MANU SMRATI (2) मनु स्मृति
(ब्राह्मण धर्म, संस्कार, गुरु-शिष्य परम्परा)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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द्वितीय अध्याय :: आर्यों के निवास-प्रदेश आर्यावर्त की उत्तर, दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम सीमा, जलवायु, निवासी, उच्च चरित्र, व्यक्ति के सर्वतोमुखी विकास के लिए अपनाये जाने वाले सोलह संस्कार, ज्ञान का महत्त्व तथा विद्याध्ययन काल में ब्रह्मचारी के लिए गुरुकुल में आचरणीय एवं पालनीय नियमों का उल्लेख।
विद्वद्भि सेवितः सद्भि र्नित्यम द्वेष रागिभिः।
ह्रदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं निबोधत॥2.1॥
निन्ध राग, द्वेष से रहित श्रेष्ठ धार्मिक विद्वानों द्वारा सेवन किया हुआ हृदय से अच्छी तरह से ज्ञात जो धर्म है, उसे सुनिये।Listen to the Dharm (established duties-practices) undertaken by the Ultimately enlightened scholars, who were free from vices-wretchedness, hatred, envy, jealousy having accepted them by the heart.
कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्यकामता।
काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः॥2.2॥
इस संसार में किसी वस्तु कामना की करना श्रेष्ठ नहीं है, फिर भी कामना नहीं हैं, ऐसा नहीं है। वेदों का अध्ययन करना और वेद-विहीन कर्मानुसार करना भी काम्य है। Though its not good to desire any thing in this world, yet desires are there. Learning of Veds and actions without the approval-consent of the Veds too is associated with desires.
संकल्पमूलः कामो वै यज्ञा: सङ्कप सम्भवा:।
व्रतानि यमधर्मच्श्र सर्वे संकल्पजा: स्मृता:॥2.3॥
कामना का मूल सङ्कल्प होता है और यज्ञ सङ्कल्प से ही होते हैं। व्रत, यज्ञादि सभी धर्म का आधार सङ्कल्प ही कहा गया है। The basis of desires is motive and Yagy-sacrifices are there due to conception-motives, desires. Motive is the basis of all fasting (attainment, determination, targets, goals, ventures, ambitions, deeds, performances), Yagy-Hawan, Holy sacrifices in fire or labour to attain any thing and the religion-Dharm.
अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कर्हिचित्।
यद्यद्धि कुरुते किञ्चित्तत्तत्कामस्य चेष्टितप्॥2.4॥
इस संसार में कामना-इच्छा के बिना कोई कर्म होता दिखाई दिखाई नहीं देता। कोई भी मनुष्य जो कुछ भी करता है, वह इच्छा से ही करता है। No work-deed, action takes place without desire by the humans in this world.
तेषु सम्यग्वर्तमानो गच्छत्यमरलोकताम्।
यथा संकल्पितानंच्श्रैव सर्वान्कामान्समश्नुते॥2.5॥
उन शस्त्रोक्त कर्मों में सम्यक् प्रकार से लगा हुआ मनुष्य, जैसे-जैसे इस संसार में उसके सङ्कल्प पूरे होते जाते हैं; वह देवलोक को प्राप्त करता है। One who discharges his prescribed duties whole heartedly, according to the the strictures-Veds, attains the abodes of demigods after his death; along with fulfilment his desires in this world.
वेदोSखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्।
साधूनामात्मन स्तुतिष्टिरेव च॥2.6॥
सम्पूर्ण वेद और वेदों के जानने वालों (मनु आदि को) स्मृति-शील और आचार तथा धार्मिकों की मनस्तुष्टि, यह सभी धर्म के मूल (धर्म में प्रमाण) हैं। Those who have learnt Veds including Manu and other sages (Rishis, Brahm Rishis, Mahrishis, holy men) who carried forward the traditions, principles, laws, rules, ethics, customs, virtuous conduct leading to self satisfaction and the Veds themselves are the proof of the Dharm-religiosity.
यः कश्चित्कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः।
स सर्वोSभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः॥2.7॥
धर्म के सम्बन्ध में जो कुछ भी मनु ने कहा है वह (पहले से ही) वेद में कहा हुआ है, क्योंकि वे सर्वज्ञ है। Whatever has been said by Manu Ji pertaining to Dharm-religiosity, duties-responsibilities already exists in the Veds since Manu Ji was omniscient (सर्वज्ञ, सर्वदर्शी).
Manu Ji extracted the gist of Veds pertaining to the behaviour, interaction, mode of working-functioning of the humans in different cosmic era. Due to self interest-motive the ignorant, imprudent, idiot refuse to accept-follow the dictates of Dharm and suffer.
सर्वं तु समवेक्ष्येदं निखिलं ज्ञानचक्षुषा।
श्रुति प्रामाण्यतो विद्वान्स्वधमें निविशेत वै॥2.8॥
दिव्य दृष्टि से इन सबको अच्छी तरह देखकर (सोच-विचार कर) वेद को प्रमाण मानते हुए विद्वान् अपने धर्म में निरत रहें।
The enlightened has to continue with his Dharm-duties in accordance with the tenets of Veds, by meditating, analysing, thinking, understanding, conceptualising thoroughly and viewing through divine vision.
श्रुति स्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन्हि मानवः।
इह किर्तीमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्॥2.9॥
क्योंकि श्रुति (वेद), स्मृति (धर्म शास्त्र) में विहित धर्मादि को करने वाला मनुष्य इस लोक में कीर्ति को पाकर परलोक में सुख पाता है।
Since, one who follows the Dharm-practices described in the Veds and Smrati gets name, fame, glory, honour and comforts-pleasure in the higher abodes.
श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।
ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ॥2.10॥
श्रुति को वेद और स्मृति को धर्म शास्त्र जानना चाहिये, क्योंकि ये दोनों सभी विषयों में अतर्क्य हैं और इन्हीं दोनों से सभी धर्म प्रकट हुए हैं।
Shruti-revelation should be identified as Veds and the Smrati (memory, tradition) as Dharm-religion, since both of them are beyond argument, reason, controversy, question and all religious practices have emerges from them.
योSवमन्येत ते मुले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः।
स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः॥2.11॥
जो द्विजातक (या अन्य कोई भी व्यक्ति) शास्त्र द्वारा धर्म के मूल दोनों (वेद और स्मृति) का अपमान करता है, उसे सज्जनों (gentleman) द्वारा तिरष्कृत किया जाना चाहिये, क्योंकि वह वेद निन्दक होने से नास्तिक है।
The Swarn (upper caste, twice born, higher castes) who insults (defy, dishonour, blaspheme, contempt, slur) the basics of the Dharm-religion namely Veds & the Smrati, deserves to be rebuked-condemned by the gentlemen, since he is a cynic (detractor, backbiter, denigrator, satirist, निंदक, मानवद्वेषी, चुगलखोर, आक्षेपक, निन्दोपाख्यान करने वाला) and such a person is an atheist.
वेदः स्मृति: सदाचार स्वस्य च प्रियमात्मन:।
एतच्चतुर्विधं प्राहु: साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥2.12॥
वेद, स्मृति, सदाचार और आत्मा को प्रिय संतोष; ये चार साक्षात् धर्म के लक्षण हैं।
Ved, Smrati, good conduct and satisfaction to the soul are the four characteristics-pillars of Dharm.
The preaching-sermons of Dharm & enlightenment are meant for those who are indulged in earning and sex (Wealth & desire). Those who wish to attain enlightenment Veds are the best proof which gives the guide lines-right direction.
In the case of contradictions in the Shruti, Manu decided to consider both the interpretations as Dharm and the Mahrishis too followed him.
The sacred text-scriptures (Ved & Shruti) says that one should perform Yagy-Hawan, holy sacrifice in fire thrice i.e., before Sun rise, at the time of Sun rise and while the Sun is rising.
अर्थकामेंष्वससक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते।
धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः॥2.13॥
अर्थ और काम में आसक्त पुरुषों के लिये ही धर्म ज्ञान का उपदेश है। धर्म का ज्ञान प्राप्त करने वालों को वेद ही श्रेष्ठ प्रमाण है। The preaching-sermons of Dharm & enlightenment are meant for those who are indulged in earning and sex (Wealth & desire). Those who wish to attain enlightenment Veds are the best proof which gives the guide lines-right direction.
श्रुतिर्द्वैधं यत्र स्यात्तत्र धर्मावुभौ स्मृतौ।
उभावपि हि तौ धर्मौ सम्यगुक्तौ मनीषिभिः॥2.14॥
जहाँ पर श्रुतियों में ही विरोध है, वहाँ मनु ने दोनों ही अर्थों को धर्म माना है। महृषियों ने भी दोनों के कहे हुये धर्मों को धर्म माना है। In the case of contradictions in the Shruti, Manu decided to consider both the interpretations as Dharm and the Mahrishis too followed him.
उदितेSनुदिते चैव समयाध्युषिते तथा।
सर्वथा वर्तते यज्ञ इतीयं वैदिकी श्रुतिः॥2.15॥
सूर्योदय होने पर, सूर्योदय के पूर्व और अरुणोदय समय यज्ञ-हवन करना चाहिये। ये तीनों ही श्रुति वचन हैं और इसीलिये ग्राह्य हैं। The sacred text-scriptures (Ved & Shruti) says that one should perform Yagy-Hawan, holy sacrifice in fire thrice i.e., before Sun rise, at the time of Sun rise and while the Sun is rising.
निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रैर्यस्योदितो विधिः।
तस्य शास्त्रेSधिकारोSस्मिञ्ज्ञेयो नान्यस्य कस्यचित्॥2.16॥
जिन लोगों-हिन्दुओं के हेतु मंत्रों द्वारा गर्भाधान से श्मशान तक सब संस्कार की विधि कही गई है; उन्हीं लोगों को इस शास्त्र के अध्ययन का अधिकार है, अन्य किसी को नहीं। Only those who have been taught the rites beginning from impregnation to cremation-funeral, are authorised to learn-study this treatise, none else.
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सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्यौर्यदन्तरम्।
तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्ततं प्रचक्षते॥2.17॥
सरस्वती और दृषद्वती इन दो देव नदियों का जो अन्तर-बीच का स्थान है, उसे देवताओं का बनाया हुआ ब्रह्मावर्त देश कहते हैं। The land between the two divine rivers Saraswati and Drashdwati, is called the country Brahmavart, created by the demigods-deities.
तस्मिन्देशे य आचारः पारंपर्यक्रमागतः।
वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते॥2.18॥
उस देश में चारों वर्णों और उनके अन्तराल (संकीर्ण) जातियों के परम्परा से जो आचार हैं, उन्हीं को सदाचार कहते हैं। The customs & traditions created & handed over due to succession since time immemorial by the interaction of the 4 prime castes-Varns and the mixed races-hybrids castes are called the conduct of the virtuous i.e., virtues.
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कुरुक्षेत्रं च मतस्याश्च पञ्चालाः शूरसेनकाः।
एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मा वर्ता दनन्तरः॥2.19॥
कुरुक्षेत्र और मत्स्यदेश, पञ्चाल (पंजाब) और शूरसेन (मथुरा) ये ब्रह्मर्षि देश हैं, जो कि ब्रह्मावर्त से कुछ न्यून हैं। Kuru Kshetr, Matasy Desh, Panchal (present Punjab) and Shur Sen are the regions slightly inferior to Brahmavart (in auspiciousness).
एतद्देशयप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृरथिव्यां सर्वमानवाः॥2.20॥
इस देश (कुरुक्षेत्र आदि) में उत्पन्न ब्राह्मणों से सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्यों को अपने-अपने चरित्र (आचार) को सीखना चाहिये। The humans around the world should learn virtues-code of conduct for virtuous, righteous, pious, honest living from the Brahmns (Pandits, enlightened, scholars, philosophers, learned) born in this region starting from Saraswati and extending till Ganga & Yamuna rivers.
In today's scenario one should not depend over such people since it is Kali Yug. One should rely over the scriptures and the Veds instead, which are readily available.
हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्यं यत्प्राग्विनशनादपि।
प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः॥2.21॥
सरस्वती नदी से पूर्व और प्रयाग-इलाहाबाद से पश्चिम; हिमालय और विन्ध्य पर्वत के मध्य के देश को मध्य देश कहते हैं। The region in the east of Saraswati river and west of Prayag Raj-Allahabad, between the Himalay & Vindhy mountains is termed as Madhy Desh, (middle, central country, zone, province).
Holy river Saraswati still flows beneath the ground via Kuru Kshetr and meets Ganga & Yamuna at Allahabad.
आसमुद्रात्तु वै पुरवादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुद्धा:॥2.22॥
पूर्वी समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र पर्यन्त दोनों पर्वतों (हिमालय और विंध्याचल) के बीच के देश को पण्डितों ने आर्यावर्त कहा है। The region between the eastern ocean and western ocean, between the two mountains Himalay and Vindhyachal has been termed as Aryavart-the abode of Aryans.
India has been named Aryavart, Jambu Dweep, Bharat and Hindustan at different intervals of times. But it is still recognised as Aryavart.
कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः।
स ज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छदेशस्तवत: पर:॥2.23॥
जहाँ पर स्वभाव से ही काले रंग के मृग रहते हों, वह यज्ञ करने योग्य देश है, इससे भिन्न म्लेच्छ देश होता है।The country-region, Aryavart, is good for performing Yagy-Holy sacrifices, where black deer roam naturally, on earth. Land other than that is the abode of the Malechchh.
Malechchh (Muslims, Christians) is used for the people who used reside else where over earth and did not follow the tenets of Veds, scriptures. They may be called barbarians.
एतान्द्विजायतो देशान्संश्रयेन्प्रयत्नतः।
शूद्रस्तु यस्मिन्कस्मिन्वा निवसेद् वृर्त्तिकर्शितः॥2.24॥
ये द्विजों के देश हैं, इनमें द्विजातियों को प्रयत्न करके रहना चाहिये। जीविका के न रहने से दुःखी शुद्र चाहे जिस देश में निवास करे। Aryavart is the abode of Brahmns and the Dwijatis who should reside here by making efforts. The Shudr, distressed for subsistence, may move to other places (may reside anywhere) in search of jobs-livelihood.
Any one who earn his livelihood by serving others is a Shudr. Sawarn-Dwijatis who are compelled by circumstances to accept some job-service should return to their fold as soon as there is no need for a job-service. They should utilise their spare time performing hereditary professions-jobs, prayers devoted to the Almighty.
एषा धर्मस्य वो योनिः समासेन प्रकीर्तिता।
संभवच्श्रास्य सर्वस्य वर्णधर्मान्निबोधतः॥2.25॥
यहाँ तक धर्म की उत्पत्ति और जगत की उत्पत्ति का वर्णन संक्षेप से हुआ है। अब वर्ण धर्मादि सुनिये। Till here the birth-origin of Dharm-sacred laws and the universe have been described in short. Now listen to the Dharm-duties of the Varn-castes.
वैदिकै: कर्मभि: पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्।
कार्य: शरीर संस्कार: पावन: प्रेत्य चेह च॥2.26॥
द्विजातियों वैदिक कर्मों द्वारा गर्भाधानादि शरीर के संस्कार करना चाहिये, जो कि इस लोक और परलोक दोनों में पाप को क्षय करने वाले होते हैं। The three upper castes-Swarn (सवर्ण) should carry out the various rites pertaining to impregnation (गोद भराई, fertilisation, conceiving, ceremony performed after menstruation to favour conception) etc., described in the scriptures, which are capable of reducing the burden of sin in this and the next abodes-births.
गार्भै मैर्जातकर्मचौलमौञ्जीनिबन्धनै:।
बैजिकं गार्भिकं चैनो द्विजानामपमृज्यते॥2.27॥
गार्भिक (गर्भ की शुद्धि के लिये हवनादि क्रियाएँ) जातकर्म (natal rites, typically a private rite of passage that is observed by the new parents, relatives of the baby and close friends, Jat-जात, means born, brought into existence, engendered, arisen, caused, appeared & Karm-कर्म means action, performance, duty, obligation, any religious activity or rite, attainment), चूड़ा (मुण्डन) और उपनयन संस्कारों के करने से द्विजातियों के बीज और गर्भ के दोष दूर हो जाते हैं। Performance of natal rites, removing the first hair from the head of the child and bearing of sacred thread around the waist of the child; leads to the defects pertaining to fertilisation of ovum & sperms and the bearing of child in the womb by the mother.
स्वाघ्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रै विधिनेज्यया सुतै:।
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनु:॥2.28॥
वेदाध्ययन, व्रत, होम, त्रैविध देवर्षि पितृ-तर्पण, पुत्रोत्पादन (पाँच) ब्रह्मयोगादि और ज्योतिष्टोमादि (यज्ञ जिसमें सोलह ऋत्विक होते हैं) यज्ञों द्वारा यह शरीर ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बनाया जाता है। The human body is prepared for attaining Brahm (Salvation) through the study of Veds, fasting, Holy sacrifices in fire, three types, modes, procedural, oblations offering to the ancestors-Manes, procreation of 5 sons, Brahm Yog and Jyotishtom etc.
प्राङ्नाभिवर्धन्तपुंसो जातकर्म विधीयते।
मन्त्रवत्प्राशनं चास्य हिरण्य मधुसर्पिषाम्॥2.29॥
नालच्छेदन के पहले पुरुष का जातकर्म संस्कार किया जाता है, इसके बाद ही उस बालक को सुवर्ण, मधु और घी को वैदिक मन्त्रों द्वारा चटाना चाहिये। The rite called Jat Karm is performed before the naval cord-string of the male child is cut-detached and thereafter the child is to lick gold, honey and Ghee-clarified butter.
नामधेयं दशम्यां वाSस्य कारयेत्।
पुण्ये तिथौ मुहूर्त्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते॥2.30॥
उस बालक का दसवें या बारहवें दिन नाम करण संस्कार शुभ पुण्य तिथि, मुहूर्त्त और नक्षत्र में करना चाहिये। The child should be named on the 10th or 12th day after birth, on an auspicious day & date under the influence of auspicious constellation configuration as per the advice of the astrologers.
माङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥2.31॥
ब्राह्मण का मङ्गलवाचक, क्षत्रिय का बलवाचक, वैश्य का धन से युक्त और शूद्र का निंदा से युक्त नाम रखना चाहिये। Naming of the child should be done in such a way that it reflects his traits according to his Varn-caste viz. for a Brahman it should include auspiciousness, for the Kshtriy-Marshal castes it should reflect power-valour, strength for the Vaeshy it should associate wealth money and for the Shudr it should include contemptible words to represent his low origin.
The method was used to identify one through name. In realty the names are just nouns and there is intention to degrade or insult any segment of the society.
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुताम्॥2.32॥
ब्राह्मण के नाम के अन्त शर्मा, क्षत्रिय के सिंह या वर्मा, वैश्य के नाम के साथ पुष्टि युक्त गुप्त जैसा शब्द तथा शुद्र के नाम के अंत में दास आदि शब्दों का प्रयोग करना चाहिये। The suffix of the name should be a word which can easily distinguish one caste from the other. The Brahmn should use Sharma, Kshtriy should use Singh or Verma, the Vaeshy should use Gupt and the Shudr should use a world like Dass. Sharma is auspiciousness-happiness, Singh lion is for protection, power, valour, bravery, Gupt is for trading, cultivator, business community and the word Dass is meant for those who are servants or slaves.
In broader sense each of the upper castes address themselves as the slaves of the Almighty and the more humbles ones calls themselves as the slaves of the God's slaves.
स्त्रीणां सुखोद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम्।
माङ्गल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत्॥2.33॥
मुख से उच्चारण करने के योग्य, सुन्दर अर्थ का द्योतक, स्पष्ट, चित्त को प्रसन्नता प्राप्त कराने वाला, मङ्गलसूचक, अन्तिम अक्षर दीर्घवर्णात्मक, आशीर्वादात्मक शब्द से युक्त स्त्रियों का नाम रखना चाहिये (जैसे यशोदा देवी)।The name of the woman should be easy to pronounce, having good meaning, clear, which grants pleasure to the heart, with auspicious last letter, containing blessings (benediction, आशीर्वाद, मंगलकलश, मंगलकामना) like Yashoda Devi.
लड़कियों के नाम देवियों के नाम पर नहीं रखने चाहियें यथा गँगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा।
चतुर्थे मासि कर्तव्यं शिशोर्निष्क्रमणं गृहात्।
षष्ठेSन्नप्राशनं मासि यद्वेष्टं मङ्गलं कुले॥2.34॥
जन्म से चौथे मास में बालक को घर से बाहर निकालना चाहिये। इसको निष्क्रमण कहते हैं। छटे मास में अन्नप्राशन (चटावन) करना चाहिये अथवा कुल की रीति के अनुसार, जो मङ्गलमय हो उसे ही करें। The child should be brought out of the house in the fourth month and he should be allowed to lick (honey or some sweet or solid food) or what ever is prevailing in the family.
These occasions may be celebrated as auspicious ceremony as per the custom of the family.
चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः।
प्रथमेSब्दे तृतीये वा कर्तव्यं श्रुतिचोदनात्॥2.35॥
सभी द्विजातियों का धर्म के लिये पहले या तीसरे वर्ष में मुण्डन करना चाहिये, ऐसा वेद कहते हैं। The Veds directs to tonsure the head of the child either in the first or the third year of the birth, for the three upper castes.
गर्भाष्टमेSब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्यो पनायम्।
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः॥2.36॥
गर्भ से आठवें वर्ष में ब्राह्मण का उपनयन संस्कार करना चाहिये। गर्भ से 11 वें वर्ष में क्षत्रियों का और गर्भ से 12 वें वर्ष में वैश्यों का उपनयन करना चाहिये। The rite pertaining to initiation to education Upnayan Sanskar be performed at the age of 8 years for the Brahmn, 11th year for the Kshatriy and 12th year for the Vaeshy.
Upnayan Sanskar-rite is a sacred ceremony performed in Hinduism for upper castes to initiate the education of the child called Brahmchari-celibate (ब्रह्मचारी). Yagyopaveet (sacred thread, यज्ञोपवीत) is drawn around the neck and the waist of the child to make him remember that he has to maintain extreme chastity & purity (of body, mind and the soul) during the period of education at the Ashram-Guru Kul of the teacher.
ब्रह्मवर्च सकामस्य कार्यं विप्रस्य पञ्चमे।
राज्ञो बलार्थिन: षष्ठे वैश्येस्येहार्थिनोSष्टमे॥2.37॥
ब्रह्मतेजाभिलाषी ब्राह्मण का गर्भ से 5 वें वर्ष में, बलाभिलाषी क्षत्रिय का 6 वर्ष में और धनाभिलाषी वैश्य का 8 वें वर्ष में उपनयन करना चाहिये। The Brahmn who seeks the Brahm Tej (divine energy-aura-enlightenment) should be initiated into Upnayan rite from the 5th year of conception, the Kshtriy who desire power-valour should be initiated into Upnayan in the 6th year and the Vaeshy who desire wealth should be initiated into Upnayan in the 8th year.
