Thursday, November 21, 2013

PURIFACTORY RITES शुद्धि संस्कार :: HINDU PHILOSOPHY (4) हिन्दु दर्शन

PURIFACTORY RITES 
शुद्धि संस्कार 
 HINDU PHILOSOPHY (4) हिन्दु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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Video link :: https://youtu.be/4-KE6wsxs94
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
माँ के गर्भ से जन्म लेने के बाद, मनुष्य ही एक मात्र प्राणी है जो बेहद असहाय होता है। उसे चलना, बोलना, लिखना-पढ़ना, समाज उपयोगी बनाया जाता है। वह पूर्व जन्म के संस्कार लेकर पैदा होता है। घर-परिवार, समाज में मिलने-जुलने से उसके पूर्व संस्कार बदलते-सुधरते हैं। बोलने-समझने लायक होते ही उसे शुद्धिकरण अर्थात् मन, वाणी और शरीर के सुधार की पारिवारिक-सामाजिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।
शुद्धिकरण अर्थात् मन, वाणी और शरीर का सुधार। मनुष्य की सारी प्रवृतियों का संप्रेरक मन में पलने वाला संस्कार होता है। व्यक्ति के चरित्र निर्माण में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। ये सामाजिक-धार्मिक कृत्य किसी व्यक्ति को अपने समुदाय का पूर्ण रुप से योग्य सदस्य बनाने के उद्देश्य से उसके शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्र करने के साथ-साथ व्यक्ति में अभीष्ट गुणों को जन्म देना है। संस्कारों से द्विजों के गर्भ और बीज के दोषादि की शुद्धि होती है।[मनु, याज्ञवल्क्य] 
मनुष्य दो प्रकार से समाज के योग्य-उपयुक्त बनता है :- (1). पूर्व जन्म के कर्म के दोषों को दूर करने से और (2). इस जन्म में नए सत् गुणों के विकास से।[कुमारिल]
प्रत्येक संस्कार से पूर्व हवन किया जाता है। जिस गृह्यसूत्र का अनुकरण किया जाता है, उसी के अनुसार आहुतियों की सँख्या, हव्य पदार्थों और मंत्रों के प्रयोग में अलग-अलग परिवारों में भिन्नता होती है। संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपनी सहज प्रवृतियों का पूर्ण विकास करके अपना और समाज दोनों का कल्याण करता है। संस्कार केवल वर्तमान ही नहीं अपितु अगले जन्मों-पारलौकिक जीवन को भी पवित्र बना सकते हैं।
ऋग्वेद के कुछ सूक्तों में विवाह, गर्भाधान और अंत्येष्टि से संबंधित कुछ धार्मिक कृत्यों का वर्णन मिलता है। यजुर्वेद में केवल श्रौत यज्ञों का उल्लेख है। अथर्ववेद में विवाह, अंत्येष्टि और गर्भाधान संस्कारों का विस्तृत वर्णन है। गोपथ और शतपथ ब्राह्मणों में उपनयन गोदान संस्कारों के धार्मिक कृत्यों का उल्लेख है। तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षा समाप्ति पर आचार्य की दीक्षांत शिक्षा का वर्णन है।
गृहसूत्रों में संस्कारों की पूरी पद्धति का वर्णन मिलता है। गृह्यसूत्रों में संस्कारों के वर्णन में विवाह संस्कार सहित गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जात-कर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्न-प्राशन, चूड़ा-कर्म, उपनयन और समावर्तन संस्कारों का वर्णन है। अंत्येष्टि संस्कार का वर्णन अशुभ होने के कारण नहीं है। 
स्मृतियों के आचार प्रकरणों में संस्कारों का उल्लेख है और तत्संबंधी नियम दिए गए हैं। इनमें उपनयन और विवाह संस्कारों का वर्णन विस्तार के साथ दिया गया है, क्योंकि उपनयन संस्कार के द्वारा व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में और विवाह संस्कार के द्वारा गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। वैखानस स्मृति सूत्र में शरीर संबंधी संस्कारों और यज्ञों का उल्लेख है।  
गौतम धर्मसूत्र :: संस्कारों की सँख्या चालीस है। (1). गर्भाधान, (2). पुंसवन, (3). सीमंतोन्नयन, (4). जातकर्म, (5). नामकरण, (6). अन्न प्राशन, (7). चौल, (8). उपनयन, (9-12). वेदों के चार व्रत, (13). स्नान, (14). विवाह, (15-19). पंच दैनिक महायज्ञ, (20-26). सात पाकयज्ञ, (27-33). सात हविर्यज्ञ, (34-40). सात सोमयज्ञ। अधिकतर धर्मशास्रों ने वेदों के चार व्रतों, पंच दैनिक महायज्ञों, सात पाकयज्ञों, सात हविर्यज्ञों और सात सोम यज्ञों का वर्णन संस्कारों में नहीं किया है।
मनुस्मृति :: गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, उपनयन, केशांत, समावर्तन, विवाह और श्मशान, इन तेरह संस्कारों का उल्लेख किया है। याज्ञवल्क्य ने भी इन्हीं संस्कारों का वर्णन किया है। केवल केशांत का वर्णन उसमें नहीं मिलता।
वैदिकै: कर्मभि: पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्। 
कार्य: शरीर संस्कार: पावन: प्रेत्य चेह च॥[मनु स्मृति 2.26]
द्विजातियों  वैदिक कर्मों द्वारा गर्भाधानादि शरीर के संस्कार करना चाहिये, जो कि इस लोक और परलोक दोनों में पाप को क्षय करने वाले होते हैं। 
The three upper castes-Swarn (सवर्ण) should carry out the various rites pertaining to impregnation (गोदभराई, fertilisation, conceiving, ceremony performed after menstruation to favour conception) etc., described in the scriptures, which are capable of reducing the burden of sin in this and the next abodes-births.
गार्भै मैर्जातकर्मचौलमौञ्जीनिबन्धनै:। 
बैजिकं गार्भिकं चैनो द्विजानामपमृज्यते॥[मनु स्मृति 2.27]
गार्भिक (गर्भ की शुद्धि के लिये हवनादि क्रियाएँ) जातकर्म (natal rites, typically a private rite of passage that is observed by the new parents, relatives of the baby and close friends, Jat-जात, means born, brought into existence, engendered, arisen, caused, appeared & Karm-कर्म means action, performance, duty, obligation, any religious activity or rite, attainment), चूड़ा (मुण्डन) और उपनयन संस्कारों के करने से द्विजातियों के बीज और गर्भ के दोष दूर हो जाते हैं।
Performance of natal rites, removing the first hair from the head of the child and bearing of sacred thread around the waist of the child; leads to the defects pertaining to fertilisation of ovum & sperms and the bearing of child in the womb by the mother.
स्वाघ्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रै विधिनेज्यया सुतै:। 
महायज्ञैश्च  यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनु:॥
वेदाध्ययन, व्रत, होम, त्रैविध देवर्षि पितृ-तर्पण, पुत्रोत्पादन (पाँच) ब्रह्मयोगादि और ज्योतिष्टोमादि (यज्ञ जिसमें सोलह ऋत्विक होते हैं) यज्ञों द्वारा यह शरीर ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बनाया जाता है।[मनु स्मृति 2.28]
The human body is prepared for attaining Brahm (Salvation) through the study of Veds, fasting, Holy sacrifices in fire, three types, modes, procedural, oblations offering to the ancestors-Manes, procreation of 5 sons, Brahm Yog and Jyotishtom etc. 
प्राङ्नाभिवर्धन्तपुंसो जातकर्म  विधीयते।
मन्त्रवत्प्राशनं चास्य हिरण्य मधुसर्पिषा
नालच्छेदन के पहले पुरुष का जातकर्म संस्कार किया जाता है, इसके बाद ही उस बालक को सुवर्ण, मधु और घी को वैदिक मन्त्रों द्वारा चटाना चाहिये।[मनु स्मृति 2.29] 
The rite called Jat Karm is performed before the naval cord-string of the male child is cut-detached and thereafter the child is to lick gold, honey and Ghee-clarified butter.
नामधेयं दशम्यां वाSस्य कारयेत्। 
पुण्ये तिथौ मुहूर्त्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते॥
उस बालक का दसवें या बारहवें दिन नाम करण संस्कार शुभ पुण्य तिथि, मुहूर्त्त और नक्षत्र में करना चाहिये।[मनु स्मृति 2.30]
The child should be named on the 10th  or 12th day after birth, on an auspicious day & date under the influence of auspicious constellation configuration as per the advice of the astrologers.
गर्भाष्टमेSब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्यो पनायम्। 
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः॥
गर्भ से आठवें वर्ष में ब्राह्मण का उपनयन संस्कार करना चाहिये। गर्भ से 11 वें वर्ष में क्षत्रियों का और गर्भ से 12 वें वर्ष में वैश्यों का उपनयन करना चाहिये।[मनु स्मृति 2.36] 
The rite pertaining to initiation to education Upnayan Sanskar be performed at the age of 8 years for the Brahmn, 11th year for the Kshatriy and 12th year for the Vaeshy.
Upnayan Sanskar-rite  is a sacred ceremony performed in Hinduism for upper castes to initiate the education of the child called Brahmchari-celibate (ब्रह्मचारी). Yagyopaveet (sacred thread, यज्ञोपवीत) is drawn around the neck and the waist of the child to make him remember that he has to maintain extreme chastity & purity (of body, mind and the soul) during the period of education at the Ashram-Guru Kul of the teacher.
ब्रह्मवर्च सकामस्य कार्यं विप्रस्य पञ्चमे। 
राज्ञो बलार्थिन: षष्ठे वैश्येस्येहार्थिनोSष्टमे॥
ब्रह्मतेजाभिलाषी ब्राह्मण का गर्भ से 5 वें वर्ष में, बलाभिलाषी क्षत्रिय का 6 वर्ष में और धनाभिलाषी वैश्य का 8 वें वर्ष में उपनयन करना चाहिये।[मनु स्मृति 2.37] 
The Brahmn who seeks the Brahm Tej (divine energy-aura-enlightenment) should be initiated into Upnayan rite from the 5th year of conception, the Kshatriy who desire power-valour should be initiated into Upnayan in the 6th year and the Vaeshy who desire wealth should be initiated into Upnayan in the 8th year. 
आषोडशाद्ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते। 
आद्वाविंशात्क्षत्रबन्धोंराचतुर्विंशतेर्विश:॥
16 वें वर्ष तक ब्राह्मण का, 22 वें वर्ष तक क्षत्रिय का और 24 वें वर्ष तक वैश्य की सावित्री का अतिक्रमण नहीं होता है अर्थात उस समय तक उपनयन हो सकता है।[मनु स्मृति 2.38] 
The Upnayan-initiation ceremony can be performed till 16th year for the Brahmn, 22nd year for the Kshatriy and 24th year for the Vaeshy, since Savitri (Rig Ved has described Savitr as a manifestation of Sun) is still in vogue-effective.
अत ऊर्ध्वं त्रयोSप्येते यथाकालमसंस्कृता:। 
सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिता:॥
उक्त समयों के बाद यथा समय संस्कार न होने से वे तीनों (विप्र-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) सावित्री से पतित होकर समाज से बहिष्कृत और व्रात्य होते हैं।[मनु स्मृति 2.39]
If the Upnayan rites-ceremony (sacrament, ordination, Sanskar, investiture, धार्मिक अनुष्ठान, संस्कार) is not performed as per schedule explained above one born in the three upper castes is demoted and becomes out caste.
नेतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि हि कर्हिचित्। 
ब्राह्मान्यौनांश्च सम्बन्धानाचरेत् ब्राह्मण: सह॥
इन अपवित्रों (व्रात्यों) के साथ इनके विधिवत् प्रायश्चित्तादि करने पर भी कोई भी ब्राह्मण आपत्ति काल में भी उनसे किसी प्रकार का सम्बन्धादि न करे-रखे।[मनु स्मृति 2.40]
The Brahmn (Pure-Pious) is advised not to keep relations with the impure-contaminated people even if they purify themselves by duly committing atonement (expiation, repentance) procedural practices-methodologically, even when he faces trouble, emergency, misfortune. 
Those people who do not take bath, have bad habits, consume wine, eat meat, make illicit relations, perform undesirable activities deserve to be rejected by the society summarily.
He Brahmn represents one who is learned-enlightened, perform Vedic rites, prayers, Yog etc. 
सोलह षोडश संस्कार :: 
पिता पितामहो भ्राता ज्ञातयो गोत्रजाग्रजाः। 
उपानये$धिकारी स्यात्पूर्वाभावे परः परः
पिता, दादा (पिता के पिता), भाई, जाति के मनुष्य, सगोत्री और ब्राह्मण यज्ञोपवीत कराने के अधिकारी हैं। इनमें अनुक्रम से पहले कहे हुए का किसी तरह से लाभ न हो तो पिछले अनुक्रम से आगे के लाभ न होने पर ग्राह्य हैं जैसे कि पिता न होने पर दादा और पिता तथा दादा न होने पर भाई इत्यादि।[मनु] 
पितेवोपनयेत्पुत्रं तदभावे पितुः पिता। 
तदभावे पितुर्भ्राता तदभावे तु सोदरः
पिता ही पुत्र का यज्ञोपवीत करायें, वह न हो तो पितामह (दादा) और उसके अभाव में चाचा, यदि चाचा न हो तो सगा भाई यज्ञोपवीत करायें।[प्रयोग रत्न] 
पितेतिविप्रपरं न क्षत्रियादेः; तेषां पुरोहित एव। 
उपनयनस्य दृष्टार्थत्वात्;असंस्कृतास्तु संस्कार्या भ्रातृभिः पूर्वसंस्कृतैः
पिता सिर्फ ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत के लिये निमित्त हैं। क्षत्रियादि को नहीं, कारण कि उपनयन का दृष्टार्थ इस लोगों के होने से पुरोहित ही अधिकारी हैं। क्षत्रियादिकों का वेद के पढाने में अधिकार नहीं हैं और यहाँ चाचा भी ज्येष्ठ भाई के न होने पर ही अधिकारी है।[याज्ञवल्क्य]  
जिन भाईओं का संस्कार नहीं हुआ उनका प्रथम संस्कृत भाई संस्कार करैं।[याज्ञ्यवल्क्य]
अलाभे सुमुर्हूतस्य रजोदोषे ह्युपस्थिते। 
श्रियं संपूज्य विधिवत्ततो मङ्गलमारभेत्
मुर्हूत न मिले और रजो दोष हो जाय तो विधि से लक्ष्मी का पूजन (श्री शांति) करवाकर मङ्गल कार्य करें।[वाक्य सार]
संकटे समनुप्राप्ते सूतके समुपागते। 
कूष्माण्डाभिर्घृतं हुत्वा गां च दद्यात्पयस्विनीम्
अशौच हो जाय तो रजो दोष की संभावना, सूतक या मृतक आशौच में कूष्माण्डी ऋचा (मंत्रो) से घी का हवन कर दूध देने वाली गाय या गाय के बदले में निष्क्रयी दक्षिणा दान दें।[संग्रह]
"चूडोपनयनोद्वाह प्रतिष्ठादिकमाचरेत्"
यह होम करकें चूडाकरण,यज्ञोपवीत, विवाह, प्रतिष्ठा,आदि कर सकतें हैं। 
ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जातो ब्राह्मणः स इति श्रृतिः। तस्माच्च षण्ढबधिरकुब्जवामनपंगुषुजडगद्गदरोगार्त शुष्काङ्गविकलाङ्गिषु। मत्तोन्मत्तेषु मूकेषु शयनस्थे निरिन्द्रिये
ध्वस्त पुंस्त्वेषु चैतेषु संस्काराः स्युर्यथोचितम्। 
मत्तोन्मत्तौ न संस्कार्याविति केचित्प्रचक्षते
कर्मस्वनधिकाराच्च पातित्यं नास्ति चैतयोः। तदपत्यं च संस्कारर्यमपरे त्वाहुरन्यथासंस्कारमन्त्र होमादीन्करोत्याचार्य एव तु; उपनेयांश्च विधिवदाचार्यस्य समीपतः।आनियाग्नि समीपं वा सावित्रीं स्पृश्य वा जपेत्; कन्यास्वीकरणादन्यत्सर्वं विप्रेण कारयेत्[प्रयोग पारिजात ब्रह्मपुराण]
ब्राह्मणों में जो ब्राह्मण से उत्पन्न होता हैं वह ब्राह्मण होता हैं, यह श्रृति है। उससे उत्पन्न हुये नपुंसक, बहरे, कुबडे, नाटे, लंगडे, जड, तोतले, रोगी, शुष्क और विकलांग हैं तथा मत्त उन्मत्त, गूंगे अथवा निद्रालु और इन्द्रिय रहित या पुंस्त्व हीन हो गयें हैं उनका भी यथोचित संस्कार करना चाहिये। मत्त और उन्मत्त ये दोनों का संस्कार न करैं। ये दोनौं पतित तो नहीं हैं, परन्तु इनका कर्म में अधिकार नहीं। उनकी सन्तान संस्कार करने योग्य हैं। उनके संस्कार होम आदि आचार्य को करने चाहिये। यज्ञोपवीत करने योग्य नपुंसक आदि को आचार्य विधि से अपने निकट लाकर और अग्नि के पास बैठाकर और स्पर्श करके गायत्री मंत्र का जप करें। गर्भाधान, कन्यादान स्वीकार करने से भिन्न कर्म को आचार्य करें। 
आरभ्याधानमाचौलात्काले$तीते तु कर्मणाम्। 
व्याहृत्याग्निं तु संस्कृत्य हुत्वा कर्म यथाक्रमम् 
एतेष्वेकैकलोपे तु पादकृच्छ्रं समाचरेत्। 
चूडायामर्धकृच्छ्रं स्यादापदि त्वेवमीरितम्
अनापदि तु सर्वत्र द्विगुणं द्विगुणं चरेत्।
संस्कार के लोप होने गर्भाधान से लेकर मुण्डन पर्यन्त संस्कार काल बीत जाय तो व्याहृति मंत्रों से घी का संस्कार और हवन करकें क्रम से कर्म करें। यदि इनमें एक दो कर्म का लोप हो तो पाद कृच्छ्र व्रत या उनके प्रत्याम्नायरूप 1,000 गायत्री मंत्र जप करैं मुण्डन के लोप में अर्ध कृच्छ्र व्रत या 2,000 गायत्री जप करें, यह आपत्ति के लिये लिखा है परंतु लोक लज्जा तथा समय बचाने पैसे बचाने के लिये सभी संस्कार साथ में करने पड़ें तो सब कर्म का दोगुना प्रायश्चित्त यानी गर्भाधान के 1,000 के दोगुनेे में 2,000, पुंसवन के 1,000 के दोगुने 2,000, सीमंत के 1,000 के दोगुने 2,000, जातकर्म के 1,000 के दोगुनेे 2,000, नामकरण के 1,000 के दोगुने 2,000, निष्क्रमण के 1,000 के दोगुने 2,000, अन्नप्राशन 1,000 के दोगुने 2,000, चूडाकरण के 2,000 के दोगुने 4,000, कुल 18,000 गायत्री जप होंगे।[शौनक]
यज्ञोपवीत सम्बन्धी प्रायश्चित्त :: 
कालातीतेषु कार्येषु प्राप्तवत्स्वपरेषु च। 
कालातीतानि कृत्वैव विदध्यादुत्तराणि तु 
तत्र सर्वेषां तन्त्रेण नान्दीश्राद्धं कुर्यात्। गणशःक्रियमाणानां मातॄणां पूजनं सकृत् सकृदेव भवेच्छ्राद्धमादौ न पृथगादिषु
त्रिकाण्ड मण्डन में कहा हैं कि सभी लोप कर्म करने हो तथा समयोचित भी कर्म साथ में करना हो तो उन लोप कर्मों को प्रथम क्रम से कर कर समयोचित कर्मों को करैं | वहाँ सब कर्मों का एकतन्त्र से ही नान्दीश्राद्ध करें,  कारण कि देश काल में करने वाले यह सब कर्म एक ही कहा जायेंगा।[छन्दोग्य परिशिष्टात्]  
एकवार किये हुए कर्मों में षोडश मातृका (वसोर्द्धारा सहिता) माताओं का पूजन और श्राद्ध एक बार ही पहले कर लें, भिन्न न करें, कारण कि देश काल करने से यह सब एक हैं। [छंदोग परिशिष्ट]
[षोडश संस्काराः, यज्ञोपवीतम्खंड 111]
अस्पृहा :: ईश्वर की कृपा से थोड़ी-बहुत संपत्ति से भी संतुष्ट रहना और दूसरे के धन की, किंचित मात्र भी इच्छा न रखना। 
जिसकी गर्भ-शुद्धि हो, सब संस्कार विधिवत् संपन्न हुए हों और वर्णाश्रम धर्म का पालन करता हो, तो उसे अवश्य मुक्ति प्राप्त होती है।
महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। धर्म शास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है।
(1). गर्भाधान MATING, CONCEIVING, PRAGNANCY :: स्वस्थ सुसंस्कृत युवक एवं युवती जो आयु परिपुष्ट हों सुमन, सुचित्त होकर परिवार हेतु सन्तान प्राप्ति के उद्देश्य से इस संस्कार को करते हैं। वैदिक संस्कृति में गर्भाधान को श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभाववाली आत्मा को बुलाने के लिए धार्मिक पवित्र यज्ञ माना गया है।
जैसे अच्छे वृक्ष या खेती के लिए उत्तम भूमि एवं बीज की आवश्यकता होती है वैसे ही बालक के शरीर को यथावत बढ़ने तथा गर्भ के धारण पोषण हेतु आयुर्वेद के अनुसार पुरुष की न्यूनतम आयु 25 वर्ष तथा स्त्री की 16 वर्ष आवश्यक होती है।
वैदिक मान्यतानुसार दम्पति अपनी इच्छानुसार बलवान्, रूपवान, विद्वान, गौरांग, वैराग्यवान् संस्कारोंवाली सन्तान को प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए ब्रह्मचर्य, उत्तम खान-पान व विहार, स्वाध्याय, सत्संग, दिनचर्या, चिन्तन आदि विषयों का पालन करना पड़ता है। जिसका विवरण आयुर्वेद विषयक ग्रन्थों में विस्तार से देखा जा सकता है।
गर्भाधान से पहले व गर्भाधान के समय जैसी शारीरिक व मानसिक स्थिति माता-पिता की होती है, उसी का प्रभाव आनेवाले सन्तान (गर्भस्थ आत्मा) पर पड़ता है। रुक्मिणी जी के इच्छानुसार भगवान्  श्रीकृष्ण नें सुसन्तान प्राप्ति के लिए सपत्नीक 12 वर्षों तक एकान्त स्थान पर ब्रह्मचर्य का पालन किया था। अर्थात् ये 12 वर्ष उन्होंने रज-वीर्य की पुष्टि, संस्कारों की श्रेष्ठता आदि गुणों की वृद्धि में लगाए थे। तभी तो उन्हें प्रद्युम्न जैसी अत्युत्तम सन्तान मिली, जो भगवान श्रीकृष्ण सदृश गुणोंवाली थी।
मानव जीवन की संस्कार अर्थात् दोषमार्जनम्, हीनांगपूर्ति तथा अतिषयाधान इस प्रकार है :-
(1.1). गर्भाधान पूर्व :- जीव पुरुष के माध्यम से स्त्री में अभिसिंचित होता है। पुरुष में इसका प्रवेष औषध अर्थात् अनाज, वनस्पति अर्थात् फल और आपः अर्थात् प्रवहणषील तत्व जल और प्राण के माध्यम से होता है। जीव का अवतरण यम वायु (योगसिद्ध वायु) से होता है। इन समस्त की शुद्धि योजना कर समावर्तन तथा विवाह संस्कार से संस्कारित गृहाश्रम प्रविष्ट वर-वधू से पति-पत्नी बने परिपुष्ट आयु, बल, शील, कुल सम बनें। यह गर्भ में जीव के आह्नान की पूर्व योजना है। सुश्रुत संहिता (आयुर्वेद) निर्देषित सर्वोषधी जिसमें दो खंड आम्बा हल्दी, चन्दन, मुरा, कुष्ट, जटामांसी, मोरवेल, शिलाजित, कपूर, मुस्ता, भद्रमोथ, समान मात्रा में लेकर गाय के दूध में उबाल उसकी दही जमा घृत बना (दूध और सर्वोषधी का अनुपात 16ः1 होगा) इस घृत के एक सेर में एक रत्ती कस्तूरी, एकेक माषा केसर, एवं जायफल, एक जावित्री मिलाकर इस घी से विधि अनुसार हवन करके यज्ञ अवशेष घी का पत्नी उबटन रूप में प्रयोग कर तथा उपरोक्त घी का भोजन रूप में सेवन करना गर्भ में जीव के आह्वान की तैयारी है। यह भौतिक संस्कार योजना जीव के आह्वान की है। इसके समानान्तर आधिदैविक, आध्यात्मिक योजना के अन्तर्गत विश्व की देव व्यवस्था तथा अध्यात्म व्यवस्था के पवित्रीकरण की मानसिक योजना विषिष्ट हवन मन्त्रों में दी गई है। यह योजना इसलिए आवश्यक है कि इसी व्यवस्था से संस्कारी जीव उतरता है। ये व्यवस्था करने की उपादेयता क्या है ?
यह नियम है कि अपनी संस्कार (जाति, आयु, भोग विपाक-कर्मफल) धारिता के अनुकूल परिस्थितियों में जीवात्मा जन्म लेता है। गर्भाधान प्रक्रिया उत्तम परिस्थितियों के निर्माण की योजना है कि उत्तम संस्कारित जीव उत्पन्न हो।
(1.2) गर्भाधान काल :- एक प्रहर रात्रि बीतने तथा एक प्रहर रात्रि शेष रहने के मध्य के काल में आरोग्यमय द्वि-तन, अत्यन्त प्रसन्न मन, अतिप्रेममय सम्बन्ध, आह्लाद आभर पति-पत्नी स्थिर संयत शरीर, प्रसन्न वदन, आनन्द पूर्वक गर्भाधान करें। प्रक्षेपण एवं धारण क्रिया सहज सौम्य हो।
(1.3). गर्भाधान काल बाद :- यह ज्ञात होते ही गर्भाधान हो गया है तो पति-पत्नी दश मास गर्भ के स्वस्थन, परिस्वस्थन, परिपुष्टन, देव-व्यवस्था के उत्तमीकरण की भावना से सने वेद-मन्त्रों से अर्थ सहित ही यज्ञ करें। इसके पश्चात भोजन व्यवस्था में सम-क्षार, अम्ल, लवणनिग्ध, कमतीता (मिर्च), पुष्टिकारक भोजन आयोजन करे। भोजन ऋतुओं के अनुकूल ही हो।
प्रथम कर्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखने वाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए।
निषेकाद बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते। 
क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम्॥
विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्य सम्बन्धी पाप-विकारों का नाश होता है, दोष का मार्जन तथा क्षेत्र का संस्कार होता है। यही गर्भाधान-संस्कार का फल है।
गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष जिस भाव से भावित होते हैं, उसका प्रभाव उनके रज-वीर्य में भी पड़ता है। अतः उस रज-वीर्यजन्य संतान में माता-पिता के वे भाव स्वतः ही प्रकट हो जाते है। 
आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभि: समन्वितौ। 
स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुतोडपि तादृशः॥
स्त्री और पुरुष जैसे आहार-व्यवहार तथा चेष्टा से संयुक्त होकर परस्पर समागम करते हैं, उनका पुत्र भी वैसे ही स्वभाव का होता है।
सन्तानार्थी पुरुष ऋतुकाल में ही स्त्री का समागम करे, पर-स्त्री का सदा त्याग रखे। स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल रजो-दर्शन से 16 रात्रि पर्यन्त है। इसमे प्रथम चार रात्रियों में तो स्त्री-पुरुष सम्बन्ध होना ही नहीं चाहिए, ऐसा समागम व्यर्थ ही नहीं होता अपितु महा रोग कारक भी है।
इसी प्रकार 11 वीं और तेरहवी रात्रि भी गर्भाधान के लिए वर्जित है। शेष दस रात्रियाँ ठीक है। इनमें भी जो पूर्णमासी, अमावस्या, चदुर्दशी व अष्टमी (पर्व) रात्रि हो उसमें भी स्त्री-समागम से बचा रहे। छ्ठी, आठवीं दसवीं, बारहवीं, चौदहवीं और सोलहवीं ये छः रात्रि पुत्र चाहने वाले के लिए तथा पाँचंवी, सातवीं, नवीं और पन्द्रहवीं; ये चार रात्रियाँ कन्या की इच्छा से किये गये गर्भाधान के लिए उत्तम हैं।
ऋतुस्नान के बाद स्त्री जिस प्रकार के पुरुष का दर्शन-चिन्तन करती है, वैसा ही पुत्र उत्पन्न होता है। अतः जो स्त्री चाहती है कि मेरे पति के समान गुण वाला या अभिमन्यु जैसा वीर, ध्रुव जैसा भक्त, जनक जैसा आत्मज्ञानी, कर्ण जैसा दानी पुत्र हो, तो उसे चाहिए की ऋतुकाल के चौथे दिन स्नान आदि से पवित्र होकर अपने आदर्श रुप इन महापुरुषों के चित्रों का दर्शन तथा सात्त्विक भावों से उनका चिंतन करें और इसी सात्त्विक भावों में योग्य रात्रि को गर्भाधान करावे। रात्रि के तृतीय प्रहर (12 से 3 बजे) की संतान हरिभक्त और धर्मपरायण होती है। पुरुषोत्तम भगवान् राम, सर्वकला सम्पूर्ण भगवान् श्री कृष्ण का ध्यान चिंतन, श्रवण, वर्णन अत्यधिक लाभकारी है। 
संतानप्राप्ति के उद्देश्य से किए जाने वाले समागम के लिए अनेक वर्जनाएं भी निर्धारित की गई हैं, जैसे गंदी या मलिन-अवस्था में, मासिक धर्म के समय, प्रातः या सायं की संधिवेला में अथवा चिंता, भय, क्रोध आदि मनोविकारों के पैदा होने पर गर्भाधान नहीं करना चाहिए।
दिन में गर्भाधान करने से उत्पन्न संतान दुराचारी और अधम होती है। दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु जैसा महादानव इसलिए उत्पन्न हुआ था कि उसने आग्रहपूर्वक अपने स्वामी कश्यप के द्धारा संध्याकाल में गर्भाधान करवाया था। श्राद्ध के दिनों, पर्वों व प्रदोष-काल में भी समागम करना शास्त्रों में वर्जित है।
स्त्री को गन्दी फ़िल्मों, अश्लील साहित्य, अनर्गल वार्तालाप, अनाप-शनाप बोलना, लड़ना-झगड़ना, मारपीट, गाली-गलौच से बचना चाहिये।
संतान गोपाल मंत्र :: भगवान श्री कृष्ण के बाल स्वरूप की पूजा करना निसंतान दंपत्तियों के लिए बेहद शुभ है। संतान बाल गोपाल मंत्र एक ऐसा ही मंत्र है जो निसंतान दंपत्तियों के लिए आशीर्वाद समान माना जाता है।
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः।
इस मंत्र का प्रतिदिन 108 जाप करने से जातक को संतान प्राप्ति अवश्य होती है। मंत्र जाप के साथ-साथ  शयन कक्ष में श्रीकृष्ण की बाल रूप की प्रतिमा रखना चाहिए। इस प्रतिमा की श्रद्धाभाव से पूजा करते हुए उन्हें लड्डू, माखन मिसरी का भोग लगाना चाहिए।
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच॥ 
Some techniques-methods are discussed at length in Purans, to have the desired progeny: son or daughter. One can control the characters present in them as well simultaneously. If child-pregnancy is not desired it can be skipped without much effort or use of birth control measures. Condoms, pills, jellies are not necessary and there is no side effect. 
The man-male has both X & Y chromosomes and the woman-female has only X-X chromosomes. Ignorant-illiterate-orthodox families blame the woman for not producing the son. As one can see the fault lies with the male who produces the sperm not the woman who produce the egg. Its the male who has to keep him fit and fine.
After the menses-periods the ovum-egg is produced in the ovary and it stays there for 4 to 5 days waiting for the sperm. It sperms are not available it will disintegrate and pass as blood out of the body of the female. The male should protect his sperms, keep them healthy and considerably large quantities say 5 to 10 million. This is called sperm count. healthy sperms produce health child.
The females body acts as earth-field which produce crops when seed is sown in it. Child has to be born by the woman in her bomb-uterus. It needs proper timing, season, temperature, proper nourishment, sleeping, exercise etc. Morality do count a lot for good progeny.
Here are a few tips which one should follow religiously. One must not involve in sexual intercourse during the day. One must not expose himself or herself during the intercourse, in front of others. 
8th, 11th, 13th, 14th full moon night and the dark-no moon night, as per Indian calendar should also be skipped. In fact most of the people indulge in sexual behaviour as per sensuality not the need for progeny. 
If fertilisation-zygote formation takes place on the 4th, 6th, 8th, 10th, 12th, 14th & 16th day from the stoppage of the menses, a son will be born and if it occurs on the 5th, 7th, 9th, 11th, 13th & 15th girl child is born. 
It depends over the breathing from the right or the left nostril as well. If the right nostril of the woman is working at the time of the intercourse, it will result into the production of a boy. If she is breathing from the left nostril the child will be a girl.
DESIRED SON OR DAUGHTER ::
अष्टमी, एकादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावश्या  को सन्तानोत्पत्ति हेतु संभोग नहीं करना चाहिए।चन्द्रावती ऋषि के अनुसार लड़का-लड़की का जन्म गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष के दायां-बायां श्वास क्रिया,
पिंगला-इड़ा नाड़ी, सूर्यस्वर तथा चन्द्रस्वर की स्थिति पर निर्भर करता है। गर्भाधान के समय स्त्री का दाहिना श्वास चले तो पुत्री तथा बायां श्वास चले तो पुत्र होगा।
माहवारी के बाद संतानोत्पत्ति के लिए रात्रियों की महत्वपूर्ण जानकारी ::
मासिक स्राव के बाद  4, 6, 8, 10, 12, 14 और 16वीं रात्रि के गर्भाधान से पुत्र तथा 5, 7, 9, 11, 13 एवं 15वीं रात्रि के गर्भाधान से कन्या जन्म लेती है।
(1).  चौथी रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र अल्पायु और दरिद्र होता है।
(2). पाँचवीं रात्रि के गर्भ से जन्मी कन्या भविष्य में सिर्फ लड़की पैदा करेगी।
(3). छठवीं रात्रि के गर्भ से मध्यम आयु वाला पुत्र जन्म लेगा।
(4). सातवीं रात्रि के गर्भ से पैदा होने वाली कन्या बांझ होगी।
(5). आठवीं रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र ऐश्वर्यशाली होता है।
(6). नौवीं रात्रि के गर्भ से ऐश्वर्यशालिनी पुत्री पैदा होती है।
(7). दसवीं रात्रि के गर्भ से चतुर पुत्र का जन्म होता है।
(8). ग्यारहवीं रात्रि के गर्भ से चरित्रहीन पुत्री पैदा होती है।
(9). बारहवीं रात्रि के गर्भ से पुरुषोत्तम पुत्र जन्म लेता है।
(10). तेरहवीं रात्रि के गर्म से वर्णसंकर पुत्री जन्म लेती है।
(11). चौदहवीं रात्रि के गर्भ से उत्तम पुत्र का जन्म होता है।
(12). पंद्रहवीं रात्रि के गर्भ से सौभाग्यवती पुत्री पैदा होती है।
(13). सोलहवीं रात्रि के गर्भ से सर्वगुण संपन्न, पुत्र पैदा होता है।
समागम से निवृत्त होते ही पत्नी को दाहिनी करवट से 10-15 मिनट लेटे रहना चाहिए, एकदम से नहीं उठना चाहिए।  
ऋतुः स्वाभाविक: स्त्रीणां रात्रयः षोडशस्मृताः। 
चतुर्भिरितरै: सा धर्म होभि: सद्विगर्हितै:॥ 
रजोदर्शन से निंदित प्रथम 4 दिन के बाद 16 रात्रि पर्यन्त स्त्रियों का ऋतुकाल रहता है।[मनु स्मृति 3.46] 
After 4 days of menstruation, which are called impure,  the women can conceive in the next 16 days.
As a matter of tradition the women who are undergoing menstrual cycle are not allowed to enter the kitchen for cooking. They are not allowed to pray the deities and they should not go in front of the Tulsi-Basil plant, during this period.
तासामाद्याश्र्चतस्त्रस्तु निन्दितैकादशी च या। 
त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दश रात्रयः॥
उन सोलह रात्रियों में प्रथम 4 रात, 11वीं और 13वीं रात स्त्री-समागम के लिये निन्दित है।[मनु स्मृति 2.47] 
The period of 16 days during which mating-inter course is permissible, one should avoid first 4 nights and the 11th & 13th night, considered to be inauspicious.
युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोSयुग्मासु रात्रिषु। 
तस्माद्युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदातवे स्त्रिम्॥
सम रात्रि में (6, 8, 10, 12, 14, 16 रात को) स्त्री से सहवास करने से पुत्र उत्पन्न होता है।  विषम रात्रि में (5, 7, 9, 11, 13, 15 रात्रि में) गमन करने से कन्या जन्म लेती है। इसलिये पुत्रार्थी को सम रात्रि में ऋतुकाल में स्त्री के साथ शयन करना चाहिये।[मनु स्मृति 3.48]  
One who mates on the even nights (6, 8, 10, 12, 14, 16) after the menstrual cycle after passing 4 nights without inter course, is blessed with a son and those who wish to have a daughter should involves in mating on the odd nights ((5, 7, 9, 11, 13, 15). 
