Friday, March 21, 2014

CLEANSING जातकर्म संस्कार :: HINDU PHILOSOPHY (4.4) हिन्दु दर्शन

जातकर्म संस्कार 
HINDU PHILOSOPHY (4.4) हिन्दु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
नवजात शिशु के जन्म से पहले तीन संस्कार होते हैं :- गर्भाधान, पुंसवन तथा सीमन्तोन्नयन। सीमन्तोन्नयन प्राय: आठवें मास तक होजाता है। उसके लगभग एक-डेढ़ महीने के अनन्तर प्रसव होता है। जन्म लेने के बाद जो सबसे पहला संस्कार है, वह जातकर्म है। गर्भस्थ शिशु माता के गर्भ में जो पोषण प्राप्त करता है, उसके दोषों को दूर करने के लिये, इसे किया जाता है।
"गर्भाम्बुपानजो दोषो जातात् सर्वोSपि नश्यति"।
यह संस्कार केवल पुत्र के उत्पन्न होने पर किया जाता है। कन्या के पैदा होने पर नहीं।[स्मृति संग्रह]     
"जातस्य कुमारस्याच्छिन्नायां नाड्यां मेधाजननायुष्ये करोति"।
उत्पन्न हुए बालक के नालच्छेदन से पूर्व ही मेधाजनन तथा आयुष्य कर्म पिता के द्वारा किये जाते हैं।[पास्कर गृहसूत्र 1.16.3] 
"प्राक् नाभिवर्द्धनात् पुंसो जातकर्म विधीयते"।
नालच्छेदन से पहले ही यह संस्कार करना चाहिये। नालच्छेदन के अनन्तर सूतक-जनना शौच लग जाता है और उस अवस्था में जात कर्म करना निषिद्ध है।[मनुस्मृति]  
यावन्न छिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्। 
छिन्ने नाले ततः पश्चात्सूतकं तु विधीयते
पुत्रोत्पत्ति के बाद, नालच्छेदन बारह घड़ी (चार घंटे) या सोलह घड़ी (लगभग साढ़े छः घंटे) के बाद होना चाहिये। इतने समय में जात कर्म सम्बन्धी समस्त कर्म पूर्ण किये जा सकते हैं।[वीर मित्रोदय, संस्कार प्रकाश]
जातकर्म संस्कार में अशौच, प्रवत्ति जन्य दोष नहीं होता; क्योंकि जातकर्म सम्बन्धी सभी कर्म जनन शौच की प्रवृत्ति से पहले करने होते हैं। अतः देवपूजन, दान, दानग्रहण आदि सभी कार्यों में कोई दोष नहीं होता। पुत्र का जन्म होने पर पितृगण तथा देवता, उस घर में प्रसन्नतापूर्वक आते हैं। अतः वह दिन पुण्यशाली तथा पूज्य होता है। अतः उसी दिन उनका पूजन करना चाहिये और ब्राह्मणों को सुवर्ण, भूमि, गौ आदि का दान करना चाहिये।[ब्रह्मपुराण]   
प्रतिग्रह लेने के लिये पुत्र जन्म के दिन ब्राह्मणों को दान लेना चाहिये। 
"कुमारजन्मदिवसे विपैः विप्रै: कार्यः प्रतिग्रहः"। 
गर्भस्थ बालक की नाभि में एक नाल-नली होती है, जिसका सम्बन्ध माता के गर्भाशय से होता है। इसी के माध्यम से शिशु माता द्वारा ग्रहण किये गए आहार से पोषण ग्रहण करता है। जन्म के वक्त शिशु इसी के साथ बाहर निकलता है। इसी जातकर्म संस्कार में शिशु का नालच्छेदन किया जाता है जिससे उसका माता के साथ सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और वह मधु-दूध आदि को बाहरी आहार के रूप में लेना शुरू करता है। जातकर्म सम्बन्धी सभी कर्म नालच्छेदन से पूर्व किये जाते हैं।[याज्ञवल्क्य] 
बालक का पिता पुत्रोत्पति का शुभ समाचार मिलते ही वृद्ध जनों को प्रणाम करे और पुत्र का मुखावलोकन करके गँगा आदि पवित्र नदियों में उत्तरमुख हो सचैल-वस्त्रों सहित स्नान करे। अगर यह तत्काल संभव न हो तो शरीर पर पानी के छींटे अवश्य मार ले। यदि पुत्र मूल, ज्येष्ठा अथवा व्यतिपात आदि अशुभ योगों में उत्पन्न हुआ हो तो उसका मुँह देखे बगैर ही स्नान करें। 
 स्नान संबंधी आचार :: हिन्दु धर्म में प्रत्येक विषय के कार्यकारी तत्त्व रूपी गुण धर्म के अनुसार, विशिष्ट योग्य स्थान पर उसका उपयोग किया गया है। स्नान करने से मनुष्य की देह के ऊपर सभी ओर आए कष्ट, अवरोधी शक्ति के आवरण एवं देह के रज-तम का उच्चाटन होता है। देही का रोम-रोम चेतना ग्रहण करने योग्य बनता है। मुख शुद्धि एवं शौच क्रिया के बावजूद जीव के देह से बाहर न निकलने वाले, त्वचा में समाये अपशिष्ट पदार्थ, स्नान के माध्यम से दूर होते हैं। 
स्नान  से मानव देह दैविक शक्तियों को ग्रहण करने में समर्थ बनती है। 
प्रातः कालीन स्नान से तेजो बल एवं आयु में वृद्धि होती है तथा दुःस्वप्नों का नाश होता है।
सूर्योदय पूर्व मंगल स्नान करने से जीव अंतः और बाह्य शुद्ध को प्राप्त होता है। 
नैमित्तिक सचैल (वस्त्रसहित) स्नान :: अजीर्ण, उल्टी, श्मश्रूकर्म (बाल काटना), मैथुन, शवस्पर्श, रजस्वलास्पर्श, दुःस्वप्न, दुर्जन, श्वान, चांडाल तथा प्रेतवाहक इत्यादि से स्पर्श के उपरांत सचैल (वस्त्रसहित) स्नान करें, जलमें डुबकी लगाएं। ग्रहण के स्पर्श के समय स्नान, मध्य के समय होम, देव-पूजन और श्राद्ध तथा अंत में सचैल (वस्त्रसहित) स्नान करना चाहिए। स्त्रियाँ सिर धोये बिना भी स्नान कर सकती हैं। 
ब्राह्म मुहूर्त स्नान :: इस समय वायु मण्डल सात्त्विका से पूरित होता है। जल के माध्यम से देह को स्पर्श करने वाली आप तत्त्व की सहायता से बाह्य-वायु मण्डल की तरंगें ग्रहण करने में देह अति संवेदनशील बनाती हैं। उसके द्वारा बाह्य-वायुमंडल की सात्त्विक तरंगें ग्रहण की जाती हैं। पसीना आने के कारण स्त्रियाँ घर के काम करने के उपरांत स्नान करती हैं और बाल संवारती हैं। 
सूर्योदय पूर्व 2 घटिका (48 मिनट) का उषाकाल होता है। यह वह समय जब अंधकार समाप्त होकर प्रकाश दिखाई देने लगता है। इसको पौ फटना कहते हैं। उषा काल पूर्व 3 घटिका (72 मिनट अर्थात 1 घंटा 12 मिनट) ब्राह्म मुहूर्त काल कहलाता है। सूर्योदय के समय के अनुरूप उषाकाल एवं ब्राह्ममुहूर्त काल के समय में भी परिवर्तन होता है।
ब्राह्म मुहूर्त में किया गया स्नान देव परंपरा की श्रेणी में आता है। इस समय ईश्वरीय-दैवीय तत्व अत्यधिक प्रबल होता है, जिससे मनुष्य द्वारा चैतन्य एवं दैवीय की तरंगों को आसानी से ग्रहण किया जा सकता है।  
ब्राह्म मुहूर्त में मनुष्य की मनो देह स्थिर अवस्था में रहती है। इस कालावधि में स्नान करने से शुद्धता, पवित्रता एवं निर्मलता का समावेश होता है। शुद्धता, पवित्रता तथा निर्मलता, इन तीन संस्कारों के माध्यम से संकल्प, इच्छा तथा क्रिया, ईश्वर की इन तीन प्रकार की शक्तियां एवं इन तीन शक्तियों से संबंधित ज्ञान शक्ति को भी जीव ग्रहण कर पाता है तथा ईश्वर के पूर्णात्मक चैतन्य से एक रूप हो सकता है।
अभ्यंग स्नान :: प्रातः उठ कर सिर और शरीर पर तेल लगाकर गुनगुने पानी से स्नान करना अभ्यंग स्नान है। यह पिंड के अभ्युदय हेतु किया गया स्नान है। 
उबटन लगा कर स्नान करने से शरीर में अतिरिक्त कफ एवं वसा (चरबी)  में कमी आती है। 
उद्वर्तनं कफहरं मेदसः प्रविलापनम्।
स्थिरीकरणमड्गानां त्वक्प्रसादकरं परम् [सार्थ वाग्भट सू. 2.14]
शरीर पर उबटन लगाने से कफ एवं वसा घट जाता है, शरीर सुदृढ होता है तथा त्वचा स्वच्छ होती है। उबटन लगाकर स्नान करना संभव न हो, तो आयुर्वेदिक पदार्थों से बने साबुन का उपयोग कर सकते हैं। 
अभ्यंग अर्थात स्नान पूर्व तेल लगाने से पिंड की चेतना के प्रवाह को अभंगत्व अर्थात अखंडत्व प्राप्त होता है। स्नान पूर्व देह को तेल लगाने से कोशिकाएँ, स्नायु एवं देह की रिक्तियांँ जागृतावस्था में आकर पंच प्राणों को सक्रिय करती हैं। पंच प्राणों की जागृति के कारण देह से उत्सर्जन योग्य वायु डकार, उबासी इत्यादि के द्वारा बाहर निकलती है। इससे देह की कोशिकाएँ, स्नायु एवं अंतर्गत रिक्तियाँ चैतन्य ग्रहण करने में संवेदनशील बनती हैं। यह उत्सर्जित वायु अथवा देह में घनी भूत उष्ण उत्सर्जन योग्य ऊर्जा भी आँख, नाक, कान एवं त्वचा के रंध्रों से बाहर निकलती है। इसलिए तेल लगाने के उपरांत नेत्र एवं मुख अक्सर लाल हो जाते हैं।
तेल से त्वचा पर घर्षणात्मक मर्दन से देह की सूर्य नाडी जागृत होती है तथा पिंड की चेतना को भी सतेज बनाती है। यह सतेजता देह की रज-तमात्मक तरंगों का विघटन करती है। यह एक प्रकार से शुद्धीकरण की ही प्रक्रिया है। चैतन्य के स्तर पर हुई शुद्धीकरण प्रक्रिया से पिंड की चेतना का प्रवाह अखंडित रहता है तथा जीव का प्रत्येक कर्म साधना स्वरूप हो जाता है।
शरीर पर सुगंधित तेल अथवा उबटन लगाकर  स्नान करना :: प्राकृतिक सुगंधित तेल अथवा उबटन, ये वस्तुएं सात्त्विक होती हैं। उनकी सुगंध भी सात्त्विक होती है। उनमें वायु मण्डल की सात्त्विक और दैवीय ऊर्जा ग्रहण करने की क्षमता होती है। सुगंधित तेल अथवा उबटन लगाकर स्नान करने से शरीर की रज-तम ऊर्जा कम होती हैं, उसी प्रकार स्थूल एवं सूक्ष्म देह पर आया हुआ काला आवरण नष्ट हो कर शरीर शुद्ध एवं सात्त्विक बनाने में सहायता होती हैं।
साबुन से स्नान :: रसायन तथा कृत्रिम पदार्थों से बने साबुन की सुगंध कृत्रिम होती है। इसलिए वह रज-तम युक्त होता है। ऐसे साबुन के उपयोग से स्थूल रूप से तो देह स्वच्छ होता है; परंतु सूक्ष्म रूप से स्थूल एवं  सूक्ष्म देह पर रजत मात्मक आवरण निर्माण होता  है। वर्तमान काल में पैट्रोलियम से प्राप्त होने वाले पदार्थों का प्रचुर मात्रा में इस्तेमाल हो रहा है। इससे कृत्रिम सुगन्ध-सेंट, डियोड्रेंट आदि का निर्माण हो रहा है। बाज़ार में बिकने वाले अधिकाँश साबुनों में सस्ते-हानिकारक तेलों का उपयोग हो रहा है। इन तेलों को प्रचार और प्रसार खाद्य पदार्थों में भी बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है। 
