(सृष्टि रचना, वर्ण व्यवस्था, कर्म :- उत्तम, मध्यम और निकृष्ट, शरीर प्राप्ति, मुक्ति, साधन और कर्मों के गुण दोष की परीक्षा)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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मित्राय पञ्च येमिरे जना अभिष्टिशवसे। स देवान्विश्वान्विभर्ति॥
निषाद को लेकर पाँचों वर्ण शत्रु जयक्षम और बल विशिष्ट मित्र के उद्देश्य से हव्य प्रदान करते हैं। वे मित्र देव अपने स्वरूप से समस्त देवगणों को धारित करते हैं।[ऋग्वेद 3.59.8]
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा निषाद यह पाँचों वर्ण शत्रुओं को विजय करने की क्षमता वाले सखा के प्रति सम्मान को प्रदर्शित करें। वे सखा अपने स्वरूप द्वारा ही समस्त देवों का पोषण करते हैं।
Let the 5 Varn :- Brahman, Kshatriy, Vaeshy, Shudr & Nishad honour-revere make offerings for Mitr Dev, who wins over the enemy. He support-nourish the demigods-deities with his powers.
प्रथम अध्याय :: सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय की विभिन्न अवस्थाऐं, मनुस्मृति का आविर्भाव तथा उसकी परम्परा का प्रवर्तन, इसके पढ़ने के अधिकारी तथा फल का वर्णन।
मनुमेकाग्रमासीनमभिगम्य महर्षयः।
प्रतिपूज्य यथान्यायमिदं वचनमब्रुवन्॥1.1॥
The Rishi-Mahrishi (great saints, sages, recluse) approached Manu, who was seated with a calm & composed mind and cool posture. They paid him due tributes, regards and worshipped him. Manu welcomed them and requested to take seats. The Rishis settled themselves comfortably and requested Manu Ji to elaborate the basis tenets of the caste system.
ऋषि-मुनि एकत्र होकर वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का रहस्य-भेद, जानने-समझने के हेतु मनु के समक्ष पधारे-उपस्थित हुए। मनु बड़ी शांत मुद्रा में विराजमान थे। उन्होंने ऋषियों और मुनियों का यथा योग स्वागत-सत्कार किया और आसन ग्रहण करने का आग्रह किया।
It has been a tradition in India to visit the seniors :- Brahm Rishis, Mahrishis to satisfy their inquisitiveness by the Rishis, saints, sages, Brahmans, Philosophers, scholars & the enlightened. For this purpose the enlightened kings like Janak used to hold debates in their court to reach the Ultimate Truth. The Brahm Rishis like Narad used to quench their thirst of knowledge by asking questions to Bhagwan Brahma & Bhagwan Shri Hari Vishnu. The issue of caste system is very intricate for those who do not want to know about it. Those who know the basics, its damn easy. Here the saints-sages, recluse reached Manu and asked him to clear their doubts-queries. Manu was glad to see them and requested them to relax and take their seats.
भगवन्सर्ववर्णनां यथावदनुपूर्वशः।
अन्तरप्रभावाणां च धर्मान्नो वक्तुमहर्सि॥1.2॥
ऋषियों ने सादर प्रार्थना की कि हे भगवन्! यदि आप हमें इस योग्य समझें, तो कृपा करके, जैसी-जैसी धर्म व्यवस्था (वर्ण व्यवस्था) है, उसे आप ही हम लोगों से कहें (नियमों को समझाएँ)।
The Rishis requested Manu to explain the tenets of Laws and principles-practices, pertaining to Varn-division; Caste System prevalent at point of time in the society into segments.
Hindu community has well defined laws governing the caste system prevalent in India. It has a scientific basis & logic as well. A survey conducted in America covering over around 6,00,000 participants clearly showed that they could be divide into 4 major groups on the basis of their DNA. The scatter diagram showed that the majority of the participants remained in between the axis of a 4 coordinate system.
त्वमेको ह्रास्य सर्वस्य विधानस्य स्वयम्भुवः।
अचिन्त्य स्याप्रमेयस्य कार्यतत्वार्थवित्प्रभो॥1.3॥
हे प्रभो! इस स्वयं उत्पन्न होने वाले अचिन्त्य (unthinkable), अप्रमेय (immeasurable), जिसका माप या नाप न हो सकता हो, जो प्रमाणित या सिद्ध न किया जा सके, जो जाना या समझा न जा सके) अज्ञेय़ सम्पूर्ण ब्रह्म के कार्य के तत्वार्थ को जानने वाले आप ही हैं। (अचिन्त्य :: परमात्मा, जिसको समझना,जानना मनुष्य की बुद्धि की सीमा से पर है। Unthinkable. अप्रमेय :: परमात्मा, जिस सीमा-थाह लेना-नापना, मनुष्य की बुद्धि-क्षमता से बाहर है। Immeasurable. अज्ञेय :: परमात्मा, जिसको समझना,जानना मनुष्य की बुद्धि की सीमा से पर है। Beyond comprehension.)
The Rishis and Munis praised Swayambhu Manu for the knowledge-enlightenment attained by him. They said that he was aware of the purport (wish, object, tenor-तत्त्व, longing, desire, intent, significance) of the soul. They desired to know the whole ordinance of the Self-existent (Swayambhu), which is unknowable and unfathomable (bottomless, abysmal, profound, abyssal, inestimable, huge, giant, spacious, large, gigantic, unmeasured, in compressible, span less).
ऋषि मुनियों ने स्वयंभू मनु के अथाय (अगाध, विशाल, अपरिमेयज्ञान) की प्रशंसा की और अपने आगमन का अभिप्राय (आशय, अर्थ, तात्पर्य, मुराद, मुद्दा) प्रकट किया। उन्होंने कहा कि मनु को आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध में विशिष्ट ज्ञान था। उन्होंने मनुष्य के अस्तित्व-उत्पत्ति की जानकारी प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की।
स तै: प्रष्टस्तथा सम्यगमितौजा महात्मभिः।
पत्युवाचार्च्य तान्सर्वान्महर्षि अच्छुयतामिति॥1.4॥
महर्षियों से इस प्रकार पूछे जाने पर अत्यन्त तेजस्वी मनु जी, जिनका ज्ञान अपरिमित था, ने श्रेष्ठ ऋषियों का आशय जानकर मुनियों का पूजन किया और प्रसन्नता पूर्वक गंभीर वाणी में कहा, सुनिये।
Manu Ji was pleased-obliged by the visit of the sages. His knowledge & capabilities were measureless. He honoured them and asked them to listen carefully.
आसीदीदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्।
अप्रतक्रर्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः॥1.5॥
पहले यह समस्त ब्रह्माण्ड, विश्व-संसार, तम-अन्धकार में डूबा हुआ था, जैसे गहरी नींद में सोया हो। इसमें किसी भी वस्तु का पृथक अस्तित्व ज्ञान, प्रकट-स्पष्ट नहीं था। इसको तर्क, जिज्ञासा, कल्पना से भी नहीं देखा-समझा जा सकता था।
The universe existed in complete darkness, unperceived, destitute of distinctive marks, unattainable by reasoning, unknowable, wholly immersed, as it were, in deep sleep.
ततः स्वयंभूर्भगवानव्यक्तो व्यंज्यन्निदम्।
महाभूतादि वृत्तौजा: प्रादुरासीत्तमोनुद:॥1.6॥
इसके बाद प्रलयावस्था के नाश करने वाले लक्षण, सृष्टि के सामर्थ से युक्त अव्यक्त स्वयम्भू भगवान्-परमात्मा-परब्रह्म परमेश्वर ने महाभूतादि (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) पंचतत्वों को प्रकाशित करते हुए-अंधकार का नाश करते हुए, स्वयं को प्रकट-प्रत्यक्ष, व्यक्त किया।
The Almighty called-Swayambhu (the divine Self-existent, indiscernible, the Self-manifested form of Brahm as the first cause of creation) revealed-evolved by HIMSELF along with the basic elements-components essential for life viz. earth, water, fire, sky and air; bringing darkness to end.
स्वयम्भू SWAYAMBHU (अव्यक्त, भगवान्-परमात्मा-परब्रह्म परमेश्वर) :: He who manifests HIMSELF of HIS own free will and is created by OWN accord. One who is self-born. One who exists by Himself, uncaused-unaided by any other. He is not dependent on anyone for anything. He creates independently. He is completely independent. He has got exclusive prerogative of taking birth-revealing, anywhere on His own accord. He exists of his own. He existed before the emergence of everything. He exists after destruction of everything. He is the lord of all others.
योSसावतीन्द्रियग्राह्यः सूक्ष्मोSव्यक्त:सनातनः।
सर्वभूतमयोSचिन्तयः स एवं बीजमवासृजत्॥1.7॥
वे परमेश्वर जो कि इन्द्रियों के ज्ञान से परे-सूक्ष्म (जटिल, कोमल, चालाक, सुंदर, रहस्यपूर्ण, कुशाग्र बुद्धि), अव्यक्त-अप्रत्यक्ष, (अगोचर, अभिन्न, अदृश्य या अभिन्न वस्तु, अलक्ष्य, अस्पष्ट), सनातन, (Eternal, अनन्त, अविनाशी, अनादि, नित्य, चिरकालिक, सार्वकालिक, जीवंत) हैं; जिन्हें केवल अन्तरात्मा-अंतर चेतना के द्वारा ही ग्राह्य (देखा जा सकता है) है, स्वयं प्रकट हुए।
HE-the Almighty can be perceived by the inner self (alone), who is subtle, indiscernible and eternal, who contains all created beings and is inconceivable, shone forth of his own (will).
सोSभिध्याय शरीरात्सवत्सिसृक्षुविरविधा: प्रजा:।
अप एव ससर्जाSSदौ तासु बीजमवासृजत्॥1.8॥
परमेश्वर ने अपने संकल्प से सृष्टि रचना-समस्त जीवधारियों की उत्तपत्ति का निर्णय लिया और सर्व प्रथम जल की सृष्टि-रचना की। तत्पश्चात उसमें अपना अंश प्रवाहित-स्थापित किया।
The Almighty desired-wished to produce beings, creatures, organism-species of many kinds from his own self, through his brain power and thus created the water and placed his seed in it.
तदण्डमभवध्दैमं सहत्राम्शुसम्प्रभम्।
तस्मिञ्जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः॥1.9॥
यह बीज सूर्य के समान चमकीले एक स्वर्ण अंड में परिवर्तित हो गया और उसमें से सभी लोकों को उत्पन्न करने वाले स्वयं ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए।
The component of the Almighty as seed turned into a golden egg as bright as the Sun and Brahma Ji the creator of all abodes evolved from it.
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।
ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणं स्मृत:॥1.10॥
नर (भगवान्) से जल की उत्पत्ति हुई है, इसलिये जल को नार कहते हैं। वह नार जिसका पहले अयन (प्रथम स्थान) हुआ है; इसलिये उसका नाम नारायण हुआ। पर ब्रह्म परमेश्वर-सनातन परमात्मा (नारायण-भगवान् विष्णु के रूप में) इससे प्रकट हुए।
The offspring (fluid-Nar-water) evolved first (Ayan) and thus the Almighty appeared as Narayan and led to the evolution of the Par Brahm Parmeshwar HIMSELF; the progenitor of the universe in the form of Bhagwan Shri Hari Vishnu.
