योग मुद्राएँ
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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महामुद्रा महाबंधो महावेधश्च, खेचरी।
उड्यान मूलबन्धश्च बंधो जालन्धरमिघ:॥
उड्यान मूलबन्धश्च बंधो जालन्धरमिघ:॥
करणी विपरीताख्या बज्रोली शक्ति चालनम्।
इंदहि मुद्रादशंक जरामरण नाशनम्॥
इंदहि मुद्रादशंक जरामरण नाशनम्॥
योगाभ्यास की इन 10 मुद्राओं को सही तरीके से अभ्यास करने से बुढ़ापा जल्दी नहीं आ सकता :- महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयान बंध, मूलबंध, जालंधर बंध, विपरीत करणी, बज्रोली और शक्ति चालन।
संजीवनी मुद्रा :: ये दो मुद्रा-आसन कुंडलिनी जागरण में उपयोगी हैं :- सांभवी मुद्रा, खेचरी मुद्रा।
यह हार्ट अटैक से बचा सकती है। यह दर्द कम करती है। यह आर्थराइटिस में फ़ायदेमंद है। यह पाचन शक्ति को संतुलित करती है। यह ब्लड सर्कुलेशन को ठीक करती है। यह शरीर से टॉक्सिन पदार्थों को खत्म करती है।
संजीवनी मुद्रा विधी :-
किसी शांत जगह पर पालथी लगाकर बैठें। तर्जनी अंगुली को अंगूठे के आधार को छूएं।मध्यमा और अनामिका अंगुली को अंगूठे से छुएं। कनिष्का अंगुली को सीधा रखें। रोज़ाना पाँच मिनट तक इस मुद्रा को करें।
आर्थराइटिस में रामबाण है मृत्यु संजीवनी मुद्रा।
अपानवायु मुद्रा का दूसरा नाम मृत-संजीवनी मुद्रा है। इसका सीधा संबंध ह्रदय से होता है। अपान वायु मुद्रा दो मुद्राओं से मिलकर बनती है।
मुख्य आसन-मुद्राएँ :: (1). व्रक्त मुद्रा, (2). अश्विनी मुद्रा, (3). महामुद्रा, (4). योग मुद्रा, (5). विपरीत करणी मुद्रा और (6). शोभवनी मुद्रा।
राजयोग साधक मुद्राएँ :: (1). चाचरी, (2). खेचरी, (3). भोचरी, (4). अगोचरी, (5). उन्न्युनी मुद्रा।
मुख्य हस्त मुद्राएँ :: (1). ज्ञान मुद्रा, (2). पृथ्वी मुद्रा, (3). वरुण मुद्रा, (4). वायु मुद्रा, (5). शून्य मुद्रा, (6). सूर्य मुद्रा, (7). प्राण मुद्रा, (8). लिंग मुद्रा, (9). अपान मुद्रा और (10). अपान वायु मुद्रा।
मुद्राओं के लाभ :: कुंडलिनी या ऊर्जा स्रोत को जाग्रत करने के लिए मुद्राओं का अभ्यास सहायक सिद्ध होता है। कुछ मुद्राओं के अभ्यास से आरोग्य और दीर्घायु प्राप्त की जा सकती है। इससे योगानुसार अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों की प्राप्ति संभव है। यह संपूर्ण योग का सार स्वरूप है।
YOG-षट्कर्म और योग मुद्राएँ :: षट्कर्म षट्और कर्म से मिलकर बना है। षट् का अर्थ है छह और कर्म का अर्थ है, क्रियाएँ। आयुर्वेद में कर्म का अर्थ है, शोधन जिसे आयुर्वेदिक पद्धति में पंचकर्म चिकित्सा कहते हैं। षट्कर्म में शुद्धिकरण क्रियाएँ शरीर को भीतर से स्वच्छ एवं साफ करने और योग साधक को उच्च योग क्रियाएँ करने के लिए तैयार करने हेतु बनाई गई हैं। षट्कर्म शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य दोनों के लिए लाभप्रद है।
षट्कर्म क्रियाओं की शरीर से विषैले पदार्थ को निकालने में, शरीर की विभिन्न प्रणालियों को सशक्त करने में, उनकी कार्यक्षमता बढ़ाने में तथा व्यक्ति को विभिन्न रोगों से मुक्त रखने में विशिष्ट भूमिका है।
6 षट्कर्म :: धौति, वस्ति, नेति, त्राटक, नौली और कपालभाति।[हठ प्रदीपिका]
षट्कर्म के लाभ :: षट्कर्म या शोधन क्रिया शरीर को शुद्ध करने में अहम् है।
शुद्धि क्रिया योग शरीर में एकत्र हुए विकारों, अशुद्धियों एवं विषैले तत्वों को दूर कर शरीर को भीतर से स्वच्छ करती है।[हठयोग]
योग साधना की दिशा में यह एक पहला चरण है।
शुद्धिकरण योग शरीर, मस्तिष्क एवं चेतना पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान करने में सहायक है।
जब शरीर में वात, पित्त तथा कफ का असंतुलन हो तो प्राणायाम और योगासन से पूर्व षट्कर्म करना चाहिए।
प्राणायाम साधना आरंभ करने से पूर्व सबसे पहले नाड़ी शुद्ध होनी चाहिए जो षट्कर्म द्वारा करनी चाहिए।
इससे मस्तिष्क को शाँत रखने एवं बेचैनी, सुस्ती, नकारात्मक विचारों तथा भावनाओं को दूर करने में सहायता मिलती है। जब मस्तिष्क शाँत एवं सतर्क होता है तो जागरुकता का स्तर सरलता से बढ़ाया जा सकता है।
यह तनाव से मुक्त होने एवं स्वास्थ्य सुधारने में विश्राम प्रदान कर तनाव कम करते हैं।
धौति (कुंजल एवं वस्त्रधौति) क्रिया संपूर्ण पाचन का शोधन करती है और साथ ही साथ यह अतिरिक्त पित्त, कफ, विष को दूर करती है तथा शरीर के प्राकृतिक संतुलन को वापस लाती है।
वस्ति, शंखप्रक्षालन तथा मूलशोधन से आंतें पूरी तरह स्वच्छ हो जाती हैं, पुराना मल एवं कृमि दूर हो जाते हैं और पाचन विकारों का उपचार होता है।
नियमित रूप से नेति क्रिया करने पर कान, नासिका एवं कंठ क्षेत्र से गंदगी निकालने की प्रणाली ठीक से काम करती है तथा यह सर्दी एवं कफ, एलर्जिक राइनिटिस, ज्वर, टॉन्सिलाइटिस आदि दूर करने में सहायक होती है। इससे अवसाद, माइग्रेन, मिर्गी एवं उन्माद में यह लाभदायक होती है।
नौली क्रिया उदर की पेशियों, तंत्रिकाओं, आंतों, प्रजनन, उत्सर्जन एवं मूत्र संबंधी अंगों को ठीक करती है। अपच, अम्लता, वायु विकार, अवसाद एवं भावनात्मक समस्याओं से ग्रस्त व्यक्ति के लिए लाभदायक है।
त्राटक नेत्रों की पेशियों, एकाग्रता तथा याददाश्त के लिए लाभप्रद होती है। इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव मस्तिष्क पर होता है।
कपालभाति बीमारियों से दूर रखने के लिए रामबाण माना जाता है। यह बलगम, पित्त एवं जल जनित रोगों को नष्ट करती है। यह सिर का शोधन करती है और फेफड़ों एवं कोशिकाओं से सामान्य श्वसन क्रिया की तुलना में अधिक कार्बन डाईऑक्साइड निकालती है। कहा जाता है कि कपालभाति प्रायः हर रोगों का इलाज है।
योग मुद्राएँ :: ज्योतिष विद्या के अनुसार बारहों राशियों का स्थान प्रत्येक उँगली के तीन पोरों (गाँठों) में इस प्रकार होता है :-
कनिष्का :- मेष, वृष, मिथुन; अनामिका :- कर्क, सिंह, कन्या; मध्यिका :- तुला, वृश्चिक, धनु; तर्जनी :- मकर, कुंभ, मीन।
पांच तत्व :- अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और जल। इनका निवास भी क्रमशः अँगूठा, तर्जनी, मध्यिका, अनामिका एवं कनिष्ठा में माना जाता है।
दो या दो से अधिक उँगलियों के मेल से जो यौगिक क्रियाएँ संपन्न की जाती हैं, उन्हें योग मुद्रा कहा जाता है, जो इस प्रकार हैं :-
(1). वायु मुद्रा :- यह मुद्रा तर्जनी को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।
(2). शून्य मुद्रा :- यह मुद्रा बीच की उँगली मध्यिका को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।
(3). पृथ्वी मुद्रा :- यह मुद्रा अनामिका को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।
(4). प्राण मुद्रा :- यह मुद्रा अँगूठे से अनामिका एवं कनिष्का दोनों के स्पर्श से बनती है।
(5). ज्ञान मुद्रा :- यह मुद्रा अँगूठे को तर्जनी से स्पर्श कराने पर बनती है।
(6). वरुण मुद्रा :- यह मुद्रा दोनों हाथों की उँगलियों को आपस में फँसाकर बाएँ अँगूठे को कनिष्का का स्पर्श कराने से बनती है। सभी मुद्राओं के लाभ अलग-अलग हैं।
प्रणाम मुद्रा :: दोनों हाथों को जोड़कर जो मुद्रा बनती है, उसे प्रणाम मुद्रा कहते हैं। जब ये दोनों लिए हुए हाथ मस्तिष्क तक पहुँचते हैं तो प्रणाम मुद्रा बनती है। प्रणाम मुद्रा से मन शाँत एवं चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न होती है।हस्त मुद्राएँ :: हाथों की 10 अँगुलियों से विशेष प्रकार की आकृतियाँ बनाना ही हस्त मुद्रा कही गई है। हाथों की सारी अँगुलियों में पाँचों तत्व मौजूद होते हैं; जैसे अँगूठे में अग्नि तत्व, तर्जनी अँगुली में वायु तत्व, मध्यमा अँगुली में आकाश तत्व, अनामिका अँगुली में पृथ्वी तत्व और कनिष्का अँगुली में जल तत्व। अँगुलियों के पाँचों वर्ग से अलग-अलग विद्युत धारा बहती है। इसलिए मुद्रा विज्ञान में जब अँगुलियों का योगानुसार आपसी स्पर्श करते हैं, तब रुकी हुई या असंतुलित विद्युत बहकर शरीर की शक्ति को पुन: जगा देती है और शरीर निरोग होने लगता है। ये अद्भुत मुद्राएँ करते ही यह अपना असर दिखाना शुरू कर देती हैं।
षट्कर्म :: शरीर को स्वस्थ्य और शुद्ध करने के लिए छ: क्रियाएँ विशेष रूप से की जाती हैं। जिन्हें षट्कर्म कहा जाता है। क्रियाओं के अभ्यास से संपूर्ण शरीर शुद्ध हो जाता है। किसी भी प्रकार की गंदगी शरीर में स्थान नहीं बना पाती है। बुद्धि और शरीर में सदा स्फूर्ति बनी रहती है। ये क्रियाएँ हैं :: (1). त्राटक, ( 2). नेती, (3). कपालभाती, (4). धौती, (5). बस्ती और (6). नौली।