यह कर्म जीव के देह में सत्त्वगुण की वृद्धि करने में सहायक होता है तथा जीव का अभ्युदय-उत्कर्ष साध्य होता है। सत्त्वगुण वृद्धि की ओर जीव की नित्य यात्रा ही उसका अभ्युदय है। 
अभ्यंग स्नान से निर्मित चैतन्य के स्तर पर हुआ प्रत्येक कृत्य, जीव द्वारा साधना स्वरूप होने के कारण इस कृत्य से वायुमंडल की भी शुद्धि होती है।
गुरुवार को अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष तले तथा अमावस्या को जलाशय (नदी) में स्नान करने से प्रयागस्नान का पुण्य प्राप्त होता है तथा समस्त पापों का नाश होता है। पुष्य नक्षत्र, जन्म नक्षत्र एवं वैधृती योग इत्यादि समय पर नदी में स्नान करने से सर्व पापों का क्षय होता है।
धन प्राप्ति, रोग परिहार इत्यादि काम्य कर्म निमित्त अर्थात किसी कामना से धर्म कर्मांतर्गत किया गया स्नान काम्यस्नान है।
नदी एवं जलाशय में किया स्नान उत्तम, कुँए पर किया गया स्नान मध्यम और घर में किया गया स्नान निकृष्ट है।
नदी एवं जलाशय में किया स्नान :: नदी एवं जलाशय का जल प्रवाही होने के कारण इस जल में प्रवाह रूपी नाद से सुप्त स्तर पर तेजदायी ऊर्जा निर्माण कर उसे घनीभूत करने की क्षमता होती है। जल के तेजदायी स्पर्श से देह की चेतना जागृत होकर देह की रिक्तता में संचित एवं घनी भूत रज-तमात्मक ऊर्जा-तरंगों को जागृत कर बाहर की दिशा में ढकेलती है। इस प्रकार यह रज-तमात्मक ऊर्जा जल में उत्सर्जित होकर उसके तेज में ही विघटित हो जाती है। इसलिए यह देह सूक्ष्म-स्तर पर भी शुद्ध एवं पवित्र बनती है। अतः यह स्नान उत्तम है। जल जितना प्रवाही होगा उतना ही वह तेज तत्त्व के स्तर पर रज-तमात्मक रूपी कणों को विघटित करता है। जातक को कभी भी नदीकी -नहर बीच धार के तेज प्रवाह में नहीं उतरना चाहिये। समुद्र में यदि ऊँची तरंगें उठ रही हों तब भी इस स्नान से बचना चाहिये। 
कुँए पर स्नान :: कुँए के पानी में अपेक्षाकृत प्रवाह न्यून होने के कारण, तेज के स्तर पर ऊर्जा निर्माण करने की एवं उसे घनी भूतता प्रदान करने की जल की क्षमता भी अल्प होती है। प्रवाह के अभाव के कारण जल में एक प्रकार का जड़त्व का निर्माण होता है। यह जड़त्व अनेक रज-तमात्मक जीव-जंतुओं को तथा रज-तमात्मक रूपी अनिष्ट शक्तियों को अपने स्थान पर निवास हेतु आमंत्रित करता है। जल का प्रवाह जितना अल्प, उतनी ही कष्ट दायक तरंगों को स्वयं में घनीभूत करने की उसकी क्षमता बढती है। जल जीव को शुद्धता के स्तर पर अर्थात रज-तमात्मक तरंगों के विघटन के स्तर पर, अल्प मात्रा में लाभदायक होता है।
घर में किए गए स्नान :: यह निकृष्ट मन जाता है क्योंकि घर का वातावरण संकीर्ण अर्थात बाह्य वायुमंडल की व्यापकता से अल्प संबंधित होता है। इसलिए वास्तु में निवासी जीवों के स्वभाव के अनुसार विशिष्ट वास्तु में विशिष्ट तरंगों का भ्रमण भी बढ जाता है। ये तरंगें कालांतर से उसी स्थान पर घनी भूत होती हैं। कलियुग के अधिकांश जीव रज-तमात्मक ही होते हैं। इसलिए इन तरंगों की सहायता से उस स्थान पर अनेक पूर्वज रूपी अतृप्त लिंग देह रहती हैं। ऐसे कष्ट दायक, आघातदायी एवं घर्षणात्मक स्पंदनों से ग्रस्त संकीर्ण वास्तु में रखे गए जल के पात्र के चारों ओर उससे उत्पन्न वायुमंडल के प्रवाही आपतत्त्वात्मक कोष की ओर वास्तु की कष्टदायक तरंगों का गमन आरंभ होता है। ये तरंगें पात्र के जल में संक्रमित होती हैं तथा स्नान के माध्यम से जीव की देह में संक्रमित होती हैं। इसलिए इस स्नान से देह अशुद्ध ही बनती है एवं यह स्नान अनिष्ट शक्तियों से भय का कारण बनता है। इसलिए घर की मर्यादित कक्षा में किया गया स्नान निकृष्ट स्तर का माना जाता है। इस प्रक्रिया से अनिष्ट शक्तियों की पीड़ा की आशंका अधिक होती है।
वर्तमान काल में शहरों और गाँवों में भी नित्य स्नान स्नानगार में नल के पानी से ही किया जाता है और नित्य नदी, जलाशय आदि में स्नान संभव नहीं है। आज कल पवित्र नदियाँ दूषित जल-मल का भंडार बनती जा रहीं हैं।  
जलस्रोत के निकट स्नान :: यहाँ स्नान करने से जीव द्वारा पंच तत्त्व की सहायता से देह शुद्ध होती है। अतः जहाँ तक संभव हो, नदी, तालाब, कुँए इत्यादि जल स्रोत के निकट स्नान करें। प्राकृतिक वातावरण में स्नान द्वारा जीव पंच तत्त्व की सहायता से देह की शुद्धि करता है। इसलिए जीव की देह में रज-तम कणों का विघटन अधिक होने लगता है। जीव की प्राण देह, मनो देह, कारण देह एवं महाकारण देह इत्यादि की शुद्धि होकर सर्व देह सात्त्विकता ग्रहण करने हेतु तत्पर होती हैं तथा जीव कुछ मात्रा में निर्गुण स्तर की ऊर्जा एवं उच्च देवता का तत्त्व ग्रहण कर सकता है। जीव के बाह्य-वायुमंडल का संपर्क ब्रह्मांड वायुमंडल से भी होता है। परिणाम स्वरूप जीव, ब्रह्माण्ड में स्थित तत्त्व अल्प मात्रा में पिंड के माध्यम से ग्रहण कर उसे प्रक्षेपित कर सकता है। 
मध्याह्न काल में स्नान :: दोपहर के समय वायु मण्डल में रज-तमात्मक तरंगों का संचार बढ जाता है। स्नान द्वारा देह बाह्य-वायुमंडल की तरंगें ग्रहण करने में संवेदनशील बनाती है, इसलिए दोपहर को स्नान करने से देह रज-तमात्मक तरंगें ही ग्रहण करती है। 
रात्रि स्नान :: यह सामान्यतया निषेध है। रात्रि का समय तमोगुणी होने के कारण उस समय स्नान करने से स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों देहों की सात्त्विकता विशेष नहीं बढती है तथा बढने पर अल्पकाल स्थिर रहती है। इस कारण उस व्यक्ति को स्नान का लाभ अल्प मात्रा में होता है। सुबह स्नान करने पर स्थूल एवं सूक्ष्म देहों की सात्त्विकता अधिक मात्रा में बढकर वह दीर्घ काल स्थिर रहती है। 
स्नान पूर्व  प्रार्थना तथा मंत्रोच्चारण :: नाम जप अथवा श्लोक पाठ करते हुए स्नान करने से अंगभूत चेतना जागृत होती है। देह से उसका स्पर्श होकर चेतना का संक्रमण रोम-रोम में होता है। इससे शरीर को देवत्व प्राप्त होता है तथा दिन भर की कृतियाँ चेतना के स्तर पर देह को सक्षम बनाती हैं।
हे जल देवता! आपके पवित्र जल से मेरे स्थूल देह के चारों ओर निर्माण हुआ रज-तम की काली छाया को नष्ट करें। बाह्य शुद्धि के समान ही मेरा अंतर्मन भी स्वच्छ तथा निर्मल बनायें।
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिंधु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु॥  
हे गंगे, यमुने, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदे, सिंधु तथा  कावेरी, आप सब नदियाँ मेरे स्नान के जल में आयें।
गंगा सिंधु सरस्वति च यमुना गोदावरि नर्मदा।
कावेरि शरयू महेन्द्रतनया चर्मण्वती वेदिका॥ 
क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी ख्याता जया गण्डकी।
पूर्णाःपूर्णजलैःसमुद्रसहिताःकुर्वन्तु मे मंगलम्॥  
गंगा, सिंधु, सरस्वती, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी, शरयू, महेन्द्रतनया, चंबल, वेदिका, क्षिप्रा, वेत्रवती (मालवा की बेतवा नदी), प्रख्यात महासुर नदी, जया तथा गण्डकी नदियाँ, पवित्र एवं परिपूर्ण होकर समुद्र सहित मेरा कल्याण करें।
नमामि गंगे तव पाद पंकजं सूरासूरैः वंदित दिव्य रूपम्।
भुक्तिं च मुक्तिं च ददासि नित्यं भावानुसारेण सदा नराणाम्॥  
प्रत्येक व्यक्ति के भावानुसार सर्व ऐहिक सुख, भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली हे गंगामाता! सभी देवता एवं दैत्य आपके चरण कमलों की वंदना करते हैं। उन चरणों की मैं वंदना करता हूँ।  
गंगागंगेति योब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।
मुच्यते सर्व पापेभ्यो विष्णुलोकं सगच्छति॥   
तीर्थराजाय नमः।
सैकड़ों योजन दूर से भी जो साधक गँगा-गँगा कहते हुए माँ गँगा का स्मरण करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर विष्णु लोक प्राप्त करता है।
पापोहं पाप कर्माहं पापात्मा पाप संभवः।
त्राहि मां कृपया गंगे सर्व पाप हरा भव 
मैं अनिष्ट कर्मा हूँ! मैं साक्षात् पाप अर्थात् अनिष्टता की ही मूर्ति हूँ! मैं बुराई से बना हूँ। हे गँगा माता! आप मेरे पापों का हरण कर मेरी रक्षा करें।
नौयडा को बने 2019 में लगभग 44 साल हो गये हैं, मगर फिर भी यहाँ के निवासियों को बेहद दूषित पानी खाने-पीने और नहाने आदि के लिये दिया जाता है। इसके साथ बहने वाली यमुना और हिण्डन का जल अत्यधिक प्रदूषित, बदबूदार, सड़ता हुआ है। इसके साथ बहने वाला शाहदरा नाला भयानक औद्योगिक-रसायनिक पदार्थों और मल से परि पूर्ण है। नौयडा के अपने नाले भी हद से अधिक प्रदूषित हैं। अतः यमुना-हिण्डन आदि में स्नान बेहद कष्टप्रद और अस्वास्थ्य प्रद है। 
पीढ़े-चौकी पर बैठ कर शरीर पर तेल लगाकर, स्नान करना :: स्नान करनेसे पूर्व पीढ़े पर बैठ कर शरीर पर तेल लगाकर स्नान करें। पीढे में सूक्ष्म-अग्नि प्रदीप्त अवस्थामें रहती है। इस अग्निरूपी तेज का शरीर के चारों ओर सूक्ष्म-वायुमंडल बनने में सहायता होती है। पीढ़े के नीचे का निर्गुण रिक्त स्थान पाताल से उत्सर्जित कष्ट दायक स्पंदनों से शरीर की रक्षा करता है। तेल लगाने से शरीर की कोशिकाओं की चेतना कार्यरत होती है। इस कारण देहकी कोशिकाएं स्नान से मिलने वाली चैतन्यमय तरंगों को ग्रहण करने हेतु योग्य प्रकार से और उचित मात्रामें सिद्ध होती हैं।
