सृष्टि रचना
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।
Video link :: https://youtu.be/KzAhHfzIDwY
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥
और हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज-मूल कारण है, वह बीज भी मैं ही हूँ; क्योंकि वह चर-अचर कोई प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना अर्थात चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.39]The Almighty stressed that HE was the root cause-seed of evolution of every entity, whether living or non living. Nothing animate or inanimate happen or exist without HIM.
भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि संसार का निमित्त वही हैं। जड़-चेतन, चर-अचर, स्थावर-जङ्गम सभी कुछ वही हैं। उनके बगैर संसार में पत्ता भी नहीं हिलता। सत्व, रज और तम तीनों गुण भी प्रभु ही हैं। अतः मनुष्य को हर वस्तु, भाव, प्राणी में परमात्मा को ही देखना, सोचना, समझना चाहिए।
The Almighty is the root cause, seed of every activity, happening, animate or inanimate. HE is behind every activity virtuous, divine, demonic or otherwise. One should remember that the God is present in each and every one-entity of the organisms or the material objects. Nothing is possible without HIM. However, HE appears as excellent character in some of his creations.
भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि संसार का निमित्त वही हैं। जड़-चेतन, चर-अचर, स्थावर-जङ्गम सभी कुछ वही हैं। उनके बगैर संसार में पत्ता भी नहीं हिलता। सत्व, रज और तम तीनों गुण भी प्रभु ही हैं। अतः मनुष्य को हर वस्तु, भाव, प्राणी में परमात्मा को ही देखना, सोचना, समझना चाहिए।
The Almighty is the root cause, seed of every activity, happening, animate or inanimate. HE is behind every activity virtuous, divine, demonic or otherwise. One should remember that the God is present in each and every one-entity of the organisms or the material objects. Nothing is possible without HIM. However, HE appears as excellent character in some of his creations.
There is evidence in hand that numerous temples were present over the earth in exactly same longitude and latitude. There is sufficient evidence in hand indicating use of aeroplanes and airports at several locations all over the world.
Recent excavations in India have thrown open a human 22 feet skeleton and Roop Kund skeletons were around 40 feet in size. An earlier skeleton excavated in Punjab was also 40 feet in size, which mysteriously disappeared from India. scriptures quote that the humans had a body which used to be 40 feet in size in Sat Yug and it will be reduced to two and a half feet in the later segment of Kali Yug which is of 2,40,000 years out of which just 5,018 years have passed.
All these and the latest discoveries reveal use of highly sensitive equipment for building of temples and airports, including something like laser beams for cutting and precision. They all indicate that HINDUISM IS ETERNAL-IMPERISHABLE-PERPETUAL. [13.03.2018]
सना पुराणमध्येम्यारान्महः पितुर्जनितुर्जामि तन्नः।
देवासो यत्र पनितार एवैरुरौ पथि व्युते तस्थुरन्तः॥
हे द्यो! आप महान हैं, आप सबका जनन कर पालन करती है। सनातनता, पूर्वक्रमागता हम लोगों का जननत्व सब एक से ही उत्पन्न हुआ है। द्यौ बहन होती है। हम अभी उसका स्मरण करते हैं। द्युलोक में विस्तीर्ण और विविक्त आकाश में आपकी प्रार्थना करने वाले देवता अपने वाहनों के साथ स्थित हैं। वहाँ ठहरकर वे स्तोत्र श्रवण करते हैं।[ऋग्वेद 3.54.9]
हे आकाश-धरती तुम सभी की जन्मदात्री हो, सभी को घोषण तुम ही करती हो। तुम्हारी प्राचीनता, पहले क्रम से विकास और हमारा उत्पादन इन सभी का एक ही कारणभूत है। अम्बर भगिनी रूपा है। हम उन सभी का चिन्तन करते हैं।
Hey sky & earth! You are great. You evolve all and nourish them. Source of evolution is same-common. Sky and earth are like sisters. We pray-worship them.
MATA BHAGWATI-SPLIT HALF OF THE ALMIGHTY माँ भगवती-परमात्मा वामांग ::
ॐ देवी ह्येकाग्र आसीत् सैव जगदण्डमसृजत्। कामकलेति विज्ञायते। शृङ्गारकलेति विज्ञायते। तस्या एव ब्रह्मा अजीजनत्। विष्णुरजीजनत्। रुद्रोऽजीजनत्। सर्वे मरुद्रणा अजीजनन्। गन्धर्वाप्सरसः किन्नरा वादित्रवादिन: समन्तादजीजनत्। भोग्यमजीजनत्। सर्वमजीजनत्। सर्वं शाक्तम्जीजनत्। अण्डजं स्वेदजमुद्भिज्जं जरायुजं यत्किञ्जैतत्प्राणिस्थावरजङ्गमं मनुष्यमजीजनत्। सैषापरा शक्ति:। सैषा शाम्भवी विद्या कादिविद्येति वा हादिविद्येति वा सादिविद्येति वा रहस्यम्। ओमों वाचि प्रतिष्ठा सैव पुरत्रयं शरीरत्रयं व्याप्य बहिरन्तरवभासयन्ती देशकालवस्त्वन्तरसङ्गान्महात्रिपुरसुन्दरी वै प्रत्यक् चिति:।
ॐ एक मात्र देवी ही सृष्टि से पूर्व थीं। उन्होंने ही ब्रह्माण्ड की सृष्टि की, वे काम कला के नाम से विख्यात हैं। वे ही शृङ्गार की कला कहलाती हैं। उन्हीं से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, विष्णु प्रकट हुए, रुद्र प्रादुर्भूत हुए, समस्त मरुद्गण उत्पन्न हुए, गाने वाले गन्धर्व, नाचने वाली अप्सराएँ और वाद्य बजाने वाले किन्नर सब ओर उत्पन्न हुए, भोग सामग्री उत्पन्न हुई, सब कुछ उत्पन्न हुआ, समस्त शक्ति सम्बन्धी पदार्थ उत्पन्न हुए, अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज, जरायुज-सभी स्थावरजङ्गम प्राणी-मनुष्य उत्पन्न हुए। वे ही अपरा शक्ति हैं। वे ही शाम्भवी विद्या, कादि अथवा हादि विद्या या सादि विद्या अथवा रहस्यरूपा हैं। वे ॐ अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूप से वाणी मात्र में प्रतिष्ठ हैं। वे ही (जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति) इन तीनों पुरों तथा (स्थूल, सूक्ष्म और कारण) इन) तीनों के शरीरों को व्याप्त कर बाहर और भीतर प्रकाश फैलाती हुई देश, काल तथा वस्तु के भीतर असङ्ग रहकर महात्रिपुर सुन्दरी प्रत्यक् चेतना हैं।[बह्वचोपनिषद्]
It was only Devi (Bhagwati) prior to evolution. She created the universe. She is famous as Kam Kala-phase of time (Kam means sex as well & so it means the deity of evolution-production). She is a phase of the art of make up-beautification. Brahma Ji, Bhagwan Vishnu & Bhawan Shiv evolved out of her. Marud Gan, Gandarbh (divine singers) dancing Apsara-nymphs, Kinnars-divine instrument players (eunuchs), goods-materials of comforts-amenities, organisms which are born out of the egg, sweat, body growth and from the womb-placentas, movable-fixed (trees-shrubs) evolved out of her. She is Apra Shakti, Shambhavi Vidya, Kadi-Hadi Vidya or Sadi Vidhya or covered in shroud-mystery. She is present in the form of Sachchidanand in the voice-speech. She is present in the three states of consciousness (awake, dreams, sleep) and the three forms of the body (material, micro-after death & the replica of earlier body moving to new incarnation). She lightens the inner & outer; Desh-place, Kal-time and the material world as consciousness in the form of Tripuri Sundari.
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार-इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित यह अपरा प्रकृति है और हे महाबाहो! इस अपरा प्रकृति से भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी परा प्रकृति को जान, जिसके द्वारा यह जगत धारण किया जाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 7.4-5] Earth, water, fire, air, sky (space, ether) are the basic ingredients, the mind (inner self, conscience, psyche, thoughts, ideas, gestures, intelligence, Buddhi) & the egoism (Ahankar, pride, arrogance); constitutes the eight fold divisions of this impure nature of the infinite past-time immemorial that has elapsed and in addition to these stands the pure nature of the Almighty which supports this world.
परमात्मा की प्रकृति परमात्मा से अलग नहीं है। परमात्मा का अंश होने से जीव भी उससे अलग नहीं है। अपरा से सम्बन्ध होने के कारण ही मनुष्य को प्रकृति कहा गया है। अपरा प्रकृति निकृष्ट, जड़ और परिवर्तन शील है। परा प्रकृति श्रेष्ठ, चेतन और परिवर्तन रहित है। परा प्रकृति ने ही अपरा प्रकृति को धारण कर रखा है।
Nature created by the Almighty is not distinguished from the Almighty. The organism too is a component of the Almighty and hence he too is not distinguishable from HIM. Connection with the impure-contaminated makes the humans a component of the nature. The contaminated nature is inertial (stagnant, lethargic) and subject to change. The Para-pure is excellent-Ultimate, is alive and free from change. The Para-pure component of nature has supported the Apara-impure as well. The Almighty explained to Arjun by calling him Maha Baho! that both components of nature were supported by HIM i.e., the Para-pure and the impure as well component.
परमात्मा की प्रकृति परमात्मा से अलग नहीं है। परमात्मा का अंश होने से जीव भी उससे अलग नहीं है। अपरा से सम्बन्ध होने के कारण ही मनुष्य को प्रकृति कहा गया है। अपरा प्रकृति निकृष्ट, जड़ और परिवर्तन शील है। परा प्रकृति श्रेष्ठ, चेतन और परिवर्तन रहित है। परा प्रकृति ने ही अपरा प्रकृति को धारण कर रखा है।
Nature created by the Almighty is not distinguished from the Almighty. The organism too is a component of the Almighty and hence he too is not distinguishable from HIM. Connection with the impure-contaminated makes the humans a component of the nature. The contaminated nature is inertial (stagnant, lethargic) and subject to change. The Para-pure is excellent-Ultimate, is alive and free from change. The Para-pure component of nature has supported the Apara-impure as well. The Almighty explained to Arjun by calling him Maha Baho! that both components of nature were supported by HIM i.e., the Para-pure and the impure as well component.
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा॥
हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों के उत्पन्न होने में परा और अपरा-दोनों ही प्रकृतियों का संयोग है। सम्पूर्ण जगत के प्रभव-उद्भव और पराभव-प्रलय का कारण भी मैं ही हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 7.7] The Almighty Shri Krashn told Arjun that it was HE who was behind evolution and devastation-dissolution. The Pure-Para & contaminated-Apara constituents intermingled to generate the universe.
समस्त जीवधारी, दैवीय और मैथुनी सृष्टि, स्थावर-जंगम, पेड़-लता, पशु-पक्षी, देवता-दानव, मनुष्य-पशु सभी परमात्मा की परा और अपरा प्रकृति के संयोग से ही उत्पन्न होते हैं। इनमें जो जीव-जीवात्मा है, वो प्रभु का अंश ही है। स्वर्ग लोक, मृत्यु लोक-पृथ्वी और पाताल लोक के समस्त प्राणी भी इसी संयोग से उत्पन्न होते हैं। इन्हें सत्ता, स्फूर्ति परमात्मा से प्राप्त होती है अतः वो ही उद्भव और प्रलय के कारण हैं। इन सबमें जड़ अंश तो परिवर्तन शील है, परन्तु चेतन (आत्मा, परमात्मा का अंश) अपरिवर्तन शील और निर्विकार है। इन सबके कारण और कार्य स्वयं भगवान् हैं।
All types of life forms, whether divine or physical, have evolved from the Almighty by the composition of the two components of the nature. The stationery (static, inertial-fixed) forms as well as demigods, demons, trees, animals are the result of the inter mixing of the two basic components of the Almighty (Pure & Impure). Out of these two the soul which energise the body, make it alive, is the main component of the Almighty. The organisms-residents of heaven, earth and the Patal-nether world are created by the intermixing of the Para & the Apara components of the Almighty. HE is the root cause behind evolution as well as destruction (dissolution, devastation). Out of these two basic components, the inertial component is subject to change, while the soul always remains intact. The soul which energise the organism is untainted (unsmeared, unchanged). The Almighty is the reason-force, behind all these activities-actions.
मत्तः परतरं नान्य-त्किंचिदस्ति धनंजय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥
हे धनंजय! इस जगत का मुझ से भिन्न दूसरा कोई किंचित मात्र भी कारण और कार्य नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मुझ में गुँथा हुआ, मेरे में ही ओत-प्रोत है।[श्रीमद्भगवद्गीता 7.7] The Almighty Shri Krashn revealed to Dhananjay-Arjun that the universe-world has no other cause or motive other than HIM. This world is closely knit like the (woven as clusters of gems on a string) beads of a rosary in HIM.
जिस प्रकार माला में मोती गुँथे होते हैं, उसी प्रकार समस्त स्रष्टि परमात्मा से ओत-प्रोत है। तात्पर्य यह कि इसका अगला और पिछला सिरा कौन सा है, यह जानना मनुष्य के लिए कठिन है। इस माला को गूँथने की इच्छा रखने वाला-कारण और गूँथने वाला कार्य एक मात्र परमेश्वर ही है। मणिरूप अपरा प्रकृति और धागे के रूप में परा प्रकृति, दोनों में ही परमेश्वर परिपूर्ण हैं। अपरा प्रकृति स्थावर जंगम, जलचर-नभचर, चौदह भुवन, चौरासी लाख योनि जैसे अनन्त रूपों और अनन्त समुदायों में विभक्त है। इन सबको बाँधकर रखने, संचालित करने वाली शक्ति स्वयं परा शक्ति परब्रह्म परमेश्वर भगवान् हैं।
The manner in which the pearls (jams, beads) are linked together, the entire universe is channelized-held together by the Almighty, like the string of the rosary. One who desired to join, knit, connect the whole universe (Super galaxies, stars, solar systems, nebulae, satellites, planets) is the Almighty HIMSELF. The jewels represents the Apra Prakrti (tainted-contaminated nature) and the thread-cord joining them is the Para (Pure, uncontaminated) nature and both have the Almighty HIMSELF linking them. The impure-Apara has all the creatures, whether divine or physical, all the 14 abodes and all the 84,00,000 species in addition to infinite numbers of other constituents divided into infinite categories. The force which channelise-operate them is the Almighty HIMSELF.
जिस प्रकार माला में मोती गुँथे होते हैं, उसी प्रकार समस्त स्रष्टि परमात्मा से ओत-प्रोत है। तात्पर्य यह कि इसका अगला और पिछला सिरा कौन सा है, यह जानना मनुष्य के लिए कठिन है। इस माला को गूँथने की इच्छा रखने वाला-कारण और गूँथने वाला कार्य एक मात्र परमेश्वर ही है। मणिरूप अपरा प्रकृति और धागे के रूप में परा प्रकृति, दोनों में ही परमेश्वर परिपूर्ण हैं। अपरा प्रकृति स्थावर जंगम, जलचर-नभचर, चौदह भुवन, चौरासी लाख योनि जैसे अनन्त रूपों और अनन्त समुदायों में विभक्त है। इन सबको बाँधकर रखने, संचालित करने वाली शक्ति स्वयं परा शक्ति परब्रह्म परमेश्वर भगवान् हैं।
The manner in which the pearls (jams, beads) are linked together, the entire universe is channelized-held together by the Almighty, like the string of the rosary. One who desired to join, knit, connect the whole universe (Super galaxies, stars, solar systems, nebulae, satellites, planets) is the Almighty HIMSELF. The jewels represents the Apra Prakrti (tainted-contaminated nature) and the thread-cord joining them is the Para (Pure, uncontaminated) nature and both have the Almighty HIMSELF linking them. The impure-Apara has all the creatures, whether divine or physical, all the 14 abodes and all the 84,00,000 species in addition to infinite numbers of other constituents divided into infinite categories. The force which channelise-operate them is the Almighty HIMSELF.
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥
जो मनुष्य ब्रह्मा जी के एक हजार चतुर्युग वाले एक दिन को और एक हजार चतुर्युग वाली एक रात्रि को जानते है; वे मनुष्य ब्रह्मा के दिन और रात को जानने वाले हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.17] One who is aware of the division of time in Brahm Lok of Brahma Ji as a single day or night, is aware of the fact that its equivalent to earth's 1,000 Chatur Yugi. This constitutes of 4.32 billion solar years and that the night too is composed of 4.32 billion solar years, on earth.
सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि इन चारों को मिलकर मृत्युलोक में एक चतुर्युगी बनती है। ऐसी एक हजार चतुर्युगी के बराबर ब्रह्मा जी का एक दिन और इसी परिमाण में उनकी एक रात होती है। 100 वर्ष की आयु के उपरान्त ब्रह्मा जी परमात्मा में लीन हो जाते हैं। उनके ब्रह्म लोक का विलय प्रकृति के साथ हो जाता है। आयु कितनी ही बड़ी क्यों न हो, एक ना एक दिन पूरी हो ही जाती है। केवल परमात्मा ही कालातीत हैं। जिस मनुष्य को इस बात का अहसास-ज्ञान है, वो ब्रह्म लोक के सुखों तक को महत्व नहीं देता और केवल परमात्मा को प्राप्त करने का उद्यम करता रहता है।
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The time over the earth is measured in solar years. One single day of Brahma Ji-the creator, constitutes of 4.32 billion solar years, divided into Saty, Treta, Dwapar and Kali Yug. This period is equivalent to Brahma Ji's one day or one night called Kalp on earth. Bhagwan Brahma is scheduled to survive for 100 divine years, after which he is sure to assimilate in the Almighty, since he too is busy in ascetic-meditative practices in Brahm Lok, simultaneously; along with performing the duties assigned to him by the Almighty. His Brahm Lok is the highest abode-Lok, amongest the heavens, too will assimilate in mother nature. Howsoever long the age might be, one day or the other it will vanish. One who has realised this does not crave for heavens and concentrate over Bhakti & Salvation.
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The time over the earth is measured in solar years. One single day of Brahma Ji-the creator, constitutes of 4.32 billion solar years, divided into Saty, Treta, Dwapar and Kali Yug. This period is equivalent to Brahma Ji's one day or one night called Kalp on earth. Bhagwan Brahma is scheduled to survive for 100 divine years, after which he is sure to assimilate in the Almighty, since he too is busy in ascetic-meditative practices in Brahm Lok, simultaneously; along with performing the duties assigned to him by the Almighty. His Brahm Lok is the highest abode-Lok, amongest the heavens, too will assimilate in mother nature. Howsoever long the age might be, one day or the other it will vanish. One who has realised this does not crave for heavens and concentrate over Bhakti & Salvation.
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥
ब्रह्मा जी के दिन के आरम्भ में अव्यक्त (ब्रह्मा जी के सूक्ष्म शरीर) से सम्पूर्ण शरीर पैदा होते हैं और ब्रह्मा जी की रात के आरम्भ काल में उस अव्यक्त नाम वाले (ब्रह्मा जी के सूक्ष्म शरीर) में ही सम्पूर्ण शरीर लीन हो जाते हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.18] All manifestations-organism, weather material or divine, evolve from the creator-Brahma Ji during the creative cycle-beginning of his day (evolution, Kalp, Sarg) and then they merge-assimilate back into him during night (annihilation, Praly, devastation) of Brahma Ji during the destructive cycle.
व्यक्त-मूर्त शब्दों का प्रयोग भौतिक और दैवीय सृष्टि के लिए किया गया है। ब्रह्मा जी के सूक्ष्म शरीर से दिन (कल्प, सर्ग, सृष्टि रचना) की शुरुआत में समस्त प्राणियों का उद्भव-विकास होता है और रात्रि-प्रलय में समस्त जीवधारी उन्हीं में लीन हो जाते हैं। महाप्रलय उस वक्त होता है, जब ब्रह्मा जी अपनी आयु पूरी कर लेते हैं और महासर्ग तब होता है, जब ब्रह्मा जी परमात्मा से पुनः प्रकट होते हैं। ब्रह्मा जी पर्यन्त सभी प्राणी-लोक काल के अंतर्गत हैं। परमात्मा कालातीत हैं। ब्रह्मा जी के दिन और रात की गड़ना सूर्य से नहीं अपितु प्रकृति से होती है। ब्रह्मा जी में लय होते वक्त प्राणी के गुण-दोष आत्मा में बने रहते हैं और नये सर्ग में उत्पत्ति होने पर पुनः प्रकट हो जाते हैं।
The physical-material & divine manifestations are used to illustrate the defined body form-shape & size. All organism take birth from the micro-minute body form of Brahma Ji to convert into visible (macro, vast forms), species of the universal creations. This process begins at the dawn of Brahma Ji's day. As soon as one day of Brahma Ji is over, the night falls and devastation takes place concluding the entire living world-abodes. They all assimilate in him. All abodes till Brahm Lok are perishable in due course of time except the Gau Lok and Vaikunth Lok. Only the Almighty is free from the clutches of time-death. Longevity of the Brahma Ji's day & night is not measured by the solar scale. Its measured through nature's other parameters. The traits, virtues, defects, qualities, characterises remain in the soul and reveal as soon the next phase begins and the soul acquires new body, according to remaining deeds.
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥
हे पार्थ! उन्हीं प्राणियों का यह समुदाय उत्पन्न हो-हो कर प्रकृति के परवश हुआ ब्रह्मा जी के दिन के समय उत्पन्न पुनः होता है और ब्रह्मा जी की रात्रि में लीन हो जाता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.19]
The same multitude-quantum of beings comes into existence again and again at the beginning of evolution-creative cycle and is annihilated, inevitably, at the time of devastation (doom's day, the destructive cycle).
प्राणियों का यह समुदाय वही है, जो परमात्मा का स्वरूप है और आदि काल से जन्म-मृत्यु के बंधनों में जकड़ा हुआ है। पदार्थ-शरीर तो बदलता रहता है, क्योंकि वो निर्जीव सम्बन्ध नहीं रखता, मगर प्राणी संबंधों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता। प्राणी का जन्म-जन्म का बंधन उसका स्वयं संचित किया हुआ है, क्योंकि वो उसे अपना मानता है। जब वह इसको अपना मानता है तो इसके-प्रकृति के, परवश-परतंत्र हो जाता है। सुख की इच्छा उसे मुक्त-स्वतंत्र नहीं होने देती। यही इच्छा उसे अवश (बेबस-लाचार) बना देती है। इस प्रकार वह जन्म-मृत्यु का ग्रास बनकर ब्रह्मा जी के दिन में बार-बार जन्म लेता हुआ, अन्ततोगत्वा पुनः ब्रह्मा जी की रात्रि में-प्रकृति में लीन हो जाता है।
Entire group of creatures-organism is the same which is a replica of the Almighty, but remains away from-aloof from HIM due to his desire for comforts. It passes through numerous species-incarnation due to the feeling of oneness with the physical-material body. He considers this body to be his own. He performs to seek success-pleasure and makes him rigidly tied to the body. The body falls after death but the relations persists, even after the death. The chain continues for 4.32 billion solar years during Brahma's day (Kalp, Sarg) and assimilation in nature remains thereafter for the next evolution and then he again roam in various species till he understand-realise the gravity, magnitude-importance of Salvation-devotion to the Almighty-God and start makes endeavours to achieve it. Its a game of snake and ladder.
प्राणियों का यह समुदाय वही है, जो परमात्मा का स्वरूप है और आदि काल से जन्म-मृत्यु के बंधनों में जकड़ा हुआ है। पदार्थ-शरीर तो बदलता रहता है, क्योंकि वो निर्जीव सम्बन्ध नहीं रखता, मगर प्राणी संबंधों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता। प्राणी का जन्म-जन्म का बंधन उसका स्वयं संचित किया हुआ है, क्योंकि वो उसे अपना मानता है। जब वह इसको अपना मानता है तो इसके-प्रकृति के, परवश-परतंत्र हो जाता है। सुख की इच्छा उसे मुक्त-स्वतंत्र नहीं होने देती। यही इच्छा उसे अवश (बेबस-लाचार) बना देती है। इस प्रकार वह जन्म-मृत्यु का ग्रास बनकर ब्रह्मा जी के दिन में बार-बार जन्म लेता हुआ, अन्ततोगत्वा पुनः ब्रह्मा जी की रात्रि में-प्रकृति में लीन हो जाता है।
Entire group of creatures-organism is the same which is a replica of the Almighty, but remains away from-aloof from HIM due to his desire for comforts. It passes through numerous species-incarnation due to the feeling of oneness with the physical-material body. He considers this body to be his own. He performs to seek success-pleasure and makes him rigidly tied to the body. The body falls after death but the relations persists, even after the death. The chain continues for 4.32 billion solar years during Brahma's day (Kalp, Sarg) and assimilation in nature remains thereafter for the next evolution and then he again roam in various species till he understand-realise the gravity, magnitude-importance of Salvation-devotion to the Almighty-God and start makes endeavours to achieve it. Its a game of snake and ladder.
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा॥
उस समय अर्जुन ने देवों के देव भगवान् के उस शरीर में एक जगह स्थित अनेक प्रकार के विभागों में विभक्त सम्पूर्ण जगत् को देखा।[श्रीमद्भगवद्गीता 11.13] Arjun found the entire universe divided into various segments at one place in the transcendental body of Bhagwan Shri Krashn, the Ultimate Lord of celestial rulers.
अर्जुन परमात्मा के शरीर में स्थित एक स्थान पर, अनेक विभागों में, विभक्त सम्पूर्ण जगत को देखा। अनन्त ब्रह्माण्ड हैं और अनन्त सृष्टियाँ और इनमें से एक सृष्टि और ब्रह्माण्ड हमारा भी है। हमारे ब्रह्माण्ड में भी अनेकानेक पृथ्वियाँ, सूर्यलोक, देवलोक इत्यादि हैं। ये सभी ब्रह्माण्ड दैविक और भौतिक सृष्टि से व्याप्त हैं। एक स्थान पर अर्जुन ने चराचर, स्थावर-जङ्गम; जरायुज,अण्डज, उद्भिज्ज, स्वेदज; जलचर, नभचर-थलचर; 84,00,000 योनियाँ; 14 भुवन; पृथ्वी, समुद्र, आकाश, नक्षत्रों आदि को देखा। अर्जुन भगवान् के शरीर में जहाँ भी नजर डालते, वहीं अनन्त ब्रह्माण्ड उन्हें नजर आते।
Arjun perceived, (saw, looked) the entire universe divided into various segments at one place in the body of the Almighty Bhagwan Shri Krashn. There were infinite number of universes and creations, including one of our's. Our universe too has many earths, solar systems, heavens, in various galaxies & super galaxies of different shapes, sizes and locations. All these universes are inhabited with physical and divine creations, we call aliens. Arjun saw the whole lot of creations including those born through the sexual and divine births, origins. They included the organism created through eggs, body division, sweat (पसीना) and those who grow inside the body. He saw all the 84,00,000 species, found over the earth, 14 heavens and hells, solar system earth, ocean, sky, constellations etc. Where ever Arjun looked, he found different universes in the body of the God.
Please refer to :: santoshkipathshala.blogspot.comअर्जुन परमात्मा के शरीर में स्थित एक स्थान पर, अनेक विभागों में, विभक्त सम्पूर्ण जगत को देखा। अनन्त ब्रह्माण्ड हैं और अनन्त सृष्टियाँ और इनमें से एक सृष्टि और ब्रह्माण्ड हमारा भी है। हमारे ब्रह्माण्ड में भी अनेकानेक पृथ्वियाँ, सूर्यलोक, देवलोक इत्यादि हैं। ये सभी ब्रह्माण्ड दैविक और भौतिक सृष्टि से व्याप्त हैं। एक स्थान पर अर्जुन ने चराचर, स्थावर-जङ्गम; जरायुज,अण्डज, उद्भिज्ज, स्वेदज; जलचर, नभचर-थलचर; 84,00,000 योनियाँ; 14 भुवन; पृथ्वी, समुद्र, आकाश, नक्षत्रों आदि को देखा। अर्जुन भगवान् के शरीर में जहाँ भी नजर डालते, वहीं अनन्त ब्रह्माण्ड उन्हें नजर आते।
Arjun perceived, (saw, looked) the entire universe divided into various segments at one place in the body of the Almighty Bhagwan Shri Krashn. There were infinite number of universes and creations, including one of our's. Our universe too has many earths, solar systems, heavens, in various galaxies & super galaxies of different shapes, sizes and locations. All these universes are inhabited with physical and divine creations, we call aliens. Arjun saw the whole lot of creations including those born through the sexual and divine births, origins. They included the organism created through eggs, body division, sweat (पसीना) and those who grow inside the body. He saw all the 84,00,000 species, found over the earth, 14 heavens and hells, solar system earth, ocean, sky, constellations etc. Where ever Arjun looked, he found different universes in the body of the God.
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥
7 महर्षि और उनसे भी पहले होने वाले 4 सनकादि तथा 14 मनु, ये सबके सब मेरे मन से पैदा हुए हैं और मुझ में भाव, श्रद्धा-भक्ति रखने वाले हैं, जिनके द्वारा उत्पन्न यह सम्पूर्ण प्रजा संसार में उपस्थित है।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.6]
The 7 Mahrishis and many before them, the 4 Sankadi-Rishis, who always remain as a child physically and the 14 Manus evolved through MY brain-head and are faithful-devoted to ME, are the progenitors of all the species-creatures, living beings in this world.
परमात्मा ने अपने मन (ब्रह्मा जी के माध्यम से) 25 विभूतियों-महर्षियों को उत्पन्न किया है, जो कि संसार के समस्त प्राणियों के जनक हैं। मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ ये सात वेदवेत्ता, आचार्य, प्रवृत्ति-धर्म का संचालन करने वाले हैं और प्रजापतियों के कार्य में नियुक्त हैं। सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार इन चारों को ही ब्रह्मा जी ने तप करने पर सबसे पहले प्रकट किया। ये चारों 5 वर्ष की अवस्था वाले बालक के रूप में ही रहते हैं और भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का प्रचार करते हुए घूमते रहते हैं। 14 मनु सृष्टि के उत्पादक और प्रवर्तक हैं। स्वयं भगवान् ही सृष्टि रचना हेतु ब्रह्मा जी के रूप में प्रकट हुए हैं। ये सभी भगवान् के प्रति श्रद्धा और भक्ति रखने वाले हैं। सप्तऋषियों और 14 मनुओं ने विवाह किया और सृष्टि उत्पन्न की परन्तु सनकादि ने विवाह नहीं किया और उनके उपदेश से परमार्थी कार्यों में लगने वाली सम्पूर्ण प्रजा नादज, मौजूद है। निवृति परायण सभी साधु, संत, महापुरुष उनकी ही नादज प्रजा हैं।
The Almighty himself appeared as Narayan, who in turn evolved Brahma Ji through his naval-Lotus. The first one to evolve from the forehead of Brahma Ji were the 4 saints called Sanat Kumars, namely :- Sanak, Sanandan, Sanatan & Sanat Kumar. They did not marry and always remain naked as a 5 year child. They are propagating faith, devotion towards the Almighty. All those who have relinquished the world or are the recluse and those who are devoted to welfare of humanity are the followers-disciples of this form of the God. There after 7 Maharishis evolved and they all married to evolve all forms of life in the 14 abodes and the earth. They are the educators who taught the text of Veds. From the division of the his body into into 2 segments by Brahma Ji as Manu & Shatrupa, all forms of life evolved.
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥
हे कुंती नन्दन! सम्पूर्ण योनियों में प्राणियों के जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं बीज स्थापन करने वाला पिता हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 14.4] The God called Arjun Kunti Nandan-the son of Kunti! The way Kunti was his mother, the nature is the mother of all organisms and the Almighty is the father of all species, since HE is the one WHO sows the seeds of all life forms.
ब्रह्मा रचित सृष्टि में, देवी-देवता, यक्ष, राक्षस, दानव, गन्दर्भ, अप्सरा, भूत-प्रेत, पिशाच, पितर, ब्रह्म राक्षस, बालग्रह, स्थावर-जङ्गम, जलचर, नभचर, थलचर, जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज, स्वेदज, मनुष्य सहित पृथ्वी सहित ब्रह्माण्ड में 84,00,000 प्रजातियाँ जन्म लेती हैं। कोई भी एक प्राणी-प्रजाति दूसरे प्राणी से पूरी तरह समान नहीं है। ये सब प्रकृति से उत्पन्न होते हैं, जिसमें बीज-गर्भ की स्थापना स्वयं परमात्मा करते हैं। प्रकृति परमात्मा का ही एक अंग है। प्रकृति शरीर है, तो परमात्मा आत्मा हैं। प्रकृति माता है और परमात्मा पिता।
All species-life forms in the 14 abodes are created by the Almighty. The nature is an inseparable component of the Almighty. All universes constitutes the nature. 84,00,000 life forms are there and none of the two organisms in any of the species resemble with another one. The Almighty has created the nature and sows the seeds in it, to grow numerous life forms. Body of the various life forms constitute the nature, while the soul-spirit constitutes the God. The nature is the mother and the God is the father. It should be endeavour of the human being to assimilate in the God from whom he has evolved.
ब्रह्मा रचित सृष्टि में, देवी-देवता, यक्ष, राक्षस, दानव, गन्दर्भ, अप्सरा, भूत-प्रेत, पिशाच, पितर, ब्रह्म राक्षस, बालग्रह, स्थावर-जङ्गम, जलचर, नभचर, थलचर, जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज, स्वेदज, मनुष्य सहित पृथ्वी सहित ब्रह्माण्ड में 84,00,000 प्रजातियाँ जन्म लेती हैं। कोई भी एक प्राणी-प्रजाति दूसरे प्राणी से पूरी तरह समान नहीं है। ये सब प्रकृति से उत्पन्न होते हैं, जिसमें बीज-गर्भ की स्थापना स्वयं परमात्मा करते हैं। प्रकृति परमात्मा का ही एक अंग है। प्रकृति शरीर है, तो परमात्मा आत्मा हैं। प्रकृति माता है और परमात्मा पिता।
All species-life forms in the 14 abodes are created by the Almighty. The nature is an inseparable component of the Almighty. All universes constitutes the nature. 84,00,000 life forms are there and none of the two organisms in any of the species resemble with another one. The Almighty has created the nature and sows the seeds in it, to grow numerous life forms. Body of the various life forms constitute the nature, while the soul-spirit constitutes the God. The nature is the mother and the God is the father. It should be endeavour of the human being to assimilate in the God from whom he has evolved.
पुरुष सूक्त :: ऋषि :- नारायण, देवता :- पुरुष।
ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त यानि मंत्र संग्रह (10.90) है, यजुर्वेद (31वाँ अध्याय), अथर्ववेद (19वें काण्ड का छठा सूक्त), तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण तथा तैत्तिरीय आरण्यक आदि में प्राप्त होता है। मुद्गलोपनिषद् में भी पुरुष-सूक्त प्राप्त हैं, जिसमें दो मन्त्र अतिरिक्त हैं। इसमें विराट पुरुष (महा विष्णु, गौलोक में भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी पुत्र) का उनके अंगों सहित वर्णन है।
इस सूक्त में विराट पुरुष परमात्मा की महिमा निरूपित है और सृष्टि निरूपण की प्रक्रिया का वर्णन है।
विराट पुरुष के अनन्त सिर, नेत्र और चरण हैं। यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड उनकी एक पाद्वि भूति है अर्थात् चतुर्थांश है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, कैलास, साकेत आदि) हैं।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलमं॥1॥
(पुरूषः) विराट रूप काल भगवान् अर्थात् क्षर पुरूष (सहस्रशीर्षा) हजार सिरों वाला (सहस्राक्षः) हजार आँखों वाला (सहस्रपात्) हजार पैरों वाला है। (स) वह काल (भूमिम्) पृथ्वी वाले इक्कीस ब्रह्माँडो को (विश्वतः) सब ओर से (दशंगुलम्) दसों अंगुलियों से अर्थात् पूर्ण रूप से काबू किए हुए (वृत्वा) गोलाकार घेरे में घेर कर (अत्यातिष्ठत्) इस से बढ़कर अर्थात् अपने काल लोक में सबसे न्यारा भी इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में ठहरा है अर्थात् रहता है।
जिसके हजारों हाथ, पैर, हजारों आँखे, कान आदि हैं, वह विराट रूप काल प्रभु अपने आधीन सर्व प्राणियों को पूर्ण काबू करके अर्थात् 20 ब्रह्माण्डों को गोलाकार परिधि में रोककर स्वयं इनसे ऊपर (अलग) इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बैठा है।
उन परम पुरुष के सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं । वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि (पूरे स्थान) को सब ओर से व्याप्त करके इससे दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए उससे परे भी हैं।
The Ultimate-Param Purush has thousands of hands, legs, eyes, ears etc. He has pervaded the whole universe on one hand and on the other he is away from it, maintaining infinite distance.
पुरूष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥2॥
(एव) इसी प्रकार कुछ सही तौर पर (पुरूष) ईश्वर है। वह अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म है (च) और (इदम्) यह (यत्) जो (भूतम्) उत्पन्न हुआ है (यत्) जो (भाव्यम्) भविष्य में होगा (सर्वम्) सब (यत्) प्रयत्न से अर्थात् मेहनत द्वारा (अन्नेन) अन्न से (अतिरोहति) विकसित होता है। यह अक्षर पुरूष भी (उत) सन्देह युक्त (अमृतत्वस्य) मोक्ष का (इशानः) स्वामी है अर्थात् ईश्वर तो अक्षर पुरूष भी कुछ सही है, परन्तु पूर्ण मोक्ष दायक नहीं है।
परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का विवरण है जो कुछ ईश्वर वाले लक्षणों से युक्त है, परन्तु इसकी भक्ति से भी पूर्ण मोक्ष नहीं है, इसलिए इसे संदेह युक्त मुक्ति दाता कहा है। इसे कुछ प्रभु के गुणों युक्त इसलिए कहा है कि यह काल की तरह तप्तशिला पर भून कर नहीं खाता। परन्तु इस परब्रह्म के लोक में भी प्राणियों को परिश्रम करके कर्माधार पर ही फल प्राप्त होता है तथा अन्न से ही सर्व प्राणियों के शरीर विकसित होते हैं, जन्म तथा मृत्यु का समय भले ही काल (क्षर पुरुष) से अधिक है, परन्तु फिर भी उत्पत्ति प्रलय तथा चैरासी लाख योनियों में यातना बनी रहती है।
यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होने वाला है, वह सब वे परम पुरुष ही हैं। इसके अतिरिक्त वे देवताओं के तथा जो अन्न से (भोजन द्वारा) जीवित रहते हैं, उन सब के भी ईश्वर (अधीश्वर-शासक) हैं।
He for ever, ever since. He is present, past & the future. He is the ultimate being yet he is not the Almighty. He is the governor of all demigods-deities who survive over the strength of the food provided by him.
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरूषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥3॥
(अस्य) इस अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म की तो (एतावान्) इतनी ही (महिमा) प्रभुता है। (च) तथा (पुरूषः) वह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर तो (अतः) इससे भी (ज्यायान्) बड़ा है (विश्वा) समस्त (भूतानि) क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष तथा इनके लोकों में तथा सत्यलोक तथा इन लोकों में जितने भी प्राणी हैं (अस्य) इस पूर्ण परमात्मा परम अक्षर पुरूष का (पादः) एक पैर है अर्थात् एक अंश मात्रा है। (अस्य) इस परमेश्वर के (त्रि) तीन (दिवि) दिव्य लोक जैसे सत्यलोक-अलख लोक-अगम लोक (अमृतम्) अविनाशी (पाद्) दूसरा पैर है अर्थात् जो भी सर्व ब्रह्माण्डों में उत्पन्न है। वह सत्य पुरूष पूर्ण परमात्मा का ही अंश या अंग है।
इस ऊपर के मंत्र 2 में वर्णित अक्षर पुरुष (परब्रह्म) की तो इतनी ही महिमा है तथा वह पूर्ण पुरुष तो इससे भी बड़ा है अर्थात सर्वशक्तिमान है तथा सर्व ब्रह्माण्ड उसी के अंश मात्रा पर ठहरे हैं। इस मंत्र में तीन लोकों का वर्णन इसलिए है, क्योंकि चौथा अनामी (अनामय) लोक अन्य रचना से पहले का है। यही तीन प्रभुओं (क्षर पुरूष, अक्षर पुरूष तथा इन दोनों से अन्य परम अक्षर पुरूष) का विवरण श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक संख्या 16.17 में है।
यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत इन परम पुरुष का वैभव है। वे अपने इस विभूति विस्तार से भी महान हैं। उन परमेश्वर को एकपाद्विभूति (चतुर्थाश) में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं।
वैभव :: भव्यता, तेज, प्रताप, शान, चमक, महिमा, गौरव, बड़ाई; grandeur, splendour, majesty.
Everything pertaining to past, present & the future is the grandeur of the Ultimate being Virat Purush-Maha Vishnu). He is greater than this extension. His, just one fragment covers the whole universe made of Panch Tatv. His remaining three segments cover the entire divine creations like Vaekunth, Gau Lok, Saket, Shiv Lok etc.)
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि॥4॥
(पुरूषः) यह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् अविनाशी परमात्मा (ऊध्र्वः) ऊपर (त्रि) तीन लोक जैसे सत्यलोक, अलख लोक, अगम लोक रूप (पाद) पैर अर्थात ऊपर के हिस्से में (उदैत) प्रकट होता है अर्थात विराजमान है (अस्य) इसी परमेश्वर पूर्ण ब्रह्म का (पादः) एक पैर अर्थात एक हिस्सा जगत रूप (पुनर्) फिर (इह) यहाँ (अभवत्) प्रकट होता है (ततः) इसलिए (सः) वह अविनाशी पूर्ण परमात्मा (अशनानशने) खाने वाले काल अर्थात क्षर पुरूष व न खाने वाले परब्रह्म अर्थात अक्षर पुरूष के भी (अभि) ऊपर (विश्वङ्) सर्वत्रा (व्यक्रामत्) व्याप्त है अर्थात उसकी प्रभुता सर्व ब्रह्माण्डों व सर्व प्रभुओं पर है। वह कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सब के ऊपर फैलाया है।
यही सर्व सृष्टी रचनाकार प्रभु अपनी रचना के ऊपर के हिस्से में तीनों स्थानों (सतलोक, अलखलोक, अगमलोक) में तीन रूप में स्वयं प्रकट होता है अर्थात स्वयं ही विराजमान है। यहाँ अनामी लोक का वर्णन इसलिए नहीं किया क्योंकि अनामी लोक में कोई रचना नहीं है तथा अकह (अनामय) लोक शेष रचना से पूर्व का है। फिर कहा है कि उसी परमात्मा के सत्यलोक से बिछुड़ कर नीचे के ब्रह्म व परब्रह्म के लोक उत्पन्न होते हैं और वह पूर्ण परमात्मा खाने वाले ब्रह्म अर्थात काल से (क्योंकि ब्रह्म/काल विराट शाप वश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को खाता है) तथा न खाने वाले परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष से (परब्रह्म प्राणियों को खाता नहीं, परन्तु जन्म-मृत्यु, कर्म-दण्ड ज्यों का त्यों बना रहता है) भी ऊपर सर्वत्र व्याप्त है अर्थात इस पूर्ण परमात्मा की प्रभुता सर्व के ऊपर है, परमेश्वर ही कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सब के ऊपर ऐसे फैलाया है जैसे सूर्य अपने प्रकाश को सब के ऊपर फैला कर प्रभावित करता है, ऐसे पूर्ण परमात्मा ने अपनी शक्ति रूपी क्षमता को सभी ब्रह्माण्डों को नियन्त्रित रखने के लिए छोड़ा हुआ है।
वे परम पुरुष स्वरूपतः इस मायिक जगत से परे त्रिपाद्विभूति में प्रकाशमान हैं (वहाँ माया का प्रवेश न होने से उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है)। इस विश्व के रूप में उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है अर्थात् एक पाद से वे ही विश्वरूप भी हैं, इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड़ एवं चेतनमय, उभयात्मक जगत को परिव्याप्त किये हुए हैं।
The Ultimate being is established over the perishable-virtual (imaginary) world. This universe is just one fragment of his extensions. He is pervading the inertial-static and the conscious-living world.
तस्माद् विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
(तस्मात्) उसके पश्चात् उस परमेश्वर सत्यपुरूष की शब्द शक्ति से (विराट्) विराट अर्थात ब्रह्म, जिसे क्षर पुरूष व काल भी कहते हैं (अजायत) उत्पन्न हुआ है (पश्चात्) इसके बाद (विराजः) विराट पुरूष अर्थात काल भगवान् से (अधि) बड़े (पुरूषः) परमेश्वर ने (भूमिम्) पृथ्वी वाले लोक, काल ब्रह्म तथा परब्रह्म के लोक को (अत्यरिच्यत) अच्छी तरह रचा (अथः) फिर (पुरः) अन्य छोटे-छोटे लोक (स) उस पूर्ण परमेश्वर ने ही (जातः) उत्पन्न किया अर्थात स्थापित किया।
तीनों लोकों (अगमलोक, अलख लोक तथा सतलोक) की रचना के पश्चात पूर्ण परमात्मा ने ज्योति निरंजन (ब्रह्म) की उत्पत्ति की अर्थात उसी सर्व शक्तिमान परमात्मा पूर्ण ब्रह्म से ही विराट अर्थात् ब्रह्म (काल) की उत्पत्ति हुईं।
गीता अध्याय 3, मन्त्र 15 :- अक्षर पुरूष अर्थात अविनाशी प्रभु से ब्रह्म उत्पन्न हुआ।अर्थववेद काण्ड 4, अनुवाक 1, सूक्त 3 :- पूर्ण ब्रह्म से ब्रह्म की उत्पत्ति हुई। उसी पूर्ण ब्रह्म ने (भूमिम्) भूमि आदि छोटे-बड़े सर्व लोकों की रचना की। वह पूर्णब्रह्म इस विराट भगवान अर्थात् ब्रह्म से भी बड़ा है अर्थात इसका भी मालिक है।
उन्हीं आदि पुरुष से विराट (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। वे परम पुरुष ही विराट के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) रूप से उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुए। बाद में उन्होंने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये।
The Ultimate being (Adi Purush) led to the creation of the universe. He evolved as Adhi Purush-Adhi Devta as Hirany Garbh (Golden Womb Shell, out of which Bhagwan Shri Hari Vishnu evolved, followed By Brahma Ji from his naval lotus). Thereafter, he created the other abodes like earth and species like demigods-deities, humans, insects, plants shrubs etc. etc.
