MANU SMRATI (3) मनु स्मृति
(MARRIAGE, FAMILY LIFE AND HOMAGE TO MANES
(MARRIAGE, FAMILY LIFE AND HOMAGE TO MANES
विवाह, ग्राहस्थ, श्राद्ध)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के अन्तर्गत आठ प्रकार के विवाह, कन्या की पात्रता, श्राद्ध के लिए निमन्त्रित किये जाने वाले ब्राह्मण की योग्यता तथा श्राद्ध में परोसे जाने वाले द्रव्यों की उपयुक्तता-अनुपयुक्तता।
षट्त्रिंशदाब्दिकं चर्यं गुरौ व्रतम्।
तदर्धिकं पादिकं वा ग्रहणान्ति कमेव वा॥3.1॥
गुरु के आश्रम में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता हुआ 36 वर्ष तक अथवा 18 या 9 वर्ष में ही तीनों वेदों को पढ़े अथवा नियत समय से पहले या पीछे जितने दिनों में वेद पढ़ना समाप्त कर सके, उतने ही दिनों तक पढ़े। तदर्धिकं पादिकं वा ग्रहणान्ति कमेव वा॥3.1॥
The celibate, Brahman, Brahmchari should continue learning 3 Veds for 9, 18 or 36 years or he may adjust the number of days period according to his learning capacity.
Mahrishi Balmiki transferred the whole knowledge available with him to Luv & Kush in a few moments when Lakshman Ji came to the ashram to untie the Yagy horse.
There are virtuous students like Bhagwan Shri Krashn and Balram Ji who mastered all the faculties of learning in just 40 days, including Veds.
वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वाSपि यथाक्रमम्।
अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममावसेत्॥3.2॥
अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन हुआ क्रम से तीनों वेद या दो वेद या फिर एक ही वेद पढ़कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे। The student may enter family life after studying 3, 2 or just one Ved by practising unbroken celibacy.
तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितु:।
स्रग्विणं तल्प आसीनमर्हयेत्प्रथमं॥3.3॥
स्वधर्म प्रसिद्ध उस ब्रह्मचारी को जो पिता से या अन्य आचार्य से वेद पढ़ चुका हो, पुष्प-माला पहना कर शय्या पर बैठाकर पहले उसका मधुपर्क विधि से पूजन करना चाहिये। In the mean while the celibate has proved himself to be a graduate having undergone studies with his father or the Guru-teacher, is garlanded and made to sit over a couch and then he is blessed with the help of Madhu Park-a sacred mixture of curd, ghee, honey, Ganga Jal & sugar.
Traditionally in Hinduism a child or celibate is subjected to a form of prayer, in which he is treated as an image of the God, deities, demigods. The process involves his protection from the evil.
मधुपर्क :: पूजा के लिए बनाया गया दही, घी, जल, चीनी और शहद का मिश्रण या पंचामृत या चरणामृत।
गुरुणाSनुमतः स्नात्वा समावृत्तो यथाविधि।
उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णान् लक्षणान्विताम्॥3.4॥
तब गुरु से आज्ञा लेकर विधिपूर्वक समवर्तन संस्कार स्नानादि करके द्विज शुभ लक्षणयुक्त कन्या से विवाह करे। The disciple had to seek the permission-blessings of his Guru, after completing Samavartan Sanskar to return home and enter into family life, by marrying a suitable girl having pious-auspicious signs over her body.
Please refer to :: ASTROLOGICAL BODY SIGNS सामुद्रिक शास्त्र santoshhastrekhashastr.wordpress.com
समवर्तन संस्कार :: यह संस्कार तब किया जाता था जब बालक गुरूकुल से शिक्षा प्राप्त करके घर आता था। इस संस्कार को करने का अर्थ यह है कि बालक ने अपनी शिक्षा पूरी कर ली है और उसने ब्रह्मचर्य आश्रम को पूरा कर लिया है। इस संस्कार के साथ यह भी स्पष्ट होता था कि अब बालक युवावस्था में प्रवेश करके विवाह करने लायक हो गया है। इस संस्कार में ब्रह्मचारी-विद्यार्थी स्नान के पश्चात गुरू को गुरू दक्षिणा देते थे। तभी ब्रह्मचारी को संसार की वस्तुओं एवं सिद्धान्तों-नियमों, रीति-रिवाजों से अवगत कराया जाता था। ब्रह्मचर्य के सभी प्रतीकों को बहते जल-नदी में प्रवाहित कर दिया जाता था।
Samavartan Sanskar means that the celibate had completed his education and Brahmchary Ashram-first stage in the life of a human being. Having completed his education the disciple had to return home. The rites performed at this juncture were called Samavartan Sanskar. All the signs of his celibacy were in immersed into the flowing waters of pious river. He was initiated into family life and all practices, rites, ceremonies, rituals, systems were explained to him.
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितु:।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दरकर्मणि मैथुने॥3.5॥
जो कन्या माता की सात पीढ़ी के भीतर की हो, पिता के सगोत्र की न हो, वह द्विजातियों के व्याहने और सन्तोत्पादन करने योग्य होती है। The girls selected for marriage by a Dwij-upper caste should neither belong to 7 generations of his mother nor should she have common ancestor with his father.
The present day science has a lot to explain this. Common origin means presence of dominant defective gene or some inherited diseases. When the defective gene comes from both sides it becomes dominant; otherwise it will be a dwarf and will not show its impact over the progeny.
महान्त्यपि समृध्दानि गोजाविधनधान्यत:।
स्त्रीसम्बन्धे दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत:॥3.6॥
गाय, बैल, बकरी, भेड़ और धनधान्य से पूर्ण धनी होने पर भी आगे वर्णित कुलों में सम्बन्ध न करे। One-the disciple who has graduated should not marry a girl from the families listed in next verses in spite of being rich & in possession of cows, bulls, goats, sheep, granary-a storehouse for threshed grain.
हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम्।
क्षय्यामयान्यपस्मारिव्श्रित्रिकुष्ठिकुलानी च॥3.7॥
जो क्रियाहीन हों, जिनमें पुरुष सन्तति न हो, जो वेद के पठन-पाठन से रहित हों, जिनमें स्त्री-पुरुष के शरीरों पर बहुत और लम्बे केश हों, जिनमें अर्श-बबासीर, क्षय-राजयक्ष्मा, मन्दाग्नि, मृगी, श्वेत दाग और कुष्ठ रोग होते हैं। One who neglects the sacred rites-rituals, has no male child, do not read-study the Veds, have thick rich-long hair on the body, suffering from piles, tuberculosis, those who have weak digestion-indigestion, epilepsy or white spots or leprosy.
नोद्वहेकत्कपिलां कन्यां नाधिकाकाङ्गीन् न रोगिणीम्।
नालोमिकां नातिलोमां न वाचालां न पिङ्गलां॥3.8॥
जिस कन्या के बाल भूरे हों-पक गये हों, जिसके अधिक अङ्ग हों (जैसे हाथ पैरों में 6 उँगलियाँ), जो रुग्णा हो, जिसके शरीर में रोम न हों या बहुत अधिक हों, जो बहुत ज्यादा बोलती हो, जिसकी आँखें पीली हों, उसके साथ विवाह न करे। One should not marry a girl-maiden with grey hair (white, ripe hair of the head), has more limbs-extra organs like 6 fingers in the hands or feet, is ill-diseased, has no fine & thin small hairs or has too much of them over the body, is garrulous-speaks too much, had yellow eyes; is not suitable for marriage.
नर्क्षवृक्षनदीनाम्नीन् नान्त्यपर्वतनामिकाम्।
न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीम् न च भीषणनामीकाम्॥3.9॥
नक्षत्र, वृक्ष, नदी, मल्लेच्छ, पहाड़, पक्षी, साँप और दासी के नाम पर जिसका नाम हो तथा डरावने नाम वाली कन्या से विवाह न करे। One should not marry a girl-maiden with the name of a constellation, tree, river, one bearing the name of a Mallechh (names in Muslim-Arabic or Christian-European language), mountain, bird, snake, slave or the one who has a terrific-dangerous name.
If one can changes the name suitably, before or even after the marriage it may be allowed. Names and their spellings have great significance attached to them. The names listed above are harmful to the native.
अव्यङ्गाङ्गीं सौम्यनाम्नीं हंसवारणगामिनीम्।
तनुलोमकेशदशनां मृदङ्गीमुद्वहेत्स्त्रियम्॥3.10॥
जिसका कोई अङ्ग बिगड़ा न हो, जिसका सुन्दर नाम हो, हंस या हाथी की सी मन्द गति हो, सूक्ष्म रोम, केश और छोटे दाँतों वाली कोमलाङ्गी हो, उससे विवाह करे। One should marry a girl who has defectless organs, bear a good name, has the slow-swift movements like the swan or elephant, has small body hair, beautiful long hair, small teeth and soft to touch body.
यस्यास्तु न भवेद भ्राता न विज्ञायेत वा पिता।
नोपयच्छेत तां प्राज्ञ: पुत्रिकाधर्मशङ्क्या॥3.11॥
जिसके भाई न हो अथवा जिसके बाप को कोई न जानता हो तो, पुत्रिका धर्म की आशंका से बुद्धिमान पुरुष उस लड़की के साथ ब्याह न करे। One should not marry a girl who do not have a brother or who's father is not known or who's father expects her son to perform rites pertaining to him and the manes.
पुत्रिका उसे कहते हैं, जिसके पुत्र से पिता, अपने पिण्ड-पानी की आशा करे।
The girl who's father expects to comply rituals to him and to the manes after death from her son.
सवर्णाग्रे द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि।
कामतस्तु प्रवृत्तानामिमा: स्यु: क्रमशो वरा:॥3.12॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को पहले सवर्णा (स्वजाति की कन्या) से विवाह करना श्रेष्ठ होता है। काम वश विवाह करने वाले को क्रम से ये स्त्रियाँ भी श्रेष्ठ होती हैं। The Upper Castes should prefer to marry a girl of his own caste being excellent-compatible. Even if one has to marry a girl of his other caste under the influence of passion, lust, sensuality, sexuality, lasciviousness, such marriage should be preferred.
शूद्रैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विश: स्मृते।
ते च स्वा चैव राज्ञश्र्च ताश्र्च स्वा चाग्रजन्मनः॥3.13॥
शूद्र की शूद्रा ही स्त्री होती है, वैश्य को वैश्य वर्ण की और शूद्रा, क्षत्रिय को क्षत्रिया, वैश्य कन्या-स्त्री और शूद्रा, ब्राह्मण को चारों वर्णों की कन्या से व्याह करने का अधिकार है। The Shudr can marry only that woman who belongs to his caste, the Vaeshy can marry a Vaeshy Girl and a Shudr girl as well, the Kshtriy can marry a girl from Kshatriy, Vaeshy & Shudr community and the Brahmn can marry the girl from any of the remaining 3 communities.
Its extremely difficult for an upper caste girl to adjust in a lower caste family. Such a girl is found to produce impotent like the combination of horse and ass produce pony-mule.
न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतो:।
कस्मिन्श्र्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते॥3.14॥
ब्राह्मण और क्षत्रिय को सवर्णा स्त्री न मिलने पर भी शूद्रा को स्त्री बनाने का किसी भी इतिहास में आदेश नहीं पाया जाता। None of the scriptures or history quote any example-order for the Brahmn or the Kshatriy to marry a Shudr girl even when they are unable to find a suitable girl of their own caste-Varn.
हीनजातिस्त्रियं मोहादुद्वहन्तो द्विजातयः।
कुलान्येव नयन्त्याशु ससंतानानि शूद्रताम्॥3.15॥
द्विज मोह वश हीन जाति (शूद्र) की कन्या से व्याह करते हैं, वे संतान सहित अपने वंश को शीघ्र ही शूद्र बना देते हैं। The upper caste who marry a Shudr girl due to infatuation, passion, imprudence, lust, soon turn his caste into a lower caste including children.
The moment when this treatise was narrated to Manu Ji, this practice did not prevail. But one finds innumerable castes in Hindu society like the Kayasths; who are born out of such relations. The kings used to have innumerable children from their wives from lower castes. These illegitimate children were not recognised as the heir to the throne. Maha Nand was born from a barber woman by a Brahmn king.
Still, these 2 verses contradict each other. Manu Ji did not hesitate in revealing the truth. These are guiding principles, whether one follows them or not is a different issue.
In fact the Kayasth Vansh originated from Chitr Gupt Ji, but later the mixed breeds were grouped with the Kayasths. These days they term themselves as cosmopolitans.
शूद्रावेदी पतत्यत्रेरुतथ्यतनयस्य च।
शौनकस्य सुतोत्पत्तया तदत्पतया भृगो:॥3.16॥
शूद्रा से व्याह करने वाला ब्राह्मण पतित होता है, यह अत्रि और उतथ्य पुत्र गौतम का मत है। शूद्रा से पुत्रोत्पन्न होने पर क्षत्रिय क्षत्रित्व से गिर जाता है, यह शौनक का मत है, इसी प्रकार शूद्रा से सन्तान होने से वैश्य भी पतित होता है ऐसा भृगु का मत है। In the opinion of Atri-Brahma Ji's son and Gautom-son of Utthy, a Brahmn is degraded when he marries a lower caste woman. Shaunak Ji opined that likewise a Kshatriy losses his might, strength and valour, when he marries Shudr woman. Bhragu too opined pertaining to Vaeshy that he will be degraded if he marries a Shudr woman.
These sages were walking store house of knowledge, renowned scientists and technocrats, much more capable than the fastest computer, of storing information in their brain-memory. They were legendary personalities capable of analysing and synthesising information. Darwin, Lamarckism, Mandelism etc. have grossly failed to describe human origin and evolution. Latest research has achieved the growth of living cells in the laboratory proving-confirming a-z, said in the epics.
शूद्रां शयनमारोप्य ब्राह्मणो यात्यधोगतिम्।
जनयित्वा सुतं तस्यां ब्राह्मन्यादेव हीयते॥3.17॥
ब्राह्मण शूद्रा के साथ शयन करके अधोगति-नरक को जाता है और उससे पुत्र उत्पन्न करके ब्राह्मणत्व से भी रहित हो जाता है। A Brahmn moves to hells just by sleeping with a lower cast-Shudr woman and by producing a son from her, he losses his status as a Brahmn.
दैवपित्र्यातिथेयानि तत्प्रधानानि यस्य तु।
नाश्नन्ति पितृदेवावास्तन्न च स्वर्गं स गच्छति॥3.18॥
विवाहित शूद्रा के हाथ का बनाया हुआ हव्य-कव्य देवता, पितर ग्रहण नहीं करते। शूद्रापति ऐसे आथित्य से स्वर्ग भी नहीं पाता। The demigods & manes do not accept the offerings cooked-prepared by such woman. The Brahmn having married her is devoid of the heaven, he had been craving for. His lust-passion leaves him to take birth in low castes, species.
वृषलीफेनपीतस्य नि:श्र्वासोपहतस्य च।
यस्यां चैव प्रसूतस्य निष्कृतिर्न विधीयते॥3.19॥
जो शूद्रा के अधर-रस का पान करता है, उसके नि:श्र्वास से अपने प्राणवायु को दूषित करता है और उससे सन्तान उत्पन्न करता है, उसके निस्तार का कोई उपाय नहीं है। One who kisses the lips of the Shudr woman, contaminate his respiratory system and produces children; has no way out to escape expiation-the harmful results.
EXPIATION :: expiation atonement, redemption, redress, reparation, restitution, recompense, requital, purgation, penance, amends.
The Shudr woman who was born and brought up in polluted-impure surrounding, has her whole body adjusted according to that ecosystem. The culture, atmosphere, behaviour, way of talking etc. are different. Low moral-no virtues are associated with her.
चतुरर्णामपि वर्णानां प्रेत्य चेह हिताहितान्
अष्टाविमान्समासेन स्त्रीविवाहान्निबोधत॥3.20॥
चारों वर्णों के लोक और परलोक में हिताहित के साधन करने वालों को आठ प्रकार के विवाहों को संक्षेप में कहता हूँ। I shall describe the 8 kinds of marriages which are solemnised for the welfare of all the 4 Varns in this world and the other worlds-next incarnations, in brief.
ब्राह्मो दैवस्तथैर्वार्ष: प्राजापत्यस्तथाSSसुर:।
गान्धर्वो राक्षसश्र्चैव पैशाचच्श्राष्टमोSधम:॥3.21॥
ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच जो सबसे अधम है। Out of the 8 kinds of marriages :- Brahm, Daev, Arsh, Prajapaty, Asur, Gandharv, Rakshas and Paeshach; the last is the worst possible marriage.
यो यस्य धर्म्यो वर्णस्य गुणदोषौ च यस्य यौ।
तद्व: सर्वं प्रवक्ष्यामि प्रसवे च गुणागुणान्॥3.22॥
धर्मानुकूल जिस वर्ण का विवाह है, जिसके गुण दोष हैं और जिस विवाह से उत्पन्न सन्तानों में जो गुण दोष होते है, उन सबको विशेष रूप से कहूँगा। I will specifically describe the virtues-qualities and defects-faults in the marriage solemnised according to the Dharm of the Varn-caste and the progeny-offspring, obtained through that marriage.
षडानुपूर्व्या विप्रस्य क्षत्रस्य चतुरोSवरान्।
विट्शूद्रयोस्तु तानेव विद्याद्धर्म्यानराक्षसान्॥3.23॥
ब्राह्मण को आदि से 6 प्रकार के विवाह, क्षत्रिय को असुरादि क्रम से 4 प्रकार के, वैश्य शूद्र को राक्षस रहित 3 प्रकार के विवाह धर्मानुकूल कहे गये हैं। The Brahmn may marry through 6 methods-means (systems, ceremonies, procedures) according to the order given above, the Kshatriy in 4 ways, the Vaeshy & Shudr can marry in 3 manners; except the Rakshas tradition of marriage, in accordance with the Dharm-established religious procedures.
चतुरो ब्राह्मणस्याद्यान्प्रशस्तान्कवयो विदुः।
राक्षसं क्षत्रियस्यैकमासुरं वैश्यशूद्रयो:॥3.24॥
ब्राह्मण के लिये 4 विवाह (ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापात्य) क्षत्रिय के लिये केवल राक्षस और वैश्य तथा शूद्र के लिये आसुर विवाह को पण्डित गण श्रेष्ठ समझते हैं। The scholars recommend 4 types of marriage for the Brahmn i.e., Brahm, Daev, Arsh and Prajapaty, Rakshas tradition for the Kshtriy and the Asur tradition for the Vaeshy & Shudr to be excellent.
पञ्चानां तु त्रयो धर्म्या द्वावधर्म्यौ स्मृता विह।
पैशाचच्श्रासुरश्र्चैव न कर्त्तव्यौ कदाचन॥3.25॥
प्राजापत्य आदि 5 विवाहों में 3 :- प्राजापात्य, गान्धर्व और राक्षस, धर्मानुकूल और दो :- आसुर और पैशाच, अधर्म युक्त कहे गये हैं। इसलिये ब्राह्मण को किसी भी अवस्था में आसुर या पैशाच विवाह नहीं चाहिये। Out of the 5 Prajapaty etc. marriages 3 :- Prajapaty, Gandharv & Rakshas, are as per tenets of the scriptures i.e., in accordance with the recommendation of the religion and 2 :- Asur & Paeshach, are against the set traditions-against the scriptures. Therefore, a Brahmn should never enter into matrimonial alliance through Asur-demonic (barbarians) or Paeshach procedures.
पृथक्पृथग्वा मिश्रौ वा विवाहौ पूर्वचोदितौ।
गान्धर्वो राक्षसश्र्चैव धर्म्यौ क्षत्रस्य तौ स्मृतौ॥3.26॥
पूर्व कथित गान्धर्व और राक्षस, दोनों विवाह पृथक-पृथक अथवा दोनों एक दूसरे से मिले हुए क्षत्रिय के लिये धर्मानुकूल हैं। Two systems of marriage Gandharv and Rakshas, whether separately or mixed together, are appropriate-suitable for the Kshatriy.
आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्।
आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्म: प्रकीर्तितः॥3.27॥
अच्छे शील, स्वभाव वाले वर को स्वयं बुलाकर उसे अलंकृत और पूजित कर देना ब्राह्म विवाह है। The groom who is good natured and has been a celibate, should be invited, honoured-decorated and offered the daughter as a bride, by donating to him; is Brahm Vivah-marriage.
This system involved gathering of thorough information about the boy, his antecedents, family, family background, lineage, sources of income, property, education, character etc. In olden days this information was collected through the Brahmns and the barber associated with him, who used to visit various villages, towns to solemnise marriages, rites etc.
यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते।
अलंकृत्य सुतादानं देवन धर्मं प्रचक्षते॥3.28॥
यज्ञ में सम्यक् प्रकार से कर्म करते हुए ऋत्विज को अलंकृत कर कन्या देने को दैव विवाह कहते हैं। Donation of the daughter decorated-decked with ornaments by performing rituals-sacrifices in the holy fire-Hawan when the demigods are invited to be present to bless the newly weds is called Dev Vivah.
The priest is duly honoured and sufficient gifts and money-Dakshina are given to him to live happily. The daughter too is given numerous gifts and money to live happily, as per one's capability. However, no demands are there. There is always a middle man to bridge the negotiations.
एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मत:।
कन्याप्रदानं विधिवदार्षो धर्म: स उच्यते॥3.29॥
वर से एक या दो जोड़े गाय, बैल धर्मार्थ लेकर विधिपूर्वक कन्या देने को आर्ष विवाह कहते हैं। When the father gives away his daughter by accepting one or two pairs of cows and oxen, according to the sacred rituals for charity, this practice is termed as Arsh Vivah.
सहोभौ चरतां धर्ममिति वाचानुभाष्य च।
कन्याप्रदानमभ्यच्र्य प्राजापत्यो विधि: स्मृतः॥3.30॥
तुम दोनों एक साथ गृहधर्म की रक्षा करो, यह कहकर और पूजन करके जो कन्यादान दिया जाता है, वह प्राजापत्य विवाह कहलाता है। When the father hand overs his daughter to the groom, honour him and blesses the bride groom and his daughter by saying that you should enter into marital alliance and follow the duties of the household according to the scriptures; the wedding is termed as Parajapaty Vivah.
ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः।
कन्याप्रदान स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते॥3.31॥
कन्या के पिता आदि को और कन्या को भी यथाशक्ति धन देकर स्वच्छन्दता पूर्वक कन्या को ग्रहण करना आसुर विवाह है। To marry a girl by paying off to the girl's father, kinsman and the bride herself, as per his capacity i.e., one can afford and marry the girl arbitrarily, is called Asur-demonic marriage.
ARBITRARILY :: बगैर अंकुश या रुकावट के, निरंकुश, अपनी इच्छा के अनुसार, मनमर्जी; without restriction, contingent, solely upon one's discretion.
This is just like buying a bride, the way the Jats are indulging in Haryana. Most horrific part of it is that 3-5 brothers and some times even the father too is involved as a marriage-sex as a partner. This is slavery. Often these girls are sold off several times. Human traffickers are involved in this affair and flash trade.
इच्छयाSन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्र्च वरस्य च।
गान्दर्भ: स तु विज्ञेयो मैथुन्य: कामसम्भवः॥3.32॥
कन्या और वर की इच्छा से दोनों का संयोग होना गान्दर्भ विवाह है। यह काम-भोग की इच्छा से होता है और मैथुन के लिये हितकर है। Mating-sexual intercourse through mutual consent-voluntary union for the purpose of sex satisfaction-pleasure is Gandarbh marriage.
Western impact fuelled by internet, films, magazines, porn is polluting the minds of this generation leading to have intercourse with multiple partners before marriage. They some times call it free sex as well. Nudity, vulgarity, boldness, freedom from the parents, late marriages and eating habits are behind this. Such couple look for frequent divorces. These days a new phenomenon has emerged by the name of LIVE IN RELATIONSHIP. It used to be compared with prostitution in olden days. Australians are commonly-generally involved in practice.
हत्वा छित्त्वा च भित्त्वा च क्रोशन्तीं रुदतीं गृहात्।
प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते॥3.33॥
बाधा डालने वालों को मारकर, घायलकर, घर के दरवाजे आदि को तोड़कर रोती हुई कन्या को घर से जबर्दस्ती हरण कर ले जाने का नाम राक्षस विवाह।Abduction of the weeping-protesting girl from her home (any place) through slaining (killing-murder) or wounding-harming kinsman-those who resist, breaking of the doors of the house for the purpose of marriage is Rakshas-demonic system of marriage.
This system is not recognised socially or culturally. No one appreciate this system. in fact this is a taboo in Hinduism. Muslims, barbarians, woman traffickers are deeply involved in this practice.
सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यन्नोपगच्छति।
स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्र्चाष्ठोSधमः॥3.34॥
सोई हुई, मद से मतवाली या जो पागल हो उसके साथ एकान्त से संभोग करना, विवाह में अत्यन्त निकृष्ट पापों से भरा हुआ आठवाँ पैशाच विवाह है। Inter course with a girl who is sleeping or under the influence of extreme sexuality-passion-intoxication or the one who is mad-insane-mental disorder amounts to the worst kind of marriage called Paeshach Vivah.
अद्भिरेब द्विजाग्रायाणां कन्यादानं विशिष्यते।
इतरेषां तु वर्णाना मितरेतरकाम्ययाम् ॥3.35॥
ब्राह्मण को जलदान पूर्वक कन्यादान करना श्रेष्ठ है। क्षत्रिय आदि वर्णों को परस्पर की इच्छा मात्र से (दाता-ग्रहीता के वचन मात्र से) कन्यादान हो सकता है। Donation-gifting of a daughter by the Brahmn associated with libation of water is excellent kind of marriage. Remaining Varns-castes like Kshatriy is a matter of mutual consent between the acceptor and the donor.
