Thursday, April 30, 2020

YOG योग :: MEDITATION ध्यान

MEDITATION 
ध्यान, समाधि, चिन्तन
(YOG योग)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
(1). भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन संवाद :: भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा :- "शुद्ध एवं एकांत स्थान पर कुशा आदि का आसन बिछाकर सुखासन में बैठें। अपने मन को एकाग्र करें। मन व इन्द्रियों की क्रियाओं को अपने वश में करें, जिससे अंतःकरण शुद्ध हो। इसके लिए शरीर, सर व गर्दन को सीधा रखें और हिलायें-डुलायें नहीं। आँखें बंद रखें व साथ ही जीभ को भी न हिलायें। अब आँख की पुतलियों को भी इधर-उधर नहीं हिलने दें और उन्हें एक दम सामने स्थिर रखें। एकमात्र ईश्वर का स्मरण करते रहें। ऐसा करने से कुछ ही देर में मन शांत हो जाता है और ध्यान आज्ञा चक्र पर स्थित हो जाता है और परम ज्योति स्वरुप परमात्मा के दर्शन होते हैं।
(2). भगवान् शिव ने माँ पार्वती से कहा :- रात्रि में एकान्त में बैठ जाएँ। आँखें बंद करें. हाथों की अँगुलियों से आँखों की पुतलियों को दबाएँ। इस प्रकार दबाने से तारे-नक्षत्र दिखाई देंगे। कुछ देर दबाये रखें; फिर धीरे-धीरे अँगुलियों का दबाव कम करते हुए छोड़ दें तो सूर्य के सामान तेजस्वी गोला दिखाई देगा। इसे तैजस ब्रह्म कहते हैं। इसे देखते रहने का अभ्यास करें। कुछ समय के अभ्यास के बाद साधक इसे खुली आँखों से भी आकाश में देख सकते हैं। इसके अभ्यास से समस्त विकार नष्ट होते हैं, मन शाँत होता है और परमात्मा का बोध होता है।[शिव पुराण, उमा संहिता]
सर्व बर्हिमुख इन्द्रियों को अन्तर्मुख करके, फिर उन इन्द्रियों को मन में युक्त करके, मन को आत्मा में समायोजित करे तथा सब भावों से रहित क्षेत्रज्ञ को ब्रह्म में मिलावे, इसी का नाम ध्यान तथा ज्ञान है।
ध्यान की विधियाँ :: जब तक मन में विचार चलते हैं; तभी तक आँख की पुतलियाँ इधर-उधर चलती रहती हैं और जब तक आँख की पुतलियाँ इधर-उधर चलती हैं, तब तक हमारे मन में विचार उत्पन्न होते रहते हैं। जैसे ही मन में चल रहे समस्त विचारों रुक जाते हैं, आँखों की पुतलियाँ रुक जाती हैं। इसी प्रकार यदि आँख की पुतलियों को रोक लें तो मन के विचार पूरी तरह रुक जाते हैं और मन व आँख की पुतलियों के रुकते ही आत्मा का प्रभाव ज्योति के रूप में दिखने लगता है।[गीतोपदेश 6.12-15]
(2). भगवान् शिव ने माँ पार्वती से कहा :- एकान्त स्थान पर सुखासन में बैठ जाएँ। मन में ईश्वर का स्मरण करते रहें। अब तेजी से साँस अन्दर खींचकर फिर तेजी से पूरी साँस बाहर छोड़कर रोक लें। श्वास इतनी जोर से बाहर छोड़ें कि इसकी आवाज पास बैठे व्यक्ति को भी सुनाई दे। इस प्रकार साँस बाहर छोड़ने से वह बहुत देर तक बाहर रुकी रहती है। उस समय श्वास रुकने से मन भी रुक जाता है और आँखों की पुतलियाँ भी रुक जाती हैं और आज्ञा चक्र पर दबाव पड़ता है, जिससे वह खुल जाता है। श्वास व मन के रुकने से अपने आप ही ध्यान होने लगता है और आत्मा का प्रकाश दिखाई देने लगता है। यह विधि शीघ्र ही आज्ञा चक्र को जाग्रत कर देती है।[नेत्र तंत्र]
(3). भगवान् शिव ने माँ पार्वती से कहा :- रात्रि में ध्वनि रहित, अंधकार युक्त, एकांत स्थान पर बैठें। तर्जनी अंगुली से दोनों कानों को बंद करें। आँखें बंद रखें। कुछ ही समय के अभ्यास से अग्नि प्रेरित शब्द सुनाई देगा। इसे शब्द-ब्रह्म कहते हैं। यह शब्द या ध्वनि नौ प्रकार की होती है। इसको सुनने का अभ्यास करना शब्द-ब्रह्म का ध्यान करना है। इससे संध्या के बाद खाया हुआ अन्न क्षण भर में ही पच जाता है और संपूर्ण रोगों तथा ज्वर आदि बहुत से उपद्रवों का शीघ्र ही नाश करता है। 
यह शब्द ब्रह्म न ॐ औंकार है, न मंत्र है, न बीज है, न अक्षर है। यह अनाहत नाद है (अनाहत अर्थात बिना आघात के या बिना बजाये उत्पन्न होने वाला शब्द)। इसका उच्चारण किये बिना ही चिंतन होता है। यह नौ प्रकार का होता है :-
(3.1). घोष नाद :- यह आत्मशुद्धि करता है, सब रोगों का नाश करता है व मन को वशीभूत करके अपनी और खींचता है। 
(3.2). कांस्य नाद :- यह प्राणियों की गति को स्तंभित कर देता है। यह विष, भूत, ग्रह आदि सबको बाँधता है। 
(3.3). श्रृंग नाद :- यह अभिचार से सम्बन्ध रखने वाला है। 
(3.4). घंट नाद :- इसका उच्चारण साक्षात् शिव करते हैं। यह सभी देवताओं को आकर्षित कर लेता है, महासिद्धियाँ देता है और कामनाएं पूर्ण करता है। 
(3.5). वीणा नाद :- इससे दूर दर्शन की शक्ति प्राप्त होती है। 
(3.6). वंशी नाद :- इसके ध्यान से सम्पूर्ण तत्त्व प्राप्त हो जाते हैं। 
(3.7). दुन्दुभी नाद :- इसके ध्यान से साधक जरा व मृत्यु के कष्ट से छूट जाता है। 
(3.8). शंख नाद :- इसके ध्यान व अभ्यास से इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्ति प्राप्त होती है। 
(3.9). मेघनाद :- इसके चिंतन से कभी विपत्तियों का सामना नहीं करना पड़ता। 
इन सबको छोड़कर जो अन्य शब्द सुनाई देता है वह तुंकार कहलाता है। तुंकार का ध्यान करने से साक्षात् शिवत्व की प्राप्ति होती है।[शिव पुराण, उमा संहिता]
(4). भगवान् श्री कृष्ण ने उद्धवजी से कहा :- शुद्ध व एकान्त में बैठकर अनन्य प्रेम से ईश्वर का स्मरण करें और प्रार्थना करें कि हे प्रभु! प्रसन्न होइए! मेरे शरीर में प्रवेश करके मुझे बन्धन मुक्त करिये। इस प्रकार प्रेम और भक्ति पूर्वक ईश्वर का भजन करने से वे भगवान् भक्त के हृदय में आकर बैठ जाते हैं। भक्त को भगवान् का वह स्वरुप अपने हृदय में कुछ-कुछ दिखाई देने लगता है। इस स्वरुप को सदा हृदय में देखने का अभ्यास करना चाहिए। 
सगुण स्वरुप के ध्यान से भगवान् के हृदय में विराजमान होते ही हृदय की सारी वासनाएं संस्कारों के साथ नष्ट हो जाती है और जब उस भक्त को परमात्मा का साक्षात्कार होता है तो उसके हृदय की गाँठ टूट जाती है और उसके सारे संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और कर्म-वासनाएं सर्वथा क्षीण हो जाती हैं।[श्रीमदभगवत महापुराण 11.20.27-30]
ध्यान में होने वाले अनुभव :- भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर पहले काला और फिर नीला रंग दिखाई देता है। फिर पीले रंग की परिधि वाले नीला रंग भरे हुए गोले के अन्दर विलीन होते हुए दिखाई देते हैं। एक पीली परिधि वाला नीला गोला घूमता हुआ धीरे-धीरे छोटा होता हुआ अदृश्य हो जाता है और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है। नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है। नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है। पीला रंग आत्मा का प्रकाश है, जो जीवात्मा के आत्मा के भीतर होने का संकेत है।
It involves conceptualisation-image formation of the Almighty. Initially, one has to sit quietly, with closed eyes thinking of the Almighty, only. He will experience all sorts of hurdles and the mind will travel in all direction. But being a human being, he is capable of channelizing all his energies-power to a spot. Normally, the direction to align oneself in the morning is East and in the evening, its North. One may opt for North-East direction as well. A calm-quite place is essential for such practices. People prefer isolated places, near water bodies, jungles or caves. One can practice it at home as well (like me), by placing a pot full of water in front of him. Sit with cross legs or adopt some Asan, like Padawan, Padmasan. Use a mat-cushion for sitting comfortably. One can use fan or even AC during this. This water should be offered to the Sun in the morning after bathing, reciting "Om Suryay Namh".
One should concentrate only in HIM, while forgetting-discarding everything at this moment.  One should ignore all activities around him and think of HIM-GOD only and nothing else, at the time of meditation. A mental image formation makes it easy to practice & concentrate in the Almighty. HE will show the way to Dharm, Arth, Kaam and Moksh. 
साधक उसी में रम जाये और रमण करो मन को एकाग्र करे, चित्त को भटकने न दे; अभीष्ट पर केंद्रित करे और सफलता निश्चित है।
One is aware of deep-repeated thinking over certain issues-problems, which forces him to forget everything to find ways and means, to come out of the difficulty. The thinker get involved with it, whole heartedly and all his energies are channelized into finding a solution. Ultimately, he approaches the God. Life in itself is full of difficulties and the prudent-enlightened makes a bid to come out of them. The easiest-simplest method is meditation by focusing, fixing, concentrating the brain-mind, innerself into the Almighty.
This is a state when one prevents the mind from roaming around, brings the mind-brain under self restraint-control. Innerself, sensuality, passions (psyche, mood)  are made to fall in line with deep thinking-contemplation. A magic spell is cast, followed by enchantment, charm, delight, happiness.
This involves mental image formation or conceptualisation of the Almighty, who is both formless & with form. HE is undefined yet unique. HE is present every where and in the minutest organism. HE has no sense organs, still HE is performing all functions. HE is without hands or legs, still HE is able to act-perform whatever is essential. HE is free from desires or activities, still HE acts. HE does not eat, still HE accepts the offerings of the devotees. HE is without tongue and yet HE recites the Shloks, enchants, rhymes of Ved, Puran, Upnishad-scriptures. HE is without skin, still HE experiences cold or warmth. HE has full control over all sensualities-passions. HE is one and only one-unique. There is no one-nothing to support HIM, yet HE supports everyone. HE has no sentiments. HE is pure, orator, source of all energy, mesmerise every one, controls everyone, looks in all directions and above all the enlightened. HE is present in each & every organism and all directions, material, immaterial objects. HIS qualities-characters are unlimited-infinite. HE has no boundaries.
One who utilise his mind, brain, intelligence, to attain HIM, is able to liberate himself and assimilate in HIM.
One has to focus the mind over certain material object like a statue, picture, even Om, written over the wall. This can be done-achieved, while, talking, walking, moving, standing, sitting, sleeping, opening or closing eyes; pure or impure body state, by continuously reciting-remembering the God. One has to consider himself as an incarnation, organ, part, component (soul is a component of the Almighty-the Supreme soul) of the God and that he has evolved out of the Almighty and has to merge into HIM ultimately.
Meditation relieves one from anxiety and helps in solving intricate problems.
Human brain has two lobes-compartments which drag him into different directions-channels. One may successfully perform two tasks, simultaneously. During emergency-difficulty the two lobes start functioning together. Repeated practice makes one achieve this state quite frequently. This act when utilised to focus, penetrate, channelise into the creator, nurturer & destroyer-all in one, the Almighty; relieves the devotee of all pains, sorrow, grief, problems, difficulty and the cycle of birth and rebirth, obviously.
The Human brain is greatly affected by the body postures. Facial expressions often reveal one's innerself affecting the brain function. Smiling face lowers the blood pressure & temperature of the brain, while frowning will increase it. Positioning of the hands too affect the functioning of the brain.
While meditating, it is especially important to hold the hands in a way, posture, folding them in front of the chest, praying to the Almighty, to bless the practitioner. This will help the mind to maintain its focus helping in concentration, pulling him out of the world momentarily, while eliminating distracting thoughts. The practitioner has to hold the two hands over the knees in Gyan Mudra. The Palm is stretched in the upper direction-horizontal to the floor, having the thumb joining index finger. Venus and Jupiter are joined and Mars is subdued.
This is a state when one prevents the mind from roaming around, brings the mind-brain under self restraint-control. Innerself, sensuality, passions are made to fall in line with deep thinking-contemplation. A magic spell is cast, followed by enchantment, charm, delight, pleasure, happiness.
One has to focus the mind over certain material object like a statue, picture, even Om-Bhagwan, written over the wall. This can be done-achieved, while, talking, walking, moving, standing, sitting, sleeping, opening or closing eyes-pure or impure body state, by continuously reciting-remembering the God. One has to consider himself as an incarnation, organ, part, component (soul is a component of the Almighty-the Supreme soul) of the God and that he has evolved out of the Almighty and merge into him, ultimately.
Meditation relieves anxiety and helps in solving intricate problems.
For best results choice of a peaceful place, solitude, secluded place, cave, hut in the forest is recommended. Continued efforts gives quick results associated with confidence, happiness, success.
Transcendental Meditation requires practice session extending between 10-15 minutes twice-even once depending upon the time available with you, regularly. Never mind if one is not able to devote time for it for a number of days. He may restart at his will. It's relaxation of mind, body and soul. One may call it self analysis, identification, realisation.
This technique allows the mind to settle and gives one a chance to experience pure awareness, called transcendental consciousness. It allows one to experience the most silent and peaceful level of consciousness-the innermost self. It also allows the brain to attain deep rest-relaxation, helping one to be more efficient and better in cognitive functions. 
Sit with crossed legs comfortably over met, tiger, deer skin, cushion, durri-carpet. The practitioner may utilise Padmasan or some other Aasan-posture. Sit with erect back bone-vertebral column, recite Om or Om Namh Shivay or remain quite.
It steadies the body and trains the mind. It eliminating adverse stress and develops one's inner power-strength. While the breath control will be different for each of these, the hand position is the same. it provides one with :- (1). Increased mental focus, (2). Increased emotional control, (3). Reduction of harmful stress in daily life, (4). Improved digestion, (5). Proper elimination of body waste from bladder and bowels, (6). Tones and stimulates the internal organs, (7). Correction of Hernia & (8). Reduction of chest and abdominal pain.
