CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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रावण के पिता विश्र्वा महान ऋषि पुलस्त्य के पुत्र ब्राह्मण थे और माँ राक्षसी थी; वो भी राक्षस था। घटोत्कच के पिता भीम पवन पुत्र थे, मगर माँ राक्षसी; वो भी राक्षस था।
कंस यादव कुल की स्त्री उग्रसेन की पत्नी से उत्पन्न एक यक्ष का पुत्र था।
चन्द्रगुप्त मौर्य महान नन्द वंश के अंतिम सम्राट महानंद का, एक गड़रिया जाति की स्त्री से उत्पन्न हुआ पुत्र था। नन्द वंश ब्राह्मण वंश था, मगर महानंद की माँ एक नाइन थी; इसलिए महानंद नाई और चन्द्रगुप्त गड़रिया था। चंद्र गुप्त को महान बनाने वाले आचार्य चाणक्य ब्राह्मण थे और उन्होने ने उसे उसके मामा से 16 पण-रजत मुद्राएँ देकर खरीदा था। इस नाते उसे दास या गुलाम भी कहा जा सकता है।
प्राचीन काल से ही वर्ण व्यवस्था के काम के अनुरूप या अपनी योग्यता थी। इसमें गुणसूत्रों का गठन भी कारण था। परम्परा के अनुरूप लोग भारत में मुसलमानों के आने तक अपना-अपना काम करते आये थे। कोई भी जाति दूसरी जाति का काम छीनने का प्रयास कभी नही करती थी। इस व्यवस्था के अनुसार तथाकथित दलितों के मुख्य पेशे पशुपालन, माँस-चमड़ा और प्रसव कराना था।
अंग्रेजों और मुसलमानों ने ये कारोबार जिनसे खरबों की आमदनी होती है, तथाकथित दलितों के हाथ से छीन लिये और दोष मढ़ दिया ब्राह्मणों और मनुस्मृति के सर, बगैर यह जाने-समझे कि मनुस्मृति क्या है, इसमें क्या लिखा है?! कोई समझदार हो, तो उसे बताया जा सकता है, समझाया जा सकता है, परन्तु जो हराम की खाने पर तुला हो, उसे क्या कहो-कैसे कहो?!
भारत में घर के अन्दर शौचालय बनाने की परम्परा अलाउद्दीन खिलजी से लेकर मुगलकाल तक में फैली-पनपी और फिर अंग्रजों ने इसे बढ़ावा दिया। अरब मुल्कों में पानी की कमी और इंग्लैंड में भयानक ठण्ड इसके पीछे थी। भारत में पहले से खुले में शौच की परम्परा रही है। खेतों में खाद, बदबू का न होना इसके मुख्य कारण थे। शहरों की बात कुछ अलग जरूर थी, मगर तब भी भारत में जल-मल निकासी के अत्यधिक विकसित साधन थे जिन्हें अभी तक देखा जा सकता है।
मुसलमानों ने हर हिन्दु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को गुलाम बनाया और उन्हें घृणित काम करने को मजबूर किया और उन्हें मुसलमान बनाया। उन दलितों और मुसलमानों में आज उनके पूर्व जातिगत नाम ज्यों के त्यों मौजूद हैं। उन्हें अब मौंका मिला कि इस मुसलमानियत या दलित का बोझ उतार कर फैंक सकें, मगर संकीर्ण राजनीति उन्हें उस गुलामी से उबरने ही नहीं देती, चाहे वो हिन्दुस्तान में हों या पाकिस्तान में। जो हिन्दु तेली था वो आज तक मुसलमान तेली है, जो नाई था वो नाई है। कुम्हार, लुहार, सफ़ाई, कसाई, बढ़ई ज्यों के त्यों मुसलमान रहे।
हिन्दु तेली भारत का प्रधानमंत्री, चमारी मुख्यमंत्री, कुर्मी मुख्यमंत्री, राष्ट्रपति तक बन गये, मगर पाकिस्तान में क्या कोई सुन्नी ऐसा कर पाया?!
आस्ट्रेलिया, अमरीका, इंग्लैंड, यूरोप में जाकर भी ये लोग अभी तक स्वयं को रविदासी, तरखान आदि ही मानते हैं, भले ही इनके पास खरबों की दौलत-बंगला, कार हो!!
कलियुग में तो जिसके पास पैसा है, वही राजा है ऐसा महाभारत में सम्राट युधिष्टर ने कहा। वो सवर्ण है जिसके पास नाम, धन-दौलत, शौहरत है और जिसके पास नही है, वो दलित है।
ब्राह्मण को तो ना पहले पैसे, धन-दौलत से लगाव था ना ही अब है अन्यथा अब तक आरक्षण की व्यवस्था को कबका उखाड़ के फैंक दिया होता। वैसे ज्यादा सताया तो वह दिन जरूर आयेगा जब ना यह व्यवस्था रहेगी और ना उसको बनाने-चलाने वाले। पहले बुद्ध को हटाया, फिर मुसलमान भगाये, उसके बाद अंग्रजों को हटाया तो फिर ये आरक्षणवादी क्या चीज हैं, बस एक चिंगारी का इंतजार है। देश में ना मंगल पांडे की कमी है और ना ही गोडसे की।[13.04.2018]
पृथ्वी पर धर्म-कर्म कर्तव्यनिष्ठ ब्राह्मण के द्वारा ही स्थिर किया हुआ है। द्विजातियों में ब्राह्मण सर्वोपरि है। वेद, भगवान् श्री हरी विष्णु के मुँख से प्रकट हुए और ब्रह्मा जी द्वारा जन कल्याण हेतु ऋषियों को प्रदान किये गए।
महर्षि वेद व्यास जिन्हें भगवान् का अवतार माना जाता है, का जन्म एक मछली के गर्भ से पैदा हुई सत्यवती के गर्भ से हुआ, जिसका पालन-पोषण एक मल्लाह ने किया था। उन्होंने ही वेदों का विभाजन किया और उनकी व्याख्या 18 पुराणों के माध्यम से की। उनके पिता पाराशर एक ब्राह्मण थे।
मनु स्मृति प्रदान करने वाले मनु महाराज क्षत्रिय थे। मनु स्मृति का एक या दो श्लोक अलग-अलग पढ़कर गलत-सलत व्याख्या और ऊट-पटांग अनुवाद अंग्रजों और जर्मन लोगों ने किया। मनु स्मृति पूर्वाग्रह रहित होकर सांगोपांग पढ़े। छिद्रान्वेषण की अपेक्षा गुणग्राही बनकर पढ़ने पर स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। हिन्दु-सनातन धर्म में ब्राह्मण धर्म जैसी किसी चीज का वर्णन नहीं है।
ऋषि, महृषियों, ब्राह्मणों ने समाज को क्या दिया उसका एक छोटा सा अंश इस प्रकार है ::
(1). यन्त्रसर्वस्वम् (इंजीनियरिंग-प्राद्यौगिकी का आदि ग्रन्थ) :: महर्षि भरद्वाज,
(2). वैमानिक शास्त्रम् (विमान रचना) :: महर्षि भरद्वाज,
(3). सुश्रुत संहिता (सर्जरी चिकित्सा) :: सुश्रुत,
(4). चरक संहिता (चिकित्सा) :: चरक,
(5). अर्थशास्त्र (प्रशासन, सैन्य विज्ञान, राजनीति, युद्धनीति, दण्ड विधान, न्याय शास्त्र) :: कौटिल्य,
(6). आर्यभटीयम् (गणित) :: आर्यभट्ट, (7). व्याकरण :: पाणिनि, (7). योग :: पतञ्जलि।
छन्दशास्त्र, नाट्यशास्त्र, शब्दानुशासन, परमाणुवाद, खगोल विज्ञान, योग विज्ञान इत्यादि, सहित प्रकृति और मानव कल्याणार्थ समस्त विद्याओं का संचय अनुसंधान एवं प्रयोग हेतु ब्राह्मणों ने अपना पूरा जीवन भयानक जंगलों में, घोर दरिद्रता में बिताया। सूची इतनी लम्बी है कि लिखने को जगह कम पड़ जायेगी।
सर्वशक्तिमान्, पृथ्वी का स्वामी होते हुए भी ब्राह्मण ने पृथ्वी का भोग करने हेतु, गद्दी को कभी स्वीकारा नहीं।
ब्राह्मण राष्ट्र को शक्तिशाली, अखण्ड, न्याय व्यवस्था से संचालित देखना चाहता है। जिस दिन ब्राह्मण राज करना चाहेगा उसे रोकने वाला कोई नहीं होगा।
सर्वे भवन्तु सुखिन:सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दु:ख भाग्भवेत्॥
ब्राह्मण सदैव वसुधैव कुटुम्बकम् का पालन करने वाला, सर्वदा काँधे पर जनेऊ कमर में लंगोटी बाँधे एक गठरी में लेखनी, मसि, पत्ते, कागज और पुस्तक लिए चरैवेति चरैवेति का अनुसरण करता रहा। मन में एक ही भाव था लोक कल्याण।
उन्होंने ही मुगलों, यवनों, अंग्रेजों, काँग्रेसियों सहित अन्यानेक घोर स्वार्थी राजनैतिक दलों और राक्षसी प्रवृत्ति के लोंगों का भयानक अत्याचार सहकर भी यहाँ की संस्कृति, मर्यादा, अध्यात्म, परम्परा और ज्ञान को कायम रखा।
वेद ज्ञान के भण्डार हैं, जिन्हें ब्राह्मणों ने कण्ठस्थ करके अगली पीढ़ियों को प्रदान किया।
