Thursday, April 23, 2020

YOG-YOGI योग-योगी

YOG योग
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
It is Yuj, binding, joining, attaching. It helps one in directing and concentrating attention in the Almighty. It is union, communion with the Supreme. It disciplines the intellect, mind, emotions and the  will. It helps the soul  to look at life in all aspects evenly.
Purans have explained different dimensions of Yog in great details. Patanjali was one of the scholars who brought it to the masses. He composed Yog Sutr (formulations), consisting of 185 terse aphorisms. 
It is permeated by the Supreme Universal Spirit (Parmatma, God, the Almighty) of which the individual human spirit (Jeevatma) is a fraction-component. It explores the way through which the Jeevatma unite or communicates with the Parmatma, to attain renunciation, relinquishment, Liberation,  Moksh, Salvation.
One who follows the path of Yog is a Yogi.
Bhagwan Shri Krashn explains to Arjun the meaning of Yog as a deliverance from contact with pain and sorrow, in the sixth chapter of the Bhagwad Gita. When the mind, intellect and self (Ahanenkar, अहँकार, घमण्ड ego, super ego, id, pride) are under control, freed, liberated from restless desires, to rest in the spirit within, one becomes a Yukt-in communion with God. A Yogi controls his mind, intellect and self, being absorbed in the spirit within him. When the restlessness of the mind, intellect and self is stilled through the practice of Yog, the Yogi by the grace of the Spirit-Supreme Soul-the Almighty, within himself finds fulfilment. He attain a stage where there is bliss-the joy eternal-Parmanand and no pain, sorrow, grief. This is beyond the pale of the senses which reason cannot grasp. He abides in this reality. He has found the treasure-the Ultimate-above all others. There is nothing higher than-beyond this. 
Yog is wisdom in work or skilful living amongest activities, harmony and moderation. Yog is neither for the one who gorges (खूब खाना; भकोसना) too much, nor for one who starves himself. It is neither for him who sleeps too much, nor for the one who stays awake. By moderation in eating and in resting, by regulation in working and by concordance in sleeping and waking, it destroys all pain and sorrow.
Yog is a state when the senses are stilled, mind is at rest, intellect stops wavering i.e., perfect control-harmony of the senses and mind.  One who attains this is free from delusion.[Kathopnishad]
Yog is Chitt Vrati (tendency) Nirodh.[Patanjali Yog Sutr (1-2)] 
Controlling-suppression of the mood, psyche, tendencies, fluctuations, wavering of mind-intelligence, utilisation of prudence, reigning pride-id-ego, super ego. 
प्रणायाम, ध्यान, प्रत्याहार, धारणा, तर्क, समाधि ये योग के छः अंग हैं। 
नाड़ी :: नाड़ी शरीर की सूक्ष्म वाहिकाएँ हैं, जिनसे होकर प्राणों का प्रवाह होता है। इनका मुख्य कार्य शरीर के विभिन्न अंगों से सन्देश को ग्रहण करके मस्तिष्क में तथा मस्तिष्क से आज्ञा-आदेश को प्राप्त कर अंगों तक पहुँचाना है। इनसे प्राणों का संचार होता है। शरीर के ऊर्जा‌-कोष, जिसे प्राणमय कोष कहा जाता है, में 72,000 नाड़ियाँ होती हैं, जो कि तीन मुख्य नाड़ियों, बाँई (इड़ा, चन्द्र नाड़ी), दाहिनी (पिंगला, सूर्य नाड़ी) से निकलती हैं। इड़ा का अधिष्ठाता देवता चंद्रमा और पिंगला का सूर्य है। इड़ा-चन्द्र नाड़ी और पिंगला-सूर्य नाड़ी मेरुदंड के दोनों ओर स्थित हैं। 
इड़ा और पिंगला जीवन की बुनियादी द्वैतता की प्रतीक हैं। इस द्वैत को परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं अथवा इसे पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं। इनके माध्यम से तर्क-बुद्धि और सहज-ज्ञान हो सकते हैं। यदि इड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय है, तो मनुष्य में स्त्रियोचित गुणों के प्रभाव होगा। यदि जातक की पिंगला अधिक सक्रिय है, तो पुरुषोचित गुण प्रभावकारी होंगे।  
इड़ा और पिंगला के बीच संतुलन मनुष्य को प्रभावशाली बनाता है। 
कबहु इडा स्वर चलत है, कभी पिंगला माही।
सुष्मण इनके बीच बहत है, गुर बिन जाने नाही॥
मनुष्य के रोगी और निरोगी रहने में श्वासों का अत्यधिक महत्व है। इसके लिए इड़ा और पिंगला नाड़ी के साथ-साथ सुषुम्ना को भी सक्रिय करना होता है। दोनों नाड़ियों के सक्रिय और संतुलित रहने से किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं सताता। प्राणायाम के माध्यम से मनुष्य सुषुम्ना को सक्रिय कर सकता है। श्वास-प्रश्वास की उचित विधि मनुष्य को स्वस्थ, सुंदर और दीर्घजीवी बनाकर उसे सिद्ध पुरुष बनाकर ईश्वरानुभूति करा सकती है। 
मनुष्य के दोनों नासिका छिद्रों में श्वास-प्रश्वास कभी एक साथ नहीं चलती। यह कभी वह बाएँ तो कभी दाएँ नासिका छिद्र में स्थानांतरित होती रहती है। प्राय: मनुष्य उतनी गहरी श्वास नहीं लेता और छोड़ता, जितनी कि एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए जरूरी होती है। प्राणायाम एक ऐसी विधि है, जिससे मनुष्य ज्यादा गहरी और लंबी श्वास ले और छोड़ सकता है। अनुलोम-विलोम प्राणायाम की विधि से दोनों नासिका छिद्रों से बारी-बारी से वायु को भरा और छोड़ा जाता है। अभ्यास करते-करते एक समय ऐसा आ जाता है, जब चंद्र और सूर्य नाड़ी से समान रूप से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होने लगती है। उस अल्पकाल में सुषुम्ना नाड़ी से श्वास प्रवाहित होने की अवस्था को ही योग कहा जाता है।
इड़ा-चन्द्र नाड़ी-बाँई :: इड़ा का प्रवाह बाई नासिका से होता है तथा इसकी प्रकृति शीतल है। चंद्र नाड़ी से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होने पर यह मस्तिष्क की अनावश्यक ऊर्जा का निष्कासन करके शीतलता प्रदान करती है। इस प्रवाह में व्यक्ति को साधारण कार्य करना चाहिए। शाँत चित्त से जो सहज कार्य किए किए जा सकते हैं, उन्हीं में उस समय व्यक्ति को लगना चाहिए। इड़ा में तमस की प्रबलता होती है। 
पिंगला-सूर्य नाड़ी-दाहिनी :: पिंगला दाहिनी नासिका से प्रवाहित होती है तथा इसकी प्रकृति गरम है। जब सूर्य नाड़ी से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होती है तो शरीर को ऊष्मा प्राप्त होती है, यानी गर्मी पैदा होती है। सूर्य नाड़ी से धनात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है। दाहिनीं नासिका से जब श्वांस चलती है तो उस समय पिंगला नाड़ी क्रियाशील रहती है। उस समय व्यक्ति को कठिन कार्य; जैसे व्यायाम, खाना, स्नान और परिश्रम वाले कार्य करना चाहिए। इसी समय सोना भी चाहिए। क्योंकि पिंगला की क्रियाशीलता में भोजन शीघ्र पचता है और गहरी नींद आती है। पिंगला में रजस प्रभावशाली होता है।
प्राणायाम प्राणों का विस्तार करने की विधि है। दीर्घ श्वास-प्रश्वास से प्राणों का विस्तार होता है। एक स्वस्थ मनुष्य को 1 मिनट में 15 बार साँस लेनी चाहिए। इस तरह 1 घँटे में उसके श्वासों की सँख्या 900 और 24 घंटे में 21,600 होनी चाहिए। चंद्र और सूर्य नाड़ी से श्वास-प्रश्वास के जरिए कई तरह के रोगों यथा उच्च या निम्न रक्तचाप, हाई ब्लड प्रेशर को चंद्र नाड़ी के संतुलित श्वास-प्रश्वास को प्रवाहित करके सामान्य किया जा सकता है। 
सुषुम्ना नाड़ी :: सभी नाड़ियों में श्रेष्ठ सुषुम्ना नाड़ी है। मूलाधार (Basal plexus) से आरम्भ होकर यह सिर के सर्वोच्च स्थान पर अवस्थित सहस्रार तक आती है। सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं। इड़ा को गंगा, पिंगला को यमुना और सुषुम्ना को सरस्वती कहा गया है। इड़ा या पिंगला के प्रभाव में मनुष्य बाहरी स्थितियों को देखकर प्रतिक्रिया करते हैं। लेकिन एक बार सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाए, तो वह एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं। मूल रूप से सुषुम्ना गुणहीन होती है, उसकी अपनी कोई विशेषता नहीं होती। वह एक तरह की शून्‍यता या खाली स्थान है। अगर शून्‍यता है तो उससे व्यक्ति अपनी मर्जी से कोई भी चीज बना सकता है। सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश होते ही, मनुष्य में वैराग्‍य आ जाता है। 
सुषुम्ना के क्रियाशील होते ही मनुष्य आन्तरिक-अंदरूनी संतुलन का आभास करता है। इस अवस्था में मनुष्य रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है। दोनों नासिका से साँस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।
इन तीन ना‍ड़ियों का पहला मिलन केंद्र मूलाधार कहलाता है। इसलिए मूलाधार को मुक्त त्रिवेणी (जहाँ से तीनों अलग-अलग होती हैं) और आज्ञा चक्र को युक्त त्रिवेणी (जहाँ तीनों आपस में मिल जाती हैं) कहते हैं।
PRANAYAM प्राणायाम ::
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌॥
सम बुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है (उनसे मुक्त हो जाता है) इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, क्योंकि कर्मों में योग ही कुशलता है (कर्मबंध से छूटने का उपाय है)।[श्रीमद्भगवद्गीता साँख्य योग 2.50] 
One who is blessed with equanimity, relinquish virtues & sins in this abode (world, earth; until either of the two is there, one will continue getting rebirth). Therefore, you should devote yourself to equanimity, since its only the Yog which is perfect amongest all deeds.
विवेक युक्त बुद्धि समता प्रदान करती है और जो समता से युक्त है, वो निर्लिप्त है; वह पुण्य और पाप से युक्त नहीं है। योग लीन व्यक्ति, मन को काबू में करके समाधि की अवस्था को प्राप्त करता है। योग एक मात्र कुशल-सर्व श्रेष्ठ कर्म है। 
The intelligence laced-aided with prudence, awards equanimity. One who is associated with equanimity is detached, relinquished, under the protection of God, since he has offered all his deeds to the Almighty. He is not tainted-smeared by sins & he has already offered his virtuous, pious, righteous acts to the God. The Yogi attains the staunch meditation by controlling brain, which keeps on moving-roaming hither & thither. This is the reason, why Yog has been termed as the only, best, excellent deed. Till one survives as a house hold he may practice all this, while performing his duties with devotion, whole heartedly.
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। 
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति। 
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥
योगी अपान वायु में प्राण वायु का हवन (पूरक करके) करते हैं और अन्य कितने ही प्राण वायु में अपान वायु का हवन (रेचन :- साँस बाहर निकालना) करते हैं। कुछ अन्य प्राणायाम परायण योगी प्राण और अपान की गति को रोककर (कुम्भक क्रिया के द्वारा) हवन करते हैं। योगी नियमित-सन्तुलित आहार द्वारा प्राणों का प्राणों में ही हवन करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं।[श्रीमद्भागवत गीता 4.29-30]
प्राण का स्थान ऊपर-ह्रदय स्थल तथा अपान का स्थान गुदा (anus) नीचे है। श्र्वास को बाहर निकलते समय सांस-वायु की गति ऊपर की ओर और भीतर ले जाते वक्त नीचे की ओर होती है। 
योगी पहले श्र्वास को बाईं नासिका-नथुने-चन्द्र नाड़ी के द्वारा भीतर खींचते हैं। वह वायु ह्रदय में उपस्थित प्राण वायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई स्वतः अपान में लीन हो जाती-मिल जाती है। यह पूरक क्रिया है।
तत्पश्चात योगी-अभ्यासकर्ता प्राणवायु और अपान वायु दोनों की गति रोक देते हैं, जिसे कुम्भक कहते हैं अर्थात न तो साँस बाहर आती न ही अन्दर जाती है। इसके बाद वे अन्दर की वायु को दाँये नथुने-सूर्य नाड़ी से निष्कासित करते हैं। इस प्रक्रिया में प्राणवायु अपान वायु को साथ लेकर बाहर निकलती है, जिसे प्राण वायु में अपान वायु का हवन कहा गया है। यही रेचक क्रिया है। 4 भगवन्नाम से पूरक, 16 भगवन्नाम से कुम्भक और 8 भगवन्नाम से रेचक क्रिया की जाती है।
इस क्रिया को विपरीत अवस्था में पहले सूर्य नाड़ी से पूरक, फिर कुम्भक और तदोपरान्त चन्द्रनाड़ी से रेचक क्रिया की जाती है। इस प्रकार बार-बार पूरक-कुम्भक तथा रेचक प्राणायाम रूपी यज्ञ है और सभी पापों बीमारियों) को नष्ट कर देते हैं।  यही क्रिया बीमारियों को दूर करने के लिए की जाती है। साँस के माध्यम से शरीर की प्रत्येक कोशिका और ऊतक तक पहुँची आक्सीजन शरीर में उपस्थित जीवाणओं से क्रिया करके उन्हें नष्ट करने में सक्षम है। यही प्रक्रिया तब होती है जब जातक सस्वर ओम ॐ का उच्चारण करता है। 
नियमित आहार-विहार, सन्तुलित-नियमित भोजन करने वाले साधक ही प्राणों का प्राणों में हवन-विलय कर सकते हैं। बहुत अधिक, बेहद कम या बिलकुल भोजन ने करने वाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता। प्राण का प्राण में हवन का तात्पर्य है प्राण और अपान को अपने-अपने स्थान पर रोक देना। यही स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है। इन प्रक्रियाओं से मन शान्त-निर्मल-आवेगहीन हो जाता है और भगवत प्राप्ति में सहायक हो जाता है। 
इस प्रकार के यज्ञ करते रहने से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते है और अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिए ही हैं। यह जानने-समझने वाला ही यज्ञवित् अर्थात यज्ञ के तत्व को जानने वाला-तत्वज्ञ है। कुछ लोग लोक-परलोक-स्वर्गादि के भोग प्राप्त करने के लिए यज्ञ करते हैं। वे तत्वज्ञानी नहीं हैं। विनाशी वस्तुओं की कामना बन्धनकारी है-जिसे मुक्ति-भक्ति-मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं होती। 
निष्काम भाव से किया गया छोटे से छोटा कर्म भी परमात्मा की प्राप्ति करने वाला हो जाता है। 
Yogis-ascetics mixes the fresh air-Pran-breath with the Apan (rejected breath, impure air-stale air present in the lungs moving to the heart there after) offer Pran in Apan. This is Poorak (intake, inhaling). This is combustion-burning of the sins i.e., germs (virus, microbes, pathogens, bacteria) present in the body, called Hawan here. When the Apan-waste-rejected air is mixed with Pran-fresh breath-air, it is Rechak-exhaling. The third process involves stagnating both Pran and Apan Vayu-Holding, thereby stopping the flow of both fresh and stale air in the lungs-heart and the entire body. This process of exchange of gases is vital for good health leading to relief from diseases-tensions-defects. In fact pap-sins appear in the form of diseases.
Pran acquires the upper segment of the body the heart, while the Apan is seated below at the anus. When the air is rejected into the atmosphere the breath is directed upwards and during the intake it is directed in the downward direction.
The Yogi-practitioner first sucks the air into the lungs through the left nostril-Chandr Nadi, by blocking the right one, with the thumb for 4 seconds. At this stage the puff of the air mixes up in the lungs through the bronchus-extremely fine air sacks. This is inhaling-intake.
Thereafter, the Yogi will hold the air in this state for 16 seconds.  Flow of air into the lungs will stop during this cycle. This is followed by exhaling through the right nostril-Sury Nadi for 8 seconds. One may silently keep on reciting the names of the Almighty for 4-16-8 times respectively.
This process is reversed with exchange of gases from the right nostril to the left nostril i.e., from Sury Nadi to Chandr Nadi. 
Only those who intake balanced diet are capable of mixing the Pran Vayu with the Apan Vayu. Those who very little or no food, do find it difficult to preform this practice. Assimilation of Pran with Apan is Yagy-Hawan-burning of sins-diseases. This leads to clarity of mind & thought. One becomes peaceful-quite-un agitated-restful-blissful, leading to assimilation in the Ultimate-the Almighty. 
Continuity of this practice  is a form of Yagy leading to freedom from sins-evil ideas-thoughts-wretchedness-vices, helping in Liberation of the soul. One who understands that the motive-cause of holy practices-rituals is detachment from the deeds, is the real performer-Yogi-ascetic. Those who undertake big celebrations, rituals, Yagy, Agnihotr, Hawan for attaining the heaven-empire-high posts-name-fame etc. are not the ones, who understand the gist of the religion-Dharm. The detached-unbonded-free from ties, avails Liberation-Devotion and Salvation. Smallest deed for the welfare of others, without any motive-desire, too helps one, in attaining the Parmatma-Parmanand.
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः। 
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥
योगी तपस्वियों, ज्ञानियों और सकामभाव से कर्म करने वालों से भी श्रेष्ठ है; इसलिए हे अर्जुन! तुम योगी हो जाओ।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.46]
Bhawan Shri Krashn directed Arjun to become a Yogi, since a Yogi is superior to ascetics-austerity observers, enlightened and those who perform with the desire of fruits (rewards, favourable results).