MEDITATIONध्यान :: स्थिर चित्त से भगवान् का चिन्तन, ध्यान कहलाता है। समस्त उपाधियों से मुक्त मन सहित आत्मा का ब्रह्म विचार में परायण होना ध्यान है। ध्येय रूप आधार में स्थित एवं सजातीय प्रतीतियों से युक्त चित्त को जो विजातीय प्रतीतियों से रहित प्रतीति होती है, उसको भी ध्यान कहते हैं। जिस किसी प्रदेश में भी ध्येय वस्तु के चिंतन में एकाग्र हुए चित्त को प्रतीति के साथ जो अभेद-भावना होती है, उसका नाम भी ध्यान है। ध्यान परायण होकर जो व्यक्ति अपने शरीर का त्याग करता है, वह अपने कुल स्वजन और मित्रों का उद्धार करके स्वयं भगवत स्वरुप हो जाता है। प्रति दिन श्रद्धा पूर्वक श्री हरी का ध्यान करने से मनुष्य वह गति पाता है, जो कि सम्पूर्ण महायज्ञों के द्वारा भी अप्राप्य है। 
चलते-फिरते, उठते-बैठते-खड़े होते, सोते-जागते, आँख खोलते-मींचते, शुद्ध-अशुद्ध अवस्था में भी निरंतर परमेश्वर का ध्यान करना चाहिए।
भगवान् मृत्युंजय, ध्यान करने पर अकाल-मृत्यु को दूर करने वाले हैं।
साधक को पहले मन को स्थिर करने के लिए स्थूल-मूर्त रूप का ध्यान करना चाहिये। मन के स्थिर हो जाने पर उसे सूक्ष्म तत्व-अमूर्त के चिंतन में लगाना चाहिये।
ध्यानावस्था में मनुष्य-साधक को समस्याओं का समाधान मिल जाता है।
ध्यान दो प्रकार का होता है :- निर्गुण और सगुण। जो लोग योग-शास्त्रोक्त, यम-नियमादि साधनों के द्वारा परमात्म-साक्षात्कार का प्रयास कर रहे हैं, वे सदा ही ध्यान परायण होकर केवल ज्ञान दृष्टि से परमात्मा का दर्शन करते हैं।
निर्गुण :: परमात्मा हाथ और पैर से रहित है, तो भी वह सब कुछ ग्रहण करता है और सर्वत्र जाता है। मुख के बिना ही भोजन करता है और नाक के बिना ही सूंघता है। उसके कान नहीं हैं, तथापि वह सब कुछ सुनता है। वह सबका साक्षी और इस जगत का स्वामी है। रूप हीन होकर भी रूप से संबद्ध हो पांचों इंद्रियों के वशीभूत सा प्रतीत होता है। वह सब लोकों का प्राण है, सम्पूर्ण चराचर जगत के प्राणी उसकी पूजा करते हैं। बिना जीभ के ही वह सब कुछ वेद-शास्त्रों के अनुकूल बोलता है। उसके त्वचा नहीं है तथापि वह शीत-उष्ण आदि, सब प्रकार के स्पर्श अनुभव करता है। सत्ता और आनन्द उसके स्वरूप हैं। वह जितेन्द्रिय, एकरूप, आश्रय विहीन, निर्गुण, ममता रहित, व्यापक, सगुण, निर्मल, ओजस्वी, सबको वश में करने वाला, सब ओर देखने वाला और सर्वज्ञों में श्रेष्ठ है। वह व्यापक और सर्वमय है। इस प्रकार जो अनन्य बुद्धि से उस सर्वमय ब्रह्म का ध्यान करता है, वह निराकार एवं अमृत तुल्य परम पद को प्राप्त होता है।
सगुण ध्यान :: इस ध्यान का विषय किंवा साकार रूप है। वह निराकार, रोग, व्याधि से रहित है। उसका कोई आलम्ब-आधार नहीं है, वही सब का आलम्ब है। जिनके संकल्प से यह संसार वासित है वे श्री हरी इस संसार को वासित करने के कारण वासुदेव कहलाते हैं। 
उनका श्री विग्रह वर्षा ऋतु के सजल मेघ के समान श्याम है। उनकी प्रभा सूर्य के तेज को भी लज्ज्ति करती है। उनके दाहिने भाग के एक हाथ में बहुमूल्य मणियों से चित्रित शंख शोभा पा रहा है और दूसरे हाथ में बड़े-बड़े असुरों का संहार करने वाली कौमुद गदा विराजमान है। उन जगदीश्वर के बायें हाथों में पद्म और शंख सुशोभित हैं। वे चतुर्भज हैं। वे सम्पूर्ण देवताओं के स्वामी हैं। श्राङ्ग धनुष धारण करने के कारण उन्हें श्राङ्गी भी कहते हैं। वे माता भगवती लक्ष्मी के स्वामी हैं। 
शंख के समान मनोहर ग्रीवा, सुन्दर गोलाकार मुखमण्डल तथा पद्म-पत्र के समान बड़ी-बड़ी ऑंखें हैं। कुन्द जैसे चमकते दांतों से ह्रषिकेश की बड़ी शोभा हो रही है। वे निद्रा के ऊपर शासन करते हैं। उनका नीचे का होंठ मूंगे के सामान लाल है। नाभि कमल से प्रकट होने के कारन उन्हें पद्मनाभ कहते हैं। वे अत्यन्त तेजस्वी किरीट के कारण बड़ी शोभा पा रहे हैं। श्री वत्स के चिन्ह ने उनकी छवि को और बढ़ा दिया है। श्री केशव का वक्ष स्थल कौस्तुभ मणि से अलंकृत है। वे जनार्दन सूर्य के समान तेजस्वी कुण्डलों से अत्यंत देदीप्यमान हो रहे है। केयूर, हार, कड़े, कटिसूत्र करघनी तथा अंगूठियों से उनके श्री अंग विभूषित हैं, जिससे उनकी शोभा और बढ़ गयी है। भगवान् तपाये हुए सुवर्ण के रंग का पीताम्बर धारण किये हुए हैं तथा गरुड़ जी की पीठ पर विराजमान हैं। वे भक्तों की पाप राशि को दूर करने वाले हैं। इस प्रकार सगुण चिन्तन करना चाहिये। 
इसका अभ्यास करने से मनुष्य मन, वाणी तथा शरीर द्वारा होने वाले सभी पापों से मुक्त हो जाता है और अंत में वह विष्णु लोक को प्राप्त करता है।
STAUNCH-DEEP समाधि :: जो चैतन्य स्वरूप से युक्त और प्रशांत महासागर की भांति स्थिर हो, जिसमें आत्मा के सिवाय किसी अन्य वस्तु की प्रतीति न हो, उस ध्यान को समाधि कहते हैं। जो ध्यान के समय अपने चित्त को ध्येय-परमात्मा, में लगा कर वायु हीन प्रदेश की अग्नि शिखा के भांति अविचल एवं स्थिर भाव से बैठा रहता है, वह योगी समाधिस्थ कहा गया है। जो न सुनता है, न सूँघता है, न देखता है, न रसास्वादन करता है, न स्पर्श का अनुभव करता है, न मन में संकल्प उठने देता है, न अभिमान करता है और न बुद्धि से किसी दूसरी-अन्य, वस्तु को जानता ही है, केवल काष्ठ (वृक्ष) की भांति अविचल भाव से ध्यान में स्थित रहता है, ऐसे चिंतन परायण पुरुष को समाधिस्थ कहते हैं। जो अपने आत्म स्वरुप भगवान् श्री हरी विष्णु के ध्यान में संलग्न रहता है, उसके सामने अनेक दिव्य विघ्न उपस्थित होते हैं, वे सिद्धि की सूचना देने वाले हैं। बड़े-बड़े विघ्न, लालच, लोभ, ज्ञान, सिद्धियाँ, प्रतिभा, सद्गुण, सम्पूर्ण शील, कलाएँ, कन्याएँ बिना बुलाए उपस्थित होती हैं। जो इनको तिनके की भांति निस्सार मानकर त्याग देता है, उसी पर भगवान् श्री हरी विष्णु की कृपा होती है और वे प्रसन्न होते हैं।
गोले के आकार दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण है। इससे भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों प्रत्यक्ष दिखने लगते है और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं और मनुष्य के मन में आत्मविश्वास जाग्रत होता है।
तीन प्रकार का ध्यान-योगध्यान  :: 
(1). स्थूल ध्यान :: स्थूल चीजों के ध्यान को स्थूल ध्यान कहते है। स्थूल-ध्यान वह कहा जाता है, जिसमें मूर्तिमान् अभीष्ट देवता अथवा गुरू का चिन्तन किया जाये।
(1.1). प्रथम ध्यान :- साधक अपने नेत्र बन्द करके हृदय में ऐसा ध्यान करे कि एक अति उत्तम अमृत सागर बह रहा है। समुद्र के बीच एक रत्नमय द्वीप है, वह द्वीप रत्नमयी बालुका वाला होने से चारों और शोभा दे रहा है। इस रत्न द्वीप के चारों ओर कदम्ब के वृक्ष अपूर्व शोभा पा रहे हैं। नाना प्रकार के पुष्प चारों ओर खिले हुऐ हैं। इन सब पुष्पों की सुगन्ध में सब दिशाएँ सुगन्ध से व्याप्त हो रही हैं। साधक मन में इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कानन के मध्य भाग में मनोहर कल्पवृक्ष विद्यमान है, उसकी चार शाखाएँ हैं, वे चारों शाखाएँ चतुर्वेदमयी हैं और वे शाखाएँ तत्काल उत्पन्न हुए पुष्पों और फलों से भरी हुई हैं। उन शाखाओं पर भ्रमर गुंजन करते हुए मँडरा रहे हैं और कोकिलाएँ उन पर बैठी कुहू-कुहू कर मन को मोह रही है। फिर साधक इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कल्पवृक्ष के नीचे एक रत्न मण्डप परम शोभा पा रहा है। उस मंडप के बीच में मनोहर सिंहासन रखा हुआ है। उसी सिंहासन पर इष्ट देव विराजमान हैं। इस प्रकार का ध्यान करने पर स्थूल-ध्यान की सिद्धि होती है।
(1.2). द्वितीय ध्यान :- मनुष्य के हृदय के मध्य अनाहत नाम का चौथा चक्र विद्यमान है। इस के 12 पत्ते है, यह ॐकार का स्थान है। इस के 12 पत्तों पर पूर्व दिशा से क्रमशः चपलता, नाश, कपट, तर्क, पश्चाताप, आशा-निराशा, चिन्ता, इच्छा, समता, दम्भ, विकल्प, विवेक और अहंकार विद्यमान रहते है। अनाहत चक्र के मण्डप में ॐ बना हुआ है। साधक ऐसा चिन्तन करे कि इस स्थान पर सुमनोहर नाद-बिन्दूमय एक पीठ विराजमान है और उसी स्थल पर भगवान् शिव विराजमान है, उनकी दो भुजायें है, तीन नेत्र है और वे शुक्ल वस्त्रों में सुशोभित है। उनके शरीर पर शुभ्र चंदन लगा है, कण्ठ में श्वेत वर्ण के प्रसिद्ध पुष्पों की माला है। उनके वामपार्श्व में रक्तवर्णा माता भगवती शक्ति शोभा दे रही हैं। इस प्रकार भगवान् शिव का ध्यान करने पर स्थूल ध्यान सिद्ध होता है।
(1.3). तृतीय ध्यान :- मस्तक में जो शुभ्र-वर्ण का कमल है, योगी प्रभात-काल में उस पदम् में गुरू का ध्यान करते है कि वह शांत, त्रिनेत्र, द्विभुज है और वह वर एवं अभय मुद्रा धारण किये हुये है। इस प्रकार यह ध्यान, गुरू का स्थूल ध्यान है।[विश्वसार तंत्र] 
साधक ऐसा ध्यान करे कि जिस सहस्त्र-दल कमल में प्रदीप्त अन्तरात्मा अधिष्ठित है, उसके ऊपर नाद-बिन्दु के मध्य में एक उज्ज्वल सिंहासन विद्यमान है, उसी सिंहासन पर अपने इष्ट देव विराज रहे हैं, वे वीरासन में बैठे है, उनका शरीर चाँदी के पर्वत के सदृश श्वेत है, वे नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं और शुभ्र माला, पुष्प और वस्त्र धारण कर रहे हैं, उनके हाथों में वर और अभय मुद्रा हैं, उनके वाम अंग में आदि शक्ति विराजमान हैं। इष्ट देव करुणा दृष्टि से चारों ओर देख रहे हैं, उनकी प्रियतमा माता आदि शक्ति दाहिने हाथ से उनके मनोहर शरीर का स्पर्श कर रही हैं। शक्ति के वाम कर में रक्त-पद्म है और वे रक्त वर्ण के आभूषणों से विभूषित हैं, इस प्रकार ज्ञान-समायुक्त इष्ट का नाम-स्मरण पूर्वक ध्यान करे।[कंकाल मालिनी तन्त्र]
(2). ज्योतिर्ध्यान :- जिस ध्यान में तेजोमय ब्रह्म वा प्रकृति की भावना की जाये उसको ज्योतिर्ध्यान कहते हैं। मूलाधार और लिंगमूल के मध्यगत स्थान में कुण्डलिनी सर्पाकार में विद्यमान हैं। इस स्थान में जीवात्मा दीप-शिखा के समान अवस्थित है। इस स्थान पर ज्योति रूप ब्रह्म का ध्यान करें। एक और प्रकार का तेजो-ध्यान है, जिसमें भृकुटि के मध्य में और मन के ऊर्ध्व-भाग में जो ॐकार रूपी ज्योति विद्यमान है, उस ज्योति का ध्यान करें। इस ध्यान से योग-सिद्धि और आत्म-प्रत्यक्षता शक्ति उत्पन्न होती है। 
(3). सूक्ष्म ध्यान :: जिसमें बिन्दुमय ब्रह्म एवं कुल-कुण्डलिनी शक्ति का दर्शन लाभ हो उसको सूक्ष्म ध्यान कहते हैं। पूर्व जन्म के पुण्य उदय होने पर साधक की कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है। यह शक्ति जाग्रत होकर आत्मा के साथ मिलकर नेत्ररन्ध्र मार्ग से निकलकर उर्ध्व भागस्थ अर्थात् ब्रह्म रन्ध्र की तरफ जाती है और जब यह राजमार्ग नामक स्थान से गुजरती है तो उस समय यह अति सूक्ष्म और चंचल होती है।
इस कारण ध्यान-योग में कुण्डलिनी को देखना कठिन होता है। साधक शाम्भवी मुद्रा का अनुष्ठान करता हुआ, कुण्डलिनी का ध्यान करे, जिसमें बिन्दुमय ब्रह्म एवं कुल-कुण्डलिनी शक्ति का दर्शन लाभ हो। यही सूक्ष्म ध्यान है। इस दुर्लभ ध्यान योग द्वारा आत्मा का साक्षात्कार होता है और ध्यान सिद्धि की प्राप्ति होती है।
ZEN-ONE POINT MEDITATION :: One has to place the palms together with the fingertips upward. He has to Interlock the fingers, extend the index fingers, so they lie side by side & extend the thumbs the same way. Now, he has to lift the hands and hold them in front of the chest. He has to feel the heat between the two hands and take note of the pulse in the palms. Now, he has to direct his attention to the point, where the index fingertips touch. This is the One Point-ZEN. One will begin to feel his pulse at the fingertips. Within seconds one will notice calmness and inner power growing. He should not permit other thoughts, ideas, tensions to hover around.