आषोडशाद्ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते।
आद्वाविंशात्क्षत्रबन्धोंराचतुर्विंशतेर्विश:॥2.38॥
16 वें वर्ष तक ब्राह्मण का, 22 वें वर्ष तक क्षत्रिय का और 24 वें वर्ष तक वैश्य की सावित्री का अतिक्रमण नहीं होता है अर्थात उस समय तक उपनयन हो सकता है। The Upnayan-initiation ceremony can be performed till 16th year for the Brahmn, 22nd year for the Kshtriy and 24th year for the Vaeshy, since Savitri (Rig Ved has described Savitr as a manifestation of Sun) is still in vogue-effective.
अत ऊर्ध्वं त्रयोSप्येते यथाकालमसंस्कृता:।
सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिता:॥2.39॥
उक्त समयों के बाद यथा समय संस्कार न होने से वे तीनों (विप्र-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) सावित्री से पतित होकर समाज से बहिष्कृत और व्रात्य होते हैं।
[मनुस्मृति, विष्णुस्मृतिः सप्तविंशतितमोऽध्यायः 27.27]
If the Upnayan rites-ceremony (sacrament, ordination, Sanskar, investiture, धार्मिक अनुष्ठान, संस्कार) is not performed as per schedule explained above one born in the three upper castes is demoted and becomes out caste.
नेतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि हि कर्हिचित्।
ब्राह्मान्यौनांश्च सम्बन्धानाचरेत् ब्राह्मण: सह॥2.40॥
इन अपवित्रों (व्रात्यों) के साथ इनके विधिवत् प्रायश्चित्तादि करने पर भी कोई भी ब्राह्मण आपत्ति काल में भी उनसे किसी प्रकार का सम्बन्धादि न करे-रखे।The Brahmn (Pure-Pious) is advised not to keep relations with the impure-contaminated people even if they purify themselves by duly committing atonement (expiation, repentance) procedural practices-methodologically, even when he faces trouble, emergency, misfortune.
Those people who do not take bath, have bad habits, consume wine, eat meat, make illicit relations, perform undesirable activities deserve to be rejected by the society summarily.
He Brahmn represents one who is learned-enlightened, perform Vedic rites, prayers, Yog etc.
कार्ष्ण रौरवबास्तानि चर्माणि ब्रह्मचरिण:।
वसीरन्नानुपूर्व्येण शाणक्षौमाविकानि च॥2.41॥
ब्रह्मचारियों को कृष्णमृग, रुरुमृग, बकरे का चमड़ा उत्तरीय की जगह धारण करना चाहिये और वर्ण क्रम से सन-टाट, तीसी के सूत का कपड़ा और ऊन का वस्त्र धारण करना चाहिये।The celibate seeking education at the Ashram of the Guru should wear the skin of black antelope or the spotted deer called Ruru or he goat in the upper half of his body while the students from Kshtriy community should wear the garments made of hemp or flex & the disciples from trader community should wear garments made of wool.
मौञ्जी त्रिवृत्समा श्लक्ष्णा कार्या विप्रस्य मेखला।
क्षत्रिस्य तु मौर्वी ज्या वैशस्य शणतान्तवी॥2.42॥
तीन फेरे वाली चिकनी मूँज की मेखला ब्राह्मण ब्रह्मचारी की, क्षत्रिय ब्रह्मचारी की मूर्वा की प्रत्यंचा और वैश्य ब्रह्मचारी की सन की बनी मेखला होनी चाहिये। The girdle of the Brahmchari-Celibate round the waist, should be made of 3 rounds of flexible-soft saccharum (Saccharum Sara Roxb, rope-yarn), that of the Kshatriy disciple should be made of bow string formed with Clematis (Murva fibre, Sansevieria roxburghiana and S. Zeylanica, grown in South Asia for the strong white fibre present in their leaves) and the loin cord of the Vaeshy should be made up of hempen threads.
मुंञ्जालाभे तु कर्तव्या: कुशाश्मन्तकबल्वजै:।
त्रिवृता ग्रन्थिनैकेन त्रिभि: पञ्चभिरेव वा॥2.43॥
यदि मूंज न मिले तो कुश अथवा पत्थर पर उत्पन्न होने वाली घास (डाभी) की तीन फेरेवाली मेखला बनाकर उसमें तीन या पाँच गाँठ लगानी चाहियें। If Munj is not available, one can have the grass called Kush or Dabhi that grows over the rocks (alternatively Asmantak or Balbag fibres) to make a girdle having three folds with three or five knots (according to the custom of the family).
कार्पा समुपवीतं स्याद्विप्रस्येध्र्ववृतं त्रिवृत्।
शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविजसौत्रिकम्॥2.44॥
ब्राह्मण का कपास के सूत का, क्षत्रिय का सन के सूत का और वैश्य का भेड़ की ऊन के सूत का यज्ञोपवीत होना चाहिये और दाहिने हाथ से बटा होना चाहिये। The sacrificial string, sacred thread, Yagyopaveet (loin thread) of the Brahmn should be made from cotton thread, that of the Kshtriy from hempen threads and for the Vaeshy it should be made from the woollen thread, twisted (woven, knit) with right hand in right direction.
ब्राह्मणों वैल्वपालाशो क्षत्रियो वाटखादिरौ।
पैलवौदुम्बरौ वैश्यो दण्डानर्हन्ति धर्मतः॥2.45॥
ब्राह्मण बेल या पलास का, क्षत्रिय बड़ (वर) या ख़ैर का और वैश्य पीलू या गूलर का दण्ड धर्म के लिये धारण करे। Brahmn should wear-carry a staff (Baton) made of Bilv or Palas, the Kshtriy should have it made of either Bad-Banyan or Khaer and the Vaeshy should adopt a staff made of Pilu or Gular-Sycamore Fig wood.
केशान्तिको ब्राह्मणस्य दण्ड: कार्य: प्रमाणतः।
ललाटसंमितो राज्ञ: स्यात्तु नासन्तिको विश:॥2.46॥
ब्राह्मण का दण्ड उसको खड़ाकर पैर से शिखा तक के अग्र भाग तक का लम्बा, क्षत्रिय का कपाल तक और वैश्य का नाक तक का लम्बा होना चाहिये।The staff of the Brahmn should be of his height from toe to hair lock, that of Kshtriy should be as high as the forehead and the one belonging to the Vaeshy should reach his nose.
ऋजवस्ते तु सर्वे स्युरव्रणा: सौम्यदर्शनाः।
अनुद्वेगकरा नृणां सत्वचोSनग्निदूषिताः॥2.47॥
ये सभी दण्ड सीधे, छिद्ररहित, देखने में सुन्दर और चित्त को प्रसन्न करने वाले, त्वचा से गौर और जले हुए न हों। All these staffs should be straight, good looking-blemish (दाग-धब्बे रहित), free from holes, fair coloured, unburnt and pleasing.
The stuff was used as a mark of identification of the celibate while begging alms from the households. It could help the celibate in protecting himself from wild animals as well. It could be used for support, occasionally.
प्रतिगृह्येप्सितं दण्डमुपस्थाय च भास्करम्।
प्रदक्षिणं परित्याग्निम् चरेद् भैक्षं यथाविधि॥2.48॥
अपने-अपने अभीष्ट दण्ड को धारण कर सूर्य का उपस्थान (1). किसी के समीप जाना या पहुँचना, (2). उपस्थित होना, (3). अभ्यर्थना, पूजा आदि के लिए पास आना, (4). पूजा आदि का स्थान।) करके अग्नि की परिक्रमा करके नियम के अनुसार भिक्षा माँगे। The celibate should pray to the Sun and circumambulate-walk around the fire and proceeded to collect alms (to beg) as per rule.
भवत्पूर्व चरेद् भैक्षमुपनीतो द्विजोत्तमः।
भवन्मध्यं तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम्॥2.49॥
भिक्षा माँगते वक्त याचक, आव्रजक-ब्रह्मचारी प्रारम्भ में भवत् शब्द का प्रयोग करे यथा :- "भवति भिक्षां में देहि":। क्षत्रिय मध्य यथा :- "भिक्षां भवति में देहि" और वैश्य अन्त में भवत् शब्द का प्रयोग करे यथा :- "भिक्षां देहि में भवति"। The Brahmn celibate should use the word Bhavti as prefix for begging alms, the Kshatriy celibate from warrior castes should use Bhavti in the middle and the celibate from the business-Vaeshy community should use the word as a suffix in the end of uttering request for alms.
These verses describe code of conduct for the disciple-celibate for begging alms; so that the house hold is able to identify him at once and give him alms as per his lineage-hierarchy.
Whatever was received by the celibate was handed over to the Guru at the Ashram so that it could be distributed as per need of all celibates-students.
मातरं वा स्वसारं व मतुर्वा भगिनीं निजाम्।
भिक्षेत भिक्षां प्रथमं या चैनं नावमान्येत्॥2.50॥
अपनी माता, मौसी या बहिन, गृहस्थ अथवा किसी अन्य ऐसे व्यक्ति से भिक्षा माँगनी चाहिये जो अपमान-निरादर ना करे अर्थात भिक्षा देने से मना न करे। One should request for eatables-alms to such a person, who do not disgrace-insult or refuse to give alms like household, mother, mother's sister of own sister.
समाहृत्य तु तद्भैक्षं यावदन्नममायया।
निवेद्य गुरवेSश्-नीयादाचम्य प्राङ्-मुखः शुचि॥2.51॥
उस भिक्षा को लाकर निष्कपट होकर गुरु को निवेदन कर पूर्वाभिमुख पवित्र होकर आचमन करके भोजन करे। One should hand over the alms to the Guru-teacher without deceit and accept it as food after offering prayers to the deities while sitting facing east-Sun.
Traditionally the village folk residing near the Ashram kept food ready, dry or prepared to give to the Brahmcharies-celibates as soon as they made a call-request. Normally, the celibate was supposed to request for food in 3 to 5 homes. It is still considered auspicious in traditional Indian families to offer food to any one who reach their home at the time of meals. However, things are changing fast due to deceitful people, cheats, fraudulent people reaching homes and with nasty designs.
आयुष्यं प्राङ्-मुखो भुङ्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः।
श्रियं प्रत्यङ्-मुखो भुङ्क्ते ऋतं भुङ्क्ते ह्यदङ् मुखः॥2.52॥
पूर्व मुख होकर भोजन करने से आयु, दक्षिण मुख से यश, पश्चिम मुख से लक्ष्मी और उत्तर मुँह से भोजन करने से सत्य का फल होता है। If the celibate or a normal person takes meals, while facing East he gets long life, South direction grants honours, West awards wealth and the North direction gives the result of speaking the truth.
आचमन :: साधक अथवा ब्रह्मचारी सीधे हाथ की अंजलि में जल लेकर तीन बार मुँख में ग्रहण करे तत्पश्चात शेष जल को भोजन की परिक्रमा करते निम्नलिखित मंत्रोचार के साथ भूमि पर गिराये (Ablution, हस्त प्रक्षालन; धार्मिक कार्य में शरीर, हाथ या पवित्र पात्रों का शुद्ध करना)। The practitioner-celibate should take a few drops of water in his right hand arm pit and then put a few of them in his mouth thereafter, drop the rest by of them by circumambulating the food in front of him by reciting the names of God, as follows :-
"ॐ केशवाय नमः"। "ॐ नारायणाय नमः"। "ॐ माधवाय नमः"।
साधक एक-एक कर कुल तीन आचनम करे।
उपस्पृश्य द्विजो नित्यमन्नमद्यात्समाहित:।
भुक्त्वा चोपस्पृशेत् सम्यगद्भि: खानि च संस्पृशेत्॥2.53॥
द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) नित्य आचमन कर भोजन करें और भोजन के बाद अच्छी तरह आचमन करके छिद्रों (आँख, कान, नाक) को जल से स्पर्श करें। Those born in upper caste-Dwij, should adopt ablution (हस्त प्रक्षालन; धार्मिक कार्य में शरीर, हाथ या पवित्र पात्रों का शुद्ध करना); regularly while taking taking food and then again put some water in the hand, clean them and clean the eyes, ears and the nose, after the meals are over.
पूजये दशनं नित्यं मद्याच्चैतदकुत्सयन्।
दृष्टवा हृष्येत्प्रसिदेच्च प्रतिनंदेच्च सर्वशः॥2.54॥
भोजन को नित्य पूज्य दृष्टि से देखें और बिना निंदा किये हुये भोजन करें तथा देखकर और संतुष्ट होकर, प्रसन्न होवें व हमेशां अन्न का अभिनन्दन करें। One should accept the food with worship-respect, glory and eat it without contempt-criticising. One should be content-satisfied, pleased, rejoice-happy and welcome the grains for eating i.e., pray that he may continue to obtain it.
One should avoid debating, discussing serious matter of the dinning table or while one is taking food-meals. Its better if one remains silent while eating. Parents should never rebuke or say any thing disturbing to their wards while serving food.
पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्जन् च यच्छति।
अपूजितं तु तद् भुक्तमुभयं नाशयेदिदम्॥2.55॥
नित्य आदर की दृष्टि से किया गया भोजन बल, तेज़ का दाता है और अनादर की दृष्टि से किया हुआ भोजन दोनों का (बल और तेज़) का नाश कर देता है। The food which is accepted with due respect grants power-strength and aura-brilliance and food which is eaten with contempt irreverently, destroys both strength and aura.
नोच्छिष्टं कस्यचिद् दद्यान्नाद्याच्चैव तथान्तरा।
न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्ट: क्वचिद्॥2.56॥
किसी को जूठा न दे और न किसी के जूठा स्वयं ही खावे और अधिक भोजन ने करे तथा झूँठे मुँह से कहीं बाहर न जावे। One should neither eat nor offer left over-defiled food to any one and eat too much or move out of the house without washing-cleaning the mouth.
Defied food may have germs, virus, microbes or the DNA of the other person, which will be transmitted to the one who is eating it. Soon after eating, the food starts disintegrating and may produce foul smell. Its, therefore essential to clean the mouth, teeth and gums prior to moving out of the house. Food intake beyond limit, causes obesity, indigestion, ulcers, gastric trouble etc. and adversely affect the health.
अनारोग्यमनायुष्यमस्वग्र्यं चातिभोजनम्।
अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्तत्परिवर्जयेत्॥2.57॥
अत्यधिक भोजन रोग कारक, आयुष्य में क्षीणता और स्वर्ग प्राप्ति में बाधक है। पुण्य का नाश करने वाला, लोक निंदा करने वाला होता है। अतः जरूरत से ज्यादा भोजन न करें। Too much eating is dangerous since it produce diseases, reduces life span, interfere with enjoyment (attainment of heaven, pleasures, bliss). It reduces the impact of the virtuous acts and may lead to defamation. Its therefore, advised not to eat too much.
पुण्य :: (1). Worthy, Pure, Meritorious, Fair, Auspicious, Holy, Sacred, Fair, Good deeds. (2). Righteous, Auspicious, Virtuous act, Moral, spiritual, meritorious deeds. दान, उपकार, उदारता, करुणा, दयालुता, पवित्र, पाक, पावन, पुण्य, भलाई, साधुशीलता, धर्म, धर्माचरण सम्बन्धी पुण्यात्मक कार्य।
ब्राह्येण विप्रस्तीर्थेन नित्यकालमुपस्पृशेत्।
कायत्रैदशिकाभ्यां वा न पित्र्येण कदाचन॥2.58॥
ब्राह्मण को हमेशां ब्राह्मतीर्थ या प्रजापति या देवतीर्थ से आचमन करना चाहिये; किन्तु पितृतीर्थ से कभी आचमन नहीं करना चाहिये। The Brahmn should always conduct oblation with the help of Brahm Tirth or Prajapati Tirth or Dev Tirth. He should never do it with Pitr Tirth.
Location of ब्राह्मतीर्थ, प्रजापति, देवतीर्थ, पितृतीर्थ on hand :: अंगुष्ठ मूल के नीचे ब्राह्मतीर्थ, कनिष्ठ मूल में प्रजापति तीर्थ, अंगुलियों के आगे के भाग में देवतीर्थ तथा अंगुष्ठ व तर्जनी के मध्य में पितृतीर्थ स्थित माना गया है। Most of the sacred rules are made for the Brahmns only and they are supposed to have a pure, virtuous, righteous, pious conduct through out their life. Tirth stands for pilgrimage-auspicious, holy journeys.
अंगुष्ठमूलस्य तले ब्राह्म तीर्थं प्रचक्षते।
कायमङ्गुलिमूलेSग्रे दैवं पित्र्यं तयोरध:॥2.59॥
अँगूठे के मूल के नीचे ब्राह्मतीर्थ, कनिष्ठा (सबसे छोटी अँगुली) के मूल में प्रजापति तीर्थ, अँगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ और अंगुष्ठ और प्रदेशिनी (पहली अँगुली) के बीच को पितृतीर्थ कहते हैं। The auspicious-virtuous, righteous, holy pilgrim sites are localised under the root of the thumb as Brahm Tirth-terrain of Venus, region below the smallest finger under Mercury is Praja Pati Tirth, the fore fingers have Dev Tirth located over them and the region between the Jupiter finger and the Thumb is Pitr Tirth.
The hand has the entire universe over it, symbolically. Similarly, the human body is a representation of the Galaxies.
Human body is considered to be most sacred object in the three worlds :: The heavens, the earth and the nether world. Even the demigods, Rakshas, demons-giants are eager to attain it, since it is the only thing through which the soul can make endeavours to attain the Almighty.
त्रिराचामेदप: पूर्वं द्वि: प्रमृज्यात्ततो मुखम्।
खानि चैव स्पृशेदद्भिरात्मानं शिर एव च॥2.60॥
पहले जल से तीन बार आचमन करके इसके बाद आँख, कान, नाक और अपने मस्तक का स्पर्श करें। One should perform-conduct oblation (sip water) thrice and then touch the eyes, ears, nose and the forehead.
अनुष्णाभिरफेनाभिरद्भिस्तीर्थेन धर्मवित्।
शौचेप्सु: सर्वदाचामेदेकान्ते प्रागुङ्मुख:॥2.61॥
पवित्रता के इच्छुक धार्मिक पुरुष को हमेशां एकान्त में पूर्व अथवा उत्तर मुँह होकर शीतल और फेन (गाज) से रहित जल से कहे हुए तीर्थों द्वारा आचमन करना चाहिये। The religious-devoted person, desirous of having purity, should always sit alone facing North & conduct oblation of the pilgrim sites with cold water free from froth.
ह्रद्गाभि: पूयते विप्र: कण्ठगाभिस्तु भूमिपः।
वैश्योSद्भि: प्राशिताभिस्तु शुद्र: स्पृष्टाभिरन्तत:॥2.62॥
आचमन का जल ब्राह्मण के हृदय तक, क्षत्रिय के कण्ठ तक, वैश्य के मुँह तक तथा शूद्र के होठों में लगाने से ये शुद्ध होते हैं। The Brahmn is purified when the water of oblation reaches his chest (heart), the Kshtriy becomes pure when it reaches his neck-food canal, the Vaeshy is purified when it reaches his mouth-the tongue; while the Shudr becomes pure as soon as it reaches his lips.
This clearly indicate that there is no ban-prohibition, on conducting prayers by the so called lower castes (called scheduled castes, oppressed, दलित, पिछड़े, as claimed by them for obtaining the benefits of reservation condemning Manu Smrati). Performing prayers is really very intricate and needs high degree of sanctity-purity, accuracy, which is not possible even for a person born in the Brahmn family without regular practice and guidance by the experts. The job was assigned to highly devoted, trained, perfect individuals called Purohit or Ritvij (ऋत्विज, Sacrificial priest). Then there were individuals trained to perform only specific sacrifices. Thus, it is very very clear that even a normal Brahmn, Kshtriy, Vaeshy or the Shudr was grossly incompetent to do the job himself.
राजा दशरथ ने पुत्रयेष्ठि यज्ञ हेतु गौकर्ण जी से अनुरोध किया था। इसी प्रकार नेमी ने वशिष्ठ जी से अनुरोध किया था।
उद्धृते दक्षिणे पाणावुपवीत्युच्यते द्विजः।
स्वये प्राचीन आवीती निवीती कण्ठसञ्जने॥2.63॥
दाहिने हाथ के नीचे और बायें कंधे के ऊपर यज्ञोपवीत के रहने से द्विज उपवीती-सव्य और इसके विलोम रहने पर प्राचीनावीती-अपसव्य कहलाता है और कण्ठ में जनेऊ धारण करने से निवीती कहलाता है। Wearing of the sacred thread over the left shoulder below the right hand titled the Dwij-upper castes as Upviti or Savy and contrary to it; from right shoulder and below left hand titled him Prachinviti or Upsavy and wearing of the sacred thread round the neck titled him Niviti.
मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम्।
अप्सु प्रास्य विनष्टानि गृहीणातान्यानि मन्त्रवत्॥2.64॥
मेखला, मृगछाला, दण्ड, यज्ञोपवीत और कमण्डलु; इनमें से कोई चीज छिन्न-भिन्न हो जाये तो जल में विसर्जन करके मन्त्रोचारण पूर्वक दूसरा धारण करना चाहिये। If any of the 5 items girdle, the spotted deer skin, staff, sacred thread and his Kamandlu (water-pot) is damaged; he (Brahmn or celibate) must throw it into water and accept the new by reciting sacred chants-Mantr.
केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते।
राजन्यबन्धोर्द्वाविंशे वैशस्य द्वयाधिके तत:॥2.65॥
ब्राह्मण का 16 वें वर्ष में, क्षत्रियों का 22 वें वर्ष में और वैश्य का 24 वें वर्ष में केशान्त संस्कार करना चाहिये। The Keshant-clipping the hair, balding ceremony of the Brahmn should be preformed at the age of 16 years, that of the Kshatriy at 22nd year and for the Vaeshy it should be held when he is 26 years.
अमांत्रिका तू कार्येयं स्त्रीणामावृदशेषतः।
संस्कारार्थं शरीरस्य यथाकालं यथाक्रमम्॥2.66॥
यथा समय यथा क्रम शरीर के शुध्यर्थ बिना मन्त्र के स्त्रियों के पूर्वोक्त सभी संस्कार करने चाहियें। For sanctification-purification of the body of women, all these procedural actions-ceremonies should be performed in proper order and time without the recitation of sacred Mantr-hymns.
The procedures have been reduced-eliminated, cut short for women and the Shudr; since they are found to be incapable of getting sanctified easily without rigours, especially in Kali Yug. One who serve others with dedication with or without motive gets the impact of the virtues of the master, automatically as blessings, love and affection. Mahrishi Bhagwan Ved Vyas has asserted this in Maha Bharat.
वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृत:।
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोSग्निपरिक्रमा॥2.67॥
स्त्रियों का वैदिक संस्कार (विवाह विधि) ही है। स्त्रियों के लिये पति सेवा ही गुरुकुल का वास है और घर का काम धंधा ही नित्य का हवन होता है। For the women nuptial knot-marriage ceremony performed with Vaedic rituals and holy sacrifices in the fire, constitute the Vaedic Sanskar-procedure, sacrament. For them the service of the husband is residence in the Guru Kul and daily routine work is Hawan-sacrifice in holy fire.
There had been women in the past who were highly qualified, enlightened, educated, well versed in warfare, administration, music, singing, dance etc. In ancient India 64 arts & sciences were taught to the women. Still the women were not expected to enchant the Vaedic hymns-Mantr. A woman dedicated to family duties in fact finds no time at all for such things. Her house is called Guru Kul, since it has the elders-Gurus to be looked after. A normal woman-girl acquires the training of house hold chores-duties, systems, procedures prevalent in that family only after joining it after marriage. These days the women are doing all sorts of jobs, without hitch.
एष प्रोक्तो द्विजातीनामौपनायनिको विधिः।
उत्पत्तिव्यञ्जकः पुण्यः कर्मयोगं निबोधत॥2.68॥
यह सब द्विजातियों के उपनयन की विधि कही गई है जो कि उनके पूर्व के पुण्य को प्रकट करती है। अब उनके कर्मयोग सुनिये। The method-procedure of initiation into education-life thereafter, of the Dwi Jati-Upper castes, twice born has been described in short; depending upon their virtuous deeds in the previous births. Now, listen to the duties-deeds they are expected to do-perform.
उपनीय गुरुः शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादित:।
आचारमग्निकार्यं च संध्योपासनमेव च॥2.69॥
शिष्य का उपनयन करके पहले शौच, आचार, अग्निहोत्र और संध्योपासन की शिक्षा देवें। The teacher should impart instructions pertaining to cleanliness, proper-decent conduct, holy sacrifices in fire-Hawan and evening & morning prayers; before initiation into studies.
अध्येष्यमाणयथाशास्त्र स्त्वाचान्तो मुदङ्मुख:।
ब्रह्माञ्जलिकृतोSध्यापयो लघुवासा जितेन्द्रियः॥2.70॥
गुरु से पढ़ने की इच्छा वाला शिष्य शुध्द वस्त्र पहन कर, शास्त्र की विधि से आचमन करके उत्तर दिशा में मुँह करके जितेन्द्रिय होकर ब्रह्माञ्जलि करके गुरु के समीप बैठे और ऐसे शिष्य को गुरु पढ़ायें। One desirous of attaining education should become pure-fresh, wear washed cloths, perform the oblation according to the scriptures and sit in front of the educator-Guru facing North, controlling all his sense organs, having concentrated fully over the Guru, having performed Brahmanjali-acceptance mode for education with open palms joined together in the upward direction (joining the hollowed hands) and the Guru should impart education to such a disciple.
Brahmanjali ब्रह्माञ्जलि :: दोनों हाथों को जोड़कर ऊपर की ओर हथेलियों को करके भिक्षा ग्रहण करने की मुद्रा ब्रह्माञ्जलि है। It is the acceptance mode for education or begging alms with open palms joined together in the upward direction i.e., joining the hollowed hands. Anjali stands for palm pit.
ब्रह्मारम्भेSवसाने च पादौ ग्राह्यौ गुरो: सदा।
संहत्य हस्तावध्येयं स हि ब्रह्माञ्जलि: स्मृत:॥2.71॥
नित्य वेदारम्भ करने से पहले और बाद में गुरु के चरणों को छूना चाहिये। हाथों को जोड़े हुए ही पढ़ें इसी को ब्रह्माञ्जलि कहते हैं। The disciple-student should touch the feet of his teacher-Guru before the beginning of the lesson and at the end of the lecture. One should do this with folded hands and this procedure is called Brahmanjali-acceptance mode.
व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरो:।
सव्येन सव्य: स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिण:॥2.72॥
उलटे हाथों से, (कैंची की मुद्रा में) गुरु के बायें हाथ से बायाँ और दाहिना हाथ से दाहिना पैर छूना चाहिये। The disciple should touch the feet of the Guru with crossed hands in such a way that his left hand touches the teacher's left foot and the right hand touches Guru's right foot.
अध्येष्यमाणं तु गुरुर्नित्यकालमतन्द्रित:।
अधीष्व भो इति ब्रूयाद्वीरामोSस्त्विति चारमेत्॥2.73॥
आलस्य को छोड़कर गुरु पढ़ने वाले शिष्य को नित्य पढ़ाने समय हे शिष्य पढो!, ऐसा कहे और पढ़ाना बन्द करते वक्त बन्द करो!, ऐसा कहकर पढ़ाना बन्द करे। The Guru should ask the student who has rejected laziness everyday; while starting teaching to learn and ask them to wind up (समापन, Completion, Conclude), when the lecture is over.
ब्रह्मणः प्रणवं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा।
स्रवत्यनोङ्कृतं पूर्वं पुरस्ताच्च विशीर्यति॥2.74॥
नित्य विद्याध्ययन के समय आदि और अन्त में प्रणव (ॐ) का उच्चारण करना चाहिये। ॐ कार का उच्चारण न करने से पहले का पढ़ा हुआ भूल जाता है और आगे याद नहीं होता है। It is essential to pronounce OM (ॐ) before beginning with the lesson and again at the conclusion of the lesson, since in the absence of this, the lesson fades away from the memory of the disciple and he is unable to remember-recollect it.
प्राक्कूलान् पर्युपासीनः पवितत्रैच्श्रैव पावित:।
प्राणायामैस्त्रिभिः पूतस्तत ओङ्कारमर्हति॥2.75॥
पूर्व दिशा में कुशा का अग्र करके उस पर बैठकर पवित्र को पहिनकर तीन बार प्रणायाम कर पवित्र होकर ओङ्कार का उच्चारण करना चाहिये। One should sit over the mat made of Kush grass facing east,wearing the Pavitr-made of Kush grass, perform three cycles of Pranayam-thrice and recite Om.
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अकारं चाप्युकारं मकारं च प्रजापतिः।
वेदत्रयान्नीरदुहद् भूर्भुवःस्वरितीति च॥2.76॥
ब्रह्मा जी ने अकार (अa), उकार (उu) और मकार (मm) तथा भू: र्भुवः स्व: इन तीन व्याह्रतियों (व्यय-ह्रास को रोकने वाले) को तीनों वेदों से लिया गया है। Praja Pati Brahma Ji has milked-extracted the three Vaedic, the Primordial sounds A-अ , U-उ and M-म; constituents of Om-ॐ i.e,. Pranav and the Vyahratis Bhur, Bhuvah & Svah which checks-reduces the degradation-loss.
तीन व्याह्रतियाँ :: सृष्टि से पूर्व ब्रह्मा जी ने स्वयं ज्ञान देह से "भू: र्भुवः स्वः" कहा-इसलिए यह ब्रह्म स्वरूप है। इसी कारण 'ऊँ' के पश्चात् गायत्री मन्त्र के आदि में ही इन्हें लगाया जाता है।
(1). गायत्री मन्त्र में ऊँकार के पश्चात् भूः भुवः स्वः क्रमशः यह तीन व्याह्रतियाँ आती हैं। व्याह्रतियों का यह त्रिक् अनेकों बातों की ओर संकेत करता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीन उत्पादक, पोषक, संहारक शक्तियों का नाम भूः भुवः स्वः है। सत, रज, तम इन तीन गुणों को भी त्रिविध गायत्री कहा गया है। भूः को ब्रह्म, भुवः को प्रकृति और स्वः को जीव भी कहा जाता है।
(2). अग्नि, वायु और सूर्य इन तीन प्रधान देवताओं का भी प्रतिनिधित्व यह तीन व्याह्रतियाँ करती हैं। तीनों लोकों का भी इनमें संकेत है। एक ऊँ की तीन संतान हैं :- भूः भुवः स्वः।
(3). व्याह्रतियों में से तीनों वेदों का आविर्भाव हुआ। इस प्रकार के अनेकों संकेत व्याह्रतियों के इस त्रिक् में भरे हुये हैं । उन संकेतों का सार मनुष्य को सत्य, प्रेम और न्याय ही प्रतीत होता है।
(4). भूः विष्णु भगवान हैं तथा भुवः लक्ष्मी जी हैं, उन दोनों का दास स्वः रूपी जीव है।
(5). वेदों का सार उपनिषद है। उपनिषदों का सार गायत्री, गायत्री का सार "भू: र्भुवः स्वः" ये तीन व्याह्रतियाँ हैं।
(6). त्रिदेव रूपी परब्रह्म की शक्तियों का मनुष्य को ध्यान रखना चाहिए। उनके द्वारा पदार्थों को एक रूप में नहीं रहने दिया जाता। समस्त विश्व की सभी चीजें प्रतिक्षण बदलती रहती हैं। "चरम परिवर्तन का नाम मृत्यु" है।
(7). पदार्थों का परिवर्तन एवं नाश होना स्वाभाविक है, इसीलिए उनसे मोह नहीं करना चाहिए, केवल उनके सदुपयोग का ध्यान रखना चाहिए।
(8). सत, रज और तम इन तीनों गुणों से संसार बना है। इन तीनों स्वभावों के प्राणी और पदार्थ इस विश्व में रहते हैं। मनुष्यों के लिये उनमें से अनेक उपयोगी और लाभदायक हैं और अनेकानेक हानिकारक अनुपयोगी हैं। मनुष्य को क्रमशः नीचे से ऊपर की ओर चलना चाहिए। अनुपयोगिता से बचते हुए उपयोगिता को अपनाना है। तम से रज की ओर और रज से सत की ओर कदम बढ़ाना है।
(9). अग्नि, वायु और जल की उपासना का अर्थ है, तेजस्विता, गतिशीलता और शान्तिप्रियता का मन में स्थापित होना। इस त्रिविध सम्पत्ति को अन्दर धारण करके, जीवन को सर्वांगीण सुःख-शान्तिमय बनाया जा सकता है।
(10). ईश्वर, जीव,प्रकृति के गुन्थन की गुत्थी को तीन व्याह्रतियाँ ही सुलझाती हैं। भूः - धरती, भुवः - स्वर्ग एवं स्वः - पाताल यद्यपि तीन लोक विशेष भी हैं; परन्तु अन्तःकरण, शरीर और संसार यह तीन क्षेत्र भी सूक्ष्म लोक हैं, जिनमें स्वर्ग एवं नरक की रचना मनुष्य अपने आप करता है। सत, रज, तम इन तीनों का ठीक प्रकार उपयोग हो तो यह बन्धन न रहकर मुक्ति के सहायक एवं आनन्द के उपकरण बन जाते हैं।
त्रिभ्य एव तु वेदेभ्यः पादं पादमदूदुत्।
तदित्यरचोSस्या: सावित्र्या: परमेष्ठी प्रजापतिः॥2.77॥
परमेष्ठी ब्रह्मा जी ने तीनों वेदों में से क्रमशः सावित्री के एक-एक पाद करके तीन पाद को प्राप्त किया है। Brahma Ji who dwells in the Brahm Lok the uppermost abode, selected the three stanzas of Savitri Mantr from the three Veds one by one.
एतदक्षरमेतां च जपन् व्याह्रतीपूर्विकाम्।
संध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेदपुण्येन युज्यते॥2.78॥
ओङ्कार पूर्वक तीन पादों वाली व्याह्रती पूर्वक सावित्री का जप दोनों संध्याकाल में करने वाला वेदज्ञ ब्राह्मण सम्पूर्ण वेद पाठ किये हुए, पुण्य से युक्त होता है। The Brahmn who learnt the Veds and perform both evening & morning Sandhyas prayers with the recitation of ॐ (Omkar) as prefix with the three Vyahraties (भू:, भूव:, स्व:) becomes virtuous.
SEVEN VYAHRATI सात व्याह्रतियाँ :: ब्रह्मा जी ने ॐ बीज मंत्र से वर्ण माला उत्पन्न की। उन्होंने ही ॐ बीज मंत्र से यज्ञ के लिए भू:, भूव:, स्व:, महा, जन, तप, सत्यम सात व्याह्रती उत्पन्न कीं।
सहस्त्रकृत्वस्त्वभ्यस्य बहिरेतत्त्रिकं द्विजः।
महतोSप्येनसो मासात्तवचेवाहिर्विमुच्यते॥2.79॥
द्विज इन तीनों (प्रणव, व्याहृत और सावित्री) को बाहर (एकांत में) एकाग्र चित्त से एक मास पर्यन्त नित्य एक हजार जप करे तो बड़े भारी पाप से मुक्त हो जाता है, जैसे साँप केंचुली से मुक्त होता है। The Brahmn can get rid of the gravest-heavy, weighty sins by the recitation of the three i.e., Pranav-Om, Vyahrati and the Savitri-Sandhya, evening & morning prayers with deep concentration; 1,000 times every day for one month, by sitting alone in an isolated place, just as a snake get rid of his slough (exo-skin, exuviate, moulting).
एतचर्याविसंयुक्तः काले च क्रियया स्वया।
ब्रह्मक्षत्रियविट्योनिर्गर्हणां याति साधुषु॥2.80॥
संध्या से भिन्न समय पर इस सावित्री के जप को और हवनादि करने वाला द्विज ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैष्णवों के साधु-मण्डल (सज्जनों) में निंदित है। One who perform the recitation of the Savitri & the Agnihotr-Hawan etc. at an hour other than the prescribed i.e., morning or evenings, is rebuked-condemned by the Brahman, Kshatriy, the Vaeshnavs-those who worship Bhagwan Vishnu & the descent-enlightened, learned, virtuous person.
ओङ्कारपूर्विकास्तिस्त्रो महाव्याहृतयोSव्यया:।
त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणो मुखम्॥2.81॥
ओङ्कार पूर्वक तीनों महा व्याह्रती (भू:, भुवः, स्व:) और त्रिपद सावित्री अव्यय और वेद का मुख है। Pronunciation of the three Vyahratis with the prefix Om and the Savitri in three stages-stanzas, is imperishable and the mother-source, mouth of the Veds.
यह मंत्र सर्वप्रथम ऋग्वेद में उद्धृत हुआ है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं। वैसे तो यह मंत्र विश्वामित्र के इस सूक्त के 18 मंत्रों मे केवल एक है, किंतु अर्थ की दृष्टि से इसकी महिमा का अनुभव आरंभ में ही ऋषियों ने कर लिया था और संपूर्ण ऋग्वेद के 10 सहस्र मंत्रों में इस मंत्र के अर्थ की गंभीर व्यंजना सबसे अधिक की गई। इस मंत्र में 24 अक्षर हैं। उनमें आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। किंतु ब्राह्मण ग्रंथों में और कालांतर के समस्त साहित्य में इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे पूर्व प्रणव या ओंकार को जोड़कर मंत्र का पूरा स्वरूप स्थिर हुआ।
ॐ भूः र्भुव: स्वः। तत् सवितुर्वरेण्यं।
भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥
उस प्राण स्वरूप, दुखनाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अंतर आत्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्वि को सन्मार्ग मे प्रेरित करे।मंत्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है।
ब्रह्मा जी के कथनानुसार :- ब्रह्म ज्ञान (गायत्री) की उत्पत्ति स्वयम्भू भगवान् विष्णु की अंगुलियाँ मथने से जल उत्पन्न हुआ। जल से फेन निकला। फेनों से बुद्बुद्ध की उत्पत्ति हुई। उससे अण्ड की और अण्ड से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। उनसे वायु निकला।अग्नि की उत्पत्ति उससे ही हुई। अग्नि से ओङ्कार उत्पन्न हुआ। ओङ्कार से व्याहृति उत्पन्न हुईं। व्याहृति से गायत्री पैदा हुईं और गायत्री से सावित्री। उनसे सरस्वती। सरस्वती से सभी वेद उत्पन्न हुए। वेदों से सभी लोक हुए और उनसे सभी प्राणी हुए। इसके बाद गायत्री और व्याहृतियाँ प्रवृत्त हुईं।
गायत्री दो प्रकार की होती है :– लौकिक और वैदिक। लौकिक गायत्री में चार चरण होते हैं तथा वैदिक गायत्री में तीन चरण होते हैं। इसी कारण वश गायत्री का नाम त्रिपदा भी है। त्रिपदा गायत्री के ऋषि विश्वामित्र हैं। परम सत्ता धर्मी, शक्ति या शक्तिमान् की जो इच्छा, ज्ञान और क्रिया इस गुण त्रय से सम्पन्न है और जो ज्योति: स्वरुप है, उसकी मैं उपासना करता हूँ। त्रिपदा गायत्री के भूमि, अन्तरिक्ष और स्वर्ग ये अष्टाक्षर कहलाते है।
गायत्री का प्रत्येक पाद आठ अक्षरों का है :–
भू:, भुव: और स्व: यह तीनों लोक परिन्त विराजमान हैं। ऋच: यजूंषि ओर सामानि ये अष्टाक्षर भी गायत्री की एक पदत्रयी विद्या है। प्राणों का नाम गय है। उनका त्राण करने से ही गायत्री कहलाती है। गायत्री के भिन्न–भिन्न 24 अक्षर इस प्रकार है :–
ऊँ (1). त, (2). त्स, (3). वि, (4). तु, (5). र्व, (6). रे, (7). णि, (8). यं। ऊँ (9). भ, (10). र्गो, (11). दे, (12). व, (13). स्य, (14). धी, (15). म, (16). हि। ऊँ (17). धि, (18). यो, (19). यो, (20). न:, (21). प्र, (22). चो, (23). द, (24). यात्।
॥ ऊँ नम:॥
मुक्ताविद्रुमहेमनील धवलच्छायैमुर्खैस्त्रीक्षणैयुर्क्ता मिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्वार्थवर्णात्मिकाम्। गायत्रीं वरदाभयाडंकुशकषा: षुभ्रं कपालं गुणं, षंखं चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे॥
यह पॉंच सिर वाली है (जो पंच ज्ञानेन्द्रियों के बोधक) तथा प्रधान पंच प्राण धारिणी है। इन पंच प्राणों के पंच वर्ण हैं। एक मोती जैसा, दूसरा विद्रुम मणि जैसा तीसरा सुवर्ण जैसा, चौथा नीलमणि जैसा और पॉंचवा धवल अर्थात् गौरवपूर्ण का है। इसके तीन आँखें हैं अर्थात् (अ–उ–म् :: ऊॅं) प्रणव के वर्ण–त्रय के अनुसार वेद त्रय अर्थात् रस वेद, विज्ञान वेद और छन्दो वेद सम्बद्ध, ऋक, यजु: और साम वेदात्मक तीन नयन अर्थात् ज्ञानवाली या त्रिविद्यावाली है। इसी को दूसरे प्रकार से श्रुति कहती है कि ये नाद, बिन्दु और कला के द्योतक है। इसके मुकुट पर, जो रत्न–मंडित है, वह चन्द्र है अर्थात् ज्योतिर्मयी आद्युक्ति अमृत वर्शिणी है, ऐसा बोध है। तत्व वर्णात्मिका है अर्थात् चौबीस अक्षर वाली गायत्री चतुविशंति तत्वों की बनी हुई पूर्ण अर्थात् सत् चिद् ब्रा स्वरुपिणी है। यहॉ गायत्री में तीन अक्षर हैं :– ग+य+त्र। ग से ‘गति‘ ‘य‘ तथा ‘त्र‘ से ‘यात्री‘ अर्थात् यात्री की गति हो, वह ‘गायत्री‘ है। ‘ग‘ से गंगा, ‘य‘ से यमुना और ‘त्र‘ से त्रिवेणी। ये तीनों हिन्दु के पवित्र तीर्थ माने जाते हैं। दसों भुजायें कर्मेन्द्रियों और विषयों की द्योतक है। दक्षिण पाँचों भुजाएँ, वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ की द्योतक है तथा बॉंई :– पाँचों भुजाएँ वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग और आनन्द विशयक रुप है। ये दसों आयुध इनके कर्म करण रुप हैं। ऐसी ही रुप–कल्पना परा प्राण शक्ति या परमात्मा की भी है और अपरा, चन्चला, माध्यमा, प्राणशक्ति या जीवात्मा की भी है।श्रुति भी कहती है कि ‘‘गायत्री वा इदं सर्वम्‘‘ गायत्री ही सब कुछ है। व्युत्पत्ति शास्त्र की दृष्टि से गायत्री वह है जो इसके साधक को सभी प्रकार की मलिनता तथा पापों से बचाये एवं संरक्षण करे। कहा गया हे कि ‘गायन्तं त्रायते इति गायत्री‘। गायत्री मन्त्र भी है और प्रार्थना है जिसमें उपासक केवल अपने लिये ही नहीं, सभी के लिये ज्ञान की ज्योति पाने हेतु प्रार्थना करता है ।
देवियों में स्थान ::
गयत्र्येव परो विश्णुगायित्र्व पर: षिव:।
गायत्र्येव परो ब्राा, गायत्र्येव त्रयी तत:॥स्कन्दपुराण॥
गायत्री ही परमात्मा विष्णु है, गायत्री ही परमात्मा शिव है और गायत्री ही परमात्मा परम् ब्रह्म है। अत: गायत्री से ही तीनों वेदों की उत्पत्ति हुई है। भगवती गायत्री को सावित्री, ब्रागायत्री, वेदमाता, देवमाता आदि के नाम से मनुष्य ही नही अपितु देव गण भी सम्बोधित करते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि गायत्री वेदों की माता है और गायत्री से ही चारों वेदों की उत्पत्ति हुई है। यह सब ब्रह्माण्ड गायत्री ही है। वेद, उपनिषद्, वेदों की शाखाएं, ब्रामण ग्रन्थ, पुराण और धर्मशास्त्र ये सभी गायत्री के कारण पवित्र माने जाते हैं। अनेक शास्त्र, पुराणादि के कीर्तन करने पर भी ये सभी शास्त्र गायत्री के द्वारा ही पावन होते हैं। गायत्री मन्त्र के जप में भगवत् तत्व को प्रकट करने की रहस्यमयी क्षमता है। मन्त्र के जप से हृदय की ग्रंथियों का भेदन होता है, सम्पूर्ण दु:ख छिन्न–भिन्न हो जाते हैं और सभी अवशिष्ट कर्मबन्धन विनिष्ट हो जाते हैं।Gayatri is Tri Pad :- a Trinity, since being the Primordial Divine Energy, it is the source of three cosmic qualities known as “Sat”, “Raj” and “Tam” representing spirituality by the deities “Saraswati” or “Hreem”. “Lakshmi” or “Shreem” and “Kali” or “Durga” as “Kleem”. Incorporation of “Hreem” in the soul augments positive traits like wisdom, intelligence, discrimination between right and wrong, love, self discipline and humility. Yogis, spiritual masters, philosophers, devotees and compassionate saints derive their strength from Saraswati.