Water (जल, नार) is made up of two basic elements hydrogen and oxygen. Molecular Hydrogen is composed of 2 Protons. In atomic state its very reactive. Deuterium & Tritium are the two isotopes of hydrogen. Deuterium forms heavy water with oxygen. All other elements are formed by the various permutations & combinations of Protons, Electrons and Neutrons. Neutron breaks up into Protons and Electrons. The science can prove that all life forms evolved through this process.
The scientists have discovered God particle in addition to more than 43 subatomic particles with duel nature i.e., particle and wave simultaneously.
यत्तकारणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम्।
तद्विसृष्ट: स पुरुषो लोके ब्रम्होति कथ्यते॥1.11॥
सम्पूर्ण सृष्टि के कारण, अव्यक्त, नित्य, सत्-असत् स्वरुप जो पुरुष [वह परब्रह्म परमात्मा जो अगोचर, (अप्रत्यक्ष, अभिन्न, अदृश्य), सनातन तथा साकार और निराकार है] उससे उत्पन्न हुआ और उसे संसार में ब्रह्मा जी के नाम से जाना जाता है।
The cause behind creation-evolution of universe, who is indiscernible, eternal and is both real and unreal (formless & with form), evolved HIMSELF and is known as Brahma Ji.
तस्मिन्नण्डे स भगवानुषित्वा परिवत्सरम्।
स्वयमेवाSSत्मनो ध्यानात्तद्दण्डमकरोद् द्विधा॥1.12॥
अपने दिनादि के मान से परमात्मा ने उस स्वर्ण अण्ड में एक वर्ष तक स्थिर रहकर स्वयं अपने ही ध्यान से उस अण्डे को दो भागों में विभाजित कर लिया।
The Almighty resided in that egg shell for one year according to HIS own calculations of time & then divided the shell into two components with the help of HIS psyche-thought.
ताभ्यां स शकलाभ्यां च दिवं निर्ममे।
मध्ये व्योम दिशच्श्राष्टावपां स्थानञ्च शाश्र्वतम्॥1.13॥
ब्रह्मा जी ने दोनों खंडों से क्रमशः आकाश, पृथ्वी और मध्य में स्वर्ग, आठों दिशाएँ और आठ समुद्र जल के स्थान बनाये।
दिशाएँ दस हैं।
Out of those two halves Brahma Ji created sky-space, earth and heaven in the middle, eight directions and place for eight oceans.
उद्वबर्हाSSत्मनच्श्रेव मनः सदसदात्मकम्।
मनसच्श्राप्यहङ्कारमभिमन्तारमीश्र्वरम्॥1.14॥
फिर सत्-असत् स्वरूप परमात्मा से ही आत्मा, मन, बुद्धि और अहंकार प्रकट हुए।
Thereafter, Sat & Asat (real & unreal, truth & falsehood) both of which represents the Almighty, the soul, psyche (mind, innerself, mood, gestures, self consciousness, intelligence) and the ego appeared.
महान्तमेव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च।
विषयाणां ग्रहीत्रणी शनैः पंचेन्द्रियाणि च॥1.15॥
फिर परमात्मा ने आत्मस्वरूप ज्ञानार्थ मनुष्य के शरीर में (आत्मा के साथ-साथ), बुद्धि, त्रिगुण (सत्त्व, रज और तम), विषयग्राही पाँचों इन्द्रियाँ को बनाया।
Thereafter, the Almighty created intelligence to understand-realise the self, the 3 characteristics-qualities (Satv, Raj and Tam) and the five sense organs in the body-physique along with the soul. Various organism were composed by using different proportions of these basic components by the Almighty.
तेषां त्ववयवान्सूक्ष्मान् षण्णामप्यमितौजसाम्।
सन्निवेश्याSSत्ममात्रासु सर्वभूतानि निर्ममे॥1.16॥
फिर अत्यन्त तेजस्वी इन छहों तत्वों के सूक्ष्म अवयवों को उन्हीं के सूक्ष्म विकारों में न्यास करके सभी प्राणियों की रचना की।
Then he developed all living beings by using these highly energetic six components-elements, synthesising within themselves, through their extremely small-microscopic defects-, properties-characteristics. Slightest variation in the 6 basic proportions create a new living being-organism.
यन्मूत्र्यव्यवा: सूक्ष्मास्तस्येमान्याश्रयन्ति षट्।
तस्माच्छरीरत्मियाहुस्तस्य मूर्तिं मनीषिणः॥1.17॥
इस (ब्रह्मा) मूर्ति को ये छहों सूक्ष्म अवयव आश्रय कहते हैं। इसी कारण से महात्मा लोग इस ब्रह्म मूर्ति को शरीर कहते हैं।
Brahma is the shelter-asylum, protector of these 6 minute components. Thus Brahm is called body-physique by the enlightened sages. Human body is a replica of the Brahm-Almighty-God.
तदाविशन्ति भूतानि महान्ति सह कर्मभिः।
मनच्श्रावयवै: सूक्ष्मै: सर्वभूतकृदव्ययम्॥1.18॥
ब्रह्म में आकाशादि महाभूत अपने-अपने कर्मों के साथ उत्पन्न होते हैं। उस अहंकार रुप ब्रह्म में सभी प्राणियों का निमित्त और अनैश्वर मन अपने सूक्ष्म रूपों के साथ उत्पन्न होता है।
The Brahm evolves with the Panch Maha Bhut & Ahankar (basic residual characters, qualities, traits, properties) according to their previous deeds. The Brahm evolves in the form of Ahankar which contains the reason and the psyche in their minutest form, micro-seedling. They contain their functions allotted to them, according to their previous births and the inherent desires. Ahankar, here represents the remaining impact of deeds over the psyche (मन, ह्रदय और मस्तिष्क) of the Karan Sharir-reason or causative body of the previous births at the time of Pralay-Vast devastation-end of Brahma's day-called Kalp.
तेषामिदं तु सप्तानां पुरुषाणां महौजसाम्।
सूक्ष्माभ्यो मूर्तिमात्राभ्य: सम्भवत्यव्यायद् व्ययम्॥1.19॥
इन परम तेजस्वी (महत्तत्त्व, अहंकार और पञ्चतन्मात्रा) सात तत्वों के, शरीर बनने वाले भागों से यह नश्वर संसार अव्यव से उत्पन्न होता है।
The perishable world-universe is composed of the 7 basic components, called Mahatt-Tatv, Ahankar and Panch Tan Matra. These 7 components again have various finer components.
महत्त-तत्व Mahatt-Tatv :: प्रकृति का पहला विकार (defect) या कार्य (function), पहले-पहल जब तक जगत सुषुप्तावस्था से उठा, या जागा था, तब सबसे पहले इसी महत्तत्त्व का आविर्भाव हुआ था, इसी को दार्शनिक परिभाषा में बुद्धि-तत्त्व भी कहते हैं, सात तत्वों में से सबसे अधिक सूक्ष्म तत्त्व है, यह जीवात्मा।
This is the most important component of evolution. This is called Jeevatma-Soul, something which is essential for life. This has the mechanism called intelligence which govern every thing, every event. This is minutest of the 7 basic components.
पञ्चतन्मात्रा (Panch Tan Matra) :: शब्द :- word-sound-speech, created by mouth, स्पर्श :- touch, experience through skin, रूप :- shape, size-form perceived through eyes, रस :- juice-extract experience through tongue, गंध :- smell-scent, experienced through nose; का विशेष महत्व उल्लेखित है और इसे इन्द्रियों का विषय माना गया है।
आद्याद्यस्य गुणं त्वेषामवाप्नोति पर: पर:।
यो यो यावतिथच्श्रेषां स स तावद् गुण: स्मृत:॥1.20॥
इन पंच महाभूतों (आकाश, वायु, तेज़, जल और पृथ्वी), के पाँचों गुण क्रमशः उत्तरोत्तर एकाधिक होता है (अर्थात आकाश में एक शब्द गुण, वायु में शब्द और स्पर्श) इसी प्रकार रुप, रस, गन्ध उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार पंच महाभूतों के सँख्यानुसार ही उनमें गुणों की सँख्या भी उतनी ही अधिक होती है।
Characteristics of these 5 basic ingredients of nature preserved in the past, goes on increasing by one successively. Akash (Sky, space, ether) shows single character, Vayu (Air-wind) shows two, Tej (Aura-light-energy) shows three, Jal (Water) shows four and Prathvi (Earth-celestial bodies-objects) shows five characters.
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक्-पृथक्।
वेदशब्देभ्य एवाSSदौ प्रथक्संस्थाच्श्र निर्ममे॥1.21॥
सृष्टि के आदि में ही ईश्वर ने उन सबके नाम और कर्म, वेद के अनुसार ही नियत कर, उनकी अलग-अलग सँख्याएँ बना दीं।
At the on set of evolution, (in the beginning, at the time of evolution) the Almighty fixed the names & assigned their functions, deeds, actions of all beings and their numbers according to the Veds (as per the remaining deeds of the creatures in their previous births, prior to vast devastation).
कर्मात्मनां च देवानां सोSसृजत्प्राणि प्रभु:।
साध्यानां च गणं सूक्ष्मं यज्ञन् चैव सनातनम्॥1.22॥
उस ब्रह्मा ने देवताओं और सभी जीवों की यथा साध्य गणों की सृष्टि की और (ज्योतिष्टोमादि) सनातन यज्ञों को भी बनाया।
Brahma Ji-the creator, created the demigods (another category of demigods was created by Mahrishi Kashyap) and all organisms, living beings, creatures like Sadhy Gan and various Yagy, holy, eternal sacrifices in fire.
अग्निवायुर्विभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्मा सनातनम्।
दुदोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजु: सामलक्षणम्॥मनुस्मृति 1.23॥
ब्रह्मा जी ने यज्ञादि करने के लिये अग्नि, वायु और सूर्य से सनातन (नित्य) ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद को दोहन कर प्रकट किया।
Brahma Ji (read Brahm-the God, Almighty; since Brahma Ji is just a component of HIM) extracted Rig Ved, Yajur Ved and Sam Ved from Agni-Holy fire, Air-wind and Sury-Sun for Holi sacrifices.