त्राटक क्रिया विधि :: जितनी देर तक मनुष्य बिना पलक झपके किसी एक बिंदु, क्रिस्टल बॉल, मोमबत्ती या घी के दीपक की ज्योति पर देख सकता है देखे और उसके बाद आँखें बंद कर लें। कुछ समय तक इसका अभ्यास करने से एकाग्रता बढ़ती है। त्राटक के अभ्यास से आँखों और मस्तिष्क में गरमी बढ़ती है, इसलिए इस अभ्यास के तुरंत बाद नेती क्रिया का अभ्यास करना चाहिए। आँखों में किसी भी प्रकार की तकलीफ हो तो यह क्रिया ना करें। अधिक देर तक एक-सा करने पर आँखों से आँसू निकलने लगते हैं। ऐसा जब हो, तब आँखें झपकाकर अभ्यास छोड़ दें। यह क्रिया भी जानकार व्यक्ति से ही सीखनी चाहिए, क्योंकि इसके द्वारा आत्मसम्मोहन घटित हो सकता है। आँखों के लिए तो त्राटक लाभदायक है ही साथ ही यह एकाग्रता को बढ़ाती है। स्थिर आँखें स्थिर चित्त का परिचायक है। इसका नियमित अभ्यास कर मानसिक शांति और निर्भिकता का आनंद लिया जा सकता है। इससे आँख के सभी रोग छूट जाते हैं। मन का विचलन खत्म हो जाता है। त्राटक के अभ्यास से अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती है। सम्मोहन और स्तंभन क्रिया में त्राटक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह स्मृतिदोष भी दूर करता है और इससे दूरदृष्टि बढ़ती है।
त्रिबंधासन :: इसमें तीनों बंध (उड्डीयान, जालंधर और मूलबंध) को एक साथ लगाकर अभ्यास किया जाता है, इसलिए इसे बंध त्रय या त्रिबंधासन कहते हैं। (1). सिद्धासन में बैठकर श्वास को बाहर निकालकर फेंफड़ों को खाली कर दें। (2). अब श्वास अंदर लेते हुए घुटने पर रखें हाथों पर जोर देकर मूलबंध करें अर्थात गुदा को ऊपर की ओर खींचते हुए पेट को अंदर की ओर खींचें। (3). फिर श्वास छोड़ते हुए पेट को जितना संभव हो पीठ से पिचकाएँ अर्थात उड्डीयान बंघ लगाएँ। साथ ही ठोड़ी को कंठ से लगाकर जलन्धर बंध भी लगा लें। उक्त बंध की स्थिति में अपनी क्षमता अनुसार रुकें और फिर कुछ देर आराम करें। इस आसन का अभ्यास स्वच्छ व हवायुक्त स्थान पर करना चाहिए। पेट, फेंफड़े, गुदा और गले में किसी भी प्रकार का गंभीर रोग हो तो यह बंध नहीं करें।
इससे गले, गुदा, पेशाब, फेंफड़े और पेट संबंधी रोग दूर होते हैं। इसके अभ्यास से दमा, अति अमल्ता, अर्जीण, कब्ज, अपच आदि रोग दूर होते हैं। इससे चेहरे की चमक बढ़ती है। अल्सर कोलाईटिस रोग ठीक होता है और फेफड़े की दूषित वायु निकलने से हृदय की कार्यक्षमता भी बढ़ती है।
देव ज्योतिमुद्रा योग :: यह सभी तरह के नेत्र रोग में लाभदायक है। इस मुद्रा को करने से कम दिखना, आंखों में जाला और सूजन आदि जैसे रोग दूर हो जाते हैं। जिन बच्चों को कम उम्र मे ही चश्मा लग चुका हो वो अगर रोजाना देव ज्योतिमुद्रा का अभ्यास करें तो उनका चश्मा उतर सकता है। हाथ की तर्जनी अंगुली को मोड़कर अंगूठे की जड़ में लगाने से देव ज्योतिमुद्रा बन जाती है। यह कुछ कुछ वायु मुद्रा जैसी है। लगभग 40-60 सेकंड तक इसी मुद्रा में रहने का अभ्यास सुबह-शाम चार से 6 बार करना चाहिए।
षट्कर्म क्रियाओं की शरीर से विषैले पदार्थ को निकालने में, शरीर की विभिन्न प्रणालियों को सशक्त करने में, उनकी कार्यक्षमता बढ़ाने में तथा व्यक्ति को विभिन्न रोगों से मुक्त रखने में विशिष्ट भूमिका है।
6 षट्कर्म :: धौति, वस्ति, नेति, त्राटक, नौली और कपालभाति।[हठ प्रदीपिका]
षट्कर्म के लाभ :: षट्कर्म या शोधन क्रिया शरीर को शुद्ध करने में अहम् है।
शुद्धि क्रिया योग शरीर में एकत्र हुए विकारों, अशुद्धियों एवं विषैले तत्वों को दूर कर शरीर को भीतर से स्वच्छ करती है।[हठयोग]
योग साधना की दिशा में यह एक पहला चरण है।
शुद्धिकरण योग शरीर, मस्तिष्क एवं चेतना पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान करने में सहायक है।
जब शरीर में वात, पित्त तथा कफ का असंतुलन हो तो प्राणायाम और योगासन से पूर्व षट्कर्म करना चाहिए।
प्राणायाम साधना आरंभ करने से पूर्व सबसे पहले नाड़ी शुद्ध होनी चाहिए जो षट्कर्म द्वारा करनी चाहिए।
इससे मस्तिष्क को शाँत रखने एवं बेचैनी, सुस्ती, नकारात्मक विचारों तथा भावनाओं को दूर करने में सहायता मिलती है। जब मस्तिष्क शाँत एवं सतर्क होता है तो जागरुकता का स्तर सरलता से बढ़ाया जा सकता है।
यह तनाव से मुक्त होने एवं स्वास्थ्य सुधारने में विश्राम प्रदान कर तनाव कम करते हैं।
धौति (कुंजल एवं वस्त्रधौति) क्रिया संपूर्ण पाचन का शोधन करती है और साथ ही साथ यह अतिरिक्त पित्त, कफ, विष को दूर करती है तथा शरीर के प्राकृतिक संतुलन को वापस लाती है।
वस्ति, शंखप्रक्षालन तथा मूलशोधन से आंतें पूरी तरह स्वच्छ हो जाती हैं, पुराना मल एवं कृमि दूर हो जाते हैं और पाचन विकारों का उपचार होता है।
नियमित रूप से नेति क्रिया करने पर कान, नासिका एवं कंठ क्षेत्र से गंदगी निकालने की प्रणाली ठीक से काम करती है तथा यह सर्दी एवं कफ, एलर्जिक राइनिटिस, ज्वर, टॉन्सिलाइटिस आदि दूर करने में सहायक होती है। इससे अवसाद, माइग्रेन, मिर्गी एवं उन्माद में यह लाभदायक होती है।
नौली क्रिया उदर की पेशियों, तंत्रिकाओं, आंतों, प्रजनन, उत्सर्जन एवं मूत्र संबंधी अंगों को ठीक करती है। अपच, अम्लता, वायु विकार, अवसाद एवं भावनात्मक समस्याओं से ग्रस्त व्यक्ति के लिए लाभदायक है।
त्राटक नेत्रों की पेशियों, एकाग्रता तथा याददाश्त के लिए लाभप्रद होती है। इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव मस्तिष्क पर होता है।
कपालभाति बीमारियों से दूर रखने के लिए रामबाण माना जाता है। यह बलगम, पित्त एवं जल जनित रोगों को नष्ट करती है। यह सिर का शोधन करती है और फेफड़ों एवं कोशिकाओं से सामान्य श्वसन क्रिया की तुलना में अधिक कार्बन डाईऑक्साइड निकालती है। कहा जाता है कि कपालभाति प्रायः हर रोगों का इलाज है।
योग मुद्राएँ :: ज्योतिष विद्या के अनुसार बारहों राशियों का स्थान प्रत्येक उँगली के तीन पोरों (गाँठों) में इस प्रकार होता है :-
कनिष्का :- मेष, वृष, मिथुन; अनामिका :- कर्क, सिंह, कन्या; मध्यिका :- तुला, वृश्चिक, धनु; तर्जनी :- मकर, कुंभ, मीन।
पांच तत्व :- अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और जल। इनका निवास भी क्रमशः अँगूठा, तर्जनी, मध्यिका, अनामिका एवं कनिष्ठा में माना जाता है।
दो या दो से अधिक उँगलियों के मेल से जो यौगिक क्रियाएँ संपन्न की जाती हैं, उन्हें योग मुद्रा कहा जाता है, जो इस प्रकार हैं :-
(1). वायु मुद्रा :- यह मुद्रा तर्जनी को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।
(2). शून्य मुद्रा :- यह मुद्रा बीच की उँगली मध्यिका को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।
(3). पृथ्वी मुद्रा :- यह मुद्रा अनामिका को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।
(4). प्राण मुद्रा :- यह मुद्रा अँगूठे से अनामिका एवं कनिष्का दोनों के स्पर्श से बनती है।
(5). ज्ञान मुद्रा :- यह मुद्रा अँगूठे को तर्जनी से स्पर्श कराने पर बनती है।
(6). वरुण मुद्रा :- यह मुद्रा दोनों हाथों की उँगलियों को आपस में फँसाकर बाएँ अँगूठे को कनिष्का का स्पर्श कराने से बनती है। सभी मुद्राओं के लाभ अलग-अलग हैं।
प्रणाम मुद्रा :: दोनों हाथों को जोड़कर जो मुद्रा बनती है, उसे प्रणाम मुद्रा कहते हैं। जब ये दोनों लिए हुए हाथ मस्तिष्क तक पहुँचते हैं तो प्रणाम मुद्रा बनती है। प्रणाम मुद्रा से मन शाँत एवं चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न होती है।हस्त मुद्राएँ :: हाथों की 10 अँगुलियों से विशेष प्रकार की आकृतियाँ बनाना ही हस्त मुद्रा कही गई है। हाथों की सारी अँगुलियों में पाँचों तत्व मौजूद होते हैं; जैसे अँगूठे में अग्नि तत्व, तर्जनी अँगुली में वायु तत्व, मध्यमा अँगुली में आकाश तत्व, अनामिका अँगुली में पृथ्वी तत्व और कनिष्का अँगुली में जल तत्व। अँगुलियों के पाँचों वर्ग से अलग-अलग विद्युत धारा बहती है। इसलिए मुद्रा विज्ञान में जब अँगुलियों का योगानुसार आपसी स्पर्श करते हैं, तब रुकी हुई या असंतुलित विद्युत बहकर शरीर की शक्ति को पुन: जगा देती है और शरीर निरोग होने लगता है। ये अद्भुत मुद्राएँ करते ही यह अपना असर दिखाना शुरू कर देती हैं।
षट्कर्म :: शरीर को स्वस्थ्य और शुद्ध करने के लिए छ: क्रियाएँ विशेष रूप से की जाती हैं। जिन्हें षट्कर्म कहा जाता है। क्रियाओं के अभ्यास से संपूर्ण शरीर शुद्ध हो जाता है। किसी भी प्रकार की गंदगी शरीर में स्थान नहीं बना पाती है। बुद्धि और शरीर में सदा स्फूर्ति बनी रहती है। ये क्रियाएँ हैं :: (1). त्राटक, ( 2). नेती, (3). कपालभाती, (4). धौती, (5). बस्ती और (6). नौली।
त्राटक क्रिया विधि :: जितनी देर तक मनुष्य बिना पलक झपके किसी एक बिंदु, क्रिस्टल बॉल, मोमबत्ती या घी के दीपक की ज्योति पर देख सकता है देखे और उसके बाद आँखें बंद कर लें। कुछ समय तक इसका अभ्यास करने से एकाग्रता बढ़ती है। त्राटक के अभ्यास से आँखों और मस्तिष्क में गरमी बढ़ती है, इसलिए इस अभ्यास के तुरंत बाद नेती क्रिया का अभ्यास करना चाहिए। आँखों में किसी भी प्रकार की तकलीफ हो तो यह क्रिया ना करें। अधिक देर तक एक-सा करने पर आँखों से आँसू निकलने लगते हैं। ऐसा जब हो, तब आँखें झपकाकर अभ्यास छोड़ दें। यह क्रिया भी जानकार व्यक्ति से ही सीखनी चाहिए, क्योंकि इसके द्वारा आत्मसम्मोहन घटित हो सकता है। आँखों के लिए तो त्राटक लाभदायक है ही साथ ही यह एकाग्रता को बढ़ाती है। स्थिर आँखें स्थिर चित्त का परिचायक है। इसका नियमित अभ्यास कर मानसिक शांति और निर्भिकता का आनंद लिया जा सकता है। इससे आँख के सभी रोग छूट जाते हैं। मन का विचलन खत्म हो जाता है। त्राटक के अभ्यास से अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती है। सम्मोहन और स्तंभन क्रिया में त्राटक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह स्मृतिदोष भी दूर करता है और इससे दूरदृष्टि बढ़ती है।