योSधीतेSहन्यहन्येतांस्त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रित:।
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूत: खमूर्तिमान्॥2.82॥
जो आलस्य को छोड़कर तीन वर्ष लगातार इनका प्रतिदिन (ओङ्कार व्याह्रती पूर्वक सावित्री का) जप करता है, वह वायु की तरह शीघ्रगामी होकर आकाश के स्वरूप को धारण कर परब्रह्म में लीन हो जाता है। One who regularly recite the Vyahratis with Om as prefix, for three years without laziness, becomes light like air and gets the form of sky and then assimilate in the Almighty.
एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामा: परं तपः।
सावित्र्यास्तु परं नास्ति मौनात्सत्यं विशिष्यते॥2.83॥
एकाक्षर ॐ परब्रह्म है और प्राणायाम परम् तप है तथा सावित्री से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है और मौन से सत्य बोलना श्रेष्ठ है। The monosyllable (Om) is the Ultimate-Almighty, Pranayam-Yog is the Ultimate ascetic practice-austerity, Savitri is the Ultimate Mantr and Truthfulness is better than silence.
क्षरन्ति सर्वा वैदिक्यो जुहोतियजतिक्रिया:।
अक्षरं दुष्करं ज्ञेयं ब्रह्म चैव प्रजापतिः॥2.84॥
वेद विहित सभी हवन यज्ञादि कर्मों के फल नष्ट हो जाते हैं, किन्तु प्रजापति ब्रह्मस्वरूप ओङ्कार का कभी नाश नहीं होता है। The result-reward of the ordained deeds including holy sacrifices in fire, Hawan, Yagy, asceticism etc. vanishes; but the impact of Omkar (ॐ) in the form of Praja Pati Brahm never vanishes.
It is the greatest purifier which helps the individual in one after another birth, throughout his birth cycles, till he achieves salvation.
विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्ठो दशभिर्गुणै:।
उपांशु स्याच्छ्तगुण: साहस्त्रो मानस: स्मृत:॥2.85॥
विधियज्ञ (दर्श-पौर्णमास यज्ञ) से जप यज्ञ (प्रणवादि जप) दस गुना अधिक फल देने वाला होता है और उपांशु जप (ओठ और जीभ चलते हों, किन्तु सुनाई न पड़े) सौ गुना और उपांशु से मानस जप से हजार गुना बड़ा होता है।Recitation of the Shloks, sacred rhymes yield 10 times more out put (completions of desires, wishes, requests made to the God) as compared to the sacrifices carried out with procedures narrated in holy texts. The recitation of sacred verses in which the tongue and lips are moving but no sound is not produces is 100 times more powerful and the silent mode for the recitation of sacred texts-Shloks, Mantrs, rhymes is sure to yield 1,000 times more fruit.
The Yogis, recluse, wanderers do recite the sacred texts in solitude silently due to this reason only. Those who use loud speakers for such celebrations-occasions certainly commit an irreparable mistake.
ये पाकयज्ञाश्चत्वारो विधियज्ञसमन्विता:।
सर्वे ते जपयज्ञस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥2.86॥
जो चार पाकयज्ञ (पितृकर्म, हवन, बलि और वैश्वदेव) विधि यज्ञ के बराबर हैं, वे सभी यज्ञ जप यज्ञ के 16 वें भाग के बराबर भी नहीं हैं। The four sacred deeds performed by the name of Pitr Yagy, Hawan, Bali & Vaeshv Dev which are comparable to the methodical-procedural deeds does not match 1/16 of the Jap Yagy i.e, silent mode of recitation of sacred verses.
पितृ कर्म :: श्राद्ध को पितृकर्म, पितृ पूजा, पितृ यज्ञ, आदि नाम से भी जाना जाता है। मृत्यु को प्राप्त हुए पूर्वजों को पितर के नाम से जाना जाता है। उनकी आत्म तृप्ति व खुद के कल्याण हेतु धर्म ग्रंथों में श्राद्ध का उल्लेख मिलता है। श्राद्ध शब्द ही श्रद्धा का प्रतीक है।
बलि-वैश्यदेव :: यज्ञ भूत-बलि या वैश्यदेव-यज्ञ स्थूल, सूक्ष्म, दिव्य जितने भी प्राणी या देव, सबों को तृप्त करने की भावना से भोज्य सामग्री की हवि प्रदान करना ही भूत या वैश्य देव यज्ञ है। इससे व्यक्ति का हृदय और आत्मा विशाल होकर अखिल विश्व के प्राणियों के साथ एकता सम्मिलित का अनुभव करने में होता है।
जप्येनैव तु संसिध्येद् ब्राह्मणो नात्र संशयः।
कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते॥2.87॥
ब्राह्मण जप, मात्र करने से ही सिद्ध होता है, इसमें सन्देह नहीं है। अन्य यज्ञादि को करे या न करे, उतने ही से ब्राह्मण "मन्त्र" कहलाता है। There is no doubt that a Brahmn becomes perfect by uttering-reciting the sacred rhymes silently in a lonely place. Whether he performs the other ritualistic sacrifices in holy fire or not is immaterial, since its enough to make him perfect-PURE.
इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु।
संयमे यत्नमातिष्ठेद्विद्वान्यन्तेव वाजिनाम्॥2.88॥
विद्वान की बुद्धि को हरण करने वाली अन्य विषयों विचरती हुई इन्द्रियों का संयम करने प्रयत्नशील होना चाहिये, जैसे सारथि घोड़े को रोकने में प्रयत्नशील होता है। The learned, scholar, enlightened, Pandit, should make efforts to control his passions, sensuality, sexuality, lust, which snatches the intelligence, just like the driver of a chariot makes efforts to control his horses.
एका दशेन्द्रियाण्याहुर्यानि पूर्वे मनीषिणः।
तानि सम्यक्प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥2.89॥
प्राचीन ऋषियों ने जिन ग्यारह इन्द्रियों को कहा, क्रम से सम्पूर्ण उन इन्द्रियों को यथावत कहता हूँ। I am telling-describing you names of 11 sense organs which lures a person to passions as explained (properly & precisely enumerated) by the ancient saints-sages, ascetics-Rishis, in proper-due order.
श्रोत्रं त्वक्चक्षुषो जिव्हा नासिका चैव पञ्चमी।
पायूपस्थं हस्तपादं वाक्चैव दशमी स्मृता॥2.90॥
कान, त्वचा-चर्म, नेत्र, जिव्हा, नाक, गुदा, लिंग, हाथ, पैर और दसवीं वाणी। The 10 sense organs include ears, skin, eyes, tongue, nose, anus, penis or vagina, hands, legs and the 10th is speech.
बुद्धिन्द्रियाणि पञ्चैषां श्रोत्रादीन्यनुपूर्वशः।
कर्मेन्द्रियाणि पञ्चैषां पाय्वादिनी प्रचक्षते॥2.91॥
इसमें कान आदि पाँच बुद्धिन्द्रिय और गुदा आदि पाँच कर्मेन्द्रिय। They include ears and the 5 intelligence oriented sense organs; while the rest 5 include the functional organs like anus.
एकादशं मनो ज्ञेयं स्वगुणेनोभयात्मकम्।
यस्मिञ्जीते जितावेतौ भवतः पञ्चकौ॥2.92॥
उभयात्मक (ज्ञान और कर्म दोनों इन्द्रियों में रहने वाला) 11 वाँ मन है, जिसको जीतने से ये दोनों इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं। The is 11th Man (innerself, psyche, mood, gestures, mentality), which when conquered-subdued both sense and functional organs becomes under control.
The Man is the main culprit, which keeps the soul moving from one species to another through 84,00,000 species, like the game of snake and ladder preventing one form attaining Moksh (Salvation, Liberation, Assimilation in the God).
इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम्।
सानियम्य तु तान्येव सिद्धिं नियच्छति॥2.93॥
इन्द्रियों के प्रसङ्ग से ही निःसंदेह मनुष्य दोष-अधर्म को प्राप्त होता है और उनको जीत लेने से सिद्धि को पाता है। Association of one with the sense organs (desire to seek pleasure, allurements, comforts, passions) leads to guilt, defects, sins and victory-control over them leads to accomplishment-attainment of the God.
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवत्र्मेव भूय एवाभिवर्धते॥2.94॥
इच्छाओं के अनुकूल भोग को भोगने से इच्छा की पूर्ति नहीं होती, परन्तु जिस प्रकार आग में घी डालने से अग्नि भड़क उठती है, उसी प्रकार इच्छा में भी वृद्धि होती है। Availability-satisfaction of desires do not lead to complete satisfaction, but in stead, they grow multi fold, like the fire, which enhances with the pouring of Ghee-clarified butter, oil in it.
यच्श्रैतान्प्राप्नुयात्सर्वान् यच्श्रैतान्केवलांस्त्यजेत्।
प्रापणात्सर्वकामनां परित्यागो विशिष्यते॥2.95॥
जो इन सबको प्राप्त करता है और जो इन सबको त्याग देता है, उन दोनों में त्याग देने वाला श्रेष्ठ है; क्योंकि सभी कामों को प्राप्त करने की अपेक्षा, उनका त्यागना ही श्रेष्ठ है। One who renounce-relinquish, rejects these allurements is better than the one runs after them since renunciation of all pleasure-passions, desires is far better than their attainment.
The word KAM is used both for efforts (labour, deeds, ambitions) and sexual (sensual pleasures, passions). One has to perform his duties till end comes. The human body continues performing till death. One should do both the prescribed and mandatory-ordained duties.
न तथैतानि शक्यन्ते संनियन्तु मसेवया।
विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यशः॥2.96॥
जैसे विषयों में प्रशक्त इन्द्रियाँ ज्ञान के वश से हमेशा रोकी जा सकती है। वैसे ही उनको सेवन न करने से वे नियंत्रण में आ सकती है।
Learning-enlightenment can bring the sense organs under control from indulging into passions-sexuality. Prohibition, prevention-control can also bring them under control.
Dharm does not condemn essential sex for progeny-future generations. It favours family life following ethics associated with regular prayers and devotion to God. There is stress over doing one's duty religiously.
Restraint has to be exercised to bring self under control.
वेदास्त्यागश्र्च यज्ञाश्र्च नियमांश्र्च तपांसि च।
न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्॥2.97॥
भोगादि विषयों में लगे हुए मनुष्यों के वेदाध्ययन, यज्ञ-नियम और तपस्या, ये कभी भी सिद्धि प्रदान नहीं करते।
Those people who indulge in passions-sensuality never achieve success-attainment even by performing Yagy, Hawan, Ascetic, study of Veds.
श्रुत्वा स्पष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः।
न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रियः॥2.98॥
जो मनुष्य सुनकर, स्पर्शकर, खाकर और गंध को पाकर प्रसन्न और उदास नहीं होता, वही जितेन्द्रिय है।
One who has conquered-subdued his sensuality, sexuality, passions, through hearing, touching, eating-tasting or smelling and neither rejoices nor repines (feel miserable, upset, despondent) is Jitendriy.
जितेन्द्रिय, JITENDRIY :: One who has perfect command over his sensuality. Stoic, Continent, One who has conquered senses-passions.Self control.
इन्द्रियाणां तु सर्वेषां यद्येकं क्षरतीन्द्रियम्।
तेनास्य क्षरति प्रज्ञा दृते: पादादिवोदकम्॥2.99॥
सभी इन्द्रियों में से एक इन्द्रिय का ह्रास हो जाये तो मनुष्य की बुद्धि का ह्रास हो जाता है, जैसे छिद्रयुक्त पात्र से जल का ह्रास हो जाता है।
If even a single sense organ goes out of control, one will loose control over his brain-mind; just like a single hole in the vessel which make it sink.
वशे कृत्वेन्द्रियग्रामं संयम्य च मनस्था।
सर्वान् संसाधयेदर्थानक्षिण्वन् योगतस्तनुम्॥2.100॥
इन्द्रिय समूह को वश में करके, मन को रोक कर, योग मार्ग द्वारा शरीर को सुखी रखते हुए सभी पुरुषार्थों का साधन करे।
One should control the sense organs, restraint the psyche, Man-Mood, gestures, innerself and practice Yog to keep the body fit to live happily, by attempting to all possible virtuous means of earning livelihood.
पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमार्कदर्शनात्।
पश्चिमां तु समासीन: सम्यगृक्षविभावनात्॥2.101॥
प्रातः संध्या में पूर्व की ओर मुँह करके खड़े होकर सूर्य दर्शन पर्यन्त सावित्री का जप करे। संध्याकालीन संध्या में पश्चिम की ओर मुँह करके बैठ कर जब तक तारे न दिखाई पड़ें तब तक गायत्री का जप करे।
One should stand facing east in the morning and recite the Savitri Mantr till the Sun rises and in the evening he should sit facing west and recite the Gayatri Mantr till the stars-constellations appear.
This process begins quite early in the morning in the Brahm Muhurt, around 4 AM during summers and 6 AM during winters.
पूर्वां संध्यां जपन्तिष्ठन्नैशमेनो व्यपोहति।
पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम्॥2.102॥
प्रातः संध्या में खड़े होकर (गायत्री) जप करने वाला रात के पाप को नष्ट करता है और सांय-संध्या के समय बैठकर जप करने वाला दिन के पाप को नष्ट करता है।
Recitation of the Gayatri Mantr in the morning while standing removes the sins-guilt committed at night, while the recitation of the Mantr while sting in the evening removes the sins of the day.
न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्र्च पश्चिमाम्।
स शूद्रवद् बहिष्कार्य: सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥2.103॥
जो प्रातः और सांय संध्याओं को नहीं करता, उसे सभी द्विज कर्मों से शूद्र की तरह बहिष्कृत के देना चाहिये।
One (Brahmn-Celibate-disciple), who does not perform the evening and morning prayers-Sandhya, should be expelled from the community-society like a Shudr.
अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः।
सावित्रीमप्यधीयीत गत्वाSरण्यं समाहितः॥2.104॥
निर्जन स्थान में जल के समीप जाकर अपनी नित्य क्रियाओं को कर, स्थिर चित्त होकर, गायत्री का जप करना चाहिए।
One should move to an isolate place near a water body, pond, lake, river & perform the daily routine of freshness and then he should recite the Gayatri Mantr with full concentration-devotion.
वेदोपकरणे चैव स्वध्याये चैव नैत्यके।
नानुरोधोSसत्यन्ध्याये होममन्त्रेषु चैव हि॥2.105॥
वेद के उपकरण (व्याकरणादि) नित्य का स्वाध्याय (वेदपाठादि), हवन, मन्त्रों का जप ये सभी कार्य अनध्याय में भी करने चाहियें।
Different components of Veds like grammar, Hawan, Mantr needs regular-daily practice-self study even if it is not required for some specific purpose, even during forbidden-prohibited days.
Trillions of Shloks, rhymes, holy verses appeared with the onset of life in the universe and Bhagwan Shri Hari Vishnu transferred all that to Bhagwan Brahma Ji. In due course of time this knowledge was classified and divided into various texts for specif purposes. It can be summarised like 64 fields of arts and sciences. Each of these fields may again be sub divided into 64 fields. Agni Hotr, Hawan are associated with holy sacrifices and chanting of Mantr.
नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्रं हि तत्स्मृतम्।
ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यमनध्यायवषट्कृतम्॥2.106॥
नित्य कर्म में अनध्याय नहीं होते, क्योंकि उसे ब्रह्मयज्ञ-नित्य कर्म कहते हैं। ब्रह्म यज्ञ में वेदाध्याय ही आहुति है और अनध्याय में भी होने वाला वेदघोष (वषट्कार) पुण्य है।
Daily routine is not prohibited during Andhyay (forbidden days), since it is called Brahm Yagy. Self study of Veds serves as the sacrifice-oblation and the auspicious sounds pronounced during this is called Brahm Ghosh. Brahm Yagy has the power of rewarding auspiciousness-purity.
यः स्वाध्यायमधीतेSब्दं विधिना नियतः शुचि:।
तस्य नित्यं क्षरत्येषु पयो दधि घृतं मधु॥2.107॥
जो स्थिर चित्त से पवित्र होकर विधि पूर्वक एक वर्ष तक वेदाध्याय करता है, उसको नित्य ही दूध, दही, घी और मधु पूर्वोक्त अनध्याय से प्राप्त होता है, जिससे वह देवता और पित्तरों को तृप्त करता है।
One who study the Veds with deep concentration, after becoming pure (daily routine of bathing etc.) with pure heart, gets milk, curd, clarified butter and honey-goods essential to make body strong and healthy, for one year, even during the forbidden days, which he can utilise to satisfy the diseased ancestors-Manes.
One should read, understand and follow the gist of the Veds in real life to get emancipation (उद्धार, मोक्ष, दास्य-बन्धन मुक्ति, absoluteness, absolution, salvation, freedom, deliverance).
अनध्याय, (Andhyay) :: Forbidden days-period.
अग्नीन्धनं भैक्षचर्यामधःशय्यां गुरोर्हितम्।
आसमावर्तनात् कुर्यात् कृतोपनयनो द्विजः॥2.108॥
उपवीत द्विज को समिधाओं से हवन, भिक्षा माँगना, पृथ्वी पर सोना, गुरु की सेवा (वेदाध्ययन) पर्यन्त करना चाहिये।
The Brahmn celibate-Brahmchari, who has been initiated into education should perform Hawan with the various kinds of dry wood collected from the jungle, beg alms, sleep over the ground and perform services of the educator-Guru, till he lives in the Ashram to complete learning of various arts & sciences desired by him, described in the Veds at length.
आचार्यपुत्रः शुश्रुषुर्ज्ञानदो धार्मिकः शुचि:।
आप्त: शक्तोSर्थद साधु: स्वोSध्याप्या दशधर्मत:॥2.109॥
गुरु का पुत्र, सेवा करने वाला, अन्य ज्ञानों को देने वाला, धार्मिक, पवित्र, बन्धु, शक्तिशाली, धन देने वाला, साधु, हित करने वाला और आत्मीय ये दस वेद पढने योग्य हैं।
There are ten categories for imparting education in Veds :: (1). Guru's son, (2). One who is willing to serve the Guru, (3). One who imparts education-knowledge of other trades, (4). One who is religious, (5). One who is pure, pious-righteous, (5). One who is friend-family member, (6). One who is powerful, brave-mighty, courageous, (7). One who pays money, (8). Sage-Sadhu, (9). Benefactor-One who is willing ready to help others & (10). Relative-a person connected by marriage or friendship.
नापृष्ट: कस्यचिद् ब्रूयान्न चान्यायेन प्रच्छत:।
जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोकमाचरेत्॥2.110॥
बुद्धिमान जानते हुए भी, बिना पूछे किसी से कुछ न कहे और न ही अन्याय से पूछने वाले को कुछ बतावे तथा इन दोनों किस्म के व्यक्तियों के साथ-समक्ष वह जड़, अनभिज्ञ, अनजान का सा व्यवहार करे।
The intelligent should not reveal-describe without being asked and should not reveal to one who use unlawful-derogatory, improper means to seek knowledge. He should treat both of them as idiots, static, inertial objects.
Unless one be asked, he must not explain anything to anybody. He must not answer a person who asks improperly. A wise man, though he knows the facts-answer, behaves as if he was unaware of what was being asked. He should remain silent-neutral to the situation. A wise man reveals himself only when its essential & is for the welfare of the society-community, country.
अधर्मेण च यः प्राह यश्राच्धर्मेण पृच्छति।
तयोरन्यतर: प्रैति विद्वेषं वाSधिगच्छति॥2.111॥
जो अधर्म से बोलता है और जो अधर्म से पूछता है, दोनों में मर्यादा को अतिक्रमण करने वाला मरता है या द्वेष को प्राप्त करता है।
One who speaks with contempt-slur (unrighteous, immoral, wicked, sinful, guilty, criminal, irreligious, impetuous) and the other who questions with contempt; out of the two one who crosses the limits either dies or faces-incur enmity.
अधर्म :: धर्म विरुद्ध, शास्त्र-वेद के विरुद्ध; contempt-slur (unrighteous, immoral, wicked, sinful, guilty, criminal, irreligious, impetuous).
धर्मार्थौ यत्र न स्यातां शुश्रूषा वाSपि तद्विधा।
तत्र विद्या न वक्तव्या शुभं बीजमीवोषरे॥2.112॥
जहाँ धर्म और धन न हों और न सेवा ही हो, वहाँ पर विद्या का उपदेश नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसे जगह उपदेश की हुई विद्या सुन्दर बीज को ऊसर भूमि में बोने की तरह निष्फल होती है।
One should not preach-give education to those who are not able to perform-render service, give money and the Dharm-dutifulness, is absent; since its like sowing seeds in a barren land.
Money is an essential commodity in the absence of which one can not survive. Dharm stands for eagerness-acceptance, dutifulness, merit on the part of one who has to be taught.
विद्ययैव समं कामं मर्तव्यं ब्रह्मवादिना।
आपद्यपि हि घोरायां न त्वेनामिरीणे वपेत्॥2.113॥
वेदाध्यापक को अपनी विद्या के साथ मर जाना श्रेष्ठ है, किन्तु घोर आपत्ति में भी विद्या को ऊसर में बोना (अपात्र को देना), नहीं चाहिये।
One who has acquired the knowledge of Veds should not impart-share it with non deserving, incapable, imprudent, idiot even when he is facing turmoil. One should prefer to die in stead of sowing the seeds in a barren-infertile land, i.e., granting education-knowledge to incompetent.
There is sufficient evidence that the modern science is much more inferior-undeveloped as compared to what has been said in the Veds-scriptures. In reality Veds had been edited-truncated to such an extent that non deserving, criminal minded person could not access them. Each and every effort was to ensure that the sacred text does not fall into wrong hands. Veds were transferred to the disciples orally, as a word of mouth and the taught used to grasp-memorise them. Later they were scripted as well. Some examples are quoted over these blogs to prove the point.
विद्याब्राह्मणमेत्याह शेवधिस्तेSस्मि रक्ष माम्।
असूयकाय मां मातास्तथा स्यां वीर्यवत्तमा॥2.114॥
विद्या के अधिष्ठातृ देवता ने ब्राह्मण (अध्यापक) से कहा, " मैं तुम्हारी निधि हूँ" मेरी रक्षा करो, वेद निन्दक को मत देना इससे में बलशाली रहूँगा।
The demigod-deity of Veds asked the Brahmn-teacher to protect the Veds like wealth-treasure with effort and not to teach them to those who were not eligible for them to study. This will strengthen them.