KUSH-MUNJ MAT-POOJA ASAN-SEAT :: Kush grass is sacred. Yogis-Sages often sit on Kush-Munj grass Mats when they perform meditation.
A prayer Mat is used as a Asan-Chatai or seat while performing Pooja, prayers, meditation, worship. It may be square-round or circular. It allows the Yogi to maintain that serene state of mind without being affected by the adversity of the environment surrounding him and cuts off his direct connection from the earth to check the flow of electric charges into the earth. It is also a remarkable insulator, both physically and metaphysically. 
Kush signifies sharpness or pointed ends. It emerged from the Almighty. Evil forces like, ghosts, spirits, demons, etc. keep away from the place, where it is used. This is considered to be the holiest of all the places of pilgrimage-Tirth Sthal (तीर्थ स्थल). The spot where Gautom Rishi finally secured Ganga on earth had Kush-Durv grass spreaded over there. Kush grass is considered purifying and rings woven of it are sometimes worn in worship to keep the hands ritually pure. Durvasa Rishi got his name from Durv, since he survived over the juice-extract of Durv grass, only.
वस्त्रासने दरिद्रयम् पाषाण रोग सम्भवः। 
मेदिनयम् दुःखमाप्नोति काष्ठे भवति निष्फलं॥ 
Bhagwan Shiv reveals the malefic effects of ignorantly choosing the wrong Asan-the seat for meditation. Sitting on a seat of cloth leads one to misfortune, sitting on stone floor or on a rock brings diseases; do not sit on the ground directly as it brings sorrow and a seat made of wood is ineffective. All these seats are grounding energies, whereas a proper seat is one, that generates energy for Tap-ascetics (penance for Liberation). With grounding energies, Tap Shakti-Ascetic Power (the power of meditation) will be drained away into earth. Whereas a proper Asan-a Mat of Kush, retains energy, protects and retains the Guru Shakti (the soul power) in the practitioner.
When one sit for meditation (Dhyan) with the right resolution (Sankalp), seated on the right Asan & posture, his seat becomes a Shakti Peeth (seat, Power Pedestal), as the Shakti-Kundlini (the Serpent Power in the spine) will start rising within him and the ascetic will become Sada Shiv.
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। 
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌॥
अर्जुन ने प्रश्न किया :- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?[श्रीमद्भगवद्गीता साँख्य योग 2.54] 
Arjun questioned :- Hey Keshav! What are the characteristics of the person in the state of staunch meditation (deep trans meditation), with stable mind (Sthit Pragy-steady wisdom)? How does the person with steady wisdom behave, speak (talk and converse), sit and move-walk?
समाधिस्थस्य :: उस व्यक्ति के लिये आया है जो कि परमात्मा को प्राप्त कर चुका है। ज्ञान योगी को प्राय: साधना अवस्था में ही उपरति हो जाती है। सिद्ध अवस्था में वह कर्मों से उपराम हो जाता है। भक्ति योगी साधक की भी साधन अवस्था में जप, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदि भगवत्सम्बन्धी कर्म करने में रूचि होती है। सिद्ध अवस्था में भगवत्सम्बन्धी कर्म विशेषता से होते हैं। ज्ञान योगी और भक्ति योगी की साधन और सिद्ध अवस्था में अन्तर आ जाता है। पर कर्म योगी की साधन और सिद्ध अवस्था में अन्तर नहीं आता। उसका दोनों अवस्थाओं में कर्म करने का प्रवाह ज्यों का त्यों चलता रहता है। स्थित प्रज्ञस्य ऐसा साधक-सिद्ध पुरुष होता है जो कभी विचलित नहीं होता-जिसकी बुद्धि-प्रज्ञा स्थिर है।
Samadhist-stanch meditation, is the term used for one who has attained the Ultimate. The Sankhy Yogi is detached in early stages and matures-attain equanimity with the Karm. The Bhakti Yogi takes interest in recitation of prayers, meditation, religious conglomerations-discourses, self studies and the deeds pertaining to the Almighty. He perform the deeds with perfection in a state of accomplishment. Differences creeps into the two stages preparation stage where he utilises various methods-procedures and the state of accomplishment of the Gyan Yogi & the Bhakti Yogi. No differentiation occur between the two stages i.e., preparedness and the accomplishment. His flow of deeds continues as such. Sthit Pragy (the Sadhak, desirous, performer, devotee) accomplished who never feel disturbed. His intellect-prudence is stable.
Firm determination aided by enlightenment-Gyan may lead one to emancipation, Salvation-Moksh.
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥
अन्य योगी लोग सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की सभी क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम, योग समाधि, योग रूप अग्नि में हवन किया करते हैं।[श्रीमद्भागवत गीता 4.27]
There are the other Yogis, who sacrifice all the actions of their senses and the Pran (vital airs) in the fire kindled by the knowledge of the Yog of self-restraint.
समाधि भी यज्ञ स्वरूप है। योगी समस्त इन्द्रियों को मन-बुद्धि सहित समाधि अवस्था में ले जाकर उन्हें शाँत और निश्चेष्ट कर लेता है। इस अवस्था में प्राणों की क्रियाओं का हवन भी हो जाता है अर्थात वे रुक जाती हैं। हठयोग में, समाधि की अवस्था में, कुम्भक क्रिया का अभ्यास प्राणों को घंटों, दिनों (वर्षों) तक रोक कर, आयु बढ़ाता है। समाधि काल में मन को एकाग्र करने पर प्राणों की गति स्वतः रुक जाती है। समाधि और निद्रा दोनों ही अवस्थाओं में कारण शरीर से सम्बन्ध बना रहता है और सच्चिदानंद परमात्मा ही सर्वत्र परिपूर्ण है, ऐसा ज्ञान जाग्रत रहता है। निद्रा काल समाधि से भिन्न है, क्योंकि इसमें प्राणों की गति कायम रहती है। चित्तवृति निरोध रूप अर्थात समाधि रूप यज्ञ करने वाले योगी जन इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं का समाधि रूप अग्नि में हवन किया करते हैं। मन-बुद्धि की चञ्चलता को त्याग कर सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर समाधि में स्थित होकर सच्चिदानन्द परमात्मा में स्थित हो जाते हैं। 
Staunch meditation is also a form of Yagy (holy sacrifice, burning). Yogi directs (channelize) his sensualities along with mind and intelligence, into staunch meditation and silences (over power, control, ride) them. In this process the life sustaining forces are also sacrificed. They come to a halt. During Hath Yog and staunch meditation, the practitioner controls his breath initially from minutes to hours and years, which boost his longevity. There are Yogis who's chronological age is in thousands of years. During the period of Samadhi, the brain is thoroughly immersed (concentrated, directed, channelized) into the Almighty. Though the heart beat stops, yet brain remain conscious, keeping him alive. The practitioner is absorbed completely into the sensation of the presence of the Almighty, all around him. He experiences bliss-Parmanand. This state is different to that of sleep, in which the flow of air (breathing, respiration) vital continues. Controlling the activities of the brain, which roams around in all directions i.e., the state of Samadhi, the Yogi diverts the actions-activities of the mind & intelligence into sacrificial fire, in the form of Samadhi. This is state, when the devotee is stabilised-established in the Almighty.
योगी युञ्जीत सततमा त्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥
भोग बुद्धि से संग्रह न करने वाला, इच्छा रहित और अन्तःकरण-मन को वश में रखने वाला योगी, एकान्त में स्थित होकर मन को निरन्तर परमात्मा में लगाये।[श्रीमद् भगवद्गीता 6.10]
The Yogi, who has rejected all desires, does not accumulate for comforts, should control his innerself, stay alone (cave, prefer solitude, in a deserted place or jungle) and concentrate his mind in the Almighty.
ध्यान योग में योगी को चित्त वृत्तियों का निरोध करना है, क्योंकि उसका लक्ष्य ध्येय केवल परमात्म प्राप्ति है। यह योगी-साधक को संसार से विमुख करके परमात्मा में लगा देगा। इसके लिए, उसे अपने लिये सुख बुद्धि से कुछ भी संग्रह नहीं करना। भोगेच्छा, कामना, आशा का त्याग भी उसे करना है। साधक को अन्तःकरण सहित चित्त को वश में रखना है। वो कोई भी नया काम राग पूर्वक न करे। उसे ध्यान साधना एकान्त में करनी चाहिए, ताकि उसका मन भटके नहीं। एकान्त में ध्यान करने के लिए जाने से पहले वो यह सुनिश्चित कर ले कि अब संसार में उसके लिए कोई कार्य-जिम्मेवारी नहीं है। उसे केवल प्रभु का स्मरण-चिंतन ही करना है। वह ध्यान के समय तो तत्परता से चिन्तन करे ही, व्यवहार में भी निर्लिप्त रहे। 
There is always a possibility of distraction due to interest in worldly affairs for the Yogi (practitioner, ascetic). He has to control his tendencies, desires, motives and channelize-divert, all his energy-power into the Almighty. He has to isolate him self from the worldly affairs. He has to reject all sort of accumulation for seeking comforts-pleasure. For this, he has to reject desire for comforts, passions and expectations. Not only the innerself needs to be reigned, but its the motives-manoeuvres, which deserve to be restricted (curtailed, rejected). He should not initiate any new ventures endeavours-activities with attachments. He has to move to some isolated-deserted place for meditation-asceticism, so that outer world does not affect him, his mind does not distract, memory does not intrigue him. Still, he should ascertain that he has fulfilled all responsibilities and nothing is left for him to do-accomplish. His sole aim (goal, target) is relinquishment and assimilation in the Almighty. The time available with him after meditation should be spent without attachment, desires, motives, affections, accumulations etc.
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥
उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए, मन को एकाग्र करके, अन्तःकरण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करे।[श्रीमद् भगवद्गीता 6.12]
On should comfortably occupy the seat, concentrate his mind, control the actions of the mind and the senses and practice Yog for the purification of innerself.
आसन आराम दायक हो, ताकि योगी लम्बे समय, लगभग 3 घण्टे तक हिले-डुले बगैर, शान्ति पूर्वक, सिद्धासन, पद्मासन या सुखासन में बैठे। इस दौरान मन, चित्त, इन्द्रियों, क्रियाओं को वश में रखे। मन को एकाग्र और शाँत रखते हुए परमात्मा का चिंतन-ध्यान करे। अन्तःकरण की शुद्धि ही ध्यान योग का मकसद-ध्येय है। 
The seat should be comfortable, so that the practitioner is able to devote long hours in one sitting say 3 hours. He can adopt Siddhasan, Padmasan or Sukhasan for sitting postures. This is the time when he has to isolate himself from the external-outer world and concentrate solemnly in the Ultimate. All his thoughts-ideas, energies should be channelized into the Almighty. He can form a mental image of the Almighty and keep concentrating in HIM. The sole aim is to penetrate into the God, by breaking the obstacles, barriers of this world-nature.
Image result for Images matsKUSH-MUNJ MAT-POOJA ASAN-SEAT :: Kush grass is sacred. Yogis-Sages often sit on Kush-Munj grass mats when they perform meditation.
A prayer Mat is used as a Asan-Chatai or seat while performing Pooja, prayers, meditation, worship. It may be square-round or circular. It allows the Yogi to maintain that serene state of mind without being affected by the adversity of the environment surrounding him and cuts off his direct connection from the earth to check the flow of electric charges into the earth. It is also a remarkable insulator, both physically and metaphysically. 
Kush signifies sharpness or pointed ends. It emerges from the Almighty. Evil forces like, ghosts, spirits, demons, etc. keep away from the place, where it is used. This is considered to be the holiest of all the places of pilgrimage-Tirth Sthal (तीर्थ स्थल). The spot where Gautom Rishi finally secured Ganga on earth had Kush-Durv grass spreaded over there. Kush grass is considered purifying and rings woven of it are sometimes worn in worship to keep the hands ritually pure. Durvasa Rishi got his name from Durv, since he survived over the juice-extract of Durv grass, only.
वस्त्रासने दरिद्रयम् पाषाण रोग सम्भवः। 
मेदिनयम् दुःखमाप्नोति काष्ठे भवति निष्फलं 
Bhagwan Shiv reveals the malefic effects of ignorantly choosing the wrong Asan-the seat for meditation. Sitting on a seat of cloth leads one to misfortune, sitting on stone floor or on a rock brings diseases; do not sit on the ground directly as it brings sorrow and a seat made of wood is ineffective. All these seats are grounding energies, whereas a proper seat is one, that generates energy for Tapas (ascetics, penance for Liberation). With grounding energies, Tap Shakti-Ascetic Power (the power of meditation) will be drained away into earth. Whereas a proper Asan-a mat of Kush, retains energy, protects and retains the Guru Shakti (the soul power) in the practitioner.
When one sit for meditation (Dhyan) with the right resolution (Sankalp), seated on the right Asan & posture, his seat becomes a Shakti Peeth (Power Pedestal), as the Shakti-Kundlini (the Serpent Power in the spine) will start rising within him and the ascetic will become Sada Shiv. 
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥
शरीर, सिर और गले को सीधा और स्थिर रखते हुए, अपनी नासिका के अग्रभाग को देखते हुए और अन्य दिशाओं को न देखते हुए, स्थिर होकर बैठे।[श्रीमद् भगवद्गीता 6.13]
The Yogi-practitioner should keep his body, head and the neck straight-erect and still, fix his gaze on the tip of his nose, without looking around into the other directions and sit still. 
साधक को चाहिये कि वो अपने सर-मस्तिष्क, गर्दन और कमर-रीढ़ को स्थिर-अविचल रखे। इस अवस्था में मनुष्य की चिंतन शक्ति एक दम बढ़ जाती है और नींद भाग जाती है। चेतना का स्तर बढ़ जाता है। मन शान्त हो जाता है। किसी भी अन्य दिशा में देखने से एकाग्रता भंग हो जायेगी। नासिका के अग्र भाग को देखते हुए ध्यान केंद्रित करना है अर्थात परिदृश्य दृष्टिगोचर न हो। इस अवस्था में चिन्तन, मनन, ध्यान लगभग 3 घंटे तक कायम रखना चाहिये 
The practitioner has to maintain his head, neck and the backbone erect. This posture involves the tail point and the tip of the head, to be kept vertically erect. The mental capabilities of the devotee increase enormously in this posture. His thought process becomes very efficient and the level of concentration-meditation enhances-boosts many fold. The brain becomes calm and composed. As a matter of experience one loss his sleep. Enlightenment comes automatically after due practice. The head should face some distant point through the middle of eye brows, straight over the nose, so that nothing around is visible. He has to make mental image of the Almighty and recite his name quietly, repeatedly for around 3 hours at a stretch. This process is adopted to awake KUNDLINI by the Yogis.
Those who find difficulty in learning may also adopt this posture for better memory understanding of the text.
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥
जिसका अन्तःकरण शाँत है, जो भय रहित है और जो ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित है, ऐसा सावधान ध्यान योगी मन का संयम करके, मेरे में चित्त लगाता हुआ, मेरे परायण होकर बैठे।[श्रीमद् भगवद्गीता 6.14]
The serene-cautious Dhyan Yogi, who has attained peace, solace, tranquillity in his heart & mind-innerself, is fearless and devoted to celibacy, should concentrate in the Almighty while retaining his stillness. 