त्रिबंधासन :: इसमें तीनों बंध (उड्डीयान, जालंधर और मूलबंध) को एक साथ लगाकर अभ्यास किया जाता है, इसलिए इसे बंध त्रय या त्रिबंधासन कहते हैं। (1). सिद्धासन में बैठकर श्वास को बाहर निकालकर फेंफड़ों को खाली कर दें। (2). अब श्वास अंदर लेते हुए घुटने पर रखें हाथों पर जोर देकर मूलबंध करें अर्थात गुदा को ऊपर की ओर खींचते हुए पेट को अंदर की ओर खींचें। (3). फिर श्वास छोड़ते हुए पेट को जितना संभव हो पीठ से पिचकाएँ अर्थात उड्डीयान बंघ लगाएँ। साथ ही ठोड़ी को कंठ से लगाकर जलन्धर बंध भी लगा लें। उक्त बंध की स्थिति में अपनी क्षमता अनुसार रुकें और फिर कुछ देर आराम करें। इस आसन का अभ्यास स्वच्छ व हवायुक्त स्थान पर करना चाहिए। पेट, फेंफड़े, गुदा और गले में किसी भी प्रकार का गंभीर रोग हो तो यह बंध नहीं करें।
इससे गले, गुदा, पेशाब, फेंफड़े और पेट संबंधी रोग दूर होते हैं। इसके अभ्यास से दमा, अति अमल्ता, अर्जीण, कब्ज, अपच आदि रोग दूर होते हैं। इससे चेहरे की चमक बढ़ती है। अल्सर कोलाईटिस रोग ठीक होता है और फेफड़े की दूषित वायु निकलने से हृदय की कार्यक्षमता भी बढ़ती है।
देव ज्योतिमुद्रा योग :: यह सभी तरह के नेत्र रोग में लाभदायक है। इस मुद्रा को करने से कम दिखना, आंखों में जाला और सूजन आदि जैसे रोग दूर हो जाते हैं। जिन बच्चों को कम उम्र मे ही चश्मा लग चुका हो वो अगर रोजाना देव ज्योतिमुद्रा का अभ्यास करें तो उनका चश्मा उतर सकता है। हाथ की तर्जनी अंगुली को मोड़कर अंगूठे की जड़ में लगाने से देव ज्योतिमुद्रा बन जाती है। यह कुछ कुछ वायु मुद्रा जैसी है। लगभग 40-60 सेकंड तक इसी मुद्रा में रहने का अभ्यास सुबह-शाम चार से 6 बार करना चाहिए।
शाम्भवी-मुद्रा :: यह मुद्रा परम गोपनीय है। शरीर में जो मूलाधारादि षट्चक्र है उनमें से जो अभीष्ट हो, उस चक्र में लक्ष्य बनाकर अन्तःकरण की वृत्ति और विषयों वाली दृष्टि जो निमेष-उन्मेष से रहित हो ऐसी यह मुद्रा ॠग्वेदादि और योग-दर्शनादि में छिपी हैं। इससे शुभ की प्रत्यक्षता प्राप्त होती है, इसलिए इसका नाम शाम्भवी-मुद्रा हुआ।
ॐ त्वमसि आदि महाकाव्यों से जीवात्मा परमात्मा के अभेद रूप लक्ष्य में मन और प्राण का लय होने पर निश्चल दृष्टि खुली रह कर भी बाहर के विषयों को देख नहीं पाती, क्योंकि मन का लय होने पर इन्द्रियाँ अपने विषयों को ग्रहण नहीं कर सकती। इस प्रकार ब्रह्म में लय को प्राप्त हुए मन और प्राण जब इस अवस्था में पहुँच जाते हैं, तब शाम्भवी-मुद्रा होती है। भृकुटी के मध्य में दृष्टि को स्थिर करके एकाग्रचित्त हो कर परमात्मा रूपी ज्योति का दर्शन करे अर्थात् साधक शाम्भवी-मुद्रा में अपनी आँखो को न तो बिल्कुल बन्द रखे और न ही पूर्ण रूप से खुली रखे, साधक कि आँखो की अवस्था ऐसी होनी चाहिये कि आँखें बन्द हो कर भी थोड़ी सी खुली रहे, जैसे कि अधिकतर व्यक्तियों की आँखें सोते वक्त भी खुली रहती है। इस तरह आँखो की अवस्था होनी चाहिये। ऐसी अवस्था में बैठ कर दोनों भौंहों के मध्य परमात्मा का ध्यान करे। इस को ही शाम्भवी-मुद्रा कहते हैं।
यह मुद्रा सब तन्त्रों में गोपनीय बतायी है। जो व्यक्ति इस शाम्भवी-मुद्रा को जानता है वह आदिनाथ है, वह स्वयं नारायण स्वरूप और सृष्टिकर्ता ब्रह्मा स्वरूप है। जिनको यह शाम्भवी-मुद्रा आती है वे निःसन्देह मूर्तिमान् ब्रह्म स्वरूप है। इस बात को योग-प्रवर्तक शिव जी ने तीन बार सत्य कहकर निरूपण किया है। इसी मुद्रा के अनुष्ठान से तेजो ध्यान सिद्ध होता है। इसी उद्देश्य से इसका वर्णन यहाँ किया गया है। इस शाम्भवी-मुद्रा, जैसा अन्य सरल योग सरल योग दूसरा नहीं है। इसे गुरूद्वारा प्राप्त करने की जरूरत है। शाम्भवी- मुद्रा करके प्रथम आत्म-साक्षात्कार करे और फिर बिन्दुमय-ब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ मन को बिन्दु में लगा दे। तत्पश्चात् मस्तक में विद्यमान ब्रह्म-लोकमय आकाश के मध्य में आत्मा को ले जावें और जीवात्मा में आकाश को लय करे तथा परमात्मा में जीवात्मा को लय करे, इससे साधक सदा आनन्दमय एवं समाधिस्थ हो जाता है। शाम्भवी-मुद्रा का प्रयोग और आत्मा में दीप्तिमान-ज्योति का ध्यान करना चाहिए और यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह ज्योति, बिन्दु-ब्रह्म के रूप में दिखाई दे रही है। फिर ऐसा भी ध्यान करे कि हमारी आत्मा ही आकाश के मध्य में विद्यमान है। ऐसा भी ध्यान करे कि आत्मा आकाश में चारों ओर लिपटी है और वहाँ सर्वत्र आत्मा ही है और वह परमात्मा में लीन हो रही है।
पञ्च प्राण-प्राणवायु, प्राणायाम :: प्राणी के शरीर के भीतर पाँच प्रकार की वायु पाई जाती है। ये पाँचों ही पवन देव के पुत्र हैं और प्राणी में प्रकृति के अंश में उपस्थित रहते हैं।
प्राण :: वह वायु जो मनुष्य, प्राणी-जीव के शरीर को जीवित रखती है। पंचक :: (1). प्राण, (2). अपान, (3). समान, (4). व्यान और (5). उदान।
वायु के इस पाँच तरह से रूप बदलने के कारण ही व्यक्ति चैतन्य रहता है, स्मृतियाँ सुरक्षित रहती है, पाचन क्रिया सही चलती रहती है और हृदय में रक्त प्रवाह-स्पंदन होता रहता है।मन के विचार बदलने या स्थिर रहने मे भी इसका योगदान रहता है रहता है। इस प्रणाली में किसी भी प्रकार का अवरोध पूरे शरीर, तंत्रिका-तंत्र को प्रभावित करता है। शरीर, मन तथा चेतना बीमारी, व्याधि, रोग और शोक से ग्रस्त हो जाते हैं। नियमित प्राणायाम मन-मस्तिष्क, चरबी-मांस, आंत, गुर्दे, मस्तिष्क, श्वास नलिका, स्नायुतंत्र और खून आदि सभी को शुद्ध और पुष्ट, स्वस्थ रखता है।
ये सभी प्राण शरीर के अलग-अलग भागों को नियंत्रित करते हैं।
(1). प्राणवायु :- ह्रदय से लेकर नासिका पर्यन्त जो प्राणवायु होती है, उसे प्राण कहते हैं। श्वास प्रश्वास को नासिका द्वारा लेना और छोड़ना, मुख और नासिका की गति, अन्न को पाचन योग्य बनाना, पानी को रक्त मूत्र एवं पसीने में परिवर्तित करना प्राणवायु के मुख्य कार्य है। इसका सम्बन्ध वायु तत्व एवं अनाहत चक्र (ह्रदय) से है। प्राण वायु मनुष्य के शरीर का संचालन करती है। यह वायु मूलत: खून ऑक्सीजन (O2) और कार्बन-डाइऑक्साइड (CO2) के रूप में रहती है।
(2). अपान वायु :- यह नाभि से लेकर पैरो तक विचरती है।नाभि से नीचे के अंग यथा प्रजनन अंग, गर्भाशय, कमर, घुटने, जंघाएँ, मलमूत्र पैर इन सभी अंगों का कार्य अपान वायु द्वारा होता है। इसका सम्बन्ध पृथ्वी तत्व और मूलाधार चक्र से है। इसकी गति नीचे की ओर होती है। अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
(3). समान वायु :- यह नाभि से ह्रदय तक चलती है।पाचनक्रिया भोजन से रस निकलकर पोषक तत्वों को सभी अंगो में बाँटना इस वायु का कार्य है।इसका सम्बन्ध अग्नि तत्व और मणिपुर चक्र से है।समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता भी है।
(4). व्यान वायु :- यह समूचे शरीर में घूमती है। सभी स्थूल एवं सूक्षम नाड़ियों में रक्त संचार बनाये रखना इसका कार्य है। इसका सम्बन्ध जल तत्व और स्वाधिष्ठान चक्र से है। व्यान का अर्थ है चरबी तथा माँस से सम्बंधित कार्यों का सम्पादन करना।
(5). उदान वायु :- यह कंठ से लेकर मस्तिष्क पर्यन्त भ्रमण करती है। इसका सम्बन्ध आकाश तत्व और विशुधि चक्र से है। उदान का अर्थ उपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायुतंत्र में स्थित होती है।
प्राणिक मुद्राएँ :- पांचो प्राणों के नाम पर ही पांच प्राणिक मुद्राएँ हैं, जिनमें दो या दो से अधिक तत्वों का अग्नि के साथ मिलन होता है। उदाहरणार्थ :- अग्नि + वायु + आकाश, अग्नि + आकाश+पृथ्वी, अग्नि + पृथ्वी + जल, अग्नि + वायु + आकाश +पृथ्वी और अग्नि + शेष चारों तत्व। इसी तरह से बनने वाली मुद्राओं को ही प्राणिक मुद्रा कहा जाता है।जब दो से अधिक तत्व आपस में मिलते हैं तो उनका प्रभाव तत्व मुद्राओं की तुलना में और भी अधिक बढ़ जाता है।जिस प्रकार से दो अथवा अधिक नदियों के मिलने से संगम का महत्व बढ़ जाता है उसी प्रकार इन मुद्राओं का महत्व भी बढ़ जाता है। ये मुद्राएँ हैं :- (1). प्राण मुद्रा, (2). अपान मुद्रा, (3). व्यान मुद्रा, (4). उदान मुद्रा और (5). समान मुद्रा अथवा मुकुल मुद्रा।
ये सभी प्राण शरीर के अलग-अलग भागों को नियंत्रित करते हैं।
(1). प्राणवायु :- ह्रदय से लेकर नासिका पर्यन्त जो प्राणवायु होती है, उसे प्राण कहते हैं। श्वास प्रश्वास को नासिका द्वारा लेना और छोड़ना, मुख और नासिका की गति, अन्न को पाचन योग्य बनाना, पानी को रक्त मूत्र एवं पसीने में परिवर्तित करना प्राणवायु के मुख्य कार्य है। इसका सम्बन्ध वायु तत्व एवं अनाहत चक्र (ह्रदय) से है। प्राण वायु मनुष्य के शरीर का संचालन करती है। यह वायु मूलत: खून ऑक्सीजन (O2) और कार्बन-डाइऑक्साइड (CO2) के रूप में रहती है।