आरक्षण करके ब्राह्मण का अपमान किया जा रहा है और वास्तविक अधिकारी को सभी सरकारी सुविधाओं से रहित रखा जा रहा है। उसके क्रोध से डरो अन्यथा अन्याय करने वालों का सर्वनाश करना उसके लिये चुटकियों का काम है। [30.09.2017]
धर्म, वर्ण और आश्रमों के विषय में ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से ऋषिगण स्वायंभुव मनु के समक्ष उपस्थित हुए। स्वायंभुव मनु से छ: अन्य मनु उत्पन्न हुए। मनु ने उनको कुछ ज्ञान देने के बाद कहा कि मैंने यह ज्ञान ब्रह्मा से प्राप्त किया था और मरीचि आदि मुनियों को पढ़ा दिया। ये भृगु (जो वहां उपस्थित थे) मुझसे सब विषयों को अच्छी तरह पढ़ चुके हैं और अब ये आप लोगों को बताएंगे। इस पर भृगु ने मनु की उपस्थिति में, उनका बताया ज्ञान, उन्हीं की शब्दावली में अन्यों को दिया। यही ज्ञान गुरु-शिष्य परंपरा में 'मनुस्मृति' या 'मनु-संहिता' के नाम से प्रचलित हुआ। 2694 श्लोकों का यह ग्रंथ 12 अध्यायों में विभक्त है। विभिन्न अध्यायों के वर्ण्य-विषय इस प्रकार हैं :-
(1). वर्णाश्रम धर्म की शिक्षा, (2). धर्म की परिभाषा, (3). ब्रह्मचर्य, (4). विवाह के प्रकार आदि, (5). गृहस्थ जीवन, खाद्य-अखाद्य विचार तथा जन्म-मरण, अशौच और शुद्धि, (6). वानप्रस्थ जीवन, (7). राजधर्म और दंड, (8). न्याय शासन, (9). पति-पत्नी के कर्त्तव्य, (10). चारों वर्णों के अधिकार और कर्त्तव्य, (11). दान-स्तुति, प्रायश्चित्त आदि तथा (12). कर्म पर विवेचन और ब्रह्म की प्राप्ति।
आस्तिक हिंदुओं के कार्य-व्यवहार का आधार मनुस्मृति है। इसका प्रभाव न्याय प्रणाली पर भी पड़ा है। मनु ने जन्म से लेकर मृत्यु तक का मनुष्य का पूरा कार्यक्रम प्रस्तुत किया है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरुषार्थ; देव, ऋषि और पितृ ये तीन ऋण; सोलह संस्कार, पांच महायज्ञ; चार आश्रम और चार वर्ण सभी का इसमें विवेचन है।
यह हिन्दु धर्म का सबसे प्रधान हिन्दु-ग्रंथ है। यह मानव धर्मशास्त्र है। महाभारत, रामायण, तैत्तिरीय-संहिता, ऐतरेय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण तथा नारद-संहिता में मनु और 'मनुस्मृति' का उल्लेख है। भारतीय वांडमय में 14 मनु वर्णित हैं। निरुक्त में भी मनु स्वायंभुव के मत की चर्चा हुई है। अत: यास्कके पूर्व पद्यबद्ध स्मृतियाँ थीं और मनु एक व्यवहार-प्रणेता थे। गौतम, वसिष्ठ, आपस्तम्ब ने मनु का उल्लेख किया है। महाभारत में मनु को कभी केवल मनु, कभी स्वायंभुव मनुऔर कभी प्राचेतस मनु कहा गया है। सर्वप्रथम मनु 'स्वयंभुव' मनु थे। वर्तमान मन्वंतर (मनुओ के अनुसार काल विभाजन) जिस मनु के नाम से हैं वे वैवस्वत मनु हैं। तैत्तिरीय संहिता तथा ऐतरेय ब्राह्मण में मनु के विषय में एक गाथा है, जिसमें उन्होंने अपनी सम्पत्ति को अपने पुत्रों में बाँटा है और अपने पुत्र नाभानेदिष्ठ को कुछ नहीं दिया है।
ऋग्वेद में मनु को मानव-जाति का पिता कहा गया है। मनु ने जो कुछ कहा है, औषध है। प्रथम में 'मानव्यो हि प्रजा:' कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण में मनु और प्रलय की कहानी है। शान्ति पर्व में आया है कि किस प्रकार भगवान् ब्रह्मा ने एक सौ सहस्त्र श्लोकों में धर्म पर लिखा, किस प्रकार मनु ने उन धर्मों को उद्घोषित किया और किस प्रकार उशना तथा बृहस्पति ने मनु स्वायंभुव के ग्रन्थ के आधार पर शास्त्रों का प्रणयन किया। शान्ति पर्व में बताया है कि किस प्रकार भगवान् ब्रह्मा ने धर्म, अर्थ एवं काम पर एक लाख अध्याय लिखे और वह महाग्रन्थ कालान्तर में विशालाक्ष, इन्द्र, बाहुदन्तक, बृहस्पति एवं काव्य (उशना) द्वारा क्रम से 10,000, 5,000, 3,000 एवं 1,000 अध्यायों में संक्षिप्त किया गया।
नारद-स्मृति में आया है कि मनु ने 1,00,000 श्लोकों, 1080 अध्यायों एवं 24 प्रकरणों में एक धर्मशास्त्र लिखा और उसे नारद को पढ़ाया, जिन्होंने उसे 12,000 श्लोकों में संक्षिप्त किया और मार्कण्डेय को पढ़ाया। मार्कण्डेय ने भी इसे 8,000 श्लोकों में संक्षिप्त कर सुमति भार्गव को दिया, जिन्होंने स्वयं उसे 4,000 श्लोकों में संक्षिप्त किया। मनुस्मृति में आया है कि ब्रह्मा से विराट् की उद्भूति हुई, जिन्होंने मनु को उत्पन्न किया, जिनसे भृगु, नारद आदि ऋषि उत्पन्न हुए; ब्रह्मा ने मनु को शास्त्राध्ययन कराया, मनु ने दस ऋषियों को वह ज्ञान दिया; ऋषि, महर्षि गण मनु के यहाँ गये और वर्णों एवं मध्यम जातियों के धर्मो (कर्तव्यों) को पढ़ाने के लिए उनसे प्रार्थना की और मनु ने कहा कि यह कार्य उनके शिष्य भृगु करेंगे। मनुस्मृति में यह पढ़ाने की बात आरम्भ से अन्त तक है और स्थान-स्थान पर ऋषि लोग भृगु के व्याख्यान को रोककर उनसे कठिन बातें समझ लेते हैं। मनु सर्वत्र विराजमान हैं; उनका नाम मनुराह या मनुरब्रवीत् या मरोरनुशासनम् के रूप में आया है।
भविष्य पुराण, हेमाद्रि, संस्कारमयूख तथा अन्य ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि, स्वायंभुव-शास्त्र के चार संस्करण थे, जो भृगु, नारद, बृहस्पति एवं अंगिरा द्वारा प्रणीत थे।
मनुस्मृति सरल एवं धाराप्रवाह शैली में प्रणीत है। इसका व्याकरण अधिकांश में पाणिनि-सम्मत है। इसके सिद्धान्त गौतम, बौधायनएवं आपस्तम्ब के धर्मसूत्रों से बहुत-कुछ मिलते-जुलते हैं। इसके बहुत-से श्लोक वासिष्ठ एवं विष्णु के धर्मसूत्रों में भी पाये जाते हैं। भाषा एवं सिद्धान्तों में मनुस्मृति एवं कौटिलीय में बहुत-कुछ समानता है।
काल विभाजन में इसमें निमेष से वर्ष तक की काल इकाइयाँ, चारों युग एवं उनके सन्ध्या-प्रकाश का वर्णन है। एक सहस्त्र युग ब्रह्मा के एक दिन के बराबर हैं; मन्वन्तर, प्रलय का विस्तार; चारों युगों में क्रमश: धर्मावनति; चारों युगों में विभिन्न धर्म एवं लक्ष्य; चारों वर्णों के विशेषाधिकार एवं कर्तव्य; ब्राह्मणों एवं मनु के शास्त्र की स्तुति; आचार परमोच्च धर्म का वर्णन किया गया है।