तपस्वी वो है जो ऋद्धि-सिद्धि पाने के लिए भूख-प्यास, धूप-ताप को सहता है। इन सकाम तपस्वियों से पारमार्थिक रूचि-ध्येय वाला योगी श्रेष्ठ है। शास्त्रों का ज्ञान रखने वाले ज्ञानी-विद्वान अगर सांसारिक भोग-ऐश्वर्य में रूचि रखते हैं तो उनसे एक योगी श्रेष्ठ है। उच्च लोकों में जाने की कामना से जो यज्ञ, पुण्य, दान, तीर्थ करता है तो उससे भी योगी श्रेष्ठ है। निष्काम योगी का ध्येय केवल और केवल परमात्मा है। भोग और योग मेल नहीं खाते। 
An ascetic tolerates thirst-hunger, hot-cold weather to obtain all sorts of luxuries. The Yogi who is committed to social-human welfare is definitely superior to the ascetics. The learned, scholar, philosopher who is desirous of comforts, pleasure, joy, passions is surely inferior to a determined Yogi who wish to assimilate in the eternal. The Yogi who is detached and does not crave for any thing expect for the God's love, is better than those who perform sacrifices, charity, pilgrimages, pious acts, just to attain higher abodes. Voluptuary tendencies and Yog do not coexist. 
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना। 
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥
सभी योगियों में भी जो श्रद्धा वान भक्त-योगी मुझ में तल्लीन हुए मन से मुझ को निरन्तर भजता है, वह योगी मेरे मन में श्रेष्ठतम है।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.47]
Of all Yogis, one who is, full of reverence, worships ME with his innerself abiding in ME continuously, he is accepted by ME as the most befitting-above all. 
जड़ता से सम्बन्ध विच्छेद करने के लिए जो भी साधक कर्मयोग, साँख्ययोग, हठयोग, मन्त्रयोग, लययोग आदि के द्वारा अपने स्वरूप की प्राप्ति-अनुभव करने में जुटे हैं, वे योगी सकाम  तपस्वी, ज्ञानियों और कर्मियों से श्रेष्ठ हैं तथा उनमें भी केवल परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने वाला ही श्रेष्ठ है। वह भगवान् के प्रति श्रद्धा, भक्ति और विश्वास के साथ भजन करने वाला है। मैं परमात्मा का हूँ और वो मेरे हैं; ऐसा विचार कर जब भक्त भजन करता है तो वो उनमें ही तल्लीन हो जाता है। संसार से विमुख होकर अपना उद्धार करने में लगा योगी युक्त श्रेणी में आता है। जो सगुण-निराकार की शरण ग्रहण करता है, वो युक्ततर है। परन्तु जो सगुण परमात्मा की शरण में है, वो युक्ततम है। युक्ततम होने पर कर्मयोग, ज्ञानयोग भक्तियोग आदि श्रद्धा पूर्वक भजन करने से ये सभी उसमें आ जाते हैं। वो कभी पथभ्रष्ट नहीं होगा। भक्ति योगी को सर्वश्रेष्ठ बताने का अभिप्राय यह है कि वो विकार हीन है। 
The practitioner who wish to devoid-detach himself of static-inertial perishable nature through the practice of Karm Yog, Sankhy Yog, Hath Yog, Mantr Yog, Lay Yog is superior to the ascetics, enlightened and dedicated performers and amongest them, one who is trying to establish relationship with the Almighty is best. He recites the prayers-verses in the honour of the Almighty due to his faith, devotion and dedication. He considers himself to be that of the Almighty and the Almighty to be of his own and develops rapport with HIM. One who has deserted-renounced the world is a good devotee of the primary segment-level. The other one who takes shelter-asylum under HIM is a better devotee of the middle segment-level. But one who is under the protection-shelter of the Almighty is the Ultimate devotee. He has all the capabilities of the Karm Yogi, Sankhy Yogi and the Bhakti Yogi. He will never be distracted since the Bhakti Yogi is pure, pious, virtuous, righteous and untainted-unsmeared.
कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः। 
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव। 
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥
जो सर्वज्ञ, अनादि, सब पर शासन करनेवाला, सूक्ष्म से अत्यन्त सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करनेवाला, अज्ञान से अत्यन्त परे, सूर्य की तरह प्रकाश-स्वरूप अर्थात ज्ञान स्वरूप-ऐसे अचिन्त्य स्वरूप का चिन्तन करता है। वह भक्ति युक्त मनुष्य अन्त समय में अचल मन से और योग बल के द्वारा भृकुटि के मध्य में प्राणों को अच्छी तरह से प्रविष्ट करके (शरीर छोड़ने पर) उस परम दिव्य पुरुष को ही प्राप्त होता है। [श्रीमद्भगवद्गीता 8.9-10]
One who meditates of the Almighty as the omniscient, the ancient, the administer-controller, minute than the minutest, nurturer-sustainer of everyone, the inconceivable, luminous-bright like the Sun and transcendental-beyond the material reality; at the time of death with steadfast mind and devotion by making the flow of bio-impulses rise up to the middle of the eye brows by the power of Yogic practices; attains HIM-the Ultimate.
सम्पूर्ण प्राणियों को और उनके सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों को जानने वाले परमात्मा को कवि अर्थात सर्वज्ञ कहते हैं। सबका आदि होने के कारण उन्हें पुराण कहा गया है। नेत्रों के ऊपर मन, मन के ऊपर बुद्धि, बुद्धि के ऊपर अहम् और जो अहम् के भी ऊपर शासन करते है, उन्हें अनुशासित करते है, वह परमात्मा हैं। परमात्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म मन-बुद्धि की सीमा से परे-ऊपर है। वह समस्त-अनंतकोटि ब्रह्माण्डों को धारण करने वाला है। वह अज्ञान से दूर अर्थात उसका नाश करने वाला है। वह सूर्य के समान प्रकाश करने वाला अर्थात मन-बुद्धि को प्रकाशित-अनुशासित करने वाला है। वह सगुण-निर्गुण परमात्मा सब कुछ याद रखने वाला है। उस परमात्मा को मनुष्य निरंतर-याद करे उसका चिंतन करे। 
मनुष्य भक्ति-प्राणायाम अर्थात योगबल द्वारा मन को उस परमात्मा में लगाये-अचल करे और दोनों भ्रुवों के मध्यभाग में स्थित जो द्विदल चक्र है, उसमें स्थित सुषुम्ना नाड़ी में प्राणों का अच्छी तरह प्रवेश करके, वह शरीर छोड़कर दसवें द्वार से दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करे। 
The Almighty is aware of each and every activity of the organism. HE is ancient beyond the limits of time, since ever-forever. The mind lies over the eye brows, (mind controls-perceives what is seen by the eyes), intelligence rules the head, mind, brain, intelligence is ruled by the ego and the Almighty regulates even this ego. HE disciplines every one-everything. HE is minutest-much smaller than the atom and holds the infinite number of universes. HE abolishes ignorance and provides enlightenment-prudence. HE is shinning-bright like the Sun and destroys darkness-lack of knowledge-ignorance. The formless-characteristics less Almighty remembers everything, event, person, soul. The human should always think of HIM-continuously. 
One should make use of the Yogic power and strength of devotion to concentrate his mind in the Almighty and focus between the two eye brows. This constitutes the 10th opening of the human body. The Shushmana Nadi (the Central Nadi-nerve in the spine which conducts the Kundlini or spiritual force from Mooladhar Chakr to Sahasrar Chakr) has to be invoked to release the soul through this opening to assimilate in the Ultimate.
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन। 
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥
हे प्रथानन्दन अर्जुन! इन दोनों मार्गों को जानने वाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। अतः हे अर्जुन! तू हर समय योग युक्त समता को प्राप्त कर।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.27]  
The Almighty stressed that the Yogi-one, who is aware of the two routes-paths after the death; first leading to Salvation and the other leading to reincarnation, is not enchanted-illusioned. He asked Arjun to attain equanimity aided with Yog and establish himself in it.
योगी-साधकों-तपस्वियों की दो गतियों :- कृष्ण मार्गी साधक सुख-भोग, उच्च लोकों में जाने की इच्छा रखते हैं, किन्तु शुक्ल मार्गी परमात्मा-ब्रह्म में लीन होना चाहते हैं। इन दोनों को जानकर जो व्यक्ति कृष्ण मार्ग का त्यागकर देता है और निष्काम हो कर समता हासिल कर लेता है और दृढ़ प्रतिज्ञ हो जाता है कि उसे तो केवल परमात्म तत्व की उपलब्धि ही करनी है, वो मोहित-पथभ्रष्ट नहीं होता और अन्ततोगत्वा परमात्मा को प्राप्त कर ही लेता है।  
There are two paths after the death one may follow. The second one is that of comforts, sensuality, enjoyment, pleasure and the first one is to liberate from the repeated cycles of birth and death. The enlightened, aware of these two has to attain equanimity and practice for Liberation, emancipation, Salvation with firm determination. He is not illusioned or enchanted. He rejects all allurements, desires and devote himself whole heartedly, to the Almighty.
प्राणायाम (रूद्रयामल तन्त्र) :: कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासना विधि रूद्रयामल तन्त्र नामक ग्रंथ मे वर्णित है, जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है।
प्राणायाम की प्रक्रिया :: प्राणायाम का अर्थ है श्वास की गति को कुछ काल के लिये रोक लेना। श्वास की चाल :- पहले श्वास का भीतर जाना, फिर रुकना, फिर बाहर निकलना, फिर रुकना, फिर भीतर जाना, फिर बाहर निकलना इत्यादि। प्राणायाम में श्वास लेने का यह सामान्य क्रम टूट जाता है। श्वास (वायु के भीतर जाने की क्रिया) और प्रश्वास (बाहर जाने की क्रिया) दोनों ही गहरे और लम्बे होते हैं और श्वासों का विराम अर्थात् रुकना तो इतनी अधिक देर तक होता है कि उसके सामने सामान्य स्थिति में योगी जितने काल तक रुकते हैं, वह तो नहीं के समान और नगण्य ही है। योग की भाषा में श्वास खींचने को ‘पूरक’ बाहर निकालने को ‘रेचक’ और रोक रखने को ‘कुम्भक ’कहते हैं। प्राणायाम कई प्रकार के होते हैं और जितने प्रकार के प्राणायाम हैं, उन सबमें पूरक, रेचक और कुम्भक भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। पूरक नासिका से करने में योगी दाहिने छिद्र का अथवा बायें का अथवा दोनों का ही उपयोग कर सकते हैं। रेचक दोनों नासारन्धों से अथवा एक से ही करना चाहिये। कुम्भक पूरक के भी पीछे हो सकता है और रेचक के भी अथवा दोनों के ही पीछे न हों तो भी कोई आपत्ति नहीं। पूरक, कुम्भक और रेचक के इन्हीं भेदों को लेकर प्राणायाम के अनेक प्रकार हो गये हैं।
पूरक, कुम्भक और रेचक कितनी-कितनी देर तक होना चाहिये, इसका भी हिसाब रखा गया हैं। यह आवश्यक माना गया है कि जितनी देर तक पूरक किया जाये, उससे चौगुना समय कुम्भक में लगाना चाहिये और दूना समय रेचक में अथवा दूसरा हिसाब यह है कि जितना समय पूरक में लगाया जाय उससे दूना कुम्भक में और उतरना ही रेचक में लगाया जाये। 
पूरक करते समय जबकि साँस अधिक से अधिक गहराई के साथ भीतर खींचे जाती है तथा कुम्भक के समय भी, जिसमें बहुधा साँस को भीतर रोकना होता है, आगे की पेट की नसों को सिकोड़कर रखा जाता है। उन्हें कभी फुलाकर आगे की ओर नहीं बढाया जाता। रेचक भी जिसमें साँस को अधिक से अधिक गहराई के साथ बाहर निकालना होता है, पेट और छाती को जोर से सिकोड़ना पड़ता है और उड्डीयान बन्ध के लिये पेट को भीतर की ओर खींचा जाता है। प्राणायाम के अभ्यास के लिये कोई सा उपयुक्त आसन चुन लिया जाता है, जिसमें सुखपूर्वक पालथी मारी जा सके और मेरुदण्ड सीधा रह सके।
भस्त्रि प्राणायाम के दो भाग होते हैं, जिनमें से दूसरे भाग की प्रक्रिया वही है जो ऊपर कही गयी है।
पहले भाग में साँस को जल्दी-जल्दी बाहर निकालना होता है, यहाँ तक कि एक मिनट में 240 बार साँस बाहर आ जाते हैं। योग में एक श्वास की क्रिया होती है, जिसे ‘कपालभाति’ कहते हैं। भस्त्रिका के पहले भाग में ठीक वैसी ही क्रिया की जाती है।
प्राणायाम का शरीर पर प्रभाव :: सामान्य शरीर विज्ञान में मानव शरीर के अन्दर काम करने वाले भिन्न-भिन्न अंग समूह हैं। इन अंगसमूहों में प्रधान हैं :- स्नायुजाल (Nervous system), ग्रन्थि समूह (Glandular system), श्वासोपयोगी अंग समूह (Perspiratory system), रक्तवाह अंग समूह (Digestive system). इन सभी पर प्राणायाम का गहरा प्रभाव पडता है। मल को बाहर निकालने वाले अङ्गों में आँते और गुर्दा तो पेट के अन्दर रहते हैं और फेंफड़े छाती के अन्दर। साधारण तौर पर साँस लेने में उदर की माँसपेशियाँ क्रमशः ऊपर और नीचे की ओर जाती हैं, जिससे आँतों और गुर्दे में भी हलचल और हलकी-हलकी मालिश होती रहती है। प्राणायाम में पूरक एवं रेचक तथा कुम्भक करते समय यह हलचल और मालिश और भी स्पष्ट रुप से होने लगती है। इससे यदि कहीं रक्त जमा हो गया हो तो इस हलचल के कारण उस पर जोर पड़ने से वह हट सकता है। आँतो और गुर्दे को नियन्त्रण में रखने वाले स्नायु और माँसपेशियाँ भी सुदृढ हो जाती हैं। इस प्रकार आँतो और गुर्दे को प्राणायाम करते समय ही नहीं, बल्कि शेष समय में भी लाभ पहुँचता है। स्नायु और माँसपेशियाँ जो एक बार मजबूत हो जाती हैं, वे फिर चिरकाल तक मजबूत ही बनी रहती हैं और प्राणायाम से अधिक स्वस्थ हो जाने पर आँते और गुर्दे अपना कार्य सुचारु  रूप से करने लगते हैं।
श्वास की क्रिया ठीक तरह से चलती रहे, इसके लिये श्वासोपयोगी माँसपेशियों के सुदृढ होने की और फेंफड़ों के लचकदार होने की आवश्यक है। शारीरिक दृष्टि से प्राणायाम के द्वारा  माँसपेशियों और फेंफड़ों का संस्कार होता है और कार्बनडाई आक्साईड नामक दूषित गैस का भी भली-भाँति निराकरण हो जाता है। इस प्रकार प्राणायाम आँतो, गुर्दे तथा फेंफड़ों से मल को निकाल बाहर निकलता है।
आहार का परिपाक करने वाले और रस बनाने वाले अङ्गों पर भी प्राणायाम का अच्छा असर पडता है। अन्न-जल के परिपाक में आमाशय, उसके पृष्ठभाग में स्थित Pancreas नामक ग्रन्थि और यकृत मुख्य रुप से कार्य करते हैं।  प्राणायाम में पेट की माँसपेशियाँ बारी बारी से सिकुड़ती और फिर ढ़ीली पड़ती हैं जिससे उपर्युक्त पाकोपयोगी अङ्गों की एक प्रकार से मालिश हो जाती है। जिन्हें अग्निमान्द्य और बध्दकोष्ठता की शिकायत रहती है, उनमें से अधिक लोगों के जिगर में सदा ही रक्त जमा रहता है और फलतः उसकी क्रिया दोषयुक्त होती है। इस रक्त संचय को हटाने के लिये प्राणायाम एक उत्तम साधन है।
किसी भी मनुष्य के स्वास्थ्य के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि उसकी नाड़ियों में होने वाले रक्त को आक्सीजन प्रचुर मात्रा में मिलती रहे। 
प्राणायाम के कारण पाकोपयोगी, श्वालोपयोगी एवं मल को बाहर निकालने वाले अङ्गों की क्रिया ठीक होने से रक्त संचार अच्छा बना रहेगा। यही रक्त विभक्त होकर शरीर के भिन्न-भिन्न अङ्गों में पहुँच जाता है।  यह कार्य रक्तवाहक अङ्गों खास कर ह्रदय का हैं। रक्तसंचार से सम्बन्ध रखने वाला प्रधान अंग ह्रदय है और प्राणायाम के द्वारा उसके अधिक स्वस्थ हो जाने से समस्त रक्तवाहक अंग अच्छी तरह से काम करने लगते हैं।
भस्त्रिका प्राणायाम में, खास कर उस हिस्से में जो कपालभाति से मिलता-जुलता है, वायवीय स्पन्दन प्रारम्भ होकर मानव-शरीर के प्रायः प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म अंग, नाड़ियों एवं सूक्ष्म रक्त वाहिनियों :- धमनियों और शिराओं को हिला देते हैं। इस प्रकार प्राणायाम से सारे रक्तवाहक अंगसमूह की कसरत एवं मालिश हो जाती है और वह ठीक तरह से काम करने के योग्य बन जागा है ।
रक्त की उत्तमता और उसके समस्त स्नायुओं और ग्रन्थियों में उचित मात्रा में विभक्त होने पर ही इनकी स्वस्थता निर्भर है। प्राणायाम में विशेष कर भस्त्रिका प्राणायाम में रक्त की गति बहुत तेज हो जाती है और रक्त भी उत्तम हो जाता है। इस प्रकार प्राणायाम से Endocrine ग्रन्थिसमूह को भी उत्तम और पहले की अपेक्षा प्रचुर रक्त मिलने लगता है, जिससे वे पहले की अपेक्षा अधिक स्वस्थ हो जाती हैं। इसी रीति से हम मस्तिष्क, मेरुदण्ड और इनकी नाड़ियों  तथा अन्य सम्बन्धित नाड़ियों को स्वस्थ बना सकते हैं।
ANULOM-VILOM(अनुलोम-विलोम) :: It involves three  stages (1). Inhaling-suction (2). Holding and (3). Exhaling (creation of vacuum) air from the lungs. One may opt for a posture, in which the back is kept vertically straight and the legs are crossed. In the morning sit, perform facing east-Sun the source of energy on the earth and in the evening the north-the magnetic alignment for keeping-normalisation of blood circulation, since it constitutes of haemoglobin a composition of iron.
INHALING ::  Considering thumb as the  1st finger, Jupiter finger as the 2nd finger, Saturn finger as the 3rd  finger, Sun finger as the 4th  finger and the Mercury finger as the 5th finger; use the  2nd  and 3rd  (or 3rd and 4th finger) fingers to block the left nostril. The thumb will stand erect, while  4th and 5th  fingers will bend inside, into the fist. Now, hold the left nostril and take long breath to fill the lungs with air slowly, for a few seconds. The diaphragm, will be pressed inwards and the chest will bulge a bit in an outward direction. One may concentrate over God-Almighty-a deity of your choice, as per your liking. However, there is no compulsion.