(2). अपान वायु :- यह नाभि से लेकर पैरो तक विचरती है।नाभि से नीचे के अंग यथा प्रजनन अंग, गर्भाशय, कमर, घुटने, जंघाएँ, मलमूत्र पैर इन सभी अंगों का कार्य अपान वायु द्वारा होता है। इसका सम्बन्ध पृथ्वी तत्व और मूलाधार चक्र से है। इसकी गति नीचे की ओर होती है। अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
(3). समान वायु :- यह नाभि से ह्रदय तक चलती है।पाचनक्रिया भोजन से रस निकलकर पोषक तत्वों को सभी अंगो में बाँटना इस वायु का कार्य है।इसका सम्बन्ध अग्नि तत्व और मणिपुर चक्र से है।समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता भी है।
(4). व्यान वायु :- यह समूचे शरीर में घूमती है। सभी स्थूल एवं सूक्षम नाड़ियों में रक्त संचार बनाये रखना इसका कार्य है। इसका सम्बन्ध जल तत्व और स्वाधिष्ठान चक्र से है। व्यान का अर्थ है चरबी तथा माँस से सम्बंधित कार्यों का सम्पादन करना।
(5). उदान वायु :- यह कंठ से लेकर मस्तिष्क पर्यन्त भ्रमण करती है। इसका सम्बन्ध आकाश तत्व और विशुधि चक्र से है। उदान का अर्थ उपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायुतंत्र में स्थित होती है।
प्राणिक मुद्राएँ :- पांचो प्राणों के नाम पर ही पांच प्राणिक मुद्राएँ हैं, जिनमें दो या दो से अधिक तत्वों का अग्नि के साथ मिलन होता है। उदाहरणार्थ :- अग्नि + वायु + आकाश, अग्नि + आकाश+पृथ्वी, अग्नि + पृथ्वी + जल, अग्नि + वायु + आकाश +पृथ्वी और अग्नि + शेष चारों तत्व। इसी तरह से बनने वाली मुद्राओं को ही प्राणिक मुद्रा कहा जाता है।जब दो से अधिक तत्व आपस में मिलते हैं तो उनका प्रभाव तत्व मुद्राओं की तुलना में और भी अधिक बढ़ जाता है।जिस प्रकार से दो अथवा अधिक नदियों के मिलने से संगम का महत्व बढ़ जाता है उसी प्रकार इन मुद्राओं का महत्व भी बढ़ जाता है। ये मुद्राएँ हैं :- (1). प्राण मुद्रा, (2). अपान मुद्रा, (3). व्यान मुद्रा, (4). उदान मुद्रा और (5). समान मुद्रा अथवा मुकुल मुद्रा।
हस्त मुद्रा :: मुद्रा संपूर्ण योग का सार स्वरूप है। इसके माध्यम से कुंडलिनी या ऊर्जा के स्रोत को जाग्रत किया जा सकता है। इससे अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों की प्राप्ति संभव है। सामान्यत: अलग-अलग मुद्राओं से अलग-अलग रोगों में लाभ मिलता है। मन में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है। शरीर में कहीं भी यदि ऊर्जा में अवरोध उत्पन्न हो रहा है तो मुद्राओं से वह दूर हो जाता है और शरीर हल्का हो जाता है। जिस हाथ से ये मुद्राएँ बनाते हैं, शरीर के उल्टे हिस्से में उनका प्रभाव तुरंत ही नजर आना शुरू हो जाता है।
वायु मुद्रा :: यह मुद्रा तर्जनी को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।वज्रासन या सुखासन में बैठ कर, रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए, दोनों हाथ घुटनों पर रखते हुए। हथेलियाँ उपर की ओर रखें। तर्जनी को हथेली की तरफ मोडकर अँगूठे की जड़ में लगा दें। इसको करने के बाद कुछ देर तक अनुलोम-विलोम व दूसरे प्राणायाम करने से अधिक लाभ होता है। वज्रासन में न बैठ पाने की स्थिति में अन्य आसन या कुर्सी पर बैठकर भी कर सकते हैं।
वायु मुद्रा :: यह मुद्रा तर्जनी को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।वज्रासन या सुखासन में बैठ कर, रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए, दोनों हाथ घुटनों पर रखते हुए। हथेलियाँ उपर की ओर रखें। तर्जनी को हथेली की तरफ मोडकर अँगूठे की जड़ में लगा दें। इसको करने के बाद कुछ देर तक अनुलोम-विलोम व दूसरे प्राणायाम करने से अधिक लाभ होता है। वज्रासन में न बैठ पाने की स्थिति में अन्य आसन या कुर्सी पर बैठकर भी कर सकते हैं।
इसका अभ्यास प्रातः, दोपहर एवं सायंकाल 8-10 मिनट के लिए किया जा सकता है।
इसको करने से कम्पवात, रेंगने वाला दर्द, दस्त, अम्लीयता एवं पेट सम्बन्धी अन्य विकारअपच, कब्ज, सूजन व गैस, लकवा, गठिया, साइटिका, गैस का दर्द, जोड़ों का दर्द, कमर व गर्दन तथा रीढ़ के अन्य भागों में होने वाला दर्द में लाभ होता है।
इसको करने से कम्पवात, रेंगने वाला दर्द, दस्त, अम्लीयता एवं पेट सम्बन्धी अन्य विकारअपच, कब्ज, सूजन व गैस, लकवा, गठिया, साइटिका, गैस का दर्द, जोड़ों का दर्द, कमर व गर्दन तथा रीढ़ के अन्य भागों में होने वाला दर्द में लाभ होता है।
इसके अतिरिक्त यह शरीर में स्ट्रेस हार्मोंस को भी नियंत्रित करता है, जिससे उदासी, अवसाद भय, चिंता, आलस्य और अनिद्रा से भी छुटकारा मिलता है।
इसके नियमित अभ्यास से शरीर में वायु के असंतुलन से होने वाले समस्त रोग नष्ट हो जाते है।
अपान वायु मुद्रा हार्ट अटैक से बचाती है। इसलिए इस मुद्रा को संजीवनी मुद्रा कहा जाता है, जो मरते हुए व्यक्ति को जीवन देती है।
इसके अभ्यास से ध्यान की अवस्था में मन की चंचलता समाप्त होकर मन एकाग्र होता है एवं सुषुम्ना नाड़ी में प्राण वायु का संचार होने लगता है, जिससे चक्रों का जागरण होता है। इसे करने से पलकों का फड़कना कम हो जाता है। इसे रोज़ करने से हिचकी कम हो जाती है। त्वचा में रुखापन और खुजली भी कम होती है। बालों और नाखूनों के लिए भी बहुत लाभकारी है।पेट की तकलीफों से मुक्ति-निजात, छाती के दर्द में राहत, घुटने, जोड़ों और कंधों के दर्द से राहत।
It relieves one from stomach disorders, chest pain, knee & joints pain in addition to shoulder pain.
मध्यमा उंगली की नोक को अंगूठे के आधार पर दबाकर और अन्य उंगलियों को फैलाकर, इस मुद्रा को शरीर में ऊर्जा को संतुलित करने और सुनने और संतुलन में सुधार करने के लिए किया जाता है।
यह कान की समस्याओं से राहत, सुनने की क्षमता में सुधार, टिनिटस को कम करना, रक्तचाप को नियंत्रित और चक्कर आना, गले के चक्र को उत्तेजित करके संचार कौशल और आत्म-अभिव्यक्ति को बढ़ाने में मदद कर सकती है। शून्य मुद्रा का नियमित अभ्यास थायरॉइड विकारों को रोकता है
शरीर को आराम दें,गहरी साँस लें। दाहिने हाथ से मध्यमा अँगुली को मोड़ें और उसे नीचे लाकर अँगूठे के आधार को स्पर्श करायें। मध्यमा अँगुली को अपने अँगूठे से धीरे से दबाएं तथा अन्य अँगुलियों को फैलाए रखें। बाएं हाथ को बाएं घुटने पर रखें, हथेली ऊपर की ओर हो। 15-20 मिनट अथवा सहज होने तक अभ्यास करें। इस मुद्रा को जितनी बार चाहें दोहराएं।
बालों का झड़ना रोकती है। मोटापा घटाती है। मुँह, मस्तिष्क को ठीक रखती है। बुखार, खाँसी जुकाम को रोकती है। त्वचा के रोगों में फायदेमंद है। मनुष्य को स्वस्थ रखती है। मधुमेह को रोकती है।
यह मुद्रा शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है, जो मनुष्य को बीमारियों से बचाने में मदद करती है।
पृथ्वी मुद्रा शारीरिक कमजोरी को दूर करती है। यह मानसिक विकास में मदद करती है। यह वजन बढ़ाने में सहायक है। बालों को स्वस्थ रखती है।
It prevents hair loss, keep one fit, checks fever, cough and bad cold. Stops obesity. It controls blood sugar.
पृथ्वी मुद्रा शरीर के अन्दर पृथ्वी तत्व को बढाती हैं और इसके साथ यह अग्नि तत्व को कम कर देती है। इसलिये इसे अग्नि शामक मुद्रा भी कहा जाता हैं। पृथ्वी मुद्रा शरीर के भीतर उपचार और आधात्मिक संतुलन को बढ़ाने के लिए बहुत ही लाभदायक है।
It removes physical weakness. Helps in developing brains & intelligence. It helps in gaining weight. It promotes hair regrowth. It develops immunity towards diseases.
इसके अभ्यास से अनामिका अँगुली पर दबाव पड़ता हैं जो कई शारीरक समस्याओं जैसे चक्कर आना, कमजोरी दूर करने में सहायक है।
पद्मासन या सुखासन में बैठ जायें और अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधी रखें। शरीर को आरामदायक स्थिति में रखें और साँस को भी सामान्य रखें। दोनों हाथों को सीधा करके अपने दोनों घुटनों पर रखें। दोनों हाथों की अनामिका के पोर (अँगुली का ऊपरी हिसा या नोक) को अँगूठे की नोक से मिलायें। आँखों को बंद कर के श्वास में ध्यान लगायें। 30 से 45 मिनिट तक इस मुद्रा में रहें।
पृथ्वी मुद्रा शारीरिक कमजोरी को दूर करती है। यह मानसिक विकास में मदद करती है। यह वजन बढ़ाने में सहायक है। बालों को स्वस्थ रखती है।
It prevents hair loss, keep one fit, checks fever, cough and bad cold. Stops obesity. It controls blood sugar.
पृथ्वी मुद्रा शरीर के अन्दर पृथ्वी तत्व को बढाती हैं और इसके साथ यह अग्नि तत्व को कम कर देती है। इसलिये इसे अग्नि शामक मुद्रा भी कहा जाता हैं। पृथ्वी मुद्रा शरीर के भीतर उपचार और आधात्मिक संतुलन को बढ़ाने के लिए बहुत ही लाभदायक है।
It removes physical weakness. Helps in developing brains & intelligence. It helps in gaining weight. It promotes hair regrowth. It develops immunity towards diseases.