धर्म-परिभाषा :: धर्म के उपादान हैं। वेद, स्मृति, भद्र लोगों का आचार, आत्मतुष्टि; इस शास्त्र के लिए किसका अधिकार है; ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षिदेश, मध्यदेश, आर्यावर्त की सीमाएँ; संस्कार क्यों आवश्यक हैं; ऐसे संस्कार, यथा :- जातकर्म, नामधेय, चूड़ाकर्म, उपनयन; वर्णों के उपनयन का उचित काल, उचित मेखला, पवित्र जनेऊ, तीन वर्णों के ब्रह्मचारियों के लिए दण्ड, मृगछाला, ब्रह्मचारी के कर्तव्य एवं आचरण; 36, 18 एवं 9 वर्षों का ब्रह्मचर्य; समावर्तन, विवाह; विवाहयोग्य लड़की; ब्राह्मण चारों वर्णों की लड़कियों से विवाह कर सकता है; आठ प्रकार के विवाहों की परिभाषा, किस जाति के लिए कौन विवाह उपयुक्त है, पति-पत्नी के कर्तव्य; नारी-स्तुति, पंचाह्निक; गृहस्थ-जीवन की प्रशंसा, अतिथि-सत्कार, मधुपर्क; श्राद्ध, श्राद्ध में कौन निमन्त्रित नहीं होते; गृहस्थ की जीवन-विधि एवं वृत्ति; स्नातक-आचार-विधि, अनध्याय-नियम; वर्जित एवं अवर्जित भोज्य एवं पेय के लिए नियम; कौन-कौन से मांस एवं तरकारियाँ खानी चाहिए; जन्म-मरण पर अशुद्धिकाल, सपिण्ड एवं समानोदक की परिभाषा; विभिन्न प्रकार से विंभिन्न वस्तुओं के स्पर्श से पवित्रीकरण, पत्नी एवं विधवा के कर्तव्य; वानप्रस्थ होने का काल, उसकी जीवनचर्या, परिव्राजक एवं उसके कर्तव्य; गृहस्थ-स्तुति: राजधर्म, दण्ड-स्तुति, राजा के लिए चार विद्याएँ, काम से उत्पन्न राजा के दस अवगुण एवं क्रोध से उत्पन्न आठ अवगुण (दोष); मन्त्रि-परिषद की रचना, दूत के गुण (पात्रता), दुर्ग एवं राजधानी, पुरुष एवं विविध विभागों के अध्यक्ष; युद्ध-नियम; साम-दान, भेद एवं दण्ड नामक चार साधन; ग्राममुखिया से ऊपर वाले राज्याधिकारी; कर-नियम; बारह राजाओं के मण्डल की रचना; छ: गुण :- संधि, युद्ध-स्थिति, शत्रु पर आक्रमण, आसन, शरण लेना एवं द्वैध; विजयी के कर्तव्य; न्यायशासन-सम्बन्धी राजा के कर्तव्य; व्यवहारों के 18 नाम, राजा एवं न्यायाधीश, अन्य न्यायाधीश; सभा; सभा-रचना; नाबालिगों, विधवाओं, असहाय लोगों, कोष आदि को दने के लिए राजा का धर्म; चोरी गये हुए धन का पता लगाने में राजा का कर्तव्य; दिये हुए ऋण को प्राप्त करने के लिए ऋणदाता के साधन; स्थितियाँ जिनके कारण अधिकारी मुक़दमा हार जाता है, साक्षियों की पात्रता, साक्ष्य के लिए अयोग्य व्यक्ति, शपथ, झूठी गवाही के लिए अर्थ-दण्ड, शारीरिक दण्ड के ढंग, शारीरिक दण्ड से ब्राह्मणों को छुटकारा; तौल एवं तटखरे; न्यूनतम, मध्यम एवं अधिकतम अर्थ-दण्ड; ब्याज-दर, प्रतिज्ञाएँ, प्रतिकूल (बिपक्षी के) अधिकार से प्रतिज्ञा, सीमा, नाबालिग की भूमि-सम्पत्ति, धन-संग्रह, राजा की सम्पत्ति आदि पर प्रभाव नहीं पड़ता; दामदुपट का नियम; बन्धक; पिता के कौन-से ऋण पुत्र नहीं देगा; सभी लेन-देन को कपटाचार एवं बलप्रयोग नष्ट कर देता है; जो स्वामी नहीं है उसके द्वारा विक्रय; स्वत्व एवं अधिकार; साक्षा; प्रत्यादान; मज़दूरी का न देना; परम्पराविरोध; विक्रय-विलोप; स्वामी एवं गोरक्षक के बीच का झगड़ा , गाँव के इर्द-गिर्द के चरागाह; सीमा-संघर्ष गालियाँ (अपशब्द), अपवाद एवं पिशुन-वचन; आक्रमण, मर्दन एवं कुचेष्टज्ञ; पृष्ठभाग पर कोड़ा मारना; चोरी, साहस (यथा हत्या, डकैती आदि के कार्य); स्वरक्षा का अधिकार; ब्राह्मण कब मारा जा सकता है; व्यभिचार एवं बलात्कार, ब्राह्मण के लिए मृत्यु-दण्ड नहीं, प्रत्युत देश-निकाला; माता-पिता, पत्नी, बच्चे कभी भी त्याज्य नहीं हैं; चुंगियाँ एवं एकाधिकार; दासों के सात प्रकार, पति-पत्नी के न्याय्य (व्यवहारानुकूल) कर्तव्य, स्त्रियों की भर्त्सना, पातिव्रत की स्तुति; बच्चा किसको मिलना चाहिए, जनक को या जिसकी पत्नी से वह उत्पन्न हुआ है; नियोग का विवरण एवं उसकी भर्त्सना; प्रथम पत्नी का कब अतिक्रमण किया जा सकता है; विवाह की अवस्था; बँटवारा, इसकी अवधि, ज्येष्ठ पुत्र का विशेष भाग; पुत्रिका, पुत्री का पुत्र, गोद का पुत्र, शूद्र पत्नी सपिण्ड उत्तराधिकार पाता है; सकुल्य, गुरु एवं शिष्य उत्तराधिकारी के रूप में; ब्राह्मण के धन को छोड़कर अन्य किसी के धन का अन्तिम उत्तराधिकारी राजा है; स्त्रीधन के प्रकार; स्त्रीधन का उत्तराधिकार; बसीयत से हटाने के कारण; किस सम्पात्ति का बँटवारा नहीं होता; विद्या के लाभ, पुनर्मिलन; माता एवं पितामह उत्तराधिकारी के रूप में; बाँट दी जानेवाली सम्पत्ति; जुआ एवं पुरस्कार, ये राजा द्वारा बन्द कर दिये जाने चाहिए; पंच महापाप, उनके लिए प्रायश्चित्त; ज्ञात एवं अज्ञात (गुप्त) चोर; बन्दीगृह; राज्य के सात अंग; वैश्य एवं शूद्र के कर्तव्य; केवल ब्राह्मण ही पढ़ा सकता है; मिश्रित जातियाँ; म्लेच्छ, कम्बोज, यवन, शक, सबके लिए आचार-नियम; चारों वर्णों के विशेषाधिकार एवं कर्तव्य, विपर्ति में ब्राह्मण की वृत्ति के साधन; ब्राह्मण कौन-से पदार्थ न पदार्थ न विक्रय करे; जीविका-प्राप्ति एवं उसके साधन के सात उचित ढंग; दान-स्तुति; प्रायश्चित्त् के बारे में विविध मत; बहुत-से देखे हुए प्रतिफल; पूर्वजन्म के पाप के कारण रोग एवं शरीर-दोष; पंच नैतिक पाप एवं उनके लिए प्रायश्चित्त; उपपातक और उनके लिए प्रायश्चित्त; सान्तयन, पराक, चान्द्रायण जैसे प्रायश्चित्त; पापनाशक पवित्र मन्त्र; कर्म पर विवेचन; क्षेत्रज्ञ, भूतात्मा, जीव; नरक-कष्ट; सत्त्व, रजस् एवं तमस् नामक तीन गुण; नि:श्रैयस की उत्पत्ति किससे होती है; आनन्द का सर्वोच्च साधन है आत्म-ज्ञान; प्रवृत्त एवं निवृत्त कर्म; फलप्राप्ति की इच्छा से रहित होकर जो कर्म किया जाय वही निवृत्त है; वेद-स्तुति; तर्क का स्थान; शिष्ट एवं परिषद्; मानव शास्त्र के अध्ययन का फल।
मनु ने तीन वेदों को उधृत किया है और अथर्ववेद को अथर्वागिरसी श्रुति कहा है। मनुस्मृति में आरण्यक, छ: वेदांगों, धर्मशास्त्रों की चर्चा आयी है। मनु ने अत्रि, उतथ्यपुत्र (गौतम), भृगु शौन्क, वसिष्ठ, वैखानस आदि धर्मशास्त्रकारों का उल्लेख किया है। उन्होंने आख्याना, इतिहास, पुराण एवं खिलों का उल्लेख किया है। मनु ने वेदान्त की भाँति ब्रह्म का वर्णन किया है; लेकिन यहाँ यह भी कल्पना की जा सकती है कि उन्होंने उपनिषद की ओर संकेत किया है। उन्होंने 'वेदवाह्या: स्मृतय: की चर्चा विधर्मियों के सम्बन्ध में है। उन्होंने धर्म-विरोधियों और उनकी व्यावसायिक श्रेणियों का उल्लेख किया है। उन्होंने आस्तिकता एवं वेदों की निन्दा कि ओर भी संकेत किया है और बहुत प्रकार की बोलियों की चर्चा की है।
The versions of Manu Smrati available to one are English translations which are grossly defective-inappropriate and create misconception about the caste structure in India. A study conducted in US spread over 6 Lakh people showed the genetic-chromosomal structures plotting in 4 categories. All these people were Christians.
समाज और धर्म के ठेकेदारों ने अनपढ़ व्यक्तियों-मूर्खों को जो कुछ भी बता दिया, उन बेचारों-गरीबों ने बिना हील-हुज्जत के मान लिया। समय-समय पर धर्म, जाति से बाहर करने की प्रथा, वर्ण से च्युत करने की धमकियाँ; सिवाय आडंबर के कुछ भी नहीं थीं। पोंगा पंडितों ने हिन्दू धर्म को जितनी हानि पहुँचाई, उतनी तो अंग्रजों और विधर्मियों ने भी नहीं पहुँचाई। मनुस्मृति जो कि पूर्णतया वैज्ञानिक-प्रामाणिक है; को लेकर भी अनेक तरह की भ्रान्तियाँ पैदा की जाती रही हैं। इतना ही नहीं संसद, न्यायालय, जनसभाओं में भी अंग्रजों द्वारा प्रतिपादित-गलत अनुवाद पर आधारित भ्रान्तियों का ही बोलबाला है। अनुसूचित जाति के बड़बोले बेईमान नेता-अभिनेता, बड़े दमखम से मनुस्मृति को उद्धृत (cite, quote) करते हैं, यह जाने बिना कि कहाँ-क्या लिखा गया है। हिन्दी भाषी होते हुए भी जिन्हें ठीक तरीके से हिन्दी बोलनी-उच्चारण करनी नहीं आती, वो भला संस्कृत को क्या और कैसे समझेंगे?!
