्षों तक राज्य किया। उसके देवापि नामक पुत्र हुआ। 
शालिवाहन के वंश में 10 राजा हुए जिन्होंने 500 वर्षों  तक राज्य किया। 10 वें राजा राजा भोज हुए। उन्होंने गान्धार, म्लेच्छ और कश्मीर के राजाओं को परास्त किया। उसी प्रसंग में महामद नाम का म्लेच्छ अपने आचार्य और शिष्य मण्डल के साथ उनके समक्ष मरुप्रदेश में उपस्थित हुआ। राजा भोज को मरुस्थल में विद्यमान भगवान् शिव-महादेव के दर्शन हुए। भगवान् शिव ने राजा भोज को कहा कि महामायावी त्रिपुरासुर को वहाँ दैत्यराज बलि द्वारा  गया है और भगवान् शिव से वरदान पाकर वह दैत्य समुदाय को बढ़ा रहा है। वह महामद अयोनिज है।
Mishr & Mishra (मिश्र, मिश्रा) are the titles-surnames of devout Hindu-Brahmans in India. They are synonym to Mistr. Mishr was one of the 10 sons of KAASHYAP (काश्यप), son of Kashyap (कश्यप)-the sage from whom the entire living world-organism have originated-evolved. Present day Kashmir was place, where Kashyap performed his ascetics (तपस्या). Mishr selected Mistr as the place of work for him self. This place acquired the name Mistr after him. He educated 10,000 people and imparted the knowledge of Ved, Puran, Upnishad, Brahmns etc. It came to be recognized as the seat of learning and Hinduism (Sanatan Dharm, as it was known at that time). Later this group was forced-enticed to be converted to Buddhism and ultimately to Muslimism. Muslimism is seen as a mirror image of Hinduism. Genetics may reveal that the genes-chromosomes-DNA of this belt across India up to Indonesia, Thailand etc., is identical.
 मुसलमानों की उत्पति :: 
लिंड्गच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रुधारी सदूषकः। 
उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनोमम॥भविष्य पुराण 3.3.1.25॥ 
विना कौलं च पश्वस्तेषां भक्ष्या मतामम।  
मुसलेनैव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति॥भविष्य पुराण 3.3.1.26॥ 
तस्मान्मुसलवन्तो हि जातयो धर्मदूषकाः। 
इति पैशाचधर्मश्च भविष्यति मया कृतः॥भविष्य पुराण 3.3.1.27॥ 
भविष्य पुराण लिखे हुए 5,000 से ज्यादा वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इसमें कलियुग का वर्णन विस्तार से दिया गया है। यह गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित किया गया है और इसका अनुवाद भी प्रामाणिक है। 
Rund stands for the body of Nandini-cow, from whose body the people, called Gurand or Mallech, emerged, when Vishwa Mitr attacked Vashishth to capture Nandini. Vishwa Mitr was defeated and turned to asceticism.
Mallechs too are the children-progeny of Mahrishi Kashyap. This is in addition to the Mallechs who originated from Brahma Ji.
Humans like Muchukund Ji, king Dashrath were always willing to help the demigods against the demons, giants, Anary. Both of them led the demigods-deities to victory over the demons. 
Anary (Mallechchh, the inhabitants of the Arab world had always been troublesome for the civilised, disciplined, cultured) like today.
In practice-behaviour, they are close to the animals which mate with their progeny, siblings, aunt etc. They buy sell women, push them into prostitution etc.
Mallechs (The Yavan, Europeans, red mouthed) originated from Surbhi the cow of Vashishth when Raj Rishi Vishwa Mitr attacked the Ashram to steal Surbhi. At present they have two branches :- The first one, which dominates in desert regions (Muslims) and the second one dominates in Rome, Europe, America, Australia (Christians).
The progeny of a Brahman and cow Surbhi, Christians, eats beef-cow meat i.e., the meat of the mother.
VANAR CLAN :: In Sanskrit, Gurandi stands for English. Bhagwan Ram fulfilled the desire of 7 Vanar (men with tail and face like the monkeys, Bhagwan Shri Ram killed Bali considering him to be an animal) who wanted to marry the daughters of Rawan, born out his relationship with Dev Kanyas-Divine Girls. They were awarded the 7 islands created by Jalandher-the son of Samudr (Ocean) and brother of Laxmi Ji-the Goddess of wealth to rule, by Bhagwan Shri Ram. They were Vikat, Vrajeel (Brazil), Jal, Berlin (Germany), Sinhal (Cyclon-Shri Lanka, Jav (Java), Sumatr (Sumatra). Descendants of Vikat having the face of Vanar came to India for trade. Queen Viktawati (Victoria), wife of King Vikat, Ruled the country through Asht Kaushal Marg (Parliament). 7 Gurunds ruled the country for 64 years. 8th one Vardil ruled the country judiciously but was overpowered by Mur a Demon sent by Demon Emperor from Sutal by Bahu Bali, 9th one Macaulay was an educationist, 10th one Lord Bevel who ruled the country as per the dictates of Raj Dharm (rule of law) religiously, he went to heaven after his death.
Basically all Christians were Hindus called Jews.
रेगिस्तान की धरती पर एक पिशाच जन्म लेगा जिसका नाम महामद (महा घमण्डी-सिरफ़िरा) होगा, वो एक ऐसे धर्म की नींव रखेगा जिसके कारण मानव जाति त्राहि माम कर उठेगी। वो असुर कुल सभी मानवों को समाप्त करने की चेष्टा करेगा। उस धर्म के लोग अपने लिंग के अग्रभाग को जन्म लेते ही काटेंगे, उनकी शिखा (चोटी) नहीं होगी। वो बकरों की तरह दाढ़ी, मूँछ रखेंगे। वो बहुत शोर करेंगे और मानव जाति को नाश करने की चेष्टा करेंगे। राक्षस-पैशाच कर्मों को बढ़ावा देंगे एवं वे अपने को मुसलमान कहेंगे और ये असुर धर्म कालान्तर में स्वतः समाप्त हो जायेगा। 
More than 5,000 years since the writing of Bhavishy Puran. It has described the period of next 4,80,000 years in detail by the name of Kali Yug. It has been published by Geeta Press, Gorakh Pur and the translation from Sanskrat to Hindi is authentic.
A demon-devil will get birth in the deserts by the name of Maha Mad (Insane, arrogant man, Egoistic). He will found-establish a religion which will crush humanity in all sorts of manners. The demon clan will try to vanish all religions observed by others. Their followers will cut the front skin-web of their pennies and sport beard like goats, but will not have hair locks. They will make a lot of hue and cry. All sorts of demonic activities (terrorism, rape, abduction, sale & trafficking of women, drinking wine, destruction of places of worship, breaking of idols, meat eating, butchering cows) will be promoted-followed by them. They will call themselves Musalman and will perish automatically under the burden of their sins.
Mohammad was born in a Brahmn family of priests. He was a rogue from his early childhood and remained illiterate as a result of it. He converted Purans to Kuran-Quran and Manu Samrati into rule book of Muslims-Islam by the name of Sharia, with gross violations, distortions. Its almost anti-opposite of the virtues, piousity, righteousness described in Hinduism. It advocates all sorts of sins. 