इसके अभ्यास से अनामिका अँगुली पर दबाव पड़ता हैं जो कई शारीरक समस्याओं जैसे चक्कर आना, कमजोरी दूर करने में सहायक है।
पद्मासन या सुखासन में बैठ जायें और अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधी रखें। शरीर को आरामदायक स्थिति में रखें और साँस को भी सामान्य रखें। दोनों हाथों को सीधा करके अपने दोनों घुटनों पर रखें। दोनों हाथों की अनामिका के पोर (अँगुली का ऊपरी हिसा या नोक) को अँगूठे की नोक से मिलायें। आँखों को बंद कर के श्वास में ध्यान लगायें। 30 से 45 मिनिट तक इस मुद्रा में रहें।
यह पृथ्वी, जल और अग्नि को संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, मूल चक्र को उत्तेजित करती है, जीवन शक्ति को बढ़ाती है और ऊर्जा अवरोधों को दूर करती है।
प्राणशक्ति को सरल व प्रभावशाली तरीके से स्फूर्ति दायक बनाती है।
इसको खाली पेट सुबह के समय करें।
प्राण मुद्रा दिन में तीन बार करनी चाहिए, एक बार में 10 मिनट। अगर बार-बार प्रयास करना संभव न हो, तब एक बार में 20-30 मिनट तक भी कर सकते हैं।
प्राण मुद्रा अभ्यास करते समय ओम मंत्र, ओम नमः शिवाय मंत्र, राम मंत्र या कोई और मंत्र साथ साथ सुन सकते हैं।
Video link :: https://youtu.be/1hiCTclBuOg
सुखासन, वज्रासन या फिर पद्मासन में कर सकते हैं।
यह उच्च रक्तचाप, जोड़ों की अस्थिरता, अलसर, उच्च संवेदनशीलता और पेट व गले में जलन, त्वचा पर रैश, त्वचा में प्रौढ़ता, पेट में अम्लीयता, मानसिक तनाव और थकान, अधीरता, चिड़चिड़ापन, निराशा में वृद्धि काम करने में सहायक है।
यह दृष्टि दोषों को दूर करती है।
यह मनुष्य की तंद्रा को तोड़ती है। हाथों की ग्रंथियों का संबंध मस्तिष्क से होता है। दाएँ हाथ का संबंध बाएँ और बाएँ हाथ का संबंध दाएँ मस्तिष्क से माना गया है। ज्ञानमुद्रा से मस्तिष्क के सोए हुए तंतु जाग्रत होकर मानव के होश को बढ़ाते हैं। ज्ञान का अर्थ ढेर सारी जानकारी या वैचारिकता से नहीं बल्कि होश से है। होशपूर्ण व्यक्तित्व के चित्त पर किसी भी प्रकार के कर्म या विचारों का दाग नहीं बनता। अँगूठे को तर्जनी (इंडेक्स) अँगुली से स्पर्श करते हुए शेष तीन अँगुलियों को सीधा तान दें। इस मुद्रा के लिए कोई विशेष समय अवधि नहीं है सिद्धासन में बैठकर, खड़े रहकर या बिस्तर पर जब भी समय मिले इसका अभ्यास किया जा सकता है।
ज्ञानमुद्रा ज्ञान-विवेक को बढ़ाती है। अँगुलियों के दोनों ओर की ग्रंथियाँ सक्रिय रूप से कार्य करती हैं। इससे मस्तिष्क तेज और स्मृति शक्ति बढ़ती है। यह मुद्रा एकाग्रता को बढ़ाकर अनिद्रा, हिस्टीरिया, गुस्सा और निराशा को दूर करती है। यदि इसका नियमित अभ्यास किया जाए तो सभी तरह के मानसिक विकारों तथा नशे की आदतों से मुक्ति मिल सकती है। इसके अभ्यास से मन प्रसन्न रहता है।
यह ध्यान लगाने में सहायक है। अवसाद और खिन्न चित्त की निवृत्ति करती है। इसको करने से अच्छी नींद आती है।
It improves concentration, relives from depression and helps in sleeping.
ज्ञान :: सूचना, विद्या, बोध, परिचय, प्रतीति, प्रज्ञा, पर्यावरण, संसार, देश-देशान्तर को जानना ज्ञान है; awareness pertaining to environment, knowledge universe etc.
एक स्वच्छ और समतल जगह पर एक दरी अथवा चटाई बिछा लें। मर्ग चरम अथवा बाघ चर्म का प्रयोग भी किया जा सकता है।
सुखासन, पद्मासन या वज्रासन में बैठ जायें। इसको खड़े होकर कुर्सी पर बैठकर भी किया जा सकता है, यदि साधक बैठकर करने में असमर्थ है।
अधिक लाभ मिलने हेतु इसे सुखासन या पद्मासन में बैठ कर करना चाहिए। हाथों को घुटनों पर रखें और हाथों की हथेली ऊपर की ओर आकाश की तरफ होनी चाहिए। तर्जनी अँगुली को गोलाकार मोडकर अँगूठे के अग्रभाग को स्पर्श करना हैं। अन्य तीनों अँगुलियों को सीधा रखना हैं। ज्ञान मुद्रा दोनों हाथों से करनी चाहिये। आँखे बंद कर नियमित श्वसन करें। साथ में ॐ का उच्चारण भी करें। ध्यान केवल ॐ पर केन्द्रित करें।
ज्ञान मुद्रा के अभ्यास से बुद्धिमत्ता, एकाग्रता और स्मरणशक्ति में वृद्धि होती हैं। शरीर की प्रतिरोध शक्ति बढ़ती है। मानसिक विकार जैसे क्रोध, भय, शोक, ईर्ष्या इत्यादि से छुटकारा मिलता है। ध्यान करने के लिए यह एक उपयुक्त मुद्रा है। इसके निरन्तर अभ्यास से आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और मन को शांति प्राप्त होती है।अनिद्रा, सिरदर्द और माइग्रेन से पीड़ित लोगों के लिए यह एक उपयोगी मुद्रा है।
ज्ञान मुद्रा से वायु महाभूत बढ़ता है; इसलिए इसे वायु वर्धक मुद्रा भी कहा जाता हैं। वात प्रवुत्ति वाले लोगों को इसका अभ्यास मर्यादित प्रमाण में ही करना चाहिए।
यह ध्यान लगाने में सहायक है। अवसाद और खिन्न चित्त की निवृत्ति करती है। इसको करने से अच्छी नींद आती है।
It improves concentration, relives from depression and helps in sleeping.
ज्ञान :: सूचना, विद्या, बोध, परिचय, प्रतीति, प्रज्ञा, पर्यावरण, संसार, देश-देशान्तर को जानना ज्ञान है; awareness pertaining to environment, knowledge universe etc.
एक स्वच्छ और समतल जगह पर एक दरी अथवा चटाई बिछा लें। मर्ग चरम अथवा बाघ चर्म का प्रयोग भी किया जा सकता है।
सुखासन, पद्मासन या वज्रासन में बैठ जायें। इसको खड़े होकर कुर्सी पर बैठकर भी किया जा सकता है, यदि साधक बैठकर करने में असमर्थ है।
अधिक लाभ मिलने हेतु इसे सुखासन या पद्मासन में बैठ कर करना चाहिए। हाथों को घुटनों पर रखें और हाथों की हथेली ऊपर की ओर आकाश की तरफ होनी चाहिए। तर्जनी अँगुली को गोलाकार मोडकर अँगूठे के अग्रभाग को स्पर्श करना हैं। अन्य तीनों अँगुलियों को सीधा रखना हैं। ज्ञान मुद्रा दोनों हाथों से करनी चाहिये। आँखे बंद कर नियमित श्वसन करें। साथ में ॐ का उच्चारण भी करें। ध्यान केवल ॐ पर केन्द्रित करें।
ज्ञान मुद्रा के अभ्यास से बुद्धिमत्ता, एकाग्रता और स्मरणशक्ति में वृद्धि होती हैं। शरीर की प्रतिरोध शक्ति बढ़ती है। मानसिक विकार जैसे क्रोध, भय, शोक, ईर्ष्या इत्यादि से छुटकारा मिलता है। ध्यान करने के लिए यह एक उपयुक्त मुद्रा है। इसके निरन्तर अभ्यास से आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और मन को शांति प्राप्त होती है।अनिद्रा, सिरदर्द और माइग्रेन से पीड़ित लोगों के लिए यह एक उपयोगी मुद्रा है।
ज्ञान मुद्रा से वायु महाभूत बढ़ता है; इसलिए इसे वायु वर्धक मुद्रा भी कहा जाता हैं। वात प्रवुत्ति वाले लोगों को इसका अभ्यास मर्यादित प्रमाण में ही करना चाहिए।
(6). वरुण मुद्रा :- यह मुद्रा दोनों हाथों की उँगलियों को आपस में फँसाकर बाएँ अँगूठे को कनिष्का का स्पर्श कराने से बनती है। यह चेहरे पर रौनक लाती है, कील मुहाँसों, झुर्रियाँ हटाती है, त्वचा के फटने को रोकती है, मुँह के सूखने को रोकती है और फँटे हुए होठों को भरती है।
It enlightens the face, prevents pimples, cures etching, overcomes dryness of mouth & heals cracked lips.
(7). हक़ीनी मुद्रा :: यह दिमांग को तेज करती है। ध्यान शक्ति को बढ़ाती है। मस्तिष्क के दोनों भागों में संयोजन पैदा करती है। चेहरे के हावभाव प्रतिक्रिया को स्पष्ट करने में सहायक है। कमजोर याद्दाश्त मानव मस्तिष्क के दोनों हिस्सों का संतुलन बिगड़ने का परिणाम है। इस मुद्रा से यह संतुलन दोबारा कायम होता है। जब भी किसी व्यक्ति या वस्तु का नाम भूलें, तो इस मुद्रा को लगाकर उसके स्मरण का प्रयास करें।
विद्यार्थियों के लिए यह मुद्रा खास तौर से लाभकारी है। यह मुद्रा त्रिंबध (मूलबंध, उड्डियान बंध और जालंधर बंध) लगाकर की जाए, तो इससे मस्तिष्क की ऊर्जा बढ़ती है।
दोनों हाथों को खोलकर, पाँचों अँगुलियों के अग्रभाग को आपस में मिला लें। फिर आँखों को ऊपर की ओर तानें। श्वास भरते हुए अपनी जीभ के अग्रभाग को मसूढ़ों के साथ मिलायें।और साँस छोड़ते हुए जीभ वापस अपनी स्थिति में ले आयें। लंबे-गहरे श्वास के साथ पुनरावृत्ति करें।
Hakini means power or rule and Mudra-state of mind (seal, gesture or mark). It refers to the brain power. It's associated to the third-eye Chakr, wherever imagination, moreover instincts are positioned.
Touch the thumbs and four fingers of both hands with each other. Fix the eyes over some point, straight in front, start deep breathing & relaxation.
It enhances the memory & concentration of mind. It brings better coordination of muscles and the body organs & calms down the brain.