वेद ईश्वर की वाणी है। वेदों को भगवान् श्री हरी विष्णु ने ब्रह्मा जी को दिया। ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद को वेदत्रयी भी कहा जाता है। इस वाणी को सर्वप्रथम क्रमश: निम्न 4 ऋषियों ने सुना :- (1). अग्नि, (2). वायु, (3). अंगिरा और 4. आदित्य।
परंपरागत रूप से इस ज्ञान को स्वयम्भुव मनु ने अपने कुल के लोगों को सुनाया, फिर स्वरोचिष, फिर औत्तमी, फिर तामस मनु, फिर रैवत और फिर चाक्षुष मनु ने इस ज्ञान को अपने कुल और समाज के लोगों को सुनाया। बाद में इस ज्ञान को वैवश्वत मनु ने अपने पुत्रों को दिया। इस तरह परंपरा से प्राप्त यह ज्ञान गुरु संदीपन के माध्यम से भगवान् श्री कृष्ण और बलराम तक पहुँचा।
कालं कालविभक्तिंश्च नक्षत्राणि ग्रहांस्तथा।
सरितः सागराच्छैलान्समानी विषमाणि च॥1.24॥
इसके बाद समय के विभाग (दिन मासादि), नक्षत्र, ग्रह, नदी, समुद्र, पर्वत, समतल और विषम भूमि की रचना की।
Thereafter, the Almighty undertook the formation of division of time into days, the lunar mansions, months, constellations, planets and rivers, plains, uneven turfs and the land over the earth.
सृष्टिं सर्ज चैवेमां स्रष्टुमिच्छन्निमा:॥1.25॥
पूर्वोक्त देवादिकों को बनाने की इच्छा से तप (पूजा इत्यादि), वाणी, चित्त का परितोष (Delight, Satisfaction, Fulfilment, Full satisfaction, Contentedness, Pleasure, Gratification) इच्छा, चित्त का विकार (क्रोध) को उत्पन्न करके सृष्टि की रचना की।
To produce the demigods and deities-divine creations; Brahma Ji desired to create asceticism (prayers, austerity, worship, rituals etc.), speech, happiness-pleasure & defects of psyche-mood i.e., anger.
कर्मणां च विवेकार्थं धर्माधर्मौ व्यवेचयत्द्व।
न्व्दैरयोजयच्चेमा: सुखदुःखादिभि: प्रजा:॥1.26॥
धर्म (यज्ञादि), अधर्म (ब्रह्महत्यादि) इनके कर्तव्या-कर्तव्य के विचार लिये धर्म और अधर्म को और दोनों के फल क्रम से सुख, दुःख को प्रजा के साथ जोड़ दिया।
In order to distinguish between virtues and sins the outcome of the duties (do's, & actions, deeds, activities, ventures, manoeuvres, targets, ambitions, practices etc.) and unwanted deeds (do not's, prohibited actions, misdeeds, undesirable activities leading to sin, evil); the humans-populations were linked to pain and pleasure.
अण्व्यो मात्रा विनाशिन्यो दशर्धानां तु या: स्मृता:।
ताभि: सार्धमिदं सम्भवत्यनुपूर्वशः॥1.27॥
पञ्च महाभूत की नष्ट होने वाली पञ्च तन्मात्राओं (रूप, रस, गंध, घ्राण, स्पर्श) के साथ ही यह सारा संसारी (सूक्ष्म से स्थूल, स्थूल से स्थूलतर) उत्पन्न होता है।
This Eternal-Panch Maha Bhut, evolves with the perishable five senses viz. shape, juice, scent, smell and touch & the universe evolves and becomes simple to complex gradually.
It has infinite number permutations and combinations. A new species may evolves and an existing may eliminate-extinct.
यं तु कर्मणि यस्मिन् स न्ययुक्त प्रथमं प्रभु:।
स तदेव स्वयं भेजे सृज्य मान: पुनः॥1.28॥
पहले ब्रह्मा जी ने जिस जीव की जिस कार्य में नियुक्त किया, वह बारम्बार उत्पन्न होकर भी अपने पूर्व ही कर्म को करने लगा।
The living being stated performing the same job again and again in successive rebirths which was assigned to him by Brahma Ji, initially.
It means that one who had the result of some remaining-left over deeds to be experienced; continues with them in new births-incarnations.
ब्रह्मा जी ने विभिन्न जीवों को उनके पूर्व जन्मों के शेष कर्मों के अनुरूप उन्हें विभिन्न जिम्मेवारियाँ-कार्य सौंपे।
चींटी से लेकर हाथी अथवा व्हेल तक सभी प्राणियों का जीव श्रंखला में अपना महत्व है।
Brahma Ji assigned the particular trade-work to the creatures according to their remaining deeds in previous births.
From ant to whale all organisms have their significance-importance in the life cycle.
हिंस्त्राहिंस्रे मृदु क्रूरे धर्माधर्मा वृतानृते।
यद्यस्य सोSदधात्सर्गे तत्तस्य स्वयमाविशत्॥1.29॥
हिंस्र (predatory, murderous, carnivorous, violent) और अहिंस्त्र (non violent, harmless), कोमल और क्रूर (ruthless), धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य; इनमें से जिसको जिस कार्य में नियुक्त किया, वह उसमें प्रवेश करने लगा।
Newly created organisms starting entering the species to which they were appointed in opposite pairs-traits like violent & non violent, harmless-soft and brute-ruthless, those abiding by the Dharm-dutiful and irresponsible-non abiding by Dharm (those who believed in scriptures and the others who discarded scriptures) truth and falsehood-fake.
Most of the actions appear as action & reaction, positive & negative, good & bad, pious & impure, virtues & sins. Every thing appears in couple, pair having opposite characters.
यथर्तुं लिङ्गान्य्रतव: स्वयमेवर्तुपर्यये।
जिस प्रकार ऋतु के अवसान में दूसरी ऋतु अपने विशेष चिन्ह को धारण करती है, उसी प्रकार जीव स्वयं अपने-अपने कर्मों को जन्म से ही प्राप्त करते हैं।
The manner in which the next season shows its signs before the termination of the earlier season, like wise the organism-living being bears the deeds of their earlier births in advance.
जीव के जन्म से पहले ही उसका वर्तमान जन्म में उसका कार्य-कलाप पूर्व जन्मों के परिणाम स्वरूप नियत हो जाता है।
The destiny of the organism is fixed in advance according to its deeds in earlier births.
लोकानां तु विवृद्धयर्थं मुखबाहूरुपादत:।
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्त्तर्यत्॥1.31॥
संसार की वृद्धि के लिये मुख, बाहू, जंघा और चरण से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र को उत्पन्न किया।
For the growth of the universe Brahmn, Kshatriy, Vaeshy and Shudr were created from the mouth, arms-hands, thighs, and the feet, respectively.
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी ने जिन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र को उत्पन्न किया था वे दैवी सृष्टि के अंग थे। संसार की अभिवृद्धि के लिये महृषि कश्यप ने जिन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को उत्पन्न किया वे मैथुनी सृष्टि के अंग थे।
These diverse creations were there at the on set of evolution and were divine in nature, according to the initial need. Later when Mahrishi Kashyap created the humanity through sexual intercourse these divisions (Brahmns, Kshatriy, Vaeshy & Shudr) were already there.
द्विधा कृत्वाSSत्मनो देहमर्धेन पुरुषोSभवत्।
अर्धेन नारी तस्यां स विराजम सृजत्प्रभु:॥1.32॥
ब्रह्मा ने अपने शरीर के दो भाग करके आधे से पुरुष और आधे से स्त्री बनाकर उसमें विराट पुरुष की (मैथुन कर्म से) सृष्टि की।
Brahma Ji divided his body into two segments as male and female and then created Virat Purush, through sexual reproduction.
विराट पुरुष भी दैवी सृष्टि के ही अंग थे।
Till this end the creation is divine.
Virat Purush-Maha Vishnu was created by the mating of Bhagwan Shri Krashn & Radha Ji in Gau Lok. All universes evolved out of him through infinite hairs over his body. Please refer to :: EVOLUTION सृष्टि रचना santoshkipathshala.blogspot.com
तपस्तप्त्वा Sसृजद्यं तु स स्वयं पुरुषो विराट्।
तं मां वित्तास्य स्त्रष्टारं द्विज सत्तमा:॥1.33॥
हे द्विज श्रेष्ठ! उस विराट पुरुष ने स्वयं तपस्या करके, जिसे (इस सम्पूर्ण संसार को बनाने वाले को) उत्पन्न किया वो में हूँ।
Manu addressed the Guest Brahmans as Dwij Shreshth-Ultimate in the category of learned-enlightened and said the Virat Purush-large form of the human, himself resorted to toughest asceticism-austerities and created Manu-the host.
अहं प्रजा: सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुच्श्ररम्।
पतीन् प्रजानामसृजं महर्षी नादितो दश॥1.34॥
मैंने सृष्टि की इच्छा से अत्यन्त कठिन तपस्या करके प्रजाओं के पति दस-महर्षियों को उत्पन्न किया।
Manu himself resorted to tough asceticism-austerities and produced the 10 Mahrishi-Ultimate amongest the ascetics.
Manu represent the first half of Brahma Ji who divided himself into two segments to produces living beings through sexual reproduction.
प्रचेतसं वशिष्ठन् च भृगुं नारदमेव च॥1.35॥
मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वशिष्ठ, भृगु और नारद ये दस महऋषि हैं।
The Mahrishis created by Brahma Ji were :: Marichi, Atri, Angira, Pulasty, Pulah, Kratu, Pracheta, Vashishth, Bhragu and Narad.
Virat Purush is Maha Vishnu & the son of Bhagwan Shri Krashn & Maa Radha Ji while and Manu is incarnations, fraction-form of Brahma Ji, adopted by him for evolution.
एते मनूंस्तु सप्तान्यानसृजनभूरी तेजसः।
देवान्देवनिका कायांच्श्र महर्षीच्श्रामितौजस:॥1.36॥
इन अन्यन्त तेजस्वी ऋषियों ने अन्य सात मनुओं को, देवताओं और उनके रहने के स्थानों को तथा महातेजस्वी ऋषियों को बनाया।
These sages possessed with extremely bright aura created another 7 Manu, demigods & their habitat and sages with high order of aura in them.
यक्षरक्ष: पिशाचांच्श्र गन्धर्वाप्सरसोSसुरान्।
नागान्सर्पान्सुपर्णांच्श्र पितृणां च पृथग्गणान्॥1.37॥
यक्ष, राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, असुर, नाग-सर्प, सुपर्ण (देव-गन्धर्व) और पितरों के अलग-अलग गणों को बनाया।
Yaksh, Rakshas, Pishach, Gandharv, Apsra-nymphs, demons-giants, Nag-Sarp (Hooded snakes and serpents), Suparn (demigods with the qualities of Gandharvs) and the Pitr (Manes, पितृ, प्रेत, प्रेतात्मा, पितर), along with their separate Gan, varieties-classes were created simultaneously.
विद्द्युतोSशनिमेधांच्श्र रोषितेन्द्रधनूंषि च।
उल्का निर्घातकेतूंच्श्र ज्योतींष्युच्चावचानि॥1.38॥
विद्द्युत् (बिजली), वज्र, मेघ, रोहित, इन्द्र धनुष, उल्का, निर्घात (terrible terrifying sound), (बादलों की घरघराहट), केतु (तारा) और बड़े-छोटे नक्षत्रों को उत्पन्न किया।
Lightning, thunderbolts and clouds, Rohit (Red colour derived from the first rays of the Sun) and rainbow, meteors, supernatural noises-terrible terrifying sound, comets, constellations of all dimensions-small to large to very large were created.