(2). पुंसवन RITES DURING PRAGNANCY :: यह संस्कार गर्भावस्था के दूसरे व तीसरे माह में किया जाता है। इसका उदेश्य गर्भस्थ शिशु को पौरुषयुक्त अर्थात् बलवान, हृष्ट-पुष्ट,निरोगी, तेजस्वी, एवं सुन्दरता के लिए किया जाता है।
चरक संहिता के अनुसार उकडूं बैठने, ऊँचे-नीचे स्थानों में फिरने, कठिन आसन पर बैठने, वायु-मल मूत्रादि के वेग को रोकने, कठोर परिश्रम करने, गर्म तथा तेज वस्तुओं का सेवन करने एवं बहुत भूखा रहने से गर्भ सूख जाता है, मर जाता है या उसका स्राव हो जाता है। इसी प्रकार चोट लगने, गर्भ के किसी भांति दबने, गहरे गड्ढे कंुए पहाड़ के विकट स्थानों को देखने से गर्भपात हो सकता है। तथा सदैव सीधी उत्तान लेटी रहने से नाड़ी गर्भ के गले में लिपट सकती है जिससे गर्भ मर सकता है।
इस अवस्था में गर्भवती अगर नग्न सोती है या इधर-उधर फिरती है तो सन्तान पागल हो सकती है। लड़ने-झगड़ने वाली गर्भवती की सन्तान को मृगी हो सकती है। यदि वो मैथुनरत रहेगी तो सन्तान कामी तथा निरन्तर शोकमग्ना की सन्तान भयभीत, कमजोर, न्यूनायु होगी। परधन ग्रहण की इच्छुक की सन्तान ईर्ष्यालू, चोर, आलसी, द्रोही, कुकर्मी, होगी। बहुत सोने वाली की सन्तान आलसी, मूर्ख मन्दाग्नी वाली होगी। यदि गर्भवती षराब पीएगी तो सन्तान विकलचित्त, बहुत मीठा खानेवाली की प्रमेही, अधिक खट्टा खानेवाली की त्वचारोगयुक्त, अधिक नमक सेवन से सन्तान के बाल शीघ्र सफेद होना, चेहरे पर सलवटें एवं गंजापनयुक्त, अधिक चटपटे भोजन से सन्तान में दुर्बलता, अल्पवीर्यता, बाँझ या नपुंसकता के लक्षण उत्पन्न होंगे एवं अति कड़वा खानेवाली की सन्तान सूखे षरीर अर्थात् कृष होगी।
गर्भवती स्त्री सदा प्रसन्न रहे, पवित्र आभूषणों को पहने, श्वेत वस्त्र को धारण करे, मन शान्त रखे, सबका भला चाहे, देवता ब्राह्मण गुरु की सेवा करनेवाली बने। मलिन विकृत हीन अंगों को न छूए। बदबूदार स्थानों तथा बुरे दृष्यों से दूर रहे। बेचैनी उत्पन्न करनेवाली बातों को न सुने। सूखे, बासी, सड़े-गले अन्न का सेवन न करे। खाली मकान में जाना, स्मशान में जाना, वृक्ष के नीचे रहना, क्रोध करना, ऊँचे चिल्लाना आदि को छोड़ देवे।
मद करनेवाले खाद्य पदार्थों का सेवन न करे। सवारी पर न चढ़े, माँस न खाए। इन्द्रियां जिस बात को न चाहें उनसे दूर रहे। उक्त बातों का अभिप्राय यह है कि माता की हर बात का प्रभाव उसके सन्तान के शरीर निर्माण पर होता है इसलिए माता का दायित्व है कि सन्तान के षारीरिक विकास को ध्यान में रखते हुए अपने खान-पान, रहन-सहन, आदि व्यवहार को उत्तम बनाए रखे।
यह संस्कार गर्भधारण के दो-तीन माह बाद करते हैं। स्त्री एवं भ्रूण के रक्षार्थ यह संस्कार है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह संस्कार एन्झाइमीकरण के लिए है। इसमें यज्ञ-मन्त्रों की भावना के साथ आनन्द, स्वस्थ देव-व्यवस्था, उत्तम सम-हृदय, सम-प्रजा, हित-मन भावना, अति वर्जन, समाहार चित्त रहने का विधान है। गायत्री, अथर्वदेव, यजुर्वेद, ब्रह्म का हिरण्यगर्भ, सम वर्तमान, सर्वाधार-स्वरूप भाव विशेष धारण करने चाहिएं। वटवृक्ष की जड़, कोंपल तथा गिलोय की गन्ध पिंगला अर्थात् दाहिनी नासिकापुट के चलते समय स्त्री को सूंघाने का विधान है।
गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से यह संस्कार उपयोगी समझा जाता है। गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में इस संस्कार को करने का विधान है। गर्भस्थ शिशु से सम्बन्धित इस संस्कार को शुभ नक्षत्र में सम्पन्न किया जाता है। विशेष तिथि एवं ग्रहों की गणना के आधार पर ही गर्भधान करना उचित माना गया है। पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है। मनीषियों ने सन्तानोत्कर्ष के उद्देश्य से किये जाने वाले इस संस्कार को अनिवार्य माना है।गर्भधारण के पश्चात संभोग निषिद्ध है। 
पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ :- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान है। गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाय। शारीरिक, मानसिक दृष्टि से परिपक्व हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही सन्तान पैदा करने की पहल करें। उसके लिए अनुकूल वातवरण भी निर्मित किया जाता है। गर्भ के तीसरे माह में विधिवत पुंसवन संस्कार सम्पन्न कराया जाता है, क्योंकि इस समय तक गर्भस्थ शिशु के विचार तंत्र का विकास प्रारम्भ हो जाता है। वेद मंत्रों, यज्ञीय वातावरण एवं संस्कार सूत्रों की प्रेरणाओं से शिशु के मानस पर तो श्रेष्ठ प्रभाव पड़ता ही है, अभिभावकों और परिजनों को भी यह प्रेरणा मिलती है कि भावी माँ के लिए श्रेष्ठ मनःस्थिति और परिस्थितियाँ कैसे विकसित की जाए।
क्रिया और भावना :-  गर्भ पूजन के लिए गर्भिणी के घर परिवार के सभी वयस्क परिजनों के हाथ में अक्षत, पुष्प आदि दिये जाएँ। निम्न मंत्रोचारण किया जाये :- 
ॐ सुपर्णोऽसि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो, गायत्रं चक्षुबरृहद्रथन्तरे पक्षौ, 
स्तोमऽआत्मा छन्दा स्यङ्गानि यजूषि नाम।
 साम ते तनूर्वामदेव्यं, यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः, 
सुपर्णोऽसि गरुत्मान दिवं गच्छ स्वःपत॥
मंत्र समाप्ति पर अक्षत, पुष्प एक तश्तरी में एकत्रित करके गर्भिणी को दिया जाए। वह उसे पेट से स्पर्श करके रख दे और यह भावना करे कि गर्भस्थ शिशु को सद्भाव और देव अनुग्रह का लाभ देने के लिए पूजन किया जा रहा है। वह उसे स्वीकार करके गर्भ को वह लाभ पहुँचाने में सहयोग कर रही है।
(3). सीमन्तोन्नयन DIVISION OF HAIRS OVER THE HEAD INTO PARTS :- सीमन्त शब्द का अर्थ है मस्तिष्क और उन्नयन शब्द का अर्थ है विकास। पुंसवन संस्कार शारीरिक विकास के लिए होता है तो यह मानसिक विकास के लिए किया जाता है। इस संस्कार का समय गर्भावस्था के चतुर्थ माह, चौथे में न कर पाए तो छठे, इसमें भी नहीं कर पाए तो आठवें माह में कर सकते हैं।
सुश्रुत के अनुसार पाँचवे महिने में मन अधिक जागृत होता है, छठे में बुद्धि तो सातवें में अंग-प्रत्यंग अधिक व्यक्त होने लगते हैं। आठवें माह में ओज अधिक अस्थिर रहता है। इस संस्कार का उदेश्य है कि माता इस बात को अच्छी प्रकार समझे कि सन्तान के मानसिक विकास की जिम्मेवारी अब से उस पर आ पड़ी है। आठवें महिने तक गर्भस्थ शिशु के शरीर-मन-बुद्धि-हृदय ये चारों तैयार हो जाते हैं। इस समय गर्भिणी को दौहृद कहा जाता है। उसके दो हृदय काम करने लगते हैं। यही अवस्था गर्भिणी के लिए सब से खतरनाक अवस्था है। प्रायः आठवें माहोत्पन्न सन्तान जीती नहीं, इसलिए इस अवस्था में स्त्री को सन्तान के शरीर, मन, बुद्धि, हृदय इन सबको स्वस्थ, क्रियाशील बनाए रखने की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिए।
यह सुतन अर्थात् उत्तम तन निर्माण व्यवस्था है। इसमें चावल, मूँग, तिल की खिचड़ी में घी डाल कर उससे आहुतियों तथा उसे खाने का विधान है। चावल- शर्करा, मूंग- प्रोटीन, तिल, घी-स्वस्थ वसा यह सम्पूर्ण आहार है। इस संस्कार का आधार ”सहस्र पोषण“ भी हो सकता है। यह सौभाग्य संस्कार है। सर्वमित्र-भाव, प्रवहणशील, औषध शुद्धि-भाव, उत्तम मति, उत्तम दृष्टि, उत्तम ऐश्वर्य-भाव, ब्रह्मन्याय-आस्था इन भावों के साथ यज्ञकर्म करना है।
सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है, सौभाग्य सम्पन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियाँ गर्भवती की माँग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है।
(4). JATKARM-POST DELIVERY प्रसव उपरान्त क्रियाएँ-जातकर्म :: शिशु के विश्व प्रवेश पर उसके ओजमय अभिनन्दन का यह संस्कार है। इसमें सन्तान की अबोध अवस्था में भी उस पर संस्कार डालने की चेष्टा की जाती है। माता से शारीरिक सम्बन्ध टूटने पर उसके मुख नाकादि को स्वच्छ करना ताकि वह श्वास ले सके तथा दूध पी सके। यह सफाई सधी हुई दाई से कराएँ। आयुर्वेद के अनुसार सैंधव नमक घी में मिलाकर देने से नाक और गला साफ हो जाते हैं।
बच्चे की त्वचा को साफ करने के लिए साबुन या बेसन और दही को मिलाकर उबटन की तरह प्रयोग किया जाता है। स्नान के लिए गुनगुने पानी का प्रयोग होता है। चरक के अनुसार कान को साफ करके वे शब्द सुन सकें इसलिए कान के पास पत्थरों को बजाना चाहिए।
बच्चे के सिर पर घी में डूबोया हुआ फाया रखते हैं क्योंकि तालु जहां पर सिर की तीन अस्थियाँ दो पासे की ओर एक माथे से मिलती है वहां पर जन्मजात बच्चे में एक पतली झिल्ली होती है। इस तालु को दृढ़ बनाने इसकी रक्षा करने इसे पोषण दिलाने के लिए ये आवश्यक होता है। इस प्रयोग से बच्चे को सर्दी जुकाम आदि नहीं सताते।
जन्म पश्चात सम शीतोष्ण वातावरण में शिशु प्रथम श्वास ले। शिशु का प्रथम श्वास लेना अति महत्वपूर्ण घटना है। गर्भ में जन्म पूर्व शिशु के फफ्फुस जल से भारी होते हैं। प्रथम श्वास लेते समय ही वे फैलते हैं और जल से हलके होते हैं। इस समय का श्वसन-प्रश्वसन शुद्ध समशीतोष्ण वातायन में हो। शिशु के तन को कोमल वस्त्र या रुई से सावधानीपूर्वक साफ-सुथरा कर गोद में लेकर देवयज्ञ करके स्वर्ण शलाका को सममात्रा मिश्रित घी-षहद में डुबोकर उसकी जिह्वा पर ब्रह्म नाम लिखकर उसके वाक् देवता जागृत करे। इसके साथ उसके दाहिने तथा बाएं कान में ”वेदोऽसि“ यह कहे। अर्थात् तू ज्ञानवाला प्राणी है, अज्ञानी नहीं है। तेरा नाम ब्रह्मज्ञान है। इसके पष्चात् सोने की शलाका से उसे मधु-घृत चटाता उसके अन्य बीज देवताओं में शब्द उच्चारण द्वारा शतवर्ष स्वस्थ अदीन ब्रह्म निकटतम जीने की भावना भरे।
शिशु के दाएं तथा बाएं कान में क्रमषः शब्दोच्चार करते सविता, सरस्वती, इड़ा, पिंगला, सुषुम्णा, मेधा, अग्नि, वनस्पति, सोम, देव, ऋषि, पितर, यज्ञ, समुद्र, समग्र व्यवस्था द्वारा आयुवृद्धि, स्वस्थता प्राप्ति भावना भरे। तत्पष्चात् शिशु के कन्धों को अपनत्व भाव स्पर्श करके उसके लिए उत्तम दिवसों, ऐश्वर्य, दक्षता, वाक् का भाव रखते उसके ब्रह्मचर्य-गृहस्थ-वानप्रस्थ (संन्यास सहित) तथा बल-पराक्रमयुक्त इन्द्रियों सहित और विद्या-शिक्षा-परोपकार सहित (त्र्यायुष-त्रि) होने की भावना का शब्दोच्चार करे। इसी के साथ प्रसूता पत्नी के अंगों का सुवासित जल से मार्जन करता परिशुद्धता ऋत-शृत भाव उच्चारे।
इसके पश्चात् शिशु को कः, कतरः, कतमः याने आनन्द, आनन्दतर, आनन्दतम भाव से सषब्द आशीर्वाद देकर, अपनत्व भावना भरा उसके अंग-हृदय सम-भाव अभिव्यक्त करते हुए उसके ज्ञानमय शतवर्ष जीने की कामना करता उसके शीष को सूंघे। इतना करने के पश्चात पत्नी के दोनों स्तनों को पुष्पों द्वारा सुगन्धित जल से मार्जन कराकर दक्षिण, वाम स्तनों से शिशु को ऊर्जित, सरस, मधुमय प्रविष्ट कराने दुग्धपान कराए। इसके पष्चात् वैदिक विद्वान् पिता-माता सहित शिशु को दिव्य इन्द्रिय, दिव्य जीवन, स्वस्थ तन, व्यापक-अभय-उत्तम जीवन शतवर्षाधिक जीने का आषीर्वाद दें।
जातकर्म की अन्तिम प्रक्रिया जो शिशु के माता-पिता को करनी है वह है दस दिनों तक भात तथा सरसौं मिलाकर आहुतियाँ देनाहै।नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आने वाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत चटाया जाता है। दो बूँद घी तथा छह बूँद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता यज्ञ करता है, बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घ जीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है। यह संस्कार विशेष मन्त्रों एवं विधि से किया जाता है।
शिशु के विश्व प्रवेश पर उसके ओजमय अभिनन्दन का यह संस्कार है। इसमें सन्तान की अबोध अवस्था में भी उस पर संस्कार डालने की चेष्टा की जाती है। माता से शारीरिक सम्बन्ध टूटने पर उसके मुख नाकादि को स्वच्छ करना ताकि वह श्वास ले सके तथा दूध पी सके।
यह सफाई सधी हुई दाई या नर्स द्वारा किया जाता है। सैंधव नमक घी में मिलाकर देने से नाक और गला साफ हो जाते हैं। बच्चे की त्वचा को साफ करने के लिए साबुन या बेसन और दही को मिलाकर उबटन की तरह प्रयोग किया जाता है।डिटोल जैसे एंटी बायोटिक से एलर्जी हो सकती है। 
स्नान के लिए गुनगुने पानी का प्रयोग होता है। चरक के अनुसार कान को साफ करके वे शब्द सुन सकें, इसलिए कान के पास पत्थरों को धीमी आवाज़ में बजाना चाहिए।
बच्चे के सिर पर घी में डूबोया हुआ फाया रखते हैं, क्योंकि तालु जहाँ पर सिर की तीन अस्थियाँ दो पासे की ओर एक माथे से मिलती हैं। वहाँ पर जन्मजात बच्चे में एक पतली झिल्ली होती है।
इस तालु को दृढ़ बनाने, इसकी रक्षा करने, इसे पोषण दिलाने के लिए ये आवश्यक होता है। इस प्रयोग से बच्चे को सर्दी जुकाम आदि नहीं सताते। जन्म पश्चात सम शीतोष्ण वातावरण में शिशु प्रथम श्वास ले सकता है।
शिशु का प्रथम श्वास लेना अति महत्वपूर्ण घटना है। गर्भ में जन्म पूर्व शिशु के फफ्फुस जल से भारी होते हैं। प्रथम श्वास लेते समय ही वे फैलते हैं और जल से हलके होते हैं। इस समय का श्वसन-प्रश्वसन शुद्ध समशीतोष्ण वातावरण में होना चाहिये।
शिशु के तन को कोमल वस्त्र या रुई से सावधानीपूर्वक साफ-सुथरा कर गोद में लेकर देवयज्ञ करके स्वर्ण शलाका को सममात्रा मिश्रित घी-शहद में डुबोकर उसकी जिह्वा पर ब्रह्म नाम लिखकर उसके वाक देवता जागृत करे।
इसके साथ उसके दाहिने तथा बाएँ कान में "वेदोऽसि" कहा जाता है अर्थात तू ज्ञानवाला प्राणी है, अज्ञानी नहीं है। तेरा नाम ब्रह्म ज्ञान है। इसके पश्चात सोने की शलाका से उसे मधु-घृत चटाया जाता है और उसके अन्य बीज देवताओं में शब्द उच्चारण द्वारा शत वर्ष स्वस्थ अदीन ब्रह्म निकटतम जीने की कामना की जाती है।
शिशु के दाएँ तथा बाएँ कान में क्रमश: शब्दोच्चार करते हुए सविता, सरस्वती, इड़ा, पिंगला, सुषुम्णा, मेधा, अग्नि, वनस्पति, सोम, देव, ऋषि, पितर, यज्ञ, समुद्र, समग्र व्यवस्था द्वारा आयुवृद्धि, स्वस्थता प्राप्ति की कामना की जाती है। 
तत्पश्चात शिशु के कन्धों को अपनत्व भाव स्पर्श करके उसके लिए उत्तम दिवसों, ऐश्वर्य, दक्षता, वाक का भाव रखते हुए उसके ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ (संन्यास सहित) तथा बल-पराक्रमयुक्त इन्द्रियों सहित और विद्या-शिक्षा, परोपकार सहित (त्र्यायुष-त्रि) होने की भावना का शब्दोच्चार करें।
इसी के साथ प्रसूता पत्नी के अंगों का सुवासित जल से मार्जन करता परिशुद्धता ऋत-शृत भाव उच्चारे।
इसके पश्चात शिशु को कः, कतरः, कतमः याने आनन्द, आनन्दतर, आनन्दतम भाव से सशब्द आशीर्वाद देकर, अपनत्व की भावना भरकर, उसके अंग-हृदय सम-भाव अभिव्यक्त करते हुए, उसके ज्ञानमय शतवर्ष जीने की कामना करते उसके शीष को सूँघें।
इतना करने के पश्चात पत्नी के दोनों स्तनों को पुष्पों द्वारा सुगन्धित जल से मार्जन कराकर दक्षिण, वाम स्तनों से शिशु को ऊर्जित, सरस, मधुमय प्रविष्ट कराने दुग्धपान कराए। इसके पश्चात वैदिक विद्वान पिता-माता सहित शिशु को दिव्य इन्द्रिय, दिव्य जीवन, स्वस्थ तन, व्यापक, अभय, उत्तम जीवन शत वर्षाधिक जीने का आशीर्वाद दें।
जातकर्म की अन्तिम प्रक्रिया जो शिशु के माता-पिता को करनी है वह है :- दस दिनों तक भात तथा सरसौं मिलाकर आहुतियाँ देना।
(5). NAMING नामकरण :: इस संस्कार का उदेश्य केवल शिशु को नाम भर देना नहीं है, अपितु उसे श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर उच्च से उच्चतर मानव निर्माण करना है। पश्चिमी सभ्यता में निरर्थक नाम रखने का अन्धानुकरण भारत में भी बढ़ता जा रहा है। उनके लिए चरक का सन्देश है कि नाम साभिप्राय होनें चाहिए। नाम केवल सम्बोधन के लिए ही न होकर माता-पिता द्वारा अपने सन्तान के सामने उसके जीवनलक्ष्य को रख देना होता है।
सन्तान के जन्म के दिन से ग्यारहवें दिन में, या एक सौ एकवें दिन में, या दूसरे वर्ष के आरम्भ में जिस दिन जन्म हुआ हो यह संस्कार करना चाहिए। नाम ऐसा रक्खे कि श्रवण मात्र से मन में उदात्त भाव उत्पन्न करनेवाला हो। उच्चारण में वो कठिन नहीं अपितु सुलभ होना चाहिए। पाश्चात्य संस्कृति में चुम्बन लेने की प्रथा है और ऐसा करने से अनेक प्रकार के संक्रान्त रोग शिशु को हो सकते हैं। जबकि भारतीय संस्कृति में स्पर्ष या सूंघने का वर्णन आता है। षिषु को गोद में लेकर उसके नासिका द्वार को स्पर्श करने से इसका ध्यान अपने आप स्पर्शकर्ता की ओर खिंच जाता है।
स्व-नाम श्रवण व्यक्ति अपने जीवन में अधिकतम बार करता है। अपना नाम उसकी सबसे बड़ी पहचान है। अपना नाम पढ़ना, सुनना हमेशा भला और उत्तम लगता है। इसलिए नाम रखने में ‘देवश्रव’, ‘दिवस ऋत’ या ‘श्रेष्ठ श्रव’ भाव आना चाहिए। मानव अपना नाम सबसे अधिक बार अपने भीतर भरता है। जो मानव भीतर भरता है वही बाहर निकालता है। यह ब्रडाब्रनि-कडाकनि सिद्धान्त है। “ब्रह्म डाल ब्रह्म निकाल-कचरा डाल कचरा निकाल” सिद्धान्त के अनुसार नाम हमेशा शुभ ही रखना चाहिए। शुभ तथा अर्थमय नाम ही सार्थक नाम है।
"कः कतमः" सिद्धान्त नामकरण का आधार सिद्धान्त है। कौन हो? सुख हो, ब्रह्मवत हो। कौन-तर हो? ब्रह्मतर हो। कौन-तम हो? ब्रह्मतम हो। ब्रह्म व्यापकता का नाम है। मानव का व्यापक रूप प्रजा है। अतिव्यापक रूप सु-प्रजा है। भौतिक व्यापकता क्रमश: पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्युलोक है। इन लोकों के आरोहण के भाव वेद मन्त्रों में हैं। ‘वीर’ शरीर-आत्म-समाज बल से युक्त युद्ध कुशल व्यक्ति का नाम है। ‘सुवीर’ प्रशस्त वीर का नाम है जो परमात्म बल शरीर, आत्म, समाज में उतारने में कुशल होता है। सामाजिक आत्मिक निष्ठाओं (यमों) का पालन ही व्यक्ति को श्रेष्ठ ऐश्वर्य देता उसको सु-ऐश्वर्य दे परिपुष्ट करता है। इन भावों से भरा इन्हें कहता पिता शिशु की आती-जाती श्वास को स्पर्श करते हुए उत्तम, सार्थक नाम रखे।
यदि सन्तान बालक है तो समाक्षरी अर्थात् दो अथवा चार अक्षरों युक्त नाम रखा जाता है। और इनमें ग घ ङ ज झ ड ढ ण द ध न ब भ म य र ल व इन अक्षरों का प्रयोग किया जाए। बालिका का नाम विषमाक्षर अथात् एक, तीन या पांच अक्षरयुक्त होना चाहिए।
जन्म के दस दिन तक अशौच (सूतक) माना जाता है। इसलिये यह संस्कार ग्यारहवें दिन करने का विधान है। इस संस्कार को शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित है। यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है।[याज्ञवल्क्य] 
ज्योतिष के अनुरूप शिशु के कर्मों, व्यक्तित्व का आकलन करके उसके गुणों के अनुरूप नामकरण किया जाता है। ज्योतिष मनुष्य के भविष्य की रूपरेखा का ज्ञान-भान करा देता है। 
भगवान् श्री राम और श्री कृष्ण के नाम उनके व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर ही किये गए थे। नामकरण में योग्य पण्डित-भविष्यवक्ता का सहयोग लेना चाहिये।  बगैर सोचे-समझे कुछ भी नाम कदापि नहीं रखना चाहिये। 
संस्कार का उदेश्य केवल शिशु को नाम देना भर नहीं है, अपितु उसे श्रेष्ठ तम सस्कारों सहित उच्च कोटि के मानव के रूप में विकसित करना है। नाम केवल सम्बोधन के लिए अपितु साभिप्राय होना चाहिये। 
सन्तान के जन्म के दिन से ग्यारहवें दिन, एक सौ एक वें दिन या दूसरे वर्ष के आरम्भ में जिस दिन जन्म हुआ हो यह संस्कार करना चाहिए। नाम ऐसा रखें कि श्रवण मात्र से मन में उदात्त भाव उत्पन्न करने वाला हो। यह उच्चारण में सरल होना चाहिए। स्व-नाम श्रवण व्यक्ति अपने जीवन में अधिकतम बार करता है। अपना नाम उसकी सबसे बड़ी पहचान है। अपना नाम पढ़ना, सुनना हमेशा भला और उत्तम लगता है। नाम रखने में देवश्रव, दिवस ऋत या श्रेष्ठ श्रव भाव आना चाहिए। नाम हमेशा शुभ ही रखना चाहिए। शुभ तथा अर्थमय नाम ही सार्थक नाम है। "कः कतमः" नामकरण का आधार है। कौन हो? सुख हो, ब्रह्मवत हो। कौन-तर हो ? ब्रह्मतर हो। कौन-तम हो? ब्रह्मतम हो। ब्रह्म व्यापकता का नाम है। मानव का व्यापक रूप प्रजा है। अतिव्यापक रूप सु-प्रजा है। भौतिक व्यापकता क्रमश: पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्युलोक है। इन लोकों के आरोहण के भाव वेद मन्त्रों में हैं। वीर शरीर, आत्म, समाज बल से युक्त युद्ध कुशल व्यक्ति का नाम है। सुवीर प्रशस्त वीर का नाम है, जो परमात्म बल शरीर, आत्म, समाज में उतारने में कुशल होता है। सामाजिक आत्मिक निष्ठाओं (यमों) का पालन ही व्यक्ति को श्रेष्ठ ऐश्वर्य देता उसको सु-ऐश्वर्य दे परिपुष्ट करता है। 
यदि सन्तान बालक है तो समाक्षरी अर्थात दो अथवा चार अक्षरों से युक्त नाम रखा जाता है और इनमें ग घ ङ ज झ ड ढ ण द ध न ब भ म य र ल व इन अक्षरों का प्रयोग किया जाए। बालिका का नाम विषमाक्षर अथात एक, तीन या पाँच अक्षर युक्त होना चाहिए।
(6). CONNECTING WITH THE ENVIRONMENT निष्क्रमण :: निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकलना। घर की अपेक्षा अधिक शुद्ध वातावरण में शिशु के भ्रमण की योजना का नाम निष्क्रमण संस्कार है। बच्चे के शरीर तथा मन के विकास के लिए उसे घर के चारदीवारी से बाहर ताजी शुद्ध हवा एवं सूर्यप्रकाश का सेवन कराना इस संस्कार का उद्देश्य है। गृह्यसूत्रों के अनुसार जन्म के बाद तीसरे शुक्ल पक्ष की तृतीया अर्थात् चान्द्रमास की दृष्टि से जन्म के दो माह तीन दिन बाद अथवा जन्म के चौथे माह में यह संस्कार करे।
इसमें शिशु को ब्रह्म द्वारा समाज में अनघ अर्थात् पाप रहित करने की भावना तथा वेद द्वारा ज्ञान पूर्ण करने की भावना अभिव्यक्त करते माता-पिता यज्ञ करें। पति-पत्नी प्रेमपूर्वक शिशु के शत तथा शताधिक वर्ष तक समृद्ध, स्वस्थ, सामाजिक, आध्यात्मिक जीने की भावनामय होकर शिशु को सूर्य का दर्शन कराए। इसी प्रकार रात्रि में चन्द्रमा का दर्षन उपरोक्त भावना सहित कराए। यह संस्कार शिशु को आकाष, चन्द्र, सूर्य, तारे, वनस्पति आदि से परिचित कराने के लिए है।
आयुर्वेद के ग्रन्थों में कुमारागार, बालकों के वस्त्र, उसके खिलौने, उसकी रक्षा एवं पालनादि विषयों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। कुमारागार ऐसा हो जिसमें अधिक हवा न आती हो किन्तु एक ही मार्ग से वायु प्रवेश हो। कुत्ते, हिंसक जन्तु, चूहे, मच्छर, आदि न आ सकें ऐसा पक्का मकान हो। जिसमें यथास्थान जल, कूटने-पीसने का स्थान, मल-मूत्र त्याग के स्थान, स्नानगृह, रसोई अलग-अलग हों। इस कुमारागार में रक्षा के समस्त साधन, मंगलकार्य, होमादि की सामग्री उपस्थित हों। बच्चों के बिस्तर, आसन, बिछाने के वस्त्र कोमल, हल्के पवित्र, सुगन्धित होनें चाहिए। पसीना, मलमूत्र एवं जूँ आदि से दूषित कपड़े हटा देवें। बरतन नए हों अन्यथा अच्छी प्रकार धोकर गुग्गुल, सरसौं, हींग, वच, चोरक आदि का धुंआ देकर साफ करके सुखाकर काम में ले सकते हैं। बच्चों के खिलौने विचित्र प्रकार के बजनेवाले, देखने में सुन्दर एवं हल्के हों। वे नुकीले न हों, मुख में न आ सकनेवाले तथा प्राणहरण न करनेवाले होनें चाहिए। 
तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में ही रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के सम्पर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो। यह घर की अपेक्षा अधिक शुद्ध वातावरण में शिशु के भ्रमण की योजना है। बच्चे के शरीर तथा मन के विकास के लिए उसे घर की चार दीवारी से बाहर ताजी शुद्ध हवा एवं सूर्य के प्रकाश का सेवन कराना, इस संस्कार का उद्देश्य है। 
जन्म के बाद तीसरे शुक्ल पक्ष की तृतीया अर्थात चान्द्र मास की दृष्टि से जन्म के दो माह तीन दिन बाद अथवा जन्म के चौथे माह में यह संस्कार करे।[गृह्यसूत्र]
दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्मा जी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घ काल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए, इस लोक का भोग करे, यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। भगवान् भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना ही थी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो। मानव शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं।
इसमें शिशु को ब्रह्म द्वारा समाज में अनघ अर्थात पाप रहित करने की भावना तथा वेद द्वारा ज्ञान पूर्ण करने की भावना अभिव्यक्त करते माता-पिता यज्ञ करें। पति-पत्नी प्रेम पूर्वक शिशु के शत तथा शताधिक वर्ष तक समृद्ध, स्वस्थ, सामाजिक, आध्यात्मिक जीने की भावनामय होकर शिशु को सूर्य का दर्शन कराएँ। इसी प्रकार रात्रि में चन्द्रमा का दर्षन उपरोक्त भावना सहित कराएँ। यह संस्कार शिशु को आकाष, चन्द्र, सूर्य, तारे, वनस्पति आदि से परिचित कराने के लिए है।
कुमारागार में बालक के वस्त्र, खिलौने, रक्षा एवं पालनादि की उचित व्यवस्था हो। वह ऐसा हो जिसमें अधिक हवा न आती हो अपितु एक ही मार्ग से वायु प्रवेश हो। कुत्ते, हिंसक जन्तु, चूहे, मच्छर, आदि न आ सकें। ऐसा पक्का मकान हो, जिसमें यथा स्थान जल, कूटने-पीसने का स्थान, मल-मूत्र त्याग के स्थान, स्नानगृह, रसोई अलग-अलग हों। इसमें शिशु की रक्षा के समस्त साधन, मंगलकार्य, होमादि की सामग्री उपस्थित हों।
शिशु के कक्ष में धूप, अगरबत्ती  धुँआँ, न करे, मच्छर भगाने की किसी सामग्री को न जलायें। कमरे में शुद्ध-ताज़ी हवा की आवाजाही की  समुचित व्यवस्था करें।  
शिशु का बिस्तर, आसन, बिछाने के वस्त्र कोमल, हल्के पवित्र स्वच्छ हों। पसीना, मलमूत्र एवं जूं आदि से दूषित कपड़े हटा दें। बरतन नए हों अन्यथा अच्छी प्रकार धोकर गुग्गुल, सरसो, हींग, वच, चोरक आदि का धुँआ देकर साफ करके सुखाकर काम में ले सकते हैं। बच्चों के खिलौने विचित्र प्रकार के बजनेवाले, देखने में सुन्दर एवं हल्के हों। वे नुकीले न हों, मुख में न आ सकने वाले तथा प्राण हरण करने वाले न हों।
(7). FEEDING SOLID FOOD अन्नप्राशन :: जीवन में पहले पहल बालक को अन्न खिलाना इस संस्कार का उद्देश्य है। पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार छठे माह में अन्नप्राशन संस्कार होना चाहिए। कमजोर पाचन शिशु का सातवे माह जन्म दिवस पर कराए।
इसमें ईश्वर प्रार्थना उपासना पश्चात शिशु के प्राण-अपानादि श्वसन व्यवस्था तथा पंचेन्द्रिय परिशुद्धि भावना का उच्चारण करता घृतमय भात पकाना तथा इसी भात से यज्ञ करने का विधान है। इस यजन में माता-पिता तथा यजमान विश्व देवी प्रारूप की अवधारणा के साथ शिशु में वाज स्थापना (षक्तिकरण-ऊर्जाकरण) की भावना अभिव्यक्त करे। इसके पश्चात पुनः पंच श्वसन व्यवस्था तथा इन्द्रिय व्यवस्था की शुद्धि भावना पूर्वक भात से हवन करे। फिर शिशु को घृत, मधु, दही, सुगन्धि (अति बारीक पिसी इलायची आदि) मय भात रुचि अनुकूल सहजतापूर्वक खिलाए। इस संस्कार में अन्न के प्रति पकाने की सौम्य महक तथा हवन के एन्झाइम ग्रहण से क्रमषः संस्कारित अन्नभक्षण का अनुकूलन है।
माता के दूध से पहले पहल शिशु को अन्न पर लाना हो तो मां के दूध की जगह गाय का दूध देना चाहिए। इस दूध को देने के लिए 150 मि.ग्रा. गाय के दूध में 60 मि.ग्रा. उबला पानी व एक चम्मच मीठा ड़ालकर शिशु को पिला दें। यह क्रम एक सप्ताह तक चलाकर दूसरे सप्ताह एक बार की जगह दो बार बाहर का दूध दें। तीसरे सप्ताह दो बार की जगह तीन बार बाहर का दूध दें, चौथे सप्ताह दोपहर दूध के स्थान पर सब्जी का रसा, थोड़ा दही, थोड़ा शहद, थोड़ा चावल दें। पांचवें सप्ताह दो समय के दूध के स्थान पर रसा, सब्जी, दही, शहद आदि बढ़ा दें। इस प्रकार बालक को धीरे-धीरे माता का दूध छुड़ाकर अन्न पर ले आने से बच्चे के पेट में कोई रोग होने की सम्भावना नहीं रहती।
इस संस्कार पश्चात कालान्तर में दिवस-दिवस क्रमश: मूंगदाल, आलू, विभिन्न मौसमी सब्जियां, शकरकंद, गाजर, पालक, लौकी आदि (सभी भातवत अर्थात् अति पकी, गलने की सीमा तक पकी) द्वारा भी शिशु का आहार अनुकूलन करना चाहिए। इस प्रकार व्यापक अनुकूलित अन्न खिलाने से शिशु अपने जीवन में सुभक्षण का आदि होता है तथा स्वस्थता प्राप्त करता है। इस संस्कार के बाद शिशु मितभुक्, हितभुक्, ऋतभुक्, शृतभुक् होता है।
जीवन में पहले पहल बालक को अन्न खिलाना इस संस्कार का उद्देश्य है। अन्न प्राशन के लिये जन्म से छठे महीने को उपयुक्त माना है। छठे मास में शुभ नक्षत्र एवं शुभ दिन देखकर यह संस्कार करना चाहिए। 
यह संस्कार जन्म से पाँचवें या छठे महीने में किया जाना चाहिए।[मानव एवं शंख]
इसके लिए 6-12 मास के बीच का समय उपयुक्त है। पुत्र शिशु का अन्न प्राशन सम मासों ( 6, 8, 10, 12) तथा कन्या शिशु का विषम मासों ( 5, 7, 9, 11) में किया जाना अधिक उपयुक्त होता है।[मनु तथा याज्ञवलक्य]
छठे माह में अन्नप्राशन संस्कार होना चाहिए। कमजोर पाचन शिशु का सातवे माह जन्म दिवस पर कराएँ।[पारस्कर गृह्यसूत्र]
शिशु जो अब तक पेय पदार्थो विशेषकर दूध पर आधारित था, अब अन्न जिसे शास्त्रों में प्राण कहा गया है, उसको ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से अपने को बलवान व प्रबुद्ध बनाए। तन और मन को सुदृढ़ बनाने में अन्न का सर्वाधिक योगदान है। शुद्ध, सात्विक एवं पौष्टिक आहार से ही तन स्वस्थ रहता है और स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। आहार शुद्ध होने पर ही अन्त:करण शुद्ध होता है तथा मन, बुद्धि, आत्मा सबका पोषण होता है। 
खीर और मिठाई से शिशु के अन्न ग्रहण को शुभ माना गया है। शास्त्रों में खीर को अमृत के समान माना गया है।जब बालक के प्रायः दाँत निकल आते हैं, तब उसे उबला हुआ अन्न खिलाया जाता है। इसमें वह दही, मधु, घी, चावल आदि खिला सकते हैं। इस संस्कार के पूर्व शिशु अपने भोजन के लिए माता के दूध या गाय के दूध पर निर्भर रहता था।  जब उसकी पाचन शक्ति बढ़ जाती है और उसके शरीर के विकास के लिए पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता पड़ती है, तब बालक को प्रथम बार अन्न अथवा ठोस भोजन दिया जाता है।