इसके लिये सिद्धासन, पदमासन या सुखासन उपयुक्त हैं। दोनों हाँथ घुटनों पर रख कर कर हथेलियाँ उपर की तरफ रखें।अनामिका अँगुली को मोड़कर अँगूठे की जड़ में लगा लें एवं उपर से अँगूठे से दबा लें। शेष तीनों अँगुलियों को बिल्कुल सीधी रहने दें।
इसे दिन में दो बार 15 मिनट करने से कोलेस्ट्राल घटता, रक्त का दबाब नियंत्रित होता है, शरीर की सूजन दूर होती है। इसको करने से शरीर में ताकत पैदा होती है और पेट के रोग नष्ट होते हैं। इसके नियमित अभ्यास से मानसिक तनाव दूर होता है और भय, शोक खत्म होते हैं। इसे करने से अंतर्ज्ञान भी जाग्रत होता है।
प्रसव के बाद जिन स्त्रियों का मोटापा बढ़ जाता है, उनके लिए यह बेहद फायदेमंद है। इसके अभ्यास से पाचन प्रणाली दुरुस्त होती है, अम्लीयता काबू में आती है। अम्लपित्त की स्थिति में इसे न करें।
प्रातः सूर्योदय के समय स्नान आदि से निवृत्त होकर सूर्य मुद्रा को करना अधिक फायदेमंद है। इसका अभ्यास साँयकाल सूर्यास्त से पहले भी कर सकते हैं। इसका अभ्यास 8 मिनट से प्रारम्भ करके 24 मिनट तक किया जा सकता है। गर्मी के मौसम में इस मुद्रा को लगभग 8 मिनट तक ही करना चाहिए। इसको ज्यादा देर तक करने से शरीर में गर्मी बढ़ जाती है। सर्दियों में सूर्य मुद्रा को ज्यादा से ज्यादा याने की 24 मिनट तक किया जा सकता है। यदि शरीर बहुत अधिक कमजोर है तो सूर्य मुद्रा नहीं करनी चाहिए। इसको करने से शरीर में गर्मी बढ़ती है इसलिए गर्मियों में इस मुद्रा करने से पहले एक गिलास पानी पी लेना चाहिए।
(9). व्यान मुद्रा :: यह तनाव से मुक्ति दिलाती है। व्यान पाँच तरह की वायु में से एक है। सारे शरीर में संचार करने वाली व्यान वायु से ही शरीर की सब क्रियाएँ होती है। इसी से सारे शरीर में रस पहुँचता है, पसीना बहता है और खून चलता है, आदमी उठता, बैठता और चलता फिरता है और आँखें खोलता तथा बँद करता है। जब यह वायु असंतुलित या खराब होती होती है, तब प्रायः सारे शरीर में एक न एक रोग हो जाता है।
हाथ की मध्यमा अँगुली के आगे के भाग को अँगूठे के आगे के भाग से मिलाने और तर्जनी अँगुली को बीच की अँगुली के नाखून से छुआयें बाकी बची सारी अँगुलियाँ सीधी रहनी चाहिए। इस मुद्रा को सुबह 15 मिनट और शाम को 15 मिनट तक करना चाहिए।इस को करने से पेशाब संबंधी सभी रोग दूर होते हैं, जैसे पेशाब ज्यादा आना, पेशाब में शर्करा का आना, पेशाब के साथ धातु का आना, पेशाब रुक-रुक कर आना आदि रोग समाप्त हो जाते हैं। इसके अलावा इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से मधुमेह, प्रमेह और स्वप्नदोष भी दूर होता है। स्त्रियों के लिए यह मुद्रा सबसे ज्यादा लाभदायक बताई गई है। इस मुद्रा को करने से स्त्रियों के मूत्र सम्बन्धी सारे रोग समाप्त हो जाते हैं।
(10). वज्र मुद्रा :: इसको शरीर में रक्त प्रवाह सही-सुचारु रहता है। रक्त चाप नियन्त्रित रहती है। बेचैनी कम होती है। इससे ऊर्जा भी समयानुसार मुक्त होती है। यह मुद्रा चाय, काफी और धूम्र पान निरोध में भी सहायक सिद्ध हो सकती है। मस्तिष्क शान्त और कुविचारों से मुक्त रहता है। चटाई, दरी या मृग चर्म पर सुखासन अर्थात आराम की स्थिति में बैठ जायें। दोनों हाथों को ह्रदय चक्र के पास सीने के सामने फैलायें और अपने एक हाथ के मुठ्ठी के साथ दूसरे हाथ की तर्जनी उंगली लपेटें। अन्य अँगुलियाँ मुट्ठी के नीचे होनी चाहिए।
इस अवस्था में रहते हुए धीमी और गहरी साँस लें। इसकी शुरुआत एक मिनट से कर सकते हैं और अभ्यास होने पर समय बढ़ा सकते हैं। इसका अभ्यास दिन में तीन से पाँच बार करें। इस मुद्रा को दिन में किसी भी समय कर सकते हैं।
It improves and heal body for long term. It regulates the flow of blood in the body. relieves restlessness and laziness. It generate distaste for smoking.
It improves and heal body for long term. It regulates the flow of blood in the body. relieves restlessness and laziness. It generate distaste for smoking.
(11). सुरभि मुद्रा :: यही एक मात्र ऐसी मुद्रा है, जो कफ, पित्त और वायु, तीनों दोषों-असंतुलन का शमन करती है। इससे कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है और पाचन संबंधी सभी रोग दूर होते हैं। अटपटे और नकारात्मक विचार दूर होकर मन में सात्विक विचार पनपते हैं।
यह ग्रंथियों की कार्य प्रणाली में सुधार करती है। अम्लीयता को दूर करती है। स्त्रियों की रक्त स्राव प्रणाली को दुरुस्त करती है।
एक हाथ की तर्जनी और दूसरे हाथ की मध्यमा के शीर्ष को और दूसरे हाथ की तर्जनी को पहले हाथ की मध्यमा उंगली के शीर्ष से मिलायें। फिर पहले हाथ की अनामिका को दूसरे हाथ की कनिष्ठा से और दूसरे हाथ की अनामिका के अग्रभाग को पहले हाथ की कनिष्ठा से मिलायें। दोनों अँगूठों को अलग रखें। हथेलियाँ नीचे की ओर हों।
It helps in better performance of gland, removes acidity and relieves the women of menopause problems.
यह ग्रंथियों की कार्य प्रणाली में सुधार करती है। अम्लीयता को दूर करती है। स्त्रियों की रक्त स्राव प्रणाली को दुरुस्त करती है।
एक हाथ की तर्जनी और दूसरे हाथ की मध्यमा के शीर्ष को और दूसरे हाथ की तर्जनी को पहले हाथ की मध्यमा उंगली के शीर्ष से मिलायें। फिर पहले हाथ की अनामिका को दूसरे हाथ की कनिष्ठा से और दूसरे हाथ की अनामिका के अग्रभाग को पहले हाथ की कनिष्ठा से मिलायें। दोनों अँगूठों को अलग रखें। हथेलियाँ नीचे की ओर हों।
It helps in better performance of gland, removes acidity and relieves the women of menopause problems.
(12). षण्मुखी मुद्रा :: यह मुद्रा व्यक्ति को अंतर्मुखी बनाती है। इससे अकारण प्रसन्नता, संतोष और खुशी का अनुभव होता है। इस मुद्रा में यदि लगभग 10 बार भ्रामरी प्राणायाम कर लिया जाए तो मन को शांत करने वाली तरंगें पैदा होने लगती हैं। तनाव, भय दूर होते हैं और एकाग्रता बढ़ती है।
दोनों हाथों के अँगूठों से दोनों कान बंद कर लें। तर्जनी उंगलियों से पलकों को बंद करें। मध्यमा उंगलियों को नासिकाओं के बीच रखकर हल्का दबाव बनायें। अनामिका अँगलियों को ऊपरी होंठ के ऊपर और कनिष्ठा को निचले होंठ के नीचे रखें। कोहनियाँ कन्धों के समानान्तर फैली रहें और सिर तथा पीठ बिल्कुल सीधी रहे। अब मुख से साँस भरकर ठोड़ी से सीने को लग जाने दें। इस अवस्था में आपके शरीर के जिस भी अंग में कोई विकार हो, उस अंग पर ध्यान केंद्रित करें। यथाशक्ति रुकने के बाद नासिकाओं से धीरे-धीरे साँस बाहर निकल जाने दें।
दोनों हाथों के अँगूठों से दोनों कान बंद कर लें। तर्जनी उंगलियों से पलकों को बंद करें। मध्यमा उंगलियों को नासिकाओं के बीच रखकर हल्का दबाव बनायें। अनामिका अँगलियों को ऊपरी होंठ के ऊपर और कनिष्ठा को निचले होंठ के नीचे रखें। कोहनियाँ कन्धों के समानान्तर फैली रहें और सिर तथा पीठ बिल्कुल सीधी रहे। अब मुख से साँस भरकर ठोड़ी से सीने को लग जाने दें। इस अवस्था में आपके शरीर के जिस भी अंग में कोई विकार हो, उस अंग पर ध्यान केंद्रित करें। यथाशक्ति रुकने के बाद नासिकाओं से धीरे-धीरे साँस बाहर निकल जाने दें।
(13). नाग मुद्रा :: अग्नि तत्व पेट के हिस्से में ऊर्जा पहुँचाता है, जिसके परिणाम स्वरूप पेट के निचले भाग के विकारों यथा :- गर्भाशय के विकार, प्रोस्टेट ग्रंथी के विकार, मूत्र की मंदता के विकार का शमन होता है।
नाग मुद्रा से पंच तत्वों में वृद्धी होती है। परिणामत: समझ और बुद्धि बढती है। दैनिक जीवन में आने वाली समस्याओं को सुलझाने में मदद मिलती है। विचार शक्ति सुस्पष्ट होती है। साधक जोश पूर्वक दुनिया का सामना कर सकता है। इससे कल्पना शक्ति बढ़ती है। समस्या के निदान की क्षमता का विकास होता है। शारीरिक क्षमता में वृद्धि करती है। मस्तिष्क को संतुलित होता है। तनाव से मुक्ति मिलती है।
हथेलियों को एक दूसरे पर रखें। निचली हथेली का अँगूठा उपरी हथेली पर रखें। उस अँगूठे पर उपरी हथेली का अँगूठा फिर उसी स्थिति में रखें, जिस स्थिति में हथेलियाँ स्थित हैं। हथेलियों पर रखे हुए अँगुठे से चारों तत्व वायु, आकाश, पृथ्वी, जल, मे वृद्धि होती है। अँगूठे पर अँगूठा रखने से अग्नि प्रदीप्त होती है। अग्नि तत्व तीक्ष्ण होने से बुद्धि भी तीक्ष्ण होती है।
It develops physical strength-power, balances the brain-thoughts and relieves tensions.
It kindles imagination. Agni empowers pelvic region and solves the problems of the womb, prostrate gland and slowness in urination. All five elements are increased hence intelligence and wisdom grow and help in resolving day to day problems. Thinking becomes clear and one can face the world with a fiery heart. One has to ask questions about a problem to get the proper advice.
नाग मुद्रा से पंच तत्वों में वृद्धी होती है। परिणामत: समझ और बुद्धि बढती है। दैनिक जीवन में आने वाली समस्याओं को सुलझाने में मदद मिलती है। विचार शक्ति सुस्पष्ट होती है। साधक जोश पूर्वक दुनिया का सामना कर सकता है। इससे कल्पना शक्ति बढ़ती है। समस्या के निदान की क्षमता का विकास होता है। शारीरिक क्षमता में वृद्धि करती है। मस्तिष्क को संतुलित होता है। तनाव से मुक्ति मिलती है।
हथेलियों को एक दूसरे पर रखें। निचली हथेली का अँगूठा उपरी हथेली पर रखें। उस अँगूठे पर उपरी हथेली का अँगूठा फिर उसी स्थिति में रखें, जिस स्थिति में हथेलियाँ स्थित हैं। हथेलियों पर रखे हुए अँगुठे से चारों तत्व वायु, आकाश, पृथ्वी, जल, मे वृद्धि होती है। अँगूठे पर अँगूठा रखने से अग्नि प्रदीप्त होती है। अग्नि तत्व तीक्ष्ण होने से बुद्धि भी तीक्ष्ण होती है।
It develops physical strength-power, balances the brain-thoughts and relieves tensions.
It kindles imagination. Agni empowers pelvic region and solves the problems of the womb, prostrate gland and slowness in urination. All five elements are increased hence intelligence and wisdom grow and help in resolving day to day problems. Thinking becomes clear and one can face the world with a fiery heart. One has to ask questions about a problem to get the proper advice.