स्नान के लिए ताँबे के हंडे में पानी गर्म करना :: नहाते समय ताँबे के हंडे में एकत्रित शुद्ध एवं सात्त्विक जल चूल्हे पर तपा कर पात्र में निकाला जाता है। पात्र का आकार ऊपर चौड़ा तथा नीचे संकरा होने के कारण ऊपरी भाग में तपते जल की सूक्ष्म-वायुतत्त्वात्मक उष्ण ऊर्जा मंद गति से कार्यरत स्थिति में रहती है। वही उष्ण ऊर्जा पात्र के नीचे संकरे आकार में घनीभूत होती है। वह पाताल से संलग्न जड़त्व धारक कष्ट दायक ऊर्जा से लड़ सकती है। इस प्रकार पात्र के जल की अनिष्ट शक्तियों से रक्षा होती है ।
नहाने के  पानी में नमक मिलाना :: नमक के जल से स्नान करने से संपूर्ण शरीर के 106 देह शुद्धिकारी चक्रों पर स्थित काली शक्तियों का संग्रह नष्ट होता है। परिणाम स्वरूप देह शुद्धिकारी चक्र 2-3 प्रतिशत जागृत होते हैं एवं काली शक्ति शरीर से बाहर निकलती हैं। साथ ही, नमक के जल को आप तत्त्व की 100% सहायता मिलने से शरीर में काली शक्ति-तामसिक के संग्रह अधिक मात्रा में नष्ट होते हैं।
उष्णोदक (गरम जल से) स्नानके लिए निषिद्ध  घटनाएं, वार एवं तिथि ::
जन्म या मरण के निमित्त किया जानेवाला स्नान; संक्रांति दिन स्नान तथा श्राद्धदिन स्नान। 
आरोग्येच्छू, पुत्रेच्छू और मित्रेच्छू व्यक्ति रविवार, सप्तमी तथा ग्रहण कालमें उष्णोदक से स्नान न करें।
पूर्णिमा अथवा अमावस्या पर उष्णोदक से अर्थात् गरम जल से स्नान करने से गोवध का पाप लगता है।
चोटी (केश) बनाने के उपरांत ही, स्त्रियों का स्नान :: स्नान पद्धति के अनुसार स्त्रियों को चोटी बनाकर ही स्नान करना चाहिये। चोटी बनाने की प्रक्रिया से देह में जो कुछ रज-तमात्मक, विपरीत-नकारात्मक ऊर्जा का संक्रमण होता है, वह स्नान के माध्यम से हुई देह की शुद्धि के कारण नष्ट होता है। 
नग्न होकर स्नान न करें :: नग्नता, देह के छिद्रों से सूक्ष्म रज-तमात्मक वायु उत्सर्जन हेतु पूर्णतः पूरक स्थिति है। यह स्थिति वातावरण में अपना एक रज-तमात्मक वायु-आवेशित मंडल बनाती है। योनि मार्ग से अथवा गुदा मल द्वार से त्याज्य वायु का सूक्ष्म-उत्सर्जन, बाह्य वायुमंडल की रज-तमात्मक ऊर्जा के स्पर्श के कारण तीव्र गति से आरंभ हो जाता है। इसलिए इन मार्गों की ओर पाताल से प्रक्षेपित कष्ट दायक स्पंदन आकृष्ट होते हैं। इससे संपूर्ण देह रज-तम से आवेशित हो जाती है। इस स्थिति में किए गए स्नान से कोई विशेष प्रयोजन-लाभ नहीं होता। इसके विपरीत, अंतर्वस्त्र द्वारा कटिबंध क्षेत्र में दबाव दर्शक प्रक्रिया के कारण मणिपूर-चक्र जागृत स्थिति में रहता है तथा उत्सर्जित वायुओं का अन्दर ही अन्दर रिक्त स्थान में विघटन करता है। मणिपूर-चक्र की जागृत स्थिति के कारण स्नान द्वारा प्राप्त सात्त्विक ऊर्जा-तरंगों को ग्रहण करने में शरीर देह संवेदन शील बनता है। इसका लाभ मनुष्य को प्राप्त होता है तथा उसके लिए स्नान का आचार मंगलकारी बनता है।
स्नान करते समय पालथी मारकर बैठें :: खडे होकर स्नान करने से शरीर के मैल के साथ ही भूमि पर गिरने वाले जल का प्रवाह भूमि में नकारात्मक ऊर्जा को जागृत करता है। इससे भूमि विरोधी-हानिकारक शक्ति पुनः शरीर को रज-तमयुक्त बना देती है। 
पालथी मारकर बैठकर स्नान करना पीढ़े-चौकी पर बैठ कर स्नान करने से ज्यादा उपयोगी प्रतीत होता है। 
सिर से स्नान करें :: जीवके देहपर बने आवरणका मूल बिंदु जीव के सहस्रार-चक्र अथवा ब्रह्मरंध्र में रहता है । सिर से स्नान करनेसे जीवके देहपर आए आवरण का मूल बिंदुसे विघटन होता है । इस कारण जीवपर आए आवरणका विघटन शीघ्र होता है ।
मन्त्रोच्चारण करते हुए पीतल या ताँबे के लोटे से सिर पर पानी डालना :: ब्रह्मरंध्र जागृत होकर संपूर्ण देह में चेतना का संक्रमण अल्पावधि में सहज कर देता है। 
ताँबा और पीतल की विशेषतायें :: जल भरकर रखने के लिए सत्त्व गुणी ताँबे का पात्र एवं जल निकालने के लिए तथा इस क्रिया को गति देने के लिए रजो गुणी पीतल के लोटे का उपयोग किया जाता है। 
मानव शरीर के नौ द्वार देह से बाह्य वायुमंडल में उत्सर्जित रज-तमात्मक प्रभाव की गतिपूर्ण वायु प्रक्षेपण क्रिया से संबंधित हैं। जल की सहायता अर्थात् स्पर्श से इन स्थानों अथवा द्वारों की स्वच्छता करने पर, इनसे निकलने वाली रज-तमात्मक, ऋणात्मक, नकारात्मक-निषिद्ध ऊर्जा का जल में विलीनीकरण होता है। इससे देह यथार्थ रूप में शुद्ध होती है तथा सात्त्विक ऊर्जा उन द्वारों से ग्रहण करने में समर्थ होती है। प्रतिदिन प्रातः स्नान करते समय शरीर के चारों ओर के सात्विक वायुमंडल के सामर्थ्य पर जल के सर्वसमावेशक स्पर्श से उन सभी स्थानों को शुद्ध-स्वच्छ करें
प्रतिदिन प्रातः स्नानके समय 9 द्वार स्वच्छ करें। [दक्षस्मृति]
स्नान के उपरान्त की कृतियाँ :: अपने चारों ओर सुरक्ष कवच-मण्डल बनाने से स्नान द्वारा हुई देह शुद्धी करण प्रक्रिया में अनिष्ट शक्तियों के हस्तक्षेप से बचाव के लिये, नाम जप करते समय नमक मिश्रित जल से स्नान करने के उपरांत जल को तीर्थ मानकर अपने चारों ओर जल की धारा से तीन बार मण्डल बनायें। इससे स्नान द्वारा हुई देह की शुद्धी करण प्रक्रिया में अनिष्ट शक्तियों के हस्तक्षेप से बचा जा सकता है।  
हे जल देवता-वरुण देव! आपकी असीम कृपा से हमें शुचिर्भूत होने का अवसर प्राप्त हुआ, इसके लिये आपका कोटि-कोटि धन्यवाद। 
स्नानके उपरांत आचमन करें। आचमनसे अंतर्शुद्धि होती है।
अति वृद्ध व्यक्ति, ज्वर, अपचन, अतिसार, आँख तथा कान में वेदना, वात वाहिनी तंत्र के (नर्वस सिस्टम के) विकार तथा दृष्टि एवं मुख रोग से ग्रस्त होने पर, अत्यधिक भूख लगने पर तथा भोजनके उपरांत भी स्नान न करें।
न उदकक्लिन्नगात्रस्तु स्नातः इत्यभिधीयते।
शरीर के अवयवों को जल से भिगोने का अर्थ स्नान नहीं है। इंद्रिय निग्रह रूपी जल से जिसने स्नान किया है, वही अंतर्बाह्य शुद्ध है।
मानसिक सुधि मंत्र ::
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोअपी वा। 
यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यांतर: शुचिः 
अतिनिलघनश्यामं नलिनायतलोचनं। 
स्मरामि पुण्डरीकाक्षं तेन स्नातो भवाम्यहम [वामन पुराण]

"रात्री स्नानं न कुर्वीत दानं चैव विशेषतः। नैमित्तिकं तु कुर्वीत स्नानं दानं च रात्रिषु  
पुत्र जन्मनि यात्रायां शर्वयां दत्तमक्षयम्"। [महर्षि वेद व्यास]
यध्यपि रात्रि में स्नान निषिद्ध है तथापि पुत्रोत्पत्ति की अवस्था में यह नैमित्तिक है। उसके बाद पिता स्पर्श आदि के लिये शुद्धि हो जाता है। 
जाते पुत्रे पितुः स्नानं सचैलं तू विधीयते। 
माता शुद्धद्दयेशाहेन स्नानात्तु स्पर्शं पितुः॥ [महर्षि संवर्त]   
माता की शुद्धि दस दिन बाद ही होती है।  
मेधाजनन :: यह कर्म बालक को मेधावी (धारणायुक्त बुद्धि से सम्पन्न) बनाने के लिये किया जाता है। किसी सुवर्णादि तैजस पात्र में मधु (शहद) और घी को असमान मात्रा में मिलाकर अथवा केवल घी को लेकर सोने की शलाका-कील से अथवा दाहिने हाथ की अनामिका अँगुली के अग्रभाग में सोना रखकर सोने सहित अँगुली से शहद और घी को मिलाकर "ॐ भूस्त्वसी दधामि"। [पार. गृह सूत्र 1.16.4] इत्यादि चार मन्त्रों से बालक को एक बार अथवा चार बार शहद-घी असमान मात्रा में अथवा केवल घी थोड़ा-थोड़ा चटा दें। 
घी, शहद और सोना :- ये तीनों ही अमृत स्वरूप हैं। इनके योग में अद्भुत शक्ति है और इनका प्रभाव भी अमोध है। ये तीनों मिलकर बच्चे की आयु और मेधा को बढ़ाने वाली औषधि बन जाते हैं। 
आयुष्यकरण :: जिस प्रकार अग्नि, सोम, ब्रह्मा, देवता, ऋषिगण, पितर, यज्ञ तथा समुद्र आयुष्यमान हैं, उसी प्रकार पिता इन मन्त्रों के प्रभाव से शिशु की लम्बी आयु की कामना करता है। 
बच्चा दीर्घजीवी, स्वस्थ, व्यथाहीन हो इसके लिये दिवस्परि. इत्यादि अनुवाक (यजुर्वेद 12.18-28) की बारह ऋचाओं में से प्रारम्भ की ग्यारह ऋचाओं का उच्चारण करते हुए बालक के पुरे शरीर का स्पर्श किया जाता है। तत्पश्चात प्राण, व्यान, अपान, उदान और समान; इन पाँचों वायुओं से क्रमशः बालक के हृदय, सर्वांग, गुदादेश, कण्ठ तथा नाभि में व्याप्त रहती हैं और इनके माध्यम से शिशु की दीर्घ आयु की प्रार्थना की जाती है।
शिशु की जन्म भूमि की प्रार्थना :: यह माना जाता है कि बालक इसी भूमि से प्राप्त हुआ है। इससे जातक पर उसका महान ऋण है। अतः पिता को उस भूमि को स्पर्श करते हुए जन्म भूमि मन्त्र से भूमि पूजन करना चाहिये  
भूमि वंदना मंत्र ::
समुद्रवसने देवी पर्वतस्तनमंडीते। विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्वमे 
बालक का अभिमर्शन :: तत्पश्चात पिता के द्वारा मंत्रोचारण द्वारा यह कहते हुए पुत्र को स्पर्श किया जाता है कि तुम वज्र एवं पाषाण की भाँति दृढ बनो, कुठार के समान तीक्ष्ण और अपहत वीर्य वाले बनो, सुवर्ण के समान निर्दोष एवं पवित्र बनो। तुम पुत्र नाम वाले आत्म रूप ही हो; अतः शतायु होओ।
माता की कल्याण कामना :: तदनन्तर बालक का पिता मन्त्र पाठ करते हुए पत्नी की ओर देखता है और कहता है कि तुम इडा मानवी-यज्ञ पात्री हो, तुम मित्रावरुण के अंश से उत्पन्न हो, जिस प्रकर इडा से पुरुरवा की उत्पत्ति हुई अथवा यज्ञ पात्री से पुरोडाश उत्पन्न हुआ, जिस प्रकार मित्रावरुण से अगस्त्य उत्पन्न हुए, वसिष्ठ उत्पन्न हुए वैसे ही तुमसे ये पुत्र उत्पन्न हुआ है। तुमने वीर पुत्र को उत्पन्न किया है, अतः तुम वीरवती होओ, पति-पुत्र वाली होओ, इत्यादि।