सामान्यतया शिशु को मूँग या मसूर की धुली दाल  पानी पिलाना चाहिए। मूँग या मसूर की धुली दाल  खिचड़ी भी बेहद लाभप्रद है। 
इसके साथ-साथ ईश्वर प्रार्थना उपासना के पश्चात शिशु के प्राण-अपानादि श्वसन व्यवस्था तथा पंचेन्द्रिय परिशुद्धि भावना का उच्चारण करता घृतमय भात पकाना तथा इसी भात से यज्ञ-यजन करने का विधान है। इस यजन में माता-पिता तथा यजमान विश्व देवी प्रारूप की अवधारणा के साथ शिशु में वाज स्थापना (शक्ति करण-ऊर्जा करण) की भावना अभिव्यक्त करें। इसके पश्चात पुनः पंच श्वसन व्यवस्था तथा इन्द्रिय व्यवस्था की शुद्धि भावना पूर्वक, भात से यज्ञ-हवन करें। फिर शिशु को घृत, मधु, दही, सुगन्धि (अति बारीक पिसी इलायची आदि) मय भात, रुचि के अनुकूल सहजतापूर्वक खिलाएँ। इस संस्कार में अन्न के पकाने की महक तथा हवन के औषधि गुणों को शिशु द्वारा ग्रहण करना है। माता के दूध से पहले पहल शिशु को अन्न पर लाना हो तो माँ के दूध की जगह गाय का दूध देना चाहिए। इस दूध को देने के लिए 150 मि.ग्रा. गाय के दूध में 60 मि.ग्रा. उबला पानी व एक चम्मच मीठा ड़ालकर शिशु को पिला दें। यह क्रम एक सप्ताह तक चलाकर दूसरे सप्ताह एक बार की जगह दो बार बाहर का दूध दें। तीसरे सप्ताह दो बार की जगह तीन बार बाहर का दूध दें, चौथे सप्ताह दोपहर दूध के स्थान पर सब्जी का रसा, थोड़ा दही, थोड़ा शहद, थोड़ा चावल दें। पांचवें सप्ताह में दो समय के दूध के स्थान पर रसा, सब्जी, दही, शहद आदि बढ़ा दें। इस प्रकार बालक को धीरे-धीरे माता का दूध छुड़ाकर अन्न पर ले आने से बच्चे के पेट में कोई रोग होने की सम्भावना नहीं रहती। इस संस्कार के पश्चात कालान्तर में एक एक दिन करके क्रमश: मूँग की दाल, आलू, विभिन्न मौसमी सब्जियाँ, शकरकंद, गाजर, पालक, लौकी आदि (सभी भात वत अर्थात अति पकी-गलने की सीमा तक पकी) द्वारा भी शिशु का आहार अनुकूलन करना चाहिए। इस प्रकार व्यापक अनुकूलित अन्न खिलाने से शिशु अपने जीवन में सुभक्षण का आदि होता है तथा अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त करता है। इस संस्कार के बाद शिशु मितभुक्, हितभुक्, ऋतभुक्, शृतभुक होता है।
डबल रोटी, बिस्कुट, केक मैदा और अण्डे से बने होते हैं। अतः ये शिशु के लिये निषिद्ध हैं। माँस, मीट, अण्डा, मच्छी बड़ों के लिये  भी निषिद्ध और हानिकारक हैं। 
(8). FIRST HAIR DRESSING चूड़ा कर्म-मुण्डन संस्कार :: इसका अन्य नाम मुण्डन संस्कार भी है। रोग रहित उत्तम समृद्ध ब्रह्म गुणमय आयु तथा समृद्धि-भावना के कथन के साथ शिशु के प्रथम केशों के छेदन का विधान चूडाकर्म अर्थात् मुण्डन संस्कार है। यह जन्म से तीसरे वर्ष या एक वर्ष में करना चाहिए। बच्चे के दांत छः सात मास की आयु से निकलना प्रारम्भ होकर ढाई-तीन वर्ष तक की आयु तक निकलते रहते हैं।
दांत निकलते समय सिर भारी हो जाता है, गर्म रहता है, सिर में दर्द होता है, मसूड़े सूझ जाते हैं, लार बहा करती है, दस्त लग जाते हैं, आंखे आ जाती हैं, बच्चा चिड़चिड़ा हो जाता है। दांतों का भारी प्रभाव सिर पर पड़ता है। इसलिए सिर को हल्का और ठंडा रखने के लिए सिर पर बालों का बोझ उतार ड़ालना ही इस संस्कार का उदेश्य है।
बालों को उस्तरे से निकाल देने के निम्न कारण हैं :- शिशु गर्भ में होता है तभी उसके बाल आ जाते हैं, उन मलिन बालों को निकाल देना, सिर की खुजली दाद आदि से रक्षा के लिए, सिर के भारी होने आदि से रक्षा के लिए तथा नए बाल आने में सहायक हों, इसलिए मुण्डन कराया जाता है।
रोग रहित उत्तम समृद्ध ब्रह्म गुणमय आयु तथा समृद्धि-भावना के कथन के साथ शिशु के प्रथम केशों के छेदन का विधान चूडाकर्म अर्थात मुण्डन संस्कार है। बालक के पहले, तीसरे या पांचवें वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान है। इस संस्कार के पीछे शुाचिता और बौद्धिक विकास की भावना है। मुण्डन संस्कार का अभिप्राय है जन्म के समय उत्पन्न अपवित्र बालों को हटाकर बालक को पवित्र-प्रखर करना। नौ माह तक गर्भ में रहने के कारण शरीर के साथ-साथ उसके बाल भी अपवित्र-अशुद्ध हो जाते हैं। मुण्डन संस्कार से इन दोषों का निवारण होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस संस्कार को शुभ मुहूर्त में करने का विधान है।
संस्कारों की प्रतिष्ठापना बालकपन में ही करके उन्हें सुसंस्कारी बनाया जाता है ताकि वेदारम्भ तथा क्रिया-कर्मों के लिए अधिकारी बन सके अर्थात वेद-वेदान्तों के पढ़ने तथा यज्ञादिक कार्यों में भाग ले सके, उसका मानसिक विकास एवं सुरक्षा व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाए।चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते रहने के कारण, आत्मा कितने ही ऐसे पाशविक संस्कार, विचार, मनोभाव अपने भीतर धारण किये रहती है, जो मानव जीवन में अनुपयुक्त एवं अवांछनीय होते हैं। मूल केशों को हटाकर मानवतावादी आदर्शो को प्रतिष्ठापित किये जाने हेतु यह कर्म आवश्यक है। ऐसा न होने पर यह मानना होगा कि आकृति मात्र मनुष्य की हुई और प्रवृत्ति पशु की।
बच्चे के दाँत छः सात मास की आयु से निकलना प्रारम्भ होकर ढाई-तीन वर्ष तक की आयु तक निकलते रहते हैं।दाँत निकलते समय सिर भारी हो जाता है, गर्म रहता है, सिर में दर्द होता है, मसूड़े सूज जाते हैं, लार बहने लगती है,  दस्त लग जाते हैं, आँखे आ जाती हैं, बच्चा चिड़चिड़ा हो जाता है। दाँतों के निकलने का भारी प्रभाव सिर पर पड़ता है। इसलिए सिर को हल्का और ठंडा रखने के लिए सिर पर बालों का बोझ उतार ड़ालना ही इस संस्कार का उदेश्य है।
शिशु गर्भ में होता है तभी उसके बाल आ जाते हैं, उन मलिन बालों को निकाल देने से, सिर की खुजली दाद आदि से रक्षा होती है। उसके उपरान्त उगने वाले बाल मजबूत और घने होते हैं।
नवजात शिशु खून और योनि में उपस्थित मूत्र से भीगा होता है। उसकी त्वचा सिकुड़ी हुई होती है। वह माँ के शरीर में मौजूद जीवाणुओं से पूरी तरह प्रभावित होता है। नहलाने-धुलाने के पश्चात भी उसके सर पर एक पतली सी झिल्ली लगी रह जाती है, जिसे जन्म के वक्त हटाना खतरे से खाली नहीं होता, क्योंकि उसका तालुआ बेहद नरम होता है। झिल्ली फ्यास या सिकरी की बनी होती है, जो कि एक फफूँदी है। लगभग छः महीने में खोपड़ी की हड्डी मजबूत हो जाती है और उसके बाद ही उसका मुण्डन किया जाता है, ताकि जन्म के पूर्व का सर पर जमा मल हटाया जा सके। 
इस संस्कार द्वारा बालक में त्र्यायुष भरने की भावना भरी जाती है। त्र्यायुष एक व्यापक विज्ञान है। 
(8.1). ज्ञान-कर्म-उपासना त्रिमय चार आश्रम त्र्यायुष हैं। (8.2). शुद्धि, बल और पराक्रम त्र्यायुष हैं। (8.3). शरीर, आत्मा और समाज त्र्यायुष हैं। (8.4). विद्या, धर्म, परोपकार त्र्यायुष हैं। (8.5). शरीर, मन-बुद्धि, धी-चित्त, अहंकार आदि अर्थात आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक इन त्रिताप से रहित करके त्रिसमृद्धमय जीवन जीना त्र्यायुष है।
(9). CELIBACY-LEARNING विद्यारम्भ :: विद्यारम्भ संस्कार अन्नप्राशन अथवा चूड़ाकर्म के बाद किया जा सकता है। चूड़ाकर्म के बाद ही विद्यारम्भ संस्कार ज्यादा उपयुक्त है। इसका अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये। विद्यारंभ संस्कार का संबध उपनयन संस्कार की भांति गुरुकुल प्रथा से था, जब गुरुकुल में गुरु-आचार्य बालक को यज्ञोपवीत धारण कराकर, वेदाध्ययन कराते थे। गुरुजनों से वेदों और उपनिषदों का अध्ययन कर तत्त्वज्ञान की प्राप्ति करना ही इस संस्कार का परम प्रयोजन है। जब बालक का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता है, तब यह संस्कार किया जाता है। आमतौर या 5 वर्ष का बच्चा इसके लिए उपयुक्त होता है। मंगल के देवता गणेश और कला की देवी माँ सरस्वती को नमन करके उनसे प्रेरणा ग्रहण करने की मूल भावना इस संस्कार में निहित होती है। बालक विद्या देने वाले गुरु का पूर्ण श्रद्धा से अभिवादन व प्रणाम इसलिए करता है कि गुरु उसे एक श्रेष्ठ मानव बनाए। ज्ञानस्वरुप वेदों का विस्तृत अध्ययन करने के पूर्व मेधा जनन नामक एक उपांग-संस्कार भी किया जा सकता है। इसके करने से बालक में मेधा, प्रज्ञा, विद्या तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है। इससे वेदाध्ययन आदि में ना केवल सुविधा होती है, बल्कि विद्याध्ययन में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती।
विद्यया लुप्यते पापं विद्ययाडयुः प्रवर्धते। 
विद्यया सर्वसिद्धिः स्याद्धिद्ययामृतश्नुते॥ 
वेद विद्या के अध्ययन से सारे पापों का लोप होता है, आयु की वृद्धि होती है, सारी सिद्धियाँ प्राप्त होती है, यहाँ तक कि विद्यार्थी के समक्ष साक्षात् अमृतरस अशन-पान के रुप में उपलब्ध हो जाता है। शास्त्र वचन है कि जिसे विद्या नहीं आती, उसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चारों फलों से वंचित रहना पडता है। इसलिए विद्या-ज्ञान, अध्ययन  अनिवार्य है।
(10). PIERCING EARS कर्ण वेध-कन्छेदन :: कान में छेद कर देना कर्णवेध संस्कार है। गृह्यसूत्रों के अनुसार यह संस्कार तीसरे या पांचवे वर्ष में कराना योग्य है। आयुवेद के ग्रन्थ सुश्रुत के अनुसार कान के बींधने से अन्त्रवृद्धि (हर्निया) की निवृत्ति होती है। दाईं ओर के अन्त्रवृद्धि को रोकने के लिए दाएं कान को तथा बाईं ओर के अन्त्रवृद्धि को रोकने के लिए बाएं कान को छेदा जाता है।
इस संस्कार में शरीर के संवेदनषील अंगों को अति स्पर्शन या वेधन (नुकीली चीज से दबाव) द्वारा जागृत करके थेलेमस तथा हाइपोथेलेमस ग्रन्थियों को स्वस्थ करते सारे शरीर के अंगों में वह परिपुष्टि भरी जाती है कि वे अंग भद्र ही भद्र ग्रहण हेतु सशक्त हों। बालिकाओं के लिए इसके अतिरिक्त नासिका का भी छेदन किया जाता है।
"रक्षाभूषणनिमित्तं बालस्य कर्णौ विध्येते"
बालक के कान दो उदेश्य से बींधे जाते हैं। बालक की रक्षा तथा उसके कानों में आभूषण डाल देना। आजकल यह काम सुनार या कोई भी व्यक्ति जो इस काम में निपुण हो कर देता है।[सुश्रुत] 
"भिषक् वामहस्तेनाकृष्य कर्णं दैवकृते छिद्रे आदित्यकरावभास्विते शनैः शनैः ऋजु विद्धयेत्"
वैद्य अपने बाँए हाथ से कान को खींचकर देखे, जहां सूर्य की किरणें चमकें वहां-वहां दैवकृत छिद्र में धीरे-धीरे सीधे बींधे। इससे यह प्रतीत होता है कि कान को बींधने का काम ऐसे-वैसे का न होकर चिकित्सक का है। क्योंकि कान में किस जगह छिद्र किया जाय यह चिकित्सक ही जान सकता है।[सुश्रुत]
यह नवम संस्कार है। शारीरिक व्याधि से बालक की रक्षा ही इसका मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियाँ दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है। यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है। यह पैरों का सन्तुलन बनाये रखने हेतु भी किया जाता है। मूल नक्षत्र में पैदा हुए बालक का कर्ण भेदन अवश्य कराना चाहिये। कन्याओं के लिये तो कर्ण वेध नितान्त आवश्यक माना गया है। इसमें दोनों कानों को वेध करके उसकी नस को ठीक रखने के लिए उसमें सुवर्ण कुण्डल धारण कराया जाता है। इससे शारीरिक लाभ होता है। इसे उपनयन के पूर्व ही कर दिया जाना चाहिए। इस संस्कार को 6 माह से लेकर 16 वें माह तक अथवा 3, 5 आदि विषम वर्षों में या कुल की पंरपरा के अनुसार उचित आयु में किया जाता है।
इसे स्त्री-पुरुषों में पूर्ण स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व की प्राप्ति के उद्देश्य से कराया जाता है। मान्यता यह भी है की सूर्य की किरणें कानों के छिद्र से प्रवेश पाकर बालक-बालिका को तेज़ संपन्न बनाती है। बालिकाओं के आभुषण धारण हेतु तथा रोगों से बचाव हेतु यह संस्कार आधुनिक एक्युपंचर पद्धति के अनुरुप एक सशक्त माध्यम भी है। कर्ण वेध रहित पुरुष को श्राद्ध का अधिकारी नहीं माना गया है। ब्राह्मण और वैश्य का कर्ण वेध चाँदी की सुई से, शुद्र का लोहे की सुई से तथा क्षत्रिय और सम्पन्न पुरुषों का सोने की सुई से करने का विधान है। द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) का यह संस्कार का सेही के कांटे से भी किया जा सकता है। शुभ समय में, पवित्र स्थान पर बैठकर देवताओं का पूजन करने के पश्चात भगवान् सूर्य के सम्मुख बालक या बालिका के कानों को निम्न मंत्र द्धारा अभिंमत्रित करना चाहिए। 
भद्रं कर्णेभिः क्षृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
 स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥ 
इसके बाद बालक के दाहिने कान में पहले और बाएँ कान में बाद में सुई से छेद करें। उनमें कुन्डन आदि पहनाएँ। बालिका के पहले बाएँ कान में, फिर दाहिने कान में छेद करके तथा बाँई नाक में भी छेद करके आभूषण पहनाने का विधान है। मस्तिष्क के दोनों भागों को विद्युत के प्रभावों से प्रभावशील बनाने के लिए नाक और कान में छिद्र करके सोना पहनना लाभकारी माना गया है। नाक में नथुनी पहनने से नासिका सम्बन्धी रोग नहीं होते और सर्दी, खाँसी, जुकाम में राहत मिलती है। कानों में सोने की बालियाँ या झुमके आदि पहनने से स्त्रियों में मासिक धर्म नियमित रहता है, इससे हिस्टीरिया-दौरे पड़ने में भी लाभ मिलता है।
Please refer to :: HINDU PHILOSOPHY (4.10 ) हिन्दु दर्शन :: PIERCING EARS कर्ण वेध-कन्छेदनsantoshkipathshala.blogspot.com
(11). SACRED LOIN THREAD यज्ञोपवीत, जनेऊ, उपनयन :: इस संस्कार में यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण कराया जाता है। इसके धारण कराने का तात्पर्य यह है कि बालक अब पढ़ने के लायक हो गया है और उसे आचार्य के पास विद्याध्ययन के लिए व्रत सूत्र में बाँधना है। यज्ञोपवीत में तीन सूत्र होते हैं जो तीन ऋणों के सूचक हैं। ब्रह्मचर्य को धारण कर वेदविद्या के अध्ययन से ऋषिऋण चुकाना है। धर्मपूर्वक गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर सन्तानोत्पत्ति से पितृऋण और गृहस्थ का त्याग कर देष सेवा के लिए अपने को तैयार करके देवऋण चुकाना होता है। इन ऋणों को उतारने के लिए ही क्रमषः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ आश्रम की योजना वैदिक संस्कृति में की गई है।
बालक-बालिका के पढ़ने योग्य अर्थात् पाँचवे से सातवे वर्ष तक यह संस्कार करना उचित है। इस संस्कार के पूर्व बालक को आर्थिक सुविधानुसार तीन दिवस तक दुग्धाहार, श्रीखंडाहार, दलियाहार, खिचड़ी-आहार इन में से किसी एक का चयन कर उसी का सेवन कराना चाहिए।
इस संस्कार में आचार्य की पुरोहितम् भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आचार्य हरहित चाहती सम्भ्रान्त महिलावत अर्थात् जलवत बच्चे की कल्याण की भावना से उसका यज्ञोपवीत कराए। आचार्य की भावना श्रेष्ठ ही श्रेष्ठ बच्चे को बनाने की होनी चाहिए। वह विभिन्न देव भावों से बालक के जीवन को भरने का संकल्प लेते यज्ञोपवीत संस्कार कराता है।
यज्ञोपवीत की महान् शर्त यह है कि आचार्य तथा बच्चा सम-हृदय, सम-चित्त, एकाग्र-मन, सम-अर्थ-सेवी हो। लेकिन इस सब में आचार्य आचार्य हो तथा शिष्य शिष्य हो। आचार्य परिष्कृत बचपन द्वारा बालक के सहज बचपन का परिष्कार करे। यह महत्वपूर्ण शर्त है। आचार्य बच्चे के विकास के विषय में सोचते समय अपनी बचपनी अवस्था का ध्यान अवश्य ही रखे। इस संस्कार के द्वारा आचार्य तथा बालक शिक्षा देने-लेने हेतु एक दूसरे का सम-वरण करते हैं। यह बिल्कुल उसी प्रकार होता है जैसे मां गर्भ में अपने शिशु का और शिशु अपनी माँ का वरण करता है।
यज्ञोपवीत बौद्धिक विकास के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक उन्नति का इस संस्कार में पूर्णरूपेण समावेश है। इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं अर्थात् यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है अत्यन्त पवित्र है। प्रजापति ने स्वाभाविक रूप से इसका निर्माण किया है। यह आयु को बढ़ानेवाला, बल और तेज प्रदान करनेवाला है। गुरुकुल परम्परा में प्राय: आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न किया जाता था।
यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है।
आजकल गौ माँस खाने वाले मुसलमान-राहुल, सोनिया, ममता जैसे लोग राजनैतिक लाभ के लिये जनेऊ गले में लटकाकर हिन्दुओं को बरगलाने में लगे रहते हैं और बहुसँख्यक हिन्दु इन घोर कलियुगी पतित लोगों को चुनाव जितवाने में लगे हुए हैं। 
उद्धृते दक्षिणे पाणावुपवीत्युच्यते द्विजः। 
स्वये प्राचीन आवीती निवीती कण्ठसञ्जने॥
दाहिने हाथ के नीचे और बायें कंधे के ऊपर यज्ञोपवीत के रहने से द्विज उपवीती-सव्य और इसके विलोम रहने पर प्राचीनावीती-अपसव्य कहलाता है और कण्ठ में जनेऊ धारण करने से निवीती कहलाता है।[मनु स्मृति 2.63]
Wearing of the sacred thread over the left shoulder below the right hand titled the Dwij-upper castes as Upviti  or Savy and contrary to it; from right shoulder and below left hand titled him Prachinviti or Upsavy and wearing of the sacred thread round the neck titled him Niviti.
मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम्। 
अप्सु प्रास्य विनष्टानि गृहीणातान्यानि मन्त्रवत्॥ 
मेखला, मृगछाला, दण्ड, यज्ञोपवीत और कमण्डलु; इनमें से कोई चीज छिन्न-भिन्न हो जाये तो जल में विसर्जन करके मन्त्रोचारण पूर्वक दूसरा धारण करना चाहिये।[मनु स्मृति 2.64]  
If any of the 5 items girdle, the spotted deer skin, staff, sacred thread and his Kamandlu (water-pot) is damaged; he (Brahmn or celibate) must throw it into water and accept the new by reciting sacred chants-Mantr.
(12). EDUCATION विद्यारम्भ-वेदारम्भ :: यह उपनयन के साथ-साथ ही किया जाता है। इस संस्कार को करके वेदाध्ययन प्रारम्भ किया जाता था। इसमें बालक में सुश्रव, सुश्रवा, सौश्रवस होने तथा इसके बाद यज्ञ की विधि फिर वेद की निधि पाने की भावना होती है। यह संस्कार महान् अस्तित्व पहचान संस्कार है। इसे संस्कारों का संस्कार कह सकते हैं। इस संस्कार द्वारा बालक में आयु, मेधा, वर्चस्, तेज, यश, समिध्यस्, ब्रह्मवर्चस्, अस्तित्व, संसाधन, त्व आदि भाव जागृत किए जाते हैं। इस संस्कार में मत कर निर्देश, दोष मार्जनम्, कर निर्देश हीनांगपूर्ति तथा भाव जागृति अतिषयाधान रूप में है।
ऊपर दिए अतिशयाधान के साथ-साथ अग्नि के दिव्यदा स्वरूपों से अनेक दिव्यों की आकांक्षा करते हैं। तथा हर बालक वाक्, प्राण, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, की इन्द्रियों की परिपूर्णता के साथ-साथ इनमें यष, बल भाव आभर होने के मन्त्र ओ3म् वाक् वाक् रूप में कहता है। फिर बालक आचार्य से सम्पूर्ण चेतना अस्तित्व एवं सावित्री तीन महाव्याहृति के निकटतम कर देने की आकांक्षा करता है। आचार्य बालक से विषिष्ट शाखा विधि से गायत्री मन्त्र का तीन पदों, तीन महाव्याहृतियों या सावित्री क्रम में निम्नलिखित अनुसार पाठ कराता है। 
प्रथम बार :- ओ3म् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्। 
द्वितीय बार :- ओ3म् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि। 
तृतीय बार :- ओ3म् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥
यह पाठ धीरे-धीरे कराया जाता है। इसके पश्चात् निम्नलिखित रूप में उसका संक्षेप में अर्थ बताया जाता है। सम्पूर्ण अर्थ प्रक्रिया भी उपरोक्त त्रि टुकड़ों में सिखाने का नियम है।
ओ3म् :- ब्रह्म का श्रेष्ठ नाम इस के साथ हर नाम लग जाता है। 
भूः :- अस्तित्व का अस्तित्व- प्राण का प्राण। हीनांगपूर्त। 
भुवः :- सर्व दुःख निवारक- खराब इन्द्रियपन निवारक। दोष मार्जन। 
स्वः :- आनन्द दा। अतिषयाधान। 
सवितुः :- उत्पत्तिकर्ता, धारक, पालक, ऐश्वर्य दा। 
देवस्य :- सप्तर्षि-सप्त देव, सप्त ब्रह्मभाव का। प्रकाष के समान सातों का एक भाव। 
वरेण्यम् :- वरण करने योग्य।
तत् :- वह-यह-व्यापक तेज। 
धीमहि :- धारण से सिद्ध कर धी में उतारे, ध्यान सिद्ध करे।
यः :- यह-वह परमात्मा। 
नः :- हमारी। 
धियः :- चित्तवृत्तियों को। 
प्रचोदयात् :- प्रकृष्ट गुण, कर्म, रक्त चयापचय स्व भाव में प्रेरित करे।
उपरोक्त शाखा विधि से त्रि पाठ तथा अर्थ एक महान् अध्ययन या स्मरण योजना है। 
इसके प्रारूप इस प्रकार हैं :- मन्त्र या बीज का ज्ञान। क्षैतिज (समानान्तर) हॉरिझोण्टल अध्ययन। ऊर्ध्व (वर्टिकल) अध्ययन। तीर्यक् अध्ययन। आयतनिक अध्ययन।
इसके पश्चात् आचार्य बालक हेतु वस्त्र, संसाधन आदि की व्यवस्था करे। फिर उसे न करना, करना निर्देष पिता को दे। 
न करना :- दुष्ट-कर्म, अधर्म, दुराचार, असत्याचरण, अन्यायाचरण एवं हर्ष-षोकादि, आचार्य के अधर्माचरण एवं कथन, क्रोध, मिथ्याभाषण, अष्टमैथुन-स्त्री-ध्यान, कथा, स्पर्ष, क्रीड़ा, दर्शन, आलिंगन, एकान्तवास एवं समागम, गाना-बजाना-नृत्य (फिल्मी), गंध, अंजन सेवन, अतिस्नान, अतिभोजन, अतिनिद्रा, अतिजागरण, निन्दा, लोभ, मोह, भय, शोक, मांसभक्षण, शुष्क अन्न, धचकेदार सवारी, मर्दन, उबटन, अतितीखा, अतिखट्टा, अतिलवण एवं क्षारयुक्त भोजन, मान-सम्मान की आशा।
करना :- संध्या-उपासना, भोजन पूर्व आचमन, धर्मक्रिया, नित्य वेद को सांगोपांग पढ़ना, पुरुषार्थ करना, भूमि (दृढ़ आधारतल) पर शयन, रात्रि के चौथे प्रहर (ब्राह्म-मूहुर्त) जागरण, शौच, दन्तधावन, योगाभ्यास, ऊर्ध्वरेता बनना, युक्ताहार-विहारसेवी, विद्याग्राहिता, सुशीलता, अल्पभाषी, सभा के आचरण, अग्निहोत्र, अभिवादन, दस इन्द्रियों एवं ग्यारहवें मन को संयम में रखना, यम-सेवन पूर्वक नियमों का आचरण, सामाजिक-नैतिक-व्यक्तिगत नियमों का पालन, चतुर्वेदी बनना, न्याय-धर्माचरण सहित कर्म, श्रेष्ठाचार, श्रेष्ठ दान एवं सत्यधारण, न्यायाचरण।
इन निर्देषों के पश्चात् विद्यार्थी को चौदह विद्याओं जो कि बीज रूप हैं का क्रमबद्ध उत्तरोत्तर अभ्यास एक ही आचार्य द्वारा अपने आश्रम में रखकर करवाना चाहिए। इन विद्याओं के ग्रन्थ हैं :-
(12.1). 6 अंग :- (12.1.1). शिक्षा, (12.1.2). कल्प, (12.1.3). व्याकरण, (12.1.4). निरुक्त, (12.1.5). छन्द, (12.1.6).  ज्योतिष। 
आधार पुस्तकें :- पाणिनि मुनिकृत अष्टाध्यायी तथा लिंगानुषासन, पतंजलि मुनिकृत महाभाष्य, यास्क मुनिकृत निघण्टु एवं निरुक्त, कात्यायन आदि मुनिकृत कोश, आप्त मुनिकृत त्रि-षब्दार्थ विधि, पिंगलाचार्यकृत छन्द ग्रन्थ, यास्कमुनिकृत काव्यालंकार सूत्र- वात्स्यायन मुनिकृत भाष्य, आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति, तात्पर्य और अन्वयार्थ सहित अंक गणित, वैदिक विदुरनीति तथा मनुस्मृति एवं वाल्मिकी रामायण।
(12.2). 6 उपांग :- आधार पुस्तकें - (12.2.1). जैमिनीकृत मीमांसा, (12.2.2). कणादकृत वैषेषिक, (12.2.3). गौतमकृत न्याय, (12.2.4). व्यासकृत वेदान्त, (12.2.5). पतंजलिकृत योग, फ) कपिलकृत सांख्य तथा इनसे अन्तर्सम्बन्धित दस उपनिषद :- ईश, कठ, केन, प्रष्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक।
(12.3). चार वेद :- आधार संहिता पुस्तकें- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद। पठनविधि- इन संहिताओं में स्थित मन्त्रों को छन्द, स्वर, पदार्थ, अन्वय, भावार्थ क्रम से पढ़ना। इन वेदों के पढ़ने में सहायक ग्रन्थ हैं- आश्वलायनकृत श्रौत गृह्य तथा धर्म सूत्र। इन की शाखाएं हैं- ऐतरेय, शतपथ, ताण्ड्य तथा गोपथ ब्राह्मण।
(12.4). चार उपवेद :- आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद, अर्थवेद। आयुर्वेद में चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भावप्रकाश निघण्टु, धनुर्वेद में अंगिराकृत लक्ष्यविद्या, गन्धर्ववेद में नारद संहितादि में स्वर, रागिणी, समय, वादित्र, ताल, मूर्छनादि का विवरण तथा अर्थवेद में विष्वकर्मा, त्वष्टा तथा मयकृत षिल्प के संहिता ग्रन्थों का समावेष है। इस के साथ भरत मुनि कृत नाट्य शास्त्र मिलाकर सम्पूर्ण सांगोपांग वेदाध्यायन प्रक्रिया है। इस अध्ययन में वेद अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में कुछ अंष अवैदिक मिलावट आ गई है। अतः ऐसे स्थलों पर वेदानुकूलता से प्रमाण मानना चाहिए। वर्तमान में उपलब्ध वेद भाष्य पढ़ते समय भी शब्दार्थ सम्बन्ध में इस तथ्य का ध्यान रखना चाहिए।
उपरोक्त ज्ञान बीज ज्ञान है। वर्तमान में इन बीजों का पर्याप्त विकास, उपयोग, विधान तथा विज्ञान विकसित किया जा चुका है। समझदार बहुज्ञ आचार्य को इस विकास का जानकार होना चाहिए तथा पाठन में इन बीज ज्ञानों को पढ़ाते समय सन्दर्भित नव विकास से भी विद्यार्थियों को अवगत कराना चाहिए। उपरोक्त सम्पूर्ण संस्कृत ग्रन्थों की रचना में अपवाद स्वरूप कुछ मिलावट छोड़कर “वैदिक वैज्ञानिक विधि” का प्रयोग हुआ है अतः समग्र ज्ञानभण्डार वैज्ञानिक तो है ही साथ ही साथ नैतिक सत्य से आपूर्त भी है।
यह वह शिक्षा पद्धति है जो सांतसा है। इस में जीवन को सांस्कृतिक तकनीकी सामाजिक बीज ज्ञान दिया जाता है। चार मूल वेद संहिताओं के माध्यम से ‘वेद-ज्ञान’ तथा चारों उपवेदों के माध्यम से ‘विद-ज्ञान’ प्राप्त कराया जाता है। इसमें बचपन से युवावस्था तक एक ही ज्ञानधारा जो निश्चित लक्ष्य, निश्चित व्यवहार है का प्रवहण मानव में होता है। यह सर्वांगणीय शिक्षा योजना है जो पुरोहितम् शिक्षा योजना कहलाती है। 
इसकी निम्न विषेषताएं हैं :- पुरोहितम् आधारित, समय काल न बदलनेवाली, वर्ष-वर्ष न बदलनेवाली, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष समन्वित, शाष्वत प्राकृतिक मूल्यों पर आधारित, शाष्वत नैतिक मूल्यों पर आधारित।  
(12.5). वर्तमान विज्ञान समन्वित तथा वैदिक वैज्ञानिक विधि अर्थात् (12.5.1). आप्त-ज्ञान, (12.5.2). ब्रह्मगुण अनुकूल, (12.5.3). आत्मवत व्यवहार अनुकूल, (12.5.4). प्राकृतिक नियम अनुकूल, (12.5.5) पंचावयव (वैज्ञानिक विधि)  
अनुकूल :- (12.5.1). प्रतिज्ञा (प्राकल्पना-हायपोथीसिस), (12.5.2). हेतु (अवलोकन), (12.5.3). उदाहरण (तथ्य संकलन-सारिणीकरण), (12.5.4). उपनय (सत्य-निकटता), (12.5.5). निगमन (निष्कर्ष)-पंच विधि आधारित। यह पंच विधि या अवयव पद्धति आधुनिक वैज्ञानिक विधि है, जो आधुनिक विज्ञान की आत्मा है। वैदिक वैज्ञानिक विधि सांतसा की आत्मा है।
यह संस्कार ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है। इस संस्कार का अभिप्राय है कि बालक वेदाध्ययन से  ज्ञान को समाविष्ट करना शुरू करे। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये गुरुकुल में भेजा जाता था। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। जीवन को सकारात्मक बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। शिक्षा का शुरू होना ही विद्यारंभ संस्कार है। गुरु के आश्रम में भेजने के पहले अभिभावक अपने पुत्र को अनुशासन के साथ आश्रम में रहने की सीख देते हुए भेजते थे। ये संस्कार भी उपनयन संस्कार जैसा ही है, इस संस्कार के बाद बच्चों को वेदों की शिक्षा मिलना आरम्भ किया जाता है।
चुटिया-शिखा विद्याध्ययन का अनिवार्य अंग था। गुरुकुल में ब्रह्मचारी शिखा धारण करते थे। शिखा ब्रह्मरध्न के ठीक ऊपर रखी जाती है। शिखा के नीचे सुषुम्ना नाड़ी होती है जो कि कपाल तन्त्र में सबसे अधिक संवेदनशील स्थान है। खुले होने की स्थित में यह वातावरण, उष्माीय व विद्युत-चुम्बकी तरंगों का मस्तिष्क से शीघ्र प्रभावित हो सकता है। यही वह स्थान भी है जो कि बुद्धि को नियंत्रित करता है। शिखा रहने तक बुद्धि मस्तिष्क को संतुलित रखती है, शरीरिक अंग-प्रत्यंग नियंत्रण में रहते हैं। इसी वजह से मानव शरीर के पाँचों चक्र सहस्राह चक्र से मूलाधार चक्र तक शरीर, बुद्धि व मन पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है।  
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(13). HAIR CUTTING केशान्त-मुण्डन :: वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था। इस संस्कार के बाद ही ब्रह्मचारी युवक को गृहस्थ जीवन के योग्य शारीरिक और व्यावहारिक योग्यता की दीक्षा दी जाती थी।[आगोदानकर्मणः, ब्रह्मचर्यम्‌ भा.यू.सू.] 
उसके बाद इस केशान्त संस्कार में भी मुंण्डन करना होता है। इसलिए कहा भी है कि शास्त्रोक्त विधि से भली-भाँति व्रत का आचरण करने वाला ब्रह्मचारी इस केशान्त-संस्कार में सिर के केशों को तथा श्मश्रु के बालों को कटवाता है।
केशान्तकर्मणा तत्र यथोक्त-चरितव्रतः।
इस संस्कार में दाढ़ी बनाने के पश्चात उन बालों को या तो गाय के गोबर में मिला दिया जाता था या गौशाला में गढ्ठा खोदकर दबा दिया जाता था अथवा किसी नदी में प्रवाहित कर दिया जाता था। इस प्रकार की क्रिया इसलिए की जाती थी ताकि कोई तांत्रिक उन बालों पर अपनी तान्त्रिक क्रिया के द्वारा नुकसान न पहुँचा सके। इस संस्कार के बाद गुरू को गाय दान दिया जाता था। यह संस्कार शुभ मुहुर्त देखकर आयोजित किया जाता था।[व्यासस्मृति 1.41]  
 केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते। 
राजन्यबन्धोर्द्वाविंशे वैशस्य द्वयाधिके तत:॥
ब्राह्मण का 16 वें वर्ष में, क्षत्रियों का 22 वें वर्ष में और वैश्य का 24 वें वर्ष में केशान्त संस्कार करना चाहिये।[मनु स्मृति 2.65]
The Keshant-clipping the hair, balding ceremony of the Brahmn should be preformed at the age of 16 years, that of the Kshatriy at 22nd year and for the Vaeshy it should be held when he is 26 years.