(14). अपान वायु मुद्रा अथवा मृत संजीवनी मुद्रा :: प्रतिदिन यदि 30 मिनट तक ‘मृत संजीवनी मुद्रा’ का अभ्यास हृदय को मज़बूत-सशक्त बनाकर हृदयघात-हार्ट अटैक से रक्षा करता है। युवावस्था या किशोरावस्था में भी हृदयाघात हो सकता है। स्त्रियों में अब यह सामान्य बात है।
हाथ की तर्जनी-अंगूठे से सटी उंगली की नोक का तलुवे से स्पर्श करें तथा अंगूठा, मध्यमा और अनामिका (करांगुली से सटी उंगली) इन उंगलियों की नोकों को एक-दूसरे से लगाएं और यह मृत संजीवनी मुद्रा प्रतिदिन 30 मिनट तक करनी चाहिये। इससे उसका हृदय सशक्त रहेगा तथा अकालीन हृदयघात का झटका आने की मात्रा निश्चित रूप से कम हो जायेगी। यह मुद्रा कर अनाहत चक्र अथवा हृदय के स्थान पर न्यास करने से उसका अधिक लाभ होगा।
हाथ की तर्जनी-अंगूठे से सटी उंगली की नोक का तलुवे से स्पर्श करें तथा अंगूठा, मध्यमा और अनामिका (करांगुली से सटी उंगली) इन उंगलियों की नोकों को एक-दूसरे से लगाएं और यह मृत संजीवनी मुद्रा प्रतिदिन 30 मिनट तक करनी चाहिये। इससे उसका हृदय सशक्त रहेगा तथा अकालीन हृदयघात का झटका आने की मात्रा निश्चित रूप से कम हो जायेगी। यह मुद्रा कर अनाहत चक्र अथवा हृदय के स्थान पर न्यास करने से उसका अधिक लाभ होगा।
(15). आदि मुद्रा :: यह तंत्रिका तंत्र को आराम देने के लिए की जाती है। यह मस्तिष्क में ऑक्सीजन के प्रवाह को बेहतर करती है। इससे फेफड़ों की क्षमता बढ़ती है। यह सांस संबंधी समस्याओं को दूर करने में मदद करती है। यह फेफड़ों की सूजन को कम करती है।यह श्वसन तंत्र को मज़बूत बनाती है। यह जुकाम और गले की समस्याओं में आराम दिलाती है। यह ध्यान और एकाग्रता को बढ़ाती है। यह मानसिक शांति प्रदान करती है। यह कोशिकाओं का पुनर्निमाण करने में मदद करती है। खर्राटों को रोकती है।
It increases the capacity of lungs. Calms the nervous system. Stimulate oxygen flow. Increases mental activeness.
(6). ऊर्ध्व मुख श्वानासन (मुँह को कुत्ते की तरह ऊपर उठाकर प्राणायाम करना) :: ऊर्ध्व मुख श्वानासन में पीठ को पीछे की तरफ झुकाया जाता है। यह रीढ़ की हड्डी और पीठ में खिचाव लाने के लिए बहुत ही लाभकारी आसन होता है। यह सूर्य नमस्कार का भी एक अंश है। इसे लेटकर किया जाता है।
इसका नियमित अभ्यास करने से बुढ़ापे में रीढ़ की हड्डी से जुड़ी समस्यायें नहीं होतीं भुजाएं और कलाई भी मजबूत होती हैं।
लाभ :: (1). इसको करने से कंधे और छाती में खिंचाव आता है।
(2). इसको करने से थकान दूर हो जाती है।
(3). पाचन क्रिया को दुरुस्त करने और पेट की समस्याओं को दूर करने के लिए इस आसन का अभ्यास करना उत्तम होता है।
(4). दमे से पीड़ित रोगियों के लिए भी यह आसन लाभकारी है।
(5). बैठने और खड़े रहने की मुद्रा में भी सुधार करने के लिए इसका अभ्यास लाभकारी होता है।
(6). कंप्यूटर पर देर तक काम करने वालों के लिए यह बहुत उपयोगी है।
(7). कंधों से लेकर हथेलियों तक की माँस पेशियाँ और नसें मजबूत होती हैं।
विधि :: पीठ को यथासम्भव मोड़ें। टाँगों को पूरी तरह जमीन पर टिका सकते हैं। समतल स्थान या तख्त पर चटाई या दरी बिछा लें। उस पर पेट के बल लेट जायें। पैरों के शीर्ष जमीन को छूने चाहिए और शरीर बिलकुल सीधा होना चाहिए। बाजुओं को शरीर की सीध में रखें। इसके बाद बाजुओं को कोहनी के पास से मोड़ें, साथ ही निचली पसलियों की ओर में हथेलियों को फैला लें। साँस लेते हुए हथेलियों को जमीन पर मजबूती के साथ दबाने का प्रयास करें, साथ ही धीरे धीरे घुटनों, कूल्हों और धड़ को ऊपर की तरफ उठायें। इस स्थिति में शरीर का पूरा वजन पैरों के शीर्ष और हथेलियों पर रखें। सामने की तरफ देखें और फिर अपने सर को धीरे धीरे पीछे की तरफ झुकायें। ख्याल रखें कि कंधों की सीध में कलाई होनीं चाहिए तथा गर्दन पर कोई दबाव न हो।कुछ देर इसी मुद्रा में रहें और सामान्य साँस लेते रहें। धीरे धीरे घुटनों, कूल्हों और धड़ को वापस आसन पर लेकर आयें। वापस प्रारंभिक अवस्था में आने के लिए धीरे धीरे कूल्हों, घुटनों और धड़ को नीचे आसन पर लायें और आराम करें।
सावधानी :: जो लोग पीठ की चोट से पीड़ित हैं, उन्हें यह आसन नहीं करना चाहिए। गर्भवती महिलाओ को भी ऊर्ध्व मुख श्वानासन का अभ्यास नहीं करना चाहिए। जिन्हे हाथों के रात में सुन्न होने की बीमारी हो उन्हें यह नहीं करना चाहिए।उच्च रक्तचाप, आर्थराइटिस तथा हृदय रोग से पीड़ित लोग इसका अभ्यास न करें।
इसका नियमित अभ्यास करने से बुढ़ापे में रीढ़ की हड्डी से जुड़ी समस्यायें नहीं होतीं भुजाएं और कलाई भी मजबूत होती हैं।
लाभ :: (1). इसको करने से कंधे और छाती में खिंचाव आता है।
(2). इसको करने से थकान दूर हो जाती है।
(3). पाचन क्रिया को दुरुस्त करने और पेट की समस्याओं को दूर करने के लिए इस आसन का अभ्यास करना उत्तम होता है।
(4). दमे से पीड़ित रोगियों के लिए भी यह आसन लाभकारी है।
(5). बैठने और खड़े रहने की मुद्रा में भी सुधार करने के लिए इसका अभ्यास लाभकारी होता है।
(6). कंप्यूटर पर देर तक काम करने वालों के लिए यह बहुत उपयोगी है।
(7). कंधों से लेकर हथेलियों तक की माँस पेशियाँ और नसें मजबूत होती हैं।
विधि :: पीठ को यथासम्भव मोड़ें। टाँगों को पूरी तरह जमीन पर टिका सकते हैं। समतल स्थान या तख्त पर चटाई या दरी बिछा लें। उस पर पेट के बल लेट जायें। पैरों के शीर्ष जमीन को छूने चाहिए और शरीर बिलकुल सीधा होना चाहिए। बाजुओं को शरीर की सीध में रखें। इसके बाद बाजुओं को कोहनी के पास से मोड़ें, साथ ही निचली पसलियों की ओर में हथेलियों को फैला लें। साँस लेते हुए हथेलियों को जमीन पर मजबूती के साथ दबाने का प्रयास करें, साथ ही धीरे धीरे घुटनों, कूल्हों और धड़ को ऊपर की तरफ उठायें। इस स्थिति में शरीर का पूरा वजन पैरों के शीर्ष और हथेलियों पर रखें। सामने की तरफ देखें और फिर अपने सर को धीरे धीरे पीछे की तरफ झुकायें। ख्याल रखें कि कंधों की सीध में कलाई होनीं चाहिए तथा गर्दन पर कोई दबाव न हो।कुछ देर इसी मुद्रा में रहें और सामान्य साँस लेते रहें। धीरे धीरे घुटनों, कूल्हों और धड़ को वापस आसन पर लेकर आयें। वापस प्रारंभिक अवस्था में आने के लिए धीरे धीरे कूल्हों, घुटनों और धड़ को नीचे आसन पर लायें और आराम करें।
सावधानी :: जो लोग पीठ की चोट से पीड़ित हैं, उन्हें यह आसन नहीं करना चाहिए। गर्भवती महिलाओ को भी ऊर्ध्व मुख श्वानासन का अभ्यास नहीं करना चाहिए। जिन्हे हाथों के रात में सुन्न होने की बीमारी हो उन्हें यह नहीं करना चाहिए।उच्च रक्तचाप, आर्थराइटिस तथा हृदय रोग से पीड़ित लोग इसका अभ्यास न करें।
(17). उर्ध्व मुद्रा :: उलटे हाथ में तर्जनी में ज्ञान मुद्रा, बुद्धि-ज्ञान को बढ़ाती है। इसके अभ्यास से कमर का दर्द ठीक होता है।
It relieves sever back pain. Gyan Mudra in left hand improves wisdom & intelligence.
विष हरण-विषनाश DETOXIFICATION :: इसका ध्येय शरीर में मौजूद अनावश्यक तत्वों को शरीर से बाहर निकालना और आंतरिक सफाई करना है। इसके अभ्यास से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि होती है तथा बुरी आदतों, यादों, नकारात्मक सोच के साथ-साथ भय का शमन होता है।
It removes the intoxicants from the body & corrects physical, mental and spiritual disorders. Negative thoughts-ideas, painful memories-distress, bad habits and the fear are sure to be cured by practicing this.
It relieves sever back pain. Gyan Mudra in left hand improves wisdom & intelligence.
विष हरण-विषनाश DETOXIFICATION :: इसका ध्येय शरीर में मौजूद अनावश्यक तत्वों को शरीर से बाहर निकालना और आंतरिक सफाई करना है। इसके अभ्यास से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि होती है तथा बुरी आदतों, यादों, नकारात्मक सोच के साथ-साथ भय का शमन होता है।
It removes the intoxicants from the body & corrects physical, mental and spiritual disorders. Negative thoughts-ideas, painful memories-distress, bad habits and the fear are sure to be cured by practicing this.
(18). योनि मुद्रा :: यह स्त्रियों को मासिक धर्म के कष्ट से मुक्त करती है। अनियमित रक्तस्त्राव में आराम मिलता है। तंत्रिका तंत्र को शान्त और नियमित करती है और कुण्डली जाग्रत करने में सहायक है। इसके निरंतर अभ्यास के साथ मूलबंध क्रिया भी की जाती है।
It relieves the pain during menses-menstrual cycles & regulates the irregular menses. Nervous system of the practitioner calms down & Kundilini awakes.
विधि :: पहले किसी भी सुखासन में बैठ जायें। दोनों हाथों की अँगुलियों का उपयोग करते हुए सबसे पहले दोनों हाथों में कनिष्ठा अँगुलियों को आपस में मिलायें और दोनों अँगूठे के प्रथम पोर को कनिष्ठा के अंतिम पोर से स्पर्श करें।
फिर कनिष्ठा अँगुलियों के नीचे दोनों हाथों में मध्यमा अँगुलियों को रखते हुए उनके प्रथम पोर को आपस में मिलायें। मध्यमा अँगुलियों के नीचे अनामिका अँगुलियों को एक-दूसरे के विपरीत रखें और उनके दोनों नाखूनों को तर्जनी अँगुली के प्रथम पोर से दबायें।
लाभ :: योनि मुद्रा बनाकर और पूर्व मूलबंध की स्थिति में सम्यक् भाव से स्थित होकर प्राण-अपान को मिलाने की प्रबल भावना के साथ मूलाधार चक्र स्थान पर यौगिक संयम करने से कई प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं।
अँगूठा शरीर के भीतर की अग्नि को नियन्त्रित करता है। तर्जनी अँगुली से वायु तत्व नियन्त्रित होता है। मध्यमा और अनामिका शरीर के पृथ्वी तत्व को नियन्त्रित करती हैँ। कनिष्ठा अँगुली से जल तत्व काबू में रहता है।
इसके निरन्तर अभ्यास से इंद्रियों पर नियंत्रण रखने की शक्ति बढ़ती है। इससे मन को एकाग्र करने की योग्यता का विकास भी होता है। यह शरीर की नकारात्मक ऊर्जा को समाप्त कर सकारात्मक का विकास करती है। इससे हाथों की माँसपेशियों पर अच्छा खासा दबाव बनता है, जिसके कारण मस्तिष्क, हृदय और फेंफड़े स्वस्थ बनते हैं।
Its performed by joining, holding & folding both the little fingers upwards, holding the ring finger of the right hand on that of the left hand and hold them with the pointing fingers, joining the middle fingers and joining the thumbs and little fingers pointing downwards.