किन्नरान्वानरान्मत्स्यान्विविधांच्श्र विहङ्गमान्।
पशून्मृगान्मनुष्यांच्श्र व्यालांच्श्रोभयतोदत:॥1.39॥
किन्नरों, वानरों और अनेक प्रकार के मत्स्य तथा पक्षियों, पशु, मृगों को, मनुष्य और दोनों (ऊपर और नीचे) दाँतवाले सिंहादिकों को उत्पन्न किया।
Then Kinnars (impotent-neuter gender), Vanar-monkeys, fishes, birds of many kinds, animals-cattle, deer, men and carnivorous beasts with two rows of teeth-jaws (upper and lower) were created.
कृमि कीट-पतंगाश्च यूकामक्षिक-मत्कुणम्।
कृमि-कीट (कीड़े-मकोड़े), पतंग, जोंक, मक्खी, मच्छर और अनेक प्रकार के स्थावर जीवों को उत्पन्न किया।
Small and large worms and all stinging and biting insects, beetles, moths, leech, flies, bugs, and the several kinds of immovable (trees, shrubs, plants, creepers, vine, बेल) living beings were produced.
एवमेतैरिदंसर्वं मन्नियोगान्महात्मभि:।
यथाकर्म तपोयोगात्स्रष्टं स्थावरजङ्गमम्॥1.41॥
मेरी आज्ञा से महऋषियों ने अपने तपोबल से कर्मानुसार स्थावर और जङ्गम प्राणियों की सृष्टि की।
Mahrishi-the great saints, created the living beings of both the immovable and the movable species, by means of their ascetic powers-austerities and by accepting his command, depending over the results of the left over deeds of the creatures in their previous birth, in a systemic order-i.e., one by one.
येषां तु यादृशं कर्म भूतानामिह कीर्तितम्।
तत्तथाSभिस्यामि क्रमयोगं च जन्मनि॥1.42॥
सृष्टि में जिस प्राणी का जैसा कर्म कहा गया है और जन्म के क्रम योग को आपसे कहुँगा।
Birth & order of the birth of the organism was determined by the actions-deeds of their previous births.
पशवश्च मृगाच्श्रेव व्यालाच्श्रोभयतोदत:।
रक्षांसि च पिशाचाश्च जरायुज:॥1.43॥
ऊपर-नीचे दाँत वाले पशु, मृग और हिंसा करने वाले जीव, राक्षस, पिशाच और मनुष्य; ये जरायुज (गर्भ से उत्पन्न होने वाले) हैं।
Thereafter, the cattle, deer, carnivorous beasts with two rows of teeth (with the upper and lower jaws), Rakshas-Demons-Giants, Pishach and humans born from the womb (placenta) were created.
अण्डजा: पक्षिणः सर्पा नक्रा मत्स्याश्च कच्छपा:।
यानि चैवं प्रकाराणी स्थलजान्यौदकानि च॥1.44॥
पक्षी, सर्प, मगर, मछली, कछुआ इस तरह से जितने स्थल और जल के जीव हैं, वे सभी अंडज (अण्डे से) उत्पन्न होने वाले हैं।
Birds, snakes, crocodile-alligators, tortoise and other living beings, which lives over the land-similar terrestrial and water aquatic (animals) are born out of egg.
This provides sufficient inputs to prove Darwin and Lamarck wrong.
Darwinism or Darwin's theory of biological evolution states that all species of organisms arise and develop through the natural selection of small, inherited variations that increase the individual's ability to compete, survive and reproduce. It originally included the broad concepts of transmutation of species or of evolution.
Lamarckism says that an organism can pass on characteristics that it has acquired during its lifetime to its offspring (also known as inhabitability of acquired characteristics or soft inheritance).
The principle of use and disuse is sufficient to dumped-discarded.
One should remember that mixing of sperms of various species generate new species, which is just reorientation of chromosomes and genes. It might prove disastrous as well.
स्वेदनजं दंशमशकं यूकामाक्षिकमत्कुणम्।
उष्मणच्श्रोपजायन्ते यच्चान्यत्किंञ्चिदीदृशम्॥1.45॥
डंस, मच्छर, मक्खी, खटमल और अन्य जो इस प्रकार के जीव जिनकी उत्पत्ति गर्मी से होती है, उन सभी को स्वेदज कहते हैं।
The insects that sting, mosquitoes, lice, flies, bugs and those creatures which evolves through heat & sweat are called Swedaj-produced out of sweat (salty, colourless liquid excreted through the skin).
उद्भिज्जा: स्थावरा: सर्वे बीजकाण्ड प्ररोहिण:।
जो बीज और शाखा से उत्पन्न होने वाले स्थावर-वनस्पति, वृक्ष, पौधे, लता आदि हैं, वे सभी उद्भिज्ज कहे जाते हैं। जो बहुत फूल और फल वाले वृक्ष हैं और जिनका फल पकने पर सूख जाता है, उन्हें औषधि कहते हैं।
The vegetation, trees, plants, shrubs, creepers etc. which propagate-grow-germinate-sprout from the seeds or the stem-shoots (by grafting) are termed as Udbhijj (Herbal, Botanical). Those trees and plants which produce plenty of flowers and fruits that dries up on ripening, are termed as Aushadhi (Ayur Vedic-Herbal Medicines, Drugs).
बीजअपुष्पा फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृता:।
पुष्पिण: फलिनच्श्रैव वृक्षास्तूभयत: स्मृताः॥1.47॥
जो बिना फूल के ही फलते हैं, वनस्पति कहलाते हैं और जो फूलते-फलते हैं, उन्हें वृक्ष कहते हैं।
The plantation-vegetation which grows without flowers is termed as Vanaspati-vegetation, while the one which bears flowers and fruits are termed a Vraksh-tree.
गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव त्रणजातयः।
बीजकाण्ड रूहाण्येव प्रतानावल्ल्य एव च॥1.48॥
अनेक प्रकार के गुच्छे (flakes), गुल्म (Gulm Copse, Coppice, ऐसी वनस्पति है जिसकी जड़ या नीचे का भाग गोल बड़ी गाँठ के रूप में होता है और जिसमें कोमल डंठलोंवाली अनक शाखाएँ निकलती हैं) और तृण तथा फैलने वाली लतायें बीज और शाखा से उत्पन्न होते हैं।
Various climbers-creepers-vines (लताएँ, बेल) with flakes and copse-nodes and straw-grasses germinate trough seeds and stalks-stems.
तमसा बहुरूपेण वेष्टिताः कर्महेतुना।
अन्तः संज्ञा भवन्त्येते सुखदुःख-समन्विता:॥1.49॥
अनेक प्रकार के पूर्वजन्म कर्मों के कारण ये तमोगुण से घिरे रहते हैं। इनके अन्दर चेतना शक्ति है और सुख-दुःख का ज्ञान भी रहता है।
The vegetation is shrouded by the Tamo Gun (laziness, unwilling to work, negative tendencies, ignorance) by virtue of its deeds in the previous births. The plants, trees etc. have consciousness, life-feelings and experience pleasure and pain.
Sir Jagdish Chandr Basu had to prove successfully, that trees & plants have life in them.
एत दन्तास्तु गतयो ब्रह्माद्या: समुदाहृताः।
घोरेSस्मिन्भूतसंसारे नित्यं सततयायिनी॥1.50॥
इस घोर अचिन्त्य चराचर संसार में ब्रह्मा से लेकर यहाँ तक के चरादि पदार्थों की उत्पत्ति को कहा गया है।
The evolution starting from Brahma Ji to minutest entity has been described in this unthinkable (beyond the reach of intelligence), terrible, inanimate, (entire creation, movable and immovable, mortal & immortal, perishable & imperishable) world-universe.
घोर :: जो आकार, प्रकार, प्रभाव आदि की दृष्टि से विकराल या भीषण हो, डरावना, जो मान, मात्रा आदि के विचार से अति तक पहुँचा हुआ हो, (स्वर जो बहुत ही कठोर और भय उत्पादक हो), बहुत बड़ा, भूषण, बहुत ही बुरा, बहुत ही घना या सघन, बहुतअधिक, अत्यन्त; Mortal, fiasco, adjective, heinous, horrible, macabre, atrocious, outraged, awful, outrageous, blatant, serious, diabolic, severe, diabolical, terrible, dismal, unrelieved, eerie, egregious, flagrant, formidable, grave, grievous.
एवं सर्व स सृष्टवेदं मां चाचिन्त्यपराक्रम:।
वह अचिन्त्य पराक्रम (सर्वशक्तिमान्) इस सारे जगत और मुझको उत्पन्न कर, इस सृष्टि काल को प्रलय काल से नष्ट करता हुआ, अपने ही रूप में अन्तर्ध्यान हो जाता है।
The Almighty, whose power is incomprehensible, evolved the entire universe along with Manu Ji, destroys the present formation of universe and dissolves it in HIMSELF.
यदा देवो जाग्रति तदेदं चेष्टते जगत।
यदा स्वपिति शान्तात्मा तदासर्वं निमीलति॥1.52॥
जब वह देव जागता है, तब यह संसार जागता है और जब शान्त चित्त से होता है, तब सबका लय होता है।
The universe wakes up when the Almighty-God is awake and assimilates in HIM when HE is quite (at peace, tranquil).
TRANQUIL :: नींद, अल्प निद्रा, झपकी लेना, ऊंघना, सोना, निष्क्रिय होना, हल्की नींद; sleep, slumber, shut eye, dreamworld, blink, doze, drowsiness, dormancy, shut eye, dreamland, drowsiness, drowse, doze off, nap, inactive.
तस्मिन्स्वपिति सुस्थे तु कर्मात्मानः शरीरिणः।
स्वकर्मभ्यो निवर्तन्ते मनच्श्रग्लानि मृच्छति॥1.53॥
उसके स्वस्थ होकर सोने पर कर्मानुसार शरीर धारण करने वाले जीव अपने कर्मों से निवृत्त होते हैं और उनका मन भी वृत्ति रहित हो जाता है।
When the God is at peace (reposes in calm sleep), all the living beings who bears a body becomes free from their respective actions-deeds and their psyche too becomes free from desires, (i.e., desist from their actions and their mind too becomes inert).
युगपत्तु प्रलीयन्ते यदा तस्मिन्महात्मनि।
तदायं सर्वभूतात्मा सुखं स्वपिति निर्वृतः॥1.54॥
जब उस परमात्मा में एक ही साथ सभी जीवों का लय हो जाता है, तब यह सभी जीवों की आत्मा निवृत्त होकर सुख से सोती है।
When all the organisms assimilate in HIM, their souls rests in peace after becoming free from all troubles.
तमोऽयं तु समाश्रित्य चिरं तिष्ठति सेन्द्रियः।
न च स्वं कुरुते कर्म तदोत्क्रमति मूर्तित:॥1.55॥
जब यह जीव अपने कर्म को नहीं करके तम (ज्ञान की निवृत्ति) का आश्रय लेकर इन्द्रियों के साथ रहता है, तब पूर्व शरीर से निकल जाता है।
When the human being do not discharge its duties, under the influence of Tam (laziness, carelessness, stupidity, ignorance), taking shelter under the sense organs, then the soul rejects the body-corpse and leaves it.