मनुस्मृति के सम्बन्ध में भ्रान्तियाँ :: (1). मनु ने जन्म के आधार पर जाति प्रथा-वर्णव्यवस्था का निर्माण किया, (2). मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दंड का विधान किया और ऊँची जाति खासकर ब्राह्मणों के लिए विशेष प्रावधान रखे और (3). मनु नारी का विरोधी थे और उनका तिरस्कारभी करते थे। उन्होंने स्त्रियों के लिए पुरुषों से कम अधिकारों का विधान किया।
वर्ण परिवर्तन :: ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं।(मनुस्मृति 10.65)
(1). शरीर और मन से शुद्ध-पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है। (मनुस्मृति 2.335)
(2). जो मनुष्य नित्य प्रात: और सांय ईश्वर आराधना नहीं करता, उसको शूद्र समझना चाहिए।(मनुस्मृति 2.103)
(3).जब तक व्यक्ति वेदों की शिक्षाओं में दीक्षित नहीं होता वह शूद्र के ही समान है। (मनुस्मृति 2.172)
(4). ब्राह्मण-वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ट–अति श्रेष्ट व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच-नीचतर व्यक्तिओं का संग छोड़कर, अधिक श्रेष्ट बनता जाता है। इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है। ब्राह्मण उत्तम कर्म करने वाले विद्वान व्यक्ति को कहते हैं और शूद्र का अर्थ अशिक्षित व्यक्ति है। इसका, किसी भी तरह जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है।(मनुस्मृति 4.245)
(5). जो ब्राह्मण,क्षत्रिय या वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है और उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है। मनुस्मृति के अनुसार तो आज भारत में कुछ अपवादों को छोड़कर बाकी सारे लोग जो भ्रष्टाचार, जातिवाद, स्वार्थ साधना, अन्धविश्वास, विवेकहीनता, लिंग-भेद, चापलूसी, अनैतिकता इत्यादि में लिप्त हैं-वे सभी शूद्र हैं।(मनुस्मृति 2.168)
(6). भले ही कोई ब्राह्मण हो, लेकिन अगर वह अभिवादन का शिष्टता से उत्तर देना नहीं जानता तो वह शूद्र (अशिक्षित व्यक्ति) ही है। शूद्र भी पढ़ा सकते हैं। शूद्र भले ही अशिक्षित हों तब भी उनसे कौशल और उनका विशेष ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए।(मनुस्मृति 2.126)
(7). अपने से न्यून व्यक्ति से भी विद्या को ग्रहण करना चाहिए और नीच कुल में जन्मी उत्तम स्त्री को भी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए।(मनुस्मृति 2.238)
(8). आवश्यकता पड़ने पर अ-ब्राह्मण से भी विद्या प्राप्त की जा सकती है और शिष्यों को पढ़ाने के दायित्व का पालन वह गुरु जब तक निर्देश दिया गया हो तब तक करे।(मनुस्मृति 2.241)
ब्राह्मणत्व का आधार कर्म :: मनु की वर्ण व्यवस्था जन्म से ही कोई वर्ण नहीं मानती। मनुस्मृति के अनुसार माता-पिता को बच्चों के बाल्यकाल में ही उनकी रूचि और प्रवृत्ति को पहचान कर ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण का ज्ञान और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेज देना चाहिए।
कई ब्राह्मण माता-पिता अपने बच्चों को ब्राह्मण ही बनाना चाहते हैं, परंतु इस के लिए व्यक्ति में ब्रह्मणोचित गुण, कर्म,स्वभाव का होना अति आवश्यक है। ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेने मात्र से या ब्राह्मणत्व का प्रशिक्षण किसी गुरुकुल में प्राप्त कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता, जब तक कि उसकी योग्यता, ज्ञान और कर्म ब्रह्मणोचित न हों।
(1). जैसे लकड़ी से बना हाथी और चमड़े का बनाया हुआ हरिण सिर्फ़ नाम के लिए ही हाथी और हरिण कहे जाते हैं, वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है।(मनुस्मृति 2.157)
(2). पढने-पढ़ाने से, चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से, परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद, विज्ञान आदि पढने से, कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है।(मनुस्मृति 2.28)
शिक्षा ही वास्तविक जन्म :: मनु के अनुसार मनुष्य का वास्तविक जन्म विद्या प्राप्ति के उपरांत ही होता है। जन्मतः प्रत्येक मनुष्य शूद्र या अशिक्षित है। ज्ञान और संस्कारों से स्वयं को परिष्कृत कर योग्यता हासिल कर लेने पर ही उसका दूसरा जन्म होता है और वह द्विज कहलाता है। शिक्षा प्राप्ति में असमर्थ रहने वाले शूद्र ही रह जाते हैं।
यह पूर्णत: गुणवत्ता पर आधारित व्यवस्था है, इसका शारीरिक जन्म या अनुवांशिकता से कोई लेना-देना नहीं है।
(1). वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है | यह जन्म मृत्यु और विनाश से रहित होता है। ज्ञानरुपी जन्म में दीक्षित होकर मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। यही मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य है। सुशिक्षा के बिना मनुष्य "मनुष्य" नहीं बनता। जब तक मनुष्य अच्छी तरह शिक्षित नहीं होगा तब तक उसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तो क्या मनुष्य भी नहीं माना जाता क्योंकि शिक्षा के बिना वह पशु मात्र ही है।(मनुस्मृति 2.148)
(2). जन्म देने वाले पिता से ज्ञान देने वाला आचार्य रूप पिता ही अधिक बड़ा और माननीय है, आचार्य द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान मुक्ति तक साथ देता हैं। पिता द्वारा प्राप्त शरीर तो इस जन्म के साथ ही नष्ट हो जाता है।(मनुस्मृति 2.146)
(3). माता-पिता से उत्पन्न संतति का माता के गर्भ से प्राप्त जन्म साधारण जन्म है। वास्तविक जन्म तो शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरांत ही होता है। अपनी श्रेष्टता साबित करने के लिए कुल का नाम आगे धरना मनु के अनुसार अत्यंत मूर्खतापूर्ण कृत्य है | अपने कुल का नाम आगे रखने की बजाए व्यक्ति यह दिखा दे कि वह कितना शिक्षित है तो बेहतर होगा।(मनुस्मृति 2.147)
(4). ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन वर्ण विद्याध्ययन से दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं। विद्याध्ययन न कर पाने वाला शूद्र, चौथा वर्ण है। इन चार वर्णों के अतिरिक्त आर्यों में या श्रेष्ट मनुष्यों में पांचवा कोई वर्ण नहीं है।(मनुस्मृति 10.4)
शूद्र मात्र एक विशेषण है, किसी जाति विशेष का नाम नहीं। निम्न वर्ण अथवा कुलोत्पन्न व्यक्ति का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।
किसी व्यक्ति का जन्म यदि ऐसे कुल में हुआ हो, जो समाज में आर्थिक या अन्य दृष्टी से पनप न पाया हो तो उस व्यक्ति को केवल कुल के कारण पिछड़ना न पड़े और वह अपनी प्रगति से वंचित न रह जाए, इसके लिए भी महर्षि मनु ने नियम निर्धारित किए हैं।अपंग, अशिक्षित, बड़ी आयु वाले, रूप और धन से रहित या निचले कुल वाले, इन को आदर अथवा अधिकार से वंचित न करें, क्योंकि यह किसी व्यक्ति की परख के मापदण्ड नहीं हैं। (मनुस्मृति 4.141)
प्राचीन इतिहास में वर्ण परिवर्तन के उदाहरण :: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण की सैद्धांतिक अवधारणा गुणों के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं। यह बात सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं है, प्राचीन समय में इस का व्यवहार में चलन था।
देवऋषि नारद, महर्षि बाल्मीकि तथा काक भुशुण्डि जी अपने पूर्व जन्म में शूद्र थे। काक भुशुण्डि जी काक-शकुनि बनने से पहले ब्राह्मण थे।
(1). ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे, परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की। ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।
(2). ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे, जुआरी और हीन चरित्र भी थे। परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। (ऐतरेय ब्राह्मण 2.19)
(3). सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे, परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।
(4). राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।[विष्णु पुराण 4.1.14]
(5). राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण 4.1.13)
(6). धृष्ट नाभाग के पुत्र थे, परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण 4.2.2)
(7). आगे उन्हीं के वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए। (विष्णु पुराण 4.2.2)
(8.) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए।
(9). विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने।
(10). हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए। (विष्णु पुराण 4.3.5)
(11). क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। (विष्णु पुराण 4.8.1) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए। इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं।
(12). मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने।
(13). ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना।
(14). राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ।
(15). त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे।
(16). विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया। विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे, परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया।
(17). विदुर दासी पुत्र थे, तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया।
(18). वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने। (ऐतरेय ब्राह्मण 2.19)
(19). मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं। इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं-पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश।
(20). महाभारत अनुसन्धान पर्व (35. 17-18) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है-मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर।
(21). आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं। इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं। सबकी उत्पत्ति ब्राह्मणों से है। कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए।
(22). कर्ण भगवान् सूर्य का पुत्र होकर भी मनुष्य था। धर्मराज के पुत्र युधिष्टर मनुष्य थे, माता अञ्जलि से उत्पन्न पवन पुत्र हनुमान जी वानर व भीम मनुष्य थे, देवराज इन्द्र के पुत्र अर्जुन मनुष्य, अश्वनी कुमारों के पुत्र नकुल और सहदेव भी तो मनुष्य ही थे। राक्षसी से उत्पन्न घटोत्कच भीम का पुत्र होकर भी राक्षस था।
(23). कश्यप ऋषि की विभिन्न पत्नियों से उत्पन्न विभिन्न प्रजतियाँ अपना अलग-अलग अस्तित्व रखतीं हैं, क्योंकि जाति का निर्णय माता से ही होता है।
भगवान् राम ने तपस्या में रत शूद्र का वध इसलिए किया क्योंकि वह उचित आचरण का प्रयोग नहीं कर रहा था। भगवान् शेष के अवतार बलराम जी ने धृष्टता का परिचय देने पर शूद्र कुल में उत्पन्न सूत जी का वध किया था जबकि उन्हें स्वयं ब्राह्मणों व ऋषियों ने स्वयं आमंत्रित किया था। खाली ज्ञान ही काफ़ी नहीं है अपितु उसका प्रयोग, समझ, बुद्धि, विवेक और उचित आचरण भी अनिवार्य है।
वर्तमान में मोदी, नितीश, माया, सोनिया, अन्सारी, खड़गे इसी वर्ण व्यवस्था से आगे बढ़े हैं। उनका वर्ण बदल गया है; मगर लाभ-स्वार्थ के लिए स्वयं को अछूत, शूद्र, दलित, पिछड़े आदि कहते हैं। यही कारण अछूत बनने का पहले भी था। वर्तमान समय में ब्राह्मणों की औलाद ब्युटीशिन जैसे काम बड़े मजे से कर रहीं हैं, जो कि अति निम्न कोटि का कार्य माना गया है। कैकई ने मत्स्यराज के यहाँ सैरन्ध्री का कार्य किया जो कि लगभग ऐसा ही था।
Its a matter of shame for Lalu & Mulayam Singh to claim themselves from down trodden segment of Hindu, since they use the surname Yadav after Bhagwan Shri Krashn. Mulayam Singh is known as Mullah Mulayam Singh Yadav since he behaves like Muslims for the sake of votes. As a matter of fact millions of people changes their faith from Hindu to Muslim and Christianity, just for monetary gains. Some changed due to the fear of death. There are many cases where the Hindu kings were converted to Islam due to the hypocrisy of Brahmans who claimed to know Shastr and threw their own interpretations. These so called learned Brahmans harmed the Hindu community more than any one else. They used to expel Hindus from the community without authority. In fact no one is qualified to expel a Hindu from Hinduism.
Though Sanjay belonged to an inferior caste-Shudr, yet he enjoyed the status of a minister and was a faithful of the royalty, which clearly shows that the Shudr, so called oppressed, Dalit, too had high status depending upon their ability, traits, qualities unlike today when a person getting lowest marks is placed in high offices dominating higher castes having obtained much higher marks than him. Stupid women too enjoy the posts of chief minister or the head of a political party.
Out of the seven ministers of Emperor Yudhistar one was from Shudr community, who was respected-honoured by his community and capable of discharging his duties as a loyal minister.