It relieves the pain during menses-menstrual cycles & regulates the irregular menses. Nervous system of the practitioner calms down & Kundilini awakes.
विधि :: पहले किसी भी सुखासन में बैठ जायें। दोनों हाथों की अँगुलियों का उपयोग करते हुए सबसे पहले दोनों हाथों में कनिष्ठा अँगुलियों को आपस में मिलायें और दोनों अँगूठे के प्रथम पोर को कनिष्ठा के अंतिम पोर से स्पर्श करें।
फिर कनिष्ठा अँगुलियों के नीचे दोनों हाथों में मध्यमा अँगुलियों को रखते हुए उनके प्रथम पोर को आपस में मिलायें। मध्यमा अँगुलियों के नीचे अनामिका अँगुलियों को एक-दूसरे के विपरीत रखें और उनके दोनों नाखूनों को तर्जनी अँगुली के प्रथम पोर से दबायें।
लाभ :: योनि मुद्रा बनाकर और पूर्व मूलबंध की स्थिति में सम्यक् भाव से स्थित होकर प्राण-अपान को मिलाने की प्रबल भावना के साथ मूलाधार चक्र स्थान पर यौगिक संयम करने से कई प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं।
अँगूठा शरीर के भीतर की अग्नि को नियन्त्रित करता है। तर्जनी अँगुली से वायु तत्व नियन्त्रित होता है। मध्यमा और अनामिका शरीर के पृथ्वी तत्व को नियन्त्रित करती हैँ। कनिष्ठा अँगुली से जल तत्व काबू में रहता है।
इसके निरन्तर अभ्यास से इंद्रियों पर नियंत्रण रखने की शक्ति बढ़ती है। इससे मन को एकाग्र करने की योग्यता का विकास भी होता है। यह शरीर की नकारात्मक ऊर्जा को समाप्त कर सकारात्मक का विकास करती है। इससे हाथों की माँसपेशियों पर अच्छा खासा दबाव बनता है, जिसके कारण मस्तिष्क, हृदय और फेंफड़े स्वस्थ बनते हैं।
Its performed by joining, holding & folding both the little fingers upwards, holding the ring finger of the right hand on that of the left hand and hold them with the pointing fingers, joining the middle fingers and joining the thumbs and little fingers pointing downwards.
(19). प्रतिलोम मुद्रा :: इसके अभ्यास से कमर का दर्द ठीक हो जाता है। बायें हाथ में ज्ञान मुद्रा होने का कारण यह बुद्धि और विवेक को बढ़ाती है।
It relives back pain. Since the left hand has Gyan Mudra it helps in improving intelligence and wisdom.
It relives back pain. Since the left hand has Gyan Mudra it helps in improving intelligence and wisdom.
(20). भैरव मुद्रा :: यह मस्तिष्क के दोनों हिस्सों में सन्तुलन पैदा करती है। पेट, हृदय, लिवर, किडनी, पित्ताशय, तिल्ली (प्लीहा), अग्नाशय को दुरुस्त रखती है।
It generates balance between the two halves of the brain & keeps the pancreas, kidneys, stomach, heart, lever, spleen, duodenum fit.
It generates balance between the two halves of the brain & keeps the pancreas, kidneys, stomach, heart, lever, spleen, duodenum fit.
(21). गणेश मुद्रा :: इससे शरीर में स्फूर्ति आती है और आत्मविश्वास प्रबल होता है। बाईं हथेली की दिशा बाहर की ओर रखते हुए बायें हाथ को हृदय के पास लायें। अब दाईं हथेली को सीने की ओर रखते हुए हृदय के पास लायें और दोनों हाथों की अँगुलियों का बन्धन बनायें। साँस भरते हुए दोनों हाथों को हृदय के सामने की ओर तानें। फिर साँस छोड़ते हुए शरीर को ढीला छोड़ें।
अब दाईं हथेली बाहर की ओर और बाईं हथेली हृदय की ओर करते हुए हाथों को खींचें। श्वास भरते हुए अँगूठे को भी अँगुली के साथ मिलाइए। इसी मुद्रा में हाथों को छाती से लगायें। कोहनियों को तिरछा करते हुए भी इसे कर सकते हैं। प्रत्येक तरफ से 5-6 बार करें।यह मुद्रा कंधों के दर्द से निजात-मुक्ति दिलाती है।
It helps in relieving shoulder pain.
अब दाईं हथेली बाहर की ओर और बाईं हथेली हृदय की ओर करते हुए हाथों को खींचें। श्वास भरते हुए अँगूठे को भी अँगुली के साथ मिलाइए। इसी मुद्रा में हाथों को छाती से लगायें। कोहनियों को तिरछा करते हुए भी इसे कर सकते हैं। प्रत्येक तरफ से 5-6 बार करें।यह मुद्रा कंधों के दर्द से निजात-मुक्ति दिलाती है।
It helps in relieving shoulder pain.
(22). कुबेर मुद्रा :: मध्यमा, तर्जनी उंगली और अंगूठे के शीर्ष को मिलायें। अनामिका और कनिष्ठा को मोड़कर हथेली से लगा लें। दिन में दो बार 10-15 तक अभ्यास करें।
यह पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु तत्वों का संतुलन स्थापित करती है और जातक को तनाव मुक्त कर उसमें सकारात्मक सोच भरती है। इस मुद्रा के प्रयोग से नाक के मोड़, छेद, दरार में जमा श्लेष्मा दूर होती है और नाक-कान बंद रहने की समस्या समाप्त हो जाती है। अगर बार-बार गहरी साँस के साथ इसे किया जाए तो नाक के संक्रमण के कारण होने वाला सिरदर्द और सिर का भारीपन समाप्त हो जाता है।
It clears the nostrils and relieve from headache. One who is desirous of money & wealth should adopt this posture during meditation.
यह पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु तत्वों का संतुलन स्थापित करती है और जातक को तनाव मुक्त कर उसमें सकारात्मक सोच भरती है। इस मुद्रा के प्रयोग से नाक के मोड़, छेद, दरार में जमा श्लेष्मा दूर होती है और नाक-कान बंद रहने की समस्या समाप्त हो जाती है। अगर बार-बार गहरी साँस के साथ इसे किया जाए तो नाक के संक्रमण के कारण होने वाला सिरदर्द और सिर का भारीपन समाप्त हो जाता है।
It clears the nostrils and relieve from headache. One who is desirous of money & wealth should adopt this posture during meditation.
(23). धर्मचक्र मुद्रा :: तब बनती है जब छाती के सामने दोनों हाथ वितर्क में जुड़े होते हैं, दायीं हथेली आगे और बायीं हथेली ऊपर की ओर होती है। दोनों हाथ अलग-अलग हैं और अँगुलियाँ एक-दूसरे को स्पर्श नहीं कर रही हैं। धर्म चक्र मुद्रा यह मस्तिष्क को शान्त करती है। सही मानसिक प्रवर्त्तियों का विकास करती है। किसी भी विषय में ध्यान शक्ति को बढ़ाती है।
It increases concentration of mind, calms down the brain and guides one to rig
It increases concentration of mind, calms down the brain and guides one to rig
(24). कमल-पद्म मुद्रा :: पद्मासन में हाथ घुटनों पर रखकर बैठें। गहन पूरक करते हुए बाजुओं को पीठ के पीछे ले आयें और बायीं कलाई को दायें हाथ से पकड़ लें। धीरे-धीरे धड़ को आगे की ओर तब तक झुकायें जब तक कि मस्तक आगे फर्श को न छू ले। सामान्य श्वास के साथ कुछ समय इसी स्थिति में रहें और पूरे शरीर को शिथिल छोड़ दें। गहन पूरक करते हुए, धीरे-धीरे ऊपर उठें और प्रारंभिक स्थिति में लौट आयें।
पद्मासन की स्थिति में, हाथ घुटनों पर रहें। गहन पूरक करते हुए अँगूठे अन्दर की ओर रखते हुए, दोनों हाथों की मुट्ठियाँ बना लें और दोनों मुठ्ठियों को अरूमूल की चुन्नट तक ले आयें। धीरे-धीरे रेचक करते हुए धड़ को आगे मोड़ें जब तक कि मस्तक फर्श को न छू ले। सामान्य श्वास के साथ इसी स्थिति में बने रहें। गहन पूरक करते हुए, धीरे-धीरे ऊपर उठें और प्रारंभिक स्थिति में लौट आयें।
लाभ :- यह शरीर व मस्तिष्क को शांति प्रदान करता है। कूल्हे, पाचन क्रिया व बवासीर में लाभकारी है। अवसाद को दूर करने में सहायक है।
सावधानी :- इस आसन का अभ्यास गर्भावस्था के दौरान या उच्च रक्तचाप में नहीं करें। इस मुद्रा से तब भी बचें जब कूल्हों में दर्द हो।
इसके बाद आनंदासन में आराम करें।
यह जातक के चित्त को स्थिर और मन को शांत करती है। अलसर और बुखार को दूर करती है। उसकी प्रकृति को खुशनुमा बनाती है।
It balances the brain and stabilises the person, removes Ulcers, piles and fever. One becomes cheerful by practicing this Mudra.
पद्मासन की स्थिति में, हाथ घुटनों पर रहें। गहन पूरक करते हुए अँगूठे अन्दर की ओर रखते हुए, दोनों हाथों की मुट्ठियाँ बना लें और दोनों मुठ्ठियों को अरूमूल की चुन्नट तक ले आयें। धीरे-धीरे रेचक करते हुए धड़ को आगे मोड़ें जब तक कि मस्तक फर्श को न छू ले। सामान्य श्वास के साथ इसी स्थिति में बने रहें। गहन पूरक करते हुए, धीरे-धीरे ऊपर उठें और प्रारंभिक स्थिति में लौट आयें।
लाभ :- यह शरीर व मस्तिष्क को शांति प्रदान करता है। कूल्हे, पाचन क्रिया व बवासीर में लाभकारी है। अवसाद को दूर करने में सहायक है।
सावधानी :- इस आसन का अभ्यास गर्भावस्था के दौरान या उच्च रक्तचाप में नहीं करें। इस मुद्रा से तब भी बचें जब कूल्हों में दर्द हो।
इसके बाद आनंदासन में आराम करें।
यह जातक के चित्त को स्थिर और मन को शांत करती है। अलसर और बुखार को दूर करती है। उसकी प्रकृति को खुशनुमा बनाती है।
It balances the brain and stabilises the person, removes Ulcers, piles and fever. One becomes cheerful by practicing this Mudra.
(25). मूर्ति मुद्रा :: मस्तिष्क को शान्त करती है और परेशानी में राहत प्रदान करती है।
It relaxes & calms down the mind-brain (innerself).
Murti means body, form, in Sanskrat and allows the breath to settle into the pelvis to support balance, stability and comfort within the body and mind. Grounding, rooting and feeling connection with the Earth helps to support feeling present and embodied. The exhalation will be enhanced leading to greater relaxation and softening within the body. This is a great antidote for a busy mind and overactive energy output.
Hands are placed in Murti Mudra resting in the lap. Begin with 5-10 natural breaths and increase the number of breaths weekly to your practice.
It relaxes & calms down the mind-brain (innerself).
Murti means body, form, in Sanskrat and allows the breath to settle into the pelvis to support balance, stability and comfort within the body and mind. Grounding, rooting and feeling connection with the Earth helps to support feeling present and embodied. The exhalation will be enhanced leading to greater relaxation and softening within the body. This is a great antidote for a busy mind and overactive energy output.
Hands are placed in Murti Mudra resting in the lap. Begin with 5-10 natural breaths and increase the number of breaths weekly to your practice.
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
skbhardwaj1951@gmail.com
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