यदाऽणुमात्रिको भूत्वा बीजं स्थास्नु चरिष्णु च।
जब यह अणुमात्रिक होकर स्थावर जङ्गम के बीज में प्रवेश करता है, तब स्थूल रूप से शरीर को धारण करता है।
In the next phase, the soul enters the fixed or movable organism in molecular state in the seed ling & then it gains a material, physical body-embodiment.
एवं स जाग्रत्स्वपनामिदं सर्वं चराचरम्।
सञ्जीवयति चाजस्त्रं प्रमापयति चाव्यय:॥1.57॥
इस प्रकार वह अविनाशी इस सम्पूर्ण चराचर संसार को जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं द्वारा बार-बार उत्पन्न और नाश करता है।
In this manner, the imperishable-Almighty creates & destroys incessantly (निरंतर) & alternatively, the universe (this whole movable and immovable creation) in awake and sleepy-slumbering states.
इदं शास्त्रं तु कृत्वाऽसौ मामेव स्वयमादित:।
विधिवद् ग्राहयामास मरीच्यादींस्त्वहं मुनींन्॥1.58॥
इस शास्त्र को बनाकर ब्रह्मा जी ने पहले मुझे विधि पूर्वक बताया इसके बाद मैंने ही मरीचि आदि महऋषियों को बताया।
Brahma Ji composed this scripture and taught me with full procedure-methodically and thereafter I taught this to Marichi and other Mahrishi's.
एतद् वोऽयं भृगु: शास्त्रं श्रावयिष्यत्यशेषतः।
एतद्धि मतोऽधिजगे सर्वमेषोऽखिलं मुनि:॥1.59॥
इस सम्पूर्ण शास्त्र को भृगुऋषि आपसे कहेंगे, क्योंकि इन्होंने इसको मुझ से ग्रहण किया है।
Bhragu will preach-comprehend, describe this Shastr in detail to you, since he has learnt it from me.
ततस्तथा स तेनोक्तो महर्षिर्मनुना भृगु:।
तानब्रवीदृषीन्ससर्वान्प्रीतात्मा श्रूयतामिति ॥1.60॥
मनु जी से इस प्रकार जाने पर महर्षि भृगु जी प्रसन्न चित्त होकर ऋषियों से बोले :- सुनिये।
Mahrishi Bhragu became happy having heard Manu praising him and asked the sages to hear him attentively.
स्वायम्भूवस्यास्य मनो: षड् वंश्या मनवोऽपरे।
सृष्टवन्तः प्रजा: स्वा: महात्मानो महौजसः॥1.61॥
इन स्वायंभुव मनु के वंश में छः मनु उत्पन्न हुए। उन महातेजस्वी महात्माओं ने अपनी-अपनी प्रजाओं को उत्पन्न किया।
Six Manu took birth in the dynasty of the Swayambhu Manu. These enlightened, highly energetic & potential six Manus, having aura-glow around them, too created their own population-living beings, organism.
स्वारोचिषच्श्रोत्तमश्च तामसो रैवतस्तथा।
चाक्षुषच्श्र महातेजा विविस्वत्सुत एवं च॥1.62॥
स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष और महातेजस्वी सूर्य के पुत्र वैवस्त छठे मनु हुए।
They were Swarochish, Uttam, Tamas, Raevat, Chakshush and the sixth was Vaevast Manu-son of dazzling bright Bhagwan Sury (Sun).
स्वयम्भुवाद्या: सप्तैते मनवो भूरितेजसः।
स्वे स्वेऽन्तरे सर्वमिदमुत्पाद्याऽऽपुश्चराचरम्॥1.63॥
ये महातेजस्वी स्वायंभुवादि सात मनुओं ने अपने-अपने समय में समस्त चराचर जगत् को उत्पन्न किया।
These beaming seven Swaymbhuv & other Manus created the universe in their tenure.
Please refer to :: ANCIENT HINDU CALENDAR काल गणनाsantoshkipathshala.blogspot.com
निमेषा दश चाश्टौ च काष्ठा त्रिंशत्तु ता: कला।
त्रिंशत्कला मुहूर्त: स्यादहोरात्रः ॥1.64॥
अठारह निमेष (पलक झपकना) एक काष्ठा, तीस काष्ठा का एक कला, तीस कला का एक मुहूर्त और तीस मुहूर्त का एक अहोरात्र होता है।
Eighteen Nimesh (twinkling of the eye) constitute one Kashtha, thirty Kashtha are equal to one Kala, thirty Kala makes one Muhurt and 30 Muhurt constitute one Ahoratr i.e., day and night.
18 Nimesh = 1 Kashtha,
30 Kashtha = 1 Kala,
30 Kala = 1 Muhurt,
30 Muhurt = 1 Ahoratr.
अहोरात्रे विभजते सूर्यो मानुषदैविके।
रात्रि: स्वप्नाय भूतानां चेष्टायै कर्मणामह:॥1.65॥
सूर्य मनुष्य और देवताओं के अहोरात्र का विभाग करता है। प्राणियों के सोने के लिए रात और काम करने के लिए दिन है।
The Sun divides Ahoratr into days and nights for both human and divinity-demigods & deities; the night (being intended) for the repose-sleeping of created beings and the day for performing deeds-work.
पित्र्ये रात्र्यहनी मास: प्रविभागस्तु पक्षयो:।
कर्म चेष्टास्त्वह: कृष्ण: शुक्ल: स्वप्नाय शर्वरी॥1.66॥
मनुष्यों के मास के बराबर पितरों का एक दिन-रात (अहोरात्र) होता है, मास में दो पक्ष होते हैं, मनुष्यों का कृष्णपक्ष, पितरों के कर्म का दिन और शुक्लपक्ष पितरों के सोने के लिए रात होती है।
A month of the humans on earth is equal to one Ahoratr of the Manes i.e., a day and a night, which is equal to a fortnight constituting of Krashn Paksh (dark phase of the Moon) and Shukl Paksh (bright phase of the Moon). The Krashn Paksh of the Humans is the day of the manes meant for work, while the Shukl Paksh-bright phase of the Humans is the night of the Manes meant for sleep-rest.
1 Month of Humans = 1 Ahoratr of Manes = 2 Fortnights of Humans (Krashn Paksh-Dark Phase & Shukl Paksh-Bright phase of Humans),
1 Ahoratr of Manes = 1 day and night of Manes.
1 day of Manes = 1 Krashn Paksh-Dark Phase of Humans-meant for work by the Manes & 1 Shukl Paksh-Bright Phase of Humans meant for rest-sleep by the Manes.
दैवे रात्र्यहनी वर्षं प्रविभाग सत्यो: पुनः।
अहस्तत्रोदगयनं रात्रि: स्यादृक्षिणायनम्॥1.67॥
मनुष्यों के एक वर्ष के तुल्य देवताओं का अहोरात्र होता है। उत्तरायण (मकर से 6 राशि पर्यन्त अर्थात मिथुन तक सूर्य के रहते) दिन और दक्षिणायन (कर्क से मकर तक सूर्य के रहते) में देवताओं की रात्रि होती है।
The Ahoratr of the demigods-deities is equal to one solar year of the humans on earth. Uttrayan, when the Sun is in Northern hemisphere (Period of six constellations Makar-Capricorn to Mithun-Gemini) is demigod's day and Dakshinayan, when the Sun is in the Southern hemisphere (Period of six constellations Kark-Crab to Makar-Capricorn) is demigods night.
1 Ahoratr of the demigods = 1 Solar year of the humans on earth,
1 Day of demigods = Uttrayan-Sun in Northern hemisphere (period of six constellations Makar- Capricorn to Mithun-Gemini); the period of 6 months,
1 Night of demigods = Dakshinayan-Sun is in the Southern hemisphere (Kark-Crab to Makar-Capricorn) is demigods night, the period of 6 months.
ब्राह्मस्य तु क्षपाहस्य यत्प्रमाणं समासत:।
एकैकशो युगानां तु क्रमशस्तन्निबोधत॥1.68॥
ब्रह्मा जी के रात-दिन का एक-एक युग का जो प्रमाण है, वह क्रमशः इस प्रकार है।
The length of the day & night of Brahma Ji, pertaining to divine cosmic era (Yug) is described respectively, in a systematic order as follows.
चत्वार्याहु: सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।
तस्य तावच्छति सन्ध्या संध्यांशश्च तथाविध:॥1.69॥
चार हजार वर्षों का सतयुग होता है, युगारंभ और युगान्त में क्रम से चार-चार सौ वर्ष की संध्या संध्यांश होते हैं।
The Krat-Sat Yug constitutes of 4,000 divine years along with Sandhya-twilight (half-light, semi-darkness, dimness, gloom, partial visibility in the evening) constituting of 400 years and the Sandhyansh (fraction of evening), which is again of 400 years duration.
इतरेषु ससंध्येषु ससंध्यांशेषु च त्रिषु।
एकापायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च॥1.70॥
अन्य तीनों युगों का मान क्रमशः एक दूसरे के वर्षमान में से एक-एक हजार घटाने से प्राप्त होता है और उतने ही सौ वर्ष उनके संध्या और संध्यांश होते हैं। त्रेता युग तीन हजार वर्ष और इसके संध्या और संध्यांश तीन-तीन सौ वर्ष, द्वापर दो हजार वर्ष इसके संध्या और संध्यांश दो-दो सौ वर्ष और कलियुग एक हजार वर्ष का और इसके संध्या और संध्यांश एक-एक सौ वर्ष के होते हैं।
The life span-duration of the other three cosmic era (twilights, ages) is obtained by subtracting (diminishing) 1000 years and 100-100 years from Treta Yug, for Dwapar Yug subtract 1000 years from Treta Yug's duration and 100-100 years and lastly subtract 1000 years from the age of Dwapar Yug along with 100-100 years towards Sandhya and Sandhyansh.
युग YUG COSMIC ERA ::
The life span-duration of the other three cosmic era (twilights, ages) is obtained by subtracting (diminishing) 1,000 years and 100-100 years from Treta Yug, for Dwapar Yug subtract 1,000 years from Treta Yug's duration and 100-100 years and lastly subtract 1,000 years from the age of Dwapar Yug along with 100-100 years towards Sandhya and Sandhyansh.
यदेतत्परिसंख्यातमादावेव चतुर्युगम्।
एतद् द्वादशसाहस्त्रं तावतीं रात्रिमेव च॥1.71॥
पहले जो चारों युगों का प्रमाण कहा गया है, इन सबको मिलने से संध्या और संध्यांश के सहित बारह हजार वर्ष हुए। इसी को महायुग कहते हैं और यही देवताओं का युग है।
The sum total of divine years comes to 12,000 divine years which is called a Yug for the demigods while for the humans this period is termed as Maha Yug measuring 4,320,000 solar years.