भगवान् शिव के ऐसा कहने पर भगवत इच्छा जानकर राजा भोज वापस आ गए। म्लेच्छों को द्वापर के समान आर्यधर्म का पालन करते देख कलि ने भगवान् श्री कृष्ण की 12 वर्ष तक तपस्या की। भगवान् ने कहा कि वे अपने अंश माध्यम से अग्नि वंशी प्रजाओं का विनाश करेंगे और म्लेच्छवंशीय राजाओं को प्रतिष्ठित करेंगे। तत्पश्चात सहोद्दीन (मोहम्मद गोरी) भारत को लूट कर चला गया और पृथ्वीराज चौहान ने वीरगति पाई। 
म्लेच्छ और पैशाच धर्म का अनुयायी महामोद (महमूद) राजनीय नामक नगर का अधिपति था, उसने बहुत से नगरों को लूटकर धन एकत्र किया और कुंभपाल को दिया। कुंभपाल का पुत्र देवपाल था। 
Image result for isa masih imagesवीर विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन ने सिंहासन पर बैठने के बाद म्लेच्छों और आर्यों की अलग-अलग देश मर्यादा स्थापित की। म्लेच्छों को सिंधु प्रदेश के उसपार का क्षेत्र प्रदान किया। हूण देश के मध्य स्थित पर्वत पर उन्होंने एक सुन्दर पुरुष को देखा जो श्वेत वस्त्र धारण किये हुए था। उसने बताया कि वह कुमारी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। उसने स्वयं को म्लेच्छ धर्म का प्रचारक और सत्यव्रत में स्थित बताया। उसने कहा कि सत्य का विनाश होने पर वह म्लेच्छ प्रदेश में मसीह बनकर आया और दस्युओं  के मध्य भयंकर ईशामसी नाम से एक कन्या उत्पन्न हुई। उसी को म्लेच्छों से प्राप्तकर उसने मसीहत्व पाया। उसने इसाई धर्म  कहा ::
सबसे पहले मानस और दैहिक मल  निकालकर शरीर को पूर्णतः निर्मल कर लेना चाहिये। फिर इष्ट देवता का जप करना चाहिये। सत्य वाणी बोलनी चाहिये। न्याय से चलना चाहिये। मन को एकाग्र कर सूर्यमण्डल में स्थित परमात्मा की पूजा करनी चाहिये। क्योंकि सूर्य और ईश्वर में समानता है। परमात्मा अचल हैं और सूर्य भी अचल हैं। सूर्य भूतों के सार का चारों ओर से आकर्षण करते हैं। ऐसे कृत्य से वो मसीहा विलीन हो गई, पर मेरे ह्रदय में विशुद्ध कल्याणकारिणी ईश-मूर्ति प्राप्त हुई है, इसलिए मेरा नाम ईशामसीह प्रतिष्ठित हुआ। यह जानकर राजा शालिवाहन ने उस म्लेच्छ-पूज्य को प्रणाम किया और दारुण म्लेच्छ स्थान में प्रतिष्ठित किया। 
The Christians crucified Jesus-Isa Masih and are now praying him. But they do not try to follow what he had said. He said that first you clean your body and mind thoroughly. After this one should pray to the deity who can resolve his issues-solve his problems. Speak the truth. Concentrate the mind and pray to the Almighty centred around the Sun. There is similarity between the Sun and the God. The Almighty and the Sun both are for ever. Sun grants the gist of the events of the past-scriptures.
EVOLUTION OF YAVAN :Vishwamitr with his army arrived at the hermitage of sage Vashishth. The sage welcomed him and offered a huge banquet to the army, that was produced by Sabla-a Kam Dhenu. Vishwamitr asked the sage to part with Sabla and instead offered thousand of ordinary cows, elephants, horses and jewels in return. However, the sage refused to part with Sabla, who was necessary for the performance of the sacred rituals and charity by the sage. Agitated, Vishwamitr seized Sabla by force, but she returned to her master, fighting the king's men. She hinted Vashishth to order her to destroy the king's army and the sage followed her wish. Intensely, she produced Pahlav warriors, who were slain by Vishwamitr's army. So, she produced warriors of Shak-Yavan lineage. From her mouth, emerged the Kambhoj, from her udder Barvaras, from her hind Yavans and Shaks and from pores on her skin, Harits, Kirats and other foreign warriors. Together, the army of Sabla killed Vishwamitr's army and all his sons. This event led to a great rivalry between Vashishth and Vishwamitr, who renounced his kingdom and became a great sage to defeat Vashishth.

    
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा

Wednesday, June 5, 2013

CHITR GUPT-KAYASTH DYNASTY चित्रगुप्त वंश-कायस्थ कुल

CHITR GUPT-KAYASTH DYNASTY
चित्रगुप्त वंश-कायस्थ कुल
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
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[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
चित्रगुप्त :: धर्मराज द्वारा पृथ्वी लोक पर रहने वाले प्राणियों के कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक भेजने का काम बहुत उलझन और दुविधा पूर्ण था। इसके बारे में उन्होंने महाकाल भगवान् शिव और ब्रह्मा जी से निवेदन किया तो ब्रह्मा जी ध्यानलीन हो गए और एक हजार वर्ष की तपस्या के बाद एक पुरुष उत्पन्न हुआ जो चित्रगुप्त कहलाया।
चित्रगुप्त का जन्म ब्रह्मा जी की काया से हुआ था अत: वे कायस्थ कहलाए। चित्रगुप्त जी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और करवाल हैं। ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलता है। चित्रगुप्त जी के गुणों यथा सतर्कता, सहजता, यथार्थता, सटीकता और व्यावसायिकता आदि के कारण उन्हें यम के अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया। उक्त गुणों के आधार पर चित्रगुप्त जी पृथ्वी पर रहने वाले जीवों का लेखा-जोखा व अच्छे-बुरे कार्यों का हिसाब पूरी परिपूर्णता के साथ करते हैं। फिर मृत्यु के देवता यम, जीवों के कार्यों के अनुसार उन्हें स्वर्ग व नरक में भेजने का फैसला करते हैं। इन्हीं के आधार पर मृत्यु के बाद जीव फिर किस योनि में जाएगा, का निर्धारण भी होता है।
Chitr Gupt stands for secret or hidden picture. He is the deity who has been assigned with the task of keeping thorough record of each and every birth of an individual as organism, including humans all over the universe. Demigods, deities also fall under his jurisdiction. On the basis of these records, one is sent to hell, heaven, earth, various cosmic abodes or 84,00,000 species of organism, before ultimately merging with the source-the Almighty. Dharm Raj requested Brahma Ji to depute someone who could help him in keeping the records of all souls and their deeds. Brahma Ji assured him to oblige. He set in meditation for 1,000 years when Chitr Gupt emerged before him as an image. Brahma Ji embodied him with divine shape and size and powers.
Chitr Gupt is incredibly meticulous and with his pen and paper. He tracks every action of every life form-soul, building up a record of them over the course of their life so that when they die their fate can be easily determined. These perfect and complete documents are referred to in mystical traditions as the perennial-for ever records and as they contain the actions of each person from birth to death. They contains every action taken in the universe. Chitr Gupt is the person-deity who used-script, Sanskrat letters to record each and every activity in the universe.[Garud Puran]. 
Chitr Gupt worship include the paper, pen, ink, honey, betel nut, matches, mustard, sugar, sandalwood and frankincense. The worship has relevance due to justice, peace, literacy and knowledge all over the earth. It includes keeping records of wealth, cash, jewellery with the family. Offerings of turmeric, flowers and vermilion are made at this occasion considered to be very auspicious.
