Sunday, November 27, 2011

ENLIGHTENMENT ब्रह्म (तत्व) ज्ञान

ENLIGHTENMENT
ब्रह्म (तत्व) ज्ञान
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
ब्रह्म तत्व ज्ञान का अधिकारी :: अहम्-अहंकार का त्याग करने वाला परमात्म तत्व का अधिकारी है।
हानि-लाभ, सुख-दुःख, में समान भाव रखने वाला, भय से मुक्त परमात्मा को प्राप्त करने का अधिकारी है।
जो तीर्थ यात्रा, धर्म अनुष्ठान, यज्ञ-हवन, पूजा-पाठ, स्वाध्याय करता है, वह परमात्म तत्व का अधिकारी है।
जो परोपकार, समाज सेवा करता है, वो परमात्म तत्व का हक़दार है।
मनुष्य जीवन का उद्देश्य उस चेतन को जानना है जो पूर्ण है और जिसका आदि अंत नहीं हैं, जो जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है। जो जड़ भी है और चेतन भी हैं। जो शरीर रहित भी है और शरीर सहित भी है। जिसका रूप है और नहीं भी है।
आत्मा का परमात्मा में लीन होना ही मुक्ति, भक्ति, मोक्ष है।
जिसने स्वयं में स्थित उस आत्मा रूपी परमात्मा को जान लिया है; वह बन्धन मुक्त, ज्ञानी, समदर्शी, ब्रह्म में लीन है, समता प्राप्त जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है।
स्वः धर्म, वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाला, कर्म-कर्तव्य, दायित्व से मुँह न मोड़ने वाला ब्रह्म मार्ग का अनुयायी है।
प्राणियों पर दया भाव रखने वाला, परोपकारी परमात्मा को प्राप्त करने का अधिकारी है।
मन, इन्द्रियों, वाणी, इच्छाओं पर काबू करने वाला मोक्ष का अधिकारी है।
त्यागी, वैरागी, संतुष्ट-संतोषी, आत्म संयमी, आत्म दर्शी है।
उसे सुख दुःख, जन्म-मृत्यु, हानि-लाभ, समस्त प्राणियों के प्रति समता प्राप्त है।
वह निर्लिप्त-सत्यनिष्ठ है।
उसने परमात्मा की शरण ग्रहण कर ली है।
वो निर्द्वन्द है।
वो सेवा निष्ठ-समाजसेवी, परमार्थी है।
जो माता-पिता-गुरु-जन, वृद्ध, दीन-हीन, प्रताड़ित की मदद-सेवा-सहायता करता है वो परमात्म तत्व का अनुरागी है।
जो अन्याय, दुराचार, अनाचार, अत्याचार से दूर से और इनका मुकाबला करता है, वह धर्मनिष्ठ है।
तत्वज्ञान अथवा अज्ञान का नाश एक बार ही होता है और सदा के लिए होता है। तत्वज्ञान की आवृति नहीं होती। ज्ञान की स्वतंत्र सतत है ही नहीं। बोध का अनादर-तिरस्कार करने से असत् को ग्रहण किया जाता है। असत् को महत्व देने से विवेक जाता है। बोध एक बार ही होगा और सदा के लिए होगा। तत्वज्ञान होने पर मोह नहीं होगा। जगत जीव के अन्तर्गत और जीव परमात्मा के अंतर्गत है। साधक पहले जगत को अपने में देखता है, फिर स्वयं में परमात्मा को देखता है। आत्मज्ञान ज्ञान और परमात्म ज्ञान विज्ञान है। आत्मज्ञान में निज आनन्द है और परमात्मज्ञान में परमानन्द है। लौकिक निष्ठा से कर्मयोग तथा ज्ञान योग से आत्मज्ञान होता है और अलौकिक निष्ठा से भक्तियोग जिससे परमात्मज्ञान का अनुभव होता है।
आत्म ज्ञान से मुक्ति तो होती है परन्तु अहंम्-अहंकार रह जाता है। आत्म ज्ञान से अहंकार भी मिटाया जा सकता है।
मनुष्य को सदा उस परमेश्वर का, जिसके चरण-कमल निरन्तर भजने योग्य हैं, के गुणों का आश्रय लेने वाली भक्ति के द्वारा, सब प्रकार से :- मन, वाणीं और शरीर से; भजन करना चाहिये। उनको समर्पित भक्ति योग, तुरंत ही संसार से वैराग्य और ब्रह्म साक्षात्कार रूप ज्ञान की प्राप्ति करा देता है। सभी विषय भगवद् रूप होने के कारण समान हैं। अतः जब इन्द्रियों की वृत्तियों के द्वारा भी भगवद्भक्त का चित्त उनमें प्रिय-अप्रिय रूप विषमता का अनुभव नहीं करता-सर्वत्र भगवान् का ही दर्शन करता है। उसी समय वह सङ्ग रहित, सबमें समान रूप से स्थित, त्याग और ग्रहण करने योग्य, दोष और गुणों से रहित, अपनी महिमा में आरूढ़ अपने आत्मा का ब्रह्म रूप से साक्षात्कार करता है। वही ज्ञान स्वरूप है, वही परब्रह्म है, वही परमात्मा है, वही ईश्वर है, वही पुरुष है; वही एक भगवान् स्वयं जीव, शरीर, विषय, इन्द्रियों आदि अनेक रूपों में प्रतीत होता है।
सम्पूर्ण संसार में आसक्ति का अभाव हो जाना, बस यही योगियों के सब योग साधन का एक मात्र अभीष्ट फल है। ब्रह्म एक है, ज्ञान स्वरूप और निर्गुण है, तो भी वह बाह्य वृतियों वाली इन्द्रियों के द्वारा भ्रान्ति वश शब्दादि, धर्मों वाले विभिन्न-पदार्थों के रूप में भास रहा है। जिस प्रकार एक ही परब्रह्म महत्त्व, वैकारिक, राजस और तामस, तीन प्रकार का अहंकार, पञ्च महाभूत एवं ग्यारह इन्द्रिय रूप बन गया और फिर वही स्वयं प्रकाश इनके संयोग से जीव कहलाया, उसी प्रकार उस जीव का शरीर रूप यह ब्रह्माण्ड भी वस्तुतः ब्रह्म ही है, क्योंकि ब्रह्म से ही इसकी उत्पत्ति हुई है। इसे ब्रह्म रूप में वही देख सकता है, जो श्रद्धा, भक्ति और वैराग्य तथा निरन्तर योगाभ्यास के द्वारा एकाग्र चित्त और असंग बुद्धि हो गया है।