1 DIVINE YUG = 12,000 DIVINE YEARS = MAHA YUG FOR HUMANS = 43,20,000 SOLAR YEARS.
दैविकानां युगानां तु सहस्त्रं परिसंख्यया।
ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च॥1.72॥
देवताओं के एक हजार युगों का ब्रह्मा का एक दिन और एक हजार युगों की रात होती है और इतने ही वर्षों का देवताओं का एक दिन होता है।
One thousand Yug of the demigods constitute Brahma Ji's one day & another 1,000 Yug of the demigods make Brahma Ji's one night.
1,000 DIVINE YUGS OF DEMIGODS = 1 DAY OF BRAHMA JI =1 NIGHT OF BRAHMA JI
One transition of Sun to another, constitute one solar month. 12 solar months constitute one solar year.
1,000 Maha Yugs of Humans = 1,20,00,000 Divine Years of demigods = 4,32,00,00,000 Solar Years of Humans.
तद्वै युगसहस्त्रान्तं ब्राह्म पुण्यमहर्विदुः।
रात्रिं च तावतिमेव तेऽहोरात्रविदो जना:॥1.73॥
जो एक हजार युग प्रमाण ब्रह्मा के पवित्र दिन और उतने ही युग प्रमाण रात्रिमान को जानता है, वही वास्तव में रात-दिन को जानता है।
One knows that one thousand divine years constitutes holy one day of Brahma Ji and like wise the same duration is that of the one night of Brahma Ji, is the real reckoner.
तस्य सोऽहर्निशस्यान्ते प्रसुप्त: प्रतिबुध्यते।
प्रतिबुद्धच्श्र सृजति मनः सदसदात्मकम्॥1.74॥
वह सोये हुए ब्रह्माजी अपने अहोरात्र के अन्त में जागकर सत्, असत् स्वरूप मन को सृष्टि की रचना में लगाते हैं।
Brahma Ji awakes after the passage of the Ahoratr and concentrate his Sat (Pure, Pious, Virtuous, Real) and Asatt (Impure, Contaminated, Biased, Unreal) psyche into the creation of the universe i.e., evolution.
मनः सृष्टिं विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षया।
आकाशं जायते तस्मात्तस्य शब्दं गुणं विदुः॥1.75॥
सृष्टि करने की इच्छा से मन सृष्टि करता है और उससे आकाश उत्पन्न होता है और उसको गुण शब्द कहा जाता है।
Psyche (A combination of innerself & desire) leads to evolution due to the desire for creation; creating space (Sky, Ether, Vacuum-space entirely devoid of matter) and that is called the characteristic sound.
आकाशात्तु विकुर्वाणात्सर्वगन्धवः शुचि:।
बलवाञ्जायते वायु: स वै स्पर्शगुणों मत:॥1.76॥
विकार युक्त आकाश से सब प्रकार की गन्ध को वहन करने वाली पवित्र वायु की उत्पत्ति होती है, जिसका गुण स्पर्श होता है।
The sky bearing distortions-defects, impurities produce the pious-pure wind-air which is capable of bearing smells-scents (खुशबू, महक, गंध, odour), with the quality-characteristic of touch.
वायोरपि विकुर्वाणाद्विरोचिष्णु तमोनुदम्।
ज्योतिरुत्पद्यते भास्वत्तद्रुपगुणमुच्यते॥1.77॥
विकारयुक्त वायु से अन्धकार को नाश करने वाला; प्रकाश से युक्त तेज उत्पन्न होता है, जिसका गुण रूप है।
The light associated with glow, aura, glitter-brightness is produced from the contaminated-impure air, wind which removes darkness with the characteristics of shape-figure, form.
Here (विकार) contamination, impurity, distortions, defects represent the various elements, compounds present in the sky, air, water, never ending flow of vital energy & ultimately; celestial objects like earth, which are capable of creating infinite number of goods-objects, organisms through infinite number of permutations & combinations.
ज्योतिषश्च विकुर्वाणादापो रसगुणा:स्मृता:।
अभ्दयो गन्धगुणा भूमिरित्येषा सृष्टिरादित:॥1.78॥
विकारवान तेज से जल उत्पन्न होता है जिसका गुण रस है, जल से गंध गुणवाली पृथ्वी उत्पन्न होती है। इस प्रकार से सृष्टि का क्रम चलता है।
Energy consisting of various group of minutest particles leads to the creation of water which in turn create earth possessed with various scents, smells, odours-fragrances.
It has been established that energy can be converted into mass and vice-versa. Fusion and fission are just two processes, which have been identifies out of numerous processes so far. Various combination of protons, neutrons, positrons, electrons and more than 43 sub atomic atomic particles including God particle identified till now, lead to formation of a chain of elements & compounds.Thus the raw items for creation of life forms are ready to take shape.
यत्प्राग्द्वादशसाहस्रमुदितं दैविकं युगम्।
तदेकसप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते॥1.79॥
पहले जो 12,000 वर्ष का देवताओं का युग बताया गया है, उसके इकहत्तर गुने (8,52,000 देवताओं के) वर्ष का एक मन्वन्तर कहा गया है। एक मन्वन्तर तक एक ही मनु के हाथ में सृष्टि सञ्चालन का भार रहता है।
One Manu is responsible for the affairs (back up-well being) of the populations for a period of one Manvantar which is equal to 71 times the 12,000 divine years i.e., 8,52,000 divine years.
Time period of 1 Manu = 1 Manvantar = 71 x 12000 divine years = 8,52,000 divine years.
मन्वन्तराण्यसंख्यानि सर्ग: संहार एव च।
क्रीडन्निवैतत्कुरुते परमेष्ठी पुनः पुनः॥1.80॥
मन्वन्तर और उत्पत्ति-प्रलय असंख्य हैं। परमधाम में रहने वाला परमेष्ठी-परमात्मा वह सब खेल की तरह बार-बार करता रहता है।
The Almighty-God residing in the Ultimate abode, keeps on creation-evolution & destruction-annihilation of the universes like a game, with the duration of a Manvantar infinitely.
चतुष्पात्सकलो धर्म: सत्यं चैव कृते युगे।
नाधर्मेणागम: कश्चिन्मनुष्यान् प्रति वर्तते॥1.81॥
सतयुग में धर्म चारों चरणों से अर्थात सर्वाङ्गपूर्ण रहता है। सत्य रहता है और कोई मनुष्य किसी के साथ अधर्म का व्यवहार नहीं करता।
The Dharm-religion (Piousity, Virtuousness, Righteousness, Honesty) resides with its complete form i.e., four segments-feet. Truth prevails and none treats the others with contempt, vices-sinfully.
इतरेष्वागमाद्धर्म: पादश स्त्ववरोपित:।
चौरिकानृतमायाभिर्धर्मच्श्रापैति पादश:॥1.82॥
अन्य युगों में अधर्म से धन-विद्यादि के अर्जन द्वारा धर्म का बल घटता है। चोरी, मिथ्या और कपट से क्रमशः धर्म के एक चरण का ह्रास होता है। त्रेता में धर्म के 3 चरण, द्वापर में 2 चरण तथा कलियुग में एक चरण ही बचता है।
The next three phases-segments of Dharm-religiosity, witness the deterioration-degradation, lowering of the intensity by one grade-segment in each phase, due to the involvement of the earning money-wealth through fair-foul-fraudulent means. Theft-stealing, falsehood and deception-cheating reduces the strength of the Dharm gradually to just one grade-point in Kali Yug.
Values, culture, ethics, morality, piousity, righteousness, auspiciousness, honesty, truthfulness takes the back seat in Kali Yug. However, the impact of all the cosmic era Yug is seen in all the Yugs though in insignificant proportions. Sat Yug :: All 4 grade-point-sections, Treta Yug :: 3 Segments, Dwapar :: 2 segments and the Kali Yug is left with just one strength.
अरोगा: सर्वसिद्धार्थाश्चतु वर्षशतायुषः।
कृते त्रेतादिषु ह्योषामायुह्रसति पादश:॥1.83॥
सतयुग में लोग धर्माचरण से सब मनोरथ सिद्ध करते हुए निरोग होकर चार सौ वृष तक जीते हैं। त्रेता, द्वापर और कलियुग में धर्म के ह्रास होने से प्रत्येक युग की आयु क्रमशः एक-एक सौ वर्ष घटती है।
The humans survive without falling ill, for 400 years due to their faith in Dharm-prescribed duties & fulfil all of their desires. Thereafter, the Dharm is degraded gradually and the humans survive for a reduced period by 100 years in Treta Yug, Dwapar Yug and Kali Yug respectively, 300 years, 200 years & 100 years.
वेदोक्त मायुर्मत्र्यानामाशिषच्श्रैव कर्मणाम्।
फलन्त्यनुयुगं लोके प्रभावाश्च शरीरिणाम्॥1.84॥
वेदोक्त मनुष्यों की आयु (शतायुर्वे पुरुषः) कर्मों के फल और (ब्रह्मणादिकों) के शाप-अनुग्रह (Favour, Kindness, Patronage, Assistance, Obligation, Support) आदि के प्रभाव संसार में प्राणियों को युगधर्मानुकूल ही प्राप्त होते हैं।
The longevity of the humans depend upon the dictates of the Veds, results-outcome of performances-deeds (including the desired results of sacrificial rites), curses, obligations-blessings affects according to the impact-nature of the cosmic era.
अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे।
अन्ये कलियुगे नृणां युगह्रासानुरूपतः॥1.85॥
सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग में लगातार ह्रास के अनुरूप अन्य धर्म होता है अर्थात युगों के ह्रास क्रम से उनके युग धर्म में ह्रास होता जाता हैऔर धर्म का रूप परिवर्तित होता चला जाता है।
The nature of duties-obligations-performances keep on changing according to the loss of the morals, virtues, character, honesty in the Yug in down ward directions i.e., from Krat-Sat Yug to Kali Yug. There is gradual-continuous deterioration of values, moral, ethics and culture.
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे॥1.86॥
सतयुग में तपस्या, त्रेतायुग में ज्ञान, द्वापरयुग में यज्ञ और कलियुग में दान प्रधान धर्म माना गया है।
The principal tenant of Dharm in Sat Yug is asceticism-austerities, in Treta Yug it is enlightenment, in Dwapar Yug it is Yagy-sacrifices in holi fire and during Kali Yug it is donation-charity.
कलियुग में भगवन्नाम का जप करने से भी मनुष्य-प्राणी का उद्धार सम्भव है।
सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्य्र्थं स महाद्द्युतिः।
मुखबाहूरूपज्जानां प्रथक्कर्माण्यकल्पयत्॥1.87॥
महातेजस्वी ब्रह्मा जी ने इस सम्पूर्ण विश्व के रक्षार्थ मुख, बाहू, जँघा और पाँव से उत्पन्न होने वाले जीवों के अलग-अलग कर्मों की कल्पना की है।
Brahma Ji assigned different duties-roles to different humans beings born out of his different organs-parts of his body i.e., mouth, hands-arms, thighs and the feet for the protection, survival, perpetuation of this universe.