As soon air enters lungs it allows the oxygen to get mixed with haemoglobin to form oxy-haemoglobin and reach each and every cell of the body, leading to formation of new cells and decomposition of the old-unwanted-undesirable cells, keeping one young-fit and full of energy.
Holding the breath for a few seconds, will help in the exchange of gases, in the bronchial, inside the lungs. Oxygen will be mixed with the blood and carbon dioxide will be liberated.
Exhaling will be done by chocking the right nostril with the thumb. Carbon dioxide is exhaled, in addition to other gases, simultaneously.
2nd  inhaling is done with the right nostril still choked  holding is done by reverting the two fingers to the left nostril and the air is exhaled again.
All these postures requires the practitioner to sit with straight back. chest bulges slightly and the stomach is pulled in side. Immediate gains are in the form of relief from the gas filled-stored inside the stomach and burning sensation. It prevent chest congestion and digestive disorders. learning with straight back helps in sharpening of memory. 
पञ्च प्राण-प्राणवायु, प्राणायाम :: प्राणी के शरीर के भीतर पाँच प्रकार की वायु पाई जाती है। ये पाँचों ही पवन देव के पुत्र हैं और प्राणी में प्रकृति के अंश  में उपस्थित रहते हैं।
प्राण :: वह वायु जो मनुष्य-प्राणी-जीव के शरीर को जीवित रखती है। शरीरांतर्गत प्राण वायु की उपस्थिति तक ही जीवात्मा इसमें निवास करता है। इस वायु का मुख्‍य स्थान हृदय में है।इस वायु के आवागमन को अच्छी तरह, भली-भाँति समझकर जो इसे साध लेता है वह लंबे काल तक जीवित रहने का रहस्य जान लेता है। वायु शरीर के अन्तर्गत खाद्य पदार्थों-भोजन को पोषक या हानिकारक पदार्थों में तब्दील करने-बदलने की क्षमता रखती है। मल का निर्माण और निष्कासन भी इसी के माध्यम से होता है। 
आयाम :: प्रथम नियंत्रण या रोकना, द्वितीय विस्तार और दिशा। व्यक्ति जब जन्म लेता है तो गहरी श्वास लेता है और जब मरता है तो पूर्णत: श्वास छोड़ देता है। प्राण जिस आयाम से आते हैं, उसी आयाम में चले जाते हैं। मनुष्य जब श्वास लेता है तो भीतर जा रही हवा या वायु पाँ च भागों में विभक्त हो जाती ह अर्थात  शरीर के भीतर पांच जगह स्थिर और स्थित हो जाता हैं। लेकिन वह स्थिर और स्थितर रहकर भी गतिशील रहती है।
पंचक  :: (1). प्राण, (2). अपान,  (3). समान, (4). व्यान और (5). उदान।
वायु के इस पाँच तरह से रूप बदलने के कारण ही व्यक्ति चैतन्य रहता है, स्मृतियाँ सुरक्षित रहती है, पाचन क्रिया सही चलती रहती है और हृदय में रक्त प्रवाह-स्पंदन होता रहता है।मन के विचार बदलने या  स्थिर रहने मे भी इसका योगदान रहता है रहता है। इस प्रणाली में किसी भी प्रकार का अवरोध पूरे शरीर, तंत्रिका-तंत्र को प्रभावित करता है। शरीर, मन तथा चेतना बीमारी, व्याधि, रोग और शोक से ‍ग्रस्त हो जाते हैं। नियमित प्राणायाम मन-मस्तिष्क, चरबी-मांस, आंत, गुर्दे, मस्तिष्क, श्वास नलिका, स्नायुतंत्र और खून आदि सभी को शुद्ध और पुष्ट, स्वस्थ रखता है।
ये सभी प्राण शरीर के अलग-अलग भागों को नियंत्रित करते हैं।
(1). प्राण वायु :- ह्रदय से लेकर नासिका पर्यन्त जो प्राणवायु होती है, उसे प्राण कहते हैं।श्वास प्रश्वास को नासिका द्वारा लेना और छोड़ना, मुख और नासिका की गति, अन्न को पाचन योग्य बनाना, पानी को रक्त मूत्र एवं पसीने में परिवर्तित करना प्राणवायु के मुख्य कार्य है। इसका सम्बन्ध वायु तत्व एवं अनाहत चक्र (ह्रदय) से है। प्राण वायु मनुष्य के शरीर का संचालन करती है। यह वायु मूलत: खून ऑक्सीजन O2 और कार्बन-डाइऑक्साइड CO2  के रूप में रहती है। 
(2). अपान वायु :-  यह नाभि से लेकर पैरो तक विचरती है।नाभि से नीचे के अंग यथा प्रजनन अंग, गर्भाशय, कमर, घुटने, जंघाएँ, मलमूत्र पैर इन सभी अंगों का कार्य अपान वायु द्वारा होता है। इसका सम्बन्ध पृथ्वी तत्व और मूलाधार चक्र से है। इसकी गति नीचे की ओर होती है। अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
(3). समान वायु :- यह नाभि से ह्रदय तक चलती है।पाचनक्रिया भोजन से रस निकलकर पोषक तत्वों को सभी अंगो में बाँटना इस वायु का कार्य है। इसका सम्बन्ध अग्नि तत्व और मणिपुर चक्र से है।समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता भी है।
(4). व्यान वायु :- यह समूचे शरीर में घूमती है। सभी स्थूल एवं सूक्षम नाड़ियों में रक्त संचार बनाये रखना इसका कार्य है। इसका सम्बन्ध जल तत्व और स्वाधिष्ठान चक्र से है। व्यान का अर्थ है चरबी तथा माँस से सम्बंधित कार्यों का सम्पादन करना।
(5). उदान वायु :- यह कंठ से लेकर मस्तिष्क पर्यन्त  भ्रमण करती है। इसका सम्बन्ध आकाश तत्व और विशुधि चक्र से है। उदान का अर्थ उपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायुतंत्र में स्थित होती है।
PRANAYAM-YOG प्राणायाम योग साधना :: It has nothing to do with religion. Its purely an exercise form, to improve health and vitality. It helps one in becoming slim and lose weight. The health conscious may opt for this in his daily routine.  Those who wish to prolong their lifespan-longevity, should devote 10-15 minutes initially, extending to 1 hour subsequently, since this is hassle free. 
 It provides relaxation and reduces fatigue. 
With the start up, it starts up controlling blood pressure and pulse. It cures asthma, respiratory troubles, bronchitis, lung cancer.
It cure digestive problems. When the stomach is moved inside towards the spinal cord during exhalation-release of breath, a tough layer, coating developed in due course of time, inside the intestines, breaks away and is rejected by the body, leading to better absorption of digested food.
When the spinal cord-back bone, vertebral column is erect-straight and the diaphragm moves towards the back bone during exhalation, gases trapped in the stomach are released through the mouth and anus. This process helps in reducing gastric trouble. Continued practice leads to complete cure.
Gas gets accumulated close to the heart leading to chest congestion, etching, pain. Release of gas relieves this trouble. Chest pain due to gas resemble the pain due to heart attack. If chest pain is associated with pain in left arm, one must consult the doctor, immediately.
Heaviness experienced in the head is reduces by the release gas from the stomach due to Yogabhyas (योगाभ्यास, regular practice of Yog).
The stomach is like an inflated balloon, the thickness of which goes on increasing with the deposition of fat layers. Each deep breath helps in reducing this thickness.
During inhalation excess of oxygen is absorbed by the hemoglobin in the blood and forms oxy-hemoglobin, which helps in breaking down of food particles into energy, water and nitrogenous waste. 
Most of the hostile-cancerous cells break down in this process deep breathing-inhalation & exhalation.
It can be compared to artificial breathing-resuscitation. It improves resistivity and is a wonderful cure to incurable diseases. 
There is no boundation, restriction, limit of time and place. However, one has to be empty stomach-fresh, like other exercises.
Oxygen is a basic component of air required to break food into energy, carbon dioxide, nitrogenous waste, which are segregated by the kidneys and the lungs. Nitrogen is another component needed by the body to maintain-cop up, with the atmosphere. Unwanted cells-cancer and the like, needed to be eliminated from the circulatory system-which is done by this age, generation old- tried and trusted-most scientific technique-therapy.
Ever increasing pollution is taking toll of the health of the humans. Therefore, one must look for clean surroundings for the practice of Yog. 
Those who correlate Yog-Pranayam with Hinduism are wrong-ignorant. 
Yogis-ascetics mixes the fresh air, Pran-breath with the Apan (rejected breath, impure air-stale air present in the lungs moving to the heart there after) offer Pran in Apan. This is Poorak, intake, inhaling. This is combustion-burning of the sins i.e., germs, virus, bacteria present in the body, called Hawan here. When the Apan, waste, rejected air is mixed with Pran, fresh breath, air, it is Rechak (रेचक exhaling). The third process involves stagnating both Pran and Apan Vayu-Holding, thereby stopping the flow of both fresh and stale air in the lungs-heart and the entire body. This process of exchange of gases is vital for good health leading to relief from diseases, tensions, defects. In fact pap-sins appear in the form of diseases.
Pran acquires the upper segment of the body the heart, while the Apan is seated below at the anus. When the air is rejected into the atmosphere the breath is directed upwards and during the intake it is directed in the downward direction.
The Yogi-practitioner first sucks the air into the lungs through the left nostril-Chandr Nadi, by blocking the right one, with the thumb for 4 seconds. At this stage the puff of the air mixes up in the lungs through the bronchus-extremely fine air sacks. This is inhaling-intake.
Thereafter, the Yogi will hold the air in this state for 16 seconds. Flow of air into the lungs will stop during this cycle. This is followed by exhaling through the right nostril-Sury Nadi for 8 seconds. One may silently keep on reciting the names of the Almighty-ॐ for 4-16-8 times respectively.
This process is reversed with exchange of gases from the right nostril to the left nostril i.e., from Sury Nadi to Chandr Nadi. 
Only those who intake balanced diet are capable of mixing the Pran Vayu with the Apan Vayu. Those who take very little or no food, do find it difficult to preform this practice. Assimilation of Pran with Apan is Yagy, Hawan, burning of sins, diseases. This leads to clarity of mind & thought. One becomes peaceful, quite, unagitated, restful, blissful, leading to assimilation in the Ultimate-the Almighty. 
Continuity of this practice is a form of Yagy leading to freedom from sins, evil ideas, thoughts, wretchedness, vices, helping in Liberation of the soul. One who understands that the motive-cause of holy practices-rituals is detachment from the deeds, is the real performer, Yogi, ascetic. Those who undertake big celebrations, rituals, Yagy, Agnihotr, Hawan for attaining the heaven, empire, high posts, name, fame etc. are not the ones, who understand the gist of the religion-Dharm. The detached, unbonded, free from ties, avails Liberation-Devotion and Salvation. Smallest deed for the welfare of others, without any motive-desire, too helps one, in attaining the Parmatma-Parmanand. 
प्राणायाम का सामान्य अर्थ है :- प्राण वायु को जीतना; to over come the breath.  
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। 
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥[श्रीमद्भगवद्गीता 4.29]
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥[श्रीमद्भगवद्गीता 4.30]
योगी अपान वायु में प्राण वायु का हवन (पूरक करके) करते हैं और अन्य कितने ही प्राण वायु में अपान वायु का हवन (रेचन-साँस बाहर निकालना) करते हैं। कुछ अन्य प्राणायाम परायण योगी प्राण और अपान की गति को रोककर (कुम्भक क्रिया के द्वारा) हवन करते हैं। योगी नियमित-सन्तुलित आहार द्वारा प्राणों का प्राणों में ही हवन करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं।
Yogi-ascetic mixes the fresh air, Pran, breath with the Apan (stale breath, rejected breath, impure air-stale air present in the lungs moving to the heart there after) offer Pran in Apan. This is Poorak (intake, inhaling). This is combustion-burning of the sins i.e., germs (virus, bacteria, microbes, dead cells) present in the body, called Hawan here. When the Apan (waste, rejected-stale air) is mixed with Pran, fresh breath, air, it is Rechak-exhaling. The third process involves stagnating both Pran and Apan Vayu-Holding, thereby stopping the flow of both fresh and stale air in the lungs-heart and the entire body. This process of exchange of gases is vital for good health leading to relief from diseases (tensions, defects). In fact Pap-sins appear in the form of diseases.
प्राण का स्थान ऊपर-ह्रदय स्थल तथा अपान का स्थान गुदा (anus) नीचे है। श्र्वास को बाहर निकलते समय साँस-वायु की गति ऊपर की ओर और भीतर ले जाते वक्त नीचे की ओर होती है। 
प्राणायाम सम्बन्धी क्रियाएँ :: प्राणायाम  दौरान श्वास-निश्वास सम्बन्धी  तीन क्रियाएं  :- (1). पूरक, (2). कुम्भक और (3). रेचक।
उक्त तीन तरह की क्रियाओं को ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंदर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं।
ANULOM-VILOM अनुलोम-विलोम :: It involves three stages (1). Inhaling-suction (2). Holding and (3). Exhaling (creation of vacuum) air from the lungs. One may opt for a posture, in which the back is kept vertically straight and the legs are crossed. In the morning sit, perform facing east-Sun the source of energy on the earth and in the evening the north-the magnetic alignment for keeping-normalisation of blood circulation, since it constitutes of haemoglobin a composition of iron. One may opt for North-East as well.
पूरक क्रिया INHALING :: INHALING ::  Considering thumb as the 1st  finger, Jupiter finger as the 2nd  finger, Saturn finger as the 3rd  finger, Sun finger as the 4th finger and the Mercury finger as the 5th finger; use the 2nd  and 3rd  (or 3rd and 4th finger) fingers to block the left nostril. The thumb will stand erect, while 4th  and 5th  fingers will bend inside, into the fist. Now, hold the left nostril and take long breath to fill the lungs with air slowly, for a few seconds. The diaphragm, will be pressed inwards and the chest will bulge a bit in an outward direction. One may concentrate over God, Almighty, a deity of his choice, as per his liking. However, there is no compulsion.
योगी पहले श्र्वास को बाईं नासिका, नथुने, चन्द्र नाड़ी के द्वारा भीतर खींचते हैं। वह वायु ह्रदय में उपस्थित प्राण वायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई, स्वतः अपान में लीन हो जाती-मिल जाती है। यह पूरक क्रिया है।
कुम्भक HOLDING :: As soon air enters lungs, it allows the oxygen to get mixed with hemoglobin to form oxy-hemoglobin and reach each and every cell of the body, leading to formation of new cells and decomposition of the old, unwanted, undesirable cells, keeping one young-fit and full of energy.
Holding the breath for a few seconds, will help in the exchange of gases, in the bronchial, inside the lungs. Oxygen will be mixed with the blood and carbon dioxide will be liberated.
तत्पश्चात योगी-अभ्यास कर्ता प्राण वायु और अपान वायु दोनों की गति रोक देते हैं, जिसे कुम्भक कहते हैं अर्थात न तो साँस बाहर आती न ही अन्दर जाती है। 
रेचक क्रिया EXHALING :: It will be done by chocking the right nostril with the thumb. Carbon dioxide is exhaled, in addition to other gases, simultaneously.
2nd  inhaling is done with the right nostril still choked holding is done by reverting the two fingers to the left nostril and the air is exhaled again.
All these postures requires the practitioner to sit with straight back, chest bulges slightly and the stomach is pulled in side. Immediate gains are observed in the form of relief from the gas filled-stored inside the stomach and burning sensation. It prevent chest congestion and digestive disorders. learning with straight back helps in sharpening of memory and easy grasping. 
इसके बाद वे अन्दर की वायु को दाँये नथुने-सूर्य नाड़ी से निष्कासित करते हैं। इस प्रक्रिया में प्राणवायु अपान वायु को साथ लेकर बाहर निकलती है, जिसे प्राण वायु में अपान वायु का हवन कहा गया है। यही रेचक क्रिया है। 4 भगवन्नाम (Recitation of OM-ॐ) से पूरक, 16 भगवन्नाम से कुम्भक और 8 भगवन्नाम से रेचक क्रिया की जाती है। 
इस क्रिया को विपरीत अवस्था में पहले सूर्य नाड़ी से पूरक, फिर कुम्भक और तदोपरान्त चन्द्र नाड़ी से रेचक क्रिया की जाती है। इस प्रकार बार-बार पूरक-कुम्भक तथा रेचक प्राणायाम रूपी यज्ञ है और सभी पापों को नष्ट कर देते हैं (यही क्रिया बीमारियों को दूर करने के लिए की जाती है)। 
नियमित आहार-विहार, सन्तुलित-नियमित भोजन करने वाले साधक ही प्राणों का प्राणों में हवन-विलय कर सकते हैं। बहुत अधिक, बेहद कम या बिलकुल भोजन ने करने वाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता। प्राण का प्राण में हवन का तात्पर्य है प्राण और अपान को अपने-अपने स्थान पर रोक देना। यही स्तम्भ वृत्ति प्राणायाम है। इन प्रक्रियाओं से मन शान्त, निर्मल-आवेगहीन हो जाता है और भगवत प्राप्ति में सहायक हो जाता है। 
इस प्रक्रिया में साधक के ध्यान में प्रभु की छवि-ॐ होनी चाहिये और आँखें आगे की ओर नासिका की दिशा में होनी चाहिये। यह प्रक्रिया यज्ञ है जिसमें साधक प्राणों-साँसों की आहुति देता है। 
The practitioner should concentrate in the Almighty-ॐ while practicing Yog, looking forward through the nose. This process is just like holy sacrifice in the fire-Hawan Kund and that's why its called Yagy. 
इस प्रकार के यज्ञ करते रहने से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते है और अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिए ही हैं। यह जानने-समझने वाला ही यज्ञवित् अर्थात यज्ञ के तत्व को जानने वाला-तत्वज्ञ है। कुछ लोग लोक-परलोक-स्वर्गादि के भोग प्राप्त करने के लिए यज्ञ करते हैं। वे तत्व ज्ञानी नहीं हैं। विनाशी वस्तुओं की कामना बन्धनकारी है, जिससे मनुष्य को मुक्ति, भक्ति, मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं होती। 
निष्काम भाव से किया गया छोटे से छोटा कर्म भी, परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला हो जाता है।
A pious-virtuous, righteous deed performed unattached leads to renunciation.