राग-द्वेष से रहित शुद्ध चित्त-अन्तःकरण वाले ध्यान योगी को रिद्धि-सिद्धि, हर्ष-शोक कामनाएँ परेशान नहीं करतीं। अतः वो शान्त है। शरीर के प्रति मैं या मेरे पन की भावना उसमें नहीं है, इसलिए वो भय रहित है। शरीर रहे या जाये, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर रक्खा है। विषय-भोग, कामनाएँ-वासनाएँ, मान-सम्मान, शब्द, रूप, रस, गन्ध में उसकी भोग बुद्धि नहीं, अपितु निर्वाह बुद्धि है। सब तरफ से ध्यान हटाकर वो केवल परमात्मा की लीलाएँ, गुण, प्रभाव, महिमा, कथा-कहानियाँ आदि का ही चिंतन करता है। इस प्रक्रिया के दौरान वह अत्यंत-अत्यधिक सावधान और जाग्रत है। उसका उद्देश्य केवल मात्र परमपिता परमात्मा ही है। मन से बार-बार किसी वस्तु का मनन किया जाता है और चित्त से केवल एक ही वस्तु-ध्येय का चिन्तन किया जाता है। 
The Dhyan Yogi-ascetic devoted to meditation, is free from attachments-enmity. Accomplishments-failures, pleasure-pain do not hurt-disturb him. It makes him quite-peaceful. He has no inclination for the body in the form of ego, pride or arrogance (I, My, Me, id, ego, super ego). Whether the body survives or perish does not affect him. He is fearless. He has withdrawn himself from the activities of the living world. He practices celibacy. Sex, sensualities, lust, passions, immorality, lasciviousness do not over power him. Comforts, honours, pleasing-hurting words, pleasing essence-scents, smells, extracts, concerts-functions do not allure-attract him. He is neutral to them. He observes-sees them, but remain isolated-unattached from them. He pulls out his attention from the world and put it into the Almighty, solemnly. He remembers the glory, stories, characteristics, effects-impacts of the God only and discards every thing other then them in his memory. Events of the past do not haunt him. He is very attentive-awake in this state of devotion-meditation, to the God. He has only one thing in his mind and that is the Ultimate. Only one thing is left in his thoughts and that is nothing other than the Almighty.
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥
नियंत्रित मन वाला योगी इस प्रकार मन को निरंतर मुझ में लगाता हुआ, मुझ में सम्यक स्थिति वाली जो निर्वाण परम आनंदरूपी शान्ति है, को प्राप्त होता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 6.15]
The Yogi-devotee, who has controlled his gestures-mind and always keeps it aligned-fixed with the Almighty, attains the Ultimate peace, solace, tranquillity (the blissful peace of Liberation).
साधक को चाहिए कि वो स्वयं को धर्म, जाति-पाँति, गृहस्थ आदि विषयों से मुक्त कर, स्वयं को केवल ध्यान योगी ही माने। वह केवल परमात्मा से अपना सम्बन्ध माने। अपना उद्देश्य रिद्धि-सिद्धि से ऊपर तय करे। इस प्रकार अन्तःकरण और बहिःकरण की स्वाभाविक प्रवृति हो जायेगी। योगी निरंतर-सतत् अभ्यास जारी रखे। ध्यान योग में निर्विकल्प में स्थिति और बोध को प्राप्त करे। यही परम् निर्वाण प्रदायक शाँति-नैष्ठिक शाँति उसे प्राप्त हो जाएगी।  
One has to elevate himself above the religion, Varn, caste-structure, regional, country status as a house holder-family dweller and align all his energies with the Ultimate. He should consider his relation with the God only. He should not restrict himself up to the attainment of Riddhi and Siddhi-accomplishment (prosperity, wealth, opulence, attainment of enlightenment & super natural powers). This will turn him into a practitioner having achieved purification of innerself and outer manifestations. His inborn inclination towards the Almighty will evolve, with which he should continue uninterrupted-continuously. This will lead him to the Ultimate peace, solace, tranquillity. Thereafter, its only bliss and assimilation in the Ultimate.
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥
हे अर्जुन! यह योग न तो अधिक खाने वाले का, न ही बिलकुल न खाने वाले का, न अधिक शयन करने वाले का और न ही सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 6.16]
Hey Arjun! This Yog is not possible for the one who eats too much, beyond his hunger-appetite or the one who does not eat at all, nor for him who sleeps too much or the one who is always awake. 
जरूरत-भूख से अधिक खाने वाला, आसन पर अधिक-समुचित, पर्याप्त काल तक बैठ नहीं सकता, क्योंकि मल-मूत्र उत्सर्जन उसे सतायेंगे। अधिक खाने वाला नींद, आलस्य  का शिकार भी होता है। बिलकुल न खाने वाला कमजोरी, थकान और शिथिलता का शिकार होता है। ज्यादा सोने वाला दर्द, स्वप्न, आलस्य का शिकार होता है। बिल्कुल न सोने वाले को नींद सताती है। सात्विक प्रवृति वाले मनुष्य भगवत भजन-कीर्तन, कथा-चरित्र सुनना-कहना आदि में रस विभोर होकर नींद थकान आलस्य, भूख-प्यास भूल जाता है। परन्तु राजसिक-तामसिक प्रवृति वाला इनसे प्रभावित हुए बगैर नहीं रहता। 
One who eats too much suffers from indigestion, acidity, desire for excretion-urination, which is bound to hinder the Dhyan Yog (concentration, meditation, asceticism). He is attacked by sleep, (dizziness, laziness, idleness). Other one, who avoids taking food becomes weak. One who sleeps too much suffers from pain, laziness, dreams etc. When there is no sleep, it becomes difficult to concentrate or to do any thing, what to say of asceticism-Yog. Those with virtuous tendencies and perform, enjoy, relish recitation of God's names, listening-saying, Gods stories-character, forget sleep, hunger, thirst. Those with aristocratic-Rajsik style, wickedness-Tamsik suffers the most from sleep, hunger. Such people can not devote time for the God or the service of man kind.
Its easy to perform daily routine and continue with ascetics, concentration-meditation in the Almighty.
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥
दुःखों का नाश करने वाला योग तो सम्यक्-यथा योग्य आहार और विहार करने वाले का, कर्मों में सम्यक् चेष्टा करने वाले का और सम्यक् प्रकार से सोने और जागने वाले का ही सिद्ध होता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 6.17]
The Yog which destroys sorrow-pain, is possible for the one who consume (take, utilise) moderate food, perform other activities moderately-modestly, whose actions are moderate, whose sleep and waking is moderate.
भोजन सत्य, न्याय और सदाचार पूर्वक कमाए गए धन से प्राप्त किया गया हो, सात्विक हो, अपवित्र न हो। भोजन स्वाद और पुष्टि बुद्धि से नहीं, अपितु साधन बुद्धि से किया जाये। भोजन उतना ही किया जाये, जितना कि पच सके या उससे थोड़ा कम। वह शरीर के अनुकूल हो, हल्का हो। धूमना-फिरना, व्यायाम, योगासन उतना ही किया जाये, जितने से शरीर थके नहीं। वर्ण-आश्रम धर्म-कार्य निर्वाह, देश-काल, आवश्यकता-परिस्थितियों के अनुसार-अनुकूल, कुटुम्बियों के निर्वाह, समाज के हितचिंतन, परमार्थ, कर्तव्य-कर्म शास्त्रानुसार प्रसन्न चित्त से किये जाएँ। पर्याप्त नींद का लेना जरूरी है, ताकि शरीर स्वस्थ रहे, थकान मिटे, आलस्य न हो। दिन में सोना हितकर नहीं है। जल्दी सोना और जल्दी जागना चाहिए। मनुष्य योनि में जन्म साधना के लिए मिला है। अतः उसमें लगना भी जरूरी है। इस प्रकार जीवन निर्वाह करते हुए ध्यान योगी में दुःखों का अभाव हो जायेगा। योग में भोग का अभाव है, मगर भोग में योग का अभाव नहीं है। यह प्रक्रिया सभी प्रकार के योग में प्रयुक्त हो सकती है। 
The food one consumes, should be obtained from the money earned through righteous-honest means. It should be pure-pious. It should be utilised just to survive not for the sake of taste or body building. Only that much food should be eaten, which can be digested easily by the body. It would be better if one eats a bit less than his hunger-appetite. It should be light and able to sustain the body. Walking-running, physical exercise, Yogasan should be within limits, so that the body is free from tiredness, fatigue, stress and strain. One has to earn according to his Varnashram Dharm, country-region, necessities-requirements for himself and his family, in accordance with the scriptures, for the welfare of the society-others. One has to take sufficient sleep-maximum 8 hours in a day. But he should avoid sleeping during the day. He should get up early and sleep early. The incarnation as a human being is meant for the efforts to become free from birth and death. He should make endeavours to achieve Salvation. If these principles are followed, he would have no worries, tensions, difficulties. Its not possible to become a consumer, while practicing Yog; but one can become a Yogi while consuming-performing various other activities simultaneously. These procedures are meant for all sorts of Yog-ascetic practitioners.
One should always avoid extremes & fatigue, since too much of every thing is bad.
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥
जब नियंत्रित किया हुआ चित्त अपने स्वरूप-आत्मा में ही स्थिर हो जाता है और सम्पूर्ण पदार्थों से निःस्पृह (सभी भोगों में इच्छा से रहित) हो जाता है, तब वह पुरुष योगी है; ऐसा कहा जाता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 6.18]
One, without any desires is said to have become a Yogi, when the restrained mind-gestures (restricts themselves) remains still within the Self.
चित्त की 5 अवस्थाएँ हैं :- (1). मूढ़ (idiot, duffer, silly), (2). विक्षिप्त (mental wreak),  (3). क्षिप्त (a muck, lunatic, madman, neurosis, deranged, insane, distracted, distraught, brain sick, deranged, unsound, unstable, demented, rabid), (4). एकाग्र (concentrated) और (5). निरुद्ध (Constrained, Detained)। 
मूढ़ और विक्षिप्त वृत्ति वाला योग का अधिकारी नहीं होता। क्षिप्त जिसका चित्त कभी स्वरूप में लगता है, कभी नहीं लगता, योग का अधिकारी है। चित्त वृत्ति के एकाग्र होने पर सविकल्प समाधि होती है। एकाग्र वृति वाले का चित्त जब निरुद्ध अवस्था में होता है, तब निर्विकल्प समाधि होती है। निर्विकल्प समाधि को ही योग कहा गया है। 
वश में किया गया चित्त (संसार के चिंतन से रहित), अपने स्वतः सिद्ध स्वरूप (जो जब यह सब कुछ नहीं था, तब भी वह था; जब यह सब कुछ नहीं रहेगा, तब भी वो रहेगा, जो सबके उत्पन्न होने से पहले भी था और सबका लय होने के बाद में भी रहेगा, जो अभी भी ज्यों का त्यों है) में स्थित हो जाता है। उस स्वरूप के सिवाय रस और आनन्द मन को कहीं भी प्राप्त नहीं है। जैसे-जैसे, जिस क्षण वश में किया चित्त स्वरूप में स्थित हो जायेगा और वह  प्राप्त-अप्राप्त, दृष्ट-अदृष्ट, एहलौकिक-पारलौकिक, श्रुत-अश्रुत सम्पूर्ण पदार्थों-भोगों से निःस्पृह हो जाता है, वह योगी हो जाता है। स्वरूप में स्थित ध्यान योगी वासना, कामना, आशा, तृष्णा, स्पृहा, जीवन निर्वाह से रहित होता है और योगी हो जाता है। 
Brain has 5 stages :- (1). When one does not understand any thing. (2). He is a mental wreak. (3). He is a lunatic-insane. (4). His brain is concentrated (fixed, deeply involved in  a certain aspect) & (5). The brain has been constrained (over come, mastered). Idiot & mental wreak can not understand or practice Yog. A lunatic hover between concentration and fluctuations i.e., disturbed-destabilised states. He may or may not be trained as a Yogi. One who has controlled his senses, motives, gestures, fluctuations attains staunch mediation stage. One who has constrained-relinquished reaches the Ultimate Samadhi and is sure to become a Yogi.
The wavering mind has to be controlled-reigned from the thought of the eventual world. It has to be fixed in its real form-entity, the innerself, which used to be there when nothing was there, which is present-is still there, as such and will continue to exist, which will retain itself even when each and every thing has gone (destroyed, doomed, perished). One can not experience the real-true bliss, rejoice, happiness else where, except his true state-the innerself. Slowly and gradually one will detach from accomplishment-failures, visible or hidden, present abode (earth) or the other worlds (heavens, nether world, hells & abodes in other galaxies), heard or assumed. This is the stage which stabilises him as a Yogi. Now, he do not need any thing, has no motivations, desires-expectations, sensualities-passions.
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥
जिस प्रकार वायु रहित स्थान में रखे दीपक की ज्योति अचल रहती है, वैसी ही उपमा (quotation, example) आत्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के नियंत्रित चित्त की कही गई है।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.19]
The Yogi with a controlled mind-innerself and gestures is comparable to the lamp, which glows without flicker. 
स्पंदन रहित वायु के स्थान में दीपक की लौ बिलकुल भी नहीं झपकती। उसी प्रकारअभ्यासरत योगी का मन, चित्त स्वरूप परमात्मा के सिवाय किसी अन्य वस्तु का चिन्तन, स्मरण, मनन नहीं करता। मनुष्य का मन-चित्त स्वभाव से चञ्चल है, जिसको काबू में रखना बेहद कठिन है। जिस प्रकार दीपक की लौ प्रकाशवान है; उसी प्रकार साधक का चित्त भी स्वरूप से जाग्रत-प्रकाशित है। समाधि में भी चित्तवृत्ति जाग्रत रहती है।  
A lamp continues flickering with the slightest gush of air. If it is kept at a place where air does not flow-blow, it glows with stable light. The Yogi has to control his brain during practice so that it does not waver-fluctuate with the worldly thoughts, ideas, memory. Its awake continuously while performing the exercise with unification in self-the Almighty. His body is stable, mind is stable and he is immersed in the prayer of the Ultimate. The human brain (mood, gestures, psyche, innerself) is very active-fertile and think of all sorts of things and its really very difficult to restrain-control it. The way the wick of the lamp shines -glow creating a luminous zone around it, the Yogi too create an aura around him being alert (conscious, active), which is a sign of his asses to his innerself-Soul and the God.
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।

यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥
योग के अभ्यास से नियंत्रित चित्त परमावस्था में शांत हो जाता है और ध्यान के द्वारा स्वयं अपने आपमें, अपने आपको-आत्मा को देखता हुआ स्वयं में ही सन्तुष्ट रहता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 6.20] 
One who has become quiescent (मौन, स्थिर, अचल, निष्क्रिय, सुप्त, निश्चल, mute, voiceless, taciturn, stable, static, stationary, constant, stagnant, immovable, invariable, irreplaceable, unshakeable, still, idle, deed less, effortless, idle, immobile, restrained) by the practice of Yog; while, seeing the Self, soul, innerself by the self, is satisfied in his own Self.