अध्यापनमध्ययनं यजन तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥1.88॥
ब्राह्मणों के लिये पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना दान देना, दान लेना, ये 6 कर्म निश्चित किये गये हैं।
6 deeds have been fixed-assigned for the Brahmans namely learning, teaching-educating, performance of holy sacrifices, helping in performing holy sacrifices in fire, accepting donation and donating to others. In narrow terms learning stands for reading, writing, grasping, practicing, thinking, analysing, interpreting, teaching Veds. But in practice learning has 64 openings and then each opening may have further 64 tracts for comprehensive learning.
प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः॥1.89॥
क्षत्रियों के लिये संक्षेप से प्रजाओं की रक्षा, दान, यज्ञ करना, पढ़ना, विषयों (गीत-नृत्यादि) में आसक्त न होना, ये 5 कर्म निश्चित किये गए हैं।
The Kshatriy have been assigned the 5 tasks namely protecting the people, donations, performance of Yagy, learning-education, to remain away from music-dance-passions, sensuality, sexuality, lust. Learning for warriors-Kshtriy stands mainly warfare, weapon systems, administration, protection of populations.
पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च॥1.90॥
पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, रोजगार, सूद पर रुपया देना और कृषि करना , ये वैश्यों के कर्म हैं।
The Vaeshy had been assigned the duty of tending-caring, nurturing cattle, donations-charity, performing Yagy, studies-education (book keeping, accounting, business studies, commerce, trading, craftsmanship-opening factories etc.) employment in various jobs related to them, lending money and agriculture-cultivation of land.
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया॥1.91॥
ब्रह्मा जी ने उपयुक्त तीनों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और शुद्र) का गुणानुवाद (Eulogy, Relating or glorifying the virtues of Encomium) करते हुए सेवा करना; यह एक ही कर्म शूद्रों के लिए निश्चित किया है।
Brahma Ji-the creator fixed just one duty for the Shudr & that was the service of the mankind-humans of the earlier three divisions-castes, categories i.e., Brahmn, Kshtriy & Shudr.
Society needs service personnel of all categories. Brahma Ji distinguished between them on the basis of genes & chromosomes. No conflict occurs till each and every one performs his duty.
उध्र्वं नाभेर्मेध्यतरः पुरुषः परिकीर्तितः।
तस्मान्मेध्यतमं त्वस्य मुखमुक्तं स्वयंमुवा॥1.92॥
नाभि से ऊपर पुरुष-मनुष्य अत्यन्त पवित्र माना गया है, उससे भी पवित्र (शरीर के सभी अंगों की तुलना में) ब्रह्मा जी ने मुख को ही माना है।
Brahma Ji considered the upper part of the body of a man-humans, above naval; to be the purest & amongest them the mouth is purest compared to other parts of the body.
उत्तमाङ्गोद्भवज्ज्यैष्ठयाद् ब्राह्मणच्श्रैव धारणात्।
सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मण: प्रभु:॥1.93॥
उत्तमाङ्ग-मुख से उत्पन्न होने और वेद को धारण करने के कारण इस सम्पूर्ण संसार का स्वामी धर्म से ब्राह्मण ही है।
Brahmn is the master-owner of the universe since he has evolved from the mouth and bears the Veds in accordance with the Dharm-religion.
तं हि स्वयंभू: स्वादास्यात्तप्त्वावादितो सृजत्।
हव्यकव्याभिवाह्याय सर्वस्यास्य च गुप्तये॥1.94॥
ब्रह्मा जी ने तपस्या करके सबसे पहले देवता और पितरों को हव्य-कव्य पहुँचाने के लिये और सम्पूर्ण संसार की रक्षा करने के हेतु अपने मुख से ब्राह्मण को उत्पन्न किया।
Brahma Ji resorted to asceticism, austerities-Tapasya & created the Brahmns first, so that the offerings-food reach the demigods & the Manes; for the sake of the protection of the universe.
यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकसः।
कव्यानि चैव पितर: किं भूतमधिकं ततः॥1.95॥
जिस ब्राह्मण के मुख से देवगण हव्य और पितृगण कव्य कहते हैं उससे कौन प्राणी श्रेष्ठ हो सकता है।
What can be superior to the mouth of the Brahmn through which the demigods receive their food, offerings (sacrificial viands, खाद्य-पदार्थ) in the sacrificial fire and the manes gets the fairings (उपहार)!?
भूतानां प्राणिन: श्रेष्ठा: प्राणिनां बुद्धजीविनः।
बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा: नरेषु ब्राह्मणा: स्मृता:॥1.96॥
भूतों (स्थावर, जङ्गम रूप पदार्थों) में (कीटादि) श्रेष्ठ हैं, प्राणियों में बुद्धि से व्यवहार करने वाल पशु श्रेष्ठ हैं, बुद्धि रखने वाले जीवों में मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मनुष्यों में ब्राह्मण (यज्ञ-यागादि कर्मों से श्रेष्ठ होते हैं)।
Out of the whole immovable creations the insects are superior, among the organisms, animals, creations-living being which have intelligence; humans are superior and the Brahmans are superior amongest all the humans, since they perform sacrifices in fire-Hawan, Agnihotr, ascetic practices.
A Brahmn is supposed to perform rites, rituals, prayers, Pooja-Path, ascetic practices, fasts, worshipping the God, purity, piousity, cleanliness, Tapasya, austerities, honesty etc, which is really very difficult for a human being these days. So, the Brahmns of today are for the name sake only. There are people who use Sharma as suffix but do every thing wicked, vice-vicious, sinful.
ब्राह्मणेषुन् च विद्वान्सो विद्वत्सु कृतबुद्धय:।
कृतबुद्धिषु कर्तार: कर्तृषु ब्रह्मवेदिन:॥1.97॥
ब्राह्मणों में विद्वान्, विद्वानों में कृत बुद्धि (शात्रोक्त अनुष्ठानों में उत्पन्न कर्तव्य बुद्धि वाले) इनसे कर्म करने वाले और इनसे ब्रह्म ज्ञानी श्रेष्ठ हैं।
Brahmns too are categorised in order of their performances-excellence. Amongest the Brahmns by birth, the enlightened is superior, to him one who perform according to the scriptures-Veds is superior, then the one who perform, does work-is active and is earning his livelihood and then the uppermost strata is occupied by the one who has realised the Brahm.
One who claims himself to be a Brahmn, since he is born in a Brahmn family is mistaken. He has to learn Veds, scriptures and the various combinations of arts and sciences listed in groups of 64, is essential and only then he is called a Dwij-born twice. One who eats meat, use narcotics, consume wine, has illicit relations with other women, tells lies or is a criminal can not claim to be a Brahmn.
Learning is incomplete unless-until its grasped-understood, applied in life. Rote memory-cramming was never advocated. Utilisation of memory, wisdom & prudence was essential, which made the Brahm occupy the apex in hierarchy.
उतपत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शास्वती।
स हि धर्मार्थ मुतपन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥1.98॥
ब्राह्मण की उत्पत्ति धर्म की शास्वत मूर्ति है। ब्राह्मण धर्म के ही लिये उत्पन्न होता है। इसलिये यह मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ होता है।
The Brahmn is the eternal creation of Dharm-religion, duty and is created by Brahma Ji to perpetuate religiosity in the humans-populations.He is capable of achieving Salvation, Liberation-Assimilation in the Almighty.
Salvation is not solely meant for the Brahmns. Any one who is pure-uncontaminated can achieve it, just by following the tenants set for him by the creator-Brahma Ji. The Shudr is specifically to be mentioned; since its easiest job for him. Just by serving the masters, he is granted Salvation.
ब्राह्मणों जायमानो हि पृथिव्यामधिजायते।
ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये॥1.99॥
इस पृथ्वी पर ब्राह्मण ही सबसे श्रेष्ठ और उन्नत होता है, वह सभी प्राणियों के धर्मकोश की रक्षा करने में समर्थ होता है।
In this universe only the Brahmn is ultimate (excellent and developed) in various living beings-organisms and is devised to protect the Dharm of all other organisms including the humans.
सर्वं स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किञ्चिज्जगतीगतम्।
श्रेष्ठ्येनाभिजनेनेदं सर्वं वै ब्राह्मणोंऽर्हति॥1.100॥
इस संसार में जो कुछ है वह सब धर्म ब्राह्मणों का है क्योंकि सबसे श्रेष्ठ उत्पत्ति होने के कारण वह ब्राह्मण ही इसका अधिकारी है।
Everything in this universe belongs to the Brahmns, since they are the ultimate & are entitled for this status.
स्वमेव ब्राह्मणों भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च।
आनृशंस्याद् ब्राह्मणस्य भुञ्जते हीतरे जना:॥1.101॥
ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है और अपना ही दान देता है (अर्थात दूसरे का अन्न, वस्त्रादि सब ब्राह्मण का ही होता है)। ब्राह्मण ही की कृपा से अन्य लोग पदार्थों को भोगते हैं।
The Brahmn enjoys his own food, wears his own dresses and donates his own wealth, since everything possessed by others belongs to him. Its the Brahmn who's generosity-benevolence let's enjoy others.
The scriptures says that the earth belongs to Shukrachary-the Guru of demons & a Brahmn. Bhagwan Parshu Ram Ji annihilated the earth of the Kshatriys 21 times and handed over it to the Brahmns who repeatedly handed over it the Kshatriys. Thus the ruler is just a lessee, not the master. Bhagwan Brahma created the universe and so he is the master making the Brahmns the master of the earth, none other person except them.
तस्य कर्म विवेकार्थं शेषाणामनु पूर्वशः।
स्वायंभुवो मनुर्धीमानिदं शास्त्रमकल्पयत्॥1.102॥
उसके (ब्राह्मण) और अन्य वर्णों के कर्मों के जानने के लिये ही बुद्धिमान् स्वायंभुव मनु ने इस शास्त्र की रचना की।
Swayambhuv Manu (He who evolved himself without parents) created this treatise to describe the duties of the other Varns (Four major castes, divisions of humans beings based on genetic structure-material i.e., genes & chromosomes).
विदुषा ब्रह्मणेनेदमध्येतव्यं प्रयत्नतः।
शिष्येभ्यश्च देहजैर्नित्यं कर्मदोषैर्न लिप्यते॥1.103॥
विद्वान् ब्राह्मण इस शास्त्र को अच्छी तरह पढ़ें और यत्न पूर्वक शिष्यों को भी पढावें तथा किसी अन्य को न पढावें।
The learned-enlightened prudent Brahmn, who has thoroughly grasped, understood, this treatise should teach this to his disciples-students with deep interest, carefully explaining their queries-doubts (प्रश्नों, सवाल, शंका, संदेह) and deter from teaching this to any one else i.e., those who do not deserve.
This treatise is very-very intricate and requires genius person to understand. This is explaining the social structure, culture, scientific principles and various aspects of life.