माता के स्तनों का प्रक्षालन तथा दुग्धपान :: इसके पश्चात माता के दोनों स्तनों को धुलवाकर शिशु को स्तनपान-दुग्धपान कराया जाता है। सर्वप्रथम दाहिने स्तन को प्रक्षालित किया जाता है।
जातकर्म कुम्भ का स्थापन :: तदनन्तर सूतिका स्त्री के शयन स्थान पर पलंग के नीचे, भूमि पर, सिर की ओर, एक जल से भरा घड़ा रख देना चाहिये। यह कलश सूतिका स्त्री के उठने के दस दिनों तक वहीं पर स्थापित रहता है। मन्त्र के द्वारा प्रार्थना की जाती है कि* हे जल कुम्भ! जैसे आप देवताओं के हित के लिये सदैव जाग्रत-सावधान रहते हैं, उसी प्रकार इस सूतिका के हित के प्रति भी सावधान रहिये और इसकी रक्षा कीजिये।
कलश पूजन ::
कलश पूजन देवी देवताओं, भगवान् शिव सहित त्रिदेवों आदि की पूजा का अनिवार्य अंग है।पूजास्थल पर रखी प्रत्येक वस्तु, जल, सामग्री को पवित्र करने के लिए पूजन करना चाहिए। कलश पर रोली स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर, उसके गले पर मौली बाँध दें। फिर कलश रखने के स्थान पर रोली, कुंकुम से अष्टदल कमल की आकृति बनाकर भूमि को स्पर्श करते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण करें-
ॐ भूरसि भूमिरसि अदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धार्त्री।
पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृ (गुँ) ह पृथ्वीं मा हि (गुँ) सीः॥
इसके बाद सप्तधान्य या गेहूँ, अक्षत उस स्थान पर अर्पित करने के बाद कलश को उस पर स्थापित करें। स्थापना के समय निम्न मंत्र का उच्चारण किया जाता है :-
ॐ आ जिघ्र कलशं मह्या त्वा विशन्त्वन्दनवः।
पुनरुर्जा नि वर्तस्व सा नः सहस्रं धुक्ष्वोरुधारा पयस वती पुनर्मा विशताद्रयिः॥
इसके बाद कलश में जल भरकर निम्न मंत्र का उच्चारण करें :-
ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनी स्थो वरुणस्य
ऋतसदन्यसि वरुणस्य ऋतसदन्मसि वरुणस्य ऋतसदनमा सीद। 
इसके साथ कलश में चंदन, सर्वोषधि (मुरा, जटामांसी, वच, कुष्ठ, हल्दी, दारु हल्दी, सठी, चम्पक, मुक्ता आदि), दूब, पंचपल्लव (बरगद, गूलर, पीपल, आम, पाकर) और सप्तमृत्तिका (घुड़साल, हाथी खाना, बांबी, संगम नदियों की मिट्टी, तालाब, गौशाला और राजमहल के द्वार की मिट्टी) यदि आराधक सप्त जगह की मिट्टी एकत्र न कर पाए तो सुपारी और पंच रत्न आदि जल कलश में डाल सकते हैं। इसके बाद कलश पर चावल का पात्र रखकर लाल वस्त्र से लपेटा नारियल रखना चाहिए। अब वरुण देवता का स्मरण करते हुए आह्वान करें :-
ॐ भूर्भुवः स्वः भो वरुण इहागच्छ, इहतिष्ठ, स्थापयामि पूजयामि।
अक्षत और पुष्प हाथ में लेकर उच्चारण करें :-
ॐ अपांपतये वरुणाय नमः।
इसके बाद अक्षत और पुष्प देवता को अर्पित कर दें।
अब कलश के जल में देवी-देवताओं के आह्वान के लिए निम्न मंत्र का उच्चारण करें :-
कलशस्य मुखे विष्णुः कंठे रुद्रः समाश्रितः।
मूले त्वस्य स्थतो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः॥
कुक्षौ तु सागराः सर्वे, सप्तद्वीपा वसुंधराः। अर्जुनी गोमती चैव चंद्रभागा सरस्वती॥
कावेरी कृष्णवेणी च गंगा चैव महानदी। ताप्ती गोदावरी चैव माहेन्द्री नर्मदा तथा॥
नदाश्च विविधा जाता नद्यः सर्वास्तथापराः।
पृथिव्यां यान तीर्थानि कलशस्तानि तानि वैः॥
सर्वे समुद्राः सरितस्तीथर्यानि जलदा नदाः।
आयान्तु मम कामस्य दुरितक्षयकारकाः॥
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदो ह्यथर्वणः॥
अंगैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः।
अत्र गायत्री सावित्री शांति पुष्टिकरी तथा॥
आयान्तु देवपूजार्थं दुरितक्षयकारकाः।
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति॥
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन्‌ सन्निधिं कुरु।
नमो नमस्ते स्फटिक प्रभाय सुश्वेतहाराय सुमंगलाय।
सुपाशहस्ताय झषासनाय जलाधनाथाय नमो नमस्ते॥
ॐ अपां पतये वरुणाय नमः। ॐ वरुणाद्यावाहित देवताभ्यो नमः।
कलश स्थापित करने की संक्षिप्त विधि :: 
कलश स्थापित किए जाने हेतु लकड़ी के एक पाटे पर अष्टदल कमल बनाकर उस पर धान्य (गेहूँ) बिछा दें। कलश (मिट्टी अथवा तांबे का लोटा) पर रोली से स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर लोटे के गले में तीन धागे वाली मौली (नाड़ा) लपेटें व धान्य पर कलश रखकर जल से भर दें एवं उसमें चंदन, औषधि (जटामॉसी, शिलाजीत आदि), दूब, पाँच पत्ते (बरगद, गूलर, पीपल, आम, पाकड़ अथवा पान के पत्ते), कुशा एवं गौशाला आदि की मिट्टी, सुपारी, पंचरत्न (यथाशक्ति) व द्रव्य छोड़ दें। नारियल पर लाल कपड़ा लपेटकर, चावल से भरे एक पूर्ण पात्र को कलश पर स्थापित कर उस पर नारियल रख दें। हाथ जोड़कर कलश में वरुण देवता का आह्वान करें :-
ॐ तत्वा यामि ब्रह्मणा वंदमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः।
अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश गुं समा न आयुः प्र मोषीः॥
हाथ जोड़कर प्रणाम करें।
"ॐ अपांपतये वरुणाय नमः"
 बोलकर कलश पर अक्षत, पुष्प अर्पित करें।
अब कलश पर सब देवताओं का ध्यान कर आह्वान करें एवं चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य अर्पित कर पूजन करें। अंत में बोलें :-
कृतेन अनेन पूजनेन कलशे वरुणाद्यावाहितदेवताः प्रीयन्तां न मम। 
 सूतिका गृह द्वार पर अग्निस्थापन :: सूतिका गृह के द्वार देश में एक वेदी बनाकर उस पर प्रगल्भ नामक अग्नि की स्थापना करनी चाहिये। वह अग्नि निरंतर दस दिनों तक जलती रहनी चाहिये। उस अग्नि में प्रतिदिन सांय-प्रातः काल भूसी, चावल के कण और पीली सरसों से दो-दो आहुति दें। इन्हें शिशु के पिता अथवा आचार्य के द्वारा दिया जाना चाहिये। इस हवन कर्म से सूतिका गृह के उपद्रवों की शान्ति तथा रक्षा होती है। 
कुमार की कुमार गृह आदि बाल ग्रहों से रक्षा के उपाय :: जन्म के अनन्तर बालक यदि रोये नहीं हँसे नहीं, हाथ-पैर न हिलाये, प्रसन्न ने रहे, उसका मुखमण्डल भव शून्य रहे तो समझना चाहिये कि किसी स्कन्द, नैगमेष, पूतना, कुमार आदि बालग्रह** ने बालक को ग्रस लिया है। अतः उसकी शान्ति के लिये पिता को चाहिये कि बालक को अपनी गोद में लेकर उसे मस्त्य जाल अथवा किसी वस्त्र से आवृत कर लें और मन्त्रों का पाठ करते हुए बालक के सर्वांग में फेरें। 
सम्पूर्ण कर्म करने के अनन्तर ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदान करें और उसी समय भोजन कराने का संकल्प करके अनन्तर में सूतकान्त में उन्हें भोजन करायें। 
नालच्छेदन :: तदनन्तर आठ अंगुल छोड़कर नालच्छेदन करें और अभिषेक, मन्त्र-पाठ, तिलक आदि करके जातकर्म-कृत्य सम्पन्न करें।
**सुश्रुत संहिता शारीर स्थान [अo 10.50-51] और शुश्रुत संहिता उत्तरतंत्र [अo 27-37]
***बालक के पैदा होने पर प्रथम जरायु को हटाकर घी और सैन्धव से मुख का शोधन करें. घी से स्निग्ध पिचु को सिर पर रखें, फिर नाभि नाड़ी को नाभि से आठ अंगुल मापकर धागे से बाँधकर काट दें। घागे के एक भाग को बच्चे के गले में बाँध दें। [शुश्रुत संहिता शारीर स्थान 10.12] चरक शरीर अo 8]
यावन्न छिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्। छिन्ने नाले ततः पश्चात् सूतकं तु विधीयते॥[संस्कार प्रकाश-जैमिनी]
नालच्छेदन से अनन्तर जननाशौच प्रवृत्त हो जाता है। अतः जातकर्म उससे पहले कर लेना चाहिये। मार्जन स्नान आदि करके, देवता और वृद्ध जनों आदि को प्रणाम करके, सांकल्पिक विधि से नान्दीमुख श्राद्ध एवं दानादि करते हुए यथासम्भव शास्त्रोक्त विधि का पालन करना चाहिये।
नान्दीमुख श्राद्ध :: 
सुवर्ण अथवा सुवर्ण निष्क्रयदान किसी ब्राह्मण से संकल्प पूर्वक कराना चाहिये। हाथ में कुशाक्षत, जल और सुवर्ण निष्क्रिय द्रव्य लेकर निम् संकल्प करें :-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे क्षेत्रे...षष्टिसंवत्सराणां...मध्ये...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे... करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र: सपत्नीक:..शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं अस्मिन् जातकर्म संस्कार कर्मणि विश्वेदेव पूर्वकाणां मातृपितामहीप्रपितामहीनां पितृपितामहप्रपितामहानां द्वितीयगोत्राणां सपत्निकानां मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहानां नान्दीमुखानां शास्त्रीयविधि पालनोद्देश्येन सम्प्राप्तनान्दीश्राध्दस्य स्वर्णदाननिष्क्रयभूतद्रव्यं ... गोत्राय ... ब्राह्मणाय दातुमुत्सृज्ये।  
कहकर संकल्पजल छोड़ दें तथा सुवर्णादि यथाकाल ब्राह्मण को दे दें। 