ध्यान योग में मन को स्वरूप में लगाना है, जिसे धारणा (concept, idea, steadfastness, holding in the mind) के  नाम से जानते हैं। चित्त का प्रवाह केवल स्वरूप में हो जाता है जो, ध्यान कहलाता है। इस दौरान ध्याता, ध्यान और ध्येय में से साधक केवल ध्येय पर केंद्रित हो जाता है। यह अवस्था ही समाधि है। चित्त एकाग्र अवस्था में आ जाता है और अंत में केवल ध्येय शेष रहता जो कि निरुद्ध अवस्था है। निरुद्ध अवस्था में सबीज समाधि  सूक्ष्म वासना के कारण से सिद्धियां प्रकट हो जाती हैं, जो सांसारिक दृष्टि से ऐश्वर्य परन्तु पारमार्थिक दृष्टि से विध्न हैं। इस समय वह स्वयं में सन्तुष्ट है। इस अवस्था में योगी उपराम हो जाता है। उसका चित्त से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। उसे स्वयं अपने आप-स्वरूप में संतोष होने लगता है। कर्म योग में यह अवस्था उसे तब मिलती है, जब वह कामनाओं का त्याग करके अपने-आपसे संतुष्ट हो जाता है। ध्यान योग करण सापेक्ष और कर्मयोग  करण निरपेक्ष है। 
One concentrate him self in the inner self, soul, Almighty, which is steadfastness. All energies start flowing into the Self, which is deep penetration-stabilisation. During this process the practitioner, stabilises over the goal-Almighty and pin point-concentrate only over the target-God. This is Samadhi. The brain acts-flows unilaterally into the Almighty. Ultimately, only the Almighty remains over the scene which is the state, when one has become isolated (disconnected, cut off) from every thing (activity, event, happening)  around him. This is the state where all sorts of accomplishments occur before the practitioner, but he solemnly rejects them all. These accomplishments occur due to the presence of desires-passions some where within him, but he over power them as well. These accomplishments are comforts-pleasures but obstacles for him, since he is restrained from the Ultimate devotion-sacrifice, by these. The Yogi finds him self content-satisfied and rejects all these accomplishments. He is free from gestures, variations, deviations. He starts finding contentment within him self. This stage is reached when he rejects all sorts of motives (desires, allurements, attainments) and he finds contentment within Self, while practicing Karm Yog. Dhyan Yog does not involve the senses (organs, implements, faculties). Karm Yog utilised all faculties available within the body.
सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्। 
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥
जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य (इन्द्रियों से परे, केवल शुद्ध व सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य अनन्त आनन्द) है, उस सुख का जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस सुख में स्थित हुआ यह ध्यानयोगी तत्व (आत्मा के स्वरूप) से फिर कभी विचलित नहीं होता।[श्रीमद् भगवद्गीता 6.21] 
The Dhyan Yogi will never deviate from the Self on experiencing the Ultimate pleasure-bliss, which can be achieved-transcend beyond the limits of the senses or can be grasped through pure and sharp intelligence-prudence; which he experiences in a steady state.
आत्यन्तिक सुख वह सुख है जो ध्यान योगी अपने आप में महसूस करता है। यह तीनों गुणों (सात्विक, राजसिक, तामसिक) से अतीत, अक्षय, अत्यन्त ऐकान्तिक और स्वतः सिद्ध है। यह सात्विक सुख से भी बेहतर है जो कि परमात्म विषयक बुद्धि की प्रसन्नता से उत्पन्न होता है। अतीन्द्रिय अर्थात इन्द्रियों की सीमा से ऊपर राजस सुख से भी उत्तम, पराधीनता से परे, मन की पहुँच से ऊपर जो कि स्वयं  द्वारा ही अनुभव किया जाता है। अतीन्द्रिय वो लोग (साधक, योगी, सिद्ध) होते हैं, जो किसी भी बात को स्वतः जान लेते हैं। यह सुख बुद्धिग्राह्य अर्थात तामस सुख से भी विलक्षण है, जिसमें निद्रा, आलस्य, प्रमाद हैं; जिसमें बुद्धि-विवेक कार्य नहीं करते। ध्यान योगी इसको अपने आपमें अनुभव करता है। वह इससे चलायमान-विचलित नहीं है।
The extreme (Ultimate pleasure, bliss) experienced by the Dhyan Yogi is over and above the three types of comforts a human being can experience through virtues, authority. This type of pleasure can be achieved by the person who has attained the gist of the Almighty. The sixth sense (intuition, farsightedness) is often talked about those, who can see the future. This state is icon to the state of the practitioner who has gone beyond the limits-realms of the nature. The intelligence-prudence too lack in grasping this Ultimate state achieved by the Dhyan Yogi. This pleasure is experienced within self and is permanent-forever. The Yogi does not deviate from this.
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥
जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कोई लाभ नहीं है और इस लाभप्रद स्थिति में योगी बड़े से बड़े दुःख से भी दुखी नहीं होता।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.22]
The supreme gain (Ultimate pleasure-bliss is the last stage of attainment above which the Yogi has nothing to obtain-gain) is the Ultimate gain beyond which the Yogi has nothing to gain-achieve and he does not move even after getting worst possible pain. 
तामस, विषय जन्य और सात्विक सुख से भी ऊपर आत्यन्तिक सुख (परमानन्द, परमात्म प्राप्ति) है, जिसके ऊपर अन्य कोई सुख नहीं है। इस अवस्था को प्राप्त करके योगी अन्य किसी सुख की अपेक्षा नहीं करता। इस स्थिति में बड़े से बड़ा दुःख भी आ जाये तो उसे विचलित नहीं करता। परमानन्द कर्म, ज्ञान, ध्यान और भक्ति योग की कसौटी है। 
The 4 routes of Salvation takes one to bliss, beyond which there is nothing to gain-acquire. This is the state which when reached by the Yogi, make him unmoved-unconcerned in the greatest possible pain (trouble, tortures). The 3 types of pleasures known to the humans are Tamas (lethargic, sloth, laziness), Rajas (comforts, luxuries) and the Satvik (virtuousness).
There is no place for worries, pains, sorrow, repentance where bliss is present.
तं विद्याद्‌दुःखसंयोग वियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥
जिसे समझकर दुःख भरे संसार के संयोग से वियोग हो जाता है, उसी को योग के नाम से जानना चाहिए। उस ध्यान योग का अभ्यास निरन्तर, सतत, उत्साह युक्त (धीर) चित्त से निश्चयपूर्वक करना चाहिये।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.23]
The concept-understanding which, generate detachment-severance from the union-association with pain is called union-Yog, must be practiced with determination and without being loosing heart, bored.
मनुष्य द्वारा इस दुःख रूपी संसार से अपना सम्बन्ध मान लेना उचित नहीं है। इससे जब संयोग ही नहीं तो वियोग कैसा!? शरीर और संसार का संयोग अस्थाई-अस्वभाविक है। यह संसार भी अनित्य-नश्वर है। आत्मा-परमात्मा, अनश्वर (नित्य, निरन्तर, चिरस्थाई) हैं, जबकि शरीर नश्वर-नष्टप्राय: है। संसार के साथ सम्बन्ध मानते ही चिरस्थाई के साथ सम्बन्ध नित्ययोग की विस्मृति हो जाती है। मनुष्य का इस संसार में जो दुःखों से संयोग हुआ है, उसका वियोग ही योग है। दुखों के संयोग का अभाव साध्य रूपी समता है, जिसका अभ्यास साधक-ध्यान योगी को दृढ़ निश्चय से, उकताए बिना निरन्तर सतत् रूप से करते रहना चाहिए। मानों तो दुःख-कष्ट है, अन्यथा नहीं। मनुष्य को यही समझना है कि बीमारी, परिस्थिति, दुःख-कष्ट केवल पापों का समाप्त-नष्ट होना मात्र हैं। अनेकानेक जन्मों के संचित पाप धीरे-धीरे समाप्त होते चले जायेंगे और साधक अपनी ध्यानावस्था में शनै-शनै परमात्मा में लीन होता चला जायेगा, बशर्ते कि आगे कोई गुनाह-पाप न करे।    
The basic-root cause of worries-pains is one's assumption-understanding that this world belongs to him.  One considers himself to be part and partial of this world-nature. The moment this thought-ides creep into the mind, his association with the Ultimate-eternal is lost, masked-hibernated. The soul is a component of the Almighty not the nature. The body is a component of the nature awarded to one to utilise it, as a tool to immerse in the eternal. The relationship (bond, ties) with the perishable world are temporary. The soul and the Supreme are forever. The detachment of bonds with the worries-pains is Yog. Pains-worries are merely the embodiment of sins in previous births which when discarded-rejected, does not affect the practitioner. He knows that if they have come, they will vanish as well, sooner or later. He adopts a neutral stance-gesture towards them and bears them with ease, peacefully. This awards him equanimity with pleasure-pain. This equanimity is Yog. He has to continue with this practice with firm determination, as a routine, till he takes births. Slowly and gradually these sins will be over and he will be successful in attaining assimilation in the Almighty, provided no new attachments, bonds, ties, sins-evils are formed by him.
संकल्पप्रभवान् कामांस्-त्यक्त्वा सर्वानशेषतः। 
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥6.24॥
शनैः शनैरुपरमेद्‌बुद्ध्या धृतिगृहीतया। 
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्॥6.25॥ 
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। 
ततस्ततो नियम्यैतदा-त्मन्येव वशं नयेत्॥6.26॥ 
ध्यान योगी को चाहिए कि वो संकल्प  से उत्पन्न होने वाली सभी कामनाओं को पूरी तरह से छोड़ कर, मन द्वारा इन्द्रिय समूह को सम्यक् प्रकार से  रोककर, धीरे-धीरे बुद्धि को शाँत करते हुए, धैर्य पूर्वक मन को आत्मा में स्थित करते हुए, कुछ भी विचार न करे। स्थिर न रहने वाला, यह चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय में विचरता है, उस-उस विषय से इसे हटाकर बार-बार एक परमात्मा में ही स्थित करे।
The Dhyan Yogi-practitioner should abandon-reject all fancy born desires-motives, which develop due to his pledges (vows, notions, conviction, conception) by restraining all the senses from all quarters, by the mind. Slowly and gradually, he should calm down his intelligence and fix the mind-gestures into the Almighty with patience-firmness, without deviating or making other considerations. He should restrain the wavering (fluctuating, unsteady mind), under control and fix it into meditation, concentration, thinking remembrances-memory of the God. 
मनुष्य अपने आसपास के वातावरण-परिदृश्य को देखकर अन्यानेक कामनाएँ, कल्पनाएँ, विचार, संकल्प करने लगता है। इन्द्रियाँ और मन यह सब देखकर भोग के लिए ललचाने-लालायित होने लगते हैं। यहीं ध्यान योगी को नियंत्रण करके आसक्तियों का सर्वथा त्याग करना है। इस नियंत्रण का प्रयास करते-करते उसे विचलन-उकताहट होने लगती है। उसे इस अवस्था में सांसारिक उपक्रमों के प्रति उदासीनता अख्तियार करनी-बरतनी  है। इनकी उपेक्षा करने से मन धीरे-धीरे काबू में आने लगेगा। धैर्यपूर्वक मन काबू में आने पर उसे परमात्म तत्व  में स्थापित करना कठिन नहीं होगा। संकल्प-विकल्प, साकार-निराकार, सभी में परमात्म तत्व विहित है, जिसे दृढ़ निश्चय से ही केवल और केवल परमात्मा में लगाना है। यह मन को एकाग्र करके विवेक पूर्वक सांसारिक परिदृश्य से हटाकर सहज भाव से संभव है। मन चंचल है तो क्या? मनुष्य तो मनुष्य है। एक बार ठान ली सो ठान ली। फिर पीछे कदम कैसे और क्यों हटाना ?!
जब-जब प्रलोभन उत्त्पन्न हों, मन को बलपूर्वक साधकर ध्येय-परमात्मा में पुनर्स्थापित करो। जहाँ-जहाँ, जिस-जिस वस्तु में मन विचरण करे-जाये, उसमें परमात्मा को देखो और स्मरण करो। घबराओ मत। तुम उसे याद कर रहे हो तो वो भी तुन्हें याद कर रहा है। यदि तुम उससे मिलना चाह रहे हो तो, वो भी तुम से मिलने को लालायित-बेचैन है। सोच लो कि तुम केवल उसके और वो केवल तुम्हारा है। अन्य कल्पनाएँ-विचारों को बलपूर्वक दिमाङ्ग से बाहर निकल दो। इस दौरान सभी संकल्प-विकल्प छोड़ दो। सामने देखते हुए पलक क्षण भर को झपकाओ। साँस तेजी से बाहर निकालो, अन्दर खींचो और रोको। फिर धीरे-धीरे स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त करो। 
One looks around and grow uncontrolled desires. Senses and the mind becomes greedy and wish to attain them all, unrestricted. This is the stage where the role of Dhyan Yog appears. He has to restrain himself through strong will-power & firm determination. He has to reject all considerations, attachments, desires, false notions and concentrate himself into the Almighty. He starts boring and becomes hopeless-disheartened. But remember, to achieve something better; one has to do more labour. One's efforts have to be whole hearted, without deviation, without compromise, without losing heart-steam. 
There is a trick: Form an attitude of ignoring all of them. As soon one adopts "no concern" attitude for these, they too stop bothering him. Patience is a must. It takes time. Everything around is a creation of the Almighty; so look, feel, find HIM in all of them and the problem is solved. Now, slowly, gradually and surely think of HIM and only HIM. Withdraw yourself from everything around, from the scene and direct all efforts-energy into HIM alone. Just concentrate and see what happens?! 
A human is human! Once, he decides something to do-achieve; no power on earth can pull him back-retract. A firm decision will open the vistas leading to the Almighty.
When ever there is some temptation (greed, allurement, inducement), concentrate in the Almighty with might-strong will. Where ever and when ever the thoughts go, see the Almighty there in them all. Don't loss heart. If one is remembering HIM, HE too is bothering about one. If one wish to meet-see HIM, HE too reciprocate one. Imagine-consider that one belongs to HIM and HE too belongs to him. Remove all other thought, ideas, forcefully out of the mind, imaginations, assumptions. Stop thinking of anything else. Straighten sight, blink the eyes for a fraction of second, exhale the air, have a deep breath, hold the air inside the lungs for some time and gain normal situation-working gradually.
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्। 
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥
जिसके सब पाप नष्ट हो गए हैं, जिसका रजोगुण शाँत हो गया है, जिसका मन सर्वथा शाँत और निर्मल है, ऐसे ब्रह्म रूप बने हुए योगी को निश्चित ही उत्तम (सात्विक) सुख प्राप्त होता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.27]
The Yogi who has assumed-attained Brahm hood (Ultimate form) by losing all sins, who's lethargic, authoritarian tendencies and passions are lost (have become passive, quite, silent, inactive), who's mind is quite (peaceful, tranquil), is sure to attain-achieve the Satvik-virtuous comforts. 