More than 1.25 Lakh candidates have applied for the post of sweepers-scavengers (सफाई कर्मचारी) in the Allahabad Municipality (UP-INDIA) possessing MBA, M.Tech.-B.Tech and other degrees. Majority of them is from the Upper Castes which clearly proves the formation of caste system as Manu Smrati.[09.12.2016]
धर्मशास्त्र के रूप में मनुस्मृति को विश्व की अमूल्य निधि है। इसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जीवन में घटित होने सम्भव है यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है। मनु आदिपुरुष थे और उन की समस्त मान्यताएँ सत्य होने के साथ-साथ देश, काल तथा जाति बन्धनों से रहित हैं। यह समाजशास्त्र का विस्तृत वर्णन है और जनसाधारण ही नहीं अपितु राजनीति और समाजशास्त्र शास्त्रियों के लिए भी उपयोगी है।
सृष्टि तथा धर्म उत्पत्ति :: सभी ऋषि-महृषिगण मनु महाराज के पास गए और उनका यथोचित सत्कार करके बोले कि हे भगवन् !आप सब वर्ण और जाति के मनुष्यों के धर्म और कर्तव्यों को ठीक-ठीक रूप से बतलाने में समर्थ हैं। आप अविज्ञ जगत के तत्त्व को जानने वाले और केवल आप ही विधान रूप वेद-जिनका कि चिन्तन से पार नहीं पाया जा सकता, जो अपरिमित सत्य विद्याओं का विधान है उनके अर्थों को जानने वाले भी हैं। उन ऋषि-महाऋषियों के इस प्रकार कहने पर मनु महाराज ने उनका आदर सत्कार किया और फिर उनसे कहा कि सृष्टि से पहले जगत प्रलय और अन्धकार में आवृत्त था। उस समय न किसी के जानने, न तर्क और न प्रसिद्ध चिह्नों से युक्त इंन्द्रियों से जानने योग्य था, वह सब जगत खोये हुए के समान ही था।
पहले स्वयं समर्थ अर्थात् स्वयं भूत और स्थूल में प्रकट न होनेवाला अर्थात् अव्यक्त इस महाभूत आकाशादि को प्रकाशित करने वाला परमात्मा इस संसार को प्रकटावस्था में लाते हुए प्रकट हुआ और फिर उस परमात्मा ने अपने आश्रम से ही महत नामक तत्त्व को और महतत्त्व से मैं हूँ ऐसा अभिमान करने वाले सामर्थ्यशाली अहंकार नामक तत्त्व को और फिर उनसे सब त्रिगुणात्मक पंचतन्मात्राओं तथा आत्मोपकारक मन इन्द्रिय को और विषयों को ग्रहण करने वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों को यथाक्रम से उत्पन्न कर प्रकट किया।
उन तत्त्वों में से अनन्त शक्ति वाले छहों तत्त्वों के सूक्ष्म अवयवों को उनके आत्मभूत तत्त्वों के कारणों में मिलाकर सारे पाँच महाभूतों की सृष्टि की। उस परमात्मा के सब पदार्थों के नाम, जैसे गौ, अश्व आदि और उनके भिन्न-भिन्न कर्म जैसे ब्राह्मण का वेद पढ़ना, क्षत्रिय का रक्षा करना आदि-आदि कार्य निर्धारित किए तथा पृथक-पृथक विभाग या व्यवस्थायें सृष्टि के आरम्भ में वेद के शब्दों के आधार पर ही बनाए। इस प्रकार उस परमात्मा ने कर्मात्मना सूर्य, अग्नि, वायु आदि देवों, मनुष्य पशु पक्षी आदि सामान्य प्राणियों के और साधक कोटि के विशेष विद्वानों के समुदायों को तथा सृष्टिकाल से प्रलय काल तक निरन्तर चले आ रहे सूक्ष्म संसार को रचा।
परमात्मा ने जगत के सब रूपों के ज्ञान के लिए अग्नि, वायु और रवि से ऋक् यजुः साम रूप त्रिविध ज्ञान वाले नित्य वेदों को दुहकर प्रकट किया। फिर काल और मास, ऋतु अयन आदि काल विभागों को कृत्तिका आदि नक्षत्रों, सूर्य आदि ग्रहों को और नदी समुद्र पर्वत तथा ऊंचे नीचे स्थानों को बनाया। फिर इन प्रजाओं की सृष्टि के इच्छायुक्त उस ब्रह्मा ने तपों को, वाणी को, रति को, इच्छा को, क्रोध को रचा। और फिर कर्मों के विवेचन के लिए धर्म अधर्म का विभाजन किया। इन प्रजाओं को सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से जोड़ा।
प्रजाओं की समृद्धि के लिए परमात्मा ने मुख बाहु जंघा और पैर की तुलना के अनुसार क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रवर्ण को निर्मित किया। फिर उस विराट् पुरुष ने तप करके इस जगत की सृष्टि करने वाले मुझको उत्पन्न किया और फिर मैंने प्रजा की सृष्टि करने की इच्छा से कठिन तप करके पहले दश प्रजापति महर्षियों को उत्पन्न किया। इन दस महर्षियों ने मेरी आज्ञा से बड़ा तप किया और फिर जिसका जैसा कर्म है, तदनुरूप देव, मनुष्य तथा पशु-पक्षी आदि योनियों को उत्पन्न किया। इस संसार में जिन मनुष्यों का जैसा कर्म वेदों में कहा गया है उसे वैसे ही और उत्पन्न होने में जीवों का जो एक निश्चित प्रकार रहता है उसे मनु महाराज ने विस्तारपूर्वक वर्णन किया।
पशु, मृग, व्याघ्र, दोनों ओर दाँत वाले राक्षस, पिशाच और मनुष्य, ये सब जरायुज अर्थात् झिल्ली से उत्पन्न होने वाले हैं। पक्षी, सांप, मगर, मछली तथा कछुए और अन्य जो इस प्रकार के स्थल में उत्पन्न होने वाले और जल में उत्पन्न होने वाले जीव हैं, वे अण्डज अर्थात् अण्डे में से उत्पन्न होते हैं। मच्छर, जुं, मक्खी, खटमल और जो भी इस प्रकार के कोई जीव हों जैसे भुनगे आदि वे सब सीलन और गर्मी से उत्पन्न होते हैं, उनको स्वेदज अर्थात् पसीने से उत्पन्न होने वाले कहा जाता है। बीज के बोने तथा डालियों के लगाने से उत्पन्न होने वाले सब स्थावर जीव वृक्ष आदि अद्भिज भूमि को फाड़कर उगने वाले कहलाते हैं। इनमें फलों के पकने पर सूख जाने वाले और जिन पर बहुत फल फूल लगते हैं, औषधि कहलाते हैं। जिन पर बिना फूल आये ही फल लगते हैं वे बड़, पीपल आदि वनस्पति कहलाते हैं और फूल तथा उसके बाद फल लगने वाले जीव वृक्ष कहलाते हैं।
अनेक प्रकार के जड़ से ही गुच्छे के रूप में बनने वाले झाड़ आदि, एक जड़ से अनेक भागों में फूटने वालों ईख आदि तथा उसी प्रकार घास की सब जातियां बीज और शाखा से उत्पन्न होने वाले उगकर फैलने वाले दूब आदि और बेलें से सब भी उद्भिज ही कहलाते हैं। पुनर्जन्मों के कारण बहुत प्रकार के तमोगुण से आवेष्टित ये स्थावर जीवन जब वह परमात्मा जागकर सृष्टि उत्पत्ति आदि की इच्छा करता है तब यह समस्त संसार चेष्टा युक्त होता है और जब यह शान्त आत्मा वाला सभी कार्यों से शान्त होकर सोता है अर्थात् इच्छा रहित होता है, तब यह समस्त संसार प्रलय को प्राप्त होता है। सृष्टि से निवृत्त हुए उस परमात्मा के सोने पर, श्वास प्रश्वास चलना-फिरना आदि को करने का जिनका स्वभाव है, वे देहधारी जीवन अपने-अपने कर्मों से निवृत्त हो जाते हैं और सब इंद्रियों समेत मन भी ग्लानि की अवस्था को प्राप्त करता है।
उस सर्वव्यापक परमात्मा के आश्रम में जब एक साथ ही सब प्राणी चेष्टाहीन होकर लीन हो जाते हैं तब यह सब प्राणियों का आश्रय स्थान परमात्मा की सृष्टि संचालन के कार्यों से निवृत्त हुआ सुखपूर्वक सोता है। इस प्रकार वह अविनाशी परमात्मा जागने और सोने की अवस्थाओं द्वारा इस जड़ और चेतन रूप जगत को निरन्तर जिलाता और मारता है।[मनुस्मृति-प्रथम अध्याय]
EXTRACTS ::
स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम्।
विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वतः॥
किसी को बिना ध्यान दिए हुए अगर कोई सुंदर स्त्री, रत्न, विद्या, धर्म, पवित्रता, उपदेश और भिन्न-भिन्न प्रकार के शिल्प मिलते हो, उन्हें बिना किसी संकोच से प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
सुंदर स्त्री का मतलब सिर्फ उसकी चेहरे से नहीं बल्कि उसके चरित्र से भी है। जिस स्त्री का चरित्र साफ है वह अपने पति के कुल और अपने पिता के कुल का मान बढाती है।चरित्रवान स्त्री मिलने से व्यक्ति के जीवन की अनेक परेशानियां अपने आप ही समाप्त हो जाती हैं। ऐसी स्त्री संकट की घड़ी से अपने पति व परिवार को बचाने की शक्ति रखती है। अगर कोई चरित्रवान स्त्री किसी नीचकुल की है फिर भी उसे तुरंत बिना किसी संकोच के अपना लेना चाहिए।
रत्न :: कई तरह के होते है जैसे कि मोती, पन्ना, माणिक, मूंगा, पुखराज आदि। इसमें सबसे ज्यादा हीरा बेशकीमती होता है। लेकिन यह बेशकीमती हीरा कोयले की खान से निकलात है। मोती और मूंगा समुद्र की गहराई में मिलता है। इन्हें ग्रहो की शांति के लिए धारण करते है। जिससे कि समस्या से निजात मिल जाए। इसी तरह मनुस्मृति में कहा गया है कि कही भी किसी तरह का रत्न मिले या कोई दे तो असे तुरंत बिना संकोच के ले लेना चाहिए।
ज्ञान :: ज्ञान एक ऐसी चीज है इसे जितना ग्रहण करो उतना ही कम है। ज्ञान कभी से भी मिले उसे ग्रहण करने में पीठे नहीं हटना चाहते है। इसी ज्ञान से बुद्धि, नई दिशा मिलती है। ज्ञान है तो कोई भी चीज कठिन नहीं रह जाती है।अगर कोई बुरा व्यक्ति ज्ञान को अच्छा समझ उसे अपने चरित्र में धारण कर ले, तो उसकी पूरी जिंदगी बदल जाएगी। ज्ञान सिर्फ सुनने तक ही सीमित नहीं है, उसे अपने आचार-विचार, व्यवहार व जीवन में उतारने पर ही अपने लक्ष्य को आसानी से पा सकते हैं। इसलिए यह कभी भी मिले इसे बिना संकोच धारण कर लेना चाहिए।