पुत्र जन्म का समाचार मिलने पर पिता पुत्र का मुख देखने से पहले किसी नदी आदि में सचैल-वस्त्र सहित, स्नान करे। नए धुले हुए सफेद कपड़े-धोती आदि, पहनकर तथा उत्तरीय (चादर, गमछा आदि) पहनकर पवित्र आसन पर पूर्वाभिमुख होकर डीप जलाये। तिलक लगाकर, आचमन, प्राणायाम आदि करके सभी पूजन समग्रियों को यथास्थान रखकर जातकर्म संस्कार के निमित्त निम्न संकल्प करे। 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे क्षेत्रे...षष्टिसंवत्सराणां...मध्ये...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे... करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र: सपत्नीक:..शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं ममोपात्त दुरितक्षद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थ मम जातस्य पुत्रस्य जरायुजटितविविधोच्चावचमातृचर्वितान्नविषमात्तिकगर्भाम्बुपानजनितसकलदोषनिर्बह-णपूर्वकं श्री परमेश्वर प्रीतिद्वारा आयुर्मेधाभिवृद्धिबीजगर्भसमुद्भवैनोनिबर्हणार्थं जातकर्माख्यसंस्कारं करिष्ये। तत्पूर्वाङ्गतया स्वस्तिपुण्याहवाचनं मातृका पूजनं वसोर्धारापूजनं आयुष्यमन्त्रजपं सांकल्पिकेन विधिना नान्दीश्राद्धं च करिष्ये। 
कहकर संकल्प जल छोड़ दें।    
इसके बाद गणपति आदि पूजन करें। 
जातकर्म संस्कार के अंगभूत कर्म ::
(1). मेधाजनं कर्म-मधु घृत प्राशन विधि :- नवजात शिशु का पिता उसे सुवर्ण की सलाई से अथवा सुवर्ण अँगूठी युक्त अनामिका अँगुली से शहद और घी को किसी सुवर्ण आदि पात्र में, असमान मात्रा में मिलाकर अथवा मात्र घी को निम्लिखित मन्त्र पढ़ते हुए, शिशु को चटायें :-
ॐ भूस्त्वयि दधामि। ॐ भुवस्त्वयि दधामि। 
ॐ स्वत्वयि दधामि। ॐ भूर्भुवः स्वः सर्वं दधामि। 
(2). आयुष्यकरण कर्म :: इसके बाद पिता अथवा आचार्य नवजात शिशु के दाहिने कान अथवा उसकी नाभि के समीप अपना मुख लगाकर आगे लिखे हुए आठ मन्त्रों को एक से तीन बार तक जप करे :- 
(2.1). ॐ अग्निरायुष्मान् स वनस्पतिभिरायुष्यमाँस्तेन त्वाSSयुषाSSयुष्मन्तं करोमि। (2.2). ॐ सोम आयुष्मान् स ओषधीभिरायुष्यमाँस्तेन त्वाSSयुषायुष्मन्तं करोमि।  
(2.3). ॐ ब्रह्मायुष्यत्तद् ब्राह्मणैरायुष्यमत्तेन त्वाSSयुषाSSयुष्मन्तं करोमि।  
(2.4). ॐ देवा आयुष्मन्तस्तेSमृतेनायुष्मन्तस्तेन त्वाSSयुषाSSयुष्मन्तं करोमि।    
(2.5). ॐ ऋष्य आयुष्मन्तस्ते  व्रतैरायुष्यमन्तस्ते त्वाSSयुषाSSयुष्मन्तं करोमि।  
(2.6).  ॐ पित्तर आयुष्मन्तस्ते स्वधाभिरायुष्यमन्तस्ते त्वाSSयुषाSSयुष्मन्तं करोमि। 
(2.7).  ॐ यज्ञ युष्मान् स दक्षिणा भिरायुष्यमाँस्तेन त्वाSSयुषायुष्मन्तं करोमि।  
(2.8).  ॐ समुद्र  आयुष्मान् स स्त्रवन्ती भिरायुष्यमाँस्तेन त्वाSSयुषायुष्मन्तं करोमि।
पुनः पिता निम्नलिखित मन्त्र का एक बार अथवा तीन बार पाठ करे :- 
ॐ त्र्यायुषं जमदग्ने: कश्यपस्य त्र्यायुषम्। यद्देवेषु त्र्यायुषं  तन्नो अस्तु  त्र्यायुषम्  
(3). आयुष्य मन्त्रों द्वारा शिशु का अभिमर्शण :: तत्पश्चात पिता या आचार्य-पुरोहित द्वारा, सद्योजात शिशु की दीर्घायु की कामना से उसके शरीर का अपने हाथ से स्पर्श करते हुए निम्न मन्त्रों का पाठ करें :-   
(3.1). ॐ दिवस्परि प्रथमं जज्ञे अग्निरस्मद् द्वितीयं परिजातवेदाः। 
तृतीयमप्सु नृमणा अजस्त्रमिन्धान एनं जरते स्वाधी:   
(3.2). ॐ विद्मा ते अग्ने  त्रेधा त्रयाणि  विद्मा ते धाम विभूता पुरुत्रा। 
 विद्मा ते नाम परमं गुहा यद्विद्मा तमुत्सं  यत आजगन्थ    
(3.3). ॐ समुद्रे त्वा नृमणा अप्सवन्तर्नृचक्षा ईधे दिवो अग्न ऊधन्। 
तृतीये त्वा रजसि तस्थिवाँ समपामुपस्थे महिषा अवर्धन्  
(3.4). ॐ अक्रन्ददग्नि स्तन्यन्निव द्यौ: क्षामा रेरिह द्विरुध: समञ्जन्।
सद्यो जज्ञानो वि हीमिद्धो अख्यदा रोदसी भानुना भातयन्त:॥ 
(3.5). ॐ श्रीणामुदारो धरुणो रयीणां मनीषाणां  प्रार्पण: सोमगोपा:
वसु: सुनः सहसो अप्सु राजा वि भात्यग्र  उषसामिधानः॥   
(3.6). ॐ विश्वस्य केतुर्भुवनस्य गर्भ आ रोदसी अपृणाज्जायमानः। 
वीडुं चिदद्रिमभिनत्  परायञ्जना यदग्निमयजन्त पञ्च॥ 
(3.7). ॐ उशिक् पावको अरतिः सुमेधा मर्तेष्वग्निरमृतो नि धायि। 
इयर्त्ति धूममरुषं भरिभ्रदुच्छुक्रेण शोचिषा द्यामिनक्षन्॥  
(3.8). ॐ दृशानो रुक्म उर्व्या व्यद्यौद्दुर्मर्षमायु: श्रिये रुचानः। 
अग्निरमृतो अभवद्वयोभिर्यदेनं  द्यौरजनयत्सुरेता:॥   
(3.9). ॐ  यस्ते अद्य कृणवद्भद्रशोचेSपूपं देव घृतवन्तमग्ने। 
प्र तं नय प्रतरं वस्यो अच्छाभि सुम्नं देवभक्तं यविष्ठ॥    
(3.10). ॐ आ तं भज सौश्रवसेष्वग्न उक्थ उक्थ आ भज शस्यमाने। 
प्रिय: सूर्ये प्रियो अग्ना भवात्युज्जातेन भिनददुज्जनित्वेै: 
(3.11). ॐ त्वामग्ने यजमाना अनु द्यून् विश्वा वसु दधिरे वार्याणि। 
त्वया सह द्रविणमिच्छमाना व्रजं गोमन्तमुशिजो वि वव्रुः॥ [शुo यजुo 12.18-28]
(4). अनुप्राणन विधि :: तत्पश्चात नवजात शिशु के पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण दिशाओं में एक-एक ब्राह्मण बैठा दें। उनके बीच में अथवा नैर्ऋत्य कोण में पाँचवे ब्रह्मण को ऊर्ध्व दृष्टि करके बैठा लें अर्थात वह ब्राह्मण ऊपर की ओर देखता रहे। पाँच ब्राह्मणों के अभाव में पिता स्वयं ही इन स्थानों पर बैठकर निम्न मन्त्रों का उच्चारण करे :-
पिता पूर्व दिशा में बैठे हुए ब्राह्मण को देखते हुए कहे :- ॐ इममनुप्रणेति।  
पूर्व दिशा में बैठा हुआ ब्राह्मण कहे :- प्राणेति। 
पिता द्वारा पुनः "ॐ इममनुप्रणेति" कहे जाने पर दक्षिण दिशा में बैठा ब्राह्मण कहे :- व्यानेति। 
पिता द्वारा पुनः "ॐ इममनुप्रणेति" कहे जाने पर पश्चिम दिशा में बैठा ब्राह्मण कहे :- अपानेति। 
पिता द्वारा पुनः "ॐ इममनुप्रणेति" कहे जाने पर उत्तर दिशा में बैठा ब्राह्मण कहे :- उदानेति।  
अन्त में पिता द्वारा पुनः "ॐ इममनुप्रणेति" कहे जाने पर ऊर्ध्वदृष्टि खड़ा हुआ ब्राह्मण कहे :- समानेति। 
(5). जन्म भूमि अभिमन्त्रण विधि :: इसके बाद निम्न मन्त्र से नवजात शिशु को अनामिका अँगुली से स्पर्श करे :- 
ॐ वेद ते भूमिहृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्। 
 वेदाहं तन्मां तद्विद्यात्पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रुणुयाम शरदः शतम्
(6). शिशु स्पर्श :: इस मन्त्र के उच्चारण के साथ शिशु का स्पर्श करें :- 
  ॐ अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमा स्त्रुतं भव। 
आत्मा वै पुत्रनामासि त्वं जीव शरदः शतम्॥ 
(7). शिशु की माता का अभिमन्त्रण :: पिता नवजात शिशु की माता को उसकी ओर देखते हुए निम्नलिखित मन्त्र से अभिमंत्रित करे :-
इडासि मैत्रावरुणी वीरे वीरमजीजनथा:। 
सा त्वं वीरवती भव याSस्मान् वीरवतोSकरत्॥     
(8). दक्षिण स्तन पान :: प्रसूतिका के दाहिने स्तन को धुलवाने के बाद माँ बच्चे को दूध पिलाये। इस वक्त निम्न मन्त्र का जप करना चाहिए :- 
ॐ इमः स्तनमूर्जनस्वन्तं धयापां प्रपीनमग्ने सरिरस्य मध्ये। 
उत्सं जुषस्व मधुमन्तमर्वन्त्समुद्रियंसदनमा विशस्व॥ 
(9). वामस्तन पान :: इसके बाद प्रसूतिका के बाँये स्तन को धुलवाने के बाद माँ बच्चे को दूध पिलाये। इस वक्त निम्न मन्त्रों का जप करना चाहिए :- 
ॐ यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्यो रत्नधा वसुविद्य: सुदत्र:।
येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवेSक: 
ॐ इमः स्तनमूर्जस्वन्तं धयापां प्रपीनमग्ने सरिरस्य मध्ये।
उत्सं जुषस्व मधुमन्तमर्वन्त्समुद्रियंसदनमा विशस्व॥   
(10). दान :: इस अवसर पर जातक को यथाशक्ति सुवर्ण, भूमि, गौ, वस्त्र, शयनासन-पलंग आदि, गृह, धान्य, तिल, घी तथा घरेलू जरूरत की अन्य वस्तुएँ दान करनी चाहिये। 
(11). कलश स्थापन :: पुत्रवती स्त्री की रक्षा हेतु उसके सिरहाने निम्न मन्त्र से पूरित कलश की स्थापना करे;  जो कि दस दिन तक वहीँ पर रहे। 
ॐ आपो देवेषु जागृथ यथा देवेषु जागृथ एवमस्याँ सुतिकायाँ सपुत्रिकायाँ जागृथ।  
(12). सूतिका गृह होम :: तदोपरान्त सूतिका के दरवाजे पर अग्नि की स्थापना करनी चाहिये और उसकी रक्षा भी सूतकान्त तक करनी चाहिये। पहले वेदी के निम्नलिखित पाँच संस्कार  करने चाहियें :- 
(12.1). तीन कुशों से वेदी का दक्षिण से उत्तर की ओर परिमार्जन करके उन कुशाओं को ईशान कोण में त्याग दें। मन्त्र, " दर्भे: परिसमूह्य"
(12.2). गोबर और जल से वेदी और उसके आस पास के क्षेत्र को लीप लें। मन्त्र, " गोमयोदकेनोपलिप्य" 
(12.3). स्त्रुवा अथवा कुशमूल से पश्चिम से पूर्व की ओर प्रादेश मात्र (10 अँगुल लम्बी) 3 रेखाएँ दक्षिण से प्रारम्भ करके उत्तर की ओर खींचें और यह मन्त्र उच्चारित करें , "वज्रेण त्रिरुल्लिख्य" 
(12.4). उल्लेखन क्रम से दक्षिण अनामिका और अँगूठे से तीनों रेखाओं के ऊपर से कुछ मिट्टी निकालकर बायें हाथ में तीन बार रखकर, पुनः सारी मिट्टी दाहिने हाथ में रख लें और उसे उत्तर की ओर फेंक दें। मन्त्र, "अनमिका अङ्गुष्ठभ्यां मृदमुद्धृत्य"  
(12.5). पुनः जल से वेदी को सींच दें। मन्त्र, " उदकेनाभ्युक्ष्य" 
अग्नि स्थापन संकल्प :: 
ॐ अद्य...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोSहं जातकर्मानुष्ठान सिद्धिद्वारा सुतिकागृहद्वारे प्रगल्भ्ना माग्नि स्थापनं करिष्ये।  
तदनन्तर अग्नि को अपने दक्षिण की ओर उस अग्नि से थोड़ा क्रव्याद अंश निकालकर नैर्ऋत्य कोण में रख दें। पुनः सामने रखी पवित्र अग्नि को वेदी में निम्नलिखित मन्त्र से स्थापित करें :-
ॐ अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुपब्रवे। देवाँ आ सादयादिह॥