कायस्थों का स्त्रोत श्री चित्रगुप्त जी महाराज हैं। 
ब्रह्मा जी से चार वर्णों  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र  उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात धर्मराज ने उनसे मानवों का विवरण रखने में सहायता माँगी। ब्रह्मा जी 1,000 वर्षों के लिये ध्यान साधना में लीन हो गये। जब उन्होंने आँखे खोली तो देखा कि आजानुभुज, करवाल, पुस्तक, कर, कलम, मसिभाजनम अर्थात एक पुरुष को अपने सामने कलम, दवात, पुस्तक तथा कमर में तलवार बाँधे पाया। ब्रह्मा जी ने उनसे प्रश्न किया कि वह कौन हैं? उन्होंने बताया कि वह ब्रह्मा जी के चित्त में गुप्त रूप से निवास कर रहे थे। उन्होंने ब्रह्मा जी से अपना नाम, कार्य और दायित्व पूछा। ब्रह्मा जी ने कहा कि तुम मेरे चित्त, मन-अन्तःकरण में गुप्त-विलीन थे; इसलिये तुम्हें चित्रगुप्त के नाम से जाना जाएगा और तुम्हारा कार्य होगा प्रत्येक प्राणी की काया में गुप्तरूप से निवास करते हुए उनके द्वारा किये गए सत्कर्म और अपकर्म का लेखा-जोख़ा रखना और तदानुसार सही न्याय कर उपहार और न्याय-दंड की व्यवस्था करना। चूँकि तुम प्रत्येक प्राणी की काया में गुप्तरूप से निवास करोगे इसलिये तुम्हें और तुम्हारी संतानों को कायस्थ कहा जायेगा।
चित्रगुप्त जी को महा शक्तिमान क्षत्रीय के नाम से सम्बोधित किया गया है। इनकी दो शादियाँ हुईं। 
*क्यों कायस्थ 24 घंटे के लिए नहीं करते कलम का उपयोग*
भगवान् श्री राम और चित्रगुप्त :: भगवान् श्री राम के राजतिलक में निमंत्रण प्राप्त न होने से चित्रगुप्त जी ने कलम उठाकर रख दी और तभी से पड़वा काल शुरू हो गया। 
पड़वा के दिन कायस्थ कलम का प्रयोग नहीं करते, यानि किसी भी तरह का हिसाब-किताब नही करते।  
कायस्थ दीपावली के दिन पूजन के  बाद कलम रख देते है और फिर  यमदुतिया के दिन  कलम-दवात  के पूजन के बाद ही उसे उठाते हैं।  
भगवान् श्री राम दशानन रावण को मार कर अयोध्या लौट रहे थे, तब उनके खडाऊं को राजसिंहासन पर रख कर राज्य चला रहे राजा भरत ने गुरु वशिष्ठ को भगवान् राम के राज्यतिलक के लिए सभी देवी देवताओं को सन्देश भेजने की  व्यवस्था करने को कहा। गुरु वशिष्ठ ने ये काम अपने शिष्यों को सौंप कर राज्यतिलक की तैयारी शुरू कर दीं।  
जब राज्यतिलक में सभी देवी देवता आ गए तब भगवान् श्री राम ने अपने अनुज भरत जी से पूछा कि चित्रगुप्त जी दिखाई नहीं दे रहे।  जब खोज बीन हुई तो पता चला कि गुरु वशिष्ठ के शिष्यों ने चित्रगुप्त जी को निमत्रण पहुँचाया ही नहीं, जिसके चलते चित्रगुप्त नहीं आये। चित्रगुप्त सब जान  चुके थे और इसे प्रभु राम की महिमा समझ रहे थे। फलस्वरूप उन्होंने गुरु वशिष्ठ की इस भूल को अक्षम्य मानते हुए यमलोक में सभी प्राणियों का लेखा जोखा लिखने वाली कलम को उठा कर किनारे रख दिया।  
सभी देवी देवता जैसे ही राजतिलक से लौटे तो पाया की स्वर्ग और नरक के सारे काम रुक गये थे, प्राणियों का का लेखा जोखा ना लिखे जाने के चलते ये तय कर पाना मुश्किल हो रहा था कि किसको कहाँ भेजें? 
तब गुरु वशिष्ठ की इस गलती को समझते हुए भगवान् श्री राम ने अयोध्या में भगवान् विष्णु द्वारा स्थापित चित्रगुप्त जी के मंदिर में गुरु वशिष्ठ के साथ जाकर उनकी  स्तुति की और गुरु वशिष्ठ की गलती के लिए क्षमा याचना की, जिसके बाद भगवान् श्री राम के आग्रह को स्वीकार करके चित्रगुप्त जी ने लगभग 4 पहर (24 घंटे बाद) पुन: कलम दवात की पूजा करने के पश्चात उसको उठाया और प्राणियों का लेखा-जोखा लिखने का कार्य आरम्भ किया
श्री अयोध्या महात्मय में इसे श्री धर्म हरि मंदिर कहा गया है। अयोध्या आने वाले सभी तीर्थ यात्रियों को अनिवार्यत: श्री धर्म-हरि जी के दर्शन करना चाहिये, अन्यथा उन्हें इस तीर्थ यात्रा का पुण्यफल प्राप्त नहीं होता। 
तभी से कायस्थ दीपावली की पूजा के पश्चात कलम को रख देते हैं और यमदुतिया के दिन चित्रगुप्त जी और कलम दवात पूजन का विधिवत पूजन करके ही कलम को धारण करते हैं।
ब्राह्मणों से  दान लेने का हक़ सिर्फ कायस्थों को ही है। 
पहली पत्नी सूर्य पुत्री-दक्षिणा, और दूसरी नंदनी, जो ब्राह्मण कन्या थी, से  इनके 4 पुत्र हुए :-
भानु (श्री वास्तव) :- उनका राशि नाम धर्मध्वज था, जिन्हें चित्रगुप्त जी ने श्रीवास (श्रीनगर) और कान्धार के इलाके में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री पद्मिनी से हुआ। उस विवाह से देवदत्त और घनश्याम नामक दो दिव्य पुत्रों की उत्पत्ति हुई। देवदत्त को कश्मीर का एवं घनश्याम को सिन्धु नदी के तट का राज्य मिला। श्री वास्तव 2 वर्गों में विभाजित हैं यथा खर एवं दूसर। 
कुछ अल-निकास इस प्रकार हैं :- वर्मा, सिन्हा, अघोरी, पडे, पांडिया, रायजादा, कानूनगो, जगधारी, प्रधान, बोहर, रजा सुरजपुरा, तनद्वा, वैद्य, बरवारिया, चौधरी, रजा संडीला, देवगन इत्यादि। 
विभानु (सूर्यध्व्ज) :- उनका राशि नाम श्याम सुंदर था, जिनका विवाह देवी मालती से हुआ। महाराज चित्रगुप्त ने विभानु को कश्मीर के उत्तर क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। चूँकि उनकी माता दक्षिणा सूर्यदेव की पुत्री थीं, तो उनके वंशज सूर्य देव का चिन्ह अपनी पताका पर लगाये और सूर्यध्व्ज नाम से जाने गए। अंततः वह मगध में आकर बसे। 
विश्वभानु (वाल्मिक) :- उनका राशि नाम दीनदयाल था और वह देवी शाकम्भरी की आराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने उनको चित्रकूट और नर्मदा के समीप वाल्मीकि क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उनका विवाह नागकन्या देवी बिम्ववती से हुआ। उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा नर्मदा नदी के तट पर तपस्या करते हुए बिताया। इस तपस्या के समय उनका पूर्ण शरीर वाल्मीकि नामक लता से ढका हुआ था। उनके वंशज वाल्मीकि नाम से जाने गए और वल्लभ पंथी बने। उनके पुत्र श्री चंद्रकांत गुजरात में जाकर बसे तथा अन्य पुत्र अपने परिवारों के साथ उत्तर भारत में गंगा और हिमालय के समीप प्रवासित हुए। आज वह गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं। गुजरात में उनको वल्लभी कायस्थ भी कहा जाता है। 
वीर्यभानु (अष्ठाना-अस्थाना) :- उनका राशि नाम माध वराव था और उन्होंने देवी सिंघ ध्वनि से विवाह किया। वे देवी शाकम्भरी की पूजा किया करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री वीर्यभानु को आधिस्थान में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। उनके वंशज अष्ठाना नाम से जाने गए और रामनगर (वाराणसी) के महाराज ने उन्हें अपने आठ रत्नों में स्थान दिया। आज अष्ठाना उत्तर प्रदेश के कई जिले और बिहार के सारन, सिवान, चंपारण, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, दरभंगा और भागलपुर क्षेत्रों में रहते हैं। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश में भी उनकी संख्या ध्यान रखने योग्य है। 
वह 5 अल में विभाजित हैं। 
दूसरी पत्नी इरावती, शोभावती नागवन्शी क्षत्रिय कन्या थीं, जिनसे इनके 8 पुत्र हुए :-
चारु (माथुर) :- वह गुरु मथुरे के शिष्य थे। उनका राशि नाम धुरंधर था और उनका विवाह देवी पंकजाक्षी से हुआ एवं वह देवी दुर्गा की आराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चारू को मथुरा क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उनके वंशज माथुर नाम से जाने गाये। उन्होंने राक्षसों (जो कि वेद में विश्वास नहीं रखते थे), को हरा कर मथुरा में राज्य स्थापित किया। इसके पश्चात् उनहोंने आर्यावर्त के अन्य हिस्सों में भी अपने राज्य का विस्तार किया। माथुरों ने मथुरा पर राज्य करने वाले सूर्य वंशी राजाओं जैसे इक्ष्वाकु, रघु, दशरथ और राम के दरबार में भी कई पद ग्रहण किये। 
माथुर 3 वर्गों में देहलवी, खचौली और गुजरात के कच्छी में विभाजित हैं। 
उनके 84 अल (गौत्र-divisions) हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं :- कटारिया, सहरिया, ककरानिया, दवारिया, दिल्वारिया, तावाकले, राजौरिया, नाग, गलगोटिया, सर्वारिया, रानोरिया इत्यादि। इटावा के मदन लाल तिवारी द्वारा लिखित मदन कोश के अनुसार माथुरों ने पांड्या राज्य की स्थापना की जो कि आज के समय में मदुरै, त्रिनिवेल्ली जैसे क्षेत्रों में फैला था। माथुरों के दूत रोम के ऑगस्टस कैसर के दरबार में भी गए थे। 
चितचारु (भटनागर) :- वह गुरू भट के शिष्य थे, जिनका विवाह देवी भद्रकालिनी से हुआ था। वह देवी जयंती की अराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने उन्हें भट देश और मालवा में भट नदी के तट पर राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उन्होंने चित्तौड़ एवं चित्रकूट की स्थापना की और वहीं बस गए। उनके वंशज भटनागर के नाम से जाने गए जो 84 अल में विभाजित हैं, जिनमें से कुछ अल इस प्रकार हैं :- दासनिया, भतनिया, कुचानिया, गुजरिया, बहलिवाल, महिवाल, सम्भाल्वेद, बरसानिया, कन्मौजियाइत्यादि। भटनागर उत्तर भारत में कायस्थों के बीच एक आम उपनाम है। 
मतिभान (सक्सेना) :- इनका विवाह देवी कलेश से हुआ और वे देवी शाकम्भरी की पूजा करते थे। चित्रगुप्त जी ने श्री मतिमान को शक् इलाके में राज्य स्थापित करने भेजा। उनके पुत्र एक महान योद्धा थे और उन्होंने आधुनिक काल के कान्धार और यूरेशिया भूखंडों पर अपना राज्य स्थापित किया। चूँकि वह शक् थे और शक् साम्राज्य से थे तथा उनकी मित्रता सेन साम्राज्य से थी, तो उनके वंशज शकसेन या सकसेन कहलाये। आधुनिक इरान का एक भाग उनके राज्य का हिस्सा था। आज वे कन्नौज, पीलीभीत, बदायूं, फर्रुखाबाद, इटाह, इटावाह, मैनपुरी, और अलीगढ में पाए जाते हैं। सक्सेना खरे और  दूसर में विभाजित हैं और इस समुदाय में 106 अल हैं। कुछ अल इस प्रकार हैं :- जोहरी, हजेला, अधोलिया, रायजादा, कोदेसिया, कानूनगो, बरतरिया, बिसारिया, प्रधान, कम्थानिया, दरबारी, रावत, सहरिया, दलेला, सोंरेक्षा, कमोजिया, अगोचिया, सिन्हा, मोरिया इत्यादि। 
सुचारु (गौड़) :- वह गुरु वशिष्ठ के शिष्य थे और उनका राशि नाम धर्मदत्त था। वह देवी शाकम्बरी की आराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री सुचारू को गौड़ क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था। श्री सुचारू का विवाह नागराज वासुकी की पुत्री देवी मंधिया से हुआ। गौड़ 5 वर्गों में विभाजित हैं :- खरे, दुसरे, बंगाली, देहलवी एवं वदनयुनि। गौड़ कायस्थ चारुण (कर्ण) को 32 अल में बाँटा गया है और इनमें महाभारत के भगदत्त और कलिंग के रुद्रदत्त प्रसिद्द हैं।
उनका राशि नाम दामोदर था एवं उनका विवाह देवी कोकलसुता से हुआ। वह देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे और वैष्णव थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चारूण को कर्ण क्षेत्र (आधुनिक कर्नाटक) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उनके वंशज समय के साथ उत्तरी राज्यों में प्रवासित हुए और आज नेपाल, उड़ीसा एवं बिहार में पाए जाते हैं। उनकी बिहार की शाखा दो भागों में विभाजित हैं :- गया वाल कर्ण, जो गया में बसे और मैथिल कर्ण (जो मिथिला में जाकर बसे)। इनमें दास, दत्त, देव, कण्ठ, निधि, मल्लिक, लाभ, चौधरी, रंग आदि पदवी प्रचलित है। मैथिल कर्ण कायस्थों की एक विशेषता उनकी पंजी पद्धति है। पंजी वंशावली एक सूचीबद्ध करने की प्रणाली है। कर्ण 360 अल में विभाजित हैं और इस विशाल सँख्या का कारण वह कर्ण परिवार हैं, जिन्होंने कई चरणों में दक्षिण भारत से उत्तर की ओर पलायन किया। इस समुदाय का महाभारत के कर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है। 
हिमवान (अम्बष्ट) :- उनका राशि नाम सरंधर था और उनका विवाह देवी भुजंगाक्षी से हुआ। वह देवी अम्बा माता की अराधना करते थे। गिरनार और काठियावार के अम्बा-स्थान नामक क्षेत्र में बसने के कारण उनका नाम अम्बष्ट पड़ा। श्री हिमवान की पाँच दिव्य संतानें हुईं :- नागसेन (24 अल), गयासेन (35 अल), गयादत्त (85 अल), रतनमूल (25 अल) और देवधर (21अल)। ये पाँचों पुत्र विभिन्न स्थानों में जाकर बसे और इन स्थानों पर अपने वंश को आगे बढ़ाया। अंततः वह पंजाब में जाकर बसे, जहाँ उनकी पराजय सिकंदर के सेनापति और उसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के हाथों हुई। अम्बष्ट कायस्थ बिजातीय विवाह की परंपरा का पालन करते हैं और इसके लिए खास घर प्रणाली का उपयोग करते हैं। इन घरों के नाम उपनाम के रूप में भी इस्तेमाल किये जाते हैं। कुछ खास घर (जिनसे मगध राज्य के उन गाँवों का नाम पता चलता है, जहाँ मौर्यकाल में तक्षशिला से विस्थापित होने के उपरान्त अम्बष्ट आकर बसे थे) के नाम हैं :- भीलवार, दुमरवे, बधियार, भरथुआर, निमइयार, जमुआर, कतरयार पर्वतियार, मंदिलवार, मैजोरवार, रुखइयार, मलदहियार, नंदकुलियार, गहिलवार, गयावार, बरियार, बरतियार, राजगृहार, देढ़गवे, कोचगवे, चारगवे, विरनवे, संदवार, पंचबरे, सकलदिहार, करपट्ने, पनपट्ने, हरघवे, महथा, जयपुरियारआदि। 
चित्रचारु (निगम) :- उनका राशि नाम सुमंत था और उनका विवाह अशगंधमति से हुआ। वह देवी दुर्गा की अराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चित्रचारू को महाकोशल और निगम क्षेत्र (सरयू नदी के तट पर) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। उनके वंशज वेदों और शास्त्रों की विधियों में पारंगत थे जिससे उनका नाम निगम पड़ा। आज के समय में वे कानपुर, फतेहपुर, हमीरपुर, बंदा, जलाओं, महोबा में रहते हैं। वह 43 अल में विभाजित हैं, जिनमें  से कुछ इस प्रकार हैं :- कानूनगो, अकबरपुर, अकबराबादी, घताम्पुरी, चौधरी, कानूनगो बाधा, कानूनगो जयपुर, मुंशी इत्यादि। 
अतिन्द्रिय (कुलश्रेष्ठ) :- उनका राशि नाम सदानंद था और उन्होंने देवी मंजुभाषिणी से विवाह किया। वह देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री अतिन्द्रिय (जितेंद्रिय) को कन्नौज क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था। श्री अतियेंद्रिय चित्रगुप्त जी की बारह संतानों में से अधिक धर्मनिष्ठ और सन्यासी प्रवृत्ति वाली संतानों में से थे। उन्हें धर्मात्मा और  पंडित नाम से जाना गया और स्वभाव से गुणी थे। आधुनिक काल में वे मथुरा, आगरा, फर्रूखाबाद, इटाह, इटावाह और मैनपुरी में पाए जाते हैं। कुछ कुलश्रेष्ठ जो की माता नंदिनी के वंश से हैं, नंदीगांव (बंगाल) में पाए जाते हैं।
वृहस्पति की एक पत्नि जुहू (जौहरा) भी थी, जिससे जौहर करने वाले जुहार शब्द से अभिवादन करने वाले यहूदी वंश तथा जौहरी कायस्थ तथा युद्ध में आगे लड़ने वाला हरावल दस्ता जुझाइऊ वीर उत्पत्र हुए। ये सब वृार्हस्पत्य थे।
    
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NAG VANSH नाग वंश

NAG VANSH 
नाग वंश
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
SONS OF SURSA AND KADRU WIVES OF KASHYAP :: Shesh, Vasuki, Takshak, Akarn, Hanikarn, Pinjai, Aryak, Era Wat, Maha Padm, Kambal, Asvatar, Elapatr, Shankh, Karkotak, Dhanjay, Maha Karn, Mahanil, Dhrat Rashtr, Karvir, Pushpadestr, Summukh, Durmukh, Sunamukh, Kaliya, Khar, Ambarish, Akrur, Prahlad, Gandharv, Mani, Nahush, Kar-Rom, Raj Bhar.
Rig Ved mentions Nag-Serpent, race, Nag kings and Nag warriors.
Ahi Budhn has been described in Rig Ved as a serpent deity. Ahi Budhn-the serpent of base of a mountain, has come twelve times in the Rig Ved.
Ahi Vratr  was deadly Nag-serpent, whom Indr killed because he nursed enmity against him. Ahi Vrat is same Vrata Sur-a demon. He had been described as Dasyu-dacoit, Das, Asur and Ahi in Rig Ved. He could block the flow of waters in the rivers.
Ahi has been stated to be a dangerous serpent.[Rig Ved 7.50.1-3]
In Uttar Pradesh the cultural center of medieval period was Ahi Chhatr (अहिछत्र)  (centre of Nag rule) which was situated in the district of Barely. This was the capital of ancient Nag kings.
Assyrian Nag kings Alagi and Vilagi were worshipped traditionally India.[Atharv Ved 5.13.6-10] 
The tradition still perpetuates in the form of Nag Panchmi festival.
This shows Nag worship and totemism (belief in the kinship of a group of people with a common totem tradition). 
One should remember that both Nag and humans have common origin from Kashyap. Its only a mater of chromosomes and DNA replica that a different breed is obtained with entirely different or opposite characters.
Their original seat was Taxila-Takshila, which was also the metropolis of serpent worship and the spot whence it spread all over India.
The Nag dynasty belonged to Madrak Jat Gotr of Yadav Vansh and was devotees of Bhagwan Shiv. They had a number of ruling dynasties such as Takshak Nag, Bachak Nag, Kilkil Nag, Karkotak, Kali Raman etc., all of which are Jat Gotr. Mathura, Padma Wati and Kanti Pur were capitals of Nag dynasty. Nags of Padma Wati were called Tank, which is also a Jat Gotr and are found in 24 villages near Sonipat.
NAG VANSH :: Nags originated from Kashyap, father of Sury from whom clan of Sury Vanshi Kshatriy evolved. Nag Vansh (नागवंश) are aboriginal (आदि वासी, वनवासी, आदिम, मूल निवासी) Kshatriy of India. Nag Vanshi had serpent as their totem. They worshipped serpents and considered themselves to be their protector deities. They were in origin indigenous Kshatriy. The Nether World (one layer of the earth is exclusively occupied by the might serpents) known as Patal was the habitation of Nags and Anant as the Emperor of Nag, Sarp, Urag, and Pannag. Nags illustrated divine characters, like change of body form from serpent to humans etc. Purans mention of many Nag Kingdoms. Present day Delhi used to be the abode of Nags which was turned into Indraprasth by Bhagwan Shri Krashn and Arjun.
Mathura, Padma Wati, Pawaya and Kanti Pur were the capitals of Nag dynasty. Arjun's mother Kunti was a Nag Kanya and Bheem Sen reached Nag Lok through an opening in the Ganga where he was granted a warm welcome and his poison was sucked. Ulupi-the second wife of Arjun was the  daughter of Kouravy-the king of serpents.[Vishnu Puran and Bhagwat Puran]
NAG VANSHI CLANS :: Mahat, Belsadi, Sundil, Das, Bais, Belthari, Nathani, Bancharah, Sajani, Rajvali, Sondih, Parukhi, Nevsah, Naraijparah, Madrih, Kaudi, Karkotak, Barvalihi, Asaujih, Belh, Khagi Chauhan, Khandai-Khandei-Khandeyei, Bunt, Nair, Aswal.