(14). समावर्तन DEPARTING GURU KUL AFTER GRADUATION :: परिणीत युवक, परिणीता युवती, नव्य-नव्य युवक, नव्या-नव्या युवती जो ब्रह्ममय, वेदमय उदात्त विचारों के आधुनिकतम सन्दर्भों के आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक विज्ञानों में निष्णांत हों उनके लिए यह संस्कार किया जाता है।
24 वर्ष के वसु ब्रह्मचारी अथवा 36 वर्ष के रुद्र ब्रह्मचारी या 48 वर्ष के आदित्य ब्रह्मचारी जब सांगोपांग वेदविद्या, उत्तम शिक्षा, और पदार्थ विज्ञान को पूर्ण रीति से प्राप्त होके विद्याध्ययन समाप्त करके घर लौटता था तब आचार्य उसे उपदेश देता था कि तू सत्य को कभी न छोड़ना, धर्म का आचरण सदैव करते रहना, स्वाध्याय में प्रमाद कभी न करना, इत्यादि।
आचार्य का आश्रम द्वितीय गर्भ है जिसमें विद्या-अर्थी का विद्या पठन होता है। समावर्तन संस्कार द्वारा विद्यार्थी संसार में सहजतः सरलतापूर्वक दूसरा जन्म लेता है। मानव का द्विज नाम इसी सन्दर्भ में है। ब्रह्मचारी विद्यार्थी भिक्षाटन-अतिथि व्यवस्था द्वारा समाज के परिवारों से परिचित रहता है। 
समावर्तन संस्कार करानेवाले स्नातक तीन प्रकार के होते हैं :- (14.1.1). विद्या-स्नातक :- विद्या समाप्त कर बिना विवाह आजीविका कार्य। (14.1.2). व्रत-स्नातक :- विवाह करके भी विद्याध्ययन जारी रखनेवाला। (14.1.3). विद्याव्रत स्नातक :- विवाहबद्ध आजीविकामय जीवन जीनेवाला अर्थात् विद्या अध्ययन एवं ब्रह्मचर्य व्रत की भी समाप्ति।
ब्रह्मचर्य, विद्याव्रत-सिद्ध, सांगोपांग वेद विद्या, उत्तम षिक्षा, उपवेद (विद) ज्ञान या विद्या का सत्तार्थ, लाभार्थ, उपयोगार्थ, विचारार्थ उपयोग ज्ञान तथा वर्तमान विज्ञान को पूर्ण रूप से प्राप्त कर ले तब उस का पठन-समाप्ति पर घर में आना अर्थात् समाज में पुनर्जन्म या द्विज होना समावर्तन संस्कार कहलाता है। इसमें अभिप्राय प्राप्त ज्ञान के मान्य जनों तथा रिश्तेदारों के मध्य कल्याण कारक सम्प्रयोग हैं। गणमान्य माता-पिता, प्रतिष्ठित समाज पुरुषों के आगमन पश्चात् स्नातक को (14.2.1). आसन, (14.2.2). पाद्यम् :- पग धोने हेतु जल, (14.2.3). अर्घ्यम् :- मुख धोने हेतु जल, (14.2.4). आचमन हेतु जल, (14.2.5). मधुपर्क :- दही-मलाई-शहद मिलाकर देना। यह स्वागत विधि है।
समावर्तनी के निम्न गुण हैं :- (14.3.1) सागर के समान गम्भीर, (14.3.2). ब्रह्म-सिद्ध, (14.3.3). तप-सिद्ध, (14.3.4). महा-तप करता, (14.3.5). वेद पठन-सिद्ध, (14.3.6). शुभ गुण-कर्म-स्वभाव से प्रकाषमान, (14.3.7). नव्य-नव्य, परिवीत अर्थात् ज्ञान ओढ़ लिया है जिसने और (14.3.8). सुमनस। समावर्तन संस्कार में त्रिपाश भक्तिभाव से ब्रह्मचारी मेखलादि का त्याग कर अंग-अंग में ब्रह्म पवित्रता का भाव रखता है। वह सप्तेन्द्रियों के त्रि रूपों में ब्रह्म परितृप्त होता है तथा पंचेन्द्रियों में भी त्रि-सिद्ध होता है। त्रि-सप्त, त्रि-पंच सिद्ध वह द्वादशी होता है। ऐसा समावर्तनी युवक समावर्तनी युवती से विवाह कर अस्तित्व पहचानमय श्रेष्ठ जीवन का प्रारम्भ करता है। 
इनका द्वादशी रूप निम्न प्रकार से है :-
अंग देव ऋषि ब्रह्म ::
(14.4.1). ओऽम् नासिका गन्ध है, ब्रह्म-लयम् गौतम पृथ्वी  ब्रह्म,
(14.4.2). ओऽम् रसना रस है, ब्रह्म-लयम् इष्टतम आपो ब्रह्म,
(14.4.3). ओऽम् चक्षुः रूप है, ब्रह्म-लयम् जमदग्नि अग्नि ब्रह्म,
(14.4.4). ओऽम् त्वक् स्पर्श है ब्रह्म-लयम् रोमश वरुण ब्रह्म,
(14.4.5). ओऽम् श्रोत्रम् शब्द है, ब्रह्म-लयम् विश्वामित्र आकाश ब्रह्म,
(14.4.6). ओऽम् प्राणः प्राणन है, ब्रह्म-लयम् विश्वामित्र खं ब्रह्म,
(14.4.7). ओऽम् वाक् वाकन् है, ब्रह्म-लयम् वशिष्ठ  ऋचा ब्रह्म,
यह त्रि-सप्त अवस्था है।
(14.4.8). ओऽम् मनः मनन है, ब्रह्म-लयम् भरद्वाज वाजब्रह्म,
(14.4.9). ओऽम् बुद्धिः बोध है, ब्रह्म-लयम् कण्व ध्येयतम,
(14.4.10). ओऽम् धीः ध्यान है, ब्रह्म-लयम् प्रस्कण्व एकम्,
(14.4.11). ओऽम् स्वः स्व-आन है, ब्रह्म-लयम् सच्चित स्वः,
(145.4.12). ओऽम् आत्मा आत्मन् है, ब्रह्म-लयम् आत्म आत्मा,
यह त्रि-पंच सिद्ध अवस्था है।
द्वादशी अस्तित्व द्वादश परितृप्त द्वादश तर्पणमय दिव्य होता है। ऐसे पति-पत्नी 1 + 1 = 1 होते हैं। और आगे संस्कार योजना का नव जीवन के लिए विधान करते हैं।
यह संस्कार तब किया जाता था जब बालक गुरूकुल से शिक्षा प्राप्त करके घर आता था। इस संस्कार को करने का अर्थ यह है कि बालक ने अपनी शिक्षा पूरी कर ली है और उसने ब्रह्मचर्य आश्रम को पूरा कर लिया है। इस संस्कार के साथ यह भी स्पष्ट होता था कि अब बालक युवावस्था में प्रवेश करके विवाह करने लायक हो गया है। इस संस्कार में ब्रह्मचारी-विद्यार्थी स्नान के पश्चात गुरू को गुरू दक्षिणा देते थे। तभी ब्रह्मचारी को संसार की वस्तुओं एवं सिद्धान्तों-नियमों, रीति-रिवाजों से अवगत कराया जाता था। ब्रह्मचर्य के सभी प्रतीकों को बहते जल-नदी  में प्रवाहित कर दिया जाता था। 
इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था, जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस उपाधि से स्नातक सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर, गुरु को समुचित दक्षिणा प्रदान करने पश्चात् अपने घर-परिवार, गृह स्थान के लिये प्रस्थान करता था। 
विद्याध्ययन के उपरान्त भी ब्राह्मण, आचार्य, पुरोहित शिखा पूर्ववत धारण करते हैं। 
वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वाSपि यथाक्रमम्। 
अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममावसेत्
अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन हुआ क्रम से तीनों वेद या दो वेद या फिर एक ही वेद पढ़कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे।[मनु स्मृति 3.2] 
The student may enter family life after studying 3, 2 or just one Ved by practising unbroken celibacy.
तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितु:। 
स्रग्विणं तल्प आसीनमर्हयेत्प्रथमं॥
स्वधर्म प्रसिद्ध उस ब्रह्मचारी को जो पिता से या अन्य आचार्य से वेद पढ़ चुका हो, पुष्प-माला पहना कर शय्या पर बैठाकर पहले उसका मधुपर्क विधि से पूजन करना चाहिये।[मनु स्मृति 3.3]  
In the mean while the celibate has proved himself to be a graduate having undergone studies with his father or the Guru-teacher, is garlanded and made to sit over a couch and then he is blessed with the help of Madhu Park-a sacred mixture of curd, ghee, honey, Ganga Jal & sugar.
Traditionally in Hinduism a child or celibate is subjected to a form of prayer, in which he is treated as an image of the God, deities, demigods. The process involves his protection from the evil.
मधुपर्क :: पूजा के लिए बनाया गया दही, घी, जल, चीनी और शहद का मिश्रण या पंचामृत या चरणामृत।
गुरुणाSनुमतः स्नात्वा समावृत्तो यथाविधि। 
उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णान् लक्षणान्विताम्॥ 
तब गुरु से आज्ञा लेकर विधिपूर्वक समवर्तन संस्कार स्नानादि करके द्विज शुभ लक्षणयुक्त कन्या से विवाह करे।[मनु स्मृति 3.4]
The disciple had to seek the permission-blessings of his Guru, after completing Samavartan Sanskar to return home and enter into family life, by marrying a suitable girl having pious-auspicious signs over her body. 
Please refer to :: ASTROLOGICAL BODY SIGNS  सामुद्रिक शास्त्र santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhartiyshiksha.blogspot.com
Samavartan Sanskar means that the celibate had completed his education and Brahmchary Ashram-first stage in the life of a human being. Having completed his education the disciple had to return home. The rites performed at this juncture were called Samavartan Sanskar. All the signs of his celibacy were in immersed into the flowing waters of pious river. He was initiated into family life and all practices, rites, ceremonies, rituals, systems were explained to him.
(15). MARRIAGE विवाह :: विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीरादि का परिमाण यथायोग्य हो जिन युवक युवती का उनका आपस में सम्भाषण कर माता-पिता अनुमति से गृहस्थ धर्म प्रवेश विवाह है अर्थात् पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत विद्या बल को प्राप्त करके, सब प्रकार के शुभगुण-कर्म-स्वभावों में तुल्य, परस्पर प्रीतियुक्त हो, विधि अनुसार सन्तानोत्पत्ति और अपने वर्णाश्रमानुकूल उत्तम कर्म करने के लिए युवक युवती का स्वचयनाधारित परिवार से जो सम्बन्ध होता है उसे विवाह कहते हैं।
गृहस्थाश्रम धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष पथ ले जाता अश्व है। यह अविराम गति है, प्रशिक्षित गति है, अवीनामी विस्तरणशील है, कालवत सर्पणशील है, ज्योति है, ब्रह्मचर्य-वानप्रस्थ-संन्यास इन तीनों आश्रमों की आधारवृषा है, उमंग उत्साह से पूर्ण है, वेद प्रचार केन्द्र है, शिशु के आह्लाद उछाह का केन्द्र है, परिवार सदस्यों द्वारा शुभ-गमन है, रमणीयाश्रम है, श्रेष्ठ निवास, श्रेष्ठ समर्पण, स्वाहा है यह गृहस्थाश्रम।
परिवार गृहस्थाश्रम व्यवस्था है जिसमें माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-भाई, बहन-बहन, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, भृत्य आदि सदस्य समनस्वता, सहृदयपूर्वक, एक स्नहिल बन्धन से युक्त हुए, समवेत श्रेष्ठता का सम्पादन करते, एक अग्रणी का अनुसरण करते, उदात्त संस्कृति का निर्माण करते हैं।
पति-पत्नी की वैदिक संकल्पनानुसार पति ज्ञानी, पत्नी ज्ञानी, पति सामवेद, पत्नी ऋग्वेद, पति द्युलोक, पत्नी धरालोक। पति-पत्नी दुग्ध-दुग्धवत मिलें। प्रज उत्पन्न करें।
विवाह का मूल उद्देश्य है ‘वेद-विज्ञ’ व्यक्ति ‘वेद-विद’ हो सके। वेद-विद होने का मतलब है वेद सत्ता के लिए, ज्ञान के लिए, लाभ के लिए, चेतना के लिए तथा धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष सिद्धि के लिए जीवन में उपयोग। वैदिक जीवन ब्रह्मचर्य में चतुर्वेदी होकर गृहस्थ चतुर्वेद सिद्ध करते, वानप्रस्थ में पितर यमलोकी श्रद्धामय होते, संन्यास अवस्था में इसी जीवन में ब्रह्मलयता सिद्ध ब्रह्मलयी होने का नाम है। यह जीवन एक महान् अस्तित्व पहचान योजना है। इस योजना के जीवन यथार्थ होने के अनुपात में ही मानव जीवन में सुखी होता है। इसमें विवाह केन्द्रिय आधार है। गृहस्थ आश्रम अति अधम प्रवृत्तियों से बचाता है। हिरन जैसी चंचलता वृत्ति, बैल जैसी दांत दिखाऊ वृत्ति, गाय जैसी चरन् प्रवृत्ति, कुत्ते जैसी दुमउठाऊ प्रवृत्ति और विधर्म अर्थात् धर्म के अपभ्रंश धर्म को भी घटिया रूप में जीने की प्रवृत्ति इन छै से गृहस्थाश्रम बचाता है। दुःख यह है कि विवाह संस्कार के अवमूल्यन के कारण आज के गृहस्थी विकृत संन्यासियों के ही समान इन समस्त छै दुर्गुणों को ही अपनाने की राह पर चल पड़े हैं।
आधुनिक विवाह संस्कार की महाविकृतियाँ :- (15.1.1). पुरुष-पुरुष स्त्री-स्त्री का विवाह, (15.1.2). स्त्री-देवमूर्ति विवाह, (15.1.3). मानव पशु विवाह, (15.1.4). नानी-पोता विवाह, (15.1.5). मानव-हिजड़ा विवाह, (15.1.6). शालीग्राम-तुलसी विवाह, (15.1.7). बालक-बालिका विवाह, आर्य समाज द्वारा पैसे के लालच में कराए जा रहे वासना विवाह, (15.1.8). पाश्चात्य में शाम विवाह सुबह तलाक सम्बन्ध, (15.1.9). दहेज विवाह, (15.1.10). आडम्बर विवाह, (15.1.11). पुरुष-राधा-कृष्ण-वर-विवाह धारणा, (15.12). विश्व सेक्सी पुरुष तथा नारी चयन, (15.1.13) उन्मुक्त यौन-पंच-विवाहित जोड़े व्यवस्था, (15.1.14) विवाह पूर्व यौन सम्बन्ध आदि-आदि विकृतियाँ विवाह के स्वरूप का कचूमर निकाल दे रहे हैं। और यही कारण है कि विष्व एक आवेग की घिनौनी लहर हो गया है। इसीलिए महान् अस्तित्व पहचान संकट ग्रस्त हो गया है।
अस्तित्व पहचान :- (15.2.1). हर दिन विवाह हेतु उत्तम दिवस है, ग्रह मुहूर्तादि बकवास हैं। (15.2.2). वधू-वर के विचार, स्व-भाव, लालन-पालन, कुल-व्यवहार, आयु, शरीर, लक्षण, रूप, आचार, नाम, बल आदि गुणों की वैदिक वैज्ञानिक विधि द्वारा परीक्षा करके विवाह करना। (15.2.3). माता की छै पीढ़ी में तथा गोत्र में विवाह न करना। यह विज्ञान सम्मत तथ्य है कि माता की छै पीढ़ी तथा पिता के सगोत्र विवाह बाद सन्तान अपंग, अपाहिज, कमजोर, रुग्ण, पागल आदि होने की पर्याप्त सम्भावना होती है। (15.2.4). ब्राह्म, दैव आदि प्राजापत्य विवाह ही करना। आसुर (दहेज विवाह), गन्धर्व (काम-विवाह), राक्षस (बलात्कार-विवाह), पिषाच (धोका-विवाह) तथा वर्तमान के समलैंगिक, मूर्ति, बच्चा-बच्ची, पोता-नाती, गाय-बैल, कुत्ता-कुत्ती, गधा-गदही आदि-आदि महामूर्ख विवाह कभी न करना। (15.2.5). वर-वधू का समयुवा होना। (15.2.6). ऋग्वेद के 2.35.4-6, 5.36.3 तथा 5.41.7 महर्षि दयानन्द भाष्य के अनुरूप उद्देश्यपूर्ण विवाह। (15.2.7). विवाह में देषोन्नति भाव भी हो। विवाह वर-वधू की सहमति तथा परिवार जनों के सहयोग से ही हो।
(15.3). विवाह विधि :- (15.3.1) स्नान, (15.3.3). मधुपर्क :- आसन, जल, मधुमय वातायन-भाव, मधुपर्क प्राशन, (15.3.4). त्रि आचमन-अमृत ओढ़ना, बिछाना, गुणामृत जीवन भावना, (15.3.5). अंग पवित्र भावना, (15.3.6). वर को द्रव्य देना (गोदान), (15.3.7). कन्या प्रति ग्रहण, (15.3.8). वस्त्र प्रदान करना, (15.3.9). वर-वधू हाथ में हाथ जल = जल, स्वेच्छा अभिचरण, उच्च संकल्पादि भावमय होना। 
(15.4). विवाह यज्ञ :- (15.4.1). प्रधान होम।(15.4.2). प्रतिज्ञा विधि वर के हाथ पर वधू का दाहिना हाथ रखकर दोनों सप्त प्रतिज्ञ हों। (15.4.3). शिलारोहण। (15.4.4). लाजा होम। (15.4.5). केष विमोचन। (15.4.6). सप्तपदी। (15.4.7). जल मार्जन।(15.4.8). सूर्यदर्षन। (15.4.9). हृदयालम्भन। (15.4.10). सुमंगली आषंसन।(15.4.11). आशीर्वाद।
(15.5). उत्तर यज्ञ :- (15.5.1). प्रधान होम। (15.5.2). ध्रुव दर्शन।(15.5.3). अरुन्धती दर्शन। (15.5.4). ध्रुवीभाव आशंसन। (15.5.5). ओदन आहूति।(15.5.6). ओदन प्राशन। (15.5.7). गर्भाधान। (15.5.8). प्रति यात्रा (रथ यात्रा) वापसी (15.5.9). वर गृह यज्ञ। (15.5.10). दधि प्राशन। (15.5.11). स्वस्तिवाचन :- आषीर्वाद।(15.5.12). अभ्यागत सत्कार। (15.5.13). पारिवारिक सुपरिचय।
(15.6). गृह निर्माण कर्म-वैदिक वास्तु :- (15.6.1). दिखने में उत्तम।(15.6.2). द्वार के सम्मुख द्वार। (115.6.3). कक्ष के सामने कक्ष। (15.6.4). सम चौरस, निरर्थ कोनों से रहित। (15.6.5). चारों ओर से वायु प्रवहण। (15.6.6). चिनाई तथा जोड़ अटूट-दृढ़। (15.6.7). उत्तम शिल्पी द्वारा ग्रथित। उसमें भंडारण स्थान। (15.6.8). पूजन-यजन स्थान। (15.6.9). नारी-कक्ष। (15.6.10). सभा-कक्ष।(15.6.11). स्नान-कक्ष।(15.6.12). भोजन कक्ष। (15.6.13). प्राकृतिक प्रकाश।(14.10.11.14). चारों ओर शुद्ध भूमि। (15.6.15). द्याम-द्यौ प्रवेश। (15.6.16).पत्नी-व्याप्तिमय-पत्नी सरलतापूर्वक कार्य कर सके जिसमें। (15.6.17). समुचित अन्तरिक्ष (आयतन)।(15.6.18). अन्य कक्ष।(15.6.19). ऊर्जावान्-बल, आरोग्य वृद्धि कारक।(15.6.20). समुचित विस्तार मात्र। (15.6.21). पोषक अन्न, रस, पयमयी।(15.6.22). पारिवारिक, आर्थिक आवश्यकतानुसार-तीन, पाँच, सात, नौ, ग्यारह कक्ष युक्त। अन्य कक्ष सभा कक्ष के इर्द-गिर्द हों। (15.6.23). अग्नि स्थान।(15.6.24). जल-स्थान।
शाला निर्माण विधि पश्चात् यथाविधि होम कर गृह प्रवेश करे। 
(15.7). गृहस्थाश्रम में रहने के नियम इस प्रकार हैं :- (15.7.1). वर्णानुकूल आजीविका हेतु मानक तयशुदा कर्म (धर्म) का पालन। (15.7.2). पंच यज्ञ करना।(15.7.3). पंचीकृत रूप में जीना- ब्राह्मण के लिए 50 प्रतिशत में शत प्रतिशत ज्ञानमय शेष 50 प्रतिशत में साढ़े बारह साढ़े बारह प्रतिशत सार-सार शौर्य, संसाधन, शिल्पमय, सेवामय, इसी प्रकार क्षत्रिय के लिए 50 प्रतिशत में शत प्रतिशत शौर्य तथा साढ़े बारह साढ़े बारह अन्य गुणमय तथा वैष्य, शूद्र द्वारा भी उपरोक्तानुसार आजीविका कार्य में दक्ष होना। (15.7.4). नियमित तौर पर आप्त पुस्तकें पढ़ना।(15.7.5). विद्यावृद्धों और वयोवृद्धों का अभिवादन। (15.7.6). स्वाधीन कर्मों की वृद्धि तथा पराधीन कर्मों का त्याग। (15.7.7). सभा नियमों का पालन।(15.7.8). करोड़ों अज्ञानियों के स्थान पर एक सज्ञानी का निर्णय मानना। (15.7.9). ग्यारह लक्षणों युक्त धर्म का पालन। (15.7.10). संगठन उन्नति के कार्य आदि।
गृहस्थ अस्तित्व पहचान में शारीरिक, सामाजिक, दैनिक, मासिक, पाक्षिक, आध्यात्मिक, आजीविका सम्बन्धी आदि सभी छोटे-बड़े कर्मों का विधान है। ऐसा गृहस्थमय सुपात्र निश्चिततः आस्तिक तथा भ्रष्टाचारमुक्त होगा।
(15.8). वानप्रस्थ :: गृहस्थाश्रम में अक्षमता के स्तर पर अस्तित्व पहचान संकट पैदा होने पर प्रदत्तीकरण (डेलीगेषन) तथा यम, नियम, वियम, संयम (यम-लोक) योगाभ्यास साधना द्वारा आत्मिक क्षमतावृद्धि करना वानप्रस्थ आश्रम है।
विवाह से सुसन्तानोत्पत्ति करके, पूर्ण ब्रह्मचर्य से, पुत्र के विवाह उपरान्त पुत्र की भी एक सन्तान हो जाए, तब व्यक्ति को वानप्रस्थ अर्थात् वन में जाकर, तप और स्वाध्याय का जीवन व्यतीत करने के लिए यह संस्कार किया जाता है। गृहस्थ लोग जब अपने देह का चमडा ढीला और ष्वेत केष होते हुए देखे और पुत्र का भी पुत्र हो जाए तो वन का आश्रय लेवे।
वानप्रस्थ करने का समय 50 वर्ष के उपरान्त का है। जब व्यक्ति नाना-नानी या दादा-दादी हो जाए तब अपनी स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु, पुत्रवधु आदि को सब गृहाश्रम की षिक्षा करकेवन की ओर यात्रा की तैयारी करे। यदि स्त्री चले तो साथ ले जावे। नहीं तो ज्येष्ठ पुत्र को सौंप जाए। और उसे कहे कि इसकी यथावत सेवा करना। और अपनी पत्नी को शिक्षा कर जावे कि तू सदा पुत्रादि को धर्म मार्ग में चलाने के लिए और अधर्म से हटाने के लिए षिक्षा करती रहना।
गृहस्थ आश्रम में सन्तानों के पालन, उद्योग, गृहकार्य एवं सामाजिक दायित्वों के चलते आत्मोन्नति के कार्यों के लिए व्यक्ति विशेष समय नहीं निकाल पाता। वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करके व्यक्ति साधना, स्वाध्याय एवं सेवा द्वारा जीवन के चरम लक्ष्य की ओर गतित होने के लिए पूर्ण अवसर मिल जाता है।
भारतीय संस्कृति त्यागमय जीवन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। वैसे भी जब तीन-तीन पीढ़ियां एक ही घर में रहती हैं तब विचारभेद के चलते झगड़े स्वाभाविक ही हैं। वानप्रस्थ इस समस्या का सटीक उपाय है।
(15.9). संन्यास :: संन्यास = सं + न्यास अर्थात् अब तक लगाव का बोझ जो उसके कन्धों पर है, उसे उठाकर अलग धर देना। मोहादि आवरण पक्षपात छोड़ के विरक्त होकर सब पृथ्वी में परोपकारार्थ विचरना। संन्यास ग्रहण के प्रथम प्रकार को क्रम संन्यास कहते हैं। जिसमें क्रमश: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ होके संन्यास लिया जाता है। द्वितीय प्रकार में गृहस्थ या वानप्रस्थ में जिस दिन वैराग्य प्राप्त होवे उसी दिन, चाहे आश्रम काल पूरा भी न हुआ हो, दृढ़ वैराग्य और यथावत ज्ञान प्राप्त करके संन्यास लेवे। तृतीय प्रकार में ब्रह्मचर्य से सीधा संन्यास लिया जाता है। जिसमें पूर्ण अखण्डित ब्रह्मचर्य, सच्चा वैराग्य और पूर्ण ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त कर विषयासक्ति से उपराम होकर, पक्षपात रहित होकर सबके उपकार करने की इच्छा का होना आवष्यक समझा गया है। संन्यास ग्रहण की पात्रता में एषणात्रय-लोकैषणा, वित्तैषणा, पुत्रैषणा का सवर्था त्याग आवश्यक माना जाता है।
संन्यासी के कर्त्तव्य :- न तो अपने जीवन में आनन्द और न ही अपने मृत्यु में दुःख माने, किन्तु जैसे क्षुद्र भृत्य अपने स्वामी की आज्ञा की बाट देखता है वैसे ही काल और मृत्यु की प्रतीक्षा करें। संन्यासी इस संसार में आत्मनिष्ठा में स्थित रहे, सर्वथा अपेक्षारहित उसका जीवन हो। मद्य-मांसादि का त्याग करे। आत्मा के सहाय से सुखार्थी होकर सदा सत्योपदेश करता ही विचरे। सब सिर के बाल, दाढ़ी-मूँ  और नखों को समय-समय पर छेदन कराता रहे। पात्री, दण्डी और कुसुम से रंगे वस्त्रों को धारण करे। प्राणीमात्र को पीड़ा न देता हुआ दृढ़ात्मा होकर नित्य विचरे। इन्द्रियों का बुरे कामों से निरोध, राग-द्वेष का क्षय और निर्वैरता से प्रणियों का कल्याण करता फिरे। यदि मुख वा अज्ञानी संन्यासी की निन्दा वा अपमान भी करे तथापि वह धर्म का ही आचरण करे। संन्यासी सम्मान से विष के तुल्य डरे और अमृत के समान अपमान की चाहना करे। यम-नियमों का मनसा-वाचा-कर्मणा पालन अवश्य करे।
स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती है तो उसे गृर्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता है। लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बँधता है ।
विवाह शब्द का तात्पर्य मात्र स्त्री-पुरुष के समागम सम्बन्ध तक ही सीमित नहीं है, अपितु सन्तानोत्पादन के साथ-साथ सन्तान को सक्षम आत्मनिर्भर होने तक के दायित्व का निर्वाह और सन्तति परम्परा को योग्य लोक शिक्षण देना भी इसी संस्कार का अंग है। शास्त्रों में अविवाहित व्यक्ति को अयज्ञीय कहा गया है और उसे सभी प्रकार के अधिकारों के अयोग्य माना गया है :-
"अयज्ञियो वा एष योऽपत्नीकः"
मनुष्य जन्म ग्रहण करते ही तीन ऋणों से युक्त हो जाता है, ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृऋण और तीनों ऋणों से क्रमशः ब्रह्मचर्य, यज्ञ, सन्तानोत्पादन करके मुक्त हो पाता है। 
जायमानो ह वै ब्राहणस्त्रिार्ऋणवान्‌ जायते-ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो, यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्यः। 
गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों का आश्रम है। जैसे वायु प्राणिमात्रा के जीवन का आश्रय है, उसी प्रकार गार्हस्थ्य सभी आश्रमों का आश्रम है। 
यथा वायुं समाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः।
यस्मात्‌ त्रायोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम्‌ गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्मा ज्येष्ठाश्रमो गृही।
विवाह अनुलोम रीति से ही करना चाहिए, प्रतिलोम्य विवाह सुखद नहीं होता अपितु परिणाम में कष्टकारी होता है।
त्रायाण्यमानुलोम्यं स्यात्‌ प्रातिलोम्यं न विद्यते प्रातिलौम्येन यो याति न तस्मात्‌ पापकृत्तरः।
अपत्नीको नरो भूप कर्मयोग्यो न जायते। 
ब्राह्मणः क्षत्रिायो वापि वैश्यः शूद्रोऽपि वा नरः।
विवाह के प्रकार :- स्मृतियों ने इस प्रकार के विवाहों को आठ भागों में विभक्त कियाᅠहै।
(1).  ब्राह्म, (2). दैव,  (3). आर्ष,  (4). प्राजापत्य,  (5). आसुर,  (6). गान्धर्व,  (7). राक्षस,  व  (8). पैचाश।
इनमें प्रथम चार प्रशस्त और चार अप्रशस्त की श्रेणी में रखे गये हैं। प्रथम चार में भी ब्राह्म विवाह सर्वोत्तम और समाज में प्रशंसनीय था शेष तारतम्य भाव से ग्राह्य थे। किन्तु दो सर्वथा अग्राह्य थे।
(1). पैशाच :- सोती रोती कन्या का बलात्‌ अपहरण।
(2). राक्षस :- अभिभावकों को मारपीट कर बलात्‌ छीनकर रोती बिलखती कन्या का अपहरण इस कोटि का निन्दनीय विवाह था।
(3). गान्धर्व :- जब कन्या और वर कामवश होकर स्वेच्छापूर्वक परस्पर संयोग करते हैं, तो ऐसा विवाह गान्धर्व विवाह होता है। 
(4). आसुर :- जिस विवाह में कन्या के पक्ष को यथेष्ट धन-सम्पत्ति देकर स्वच्छन्दतापूर्वक कन्या से विवाह किया जाता है, ऐसा विवाह आसुर संज्ञक है।
(5). प्राजापत्य :- वर स्वयं प्र्रस्ताव करके कन्या के पिता से विवाह का निवेदन करता और सन्तानोत्पादन के लिए विवाह स्वीकार किया जाता। ऐसा विवाह प्राजापत्य कोटि का होता है।
(6). आर्ष :- इस विवाह में कन्या का पिता वर से यज्ञादि कर्म के लिए दो गौ मिथुन प्राप्त करके धर्म कार्य सम्पन्न कर लेता है और उसके बदले में कन्यादान करता है।
(7). दैव :- माता-पिता की सम्मति, विधि-विधान से सम्पन्न विवाह।  
(8). ब्राह्म विवाह :- यह सबसे श्रेष्ठ प्रशंसनीय विधि है जिसमें कन्या का पिता योग्य वर को सब प्रकार सुसज्जित यथाशक्ति अलंकृत कन्या को गार्हस्थ्य जीवन की समस्त उपयोगी वस्तुओं के साथ समर्पित करता है।
आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्‌ आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः। 
विवाह के विविध-विधान के लिए देश, काल, प्रान्तभेद से पद्धतियाँ उपलब्ध हैं। तदनुसार वैवाहिक संस्कार सम्पन्न किया जाना चाहिए।
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितु:। 
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दरकर्मणि मैथुने॥  
जो कन्या माता की सात पीढ़ी के भीतर की हो, पिता के सगोत्र की न हो, वह द्विजातियों के व्याहने और सन्तोत्पादन करने योग्य होती है।[मनुस्मृति 3.5] 
The girls selected for marriage by a Dwij-upper caste should neither belong to 7 generations of his mother nor should she have common ancestor with his father.
The present day science has a lot to explain this. Common origin means presence of dominant defective gene or some inherited diseases. When the defective gene comes from both sides it becomes dominant; otherwise it will be a dwarf and will not show its impact over the progeny.
जो कुल सत्क्रिया से हीन्, सत्पुरुषों से रहित, वेदाध्ययन से विमुख, शरीर पर बड़े बड़े लोम अथवा बवासीर, क्षय रोग, दमा, खांसी, आमाशय, मिरगी, श्वेतकुष्ठ और गलित कुष्ठ युक्त कुलों की कन्या या वर के साथ विवाह न होना चाहिए; क्योंकि ये सब दुर्गुण और रोग विवाह करने वाले के कुल में प्रविष्ट हो जाते हैं।
हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम्। क्षय्यामयान्यपस्मारिव्श्रित्रिकुष्ठिकुलानी च॥
जो क्रियाहीन हों, जिनमें पुरुष सन्तति न हो, जो वेद के पठन-पाठन से रहित हों, जिनमें स्त्री-पुरुष के शरीरों पर बहुत और लम्बे केश हों, जिनमें अर्श-बबासीर, क्षय-राजयक्ष्मा, मन्दाग्नि, मृगी, श्वेत दाग और कुष्ठ रोग होते हैं। ये सभी बातें जातक के विवाह में बाधक हैं।[मनुस्मृति 3.7]   
One who neglects the sacred rites-rituals, has no male child, do not read-study the Veds, have thick rich-long hair on the body, suffering from piles, tuberculosis, those which are weak digestion-indigestion, epilepsy or white spots or  leprosy. these defects disqualify one from marriage.
अधिक जानकारी हेतु संदर्भ :: HINDU MARRIAGE हिन्दु-विवाह bhartiyshiksha.blogspot.com
(16). FUNERAL-CREMATION अन्त्येष्टि :: इसका नाम नरमेध, पुरुषमेध या पुरुषयाग भी है। यह मृत्यु के पीछे उसके शरीर पर किया जाता है। संसार में प्रचलित अन्य पद्धतियों में षवदाह की वैदिक पद्धति ही सर्वश्रेष्ठ पद्धति है।विश्वभर के लोग मरने पर मृतक शरीर को पृथ्वी, जल, अग्नि व वायु इन तत्वों में से किसी एक की भेंट कर देते हैं। जो लोग गाड़ते हैं वे पृथ्वी को, जो जल में प्रवाहित करते हैं वे जल को, जो शव  को खुला छोड़ देते हैं वे वायु को प्रदूषित करते हैं। वैदिक पद्धति से शवदाह के कई लाभ हैं- मृत शरीर को जलाने से भूमि बहुत कम खर्च होती है। कब्रों से स्थान-स्थान पर बहुत सी भूमि घिर जाती है। शवदाह में पर्याप्त घृत-सामग्री के प्रयोग के कारण वायु प्रदूषण का भी निवारण हो जाता है। जबकि गाड़ने से वायु एवं भूमि प्रदूषित ही होती है। कभी कभी कुछ पषु मृत देह को उखाड़कर खा जाते हैं। और रोगी शरीर को खाने से वे स्वयं रोगी बनकर मनुष्यों में भी रोग फैलाते हैं। कभी कुछ कफनचोर कब्र को खोद कर कफन उतार लेते हैं। इस से मृतक के सम्बन्धियों के मनोभावों को ठेस पहुंचती है। संसार में लाखों बीघा जमीन कब्रस्तानों में व्यर्थ जा रही है। मृर्दों को जलाना शुरु करने से यह कृषि या मकान बनाने में काम आ सकती है। कब्रों को कुछ स्वार्थी एवं पाखंडी लोग दरगाह आदि बनाकर भेंट-पूजा, चढावा आदि के माध्यम से आय का साधन बनाकर अन्धश्रद्धालु भोली-भाली जनता को लूटते हैं। अनेक पतित लोग तन्त्र-मन्त्र के नाम पर मुर्दों को उखाड़कर उनके साथ कुकर्म करते देखे गए हैं। मृतक शव के पंचमहाभूतों को जल्दी से जल्दी सूक्ष्म करके अपने मूल रूप में पहुंचा देना ही वैदिक अन्त्येष्टि संस्कार है। अग्नि द्वारा दाह कर्म ही एक ऐसा साधन है जिससे मृतदेह के सभी तत्व षीघ्र ही अपने मूल रूप् में पहुँच जाते हैं। 
अन्त्येष्टि को अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह है। मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। यह  इहलोक और परलोक की नियन्त्रक प्रक्रिया है। जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है तो वह विभिन्न कर्मो से बँधा रहता है। प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है। पुनः शरीर धारण कर आत्मा विभिन्न लोकों में निवास करती है जब तक उसे मोक्ष की उपलब्धिं न हो जाये। अन्त्येष्टि ऐहिक जीवन का अन्तिम अध्याय है। आत्मा अजर-अमर और परमात्मा का अंग है। मानव जीवन का प्रमुख ध्येय मोक्ष है। मनुष्य को इसके लिये मृत्यु पर्यन्त परमात्मा में भक्ति भाव बनाये रखना अत्यावश्यक है। मरणोत्तर संस्कार से ही पारलौकिक विजय प्राप्त होती है :-
जात संस्कारेणेमं लोकमभिजयति मृतसंस्कारेणामुं लोकम्‌॥ 
विधि-विधान, आतुरकालिक दान, वैतरणीदान, मृत्युकाल में भू शयन व्यवस्था मृत्युकालिक स्नान, मरणोत्तर स्नान, पिण्डदान, (मलिन षोडशी) के 6 पिण्ड दशगात्रायावत्‌ तिलाञ्जलि, घटस्थापन दीपदान, दशाह के दिन मलिन षोडशी के शेष पिण्डदान एकादशाह के षोडश श्राद्ध, विष्णुपूजन शैय़्यादान आदि। सपिण्डीकरण, शय्यादान एवं लोक व्यवस्था के अनुसार उत्तर कर्म आयोजित कराने चाहिए। इन सभी कर्मों के लिए प्रान्त देशकाल के अनुसार पद्धतियाँ उपलब्ध हैं तदनुसार उन कर्मों का आयोजन किया जाना चाहिए।
जब शवदाह किया जाता है, चिता को मुखग्नि देने वाला पुत्र चिता के धुँए से अट जाता है। उसके सर पर काफी मात्रा में जीवाणु घर बना सकते हैं, क्योंकि मृतक के शरीर के जीवाणु धुएँ के साथ वायुमण्डल में फैलते हैं। इसीलिए उसका भी मुण्डन किया जाता है। मुण्डन शरीरिक स्वास्थ्य से जुड़ा है न कि किसी धार्मिक प्रक्रिया, रीति-रिवाज से।
इसीलिये शवदाह के बाद आकर नहाना, नीम के पत्ते चबाना, धूप में बैठने का नियम बना है
एवं वृत्तां सवर्णां स्त्रीं द्विजातिः पूर्वमारिणीम्। 
दाहयेदग्निहोत्रेण यज्ञपात्रैश्च धर्मवित्॥
शास्त्रोक्त विधि से चलने वाली महिला यदि पहले मर जाये, तो धर्मज्ञ द्विज अग्निहोत्र और यज्ञ पात्रों के द्वारा उसकी दाह क्रिया करे।[मनु स्मृति 5.167] 
If a virtuous woman who had been following the dictates of the scriptures, dies before her husband, the husband who is a Brahmns should carry out all rituals, rites and procedures with the help of Agnihotr-holi sacrifices in fire with the help of vessels meant for Hawan-sacred sacrifices in fire and perform the last rites i.e., cremation.