उक्त मन्त्र से अग्नि स्थापन के पश्चात कुशों से परिस्रण करें। वेदी या पात्र के पूर्व उत्तराग्र तीन कुश या दूर्वा रखें। दक्षिण भाग में पूर्वाग्र तीन कुश या दूर्वा रखें। पश्चिम भाग में उत्तराग्र तीन कुश या दूर्वा रखें। उत्तर भाग में पूर्वाग्र तीन कुश या दूर्वा रखें। अब अग्नि को प्रज्वलित करें। "ॐ प्रगल्भाग्नये नमः" मन्त्र से अग्नि का पञ्चोपचार पूजन करें। 
तदन्तर धानों से पृथक की हुई भूसी-चोकर, चावलों की कनी और पीली सरसों मिलाकर निम्नलिखित मन्त्रों से आहुति प्रदान करें :-
ॐ शण्डामर्का उपवीर: शौण्डिकेय उलूखलः। 
मलिम्लुचो द्रोणासश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहाः॥ इदमग्नये न मम। 
ॐ आलीखन्न निमिषः किं वदन्त उपश्रुतिर्हर्यक्ष: कुम्भीशत्रुः पात्रपाणिर्नृमणिर्हन्त्रीमुखः सर्षपारुणश्चवनो नश्यतादित: स्वाहाः। इदमग्नये न मम।
उक्त दोनों मन्त्रों से तथा उक्त हवनीय द्रव्यों से पिता अथवा कोई अन्य ब्राह्मण दस दिनों तक सांय-प्रातः, दोनों समय हाथ से आहुति दे। इस प्रकार दस दिनों में चालीस आहुतियाँ दें। 
दक्षिणा संकल्प :: ॐ अद्य...गोत्रः...शर्मा/वर्मा/गुप्तोSहं जातस्य पुत्रस्य कृतै तज्जातकर्माख्यसंस्कारकर्मण: सांङ्गतासिद्धये साद्गुण्यार्थ च इमां दक्षिणा नानानामगोत्रेभ्यो ब्राहणेभ्यो विभज्य दास्ये यथाशक्ति ब्राह्मणान् भोजयिष्ये।
यह संकल्प करके दक्षिणा प्रदान करें और निम्न मन्त्र से मातृकाओं का विसर्जन करें :-
यान्तु मातृगणाः सर्वे स्वशक्त्या पूजिता मया। 
इष्टकामसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च 
सूतकान्त में ब्राह्मण को भोजन करायें।  
नालच्छेदन :: तदनन्तर नाभि से आठ अँगुल छोड़कर नाभि से लगे नाल का किसी छुरी (नये ब्लेड) से छेदन करना चाहिये। 
भगवत्स्मरण :: 
प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। 
स्मरणादेव तद् विष्णो: सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥    
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्क्रिया दिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्॥  
यत्पादपङ्कजस्मरणाद् यस्य नामजपादपि। 
न्यूनं कर्म भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमिश्वरम्॥
ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः। 
ॐ साम्बसदाशिवाय नमः ॐ साम्बसदाशिवाय नमः ॐ साम्बसदाशिवाय नमः
पूतनादि बाल ग्रह जनित व्याधि शमनार्थ कर्म :: यदि दस दिन के भीतर नवजात शिशु को किसी व्याधि का अहसास हो और बालक हाथ-पैर न हिलाये, न रोये, न हँसे तो उसके ओढ़ने के वस्त्र सहित गोदी में लेकर पिता निम्न मन्त्रों से उसके शरीर पर हाथ फेरे :- 
कूर्कुर: सुकूर्कुर: कूर्कुरो बालबन्धन:। 
चेच्चेच्छुनक सृज नमस्ते अस्तु सीसरो लपेता प्रहृर तत्सत्यम्॥ 
यत्ते देवा वरमददु: स त्वं कुमारमेव वा वृणीथा: 
चेच्चेच्छुनक सृज नमस्ते अस्तु सीसरो लपेता प्रहृर तत्सत्यम्॥ 
यत्ते सरमा माता सीसर: पिता श्यामशबलौ भ्रातरौ। 
चेच्चेच्छुनक सृज नमस्ते अस्तु सीसरो लपेता प्रहृर॥ 
न नामयति न रुदति न हृष्यति न ग्लायति यत्र वयं वदामो यत्र चाभिमृशामसि। 
षष्ठी महोत्सव और राहु भेद :: शिशु जन्म के छटे दिन किया जाने वाला उत्सव षष्टी संस्कार कहलाता है। इसी समय राहु भेद कर्म-संस्कार भी सम्पन्न किया जाता है। इन दोनों प्रक्रियाओं को शिशु की रक्षा के निमित्त किया जाता है। इस दिन सामान्यतया जनना शौच उपस्थित रहता है, फिर भी गृह्यसूत्र आदि धर्म शास्त्रों के अनुसार पहले, छटे और दसवें दिन दान देने और लेने में कोई दोष नहीं होता। दान परन्तु भोजन करना उचित नहीं है।
जननाशौचमध्ये प्रथमषष्ठदशमदिनेषु दाने प्रतिग्रहे च न दोषः। अन्नं तु निषिद्धम्।[पा.गृ.सू. पंचभाष्य 1.16]
सूतिकावासनिलया जन्मदा नाम देवताः। तासां यागनिमित्तं तु शुद्धिर्जन्मनि कीर्तिता
प्रथम दिवसे षष्ठे दशमे चैव सर्वदा। त्रिष्वे न कुर्वीत सूतकं पुत्रजन्मनि 
[पा.गृ.सू. पंचभाष्य-वेद व्यास]
षष्ठी देवी :: देवी षष्ठी शिशुओं की अधिष्ठात्री हैं। वे शिशुओं का भरण-पोषण, उन्हें दीर्घायु बनाना और उनके सभी प्रकार के अरिष्टों का निवारण करती हैं। इसीलिए जन्म के छटे दिन प्राय: रात्रि में छटी पूजन सम्पन्न किया जाता है। मूल प्रकृति के छटे अंश से प्रकट होने से ही वे षष्ठी हैं। वे ब्रह्मा जी की मानस पुत्री और भगवान् शिव और माँ पार्वती के पुत्र स्कन्द (भगवान् कर्तिकेय) की प्राण प्रिया देवसेना के नाम से भी विख्यात हैं। इन्हें विष्णु माया तथा बालदा भी कहा जाता है। ये षोडस  मातृकाओं में परिगणित हैं। 
भगवती षष्ठी देवी अपने योग के प्रभाव से शिशुओं के पास सदैव वृद्धा माता के रूप में अदृश्य रूप में विराजमान रहकर उनका भरण-पोषण और रक्षा करती हैं। बालक को स्वप्न में खिलाती, हँसाती, दुलारती हैं और उन्हें अभूतपूर्व वात्सल्य प्रदान करती हैं। इसीलिए शिशु अधिकांश समय सोने में व्यतीत करता है। आँख खुलते ही माँ भगवती ओझल हो जाती हैं, जिससे शिशु रोने लगता है। 
षष्ठी देवी का प्रधान पूजन षष्ठी महोत्सव के दिन रात्रि में किया जाता है। उसके अनन्तर उनकी पूजा निम्न प्रकर से की जाता है :-
षष्ठीदेवि नमस्तुभ्यं सूतिकागृहशालिनि। पूजिता परमा भक्त्या दीर्घमायुः प्रयच्छ मे 
जननी सर्वसौख्यानां वर्धिनीधनसम्पदाम्। साधनी सर्वभूतानां जन्मदे त्वां नता वयम् 
गौरीपुत्रो यथा स्कन्दः शिशुत्वे रक्षितः पुरा। तथा ममाप्यमुं बालं षष्ठीके रक्ष ते नमः
रक्षितौ पूतनादिभ्यो नन्दगोपसुतौ यथा। तथा मे बालकं पाहि दुर्गे देवि नमोSस्तु ते
सर्वविघ्नानपाकृत्य सर्वसौख्यप्रदायिनि। जीवन्तिके जगन्मातः पाहि न: परमेश्वरि  
हे माता षष्ठी! आप सूतिका गृह में निवास करने वाली हैं। आपको नमस्कार है। मैने उत्तम भक्ति से आपका पूजन किया है। आप दीर्घायु प्रदान करें। हे जन्मदे देवि! आप सभी सुखों को उत्पन्न करनेवाली हैं, सभी धन-सम्पत्ति, सम्पदाओं की वृद्धि करनेवाली हैं और सभी प्राणियों का हित साधन करने वाली हैं, आपको विनय पूर्वक हम नमस्कार करते हैं। प्राचीन काल में जिस प्रकार आपने माता गौरी के पुत्र भगवान् स्कन्द की रक्षा की थी, उसी प्रकार मेरे इस बालक की रक्षा भी करें। हे माता षष्ठीके! आपको नमस्कार है। जिस प्रकार आपने नन्दगोप के पुत्रों :- भगवान् श्री कृष्ण और बलराम जी की पूतना आदि राक्षसियों से रक्षा की थी, उसी प्रकार मेरे इस बालक की रक्षा करें। हे माँ दुर्गा! हे जगन्माता! हे परमेश्वरि! सभी विघ्नों को दूर करके आप हमारी रक्षा करें। 
इस प्रकार माँ षष्ठी का पूजन करते हुए अर्ध रात्रि में समय राहु वेधन कर्म करना चाहिये। यह कर्म कुलाचार के अनुसार कहीं होता है कहीं नहीं। 
जन्मदिन की रात्रि तथा छटे दिन की रात्रि शिशु के लिये विशेष अरिष्टकारिणी होती है। अतः भूतादि ग्रहों से विशेष रूप से रक्षा करने योग्यहोती है। इसीलिये प्रथम दिन जातकर्म तथा छटे दिन षष्ठी महोत्सव संस्कार किया जाता है। षष्ठी महोत्सव में दिन रात्रि में पुरुष हाथ में शस्त्र धारणकर तथा स्त्रियाँ गीत-नृत्य आदि के द्वारा रात्रि में जागरण करें।  सूतिका गृह को अग्नि, दीपक, धुप तथा शस्त्र आदि से सज्जित रखें। चारों ओर सरसों बिखेर दें। 
याज्ञ वल्क्य स्मृति-विज्ञानेवर प्रणीत मिताक्षरा टीका (प्रायश्चित्ता अध्याय-19) में मार्कण्डेय जी का वचन :-
रक्षणीया तथा षष्ठी निशा तत्र विशेषतः। रात्रौ जगरणं कार्यं जन्मदानां तथा बलिः  
पुरुषाः शस्त्रहस्ताश्च नृत्यगीतैश्च योषितः। रात्रौ जागरणं कुर्युः दशम्यां चैव सुतके
[पारस्कर गृह्य सूत्र प्रथमकण्डिका 16]  
षष्ठी महोत्सव :: शिशु जन्म के छटे दिन यह संस्कार किया जाता है। इसमें शिशु और उसकी माता की रक्षा के लिये मुख्य रूप से षष्टी देवी, भगवान् स्कन्द तथा प्रद्युम्न जी की प्रतिमा बनाकर उनकी पूजा की जाता है। यह पूजन कार्य प्राय: सांयकाल में किया जाता है। 
अपरान्ह काल में पुरोहित-पुजारी द्वारा लकड़ी की चौकी पर गोमय के द्वारा शक्ति सहित भगवान् कार्तिकेय-स्कन्द, सशक्ति प्रद्युम्न जी तथा बीच में षष्टी देवी की प्रतिमा बनायें। प्रतिमाओं के बीच का स्थान चावल या जौ से भर दें। माता षष्ठी के कानों में दूर्वा पल्लवों से कुण्डल बनायें तथा शरीर में यथास्थान एक-एक सीपी या कौड़ी, 16 स्थानों पर लगायें। प्रतिमाओं के सामने आठ दीपक जलाकर रख दें तथा तीनों प्रतिमाओं को सब प्रकार से अलंकृत कर यथास्थान स्थापित करें। 
प्रदोष काल उपस्थित होने पर शिशु का पिता स्नान, संध्या आदि कार्यों से निवृत होकर पूजा की सामग्री लेकर घर के प्रवेश द्वार पर आ जाये और पवित्र आसन पर बैठकर आचमन, प्राणायाम आदि करके गणपति सहित समस्त देवों का आह्नान कर षष्टी महोत्सव के पूर्वांग के रूप में सर्वप्रथम द्वार मातृकाओं का पूजन करे।
जनना शौच उपस्थित रहने पर भी विधि प्रयुक्त होने से प्रथम दिन जातक कर्म संस्कार, छटे दिन षष्ठी महोत्सव और राहु वेधकर्म तथा दसवें दिन नामकरण संस्कार करने में अशौच का कोई दोष नहीं होता। इन कार्यों में अन्न दान का निषेध है। सुवर्ण आदि द्रव्य द्वारा नान्दी मुख श्राद्धादि करने चाहियें। 
द्वार मातृका पूजन :: किसी पट्टिका पर अथवा अक्षत पुंजों पर सात द्वार मातृकाओं की स्थापना करके निम्न मन्त्र द्वारा अक्षत छिड़कते हुए उनकी प्रतिष्ठा करें :-
