Tuesday, April 28, 2020

YOG योग :: लययोग और राजयोग

लययोग और राजयोग
YOG योग 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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 "ॐ गं गणपतये नमः" 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
सदाशिवोक्तानि सपादलक्ष-लयावधानानि वसन्ति लोके।[योग-तारावली]
Image result for योगाभ्यास मुद्राएँ IMAGESभगवान् सदाशिव ने एक लाख पचीस हजार प्रकार का लय योग बताया है। योगी गण साधारणतः निम्न प्रकार चार प्रकार के लय योग का अभ्यास करते हैं :- शाम्भवी-मुद्रा से ध्यान लगाना, खेचरी-मुद्रा से अमृत-पान करना, भ्रामरी-मुद्रा से नाद को सुनना और योनि-मुद्रा से आनन्द भोग करना। 
योगी इन चार प्रकार के उपायों द्वारा लय योग की सिद्धि करते है। लय योगों को सहज कौशल सिद्ध योगियों ने प्रकट किया है। उन्होंने लय योग के अन्दर नादानुसन्धान, आत्म ज्योति दर्शन और कुण्डलिनि जागरण;  इन्हीं तीन प्रकार की प्रक्रियाओं को श्रेष्ठ और सुख-साध्य बतलाया है।
कुण्डलिनि जागरण में क्रिया विशेष का अवलम्बन कर मूलाधार को सिकोड़ कर जागती हुई कुण्डलिनि शक्ति को ऊपर उठाया जाता है। 
लय योग में नादानुसन्धान और आत्म ज्योति दर्शन का काम बहुत सीधा तथा आराम से होने वाला है। अगर साधक का मस्तिष्क कमजोर हो तथा उसे आँखों की बीमारी हो तो उसे आत्म ज्योति दर्शन का अभ्यास नहीं करना चाहिये।
नाद साधन सबसे सरल और सुगम मार्ग है। 
कृष्ण्द्वैपायनादि ॠषि नव चक्र में लय योग का साधन करके यम दण्ड को तोड़कर ब्रह्म लोक में जा पहुँचे थे। धीरे-धीरे लय योग की साधना के द्वारा मन अति शीघ्र लय हो जाता है। लय-योग की साधना विशेष उच्चस्तर की साधना है।
इसके प्रतिपादक परम योगी जगतगुरु भगवान् शिव हैं। जप योग से सौ गुना फलदायक ध्यान योग है और ध्यान योग से सौ गुना फलदायक लय योग है। 
नादानुसन्धान :: साधक को यम नियम से शुद्ध होकर योग साधना के स्थान पर उत्तर दिशा की ओर मुँह करके आसन लगाकर बैठ जाना चाहिये। जिन्हें निर्वाण मुक्ति की इच्छा हो उन्हें उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठना चाहिये। 
जिन्हें सांसारिक उन्नति की इच्छा हो, उन्हें पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठना ही उचित है। जिस आसन का अभ्यास हो, उसे वही आसन लगाकर मस्तक, गर्दन, पीठ और उदर को बराबर सीधा रखकर, अपने शरीर को सीधा करके बैठ जाना चाहिये।
तत्पश्चात् नाभि मण्डल में दृष्टि जमाकर कुछ देर तक ध्यान लगाना चाहिये। इस भाव से नाभि के ऊपर दृष्टि और मन लगाकर बैठने से कुछ दिन बाद मन स्थिर हो जायगा। 
मन स्थिर करते समय यदि थोड़ी थोड़ी वायु भी धारण की जाय तो नाद ध्वनि बहुत ही जल्द सुनाई पड़ती है।
पहले झींगुर की झन्-झनाहट जैसा या भृंग़ी जैसा झिं-झिं शब्द सुनायी देगा। उसके बाद क्रमशः साधना करते-करते एक के बाद एक बंशी की तान, बादल की गर्जन, झाँझ की झंकार, भँवरें की गुंजार, घण्टा, घड़ियाल, तुरही, करताल, मृंदग़ प्रभृति नाना प्रकार के बाजों के शब्द सुनाई पड़ेंगे।
प्रतिदिन नियमित अभ्यास करते हुए नाना प्रकार की ध्वनियॉ सुनाई देती हैं। ऐसी ध्वनि सुनते-सुनते कभी शरीर रोमांचित हो जाता है; कभी किसी प्रकार का शब्द सुनने से सिर चक्कर खाने लगता है; कभी कण्ठ कूप जल से पूर्ण हो जाता है।