यो यस्यैषां विवाहानां मनुना कीर्तितो गुण:।
सर्वं श्रुणुत तं विप्रा: सर्वं कीर्तयतो मम॥3.36॥
इन विवाहों में जिसका जो गुण मनु ने कहा है, हे विप्रगण! वह सब कहता हूँ, सुनिये। Let me highlight the characteristics-qualities, which were focused by Manu pertaining to these marriages, O Brahmans!
दश पूर्वान्परान्वंश्यानात्मनं चैकविंश्कम्।
ब्राह्मीपुत्र: सुकृतकृन्मोचयेदेनस:पित्रन्॥3.37॥
ब्राह्म विवाह से उत्पन्न धर्माचारी पुत्र 10 पीढ़ी पीछे और 10 पीढ़ी आगे के पितरों और 21 वें स्वयं को नरक से उद्धार करता है। The son born out of the alliance with due procedures adopted for Brahm Vivah-marriage performed-solemnised as per the dictates of the scriptures-Shastr; releases the manes of the previous 10 generations-ancestors and the next 10 generations-descendants and the 21st himself from the hells.
दैवोढाज: सुतश्र्चै सप्त परापरान्।
आर्षोढाजः सुतस्त्रींस्त्रीन्षट्षट् कायोढजः सुतः॥3.38॥
दैव विवाह से जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह 7 पीछे के और 7 आगे के और आर्ष विवाह से उत्पन्न पुत्र 3 पीछे और 3 आगे प्राजापत्य से उत्पन्न पुत्र 6 पीछे के और 6 आगे के पुरुषों को तारता है। The son born out of Daev Marriage releases 7 generations-Manes from backward and 7 from next generations, from Arsh marriage 3 generation in the backward and 3 generation in the forward, from Prajapty Marriage 6 generations in backward and 6 generation in the forward generations; from hells.
ब्राह्मादिषु विवाहेषु चातुष्र्वे-वानुपूर्वशः।
ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रा जायन्ते शिष्टसम्मता:॥3.39॥
क्रम से ब्राह्मादि 4 विवाहों से ब्रह्मवर्चस, तेजस्वी और शिष्टजनों से मान्य पुत्र उत्पन्न होते हैं। The son born out of the 4 types of marriages listed above, is well versed with the Veds-scriptures, has Aura and is recognised by the reputed people of the society.
रूपसत्त्वगुणोपेता धनवन्तो यशस्विनः।
पर्याप्तभोगा धर्मिष्ठा जीवन्ति च शतं समाः॥3.40॥
ये पुत्र रूपवान, सात्विक तथा गुणी, धनवान, यशस्वी, समृद्धशाली, धार्मिक और शतायु होते हैं। The sons born out of such marriages are endowed with the qualities of beauty and Satvik characterises (virtues, righteousness, goodness, piousity), possess wealth, fame, plenty of every thing, religious nature and live for hundred years.
ENDOWED :: संपन्न; blessed with.
इतरेषु तु शिष्टेषु नृशंसानृतवादिन:।
जायन्ते दुर्विवाहेषु ब्रह्मधर्मद्विषः सुता॥3.41॥
शेष चार विवाहों से उत्पन्न पुत्र, निर्दयी, झूठे, वेदनिन्दक और धर्मद्वेषी होते हैं।The sons born out of the remaining 4 types of marriages are cruel, do not speak the truth, censurer of the Veds and anti religion.
निन्दक :: बुराई करने वाले; blamer, censurer, slanderer, calumniator.
अनिन्दितै: स्त्रीविवाहैरनिन्द्या भवति प्रजा।
निन्दितैर्निन्दिता नृणा तस्मान्निन्द्यान्विवर्जयेत्॥3.42॥
श्रेष्ठ स्त्रियों के साथ विवाह करने से उनसे श्रेष्ठ सन्तान उत्पन्न होती हैं और निंदित विवाह से निन्दित सन्तान का जन्म होता है, इसलिये निन्द्य विवाह ने करे। The excellent types of marriages described earlier leads to the birth of excellent progeny and the offspring-children born out of indecent marriage are indecent (criminals, scornful).
SCORNFUL :: अवज्ञा सूचक, घृणापूर्ण, उपेक्षा, निंदा, तिरस्कार, नफ़रत, घिन, घृणा के लायक; contemptuous, sardonic, reproachful, disgusting, supercilious, disdainful, condemnatory, blasphemous, disapprobative, disapprobatory, maledictory, scornful, disdainful, contemner.
पाणिग्रहणसंस्कार: सवर्णासूपदिश्यते।
असवर्णास्वयं ज्ञेयो विधिरुद्वाहकर्मणि॥3.43॥
सवर्ण कन्या के विवाह में ही पाणिग्रहण संस्कार बताया गया है। असवर्णा (भिन्न जातियों) की कन्या के विवाह में यह विधि है। Performance of rites is restricted to the marriage of upper castes only. If there is inter caste marriage, inter religion marriage, inter state marriage, inter country marriage the following process is sufficient.
शरः क्षत्रियया ग्राह्य: प्रतोदो वैश्यकन्यया।
वसनस्य दशा ग्राह्या शूद्रयोत्कृष्टवेदने॥3.44॥
ब्राह्मण के साथ क्षत्रिय बालिका विवाह के समय ब्राह्मण के हाथ में रखे हुए बाण का एक भाग पकड़े। वैश्य की कन्या ब्राह्मण और क्षत्रिय के हाथ में चाबुक को और शुद्र की लड़की ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के पहने हुए वस्त्र के देश को पकड़े। The marriage is very simple between inter castes. The Kshatriy girl should hold the arrow held by the Brahmn in his hand, the daughter of Vaeshy should hold the goad kept by the Brahmn or Kshatriy in his hand and the daughter of a Shudr may hold a section of the cloth-hem of the bridegroom's (Brahmn, Kshatriy or the Vaeshy), garment he is wearing.
HEM :: कपड़े की किनारी, गोटा, झालर, दामन, मगजी।
ऋतुकालाभिगामी स्यात्स्वदारनिरत: सदा।
पर्ववर्जन् व्रजेच्चैनां तद्वतो रतिकामय्या॥3.45॥
ऋतुकाल में ही स्त्री-समागम करना चाहिये। सदा अपनी स्त्री से, इच्छा से सन्तुष्ट रहना चाहिये। रति के पूर्व दिनों को छोड़कर अन्य दिनों में स्त्री समागम कर सकते हैं। One should have inter course with his wife only and that is during the mating season-days i.e., only when the egg-ovum, waits for the sperms. He should be content with his wife only and should not indulge in intercourse with any other women. However, mating is permitted except when the woman is having menstrual cycle.
One who mate with any other woman indirectly disturbs the menstrual cycle of both of them. The blood during the menstrual cycle can easily temper his penis. Sex except own partner, invite several Venereal diseases, SYPHILIS, GONORRHOEA, AIDS and dreaded sexual diseases.
ऋतुः स्वाभाविक: स्त्रीणां रात्रयः षोडशस्मृताः।
चतुर्भिरितरै: सा धर्म होभि: सद्विगर्हितै:॥3.46॥
रजोदर्शन से निंदित प्रथम 4 दिन के बाद 16 रात्रि पर्यन्त स्त्रियों का ऋतुकाल रहता है। After 4 days of menstruation, which are called impure, the women can conceive in the next 16 days.
As a matter of tradition the women who are undergoing menstrual cycle are not allowed to enter the kitchen for cooking. They are not allowed to pray the deities and they should not go in front of the Tulsi-Basil plant, during this period.
During this period marriage should also be discarded.
तासामाद्याश्र्चतस्त्रस्तु निन्दितैकादशी च या।
त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दश रात्रयः॥3.47॥
उन सोलह रात्रियों में प्रथम 4 रात, 11रहवीं और 13रहवीं रात स्त्री-समागम के लिये निन्दित है। The period of 16 days during which mating-inter course is permissible, one should avoid first 4 nights and the 11th & 13th night, considered to be inauspicious.
युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोSयुग्मासु रात्रिषु।
तस्माद्य ुग्मासु पुत्रार्थी संविशेदातवे स्त्रिम्॥3.48॥
सम रात्रि में (6, 8, 10, 12, 14, 16 रात को) स्त्री से सहवास करने से पुत्र उत्पन्न होता है। विषम रात्रि में (5, 7, 9, 11, 13, 15 रात्रि में) गमन करने से कन्या जन्म लेती है। इसलिये पुत्रार्थी को सम रात्रि में ऋतुकाल में स्त्री के साथ शयन करना चाहिये। One who mates on the even nights (6, 8, 10, 12, 14, 16) after the menstrual cycle after passing 4 nights without inter course, is blessed with a son and those who wish to have a daughter should involves in mating on the odd nights ((5, 7, 9, 11, 13, 15).
पुमान्पुसोSधिके शुक्रे स्त्री भत्यधिके स्त्रिया:।
समेSपुमान्पुंस्त्रियो या क्षीणेSल्पे च विपर्ययः॥3.49॥
पुरुष का वीर्य अधिक होने और स्त्री का रज अधिक होने से कन्या होती है। स्त्री पुरुष रज-वीर्य तुल्य होने से नपुंसक का जन्म होता है या यमल सन्तान होती है। दूषित या अल्प वीर्य होने से गर्भ धारण नहीं होता। Excess sperms and the ovum-egg leads to the birth of a girl. Presence of sperms and ovum-eggs in equitable quantity leads to the birth of an eunuch (impotent-hermaphrodite) or a boy and a girl. Small quantity or contamination of sperms obstruct child formation-conceiving by the woman.
निन्ध्यास्वष्टासु चान्यासु स्त्रियो रात्रिषु वर्जयन्।
ब्रह्मचार्येव भवति यत्रतत्राश्रमे वसन्॥3.50॥
जो पूर्वोक्त 6 दूषित रात्रि के साथ अन्य और निन्दित 8 रात में स्त्री का त्याग कर केवल पर्वरहित 2 रात में स्त्री संगम करता है, वह चाहे जिस आश्रम में रहे ब्रह्मचारी ही बना रहता है। One is able to maintain his chastity if he avoid intercourse during the 6 nights described before and the other 8 nights which are impure-contaminated irrespective of the stage-Ashram he is undergoing.
न कन्यया: पिता विद्वान्गृहीण्याच्छुल्कमण्वपि।
ग्रहण्च्छुल्कं हि लोभेन स्यान्नरोSप्तयविक्रयी॥3.51॥
बुद्धिमान् कन्या के पिता को कन्यादान के लिये थोड़ा भी धन नहीं लेना चाहिये, लोभ से धन ग्रहण करने पर मनुष्य सन्तान बेचने वाला होता है।The wise-prudent father do not accept even the smallest amount of money-gratitude for offering his daughter for marriage due to greed-avarice, since if he does so he becomes a seller of the girl which is a great sin.
स्त्रीधनानि तु ये मोहादुपजीवन्ति बान्धवा:।
नारी यानानि वस्त्रं वा ते पापा यान्त्यधोगतिम्॥3.52॥
जो पति, पिता आदि सम्बन्धी वर्ग मोह वश स्त्री धन से (बेटी अथवा स्त्री आदि के) भूषण, वस्त्र और सवारी इत्यादि बेचकर गुजर करते हैं, वे पातकी नरक गामी होते है। The husband, father or the relatives who survive by selling the belonging of the wife or the daughter like jewellery, cloths or the carriages-vehicles, due to ignorance-folly; earn great sins and sinks into hells.
One should make endeavours to earn his own livelihood, so that he can maintain his family and support the elders. He should not misappropriate the gifts, dowry belonging to the daughter or wife, under nay circumstances. If by virtue of misfortune, he is compelled to do so, he should try to repay them as early as possible.
आर्षे गोमिथुनं शुल्कं केचिदाहुर्मृषैव तत्।
अल्पोSप्येवं महान्वाSपि विक्रयस्तादेव सः॥3.53॥
आर्ष विवाह में गाय-बैल का एक जोड़ा शुल्क लेने को जिस किसी ने कहा है वह मिथ्या ही है। थोड़ा ले या अधिक; वह बेचना ही है। One who advocate the acceptance of a pair of bull or cows as fee-gratitude for the Arsh marriage is wrong, lie, blasphemy and amounts to selling of the daughter, whether the money, gift, return is small or large.
Selling the daughter is a grave sin and pushes the father into hells for thousands of years. Devout Hindu never accepts even a glass of water from his daughter's in laws; whatever the circumstances be. In today's scenario if one is compelled by the circumstances to visit daughter's house and accepts food or drinks; he must compensate the same by giving sufficient money to her.
DEVOUT :: धर्मनिष्ठ, धार्मिक, भक्त, सच्चा, सरल, दिली, हार्दिक; devoted, Godly, votary, pious, religionist-religious, virtuous, holy, righteous, sacred, truthful, real, genuine, faithful, sincere, simple, easy, effortless, straightforward, ingenious, heart warming, heartfelt, warm hearted, hearty, heartfelt, soulful, warm, unpretentious, cordial.
यासां नाददते शुल्कं ज्ञातयो न स विक्रयः।
अर्हणं तत्कुमारीणामानृशंस्यं च केवलम्॥3.54॥
जिन कन्याओं के निमित्त वरपक्ष से दिया हुआ वस्त्राभूषण पिता-भ्राता आदि नहीं लेते, प्रत्युत कन्या को ही देते हैं, वह विक्रय नहीं है; अपितु कुमारियों का पूजन है और इसमें हिंसादि दोष नहीं है। The father or brothers who do not accept any gift-gratitude from the bridegroom's family and give it back to the bride along with additional gifts, money, jewellery; is prayer of the deities-Goddess Maa Bhagwati and is free from violence and any other defect.
At the time of marriage the parents, brothers relatives and several other people of the community, village society observe fast and give gifts, money by touching the feet of the girl considering her to be an image of Maa Bhagwati Parwati and the groom to be the image of Bhagwan Shiv, which makes is an auspicious ceremony.
The marriage should be free from demands and the girl should never be tortured for dowry by the husband or the in-laws. Marriage should take place among equals, harmoniously. The status of the 2 families should be alike-same. There are ignorant people who buy grooms for their incompetent daughters-sisters by offering huge amounts of money-wealth, leading to imbalance later. Those people who look for matches in families, much above their status and make false promises, are real culprits-criminals who are not well wishers of their daughters-sisters. The husband and wife should be complementary of each other.
पितृभिर्भ्रातृभिश्र्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा।
पूज्या भूशयितव्याश्र्च बहुकल्याणमिप्सुभिः॥3.55॥
अधिक कल्याण को चाहने वाले माँ, बाप, भाई, पति और देवरों को चाहिये कि कन्या का पूजन (सत्कार) करें और वस्त्रालंङ्कार भूषित करें। The mother, father, brother, husband and husband's brother who ought-wish to have welfare should adorn-welcome the girl-bride with cloths, jewellery etc.
The bride who comes to the house of in laws is new to that place, culture, environment. She will take her own time to adjust-assimilate with the family. Ultimately she will gain control over the daily needs-administration of the house-family. Its in the interest of the in laws to welcome her, acquaint her with the family traditions, rites, rituals, eating habits, social norms, mores and help her adopt the new atmosphere with ease. The women deserve respect and homogeneity in the family.
MORES :: The essential or characteristic customs and conventions of a society or community; customs, conventions, ways, way of life, way of doing things, traditions, practices, custom and practice, procedures, habits, usages; formal praxis, factors that shaped the social mores of the community.
PRAXIS :: अमल, अभ्यास, प्रयोग, आदत, रिवाज, आचार, क्रम, रीति, दस्तूर; practice, execution, application, action, enforcement, exercises, training, drill, use, experiment, usage, habit, knack, manners, tradition, conduct, ethics, customs, ethos, arrangement, collocation, course, sequence, mode, method, diction, institution, ceremony.
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥3.56॥
जिस कुल में स्त्रियाँ पूजित (सम्मानित) होती हैं, उस कुल से देवता प्रसन्न रहते हैं। जहाँ स्त्रियों का अपमान होता है, वहाँ सभी यज्ञादि कर्म निष्फल हो जाते हैं। The family in which the women gets due respect, is protected by the demigods-deities. The deities remain happy with its members. On the contrary the family in which the women is not honoured; the rites, prayers, worship goes waste.
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तध्दि सर्वदा॥3.57॥
जिस कुल में बहू-बेटियाँ क्लेश भोगती हैं, वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है। किन्तु जहाँ इन्हें किसी तरह का दुःख नहीं होता वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है। The families in which the women folk face torture, disrespect-insult perishes quickly while those families in which the women gets due respect continue to flourish, prosper, rise.
जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः।
तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः॥3.58॥
सम्मानित न होने के कारण बहू-बेटियाँ जिन घरों को कोसती हैं, वे घर अभिचार से नष्ट होकर हर तरह से नाश को प्राप्त होते हैं। The women folk curse the family, if due respect is not given. The women in that case make use of Tantr-Mantr (black-magic) with the help of the wicked people. They almost surrender them selves to their dictates of the wicked and the family looses it glory-respect. The family is bound to perish and may not prosper again.
One discovers cases of torture of the bride for dowry. There are several cases where the bride is burnt or murdered. Some of the brides are forced to commit suicide. Such families are sure to be doomed and never flourish again. With the changing times the women are becoming extremely bold and the opposite is happening. In that case the parents of the girl are sure to loose respect-honour in the society.
अभिचार :: हनन; incantation, black magic, recourse to incantations or spells for an ulterior purpose, a spell of malign effect, employment of spells for a malevolent purpose, sorcery, a conjurer.
तंत्र शास्त्र में प्राय: छह प्रकार के अभिचारों का वर्णन मिलता है :-
(1). मारण, (2). मोहन, (3). स्तंभन, (4). विद्वेषण, (5). उच्चाट्टन और (6). वशीकरण।
मारण से प्राण नाश करने, मोहन से किसी के मन को मुग्ध करने, स्तंभन से मंत्रादि द्वारा विभिन्न घातक वस्तुओं या व्यक्तियों का निरोध, स्थितिकरण या नाश करने, विद्वेषण से दो अभिन्न हृदय व्यक्तियों में भेद या द्वेष उत्पन्न करने, उच्चाटन से किसी के मन को चंचल, उन्मत्त या अस्थिर करने तथा वशीकरण से राज या किसी स्त्री अथवा अन्य व्यक्ति के मन को अपने वश में करने की क्रिया संपादित की जाती की जाती है।
इन विभिन्न प्रकार की क्रियाओं को करने के लिए अनेक प्रकार के तांत्रिक कर्मो के विधान मिलते हैं; जिनमें सामान्य दृष्टि से कुछ घृणित कार्य भी विहित माने गए हैं। इन क्रियाओं में मंत्र, यंत्र, बलि, प्राण-प्रतिष्ठा, हवन, औषधि, विष प्रयोग आदि के विविध नियोजित स्वरूप मिलते हैं। उपर्युक्त अभिचार अथवा तांत्रिक षट्कर्म के प्रयोग के लिए विभिन्न तिथियों का का विधान मिलता है जैसे :- मारण के लिए शतभिषा में अर्धरात्रि, स्तंभन के लिए शीतकाल, विद्वेषण के लिए ग्रीष्म कालीन पूर्णिमा की दोपहर, उच्चाटन के लिए शनिवार युक्त कृष्णा चतुर्दशी अथवा अष्टमी आदि का निर्देश है।
तस्मादेताः सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः।
भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च॥3.59॥
इसलिये स्त्रियों को हमेशा भूषण, वसन और भोजन से सन्तुष्ट करना चाहिये। समृद्धि की इच्छा वाले पुरुषों को नित्य मंगलकार्य उत्सवों में स्त्रियों को भूषण से सन्तुष्ट रखना चाहिये। Therefore, one should always keep the women content-satisfied with respect to ornaments, clothing and the food. Those who are desirous of progress and prosperity should offer gold-jewellery to the women, while performing auspicious functions.
सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्॥3.60॥
जिस कुल में स्त्री से स्वामी और स्वामी से स्त्री सन्तुष्ट-प्रसन्न हैं, वहाँ कल्याण ही होता है। The family in which the husband and wife are mutually satisfied with each other, is sure to have welfare-progress. They experience ever lasting happiness.
यदि हि स्त्री न रोचेतं पुमांसं न प्रमोदयेत्।
अप्रमोदात्पुनः पुंसः प्रजनं न प्रवर्तते॥3.61॥
यदि स्त्री प्रसन्न चित्त न हो तो वह स्वामी को आनन्दित नहीं कर सकती और स्वामी अप्रसन्न हो तो सन्तानोत्पादन नहीं होता। If the woman-wife is unhappy, she can not amuse-entice the husband and if the husband is unhappy no child can be produced.
स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद्रोचते कुलम्।
तस्या त्वरोचमानायां सर्वमेव न रोचते॥3.62॥
अलंकारादि से युक्त प्रसन्नचित्त स्त्री से सारा कुल दीप्तियुक्त हो जाता है। यदि स्त्री असन्तुष्ट हो तो सारा कुल मलिन हो जाता है। A woman who is well decorated feels happy and her aura spreads all over the family while a displeased housewife makes it dark, all over the house.
If the house wife is happy, she may keep the inhabitants of the family happy.
कुविवाहै: क्रियालोपैर्वेदानध्ययनेन च।
कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च॥3.63॥
निन्दित विवाहों में जातकर्मादि क्रियाओं का लोप होने और वेद न पढ़ने से तथा ब्राह्मण का अपमान करने से ऊँचे कुलों की कुलीनता नष्ट हो जाती है। Marriage performed under low categories without the recitation of sacred Mantr & prayers-worship of demigods, deities, Almighty, leads to loss of rites, Sanskars, auspicious practices, virtues, morals, ethics, discarding the study of Veds and the insult of the Brahmn leads to the destruction-perishing of the great clans-hierarchy.
कुलीन :: उत्तम या प्रसिद्ध कुल में उत्पन्न, ख़ानदानी; अभिजात, किसी प्रसिद्ध कुल का व्यक्ति, उत्तम कुल-वंश का वंशज-उत्पन्न व्यक्ति; descendents of noble-gracious high class family,
कुलीनता :: serenity, nobility, aristocratic.
शालीनता :: भद्रता, भद्र-सभ्य व्यवहार, well mannered, complacency, courtesy, decency, graciousness.
शिल्पेन व्यवहारेण शूद्रापत्यैश्र्च केवलै:।
गोभिरश्रैव्श्च कृष्या राजोपसेवया॥3.64॥
शिल्प, कारीगरी, ब्याज, केवल शूद्रा स्त्री में सन्तानोत्पत्ति, गाय, घोड़े और गाड़ी के व्यापार, खेती और राजसेवा से कुलीनता नष्ट हो जाती है। Nobility is lost-vanishes with the adoption of skilled jobs, manual jobs, works, labour, earning interest over capital, impregnating only a Shudr woman, trading of cows, horses, carts-carriages; agriculture and government services.
अयाज्ययाजनैश्रैव्श्र्च नास्तिकयेन च कर्मणाम्।
कुलान्याशु विनश्यन्ति यानि हीनानी मन्त्रत:॥3.65॥
यज्ञ के अनाधिकारी से यज्ञ कराने वेदोक्त कर्मों नास्तिक बुद्धि रखने से तथा वेदाभ्यास से च्युत हो जाने से कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। Organising, Holding, Conducting Yagy, holi sacrifices for the unworthy-non deserving, atheists and those who do not have faith in the Veds, those who do not practice Veds, leads to destruction of the clan-hierarchy.
मन्त्रतस्तु समृद्धानी कुलान्यल्पधनान्यपि।
कुलसंख्या च गच्छति कर्षन्ति च महद्यशः॥3.66॥
थोड़े धन वाले कुल भी यदि वेदाध्ययन से समृद्ध हैं तो वे अच्छे कुलों में गिने जाते हैं और यशस्वी होते हैं। Clans-families which are wealthy due to the study of Veds are considered to be decent-nice and they become famous-prestigious.
वैवाहिकेSग्नौ कुर्वीत गृह्यं कर्म यथाविधि।
पञ्चयज्ञविधानं च चान्वाहिकीं पक्तिं गृही॥3.67॥
गृहस्थ विवाह के समय स्थापित अग्नि में यथाविधि ग्रह्योक्त कर्म-होम करें तथा नित्य पञ्चयज्ञ और पाक करे। The holi-sacred fire created at the solemnisation of marriage, should be preserved & used to perform daily Hawan-Agnihotr and the 5 recommended Yagy along with cooking food.
The way the food is essential for the body Yagy is essential for him to modify-improve his deeds-actions & the future births.
पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युस्करः।
कण्डनी चोदकुम्भश्र्च वध्यते यास्तु वाहयन्॥3.68॥
गृहस्थ के चूल्हा, चक्की (सील, लुढ़िया), झाड़ु, ऊखल-मूसल, पानी का घड़ा आदि पाँचों हिंसा के स्थान हैं। इनसे काम लेने से गृहस्थ पाप का भागी होता है। Five possessions of a house hold may indulge him in sin viz. hearth, grinding-stone, broom, pestle & mortar and the piture-the water container made of backed clay-vessel.
Whether one kill insects knowingly or unknowingly it amounts to violence leading to sin. To get rid of this sin, one can observe fast on every Amavashya-moonless night. Its rather impossible to avoid such sins. One is bound to kill rats, cockroaches, spiders, mosquitoes, flies every day to live peacefully-comfortably and even snakes, if they enter the house. Lice, leech, bed bugs must be killed-eradicated at once, right at the sight and then observe penances or pray to the God.
तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः।
पञ्च क्लर्प्ता महायज्ञा: प्रत्यहं गृहमेधिनाम्॥3.69॥
महर्षियों ने उन पापों के नाश के लिये प्रतिदिन क्रम से पञ्चमहायज्ञ करने का आदेश दिया है।The sages have directed to perform 5 types of sacrifices to remain untouched by the sin of killing insects etc.