धर्म :: धर्म का अर्थ है अपने कर्तव्य-जिम्मेदारी का निर्वाह-पालन। कभी गलत न सोचना और न करना, सभी की भलाई करना, हमेशा चरित्रवान रहे, पूरी ईमानदारी से अपने परिवार का पालन-पोषण करना व हमेशा सच बोलना भी धर्म का ही एक रूप है। जहाँ कहीं से भी हमें सादा जीवन-उच्च विचार जैसे सिद्धांत मिले, उसे ग्रहण करने की कोशिश करनी चाहिए। यही धर्म का सार है। इससे मनुष्य कभी भी पीछे नहीं हटना चाहिए।
पवित्रता :: पवित्रता का मतलब सिर्फ शरीर से नहीं अपितु व्यवहार आचार-विचार, सोच से भी है। अगर सोच और व्यवहार पवित्र होगी तो मनुष्य दूसरों की दृष्टि में भी अच्छा होगा, अपने जीवन की हर ऊचाईयों को छुएगा। अगर मन पवित्र होगा तो मानसिक शांति भी मिलेगी। मनुष्य बिना किसी तनाव और चिंता के कोई भी काम कर सकता है, साथ ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। इसलिए ऐसी बातों को बिना संकोच किए मान लेना चाहिए।
उपदेश :: मनुस्मृति के अनुसार कहा गया है कि अगर व्यक्ति किसी यात्रा में या फिर कहीं जा रहे हो और रास्तें में कोई साधु, महात्मा उपदेश दे रहा हो तो वहाँ पर तुरंत रुक जाना चाहिए, आवश्यक काम की कीमत पर नहीं। हो सकता है कि उसके उपदेश व्यक्ति के जीवन को कोई सही रास्ता दिखा दे, मन को शांति, परिवार के बीच प्रेम करना, समाज के प्रति जिम्मेदारी करना सीखा दे। इससे परेशानियां हल हो सकती है।
शिल्प :: शिल्प यानी कि कला। कला सिखाने वाले व्यक्ति के चरित्र या स्थान के अच्छा-बुरा होने पर ध्यान दिए बिना ही पूरी निष्ठा से कला सीखनी चाहिए। यही कला आगे जाकर व्यक्ति जीवन की आजीविका बन सकती है या प्रसिद्धि दिला सकती है। किसी कला विशेष का ज्ञान बिना किसी परेशानी के अपने परिवार का पालन-पोषण कर ने में सहायक है और सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी करने सहायक है।
दश काम समुत्थानि तथाष्टौ क्रोधजानि च।
व्यसनानि दुरंतानि प्रयत्नेन विवर्जयेत॥[मनु स्मृति]
मनुष्य को काम वासना से पैदा होने वाले 10 तथा क्रोध से पैदा होने वाले 8 व्यसनों पर विजय पाना तथा उनसे मुक्त रहने का प्रयास करना चाहिए।
मृगयाक्षदिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियों मदः।
तौर्यत्रिकं वृथाद्या च कामजो दशको गणः॥[मनु स्मृति]
काम के कारण जन्म लेने वाली 10 बुरी आदतें हैं :- (1). शिकार खेलना, (2). जुआ खेलना, (3). दिन में अर्धनिद्रित रहते हुए कपोल कल्पनाएं करना, (4). परनिंदा करना, (5). स्त्रियोंं के साथ रहना, (6). शराब पीना, (7). नाचना, (8). श्रृंगारिक कविताएं, गीत आदि गाना, (9). बाजा बजाना, (10). बिना किसी उद्देश्य के घूमना।
पैशुन्यं साहसं मोहं ईर्ष्यासूयार्थ दूषणम्।
वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोपिगणोष्टकः॥[मनु स्मृति]
क्रोध से पैदा होने वाली 8 बुरी आदतें हैं :- (1). चुगली करना, (2). साहस, (3). द्रोह, (4). ईर्ष्या करना, (5). दूसरों में दोष देखना, (6). दूसरों के धन को छीन लेना, (7). गालियां देना, (8). दूसरों से बुरा व्यवहार करना।
ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः।
बालवृद्धातुरैर्वैधैर्ज्ञातिसम्बन्धिबांन्धवैः॥
मातापितृभ्यां यामीभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया।
दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्॥[मनु स्मृति]
(1). यज्ञ करने वाले, (2). पुरोहित, (3). आचार्य, (4). अतिथियों, (5). माता, (6). पिता, (7). मामा आदि संबंधियों, (8). भाई, (9). बहन, (10). पुत्र, (11). पुत्री, (12). पत्नी, (13). पुत्रवधू, (14). दामाद तथा (15). गृह सेवकों यानी नौकरों से वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।
धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम॥
धर्म के दस लक्षण :- धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, स्वच्छता, इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना (अक्रोध)।
नास्य छिद्रं परो विद्याच्छिद्रं विद्यात्परस्य तु।
गूहेत्कूर्म इवांगानि रक्षेद्विवरमात्मन:॥
वकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत्।
वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत्॥
कोई शत्रु अपने छिद्र (निर्बलता) को न जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों को जानता रहे, जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है, वैसे ही शत्रु के प्रवेश करने के छिद्र को गुप्त रक्खे। जैसे बगुला ध्यानमग्न होकर मछली पकड़ने को ताकता है, वैसे अर्थसंग्रह का विचार किया करे, शस्त्र और बल की वृद्धि कर के शत्रु को जीतने के लिए सिंह के समान पराक्रम करे। चीते के समान छिप कर शत्रुओं को पकड़े और समीप से आये बलवान शत्रुओं से शश (खरगोश) के समान दूर भाग जाये और बाद में उनको छल से पकड़े।
नोच्छिष्ठं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याचैव तथान्तरा।
न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्ट: क्वचिद् व्रजेत्॥
न किसी को अपना जूंठा पदार्थ दे और न किसी के भोजन के बीच आप खावे, न अधिक भोजन करे और न भोजन किये पश्चात हाथ-मुंह धोये बिना कहीं इधर-उधर जाये।
तैलक्षौमे चिताधूमे मिथुने क्षौरकर्मणि।
तावद्भवति चांडाल: यावद् स्नानं न समाचरेत॥
तेल-मालिश के उपरांत, चिता के धूंऐं में रहने के बाद, मिथुन (संभोग) के बाद और केश-मुंडन के पश्चात, व्यक्ति तब तक चांडाल (अपवित्र) रहता है, जब तक स्नान नहीं कर लेता। मतलब यह कि इन कामों के बाद नहाना जरूरी है।
अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका:॥
अनुमति अर्थात मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले :- ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं।
प्रथम अध्याय :: सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय की विभिन्न अवस्थाऐं, मनुस्मृति का आविर्भाव तथा उसकी परम्परा का प्रवर्तन, इसके पढ़ने के अधिकारी तथा फल का वर्णन।
द्वितीय अध्याय :: आर्यों के निवास-प्रदेश आर्यावर्त की उत्तर, दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम सीमा, जलवायु, निवासी, उच्च चरित्र, व्यक्ति के सर्वतोमुखी विकास के लिए अपनाये जाने वाले सोलह संस्कार, ज्ञान का महत्त्व तथा विद्याध्ययन काल में ब्रह्मचारी के लिए गुरुकुल में आचरणीय एवं पालनीय नियमों का उल्लेख।
तृतीय अध्याय :: गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के अन्तर्गत आठ प्रकार के विवाह, कन्या की पात्रता, श्राद्ध के लिए निमन्त्रित किये जाने वाले ब्राह्मण की योग्यता तथा श्राद्ध में परोसे जाने वाले द्रव्यों की उपयुक्तता-अनुपयुक्तता।
चतुर्थ अध्याय :: गृहस्थ के लिए अपनायी जाने योग्य आदर्श आचार-संहिता, निषिद्ध कर्मों से बचना तथा चरित्र की रक्षा के प्रति सदैव सतर्क रहना। गृहस्थ को जितेन्द्रिय होने के साथ-साथ दान देने में अत्यन्त उदार होने का सुझाव।
पञ्चम अध्याय :: भक्ष्य पदार्थों में माँस के सेवन में दोष, वेद विहित हिंसा-अहिंसा, ज्ञान, तप, अग्नि आदि बारह शुद्धिकारक पदार्थ, अर्थ शुद्धि-ईमानदारी से धन कमाना-सबसे बड़ी शुद्धि, देह के बारह मल तथा स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों का आदर्श रूप।
षष्ठम अध्याय :: वानप्रस्थ के लिए आचरणीय नियम, मद्य-माँस आदि का सेवन न करना, संग्रह से बचना, कष्टों को प्रसन्नतापूर्वक सहना, प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव रखना, सबको अभयदान देना, निन्दा-स्तुति से बचना, आलस्य का परित्याग, सन्ध्या-वन्दनादि के प्रति सतर्क रहना तथा मोक्ष-प्राप्ति के प्रति सचेष्ट रहना तथा संन्यास आश्रम की महत्ता।
सप्तम अध्याय :: राजा के लिए आचरणीय धर्मों का, दण्ड की महत्ता का, मन्त्रियों से परामर्श करने की रीति का, दूतों की ईमानदारी की परख का, दुर्ग-रचना-पद्धति का, राज्य की उपयुक्त व्यवस्था की विधि का, कर-निर्धारण की प्रणाली को न्यायसंगत बनाने का, प्रजा की सुख-समृद्धि के प्रति सतर्क एवं सचेष्ट रहने के अतिरिक्त राजनीति :- साम, दाम, भेद तथा दण्ड, के प्रयोग की व्यावहारिकता का वर्णन हुआ है।
अष्टम अध्याय :: राजा को प्रजा के विवादों को निपटाने के लिए समुचित विधि को अपनाने का, अपराधियों को दण्ड देने का, धर्मविरुद्ध साक्ष्य देने वाले तथा मिथ्याव्यवहार करने वालों को अनुशासित करने का, दण्ड देते समय व्यक्ति के स्तर तथा अपराध की मात्रा पर विचार करने का और सीमा तथा कोश आदि की सुरक्षा के प्रति सावधान रहने का परामर्श दिया है।