यमेव तु शुचिं विद्यान्नियतब्रह्मचारिणम्।
तस्मै मां ब्रूहि विप्राय निधिपायाप्रमादिने॥2.115॥
जिसको संयतेंद्रिय और ब्रह्मचारी समझो, उसी प्रमाद रहित विद्यारुपी निधि के रक्षक ब्राह्मण शिष्य को मुझे दो।
The teacher-, Guru-Brahmn has been asked-directed to transfer the treasure (of Ultimate knowledge-Veds & scriptures) in the form of enlightenment-learning of Veds to only those Brahmn disciples-scholars who had full control-command over their sense organs and were celibate.
ब्रह्म यस्त्वननुज्ञातमधीयानादवाप्नुयात्।
स ब्रह्मस्तेयसंयुक्तो नरकं प्रतिपद्यते॥2.116॥
जो किसी को गुरु से वेद पढ़ते हुए, गुरु की आज्ञा के बिना ही वेदार्थ को सुन लेता है, वह वेदों के चुराने वाले पाप से युक्त होकर नरक को पाता है।
One who hears-listen to the sacred text of Veds, while the Guru is teaching to his disciples without his sanction, goes to hell for the sin committed by him for stealing the Veds.
Eklavy learnt archery from Guru Dronachary without his permission and had to pay for it by cutting his right thumb. Though he proved to be an excellent archer even with his left hand, he had committed a great offence.
लौकिकं वैदिकं वाSपि तथाSध्यात्मिकमेव च।
आददीत यतो ज्ञानं तं पूर्वमभिवादयेत्॥2.117॥
जिससे लौकिक, वैदिक और आध्यत्मिक ज्ञान को सीखे, उसे पहले प्रणाम करना चाहिये।
One should bow before-wish the person, from whom learning pertaining to social-cultural, Vedic-scriptures and the mythological is received; immediately after meeting him.
सावित्रीमात्रसारोSपि वरं विप्र: सुयन्त्रित:।
नायन्त्रितस्त्रिवेदोSपि सर्वाशी सर्वविक्रयी॥2.118॥
अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाला तथा केवल गायत्री को जानने वाला ब्राह्मण श्रेष्ठ है; किन्तु जो कि विजितेन्द्रिय, सभी कुछ खाने वाला और सभी कुछ बेचने वाला है, वह ब्राह्मण यदि तीनों वेदों को जानता भी हो तो श्रेष्ठ नहीं है।
A Brahmn who's sense organs are under his control-command but knows only the Gayatri Mantr; is superior-better than the one who has no control over his senses, sells every thing and eats every thing, even if he has learnt the 3 Veds is not virtuous.
शय्यासनेSध्याचरिते श्रेयसा न समाविशेत्।
शय्यासनस्थच्श्रैवैनं प्रत्युत्थायाभिवादयेत्॥2.119॥
जिस शय्या और आसन पर गुरु बैठते हों उस न बैठे और शय्या और आसन पर से उठकर गुरु को प्रणाम करना चाहिये।
The disciple, student-celibate should not occupy the bed-couch or the seat of his Mentor, Guru-educator and honour by standing and bowing in front of him as soon as he see him.
उध्र्वं प्राणा ह्युत्क्रामन्ति यून: स्थविर आयति।
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते॥2.120॥
बड़ों के आने पर छोटों के प्राण ऊपर को उच्छ्वसित होते हैं, इसलिये खड़े होकर प्रणाम करने से वे प्राण फिर अपने स्थान पर आ जाते हैं।
When an elderly or enlightened person of the higher status of Guru reaches in front of some one younger-inferior, the younger one should get up and honour-welcome him with folded hands with respect, since the sight of senior makes his breaths moves in the upward cycle which become normal by standing and paying obeisance.
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलल्॥2.121॥
नित्य बड़ों की सेवा और प्रणाम करने वाले पुरुष की आयु, विद्या, यश और बल ये चार चीजें बढ़ती हैं।
One who regularly serve his elders-those who deserve respect and salutes-honour them gains longevity, education-knowledge, name & fame and power-strength.
अभिवादात्परं विप्रो ज्यायांसमभिवादयन्।
असौ नामा हम समीतिं स्वं नाम परिकीर्तयेत्॥2.122॥
ब्राह्मण को, गुरुजनों को अभिवादन करने के बाद अपना नाम भी बता देना चाहिये।
After paying obeisance-due respect to Brahmn, elders, seniors, one should reveal his identity to him-disclose i.e., his name (in case he is not known to him).
नामधेयस्य ये केचिदभिवादं न जानते।
तं प्राज्ञोSह्रमिति ब्रूयात्स्त्रीय: सर्वास्तथैव च॥2.123॥
अभिवादन करने में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ को यदि कोई वृद्ध न जानते हों तो उन्हें (मैं प्रणाम करता हूँ) ऐसा कहकर अभिवादन करे तथा स्त्रियाँ भी ऐसा ही करें।
If an elderly person do not know the meaning of the etiquette words used for wishing-saluting, then one should demonstrate by saying, "I salutes you, welcome-honour you" and bow to him with folded hands. The women too are advised to do so.
Touching of feet, prostrating before the enlightened is extreme form of honour. In today's times people just do this for show off, though in fact-reality, do not respect one, before whom they are bending.
भो:शब्दं कीर्तयेदन्ते स्वस्य नाम्नोSभिवादने।
नाम्नां स्वरूपभावो हि भोर्भाव ऋषिभि: स्मृत:॥2.124॥
अभिवादन करने में अपने नाम के अंत में (भो:, वाचक) शब्द कहना चाहिये (जैसे श्लोक 122 में कहा गया है) प्रणाम किये जाने वाले के स्वरूप का द्योतक (भो:) शब्द है ऐसा ऋषियों ने कहा है।
The saints-sages have said that the word Bho: represent one who is saluting the elderly-respected, honourable person. Therefore, it should be added to later segment-suffix of the name.
आयुष्मान्भव सौम्येति वाच्यो विप्रोSभिवादने।
अकारच्श्रास्य नाम्नोSन्ते वाच्य: पूर्वाक्ष:प्लुत:॥2.125॥
ब्राह्मण प्रणाम किये जाने पर आयुष्मान्भव सौम्य (तुम दीर्घजीवी हो) ऐसा कहें, यदि प्रणाम करने वाले के नाम के आदि में आकर हो तो उसे प्लुत उच्चारण करना चाहिये।
The Brahmn should bless one who has greeted-honoured, respected him by saying "live long", O gentle one!' and the vowel 'a' must be added at the end of the name of the person being blessed.
दीर्घ स्वर :: जिस स्वर के उच्चारण मे दो मात्राएँ लगती है, उसे दीर्घ स्वर कहते हैं; जैसे :– आ, ई, ऊ आदि। प्लुत स्वर :- जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्लुत वर्णों का उच्चार अतिदीर्घ होता है और उनकी मात्रा 3 होती है, जैसे कि, “नाऽस्ति”, इस शब्द में ‘नाऽस्’ की 3 मात्रा होगी।
प्लुत :: संस्कृत में प्लुत नाम से स्वरों का एक तीसरा भेद भी माना जाता है; पर हिन्दी में इसका प्रयोग नहीं होता।
प्लुत का अर्थ है :- उछला हुआ। प्लुत में तीन मात्राएँ होती हैं। इसका प्रयोग बहुधा दूर से पुकारने, रोने, गाने और चिल्लाने में होता है। जैसे :– ओ3म् , ए लड़के! राम रे! ["दूराह्वाने च गाने च रोदने च प्लुतो मतः"]
छन्द शास्त्र में ह्रस्व और दीर्घ के लिये के लिये क्रमशः लघु और गुरु शब्द का प्रयोग होता है।
लघु, गुरु एवं प्लुत के संकेत-चिह्न :-
लघु गुरु प्लुत
1 5 3
यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।
नाभिवाद्य: स विदुषा यथा शुद्रस्तथैव सः॥2.126॥
जो विप्र अभिवादन करने का पत्यभिवादन करना नहीं जानता हो, उसे पण्डितों को अभिवादन नहीं करना चाहिये, क्योंकि जैसे शूद्र है, वैसे ही वह भी है।
The Brahmn who do not return wishes (Nameste नमस्ते, Namaskar नमस्कार, Pranam प्रणाम, touching the feet चरण स्पर्श; should not wish the scholars, Pandits, Guru-elderly since he is his behaviour is like the Shudr.
Those who just wish without feelings-respect too come under this category. There are those who just bow-bend to touch the feet but remain till the knees, too are also the fellow of this category.
ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबन्धुमनामयम्।
वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च॥2.127॥
ब्राह्मण से कुशल, क्षत्रिय से निरामय (आरोग्य, स्वास्थ्य) कुशलक्षेम, वैश्य से क्षेम (Well-being, Security, Prosperity, Easy or comfortable state) और शूद्र से आरोग्यता साक्षात्कार होने पर पूछे।
One should ask about the well being (whether he has sufficient money to live comfortably-survive) to the Brahmn, about his health-might to the Kshtriy-warriors, pertaining to business, security, prosperity to the Vaeshy, traders-businessmen and the Shudr should be asked about his state of health as and when one meets them.
This is in accordance with the duties assigned to them by the scriptures.
निरामय :: जिसे कोई रोग न हो, निरोग, स्वस्थ, निर्मल, सकुशल, आरोग्य; Free from illness, Pure, Untainted, Free from disease.
क्षेम :: कुशल-मंगल, सुख-चैन, ख़ैरियत, Safety, well-being.
अवाच्यो दीक्षितो नाम्ना यवियानपि यो भवेत्।
भोभवत्पूर्वकं त्वेनमभिभाषेत धर्मवित्॥2.128॥
दीक्षा प्राप्त यदि अपने से छोटा हो तो भी उसका नाम नहीं लेना चाहिये, धर्मात्मा पुरुष भो: अथवा भवन शब्द कहकर उसके साथ बातचीत करे। हे तात्शि, ष्य-प्रिय! आदि सम्बोधनों का प्रयोग किया जा सकता है।
One who has been baptised-initiated into education (celibate, Brahmchari) should not be addressed by name, even if he younger to one and call him as Bho: or Bhuvan. He may be addressed Hey, dear-child! which indicates love & affection like a father or mother.
परपत्नी तु या स्त्री स्यादसम्बन्धा च योनित:।
तां ब्रूयाद्भवतीत्येवं सुभगे भगिनीति च॥2.129॥
जो दूसरे की स्त्री हो और जिससे किसी प्रकार का सम्बन्ध (रिश्ता) नहीं हो उसे भवति (आप), सुभगे अथवा भगिनी कहकर बातचीत करना चाहिये।
One should talk respectfully-honourably to the woman who is not related to him or is not a blood-relation, as Lady, sister, Subhge etc.
मातुलांश्र्च पित्रवयांश्र्च श्र्वशुरानृत्विजो गुरुन्।
असावहमिति ब्रूयात्प्रत्युत्थाय यवियस:॥2.130॥
मामा, चाचा, श्वसुर, पुरोहित और गुरुजन (वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध) यदि अपने से छोटे हों, तब भी उठकर इतना कहे कि यह मैं हूँ।
One should get up from his seat and welcome the visitors like maternal uncle, uncle, father in law, Gurus (elders, enlightened-learned) even if they are younger to him and introduce himself by spelling his name.
मातृष्वसा मातुलानी श्वश्रूत्थ पितृष्वसा।
संपूज्या गुरुपत्नीवस्तमस्ता गुरुभार्यया॥2.131॥
मौसी, मामी, सास और बूआ-फूआ ये गुरु पत्नी के ही अनुसार पूज्य हैं क्योंकि गुरु पत्नी के समान हैं।
Maternal aunt, maternal uncle's wife, mother-in-law and a paternal aunt must be honoured like the wife of one's teacher; since they are equal in status to the wife of one's teacher.
भ्रातुर्भार्योपसंग्राह्या सर्वणाSहन्यपि।
विप्रोष्य तूपसंग्राह्या ज्ञातिसम्बन्धियोषितः॥2.132॥
समान वर्ण की व्याही, भाई की पत्नी (भौजाई) को नित्य प्रणाम करना चाहिये, अपने रिश्ते की अन्य स्त्रियों को परदेश से आने पर प्रणाम करना चाहिये।
One should salute-say Nameste to the wife of his brother from the same caste-Varn, every day and the other women related to him, when they return from other regions, places, abroad.
पितुर्भगिन्यां मातुश्र्च ज्यायस्यां च स्वसर्यपि।
मातृवद् वृत्तिमातिष्ठेन्माता ताभ्यो गरीयसी॥2.133॥
फूआ, माता और अपने से बड़ी बहन के साथ माता की तरह व्यवहार करे, किन्तु इन सबों में माता को ही बड़ी समझे।
One should behave at par with his Fua-father's sister, mother and his own sister, but consider the mother to be more venerable than the other two.
दशाब्दाख्यं पौरसंख्यं पञ्चाब्दाख्यं कलाभृताम्।
त्रयब्दपूर्वं श्रोत्रियाणां स्वल्पेनापि स्वयोनिषु॥2.134॥
गॉँव वालों के साथ 10 वर्ष, कला जानने वालों के साथ 5 वर्ष और वेदाध्यायियों साथ 3 वर्ष की छोटाई बड़ाई रहने पर भी मित्रता का भाव रहता है और अपने सगे सम्बन्धियों के साथ थोड़ी भी छोटाई-बड़ाई का ध्यान रखना चाहिये।
One maintains friendly-cordial relations with the his co villagers-fellow citizens, with the age difference of 10 years, with the artists having age difference of up to 5 years and with the students undergoing learning in Veds having an age difference of 3 years. With the near and dear & relatives, one has to be particular about minors differences in age as well, while behaving-inter acting with them.
ब्राह्मणं दशवर्ष तु शतवर्ष तु भूमिपम्।
पितापुत्रौ विजानीयाद् ब्राह्मणस्तु त्यो: पिता॥2.135॥
दस वर्ष का ब्राह्मण और सौ वर्ष का क्षत्रिय दोनों को पिता-पुत्र समझना चाहिये, दोनों में ब्राह्मण पिता के समान है।
A Brahmn having attained the age of 10 years is worth a Kshatriy 100 years old and are interrelated as father & son. Out of the two the Brahmn is like the father-elder.
वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी।
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम्॥2.136॥
धन, बन्धु, अवस्था, कर्म और विद्या ये पाँच मान्य स्थान हैं और इनमें उत्तरोत्तरअगला पहले से बड़ा है।
Wealth, kindred, age, due performance of deeds, duties-rites and fifthly sacred learning, knowledge, enlightenment are titles of respect. One which comes later is more significant-weighs more than the preceding ones.
बन्धु :: भाई चारे का, संबंधी, सजाति, परिजन, कुल, बांधव, कौटुंबी, संबंधी, जाति, स्वजन, नातेदार, कुनबा, वंश, परिवार, नसल, सगे-संबंधी, रिश्तेदार, ज्ञातिवर्ग, बिरादरी, आत्मीय; cognate, kindred, proper, kin, fraternal, daughterly, comradely, associated, respective, communicant, akin, consanguineous, family, clan, aggregate, name, relative, relation, relationship, kinsfolk, kinsman, kinswoman, race, caste, nation, species, people, kith, household, seed, dynasty, descendant, species, fraternity.
पञ्चानां त्रिषु वर्षेण भूयांसि गुणवन्ति च।
यत्र स्यु: सोSत्र मानार्ह: शूद्रोSपि दशमीं गतः॥2.137॥
तीनों वर्णों में से जिस किसी का पूर्वोक्त पाँचों गुणों में से जितना ही अधिक गुण हो तो वह पुरुष उतना ही अधिक मान्य होता है और 90 वर्ष के ऊपर शूद्र भी माननीय होता है।
Amongest the 3 Swarn-upper castes, who so ever possesses higher degree of the 5 qualities is more worthy-respected more. If a Shudr has crossed the age of 90 years he too deserves respect.
चक्रिणों दशमीस्थस्य रोगिणो भारिण: स्त्रिया:।
स्नातकस्य च राज्ञञ्च पन्था देयो वरस्य च॥2.138॥
रथ पर चढ़े हुए को, अति वृद्ध को, रोगी को, बोझ लिये हुए को, स्त्री को, स्नातक (जिसका समावर्तन संस्कार हो गया हो) को, राजा को और वर (दूल्हा) को रास्ता देना चाहिये।
One riding the chariot, aged-old, diseased, carrying load, woman, student admitted in the Ashram of guru, king and the bridegroom should be allowed to cross the road on priority basis.
तेषां तु समवेतानां मान्यौ स्नातकपार्थिवौ।
राजस्नातकयौच्श्रैव स्नातको नृपमानभाक्॥2.139॥
उपर्युक्त सभी लोग यदि एक साथ हों तो स्नातक और राजा मान्य हैं और इन दोनों में राजा से स्नातक ज्यादा मान्य है।
If by chance all these categories of people happen to be together, in that case priority should be given to the Brahmchary and the king and again out of the two, preference should be give to the Brahmchari-celibate.
उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः।
सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्य प्रचक्षते॥2.140॥
जो ब्राह्मण शिष्य का उपवीत कराके उसे कल्प और रहस्य (यज्ञ विद्या और उपनिषद के साथ पढ़ाता है, उसे उपाध्याय कहते हैं।
The Brahmn who teaches a disciple Kalp and Rahasy (along with the methodology of Hawan and the Upnishads) is called an Upadhyay-a category of teacher.
उपाध्याय, Upadhyay :: वेद वेदागों का अध्ययन करने-कराने वाला पण्डित, कई वर्गों के ब्राह्मणों में एक भेद या उपजाति। (उप+अध्याय :: उपाध्याय, assistant teacher).
An Upadhyay is specifically a professional teacher in the technical subjects of Vedang, i.e., Sanskrat grammar and other basic skills required for the perusal of the Veds. He is distinguished from an Achary, a spiritual teacher or guide who introduces the student to the religious mysteries of the Veds.
After the onset of Buddhism those Brahmns who started teaching the students at their residence were titled Upadhyay. They attended to private tuitions as well. The Brahmn who earned his livelihood by teaching a fraction-Ang of the Ved is titled the sub-teacher i.e., Upadhyay.
एकदेशं तु वेदस्य वेदाङ्गान्यपि वा पुनः।
योSध्यापयति वृत्त्यर्थमुपध्याय: स उच्यते॥2.141॥
जो वेद का भाग और वेदाङ्ग (व्याकरणादि) जीविका लिये पढ़ाता है, उसे उपाध्याय कहते हैं।
The Pandit-Brahmn who teaches the sections-portions of Veds and the Vedang (including grammar) for the sake of his survival-livelihood is called-titled a Upadhyay.
निषेकादीनि कर्माणि यः करोति यथाविधि।
सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते॥2.142॥
जो गर्भाधानादि कर्मों को यथोक्त रीति से करता है और अन्न से पोषण करता उस ब्राह्मण को गुरु कहते हैं।
The Brahmn who conducts the sacred rites (celibacy, Janeu etc.) of the child pertaining to conception and feeding with food grain to the child is titled-called Guru.
गुरु Guru :: 'गुरु' शब्द में 'गु' का अर्थ है 'अंधकार' और 'रु' का अर्थ है 'प्रकाश' अर्थात गुरु का शाब्दिक अर्थ हुआ 'अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला मार्ग दर्शक'। सही अर्थों में गुरु वही है, जो अपने शिष्यों का उचित मार्ग दर्शन करे और जो उचित हो उस ओर शिष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे। गुरु वह है जो वेद-शास्त्रों का गृणन (उपदेश) करता है अथवा स्तुत होता है।
Heavy, mightier-enlightened-scholar. One drives the disciple from darkness to light. Teacher.
अग्न्याधेयं पाकयज्ञानग्निष्टोमादिकान् मखान्।
यः करोति वृत्तो यस्य स तस्यर्त्विगिहोच्यते॥2.143॥
जो जिससे वरण लेकर अग्निहोत्र, पाक यज्ञ और अग्निष्टोमादि यज्ञों को करता है, वह उसका ऋत्विक्-पुरोहित कहलाता है।
One who is selected for preforming the Yagy-holi sacrifices-rites, Agnihotr, Pious Yagy, Agnishtomadi, is called Ritvik-Priest.
य आवृणोत्द्यवितथं ब्रह्मणा श्रवणावुभौ।
स माता स पिता ज्ञेयस्तं न द्रुह्येत्कदाचन॥2.144॥
जो ब्राह्मण दोनों कानों को निर्दोष, सत्यस्वरूप वेद (वेदध्वनि) से भर देता है, उसे माता और पिता के समान जानना चाहिये और उससे कभी भो द्रोह नहीं करना चाहिए।
The Brahmn who enlightens the disciple-pupil with the learning of the Veds has to be treated like parents and should never be deceived-fiend.
उपाध्यायान् दशाचार्यं आचार्याणां शतं पिता।
सहस्त्रं तु पित्रं माता गौरवेणातिरिच्यते॥2.145॥
उपाध्यायों से दस गुना श्रेष्ठ आचार्य और आचार्य से सौ गुना श्रेष्ठ पिता और पिता से हजार गुना श्रेष्ठ माता गौरव से युक्त होती है।
The Achary is 10 times better than the Upadhyay-Assistant Teacher, father is 100 times better than the Achary and the mother is 1,000 times better, honourable, venerable than the father.
उत्पादकब्रह्मदात्रोर्गरीयान् ब्रह्मदः पिता।
ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्र्वतम्॥2.146॥
जन्म देने वाला पिता और वेद पढ़ाने वाला आचार्य दोनों में वेद पढ़ाने वाला आचार्य पिता से श्रेष्ठ है, क्योंकि ब्राह्मण का ब्रह्म जन्म इस लोक और परलोक दोनों में निरंतर नित्यत्व को प्राप्त होता है।
Out of the father and the teacher; the Brahmn teaching Veds is more venerable as he has imparted the knowledge-learning of Veds to the pupil and deserves regular existence, eternity-continuity in this world and the next divine abodes.
कामान्माता पिता चैनं यदुत्पादयतो मिथ:।
संभूतिं तस्य तां विद्याद्यद्योनावभिजायते॥2.147॥
परस्पर काम वश होकर माता-पिता जिस शरीर को उत्पन्न करते हैं, वह जन्म उस प्राणी का पशु आदिकों की तरह साधारण है।
The offspring, who is born due to the passion of the parents, is like an animal.
Every individual is animal by birth and Shudr thereafter. He turns into a social entity due to the mode of his growth, interaction, education, love-affection and the impact of environment-culture.
आचार्यसत्वस्य यां जातिं विधिवद्वेदपारगः।
उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या साSजरामरा॥2.148॥
वेदज्ञ आचार्य विधिपूर्वक जिस जाति के सावित्री से बालक-नवजात शिशु को पुनर्जन्म देता है, वही जाति उसकी सत्य, अजर और अमर होती है।
The caste solemnised by the Achary-Guru enlightened with the knowledge of Ved in accordance with the Savitri of that specific Varn-caste (Dwij : Brahmn, Kshatriy or Vaeshy) in which the child was born, remains his true, imperishable identity throughout the life.
The learning during this life span prolongs in next several incarnations. A virtuous life moves him to Salvation.
अल्पं वा बहु वा यस्य श्रुतस्योपकरोति यः।
तमपीह गुरुं विद्याछुतोपक्रियया तया॥2.149॥
जो शास्त्र द्वारा थोड़ा या बहुत उपकार करे उसको भी उस उपकार के बदले गुरु मानना चाहिये।
Any one who does even a little bit of good through the use-application of scriptures deserve to be treated as Guru i.e., revered-respected in return.
ब्रह्मस्य जन्मनः कर्ता स्वधर्मस्य च शासिता।
बालोSपि वृद्धस्य पिता भवति धर्मत:॥2.150॥
वैदिक जन्म को देने वाला और धर्म की शिक्षाओं से शासन करने वाला ब्राह्मण का लड़का भी धर्म से वृद्ध का पिता होता है।
A Brahmn kid who teaches Veds and follows the dictates of the scriptures i.e., rules according to the preaching's of the Dharm is like the father of an aged person (who is unaware of the Veds-religion, his duties, responsibilities).
अध्यापयामास पितृञ्शिशुर्राअङ्गिरस: कवि:।
पुत्रका इतिहोवाच ज्ञानेन परिगृह्य तान्॥2.151॥
अंगिरा के विद्वान बालक ने अपने चाचाओं और उनके लड़कों को पढ़ाया और ज्ञान द्वारा उनको ग्रहण कहकर पुत्रक कहकर पुकारा।
The enlightened son of Mahrishi Angira (son of Brahma Ji) taught his uncles (& their sons) who were nearly of the age of his father and pronounced them as Putrak-equivalent to son.
Uncles were of the age of his father and their sons were of his age.
Chronological age is immaterial as compared to mental age. An animal born prior to a child lacks intelligence and is controlled-directed by him easily.
ते तमर्थमपृच्छन्त देवानागतमन्यवः।
देवाच्श्रैतान्समेत्योचुन्र्याय्यं वः शिशुरुक्तवान्॥2.152॥
उन पितृव्यादि ने पुत्रक कहने पर क्रोधित होकर देवताओं से पुत्रक शब्द का अर्थ पूछा तो देवताओं के एक स्वर से कहा कि बालक ने जो तुम्हें पुत्रक कहा है, वह न्याययुक्त है।
His uncles and their sons got angry and questioned demigods of the rationality of his calling them like-equivalent to his son. The demigods replied in unison that the pronouncement was correct.
अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः।
अज्ञन् हि बालमित्याहु: पितेत्येव तु मन्त्रदम्॥2.153॥
अज्ञानी ही बालक होता है और मन्त्र देने वाला (वेद पढ़ाने वाला) पिता होता है, क्योंकि मुनियों ने अज्ञानी को बालक और उपदेशक को पिता कहा है।
The illiterate, ignorant, destitute of sacred knowledge-galloping in darkness, is like a child and the person who imparts knowledge of the Veds & scriptures-the preacher, is like a father.
Therefore, Bhagwan Vishnu is father of Brahma Ji. The Nurturer Bhagwan Vishnu transferred the whole knowledge to the creator Brahma Ji.
न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभि:।
ऋषयश्र्चक्रिरे धर्मं योSनुवान: स नो महान्॥2.154॥
अधिक अवस्था होने से या बाल पकने से या अधिक धन और कुटुम्ब होने से कोई बड़ा नहीं होता है। ऋषियों ने इस विषय में धर्म व्यवस्था ऐसी की है कि जो वेदांग को पढ़ा है, वही हम लोगों में बड़ा है।
The Rishis-sages endorse the view that one is not elder-senior just by being senior-aged, greying of hair, wealthy or the member of large-reputed family. They cite the ruling of the scriptures that one who is learned (understands, teaches and apply in life) in Vedang (gist of the Veds, scriptures, Itihas-history) is senior, elder, respectable, revered.
विप्राणां ज्ञानतो ज्येष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यत:।
वैश्यानां धान्यधनत: शुद्राणामेव जन्मतः॥2.155॥
ज्ञान से ब्राह्मणों का, बल से क्षत्रियों का, धन-धान्य से वैश्यों का और जन्म से शूद्रों का बड़ा पन (बड्डपन) होता है।
The Brahmn gets respected (higher rank-status in society) by virtue of his knowledge, learning, enlightenment, the Kshatriy through his might-valour, the Vaeshy due to his wealth and the Shudr is considered senior because of his chronological age (amongest his clan-family, society).
न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः॥2.156॥
केवल सर के बाल पक जाने से ही कोई वृद्ध नहीं होता है, अपितु जो वेद-वेदाङ्ग को पढ़ा है, वह युवा होते हुए भी वृद्ध होता है, यह देवताओं ने कहा है।
The demigods-deities endorses the view that one who has learnt, grasped, understood, acquired the wisdom of the Veds & Vedangs deserves respect even though his chronological age has not increased and his hair have not greyed.
The ignorant, illiterate, idiot does not command respect in the society in spite of his wealth, position in the society. People just do the formalities-showoff but laugh at him behind his back, in his absence. It might be due to etiquette or fear as well.
यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्मयो मृगः।
यश्र्च विप्रोSनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति॥2.157॥
जैसे लकड़ी का बना हाथी और खाल मढ़कर बनाया गया हिरण नकली-केवल नाम के होते हैं, उसी प्रकार अनपढ़ ब्राह्मण केवल नाम का होता है असल में नहीं।
An illiterate-ignorant Brahmn is just like the toy elephant made of wood or the deer made out of skin-leather filled with straw, for the name sake.
यथा षण्ढोSफलः स्त्रीषु यथा गौर्गवि चाफला।
यथा चाज्ञेSफलं दानं तथा विप्रोSनृचोSफलः॥2.158॥
जैसे स्त्रियों में नपुंसक निष्फल होता है, जैसे गौवों में गौ निष्फल होती है, जैसे मूर्ख को दिया दान निष्फल होता है, वैसे ही वेद की ऋचाओं को न जानने वाल ब्राह्मण निष्फल होता है।
A Brahmn who lacks the knowledge-wisdom of Veds is useless-unprolific like an eunuch with women, cow amongest the cows and the charity-favour done to an idiot.
PROLIFIC :: उर्वर, उपजाऊ, फलदार, फलवान, बहुत से बच्चे जननेवाला, अनुकूल, विशाल, परिमाण में रचना करनेवाला, बहुफल दायक; fertile, genial, rich, fat, fruitful, productive, seminal, suited, favourable, compatible, congruent, congenial.
अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोSनुशासनम्।
वाक्चैव मधुर श्लक्षणा प्रयोज्या धर्ममिच्छता॥2.159॥
प्राणियों के कल्याण के लिये अहिंसा से ही (प्रशासक, राजा, अध्यापक) के द्वारा अनुशासन करना श्रेष्ठ है, धार्मिक शासक को मीठे और नम्र वचनों का प्रयोग करना चाहिये।
The religious-pious ruler should govern by using sweet words-language, soft voice to discipline the beings-humans, without using violence or repression.
The teacher should impart learning by using soft polite words to his students. He should not punish them physically.
यस्य वाङ्मनसीशुद्धे सम्यग्गुते च सर्वदा।
स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तयोपगतं फलम्॥2.160॥
जिसकी वाणी और मन शुद्ध और हमेशा सम्यक् रीति से सुरक्षित हैं, वह वेदान्त में कहे हुये सभी फलों को पाता है।
One who's speech & thoughts-psyche are pure-pious and are always under perfect control, gets the whole reward conferred by Vedant.
सम्यक् :: सब, पूरा, समस्त, ठीक, उचित, उपयुक्त, सही, मनोनुकूल; Entire, accurate, proper, whole, correct.
नारुंतुद: स्यादार्तोSपि न परद्रोहकर्मधी:।
यस्यास्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत्॥2.161॥
स्वयं दुःखी होते हुये भी किसी का जी न दुखाए, पर द्रोह (दूसरे से शत्रुता) का भाव भी न रखे और ऐसे वचन भी न बोले जो किसी को कष्ट कारक हों ताकि वह परलोक में कष्ट न पाए।
One should not humiliate-torture, develop enmity and speak harsh words which may cause resentment, displeasure, pain to others; to avoid suffering in the next abodes, even though suffering, undergoing pain, torturing himself.
सन्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।
अमृतस्येव चाकाङ्क्षेद्वमानस्य सर्वदा॥2.162॥
ब्राह्मण विष की तरह हमेशा सम्मान से निरपेक्ष रहे और हमेशा अमृत के समान अपमान की इच्छा रखे।
A Brahmn should always be neutral to reverence, felicitation, regard, honour or scorn, insult i.e., he should not expect others to grace him and should always tolerate the bad behaviour by others, since the disgraceful behaviour will prove to be elixir, nectar for him making him absolute.
जिसने अपमान सह लिया-विष पी लिया वह शिव हो गया।
सुखं ह्यवमत: शेते सुखं च प्रतिबुध्यते।
सुखं चरति लोकेSस्मिन्नवमन्ता विनश्यति॥2.163॥
अपमानित पुरुष सुख से सोता और जागता है तथा सुख से ही संसार में विचरता किन्तु किसी भी बेकसूर का अपमान करने वाला नष्ट हो जाता है।
One who has been scorned-insulted sleeps & rises with comfort-ease; while the person who has insulted perishes.
अनेन कर्मयोगेन संस्कृतात्मा द्विज: शनै:।
गुरौ वसन्सञ्चिनुयाद ब्रह्माधिगमिकं तप:॥2.164॥
इस प्रकार से संस्कृत होकर द्विज-ब्राह्मण गुरु के साथ रहकर वेद ज्ञान की प्राप्ति के तप को धीरे-धीरे सञ्चय करे। Having acquired virtues-austerities the upper caste-Brahmn should acquire the gist of the Veds and accumulate the asceticism gradually.
तपो विशेषैर्विविधैर्व्रतैश्र्च विधिचोदितै।
वेद: कृत्स्नोSधिगन्तव्य: सरहस्यो द्विजन्मना॥2.165॥
अनेक प्रकार के विशेष तप और अनेक प्रकार के विधिवत व्रतों के अनुष्ठानादि से द्विजों को उपनिषद् के सहित सम्पूर्ण वेद का अध्ययन करना चाहिये।
The Dwij should acquire the complete knowledge of Veds along with Upnishads aided by organisation of various kinds of asceticism-i.e., Pranayam-Yog, fasts, Pilgrimage.
वेदमेव सदाभ्य स्येत्तपस्त प्स्यन्द्विजोत्तमः।
वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः वरमिहोच्यते॥2.166॥
हमेशा तपस्या करता हुआ द्विज वेद का अभ्यास करे, क्योंकि वेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम् तप है।
The Brahmn should practice the Veds while performing asceticism-austerities; since the practice of Veds is Ultimate asceticism for him.
आ हैव स नखाग्रेभ्यः परमं तपस्ते तपः।
यःस्त्रग्व्यपि द्विजोSधीते स्वाध्याय: शक्तितोSन्वहम्॥2.167॥
जो द्विज माला पहन कर अपनी शक्ति अनुसार नित्य वेद पढ़ता है, वह नखों अग्र भाग तक अर्थात सम्पूर्ण शरीर तक तप करता है।
The Brahmn who practices the Veds by wearing a garland-rosary as per his strength-capability everyday; performs highest order of asceticism-austerities till the end point of his nails i.e., through out his body.
योSनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥2.168॥
जो द्विज वेद को न पढ़कर अन्य शास्त्रों में परिश्रम करता है, वह जीते जी वंश सहित शूद्रता को प्राप्त होता है।
The Brahmn who prefers to study other subjects, reverts to Shudr Vansh in the present life along with his entire clan-hierarchy.
मातुरग्रेSधिजननं द्वितीय मौञ्जिबन्धने।
तृतीयं यज्ञदीक्षायां द्विजस्य श्रुतिचोदयात्॥2.169॥
प्रथम जन्म माता से, दूसरा यज्ञोपवीत के समय और तीसरा जन्म वेद द्वारा द्विज का यज्ञदीक्षा के समय होता है।
First birth of Brahmn is from her mother, second is by virtue of tying sacred thread and the third takes place when he is initiated into the learning of Veds.
Every one is animal by birth. When he is educated, it becomes his second birth as a social being. But his studying Veds makes him different from ordinary person. Learning of Veds may motivate him to Salvation.
तत्र यद् ब्रह्मजन्मास्य मौञ्जिबन्धनचिन्हितम्।
तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते॥2.170॥
पूर्वोक्त तीनों जन्मों :- मौञ्जी बन्धन (यज्ञोपवीत) से चिन्हित जन्म में माता गायत्री और पिता आचार्य होता है।
Among the three births discussed above the birth symbolised by the investiture with the girdle of sacred thread or Munj grass, Gayatri becomes his mother & the Guru-teacher is his father.
वेदप्रदानाचार्यं पितरं परिचक्षते।
न ह्यस्मिन्युज्यते कर्म किञ्जिदामौञ्जिबन्धनात्॥2.171॥
वेद की शिक्षा देने से आचार्य को पिता कहते हैं, क्योंकि यज्ञोपवीत होने के पहले किसी भी वैदिक कर्म करने की क्षमता-योग्यता द्विज में नहीं होती है।
The Dwij is not entitled to perform any sacred act-Vaedik Karm prior to investiture with the girdle of sacred thread or Munj grass and hence the Guru becomes his father due to the teaching of Veds.
The scriptures describe father as a designation granted to one (1). By birth-Biological father, (2). One who brought up, supported financially, nurtured and the (3). the Guru who imparted learning of scriptures-Veds.
नाभिव्याहारयेद् ब्रह्म स्वधानिनयनाद्ते।
शूद्रेण हि समस्तावद्यावद्वेदे न जायते॥2.172॥
श्राद्ध में पढ़े जाने वाले वेद मन्त्रों को छोड़कर (अनुपनीत द्विज) वेद मंत्र का उच्चारण न करे, क्योंकि जब तक वेदारम्भ न हो जाये तब तक वह शूद्र के समान होता है।
One who has not been initiated into celibacy-Brahmchary, should not recite the Ved Mantr except those which are recited at the occasion of annual homage, ceremonial honour, Shraddh to the diseased-ancestors, since he is just like a Shudr till then.
कृतोपनयनस्यास्य व्रतादेशनमिष्यते।
ब्रह्मणो ग्रहणं चैव क्रमेण विधिपूर्वकम्॥2.173॥
यज्ञोपवीत हो जाने पर बटुक-ब्रह्मचारी को व्रत का उपदेश लेना चाहिये और तभी से विधि पूर्वक वेदाध्ययन करना चाहिये।
The celibate should seek the advice of fasting after the sacred thread ceremony is over and initiate learning of Veds with proper methodology, thereafter.
यद्यस्य विहितं चर्म यतसूत्रं या च मेखला।
यो दण्डो यच्च वसनं तत्तदस्य व्रतेष्वपि॥2.174॥
जिस बटुक के लिये जो चर्म, सूत्र, जो मेखला, जो दण्ड और जो वस्त्र उपनयन में विहित हैं, वही इसके लिये व्रतों में भी विहित है।
Which ever skin, sacred thread, knot-girdle, stick-staff and the clothing-lower garments have been prescribed at the time of initiation for the celibate, Brahmchari, disciple are prescribed for fasting as well.
सेवेतेमामांस्तु नियमान्ब्रह्मचारी गुरौ वसन्।
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं तपोवृद्ध्यर्थमातमनः॥2.175॥
गुरु के पास रहता हुआ ब्रह्मचारी इन्द्रियों को वश में रखकर अपनी तपस्या के वृद्धर्थ उपयुक्त नियमों का पालन करे।
The celibate-Brahmchari should control his sense organs and boost his ascetic & spiritual powers while residing in the Ashram of the Guru-Mentor.
MENTOR :: गुरु, परामर्शदाता, उपदेशक,उस्ताद, पालनेवाला, प्रतिपालक; adviser, assessor, economic adviser, preacher, schoolmaster, master, teacher, backer, protector, promoter.
नित्यं स्नात्वा शुचि: कुर्याद्देववर्षिपितृतर्पणम्।
देवताभ्यर्चनं चैव समिदाधानमेव च॥2.176॥
नित्य स्नान कर पवित्र होकर देवता और ऋषियों के तर्पण करे बाद देवताओं का पूजन तथा अग्न्याधान करे।
The celibate should become fresh-pure by taking bath and offer reverences to the demigods-deities by pouring water in front of them & sages & thereafter pray to the demigods and lit the holy fire.
Normally, the Hindu offer water to the Sun soon after bathing. For this purpose a small Shiv Ling is generally placed in a flower pot where a Basil-Tulsi plant is grown. Here one offers incense sticks or Dhoop Batti made from google. One may lit a lamp with pure ghee-butter oil in it. Some people regularly pour-offer holy water in the roots of Peeple-Holy Fig or Banyan tree. The holy water contain Ganga Jal, Cow's milk, Ghee, Basil leaves, Curd, Milk, sugar-Gud (Jaggery), saffron, tamarind etc.
वर्जयेन्मधुमांसं च गन्धं माल्यं रसान्स्त्रियः।
शुक्तानि यानि सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम्॥2.177॥
ब्रह्मचारी मधु, माँस, सुगन्ध, माला, रस, स्त्री, सभी प्रकार के आसव (सिरका अदि) प्राणियों की हिंसा त्याग दे।
The celibate should reject all sorts of honey-sweets, wine, perfumes, garlands, meat, libation, extracts, juices, female and the killing, teasing, torture, injury to the animals (including human beings).
LIBATION :: पेय, मदिरा, शराबl; liquor, beverage, wine, drink, liqueur.
अभ्यंङ्गमञ्ननं चाक्ष्णोंरुपानच्छन्नधारणम्।
कामं क्रोधं च लोभं च नर्तनं गीतवादनम्॥2.178॥
शरीर में उबटन और आँख में अँजन न लगावे, जूता और छाता न धारण करे, काम, क्रोध और लोभ न करे, नाच, गाना और बाजे से दूर रहे।
The Brahmchari should keep off from anointing the body, applying collyrium to his eyes, use of shoes and umbrella, passions-lust-sexuality-sensuality, anger, greed, dance, singing, drums-musical instruments-music.
COLLYRIUM :: अंजन, काजल, सुरमा।
Such activities divert the attention of the disciple from studies and leads him to distraction. Veds needs absolute concentration to learn, memorise, understand and utilise in life properly.
द्य ूतंच जनवादं च परिवादं तथा नृतम्।
स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्भमुपघातं परस्य च॥2.179॥
ब्रह्मचारी को जूआ, कलह, निंदा, झूठ, स्त्रियों की सकाम से देखना और उन्हें आलिङ्गन करना ये सब त्याग देना चाहिये।
The celibate should reject gambling, disputes, back-biting, lying, looking at the women with sexual desires-flirtation and embracing them.
एकः शयीत सर्वत्र न रेत: स्कन्दयेत्क्वचित्।
कामाद्धि स्कन्दयन् रेतो हिनस्ति व्रतमात्मनः॥2.180॥
सर्वत्र अकेला सोवे, कभी वीर्यपात न करे, इच्छा से वीर्यपात करने से अपने व्रत का नाश करता है।
He should sleep alone, never allow discharge of sperms, since it distracts him from the oath-vow he took & weakens his health and the brain.
Sperms are the most valuable commodity in the body of a human being. Voluntary or involuntary discharge of sperms weaken the body and reduces mental capabilities. Sperms protects the body from diseases and weather variations. Students often subject themselves to masturbation (हस्तमैथुन) due to passions, which is extremely harmful to them.
स्वप्ने सिक्त्वा ब्रह्मचारी द्विजः शुक्रमकामत:।
स्नात्वामर्कमर्चयित्वा त्रि पुनर्मामित्यर्चं जयेत्॥2.181॥
यदि ब्रह्मचारी द्विज की अनिच्छा से रात्रि में वीर्यपात हो जावे तो स्न्नान कर सूर्य का पूजन कर 3 बार "पुनर्मां" इस ऋचा का जप करे।
If the ejaculation-discharge of sperms takes place during sleep, involuntarily the celibate should take bath and recite "punrman", the Rik-verse meaning :- let my strength return to me again" thrice & worship Bhagwan Sury.
Ejaculation during sleep is the result of dreams pertaining to sexual thoughts, sensuality, sexuality, passions, which the student has to control for his own welfare. During the current phase the child start viewing porn and sexual content over the internet, which is absolutely dangerous to him. There are psychologists who advocate masturbation-ejaculation and mislead-misguide the boys. This process not only reduce physical strength it reduces the memory. Some people start having dizziness (चक्कर आना) as well. Therefore, the scriptures prescribe for good moral character for the students.
उदकुम्भं सुमनसो गोशकृन्मृत्तिकाकुशान्।
आहरेद्यावदर्थानि भैक्षं चाहरहश्रचरेत्॥2.182॥
ब्रह्मचारी-शिष्य, घड़े में जल, पुष्प, गौ का गोबर, मिट्टी और कुश आवश्यकतानुसार लावे और प्रतिदिन भिक्षा भी लावे।
The celibate should bring water in the pitcher, flowers, cow dung, clay-earth, soil and Kush grass as per need and bring alms everyday to his Guru.
The scriptures clearly state the Brahmn is the owner of earth. Whole cultivable land and wealth belongs to him. He has willingly transferred this to the humans, who are supposed to part a bit of it in the form of alms (lease rent) to the celibate. The logic behind this is that the students are from those families who have sent the child for education to the Guru. As a matter of fact the Guru Kul-The Ashrams used to be patronised by the kings, emperors and huge donations-grants were made for the welfare of society by doing this.
वेदयज्ञैरहीनानां प्रंशस्तानां स्वकर्मसु।
ब्रह्मचार्याहरिभ्दैक्षं गृहेभ्यः प्रयतोSन्हम्॥2.183॥
ब्रह्मचारी-शिष्य उन परिवारों, गृहस्थों जो वेद और यज्ञों में संलग्न हों और अपने धर्म-कर्म में श्रेष्ठ हों, के घर से प्रतिदिन प्रयत्न करके भिक्षा लावे।
The celibate should request those householders-families who are devoted to the Veds and Hawan-sacred sacrifices in holy fire and are supreme in discharge of their duties pertaining to Dharm-religion and the virtuous, pious, righteous, honest, truthful deeds.
Such household, families might have been the student in one or the other monasteries. Those who have learnt Veds knows the significance of donations-charity towards the welfare of society. Charity made to deserving never goes waste. It destroys the accumulated sins of the donors. The students from the marshal castes-Kshtriy families were sure to have become warriors, army officers, ministers of the King to keep the chain unbroken. Those from the Vaeshy families-the trader, business class or the agriculturists too maintained the tradition. The chain was broken with the onset of Buddhism in India when the 9th incarnation of Almighty Bhagwan Buddh himself distracted the Brahmns.
गुरो: कुले न भिक्षेत न ज्ञातिकुलबन्धुषु।
अलाभे त्वन्यगेहानां पूर्वं पूर्वं विवर्जयेत्॥2.184॥
गुरु के कुल में और अपने जाति भाई और कुल बन्धुओं के घर में भिक्षा न माँगे, यदि अन्य गृहों का आभाव हो अर्थात दूसरों के यहाँ भिक्षा न मिले तो क्रम से पहले का त्याग करके भिक्षा माँगे।
The celibate should not beg alms in the clan of the guru, his own caste people or relatives of the family. If he do not get alms from rest of the categories, then he may beg in reverse order.
सर्वं वापि चरेद् ग्रामं पूर्वोक्तानामसम्भवे।
नियम्य प्रयतो वाचमभिशस्तांस्तु वर्ज्येत्॥2.185॥
यदि पूर्वोक्त लोग न हों तो मौन होकर चाहे जहाँ जिस गाँव में भिक्षा के लिये जाये, किन्तु पापियों से भिक्षा न ले।
If people of any of the above mentioned categories are not available then he may proceed to other villages but there he has to remain quite while begging alms and not to seeks alms from the sinners.
दुरादाहृत्य समिध: सन्निदध्याद्विहायसि।
सांयप्रातश्च जुहुयात्ताभिरग्निमतन्द्रितः॥2.186॥
दूर से समिधा लाकर उसे ऊपर रख दे और साँय-प्रातः काल आलस्य रहित होकर उससे अग्नि में हवन करे।
The celibate should bring Samidha-dry wood for Hawan from distant places in the jungle and place them at a height and perform Hawan without laziness in the morning & evening.
Hawan is a process in which wood and other ingredients are offered in holy sacrifices in fire. These goods are generally :: Ghee, barley, Sesame seeds, Beetle leaves, coconuts, sweets, honey etc.
Please refer to :: santoshsuvichar.blogspot.com
अकृत्वा भैक्षचरणसमिध्य च पावकम्।
अनातुर: सप्तरात्रमवकीर्णिव्रतं चरित्॥2.187॥
आरोग्य अवस्था में यदि सात रात पर्यन्त ब्रह्मचारी भिक्षा नहीं माँगे और अग्नि में समिधा का हवन न करे तो उसे अवकीर्णित व्रत करना चाहिये।
If the celibate fails to perform Hawan, collect Samidha & alms for continuous 7 nights due to illness, he should observe self imposed restraint on speech.
अवकीर्णित व्रत :: मौन व्रत, वाचा प्रतिबंध; vow of silence, observation of of silence, self imposed restraint on speech.
भैक्षेण वर्त्तयेन्नित्यं नैकान्नादौ भवेद् व्रती।
भैक्षेण व्रतिनो वृत्तिरुपवाससमा स्मृता॥2.188॥
नित्य भिक्षा करनी चाहिये, एक ही अन्न को खाकर ब्रह्मचारी को नहीं रहना चाहिये। भिक्षा वृत्ति से रहना उपवास के बराबर है।
The celibate should resort to begging alms everyday and should not survive over just a single type-kind of grain, food. Survival over begging alms is identical to fasting.
व्रतवद्देवदैवत्ये पित्र्ये कर्मण्यथर्षिवत्।
काममभ्यर्थितोSशनियाद् व्रतमस्य न लुप्यते॥2.189॥
देवकर्म देवता के प्रीत्यर्थ और पितृ-कर्म में पितरों के प्रीत्यर्थ निमंत्रित ब्रह्मचारी ऋषि के समस्त अपने व्रतानुकूल यथेष्ठ भोजन करे; इससे उसका व्रत भंग नहीं होता है।
The vows-rules of celibacy are not broken, when the celibate accept food offered as a part of the prayer of demigods-deities and the manes like invited sages-hermits.
There are Brahmn families these days, who are engaged in other professions and do not like to accept food as an act of mercy, charity, donation, from anyone. Still there is a big segment-chunk of Brahmns who are willing to accept any kind of gift or food offered to them. The Pandit who solemnise the marriage too settles his Dakshina-fees in advance. However, one must not go empty handed to Pandits-Brahmns for Astrological, Palmists or medicinal consultations. One must pay to the Vaedy who provide Ayurvedic medicines for his survival. One should honour and pay sufficient money to the Brahmn-teacher who teaches his children.
ब्राह्मणस्यैव कर्मैतदुपदिष्टं मनीषिभि:।
राजन्यवैश्ययोस्त्वेवं नैतत्कर्म विधीयते॥2.190॥
पण्डितों ने उपर्युक्त कर्म केवल ब्राह्मण ब्रह्मचारी को ही करने को कहा है; क्षत्रिय और वैश्य को नहीं।
The learned, scholars-enlightened have asked the Brahmn-celibates to perform above mentioned duties, rituals, Karm, not the Kshatriy or Vaeshy.
Such duties are ordained (ठहराया, विहित; canonical, fixed) for the Brahmns only since they are considered to be the role model for the society. They have to maintain high moral character & values.
चोदितो गुरुणा नित्यमप्रचोदित एव वा।
कुर्यादध्ययने यत्नमाचार्यस्य हितेषु च॥2.191॥
ब्रह्मचारी-बटुक गुरु के द्वारा कहे जाने पर अथवा न कहे जाने पर भी नित्य विद्याध्ययन में और आचार्य की सेवा में प्रयत्नशील होना चाहिये।
One should devote himself to the learning of Veds and the service of the Guru without being asked or reminded with utmost effort.
UTMOST :: परम, अधिकतम, दूरतम; consummate, especial, uttermost, maximum, most, maximal, supreme, extreme, ultra.
शरीरं चैव वाचं च बुद्धीन्द्रियमनांसि च।
नियमा प्राञ्जलिस्तिष्ठेद्वीक्षमाणों गुरोर्मुखम्॥2.192॥
शरीर, वाणी, बुद्धि, इन्द्रिय और मन को नियंत्रण में रखकर हाथ जोड़कर गुरु के मुख को देखता हुआ स्थिर रहे।
The celibate-Brahmn Brahmchari should control his body, speech (tongue), brain, sense organs-sensuality and the psyche and look to the face of the Guru-teacher, with utmost attention, with folded hands & sitting straight-erect.
One should sit erect posture while performing Yog or studying. It keeps him alert. The brain is positioned inside the vertebral column, which is most active in this posture.
नित्यमुद्घृतपाणी: स्यात्साध्वाचारः सुसंयतः।
आस्यतामिति चोक्त: सन्नासीताभिमुखं गुरो:॥2.193॥
उचित वेश-भूषा और विनम्र आचरण से युक्त होकर हमेशा दाहिना हाथ बाहर रखता हुआ गुरु के कहने पर उनके सम्मुख बैठे।
The disciple should be properly-suitably dressed with his right hand out of the clothing and seek his Guru's permission to sit before him.
हीनान्नवस्त्रवेषः स्यात्सर्वदा गुरुसन्निधौ।
उत्तिष्ठेतप्रथमं चास्य परमं चैव संविशेत्॥2.194॥
गुरु के समीप हमेशा गुरु से न्यून भोजन, वस्त्र और वेश में रहे और गुरु के सोकर जागने से पहले उठे और उनके सोने के बाद सोये।
He should be present near the teacher (in the hut meant him in the complex), get up before him, sleep after him, eat less than him and dressed suitably.
प्रतिश्रवणसंभाषे शयानो न समाचरेत्।
नासिनो न च भुञ्जानो न तिष्ठन्न पराङ्-मुखः॥2.195॥
सोये हुए, बैठे हुए, भोजन करते हुए, मुँह फेर कर खड़े हुए गुरु से संभाषण नहीं करना चाहिये।
One should not talk-converse with the Guru if he is sleeping, sitting, eating or has turned his head around (averted his face).
आसीनस्य स्थितः कुर्यादभिगच्छंस्तु तिष्ठतः।
प्रत्युद्गम्य त्वाव्रजत: पश्र्चाध्दावंस्तु धावत:॥2.196॥
यदि गुरु बैठे हों तो स्वयं उठकर, खड़े हों तो सामने जाकर, आते हों तो सम्मुख चलकर, चलते हों तो उनके पीछे दौड़कर, गुरु की बात सुननी चाहिये।
The disciple-celibate should listen to his Guru by standing if he is sitting, if standing by coming in front-forward, if coming by advancing towards him, if walking by running behind him.
पराङ्मुखस्याभिमुखो दूरस्थस्यैत्य चान्तिकम्।
प्रणम्य तु शयानस्य निदेशे चैव तिष्ठतः॥2.197॥
गुरु मुँह फेरकर खड़े हों तो सामने जाकर, दूर हों तो समीप जाकर, लेटे हों तो प्रणाम कर, समीप बैठे हों तो सिर नीचे करके-झुकाकर बात को सुने।
The disciple-celibate should listen to his Guru by coming in front if he is looking in some other direction, by reaching near-within approach if he is away-far, if laying down by saluting-bowing down, prostrating before him, if sitting by lowing the head.
नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसन्निधौ।
गुरोस्तु चक्षुविर्षये न यथेष्टासनो भवेत्॥2.198॥
शिष्य को हमेशा गुरु के समीप अपनी शय्या और आसन उनसे नीचे रखना चाहिये। गुरु के सामने यथेच्छा किसी भी आसन पर नहीं बैठना चाहिये। The disciple should keep his bed and the seat lower to that of his Guru when he is nigh-near and he should not occupy any seat abruptly.
NIGH :: समीप, पास-पड़ोस का, निकट, नज़दीक, पास, बग़ल में; near, close, nearby, adjoining, neighbouring, proximate, closely, short, sideways, side by side, alongside, thereabout, snug, with, well-nigh, almost, just about, more or less, practically, virtually, all but, as good as, next to, close to, near, to all intents and purposes, approaching, bordering on, verging on, nearing.
नोदाहरेदस्य नाम परोक्षमपि केवलम्।
न चैवास्यानुकुर्वीत गतिभाषितचेष्टितम्॥2.199॥
परोक्ष में गुरु का केवल नाम मात्र न लेवे अपितु चलने, फिरने, बोलने या किसी प्रकार की शरीरिक चेष्टा की नकल न करे।
The student should never call the teacher by name but also should not copy-mimic his way of walking, talking, gestures-physical movements.
परोक्ष :: अनुपस्थिति, गैर हाजिरी, न रहना, न होना, अभाव, शून्यमनस्कता, बेसुधी, वियोग, टेढा, पेचदार, बहाने बाज, फेर का, गुप्त, गोलमाल, परोक्ष, अनुमानिक; absence, secondary, virtual, non apparent, invisible, indirect.
गुरोर्यत्र परिवादो निन्दा वाSपि प्रवर्तते।
कर्णौ तत्र पिधातव्यौ गन्तव्यं वा ततोSन्यतः॥2.200॥
जहाँ गुरु का उपहास अथवा निन्दा होती हो वहाँ कानों को बन्द कर ले अथवा कहीं अन्यत्र चला जाये।
The disciple should either close his ears or move else where, away from the place where his teacher is being censured-criticised or is a target of fun-gossip.
परिवादात्खरो भवति श्र्वा वै भवति निन्दक:।
परिभोक्ता कृमिर्भवति कीटो भवति मत्सरी॥2.201॥
गुरु का उपहास करने वाला मरने पर गधा, निन्दा करने से कुत्ता, उसकी सम्पति का भोग करने से कृमि और ईर्ष्या करने से कीड़ा होता है।
One who makes fun of his teacher becomes an ass, on censuring-defaming he becomes a dog, on using his property a worm and on envying becomes an insect in next incarnation.
दूरस्थो नार्चयेदेनं न क्रुद्धो नान्तिके स्त्रिया:।
यानासनस्थच्श्रैवैनमवरुह्याभिवादयेत्॥2.202॥
दूर से गुरु की पूजा न करे, क्रोधित होकर या स्त्री के समीप होकर पूजा न करे। सवारी पर रहते हुए गुरु के दर्शन हों तो सवारी से उतर कर गुरु को प्रणाम करे।
The student should neither wish the teacher through a distance nor should he do so when near a woman (in the company-association of women) or in anger. If he sites the Guru when he is travelling in a vehicle, he should get down to wish the teacher.
प्रतिवातेSनुवाते च नासीत गुरुणा सह।
असंश्रवे चैव गुरोर्न किञ्चिदपि कीर्तयेत्॥2.203॥
गुरु के साथ शिष्य को इस तरह नहीं बैठना चाहिये कि अपनी शरीर से स्पर्श करती हुई हवा गुरु को लगे और गुरु को स्पर्श करती हुई हवा अपने शरीर को लगे। किसी बात की तरफ गुरु ध्यान न देते हों और सुनना नहीं चाहते हों, तो उस समय उनसे कुछ भी न कहे।
The disciple should sit-adjust himself in such a way that the air touching his body does not blow towards the teacher and vice versa. If the teacher is not willing to listen or pay attention to his words then its advisable not to utter any thing.
गोSश्रोष्ट्रयानप्रासादस्त्रस्तरेषु कटेषु च।
आसीत गुरुणा सार्धन् शिलाफल कनौषु॥2.204॥
बैल, घोड़ा और ऊँट आदि सवारियों पर, कोठे, चटाई, पत्थर की चट्टान, चौकी और नाव पर गुरु के साथ बैठ सकते हैं।
The disciple can sit with the teacher while riding an oxen, horse or camel, over the top of a house-terrace, mat, bench, rock or boat.
गुरोर्गुरौ सन्निहिते गुरुवद्वृत्तिमाचरेत्।
न चानिसृष्टो गुरुणा स्वान्गुरूनभिवादयेत्॥2.205॥
गुरु के समीप उनके गुरु हों तो उनके साथ गुरु की तरह ही व्यवहार करे। गुरु की आज्ञा के बिना अपने गुरुजनों (माता-पिता) प्रणाम न करे।
The disciple should pay regards to the teacher of his teacher just like his own teacher and should not wish to his elders-parents, without the permission of the teacher.
The parents & relatives are expected to be present while the lesson is going on. Presence of teacher's teacher is not a matter of chance. Usually, it happened when the senior teacher's guidance was needed. When the teacher's teacher visited him it used to be ceremonious or request to explain some thing intricate. There were occasions when discussion-debate was essential.
विद्यागुरुष्वेतदेव नित्या वृत्ति: स्वयोनिषु।
प्रतिषेधत्सु चाधर्मान्हितं चोपदिशत्स्वपि॥2.206॥
विद्या सिखाने वाले गुरु के साथ, अपने से बड़े सम्बन्धी जो अधर्म से बचाते हों और जो हितकर शिक्षा देते हों, के साथ गुरु के समान ही व्यवहार करना चाहिये।
The teacher who teaches, own elder relatives who protects from Adharm-non religiosity, sins and one who preaches useful things; the disciple has to treat them like the teacher.
The scriptures advocate learning from any one, of any status or caste, if it is useful good-worthy takes one to honesty-goodness.
श्रेय:सु गुरुवद्वृत्तिं नित्यमेव समाचरेत्।
गुरपुत्रेषु चार्येषु गुरोच्श्रैव स्वबन्धुषु॥2.207॥
अपने से श्रेष्ठ जन, पूज्य गुरु पुत्र और गुरु के कुटुम्बियों के साथ नित्य गुरु की ही तरह व्यवहार करे।
The disciple at the Guru's Ashram should treat his senior-elders and those who are superior to him in respect of learning-knowledge, revered and the guru's son as well as the relatives of the Guru residing in the complex, just like the way he regards-respects his teacher.
बालः समानजन्मा वा शिष्यो वा यज्ञकर्मणि।
अध्यापयन्गुरुसुतो गुरुवन्मानमर्हति॥2.208॥
गुरु का पुत्र अपने से उम्र में छोटा अथवा समान हो, शिष्य हो, यदि अध्यापन के योग्य है तो यज्ञकर्म में वह गुरु के समान हो सम्मान के योग्य है।
The teacher's son deserve equal treatment-respect as that of the teacher if he is qualified to teach-impart instructions, whether he is of the same age or equal in age with the disciple & even if he himself is a student.
उत्सादनं च गात्राणां स्नापनोच्छिष्ट भोजने।
न कुर्याद् गुरुपुत्रस्य पादयोच्श्रावनेजनम्॥2.209॥
गुरु के पुत्र को मलना, नहलाना और उनका जूठा नहीं खाना चाहिये और उनके पैरों को नहीं धोना चाहिये।
The disciple should not help the teacher's son in taking bath, rubbing his body and accept the left over food and should not clean his feet.
There is no provision for eating left over food. The simple method to separate the food for the Guru, his son-family & others and consume the remaining food as a Prasad; as is being done while offerings made to the God, only when asked by the Guru.
गुरुवत्प्रतिपूज्या: स्यु: सवर्णा गुरुयोषितः।
असवर्णास्तु संपूज्या: प्रत्युत्थानाभिवादन:॥2.210॥
यदि गुरु की स्त्री सवर्णा-सजातीय हो तो गुरु के समान ही पूजनीय है। यदि असवर्णा हो तो केवल प्रत्युत्थान-उठकर और अभिवादन से सम्मान करना चाहिये।
The teacher's wife deserve honour-respect if she is from the same caste i.e., from a Brahmn family; otherwise the disciple should just stand up and salute her with respect.
अभ्यञ्जनं स्नापनं च गात्रोत्सादनमेव च।
गुरुपत्न्या न कार्याणि केशानां च प्रसाधनम्॥2.211॥
गुरु की स्त्री के उबटन लगाना, स्नान कराना, देह दबाना और बाल बाँधना जैसे कार्य नहीं करने चाहियें।
The disciple should not help in anointing-scrubbing, bathing, tying hair, pressing-comforting the body of his teacher's wife.
उबटन :: तेल+हल्दी+चन्दन का मिश्रण, अभिषेक तैल, महावर (एक प्रकार का लाल रंग जो ऐड़ियों, तलवों, पैरों में लगाया जाता है), शरीर की दुर्गन्ध को दूर करने हेतु बाह्य प्रयोग के लिए एक सुगंन्धित पाउडर; body scrub, rouge, chrism, empasma.
गुरुपत्नी तु युवतिर्नाभिवाध्येह पादयो:।
पूर्णविंशतिर्षेन गुणदोषौ विजानता॥2.212॥
गुण-दोष को जानने वाला पूरे 20 वर्ष की उम्र वाले शिष्य को युवा गुरु पत्नी का पैर छूकर प्रणाम नहीं करना चाहिये।
The disciple who is aware of what is right, what is wrong and has acquired the age of 20 years, should not honour-greet by touching the feet of his teacher's young wife.
स्वभाव एष नारीणां नराणामिह दूषणम्।
अतोSअर्थान्न प्रमाद्यन्ति प्रमदासु विपच्श्रितः॥2.213॥
पुरुषों को दूषित करना स्त्रियों का स्वभाव है। इसलिये विवेकी पुरुष युवती स्त्रियों के विषय में कभी प्रमाद नहीं करते।
Its a part of the nature of women to befoul, debauch-seduce men. Therefore, the prudent-wise men never believe-intoxicated by the young female-women.
The women may not be solely responsible for this. There are men who are equally guilty and even more guilty.
दूषित करना :: मैला करना, गंदा करना, मलिन करना, नापाक करना, अपवित्र करना, कलुषित करना, निष्फल करना, विदूषित करना, निष्प्रभाव कर देना, हस्तक्षेप करना, दस्तंदाज़ी करना, भ्रष्ट प्रभाव डालना, घूस देना, कलंकित करना, विषैला करना, विषाक्तीकरण, बिगाड़ना, विकृत करना, लम्पट, विषयी, भ्रष्ट करना, अनादर, अवज्ञा, अशुद्ध करना, धब्बे लगाना, बदनाम करना, अपमानित करना, बिगाड़ना, हानि करना, अपमान करना, तिरस्कार करना, बातों सुनाना, संमार्ग से हटाना, उलटना, धब्बा लगाना, धुंधला हो जाना, मंद हो जाना, कलंक लगाना, कलंकति करना, ज़हर देना, विषक्त बनाना, विष देना, मारना, नष्ट करना; to pollute, vitiate, contaminate, befoul, debauch, defile, poisoning, unhallow, profanation, tamper with, sully, pollute, soil, spoil, corrupt, profane, mar, desecrate, pervert, tarnish, poison.
अविद्वान्समलं लोके विद्वान्समपि वा पुनः।
प्रमदा ह्युत्पथं नेतुं कामक्रोधवशानुगम्॥2.214॥
इस संसार में जो काम-क्रोध के वशीभूत हैं, चाहे मूर्ख हों या विद्वान् उनकी युवती स्त्री कुमार्ग में ले जाने में समर्थ होती है।
Those who are under the influence of sex-passions or anger are easily misled by their young wives on a wrong path-vicious track, whether they are idiots or learned.
Women are able to lead astray any one. Only one who has control over himself, can survive the onslaught. Sages like Vishwamitr could not resist the temptation. Bhagwan Shiv too was distracted by Mohini, incarnation of Bhagwan Shri Hari Vishnu. Heaven is a place full of lust-passions and lascivious-those who are led, inspired by sensuality-sexuality.
VICIOUS :: भ्रष्ट, खोटा, शातिर, पापी, पतित, दोषी, सदोष, दोषपूर्ण, ख़राब, दुष्ट; unholy, corrupt, guilty, cunning, roguish, sly, mischievous, impaired, depraved, profane, delinquent, blameworthy, perverse, manifest, bad, doggerel, base, false, culpable, degenerate, fallen, retrograde, licentious, sordid, undersized, defective, wicked, addled, black hearted, desperado, faulty, amateurish, captious, backslider.
मात्रा सवस्त्रा दुहित्रावा न विविकत्तासनो।
भवेत् बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वान्समपि कर्षति॥2.215॥
ब्रह्मचारी अथवा व्यक्ति, माता, बहन या बेटी के साथ एक आसन पर न बैठे, क्योंकि बलवान इन्द्रियों का समूह विद्वान् को भी अपनी तरफ खींच लेता है।
One should not sit over the common seat (especially in a lonely place) with one's mother, sister or daughter; for the senses are very powerful and distract even a learned man.
Its extremely difficult to control restrain the innerself, which may spoil the life of a person in fraction of moment. One has to devote himself to meditation, ascetics, firm determination, pious company to over power the psyche, mood, inner self.
कामं तु गुरुपत्नीनां युवतीनां युवा भुवि।
विधिवद्वन्दनं कुर्यादसावहमिति ब्रुवन्॥2.216॥
युवा शिष्य युवती गुरूपत्नियों को अपने नाम का उच्चारण करता हुआ विधिवत् प्रणाम करे।
The young disciple should bow (prostrate himself on the ground) in front of the young wives of the Guru-teacher by pronouncing his name methodically i.e., according to the prescribed procedure.