Pran acquires the upper segment of the body the heart (mind, heart, innerself), while the Apan is seated below at the anus. When the air is rejected into the atmosphere the breath is directed upwards and during the intake it is directed in the downward direction.
The Yogi-practitioner first sucks the air into the lungs through the left nostril-Chandr Nadi, by blocking the right one, with the thumb for 4 seconds. At this stage the puff of the air mixes up in the lungs through the bronchus-extremely fine air sacks. This is inhaling-intake.
Thereafter, the Yogi will hold the air in this state for 16 seconds. Flow of air into the lungs will stop during this cycle. This is followed by exhaling through the right nostril-Sury Nadi for 8 seconds. One may silently keep on reciting the names of the Almighty-ॐ for 4, 16 or 8 times respectively.
This process is reversed with exchange of gases from the right nostril to the left nostril i.e., from Sury Nadi to Chandr Nadi. 
Only those who intake balanced diet are capable of mixing the Pran Vayu with the Apan Vayu. Those who take very little or no food, do find it difficult to preform this practice. Assimilation of Pran with Apan is Yagy (Hawan, burning of sins-diseases). This leads to clarity of mind & thought. One becomes peaceful (quite, unagitated, restful, blissful), leading to assimilation in the Ultimate-the Almighty. 
Continuity of this practice-process is a form of Yagy leading to freedom from sins (diseases, evil ideas, thoughts, wretchedness, vices, impurity) helping in Liberation of the soul. One who understands that the motive-cause of holy practices-rituals is detachment from the deeds, is the real performer (Yogi, ascetic). Those who undertake big celebrations (rituals, Yagy, Agnihotr, Hawan) for attaining the heaven (empire, high posts, name, fame) etc. are not the ones, who understand the gist of the religion (Faith, Dharm). The detached (unbonded, free from ties), avails Liberation-Devotion and Salvation. Smallest deed for the welfare of others, without any motive-desire, too helps one, in attaining the Parmatma-Parmanand, bliss.
Its advised that the practitioner should adopt vegetarianism and avoid narcotics, wine, women. He should avoid sleeping during the day.
KAPAL BHATI कपाल भाती :: कपालभाती को बीमारी दूर करनेवाले प्राणायाम के रूप में देखा जाता है। ऐसे मरीज़ जो बिना बैसाखी के चल नहीं पाते थे, नियमित कपालभाती करने के बाद उनकी बैसाखी छूट गई और वे ना सिर्फ चलने, बल्कि दौड़ने भी लगे।
कपालभाती करने वाला साधक आत्मनिर्भर और स्वयंपूर्ण हो जाता है, कपालभाती से हृदय के अवरोध पहले ही दिन से खुलने लगते हैं और 15 दिन में बिना किसी दवाई के वे पूरी तरह खुल जाते हैं।
कपाल भाती करने वालों के हृदय की कार्यक्षमता बढ़ती है, जबकि हृदय की कार्य क्षमता बढ़ाने वाली कोई भी दवा उपलब्ध नहीं है।
कपालभाती करने वालों का हृदय कभी भी अचानक काम करना बंद नही करता, जबकि आजकल बड़ी संख्या में लोग अचानक हृदय बंद होने से मर जाते हैं।
कपाल भाती करने से  शरीरांतर्गत और शरीर के ऊपर की किसी भी तरह की गाँठ गल जाती है, क्योंकि कपालभाती से शरीर में जबर्दस्त उर्जा निर्माण होती है जो गाँठ को गला देती है, फिर वह गाँठ चाहे छाती की हो अथवा अन्य कही की। ब्रेन ट्यूमर-दिमांग की गाँठ हो अथवा गर्भाशय की गाँठ या गुच्छे हों, क्योंकि सबके नाम भले ही अलग हो लेकिन गाँठ बनने की प्रक्रिया एक ही होती है।  
कपालभाती से बढ़ा हुआ वसा कम होती है और किसी भी प्रकार की अँग्रेजी औषधि  की जरूरत नहीं रहती।
कपालभाती से बढा हुआ इएसआर, युरिक एसिड, एसजीओ, एसजीपीटी, क्रिएटिनाईन, टीएसएच, हार्मोन्स, प्रोलेक्टीन आदि सामान्य स्तर पर आ जाते हैं। 
कपालभाती करने से हिमोग्लोबिन एक महीने में 12 तक पहुँच जाता है, जबकि हिमोग्लोबिन की एलोपॅथीक गोलियाँ खाकर कभी भी किसी का हिमोग्लोबिन इतना बढ़ नही पाता है। कपालभाती से हीमोग्लोबिन एक वर्ष में 16 से 18 तक हो जाता है। महिलाओं में हिमोग्लोबिन 16 और पुरुषों में 18 होना उत्तम माना जाता है। 
कपालभाती से महिलाओं के मासिक धर्म की सभी शिकायतें एक महीने में सामान्य हो जाती हैं।
कपालभाती से थायरॉईड की बीमारी एक महीने में ठीक हो जाती है, इसकी गोलियाँ भी पहले दिन से बंद की जा सकती हैं।
इतना ही नही बल्कि कपालभाती करने वाला साधक 5 मिनिट में मन के परे पहुँच जाता है। अच्छे हार्मोन्स का स्राव होने लगता है। स्ट्रेस हार्मोन्स गायब हो जाते है, मानसिक व शारीरिक थकान नष्ट हो जाती है। इससे मन की एकाग्रता भी आती है।
कपालभाति के कई विशेष लाभ भी हैं यथा :-  
(1). कपालभाती से खून में प्लेटलेट्स-लाल रक्त कणिकायें बढ़ते हैं। व्हाइट ब्लड सेल्स या रेड ब्लड सेल्स यदि कम या अधिक हुए हो तो वे निर्धारित मात्रा में आकर संतुलित हो जाते हैं। कपालभाती से सभी कुछ संतुलित हो जाता है, न वज़न कम न ज़्यादा। वज़न का कम ज्यादा होना भी तकलीफ पैदा करता है।
(2). कपालभाती से कोलायटीस, अल्सरीटिव्ह कोलायटीस, अपच, मंदाग्नी, संग्रहणी, जीर्ण संग्रहणी, आँव जैसी बीमारियाँ ठीक होती है। काँस्टीपेशन, गैसेस, एसिडिटी भी ठीक हो जाती है। पेट की समस्त बीमारियाँ ठीक हो जाती हैं। 
(3). कपालभाती से सफेद दाग, सोरायसिस, एक्झिमा, ल्युकोडर्मा, स्कियोडर्मा जैसे त्वचारोग ठीक होते हैं। स्कियोडर्मा पर कोई दवाई उपलब्ध नही है लेकिन यह कपालभाती से ठीक हो जाता है। अधिकतर त्वचा रोग पेट की खराबी से होते है, जैसे जैसे पेट ठीक होता है ये रोग भी ठीक होने लगते हैं।
(4). कपालभाती से छोटी आँत को शक्ति प्राप्त होती है जिससे पाचन क्रिया सुधर जाती है। पाचन ठीक होने से शरीर को कैल्शियम, मैग्नेशियम, फॉस्फरस, प्रोटीन्स इत्यादि उपलब्ध होने से कुशन्स, लिगैमेंट्स, हड्डियाँ ठीक होने लगती हैं और 3 से 9 महिनों में अर्थ्राइटीस, एस्ट्रो अर्थ्राइटीस, एस्ट्रो पोरोसिस जैसे हड्डियों के रोग हमेशा के लिए ठीक हो जाते हैं।
कैल्शियम, प्रोटीन्स, हिमोग्लोबिन, विटेमिन्स आदि को शरीर बिना पचाए बाहर निकाल देता है, क्योंकि केमिकल्स से बनाई हुई इस प्रकार की औषधियों को शरीर द्वारा सोखे जाने की प्रक्रिया हमारे शरीर के प्रकृति में ही नहीं है। 
मानव शरीर में रोज 10% बोनमास चेंज होता रहता है, यह प्रक्रिया जन्म से मृत्यु तक निरंतर चलती रहती है; अगर किसी कारणवश यह बंद हुई, तो हड्डियों के विकार हो जाते हैं। कपालभाती इस प्रक्रिया को निरंतर चालू रखती है, इसीलिए कपालभाती नियमित रूप से करना आवश्यक है।
Start with deep breathing-inhalation and exhalation of air in the lungs, while sitting in comfortable posture keeping the back straight, twice or thrice. Its better if one  does this in open pollution free air.
Now suck the air into the lungs without jerking the body and reject it there after one second. repeat it for 5-10 minutes initially and the rise time up to 15 minutes.
Have faith in you (and the God, perhaps) and proceed. Yog (literally plus, addition +) means associating with the God through physical means.
Caution :: All these exercises are performed with empty stomach.
Take juice or milk after drying sweat and bathing, low calorie diet is advised.
One may keep his eyes closed. He may focus over some religious thought-idea. Try to think of good, virtuous, pious, righteous deeds-plans, at least till you are busy with this simple exercise. Results are wonderful and observed within a week. This is a wonderful healer.
Yog boosts confidence, internal strength, vitality, vigour and brings peace-tranquillity.
Have a good day. Best of luck.
You will experience amazing results like weight loss, cure of respiratory ailments, gas trouble, good sleep, loss of tension, improvement of vision etc.
अह्ना रात्र्या च याञ्जन्तून् हिनस्त्यज्ञानतो यतिः। 
तेषां स्नात्वा विशुद्ध्यर्थं प्राणायामान् षडाचरेत्॥
बिना जाने दिन या रात में छोटे जीवों की पैरों के नीचे दबकर, हिंसा हो जाये तो उस पाप से विशुद्ध होने के लिये  संन्यासी स्नान करके छः प्राणायाम करे।[मनु स्मृति 6.69] 
The sage-sear should resort to deep breathing (Yog, Pranayam) at least six times after taking bath if he happen to kill the creatures knowingly or unknowingly.
The small creatures body reject smell immediately after their death, which may be harmful to one who is close to the dead insects etc.
सव्याहृतिं सप्रणवां गायत्रीं शिरसा सह। 
त्रिः पठेदायतप्राणः प्राणायामः स उच्यते॥
सिद्ध पुरुष, साधु, योगी को आयुपर्यन्त योग-प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिये। 
The ascetic should resort to practice of Yog-Pranayam regularly till he survives.[इति वशिष्ठः]
प्राणायामा ब्राह्मणस्य त्रयोऽपि विधिवत्कृताः। 
व्याहृतिप्रणवैर्युक्ता विज्ञेयं परमं तपः॥
व्याहृति और प्रणव सहित यथाविधि तीन प्राणायाम ही ब्राह्मण के लिये परम् तप जानना चाहिये।[मनु स्मृति 6.70] 
Recitation of the Gayatri Mantr along with Pranav Mantr i.e., OM "ॐ", while practicing Yog-Pranayam should be considered to be the Ultimate ascetic practice for the Brahman Pandit, enlightened, scholar, philosopher) i.e., the practitioner.
"ॐ" भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। 
व्याहृति :: Names of the seven upper abodes play a significant role in prayers; namely, भूर् (BHUR, earth), भुवर् (BHUVAR, air), स्वर् (SWAR, heaven); महर् (MAHAR, abode of the saints), जनर् (JANAR, abode of the sons of Brahma), तपर् (TAPAR, abode of the devoted and of the seers), सत्य (SATY, abode of truth and purity); भूः भुवः आदि सप्त लोकात्मक मंत्र।[गायत्री मंत्र]
दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः। 
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्॥
आग में तपाने से जैसे धातुओं का मैल जल जाता है, वैसे ही प्राण वायु के निग्रह (प्राणायाम) से इन्द्रियों के दोष दग्ध हो जाते हैं।[मनु स्मृति 6.71]
The manner in which the impurities contained by the metal are burnt off by burning in furnace, the practice of Yog cleans the defects of the sense organs.
प्राणायामैर्दहेद्दोषान्धारणाभिश्च किल्बिषम्। 
प्रत्याहारेण संसर्गान्ध्यानेनानीश्वरान्गुणान्॥
प्राणायाम से रोगादि दोषों का, धारणा से पाप का, प्रत्याहार से संसर्ग का ध्यान से अनीश्वर गुणों (लोभ, क्रोध, अयूसा आदि) का नाश होता है।[मनु स्मृति 6.72] 
Yog-Pranayam removes the defects generated in the body by the ailments, diseases, illness. Concentration of mind in the Ultimate-Almighty stabilises the mind and one is relieved of the sins. Pulling off the senses from the sensual objects, activities destroys the defects generated by arrogance-anger, greed etc.
धारणा :: शुभ विषयों में चित्त को स्थिरतापूर्वक स्थापित करना, परब्रह्म में मन को स्थिर करना; concentration-fixing of mind in the Ultimate-Almighty, concept, idea, steadfastness, holding in the mind. 
प्रत्याहार :: विषयों से इन्द्रियों को खींचना; Pulling off-diverting the senses from the sensual objects, activities.
प्रायः अधिकांश व्यक्ति गहरे श्वास लेने के अभ्यस्त नहीं होते, जिससे फेफड़ों का लगभग चौथाई भाग ही कार्य करता है, तीन चौथाई भाग निष्क्रिय पड़ा रहता है। इसका विपरीत परिणाम रक्त शुद्धि प्रक्रिया पर पड़ता है। रक्त शुद्धि सम्यक रूप से न होने से शरीर के अन्य अंगों की क्रिया शक्ति घट जाती है। गहरे श्वास लेने से फेफड़ों की सभी कोशिकाएँ प्राण ऊर्जा से भर जाती हैं। इतना ही नहीं, नाड़ियों के माध्यम से शरीर के एक-एक अंग में इस प्राण शक्ति का संचार होने लगता है। श्वसन क्रिया, हृदय की गति, आहार का सप्त धातु आदि परिवर्तन, माँस पेशियों का आकुंचन-प्रसरण, रक्त संचरण, अंतःस्रावी ग्रंथियों का स्रावोत्पादन, मल-निष्कासन तथा मस्तिष्क की क्रियाओं का व्यवस्थापन आदि सभी प्रकार की शारीरिक प्रक्रियाओं का नियमन इस प्राण शक्ति के द्वारा ही होता है। केवल शारीरिक ही नहीं, अपितु मानसिक संतुलन बनाये रखने में भी प्राणायाम महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जैसे इन्द्रियों का स्वामी मन है, वैसे मन का स्वामी प्राण है। प्राणायाम के अभ्यास से जब प्राणों की गति नियमित हो जाती है, तब मन स्वाभाविक ही स्थिर हो जाता है।
चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलो भवेत्।
प्राणों के चलायमान होने पर मन भी चलायमान होता है तथा प्राणों के निश्चल होने पर मन चंचलता को छोड़ निश्चल हो जाता है।
मन शाँत होने से बुद्धि को भी विश्रान्ति मिलती है। शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक सामर्थ्य बढ़ाने में प्राणायाम महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मानव शरीर में प्राणों का वहन करने वाली असँख्य नाड़ियाँ हैं, जिनमें चौदह मुख्य हैं तथा इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना ये तीन प्रधान नाड़ियाँ हैं।
श्वासों का गमनागमन जब बाँयें नथुने से होता है, तब प्राणों का वहन इड़ा नाड़ी से होता है, इसे चन्द्र स्वर भी कहते हैं। इससे शरीर में शीतलता का संचार होता है। श्वासों का गमनागमन जब दाहिने नथुने से होता है, तब प्राणों का वहन पिंगला नाड़ी से होता है। यह सूर्य स्वर है, इससे शरीर में उष्णता उत्पन्न होती है।
शीतलता अर्थात् सौम्य तत्त्व व उष्णता अर्थात् आग्नेय तत्त्व इन दोनों के साम्यावस्था में रहने से ही मानव  शरीर का संतुलन बना रहता है। इनमें विषमता होने पर रोगों का प्रादुर्भाव होता है। प्राणायाम के दीर्घ अभ्यास से जब सुषुम्ना नाड़ी क्रियाशील होती है, तब प्राणों का वहन दोनों नथुनों से होने लगता है अथवा दायें बायें नथुने से अदल-बदलकर होने लगता है। यह मध्य स्वर है। प्राणायाम के अभ्यास से यह मध्य स्वर दीर्घकाल तक चलता रहता है। शरीर में शीतलता तथा उष्णता के संतुलन के लिए यह स्थिति आवश्यक है। साधक, बुद्धिजीवी वर्ग, गहन चिंतन करने वालों के लिए यह बहुत लाभकारी अवस्था है।
प्राणायाम शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर, प्रातः सूर्योदय के समय पवित्र व खुले स्थान पर सिद्धासन, पद्मासन या सुखासन में बैठकर करने चाहिए। त्रिकाल सँध्या के समय तथा तुलसी के समीप, जल स्त्रोत्र :- नदी, तालाब, झील आदि या पीपल के नीचे बैठकर करने से विशेष लाभ होता है।
भोजन करने से आधा घँटा पूर्व भोजन के चार घंटे बाद प्राणायाम किये जा सकते हैं।
पद्मासन :: पद्म अर्थात कमल, इसलिए इस आसन को कमलासन भी कहते हैं। इससे रक्त संचार तेजी से बढ़कर उसमें शुद्धता आती है तथा यह पैरों को लचीला, लेकिन मजबूत बनाता है। यह आसन बैठकर किया जाता है। पहले पैर लंबे कर आपस में सटाकर और फिर बाएँ हाथ से दाएँ पैर का अँगूठा पकड़कर दाहिने पैर को बाएँ पैर की जंघा पर रखते हैं। फिर बाएँ पैर को ऊपर की दाहिनी जंघा पर स्थापित करते हैं। ‍तब दोनों हाथ की कलाइयों को घुटनों पर सीधा रखा जाता है। दोनों हाथ अँगूठे के पास वाली अँगुली अँगूठे से मिलाकर  बाकी तीन अंगुलियाँ सीधी रखी जाती हैं। आँखें बंद तथा रीढ़ की हड्डी सीधी रखी जाती है। गर्दन सीधी तथा नासाग्र दृष्टि बनाए रखनी होती है अथवा भृकुटी पर चित्त को एकाग्र-स्थिर किया जाता है। समस्त दुर्भावनाओं का विनाशक यह पद्मासन है। यह समस्त व्याधियों को नष्ट करता है। समस्त व्याधियों से अभिप्राय दैहिक, दैविक और भौतिक व्याधियों से है। पद्मासन में प्राणायाम करने से साधक या रोगी का चित्त शांत होता है। साधना और ध्यान के लिए यह आसन श्रेष्ठ है। इससे चित्त एकाग्र होता है। चित्त की एकाग्रता से धारणा सिद्ध होती है। इससे पैरों का रक्त-संचार कम हो जाता है और अतिरिक्त रक्त अन्य अंगों की ओर संचारित होने लगता है, जिससे उनमें क्रियाशीलता बढ़ती है। यह तनाव हटाकर चित्त को एकाग्र कर सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाता है। छाती और पैर मजबूत बनते हैं। वीर्य रक्षा में भी मदद मिलती है। नियमित अभ्यास से पेट कभी बाहर नहीं निकलता। पैरों में किसी भी प्रकार का अत्यधिक कष्ट होने पर इसको तुरन्त बंद कर देना चाहिए। साइटिका अथवा रीढ़ के निचले भाग के आसपास किसी प्रकार का दर्द हो या घुटने की गंभीर बीमारी हो तो भी इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए।
VAJR ASAN वज्र आसन :: A comfortable cushion-Mat has to be used for performing this Asan, exercise, Yog. 