भार्यायै पूर्वमारिण्यै दत्त्वाग्नीनन्त्यकर्मणि। 
पुनर्दारक्रियां कुर्यात् पुनराधानमेव च॥
पति के पूर्व मरने वाली स्त्री को अंत कर्म में अग्नि दे चुकने के पीछे वह पुरुष पुनर्विवाह करके (श्रौत या स्मार्त) अग्निहोत्र ले। 
Having performed the last rites after the funeral, the Brahmn may marry again.[मनु स्मृति 5.168]
श्राद्ध-पितृ तर्पण ::
(16.1). पितृ पक्ष का (महालय पक्ष) का महत्त्व :: वृश्चिक राशिमें प्रवेश करनेसे पूर्व, जब सूर्य कन्या एवं तुला राशि में होता है, वह काल महालय कहलाता है।
इस कालावधि में पितर यम लोक से आकर अपने परिवार के सदस्यों के घर में वास करते हैं। इसीलिए शक संवत अनुसार भाद्र पद कृष्ण प्रतिपदासे भाद्रपद अमावास्या तक के एवं विक्रम संवत अनुसार आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से आश्विन अमावस्या तक के पंद्रह दिनकी कालावधि में पितृ तर्पण एवं तिथि के दिन पितरोंका श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
ऐसा करनेसे पितृव्रत यथा सांग पूरा होता है। इसीलिए यह पक्ष पितरोंको प्रिय है। इस पक्षमें पितरों का श्राद्ध करनेसे वे वर्ष भर तृप्त रहते हैं। जो लोग पितृ पक्ष में कुछ कारण वश महालय श्राद्ध नहीं कर पाते, उन्हें पितृ पक्ष के उपरांत सूर्य के वृश्चिक राशिमें प्रवेश करने से पहले तो महालय श्राद्ध करना ही चाहिए।
श्राद्धं कन्यागते भानौ यो न कुर्याद् गृहाश्रमी। 
धनं पुत्राः कुततस्य पितृकोपाग्निपीडनात्॥ 
यावच्च कन्यातुलयोः क्रमादास्ते दिवाकरः। 
शून्यं प्रेतपुरं तावद् यावद् वृश्चिकदर्शनम्॥
कन्या राशिमें सूर्यके रहते, जो गृहस्थाश्रमी श्राद्ध नहीं करता, उसे पितरों की कोपाग्निके कारण धन, पुत्र इत्यादिकी प्राप्ति कैसे होगी ? उसी प्रकार सूर्य जब तक कन्या एवं तुला राशियोंसे वृश्चिक राशिमें प्रवेश नहीं करता, तब तक पितृलोक रिक्त रहता है।[महाभारत]
पितृलोक के रिक्त रहनेका अर्थ है, उस कालमें कुल के सर्व पितर आशीर्वाद देनेके लिए अपने वंशजों के समीप आते हैं । वंशजों द्वारा श्राद्ध न किए जानेपर शाप देकर चले जाते हैं। अतः इस कालमें श्राद्ध करना महत्त्वपूर्ण है। 
(16.2). पितृ पक्ष अर्थात महालय में श्राद्ध के लिए आने वाले पितर गण :: 
(16.2.1). पितृ त्रय :- पिता, दादा, पर दादा, 
(16.2.2). मातृ त्रय :- माता, दादी, पर  दादी,  
(16.2.3). सापत्न माता अर्थात सौतेली मा, 
(16.2.4). माता मह त्रय :- मां के पिता, नाना एवं परनाना,  (16.2.5). माता मही त्रय :- मां की माताजी, नानी एवं पर नानी, (16.2.6). भार्या, पुत्र, पुत्रियां, चाचा, मामा, भाई, बुआ, मौसियां बहनें, ससुर, अन्य आप्तजन, (16.2.7). श्राद्ध कर्ता किसी के शिष्य हों, तो गुरु, (16.2.8). श्राद्धकर्ता किसीके गुरु हों, तो शिष्य। 
यह स्पष्ट है कि मनुष्य मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म लेकर पुनः-पुनः उसी परिवार में तब तक आता है जब तक कि उसके उस परिवार सम्बन्धी संस्कार उपस्थित हैं। मृत्यु के उपरांत भी जीव के सुख एवं उन्नति से संबंधित इतना गहन अभ्यास केवल हिंंदू धर्म ने ही किया है। 
(16.3). भरणी श्राद्ध :: गया जाकर श्राद्ध करनेपर जो फल मिलता है, वही फल पितृ पक्ष के भरणी नक्षत्र पर करने से मिलता है। शास्त्रानुसार भरणी श्राद्ध वर्ष श्राद्ध के पश्चात् करना चाहिए । वर्ष श्राद्ध से पूर्व सपिंडीकरण (सपिंडी) श्राद्ध किया जाता है । तत्पश्चात् भरणी श्राद्ध करने से मृतात्मा को प्रेत योनि से छुडाने में सहायता मिलती है। यह श्राद्ध प्रत्येक पितृ पक्ष में करना चाहिए।पूर्वजों का बहुत-प्रेत-पिशाच योनि में होना अहितकर है। 
कालानुरूप प्रचलित पद्धतिनुसार व्यक्ति की मृत्यु होनेके पश्चात् 12 वें दिन ही सपिंडीकरण श्राद्ध किया जाता है। इसलिए, कुछ शास्त्रज्ञों के मतानुसार व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उस वर्ष पडने वाले पितृ पक्ष में ही भरणी श्राद्ध कर सकते हैं ।
(16.4). सर्व पित्री अमावस्या :: यह पितृ पक्ष की अमावस्या का  नाम है। इस तिथि पर कुल के सर्व पितरों को उद्देशित कर श्राद्ध करते हैं। वर्ष भर में सदैव एवं पितृ पक्ष की अन्य तिथियों पर श्राद्ध करना संभव न हो, तब भी इस तिथि पर सबके लिए श्राद्ध करना अत्यंत आवश्यक है; क्योंकि पितृ पक्ष की यह अंतिम तिथि है।
शास्त्र में बताया गया है कि, श्राद्ध के लिए अमावस्या की तिथि अधिक उचित है, जबकि पितृ पक्ष की अमावस्या सर्वाधिक उचित तिथि है।
इस दिन प्रायः सभी घरों में कम से कम एक ब्राह्मण को तो भोजन का निमंत्रण दिया ही जाता है। उस दिन मछुआरे, ठाकुर, बुनकर, कुनबी इत्यादि जातियों में पितरोंके नामसे भात का अथवा आटे का पिंड दान दिया जाता है और अपनी ही जाति के कुछ लोगों को भोजन कराया जाता है । इन में इस दिन ब्राह्मणों को सीधा (अन्न सामग्री) देने की भी परंपरा प्रचलित है।
(16.5). पितृ पक्ष में भगवान् दत्तात्रेय का नाम जपने का महत्त्व :: पितृ पक्ष में श्री गुरु देव दत्त का नाम जप अधिकाधिक करने से पितरों को गति प्राप्त होने में सहायता मिलती है।
(16.6). परिवार में किसी की मृत्यु होने पर उस वर्ष महालय श्राद्ध न करना :: परिवारमें जिस व्यक्तिके पिता अथवा माता  की मृत्यु हो गई हो, उस श्राद्धकर्ता को उनके लिए उनके देहांत के दिन से आगे एक वर्ष तक महालय श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती; क्योंकि, उनके लिए वर्ष भरमें श्राद्ध कर्म किया ही जाता है।
श्राद्ध कर्ता पुत्र के अतिरिक्त अन्यों को, उदा. श्राद्ध कर्ता के चचेरे भाई एवं जिन्हें सूतक लगता है, ऐसे लोगोंको अपने पिता इत्यादि के लिए प्रति वर्ष की भांति महालय श्राद्ध करना चाहिए। किंतु, सूतक के दिनों में महालय पक्ष पडने पर श्राद्ध न करें। सूतक समाप्त होनेपर आने वाली अमावस्या पर श्राद्ध अवश्य करें।
(16.7). महालय श्राद्ध के लिए आमंत्रित ब्राह्मण :: महालय श्राद्ध के समय प्रत्येक पितर के लिए एक ब्राह्मण होना चाहिए। ब्राह्मण को पितृ स्थान पर बिठाकर देवस्थान पर शालिग्राम अथवा बाल कृष्ण की मूर्ति-प्रतिमा-तस्वीर रखें। देवस्थान पर बाल कृष्ण एवं पितृ स्थान पर दर्भ रखें अथवा दोनों ही स्थानों पर दर्भ रखें । इसे चट अथवा दर्भबटु (-कुश से बनी कूंची) कहते हैं । चट रखकर किए गए श्राद्ध को चट श्राद्ध कहते हैं । इस श्राद्ध में दक्षिणा भी देते हैं।
श्राद्ध विधि-पितृ ऋण से मुक्त कराने की विधि ::
(16.7.1).अप  सव्य करना :- देश काल का उच्चारण कर अप सव्य करें, अर्थात् जनेऊ बाएं कंधे से दाएं कंधे पर लें।
(16.7.2). श्राद्ध संकल्प करना :- श्राद्ध के लिए उचित पितरों की षष्ठी विभक्ति का विचार कर (उनका उल्लेख करते समय, षष्ठी-विभक्ति का प्रयोग करना, प्रत्यय लगाना, उदा. रमेशस्य), श्राद्ध कर्ता निम्न संकल्प करे :–
अमुक श्राद्धं सदैवं सपिण्डं पार्वणविधीना एकोद्दिष्टेन वा अन्नेन वा आमेन वा हिरण्येन सद्यः करिष्ये।
(16.7.3). यवोदक (जौ) एवं तिलोदक बनाएं।
(16.7.4). प्रायश्चित के लिए पुरुष सूक्त, वैश्व देव सूक्त इत्यादि सूक्त बोलें।
(16.7.5). ब्राह्मणों की परिक्रमा करें एवं उन्हें नमस्कार करें। तदुपरांत श्राद्धकर्ता ब्राह्मणोंसे प्रार्थना करें कि हम सब यह कर्म सावधानी से, शांत चित्त, दक्ष एवं ब्रह्मचारी रहकर करेंगे।
(16.7.6). देवता एवं पितरों को निमंत्रण देना :- श्राद्ध कर्म के समय देवता एवं पितरों के लिए एक-एक दर्भ (कुश) अर्पित कर आमंत्रित करें।
(16.7.7). देव स्थान पर पूर्व की ओर एवं पितृ स्थान पर उत्तर की ओर मुख कर ब्राह्मणों को बैठाएं। ब्राह्मणों को आसन के लिए दर्भ दें, देवताओं को सीधे दर्भ अर्पित करें एवं पितरों को अग्र से मोड़ कर दें।
(16.7.8). आवाहन, अर्घ्य, संकल्प, पिंडदान, पिंडाभ्यंजन (पिंडों को दर्भ से घी लगाना), अन्न दान, अक्षयोदक, आसन तथा पाद्यके उपचारों में पितरों के नाम-गोत्र का उच्चारण करें।
गोत्र ज्ञात न हो तो कश्यप गोत्र का उच्चारण करें; क्योंकि श्रुति बताती है कि ‘समस्त प्रजा कश्यप से ही उत्पन्न हुई हैं’। पितरों के नाम के अंत में ‘शर्मन्’ उच्चारण करें। स्त्रियों के नाम के अंत में ‘दां’ उपपद लगाएं।
(16.7.9). ‘उदीरतामवर’ मंत्र से सर्वत्र तिल बिखेरें तथा गायत्री मंत्र से अन्न प्रोक्षण करें (अन्न पर पानी छिडकें)।
(16.7.10). देवता पूजन में भूमि पर नित्य दाहिना घुटना टिकाएं। पितरों की पूजा में भूमि पर बायां घुटना टिकाएं।
(16.7.11). देव कर्म प्रदक्षिण एवं पितृ कर्म अप्रदक्षिण करें। देवताओं को उपचार समर्पित करते समय ‘स्वाहा नमः’ एवं पितरों को उपचार समर्पित करते समय ‘स्वधा नमः’ कहें।
(16.7.12). देव-ब्राह्मण के सामने यवोदक से दक्षिणावर्त अर्थात् घड़ी की दिशामें चौकोर मंडल व पितर-ब्राह्मण के सामने तिलोदकसे घडीकी विपरीत दिशामें गोलाकार मंडल बनाकर, उनपर भोजनपात्र रखें। उसी प्रकार कुलदेवता एवं गोग्रास के ( गाय के लिए नैवेद्य) लिए पूजा घर के सामने पानी का घडी की दिशा में मंडल बनाकर उन पर भोजन पात्र रखें। पितृ स्थान पर बैठे ब्राह्मणों के भोजन पात्र के चारों ओर भस्म का उलटा (-घडी की विपरीत दिशा में) वर्तुल बनाएं। देवस्थान पर बैठे ब्राह्मणों के भोजन पात्रों के चारों ओर नित्य पद्धति से (घड़ी की दिशा में) भस्म की रंगोली बनाएं।
(16.7.13). पितर एवं देवताओं को विधिवत् संबोधित कर अन्न-निवेदन करें।
(16.7.14). पितरों को संबोधित कर भूमि पर अग्रयुक्त एक बित्ता लंबे 100 दर्भ फैला कर उस पर पिंड दान, तदनंतर पिंडों की पूजा करें। तत्पश्चात् देव ब्राह्मण के लिए परोसी थाली के सामने दर्भ पर थोडे चावल (विकिर), पितर ब्राह्मण के लिए परोसी थाली के सामने दर्भ पर थोडे चावल (प्रकिर) रखकर उन पर क्रमानुसार यवोदक, तिलोदक दें। इसके पास में भिन्न दर्भप र एक पिंड रख कर उस पर तिलोदक दें। उसे ‘उच्छिष्ट पिंड’ कहते हैं। इन सर्व पिंडों को जलाशयमें विसर्जित करें अथवा गाय को दें।
(16.7.15). महालय श्राद्ध के समय सबको संबोधित कर पिंडदान होने के पश्चात् चार दिशाओं को धर्म पिंड दें। सृष्टि की निर्मिति करने वाले ब्रह्म देव से लेकर जिन्होंने हमारे माता-पिताके कुलमें जन्म लिया है; साथ ही गुरु, आप्त, हमारे इस जन्म में सेवक, दास, दासी, मित्र, घर के पालतू प्राणी, लगाए गए वृक्ष, हम पर उप कृत (हमारे प्रति कृतज्ञ) व्यक्ति, जिनका पिंड दान करने के लिए कोई न हो तथा अन्य ज्ञात एवं अज्ञात व्यक्ति को पिंड दान करें।
(16.7.16). पिंड दान के उपरांत ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर उनसे आशीर्वाद के अक्षत लें। स्वधा वाचन कर सर्व कर्म ईश्वरार्पण करें ।
यदि घर में मंगलकार्य हुआ हो, तो एक वर्ष तक श्राद्ध में पिंड दान निषिद्ध है। कर्ता (पुत्र का विवाह, यज्ञोपवीत, चौल संस्कार करने वाला) विवाहोपरांत एक वर्ष, व्रत बंध के उपरांत छः मास, चौल संस्कार के उपरांत तीन मास क पिंड दान, मृत्तिका स्नान एवं तिल तर्पण न करे।इसके लिए ये अपवाद है-विवाह होनेके पश्चात् भी, तीर्थ स्थल में, माता के पितरों के सांवत्सरिक श्राद्धमें, प्रेत श्राद्ध में, पिता के और्ध्वदेहिक कर्मों में एवं महालय श्राद्धमें सर्वदा पिंडदान किया जा सकता है।
भात में अर्थात पके हुए चावलमें अग्नौ करण अर्थात अग्निमें आहुति देने हेतु लिए गए भात का शेष भाग, तिलोदक, काले तिल, दही, मधु एवं घी, ये मुख्य घटक मिलाएं।शास्त्र में सर्व प्रकार के श्राद्धीय अन्न पदार्थों के अल्प भाग से पिंड बनाने का विधान है। इसलिए पिंड बनाने के मिश्रण में मुख्य घटकों के साथ ही बडे एवं खीर इत्यादि श्राद्धीय भोजन के पदार्थ भी डालने चाहिए।
पिंड बनाने के इस मिश्रण को मसलकर साधारणतः चार बडे पिंड एवं अन्य आवश्यक छोटे पक्के (firm) पिंड बनायें । पितृ त्रय के लिए थोडे बड़े आकार के पिंड बनाने की पद्धति निम्न है :-
(16.8.1). श्राद्ध में भात अर्थात पके हुए चावल के पिंड बनाना :- चावल सर्व समा वेशक है। चावल पकाने से उसमें रजो गुण बढता है। इस प्रक्रिया में चावल में पृथ्वी तत्त्व का प्रमाण घटकर आप तत्त्वका प्रमाण बढता है। आप तत्त्वके कारण भातसे प्रक्षेपित सूक्ष्म-वायुमें आर्द्रता अधिक होती है। जब श्राद्ध में भात का गोला बनाकर उस पर संस्कार किए जाते हैं, तब उसका रूपांतर पिंड में होता है। संक्षेप में, भात  के सर्व ओर उत्पन्न होने वाले आर्द्रता दर्शक प्रभावलय में पितरों की लिंग देहों की रज-तमात्मक तरंगों का संस्करण होता है। इस रजो गुणी पिंड की वातावरण कक्षा में पितरों की लिंग देहोंके लिए प्रवेश करना सरल होता है। अतः मंत्रोच्चारण से संचारित वायुमंडल द्वारा लिंग देह को सूक्ष्म बल प्राप्त होता है तथा उनके लिए आगे का मार्ग प्रशस्त एवं सुगम होता है।
(16.8.2). पिंड के लिए सर्व प्रकार के अन्न पदार्थों का अल्प भाग लेना :- भात से बनाया पिंड लिंग देह का प्रतिनिधित्व करता है। जब लिंग देह प्रत्यक्षतः व्यक्ति की स्थूल देह से विलग होती है, तब वह मन के विविध संस्कारों का आवरण लेकर निकलती है। आसक्ति दर्शक संस्कारों में अन्न संबंधी संस्कार सर्वाधिक होते हैं। प्रत्येक जीव की अन्न विषयक रुचि-अरुचि भिन्न होती है। इन सभी रुचियों के सूचक जैसे मीठा, चटपटा, नमकीन इत्यादि स्वादिष्ट पदार्थों से युक्त अन्न का अल्प अंश लेकर उससे पिंड बनाकर श्राद्ध स्थल पर रखा जाता है। श्राद्ध में इन विशिष्ट अन्न पदार्थों की सूक्ष्म-वायु कार्यरत होती है एवं श्राद्ध स्थल पर आई लिंग देह को इस सूक्ष्म-वायु के माध्यम से विशिष्ट अन्न के हविर्भाग अर्थात पितरों को अर्पित अन्न के अंश की प्राप्ति होती है। इससे लिंग देह संतुष्ट होती हैं।विशिष्ट पदार्थोें का अंश प्राप्त होने से विशिष्ट पदार्थोें की लिंग देह की आसक्ति अंशतः क्षीण होती है। जिससे लिंग देह के भूलोक में अटकने की आशंका घटती है।
(16.8.3). मधु युक्त पिंड देना :-  मधु में पृथ्वी एवं आप तत्त्वोंसे संबंधित पितर तरंगों को अपनी मिठास से प्रसन्न करने एवं उन्हें पिंड में ही बद्ध करने की क्षमता होती है। अतः मधु युक्त पिंड देने से वह दीर्घ काल तक पितर-तरंगों से संचारित रहता है। दर्भ का शुद्धिकरण किया जाता है। प्रत्येक पिंड रखते हुए कर्ता कहता है अमुक गोत्रके वसु स्वरूप अथया रुद्र स्वरूप अथवा आदित्य स्वरूप के अपने अमुक नाम के परिजन के लिए मैं पिंड रखता हूं। उसके उपरांत पिंड पूजन किया जाता है।
(16.8.3.1).  पिंड स्वरूपी पितरों के लिए काजल, ऊन का धागा, पुष्प, तुलसी, भृंगराज, धूप, दीप द्वारा उपचार किए जाते हैं।
(16.8.3.2). पिंडरूपी पितरों को नैवेद्य अर्पित किया जाता है। 
(16.8.3.3).  पीनेके लिए तथा हाथ-मुंह धोनेके लिए जल अर्पित किया जाता है। मुखशुद्धि हेतु पान अर्पित किया जाता है।
(16.8.3.4). उसके पश्चात पितर-ब्राह्मणों को तिलोदक एवं देव-ब्राह्मणों को यवोदक अर्थात जौ युक्त जल देकर पिंड पर जल छोडा जाता है। जिन पितरों की मृत्यु अग्निमें जलने से अथवा कोख में जन्म से पहले ही हो गई है उनके लिए बनाए गए विशेष पिंडों पर तिलोदक चढाया जाता है।
(16.8.3.5). उसके पश्चात परिवार के अन्य सदस्य पिंडों को नमस्कार करते हैं।
(16.8.4). श्राद्धकर्ता द्वारा दर्भपर पिंड रखने तथा उसका पूजन करना :- श्राद्ध विधि में मंत्रो का उच्चारण करते समय पुरोहित में शक्ति के वलय की जागृति होती है। पुरोहित के मुख से वातावरण में शक्ति की तरंगों का प्रक्षेपण होता है। श्राद्ध विधि भाव पूर्ण करने वाले पूजक के अनाहत चक्र के स्थान पर भाव के वलय जागृत होते हैं। ईश्वर से प्रक्षेपित शक्ति का प्रवाह पिंडदान हेतु रखे दर्भ में आकृष्ट होता है। दर्भ एवं उसपर रखे जाने वाले पिंड में शक्ति के वलय जागृत होते हैं। इस वलय से वातावरण में शक्ति के प्रवाहों का प्रक्षेपण होता है। शक्ति का प्रवाह पूजक की ओर प्रक्षेपित होता है।
(16.8.5).  पिंड पूजन की सूक्ष्म गति :- पुरोहित द्वारा श्राद्धसे संबंधित मंत्र पठन के कारण भुव लोक से एक काला-सा प्रवाह पिंड की ओर आकृष्ट होता है। लिंग देह के रूप में पितर आकृष्ट होते है। आकृष्ट हुए पितरों के कारण दर्भ पर रखे पिंड के सर्व ओर काला तमोगुणी वलय उत्पन्न होता है। श्राद्ध कर्ता पिंड पूजन कर प्रार्थना करता है कि उसके परिवार पर पितरों की कृपा दृष्टि बनी रहे। पितरों को अन्न एवं शक्ति प्राप्त हो प्रार्थना करने से श्राद्ध कर्ता की ओर चैतन्य तथा शक्तिके प्रवाह आकृष्ट होते है। श्राद्ध कर्ता के स्थानप र चैतन्य तथा शक्ति के वलय जागृत होते हैं। श्राद्ध कर्ता के भाव पूर्ण पिंड पूजन से पूर्वज दोष की तीव्रता घटती है। पिंड पूजन करने से अतृप्त पितर भुव लोक से पिंड की ओर सहजता से आकृष्ट होते हैं तथा उनकी इच्छाएं पूर्ण होकर उन्हें गति मिलती है। इस प्रकार से पितरों के कष्ट न्यून होते हैं। यह श्राद्ध विधि में पिंड पूजन का महत्त्व स्पष्ट होता है।
BRAHMAN SANSKAR-RITES  ब्राह्मण संस्कार ::  ब्राह्मण के तीन जन्म  होते हैं। (1). माता के गर्भ से, (2). यज्ञोपवीत से व (3). यज्ञ की दीक्षा लेने  से। यज्ञोपवीतके समय गायत्री माता व और आचार्य पिता होते हैं। वेद की शिक्षा देने से आचार्य पिता कहलाते हैं। यज्ञोपवीत के बिना, वह किसी भी वैदिक कार्य का अधिकारी नहीं होता। जब तक वेदारम्भ न हो, वह शूद्र के समान है।     
जिस ब्राह्मण के 48 संस्कार विधि पूर्वक हुए हों, वही ब्रह्म लोक व ब्रह्मत्व को प्राप्त करता है। इनके बिना  वह शूद्र के समान है। 
गर्वाधन, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्न प्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, चार प्रकार के वेदव्रत, वेदस्नान, विवाह, पञ्च महायज्ञ (जिनसे पितरों, देवताओं, मनुष्यों, भूत और ब्रह्म की तृप्ति होती है), सप्तपाक यज्ञ (संस्था-अष्टकाद्वय), पार्वण, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री, शूलगव, आश्र्वयुजी, सप्त हविर्यज्ञ (संस्था-अग्न्याधान), अग्निहोत्र, दर्श-पौर्णमास, चातुर्मास्य, निरूढ-पशुबंध, सौत्रामणि, सप्त्सोम (संस्था-अग्निष्टोम), अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम। ये चालीस ब्राह्मण के संस्कार हैं। 
ब्राह्मण में 8 आत्म गुण :: 
अनसूया :- दूसरों के गुणों में दोष बुद्धि न रखना, गुणी के गुणों को न छुपाना, अपने गुणों को प्रकट न करना, दुसरे के दोष-अवगुण देखकर प्रसन्न न होना। 
दया :- अपने-पराये, मित्र-शत्रु में अपने समान व्यवहार करना और दूसरों का  दुःख दूर करने की इच्छा रखना। 
क्षमा :- मन, वचन या शरीर से दुःख पहुँचाने वाले पर क्रोध न करना व वैर न करना। क्षमाशील व्यक्ति महान माना जाता है। मेधातिथि तथा गोविन्दराज के अनुसार दूसरे के अपराध को सह लेना क्षमा है। क्रोध आने पर भी क्रोध न करना क्षमा है। किसी के अपकार पर बदला न लेना क्षमा है। क्षमा के द्वारा ही विद्वान शुद्ध होता है। अपना अपमान सह लेना क्षमा है। अपमान को प्राप्त व्यक्ति सुख पूर्वक विचरण करता है तथा अपमान करने वाला नष्ट हो जाता है। इस लोक तथा परलोक में सुख प्राप्त करने का एकमात्र साधन क्षमा है क्षमावान् मनुष्य को व्यक्ति मूर्ख विचारते हैं, यद्यपि वह स्वयं मूर्ख-अज्ञानी होते हैं। क्षमाशील व्यक्ति ही संतोष प्राप्त कर सकता है। यदि कोई अपराध करें तब क्षमा द्वारा ही स्वयं सुख प्राप्त होता है तथा अपराधी अपराध बोध से ग्रसित हो जाता है। यही उसके अपराध की सजा है। इस प्रकार भूलों से बचने वाला व्यक्ति बुद्धिमान कहलाता है तथा भूलों पर प्रायश्चित्त कर मन को निर्मल करने वाला व्यक्ति आत्म विजय का पथिक होता है। क्षमा का सभी धर्मों में गुणगान किया गया है। क्षमा की यह भावना भारतीय संस्कृति के प्राणों में बसी है। शान्ति ही जीवन के सुख की तुला है तथा यह शान्ति क्षमा भाव के द्वारा प्राप्त होती है। अतः मानव एक दूसरे से क्षमा माँगकर तथा देकर विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
अनायास :- जिन शुभ कर्मों को करने से शरीर को कष्ट होता हो, उस कर्म को हठात् न करना। 
मंगल :- नित्य अच्छे कर्मों को करना और बुरे कर्मों को न करना। 
अकार्पन्य :- मेहनत, कष्ट व न्यायोपार्जित धन से, उदारता पूर्वक थोडा-बहुत नित्य दान करना।  
शौच :- अभक्ष्य वस्तु का भक्षण न करना, निन्दित पुरुषों का संग न करना और सदाचार में स्थित रहना। शौच दो प्रकार का होता है :- वाह्य शौच मिट्टी तथा जल से होता है, किन्तु आन्तरिक शौच लोभादि पापों के बचने से होती है। आन्तरिक शौच से जो मनुष्य शुद्ध है वही शुद्ध है दूसरा नहीं। जिन पुरुषों का अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता है, वह पुरुष हजार बार मिट्टी से तथा सौ घड़ जल से भी शुद्ध नहीं हो सकते। मिट्टी तथा जल यत्न पूर्वक प्राप्त होता है; अतः वाह्य शौच के प्रति प्रमाद नहीं करना चाहिये। शौचावस्था में जिस कर्म को दिन में करने के लिये कहा है, उससे आधा रात्रि में तथा रुग्णावस्था में उसका आधा करे तथा मार्ग में शूद्र के समान आचरण करे। मार्ग में शूद्र के समान आचरण करने के लिए इसलिए कहा है कि मार्ग में शुद्ध होने के लिए सम्भव है, मिट्टी तथा जल अप्राप्य हो। शौचाचार के पश्चात् अशौचार से भी मनुष्य की शुद्धि होती है। अशौचार तीन प्रकार का होता है :- जन्म, मरण, जीवनपर्यन्त। सद्यः शौच, एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन, छः दिन, दस दिन, बारह दिन, पन्द्रह दिन तथा एक मास तक तथा मृत्युपर्यन्त तक अशौचार होता है। यदि जन्म समय में मरण-सूतक तथा मरण-सूतक में जन्म-सूतक हो जाये तो दोनों की शुद्धि मरण-सूतक के अशौचार द्वारा होती है। यज्ञ के समय में, विवाह में, देवपूजन में तथा अग्निहोत्र में अशौचार तथा सूतक दोनों नहीं होते हैं। वाह्य शुद्धि से सभी आचार निष्फल हो जाते हैं। अन्तःकरण की शुद्धि से सभी आचार फलवती होते हैं। 
यथेदं शावमाशौचं सपिण्डेषु विधीयते।
जननेऽप्येवमेव स्यात्निपुणं शुद्धिमिच्छताम्॥
सपिण्ड दयादों जो जैसे दस दिन का मृतक का अशौच का विधान है वैसे ही शुद्धि चाहने वाले सपिण्डों के लिये जन्म-सम्बन्धी अशौच का भी विधान है।[मनु स्मृति 5.61]
The regulations of purification in both the cases i.e., death  and the birth of a child in the family meant for the heirs, are the same.
सर्वेषां शावमाशौचं मातापित्रोस्तु सूतकम्। 
सूतकं मातुरेव स्यादुपस्पृश्य पिता शुचिः॥
मृताशौच सभी सपिण्डों को होता है, जनाना शौच माँ-बाप को ही होता है। किन्तु माता रात तक अपवित्र रहती है और पिता स्नान मात्र से ही शुद्ध होता है।
Impurity on account of the death of a sibling remains with all of the progeny, while the impurity on account of birth is limited to the mother and father only. impurity of the mother persists till night, while the impurity of the father is washed away just by bathing.
निरस्य तु पुमाच्छुक्रमुपस्पृ श्यैव शुध्यति। 
बैजिकादभिसम्बन्धादनुरुन्ध्यादघं त्र्यहम्॥
इच्छा से वीर्य स्खलन कर पुरुष स्नान करने से शुद्ध होता है। बीज के सम्बन्ध से परस्त्री में संतानोत्पत्ति होने पर तीन दिन तक अशौच होता है।[मनु स्मृति 5.63] 
One who ejects sperms, is cleansed after bathing. If it leads to progeny of some other's wife then it takes him three days to cleansed.
One should abstain from making sexual relations with a married woman. If this relation leads to progeny, he may never know the manner in which its brought up. Children born out of adulterous relations are never pious, virtuous. Its extremely rare when they are given given good virtues-ethics. If the woman happen to be one with high morals, values, ethics and is compelled by circumstances-situation to seek progeny from a virtuous person, the child might prove to be excellent like Vidur Ji, whose mother was impregnated by Bhagwan Ved Vyas on the orders of his mother under the tradition called Niyog.
अह्ना चैकेन रात्र्या च त्रिरात्रैरेव च त्रिभिः। 
शवस्पृशो विशुध्यन्ति त्र्यहादुदकदायिनः॥
जो एक या तीन दिन के अशौचाधिकारी हैं, वे यदि मोहवश शवस्पर्श करें तो वे दस दिन में शुद्ध होते हैं और समानोदक तीन दिन में।[मनु स्मृति 5.64] 
Those who are entitled for purification within three days have to wait till the completion of 10 days, if they touch the dead body due to their love for the bereaved-dead. Those who are uncles, brothers etc. on father's side get purification within 3 days of the cremation of the dead body after returning from the cremation ground.
समानोदक :: सपिण्‍ड, तुल्‍यरूप, स्‍पष्‍ट, समान, सपरिणाम, समानान्‍तर, बराबर, अनुरूप, अभिन्‍न, युक्‍त, मित्र, सदृश; collateral kinsman, a distant relation on the father's side, parallel, resembling, comparable.
गुरोः प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेधं समाचरन्। 
प्रेतहारैः समं तत्र दशरात्रेण शुध्यति॥
गुरु के मरने पर उनका विगोत्र शिष्य दाहदि क्रिया करे तो वह उनके दाहक-वाहक सपिण्डों के समान रात में शुद्ध होता है।[मनु स्मृति 5.65] 
If the pupil-student who belongs to other lineage-Gotr, perform the last rites of the Guru-teacher in case the son or immediate relation is not present, he has to wait for 10 days like the members of the Guru's family. for purification.
रात्रिभिर्मासतुल्याभिर्गर्भस्रावे विशुध्यति। 
रजस्युपरते साध्वी स्नानेन स्त्री रजस्वला॥
गर्भ स्त्राव होने से जितने महीने का गर्भ हो उतने रात में स्त्री शुद्ध होती है। यह व्यवस्था छह महीने तक के लिए है। रजस्वला साध्वी श्री रज निवृत होने पर स्नान से शुद्ध होती है।[मनु स्मृति 5.66]
In case of miscarriage of the foetus of up to six months the woman takes that many nights for purification. The woman undergoing periods get purification through bathing after the completion of the periods-menstrual cycle.
नृणामकृतचूडानां विशुद्धिर्नैशिकी स्मृता। 
निर्वृत्तचूडकानां तु त्रिरात्रात्शुद्धिरिष्यते॥
मुंडन के पूर्व बालक की मृत्यु होने से दवादों को एक अहोरात्र और मुंडन के बाद उपनयन के पूर्व मृत्यु होने से तीन रात तक अशौच होता है।[मनु स्मृति 5.67] 
If the infant expires before the tonsure ceremony his immediate relatives-brothers etc. have to abstain from worship, prayers, auspicious activities, new ventures for one complete day and night. If the death occurs after tonsure but before sacred thread ceremony-Janeu; it constitute impurity for three days.
All religious activities, auspicious functions, marriages etc. are suspended for 3 days.
ऊनद्विवार्षिकं प्रेतं निदध्युर्बान्धवा बहिः। 
अलङ्कृत्य शुचौ भूमावस्थिसञ्चयनाद्ते॥
दो वर्ष उम्र का बालक मर जाये तो बन्धुगण उसे फूल मालाओं से सजाकर गॉंव के बाहर पवित्र भूमि में रख कर उसका अस्थिसंचय न करें।[मनु स्मृति 5.68] 
If the child dies before acquiring the age of 2 years his dead body should be placed in the pious soil after decorating it with flowers, garlands. His bones should not be digged-excavated.
This place has to be maintained by the society so that no defalcation is allowed there and no garbage is dumped there. The body should be buried at such a depth that it can not be digged by jackals, foxes etc.
नास्य कार्योऽग्निसंस्कारो न च कार्यौदकक्रिया। 
अरण्ये काष्ठवत्त्यक्त्वा क्षपेयुस्त्र्यहमेव च॥
अग्नि संस्कार न करें और न ही इसकी उदक क्रिया ही करें। उसे जंगल में लकड़ी के तरह त्याग दें और तीन दिन तक अशौच रखें।[मनु स्मृति 5.69] 
Neither the dead body has to be cremated-burnt, nor rituals like bathing in sacred water have to be performed. The body should be rejected like dead wood i.e., one should not show any sort of affection to it. A three days mourning has to be observed during which period no sacred-auspicious ceremony, function, celebration has to take place.
उदक क्रिया :: किसी के करने, अग्नि संस्कार के बाद घाट पर नहाना; bathing in a reservoir or flowing water-river after cremation of dead body.
नात्रिवर्षस्य कर्तव्या बान्धवैरुदकक्रिया। 
जातदन्तस्य वा कुर्युर्नाम्नि वाऽपि कृते सति॥
तीन वर्ष से कम उम्र के बालक के मरने पर उसे जलाञ्जलि न दें। जिसके दाँत निकल आये हों और नामकरण हो गया हो, उसकी उदक क्रिया और अग्निसंस्कार करें।[मनु स्मृति 5.70]
In case the child dies before acquiring the age of 3 years he should not be offered rituals connected with pouring of water. The child whose teeth have grown up and whose naming ceremony has been conducted, should be cremated.
जलाञ्जलि :: अञ्जलि में जल लेकर सूर्य भगवान् आदि देवताओं को अर्पित करना; hollowed palms filled with water offered to ancestors-deceased, a method of offering homage to the deceased in front of the Sun on the banks of a river, pond. 
सब्रह्मचारिण्येकाहमतीते क्षपणं स्मृतम्। 
जन्मन्येकोदकानां तु त्रिरात्रात्शुद्धिरिष्यते॥
सहपाठी (ब्रह्मचर्य के साथी) की मृत्यु से एक दिन अशौच होता है। समानोदकों के यहाँ पुत्र जन्म होने से तीन दिन अशौच रहता है।[मनु स्मृति 5.71] 
In case of the death of a classmate in the Guru's Ashram a period of condolence is observed for a day, during which teaching and learning process is suspended, no prayers to God are offered, no auspicious function-ceremony is performed. If a son is born in family of brothers impurity prevails for 3 days & nights. 
स्त्रीणामसंस्कृतानां तु त्र्यहाच्छुध्यन्ति  बान्धवाः। 
यथौक्तेनैव कल्पेन शुध्यन्ति तु सनाभयः॥
अविवाहित कन्या वगदान के अनन्तर मर जाये तो उसका भावी पति और देवर आदि तीन दिन में शुद्ध होते हैं और उसके पितृ पक्ष वाले भी उसी पूर्वोक्त व्यवस्था के अनुसार अर्थात तीन दिन में शुद्ध होते हैं।[मनु स्मृति 5.72] 
If a girl dies after engagement her parental family and the would be husband-bridegroom and his brothers should observes purification measures for three days and nights.
अक्षारलवणान्नाः स्युर्निमज्जेयुश्च ते त्र्यहम्। 
मांसाशनं च नाश्नीयुः शयीरंश्च पृथक् क्षितौ॥[मनु स्मृति 5.73]
मृतशौच में क्षार लवण (कृतिम नमक) न खायें।  तीनों दिन नदी या झील में स्नान करें, माँस न खायें, धरती पर अकेले न सोयें। 
During the mourning-condolence period, one should not eat the salt prepared through artificial means (i.e., by  the combination of acid and alkalies-bases). He should take bath in a river or pond-lake (one may take bath at home in tap water as well) for 3 days, should not eat meat-fish, meat products and should not sleep over the ground-floor alone i.e., away from others. 
असन्निधावेष वै कल्पः शावाशौचस्य कीर्तितः। 
असन्नि  धावयं ज्ञेयो विधिः संबन्धिबान्धवैः॥[मनु स्मृति 5.74]
मृत शौच की यह विधि मृत पुरुष के सन्निधि (अर्थात एक स्थान में) रहने वालों के लिये कही गई है।  दूरस्थ बाँधवों की लिये निम्न विधि है :- 
This is procedure for mourning for those, who live together at a place where the deceased lived. For those relatives-kinsmen who live away from the deceased, the following procedure has been described :-
विगतं तु विदेशस्थं शृणुयाद्यो ह्यनिर्दशम्। 
यत्शेषं दशरात्रस्य तावदेवाशुचिर्भवेत्॥[मनु स्मृति 5.75]
दशाहाशौच के भीतर विदेशस्थ दायाद की मृत्युवार्ता सुनने पर दशाह में जितने दिन बाकि रहें उतने दिन अशौच होता है। 
The relative-kin, who live away-abroad and learns after a few days about the death of his kin can observe mourning for the remaining days of the 10 days condolence period.
दशाह :: ऐसे धार्मिक कृत्य जो किसी मृत आत्मा की सद्गति के लिए मृत्यु के दस दिन तक किए जाते हैं; rites, rituals-practices observed for 10 days after the death of some relative. 