पाप नष्ट होने का अभिप्राय है, तमोगुण से निवृति, प्रमाद और मोह का त्याग। रजोगुण लोभ, वासना, नवीन उद्यम की प्रवृति का प्रतीक है। दोनों ही स्थितियों में माँस, मदिरा, भोग की प्रधानता है और आत्म सन्तुष्टि का अभाव है। तृप्ति प्राप्त नहीं हुई है। सम्बन्ध, राग-द्वेष, कामना पीछा नहीं छोड़ रहे हैं। ध्यान योगी इन सब विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त कर, मन की शान्ति हासिल कर चुका है। उसका मन अब भटकता नहीं है। वह निष्पाप है। उसे ब्रह्म रूप की प्राप्ति हो चुकी है। ऐसी अवस्था में स्वाभाविक है कि उसे सात्विक सुख की प्राप्ति हो जाये। 
Tamas is darkness. The Tamsik individual is lethargic-lazy and shirks work. He enjoy sleep, meat, wine, sex. He has all sorts of bonds with the world. He commits crime-sins, one after another. One with Rajsik attitude is full of ego, intolerance, arrogance, authoritarian attitude. This individual looks for new ventures, activities, projects and physical comforts-luxuries. Both these people love meat, wine, women and are never satisfied with what they posses. Desires, allurements, relations, motivations, always knock at their door. Dhyan Yogi has won all these tendencies by fixing his mind in the Ultimate. He experiences undefined supreme pleasure-bliss. He has no interest in sensuality-passions, worldly possessions. He is satisfied quite-tranquil. His mind does not roam in search of any thing new. He is virtuous (righteous, pious, honest, truthful) and sinless. He is icon to the creator-the Brahma Ji. This state fills him with Satvik pleasure-relaxation.
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शम त्यन्तं सुखमश्नुते॥6.28॥
इस प्रकार अपने आपको निरंतर परमात्मा में लगाते हुए, वह निष्पाप योगी सुख पूर्वक परब्रह्म की अनुभूति करते हुए अति आनंद प्राप्त करता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.28] 
The Yogi who has freed himself from the clutches of sins by concentrating and meditating; always experiences the presence of the Almighty, attaining the Ultimate pleasure-bliss.
ध्यानावस्था में योगी अपने स्वरूप में स्थित होकर निरंतर परमात्मा में लीन होकर अपना अभ्यास बनाये रखता है। इससे वह ममता-अहंता रहित हो जाता है, जिसकी परिणति पापों से मुक्ति में होती है। परमात्मा में मन लगाने से, जड़ता से मुक्ति मिलती है। सगुण प्रभु में तल्लीन होने से संसार स्वतः ही छूट जाता है। मनुष्य के अहंकार का नाश हो जाता है। इस अवस्था में योगी को परम सुख (अत्यंत सुख, आत्यंतिक सुख) की अनुभूति होती है। यह स्थिति परमात्म तत्व की प्राप्ति की सूचक है। 
During the state of meditation-trans, the Yogi-practitioner dissolves-immerse himself in the Almighty. He maintains this practice and perform this as a routine-regularly. His attachments, connections, affections with the world are lost-disconnected. A state is achieved, when he becomes sinless, pious, pure, unsmeared. Concentration-meditation, leads to penetration into the Almighty and freedom from static world. The devotee observes the God with characteristic features. He is deeply involved-immersed in him. His ego is lost. He experiences bliss. This is the state which indicates his realisation of the gist (nectar, extract of the Ultimate, Eternal).
जिस प्रकार अपने काम में लगा-तल्लीन व्यक्ति सभी कुछ भुला कर उसी में जुटा रहता है और संसार की सुध-बुध खो बैठता है; उसी प्रकार एक साधक अपने प्रभु के स्मरण के दौरान सब कुछ भुलाकर उसी में लीन परमानन्द की अनुभूति करता है। 
One gets involved in his work or the work he is doing to such an extent that he forgets everything and the sounds around him are not heard by him. Similarly, if he tries to concentrate in God, bliss is not far for him.
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥
सब जगह अपने स्वरूप को देखने वाला, ध्यान योग से युक्त अन्तःकरण वाला साँख्य योगी, अपने स्वरूप को  सम्पूर्ण प्रणियों में स्थित देखता है और सम्पूर्ण प्राणियों को अपने स्वरूप में देखता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.29]
The Sankhy Yogi who possess Dhyan Yog, observes (sees, finds, identifies) all living organisms-creatures in him and perceives him self in them. 
जिस प्रकार मनुष्य सोने से बने गहनों में केवल सोने को; जलाशय, समुद्र, नदी आदि में केवल पानी को देखता है, उसी प्रकार ध्यान योग से युक्त एक साँख्य योगी नाना प्रकार की वस्तओं और प्राणियों में स्वयं को पाता है। ध्यान योग का अभ्यास करते हुए उसका अन्तःकरण पूर्णरूप से अपने स्वरूप में केंद्रित हो गया है। इस अवस्था में वह अपने अन्तःकरण से भी अलग हो जाता है। संसार परिवर्तनशील है और इसका परिवेश निरन्तर बदलता रहता है। इन सबमें योगी सत्ता रूप से परिवर्तनशील  स्वरूप को ही देखता है। उसकी सत्ता तो प्राणियों में है, मगर उनकी सत्ता उसमें नहीं है। व्यवहार में प्रत्येक प्राणी के साथ बर्ताव अलग होते हुए भी समदर्शी योगी को स्थिति एक रूप ही नजर आती है। 
The Dhyan Yogi perceives himself in each and every object, creature like the presence of water in ponds, lakes, ocean and gold in jewellery. The practice of Dhyan Yog has enabled him to concentrate only over the common component present in  himself and the rest of the world. This is the stage where his inner self too is separated from himself. The world is experiencing change continuously, but the Yogi only perceives the unchanging self in it. He identifies himself with the others but they do not have their identity in him. In practice his behavior-interaction with each one of them may be different but he has attained equanimity in all of them.
Equanimity with all organism, pleasure-pain leads on to Salvation.
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
जो भक्त सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और मेरे लिए वह अदृश्य नहीं होता।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.30]
The devotee-practitioner of Yog who finds-sees ME in every one and sees-observes everyone in ME, is always in MY sight and I AM also in his sight.
जो व्यक्ति-भक्त हर काल, वस्तु, संसार, परिदृश्य, व्यक्ति में प्रभु को देखता है, प्रभु भी उस साधक को हर वक्त निहारते रहते हैं, उसका ध्यान रखते हैं। जो भक्त हर वक्त, हर घड़ी परमात्मा को देखता, खोजता, ढूँढ़ता रहता है, परमात्मा उससे छिपने का प्रयास नहीं करते। ऐसे व्यक्ति को भगवान् भी सब जगह देखते हैं। जो मालिक के शरणागत है, उसे वो आश्रय अवश्य प्रदान करते हैं। जो व्यक्ति भगवान् से विमुख है, संसार में आसक्त है, उसके लिए परमात्मा अदृश्य ही हैं। जिसके दिल में मालिक के लिए भाव नहीं है, उसके लिए वो अदृश्य ही हैं। वे सभी प्राणियों में समान भाव से उपस्थित हैं। न तो कोई उनका द्वेषी है और न कोई प्रिय। जो भक्ति भाव से उनका भजन, स्मरण, ध्यान करता है, उसके वे अपने हैं और वो उनका। 
The Almighty always keep a protective close watch over HIS devotees, who finds-identifies HIM in every phase of time, good, world, scene-sight. The Almighty does not hide HIMSELF from the devotee who is always chasing, searching, tracing, following HIM. Such a person do find (see, observe, perceive) the God everywhere and in every thing. One who seek shelter (asylum, refuge, protection) under the Almighty is obliged by HIM. For one, who is always (indifferent, averse, atheist) to HIM, attached with the world, for him the Almighty is out of sight-invisible. One who has no place for the God in his heart, for him the God is invisible. HE is present in all creatures with the same feelings. None is HIS enemy or favourite. One who remembers HIM, prays to HIM, meditate-concentrate in HIM, prostrate before HIM, HE is always with HIM. HE belongs to that devotee.
The Almighty resides in the heart of every living being as soul. One who wish to see-visualise HIM, make efforts & is successful.
Millions had the opportunity to see the Almighty in physical form, but they could not gain anything due to their bad intent. Duryodhan, Karn, Kans, Jara Sandh, Kal Yawan Shishu Pal (Ravan & Hirany Kashyap earlier)  Dant Vakr (Hirany Kashyapu & Kumbh Karn earlier) were all alike.
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥
हे अर्जुन! जो भक्त-योगी अपने शरीर की उपमा से सब जगह मुझे समान देखता है और सुख या दुःख को भी समान देखता है, वह परम योगी  माना गया है।श्रीमद्भगवद्गीता 6.32]
The devotee-Yogi who perceives the Almighty by comparing his presence in his body everywhere and has developed equanimity in pleasure and pain is deemed to be a perfect-Ultimate Yogi. 
कोई भी व्यक्ति, कभी भी यह नहीं चाहेगा कि उसके शरीर में कहीं पीड़ा हो। वह हर अंग को ठीक कार्य करते हुए देखना चाहता है। सभी प्राणियों में भगवान् को देखने वाला भक्त सभी प्राणियों को समान रूप से आनंदित और कार्यरत देखना चाहता है। उसकी चेष्टा रहती है कि सभी को सर्वत्र आराम, सुख, आनन्द मिले। भक्त-योगी अपने कष्ट, दर्द, बीमारी, दुःख, परेशानी की उपेक्षा, अपने अन्दर-अन्तःकरण में पीड़ा सहने की सामर्थ्य होने से, भले ही कर दे, परन्तु वह अन्य किसी को भी कष्ट होने पर उसके निवारण का उपाय-प्रयास अवश्य करेगा। यह स्थिति उसे उच्च कोटि का योगी बन देती है। 
None in this world would like to experience pain, trouble, torture over his body. He want his body to function perfectly. The Yogi has developed equanimity with all creatures of this world and considers them to be of his own, being a component of the Almighty. He deals with them according to Varnashram Dharm, situation-occasion. He desires to see that all of them are happy and enjoying. He may not treat his body ailments due to the neutrality developed by him in his body or the strength to tolerate it, but he feels the pains of the other organisms and tries to help & rectify them. This tendency makes him a Yogi of the highest level (class, order).
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥
जिसका मन पूरा वश में नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है और उपाय पूर्वक यत्न करने वाले तथा वश में किए हुए मन वाले साधक द्वारा उसका प्राप्त होना सहज है, यह मेरा मत है, भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.36]
One who has not controlled his mind-innerself completely, will find it difficult to attain Yog-assimilation in the Almighty. Its easy-convenient for one who has made sincere efforts  to control it and the one who has controlled it, will find it easy to avail it, this is the opinion of Bhagwan Shri Krashn.  
ध्यान योगी के लिए मन को वश में करना नितान्त आवश्यक है। साधक के लिए मन, इन्द्रिय संयम अति आवश्यक है। विषय भोगों में राग उसके लिए निषिद्ध है। जो साधक उपयोगी आहार-विहार, सोना-जागना, आदि नियमों का पालन तत्परता और दृढ़ता पूर्वक करता है, उसके लिए सिद्धि सरल है। परमात्म तत्व को जानना, समझना, समर्पण, इच्छा का त्याग, मन की शुद्धि में सहायक हैं। एकाग्रता और राग का अभाव परमात्म तत्व प्रदायक है। व्यवहार में साधक यह सुनिश्चित करे कि उसका ध्यान-मन किसी अन्य-दूसरी ओर या किसी अन्यथा (अतिरिक्त वस्तु, चिंतन, प्रलोभन, दिशा) में न फँसे, क्योंकि यह ध्यान भटकने वाला और पाप पैदा करने वाला है। मन का निग्रह अभ्यास और वैराग्य से संभव है। चित्तवृत्तियों का निरोध अभ्यास से संभव है।
Its essential for the Dhyan Yogi-practitioner to control his mind-innerself from deviations (flirtations, overtures). Controlling the sense organs (sensuality, passions), is equally important. Attachment to comforts-passions is a taboo for him. The practitioner who follow strict rules-schedule regarding life, can easily achieve control over his gestures (moods, thoughts, ideas). Understanding the gist of the Almighty helps him in restraining oneself. Concentration and detachment helps him understand the gist of the Ultimate. The devotee should ascertain that he does not owe anything to anyone, which is another cause of deviations from concentration leading to sins. Controlling the brain-innerself is possible through restraint and practice. Control over swinging of the brain too is easy through restraint & practice.
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥
हे श्री कृष्ण! मेरे इस संशय को पूरी तरह से दूर करने में आप समर्थ-योग्य हैं, क्योंकि आपके अतिरिक्त दूसरा कोई इस संशय को दूर करने में समर्थ नहीं है।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.39]
Arjun said that only the Almighty Bhagwan Shri Krashn could resolve his confusion-doubt, query, since none was capable of explaining-handle that intricate situation. 
अर्जुन का संदेह-संशय उस अवस्था से है, जिसमें साधक विचलित होने से कमज़ोर पड़ गया है। उन्हें भगवान् श्री कृष्ण के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति सक्षम नज़र नहीं आता, जो कि उनकी दुविधा को दूर कर सके। शास्त्र की व्याख्या बड़ी कठिन-जटिल है और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति की व्याख्या में भी अंतर आ जाता है। केवल परमात्मा ही सही अर्थ बताने में सक्षम हैं, क्योंकि उनका कोई स्वार्थ-भेद नहीं है। परमात्मा को व्यक्ति के आवागमन (जन्म, मृत्यु, पुनर्जन्म) का पूरा ज्ञान है। अतः योग भ्रष्ट व्यक्ति का भविष्य में क्या होना है, यह तो अन्तर्यामी भगवान् श्री कृष्ण सहज ही बता सकते हैं। 
Arjun is questioning the Almighty about that state (intricate situation, circumstances)  in which a practitioner falls, the moment his ascetic practices are hindered. He do not find any one else capable of answering the intricate query and bring him out of the confusion. As a matter of fact, interpretation of scriptures differs from person to person, depending upon his capabilities, knowledge, mental state, reasoning, prudence etc. The Almighty Bhagwan Shri Krashn was the only person on this earth, who could resolve his doubts, since HE do not discriminate-differentiate between organisms and HE had no grudge with any one. HE was the only one who can see through all dimensions of time. So, its quite easy for HIM to explain what was going to happen to the Yogi, who has been disturbed or who had taken a chance for social welfare in between.
The Muslims & the Britishers, including Germans have misinterpreted Hindu scriptures, Veds, Purans and have misled, misguided the Hindus. The communists too indulged in creating confusion since they themselves are misguided, ignorant and affected by foreigners. The Congress government too did this. Communists too were not far behind. The seculars are the worst possible lot.
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥
योग भ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान् पुरुषों के घर में जन्म लेता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.41]
Having attained the abodes-heavens of the righteous and having dwelt there for eternal years, he who failed in Yog is reborn in family of the pure, righteous, pious  and wealthy.