Bend over the knees, by placing the legs over the heels. The nails-fingers should touch the cushion. Hips should rest over the heels, continuously. Take an erect posture and keep the back bone straight-vertical. Keep the head up.
Take a long breath-suck air into the lungs-inflate the lungs with fresh air. 
Hold the two hands in locking position behind the back, while moving the two elbows close to each other. Raise the chest by pushing the hands behind the back slowly. 
Now, bend slowly, releasing the air through the nostrils slowly, till the forehead touches the mat/cushion. Move the elbows towards the stomach gradually. Let the stomach touch the spinal cord. It has to be pulled inside as much as possible. 
Now, start raising head gradually, sucking the air into the lungs again. 
Acquire the vertical posture again. Initially, perform this 3-5 time and then go on increasing the frequency, simultaneously.
This Asan provides complete cure for digestive troubles, gas, constipation, indigestion. It repair muscles of thighs and reduces pain in knees-joints.
BHRAMARI PRANAYAM भ्रामरी प्राणायाम :: Close the two ears with thumbs, place the second finger over the head, third and fourth fingers by the side of nose and the fifth finger will occupy the position, just below the nostrils.  Now suck air-deep breathing, hold it for a moment and then release along with the sound of OM.
अंगूठों से दोनों कानों को बंद करें, दूसरी अंगुली माथे पे रखें, तीसरी और चौथी अंगुली को नाक के बगल में व पांचवी अंगुली को नासिका द्वार के निचे स्थिर करें। अब गहरी साँस खींच कर उसे ॐ शब्द के उच्चारण के साथ बाहर निकालें।   
अपने शरीर के भीतर रहने वाली वायु को प्राण कहते हैं और उसे रोकने को आयाम अर्थात प्राणवायु को रोकना प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम करने के लिये पद्मासन, आलती-पालती या एक पैर दूसरे पर रख कर आसन लगाना चाहिये। इस मुद्रा में परमात्मा का चिंतन करना चाहिये। प्राणायाम करने के लिये समतल भूमि का चुनाव करें और स्थिर आसन बिछावें जो कि ज्यादा ऊँचा-नीचा न हो। पहले मूंज-कुशासन, फिर मृगचर्म और इनके ऊपर कपड़ा बिछावें।
मृगचर्म उपलब्ध नहीं होगी, इसलिये पक्के फर्श-तख़्त पर रुई का बढ़िया गद्दा, कालीन, दरी, कम्बल या चटाई बिछा लें। 
मन और इन्द्रियों की चेष्टाओं को काबू कर चित्त को एकाग्र करें तथा अंत:करण की शुद्धि के लिए योगाभ्यास शुरू करें। शरीर, मस्तक, और गले को अविचल-बगैर हिलाए डुलाए, एक सीध में रखते हुए स्थिर बैठें। केवल नासिका के अग्र भाग को देखें और कमर को सीधा रखें। प्रात: काल  में मुख पूर्व व शाम को उत्तर दिशा अथवा उत्तर पूर्व दिशा में रखें तथा अन्य दिशाओं में द्रष्टि पात न करें। दोनों एड़ियों से अंड कोष और लिंग को बचाते हुए, दोनों जांघों के ऊपर भुजाओं को तिरछी करके रखें तथा बायें हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ के पृष्ठभाग को स्थापित करें और मुँह को कुछ ऊँचा करके सामने की ओर स्थिर करें। 
अँगूठों से दोनों कानों को बंद करें, दूसरी अँगुली माथे पे रखें, तीसरी और चौथी अँगुली को नाक के बगल में व पाँचवी अँगुली को नासिका द्वार के निचे स्थिर करें।अब गहरी साँस खींच कर उसे ॐ शब्द के उच्चारण के साथ बाहर निकालें। 
रेचन :- दायें  नथुने से वायु बाहर निकलने के लिये दूसरी व तीसरी ऊँगली को माथे पर रखें तथा चौथी व पाँचवी ऊँगली से  बांया नथुना बंद करें धीरे-धीरे वायु बाहर निकालें, अँगूठे को स्वतंत्र  रखें।
पूरक :- अब पूर्वावस्था में धीरे-धीरे साँस भीतर खींचें। पर्याप्त वायु भरकर स्थिर बैठें। 
कुम्भक :: इस स्थिति में वायु को रोकना है, वायु  न अन्दर जाये न बाहर आए। शुरू में 24 सेकंड, कुछ दिनों के अभ्यास के बाद 48 सेकंड और फिर 72 सेकंड।
इन तीनों प्रक्रियाओं को धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाते हुए करना चाहिये। एक दिन में आधे घंटे का अभ्यास पर्याप्त है। इस क्रिया के दौरान पसीना आना अच्छा है, कम्कपीं आना उत्तम तथा अभिघात लगना सर्वोत्तम है। ध्यान के साथ प्राणायाम अति उत्तम है। ज्ञान व वैराग्य से युक्त प्राणायाम, इन्द्रियों पर विजय प्रदान करता है। शास्त्र तपस्या व प्राणायाम को बराबर मानता है।
उज्जायी प्राणायाम स्वर यंत्र में श्वास के प्रवाह पर ध्यान एकाग्र कर गहरी श्वास लें। गहरी निद्रा में इस प्रकार की श्वास प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से होती है, किन्तु इसके पूरे लाभ प्राप्त करने के लिए पूरी तरह सचेत रहते हुए इसका अभ्यास करना महत्त्वपूर्ण बात है।
उज्जायी प्राणायाम सहज प्राणायाम या अजय प्राणायाम ("सहज" श्वास नियन्त्रण) भी कहलाता है। इसका उपयोग क्रिया योग और ध्यान में किया जाता है। योग ग्रन्थों में कहा गया है कि सहज श्वास समाधि प्राप्ति का मार्ग है या अन्य शब्द में कहा जाये तो चेतना के उच्चतर स्तर की प्राप्ति का मार्ग है। सहज श्वास का अर्थ मंत्र "सो हम" के साथ श्वास लेने की सहज प्रक्रिया पर ध्यान एकाग्र करना है। यह मंत्र अपने अन्दर के स्व को पुकारने के समान है। इस मंत्र के लगातार उच्चारण से "सो और हम" शब्द का एक चक्र बन जाता है : मैं वह हूँ - वह मैं हूँ - मैं वह हूँ।
उज्जायी प्राणायाम शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बनाये रखने में बहुत सहायक है। यह उच्च रक्तचाप को सामान्य करता है और परिणामत: एक गहन शारीरिक और मानसिक शुद्धिकरण होता है। अश्विनी मुद्रा या मूल बंध के साथ उज्जायी प्राणायाम का अभ्यास नकारात्मक विचारों, मानसिक पीड़ा व उदासीनता को कुछ ही क्षणों में दूर कर देता है। यह ठीक से न हजम हुये पदार्थों या बिगड़े हुये खाद्यान्न से उत्पन्न उदर-वायु, पाचन की समस्या और जी मिचलाने के मामले में अलाभकारी होता है। उज्जायी प्राणायाम प्रदूषण के हानिकारक परिणामों और अन्य हानिप्रद पर्यावरणीय प्रभावों को दूर करता है।
सर्वाधिक सघन या गहन विष हरण गुण की प्राप्ति तब होती है जब उज्जायी प्राणायाम का अभ्यास नासिका से पूरक करने और मुख से रेचक से कि या जाता है। इस तकनीक को भुजंगनी प्राणायाम "सर्प श्वास" कहा जाता है।
उज्जायी प्राणायाम के प्रभाव, पौराणिक कथा :- निम्न कथा उज्जायी प्राणायाम के प्रभाव को दर्शाती है।
देवों और असुरों ने निश्चय किया कि महासागर के अथाह जल में विद्यमान विशाल कोष को प्राप्त करने के लिये इसका मंथन किया जाये। इस प्रयोजन के लिये उन्होंने मन्दाकिनी पर्वत को मथानी और वासुकी नाग को रस्सी के रूप में इस्तेमाल किया। देवों ने सर्प की पूँछ को पकड़ लिया और असुरों ने इसके सिर को। समुद्र तल से भिन्न-भिन्न वस्तुएँ निकलीं, सर्वप्रथम देवी लक्ष्मी निकली और अंत में अमरता का पेय अमृत एक स्वर्ण पात्र में सतह पर आ गया किन्तु इस अमृत पेय के साथ एक महा विनाशकारी विष भी आया। यह विष समस्त ब्रह्माण्ड को नष्ट कर सकता था। देव और असुर इस विष के प्रभाव को रोकने में असमर्थ थे। हताश होकर उन्होंने भगवान् शिव से सहायता माँगी। 
भगवान् शिव ने विष को बिना निगले ही पी लिया और अपनी योग शक्ति से विशुद्धि चक्र में रख लिया। यहाँ उन्होंने उज्जायी प्राणायाम और जालंधर बन्ध के माध्यम से इसको शुद्ध कर दिया। इस प्रकार उन्होंने संसार को इस महा विनाशक खतरे से मुक्त किया और बचा लिया। इसके परिणाम स्वरूप उनका कंठ सदा के लिये गहरा नीला पड़ गया और तब से भगवान् शिव का नाम नीलकंठ भी हो गया।
दोहराना :- 3 से 5 चक्र।
अभ्यास :- चेहरे, निचले जबड़े और होठों को ढीला छोड़ दें। जालन्धर बंध करें। कंठ द्वार को सिकोड़ें जिससे श्वास के साथ एक धीमी ध्वनि उत्पन्न हो। कंठ में श्वास के प्रवाह को महसूस करें। पूरक करते हुए मानसिक रूप से "सो" शब्द को दोहरायें और श्वास की चेतनता को नाभि से कंठ तक अनुसरण करें।
रेचक करते हुए मानसिक रूप से "हम" शब्द को दोहरायें और कंठ से नाभि तक श्वास चेतनता का अनुसरण करें।  कई श्वासों के बाद खेचरी मुद्रा करें अर्थात् यथा संभव कोमल तालु की ओर पीछे जिह्वा को मोड़कर ले जायें। इससे वायु नम हो जाती है और गला सूखता नहीं है। यदि यह मुद्रा असुविधाजनक हो जाये तो जिह्वा को कुछ क्षण के लिये आराम दें और फिर खेचड़ी मुद्रा में लौट आयें। नियमित और निरन्तर श्वास लेना जारी रखें। इस प्रकार पूरक और रेचक 25 बार करें, फिर जालंधर बंध खोल दें और लगभग तीन मिनट तक सामान्य श्वास के साथ ऐसे ही बने रहें।
यह एक चक्र है। इस व्यायाम को आगे 3-5 बार करें।
लाभ :- यह रक्त चाप को विनियमित करता है और शरीर को विषहीन बनाता है। पूरे शरीर में आक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाता है। पाचन समस्या, उदर वायु, जी मिचलाने में लाभदायक होता है। हानिप्रद पर्यावरणीय प्रदूषणकारी तत्वों को निष्प्रभावी बनाता है।
YOG THERAPY-PREVENTION FROM DRUGS (PREVENTION IS BETTER THAN CURE) :: Drug addiction claims thousands of lives annually. Mostly people try drugs out of curiosity and become addicted to them. Yog provides unification of body, mind and soul. Yog can help prevent drug addiction and break the vicious cycle. Rehabilitation centres are incorporating these familiar Yogic exercises to prevent drug addictions. One may prefer Yog to remain healthy. Numerous people in India and abroad use Yog to abstain from drugs, narcotics, wine-women. It’s really enjoying-pleasant, to do it every day for 20-30 minutes. It involves-engage various body systems, resulting in perfect health.
Rehabilitation means treatment for drug addiction, which involves several steps, involving detoxification leading to reduced dependence over drugs. One may experience withdrawal symptoms like anxiety and increased stress levels. Yogic practices-techniques are utilised for clarity and stability. Experts are generally involved in the various phases of this process.
Yog helps one in staying calm-quite ("Peace, Solace, Tranquillity") and induces clarity of vision and thoughts, helping in prevention from drug addiction. The newly induced clarity, allows one to see clearly and stop responding, in an impulsive manner. Yog also induces discipline, willpower and confidence.
Boasting-improving health :- Yog is all about relaxation from stress and anxiety. 
Increased-enhanced concentration power :- One passing through recovery phase may be worried and stressed. One should have confidence in it for speedy recovery.
Cultivates awareness :- One of the most important functions of Yog is to increase awareness. A person can calm himself whenever, he is facing anxiety-pain-stress.
Enhanced mental strength :- Its clinically proven that different breathing modes :- inhaling, exhaling, holding, help in improving mental stability. Deep breathing increases blood circulation which smoothen brain functionality. Improved supply of oxygen to whole body and the brain shows miraculous impact-results.
HATH YOG हठ योग :: It describes postures, breathing methods and medical treatment. Detoxification of harmful substances, along with body strength development which can be easily attained through various physical postures. The clarity of mind-vision is harnessed through various breathing techniques. Clarity of mind can also be achieved through medical therapies and use of many medications.
योग शारीरिक और मानसिक विकास के लिए विश्व की प्राचीनतम प्रणाली है, जिसका योगियों द्वारा अभ्यास किया गया है। मनोकायिक व्यायामों की यह एक अनन्यतम विधि है। हठयोग के आसन मानसिक प्रशांति, शारीरिक संतुलन और दिव्य प्रभाव के साथ प्रतिपादित होते हैं। इससे मेरु दंड लचीला बनता तथा स्नायु संस्थान के स्वास्थ्‍य में वृद्धि होती है। योगासनों से स्नायओं के मूल का आंतरिक प्राणों द्वारा पोषण होता है। अतएव योगासन अन्य व्यायामों से पृथक है। हठयोग के नियमित अभ्यास से आप अपना खोया हुआ स्वास्थ्य और मानसिक शांति प्राप्त कर सकते हैं। आत्मा की गुप्त शक्तियों को उद्घाटित कर अपनी संकल्पशक्ति में वृद्धि कर सकते हैं और जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर आत्म साक्षात्कार के उत्कृष्ट शिखर पर आसीन हो सकते हैं।
हठयोग के आसन मन एवं शरीर के सूक्ष्म संबंध के पूर्ण ज्ञान पर आधारित एक अद्धभुत मनोशारीरिक व्यायाम प्रणाली है। अन्य सभी उच्च योग जैसे :- कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग की सिद्धि के लिए हठयोग एक साधन है। मन और शरीर ही सारे मानवीय प्रयत्नों (आध्यात्मिक तथा भौतिक) का आधार है।
'हठ' शब्द की रचना 'ह' और 'ठ' दो रहस्यमय एवं प्रतीकात्मक अक्षरों से हुई है। 'ह' का अर्थ 'सूर्य' और 'ठ' का अर्थ 'चंद्र' है। योग का अर्थ इन दोनों का संयोजन या एकीकरण है।
सूर्य तथा चंद्र के एकीकरण या संयोजन का माध्यम हठयोग है। प्राण (प्रमुख जीवन शक्ति) ही सूर्य है। हृदय के माध्यम से यह क्रिया शील होकर श्वसन तथा रक्त संचार का कार्य संपादित करता है। अपान-ही चंद्र है जो शरीर से अशुद्धियों के उत्सर्जन और निष्कासन का कार्य संपादित करने वाली सूक्ष्म जीवन शक्ति है।
सूर्य तथा चंद्र (ह एवं ठ) मानव शरीर के दो ध्रुवों के प्रतीक हैं। जीवन की सारी क्रियाओं और गतिविधियों को बनाए रखने में इन दो जीवन शक्तियों का पारस्परिक सामंजस्य आवश्यक है। ये मानव शरीर के माध्यम से कार्यरत सार्वभौमिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं।
मानव हृदय में स्थित प्राण (जीवनी शक्ति) ही ग्रह, नक्षत्र, सूर्य-चंद्र की गति को नियंत्रित करता है तथा वायु, विद्युत, चुम्बकत्व, प्रकाश, उष्मा, रेडियो-तरंग इत्यादि शक्तियों में अभिव्यक्त होता है।
हठ योग की कुँजी से प्राण की अनन्त  निधि का द्वार खोल कर अपने जीव को शक्ति, साहस, शाँति, ऐश्वर्य और पूर्णता से परिपूर्ण कीजिए। इस जगत में कुछ भी असंभव नहीं है। नवजीवन तथा शक्ति को अपने स्नायुओं और रक्त वाहिकाओं में स्पंदित होने दीजिए। सार्वभौमिक शांति तथा विश्व प्रेम को स्थापित करने का हठ योग एक सुंदर साधन है। क्योंकि विश्व शाँति वैयक्तिक शाँति पर ही निर्भर है। जब तक काम और अपरिमित इच्छाओं के काले बादल को हटाकर व्यक्तिगत शांति स्थापित करने के सभी प्रयास निष्फल सिद्ध होंगे।
हठ योग चित्तवृत्तियों के प्रवाह को संसार की ओर जाने से रोककर अंतर्मुखी करने की एक प्राचीन भारतीय साधना पद्धति है, जिसमें प्रसुप्त कुंडलिनी को जाग्रत कर नाड़ी मार्ग से ऊपर उठाने का प्रयास किया जाता है और विभिन्न चक्रों में स्थिर करते हुए उसे शीर्षस्थ सहस्त्रार चक्र तक ले जाया जाता है। हठ योग प्रदीपिका इसका प्रमुख ग्रंथ है।
हठयोग, योग के कई प्रकारों में से एक है। योग के अन्य प्रकार हैं :- मंत्र योग, लय योग, राज योग। हठ योग के आविर्भाव के बाद प्राचीन अष्टांग योग को राज योग की संज्ञा दे दी गई।
हठ योग साधना की मुख्य धारा शैव रही है। यह सिद्धों और बाद में नाथों द्वारा अपनाया गया। मत्स्येन्द्र नाथ तथा गोरख नाथ उसके प्रमुख आचार्य माने गए हैं। गोरखनाथ के अनुयायी प्रमुख रूप से हठयोग की साधना करते थे। उन्हें नाथ योगी भी कहा जाता है। शैव धारा के अतिरिक्त बौद्धों ने भी हठ योग की पद्धति अपनायी थी। इस योग का महत्व वर्तमान काल मे उतना ही है जितना पहले था ।
हठ शब्द के हठ् + अच् प्रत्यय के साथ प्रचण्डता या बल अर्थ में प्रयुक्त होता है। हठेन या हठात् क्रिया विशेषण के रूप में प्रयुक्त करने पर इसका अर्थ बलपूर्वक या प्रचंडता पूर्वक, अचानक या दुराग्रह पूर्वक अर्थ में लिया जाता है। हठ विद्या स्त्रीलिंग अर्थ में बल पूर्वक मनन करने के विज्ञान के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। षटकर्म तो केवल शरीर शोधन के साधन है। हठ योग शरीर एवं मन के संतुलन द्वारा राज योग प्राप्त करने का पूर्व सोपान के रूप में विस्तृत योग विज्ञान की चार शाखाओं में से एक शाखा है।
साधना के क्षेत्र में हठ योग शब्द का यह अर्थ बीज वर्ण ह और ठ को मिलाकर बनाया हुआ शब्द के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। जिसमें ह या हं तथा ठ या ठं (ज्ञ) के अनेकों अर्थ किये जाते हैं। उदाहराणार्थ ह से पिंगला नाड़ी दहिनी नासिका (सूर्य स्वर) तथा ठ से इड़ा नाडी बॉंयी नासिका (चन्द्रस्वर)। इड़ा ऋणात्मक (-) उर्जा शक्ति एवं पिगंला धनात्मक (+) उर्जा शक्ति का संतुलन एवं इत्यादि इत्यादि। इन दोनों नासिकाओं के योग या समानता से चलने वाले स्वर या मध्य स्वर या सुषुम्ना नाड़ी में चल रहे प्राण के अर्थ में लिया जाता है। इस प्रकार ह और ठ का योग प्राणों के आयाम से अर्थ रखता है। इस प्रकार की प्राणायाम प्रक्रिया ही ह और ठ का योग अर्थात हठयोग है, जो कि सम्पूर्ण शरीर की जड़ता को सप्रयास दूर करता है। प्राण की अधिकता नाड़ी चक्रों को सबल एवं चैतन्य युक्त बनाती है ओर व्यक्ति विभिन्न शारीरिक, बौद्धिक एवं आत्मिक शक्तियों का विकास करता है।
स्थूल रूप से हठ योग अथवा प्राणायाम क्रिया तीन भागों में पूरी की जाती है :-
(1). रेचक :- श्वास को सप्रयास बाहर छोड़ना।
(2). पूरक :- श्वास को सप्रयास अन्दर खींचना।
(3). कुम्भक :- श्वास को सप्रयास रोके रखना। कुम्भक दो प्रकार से संभव है :- (3.1). बर्हिःकुम्भक :- श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोके रखना।
(3.2). अन्तःकुम्भक :- श्वास को अन्दर खींचकर श्वास को अन्दर ही रोके रखना।
इस प्रकार सप्रयास प्राणों को अपने नियंत्रण से गति देना हठयोग है। यह हठयोग राजयोग की सिद्धि के लिए आधारभूमि बनाता है। बिना हठयोग की साधना के राजयोग (समाधि) की प्राप्ति बड़ा कठिन कार्य है। अतः हठयोग की साधना सिद्ध होने पर राजयोग की ओर आगे बढ़ने में सहजता होती है।
GENERAL HEALTH BENEFITS OF YOG :: It improves immunity and over all mental & physical health & longevity. It increases flexibility, increase muscle tone and strength, improve circulatory and cardio health, helps sleep better, increases energy levels, improve athletic performance, reduce injuries, detoxify organs, improve posture, improves anxiety and depression, helps with chronic pain, release endorphins that improves mood-psyche.
Yog is an ancient Indian practice with its origin stretching back to millions of years. It is designed to help achieve a more positive outlook on life and a focused, permanent sense of serenity, tranquillity, solace & peace. Its considered to be the best exercise for ladies and everyone without harmful side effects.
It encourages relaxation and flexibility of the human body, mind and soul. Body pain, back ache, strain are improved with slow and gradual regular practice. 
Age, physical capabilities, current weight or fitness goals are immaterial if one does regular practice of Yog-Yogabhyas. Psychological problems are over come, nervous calmness is restored. It calms the nervous system and provides rest. Stress-strain, anxiety-depression are cured permanently. One who perform Yog is blessed with humour, good mood, patience.
With an increasing percentage of the population suffering from varying degrees of Insomnia, snorting, coughing during sleep, sperm discharge are cured permanently. 
It helps in controlling craving for food, indigestion and controls weight. Craving generally strikes when the body is tense. With a relaxing session of Yog one makes it easier to consider whether or not, he really need that extra sweets, food intake, burgers etc. Intake of oxygen during deep breathing, intake, inhaling air provides for breaking of sugars, glucose, fructose etc. easily. Which in turn do not allow weight to grow. It helps women to shed non essential fat by improving their figure and making them more attractive and sexy.
Right posture during sitting-studying is essential. Yog is performed with erect back bone. It leads to awakening of brain, sharpness of intelligence, increased concentration and memory and quickness of actions. It helps in maintaining balance of mind. Laziness is overcome. 
It boosts sexuality-both masculine and feminine, self control, makes more and more assertive, increases strength-vigour and vitality & helps in controlling quick discharge. It helps build lean muscle, tone and define existing muscle. One will surely have a sexy and gorgeous silhouette.
It provides help to the people suffering from a myriad of various ailments. It provides relief from Alzheimer’s disease. Arthritic, rheumatoid arthritis, long-term joint, muscle or other pain are curable with regular practice of Yog.
High-low blood pressure, erratic nerve, bad cholesterol, heart-cardiae problems are overcome quite easily. 
It improves cardiovascular health, tones muscles, increases flexibility and invokes calmness. Yog is a meditative discipline that reduces anxiety while sharpening the mind.
It improves cardiovascular health, tones muscles, increases flexibility and invokes calmness. Yog is a meditative discipline that reduces anxiety while sharpening the mind.
12 FORMS OF YAGY 12 प्रकार के यज्ञ ::  निस्वार्थ भाव से दूसरों के हित-भले के लिए किये गए कर्तव्य-कर्म करने का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। मनुष्य बंधन मुक्त हो जाता है। कुल बारह प्रकार के यज्ञ कर्म हैं। 
(1). ब्रह्म यज्ञ-प्रत्येक कर्म में कर्ता, करण, क्रिया, पदार्थ आदि सब को ब्रह्म रूप से अनुभव करना। 
(2). भगवदर्पण रूप यज्ञ-सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थों को केवल भगवान् का और भगवान् के लिए ही मानना।
(3). अभिन्नता रूप यज्ञ-असत् से सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में विलीन हो जाना। परमात्मा से अलग अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। 
(4). संयम रूप यज्ञ-एकान्तकाल में अपनी इन्द्रियों को विषयों से मुक्त रखना-प्रवृत न होने देना। 
(5). विषय हवन रूप यज्ञ-व्यवहार काल में इन्द्रियों से संयोग होने पर भी उनमें राग द्वेष पैदा न होने देना। 
(6). समाधिरूप यज्ञ-मन बुद्धि सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर ज्ञान से प्रकाशित समाधि में स्थित हो जाना। 
(7). द्रव्य यज्ञ-सम्पूर्ण पदार्थों को निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा में लगा देना। 
(8). तपो यज्ञ-अपने कर्तव्य के पालन में आने वाली कठिनाइयों को प्रसन्नता पूर्वक सह लेना।
(9). योग यज्ञ-कार्य की सिद्धि-असिद्धि में तथा फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना। 
(10). स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ-दूसरों के हित के लिए सत्-शास्त्रों का पठन-पाठन, नाम-जप आदि करना। 
(11). प्रणायाम रूप यज्ञ-पूरक, कुम्भक और रेचक पूर्वक प्रणायाम करना। 
(12). स्तम्भ वृत्ति प्राणायाम रूप यज्ञ-नियमित आहार करते हुए प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना। 
मनुष्य की समस्त क्रियाएँ यज्ञ रूप ही होनी चाहिए; अर्थात स्वयं के लिए कुछ भी नहीं करना। जब मनुष्य केवल दूसरों के हित के लिए सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म  करता है तो परिणति कर्तव्य कर्म रूप यज्ञ  में स्वतः हो जाती है।
GETTING RID OF HEADACHES THROUGH RELAXATION :: To Alleviate Headaches-Massage the Thumbs. Start at the pad on the tip of the thumb and gently massage all over the 1st phalanx. Locate any points which feel sore and rub these spots thoroughly. 
If the headache still persists after massaging the 1st phalanx, move to the second phalanx and repeat the process. If necessary, also rub the web of the thumb and the metacarpal bone.
Headaches centred around the eyes will also require massaging of the index and middle fingers. Headaches centred around the ears will need additional rubbing of the ring and baby fingers. If the headache is on the right side, concentrate the treatment on the right hand. For headaches on the left side, use the left hand.
GETTING RID OF NECK TENSION :: Rotate the Thumbs. After massaging the thumbs rotate them gently to each side several times on both knuckles.
GETTING RID OF LOWER BACK PAIN :: To Alleviate Pain in the Lower Back-Massage the Wrists. The center of the wrist on the palm side contains the reflex point for the lower back. Gently massage both wrists with the opposite thumb, about 5 minutes per wrist. Repeat the massage at least twice per day for optimum results.
GETTING RID OF SWOLLEN GLANDS :: Massage the Base of Each Finger. In between each finger at the base is a reflexology point for the upper lymph nodes. If your glands are swollen, at least one (and probably all) of these points will be painful to the touch. Massaging all 4 of the points will bring relief almost immediately.
The four points are at the very base of each finger within the webbing of the skin. There is one between the thumb and index finger, another between the index and middle finger. Remember that each point is found within the webbing between the digits.
YOG THERAPY-PREVENTION FROM DRUGS :: PREVENTION IS BETTER THAN CURE. Drug addiction claims thousands of lives annually. Mostly people try drugs out of curiosity and become addicted to it. It provides unification of body, mind and soul. Yog can help prevent drug addiction and break the vicious cycle. Rehabilitation centres are incorporating these familiar Yogic exercises to prevent drug addictions. One may prefer Yog to remain healthy. Numerous people in India and abroad use Yog to abstain from drugs, narcotics, wine-women". It’s really enjoying-pleasant, to do it every day for 20-30 minutes. It involves-engage various body systems, resulting in perfect health.
ZEN-ONE POINT MEDITATION :: One has to place the palms together with the fingertips upward. He has to Interlock the fingers, extend the index fingers so they lie side-by-side & extend the thumbs the same way. Now, he has to lift the hands and hold them in front of the chest. He has to feel the heat between the two hands and take note of the pulse in the palms. Now, he has to direct his attention to the point, where the index fingertips touch. This is the One Point. One will begin to feel his pulse at the fingertips. Within seconds one will notice calmness and inner power growing. He should not permit other thought, ideas, tensions to hover around. 
YOG & ASTROLOGY योग ज्योतिष :: ज्योतिष शास्त्र मनुष्य की तात्क्षणिक स्थिति को स्पष्ट करता है। शास्त्रों में रोग-व्याधि-बीमारी से निवृति का प्रावधान भी है। ग्रह, नक्षत्र की स्थिति को जानकर-समझकर मनुष्य अपनी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से निवृति प्राप्त कर सकता है। योग और प्राणायाम सेहत सम्बन्धी ग्रहों के दुष्प्रभाव को कम कर सकते हैं। 
सूर्य के लिए सूर्य नमस्कार :- जब किसी व्यक्ति की राशि में सूर्य अनिष्टकर हो जाता है तो उस व्यक्ति के ईर्द-गिर्द नकारात्मकता फैल जाती है और सबसे पहले उसका आत्मविश्वास कमजोर पड़ जाता है।साथ ही कमजोर आंखें, दिल की बीमारी और कमजोर तंत्रिका तंत्र की समस्या भी हो सकती है। ऐसे में सूर्य के हानिकारक प्रभाव को कम करने के लिए सूर्य नमस्कार के साथ अग्निसार और भस्त्रिका सबसे उत्तम उपाय है।अनुलोम-विलोम भी नाड़ी दोष को दूर करने में सहायक हैं। 
चंद्रमा के लिए अनुलोम-विलोम :- यदि किसी व्यक्ति का चंद्रमा कमजोर या अनिष्टकर हो जाए तो वह व्यक्ति जरुरत से ज्यादा भावुक और तनावग्रस्त हो जाता है। ऐसे में चंद्रमा को नियंत्रित करने के लिए अनुलोम-विलोम के साथ भस्त्रिका की जा सकती है। इसके साथ ही अगर ओम् का उच्चारण भी किया जाए तो बेहतर परिणाम मिल सकते हैं।
मंगल के लिए पद्मासन :- जब किसी व्यक्ति की कुंडली में मंगल ग्रह कमजोर या हानिकर हो तो वह व्यक्ति या तो जरुरत से ज्यादा आलसी हो जाता है या फिर अतिक्रियाशील। ये दोनों ही स्थितियां उचित नहीं हैं। ऐसे में पद्मासन, तितली आसन, मयूरासन के साथ ही अगर शीतलीकरण प्राणायाम भी किया जाए तो उपयुक्त रहेगा।
बुध ग्रह के लिए भस्त्रिका :- बुध ग्रह के अनिष्टकर होने का सीधा प्रभाव व्यक्ति के निर्णय लेने की क्षमता पर पड़ता है। साथ ही चर्म रोग होने का खतरा भी रहता है। ऐसे में बुध ग्रह के नकारात्मक असर को कम करने के लिए भस्त्रिका के साथ ओम का उच्चारण और अनुलोम-विलोम का प्रयोग हमारे प्रतिरक्षी तंत्र को मजबूत करता है।
बृहस्पति के लिए कपालभाति :- गुरु या बृहस्पति ग्रह जब किसी व्यक्ति का अनिष्टकर हो जाता है तो व्यक्ति में पेट से जुड़ी समस्याएं, डायबीटीज़ और मोटापे की समस्या बढ़ जाती है। लिहाजा बृहस्पति को नियंत्रित करने के लिए मीठा और पीली चीजों को खाने से बचें। इसके अलावा जिस आसन और प्राणायाम के जरिए इसे नियंत्रित किया जा सकता है उसमें कपालभाति, सर्वांगासन, अग्निसार और सूर्य नमस्कार शामिल है।
शुक्र ग्रह के लिए धनुरासन :- जब शुक्र ग्रह कमजोर होता है तो यौन रोग, कामुकता में असंतुलन, महिलाओं के पीरियड साइकल में अनियमितता जैसी शिकायतें होने लगती है। शुक्र ग्रह के नकारात्मक पहलू को कम करने के लिए ठंडी चीजों जैसे- दही, चावल आदि के सेवन से बचना चाहिए साथ ही धनुरासन, हलासन, मूलबंधासन और जानुशिरासन जैसे आसन लाभदायक हो सकते हैं।
शनि ग्रह के लिए भ्रामरी प्राणायाम :- जब शनि ग्रह कमजोर हो जाए तो व्यक्ति एसिडिटी, अर्थराइटिस और हार्ट अटैक जैसी बीमारियों का शिकार हो सकता है।
साथ ही नींद की कमी भी एक मुख्य समस्या है। खाने पीने में संयम बरतना आवश्यक है। फ़ास्ट फ़ूड और सॉफ्ट ड्रिंक्स बेहद हानिकारक हैं। ज्यादा पानी पीयें। इसके अलावा भ्रामरी, शीतलीकरण, अनुलोम-विलोम भी लाभदायक साबित हो सकते हैं।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः। 
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥
हे अर्जुन! यह योग न तो अधिक खाने वाले का, न ही बिलकुल न खाने वाले का, न अधिक शयन करने वाले का और न ही सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।[श्रीमद्भगवद्गीता-आत्म संयम योग 6.16]
Hey Arjun! This Yog is not possible for the one who eats too much, beyond his hunger-appetite or the one who does not eat at all, nor for him who sleeps too much or the one who is always awake. 
जरूरत-भूख से अधिक खाने वाला, आसन पर अधिक-समुचित, पर्याप्त काल तक बैठ नहीं सकता, क्योंकि मल-मूत्र उत्सर्जन उसे सतायेंगे। अधिक खाने वाला नींद, आलस्य  का शिकार भी होता है। बिलकुल न खाने वाला कमजोरी, थकान और शिथिलता का शिकार होता है। ज्यादा सोने वाला दर्द, स्वप्न, आलस्य का शिकार होता है। बिल्कुल न सोने वाले को नींद सताती है। सात्विक प्रवृति वाले मनुष्य भगवत भजन-कीर्तन, कथा-चरित्र सुनना-कहना आदि में रस विभोर होकर नींद थकान आलस्य, भूख-प्यास भूल जाता है। परन्तु राजसिक-तामसिक प्रवृति वाला इनसे प्रभावित हुए बगैर नहीं रहता। 
One who eats too much suffers from indigestion, acidity, desire for excretion-urination, which is bound to hinder the Dhyan Yog (concentration, meditation, asceticism). He is attacked by sleep, (dizziness, laziness, idleness). Other one, who avoids taking food becomes weak. One who sleeps too much suffers from pain, laziness, dreams etc. When there is no sleep, it becomes difficult to concentrate or to do any thing, what to say of asceticism-Yog. Those with virtuous tendencies and perform, enjoy, relish recitation of God's names, listening-saying, Gods stories-character, forget sleep, hunger, thirst. Those with aristocratic-Rajsik style, wickedness-Tamsik suffers the most from sleep, hunger. Such people can not devote time for the God or the service of man kind.