अतिक्रान्ते दशाहे च त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्। 
संवत्सरे व्यतीते तु स्पृष्ट्वैवापो विशुध्यति॥[मनु स्मृति 5.76]
दशाह बीत जाने पर मृत्यु वार्ता होने से त्रिरात्रि शौच होता है। बीत जाने पर स्नान करने से शुद्धि होती है।
After the expiry of three days, one has to practice purification for 3 days. Thereafter, purification takes place just by bathing. 
In India, one is supposed to take bath everyday in the morning. One who is involved in austerities has to bathe trice or thrice a day.
निर्दशं ज्ञातिमरणं  श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च। 
सवासा जलमाप्लुत्य शुद्धो भवति मानवः॥[मनु स्मृति 5.77]
दशाह के अनन्तर सपिण्ड दयाद का मरण या पुत्र जन्म का समाचार सुनकर मनुष्य उस समय शरीर में जो कपड़े हों, उनके सहित जल में स्नान कर लेने से शुद्ध हो जाता है। 
Bothers-kines, who gets the informative after 10 days of the death or the birth of a son become pure by bathing along with the cloths they are wearing.
बाले देशान्तरस्थे च पृथक्पिण्डे च संस्थिते। 
सवासा जलमाप्लुत्य सद्य एव विशुध्यति॥[मनु स्मृति 5.78]
असपिण्ड (समानोदक) बालक के देशान्तर में मारे जाने की वार्ता (समाचार सुनकर) तुरन्त वस्र सहित स्नान करने से शुद्ध होता है। 
The distant relative who learns about the death of the child abroad, becomes pure just by taking bath along with the cloths, he is wearing.
This is to ward off the ill effects of vibrations, waves, gloom, generated in the atmosphere-cosmos due to the death of someone close, near & dear, relative, friend etc.
अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनर्मरणजन्मनी। 
तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावत्तत्स्यादनिर्दशम्॥[मनु स्मृति 5.79]
दस  भीतर यदि मरणाशौच में पुनः दूसरा मरण और जनना शौच में दूसरा जन्म (अन्य बच्चे का जन्म) हो जाये तो ब्राह्मण जब तक पूर्व के दशाहाशौच  के पूरा होने तक अशुद्ध रहता है।
The Brahmn remains impure if second death or second birth occurs in the family, before the completion of the 10 days of mourning, until the first period of ten days has expired.
त्रिरात्रमाहुराशौचमाचार्ये संस्थिते सति। 
तस्य पुत्रे च पत्न्यां च दिवारात्रमिति स्थितिः॥[मनु स्मृति 5.80]
आचार्य के मरने पर तीन दिन अशौच कहा गया है; किन्तु उसके पुत्र या स्त्री की मृत्यु होने पर एक अहो रात्र (रात) अशौच होता है, ऐसी शास्त्र की आज्ञा है। 
The scriptures asks to observe mourning-condolences for three day if the teacher dies, while in case of the death of teacher's wife's or his son's death; condolence for a day and night has to be observed.
श्रोत्रिये तूपसंपन्ने त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्। 
मातुले पक्षिणीं रात्रिं शिष्यर्त्विग्बान्धवेषु च॥[मनु स्मृति 5.81]
वेद शास्त्र का जानने वाला कोई पुरुष किसी के घर पर मर जाये तो उसको त्रिरात्रा शौच होता है। मामा, यज्ञ पुरोहित, बान्धव और शिष्य की मृत्यु होने पर पक्षिणी अर्थात दो दिन और एक रत का अशौच होता है। 
If an enlightened person who has the knowledge of the Veds & scriptures dies at one's place, he should observe mourning for three days & nights; while in the case of the death of his maternal uncle or the priest who performs families prayers-Yagy or brothers or the disciple, condolences for two days and one night should be held.
प्रेते राजनि सज्योतिर्यस्य स्याद्विषये स्थितः। 
अश्रोत्रिये त्वहः कृत्स्नमनूचाने तथा गुरौ॥
जिसके राज्य में ब्राह्मण निवास करते हों, उस राजा की मृत्यु होने की वार्ता दिन को मिले तो सूर्य दर्शन पर्यन्त और रात को मिले तो तारे जब तक दिखाई दें, तब तक, अशौच रहता है। वेद शास्त्र न जानने वाला दिन में जिसके घर पर मरे, उसे सारा दिन और रात में मरे, तो सारी रात अशौच होता है। साङ्ग वेदाभ्यासी गुरु के मरने पर भी ऐसे ही, एक दिन या रात अशौच जानना चाहिये।[मनु स्मृति 5.82]
Impurity-in auspiciousness prevails till Sun set if one gets the news of the death of the king in whose regime the Brahmns live-flourish, during the day. If the news is received at night it prevails till the stars are seen in the sky. If a person who is unaware of Veds or scriptures dies at one's place, he has to abstain from auspicious acts throughout the day. If such a person dies at night then inauspiciousness will prevail the whole night. Like wise, if the death of a Guru, learned, enlightened teacher, who is well versed with the scriptures occurs, one should abstain from all auspicious acts for the whole day or the whole night.
शुद्ध्येद्विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः। 
वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुध्यति॥[मनु स्मृति 5.83]
सपिण्ड के मरण या जन्म में ब्राह्मण दस दिन में, क्षत्रिय 12 दिन में, वैश्य 15 दिन में और शूद्र एक मॉस में शुद्ध होता है।
If the death or birth of of a sibling takes place in the family, Brahmn will attain purity in 10 days, Kshatriy will get it in 12 days, the Vaeshy will have it in 15 days and the Shudr will get it in one month.
As a matter of rule one should abstain from auspicious acts during this period. The impact of the death remains in the environment during the period described here in the form of vibrations-gloom.
न वर्धयेदघाहानि प्रत्यूहेन्नाग्निषु क्रियाः। 
न च तत्कर्म कुर्वाणः सनाभ्योऽप्यशुचिर्भवेत्॥[मनु स्मृति 5.84]
अशौच के दिन बढ़ाने नहीं चाहिये और ना ही अग्निहोत्र की क्रिया में बाधा डालनी चाहिये। उस कर्म को करता हुआ भी सपिण्ड अपवित्र नहीं होता। 
One should not enhance-increase the period of the observance of mourning-condolences. The holy sacrifices in fire should prevail as usual immediate after the period of mourning is over. The sibling too do not face the ill effects of such measures i.e., Agnihotr-Hawan-Prayers.
If one is unable to hold Agnihotr-Hawan every day, he may opt for incense sticks, Dhoop Batti (धूप बत्ती-Pastille), a wick lamp by using pure deshi ghee, mustard oil, til-sesame oil etc.
दिवाकीर्तिमुदक्यां च पतितं सूतिकां तथा। 
शवं तत्स्पृष्टिनं चैव स्पृष्ट्वा स्नानेन शुध्यति॥[मनु स्मृति 5.85]
चाण्डाल, रजस्वला, पतित, प्रसूतिका, शव और शव के स्पर्शकर्ता को छूकर स्नान करने से शुद्धि होती है। 
One becomes clean by taking a bath after touching a Chandal (the Shudr, who helps in cremation in the cremation ground(, a menstruating woman, an outcast, a woman who has given birth to a child, a corpse (dead body) or one who has touched a corpse.
आचम्य प्रयतो नित्यं जपेदशुचिदर्शने। 
सौरान्मन्त्रान्यथोत्साहं पावमानीश्च शक्तितः॥[मनु स्मृति 5.86]
स्नान आचमन आदि के बाद चाण्डाल आदि अपवित्र लोगों पर दृष्टि पड़े तो वह साध्य सूर्य का मन्त्र "उदुत्यं जातवेदसमीत्यादि" और यथाशक्ति पावमानी "पुनन्तु मां", इत्यादि) मन्त्र जपे। 
साध्य सूर्य मन्त्र :: ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः। ॐ घृणि सूर्याय नमः।  
पावमानी मन्त्र :: ॐ स्तूता मया वरदा वेद माता प्रचोदयंताम् पावमानी द्विजानाम्, आयुः प्राणं प्रजाम् पशुं कीर्तिम् द्रविणं ब्रह्मवर्चसं. मह्यम् द्वत्वा वृजत् ब्रह्मलोकं। ततो नमस्कारं करोमि। 
If one happen to see a Chandal or some impure-unclean person, he should recite the Sadhy Sury Mantr and practice Pavmani Mantr with effort.
नारं स्पृष्ट्वास्थि सस्नेहं स्नात्वा विप्रो विशुध्यति। 
आचम्यैव तु निःस्नेहं गामालभ्यार्कमीक्ष्य वा॥[मनु स्मृति 5.87]
मनुष्य की मज्जा सहित हड्डी छूकर ब्राह्मण स्नान करने से शुद्ध होता है। सूखी हुई हड्डी छूने पर आचमन करके, गाय का स्पर्श कर या सूर्य को देखकर शुद्ध होता है। 
The Brahmn who happen to touch a bone with flesh-fat, is cleansed by bathing. If he touches a dry bone-bone without flash, he is cleansed by touching a cow or viewing the Sun.
आदिष्टी नोदकं कुर्यादा व्रतस्य समापनात्। 
समाप्ते तूदकं कृत्वा त्रिरात्रेणैव शुद्धयति॥[मनु स्मृति 5.88]
ब्रह्मचारी अपने व्रत की समाप्ति पर्यन्त प्रेत की उदकक्रिया न करे। ब्रह्मचर्य समाप्त होने पर वह प्रेत को जलाञ्जलि देकर तीन रात में शुद्ध होता है। 
The Brahmchari-celibate should not perform last rites (shall not pour out libations) of the deceased, till he has completed his fast-vow. He should perform the rites after completion of the period of celibacy. He will attain purity-cleanliness after offering water to the deceased in three nights.
वृथासङ्करजातानां प्रव्रज्यासु च तिष्ठताम्। 
आत्मनस्त्यागिनां चैव निवर्तेतोदकक्रिया॥[मनु स्मृति 5.89]
जिन्होंने अपने धर्म को छोड़ दिया हो, जो प्रतिलोम वर्ण शंकर हों, जो सन्यासी हो गए हों, जिन्होंने स्वेच्छा से आत्महत्या कर ली हो, उनको जलाञ्जलि नहीं देनी चाहिये। 
Those who have discarded their duties i.e., have deserted their Dharm-religion, born out of inter caste relations through a low caste, Varn origin woman,  one who has become-turned a recluse, a seer, one has committed suicide out of his own will-voluntarily, should not be offered homages.
Such people do not deserve last rites and water of libations.
When Yudhistar decided to cremate the dead remains of Vidur Ji, there was a voice from the heaven-Akashvani, which asked him not to perform the last rites and leave the body as such, Vidur Ji was a seer-a saint. Both Vidur Ji and Dharm Raj Yudhistar were incarnation of Dharm Raj-the deity of death (Dharm-religion).
पाषण्डमाश्रितानां च चरन्तीनां च कामतः। 
गर्भभर्तृद्रुहां चैव सुरापीनां च योषिताम्॥[मनु स्मृति 5.90]
जो स्त्रियाँ पाखण्डी हों, स्वेच्छाचारिणी हों, गर्भ नष्ट करने वालीं तथा पति से द्रोह करने वाली हों, मद्य पीती हों, उनकी उदक क्रिया न करे। 
The women who are impostors (like Radhey Maa or have joined a heretical sect, lives in hermitage), loose character-wretched, prefers abortion of child in the womb, who revolt-act against the husband i.e., indulge in illicit relations, take wine-narcotics do not deserve last rites, homage or the water of libation.
This is applicable to those women who roam after the so called Sadhus-Sanyasis like Asa Ram, Gurmeet, Nirmal Baba or Ram Dev. Such women instead of caring their family, indulge in untoward activities and later blame the impostors. The women who joins camps against the will of their husband too are guilty. The women who are too bold & independent, give bold scenes (nudity) in films, act in theatre, cinema, fashion shows; too fall under the same category. The women who live in monasteries need not be cremated and offered homages. 
मठ :: विहार, आश्रम, भिक्षुणियों या वैरागिनों या संन्यासी का निवास, विहार, धर्मसंघ; monastery, cloister, convent, friary, mockery, nunnery, hermitage, minster.
आचार्यं स्वमुपाध्यायं पितरं मातरं गुरुम्। 
निर्हृत्य तु व्रती प्रेतान्न व्रतेन वियुज्यते॥[मनु स्मृति 5.91]
आचार्य, उपाध्याय, पिता, माता, गुरु इनके शव ढ़ोने से ब्रह्मचारी का व्रत लोप नहीं होता। 
The celibacy of a celibate remain intact when he carries the dead remains of his teacher, father, mother, revered.
Achary, Upadhyay and Guru differ in rank & profile, status, knowledge but are revered for the student-disciple. Mother is first Guru followed by the father. Later when he joins Guru Kul, the teacher is Guru. Upadhyay is one who gives lessons at home as well. 
दक्षिणेन मृतं शूद्रं पुरद्वारेण निर्हरेत्। 
पश्चिमौत्तरपूर्वैस्तु यथायोगं द्विजन्मनः॥[मनु स्मृति 5.92]
मृत शूद्र को नगर के दक्षिण द्वार से, वैश्य को पश्चिम द्वार से, क्षत्रिय को उत्तर और ब्राह्मण को पूर्व द्वार से श्मशान ले जाया जाता है। 
The dead remains-corpses of a Shudr are taken to cremation ground through South gate, that of Vaeshy from West, that of a Kshatriy through North and the dead body of the Brahmn has to be carried to cremation place through East Gate.
न राज्ञामघदोषोऽस्ति व्रतिनां न च सत्त्रिणाम्। 
ऐन्द्रं स्थानमुपासीना ब्रह्मभूता हि ते सदा॥[मनु स्मृति 5.93]
राजाओं को सपिण्ड के मरण-जनन के अशौच का दोष नहीं लगता, क्योंकि वे इंद्र के स्थान का अधिकार पाये रहते हैं। व्रती (ब्रह्मचारी और चांद्रायण आदि व्रत करने वाले) और यज्ञ करने वाले को अशौच नहीं होता, क्योंकि वे ब्राह्मण के समान ये निष्पाप होते हैं। 
The king remains untainted being in the seat of Indr (king of demigods, the king is considered to be a representative of Bhagwan Vishnu) due to the birth or death of a sibling. Those who observe fasts like celibacy and Chandrayan Vrat, too are pure in addition to those who keep on performing Yagy, since they too become pure like Brahmns.
The status of Indr, the king of heaven, is attained only after performing 100 Ashw Medh Yagy-sacrifices, which is extremely difficult task.
राज्ञो महात्मिके स्थाने सद्यःशौचं विधीयते। 
प्रजानां परिरक्षार्थमासनं चात्र कारणम्॥[मनु स्मृति 5.94]
राजसिंहासन पर विराजमान होने के कारण राजा की सद्य: शुद्धि कही गई है। प्रजाओं की रक्षा के लिये राजसिंहासन पर बैठना ही, इसका कारण जानना चाहिये। 
In case the king dies while occupying the throne, immediate complete-thorough purification is essential, since he protects the civilians-subjects.
The kingdom can not survive without the king and hence the next king is appointed immediately after the death.
डिम्भाहवहतानां च विद्युता  पार्थिवेन च। 
गोब्राह्मणस्य चेवार्थे यस्य चैच्छति पार्थिवः॥[मनु स्मृति 5.95]
जिस युद्ध में राजा नहीं होता ऐसे युद्ध में जो मारे गए हों, वज्रपात से जिनकी मृत्यु हुई हो, राजा ने जिन्हें प्राण दण्ड दिया हो, गाय और ब्राह्मण के रक्षार्थ जिन्होंने प्राण दिया हो और राजा जिन्हें चाहता हो कि अशौच न हो तो उन्हें सद्य: शौच होता है।
सोमाग्न्यर्कानिलेन्द्राणां वित्ताप्पत्योर्यमस्य च। 
अष्टानां लोकपालानं  वपुर्धारयते नृपः॥[मनु स्मृति 5.96]
चन्द्रमा, अग्नि, सूर्य, वायु, इंद्र, कुबेर, वरुण और यम इन आठों लोकपालों का वास राजा के शरीर में होता है। 
The king is blessed with the traits, characterises, qualities of the demigods Chandr-Moon, Agni-fire, Pawan-air, Indr, Kuber, Varun and Yam.
The manner in which the king is considered to be an incarnation of Bhagwan Vishnu being blessed with the power to protect the civilians-subjects, he is supposed to have the calibre to save the populace from natural disasters caused by these eight demigods.
लोकेशाधिष्ठितो राजा नास्याशौचं विधीयते। 
शौचाशौचं हि मर्त्यानां लोकेशप्रभवाप्ययम्॥[मनु स्मृति 5.97]
राजा के शरीर में लोकपालों का अंश अधिष्ठित होने के कारण उसे अशौच का दोष नहीं होता, कारण मनुष्य का जो शौच-अशौच है, लोकपालों से ही उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। 
The body of the king is the abode of the demigods which protects him from impurity after death and further the impurity or purity are induced and removed by the deities. 
उद्यतैराहवे शस्त्रैः क्षत्रधर्महतस्य च। 
सद्यः संतिष्ठते यज्ञस्तथाशौचमिति स्थितिः॥[मनु स्मृति 5.98]
युद्ध में शस्त्रों के द्वारा क्षात्र धर्म से जो मारा जाता है, उसे उसी क्षण यज्ञ का फल और सद्य: शुद्धि प्राप्त होती है, ऐसा शास्त्र का सिद्धांत है। 
The scriptures states that one who is killed in the battle as per duties of the protector-Kshtriy, get instant impact of performing a holi sacrifice i.e., Yagy and gets complete purification.
विप्रः शुध्यत्यपः स्पृष्ट्वा क्षत्रियो वाहनायुधम्। 
वैश्यः प्रतोदं रश्मीन्वा यष्टिं शूद्रः कृतक्रियः॥[मनु स्मृति 5.99]
ब्राह्मण श्राद्धादि कर्म करके दाहिने हाथ से जल छूकर, क्षत्रिय वाहन और वैश्य चाबुक या लगाम और शूद्र बाँस की लाठी छूने से शुद्ध होता है। 
Having completed the homage rites (condolences, mourning), the Brahmn is cleansed by touching water by his right hand, the Kshtriy has to touch his vehicle, the Vaeshy has to touch the goad or the nose-string of his horse or the oxen and the Shudr has to touch the bamboo stick to become pure-clean. 
एतद्वोऽभिहितं शौचं सपिण्डेषु द्विजोत्तमाः। 
असपिण्डेषु सर्वेषु प्रेतशुद्धिं निबोधत॥[मनु स्मृति 5.100]
हे मुनिगण! यह अशौच मैनें सपिण्डों के मरने का कहा है। अब असपिण्डों की प्रेत शुद्धि कहता हूँ, सो सुनों। 
Hey sages-sears! I have described the method of purification of the Brahmns pertaining to the siblings. Now, listen to the procedure for purification when someone who is not a close relative, dies.
असपिण्डं द्विजं प्रेतं विप्रो निर्हृत्य बन्धुवत्। 
विशुध्यति त्रिरात्रेण मातुराप्तांश्च बान्धवान्॥[मनु स्मृति 5.101]
असपिण्ड ब्राह्मण के शव को बान्धव की भाँति ढ़ोने से और मातृपक्ष के समीपी-करीबी सम्बन्धी (मामा, मौसी, बहन आदि) का शव ढोने से तीन रात में शुद्धि होती है।
It takes three nights to cleanse oneself if the Brahmn caries the dead remains of a Brahmn like his own brother and the close relatives from the mother's side (like maternal uncle, mother's sister and the sister).
यद्यन्नमत्ति तेषां तु दशाहेनैव शुध्यति। 
अनदन्न-न्नमह्नैव न चेत्तस्मिन् गृहे वसेत्॥[मनु स्मृति 5.102]
मृतक को उठाने वाला यदि उसके सपिण्ड का अन्न खावे तो वह दस दिन में शुद्ध होता है। यदि अशौचान्न न खाये और उसके घर पर न रहे तो वह एक अहोरात्र में शुद्ध होता है। 
The Brahmn who carries the dead remains and eats the lunch hosted by the deceased's siblings-brothers, it takes him 10 days to cleanse. If he does not eat the food offered after cremation and does not stay in the decease's house, it takes him one day to cleanse.
अनुगम्येच्छया प्रेतं ज्ञातिमज्ञातिमेव च। 
स्नात्वा सचैलः स्पृष्ट्वाग्निं घृतं प्राश्य विशुध्यति॥[मनु स्मृति 5.103]
सपिण्ड या असपिण्ड मृतक के पीछे-पीछे कोई अपनी इच्छा से जाये तो सचैल (वस्त्र सहित) स्नान स्नान के बाद अग्नि का स्पर्श और घी खा लेने से शुद्ध हो जाता है।
Whether one is a sibling or not if he follows the corpses to the cremation ground, he is cleansed just by bathing along with the cloths worn by him and touching fire and eating Ghee-clarified butter.
It must be remembered that when the corpse are put to fire the smoke and the air gets contaminated and all the germs, viruses, bacteria, microbes which caused the death, spread in the atmosphere. Immediate bathing relieves one of these pathogens. Burying the dead is even more dangerous. The pathogens passes into the soil and each and every one who drink the water drawn from the soil is sure to be affected by the deceases the dead had.
One should always keep it in mind that Hindu traditions are supported by strong scientific basis and evidence too can be given if desired.
न विप्रं स्वेषु तिष्ठत्सु मृतं शूद्रेण नाययेत्। 
अस्वर्ग्या ह्याहुतिः सा स्याच्छूद्रसंस्पर्शदूषिता॥[मनु स्मृति 5.104]
आत्मीय लोगों के रहते हुए मरे हुए ब्राह्मण को शूद्र से न उठवायें, क्योंकि शूद्र के स्पर्श से दूषित होने के कारण मृतक का वह दह्य शरीर स्वर्ग निमित्तक नहीं रहता। 
The dead body of the Brahmn should not be allowed to be carried by the Shudr, till the kin-relatives are available to perform the job, since the dead body become unfit for the purpose of  supporting the deceased's soul to the heavens (next abodes, incarnations).
ज्ञानं तपोऽग्निराहारो मृन्मनोवार्युपाञ्जनम्। 
वायुः कर्मार्ककालौ च शुद्धेः कर्तॄणि देहिनाम्॥[मनु स्मृति 5.105]
ज्ञान, तप अग्नि, भोजन, मिट्टी, मन, जल, उपलेपन, वायु, कर्म, सूर्य और काल, देहधारियों को पवित्र करने वाले होते हैं। 
Enlightenment, asceticism (Yog, meditation, austerities), fire, pious vegetarian food, pure clay (soil-earth), psyche (virtuousness, righteousness, piousity,honesty), water, smearing of the body with cow dung, sandal wood paste, turmeric paste, air, pious deeds, Sun, time cleanse the humans. 
सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्। 
योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः॥[मनु स्मृति 5.106]
सब शौचों में अर्थ शौच को महर्षियों ने श्रेष्ठ कहा है, जो अर्थ (धन, द्रव्य) सम्बंध (मेहनत ईमानदारी से कमाया हुआ धन-सम्पत्ति) में शुद्ध है। केवल मृतिका और जल के स्पर्श से शुद्धि नहीं होती। 
The sears have said that one is clean-pure if he has earned money-wealth through pious, virtuous, righteous, honest means. To become pure just by washing with clay or water is not cleansing.
क्षान्त्या शुध्यन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिणः। 
प्रच्छन्नपापा जायेन तपसा वेदवित्तमाः॥[मनु स्मृति 5.107]
क्षमा से विद्वान्, दान से अकर्म करने वाले, जप से गुप्त पातक, तप से वेद जानने वाले शुद्ध होते हैं। 
The enlightened is cleansed by forgiving-pardoning, donations cleanse those who perform forbidden activities, recitation of Almighty's names-stories cleanse hidden sins and asceticism cleanse those who are busy in learning Veds.
मृत्तोयैः शुद्ध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुद्ध्यति। 
रजसा स्त्री मनोदुष्टा संन्यासेन द्विजोत्तमाः॥[मनु स्मृति 5.108]
मल से दूषित पदार्थ मिट्टी और जल से शुद्ध होता है। नदी अपने प्रवाह के वेग से शुद्ध होती है। दूषित मन वाली स्त्री रज से और ब्राह्मण सन्यास धर्म से शुद्ध होता है। 
Goods-objects are cleaned by soil and water, river is cleansed by the increased speed of its flow, the woman is cleaned by the menstrual cycle and the Brahmn is cleansed by relinquishing, rejecting, abandoning the society.
Villagers in India use virgin soil for cleaning utensils and hands. This soil is yellow in colour and uncontaminated and is named Pili Mitti. This soil is mixed with cow dung to cover the flour. Cow dung carries various components which kills germs. Cleansing of the river is increased by the enhanced flow of its water's speed, which allow addition of more and more oxygen in it and ensures removal of undesired particles along with gases. The woman rejects the sperms in her vagina along with blood through menstrual cycle.
Normally, the villagers in India cleanse hands with the ashes obtained by burning cow dung as fuel. These days young boys & girls staying abroad just touch the disinfectants-sanitisers and believe that they are clean.
अद्भिर्गात्राणि शुद्ध्यन्ति मनः सत्येन शुद्ध्यति। 
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेनद्ध्यति॥[मनु स्मृति 5.109]
शरीर जल से, मन सत्य से, जीवात्मा विद्या और तप से और बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है। 
The body is cleansed by water, the psyche-innerself is purified by truthfulness, the soul is cleansed through learning-enlightenment and asceticism (virtuousness, piousity, righteousness, honesty, austerities) and the intelligence by learning-knowledge (learning, understanding & applying the knowledge of Veds).  
Immediate-instant purification is prescribed for those who are killed in a war which is not patronised by the king, those who are killed by lightening, who are awarded death penalty by the king, the person who is killed while protecting a cow or a Brahmn and those who are liked by the king i.e., his kinsmen. 
(2). को पुष्ट करने वाला सोम प्रस्तुत है। निचोड़े हुए सोम रस का पान करो। यज्ञ का साधन करने वाले सोम के द्वारा प्रेरणा प्राप्त कर स्तुति करने वालों को सुखी बनाने वाले, इन्द्र और अग्नि का मैं पूजन करता हूँ। ये दोनों इस यज्ञ में सोम रस का पान कर संतुष्ट हों। शत्रु का पतन करने वाले, वृत्र-संहारक, विजयशील, किसी के द्वारा न जीते जाने वाले और अनेक या अन्न प्रदान करने वाले इन्द्राग्नि का आह्वान करता हूँ। हे इन्द्राग्ने ! स्तोतागण मंत्र द्वारा तुम्हें पूजते हैं। श्लोकों के ज्ञाता मेधावीजन तुम्हारी अर्चना करते हैं। अन्न प्राप्ति के लिए मैं तुम्हारी उपासना करता हूँ। हे इन्द्राग्ने ! तुम प्रथम चेष्टा में ही असुरों के नब्बे नगरों को एक साथ कंपित कर दिया। हे इंद्राग्ने ! वंदना करने वाले विद्वान यज्ञ के पथ पर चलते हुए हमारे कर्मों को विस्तृत करते हैं। हे इन्द्राग्ने ! तुम दोनों की शक्ति और अन्न एक सा ही है। वृष्टि को प्रेरित करने वाला कार्य तुम्हीं दोनों में विद्यमान हैं। हे इन्द्राग्ने! तुम अद्भुत संसार को शोभायमान करते हो। संग्राम में होने वाली विजय तुम्हारी ही शक्ति का फल है।
(2). संस्कार TRAINING-MODIFICATION IN HUMANNESS (VIRTUES, ETHICS, CULYTURE, VALUE. MORALS) :: 
मानव-जीवन को शुद्ध करने की चरण बद्ध प्रक्रिया का नाम संस्कार है। लौकिक जीवन में मनुष्य आनन्द का संचय करते हुए च्युति रहित चरम लक्ष्य की प्राप्ति संस्कारों से करता है।
It basically refers to refining, growth, inculcation of good qualities, values, etiquettes in the human being and making him socially useful. It works as a tool to pass on the traditions & practices from one generation to next generation.
This is done systematically, procedurally, methodically with the help of well versed priests. It continues till the age of 25. 
It involves several rituals, ceremonies, procedural-practices depending upon  a specific society-segment of the Hindus. The sequence of these rituals may differ due to the place, region, caste of the person. Still some of he main customs remain same at each and every place.
संस्कार शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक कृञ् धातु में घञ् प्रत्यय लगाने पर "संपरिभ्यां करोतौ भूषणे" पाणिनीय सूत्र से भूषण अर्ध में सुटू करने पर सिद्ध होता है। 
इसका अर्थ है, संस्करण, परिष्करण, विमलीकरण तथा विशुद्धीकरणा आदि। जिस प्रकार किसी मलिन वस्तु को धो-माँज (पौंछ) कर शुद्ध-पवित्र कर लिया जाता है। जिस प्रकार सुवर्ण को आग में तपाकर उसके मलों को दूर किया जाता है और मल के जल जाने पर सुवर्ण विशुद्ध रूप में चमकने लगता है, ठीक उसी प्रकार से संस्कारों के द्वारा जीव के जन्म-जन्मान्तरों में संचित मलरूप निकृष्ट कर्म संस्कारों को भी नष्ट किया जाता है।
Inculcation of values, morals, character, virtues, truthfulness, righteousness, piousity are the essential ingredients of Sanskar.
It involves training-discipling the body, mind and soul. Yog, a part of this training leads to awakening of hidden energies, capabilities in the body and the mind including sense organs.
Soul involves spirituality, channelizing energies, meditation-concentration in to God.
Boosting the capacity, calibre of mind :- intelligence, prudence, cleverness, power to think, analyse and take proper decisions are too involved in it. It makes one able to be firm, determined and yet flexible as and when there is need for this. It ask one to shun rigidity in attitude and his working.
उत्कर्षाधानं संस्कारः।
उत्कर्ष के आधान को संस्कार कहते हैं।[काशिका वृत्ति]
अतिशयविशेषः संस्कारः।
अतिशय गुण को संस्कार कहा जाता है।[संस्कार प्रकाश] 
संस्कार शब्द का अर्थ है, प्रतियत्न, अनुभव अथवा मानस कर्म न्याय शास्त्र के मतानुसार गुण विशेष का नाम संस्कार है, जो तीन प्रकार का होता है :-वेगाख्य संस्कार, स्थिति स्थापक संस्कार और भावनाख्य संस्कार।[मेदिनीकोश] 
आत्मा या शरीर के विहित क्रिया के द्वारा अतिशय आधान को संस्कार कहते हैं।[संस्कार दीपक]
तत्र संस्कारो नाम आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहितक्रियाजन्यो ऽतिशयविशेषः गर्भाधानादौ संस्कारपदं लाक्षणिकम्।
गर्भाधान आदि में संस्कार पद का प्रयोग लाक्षणिक है।
मनुष्य में मानवी शक्ति का आधान होने के लिये उसे सुसंस्कृत होना आवश्यक है, अतः उसका पूर्णतः विधि पूर्वक संस्कार सम्पन्न करना चाहिये। वास्तव में विधि पूर्वक संस्कार-साधन से दिव्य ज्ञान उत्पन्न कर आत्मा को परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित करना ही मुख्य संस्कार है और मानव जीवन प्राप्त करने की सार्थकता भी इसी में है। संस्कारों से आत्मा-अन्तःकरण शुद्ध होता है। संस्कार मनुष्य को पाप और अज्ञान से दूर रखकर आचार-विचार और ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त करते हैं।
मानव योनि में जन्मा प्रत्येक व्यक्ति पशुवत व्यवहार करता है, यदि उसे उचित शिक्षा, संस्कार न दिये जायें। 
मनुष्य योनि में जन्म 84,00,000 योनियों*1 से गुजरने के बाद ही प्राप्त होता है। इसके बाद भी साँप-सीढ़ी के खेल के समान पाप-पुण्य, सही-गलत के अनुरूप व्यक्ति अगली योनियों में तब तक आता-जाता रहता है, जब तक उसे मोक्ष की उपलब्धि नहीं होती। 
*184 लाख योनियों में भटकना :: जीवात्मा 84 लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य जन्म पाता है। 
योनि :- मादा के जिस अंग से जीवात्मा का जन्म होता है, उसे हम योनि (Species) कहते हैं। इस तरह पशु योनि, पक्षी योनि, कीट योनि, सर्प योनि, मनुष्य योनि आदि। मुख्य योनियाँ 84 लाख ही हैं, मगर इनमें अन्यानेक उप योनियाँ विभाजन-भेद भी होते हैं।
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया वृक्षान्‌ सरीसृपपशून्‌ खगदंशमत्स्यान्‌। तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥
विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई और इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ, परन्तु उससे उस चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई, अत: मनुष्य का निर्माण हुआ, जो उस मूल तत्व ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकता था।[श्रीमद्भागवतपुराण 11.9.28]
All life forms have originated from Maharshi Kashyap. Each species is recognised on the basis of genes it possess. There is always a possibility of interaction amongest various other species leading to the formation of new sub group-new species. Starting from amoeba the largest living being is subjected to variations due to change in atmosphere, radiation level, mutations etc. etc. 
There are four methods of germination :- (1). Out of the secretions from the body-स्वेदज, (2). formation inside the stomach, womb-जरायुज, (3). from the egg-अंडज and (4). some part of the body like twig-branch of the plant-उद्भीज.
In case of humans, the egg-ova from the female, combines with the sperm from the male leading to fertilisation and zygote formation, leading to birth of the child after 9 months. In some cases premature births are also there.
चार प्रकार से जीवोतपत्ति होती है :- स्वेदज, जरायुज*2, अंडज और उद्भीज।
इसके लिये उसे वर्णाश्रम धर्म के अनुरूप धर्म, अर्थ, काम सृजन और मोक्ष प्राप्ति हेतु सतत प्रयास करना चाहिये।
*2अण्ड और शुक्राणु के संयोग से निषेचन क्रिया होती है, भ्रूण बनता है और माता के गर्भ में पलता है। उचित समय पर बच्चा पैदा होता है। मनुष्यों में यह समय 9 मास है। 
गर्भ में बालक बिंदु रूप से शुरू होकर अंत में मनुष्य का बालक बन जाता है अर्थात वह 83 प्रकार से खुद को बदलता है। बच्चा जब जन्म लेता है, तो पहले वह पीठ के बल पड़ा रहता है अर्थात किसी पृष्ठ वंशीय जन्तु की तरह। बाद में वह छाती के बल सोता है, फिर वह अपनी गर्दन वैसे ही ऊपर उठाता है, जैसे कोई सर्प या सरीसृप जीव उठाता है। तब वह धीरे-धीरे रेंगना शुरू करता है, फिर चौपायों की तरह घुटने के बल चलने लगता है। अन्त में वह संतुलन बनाते हुए मनुष्य की तरह चलता है। भय, आक्रामकता, चिल्लाना, अपने नाखूनों से खरोंचना, ईर्ष्या, क्रोध, रोना, चीखना आदि क्रियाएं सभी पशुओं की हैं, जो मनुष्य में स्वत: ही विद्यमान रहती हैं। यह सब उसे क्रम विकास में प्राप्त होता है। 
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।  
जो पैदा हुआ है, उसे मरना भी पड़ेगा। जन्म-मृत्यु एक शृंखला-चक्र के अनुरूप हैं। तब तक पुनर्जन्म होगा, जब तक प्राणी प्रभु की परम्, अव्यय, अनन्त, अनन्य, अक्षय प्रेममयी सात्विक भक्ति प्राप्त नहीं कर लेता।
मानव देह प्रभु की एक अद्वितीय रचना है जिसके लिये देवगण भी लालायित रहते हैं क्योंकि इसी योनि में प्राणी भक्ति हेतु प्रयास कर्म, यज्ञ, योग, तपस्या आदि उद्यम कर सकता है। 
उसे  प्रारब्ध के अनुरूप अपने अच्छे-बुरे संचित कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा। क्योंकि वह मनुष्य है, ईश्वर ने उसे प्रारब्ध में संशोधन की शक्ति भी  है। प्रारब्ध सुख-दुःख, परेशानी, बीमारी, अकाल मृत्यु जैसे अवसर उत्पन्न करता है और उद्धयमी उन्हें सरलता-सहजता पूर्वक पार कर जाता है।  
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
कर्म फल ही प्राणी-आत्मा को विभिन्न योनियों में जन्म जाते हैं। पाप कर्म पशु-पक्षी, कीट-पतंग और तिर्यक् योनि तथा प्रेत-पिशाचादि योनियों में ले जाते है। पुण्य कर्म मनुष्य, देव आदि उच्च योनियों में ले जाते हैं। मनुष्य योनि में जीव को विवेक-बुद्धि सत्संग प्राप्त होता है। 
सत्संग, शास्त्रों का स्वाध्याय, योग, तपस्या, ईश्वर  चिंतन, मनन, भजन-गायन आदि जातक के भविष्य को सुधारते हैं। 
प्रत्येक जातक अपने साथ पूर्व जन्मों के अच्छे-बुरे संस्कार लेकर आता है। सत्संग से उसमें समता, ईश्वर भक्ति-आराधना, आस्था, विश्वास का उदय होता है  और वह शनै:-शनै: परम पिता परब्रह्म परमेश्वर की ओर अग्रसर होता चला जाता है। सद्गुरु, माता-पिता का आशीर्वाद उसका मार्ग प्रशस्त करते हैं। 
भगवान् वेद व्यास, शुकदेव जी महाराज, आदि शंकराचार्य, कपिल मुनि जैसे व्यक्ति पूर्व जन्मों की स्मृति लेकर पैदा होते हैं और समाज को सन्मार्ग दिखाते हैं।
महर्षि बाल्मीकि और भगवान् वेद व्यास को दिव्य दृष्टि प्राप्त थी।
मनुष्य की नैतिक, मानसिक, आध्यात्मिक उन्नति, बल-वीर्य, प्रज्ञा और दैवीय गुणों के उसके व्यक्तित्व में समावेश के लिये संस्कारों की आवश्यकता है। 
संस्कार अर्थ है, दोषों को दूर करना, शुद्ध करना। 
संस्कारो नाम स भवति यस्मिन् जाते पदार्थों भवति योग्यः कश्चिदर्थस्य।
संस्कार वह है, जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिये योग्य हो जाता है।[शबर स्वामी] 
योग्यतां चादधानाः क्रिया: संस्काराः इत्युच्यन्ते। 
वे क्रियाएँ तथा रीतियाँ हैं, जो मनुष्य को सक्षम और योग्य बनती हैं संस्कार हैं।[तन्त्र वार्तिक] 
इनके द्वारा जातक को पापों-दोषों से मुक्ति तथा सात्विकता-गुणों की प्राप्ति होती है। 
संस्कारों का उद्देश्य जातक में गुणों को विकसित करना, उनको आगे बढ़ाना और समाज के उपयुक्त बनाना है। भारतीय संस्कृति में मनुष्य में बुद्धि, विवेक, चिन्तन, चतुराई, तुरत बुद्धि का विकास, संयोजन-समाधान, योग, तपस्या, सत्संग, अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन, सहयोग आदि  विकसित करना है।
इसमें वर्णाश्रम धर्म का पालन, कौशल का विकास, समाजोपयोगी क्रियाओं  विकास, व्यवहार कुशलता, उचित-अनुचित की परख, समस्या का निदान-समाधान, व्यक्तित्व का निर्माण  शामिल हैं।
हिन्दु को यह विश्वास है कि पहला जन्म माता के गर्भ से और दूसरा उसके उपनयन आदि संस्कारों से होता है। उसे पैदा होते ही दूध पिलाना, टट्टी-पेशाब, सोना आदि सीखना ही पड़ता है। पशु के साथ ऐसे कोई बन्दिश नहीं है। उसे चलना-फिरना, खाना-पीना, बोलना, नहाना-धोना, पढ़ना भी सीखना पड़ता है और यही उसे पशु से मनुष्य बनता है। इसीलिये उसे द्विज (twice born) कहा जाता है।
संस्कार का प्रयोजन और उसके भेद-संस्कार सामान्यतः दो प्रकार के होते हैं :- (1). दोषापनयन और (2). गुणाधान .