जो साधक अन्तकाल में किसी वजह से विचलित हो भी गया, तो भी उसे स्वर्गादि लोक तो प्राप्त होते ही हैं। उसे वहाँ रहकर भोगों से अरुचि हो जाती है; क्योंकि उसका योग साधना के पीछे, भोग-कामना का उद्देश्य नहीं था। वह अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु, फिर से धरा पर उच्च, पवित्र कुल में जन्म ग्रहण करता है। उसकी अथक यात्रा फिर से शुरू हो जाती है। योगभ्रष्ट का उच्च लोकों में जाना योग का प्रभाव है। वो वहाँ भोगों में नहीं फँस सकता। हकीकत में देखा जाये तो यह साँप और सीढ़ी के खेल जैसा लगता है। कोई योगी पहले प्रयास में और कोई अन्यानेक प्रयासों में, अपनी मंजिल पा ही लेता है। स्वर्गादि में भोग के उद्देश्य से यज्ञ, हवन, अग्निहोत्र आदि करने वाले भी पहुँचते हैं। परन्तु उनके पुण्य क्षीण होते ही, उन्हें पुनः पृथ्वी पर आना ही पड़ता है, क्योंकि भोग के लिए उनका उच्च लोकों में जाना कर्मजन्य है। अतः मनुष्य, साधक-योगी को दृढ़ निश्चय के साथ अपने सत्प्रयास कायम रखने चाहिए। कभी पूर्व जन्म के किसी अनुचित कर्म की वजह से बाधा आ भी जाये, तो वह भी भगवत् कृपा है, जो उसे तपा-निखार कर भगवत्प्राप्ति कराती है। 
The practitioner of Yog who could not complete his eternal journey, should neither be disappointed nor perturbed, since its due to his some deed (improper, wicked) in previous life. Let it pass smoothly. Keep on with the ascetic practice-Yog, without losing heart. Two possibilities are there after the death. He may be sent to some higher abode-heaven for a limited period to experience comforts, joys, sensuality, passions, which are not his immediate goal. He discarded them long ago to seek asylum under the Almighty. So, he will be sent back to accomplish his goal. Here again, his pious deeds-virtues in previous births will come forward to help him. The Almighty has awarded him yet another chance to cleanse-assuage himself. He becomes as clean as gold, burnt in fire repeatedly. The other possibility is his rebirth in some pious (virtuous-righteous) family, so that he advances further in his ascetic faculties, leading to the Ultimate, ultimately. As a matter of fact, its the game of ladder and snake. One may reach the Almighty straight in one single attempt by accumulating his virtuous deeds or he may clear the hurdles one after another. If he is determined, no hurdle can stop him in attaining his goal! There are a few who perform Yagy, Hawan, Agnihotr, charity, social service-welfare with the motive of attaining Swarg-heaven. They will reach there, but will be sent back to earth as soon as their accumulated pious deeds are spent-en cashed. 
मोक्ष मार्ग का अनुयायी-साधक कामेच्छा, कामना-वासना के कारण पथभ्रष्ट होकर-भटक कर, यदि तपस्या, साधना, योग से विचलित हो जाता है और उसे छोड़ देता है तो भी प्रभु उसे स्वर्ग भेज हैं; ताकि उसे इन सबसे तुष्टि-तृप्ति प्राप्त हो जाये और वो इनके प्रति बेरुखा, उदासीन हो जाये अथवा इनसे सर्वथा दूर हो जाये और पुनर्जन्म लेने पर ये दोष उसे परेशान-विचलित न कर पायें। 
The Yogi who has deviated from the path of Salvation due to sexuality, passions, lust, flirtations, sensuality is sent to the heaven by the Almighty, so that his thirst-hunger are satisfied-quenched there and he no more chase them. Once contemplation-satisfaction comes to him, he devote himself to ascetic practices, Yog, meditation whole heartedly with full concentration-attention, in his new incarnation after returning to earth, again.
The Mughal called Akbar was an ascetic-Brahman in his previous birth. By mistake he swallowed cow's hair along with milk, which led to his birth as a Muslim. He attained heaven thereafter, in spite of being a lascivious and Muslim. He may be granted another chance to achieve Moksh-Salvation.
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥
अथवा वैराग्यवान-योग भ्रष्ट पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है जो  कि निःसंदेह ही अत्यन्त दुर्लभ है।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.42]
Else, he is born in the family of wise, learned, enlightened Yogis which is certainly rare and fortunate. 
वह साधक जिसकी वासना शाँत नहीं हुई थी वो स्वर्ग पहुँचकर वापस श्रीमान-श्रीमंत के घर में जन्म लेता है, परन्तु जो वैरागी था, वासना से दूर था, वो योगभ्रष्ट तो स्वर्ग में न जाकर सीधे ही श्रेष्ठ ज्ञानी और जीवन मुक्त योगियों के परिवार-कुल में जन्म प्राप्त कर अपना अभ्यास जारी रखता है। यह जन्म अति दुर्लभ है। यह संग दुर्लभ, अगम्य और अमोध है। यह कभी निष्फल नहीं होता।
The practitioner of Yog-asceticism who was not satisfied with his sensuality (passions, sexuality, lust, Lasciviousness) and was distracted, would go to heaven and take rebirth on earth, in well to do virtuous families. The Yogi-ascetic who was composed and remained aloof from allurements, rejected passions, sexuality, sensuality and do not go to the heaven. Instead he gets birth directly in the family of enlightened, learned, Yogis and keeps, continues, maintains his endeavours to assimilate in the Ultimate. This birth helps him in his endeavours, since he is guided, helped in reaching his ultimate goal. The company of ascetics, Yogis, meditators is really rarest of rare and shows that he is very fortunate. Dev Rishi Narad has said that this association is Inco habitable, inaccessible, incomprehensible, unattainable and impenetrable never goes waste-fruitless.
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥
हे कुरुनन्दन! वहाँ पर उसे पहले मनुष्य जन्म की अर्जित योग शक्ति, अनायास ही प्राप्त हो जाती है। उसकी सहायता से वह पुनः साधन की सिद्धि में विशेषता से जुट जाता है और पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 6.43] 
O the descendant of  Kuru! In his new incarnation as a human being, the distracted ascetic obtains his earned-accumulated knowledge of Yog and ascetic practices suddenly, spontaneously (without effort, involuntarily, ease) and he strives with more confidence than before for perfection. 
उसकी पारमार्थिक पूँजी योगभ्रष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती। उसकी आत्मा में ध्यान-योग के जो संस्कार पड़े थे, वो पूर्ववत बने रहते हैं। वैराग्यवान साधक सीधे ही जीवन्मुक्त महापुरुषों, तत्वज्ञ योगियों के कुल में जन्म लेता है, जहाँ उसे अनायास ही पूर्वजन्म की साधना संपत्ति मिल जाती है। उसे वह बुद्धि संयोग प्राप्त होता है, जो उसे योग साधना के मार्ग पर आगे बढ़ाता है।
इस प्रकार के कुल-परिवार में जन्म लेना और अनायास भगवान् की भक्ति की प्राप्ति स्वर्ग और उच्च लोकों की उपलब्धि से भी बेहतर है। 
The efforts made by him for social welfare, Yogic-ascetic practice, meditation previously are not lost. Their impact remains over his soul. He is born with the virtues in the family of the detached, who are well versed with the gist of the Ultimate. He obtains the enlightenment he earned in his previous births. He has the chance to be with the intellectuals who will push him forward into Yogic tradition and practice leading to Salvation. 
Its better to take birth in such families-clan as compared to achieving higher abodes, since one has to return back to earth again from them after the expiry of his accumulated virtuous deeds.
कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः। 
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 8.9]
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव। 
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥[श्रीमद्भगवद्गीता 8.10]
जो सर्वज्ञ, अनादि, सब पर शासन करनेवाला, सूक्ष्म से अत्यन्त सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करनेवाला, अज्ञान से अत्यन्त परे, सूर्य की तरह प्रकाश-स्वरूप अर्थात ज्ञान स्वरूप-ऐसे अचिन्त्य स्वरूप का चिन्तन करता है। वह भक्ति युक्त मनुष्य अन्त समय में अचल मन से और योग बल के द्वारा भृकुटि के मध्य में प्राणों को अच्छी तरह से प्रविष्ट करके (शरीर छोड़ने पर) उस परम दिव्य पुरुष को ही प्राप्त होता है।
One who meditates of the Almighty as the omniscient, the ancient, the administer-controller, minute than the minutest, nurturer-sustainer of everyone, the inconceivable, luminous-bright like the Sun and transcendental-beyond the material reality; at the time of death with steadfast mind and devotion by making the flow of bio-impulses rise up to the middle of the eye brows by the power of Yogic practices; attains HIM-the Ultimate.
सम्पूर्ण प्राणियों को और उनके सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों को जानने वाले परमात्मा को कवि अर्थात सर्वज्ञ कहते हैं। सबका आदि होने के कारण उन्हें पुराण कहा गया है। नेत्रों के ऊपर मन, मन के ऊपर बुद्धि, बुद्धि के ऊपर अहम् और जो अहम् के भी ऊपर शासन करते है, उन्हें अनुशासित करते है, वह परमात्मा हैं। परमात्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म मन-बुद्धि की सीमा से परे-ऊपर है। वह समस्त-अनंतकोटि ब्रह्माण्डों को धारण करने वाला है। वह अज्ञान से दूर अर्थात उसका नाश करने वाला है। वह सूर्य के समान प्रकाश करने वाला अर्थात मन-बुद्धि को प्रकाशित-अनुशासित करने वाला है। वह सगुण-निर्गुण परमात्मा सब कुछ याद रखने वाला है। उस परमात्मा को मनुष्य निरंतर-याद करे उसका चिंतन करे। 
मनुष्य भक्ति-प्राणायाम अर्थात योगबल द्वारा मन को उस परमात्मा में लगाये-अचल करे और दोनों भ्रुवों के मध्यभाग में स्थित जो द्विदल चक्र है, उसमें स्थित सुषुम्ना नाड़ी में प्राणों का अच्छी तरह प्रवेश करके, वह शरीर छोड़कर दसवें द्वार से दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करे। 
The Almighty is aware of each and every activity of the organism. HE is ancient beyond the limits of time, since ever-forever. The mind lies over the eye brows, (mind controls-perceives what is seen by the eyes), intelligence rules the head, mind, brain, intelligence is ruled by the ego and the Almighty regulates even this ego. HE disciplines every one-everything. HE is minutest-much smaller than the atom and holds the infinite number of universes. HE abolishes ignorance and provides enlightenment-prudence. HE is shinning-bright like the Sun and destroys darkness-lack of knowledge-ignorance. The formless-characteristics less Almighty remembers everything, event, person, soul. The human should always think of HIM-continuously. 
One should make use of the Yogic power and strength of devotion to concentrate his mind in the Almighty and focus between the two eye brows. This constitutes the 10th opening of the human body. The Shushmna Nadi (the Central Nadi-nerve in the spine which conducts the Kundlini or spiritual force from Mooladhar Chakr to Sahasrar Chakr) has to be invoked to release the soul through this opening to assimilate in the Ultimate.
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च। 
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 8.12] 
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। 
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 8.13]
इन्द्रियों के समस्त द्वारों को रोककर मन का ह्रदय में निरोध करके और अपने प्राणों को मस्तक में स्थापित करके योग धारणा में स्थित हुआ जो साधक "ॐ" इस "एक अक्षर का ब्रह्म" का मानसिक उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़कर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। 
One attains the Ultimate-the Supreme Abode, when he closes all doors of the body (mouth, nostrils, eyes, ears, pennies & anus) checks the thoughts by subliming them in the heart, pulls the soul-Pran Vayu (bio impulses), in the skull, brain, cerebrum, practicing Yog, reciting-uttering the Ultimate syllable "ॐ" OM-the sacred monosyllable sound power of Spirit, mentally-silently and remembering the Almighty, while deserting the human incarnation-body.
मनुष्य-साधक शरीर त्याग करते वक्त अपना ध्यान कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से हटा ले, ताकि वे अपने स्थान पर स्थिर रहें। मन का निरोध करके उसे ह्रदय में स्थानान्तरित कर दे अर्थात ध्यान को विषयों से मुक्त करके, अपने ह्रदय में परमात्मा की मूर्ति-आकृति का अनुभव करे। प्राणों को दसवें द्वार-ब्रह्मरंध्र में रोक ले अर्थात उन पर काबू कर ले। इस प्रकार वो योग धारणा में स्थित हो जाये। इन्द्रियों और मन से कुछ भी चेष्टा न करे। इस स्थित को प्राप्त करके वो "ॐ" अर्थात "प्रणव" का मानसिक उच्चारण करे अर्थात वो निर्गुण-निराकार परम अक्षर ब्रह्म का स्मरण करे। यही वह अवस्था है, जिसमें प्रभु को स्मरण करते हुए दसवें द्वार :- ब्रह्म रंध्र से प्राणों का विसर्जन करते हुए परमगति अर्थात निर्गुण-निराकर परमात्मा को प्राप्त करे। 
The practitioner of Yog has to divert his attention from the body and the brain, thought, ideas, organs of work and experience, so that they are comfortably placed in their position-becomes motionless. The mind has to be controlled completely and forget every thing else, except the God and form a mental image of the Almighty in the heart. The bio impulses have to be concentrated in the tenth opening: the place between the eye brows called Brahm Randhr-the Ultimate opening through he scull. Having attained this state, he should start uttering-reciting "ॐ" silently-mentally. Now, he is ready-prepared to immerse in the Almighty, who is free from characteristics and form. The time is mature for him to depart the human incarnation for which he was awarded this, to assimilate in the God.
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः। 
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥[श्रीमद् भगवद्गीता 8.14] 
हे प्रथानन्दन अर्जुन! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात उसको आसानी से प्राप्त हो जाता हूँ।
Bhagwan Shri Krashn told Arjun that he was always easily available-attainable to the steadfast devotee-Yogi, who always remembered HIM regularly.
सगुण उपासना में मनुष्य भगवान् के स्वरूप का जाग्रत अवस्था में, मृत्यु पर्यन्त निरन्तर सतत दृढ़ता पूर्वक चिन्तन-स्मरण करता है। भगवान् के जितने भी स्वरूप हैं, उनमें भेद नहीं करता। वह अपना मन किसी अन्य चीज में नहीं लगाता। वह ऐसा चिन्तन करता है कि मैं केवल भगवान् का हूँ और वे मेरे हैं। मनुष्य के द्वारा प्रभु के श्री चरणों का चिन्तन निष्काम, श्रद्धा, प्रेम युक्त हो। योग मार्ग से प्राणों के विसर्जन में मनुष्य को समस्त इन्द्रियों की क्रियाओं को रोककर दसवें मार्ग से प्राणांत करना है। मगर स्मरण में ऐसा बन्धन नहीं है। यह स्वतः अपने आप होना है।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥
अभ्यास (कर्मकाण्ड) से शास्त्र ज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्र ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल की इच्छा-आसक्ति का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति प्राप्त हो जाती है।[श्रीमद् भगवद्गीता 12.12] 
The transcendental knowledge of scriptures is better than mere ritualistic practice; meditation is better than-superior to scriptural knowledge; renunciation of selfish attachment to the rewards-fruits of work (deeds), is better than meditation, since peace immediately follows renunciation of selfish motives. 