इस ज्ञान के माध्यम से प्रकृति और पुरुष के यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाता है। निर्गुण ब्रह्म विषयक ज्ञान योग और परमेश्वर के प्रति भक्ति योग का फल एक ही है।
तत्व वेत्ता ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्द स्वरूप ज्ञान को ही तत्व कहते हैं। उसी को कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई भगवान्, परमेश्वर, परब्रह्म के नाम से पुकारते हैं।[श्रीमद्भागवत 2.1.11]
जिस प्रकार रूप, रस एवं गंध आदि अनेक गुणों का आश्रय भूत एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा विभिन्न रूप से अनुभूत होता है, वैसे ही शास्त्र के विभिन्न मार्गों द्वारा एक ही भगवान् की अनेक प्रकार से अनुभूति होती है। नाना प्रकार के कर्म कलाप यज्ञ, दान, तप, वेदाध्ययन-मीमांसा, मन और इन्द्रियों के संयम, कर्मों के त्याग, विविध अङ्गों वाले योग, भक्ति योग, निवृति और प्रकृति रूप सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के धर्म, आत्म तत्व के ज्ञान और दृढ़ वैराग्य, इन सभी साधनों से सगुण-निर्गुण रूप स्वयं प्रकाश भगवान् को ही प्राप्त किया जाता है।
जो सात्विक, राजसिक, तामस और निर्गुण भेद से चार प्रकार के भक्ति योग का और जो प्राणियों के जन्मादि विकारों का हेतु है तथा जिसकी गति जानी नहीं जाती, उस काल के स्वरूप को परमात्मा ने उपरोक्त पदों में स्वयं स्पष्ट किया है।
अविद्या जनित कर्म के कारण जीव की अनेकों गतियाँ होती हैं; उनमें जाने पर वह अपने स्वरूप को नहीं पहचान सकता। यह ज्ञान दुष्ट, दुर्विनीत, घमण्डी, दुराचारी और धर्मध्वजी, दम्भी पुरुषों को नहीं सुनाना, समझाना, पढ़ाना चाहिए। विषय लोलुप, गृहासक्त, अभक्त, श्रद्धाहीन, परमात्मा के भक्तों से द्वेष रखने वाला भी इस उपदेश से दूर रखना चाहिये।
जो श्रद्धालु भक्त, विनयी, दूसरों के प्रति दोषदृष्टि न रखने वाला, सब प्राणियों से मित्रता रखने वाला, गुरु सेवा में तत्पर, बाह्य विषयों अनासक्त, शांत चित्त, मत्सर शून्य और पवित्र चित्त हो तथा परमात्मा को अपना प्रियतम मानने वाला हो, उसे इसका उपदेश अवश्य किया जाये। परमात्मा में मन, ध्यान, चित्त लगाकर श्रद्धापूर्वक जो भी व्यक्ति, इसका एक बार भी श्रवण या कथन करेगा, वह परमात्मा के परम पद को प्राप्त होगा। [श्रीमद्भागवत 3.32.22-42]
ब्रह्म रहस्य-प्रज्ञानं :: कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद (शुकरहस्योपनिषद) में भगवान् वेद व्यास जी के आग्रह पर, भगवान् शिव ने उनके पुत्र शुकदेव जी को चार महावाक्यों का उपदेश "ब्रह्म रहस्य" के रूप में दिया :-
(1). ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म :: प्रकट ज्ञान ब्रह्म है। वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महा तेजस्वी देव का ध्यान करके ही मोक्ष को प्राप्त हो सकता है।
वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह जीव के चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूँघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है; वही ‘ब्रह्म’ है।
(2). ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि :: मैं ब्रह्म हूं।’ यहाँ ‘अस्मि’ शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कह उठता है।
(3). ॐ तत्त्वमसि :: वह ब्रह्म तुम्हीं हो। सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय ‘ब्रह्म’ ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को ‘तत्त्वमसि’ कहा गया है।
वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है।
(4). ॐ अयमात्मा ब्रह्म :: यह आत्मा ब्रह्म है। उस स्वप्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को ‘अयं’ पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही ‘आत्मा’ है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित ‘आत्मतत्त्व’ है।
अन्त में भगवान् शिव शुकदेव से कहते हैं :- "हे शुकदेव! इस सच्चिदानन्द-स्वरूप ‘ब्रह्म’ को, जो तप और ध्यान द्वारा प्राप्त करता है, वह जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है।" भगवान शिव के उपदेश को सुनकर मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान् को प्रणाम किया और सम्पूर्ण प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की ओर चले गये।
साधन पंचकम् :: मोक्ष प्राप्ति हेतु ब्रह्म (तत्व) ज्ञान उपलब्धि के सरल उपाय। This is how one can gain Brahm Gyan leading to Moksh.
वेदो नित्यमधीयताम्, तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां,
तेनेशस्य विधीयतामपचितिकाम्ये मतिस्त्यज्यताम्।
पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोsनुसंधीयतां,
आत्मेच्छा व्यवसीयतां निज गृहात्तूर्णं विनिर्गम्यताम्॥1॥ 
 वेदों का नियमित अध्ययन करें, उनमें कहे गए कर्मों का पालन करें, उस परम प्रभु के नियमों का पालन करें, व्यर्थ के कर्मों में बुद्धि को न लगायें। समग्र पापों को जला दें, इस संसार के सुखों में छिपे हुए दुखों को देखें, आत्म-ज्ञान के लिए प्रयत्नशील रहें, अपने घर की आसक्ति को शीघ्र त्याग दें।
Learn the Veds regularly, follow their tenets, follow the regulations of the God (perform your duties) and do not waste energy (never learn undesirable things) in useless jobs. Get rid of the sins, recognise the hidden pains, sorrow, troubles, intricacies in this universe (& detach from them), prepare your self for enlightenment rejecting the attachment for your home (the Soul should be ready to desert the body without attachment).
संगः सत्सु विधीयतां भगवतो भक्ति: दृढाऽऽधीयतां,
शान्त्यादिः परिचीयतां दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम्।
सद्विद्वानुपसृप्यतां प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां,
ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रुतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्॥2॥ 
 सज्जनों का साथ करें, प्रभु में भक्ति को दृढ़ करें, शाँति आदि गुणों का सेवन करें, कठोर कर्मों का परित्याग करें, सत्य को जानने वाले विद्वानों की शरण लें, प्रतिदिन उनकी चरण पादुकाओं की पूजा करें, ब्रह्म के एक अक्षर वाले नाम ॐ के अर्थ पर विचार करें, उपनिषदों के महावाक्यों को सुनें।
Enjoy the company of pious people (learned, enlightened, scholars, Pandits, Philosophers, Sages, Saints), be devoted to the Almighty with firm determination, reject tough tasks (murdering, crime, torturing others, sacrifices), prefer silence, solitude, isolation, shelter-protection under the Almighty-i.e., never speak unnecessarily or utter painful words, look to those who have identified the truth, take part in the sermons, discourses, speeches, preaching by the enlightened, meditate-concentrate in Om ॐ and listen (understand, practice, analyse) the dictates-guide lines of Upnishads.
वाक्यार्थश्च विचार्यतां श्रुतिशिरःपक्षः समाश्रीयतां,
दुस्तर्कात् सुविरम्यतां श्रुतिमतस्तर्कोऽनुसंधीयताम्।
ब्रम्हास्मीति विभाव्यतामहरहर्गर्वः परित्यज्यताम्,
देहेऽहंमति रुझ्यतां बुधजनैर्वादः परित्यज्यताम्॥3॥ 
वाक्यों के अर्थ पर विचार करें, श्रुति के प्रधान पक्ष का अनुसरण करें, कुतर्कों से दूर रहें, श्रुति पक्ष के तर्कों का विश्लेषण करें, मैं ब्रह्म हूँ ऐसा विचार करते हुए "मैं रुपी अभिमान" का त्याग करें, "मैं शरीर हूँ", इस भाव का त्याग करें, बुद्धिमानों से वाद-विवाद न करें।
Always concentrate over the theme, central idea, roots, gist (nectar, ambrosia) of the enlightenment, avoid unnecessary arguments-logic, contradictions, reject ego-pride by concentrating in the Almighty present in the inner self, never identify yourself with the body, never argue with the intelligent-prudent.
क्षुद्व्याधिश्च चिकित्स्यतां प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यतां,
स्वाद्वन्नं न तु याच्यतां विधिवशात् प्राप्तेन संतुष्यताम्।
शीतोष्णादि विषह्यतां न तु वृथा वाक्यं समुच्चार्यतां,
औदासीन्यमभीप्स्यतां जनकृपानैष्ठुर्यमुत्सृज्यताम्॥4॥ 
भूख को रोग समझते हुए प्रतिदिन भिक्षा रूपी औषधि का सेवन करें, स्वाद के लिए अन्न की याचना न करें, भाग्यवश जो भी प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहें। सर्दी-गर्मी आदि विषमताओं को सहन करें, व्यर्थ वाक्य न बोलें, निरपेक्षता की इच्छा करें, लोगों की कृपा और निष्ठुरता से दूर रहें।
Consider hunger as an ailment, survive over the minimum possible food essential to live-subsistence using it as a medicine only, never eat for taste-too much, whatever is available use it-be satisfied with it, try to be neutral-absolute, equanimous, tolerate the perils of summer, winter, rain; never speak-utter useless words, avoid pity-kindness or cruelty of others.
एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयतां,
पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम्।
प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिश्यतां,
प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम्॥5॥ 
एकांत के सुख का सेवन करें, परब्रह्म में चित्त को लगायें, परब्रह्म की खोज करें, इस विश्व को उससे व्याप्त देखें, पूर्व कर्मों का नाश करें, मानसिक बल से भविष्य में आने वाले कर्मों का आलिंगन करें, प्रारब्ध का यहाँ ही भोग करके परब्रह्म में स्थित हो जाएँ।
Prefer isolation, solitude, peaceful environment, concentrate in the Almighty, analyse the Brahm, see how HE pervades the universe, try to vanish the previous accumulated deeds, tolerate-bear the future endeavours (suffering or comforts without attachment or peril) bear the destiny and merge with the absolute-The Ultimate-The Almighty while in this world.
ज्ञेय तत्व अनादी है और परब्रह्म के नाम से जाना जाता है। इसे प्राप्त कर मनुष्य अमृत स्वरुप परमात्मा को प्राप्त होता है। उसे न सत् कहा जाता न असत्, (वह इन दोनों से विलक्षण-अलग है)। उसके सब ओर हाथ-पैर, सब ओर नेत्र, सिर और मुँख हैं तथा सब ओर कान हैं। वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। सब इन्द्रियों से रहित होकर भी वह सब इन्द्रियों को जानने वाला है। सबका धारण-भरण-पोषण करके भी आसक्ति रहित है। गुणों का भोक्ता होकर भी निर्गुण है। वह परमात्मा सब प्राणियों के बाहर और भीतर विद्यमान है। चर-अचर सब उसी के स्वरूप हैं। सूक्ष्म होने के कारण वह अविज्ञेय है। वही निकट है-वही दूर है। यद्यपि वह विभाग रहित है (आकाश की भांति अखंड रूप से सर्वत्र परिपूर्ण है), तथापि भूतों में विभक्त प्रथक्-प्रथक् स्थित हुआ सा प्रतीत होता है। उसे विष्णु रूप से सब प्राणियों का पोषक, रूद्र रूप से सबका संहारक और ब्रह्मा रूप से सबको उत्पन्न करने वाला जानना चाहिये। वह सूर्य आदि ज्योतियों की भी ज्योति (प्रकाशक) है। उसकी स्थिति अज्ञानमय अंधकार से भी परे है। वह परमात्मा ज्ञान स्वरुप जानने के योग्य व तत्व ज्ञान से प्राप्त होने वाला और सबके ह्रदय में स्थित है।
परमात्मा को कुछ लोग सूक्ष्म बुद्धि द्वारा-ध्यान के द्वारा अपने अन्त:करण में देखते हैं। अन्य लोग साँख्य योग द्वारा व कुछ लोग कर्म योग द्वारा देखते हैं। साधारण मनुष्य स्वयं कुछ न जानते हुए भी दूसरे ज्ञानी पुरुषों से सुनकर ही उपासना करते हैं। ये सत्संग करने वाले लोग भी उपासना माध्यम से संसार सागर को निश्चित ही पार कर जाते हैं।
सत्व गुण से ज्ञान, रजो गुण से लोभ तथा तमो गुण से प्रमाद, मोह और अज्ञान उत्पन्न होते हैं। गुणों में गुण ही बरतते हैं; ऐसा समझ कर जो स्थिर रहता है, वह अपनी स्थिति से विचलित नहीं होता। जो मान-अपमान, मित्र-शत्रु पक्ष में भी समान भाव रखता है, जिसने कर्तव्य के अभिमान को त्याग दिया है; वह निर्गुण-गुणातीत कहलाता है।
जीव और ईश्वर में भेद :: जीव और ईश्वर में व्यावहारिक दृष्टि से भेद है। जीवन बद्ध है, ईश्वर नित्यमुक्त है। मुक्त होने पर भी जीव को नित्यमुक्त नहीं कहा जा सकता। नित्यमुक्त होने के कारण ही ईश्वर श्रुति का जनक या आदिगुरु कहा जाता है।
ईश्वर को मायोपहित कहा गया है, क्योंकि माया विक्षेप प्रधान होने के कारण और ईश्वर के अधीन होने के कारण ईश्वर के ज्ञान का आवरण नहीं करती। परन्तु जीव को अज्ञानोपहित कहा गया है, क्योंकि अज्ञान द्वारा जीव का स्वरूप ढँक जाता है।
इसी से कभी-कभी माया और अविद्या में भेद किया जाता है। माया ईश्वर की उपाधि है-सत्व प्रधान है, विक्षेप प्रधान है और अविद्या जीव की उपाधि है, तमस्-प्रधान है और उसमें आवरण विक्षेप होता है।
One who is relinquished, content-satisfied, sees the Almighty in him self, exerts control over himself, his desires is entitled for Liberation.
Sole aim of the incarnation as a human being is to realise, find-understand that conscious, which is complete, has no end-is infinite, which is free from birth and the death. It is static-inertial and conscious as well. It is with the body-shape and size and otherwise as well. It has infinite shapes, figures, forms, faces, features.
Assimilation of the soul in the Almighty is Liberation-Salvation, Moksh, like a drop of water which falls in the ocean becomes ocean, a dust particle which falls over the earth from the space-sky becomes earth.
One who has identified-recognized the Almighty present in him self in the form of soul is detached-relinquished. He is free from bonds, ties, illusion, attachments, affections, affliction. He is enlightened having attained equanimity, assimilated-absorbed in the Ultimate.
One (The relinquished, Soul) is free from the clutches-ties of birth and death.
One is not perturbed by the loss-gain, pleasure-pain. He weighs them equally. He is free from fear and deserve association with the God.
One who follows his duties religiously, follows the Varnashram Dharm, keep on performing his duties, responsibilities, liabilities; is a follower of the Brahm-the Ultimate.
One (beneficent, philanthropist, altruist) who takes pity over the living beings is entitled for the blessings of the Almighty.
One has control over his senses, sense organs, sensuality, is entitled for Salvation.
One who is relinquished, content-satisfied, sees the Almighty in him self, exerts control over himself, his desires & is entitled for Liberation.
BRAHM :: The basic element-component exists since the very beginning and is known as Brahm. One attains HIM-merges with HIM: the Almighty-Ultimate Par Brahm Parmeshwar. HE is neither Sat or Asat (HE is different-distinguished from these two). HE has mouth, head, eyes, ears, hand, legs pervading all over, in all directions. Every thing is contained in HIM. HE is stable with all these. HE does not possess sense organs, still HE recognises them all. HE is unattached even though, HE HIMSELF takes care of each and every organism, creature, living being. HE is the creator of all characteristics, traits, qualities, factors, properties and still is free from specific characters. HE is present in the creature both internally as well as externally. Variables or fixed, are all HIS incarnations-Avtars. Being microscopic HE is undistinguished. HE is close to one, yet maintains distance as well. HE is complete like the sky every where. HE appears to be different, due to different incarnations, during the past. In the form of Vishnu HE cares, maintains, nurtures us all, in the form of Rudr-Shiv HE is the destroyer and as Brahma HE is the one who created all. HE lights the stars like the Sun. HE exists away from the darkness of imprudence-ignorance. HE is achieved through enlightenment, philosophy, learning.
ब्रह्म :: जिसे पारमार्थिक कहा जाता है, जिसका कभी भी ज्ञान नहीं होता, जो नित्य है, जिसका ज्ञान होने से जगत का बोध हो जाता है और मुक्ति प्राप्त हो जाती है; वही ब्रह्म है।
जीव वास्तव में ब्रह्म ही है, दूसरा कुछ नहीं, शरीर धारण के कारण वह भिन्न प्रतीत होता है।
शरीर के तीन प्रकार :: स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। अनादि प्रवाह के अधीन होकर कर्मफल को भोगने के लिए शरीर धारण करना पड़ता है।
कर्म अविद्या के कारण होते हैं। अत: शरीर धारण अविद्या के ही कारण है। इसे ही बंधन कहते हैं। अविद्या के कारण कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान पैदा होता है, जो आत्मा में स्वभावत: नहीं होता।
जब कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान से युक्त होता है, तब आत्मा जीव कहलाता है। मुक्त होने पर जीव ब्रह्म से एकारता प्राप्त करता है या उसका अनुभव करता है।
आत्मा और ब्रह्म की एकता अथवा अभिन्नत्व :: ‘तत्वमसी’ (तुम वही हो)। इसी कारण से ज्ञान होने पर ‘सोऽहमस्मि’ (मैं वही हूँ) का अनुभव होता है। जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर, स्वप्न में सूक्ष्म शरीर और सुषुप्ति में कारण शरीर रहता है।[उपनिषद]
सुषुप्ति में चेतना भी रहती है, परन्तु विषयों का ज्ञान न होने के कारण जान पड़ता है कि सुषुप्ति में चेतना नहीं रहती। यदि सुषुप्ति में चेतना न होती तो जागने पर मनुष्य कैसे कहता कि "सुखपूर्वक सोया"?
वहाँ चेतना साक्षीरूप या शुद्ध चैतन्य रूप है। परन्तु सुषुप्ति में अज्ञान रहता है। इसी से शुद्ध चेतना के रहते हुए भी सुषुप्ति मुक्ति से भिन्न है। मुक्ति की अवस्था में अज्ञान का नाश हो जाता है। शुद्ध चैतन्य रूप होने के कारण ही आत्मा एक है और ब्रह्मस्वरूप है।
चेतना का विभाजन नहीं हो सकता है। जीवात्मा अनेक हैं, परन्तु आत्मा एक है, यह दिखाने के लिए उपमाओं का प्रयोग होता है। जैसे आकाश एक है, परन्तु सीमित होने के कारण घट या घटाकाश अनेक दिखाई पड़ता है, अथवा सूर्य एक है, किन्तु उसकी परछाई अनेक स्थलों में दिखाई पड़ने से वह अनेक दिखाई पड़ता है, इसी प्रकार यद्यपि आत्मा एक है, फिर भी माया या अविद्या के कारण अनेक दिखाई पड़ता है। 
ब्रह्म ज्ञान :: सच्चिदानन्द स्वरूप श्री कृष्ण सनातन हैं। वे सारे जगत के कारण रूप प्रधान और पुरुष के भी नियामक परमेश्वर हैं। इस जगत के आधार, निर्माता और निर्माण सामग्री तथा स्वामी वे ही हैं। उनकी क्रीड़ा के हेतु ही जगत का निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूप में जो कुछ रहता है-होता है, वह ये परमेश्वर ही हैं। इस जगत में प्रकृति-रूप से भोग्य और पुरुष रूप से भोक्ता तथा दोनों से परे दोनों के नियामक साक्षात भगवान् भी ये ही हैं। इन्द्रियातीत! जन्म, अस्तित्व आदि भाव विकारों से रहित परमात्मा ने ही इस चित्र-विचित्र जगत का निर्माण किया है। और इसमें इन्होंने ही आत्मा रूप से प्रवेश भी किया है। वे ही प्राण-क्रिया शक्ति और जीव-ज्ञान शक्ति के रूप में इसका पालन पोषण कर रहे हैं। क्रिया शक्ति प्रधान प्राण आदि में जो जगत की वस्तुओं की सृष्टि करने की सामर्थ्य है, वह उन वस्तुओं की नहीं; अपितु इनकी सामर्थ्य ही है। क्योंकि वे परमात्मा के समान चेतन नहीं अपितु अचेतन हैं; स्वतंत्र नहीं परतंत्र हैं। उन चेष्टाशील प्राण आदि में केवल चेष्टा मात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो प्रभु की ही है। चन्द्रमा की कांति, अग्नि का तेज, सूर्य की प्रभा, नक्षत्र और विद्युत आदि की स्फुरण रूप से सत्ता, पर्वतों की स्थिरता, पृथ्वी की साधारण शक्ति रूप वृत्ति और गंध रूप गुण-ये सब प्रभु ही हैं। जल में तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करने की जो शक्तियाँ हैं, वे परमात्मा के स्वरूप ही हैं। जल और उसका रस भी वही हैं। इन्द्रिय शक्ति, अन्तःकरण की शक्ति, शरीर की शक्ति, उसका हिलना-डुलना, चलना-फिरना-ये सब वायु की शक्तियाँ उन्हीं की हैं। दिशाएं और उनके आकाश भी वही हैं। आकाश और उसका आश्रय भूत स्फोट-शब्द तन्मात्रा या परा वाणी, नाद-पश्यन्ति, ओंकार-मध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थों का अलग-अलग निर्देश करने वाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी वे ही हैं। इन्द्रियाँ और उनकी विषय प्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता, वे ही हैं। बुद्धि की निश्चयात्मिका शक्ति और जीव की विशुद्ध स्मृति भी वे ही हैं। भूतों में उनका कारण तामस अहँकार, इन्द्रियों में उनका कारण तैजस अहँकार और इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवताओं में उनका कारण सात्विक अहँकार तथा जीवों के आवागमन का कारण माया भी वे ही हैं। जैसे मिट्टी आदि वस्तुओं के विकार घड़ा, वृक्ष आदि में मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तव में वे कारण-मृतिका रूप ही हैं-उसी प्रकार जितने भी विनाशवान पदार्थ हैं, उनमें कारण रूप से अविनाशी तत्व परमात्मा ही हैं। वास्तव में वे उनके ही रूप हैं। सत्व, रज और तम-ये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ, परिमाण, महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मा में वे ही माया द्वारा कल्पित हैं। जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे प्रभु से सर्वथा अलग नहीं हैं। जब इनमें प्रभु की कल्पना कर ली जाती है, तब वे ही इन विकारों के अनुगत जान पड़ते हैं। कल्पना की निवृति हो जाने पर निर्विकल्प परमार्थ स्वरूप वे ही रह जाते हैं। यह जगत सत्व, रज और तम-इन तीनों गुणों का प्रवाह हैं; देह, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण, सुख, दुःख और राग-लोभादि उन्हीं के कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी परमात्मा का सर्वात्मा सूक्ष्म स्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप ज्ञान के कारण ही कर्मों के फंदे में फंसकर बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकते हैं। मनुष्य को प्रारब्ध के अनुसार इन्द्रियादि के सामर्थ्य से युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ है। किन्तु माया वश वह असावधान हो जाता है और स्वार्थ-परमार्थ से ही असावधान होकर सारी उम्र बिता देता है। मनुष्य को शरीर के सम्बन्धी, अहंता एवं ममता रूप स्नेह के फंदे से प्रभु ने ही बाँध रखा है। वे अजन्मा हैं, फिर भी अपने बनाई हुई मर्यादा की रक्षा करने के लिए वे अवतार ग्रहण करते हैं। वे अनन्त और एकरस सत्ता हैं।[श्रीमद्भागवत 85.3.20]
आत्मा के 12 लक्षण :: आत्मा का स्वरूप द्वैत और अद्वैत से पृथक, भाव और मुक्त तथा आदि और अन्त से रहित है। शुद्ध ज्ञान के प्रकाश से उपलब्ध होने वाला तथा परमानन्द स्वरुप होने के कारण एक मात्र सुन्दर है। यही ईश्वरीय रूप है। गीता उसका बोध-उनके स्वरूप, जो स्वयं परमानन्दमय और मन और वाणी से बाहर है, कराती है।[पद्म पुराण]
आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयं प्रकाश, सबका कारण, व्यापक, असङ्ग तथा आवरण रहित है।[श्रीमद्भागवत 7.7.19]
मनुष्य के भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण से उनका साक्षी आत्मा अलग है। जीव कहलाने वाले उस आत्मा से भी ब्रह्म भिन्न है और प्रकृति से उसके संचालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं।[श्रीमद्भागवत 3.28.41]
देव मनुष्यादि शरीरों में रहनेवाला एक ही आत्मा अपने आश्रयों के गुण-भेद के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार का भासता-प्रतीत होता है।[[श्रीमद्भागवत 3.28.43]
यह मनुष्य योनिज्ञान-विज्ञान का मूल स्त्रोत है। जो इसे पाकर भी अपने आत्मरूप परमात्मा को नहीं जान लेता, उसे कहीं भी, किसी भी योनि में शांति नहीं मिल सकती॥[श्रीमद्भागवत 6.16.58]
आत्मा का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं तथा इनके अभिमानों से विलक्षण है॥[श्रीमद्भागवत 6.16.61]
आत्मा तो एक ही है परन्तु वह अपने ही गुणों की सृष्टि कर लेता है और गुणों के द्वारा बनाये गए पञ्च भूतों में एक होने पर भी अनेक, स्वयं प्रकाश होने पर भी दृश्य, अपना स्वरूप होने पर भी अपने से भिन्न, नित्य होने पर भी अनित्य और निर्गुण होने पर भी सगुण के रूप में प्रतीत होता है।[श्रीमद्भागवत 10.85.24]
आत्मा परमात्मा का ही अंग है। आत्मा पूर्वजन्म की स्मृति और संस्कारों से संयुक्त रहती है जब तक कि पुण्य-पाप शेष हैं। मन आत्मा का अभिन्न अंग है। मन में जब तक इच्छाएँ शेष हैं, आत्मा जीव रूप में जन्म लेती रहेगी। माता के गर्भ में आते ही उसे पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है और प्राणी अत्यन्त कष्ट के साथ, उनको स्मरण करता रहता है। जन्म के तुरन्त पश्चात् अधिकांश प्राणियों की स्मृति विलुप्त हो जाती है। नारद, जड़ भरत जैसे महापुरुष पूर्व जन्म की स्मृति से संयुक्त होकर प्रकट हुए।
आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।
असंगो निःस्पृहः शान्तो भ्रमात्संसारवानिव॥
आत्मा साक्षी, सर्वव्यापी, पूर्ण, एक मुक्त, चेतन, अक्रिय, असंग, इच्छा रहित एवं शांत है। भ्रम वश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है।[अष्टावक्र गीता 1.12]
One who is the visionary, himself visualise, watches, witnesses everything-event, all pervading, complete and free, conscious, aware (alert, vigilant, rational), inert, dissociated, desire less and quite-peaceful. It’s only due to illusion that it all appears worldly.
The soul is not involved in any activity of the possessor. It just visualises the actions of the doer but carries with it the impact of sins and virtues along with it in next incarnations; just like the air which carries smoke, moisture, heat-cold, gases, pollutants with it.
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य-काटा नहीं जा सकता, यह आत्मा अदाह्य-जलाया नहीं जा सकता, अक्लेद्य-गीला नहीं किया जा सकता और निःसंदेह अशोष्य-सुखाया नहीं जा सकता है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी-सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन-अनादि है।[श्रीमद् भगवद्गीता 2.24] 
Undoubtedly, this soul can not be cut, burnt, wet-soaked or dried, being perennial (absolute, perpetual, for ever, since ever), which is pervaded-present in each and every particle including all organism, stable-stationary, immobile and ancient-since ever.