एवं ते देव सवितर्यज्ञं प्राहुर्बृहस्पतये ब्रह्मणे। तेन यज्ञमव तेन यज्ञपतिं तेन मामव     
ॐ भूर्भुवः स्वः द्वारमातर: इहागच्छन्तु इह तिष्ठन्तु सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु। 
इस प्रकार प्रतिष्ठाकर निम्न मन्त्र से मातृकाओं का ध्यान करें :- 
कुमारी धनदा नन्दा विपुला मङ्गलाचला। पद्मा चैव तु नाम्नोक्ताः सप्तैता द्वारमातरः   
तदनन्तर ॐ कुमार्यै नमः, ॐ धनदायै नमः, ॐ नन्दायै नमः, ॐ विपुलायै नमः, ॐ मङ्गलायै  नमः, ॐ अचलायेै नमः और ॐ पद्मायै नमः; इन 7 मन्त्रों से गन्ध, पुष्पादि उपचारों के द्वारा मातृकाओं का पूजन तथा अन्त में नीराजन करें। 
तदनन्तर स्वस्तिवाचन-पाठ के साथ घर में प्रवेश करें और सबसे पहले सूतिका के कमरे के समीप गाय का घी, पीली सरसों, सेंधा नमक, निम्ब पत्र तथा साँप की कैंचुली आदि द्रव्यों का धूप जलायें। 
मुराSहिकृतिनिर्गुण्डीवचा: कुष्ठं च सर्षपा:। बिल्वपत्रमयो धूपः कुमारायुः प्रदोषकृत्
मुरा, साँप की कैंचुली, निर्गुन्डी, वचा, कुष्ठ, सरसों तथा बिल्व इनकी धूप बालक की आयु को पुष्ट करनेवाला होती है।     
ये सभी वस्तुएँ कृमि नाशक (जीवाणु) तथा भूत-प्रेतादि के अपवर्क तथा पवित्र करने वाले द्रव्य हैं। 
तदनन्तर पूजन स्थल के समीप आकर सभी पूजन सामग्रियों तथा काष्ठपीठ-लकड़ी की चौकी पर बनाई गई षष्ठी देवी, भगवान् स्कन्द तथा प्रद्युम्न जी की प्रतिमाओं वाली चौकी को यथास्थान रख लें। अपने आसन पर पूर्वाभिमुख बैठ जायें। दीपक प्रज्वलित करें। आचमन, प्राणायामादि करके पूजन का प्रधान संकल्प करें। 
प्रतिज्ञा-संकल्प :: दाहिने हाथ में अक्षत, पुष्प तथा कुश लेकर निम्न संकल्प करें :-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे क्षेत्रे...षष्टिसंवत्सराणां...मध्ये...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे.. . करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र: सपत्नीक:..शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं राशे मम बालकस्य सर्वोपद्रवशान्तिपूर्वक दीर्घायुरारोग्यावाप्तिद्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं षष्ठी महोत्सवं करिष्ये। तत्पूर्वाङ्गत्वेन सर्वाभ्युदयप्राप्तये गणपतिसहित गौर्यादिषोडशमातृणां पूजनं, स्वस्तिपुण्याहवाचनं, वसोर्धारापूजनं, साङ्कल्पिकेन विधिना नान्दीश्राद्धं च करिष्ये।
इसके पश्चात गणपति आदि का पूजन सम्पन्न करें और चौकी पर स्थापति भगवान् स्कन्द तथा प्रद्युम्न जी की प्रतिमाओं का पूजन करें। 
स्कन्द (भगवान् कार्तिकेय) और प्रद्युम्न जी की एकतंत्र से पूजन-प्रतिष्ठा :: लकड़ी की चौकी पर स्थापित प्रतिमाओं पर अक्षत छिड़कते हुए निम्न मन्त्र से उनकी प्रतिष्ठा करें :- 
एतं ते देव सवितर्यज्ञं प्राहुर्बृहस्पतये ब्रह्मणे। तेन यज्ञमय तेन यज्ञपतिं तेन मामव
ॐ भूर्भुवः स्वः गोमयप्रतिमयो: स्कन्ददेव तथा प्रद्युम्न देव इहागच्छतम् इह तिष्ठतं सुप्रतिष्ठितौ वरदौ भवेतम्।
स्कन्द देव जी का ध्यान :: इस प्रकार प्रतिष्ठा करके हाथ में पुष्प लेकर पहले निम्न मन्त्र से सशक्तिक भगवान् कार्तिकेय का ध्यान करें।  
वराभयकर: साक्षाद् दिभुजः शिखिवाहनः किरीटी कुण्डली देवो दिव्याभरण भूषितः
भगवान् कार्तिकेय श्रेष्ठ मयूर के ऊपर आसीन हैं, उनकी दो भुजाएँ हैं, वे वरद तथा अभय मुद्रा धारण किये हुए हैं, उनके सर पर मुकुट तथा कानों में कुण्डल हैं और वे दिव्य अलंकारों से विभूषित हैं। 
प्रद्युम्न जी का ध्यान :: तदनन्तर सशक्तिक प्रद्युम्न जी का ध्यान करें और पुष्प अर्पित करें :- 
प्रद्युम्नस्तु चतुर्बाहुः शङ्खचक्रगदाधर:। चक्रं दक्षिणहस्तेSस्य वामहस्ते धनुस्तथा
शङखं च दक्षिणे दद्याद् गदां वामे प्रदापयेत्। प्रद्युम्नं कारयेद्देवं सर्वलक्षण संयुतम्॥
प्रद्युम्न जी चार भुजाओं वाले हैं। वे शंख चक्र, गदा धारण किये हुए हैं। उनके दाहिने हाथ में चक्र तथा बायें हाथ में धनुष है। उनके दूसरे दाहिने हाथ में शंख तथा बायें हाथ में गदा है। वे सभी प्रकार के शुभ लक्षणों से युक्त हैं। 
"ॐ सशक्तिकाभ्यां स्कन्दप्रद्युम्नाभ्यां नमः" 
उपरोक्त नाम मन्त्र के द्वारा स्कन्द और प्रद्युम्न जी की गन्धादि उपचारों से एकतंत्र से यथाविधि पूजा करें और हाथ में फूल लेकर निम्न प्रार्थना करें :-         
स्कन्द प्रार्थना :: 
ॐ नमः कुमाराय महाप्रभाय स्कन्दाय ते स्कन्दितदानवाय। 
नवार्कबिम्बद्युतये नमोSस्तु नमोSस्त्वमोद्योद्यतशक्तिपाणये॥
नमो विशालाय विचारिणेSस्तु नमोSस्तु ते षण्मुख मामरूपिणे। 
गुहाय गूढाभरणाय धर्त्रे नमोSस्तु ते दानवदारणाय 
नमोSस्तु तेSर्कप्रतिमप्रभाय नमोSस्तु गुह्याय गुहाय तुभ्यम्। 
नमोSस्तु ते लोकभयापहाय नमोSस्तु ते बालपराक्रमाय 
नमो विशालायतलोचनाय नमो विशालाय महाव्रताय।  
नमो नमोSस्तु मनोरमाय नमो नमस्तेSस्तु करोत्कटाय॥
नमो मयूरोज्ज्वलवाहनाय नमो धृतोदग्रपताकिनेSस्तु।   
नमोSस्तु केयूरधराय तुभ्यं नमः प्रभावप्रणताय तुभ्यम्॥ 
सेनानये पावकिने नमोSस्तु क्रियापरीतामलदिव्यमूर्तये।
कृपामयो यज्ञ इवामलस्त्वं नमोSस्तु षष्ठिश नमो नमस्ते
दूर्वा समर्पण :: प्रार्थना के बाद निम्न मन्त्र के उच्चारण के साथ स्कन्द प्रतिमा पर दूर्वादल चढ़ायें :- 
ॐ काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती परुष: परुषस्परि। 
एवा नो दुर्वे प्र तनु सहस्त्रेण शतेन च 
प्रद्युम्न जी की प्रार्थना :: हाथ में फूल लेकर  के उच्चारण से प्रद्युम्न जी की प्रार्थना करें :-
भोः प्रद्युम्न महाबाहो लक्ष्मी हृदयनन्दन। कुमारं रक्ष मे भीते: प्रद्युम्नाय नमो नमः॥
त्रैलोक्यपूजितः श्रीमान्सदा विजयवर्धन:। शान्तिं कुरु गदापाणे प्रद्युम्नाय नमो नमः
षट्कृत्तिका पूजन :: उपरोक्त तरीके से स्कन्द और प्रद्युम्न जी की पूजा करके कृत्तिकाओं का पूजन करें। स्कन्द माता कृत्तिकाएँ छः हैं। षष्ठीमहोत्सव के दिन स्कन्द और प्रद्युम्न जी की पूजा का अनन्तर इनकी पूजा विधान है। लकड़ी की चौकी पर  पवित्र सफेद कपड़ा बिछाकर दही तथा अक्षत मिलाकर छः पुंजों की स्थापना करें तथा उनकी प्रतिष्ठा करके निम्न नाम मन्त्रों के द्वारा गन्धादि उपचारों से षट्कृत्तिकाओं का पूजन करें :-
ॐ शिवायै नमः, ॐ सम्भूत्यै नमः, ॐ सन्नत्यै  नमः, ॐ प्रीत्यै नमः, ॐ अनसूयायै नमः, ॐ क्षमायै नमः। 
कृत्तिका प्रार्थना :: हाथ में फूल लेकर निम्न प्रार्थना करें :- 
जगन्मातर्जगद्धात्रि जगदानन्दकारिणी। नमस्ते देवि कल्याणि प्रसीद मम कृत्तिके॥
कार्तिकेय प्रार्थना ::  इस मन्त्र से कार्तिकेय प्रार्थना करें :-
कार्तिकेय महाबाहो गौरीहृदयनन्दन। कुमारं रक्ष मे भीते: कार्तिकेय नमोSस्तु ते॥
प्रद्युम्न प्रार्थना :: इस मन्त्र से प्रद्युम्न जी की प्रार्थना करें :-
त्रैलोक्यपूजितः श्रीमान् सदा विजयवर्धनः। शान्तिं कुरु गदापाणे नारायण नमोSस्तु ते॥
षष्ठीदेवी पूजन :: लकड़ी की चौकी पर मध्य में स्थापित षष्ठीदेवी की गोमय प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा करने के लिये हाथ में अक्षत लेकर निम्न मन्त्र बोलते हुए देवी प्रतिमा पर छोड़ें :-
ॐ एतं ते देव सवितर्यज्ञं प्राहुर्बृहस्पतये ब्रह्मणे। तेन यज्ञमव तेन यज्ञपतिं तेन मामव॥ॐ भूर्भुवः स्वः गोमयप्रतिमायां षष्ठीदेवी इहागच्छ इह तिष्ठ सुप्रतिष्ठिता वरदा भव। 
ॐ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ हँ क्षँ हंसः सोSहं षष्ठीदेव्याः प्राणा इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु, जीव इह तिष्ठतु, सर्वेन्द्रियाणीह तिष्ठन्तु।
षडंगन्यास :: इस प्रकार प्रतिमा की प्राणप्रतिष्ठा करने के अनन्तर निम्न मन्त्रों से अपने अंगों में न्यास करके देवी के उन-उन अंगों में अक्षत द्वारा न्यास करें :-
ॐ षाँ ह्रदयाय नमः, ॐ षीं शिरसे स्वाहा, ॐ षूं शिखायै वषट्, ॐ षैं कवचाय हुम्, ॐ षौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ ष: अस्त्राय फट्। 
ध्यान :: तदनन्तर हाथ में फूल लेकर निम्न मन्त्रों से महाषष्ठी का ध्यान करें :- 
चतुर्भुजां महादेवीं तुङ्गपीनस्तनीं शिवाम्। मयूरवरमारूढां रक्तवस्त्रधरां शुभाम्॥शूलशक्तिवराभीतिहस्तां ध्यायेन्महेश्वरीम्। प्रफुल्लपद्मवदनामर्धपद्मासनस्थिताम्   
महादेवी षष्ठी चार भुजाओं वाली हैं। उनका वक्ष:स्थल अत्यन्त उन्नत है। वे भगवान् शिव की शक्ति स्वरूपा हैं और मयूर पर आरूढ़ हैं। लाल वस्त्रों को धारण किये हैं, कल्याणकारिणी हैं। अपने हाथों में शूल, शक्ति, वर तथा अभय मुद्रा धारण किये हुई हैं। महान ऐश्वर्य से सम्पन्न हैं। उनका मुखमण्डल प्रफुल्लित कमल के समान है और वे अर्धपद्मासन में विराजमान हैं।
सर्वाङ्गभूषितां देवीं पीनोन्नतपयोधराम्। स्त्रवत्पीयूषवदनां पीतकौशेयवाससाम्
चतुर्भुजां दक्षिणेन घृतमन्थानवंशकाम्। नीलोत्पलं तु वामेन स्कन्दं दधतीं तथा 
अध:स्थितकराभ्यां तु महाषष्ठीं  विचिन्तयेत्। 
षष्ठी देवी के सभी अंगों में सुन्दर आभूषण हैं.उनका वक्षः स्थल अत्यन्त उन्नत है, उनके मुखमण्डल से अमृत की धारा प्रवाहमान है। वे पीले वस्त्रों को धारण किये हुए हैं। उनकी चार भुजाएँ हैं। वे दाहिने हाथ में बाँस की बनी मथानी तथा बायें में नीले कमल लिये हुए हैं। नीचे के दोनों हाथों में, उन्होने बालक स्कन्द को गोद में लिया हुआ है। 