Nag Gotr-clan of Jats are found in Nagaur and Sikar districts of Rajasthan and Khargone district of Madhy Pradesh. The villages inhabited by Nag Jats in Sikar district are :- Dujod, Kanwar Pur, Ram Pur, Sikar. In Madhy Pradesh Nag Jats are found in Indore, Mhow, Ratlam, Hard, Ujjain, Khandwa, Dewas, Shaja Pur, Pachor, Gwalior, Taran, Jabal Pur, Katni, Nar Singh Pur, Badwah and Khargone.
Raja Gajvkatr has been identified as an ancestor of Takshak who bite Parikshit due to a curse, but Parikshit relinquished just before the bite by Takshak. Nag Republic extended from Eastern Punjab to the Ganga and Yodhy republic extended into Rajasthan. Nagpur belonged to the Nags. Nagar (One without poison or who is not affected by poison) Brahmans originated from there Nags.
During the peak period of their rule Nag rulers had sent armies to other countries and also conquered them. Nags have been mentioned as ruling dynasties such as Takshak, Tusht, etc. 
Branches-Karkotak, Shesh, Vasuki, Ahi, Mani Bhadr Takshak, Bachak, Kilkil Nag, Kaliramn etc. 
Sub branches :- Sindh, Kushan, Bais, Saindhav etc.
NAG VANSH IN KERAL AND TULU NADU :: The Nair Clans of Keral and Bunts of Tulu Nadu are the descendants of Bhagwan Anant-Shesh Nag. Some Nag Vanshi clans migrated from North India & associated themselves with the events like Sarp Satram. The Nairs were organised into various martial clans like Nambiar and Kiryathil Nair. Bunts of Karnatak claim descent from the Nags. The Nairs were organised into various martial clans like Nambiar, Kiryathil Nair, Illathu Nair and Swaroopathil Nairs. The Illathu, Swaroopathil and Kiryathil Nairs have been classified as Kshatriys of the Nag Vanshi lineage. 
NAG DYNASTIES OF INDIA :: Nags originated from Kashyap and flourished in Arya Vart-India, having serpent as their totem. They worshipped serpents and considered them to be their protector deities. The King of Varanasi belonged to Nag Vansh. The Nag Vanshi kings had a symbol of Nag or serpent on their coins and flags. The coins of Nag Vanshi rulers are still found at village Ahar in Buland Shar district in Uttar Pradesh. These coins depict symbols of Nags on them. Duryodhan poisoned Bhim to kill and threw him into the Ganga River, when he entered Nag Lok throw an opening near Ahar. 
Ahivritr, Ashw Sen, Takshak, Gonand, Lohar, Karkot of North; Brahm Dutt of Kashi, Sishu Nag of Magadh in 642 BC. Padma Wati-Bhar Shiv, Vidisha, Eran, Mathura, Ahi Chhatr, Kausambi, Malwa, Chakr Kot, Bhog Wati, Andhr or Sat Vahan (235 BC-225 AD) Chutus, Chaluky, Pallav, Kadamb, Chhindak, Cher, Chol etc. Most of the above Nag families ruled between 500 BC and 500 AD and some of them onward up to the Mughal period. Padma Wati, Mathura and Kanti Pur [Bhar Shiv, Raj Bhar Kshatriy]. Present Chhattis Garh state from around the 11th century to the 14th century. A copper plate inscription from the Gupta Empire era relates that Nags were elevated to the Kshatriy caste. The copper plates of this period relate to the Nags being defeated by the Gupts and subsequently being married into them. Chandr Gupt (2), married Queen Kuber Nag. 
THE NETHER WORLD-PATAL LOK-REGION BELOW THE EARTH ::  The Nether World known as Patal Lok is the adobe of Nags with 7 bigger territorial regions in Indian Peninsula with names, Atal, Vital, Sutal, Rasatal, Talatal, Mahatal and Patal. The lower most region of Patal Lok i.e., Patal was the adobe of Great Serpent Bhagwan Anant.
NAG VANSHI JAT CLANS ::  Abud, Achashw, Ahi, Ahlawat, Air, Airawat, Aligi, Aparajit, Apt, Artiman, Aryak, Asit, Aulak, Avalak, Avyay, Ayahat, Bamal, Ban, Barojwar, Basaṭh, Bauly, Beniwal, Bhakar, Bhakhar, Bhammu, Bharamgur, Bhar Shiv, Bhemrom, Bhinchar, Bihal, Bilwan, Birla, Dahiya, Dhaka, Dhaulya, Deu, Devatr, Gor, Imeguh, Kal, Kala, Kalash, Kale Rawat, Kali, Kali Raman, Kali Ramat, Kali Rawat, Kali Ray, Kalidaman, Kalishak, Kaliy, Kalmash, Kalwaria, Kaly, Kalyan, Kamal, Kanwal, Kariy, Karkar, Karkoṭak, Karvir, Kharwal, Khokhar, Khondal, Kondal, Kothar, Kulak, Kulakiy, Kular, Kullar, Kumdodar, Kumud, Kundal, Kunjar, Kushmandak, Kuthar, Lega, Lochag, Matw,  Mudwadiy, Mundel, Nag, Nagar, Nagauriya, Nagil Nil, Odasi, Ola, Padwal, Pagwat, Pahal, Pal, Pamdahari, Pandar, Pandul, Panja, Pann, Parsane, Pathur, Paudiya, Pehalayan, Pimdale, Podan, Puchale, Punia, Rahal, Roj, Roja, Rotra, Sagsail, Saharan, Samota, Samra, Sangu, Sangwan, Sawau, Sewda, Sheshano, Sheshm, Shwitr, Shyaukand, Sihag, Siraswar, Sitarwar, Siwayach, Sumr, Sutal, Takhar, Takshak, Tamk, Tankor, Tetarwal, Tītarwal, Tokas, Toran, Udwal, Ugrak, Vaharwal, Bais, Varik, Varnwal, Vasath, Vauran, Vavan, Vihan, Vodiy, Yoly. Bhar Shiv, Raj Bhar.
GENEALOGY OF NAG KSHATRIY :: Brahma, Kashyap-Kadru, Anant, Vasuki, Arawati, Takshak, Tonk, Karkotak, Dhananjay, Kaliya, Mani Nath, Ayuran-Pauniy, Pinjarak, Alawat, Vaman, Nil, Anil, Kalmash, Shabal, Aryak, Ugrak Kalash, Pok, Sumand, Digh Mukh, Nimal Pindak, Shankh, Bal Shiv, Visht Vak, Imeguh, Nahush, Pingal, Bahy Varn, Hasti Pad, Mundar, Pindak, Karal, Ashwatar, Kalishak, Pahal, Dhak, Tun Danvartak, Shankh Mukh, Kush Mandak, Kshemak, Chindarak, Kar Vir, Pushp Dand, Vilvak, Pandhur, Mushakad, Shankh Sir, Purn Madr, Haridrak, Aparajit, Jotik, Pannag, Sravah, Kauravy, Dhrat Rashtr, Shankh Pind, Virj, Suvahu, Shali Pind, Harit Pind, Pith Rak, Sumukh, Konay Dashan, Kuthar, Kunjar, Prabhakar, Kusad, Halak, Kumudaksh, Tittar, Maha Sarp, Kadanm, Bahu Mulak, Karkar, Kundaudar, Mahodar.
NAG VANSHI KINGS DURING MAHA BHARAT :: Ahi, Shivatr, Khet Ashit, Serbhak, Sevridh, Astin, Kantat, Spaj, Anat, Kulik, Shankh Pal, Darvi, Dhata-Dhaka, Achasw, Ajgar, Alagi, Vilagi, Orivish, Karikrat, Kasninl, Tirashch Raji, Naimarat, Pridaku, Pradmi, Raju, Lohitahi, Ratharvi, Vahas, Serbha.