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥
जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञपुरुष से उसी ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये।
He who is Yagy Purush-Ultimate being created curd, Ghee etc. & the creatures capable of living in the air, forests and villages.
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दाᳬसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥7॥
उसी सर्वहुत यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसी से यजुर्वेद के मन्त्र उत्पन्न हुए और उसी से सभी छन्द भी उत्पन्न हुए।
Its the Yagy Purush who evolved the Rig Ved, Sam Ved and the Mantr of Yajur Ved and the Chhand-stanza.
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥8॥
उसी से घोड़े उत्पन्न हुए, उसी से गायें उत्पन्न हुईं और उसी से भेड़-बकरियाँ उत्पन्न हुईं। वे दोनों ओर दाँतों वाले हैं।
Horses, cows, sheep & goats having teeth in upper & the lower jaws evolved out of him.
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥9॥
देवताओं, साध्यों तथा ऋषियों ने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञपुरुष को कुशा पर अभिषिक्त किया और उसी से उसका यजन किया।
Demigods-deities, Sadhy Gan (one kind-specie of demigods) and the Rishi Gan prayed to the Yagy Purush who evolved first over the Kush grass, initially.
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते॥10॥
पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी विकल्पनाएँ की गयीं? उसका मुख क्या था? उसके बाहु क्या थे? उसके जंघे क्या थे और उसके पैर क्या कहे जाते हैं?
At the time of creation of the Virat-Yagy Purush, his mouth, arms, thighs, legs were conceptualised.
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्य: कृत:।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रो अजायत॥11॥
ब्राह्मण इसका मुख था (मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए)। क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने (दोनों भुजाओं से क्षत्रिय उत्पन्न हुए)। इस पुरुष की जो दोनों जंघाएँ थीं, वे ही वैश्य हुईं अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए और पैरों से शूद्र वर्ण प्रकट हुआ।
ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से जन्मे हैं, क्षत्रिय ब्रह्मा के भुजा से जन्मे हैं, वैश्य जँघा से, जबकि शूद्र पाँव से जन्मे हैं।ये सभी दिव्य जन्मा हैं।
मानवी सृष्टि महर्षि कश्यप से प्रारम्भ हुई अतः "जन्मना जायते शूद्र:"[मनुस्मृति] जन्म से सब शूद्र होते हैं, अतः जो व्यक्ति बुद्धि, विवेक के कार्यों में निपुड़ होता है वो ब्राह्मण वर्ण में जा सकता है और उसकी तुलना ही ब्रह्म के मुख से की जा सकती है। इसके सामान ही जो व्यक्ति युद्ध एवं राजनीति में निपुड़ होता है वो क्षत्रिय हो सकता है, व्यापार में निपुण (बढ़ई, लोहार, सोनार आदि) व्यक्ति वैश्य तथा अन्य सभी कार्य करने वाला व्यक्ति शूद्र हो सकता है।
The Brahmans appeared from the mouth, Kshatriy from the arms, Vaeshy from the thighs and the Shudr from the feet of Brahma Ji, as divine species.
The humans were created by Maharshi Kashyap through sexual intercourse. They too were titles Brahmans, Kshatriy, Vaeshy and Shudr on the basis of the Karm-practices adopted by them.
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायते॥12॥
इस परम पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रों से सूर्य प्रकट हुए, कानों से वायु और प्राण तथा मुख से अग्नि की उत्पत्ति हुई।
Som Dev (Chandr Dev, Moon) emerged from the innerself (mind & heart) of the Param-Yagy Purush, eyes produced Sun, ears emitted air & Pran-life sustaining force and Agni-fire came out of the mouth.
नाभ्या आसीदन्तरिक्षᳬ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः ओत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥13॥
उन्हीं परम पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष लोक उत्पन्न हुआ, मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ, पैरों से पृथिवी, कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुष में ही कल्पित हुए।
The space was created from his naval, mind produced the heavens, legs produced the earth, ears led to the formations of the 10 directions. In this manner all abodes are assumed to present in the Virat Purush-Maha Vishnu.
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥14॥
जिस पुरुष रूप हविष्य से देवों ने यज्ञ का विस्तार किया, वसन्त उसका घी था, ग्रीष्म काष्ठ एवं शरद हवि थी।
The extension of the Yagy had the Purush as the offering, spring season was its Ghee-clarified butter, wood & summers and the winters became offerings in the holy fire.
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिाः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥15॥
(सप्त) सात संख ब्रह्मण्ड तो परब्रह्म के तथा (त्रिसप्त) इक्कीस ब्रह्मण्ड काल ब्रह्म के (समिधः) कर्म दण्ड दुःख रूपी आग से दुःखी (कृताः) करने वाले (परिधयः) गोलाकार घेरा रूप सीमा में (आसन्) विद्यमान हैं (यत्) जो (पुरूषम्) पूर्ण परमात्मा की (यज्ञम्) विधिवत् धार्मिक कर्म अर्थात् पूजा करता है (पशुम्) बलि के पशु रूपी काल के जाल में कर्म बन्धन में बंधे (देवा) भक्तात्माओं को (तन्वानाः) काल के द्वारा रचे अर्थात् फैलाये पाप कर्म बंधन जाल से (अबध्नन्) बन्धन रहित करता है अर्थात् बन्दी छुड़ाने वाला बन्दी छोड़ है।
सात संख ब्रह्मण्ड परब्रह्म के तथा इक्कीस ब्रह्माण्ड ब्रह्म के हैं, जिन में गोलाकार सीमा में बंद पाप कर्मों की आग में जल रहे प्राणियों को वास्तविक पूजा विधि बता कर सही उपासना करवाता है। जिस कारण से बलि दिए जाने वाले पशु की तरह जन्म-मृत्यु के काल (ब्रह्म) के खाने के लिए तप्त शिला के कष्ट से पीडि़त भक्तात्माओं को काल के कर्म बन्धन के फैलाए जाल को तोड़कर बन्धन रहित करता है अर्थात बन्धन तोड़ने वाला बन्दी छोड़ है।
यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 :- कविरंघारिसि (कविर्) कबिर परमेश्वर (अंघ) पाप का (अरि) शत्रु (असि) है अर्थात् पाप विनाशक है। बम्भारिसि (बम्भारि) बन्धन का शत्रु अर्थात् बन्दी छोड़ परमेश्वर (असि) है।
देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्प से) पुरुष रूप पशु को बन्धन मुक्त किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे। इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अतिजगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकार से) समिधाएँ बनीं।
When the demigods-deities released the animal in the form of Human, seven seas were surrounding it. 21 types of stanza-prayers (like Gayatri, Ati Jagti & Krati) became its Samidha-pious wood for Agni Hotr.
यज्ञेन यज्ञमSयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥16॥
जो (देवाः) निर्विकार देव स्वरूप भक्तात्माएं (अयज्ञम्) अधूरी गलत धार्मिक पूजा के स्थान पर (यज्ञेन) सत्य भक्ति धार्मिक कर्म के आधार पर (अयजन्त) पूजा करते हैं (तानि) वे (धर्माणि) धार्मिक शक्ति सम्पन्न (प्रथमानि) मुख्य अर्थात् उत्तम (आसन्) हैं (ते ह) वे ही वास्तव में (महिमानः) महान भक्ति शक्ति युक्त होकर (साध्याः) सफल भक्त जन (नाकम्) पूर्ण सुखदायक परमेश्वर को (सचन्त) भक्ति निमित कारण अर्थात सत्भक्ति की कमाई से प्राप्त होते हैं, वे वहाँ चले जाते हैं। (यत्रा) जहाँ पर (पूर्वे) पहले वाली सृष्टी के (देवाः) पापरहित देव स्वरूप भक्त आत्माएं (सन्ति) रहती हैं।
जो निर्विकार (जिन्होंने माँस, शराब, तम्बाकू सेवन करना त्याग दिया है तथा अन्य बुराईयों से रहित हैं, वे) देव स्वरूप भक्त आत्माएं शास्त्र विधि रहित पूजा को त्याग कर शास्त्रानुकूल साधना करते हैं, वे भक्ति की कमाई से धनी होकर काल के ऋण से मुक्त होकर अपनी सत्य भक्ति की कमाई के कारण उस सर्व सुखदाई परमात्मा को प्राप्त करते हैं अर्थात् सत्यलोक में चले जाते हैं, जहाँ पर सर्व प्रथम रची सृष्टी के देव स्वरूप अर्थात पाप रहित हंस आत्माएं रहती हैं।
अघमर्षण सूक्त ::
ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।
ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रो अर्णव:॥
सबसे पहले तप आया, तप ने दो पदार्थ प्रकट किये। एक था ऋत, दूसरा था सत्य। ये वे शाश्वत नियम हैं, जिनसे सृष्टि हुई। तब निबिड़ अंधकार में डूबी महारात्रि उत्पन्न हुई और फिर असंख्य अणुओं से भरा हुआ महान् समुद्र उपजा।[ऋग्वेद.10.190.1]
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी॥
अणुओं के महासमुद्र से ही समय की उत्पत्ति हुई। समय के साथ ही दिन और रात बने, गतिशील समय के वश में सम्पूर्ण विश्व हुआ।[ऋग्वेद.10.190.2]
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्व:॥
विधाता ने जैसी कल्पना की थी, वैसे ही सूर्य और चन्द्रमा उदित हुए। आकाश छा गया, पृथ्वी प्रकट हुई, अंतरिक्ष दिखाई देने लगा, फिर वह ज्योतिर्मय लीला निकेतन झिलमिला उठा, जहाँ सृजन के ताने-बाने बुने गये।[ऋग्वेद.10.190.3]
उपनिषद् इस मन्त्र में मोक्ष-निरूपण का उपसंहार भी निरूपित-निर्दिष्ट करता है। अत: मोक्ष-निरूपण के लिये श्रुति का अर्थ इस प्रकार होना चाहिये कि सम्पूर्ण कर्म, जो भगवद् अर्पण बुद्धि से भगवान् के लिये किये जाते हैं, यज्ञ हैं। उस कर्म रूप यज्ञ के द्वारा सात्त्विक वृत्तियों ने उन यज्ञस्वरूप भगवान् का युज़न-पूजन किया। इसी भगवद् अर्पण बुद्धि से किये गये यज्ञ रूप कर्मों के द्वारा ही सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। धर्माचरण की उत्पत्ति भगवद् अर्पण बुद्धि से किये गये कर्मों से हुई। इस प्रकार भगवद् अर्पण बुद्धि से अपने समस्त कर्मो के द्वारा जो भगवान् के यजन रूप कर्म का आचरण करते हैं, वे उस भगवान् के दिव्य धाम को जाते हैं, जहाँ उनके साध्य-आराध्य आदि देव भगवान् विराजमान हैं।
देवताओं ने (पूर्वोक्त रूप से) यज्ञ के द्वारा यज्ञ स्वरूप परम पुरुष का यजन (आराधन) किया। इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्मों के आचरण से वे देवता महान् महिमा वाले होकर उस स्वर्ग लोक का सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्य देवता निवास करते हैं। (अत: हम सभी सर्वव्यापी जड़-चेतनात्मक रूप विराट् पुरुष को करबद्ध स्तुति करते हैं।)[शु.यजु. 31.1-16; ऋग्वेद, मुद्गलोपनिषद्]
The demigods-deities prayed to the Yagy Purush in this manner. As an outcome of this Dharm appeared first. By adopting-following this Dharm-religious practices, the demigods-deities become glorious and enjoy the heavens where Sadhy Gan reside.
Following two Shloks Loks like later additions.
वेदाहमेतं पुरुषं महान्त मादित्यवर्णं तमसस्तु पारे।
सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरो नामानि कृत्वाभिवदन् यदास्ते॥17॥
तमस् (अविद्यारूप अन्धकार) से परे आदित्य के समान प्रकाश स्वरूप उस महान् पुरुष को मैं जानता हूँ। सबकी बुद्धि में रमण करने वाला वह परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में समस्त रूपों की रचना करके उनके नाम रखता है और उन्हीं नामों से व्यवहार करता हुआ सर्वत्र विराजमान होता है।
I know him, the Ultimate being, who is beyond darkness, in the form of Adity-Sun, aura, who resides in the minds of all, who created all beings-forms of life and the inertial-static world and names them and moves all around bearing these names-titles.
ये मन्त्र ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में नहीं मिलते, परन्तु पुरुष सूक्त के पृथक प्रकाशित कई संस्करणों में मिलते हैं। मूल उपनिषद् भी इनका संकेत हैं। ये मन्त्र पारमात्मिकोपनिषद्, महावाक्योपनिषद् तथा चित्युपनिषद् में भी आये हैं। यह मन्त्र तैत्तिरीय आरण्यक में भी है।
धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार शक्रः प्रविद्वान् प्रदिशश्चतस्रः।
तमेवं विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था विद्यते अयनाय॥18॥
पूर्व काल में ब्रह्मा जी ने जिनकी स्तुति की थी, इन्द्र ने चारों दिशाओं में जिसे (व्याप्त) जाना था, उस परम पुरुष को जो इस प्रकार (सर्वस्वरूप) जानता है, वह यहीं अमृतपद (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग निज-निवास (स्वस्वरूप या भगवद्धाम) की प्राप्ति का नहीं है।
Whom Brahma Ji worshipped in ancient period, Indr found him pervading in all directions and the one who who identifies him like this become capable of attaining Salvation-Moksh. There is no other means to seek liberation-emancipation.
EVOLUTION सृष्टि रचना-सृष्टि उत्पत्ति सूक्त (सृष्टि की रचना) नासदीय सूक्त :: यह ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 129 वां सूक्त है। इसका संबंध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है।
नासदीय सूक्त :- ऋग्वेद, ऋषि :- प्रजापति, परमेष्ठी देवता :- भाववृत्त।
जब सत् भी नहीं था, असत् भी नहीं था, तम के द्वारा तम ढँका हुआ था, तब वह निस्पन्द अवस्था में था। इस प्राण की सत्ता तब भी थी, किन्तु उसमें कोई गति न थी; आनीदवातम्’ का अर्थ है, ‘जब हवा भी नहीं थी, वह ब्रह्म अकेला अपने ही दम पर साँसें ले रहा था, वह अस्तित्व वान था! स्पन्दन का विराम हो जाने पर भी ‘वह’ था! तब एक बहुत लम्बे विराम के उपरान्त जब कल्प का आरम्भ होता है, तब "आनीदवातम् निस्पन्द" परमाणु स्पन्दन आरम्भ कर देता है और प्राण आकाश को आघात पर आघात प्रदान करता है। परमाणु घनी भूत होते हैं और उनके संगठन की इस प्रक्रिया में विभिन्न तत्व बन जाते हैं।
Nothing was present when the Almighty was there all alone in a formless state, breathing though air was not there. All pure form of energy, no particulate matter. Energy became mass-atoms. Atoms condensed to form numerous elements, molecules leading to formation of matter followed by and evolution of life. Every thing was in a state of rest-inertial stage, HE took a form and then the universe emerged.
तदानीम् तब प्रलयावस्थामें (असत् + न + आसीत्) ‘अभाव’ (किसी वस्तु का न होना, उस वस्तु का “अभाव” कहा जाता है, जैसे वंध्या का पुत्र तथा “अन्योन्य अभाव” परस्पर अभाव, जैसे घट में पट का न होना तथा पट में घट का न होना।) नहीं था, (नो + सत् + आसीत्) ‘भाव’ भी नहीं था अर्थात उस अवस्था में व्यक्ता व्यक्त कुछ भी प्रतीत नहीं होता था ( रजः + न + आसीत्) लोक-लोकान्तर भी न थे। ” [(निरुक्त 4.19) के अनुसार ” लोका रजान्स्युच्यन्ते ” में लोकों का नाम रज है] (व्योम + नो) आकाश भी नहीं था (परः + यत्) आकाश से भी पर यदि ‘कुछ’ हो सकता है तो वह भी नहीं था (कुह) किस देश में (कस्य + शर्मन्) किसके कल्याण के लिये (किम + आवरीवः) कौन किसको आवरण करे। इस लिये आवरण भी नहीं था (किम्) क्या (गहनम्), (गभीरम्) गभीर, (अम्भः) जल (आसीत्) था ? नहीं।
ऋषि इस प्रथम ऋचा में व्यक्त संसार के अस्तित्व का निषेध करते हैं। प्रलयावस्था में असत् या सत् कुछ प्रतीत नहीं होता था। कोई लोक वा यह दृश्यमान आकाश भी प्रतीत नहीं होते थे। अत्यन्त गभीर जलादिक भी नहीं था। जब कुछ नहीं था तो उसका आवरण भी नहीं था। यह स्पष्ट है कि बीज की रक्षा के लिये आवरण हुआ करता है। इसी प्रकार गेहूँ, यव, चने आदि पदार्थों में आवरण होते हैं। जब आच्छाद्य नहीं था, तब आच्छादक का भी अभाव था (आ + अवरीवः) यह ‘वृ’धातु से यड्लुगन्त में लड् लकार का रूप है।
उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत् भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः स्वर्गलोक, मृत्युलोक और पाताल लोक भी नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था। वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था? उस समय गहन कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था अर्थात् वे सब नहीं थे।
Prior to evolution nothing was present. It was only the Almighty who existed everywhere. No air, no water, so sky. It was full of darkness after vast devastation-annihilation. It was all quit. Universe, Solar System, Earth, Heaven and Nether world too did not exist.
The space is filled with energy. The Almighty is formless, shapeless, figure less at this stage. The energy fuses into mass and the Almighty appears as Shri Krashn.
Devastation & annihilation are cyclic and intermediate in nature like the 108 beads of a rosary. All living being assimilate-merge in Brahma Ji to evolve in next Kalp.
जब सत् भी नहीं था, असत् भी नहीं था, तम के द्वारा तम ढँका हुआ था, तब वह निस्पन्द अवस्था में था। इस प्राण की सत्ता तब भी थी, किन्तु उसमें कोई गति न थी; आनीदवातम्’ का अर्थ है, ‘जब हवा भी नहीं थी, वह ब्रह्म अकेला अपने ही दम पर साँसें ले रहा था, वह अस्तित्व वान था! स्पन्दन का विराम हो जाने पर भी ‘वह’ था! तब एक बहुत लम्बे विराम के उपरान्त जब कल्प का आरम्भ होता है, तब "आनीदवातम् निस्पन्द" परमाणु स्पन्दन आरम्भ कर देता है और प्राण आकाश को आघात पर आघात प्रदान करता है। परमाणु घनी भूत होते हैं और उनके संगठन की इस प्रक्रिया में विभिन्न तत्व बन जाते हैं।
Nothing was present when the Almighty was there all alone in a formless state, breathing though air was not there. All pure form of energy, no particulate matter. Energy became mass-atoms. Atoms condensed to form numerous elements, molecules leading to formation of matter followed by and evolution of life. Every thing was in a state of rest-inertial stage, HE took a form and then the universe emerged.
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम्॥
प्रलय-काल में असर नहीं था। सत्य भी उस समय नहीं था, पृथ्वी-आकाश भी नहीं थे। तब कौन यहाँ रहा था। ब्रह्माण्ड कहाँ था, गम्भीर जल भी कहाँ था।[ऋग्वेद 10.129.1]
इस जगत् की उत्पत्ति से पहले ना ही किसी का आस्तित्व था और ना ही अनस्तित्व अर्थात इस जगत में केवल परमात्मा ही था। तब न हवा थी, ना आसमान था और ना उसके परे कुछ था। चारों ओर समुन्द्र की भाँति गम्भीर और गहन बस अंधकार के अलावा कुछ नहीं था।
पदच्छेद अन्वय :- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्। तदानीम् तब प्रलयावस्थामें (असत् + न + आसीत्) ‘अभाव’ (किसी वस्तु का न होना, उस वस्तु का “अभाव” कहा जाता है, जैसे वंध्या का पुत्र तथा “अन्योन्य अभाव” परस्पर अभाव, जैसे घट में पट का न होना तथा पट में घट का न होना।) नहीं था, (नो + सत् + आसीत्) ‘भाव’ भी नहीं था अर्थात उस अवस्था में व्यक्ता व्यक्त कुछ भी प्रतीत नहीं होता था ( रजः + न + आसीत्) लोक-लोकान्तर भी न थे। ” [(निरुक्त 4.19) के अनुसार ” लोका रजान्स्युच्यन्ते ” में लोकों का नाम रज है] (व्योम + नो) आकाश भी नहीं था (परः + यत्) आकाश से भी पर यदि ‘कुछ’ हो सकता है तो वह भी नहीं था (कुह) किस देश में (कस्य + शर्मन्) किसके कल्याण के लिये (किम + आवरीवः) कौन किसको आवरण करे। इस लिये आवरण भी नहीं था (किम्) क्या (गहनम्), (गभीरम्) गभीर, (अम्भः) जल (आसीत्) था ? नहीं।
ऋषि इस प्रथम ऋचा में व्यक्त संसार के अस्तित्व का निषेध करते हैं। प्रलयावस्था में असत् या सत् कुछ प्रतीत नहीं होता था। कोई लोक वा यह दृश्यमान आकाश भी प्रतीत नहीं होते थे। अत्यन्त गभीर जलादिक भी नहीं था। जब कुछ नहीं था तो उसका आवरण भी नहीं था। यह स्पष्ट है कि बीज की रक्षा के लिये आवरण हुआ करता है। इसी प्रकार गेहूँ, यव, चने आदि पदार्थों में आवरण होते हैं। जब आच्छाद्य नहीं था, तब आच्छादक का भी अभाव था (आ + अवरीवः) यह ‘वृ’धातु से यड्लुगन्त में लड् लकार का रूप है।
उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत् भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः स्वर्गलोक, मृत्युलोक और पाताल लोक भी नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था। वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था? उस समय गहन कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था अर्थात् वे सब नहीं थे।
Prior to evolution nothing was present. It was only the Almighty who existed everywhere. No air, no water, so sky. It was full of darkness after vast devastation-annihilation. It was all quit. Universe, Solar System, Earth, Heaven and Nether world too did not exist.
The space is filled with energy. The Almighty is formless, shapeless, figure less at this stage. The energy fuses into mass and the Almighty appears as Shri Krashn.
Devastation & annihilation are cyclic and intermediate in nature like the 108 beads of a rosary. All living being assimilate-merge in Brahma Ji to evolve in next Kalp.
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास॥
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास॥
उस समय न मृत्यु थी न अमृत ही था। रात्रि और दिन भी नहीं थे। वायु से शून्य और आत्मा के अवलम्ब श्वास-प्रश्वास वाला एक ब्रह्म मात्र ही था। उसके अतिरिक्त सब शून्य था।[ऋग्वेद 10.129.2]
उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत का अभाव था। रात्रि और दिन का ज्ञान भी नहीं था। उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।
उस समय न ही मृत्यु थी और न ही अमृत्व। न ही पृथ्वी पर कोई जीवन था और न ही स्वर्ग में रहने वाले अमर लोग थे, उस समय दिन और रात भी नहीं थे। उस समय बस एक अनादि पदार्थ था (जिसे प्रकृति कहा गया है), मतलब जिसका आदि या आरंभ न हो और जो सदा से बना चला आ रहा हो।
उस समय न ही मृत्यु थी और न ही अमृत्व। न ही पृथ्वी पर कोई जीवन था और न ही स्वर्ग में रहने वाले अमर लोग थे, उस समय दिन और रात भी नहीं थे। उस समय बस एक अनादि पदार्थ था (जिसे प्रकृति कहा गया है), मतलब जिसका आदि या आरंभ न हो और जो सदा से बना चला आ रहा हो।
(न + मृत्युः + आसीत्) न मृत्यु थी (न + तर्हि + अमृतम्) न उस समय अमृत था (न + रात्र्याः + अह्नः) न रात्रि और दिन का (प्रकेतः + आसीत्) कोई चिह्न था। तब उस समय कुछ था या नहीं? ब्रह्म भी था या नहीं? इस पर कहते हैं कि (अवातम्) वायुरहित (तत् + एकम्) वह एक ब्रह्म (स्वधया) प्रकृति के साथ (आनीत्) चेतन स्वरूप विद्यमान था। (तस्मात् + ह् + अन्यत्) पूर्वोक्त प्रकृति सहित ब्रह्म के अतिरिक्त (किञ्चन + न) कुछ भी नहीं था। अतः (परः) सृष्टि के पूर्व कुछ भी नहीं था। यह सिद्ध होता है।
आनीत्-प्राणनार्थक ‘अन’ धातु का ‘आनीत्’ यह रूप है, (अवातम्) वायुरहित। बिना वायु का वह एक ब्रह्म विद्यमान था। ‘जब वायु भी नहीं थी, वह ब्रह्म अकेला अपने ही दम पर सांसे ले रहा था, वह अस्तित्ववान था! केवल वह ‘एक’ ही नहीं था, किन्तु ‘स्वधा’ भी उसके साथ थी स्वधया’ यह तृतीय का एक वचन है। सायण ‘स्वधा’ शब्द का अर्थ ‘माया’ करते हैं। वास्तव में वेदान्ताभिमत अनिर्वाच्य ‘मायावाची स्वधा’ शब्द यहाँ नहीं है, किन्तु यह स्वधा ‘प्रकृतिवाची शब्द’ है। यदि जगत् के मूल कारण का नाम माया अभिप्रेत हो, तो नाम मात्र के लिए विवाद करना व्यर्थ है। तब उस मूल कारण का नाम ‘माया’ यद्वा ‘प्रकृति’ यद्वा ‘प्रधान’, ‘अव्यक्त’, ‘अज्ञान’, ‘परमाणु’ इत्यादि कुछ भी नाम रख लें।
किन्तु ‘माया’ और ‘प्रकृति’ या ‘अव्यक्त’ इत्यादि शब्द की अपेक्षा ‘स्वधा’ शब्द बहुत उपयुक्त है। क्योंकि स्व = निज सत्ता। जो निज सत्ता को धा = धारण किये हुये विद्यमान हो, उसे स्वधा कहते हैं। “स्वं दधातीति स्वधा” ~ जो अपने को धारण करती है, उसे स्वधा कहते हैं। जैसे परमात्मा की सत्ता बनी रहती है, तद्वत् जड़ जगत् के मूल कारण की भी सत्ता सदा बनी रहती है।
इसलिए उसको स्वधा कहते हैं। "सह युक्तेsप्रधाने" [अ. 2.3.19] इस सूत्रानुसार सह [सहार्थ के योग में स्वधा] शब्द का तृतीया के एकवचन में स्वधया रूप है।
That was the occasion when neither death or immortality existed. It was neither day nor night. In the absence of air, the Brahm exited depending over the soul, inhaling & exhaling air. It was just the Brahm, Almighty-God who prevailed, WHO has neither beginning, not end. HE is since ever for ever. HE evolves by HIMSELF. HE is the only one WHO perpetuate none else, nothing else.
तम आसीतीत्तमसा गूढमग्रेsप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।
तुच्छ्येनाम्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्॥
सृष्टि-रचना से पूर्व सर्वत्र अंधकार ही अंधकार व्याप्त था। सब कुछ अज्ञात था। सब ओर जल ही जल था। वह पूर्ण व्याप्त ब्रह्म अविद्यमान पदार्थ से ढका था। वह एक तत्त्व तप के प्रभाव से विद्यमान था।[ऋग्वेद 10.129.3]
Prior to evolution it was dark all around. Nothing was known. It was water all around. The Brahm was shrouded with the non existent-unknown matter. HE existed due to the Tap-ascetics.
The Brahm-Almighty was present in pure energy-unrevealed form i.e., HE was formless.
अग्रे + तमः + आसीत्) सृष्टि के पूर्व तमोवाच्य जगन्मूल कारण प्रधान था और (तमसा) उसी तमोवाच्य प्रधान से (इदम् + सर्वम्) यह वर्तमान कालिक दृश्यमान सब कुछ (गूढ़म्) आच्छादित था, अत एव (अप्रकेतम्) वह अप्रज्ञात था। पुनः (सलिलम् + आः) दुग्ध मिश्रित जल के समान कार्य-कारण में भेद शून्य यह सब था। पुनः (आभु) सर्वत्र व्यापक (यत्) जो जगन्मूल कारण प्रधान था, वह भी (तुच्छ्येन) तुच्छता के साथ अर्थात अव्यक्तावस्था के साथ (अपिहितम् + आसीत्) आच्छादित था (तत्) वही ‘प्रधान‘ या स्वधा (एकम्) एक होकर (तपसः + महिना) परमात्मा के तप के महिमा से (अजायत) व्यक्तावस्था में प्राप्त हुआ।प्रथम ऋचा में सत् और असत् इन दोनों का विवरण इसलिए किया कि यह दोनों नहीं ज्ञात होते थे। पुनः द्वितीय ऋचा में अमृत इत्यादिकों का अभाव कथन कर उस अवस्था में भी एक परमात्मा की स्वधा के साथ विद्यमानता बतलायी गई अर्थात जगन्मूल कारण जड़ प्रकृति अव्यक्तावस्था में होने से नहीं के बराबर थी, किन्तु उसके साथ सब में चैतन्य देने वाला एक परमात्मा विद्यमान था इत्यादि वर्णन पूर्वोक्त दोनों ऋचाओं में किया गया।
अब लोगों को यह सन्देह हो कि जड़ जगत का मूल कारण क्या ”सर्वथैव शशविषाणदिवत् अविद्यमान” था जो सर्वथा नहीं होते, जैसे शशविषाण, वन्ध्यापुत्र आदि असत् होते हैं, (वैसे ही क्या माँ काली या स्वधा असत् है?)। परमात्मा ने स्वयं इस जगत को अपने सामर्थ्य से बना लिया?
इत्यादि आशंकाओं को दूर करने के लिए आगे कहा है कि ‘तम आसीत्’ इत्यादि जगन्मूल कारण अवश्य था और उसी मूल कारण से वर्तमान कालिक यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् आच्छादित था अर्थात केवल कारण विद्यमान था, कार्य नहीं। वह कारण भी ‘तुच्छयेन’ अव्यक्तावस्था से ढका हुआ था, तब परमात्मा की कृपा से एक होकर इस वर्तमान कालिक रूप में परिणत हुआ।
सत्त्व, रज, तम इनकी साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। उस प्रकृति के प्रधान, अव्यक्त और अदृश्य आदिक अनेक नाम हैं। यहाँ वेद में उसी को ‘तमः’ शब्द से कहा है। वेदान्त में इसी का नाम ‘अज्ञान’ (अविवेक) है, क्योंकि वह ज्ञान स्वरूप परमात्मा को भी ढक लेता है।
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा॥
उस ब्रह्म ने सर्वप्रथम सृष्टि-रचना की इच्छा की। उससे सबसे पहले बीज का प्राकट्य हुआ। ज्ञानियों (ज्ञानि जनों) ने अपनी बुद्धि से विचार कर अप्रकट वस्तु की उत्पत्ति की कल्पना की।[ऋग्वेद 10.129.4]
The Brahm desired to evolve-create at first, which led to the appearance of the seed (egg-golden shell, Hirany Garbh). The learned-scholars, Pandits applied their mind-intelligence & postulated-imagined the evolution of matter which was invisible (masked, shrouded).
तिरश्चीनो विततो रश्मिरषामधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत्।
स्तोधा आसन् महिमान आसन् स्वधा अवस्तात् प्रयति परसतात्॥
फिर बीज धारण करने वाले पुरुष की उत्पत्ति हुई, तदनन्तर महिमाएँ प्रकट हुई। उन महिमाओं का कार्य दोनों पार्श्वों तक प्रशस्त हुआ। नीचे स्वधा का स्थान हुआ और ऊपर प्रयति का।[ऋग्वेद 10.129.5]
महिमा :: शोभा, प्रताप, प्रतिष्ठा, गर्व, यश, वैभव, गौरव, बड़ाई, महिमा, इज़्ज़त; glory, majesty, dignity.
It led to the appearance of the Purush-Brahm which held the seed (egg, shell), followed by HIS glory-characterises. The lower level was acquired by own-self power & the top level was acquired by effort-to create.
को अद्धा वेद क इह प्र वोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाऽथा को वेद यत आबभूव॥
प्रकृति के तत्व को कोई नहीं जानता तो उसका वर्णन कौन कर सकता है!? इस सृष्टि की उत्पत्ति का कारण क्या है? विभिन्न सृष्टियाँ किस उपादान-कारण से प्रकट हुईं? देवगण भी इन सृष्टियों के पश्चात् ही उत्पन्न हुए, तब कौन जानता है कि यह सृष्टि कहाँ से उत्पन्न हुई?[ऋग्वेद 10.129.6]
If no one is aware of the basics (root case) of evolution then who can elaborate it. What is the exact reason of evolution?! The demigods-deities appeared only after the evolution, then who knows how evolution took place?!
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद॥
ये विभिन्न सृष्टियाँ किस प्रकार हुईं, इतनी रचनाएँ किसने की, इस विषय में इन सृष्टियों के स्वामी हैं और दिव्य धाम में निवास करते हैं, वे जानते हैं। यह भी सम्भव है कि उन्हें भी ये सब बातें ज्ञात न हों।[ऋग्वेद 10.129.7]
How these creation were made-came into existence, who did that, only one who knows all this is the Almighty HIMSELF and HE is the master of all creations-evolution. HE resides in divine abode. HE is fully aware of all this. Its equally possible that HE too may be ignorant.
इस नासदीय सूक्त से विदित होता है कि परमेश्वर की जीवन-कथा रूप उनका सृजन-संहार कितना निगूढ है। नासदीय सूक्त (कथा) का स्पष्ट साङ्गोपाङ्ग अक्षर आर्ष भाष्य है। पुरुष सूक्त, जिसमें विराट-अखिल ब्रह्माण्ड के नायक की महिमा द्योतित है, उसके परमात्मा अनन्त हैं, उन (वेद) की कथा अनन्त है। विद्वान अनन्त रूपों में उसकी व्याख्या निर्वचन करते हुए अमृत पद में प्रतिष्ठित रहते हैं।
EVOLUTION-PRAYER EVOTED BHAGWAN SHRI HARI VISHNU परम पुरुष (भगवान् श्री हरी विष्णु) स्तवन ::
ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमि ँ ् सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥
उन परम पुरुष के सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं। वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि (पूरे स्थान) को सब ओर से व्याप्त करके, इससे दस अङ्गुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्ड में व्याप्त होते हुए उससे परे भी हैं।[यजुर्वेद 31.1]
The Almighty in HIS incarnations as Hari Vishnu has numerous-infinite heads, eyes and legs. HE has established himself above the universe at a height-distance of infinite Yojans by occupying it all over.
पुरुष एवेदः सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥
यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होने वाला है, वह सब वे परम पुरुष ही हैं। इसके अतिरिक्त वे देवताओं के तथा जो अन्न से ही (भोजन द्वारा) जीवित रहते हैं, उन सबके भी ईश्वर (अधीश्वर-शासक) हैं।[यजुर्वेद 31.2]
HE is the Ultimate-Eternal who expresses HIMSELF as past, present & future (HE is Maha Kal).HE is master of the demigods-deities and all those species, organism (plants & animals) which depends over food.
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥
यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुष का वैभव है। वे अपने इस विभूति विस्तार से भी महान् हैं। उन परमेश्वर की एक पाद्विभूति (चतुर्थांश), में ही यह पञ्चभूतात्मक विश्व है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं।[यजुर्वेद 31.3]
Entire universe related with the past, present & the future are HIS extensions (galore, projections). HE is above all of these extensions containing this world with five elements-ingredients (basic components-Earth, Jal, Vayu, Akash, Agni-Tej) in one fourth of HIS galore. The remaining three portions of his galore contain Vaekunth, Gau Lok, Saket, Shiv Lok etc.
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं। उक्त सभी की उत्पत्ति आत्मा या ब्रह्म की उपस्थिति के कारण है। माँ भगवती-प्रकृति परमात्मा का अभिन्न अंग है।
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि॥
वे परम पुरुष स्वरूपत: इस मायिक जगत से परे त्रिपाद्विभूति में प्रकाशमान हैं (वहाँ माया का प्रवेश न होने से उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है)। इस विश्व के रूप में उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है अर्थात् एक पाद से वे विश्वरूप भी हैं, इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड़ एवं चेतनमय-उभयात्मक जगत के परिव्याप्त किये हुए हैं।[यजुर्वेद 31.4]
The Almighty is present with rest of HIS three segments as a shining entity, where the entry of Maya (illusion-mirage) is banned. Only one segment of HIS glory is visible in this world covering the inertial-non living and the living beings-conscious.
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥
उन्हीं आदि पुरुष से विराट् (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। वे परम पुरुष हैं। विराट के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) रूप से उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुए। पीछे उन्होंने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये।[यजुर्वेद 31.5]
The Almighty created Virat Purush (Son of Bhagwan Shri Krashn & Maa Bhagwati Radha Ji in Gau Lok). Numerous Universes were created out of the spores over the body of Virat Purush. Over one of the spores our Universe appeared. A golden shell appeared over the surface of water-Nar out of which Bhagwan Shri Hari Vishnu appeared, Bhagwan Brahma appeared out of his navel and Bhagwan Shiv beamed out of the forehead of Brahma Ji.
Bhagwan Shiv is a form of Kal-time. He was already present prior to the appearance of the Golden Shell.
Later various abodes were created by Bhagwan Shri Hari Vishnu & Brahma Ji created various forms of life.
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाण्यम्।
पशूँस्ताँश्चिक्रे बायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥
जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञ पुरुष से उसी ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये।[यजुर्वेद 31.6]
The Yagy Purush in whom everything is sacrificed, created organisms which could survive in air, water and the land (forests, villages-community) curd, Ghee etc.
Yagy Purush is Bhagwan Shiv called Adi Dev Maha Dev.
तस्माद् यज्ञात स र्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दां ँ ्सि जज्ञिरे तस्मात् यजुस्तस्मादजायत॥
उसी सर्वहुत यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसी से यजुर्वेद मन्त्र उत्पन्न हुए और उसी से सभी छन्द भी उत्पन्न हुए।[यजुर्वेद 31.7]
All scriptures-Veds & their Mantr, Chhand, Shlok etc. evolved out of the Yagy Purush.
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥
उसी से घोड़े उत्पन्न हुए, उसी से गायें उत्पन्न हुईं और हवि थी। उसी से भेड़-बकरियाँ उत्पन्न हुईं। वे दोनों ओर दाँतों वाले हैं।[यजुर्वेद 31.8]
हविष्य :: हवन के योग्य सामग्री; offerings for holy sacrifices in holy fire, Agni Hotr, Hawan.
Animals with hooves like horses, cows, sheep & goats too were created by him. They teeth over both sides of the jaws. It generated goods for holy sacrifices in fire like Ghee, curd, Panchamrat.
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥
देवताओं, साध्यों तथा ऋषियों ने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञ-पुरुष को कुशा पर अभिषिक्त किया और उसी से उसका यजन किया।[यजुर्वेद 31.9]
Initially the demigods-deities, Sadhy Gan & the Rishi Gan worshipped the Yagy Purush over Kush Grass-straw, and used Kush Grass for the prayers.
SADHY GAN साध्य गण :: भगवान् शिव के गण; Sadhy refers to one of the various classifications of Gan, a group of deities attached to Bhagwan Shiv. (1). Adity, (2). Visvas or Vishv Dev, (3). Vasu, (4). Tushith, (5). Abhasvaras, (6). Anil, (7). Maharajik (8). Sadhy and (9). Rudr. These are attached to Bhagwan Shiv and serve under the command of Ganesh Ji Maha Raj, dwelling on Gan Parwat identified with Kaelash, a peak of the Himalay mountain.
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते॥
पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी कल्पना की गयीं? उसका मुख क्या था, उसके बाहु क्या थे, उसके जाँघ क्या थे और उसके पैर क्या कहे जाते थे।[यजुर्वेद 31.10]
When humans were formed-created, their legs, feet, mouth, hands, legs were conceived. What were they called!?
Param Purush is identified as the Almighty HIMSELF & the Virat Purush, who came into existence after the Almighty adopted a form as Krashn & Radha Ji became his second half. Their love making process brought forward the Virat Purush, from whom all universes appeared.
Whatever has come into existence will disappear sooner or later i.e., what ever, whosoever is born has to perish.
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः।
करू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥
ब्राह्मण इसका मुख था (मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए) क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने (दोनों भुजाओं से क्षत्रिय उत्पन्न हुए)। इस पुरुष की जो दोनों जंघाएँ थीं, वे ही वैश्य हुई अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए और पैरों से शूद्र वर्ण प्रकट हुआ।[यजुर्वेद 31.11]
Brahman was his mouth-Brahman was born out of the mouth, Kshatriy from the hands, Vaeshy from the thighs and the Shudr evolved out of his legs (of Brahma Ji).
These were divine creations. Humans and other species evolved from the wives of Mahrishi Kashyap.
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत॥
इस परम पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रों से सूर्य प्रकट हुए, कानों से वायु और प्राण तथा मुख से अग्नि की उत्पत्ति हुई।[यजुर्वेद 31.12]
Moon evolved out of the innerself & the Sun from the eyes, air and the Pran-life force from the ears and Agni-fire evolved out of the mouth, of the Ultimate being-Purush.
Brahma Ji is the creator-an extension of the Virat Purush, Maha Vishnu.
नाभ्या आसीदन्तरिक्ष शीर्ण्णो द्यौः समवर्तत।
पद्य भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकों अकल्पयन्॥
उन्हीं परम पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष लोक उत्पन्न हुआ, मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ, पैरों से पृथ्वी, कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुष में ही कल्पित हुए।[यजुर्वेद 31.13]
The space-sky evolved out of the naval, heaven from the fore head, earth from the legs, directions from the ears of the Ultimate Purush-the God.
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥
जिस पुरुष रूप हविष्य से देवों ने यज्ञ का विस्तार किया, वसन्त उसका घी था, ग्रीष्म काष्ठ एवं शरद्।[यजुर्वेद 31.14]
The demigods extended the life system-evolution as a Yagy by using the humans as offering, spring season as Ghee-butter oil, summer as wood and the winters.
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबनन् पुरुषं पशुम्॥
देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्प से) पुरुष रूप पशु का बन्धन किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे। इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अति जगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकार से) समिधाएँ बनीं।[यजुर्वेद 31.15]
When the demigods-deities trapped the human being as an animal, the seven oceans became its circumference-limits. 21 Chhand-a set of Vaedic verses were as used Samidha-wood.
The humans were blessed with the secret-confidential knowledge of the Veds to make use of it to modify-improve their lives.
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्व साध्याः सन्ति देवा:॥
देवताओं ने (पूर्वोक्त रूप से) यज्ञ के द्वारा यज्ञ स्वरूप परम पुरुष का यजन (आराधन) किया। इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्म के आचरण से वे देवता महान् महिमा वाले होकर उस स्वर्ग लोक का सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्य-देवता निवास करते हैं। अतः हम सभी सर्वव्यापी जड-चेतनात्मक रूप विराट् पुरुष की कर बद्ध स्तुति करते हैं।[यजुर्वेद 31.16]
It was the endeavour of the deities-demigods to worship the Yagy Purush-Almighty. First one to emerge from this endeavour as Yagy was Dharm Raj-Yam Raj to regulate birth & death of the organism. The demigods enjoy the heaven by following the tenets of Dharm, an abode of Sadhy Gan. In this manner we pray to the Virat Purush-Maha Vishnu, who is present in every non living & living, with folded hands.
आसीदीदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्।
अप्रतक्रर्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः॥मनुस्मृति 1.5॥
पहले यह समस्त ब्रह्माण्ड-विश्व-संसार तम-अन्धकार में डूबा हुआ था, जैसे गहरी नींद में सोया हो। इसमें किसी भी वस्तु का पृथक अस्तित्व ज्ञान, प्रकट, स्पष्ट नहीं था। इसको तर्क, जिज्ञासा, कल्पना से भी नहीं देखा-समझा जा सकता था।
The universe existed in complete darkness, unperceived, destitute of distinctive marks, unattainable by reasoning, unknowable, wholly immersed, as it were, in deep sleep.
यह वर्तमानकालीन जगत् प्रलयावस्था में तमोमय, अप्रज्ञात, अलक्षण, अप्रतर्क्य, अनिर्देश्य और मानो सर्वत्र प्रसुप्त था। उस समय यह जगत न किसी को जानने योग्य (अप्रज्ञात) था, न तर्क में लाने योग्य (अप्रतर्क्य) था और न प्रसिद्ध चिन्हों (लक्षण) युक्त था और न इन्द्रियों से ही जानने योग्य (अनिर्देश्य) था और मानो सर्वत्र प्रसुप्त था।किन्तु जब जीवों के कर्म फलोन्मुख होते हैं, तब परमेश्वर की सृष्टि करने की इच्छा होती है।यह ईश्वरीय सिसृक्षा (सृष्टि करने की इच्छा) ही तप कहलाती है और उसी तप की महिमा से वह कारण रूप जड़ प्रधान मानो एक रूप होकर परिणत होने लगता है, तब उससे क्रम पूर्वक महदादि सृष्टि होती है।
शुरू में सिर्फ अंधकार में लिपटा अंधकार और वो जल की भांति अनादि पदार्थ था, जिसका कोई रूप नहीं था अर्थात जो अपना आयतन न बदलते हुए अपना रूप बदल सकता है। फिर उस अनादि पदार्थ में एक महान निरंतर तप् से वो रचयिता (परमात्मा-भगवान्) प्रकट हुए।
पदच्छेद अन्वय ::
अग्रे तमसा गूढम् तमः आसीत्, अप्रकेतम् इदम् सर्वम् सलिलम्,
आःयत्आभु तुच्छेन अपिहितम आसीत् तत् एकम् तपस महिना अजायत।
सृष्टि के उत्पन्न होने से पहले अर्थात् प्रलय अवस्था में यह जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था, अज्ञायमान यह सम्पूर्ण जगत् सलिल जल रूप में था अर्थात् उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे। यह जगत् और वह व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था। इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ।Before evolution entire space was shrouded under the cover of darkness, which too is since ever, forever. The Almighty was present but unrevealed. Great accumulated ascetic practices led Almighty to reveal due to their maturity. The souls and the mass dissolved in the Almighty started taking shape and the universe appeared due to Almighty's desire to evolve it yet again.