आत्मा (शरीरी, देही, soul) को किसी अस्त्र-शस्त्र, मन्त्र, वाणी, श्राप से काटा-छेदा नहीं किया जा सकता। इसे अग्नि या किसी अन्य रीति से जलाया नहीं जा सकता। इसे चूसा, सोखा, गीला, घोला, मिलाया नहीं जा सकता। इसे किसी भी क्रिया द्वारा प्रभावित नहीं किया जा सकता। इसके ऊपर किसी काल का प्रभाव भी नहीं होता है। यह देही सम्पूर्ण व्यक्ति, वस्तु, शरीर आदि में एकरूप-एकसमान विराजमान है। यह स्वतः कहीं आने-जाने में समर्थ नहीं है। इसमें स्वतः कहीं आने-जाने की क्रिया नहीं होती। यह स्थिर स्वभाव वाला, कम्पन रहित, न हिलने डुलने वाला नहीं है। इसका आदि-अन्त नहीं है, यह सनातन है।
आत्मा वह कारण है, जिससे शरीर में अनुभूति-अनुभव-चेतना होती है।
The soul can not be cut-penetrated by any weapon, ammunition, curse, words or rhymes. It can not be burnt, evaporated, dried by any means. It can not be soaked, sucked, wet, dissolved, mixed. It can not be affected by any process-action. It's free from the impact of time, in any dimension. Its uniformly present-spreaded over in the body. It can not move out of the body or into it, of its own, independently, freely. (As soon as the organism is dead, it acquires yet another body identical to the one it had in the previous body, which is immaterial.) Its free from movement, vibrations being inertial, stationary by nature. It has no origin or end, being free from birth, rebirth, incarnations. Its present, ever since the inception of this universe. Its a component of the Almighty.
This is the soul by virtue which the body-physique feels, becomes conscious-aroused-awake-aware-alert. Without soul the body is a lump of mass.
However, its believed that the Yogis can leave the body, roam as per his wish and re-enter the body. Some Yogis (souls) acquires bodies of the people who were able bodied and died at young age without any disease by drowning etc.
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥
आत्मा अव्यक्त-अप्रत्यक्ष है। यह अचिन्त्य-चिन्तन का विषय नहीं है और यह निर्विकार-विकार रहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर शोक करना उचित नहीं है।[श्रीमद् भगवद्गीता 2.25] 
The soul is invisible (unrevealed, which can not be seen like air, intelligence, desires, thoughts), beyond thoughts (imagination, image, perception & defect less, pure, untainted, unsmeared). Therefore, Hey Arjun! having understood (recognized, identified) the soul in this manner, grief-condolence is undesirable (useless, unjustified, unnecessary).
आत्मा का स्थूल शरीर के समान आँखों से दृष्टिगोचर होना सम्भव नहीं है (इसके लिये दिव्य दृष्टि चाहिये)। मन और बुद्धि तो चिन्तन विचारों में आते हैं, परन्तु यह चिन्तन का विषय भी नहीं है। यह चेतना उत्पन्न करने वाली है। यह देही-विकार रहित कहा गया है, क्योंकि यह परिवर्तन रहित है।
Its not possible to see-observe the soul like a physical entity. One might need divine sight. One may perceive, think, recognize, understand, intelligence and the feelings, sensuality, passions (always subject to change, variable, negotiable). But this is defect less, pure, uncontaminated, since it is free from change.
आत्मा निषेध मुख से 8 गुणों अच्छेद्य, अक्लेद्य, अदाह्य, अशोष्य, अचल, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य से युक्त है।
The Soul has 8 characteristics through negativity or contradiction :: It can not be cut-divided, wet, burnt, sucked, inertial (unmovable, stationary), unrevealed, beyond thought, untainted-unsmeared.
आत्मा विधिमुख से :- नित्य, सनातन, स्थाणु और सर्वगत है। इसके वास्तविक स्वरूप का वर्णन इसलिये भी सम्भव नहीं है, क्योंकि यह वाणी का विषय नहीं है और स्वयं वाणी इससे प्रकट होती है।
The Soul has 4 characteristics through positivity-reasoning :: Perennial, absolute, perpetual, stable, stationary, immobile and ancient-since ever, which is pervaded-present in each and every particle including all organism.
आठ गुणों से युक्त आत्मा को जानने का फल ::
य आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोSपिपास: सत्यकामः सत्यसङ्कल्प: सोSन्वेष्टव्य: स विजिज्ञासितव्यः स सर्वांश्च लोकानाप्नोति स सर्वांश्च कामान्यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति ह प्रजापतिरुवाच।
जो आत्मा पापरहित, जरा (बुढ़ापा) रहित, मृत्युरहित, शोकरहित, भूख से रहित, प्यास से रहित, सत्यकाम और सत्यसङ्कल्प (इन स्वभावगत आठ गुणों से युक्त) है, उसे खोजना चाहिये, उसे जानना चाहिये। जो उसको खोजकर जान लेता है, वह सब लोकों और समस्त कामनाओं को प्राप्त होता है।[प्रजापति छान्दोग्यo 8.7.1]
Untainted (free from sins), ageless (does not grow old), imperishable (does not die), free from sorrow (pains, displeasure), free from hunger, free from thirst, truthful-determined to be true in resolve; are the 8 characterises possessed by the Soul which should be identified (searched, traced) by one within himself. One who identifies it, attain all abodes i.e., Ultimate abode-Salvation (Moksh) and all his desires are fulfilled.
  
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा

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