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ:पितृ यज्ञस्तु तर्पणम्।
होमो दैवो बलिभौर्तो नृयज्ञोSतिथिपूजनम्॥3.70॥
पितरों का तर्पण करना, वेद का पठन-पाठन, ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, होम करना, जीवों को अन्न की बलि देना और नृयज्ञ अतिथि का आदर-सत्कार करना ये ही पञ्चमहायज्ञ हैं। Teaching & learning of Veds, sacrifice to the manes, Brahmn Yagy, Pitr Yagy, Dev Yagy, offering grains-meals to organism (insects like ants, animals like cows, dogs etc.) welcoming-hospitality to the guest and offering food and drinks and the offerings to the deceased are 5 types of oblations.
OBLATION :: बलि, आहुति, नैवेद्य, हव्य, बलिदान, यज्ञ, क़ुरबानी; holocaust, immolation, offering, sacrifice, a thing presented or offered to God or a demigods.
पञ्चैतान्यो महायज्ञान्न हापयति शक्तितः।
स गृहेSपि वसन्नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते॥3.71॥
जो इन 5 महायज्ञों को यथाशक्ति करता है, वह घर में नित्य रहकर भी हिंसा-दोषों से लिप्त नहीं होता। One who perform these 5 Maha Yagy-spiritual rites every day, according to his capability is not contaminated by these defects-sins connected with violence i.e., he is not affected by the sin generated by the killing of insects etc. at home during routine life.
देवताSतिथिभृत्यानां पितृणामात्मनश्र्च यः।
न निर्वपति पंचानामाच्छ्वसन्न स जीवति॥3.72॥
जो देवता, अतिथि और माता-पिता आदि पोष्यवर्ग तथा अपना संरक्षण नहीं करता, वह साँस लेता हुआ भी मृतक के समान है। One is like the dead if he fails to support, serve the deities-demigods, guests, parents and those who depend over him, including the Manes.
Demigods, deities, Manes do not need physical support-presence. One has to worship them and offer regular prayers and immerse the offering in flowing water of river. One has to perform sacrifices in holi fire regularly.
अहुतं च हुतं चैव तथा प्रहुतमेव च।
ब्राह्मयंहुतं प्राशितं च पञ्चयज्ञान्प्रचक्षते॥3.73॥
अहुत, हुत, प्रहुत, ब्राह्मयहुत और प्राशित, ये पञ्चयज्ञ कहलाते हैं। Ahut, Hut, Prahut, Brahmyhut and Prashit are called 5 kinds of Yagy-sacrifices.
जपोSहुतो हुतो होमः प्रहुतो भौतिको बलि:।
ब्राह्मयं हुतं द्विजग्रयार्चा प्राशितं पितृतर्पणम्॥3.74॥
ब्रह्मयज्ञ संज्ञक जप को अहुत कहते हैं। देवसंज्ञक होम को हुत, भूतबलि को प्रहुत, अतिथि ब्राह्मयहुत ब्राह्मण सत्कार को और प्राशित पितृयज्ञ संज्ञक नित्य श्राद्ध कहते हैं। Ahut is symbolic form of Ultimate-Brahm sacrifice associated with the recitation of Ved Mantr but without sacrifices-offerings in the holy fire, Hut is the offering of sacrifices-oblation into the holy fire, Prahut amounts to the scattering of offerings over the ground meant for the diseased still roaming-hovering around as ghosts, soul, Bhoot and is called Bhoot Bali, Atithi is welcoming the Brahmn-guest who arrive without intimation at odd hours, Prashit Pitr Yagy is offering-oblation to the Manes every days Shraddh-Tarpan (तर्पण).
अतिथि ATITHI :: One who visit uninvited without intimation, even at odd hours.
तर्पण (TARPAN) :: पितृ, देवी-देवगणों को सन्तुष्ट करना; satiating, refreshing, delightful, gladdening, gratification, satisfaction, the offering of libations of water to the manes, deities, demigods.
स्वाध्याये नित्युक्त: स्याद्दैवे चैवेह कर्मणि।
दैवकर्मणि युक्तो हि विभर्तीदं चराचरम्॥3.75॥
दरिद्रता के कारण अतिथि के सत्कार में असमर्थ हो तो वह नित्य स्वाध्याय करे, क्योंकि दैवकर्म में लगा हुआ पुरुष इस चराचर को धारण कर सकता है। One who is struck by poverty and is unable to welcome-honour the guests, should resort to self study of scriptures-Veds everyday, since it enables him, keeps busy in performance of rites to support the creations. Self study of scriptures is comparable to performing rites, sacrifices, prayers.
Virtuous, righteous, pious acts of the humans help in sustaining the life over the earth.
अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्य मुपतिष्ठते।
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नन् तत: प्रजा:॥3.76॥
अग्नि में भली-भाँति दी गई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है। सूर्य से ही वर्षा होती है, वर्षा से अन्न उपजता है, जिससे प्रजा का पालन-पोषण होता है। Procedural-methodical offerings-oblations into the holy fire are received by the Sun which results into rains, rains lead to growth of food grains, which support life.
It has been proved beyond doubt that some methodical sacrifices in holy fire can produce rains. Sun not only gives energy to earth, it accepts energy side by side, thus completing the energy cycle.
यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः।
तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते आश्रमाः॥3.77॥
जैसे वायु के आश्रय सभी प्राणी जीते हैं, वैसे ही सब आश्रम गृहस्थाश्रम से जीते हैं। The way all creatures depend over air for their survival, all stages of life depend over the house hold for their continuance-subsistence-survival.
यस्मात्र्योSप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम्।
गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही॥3.78॥
तीनों आश्रम (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्यास) गृहस्थों के द्वारा नित्य वेदार्थज्ञान की चर्चा और अन्नदान से उपकृत होते है, इस कारण सभी आश्रमों में गृहस्थाश्रम बड़ा होता है।The family way-house hold, is superior to the remaining 3 stages of life viz. Brahmchary-till 25 years, Van Prasth 50-75 years and Sanyas 75-100 years of age; since its only the Grahasth Ashram which supports them by attending to the discussion of Veds and provision for food grain for them.
Its not advisable to renounce the world-house hold responsibilities i.e., running away from responsibilities to become a recluse or wanderer, since relinquishment is not possible unless-until one fulfils his responsibilities-discharges his duties-liabilities. Kapil Muni and Adi Shankrachary were reverted to house hold to deliver their liabilities of marriage, progeny and their settlement in life. Guru Gorakh Nath's father turned into a Sanyasi and later reverted to family life. A youth does not become Sanyasi just by wearing saffron robs. He is not entitled to become head of a religious sect or seat. One has to be a Brahmn by virtues-deeds to head a sect or seat. He can not join politics. He can not head a government. Relinquished-Videh Raja Janak lived in the palace and ruled the country. He fulfilled all his responsibilities as a father & house hold. He lived the life of a sage-saint but never poses to be a Sanyasi.
स सन्धार्य: प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता।
सुखं चेहेच्छता नित्यं योSधार्यो दुर्बलेन्द्रियः॥3.79॥
अक्षय स्वर्ग पाने की इच्छा वाले को और इस लोक में भी सुख चाहने वाले को यत्नपूर्वक ऐसे गृहस्थाश्रम का पालन करना चाहिये। गृहस्थाश्रम का धारण करना दुर्बल इन्द्रियोँ से नहीं होता। One who want to settle in the heaven for ever and wants comforts over the earth as well; should make endeavours to fulfil-discharge his duties as a house hold. Its not possible to sustain the duties of the house hold with weak senses.
One has to be firm to serve his family, city and the country and thereafter think of serving the entire world.
Fulfilment of obligations towards family is essential to become a recluse, saint, sage, Sanyasi.
ऋषयः पितरो देवा भूतान्यतिथयस्तथा।
आशासते कुटुम्बिभ्यस्तेभ्यः कार्यं विजानता॥3.80॥
ऋषि, पितर, देवता, जीव-जन्तु और अतिथि, ये कुटुम्बियों-गृहस्थों से पाने की आशा रखते हैं, शास्त्रज्ञ पुरुष उन्हें सन्तुष्ट रखे। The sages, Sadhus, saints, recluse, wanderers, the Manes, the demigods & deities, the insects, creatures, animals etc. and the guests-who reach the door of the house hold without intimation or invitation expect the family person to give them some thing to eat.
The demigods and the deities do visit the house hold in disguise as beggars to ask for their share of the earnings by the house hold. The house hold should separate 1/6th of his earning for the purpose of charity-donations. One can give food, clothing, money as per his capacity.
When Dharm Raj visited a poor Brahman's house begging for food in disguise, the whole family preferred to remain hungry but serve the visitor. The family was hungry for several days and had collected the food grain from the fields left over by the farmers. Yam Raj-Dharm Raj was very much pleased with them and granted them place in the heavens.
स्वाध्यायेनार्चतर्षीन्होमैर्देवान्यथाविधि।
पितृश्राद्धैश्र्च नृनन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा॥3.81॥
वेदाध्ययन से ऋषियों का, होम से देवताओं का, श्राद्ध और तर्पण से पितरों का, अन्न से अतिथियों का और बलिकर्म से प्राणियों का सत्कार करना चाहिये। The host-house hold should welcome-honour the sages by studying-reciting the Veds, the demigods-deities by making offerings in the holy fire, the manes by offerings, prayers and charity, the guests by offering food and the creatures by sacrifices.
कुर्यादहरह: श्राद्धमन्नाध्येनोदकेन वा।
पयोमूलफलैर्वाSपि पितृभ्यः प्रीतिमावहन्॥3.82॥
अन्नादि से या जल से या दूध से या फल-फूलों से पितरों की प्रसन्नार्थ नित्य श्राद्ध करे। One should perform daily rites-offerings with the help of food grains, water, milk, fruits, flowers, with either anyone of them or all of them, as per his ability for the appeasement-happiness of the Manes.
This is just pay off the debt over us for the Manes who brought the humans to this world to perform righteous, virtuous, pious acts, so that the humans could attain Salvation.
एकमप्याशयेद्विप्रं पित्रर्थे पञ्चयज्ञिके।
न चैवात्रशयेत्किंञ्चिद्वैश्र्वदेवं प्रति द्विजम्॥3.83॥
पंचयज्ञ के अन्तर्गत पितृ के निमित्त एक ब्राह्मण को अवश्य भोजन करावे, पर वैश्य देव के निमित्त ब्राह्मण को भोजन कराने की आवश्यकता नहीं है। Under the procedure of Pitr Yagy, the household must offer food to one Brahmn for the satisfaction of the Manes. For the sake of Vaeshy Dev there is no such compulsion.
वैश्यदेवस्य सिद्धस्य गृह्येSग्नौ विधिपूर्वकम्।
आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥3.84॥
वैश्य देव के लिये पकाए अन्न से, ब्राह्मण गार्हपत्य अग्नि में, आगे कहे हुए देवताओं के लिये प्रति दिन हवन करे। The Brahmn should perform Hawan as per description that follows, into the Garhpaty Agni, for Vaeshy Dev with the cooked food grains, for the sake-satisfaction, appeasement of deities, demigods.
गार्हपत्य अग्नि का एक प्रकार है। अग्नि तीन प्रकार की है :- (1). पिता गार्हपत्य अग्नि हैं, (2). माता दक्षिणाग्नि मानी गयी हैं और (3). गुरु आहवनीय अग्नि का स्वरूप हैं॥ वेद॥
Garhpaty Agni is a type of fire. Veds describe fire by the name of father, mother and the Guru-teacher.
अग्ने: सोमस्य चैवादौ तयोच्श्रैव समस्तयो:।
विश्रेव्भ्यच्श्रैव देवोभ्यो धन्वन्तरय एव च॥3.85॥
पहले अग्नि और सोम को फिर दोनों को एक साथ "अग्निसोमाभ्यां स्वाहा:" कहकर आहुति दे, तदनन्तर विश्वदेव और धन्वंतरीको आहुति दे। First offering should be made to fire and the next to Som (Moon-Luna) followed by a joint offering to both by spelling "Agnisomabhyaan Svaha:", thereafter offering should be made to Vishw Dev and then to Dhanvantri.
Dhanvantri is demigods physician.
कुह्वै चैवानुमत्यै च प्रजापतय एव च।
सहद्यावापृथिव्योश्र्च तथा स्विष्टकृतेSन्तपः॥3.86॥
फिर कुहू को, अनुमति को, प्रजापति को आहुति दे, द्यो: पृथिवी को एक साथ आहुति दे। अन्त में स्विष्टकृत् अग्नि को आहुति दे। The household should sacrifice offerings in holy fire for the sake of Kuhu, Anumati, Prajapati, the earth and the fire form Swishtkrat it self.
कुहू :: कोयल की कूक या बोली, मोर की केका-ध्वनि, अमावस्या की अधिष्ठात्री देवी या शक्ति, अमावस्या की रात, छलना, प्रवञ्चना; The goddess-deity of the no moon night.
स्विष्टकृत् अग्नि :: The fire which performs the sacrifice well.
अनुमति :: आज्ञा, हुकुम, कोई काम करने से पहले उसके संबंध में अधिकारी से मिलने या ली जानेवाली स्वीकृति, अनुज्ञा, पूर्णिमाकीअधिष्ठात्री देवी या शक्ति; Sanction, assent, counsel, decree, advice, permission, The goddess-deity of the full-moon night.
एवं सम्यग्धविर्हुत्वा सर्वदिशु प्रदक्षिणम्।
इन्द्रान्तकाप्पतीन्दुभ्यः सानुगेभ्यो बलिं हरेत्॥3.87॥
इस प्रकार होम करके सारी दिशाओं में दक्षिण क्रम से इन्द्र, यम, वरुण और सोम को तथा साथ ही साथ उनके अनुयायियों को बलि देनी चाहिये। यथा पूर्व दिशा में इन्द्राय नमः इंद्रपुरुषेभ्यो नमः, दक्षिण में यमाय नमः यमपुरुषेभ्यो नमः, पश्चिम में वरुणाय नमः वरुणपुरुषेभ्यो नमः, उत्तर दिशा में सोमाय नमः सोमपुरुषेभ्यो नमः।
Having performed the holy sacrifices in fire the household should recite the holy Mantr-verses directed to Indr-the King of heaven, facing east as :- Om Indray Namh Om Indr Purushebhyo Namh, to Yum-the deity of death, religion and deeds facing south as :- Om Yamay Namh Om Yum Purushebhyo Namh, to Varun-the deity of water facing west as :: Om Varunay Namh Varun Purushebhyo Namh and then to Moon-the king of Brahmns as :- Om Somay Namh Om Som Purushebhyo Namh.
मरुद्भ्य इति तु द्वारि क्षिपेदप्स्वद्भ्य इत्यपि।
वनस्पतिभ्य इत्येवं मुसलोलूखले हरेत्॥3.88॥
मरुत को द्वार पर, आप-जल को जल में, वनस्पति को मूसल और उलूखल में बलि दे। Offerings to Marut-air be made at the entrance-door, to Varun in water, to plantation-vegetation in Musal or Ulukhal made of wood.
मूसल :: Muller, (pestle, plunger, ponder, flail, pestle and the mortar) is made of wood and used to separate chaff from grain.
उलूखल :: A mortar for crushing or cleaning rice, grinding ingredients.
उच्छीर्षके श्रियै कुर्याद्भद्रकल्यै च पादत:।
ब्रह्म वास्तोष्पतिभ्यां तु वास्तुमध्ये बलिं हरेत्॥3.89॥
वास्तु पुरुष के शीर्ष भाग (उत्तर-पूर्व दिशा) में लक्ष्मी को, पद प्रदेश (दक्षिण-पश्चिम) में भद्र काली को, ब्रह्मा और वास्तुपति को वास्तु के मध्य भाग में बलि दे। Offerings to Maa Lakshmi should be made at the top segment of Vastu Purush (North East direction), to Maa Bhadr Kali offering should be made at the lowest segment-foot of the Vastu Purush while offering to Brahma Ji and the Vastu Pati himself be made at the centre of the Vastu Purush.
विश्वेदेवश्र्चैव देवेभ्यो बलिमाकाश उत्क्षिपेत्।
दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नक्तञ्चारिभ्य एव च॥3.90॥
वैश्यदेव को आकाश में और दिन चर प्राणी को दिन में रात्रि चर प्राणी को रात में बलि दे। Offerings for sake of the micro or divine creatures, including ghosts or the diseased be made in the sky, for the sake of the living beings it should be made during the day and offerings for the sake of the goblins that walk at night be made during the night only.
वैश्यदेव :: पंच महायज्ञों मे से भूतयज्ञ नाम का चौथा महायज्ञ। सूक्ष्म, दिव्य जितने भी प्राणी या देव, सबों को तृप्त करने की भावना से भोज्य सामग्री की हवि प्रदान करना ही भूत या वैश्यदेव यज्ञ है। इससे व्यक्ति का हृदय और आत्मा विशाल होकर अखिल विश्व के प्राणियों के साथ एकता सम्मिलित का अनुभव करने में होता है।
पृष्ठवास्तुनि कुर्वीत बलिं सर्वात्मभूतये।
पितृभ्यो बलिशेषं तु सर्वं दक्षिणतो हरेत्॥3.91॥
वास्तु के पृष्ठभाग में सर्वात्मभूत को और बचे हुये अन्न को लेकर वास्तु के दक्षिण भाग में पितरों को बलि दें। Let be sacrifices be offered in front of the Vastu Purush to the one who is the past of every one and then rest of the food be put behind the back of the Vastu Purush for the sake of manes.
सर्वात्मभूत :: Common originator of every one.
भूत :: ghost, a spirit, goblin.
शुनां च पतितानां श्र्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि॥3.92॥
कुत्तों, पतितों, श्र्वपचों, पाप रोगियों, कौओं और कीड़े-मकोड़ों के लिये धरती पर धीरे से बलि रखे। The offerings meant for the dogs, downtrodden-low castes, shrvapach and those infected with diseases, crows, insects-worms be placed over the earth gently-with honour.
Never waste the food. The food offered to the needy must be handed over with due respect-honour.
एवं यः सर्वभूतानि ब्राह्मणों नित्यमर्चति।
स गच्छति परं स्थानं तेजोमूर्ति पथर्जुना॥3.93॥
इस प्रकार जो ब्राह्मण सब प्राणियों का नित्य पूजन करता है, वह सीधे रास्ते से तेजोमय परमस्थान को जाता है। The Brahm who undertake the worship of all animals-beings every day, goes to the Ultimate bright-glowing abode, though a straight path.
कृत्वैतद् बलिकर्मैवमतिथिं पूर्वमाशयेत्।
भिक्षां च भिक्षवे दद्याद्विधिवद् ब्रह्मचारिणे॥3.94॥
इस प्रकार बलि वैश्र्वदेव कर्म करके पहले अतिथि को भोजन करावे और सन्यासी तथा ब्रह्मचारी को उचित रीति से भिक्षा दे। One should feed the guests, provide sufficient Dakshina-fee to the sages-ascetics and the celibates-Brahmchary with due procedure, after completion of the offerings to the deceased, ghosts, spirits, goblins etc.
यत्पुण्यफलमाप्नीति गां दत्त्वा विधिवद् गुरो:।
तत्पुण्यफलमाप्नीति भिक्षां दत्त्वा द्विजो गृही॥3.95॥
गुरु को विधिपूर्वक गौ देने से जो पुण्य फल प्राप्त होता है, वह गृहस्थ भिक्षा देने से प्राप्त करता है। The household receives the same auspicious reward by giving alms, which is available to him by donating a cow to his Guru-priest with due procedure.
भिक्षाम्पयुदपात्रं वा सत्कृत्य विधिपूर्वकम्।
वेदतत्वार्थविदुषे ब्राह्मणायोपपादयेत्॥3.96॥
गृहस्थ अधिक अन्न के अभाव में थोड़ा सा भी पवित्र अन्न या जल विधिपूर्वक सत्कार करके वेद के तत्वार्थ जानने वाले ब्राह्मण को दे। The house hold should make it convenient to make offerings to the enlightened Brahmn who knows the gist of the Veds to his capability, in the absence of sufficient food grain or just offer water.
नश्यन्ति हव्यकव्यानि नराणामविजानताम्।
भस्मीभूतेषु विप्रेषु मोहाद्दत्तानि दातृभि:॥3.97॥
दाता विद्याध्ययन रहित निस्तेज ब्राह्मणों को अज्ञानवश जो हव्य-कव्य देवादि के तृप्त्यर्थ देता है, वह निष्फल हो जाता है। The donor do not get reward-return for the oblation made to the Brahmns-who are not versed with Veds, for the satisfaction of demigods and the Manes, due to his ignorance.
विद्यातपः समृद्धेषु हुतं विप्रमुखाग्निषु।
निस्तारयति दुर्गाच्च महतश्र्चैव किल्विषात्॥3.98॥
विद्वान और तपस्वी ब्राह्मणों को मुखाग्नि में दिया हुआ हव्य-कव्य (इस लोक में) अनेक प्रकार के संकटों से और (परलोक में) महान् पाप से बचाता है। Offerings made to the learned-scholar Brahmns for eating i.e., food; protects one from troubles in the current birth and from the sins in the following births.
संप्राप्ताय त्वतिथये प्रदद्यादासनोदके।
अन्नन् चैव यथाशक्ति सत्कृत्य विधिपूर्वकम्॥3.99॥
स्वयं आये हुए अतिथि को पहले आसन और जल देना चाहिये। तदनन्तर सत्कार पूर्वक यथाशक्ति व्यञ्जनादि से युक्त अन्न खिलाना चाहिये। The household should offer cushion-seat and water to drink, to the guest; who has arrived uninvited by himself and thereafter he should be served with delicacies-food as per one's capability.
One should be extremely cautious in handling the guests these days. The guest may harm the house holder very easily. One should remember the story of the abduction of Maa Sita by Ravan. Friendly entry into the house is proving deadly these days. Such people commit all sorts of crime like loot, abduction, dacoity, rape, murder etc., before they decamp with the booty.
शिलानप्युञ्छतो नित्यं पञ्चाग्नीनपि जुह्वत:।
सर्वं सुकृतमादत्ते ब्राह्मणोंSनर्चितो वशन्॥3.100॥
फसल कटने पर खेत में गिरे हुए अन्न (सिल्ला) को चुनकर निर्वाह करने वाला और नित्य पंचाग्नि सेवन करने वाले व्यक्ति-ब्राह्मण के यहाँ भी अतिथि सत्कार न हो तो, वह अतिथि उसका सारा पुण्य ले लेता है। The uninvited-untimely guest who is not honoured by one-Brahmn who survives-lives over the food grain collected by him from the ground-field left over by the farmers, snatches all the merit gains by the household-Brahmn.
तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता।
एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदाचन॥3.101॥
अतिथि-ब्राह्मण के लिये तृणासन, ठहरने की जगह, पैर धोने के लिये पानी और मधुर और सत्य वाणी, इन चारों का अभाव तो सज्जनों के यहाँ कभी नहीं होता। A decent house hold has no scarcity of cushion made of straw, place to live-gust room, water for washing legs-feet and lovely-sweet words for the Brahmn who has honoured him by becoming his guest. However, food is an essential item.
Munshi Prem Chand wrote a story of a poor villager named Shankar who borrowed one ser of wheat floor to feed a sage and lived a life of a bonded labour throughout his life. His children too became bonded labour for not repaying the debt of one handful of wheat floor. Remember, not to go beyond capacity in honouring a guest.
Indian System Vs British System Metric System ::
1 Tola ≈ 0.375 t oz 11.66375 g
1 Ser (80 Tola) 2.5 t lb ≈ 2.057 lb ≈ 2 lb 1 oz 0.93310 kg
1 Maund (40 Ser) 100 troy lb 37.324 kg
Indian System Vs Metric System ::
1 Tola = 11.664 g
1 Ser (80 Tola) = 933.10 g
1 Maund (40 Ser) = 37.324 kg
The Hindu always try to improve his next birth and forgets to correct the drawbacks in the current birth. Dharm-Karm is alright but one must not ignore the house hold duties-chores. One should never shirk work. Prayers are a must but they too need money and just earnings.
एकरात्रं तु निवसन्न तिथिर्ब्राह्मण: स्मृत:।
अनित्यं हि यस्मात्तस्मादतिथिरुच्यते॥3.102॥
दूसरे के घर एक रात जो ब्राह्मण निवास करे वह अतिथि है। उसका रहना नित्य नहीं होता, इसी से वह अतिथि कहलाता है। The Brahmn who spends one night in other's home is an untimely-uninvited guest i.e., ATITHI. He is atithi since he has to spend just one night in other's home. One who visits without appointment and stays at host's house, is Atithi. (Tithi-date, Atithi-without appointment-fixed time, schedule.)
नैकग्रामीणमतिथिं विप्रं सांङ्गतिकं तथा।
उपस्थितं गृहे विद्याद्भार्या यत्राग्नयोSपि वा॥3.103॥
उसी गाँव में रहने वाला, विचित्र कथाओं से अपनी जीविका चलाने वाला कोई मनुष्य यदि (वैश्वदेव कर्म के समय भी) अतिथि बनकर घर पर उपस्थित हो, सपत्नीक अग्निहोत्री गृहस्थ उसे अतिथि न जाने। The house hold who is performing sacrifices in holy fire pertaining to Vaeshv Dev along with his wife, should not consider-entertain a person to be his guest, who lives in the same village and earns his lively hood by telling strange, quirky, freakish stories.
उपासने ये गृहस्था: परपाकमबुद्धय:।
तेन ते प्रेत्य पशुतां व्रजन्त्यन्नादिदायिनाम्॥3.104॥
जो गृहस्थ अज्ञान वश दूसरे का अन्न खाते फिरते हैं, वे इस कारण-दोष से जन्मान्तर में अन्नदाताओं के पशु होते हैं। The ignorant house hold who venture eating food of others, get rebirth as animals of those who fed them.
CATION :: One should avoid burdening the household unnecessarily by frequent visits. As far as possible, one should desist from accepting any sort of gratification, unless-until its a matter of survival, from any one, even from the government, in the form of subsidies, stipends, scholarships etc. One should support himself and his family through the earnings, obtained through virtuous, righteous, pious, honest means only.
अप्रणोद्योSतिथि: सायं सूर्योढो गृहमेधिना।
काले प्राप्तस्त्वकाले वा नास्यानश्नन्गृहे वसेत्॥3.105॥
सूर्यास्त के समय यदि कोई अतिथि-अभ्यागत, घर पर आ जाये तो उसे नहीं टालना चाहिए। अतिथि समय पर आये या असमय उसे भोजन अवश्य करा दे। The Atithi-guest who reaches the house should not be turned away by the house hold. He may reach in proper time or other wise (odd hours), must be served with food.
न श्रीवै स्वयं तदयादतिथिं यन्न भोजयेत्।
धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं वाSतिथि पूजनम्॥3.106॥
जो पदार्थ स्वयं न खाये उसे अतिथि को न भी परोसे। स्वयं अतिथि पूजन से धन, यश और आयु की वृद्धि होती है तथा जन्मान्तर में स्वर्ग सुख प्राप्त होता है। The house hold should not serve the food which he himself is not willing to take-eat. Serving the guest-Atithi grants wealth, fame and longevity in the present birth and ensures all comforts-bliss in the next births.
DAINTY :: मिठाइयाँ, ललित, शिष्ट, स्वादिष्ट, सजीला, नुकताचीन, सूक्ष्म, सुरूप, मज़ेदार, तुनुकमिज़ाज, सुशोभन, नकचढ़ा, रुचिर, प्रसाद, सुहावना, स्वादिष्ट वस्तु, सभ्य; sweetmeats, sweet stuff, pastry, candy, fine, genteel, bijou, delectable, pretty, elegant, suave, urbane, decorous, courteous, tasty, yummy, palatable, nice, stylish, plushy, swanky, posh, meticulous, finicky, carping, snappish, subtle, meticulous, minute, scrupulous, sensitive, decent, civilised, civil, polite, recherche, ornate, soigne, silk-stocking, beautiful, shapely, good-looking, silk-stocking, nutty, toothsome, jumpy, spitfire, choleric, finicky, pettish, choosy, squeamish, finical, delicious, delectable, Prasad, lucidity, delightful, set fair.
आसनावसथौ शय्यामनुव्रज्यामुपासनाम्।
उत्तमेषुत्तमं कुर्याद्धीने हीनं समे समम्॥3.107॥
आसन, विश्राम स्थान, शय्या, अनुगमन और परिचर्य्या-ये अतिथियों की योग्यता देखकर करे, जैसे व्यक्ति हो उसके साथ वैसा ही व्यवहार करे अर्थात बड़े-छोटे का ख्याल न रखकर उनके सम्मान की व्यवस्था करे। The household should arrange for the seats, rest room, bedding, follow up their needs and give due-proper respect while departing, according to one's ability-status. However, he should not discriminate between them on the basis of their age.
वैश्वदेव तु निर्वृत्ते यद्यन्योSतिथिराव्रजेत्।
तस्याप्यन्नन् यथाशक्ति प्रदद्यान्न बलिं हरेत्॥3.108॥
बलि वैश्वदेव कर्म समाप्त होने पर यदि दूसरा अथिति आवे तो उसे भी पुनः पाक करके यथाशक्ति भोजन करावे। पर उस अन्न की बलि न करे।If yet another guest turn up after the completion of the Vaeshv Dev sacrifices, the house hold should prepare the food yet again; but he should not make sacrifices with it.
Some misguided people draw the meaning of BALI-sacrifice as human or animal sacrifices and butcher horse, buffalo, cows, goats, hens etc. which is not permissible in scriptures. The Veds do not permit consumption of meat or sacrificing of animals.
न भोजनार्थ स्वे विप्र: कुलगोत्रे निवेदयेत्।
भोजनार्थ हि ते शंसन्वान्ताशीत्युच्यते बुधै:॥3.109॥
भोजन के लिये ब्राह्मण किसी से अपने कुल गोत्र में निवेदन न करे, क्योंकि ऐसा करने वाले ब्राह्मण को पण्डितजन वमन भोक्ता कहते हैं। A Brahmn should request the households in his own clan for food, since he will be called a Vaman (vomited) Bhokta (consumer) one who eats the vomited.
न ब्राह्मणस्य त्वतिथिर्गृहे राजन्य उच्यते।
वैश्यशूद्रौ सखा चैव ज्ञातयो गुरुरेव च॥3.110॥
यदि ब्राह्मण के घर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र , मित्र, बिरादरी के लोग और गुरु आवें तो अतिथि नहीं कहे जाते। Kshatriy, Vaeshy, Shudr, friends, people of the community and Guru are not covered under the category of Atithi if they visit the house of Brahmn.
यदि त्वतिथिधर्मेण क्षत्रियो गृहमाव्रजेत्।
भुक्तवत्सु च विप्रेषु कामं तमपि भोजयेत्॥3.111॥
यदि कोई क्षत्रिय अतिथि-रूप से घर पर आ जाये तो अतिथि ब्राह्मणों को भोजन कराके गृहस्थ उसे भी भोजन करा दे। The household should serve food to the Kshatriy after serving the Atithi, if he visits home as a guest-Atithi.
वैश्यशूद्रावपि प्राप्तौ कुटुम्बेSतिथिधर्मिणौ।
भोजयेत्सह भृत्यैस्तावानृशंस्यं प्रयोजयन्॥3.112॥
यदि वैश्य या शूद्र अतिथि रूप में ब्राह्मण के घर आ जायें तो उन्हें दया-धर्म पूर्वक भृत्यों के साथ भोजन कराना चाहिये। If a Vaeshy or a Shudr reaches the house of a Brahmn, he should be served meals along with the servants with compassionate disposition.
Normally, one from trading community-a Vaeshy does not accept meals from the Brahmns family. However, a Shudr has the right to receive meals from the Brahmns. It has been seen that the Brahmns engaged in farming used to pay the Shudr-servants in the form of farm proceeds, before carrying it to their home.
इतरानपि सख्यादीन्सम्प्रीत्या गृहमागतान्।
प्रकृत्यान्नन् यथाशक्ति भोजयेत्सहभार्यया॥3.113॥
क्षत्रियादिकों के अतिरिक्त अन्य, बाँधवों को भी प्रेम से अपने यहाँ आये हों तो पत्नी के साथ भोजन के समय यथाशक्ति उत्तम भोजन करना चाहिये। If the Kshatriy-people from marshal castes have turned up as Atithi-guests, the Brahmn should serve him meals along with the relatives and family members, with the help of his wife.
सुवासिनी: कुमारीश्च रोगिणो गर्भिणी: स्त्रिय:।
अतिथिभ्योSग्र एवैतान्भोजयेदविचारयन्॥3.114॥
नई बहू, कन्या, रोगी और गर्भिणी स्त्रियाँ, इन सबको अतिथियों के पहले बिना विचारे भोजन करा दे। The house hold should serve food prior to the Atithi-guest, to the kids-infants, newly wed daughter in law, daughters-girls, patients-sick-ill and the pregnant women, without giving a second thought.
अदत्त्वा तु य एतेभ्य: पूर्वं भुङ्क्तेSविचक्षण:।
स भुञ्जानो जानाति श्र्वगृध्रैर्जग्धिमात्मनः॥3.115॥
जो अज्ञानी इन सबको न खिलाकर पहले स्वयं खाता है, वह यह नहीं जानता कि मरने के बाद उसके शरीर को कुत्ते और गीध नोंच-नोंच कर खायेंगे। The ignorant who eats-crams himself without feeding these people is subjected to eating of his body by the dogs & vultures.
CRAMS :: ठूँस-ठूँस कर खाना; eating without restriction.
भुक्तवत्स्वथ विप्रेषु भृत्येषु चैव हि।
भुञ्जीयातां ततः पश्चादवशिष्टं तु दम्पती॥3.116॥
पहले ब्राह्मणों और अपने भृत्यों को भोजन कराकर पीछे जो अन्न बचे, पति-पत्नी उसका भोजन करें। The husband & wife constituting the house hold should accept the remaining food only after feeding the Brahmns and the servants.
देवनृषीन् मनुष्यांश्र्च पित्रृन् गृह्याश्र्च देवता:।
पूजयित्वा तत: पश्चाद् गृहस्थ: शेषभुग्भवेत्॥3.117॥
देवता, ऋषि, मनुष्य और गृह देवताओं का अन्नादि से पूजन करके पीछे बचा हुआ अन्न गृहस्थ भोजन करे। The household accept the remaining food as Prasad, only after performing rites-sacrifices-worship of the demigods, sages, humans, family deity-manes.
अधं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात्।
यज्ञशिष्टाशनं ह्येतत्सतामन्नं विधीयते॥3.118॥
जो केवल अपने ही लिये भोजन बनाकर खाता है, वह अन्न न खाकर केवल पाप खाता है। सज्जनों के लिये तो यज्ञावशिष्ट अन्न ही भोजन प्रशस्त है। Preparing and food for self, eating it alone is a sin. For the virtuous the food left over after the Yagy is sufficient, taken as Prasad.
राजत्विर्क्स्नातकगुरून्प्रियश्र्वशुरमातुलान्।
अर्हयेन्मधुपर्केण परिसंवत्सरात् पुनः॥3.119॥
राजा, यज्ञपुरोहित, स्नातक, गुरु, जँवाई, ससुर और मामा लोग जब एक वर्ष के बाद घर आयें, तो मधुपर्क से इनकी पूजा करनी चाहिये, यज्ञतिरिक्त समय में नहीं। The household should welcome-honour the king, priest, celibate-scholar, son in law, father in law and the maternal uncle by offering them Madhu park-a mixture of honey and milk if they happen to arrive after the completion of one year at the occasion of Yagy-sacrifices but not at other occasions.
मधुपर्क :: पूजा के लिए बनाया गया शहद और दूध का मिश्रण; mixture of honey, respectful offering to a guest or to the bridegroom on his arrival at the door of the father of the bride, offering of honey and milk, respectful offering to a guest, ceremony of receiving a guest with it.
राजा च श्रोतियश्र्चैव यज्ञकर्मण्युपस्थितौ।
मधुपर्केण सपूज्यौ न त्वयज्ञ इति स्थिति:॥3.120॥
राजा और श्रोत्रिय वैदिक यज्ञ कर्म में उपस्थित हों तो मधुपर्क से पूजा करनी चाहिये, यज्ञातिरिक्त समय में नहीं। If the king and the Shrotriy (the scholar who has learnt Veds, is civilised, cultured, sober, well educated) are present in the Yagy-sacrifices they must be honoured with the Madhu Park-mixture of honey & milk, but not at any occasions.
श्रोत्रिय :: वह वेदज्ञ, ब्राह्मण-विद्वान जो छन्द आदि कंठस्थ करके उनका अध्ययन और अध्यापन करे, वेद-वेदांग में पारंगत, सभ्य, शिष्ट, सुसंस्कृत हो; ब्राह्मण समाज में एक कुलनाम।
प्राचीनकाल में ज्ञानार्जन का जरिया श्रौतकर्म अर्थात श्रवण, मनन और चिन्तन ही था।
ब्राह्मणों के चिर-परिचित उपनामों में श्रोत्रिय का शुमार भी है। विद्याव्यसन और अध्यापन से ही जुड़ा हुआ शब्द है श्रोत्रिय जिसका अर्थ है श्रुति अथवा वेदों का अध्ययन करनेवाला ब्राह्मण।
"जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।
वेदाभ्यासी भवेद् विप्रः श्रोत्रियस्त्रिभिरेव च"॥
वह जन्म से ब्राह्मण जाना जाता है, संस्कारों से द्विज, वेदाभ्यास करने से विप्र होता है और तीनों से श्रोत्रिय है। पुराणों में कल्प के साथ एक वैदिक शाखा अथवा छह वेदांगों के साथ वैदिक शाखा का अध्ययन कर षट्कर्मों लगे ब्राह्मण को श्रोत्रिय कहा गया है। पुराणों में श्रोत्रिय ब्राह्मणों के कर्तव्यों और अधिकारों का उल्लेख है। यही नहीं राजा के प्रमुख कर्तव्यों में यह ध्यान रखना भी शामिल था कि उसके राज्य में कोई श्रोत्रिय बेसहारा न रहे। श्राद्ध आदि कर्मों में श्रोत्रिय निष्णात होते थे। श्रोत्रिय के श्रोती, सोती, स्रोती जैसे रूप भी प्रचलित हैं।श्रोत्रिय शब्द बना है "श्रु" धातु से जिसमें मूलतः सुनने का भाव है। इससे ही बना है "श्रुत" अर्थात सुना हुआ, ध्यान लगा कर सुना हुआ, समझा हुआ, जिसे हृदयंगम किया गया हो, जाना हुआ, समझा हुआ, किसी का नाम लेकर पुकारा हुआ उच्चारण आदि। श्रुति भी इसी मूल से आ रहा है।
श्रुति कन्या का नाम भी होता है इसका अर्थ है सुनना। चूँकि कानों से सुना जाता है, इसलिए कान को भी श्रुति कहते हैं। अफवाह, सुनी-सुनाई, मौखिक बात अथवा अन्य समाचार भी श्रुति के दायरे में आते हैं। वेदों को भी श्रुति कहते हैं क्योंकि इनका ज्ञान सुनकर ही हुआ। इसी तरह वेद मंत्र भी श्रुति कहलाते हैं। संगीत में भी श्रुति का बड़ा महत्व है। एक स्वर का चतुर्थांश श्रुति कहलाता है अर्थात यह स्वर का कण होता है। "श्रु" का रिश्ता ही श्रवण अर्थात सुनने की क्रिया से भी है। पुराणों में श्रवणकुमार की कथा भी आती है जो अपने दृष्टिहीन माता-पिता के अत्यंत सेवाभावी थे। राजा दशरथ के तीर से उनकी मृत्यु हो गई थी।
"श्रु" धातु से ही बना है श्रोता शब्द जो बोलचाल में इस्तेमाल होता है। जो "श्रुत" करने की क्रिया से गुजर रहा है वही "श्रोता" है। दिलचस्प बात यह कि श्रोता में शिष्य या विद्यार्थी का भाव भी है। श्रोता बना है संस्कत के श्रोतृ से जिसका भावार्थ है छात्र। वेद-वेदांगों के ज्ञान में पारंगत हो चुके ब्राह्मण को श्रोत्रिय कहा जाता।
सायं त्वन्नस्य सिद्धस्य पत्न्यमन्त्रं बलिं हरेत्।
वैश्वदेवं हि नामेतत्सायं प्रातर्विधीयते॥3.121॥
सायंकाल स्त्री बिना मन्त्र सिद्धान्न की बलि दे। वैश्वदेव नामक कर्म गृहस्थ को सांय-प्रातः करना चाहिये। The wife of the household should make sacrifices in the evening with the grain-food which has not been treated with the recitation of Mantr, sacred-holi rhymes. The household (both husband and wife) should perform the sacred deed called Vaeshv Dev both in the evening and morning.
पितृयज्ञं तु निर्वत्र्य विप्रश्र्चेन्दुक्षयेSग्निमान्।
पिण्डान्वाहार्यकं श्राद्धं कुर्यान्मासानुमासिकम्॥3.122॥
अग्निहोत्री ब्राह्मण अमावस्या तिथि में पितृयज्ञ करके प्रत्येक मास पिण्डान्वाहार्यक श्राद्ध करे। The Brahmn committed to sacrifices in holi fire, should perform Pindanvaharyak Shraddh on the no Moon night, every month. It is a sacrifices related to the diseased-manes.
अन्वाहार्य श्राद्ध :: अन्वाहार्य श्राद्ध पिण्डपितृयज्ञ के उपरान्त उसी दिन सम्पादित होता है।[गोभिल गृह्य सूत्र 196]
पिण्ड-पितृ यज्ञ के सम्पादन के उपरान्त वह ब्राह्मण जो अग्निहोत्री अर्थात् आहिताग्नि है, प्रति मास उसे अमावास्या के दिन पिण्डान्वाहार्यक श्राद्ध करना चाहिए।
पितृणां मासिकं श्राद्धमन्वाहार्यं विदुर्बुधा:।
तच्चामिशेण कर्तव्यं प्रशस्तेन प्रयत्नतः॥3.123॥
पण्डित गण पितरों के इस मासिक श्राद्ध को अन्वाहार्य कहते हैं जो कि यत्न पूर्वक करना चाहिये। This monthly Shraddh-homage is called Anvahary, by the Pandits-scholars. It should be associated with meals, gifts and fee; to the learned Brahmns for performing the rites.
अन्वाहार्य :: अन्वाहार्य मासिक श्राद्ध यज्ञ में पुरोहित को दी जाने वाली दक्षिणा या भोजन।
तत्र ये भोजनीया: स्युर्ये च वर्ज्या द्विजोत्तमा:।
यावन्तश्र्चैव यैश्र्चानैस्तान् प्रव क्ष्याम्यशेषत:॥3.124॥
उस श्राद्ध में खिलाने योग्य और न खिलाने योग्य ब्राह्मणों को किन अन्नों से कितने ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये, इत्यादि कहता हूँ। I shall describe the grains-food-eatables and their quantum to be served to Brahmns who are eligible and the ones who are not eligible for serving meals, during anniversary-homage ceremony.
द्वौ दैवे पितृकार्ये त्रीनेकैकमुभयत्र वा।
भोजयेत् सुसमृद्धोSपि न प्रसज्जेत विस्तरे॥3.125॥
देवकार्य में 2, पितृकार्य में 3 या दोनों में एक-एक ब्राह्मण को भोजन करावे। अधिक ब्राह्मण भोजन कराने का सामर्थ्य हो तो भी इस सँख्या को न बढ़ावे। One should feed 2 Brahmns in Dev Kary sacrifices devoted to Demigods & 3 Brahmns in Pitr Kary-sacrifices to the Manes or else one-one in each category. Even if one is capable of feeding more Brahmns, he should not increase the number beyond this figure.
सत्क्रियां देशकालौ च शौचं ब्राह्मण सम्पद:।
पञ्चैतान्विस्तरो हन्ति तस्मान्नेहेत विस्तरम्॥3.126॥
ब्राह्मणों की इस सँख्या को बढ़ाने से संस्कार, देश, काल, पवित्रता और ब्राह्मणत्व श्राद्ध के इन पाँचों आवश्यक अंगों को साधने में बाधा पड़ती है। इसलिये सँख्या नहीं बढ़ानी चाहिये। Increasing the number of Brahmns for meals beyond 2-3 or 1-1 hinders in virtues, country-immediate space-place meant for the job, time-auspicious occasion, purity-piousity and the homage meant for the gaining of Brahmn rank-title. Therefore, the number should not be increased.
Brahmn is the ultimate for purity in human society. But its really very-very difficult to trace such Brahmns. Soon after the advent of Mahatma Budh, Brahmns lost their significance-cult and adopted to other professions. Since, all the 4 stages of Kal-cosmic era :- Saty Yug, Treta Yug, Dwapar Yug and Kali Yug co-exist; enlightened, scholarly, devoted-devout, pious, righteous, virtuous, honest Brahmns do exist, but they do not reveal them selves.
प्रथिता प्रेतकृत्यैषा पित्र्यं नाम विधुक्षये।
तस्मिन् युक्तस्यैति नित्यं प्रेतकृत्यैव लौकिकी॥3.127॥
अमावस्या में जो पितृश्राद्ध किया जाता है, उसे प्रेत कृत्य-पितृ क्रिया कहते हैं। उस कर्म में जो तत्पर रहता है, उसको नित्य लौकिकी प्रेत कृत्या प्राप्त होती है अर्थात उसके पुत्र पौत्रादि और धन की वृद्धि होती है। The homages & charity performed-carried out, on No moon-dark night is termed Pret Karm (oblations-charity meant for the purpose of the deceased in the family). One who is ready to perform such deeds is blessed with progeny and grand children in addition to accumulation of money.
Traditionally, a devout Hindu spend money for the welfare of the enlightened Brahmns on day falling on No Moon nights. Such charity carries significance for the welfare of one in current as well next births.
श्रौत्रियायैव देयानि हव्यकव्यानि दातृभि:।
अर्हत्तमाय विप्राय तस्मै दत्तं महाफलम्॥3.128॥
दाता को वेदाभ्यासी ब्राह्मण को ही हव्य-कव्य अर्पित करना चाहिये, क्योंकि ऐसे पूज्यतम ब्राह्मण को देवान्न या श्राद्धान्न देने से ही समुचित फल प्राप्त होता है। Oblations in the form of food grains-gifts to the demigods-Manes should be offered to only such honourable Brahmns who practice Veds for attaining maximum favourable output.
One is free to offer food, money to the needy, poor but deserving person. Help extended to non deserving goes waste & on the contrary leads one to sin as well.
एकैकमपि विद्वांसं दैवे पित्र्ये च भोजयेत्।
पुष्कलं फलमाप्रोति नामन्त्रज्ञान् बहूनपि॥3.129॥
देवकर्म और पितृकर्म में एक भी विद्वान् ब्राह्मण भोजन कराने से जो विशेष फल प्राप्त होता है, वह विद्या से विहीन बहुत सारे ब्राह्मणों को खिलाने से भी प्राप्त नहीं होता। One do not obtain the piousity-rewards by feeding several uneducated-illiterate Brahmns who are not well versed with the Veds, which he obtain by feeding just one enlightened Brahmn, during Prayers to demigods or the Manes-Homages to the Manes-Pitres.
दूरादेव परीक्षेत बाह्मणं वेदपारगम्।
तीर्थ तद्धव्यकव्यानां प्रदाने सोSतिथिः स्मृतः॥3.130॥
वेद निष्णात ब्राह्मण को दूर से अर्थात उसकी वंश परमपरा को और उसकी पवित्रता को जाँच ले, क्योंकि हव्य-क़व्यों का पात्र और दान लेने के लिये उसे अथिति के तुल्य पवित्र कहा गया है। The family tree-hierarchy of the Brahmn expert in Veds should be tested-verified, since he is equated with the Atithi (uninvited guest, a person who visits at odd hours without notice-invitation) for giving gifts, Dakshina, eatables etc.
Its a social obligation to support the Brahmns who have attained expertise in the Veds. Their conduct is always for the welfare of the society. Prayers, worship, rites, rituals, Yagy, Hawan conducted by them, are always for the welfare whole world not for the individual. Such Brahmns maintain ultimate purity, piousity in their day to day life.
सहस्त्रं हि सहस्त्राणामनृचां यत्र भुञ्जते।
एकस्तान् मन्त्रवित् प्रीतः सर्वानर्हति धर्मतः॥3.131॥
जिस श्राद्ध में वेदविहीन दस लाख ब्राह्मण भोजन करते हों, उनमें यदि वेद जानने वाला एक ही ब्राह्मण प्रसन्न होकर भोजन करे तो वह अकेला ही सम्पूर्ण ब्राह्मण भोजन के दान का फल देता है। A single Brahmn, expert in Veds, equalises the rewards which is gained by serving millions of ignorant-illiterate, imprudent Brahmns, during the feast organised for the homage of Manes-Pitr.
ज्ञानोत्कृष्टाय देयानि कव्यानि च हवींषि च।
न हि हस्तावसृग्दिग्धौ रुधिरेणैव शुद्ध्यत:॥3.132॥
जो विद्या में बड़ा हो, उसी को हव्य (देवान्न) और कव्य (पिन्नन्न) देना चाहिये, क्योंकि लहू से भीगे हुए हाथ लहू से शुद्ध नहीं होते। The house hold should offer food, gifts, Dakshina to the Brahmn who is superior by virtue of his knowledge-learning, enlightenment as compared to others, since hands, smeared with blood, cannot be washed-cleansed with blood.
यावतो ग्रसते ग्रासन् हव्यकव्येष्वमन्त्रवित्।
तावतो ग्रसते प्रेत्य दीप्तशूलष्ठर्य्-योगुडान्॥3.133॥
वेद विद्या रहित ब्राह्मण हव्य कव्यों में श्राद्ध कर्ता के मरने के जितने कौर खाते हैं, उतने ही आगे तपाये शूलर्ष्टि नाम के लोहे के गोले खाने पड़ते (मरने के बाद, नर्क, परलोक में)। One who has organised the homage to Manes-demigods should be cautious in serving the food to those Brahmns only, who have learnt the Veds. The Brahmn who has not learnt-grasped Veds will have to eat-swallow red hot iron balls equal in number to the bites of food he ate.
ज्ञाननिष्ठा द्विजाः केचित्तपोनिष्ठास्तथाSपरे।
तपः स्वाध्यायनिष्ठाश्र्च कर्मनिष्ठास्तथाSपरे॥3.134॥
कोई ब्राह्मण ज्ञानी, विद्वान्, कोई तपस्वी, कोई वेद व्रतनिष्ठ और कोई क्रियानिष्ठ होते हैं। The Brahmns may be categorised into learned, ascetic, devoted to practices described in Veds and practicality-deeds.
ज्ञाननिष्ठेषु कव्यानि प्रतिष्ठाप्यानि यत्नतः।
हव्यानि तु यथान्यायं सर्वेष्वेव चतुर्ष्वपि॥3.135॥
ज्ञाननिष्ठों को यत्नपूर्वक कव्य-श्राद्धान्न और शेष चारों ब्राह्मणों को यथायोग्य हव्य देना चाहिये।The household should make efforts to give gifts, Dakshina-fee and the food grains to the learned-enlightened Brahmns and make offerings to the rest 4 categories of Brahmns as per his capacity.
The stress is over maintaining the learned-enlightened Brahmns.
अश्रोत्रियो पिता यस्य पुत्रः स्याद्वेदपारागः।
अश्रोत्रियो वा पुत्रः स्यात् पिता स्याद्वेदपारागः॥3.136॥
जिसका पिता वेद न जानता हो और पुत्र वेदपारङ्गत हो अथवा बाप वेदपारङ्गत हो, बेटा वेद न जानता हो। ब्राह्मण की गुणवत्ता तय करने में वेद ही एकमात्र पैमाना और सहायक हैं। When it comes to decide who is more virtuous-revered, one has to find out if the invited Brahmn's father is a scholar of Veds or not. Then, father may be ignorant but the son might have attained expertise in the Veds or else the father is an expert of Veds but the son is ignorant. Recension of Veds is decisive factor in Brahmn's quality.
RECENSION :: पाठ, गुण-दोष-निरूपण, पाठान्तर, शुद्ध किया हुआ मूल ग्रन्थ; the revision of a text.
ज्यायांसमनयोर्विद्याद्यस्य स्याच्छ्रोत्त्रिय: पिता।
मन्त्र सम्पूजनार्थं तु सत्कारमितरोSर्हति॥3.137॥
दोनों में बड़ा वही है जिसका पिता-बाप वेदविज्ञ है, किन्तु दूसरा केवल वेद पड़ने के कारण सम्मान-सत्कार पाने योग्य है। Out of the two invited Brahmns one whose father is a learned-expert of Veds is more venerable. However, the other one too deserves respect-is worthy of honour, because respect is due to the study of Ved.
Mere reading of Veds do not qualify one to be respected. He should understand, analyse and apply it the life. He should be able to interpret it correctly. Most of the treatises-commentaries available on Veds are grossly distorted, vague and incorrect.
न श्राद्धे भोजयेन्मित्रं धनैः कार्योSस्य संग्रहः।
नारिन् न मित्रं यं विद्यात्तं श्राद्धे भोजयेद् द्विजम्॥3.138॥
श्राद्ध में मित्र को न खिलावे, किन्तु अन्य सत्कारों से मैत्री की रक्षा करे। जो शत्रु और मित्र न हो उसी ब्राह्मण को श्राद्ध में भोजन करावे। One should not serve food to his friend meant for homage-anniversary, to the Manes-diseased but maintain his friendship through other means of welcome, honour. The Brahmn who receives food for the Shraddh should neither be a friend nor a foe.
यस्य मित्रप्रधानानि श्राद्धानि च हवींषि च।
तस्य प्रेत्य फलं नास्ति श्राद्धेषु च हविःषु च॥3.139॥
जिनके श्राद्ध और हव्य में मित्र ही प्रधान होते हैं, उन्हें मरने पर हव्य-कव्य नहीं मिलता। Those who invite their friends, relatives for performing the funeral rites of their diseased for paying anniversary-homage and serving meals, are deprived off the offerings by their descendent after their death. Such people have to remain in Pret Yoni for quite a long period of time.
These chapters have no concern with Hinduism-which is a way of life-life style. Its just a treatise describing the facts-realities of human life-birth, incarnations. One should follow these tenets irrespective of his faith. Other faiths emerged just a few hundred years ago, while civilisation persisted for trillions-trillions of years. Sufficient proofs are scattered all over the earth. Excavations and scientific studies-data retrieved clearly shows the evidence.
Hindu is since ever, for ever. No one can crush it even after concerted efforts.
यः सङ्गतानि कुरुतें मोहाच्छ्राद्धेन मानवः।
स स्वर्गाच्च्यवते लोकाच्छ्राद्धमित्रो द्विजाधम:॥3.140॥
जो मनुष्य अज्ञान से श्राद्ध द्वारा किसी के साथ मैत्री जोड़ता है, वह श्राद्धमित्र द्विजाधम स्वर्गलोक से वंञ्चित होता है। One who enters into an alliance-friendship for obtaining the sacred food meant for the Manes, diseased, demigods for homage-anniversary rites, is deprived from the heavens.
Shraddh is one of the most sacred acts and only the virtuous, learned, enlightened Brahmns should accept the offerings. Any unauthorised recipient has to face the consequences. Once the sacred rites are over, the household may distribute-serve food to anyone, who is willing to accept. It helps both, the household as well as the recipient.
Halloween festival is a distorted form of the Shraddh-homages to the Pitre-manes observed in Western World, America & Australia etc.
सम्भोजनी साSभिहिता पैशाची दक्षिणा द्विजैः।
इहैवास्ते तु सा लोके गौरन्धेवैकवेश्मनि॥3.141॥
जो मित्रादिकों के साथ भोजनादि से युत दान क्रिया होती है, उसे पैशाची दान-क्रिया कहते हैं, क्योंकि वह दान-दक्षिणा इसी लोक में रह जाती है, जैसे अन्धी गाय एक ही घर में रहती है। The food-meals served to the friends-relatives added with fee, Dakshina, gifts for accepting the meals prior to the rites-sacrifices and serving of food to the virtuous Brahmns, is useless and is termed as Paeshachi (like the spirits); which do not cross the boundary of the earth, the manner in which a blind cow is confined to the walls-boundary-stable, of the house.
युत :: चार हाथ की माप, मिला या मिलाया हुआ, युक्त, सहित।
यथेरिणे बीजमुत्वा न वप्ता लभते फलम्।
तथाSनृचे हविर्दत्त्वा न दाता लभते फलम्॥3.142॥
जैसे ऊसर में बीज बोने से बोने वाले को फल का लाभ नहीं होता, वैसे ही मूर्ख को हवि-देवान्न देने वाले को कोई फल नहीं मिलता। The manner in which one do not get return by sowing seeds in a barren land, similarly one who host the ignorant-idiot do not get any return.
दात्दृन् प्रतिग्रहीन्त्दृश्र्च कुरुते फलभागिनः।
विदुषे दक्षिणां दत्त्वा विधिवत् प्रेत्य चेह च॥3.143॥
वेदविज्ञ ब्राह्मण को विधि पूर्वक दी जाने वाली दान-दक्षिणा इस लोक और परलोक में दाता और प्रतिग्रहीता दोनों को यथोक्त फल देती है। The donations and Dakshina, fee, gifts given to the learned Brahmn, helps the donor and the receiver equally, in both the abodes, the earth-present birth and the next birth, made in accordance with the rules prescribed by the scriptures-Veds.
कामं श्राद्धेSर्चयेन्मित्रं नाभिरूपमपि त्वरिम्।
द्विषता हि हविर्भुक्तं भवति प्रेत्य निष्फलम्॥3.144॥
विद्वान ब्राह्मण के अभाव में गुणवान मित्र को सादर भोजन करावे पर विद्वान शत्रु को नहीं क्योंकि शत्रु का खाया हुआ श्राद्ध परलोक में निष्फल होता है। In the absence of a learned Brahmn, one may offer sacrificial food to his friend with due regard to him and the Manes but never serve food to one-foe, who has enmity with him, since it will not grant favourable results in the next birth.
यत्नेन भोजयेच्छ्राद्धे बह्वृचं वेदपारगम्।
शाखान्तगमथाध्वर्यु छन्दोगं तु समाप्तिकम्॥3.145॥
श्राद्ध में यत्नपूर्वक ऐसे बाह्मण को जो बहुत ऋचाओं-मन्त्रों को जानने वाला वेद पारङ्गत हो अथवा जिसने सम्पूर्ण वेद पढ़ा हो, भोजन करावे। One should make efforts to serve food to such Brahmns who have learnt several hymns of Ved or one who is an expert in the Veds, during the Shraddh-homage ceremony.
एषामन्यतमो यस्य भुञ्जीत श्राद्धमर्चितः।
पितृणां तस्य तृप्तिः स्याच्छाश्वति साप्तपौरुषी॥3.146॥
ऐसा एक भी ब्राह्मण यदि पूजित होकर श्राद्ध में भोजन करे, तो श्राद्धकर्त्ता के पितरों को 7 पीढ़ियों तक निरन्तर तृप्ति रहती है। If even a single learned-enlightened Brahmn, accepts the food served by one, who is performing the homage to his Manes, ancestors-deceased, will satisfy 7 generations continuously.
येष वै प्रथमः कल्पः प्रदाये हव्यकव्ययोः।
अनुकल्पस्त्वयं ज्ञेयः सदा सद्भिरनुष्ठितः॥3.147॥
हव्य-कव्य देने में यह मुख्य विचार हुआ। अब साधु पुरुषों ने जिस गौण विचार का सदा अनुष्ठान किया है, वह इस प्रकार है। This is the major postulate of the procedure for serving the gift, donations, fees, dolls offering sacrifices to the demigods and Manes. Now, let us learn, describe-discuss the minor postulates adopted by the saintly persons.
मातामहं मातुलं च स्वीस्त्रीयं श्वसुरं गुरुम्।
दौहित्रं विट्पतिं बन्धुमृत्विज्ञाज्यौ च भोजयेत्॥3.148॥
मातामह-नाना, मामा, भाँजा, श्वसुर, गुरु, दौहित्र, जमाता, मौसेरा-फुफेरा भाई, पुरोहित और यज्ञकर्त्ता, इनको श्राद्ध में भोजन करावे। One may include one's maternal grandfather, maternal uncle, sister's son, father in law, one's teacher, daughter's son, daughter's husband, cognate kinsman, one's own officiating priest for serving food in the group of participants.
They are served food only when the homage ceremony is over. Those who are covered in the list of in laws-side can not be given gifts and fee as well. The Guru, son in law, daughter's son, the priest and the main figure performing the rituals deserve to be paid as per one's capability.
न ब्राह्मणं परीक्षेत दैवे कर्मणि धर्मवित्।
पित्र्ये कर्मणि तु प्राप्ते परीक्षेत प्रयत्नतः॥3.149॥
धर्मज्ञ पुरुष देवकर्म में ब्राह्मण की परीक्षा न करे। किन्तु पितृकर्म में उसके आचार, विचार, विद्या, कुल-शील की अच्छी तरह जॉंच कर ले। The devoted should not subject the Brahmn to testing for the purpose of prayers-worship pertaining to deities-demigods. In case of Shraddh Karm-homage to Manes, one must ascertain the behaviour, thoughts, education-learning, clan-hierarchy of the Brahmn invited for the sacred Hawan-Agnihotr, prior to asking him to perform the sacrifices-rituals.
In fact these rituals needs high degree of purity, perfection and expertise in the absence of which, mistakes may occur and the whole purpose of the anniversary-homage is lost and may yield adverse results. Correct pronunciation, recitation, note, cord, intensity, volume of the hymns is a must-essential, failing which the desired result is not obtained.
ये स्तेनपतितक्लीबा ये च नास्तिकवृत्तयः।
तान् हव्यकव्योर्विप्राननर्हान् मनुर्ब्रवीत्॥3.150॥
जो चोर हों, पतित हों, नपुंसक हों, नास्तिक हों; वे ब्राह्मण हव्य कव्य के योग्य नहीं हैं, ऐसा मनुजी ने कहा है। Manu Ji has said that a Brahmn who is a thief, outcasts-degraded, ashiest or eunuchs-impotent is not qualified-unworthy for receiving oblations to the demigods-deities and Manes.
जटिलं चान धीयानं दुर्बलं कितवं तथा।
याजयन्ति च ये पूंगास्तांश्र्च श्राद्धे न भोजयेत्॥3.151॥
वेदपाठ रहित, जटाधारी, ब्रह्मचारी, दुर्बल (अजितेन्द्रिय), जुआरी और ग्राम्य पुरोहित, इनको श्राद्ध न खिलावे। One should not serve food during Shraddh ceremony to a person who has not studied Veds, who has long hair-locks, celibate, weak-has no control over sensuality, sexuality, passions, gambler and the village priest (who sacrifice for a multitude, sacrificer).
चिकित्सकान् देवलकान्मांसविक्रयिणस्तथा।
विपणेन च जीवन्तो वर्ज्या: स्युर्हव्यकव्ययोः॥3.152॥
वैद्य, पुजारी (देवांश वाले), माँस बेचने वाले और वणिक्वृत्ति से जीने वाले ब्राह्मण देव और श्राद्ध दोनों में त्याज्य हैं। The Brahmns who have adopted the job of a physician-doctor, temple priests-who gets salary from the temple and who eat the offerings made to demigods-deities, butchers-meat sellers and those who trade in merchandise-businessman; should not be served food meant for the offerings to deities-demigods and the Manes.
प्रेष्यो ग्रामस्य राज्ञश्र्च कुनखी श्यावदन्तक:।
प्रतिरोद्धा गुरौश्र्चैव त्यत्काग्निर्वार्धुषिस्तथा॥3.153॥
राजा या गाँव का दास कर्म करनेवाला, जिसके नख खराब हों, किसके दाँत काले हों, गुरु की आज्ञा के प्रतिकूल चलने वाला ब्राह्मण हव्य-कव्य में त्याज्य है। A Brahmn who has been employed by the king-state or who performs as a servant in the village, whose nails are in bad shape, whose teeth are black and one who functions against the directives-orders of his Guru; does not deserve to receive the food gifts, fees-Dakshina, offerings during the Shraddh.
यक्ष्मी च पशुपालश्च परिवेत्ता निराकृति:।
ब्रह्मद्विट् परिवितिश्च फनाभ्यन्तर एव च॥3.154॥
यक्ष्मा-क्षय रोगी, पशुओं पालन करने वाला, परिवेत्ता, परिवित्ती, देव-पितृ कर्मादि रहित, ब्राह्मण-द्वेषी और किसी लोकोपकार के लिये पैदा किये हुए धन में अपनी जीविका चलाने वाला, ये सब देवकर्म और श्राद्ध में त्याज्य हैं। One suffering from tuberculosis, tend cattle, marries before his elder brother and performs Agnihotr, one remain unmarried but his younger brother gets married, enemy of the Brahmns and the one who earns his livelihood from the money collected for social welfare; should be rejected from serving food in sacrifices meant for the deities-demigods and the Manes.
परिवेत्ता :: ज्येष्ठ भाई का विवाह न हुआ हो, किन्तु छोटे भाई का विवाह हुआ हो और वह अग्निहोत्र करता हो तो उसे परिवेत्ता कहते हैं; If the elder brother remain unmarried the younger brother is called Parivetta in case he performs Agnihotr.
परिवित्ती :: परिवेत्ता के बड़े-ज्येष्ठ भाई को परिवत्ति कहते हैं; The elder brother of Parivetta is called Parivitti.
कुशीलवोSवकीर्णी च वृषलीपतिरेव च।
पौनर्भवश्च काणश्च यस्य चोपपतिर्गृहे॥3.155॥
नाच-गान से जीविका चलाने वाला, ब्रह्मचर्यव्रत से रहित, कामति, ब्रह्मचारी या यति, शूद्रा स्त्री या जो पुनर्विवाहिता स्त्री का पुत्र है तथा काना और जिस घर में स्त्री का उपपति हो, ये सब देवकर्म और श्राद्ध के त्याज्य हैं। One who earns his livelihood through dance or music, devoid of celibacy, sexy-passionate, celibate or Yati (Caesura, ascetic, solitairian), born from a Shudr woman or the son of a woman who has remarried, blind of one eye and one in whose house a paramour (the second husband of a married woman) of his wife resides; are all rejected-discarded for the purpose of Shraddh meant for the Manes or the prayers devoted to the deities or the demigods.
भृतकाध्यापको यश्च भृतकाध्यापितस्तथा।
शूद्रशिष्यो गुरुच्श्रैव वाग्दुष्ट: कुण्डगोलकौ॥3.156॥
वेतन लेकर पढ़ाने वाला, वेतन देकर पढ़ने वाला, शूद्र से पढ़ने वाला या शूद्र को पढ़ाने वाला, कटुभाषी, सधवा या विधवा के पेट से परपुरुष द्वारा उत्पन्न ब्राह्मण देव और पित्र्य दोनों कार्यों में त्याज्य हैं। One who takes salary for teaching, pays for learning, learns from a lower caste-Shudr, who teaches a Shudr, who speaks bitter (scurrilous, rude), born of a widow from some one else-other than the father or the Brahmn produced by some one else-other than the father, deserve to be rejected for offering sacrifices to the demigods worship or the Manes worship i.e., Shraddh.
कटुभाषी :: कड़वा बोलने वाला; One who speaks bitter (scurrilous, rude).
अकारणपरित्यक्ता मातापित्रोर्गुरोस्तथा।
ब्राह्म्यैयौर्नेश्च सम्बन्धै: संयोगं पतितैर्गत:॥3.157॥
माता, पिता और गुरु को अकारण त्यागने वाला पतितों के साथ विवाहादि सम्बन्ध या पठन-पाठन करने वाला त्याज्य है। One who deserts his mother, father and the Guru without logic and the one who maintains marriage relations and studies or teaches the abject-degraded, outcasts, deserves to be rejected.
पतित :: गिरा हुआ, जिसका नैतिक पतन हो चका हो, आचार भ्रष्ट, अधम, नीच, पापी; जाति, धर्म, समाज आदि से च्युत, युद्ध में पराजित, अपवित्र, मलिन, नीचे की ओर झुका हुआ, नत; abject, apostate, corrupt, decadent, degenerate, dropped, fallen, lapsed, licentious, retrograde, sordid, vicious.
अगारदाही गरद: कुण्डाशी सोमविक्रयी।
समुद्रयायी बन्दी च तैलिक: कुटकारक:॥3.158॥
घर में आग लगाने वाला, विष देने वाला, जारज का अन्न खाने वाला, मादक पदार्थ बेचने वाला, समुद्र यात्रा करने वाला, भाट-भाँड़, तिलादि से तेल निकालने वाला और झूँठी गवाही देने वाला त्याज्य है। One who burns-ignites a house, poisons some one, eats food of illegitimate, seller of narcotics-drugs, wine, an ocean traveller, a bard, extracts oil from seeds, gives false witness deserve to be rejected.
BARD :: भाट, जिरहपोश, चारण, कवि, सूत, सारिका; wandering minstrel, poet who sings praises, songster, swan,minstrel, yarn, thread, charioteer, rope, starling.
पित्रा विवदमानश्च कितवो मद्यपस्तथा।
पापरोग्यभिशप्तश्च दाम्भिको रसविक्रयी॥3.159॥
पिता के साथ वृथा विवाद करने वाला, जुआ खेलने वाला, शराबी, महारोगी, महापाप-वाद युक्त, दाम्भिक और रसों को बेचने वाला, देवान्न-श्राद्धान्न के लिये उपयुक्त नहीं है। One who unnecessarily argues with his father, gambles, drinks wine-alcohol, having serious diseases, like aids, venereal disease, possessor of mortal sins, a hypocrite and seller of extracts-wine is not suitable for service food of sacrifices to demigods-deities and the Manes.
धनुःशराणां कर्ता च यश्र्चाग्रेदिधिषूपति:।
मित्रध्रुग्ध्यूतवृत्तिश्च पुत्राचार्यस्तथैव च॥3.160॥
धनुष बाण बनाने वाला, उस कन्या से व्याह करने वाला जिसकी बड़ी बहन कुँआरी हो, मित्र द्रोही, जूआ वृत्ति से निर्वाह करने वाला, बेटे से वेद पढ़ने वाला श्राद्धादि कर्म में त्याज्य है। Bow and arrow maker, one who marries a girl whose elder sister is unmarried, who cheats-deceives his friend, who earn his livelihood through gambling and the one who learns the Veds from his son are not acceptable for performing Shraddh. They are rejected for serving meals for the homage to Manes-Pitre.
भ्रामरी गण्डमाली च श्वित्र्यथो पिशुनस्तथा।
उन्मत्तोSन्धश्च वर्ज्या: स्युर्वेदनिन्दक एव च॥3.161॥
जिसे मृगी, गण्डमाला, श्वेत कुष्ठ जैसे रोग हों, चुगली खाने वाला, पागल, अन्धा और वेदनिन्दक श्राद्ध में वर्जित हैं। An epileptic, who suffers from scrofulous swellings of the glands, one inflicted with white leprosy, back biter, mad, blind and he who cavils at the Ved are not allowed-prohibited to participate in the Shraddh, homage-anniversary of deceased (Manes-Pitre) ceremonies.
CAVILS :: झूठा इलज़ाम, झूठा अक्षेप, दोष ढूंढना, छेद ढूंढ़ना, अवगुण ढूंढ़ना, हुज्जत करना, मीन मेख निकालना, छिद्रान्वेषण, खोट निकालना, झूँठा आरोप-आक्षेप; make petty or unnecessary objections, complain, carp, grumble, moan, grouse, grouch, whine, bleat, find fault with, quibble about, niggle about.
हस्तिगोSश्वोष्ट्रदमको नक्षत्रैर्यश्च जीवति।
पक्षिणां पोषको यश्च युद्धाचार्यस्तथैव च॥3.162॥
हाथी, बैल, घोड़े और ऊँट को शिक्षा देने वाला, राशि नक्षत्र की गणना करके जीवन निर्वाह करने वाला, पक्षियों को पालने वाला और युद्ध सिखाने वाला श्राद्धादि में त्याज्य है। One who trains animals like elephant, ox-bull, horse and camel, calculator of the constellations i.e., time as profession, who breed-keep birds and one who teaches-advocates war have to be rejected for the purpose of anniversary-homage Shraddh functions.
स्त्रोतसां भेदको यश्च तेषां चावरणे रतः।
गृहसंवेशको दूतो वृक्षारोपक एव च॥3.163॥
नदी के बहाव को दूसरी ओर ले जाने वाला अथवा उसके प्रवाह को रोकने वाला, वास्तुविद्या से जीविका चलाने वाला, प्यादे का काम करने वाला और पेड़ रोपने वाला श्राद्धादि कर्म में त्याज्य हैं। One who diverts or blocks the flow of river, earn through the knowledge of Vastu Shastr-ancient science of architecture & engineering, who works as an assistant or servant of the king and the person who plants the trees, have to be rejected for the purpose of Shraddh.
श्वक्रीडी श्येनजीवी च कन्या दूषक एव च।
हिंस्त्रो वृषलवृत्तिश्च गणानां चैव याजक:॥3.164॥
कुत्ते के साथ क्रीड़ा करने वाला, बाज पक्षी के द्वारा शिकार कर जीविका चलाने वाला, कन्या को दूषित करने वाला, हिंसारत, शूद्र की वृत्ति वाला और विनायक आदि गणों के यज्ञ करने वाला, ये सब श्राद्धादि कर्म में त्याज्य हैं। One who plays with the dog (keeps or breeds dogs), earns livelihood by hunting with the help of falcon, spoils-rapes a girl, busy with violence, accepts service for livelihood-job of a Shudr, performs Hawan-sacrifices related to Vinayak-Ganesh Ji Maha Raj (son of Bhagwan Shiv & Maa Parwati) is rejected for the performance of sacrifices pertaining to deceased.
आचारहीनः क्लीबश्च नित्यं याचनकस्तथा।
कृषिजीवी श्लीपदी च सद्भिर्निन्दित एव च॥3.165॥
पूज्यजनों के प्रति शिष्टाचार रहित और स्वधर्म पालन में कातर, नित्य याचना करने वाला, खेती करके जीने वाला और पील पाँव वाला; इन सबको पण्डितों ने श्राद्ध में निन्दित बताया है। One who lacks etiquette-respect for the revered, avoid his prescribed duties, always requests-asks for one or the other thing or favours, earns livelihood through agriculture-farming, a club-footed man is not found suitable for the purpose of Shraddh by the scholars.
औरभ्रिको माहिषिकः परपूर्वापतिस्तथा।
प्रेतनिर्यातकच्श्रैव वर्जनीया: प्रयत्नत:॥3.166॥
भेड़ और भैंसों से जीविका चलाने वाला, विधवा से विवाह करने वाला और द्रव्य के लिये प्रेत का दाहादि करने वाला श्राद्ध में यत्न से त्याग देना चाहिये। Those rear sheep & buffaloes for earnings, one who marries a widow and a person who perform cremation-last rights of the dead-deceased, should be solely rejected for the purpose of homages to Manes-Pitre.
एतान् विगर्हिताचारापाङ्क्तेयान् द्विजाधमान्।
द्विजातिप्रवरो विद्वानुभयत्र विवर्जयेत्॥3.167॥
इन निन्दित आचार वाले अपाङ्क्तेयै (पंक्ति में न बैठने योग्य) अधम ब्राह्मणों को देवकर्म और पितृकर्म दोनों में विद्वान त्याग दें।
The enlightened-learned should reject such depraved-unworthy Brahmns (one who is born as Brahmn but indulge in such professions not meant for the Brahmns. In today's times almost every Brahmn is engaged in such trades-professions which are nor prescribed for them.) for serving pious food meant for homages to the Manes-Pitre.
The condemned Brahmn is like the fire in a piece of straw, which turns to ashes immediately. The condemned-depraved Brahmn is not entitled to the offerings meant for the Brahmns who are well versed-enlightened in Veds. Hawan-Yagy is not performed in ashes. Its always done in blazing fire.
Now, I shall describe the impact-result (favourable outcome) of offering food to the eligible-virtuous Brahmn.
ब्राह्मणस्तवनधीयानस्तृणाग्निरिव शाम्यति।
तस्मै हव्यं न दातव्यं न हि भस्मनि हूयते॥3.168॥
वेदाध्ययन से हीन ब्राह्मण तिनके की आग के समान निस्तेज होता हैं। उसको हव्य नहीं देना चाहिये, क्योंकि भस्म राख में हवन नहीं किया जाता। The condemned Brahmn is like the fire in a piece of straw, which turns to ashes immediately. The condemned-depraved Brahmn is not entitled to the offerings meant for the Brahmns who are well versed-enlightened in Veds. Hawan-Yagy is not performed in ashes. Its always done in blazing fire.
अपाङ्क्तदाने यो दातुर्भवत्यूध्र्वं फलोदयः।
दैवे हविषि पित्रये वा तत्प्रवक्ष्याम्य शेषत:॥3.169॥
पांक्तेय ब्राह्मण को देवकर्म या श्राद्ध में भोजन करने का जो फल होता है, वह सब में अब कहूँगा। Now, I shall describe the impact-result (favourable outcome) of offering food to the eligible-virtuous Brahmn.
अव्रतैर्यद् द्विजैर्भुक्तं परिवेत्त्रादिभिस्तथा।
अपाङ्क्तेयैर्यदन्यैश्च तद्वै रक्षांसि भुञ्जते॥3.170॥
ब्रह्मचर्य से हीन और परिवेत्ता आदि जितने अपांक्तेय ब्राह्मण हैं, उनका किया हुआ भोजन राक्षस के पेट में चला जाता है। The food served to the Brahmn without celibacy, Parivetta (If the elder brother remain unmarried the younger brother is called Parivetta in case he performs Agnihotr.) and the condemned (Brahmns who are not qualified to sit in the Que-row) goes to the stomach of the Rakshas-demons.