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा॥4॥
(तदग्रे) उस सृष्टि के पूर्व (कामः + समवर्त्तत) ईश्वरीय कामना थी (यत्) जो (मनसः + अधि) अन्तःकरण का (प्रथमम् + रेतः) प्रथम बीजस्वरूप ‘काम’ ही (आसीत्) था। (कवयः) बुद्धिमान ऋषि प्रभृति (मनीषा) अपनी सात्विक बुद्धि से (असति) विनश्वर (हृदि + प्रतीष्य) हृदय में विचार (सतः + बन्धुम्) अविनश्वर सद्वाच्य प्रकृति के बाँधने वाले परमात्मा को (निरविन्दन्) पाते हैं।जो लोग ईश्वर को कामना रहित कहते हैं, वे वास्तव में तात्पर्य को नहीं समझते क्योंकि ‘सोSकामयत’ (तै.उप. 2.6) = उसने कामना की, ‘तदैक्षत’ (छा.उप. 6.2.1) = उसने ईक्षण किया इत्यादि श्रुति वाक्यों से ब्रह्म में काम का सद्भाव प्रसिद्ध है। यदि काम न होता तो यह सृष्टि भी नहीं होती ।
Here "काम" does not mean sex. its purely timely mature event to take place-form termed as desire. Its just like the programming in a computer which leads to infinite functions to take place automatically, systematically as and when time is ripe for them or the event has been listed to occur.
इस हेतु जीवों के स्व-स्व कर्मानुसार फल भोगने के लिए सृष्टि करने की ईश्वर की कामना अवश्य थी और यही कामना मानो, जगद्रचना का बीजभूत थी। उस कर्त्ता-धर्त्ता परमात्मा को कविगण अपनी बुद्धि से इसी विनश्वर हृदय में प्राप्त करते हैं। उसके अन्वेषण के लिए बाह्य जगत् में इतस्ततः दौड़ना नहीं पड़ता।
Prior to annihilation the organism-living being, had several deeds which were left to be neutralised, i.e., the impact-result of which was left undergone-served; leading to rebirth, reincarnation or re-evolution.
सतो बन्धुम् :- जड़ जगत् के ‘कारण प्रकृति’ का नाम है, ‘सत्’! उस कारण (ह्रीं) को परमेश्वर अपने वश में रखते है और इस हेतु वह ‘सतो बन्धु’ कहलाते हैं अर्थात जो अपने साथ बाँध ले, बन्धु नाम बाँधने वाला।
The left over deeds were the reason behind re-evolution and nature is a component of he Almighty, which holds the universes or just to say universe is a form of nature.
पदच्छेद अन्वय ::
अग्रे तत् कामः समवर्तत; यत्मनसः अधिप्रथमं रेतः आसीत्, सतः बन्धुं कवयःमनीषाहृदि प्रतीष्या असति निरविन्दन।
सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुई, जो परमेश्वर के मन में सबसे पहला बीज रूप कारण हुआ; भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-कामरूप कारण को क्रान्तदर्शी ऋषियों ने अपने ज्ञान द्वारा भाव से विलक्षण अभाव मे खोज निकाला।सबसे पहले रचयिता को सृष्टि की रचना की इच्छा (कामना, विचार, भाव, इरादा), जो कि सृष्टि उत्पत्ति का पहला बीज था, इस तरह रचयिता ने विचार कर आस्तित्व और अनस्तित्व की खाई पाटने का काम किया।
The Almighty desired to create the universe which became the first seed for evolution leading the God to bridge the gap between existent and non existent.
The idea to recreate the universe which had annihilated earlier came cyclically. There are infinite universes and the Almighty too has infinite forms created out of the formless.
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात्॥5॥
पदच्छेद अन्वय ::
एषाम् रश्मिःविततः तिरश्चीन अधःस्वित् आसीत्, उपरिस्वित् आसीत्रेतोधाः आसन् महिमानःआसन् स्वधाअवस्तात प्रयति पुरस्तात्।
पूर्वोक्त मन्त्रों में नासदासीत् कामस्तदग्रे मनसारेतः में अविद्या, काम सङ्कल्प और सृष्टि बीज-कारण को सूर्य किरणों के समान बहुत व्यापकता उनमें विद्यमान थी। यह सबसे पहले तिरछा था या मध्य में या अन्त में? क्या वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर विद्यमान था?वह सर्वत्र समान भाव से भाव उत्पन्न था। इस प्रकार इस उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्म को धारण करने वाले जीव रूप में थे और कुछ तत्त्व आकाशादि महान रूप में प्रकृति रूप थे; स्वधा भोग्य पदार्थ निम्नस्तर के होते हैं और भोक्ता पदार्थ उत्कृष्टता से परिपूर्ण होते हैं।
फिर उस कामना रुपी बीज से चारों ओर सूर्य किरणों के समान ऊर्जा की तरंगें निकलीं, जिन्होंने उस अनादि पदार्थ (प्रकृति) से मिलकर सृष्टि रचना का आरंभ किया।
God's desire resulted in formation mass-matter and organism. Its location can not be described as top, bottom, right left, east, west, north of south, inside or outside, here or there, straight or tilted. It was uniformity spreaded all over.
को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव॥6॥
पदच्छेद अन्वय ::
कः अद्धा वेद कः इह प्रवोचत् इयं विसृष्टिः कुतः कुतः आजाता, देवा अस्य विसर्जन अर्वाक् अथ कः वेद यतः आ बभूव।
कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुई। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं। अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते। इसलिए कौन मनुष्य जानता है, जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ ?अभी वर्तमान में कौन पूरी तरह से ठीक-ठीक बता सकता है कि कब और कैसे इस विविध प्रकार की सृष्टि की उत्पत्ति और रचना हुई, क्योंकि विद्वान लोग तो खुद सृष्टि रचना के बाद आये। अतः वर्तमान समय में कोई ये दावा करके ठीक-ठीक वर्णण नहीं कर सकता कि सृष्टि बनने से पूर्व क्या था और इसके बनने का कारण क्या था।
No one is capable of describing exactly how the evolution took place since the demigods too evolved thereafter only. Though Bhagwan Vishnu himself transferred to Veds to Brahma Ji yet only trunketed-edited versions of Veds are available. Still only Bhagwan Shiv knows a bit of it.
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद॥7॥
पदच्छेद अन्वय ::
इयं विसृष्टिः यतः आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
अस्य यः अध्यक्ष परमे व्यामन् अंग सा वेद यदि न वेद।
यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुयी इस का मुख्य कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरुप में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय श्रोताओं! वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है, उसके अतिरिक्त इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को, कोई नहीं जानता। ब्रम्हांड एक खुला स्थान है, जिसकी कोई सीमायें नहीं हैं, कोई अंत नहीं है। इसकी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई और गहराई अनंत हैं। पर इसकी रचना कैसे और क्यों हुई?अस्य यः अध्यक्ष परमे व्यामन् अंग सा वेद यदि न वेद।
सृष्टि रचना का स्रोत क्या है? कौन है इसका कर्ता-धर्ता? सृष्टि का संचालक, अवलोकन करता, ऊपर कहीं स्वर्ग में है बैठा।
What is the source of evolution-creation? Who is behind creation? Who governs-runs the universe? Who observes the evolved? Where is the source of evolution-in the heaven?
परम ब्रह्म अर्थात एकाक्षर ब्रह्म, परम अक्षर ब्रह्म, ब्रह्म ही सत्य है, वही अविकारी परमेश्वर है। जिस समय सृष्टि में अंधकार था। न जल, न अग्नि और न वायु था तब वही तत्सदब्रह्म ही था जिसे श्रुतियों में सत्-अविनाशी परमात्मा कहा गया है।
उस अविनाशी परब्रह्म (काल) ने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की। उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से आकार की कल्पना की, जो मूर्ति रहित परम ब्रह्म है।
Its only the Almighty who is truth (for ever since ever), known as Ekakashr (single syllable) Brahm, Param Brahmn, The defect free-untainted Ultimate, Almighty. It was HE who was alone described as Non-perishable God. Water, air or fire did not exist.
सृष्टि रचना का कार्य ईश्वर की इच्छा से होता है। इसके प्रारंभिक क्रम में अंधकार में सिमटी ऊर्जा परमाणुओं में बदलती है। स्वतंत्र अवस्था में रहने के लिये परमाणु द्रव्य का अंतिम अवयव है तथा परमाणु नित्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु परमाणुओं के संयोग से बने हैं। सर्वप्रथम इन्हीं परमाणुओं से क्रिया होती है और दो परमाणुओं के संयोग से द्वयणुक उत्पन्न होते हैं। ऐसे ही तीन द्वयणुकों के संयोग से त्रयणुक बनता है, तत्पश्चात् चतुरणुक आदि क्रम से महती पृथ्वी, महत् आकाश, महत् तेज तथा महत् वायु उत्पन्न होता है।
Evolution is the outcome of the desire of the Almighty. It begins with the fusion of energy from darkness into atoms, the basic-fundamental particles which can exist freely in nature. Everything including earth, air, water, energy are formed by the fusion of atoms. Two atoms fuse to form a molecule. Two or more atoms may combine to form molecules with three or more atoms. Molecules with multiple atoms may be formed. Complex molecules do exists.
More than 49 particles have been recognised which exhibit both energy and particulate form, including the God particle.
A proton or hydrogen in nascent form leads to fusion, which generates tremendous amount of energy. More protons combines to forms heavier particles like oxygen. Hydrogen & Oxygen combine to form water. Water condenses into clouds and then there is continuous-consistent rain for thousands of years. The heavy to heavier particles now start solidifying and land comes into being surrounded by water. The golden shall appears and Chhudr Virat Purush appears out of it. He is Bhagwan Vishnu the nurturer. Out of his naval a lotus emerges having Brahma sitting over it.
***
ईश्वर जगत् का साक्षी है जिसके सन्निधान मात्र से प्रकृति संसार की रचना में प्रवृत्त होती है।[चरक]
Its the Almighty who visualises the creations and his presence generates the nature which further intend to form the universe.
Purush-the Almighty & HIS component nature leads to evolution. Its the Almighty who evolves and dissolves the universe.
(1). अव्यक्त से महान्, महान् से अहंकार, अहंकार से पञ्चतन्मात्रा, पञ्चतन्मात्रा से पंच महाभूत एवं एकादश इन्द्रियाँ इस प्रकार सभी तत्वयुक्त सृष्टि के आदि में पुरुष उत्पन्न होता है। प्रलयकाल में अव्यक्त रूप प्रकृति में बुद्धयादि तत्व लय को प्राप्त हो जाते है। इस प्रकार अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त का क्रम रजोगुण और तमोगुण से मुक्त होकर पुनः-पुनः उदय प्रलय रूप में चक्र की भाँति घूमता रहता है। यही सृष्टि के विकास अर्थात् उदय महाप्रलय और मोक्ष का क्रम है।
सर्ग क्रम :- महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि के प्रारंभ में सवर्प्रथम 'अव्यक्त' तत्व पुनः उसे ''बुद्धि तत्व'' बुद्धि तत्व से ''अहंकार'' उत्पन्न होता है। इसी प्रकार अहंकार से जो त्रिविध होता है, पञ्चतन्मात्राएँ और एकादश इन्द्रियाँ उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण सर्वाङ्ग की उत्पत्ति आदि सृष्टि के आरंभ काल में अभ्युदित होती है।
यथा "-
ईश्वर जगत् का साक्षी है जिसके सन्निधान मात्र से प्रकृति संसार की रचना में प्रवृत्त होती है।[चरक]
Its the Almighty who visualises the creations and his presence generates the nature which further intend to form the universe.
ज्ञः साक्षीप्युच्यते नाज्ञः साक्षी ह्यात्मा यतः स्मृतः।
सवेर् भावा हि सवेर्षां भूतानामात्मसाक्षिकाः॥च.शा.1.83॥
प्रकृति और पुरुष के संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति होती है, पुरुष (परमात्मा) का संयोग ही सृष्टि के उदय और संयोग निवृत्ति ही सृष्टि प्रलय का कारण है। Purush-the Almighty & HIS component nature leads to evolution. Its the Almighty who evolves and dissolves the universe.
रजस्तमोभ्यां युक्तस्य संयोगोऽयमनन्तवात्।
ताभ्यां निराकृताभ्यां तु सत्ववृद्धया निवतर्ते॥च.शा.1.36॥
रजोगुण और तमोगुण के योग से यह चतुर्विंशति राशि रूप संयोग अनन्त है, सत्वगुण की वृद्धि तथा रजोगुण और तमोगुण की निवृत्ति से पुरुष रूप यह संयोग निवतिर्त होकर मोक्ष हो जाता है।(1). अव्यक्त से महान्, महान् से अहंकार, अहंकार से पञ्चतन्मात्रा, पञ्चतन्मात्रा से पंच महाभूत एवं एकादश इन्द्रियाँ इस प्रकार सभी तत्वयुक्त सृष्टि के आदि में पुरुष उत्पन्न होता है। प्रलयकाल में अव्यक्त रूप प्रकृति में बुद्धयादि तत्व लय को प्राप्त हो जाते है। इस प्रकार अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त का क्रम रजोगुण और तमोगुण से मुक्त होकर पुनः-पुनः उदय प्रलय रूप में चक्र की भाँति घूमता रहता है। यही सृष्टि के विकास अर्थात् उदय महाप्रलय और मोक्ष का क्रम है।
सर्ग क्रम :- महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि के प्रारंभ में सवर्प्रथम 'अव्यक्त' तत्व पुनः उसे ''बुद्धि तत्व'' बुद्धि तत्व से ''अहंकार'' उत्पन्न होता है। इसी प्रकार अहंकार से जो त्रिविध होता है, पञ्चतन्मात्राएँ और एकादश इन्द्रियाँ उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण सर्वाङ्ग की उत्पत्ति आदि सृष्टि के आरंभ काल में अभ्युदित होती है।
यथा "-
जायते बुद्धिरव्याक्ताद् बुद्धयाऽहमिति मन्यते।
परं खादीन्यहङ्कारादुत्पद्यन्ते यथाक्रमम्।
ततः सम्पूणर्सवार्ङ्गो जातोऽभ्यदित उच्यते॥च.शा.1.66॥
UNREVEALED अव्यक्त :: पुरुष संसृष्ट अव्यक्त नाम मूल प्रकृति,EGO अहंकार :: महान् व बुद्धितत्व,
ROOT-BASIC ELEMENTS सूक्ष्म पञ्चमहाभूत :: पञ्चतन्मात्राएँ,
PRE EXISTENT पञ्चमहाभूत :: एकादश इन्द्रियाँ और
ORGANS इन्द्रियाँ :: पञ्चमहाभूत से युक्त पाञ्चभौतिक हैं।
(2). अव्यक्त नाम की प्रकृति है। मूल प्रकृति इसका अपर पर्याय है। सभी प्राणियों का कारण स्वयं अकारण (कारण रहित सत्व, रज, तम स्वरूप आठों रूपों वाला :- अव्यक्त, महान्, अहंकार और पंचतन्मात्रारूप ) सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति का कारण अव्यक्त नाम की प्रकृति है। यह अनेक क्षेत्रज्ञ कर्म पुरुष का अधिष्ठान उसी प्रकार है; जिस प्रकार एक समुद्र अनेक नदियों का स्थान है।
उस अव्यक्त से उन्हीं लक्षणों वाला अर्थात् सत्व, रज, तम स्वरूप महान कार्य उत्पन्न होता है। उस महान अर्थात् महत् तत्व से सत्व, रज, तम लक्षणों वाला अहंकार उत्पन्न होता है।
(2.1). अंहकार तीन प्रकार का होता है :- (2.1.1). वैकारिक (सत्विक), (2.1.2). तेजस (राजस), तथा (2.1.3). भूतादि (तामस)।
(2.2). इनमें वैचारिक अंहकार तथा तेजस अंहकार की सहायता से, इन्हीं लक्षणों वाली (सात्विक+राजस) एकादश इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं।
ज्ञानेन्द्रियॉँ :- (2.2.1). श्रोत, (2.2.2). त्वक्, (2.2.3). चक्षु, (2.2.4). रसन एवं (2.2.5). घ्राण।
कर्मेन्द्रियाँ :- (2.2.6). वाक् (वाणी), (2.2.7). हस्त, (2.2.8). उपस्थ, (2.2.9). गुदा एवं (2.2.10). पाद (पैर)।
(2.2). मन :- यह ज्ञानेन्द्रि एवं कर्मेन्द्रि दोनों है और ज्ञानेन्द्रियोँ तथा कर्मेन्द्रियोँ का आश्रय पाकर मनुष्य के कार्य-कलापों को सम्पादन करता रहता है।
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तामस और राजस, अहंकार की सहायता से इन्हीं लक्षणों से युक्त पञ्चतन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। शब्द, स्पर्श, रूप एवं गंध तन्मात्रा। इन तन्माओं के क्रमशः आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी ये पाँच महाभूत उत्पन्न हुए।
कुल मिलाकर ये चौबीस तत्व हैं।
अतः अव्यक्त, महान्, अहंकार तथा पञ्चतन्मात्राएँ ये कुल आठ प्रकृति और शेष षोडश विकार कहे गये हैं।
अव्यक्त :- मूल प्रकृति एक एवं त्रिगुणात्मक महान अहंकार, वैकारिक (सात्विक), तेजस (राजस), भूतादि (तामस) की सहायता से 1 मन, 5 ज्ञानेन्दि्रयाँ, 5 कमेर्न्दि्रयाँ, 5 तन्मात्राअर्थात एकादश इन्द्रियाँ और पंच महाभूत।
(3). प्रकृति एवं पुरुष ::
सतवरजस्तमस्यां साम्यावस्था प्रकृतिः॥सा.द.1.61॥
सत्व, रज और तम की साम्यावस्था प्रकृति है। प्रकृति से ही महान्, महान् से अहंकार, अहंकार से पञ्चतन्मात्राएँ एवं दोनों प्रकार की इन्द्रियाँ एवं मन तथा तन्मात्राओं से स्थूल महाभूत इस प्रकार ये 24 तत्व उत्पन्न होते हैं। पच्चीसवाँ तत्व पुरुष है, जो प्रकृति का कारण है। जो प्रकृति के संयोग से ही बनता है।सृष्टि के विकास क्रम में प्रकृति एवं पुरूष का संयोग सर्व प्रथम साँख्य दर्शन में वर्णित है। इन दोनों तत्वों प्रकृति एवं पुरूष को अव्यक्त नाम से एक तत्व माना है। मूल प्रकृति सदैव अव्यक्त रहती है और सभी का उत्पादक कारण इसलिए इसे अपरा प्रकृति भी कहा जाता है।
प्रक्ररोरीति प्रकृतिः; तत्वान्तरोपादानत्व प्रकृतित्वम्।
सत्व रजसतमसां साम्यावस्था प्रकृतिः; मूल प्रकृति विकृतिः॥
जो किसी वस्तु को उत्पन्न करने वाला हो, परन्तु उसका कोई उत्पादक कारण न हो उसे प्रकृति या मूल प्रकृति कहते हैं।जो अन्य तत्वों का उपादान कारण हो अर्थात् जो तत्वान्तरों को उत्पन्न करता है, उसे प्रकृति कहते हैं, जैसे मूल प्रकृति।
जो तत्वान्तरों को उत्पन्न करते हैं तथा स्वयं भी उत्पन्न होते हैं, वही प्रकृति विकृति है।
प्रकृति दो प्रकार की मानी गई है :- (3.1). मूल प्रकृति, (3.2). भूत प्रकृति।
मूल प्रकृति को अव्यक्त माना जाता है।
सर्वभूतानां कारणं कारण सत्वरजस्तमो, लक्षणमष्टरूपस्य अखिलस्य जगतः, संभवहेतुरव्यक्तं नाम। (सु०)
इसमें मूल प्रकृति अव्यक्त ही रहती है तथा भूत प्रकृति स्थावर और जंगम भूत द्रव्यों को उत्पन्न करने वाली होती है।साँख्य दर्शन के अनुसार सत्व, रज, तम की साम्यावस्था ही प्रकृति है।
मूल प्रकृतिविकृतिमर्हदाद्या प्रकृति विकृतयः सप्त।
षोडकस्तु विकारो न प्रकृतिनर् विकृतिः पुरुषः॥सा.का.3॥
(4). भगवान् श्री कृष्ण ने प्रकृति, विकृति एवं पुरुष को चार भागों में विभक्त कर वर्णन किया है :- (4.1). प्रकृति, (4.2). प्रकृति व विकृति, (4.3). केवल विकृति तथा (4.4). न प्रकृति न विकृति।मूल प्रकृति जिसे अपर माना जाता है और जो हमेशा अव्यक्त रूप में रहती है वही प्रधान प्रकृति कही जाती है। यह किसी से उत्पन्न न होने के कारण विकार रहित होती है, इसीलिए यह समस्त संसार का कारण है। इसी से महदादि 23 तत्वों की उत्पत्ति होती है। 1 महान्, 1 अहंकार तथा 5 पंच तन्मात्राएँ; ये सातों तत्व प्रकृति, विकृति उभय रूप हैं।
महान्, अव्यक्त से उत्पन्न होता है और अहंकार को उत्पन्न करता है तथा तन्मात्राएँ अहंकार से उत्पन्न होती हैं तथा महाभूतों को उत्पन्न करती हैं। 1 मन, 5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेद्रियाँ तथा 5 महाभूत, ये 16 विकार हैं तथा पच्चीसवाँ तत्व पुरुष है जो न प्रकृति है न विकृति है अर्थात् पुरुष न किसी को उत्पन्न करता है और न किसी से उत्पन्न ही होता है। यह कार्य कारण रहित है।
(5). साँख्य दशर्न सम्मत पञ्चविंशति तत्व :-
(5.1). अव्यक्त नाम मूल प्रकृति जो कि केवल एक है।
(5.2). महान् विकृति, प्रकृति अहंकार अभय रूप, सात पञ्चतन्मात्रा।
(5.3). पञ्च ज्ञानेन्दि्रय, पञ्च कर्मेन्द्रियाँ, उभयात्मकं मन, केवल विकृति सोलह पञ्च महाभूत।
(5.4). पुरुष :- प्रकृति व विकृति दोनों से भिन्न एक है।
समस्त अव्यक्त आदि एकत्व का जो वर्ग होता है वह अचेतन है। पुरुष पच्चीसवाँ तत्व है। वह पुरुष कार्यस्वरूप मूल प्रकृति से संयुक्त होकर अचेतन कर्म का चैतन्य कारक होता है। अचेतन होते हुए भी मूल प्रकृति की प्रवृत्ति पुरुष (व्यक्ति) के मोक्ष के लिए होती है। क्योंकि चैतन्य युक्त पुरुष और प्रकृति के संयोग से उससे उत्पन्न हुए सभी तत्व चेतनायुक्त हो जाते हैं। जब तक प्रकृति पुरुष से अधिष्ठित नहीं होती, तब तक उससे महदादि तत्व उत्पन्न नहीं होते। पुरुष सचेतन होते हुए भी निष्क्रय और प्रकृति क्रियावर्ती होते हुए भी अचेतन, के कारण दोनों संयुक्त हुए बिना स्वतंत्र रूप से सर्गोत्पत्ति नहीं कर सकते हैं।
सृष्टि का कार्य सचेतन पुरुष और जड़ प्रकृति के संयोग से ही प्रारंभ होता है।
प्रकृति-पुरुष का साधर्म्य-वैधर्म्य :- समान धर्म अर्थात् एक जैसे गुण एवं समानताएँ साधर्म्य कही जाती है तथा विपरीत एवं विभिन्न गुण असमान धर्म वैधर्म्य कहा जाता है।
पुरुष और प्रकृति की समानता एवं असमानता ::
साधर्म्यः :- प्रकृति एवं पुरुष दोनों अनादि, अनन्त, निराकार, नित्य, अपर तथा सर्वगत एवं सर्वव्यापक हैं।
''न विद्यते अपरो याभ्यां तौ अपरौ''।
वैधर्म्यः :- प्रकृति एक अचेतन त्रिगुणात्मिका सत्वरजस्तमोरुप, बीजधर्मिणी, प्रसवधर्मिणी तथा अमध्यस्थधर्मिणी है।बीजधर्मिणी :- सभी महदादि विकारों के बीजभाव से अवस्थित अर्थात् ''बीजस्यधर्मो बीजधर्म सोऽस्या अस्तीति बीजधमिर्का।'' बीज में जैसे वृक्षोस्पत्ति का धर्म होता है, ठीक उसी प्रकार सगोर्त्पत्ति का धर्म जिसमें हो वैसी प्रकृति है।
प्रसवधर्मिणी :- महदादि तत्वों की समस्त चराचर सृष्टि को जन्म देने का धर्म जिसमें उपस्थित हो उसी तरह प्रकृति होती है।
अमध्यस्थ धर्मिणी :- अर्थात् सत्व आदि गुणों की राशि सुखादि रूप से सुख की अभिलाषा करती हुई एवं दुःख से द्वेष करती हुई अमध्यस्थ होती है। प्रकृति सत्वादि रूप होने से मध्यस्थ नहीं है ।
पुरुषः (परमात्मा) :- पुरुष शब्द से महदादि कृत सूक्ष्म लिङ्ग शरीर कहा जाता है, जो योगियों को ही दृश्य है, उस पुर अथार्त् शरीर में सोने से ही पुरुष कहा जाता है। पुरुष बहुत चेतनावान, अणुठा, अबीज, धर्मा, अप्रसवधर्मा तथा अमध्यस्थधर्मा और निविर्कार होता है।
"निविर्कारः परस्त्वात्मा सत्वभूत गुणेण्दि्रयैः"।
''पुरुषो राशिसंज्ञस्तु मोहेच्छादुषकमर्जः"॥च.शा.1.53॥
(6). पुरूष के प्रकार ::(6.1). चेतना धातुज, (6.2). षड्धातुज, (6.3). चतुर्विंशति तत्त्वात्मक।
षड्धातुज और चतुर्विंशति तत्त्वात्मक को एक ही माना जाता है, जिसे राशि पुरुष कहते हैं, सकारण होता है। परन्तु चेतना धातु पुरुष जिसे परमात्मा कहते हैं, वह नित्य अनादि होता है। और जो अनादि है, उसका कोई कारण नहीं होता।
'सवर्भूतानां कारणमकारणं सत्वरजस्तमो लक्षणं।
अव्यक्त को सबका कारण और उसका कोई कारण नहीं, ऐसा माना है। अव्यक्त शब्द से प्रकृति और पुरुष दोनों को ग्रहण किया है।[सुश्रुत शरीर स्थान]सूक्ष्म पुरुष और पञ्चमहाभूतों का संयोग ही आयुर्वेद में 'षड्धातुज' पुरुष कहा गया है। यही कर्म पुरुष है, जो कर्मफल भोगता है। यही चिकित्साधिकृत है, अर्थात् इसी की चिकित्सा होती है और यही चिकित्सित कर्मफल को प्राप्त करता है।
'शरीरादिव्यतिरिक्तिः पुमान्।सा.द.1.139॥
शरीर, (मन) बुद्धि से पुरुष भिन्न है।[सा.द.1.139]
"अधिष्ठानच्येति"॥सा.द.1.142॥
पुरुष देहादि पर अधिष्ठाता है। अधिष्ठाता होने से भी वह देहादि से भिन्न है। वह भोक्ता होने तथा देह छोड़कर मोह की इच्छा करने से देहादि पर अधिष्ठाता है, अतः वह स्वयं भिन्न है।
''जन्मादि व्यवस्थातः पुरुषबहुत्वम्"॥सा.द.1.149॥
पुरुष-जीव-प्राणी के जन्म-मरण से एक शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर में जाने से यह सिद्ध होता है कि 'पुरुष' एक विभु सर्वव्यापक होता है, तो देह से निकलना, आना-जाना आदि व्यवस्था न होती। इससे यह सिद्ध होता है कि पुरुष अनेक है, एक नहीं।
''पुरुष बहुत्वम् व्यवस्थातः''॥सा.द.6.45॥
अतः व्यवस्था से पुरुष का बहुत होना सिद्ध है । यदि पुरुष एक होता तो जन्म-मरण व्यवस्था दृष्टिगोचर न होती । किन्तु व्यवस्था तो ऐसी है कि कोई जन्म लेता है, तो कोई मृत्यु को प्राप्त होता है । इससे पुरुष का बहुत होना पाया जाता है।इस प्रकार जितने भी पुरुष तथा उसकी सत्ता है, उन सभी में श्रेष्ठ या चिकित्साधिकृत पुरुष-राशि पुरुष ही है, जिसे आधार माना गया है तथा इसी 24 तत्त्वों के संयोग से जो पुरुष बनता है, उसे राशि पुरुष कहा गया है।
राशि पुरुष के 24 तत्व :- बुद्धि, इंद्रिय (अथार्त पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कमे) इनके योग (संयोग अर्थात मिलाप) को धारण करने वाले को 'पर' जानना चाहिए, इस चतुर्विंशति तत्त्व की राशि को पुरुष कहते हैं।
बुद्धीन्दि्रयमनोऽथार्नां विद्याद्योगधरं परं।
चतुर्विंशतिको हेष राशिः पुरुषसंज्ञकः॥च.शा.1.35॥
इसमें पुरुष को 24 तत्वों की राशि बताई है, परन्तु मूल में 24 तत्व स्पष्ट नहीं है । यहाँ बुद्धि से तात्पर्य महत् तत्व, अहंकार, पञ्चतन्मात्राएँ; ये 7 लिए जाते हैं। इंद्रिय से 5 ज्ञानेन्द्रिय, 5 कर्मेन्द्रिय तथा 1 मन। अर्थ से यहाँ विषय (शब्दादि) न लेकर 5 महाभूत लिए जाते हैं । 'पर' शब्द से अव्यक्त लिया गया है। इस प्रकार बुद्धि से 7 + मन सहित 11 इंद्रियाँ, 5 महाभूत, 1 अव्यक्त, ये सब मिलाकर 24 तत्व का यह राशि पुरुष माना जाता है।चतुर्विंशतिको हेष राशिः पुरुषसंज्ञकः॥च.शा.1.35॥
इस राशि पुरुष की परम्परा अनन्त है। रज एवं तम से संयुक्त पुरुष का यह बुद्धि, इंद्रिय, मन और अर्थ का संयोग अथवा 24 तत्वों का संयोग अनन्तवान् होता है। अर्थात् इस संयोग का कभी अंत नहीं होता। रज और तम हट जाने पर और सत्वगुण के बढ़ जाने से तो मोक्ष हो जाता है। सभी कर्मादि का आधार राशि पुरुष ही है। इसलिए :-
सत्वमात्मा शरीरं च त्रयमेतत्त्रिण्डवत्।
लोकस्तिष्ठति संयोगात तत्र सर्व प्रतिष्ठितम्॥
पुरुष को प्रकृति का कारण माना जाता है। यदि कर्त्ता और ज्ञाता पुरुष न हो तो 'भा' (प्रतिभा), तम (मोह), सत्य-असत्य, वेद, शुभ- अशुभ कर्म नहीं होंगे । यदि पुरुष को न माना जायगा, तो न आश्रय (आत्मा का आश्रय शरीर), न सुख, न अर्ति (दुःख), न गति (स्वगर् या मोक्ष को प्राप्त करना), न आगति, न पुनर्जन्म, वाक् विज्ञान, जन्म-मृत्यु, बंधन, न ही मोक्ष होगा। इसलिए पुरुष को कारण बताया गया है।तीन प्रकार के पुरुषों में 24 तत्वात्मक पुरुष को ही कारण माना गया है।
अव्यक्त आत्मा अथार्त् चेतना धातु को कारण माना है, परन्तु केवल आत्मा किसी भी कार्य को करने में समर्थ नहीं होती, क्योंकि आत्मा को तब तक ज्ञान नहीं होता, जब तक वह 24 तत्वों से संयोग नहीं करता है। यथा :-
''आत्मा ज्ञः करणैयोर्गाज्ज्ञ्नं त्वस्य प्रवतर्ते''॥चक्रपाणि॥
(7). पंचमहाभूत :: (7.1). वैकारिक, (7.2). तैजस, (7.3). भूतादि।तैजस अहंकार की सहायता से भूतादि अहंकार द्वारा पञ्च तन्मात्राएँ उत्पन्न होती है।
भूतादेरपि तैजसहायात् तल्लक्षणान्येव पञ्चतन्मात्राणि उत्पद्यन्ते॥सु.शा.1॥
भूतादि अहंकार से ही पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति हुई इसीलिए उनकी संज्ञा भूत हुई। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये क्रमशः महाभूतों के गुण हैं। इन्हें ही पञ्चतन्मात्रा भी कहा जाता है। पञ्चतन्मात्रा का दूसरा नाम अविशेष या सूक्ष्मभूत है।
महाभूतानि रवं वायुरग्निरापः क्षितिस्तथा,
शब्द स्पशर्श्च रूपं च रसो गन्धश्च तद्गुणाः॥च.शा.1॥
पञ्चमहाभूतों की रचना एवं गुणोत्पत्ति :: शब्द स्पशर्श्च रूपं च रसो गन्धश्च तद्गुणाः॥च.शा.1॥
SKY-SPACE आकाश (व्यापक) :: शब्द = 1 तन्मात्रा।
AIR वायु :: शब्द + स्पर्श = 2 तन्मात्रा।
FIRE अग्नि :: शब्द +स्पर्श + रूप = 3 तन्मात्रा।
WATER जल :: शब्द + स्पर्श + रूप + रस = 4 तन्मात्रा एवं
EARTH पृथ्वी :: शब्द + स्पर्श + रूप + रस + गंध = 5 तन्मात्रा।
इस प्रकार सूक्ष्म महाभूत अर्थात् तन्मात्राओं से पहले तत्वों की एक मात्रा अपने तत्वों के दो भाग से आकाश आदि स्थूल महाभूतों की क्रमशः उत्पत्ति होती है। यह त्रिवृत्तिकरण दार्शनिकों का 'अणु' है।
यह समस्त विश्व पञ्चमहाभूतों की ही खेल है। इन पञ्चमहाभूतों का जो इन्द्रियग्राह्य विषय नहीं है, वही तन्मात्रा महाभूत है और जो इन्द्रियग्राह्य हैं, वे ही भूत हैं। आत्मा, आकाश अव्यक्त तत्व हैं और शेष व्यक्त तत्त्व हैं।
सृष्टि भूतों का समुदाय है। पृथ्वी में गति वायु से तथा अवयवों का मेल एवं संगठन जल से और उष्णता अग्नि से आई। पृथ्वी अंतिम तत्त्व है, अर्थात् उससे किसी नये तत्त्व की उत्पत्ति नहीं होती है।
तन्मात्रा :: गुण; Characteristics, traits, qualities, properties, the basis of all physical existence. It comes from Sanskrat root words, tan, meaning “Subtle” and Matra, meaning element.
तेषामेकगुणं पूर्वो गुणवृद्धि परे परे, पूर्वः पूवर्गुणश्चैव क्रमशो गुणिषु स्मृतः॥च.शा.1.28॥
इनमें प्रथम भूत आकाश गुण वाला अर्थात् शब्द। आकाश का केवल एक ही गुण होता है शब्द और पिछले प्रत्येक भूत में अपने पूर्व भूत के गुणों के प्रवेश से गुण की वृद्धि रहती है।सृष्टि के आदि में आकाश स्वयं सिद्ध रहता है। जिस प्रकार आकाश को नित्य माना जाता है उसी प्रकार शब्द भी नित्य है।
'आकाशद्वायुः' :- आकाश से वायु की उत्पत्ति होती है, तो उसमें अपना गुण स्पर्श एवं आकाश का शब्द रहता ही है जिससे वायु में शब्द एवं स्पर्श दो गुण हो जाते हैं।
'वायोरग्नि' :- तो वायु से अग्नि की उत्पत्ति। इसमें-शब्द, स्पर्श, रूप, तीन गुण हुए।
'अग्नेराप' :- अग्नि से जल की उत्पत्ति- शब्द, स्पर्श, रूप, रस 4 गुण हुए ।
'अद्भयः पृथ्वी' :- जल से पृथ्वी की उत्पत्ति जिसमें - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पाँच गुण होते हैं।
The Space-sky creates the air, air creates fire, fire creates water and water creates earth-land.
इस प्रकार महाभूतों की क्रमशः उत्पत्ति और तदनुसार उनमें क्रमशः गुणवृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त महाभूतों में कुछ अन्य गुण भी पाए जाते हैं, जिनका ज्ञान स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा होता है।
(8).महाभूतों के गुण ::
खरद्रवचलोष्णत्वं भूजलानिलतेजसाम्आकाशस्याप्रतिघातो दृष्टं लिङ्गं यथाक्रमम्॥च.शा.1.29॥
गंधत्व (smell) पृथ्वी का, द्रवत्व (liquidity-flow) जल का, उष्णत्व (energy, heat) तेज का, चलत्व (movement) वायु का गुण है।आकाश का गुण :: अप्रतिघात (not to bounce back, absorb) है।
प्रतिघात :: रुकावट, अवरोध; bouncing back, obstacle, resistance.
शरीर में सूक्ष्म महाभूतों के गुणों को चिह्न ही निदेर्श किया है।
गुणाः शरीरे गुणिनां निदिर्ष्टश्चिह्नमेव च्॥च.शा.॥
क्षर होना, द्रव होना, चंचल होना, उष्ण होना, इनका ज्ञान त्वचा से ही होता है।महाभूतों का सत्व Divine), रज (Human) और तम (Demonic) से भी घनिष्ठ संबंध है।
(8.1). सत्वबहुलमाकाशम् :- सत्व गुण की अधिकता वाला आकाश होता है।
(8.2). रजोबहुलोवायुः :- रजो गुण की अधिकता वाला वायु होता है।
(8.3). सत्वोरजो बहुलोऽग्निः :- सत्व और रजोगुण की अधिकता वाला अग्नि महाभूत होता है।
(8.4). सत्वतमोबहुलाऽऽपः :- सत्व और तमोगुण की अधिकता वाला जल महाभूत होता है।
(8.5). तमोबहुला पृथिवीति :- तमोगुण की प्रधानता वाला पृथ्वी होती है।
इस प्रकार आकाशादि पञ्चमहाभूतों में सत्वादिगुण विद्यमान रहते हैं।
पञ्चमहाभूतों से द्रव्यों की उत्पत्ति के ज्ञान हेतु इसकी तीन अवस्थाएँ होती हैं :-
(9). भूत, महाभूत और दृश्यभूत :- भूत या तन्मात्रा की अवस्था में आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी में उनके शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध; ये गुण अव्यक्तावस्था में रहते हैं, यह परमाणुक अथवा सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म अवस्था होती है। यह स्थिति प्रलय की है ।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार प्रलय की स्थिति में जब परमात्मा को सृष्टि निर्माण की इच्छा हुई, तब आकाश महाभूत के दो परमाणुओं में परस्पर आकषर्ण के द्वारा संयोग होने लगा । द्वयणुक की रचना हुई तथा तीन द्वयणुक के मिलने से त्रसरेणुकी निर्मित हुई । द्वयणुक तक गुणों में सूक्ष्मता तथा भूत में अव्यक्तावस्था रहती है, तथा त्रसरेणु में यह (भूत) प्रत्यक्षयोग्यता तथा महत् परिमाण वाला हो जाता है। महत्त्व या स्थूलत्व आ जाने के कारण ही इनको महाभूत कहते हैं।
महाभूतों की उपयोगिता :: (9.1). गर्भ विकास एवं पञ्चमहाभूत, (9.2). शरीरावयव एवं पञ्चमहाभूत, (9.3). त्रिदोष एवं महाभूत, (9.4). देह प्रकृति एवं पञ्चमहाभूत, (9.5). षड्रस एवं पञ्चमहाभूत एवं (9.6). भूताग्नि एवं पञ्चमहाभूत।
संसार के स्थूल से स्थूल तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म द्रव्य की निष्पत्ति पञ्चमहाभूत से ही होती है; किन्तु पञ्चभौतिक होते हुए भी जिस महाभूत का प्राधान्य जिस द्रव्य में होगा उसकी अभिव्यक्ति उसी महाभूत के गुणों के द्वारा होती है तथा महाभूत की अधिकता के अनुसार ही आकाशीय वायव्य तैजस या आग्नेय आदि कहा जाता है।
Its only the Almighty WHO exactly knows how & why HE creates, how HE regulate, examine, controls it.
The Almighty Shri Krashn turns into revealed (with defined, form, shape) from unrevealed (undefined, without form, shape) from the darkness which prevailed all over prior to evolution. Bhagwan Shri Krashn attained this status after rigorous ascetic practices-Tapasya of 12,000 Divine years.
Parmatma, The Supreme Soul, whether defined or undefined (material or energy), is the abode of all souls. HIS revealed form is the seat of all Souls. A projection of HIS revealed form divides itself into two components. The first one is the Almighty HIMSELF as Krashn and the second is Maa Bhagwati (mother nature, The Prakrti).
Krashn is male-Purush and Mother Bhagwati is female.
HE is cause Maa Bhagwati is effect. HE is forever.
She is the Shakti-Power of the Almighty. Bhagwati is HIS strength-power & Maya (virtual, perishable, mirage, illusion).
Initially, the Permatma emerged as Himself, Shri Krishan-The divine form of Almighty, from the undefined to defined and splited into two-Shri Krishan, the Maha Kameshwar and Devi Maa Bhagwati. Their love making process continued for ten Manvanters. During this process, both of them started breathing and a fluid emerged in the form of sweat.
Deep breathing process resulted in the birth of Pawan Dev, the Deity of Air. Pawan Dev splited into two, i.e., himself and his wife. They had five sons.
The fluid turned into water and resulted in the birth of Varun Dev-the Deity of water. Varun Dev too, divided into two i.e., himself and his wife.
As a result of the sexual intercourse, between The Almighty Shri Krashn and Devi Maa Bhagwati-Radha a child was born, who became Maha Virat Purush-Maha Vishnu, from whom evolved all the universes.
From the tongue of Devi Bhagwati emerged the Devi Saraswati. Bhagwati Radha evolved from the right and Bhagwati Laxmi evolved from the left of Bhagwati Saraswati.
Maha Vishnu emerged out of Shri Krishan, the Almighty. Shri Krishan himself formed the right side component, while the left side component evolved as Maha Vishnu. Bhagwan Shri Krashn has two arms & Bhagwan Shri Hari Vishnu has four arms.
Radha Ji and Maha Laxmi emerged out of Devi Saraswati.
Shri Krashn awarded Vaekunth Lok to Maha Vishnu along with Laxmi Ji, Devi Saraswati also joined them. Shri Krishan and Maha Vishnu; have the same status. Maha Vishnu-the protector of all the Universes settled in Vaekunth Lok with Devi Maha Laxmi-the deity of all comforts, wealth, luxuries and worldly possessions, along with the Devi Saraswati, the Goddess of all learning, speech, knowledge and music.
Shri Krashn and Devi Bhagwati Radha, the Mother Nature, the Maha Maya, the Maha Shakti stayed in Gau Lok, the centre of all universes.
Devi Durga emerged from Shri Krashn along with, four headed Brahma Ji and Brahmani, followed by five headed Bhagwan Maha Shiv. Brahma Ji along with Brahmani, were sent to Brahm Lok by Bhagwan Shri Krishan. Bhawan Sada Shiv attained Kashi as the place to grant Moksh-Salvation after 10,000 Manvantars of Tapasya-ascetic practices.
Devi Durga the Shakti of Maha Shiv, joined him in Shiv Lok.
Later, a segment evolved out of Devi Saraswati in Vaekunth Lok, joined Brahma Ji in Brahm Lok as his Shakti.
While, listening to the divine music by Bhagwan Shiv over the earth in our universe (Galaxy called Milky way-Akash Ganga), both Bhagwan Shri Krashn and Radha Ji merged together in Gau Lok and formed Holy River Ganga. They reappeared on the request and prayer of Bhagwan Shiv over the earth again.
Devi Ganga was sent to Vaekunth Lok as the third wife of Bhagwan Vishnu. Devi Tulsi from Gau Lok is the fourth wife of Maha Vishnu.
The Maha Virat Purush born out of Shri Krishan and Devi Bhagwati produced as many Universes, as were the bristles-spores on his body.
Gau Lok is the centre of all the Universes. Vaekunth Lok has the same status as the Gau Lok with respect to our universe. Gau Lok and Vaekunth Lok last longer than any other place, among all the Universes in the space, which are bound to perish one day or the other.
Shiv is considered to be the cause-reason behind the creation of this universe.
Pawan (Vayu, Demigod who regulates the Air) and Varun Dev (Demigod) who regulates water and all vehicles), evolved prior to Maha Virat Purush.
A Golden (Hirany) egg, brighter than the Sun, appeared in water like a gigantic bubble, illuminating everything around, called Hirany Garbh (womb). Everything composing universe-all abodes including Heavens, Earth, Moon, Sun, Demons, Demi Gods, Humans and all that had to be created were present in it, in embryonic state-form.
From the navel of Chhudr Virat Purush-Narayan; Brahma Ji emerged on lotus-with his abode in Brahm Lok. From the forehead of Brahma Ji beamed the Mahesh, having his abode at Kaelash. These three together are not different from one another, in any way. They are the constituents of the Supreme All Almighty Param Pita Per Brahm Permashwer in our universe.
Virat Purush-Vishnu, an incarnation of Maha Virat Purush-the son of Almighty Shri Krashn and Radha Ji, emerged out of it and evolved-created his three incarnations viz. Brahma Ji-the creator from his right with 7 characters, Mahesh (Rudr)-the destroyer from his middle with 11 characters and Vishnu-the nurturer, protector from his right body segment with 8 characters. Para Shakti-the Divine Power of Bhagwan Vishnu is associated with HIM by performing the functions like nurturing, maintaining, illusion, attachment in this universe.
Brahma Ji and Bhagwan Vishnu looked at each other and argued that the other one was created by him. Brahma Ji told that the entire universe was present in him. Bhagwan Vishnu entered in Brahma's mouth to see it and found that the entire universe was present there in the stomach. He jokingly allowed Brahma Ji to find what was there in him. Brahma Ji too found everything in him. Bhagwan Vishnu closed his mouth and allowed him to come off through the navel lotus. Brahma Ji asked him to ask for a boon. Bhagwan Vishnu asked him to accept himself as his father-Creator and Brahma Ji obliged. There appeared a gigantic Shiv Ling on the scene. By way of curiosity, both of them entered into it, but failed to find its origin or the end for thousands of years. Tired they both retreated. They heard a voice (Akash Vani-divine voice-words in the ether-sky) telling them to meditate. They both requested the voice (Akash Vani) to tell who he was and who were they! The voice told them that he was Shiv-The Adi Purush, their creator. Brahma Ji asked him for a boon, on being asked, to appear as his son and the voice agreed to oblige him. Having meditated for long long years Maha Shiv asked Brahma Ji to start the creation of Universe.
ALMIGHTY-FORMLESS
↓
ALMIGHTY WITH FORM SHRI KRASHN
↓
SHRI KRASHN IN GAULOK
↓
SHRI KRASHN⟶ BHAGWATI SARASWATI
↓ ↓
VIRAT PURUSH-MAHA VISHNU🢨RADHA JI IN GAU LOK
↓
INFINITE UNIVERSES
↓
OUR UNIVERSE
↓
GOLDEN EGG-SHELL
↓
NARAYAN-BHAGWAN SHRI HARI VISHNU
↓
NAVEL LOTUS
↓
PRAJAPATI BRAHMA JI
Sequence-appearance of sages, their number, their names, is found to be different in different Kalps-Brahma's day. Some variations have been noticed in the evolution of various life forms, creatures, organisms as well. One should not be confused by these variations, since these variations are there due to the events occurring in different segments of time called-Manvantars.
Each Universe has a Chhudr (small, dwarf, pygmy, fragment, component) Virat Purush, from whom originated the Trinity of Brahma-the Creator, Vishnu-the Protector and Mahesh-the Destroyer. Left half of Chhudr Virat Purush produced Chatur Bhuj Vishnu with his abode in Shwet Dweep.
Devi Savitri and Devi Gayatri are the wives of Bhagwan Brahma in Brahm Lok.
Devi Laxmi is the wife of Bhagwan Vishnu in Shwet Dweep.
Devi Parwati is the wife of Bhagwan Shiv, as the incarnation of Sati, on Kaelash.
Brahma Ji requested Bhagwan Shiv-Mahesh to create life. He created eleven Rudr, who were all alike him. They are Dikpals (possessors of directions, 10 in number) now positioned in ten directions. Mahesh showed his inability to do this further. Dev Rishi Narad came off Brahma Ji’s forehead. Brahma Ji's forehead yielded the Sapt Rishi's.
Daksh Prajapati evolved from the toe of the right leg and his wife got her birth from the left toe of Brahma Ji. They had 60 daughters. 13 of these were married to Mahrishi Kashyap, who too had emerged from Brahma Ji. These were divine creations. Brahma Ji entrusted the job of creating life through sexual intercourse to Kashyap.
Kashyap moved to Kuru Kshetr and established his Ashram here and started ascetic-profound meditation at Himaly Parwat-Kashmir. Kashmir got its name from Kashyap. Kashmir extended to Kuru Kshetr.
Kuru Kshetr got this name much later, when a mighty king named Kuru, levelled the entire region up to 400 Yojan to inhabit humans as subjects. This is place in the galaxy, where the material life forms were evolved through sexual intercourse. These life forms moved to various abodes in the galaxies. This is the reason this region is called Kshetr (vagina, क्षेत्र-योनि).
Kashyap created all life forms through his wives. He had some more wives, other than Daksh's daughters. These life forms include Demigods-Dev Gan, Daity-giants, Rakshas-demons, Yaksh, Gandharv, Kinner, Humans etc. In all 12 creations got birth who moved over 2 legs.
BRAHMA JI'S CREATIONS ::
(1). DIVINE CREATIONS :: Divine creations settled in heavens-higher abodes. Yaksh, Rakshash, Asur (Monsters-giants) who were the first to evolved from the thigh of Brahma Ji, ran towards him, to eat him, shouting Yaksh-Yaksh meaning :- eat him, followed by Rakshash, shouting Rakshash, Rakshash meaning: don't protect him. Brahma Ji told them that he was their father-creator and therefore they should not eat him. Brahma Ji rejected the original-that body to acquire a new one. Deserted body turned into night (darkness constituting of smoke, fog, mist, dust, evening, dawn, Sunset, morning; pleasing both Yaksh and Rakshash. Rakshash are termed as Demons & giants, Asur and Anti Demigods, as well, due to their nature habits, desire for sex-lust, darkness.
Sages evolved from the forehead-mind and other body parts were named :-
HEART :: Bhragu,
EYES :: Marichi,
EARS :: Atri,
HEAD :: Angira
UDAN VAYU :: Pulasty,
VYAN VAYU :: Puleha,
APAN VAYU :: Kretu,
SAMAN VAYU :: Vashishth,
SHADOW :: Kardam,
DETERMINATION :: Dharm along with innumerable sons including Kashyap.
FOREHEAD :: Bhagwan Shiv (Maheshwar, Ardhnarishwer) evolved from the centre of eye brows and the nose.
Nondescript-uncharacteristic Brahm Shiv (Aling) is Ling (nature). Nature (ling) is a component of Shiv. Devoid of Sound-word, touch-figure, extract-elixir (juice), smell is Shiv. Non-descriptive, unmoved, un-deteriorating, Aling, Nirgun-no specific characteristic-component is Shiv. The nature associated with word-sound, touch-feeling, figure-shape and size, extract-juices, smells is the excellence of Shiv. He is the producer-creator of universe, with 5 components which were, which are, which will be there are: Earth, Water, Tej (energy, light), Space, Air. Micro-Macro, all components-sections of universe have been created from the nondescript Parmatma-Almighty Shiv. Its, Aling-nondescript due to the Maya-illusory Power of God and constitute of 7, 8 or 9 shapes-figures of Ling Tatv (Components-Elements). Bhagwan Shiv is capable of moving freely, in 14 universes as per his will.
MANAS PUTR :: Manas Putr (Brain child, always remain naked and appear-seen as kids) Sanak, Sanandan, Sanatan and Sanat Kumar; Dev Rishi Narad evolved from the from the fore head of Bahama Ji. They were capable of moving freely in all abodes, including earth. Devs, Humans too evolved from there.
THIGH :: From the thigh of Brahma Ji evolved Yaksh, Asurs (Rakshash-Demons, Danav-Giants), after acquisition of new body followed by Gandharv and Apsra by acquiring another glowing body.
Next bodies to be acquired by Brahma Ji were :-
(1.1). TEJOMAI (full of Aura-energy, glittering, illuminated) :: It Sandhey Gan and Pitre Gan.
(1.2). TIRO DHAN :: It yielded Siddh, Vidya Dhar, Pritibimb (reflection), Kinners (important), Kim Purush (important).
ANGER (Tandra) :: It produced ghosts (Bhoot, Pishach) and spirits.
HAIRS :: They produced-evolved the servants.
HEART :: Krat-Kraty were produced-evolved through Indriy Sanyam (self control, Control of senses, Asceticism, Enlightenment, Yog, Trans meditation, Salvation).
MANU & SHATRUPA :: Brahma Ji evolved Manu from his right half and Shatrupa from his left half.
DAKSH PRAJAPATI :: Daksh Praja Pati evolved from the right leg toe of Brahma Ji & his wife Prasuti evolved from the left toe of the creator.
(2). PHYSICAL-MATERIAL CREATIONS :: Physical-material creations became the inhabitants of earth. Brahma Ji evolved Manu from his right half and Shatrupa from his left half. Manavs-Humans took birth from them. Manu and Shatrupa had two sons-Priyvert & Uttan Pad and two daughters-Akuti & Prasuti.
SEXUAL REPRODUCTION :: Prasuti was married to Daksh Praja Pati. They had 60 daughters of which 14 were married to Kashyap, from whom evolved the entire living population on earth.
In all 9 types of life forms, which involved evolution through sexual means, in addition to creations made by Brahma Ji through his body-rejecting it again and again, were created depending upon their nature-characters in their previous innumerable incarnations-births, having these major divisions :- Prakret-3 sub divisions, Vaekrat-5 sub divisions and Komary Sarg-1 division.
PRAKRAT SARG प्राक्रत सर्ग :: Initially, it evolved out of the brain of Brahma Ji’s brain (intelligence, mind, prudence, enlightenment), which was further sub divided into; Adi Sarg आदि सर्ग, Bhoot Sarg भूत सर्ग and Aendrik Sarg, ऐन्द्रिक सर्ग.
(2.1). ADI SARG (STAGE) आदि सर्ग :: Mahtatv, Brahm Sarg, Presence of defects-differentiation in Satvik, Rajsik and Tamsik characters, is its significance. It constitutes mainly of Vaekarik, Temo Guni, Tamsik characters :- Yaksh, Rakshash, Asur-Demons were created out of the defects of Brahm. They were the ones to evolved first, as result-consequence of ignorance, defect and disorder. They represent darkness, shadow, sinners, cruelty, brutality, imprudence, lack of virtues, lack of sympathy and Avidya (absence of enlightenment, tendency to act in an opposite direction). They were meat eaters, blood thirsty, desirous of sex and alcoholic.
AVIDYA (IGNORANCE) अविद्या ::
(2.1.1). TAMISTR-SHADOW :: The ones, whose soul, mind and heart are full of darkness.
(2.1.2). ANDH TAMISTR :: Possess eyes but behaves as/like blind. Their soul, mind, heart and body are full of darkness.
(2.1.3). TAM-DARKNESS :: It represent lack of enlightenment.
(2.1.4). MOH :: Attachment (Bonds, ties, affections, allurements), desires, sexuality and sensuality.
(2.1.5). MAHA MOH :: Unlimited desires, extreme attraction-attachment. Hunger- thirst for power, possessions, lack of thoughtfulness and feelings, are the basic components of their nature. Their constitution reflected darkness. Yaksh, Rakshash-demos, Danav-giants and Asurs constituted this category.
(2.2). BHOTIC-BHOOT SARG (PHYSICAL-MATERIAL) भूत सर्ग :: It's dependent upon past 5 basic characteristics namely-shape, extract (juice), smell, touch and sound. Bhoot (past) Adi Sarg : Constitutes of those who have departed.
(2.3). VAEKRAT-AENDRIK (DISTORTED, DISORDERED, DEFECTIVE) SARG ऐन्द्रिक सर्ग :: It involves creation of senses and sense organs. It has 5 main divisions.
(2.4). MUKHY-MAIN (STATIONARY, STABLE, FIXED :: Immovable, Mountains-Hills, Trees Plants-Shrubs-Straws-Thickets (under growth).
(2.5).TRIYAK STROTA-TAEYARG YONI :: Movable Animals and birds. They constitute of 28 categories. They are without the knowledge of time period. Excess of Temo gun (ignorance) shows of in sexual behaviour eating and drinking and sleep only. Movement of food in their stomach takes place in curved path. They can identify the materials by smelling. They are devoid of thinking and farsightedness.
TWO HOOFS :: Cow, goat, bullock, deer, antelope, pig, sheep, camel etc.
SINGLE HOOF :: Donkey, horse, pony, gaur, shraf, chamry-yak etc.
FIVE CLAWS :: Animals-Dog, wolf, tiger, cat, rabbit, lion, monkey, elephant, tortoise, goh-lizard-dinosaurs, crocodile, sehi (porcupine) etc. Birds-vultures, crow, owl, crane, peacock, duck, swan etc.
(2.6). DEV SARG-URDH STROTA :: They constitute of Demigods-Deities with Satvik Nature. Movement of food constituting of offerings by humans takes place from bottom to top. They don’t consume material form of food, are truthful, & extremely comfort providing to the worshippers.
(2.7). ARWAK STROTA HUMANS :: Movement of food takes place from top to bottom, exhibit dominance of Rajsik-passionate characters. Satvik and Tamsik characters are also present, though in lesser quantity. They are devoted to Karm and pleasure in passions-sensuality which yield pain-sorrow-grief.
(2.8). ANUGRAH SARG :: Its associated with both Satvik and Tamsik tendencies
(2.9). KOMARY SARG :: It constitutes of both Prakrat (natural) and Vaekrat. Prakrat was created out of Intelligence (brain, mind, prudence).
Mahrishi Kashyap produced the above mentioned organisms from his wives as listed below:
(1). Aditi (Dev Mata) had 12 sons known as Adity-Sun in addition to Demigods.
(2). Surbhi (Gau Mata) produced all quadrupeds-horses, cows, buffaloes.
(3). Dity (Daety Mata-mother of demons) gave birth to Demons named Hirany Kashpu and Hiranyaksh, 49 Maruts.
(4). Danu (Daity Mata) produced Danav.
(5). Sursa gave birth to Rakshash.
(6). Muni-Aristha is the mother of Gandharv-divine singers and Apsra (divine dancers-Nymphs).
(7). Vinitay (Daity Mata) had Arun-Sun's chariot driver, Garud Ji (Bhagwan Vishnu's carrier-a bird) & daughters who became the mothers of all birds.
(8). Kadru (Daity Mata) became the mother of all servants/snakes-Bhagwan Shash Nag, Vasuki, Takshak etc.
(9). Khasa produced ugly demigods and companions of Kuber, named after Yaksh and Rakshash.
(10). Sursa produced Rakshash.
(11). Ira-Ila gave birth to all types of, trees, creepers, shrubs, bushes herbs.
(12). Krodhvasa created Ghosts and Pishachs.
(13). Tandra became the mother of wild animals and
(14). Pitre had all dead ancestors and 10 Pralapati's as her sons.
In all 4 types of means of reproduction have been described in the Shastr, namely: Andaj (अंडज) :- taking birth through the egg, Swedaj (स्वेदज): taking birth through contact by means of sweat, Udbhijj (उद्भिज्ज)-vegetative, sprouting, germinating, Garbhaj (गर्भज)/Jarayuj (जरायुज)-born out of placenta, viviparous, mammalian.
EVOLUTION (1) सृष्टि रचना :: Permatma, The Supreme Soul, whether defined or undefined-material or energy, is the abode of all souls. He constitutes of two components: The body and the Soul-The Shakti (Power). Shakti is Devi Maa Bhagwati-the Mother Nature. Initially, the Permatma emerged as Himself, Shri Krashn-The divine form of Almighty, from the undefined to defined and split-ted into two-Shri Krashn, the Maha Kameshwar and Devi Maa Bhagwati. Their love making process continued for ten Manvanters. During this process, both of them started breathing and a fluid emerged in the form of sweat.
Deep breathing process resulted in the birth of Pawan Dev, the Deity of Air. Pawan Dev split-ted into two, i.e., himself and his wife. They had five sons.The fluid turned into water and resulted in the birth of Varun Dev-the Deity of water. Varun Dev too, divided into two i.e., himself and his wife.
As a result of the sexual intercourse, between The Almighty Shri Krashn and Devi Maa Bhagwati-Radha a child was born, who became Maha Virat Purush-Maha Vishnu, from whom evolved all the universes.
From the tongue of Devi Bhagwati emerged the Devi Saraswati. Bhagwati Radha evolved from the right and Bhagwati Laxmi evolved from the left of Bhagwati Saraswati.
Maha Vishnu emerged out of Shri Krishan, the Almighty. Shri Krishan himself formed the right side component, while the left side component evolved as Maha Vishnu.
Radha Ji and Maha Laxmi emerged out of Devi Saraswati.
Shri Krashn awarded Vaikunth Lok to Maha Vishnu along with Laxmi Ji, Devi Saraswati also joined them. Shri Krishan and Maha Vishnu; have the same status. Maha Vishnu-the protector of all the Universes settled in Vaikunth Lok with Devi Maha Laxmi-the deity of all comforts, wealth, luxuries and worldly possessions, along with the Devi Saraswati, the Goddess of all learning, speech, knowledge and music.
Shri Krashn and Devi Bhagwati Radha, the Mother Nature, the Maha Maya, the Maha Shakti stayed in Gau Lok, The Center of all Universes.
Devi Durga emerged from Shri Krashn along with, four headed Brahma and Brahmani, followed by five headed Bhagwan Maha Shiv. Brahma Ji along with Brahmani, were sent to Brahm Lok by Shri Krishan.
Devi Durga the Shakti of Maha Shiv, joined him in Shiv Lok.
Later, a segment evolved out of Devi Saraswati in Vaikunth Lok, joined Brahma Ji in Brahm Lok as his Shakti.
While, listening to the music by Bhagwan Shiv-from the earth in our universe, Shri Krashn and Radha Ji merged together in Gau Lok and formed Holy River Ganga. They reappeared on the request and prayer of Bhagwan Shiv.
Devi Ganga was sent to Vaikunth Lok as the third wife of Bhagwan Vishnu. Devi Tulsi from Gau Lok is the fourth wife of Maha Vishnu.
The Maha Virat Purush born out of Shri Krishan and Devi Bhagwati produced as many Universes, as were the bristles/spores on his body.
Gau Lok is the center of all the Universes. Vaikunth Lok have the same status as that of Gau Lok with respect to our universe. Gau Lok and Vaikunth Lok last longer than any other place, among all the Universes in the space, which are bound to perish one day or the other.
Each Universe has a Chhudr Virat Purush, from whom originated the Trinity of Brahma-the Creator, Vishnu-the Protector and Mahesh-the Destroyer. Left half of Chhudr Virat Purush produced Chatur Bhuj Vishnu-with his abode in Swat Dweep.
From the navel of Chhudr Virat Purush emerged the Brahma on lotus-with his abode in Brahm Lok. From the forehead of Brahma Ji beamed the Mahesh- having his abode at Kailash. These three together are not different from one another, in any way. They are the constituents of the Supreme All Almighty Param Pita Per Brahm Permashwer in our universe.
Devi Savitri and Devi Gayatri are the wives of Bhagwan Brahma in Brahm Lok.
Devi Laxmi is the wife of Bhagwan Vishnu in Shwet Dweep.
Devi Parwati is the wife of Bhagwan Shiv, as the incarnation of Sati, on Kaelash.
अजन्मा, व्यक्त और अव्यक्त-अप्रकट, साकार-निराकर, सगुण-निर्गुण परमात्मा परम पिता परब्रह्म पमेश्वर से गौलोक वासी व्यक्त (मूर्त रूप से प्रकट हुए) भगवान् श्री कृष्ण का उद्भव हुआ। वह परमात्मा ही समस्त आत्माओं का आश्रय है अर्थात समस्त चराचर, आत्माएँ उसी से प्रकट होती हैं और उसी में महाप्रलय के होने पर समा जाती हैं। भगवान् श्री कृष्ण से ही देवी भगवती प्रकट हुईं। देवी माँ भगवती की जिव्हा से से देवी सरस्वती प्रकट हुईं। माँ सरस्वती के दायें भाग से माँ राधा प्रकट हुईं और दायें भाग से देवी माँ लक्ष्मी प्रकट हुईं। उनका शरीर श्री कृष्ण और शक्ति राधा जी हैं। भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा जी के समागम से उनकी दीर्घ स्वाँस-साँस चलने लगी। यह समागम की प्रक्रिया 10 मन्वन्तरों तक चलती रही। जिससे पवन की उत्पत्ति हुई। भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी से विराट पुरुष उत्त्पन्न हुए। यही महा विष्णु हैं। उनके शरीर पर जितने भी रोंम हैं उनसे उतने ही ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुए।
पवन देव का विभाजन दो रूपों में हो गया :- पहला वे स्वयं व दूसरी उनकी पत्नी। इन दोंनो के 5 पुत्र हुए। समागम कल में जो द्रव पसीने के रूप में उत्पन्न हुआ, वो जल में बदल गया और उसके देवता वरुण देव हैं। वरुण देव का विभाजन भी दो भागों में हो गया वे स्वयं और उनकी पत्नी।
भगवान् श्री कृष्ण और माँ देवी भगवती से उत्त्पन्न पुत्र विराट पुरुष कहलाते हैं। समस्त ब्रह्मांडों की उत्पत्ति उन्हीं से हुई है।
भगवान् श्री कृष्ण ने अपने शरीर पुनः द्विभाजित किया और उनके बायें भाग से भगवान् श्री हरी विष्णु प्रकट हुए।
भगवान् श्री कृष्ण ने महाविष्णु को वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और माँ देवी भगवती लक्ष्मी को उन्हें सौंप दिया। माँ भगवती सरस्वती देवी भी उन्हीं को प्राप्त हुईं।
भगवान श्री कृष्ण और राधा जी ने गौलोक में निवास किया। राधा जी को प्रकृति, माया, महाशक्ति आदि नामों से भी जाना जाता है।
देवी दुर्गा का उदय भगवान् श्री कृष्ण से हुआ। उनके साथ चतुर्मुखी ब्रह्मा जी, ब्रह्माणी और भगवान् सदाशिव प्रकट हुए। ब्रह्मा जी और ब्रह्माणि भगवान् को श्री कृष्ण ने ब्रह्म लोक प्रदान किया।
माँ भगवती दुर्गा भगवान् सदाशिव शिव लोक में प्रतिष्ठित हुईं।
वह परम ब्रह्म भगवान् सदाशिव भी है। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर विहार करने वाले उस सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्री अंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। सदाशिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है।
वह शक्ति अम्बिका (पार्वती या सती नहीं) कही गई है। उसको प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिभुवन जननी, नित्या और मूल कारण भी कहते हैं। सदाशिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति की 8 भुजाएं हैं। पराशक्ति जगत जननी वह देवी नाना प्रकार की गतियों से संपन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र शक्ति धारण करती है।
तत्पश्चात देवी माँ भगवती सरस्वती ने स्वयं को द्विभाजित किया और एक भाग से ब्रह्मा जी के साथ जी के साथ ब्रह्म लोक में प्रतिष्ठित हुईं।
भगवान् शिव के संगीत का आनंद लेते हुए भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी अचानक गौलोक में लय हो गए और देवी भगवती गँगा के रूप में प्रकट हुए। तत्पश्चात भगवान् शिव के आग्रह पर पुनः भूलोक में पधारे।
देवी भगवती गँगा को भगवान श्री कृष्ण ने वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और वे भगवान श्री हरी विष्णु के पास चली गईं।
भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा जी से उत्पन्न विराट पुरुष से उतने ही ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुए जितने उनके शरीर पर रोंये-रोम थे।
गौ लोक समस्त ब्रह्मांडों का केंद्र है। गौ लोक और वैकुण्ठ लोक का लय समस्त लोकों के उपरांत होता है। समस्त ब्रह्माण्ड पुनः अव्यक्त-निर्गुण, साकार-निराकर, सम परमात्मा में विलीन हो जाते हैं।
प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष हैं। उनसे ही त्रिदेव :- ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति होती है।
क्षुद्र विराट पुरुष के बायें भाग से चतुर्भुज भगवान विष्णु श्वेत द्वीप में प्रकट हुए। उनके नाभि कमल से ब्रह्मा जी प्रकट हुए। ब्रह्मा जी के मस्तक से भगवान् शिव प्रकट हुए। भगवान् शिव-महेश का निवास कैलाश पर्वत पर है। त्रिदेव परमपिता पर ब्रह्म परमेश्वर के अभिन्न अंग हैं जो पृथ्वी लोक को धारण किये हुए ब्रह्मांड में उपस्थित हैं।
ब्रह्म लोक में देवी सावित्री और देवी गायत्री उनकी पत्नियों के रूप में विराजमान हैं।
श्वेतद्वीप निवासी भगवान् विष्णु की पत्नी के रूप में देवी लक्ष्मी विराजमान हैं।
माँ पार्वती, माँ सती की अवतार कैलाश धाम में भगवान शिव की पत्नी के रूप में विराजमान हैं।
भगवान् श्री कृष्ण और माँ देवी भगवती से उत्त्पन्न पुत्र विराट पुरुष कहलाते हैं। समस्त ब्रह्मांडों की उत्पत्ति उन्हीं से हुई है।
भगवान् श्री कृष्ण ने अपने शरीर पुनः द्विभाजित किया और उनके बायें भाग से भगवान् श्री हरी विष्णु प्रकट हुए।
भगवान् श्री कृष्ण ने महाविष्णु को वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और माँ देवी भगवती लक्ष्मी को उन्हें सौंप दिया। माँ भगवती सरस्वती देवी भी उन्हीं को प्राप्त हुईं।
भगवान श्री कृष्ण और राधा जी ने गौलोक में निवास किया। राधा जी को प्रकृति, माया, महाशक्ति आदि नामों से भी जाना जाता है।
देवी दुर्गा का उदय भगवान् श्री कृष्ण से हुआ। उनके साथ चतुर्मुखी ब्रह्मा जी, ब्रह्माणी और भगवान् सदाशिव प्रकट हुए। ब्रह्मा जी और ब्रह्माणि भगवान् को श्री कृष्ण ने ब्रह्म लोक प्रदान किया।
माँ भगवती दुर्गा भगवान् सदाशिव शिव लोक में प्रतिष्ठित हुईं।
वह परम ब्रह्म भगवान् सदाशिव भी है। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर विहार करने वाले उस सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्री अंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। सदाशिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है।
वह शक्ति अम्बिका (पार्वती या सती नहीं) कही गई है। उसको प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिभुवन जननी, नित्या और मूल कारण भी कहते हैं। सदाशिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति की 8 भुजाएं हैं। पराशक्ति जगत जननी वह देवी नाना प्रकार की गतियों से संपन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र शक्ति धारण करती है।
तत्पश्चात देवी माँ भगवती सरस्वती ने स्वयं को द्विभाजित किया और एक भाग से ब्रह्मा जी के साथ जी के साथ ब्रह्म लोक में प्रतिष्ठित हुईं।
भगवान् शिव के संगीत का आनंद लेते हुए भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी अचानक गौलोक में लय हो गए और देवी भगवती गँगा के रूप में प्रकट हुए। तत्पश्चात भगवान् शिव के आग्रह पर पुनः भूलोक में पधारे।
देवी भगवती गँगा को भगवान श्री कृष्ण ने वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और वे भगवान श्री हरी विष्णु के पास चली गईं।
भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा जी से उत्पन्न विराट पुरुष से उतने ही ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुए जितने उनके शरीर पर रोंये-रोम थे।
गौ लोक समस्त ब्रह्मांडों का केंद्र है। गौ लोक और वैकुण्ठ लोक का लय समस्त लोकों के उपरांत होता है। समस्त ब्रह्माण्ड पुनः अव्यक्त-निर्गुण, साकार-निराकर, सम परमात्मा में विलीन हो जाते हैं।
प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष हैं। उनसे ही त्रिदेव :- ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति होती है।
क्षुद्र विराट पुरुष के बायें भाग से चतुर्भुज भगवान विष्णु श्वेत द्वीप में प्रकट हुए। उनके नाभि कमल से ब्रह्मा जी प्रकट हुए। ब्रह्मा जी के मस्तक से भगवान् शिव प्रकट हुए। भगवान् शिव-महेश का निवास कैलाश पर्वत पर है। त्रिदेव परमपिता पर ब्रह्म परमेश्वर के अभिन्न अंग हैं जो पृथ्वी लोक को धारण किये हुए ब्रह्मांड में उपस्थित हैं।
ब्रह्म लोक में देवी सावित्री और देवी गायत्री उनकी पत्नियों के रूप में विराजमान हैं।
श्वेतद्वीप निवासी भगवान् विष्णु की पत्नी के रूप में देवी लक्ष्मी विराजमान हैं।
माँ पार्वती, माँ सती की अवतार कैलाश धाम में भगवान शिव की पत्नी के रूप में विराजमान हैं।
EVOLUTION (2) सृष्टि रचना :: Brahma Ji requested Mahesh to create life. He created eleven Rudra, who were all alike him. They are Dikpals (possessors of directions 10 in number) now positioned in ten directions. Mahesh showed his inability to do this further. Dev Rishi Narad came off Brahma’s forehead. Brahma's forehead yielded the Sapt Rishi's.
सृष्टि तथा धर्म उत्पत्ति :: अन्धकार कृष्ण-काला है और भगवान् श्री कृष्ण परब्रह्म परमेश्वर निराकार से साकार अन्धकार से ही प्रकट होते हैं। अव्यक्त-निराकार परम पिता परम ब्रह्म परमेश्वर ने स्वयं को व्यक्त-साकार रूप से प्रकट करने का निश्चय किया और गौलोक की रचना करके भगवान् श्री कृष्ण के रूप में प्रकट हुए। यह पद भगवान् श्री कृष्ण को 12,000 दिव्य वर्षों की तपस्या से प्राप्त हुआ।
अजन्मा, व्यक्त और अव्यक्त-अप्रकट, साकार-निराकर, सगुण-निर्गुण परमात्मा से गौलोक वासी व्यक्त-मूर्त रूप से प्रकट हुए-भगवान् श्री कृष्ण का उद्भव हुआ। वह परमात्मा ही समस्त आत्माओं का आश्रय है अर्थात समस्त चराचर, आत्माएँ उसी से प्रकट होती हैं और उसी में महाप्रलय के होने पर समा जाती हैं। भगवान् श्री कृष्ण (पुरुष) से ही देवी भगवती स्त्री (चिन्मयी शक्ति) प्रकट हुईं। देवी माँ भगवती की जिव्हा से से देवी सरस्वती प्रकट हुईं। माँ सरस्वती के दायें भाग से माँ राधा प्रकट हुईं और दायें भाग से देवी माँ लक्ष्मी प्रकट हुईं। उनका शरीर श्री कृष्ण और शक्ति राधा जी हैं। भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा जी के समागम से उनकी दीर्घ स्वांस-साँस चलने लगी। यह समागम की प्रक्रिया 10 मन्वन्तरों तक चलती रही। जिससे पवन की उत्पत्ति हुई। भगवान् श्री कृष्ण (द्विभुज) और 100 मन्वन्तरों तक गर्भ धारण करने के उपरांत राधा जी से विराट पुरुष उत्त्पन्न हुए। भगवान् श्री कृष्ण और माँ देवी भगवती राधा जी से उत्पन्न पुत्र विराट पुरुष कहलाते हैं। समस्त ब्रह्मांडों की उत्पत्ति उन्हीं से हुई है। यही महा विष्णु (चतुर्भुज) हैं। उनके शरीर पर जितने भी रौंम हैं उनसे उतने ही ब्रह्माण्ड उत्तपन्न हुए।
भगवान् सदाशिव उन्हीं से प्रकट हुए। पवन देव का विभाजन दो रूपों में हो गया :- पहला वे स्वयं व दूसरी उनकी पत्नी। इन दोंनो के 5 पुत्र (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) हुए। समागम कल में जो द्रव पसीने के रूप में उत्पन्न हुआ, वो जल में बदल गया और उसके देवता वरुण देव हैं। वरुण देव का विभाजन भी दो भागों में हो गया वे स्वयं और उनकी पत्नी।
भगवान् श्री कृष्ण ने स्वयं को दो भागों में व्यक्त किया और वाम अंग से माँ भगवती प्रकट हुईं। माँ भगवती की जिव्हा से माँ सरस्वती प्रकट हुईं। माँ सरस्वती से माँ राधा और माँ लक्ष्मी प्रकट हुईं।
भगवान् श्री कृष्ण ने अपने शरीर पुनः द्विभाजित किया और उनके बायें भाग से भगवान् श्री हरी विष्णु प्रकट हुए।
भगवान् कृष्ण द्विभुज और भगवान् श्री हरी विष्णु चतुर्भुज हैं।
भगवान् श्री कृष्ण ने महाविष्णु को वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और माँ देवी भगवती लक्ष्मी को उन्हें सौंप दिया। माँ भगवती सरस्वती देवी भी उन्हीं को प्राप्त हुईं।तत्पश्चात देवी माँ भगवती सरस्वती ने स्वयं को द्विभाजित किया और एक भाग से ब्रह्मा जी के साथ जी के साथ ब्रह्म लोक में प्रतिष्ठित हुईं।
भगवान श्री कृष्ण और राधा जी ने गौलोक में निवास किया। राधा जी को प्रकृति, माया, महाशक्ति आदि नामों से भी जाना जाता है।
गौलोक समस्त ब्रह्माण्डों के केंद्र है। पद गरिमा से गौलोक और बैकुण्ठ का स्तर समान है। भगवान् श्री कृष्ण से माँ दुर्गा प्रकट हुईं।
उनके साथ चतुर्मुखी ब्रह्मा जी, ब्रह्माणी और भगवान् सदाशिव प्रकट हुए। ब्रह्मा जी और ब्रह्माणि को भगवान् श्री कृष्ण ने ब्रह्म लोक प्रदान किया। माँ सरस्वती का एक अंग ब्रह्मा जी के साथ ब्राह्मण लोक में संयुक्त हुआ।
भगवान् सदाशिव और देवी दुर्गा को शिवलोक प्राप्त हुआ। माँ भगवती दुर्गा भगवान् सदाशिव के साथ शिव लोक में प्रतिष्ठित हुईं। कालरूपी ब्रह्म सदाशिव ने ही शक्ति के साथ शिवलोक नामक क्षेत्र का निर्माण किया। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर विहार करने वाले सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्री अंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। भगवान् सदाशिव की पराशक्ति प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकार रहित हैं। माँ शक्ति, अम्बिका (पार्वती या सती नहीं), प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिभुवन जननी, नित्या और मूल कारण भी हैं। उनकी 8 भुजाएँ हैं। पराशक्ति जगत जननी माँ भगवती नाना प्रकार की गतियों से संपन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र शक्ति धारण करती हैं। एकाकिनी होने पर भी वह माया शक्ति संयोगवशात अनेक हो जाती है। शक्ति की देवी ने ही लक्ष्मी, सावित्री और पार्वती के रूप में अवतार ग्रहण किया और ब्रह्मा, विष्णु और महेश की अर्धांगनी हुईं। तीन रूप होकर भी वह अकेली रहीं।
वह परम ब्रह्म भगवान् सदाशिव भी है। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर विहार करने वाले उस सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्री अंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। सदाशिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है।
भगवान् शिव के संगीत का आनंद लेते हुए भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी अचानक गौलोक में लय हो गए और देवी भगवती गँगा के रूप में प्रकट हुए। तत्पश्चात भगवान् शिव के आग्रह पर पुनः भूलोक में पधारे।
देवी भगवती गंगा को भगवान् श्री कृष्ण ने वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और वे भगवान श्री हरी विष्णु के पास चली गईं।
भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा जी से उत्पन्न विराट पुरुष से उतने ही ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुए जितने उनके शरीर पर रोंये-रोम थे।
गौ लोक समस्त ब्रह्मांडों का केंद्र है। गौ लोक और वैकुण्ठ लोक का लय समस्त लोकों के उपरांत होता है। समस्त ब्रह्माण्ड पुनः अव्यक्त-निर्गुण, साकार-निराकर, सम परमात्मा में विलीन हो जाते हैं।
भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा के मिलन से स्वेद प्रकट हुआ और वह वरुण देव के रूप में प्रकट हुआ। संयोजन में मिलन से माँ राधा और भगवान् श्री कृष्ण के स्वांस से वायु प्रकट हुई और पवन देव अस्तित्व में आये। उनके 10,000 दिव्य वर्षों के संयोजन से विराट पुरुष प्रकट हुए जिन्हें माँ राधा ने अपने से अलग कर दिया। विराट पुरुष रोने लगे तो भगवान् श्री कृष्ण ने उन्हें शांत किया और बताया कि वही उनके नियन्ता हैं। विराट पुरुष को महा विष्णु के दर्जा प्राप्त हुआ। उनके शरीर पर जितने रोम थे उतने ही ब्रह्माण्ड उनसे प्रकट हुए। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष प्रकट हुए जिनका स्तर उस लोक के भगवान् विष्णु के समान था। क्षुद्र विराट पुरुष से ही स्वेत्लोक वासी पालनकर्त्ता भगवान् विष्णु प्रकट हुए।
प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष हैं। उनसे ही त्रिदेव : ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति होती है।
क्षुद्र विराट पुरुष के बायें भाग से चतुर्भुज भगवान विष्णु श्वेत द्वीप में प्रकट हुए। उनके नाभि कमल से ब्रह्मा जी प्रकट हुए। ब्रह्मा जी के मस्तक से भगवान् शिव प्रकट हुए। भगवान् शिव-महेश का निवास कैलाश पर्वत पर है। त्रिदेव परमपिता पर ब्रह्म परमेश्वर के अभिन्न अंग हैं जो पृथ्वी लोक को धारण किये हुए ब्रह्मांड में उपस्थित हैं।
ब्रह्म लोक में देवो सावित्री और देवी गायत्री उनकी पत्नियों के रूप में विराजमान हैं।
श्वेतद्वीप निवासी भगवान् विष्णु की पत्नी के रूप में देवी लक्ष्मी विराजमान हैं।
माँ पार्वती, माँ सती की अवतार कैलाश धाम में भगवान शिव की पत्नी के रूप में विराजमान हैं।
कालरूप सदाशिव की अर्धांगिनी हैं, माँ दुर्गा। उनका उत्तम लोक-क्षेत्र काशी है। भगवान् शिव ने 10,000 मन्वन्तर पर्यन्त तपस्या करके यह मोक्ष का स्थान प्राप्त किया है। यहाँ शक्ति और शिव अर्थात कालरूपी ब्रह्म सदाशिव और दुर्गा यहाँ पति और पत्नी के रूप में निवास करते हैं। इस मनोरम स्थान काशी पुरी को प्रलयकाल में भी शिव और शिवा ने अपने सान्निध्य से कभी मुक्त नहीं किया था। इस आनंद रूप वन में रमण करते हुए एक समय शिव और शिवा को यह इच्छा उत्पन्न हुई कि किसी दूसरे पुरुष की सृष्टि करनी चाहिए, जिस पर सृष्टि निर्माण (वंशवृद्धि आदि) का कार्यभार रखकर हम निर्वाण धारण करें। ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित परमेश्वर रूपी सदाशिव ने अपने वामांग पर अमृत मल दिया। वहाँ से एक पुरुष प्रकट हुआ। शिव ने उस पुरुष से संबोधित होकर कहा, "वत्स! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु विख्यात होगा"। इस प्रकार भगवान् विष्णु के माता और पिता कालरूपी सदाशिव और पराशक्ति दुर्गा हैं।
भगवान् ब्रह्मा जी ने भगवान् शिव से सृष्टि रचना का आग्रह किया तो उन्होंने 10 रुद्रों की उत्त्पत्ति की। उन्हें दसों दिशाओं का दिक्पाल नियुक्त किया गया। भगवान् शिव ने सृष्टि रचना में अपनी असमर्थता जाहिर की। ब्रह्मा जी के मस्तक से देवऋषि नारद प्रकट हुए।
सृष्टि से पहले जगत प्रलय और अन्धकार में आवृत्त था। उस समय न किसी के जानने, न तर्क और न प्रसिद्ध चिह्नों से युक्त इंन्द्रियों से जानने योग्य था, वह सब जगत खोये हुए के समान ही था। जब सब कुछ प्रलय के कारण नष्ट हो गया तो धरती लाखों वर्ष तक अंधकार में रही। फिर सृष्टि की इच्छा से जब उस सर्वव्यापक परमात्मा ने आँखें खोलीं तो देखा कि सम्पूर्ण लोक उनमें लीन है। तभी रजोगुण (तम, अन्धकार, कृष्ण) से प्रेरित परमात्मा की नाभि से कमल अंकुरित हो गया, जिससे सम्पूर्ण जल प्रकाशमय हो गया। प्रलय काल में भगवान् शेष पर शयन कर रहे थे। वे "आदिमध्यान्तहीनाय निर्गुणाय गुणात्मने" हैं। अतः शेष जो सबके बाद भी रहते हैं, वही उनकी शैया हैं। प्रलय काल में उस सर्वव्यापक परमात्मा के आश्रम में जब एक साथ ही सब प्राणी चेष्टाहीन होकर लीन हो जाते हैं, तब यह सब प्राणियों का आश्रय स्थान परमात्मा की सृष्टि संचालन के कार्यों से निवृत्त हुआ सुखपूर्वक सोता है। इस प्रकार वह अविनाशी परमात्मा जागने और सोने की अवस्थाओं द्वारा इस जड़ और चेतन रूप जगत को निरन्तर जिलाता और मारता है।
जितने ब्रह्मांड हैं, उतने ही भगवान् ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। पृथ्वीलोक जिस ब्रह्माण्ड में स्थित है, उसमें भगवान् शिव की आयु 8 परार्ध, भगवान् विष्णु की आयु 4 परार्ध और ब्रह्मा जी की आयु 2 परार्ध है। ब्रह्मा जी की आयु पूर्ण होने के बाद महाप्रलय हो जाता है और समस्त जीवधारी भगवान् श्री नारायण-विष्णु में समाहित हो जाते हैं। यह क्रम माला के मनकों की तरह है जो 108 तक घूमकर फिर पहले पर पहुँच जाता है और यही सृष्टि का क्रम है। पुराणों में मन्वन्तरों के अनुरूप सृष्टि के प्रकट होने का क्रम दिया गया है। यद्यपि घटनाक्रम कमोबेश वही रहता है, परन्तु पात्रों के नामों और गुणों में अन्तर स्वाभाविक है।
सूखी धरती पर जलावृष्टि हुई और यह धरती पूर्ण रूप से जल से भर गई। संपूर्ण धरती जलमग्न हो गई। जब धरती ठंडी होने लगी तो उस पर बर्फ और जल का साम्राज्य हो गया। तब धरती पर जल ही जल हो गया। इस जल में ही जीवन की उत्पत्ति हुई। आत्मा ने ही खुद को जलरूप में व्यक्त किया। इस जलरूप ने ही करोड़ों रूप धरे। जल का यह रूप हिरण्यगर्भ (क्षूद्र विराट पुरुष) में जन्मा अर्थात जल के गर्भ में जन्मा।
सबसे पहले नार-जल की उत्पत्ति हुई। आप-जल को ही नार एवं परमात्मा को तनु कहते हैं। नार-जल में क्षूद्र विराट पुरुष की उत्पत्ति हुई। जब उस सर्वव्यापक परमात्मा ने आँखें खोलीं तो नेत्रों से सूर्य की और हृदय से चंद्रमा की उत्पत्ति हुई। फिर उसमें बीज डाला गया।
पहले स्वयं समर्थ अर्थात् स्वयं भूत और स्थूल में प्रकट न होनेवाला अर्थात् अव्यक्त इस महाभूत आकाशादि को प्रकाशित करने वाला परमात्मा इस संसार को प्रकटावस्था में लाते हुए प्रकट हुआ और फिर उस परमात्मा ने अपने आश्रम से ही महत नामक तत्त्व को और महतत्त्व से मैं हूँ (Presence of the Almighty in the form of Soul.) ऐसा अभिमान करने वाले सामर्थ्यशाली अहंकार नामक तत्त्व (Status, by virtue of left over impact of deeds) को और फिर उनसे सब त्रिगुणात्मक (Satv, Raj and Tam) पंचतन्मात्राओं तथा आत्मोपकारक मन इन्द्रिय को और विषयों को ग्रहण करने वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों को यथाक्रम से उत्पन्न कर प्रकट किया।
उन तत्त्वों में से अनन्त शक्ति वाले छहों तत्त्वों के सूक्ष्म अवयवों को उनके आत्मभूत तत्त्वों के कारणों में मिलाकर सारे पाँच महाभूतों की सृष्टि की।
परम ब्रह्म अर्थात एकाक्षर ब्रह्म। परम अक्षर ब्रह्म। ब्रह्म ही सत्य है वही अविकारी परमेश्वर है। जिस समय सृष्टि में अंधकार था। न जल, न अग्नि और न वायु था तब वही तत्सदब्रह्म ही था जिसे श्रुतियों में सत्-अविनाशी परमात्मा कहा गया है। ।
उस अविनाशी परब्रह्म (काल) ने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की। उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से आकार की कल्पना की, जो मूर्ति रहित परम ब्रह्म है।
जितने ब्रह्मांड हैं उतने ही भगवान् ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। पृथ्वीलोक जिस ब्रह्माण्ड में स्थित है उसमें भगवान् शिव की आयु 8 परार्ध, भगवान् विष्णु की आयु 4 परार्ध और ब्रह्मा जी की आयु 2 परार्ध है। ब्रह्मा जी की आयु पूर्ण होने के बाद महाप्रलय हो जाता है और समस्त जीवधारी भगवान् श्री नारायण-विष्णु में समाहित हो जाते हैं। यह क्रम माला के मनकों की तरह है 108 तक घूमकर फिर पहले पर पहुंच जाना यही सृष्टि का क्रम है। पुराणों में मन्वन्तरों के अनुरूप सृष्टि के प्रकट होने का क्रम दिया गया है। यद्यपि घटनाक्रम कमोबेश वही रहता है परन्तु पात्रों के नामों और गुणों में अन्तर स्वाभाविक है।
ब्रह्मा जी का एक दिन पूरा होने पर एक रात्रि होती है और समस्त चराचर अन्धकार में समा जाता है।
वह विष्णु, अविकारी, शुद्ध परमात्म, शाश्वत, सर्वव्यापक, अजन्मा, हिरण्यगर्भ हरि, शंकर और वासुदेव-अनेक नामों से जाता है। इसी ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की रचना की है। सृष्टि रचना के रूप में वह तेजस्वी ब्रह्म है जिसके द्वारा पहले महत् तत्त्व उत्पन्न हुआ। उससे अहंकार, फिर अहंकार से पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई। पंचमहाभूतों से अनेक भेदाभेद पैदा हुए।
Brahma’s one day (1 Kalp) = 1 Divine Night.