ॐ षष्ठी देव्यै नमः ध्यानार्थे पुष्पाणि समर्पयामि 
कहकर फूल चढ़ायें।
निम्न मन्त्रों से पुष्पों के द्वारा आवाहन करें :- 
आयाहि पूज्यसे देवि महाषष्ठीति विश्रुते। शक्तिरूपेण मे बालं रक्ष जगरवासरे॥ 
ॐ अम्बेSअम्बिके Sअम्बालिके न मा नयति कश्चन। 
ससस्त्यश्वक: सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्॥    
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि। 
कहकर पुष्य अर्पित करें। 
आसन :: 
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि। 
पुष्प चढ़ायें। 
पाद्य :: 
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः पाद्यं समर्पयामि। 
पाद्य जल चढ़ायें। 
अर्ध्य ::
पत्रपुष्पफलाम्भोभी रत्नैश्च बहुभिर्युतम्। षष्ठी देवि मया दत्तमर्ध्यं ग्रह्ण नमोSस्तु ते॥ 
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः अर्ध्यं समर्पयामि। 
अर्ध के लिये जल को चढ़ायें। 
आचमन :: 
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः आचमननीयं जलं समर्पयामि। 
आचमन के लिये जल चढ़ायें। 
स्नान :: 
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः स्नानीयं जलं समर्पयामि। 
स्नान के लिये जल चढ़ायें। 
आचमन :: 
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः आचमनीयं जलं समर्पयामि। 
आचमन के लिये जल चढ़ायें। 
वस्त्र ::
  तन्तुसन्तानसंयुक्तं कलाकौशलकल्पितम्। सर्वाङ्गवरणं श्रेष्ठं वसनं परिधीयताम्॥
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि। 
वस्त्रोपवस्त्रं (यदि वस्त्र के स्थान पर रक्षा सूत्र चढ़ायें तो वस्त्रार्थे माँगलिकसूत्रं समर्पयामि कहना चाहिए) चढ़ायें। आचमन के लिये जल दें। 
गन्ध :: 
कुंङ्कुमं चन्दनं चैव सुगन्धं सुमनोहरम्। षष्टी देवी मया दत्तं गन्धं गृह्ण नमोSस्तु ते
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः गन्धं समर्पयामि। 
सुगन्धित गन्ध अर्पित करें। 
अक्षत :: 
सुगन्धा अतिशुभ्राश्च तण्डुला: सुमनोहरा: अक्षतार्थं मया दत्ता: षष्ठी देवि नमोSस्तु ते 
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः अक्षतान्  समर्पयामि। 
अक्षत चढ़ायें।
पुष्प :: 
चतुर्वर्णानी पुष्पाणि सुगन्धीनि विशेषतः। मयाऽऽनीतानि पूजार्थं गृहाण परमेश्वरि॥ 
 ॐ षष्ठीदेव्यै नमः पुष्पाणि समर्पयामि। 
पुष्प एवं पुष्पमाला चढ़ायें। 
दूर्वा ::
ॐ समख्ये देव्या धिया संदक्षिणयोरुचक्षसा। 
मा मऽआयुः प्रमोषीर्मोऽअहं तव वीरं विदेय तव देवि संदृशि
ॐ श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पाश्र्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम्। 
इष्णन्निषाणामुं म इषाण सर्वलोकं म इषाण॥     
ॐ काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती परुषः  परुषस्परि। 
एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्त्रेण शतेन च॥
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः दूर्वादलं समर्पयामि। 
दूर्वादल चढ़ायें। 
धूप :: 
गुग्गलं घृतसंयुक्तं दशाङ्गेन समन्वितम्। षष्ठी देवि नमस्तुभ्यं धूपोऽयं प्रतिग्रह्यताम्॥     
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः धूपमाघ्रापयामि। 
धूप दिखायें। 
दीप :: षष्ठी देवी के सम्मुख रखे हुए आठों दीपकों को प्रज्वलित करें और निम्न मन्त्र पढ़ें :- 
गव्येनाज्येन संयुक्तान् वर्त्त्या कर्पूरगर्भया। 
दीपान्देवी मया दत्तानिमान् गृह्ण नमोSस्तु ते॥
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः दीपान् दर्शयामि। 
दीपक निवेदित करें। 
बकरी की आवाज-मिमियाना :: तदनन्तर द्वारदेश में बकरी के बच्चे के गले में आठ वटकों-बड़ों की माला पहनाकर, उसके कान पकड़कर इधर-उधर घुमाएं ताकि वो मैं-मैं या बो-बो बोले। इस प्रकार उसे 3-4 बार बुलवायें। इस प्रकार बकरी के बच्चे के बोलने से भूत-प्रेत गण वहाँ से पलायन कर जाते हैं।  
नैवेद्य :: 
मोदकानी विचित्राणि शुक्लतण्डुलकं दधि। विचित्रपक्वान्नयुतं तथाऽपुपसमन्वितम्॥
फेणिकाघृतपूराढय्ं नैवेद्यं प्रतिगृहताम्। 
ॐ षष्ठीदेव्यै नमः नैवेद्यं दर्शयामि। 
नैवेद्य निवेदित करें। 
"ॐ षष्ठीदेव्यै नमः" मन्त्र का थोड़ी देर तक जप करने के अनन्तर जप निवेदित करें और आचमनीय जल समर्पित करें। 
करोद्वर्तन :: "ॐ षष्ठीदेव्यै नमः" कहकर करोद्वर्तन के लिये गन्ध निवेदित करें। 
नीराजन :: 
अन्तस्तेजो बहिस्तेज एकीकृत्यामितप्रभम्। आरार्त्तिकमिदं देवि गृहाण परमेश्वरि॥ 
 ॐ षष्ठीदेव्यै नमः  नीराजनं समर्पयामि। 
आरती करें। 
प्रार्थना :: हाथ में फूल लेकर निम्न प्रार्थना करें :-
जय देवि जगन्मातर्जगदानन्दकारिणी। प्रसीद मम कल्याणि महाषष्ठी नमोSस्तु ते॥ 
देवानां च ऋषीणां च मनुष्याणां च वतस्ले। अमुं मम सुतं रक्ष षष्ठि देवि नमोSस्तु ते॥
पूरा देवैः पूजिताऽसि ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः। 
आवाभ्यामपि देवि त्वं पूज्यसे भक्तिपूर्वकम्॥ 
देह्यस्य बालकस्यायुर्दीर्घृं तुभ्यं नमोSस्तु ते। 
तव प्रसादात्तनयस्य वक्त्रं दृष्टं मया देवि नमोSस्तु तुभ्यम्। 
सौभाग्यमारोग्यमभीष्टसिद्धिं देहि प्रजायाश्चिरजीवितञ्च॥ 
गौर्य्या: पुत्रो यथा स्कन्ध: शिशु संरक्षित स्त्वया। तथा ममाप्ययं रक्ष्यतां षष्टिके नमः
षष्ठि देवि नमस्तुभ्यं सुतिकागृहवासिनि।
पूजितासि मया भक्त्या सबालां रक्ष सूतिकाम्॥
जननी सर्वसौख्यानां वर्धनी कुलसम्पदाम्। 
साधनी सर्वसिद्धीनां जन्मदे त्वां नता वयम्॥ 
त्वमेव वैष्णवी देवी ब्रह्माणी च व्यवस्थिता। 
रुद्रशक्तिस्समाख्याता  महाषष्ठी नमोSस्तु ते
धात्री त्वं कार्ति केयस्य स्त्रीरूपं मदनस्य च। 
त्वत्प्रसादाद विघ्नेन चिरं जीवतु में सूत:  
रक्षा मन्त्रों का पाठ :: 
तदनन्तर  पिता अपनी पत्नी की गोद से शिशु को लेकर कुछ पल के लिये, सहारा देकर उसे भूमि पर बैठाये और निम्न रक्षा मन्त्रों का उच्चारण करे :-
यद्वलं वासुदेवस्य विष्णोरमिततेजसः। भीमस्य ब्रह्मणश्चैव सर्वं भवतु में सुते॥  
चन्द्रार्कयोर्दिगीशानं यमस्य वरुणस्य च। निक्षेपार्थ मया दत्तं ते में रक्षन्तु बालकम्॥ 
अप्रमत्तं प्रमत्तं वा दिवा रात्रावथापि वा। रक्षन्तु सर्वदा सर्वें देवाः शक्र पुरोगमाः॥ 
रक्ष त्वं वसुधे देवि सन्ध्ये च जगतः प्रिये। आयुष्प्रमाणा  सकलं देहि देवि नमोSस्तु ते॥
अन्तरा ह्यायुषस्तस्य ये केचित्प्ररिपन्थिनः। विद्यारोगस्य वित्तानां निर्द्दस्वाचिरेण तान्॥
इस प्रकार रक्षा विधान करके शिशु को गोद में ले लें और कंकणं आदि वस्त्राभूषणों से उसे अलंकृत करें। 
सपत्नीक आचार्य का पूजन :: तदनन्तर सपत्नीक आचर्य का पूजन करें। आचर्य तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदान करें। ब्राह्मणों का आशीर्वाद प्राप्त करें और आवाहित देवों का विसर्जन करें। 
राहु भेदन :: इस प्रकर षष्ठी देवी का पूजन करके लोकाचार के अनुसार अर्धरात्रि के समय राहु भेदन कर्म करने की विधि भी है। इसको करने से सभी प्रकार के उपद्रवों से शिशु की रक्षा तथा आयु की वृद्धि होती है। यह कर्म कुलाचार के अनुसार किया जाता है। 
सर्व प्रथम पवित्र आसन पर बैठकर आचमन, प्राणायाम आदि करके राहु भेदन कर्म के लिए निम्न संकल्प करें :-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: अद्य पूर्वोच्चारितग्रहगणगुणविशेषण विशिष्टायां शुभ पुण्य तिथौ...गौत्र: सपत्नीक:..शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं...राशे: मम पुत्रस्य षष्ठीमहोत्सवकर्मणः उत्तराङ्गत्वेन एतस्य बालकस्य परिरक्षार्थं  आयुर्वृद्धये सर्वोपद्रवशान्त्यर्थं च राहोर्भेदनं करिष्ये। तदङ्गत्वेन धनुर्बाणयोः पूजनं करिष्ये। 
हाथ का जल संकल्प जल छोड़ दें। 
पोटिलिका रूप राहु का निर्माण :: एक स्वच्छ-नवीन वस्त्र में हल्दी, द्रव्य, पीली सरसों; इन मंगल तथा रक्षण कारक वस्तुओं को रखकर उनकी पोटली बनाकर, उस पोटली की प्रतिष्ठा कर लें और उस पोटली को घर के काष्ठ की धरण में लोहे की काँटी में मजबूती से बाँध दें। इस पोटली को राहु का स्वरूप माना जाता है। एक मजबूत धनुष बाण की भी प्रतिष्ठा कर लें। निम्न मन्त्र से धनुष का पूजन करें :-
धनुष पूजन मन्त्र :: निम्न मन्त्र से गन्धादि उपचारों से धनुष पूजन करें:-  
घृतं कृष्णेन रक्षार्थं संहारार्थं हरेण च। त्रयीमूर्तिगतं दिव्यं धनुः शस्त्रं नामम्यहम्॥
ॐ धनुषे नमः। 
बाण पूजा मन्त्र :: निम्न मन्त्र से गन्धादि उपचारों से बाण-पूजन करें। 
कामदेवस्य ये बाणा: सफलाश्चार्जुनस्य च। 
रामस्य च यथा बाणास्तथास्माकं भवन्त्विह॥ ॐ  बाणाय नमः।
तदनन्तर पिता बालक को अपनी गोदी में ले ले और धनुष बाण हाथ में लेकर शंख-घण्टा नाद की ध्वनि के साथ उस पोटिलिका पर बाण से निशाना साधे और पोटिलिका का वेध करे एवं मंगल ध्वनियों का उच्चारण करे। 
सूतिका गृह में धूपदान :: इस प्रकार राहु वेधन कर्म करके सूतिका गृह के द्वार पर पीली सरसों, गोघृत, सेंधा नमक तथा नीम पात्र का धूप जलाये। 
तदनन्तर सुवासिनियों का पूजन तथा बालक का महानीराजन करके उसे माता को सौंप दे। सूतिका गृह के बाहर मूसल आदि आयुधों और शस्त्र आदि को रख देना चाहिये। इस प्रकार षष्ठी महोत्सव कर्म सम्पन्न होता है।

    
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा