Wednesday, November 23, 2011

THE ALMIGHTY-GOD भगवान, ईश्वर, परमात्मा, परब्रह्म परमेश्वर

THE ALMIGHTY
भगवान्, ईश्वर, परमात्मा
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
परमात्मा साकार-निराकार दोनों ही स्वरुपों में है। वह ब्रह्म, मन और बुद्धि का विषय नहीं है और प्रकृति से परे है। परमात्मा को स्वयं करण-निरपेक्ष ज्ञान से ही जाना जाता है। सर्वव्यापी होने के कारण, वह सीमित मन, बुद्धि, इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह चिन्मय सर्वत्र परिपूर्ण है। उसका वर्णन संकेत, भाषा, वाणी से सम्भव नहीं है। वह एक रस, निर्विकार और निर्लिप्त है। उसमें किञ्चित मात्र भी परिवर्तन संभव नहीं है। अतः वह कूटस्थ (जिसे घड़ा न जा सके) है। वह ब्रह्म, अटल, अविचल है। उसकी सत्ता निश्चित और नित्य है, अतः ध्रुव है। उसका कभी विनाश नहीं होता, अतः अक्षर है। वह मन, बुद्धि, इन्द्रियों  का विषय न होने से अव्यक्त है। निर्गुण और सगुण दोनों ही परमात्मा के स्वरूप हैं।
THE ALMIGHTY-GOD भगवान, ईश्वर, परमात्मा,  परब्रह्म परमेश्वर
परमात्मा साकार-निराकार दोनों ही स्वरुपों में है। वह ब्रह्म, मन और बुद्धि का विषय नहीं है और प्रकृति से परे है। परमात्मा को स्वयं करण-निरपेक्ष ज्ञान से ही जाना जाता है। सर्वव्यापी होने के कारण, वह सीमित मन, बुद्धि, इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह चिन्मय सर्वत्र परिपूर्ण है। उसका वर्णन संकेत, भाषा, वाणी से सम्भव नहीं है। वह एक रस, निर्विकार और निर्लिप्त है। उसमें किञ्चित मात्र भी परिवर्तन संभव नहीं है। अतः वह कूटस्थ (जिसे घड़ा न जा सके) है। वह ब्रह्म, अटल, अविचल है। उसकी सत्ता निश्चित और नित्य है, अतः ध्रुव है। उसका कभी विनाश नहीं होता, अतः अक्षर है। वह मन, बुद्धि, इन्द्रियों का विषय न होने से अव्यक्त है। निर्गुण और सगुण दोनों ही परमात्मा के स्वरूप हैं।
ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्व शक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।
सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री, सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण वैराग्य; इन छः का नाम भग है। जिन पूर्णतम परमेश्वर में ये छहों परिपूर्ण रूप से नित्य-निरंतर स्थित रहते है, वे भगवान् कहे जाते हैं।
साधारण मनुष्यों की तरह न तो भगवान् का जन्म होता है और न ही मरण। वे अपनी इच्छा शक्ति के द्वारा प्रकट होते हैं और अन्तर्धान हो जाते हैं। प्रकट होना और अंतर्धान होना दोनों ही परमात्मा की अलौकिक लीलाएँ हैं। मनुष्य पहले और पीछे-बाद में भी अव्यक्त है, मगर परमात्मा पहले, वर्तमान और बाद में भी व्यक्त है, वह सदा-सर्वदा रहता है। सूर्य उदय और अस्त होता हुआ दिखता है, मगर वह तो वैसे का वैसा ही रहता है। प्राणी कर्मों के अधीन होकर जन्म लेते हैं, मगर परमात्मा स्वाधीन हैं। प्राणी का सुख और दुःख जन्म और कर्मों के अधीन है। भगवान इन दोनों से मुक्त हैं। भगवान् केवल 15 वर्ष की आयु तक बढ़ने की लीला करते है, परन्तु उसके बाद उम्र कितनी ही क्यों न हो, वे दाढ़ी-मूंछों से रहित यथावत बने रहते हैं। उनकी लीलाएँ वयस-उम्र की मोहताज नहीं हैं। वे सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों से रहित शुद्ध चित्त हैं। इन गुणों से अलग उनकी शुद्ध प्रकृति को पराशक्ति, संघिनी-शक्ति, आल्हादिनी शक्ति, संवित् शक्ति, चिन्मय शक्ति, कृपाशक्ति कहते है तथा राधा जी, माता पार्वती और माता सीता भी इसी शक्ति के नाम हैं। प्रकृति भगवान् की शक्ति है। भगवान् शक्ति के संयोग से समस्त लीलाएँ करते हैं। फिर भी मनुष्य-प्राणी की तरह वे उसके अधीन नहीं हैं।
परमात्मा अजन्मा और अविनाशी हैं। उनका अवतार-अवतरण और लीलाएँ दैविक घटनाक्रम हैं। वे मनुष्य के बीच में रहकर उनके समान व्यवहार (लौकिक आचार, विचार) का प्रदर्शन तभी तक करते हैं, जब तक कि उनके दैविक रूप को प्रदर्शित करने की आवश्यकता न हो। उनके विग्रह पाप-पुण्य से रहित, नित्य, अलौकिक, विकार रहित, परम दिव्य और प्रकट होने वाले होते हैं। प्राणियों के हित में परमात्मा प्रकृति को अपने अधीन रखकर अपने दिव्य रूप में दैविक शक्तियों सहित प्रकट होते हैं। यही वह तत्व है जो कि साधक को दृढ़तापूर्वक सुनिश्चित करना है। उनमें फलेच्छा, कर्तापन, अभिमान का अभाव है। यह सब जानने और समझने वाला इस संसार सागर से देह मुक्त होने के बाद पुनर्जन्म प्राप्त नहीं करता, यदि उसकी कामनाएँ, आसक्ति, राग-द्वेष,  बंधन, टूट गए हैं।
परमात्मा गुरुओं के भी गुरु, ब्रह्मा जी के जनक, समस्त ज्ञान के स्त्रोत्र होने के कारण; समस्त सिद्धगण उनको नमस्कार करते हैं। परमात्मा अनन्त, आदि अंत और मध्य से रहित हैं। कालस्वरूप उनका कोई आदि अंत नहीं है। उनके रूपों का कोई अंत नहीं है अर्थात वे सीमा रहित, अगाध, अपार हैं। वे ही सब के नियन्ता, शासक, स्वामी हैं। अनन्त सृष्टियाँ उनमें निवास करती हैं। वे अक्षरस्वरूप, सत् और असत् भी हैं तथा समस्त कल्पनाओं से परे-अतीत उनके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है।
 प्रभु की उपासना साकार-निराकार दोनों ही स्वरुपों में उपासकों के द्वारा की जाती है। इन्द्रिय संयम निर्गुण-तत्व की उपासना में ज़रूरी-सहयोगी है। निर्गुण उपासना और कर्मयोग में चिंतन का कोई आधार, सम्बल,सहारा नहीं होता, जिससे मन विषयों की ओर झुक-मुड़ सकता है। इन्द्रियों को वश में करके, अन्तर्मन-अन्तःकरण से राग को खत्म करना जरूरी है। सगुण उपासना में इन्द्रियाँ भगवान् में लग जाती हैं। क्योंकि सगुण स्वरूप में इन्द्रियों को विषय प्राप्त हो जाते हैं। ब्रह्म, मन और बुद्धि का विषय नहीं है और प्रकृति से परे है। परमात्मा को स्वयं करण-निरपेक्ष ज्ञान से ही जाना जाता है। सर्वव्यापी होने के कारण, वह सीमित मन-बुद्धि-इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह चिन्मय सर्वत्र परिपूर्ण है। उसका वर्णन संकेत, भाषा, वाणी से सम्भव नहीं है। वह एक रस, निर्विकार और निर्लिप्त है। उसमें किञ्चित मात्र भी परिवर्तन संभव नहीं है। अतः वह कूटस्थ (जिसे घड़ा न जा सके) है। वह ब्रह्म, अटल, अविचल है। उसकी सत्ता निश्चित और नित्य है, अतः ध्रुव है। उसका कभी विनाश नहीं होता, अतः अक्षर है। वह मन, बुद्धि, इन्द्रियों  का विषय न होने से अव्यक्त है। शरीर सहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मों में वासना तथा अहंकार का अभाव तथा भावरूप सच्चिदानन्द घन परमात्मा में अभिन्न भाव से नित्य-निरन्तर दृढ़ स्थित रहना ही उपासना करना है। मनष्य जब शरीर, धन, सम्पत्ति आदि पदार्थों को अपना न मानकर दूसरों की सेवा में लगा देता है, तो उसकी आसक्ति, ममता, कामना, स्वार्थभाव का स्वतः त्याग हो जाता है। क्योंकि निर्गुण-निराकार परमात्मा सम है, अतः उसके उपासकों की बुद्धि सम्पूर्ण प्राणी-पदार्थों में भी विषम नहीं होती। निर्गुण और सगुण दोंनो ही परमात्मा के स्वरूप हैं। सगुण उपासना सरल और निर्गुण उपासना थोड़ी कठिन है।
The Almighty is both with form and without form. The Brahm is not the subject of mind or intelligence. HE is away from nature. The God can be understood, recognised, identified through absolute enlightenment, independent from the sense organs. HE is pervaded-eternal all over the universe, therefore HE can not be grasped, understood, identified through mind and intelligence. HE constitutes of pure intelligence, Supreme consciousness and is pervaded or permeated by consciousness. Its not possible to describe HIM through words, language, symbols etc. HE is unilateral, stable, unattached, untainted. HE never undergoes a change. HE can not be cast or given a specific shape. HE is Brahm, absolute and unchangeable. HIS authority is absolute. HE never perishes-disintegrate. HE is Dhruv-fixed, helps in gaining direction. HE never degenerate-degrade. HE is not the subject of ideas, thoughts and therefore, remain unrevealed. The Almighty is even, same, equal for all. Form less and with form; both are the features of the God. 
स्वयम्भू SWAYAMBHU (अव्यक्त, भगवान्, परमात्मा, परब्रह्म परमेश्वर) :: HE who manifests HIMSELF of HIS own free will and is created by OWN accord. One who is self-born. One who exists by Himself, uncaused-unaided by any other. HE is not dependent on anyone for anything. HE creates independently. HE is completely independent. HE has got exclusive prerogative of taking birth-revealing, anywhere on HIS own accord. HE exists of HIS own. HE existed before the emergence of everything. He exists after destruction of everything. HE is the lord of all others.
ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्व शक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।
सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री, सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण वैराग्य; इन छः का नाम भग है। जिन पूर्णतम परमेश्वर में ये छहों परिपूर्ण रूप से नित्य-निरंतर स्थित रहते है, वे भगवान् कहे जाते हैं। 
The Almighty who possesses the entire grandeur, the Dharm-endeavour, glory, wealth, knowledge-enlightenment and relinquishment-detachment com
ऐश्वर्य :: (1). ईश्वरता-ईश्वरीय गुण, (2). आधिपत्य, (3). ईश्वरीय संपदा, ईश्वरीय विभूति, वैभव, धन संपत्ति, अणिमा, महिमा आदि आठों सिद्धियों से प्राप्त अलौकिक शक्ति; grandeur, opulence, glory.
CHATUH SHLOKI BHAGWAT चतुः श्लोकी भागवत :: 
श्रीभगवानुवाच ::
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्। 
पश्चादहं यदेतच्च  योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्॥1॥
श्री भगवान् कहते हैं :- 
सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत् या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था। सृष्टि न रहने पर (प्रलय काल में) भी मैं ही रहता हूँ। यह सब सृष्टि रूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मै ही हूँ। 
The Almighty Shri Krashn said, "I only existed in the beginning(before any creation). There was neither manifest nor unmanifest or anything beyond both  which is other than me. I am all which is visible. Whatever remains after annihilation is also me".
ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि। 
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः॥2॥ 
जो मुझ मूल तत्त्व के अतिरिक्त (सत्य सा) प्रतीत होता (दिखाई देता) है परन्तु आत्मा में प्रतीत नहीं होता (दिखाई नहीं देता), उस अज्ञान को आत्मा की माया समझो जो प्रतिबिम्ब या अंधकार की भांति मिथ्या है।  
Whatever appears to be substantial besides me, has no reality in itself. Know this ignorance as my illusory power Maya. It is unreal like a reflection or darkness.
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु। 
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥3॥ 
जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी सबमें व्याप्त होने पर भी सबसे पृथक् हूँ।
As five universal elements(earth, water, fire, air and space) pervade everything in the universe and at the same time they exist without them; similarly, I also pervade everything I create and at the same time I exist without them.
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥4॥
आत्म-तत्त्व को जानने की इच्छा रखने वाले के लिए इतना ही जानने योग्य है कि अन्वय (सृष्टि) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा (स्थान और समय से परे) रहता है, वही आत्म तत्त्व है। 
A person willing to know the supreme truth, should only know that whatever exist eternally (beyond time) and everywhere(beyond space), during the process of creation and annihilation is the ultimate truth.
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥
अजन्मा, अविनाशी और सभी प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी मैं, अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योग माया से प्रकट होता हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.6]
Though, unborn, imperishable and the Master-God of all beings, yet I appear (take birth) by controlling My Nature through the power of (inexpressible) Maya-illusion.
साधारण मनुष्यों की तरह न तो भगवान् का जन्म होता है और न ही मरण। वे अपनी इच्छा शक्ति के द्वारा प्रकट होते हैं और अन्तर्धान हो जाते हैं। प्रकट होना और अंतर्धान होना दोनों ही परमात्मा की अलौकिक लीलाएँ हैं। मनुष्य पहले और पीछे-बाद में भी अव्यक्त है, मगर परमात्मा पहले, वर्तमान और बाद में भी व्यक्त है, वह सदा-सर्वदा रहता है। सूर्य उदय और अस्त होता हुआ दिखता है, मगर वह तो वैसे का वैसा ही रहता है। प्राणी कर्मों के अधीन होकर जन्म लेते हैं, मगर परमात्मा स्वाधीन हैं। प्राणी का सुख और दुःख जन्म और कर्मों के अधीन है। भगवान इन दोनों से मुक्त हैं। भगवान् केवल 15 वर्ष की आयु तक बढ़ने की लीला करते है, परन्तु उसके बाद उम्र कितनी ही क्यों न हो, वे दाढ़ी-मूंछों से रहित यथावत बने रहते हैं। उनकी लीलाएँ वयस-उम्र की मोहताज नहीं हैं। वे सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों से रहित शुद्ध चित्त हैं। इन गुणों से अलग उनकी शुद्ध प्रकृति को पराशक्ति, संघिनी-शक्ति, आल्हादिनी शक्ति, संवित् शक्ति, चिन्मय शक्ति, कृपाशक्ति कहते है तथा राधा जी, माता पार्वती और माता सीता भी इसी शक्ति के नाम हैं। प्रकृति भगवान् की शक्ति है। भगवान् शक्ति के संयोग से समस्त लीलाएँ करते हैं। फिर भी मनुष्य-प्राणी की तरह वे उसके अधीन नहीं हैं। 
The Almighty does not appear-take birth or die-parish like the creatures (organisms, humans). He evolve by virtue of his won will. To evolve and to disappear are his divine features (traits, characters, qualities). The human beings appear only in between-they were not present earlier and will not be present thereafter. The Sun rise and Sun set takes place every day, but Sun remains as such. The human beings take birth due to destiny, as a result of their deeds in earlier births but the Almighty is free from destiny, birth, death. HIS physiques grows-develops till the age of 15 years only and thereafter it remains the same. HIS activities are independent of age. Beard and moustaches do not grow over HIS face. HE is free from the three basis features of humans, Trigun Shakti :- Satv, Raj and Tam. Other than these HIS power (Maya, pure nature) is recognised as Para Shakti, Sanghini Shakti, Alhadini Shakti, Sanvit Shakti, Chinmay Shakti, Krapa Shakti. Radha Ji, Mata Lakshmi, Mata Parwati and Mata Sita are the other names imparted to it. The Almighty plays, rejoice, enjoys with the nature. HE is not dominated (controlled, suppressed, governed) by the nature like the human beings.
The Almighty acts of his own. Nature is his component dancing to HIS tunes. HE is independent but nature is dependent upon HIM. HE remembers each & every thing but the organism is bound to forget each and every thing sooner or later (except a few virtuous, pious, righteous).
 
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। इस प्रकार जो मनुष्य मेरे जन्म और कर्म को तत्त्व-दृढ़ता से जान लेता है, वह शरीर त्याग कर फिर जन्म नहीं लेता, अपितु मुझे ही प्राप्त होता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 4.9]
The Almighty told Arjun that HIS birth and deeds were divine. One who recognise-learns this fact, with firmness (certainty) is devoid of rebirth, since he merges in HIM.
The Almighty never takes birth. HE just appear or disappear from invisible, formless to visible-with form.
परमात्मा अजन्मा और अविनाशी हैं। उनका अवतार-अवतरण और लीलाएँ दैविक घटनाक्रम हैं। वे मनुष्य के बीच में रहकर उनके समान व्यवहार (लौकिक आचार, विचार) का प्रदर्शन तभी तक करते हैं, जब तक कि उनके दैविक रूप को प्रदर्शित करने की आवश्यकता न हो। उनके विग्रह पाप-पुण्य से रहित, नित्य, अलौकिक, विकार रहित, परम दिव्य और प्रकट होने वाले होते हैं। प्राणियों के हित में परमात्मा प्रकृति को अपने अधीन रखकर अपने दिव्य रूप में दैविक शक्तियों सहित प्रकट होते हैं। यही वह तत्व है जो कि साधक को दृढ़तापूर्वक सुनिश्चित करना है। उनमें फलेच्छा, कर्तापन, अभिमान का अभाव है। यह सब जानने और समझने वाला इस संसार सागर से देह मुक्त होने के बाद पुनर्जन्म प्राप्त नहीं करता, यदि उसकी कामनाएँ, आसक्ति, राग-द्वेष,  बंधन, टूट गए हैं।
Almighty is unborn, all pervading and imperishable. HIS incarnations and performances are divine. HE intermixes (interact, perform, functions) like ordinary people. HE reveals only when its essential. HIS incarnations are free from sins or impact-result of virtues. HE lands over the earth with the motive of removing sins, by controlling the nature. HE is free from the desire of result (outcome, reward, impact), ego-pride. One who has understood this gist and converts him self into a desire less, unattached, enmity free, unbonded, equanimous entity become free from the clutches-cycle of birth and death.
Any one who is able to understand, grasp the gist (Basics, root, central idea, nectar, elixir) of the Almighty would try to attain HIM, since there is nothing as fascinating as HE is. HE is Ultimate-Bliss.
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु॥
हे कुन्तीनन्दन अर्जुन! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।[श्रीमद् भगवद्गीता 7.89]  
Hey Arjun, the mighty son of Kunti! I am the flavour (relish, extract) of water, I am light (aura, radiance, brilliance) in the Moon and the Sun. I am the syllable Om (primordial sound) in all the Veds, sound in the sky-ether, manhood (might, tendency) to do-perform in humans.
भगवान् नारायण जल में ही प्रकट हुए। अगर जल में प्यास बुझाने की ताकत न हो तो वह व्यर्थ है। भौतिक शरीर का दो तिहाई जल ही है। जल में तुष्टि उसका रस है। बगैर प्रकाश के सब कुछ अज्ञात है। पृथ्वी पर सूर्य और चन्द्र प्रकाश प्रदान करते हैं। सारा चराचर उन पर ही निर्भर है। बगैर आकाश के (और उसमें माध्यम-हवा) शब्द-ध्वनि उत्पन्न नहीं हो सकती। पुरुष में पौरुष-पुरुषत्व, कुछ करने की ताकत-भावना न हो तो वो भी व्यर्थ है। तात्पर्य यह कि भौतिक इकाइयों का मूल तत्व जो प्राणी को प्राणवान बनाता है, वो परमात्म तत्व ही है। ओंकार-प्रणव वह ध्वनि है जो ब्रह्माण्ड में जीवन की उत्पत्ति के वक्त उत्पन्न हुई और यही ध्वनि वेदों का गूढ़ रहस्य और मूलाधार है। 
The Almighty-Narayan appeared in water & was called Naar & Narayan is derived from it. The water is essential component of all life forms. The extract of water, the nectar, elixir is the Almighty, which appeared from the ocean which was churned by demons and the demigods. Two third of the body of the living beings constitutes of water. Unless-until one drink water, he remain dissatisfied. Light too is essential for various life forms. Light is obtained from the Sun and the Moon to support life. These two, too are other forms of the Almighty, as is described in the scriptures & epics. Nothing can be observed in the absence of light. The space between heavenly bodies is covered by space-ether. Air is essential for producing sound and vocal communication. Omkar (Om, Pranav) is the initial sound which was generated-evolved with the creation of the universe & life. It constitutes the central idea-gist of the Veds. These along with the strength (manhood, desire to do-perform) are due to the presence of the component of the Almighty in the humans. Basically, in short each and every particle, life forms are replica of the God.
सत् और असत् ::
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च। 
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥ 
हे अर्जुन! संसार के हित के लिए मैं ही सूर्य रूप से तपता हूँ, मैं ही जल को ग्रहण करता हूँ औ फिर उस जल को बरसा देता हूँ।और तो क्या कहूँ अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।[श्रीमद् भगवद्गीता 9.19] 
शरीर सूर्य से ही निरोग होता है। पृथ्वी पर गंदगी-मल को सुखकर विषाणुओं-जीवाणुओं को नष्ट करने का कार्य भगवान् सूर्य करते हैं और इस प्रक्रिया में जो जल वाष्प बनकर उड़ता है उसी को वर्षा के रूपमे लौटा देते हैं। इस जल का कुछ भाग वे स्वयं ऊर्जा दायक विकिरण-पदार्थ के रूप में ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार पृथ्वी पर मौजूद जहर को काफी मात्रा में वे कम कर देते हैं। इस प्रक्रिया में जल का शोधन और स्वभाविक मिठास लौट आती है। प्राणियों को लंबे समय तक जीवित रखने का कार्य अमृत करता है। भगवान् स्वयं ही अमृत का रूप ग्रहण करते हैं तथा समय पूरा होने पर धर्मराज-यमराज के रूप में मृत्यु भी बन जाते हैं। 
सत् और असत् :: Contamination-impurity, adulterated; Not existent, Unfounded, Illusory, Untruth, falsehood, Unreal, Untrue.
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥
अजन्मा, अविनाशी और सभी प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी मैं, अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योग माया से प्रकट होता हूँ।[श्रीमद् भगवद्गीता 4.6]
Though, unborn, imperishable and the Master-God of all beings, yet I appear (take birth) by controlling My Nature through the power of (inexpressible) Maya-illusion.
साधारण मनुष्यों की तरह न तो भगवान् का जन्म होता है और न ही मरण। वे अपनी इच्छा शक्ति के द्वारा प्रकट होते हैं और अन्तर्धान हो जाते हैं। प्रकट होना और अंतर्धान होना दोनों ही परमात्मा की अलौकिक लीलाएँ हैं। मनुष्य पहले और पीछे-बाद में भी अव्यक्त है, मगर परमात्मा पहले, वर्तमान और बाद में भी व्यक्त है, वह सदा-सर्वदा रहता है। सूर्य उदय और अस्त होता हुआ दिखता है, मगर वह तो वैसे का वैसा ही रहता है। प्राणी कर्मों के अधीन होकर जन्म लेते हैं, मगर परमात्मा स्वाधीन हैं। प्राणी का सुख और दुःख जन्म और कर्मों के अधीन है। भगवान इन दोनों से मुक्त हैं। भगवान् केवल 15 वर्ष की आयु तक बढ़ने की लीला करते है, परन्तु उसके बाद उम्र कितनी ही क्यों न हो, वे दाढ़ी-मूंछों से रहित यथावत बने रहते हैं। उनकी लीलाएँ वयस-उम्र की मोहताज नहीं हैं। वे सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों से रहित शुद्ध चित्त हैं। इन गुणों से अलग उनकी शुद्ध प्रकृति को पराशक्ति, संघिनी-शक्ति, आल्हादिनी शक्ति, संवित् शक्ति, चिन्मय शक्ति, कृपाशक्ति कहते है तथा राधा जी, माता पार्वती और माता सीता भी इसी शक्ति के नाम हैं। प्रकृति भगवान् की शक्ति है। भगवान् शक्ति के संयोग से समस्त लीलाएँ करते हैं। फिर भी मनुष्य-प्राणी की तरह वे उसके अधीन नहीं हैं। 
The Almighty does not appear-take birth or die-parish like the creatures (organisms, humans). He evolve by virtue of his won will. To evolve and to disappear are his divine features (traits, characters, qualities). The human beings appear only in between-they were not present earlier and will not be present thereafter. The Sun rise and Sun set takes place every day, but Sun remains as such. The human beings take birth due to destiny, as a result of their deeds in earlier births but the Almighty is free from destiny, birth, death. HIS physiques grows-develops till the age of 15 years only and thereafter it remains the same. HIS activities are independent of age. Beard and moustaches do not grow over HIS face. HE is free from the three basis features of humans, Trigun Shakti :- Satv, Raj and Tam. Other than than these his power (Maya, pure nature) is recognised as Para Shakti, Sanghini Shakti, Alhadini Shakti, Sanvit Shakti, Chinmay Shakti, Krapa Shakti. Radha Ji, Mata Parwati and Mata Sita are the other names imparted to it. The Almighty plays, rejoice, enjoys with the nature. He is not dominated (controlled, suppressed, governed) by the nature like the human beings.
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥
मैं पृथ्वी में पवित्र गन्ध हूँ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध 5 तन्मात्राऍ हैं) और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप मैं हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 7.9] 
I am the agreeable odour (pleasant-decent smell, scent) in the earth and the brilliance-capability to burn in the fire, the vitality in all beings and I am the austerity in the ascetics. 
5 तन्मात्राएँ जिनसे पृथ्वी उत्त्पन्न हुई है उनमें से एक गंध-खुशबू है। अतः गंध के बिना पृथ्वी कुछ भी नहीं है। पवित्र तन्मात्रा परमात्मा को प्रदर्शित करती है। अपवित्र गंध-दुर्गन्ध विकृति से उत्पन्न होती है। अग्नि में तेज है जो उसमें व्याप्त है, वही परमात्मा का रूप है। बगैर तेज के अग्नि अर्थहीन है। प्रत्येक प्राणी में जीवन दायिनी शक्ति प्राण स्वयं परमेश्वर ही हैं। बगैर प्राण के जीव निर्जीव है। द्वन्द सहिष्णुता को तप कहा जाता है। परमात्म की प्राप्ति के लिए कितनी ही बाधाएँ-कष्ट आयें, उन्हें सहना निर्विकार रहना ही तप है। तप होने से ही साधक तपस्वी है। इसी तप को भगवान् अपना रूप  कह रहे हैं। अगर साधक में तप न हो तो वह तपस्वी नहीं है। सृष्टि की रचना में भगवान् ही कर्ता, कारण और कार्य हैं। परा और अपरा भी वही हैं। गंध, तन्मात्रा, कारण और पृथ्वी उसका कार्य है। गंध-तन्मात्रा पवित्र की तरह शब्द, स्पर्श, रूप और रस-तन्मात्रा भी पवित्र हैं।
5 basic ingredients from which the earth has evolved are smell, touch, figure, extract-fluid and sound. In the absence of any one of these the earth looses its relevance-significance. The property of having pious scent-smell is the God HIMSELF. Foul smell represents impurity-contamination. Fire has the brightness, aura, capacity to burn, which is the Almighty HIMSELF. Tej represents energy and capacity to reproduce as well. In the absence of ability to burn, fire is meaningless. The capability to survive, live, vitality is Pran which is the Almighty HIMSELF. The ascetic bears all troubles, tortures, difficulties over the strength of Tap-austerity which is the Almighty HIMSELF. In the absence of Tap-austerities, the ascetic is an ordinary man. In this universe the Almighty is the doer, reason and the function himself. He is both Para (pure) and Apara (mixed, contaminated, impure) Shakti.
तन्मात्रा :: शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्धो को पंच तन्मात्राएँ कहते हैं; 5 basic ingredients from which the earth has evolved are smell, touch, figure, extract-fluid and sound.
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥
हे अर्जुन! तुम सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मुझ को ही जानो। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 7.10] 
O Parth! You should know (recognise, identify) ME as the eternal seed of all that which has happened in the past. I AM the intelligence of the intelligent and the brightest amongest the bright-having aura.
समस्त प्राणियों का सनातन बीज कोष मैं ही हूँ। सारी सृष्टि मुझ से ही उत्पन्न  होती और मुझ में ही समा जाती है। मेरे बगैर प्राणी की स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं। बीज और जीवात्मा दोनों ही शब्द परमात्मा द्योतक हैं। कार्य और कारण स्वयं परमेश्वर ही हैं। प्राणियों में जो सर्वश्रेष्ठ है, वही परमात्मा का द्योतक है। अगर कोई बुद्धिमान है तो उसमें बुद्धि परमात्मा की प्रतीक और बुद्धिमानों में सर्व श्रेष्ठ परब्रह्म परमेश्वर स्वयं हैं। तेज दैवी सम्पत्ति-सम्पदा का गुण है। तेज अनेकों अर्थों में आता है, परन्तु यहाँ यह अलौकिक आभा, प्रकाश, चमक के लिए आया है। तेजस्वी पुरुषों में अलौकिक तेज़ उनके मुख मण्डल पर दिखाई देने लगता है। 
The Almighty is the eternal bank of each and every characteristics of those who were born and perished. A souls emerge from HIM and assimilate in HIM. No one is independent-capable of doing any thing without HIM. Seed and soul, both represent the source-the God. HE is responsible for every act. One who is beyond limits (is superb & excellent) amongest the physical and divine creations is the Almighty HIMSELF. Intelligence is a reflection of the presence of the God in the organism. One who has the Ultimate intelligence, prudence & memory is the God HIMSELF, none else, other than HIM. Aura is divine and one who has the Ultimate capabilities-tendencies has brightness over his face. 
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्। 
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा। 
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे॥
परम ब्रह्म, परम धाम और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्र्वत, दिव्य पुरुष, आदि देव, अजन्मा और सर्व व्यापक हैं, ऐसा आपको सब के सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे से यही कह रहे हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 10.12-13] 
Arjun said :-
You are the Supreme Being, Ultimate, Par Brahm Parmeshwar, the Supreme-Ultimate Abode. You are eternal, Supreme Purifier-purest, divine, the primal God, the unborn and the omnipresent. All saints and sages  like Devrishi Narad, Asit, Dewal (Rishi) & Bhagwan Ved Vyas assert this and YOU too is confirming-testifying this, now. 
अर्जुन ने अपने सामने प्रत्यक्ष रूप से विराजमान भगवान् की स्तुति करते हुए कहा कि आप स्वयं परब्रह्म परमेश्वर हैं। सारा संसार आप में ही व्याप्त है और आप इसके परम धाम हैं। आप ही पवित्रतम (जो स्वयं शुद्धतम और अन्य को भी शुद्ध करनेवाला है) शुद्ध हैं। ग्रन्थों-वेद, पुराण, इतिहास आदि में देवऋषि नारद, असित और उनके पुत्र देवल ने, व्यास जी ने आपको शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु कहा है। आत्मा के रूप में शाश्वत, सगुण-निराकार के रूप में दिव्य पुरुष, देवताओं और महृषियों आदि के रूप में आदि देव आप ही हैं। मूढ़ लोग आपको अज के रूप में नहीं जानते तथा असम्मूढ लोग आपको अज और अव्यक्त विभु, (जिसका संबंध वर्तमान से है, सर्व व्यापक, जो सब जगह जा या पहुँच सकता है, अपने स्थान से न हटनेवाला), के रूप में जानते हैं। 
Arjun accepted all that said by Bhagwan Shri Krashn. He confirmed that Bhagwan Shri Krashn is the Supreme Lord-the Almighty. Whole universe is pervaded in HIM & HE is the Ultimate abode. He is purest and cleanse, the all. The great saints with divine origin like Devrishi Narad, Asit & his son Dewal, including Mahrishi Ved Vyas too, confirmed that. The scriptures, Veds, Purans, history etc. supported this. Arjun said that he too supported this. The God is forever-existing everywhere, creator of all, unborn, leader, eternal, self existent-deity Brahm,  mighty, powerful, eminent, supreme, able to, capable of, self-subdued, firm or self-controlled,  all-pervading, pervading all material things.
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव। 
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥
हे केशव! मुझ से आप जो कुछ कह रहे हैं, यह सब मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्! आपके प्रकट होने को न तो देवता और न ही दानव ही जानते हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता10.14] 
Hey Keshav! I believe all that what ever YOU have told me is true. Hey Almighty! Neither the demigods, deities, celestial controllers nor the demons understand YOUR appearance-incarnation-real nature. 
"केशव" क + अ + ईश से मिलकर बना है। "क" भगवान् ब्रह्मा, "अ" भगवान् विष्णु और "ईश" भगवान् शिव का द्योतक है। जब अर्जुन भगवान् श्री कृष्ण को केशव कहते हैं तो उनका तात्पर्य यह है कि आप ही संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाले हैं। अर्जुन ने स्पष्ट किया कि भगवान् ने अपने प्रभाव व विभूतियों के विषय में जो कुछ कहा वो उसे मानते हैं। उन्होंने कहा कि आप ही सर्वोपरि हैं और जो कुछ हो रहा है, उसके मूल में भी आप ही हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। यह विश्वास-आस्था-भक्ति मोक्ष मार्ग है। देवता गण दैवी शक्तियों और दानव, मायावी शक्तियों से परिपूर्ण होने के बावज़ूद प्रभु की लीला, प्रभाव, शक्तियों को नहीं जान सकते, तो फिर मनुष्य तो किसी श्रेणी में नहीं आता। देवता और दानवों की शक्तियाँ भी सीमित और नष्टप्राय हैं। हाँ, अगर प्रभु की कृपा हो तो उन्हें किसी हद तक जाना जा सकता है। बुद्धि, चमत्कार, सिद्धियाँ या अविष्कार भी प्रभु तक नहीं पहुँच सकते।
Keshav is combination of "क k" which represents Bhagwan Brahma-the creator, "अ a" for Bhagwan Vishnu the nurturer and "ईश ISH" comes for the destroyer Bhagwan Shiv. Arjun said that he believed that whatever had been described-discussed by the Almighty was true. HE was at the root-evolution of the universe. The faith-devotion-worship in the God, leads one to Salvation. The demigods-deities & the giants-demons, were equally incapable of knowing-understanding the God, in spite of the powers granted to them. However, one may know a little bit of it, momentarily, if the God desires so. The intelligence, miracles,  powers and the innovations-researches can not lead one to HIM.
Its only Bhagwan Shiv, who knows a bit of the Almighty; being the source of all knowledge on earth and capable of visiting 14 universes including the one in which our earth is located. None, other than him has this power.
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम। 
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥
हे भूतभावन! हे भूतेश! हे देवदेव! हे जगत्पते! हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने-आपसे अपने-आपको जानते हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता10.15]
Hey Bhut (past) Bhawan, you are the  Creator of all beings just by means of YOUR thought-desire. Being the Lord of all beings and demigods-celestial rulers, you are Bhutesh, Dev-Dev. Being the Nurturer of inertial-static living beings, who do not move and micro, macro organisms, YOU are the Supreme person, Lord, leader of the universe and is described as the Ultimate-best in all the abodes and the Veds. YOU alone know YOURSELF  by YOURSELF. 
सम्पूर्ण प्राणियों को संकल्प मात्र से उत्तपन्न करने वाले आप भूत भावन हैं। समस्त प्राणियों और देवताओं के मालिक होने के कारण, आप भूतेश और देव-देव हैं। जड़-चेतन, स्थावर-जङ्गम मात्र जगत् का पालन-पोषण करने वाले होने से, आप जगत पति हैं और समस्त पुरुषों में उत्तम होने से आप लोक और वेद में पुरुषोत्तम कहे गए हैं। अर्जुन ने भाव-विभोर होकर भगवान् को ये 5 सम्बोधन किये, जो उनके स्वरूप को प्रकट करते हैं। परमात्मा को सिवाय स्वयं उनके अन्य कोई नहीं जान सकता। उनका यह ज्ञान करण (वह माध्यम या साधन जिससे कोई वस्तु उत्पन्न या निर्मित की जाय अथवा कोई काम पूरा किया जाय) निरपेक्ष है, करण सापेक्ष नहीं। जिस प्रकार भगवान् स्वयं जो जानते हैं, उसी प्रकार मनुष्य को भी स्वयं को स्वतः पहचानना चाहिए। अपने आपको अपने स्वरूप का ज्ञान सर्वथा करण-निरपेक्ष होता है। इसलिए इन्द्रियों, मन, बुद्धि, आदि से स्वरूप को नहीं जाना जा सकता। भगवान् का स्वरूप होने से मनुष्य भी करण निरपेक्ष है। 
The Almighty created the universe and the living beings, just by his determination. HE HIMSELF is a deity and the leader of all demigods-deities. HE nourishes all the species of the living beings whether micro-macro, movable or static. HE is the theme, master, Lord of all universes-abodes. HE is described as the Ultimate being in the Veds-the time less scriptures. HE is absolute and neutral to all efforts, mediums, objects utilized to perform, do some work, deed or even desire. The manner-way in which the God identifies HIMSELF; one should also identify himself. One can not identify himself by means of sense organs, mind or the intelligence. Self realisation comes through meditation, analysis and devotion to the God. However the enlightened or the Almighty may himself help one in his endeavour. 
अज :: अव्यक्त विभु-परमात्मा, जिसका संबंध वर्तमान से है, जो सर्व व्यापक है, जो सब जगह जा या पहुँच सकता है, अपने स्थान से न हटनेवाला है; the Almighty-God who is forever-existing everywhere, creator of all, unborn, leader, eternal, self existent-deity Brahm,  mighty, powerful, eminent, supreme, able to, capable of, self-subdued, firm or self-controlled,  all-pervading, pervading all material things.
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे। 
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्॥
हे महात्मन्! गुरुओं के भी गुरु और ब्रह्मा जी के आदिकर्ता आपके लिये वे सिद्धगण नमस्कार क्यों न करें? हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! आप अक्षरस्वरूप हैं; आप सत् भी हैं, असत्  भी हैं और उनसे भी पर जो कुछ हैं, आप ही हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 11.37] 
Arjun called Almighty the Ultimate Ascetic! He said that HE was the teacher of the teachers and the source of the creator Brahma Ji. Why should not the great ascetics bow in front of YOU!? YOU are eternal-infinite! YOU are the lord of lords, demigods, deities! YOU are formless-imperishable Om, ॐ-the cosmic-primordial sound! YOU are the abode-seat of the entire universe! YOU are both Eternal & Temporal! What ever is over them it's only YOU!
परमात्मा गुरुओं के भी गुरु, ब्रह्मा जी के जनक, समस्त ज्ञान के स्त्रोत्र होने के कारण; समस्त सिद्धगण उनको नमस्कार करते हैं। परमात्मा अनन्त, आदि अंत और मध्य से रहित हैं। कालस्वरूप उनका कोई आदि अंत नहीं है। उनके रूपों का कोई अंत नहीं है अर्थात वे सीमा रहित, अगाध, अपार हैं। वे ही सब के नियन्ता, शासक, स्वामी हैं। अनन्त सृष्टियाँ उनमें निवास करती हैं। वे अक्षरस्वरूप, सत् और असत् भी हैं तथा समस्त कल्पनाओं से परे-अतीत उनके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। 
The Almighty is the source of all knowledge. HE is the Ultimate teacher & guide. HE is the creator of the creator Brahma Ji. All devotees-ascetics pray-worship-bow before HIM. HE is endless, perpetuating, for ever. Nothing is there beyond HIM. HE is a continuous form-flow of time and reincarnations. HE is limitless. HIS forms-shapes-variations are endless, beyond the understanding of both mortals and immortals, humans and the demigods-deities. HE controls all the universes, living and non living. HE is the basic sound om-ॐ which was heard at the time of evolution. He is the origin of virtue and the evils. HE is beyond imaginations. There is nothing above HIM. HE is Ultimate-Eternal.
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। 
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
आप ही आदिदेव और पुराण पुरुष हैं तथा आप ही इस संसार के परम आश्रय-हितैषी हैं। आप ही सबको जानने वाले, जानने योग्य और परम धाम हैं। हे अनन्त रुप! आपसे ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है।[श्रीमद् भगवद्गीता 11.38] 
YOU are the primal God, the first to appear as described in the scriptures. YOU are the Ultimate resort-well wisher of the universe. YOU are the one who knows all, to be known and the Supreme-Ultimate Abode. Hey, the infinite form! The whole world is pervaded by YOU. 
परमात्मा पुराणों में वर्णित आदि पुरुष हैं, जिनका अभ्युदय सबसे प्रथम होता है। केवल परमात्मा ही आदि से अन्त तक विराजमान रहते हैं। संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय या अन्य जो कुछ भी जो होता है, देखने, सुनने, समझने में आता है, उस सभी के आधार आप ही हैं। आप सर्वज्ञ हैं अर्थात भूत, भविष्य और वर्तमान; देश, काल, वस्तु, व्यक्ति और घटनाक्रम को जानने वाले हैं। वे केवल आप ही हैं, जो कि वेद, पुराण, शास्त्र, संत-महात्माओं के जानने योग्य हैं। आप ही परम मुक्तिपद, परमपद हैं, जिसकी प्राप्ति के बाद प्राप्त करने को कुछ भी शेष नहीं रहता। विराट रूप से प्रकट अनन्त रूप आप ही हैं। आपसे ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। अर्जुन ने भगवान् की कही गईं और विराटरूप में देखी गईं बातों को ही स्तुति के रूप में दोहरा दिया है। 
Arjun started praying to the God and said what he had heard and seen in the Ultimate form of the Almighty. The God appeared first of all and will remain till devastation and thereafter, as well. The creation, stability and devastation or else whatever is heard, known or is happening is by virtue of the God only. HE is the source and support of all that. HE is aware of the past, present & future; the universe, organisms, events or the humans. HE is the only one who deserve to be known through the scriptures, Veds, Purans, by the saints, great souls etc. HE is the Ultimate abode-support and the well wisher. After attaining HIM nothing is left to be achieved. The whole world is pervaded by HIM.
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च। 
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥ 
आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, दक्ष आदि प्रजापति और प्रपितामह-ब्रह्मा जी के भी पिता हैं। आपको हजारों नमस्कार हों। नमस्कार हों और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हों। नमस्कार हों।[श्रीमद् भगवद्गीता 11.39] 
Arjun recognized the Almighty as the deity of death-Dharm Raj or Yam Raj, the deity-demigod Agni Dev controlling fire, the deity-demigod Varun Dev controlling water, The deity-demigod Pawan Dev-Vayu Dev, controlling wind, air, the demigod nourishing medicinal herbs-plants and shining in the sky at night as Moon, Daksh Prajapati and the great grand father of the creator Brahma Ji. He bowed-prostrated before HIM repeatedly offering obeisance thousands times, again and again repeatedly.
अर्जुन ने परमात्मा को प्रकृति के संचालकों के रुप :- वायु देव के रुप में पहचाना, जिनसे समस्त प्राणी स्वाँस-प्राण वायु लेकर जीवन पाते हैं। प्रभु को यम राज और धर्म राज मृत्यु के शासक-नियामक के रुप में पाया। भगवान् का अग्नि रुप प्रकाश और अन्न-भोजन को पचाने वाले के रुप में भी देखा। जीवन के लिए परमावश्यक जल के देवता-अधिपति वरुण देव स्वयं ईश्वर ही हैं। समस्त औषधियों-वनस्पतियों के पोषक चन्द्रमा भी भगवान् ही हैं। प्रजाओं को मैथुनी सृष्टि से उत्पन्न करने वाले दक्ष प्रजापति भी ईश्वर हैं। पितामह ब्रह्मा जी को प्रकट करने वाले प्रपितामह भी परमात्मा ही हैं। उन्हें इन समस्त रुपों में पहचान कर अर्जुन ने परमात्मा को हजारों बार, बार-बार प्रणाम किया और उन्होंने स्वयं को परमात्मा को समर्पित कर दिया। 
Arjun recognized the Almighty in the form of Dharm Raj who controls virtues-ethics and deity of death who grants specific species to the Humans as per their deeds in new incarnations. The God is found in the form of fire-the Agni Dev, who lightens the universe and helps in digesting the food. As the deity of air (Pawan, Vayu Dev), he controls the breaths-life sustaining force of all the organisms. The God is present in the form of Varun Dev the deity of water, who governs-regulate water, which is a major-essential component of the human body-two third and covers the earth's surface in the form of water bodies as well. All medicinal plants herbs are nourished by the demigod Moon who lights the earth at night and a form of the God. The Almighty was seen as Daksh Prajapati from whom the sexual breeding of the species begun. Ultimately Arjun could recognize the Almighty as the great grand father of the creator Brahma Ji. Having found the Almighty HIM SELF as different deities-demigods Arjun prostrated-bowed before HIM again and again repeatedly thousands & thousands of times paying HIS obeisance. He surrendered-subjected himself to the desire of the God.
प्रभु की उपासना साकार-निराकार दोनों ही स्वरुपों में उपासकों के द्वारा की जाती है। इन्द्रिय संयम निर्गुण-तत्व की उपासना में ज़रूरी-सहयोगी है। निर्गुण उपासना और कर्मयोग में चिंतन का कोई आधार, सम्बल,सहारा नहीं होता, जिससे मन विषयों की ओर झुक-मुड़ सकता है। इन्द्रियों को वश में करके, अन्तर्मन-अन्तःकरण से राग को खत्म करना जरूरी है। सगुण उपासना में इन्द्रियाँ भगवान् में लग जाती हैं। क्योंकि सगुण स्वरूप में इन्द्रियों को विषय प्राप्त हो जाते हैं। ब्रह्म, मन और बुद्धि का विषय नहीं है और प्रकृति से परे है। परमात्मा को स्वयं करण-निरपेक्ष ज्ञान से ही जाना जाता है। सर्वव्यापी होने के कारण, वह सीमित मन-बुद्धि-इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह चिन्मय सर्वत्र परिपूर्ण है। उसका वर्णन संकेत, भाषा, वाणी से सम्भव नहीं है। वह एक रस, निर्विकार और निर्लिप्त है। उसमें किञ्चित मात्र भी परिवर्तन संभव नहीं है। अतः वह कूटस्थ (जिसे घड़ा न जा सके) है। वह ब्रह्म, अटल, अविचल है। उसकी सत्ता निश्चित और नित्य है, अतः ध्रुव है। उसका कभी विनाश नहीं होता, अतः अक्षर है। वह मन, बुद्धि, इन्द्रियों  का विषय न होने से अव्यक्त है। शरीर सहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मों में वासना तथा अहंकार का अभाव तथा भावरूप सच्चिदानन्द घन परमात्मा में अभिन्न भाव से नित्य-निरन्तर दृढ़ स्थित रहना ही उपासना करना है। मनष्य जब शरीर, धन, सम्पत्ति आदि पदार्थों को अपना न मानकर दूसरों की सेवा में लगा देता है, तो उसकी आसक्ति, ममता, कामना, स्वार्थभाव का स्वतः त्याग हो जाता है। क्योंकि निर्गुण-निराकार परमात्मा सम है, अतः उसके उपासकों की बुद्धि सम्पूर्ण प्राणी-पदार्थों में भी विषम नहीं होती। निर्गुण और सगुण दोंनो ही परमात्मा के स्वरूप हैं। सगुण उपासना सरल और निर्गुण उपासना थोड़ी कठिन है। 
The Almighty is worshipped through both means :- with form and without form. When one opts for characteristics less worship, he has to resort to control of senses, mind, intelligence. Characteristics less worship and Karm Yog do not have means to support meditation, which allows the thoughts to deviate towards the consumption-worldly affairs. When one adopts worship supported by one or the other form of the God, he has a means to help, restrain his mind and energies towards the Ultimate. This makes the utilisation of his thoughts, mind, intelligence and the senses. The Brahm is not the subject of mind or intelligence. He is away from nature. The God can be understood, recognized, identified through absolute enlightenment, independent from the sense organs. HE is pervaded-eternal all over the universe, therefore HE can not be grasped, understood, identified through mind and intelligence. HE constitutes  of pure intelligence, Supreme consciousness and is pervaded or permeated by consciousness. Its not possible to describe HIM through words, language, symbols etc. HE is unilateral, stable, unattached, untainted. HE never undergoes a change. HE can not not be cast or given a specific shape. HE is Brahm, absolute and unchangeable. HIS authority is absolute. HE never perishes-disintegrate. HE is Dhruv-fixed, helps in gaining direction. HE never degenerate-degrade. HE is not the subject of ideas, thoughts and therefore, remain unrevealed. Absence of lust, sensuality, sexuality, passion in the body, material world and the ego; undifferentiated-undivided devotion to HIM, continuously-regularity in HIS worship, is essential. When one discards money, belongings for the service of the society-others-man kind by considering them to be meant for the service of the man kind, he is detached, his selfishness, attachments, desires are lost. The Almighty is even, same, equal for all. HIS devotees can not have distinguishable thoughts about others. They attain equanimity. Form less and with form; both are the features of the God. Its a bit difficult to worship HIM in formless state as compared to with form.
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादि मत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥
जो ज्ञेय (पूर्वोक्त ज्ञान से जानने योग्य) है, उस (परमात्म-तत्व) को मैं अच्छी तरह कहूँगा, जिसको जानकर (मनुष्य) अमरता का अनुभव कर लेता है। वह (ज्ञेय-तत्व) अनादि वाला (और) परम ब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है (और) न असत् (non existent, unfounded, illusory, untruth, falsehood, unreal) ही (कहा जा सकता है)।[श्रीमद् भगवद्गीता 13.12] 
Bhagwan Shri Krashn asserted that he would fully describe the Parmatm-Tatv (the gist of the Ultimate knowledge, ought to be known) object of knowledge, by knowing which one experiences immortality. The immortal-imperishable is Par Brahm-Supreme Being, who can not be called either  existent-eternal or non-existent-temporal. 
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि वे उस ज्ञेय-जानने योग्य परमात्म-तत्व को स्पष्ट करेंगे, जिसकी प्राप्ति के लिये मानव शरीर प्राप्त हुआ है। परमात्म-तत्व को जानने के बाद मनुष्य अमरता का अनुभव करता है। उस आदि अन्त रहित परमात्मा  से ही संसार उत्पन्न होता है और उसी में विलीन हो जाता है। वह आदि, मध्य और अन्त में यथावत रहता है। उस परमात्मा को ही परम ब्रह्म कहा गया है। उसके सिवाय अन्य कोई दूसरा व्यापक (comprehensive, pervasive), निर्विकार (immutable, invariable, unchanged, without defect), सदा रहने वाला तत्व नहीं है। उसे न सत् और न ही असत् कहा जा सकता है, क्योंकि वह बुद्धि का विषय नहीं है। वह ज्ञेय तत्व मन, वाणी और बुद्धि से सर्वथा अतीत है। उसका शब्दों में वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।
Bhagwan Shri Krashn told Arjun that HE would make clear the concept of the gist of the Ultimate knowledge to him, for achieving which human incarnation is obtained. Having recognised the Parmatm Tatv (the gist, nectar, elixir of the Almighty) the practitioner-devotee experiences immortality. The universe takes birth in that endless-perennial (चिरस्थायी, forever) Almighty and vanishes in HIM. HE remains as such in the beginning, middle and at the end. That God is called-termed as Par Brahm. Nothing other than HIM is comprehensive, defect less and for ever. HE is neither existent-eternal nor non-existent-temporal, since HE is beyond the limits of brain-intellect. HE is the only one who ought to be known; is beyond imagination, thought, intelligence and speech. Its not possible to describe HIM in words.
यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥
हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! स्थावर और जंगम जितने भी प्राणी पैदा होते हैं, उनको तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न हुआ समझो।[श्रीमद् भगवद्गीता 13.26]  
The Almighty addressed Arjun as the Ultimate amongest the Bharat Vanshis (clan, hierarchy) and said that who so ever was born was the result of interaction between the soul and the matter in animate or inanimate form.
परमात्मा ने स्पष्ट किया कि स्थावर और जंगम, सभी प्राणी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न होते हैं। उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थ क्षेत्र है और जो क्षेत्र का जानने वाला, उत्पत्ति-विनाश रहित एवं सदा एकरस रहने वाला है, वो क्षेत्रज्ञ है। उस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का शरीर के साथ अपने पन (मैं, मेरा) का सम्बन्ध, इन दोनों का संयोग है। इस शरीर के साथ अपनेपन का मानना ही पुनर्जन्म का कारण है। 
The Almighty explained that all the movable and fixed living beings are created by virtue of the interaction-combination of the body and the soul. The body evolves and perish but the soul does not evolve or perish. Soul is forever, unique and unilateral. The conception of ownership of the body, results in birth and rebirth of the organism.
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्। 
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥
जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियों में परमेश्वर को नाश रहित और समरुप से स्थित देखता है, वही वास्तव में सही देखता है।[श्रीमद् भगवद्गीता13.27]  
One who perceives-watches-sees the Almighty as immortal and equanimous in the perishable-mortal organisms, watches truly.
परमात्मा सभी प्राणियों में एक समान, एक सार समरुप में उपस्थित हैं। सभी प्राणी उत्पत्ति, स्थित और प्रलय, ऊँच-नीच गतियों में, योनियों में जाते हैं और अस्थिर हैं; परन्तु परमात्मा उन सब में नित्य-निरन्तर एकरुप से स्थित हैं। जो व्यक्ति विनाशशील प्राणियों में स्थित परमात्मा-क्षेत्रज्ञ को निर्विकार देखता है, वही सही देखता है। जो मनुष्य परिवर्तन शील शरीर-क्षेत्र  के साथ स्वयं को देखता है, वह गलत देखता है। 
The Almighty is present in all beings and is equanimous. The organism moves from one species to another and gets rebirth repeatedly. The organisms are unstable, perishable and face evolution, temporary stability and destruction. They may move from highest to lowest species-form. The God is present in all of them, as one uniform-stable entity. One who identifies the same defectless, pure, unique Almighty in all living beings is correct. One who identifies himself with the perishable body is incorrect.
One who is relinquished, content-satisfied, sees the Almighty in him self, exerts control over himself, his desires is entitled for Liberation.
Sole aim of the incarnation as a human being is to realise, find-understand that conscious, which is complete, has no end-is infinite, which is free from birth and the death. It is static-inertial and conscious as well. It is with the body-shape and size and otherwise as well. It has infinite shapes, figures, forms, faces, features.
Assimilation of the soul in the Almighty is Liberation-Salvation Moksh, like a drop of water which falls in the ocean becomes ocean, a dust particle which falls over the earth from the space-sky becomes earth.
One who has identified-recognized the Almighty present in him self in the form of soul is detached-relinquished. He is free from bonds, ties, illusion, attachments, affections, affliction. He is enlightened having attained equanimity, assimilated-absorbed in the Ultimate.
One is free from the clutches-ties of birth and death.
One is not perturbed by the loss-gain, pleasure-pain. He weighs them equally. He is free from fear and deserve association with the God.
One who follows his duties religiously, follows the Varnashram Dharm, keep on performing his duties, responsibilities, liabilities is a follower of the Brahm-the Ultimate.
One (beneficent, philanthropist, altruist) who takes pity over the living beings is entitled for the blessings of the Almighty.
One has control over his senses, sense organs, sensuality, is entitled for Salvation.
One who is relinquished, content-satisfied, sees the Almighty in him self, exerts control over himself, his desires is entitled for Liberation.
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। 
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥
उत्तम पुरुष तो अन्य (विलक्षण,अलौकिक, असाधारण, अद्भुत, अनोखा, विशिष्ट) ही है, जो परमात्मा नाम से कहा गया है। वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 15.17]  
Over and above the perishable and imperishable beings stands the Almighty, who is with distinguishing, strange, unique, fantastic, astonishing, remarkable, extra-ordinary features-characteristics. He enters the three abodes and sustains-nurtures their living beings. 
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। 
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥
कारण कि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ।[श्रीमद् भगवद्गीता 15.18]  
The Almighty asserted that HE was famous as Purushottam, since HE is far beyond, above perishable, Kshar, temporal & excelled (उत्कृष्ट, अग्रगण्य, सर्वश्रेष्ठ, अति विशिष्ट, excel, surpass, dominate) the Akshar-imperishable-eternal in this abode-world and the Veds. 
ॐतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः। 
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥
ॐ, तत्, सत्, इन तीन प्रकार के नामों से जिस परमात्मा का निर्देश (संकेत) किया गया है, उसी परमात्मा से सृष्टि के आदि में वेदों तथा ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना हुई है।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.23]  
The manner in which the three names of the Almighty :- ॐ, Tat, Sat; emerged, is the same as the creation of Veds, Brahmns and Holy sacrifices in fire  in the beginning of Eternity. 
ॐ, तत्, सत् :- ये परमात्मा के तीन नाम हैं, निर्देश हैं। परमात्मा ने पहले वेद, ब्राह्मण और यज्ञों को बनाया। विधि वेद बताते हैं, अनुष्ठान ब्राह्मण करते हैं  और क्रिया के लिये यज्ञ है। यज्ञ, तप और दान में किसी प्रकार की कमी रह जाये तो, परमात्मा का नाम स्मरण करें, उससे कमी पूरी हो जायेगी। "ॐ तत् सत्": इस मन्त्र से गृहस्थ अथवा उदासीन (साधु) जो भी कर्म आरम्भ करता है, उसको अभीष्ट की प्राप्ति होती है। जप, होम, प्रतिष्ठा, संस्कार आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ, इस मन्त्र से सफल हो जाती हैं, इसमें सन्देह नहीं है। 
ॐ, Tat & Sat are the 3 names-directives of the God, which fulfils all the desires of the worshipper, if he spell them in the beginning of the Holy sacrifices, endeavours, rituals, prayers. The Almighty created the Veds & Brahmns followed by Holy sacrifices in fire for the benefit of the humans. The Veds describe the methods for the sacrifices, rituals, prayers, worships, asceticism etc. Prayers, Yagy, Hawan are carried out by the Brahmns by following the procedures laid down the Veds & scriptures. The Yagy, Hawan, Holy sacrifices in fire are there to make successful all the endeavours, projects, desires, ambitions of the individuals. In case there is any draw back in the Yagy, Tap or Dan remember the God through these three names and the weakness-deficiency is overcome. 
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः। 
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥
इसलिये वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरुप क्रियाएँ सदा "ॐ" इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.24]  
Those who have faith in Vaedic principles begin the Yagy associated with the procedures mentioned in the scriptures, donations-charity and ascetic practices by uttering-spelling OM (Ameen or Allah are merely translation of Om); the name of God.
समस्त वैदिक क्रियाएँ, यज्ञ, हवन, आहुति, मंत्र प्रार्थनाएँ सर्वप्रथम ॐ का उच्चारण करके ही प्रारम्भ की जाती हैं। दान, तप भी इसके बगैर अधूरे-फल हीन हैं। सृष्टि की रचना-उत्पत्ति में सबसे पहले प्रणव शब्द "ॐ" ही प्रकट हुआ। प्रणव की तीन मात्राएँ हैं, जिनसे त्रिपदा गायत्री प्रकट हुई और त्रिपदा गायत्री से ऋक, साम और यजु :- यह वेदत्रयी प्रकट हुई। 
All Vaedic rituals, Mantr, Yagy-Holy sacrifices in fire, offerings in fire, prayers begin with the pronunciation of OM. This is prefix. All Vaedic procedures remain incomplete in the absence of OM. Donations, ascetic practices remain fruitless in the absence of OM. OM appeared at the auspicious occasion of the formation of the universe-life. Three syllables of OM form the Gayatri Mantr and the three Veds :- Rig Ved, Sam Ved & Yajur Ved appeared from Gayatri.
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः। 
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥
तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिये-निमित्त ही सब कुछ है; ऐसा मानकर मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों द्वारा फल की इच्छा से रहित होकर, अनेक प्रकार के यज्ञ और तप रुप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ की जाती हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.25]  
Those who want freedom from reincarnation-salvation, perform various Yagy-sacrifices, ascetic practices and donations, charity, austerity for the sake the God, who is addressed as Tat, without the desire of any reward.
जो भी शास्त्र सम्मत योग, यज्ञ, हवन, तप, दान, तीर्थ, व्रत, स्वाध्याय, ध्यान, समाधि, शुभ कर्म आदि क्रियाएँ परमात्मा की प्रसन्नता लिये की जायें, उनमें फल की इच्छा किञ्चित मात्र भी नहीं होनी चाहिये, क्योंकि वे अपने लिये नहीं हैं। जिन साधनों से ये क्रियाएँ की जाती हैं; वे शरीर, इन्द्रियाँ अन्तःकरण परमात्मा के ही हैं। कुटुम्ब, घर, मकान, सम्पत्ति भी परमात्मा का ही दिया हुआ है। समझ-ज्ञान, बुद्धि, सामर्थ्य स्वयं मनुष्य  भी परमात्मा का ही है।इस भाव को लेकर समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये। प्रत्येक कर्म-क्रिया शुभ-अशुभ, निहित, विहित, निषिद्ध तथा कर्म फल का प्रारम्भ और समाप्ति भी होती है। अतः उसकी इच्छा कतई नहीं होनी चाहिये। परमात्मा  की सत्ता नित्य-निरन्तर है, अतः मनुष्य को उसकी स्मृति रहनी ही चाहिये। जो संसार प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है, उसका तो निराकरण करना ही है तथा जो अप्रत्यक्ष है, उस तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का अनुभव भी करना है, जो नित्य-निरन्तर है। परमात्मा के भक्त राम, कृष्ण, गोविन्द, नारायण, वासुदेव, शिव आदि का सम्बोधन उस तत् स्वरूप भगवान् के लिये करके, समस्त क्रियाएँ शुरू करते हैं। तत्त शब्द (वह, उस) अलौकिक परमात्मा के लिये ही आया है, जो कि श्रद्धा-विश्वास का विषय है, विचार का नहीं। 
Tat (HE, THAT) has been used for the Almighty. Existence of God is a matter of faith not of argument, logic or discussion. HE is eternal-divine, beyond the limits of the human intelligence, vision or thought. All prayers start by remembering HIM as Ram, Krashn, Hari, Govind, Shiv, Vasudev, Narayan etc. by the devotees or simply God, Allah, Khuda, Rab, Bhagwan etc. What ever pious, virtuous, righteous deed-endeavour is there, should be under taken, for HIS happiness, pleasing HIM. Sacrifices in Holy fire, Yagy, Hawan, ascetic practices, Pilgrimage, bathing in Holy river-reservoirs are meant for HIS happiness, since HE has created the man. The tools of offerings, donations, wealth, body, organs, belongs to HIM. The man his intelligence, body, thoughts, family, property, strength, capability, power are created by HIM and thus belongs to HIM, only. All deeds, habitual or compulsory, pious or evil, begins and terminates but the Almighty remains as such without any change-modification, before, after and now. One should feel HIS presence every where, in each & every particle, action-activity.
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते। 
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते॥
हे पार्थ! सत् :- ऐसा यह परमात्मा का नाम सत्तामात्र में और श्रेष्ठ भाव में प्रयोग किया जाता है तथा प्रशंसनीय कर्म के साथ सत् शब्द जोड़ा जाता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.26]  
The Almighty addressed Arjun as Parth! HE said that HIS name Sat represents HIS authority and is used as a prefix with those works-events which are superb, excellent, appreciable. Sat represents :- Truth, Reality, Goodness, An auspicious act, Purity, Virtuousness, Righteousness. 
किसी के प्रति अच्छा भाव व्यवहार रखना, सद्भाव, दया, क्षमा, साधु भाव, परमात्मा का प्रतीक है अर्थात जो व्यक्ति इन गुणों से युक्त है, उसमें भगवान् का अंश प्रकट हो रहा है। इसी प्रकार दैवी गुण, सत्य, त्याग, सत्-तत्व, सद् गुण भी अच्छाई का प्रतीक हैं। जो भी अच्छा कार्य, आचरण है यथा शास्त्र विधि के अनुरूप यज्ञ, यग्योपवीत, विवाह, संस्कार, अन्नदान, भूमिदान, गोदान, मन्दिर बनवाना, बगीचा लगवाना, कुँआ-बाबड़ी खुदवाना, धर्मशाला बनवाना श्रेष्ठ कार्य हैं। सत्कर्म, सत्सेवा, सद् व्यवहार, आदि परमात्मा के ही रूप हैं। 
Any virtuous act-quality, event, action shows Almighty's presence in the doer. Divine characteristics, donations-charity, visiting holy shrines, pilgrimages, fasting relinquishment, asceticism is Godly. Building temples, wells, reservoirs, gardens-parks, inns for the welfare of others-masses is Godly behaviour-act. Social welfare, helping poor-one in destitute, ill-diseased is Godly act. Marriage according to scriptures and its maintenance by both spouses, helping the aged-elders, weak, donation of food grain or food, land for hospital, school, Brahmans is Godly. Donation of milk yielding cows with the calf is Godly act. Speaking the truth is Godly act.
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते। 
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥
यज्ञ तथा तप और दान रूप क्रिया में जो स्थित (निष्ठा रखता है) है वह भी सत् कहा जाता है और उस परमात्मा के निमित्त किया जाने वाला कर्म भी सत् कहा जाता है।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.27]  
The performer of Yagy-Holy sacrifices in fire, Tap-ascetic practices and Dan (donations, charity) and the one who has faith in these practices do represent Sat :- Purity, Austerity, Truth and the deeds (performances, practices) selfless service for the sake-cause of the Almighty do represent Sat.
यज्ञ तथा तप और दान करना और उनमें निष्ठा, विश्वास, आस्था रखना भी सत् है। लौकिक, पारमार्थिक और दैवी सम्पदा सत् स्वरूप और मोक्ष प्रदायक हैं। मानव मात्र के कल्याण के लिये निष्काम भाव से  किया गया कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं जाता। जो परमात्मा को चाहता है, वो अपना कल्याण और मुक्ति चाहता है। भक्ति चाहने वाला भी भगवान् के हेतु ही कर्म करता है। ये सभी कर्म-क्रियाएँ सत् स्वरूप हैं। 
Faith in Yagy, Tap and Dan is Sat. Anything done for the sake of the God is also Sat. Pure deeds, service of the mankind without any motive-desire for return, divine activities like devotion to God, prayers of deities-demigods as a form-representative of the God-Ultimate, do grant Salvation-Assimilation in the God-Liberation. Selfless service of the man kind, never goes waste. One who loves God, loves Salvation. One who loves devotion, do perform for the sake of the God. These pure, uncontaminated, pious, righteous, virtuous performances-deeds meant for the God's cause, do grant Salvation.
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्। 
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥
हे पार्थ! अश्रद्धा से किया हुआ हवन, दिया हुआ दान और तपा हुआ तप तथा और भी जो कुछ किया जाय वह सब असत्, ऐसा कहा जाता है। उसका फल न तो यहाँ होता है और न मरने के बाद ही होता है अर्थात उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता। [श्रीमद् भगवद्गीता 17.28] 
The Almighty addressed Arjun as Parth and told him that any auspicious activity like Holy sacrifices in fire, donations or ascetic practices done without faith-reverence, yield negative results. It do not grant the desired reward either in this world or the other world after the death.
कोई भी धर्मिक-पुण्य कार्य बगैर श्रद्धा, दिखावे, ढोंग-पाखण्ड के लिये किया जाता है, तो वह लौकिक अथवा अलौकिक संसार में चाहा गया फल नहीं देता। अक्सर इसका परिणाम उल्टा ही होता है। प्रकृति में कार्य और कारण जुड़े हुए हैं। अगर कुछ किया गया है तो, उसका परिणाम उसके अनुरूप अवश्य ही होगा। यज्ञ, तप तथा दान पूरी श्रद्धा, भक्ति और विश्वास के साथ किया जाना चाहिये। 
One should perform austerities with faith, devotion and reverence to the God without demonstrative modes. While performing ascetic practices, holy sacrifices in fire, prayers, worship, donations; one must be pure at heart. What ever act has been done, it is always going to yield results according to the tendency of the doer, in the present birth or the next births.
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। 
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत्‌ व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके, मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.46] 
जिस परमात्मा से संसार पैदा हुआ है और संचालित है, जो सबका उत्पादक आधार और प्रकाशक है जो सबमें परपूर्ण है अर्थात जो अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था, उनके रहते हुए भी जो रहता है और जो उनके लीन  होने के बाद भी रहेगा, तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है, उसी परमात्मा का अपने-अपने स्वभावज-वर्णोचित स्वभाविक कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिए। 
लौकिक और पारलौकिक कर्मो के द्वारा परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, परन्तु उनके करणों-उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि उनमें ममता होते ही वे वस्तुएँ अपवित्र हो जाती हैं। सिद्धि को प्राप्त करने का अर्थ है कि मनुष्य अपने कर्मों से परमात्मा की पूजा करने से प्रकृति से असंबद्ध होकर स्वतः अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। उसका प्रभु में स्वतः अनन्य प्रेम जाग्रत हो जाता है। अब उसको पाने-हासिल करने के लिए कुछ भी शेष नहीं है। किसी भी जाति, सम्प्रदाय (हिन्दु, बौद्ध, ईसाई, पारसी, यहूदी, मुसलमान), वर्ग से व्यक्ति क्यों न हो वह परमात्मा के पूजन का अधिकारी है। भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के इस संवाद-श्री मद् भागवत गीता का जो अध्ययन करेगा उसके द्वारा परमात्मा ज्ञान से पूजित होंगे। कर्मयोगी और ज्ञान योगी अन्त में एक हो जाते हैं क्योंकि दोनों में जड़ता का त्याग किया गया है। इसी प्रकार भक्ति मार्ग भी जड़ता को मिटाता है। 
Accomplishment is attained by an individual by worshiping the Almighty, from whom all the universes, organisms have evolved and by whom all the universes are pervaded, through his natural, instinctive, prescribed, Varnashram related deeds.
One should pray to the Almighty from whom the entire Universe has evolved, who operates the world, who is the creator, producer, founder and illuminator, administrator, organiser who alone is complete amongest all; who was present before creation of infinite universes and who will remain after assimilation of infinite universes in HIM and WHO is pervaded in infinite universes, is worshipped automatically if the individual performs HIS natural-prescribed-Varnashram duties. Performance of the prescribed-Varnashram duties assigned to the individual, itself is worship of the God.
Both Karm Yog and Gyan Yog merge into one single stream by eliminating immovability-inertness through service and worship enabling detachment, resulting in immersion in Supreme Power.
प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि।
रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम्॥
शासन करने वाला, सभी के अणुओं से अतिसूक्ष्म, सुवर्ण के समान कान्ति वाला, स्वप्नावस्था के बुद्धि से जानने योग्य है। उस परम पुरुष को जाने।[मनु स्मृति 12.122] 
One who governs all, the Almighty; is smaller than the smallest molecule, has an aura like gold and has to be identified in a state of trans-sleep, through the intelligence. 
एतमेके वदन्त्यग्निं मनुमन्ये प्रजापतिम्।
 इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम्॥
इसी परम पुरुष को अग्नि, कोई प्रजापति, मनु, कोई इन्द्र, कोई प्राण और कोई शाश्वत (सनातन) ब्रह्म कहता है।[मनु स्मृति 12.123] 
People call HIM by different names like Agni-fire, Prajapati-Brahma, Manu, Indr, Pran-life force (air vital), Eternal-imperishable, ever since & for ever, i.e., the Brahm.
एष सर्वाणि भूतानि पञ्चभिर्व्याप्य मूर्तिभिः।
जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं संसारयति चक्रवत्॥
वह परमात्मा सभी प्राणियों के भूतात्मक शरीर में व्याप्त होकर जन्म वृद्धि और विनाश के द्वारा नित्य चन्द्र की तरह घूमता है।[मनु स्मृति 12.124] 
The Almighty pervades the perishable bodies of all organism-living beings and moves like the Moon (increasing and decreasing in phases) through birth, growth and death.  
एवं यः सर्वभूतेषु पश्यत्यात्मानमात्मना।
स सर्वसमतामेत्य ब्रह्माभ्येति परं पदम्॥
जो मनुष्य सभी प्राणियों में आत्मरूप से अपने आपको देखता है, वह सबमें समता को प्राप्त कर, परम पद ब्रह्मत्व को पाता है।[मनु स्मृति 12.125] 
One who identifies himself in all living beings-creatures, attains equanimity and attains the Ultimate-highest, title-designation a person can achieve called Brahmatv.
HE is NIRAKAR-has no specific shape, size or alignment. He is invisible, like air or energy. HE is AVAYAKT-undefined-without illustration, unrevealed  It's only he, who is immortal-beyond life and death. HE had infinite incarnations-AVTARS (incarnations), in the past and will have infinite incarnations in the future as well.
परमात्मा निराकार है। उसका कोई विशिष्ट आकार  नहीं है। वह अद्रश्य है। वह अव्यक्त है। जन्म  मृत्यु से परे है, उसके अनंत अवतार हो चुके हैं और आगे भी होंगे।
HE is SAKAR-VYAKT (defined, embodied, revealed), has various-infinite shapes and sizes. HE is capable of acquiring any shape, size, figure, form. HE is beyond the limits of time, place, cast, creed, belief or religion.
वह  साकार है। अवतार  ग्रहण करते समय वह आकार ग्रहण करता है। वह सभी-कोई भी आकार धारण करने में समर्थ है। 
HE is both material and immaterial, finite and infinite. HE has unending powers, capacities, and capabilities. HE is SUPREME-HE is Param Pita-Par Brahm Permashwer.
वह भौतिक व अभौतिक, सीमा सहित व सीमा रहित-अनंत है। उसकी शक्तियां असीम हैं। वह  परम पिता परम ब्रह्म परमेश्वर  है। 
HE is neither male nor female or impotent (kinnar, third sex) either.
वह स्त्री, पुरुष या किन्नर नहीं है।  
HE is present in each and every particle, living and non-living.  All life forms have evolved out of him and  will merge in him, ultimately.
वह  सभी प्राणियों में विराजमान है। जीवन के सभी रूप उसी से उत्पन्न हुए हैं व उसी में विलीन हो जायेंगे। 
समस्त धन, शक्ति, सौन्दर्य, ज्ञान तथा त्याग से युक्त परम पुरुष भगवान् कहलाता है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव सहित कोई जीव कृष्ण के समान ऐश्वर्यवान नहीं है। 
ब्रह्म संहिता में ब्रह्मा जी स्पष्ट करते हैं कि गौ लोक वासी श्री कृष्ण स्वयं भगवान हैं न तो कोई उनके तुल्य है और न बढ़कर है। वे आदि पुरुष गोविन्द समस्त कारणों के कारण हैं। 
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानंद विग्रहः। 
अनादिरादि गोविन्दः सर्वकारण कारणम्॥ 
उसके अनेकानेक अवतार-विस्तार हैं।
[भागवत]
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयंम्। 
इन्द्रारी व्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे॥ 
कृष्ण आदि पुरुष, परम सत्य, परमात्मा तथा निर्विशेष ब्रह्म के उद्गम हैं। 
उन सनातन आदि देव को देवता आदि कोई भी वास्तविक रूप में नहीं जानते यद्यपि वे समस्त देवों-ब्रह्मादि को श्रुति-वेद एवं समस्त विश्व को जानते हैं। 
चितिः स्वतन्त्रा विश्वसिद्धिहेतुः :: Chitt, which is absolute consciousness, (and latent with power to do), by its own free will (Swatantray, freedom-Independence), is the cause of manifestation, preservation and again re absorption or withdrawal of the Universe into itself also called dissolution.
स्वेच्छया स्वभित्तौ विश्वमुन्मीलयति :: The nature Maa Bhagwati by Her own power,  unfolds the Universe on her own screen. 
God is both efficient, as well as material cause of the Universe. HE creates out of his own will, on his own self. There is no extraneous material and even the analogy of the potter and the pot of clay, fails here, since the potter emanates or projects out of himself, not out of clay.
Bhagwan Shiv is constantly creating His own world, in which we find ourselves in a cosmic dance.
आध्यात्मिक ज्ञान और परमात्मा :: पूर्ण परमात्मा, पूर्ण ब्रह्म, निरंजन, काल और भगवान्  महाविष्णु भी कहते हैं। 
अव्यक्त अर्थात् एक ओंकार परमात्मा की पूजा का ज्ञान पवित्र शास्त्रों (पुराणों, उपनिषदों, वेद, गीता) के अध्ययन और गुरु कृपा से होता है।शास्त्रों में ज्योति स्वरूपी अर्थात् काल ब्रह्म की पूजा विधि  का वर्णन मिलता है। प्रभु निराकार एक ही है, जो कि पूजा के योग्य है। 
अग्नेः तनूर् असि, विष्णवे त्वा सोमस्य तनुर् असि।
 कविरंघारिः असि, बम्भारिः असि स्वज्र्योति ऋतधामा असि॥ 
परमेश्वर पाप-बन्धनों का शत्रु है। वह सर्व पालन कर्ता, अमर, अविनाशी है। वह स्वप्रकाशित प्रभु सत धाम अर्थात् सतलोक में रहता है।[यजुर्वेद 1.15,  5.1 व 5.32] 
अनादि सत्य सिद्ध ग्रंथों-वेद, उपनिषद, पुराण आदि में जहाँ कहीं भी आत्मा के स्वरूप या फिर परमतत्व परमब्रह्म परमेश्वर परमात्मा का निरूपण किया गया है, उसके स्वरूप की तुलना अँगूठे से की गई है। 
The eternal scriptures Veds, Upnishads and the Purans have configured the Almighty like the Thumb.
The soul present in the body of an organism acquires the shape and size of the human thumb once its released from the body.
वराहतोको निरगादंगुष्ठ परिमाणक:। 
दृष्टोअंगुष्ठ शिरोमात्र: क्षणाद्गण्डशिलासम:॥ 
ब्रह्मा जी के नासिका छिद्र से अकस्मात अँगूठे के बराबर आकार का वराह शिशु निकला और अँगूठे के पेरूए के बराबर दिखने वाला वह प्राणी-वराह, क्षण भर में पर्वत के समान विस्तृत हो गया।[श्रीमद्भागवत महापुराण 3.13.18] 
A small boar-hog equal to the size of the thumb came out of the nasal cavity of Brahma Ji-the creator, spontaneously and took the shape of a mountain at once.
अंगुष्ठमात्रो रवितुल्यरूप, संकल्पाहंकार समन्वितो यः। 
बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन  चैव,आराग्रमात्रो ह्यपरोSपि दृष्टः॥ 
जो अँगुष्ठ मात्र परिमाण वाला, रवि तुल्य-सूर्य के समान प्रकाश वाला तथा संकल्प और अहंकार से युक्त है, बुद्धि के गुण के कारण और अपने गुण के कारण ही सूजे की नोक के जैसे सूक्ष्म आकार वाला है; ऐसा अपर-अर्थात परमात्मा से भिन्न जीवात्मा भी निःसन्देह ज्ञानियों के द्वारा देखा गया है।[श्वेताश्वतरोपनिषद् 5.8]   
The Almighty-God similar in shape & size to the thumb, brilliant like the Sun, associated with firmness-determination & possessiveness, due to his own characterises and the intelligence, small & sharp just like the tip of a needle was in deed seen-visualised-observed-conceived by the learned-enlightened-scholars.
अंगुष्ठमात्र: पुरुषो, मध्ये आत्मनि तिष्ठति। 
ईशानो भूतभव्यस्य न तेता विजुगुप्सते॥
अंगुष्ठमात्र परिमाण वाला, परम पुरुष-परमात्मा, शरीर के मध्य भाग अर्थात हृदयाकाश में स्थित है, जो कि भूत, भविष्य और वर्तमान का शासन करने वाला है। उसे जान लेने के बाद वह जिज्ञासु-मनुष्य किसी की निन्दा नहीं करता। यही वह परमतत्व है।[कठोपनिषद् 2.1.13]   
The Almighty comparable to thumb in shape and size is present in the middle segment of the body and visualises the past, present and the future. Once a man knows HIM, never censure others.
ईशानो भूत भव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः। 
भूत, भविष्य तथा वर्तमान पर शासन करने वाला वह परमात्म परमतत्त्व जैसा आज है, वैसा ही कल भी रहेगा। 
The Almighty who rules the present, past and the future will remain as such always & for ever.
ॐ  AUM OM ओ३म् :: जिस समय परमेष्ठी ब्रह्मा जी पूर्व सृष्टि का ज्ञान सम्पादन करने के लिये एकाग्रचित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाश से कण्ठ-तालु आदि स्थानों से, संघर्ष से रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियों को रोक लेता है, तब उसे भी इस अनाहत नाद का अनुभव होता है। बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नाद की उपासना करते हैं और उसके प्रभाव से अन्तःकरण के द्रव्य, अधिभूत क्रिया-अध्यात्म और कारक-अधिदैव रूप मल को नष्ट करके वह परमगति रूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-मृत्यु संसार चक्र नहीं है। उसी अनाहत नाद से "अ " कार, "उ" कार और "म" कार रूप तीन मात्राओं से युक्त "ॐ कार" प्रकट हुआ। इस ॐ कार की शक्ति से ही प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त रूप में परिणित हो जाती है। ॐ कार स्वयं व्यक्त एवं अनादि है और परमात्म स्वरूप होने से स्वयं प्रकाश भी है।  
जिस परम वस्तु को भगवान् ब्रह्म अथवा परमात्मा के नाम से कहा जाता है, उसके स्वरूप का बोध भी ॐ कार के द्वारा ही होता है। 
जब श्रवणेन्द्रियों की शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस ॐ कार को समस्त अर्थों को प्रकाशित करनेवाले स्फोट तत्व को जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओं में सबके आभाव को जानता है, वही परमात्मा का विशुद्ध स्वरूप है।  वही ॐ कार परमात्मा से हृदयाकाश में प्रकट होकर वेदरूपा वाणी को अभिव्यक्त करता है। ॐ कार अपने आश्रय परमात्मा परब्रह्म का साक्षात् वाचक है।  ॐ कार ही सम्पूर्ण मंत्र, उपनिषद और वेदों का सनातन बीज है। 
अ, उ और म  ॐ कार के तीन वर्ण हैं। ये तीनों ही सत्त्व, रज, तम-इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम-इन तीन नाम; भूः, भुवः, स्वः-इन  अर्थों और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति-इन तीन वृत्तियों के रूप में तीन-तीन की सँख्या वाले भावों को धारण करते हैं। 
ॐ कार से ही ब्रह्मा जी ने अन्तःस्थ (य, र, ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (अ से औ तक), स्पर्श (क से म तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणों से युक्त अक्षर-समान्माय अर्थात वर्णमाला की रचना की। 
इसी  वर्णमाला द्वारा उन्होंने अपने चार मुखों से होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा-इन कगार ऋत्विजों के कर्म बतलाने के लिये ॐ कार और व्याहृतियों के सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र मरीचि आदि को वेदाध्ययन में कुशल देखकर वेदों की शिक्षा दी।[श्रीमद्भागवत 12.6.3-45]
ॐ ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है। इसे अनहद नाद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है। इसे प्रणवाक्षर (प्रणव+अक्षर) भी कहते है प्रणव का अर्थ होता है :-
 "प्रकर्षेण नूयते स्तूयते अनेन इति, नौति स्तौति इति वा प्रणवः"।
कालरूपी सदाशिव कहते हैं कि मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है, क्योंकि सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार अर्थात ‘ॐ’ प्रकट हुआ। ओंकार वाचक है, मैं वाच्य हूँ और यह मंत्र मेरा स्वरूप ही है और यह मैं ही हूँ। प्रतिदिन ओंकार का स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है। मेरे पश्चिमी मुख से अकार का, उत्तरवर्ती मुख से उकार का, दक्षिणवर्ती मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से बिन्दु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ। यह 5 अवयवों से युक्त (पंचभूत) ओंकार का विस्तार हुआ।
प्रणव शब्द का अर्थ है, वह शब्द जिससे ईश्वर की भली भांति स्तुति की जाये या ऐसा अक्षर जिसका कभी क्षरण ना हो। सरल अर्थो में कहा जाये तो प्रणवाक्षर परमेश्वर का प्रतीक है।
ॐ (ओ३म् ) तीन अक्षरों से बना है :- अ, उ और म्। प्रत्येक अक्षर ईश्वर के अलग अलग नामों को अपने में समेटे हुए है
"अ"  द्योतक है अर्थात उत्पन्न होना; व्यापक, सर्वदेशीय, और उपासना करने योग्य है
"उ" भगवान् विष्णु द्योतक है अर्थात लालन-पालन, विकास; बुद्धिमान, सूक्ष्म, सब अच्छाइयों का मूल, और नियम करने वाला है तथा    
"म" भगवान् विष्णु द्योतक है अर्थात नष्ट होना, मौन होना, ब्रह्मलीन होना; अनंत, अमर, ज्ञानवान, और पालन करने वाला है।
यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतिक भी है।[माण्डुक्य उपनिषद] 
आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है।[कठोपनिषद]
ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है।[श्रीमद्भागवत गीता] 
भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य (त्रिकाल, ओंकारात्मक) ही कहा गया है।[माण्डूक्योपनिषद] 
इसे अनहद नाद भी कहा गया है। यह एक ऐसी ध्वनि होती है जो उत्पन्न नहीं की जाती, स्वतः गूंजती रहती है। इसे स्थूल कानों से नहीं सुना जा सकता। ये ध्वनि ब्रह्मांड में हर समय हर जगह गूंजती रहती है।
तपस्वी और योगीजन जब ध्यान की गहरी अवस्था में उतरने लगते है तो यह नाद (ध्वनी) हमारे भीतर तथापि बाहर कम्पित होती स्पष्ट प्रतीत होने लगती है। साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है।
"तस्य वाचकः प्रणवः" अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव 'ॐ' है। इस तरह प्रणव अथवा ॐ एवं ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। ॐ अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीं होता।[योग शास्त्र]
"ॐ इत्येतत् अक्षरः" अर्थात् "ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है।" ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का प्रदायक है। मात्र ॐ का जप कर कई साधकों ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर ली।[छान्दोग्योपनिषद्] 
"सिद्धयन्ति अस्य अर्था: सर्वकर्माणि च" अर्थात जो "कुश" के आसन पर पूर्व की ओर मुख कर एक हज़ार बार ॐ रूपी मंत्र का जाप करता है, उसके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं।[ब्राह्मण ग्रन्थ]
जो व्यक्ति ॐ अक्षर रूपी ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह परम गति प्राप्त करता है।[श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 18]
ॐ अर्थात् ओउम् तीन अक्षरों से बना है, जो सर्व विदित है। अ उ म्। 
"अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना,
"उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास और 
"म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना। 
ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। ॐ में प्रयुक्त "अ" तो सृष्टि के जन्म की ओर इंगित करता है, वहीं "उ" उड़ने का अर्थ देता है, जिसका मतलब है "ऊर्जा" सम्पन्न होना। किसी ऊर्जा वान मंदिर या तीर्थ स्थल जाने पर वहाँ की अगाध ऊर्जा ग्रहण करने के बाद व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को आकाश में उड़ता हुआ देखता है। 
ॐ मन्त्र की विशेषता यह है कि पवित्र या अपवित्र सभी स्थितियों में जो इसका जप करता है, उसे लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस तरह कमल-पत्र पर जल नहीं ठहरता है, ठीक उसी तरह जप-कर्ता पर कोई कलुष नहीं लगता।[ध्यान बिन्दुपनिषद्]
"मणिपद्मेहुम" का प्रयोग जप एवं उपासना के लिए प्रचुरता से होता है। इस मंत्र के अनुसार ॐ को "मणिपुर" चक्र में अवस्थित माना जाता है। यह चक्र दस दल वाले कमल के समान है।[बौद्ध-दर्शन]
PRABHA MANDAL-AURA :: A ring of flames and light issues from and encompasses the Almighty. This is said to signify the vital processes of the universe and its creatures, nature’s dance as moved by the dancing of God within. Simultaneously, it is said to signify the energy of wisdom, the transcendental light of the knowledge of truth-enlightenment, dancing forth, from the personification of the all. 
Allegorical meaning assigned to the halo of flames is that of the holy syllable of अ A, उ U, म M pronounced OM. This mystical utterance stemming from the sacred language of Vedic praise and incantation, is understood as an expression and affirmation of the totality of creation.
अ A :: It represents Brahma Ji-the creator and indicates the state of waking consciousness, together with its world of gross experience.
उ U :: It represents the nurturer Bhagwan Shri Hari Vishnu and represents the state of consciousness, together with its experience of subtle shapes.
म M :: It represents Bhagwan Shiv-MAHESH and the state of dreamless sleep, the natural condition of quiescent, undifferentiated consciousness, wherein every experience is dissolved into a blissful non-experience, a mass of potential consciousness.
The silence following the pronunciation of the three, अ A, उ U and म M, is the ultimate unmanifest, wherein perfected supra-consciousness totally reflects and merges with the pure, transcendental essence of Divine Reality–Brahm is experienced as Atman, the Self. AUM (ओम), therefore, together with its surrounding silence, is a sound-symbol of the whole of consciousness-existence and at the same time its willing affirmation.
The Trinity of Brahma, Vishnu & Mahesh, has two expressive profiles, representing the polarity of the creative force, counterpoised to a single, silent, central head, signifying the quiescence of the Absolute. This symbolic relationship is eloquent of the paradox of Eternity and Time-the reposeful ocean and the racing stream are not finally distinct; the indestructible Self and the mortal being are in essence the same. Shiv-Nat Raj's, the incessant, triumphant motion of the swaying limbs is in significant contrast to the balance of the head and immobility of the mask-like countenance. Shiv is Kal-the Time-the deity of death &destruction and is Maha Kal as well the Ultimate-Eternity. 
The Almighty is both with form and without form. The Brahm is not the subject of mind or intelligence. HE is away from nature. The God can be understood, recognised, identified through absolute enlightenment, independent from the sense organs. HE is pervaded-eternal all over the universe, therefore HE can not be grasped, understood, identified through mind and intelligence. HE constitutes of pure intelligence, Supreme consciousness and is pervaded or permeated by consciousness. Its not possible to describe HIM through words, language, symbols etc. HE is unilateral, stable, unattached, untainted. HE never undergoes a change. HE can not be cast or given a specific shape. HE is Brahm, absolute and unchangeable. HIS authority is absolute. HE never perishes-disintegrate. HE is Dhruv-fixed, helps in gaining direction. HE never degenerate-degrade. HE is not the subject of ideas, thoughts and therefore, remain unrevealed. The Almighty is even, same, equal for all. Form less and with form; both are the features of the God. 
HE who manifests HIMSELF of HIS own free will and is created by OWN accord. One who is self-born. One who exists by Himself, uncaused-unaided by any other. HE is not dependent on anyone for anything. HE creates independently. HE is completely independent. HE has got exclusive prerogative of taking birth-revealing, anywhere on HIS own accord. HE exists of HIS own. HE existed before the emergence of everything. He exists after destruction of everything. HE is the lord of all others.
The Almighty does not appear-take birth or die-parish like the creatures (organisms, humans). He evolve by virtue of his won will. To evolve and to disappear are his divine features (traits, characters, qualities). The human beings appear only in between-they were not present earlier and will not be present thereafter. The Sun rise and Sun set takes place every day, but Sun remains as such. The human beings take birth due to destiny, as a result of their deeds in earlier births but the Almighty is free from destiny, birth, death. HIS physiques grows-develops till the age of 15 years only and thereafter it remains the same. HIS activities are independent of age. Beard and moustaches do not grow over HIS face. HE is free from the three basis features of humans, Trigun Shakti :- Satv, Raj and Tam. Other than than these his power (Maya, pure nature) is recognised as Para Shakti, Sanghini Shakti, Alhadini Shakti, Sanvit Shakti, Chinmay Shakti, Krapa Shakti. Radha Ji, Mata Parwati and Mata Sita are the other names imparted to it. The Almighty plays, rejoice, enjoys with the nature. He is not dominated (controlled, suppressed, governed) by the nature like the human beings.
ॐ  AUM OM :: 
अ A :- It represents Brahma Ji-the creator and indicates the state of waking consciousness, together with its world of gross experience.
उ U :- It represents the nurturer Bhagwan Shri Hari Vishnu and represents the state of consciousness, together with its experience of subtle shapes.
म M :- It represents Bhagwan Shiv-MAHESH and the state of dreamless sleep, the natural condition of quiescent, undifferentiated consciousness, wherein every experience is dissolved into a blissful non-experience, a mass of potential consciousness.
It has been reported that the scientist at NASA have heard-recorded the vibrations over and above the frequency of 20,000 Hertz which is beyond the limits of normal human beings. These vibrations are continuously generated by the Sun-an incarnation-manifestation of the Almighty. Bhagwan Shri Krashn told Arjun that the knowledge of Geeta imparted to him was granted to Sun as well much before evolution when it was dark all over. These vibrations constituting of OM, ॐ, ओ३म् are those, which were created at the time of evolution.
Om-Aum stirs the whole body, which results in soothing nerves and regulation of proper blood flow-pressure in the arteries and the veins. 
ओ३म् बोलने से शरीर के अलग अलग भागों मे कंपन होते हैं जैसे कि 
अ Aa :: शरीर के निचले हिस्से (पेट के करीब) कंपन उत्पन्न करता है। 
It creates vibrations in lower abdomen. 
उ Uu; OO-oo :: शरीर के मध्य भाग (छाती के करीब) कंपन उत्पन्न करता है। 
It generates waves in the middle segment of the body around the chest and 
Mm म :: शरीर के ऊपरी हिस्से (मस्तिक में) कंपन  उत्पन्न करता है। 
It reverberate the brain, creating rhythm. One observes that the word Om-Aum produce vibrations in the body. Aaअ, Uu उ, Mm म Combination of these syllable brings one close to the Almighty automatically.
Om-Aum has extra ordinary healing powers and curative effects. It relives one from pain-tensions-sorrow-difficulties, if he concentrate in God and pronounce it repeatedly with ease. It allows one to meditate-concentrate in the God-Almighty to resolve all problems-difficulties.
There are some words which are very close to om ॐ ओम. In English one finds :-
(1). OMEN :: Good or Bad-evil (portent, sign, signal, token, forewarning, warning, fore shadowing, prediction, forecast, prophecy, harbinger, augury) (2). OMANI :: All of all things, omniscient-in all ways or places. omnipresent, omnipotent. In Gurumukhi Omkar, in Urdu Ameen.
Om is the sound produced by the newly born child. The frequency of the earth rotating around its axis is same as the one produced by OM. 
ॐ Om-Aum is a sacred sound and spiritual icon, connected as Dharmic-religious symbol, though it is universal governing the entire universe-cosmos. It is also a Mantr-the sound-hymn. Om is a spiritual symbol-Pratima (प्रतिमा, मूर्ति; idol, statue) referring to Atma (soul, self within) and the Brahm (Ultimate reality, entirety of the universe, truth, divine, supreme spirit, cosmic principles, knowledge).
This is used a prefix and suffix as well, adding meaning to the verse-rhyme-Mantr-Shlok, in the Veds, the Upnishads and scriptures-epics. It is a sacred spiritual incantation made before and during the recitation of spiritual texts, during Puja and private prayers, in ceremonies of rites of passages (Sanskar-virtues-good qualities) such as weddings and sometimes during meditative and spiritual activities such as Yog.
Om is part of the iconography found in ancient and medieval era temples, monasteries and spiritual retreats.
The syllable is also referred to as Omkar (ओंकार), Aumkar (औंकार), Pranav (प्रणव), Akshar-alphabet, Ekakshar-single alphabet .
It is the cosmic-mystical-divine sound, which was produced with the beginning of evolution. It symbolizes the abstract and spiritual in the Upanishads. It is core-theme-central idea-axis of the Vedic texts such as the Rig Ved.
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्; होतारं रत्नधातमम्।
[Rig Ved 1.1.1]
Om is divine acknowledgement, melodic confirmation, something that gives momentum and energy to a hymn. [Aitarey Aranyak 23.6]
The three phonetic components of Om (pronounced AUM) correspond to the three stages of cosmic creation and when it is read or said, it celebrates the creative powers of the universe. It is equated Om with Bhur-Bhuvah-Svah, the latter symbolising the whole Ved.[Aetarey Brahmn 5.32]
It represents-describes the universe beyond the Sun, which is mysterious and inexhaustible, infinite language, the infinite knowledge, essence of breath, life, everything that exists or that with which one is Liberated.
Sam Ved-the poetical Ved, orthographically maps Om to the audible, the musical truths in its numerous variations (Oum, Aum, Ova, Um, etc.) and then attempts to extract musical meters from it.
Om as a tool for meditation. It helps one in meditation, ranging from artificial and senseless to highest concepts such as the cause of the Universe, essence of life, Brahm, Atma and Self-realisation.
The syllable is also referred to as Pranav. Chhandogy Upnishad and the Shraut Sutr describes it as Akshar-alphabet, imperishable, immutable or Ekakshar-single alphabet and Omkar-beginning, female divine energy.
ॐ भूर्भुवस्व:, तत्सवितुर्वरेण्यम्; 
भर्गो देवस्य धीमहि; धियो यो न: प्रचोदयात्।
Gayatri Mantr describes the origin of the three abodes in Om. It is the desirable splendour of Savitr-Aura of the Sun, the Inspirer which stimulate one to insightful thoughts.[Rig Ved 3.62.10]
One should meditate-concentrate, on Om. Om is Udgeeth (उद्गीथ, song, chant) and asserts that it's significance is: The essence of all beings is earth, the essence of earth is water, the essence of water are the plants, the essence of plants is man, the essence of man is speech, the essence of speech is the Rig Ved, the essence of the Rig Ved is the Sam Ved and the essence of Sam Ved is the Udgeeth (song, Om).[Chhandogy Upnishad]
Rik (ऋच्, Ric) is speech and Sam (साम) is breath. They co-exist in pairs. They have love and desire for each other, so speech and breath find themselves together and mate to produce song. Thus the highest song is Om. It is the symbol of awe, of reverence, of threefold knowledge because Adhvaryu invokes it, the Hotr recites it and Udgatr sings it.[Chhandogy Upnishad 1.1] 
Om was used to gain victory-energy by the Devs-demigods to overcome the Asurs-demons. The struggle between demigods and demons is allegorical (symbolic, metaphorical, figurative, representative, emblematic, imagistic, mystical, parabolic, symbolising) since good and evil inclinations within man, coexists. The legend in section  states that Demigods took the Udgeeth (song of Om) unto themselves, thinking, with this song they would overcome the demons. So, the syllable Om is implied  to inspires the good inclinations-intentions within each person.[Chhandogy Upnishad 1.2]
It combines etymological speculations, symbolism, metric structure and philosophical themes. The meaning and significance of Om evolves into a philosophical discourse. Om is linked to the Highest Self.[Chhandogy Upnishad 2.10] 
Om is the essence of three forms of knowledge. Om is Brahm and Om is all this observed world.[Chhandogy Upnishad 2.23]
Nachiketa, son of sage Vajasravas, discussed the nature of man, knowledge, Atma (Soul, Self) and Moksh (Liberation), with Yam-Dharm Raj. It characterise Knowledge-Wisdom, as the pursuit of good and Ignorance-Delusion-Illusion, as the pursuit of pleasant, that the essence of Ved is to make the man liberated and free, look past what has happened and what has not happened, free from the past and the future, beyond good and evil and one word for this essence is Om.[Katha Upnishad 1.2]
This is the word which is proclaimed by the Veds. It is expressed in every holy-pious deeds i.e., Yagy, Hawan, Agnihotr, rituals, prayers, Katha Shrawan (listening, hearing), Tap-penance-austerity-meditation, offerings. One practices chastity-Brahmchary, while understanding-acquiring the essence of it.  It is identified with Brahm-the Supreme.[Katha Upnishad, 1.2.15-16]
Om represents Brahm-Atma-The Ultimate. The sound constitutes the body of Soul. It manifests in three forms: 
As gender endowed body:-Feminine, masculine, neuter.
As light endowed body:- Agni, Vayu and Adity.
As deity endowed body:- Brahma, Rudr and Vishnu. 
As mouth endowed body:- Grahpaty (गृहपत्य), Dakshinagni (दक्षिणाग्नि)  and Avahniy (आवाहनीय).
As knowledge endowed body :- Rig, Sam and Yajur Ved.
As world endowed body :- Bhur, Bhuvaḥ and Svah.
As time endowed body :- Past, Present and Future.
As heat endowed body :- Breath, Fire and Sun.
As growth endowed body :- Food, Water and Moon.
As thought endowed body :- Intellect, mind and psyche.
Brahm exists in two forms :- The material form and the immaterial-formless. The material form is changing, unreal. The immaterial-formless, has no specific shape or size, isn't changing, real. The immortal formless is truth, the truth is the Brahm, the Brahm is the light, the light is the Sun, which is the syllable Om as the Self.[Maetri Upnishad]
The world in itself, its light and the Sun are the manifestation of Om and the light of the syllable Om, asserts the Upnishad. Meditating on Om, is acknowledging and meditating on the Brahm-Atma (Soul, Self).[Mundak Upnishad]
The means to knowing the Self and the Brahm to be meditation, self-reflection and introspection, are aided by the symbol Om.[Mundak Upnishad 2]
That which is flaming, which is subtler than the subtle, on which the three worlds are set along with their inhabitants. That is the indestructible Brahm. It is life, it is speech, it is mind. It is the real. It is immortal. It is a mark to be penetrated. One has to penetrate it.[Mundak Upnishad, 2.2.2]
One has to take the great weapon of the Upnishad as a bow, put upon it the arrow, sharpened by meditation, stretching it with a thought directed to the essence of that, penetrate that Imperishable as the mark.[Mundak Upnishad, 2.2.3]
Om is the bow, soul is the arrow, Brahm the mark and it has to be penetrated by the man. One should come to be in it, as the arrow becomes one with the mark.[Mundak Upnishad, 2.2.4]
Adi Shankrachary, in his review of the Mundak Upnishad, states that Om is a symbolic for Atma-soul-self.
The whole world is contained in this syllable Om! It constitutes of a fourfold derived from A + U + M + silence, without an element.[Mundak Upnishad]
Aum constitutes the three dimensions of time::
Time is threefold: The past, the present and the future, that these three are Aum. The fourth of time is that which transcends time and that too is Aum.[Mundak Upnishad 1]
Aum as all states of Atma.
Everything is Brahm, but Brahm is Atma (the Soul, Self) and that the Atma is fourfold. These four states of Self, respectively are seeking the physical, seeking inner thought, seeking the causes and spiritual consciousness and the fourth state is realizing oneness with the Self, the Eternal.[Mundak Upnishad 2]
Aum constituents  all the states of consciousness::
It enumerates the four states of consciousness: Wakeful, dream, deep sleep and the state of Ekatm (एकात्म, being one with Self, the oneness of Self). These four are A + U + M + without an element respectively.[Mundak Upnishad 3-6]
Aum as all of knowledge: 
It enumerates four fold etymological roots of the syllable Aum. The first element of Aum is A, which is from Apti (आप्ति, obtaining, reaching) or from Aditv (आदित्व, original, being first). The second element is U, which is from Utkarsh (उत्कर्ष, exaltation) or from Ubhayatv (उभयत्व, intermediateness). The third element is M, from Miti (मिति, erecting, constructing) or from Mi Minati (मिनाति), or Apiti (आपिति, annihilation). The fourth is without an element, without development, beyond the expanse of universe. Om is in deed the Atma (soul, the self). [Mundak Upnishad 9-12]
Meditation by concentrating over the syllable Om, where one's perishable body is like one fuel-stick and the syllable Om is the second fuel-stick, which with discipline and diligent rubbing of the sticks unleashes the concealed fire of thought and awareness within. Such knowledge, asserts the Upnishad and is the goal of the Upanishads. The text asserts that Om is a tool of meditation empowering one to know the God within oneself, to realize one's Atma (Soul, Self).[Shwetashvtar Upnishad 1.14-16]
Om is the symbol for the indescribable, impersonal Brahm. Krashn to Arjun: I am the Father of this Universe, Mother, Ordainer, Grandfather, the Thing to be known, the Purifier, the syllable Om, Rik, Saman and also Yajus.[Shri Mad Bhagwad Geeta 9.17]
The importance of Om during prayers, charity and meditative practices: 
Uttering Om, the acts of Yagy (sacrificial fire ritual), Dan (charity, donation) and Tapas (austerity) as enjoined in the scriptures, are always begun by those who study the Brahm.[Bhagwad Geeta 17.24]
तस्य वाचकः प्रणवः॥1.27॥ 
His word is Om. This  aphoristic verse highlights the importance of Om in the meditative practice of Yog, where it symbolises three worlds in the Soul. The three divisions of time: Past, Present and the Future. Eternity, the three divine powers: Creation, Preservation and Transformation in one being. Three essences in one Spirit: Immortality, Omniscience and Joy. It is, a symbol for the perfected Spiritual Man (his emphasis).[Patanjali's Yog Sutr 1.27]
Om is the representation of the Trimurti and represents the union of the three Gods, viz. A for Brahma, U for Vishnu and M for Mahesh-Shiv. The three sounds also symbolise the three Veds, namely (Rig Ved, Sam Ved, Yajur Ved).[Vayu Puran]
Shiv is Om-Pranav and that Om is Shiv.[Shiv Puran]
It is the primordial sound associated with the creation of universe from nothing. [Maheshwaranand] 
Om is Ekam Akshram (एकम् अक्षरम्, one syllable). Udgeeth, a word found in Sam Ved and Bhasy (commentaries) based on it, is synonymous therein, with the syllable Oz.
[Ritualistic sacrifices associated with the chanting of sacred verses, Mantr, hymns, Shlok is Agnihotr-Hawan.]
अविनाशी भगवान विष्णु सतो गुण, रजो गुण और तमो गुण से  युक्त, निर्गुण व सगुण, सर्वगामी और सर्वव्यापी हैं। वे श्वेत द्वीप-क्षीर सागर में अनन्त नाग शय्या पर आसीन, चक्र-गदा, धारण करने वाले हैं। 
अविनाशी भगवान विष्णु सर्वगत, अव्यक्त, सर्वव्यापी जगन्नाथ चतुर्मूर्ति कहे जाते हैं। (1). वासुदेव नामक श्रेष्ठ पद (तर्क या अनुमान द्वारा अज्ञेय) एवं निर्देश किया जाने में अशक्य, (2). शुक्ल (शुद्ध), (3). शांति युक्त, (4). अव्यक्त (अप्रकट) एवं द्वादश पत्रक (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) द्वादश मन्त्र वाला कहा गया है।
पक्षियों में गरुड़, महान सर्पों में अनन्तनाग, जल में उत्पन्न होने वालों में कमल, देव-दैत्य-शत्रुओं में महादेव के चरणों का भक्त, क्षेत्रों में कुरु-जांगल, तीर्थों में पृथूदक, जलाशयों में उत्तर मानस (मान सरोवर), पवित्र वनों में नन्दन वन, लोकों में ब्रह्म लोक, धर्म कार्यों में सत्य प्रधान है। यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ, छूने योग्य (स्पर्श सुख) वाले पदार्थों में पुत्र सुखदायक है। तपस्वियों में अगस्त्य, आगम शाश्त्रों में वेद श्रेष्ठ हैं, पुराणों में मत्स्य पुराण, संहिताओं में स्वयम्भू संहिता,  स्मृतियों में मनुस्मृति, तिथियों में अमावश्या, विषुवों में मेष और तुला राशि में सूर्य के संक्रमण संक्रान्ति के अवसर पर किया गया दान श्रेष्ठ होता है। 
द्वादश पत्रक ::
प्रथम पत्रक :- ॐ उनकी शिखा में स्थित है और मेष राशि और वैशाख मास का प्रतीक है,
द्वितीय पत्रक :- न अक्षर उनके मुख में विद्यमान है और वहीं पर वृष राशि और ज्येष्ठ मास को दर्शाता है,
तृतीय पत्रक :- मो उनकी दोनों भुजाओं में स्थित और मिथुन राशि तथा आषाढ़ मास का द्योतक है,
चतुर्थ पत्रक :- भ अक्षर उनके नेत्रों में स्थिततथा कर्क राशि व श्रावण मास को दिखता है,
पञ्चम पत्रक :- ग अक्षर उनके ह्रदय में स्थित सिंह राशि और भाद्रपद मास का प्रतीक है,
षष्ठ पत्रक :- व अक्षर उनके कवच के रूप में कन्या राशि और आश्विन मास को दिखता है, 
सप्तम पत्रक :- ते उनके अस्त्र समूह के रूप में तुला राशि और कर्तिक मास को प्रकट करता है,
अष्टम पत्रक :- वा उनके नाभि रूप में है और वृश्चिक राशि और मार्ग शीर्ष मास का प्रतीक है,
नवम पत्रक :- सु जघन रूप में स्थित और धनु राशि और पौष मास को प्रकट करता है,
दशम पत्रक :- दे अक्षर उनके उरु युगल रूप में मकर राशि और माघ मास का द्योतक है,
एकादश पत्रक :- वा अक्षर उनके घुटने में विराजमान और कुम्भ राशि के साथ फाल्गुन मास के प्रतीक है,
द्वादश पत्रक :- य अक्षर उनके चरण द्व्यरूप में विद्यमान मं राशि और चैत्र मास को दर्शाता है। 
परमेश्वर की प्रथम मूर्ति :- उनका चक्र 12 अरों 12 नाभियों और 3 व्यूहों से युक्त है। 
द्वितीय रूप :- सत्वमय, श्रीवत्स धारी, अविनाशी स्वरूप, चतुर्वर्ण, चतुर्वाहु, और उदार अंगों से युक्त है। 
तृतीय मूर्ति :- हजारों पैरों एवं मुखों से सम्पन्न श्री संयुक्त तमोगुण मयी शेष मूर्ति प्रजाओं का प्रलय करती है। 
चतुर्थ रूप :- राजस रूप रक्तवर्ण, चार मुख, एवं दो भुजाओं एवं माला धारण किये है।  यही श्रष्टि करने वाला आदि रूप है। 
भगवान् विष्णु ने भगवती माँ लक्ष्मी से कहा :- मैं योगनिद्रा में तत्व का अनुसरण करने वाली अंतर्दृष्टि से अपने ही माहेश्वर तेज का साक्षात्कार करता हूँ। यह वही तेज है, जिसका योगी पुरुष कुशाग्र बुद्धि द्वारा अपने अन्तःकरण में दर्शन करते हैं। जिससे मीमांसक विद्वान वेदों का सार तत्व निश्चित करते हैं। वह माहेश्वर तेज एक अजर, प्रकाश स्वरूप, आत्मरूप, रोग-शोक रहित, अखण्ड, आनन्द का पुंज, निष्पन्द (निरीह) तथा द्वैत रहित है। इस जगत का जीवन उसी के अधीन है। मैं उसी का अनुभव करता हूँ और तुम्हें नींद लेता हुआ प्रतीत हो रहा हूँ। 
आत्मा का स्वरूप द्वैत औए अद्वैत से पृथक, भाव और  मुक्त तथा आदि और अन्त से रहित है। शुद्ध ज्ञान के प्रकाश से उपलब्ध होने वाला तथा परमानन्द स्वरुप होने के कारण एक मात्र सुन्दर है। यही मेरा ईश्वरीय  रूप है। गीता उसका बोध-उनके स्वरूप, जो स्वयं परमानन्दमय और मन और वाणी से बाहर है, कराती है।[पद्म पुराण]
ALMIGHTY-THE DIVINE WISDOM OF THE UPANISHADS :: The Almighty is one. All life forms are his incarnations, manifestations, fragments. HE is swifter than thoughts and the senses. Though motionless, yet HE outruns all pursuit. Without HIM nothing can exist or happen.
The Supreme Soul constituting of the Creator, Nurturer and the Destroyer seems to move, but is HE ever still. HE seems far away, but is ever near. HE is within all and HE transcends all.
One who identifies him selves with all creatures-living beings in him self and him self in all creatures, does not encounter fear, faces no grief. Multiplicity of life forms can not delude one, who has attained equanimity.
HE is everywhere. HE is indivisible, untouched by sin, wise, immanent and transcendent. HE is the one, who created the cosmos and keeps-hold it together. 
Senses are separate-detached from HIM-the unsmeared-untainted. The sense experience are fleeting and the wise never grieve-repent for them.
Above the senses is the mind, above the mind is the intellect and the prudence, above that is the ego and above the ego is the unmanifest cause. And beyond this is Brahmn, omnipresent, attribute less. Realising HIM, one is released from the cycle of birth and death.
HE is formless and can never be seen with these-human two eyes. But, HE reveals HIMSELF in the heart made pure through meditation and sense-restraint. Realising HIM, one is released from the cycle of birth and death.
When the five senses are stilled, when the mind is stilled, when the intellect is stilled, that is called the highest state by the wise. They say Yog is this complete stillness in which one unitise-immerse him self with the Supreme, never to separate again. One who does not establish him self in this state, the sense of unity will come and go.
As long as there is separateness, differentiation, distinction, one sees another entity as separate from oneself, hears another as separate from oneself, smells another as separate from oneself, speaks to another as separate from oneself, thinks of another as separate from oneself, knows another as separate from oneself. But when the Self-Almighty is realised as the indivisible unity of life, who can be seen by whom, who can be heard by whom, who can be smelled by whom, who can be spoken to by whom, who can be thought of by whom, who can be known by whom? 
HE is fire and the Sun and the Moon and the stars. HE is the air and the sea and the Creator-the Prajapati.
HE is this boy, HE is that girl, HE is this man, He is that woman and HE is this old man, too, tottering on HIS staff. HIS face is everywhere. HE is present in each and every one and looks in each and direction simultaneously.
HE is the blue bird; HE is the green bird with red eyes; HE is the thundercloud and HE is the seasons and the seas. HE has no beginning; HE has no end. HE is the source from whom, the worlds evolve.
HIS divine power casts a spell-illusion-mirage on each and every one, which appears in the form of pain and pleasure. Only when, one pierce through this magic veil, do he see the Ultimate, who appears in multiple forms. 
One becomes so as he acts-performs-functions. He who do good become good; one who do harm others, become bad. Good deeds make one pure; bad deeds make him impure, tainted, slurred, devil, sinner, wicked. One will become, what he desires-thinks. The will, deeds, desires shape the destiny.
One live in accordance with his deep, driving desires-ambitions. It is this desire at the time of death that determines what one's next life will be (next birth-incarnation or the abode-hell or heaven or the abode of the Almighty). One will return to earth, to satisfy his unfulfilled desires, targets, goals.
One, who has attained emancipation, liberation, assimilation in the eternal, will never return. Detachment-relinquishment, shelter (asylum, refuse, patronising) under the Almighty, devotion-Bhakti, equanimity, will keep him in association with the Ultimate, Supreme, The Almighty. One who breaks, severs all bonds, ties-connections, will never return. One who has offered all his deeds, virtues, goodness to the Ultimate will never come down.
Ceasing, fulfilment, renouncing make a mortal, immortal. The Self (a unit of the Almighty-soul), freed from the body, merges with the Brahmn-the infinite-eternal.
The Ultimate Bliss, Love, WHO projects HIMSELF into this universe of myriad forms, from WHOM all beings come and in WHOM all return; may HE grant the grace of wisdom to the devotee.
Anything which is better than the best-has no parallel or equivalent, represents  the Almighty. There is nothing parallel to HINDUISM. Its the ULTIMATE. Indian Hindu calendar is Ultimate. No place on earth is comparable to India-Bharat-Hindustan-Jambu Dweep.
The terrain between the holy rivers Ganga and Yamuna is the best suited place for those who perform virtuous-righteous, pious deeds and practice asceticism, meditation, Varnashram Dharm. No other place a comparable to these.
विष्णु के समान कोई ध्येय नहीं है, निराहार के समान कोई तपस्या नहीं है, आरोग्य के समान कोई बहुमूल्य वस्तु नहीं है, गंगा जी के समान कोई दूसरी नदी नहीं है, जगद्गुरु भगवान विष्णु को छोड़कर, दूसरा कोई बांधव नहीं है। देवताओं में विश्वात्मा भगवान नारायण। जप करने योग्य मन्त्रों में गायत्री। नदियों में गंगा जी। सतियों में हिमालय पुत्री स्त्रियों में पार्वती। तेजस्वियों-तपनेवालों में सूर्य। लाभों में आरोग्य लाभ। मनुष्यों में ब्राह्मण।पुण्यों में परोपकार। विद्याओं में वेद। मंत्रों में प्रणव। ध्यानों में आत्म चिन्तन।तपस्याओं में सत्य और स्वधर्म पालन। शुद्धियों में आत्म शुद्धि। दानों में अभयदान। गुणों में लोभ का त्याग। 
सब मासों में वैसाख। पापों का अन्त-सर्वोत्तम है जो कि वैसाख मास में प्रातः स्नान से प्राप्त होता है। 
पुण्यों का अन्त दूसरे की बुराई और चुगली से है अतः सर्वोत्तम है, इन से बचना। 
जीव का भारत वर्ष में जन्म ही दुर्लभ-सर्वोत्तम है। उससे भी दुर्लभ-सर्वोत्तम है, मानव योनि में जन्म। मनुष्य होने पर भी स्वधर्म का पालन दुर्लभ-सर्वोत्तम है; उससे भी दुर्लभ-सर्वोत्तम है भगवान् वासुदेव की भक्ति और वैसाख मास में एकादशी से पूर्णिमा तक पांच दिन गंगा, यमुना, नर्मदा, सरस्वती तीर्थ में स्नान का सुयोग-सर्वोत्तम है। जो धन होते हुए भी दान किये बिना मर जाता है उसका धन व्यर्थ है, अतः गुप्त दान-सर्वोत्तम है। अच्छे कुल में जन्म अच्छी मृत्यु, श्रेष्ठ भोग, सुख, सदा दान करने में प्रसन्नता उदारता तथा उत्तम धैर्य भगवत कृपा से ही प्राप्त होता-सर्वोत्तम है। कवियों में शुक्राचार्य। वृक्षों में पीपल। 
नक्षत्रों में चन्द्रमा, जलाशयों में समुद्र, निश्चेष्ट करने वाले पाशों में नागपाश, धानों में शालि, दो पैर वालों में ब्राह्मण, जंगली जानवरों में शेर, फूलों में चमेली, नगरों में कांञ्ची, नारियों में रम्भा, आश्रमियों में गृहस्थ, श्रेष्ठ हैं। 
सप्तपुरियों में द्वारका, समस्त देशोँ में मध्यदेश, फलों में आम, मुकुलों में अशोक, जड़ी बूटियों में हरीतकी,सर्वश्रेष्ठ हैं। मूलों में कन्द , रोगों में अपच, श्वेत वस्तुओं में दुग्ध और वस्त्रों में रुई के कपड़े श्रेष्ठ हैं। 
कलाओं में गणित, विज्ञानों में इन्द्रजाल, शाकों में मकोय, रसों में नमक, ऊँचे पेड़ों में ताड़, कमल सरोवरों में पम्पासर, बनैले जीवों में भालू, वृक्षों में वट, ज्ञानियों में महादेव वरिष्ठ हैं। गौवों में काली गाय, बैलों में नील रंग का बैल. सभी दु:सह कठिन एवं भयंकर नरकों में वैतरणी प्रधान है। पापियों में कृतघ्न प्रधानतम पापी होता है। दुराचारी और मित्र द्रोही कृतघ्न का करोड़ों वर्षों में भी निस्तार नहीं होता।[श्री वामन पुराण] 
ULTIMATE BOON-सर्वोच्च इच्छा :: Hindu has a firm faith that if he leaves the body at a holy place, he will attain salvation. Thousands and thousands of Hindus visit holy places, shrines, rivers in search of salvation after the death, in one or the other incarnations. They keep preparing them selves for the next birth by purifying their deeds in the current birth. Loss of lives at Kedar Nath and Badri Nath along with the two shrines of Gangotri and Yamunotri, has some thing in common i.e., the desire of the deceased to part their bodies during their last journey at the feet of the Almighty, i.e., in Dev Bhumi. Its a tradition in India to keep shroud during the pilgrimage, especially by the old people, who have renounced the world. 
One must not grieve for the departed souls. Their boons-desires have been fulfilled. The God is omniscient-having infinite knowledge, knowledge of every thing, omnipotent-having infinite power and benevolent-kind & helpful. One should pray to the God to provide the departed souls with peace and renunciation, instead of questioning his wisdom.
People believe that the God punishes one for his evil acts, sins and misdeeds. HIS ways are didactic-intended to teaching, explain, alert the mankind and penal-providing punishment for wicked actions.
There are hints-prophesies in Sanat Sanhita pertaining to blocked of roads, paths, tracks to Badri Nath and Kedar Nath that Bhagwan Shiv will emerge-replicate, elsewhere-Bhavishy (future) Badri, when the present sites become inaccessible. Bhavishy Kedar, on the out skirts of Joshi Math is believed to be a place, where HE has already emerged as Swambhu (self manifested) Shiv Ling, has been rising on its own in the past few years. It has become almost as big as the original Ling of Kedar Nath Ji.
One should avoid visiting the shrines-Holy places for the purpose of picnic, excursion, time pass, honey Moon, since any visit of this nature, accompanied with evils, wicked, vicious acts-desires may land him in trouble.
माहात्म्य की दृष्टि से गीता के अठारहवें अध्याय का श्रवण-अध्ययन सायुज्य मुक्ति प्रदान करने वाला है। गीता का श्रवण-अध्ययन वेदों-पुराणों के पाठ से भी उत्तम फलदायक है। 
MENIFESTATIONS OF THE GOD-DEITIES देवगण :: 
भगवान् श्री कृष्ण :: जगत के उत्पत्ति कर्ता; Bhagwan Shri Krashn is the first embodiment of the Nirakar Almighty.  
भगवती राधा :: भगवान् श्री कृष्ण की चिर संगिनी; Bhagwati Radha: The power-might-strength of the Almighty.
विराट पुरुष :: महाविष्णु-भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी के पुत्र-समस्त बृह्मांडों के जनक; The creator of  all Universes, Son of Bhagwan Shri Krashn and Radha Ji. 
भगवान् विष्णु :: पालन हार; Almighty Bhagwan Vishnu:- The Nurturer.
भगवान्  ब्रह्मा जी ::  उत्पत्ति कर्ता; Almighty Bhagwan Brahma Ji: The Creator.
भगवान् शिव :: विध्वंसक-नष्ट कर्ता; Almighty Bhagwan Shiv:-  The Destroyer. 
इन्द्र देवताओं के राजा; INDR :: King of Heaven-Demigods, Nurturers-protects earth through rains and nourishment.
पवन-मारुत-वायु देव PAWAN DEV :: वायु प्रवाह; Deity of wind-air. 
वरुण VARUN DEV :: जल के देवता; Deity of water-rain.
समुद्र OCEAN :: पृथ्वी पर जल के संग्रह कर्ता;  Incarnation of Bhagwan Vishnu-Ocean.
पवित्र नदियाँ HOLY RIVERS :: गँगा, यमुना, सरस्वती, सिन्धु, नर्मदा, कावेरी, गोदावरी गोमती  :: Ganga, Yamuna, Saraswati, Sindhu, Narmada, Kaveri, Godavari, Gomti.  
गणेश GANESH :: विघ्न विनाशक, रुकावट-परेशानी दूर कर्ता; son of Bhagwan Shiv and Maa Parwati, protects from troubles, makes the job easier, helps in over coming difficulty. Provides enlightenment, intelligence, prudence.
शक्ति BHAGWATI (पार्वती, शिव पत्नी, दुर्गा, भवानी, अम्बे) :: भगवती अवतार-शक्ति दायक; Shakti; Wife-consort of Bhagwan Shiv-grants might-power-strength.
धनवंतरी DHANWANTRI :: चिकित्सा; Son of Samudr-The Divine Doctor. 
अश्वनी कुमार ASHWANI KUMAR :: देव चिकित्सक, भगवान् सूर्य के दो पुत्र; Two sons of Bhagwan Sury, Doctor of demigods-deities.
भगवान् कार्तिकेय BHAGWAN KARTIKEY :: भगवान् शिव व माता पार्वती के पुत्र, देव सेनापति; Chief of Divine armies.
माता लक्ष्मी GODDESS OF WEALTH :: भगवान् विष्णु की पत्नी-धन की देवी, समुद्र पुत्री, Daughter of Samudr & Wife of Bhagwan Vishnu
माता सरस्वती MATA SARASWATI :: भगवान् विष्णु की पत्नी, ज्ञान-संगीत की देवी, Goddess-Deity of learning & Music.
कुबेर KUBER :: धन के रक्षक-खजांची, यक्षों के राजा, रावण के बड़े भाई; King of Yaksh & Treasurer, Ravan's elder brother.
शनि SATURN :: भाग्य के देवता, भगवान् सूर्य के पुत्र; Deity of Luck. son of Bhagwan Sury-Sun.                                                         
वृहस्पति VRAHASPATI :: देव गुरु; Philosopher-teacher & guide of Demigods-deities.
शुक्र VENUS :: राक्षसों के गुरु, सर्वश्रेष्ठ कवि; Philosopher-teacher & guide of Demons-Rakshas, Giants, King of Poets, Master of Earth.
चन्द्र देव, MOON :: ब्राह्मणों के राजा, औषधियों के उत्पत्ति करता और रक्षक, प्यार-मोह;  Son of Samudr & King of Brahmns, nourishes medicines, love, imagination, travel.
बुद्ध MERCURY :: चन्द्र पुत्र-चतुराई-ज्ञान, बुद्धि के दाता; Son of Chandr-Moon, Provides intelligence. Kaurav Vansh originated from him.
काम देव KAM DEV :: काम-उत्तेजना, वासना, प्यार; Sensuality, Sex, Lust, Sexuality, Passions, Lasciviousness.
रति RATI :: काम देव की पत्नी-काम वर्धक; helps her husband in sexual pleasure-passions, sensuality. 
मंगल MARS :: भगवान् शिव व पृथ्वी पुत्र; Son of Bhagwan Shiv & earth, War, Welfare.
हनुमान HANUMAN :: 11 वे रूद्र, शिव स्वरूप देवताओं के रक्षक व सहायक; Protector of Deities-Demi Gods, Son of Pawan Dev. 
पृथ्वी EARTH :: समस्त प्राणियों का भार धारण करने वाली; Bears all the creatures over her.
यम राज-धर्म राज DHARM RAJ :: मृत्यु, धर्म कर्म, पुनर्जन्म, लोक-परलोक निर्धारण, कर्म फल; Deity of Death-Rebirth and Karm-deeds.
भगवान् शेष नाग BHAGWAN SHESH NAG :: पृथ्वी को अपने फन पर धारण करने वाले-भगवान विष्णु के शेष अवतार, लक्षमण जी और बलराम जी उन्हीं के अवतार थे; Incarnation of Bhagwan Vishnu; holds the earth in its orbit round the Sun on his hood, Lakshman Ji & Balram Ji were his incarnation. 
अहं स शुक्तिसङ्काशो रूप्यवद् विश्वकल्पना। 
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः॥
यह विश्व मुझ में वैसे ही कल्पित है जैसे कि सीप में चाँदी। यह ज्ञान है, इसका न त्याग करना है और न ग्रहण बस इसके साथ एकरूप होना है।[अष्टावक्र गीता 6.3] 
“Identify the world in the Supreme soul-God, as the silver in conch-shell (due to ignorance, illusion, mistake), is the theme-central idea”, with which the individual has to identify himself without accepting or rejecting it.
The Almighty is real and the universe is fake-illusion.

परब्रह्म परमेश्वर और देवगण :: परमात्मा के साकार और निराकार दोनों ही रुप हैं। वह सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों में है। वह कोई भी रूप-आकृति ग्रहण कर सकता है। उसे हम भगवान्, ईश्वर, परमात्मा, God, Almighty आदि नामों से जानते हैं। उसका न तो आदि है और न ही अन्त अर्थात वह अनादि-अनन्त है। वह वर्तमान में स्थित है। अनन्त ब्रह्माण्ड और प्रकृति उसी की रचनाएँ हैं, जो उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं।
उसके स्वरूप का बोध भी ॐ कार के द्वारा ही होता है। "ॐ कार" "अ", "उ" और "म" कार रूप तीन मात्राओं से युक्त है। इस ॐ कार की शक्ति से ही प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त रूप में परिणित हो जाती है। 
समस्त जीव उसी से उत्पन्न हुए हैं। वह ब्रह्म, मन और बुद्धि का विषय नहीं है और प्रकृति से परे है। परमात्मा को स्वयं करण-निरपेक्ष ज्ञान से ही जाना जाता है। सर्वव्यापी होने के कारण, वह सीमित मन, बुद्धि, इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह चिन्मय सर्वत्र परिपूर्ण है। उसका वर्णन संकेत, भाषा, वाणी से सम्भव नहीं है। वह एक रस, निर्विकार और निर्लिप्त है। उसमें किञ्चित मात्र भी परिवर्तन संभव नहीं है। अतः वह कूटस्थ (जिसे घड़ा न जा सके) है। वह ब्रह्म, अटल, अविचल है। उसकी सत्ता निश्चित और नित्य है, अतः ध्रुव है। उसका कभी विनाश नहीं होता, अतः अक्षर है। वह मन, बुद्धि, इन्द्रियों का विषय न होने से अव्यक्त है।
ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्व शक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।
सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री, सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण वैराग्य; इन छः का नाम भग है। जिन पूर्णतम परमेश्वर में ये छहों परिपूर्ण रूप से नित्य-निरंतर स्थित रहते है, वे भगवान् कहे जाते हैं।
अंगुष्ठ मात्र परिमाण वाला, परम पुरुष-परमात्मा, शरीर के मध्य भाग अर्थात हृदयाकाश में स्थित है, जो कि भूत, भविष्य और वर्तमान का शासन करने वाला है। उसे जान लेने के बाद जिज्ञासु-मनुष्य किसी की निन्दा नहीं करता। यही वह परम तत्व है।[कठोपनिषद् 2.1.13]
ॐ, तत्, सत्, इन तीन प्रकार के नामों से जिस परमात्मा का निर्देश (संकेत) किया गया है, उसी परमात्मा से सृष्टि के आदि में वेदों तथा ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना हुई है।[श्रीमद् भगवद्गीता 17.23]
हमारी पृथ्वी पर वह केशव, क + अ + ईश है। "क" भगवान् ब्रह्मा, "अ" भगवान् विष्णु और "ईश" भगवान् शिव अर्थात त्रिदेव का द्योतक है।
आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, दक्ष आदि प्रजापति और प्रपितामह-ब्रह्मा जी के भी पिता हैं। आपको हजारों नमस्कार हों। नमस्कार हों और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हों। नमस्कार हों।[श्रीमद् भगवद्गीता 11.39]
उसे इन्द्रियों को वश में करके, अन्तर्मन-अन्तःकरण से राग को खत्म करके, इन्द्रियों को उसमें एकाग्र-केन्दित करके सगुण स्वरूप में जाना जा सकता है। उसे करण-निरपेक्ष ज्ञान से ही जाना जाता है। सर्वव्यापी होने के कारण, वह सीमित मन-बुद्धि-इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता।
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत्‌ व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके, मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.46]
सन्दर्भ :: THE ALMIGHTY-GOD भगवान, ईश्वर, परमात्मा,  परब्रह्म परमेश्वर santoshkipathshala.blogspot.com
देवगण :: गौलोकवासी भगवान् श्री कृष्ण, भगवती राधा, विराट पुरुष (महाविष्णु-भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी के पुत्र-समस्त बृह्मांडों के जनक), भगवान् श्री हरी विष्णु, भगवान् ब्रह्मा जी, भगवान् शिव, इन्द्र देवताओं के राजा, पवन (मारुत, वायु देव), वरुण, समुद्र, पवित्र नदियाँ (गँगा, यमुना, सरस्वती, सिन्धु, नर्मदा, कावेरी, गोदावरी, गोमती), गणेश, शक्ति (पार्वती, शिव पत्नी, दुर्गा, भवानी, अम्बे), धनवंतरी, अश्वनी कुमार, भगवान् कार्तिकेय, माता लक्ष्मी, माता सरस्वती, कुबेर, शनि, वृहस्पति, शुक्र, चन्द्र देव, बुद्ध, काम देव, रति, मंगल, हनुमान, पृथ्वी, यम राज-धर्म राज, भगवान् शेष नाग उसकी विभूति-विशिष्ट रचनायें हैं।
36 तुषित, 10 विश्वेदेवा, 12 साध्य देव, 64 आभास्वर, 49 मरुत्, 220 महाराजिक मिलाकर कुल 424 देवता और देवगण हैं। गणों की सँख्या अनन्त है। प्रमुख देवताओं की सँख्या 33 ही है। इसके अलावा प्रमुख 10 आंगिरस देव और 9 देवगण भी हैं। महाराजिकों की कहीं-कहीं संख्या 236 और 226 भी मिलती है।[नामलिङ्गानुशासनम्]
देवलोक में पशु-पक्षी, पेड़-पौधे भी देवत्व प्राप्त करके उचित स्थान प्राप्त कर लेते हैं। इसमें उनकी पूर्वजन्मों की सतकर्मों, तपस्या, दान-पुण्य, ईश्वर आराधना सक्रिय होते हैं। पारिजात स्वर्ग का वृक्ष है।
देवलोक-स्वर्गों में भोग-विलास का बाहुल्य है।  
भगवान् श्री कृष्ण की माला में पुष्पों के इर्द-गिर्द भौंरे घूमते रहते हैं।  
भगवान् श्री राम के सहयोगी वानर देवलोक से अपने-अपने अंशों से पृथ्वी पर जन्म लेकर उत्पन्न हुए थे।
देवलोक में अपने पुण्यों-सतकर्मों को भोग करके प्राणी पुनः पृथ्वी लोक में लौट आता है। 
गौलोक में गायों को देवत्व प्राप्त है।
जो व्यक्ति धर्म-कर्म, ज्ञान, भक्ति-मोक्ष मार्ग का अनुसरण करता है वह ईश्वर को प्राप्त करके जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाता है। 
सन्दर्भ :: DEMIGODS 33 कोटि देवता santoshsuvichar.blogspot.com

 
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