योग के 84 आसनों का सीधा सम्बन्ध 84,00,000 योनियों से है और उनको भी इसी क्रम विकास से ही विकसित किया गया प्रतीत होता है। एक बच्चा वह सभी आसन करता रहता है, जो कि योग में बताए जाते हैं। उक्त आसन करने रहने से किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं होता। वृक्षासन से लेकर वृश्चिक आसन तक कई पशुवत आसन हैं। मत्स्यासन, सर्पासन, बकासन, कुर्मासन, वृश्चिक, वृक्षासन, ताड़ासन आदि अधिकतर पशुवत आसन ही है।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमो क्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥
जो मनुष्य इस शरीर का नाश होने से पूर्व ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही योगी है और वही सुखी है।[श्रीमद्भगवद्गीता 5.23]
One who has controlled the sexual impulse-desire and anger-furore (rampage, alarms and excursions, maelstrom, excitement, stimulation, excitation, aggravation, anger, rage, fury, ire, bate) within his life time is a Yogi and is relaxed (comfortable, blessed).
मनुष्य योनि में विवेक की प्रधानता-प्रबलता है। मानव शरीर इस गुण से व्याप्त है। परन्तु जो मनुष्य भोग-संग्रह में लिप्त है, उसमें विवेक दबा, ढँका, आच्छादित रहता है। विवेकी व्यक्ति राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकारों को काबू में रखकर उन पर विजय प्राप्त कर लेता है। भोगों से उपरति प्रणियों में सामंजस्य भाव, समता की क्षमता उत्पन्न कर सकते हैं। काम-क्रोध मन में अशांति, उत्तेजना, संघर्ष जैसे भावनाएँ उत्पन्न करने लगते हैं। काम-क्रोध का वेग सहन करने वाला सुखी है। अच्छी संगत, सुविचार, संस्कार, सद्भाव, धर्मोपदेश, शास्त्र का ज्ञान, धर्माचार काम-क्रोध के वेग को थामते हैं। काम-क्रोध का वेग, अपने से शक्तिशाली के भय से भी रुक जाता है। राज्य-कानून का भय भी इसको रोकता है। कुछ लोग बदनामी के भय से भी इसे काबू में रखते हैं।
जो आत्म नियन्त्रण स्वतः संकल्प से पैदा होता है, वह मनुष्य को योगी, नर, शूरवीर बना देता है।
काम-क्रोध, राग-द्वेष की ही परिणति हैं और प्रकृति के विकार हैं, स्वरूप के नहीं। काम-क्रोध, पशु-पक्षियों तक में अशांति, चंचलता, संघर्ष जैसे दोष-भाव पैदा करते हैं।
Its only human who is awarded with the prudence. Even the residents of heaven lack this faculty, since they have gone there to enjoy. Lower species too do not have this feature in their brain. Prudence remain masked in those humans, who are engaged in sensuality, sexuality, consumption, collection. One who discards sensuality-sexuality, develops equanimity with the other species, controls the urge successfully. Desire for sex develop anger, imbalance, excitation, tussle, unrest. One who tolerate-controls this flow, is happy. Good virtuous company, thought, ideas, virtues, religious sermons, scriptures, learning of epics teachings of the noble (enlightened, Pandits, scholars, philosopher) helps in over powering this desire-urge. The fear of the mighty, state-law and legislature too keep one under control. Fear of defamation too restrict this faculty.
One who has exercised self control is a true human, great person, a true Yogi.
Attachment, hate, desires generate lust and sexuality. These are the natural defects of body not the true self. Lust, sexual desire create anguish, in the animals as well, leading to tussle (quarrel, rift, dissatisfaction, disappointment) in them, as well.
One must control his sense organs and the innerself-Man, to achieve the Almighty.
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्त थान्तर्ज्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥
जो योगी केवल अन्तरात्मा में ही सुख वाला, केवल अन्तरात्मा में ही रमण करने वाला, केवल परमात्मा में ज्ञान-प्रकाश वाला है, वह ब्रह्म में अपनी स्थिति का अनुभव करने वाला (ब्रह्म रूप बना हुआ) साँख्य योगी निर्वाण-ब्रह्म को प्राप्त होता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 5.24]
The Sankhy Yogi who finds joy (bliss, Parmanand) within, contemplate within, enlightenment within only, experiences-identifies himself with the Brahm-Almighty and attains Salvation.
अन्तःसुख-आत्मिक सुख केवल परमात्मा के श्री चरणों में ही उपलब्ध है। इस सुख का आधार बाह्य सुख नहीं है। ऐसा साँख्य योगी केवल परमात्म तत्व में ही रमण करता है, भोगों में नहीं। उसे आत्म राम कहा गया है। इन्द्रिय, सांसारिक और बुद्धि जन्य आदि ज्ञान का आधार परमात्म तत्व ही है। जिसे अंतः ज्योति कहा गया है। परमात्म तत्व का न आदि है और न अन्त। वह नित्य-निरन्तर, परिपूर्ण और स्वतः स्वाभाविक है। ऐसा साधक-योगी ब्रह्म में अपनी स्थिति का अनुभव करता है। वह शान्त है और निर्वाण को प्राप्त करने वाला है।
Inner peace (tranquillity, solace), is available under the asylum, (shelter, patronage) of the Almighty-Brahm. This extreme pleasure (Parmanand, bliss) has no external factor, since its within the enlightened-the Sankhy Yogi. The enlightened interacts within self and not the sensualities (sexuality, consumption). He is Atm Ram-one who interacts within self-eternity. He has achieved the Parmatm Tatv (gist of the Almighty), the source of the knowledge of the sense organs, worldly learning and the identification through the intelligence. This is termed as Antah Jyoti-inner consciousness. The gist of the Almighty is endless and lacks beginning, like the Almighty himself. It is for ever-perpetuating, complete and inborn. The devotee-practitioner realises the Brahm in himself. He is quite and attains Salvation-freedom from incarnations.
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥
काम-क्रोध से रहित, जीते हुए मन-चित्त वाले, आत्म-साक्षात्कार किए हुए योगियों के लिए सब ओर से (शरीर के रहते हुए अथवा शरीर छूटने के बाद) निर्वाण, ब्रह्म परिपूर्ण है।[श्रीमद्भगवद्गीता 5.26]
Yogis, who are free from sensualities, passions, desire and anger, who have over come their mental faculties (imaginations, assumptions, thoughts, ideas) and have identified the Self, with the Brahm; who exists everywhere for them (whether it is during life time or after wards).
जीवन्मुक्त सिद्ध महापुरुषों में काम-क्रोध लेश मात्र भी नहीं रहते। उत्पत्ति-विनाशशील असत् के साथ उनका अन्तःकरण सहित सम्बन्ध नहीं रहता। सत् के साथ तादात्म्य होने पर कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं। कामना न होने से क्रोध पैदा ही नहीं होता। काम-क्रोध का वेग, आवर्ती धीरे-धीरे कम होने लगती है। भोगासक्ति मिटने लगती है। अन्तःकरण शुद्ध होने लगता है। कोई उसकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करे, उसकी अवहेलना करे, तंग करे तो, वह परेशान-क्रोधित नहीं होता। मन-चित्त वश में हो जाते हैं और उनका भटकना बन्द हो जाता है। जिस कारण से शरीर प्राप्त हुआ है, उसका ज्ञान-बोध होने से, उसे स्वरूप की अनुभूति-प्राप्ति हो जाती है। शरीर रहो या न रहो वह शाँत ब्रह्म में स्थित-लीन हो चुका है।
जिस तत्व-ब्रह्म को ज्ञान योगी और कर्म योगी प्राप्त करते हैं, उसी को ध्यान योगी भी कर लेता है। जप-तप, ध्यान-सत्संग और स्वाध्याय प्रत्येक साधक के लिए उपयोगी और अत्यावश्यक हैं, क्योंकि ये ब्रह्म प्राप्ति की सहगामी प्रक्रियाएँ हैं।
The detached (accomplished, great soul, practitioner), has lost all desires, which results in loss of anger. His innerself has no connection with the virtual (fake, illusory, mirage). He has developed a rapport with the real-eternal, leading to loss of desires and the anger, thereafter. The intensity-frequency of desires (sexuality, sensuality, passions, lasciviousness), start receding gradually. No attachment is left with lust. The innerself start becoming pure (pious, righteous, virtuous). He is not perturbed, if someone disobey, neglect, ignore, reject him. His mind is concentrated in the Almighty and self control is attained and exercised. He has realised the purpose of his incarnation as a human being. The wisdom-enlightenment makes him stable in the Brahm. He stops wavering. He has reached that stage, where the physique is meaningless-immaterial. Its immaterial, whether he has the body or not. The body is insignificant-unimportant, at this stage. He has attained peace (solace, tranquillity) and is stable with the Par Brahm Parmeshwar.
The Truth-gist of the Ultimate achieved by the Gyan Yogi and the Karm Yogi is the same as the one achieved by the Dhyan Yogi, who concentrate his mind in the Almighty and penetrate into HIM. Jap-recitation, Tap-asceticism, Dhyan (meditation, concentration) in the Almighty, pious (virtuous, righteous) company and self study (reading, learning) the scriptures, Ved, Puran, epics, Itihas-history are essential and useful for all practitioners and goes side by side, simultaneously.
र्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्च क्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥
बाह्य विषयों को न अनुभव करते, नेत्रों की दृष्टि को दोनों भौहों के बीच में स्थिर करके, नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके; जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि वश में हैं, जो केवल मोक्ष परायण है तथा जो इच्छा, भय और क्रोध से सर्वथा रहित है, वह मुनि सदा मुक्त ही है।[श्रीमद्भगवद्गीता 5.27-28]
The sage (ascetic, practitioner, Muni, Yogi), who is not experiencing the external influences, fixing his sight between the eyebrows (contemplating in the eternal), modulating (balancing, regulating) the breaths-moving in and out, through the nostrils (inhaling Pran-pure air, holding it for a while & exhaling, Apan-impure air), who's sense organs, mind mood-impulses and the intellect are under firm his control, who is dedicated to Liberation-Assimilation in the Almighty and who is free from desires, fear and anger, is verily liberated.
मनुष्य के लिए परमात्मा के सिवाय अन्य समस्त पदार्थ बाह्य हैं अर्थात मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और मेरे लिए नहीं है। इनका त्याग कर्म योग में सेवा और ज्ञान योग में विवेक के द्वारा किया जाता है। ध्यान योग में मात्र प्रभु के चिन्तन करने से विमुखता प्राप्य है। बाह्य पदार्थों के प्रति राग बन्धन कर्ता है, जिसका त्याग करना है।
साधना के दौरान नेत्र बन्द रखने से नींद और खुला रहने से सम्मुख परिदृश्य से बाधा उत्पन्न होती है। अतः आँखों को दोनों भौंहों के बीच केन्द्रित करने के लिए कहा गया है। इस दौरान प्राण और अपान वायु को प्राणायाम की विधाओं से संयत किया जाता है।
मानव मस्तिष्क के दो भाग हैं, जो कि इन्द्रियों से अर्जित ज्ञान और बुद्धि के बीच सामन्जस्य स्थापित करते हैं। मन की गति इन दोनों के संयोग से निर्धारित होती है। इन्द्रियाँ संयोग-सुख देखती है और बुद्धि परिणाम। जिसके मन पर इन्द्रिय जनित सुख का प्रभाव है, वह केवल भोग और अतृप्त वासनाओं का खिलौना मात्र है। ज्ञान-विवेक से संचालित बुद्धि परिणाम को देखकर मन को मुक्ति की ओर अग्रसर करती है। इन दोनों के बीच सामन्जस्य स्थापित करना मन का कार्य है। जो व्यक्ति-साधक, मुनि इस संसार को असत्य मानता है, वो मोक्षमार्ग का अनुयायी है। कर्म योग, ज्ञान योग, ध्यान योग, भक्ति योग तथा अन्यानेक मोक्ष मार्गों में दृढ निश्चय-विश्वास नितान्त आवश्यक है। मनुष्य दैनिक-घरेलू, गृहस्थ जीवन में इस विधाओं का आश्रय एक साथ ग्रहण कर सकता है।
अपने से बलवान से भय और निर्बल पर क्रोध आता है। इन्द्रियाँ ताकतवर और बुद्धि-विवेक निर्बल हैं, तो साधक की साधना छलावा (निरर्थक, व्यर्थ) है। मृत्यु को बलवान मानना, साधना में बाधक है। सुख की आकांक्षा, अतृप्त कामनाएँ, मृत्यु का भय जन्म-मरण के चक्र में बाँधे रखता है। इच्छाओं का अभाव और समता प्रतिक्रियाओं से मुक्त करता है और क्रोध से मुक्ति हो जाती है। मनुष्य को जीने की इच्छा से मुक्ति प्राप्त हो जाती है और वो जीते जी अमर हो जाता है।
जो मुक्त है, उस पर किसी प्रकार की घटना, परिस्थिति, निंदा-स्तुति, अनुकूलता-प्रतिकूलता, जीवन-मरण आदि का किञ्चित मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता। वो स्वरूप से मुक्त हो जाता है। संसार से माना हुआ सम्बन्ध मिटते ही, मनुष्य को स्वतः सिद्ध मुक्ति का अनुभव हो जाता है।
Everything-entity except the God is external for the practitioner-Yogi. I am not the body, body does not belong to me and is not meant for me. Rejection of these is done through service of mankind in Karm Yog, prudence and wisdom-enlightenment in Gyan Yog and through the thoughts (ideas, concentration, meditation, mentally immersing) in the Almighty in Dhyan Yog. Attachment for the external goods-entities, creates ties-bonds, which have to be broken (eliminated, rejected).
Closing of eyes during meditation brings sleep, opening or closing the eyes brings the whole arena in front and concentrating the eyes between the two eye brows over a point (OM, one forms mental image of the Almighty), helps in meditation. During this period the Dhyan Yogi has to follow the Pranayam for balancing his breath. Intake-inhaling, holding for a while, discarding-exhaling the air has to be balanced. A rhythm is created.
Please refer to :- YOG (6) योग :: YOG POSTURES योगाभ्यास मुद्राएँ santoshkipathshala.blogspot.com
Human brain has two halves which keeps a balance between the sense organs-sensualities and the intelligence. The balance between the two makes the desires (moods, impulses) function. The sense organs looks to pleasure-consumption and the intelligence looks to result. One who's mind is under the influence of the sense organs looks to pleasure only, while one who is inclined to the Almighty looks forward to Liberation-Assimilation in HIM. The brains which are under the intoxication of the pleasures provided by the sense organs never achieve satisfaction. Saturation never comes. The wisdom-prudence helps one in deciding his future course of action, whether he has to bear the brunt of reincarnations or to seek asylum under the Almighty, where there is bliss-Ultimate pleasure and nothing else. The practitioner who understands that the world is nothing other than illusion-mirage moves ahead to Salvation. Karm Yog, Gyan Yog, Dhyan Yog, Bhakti Yog and all other means of Salvation leads one to the God for which firmness is essential-a must. Its possible to move-follow all these paths together while in family life, simultaneously.
One is afraid of the mighty and shows anger towards weaker to him. If the senses are stronger and intelligence, prudence are weak, meditation is useless for the practitioner. Unfulfilled desire for pleasure-comforts fear of death keeps one moving from one species-birth to another. Rejection of desires and equanimity relieves one from reactions-prejudices and ultimately from fear. Discarding the desire for longevity-survival relieves one from the clutches-fangs of death and one acquires immortality during lifetime it self.
One who is free, is not affected by any incident (occurrence, situation, slur, prayer, favourable or difficult situation, environment), life or death. He has freed himself (inner soul, own self, innerself). The moment relation with the world is discarded, one start experiencing freedom automatically.
अनाश्रितः कर्मफलं; कार्यं कर्म करोति यः। 
स संन्यासी च योगी च; न निरग्निर्न चाक्रियः॥
जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर, करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है न कि केवल अग्नि या क्रियाओं का त्याग करने वाला।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.1] 
One who, performs his duty without the desire-motive of rewards (recognition, honours, appreciation) i.e., the fruits of actions (deeds, performance), is a sage-recluse and a Yogi and not the one who has deserted fire and actions.
जब तक मनुष्य की साँस चल रहे है, तब तक कर्म हो रहा है। उसे अपने लिए नियत वर्णाश्रम धर्म-कर्तव्य का पालन करते रहना चाहिए। कर्तव्य कर्म करते हुए वह सुनिशिचित करे कि कर्मों में कोई राग-द्वेष नहीं है, वे विशुद्ध सेवा भावना से किये जाने चाहिए। किसी भी कर्म को करते समय व्यक्ति यह सुनिश्चित करे कि उसे फलेच्छा कतई नहीं है। राग और कर्म फल की इच्छा उसे अशान्त करते हैं, जबकि कर्म फल का त्याग उसे नैष्ठिकी शाँति प्रदान करता है। स्थूल शरीर से परसेवा, सूक्ष्म शरीर से दूसरों का हित चिंतन और कारण शरीर से प्राप्य समाधि का फल भी जन सेवा में ही लगा दे। शरीर के ये तीनों रूप संसार से अभिन्न मगर स्वरूप से भिन्न हैं। शरीर एक साधन और उसके द्वारा की गई परमार्थ क्रियाएँ साधक को त्यागी बनाती हैं। त्यागी में आसक्ति नहीं है। वह बंधन मुक्त है। उसमें ममता का अभाव हो गया है। 
कर्तव्य कर्म को बेझिझक, संयम पूर्वक, ध्यान और लग्न से करना चाहिए।कर्तव्य-कर्म का त्याग किसी भी परिस्थित में नहीं करना चाहिए। जो हमारी सामर्थ्य में है, शास्त्र और लोक मर्यादा के दायरे में है, उसे अवश्य प्राणपन से निष्काम भाव से परमार्थ में करे। 
इस प्रकार कर्म करने वाला सन्यासी और योगी भी है। वह निर्लिप्त है, सुख-दुःख का अनुभव नहीं करता। वह योगी है, क्योंकि सिद्धि-असिद्धि में सम रहता है। उसके कर्तृत्व-कर्तापन का अहंकार और भोक्तृत्व-कर्मफल की इच्छा का अंत हो चुका है।
अग्नि रहित होना, यज्ञ (हवन, अग्निहोत्र, भोजन पकाना) आदि क्रियाएँ त्यागना है। उसके अन्तर्मन में पदार्थों का राग (लगाव, अपनापन) न होने से वह सन्यासी है। वह योगी है, क्योंकि उसने उत्पत्ति, विनाशशील वस्तुओं, कर्मफल का आश्रय नहीं ले रखा। किसी स्थान पर एकान्त में निष्क्रिय होकर समाधि लगाकर बैठने से, कोई योगी नहीं बन जाता। जब मनुष्य में कर्मों का वेग, निष्काम भाव से, समता प्राप्त करके लोकहित, लोकार्थ, लोक हितार्थ करके कम हो जाये, तब वह एकांत में जप-तप, परमात्मा का ध्यान करे।  
By the time one is breathing-respiring, alive, he is performing. He should do all his duties assigned to him by the scriptures, as per his caste and age (Varnashram Dharm). He should perform without hesitation, attachment or enmity with the desire to serve. Service rendered by him should not be motivated by the desire of return (reward, out put, gain). Desire for gains-returns, irritate-disturb him. Rejection of the reward for the benefits-welfare of the society fills him with satisfaction-pleasure. Serving the needy (poor, depressed through physical means-bodily), utilisation of thinking-mental faculties by planning to serve the masses and offering achievements of innerself for the enlightenment-progress of the humanity should be his main motive-concern. These faculties of the body are associated with the body (nature, world), but the soul in this body-the driving force, is associated with the Almighty. This is a means and utilisation of it for humanity, which makes him relinquished-detached. He is freed from attachments, bonds, affections.