NAG VANSH CHHOTA OF NAG PUR :: The first Nag Vanshi ruler was Phani Mukut Rai born in 64. He was the adopted son of Madra Munda, the Parth Raja of Sutiambe. Phani Mukut Rai was found near a tank as a newborn where a hooded Cobra-Nag was protecting him. Phani Mukut Rai ruled from 83 to 162. Till date, four Nag Vanshavalis are available that prove that the Nag Vanshis ruled over Chhota Nagpur plateau in India for close to two thousand years, from the 1st century to 1,951, when the Zamindari was abolished. This put the Nag Vanshis among the top dynasties that ruled the longest in the world, which include the Dulo clan in Bulgaria, The Imperial House of Japan and Hong Bang dynasty of Korea.
Till the reign of Akbar, Chota Nagpur had not come under the suzerainty of the Mughals and the Nag Vanshi rulers had been ruling over this region as independent rulers. Akbar was informed of a rebel Afghan Sardar, Junaid Kararani, who had taken shelter in Chota Nagpur. Besides, the emperor also got information of diamonds being found in this area. Consequently, Akbar ordered Shahbaz Khan Turbani to attack Kokhra (the then seat of Nag Vanshi kings and capital of Chota Nagpur). At that time Raja Madhu Singh, the 42nd Nag Vanshi king was ruling at Kokhra. Consequently Kokhra was subdued by the armies of Akbar and a sum of rupees six thousand was fixed as its annual revenues payable to the Mughals.
By the advent of the reign of Jahangir, Nag Vanshi Raja Durjan Sal had come to power in Chhota Nagpur. He refused to pay the rent fixed by the Emperor Akbar. Jahangir ordered Ibrahim Khan (governor of Bihar) to attack Kokhra. The details of this invasion are mentioned in Jahangir’s memoirs, Tuzuk-i-Jahan Giri. There was also another reason behind the invasion. This was the acquisition of the diamonds found in the bed of the river Sankh in the region. Due to its diamonds Chhota Nagpur was also known as Heera Nagpur and its Raja Durjan Sal, being an expert of diamonds, was known as Heera Raja among the people. Thus to subdue the Raja of Chhota Nagpur and to acquire valuable diamonds, Jahangir decided to invade Chhota Nagpur.
On getting orders from the emperor, Ibrahim Khan marched against Kokhra in 1,615. He entered the Nag Vanshi territories easily with the help of his guides. The Nag Vanshi Raja Durjan Sal found himself beleaguered, within the hills and vales (दो पहाड़ों के बीच की जगह, गड्ढा, घाटी, दर्रा, वादी). He fled and was at last found in a cave with some of his family members. He was arrested and all diamonds which were in the possession of Durjan Sal and his family were captured by Ibrahim Khan. Twenty four elephants also fell into the hands of Ibrahim Khan. After this, Kokhara was subdued and the diamonds found there were sent to the Imperial court. After his defeat and arrest, Durjan Sal offered as ransom jewels, gold and silver to the value of crores of rupees, but Ibrahim Khan did not release him and took him as a captive to Patna. From there he was sent to the Imperial court and subsequently imprisoned in the fort of Gwalior.
Durjan Sal’s confinement lasted twelve years. Ultimately, the very diamonds which had caused the misfortune of Durjan Sal secured him his release and former prosperity. It so happened that from some place, two very large diamonds were brought to Emperor Jahangir’s court. A doubt arose in the mind of the Emperor over the genuineness of one of them. As no one in his court was able to confirm or relieve his suspicion, the Heera Raja was brought to the Imperial court from his incarceration. When the two diamonds were brought before him, he without any hesitation pointed out the fake one. To prove it to the court and the Emperor, he requested two rams to be brought to the court. He then tied the two diamonds on the horns of the two rams and made them fight each other. As a result of the fight, the fake diamond shattered but there was no scratch on the pure one. The Emperor was so impressed and pleased with Durjan Sal that he not only released him but also restored the prosperity taken from him in addition to his kingdom.
The generous Durjan Sal further begged the Emperor to release the other Rajas who had been his companions in prison and his prayer was granted. Being pleased with Durjan Sal, Jahangir conferred the title of Shah on the Kokhra ruler. On his return to Chhota Nagpur, Durjan Sal assumed the title of Maha Raja and changed his surname. Most probably from that time Shah was added with the names of the Nag Vanshi kings. The reign of Durjan Sal lasted for about thirteen years. He died in 1,640. 
मैं नागों में अनन्त-शेषनाग हूँ (भगवान्  श्री कृष्ण)। 
अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कर्कोटक और पिंगला, उक्त पाँच नागों के कुल के लोगों का ही भारत में वर्चस्व था। यह सभी कश्यप वंशी थे और इन्हीं से नागवंश चला। मूलतः सर्प योनि नाग दिव्य प्राणी होने के कारण किसी भी योनि को ग्रहण करने समर्थ थे। सनातन धर्म में नागपूजा का प्रावधान है जो कि नागपञ्चमी दिन की जाती है। नाग पूजा का प्रचलन पुराण पर आधारित है। मूलत: शैव, शाक्त, नाथ और नाग पंथियों में ही नागों की पूजा का प्रचलन था।
महाभारत काल में पूरे भारत वर्ष में नागा जातियों के समूह फैले हुए थे। विशेष तौर पर कैलाश पर्वत से सटे हुए इलाकों से असम, मणिपुर, नागालैंड तक इनका प्रभुत्व था। नागों से उत्पत्ति होने के कारण ये नागवंशी कहलाए। तिब्बती अपनी भाषा को नागभाषा कहते हैं।
कश्मीर का अनंतनाग इलाका इनका गढ़ माना जाता था। कांगड़ा, कुल्लू व कश्मीर सहित अन्य पहाड़ी इलाकों में नाग ब्राह्मणों की एक जाति आज भी मौजूद है।
नाग वंशावलियों में भगवान् शेष नाग को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। भगवान् शेष नाग को ही अनन्त नाम से भी जाना जाता है। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकी हुए फिर तक्षक और पिंगला। वासुकी का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था। तक्षक ने ही तक्षशिला बसाकर अपने नाम से तक्षक कुल चलाया था। कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादी नाम से नागों के वंश हुआ करते थे। भारत के भिन्न-भिन्न इलाकों में इनका राज्य था।
अथर्ववेद में कुछ नागों के नामों का उल्लेख मिलता है। ये नाग हैं श्वित्र, स्वज, पृदाक, कल्माष, ग्रीव और तिरिचराजी नागों में चित कोबरा (पृश्चि), काला फणियर (करैत), घास के रंग का (उपतृण्य), पीला (ब्रम), असिता रंगरहित (अलीक), दासी, दुहित, असति, तगात, अमोक और तवस्तु आदि।
छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी नल और नाग वंश तथा कवर्धा के फणि-नाग वंशियों का उल्लेख मिलता है। पुराणों में मध्य प्रदेश के विदिशा पर शासन करने वाले नाग वंशीय राजाओं में शेष, भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनंदि, शिशुनंदि या यशनंदि आदि का उल्लेख मिलता है।पुरातन काल में नाग क्षत्रिय समस्त भारत में शासक थे। नाग शासकों में सबसे महत्वपूर्ण और संघर्षमय इतिहास तक्षकों का और फ़िर शेष नागों का है। 
एक समय समस्त कश्मीर और पश्चिमी पंचनद नाग लोगों से आच्छादित था। इसमें कश्मीर के कर्कोटक और अनंत नागों का बड़ा दबदबा था। पंचनद (पंजाब) में तक्षक लोग अधिक प्रसिद्ध थे। कर्कोटक नागों का समूह विन्ध्य की और बढ़ गया और यहीं से सारे मध्य भारत में छा गया। यह स्मरणीय है कि मध्य भारत के समस्त नाग एक लंबे समय के पश्चात बौद्ध काल के अंत में पनपने वाले ब्रह्मण धर्म में दीक्षित हो गए। बाद में ये भारशिव और नए नागों के रूप में प्रकट हुए। इन्हीं लोगों के वंशज खैरागढ़, कवर्धा ग्वालियर आदि के नरेश थे।  ये अब राजपूत और मराठे कहलाने लगे। तक्षक लोगों का समूह तीन चौथाई भाग से भी ज्यादा जाट संघ में सामिल हो गया था। वे आज टोकस और तक्षक जाटों के रूप में जाने जाते हैं। शेष नाग वंश पूर्ण रूप से जाट संघ में सामिल हो गया जो आज शेषमा कहलाते हैं। वासुकि नाग भी मारवाड़ में पहुँचे। इनके अतिरिक्त नागों के कई वंश मारवाड़ में विद्यमान हैं, जिनमें सब जाट कुल शामिल हैं। 
एक समय ऐसा था जबकि नागा समुदाय पूरे भारत (पाक-बांग्लादेश सहित) के शासक थे। उस दौरान उन्होंने भारत के बाहर भी कई स्थानों पर अपनी विजय पताकाएं फहराई थीं। तक्षक, तनक और तुश्त नागाओं के राज वंशों की लम्बी परंपरा रही है। इन नाग वंशियों में ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सभी समुदाय और प्रांत के लोग थे।
नागवंशियों ने भारत के कई हिस्सों पर राज किया था। भारत के कई शहर और गांव नाग शब्द पर आधारित हैं। महाराष्ट्र का नागपुर शहर सर्वप्रथम नागवंशियों ने ही बसाया था। नाग नदी भी नाग वंशियों के कारण ही पड़ा। नागपुर के पास ही प्राचीन नागरधन नामक एक महत्वपूर्ण प्रागैतिहासिक नगर है। महार जाति के आधार पर ही महार से महाराष्ट्र हो गया। महार जाति भी नागवंशियों की ही एक जाति थी।
नागों ने जांगल प्रदेश (वर्तमान बीकानेर एवं नागौर जिला) पर अधिकार कर लिया। यौधेयों को हराने वाले पद्मावती के भारशिव नाग थे, जिन्होने चौथी शताब्दी से लेकर छठी शताब्दी तक बीकानेर, नागौर, जोधपुर तथा जालोर के जसवन्तपुरा तक शासन किया। जांगल प्रदेश में नागों के अधीन जो क्षेत्र था, उसकी राजधानी अहिच्छत्रपुर (नागौर) थी । यही वजह है कि नागौर के आस-पास चारों ओर अनेक नागवंशी मिसलों के नाम पर अनेक गाँव बसे हुये हैं जैसे काला मिसल के नाम पर काल्यास, फ़िरड़ोदा का फिड़ोद, इनाणियां का इनाणा, भाकल का भाखरोद, बानों का भदाणा, भरणा का भरणगांव-भरनांवा, भरनाई, गोरा का डेह तथा धोला का खड़नाल आदि।
छठी शताब्दी बाद नागौर पर दौसौ साल तक गूजरों ने राज किया परन्तु आठवीं शताब्दी बाद पुनः काला नागों ने गूजरों को हराकर अपना आधिपत्य कायम किया ।
दसवीं सदी के अन्त में प्रतिहारों ने नागों से नागौर छीन लिया । इस समय प्रतिहारों ने काला नागों का पूर्णतया सफ़ाया कर दिया। थोड़े से नाग बचे वे बलाया गाँव में बसे और फिर वहाँ से अन्यत्र गये।
सर्प दंश :: महाराज परीक्षित के तपस्वी की गर्दन में मरा हुआ सर्प डालने से रुष्ट उनके पुत्र ने परीक्षित को नागराज तक्षक के द्वारा काठने से मरने का श्राप दे दिया। निश्चित समय पर ब्राह्मण के रुप में तक्षक हस्तिनापुर आए तो रास्ते में उन्हें एक ब्राह्मण मिला जो सर्प दंश का इलाज कर सकता था। तक्षक ने उसे धन देकर लौटा दिया। स्वयं वे एक कीड़े के रुप में माला में छिपकर महल में पहुँचे। मगर उनके दंश के पहले ही परीक्षित निर्वाण प्राप्त कर चुके थे। स्पष्ट है कि नाग जाति कोई भी रुप धारण कर सकती थी। तक्षक के नाम पर ही तक्षशिला का नाम पड़ा और उनके नाम से पृथ्वी पर नागवंश भी है। 
NAG KANYA ULUPI :: Ulupi was the daughter of Kouravy, a descendant of Nagraj Airavat. Her father ruled the underwater kingdom of serpents in the Ganga river. Ulupi was a well-trained warrior. These serpents were having divine powers to change themselves to humans or any other organism.
Arjun, exiled from Indr Prasth left for a one-year pilgrimage as a penance for violating the terms of his marriage to Draupadi, the brother's common wife. Accompanied by Brahmns, Arjun reached Kam Roop, North-Eastern region of present-day India. One day when he bathed in the Ganga river to perform his rituals, the current pulled him inside the river. He later realised that it was Ulupi, the Nag princess, who grasped and pulled him into the river. She held him with her hands and travelled at her will. They finally ended up in an underwater kingdom, the abode of Kourvay. Arjun saw a sacrificial fire in the place and offered his rites in the fire. Agni was pleased with Arjun's unhesitating offering of oblations.
Delighted by her act, Arjun inquired Ulupi about her background. She revealed her lineage and admitted that she had fallen in love with him. Arjun, however, declined her proposal citing his celibacy on his pilgrimage. Ulupi argued that his celibacy was limited only to Draupadi, Arjun's first wife. Convinced by her argument, he married her and spent a night with her. A son named Iravan was born to them. Pleased by Arjun, Ulupi granted him a boon that all animals that lived under water would obey him and he would be invincible under the water.
The Vasus, Bhishm Pitamah's brothers, cursed Arjun after he killed Bhishm through treachery in the Kuru Kshetr War. When Ulupi heard of the curse, she sought the help of her father, Kouravy. Her father went to Maa Ganga, Bhishm's mother and requested her for a relief from the curse. Upon hearing him, Ganga said that Arjun would be killed by his own son, Babru Vahan-Arjun's son, through Chitrangada and brought back to life, when Ulupi placed a gem on his chest.
Following her father's advice, Ulupi instigated Babru Vahan to fight Arjun. When Arjun went to Mani Pur with the horse intended for the Ashw Medh sacrifice, the king Babru Vahan, as directed by Ulupi, challenged Arjun for a duel. In the fierce battle that took place between them, both were mangled by the other's arrows. Finally, Arjun was mortally wounded and was killed by his son when he shooted a powerful arrow at him. Chitrangada rushed to the spot and abused Ulupi for instigating Babru Vahan to fight Arjun. Repenting of his deed, Babru Vahan was determined to kill himself, but was promptly stopped by Ulupi. She went to her kingdom and brought the gem (Mani). When she placed the gem on Arjun's chest, his life was restored, thus relieving him of the Vasus' curse. When brought back to his life, Arjun became happy to see Ulupi, Chitrangada and Babru Vahan. He took all of them to Hastinapur.
    
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