राजा के आठ प्रकार के कर्म :- (1). प्रजाओं से कर लेना। (2). भृत्य और याचकों को यथा योग्य धन देना, (3). मन्त्रियों को किसी काम से भेजना, (4).अनावश्यक कार्यों से रोकना, (5). कार्य में संदेह होने पर राजा की आज्ञा को ही सर्वश्रेष्ठ मानना, (6). व्यवहारिक कामों को देखना, (7). पराजितों से उचित धन लेना और (8). किसी पाप के लिये प्रायश्चित करना; ये आठ प्रकार के कर्म हैं।
नवम अध्याय :: इस अध्याय में स्त्रियों और पुरुषों के एक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों एवं अधिकारों का, आपातकाल में स्त्रियों को नियोग द्वारा सन्तान उत्पन्न करने के अधिकार का, पिता की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी का, पुत्र के अभाव में उत्तराधिकारी बनने वालों में वरीयता का, बारह प्रकार के पुत्रों में उत्तरोत्तर वरीयता का तथा दूसरों के अधिकार का हरण करने वालों को दण्डित करने का वर्णन हुआ है।
दशम अध्याय :: मानव जाति को चार वर्णों में विभक्त करके चारों वर्णों के कर्तव्यों का, भिन्न वर्ण के पुरुष द्वारा भिन्न वर्ण की स्त्री से उत्पन्न सन्तान (वर्णसंकर) की सामाजिक स्थिति का, चारों वर्णों के आपद्धर्मों का तथा आपत्काल में चारों वर्णों के लोगों द्वारा नियत धर्म के पालन की प्रशंसा का वर्णन किया गया है।
एकादश अध्याय :: जाने-अनजाने विहित कर्मों का त्याग और निषिद्ध कर्मों का अनुष्ठान करने पर प्रायश्चित्तों का, मांस आदि अभक्ष्य-भक्षण, मदिरा आदि सेवन तथा अगम्यागमन प्रभृति पातकों, गोवध, ब्रह्महत्या प्रभृति और महापातकों के करने पर उनके दण्डस्वरूप प्राजापत्य, अतिकृच्छ्र तथा चान्द्रायण प्रभृति विविध प्रायश्चित्तों का, वेदाभ्यास, तप और ज्ञान की महत्ता आदि का वर्णन हुआ है।
द्वादश अध्याय :: शरीरोत्पत्ति का, स्वर्गलाभ और नरक-प्राप्ति कराने वाले कर्मों का, अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त करने वाले कर्मों का, तप और विद्या के फल का, शास्त्रों में अप्राप्य का, विद्वान् ब्राह्मण द्वारा निर्णय कराने का, ब्रह्मवेत्ता की पहचान का तथा परमपद की प्राप्ति के उपाय तथा सर्वत्र समदृष्टि का वर्णन हुआ है।
मनुस्मृति में समाज संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उसे ही सकारात्मक अर्थों में मनुवाद कहा जा सकता है।
समाज के संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उन सबका संग्रह मनुस्मृति में है। अर्थात मनुस्मृति मानव समाज का प्रथम संविधान है, न्याय व्यवस्था का शास्त्र है। यह वेदों के अनुकूल है। वेद की कानून व्यवस्था अथवा न्याय व्यवस्था को कर्तव्य व्यवस्था भी कहा गया है। उसी के आधार पर मनु ने सरल भाषा में मनुस्मृति बनाई। वैदिक दर्शन में संविधान या कानून का नाम ही धर्मशास्त्र हैं।
मनुस्मृति न तो दलित विरोधी है और न ही ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देती है। यह सिर्फ मानवता की बात करती है और मानवीय कर्तव्यों की बात करती है। मनु किसी को दलित नहीं मानते। दलित संबंधी व्यवस्थाएं तो अंग्रेजों और आधुनिकवादियों की देन हैं।
दलित शब्द प्राचीन संस्कृति में है ही नहीं। चार वर्ण जाति न होकर मनुष्य की चार श्रेणियां हैं, जो पूरी तरह उसकी योग्यता पर आधारित है। प्रथम ब्राह्मण, द्वितीय क्षत्रिय, तृतीय वैश्य और चतुर्थ शूद्र। वर्तमान संदर्भ में भी यदि हम देखें तो शासन-प्रशासन को संचालन के लिए लोगों को चार श्रेणियों :- प्रथम (General), द्वितीय (OBC), तृतीय (SC) और चतुर्थ (SC) श्रेणी में बांटा गया है। मनु की व्यवस्था के अनुसार हम प्रथम श्रेणी को ब्राह्मण, द्वितीय को क्षत्रिय, तृतीय को वैश्य और चतुर्थ को शूद्र की श्रेणी में रख सकते हैं। जन्म के आधार पर फिर उसकी जाति कोई भी हो सकती है।
कर्म के अनुरूप ही जन्म ब्राह्मण या अन्य जाति मे होता है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाले ने कर्म ही एसे किये होते है कि उसे ब्राह्मण के घर जन्म मिलता है। सामान्यतया ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनना व्यक्ति के हाथ में नहीं है। यह तो कर्म गति से भगवान् के द्वारा दी जाति है ।
जाति जन्म से होती है, कर्म से होती तो महायोद्धा भगवान् परशुराम क्षत्रिय कहलाते और विश्वामित्र ब्राह्मण।
भगवान् श्री राम और रावण दोनों ही वेद शास्त्रों में भी पारंगत थे (ब्राह्मण कर्म) और राजा और योद्धा भी थे (क्षत्रिय कर्म)।
रावण जन्म से ब्राह्मण और भगवान् श्री राम जन्म से रघुवंशी क्षत्रिय थे।
भगवान् श्री कृष्ण ने जब वत्सासुर का वध किया, तब उन्हे ब्रह्महत्या का दोष लगा और उसी दोष को मिटाने के लिये उन्होंने गोवर्धन में मन से गंगा प्रकट की जो आज भी मानसी गंगा के नाम से विख्यात है।
अश्वत्थामा जन्म से ब्राह्मण हैं मगर कर्म से क्षत्रिय, उनके द्वारा पाण्डव पुत्रों की हत्या भगवान् शिव के आदेश पर की गई थी।भगवान् श्री कृष्ण और द्रोपदी ने मृत्यु दंड इसीलिये नहीं दिया क्योंकि बे जन्म से ब्राह्मण हैं और अजर-अमर हैं।
द्वितीय अध्याय :: आर्यों के निवास-प्रदेश आर्यावर्त की उत्तर, दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम सीमा, जलवायु, निवासी, उच्च चरित्र, व्यक्ति के सर्वतोमुखी विकास के लिए अपनाये जाने वाले सोलह संस्कार, ज्ञान का महत्त्व तथा विद्याध्ययन काल में ब्रह्मचारी के लिए गुरुकुल में आचरणीय एवं पालनीय नियमों का उल्लेख।
तृतीय अध्याय :: गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के अन्तर्गत आठ प्रकार के विवाह, कन्या की पात्रता, श्राद्ध के लिए निमन्त्रित किये जाने वाले ब्राह्मण की योग्यता तथा श्राद्ध में परोसे जाने वाले द्रव्यों की उपयुक्तता-अनुपयुक्तता।
चतुर्थ अध्याय :: गृहस्थ के लिए अपनायी जाने योग्य आदर्श आचार-संहिता, निषिद्ध कर्मों से बचना तथा चरित्र की रक्षा के प्रति सदैव सतर्क रहना। गृहस्थ को जितेन्द्रिय होने के साथ-साथ दान देने में अत्यन्त उदार होने का सुझाव।
पञ्चम अध्याय :: भक्ष्य पदार्थों में माँस के सेवन में दोष, वेद विहित हिंसा-अहिंसा, ज्ञान, तप, अग्नि आदि बारह शुद्धिकारक पदार्थ, अर्थ शुद्धि-ईमानदारी से धन कमाना-सबसे बड़ी शुद्धि, देह के बारह मल तथा स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों का आदर्श रूप।
षष्ठम अध्याय :: वानप्रस्थ के लिए आचरणीय नियम, मद्य-माँस आदि का सेवन न करना, संग्रह से बचना, कष्टों को प्रसन्नतापूर्वक सहना, प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव रखना, सबको अभयदान देना, निन्दा-स्तुति से बचना, आलस्य का परित्याग, सन्ध्या-वन्दनादि के प्रति सतर्क रहना तथा मोक्ष-प्राप्ति के प्रति सचेष्ट रहना तथा संन्यास आश्रम की महत्ता।
सप्तम अध्याय :: राजा के लिए आचरणीय धर्मों का, दण्ड की महत्ता का, मन्त्रियों से परामर्श करने की रीति का, दूतों की ईमानदारी की परख का, दुर्ग-रचना-पद्धति का, राज्य की उपयुक्त व्यवस्था की विधि का, कर-निर्धारण की प्रणाली को न्यायसंगत बनाने का, प्रजा की सुख-समृद्धि के प्रति सतर्क एवं सचेष्ट रहने के अतिरिक्त राजनीति :- साम, दाम, भेद तथा दण्ड, के प्रयोग की व्यावहारिकता का वर्णन हुआ है।
अष्टम अध्याय :: राजा को प्रजा के विवादों को निपटाने के लिए समुचित विधि को अपनाने का, अपराधियों को दण्ड देने का, धर्मविरुद्ध साक्ष्य देने वाले तथा मिथ्याव्यवहार करने वालों को अनुशासित करने का, दण्ड देते समय व्यक्ति के स्तर तथा अपराध की मात्रा पर विचार करने का और सीमा तथा कोश आदि की सुरक्षा के प्रति सावधान रहने का परामर्श दिया है।
राजा के आठ प्रकार के कर्म :- (1). प्रजाओं से कर लेना। (2). भृत्य और याचकों को यथा योग्य धन देना, (3). मन्त्रियों को किसी काम से भेजना, (4).अनावश्यक कार्यों से रोकना, (5). कार्य में संदेह होने पर राजा की आज्ञा को ही सर्वश्रेष्ठ मानना, (6). व्यवहारिक कामों को देखना, (7). पराजितों से उचित धन लेना और (8). किसी पाप के लिये प्रायश्चित करना; ये आठ प्रकार के कर्म हैं।
नवम अध्याय :: इस अध्याय में स्त्रियों और पुरुषों के एक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों एवं अधिकारों का, आपातकाल में स्त्रियों को नियोग द्वारा सन्तान उत्पन्न करने के अधिकार का, पिता की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी का, पुत्र के अभाव में उत्तराधिकारी बनने वालों में वरीयता का, बारह प्रकार के पुत्रों में उत्तरोत्तर वरीयता का तथा दूसरों के अधिकार का हरण करने वालों को दण्डित करने का वर्णन हुआ है।