1 Kalp 1000 Solar Chatur Yug = 4,32,00,00,000 years.
1 Year of Brahma =1000 Kalp.
1 Yug of Brahma = 8000 Years of Brahma.
1000 Divine Chatur Yug make the day of 12 hours for Brahma Ji (the Creator) and during another 12 hours, Brahma Ji takes rest and there is no creation during this period.
1 day for Brahma constitutes 1000 Chatur Yug (=4,320,000,000 years).
1 Year constitutes 360 x 4,320,000,000=1,555,200,000,000 years;
Life span of Brahma Ji is 100 Divine years = 100 X 1,555,200,000,000=155,520,000,000,000 years.
1 Day of Vishnu=1000 Yug of Brahma
1 Day of Sada Shiv (Kalatma/Maha Kal)=9000 Days of Vishnu.
Brahma's 1 Day Night=28 Indr's.
1 Indr's age=1 Manvantar=Divine 71 Yug.
1 Divine Maha Yug=1000 Divine Chatur Yug=14 Manu’s Period.
1 Manu’s Period=Slightly more than 71 6/14 Manvanters.
1 Manvantar=30,67,20,000 Solar years=8,52,000 Divine years.
सृष्टि के पूर्व में संपूर्ण विश्व जल प्लावित था। भगवान् स्वयंभू ने सृष्टि की उत्पत्ति के लिए सबसे पहले नार जल की उत्पत्ति की। फिर उसमें बीज डाला गया। उससे परम पुरुष की नाभि में एक स्वर्ण अण्ड प्रकट हुआ। इससे भगवान् विष्णु प्रकट हुए। इस अंडे को भगवान् नारायण-नार से उत्पन्न, ने स्वर्ग और पृथ्वी में विभक्त कर दिया गया। इसके बीच आकाश बना और भगवान के द्वारा ही दशों दिशाओं को धारण किया गया। भगवान् श्री नारायण शेष शैय्या पर निद्रालीन थे। उनके शरीर में संपूर्ण प्राणी सूक्ष्म रूप से विद्यमान थे। केवल कालशक्ति ही जागृत थी, क्योंकि उसका कार्य जगाना था। कालशक्ति ने जब जीवों के कर्मों के लिए उन्हें प्रेरित किया तब उनका ध्यान लिंग शरीर आदि सूक्ष्म तत्व पर गया-वही कमल के रूप में उनकी नाभि से निकला। भगवान् विष्णु के नाभि कमल से भगवान् ब्रह्मा जी प्रकट हुए। अत: स्वयंभू कहलाये। भगवान् ब्रह्मा जी विचारमग्न हो गये कि वे कौन हैं, कहाँ से आये, कहाँ हैं, अत: कमल की नाल से होकर विष्णु की नाभि के निकट तक चक्कर लगाकर भी वे भगवान् विष्णु को नहीं देख पाये। योगाभ्यास से ज्ञान प्राप्त होने पर उन्होंने शेषशायी विष्णु के दर्शन किये।
भगवान् ब्रह्मा जी ने स्वयं को भगवान् विष्णु का पिता कहा। इससे विवाद उत्पन्न हो गया। उसी समय महादेव की ज्योतिर्मयी मूर्ति-ज्योतिर्लिंग उन दोनों के मध्य प्रकट हुआ, साथ ही आकाशवाणी हुई कि जो उस मूर्ति का अंत देखेगा, वही श्रेष्ठ-पिता-जनक माना जायेगा।
भगवान् विष्णु नीचे की चरम सीमा तथा भगवान् ब्रह्मा ऊपर की अंतिम सीमा देखने के लिए बढ़े। भगवान् विष्णु तो शीघ्र लौट आये। भगवान् ब्रह्मा बहुत दूर तक भगवान् शिव की मूर्ति का अंत देखने गये। उन्होंने लौटते समय सोचा कि अपने मुंह से झूठ नहीं बोलना चाहिए।अत: गधे का एक मुंह (जो कि ब्रह्मा का पांचवां मुंह कहलाता है) बनाकर उससे बोले- ‘हे विष्णु! मैं तो शिव की सीमा देख आया।’ तत्काल शिव और विष्णु के ज्योतिर्मय स्वरूप एक रूप हो गये।
ब्रह्मा की झूठी वाणी, वाणी नामक नदी के रूप में प्रकट हुई। उन दोनों को आराधना से प्रसन्न करके वह नदी सरस्वती नदी के नाम से गंगा से जा मिली और तब वह शापमुक्त हुई।
भगवान् विष्णु की प्रेरणा से ब्रह्मा जी ने तप करके, भगवत ज्ञान अनुष्ठान करके, सब लोकों को अपने अंत:करण में स्पष्ट रूप से देखा। तदनंतर भगवान् विष्णु अंतर्धान हो गये और ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की।
सरस्वती उनके मुंह से उत्पन्न पुत्री थी, उसके प्रति काम-विमोहित हो, वे समागम के इच्छुक थे। प्रजापतियों की रोक-टोक से लज्जित होकर उन्होंने उस शरीर का त्याग कर दूसरा शरीर धारण किया। त्यक्त शरीर अंधकार अथवा कुहरे के रूप में दिशाओं में व्याप्त हो गया।
उन्होंने अपने चार मुंह से चार वेदों को प्रकट किया। ब्रह्मा को ‘क’ कहते हैं- उन्हीं से विभक्त होने के कारण शरीर को काम कहते हैं।
उन दोनों विभागों से स्त्री-पुरुष एक-एक जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष मनु तथा स्त्री शतरूपा कहलायी। उन दोनों की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि प्रजापतियों की सृष्टि का सुचारू विस्तार नहीं हो रहा था।
पुराणों अनुसार भगवान विष्णु के नाभिकमल से आविर्भूत चतुर्मुख प्रजापति ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। फिर ब्रह्मा के 17 पुत्र और एक पुत्री शतरुपा का जन्म हुआ। ब्रह्मा के उक्त 17 पुत्रों के अलावा भी उनके भिन्न-भिन्न परिस्थितिवश पुत्रों का जन्म हुआ।
ब्रह्मा जी के पुत्र :- विष्वकर्मा, अधर्म, अलक्ष्मी, आठवसु, चार कुमार, 14 मनु, 11 रुद्र, पुलस्य, पुलह, अत्रि, क्रतु, अरणि, अंगिरा, रुचि, भृगु, दक्ष, कर्दम, पंचशिखा, वोढु, नारद, मरिचि, अपान्तरतमा, वशिष्ट, प्रचेता, हंस, यति आदि मिलाकर कुल 59 पुत्र थे ब्रह्मा के।
ब्रह्मा जी के प्रमुख पुत्र :- (1). मन से मारिचि, (2). नेत्र से अत्रि, (3). मुख से अंगिरस, (4). कान से पुलस्त्य, (5). नाभि से पुलह, (6). हाथ से कृतु, (7). त्वचा से भृगु, (8). प्राण से वशिष्ठ, (9). अंगुष्ठ से दक्ष, (10). छाया से कंदर्भ, (11). गोद से नारद, (12). इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार, (13). शरीर से स्वायंभुव मनु और शतरुपा, (14). ध्यान से चित्रगुप्त।
दशों दिशाओं के बाद काल, मन, वाणी और काम, क्रोध तथा रति की रचना हुई। फिर प्रजापतियों की रचना हुई। इसमें-मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य पुलह कृतु और वसिष्ठ के नाम हैं। ये ऋषि मानस सृष्टि के रूप में उत्पन्न किये गए।
मानसपुत्रों की सृष्टि के बाद भगवान शिव और फिर उसके बाद सनत्कुमार उत्पन्न हुए। इस सात ऋषियों से ही शेष प्रजा का विकास हुआ। इनमें रुद्रगण भी सम्मिलित हैं। फिर बिजली, वज्र, मेघ, धनुष खड्ग पर्जन्य आदि का निर्माण हुआ। यज्ञों के सम्पादन के लिए वेदों की ऋचाओं की सृष्टि हुई। साध्य देवों की उत्पत्ति के बाद भूतों का जन्म हुआ।
किन्तु ऋषिभाव के कारण सृष्टि का विकास नहीं हुआ, इसलिए ब्रह्मा ने मैथुनी सृष्टि करने का विचार किया और स्वयं के दो भाग किये। दक्षिणी वाम भाग से पुरुष और स्त्री की सृष्टि हुई। इनके प्रारम्भिक नाम मनु और शतरूपा रखे थे। इस मनु ने ही मैथुनी सृष्टि का विकास किया। इसी मनु के नाम पर मन्वन्तरों का रूप स्वीकार किया गया।
मनु और शतरूपा से वीर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वीर की पत्नी कुर्दम-पुत्री काम्या से प्रियव्रत और उत्तानपाद उत्पन्न हुए। इनके साथ सम्राट कुक्षि, प्रभु और विराट-पुट पैदा हुए। पूर्व प्रजापति अत्रि ने उत्तानपाद को गोद ले लिया। इसकी पत्नी सुनृता थी। उससे चार पुत्र हुए, इनमें एक ध्रुवनामधारी हुआ।
ध्रुव ने पांच वर्ष की अवस्था में ही तप करके अनेक देवताओं को प्रसन्न किया और पत्नी से श्लिष्ट तथा भव्य नाम के दो पुत्र पैदा हुए। श्लिष्ट ने सुच्छाया से रिपु, रिपुंजय, वीर, वृकल, वृकतेजा पुत्र उत्पन्न किए।
इसके बाद वंश विकास के लिए रिपु ने चक्षुष को जन्म दिया, चक्षुष से चाक्षुष मनु हुए और मनु ने वैराज और वैराज की कन्या से-कुत्सु, पुरु, शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवाक्, कवि, अग्निष्टुत, अतिराम, सुद्युम्न, अभिमन्यु-ये दश पुत्र हुए।
फिर इसकी परम्परा में अंग और सुनीथा से वेन नाम पुत्र की उत्पत्ति हुई। बेन के दुष्ट व्यवहार के कारण ऋषियों ने उसे मार डाला। किन्तु उसकी मृत्यु से शासन की समस्या उठ खड़ी हुई।
राज्य को सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए प्रजा को आतताइयों के निरंकुश हो जाने की आशंका को देखते हुए मुनियों ने वेन के दाहिने हाथ का मंथन किया। इससे धनुष और कवच-कुंडल सहित पृथु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
इस तेजस्वी यशस्वी और प्रजा के कष्टों को हरने वाले पृथु ने अपने राज्यकाल में सर्वत्र अपनी कीर्ति फैला दी। राजसूय यज्ञ करके चक्रवर्ती सम्राट का पद पाया। परम ज्ञानी और निपुण सूत और मागध इस पृथु की ही संतान हुए। राजा पृथु ने पृथ्वी को अपने परिश्रम से अन्नदायिनी और उर्वरा बनाया। इसके इस परिश्रम और प्रजाहित भाव के कारण ही उसे लोग साक्षात् विष्णु मानने लगे।
राजा पृथु के दो पुत्र उत्पन्न हुए, अन्तर्धी और पाती। ये बड़े धर्मात्मा थे। इसमें अन्तर्धी का विवाह सिखण्डिनी के साथ हुआ जिससे हविर्धान और इनसे धिष्णा के साथ छः पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें प्राचीन बर्हि प्रजापति हुए जिन्होंने समुद्र-तनया से विवाह करके दस प्राचेतस उत्पन्न किए। इनकी तपस्या से वृक्ष आरक्षित हो गए।
तप, तेज न सह पाने के कारण प्रजा निश्तेज हो गई। समाधि टूटने पर जब मुनियों ने स्वयं को चारों दिशाओं में असीमित बेलों ओर झाड़ियों से घिरा पाया तो रुष्ट होकर समूची वनस्पतियों को अपनी क्रोधाग्नि से दग्ध करना शुरू कर दिया। इस विनाश को देखकर सोम ने अपनी मारिषा नाम की पुत्री को प्रचेताओं के समक्ष भार्या रूप में प्रस्तुत करने का प्रस्ताव किया। फलस्वरूप मुनियों का क्रोध शान्त हो गया।
दक्ष प्रजापति
प्रजापति दक्ष भगवान् ब्रह्मा के दक्षिणा अंगुष्ठ से उत्पन्न हुए। सृष्टा की आज्ञा से वे प्रजा की सृष्टि करने में लगे।
सर्वप्रथम इन्होंने दस सहस्त्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया।
दूसरी बार एक सहस्त्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गये। दक्ष को रोष आया। उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया कि तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे। भगवान् ब्रह्मा ने प्रजापति को शान्त किया। अब मानसिक सृष्टि से वे उपरत हुए।
प्रजापति दक्ष की पत्नियां :- उनका पहला विवाह स्वायंभुव मनु की तृतीय पुत्री प्रसूति से हुआ। उन्होंने प्रजापति वीरण की कन्या असिकी-वीरणी दूसरी पत्नी बनाया। प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां थीं। इनमें 10 धर्म को, 13 महर्षि कश्यप को, 27 चंद्रमा को, एक पितरों को, एक अग्नि को और एक भगवान् शंकर को ब्याही गयीं। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएँ कही जाती हैं।समस्त दैत्य, गंधर्व, अप्सराएं, पक्षी, पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई। दक्ष की ये सभी कन्याएं, देवी, यक्षिणी, पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है।
अदिति से आदित्य (देवता), दिति से दैत्य, दनु से दानव, काष्ठा से अश्व आदि, अरिष्ठा से गंधर्व, सुरसा से राक्षस, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरागण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि, सुरभि से गौ और महिष, सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु) और तिमि से यादोगण (जलजंतु) आदि उत्पन्न हुए।
प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियां :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि, कीर्ति, ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा।
पुत्रियों के पति के नाम :- पर्वत राजा दक्ष ने अपनी 13 पुत्रियों का विवाह धर्म से किया। ये 13 पुत्रियां हैं :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि और कीर्ति। धर्म से वीरणी की 10 कन्याओं का विवाह हुआ। मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या और विश्वा।
इसके बाद ख्याति का विवाह महर्षि भृगु से, सती का विवाह रुद्र (भगवान् शिव) से, सम्भूति का विवाह महर्षि मरीचि से, स्मृति का विवाह महर्षि अंगीरस से, प्रीति का विवाह महर्षि पुलत्स्य से, सन्नति का कृत से, अनुसूया का महर्षि अत्रि से, ऊर्जा का महर्षि वशिष्ठ से, स्वाहा का अग्नि से और स्वधा का पितृस से हुआ।
इसमें सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध रुद्र-भगवान् शिव से विवाह किया। माँ पार्वती और भगवान् शंकर के दो पुत्र और एक पुत्री हैं। पुत्र-गणेश, कार्तिकेय और पुत्री वनलता।
वीरणी से दक्ष की साठ पुत्रियां :- मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या, विश्वा, अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवषा, तामरा, सुरभि, सरमा, तिमि, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी, रति, स्वरूपा, भूता, स्वधा, अर्चि, दिशाना, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी।
चंद्रमा से 27 कन्याओं का विवाह :- कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी। इन्हें नक्षत्र कन्या भी कहा जाता है। हालांकि अभिजीत को मिलाकर कुल 28 नक्षत्र माने गए हैं। उक्त नक्षत्रों के नाम इन कन्याओं के नाम पर ही रखे गए हैं।
9 कन्याओं का विवाह :- रति का कामदेव से, स्वरूपा का भूत से, स्वधा का अंगिरा प्रजापति से, अर्चि और दिशाना का कृशश्वा से, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी का तार्क्ष्य कश्यप से।
इनमें से विनीता से गरूड़ और अरुण, कद्रू से नाग, पतंगी से पतंग और यामिनी से शलभ उत्पन्न हुए।
भगवान् शंकर से विवाद करके दक्ष ने उन्हें यज्ञ में भाग नहीं दिया। पिता के यज्ञ में रुद्र के भाग न देखकर माता सती ने योगाग्नि से शरीर छोड़ दिया। भगवान् शंकर पत्नी के देहत्याग से रुष्ट हुए। उन्होंने वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र ने दक्ष का मस्तक दक्षिणाग्नि में हवन कर दिया। देवताओं की प्रार्थना पर तुष्ट होकर भगवान् शंकर ने सद्योजात प्राणी के सिर से दक्ष को जीवन का वरदान दिया। बकरे का मस्तक तत्काल मिल सका। तबसे प्रजापति दक्ष ‘अजमुख’ हो गए।
वीरभद्र के रोम-कूपों से अनेक रौम्य नामक गणेश्वर प्रकट हुए थे। वे विध्वंस कार्य में लगे हुए थे। दक्ष की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने अग्नि के समान ओजस्वी रूप में दर्शन दिये और उसकी मनोकामना जानकर यज्ञ के नष्ट-भ्रष्ट तत्त्वों को पुन: ठीक कर दिया।
दक्ष ने एक हज़ार आठ नामों (-शिव सहस्त्र नाम स्तोत्र) से भगवान् शिव की आराधना की और उनकी शरण ग्रहण की।भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उसे एक हज़ार अश्वमेध यज्ञों, एक सौ वाजपेय यज्ञों तथा पाशुपत् व्रत का फल प्रदान किया।
सोम के साथ नक्षत्र नाम की पत्नियों से वंश क्रम में आपस्तंभ मुनि, धुव से काल, ध्रुव से हुतद्रव्य, अनिल से मनोजव और अनल से कार्तिकेय, प्रत्यूष से क्षमावान तथा प्रभात से विश्वकर्मा का जन्म हुआ। कश्यपजी द्वारा सुरभि से एकादश रुद्र उत्पन्न हुए।
कश्यप मुनि की अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, खसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, कोचवषा इला, कद्रू और मुनि पत्नियां हुईं। इनमें अदिति के द्वारा 12 पुत्र उत्पन्न हुए और दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष दो पुत्र तथा सिंहिका नाम की पुत्री उत्पन्न हुई। इस कन्या ने विप्रचित के वीर्य से रौहिकेय को जन्म दिया।
हिरण्यकशिपु के यहां ह्लाद अनुह्लाद प्रहलाद और संह्लाद चार पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें प्रह्लाद अपनी देव-प्रवृत्तियों के कारण अधिक प्रसिद्ध हुआ। इसके पुत्र विरोचन के बलि आदि क्रम में बाण, धृतराष्ट्र, सूर्य, चन्द्रमा, कुंभ, गर्दभाक्ष और कुक्षि आदि एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए।
बाण बलशाली और शिवभक्त था, उसने प्रथम कल्प में शिवजी को प्रसन्न करके उनके पक्षि भाग में विचरण करने का वरदान मांगा। हिरण्याक्ष के भी अत्यन्त बलशाली और तपस्वी सौ पुत्र हुए। अनुह्लाद के मुक और तुहुण्ड पुत्र हुए। संह्लाद के तीन करोड़ पुत्र हुए। इस तरह दिति के वंश ने विकास किया। महर्षि कश्यप की पत्नी दनु के गर्भ से दानव, केतु आदि उत्पन्न हुए।
इनमें विप्रचित प्रमुख था। ये सभी दानव बहुत बलशाली हुए और उन्होंने अपने वंश का असीमित विस्तार किया। कश्यपजी ने सृष्टि रचना करते हुए ताम्रा से छः, क्रोचवशा से बाज, सारस, गृध्र तथा रुचि आदि पक्षी जलचर और पशु उत्पन्न किए।
विनता से गरुड़ और अरुण, सुरसा से एक हजार सर्प कद्रू से काद्रवेय, सुरभि से गायें, इला से वृक्ष, लता आदि, खसा से यक्षों और राक्षसों तथा मुनि ने अप्सराओं और अरिष्टा ने गन्धर्वों को उत्पन्न किया। यह सृष्टि अपनी अनेक योनियों में फैलती हुई आगे बढ़ती रही।
देवताओं और दानवों में संघर्ष होने लगा और प्रतिस्पर्द्धा इतनी बढ़ी कि दानव नष्ट होने लगे। दिति ने अपने वंश को इस प्रकार नष्ट होते देख कश्यपजी को प्रसन्नकर इन्द्र आदि देवों को दंडित करने वाले की याचना से गर्भ धारण किया।
ईर्ष्यालु इन्द्र दिति के इस मनोरथ को खंडित करने के भाव से किसी न किसी प्रकार दिति के व्रत को तोड़ना चाहता था क्योंकि कश्यपजी ने यह वरदान दिया था कि गर्भवती दिति यत्नपूर्ण पवित्रता से नियम पालन करते हुए आचरण करेगी तो उसका मनोरथ अवश्य पूरा होगा।
अवसर ही खोज में लगे इन्द्र ने एक बार संयम के बिना हाथ धोए ही सोई दिति की कोख में प्रवेश कर लिया। वह उसके गर्भ के सात टुकड़े कर दिये। इससे भी संतोष न मिलने पर दिति के गर्भ को पूर्ण विनष्ट करने के लिए प्रत्येक टुकड़े के सात सात खंड कर दिये।
उन खंडों ने जब इन्द्र से उनके प्रति किसी प्रकार की शत्रुता न रखने का अनुरोध किया तो इन्द्र ने उन्हें छोड़ दिया। वे खंड ही मरुद्गण नाम के देव कहलाए और इन्द्र के सहायक हुए। कश्यपजी ने दाक्षायणी से विवस्वान नाम पुत्र को जन्म दिया।
त्वष्टा की पुत्री संज्ञा से विवस्वान का विवाह हुआ जिसमें श्रद्धादेव और यम नामक दो पुत्रों और यमुना नाम की पुत्री को जन्म दिया। संज्ञा विवस्वान के तेज को न सह सकी और अपनी सखी छाया को प्रतिमूर्ति बनाकर और अपनी संतानें उसे सौंपकर अपने पिता के पास चली गयी।
पिता ने उसके इस प्रकार आगमन को अनुचित कहते हुए उसे वापस लौटा दिया। वापस लौटने पर अश्वी का रूप धारण कर संज्ञा वन में विचरने लगी। विवस्वान ने छाया पत्नी से सावर्णि मनि और शनैश्चर नाम के दो पुत्र उत्पन्न किए।
वह अपने इन नवजात पुत्रों को इतना प्रेम करती थी कि संज्ञा से उत्पन्न यम आदि इसे सौतेला व्यवहार अनुभव करने लगे और प्रतिक्रिया स्वरूप यम ने छाया को लंगड़ी हो जाने का शाप दिया। विवस्वान ने जब यह जाना तो माता के प्रति ऐसा व्यवहार न करने का आदेश दिया।
दूसरी और जब संज्ञा रूपी छाया से इस पक्षपात का कारण पूछा तो उन्हें स्थिति का ज्ञान हो गया। संज्ञा की खोज में जब विवस्वान त्वष्टा मुनि के आश्रम में गया तो वहां उसे संज्ञा का अश्वी के रूप में उसी आश्रम में निवास का पता चला।
अपने तेज को शांत कर यौगिक क्रिया द्वारा रूप प्राप्त करके उसने अश्व का रूप धारण कर संज्ञा से मैथुन की चेष्टा की। संज्ञा पतिव्रता थी, वह पर पुरुष के साथ समागम कैसे कर सकती थी ?
किन्तु जब उसे सत्य का पता चला तो विवस्वान द्वारा स्खलित वीर्य को उसने नासिका में ग्रहण कर लिया। जिसके फलस्वरूप नासत्य और दस्र नाम के दो अश्वनीकुमार जन्मे। छाया के त्याग से प्रसन्न होकर विवस्वान ने सावर्णि को लोकपाल मनु का और शनैश्चर को ग्रह का पद प्रदान किया।
यह सावर्णि ही आगे चलकर सूर्य-वंश का स्वामी बना। सावर्णि के वंश में इक्ष्वाकु, नाभाग आदि नौ पुत्र हुए जिनके, जन्म पर मित्रावरुणों का पूजन किया गया। फलस्वरूप उत्पन्न इला नाम की कन्या से मनु ने अपनी अनुगमन करने को कहा। मित्रावरुण द्वारा प्रसन्न होकर प्राप्त वर के फलस्वरूप मनु से इला द्वारा सुद्युम्न नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
इला से मार्ग में लौटते हुए बुध ने रति की कामना की जिसके वीर्य से पुरुरवा का जन्म हुआ। इसने ही सुद्युम्न का रूप धारण किया। जिसके आगे उत्कल, गय और विनिताश्व पुत्र हुए। इन्होंने उत्कला, गया और पश्चिमा को क्रमशः अपनी राजधानी बनाया।
मनु ने अपने श्रेष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु को पृथ्वी के दस भागों में मध्य भाग सौंप दिया। इस प्रकार मनुपुत्रों का विकास और प्रसार हुआ। ब्रह्मलोक का प्रभाव इतना अद्भुत होता है कि वहां रुग्णता, व्याधि, चिन्ता, जरा, शोक, क्षुधा अथवा प्यास आदि के लिए कोई स्थान नहीं।
यहां ऋतुएं भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं पैदा करतीं। मनु के पुत्र प्रांश के वंश में रैवत बड़े कुशल और बलशाली हुए हैं। इनके बारे में यह कहा जाता है कि इनके स्वर्ग सिधारने पर राक्षसों ने उत्पात करना शुरू कर दिया था और इनके राज्य पर अधिकार कर लिया था। इनके भाई बन्धु इनके आतंक से घबराकर इधर-उधर बिखर गये थे।
इन्हीं से शर्याति क्षत्रियों की वंश परम्परा आगे बढ़ी। इनमें रिष्ट के दो पुत्रों ने पहले वणिक धर्म अपनाया बाद में ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया। पृषध्न ने अनजाने में गौहत्या के अपराध से शूद्रत्व प्राप्त किया।
EVOLUTION (3) सृष्टि रचना :: वह विष्णु, अविकारी, शुद्ध परमात्म, शाश्वत, सर्वव्यापक, अजन्मा, हिरण्यगर्भ हरि, शंकर और वासुदेव-अनेक नामों से जाता है। इसी ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की रचना की है। सृष्टि रचना के रूप में वह तेजस्वी ब्रह्म है जिसके द्वारा पहले महत् तत्त्व उत्पन्न हुआ। उससे अहंकार, फिर अहंकार से पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई। पंचमहाभूतों से अनेक भेदाभेद पैदा हुए।
Permatma, The Supreme Soul, whether defined or undefined-material or energy, is the abode of all souls. He constitutes of two components: The body and the Soul-The Shakti (Power). Shakti is Devi Maa Bhagwati-the Mother Nature-The Prakrti. Initially, the Permatma emerged as Himself, Shri Krishan-The divine form of Almighty, from the undefined to defined and split-ted into two-Shri Krishan, the Maha Kameshwar and Devi Maa Bhagwati. Their love making process continued for ten Manvanters. During this process, both of them started breathing and a fluid emerged in the form of sweat.
Deep breathing process resulted in the birth of Pawan Dev, the Deity of Air. Pawan Dev split-ted into two, i.e., himself and his wife. They had five sons.
The fluid turned into water and resulted in the birth of Varun Dev-the Deity of water. Varun Dev too, divided into two i.e., himself and his wife.
As a result of the sexual intercourse, between The Almighty Shri Krashn and Devi Maa Bhagwati-Radha a child was born, who became Maha Virat Purush-Maha Vishnu, from whom evolved all the universes.
From the tongue of Devi Bhagwati emerged the Devi Saraswati. Bhagwati Radha evolved from the right and Bhagwati Laxmi evolved from the left of Bhagwati Saraswati.
Maha Vishnu emerged out of Shri Krishan, the Almighty. Shri Krishan himself formed the right side component, while the left side component evolved as Maha Vishnu.
Radha Ji and Maha Laxmi emerged out of Devi Saraswati.
Shri Krashn awarded Vaikunth Lok to Maha Vishnu along with Laxmi Ji, Devi Saraswati also joined them. Shri Krishan and Maha Vishnu; have the same status. Maha Vishnu-the protector of all the Universes settled in Vaikunth Lok with Devi Maha Laxmi-the deity of all comforts, wealth, luxuries and worldly possessions, along with the Devi Saraswati, the Goddess of all learning, speech, knowledge and music.
Shri Krashn and Devi Bhagwati Radha, the Mother Nature, the Maha Maya, the Maha Shakti stayed in Gau Lok, the center of all universes.
Devi Durga emerged from Shri Krashn along with, four headed Brahma and Brahmani, followed by five headed Bhagwan Maha Shiv.Brahma Ji along with Brahmani, were sent to Brahm Lok by Shri Krishan.
Devi Durga the Shakti of Maha Shiv, joined him in Shiv Lok.
Later, a segment evolved out of Devi Saraswati in Vaikunth Lok, joined Brahma Ji in Brahm Lok as his Shakti.
While, listening to the music by Bhagwan Shiv-from the earth in our universe, Shri Krashn and Radha Ji merged together in Gau Lok and formed Holy River Ganga. They reappeared on the request and prayer of Bhagwan Shiv.
Devi Ganga was sent to Vaikunth Lok as the third wife of Bhagwan Vishnu. Devi Tulsi from Gau Lok is the fourth wife of Maha Vishnu.
The Maha Virat Purush born out of Shri Krishan and Devi Bhagwati produced as many Universes, as were the bristles-spores on his body.
Gau Lok is the center of all the Universes. Vaikunth Lok have the same status as that of Gau Lok with respect to our universe. Gau Lok and Vaikunth Lok last longer than any other place, among all the Universes in the space, which are bound to perish one day or the other.
Each Universe has a Chhudr Virat Purush, from whom originated the Trinity of Brahma-the Creator, Vishnu-the Protector and Mahesh-the Destroyer.Left half of Chhudr Virat Purush produced Chatur Bhuj Vishnu-with his abode in Swat Dweep.
From the navel of Chhudr Virat Purush-Narayan emerged the Brahma on lotus-with his abode in Brahm Lok. From the forehead of Brahma Ji beamed the Mahesh- having his abode at Kailash. These three together are not different from one another, in any way. They are the constituents of the Supreme All Almighty Param Pita Per Brahm Permashwer in our universe.
Devi Savitri and Devi Gayatri are the wives of Bhagwan Brahma in Brahm Lok.
Devi Laxmi is the wife of Bhagwan Vishnu in Shwete Dweep.
Devi Parwati is the wife of Bhagwan Shiv, as the incarnation of Sati, on Kailash.
Brahma Ji requested Bhagwan Shiv-Mahesh to create life. He created eleven Rudr, who were all alike him. They are Dikpals (possessors of directions 10 in number) now positioned in ten directions. Mahesh showed his inability to do this further. Dev Rishi Narad came off Brahma’s forehead. Brahma's forehead yielded the Sapt Rishi's.
Brahma’s one day (1 Kalp)=1 Divine Night.
1 Kalp 1000 Solar Chatur Yug=4,32,00,00,000 years.
1 Year of Brahma=1000 Kalp.
1 Yug of Brahma=8000 Years of Brahma.
1000 Divine Chatur Yug make the day of 12 hours for Brahma Ji (-the Creator) and during another 12 hours, Brahma Ji takes rest and there is no creation during this period.
1 day for Brahma constitutes 1000 Chatur Yug (4,320,000,000 years).
1 Year constitutes 360 x 4,320,000,000=1,555,200,000,000 years;
Life span of Brahma Ji is 100 Divine years=100 X 1,555,200,000,000=155,520,000,000,000 years.
1 Day of Vishnu=1000 Yug of Brahma
1 Day of Sada Shiv (Kalatma/Maha Kal) = 9,000 Days of Vishnu.
Brahma's 1 Day Night=28 Indr's.
1 Indr's age =1 Manvantar = Divine 71 Yug.
1 Divine Maha Yug = 1,000 Divine Chatur Yug=14 Manu’s Period.
1 Manu’s Period = Slightly more than 71 6/14 Manvanters.
1 Manvantar = 30,67,20,000 Solar years = 8,52,000 Divine years.
KURUKSHETR (कुरुक्षेत्र) :: Daksh Prajapati evolved from the toe of the right leg and his wife got her birth from the left toe of Brahma Ji. They had 60 daughters. 13 of these were married to the sage Kashyap who too had emerged from Brahma Ji. These were divine creations. Brahma Ji entrusted the job of creating life through sexual intercourse to Kashyap. Kashyap moved to Kurukshetr and established his Ashram here and started ascetic-profound meditation at Himaly Parwat-Kashmir. Kashmir got its name from Kashyap. He created all life forms through his wives. He had some more wives, other than Daksh's daughters. These life forms include Demigods-Devgan, Daity-giants, Rakshas-demons, Yaksh, Gandharv, Kinner, Humans etc. In all 12 creations got birth which moved over 2 legs. This is place in the galaxy where the the material life forms were evolved. These life forms moved to various abodes in the galaxies. This is the reason this region is called Kshetr (-vagina, क्षेत्र-योनि).
Shiv is considered to be the cause-reason behind the creation of this universe.
Pawan (Vayu, Demigod who regulates the Air) and Varun Dev (Demigod) who regulates water and all vehicles), evolved prior to Maha Virat Purush.
A Golden (Hirany) egg, brighter than the Sun, appeared in water like a gigantic bubble, illuminating everything around, called Hirany Garbh (womb). Everything composing universe-all abodes including Heavens, Earth, Moon, Sun, Demons, Demi Gods, Humans and all that had to be created were present in it, in embryonic state/form.
Virat Purush-Vishnu, an incarnation of Maha Virat Purush-the son of Almighty Shri Krishan and Radha Ji, emerged out of it and evolved-created his three incarnations viz. Brahma Ji- the creator from his right with 7 characters, Mahesh (Rudr)-the destroyer from his middle with 11 characters and Vishnu-the nurturer-protector from his right body segment with 8 characters. Para Shakti-the Divine Power of Bhagwan Vishnu is associated with him by performing the functions like nurturing, maintaining, illusion, attachment in this universe.
Brahma Ji and Bhagwan Vishnu looked at each other and argued that the other one was created by him. Brahma Ji told that the entire universe was present in him. Bhagwan Vishnu entered in Brahma's mouth to see it and found that the entire universe was present there in the stomach. He jokingly allowed Brahma to find what was there in him. Brahma Ji too found everything in him. Bhagwan Vishnu closed his mouth and allowed him to come off through the navel lotus. Brahma Ji asked him to ask for a boon. Bhagwan Vishnu asked him to accept himself as his father-Creator and Brahma Ji obliged. There appeared a gigantic Shiv Ling on the scene. By way of curiosity, both of them entered into it, but failed to find its origin or the end for thousands of years. Tired they both retreated. They heard a voice (Akash Vani-divine voice-words in the ether-sky) telling them to meditate. They both requested the voice (Akash Vani) to tell who he was and who were they. The voice told them that he was Shiv-The Adi Purush, their creator. Brahma Ji asked him for a boon, on being asked, to appear as his son and the voice agreed to oblige him. Having meditated for long long years Maha Shiv asked Brahma Ji to start the creation of Universe.
Brahma Ji is the source of all life forms spreaded over 7 Swarg, Earth, 7 Patal and 28 Narak (Hells) and various other higher abodes. All life forms evolved-originated-created in Saty Lok- the abode of Brahma Ji. There after they were moved to a abode-Lok, depending upon their deeds in previous births.
Sequence-appearance of sages, their number, their names, is found to be different in different Kalps-Brahma's day. Some variations have been noticed in the evolution of various life forms, creatures, organisms as well. One should not be confused by these variations, since these variations are there due to the events occurring in different segments of time called-Manvantars.
Brahma Ji's creations are of two types :-
(I). Divine creations settled in heavens-higher abodes.
Yaksh, Rakshash, Asur (Monsters-giants) who were the first to evolved from the thigh of Brahma Ji, ran towards him, to eat him, shouting Yaksh Yaksh meaning :- eat him, followed by Rakshash's, shouting Rakshash-Rakshash meaning :- don't protect him. Brahma Ji told them that he was their father-creator and therefore they should not eat him. Brahma Ji rejected the original-that body to acquire a new one. Deserted body turned into night (darkness constituting of smoke, fog, mist, dust, evening, dawn-Sunset-morning- pleasing both Yaksh and Rakshash. Rakshash are termed as Demons, Asur and Anti Demigods, as well, due to their nature habits, desire for sex-lust, darkness.
Sages evolved from the forehead-mind and other body parts were named: Bhragu (from heart), Marichi (from eyes), Atri (from ears), Angira (from head), Pulasty (from udan Vayu air), Puleha (from Vyan Vayu, Kretu (from apan Vayu) and Vashishth (from Saman Vayu), Kardam (from shadow), Dharm (from determination) along with innumerable sons including Kashyap.
Bhagwan Shiv-Maheshwar-Ardhnarishwer evolved from the center of eye brows and the nose. Nondescript-uncharacteristic Brahm Shiv (Aling) is Ling (nature). Nature (ling) is a component of Shiv. Devoid of Sound-word, touch-figure, extract-elixir (juice), smell is Shiv. Non-descript, un-moved, un-deteriorating, Aling, Nirgun-no specific characteristic- component is Shiv. The nature associated with word-sound, touch-feeling, figure-shape and size, extract-juices, smells is the excellence of Shiv-is the producer-evolver of-creator of universe-with 5 components which were , which are, which will be there are: Earth, Water, Tej-energy-light, Space, Air. Micro-Macro, all components-sections of universe have been created from the un-descript Parmatma-Almighty Shiv. Its, Aling-non-descript due to the Maya- illusory Power of God and constitute of 7, 8 or 9 shapes-figures of Ling Tatw (Components-Elements). Bhagwan Shiv is capable of moving freely, in 14 universes as per his will.
Manas Putr (Brain child, always remain naked and appear-seen as kids) Sanak, Sanandan, Sanatan and Sanat Kumar; Dev Rishi Narad evolved from the from the fore head of Bahama Ji. They were capable of moving freely in all abodes, including earth. Devs, Humans too evolved from there.
From the thigh of Brahma Ji evolved Yaksh, Asurs-Rakshash-Demons-Danav, after acquisition of new body followed by Gandharv and Apsra by acquiring another glowing body.
Next bodies to be acquired were (i). Tejomaei (full of energy-glittering-illuminated), which produced Sandhey Gan and Pitre Gan; (ii). Tiro Dhan, yielding Siddh, Vidya Dhar, Pritibimb (reflection)-Kinners (important), Kim Purush ( important).
Anger-Tandra produced ghosts (Bhoot, Pishach) and spirits.
From the hair evolved the servants.
Krat-Kraty were produced-evolved from the heart of Brahma Ji, through Indriy Sanyam (self control, Control of senses, Asceticism, Enlightenment, Yog, Trans meditation, Salvation).
Daksh Praja Pati-evolved from the right leg toe of Brahma Ji.
Brahma Ji evolved Manu from his right half and Shatrupa from his left half.
(II) Physical-material creations became the inhabitants of earth. Brahma Ji evolved Manu from his right half and Shatrupa from his left half. Manavs-Humans took birth from them. Manu and Shatrupa had two sons-Priyvert & Uttan Pad and two daughters -Akuti & Prasuti.
Prasuti was married to Daksh Praja Pati. They had 60 daughters of which 14 were married to Kashyap, from whom evolved the entire living population on earth.
In all 9 types of life forms, which involved evolution through sexual means, in addition to creations made by Brahma Ji through his body-rejecting it again and again, were created depending upon their nature/characters in their previous innumerable incarnations-births, having these major divisions: Prakret-3, Vaikret-5 and Komary Sarg-1.
PRAKRAT SARG (प्राक्रत सर्ग) :: Initially, it evolved out of the brain of Brahma Ji’s intelligence-brain-mind-prudence, which was further sub divided into; Adi Sarg आदि सर्ग , Bhoot Sarg भूत सर्ग and Aendrik Sarg, ऐन्द्रिक सर्ग.
(I): Adi Sarg (stage) Mahatatv/Brahm Sarg- Presence of defects-differentiation in Satvik, Rajsik and Tamsik characters, is its significance. It constitutes mainly of Vaikarik/Temo Guni/Tamsik characters - Yaksh, Rakshash, Asur-Demons were created out of the defects of Brahm. They were the ones to evolved first, as result-consequence of ignorance, defect and disorder. They represent darkness, shadow, sinners, cruelty, brutality, imprudence, lack of virtues, lack of sympathy and Avidya (absence of enlightenment, tendency to act in an opposite direction). They were meat eaters, blood thirsty, desirous of sex and alcoholic.
Avidya has 5 categories :-
(1-i). Tamistr-represent shadow :- The ones, whose soul, mind and heart are full of darkness.
(1-ii). Andh-Tamistr :- Possess eyes but behaves as/like blind. Their soul, mind, heart and body are full of darkness.
(1-iii). Tam :- Darkness, represent lack of enlightenment.
(1-iv) Moh :- Attachment, desires, sexuality and sensuality.
(1-v). Maha Moh :- Unlimited desires, extreme Moh. Hunger- thirst for power, possessions, lack of thoughtfulness and feelings, are the basic components of their nature. Their constitution reflected darkness. Yaksh Rakshash and Asurs constituted this category.
(2). Bhotic (Physical)-Bhoot Sarg :- It's dependent upon past 5 basic characteristics namely- shape, extract (-juice), smell, touch and sound. Bhoot (-past) Adi Sarg : Constitutes of those who have departed.
(3) Vaekarik (distorted, disordered, defective) Aendrik Sarg:- It involves creation of senses and sense organs.
Vaikret: 5 main divisions
(4). Mukhy (-main) Stationary-Stable-fixed:- Mountains-Hills, Trees Plants-Shrubs-Straws-Thickets (-under growth).
(5). Triyak Strota-Taiyarg Yoni (movement):- Animals and birds. They constitute of 28 categories. They are without the knowledge of time period. Excess of Temo gun shows of in sexual behaviour eating and drinking and sleep only. Movement of food in their stomach takes place in curved path. They can identify the materials by smelling. They are devoid of thinking and farsightedness.
Two hoofs: Cow, goat, bullock, deer, antelope, pig, sheep, camel etc.
Single hoof: Donkey, horse, pony, gaur, shraf, chamry-yak etc.
Five claws: Animals-Dog, wolf, tiger, cat, rabbit, lion, monkey, elephant, tortoise, goh-lizard-dinosaurs, crocodile, Sahi (porcupine) etc. Birds-vultures, crow, owl, crane, peacock, duck, swan etc.
(6). Dev Sarg-Urdh Strota (Demi Gods-Deities) with Satvik Nature. Movement of food constituting of offerings by humans takes place from bottom to top. Don’t consume material form of food, truthful, extremely comfort providing.
(7). Arwak Strota-Humans: Movement of food takes place from top to bottom, exhibit dominance of Rajsik-passionate characters. Satvik and Tamsik characters are also present, though in lesser quantity. They are devoted to Karm and pleasure in passions-sensuality which yield pain-sorrow-grief.
(8). Anugrah Sarg: associated with both Satvik and Tamsik tendencies
(9). Komary Sarg: Constitutes of both Prakrat (natural) and Vaikret. Prakrat was created out of Intelligence/brain/mind/prudence.
Kashyap the son of Marichi (Brahma's son); produced the above mentioned organisms from his wives through intercourse (मैथुनी सृष्टि) as listed below:
(1). Aditi (Dev Mata) had 12 sons known as Adity-Sun in addition to Demigods.
(2). Surbhi (Gau Mata) produced all quadrupeds-horses, cows, buffaloes.
(3). Dity (Daity Mata-mother of demons) gave birth to Demons named Hirany Kashpu and Hiranyaksh, 49 Maruts.
(4). Danu (Daity Mata) produced Danav.
(5). Sursa gave birth to Rakshash.
(6). Muni-Aristha is the mother of Gandharv- divine singers and Apsra- divine dancers.
(7). Vinitay (Daity Mata) had Arun-Sun's chariot driver, Garud Ji-Bhagwan Vishnu's carrier-a bird & daughters who became the mothers of all birds.
(8). Kadru (Daity Mata) became the mother of all servants/snakes-Bhagwan Shash Nag, Vasuki, Takshak etc.
(9). Khasa produced ugly demigods and companions of Kuber, named after Yaksh and Rakshash.
(10). Sursa produced Rakshash.
(11). Ira-Ila gave birth to all types of, trees, creepers, shrubs, bushes herbs.
(12). Krodhvasa created Ghosts and Pishachs.
(13). Tandra became the mother of wild animals and
(14). Pitre had all dead ancestors and 10 Pralapati's as her sons.
In all 4 types of means of reproduction have been described in the Shastr, namely: Andaj (अंडज)-taking birth through the egg, Swedaj (स्वेदज) :- taking birth through contact by means of sweat, Udbhijj (उद्भिज्ज)-vegetative, sprouting, germinating, Garbhaj (गर्भज)-Jarayuj (जरायुज)-born out of placenta, viviparous, mammalian.