दाराग्निहोत्रसंयोगं कुरुते योSग्रजे स्थिते।
परिवेत्ता स विज्ञेयः परिवित्तिस्तु पूर्वजः॥3.171॥
बड़े भाई के रहते यदि छोटा भाई व्याह कर ले और अग्निहोत्र की क्रिया करे तो परिवेत्ता और उसका बड़ा भाई परिवित्ती कहा जाता है। If the younger brother gets married prior to his elder brother and performs Agnihotr, he is called Parivetta and his elder brother is called Parivitti.
परिवित्तिः परिवेत्ता यया च परिविद्यते सर्वे।
ते नरकं यान्ति दातृयाजकपञ्चमा:॥3.172॥
परिवित्ति, परिवेत्ता और जिस कन्या से विवाह होता है, कन्यादान करनेवाला और विवाह में होम करने वाला ये पाँचों नर्क गमी होते हैं। Parivitti-the elder brother who marries after the younger, Parivetta-the younger brother who marries prior to, before the elder, Parivetta's bride, her father-mother and the relatives who are part of donating the bride to the groom and the priest who solemnise such a marriage, all go the hells.
भ्रातुर्मृतस्य भार्यानां योSनुरज्येत कामतः।
धर्मेणापि नियुक्तायां स ज्ञेयो दिधिषुपतिः॥3.173॥
बड़े भाई के मरने पर उसकी स्त्री से धर्मपूर्वक नियोग करने पर यदि कामवश वह उस स्त्री में अनुरक्त हो तो उसे दिधिषुपति कहते हैं। One is called Didhishupati if he indulge in producing a child as per tenants of Dharm-religion through Niyog, but get involved sentimentally.
Niyog Pratha is a tradition which allows producing of children for continuance of the hierarchy-clan through some saint-sage, a Brahmn, who is not a lascivious (कामुक, sexual, passionate) person. This happened in case of both Sury Vansh and Chandr Vansh. Sury Vansh was elongated by Guru Vashishth, while Chandr Vansh continues through Ved Vyas.
परदारेषु जायेते द्वौ सुतौ कुण्डगोलकौ।
पत्यौ जीवति कुण्ड: स्यान्मृते भर्तरि गोलकः॥3.174॥
परस्त्रियों में कुण्ड और गोलक दो पुत्र उत्पन्न होते हैं। जिसका स्वामी जीता है, उस स्त्री दूसरे पुरुष द्वारा उत्पन्न पुत्र कुंड कहलाता है; जबकि पति के मरने के बाद अन्य पुरुष से उत्पन्न पुत्र गोलक कहलाता है। Kund is the illegitimate son produced by a woman through someone else while her husband is alive and Golak is the son produced illegitimately by a woman through someone else after the death of her husband.
तौ तु जातौ परक्षेत्रे प्राणिनौ प्रेत्य चेह च।
दत्तानि हव्यकव्यानि नाशयेते प्रदायिनाम्॥3.175॥
परस्त्रियों से उत्पन्न ये दोनों पुत्र (कुण्ड और गोलक) दाताओं के दिये हुए हव्य-कव्य को नष्ट करते हैं। इस लोक में या परलोक में कहीं भी दाता को फल नहीं मिलता। These two types of sons, Kund & Golak produced illegitimately by one through other women leads to loss of pious result-rewards in the present & the next several births for, giving Dakshina, gifts, money, donations to virtuous Brahmans, while preforming sacrifices, serving food for the sake of Manes.
अपाङ्तक्यो यावतः पाङ्तक्यान् भुञ्जा नाननुपश्यति।
तावतां न फलं तत्र दाता प्राप्नोति बालिशः॥3.176॥
पांक्तेय ब्राह्मणों को श्राद्ध में भोजन करते समय, जितने अपांक्तेय ब्राह्मणों की दृष्टि पड़ती है, श्राद्धकर्त्ता को उतने ब्राह्मणों को भोजन कराने का फल नहीं मिलता। The household do not get return-reward for serving food to the virtuous Brahmns to the extant-tune of the number of those non deserving Brahmns who witness-see the deserving-virtuous Brahmns being served food for the demigods-deities during Shraddh-homage ceremony.
पांक्तेय ब्राह्मण :: वे ब्राह्मण जो पंक्ति में बैठाकर श्राद्ध या देवकर्म में भोजन करने योग्य हों। The virtuous deserving Brahmns who are served food during the prayers dedicated to demigods-deities of the Shraddh-homage ceremony.
वीक्ष्यान्धो नवतेः काण: षष्टे: श्वित्री शतस्य तु।
पापरोगी सहस्त्रस्य दार्तुनाशयते फलम् ॥3.177॥
श्राद्ध में भोजन करने वाला एक अन्धा 90 सद्ब्राह्मणों को काना 60 ब्राह्मणों, श्वेतकुष्ठ वाला 100 ब्राह्मणों को और पाप रोगी दाता के 1,000 ब्राह्मणों को खिलाने का फल नाश कर देता है। The virtuous-auspicious impact of feeding pious Brahmns is lost by feeding blind, who spoils the piousness equal to 90 virtuous Brahmns, a boss-eyed (one-eyed, single eyed) spoils the purity equivalent to 60 Brahmns, one with leprosy equal to 100 and a sinner equal to 1,000 Brahmns.
यावतः संस्पृशेदङ्गैर्ब्राह्मणाञ्छूद्रयाजक:।
तावतां न भवेद्दातु: फलं दानस्य पौर्तिकम्॥3.178॥
शूद्रों का यज्ञ कराने वाला विप्र जितने ब्राह्मणों को अपने शरीर से स्पर्श करता है, उतने ब्राह्मणों को भोजन करने का पूरा फल श्राद्धकर्त्ता को नहीं मिलता। The household performing homage ceremony losses the piousness-reward equivalent to as many Brahmns as are served food to those who are touched by a Brahmn who organise Yagy-sacrifices in fire for the Shudr.
वेदविच्चापि विप्रोSस्य लोभात् कृत्वा प्रतिग्रहम्।
विनाशं व्रजति क्षिप्रमामपात्रमिवाम्भसि॥3.179॥
वेद जानने वाला ब्राह्मण यदि लोभ से शूद्र के पुरोहित का दान ले लेता है तो वह पानी में डाले हुए मिट्टी के कच्चे घड़े की तरह नष्ट हो जाता है। If a Brahmn learned in the Veds, accepts the donation-gifts from a person who acts as the priest of a Shudr will perish like the unbaked pitcher made of clay, due to covetousness-greed.
सोमविक्रयिणे विष्ठा भिषजे पूयशोणितम्।
नष्टं देवलके दत्तमप्रतिष्ठं तु वार्धुषौ॥3.180॥
सोमरस बेचने वाले को दिया हुआ श्राद्धान्न विष्ठा और वैद्य को दिया हुआ दान पीब लहू होकर प्राप्त होता है। देवांश भोजी को दिया हुआ दान नष्ट हो जाता है और सूदखोर को दान देने से कोई फल नहीं मिलता। The sacrificial food served to the seller of Some Ras (a tonic that energise the demigods) turns into faeces, food served to Vaedy-Ayur Ved physician turns into pus mixed with impure-contaminated blood, donation to priest in the temple who consumes the gifts meant for the demigods-deities is lost and there is no use donating to one who earns interest over his money by lending it. These are categories of Brahmns who are engaged in such trades-practices.
यत्तु वाणिजके दत्तं नेह नामुत्र तद्भवेत्।
भस्मनीव हुतं तथा पौनर्भवे द्विजे॥3.181॥
वणिक्वृत्ति से जीने वाले को श्राद्धान्न खिलाने से इहलोक और परलोक दोनों में कुछ महीन फल मिलता है। पुनर्विवाहिता स्त्री के पुत्र को दिया हुआ हव्य भी भस्म में डाली हुई आहुति के तुल्य निष्फल होता है। The sacrificial food served to one who is engaged in trading-selling goods meant for homage to the Manes does not serve any purpose in the present or the next births. The food offered to the son of a woman who has married again is lost like the oblation-sacrifices made in the ashes.
इतरेषु वतपंक्त्येषु यथाद्दिष्टेष्वसाधुषु।
मे दो सृङ्मांसमज्जास्थि वदन्त्यन्नं॥3.182॥
अन्य अपांक्तेय और नीच वृत्ति वाले ब्राह्मण त्याज्य कहे गए हैं, उन्हें श्राद्धादि में दिया हुआ अन्न दाता के जन्मान्तर में मेद, मांस, रक्त, मज्जा और हड्डी होता है, ऐसा पण्डित लोग कहते हैं। The food served to the non deserving Brahmns with bad-sinful tendencies-instincts turns into adipose, fats, tissue, blood, boons meat-flash in various next incarnations in their body.
The food offered to any one should be free from bias & contempt. It should be done-served happily without expecting any return.
The food should be able to satisfy the appetite of the hungry, needy be him a beggar or else.
अपांक्त्योपहता पंक्तिः पाव्यते यैर्द्विजोत्तमै:।
तान्निबोधत कात्स्न्र्येन द्विजाप्रयान् पङ्क्तिपावनान्॥3.183॥
अपांक्तियों से दूषित पंक्ति जिन श्रेष्ठ ब्राह्मणों से पवित्र होती है, उन पंक्तिपावन ब्राह्मणों का परिचय सुनिये।Now, let me describe the characterises of the virtuous Brahmns who are capable of sanctifying-purifying the impure row-place occupied by the sinner, bad-unworthy Brahmns.
अग्रया: सर्वेषु वेदेषु सर्वप्रवचनेषु च।
श्रोतियान्व्यजांश्चैव विज्ञेया: पंक्तिपावना:॥3.184॥
जो षडङ्ग सहित चारों वेदों में अग्रगण्य हों, श्रोत्रिय के वंश में जिनका जन्म हो, उन्हें पंक्तिपावना जानना चाहिये। One who is ahead & has learnt the 6 organs of the Veds as well as 4 Veds and is born in the family of those who learn just by hearing are termed as Shrotriy-pure for constituting the rows of Brahmns fit for serving the sacred food meant for Manes, demigods, deities.
त्रिणाचिकेत: पंचाग्निस्त्रीसुपर्ण: षडङ्गवित्।
ब्रह्मदेयात्मसन्तानो ज्येष्ठसामग एव च॥3.185॥
त्रिणाचिकेन (अर्थात यजुर्वेद को पढ़कर उसमें कहे हुए व्रत को किया है) और अग्निहोत्र, त्रिसुपर्ण (ऋग्वेद का ज्ञाता या तदुक्त व्रत का व्रती) शिक्षा आदि छः अंगों का ज्ञाता तथा उसकी शिक्षा देने वाला, ब्राह्मविवाह से विधिपूर्वक ब्याही हुई स्त्री के गर्भ से उत्पन्न और आरण्यक उपनिषदों में गीयमान सामवेद का गाने वाला; ये छः पंक्तिपावन हैं। (1). Trinachiken-one who had learnt Yajur Ved and observe the fasts described in it, (2). who keeps five sacred fires for carrying out Agnihotr sacred sacrifices in sacred fire, (3). Trisuparn, one who is well versed in Rig Ved, (4). follows the fasts described in it along with being the scholar of 6 Ang-organs of education and teaches them simultaneously, (5). born out of the wedding performed as per Brahmn process and (6). sings the songs-verses listed in Arnayak Upnishad of Sam Ved; is qualified to sit in the rows of Virtuous Brahmns for sacred feast of Homage to Manes, demigods-deities.
वेदार्थवित् प्रवक्ता च ब्रह्मचारी सहस्रदः।
शतायुश्चैव विज्ञेया ब्राह्मणा: पंक्तिपावना:॥3.186॥
वेद का अर्थ जानने वाला, वेदवक्ता, ब्रह्मचारी, सहस्त्रों गौओं का दान करने वाला और सौ वर्ष का वृद्ध ब्राह्मण; ये सभी पंक्तिपावन हैं। The Brahmn who knows the gist-meaning-explanation of the Veds, who explains-teaches-elaborate the content of Veds, a celibate, one who has donated thousands of cows and the one who has completed 100 years of age are qualifies to sit in the rows meant for the serving of the sacred-virtuous food.
पूर्वेद्यु रपरेद्युर्वा श्राद्धकर्मण्युपस्थिते।
निमन्त्रयेत त्र्यवरान्सम्यग्विप्रान् यथोदितान्॥3.187॥
श्राद्धकर्म उपस्थित होने पर, श्राद्ध के पहले दिन या उसी दिन पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त 3 ब्राह्मणों को विनयपूर्वक निमन्त्रण दे। One should invite 3 Brahmns having above mentioned characteristics a day before the occasion of Shraddh or on the same day with due respect, politely.
निमन्त्रितो द्विजः पित्र्ये नियतात्मा भवेत्सदा।
न च छन्दांस्यधीयीत यस्य श्राद्धं च तद्भवेत्॥3.188॥
श्राद्ध में निमंत्रित ब्राह्मण (निमन्त्रण पाने के समय से) संयतेन्द्रिय होकर रहे। नित्य के कर्म जपादि के अतिरिक्त अन्य वेदपाठ ने करे। श्राद्धकर्त्ता भी इस नियम का पाकलन करे। From the very moment the Brahmn has received an invitation for the homage ceremony of the Manes, he should restrict himself from the passions, control himself and perform daily routine including recitation of prayers excluding the study-reading of Veds.
निमन्त्रितान् हि पितर उपतिष्ठन्ति तान्द्विजान्।
वायुवच्चानुगच्छन्ति तथासीनानुपासते॥3.189॥
उन निमन्त्रित ब्राह्मणों में पितर गुप्त रुप से निवास करते हैं। प्राणवायु की भाँति उनके चलते समय वे चलते और बैठते हैं। The Manes occupy the physique of the invited Brahmns and reside in them secretly. They move or sit like the breath vital along with them.
केतितस्यु यथान्यायं हव्यकव्ये द्विजोत्तमः।
कथञ्चिदप्यतिक्रामन् पापः सूकरतां व्रजेत्॥3.190॥
देवकर्म या पितृकर्म में निमन्त्रित ब्राह्मण निमन्त्रण स्वीकार करके किसी कारण से यदि भोजन न करे तो उस पाप के कारण वह जन्मान्तर में सूअर होता है। If the Brahmn fails to turn up for accepting the sacred food for the purpose of offerings to the Manes, deities or the demigods due to one or the other reason he will be subjected to became a pig-hog in next birth by virtue of this sin.
आमन्त्रितस्यु यः श्राद्धे वृषल्या सह मोदते।
दातुर्यद् दुष्कृतं किञ्चित्तत्सर्वं प्रतिपद्यते॥3.191॥
यदि श्राद्ध में निमन्त्रित ब्राह्मण शूद्रा के साथ विहार करता है, तो वह श्राद्धकर्त्ता के किये सभी पापों को स्वयं भोगता है। The Brahmn who has been invited for participating in the homage ceremony for accepting the sacred food for the Manes indulges in passions with a Shudr woman, he invariably brings all the sins of the host over him.
अक्रोधना: शौचपरा: सततं ब्रह्मचारिण:।
न्यस्तशस्त्रा महाभागाः पितर: पूर्वदेवताः॥3.192॥
क्रोध रहित, अन्तर्वहि शुद्धि से युक्त, सर्वदा ब्रह्मचारी, न्यस्त शस्त्र इत्यादि गुणों से युक्त अनादि देवतारूप पितर होते हैं। The Manes are eternal-primeval deities, free form anger, internal purity, chastity-celibacy, averse from strife and endowed with great virtues.
यस्मादुत्पत्तिरेतेषां स्तेषामप्यशेषत:।
ये च यैरुपचर्याः स्युर्नि मैस्तान्निबोधत॥3.193॥
जिसके द्वारा सब पितरों की उतपत्ति हुई है, जो पितर हैं, निज नियमों से उनकी उपचर्या करनी चाहिये, यह सब विषय अब सुनिये। Now, listen to how these Manes evolved, those who are Manes-Pitre, how they ought to be worshipped.
मनोर्हैरण्यगर्भस्य ये मरीच्यादय: सुताः।
तेषामृषीणां सर्वेषां पुत्राः पितृगणा: स्मृता:॥3.194॥
हिरण्यगर्भ के पुत्र मनुजी के जो मरीचि आदि पुत्र हैं, उन सब ऋषिओं के पुत्र ही पितर कहे गए हैं। The sons of Marichi etc. sages-Rishis are called Pitre-Manes. Sages like Marichi evolved from Manu who in turn evolved from Hirany Garbh.
विराटसुताः सोमसद: सध्यानां पितरः स्मृता।
अग्निष्वात्ताश्च देवानां मारीचा लोकविश्रुताः॥3.195॥
विराट के पुत्र सोमसद साध्यगण के पितर हैं। मरीचि के प्रसिद्ध पुत्र अग्निष्वाता देवताओं के पितर हैं। Somsad-the sons of Virat, are the Manes of Sadhygan. Agnishvata the famous sons of Marichi are the Manes of demigods.
दैत्यदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्।
सुपर्ण किन्नराणां च स्मृता बर्हिषदोSत्रिजा:॥3.196॥
अत्रि के पुत्र बर्हिषद दैत्य, दानव, यक्ष, गंदर्भ, नाग, राक्षस, सुपर्ण और किन्नरों के पितर हैं।Barhishad-the sons of Atri, are the Manes of Giants, Demons, Yaksh, Gandarbh, Rakshas, Suparn and Kinnars.
सोमपा नाम विप्राणां क्षत्रियाणां हविर्भुजः।
वैश्यानामाज्यपा: पुत्रा वशिष्ठस्य तु सुकालिनः॥3.197॥
ब्राह्मणों के पितर सोमप, क्षत्रियों के हविष्मन्त, वैश्यों के आज्यप और शूद्रों के सुकलिन हैं। Somap are the Manes of Brahmns, Havishmant are the Manes of Kshatriy, Ajyap are the Manes of Vaeshy and Suklin are the Manes of Shudr.
सोमपास्तु कवेः पुत्रा हविष्मन्तोSङ्गिर: सुता:।
पुलस्त्यस्याज्यपा: पुत्रा वशिष्ठस्य सुकालिनः॥3.198॥
सोमप भृगु के, हविष्मन्त अङ्गिरा के, आज्यप पुलस्त्य के और सुकालिन वशिष्ठ के पुत्र हैं। Somap are the sons of Bhragu, Havishmant are the sons of Angira, Ajyap are the sons of Pulasty and Sukalin are the sons of Vashishth.
अग्निदग्धानग्निदग्धान् काव्यान् बर्हिषदस्तथा।
अग्निष्वात्तांश्च सौम्यांश्च विप्राणामेव निर्दिशेत्॥3.199॥
अग्निदध, अनग्निग्ध, काव्य, बर्हिषद, अग्निष्वात्ता और सौम्य ये ब्राह्मणों के पितर हैं। Agnidadh, Anagnidadh, Kavy, Barhishad, Agnishvatta and Somy are the Pitre-Manes of the Brahmns.
य एते तु गणा मुख्याः पितृणां परिकीर्तितता:।
तेषामपीह विज्ञेयं पुत्रपौत्रमनन्तकम्॥3.200॥
पितरों के जो इतने मुख्य गण हैं और उनके भी असंख्य पुत्र पौत्रादि हैं। These major tranches of the Manes have numerous sons and grandsons.
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितृभ्यो देवमानवाः।
देवेभ्यस्तु जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥3.201॥
ऋषियों से पितर, पितरों से देवता और मनुष्य उत्पन्न हुए हैं। देवताओं से यह सारा चराचर जगत् क्रम से उत्पन्न हुआ है।The Pitre-Manes evolved from the sages-Rishis, the demigods and the humans evolved from the Manes and the entire universe then evolved from the demigods sequentially, (both the movable and the immovable in due order).
राजतैर्भाजनैरेषामथो वा राजतान्वितै:।
वार्यपि श्रद्धया दत्तमक्षयायोपकल्पते॥3.202॥
इन पितरों को चाँदी के बर्तन में या चाँदी मिले ताँबे के पात्रों में श्रद्धा से दिया हुआ जल अक्षय सुख के लिये होता है। The water offered to the Manes in the pots made of either Silver or an alloy of Silver & copper grants permanent-endless bliss to one who has organised the Shraddh ceremony in remembrance of his ancestors, clan, deceased elders.
देवकार्याद् द्विजातीनां पितृकार्यं विशिष्यते। दैवं हि
पितृकार्यस्य पूर्वमाप्यायं श्रुतम्॥3.203॥
द्विजातियों का देवकर्म से पितृकर्म विशेष है, क्योंकि देवकर्म पितृकर्म का ही सदा परिपूरक कहा गया है। For the Upper castes, the Homage to the Manes is important-significant, since the prayers offered to the demigods-deities are complementary of sacrifices offered to the Manes.
तेषामारक्षभूतं तु पूर्वं दैवं नियोजयेत्।
रक्षांसि हि विलुम्पन्ति श्राद्धमारक्षवर्जितम्॥3.204॥
उन पितरों के रक्षास्वरूप दैवकर्म-वैश्र्वदेव, पहले श्राद्ध को, रक्षा रहित होने पर राक्षस लोप कर देते हैं। If the offerings meant for the sacrifices to the Manes-demigods, during the Homage-Shraddh ceremony are unprotected, they are removed-taken over by the Rakshas-demons.
दैवाद्यन्तं तदीहेत पित्राद्यन्तं न तद्भवेत्।
पित्राद्यन्तं त्वीहमान: क्षिप्रं नश्यन्ति सान्वय:॥3.205॥
श्राद्धकर्म का आदि और अन्त भी देवकर्म से ही करें, पित्राद्यन्त न करें। पित्राद्यन्त जो श्राद्ध करता है, वह सवंश नष्ट होता है। The beginning and termination of the Pitre Karm-Shraddh should accompany prayers to the deities-demigods, failing which the doer meets the end of his dynasty, clan, hierarchy. The rites pertaining to the Manes should come in between the prayers to the demigods-deities.
पित्राद्यन्त :: beginning and ending with a rite to the Pitṛ-Manes during Shraddh.
शुचिं देशं विविक्तं च गोमयेनोपलेपयेत्।
दक्षिणाप्रवणं चैव प्रयत्नेनोपपादयेत्॥3.206॥
श्राद्ध का स्थान पवित्र और निर्जन हो। उसे गोबर से लीप दें। पिण्ड स्थान ऐसा बनाना चाहिए कि वह दक्षिण दिशा की ओर ढ़लाव लिये हुए हो। The place selected for the homage should be pure-pious and located at an uninhibited, secluded, isolated place. The floor for the purpose of Shraddh should be coated-pasted with Gobar-cow dung. It should be there in the South direction, having a slope (5 degrees or slightly less).
Cow dung has anti bacterial, anti fungal properties due to the presence of multiple enzymes in the stomach of the cow. Cow is sacred and should never be killed or eaten by the human beings. Its urine, dung, Ghee, curd, milk, butter milk are too good for human health & hygiene.
लीपना :: लिप्त करना, पोतना, सानना, आवरण, लेप करना, pasted, coat, slake.
अवकाशेषु चोक्षेषु नदीतीरेषु चैव हि।
विविक्तेषु च तुष्यन्ति दत्तेन पितरः सदा॥3.207॥
उपवन या वन की पवित्र भूमि में या नदी तट या निर्जन स्थान में पिण्डदान आदि से पितर सदा संतुष्ट होते हैं। The Manes feels satisfied, contaminated, pleased if the lobs of dough of wheat or barley are made-prepared and donated over the pious land of a secluded place, river bank, in an orchard, garden.
DOUGH :: लोई, गुंथा हुआ आटा, साना हुआ गौला आटा, आटे के पिण्ड; plaid.
आसनेषुपक्लृप्तेषु बर्हिष्मत्सु पृथक्पृथक्।
उपस्पृष्टोदकान् सम्यग्विप्रांस्तानुपवेशयेत्॥3.208॥
सम्यक् प्रकार से स्नान और आचमन किये हुए उन निमन्त्रित ब्राह्मणों को पृथक-पृथक कुशासन पर बैठावे। The sacrificer should offer separate seats (mats, cushion), made of Kush grass to the invited Brahmns, who have performed their daily rites-oblations, after bathing and dropping water over the ground along with the recitation of Mantr.
उपवेश्य तु तान्विप्रानासनेष्वजुगुप्सितान्।
गन्धमाल्यै: सुरभिभिरर्चयेद् देवपूर्वकम्॥3.209॥
उन ब्राह्मणों को आसन पर बैठाकर चन्दन, माला और धूप आदि से देवपूर्वक पूजन करे। पहले वैश्वदेव निमित्तक और पीछे पितर निमित्तक। Once the Brahmns have occupied their seats, the household should use sandal wood paste, rosary and incense to perform prayers dedicated to the demigods-deities by first performing Vaeshv Dev followed by the the worship of the Pitres-Manes.
वैश्व देव :: वह होम या यज्ञ आदि जो विश्वदेव के उद्देश्य से किया जाय इसमें केवल पके हुए अन्न से विश्व-देव के उद्देश्य से आहुति दी जाती है और ब्राह्मणों को भोजन कराने को आवश्यकता नहीं होती है। यह उत्तराषाढा नक्षत्र में विश्वदेव को प्रसन्न करने के उद्देश्य से किया जानेवाला यज्ञ है। पंच महायज्ञों मे से भूत यज्ञ नाम का चौथा महायज्ञ। सूक्ष्म, दिव्य जितने भी प्राणी या देव, सबों को तृप्त करने की भावना से भोज्य सामग्री की हवि प्रदान करना ही भूत या वैश्य देव यज्ञ है। इससे व्यक्ति का हृदय और आत्मा विशाल होकर अखिल विश्व के प्राणियों के साथ एकता सम्मिलित का अनुभव करने में होता है।
वैश्व देव विधि :: अग्निकुंडमें ‘रुक्मक’ अथवा ‘पावक’ नामक अग्निकी स्थापना कर अग्नि का ध्यान करें। अग्निकुंड के चारों ओर छः बार जल घुमाकर अष्ट दिशाओं को चंदन-पुष्प अर्पित करें तथा अग्नि में चरु की (पके हुए चावलों की) आहुति दें। तदुपरांत अग्नि कुंड के चारों ओर पुनः छः बार जल घुमाकर अग्नि की पंचोपचार पूजा करें तथा विभूति धारण करें।
उपवासके दिन बिना पके चावलकी आहुति दें (उपवास के दिन चावल पकाए नहीं जाते; इसलिए आहुतियाँ चरू की न देकर, चावल की देते हैं)।
अत्यधिक संकट काल में केवल उदक-जल, से भी (देवताओं के नामों का उच्चारण कर ताम्र पात्र में जल छोडना), यह विधि कर सकते हैं।
यदि यात्रा में हों, तो केवल वैश्वदेव सूक्त अथवा उपरोक्त विधि के मौखिक उच्चारण मात्र से भी पंच महायज्ञ का फल प्राप्त होता है।
तेषामुदकमानीय सपवित्रांस्तिलानपी।
अग्नौ कुर्यादनुज्ञातो ब्राह्मणो ब्राह्मणै: सह॥3.210॥
उन ब्राह्मणों को तिल और कुश से अर्ध्य देकर, उनसे आज्ञा लेकर, श्राद्धकर्त्ता अग्नि में मन्त्र पूर्वक होम करे। The host should give sesame seeds and Kush grass to the Brahmns-Purohit, seek their permission and perform Agnihotr-sacrifices in holy fire, along with the recitation of sacred rhymes.
अग्ने: सोमयमाभ्यां च कृत्वाप्यायनमादित:।
हविर्दानेन विधिवत् पश्चात्सन्तर्पयेत्पितृन्॥3.211॥
पहले अग्नि, सोम और यम के निमत्त विधि पूर्वक पर्युक्षण करके हविष्य देकर पीछे पिण्डदानादि से पितरों को तृप्त करे। The host should first sprinkle water for the sake of deities named Fire, Moon and Yam, make offerings to them with sacrificial food, gifts and then satisfy the Manes.
पर्युक्षण :: सींचना, श्राद्ध, होम, पूजा आदि के बिना मंत्र पढ़े छिड़का जानेवाला जल।
पर्युक्षणी :: पर्युक्षण के लिए जल से भरा पात्र।
अग्न्यभावे तु विप्रस्य पाणावेवोपपादयेत्।
यो ह्यग्निः स द्विजो विप्रैर्मन्त्रदर्शिभिरुच्यते॥3.212॥
अग्नि के अभाव में ब्राह्मण के हाथ में ही पूर्वोक्त देवताओं के निमित्त आहुति दे। वेद मन्त्र के तत्वदर्शियों ने ब्राह्मण और अग्नि को एक ही कहा है। In the absence of fire, the host should present the offerings in the hands of the Brahmn, since those who know the gist have recognised the fire and the Brahmns as one.
अक्रोधन्नासुप्रसादान्वदन्त्येतान्पुरातनान्।
लोकस्याप्यायने युक्ताञ्छ्राद्धदेवान्द्विजोत्तमान्॥3.213॥
जो क्रोध रहित, प्रसन्न मुख और लोकोपकार में निरत हैं, ऐसे ब्राह्मणों को मुनियों ने श्राद्ध के लिये देवतुल्य कहा है। Those Brahmns who never get angry, remain happy & are devoted to the welfare of the society; have been considered by the sages to be equivalent to the demigods for the purpose of sacrifices-offering pertaining to Shraddh-homage to the Manes..
अपसव्यमग्नौ कृत्वा सर्वमावृत्य विक्रमम्।
अपसव्येन हस्तेन निर्वपेदुदकं भुवि॥3.214॥
पितृकर्म के आरम्भ में देवताओं के निमित्त, अपसव्य-जनेऊ को दाहिने कंधे पर रखकर, अग्नि में होम करे। इसके बाद दाहिने हाथ से पिण्ड रखने जगह में जल का प्रक्षेप करे। One should keep the sacred tread over his right shoulder prior to beginning of the Hawan-sacrifice in holy fire & then sprinkle holy water over the pious place, meant for keeping the flour lobs with his right hand.
त्रींस्तु तस्माद्धविः शेषात्पिण्डान्कृत्वा समाहितः।
औदकेनैव विधिना निर्वपेद्दक्षिणामुखः॥3.215॥
इसके बाद एकाग्रचित्त होकर होम से बचे हुए अन्न के तीन पिण्ड बनाये। उन पिण्डों को उदक-जल से विधि पूर्वक अभिषिक्त करके दक्षिण दिशा में मुँह करके उन पिण्डों को उनके स्थान पर रख दे। Now, one should concentrate his mind in the Almighty and make three lobes of the remaining-unused flour-dough. He should sprinkle holy-sacred water over them and place them at proper place, facing South direction.
यजमान :: यज्ञ करने वाला, परिवार या जाति का मुखिया, ब्राह्मण को भरण-पोषण के लिए अन्न आदि देने वाला; host, sacrificer.
न्यूप्य पिण्डांस्ततस्तांस्तु प्रयतो विधिपूर्वकम्।
तेषु दर्भेषु तं हस्तं निमृज्याल्लेपभागिनाम्॥3.216॥
उन पिण्डों को विधिपूर्वक कुशों पर रखकर कुशों के मूल में लेप भाग पितरों की तृप्ति के लिये रखकर अपना हाथ पोंछ लें। Having placed the lobs of dough systematically-as per procedure laid down in the scriptures, in the roots of the Kush grass, the host should wipe his hand with the Kush grass.
आचम्योदक्परावृत्य त्रिराचम्य शनैरसून्।
षड्ऋतूंश्च नमस्कुत्र्यात्पितृणेव च मन्त्रवित्॥3.217॥
इसके बाद आचमन कर उत्तराभिमुख तीन बार प्राणायाम करके छः ऋतुओं को और पितरों को नमस्कार करे। Next to it the host should sip a little water thrice and perform inhaling and exhaling air into the lungs, facing North and pray-bow to six seasons and the Pitre-Manes.
उदकं निनयेच्छेषं शनैः पिण्डान्तिके पुनः।
अवजिघ्रेच्च तान्पिण्डान्यथान्यूप्तान्समाहित:॥3.218॥
पिण्डदान के पहले भूमि पर जल छोड़ने के पश्चात् बचे हुये जल को पुनः प्रत्येक पिण्ड के समीप छोड़े और उन पिण्डों को जिस क्रम से जल दिया हो उसी क्रम से एक-एक सूंघे। The sequence in which the lobs of dough were donated has to be maintained while the water was released to the lobs of dough over the ground and the remaining water has to be poured in the same sequence and thereafter the lobs have to be smelled in the same sequence.
पिण्डेभ्यस्त्वल्पिकां मात्रां समादायानुपूर्वशः।
तेनैव विप्रानासीनान्विधिवत्पूर्वमाशयेत्॥3.219॥
पिण्डान्न से थोड़ा-थोड़ा भाग लेकर, भोजन के पूर्व उन आमन्त्रित (पितृ, पितामह, प्रपितामह रूप) ब्राह्मणों को यथाक्रम खिलावे। A bit of the food meant for the sacrificial acts should be taken from each of the categories-articles and be served to the invited Brahmns, for the sake of the Pitres (considering them to represent the father, grandfather and great grandfather till at least 7 generations) as per system-hierarchy.
ध्रियमाणे तु पितरि पूर्वेषामेव निर्वपेत्।
विप्रवद्वाSपि तं श्राद्धे स्वकं पितरमाशयेत्॥3.220॥
यदि पिता जीवित हों तो पितामहादि का श्राद्ध करे और उन्हीं को पिण्ड दे और जीवित पिता को ब्राह्मणों के स्थान में भोजन करावे। If the father is alive, one should perform the Shraddh-homage for the sake of grandfather etc. and serve food to his father in place of the Brahmns.
Normally, the grandson is not entitled to perform the Shraddh till father is alive. But under exceptional circumstances when father is seriously ill-critical, mentally unsound, physically incapable, then its the grandson who has to do it.
पिता यस्य निवृत्त: स्याज्जीवेच्चापि पितामह:।
पितुः स नाम सङ्कीर्त्य कीर्तयेत्प्रपितामहम्॥3.221॥
जिसका पिता मर गया हो और पितामह-दादा/बाबा जीवित हो वह पितामह को छोड़कर पिता और प्रपितामह का श्राद्ध करे। If the father has died and the grandfather is alive, one should preform Shraddh for the sake of the father and the great grandfather.
पितामहो वा तच्छ्राद्धं भुञ्जीतेत्यब्रवीन्मनुः।
कामं वा समनुज्ञातः स्वयमेव समाचरेत्॥3.222॥
श्राद्ध में पिता को खिलाने की जो विधि कही गई है उसी विधि से पितामह जीता हो तो उसे भी खिलावे अथवा पितामह अपने लिये जो आज्ञा दे वही करे ऐसा मनु ने कहा है। Manu has said that one should serve the same food to his grand father, if he is alive that is being offered to his father or he should arrange for the food as is being desired by the grandfather.
This is an exceptional situation when both father and grandfather are alive and the grandson is performing sacred rites pertaining to Shraddh. This is possible only when both are incompetent.
तेषां दत्त्वा तु हस्तेषु सपवित्रं तिलोदकम्।
तत्पिण्डाग्रं प्रयच्छेत स्वधैषामस्त्विति ब्रुवन्॥3.223॥
उन ब्राह्मणों के हाथों में पवित्र कुश सहित तिलोदक देकर पूर्वोक्त पिण्डों में से थोड़ा उन्हें दे।One should put pious, pure, clean Kush grass in the pit formed by holding the two hands together by the Brahmns and give them sesame seeds called Tilodak along with the pieces of lobs for the sacrifice.
तिलोदक Tilodak :: तिलांजली अर्थात वह तिल मिला अँजुली भर जल जो मृतक के उद्देश्य से दिया जाता है; process of disconnecting one from the departed soul by keeping sesame seeds in the pit formed by joining the two hands.
अँजुली :: करसंपुट, चुल्लू, ओक, अंजुरी, अंजलि दोनों हथेलियों को ऊपर की ओर जोड़ने से बनने वाला गड्ढा जिसमें पानी या कोई वस्तु भरकर दी जाती है; the pit formed by joining the two hands.
पाणिभ्यां तूपसंग्रह्य स्वयन्नस्य वर्धितम्।
विप्रान्तिके पितृरं ध्यायञ्शनकैरुपनिक्षिपेत्॥3.224॥
भोजन की सामग्रियों से भरे पात्र को दोनों हाथों से धीरे-धीरे लाकर पितरों का ध्यान करता हुआ ब्राह्मणों के समीप रख दे। One should bring the pots-utensils full of the food meant for the Pitre, slowly and keep them near the Brahmns remembering the Pitres-Manes, forefathers.
उभर्योहस्तयोर्मुक्तं यदन्नमुपनीयते।
तद्विप्रलुम्पन्त्यसुराः सहसा दुष्टचेतसः॥3.225॥
परोसने के लिये जो अन्न एक हाथ से लाया जाता है, उसे दुष्ट बुद्धि राक्षस सहसा हरण कर लेते हैं। The food which is brought for serving with one hand is snatched instantaneously by the malevolent-wicked demons, Rakshas.
MALEVOLENT :: द्रोही, अशुभचिंतक, बदख़्वाह, दुर्भावनापूर्ण, अपकारी, दुष्ट, कुबुद्धि, बद; malevolent, deceitful, perfidious, evil, rogue, nasty, felonious, depraved, patchy, scratchy, scathing, malicious, harmful, malign.
गुणांश्च सूपशाखाद्यान् पयो दधि घृतं मधु।
विन्यसेत् प्रयतः पूर्वं भूमावेव समाहितः॥3.226॥
पहले अचार, चटनी, रायता आदि व्यञ्जन, सूप, शाकादि तथा दूध, दही, घी और मधु आदि पदार्थ यत्नपूर्वक सावधानी से भूमि पर ही लेकर रखें। Various eatables like pickles, chutney, rayta-curd milk, soup, vegetables, milk, ghee-clarified butter, honey etc. should be placed carefully over the ground.
भक्ष्यं भोज्यं च विविधं मूलादि च फलानि च।
हृद्यानि चैव मांसांनि पानानि सुरभिणि च॥3.227॥
विविध प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, फल, मूल, रोचक मांस और सुगन्धित जलादि, ये सब चीजें भी रखें। Various kinds of eatables (foods, edible, esculents), fruits, roots, savoury meat and scented water should be kept ready.
उपनीय तु तत्सर्वं शनकैः सुसमाहितः।
परिवेषयेत् प्रयतो गुणान् सर्वान् प्रचोदयन्॥3.228॥
बड़ी सावधानी से भोजन की सब वस्तुएँ लाकर उनके गुण वर्णन करते हुए परोसे। One should bring all items of the dishes, food, eatables and serve them describing their characteristic-qualities to the guests-Brahmns invited for Shraddh-homage to the Pitre-Manes.
नास्त्रमापातयज्जातु न कुप्येन्नानृतं वदेत्।
न पादेन स्पृशेदन्नं न चैतदवधूनयेत्॥3.229॥
ब्राह्मण भोजन के समय कदापि आँसू न गिरावे, क्रोध न करे, झूँठ न बोले, पैर से अन्न को न छुये और न उसे परोसते हुए हिलावे। One-the Brahmn should not shed tears, become angry, speak untruth, do not touch the food with feet or shake it.
अस्त्रं गमयति प्रेतान् कोषोSरीननृतं शुनः।
पादस्पर्शस्तु रक्षांसि दुष्कृतीनवधूननम्॥3.230॥
आँसू गिराने से श्राद्धान्न भूतों को, क्रोध करने से शत्रुओं को, झूँठ बोलने से कुत्तों को, पैर छुआने से राक्षसों को और उछालने से पापियों को प्राप्त होता है। Weeping sends the food to evil spirits, anger sends it to enemies, telling lies sends it to dogs, touching it with feet sends it to demons-Rakshas and hurling it sends it to sinners.
यद्यद्रोचेत विप्रेभ्यस्तत्तद्दद्यादमत्सरः।
ब्रह्मोद्याश्च कथाः कुर्यात्पितदृणामेतदीप्सितम्॥3.231॥
ब्राह्मणो को जो वस्तु अच्छी लगे वह प्रसन्न होकर उन्हें देवें। परमात्मा के सम्बन्ध की कथा-वार्ता करें; क्योंकि पितरों को यही कथा प्रिय लगती है। Gift-donate the goods liked by the Brahmns happily and listen to the story pertaining to the Almighty since its the only story which is liked by the Pitre-Manes.
स्वाध्यायं श्रावयेत्पित्र्ये धर्मशास्त्राणि चैव हि।
आख्यानानीतिहासांश्च पुराणानि खिलानि च॥3.232॥
श्राद्ध में वेद, धर्मशास्त्र, आख्यान इतिहास (महाभारत आदि), पुराण (ब्रह्म पुराण अदि) और खिल (श्री सुक्तादि) पितरों को सुनावे। The host should narrate-recite the Veds, Dharm Shastr-scriptures, history, epics, Maha Bharat etc., Purans, Khil-Shri Sukt etc. to the Pitres who have occupied the invited Vedic Brahmns.
खिल :: Rig Vedic khilanis, Appendices (परिशिष्ट) explanatory notes pertaining to to the Ṛig Ved are known as Khil or khilanis.
हर्षयेद् ब्राह्मणां सन्तुष्टो भोजयेच्च शनैः शनैः।
अन्नाद्येनासकृच्चैतान् गुणैश्च परिचोदयेत् ॥3.233॥
प्रसन्न होकर ब्राह्मणों को हर्षित करे। उन्हें धीरे-धीरे भोजन करावे। खाद्य पदार्थों के गुणों का वर्णन करते हुए बार-बार उन्हैं लेने के लिये आग्रह करे। One should feel delighted-pleasure in offering the pious food to the Brahmns and request them to accept more of it by explaining the good qualities-characteristics of the food items.
व्रतस्थमपि दौहित्रं श्राद्धे यत्नेन भोजयेत्।
कुतपं चासने दद्यात्तिलैश्च विकिरेन्महीम्॥3.234॥
यदि कन्या का पुत्र ब्रह्मचारी हो तो भी उसे श्राद्ध में यत्नपूर्वक भोजन करावे। नेपाली कम्बल उन्हें बैठने के लिये दे और जिस स्थान पर श्राद्ध करना हो, वहाँ तिलों को छिड़क दे। If the daughter's son is a celibate he should be requested and persuaded to accept the meals meant for the Shraddh and offer him a Nepali blanket for sitting and spread sesame seeds over the place meant for the rites-Shraddh.
त्रीणी श्राद्धे पवित्राणि दौहित्र: कुतपस्तिलाः।
त्रीणि चात्र प्रशंसन्ति शौचमक्रोधमत्वराम्॥3.235॥
दौहित्र, कुतप और तिल, ये तीनों श्राद्ध में पवित्र कहे गये हैं और शौच (पवित्रता) शांतचित्तता तथा स्थिरता, इन तीनों की प्रशंसा की गई है। Daughter's son, Nepali blanket and the sesame seeds are considered pious for the purpose of homage. Piousity, stability and peacefulness are appreciable during the process of Shraddh.
अत्युष्णं सर्वमन्नं स्याद् भुञ्जीरंस्ते च वाग्यताः।
न च द्विजातयो ब्रूयूर्दात्रा पृष्टा हविर्गुणान्॥3.236॥
भोजन के सभी पदार्थ अधिक गर्म रहें और ब्राह्मण मौन हो कर उन पदार्थों को खायें। श्राद्धकर्त्ता भोज्य वस्तुओं का गुणदोष पूछे तो भी ब्राह्मण कुछ न बतलायें।All the eatables served during the Shraddh should be freshly prepared-cooked and served hot. The Brahmns should remain silent while eating and should not comment over the quality of food, even after repeated insistence. The host will ask about the quality of the food items but the Brahmns are not supposed to reveal any thing.
यावदुष्टं भवत्यन्नं यावदश्नन्ति वाग्यताः।
पितरस्तावदश्नन्ति यावन्नोक्ता हविर्गुणाः॥3.237॥
जब तक अन्न गरम रहता है और ब्राह्मण मौन होकर भोजन करते हैं और जब जब तक भोज्य पदार्थों के गुण नहीं बतलाते तब तक पितर भोजन करते हैं। The Pitre keep on dinning till the food remain hot, Brahmns keep on eating silently and the characteristics of the food are not described
The theme behind this is that the satisfaction of the Manes with the food offered to them through the Brahmns is essential.
यद्वेष्टितशिरा भुङ्क्ते यद् भुङ्क्ते दक्षिणामुखः।
सोपानत्कश्च यद् भुङ्क्ते तद्वै रक्षांसि भुञ्जते॥3.238॥
सिर में पगड़ी बाँध कर या दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके या खड़ाऊं पहन कर जो भोजन किया जाता है, वह राक्षस खा जाते हैं। The food eaten by wearing a cap-turban over the head, facing the South or wearing shoes is eaten away by the demons-Rakshas in stead of the Manes.
चाण्डालश्च वराहश्च कुक्कुटः श्र्वा तथैव च।
रजस्वला च षण्ढश्च नेक्षेरन्नश्नतो द्विजान्॥3.239॥
चाण्डाल, सूअर, मुर्गा, रजस्वला स्त्री और नपुंसक; ये भोजन करते समय ब्राह्मणों को न देखें। The host should ensure that the Brahmns taking food are not visible to the Chandal-a Shudr, who normally resides in the cremation ground, pig, cock, a women having menstrual cycle-periods and the eunuch-important.
They should not be present around the place where the food is cooked or swerved.
होमे प्रदाने भोज्ये च यदेभिरभिवीक्ष्यते।
दैवे कर्मणि पित्र्ये वा तद् गच्छत्ययथातथम्॥3.240॥
दान, ब्राह्मण भोजन, देवकर्म और पितृकर्म को यदि ये देख ले तो वह निष्फल हो जाता है। The sole purpose of donations, feast to Brahmns, prayers to the deities and the homage to the Manes-Pitre fails if these categories of individuals-creatures see the celebrations or food being cooked. One will not get the intended pious result of his endeavour of pleasing the Manes.
घ्राणेन सूकरो हन्ति पक्षवातेन कुक्कुटः।
श्र्वा तु दृष्टिनिपातेन स्पर्शेनावरवर्णजः॥3.241॥
सूअर के सूँघने से, मुर्गे के पंख की हवा लगने से, कुत्ते के देखने से और शूद्र के छूने से श्राद्धान्न निष्फल हो जाता है। One has to maintain absolute purity during the Shraddh ceremony. Smelling by the pig, blowing of air by the cock's feather, seeing by the dog and touching by the Shudr makes the food unfit for consumption by the Manes.
The pig eats excreta, cock eats the insects, dog eats anything impure and even excreta and the Shudr performs such functions which makes them contaminated by fungous, virus, bacteria, microbes etc., they consume wine and do not follow rules-norms pertaining to good health-purity and remain impure-without taking a bath.
खञ्जो वा यदि वा काणो दातुः प्रेष्योSपि वा भवेत्।
हीनातिरिक्तगात्रो वा तमप्यपनयेत् पुनः॥3.242॥
लंगड़ा, काना, श्राद्धकर्त्ता का सेवक, हीनाङ्ग और अधिकाङ्ग; इन सबको श्राद्ध स्थल से हटा दे। One should remove the one eyed, lame, his servant, a person with deficient or excess organs from the place meant for the Shraddh-feeding the Brahmns.
ब्राह्मणं भिक्षुकं वाSपि भोजनार्थमुपस्थितम्।
ब्राह्मणैरभ्यनुज्ञात: शक्तित: प्रतिपूजयेत्॥3.243॥
ब्राह्मण या भिक्षुक कोई भोजनार्थ उपस्थित हो तो निमन्त्रित ब्राह्मणों से आदेश पाने पर श्राद्धकर्ता उन्हैं यथाशक्ति भोजन देकर सत्कार करे। One should honour the Brahmn or an ascetic-hermit, who comes to him for the sake of food and offer him food with the approval of the Brahmn guests.
सार्ववर्णिकमन्नाद्यं सन्नीयाप्लाव्य वारिणा।
समुत्सृजेद् मुक्तवतामग्रतो विकरन् भुवि॥3.244॥
सब प्रकार के भोजन के अन्नों को लाकर उन्हें जल से आप्लावित करके, भोजन किये हुए ब्राह्मणों के आगे भूमि में कुशों पर रख दे। As soon as food intake by the Brahmns is over, the host should bring all sorts of food grains used for preparing meals for the rites and sprinkle water over them and then spread them over the Kush grass-seats just before the Brahmns.
असंस्कृतप्रमितानां त्यागिनां कुलयोषिताम्।
उच्छिष्टं भागधेयं स्याद्दर्भेषु विकिरैश्च यः॥3.245॥
यह कुशा पर डाला अन्न दाह-संस्कार से हीन और कुल बन्धुओं को त्यागने वालों का भाग होता है। The food grains scattered over the Kush grass and the seats is the share of those who are not cremated (small children) and those who have deserted their relatives belonging to same clan.
उच्छेषणं भूमिगतमजिह्मस्याशठस्य च।
दासवर्गस्य तत्पित्र्ये भागधेयं प्रचक्षते॥3.246॥
श्राद्ध में भूमि पर गिरा हुआ जूठा अन्न शील स्वभाव वाले दास वर्ग का भाग होता है, ऐसा ऋषियों ने कहा है। The sages have ruled that the food which falls over the ground while eating by the Brahmns is the share of the slaves (servants, workers) who are good nature-disposition.
आसपिण्डक्रियाकर्म द्विजाते: संस्थितस्य तु।
अद्वैवं भोजयेच्छ्राद्धं पिण्डमेकं तु निर्वपेत्॥3.247॥
मृत द्विजाति का सपिण्डीकरण श्राद्ध पर्यन्त अर्थात एकोदिष्ट श्राद्ध में देवस्थान में ब्राह्मण न बैठाकर केवल पितृस्थान में ब्राह्मण को भोजन कराके ही करना चाहिये और एक पिंड ही देना चाहिये। The upper castes should perform the Sapindikaran of the deceased during the period available for Shraddh-homage to the Manes and the Brahmns should be asked to sit only in the Pitr Sthan instead of Dev Sthan and only one lob should be offered.
सपिण्डीकरण :: The ceremony usually done on the 12th day of one's death; after this the dead person becomes eligible for Parvan (पार्वण oblations to ancestors) and the Grahasth becomes eligible for performing Nandi Shraddh; in Sapindikaran fresh invocation to the demigods-deities; leads up to the cleansing of the pollution. स + पिण्डी + करण Sapindikaran-formation of one or common block-unit. After death one has joined the group of the deceased.
सहपिण्डक्रियायां तु कृतायामस्य धर्मतः।
अनयैवावृता कार्यं पिण्डनिर्वपणं सुतै:॥3.248॥
सपिण्डीकरण श्राद्ध कर चुकने पर अमावस्या में जो पार्वण श्राद्ध की विधि कही गई है, उसी विधि से क्षयाहादि में पुत्रों को पितृनिमित्त पिंडदान करना चाहिये। The sons should offer the lobes of dough for the sake of their Pitre-Manes according to the method-procedure described in Parvan Shraddh on moonless night, having performed the Sapindikaran Shraddh.
श्राद्धं भुक्त्वा य उच्छिष्ठं वृषलाय प्रयच्छति।
स मूढो नरकं याति कालसूत्रमवाक्शिरा:॥3.249॥
श्राद्धान्न खाकर जो ब्राह्मण शूद्र को उच्छिष्ट देता है, वह नीचे मुड़ी ऊपर टाँग करके कालसूत्र नामक नरक में जा गिरता है। The Brahmn who offers the remaining food served to him to the Shudr, falls into the hell called Kal Sutr bending his legs upside down (headlong).