भगवान् ने कर्मफल के त्याग को श्रेष्ठ और तुरन्त शान्ति देने वाला कहा है। पिछले श्लोकों में वर्णित चारों ही साधन मनुष्य को स्वतंत्रता से भगवत्प्राप्ति कराने वाले हैं। शास्त्र ज्ञान और तत्व ज्ञान में बहुत अन्तर है। तत्व ज्ञान सभी साधनों का फल है। ज्ञान की तुलना अभ्यास से करते हैं, तो पाते हैं कि इसमें न अभ्यास है, न ध्यान है और न कर्म फल का त्याग है। जिस अभ्यास में न ज्ञान है, न ध्यान है और न कर्म फल का त्याग है, तो ऐसे अभ्यास से तो ज्ञान ही श्रेष्ठ है। आध्यात्मिक ज्ञान से संयुक्त अभ्यास मनुष्य में भगवत्प्राप्ति की अभिलाषा जाग्रत कर सकता है। यहाँ ध्यान शब्द केवल मन की एकाग्रता का वाचक है, न कि ध्यान योग का। इस तरह के ध्यान में शास्त्र ज्ञान और कर्म फल का त्याग नहीं है। ऐसा ध्यान उस ज्ञान की अपेक्षा श्रेष्ठ है, जिसमें अभ्यास, ध्यान और कर्म फल का त्याग नहीं है। ध्यान (परमपिता परब्रह्म परमेश्वर में केन्द्रीत करना) मन को नियंत्रित करता है, शास्त्र नहीं। मन को नियंत्रित करके साधक जिस शक्ति को प्राप्त करता है, उसका उपयोग वह परमात्मा की ओर बढ़ने में कर सकता है। ज्ञान और कर्म फल त्याग से रहित ध्यान की अपेक्षा ज्ञान और ध्यान से रहित कर्म फल त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफल के त्याग में संसार से माने हुए सम्बन्ध का त्याग हो जाता है। यही त्याग का वास्तविक स्वरूप है। जप-तप ध्यान समाधि, मनुष्य स्वयं के लिए सांसारिक सुख के लिए न करे, ताकि उसका सम्बन्ध उससे बने ही नहीं। इस तरह से कर्म फल का त्याग कर देने से मनुष्य को जिस शान्ति की प्राप्ति होती है, वो परम शांति अर्थात भगवत्प्राप्ति है। अभ्यास, शास्त्र ज्ञान और ध्यान तीनों ही करण सापेक्ष हैं, मगर कर्म फल त्याग करण निरपेक्ष है।
The Almighty has said that the rejection of the desire for the rewards of actions-deeds provides immediate relief, solace, peace, tranquillity. The methods described in earlier verses-Shloks (rhymes) are the means of attaining the God, independently. They are capable in themselves. However, the knowledge of scriptures is not enough, unless it is assisted by meditation and devotion to one's duties without the desire-expectation for the rewards. One may rise from the knowledge of scriptures to enlightenment i.e., Tatv Gyan (gist of divinity-eternity); understanding the purpose of birth and our endeavour to seek release thereafter. Tatv Gyan is the ultimate of all efforts, means leading to the Ultimate. Practice of knowledge develops understanding, skill, ability, interest directing one to the God. This type of practice of knowledge-rote memory, learning is insufficient as compared to Dhyan Yog. Mere attainment of knowledge is useless without meditation, practice of meditation and rejection of the desire for reward of actions. The practice which does not materialise into attainment of God is useless. If the knowledge of the scriptures is aided by practice of procedures-methods leading to the attainment of God, it becomes quite useful-effective. When one merely talks of Dhyan-meditation, he is far-far away from Dhyan Yog. The meditation leading to love in God is better than that knowledge free from practice, meditation and rejection of the desire of rewards of actions. Meditation leads to concentration and penetration into the Almighty, which the devotee-practitioner may practice for attainment of the Almighty HIMSELF. Rejection of the desire of the rewards utilised for the deeds leads to detachment from the world and that is the sole aim of worship. One should never utilise the ascetic practice, enchantment of holy verses, meditation, staunch meditation for self. Instead he should make use of them for the benefit of the society-others as a whole (वसुधैव कुटुम्बकम्). This will keep him free from bonds with the world, leading to bliss i.e., the God. Practice, knowledge of scriptures and Dhyan involve the self, while rejection of the desire for the reward of deeds makes one absolute.
वसुधैव कुटुम्बकम् :: यह सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा है, जो कि महा उपनिषद सहित कई ग्रन्थों में लिपिबद्ध है। इसका अर्थ है :- धरती ही परिवार है (वसुधा एव कुटुम्बकम्)। 
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
 उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥ 
यह अपना है और यह दूसरे का है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।[महोपनिषद् 4.71]
The humans all over the earth constitute my family.
उच्चावचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयामकृतात्मभिः। 
ध्यानयोगेन सम्पश्येद् गतिमस्यान्तरात्मनः॥[मनु स्मृति 6.73]
प्राणियों का उच्च-नीच योनियों में जाने का कारण जो अज्ञानियों के लिये बहुत ही कठिन है, उसे ध्यान योग से देखे अर्थात ब्रह्मनिष्ठ होकर देखे। 
Its very difficult to understand the cause-reason of moving to inferior-low species by the ignorant (idiots, morons, those who lack intelligence, prudence, understanding, reason, cause or those belonging to other faith-religion & do not wish to know it.). One can perceive it by concentrating-meditating in the God.
अहिंसयेन्द्रियासङ्गैर्वैदिकैश्चैव कर्मभिः। 
तपसश्चरणैश्चौग्रैः साधयन्तीह तत्पदम्॥[मनु स्मृति 6.75]
साधक, अहिंसा, इन्द्रिय संयम, वैदिक कर्मों के अनुष्ठान और कठिन तपश्चर्या ब्रह्मपद को प्राप्त होते हैं। 
The practitioner attains the Ultimate abode by resorting-conforming to non violence, control of sense organs-sensuality, performing of rites described in Veds-scriptures and difficult asceticism i.e., by rigorously practicing austerities.
प्रियेषु स्वेषु सुकृतमप्रियेषु च दुष्कृतम्। 
विसृज्य ध्यानयोगेन ब्रह्माभ्येति सनातनम्॥[मनु स्मृति 6.79]
ज्ञानी अपने हितैषियों में अपना पुण्य और शत्रुओं में अपना पाप छोड़कर ध्यान योग से सनातन ब्राह्मण में लीन होता है। 
The enlightened leaves his virtues in the well wishers and discards the sins in the enemies before merging with the Brahmn-Almighty.
शून्या दृष्टिर्वृथा चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च।
न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीणसंसारसागरे॥मनुस्मृति 17.9॥ 
योगी, दृष्टि को शून्य और अस्थिर इन्द्रियों की चेष्टा को नष्ट करके, इस अशक्त संसार रूपी सागर से न तो आसक्ति रखते हैं और न ही विरक्ति। 
The (Yogi, ascetics, seers, sages-detached) keep their eyes focused at zero (infinity in space), by eliminating the tendency-inclination of unstable senses, do not keep either attachment or detachment-aversion-renunciation, for this weak world like ocean.
The devotee considers the image-form of the Almighty in his heart and remember-recite HIS name regularly-vigorously, with firmness, love-affection, without desire. He makes it sure that he belongs to HIM only and that the God too reciprocate his gestures. The Path of Yog is a bit intricate for a common man. Very rare-few people adopt this life. One who is residing in a city, perform his duties-routine may find it extremely difficult to practice Yog, in its true form. However, exceptions are always there. Yog helps one to awake his Kundlini power, bring the Pran to the tenth opening and depart for heavenly abode. But as for as remembrance is concerned, the devotee is not supposed to make extra efforts. Everything happens automatically, by it self, under the patronage of the God.
खं संनिवेशयेत्खेषु चेष्टनस्पर्शनेऽनिलम्।
पक्तिदृष्ट्योः परं तेजः स्नेहेऽपो गां च मूर्तिषु॥[मनुस्मृति 12.120]
मनसीन्दुं दिशः श्रोत्रे क्रान्ते विष्णुं बले हरम्।
वाच्यग्निं मित्रमुत्सर्गे प्रजने च प्रजापतिम्॥[मनुस्मृति 12.121]
आकाश को आकाश (अपने शरीर के भीतर वाले आकाश में) में निवेशित करें। चेष्टा और स्पर्श में वायु को, पेट और नेत्र को अग्नि में, परम् तेज को जल में, बाहर के जल को पार्थिव भाग में पृथ्वी को, मन में चन्द्रमा को, कान में दिशाओं को, चरण में विष्णु को, बल में शंकर को, वाणी में अग्नि को, मित्र को मलद्वार में और जननेन्द्रिय में प्रजापति को लीन करें। 
The practitioner-devotee, Yogi should endeavour to concentrate-direct the sky in the sky (air in the stomach) in his stomach. Efforts and touch should be merged with the air, stomach and eyes with fire, Ultimate Tej-energy in the water, water (external) into the destructible-perishable earth, the innerself-Man in the Moon, the ears into directions, feet in Bhagwan Shri Hari Vishnu, the power-strength in Bhagwan Shiv, the speech in fire, the Mitr in anus and the sense organs should be assimilated into the Prajapati-Brahma Ji.
क्व निरोधो विमूढस्य यो निर्बन्धं करोति वै।
स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदासावकृत्रिमः॥
जो अज्ञानी-मूढ़ चित्त के निरोध का हठ-आग्रह करता है, समाधि लगाता है, उस मूर्ख का चित्त निरुद्ध नहीं होता, उल्टा उसका चित्त समेत संसार में फैल जाता है। आत्मा में रमण करने वाले धीर, योगी, ज्ञानी, निश्चल पुरुष का चित्त सदैव स्वाभाविक रूप से आत्मा में निरुद्ध रहता है और उसकी निरन्तर समाधि बनी रहते है।[अष्टावक्र गीता 18.41]
The ignorant, imprudent-misguided stresses over cessation-controlling thoughts-ideas and adopts meditation striving for the control of mind-brain roaming all over the world. One-the wise man, who is devoted to the Ultimate-Soul, keep on stationary, static, fixed-always aligned with the Ultimate God naturally. 
Unless-until one controls his gestures, mood, innerself; his mind will continue flocking all over the world, everywhere. This is not concentration-meditation. There are people who pretend to have been performing Yog to deceive people, its merely show off a way-method of earning-extracting money.
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥
अभ्यास (कर्मकाण्ड) से शास्त्र ज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्र ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल की इच्छा-आसक्ति का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति प्राप्त हो जाती है।[श्रीमद् भगवद्गीता 12.12] 
The transcendental knowledge of scriptures is better than mere ritualistic practice; meditation is better than-superior to scriptural knowledge; renunciation of selfish attachment to the rewards-fruits of work (deeds), is better than meditation, since peace immediately follows renunciation of selfish motives. 
भगवान् ने कर्मफल के त्याग को श्रेष्ठ और तुरन्त शान्ति देने वाला कहा है। पिछले श्लोकों में वर्णित चारों ही साधन मनुष्य को स्वतंत्रता से भगवत्प्राप्ति कराने वाले हैं। शास्त्र ज्ञान और तत्व ज्ञान में बहुत अन्तर है। तत्व ज्ञान सभी साधनों का फल है। ज्ञान की तुलना अभ्यास से करते हैं, तो पाते हैं कि इसमें न अभ्यास है, न ध्यान है और न कर्म फल का त्याग है। जिस अभ्यास में न ज्ञान है, न ध्यान है और न कर्म फल का त्याग है, तो ऐसे अभ्यास से तो ज्ञान ही श्रेष्ठ है। आध्यात्मिक ज्ञान से संयुक्त अभ्यास मनुष्य में भगवत्प्राप्ति की अभिलाषा जाग्रत कर सकता है। यहाँ ध्यान शब्द केवल मन की एकाग्रता का वाचक है, न कि ध्यान योग का। इस तरह के ध्यान में शास्त्र ज्ञान और कर्म फल का त्याग नहीं है। ऐसा ध्यान उस ज्ञान की अपेक्षा श्रेष्ठ है, जिसमें अभ्यास, ध्यान और कर्म फल का त्याग नहीं है। ध्यान (परमपिता परब्रह्म परमेश्वर में केन्द्रीत करना) मन को नियंत्रित करता है, शास्त्र नहीं। मन को नियंत्रित करके साधक जिस शक्ति को प्राप्त करता है, उसका उपयोग वह परमात्मा की ओर बढ़ने में कर सकता है। ज्ञान और कर्म फल त्याग से रहित ध्यान की अपेक्षा ज्ञान और ध्यान से रहित कर्म फल त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफल के त्याग में संसार से माने हुए सम्बन्ध का त्याग हो जाता है। यही त्याग का वास्तविक स्वरूप है। जप-तप ध्यान समाधि, मनुष्य स्वयं के लिए सांसारिक सुख के लिए न करे, ताकि उसका सम्बन्ध उससे बने ही नहीं। इस तरह से कर्म फल का त्याग कर देने से मनुष्य को जिस शान्ति की प्राप्ति होती है, वो परम शांति अर्थात भगवत्प्राप्ति है। अभ्यास, शास्त्र ज्ञान और ध्यान तीनों ही करण सापेक्ष हैं, मगर कर्म फल त्याग करण निरपेक्ष है।
The Almighty has said that the rejection of the desire for the rewards of actions-deeds provides immediate relief, solace, peace, tranquillity. The methods described in earlier verses-Shloks (rhymes) are the means of attaining the God, independently. They are capable in themselves. However, the knowledge of scriptures is not enough, unless it is assisted by meditation and devotion to one's duties without the desire-expectation for the rewards. One may rise from the knowledge of scriptures to enlightenment i.e., Tatv Gyan (gist of divinity-eternity); understanding the purpose of birth and our endeavour to seek release thereafter. Tatv Gyan is the ultimate of all efforts, means leading to the Ultimate. Practice of knowledge develops understanding, skill, ability, interest directing one to the God. This type of practice of knowledge-rote memory, learning is insufficient as compared to Dhyan Yog. Mere attainment of knowledge is useless without meditation, practice of meditation and rejection of the desire for reward of actions. The practice which does not materialise into attainment of God is useless. If the knowledge of the scriptures is aided by practice of procedures-methods leading to the attainment of God, it becomes quite useful-effective. When one merely talks of Dhyan-meditation, he is far-far away from Dhyan Yog. The meditation leading to love in God is better than that knowledge free from practice, meditation and rejection of the desire of rewards of actions. Meditation leads to concentration and penetration into the Almighty, which the devotee-practitioner may practice for attainment of the Almighty HIMSELF. Rejection of the desire of the rewards utilised for the deeds leads to detachment from the world and that is the sole aim of worship. One should never utilise the ascetic practice, enchantment of holy verses, meditation, staunch meditation for self. Instead he should make use of them for the benefit of the society-others as a whole (वसुधैव कुटुम्बकम्). This will keep him free from bonds with the world, leading to bliss i.e., the God. Practice, knowledge of scriptures and Dhyan involve the self, while rejection of the desire for the reward of deeds makes one absolute.
वसुधैव कुटुम्बकम् :: यह सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा है, जो कि महा उपनिषद सहित कई ग्रन्थों में लिपिबद्ध है। इसका अर्थ है :- धरती ही परिवार है (वसुधा एव कुटुम्बकम्)। 
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
 उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥ 
यह अपना है और यह दूसरे का है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।[महोपनिषद् 4.71]
The humans all over the earth constitute my family.
हरी ओम तत्  सत्।
   
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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