सृष्टि तथा धर्म उत्पत्ति :- सभी ऋषि-महृषिगण मनु महाराज के पास गए और उनका यथोचित सत्कार करके बोले कि हे भगवन् !आप सब वर्ण और जाति के मनुष्यों के धर्म और कर्तव्यों को ठीक-ठीक रूप से बतलाने में समर्थ हैं। आप अविज्ञ जगत के तत्त्व को जानने वाले और केवल आप ही विधान रूप वेद-जिनका कि चिन्तन से पार नहीं पाया जा सकता, जो अपरिमित सत्य विद्याओं का विधान है उनके अर्थों को जानने वाले भी हैं। उन ऋषि-महाऋषियों के इस प्रकार कहने पर मनु महाराज ने उनका आदर सत्कार किया और फिर उनसे कहा कि सृष्टि से पहले जगत प्रलय और अन्धकार में आवृत्त था। उस समय न किसी के जानने, न तर्क और न प्रसिद्ध चिह्नों से युक्त इंन्द्रियों से जानने योग्य था, वह सब जगत खोये हुए के समान ही था।
पहले स्वयं समर्थ अर्थात् स्वयं भूत और स्थूल में प्रकट न होनेवाला अर्थात् अव्यक्त इस महाभूत आकाशादि को प्रकाशित करने वाला परमात्मा इस संसार को प्रकटावस्था में लाते हुए प्रकट हुआ और फिर उस परमात्मा ने अपने आश्रम से ही महत नामक तत्त्व को और महतत्त्व से मैं हूँ ऐसा अभिमान करने वाले सामर्थ्यशाली अहंकार नामक तत्त्व को और फिर उनसे सब त्रिगुणात्मक पंचतन्मात्राओं तथा आत्मोपकारक मन इन्द्रिय को और विषयों को ग्रहण करने वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों को यथाक्रम से उत्पन्न कर प्रकट किया।
उन तत्त्वों में से अनन्त शक्ति वाले छहों तत्त्वों के सूक्ष्म अवयवों को उनके आत्मभूत तत्त्वों के कारणों में मिलाकर सारे पाँच महाभूतों की सृष्टि की। उस परमात्मा के सब पदार्थों के नाम, जैसे ‘गौ’, ‘अश्व’ आदि और उनके भिन्न-भिन्न कर्म जैसे ब्राह्मण का वेद पढ़ना, क्षत्रिय का रक्षा करना आदि-आदि कार्य निर्धारित किए तथा पृथक-पृथक विभाग या व्यवस्थायें सृष्टि के आरम्भ में वेद के शब्दों के आधार पर ही बनाए। इस प्रकार उस परमात्मा ने कर्मात्मना सूर्य, अग्नि, वायु आदि देवों, मनुष्य पशु पक्षी आदि सामान्य प्राणियों के और साधक कोटि के विशेष विद्वानों के समुदायों को तथा सृष्टिकाल से प्रलय काल तक निरन्तर चले आ रहे सूक्ष्म संसार को रचा।
परमात्मा ने जगत के सब रूपों के ज्ञान के लिए अग्नि, वायु और रवि से ऋक् यजुः साम रूप त्रिविध ज्ञान वाले नित्य वेदों को दुहकर प्रकट किया। फिर काल और मास, ऋतु अयन आदि काल विभागों को कृत्तिका आदि नक्षत्रों, सूर्य आदि ग्रहों को और नदी समुद्र पर्वत तथा ऊंचे नीचे स्थानों को बनाया। फिर इन प्रजाओं की सृष्टि के इच्छायुक्त उस ब्रह्मा ने तपों को, वाणी को, रति को, इच्छा को, क्रोध को रचा। और फिर कर्मों के विवेचन के लिए धर्म अधर्म का विभाजन किया। इन प्रजाओं को सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से जोड़ा।
प्रजाओं की समृद्धि के लिए परमात्मा ने मुख बाहु जँघा और पैर की तुलना के अनुसार क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण को निर्मित किया। फिर उस विराट् पुरुष ने तप करके इस जगत की सृष्टि करने वाले मुझ को उत्पन्न किया और फिर मैंने प्रजा की सृष्टि करने की इच्छा से कठिन तप करके पहले दश प्रजापति महर्षियों को उत्पन्न किया। इन दश महर्षियों ने मेरी आज्ञा से बड़ा तप किया और फिर जिसका जैसा कर्म है, तदनुरूप देव, मनुष्य तथा पशु-पक्षी आदि योनियों को उत्पन्न किया। इस संसार में जिन मनुष्यों का जैसा कर्म वेदों में कहा गया है उसे वैसे ही और उत्पन्न होने में जीवों का जो एक निश्चित प्रकार रहता है उसे मनु महाराज ने विस्तारपूर्वक वर्णन किया।
पशु, मृग, व्याघ्र, दोनों ओर दाँत वाले राक्षस, पिशाच और मनुष्य, ये सब जरायुज अर्थात् झिल्ली से उत्पन्न होने वाले हैं। पक्षी, साँप, मगर, मछली तथा कछुए और अन्य जो इस प्रकार के स्थल में उत्पन्न होने वाले और जल में उत्पन्न होने वाले जीव हैं, वे अण्डज अर्थात् अण्डे में से उत्पन्न होते हैं। मच्छर, जुं, मक्खी, खटमल और जो भी इस प्रकार के कोई जीव हों जैसे भुनगे आदि वे सब सीलन और गर्मी से उत्पन्न होते हैं, उनको स्वेदज अर्थात् पसीने से उत्पन्न होने वाले कहा जाता है। बीज के बोने तथा डालियों के लगाने से उत्पन्न होने वाले सब स्थावर जीव वृक्ष आदि अद्भिज भूमि को फाड़कर उगने वाले कहलाते हैं। इनमें फलों के पकने पर सूख जाने वाले और जिन पर बहुत फल फूल लगते हैं, औषधि कहलाते हैं। जिन पर बिना फूल आये ही फल लगते हैं वे बड़, पीपल आदि वनस्पति कहलाते हैं और फूल तथा उसके बाद फल लगने वाले जीव वृक्ष कहलाते हैं।
अनेक प्रकार के जड़ से ही गुच्छे के रूप में बनने वाले झाड़ आदि, एक जड़ से अनेक भागों में फूटने वालों ईख आदि तथा उसी प्रकार घास की सब जातियां बीज और शाखा से उत्पन्न होने वाले उगकर फैलने वाले दूब आदि और बेलें से सब भी उद्भिज ही कहलाते हैं। पुनर्जन्मों के कारण बहुत प्रकार के तमोगुण से आवेष्टित ये स्थावर जीवन जब वह परमात्मा जागकर सृष्टि उत्पत्ति आदि की इच्छा करता है तब यह समस्त संसार चेष्टायुक्त होता है और जब यह शान्त आत्मावाला सभी कार्यों से शान्त होकर सोता है, अर्थात् इच्छारहित होता है, तब यह समस्त संसार प्रलय को प्राप्त होता है। सृष्टि से निवृत्त हुए उस परमात्मा के सोने पर, श्वास प्रश्वास चलना-फिरना आदि को करने का जिनका स्वभाव है, वे देहधारी जीवन अपने-अपने कर्मों से निवृत्त हो जाते हैं और सब इंद्रियों समेत मन भी ग्लानि की अवस्था को प्राप्त करता है।
उस सर्वव्यापक परमात्मा के आश्रम में जब एक साथ ही सब प्राणी चेष्टाहीन होकर लीन हो जाते हैं तब यह सब प्राणियों का आश्रय स्थान परमात्मा की सृष्टि संचालन के कार्यों से निवृत्त हुआ सुख पूर्वक सोता है। इस प्रकार वह अविनाशी परमात्मा जागने और सोने की अवस्थाओं द्वारा इस जड़ और चेतन रूप जगत को निरन्तर जिलाता और मारता है।[मनुस्मृति-प्रथम अध्याय]
Deep breathing process resulted in the birth of Pawan Dev, the Deity of Air. Pawan Dev split-ted into two, i.e., himself and his wife. They had five sons.
The fluid turned into water and resulted in the birth of Varun Dev-the Deity of water. Varun Dev too, divided into two i.e., himself and his wife.
As a result of the sexual intercourse, between The Almighty Shri Krashn and Devi Maa Bhagwati-Radha a child was born, who became Maha Virat Purush-Maha Vishnu, from whom evolved all the universes.
From the tongue of Devi Bhagwati emerged the Devi Saraswati. Bhagwati Radha evolved from the right and Bhagwati Laxmi evolved from the left of Bhagwati Saraswati.
Maha Vishnu emerged out of Shri Krishan, the Almighty. Shri Krishan himself formed the right side component, while the left side component evolved as Maha Vishnu.
Radha Ji and Maha Laxmi emerged out of Devi Saraswati.
Shri Krashn awarded Vaikunth Lok to Maha Vishnu along with Laxmi Ji, Devi Saraswati also joined them. Shri Krishan and Maha Vishnu; have the same status. Maha Vishnu-the protector of all the Universes settled in Vaikunth Lok with Devi Maha Laxmi-the deity of all comforts, wealth, luxuries and worldly possessions, along with the Devi Saraswati, the Goddess of all learning, speech, knowledge and music.
Shri Krashn and Devi Bhagwati Radha, the Mother Nature, the Maha Maya, the Maha Shakti stayed in Gau Lok, the center of all universes.
Devi Durga emerged from Shri Krashn along with, four headed Brahma and Brahmani, followed by five headed Bhagwan Maha Shiv.Brahma Ji along with Brahmani, were sent to Brahm Lok by Shri Krishan.
Devi Durga the Shakti of Maha Shiv, joined him in Shiv Lok.
Later, a segment evolved out of Devi Saraswati in Vaikunth Lok, joined Brahma Ji in Brahm Lok as his Shakti.
While, listening to the music by Bhagwan Shiv-from the earth in our universe, Shri Krashn and Radha Ji merged together in Gau Lok and formed Holy River Ganga. They reappeared on the request and prayer of Bhagwan Shiv.
Devi Ganga was sent to Vaikunth Lok as the third wife of Bhagwan Vishnu. Devi Tulsi from Gau Lok is the fourth wife of Maha Vishnu.
The Maha Virat Purush born out of Shri Krishan and Devi Bhagwati produced as many Universes, as were the bristles-spores on his body.
Gau Lok is the center of all the Universes. Vaikunth Lok have the same status as that of Gau Lok with respect to our universe. Gau Lok and Vaikunth Lok last longer than any other place, among all the Universes in the space, which are bound to perish one day or the other.
Each Universe has a Chhudr Virat Purush, from whom originated the Trinity of Brahma-the Creator, Vishnu-the Protector and Mahesh-the Destroyer.Left half of Chhudr Virat Purush produced Chatur Bhuj Vishnu-with his abode in Swat Dweep.
From the navel of Chhudr Virat Purush-Narayan emerged the Brahma on lotus-with his abode in Brahm Lok. From the forehead of Brahma Ji beamed the Mahesh- having his abode at Kailash. These three together are not different from one another, in any way. They are the constituents of the Supreme All Almighty Param Pita Per Brahm Permashwer in our universe.
Devi Savitri and Devi Gayatri are the wives of Bhagwan Brahma in Brahm Lok.
Devi Laxmi is the wife of Bhagwan Vishnu in Shwete Dweep.
Devi Parwati is the wife of Bhagwan Shiv, as the incarnation of Sati, on Kailash.
Brahma Ji requested Bhagwan Shiv-Mahesh to create life. He created eleven Rudr, who were all alike him. They are Dikpals (possessors of directions 10 in number) now positioned in ten directions. Mahesh showed his inability to do this further. Dev Rishi Narad came off Brahma’s forehead. Brahma's forehead yielded the Sapt Rishi's.
Brahma’s one day (1 Kalp)=1 Divine Night.
1 Kalp 1000 Solar Chatur Yug=4,32,00,00,000 years.
1 Year of Brahma=1000 Kalp.
1 Yug of Brahma=8000 Years of Brahma.
1000 Divine Chatur Yug make the day of 12 hours for Brahma Ji (-the Creator) and during another 12 hours, Brahma Ji takes rest and there is no creation during this period.
1 day for Brahma constitutes 1000 Chatur Yug (4,320,000,000 years).
1 Year constitutes 360 x 4,320,000,000=1,555,200,000,000 years;
Life span of Brahma Ji is 100 Divine years=100 X 1,555,200,000,000=155,520,000,000,000 years.
1 Day of Vishnu=1000 Yug of Brahma
1 Day of Sada Shiv (Kalatma/Maha Kal) = 9,000 Days of Vishnu.
Brahma's 1 Day Night=28 Indr's.
1 Indr's age =1 Manvantar = Divine 71 Yug.
1 Divine Maha Yug = 1,000 Divine Chatur Yug=14 Manu’s Period.
1 Manu’s Period = Slightly more than 71 6/14 Manvanters.
1 Manvantar = 30,67,20,000 Solar years = 8,52,000 Divine years.
KURUKSHETR (कुरुक्षेत्र) :: Daksh Prajapati evolved from the toe of the right leg and his wife got her birth from the left toe of Brahma Ji. They had 60 daughters. 13 of these were married to the sage Kashyap who too had emerged from Brahma Ji. These were divine creations. Brahma Ji entrusted the job of creating life through sexual intercourse to Kashyap. Kashyap moved to Kurukshetr and established his Ashram here and started ascetic-profound meditation at Himaly Parwat-Kashmir. Kashmir got its name from Kashyap. He created all life forms through his wives. He had some more wives, other than Daksh's daughters. These life forms include Demigods-Devgan, Daity-giants, Rakshas-demons, Yaksh, Gandharv, Kinner, Humans etc. In all 12 creations got birth which moved over 2 legs. This is place in the galaxy where the the material life forms were evolved. These life forms moved to various abodes in the galaxies. This is the reason this region is called Kshetr (-vagina, क्षेत्र-योनि).
Shiv is considered to be the cause-reason behind the creation of this universe.
Pawan (Vayu, Demigod who regulates the Air) and Varun Dev (Demigod) who regulates water and all vehicles), evolved prior to Maha Virat Purush.
A Golden (Hirany) egg, brighter than the Sun, appeared in water like a gigantic bubble, illuminating everything around, called Hirany Garbh (womb). Everything composing universe-all abodes including Heavens, Earth, Moon, Sun, Demons, Demi Gods, Humans and all that had to be created were present in it, in embryonic state/form.
Virat Purush-Vishnu, an incarnation of Maha Virat Purush-the son of Almighty Shri Krishan and Radha Ji, emerged out of it and evolved-created his three incarnations viz. Brahma Ji- the creator from his right with 7 characters, Mahesh (Rudr)-the destroyer from his middle with 11 characters and Vishnu-the nurturer-protector from his right body segment with 8 characters. Para Shakti-the Divine Power of Bhagwan Vishnu is associated with him by performing the functions like nurturing, maintaining, illusion, attachment in this universe.
Brahma Ji and Bhagwan Vishnu looked at each other and argued that the other one was created by him. Brahma Ji told that the entire universe was present in him. Bhagwan Vishnu entered in Brahma's mouth to see it and found that the entire universe was present there in the stomach. He jokingly allowed Brahma to find what was there in him. Brahma Ji too found everything in him. Bhagwan Vishnu closed his mouth and allowed him to come off through the navel lotus. Brahma Ji asked him to ask for a boon. Bhagwan Vishnu asked him to accept himself as his father-Creator and Brahma Ji obliged. There appeared a gigantic Shiv Ling on the scene. By way of curiosity, both of them entered into it, but failed to find its origin or the end for thousands of years. Tired they both retreated. They heard a voice (Akash Vani-divine voice-words in the ether-sky) telling them to meditate. They both requested the voice (Akash Vani) to tell who he was and who were they. The voice told them that he was Shiv-The Adi Purush, their creator. Brahma Ji asked him for a boon, on being asked, to appear as his son and the voice agreed to oblige him. Having meditated for long long years Maha Shiv asked Brahma Ji to start the creation of Universe.
Brahma Ji is the source of all life forms spreaded over 7 Swarg, Earth, 7 Patal and 28 Narak (Hells) and various other higher abodes. All life forms evolved-originated-created in Saty Lok- the abode of Brahma Ji. There after they were moved to a abode-Lok, depending upon their deeds in previous births.
Sequence-appearance of sages, their number, their names, is found to be different in different Kalps-Brahma's day. Some variations have been noticed in the evolution of various life forms, creatures, organisms as well. One should not be confused by these variations, since these variations are there due to the events occurring in different segments of time called-Manvantars.
Brahma Ji's creations are of two types :-
(I). Divine creations settled in heavens-higher abodes.
Yaksh, Rakshash, Asur (Monsters-giants) who were the first to evolved from the thigh of Brahma Ji, ran towards him, to eat him, shouting Yaksh Yaksh meaning :- eat him, followed by Rakshash's, shouting Rakshash-Rakshash meaning :- don't protect him. Brahma Ji told them that he was their father-creator and therefore they should not eat him. Brahma Ji rejected the original-that body to acquire a new one. Deserted body turned into night (darkness constituting of smoke, fog, mist, dust, evening, dawn-Sunset-morning- pleasing both Yaksh and Rakshash. Rakshash are termed as Demons, Asur and Anti Demigods, as well, due to their nature habits, desire for sex-lust, darkness.
Sages evolved from the forehead-mind and other body parts were named: Bhragu (from heart), Marichi (from eyes), Atri (from ears), Angira (from head), Pulasty (from udan Vayu air), Puleha (from Vyan Vayu, Kretu (from apan Vayu) and Vashishth (from Saman Vayu), Kardam (from shadow), Dharm (from determination) along with innumerable sons including Kashyap.
Bhagwan Shiv-Maheshwar-Ardhnarishwer evolved from the center of eye brows and the nose. Nondescript-uncharacteristic Brahm Shiv (Aling) is Ling (nature). Nature (ling) is a component of Shiv. Devoid of Sound-word, touch-figure, extract-elixir (juice), smell is Shiv. Non-descript, un-moved, un-deteriorating, Aling, Nirgun-no specific characteristic- component is Shiv. The nature associated with word-sound, touch-feeling, figure-shape and size, extract-juices, smells is the excellence of Shiv-is the producer-evolver of-creator of universe-with 5 components which were , which are, which will be there are: Earth, Water, Tej-energy-light, Space, Air. Micro-Macro, all components-sections of universe have been created from the un-descript Parmatma-Almighty Shiv. Its, Aling-non-descript due to the Maya- illusory Power of God and constitute of 7, 8 or 9 shapes-figures of Ling Tatw (Components-Elements). Bhagwan Shiv is capable of moving freely, in 14 universes as per his will.
Manas Putr (Brain child, always remain naked and appear-seen as kids) Sanak, Sanandan, Sanatan and Sanat Kumar; Dev Rishi Narad evolved from the from the fore head of Bahama Ji. They were capable of moving freely in all abodes, including earth. Devs, Humans too evolved from there.
From the thigh of Brahma Ji evolved Yaksh, Asurs-Rakshash-Demons-Danav, after acquisition of new body followed by Gandharv and Apsra by acquiring another glowing body.
Next bodies to be acquired were (i). Tejomaei (full of energy-glittering-illuminated), which produced Sandhey Gan and Pitre Gan; (ii). Tiro Dhan, yielding Siddh, Vidya Dhar, Pritibimb (reflection)-Kinners (important), Kim Purush ( important).
Anger-Tandra produced ghosts (Bhoot, Pishach) and spirits.
From the hair evolved the servants.
Krat-Kraty were produced-evolved from the heart of Brahma Ji, through Indriy Sanyam (self control, Control of senses, Asceticism, Enlightenment, Yog, Trans meditation, Salvation).
Daksh Praja Pati-evolved from the right leg toe of Brahma Ji.
Brahma Ji evolved Manu from his right half and Shatrupa from his left half.
(II) Physical-material creations became the inhabitants of earth. Brahma Ji evolved Manu from his right half and Shatrupa from his left half. Manavs-Humans took birth from them. Manu and Shatrupa had two sons-Priyvert & Uttan Pad and two daughters -Akuti & Prasuti.
Prasuti was married to Daksh Praja Pati. They had 60 daughters of which 14 were married to Kashyap, from whom evolved the entire living population on earth.
In all 9 types of life forms, which involved evolution through sexual means, in addition to creations made by Brahma Ji through his body-rejecting it again and again, were created depending upon their nature/characters in their previous innumerable incarnations-births, having these major divisions: Prakret-3, Vaikret-5 and Komary Sarg-1.
PRAKRAT SARG (प्राक्रत सर्ग) :: Initially, it evolved out of the brain of Brahma Ji’s intelligence-brain-mind-prudence, which was further sub divided into; Adi Sarg आदि सर्ग , Bhoot Sarg भूत सर्ग and Aendrik Sarg, ऐन्द्रिक सर्ग.
(I): Adi Sarg (stage) Mahatatv/Brahm Sarg- Presence of defects-differentiation in Satvik, Rajsik and Tamsik characters, is its significance. It constitutes mainly of Vaikarik/Temo Guni/Tamsik characters - Yaksh, Rakshash, Asur-Demons were created out of the defects of Brahm. They were the ones to evolved first, as result-consequence of ignorance, defect and disorder. They represent darkness, shadow, sinners, cruelty, brutality, imprudence, lack of virtues, lack of sympathy and Avidya (absence of enlightenment, tendency to act in an opposite direction). They were meat eaters, blood thirsty, desirous of sex and alcoholic.
Avidya has 5 categories :-
(1-i). Tamistr-represent shadow :- The ones, whose soul, mind and heart are full of darkness.
(1-ii). Andh-Tamistr :- Possess eyes but behaves as/like blind. Their soul, mind, heart and body are full of darkness.
(1-iii). Tam :- Darkness, represent lack of enlightenment.
(1-iv) Moh :- Attachment, desires, sexuality and sensuality.
(1-v). Maha Moh :- Unlimited desires, extreme Moh. Hunger- thirst for power, possessions, lack of thoughtfulness and feelings, are the basic components of their nature. Their constitution reflected darkness. Yaksh Rakshash and Asurs constituted this category.
(2). Bhotic (Physical)-Bhoot Sarg :- It's dependent upon past 5 basic characteristics namely- shape, extract (-juice), smell, touch and sound. Bhoot (-past) Adi Sarg : Constitutes of those who have departed.
(3) Vaekarik (distorted, disordered, defective) Aendrik Sarg:- It involves creation of senses and sense organs.
Vaikret: 5 main divisions
(4). Mukhy (-main) Stationary-Stable-fixed:- Mountains-Hills, Trees Plants-Shrubs-Straws-Thickets (-under growth).
(5). Triyak Strota-Taiyarg Yoni (movement):- Animals and birds. They constitute of 28 categories. They are without the knowledge of time period. Excess of Temo gun shows of in sexual behaviour eating and drinking and sleep only. Movement of food in their stomach takes place in curved path. They can identify the materials by smelling. They are devoid of thinking and farsightedness.
Two hoofs: Cow, goat, bullock, deer, antelope, pig, sheep, camel etc.
Single hoof: Donkey, horse, pony, gaur, shraf, chamry-yak etc.
Five claws: Animals-Dog, wolf, tiger, cat, rabbit, lion, monkey, elephant, tortoise, goh-lizard-dinosaurs, crocodile, Sahi (porcupine) etc. Birds-vultures, crow, owl, crane, peacock, duck, swan etc.
(6). Dev Sarg-Urdh Strota (Demi Gods-Deities) with Satvik Nature. Movement of food constituting of offerings by humans takes place from bottom to top. Don’t consume material form of food, truthful, extremely comfort providing.
(7). Arwak Strota-Humans: Movement of food takes place from top to bottom, exhibit dominance of Rajsik-passionate characters. Satvik and Tamsik characters are also present, though in lesser quantity. They are devoted to Karm and pleasure in passions-sensuality which yield pain-sorrow-grief.
(8). Anugrah Sarg: associated with both Satvik and Tamsik tendencies
(9). Komary Sarg: Constitutes of both Prakrat (natural) and Vaikret. Prakrat was created out of Intelligence/brain/mind/prudence.
Kashyap the son of Marichi (Brahma's son); produced the above mentioned organisms from his wives through intercourse (मैथुनी सृष्टि) as listed below:
(1). Aditi (Dev Mata) had 12 sons known as Adity-Sun in addition to Demigods.
(2). Surbhi (Gau Mata) produced all quadrupeds-horses, cows, buffaloes.
(3). Dity (Daity Mata-mother of demons) gave birth to Demons named Hirany Kashpu and Hiranyaksh, 49 Maruts.
(4). Danu (Daity Mata) produced Danav.
(5). Sursa gave birth to Rakshash.
(6). Muni-Aristha is the mother of Gandharv- divine singers and Apsra- divine dancers.
(7). Vinitay (Daity Mata) had Arun-Sun's chariot driver, Garud Ji-Bhagwan Vishnu's carrier-a bird & daughters who became the mothers of all birds.
(8). Kadru (Daity Mata) became the mother of all servants/snakes-Bhagwan Shash Nag, Vasuki, Takshak etc.
(9). Khasa produced ugly demigods and companions of Kuber, named after Yaksh and Rakshash.
(10). Sursa produced Rakshash.
(11). Ira-Ila gave birth to all types of, trees, creepers, shrubs, bushes herbs.
(12). Krodhvasa created Ghosts and Pishachs.
(13). Tandra became the mother of wild animals and
(14). Pitre had all dead ancestors and 10 Pralapati's as her sons.
In all 4 types of means of reproduction have been described in the Shastr, namely: Andaj (अंडज)-taking birth through the egg, Swedaj (स्वेदज) :- taking birth through contact by means of sweat, Udbhijj (उद्भिज्ज)-vegetative, sprouting, germinating, Garbhaj (गर्भज)-Jarayuj (जरायुज)-born out of placenta, viviparous, mammalian.
सृष्टि तथा धर्म उत्पत्ति :- सभी ऋषि-महृषिगण मनु महाराज के पास गए और उनका यथोचित सत्कार करके बोले कि हे भगवन् !आप सब वर्ण और जाति के मनुष्यों के धर्म और कर्तव्यों को ठीक-ठीक रूप से बतलाने में समर्थ हैं। आप अविज्ञ जगत के तत्त्व को जानने वाले और केवल आप ही विधान रूप वेद-जिनका कि चिन्तन से पार नहीं पाया जा सकता, जो अपरिमित सत्य विद्याओं का विधान है उनके अर्थों को जानने वाले भी हैं। उन ऋषि-महाऋषियों के इस प्रकार कहने पर मनु महाराज ने उनका आदर सत्कार किया और फिर उनसे कहा कि सृष्टि से पहले जगत प्रलय और अन्धकार में आवृत्त था। उस समय न किसी के जानने, न तर्क और न प्रसिद्ध चिह्नों से युक्त इंन्द्रियों से जानने योग्य था, वह सब जगत खोये हुए के समान ही था।
पहले स्वयं समर्थ अर्थात् स्वयं भूत और स्थूल में प्रकट न होनेवाला अर्थात् अव्यक्त इस महाभूत आकाशादि को प्रकाशित करने वाला परमात्मा इस संसार को प्रकटावस्था में लाते हुए प्रकट हुआ और फिर उस परमात्मा ने अपने आश्रम से ही महत नामक तत्त्व को और महतत्त्व से मैं हूँ ऐसा अभिमान करने वाले सामर्थ्यशाली अहंकार नामक तत्त्व को और फिर उनसे सब त्रिगुणात्मक पंचतन्मात्राओं तथा आत्मोपकारक मन इन्द्रिय को और विषयों को ग्रहण करने वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों को यथाक्रम से उत्पन्न कर प्रकट किया।
उन तत्त्वों में से अनन्त शक्ति वाले छहों तत्त्वों के सूक्ष्म अवयवों को उनके आत्मभूत तत्त्वों के कारणों में मिलाकर सारे पाँच महाभूतों की सृष्टि की। उस परमात्मा के सब पदार्थों के नाम, जैसे ‘गौ’, ‘अश्व’ आदि और उनके भिन्न-भिन्न कर्म जैसे ब्राह्मण का वेद पढ़ना, क्षत्रिय का रक्षा करना आदि-आदि कार्य निर्धारित किए तथा पृथक-पृथक विभाग या व्यवस्थायें सृष्टि के आरम्भ में वेद के शब्दों के आधार पर ही बनाए। इस प्रकार उस परमात्मा ने कर्मात्मना सूर्य, अग्नि, वायु आदि देवों, मनुष्य पशु पक्षी आदि सामान्य प्राणियों के और साधक कोटि के विशेष विद्वानों के समुदायों को तथा सृष्टिकाल से प्रलय काल तक निरन्तर चले आ रहे सूक्ष्म संसार को रचा।
परमात्मा ने जगत के सब रूपों के ज्ञान के लिए अग्नि, वायु और रवि से ऋक् यजुः साम रूप त्रिविध ज्ञान वाले नित्य वेदों को दुहकर प्रकट किया। फिर काल और मास, ऋतु अयन आदि काल विभागों को कृत्तिका आदि नक्षत्रों, सूर्य आदि ग्रहों को और नदी समुद्र पर्वत तथा ऊंचे नीचे स्थानों को बनाया। फिर इन प्रजाओं की सृष्टि के इच्छायुक्त उस ब्रह्मा ने तपों को, वाणी को, रति को, इच्छा को, क्रोध को रचा। और फिर कर्मों के विवेचन के लिए धर्म अधर्म का विभाजन किया। इन प्रजाओं को सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से जोड़ा।
प्रजाओं की समृद्धि के लिए परमात्मा ने मुख बाहु जँघा और पैर की तुलना के अनुसार क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण को निर्मित किया। फिर उस विराट् पुरुष ने तप करके इस जगत की सृष्टि करने वाले मुझ को उत्पन्न किया और फिर मैंने प्रजा की सृष्टि करने की इच्छा से कठिन तप करके पहले दश प्रजापति महर्षियों को उत्पन्न किया। इन दश महर्षियों ने मेरी आज्ञा से बड़ा तप किया और फिर जिसका जैसा कर्म है, तदनुरूप देव, मनुष्य तथा पशु-पक्षी आदि योनियों को उत्पन्न किया। इस संसार में जिन मनुष्यों का जैसा कर्म वेदों में कहा गया है उसे वैसे ही और उत्पन्न होने में जीवों का जो एक निश्चित प्रकार रहता है उसे मनु महाराज ने विस्तारपूर्वक वर्णन किया।
पशु, मृग, व्याघ्र, दोनों ओर दाँत वाले राक्षस, पिशाच और मनुष्य, ये सब जरायुज अर्थात् झिल्ली से उत्पन्न होने वाले हैं। पक्षी, साँप, मगर, मछली तथा कछुए और अन्य जो इस प्रकार के स्थल में उत्पन्न होने वाले और जल में उत्पन्न होने वाले जीव हैं, वे अण्डज अर्थात् अण्डे में से उत्पन्न होते हैं। मच्छर, जुं, मक्खी, खटमल और जो भी इस प्रकार के कोई जीव हों जैसे भुनगे आदि वे सब सीलन और गर्मी से उत्पन्न होते हैं, उनको स्वेदज अर्थात् पसीने से उत्पन्न होने वाले कहा जाता है। बीज के बोने तथा डालियों के लगाने से उत्पन्न होने वाले सब स्थावर जीव वृक्ष आदि अद्भिज भूमि को फाड़कर उगने वाले कहलाते हैं। इनमें फलों के पकने पर सूख जाने वाले और जिन पर बहुत फल फूल लगते हैं, औषधि कहलाते हैं। जिन पर बिना फूल आये ही फल लगते हैं वे बड़, पीपल आदि वनस्पति कहलाते हैं और फूल तथा उसके बाद फल लगने वाले जीव वृक्ष कहलाते हैं।
अनेक प्रकार के जड़ से ही गुच्छे के रूप में बनने वाले झाड़ आदि, एक जड़ से अनेक भागों में फूटने वालों ईख आदि तथा उसी प्रकार घास की सब जातियां बीज और शाखा से उत्पन्न होने वाले उगकर फैलने वाले दूब आदि और बेलें से सब भी उद्भिज ही कहलाते हैं। पुनर्जन्मों के कारण बहुत प्रकार के तमोगुण से आवेष्टित ये स्थावर जीवन जब वह परमात्मा जागकर सृष्टि उत्पत्ति आदि की इच्छा करता है तब यह समस्त संसार चेष्टायुक्त होता है और जब यह शान्त आत्मावाला सभी कार्यों से शान्त होकर सोता है, अर्थात् इच्छारहित होता है, तब यह समस्त संसार प्रलय को प्राप्त होता है। सृष्टि से निवृत्त हुए उस परमात्मा के सोने पर, श्वास प्रश्वास चलना-फिरना आदि को करने का जिनका स्वभाव है, वे देहधारी जीवन अपने-अपने कर्मों से निवृत्त हो जाते हैं और सब इंद्रियों समेत मन भी ग्लानि की अवस्था को प्राप्त करता है।
उस सर्वव्यापक परमात्मा के आश्रम में जब एक साथ ही सब प्राणी चेष्टाहीन होकर लीन हो जाते हैं तब यह सब प्राणियों का आश्रय स्थान परमात्मा की सृष्टि संचालन के कार्यों से निवृत्त हुआ सुख पूर्वक सोता है। इस प्रकार वह अविनाशी परमात्मा जागने और सोने की अवस्थाओं द्वारा इस जड़ और चेतन रूप जगत को निरन्तर जिलाता और मारता है।[मनुस्मृति-प्रथम अध्याय]
परम ब्रह्म अर्थात एकाक्षर ब्रह्म। परम अक्षर ब्रह्म। ब्रह्म ही सत्य है वही अविकारी परमेश्वर है। जिस समय सृष्टि में अंधकार था। न जल, न अग्नि और न वायु था तब वही तत्सदब्रह्म ही था जिसे श्रुतियों में सत्-अविनाशी परमात्मा कहा गया है।
उस अविनाशी परब्रह्म (काल) ने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की। उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से आकार की कल्पना की, जो मूर्ति रहित परम ब्रह्म है।
जितने ब्रह्मांड हैं उतने ही भगवान् ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। पृथ्वी लोक जिस ब्रह्माण्ड में स्थित है उसमें भगवान् शिव की आयु 8 परार्ध, भगवान् विष्णु की आयु 4 परार्ध और ब्रह्मा जी की आयु 2 परार्ध है। ब्रह्मा जी की आयु पूर्ण होने के बाद महाप्रलय हो जाता है और समस्त जीवधारी भगवान् श्री नारायण-विष्णु में समाहित हो जाते हैं। यह क्रम माला के मनकों की तरह है 108 तक घूमकर फिर पहले पर पहुंच जाना यही सृष्टि का क्रम है। पुराणों में मन्वन्तरों के अनुरूप सृष्टि के प्रकट होने का क्रम दिया गया है। यद्यपि घटनाक्रम कमोबेश वही रहता है परन्तु पात्रों के नामों और गुणों में अन्तर स्वाभाविक है।
भगवान् विष्णु, अविकारी, शुद्ध परमात्म, शाश्वत, सर्वव्यापक, अजन्मा, हिरण्यगर्भ हरि, शंकर और वासुदेव-अनेक नामों से जाता है। इसी ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की रचना की है। सृष्टि रचना के रूप में वह तेजस्वी ब्रह्म है जिसके द्वारा पहले महत् तत्त्व उत्पन्न हुआ। उससे अहंकार, फिर अहंकार से पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई। पंचमहाभूतों से अनेक भेदाभेद पैदा हुए।
अजन्मा, व्यक्त और अव्यक्त-अप्रकट, साकार-निराकर, सगुण-निर्गुण परमात्मा से गौलोक वासी व्यक्त-मूर्त रूप से प्रकट हुए-भगवान् श्री कृष्ण का उद्भव हुआ। वह परमात्मा ही समस्त आत्माओं का आश्रय है अर्थात समस्त चराचर, आत्माएँ उसी से प्रकट होती हैं और उसी में महाप्रलय के होने पर समा जाती हैं। भगवान् श्री कृष्ण से ही देवी भगवती प्रकट हुईं। देवी माँ भगवती की जिव्हा से से देवी सरस्वती प्रकट हुईं। माँ सरस्वती के दायें भाग से माँ राधा प्रकट हुईं और दायें भाग से देवी माँ लक्ष्मी प्रकट हुईं। उनका शरीर श्री कृष्ण और शक्ति राधा जी हैं। भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा जी के समागम से उनकी दीर्घ स्वांस-साँस चलने लगी। यह समागम की प्रक्रिया 10 मन्वन्तरों तक चलती रही। जिससे पवन की उत्पत्ति हुई। भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी से विराट पुरुष उत्त्पन्न हुए। यही महा विष्णु हैं। उनके शरीर पर जितने भी रौंम हैं उनसे उतने ही ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुए।भगवान् सदाशिव उन्हीं से प्रकट हुए। पवन देव का विभाजन दो रूपों में हो गया :- पहला वे स्वयं व दूसरी उनकी पत्नी। इन दोंनो के 5 पुत्र हुए। समागम कल में जो द्रव पसीने के रूप में उत्पन्न हुआ, वो जल में बदल गया और उसके देवता वरुण देव हैं। वरुण देव का विभाजन भी दो भागों में हो गया वे स्वयं और उनकी पत्नी।
भगवान् श्री कृष्ण और माँ देवी भगवती से उत्त्पन्न पुत्र विराट पुरुष कहलाते हैं। समस्त ब्रह्मांडों की उत्पत्ति उन्हीं से हुई है।
भगवान् श्री कृष्ण ने अपने शरीर पुनः द्विभाजित किया और उनके बायें भाग से भगवान् श्री हरी विष्णु प्रकट हुए।
भगवान् श्री कृष्ण ने महाविष्णु को वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और माँ देवी भगवती लक्ष्मी को उन्हें सौंप दिया। माँ भगवती सरस्वती देवी भी उन्हीं को प्राप्त हुईं।
भगवान श्री कृष्ण और राधा जी ने गौलोक में निवास किया। राधा जी को प्रकृति, माया, महाशक्ति आदि नामों से भी जाना जाता है।
देवी दुर्गा का उदय भगवान् श्री कृष्ण से हुआ। उनके साथ चतुर्मुखी ब्रह्मा जी, ब्रह्माणी और भगवान् सदाशिव प्रकट हुए। ब्रह्मा जी और ब्रह्माणि भगवान् को श्री कृष्ण ने ब्रह्म लोक प्रदान किया।
माँ भगवती दुर्गा भगवान् सदाशिव शिव लोक में प्रतिष्ठित हुईं।
वह परम ब्रह्म भगवान् सदाशिव भी है। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर विहार करने वाले उस सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्री अंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। सदाशिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है।
वह शक्ति अम्बिका (पार्वती या सती नहीं) कही गई है। उसको प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिभुवन जननी, नित्या और मूल कारण भी कहते हैं। सदाशिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति की 8 भुजाएं हैं। पराशक्ति जगत जननी वह देवी नाना प्रकार की गतियों से संपन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र शक्ति धारण करती है।
तत्पश्चात देवी माँ भगवती सरस्वती ने स्वयं को द्विभाजित किया और एक भाग से ब्रह्मा जी के साथ ब्रह्म लोक में प्रतिष्ठित हुईं।
भगवान् शिव के संगीत का आनंद लेते हुए भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी अचानक गौलोक में लय हो गए और देवी भगवती गँगा के रूप में प्रकट हुए। तत्पश्चात भगवान् शिव के आग्रह पर पुनः भूलोक में पधारे।
देवी भगवती गंगा को भगवान श्री कृष्ण ने वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और वे भगवान श्री हरी विष्णु के पास चली गईं।
भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा जी से उत्पन्न विराट पुरुष से उतने ही ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुए जितने उनके शरीर पर रोंये-रोम थे।
गौ लोक समस्त ब्रह्मांडों का केंद्र है। गौ लोक और वैकुण्ठ लोक का लय समस्त लोकों के उपरांत होता है। समस्त ब्रह्माण्ड पुनः अव्यक्त-निर्गुण, साकार-निराकर, सम परमात्मा में विलीन हो जाते हैं।
प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष हैं। उनसे ही त्रिदेव :- ब्रह्मा, विष्णु और महेस की उत्पत्ति होती है।
क्षुद्र विराट पुरुष के बायें भाग से चतुर्भुज भगवान विष्णु श्वेत द्वीप में प्रकट हुए। उनके नाभि कमल से ब्रह्मा जी प्रकट हुए। ब्रह्मा जी के मस्तक से भगवान् शिव प्रकट हुए। भगवान् शिव-महेश का निवास कैलाश पर्वत पर है। त्रिदेव परमपिता पर ब्रह्म परमेश्वर के अभिन्न अंग हैं जो पृथ्वी लोक को धारण किये हुए ब्रह्मांड में उपस्थित हैं।