कुछ विद्वान इस के तीन भेद कहते हैं :- (1). दोषमार्जन,  (2).अतिशयाधान और (3). हीनांगपूर्ति। 
किसी दर्पण आदि पर पड़ी हुई धूल आदि सामान्य मल को वस्त्र आदि से पोछना, हटाना या स्वच्छ करना दोषापनयन-मलापनयन कहलाता है। फिर किसी रंग या तेजोमय पदार्थ द्वारा उसी दर्पण को विशेष चमत्कृत या प्रकाशमय बनाना गुणाधान कहलाता है। संसार की कोई भी जड़ या चेतन वस्तु ऐसी नहीं है, जो बिना संस्कार किये हुए मनुष्य के उपयोग में आती हो। खेत में जैसा अन्न उत्पन्न होता है, वैसा का वैसा नहीं खाया जाता। उसको रौंध कर दाना निकाला जाता है और भूसी अलग की जाती है, उसमें जो दोष हैं उनको दूर करके, छानबीन करके मिट्टी-कंकड़ सभी निकाले जाते हैं, यह दोषापनयन संस्कार है। उसे चक्की में पीसकर आटा निकाला जाता है, जो गुण उनमें नहीं थे, उन्हें लाया जाता है। फिर उसमें पानी मिलाकर उसका पिण्ड बनाकर रोटी बेल कर तवे पर सैंक कर खाने योग्य बनाया जाता है। ये सभी गुणाधान संस्कार हैं। 
कोई भी वस्तु संस्कार से हीन होने पर सभ्य समाज के उपयोग लायक नहीं होती। खेत में जिस रूप में अनाज खड़ा रहता है, उसी रूप में गाय, भैंस, घोड़ा, बछड़ा आदि उसे खा जाते हैं, लेकिन कोई मनुष्य खड़े अनाज को खेतों में ही खाने को तैयार नहीं होता। खायेगा तो उसका व्यवहार  पशुवत कहलायेगा। इसीलिये संस्कार, संस्कृति और धर्म के द्वारा मानव में मानवता आती है। बिना संस्कृति और संस्कारों के मानव में मानवता नहीं आ सकती।
उत्तम-से-उत्तम कोटि का हीरा खान से निकलता है, उस समय यह मिट्टी आदि अनेक दोषों से दूषित रहता है। पहले उसे सारे दोषों से मुक्त किया जाता है, फिर तराशा जाता है, तराशने के बाद उसे इच्छानुरूप आकार दिया जाता है वह क्रिया गुणाधान संस्कार है। तब वह हार में पहनने लायक होता है। जैसे-जैसे उसका गुणाधान बढ़ता चला जाता है, वैसे ही मूल्य भी बढ़ता चला जाता है।
संस्कारों द्वारा ही उसकी कीमत बढ़ी, संस्कार के बिना कीमत कुछ भी नहीं। इसी प्रकार संस्कार से विभूषित होने पर ही व्यक्ति का मूल्य और सम्मान बढ़ता है। इसलिये अपने यहाँ संस्कार का माहात्म्य है।
The way systematic procedural approach to cutting-polishing the diamond increases its market value, systematic training in virtues enhances the productivity, prestige, power, might, value of a human being.
ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्रा वर्णास्त्वाद्यास्त्रयो द्विजाः।
निषेकादिश्मशानान्तास्तेषां वै मन्त्रतः क्रियाः॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इनमें प्रथम तीन वर्ण द्विज कहलाते हैं। गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त इनकी समस्त क्रियाएँ वैदिक मन्त्रों के द्वारा होती हैं। उपनयन आदि संस्कारों को छोड़कर शेष संस्कार शूद्र वर्ण बिना मन्त्र के करे।[याज्ञवल्क्य स्मृति 10] 
वैदिकै: कर्मभि: पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्। 
कार्य: शरीर संस्कार: पावन: प्रेत्य चेह च॥
द्विजातियों का वैदिक कर्मों द्वारा गर्भाधानादि शरीर के संस्कार करना चाहिये, जो कि इस लोक और परलोक दोनों में पाप को क्षय करने वाले होते हैं।
[मनु स्मृति 2.26] 
The three upper castes-Swarn (सवर्ण) should carry out the various rites pertaining to impregnation (गोद भराई, fertilisation, conceiving, ceremony performed after menstruation to favour conception) etc., described in the scriptures, which are capable of reducing the burden of sin in this and the next abodes-births.
खान से निकालने समय उत्तमोत्तम हीरा मिट्टी आदि अनेक दोषों से दूषित रहता है। पहले उसे सारे दोषों से मुक्त किया जाता है। उसे तराश कर इच्छानुरूप आकार दिया जाता है। यह क्रिया गुणाधान संस्कार के समान है। तब वह हीरा हार में पहनने लायक होता है। जैसे-जैसे उसका गुणाधान बढ़ता चला जाता है, वैसे ही मूल्य भी बढ़ता चला जाता है। संस्कारों द्वारा ही उसकी कीमत बढ़ी, संस्कार के बिना कीमत कुछ भी नहीं। इसी प्रकार संस्कार से विभूषित होने पर व्यक्ति का सम्मान बढ़ता है। यही संस्कार का माहात्म्य है।
ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्रा वर्णास्त्वाद्यास्त्रयो द्विजाः। 
निषेकादिश्मशानान्तास्तेषां वै मन्त्रतः क्रियाः॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इनमें प्रथम तीन वर्ण द्विज कहलाते हैं। गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त इनकी समस्त क्रियाएँ वैदिक मन्त्रों के द्वारा होती है।[याज्ञवल्क्य स्मृति 10]
शूद्रोऽप्येवंविधः कार्यों विना मन्त्रेण संस्कृतः।
उपनयन आदि संस्कारों को छोड़कर शेष संस्कार शूद्र वर्ण बिना मन्त्रके करे।[यम संहिता] 
नवैताः कर्णवेधान्ता मन्त्रवर्ज क्रियाः स्त्रियाः।
विवाहो मन्त्रतस्तस्याः शूद्रस्यामन्त्रतो दश॥
गर्भाधान से कर्ण वेध तक जो नौ संस्कार कहे गये हैं, उनमें से वे स्त्रियों के संस्कार अमन्त्रक करने की अनुमति है, परन्तु विवाह-संस्कार के लिये समन्त्रक का विधान है। शूद्र के ये दसों संस्कार बिना मन्त्र के ही सम्पादित होते हैं।[व्यास स्मृति 1.15-16]
तूष्णीमेताः क्रिया: स्त्रीणां विवाहस्तु समन्त्रकः। 
स्त्रियों के नौ संस्कार अमन्त्रक ही सम्पन्न कराये जाते हैं, किंतु विवाह मन्त्र के साथ सम्पन्न कराना चाहिये। अपनी-अपनी वेद शाखा के अनुसार संस्कार कराना चाहिये।[याज्ञवल्क्य] 
स्वे-स्वे गृह्ये यथा प्रोक्तास्तथा संस्कृतयोऽखिलाः। 
भगवान् सदाशिव माता पार्वती को बतलाते हुए कहते हैं कि संस्कार के बिना शरीर शुद्ध नहीं होता और अशुद्ध व्यक्ति देवताओं एवं पितरों (हव्य एवं कव्य) के कार्यों को करने का अधिकारी नहीं होता है। अतः लोक-परलोक में कल्याण की इच्छा रखने वाले विप्रादि वर्णों को अपने-अपने वर्ण के अनुसार अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक संस्कार कर्म का सम्पादन करना चाहिये।[महा निर्वाण तन्त्र] 
यथा संस्कारेण विना देवि देहशुद्धिर्न जायते। 
नासंस्कृतोऽधिकारी स्याद्दैवे पैत्र्ये च कर्मणि॥ 
अतो विप्रादिभिर्वर्णैः स्वस्ववर्णोक्तसंस्क्रिया। 
कर्तव्या सर्वथा यलैरिहामुत्र हितेप्सुभिः॥
संस्कारों को सम्पन्न करना नितान्त अपेक्षित है। इससे शारीरिक एवं मानसिक मलों का अपाकरण होता है तथा आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति सहज होती है, जो मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है।
संस्कारों की सँख्या 48 है। समय और आवश्यकता, प्रथा, तात्कालिक स्थिति के अनुरूप-अनुसार उनकी सँख्या कम या ज्यादा भी हो सकती है। यह अन्तर समय-काल के प्रभाव हो सकता है।
आधानपुंससीमन्तजातनामान्नचालका: 
मौज्जी व्रतानि गोदानसमावर्तविवाहका:॥
अन्त्यं चैतानि कर्माणि प्रोच्यन्ते षोडशैव तु।
ब्राह्म संस्कार :: (1). गर्भाधान, (2). पुंसवन, (3). सीमन्तोन्नयन, (4). जातुकर्म, (5). नामकरण (6). अनप्राशन, (7). चूड़ाकरण, (8). उपनयन, (9). वेदारम्भ, (10). ब्रह्मव्रत, (11). वेदव्रत, (12). गोदान, (13). समावर्तन, (14). विवाह,  (15). ब्राह्मव्रत और (16). अन्त्यकर्म।[जातुकर्ण्य]
महर्षि अंगिरा ने पूर्वोक्त गर्भाधानादि षोडश संस्कारों के साथ आग्रयण, अष्टका, श्रावणी कर्म, आश्वयुजी कर्म, प्रत्यवरोहण दर्शश्राद्ध, वेदारम्भ, वेदोत्सर्जन, प्रतिदिन सम्पन्न किये जाने वाले पंचमहायज्ञ, इनको मिलाकर पच्चीस संस्कार स्वीकार किये हैं। 
गौतम स्मृति में चालीस संस्कारों का वर्णन है। अन्यत्र आठ गुणों क साथ अड़तालीस संस्कारों का उल्लेख हुआ है।
अन्य ग्रन्थों में संस्कार निम्न क्रम में दिये गये हैं :- 
आश्वलायन गृह्यसूत्र :- (1). विवाह, (2). गर्भाधान, (3). पुंसवन, (4). सीमन्तोन्नयन, (5). जातकर्म, (6). नामकरण, (7) चूडाकरण, (8). उपनयन (9). समावर्तन और (10). अन्त्येष्टि।
बौधायन गृह्यसूत्र :-  (1). विवाह, (2). गर्भाधान, (3). पुंसवन, (4). सीमन्तोन्नयन, (5). जातकर्म, (6). नामकरण, (7). उपनिष्क्रमण, (8). अन्नप्राशन, (9). चूडाकरण, (10). कर्णवेध, (11). उपनयन, (12). समावर्तन और (13). पितृमेध .
पारस्कर गृह्यसूत्र :- (1). विवाह, (2). गर्भाधान, (3). पुंसवन, (4). सीमन्तोन्नयन, (5) जातकर्म, (6). नामकरण, (7). निष्क्रमण, (8), अन्न प्राशन, (9). चूडाकरण, (10). उपनयन, (11). केशान्त, (12). समावर्तन और (13). अन्येष्टि।
वाराह गृह्यसूत्र :- (1). जातकर्म, (2). नामकरण, (3). दन्तोद्गमन, (4). अन्नप्राशन, (5). चूडाकरण, (6). उपनयन, (7). वेदव्रत, (8). गोदान, (9). समावर्तन, (10). विवाह, (11). गर्भाधान, (12) पुंसवन और (13). सीमन्तोन्नयन।
वैखानस गृह्य सूत्र :- (1). ऋतुसंगमन, (2). गर्भाधान, (3). सीमन्तोन्नयन, (4). विष्णुबलि, (5). जातकर्म, (6). उत्थान, (7). नामकरण, (8). अन्नप्राशन, (9). प्रवासागमन, (10). पिण्डवर्धन, (11). चौलक, (12). उपनयन, (13). पारायण, (14). व्रतबन्धविसर्ग, (15). उपाकर्म, (16). उत्सर्जन, (17). समावर्तन और (18). पाणिग्रहण। 
मीमांसा दर्शन :- (1). गर्भाधान, (2). पुंसवन, (3). सीमन्तोन्नयन, (4). जातकर्म, (5). नामकरण, (6). अन्नप्राशन, (7). चूडाकरण, (8). उपनयन, (9). ब्रह्मव्रत, (10). वेदव्रत, (11). समावर्तन, (12). विवाह, (13). अग्न्याधान, (14). दीक्षा, (15). महाव्रत और (16). संन्यास।
गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च।  
नामक्रियानिष्क्रमणेऽन्नाशनं वपनक्रिया॥
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः।
केशान्तः स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रहः॥
त्रेताग्निसङ्ग्रहश्चेति संस्काराः षोडश स्मृताः।
(1). गर्भाधान, (2). पुंसवन, (3). सीमन्तोन्नयन, (4). जातकर्म, (5). नामकरण, (9). कर्णवेध, (10). उपनयन (व्रतादेश), (11). वेदारम्भ, (12). केशान्त, (13). समावर्तन, (14). विवाह, (15). विवाहाग्नि परिग्रह तथा (16). त्रेताग्नि संग्रह।[व्यास स्मृति 1.13-15]
गर्भाधान, पुंसवन तथा सीमन्तोन्नयन प्रसव के पूर्व के हैं, जो मुख्यतः माता-पिता द्वारा बीज एवं क्षेत्र की शुद्धिके लिये किये जाते हैं। जातकर्म से कर्ण वेध तक बाल्यावस्था के हैं, जो परिवार परिजन के सहयोग से सम्पन्न होते हैं। उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन विद्याध्ययन से सम्बद्ध हैं, जो मुख्यतः आचार्य के निर्देशानुसार सम्पन्न होते हैं। विवाह, वानप्रस्थ एवं संन्यास, ये तीन संस्कार तीन आश्रमों के प्रवेशद्वार हैं तथा व्यक्ति स्वयं इनका निष्पादन करता है और अन्त्येष्टि जीवन यात्रा का अन्तिम संस्कार है, जिसे पुत्र-पौत्र आदि पारिवारिक जन तथा इष्ट मित्रांक सहयोग से किया जाता है।
पहले आठ संस्कार प्रवृत्ति मार्गीय और दूसरे आठ संस्कार निवृत्ति मार्गीय हैं। मनु महाराज ने "ब्राह्मीयं क्रियते तनुः" इत्यादि शब्दों के द्वारा संस्कार का लक्ष्य जीव शरीर को ब्रह्मत्व प्राणि के लिये योग्यता का निर्माण कहा है। यह ब्रह्मत्व प्राप्ति निवृत्ति की पराकाष्ठा ही होना सम्भव है, इसलिये सोलह संस्कार जो कि प्रवृत्ति-निरोध और निवृत्ति के पोषक हैं, जीवात्मा की पूर्णता प्राप्ति के लिये हैं।
द्विज मात्र का शरीर संस्कार वेदोक्त पवित्र विधियों द्वारा अवश्य करना चाहिये; क्योंकि ये संस्कार इस मानव लोक के साथ साथ परलोक में भी परम पावन हैं। गर्भावस्था के आधान, पुंसवन एवं सीमन्तोन्नयन तथा जन्म के पश्चात् जातकर्म, चूडाकरण और उपनयनादि संस्कारों के समय प्रयुक्त हवनादि विधियों द्वारा जन्म दाता पिता के वीर्य एवं जन्मदात्री माता के गर्भजन्य समस्त दोषों का शमन हो जाता है तथा वेद-मन्त्रों के प्रभाव से नवजात शिशु के अन्तःकरण में शुभ विचारों तथा प्रवृत्तियों का उदय होता है। इसके साथ-साथ ही उपनयन के प्रयोजनीय (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) के स्वाध्याय से, गृहस्थाश्रम में पुत्रोत्पादन द्वारा तीन ऋणों (पितृ, ऋषि एवं देव ) के अपाकरण तथा पञ्च महायज्ञ एवं अग्निष्टोमादि यज्ञों के अनुष्ठान से जातक ब्रह्म प्राप्ति (सद्गति या मोक्ष) का अधिकारी बनाया जाता है।
"एवमेनः शमं शमं याति बोजगर्भसमुद्भवम्"।
संस्कारों से पूर्व जन्मों के संचित दोष दूर होते हैं।[याज्ञवल्क्य, आचाराध्याय 2.13]
संस्कारों की सम्पन्नता से शारीरिक, मानसिक आदि सभी परिशुद्धियाँ होती हैं, जिनसे मनुष्य प्रेय एवं श्रेय दोनों को प्राप्त करता है। इन संस्कारों का प्रभाव अन्तःकरण पर भी पड़ता है। अतः उत्तम संस्कारों से अन्तःकरण को उत्कृष्ट बनाना चाहिये। इसलिये जिसके सोलह या अड़तालीस संस्कार यथाविधि सम्पन्न होते हैं, वह ब्रह्म पद को प्राप्त करता है। 
गर्भाधान संस्कार PRAGNANCY
गर्भाधान संस्कार के लिये माता पिता का सदाचार सम्पन्न होना, ऋतुकाल का उपस्थित होना, ऋतु काल में भी निषिद्ध तिथियों, नक्षत्रों, पव तथा योगों का परिहार करना, सहवास से पूर्व देव पूजन तथा वैदिक मन्त्रों का पाठ करना, सुलक्षण तथा धार्मिक भावों से सम्पन्न सन्तति की कामना करना तथा प्रसन्न चित्त हो केवल सन्तानोत्पत्ति के लिये परस्पर सहवास करना इत्यादि जो धार्मिक, मानस एवं शारीरिक क्रियाएँ हैं, उनके फल के सम्बन्ध में बताया गया है कि इस प्रकार के गर्भाधान द्वारा पुरुष का जो बीज सम्बन्धी दोष-पाप है, वह नष्ट हो जाता है और स्त्री के आर्तव एवं गर्भ सम्बन्धी जो दोष होते हैं, वे नष्ट हो जाते हैं तथा क्षेत्र (गर्भाशय) की शुद्धि हो जाती है।
एवमेनः शमं याति बीजगर्भ-समुद्भवम् 
इस प्रकार इस संस्कार के द्वारा होने वाली सन्तति भी स्वाभाविक रूप से संस्कार सम्पन्न और सुसंस्कृत होती है।[याज्ञवल्क्य स्मृति,आचारा. 13] 
निषेकाद् बैजिक चैनो गार्भिकं चापमृज्यते। 
क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम्॥
गर्भाधान संस्कार के फल स्वरूप सन्तति संस्कार सम्पन्न और सुसंस्कृत होती है।[स्मृति संग्रह]
तामुदुहा यथर्तु प्रवेशनम्।
वधू को उद्वाहकर ऋतुकाल में प्रवेशन अर्थात् गर्भाधान करना चाहिये।[पारस्कर, गृह्यसूत्र]
यह संस्कार ऋतुकाल में निषिद्ध तिथियों को छोड़कर विहित तिथियों में करणीय है।
ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्।
अनपाकृत्य मोक्षं तु सेवमानो व्रजत्यधः॥6.35॥
तीनों ऋणों (देवऋण, ऋषिऋण और पितृ ऋण) मुक्त होकर मन को मोक्ष में लगाये। ऋण-शोधन किये  बिना जो मोक्षार्थी होता है, वह नरकगामी होता है।
पितृ ऋण से मुक्तिकी इच्छा गर्भाधान संस्कार का पवित्र एवं आध्यात्मिक उद्देश्य है।
One who makes efforts for Salvation without clearing the three debts (demigods-deities, sages-Manes and the Parents) finds a birth in the hell.
तीन ऋण :: देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण।
गर्भाधान संस्कार का अनुष्ठान उस समय होता है, जब पति और पत्नी दोनों सन्तानोत्पत्ति के योग्य और स्वस्थ होते हैं, जब वे एक दूसरे के हृदय को जानते हैं और जब उनमें सन्तान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा होती है। उस समय देवपूजन और मन्त्रों के द्वारा उपयुक्त वातावरण उपस्थित होता है तो ऐसे में वह स्त्री प्रसंग ऐन्द्रिय सुख नहीं है, अपितु एक सूक्ष्म यज्ञ का स्वरूप धारण करके पैतृक ऋण से मुक्ति का साधन बनता है। "प्रजया पितृभ्यः"[तैत्तिरीय संहिता 6.3.2015]
As a matter of fact we are born in an age in which no one ever taught these Sanskars either to his progeny or the disciples. Even the elders were ignorant about these. Whatever the village priest told was supposed to be followed. He himself was not aware of these things. He possessed little knowledge and used it as a tool to make-extract money.
There was no school in the village what to talk of Guru Ashram. After Maha Bharat distortion of values begun. With the advent of Buddhism, these things took back seat and disappeared gradually. The Muslims did there best to destroy the basic Hindu practices, culture, rituals, values, morals, ideals since they themselves did not possess them. Rest of the job was done by the Christians who badly polluted our minds, culture, morals, ideals, values.
He told my my grand mother to kill my father since he was in Mool Nakshatr. He told my mother not to love me. A few Sanskars were conducted-performed at the time of our marriage.
Sex is a basic need and marriage is considered to be a tool to satisfy passions, sensuality, sexuality. The progeny is a by product. More or less all of us guided by animal instinct. 
I strongly feel the need to educate our children with respect to Sanskars-virtues. 
Its a means to sustain, continue our family lineage-line. Its there to free us from the the debt of our Pitre-Manes namely Pitr Ran (पितृ ऋण).
गर्भाधान संस्कार विषयानन्द नहीं, वैषयिक सुख नहीं, अपितु उत्तम सन्तान प्राप्ति का यज्ञ कर्म है, गर्भाधान संस्कार के लिये अच्छे विचार, पावन एवं निश्च्छल मानसिकता, तपः पूत चिन्तन एवं संयम शक्ति अपरिहार्य तत्त्व है। गर्भाधान संस्कार विवाह संस्कार की पूर्णता की व्यक्त करता है। गर्भाधान संस्कार होने पर मातृ गर्भ में आत्मरूप जीव की प्रतिष्ठा हो जाने पर ही आगे के संस्कार सम्भव हैं, क्योंकि गर्भ में जीव आने पर ही आगे के पुंसवन, सीमन्तोन्नयन तथा प्रसव के अनन्तर जात कर्म आदि संस्कार होते हैं, इस दृष्टि से गर्भाधान संस्कार का सर्वोपरि महत्त्व है। 
अस्थि स्नायुश्च मज्जा च जानीमः पितृतो गुणाः।
त्वङ्मांसं शोणितं चेति मातृजान्यपि शुश्रुम॥
यथा विधि संस्कार के सम्पन्न होने पर पंचतत्वों की, पंचकोशों की तथा माता से उत्पन्न होने वाले त्वक्, माँस, शोणित एवं पिता से उत्पन्न होनेवाले अस्थि, स्नायु एवं मज्जा-इन धातुओं की शुद्धि हो जाती है।[महाभारत शांतिपर्व 305.5-6]
Its a means to prolong our family tree. One has to be pure, pious free from tensions, when he plans to have progeny. Let intercourse be a virtuous affair, not just a means to satisfy sex desires. The intercourse for progeny should never take place during the day. The sperms ejected into the vagina meets the ovum in the womb and fertilisation takes place leading to formation of zygote which in due course develops into the child.
यह सन्तानोत्पत्ति विज्ञान अथवा पुत्र मन्थ कर्म है। चराचर सभी भूतों का रस पृथ्वी है, पृथ्वी का रस जल है, जल का रस औषधियाँ हैं, औषधियों का रस पुष्प है, पुष्पों का रस फल, फलों का रस (आधार) पुरुष है और पुरुष का रस (सार) शुक्र है, इस रस (वीर्य) की स्थापना के लिये प्रजापति ने स्त्री की सृष्टि की और दोनों के पवित्र सहवास से उत्तम सन्तान की प्राप्ति होती है।
स य इच्छेत् पुत्रो मे शुक्लो जायेत वेदमनुब्रवीत सर्वमायुरियादिति क्षीरौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनवितयै। 
जो पुरुष चाहे कि मेरा पुत्र शुक्ल वर्ण का हो, वेद का अध्ययन करे, पूरी आयु अर्थात् सौ वर्षा तक जीवित रहे तो दोनों पति-पत्नी को चाहिये कि खीर बनाकर उसमें घृत डालकर सेवन करें, इससे वे वैसे पुत्र को जन्म देने में समर्थ होते हैं।[बृहदारण्य 6.4.14]
विदुषी कन्या प्राप्ति के लिये भी यही सब करना चाहिये।
गर्भाधान-क्रिया से सम्बद्ध मन्त्रों का भाव :-
गर्भ धेहि सिनीवालि गर्भ धेहि पृथुष्टुके। 
गर्भ ते अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्खजौ॥
हे प्रिये! सर्वव्यापी भगवान् विष्णु तेरी जननेन्द्रिय को पुत्र की उत्पत्ति समर्थ बनायें। भगवान् सूर्य तेरे तथा उत्पन्न होने वाले बालक के अंगों को विभाग पुष्ट एवं दर्शनीय बनायें, विराट् पुरुष भगवान् प्रजापति मुझसे अभिन्न रूप में स्थित हो तुझ में वीर्य का आधान करें। भगवान् तेरे गर्भ का धारण और पोषण करें। हे देवि! जिसको भूरि-भूरि स्तुति की जाती है, वह सिनीवाली (जिसमें चन्द्रमा को एक कला शेष रहती है, वह अमावास्या) तुम हो, तुम यह गर्भ धारण करो, धारण करो। देव अश्विनीकुमार (सूर्य और चन्द्रमा) अपनी किरण रूपी कमलों की माला धारण करके मुझसे अभिन्न रूप में तुझ में गर्भ का आधान करें।[बृहदारण्य 6.11.21] 
सुख पूर्वक प्रसव कैसे हो, इसका भी विधान वहाँ बताया गया है और प्रसव करनेवाली स्त्री को सोप्यन्ती नाम से कहा गया तथा मन्त्रपूर्वक जल सिंचन की क्रिया को सुख प्रसव का उपाय बताया गया है।[बृहदारण्यक 6.4.23]
The woman ready for delivery has been termed Soshyanti. The process become painless and yields pleasure to her if the delivery is carried out with the help of recitation of Mantr in addition to pouring of water. 
It has been observed that the woman undergoing extreme pain during delivery relaxes, if she is made to deliver the child in a tub full of water.
सहवास के अनन्तर क्रियाएँ :: 
ऋतौ तु गर्भशनानं मैथुनिनः स्मृतम्। 
अनृतौ तु यदा गच्छेच्छौचं मूत्रपुरीषवत् ॥
गर्भ रहने की आशंका है, अतः गमन के अनन्तर पुरुष को स्नान (मार्जन) करके आचमन प्राणायाम करके भगवान् का स्मरण करना चाहिये, किंतु जो ऋतुकालरहित समय में सहवास करता है, उसको शुद्धि मूत्र पुरोषवत् होती है।[महर्षि पराशर, आचारादर्श]
ऋतुकाल में मैथुन करने वाले को अशिरस्क स्नान तथा बिना ऋतुकाल में गमन करने पर पाद प्रक्षालन, अंग प्रोक्षण आदि करना चाहिये। स्नान की आवश्यकता नहीं है, किंतु दोनों अवस्थाओं में इन्द्रियों की मूत्र पुरोषवत् शुद्धि करनी चाहिये। रात्रि में स्नान निषिद्ध होने से मार्जन आदि करना चाहिये।
Fertilisation of egg cell during menstrual cycle is doubtful. The male should undergo purification process. He should bathe without pouring water over the head. He should wash his legs-feet and hands. The genitals in both cases, the male and female deserve to cleaned just like cleaning urine and anus.
उभावप्यशुची स्यातां दम्पती शयनं गतौ। 
शवनादुत्थिता नारी शुचिः स्यादशुचिः पुमान्॥
स्त्रियों के लिये स्नानादि की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि उनमें अशुचित्य नहीं रहता। वृद्धशातातप का कहना है कि स्त्री-पुरुष शयन काल में दोनों अशुचि रहते हैं, किंतु सहवास के अनन्तर शयनसे उठ जाने पर पृथक हो जाने पर स्त्री शुचि ही रहती है, किंतु पुरुष अशुचि हो जाता है, इसलिये उसे मार्जन स्नानादि से पवित्र होना चाहिये।[वृद्धशातातप]
 The women need not take bath after intercourse-mating. Both male & female become impure during mating. The woman who get up after mating may not need purification measures, but the male does. Therefore, the male should take thorough wash-bathing. 
गर्भाधान के लिये उचित समय :: 
गण्डानन्तं त्रिविधं त्यजेन्निधनजन्मर्क्षे च मूलान्तकं दास्त्रं पौष्णमथोपरागदिवसं पातं तथा वैधृतिम्। पित्रो: श्राद्धदिनं दिवा च परिघाद्यर्थं स्वपत्नीगमे भान्युत्पातहतानि मृत्युभवनं जन्मर्क्षतः पापभम्॥ 
भद्राषष्ठीपर्वरित्ताश्च सन्ध्या-भौमार्कार्कीनाद्यरात्रीश्चतस्त्र:।  
गर्भाधानं   त्र्युत्तरेंद्वर्कमैत्र ब्राह्मस्वातीविष्णुवस्वम्बुभे सत्॥
नक्षत्र, तिथि तथा गण्डान्त, निधन-तारा, जन्म तारा, मूल, भरणी, अश्वनी, रेवती, ग्रहण-दिन, व्यतिपात, वैधृति, माता-पिता का श्राद्ध, दिन के समय, परिघ योग के आदि का आधा भाग, उत्पात से दूषित नक्षत्र, जन्म राशि या जन्म नक्षत्र से आठवाँ लग्न, पापयुक्त नक्षत्र या लग्न, भद्रा, षष्ठी, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति, सन्ध्या के दोनों समय, मंगलवार, रविवार और शनिवार रजोदर्शन से आरम्भ करके चार दिन; ये सब पत्नी गमन के लिये वर्जित हैं। शेष तिथियाँ सोमवार, वृहस्पति, शुक्र, बुधवार, तीनों उत्तरा, मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, रोहिणी, स्वाती, श्रवण, धनिष्ठा और शततारका; ये गर्भाधान के लिये शुभ हैं।[मुहूर्त चिन्तामणि] 
Auspicious time of mating for bearing-producing child :: Nakshtr, Tithi, Gandant, Nidhan Tara, Janm Tara, Mool, Bharni, Ashwani, Rewati, the day of eclipse, Vyatipat, Vaedhrati, Shraddh of parents, during the day, later Half of Paridhi Yog, disturbing constellations, Zodiac sign of birth, eighth house from constellation of Birth, sinner constellations or Zodiac, Bhadra, Shashthi, Chaturdashi, Ashtami, Amavasya, Purnima, Sankranti-conjunction, both periods of Sandhya (Morning evening prayers), Tuesday, Sunday and Saturday, four days period from the beginning of periods-menstrual cycle are prohibited for mating-intercourse. Other dates are auspicious. Monday, Thursday, Friday and Wednesday, Three Uttra, Mragshira, Hast, Anuradha, Rohini, Swati, Shrawan, Dhanishtha and Shattarka are favourable, suitable, auspicious for pregnancy. 
सहवास के समय स्त्री-पुरुष की भावनाएँ, चेष्टाएँ, आहार-आचार जैसे होते हैं, उनकी सन्तान उसी प्रकार के संस्कार लेकर पैदा होती है।
गण्डान्त :: गण्डान्त योग को संतान जन्म के लिए अशुभ समय कहा गया है। इस समय यदि सन्तान जन्म लेती है तो गण्डान्त शान्ति कराने के बाद ही पिता को शिशु का मुख देखना चाहिए। तिथि गण्ड में बैल का दान, नक्षत्र गण्ड में गाय का दान और लग्न गण्ड में स्वर्ण का दान करने से दोष मिटता है।[पराशर] संतान का जन्म अगर गण्डान्त पूर्व में हुआ है तो पिता और शिशु का अभिषेक करने से और गण्डान्त के अतिम भाग में जन्म लेने पर माता एवं शिशु का अभिषेक कराने से दोष कटता है। 
Gandant describes the junction points in the natal chart, where the solar and lunar zodiacs meet and are directly associated with times of soul growth-spirituality. The Gandant points are located at the junctions of Pisces (Revti) and Aries (Ashvanī), Cancer (Ashlesha) and Leo (Magha), Scorpio (Jyeshtha) and Sagittarius (Mul). Moon or ascendant at birth-time of a person located within 48 minutes of these points represents a spiritual knot that must be untied in a particular lifetime. 
व्यतिपात :: व्यतिपात योग की ऐसी महिमा है कि उस समय जप-तप, पाठ, प्राणायाम, माला से जप या मानसिक जप करने से भगवान् की और विशेष कर भगवान् सूर्य नारायण प्रसन्न होते हैं। जप करने वालों को, व्यतिपात योग में जो कुछ भी किया जाता है, उसका एक लाख गुना सुफल मिलता है। इस योग में किये जाने वाले कार्य से हानि ही हानि होती है। अकारण ही इस योग में किए गये कार्य से भारी नुकसान उठाना पड़ता है। किसी का भला करने पर भी अपना या दूसरे का बुरा ही होगा।
आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशीभि: समन्वितौ। 
स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयो: पुत्रोSपि तादृश:॥
जो स्त्री-पुरुष, माता-पिता, देवता, ब्राह्मण की पूजा (सेवा-सत्कार) करते हैं, शौच (पवित्रता) तथा सदाचार का पालन करते हैं, वे महान् गुणशाली पुत्रों को उत्पन्न करते हैं। इसके विपरीत आचरण करने वाले माता-पिता निर्गुण सन्तान पैदा करते हैं।[सुश्रुतसंहिता, शारीर स्थान 2.46] 
The husband & wife who resort to the service and well being of their parents, prayers of the demigods-deities, God, Brahmn and purity in day to day affairs produce the sons who have excellent qualities, traits, characterises. Those parents who act wild produce the progeny which lack good habits-qualities.
देवताब्राह्मणपरा: शौचाचारहिते रता:। 
महागुणान् प्रसूयन्ते विपरीतास्तु निगुणान्
जिस भाव से स्त्री-पुरुष का मिलन होता है, उसी भाव से युक्त सन्तान होती है। इसलिये गर्भाधान के समय मन में सुयोग्य, उत्तम चरित्र से सम्पन्न, गुणवान तथा धर्मात्मा पत्रोत्तपत्ति का भाव रखना चाहिये।[सुश्रुतसंहिता, शारीर स्थान 3.35]
The feelings-desires pertaining to the progeny should be pious, righteous, virtuous since, the thoughts shape the mentality of the progeny at the time of fertilisation of the egg in the ovum of the wife during mating-intercourse. Piousness leads to the birth of such children who are disciplined, full of excellence, followers of the scriptures, religious practices, good habits, spirituality in addition to practicality in life. 
गर्भ में पलने वाली सन्तान पर माता-पिता, घर-परिवार, वातावरण का पूरा प्रभाव पड़ता। माता-पिता अपना आचरण, आचार-व्यवहार, सन्तुलित, मर्यादा में रखना चाहिये। उनका खान-पान, विचार, संकल्प, रहन-सहन पूर्ण रूप से सात्विक होना चाहिये। माँस, मदिरा, नशे का सेवन घातक होता है। तेज मिर्च-मसाले नहीं खाने चाहिये। हरी सब्जियाँ, फल खायें और पर्याप्त दूध का सेवन करें। इस दौरान धार्मिक पुस्तकें, भजन-पूजन, मर्यादित फिल्मों को ही देखना चाहिये। अच्छे-भले लोगों की संगत करनी चाहिये। ज्यादा-घूमना-फिरना, आवागमन, राग-रंग अनुचित होता है। ज्यादा काम-काज, थकान संघातक होते हैं। जोर से चिल्लाकर बोलना, गुस्सा करना वर्जित है। रात को देर तक जागना, शोर शराबा करना घातक है। इस दौरान पति-पत्नी में समागम कदापि नहीं होना चाहिये। सुबह धीरे-धीरे घूमना लाभकारी है।  कपड़े ढीले और साफ-सुथरे पहनने चाहिये। पेट को सही तरीके से ढँककर रखें। प्रह्लाद जी ने माता के गर्भ में ही नारद जी के आश्रम में रहकर हरी भक्ति प्राप्त की थी। अभिमन्यु ने गर्भ में ही चक्रव्यूह का भेदन सीखा था। हर प्रकार का कम्पन गर्भ में शिशु को प्रभावित करता है। 
The progeny growing in the womb is directly affected by the environment, parents behaviour, interactions, dealings. The family atmosphere affects him the most. This is the period when the parents must have balance behaviour. The food, behaviour should be Satvik. There should be no place for vulgarity, meat, fish, food with high dose of spices. There should be no place for violence, vulgarity around even in films. Wine, drugs should be taboo. Reading-listening scriptures is a must. One should resort to regular morning & evening prayers. Morning walk is essential. Avoid fatigue over burden-load of work. Company of pious, virtuous, righteous, honest people is desirable. Avoid shouting & anger. Sleep at right time and avoid remaining awake for longer hours. Take rest at regular intervals. Take mild food with stress over nourishment, leafy vegetables, fruits. Avoid tight cloths like jeans and top. Cover the stomach as far as possible. Once pregnancy is there, never resort to intercourse. Prahlad Ji acquired Hari Bhakti while in the womb, when his mother stayed in the Ashram of Dev Rishi Narad. Abhimanyu learnt how to penetrate the Chakr Vyuh, while listening to the procedure described by his father Arjun to Subhadra his mother and Bhagwan Shri Krashn's sister, in the womb. Each & every vibration around affects the baby in the womb.