विप्रोष्य पादग्रहणमन्वहं चाभिवादनम्।
गुरुदारेषु कुर्वीत सतां धर्ममनुस्मरन्॥2.217॥
देशान्तर से आकर शिष्य शिष्ट पुरुषों के अनुसार बायें हाथ से बायाँ और दाहिने हाथ से दाहिने पैर को पृथ्वी को छूते हुये, प्रति दिन गुरु पत्नी का अभिवादन करे।
The disciple should touch the feet of his teacher's wife with due respect, in such a way that his left hand touches the left foot, right hand touches the right foot, while her feet are touching the ground, on returning after begging alms
यथा खनन्खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति।
तथा गुरुगतां विद्यान् शुश्रुषुधिगच्छति॥2.218॥
जिस प्रकार यंत्र-औजार से जमीन को खोदता हुआ मनुष्य जल पा जाता है, उसी प्रकार गुरु की सेवा करता हुआ शिष्य भी गुरु की विद्या को पा जाता है।
The manner in which a person finds water on digging the ground with spade, the disciple too attains the knowledge available with the teacher, serving him with devotion-dedication.
मुण्डो वा जटिलो व स्यादथवा स्याच्छिखाजट:।
नैनं ग्रामेSभिनिम्लोचेत्सूर्यो नाभ्युदयात्क्वचित्॥2.219॥
मुण्डन कराये हुये अथवा जटाधारी या शिखा की ही जटा रखे हो चाहे जैसा भी ब्रह्मचारी हो, उसको गाँव में रहते हुये सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं होना चाहिये।
The celibate whether with shaved hair or with hair in braids or single lock, should not be present in the village, while the Sun is rising or setting.
The celibate is supposed to be there in the Ashram-hermitage, teacher's camp during the night i.e., before Sun set and Sun rise.
तं चेदभ्युदयात्सूर्य: शयानं कामचारत:।
निम्लोचेद्वाSप्यविज्ञानाज्जपन्नुसेद्दिनम्॥2.220॥
यदि सूर्योदय हो जाने पर भी इच्छावश ब्रह्मचारी सोया ही रह जाये तो दिन भर उपवास कर गायत्री का जप करे, इसी प्रकार न जानते हुए सूर्यास्त हो जाये तो दूसरे दिन जप और उपवास करे।
If the Brahmchari keep on sleeping due to his will, desire, intentionally (laziness) after the Sun rise, he should observe a fast throughout the day and recite the Gayatri Mantr. Similarly, if he keeps sleeping unintentionally after the Sun set, he should observe fast & recite-mutter the Gayatri Mantr next day.
MANU SMRATI (2) मनु स्मृति :: ब्राह्मण धर्म, संस्कार, गुरु-शिष्य परम्परा santoshkipathshala.blogspot.com
सूर्येण ह्याभिनिर्मुक्तः शयानोSभ्युदितच्श्र य:।
प्रायश्र्चित्तमकुर्वाणो युक्तः स्यान्महतैनसा॥2.221॥
यदि सोये रहने पर हो सूर्योदय और सूर्यास्त हो जाये तो ब्रह्मचारी को प्रायश्चित करना चाहिये, न करने से महापाप का भागी होता है।
If the Brahmchari-celibate keep on sleeping even after the Sun rise and the Sun set, he should observe penances-repatriation, failing which he faces grave-deadly sin.
प्रायश्चित :: atonement, expiation, penance, reparation, act of atonement, act of repentance.
महापाप :: grave crime or sin, enormity, felony, mortal sin, atrocity, deadly sin, great guilt.
आचम्य प्रयतो नित्यमुभे संध्ये समाहितः।
शुचौ देशे जपञ्जप्यमुपासीत यथाविधि॥2.222॥
पवित्र प्रदेश में चित्त को एकाग्र करके नित्य आचमन करके दोनों (प्रातः और साँय) संध्याओं को करके जप करता हुआ यथोक्त प्रकार से सूर्य की उपासना करे।
The celibate should concentrate his brain into the Almighty, in a holy-pious place, sip water and recite Gayatri Mantr twice i.e., both in the morning and evening-both twilights, as prescribed in the scriptures.
यदि स्त्री यद्यवरज: श्रेयः किञ्चित्समाचरेत्।
तत्सर्वमाचरेधयुक्तो यत्र वाSस्य रमेन्मनः॥2.223॥
स्त्री या शूद्र किसी शुभ कर्म को करे तो वह ब्रह्मचर्य पूर्वक ही उस कर्म को करें अथवा शात्रोक्त जिस कर्म में मन लगे उसे ही करे।
If the female or Shudr wish to perform any auspicious act, deed, ritual, worship, prayer; they may proceed by adopting celibacy and then proceed, otherwise they should do those functions in which they finds interest, instead of doing such religious-auspicious acts.
Purity of body and mind have been stressed in scriptures, while performing sacred acts. The procedures and recitation (rhythm, note, quality, tone etc. all are very-very important in these jobs) is so much intricate that a normal sensible person would abstain from doing them by himself. Rather, he would prefer to seek the help from a learned-qualified expert-Pandit in that field. A single syllable alters the entire meaning and may harm the doer. It clearly shows that there is no restriction over any caste-creed over performing sacred rites. There are notorious people who have misinterpreted Manu Smrati, especially the British and Indian politicians like Communists, Muslims, Maya Vati and so called secular elements, including the students of JNU are misinterpreting for political gains.
धर्मार्थावुच्यते श्रेयः कामार्थो धर्म एव च।
अर्थ एवेह वा श्रेयस्त्रीवर्ग इति तु स्थितिः॥2.224॥
कोई धर्म और अर्थ को, कोई काम और अर्थ को और कोई केवल धर्म को अथवा केवल अर्थ को ही कल्याण कारक मानते हैं, किन्तु वास्तव में अर्थ, धर्म और काम ये तीनों कल्याण-मोक्ष को देने वाले है।
Some people believe Dharm-duty and wealth, some Sex and wealth and some only Dharm, some only wealth believe to be essential-means for welfare; but in reality all the three Dharm, wealth-money and sex are essential for the welfare-Salvation of humans beings and the society.
There are the people who believe only in devotion to God and seek Salvation. They reject all the 3; i.e., Dharm-duty, Arth-money, Kam-sex. Its possible to attain Salvation; while performing duties as a house hold and a member of family or the society, simultaneously.
आचार्यच्श्र पिता चैव माता भ्राता च पूर्वज:।
नार्तेनाप्यवमन्तव्या ब्राह्मणेन विशेषतः॥2.225॥
आचार्य, पिता, माता और ज्येष्ठ भ्राता इन लोगों का अपमान दुःखी होने पर भी नहीं करना चाहिये, विशेषकर ब्राह्मण का अपमान तो कभी भी नहीं करना चाहिये।
A Brahmn should not be insulted. The Guru-teacher, father, mother and the elder brother should also be respected and never offended, displeased, pained or worried.
आचार्यो ब्राह्मणों मूर्ति: पिता मूर्ति: प्रजापते।
माता पृथिव्या मूर्तिस्तु भ्राता स्वो मूर्तिरात्मन:॥2.226॥
आचार्य ब्रह्म की मूर्ति, पिता ब्रह्मा की, माता पृथ्वी की और भाई अपनी आत्मा की मूर्ति होता है।
The Guru-teacher is comparable to the Almighty-Brahm, the father is comparable to the Creator Brahma Ji, the mother is comparable to the earth and the brother is comparable to own soul.
यं मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम्।
न तस्य निस्कृति: शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि॥2.227॥
प्राणियों की उत्पति में माँ-बाप को जो क्लेश सहना पड़ता है, उस क्लेश से वे सौ वर्षों में भी निस्तार नहीं पा सकते।
The pain, trouble, stress under taken by the parents in giving birth to the offspring, progeny-children can not be compensated by them, even in 100 years.
OFFSPRING :: वंशज, संतति, नतीजा, परिणाम, वंशधर, सन्तान, अपत्य, प्रसूति, सन्तति; descendant, scion, progeny, son, child, seed, posterity, generation, family, result, outcome, aftereffect, outgrowth, consequence, outgrowth, effect, son, child, offset, issue, maternity, obstetric, delivery.
तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा।
तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्वं समाप्यते॥2.228॥
दोनों (माँ-बाप) और आचार्य को हमेशा प्रसन्न रखना चाहिये, इन तीनों के प्रसन्न रहने से सभी तपस्या पूरी हो जाती हैं।
One should always keep his parents and the teacher happy-pleased with him, since by keeping them happy, all desires, austerities-ascetic practices yield favourable results.
तेषां त्रयाणां शुश्रुषा परमं तप उच्यते।
न तैरभ्यननुज्ञातो धर्ममनयं समाचरेत्॥2.229॥
इन तीनों की सेवा को ही परम तप कहते हैं, इनकी आज्ञा के बिना किसी अन्य धर्म को न करे।
Service of these three is called Ultimate asceticism-austerity and one should not take up any other job-duty, ventures without their permission.
त एव हि त्रयो लोकास्त एव त्रय आश्रमा:।
त एव हि त्रयो वेदास्त एवोक्तास्त्रयोSग्नय:॥2.230॥
वे ही (माता-पिता, आचार्य) तीनों लोक, आश्रम, तीनों वेद और तीनों अग्नि (पावक, पवमान, शुचि) कहे गये हैं।
These three have been identified-called the 3 abodes (earth, heaven, nether world), 3 Ashram (stages in life :- childhood, adulthood and old-retired), 3 Veds (Rig Ved, Yajur Ved, Atharv Ved) and the 3 fires (Pavak, Pavman & Shuchi).
पिता वै गार्हपत्योSग्निर्माताग्निर्दक्षिण: स्मृत:।
गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी॥2.231॥
पिता गार्हपत्य अग्नि, माता दक्षिणाग्नि और गुरु आहवनीय अग्नि हैं और तीनों ही अग्नि श्रेष्ठ हैं।
The father forsooth is the Garh Paty form, the mother the Dakshinagni form & the teacher the Ahavaniy form of fire and this triad of fires is most venerable.
FORSOOTH :: वस्तुतः, निस्सन्देह; In truth, in fact, certainly, in reality, very well; formerly it was used as an expression of deference or respect, especially to woman; now it is used ironically or contemptuously.
त्रिष्वप्रमाद्यन्नेतेषु त्रींल्लोकान्विजयेद्गगृही।
दीप्यमानः स्ववपुषा देववद्दिवि मोदते॥2.232॥
गृहस्थ इन तीनों में प्रमादहीन होने से तीनों लोकों को जीत लेता है और अपने शरीर को तेजस्वी बनाकर देवता की भाँति स्वर्ग में प्रसन्नतापूर्वक वास करता है।
Out of these three, the household wins over the three worlds; being free from intoxication and lives like the demigods in the heaven happily, by making his body brilliant.
इमं लोकं मातृमक्त्या पितृभक्तया तु मध्यमम्।
गुरुश्रुषया त्वेवं ब्रह्मलोकं समश्नुते॥2.233॥
माता में भक्ति से लोक का, पितृभक्ति से मध्यलोक और गुरु की सेवा से ब्रह्मलोक से सुख को प्राप्त करता है।
Through the devotion to his mother the disciple wins the comforts of this world, through devotion to the father one attains the comforts-happiness of the middle abodes-heavens and by serving the Guru he claims the comforts up to the Brahm Lok.
सर्वे तस्यादृता धर्मा यस्यैते त्रय आदृता:।
अनादृतास्यु यस्यैते सर्वास्तस्याफला: क्रिया:॥2.234॥
जिनके ये तीनों आदृत होते हैं, उनके सभी धर्म आदरणीय होते हैं, जिनके (माता-पिता, गुरु) अनादृत होते हैं, उनकी सभी क्रियाएँ आदरणीय नहीं होतीं।
Those who regard these 3 with great respect are deemed to have fulfilled all their duties-responsibility and deserve to be regarded and gets the reward for this; but who fail to discharge their responsibility do not deserve any applause.
Neglecting parents is a great sin. Those who neglect, tease, torture their parents eventually go the hells. Those who murder their parents too get worst possible hells and on their release from the hells; they have to spend millions of years in the form of various worms, insects and ultimately they become trees, shrubs etc.
आदृत :: सम्मानित; regard with great respect, respected, honoured, esteem, admire.
यावत् त्रयस्ते जीवेयुस्तावन्नान्यं समाचरेत्।
तेष्वेव नित्यं शुश्रुषां कुर्यात्प्रियहिते रत:॥2.235॥
जब तक ये तीनों जीवित रहें, तब तक उनके प्रसन्न होने वाले कार्यों में तत्पर रहकर उनकी सेवा करें और किसी तरह को कोई अनुष्ठान न करें।
As long as any of these is alive, one should keep them happy through service-care-help and he should not preform any auspicious, virtuous, sacred act independently.
The main point is that what is being done by the parents is copied by the children and they also carry out the service, help of elders, aged voluntarily, as and when the need arises.
तेषामनुपरोधेन पारत्रयं यद्यदाचरेत्।
तत्तन्निवेदयेत्तेभ्यो मनोवचनकर्मभि:॥2.236॥
उनकी सेवा में तत्पर रहते हुए उनकी आज्ञा से जो कुछ भी मन, वचन और कर्म से अनुष्ठानादि करे वह सब उनको निवेदित करे।
One should be ready to serve them immediately-quickly, through his speech, mind and action and perform all auspicious deeds-actions by seeking their consent-permission and as per their instructions and request the demigods to accept the act as being done by them.
त्रिष्वेतेष्वितिकृत्यं हि पुरुषस्य समाप्यते।
एष धर्म: पर: साक्षादुपधर्मोSन्य उच्यते॥2.237॥
इन तीनों में ही पुरुष का कर्तव्य समाप्त हो जाता है, यही साक्षात् धर्म है, इसके अलावा सभी उपधर्म कहे जाते हैं।
With this his duties assigned by the scriptures are over, since this is Dharm-duty, religion and except this all other things are subordinate duties.
Those who identify them selves as Hindu and forget to take care of their parents and teachers; elders, down trodden, poor are not following any Dharm-religion, since these are merely means to identify themselves as a member of some specific group, sect, society, political segment.
श्रद्दधान: शुभां विद्यामाददीतावरादपि।
अन्त्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नन दुष्कुलादपि॥2.238॥
उत्तम विद्या को नीच से भी ले लेना चाहिये, चाण्डाल से भी मोक्ष धर्म की शिक्षा लेनी चाहिये और नीच कुल से भी स्त्री रत्न को ले लेना चाहिये।
One should accept quality education from a lower caste, enlightenment leading to Salvation from the Chandal and an excellent wife from a lower caste-base family.
There are some people who were enlightened in their previous birth but due to some serious fault-sin, they had to take birth in a lower caste & still they remembered what they had learnt earlier. If such a person is available for teaching, one should not hesitate. Kapil Muni-an incarnation of God happily accepted higher learning from a butcher (Sadan Kasai), in Varanasi. Occasionally, virtuous women may be there in low caste families. If one gets an opportunity to marry such a girl, he should not hesitate. There are hundreds of cases when kings found such suitable girls for marriage, but were opposed by the so called scholars-Brahmns. Peshwa Bala Ji Vishw Nath and Kala Pahad had such opportunity, but were opposed by idiots (So called Pandits). Kala Pahad converted to Muslim and tortured Hindus in -revenge-retaliation. Bala Ji married the daughter of Chhatrasal from a Muslim woman. Had this marriage been solemnised by the priests India's history might have been different. Beauty is one of the criterion for marriage but virtues & higher learning are even more significant-important.
विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम्।
अमित्रादपि सद्वृत्तममेध्यादपि काञ्चनम्॥2.239॥
विष से अमृत, बालक से सुन्दर बात, शत्रु से सदाचार और अपवित्र स्थान से सुवर्ण ले लेना चाहिये।
One should accept nectar-elixir from poison, good words (good advice) from a child and gold from impure-dirty place.
Elixir originated from the ocean along with Kal Kut-Vish most dangerous poison, swallowed by Bhagwan Shiv at the time of churning of the ocean by the demons and the demigods. Ocean is full of poisonous materials, along with jewels. Gold is recovered from dust or filthy waters in the rivers.
स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्म: शौचं सुभाषितम्।
विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वतः॥2.240॥
स्त्री, रत्न, विद्या, धन, पतिव्रता, अच्छे वचन, अनेक प्रकार की कारीगरी ये सब जहाँ से प्राप्त हों ले लेनी चाहिये।
Women, jewels, education, wealth, wife dedicated to the husband, good-soothing words, skills-technology should be acceptable irrespective of source.
अब्रह्मणादध्ययनमापत्काले विधीयते।
अनुव्रज्या च शुश्रुषा यावदध्ययनं गुरो:॥2.241॥
आपत्तिकाल में अब्राह्मण से भी पढ़ने का विधान है, किन्तु ऐसे गुरु की सेवा अध्ययन काल तक ही करनी चाहिये।
There is provision for receiving instructions from a non Brahmn in a state of emergency, but one not serve such a teacher once the studies are over.
The Kshatriy & Vaeshy too receive education from the same Guru. They too master the scriptures like Veds. If due to misfortune one is unable to find a suitable Guru, he may request the people from these Varns to give him education. Sury Bhagwan is Kshatriy by Varn-caste and he taught Hanuman Ji Maha Raj, all that a normal Brahman could have taught. Being a deity-demigod & an incarnation of the God, his level of enlightenment is much higher than a normal human being.
Manu Maha Raj who produced this doctrine too was a Kshatriy.
नाब्रह्मणे गुरौ शिष्यो वासमात्यन्तिकं वसेत्।
ब्राह्मणे चाननूचाने काङ्क्षन्गतिमनुत्तमं॥2.242॥
ब्राहणेतर गुरु के पास ब्राह्मण शिष्य अत्यन्त वास न करे। परमगति को चाहने वाला शिष्य वेद-वेदांत की शिक्षा न देने वाले ब्राह्मण के पास भी ने रहे।
The disciple-celibate should not stay such a non-Brahmn teacher for a longer period of time. The disciple who wish to have Salvation, should not stay with a Brahmn who does not impart education in scriptures-Veds, Upnishads, history.
यदि त्वात्यन्तिकं वासं रोचयेत गुरौ कुले।
युक्त: परिचरेदेनमाशरीरविमोक्षणात्॥2.243॥
यदि गुरु के यहाँ अत्यन्त वास करने की इच्छा हो तो गुरु के शरीर त्याग पर्यन्त उनकी सेवा करे।
If the student is desirous of staying with the Guru for a long period of time, i.e., through out the life, then he should diligently serve-take care of the teacher, until he survives.
आ समाप्ते: शरीरस्य यस्तु शुश्रुते गुरुम्।
स गच्छत्यञ्जसा विप्रो ब्रह्मण: सद्म शाश्वतम्॥2.244॥
गुरु के शरीर त्याग के पर्यन्त जो गुरु की सेवा करता है, वह हठात् श्रेष्ठ ब्रह्मलोक को पाता है।
The disciple who serves his teacher till he survives; gets Brahm Lok-the abode of the creator-Brahma Ji, uppermost heaven.
न पूर्वं गुरवे किञ्चितदुपकुर्वीत धर्मवित्।
स्नास्यंस्तु गुरुणाSSज्ञप्त: शक्त्या गुर्वर्थमाहरेत्॥2.245॥
धर्मज्ञाता शिष्य समावर्तन के पहले गुरु का कुछ भी उपकार न करे। व्रत समाप्ति के बाद गुरु से आज्ञा लेकर उन्हें यथा शक्ति दक्षिणा दे।
The disciple who knows the duties-religion should not oblige the Guru in any manner-except his devoted service till his stay in the Ashram-hermitage, but he should give sufficient Dakshina (fee & offerings in cash and/or kind) before departing having completed his schooling-education as per his capacity-capability.
क्षेत्रं हिरण्यं गामश्र्च छत्रोपानहमासनम्।
धान्यं शाकं च वासांसि गुरवे प्रीतिमावहेत्॥2.246॥
भूमि, सोना, गौ, घोड़ा, छाता, जूता, आसन, धान्य, शाक और वस्त्र गुरु के प्रसन्नार्थ दे।
The disciple-student may offer land, gold, cows, horse, umbrella, shoes, bed, cereals & pulses, vegetables and cloths for the happiness-pleasure of the Guru.
One should never opt for free education. He should pay back through service & cash or kind, so that the teacher can easily maintain his family and the inhabitants of the Ashram. It has been observed that those who did not pay or reluctant to pay; in fact not were not interested in studies. One who is eager, willing, devoted surely deserve to be taught. As a matter of fact the Guru's in ancient periods did not compel any one to pay. It was purely a voluntary affair. The state too offered sufficient money to manage the activities in the Ashram. The Ashram occasionally functioned as a full fledged independent economy.
आचार्यो तु खलु प्रेते गुरुपुत्रे गुणान्विते।
गुरुद्वारे सपिण्डे वा गुरुवद् वृत्तिमाचरेद्॥2.247॥
गुरु के शरीर त्याग करने पर गुण युक्त गुरु पुत्र, गुरु की पत्नी और गुरु के भाइयों में गुरु के समान आचरण करे।
The disciple should behave with the virtuous son, wife and his brothers like the teacher in case of his demise.
एतेष्वविद्यमानेषु स्नानासनविहारवान्।
प्रयुञ्जानोSग्निशुश्रुषां साधयेद्देहमात्मनः॥2.248॥
यदि इनमें कोई न हो तो गुरु के अग्नि के समीप ही स्न्नान, आसन और विहार करके अग्नि की सेवा करता हुआ अपने शरीर को मोक्ष प्राप्ति के लिये साधे।
If none of the 3 :- the teacher's son, wife or the brothers; are not present-alive he should bathe near the pious fire of the Agni Hotr-Kund, stay there offering Samidha & other pious ingredients (Hawan Samagri) to the fire and try to achieve Salvation by taking proper care of his body.
एवं चरति यो विप्रो ब्रह्मचर्यमविलुप्त:।
स गच्छत्युत्तमस्थानं॥2.249॥
जो ब्राह्मण इस प्रकार अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करता है वो ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है और फिर इस लोक में नहीं आता।
The Brahmn, celibate, Brahmchari by maintaining his chastity, follows the tenets discussed above with proper discipline moves to Brahm Lok and never return to the earth i.e., his cycle of rebirth stops here.
Here Brahm Lok represents the Ultimate abode, since its only the Ultimate abode from where no on return of takes reincarnations-birth.
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By the grace of Almighty and paying tributes to Gan Pati, Maa Saraswati & Bhagwan Ved Vyas this chapter is presented to the learned, scholar, enlightened readers. One who observe discipline, piousness, virtuousness, righteousness, honesty, chastity in life is sure to get Liberation and assimilate in God.
Revision of this chapter has been completed today i.e., July 6, 2019/26.06.2021 at Noida; by the grace of God, Maa Bhagwati Saraswati, Ganpati and Bhagwan Ved Vyas & presented to the virtuous readers.
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ
(बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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