ब्रह्म लोक में देवो सावित्री और देवी गायत्री उनकी पत्नियों के रूप में विराजमान हैं।
श्वेतद्वीप निवासी भगवान् विष्णु की पत्नी के रूप में देवी लक्ष्मी विराजमान हैं।
माँ पार्वती, माँ सती की अवतार कैलाश धाम में भगवान शिव की पत्नी के रूप में विराजमान हैं।
भगवान् ब्रह्मा जी ने भगवान् शिव से सृष्टि रचना का आग्रह किया तो उन्होंने 10 रुद्रों की उत्त्पत्ति की। उन्हें दसों दिशाओं का दिक्पाल नियुक्त किया गया।भगवान् शिव ने सृष्टि रचना में अपनी असमर्थता जाहिर की। ब्रह्मा जी के मस्तक से देवऋषि नारद प्रकट हुए
सृष्टि के पूर्व में संपूर्ण विश्व जलप्लावित था। भगवान् स्वयंभू ने सृष्टि की उत्पत्ति के लिए सबसे पहले नार जल की उत्पत्ति की। फिर उसमें बीज डाला गया। उससे परम पुरुष की नाभि में एक स्वर्ण अण्ड प्रकट हुआ। इससे भगवान् विष्णु प्रकट हुए। इस अंडे को भगवान् नारायण-नार से उत्पन्न, ने स्वर्ग और पृथ्वी में विभक्त कर दिया गया। इसके बीच आकाश बना और भगवान के द्वारा ही दशों दिशाओं को धारण किया गया। भगवान् श्री नारायण शेषशैय्या पर निद्रालीन थे। उनके शरीर में संपूर्ण प्राणी सूक्ष्म रूप से विद्यमान थे। केवल कालशक्ति ही जागृत थी, क्योंकि उसका कार्य जगाना था। कालशक्ति ने जब जीवों के कर्मों के लिए उन्हें प्रेरित किया तब उनका ध्यान लिंग शरीर आदि सूक्ष्म तत्व पर गया-वही कमल के रूप में उनकी नाभि से निकला। भगवान् विष्णु के नाभि कमल से भगवान् ब्रह्मा जी प्रकट हुए। अत: स्वयंभू कहलाये। भगवान् ब्रह्मा जी विचारमग्न हो गये कि वे कौन हैं, कहाँ से आये, कहाँ हैं, अत: कमल की नाल से होकर विष्णु की नाभि के निकट तक चक्कर लगाकर भी वे भगवान् विष्णु को नहीं देख पाये। योगाभ्यास से ज्ञान प्राप्त होने पर उन्होंने शेषशायी विष्णु के दर्शन किये।
भगवान् ब्रह्मा जी ने स्वयं को भगवान् विष्णु का पिता कहा। इससे विवाद उत्पन्न हो गया। उसी समय महादेव की ज्योतिर्मयी मूर्ति-ज्योतिर्लिंग उन दोनों के मध्य प्रकट हुआ, साथ ही आकाशवाणी हुई कि जो उस मूर्ति का अंत देखेगा, वही श्रेष्ठ-पिता-जनक माना जायेगा।
भगवान् विष्णु नीचे की चरम सीमा तथा भगवान् ब्रह्मा ऊपर की अंतिम सीमा देखने के लिए बढ़े। भगवान् विष्णु तो शीघ्र लौट आये।भगवान् ब्रह्मा बहुत दूर तक भगवान् शिव की मूर्ति का अंत देखने गये। उन्होंने लौटते समय सोचा कि अपने मुंह से झूठ नहीं बोलना चाहिए।अत: गधे का एक मुँह (जो कि ब्रह्मा का पांचवां मुंह कहलाता है) बनाकर उससे बोले, "हे विष्णु! मैं तो शिव की सीमा देख आया"। तत्काल शिव और विष्णु के ज्योतिर्मय स्वरूप एक रूप हो गये।
ब्रह्मा की झूठी वाणी, वाणी नामक नदी के रूप में प्रकट हुई। उन दोनों को आराधना से प्रसन्न करके वह नदी सरस्वती नदी के नाम से गंगा से जा मिली और तब वह शापमुक्त हुई।
प्राचीन काल में महा प्रलय के बाद सभी जगह जल ही जल था। सभी चर-अचर नष्ट हो गया। तब उसी जल में प्रजाओं के बीज स्वरूप एक अण्ड उत्पन्न हुआ। कुरुक्षेत्र में स्थाणु तीर्थ-स्थाणुवट-संनिहित नाम का सरोवर ही वो स्थान है, जहाँ वो स्वर्ण अण्ड उत्पन्न हुआ और भगवान श्री नारायण प्रकट हुए। उन्हीं से ब्रह्मा जी और ब्रह्मा जी से महेश उत्पन्न हुए। महेश को ही आदि देव कहा जाता है।
परमात्मा ब्रह्म की उत्पत्ति :- आप्-जल को ही नार एवं परमात्मा को तनु कहते हैं। परमात्मा ने जल में शयन करने के बाद जगत को अपने में लीन जान उन नारायण ने अण्ड को तोड़ दिया, जिससे ॐ ओम शब्द की उत्पत्ति हुई। इसके बाद पहले भूः दूसरी बार में र्भूव और फिर तीसरे स्थान पर स्वः ध्वनि की उत्पत्ति हुई।इन तीनों का नाम मिलकर भूर्भूव:स्वः हुआ।
उस सविता देवता-सूर्य का जो तेज (आदित्य-आदि में उत्पन्न हुआ, which took birth initially) अण्ड के तोड़ने से उत्पन्न हुआ उसने जल को सुखा दिया। तेज से जल को सोखे जाने पर शेष जल कलल आकृति में बदल गया।कलल से बुदबुद हुआ और उसके बाद यह कठोर हो गया और भूतों को धारण करनेवाली धरणी-धरती-पृथ्वी बन गया। जिस स्थान पर यह अण्ड स्थित था, वहीं संनिहित-सांनिहत्य नाम का सरोवर है।
सरस्वती नदी के उत्तर की ओर पृथुदक नामक तीर्थ के पास ब्रह्म योनि तीर्थ है, जहाँ पृथुदक में स्थित होकर अव्यक्त जन्मा ब्रह्मा जी, चारों वर्णों की सृष्टि के लिये आत्म ज्ञान में लीन हुए थे। सृष्टि के विषय में चिंतन करने पर उनके मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, दोनों उरुओं से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। [श्री वामन पुराण]
भगवान् विष्णु की प्रेरणा से ब्रह्मा जी ने तप करके, भगवत ज्ञान अनुष्ठान करके, सब लोकों को अपने अंत:करण में स्पष्ट रूप से देखा। तदनंतर भगवान् विष्णु अंतर्धान हो गये और ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की।
सरस्वती उनके मुँह से उत्पन्न पुत्री थी, उसके प्रति काम-विमोहित हो, वे समागम के इच्छुक थे। प्रजापतियों की रोक-टोक से लज्जित होकर उन्होंने उस शरीर का त्याग कर दूसरा शरीर धारण किया। त्यक्त शरीर अंधकार अथवा कुहरे के रूप में दिशाओं में व्याप्त हो गया।
उन्होंने अपने चार मुंह से चार वेदों को प्रकट किया। ब्रह्मा को ‘क’ कहते हैं- उन्हीं से विभक्त होने के कारण शरीर को काम कहते हैं।
उन दोनों विभागों से स्त्री-पुरुष एक-एक जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष मनु तथा स्त्री शतरूपा कहलायी। उन दोनों की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि प्रजापतियों की सृष्टि का सुचारू विस्तार नहीं हो रहा था।
पुराणों अनुसार भगवान विष्णु के नाभिकमल से आविर्भूत चतुर्मुख प्रजापति ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। फिर ब्रह्मा के 17 पुत्र और एक पुत्री शतरुपा का जन्म हुआ। ब्रह्मा के उक्त 17 पुत्रों के अलावा भी उनके भिन्न-भिन्न परिस्थितिवश पुत्रों का जन्म हुआ।
ब्रह्मा जी के पुत्र :- विष्वकर्मा, अधर्म, अलक्ष्मी, आठवसु, चार कुमार, 14 मनु, 11 रुद्र, पुलस्य, पुलह, अत्रि, क्रतु, अरणि, अंगिरा, रुचि, भृगु, दक्ष, कर्दम, पंचशिखा, वोढु, नारद, मरिचि, अपान्तरतमा, वशिष्ट, प्रचेता, हंस, यति आदि मिलाकर कुल 59 पुत्र थे ब्रह्मा के।
ब्रह्मा जी के प्रमुख पुत्र :- (1). मन से मारिचि, (2). नेत्र से अत्रि, (3). मुख से अंगिरस, (4). कान से पुलस्त्य, (5). नाभि से पुलह, (6). हाथ से कृतु, (7). त्वचा से भृगु, (8). प्राण से वशिष्ठ, (9). अंगुष्ठ से दक्ष, (10). छाया से कंदर्भ, (11). गोद से नारद, (12). इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार, (13). शरीर से स्वायंभुव मनु और शतरुपा, (14). ध्यान से चित्रगुप्त।
दशों दिशाओं के बाद काल, मन, वाणी और काम, क्रोध तथा रति की रचना हुई। फिर प्रजापतियों की रचना हुई। इसमें-मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य पुलह कृतु और वसिष्ठ के नाम हैं। ये ऋषि मानस सृष्टि के रूप में उत्पन्न किये गए।
मानसपुत्रों की सृष्टि के बाद भगवान शिव और फिर उसके बाद सनत्कुमार उत्पन्न हुए। इस सात ऋषियों से ही शेष प्रजा का विकास हुआ। इनमें रुद्रगण भी सम्मिलित हैं। फिर बिजली, वज्र, मेघ, धनुष खड्ग पर्जन्य आदि का निर्माण हुआ। यज्ञों के सम्पादन के लिए वेदों की ऋचाओं की सृष्टि हुई। साध्य देवों की उत्पत्ति के बाद भूतों का जन्म हुआ।
किन्तु ऋषिभाव के कारण सृष्टि का विकास नहीं हुआ, इसलिए ब्रह्मा ने मैथुनी सृष्टि करने का विचार किया और स्वयं के दो भाग किये। दक्षिणी वाम भाग से पुरुष और स्त्री की सृष्टि हुई। इनके प्रारम्भिक नाम मनु और शतरूपा रखे थे। इस मनु ने ही मैथुनी सृष्टि का विकास किया। इसी मनु के नाम पर मन्वन्तरों का रूप स्वीकार किया गया।
मनु और शतरूपा से वीर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वीर की पत्नी कुर्दम-पुत्री काम्या से प्रियव्रत और उत्तानपाद उत्पन्न हुए। इनके साथ सम्राट कुक्षि, प्रभु और विराट-पुट पैदा हुए। पूर्व प्रजापति अत्रि ने उत्तानपाद को गोद ले लिया। इसकी पत्नी सुनृता थी। उससे चार पुत्र हुए, इनमें एक ध्रुवनामधारी हुआ।
ध्रुव ने पांच वर्ष की अवस्था में ही तप करके अनेक देवताओं को प्रसन्न किया और पत्नी से श्लिष्ट तथा भव्य नाम के दो पुत्र पैदा हुए। श्लिष्ट ने सुच्छाया से रिपु, रिपुंजय, वीर, वृकल, वृकतेजा पुत्र उत्पन्न किए।
इसके बाद वंश विकास के लिए रिपु ने चक्षुष को जन्म दिया, चक्षुष से चाक्षुष मनु हुए और मनु ने वैराज और वैराज की कन्या से-कुत्सु, पुरु, शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवाक्, कवि, अग्निष्टुत, अतिराम, सुद्युम्न, अभिमन्यु-ये दश पुत्र हुए।
फिर इसकी परम्परा में अंग और सुनीथा से वेन नाम पुत्र की उत्पत्ति हुई। बेन के दुष्ट व्यवहार के कारण ऋषियों ने उसे मार डाला। किन्तु उसकी मृत्यु से शासन की समस्या उठ खड़ी हुई।
राज्य को सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए प्रजा को आतताइयों के निरंकुश हो जाने की आशंका को देखते हुए मुनियों ने वेन के दाहिने हाथ का मंथन किया। इससे धनुष और कवच-कुंडल सहित पृथु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
इस तेजस्वी यशस्वी और प्रजा के कष्टों को हरने वाले पृथु ने अपने राज्यकाल में सर्वत्र अपनी कीर्ति फैला दी। राजसूय यज्ञ करके चक्रवर्ती सम्राट का पद पाया। परम ज्ञानी और निपुण सूत और मागध इस पृथु की ही संतान हुए। राजा पृथु ने पृथ्वी को अपने परिश्रम से अन्नदायिनी और उर्वरा बनाया। इसके इस परिश्रम और प्रजाहित भाव के कारण ही उसे लोग साक्षात् विष्णु मानने लगे।
राजा पृथु के दो पुत्र उत्पन्न हुए, अन्तर्धी और पाती। ये बड़े धर्मात्मा थे। इसमें अन्तर्धी का विवाह सिखण्डिनी के साथ हुआ जिससे हविर्धान और इनसे धिष्णा के साथ छः पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें प्राचीन बर्हि प्रजापति हुए जिन्होंने समुद्र-तनया से विवाह करके दस प्राचेतस उत्पन्न किए। इनकी तपस्या से वृक्ष आरक्षित हो गए।
तप, तेज न सह पाने के कारण प्रजा निश्तेज हो गई। समाधि टूटने पर जब मुनियों ने स्वयं को चारों दिशाओं में असीमित बेलों ओर झाड़ियों से घिरा पाया तो रुष्ट होकर समूची वनस्पतियों को अपनी क्रोधाग्नि से दग्ध करना शुरू कर दिया। इस विनाश को देखकर सोम ने अपनी मारिषा नाम की पुत्री को प्रचेताओं के समक्ष भार्या रूप में प्रस्तुत करने का प्रस्ताव किया। फलस्वरूप मुनियों का क्रोध शान्त हो गया।
इस लोक और परलोक में दो पैरोँ पर चलने वाली 12 प्रजातियाँ, जो कि कश्यप ऋषि की पत्नियों के गर्भ से उत्पन्न हुईं :-
(1). देवता, (2). दैत्य, (3). सिद्ध, (4). गन्धर्व, (5). विद्याधर, (6). किम्पुरुष, (7). पितृ, (8). ऋषि, (9). मानव, (10). गुह्य, (11). राक्षस, और (12). पिशाच।[श्री वामन पुराण]
इस लोक और परलोक में धर्म ही कल्याणकारी है। इनके गुणधर्म निम्न प्रकार हैं :-
(1). देवता :- शाश्वत परम धर्म सदा यज्ञादि कार्य, स्वाध्याय, वेदज्ञान और विष्णु पूजा में रति।
(2). दैत्य :- बाहुबल, ईर्ष्या भाव, युद्धकार्य, नीतिशास्त्र का ज्ञान और हर भक्ति।
(3). सिद्ध :- श्रेष्ठ योग साधन, वेदाध्यन, ब्रह्म विज्ञान, तथा विष्णु और शिव में अचल भक्ति।
(4). गन्धर्व :- ऊँची उपासना, नृत्य और वाद्य का ज्ञान, तथा सरस्वती के प्रति निश्चल भक्ति।
(5). विद्याधर :- अद्भुत विद्या का धरना करना, विज्ञानं, पुरुषार्थ की बुद्धि और भवानी के प्रति भक्ति।
(6). किम्पुरुष :- गन्धर्व विद्या का ज्ञान, सूर्य के प्रति अटल भक्ति और समस्त शिल्प कलाओं में कुशलता।
(7). पितृ :- ब्रह्मचर्य अमानित्व (अभिमान से बचना), योगाभ्यास में दृढ़प्रीति एवं सर्वत्र इच्छानुसार भ्रमण।
(8). ऋषि :- ब्रह्मचर्य, नियताहार, जप, आत्मज्ञान, और नियमानुसार धर्मज्ञान।
(9). मानव :- स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, दान, यज्ञ, उदारता, विश्रान्ति, दया, अहिंसा, क्षमा, दम, जितेँद्रियता, शौच, मांगल्य, तथा विष्णु, शिव, सूर्य, और दुर्गा देवी में भक्ति (सामान्य गुण धर्म)।
(10). गुह्य :- धन का स्वामित्व, भोग, स्वाध्याय, शिव पूजा, अहंकार और सौम्यता।
(11). राक्षस :- पर स्त्रीगमन, दूसरे के धन में लोलुपता, वेदाध्यन और शिव भक्ति।
(12). पिशाच :- अविवेक, असत्यता एवं सदा मांस भक्षण की प्रवृति।[श्री वामन पुराण]
दक्ष प्रजापति की पुत्रियों और उनके पतियों के नाम :- दक्ष प्रजापति परमपिता ब्रम्हा के पुत्र थे जो उनके दाहिने पैर के अंगूठे से उत्पन्न हुए थे। प्रजापति दक्ष की दो पत्नियाँ थी:प्रसूति और वीरणी । प्रसूति से दक्ष की चौबीस कन्याएँ थीं और वीरणी से साठ कन्याएँ। प्रसूति से दक्ष की चौबीस पुत्रियाँ और उनके पति :- 1.श्रद्धा (धर्म), 2.लक्ष्मी (धर्म), 3.धृति (धर्म), 4.तुष्टि (धर्म), 5.पुष्टि (धर्म), 6.मेधा (धर्म), 7.क्रिया (धर्म), 8.बुद्धि (धर्म), 9.लज्जा (धर्म), 10.वपु (धर्म), 11.शांति (धर्म), 12.सिद्धि (धर्म), 13.कीर्ति (धर्म), 14.ख्याति (महर्षि भृगु), 15.सती (रूद्र), 16.सम्भूति (महर्षि मरीचि), 17.स्मृति (महर्षि अंगीरस), 18.प्रीति (महर्षि पुलत्स्य), 19.क्षमा (महर्षि पुलह), 20.सन्नति (कृतु), 21.अनुसूया (महर्षि अत्रि), 22.उर्जा (महर्षि वशिष्ठ), 23.स्वाहा (अग्नि), 24.स्वधा (पितृस)।
वीरणी से दक्ष की साठ पुत्रियाँ और उनके पति :- 1.मरुवती (धर्म), 2 वसु (धर्म), 3.जामी (धर्म), 4.लंबा (धर्म), 5.भानु (धर्म), 6.अरुंधती (धर्म), 7.संकल्प (धर्म), 8.महूर्त (धर्म), 9.संध्या (धर्म), 10.विश्वा (धर्म), 11.अदिति (महर्षि कश्यप), 12.दिति (महर्षि कश्यप), 13.दनु (महर्षि कश्यप), 14.काष्ठा (महर्षि कश्यप), 15.अरिष्टा (महर्षि कश्यप), 16.सुरसा (महर्षि कश्यप), 17.इला (महर्षि कश्यप), 18.मुनि (महर्षि कश्यप), 19.क्रोधवषा (महर्षि कश्यप), 20.तामरा (महर्षि कश्यप), 21.सुरभि (महर्षि कश्यप), 22.सरमा (महर्षि कश्यप), 23.तिमि (महर्षि कश्यप), 24.कृतिका (चंद्रमा), 25.रोहिणी (चंद्रमा), 26.मृगशिरा (चंद्रमा), 27.आद्रा (चंद्रमा), 28.पुनर्वसु (चंद्रमा), 29.सुन्रिता (चंद्रमा), 30.पुष्य (चंद्रमा), 31.अश्लेषा (चंद्रमा), 32.मेघा (चंद्रमा), 33.स्वाति (चंद्रमा), 34.चित्रा (चंद्रमा), 35.फाल्गुनी (चंद्रमा), 36.हस्ता (चंद्रमा), 37.राधा (चंद्रमा), 38.विशाखा (चंद्रमा), 39.अनुराधा (चंद्रमा), 40.ज्येष्ठा (चंद्रमा), 41.मुला (चंद्रमा), 42.अषाढ़ (चंद्रमा), 43.अभिजीत (चंद्रमा), 44.श्रावण (चंद्रमा), 45.सर्विष्ठ (चंद्रमा), 46.सताभिषक (चंद्रमा), 47.प्रोष्ठपदस (चंद्रमा), 48.रेवती (चंद्रमा), 49.अश्वयुज (चंद्रमा), 50.भरणी (चंद्रमा), 51.रति (कामदेव), 52.स्वरूपा (भूत), 53.भूता (भूत), 54.स्वधा (अंगिरा प्रजापति), 55.अर्चि (कृशाश्वा), 56.दिशाना (कृशाश्वा), 57.विनीता (तार्क्ष्य कश्यप), 58.कद्रू (तार्क्ष्य कश्यप), 59.पतंगी (तार्क्ष्य कश्यप) और 60.यामिनी (तार्क्ष्य कश्यप)।
कश्यप ऋषि से सम्पूर्ण जीवों-मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति :- महर्षि कश्यप ब्रह्मा जी के मानस पुत्र मरीचि के पुत्र थे। इस प्रकार वे ब्रह्मा के पोते हुए। महर्षि कश्यप ने ब्रम्हा के पुत्र प्रजापति दक्ष की 17 कन्याओं से विवाह किया। संसार की सारी मैथुनी सृष्टि महर्षि कश्यप की इन्ही 17 पत्नियों की संतानें मानी जाति हैं। इसी कारण महर्षि कश्यप की पत्नियों को लोकमाता भी कहा जाता है। उनकी पत्नियों और उनसे उत्पन्न संतानों का वर्णन इस प्रकार है:
अदिति: आदित्य (देवता). ये 12 कहलाते हैं। ये हैं अंश, अयारमा, भग, मित्र, वरुण, पूषा, त्वस्त्र, विष्णु, विवस्वत, सावित्री, इन्द्र और धात्रि या त्रिविक्रम (भगवन वामन)।
दिति: दैत्य और मरुत. दिति के पहले दो पुत्र हुए: हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप। इनसे सिंहिका नमक एक पुत्री भी हुई। इन दोनों का संहार भगवन विष्णु ने क्रमशः वराह और नरसिंह अवतार लेकर कर दिया। इनकी मृत्यु के पश्चात् दिति ने फिर से आग्रह कर महर्षि कश्यप द्वारा गर्भ धारण किया। इन्द्र ने इनके गर्भ के सात टुकड़े कर दिए जिससे सात मरुतों का जन्म हुआ। इनमे से 4 इन्द्र के साथ, एक ब्रम्ह्लोक, एक इन्द्रलोक और एक वायु के रूप में विचरते हैं।
दनु: दानव जाति. ये कुल 61 थे पर प्रमुख चालीस माने जाते हैं। वे हैं विप्रचित्त, शंबर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केशी, दुर्जय, अयःशिरी, अश्वशिरा, अश्वशंकु, गगनमूर्धा, स्वर्भानु, अश्व, अश्वपति, घूपवर्वा, अजक, अश्वीग्रीव, सूक्ष्म, तुहुंड़, एकपद, एकचक्र, विरूपाक्ष, महोदर, निचंद्र, निकुंभ, कुजट, कपट, शरभ, शलभ, सूर्य, चंद्र, एकाक्ष, अमृतप, प्रलब, नरक, वातापी, शठ, गविष्ठ, वनायु और दीघजिह्व। इनमें जो चंद्र और सूर्य नाम आए हैं, वे देवता चंद्र और सूर्य से भिन्न हैं।
काष्ठा: अश्व और अन्य खुर वाले पशु।
अनिष्ठा: गन्धर्व या यक्ष जाति। ये उपदेवता माने जाते हैं, जिनका स्थान राक्षसों से ऊपर होता है। ये संगीत के अधिष्ठाता भी माने जाते हैं। गन्धर्व काफी मुक्त स्वाभाव के माने जाते हैं और इस जाति में विवाह से पहले संतान उत्पत्ति आम मानी जाती थी। गन्धर्व विवाह बहुत ही प्रसिद्ध विवाह पद्धति थी जो राक्षसों और यक्षों में बहुत आम थी जिसके लिए कोई कर्मकांड की आवश्यकता नहीं होती थी। प्रसिद्ध गन्धर्वों या यक्षों में कुबेर और चित्रसेन के नाम बहुत प्रसिद्ध है।
सुरसा: राक्षस जाति। ये जाति विधान और मैत्री में विश्वास नहीं रखती और चीजों को हड़प करने वाली मानी जाति है। दैत्य, दानव और राक्षस जातियां एक सी लगती जरुर हैं लेकिन उनमे अंतर था। दैत्य जाति अत्यंत बर्बर और निरंकुश थी। दानव लोग लूटपाट और हत्याएं कर अपना जीवन बिताते थे तथा मानव मांस खाना इनका शौक होता था। राक्षस इन दोनों जातियों की अपेक्षा अधिक संस्कारी और शिक्षित होते थे. रावण जैसा विद्वान् इसका उदाहरण है। राक्षस जाति का मानना था कि वे रक्षा करते हैं। एक तरह से राक्षस जाति इन सब में क्षत्रियों की भांति थी और इनका रहन सहन, जीवन और ऐश्वर्य दैत्यों और दानवों की अपेक्षा अधिक अच्छा होता था।
इला: वृक्ष और समस्त वनस्पति।
मुनि: समस्त अप्सरागण. ये स्वर्गलोक की नर्तकियां कहलाती थीं, जिनका काम देवताओं का मनोरंजन करना और उन्हें प्रसन्न रखना था. उर्वशी, मेनका, रम्भा एवं तिलोत्तमा इत्यादि कुछ मुख्य अप्सराएँ हैं।
क्रोधवषा: सर्प जाति, बिच्छू और अन्य विषैले जीव और सरीसृप।
सुरभि: सम्पूर्ण गोवंश (गाय, भैंस, बैल इत्यादि)। इसके आलावा इनसे 11रुद्रों का जन्म हुआ जो भगवान शंकर के अंशावतार माने जाते हैं। भगवान शंकर ने महर्षि कश्यप की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपने अंशावतार के पिता होने का वरदान दिया था। वे हैं: कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुधन्य, शम्भू, चंड एवं भव।
उस अविनाशी परब्रह्म (काल) ने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की। उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से आकार की कल्पना की, जो मूर्ति रहित परम ब्रह्म है।
जितने ब्रह्मांड हैं उतने ही भगवान् ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। पृथ्वी लोक जिस ब्रह्माण्ड में स्थित है उसमें भगवान् शिव की आयु 8 परार्ध, भगवान् विष्णु की आयु 4 परार्ध और ब्रह्मा जी की आयु 2 परार्ध है। ब्रह्मा जी की आयु पूर्ण होने के बाद महाप्रलय हो जाता है और समस्त जीवधारी भगवान् श्री नारायण-विष्णु में समाहित हो जाते हैं। यह क्रम माला के मनकों की तरह है 108 तक घूमकर फिर पहले पर पहुंच जाना यही सृष्टि का क्रम है। पुराणों में मन्वन्तरों के अनुरूप सृष्टि के प्रकट होने का क्रम दिया गया है। यद्यपि घटनाक्रम कमोबेश वही रहता है परन्तु पात्रों के नामों और गुणों में अन्तर स्वाभाविक है।
भगवान् विष्णु, अविकारी, शुद्ध परमात्म, शाश्वत, सर्वव्यापक, अजन्मा, हिरण्यगर्भ हरि, शंकर और वासुदेव-अनेक नामों से जाता है। इसी ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की रचना की है। सृष्टि रचना के रूप में वह तेजस्वी ब्रह्म है जिसके द्वारा पहले महत् तत्त्व उत्पन्न हुआ। उससे अहंकार, फिर अहंकार से पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई। पंचमहाभूतों से अनेक भेदाभेद पैदा हुए।
अजन्मा, व्यक्त और अव्यक्त-अप्रकट, साकार-निराकर, सगुण-निर्गुण परमात्मा से गौलोक वासी व्यक्त-मूर्त रूप से प्रकट हुए-भगवान् श्री कृष्ण का उद्भव हुआ। वह परमात्मा ही समस्त आत्माओं का आश्रय है अर्थात समस्त चराचर, आत्माएँ उसी से प्रकट होती हैं और उसी में महाप्रलय के होने पर समा जाती हैं। भगवान् श्री कृष्ण से ही देवी भगवती प्रकट हुईं। देवी माँ भगवती की जिव्हा से से देवी सरस्वती प्रकट हुईं। माँ सरस्वती के दायें भाग से माँ राधा प्रकट हुईं और दायें भाग से देवी माँ लक्ष्मी प्रकट हुईं। उनका शरीर श्री कृष्ण और शक्ति राधा जी हैं। भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा जी के समागम से उनकी दीर्घ स्वांस-साँस चलने लगी। यह समागम की प्रक्रिया 10 मन्वन्तरों तक चलती रही। जिससे पवन की उत्पत्ति हुई। भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी से विराट पुरुष उत्त्पन्न हुए। यही महा विष्णु हैं। उनके शरीर पर जितने भी रौंम हैं उनसे उतने ही ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुए।भगवान् सदाशिव उन्हीं से प्रकट हुए। पवन देव का विभाजन दो रूपों में हो गया :- पहला वे स्वयं व दूसरी उनकी पत्नी। इन दोंनो के 5 पुत्र हुए। समागम कल में जो द्रव पसीने के रूप में उत्पन्न हुआ, वो जल में बदल गया और उसके देवता वरुण देव हैं। वरुण देव का विभाजन भी दो भागों में हो गया वे स्वयं और उनकी पत्नी।
भगवान् श्री कृष्ण और माँ देवी भगवती से उत्त्पन्न पुत्र विराट पुरुष कहलाते हैं। समस्त ब्रह्मांडों की उत्पत्ति उन्हीं से हुई है।
भगवान् श्री कृष्ण ने अपने शरीर पुनः द्विभाजित किया और उनके बायें भाग से भगवान् श्री हरी विष्णु प्रकट हुए।
भगवान् श्री कृष्ण ने महाविष्णु को वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और माँ देवी भगवती लक्ष्मी को उन्हें सौंप दिया। माँ भगवती सरस्वती देवी भी उन्हीं को प्राप्त हुईं।
भगवान श्री कृष्ण और राधा जी ने गौलोक में निवास किया। राधा जी को प्रकृति, माया, महाशक्ति आदि नामों से भी जाना जाता है।
देवी दुर्गा का उदय भगवान् श्री कृष्ण से हुआ। उनके साथ चतुर्मुखी ब्रह्मा जी, ब्रह्माणी और भगवान् सदाशिव प्रकट हुए। ब्रह्मा जी और ब्रह्माणि भगवान् को श्री कृष्ण ने ब्रह्म लोक प्रदान किया।
माँ भगवती दुर्गा भगवान् सदाशिव शिव लोक में प्रतिष्ठित हुईं।
वह परम ब्रह्म भगवान् सदाशिव भी है। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर विहार करने वाले उस सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्री अंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। सदाशिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है।
वह शक्ति अम्बिका (पार्वती या सती नहीं) कही गई है। उसको प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिभुवन जननी, नित्या और मूल कारण भी कहते हैं। सदाशिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति की 8 भुजाएं हैं। पराशक्ति जगत जननी वह देवी नाना प्रकार की गतियों से संपन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र शक्ति धारण करती है।
तत्पश्चात देवी माँ भगवती सरस्वती ने स्वयं को द्विभाजित किया और एक भाग से ब्रह्मा जी के साथ ब्रह्म लोक में प्रतिष्ठित हुईं।
भगवान् शिव के संगीत का आनंद लेते हुए भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी अचानक गौलोक में लय हो गए और देवी भगवती गँगा के रूप में प्रकट हुए। तत्पश्चात भगवान् शिव के आग्रह पर पुनः भूलोक में पधारे।
देवी भगवती गंगा को भगवान श्री कृष्ण ने वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और वे भगवान श्री हरी विष्णु के पास चली गईं।
भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा जी से उत्पन्न विराट पुरुष से उतने ही ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुए जितने उनके शरीर पर रोंये-रोम थे।
गौ लोक समस्त ब्रह्मांडों का केंद्र है। गौ लोक और वैकुण्ठ लोक का लय समस्त लोकों के उपरांत होता है। समस्त ब्रह्माण्ड पुनः अव्यक्त-निर्गुण, साकार-निराकर, सम परमात्मा में विलीन हो जाते हैं।
प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष हैं। उनसे ही त्रिदेव :- ब्रह्मा, विष्णु और महेस की उत्पत्ति होती है।
क्षुद्र विराट पुरुष के बायें भाग से चतुर्भुज भगवान विष्णु श्वेत द्वीप में प्रकट हुए। उनके नाभि कमल से ब्रह्मा जी प्रकट हुए। ब्रह्मा जी के मस्तक से भगवान् शिव प्रकट हुए। भगवान् शिव-महेश का निवास कैलाश पर्वत पर है। त्रिदेव परमपिता पर ब्रह्म परमेश्वर के अभिन्न अंग हैं जो पृथ्वी लोक को धारण किये हुए ब्रह्मांड में उपस्थित हैं।
ब्रह्म लोक में देवो सावित्री और देवी गायत्री उनकी पत्नियों के रूप में विराजमान हैं।
श्वेतद्वीप निवासी भगवान् विष्णु की पत्नी के रूप में देवी लक्ष्मी विराजमान हैं।
माँ पार्वती, माँ सती की अवतार कैलाश धाम में भगवान शिव की पत्नी के रूप में विराजमान हैं।
भगवान् ब्रह्मा जी ने भगवान् शिव से सृष्टि रचना का आग्रह किया तो उन्होंने 10 रुद्रों की उत्त्पत्ति की। उन्हें दसों दिशाओं का दिक्पाल नियुक्त किया गया।भगवान् शिव ने सृष्टि रचना में अपनी असमर्थता जाहिर की। ब्रह्मा जी के मस्तक से देवऋषि नारद प्रकट हुए
सृष्टि के पूर्व में संपूर्ण विश्व जलप्लावित था। भगवान् स्वयंभू ने सृष्टि की उत्पत्ति के लिए सबसे पहले नार जल की उत्पत्ति की। फिर उसमें बीज डाला गया। उससे परम पुरुष की नाभि में एक स्वर्ण अण्ड प्रकट हुआ। इससे भगवान् विष्णु प्रकट हुए। इस अंडे को भगवान् नारायण-नार से उत्पन्न, ने स्वर्ग और पृथ्वी में विभक्त कर दिया गया। इसके बीच आकाश बना और भगवान के द्वारा ही दशों दिशाओं को धारण किया गया। भगवान् श्री नारायण शेषशैय्या पर निद्रालीन थे। उनके शरीर में संपूर्ण प्राणी सूक्ष्म रूप से विद्यमान थे। केवल कालशक्ति ही जागृत थी, क्योंकि उसका कार्य जगाना था। कालशक्ति ने जब जीवों के कर्मों के लिए उन्हें प्रेरित किया तब उनका ध्यान लिंग शरीर आदि सूक्ष्म तत्व पर गया-वही कमल के रूप में उनकी नाभि से निकला। भगवान् विष्णु के नाभि कमल से भगवान् ब्रह्मा जी प्रकट हुए। अत: स्वयंभू कहलाये। भगवान् ब्रह्मा जी विचारमग्न हो गये कि वे कौन हैं, कहाँ से आये, कहाँ हैं, अत: कमल की नाल से होकर विष्णु की नाभि के निकट तक चक्कर लगाकर भी वे भगवान् विष्णु को नहीं देख पाये। योगाभ्यास से ज्ञान प्राप्त होने पर उन्होंने शेषशायी विष्णु के दर्शन किये।
भगवान् ब्रह्मा जी ने स्वयं को भगवान् विष्णु का पिता कहा। इससे विवाद उत्पन्न हो गया। उसी समय महादेव की ज्योतिर्मयी मूर्ति-ज्योतिर्लिंग उन दोनों के मध्य प्रकट हुआ, साथ ही आकाशवाणी हुई कि जो उस मूर्ति का अंत देखेगा, वही श्रेष्ठ-पिता-जनक माना जायेगा।
भगवान् विष्णु नीचे की चरम सीमा तथा भगवान् ब्रह्मा ऊपर की अंतिम सीमा देखने के लिए बढ़े। भगवान् विष्णु तो शीघ्र लौट आये।भगवान् ब्रह्मा बहुत दूर तक भगवान् शिव की मूर्ति का अंत देखने गये। उन्होंने लौटते समय सोचा कि अपने मुंह से झूठ नहीं बोलना चाहिए।अत: गधे का एक मुँह (जो कि ब्रह्मा का पांचवां मुंह कहलाता है) बनाकर उससे बोले, "हे विष्णु! मैं तो शिव की सीमा देख आया"। तत्काल शिव और विष्णु के ज्योतिर्मय स्वरूप एक रूप हो गये।
ब्रह्मा की झूठी वाणी, वाणी नामक नदी के रूप में प्रकट हुई। उन दोनों को आराधना से प्रसन्न करके वह नदी सरस्वती नदी के नाम से गंगा से जा मिली और तब वह शापमुक्त हुई।
प्राचीन काल में महा प्रलय के बाद सभी जगह जल ही जल था। सभी चर-अचर नष्ट हो गया। तब उसी जल में प्रजाओं के बीज स्वरूप एक अण्ड उत्पन्न हुआ। कुरुक्षेत्र में स्थाणु तीर्थ-स्थाणुवट-संनिहित नाम का सरोवर ही वो स्थान है, जहाँ वो स्वर्ण अण्ड उत्पन्न हुआ और भगवान श्री नारायण प्रकट हुए। उन्हीं से ब्रह्मा जी और ब्रह्मा जी से महेश उत्पन्न हुए। महेश को ही आदि देव कहा जाता है।
परमात्मा ब्रह्म की उत्पत्ति :- आप्-जल को ही नार एवं परमात्मा को तनु कहते हैं। परमात्मा ने जल में शयन करने के बाद जगत को अपने में लीन जान उन नारायण ने अण्ड को तोड़ दिया, जिससे ॐ ओम शब्द की उत्पत्ति हुई। इसके बाद पहले भूः दूसरी बार में र्भूव और फिर तीसरे स्थान पर स्वः ध्वनि की उत्पत्ति हुई।इन तीनों का नाम मिलकर भूर्भूव:स्वः हुआ।
उस सविता देवता-सूर्य का जो तेज (आदित्य-आदि में उत्पन्न हुआ, which took birth initially) अण्ड के तोड़ने से उत्पन्न हुआ उसने जल को सुखा दिया। तेज से जल को सोखे जाने पर शेष जल कलल आकृति में बदल गया।कलल से बुदबुद हुआ और उसके बाद यह कठोर हो गया और भूतों को धारण करनेवाली धरणी-धरती-पृथ्वी बन गया। जिस स्थान पर यह अण्ड स्थित था, वहीं संनिहित-सांनिहत्य नाम का सरोवर है।
सरस्वती नदी के उत्तर की ओर पृथुदक नामक तीर्थ के पास ब्रह्म योनि तीर्थ है, जहाँ पृथुदक में स्थित होकर अव्यक्त जन्मा ब्रह्मा जी, चारों वर्णों की सृष्टि के लिये आत्म ज्ञान में लीन हुए थे। सृष्टि के विषय में चिंतन करने पर उनके मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, दोनों उरुओं से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। [श्री वामन पुराण]
भगवान् विष्णु की प्रेरणा से ब्रह्मा जी ने तप करके, भगवत ज्ञान अनुष्ठान करके, सब लोकों को अपने अंत:करण में स्पष्ट रूप से देखा। तदनंतर भगवान् विष्णु अंतर्धान हो गये और ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की।
सरस्वती उनके मुँह से उत्पन्न पुत्री थी, उसके प्रति काम-विमोहित हो, वे समागम के इच्छुक थे। प्रजापतियों की रोक-टोक से लज्जित होकर उन्होंने उस शरीर का त्याग कर दूसरा शरीर धारण किया। त्यक्त शरीर अंधकार अथवा कुहरे के रूप में दिशाओं में व्याप्त हो गया।
उन्होंने अपने चार मुंह से चार वेदों को प्रकट किया। ब्रह्मा को ‘क’ कहते हैं- उन्हीं से विभक्त होने के कारण शरीर को काम कहते हैं।
उन दोनों विभागों से स्त्री-पुरुष एक-एक जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष मनु तथा स्त्री शतरूपा कहलायी। उन दोनों की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि प्रजापतियों की सृष्टि का सुचारू विस्तार नहीं हो रहा था।
पुराणों अनुसार भगवान विष्णु के नाभिकमल से आविर्भूत चतुर्मुख प्रजापति ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। फिर ब्रह्मा के 17 पुत्र और एक पुत्री शतरुपा का जन्म हुआ। ब्रह्मा के उक्त 17 पुत्रों के अलावा भी उनके भिन्न-भिन्न परिस्थितिवश पुत्रों का जन्म हुआ।
ब्रह्मा जी के पुत्र :- विष्वकर्मा, अधर्म, अलक्ष्मी, आठवसु, चार कुमार, 14 मनु, 11 रुद्र, पुलस्य, पुलह, अत्रि, क्रतु, अरणि, अंगिरा, रुचि, भृगु, दक्ष, कर्दम, पंचशिखा, वोढु, नारद, मरिचि, अपान्तरतमा, वशिष्ट, प्रचेता, हंस, यति आदि मिलाकर कुल 59 पुत्र थे ब्रह्मा के।
ब्रह्मा जी के प्रमुख पुत्र :- (1). मन से मारिचि, (2). नेत्र से अत्रि, (3). मुख से अंगिरस, (4). कान से पुलस्त्य, (5). नाभि से पुलह, (6). हाथ से कृतु, (7). त्वचा से भृगु, (8). प्राण से वशिष्ठ, (9). अंगुष्ठ से दक्ष, (10). छाया से कंदर्भ, (11). गोद से नारद, (12). इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार, (13). शरीर से स्वायंभुव मनु और शतरुपा, (14). ध्यान से चित्रगुप्त।
दशों दिशाओं के बाद काल, मन, वाणी और काम, क्रोध तथा रति की रचना हुई। फिर प्रजापतियों की रचना हुई। इसमें-मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य पुलह कृतु और वसिष्ठ के नाम हैं। ये ऋषि मानस सृष्टि के रूप में उत्पन्न किये गए।
मानसपुत्रों की सृष्टि के बाद भगवान शिव और फिर उसके बाद सनत्कुमार उत्पन्न हुए। इस सात ऋषियों से ही शेष प्रजा का विकास हुआ। इनमें रुद्रगण भी सम्मिलित हैं। फिर बिजली, वज्र, मेघ, धनुष खड्ग पर्जन्य आदि का निर्माण हुआ। यज्ञों के सम्पादन के लिए वेदों की ऋचाओं की सृष्टि हुई। साध्य देवों की उत्पत्ति के बाद भूतों का जन्म हुआ।
किन्तु ऋषिभाव के कारण सृष्टि का विकास नहीं हुआ, इसलिए ब्रह्मा ने मैथुनी सृष्टि करने का विचार किया और स्वयं के दो भाग किये। दक्षिणी वाम भाग से पुरुष और स्त्री की सृष्टि हुई। इनके प्रारम्भिक नाम मनु और शतरूपा रखे थे। इस मनु ने ही मैथुनी सृष्टि का विकास किया। इसी मनु के नाम पर मन्वन्तरों का रूप स्वीकार किया गया।
मनु और शतरूपा से वीर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वीर की पत्नी कुर्दम-पुत्री काम्या से प्रियव्रत और उत्तानपाद उत्पन्न हुए। इनके साथ सम्राट कुक्षि, प्रभु और विराट-पुट पैदा हुए। पूर्व प्रजापति अत्रि ने उत्तानपाद को गोद ले लिया। इसकी पत्नी सुनृता थी। उससे चार पुत्र हुए, इनमें एक ध्रुवनामधारी हुआ।
ध्रुव ने पांच वर्ष की अवस्था में ही तप करके अनेक देवताओं को प्रसन्न किया और पत्नी से श्लिष्ट तथा भव्य नाम के दो पुत्र पैदा हुए। श्लिष्ट ने सुच्छाया से रिपु, रिपुंजय, वीर, वृकल, वृकतेजा पुत्र उत्पन्न किए।
इसके बाद वंश विकास के लिए रिपु ने चक्षुष को जन्म दिया, चक्षुष से चाक्षुष मनु हुए और मनु ने वैराज और वैराज की कन्या से-कुत्सु, पुरु, शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवाक्, कवि, अग्निष्टुत, अतिराम, सुद्युम्न, अभिमन्यु-ये दश पुत्र हुए।
फिर इसकी परम्परा में अंग और सुनीथा से वेन नाम पुत्र की उत्पत्ति हुई। बेन के दुष्ट व्यवहार के कारण ऋषियों ने उसे मार डाला। किन्तु उसकी मृत्यु से शासन की समस्या उठ खड़ी हुई।
राज्य को सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए प्रजा को आतताइयों के निरंकुश हो जाने की आशंका को देखते हुए मुनियों ने वेन के दाहिने हाथ का मंथन किया। इससे धनुष और कवच-कुंडल सहित पृथु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
इस तेजस्वी यशस्वी और प्रजा के कष्टों को हरने वाले पृथु ने अपने राज्यकाल में सर्वत्र अपनी कीर्ति फैला दी। राजसूय यज्ञ करके चक्रवर्ती सम्राट का पद पाया। परम ज्ञानी और निपुण सूत और मागध इस पृथु की ही संतान हुए। राजा पृथु ने पृथ्वी को अपने परिश्रम से अन्नदायिनी और उर्वरा बनाया। इसके इस परिश्रम और प्रजाहित भाव के कारण ही उसे लोग साक्षात् विष्णु मानने लगे।
राजा पृथु के दो पुत्र उत्पन्न हुए, अन्तर्धी और पाती। ये बड़े धर्मात्मा थे। इसमें अन्तर्धी का विवाह सिखण्डिनी के साथ हुआ जिससे हविर्धान और इनसे धिष्णा के साथ छः पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें प्राचीन बर्हि प्रजापति हुए जिन्होंने समुद्र-तनया से विवाह करके दस प्राचेतस उत्पन्न किए। इनकी तपस्या से वृक्ष आरक्षित हो गए।
तप, तेज न सह पाने के कारण प्रजा निश्तेज हो गई। समाधि टूटने पर जब मुनियों ने स्वयं को चारों दिशाओं में असीमित बेलों ओर झाड़ियों से घिरा पाया तो रुष्ट होकर समूची वनस्पतियों को अपनी क्रोधाग्नि से दग्ध करना शुरू कर दिया। इस विनाश को देखकर सोम ने अपनी मारिषा नाम की पुत्री को प्रचेताओं के समक्ष भार्या रूप में प्रस्तुत करने का प्रस्ताव किया। फलस्वरूप मुनियों का क्रोध शान्त हो गया।
इस लोक और परलोक में दो पैरोँ पर चलने वाली 12 प्रजातियाँ, जो कि कश्यप ऋषि की पत्नियों के गर्भ से उत्पन्न हुईं :-
(1). देवता, (2). दैत्य, (3). सिद्ध, (4). गन्धर्व, (5). विद्याधर, (6). किम्पुरुष, (7). पितृ, (8). ऋषि, (9). मानव, (10). गुह्य, (11). राक्षस, और (12). पिशाच।[श्री वामन पुराण]
इस लोक और परलोक में धर्म ही कल्याणकारी है। इनके गुणधर्म निम्न प्रकार हैं :-
(1). देवता :- शाश्वत परम धर्म सदा यज्ञादि कार्य, स्वाध्याय, वेदज्ञान और विष्णु पूजा में रति।
(2). दैत्य :- बाहुबल, ईर्ष्या भाव, युद्धकार्य, नीतिशास्त्र का ज्ञान और हर भक्ति।
(3). सिद्ध :- श्रेष्ठ योग साधन, वेदाध्यन, ब्रह्म विज्ञान, तथा विष्णु और शिव में अचल भक्ति।
(4). गन्धर्व :- ऊँची उपासना, नृत्य और वाद्य का ज्ञान, तथा सरस्वती के प्रति निश्चल भक्ति।
(5). विद्याधर :- अद्भुत विद्या का धरना करना, विज्ञानं, पुरुषार्थ की बुद्धि और भवानी के प्रति भक्ति।
(6). किम्पुरुष :- गन्धर्व विद्या का ज्ञान, सूर्य के प्रति अटल भक्ति और समस्त शिल्प कलाओं में कुशलता।
(7). पितृ :- ब्रह्मचर्य अमानित्व (अभिमान से बचना), योगाभ्यास में दृढ़प्रीति एवं सर्वत्र इच्छानुसार भ्रमण।
(8). ऋषि :- ब्रह्मचर्य, नियताहार, जप, आत्मज्ञान, और नियमानुसार धर्मज्ञान।
(9). मानव :- स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, दान, यज्ञ, उदारता, विश्रान्ति, दया, अहिंसा, क्षमा, दम, जितेँद्रियता, शौच, मांगल्य, तथा विष्णु, शिव, सूर्य, और दुर्गा देवी में भक्ति (सामान्य गुण धर्म)।
(10). गुह्य :- धन का स्वामित्व, भोग, स्वाध्याय, शिव पूजा, अहंकार और सौम्यता।
(11). राक्षस :- पर स्त्रीगमन, दूसरे के धन में लोलुपता, वेदाध्यन और शिव भक्ति।
(12). पिशाच :- अविवेक, असत्यता एवं सदा मांस भक्षण की प्रवृति।[श्री वामन पुराण]
दक्ष प्रजापति की पुत्रियों और उनके पतियों के नाम :- दक्ष प्रजापति परमपिता ब्रम्हा के पुत्र थे जो उनके दाहिने पैर के अंगूठे से उत्पन्न हुए थे। प्रजापति दक्ष की दो पत्नियाँ थी:प्रसूति और वीरणी । प्रसूति से दक्ष की चौबीस कन्याएँ थीं और वीरणी से साठ कन्याएँ। प्रसूति से दक्ष की चौबीस पुत्रियाँ और उनके पति :- 1.श्रद्धा (धर्म), 2.लक्ष्मी (धर्म), 3.धृति (धर्म), 4.तुष्टि (धर्म), 5.पुष्टि (धर्म), 6.मेधा (धर्म), 7.क्रिया (धर्म), 8.बुद्धि (धर्म), 9.लज्जा (धर्म), 10.वपु (धर्म), 11.शांति (धर्म), 12.सिद्धि (धर्म), 13.कीर्ति (धर्म), 14.ख्याति (महर्षि भृगु), 15.सती (रूद्र), 16.सम्भूति (महर्षि मरीचि), 17.स्मृति (महर्षि अंगीरस), 18.प्रीति (महर्षि पुलत्स्य), 19.क्षमा (महर्षि पुलह), 20.सन्नति (कृतु), 21.अनुसूया (महर्षि अत्रि), 22.उर्जा (महर्षि वशिष्ठ), 23.स्वाहा (अग्नि), 24.स्वधा (पितृस)।