श्राद्धभुग्वृषलीतल्पं तदहर्योSधिगच्छति।
तस्याः पुरीषे तन्मासं पितरस्तस्य शेरते॥3.250॥
श्राद्धान्न खाकर यदि ब्राह्मण उस दिन शूद्रा के साथ रमण करे तो उसके पितर एक मास तक इस स्त्री की विष्ठा में बास करते हैं। The deceased ancestors, Pitre-Manes of the Brahmn who enters into sexual relations with a Shudr woman on the day of the Shraddh, are subjected to the ordure of that woman.
विष्ठा ORDURE :: मल-मूत्र, गोबर; something regarded as vile or abhorrent, excrement, excreta, dung, manure, muck, droppings, faeces, stools, cowpats, guano, night soil, sewage, dirt, filth, jakes, doings, scat.
पृष्ट्वा स्वदितमित्येवं तृप्तानाचामयेत्ततः।
आचान्तांश्चानुजानीयादभि भो रम्यतामिति॥3.251॥
भोजन से तृप्त हुये ब्राह्मणों से पूछे कि अच्छी तरह भोजन हुआ कि नहीं? तब उनके मुखादि प्रक्षालन और आचमन कर चुकने पर उनसे विनय के साथ कहे कि अब आपकी जैसे इच्छा हो, यहाँ रहें या फिर अपने घर जायें। When the Brahmns have completed the eating of the food-offerings, the host should question them politely if they had food to their satisfaction or not? Once the Brahmns have cleaned their mouth and washed off their hands, he should ask them to stay there (for a while) or leave as per their discretion.
स्वधाSस्त्वित्येव तं ब्रूयुर्ब्राह्मणास्तदनन्तरम्।
स्वधाकारः परा ह्याशी: सर्वेषु पितृकर्मसु॥3.252॥
इसके अनन्तर ब्राह्मण उसे स्वधाSस्तु कहें, क्योंकि पितृ कर्मों में स्वधाकार सबसे श्रेष्ठ आशीर्वाद है। The Brahmns should say Swadha to the host-highest form of benison-blessing preparing to depart.
स्वधा :: पितरों के निमित्त दिया जानेवाला अन्न या भोजन, दक्ष प्रजापति की एक कन्या,जो पितरों की पत्नी कही गई है, अव्य, एक शब्द या मंत्र जिसका उच्चारण देवताओं या पितरों को हवि देने के समय किया जाता है; self-position, self-power, inherent, power, own state, nature or condition, ease, comfort or pleasure, own place or home. Swadha is a name of Ganesh Ji used as a powerful Mantr that symbolises clarity of sound. Here exclamation used in presenting the oblation to the deities, Manes, demigods.
ततो भुक्तवतां तेशामन्नशेषं निवेदयेत्।
यथा ब्रूयुस्तथा कुर्यादनज्ञातस्ततो द्विजैः॥3.253॥
इसके बाद जो भोज्य सामग्री बची हो वह भोजन किये हुए उन ब्राह्मणों से निवेदन करे। वे उस बचे अन्न के सम्बन्ध में जो करने को कहें, वह करे। The host should ask the Brahmns about the utility of the remaining food and use it in a manner prescribed-asked by them.
पित्र्ये स्वदितमित्येव वाच्यं गोष्ठे तु सुश्रुतम्।
सम्पन्नमित्यभ्युदये देवे रुचितमित्यपि॥3.254॥
एकोद्दिष्ट श्राध्द में स्वहितं, गोष्ठी श्राद्ध में सुश्रुतं, आभ्युदयिक श्राद्ध में सम्पन्नं और देवताप्रीत्यर्थ श्राद्ध में रुचितं इस प्रकार तृप्ति का प्रश्न करे।The host should ask the guests-Brahmns if they content with the food, its quality, taste, flavour etc. in different Shraddh-Homage to Manes :- like Ekodist, Aabhhudyik, Goshthi, and Devta Preetyarth etc.
स्वहितं :: दूर का रिश्तेदार जो अलग से मृतक को पिंड दान करता है; a distant relation who offers the funeral rice-ball separately and not together with other relations.
सुश्रुतं :: श्राद्ध के समय ब्राह्मण को भोजन करा चुकने पर उनसे यह पूछना की आप भली-भाँति तृप्त हो गये हैं ना; asking the Brahmns once they have eaten the food served to them, whether they are satisfied-content with the food (quality, taste, preparations)?
अपराह्णस्तथा दर्भा वास्तुसम्पादनं तिलाः।
सृष्टिर्मृष्टिर्द्विजाश्चाग्रया: श्राद्धकर्मसु सम्पदः॥3.255॥
अपराह्ण, कुश, गाय के गोबर से श्राद्ध स्थान का संशोधन, तिल, उदारतापूर्वक अन्नदान, भोज्य पदार्थ का परिष्कार, पंक्ति पावन (वेदाध्यायी) ब्राह्मण, यही सब श्राद्ध की सम्पत्ति है। The goods, acts and the humans associated with the performance of Shraddh in the afternoon are Kush grass, sesame seeds, offering of food liberally, serving of food items, company of the Brahmns who are scholars of Veds and a place properly purified-cleansed with cow's dung. They all together are called the asset of Homage to the Manes.
दर्भा: पवित्रं पूर्वाह्णो हविष्याणि च सर्वशः।
पवित्रं यच्च पूर्वोक्तं विज्ञेया हव्यसम्पदः॥3.256॥
कुश, मन्त्र, पूर्वाह्ण, सब प्रकार के हविष्य और पूर्व श्लोक में जो पवित्र वस्तुएँ कही गईं हैं। यह सब हव्य-सम्पदा अर्थात देव-कर्म की सम्पत्ति है। Kush, rites, Mantr-sacred rhymes, morning period, all sorts of offerings and everything, pious goods, listed in the earlier Shlok are the assets of the Dev Karm, prayer of deities-demigods.
मुन्यन्नानि पयः सोमो मांसं यच्चानुपस्कृतम्।
अक्षारलवणं चैव प्रकृत्या हविरुच्यते॥3.257॥
मुनियों के खाद्य-अन्न, दूध, सोमरस, अविकृत (जो विकृत न हो; जिसका रूप बिगड़ा न हो, जिसके अंदर कोई विकृति या बुराई न आ पाई हो; (unspoiled, damaged, rotten, normal), माँस (यहाँ माँस का अर्थ मिष्ठान्न है) और सैंधा नमक; ये स्वभाव से ही हवि कहे गए हैं।The food-grains eaten by the sages, hermits, saints, milk, Extract of Som, sweets, rock salt are considered to be sacrificial foods by nature.
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विसृज्य ब्राह्मणां स्तांस्तु नियतो वाग्यतः शुचि।
दक्षिणां दिशमकाङ्कशन् याचेतेमान्वरान्पितृन्॥3.258॥
निमंत्रित ब्राह्मणों को विदा कर एकाग्रचित्त, मौन और पवित्र होकर दक्षिण दिशा की ओर देखता हुआ पितरों से ये अभिलषित वर माँगे।Having departed the invited Brahmns, one should purify himself, sit silently, concentrate in the Pitres facing South direction and request them for the following blessings-boons.
दातारो नोSभिवर्धन्तां वेदाः स्ततिरेव च।
श्रद्धा च नो बहुदेयं च नोSस्ित्वती॥3.259॥
हमारे कुल में दाता-पुरुषों की वृद्धि हो, यज्ञादिकों के अनुष्ठान से वेद की वृद्धि हो, पुत्र-पौत्रादि संतति की वृद्धि हो, वेद, ब्राह्मणों के प्रति हमारी श्रद्धा न घटे और हमारे पास दातव्य अन्न-धन भी बहुत हो। Kindly bless our hierarchy, clan, dynasty to see the growth of donators-those who perform charity, enhancement in holding of sacrifices in the holy fire i.e., Yagy, Agnihotr, Hawan; progeny-sons & grand sons should continue to increase, respect to the Veds & Brahmns should remain firm and we should have a lot of money to perform all these activities.
Money is essential to perform rites, charity, donations sacrifices in holy fire.
एवं निर्वपणं कृत्वा पिण्डां स्तांस्तदनन्तरम्।
गां विप्रमजमग्निं वा प्राशयेदप्सु वा क्षिपेत्॥3.260॥
इस प्रकार पिण्डदान करके वर माँगने के पश्चात् वे पिण्ड गौ या ब्राह्मण या बकरे को खिलावे अथवा आग या पानी में डाल दे। After the completion homage ceremony & offering of lobes of dough to the Manes; one may feed them either to the cows, Brahmns or the goats or put them in fire or immerse them in water.
These lobes become eatable if the they are backed-put over mild fire developed by burning charcoal of dung cakes. In Rajasthan they are called Baati and eaten with pulses in the form of dal-baati (दाल-बाटी). The cooked lobes may be turned into small pieces mixed with pure deshi ghee & sugar or raw sugar or jaggery and eaten as a tasty dish called Churma (चूरमा).
पिण्डनिर्वपणं केचित्परस्तादेव कुर्वते।
वयोभि; खादयन्त्यन्ये प्रक्षिन्त्यनलेSप्सु वा॥3.261॥
कोई आचार्य ब्राह्मण भोजन के बाद पिण्डदान करते हैं, कोई पक्षियों को खिलाते हैं, कोई आग या पानी में डाल देते हैं। Some Brahmns who performed the Shraddh Karm for the host donate the lobes of dough after the completion of Shraddh-Homage ceremony, some feed them to birds while others put them in either water or fire.
पतिव्रता धर्मपत्नी पितृपूजनतत्परा।
मध्यमं तू ततः पिण्डमद्यात्सम्यक्सुतार्थिनी॥3.262॥
जो पतिव्रता धर्मपत्नी, पितरों की पूजा में तन-मन से लगी हो और पुत्र की इच्छा रखती हो, वह तीन पिण्डों के बीच के (पितामह के निमित्त दिया हुआ) पिंड को खाये तो... A woman who is loyal to her husband and is devoted to the prayer of the Manes through her body and the mind (devotion) and is desirous of having a son; eats the middle lobe-meant for the grand father will be blessed with...
आयुष्मन्तं सुतं सूते यशोमेधासमन्वितम्।
धन्वन्तं प्रजावन्तं सात्त्विकं धार्मिकं तथा॥3.263॥
उस स्त्री को दीर्घजीवी, यशस्वी, बुद्धिमान, धनवान, प्रजावान, सत्वगुणी और धार्मिक पुत्र पैदा होता है। ... a son, who is long lived, famous, intelligent, rich-wealthy, loved-admired by the public-citizens, virtuous and religious.
प्रक्षाल्य हस्तावाचम्य ज्ञातिप्रायं प्रकल्पयेत्।
ज्ञातिभ्य: सत्कृतं दत्त्वा बान्धवानपि भोजयेत्॥3.264॥
इसके पश्चात हाथ धोकर-आचमन करके कुटुम्बियों को सादर भोजन करा कर बान्धवों को भी खिला दे। After this, one-host should wash his hands, sip and sprinkle a few drops of water around the place of oblations and then serve food to the members of his clan and feed his family members as well.
उच्छेषणं तु तत्तिष्ठेद्यावद्विप्रा विसर्जिताः।
ततो गृहबलिं कुर्यादिति धर्मो व्यवस्थितः॥3.265॥
जब तक ब्राह्मणों का विसर्जन न हो तब तक उनका जूठा न हटाये। श्राद्ध-क्रिया सम्पन्न हो जाने पर बलिवैश्वदेव होम आदि नित्यकर्म करना चाहिये। By the time Brahmns have not departed their left over food should not be removed. Once Shraddh-Homage to Manes ceremony is over, one should perform his daily routine prayers.
हविर्यच्चिररात्राय यच्चानन्त्याय कल्प्यते।
पितृभ्यो विधिवद्दत्तं तत्प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥3.266॥
पितरों को विधिवत् दिया हुआ हव्य जो उन्हें चिरकाल या अनन्त काल के लिये तृप्ति देने वाला होता है, वह सब में कहता हूँ। I am revealing the type-kind of sacrificial food which can give satisfaction to the Manes for a long-infinite period-eternity, as per the procedures-methodology.
तिलैव्रीहियवैर्माषैद्भिर्मूलफलेन वा।
दत्तेन मासं तृप्यन्ति विधिवत्पितरो नृणाम्॥3.267॥
तिल, धान्य, यव, उर्द-मूल और फल इनमें से कोई एक वस्तु विधिवत् देने से मनुष्यों के पितृ एक महीने तक तृप्त रहते हैं। The Manes-Pitre remain content for one month by offering sesamum grains, rice, barley, masha beans, tuberous roots and fruits according to the prescribed procedures-rules.
द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान्हरिणेन तु।
औरभ्रेणाथ चतुरः शाकुनेनाथ पञ्च वै॥3.268॥
मछलियों के माँस से 2 महीने, हिरण के माँस से 3 महीने, भेड़ के माँस से 4 महीने और खाद्य-पक्षी के माँस से 5 महीने तक पितरों की तृप्ति होती है। यह केवल उन लोगों पर लागु होता है जिनके पूर्वज माँसाहारी थे। धर्म शास्त्र में माँस भक्षण निषेध है। अन्यत्र माँस शब्द का प्रयोग मिष्ठान्न के लिए हुआ है। श्राद्ध प्रणाली को राक्षस भी मानते थे और वे ज्यादातर मान्साहारी ही थे।
The Manes-Pitre remain content for 2 months by offering fish, three months with the meat of deer-gazelles, four with mutton and five months with the flesh of eatable meat of birds.
This is applicable to only those whose ancestors were meat eaters. Meat eating is prohibited in Dharm Shastr. Its dangerous for the humans as well.
षण्मासांच्छागमांसेन पार्षतेन च सप्त वै।
अष्टावेणस्य मांसेन रौरवेण नवैव तु॥3.269॥
बकरे के माँस से 6 महीने, प्रषत्-चित्र मृग के माँस से 7 महीने, एण जातीय हिरण के माँस से 8 महीने, और रुरु नामक मृग के माँस से 9 महीने तक पितरों की तृप्ति होती है। The Manes-Pitre remain content for 6 months by offering the flesh of goat, seven months with that of spotted deer, eight with that of the black antelope and nine months with that of the (deer called) Ruru.
दशमासांस्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिषै:।
शशकूर्मयोस्तु मांसेन मासानेकादशैव तु॥3.270॥
जङ्गली सूअर और जङ्गली भैंसे के माँस से 10 मास तक और खरगोश तथा कछुए के माँस से 11 महीने तक तृप्त रहते हैं। The Manes remain satisfied with the meat of wild bore and wild buffalo for 10 months & with the flesh-meat of hare and tortoise for 11 months.
सम्वत्सरं तु गव्येन पयसा पायसेन च।
वार्ध्रीणस्य मांसेन तृप्तिर्द्वादशवार्षिकी॥3.271॥
गाय के दूध या पायस-खीर से एक वर्ष तक और वार्ध्रीणस-जल पीते समय जिस बकरे के कान भीगें और वह स्वेत वर्ण का हो, के माँस से 12 वर्ष तक पितरों की तृप्ति होती है। Cow's milk or Kheer-Pudding, satisfies the Manes for one year and flesh-meat of white goat whose ears becomes wet while drinking water satisfied them for 12 years.
कालशाकं महाशल्का: खङ्गलोहामिषं मधु।
आनन्त्यायैव कल्प्यन्ते मुन्यन्नानि च सर्वशः॥3.272॥
कालशाक, महाशल्क-मछली, गैंडे और लाल वर्ण के बकरे का माँस, शहद तथा नीवार आदि पवित्र अन्न-इन सबसे पितरों को अनन्त काल तक तृप्ति होती है। Leaves called Kalshak, Mahashalk-fish, meat of Rhino or red coloured goat, honey and Neewar satisfies the Manes-Pitre for infinite period of time.
नीवार :: जलीय भूमि में आप से आप होनेवाला धान, the raw rice-paddy which grows by itself in wet lands.
यत्किञ्चिन्मधुना मिश्रं प्रदद्यात्तु त्रयोदशीम्।
तदप्यक्षयमेव स्याद्वर्षासु च मधासु च॥3.273॥
वर्षा ऋतु की मघा नक्षत्र युक्त त्रयोदशी तिथि में मधु से मिला हुआ, जो कुछ भी पितरों को दिया जाता है, वह भी अक्षय होता है। Anything-sacrificial food mixed with honey offered to the manes-Pitre during the rainy season under the asterism-impact of Magh Nakshtr on the 13th, becomes imperishable.
ASTERISM :: a prominent pattern or group of stars that is smaller than a constellation.
अपि न: स कुले जायाद्यो नो दद्यात् त्रयोदशीम्।
पायसं मधुसर्पिभ्यां प्राक्छाये कुञ्जरस्य च॥3.274॥
पितर यह आशा करते हैं कि हमारे कुल में कोई ऐसा जन्म ले जो हम लोगों को त्रयोदशी तिथि में या ऐसे समय में जब हाथी की छाया पूर्व दिशा में हो, मधु और घृत मिला हुआ पायस (गौ दुग्ध की खीर) प्रदान करे। The Manes expect the birth of some one in their clan-hierarchy who would offer them pudding made from cow's milk mixed with honey and ghee (clarified butter) on the 13th of the lunar month as per Hindu calendar or when the shadow of an elephant moves to the east.
यद्यद्ददाति विधिवत्समयक् श्रद्धासमन्वितै:।
तत्तत्पितृणां भवति परत्रानन्तमक्षयम्॥3.275॥
श्रद्धा सहित विधिपूर्वक सम्यक् प्रकार से जो कुछ पितरों को दिया जाता है, वह परलोक में उनकी तृप्ति के लिये सदा अक्षय होता है। Whatever is being offered to the Manes with reverence, in sufficient quantity, makes them content in the eternal abodes, becoming perpetual and imperishable gratification.
सम्यक् :: पूरा, सब, समस्त, उचित, उपयुक्त, ठीक, सही, मनोनुकूल, पूरी तरह से, सब प्रकार से, अच्छी तरह। भली-भाँति; right, appropriate, sufficient, enough.
कृष्णपक्षे दशम्यादौ वर्जयित्वा चतुर्दशीम्।
श्राद्धे प्रशस्तास्तिथयो यथैता न तथेतरा:॥3.276॥
कृष्ण पक्ष की दशमी से लेकर अमावस्या पर्यन्त तिथियों में चतुर्दशी को छोड़ शेष तिथियाँ श्राद्ध के लिये जैसे श्रेष्ठ हैं, वैसी अन्य तिथियाँ नहीं हैं। The dates for performing Shraddh in Krashn Paksh-dark phase, between 10th to Moonless night except the 14th day are excellent.
यक्षु कुर्वन्दिनर्क्षेषु सर्वान्कामान्समश्नुते।
आयुक्षु तु पितृन्सर्वान्प्रजां प्रान्पोति पुष्कलाम्॥3.277॥
युग्म (सम) तिथि और नक्षत्र में श्राद्ध करने से सम्पूर्ण कामनायें सिद्ध होती हैं। विषम तिथि और नक्षत्र में श्राद्ध करने से धन-विद्या से परिपूर्ण सन्तानें प्राप्त होती हैं।
All desires are fulfilled by performing Shraddh on even dates and the Nakshtr. While performance of Shraddh in odd dates grants progeny with wealth and education.
All desires are fulfilled by performing Shraddh on even dates and the Nakshtr. While performance of Shraddh in odd dates grants progeny with wealth and education.
तथा चैवापर: पक्ष: पूर्वपक्षा द्विशिष्यते।
तथा श्राद्धस्य पूर्वाह्णादपराह्णो विशिष्यते॥3.278॥
श्राद्ध में जैसे पूर्व (शुक्ल) पक्ष से अपर (कृष्ण) पक्ष विशेष है, वैसे ही पूर्वाह्ण विशेष है। The manner in which the dark phase is superior to bright phase for performing Shraddh, similarly the later part-phase too is superior.
प्राचीनावीतिना सम्यगपसव्यमतन्द्रिणा।
पित्र्यमानिधनात्कार्यं विधिवद्दर्भपाणिना॥3.279॥
दाहिने कन्धे पर जनेऊ रख (अपसव्य :- दाहिने-उलटे कन्धे पर रखने के बाद) आलस्य रहित हो हाथ में कुशा लेकर शास्त्रोक्त विधि से जब तक जिये पितृकर्म करे। One should keep performing this Shraddh, ritual-rite till he survives, without delay, laziness-sluggishness by keeping his sacred thread over the right shoulder, holding Kush grass in his hands.
रात्रौ श्राद्धं न कुर्वीत राक्षसी कीर्तिता हि सा।
संध्ययोरुभयोश्चैव सूर्ये चैवाचिरोदिते॥3.280॥
रात में श्राद्ध न करे, क्योंकि रात राक्षसी कही गई है। दोनों समय (प्रातः और सांयकाल) में श्राद्ध न करे और सूर्योदय समकाल में भी श्राद्ध न करे। Shraddh should not be performed during the night since its dominated by the demons-Rakshas. It should not be done during the morning or evening in addition to the time of Sun rise or when the Sun has just risen.
अनेन विधिना श्राद्धं त्रिरब्दस्येह निर्वपेत्।
हेमन्तग्रीष्मवर्षासु पाञ्चयज्ञीकमन्वहम्॥3.281॥
इस प्रकार वर्ष में तीन बार अर्थात् हेमन्त, ग्रीष्म और वर्षा में श्राद्ध अवश्य करना चाहिये और पञ्चमहायज्ञान्तर्गत श्राद्ध तो नित्य ही करे। In this manner one has to perform the Shraddh ceremony, funeral sacrifices, rites, thrice in a year during Hemant-winters, summers and the rainy season and perform the Panch Maha Yagy everyday.
न पैतृयज्ञियो होमो लौकिकेSग्नौ विधीयते।
न दर्शेन विना श्राद्धमाहिताग्नोर्द्वजन्मनः॥3.282॥
पितृ यज्ञीय होम लौकिक अग्नि में नहीं करना चाहिये। आदृताग्नि द्विज को अमावश्या तिथि के अतिरिक्त अन्य तिथि में श्राद्ध नहीं करना चाहिये। The Pitr Yagy should not be performed in normal-worldly fire. The Brahmn should not perform Shraddh on the dates falling other than the Amavashya-no Moon nights phase.
यदेव तर्पयत्यद्भि:पितृन्स्नात्वा द्विजोत्तमः।
तेनैव कृत्स्नमाप्रोती पितृयज्ञक्रियाफलम्॥3.283॥
ब्राह्मण स्नान करके जो जल से पितृ तर्पण करता है, उसी से नित्य श्राद्ध क्रिया का फल पाता है। The Brahmn is rewarded for the offering of water to the Manes, after taking a bath regularly, like performing Shraddh everyday.
वसून्वदन्ति तु पितृन् रुद्रांश्चैव पितामहान्।
प्रपितामहांस्तथादित्यान् श्रुतिरेषा सनातनी॥3.284॥
ऋषियों ने पिता को वसु, पितामह को रुद्र और प्रपितामह को आदित्य कहा है। इसलिए मनुष्य पितरों का ध्यान देवता के रूप में करे। यह सनातन श्रुति है। The Rishis have recognised the father as Vasu, grandfather as Rudr and the great grandfather as Adity. Its therefore, suggested that one should identify them as demigods. This is the eternal message.
विघसाशी भवेन्नित्यं वाSमृतभोजनः।
विघसो भुक्तशेषं तु तथाSमृतम्॥3.285॥
नित्य विघसाशी हो या नित्य अमृत भोजी हो अतिथि ब्राह्मणों को खिलाकर जो अन्न बचे उसे विघस कहते हैं और यज्ञावशिष्ट अन्न को अमृत कहते हैं। गृहस्थी को चाहिए कि वह प्रतिदिन ‘विघस’ भोजन को खाने वाला होवे अथवा ‘अमृत’ भोजन को खाने वाला होवे। विघस :: अतिथि, मित्रों आदि सभी व्यक्तियों के खा लेने पर बचा भोजन को ‘विघस’ कहा जाता है; The remainder food after serving the guests, friends and all invites is called Vighas.
अमृत :: यज्ञ में आहुति देने के बाद बचा भोजन ‘अमृत’ कहलाता है; The left over food after offerings in the holy fire is called Amrat, ambrosia, nectar, elixir.
The house hold should make it a habit of consuming food after serving to all; the left over food after the performance of sacrifices in holy fire. The remainder food after serving the guests, friends and all invites is called Vighas, while that left over after offerings in the holy fire is called Amrat, ambrosia, nectar, elixir.
एतोद्वोSभिहितं सर्वं विधानं पाञ्चयज्ञिकम्।
द्विजातिमुख्यवृत्तीनां विधानं श्रूयतामिति॥3.286॥
यह पञ्चयज्ञ-सम्बन्धी सारा विधान आप लोगों से कहा, अब ब्राह्मणों की वृत्ति का विधान सुनिये। Thus all the ordinances, procedures-methodology pertaining to the five daily great sacrifices have been described and now please listen to rules-laws governing the tendencies-way of earning by the Brahmns.
The review has been completed today i.e., 24.08.2021.
By virtue of Almighty's desire and kindness the third chapter of the Treatise "Manu Smrati" has been revised and presented for the welfare of the virtuous, righteous, pious readers-devotees of the God; today i.e., 02.09.2019, at Noida.
Today, at 5.52 AM (local time), on 05.06.2017, the third chapter of Manu Smrati has been completed and dedicated to the honourable worthy readers at Camden, Sydney, Australia by the grace of Ganesh Ji, Almighty, Mahrishi Vyas, Manu, Maa Saraswati and Suk Dev Ji Maha Raj.
Today, at 5.52 AM (local time), on 05.06.2017, the third chapter of Manu Smrati has been completed and dedicated to the honourable worthy readers at Camden, Sydney, Australia by the grace of Ganesh Ji, Almighty, Mahrishi Vyas, Manu, Maa Saraswati and Suk Dev Ji Maha Raj.
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ
(बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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