साधक को किसी ओर ध्यान न देकर अपनी साधना करते रहना चाहिये। मधु पीने वाला भौंरा जैसे पहले मधु की सुगन्ध से आकृष्ट होता है, किन्तु मधु पीते समय मधु के स्वाद में इतना डूब जाता है कि उस समय उसका सुगन्ध की ओर तनिक भी ध्यान नहीं रहता, वैसे ही साधक को भी नाद की ध्वनि से मोहित न होकर शब्द सुनते-सुनते चित्त को लय कर देना चाहिये।
आत्मज्योति दर्शन :: नादानुसन्धान का अभ्यास करने पर हृदय के अंदर से अभूतपूर्व शब्द और उससे द्रुत प्रति शब्द कान में सुनाई देगा। उस समय साधक को आँखें बंद करके अनाहत चक्र में स्थित बाणलिग़ के रूप में दीप शिखा की भाँति ज्योति का ध्यान करना चाहिये।
ऐसे ही ध्यान लगाते-लगाते अनाहत पदमस्थ प्रतिध्वनि के भीतर ज्योतिः दर्शन होगा। उस दीप कलिका के आकार में ज्योतिर्मय ब्रह्म में साधक का मन संयुक्त होकर ब्रह्म रूपी विष्णु के परमपद में लीन हो जायेगा। उस समय शब्द बन्द हो जायेगा तथा मन आत्म तत्त्व में डूब जायेगा। साधक सर्व-व्याधि से मुक्त होकर तेजो युक्त हो अतुल आनन्द का उपभोग करेगा।
वह भाव अनिर्वचनीय है, अवर्णनीय है, अलेखनीय है। नित्य-नियमित रूप से इसी तरह नाभि स्थान में वायु धारण करने से प्राण वायु अग्नि स्थान में गमन करती है। उस समय अपान वायु द्वारा शरीरस्थ अग्नि क्रमशः उद्दीप्त हो उठती है। इस क्रिया से और एक विशेष लाभ होता है।
जिसकी पाचन शक्ति कम हो गयी है, कोई चीज बिलकुल ही हज़म नहीं होती, वह अगर इस क्रिया को ठीक विधि से करे तो थोड़े दिन बाद उसके शरीर का समुचित शोधन होकर पाचन शक्ति बढ़ जायेंगी और कोष्ठ भी स्वच्छ होता जायेगा।
इस नाद ध्वनि की साधना करते-करते, अन्त में जो ॐकार ध्वनि सुनने में आती है। वह ध्वनि जब तक साधक जीवन धारण करता है, तब तक कभी बन्द नहीं होती।
सदा सर्वदा सर्वावस्था में अर्थात् जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में नाद ध्वनि चलती ही रहती है और इस प्रकार चित् वृतियों का हमेशा-हमेशा के लिऐ परब्रह्म में लय हो जाता है। सभी वासनायें समाप्त हो जाती हैं और साधक स्वयं ब्रह्म स्वरूप बन जाता है। यही लय-योग है।
राजयोग ::  
समाधिश्छ उन्मनी छ मनोन्मनी। अमरत्वं लयस्तत्त्वं शून्याशून्यं परं पदम॥ 
अमनस्कं तथाद्वैतं निरालम्बं निरञ्जनम। 
जीवन्मुक्तिश्छ सहजा तुर्या छेत्येक-वाछकाः॥ 
सलिले सैन्धवं यद्वत्साम्यं भजति योगतः। 
तथात्म-मनसोरैक्यं समाधिरभिधीयते॥ 
यदा संक्ष्हीयते पराणो मानसं छ परलीयते। 
तदा समरसत्वं छ समाधिरभिधीयते॥ 
तत-समं छ दवयोरैक्यं जीवात्म-परमात्मनोः। 
परनष्ह्ट-सर्व-सङ्कल्पः समाधिः सोअभिधीयते॥
Raj Yog Samadhi Unmani Chh Manonmani. Amratvam, Laystattvam Shunya Shunyam Param Padam.
Amanskam Tthadvaetam Niralambam Niranjanam. Jivanmuktishchh Sahaja Turya Chhetyek Vachhkah.  
Just as with salt dissolved in water becomes one with it, so the union of Atma and Manas (mind) is denominated Samadhi,
When the breath becomes exhausted and mind becomes still, reabsorbed, they fuse into union called Samadhi.
This equality, this oneness of the two, the living self and the absolute self, when all Sankalp (desire, cravings) end is called Samadhi. [Hath Yog Pradipika, 4.3-4.7, 11]
This equality, this oneness of the two, the living self and the absolute self, when all Sankalp (desire, cravings) end is called Samadhi. [Hath Yog Pradipika, 4.3-4.7, 11]
॥हरि ॐ तत्सत्॥
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