दशम अध्याय :: मानव जाति को चार वर्णों में विभक्त करके चारों वर्णों के कर्तव्यों का, भिन्न वर्ण के पुरुष द्वारा भिन्न वर्ण की स्त्री से उत्पन्न सन्तान (वर्णसंकर) की सामाजिक स्थिति का, चारों वर्णों के आपद्धर्मों का तथा आपत्काल में चारों वर्णों के लोगों द्वारा नियत धर्म के पालन की प्रशंसा का वर्णन किया गया है।
एकादश अध्याय :: जाने-अनजाने विहित कर्मों का त्याग और निषिद्ध कर्मों का अनुष्ठान करने पर प्रायश्चित्तों का, मांस आदि अभक्ष्य-भक्षण, मदिरा आदि सेवन तथा अगम्यागमन प्रभृति पातकों, गोवध, ब्रह्महत्या प्रभृति और महापातकों के करने पर उनके दण्डस्वरूप प्राजापत्य, अतिकृच्छ्र तथा चान्द्रायण प्रभृति विविध प्रायश्चित्तों का, वेदाभ्यास, तप और ज्ञान की महत्ता आदि का वर्णन हुआ है।
द्वादश अध्याय :: शरीरोत्पत्ति का, स्वर्गलाभ और नरक-प्राप्ति कराने वाले कर्मों का, अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त करने वाले कर्मों का, तप और विद्या के फल का, शास्त्रों में अप्राप्य का, विद्वान् ब्राह्मण द्वारा निर्णय कराने का, ब्रह्मवेत्ता की पहचान का तथा परमपद की प्राप्ति के उपाय तथा सर्वत्र समदृष्टि का वर्णन हुआ है।
जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते।[मनुस्मृति]
अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं।मनुस्मृति में समाज संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उसे ही सकारात्मक अर्थों में मनुवाद कहा जा सकता है।
समाज के संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उन सबका संग्रह मनुस्मृति में है। अर्थात मनुस्मृति मानव समाज का प्रथम संविधान है, न्याय व्यवस्था का शास्त्र है। यह वेदों के अनुकूल है। वेद की कानून व्यवस्था अथवा न्याय व्यवस्था को कर्तव्य व्यवस्था भी कहा गया है। उसी के आधार पर मनु ने सरल भाषा में मनुस्मृति बनाई। वैदिक दर्शन में संविधान या कानून का नाम ही धर्मशास्त्र हैं।
मनुस्मृति न तो दलित विरोधी है और न ही ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देती है। यह सिर्फ मानवता की बात करती है और मानवीय कर्तव्यों की बात करती है। मनु किसी को दलित नहीं मानते। दलित संबंधी व्यवस्थाएं तो अंग्रेजों और आधुनिकवादियों की देन हैं।
दलित शब्द प्राचीन संस्कृति में है ही नहीं। चार वर्ण जाति न होकर मनुष्य की चार श्रेणियां हैं, जो पूरी तरह उसकी योग्यता पर आधारित है। प्रथम ब्राह्मण, द्वितीय क्षत्रिय, तृतीय वैश्य और चतुर्थ शूद्र। वर्तमान संदर्भ में भी यदि हम देखें तो शासन-प्रशासन को संचालन के लिए लोगों को चार श्रेणियों :- प्रथम (General), द्वितीय (OBC), तृतीय (SC) और चतुर्थ (SC) श्रेणी में बांटा गया है। मनु की व्यवस्था के अनुसार हम प्रथम श्रेणी को ब्राह्मण, द्वितीय को क्षत्रिय, तृतीय को वैश्य और चतुर्थ को शूद्र की श्रेणी में रख सकते हैं। जन्म के आधार पर फिर उसकी जाति कोई भी हो सकती है।
कर्म के अनुरूप ही जन्म ब्राह्मण या अन्य जाति मे होता है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाले ने कर्म ही एसे किये होते है कि उसे ब्राह्मण के घर जन्म मिलता है। सामान्यतया ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनना व्यक्ति के हाथ में नहीं है। यह तो कर्म गति से भगवान् के द्वारा दी जाति है ।
जाति जन्म से होती है, कर्म से होती तो महायोद्धा भगवान् परशुराम क्षत्रिय कहलाते और विश्वामित्र ब्राह्मण।
भगवान् श्री राम और रावण दोनों ही वेद शास्त्रों में भी पारंगत थे (ब्राह्मण कर्म) और राजा और योद्धा भी थे (क्षत्रिय कर्म)।
रावण जन्म से ब्राह्मण और भगवान् श्री राम जन्म से रघुवंशी क्षत्रिय थे।
भगवान् श्री कृष्ण ने जब वत्सासुर का वध किया, तब उन्हे ब्रह्महत्या का दोष लगा और उसी दोष को मिटाने के लिये उन्होंने गोवर्धन में मन से गंगा प्रकट की जो आज भी मानसी गंगा के नाम से विख्यात है।
अश्वत्थामा जन्म से ब्राह्मण हैं मगर कर्म से क्षत्रिय, उनके द्वारा पाण्डव पुत्रों की हत्या भगवान् शिव के आदेश पर की गई थी।भगवान् श्री कृष्ण और द्रोपदी ने मृत्यु दंड इसीलिये नहीं दिया क्योंकि बे जन्म से ब्राह्मण हैं और अजर-अमर हैं।
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी।
करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥[तुलसी दास-राम चरित मानस]
पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वंदना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं।
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात् तथैव च॥[मनुस्मृति 10.65]
जैसे शूद्र ब्राह्मणत्व को और ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न शूद्र भी क्षत्रियत्व और वैश्यत्व प्राप्त होते हैं।
कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं।
The manner-process in which Shudr become Brahmn and Brahmn becomes a Shudr works for the Kshatriy and Vaeshy as well leading to gaining the Kshatriy or Vaeshy title by a Shudr.
This is purely scientific process resulting in purity of Varn-race.
मनु की व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण की संतान यदि अयोग्य है तो वह अपनी योग्यता के अनुसार चतुर्थ श्रेणी या शूद्र बन जाती है। ऐसे ही चतुर्थ श्रेणी अथवा शूद्र की संतान योग्यता के आधार पर प्रथम श्रेणी अथवा ब्राह्मण बन सकती है। विश्वामित्र अपनी योग्यता से क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बने। वर्तमान काल में विजातीय से विवाह अथवा अनैतिक सम्बन्ध, मासाहार, शराब पीना, विदेश यात्रा करना सामान्य बात है। पौंगा पण्डित इन्हें अधर्म कहकर जाति या धर्म से निष्कासन की बात करते हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने काला पहाड़ को मुसलमान बनने पर मजबूर किया और पेशवा बाजीराव के विवाह में टाँग अड़ाई।
कोई भी किसी भी धर्म को मानने वाला यदि स्वेच्छा से "ॐ" का उच्चारण करता है, मन्दिर जाता है, पूजा पाठ करता है और माँस भक्षण, शराब पीना, परस्त्री गमन से दूर रहता है तो उसे किसी पण्डे पुजारी से हिन्दु होने का प्रमाण-पत्र लेने की आवश्यकता नहीं है।
अगस्त्य ऋषि ने आतापी-वातापी राक्षस को भी खा लिया, पचा लिया। विश्वामित्र तेज भूख लगने पर चाण्डाल के घर में घुसकर, चोरी से माँस खा गये। गए। उन्हें किसी ने धर्म से बहिष्कृत नहीं किया। इन धर्म के ठेकेदारों को अधर्म ही सूझता है ताकि मोती कमाई हो सके। उन्हें ने वेदों, उपनिषद, पुराण, गीता, महाभारत का ज्ञान हैं और न ही समझ। ये पण्डे-पुजारी अधिकतर अनपढ़ और गँवार किस्म के लोग हैं जो गायत्री मंत्र तक का उच्चारण तक नहीं कर पाते। विवाह के मंत्र लगभग गलत और उलटे-सीधे ही बोलते हैं।
धर्म भ्रष्टता :: (1). सुरा पान, (2). गोमांस भक्षण, (3). मल्लेछ से दूषित या फिर (4). विधर्मी स्त्री-पुरुष से सम्बन्ध।
शुद्धि :: एक वर्ष तक चांद्रायण, पराक व्रत करने वाला ब्राह्मण पुनः हिन्दु विप्र हो जाएगा। अन्य जाति का व्यक्ति इससे कम प्रायश्चित करेगा । यदि क्षत्रिय है तो वह एक पराक और एक कृच्छ्र व्रत करके ही शुद्ध हो जाएगा। वैश्य व्यक्ति आधा पराक व्रत से पुनः हिन्दु हो जाएगा। शूद्र व्यक्ति पाँच दिन के उपवास से शुद्ध हो जाएगा।शुद्धि के अंतिम दिन बाल और नाखून अवश्य कटवाना चाहिए।
ब्राह्मण प्रायश्चित्त करके गो दान, स्वर्ण दान भी करे।
कोई समूह यदि एक वर्ष या इससे ज्यादा दिनों तक धर्मान्तरित रह गया हो तो उसे शुद्धि, वपन, दान के अलावा गंगा स्नान भी करना चाहिए-गंगास्नानेन शुध्यति।
विप्रों को सिंधु, सौबीर, बंग, कलिंग, महाराष्ट्र, कोंकण तथा सीमा पर जा कर शुद्धि करनी चाहिए।
बल पूर्वक दासी बनाने पर, गो हत्या कराने पर, जबरदस्ती काम वासना पूरा कराने पर, उनका जूठा सेवन कराने पर; प्रजापत्य, चांद्रायण, आहिताग्नि तथा पराक व्रत से शुद्धि होगी।
पन्द्रह दिन यव पीने से पुनः हिन्दु होगा।
कम पढ़ा लिखा व्यक्ति एक मास तक हाथ में कुशा लेकर चले और सत्य बोले तो वह शुद्ध हो अपने धर्म में प्रतिष्ठित हो जाएगा।
मनुस्मृति में हर गुनाह का प्रायश्चित दिया गया है। मात्र प्रायश्चित से कुछ नहीं होता। उसे मानना जरूरी है और आगे ऐसी कोई गलती-मूर्खता नहीं होगी, इसका दृढ़ निश्चय भी अत्यावश्यक है।
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ
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