One should perform carry out his jobs (virtuous, pious, righteous) with devotion, concentration, honestly, faithfully, without hesitation in accordance with the Varnashram Dharm-duties assigned to him through lineage. One must not run away from his responsibilities, duties, assignments. Any thing within capability, capacity, limits, in accordance with the social strata, deserve to be carried out. One should never escape responsibility. What ever he does, should be free from the desire (motive of rewards, results, profits).
One who is performing-not escaping his duties, is a recluse-sage and a Yogi. He is unconcerned, detached, relinquished and does not feel gratified or disturbed by pleasure or pains. He is equanimous in achievements and failures. He is free from the ego of being the doer (performer, achiever). He has no desires to be egoists, suffering from the falsehood of having done some thing or to be the user-consumer having finished-conquered all desires.
One becomes neutral to the utilisation of fire in the form of Yagy (Hawan, Agnihotr, sacrificial fires) and cooking food etc. He is a recluse (Sanyasi, wanderer, sage, ascetic), since his innerself has no attachment for material objects (world, survival). He is a Yogi, since he is not dependent over the evolution, perishable goods, commodities and the reward of some kind of achievement. One do not turn into a Yogi just by performing Yogasan and free from actions. He should move to Samadhi-Staunch meditation only when, he has done the duties assigned to him for the welfare of humanity having attained equanimity at some lonely-deserted peaceful safe place. He should perform Tap-
ascetics, Jap-recitation of God's names-prayers devoted to HIM and meditation.
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन॥
हे अर्जुन! जिसको लोग-समाज संन्यास कहता है, उसी को तुम योग समझो, क्योंकि संकल्पों का त्याग किये बिना, कोई भी मनुष्य योगी नहीं हो सकता।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.2]
O Pandav! What the people-society calls enunciation, relinquishment, resignation, asceticism, abandonment, one should consider-recognise that as Yog, since none can become a Yogi without rejecting-renouncing the desires.   
सन्यास और कर्मयोग दोनों ही मनुष्य का कल्याण करने वाले हैं। जब नियत कर्तव्य कर्म को फलेच्छा और आसक्ति का त्याग करके परमार्थ में किया जाता है तो वह सात्विक त्याग, पदार्थ और क्रियाओं से सम्बन्ध विच्छेद करने वाला योग है। सन्यासी राग-द्वेष और कर्तव्याभिमान का त्यागी है। अतः सन्यासी और कर्म योगी दोनों ही त्यागी हैं। मनुष्य के मन में तरह-तरह के विचार, बातें, यादें बैठी रहती हैं। इनमें जिसके साथ भी प्रियता-अप्रियता, संकल्प उत्पन्न हो गया, वही उसे भोगी बना देता है। इनका त्याग किये बिना परमात्मा से संयोग नहीं हो सकता। पदार्थ में सुख, महत्व, सुन्दरता का भाव असत् भोग की ओर ले जाता है। अतः इनका त्याग योगी होने के लिए आवश्यक है। संकल्प का त्याग किये बिना कर्म योगी, ज्ञान योगी, भक्ति योगी, हठ योगी, लय योगी नहीं हुआ जा सकता। 
Sanyas (relinquishment, resignation, asceticism, abandonment, renunciation) and Karm Yog both are beneficial to the humans. When a practitioner perform the prescribed and essential-mandatory Varnashram Dharm-duties, without the desire for reward, towards the service of the mankind, it is Satvik (pure, virtuous, righteous) rejection, leading to Yog-assimilation in the Almighty. The relinquished has abandoned-rejected the attachments, enmity and the ego of being the performer and has become a Yogi. Both the relinquished and the Karm Yogi are detached, having rejected all allurements. The human has various incentives, ideas, thoughts, memories occupying his mind. His interaction with any of them, lure-turn him into a consumer (Bhogi-one who has to bear the result of his deeds, weather virtuous of sinful). Without coming out of the shadow of these, he can not unite with the Almighty. Attraction towards the material objects, comforts, pleasures trails-moves him to contempt (virtual, falsehood, illusion). Hence rejection-desertion of these is essential. Unless-until, one reject the ambitions, purpose-motive, he can not become a Karm Yogi, Gyan Yogi, Bhakti Yogi, Hath Yogi or Lay Yogi.
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥
जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जो कूट की तरह निर्विकार और जितेन्द्रिय है और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण समान हैं, ऐसे योगी को युक्त-योगारूढ़ कहा जाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.8]
The Yogi who is content with enlightenment (awareness, knowledge & science-intricacies of the eternal) and is defect less-pure, has conquered his senses, like the KOOT (rectangular block of iron used to give shape to iron, silver & gold) and gives equal weightage-importance to mud, stone and gold, is said to be connected to self.
कर्म योग में भी जानकारी-ज्ञान की आवश्यकता है कि क्या करना है, क्या कर्तव्य है, कब और कितना करना है? कर्मों की सिद्धि और असिद्धि में सम रहना (उसके गूढ़ रहस्य को समझना-जानना) विज्ञान है। स्थूल शरीर से क्रिया, सूक्ष्म शरीर से चिंतन तथा कारण शरीर से समाधि करना ज्ञान नहीं है। क्रिया, चिंतन, समाधि (State of trance, release, profound meditation with the mind successfully fixed upon the Ultimate, senses completely restrained in the final stage of Yog, absorption, intense meditation, concentrate and penetration in the Ultimate-Almighty) आदि कर्मों का आरम्भ और समापन तथा फल का भी आदि और अंत है। स्वयं परमात्मा का अंश होने के कारण नित्य और निरन्तर है, जिसको अनित्य कर्म और उसके फल से संतुष्टि प्राप्त नहीं होगी। इस बात का अहसास ज्ञान और कर्मों की पूर्ति और अपूर्ति, सिद्धि और असिद्धि में सम रहना विज्ञान है। 
कूट जिसे अहरन के नाम से भी जानते हैं, लोहे का बना एक ऐसा पिंड है जिस पर लोहा, चाँदी और सोने को घड़ा जाता है। उस पर घड़ी जाने वाली वस्तुएँ उपकरण, औजार गहने आकृति ग्रहण करते हैं, परन्तु वह एक समान बना रहता है। 
सिद्ध पुरुष (accomplished, realized) विभिन्न परिस्थितियों में एक समान निर्विकार-निर्लिप्त बना रहता है। कर्म फल के त्याग से साधक को इन्द्रिय संयम प्राप्त हो जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्ति मिल जाती है और वो जितेन्द्रिय हो जाता है। स्वर्ण, मिट्टी का ढेला और पत्थर-हीरे भी उसके लिए एक समान हो जाते हैं। ज्ञान-विज्ञान से युक्त जितेन्द्रिय (with senses and passions subdued), निर्विकार और समबुद्धि से युक्त सिद्ध कर्म योगी, समता में युक्त योगारूढ़ हो जाता है। 
Karm Yog too need information, knowledge, learning about what to do, when to do, how to do, how much to do, where to do etc. To develop balance-equanimity, between success and failure is science. To perform through the material body, thoughts-meditation with the micro body and stanch meditation with the abstract body (Karan Sharir) is not enlightenment. Working, thinking and penetrating into the Almighty have a beginning and termination. Likewise, the reward-compensation of the deeds too have initiation and end. Understanding & realisation of this is enlightenment-Gyan and equanimity-neutrality towards attainment-success & failure, acquisition and non acquisition is science. The soul, own self-innerself is a component of the Almighty and is always-for ever and continuous, which is not touched-affected by the perishable deeds and their outcome-compensation, like the KOOT which a rectangular block of iron used to beat gold, silver, iron to give shape into ornament, weapons, instruments etc., without being affected in shape or size-configuration. One who has established himself in the God, remains unperturbed (undisturbed, untouched, unmoved, uncontaminated) in all situations. Rejection of the compensation for the deeds, leads to control over the senses, attachments and hatred-enmity. The practitioner turn into a winner over the self-with senses and passions subdued. He gives equal weightage to mud, stone-diamonds and the gold. He is mature with enlightenment & science (extract, elixir, nectar, gist, central idea) of the Eternal, unsmeared-engrossed with equanimity. He is on his way to assimilation in God-Liberation.
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥
योगी तपस्वियों, ज्ञानियों और सकामभाव से कर्म करने वालों से भी श्रेष्ठ है; इसलिए हे अर्जुन! तुम योगी हो जाओ।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.46]
Bhawan Shri Krashn directed Arjun to become a Yogi, since a Yogi is superior to ascetics-austerity observers, enlightened and those who perform with the desire of fruits (rewards, favourable results).
तपस्वी वो है जो ऋद्धि-सिद्धि पाने के लिए भूख-प्यास, धूप-ताप को सहता है। इन सकाम तपस्वियों से पारमार्थिक रूचि-ध्येय वाला योगी श्रेष्ठ है। शास्त्रों का ज्ञान रखने वाले ज्ञानी-विद्वान अगर सांसारिक भोग-ऐश्वर्य में रूचि रखते हैं तो उनसे एक योगी श्रेष्ठ है। उच्च लोकों में जाने की कामना से जो यज्ञ, पुण्य, दान, तीर्थ करता है तो उससे भी योगी श्रेष्ठ है। निष्काम योगी का ध्येय केवल और केवल परमात्मा है। भोग और योग मेल नहीं खाते। 
An ascetic tolerates thirst-hunger, hot-cold weather to obtain all sorts of luxuries. The Yogi who is committed to social-human welfare is definitely superior to the ascetics. The learned, scholar, philosopher who is desirous of comforts, pleasure, joy, passions is surely inferior to a determined Yogi who wish to assimilate in the eternal. The Yogi who is detached and does not crave for any thing expect for the God's love, is better than those who perform sacrifices, charity, pilgrimages, pious acts, just to attain higher abodes. Voluptuary tendencies and Yog do not coexist.
क्व स्वाच्छन्द्यं क्व संकोचः क्व वा तत्त्वविनिश्चयः। 
निर्व्याजार्जवभूतस्य चरितार्थस्य योगिनः॥
जो योगी, निष्कपट, सरल-कोमल स्वभाव वाला और स्वेच्छा-स्वच्छंदता पूर्वक आचरण करने वाला है; उसके लिए कर्त्तव्य, संकोच और तत्व विचार मायने नहीं रखते।
[अष्टावक्र गीता 18.92] 
One who is a Yogi, simple, honest-sincere, non deceitful, guileless, has grasped the gist of the Almighty roams freely, without any attachment, duties, hesitation botheration, tension, trouble).
आत्मविश्रान्तितृप्तेन निराशेन गतार्तिना।
अन्तर्यदनुभूयेत तत् कथं कस्य कथ्यते॥
जो योगी-विद्वान् अपने स्वरुप-आत्मा में विश्राम करके तृप्त है, संसार में किसी से कोई आशा-उम्मीद नहीं करता वह दुःख रहित है; वह अपने अन्तः करण में ऐसे परमानन्द का अनुभव करता है जिसकी तुलना अथवा वर्णन नहीं किया जा सकता।
[अष्टावक्र गीता 18.93]  
The Yogi, ascetic, scholar, philosopher who roams in himself, is content without expecting-desiring any thing-help from any one experiences Ultimate pleasure-PARMANAND, which is beyond compare or description.
सुप्तोऽपि न सुषुप्तौ च स्वप्नेऽपि शयितो न च।
जागरेऽपि न जागर्ति धीरस्तृप्तः पदे पदे॥
जो योगी, विद्वान्, जीवन्मुक्त-धीर पुरुष प्रत्येक पल-क्षण तृप्त रहता है। वह सोकर भी नहीं सोता, स्वप्न देखकर भी नहीं देखता और जाग्रत रहने पर भी नहीं जगता; क्योंकि इन तीनों अवस्थाओं में उसकी जो बुद्धि है, वो उसका साक्षी होकर भी उससे पृथक है।[अष्टावक्र गीता 18.94]
The Yogi, scholar, philosopher, wise man, who is contented in all circumstances-situations, is not asleep even in deep sleep, does not sleep while dreaming, not awake while awaking. He has attained equanimity in these three states.
ज्ञः सचिन्तोऽपि निश्चिन्तः सेन्द्रियोऽपि निरिन्द्रियः।
सुबुद्धिरपि निर्बुद्धिः साहंकारोऽनहङ्कृतिः॥
योगी, विद्वान, जीवन्मुक्त, धीर पुरुष चिन्तावान होने पर भी चिंता रहित है, इन्द्रिय युक्त होने पर भी इन्द्रिय रहित है, बुद्धि युक्त होने पर भी बुद्धि रहित होता है और अहंकार सहित होने पर भी अहंकार रहित है।
[अष्टावक्र गीता 18.94] 
The Yogi, scholar, philosopher, seer, wise man is without worries in spite of their existence, has organs-body systems but do not utilise them, blessed with intelligence but makes no use of it, has pride but does not reflects it in his behaviour-is non egoist.
न सुखी न च वा दुःखी न विरक्तो न संगवान्।
न मुमुक्षुर्न वा मुक्ता न किंचिन्न्न च किंचन॥
ज्ञानी, विद्वान, धीर, जीवन्मुक्त विषय भोगों में न सुखी होता है और न दुखी, न विरक्त होता है और न अनुरक्त। वह न मुमुक्षु है और न मुक्त। क्योंकि आत्म दृष्टि से वह कुछ नहीं है और अन्तः करण के साथ भी उसे उनका अभ्यास  नहीं है।[अष्टावक्र गीता 18.96] 
The enlightened, Yogi, passionless, stable is not involved internally-pertaining to innerself-soul, in external pain or pleasure (unhappy or happy), neither detached nor attached, neither seeking liberation nor liberated, neither an entity-something nor non entity, nothing. In spite of being a physical entity-person, he does not involve himself in worldly affairs.
विक्षेपेऽपि न विक्षिप्तः समाधौ न समाधिमान्।
जाड्येऽपि न जडो धन्यः पाण्डित्येऽपि न पण्डितः॥
ज्ञानी, विद्वान, धीर, योगी, जीवन्मुक्त विक्षेप में विक्षिप्त नहीं होता, समाधि में समाधिस्थ नहीं होता। उसकी लौकिक जड़ता में वह जड़ नहीं है और पांडित्य में पंडित नहीं है; क्योंकि वह  स्वयं प्रकाश आत्मा का अनुभव कर रहा है।[अष्टावक्र गीता 18.97]
The enlightened, Yogi, passionless, stable remains undistracted-calm, at peace in distractions, in a state of  stanch meditation-mental stillness remains unpoised, remains active in universal inertia, stability, calmness, though a scholar, philosopher, enlightened but does not show off, claim, pretend to be so or describe, discuss his wisdom.
मुक्तो यथास्थितिस्वस्थः कृतकर्तव्यनिर्वृतः।
समः सर्वत्र वैतृष्ण्यान्न स्मरत्यकृतं कृतम्॥
ज्ञानी, विद्वान, योगी, धीर, जीवन्मुक्त व्यक्ति प्रारब्धवश-कर्मानुसार उत्पन्न सभी स्थितियों में अपने स्वरुप में स्थित-स्वस्थ चित्त वाला रहता है। कर्तव्य रहित होने से वह उद्वेग को प्राप्त हुए बगैर शाँत रहता है, क्योंकि किसी भी प्रकार का हठ-आग्रह उसमें शेष हीं है; सदा समान-तृष्णा रहित होने के कारण वह किये गये और विस्मृत कर्मों से भी निर्लिप्त है।
[अष्टावक्र गीता 18.98]
The enlightened, Yogi, passionless, stable, liberated is self possessed, stable, mentally free, in all circumstances generated by the destiny due to the impact of deeds-KARM FAL, being free from actions-new deeds remains at peace-ease, since he has lost all desires-possessiveness and is untainted-unsmeared without greed, without dwelling on what has been done or left incomplete.
न प्रीयते वन्द्यमानो निन्द्यमानो न कुप्यति।
नैवोद्विजति मरणे जीवने नाभिनन्दति॥
ज्ञानी, विद्वान, धीर, जीवन्मुक्त किसी के द्वारा वंदना करने से वह प्रसन्न नहीं होता, निंदा करने से क्रोधित नहीं होता, मृत्यु से उद्वेग नहीं करता और जीवन का अभिनन्दन नहीं करता; क्योंकि उसकी दृष्टि में जीवन-मरण एक नियम है और केवल आत्मा ही नित्य है। वह हर हाल-परिस्थिति में एक रस-एक समान है।
[अष्टावक्र गीता 18.99]
The enlightened, Yogi, passionless, stable is neither pleased, when praised nor upset-angry when blamed-rebuked. He is neither afraid of death nor attached to life. He considers life and death as a matter of routine, rule-law. He is alike in all conditions, circumstances, situations, adversities.
न धावति जनाकीर्णं नारण्यं उपशान्तधीः।
यथातथा यत्रतत्र सम एवावतिष्ठते॥
ज्ञानी, विद्वान, धीर, जीवन्मुक्त, शांत बुद्धि वाला व्यक्ति न तो जन समूह की ओर आकर्षित होता है और न ही वन की ओर। वह हर हल-चल, परिस्थिति में स्थिर, समभाव, समचित्त से आसीन रहता है।[अष्टावक्र गीता 18.100] 
The enlightened, Yogi, patient, stable remains at peace-ease without being attracted to the human habitation-popular resorts or by the forests-jungles which  are not inhabited by the people. He remains stable with equanimity under all conditions-situations.


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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)