मरीचि के पुत्र कश्यप समस्त मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। देवासुर संग्राम में दिति पुत्रों के संहार के बाद शोक से विह्वल दैत्य माता दिति ने तपस्या से अपने पीटीआई कश्यप जी को प्रसन्न किया और ऐसे बलशाली पुत्रों को प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की जो देवराज इन्द्र को परास्त करने में सक्षम हों। कश्यप जी ने उससे कहा कि अगर वो गर्भवस्था में उनके बताये हुए निर्देशानुसार आचरण नहीं करेगी तो गर्भ नष्ट हो जायेगा। कश्यप ने जो नियम बताये वो इस प्रकार हैं :-
सन्ध्यायां नैव भोक्तव्यं गर्भिण्या वरवर्णिनि॥
न स्थातव्यं न गन्तव्यं वृक्षमूलेषु सर्वदा। 
नोपस्करे षू पविशेन्मु सलोलू खलादिषु॥ 
जले च नावगाहेत शून्यागारं च वर्जयेत्। 
वल्मीकायां न तिष्ठेत च चोद्विगन्मना भवेत्॥
विलिखेन्न नखैभूमिं नाङ्गारेण च भस्मना। 
न श्यालु: सदा तिष्ठेद् व्यायामं च विवर्जयेत्
न तुषाङ्गारभस्मास्थिकपालेषु समाविशेत्। 
वर्जयेत् कलहं लोकैगार्त्रभङ्गं तथैव च
 न मुक्तकेशा तिष्ठेत नाशुचिः स्यात् कदाचन। 
न शयीतोतरशिरा च चापरेशिराः कदाचिन्
न वस्त्रहीन नोद्विग्ना न चार्द्रचरणा सती। 
नामङ्गलयां वदेद्वाचं न च हास्याधिका भवेत्
कुयार्तु गुरूशुश्रुषां नित्यं माङ्गलयतत्परा। 
सर्वाषधीधि: कोष्णेन वारिणा स्नानमाचरेत्
कृतरक्षा सुभूषा च वास्तुपूजनतत्परा। 
तिष्ठेत् प्रसन्नवदना भर्त्तु:प्रियहिते रता
दानशीला तृतियायां पार्वण्यं नक्तमाचरेत्। 
इतिवृत्ता भवेन्नारी विशेषण तु गर्भिणी
यस्तु तस्या भवेत् पुत्रः शीलायुर्वृद्धिसंयुतः। 
अन्यथा गर्भपतनमवाप्नोति न संशयः
तस्मात्त्वमनया वृत्त्या गर्भेSअस्मिन् यत्नमाचर।  
स्वस्त्यस्तु ते गमिष्यामि तथेत्युक्तस्तया पुनः 
पश्यतां सर्वभूतानां तन्नैवान्तरधीयत। 
ततः सा कश्यापोक्तेन विविना समतिष्ठत            
गर्भवती स्त्री को संध्याकाल में भोजन नहीं करना चाहिये। उसे न तो वृक्ष की जड़ पर बैठना चाहिये और न ही उसके नजदीक जाना चाहिये। वह घर की सामग्री मूसल, ओखली आदि पर न बैठे, जल में घुसकर स्न्नान न करे, सुनसान घर में न जाये, बिमवट (दीमक की बाम्बी)  पर न बैठे। मन को उद्विघ्न न करे-परेशान न हो। नाख़ून से, लुहाठी से अथवा राख से भूमि पर रेखा न खींचे। सदा नींद में अलसाई हुई न रहे। कठिन परिश्रम न करे। भूसी, लुहाठी, भस्म, हड्डी और खोपड़ी पर न बैठे। लोगों के साथ वाद-विवाद न करे। शरीर को तोड़े-मरोड़े नहीं। बाल खोलकर न बैठे, अपवित्र न रहे, उत्तर दिशा की ओर सिरहाना करके एवं कहीं भी सर नीचे करके न सोये। नग्न होकर न रहे। उद्विघ्न चित्त होकर एवं भीगे पैरों से कभी न सोये। अमंगल सूचक बात न कहे। अधिक जोर से हँसे नहीं। नित्य मांगलिक कार्यों में तत्पर रहकर, गुरुजनों कीसेवा करे।आयुर्वेद के अनुरूप गर्भिणी के स्वास्थ्य के लिये उपयुक्त बताई गई सभी औषधियों से युक्त गुनगुने जल से स्न्नान करे। अपनी रक्षा का ध्यान रखे। स्वच्छ वेश-भूषा से युक्त रहे। वास्तु पूजन में तत्पर रहे। प्रसन्न मुख होकर सदा पति के हित में संलग्न रहे। तृतीया तिथि को दान करे। पर्व सम्बन्धी व्रत एवं नक्त व्रत का पालन करे।[मत्स्य पुराण 7.37-49] 
 

जो गर्भिणी स्त्री ध्यानपूर्वक इन नियमों का पालन करती है उसके गर्भ से पुत्र उत्पन्न होता है जो शीलवान् एवं दीर्घायु होता है। इन नियमों का पालन न करने पर गर्भपात की आशंका बनी रहती है। पैदा होने वाला बच्चा दुष्चरित्र, कुल-समाज विरोधी, राक्षस वृत्ति वाला हो सकता है।[मत्स्य पुराण]
The pregnant woman should skip evening meals. She may consume easily digestible fruits. She should neither sit over the root of trees not go around. She should not sit over he pastel or mortar or other things which may tilt her leading to imbalance. She should not bathe by entering water bodies, where there is a chance of getting slipped or imbalance. She should never enter an uninhibited house since there is a chance of dangerous animals or a person-criminal hidden inside. She should not sit over the termite mould. Its better not to be puzzled. She should remain tension free. She should not bother others unnecessarily, as well. She should not scratch the soil with nails or some other object which may blow dust. Dust may enter the nails or nostrils having germs, virus, bacteria. She should have a sound sleep during night and avoid sleeping during the day. She should avoid laziness and remain mentally calm, cool & alert. She is not supposed to do hard work. Acts like dancing, gymnastics, tough physical exercises, should be avoided by her. She should travel in a vehicle where there is a chance of jerks. She should never sit over bones, skull, dust, straw pile, burning wood. She should not enter into arguments with others. She should avoid bending the body. She should never be naked. She should never keep the hair loose, impure, impious. She should never keep the head in North direction while asleep. She should never keep the head down while sleeping. She should be calm, at ease free from distractions while sleeping. Her feet should not be wet while going to bed. She should not utter words which are impious. Harsh language must be discarded. Should not laugh with loud sound. She should be busy with daily chores, routine and prayers along with auspicious activities.  Its her duty to serve the elders, especially in laws. She should add the Ayur Vedic herbs prescribed for a pregnant woman in slightly warm, luck warm water for bathing. She should be aware-careful about her security. Her dress should be neat & clean. During this phase, she should perform all those tasks which have been prescribed in Vastu Shastr for the sanctity of the house and its household. She should maintain her person cleanliness. She should have a pleasant mood and willing to work in favour of her husband. On the third day of the lunar calendar she should donate to the needy, poor, downtrodden or the deserving person, including Brahmns and feed the cows and black dogs. She has to follow the rules & regulations pertaining to the festivals, fasting. The rules for fasting allows the women to eat at night.
She who follows these rules gives birth to a son who is pious, virtuous and blessed with long life. Failure to follow these rules may lead to abortion or birth of a deformed child. The child may be a crooked, criminal minded, against the society and just like a demon.
तदा प्रभुति व्यवायं व्यायाममतितर्पणमतिकर्षनं दिवास्वप्नं रात्रिजागरणं शोकं यानारोहणं भयमुत्कुटुकासनं चैकान्ततः स्नेहादिक्रियां शोणितमोक्षणं चाकाले वेगविधारणं च न सेवेत।
गर्भिणी स्त्री को गर्भ के लक्षण प्रकट होते ही व्यायाम, व्यसाय-मैथुन, समागम, अपतर्प-शरीर को घटाने वाला आचार-विहार (वज़न कम करना), अतिकर्षण-क्रश करना, दिन में सोना, रात में देर तक जगना, शोक, सवारी (घोड़े आदि जिनसे धचकी लगती हो), भय, उत्कट उकड़ू बैठना एकदम छोड़ देना चाहिये। उसे स्नेहादि क्रिया, रक्त मोक्षण (तथा मल-मूत्र आदि वेगों को नहीं रोकना चाहिये।[सुश्रुत संहिता शारीर स्थान 3.16]  
रक्तमोक्षण :: दूषित रक्त को शरीर से निकालने की विधि को रक्त मोक्षण कहा गया है।शस्त्र अथवा त्वचा तथा रक्त वाहिनी के रोगों में रक्त मोक्षण से लाभ होता है।  
Just as she conceives, the pregnant woman should reject physical exercises (fatigue, burden, over load) mating-intercourse, maneuvers to reduce weight, sleeping during the day keeping awake till late night, horse riding (including camel or elephant, any motorised vehicle, in case of emergency she should occupy the central seat), sitting over knees. Body massages should be avoided and urine and stools should be passed as soon as pressure is felt. She should not allow treatments for the purification of blood due to virus, bacteria etc, especially through the sucking blood by leeches.
गर्भवती महिला पहले दिन से से ही नित्य प्रसन्न मनवाली, पवित्र, अलकारों को धारण करे, श्वेत वस्र धारण करनेवाली शान्तिपरायण, मंगलकारी (स्वस्तिवाचन पढ़ने वाली) देवता-ब्राह्मण, गुरु (सास सुसर, घर के वृद्ध जन) की सेवा करने वाली हो; मलिन, विकृत या हीन अंगों का स्पर्श न करे। 
शांति मन्त्र :: ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतये: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्वँ शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति 
Soon after conception the woman should try to remain happy, wear such identifying marks so to show that she is pregnant. She may wear ornaments like Mangal Sutr, mark vermilion-sandal wood, saffron over her forehead. She should recite Shloks meant for peace and piousity, auspiciousness, prosperity. She should care devote herself to the demigods-deities, elders (in laws), Brahmns. She must maintain cleanliness and avoid touching defective of unclean organs.
दुर्गन्ध से बचे और बुरे दृश्यों को न देखे। बेचैनी करनी वाली कथा-कहानी न सुने। शुष्क, बासी, सड़े-गले अन्न को न खाये (बेकरी में बनी चीजें जैसे केक, डबलरोटी, बिस्कुट आदि, सिरका, काँजी, सभी तरह के आसव)। घर से बाहर निकलना, खाली घर, चैत्य-विहार, श्मशान, वृक्ष के नीचे रहना छोड़ दे। क्रोध एवं भी तथा निन्दित पदार्थों को, ऊँचे स्वर में बोलना आदि गर्भ को नुक्सान पहुँचाने वाली बातों को न करे। बार-बार तैल का अभ्यंग और उत्सादन (उबटन) आदि का प्रयोग न करे। शरीर से मेहनत न करे। गर्भ गिराने वाले अपथ्यों को न करे। शय्या, आसन कोमल, बिछे हुए, बहुत ऊँचे नहीं होने चाहियें। उनमें सहारा आश्रय रहना लेने वाले साधन हों और वे पीड़ा दायक न हों। मन को प्रिय, द्रव्य, मधुर रस की अधिकता, स्निग्ध, अग्निवर्धक, दीपनीय द्रव्यों से संस्कृत भोजन को खाये।[सुश्रुत संहिता, शारीर स्थान 10.3]   
She should avoid foul smells and stop visualising disastrous scenes. Films depicting sex, porn, terror-fear must be discarded. Company of such people who use foul-filthy language should be discarded. Such stories which create tension-restlessness must be discarded. She should not eat stale or dry food. She should shun rotting foul smelling food items (fish, meat, liqueur). She should not move out of house alone or without proper-essential reason and must not enter a deserted place-house. Monasteries, cremation ground living under a tree are not allowed to her. She should abandon anger and obsolete (useless, broken) goods. She should not shout or talk in a loud voice. Repeated use of ointments like a mixture of sandal wood and vermilion, Besan (gram power mixed with mustard oil) is harmful. She should not do physical labour, harsh-tough tasks. Those goods, medicines meant for abortion must not be consumed. Carrots seeds, egg-meat and wine, garlic, should be solemnly rejected. Her seat not be too high and it should fitted with attachments-aligned, meant for resting-comforting the body without generating stress or strain. Foods which are liked by her, liquid foods, oily foods, foods which increase appetite should be discarded during pregnancy. 
सभी प्रकार के अति गुरु, अति उष्ण, अति तीक्ष्ण आहार, दारुण चेष्टाएँ गभिणी स्त्री के लिए निषिद्ध हैं। रक्त (गहरे रंग के) वस्त्र धारण न करे। मद कारक (नशा पैदा करने वाले) अन्न आदि पदार्थों का सेवन न करे। सवारी पर न चढ़े, माँस न खाये, इन्द्रियों के लिये हानिकारक सभी पदार्थों से दूर रहे। जिस वस्तु को त्यागने के लिये अनुभवी, वृद्ध स्त्रियाँ कहें उनका सेवन न करे। गर्भवस्था में स्त्री के लिए जो नियम उनका पालन न करने से गर्भ विकृत हो सकता है अथवा पूर्णतया नष्ट हो सकता है।[चरक संहिता 4.18]
All sorts of food items which are difficult to digest should be rejected by the pregnant woman. Udad, Udad Dal, meat, fish, egg Rajma, should be summarily rejected. Food item with sharp-pungent taste must be discarded. Food item which have warm impact like ginger should be discarded. She should not attempt any thing which is risky, stressing, painful, troubling fatigue causing. She must not consume narcotics, wine, drugs. Travelling is prohibited for her. Should should avoid animal ride. All sorts of activities which trouble her sense organs must be discarded. She should abide by the advice of experienced-mature, old women. The pregnant woman who do not follow these tenets may suffer from abortion or the child may be born with deformities mental weaknesses.
"सामिषमशनं यत्नात्प्रमदा परिवर्जयेदत्त: प्रभृति" 
गर्भिणी स्त्री माँस युक्त भोजन का प्रयत्न पूर्वक त्याग कर दे।[निर्णय सिन्धु 3 पूर्वार्ध]
The pregnant woman should make efforts to stop consuming meat (fish, egg etc.)  
मुण्डन पिण्डदानं च प्रेतकर्म च सर्वश:। 
न जीवत्पितृक: कुर्याद्  गुर्विणीपतिरेव     
गर्भणी के पति को मुण्डन, पिण्डदान तथा प्रेत क्रिया नहीं करनी चाहिये।[हेमाद्रि-चतुर्वर्ग चिन्तामणि, आचार्य कौण्डिल्य]   
The husband of the pregnant woman should not perform shaving of head, Pind Dan (offerings in the form of wheat-barley dough lobs) and the Pret Kriya (pacification of the deceased's soul) meant for the deceased.
उदन्वतोSम्भसि स्नानं नखकेशशादिकर्तनम्। 
अन्तर्वत्न्या: पति: कुर्वन्न प्रजा जायते ध्रुवम् 
समुद्र के जल में स्नान करने और नख, केश आदि के काटने से गर्भिणी पति की सन्तान नष्ट हो जाती है।[याज्ञवल्क्यस्मृति आचार्य विज्ञानेश्वर प्रणीत मिताक्षरा टीका] 
The progeny is lost in the womb-abortion, if the pregnant woman's husband bathe in the ocean, cuts his nails or hair.
वपनं मैथुनं तीर्थ वर्जयेद् गर्भिणीपतिः। 
श्राद्धं च सप्तमासान्मासादूर्ध्वं चानयत्र वेदवित्
गर्भिणी का पति मैथुन, मुण्डन, तीर्थयात्रा आदि। उसे गर्भ के सात महीने के होने तक श्राद्ध भी नहीं करना चाहिये।[आश्वलायन] 
The husband of the pregnant woman should not involve in mating, pilgrimage and shaving the head. He should not perform Shraddh-homage to Manes till the foetus is seven months old. 
क्षौरं शवानुगमनं नखकृन्तनं च युद्धादिवास्तुकरणं  त्वतिदूरयानम्। 
उद्वाहमौपनयनं जलधेश्च गाहमायुःक्षयार्थमिति गर्भिणिकापतीनाम्
बाल कटवाना, शव के साथ चलना, नाख़ून काटना, युद्धादि करना (किसी भी प्रकार का अवांछित लड़ाई-झगड़ा), गृहाराम्भ आदि कर्म, बहुत दूर की यात्रा, विवाह, उपनयन तथा समुद्र स्नान; ये सब गर्भिणी के पति की आयु को विनष्ट करने वाले होते हैं।[कालविधान और मुहूर्तदीपिका]   
Hair dressing, walking along with dead body, cutting of nails, war-quarrel, unnecessary argument, house building etc., long-distant travel, marriage, rituals-Janeu ceremony, bathing in the oceans etc. leads to shortening of pregnant woman's husband's life span.
वपनं दहनं चैव चौलं च गिरीरोहणम्। 
नावश्चारोहणं चैव वर्जयेद् गर्भिणीपति
गर्भवती स्त्री का पति दाह, मुण्डन, चूड़ाकरण, पर्वतारोहण और नौका वहन आदि कर्म न करे।[गालव ऋषि-रत्न संग्रह]  
चूड़ाकरण (मुण्डन, शिखा) संस्कार अष्टम संस्कार है। अन्नप्राशन संस्कार करने के पश्चात चूड़ाकरण-संस्कार करने का विधान है। यह संस्कार पहले या तीसरे वर्ष में कर लेना चाहिये। द्विजातियों का पहले या तीसरे वर्ष में (अथवा कुलाचार के अनुसार) मुण्डन कराना चाहिये, ऐसा वेद का आदेश है।[मनुस्मृति]
Pregnant woman's husband should not neither climb a mountain nor opt for travelling by boat. He should not perform cremation shaving the head or growing the hair lock. 
"सा यद्यदिच्छेत्तत्तस्यै  दापयेत्, लब्धदौहृदा हि वीर्यवन्तं चिरायुषं च पुत्रं जनयति"          
दोहद गर्भकालीन इच्छा या गर्भिणी की अभिलाषा को कहते हैं। ऐसी स्त्री अन्नपानादि द्रव्यों की इच्छा रखती है तो दोहवाति कहलाती है। चार माह का गर्भ इन्द्रिय विषयों की इच्छा करने लगता है जिससे उस स्त्री को दो हृदय वाली कहा जाता है। ऐसी अवस्था में स्त्री की उचित इच्छा का प्रतिघात होने से सन्तान विकृत होती है। अतः उचित जरूरतों की पूर्ति आवश्यक है। इससे सन्तान गुणवान, वीर्यशाली और चिरायु होती है। इस काल में स्त्री जिस चीज की कामना करती है, वह उन्हीं पदार्थों के समान शरीर, आचार और स्वभाववाली सन्तान को उत्पन्न करती है। उसकी इच्छाओं के अनुरूप ही उसका सन्तान होती है।[सुश्रुत संहिता, शारीर स्थान 3.18]   
Once the foetus is four months old, its heart palpitating & it starts desiring for food. Thus the woman is called bearing two hearts. During this phase her genuine desires may be fulfilled. Crushing of her desires leads to the defective progeny in terms limbs, mentality. Fulfilment of her wishes during this phase-period leads to the birth of a good child, who has long life. The mentality-destiny is shaped as per the women's mentality in this period. The child's body, mental state evolves as per its deeds in previous incarnations.
"सा यद्यदिच्छेत्तत्तदस्यै दद्यादन्यत्र गर्भोपघातकरेभ्यो भावेभ्य:"
गर्भिणी स्त्री को खाने के लिये वही वस्तुएँ दी जानी चाहिये जो उसे प्रिय अर्थात (शारीरिक और मानसिक रूप से) लाभकारी हों। इससे उसके गर्भ की रक्षा होती है।[चरक शारीर 4.17] 
The pregnant woman should be served with only those food items which are good for her physical and mental health. It helps in the protection of her foetus.
दौर्ह्रदयदस्याप्रदानेन गर्भो दोषमवाप्नुयात्। 
वैरूप्यं मरणं वापि तस्मात् कार्यं प्रियं स्त्रियाः
गर्भिणी की खाने-पीने की शास्त्र सम्मत अभिलाषाओं को पूरा करने से गर्भ सुरक्षित, विकारमुक्त, दोषरहित हो जाता है और उसके नष्ट होने की संभावना नहीं रहती।[याज्ञवल्क्य स्मृति प्रायश्चित 79] 
चार महिने के गर्भस्थ शिशु का ह्रदय धड़कने लगता है और यह रक्त वाहिनियों के माध्यम से पोषण ग्रहण करने लगता है। वह अपने पूर्ववर्ती-पूर्वजन्मों के संस्कारों के आधीन भोजन की इच्छा करता है। वह इच्छा माँ के माध्यम से प्रकट होती है। 
The pregnant should be served such healthy food which is prescribed in scriptures to protect the foetus in the womb, its well being, making it defectless, safe and healthy. It eliminates the chances of abortion, ensures safe delivery protecting both mother and the child.
The heart of the foetus start palpitating soon after four months and it start nourishment through its blood carriers. It makes desires for the food as per impressions of its previous incarnations. 
कार्य विधि METHODOLOGY :: 
ॐ आदित्यं गर्भं पयसा समङ्धि सहस्रस्य प्रतिमां विश्वरूपम्। 
परि वृङ्धि हरसा माSभि मनस्था: शतयूषं कृणुहि चीयमान:
विवाह के अनन्तर रजोदर्शन के बाद चौथे दिन ऋतुस्नान करके स्त्री प्रातः काल आभूषण आदि से सुसज्जित होकर तथा नवीन वस्त्र धारण कर मौनव्रत  करके पति  के साथ भगवान् सूर्य के सम्मुख हाथ जोड़कर उपरोक्त आराधना करे।     
After the marriage, the woman should pray to Bhagwan Sury wearing ornaments and new cloths after four days of menstrual cycle is over, maintaining silence along with her husband with the above mentioned Mantr.
उसके बाद उसी दिन या षोडश रात्रि के पहले किसी दिन जब गर्भाधानानुकूल तिथि-नक्षत्र युक्त शुभ दिन उपस्थित हो, उस दिन सूर्यावलोकन आदि करके, गणेश जी महाराज, माँ अम्बिका-भगवती ग़ौरी पार्वती की पूजा करके, स्वस्तिपुण्याहवाचन, षोडश मातृका पूजन, वसोर्धारा पूजन, आयुष्य मन्त्र जप तथा सांकल्पिक विधि से नान्दी मुख श्राद्ध; स्त्री पति के साथ करे।
The woman along with her husband should perform Nandi Mukh Shraddh, on the same day or the expiry of 16 nights when suitable constellation formation or a suitable date is available, having prayed to Bhagwan Sury-Sun, Ganesh Ji Maharaj and Maa Bhagwati Ambe-Parwati. She should perform Swasti Punyah Vachan, Shodas Matrka Pujan, Vasordhara Pujan, recitation of Ayushy Mantr with the help of procedures described in scriptures for such performances.
 षोडश मातृका ::
गौरी पद्मा शची मेधा, सावित्री विजया जया। 
देवसेना स्वधा स्वाहा, मातरो लोकमातरः॥
धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिः, आत्मनः कुलदेवता। 
गणेशेनाधिका ह्येता, वृद्धौ पूज्याश्च षोडश॥
वसोर्धारा :: 
ॐ वसो: पवित्रमसि शतधारं, वसो: पविमसि सहस्रधारम् देवस्त्वा सविता पुनातु वसो:; पवित्रेण शत धारेण सुत्वा, कामधुक्ष: स्वाहा। 
आयुष्य मन्त्र ::
ॐ आयुष्यं वर्चस्यं  रायस्पोषमौभ्विदम्। 
इदं हिरण्य वर्चस्वज्जैत्राया विशतादुमाम्
नतद्रक्षां सिन पिशाचास्तरन्ति देवानामोज: प्रथमजं त्व्योतत्। यो विभत्र्ति दाक्षायणं हिरण्यं स   देवेषु कृणुते दीर्घमायुः स मनुष्येषु कृणुते दीर्घमायुः
यदाबन्ध्रन्दाक्षयाणा हिस्यं शतानीकाम समन्स्य। 
यन्म आबन्धामि शतशारदाया युष्मान् जरदष्टिर्यधासम्॥
यदापुष्यं चिरं देवाः सप्त कल्पान्त जीविषु ददुस्तेनायुषा  सम्यक् जीवन्तु शरदः शतम्। दीर्घा नागा नगा नद्योऽन्त  स्सप्तार्णवा  दिश। अनन्तेनायुषा तेन जीवन्तु शरदः शतम्। सत्यानि पञ्च भूतानि विनाशरहितानि च। अविनाश्यायुषा तद्व ज्जीवन्तु शरदः शतम्॥
गर्भाधान सम्बन्धी ये क्रियाएँ-विधान प्रथम गर्भाधान के पहले केवल एक बार करने की आवश्यकता है। अगर अज्ञानतावश पहली बार यह नहीं किया जा सके तो जातक को दूसरी-अगली बार इसे करना चाहिये। जातक को इन्हें विस्तार पूर्वक जानना हो तो संस्कार दीपक, कर्मकाण्ड प्रदीप जैसे ग्रथों का अध्ययन करना चाहिये।  
These-Shloks, procedural rituals-methodology have to be adopted prior to first pregnancy. If one is unable to do so, he may do it next time. Details of these methods have been explained in Sanskar Deepak, Karm Kand Pradeep etc. scriptures-books.
सर्वांगपूर्ण विधि :: 
प्रतिज्ञा-संकल्प :- ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे/क्षेत्रे षष्टिसंवत्सराणां मध्ये ...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र: सपत्नीक:..शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं अस्या: वध्वा: संस्कारातिशयद्वारा अस्यां जनिष्यमाणसर्वगर्भाणां बीजगर्भसमुद्भवैनोनिबर्हणद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीतये गर्भाधानसंस्कारं करिष्ये। तत्पूर्वाङ्गत्वेन गणेशाम्बिकापूजनं स्वस्तिपुण्याहवाचनं मातृकापूजनं वसोर्धारापूजनं आयुष्यमन्त्रजपं साङ्कल्पिकेन विधिना नान्दीमुखश्राद्धं च करिष्ये। 
तत्पश्चात विधि-विधान पूर्वक गणपति, माँ अम्बिका पूजन-आराधना, पञ्चांग आदि कर्म करें। 
नाभि स्पर्श मन्त्र :: इसके पश्चात् उसी दिन अथवा सोलह दिन के पहले किसी शुभ रात्रि के दूसरे प्रहर में दाहिने हाथ से अपनी स्त्री की नाभि का स्पर्श करते हुए यह मन्त्र पढ़ें :-
ॐ विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पि:शतु।
आसिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातुते
स्त्री का अभिमन्त्रण  :: पूर्व अथवा उत्तर दिशामुख होकर अपनी पत्नी को निम्न मन्त्र से अभिमंत्रित करें :- 
ॐ गर्भ धेहि सिनीवालि गर्भं धेहि पृथुष्टुके। 
गर्भं ते अश्वनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ॥ 
वीर्यदान :: तदनन्तर स्वस्थ और प्रसन्न मन से अपनी प्रसन्न, उद्वेग रहित, पति को चाहने वाली स्त्री को उत्तम शय्या पर दो घड़ी रात बीत जाने के बाद वीर्यदान करें। इस प्रक्रिया में निम्न मन्त्र का उच्चारण करें :- 
ॐ गायत्रेण त्वा छन्दसा परिगृह्णामि त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि जागतेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि। सूक्ष्मा चासि शिवा चासि स्योना चासि सुषदा चास्युर्जस्वती चासि पयस्वती च[शु. यजु. 1.27]  
ॐ रेतो मूत्रं वि जहाति योनिं प्रविशदिन्द्रियम्।
गर्भों जरायुणाSSवृत उल्बं जहाति जन्मना
ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानं शुक्रमन्धस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोSमृतं मधु[शु.यजु. 19.76] 
One may involve in mating with his wife with the desire of progeny on suitable date and constellation formation. He should ensure he and his wife both have perfect health and good mood. The process may begin around midnight. The Mantr given above may be recited. One should cool, calm, composed, happy and free from tensions (aberrations).  
हृदया लम्भन विधि :: अभिगमन-वीर्यदान के बाद पवित्र होकर स्त्री को अपने वामभाग में बैठाकर, उसके दाहिने कन्धे के ऊपर से हाथ ले जाकर उसके हृदय देश को स्पर्श करे। उस समय यह मन्त्र उच्चारण करे :- 
ॐ यत्ते सुसीमे हृदयं विधि चन्द्रमसि श्रितम्। 
  वेदाहं तन्मां तद्विद्यात्पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत: श्रुणुयाम शरदः शतम्॥
After mating one should cleanse himself, let his wife sit to his left, move his hand over her right shoulder, touch her heart-breasts and recite the above Mantr. 
तदनन्तर ताम्बूल आदि का सेवनकर रात्रि में सुखपूर्वक शयन करे। प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर ब्राह्मण भोजन का संकल्प करे। आचार्यादि ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदानकर मातृकाओं का विसर्जन करे। 
After that he may consume beetle leaves and sleep comfortably. In the morning he should take bath and take oath for the feeding Brahmns. He should distribute gifts. alms to the elders, Brahmns etc. and retire the Matrkas i.e., immerse the remains of the Yagy-Hawan in ponds, flowing waters. 
With the changing times, values-morals, culture are eroding and very few people are aware of the procedures to be adopted for the mating as per scriptures. Its merely animal sex now  a days. The procedures are typical and intricate for a normal human being. One may adopt Sankalp-Oath as follows and grants sufficient money-Dakshina to the Brahmns, who perform these rites for him and recite the Mantrs given earlier as per direction of the Purohit-Achary. 
संकल्प :: ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे/क्षेत्रे षष्टि-संवत्सराणां मध्ये ...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं अस्मिन् गर्भाधानसंस्कारकर्मणि  स्वस्तिपुण्याहवाचनं षोडश-मातृकापूजनं वसोर्धारापूजनं आयुष्यमंत्रजपं सांकल्पिकनान्दीश्राद्धं इत्येतेषां कर्मणां शास्त्रोक्तविधिपरिपालनोद्देश्येन  स्वर्णं (निष्क्रयद्रव्यं)...गोत्राय ब्राह्मणाय भवते सम्प्रददे। 
ऐसा उच्चारण करके ब्राह्मण को दक्षिणा प्रदान करे। तदनन्तर गर्भाधानात्मक मन्त्रों का अपकर्षण करे।  
Having said this, one should grant Dakshina to the Brahmn and complete the ceremony with the recitation of the prescribed Mantrs.
अपकर्षण हेतु संकल्प :: 
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: अद्य यथोक्तगुणविशिष्टतिथ्यादौ अस्याः मम भार्यायाः प्रथमगर्भातिशयद्वारा अस्यां जनिष्यमाण सर्वगर्भाणां बीजगर्भसमुद्भवैनोनिबर्हणार्थ गर्भाधानसंस्कारसम्बन्धि- निशिवहितकर्मसम्बन्धिमन्त्रणां अज्ञानादेहितुभिः पाठासम्भवात् सम्प्रति अपकृष्य गर्भाधानाख्यसंस्कारसम्बन्धीमन्त्रणां पाठं ब्राह्मणद्वारा कारयित्वा  गर्भाधानाख्यसंस्कारं करिष्ये।
नाभि स्पर्श हेतु मन्त्र :: 
ॐ विष्णुर्योनि कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंशतु। 
असिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते
भगवान् विष्णु तुम्हारी योनि को पत्रोत्पत्ति के हेतु सक्षम बनायें। सवितादेव हम दोनों के पुत्र को दर्शन योग्य बनायें। प्रजापति मेरे हृदय में स्थित होकर तुझमें वीर्य का आधान करें। धाता तुम्हारे गर्भ को पुष्ट करें। 
धाता :: धाता दूसरे आदित्य हैं । इन्हें श्री विग्रह के रूप में जाना जाता है। ये प्रजापति के रूप में जाने जाते हैं। जन समुदाय की सृष्टि में इन्हीं का योगदान है। जो व्यक्ति सामाजिक नियमों का पालन नहीं करता है और जो व्यक्ति धर्म का अपमान करता है, उन पर इनकी नजर रहती है। इन्हें सृष्टिकर्ता भी कहा जाता है।
Let Bhagwan Shri Hari Vishnu prepare-enable your uterus for bearing a  son. Savita Dev-Sun make our on handsome-smart. Prajapati (Brahma JI) may acquire my heart (body) and transfer the sperm in your uterus.  Let Dhata nourish your foetus. 
If an individual in unable to recite this prayer in Sanskrat, he may do so in Hindi or English. It will benefit him equally and serve the purpose provided he do so with dedication.
अभिमन्त्रण मन्त्र :: 
ॐ गर्भ धेहि सीनिवालि गर्भं धेहि पृथुष्टुके। 
गर्भं ते अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ 
हे सीनिवालि देवी! एवं हे विस्तृत जंघनों वाली पृथुष्टुका देवी! आप इस स्त्री को गर्भ धारण करने की सामर्थ्य प्रदान करें। कमलों की माला से सुशोभित दोनों अश्वनी कुमार तेरे गर्भ  को पुष्ट करें।   
Hey, Siniwali Devi-goddess & Prathushtka Devi bearing broad thighs! Kindly grant power to wear pregnancy to this woman-my wife. Let both Ashwani Kumars wearing garlands made of Louts flowers nourish your foetus.
वीर्य दान का मन्त्र :: 
ॐ गायत्रेण त्वा छन्दसा परिग्रह्रामि त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसा परिग्रह्रामि जागतेन त्वा परिग्रह्रामि। सूक्ष्मा चासि शिवा चासि स्योना चासि सुषदा चास्युर्जसवती चासि पयस्वती च
मैं तुम्हें गायत्री, त्रिष्टुभ् तथा जगती छन्द के द्वारा ग्रहण करता हूँ। हे वेदभूमे! तुम शोभना हो। तुम शान्त हो। तुम सुख स्वरूप हो। तुम आनन्द से बैठने योग्य हो। तुम अन्नवाली हो और तुम जलवाली हो।[शु.यजु. 1.27] 
I accept you through Gayatri, Trishtubh and Jagti Chhand! Hey Ved Bhume! You are cute-beautiful. You are quite-passive. You are like pleasure. You are embodiment of pleasure. You are meant to have comforts. You have food grains and you have water.
ॐ रेतो मूत्रं वि जहाति योनिं प्रविशदिन्द्रियम्। गर्भों जरायुणाSSवृतं उलबं जहाति जन्मना॥ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानं शुक्रमन्थस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोSमृतं मधु[शु.यजु. 19.76] 
मनुष्य की जननेंद्रिय योनि में प्रविष्ट होकर उसमें वीर्य का आधान करती है, परन्तु वही अन्यत्र मूत्र का परित्याग करती है। इसी प्रकार जरायु से लिपटा हुआ गर्भ जन्म लेने पर झिल्ली को छोड़ देता है। इस सत्य नियम से यही सत्य निकलता है कि उचित का साथ स्वीकार्य है। अतः शुद्ध करके पिया गया सोम इन्द्रियों को बल देने वाला होता है। यह दूध भी इन्द्र के लिये अमृत स्वरूप हो। 
The pennies discharges sperms in the vagina. It rejects urine else where. The foetus rejects the membrane soon after birth. Its a law. The association of right-correct is acceptable. The Som drink (Som Ras) after purifying gives strength-power to the sense organs, body. The milk should be like elixir to the Indr. 
Som is rare but milk can be consumed by the person to gain strength. Indr is synonym to Indriy-senses, here. Indr represents the almighty as well.
ह्रदयालम्भन मन्त्र :: 
ॐ यत्ते सुसीमे हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्। 
वेदाहं तन्मां तद्विद्यात्पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतम् श्रुणुयाम शरदः शतम्॥ 
हे सुन्दर सीमन्त वाली देवी! मैं द्युलोक, आकाश तथा चन्द्रमा में स्थित तुम्हारे हृदय को जानता हूँ, किन्तु वह हृदय-चित्त इस समय मुझे पतिभाव वाला समझे। इस प्रकार सम्मनस्क होकर हम दोनों सौ वर्षों तक देखें, सौ वर्षों तक जीवित रहें और सौ वर्षों तक सुनें।  
Hey Devi-goddess bearing attractive hair (Used for wife, here)! I understand your mood-gestures, heart, looking all around (the earth, sky and the Luna). At this moment please consider me your husband. In this manner we should look forward for 100 years, survive for 100 years and hear for 100 hundred years.
The pair pray to God that they may survive for 100 years in healthy state, free from diseases & perfect mental state.
सा यदि गर्भं न दधीत सिंहृा स्वेतपुष्प्या उपोष्य पुष्पेण मूल पुत्थाप्या चतुर्थेSहनि स्नातायां निशायामुदपेषं पिष्ट्वा दक्षिणस्यां नासिकायामसिञ्चति
यदि स्त्री गर्भ धारण नहीं कर पा रही हो तो उसका पति पुष्य नक्षत्र में शुभ दिन देखकर उपवास करे और श्वेत पुष्पवाली कण्टकारिका-भटकटैया या कटेरी अथवा शिफ़ा की जड़ उखाड़ लाये और उसको जल के साथ पीसकर उसका रस स्त्री के दाहिने नथुने से सुँघाये तथा कुछ बूंदें नाक में छोड़े। इस प्रक्रिया के दौरान उसे निम्न मन्त्र का उच्चारण भी करते रहना चाहिये।  
In case his wife is unable to conceive the husband should uproot either Kantkarika-Bhatkaeya or Kateri or Shipha bearing white flowers and let her smell the paste of its roots prepared in water and drop a few drops in her nostrils as well. He should recite the Mantr quoted above, while performing this.
ॐ इयमोषधी त्रायमाणा सहमाना सरस्वती। 
अस्य अहं बृहत्या: पुत्र: पितुरिव नाम जग्रभम्॥
यह बृहती-कण्टकारी नामक औषधि व्याधियों का नाश करने वाली तथा रक्षा करने वाली है। यह उत्पन्न दोषों को दूर करती है तथा वाणी का परिष्कार करनेवाली है। इस स्त्री-मेरी पत्नी का पुत्र  समान ही गुणवाला हो।
This Herb named Brahati-Kantkari is capable of removing the diseases-ills,-odds and protects the consumer. It cure the defects in the body and corrects the defects in speech-voice, tongue. Let the son produced by this woman-my wife have characters identical to me. 

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