इदं शास्रमधीयानो ब्राह्मणः शंसितव्रतः।
मनोवाग् देहजैर्नित्यं कर्मदोषैर्न लिप्यते॥1.104॥
इस शास्त्र के अध्ययन करने वाला और इसके अनुसार अनुष्ठान करने वाला ब्राह्मण मन, वचन और शरीर से होने वाले कर्मों के दोषों से रहित होता हैं।
The Brahmn who studies-grasps & acts in accordance with the principles-tenets of this treatise becomes free from defects, sins & troubles of body, mind, speech and the soul.
Mere reading is useless.Meditation after studying it, is essential.Then one should prepare himself to face the rigours associated with it & only then he should continue with it. Learning involves understanding and proper application.
पुनाति पंक्तिं वंशयांच्श्र सप्त परावरान्।
पृथ्वीमपि चैवेमां कृत्स्नानामेकोऽपि सोऽर्हति॥1.105॥
शास्त्र को अध्ययन करने वाले व्यक्ति अपनी आगे और पीछे की सात-सात पुश्तों-पीढ़ियों को पवित्र करके उनका उद्धार करता है और अकेला ही इस पृथ्वी का उद्धार करने योग्य होता है।
One who has adopted this treatise in his life, becomes free from sins and leads to the release of his next 7 generation as well as the previous 7 generations (seven generations of ancestors-Manes and seven generations of descendants), from hells and life cycles-reincarnations. He becomes capable of sustaining and purifying the earth as well.
इदं स्वस्त्वयनं श्रेष्ठमिदं बुद्धिविवर्धनम्।
इदं यशस्यमायुष्यमिदं निः श्रेयसं परम्॥1.106॥
यह श्रेष्ठ शास्त्र कल्याण करने वाला बुद्धि को बढ़ाने वाला, यश को प्रदान केने वाला, आयुष्य को देने वाला और मुक्ति देने वाला है।
This excellent treatise grants genius, name-fame & glory, longevity and salvation (Provided one is honest, pious, virtuous, righteous, truthful).
अस्मिन् धर्मोSखिलेनोक्तो गुणदोशौ च कर्मणाम्।
चतुर्णा मपि वर्णानामाचारच्श्रैव शाश्वतः॥1.107॥
इस शास्त्र में सम्पूर्ण धर्म, कर्मों के गुण-दोष समझाये गए हैं और चारों वर्णों के धर्म-आचार की व्याख्या की गयी है।
This treatise explains in detail the duties of a human being, model code of conduct, qualities and draw backs of various deeds, ventures, works, performances, goals, ambitions etc. precisely to enable one to follow the tenets (सिद्धांत, जड़सूत्र, मत, theory, principle, doctrine, maxim, law) described according to the four castes (Varn) his birth, family, hierarchy.
आचारः परमो धर्म: श्रुत्युक्त: स्मार्त एव च।
तस्मादस्मिन् सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् द्विजः॥1.108॥
श्रुति (वेद) और स्मृति में कहा हुआ आचार ही परम् धर्म है, इसलिये अपनी आत्मोन्नति चाहने वाले ब्राह्मण को हमेशां आचार से युक्त रहना चाहिये।
The emphasis is over the code, conduct, moral, character, behaviour of the Brahmn who is supposed to guide-lead the society in the right direction. The Brahmn should strictly follow the tenets of Shruti-Veds (received through hearing by one person to the next, with aide by memory. Rote memory or cramming have to be discarded.) & Smrati-memory. For him & the remaining three Varns the principle guidelines incorporated in the Veds constitute the Dharm-religion.The Brahmn who wish to uplift himself spiritually should adhere to these strictly.
आचार्यद्विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।
आचारेण तु संयुक्त: सम्पूर्णफलभाग्भवेत्॥1.109॥
हीन आचार वाले ब्राह्मण को वेद का फल प्राप्त नहीं होता तथा धर्माचार से युक्त ब्राह्मण को वेद का सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है।
The outcome-reward of the adherence to Veds to the virtuous, righteous, pious, honest, truthful Brahmn is Dharm (Ability to discharge one's duties with ease), Arth (Earning of wealth, honour, respect), Kam (Satisfaction of passions, sensuality, sexuality) & Moksh (Salvation, Liberation and Assimilation in the God-Almighty). The sinner, wicked, viceful (One practicing or habitual of evil, degrading or immoral, smoker, drunkard, depraved conduct or habits; corrupt, sharpers, desperadoes, pirates and criminals, dishonest etc.) Brahmn never gains the benefits of Veds and leads to lower-inferior species in next births or he is sent to hells.
एवमाचारतो दृष्ट्वा धर्मस्य मुनयो गतिम्।
सर्वस्य तपसो मूलमाचारं जगृहु: परम्॥1.110॥
मुनियों ने आचार से ही सब धर्मों की गति देखकर आचार को ही सभी तपस्याओं का मूल माना है।
The sages observed that the behaviour (good conduct, austerity, piousity, righteousness) was behind all religious actions-sanctions and said that it founded the basis for ascetic practices.
जगतश्च समुत्पत्तिनं संस्कारविधिमेव च।
व्रतचर्योपचारं च स्नानस्य च परं विधिम्॥1.111॥
संसार की उत्पत्ति, संस्कार की विधि, व्रतचर्या (ब्रह्मचर्य व्रत) और स्नान (ब्रह्मचर्य व्रत के बाद) की विधि जिसका वर्णन एक से दो अध्यायों में किया गया है।
The creation of the universe, method-procedure of reincarnation (born as an animal, brought up as a human and then converted into a Brahma, Dwij-born twice) as a scholar-studentship, following of various tenets of studentship like celibacy, bathing-purity and the further discussion thereafter are widely explained (later in chapters 1 & 2).
दाराधिगमनं चैव विवाहानं च लक्षणम्।
महायज्ञ विधानं च श्राद्धकल्पं च शाश्वतम् ॥1.112॥
विवाह, विवाह के लक्षण, महायज्ञ का विधान और नित्य श्राद्ध की विधि।
It includes the entry into family life-marriage, matrimonial procedure, methods-rituals, rule-regulation, great sacrifices in holy fire, Yagy-Hawan, offerings etc. and homages to the manes, the deceased ancestors-forefathers is widely discussed, including the eternal rule of the funeral sacrifices.
वृत्तीनां लक्षणं चैव स्नातकस्य व्रतानि च।
भक्ष्याभक्ष्यं च शौचं च द्रव्याणां शुद्धिमेव च॥1.113॥
जीविका के लक्षण, गृहस्थी जीवन में प्रवेश करने वाले स्नातक के नियम, भक्ष्य, अभक्ष्य, शौच और द्रव्यों की शुद्धि का वर्णन किया जायेया।
It describes the methods-means of earning livelihood-job by the graduate-who has completed studies at the Guru's Ashram, routine of food intake i.e., what has to be eaten or rejected, purity of self and the goods to be utilised.
स्त्री धर्मयोगं तापस्यं मोक्षं सन्यासमेव च।
राज्ञश्च धर्मम खिलं कार्याणां च विनिर्णयम्॥1.114॥
इसके बाद क्रम से स्त्रियों के धर्म, तपस्या, सन्यास (renouncing the world, hermit, monk, recluse), राजाओं के सम्पूर्ण धर्म और राजकार्यों का विशेष निर्णयादि कहे गए हैं।
Thereafter, it discusses the duties of women, asceticism, retirement-Sanyas (emancipation and renouncing the world), complete description of the duties of the king and the special instances of the decisions in the managing-governing of the country.
साक्षिप्रश्नविधानं च धर्मं स्त्रीपुंसयोरपि।
विभागधर्मं ध्युतं च कण्टकानां च शोधनम्॥1.115॥
साक्षियों से पूछने की विधि, स्त्री-पुरुष के धर्म, विभाग (उत्तराधिकार), धर्म, जुआ और मार्ग कंटक (काँटों) के शोधन के वर्णन है।
The treatise contains the procedure-method of examining the witnesses, the duties of the men & women i.e, mode of interaction-mixing, interacting, the rules determining hierarchy-inheritance, Dharm, gambling and the removal of obstacles-thorns (विषैला, नुक़सान पहुँचानेवाला, हानिकारक; harmful, detrimental, noxious, injurious, deleterious, nocuous, noisome) in the life of a person.
वैश्यशूद्रोपचारं च संकीर्णानां च सम्भवम्।
आपद्धर्मं च वर्णानां प्रायश्चित्तविधिं तथा॥1.116॥
वैश्य-शूद्रों के कर्म, संकीर्ण (वर्ण-संकर) जातियों की उत्पत्ति, आपद् काल (आपत्ति काल में) धर्म और वर्णों (चारों वर्णों) की प्रायश्चित विधि।
The duties & behaviour of the Vaeshy & Shudr, growth of the hybrid-mixed, castes-classes due to mating in inferior or superior Varn-caste (or the birth of a person as a result of mating with demigods, deities, demons, Yaksh & Rakshas, Gandharv, Apsara-nymphs or even an animal), the duties during emergency-opposite circumstances, distress of all the four Varns and the penances-repentance are described in this treatise.
संसारगमनं चैव त्रिविधं कर्म संभवम्।
निःश्रेयसं कर्मणां च गुणदोषपरीक्षणम्॥1.117॥
कर्मों के द्वारा उत्पन्न तीन श्रेणी (उत्तम, मध्यम और निकृष्ट) की शरीर प्राप्ति, मुक्ति, साधन और कर्मों के गुण दोष की परीक्षा, का वर्णन इस अध्याय में किया गया है।
The incarnation-transmigration into three categories of the organism-human beings viz. excellent, medium and the worst, methods of salvation, testing of the good & bad characteristics of the means and the deeds are given in it.
देश धर्माज्जातिधर्मान्कुलधर्माच्श्र शाश्र्वतान्।
पाषण्डगण धर्माच्श्र शास्त्रेSस्मिन्नुत्कवान्मनु॥1.118॥
देश, धर्म, जातियों के धर्म, कुल धर्म, पाखंडियों (Dissimulator, Hypocritical, Sham, Dissembling, An impostor, A heretic) के धर्म इस शास्त्र में मनु जी ने कहे हैं।
Manu Ji narrated the primeval laws-behaviour, duties of a country, Dharm, Human race-species, Caste-Varn Dharm, Clan-Hierarchy, ancestral Dharm-duties and the Dharm of the Impostors are listed in this treatise.
यथेद मुक्त्वांच्छास्त्रं पुरा पृष्टो मनुर्मया।
तथेदं यूयमप्यद्य मत्सकाशान्निबोधत॥1.119॥
पूर्व काल में जिस प्रकार मेरे पूछने पर मनुजी ने इस शास्त्र की कहा था, आज आप लोग भी उसी प्रकार मुझसे सुनिये।
The manner in which Manu Ji-explained, transferred, gave this treatise to me (orally), today you should hear it from me in the same manner.
The chapter is over today; i.e., 23.11.2016,
Revision of the text has been completed today i.e., 17.05.2019/06.05. 2021 at Noida by the grace and desire of the Almighty, Bhagwan Ved Vyas, Ganpati Ji Maha Raj and Maa Bhagwati Saraswati and presented to the enlightened readers.
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)