वीरणी से दक्ष की साठ पुत्रियाँ और उनके पति :- 1.मरुवती (धर्म), 2 वसु (धर्म), 3.जामी (धर्म), 4.लंबा (धर्म), 5.भानु (धर्म), 6.अरुंधती (धर्म), 7.संकल्प (धर्म), 8.महूर्त (धर्म), 9.संध्या (धर्म), 10.विश्वा (धर्म), 11.अदिति (महर्षि कश्यप), 12.दिति (महर्षि कश्यप), 13.दनु (महर्षि कश्यप), 14.काष्ठा (महर्षि कश्यप), 15.अरिष्टा (महर्षि कश्यप), 16.सुरसा (महर्षि कश्यप), 17.इला (महर्षि कश्यप), 18.मुनि (महर्षि कश्यप), 19.क्रोधवषा (महर्षि कश्यप), 20.तामरा (महर्षि कश्यप), 21.सुरभि (महर्षि कश्यप), 22.सरमा (महर्षि कश्यप), 23.तिमि (महर्षि कश्यप), 24.कृतिका (चंद्रमा), 25.रोहिणी (चंद्रमा), 26.मृगशिरा (चंद्रमा), 27.आद्रा (चंद्रमा), 28.पुनर्वसु (चंद्रमा), 29.सुन्रिता (चंद्रमा), 30.पुष्य (चंद्रमा), 31.अश्लेषा (चंद्रमा), 32.मेघा (चंद्रमा), 33.स्वाति (चंद्रमा), 34.चित्रा (चंद्रमा), 35.फाल्गुनी (चंद्रमा), 36.हस्ता (चंद्रमा), 37.राधा (चंद्रमा), 38.विशाखा (चंद्रमा), 39.अनुराधा (चंद्रमा), 40.ज्येष्ठा (चंद्रमा), 41.मुला (चंद्रमा), 42.अषाढ़ (चंद्रमा), 43.अभिजीत (चंद्रमा), 44.श्रावण (चंद्रमा), 45.सर्विष्ठ (चंद्रमा), 46.सताभिषक (चंद्रमा), 47.प्रोष्ठपदस (चंद्रमा), 48.रेवती (चंद्रमा), 49.अश्वयुज (चंद्रमा), 50.भरणी (चंद्रमा), 51.रति (कामदेव), 52.स्वरूपा (भूत), 53.भूता (भूत), 54.स्वधा (अंगिरा प्रजापति), 55.अर्चि (कृशाश्वा), 56.दिशाना (कृशाश्वा), 57.विनीता (तार्क्ष्य कश्यप), 58.कद्रू (तार्क्ष्य कश्यप), 59.पतंगी (तार्क्ष्य कश्यप) और 60.यामिनी (तार्क्ष्य कश्यप)।
कश्यप ऋषि से सम्पूर्ण जीवों-मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति :- महर्षि कश्यप ब्रह्मा जी के मानस पुत्र मरीचि के पुत्र थे। इस प्रकार वे ब्रह्मा के पोते हुए। महर्षि कश्यप ने ब्रम्हा के पुत्र प्रजापति दक्ष की 17 कन्याओं से विवाह किया। संसार की सारी मैथुनी सृष्टि महर्षि कश्यप की इन्ही 17 पत्नियों की संतानें मानी जाति हैं। इसी कारण महर्षि कश्यप की पत्नियों को लोकमाता भी कहा जाता है। उनकी पत्नियों और उनसे उत्पन्न संतानों का वर्णन इस प्रकार है:
अदिति: आदित्य (देवता). ये 12 कहलाते हैं। ये हैं अंश, अयारमा, भग, मित्र, वरुण, पूषा, त्वस्त्र, विष्णु, विवस्वत, सावित्री, इन्द्र और धात्रि या त्रिविक्रम (भगवन वामन)।
दिति: दैत्य और मरुत. दिति के पहले दो पुत्र हुए: हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप। इनसे सिंहिका नमक एक पुत्री भी हुई। इन दोनों का संहार भगवन विष्णु ने क्रमशः वराह और नरसिंह अवतार लेकर कर दिया। इनकी मृत्यु के पश्चात् दिति ने फिर से आग्रह कर महर्षि कश्यप द्वारा गर्भ धारण किया। इन्द्र ने इनके गर्भ के सात टुकड़े कर दिए जिससे सात मरुतों का जन्म हुआ। इनमे से 4 इन्द्र के साथ, एक ब्रम्ह्लोक, एक इन्द्रलोक और एक वायु के रूप में विचरते हैं।
दनु: दानव जाति. ये कुल 61 थे पर प्रमुख चालीस माने जाते हैं। वे हैं विप्रचित्त, शंबर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केशी, दुर्जय, अयःशिरी, अश्वशिरा, अश्वशंकु, गगनमूर्धा, स्वर्भानु, अश्व, अश्वपति, घूपवर्वा, अजक, अश्वीग्रीव, सूक्ष्म, तुहुंड़, एकपद, एकचक्र, विरूपाक्ष, महोदर, निचंद्र, निकुंभ, कुजट, कपट, शरभ, शलभ, सूर्य, चंद्र, एकाक्ष, अमृतप, प्रलब, नरक, वातापी, शठ, गविष्ठ, वनायु और दीघजिह्व। इनमें जो चंद्र और सूर्य नाम आए हैं, वे देवता चंद्र और सूर्य से भिन्न हैं।
काष्ठा: अश्व और अन्य खुर वाले पशु।
अनिष्ठा: गन्धर्व या यक्ष जाति। ये उपदेवता माने जाते हैं, जिनका स्थान राक्षसों से ऊपर होता है। ये संगीत के अधिष्ठाता भी माने जाते हैं। गन्धर्व काफी मुक्त स्वाभाव के माने जाते हैं और इस जाति में विवाह से पहले संतान उत्पत्ति आम मानी जाती थी। गन्धर्व विवाह बहुत ही प्रसिद्ध विवाह पद्धति थी जो राक्षसों और यक्षों में बहुत आम थी जिसके लिए कोई कर्मकांड की आवश्यकता नहीं होती थी। प्रसिद्ध गन्धर्वों या यक्षों में कुबेर और चित्रसेन के नाम बहुत प्रसिद्ध है।
सुरसा: राक्षस जाति। ये जाति विधान और मैत्री में विश्वास नहीं रखती और चीजों को हड़प करने वाली मानी जाति है। दैत्य, दानव और राक्षस जातियां एक सी लगती जरुर हैं लेकिन उनमे अंतर था। दैत्य जाति अत्यंत बर्बर और निरंकुश थी। दानव लोग लूटपाट और हत्याएं कर अपना जीवन बिताते थे तथा मानव मांस खाना इनका शौक होता था। राक्षस इन दोनों जातियों की अपेक्षा अधिक संस्कारी और शिक्षित होते थे. रावण जैसा विद्वान् इसका उदाहरण है। राक्षस जाति का मानना था कि वे रक्षा करते हैं। एक तरह से राक्षस जाति इन सब में क्षत्रियों की भांति थी और इनका रहन सहन, जीवन और ऐश्वर्य दैत्यों और दानवों की अपेक्षा अधिक अच्छा होता था।
इला: वृक्ष और समस्त वनस्पति।
मुनि: समस्त अप्सरागण. ये स्वर्गलोक की नर्तकियां कहलाती थीं, जिनका काम देवताओं का मनोरंजन करना और उन्हें प्रसन्न रखना था. उर्वशी, मेनका, रम्भा एवं तिलोत्तमा इत्यादि कुछ मुख्य अप्सराएँ हैं।
क्रोधवषा: सर्प जाति, बिच्छू और अन्य विषैले जीव और सरीसृप।
सुरभि: सम्पूर्ण गोवंश (गाय, भैंस, बैल इत्यादि)। इसके आलावा इनसे 11रुद्रों का जन्म हुआ जो भगवान शंकर के अंशावतार माने जाते हैं। भगवान शंकर ने महर्षि कश्यप की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपने अंशावतार के पिता होने का वरदान दिया था। वे हैं: कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुधन्य, शम्भू, चंड एवं भव।
सरमा: हिंसक और शिकारी पशु, कुत्ते इत्यादि।
ताम्रा: गीध, बाज और अन्य शिकारी पक्षी।
तिमि: मछलियाँ और अन्य समस्त जलचर।
विनता: अरुण और गरुड़. अरुण सूर्य के सारथि बन गए और गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन।
कद्रू: समस्त नाग जाति. कद्रू से 1,000 नागों की जातियों का जन्म हुआ. इनमे आठ मुख्य नागकुल चले. वे थे वासुकी, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंख, चूड, महापद्म और धनञ्जय.सर्प जाति और नाग जाति अलग अलग थी. सर्पों का मतलब जहाँ सरीसृपों की जाति से है वहीँ नाग जाति उपदेवताओं की श्रेणी में आती है जिनका उपरी हिस्सा मनुष्यों की तरह और निचला हिस्सा सर्पों की तरह होता था. ये जाति पाताल में निवास करती है और सर्पों से अधिक शक्तिशाली, लुप्त और रहस्यमयी मानी जाती है।
पतंगी: पक्षियों की समस्त जाति।
यामिनी: कीट पतंगों की समस्त जाति।
इसके अलावा महर्षि कश्यप ने वैश्वानर की दो पुत्रियों पुलोमा और कालका के साथ भी विवाह किया. पुलोमा से पौलोम नमक दानव वंश चला और कालका से 60,000 दैत्यों ने जन्म लिया जो कालिकेय कहलाये. रावण की बहन शूर्पनखा का पति विद्युत्जिह्य भी कालिकेय दैत्य था जो रावण के हाथों मारा गया था।
प्रजापति दक्ष भगवान् ब्रह्मा के दक्षिणा अंगुष्ठ से उत्पन्न हुए। सृष्टा की आज्ञा से वे प्रजा की सृष्टि करने में लगे।
सर्वप्रथम इन्होंने दस सहस्त्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया।
दूसरी बार एक सहस्त्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गये। दक्ष को रोष आया। उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया कि तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे। भगवान् ब्रह्मा ने प्रजापति को शान्त किया। अब मानसिक सृष्टि से वे उपरत हुए।
प्रजापति दक्ष की पत्नियां :- उनका पहला विवाह स्वायंभुव मनु की तृतीय पुत्री प्रसूति से हुआ। उन्होंने प्रजापति वीरण की कन्या असिकी-वीरणी दूसरी पत्नी बनाया। प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां थीं। इनमें 10 धर्म को, 13 महर्षि कश्यप को, 27 चंद्रमा को, एक पितरों को, एक अग्नि को और एक भगवान् शंकर को ब्याही गयीं। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएँ कही जाती हैं। समस्त दैत्य, गंधर्व, अप्सराएं, पक्षी, पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई। दक्ष की ये सभी कन्याएं, देवी, यक्षिणी, पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है।
अदिति से आदित्य (देवता), दिति से दैत्य, दनु से दानव, काष्ठा से अश्व आदि, अरिष्ठा से गंधर्व, सुरसा से राक्षस, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरागण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि, सुरभि से गौ और महिष, सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु) और तिमि से यादोगण (जलजंतु) आदि उत्पन्न हुए।
प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियां :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि, कीर्ति, ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा।
पुत्रियों के पति के नाम :- पर्वत राजा दक्ष ने अपनी 13 पुत्रियों का विवाह धर्म से किया। ये 13 पुत्रियां हैं- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि और कीर्ति। धर्म से वीरणी की 10 कन्याओं का विवाह हुआ। मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या और विश्वा।
इसके बाद ख्याति का विवाह महर्षि भृगु से, सती का विवाह रुद्र (भगवान् शिव) से, सम्भूति का विवाह महर्षि मरीचि से, स्मृति का विवाह महर्षि अंगीरस से, प्रीति का विवाह महर्षि पुलत्स्य से, सन्नति का कृत से, अनुसूया का महर्षि अत्रि से, ऊर्जा का महर्षि वशिष्ठ से, स्वाहा का अग्नि से और स्वधा का पितृस से हुआ।
इसमें सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध रुद्र-भगवान् शिव से विवाह किया। माँ पार्वती और भगवान् शंकर के दो पुत्र और एक पुत्री हैं। पुत्र-गणेश, कार्तिकेय और पुत्री वनलता।
वीरणी से दक्ष की साठ पुत्रियां :- मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या, विश्वा, अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवषा, तामरा, सुरभि, सरमा, तिमि, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी, रति, स्वरूपा, भूता, स्वधा, अर्चि, दिशाना, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी।
चंद्रमा से 27 कन्याओं का विवाह :- कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी। इन्हें नक्षत्र कन्या भी कहा जाता है। हालांकि अभिजीत को मिलाकर कुल 28 नक्षत्र माने गए हैं। उक्त नक्षत्रों के नाम इन कन्याओं के नाम पर ही रखे गए हैं।
9 कन्याओं का विवाह :- रति का कामदेव से, स्वरूपा का भूत से, स्वधा का अंगिरा प्रजापति से, अर्चि और दिशाना का कृशश्वा से, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी का तार्क्ष्य कश्यप से।
इनमें से विनीता से गरूड़ और अरुण, कद्रू से नाग, पतंगी से पतंग और यामिनी से शलभ उत्पन्न हुए।
भगवान् शंकर से विवाद करके दक्ष ने उन्हें यज्ञ में भाग नहीं दिया। पिता के यज्ञ में रुद्र के भाग न देखकर माता सती ने योगाग्नि से शरीर छोड़ दिया। भगवान् शंकर पत्नी के देहत्याग से रुष्ट हुए। उन्होंने वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र ने दक्ष का मस्तक दक्षिणाग्नि में हवन कर दिया। देवताओं की प्रार्थना पर तुष्ट होकर भगवान् शंकर ने सद्योजात प्राणी के सिर से दक्ष को जीवन का वरदान दिया। बकरे का मस्तक तत्काल मिल सका। तब से प्रजापति दक्ष ‘अजमुख’ हो गए।
वीरभद्र के रोम-कूपों से अनेक रौम्य नामक गणेश्वर प्रकट हुए थे। वे विध्वंस कार्य में लगे हुए थे। दक्ष की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने अग्नि के समान ओजस्वी रूप में दर्शन दिये और उसकी मनोकामना जानकर यज्ञ के नष्ट-भ्रष्ट तत्त्वों को पुन: ठीक कर दिया।
दक्ष ने एक हज़ार आठ नामों (-शिव सहस्त्र नाम स्तोत्र) से भगवान् शिव की आराधना की और उनकी शरण ग्रहण की।भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उसे एक हज़ार अश्वमेध यज्ञों, एक सौ वाजपेय यज्ञों तथा पाशुपत् व्रत का फल प्रदान किया।
सोम के साथ नक्षत्र नाम की पत्नियों से वंश क्रम में आपस्तंभ मुनि, धुव से काल, ध्रुव से हुतद्रव्य, अनिल से मनोजव और अनल से कार्तिकेय, प्रत्यूष से क्षमावान तथा प्रभात से विश्वकर्मा का जन्म हुआ। कश्यपजी द्वारा सुरभि से एकादश रुद्र उत्पन्न हुए।
कश्यप मुनि की अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, खसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, कोचवषा इला, कद्रू और मुनि पत्नियां हुईं। इनमें अदिति के द्वारा 12 पुत्र उत्पन्न हुए और दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष दो पुत्र तथा सिंहिका नाम की पुत्री उत्पन्न हुई। इस कन्या ने विप्रचित के वीर्य से रौहिकेय को जन्म दिया।
हिरण्यकशिपु के यहां ह्लाद अनुह्लाद प्रहलाद और संह्लाद चार पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें प्रह्लाद अपनी देव-प्रवृत्तियों के कारण अधिक प्रसिद्ध हुआ। इसके पुत्र विरोचन के बलि आदि क्रम में बाण, धृतराष्ट्र, सूर्य, चन्द्रमा, कुंभ, गर्दभाक्ष और कुक्षि आदि एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए।
बाण बलशाली और शिवभक्त था, उसने प्रथम कल्प में शिवजी को प्रसन्न करके उनके पक्षि भाग में विचरण करने का वरदान मांगा। हिरण्याक्ष के भी अत्यन्त बलशाली और तपस्वी सौ पुत्र हुए। अनुह्लाद के मुक और तुहुण्ड पुत्र हुए। संह्लाद के तीन करोड़ पुत्र हुए। इस तरह दिति के वंश ने विकास किया। महर्षि कश्यप की पत्नी दनु के गर्भ से दानव, केतु आदि उत्पन्न हुए।
इनमें विप्रचित प्रमुख था। ये सभी दानव बहुत बलशाली हुए और उन्होंने अपने वंश का असीमित विस्तार किया। कश्यपजी ने सृष्टि रचना करते हुए ताम्रा से छः, क्रोचवशा से बाज, सारस, गृध्र तथा रुचि आदि पक्षी जलचर और पशु उत्पन्न किए।
विनता से गरुड़ और अरुण, सुरसा से एक हजार सर्प कद्रू से काद्रवेय, सुरभि से गायें, इला से वृक्ष, लता आदि, खसा से यक्षों और राक्षसों तथा मुनि ने अप्सराओं और अरिष्टा ने गन्धर्वों को उत्पन्न किया। यह सृष्टि अपनी अनेक योनियों में फैलती हुई आगे बढ़ती रही।
देवताओं और दानवों में संघर्ष होने लगा और प्रतिस्पर्द्धा इतनी बढ़ी कि दानव नष्ट होने लगे। दिति ने अपने वंश को इस प्रकार नष्ट होते देख कश्यपजी को प्रसन्नकर इन्द्र आदि देवों को दंडित करने वाले की याचना से गर्भ धारण किया।
ईर्ष्यालु इन्द्र दिति के इस मनोरथ को खंडित करने के भाव से किसी न किसी प्रकार दिति के व्रत को तोड़ना चाहता था क्योंकि कश्यपजी ने यह वरदान दिया था कि गर्भवती दिति यत्नपूर्ण पवित्रता से नियम पालन करते हुए आचरण करेगी तो उसका मनोरथ अवश्य पूरा होगा।
अवसर ही खोज में लगे इन्द्र ने एक बार संयम के बिना हाथ धोए ही सोई दिति की कोख में प्रवेश कर लिया। वह उसके गर्भ के सात टुकड़े कर दिये। इससे भी संतोष न मिलने पर दिति के गर्भ को पूर्ण विनष्ट करने के लिए प्रत्येक टुकड़े के सात सात खंड कर दिये।
उन खंडों ने जब इन्द्र से उनके प्रति किसी प्रकार की शत्रुता न रखने का अनुरोध किया तो इन्द्र ने उन्हें छोड़ दिया। वे खंड ही मरुद्गण नाम के देव कहलाए और इन्द्र के सहायक हुए। कश्यप जी ने दाक्षायणी से विवस्वान नाम पुत्र को जन्म दिया।
त्वष्टा की पुत्री संज्ञा से विवस्वान का विवाह हुआ जिसमें श्रद्धादेव और यम नामक दो पुत्रों और यमुना नाम की पुत्री को जन्म दिया। संज्ञा विवस्वान के तेज को न सह सकी और अपनी सखी छाया को प्रतिमूर्ति बनाकर और अपनी संतानें उसे सौंपकर अपने पिता के पास चली गयी।
पिता ने उसके इस प्रकार आगमन को अनुचित कहते हुए उसे वापस लौटा दिया। वापस लौटने पर अश्वी का रूप धारण कर संज्ञा वन में विचरने लगी। विवस्वान ने छाया पत्नी से सावर्णि मनि और शनैश्चर नाम के दो पुत्र उत्पन्न किए।
वह अपने इन नवजात पुत्रों को इतना प्रेम करती थी कि संज्ञा से उत्पन्न यम आदि इसे सौतेला व्यवहार अनुभव करने लगे और प्रतिक्रिया स्वरूप यम ने छाया को लंगड़ी हो जाने का शाप दिया। विवस्वान ने जब यह जाना तो माता के प्रति ऐसा व्यवहार न करने का आदेश दिया।
दूसरी और जब संज्ञा रूपी छाया से इस पक्षपात का कारण पूछा तो उन्हें स्थिति का ज्ञान हो गया। संज्ञा की खोज में जब विवस्वान त्वष्टा मुनि के आश्रम में गया तो वहां उसे संज्ञा का अश्वी के रूप में उसी आश्रम में निवास का पता चला।
अपने तेज को शांत कर यौगिक क्रिया द्वारा रूप प्राप्त करके उसने अश्व का रूप धारण कर संज्ञा से मैथुन की चेष्टा की। संज्ञा पतिव्रता थी, वह पर पुरुष के साथ समागम कैसे कर सकती थी ?
किन्तु जब उसे सत्य का पता चला तो विवस्वान द्वारा स्खलित वीर्य को उसने नासिका में ग्रहण कर लिया। जिसके फलस्वरूप नासत्य और दस्र नाम के दो अश्वनीकुमार जन्मे। छाया के त्याग से प्रसन्न होकर विवस्वान ने सावर्णि को लोकपाल मनु का और शनैश्चर को ग्रह का पद प्रदान किया।
यह सावर्णि ही आगे चलकर सूर्य-वंश का स्वामी बना। सावर्णि के वंश में इक्ष्वाकु, नाभाग आदि नौ पुत्र हुए जिनके, जन्म पर मित्रावरुणों का पूजन किया गया। फलस्वरूप उत्पन्न इला नाम की कन्या से मनु ने अपनी अनुगमन करने को कहा। मित्रावरुण द्वारा प्रसन्न होकर प्राप्त वर के फलस्वरूप मनु से इला द्वारा सुद्युम्न नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
इला से मार्ग में लौटते हुए बुध ने रति की कामना की जिसके वीर्य से पुरुरवा का जन्म हुआ। इसने ही सुद्युम्न का रूप धारण किया। जिसके आगे उत्कल, गय और विनिताश्व पुत्र हुए। इन्होंने उत्कला, गया और पश्चिमा को क्रमशः अपनी राजधानी बनाया।
मनु ने अपने श्रेष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु को पृथ्वी के दस भागों में मध्य भाग सौंप दिया। इस प्रकार मनुपुत्रों का विकास और प्रसार हुआ। ब्रह्मलोक का प्रभाव इतना अद्भुत होता है कि वहां रुग्णता, व्याधि, चिन्ता, जरा, शोक, क्षुधा अथवा प्यास आदि के लिए कोई स्थान नहीं।
यहां ऋतुएं भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं पैदा करतीं। मनु के पुत्र प्रांश के वंश में रैवत बड़े कुशल और बलशाली हुए हैं। इनके बारे में यह कहा जाता है कि इनके स्वर्ग सिधारने पर राक्षसों ने उत्पात करना शुरू कर दिया था और इनके राज्य पर अधिकार कर लिया था। इनके भाई बन्धु इनके आतंक से घबराकर इधर-उधर बिखर गये थे।
इन्हीं से शर्याति क्षत्रियों की वंश परम्परा आगे बढ़ी। इनमें रिष्ट के दो पुत्रों ने पहले वणिक धर्म अपनाया बाद में ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया। पृषध्न ने अनजाने में गौहत्या के अपराध से शूद्रत्व प्राप्त किया।
ताम्रा: गीध, बाज और अन्य शिकारी पक्षी।
तिमि: मछलियाँ और अन्य समस्त जलचर।
विनता: अरुण और गरुड़. अरुण सूर्य के सारथि बन गए और गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन।
कद्रू: समस्त नाग जाति. कद्रू से 1,000 नागों की जातियों का जन्म हुआ. इनमे आठ मुख्य नागकुल चले. वे थे वासुकी, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंख, चूड, महापद्म और धनञ्जय.सर्प जाति और नाग जाति अलग अलग थी. सर्पों का मतलब जहाँ सरीसृपों की जाति से है वहीँ नाग जाति उपदेवताओं की श्रेणी में आती है जिनका उपरी हिस्सा मनुष्यों की तरह और निचला हिस्सा सर्पों की तरह होता था. ये जाति पाताल में निवास करती है और सर्पों से अधिक शक्तिशाली, लुप्त और रहस्यमयी मानी जाती है।
पतंगी: पक्षियों की समस्त जाति।
यामिनी: कीट पतंगों की समस्त जाति।
इसके अलावा महर्षि कश्यप ने वैश्वानर की दो पुत्रियों पुलोमा और कालका के साथ भी विवाह किया. पुलोमा से पौलोम नमक दानव वंश चला और कालका से 60,000 दैत्यों ने जन्म लिया जो कालिकेय कहलाये. रावण की बहन शूर्पनखा का पति विद्युत्जिह्य भी कालिकेय दैत्य था जो रावण के हाथों मारा गया था।
प्रजापति दक्ष भगवान् ब्रह्मा के दक्षिणा अंगुष्ठ से उत्पन्न हुए। सृष्टा की आज्ञा से वे प्रजा की सृष्टि करने में लगे।
सर्वप्रथम इन्होंने दस सहस्त्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया।
दूसरी बार एक सहस्त्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गये। दक्ष को रोष आया। उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया कि तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे। भगवान् ब्रह्मा ने प्रजापति को शान्त किया। अब मानसिक सृष्टि से वे उपरत हुए।
प्रजापति दक्ष की पत्नियां :- उनका पहला विवाह स्वायंभुव मनु की तृतीय पुत्री प्रसूति से हुआ। उन्होंने प्रजापति वीरण की कन्या असिकी-वीरणी दूसरी पत्नी बनाया। प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां थीं। इनमें 10 धर्म को, 13 महर्षि कश्यप को, 27 चंद्रमा को, एक पितरों को, एक अग्नि को और एक भगवान् शंकर को ब्याही गयीं। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएँ कही जाती हैं। समस्त दैत्य, गंधर्व, अप्सराएं, पक्षी, पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई। दक्ष की ये सभी कन्याएं, देवी, यक्षिणी, पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है।
अदिति से आदित्य (देवता), दिति से दैत्य, दनु से दानव, काष्ठा से अश्व आदि, अरिष्ठा से गंधर्व, सुरसा से राक्षस, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरागण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि, सुरभि से गौ और महिष, सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु) और तिमि से यादोगण (जलजंतु) आदि उत्पन्न हुए।
प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियां :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि, कीर्ति, ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा।
पुत्रियों के पति के नाम :- पर्वत राजा दक्ष ने अपनी 13 पुत्रियों का विवाह धर्म से किया। ये 13 पुत्रियां हैं- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि और कीर्ति। धर्म से वीरणी की 10 कन्याओं का विवाह हुआ। मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या और विश्वा।
इसके बाद ख्याति का विवाह महर्षि भृगु से, सती का विवाह रुद्र (भगवान् शिव) से, सम्भूति का विवाह महर्षि मरीचि से, स्मृति का विवाह महर्षि अंगीरस से, प्रीति का विवाह महर्षि पुलत्स्य से, सन्नति का कृत से, अनुसूया का महर्षि अत्रि से, ऊर्जा का महर्षि वशिष्ठ से, स्वाहा का अग्नि से और स्वधा का पितृस से हुआ।
इसमें सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध रुद्र-भगवान् शिव से विवाह किया। माँ पार्वती और भगवान् शंकर के दो पुत्र और एक पुत्री हैं। पुत्र-गणेश, कार्तिकेय और पुत्री वनलता।
वीरणी से दक्ष की साठ पुत्रियां :- मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या, विश्वा, अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवषा, तामरा, सुरभि, सरमा, तिमि, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी, रति, स्वरूपा, भूता, स्वधा, अर्चि, दिशाना, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी।
चंद्रमा से 27 कन्याओं का विवाह :- कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी। इन्हें नक्षत्र कन्या भी कहा जाता है। हालांकि अभिजीत को मिलाकर कुल 28 नक्षत्र माने गए हैं। उक्त नक्षत्रों के नाम इन कन्याओं के नाम पर ही रखे गए हैं।
9 कन्याओं का विवाह :- रति का कामदेव से, स्वरूपा का भूत से, स्वधा का अंगिरा प्रजापति से, अर्चि और दिशाना का कृशश्वा से, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी का तार्क्ष्य कश्यप से।
इनमें से विनीता से गरूड़ और अरुण, कद्रू से नाग, पतंगी से पतंग और यामिनी से शलभ उत्पन्न हुए।
भगवान् शंकर से विवाद करके दक्ष ने उन्हें यज्ञ में भाग नहीं दिया। पिता के यज्ञ में रुद्र के भाग न देखकर माता सती ने योगाग्नि से शरीर छोड़ दिया। भगवान् शंकर पत्नी के देहत्याग से रुष्ट हुए। उन्होंने वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र ने दक्ष का मस्तक दक्षिणाग्नि में हवन कर दिया। देवताओं की प्रार्थना पर तुष्ट होकर भगवान् शंकर ने सद्योजात प्राणी के सिर से दक्ष को जीवन का वरदान दिया। बकरे का मस्तक तत्काल मिल सका। तब से प्रजापति दक्ष ‘अजमुख’ हो गए।
वीरभद्र के रोम-कूपों से अनेक रौम्य नामक गणेश्वर प्रकट हुए थे। वे विध्वंस कार्य में लगे हुए थे। दक्ष की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने अग्नि के समान ओजस्वी रूप में दर्शन दिये और उसकी मनोकामना जानकर यज्ञ के नष्ट-भ्रष्ट तत्त्वों को पुन: ठीक कर दिया।
दक्ष ने एक हज़ार आठ नामों (-शिव सहस्त्र नाम स्तोत्र) से भगवान् शिव की आराधना की और उनकी शरण ग्रहण की।भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उसे एक हज़ार अश्वमेध यज्ञों, एक सौ वाजपेय यज्ञों तथा पाशुपत् व्रत का फल प्रदान किया।
सोम के साथ नक्षत्र नाम की पत्नियों से वंश क्रम में आपस्तंभ मुनि, धुव से काल, ध्रुव से हुतद्रव्य, अनिल से मनोजव और अनल से कार्तिकेय, प्रत्यूष से क्षमावान तथा प्रभात से विश्वकर्मा का जन्म हुआ। कश्यपजी द्वारा सुरभि से एकादश रुद्र उत्पन्न हुए।
कश्यप मुनि की अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, खसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, कोचवषा इला, कद्रू और मुनि पत्नियां हुईं। इनमें अदिति के द्वारा 12 पुत्र उत्पन्न हुए और दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष दो पुत्र तथा सिंहिका नाम की पुत्री उत्पन्न हुई। इस कन्या ने विप्रचित के वीर्य से रौहिकेय को जन्म दिया।
हिरण्यकशिपु के यहां ह्लाद अनुह्लाद प्रहलाद और संह्लाद चार पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें प्रह्लाद अपनी देव-प्रवृत्तियों के कारण अधिक प्रसिद्ध हुआ। इसके पुत्र विरोचन के बलि आदि क्रम में बाण, धृतराष्ट्र, सूर्य, चन्द्रमा, कुंभ, गर्दभाक्ष और कुक्षि आदि एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए।
बाण बलशाली और शिवभक्त था, उसने प्रथम कल्प में शिवजी को प्रसन्न करके उनके पक्षि भाग में विचरण करने का वरदान मांगा। हिरण्याक्ष के भी अत्यन्त बलशाली और तपस्वी सौ पुत्र हुए। अनुह्लाद के मुक और तुहुण्ड पुत्र हुए। संह्लाद के तीन करोड़ पुत्र हुए। इस तरह दिति के वंश ने विकास किया। महर्षि कश्यप की पत्नी दनु के गर्भ से दानव, केतु आदि उत्पन्न हुए।
इनमें विप्रचित प्रमुख था। ये सभी दानव बहुत बलशाली हुए और उन्होंने अपने वंश का असीमित विस्तार किया। कश्यपजी ने सृष्टि रचना करते हुए ताम्रा से छः, क्रोचवशा से बाज, सारस, गृध्र तथा रुचि आदि पक्षी जलचर और पशु उत्पन्न किए।
विनता से गरुड़ और अरुण, सुरसा से एक हजार सर्प कद्रू से काद्रवेय, सुरभि से गायें, इला से वृक्ष, लता आदि, खसा से यक्षों और राक्षसों तथा मुनि ने अप्सराओं और अरिष्टा ने गन्धर्वों को उत्पन्न किया। यह सृष्टि अपनी अनेक योनियों में फैलती हुई आगे बढ़ती रही।
देवताओं और दानवों में संघर्ष होने लगा और प्रतिस्पर्द्धा इतनी बढ़ी कि दानव नष्ट होने लगे। दिति ने अपने वंश को इस प्रकार नष्ट होते देख कश्यपजी को प्रसन्नकर इन्द्र आदि देवों को दंडित करने वाले की याचना से गर्भ धारण किया।
ईर्ष्यालु इन्द्र दिति के इस मनोरथ को खंडित करने के भाव से किसी न किसी प्रकार दिति के व्रत को तोड़ना चाहता था क्योंकि कश्यपजी ने यह वरदान दिया था कि गर्भवती दिति यत्नपूर्ण पवित्रता से नियम पालन करते हुए आचरण करेगी तो उसका मनोरथ अवश्य पूरा होगा।
अवसर ही खोज में लगे इन्द्र ने एक बार संयम के बिना हाथ धोए ही सोई दिति की कोख में प्रवेश कर लिया। वह उसके गर्भ के सात टुकड़े कर दिये। इससे भी संतोष न मिलने पर दिति के गर्भ को पूर्ण विनष्ट करने के लिए प्रत्येक टुकड़े के सात सात खंड कर दिये।
उन खंडों ने जब इन्द्र से उनके प्रति किसी प्रकार की शत्रुता न रखने का अनुरोध किया तो इन्द्र ने उन्हें छोड़ दिया। वे खंड ही मरुद्गण नाम के देव कहलाए और इन्द्र के सहायक हुए। कश्यप जी ने दाक्षायणी से विवस्वान नाम पुत्र को जन्म दिया।
त्वष्टा की पुत्री संज्ञा से विवस्वान का विवाह हुआ जिसमें श्रद्धादेव और यम नामक दो पुत्रों और यमुना नाम की पुत्री को जन्म दिया। संज्ञा विवस्वान के तेज को न सह सकी और अपनी सखी छाया को प्रतिमूर्ति बनाकर और अपनी संतानें उसे सौंपकर अपने पिता के पास चली गयी।
पिता ने उसके इस प्रकार आगमन को अनुचित कहते हुए उसे वापस लौटा दिया। वापस लौटने पर अश्वी का रूप धारण कर संज्ञा वन में विचरने लगी। विवस्वान ने छाया पत्नी से सावर्णि मनि और शनैश्चर नाम के दो पुत्र उत्पन्न किए।
वह अपने इन नवजात पुत्रों को इतना प्रेम करती थी कि संज्ञा से उत्पन्न यम आदि इसे सौतेला व्यवहार अनुभव करने लगे और प्रतिक्रिया स्वरूप यम ने छाया को लंगड़ी हो जाने का शाप दिया। विवस्वान ने जब यह जाना तो माता के प्रति ऐसा व्यवहार न करने का आदेश दिया।
दूसरी और जब संज्ञा रूपी छाया से इस पक्षपात का कारण पूछा तो उन्हें स्थिति का ज्ञान हो गया। संज्ञा की खोज में जब विवस्वान त्वष्टा मुनि के आश्रम में गया तो वहां उसे संज्ञा का अश्वी के रूप में उसी आश्रम में निवास का पता चला।
अपने तेज को शांत कर यौगिक क्रिया द्वारा रूप प्राप्त करके उसने अश्व का रूप धारण कर संज्ञा से मैथुन की चेष्टा की। संज्ञा पतिव्रता थी, वह पर पुरुष के साथ समागम कैसे कर सकती थी ?
किन्तु जब उसे सत्य का पता चला तो विवस्वान द्वारा स्खलित वीर्य को उसने नासिका में ग्रहण कर लिया। जिसके फलस्वरूप नासत्य और दस्र नाम के दो अश्वनीकुमार जन्मे। छाया के त्याग से प्रसन्न होकर विवस्वान ने सावर्णि को लोकपाल मनु का और शनैश्चर को ग्रह का पद प्रदान किया।
यह सावर्णि ही आगे चलकर सूर्य-वंश का स्वामी बना। सावर्णि के वंश में इक्ष्वाकु, नाभाग आदि नौ पुत्र हुए जिनके, जन्म पर मित्रावरुणों का पूजन किया गया। फलस्वरूप उत्पन्न इला नाम की कन्या से मनु ने अपनी अनुगमन करने को कहा। मित्रावरुण द्वारा प्रसन्न होकर प्राप्त वर के फलस्वरूप मनु से इला द्वारा सुद्युम्न नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
इला से मार्ग में लौटते हुए बुध ने रति की कामना की जिसके वीर्य से पुरुरवा का जन्म हुआ। इसने ही सुद्युम्न का रूप धारण किया। जिसके आगे उत्कल, गय और विनिताश्व पुत्र हुए। इन्होंने उत्कला, गया और पश्चिमा को क्रमशः अपनी राजधानी बनाया।
मनु ने अपने श्रेष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु को पृथ्वी के दस भागों में मध्य भाग सौंप दिया। इस प्रकार मनुपुत्रों का विकास और प्रसार हुआ। ब्रह्मलोक का प्रभाव इतना अद्भुत होता है कि वहां रुग्णता, व्याधि, चिन्ता, जरा, शोक, क्षुधा अथवा प्यास आदि के लिए कोई स्थान नहीं।
यहां ऋतुएं भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं पैदा करतीं। मनु के पुत्र प्रांश के वंश में रैवत बड़े कुशल और बलशाली हुए हैं। इनके बारे में यह कहा जाता है कि इनके स्वर्ग सिधारने पर राक्षसों ने उत्पात करना शुरू कर दिया था और इनके राज्य पर अधिकार कर लिया था। इनके भाई बन्धु इनके आतंक से घबराकर इधर-उधर बिखर गये थे।
इन्हीं से शर्याति क्षत्रियों की वंश परम्परा आगे बढ़ी। इनमें रिष्ट के दो पुत्रों ने पहले वणिक धर्म अपनाया बाद में ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया। पृषध्न ने अनजाने में गौहत्या के अपराध से शूद्रत्व प्राप्त किया।
EVOLUTION (4) उत्पत्ती-सृष्टि रचना :: संसार के समस्त जीवों की उत्पत्ति कश्यप ऋषि से हुई है। अनेकों लोगों ने सृष्टि रचना के सम्बन्ध में सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं जो वास्तविकता से दूर और भ्रामक हैं। मनुष्य योनि प्राप्त करने से पहले प्राणी को 84,00,000 योनियो से गुजरना पड़ता है। डार्विन, लेमार्क आदि के द्वारा सिद्धान्त भ्रामक, अधकचरे ज्ञान और ऊल-जलूल बातों पर आधारित हैं।
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान्।
तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥ [श्रीमद्भागवत पुराण 11.9;28]
विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई। इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ। परन्तु उससे उस चेतना को पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई, अत: मनुष्य का निर्माण हुआ जो उस मूल तत्व का साक्षात्कार कर सकता था।
प्राणियों का वर्गीकरण उनके गुणों, प्रकृति, जन्म के आधार पर अनेक प्रकार से किया गया है।
(1). मूल विभाजन :: योनिज तथा आयोनिज। दो (नर और मादा) के संयोग से उत्पन्न या अपने आप ही स्वतः अमीबा (Single celled animals, like protozoans, bacteria, euglena, etc. Multiple division-one to one million or even more) की तरह विकसित होने वाले।
(2). पर्यावरण के आधार पर विभाजन :: (2.1). जलचर-जल में रहने वाले सभी प्राणी, (2.2). थलचर-पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी प्राणी, (2.3). नभचर-आकाश में विहार करने वाले सभी प्राणी।
(3). जन्म के आधार पर विभाजन 4 types of means of reproduction have been described in the Shastr, namely :: Andaj (अंडज)-taking birth through the egg, Swedaj (स्वेदज): taking birth through contact by means of sweat, Udbhijj (उद्भिज्ज)-vegetative, sprouting, germinating, Garbhaj (गर्भज)-Jarayuj (जरायुज)-born out of placenta, viviparous, mammalian. (3.1). जरायुज-माता के गर्भ से जन्म लेने वाले मनुष्य, पशु जरायुज कहलाते हैं, (3.2). अण्डज-अण्डों से उत्पन्न होने वाले प्राणी अण्डज कहलाये, (3.3). स्वदेज-मल, मूत्र, पसीना आदि से उत्पन्न क्षुद्र जन्तु स्वेदज कहलाते हैं एवं (3.4). उदि्भज-पृथ्वी से उत्पन्न प्राणियों को उदि्भज वर्ग में शामिल किया गया।
(4). योनियों की सँख्या के आधार पर वर्गीकरण :: (4.1). स्थावर-20,00,000 योनियाँ,(4.2). जलज-9,00,000 योनियाँ, (4.3). कूर्म-भूमि व जल दोनों जगह गति करने वाले-9,00,000 योनियाँ, (4.4). पक्षी-10,00,000 योनियाँ, (4.5). पशु-30,00,000 योनियाँ, (4.6). वानर-4,00,000 योनियाँ एवं (4.7). शेष मानव योनि में।[बृहत् विष्णु पुराण]
(4). योनियों की सँख्या के आधार पर वर्गीकरण :: (4.1). स्थावर-20,00,000 योनियाँ,(4.2). जलज-9,00,000 योनियाँ, (4.3). कूर्म-भूमि व जल दोनों जगह गति करने वाले-9,00,000 योनियाँ, (4.4). पक्षी-10,00,000 योनियाँ, (4.5). पशु-30,00,000 योनियाँ, (4.6). वानर-4,00,000 योनियाँ एवं (4.7). शेष मानव योनि में।[बृहत् विष्णु पुराण]
(5). पशुओं को साधारणत: पालतू और जंगली के रुप जाना जाता है, यद्धपि जंगली पशु को पालतू बनाया जा सकता है जैसे हाथी। इनके पैरों की बनावट पर विभाजन :: (5.1). एक शफ (एक खुर वाले पशु)-खर (गधा), अश्व (घोड़ा), अश्वतर (खच्चर), गौर (एक प्रकार की भैंस), हिरण इत्यादि, (5.2). द्विशफ (दो खुर वाले पशु)-गाय, बकरी, भैंस, कृष्ण मृग आदि तथा (5.3). पंच अंगुल (पांच अंगुली) नखों (पंजों) वाले पशु-सिंह, व्याघ्र, गज, भालू, श्वान (कुत्ता), श्रृगाल आदि।
(6). चरक ने प्राणियों को उनके जन्म के अनुसार जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उदि्भज वर्गों को उनकी खाद्य श्रंखला के अनुरुप विभाजित-वर्गीकृत किया है (चरक संहिता, सूत्रस्थान, 27.35-54)।
(6.1). प्रसह :- जो बलात् छीनकर खाते हैं। इस वर्ग में गौ, गदहा, खच्चर, ऊंट, घोड़ा, चीता, सिंह, रीछ, वानर, भेड़िया, व्याघ्र, पर्वतों के पास रहने वाले बहुत बालों वाले कुत्ते, बभ्रु, मार्जार, कुत्ता, चूहा, लोमड़ी, गीदड़, बाघ, बाज, कौवा, शशघ्री (ऐसे पक्षी जो शशक को भी अपने पंजों में पकड़ कर उठा ले जाते हैं) चील, भास, गिद्ध, उल्लू, सामान्य घरेलू चिड़िया (गौरेया), कुरर (वह पक्षी जो जल स्थित मछली को अपने नख से भेद कर उड़ा ले जाता है।)
(6.2). भूमिशय :- बिलों में रहने वाले जन्तु-सर्प (श्वेत-श्यामवर्ण का) चित्रपृष्ठ (जिसकी पृष्ठ चित्रित होती है), काकुली मृग-एक विशेष प्रकार का सर्प- मालुयासर्प, मण्डूक (मेंढक) गोह, सेह, गण्डक, कदली (व्याघ्र के आकार की बड़ी बिल्ली), नकुल (नेवला), श्वावित् (सेह का भेद), चूहा आदि।
(6.3). अनूपदेश के पशु-अर्थात् जल प्रधान देश में रहने वाले प्राणी। इन में सूकर (महा शूकर), चमर (जिनकी पूंछ चंवर बनाने के काम आती है), गैण्डा, महिष (जंगली भैंसा), नीलगाय, हाथी, हिरण , वराह (सुअर) बारहसिंगा-बहुत सिंगों वाले हिरण सम्मिलित हैं।
(6.4). वारिशय-जल में रहने वाले जन्तु-कछुआ, केकड़ा, मछली, शिशुमार (घड़ियाल, नक्र की एक जाति) पक्षी। हंस, तिमिंगिल, शुक्ति (सीप का कीड़ा), शंख, ऊदबिलाव, कुम्भीर (घड़ियाल), मकर (मगरमच्छ) आदि।
(6.5). वारिचारी-जल में संचार करने वाले पक्षी – हंस क्रौञ्च, बलाका, बगुला, कारण्डव (एक प्रकार का हंस), प्लव, शरारी, केशरी, मानतुण्डका, मृणालण्ठ, मद्गु (जलकाक), कादम्ब (कलहंस), काकतुण्डका (श्वेत कारण्डव-हंस की जाति) उत्क्रोश (कुरर पक्षी की जाति) पुण्डरीकाक्ष, चातक, जलमुर्गा, नन्दी मुखी, समुख, सहचारी, रोहिणी, सारस, चकवा आदि।
(6.6). जांगल पशु-स्थल पर उत्पन्न होने वाले तथा जंगल में संचार करने वाले पशु- चीतल, हिरण, शरभ (ऊंट के सदृश बड़ा और आठ पैर वाला, जिसमें चार पैर पीठ पर होते हैं-ऐसा मृग), चारुष्क (हरिण की जाति) लाल वर्ण का हरिण, एण (काला हिरण) शम्बर (हिरण भेद) वरपोत (मृग भेद), ऋष्य आदि जंगली मृग।
(6.7). विष्किर पक्षी-जो अपनी चोंच और पैरों से इधर-उधर बिखेर कर खाते हैं, वे विष्किर पक्षी हैं। इनमें लावा (बटेर), तीतर, श्वेत तीतर, चकोर, उपचक्र (चकोर का एक भेद), लाल वर्ग का कुक्कुभ (कुको), वर्तक, वर्तिका, मोर, मुर्गा, कंक, गिरिवर्तक, गोनर्द, क्रनर और बारट आदि।
(6.8). प्रतुद पक्षी-जो चोंच या पंजों से बार-बार चोट लगाकर आहार को खाते हैं। कठफोड़ा भृंगराज (कृष्णवर्ण का पक्षी विशेष), जीवंजीवक, (विष को देखने से ही इस पक्षी की मृत्यु हो जाती है), कोकिल, कैरात (कोकिक का भेद), गोपपुत्र-प्रियात्मज, लट्वा, बभ्रु, वटहा, डिण्डिमानक, जटायु, लौहपृष्ठ, बया, कपोत (घुग्घु), तोता, सारंग (चातक), शिरटी, शरिका (मैना) कलविंक (गृहचटक अथवा लाल सिर और काली गर्दन वाली गृहचटक सदृश चिड़ियां), चटक, बुलबुल, कबूतर आदि।
(7). गति-चलने की दृष्टि से 4 प्रकार के जीव :: दो पैर वाले, चार पैर वाले, बहुत पैर वाले और बिना पैरों के चलने वाले। [श्री वामन पुराण]
(7). गति-चलने की दृष्टि से 4 प्रकार के जीव :: दो पैर वाले, चार पैर वाले, बहुत पैर वाले और बिना पैरों के चलने वाले। [श्री वामन पुराण]
उपर्युक्त वर्गीकरण के साथ चरक ने इन प्राणियों की मांस और उसके उपयोग के साथ ही बात, पित्त और कफ पर उसके प्रभाव की भी विस्तृत विवेचना प्रस्तुत की है। चकोर, मुर्गी, मोर, बया और चिड़ियों के अंडों की भी आहार के रूप में चर्चा की गई है।
ऐसे ही सुश्रुत की सुश्रुत संहिता, पाणिनि के अष्टाध्यायी, पतञ्जलि के महाभाष्य, दर्शन के प्रशस्तपादभाष्य आदि ग्रंथों में प्राणियों के वर्गीकरण के विस्तृत विवरण मिलते हैं।
BEGINNING OF LIFE ON EARTH :: Physical-material creations became the inhabitants of earth. Brahma Ji evolved Manu from his right half and Shatrupa from his left half. Manavs-Humans took birth from them. Manu and Shatrupa had two sons-Priyvert & Uttan Pad and two daughters :- Akuti & Prasuti.
Prasuti was married to Daksh Praja Pati. They had 60 daughters of which 14 were married to Kashyap, from whom evolved the entire living population on earth.
In all 9 types of life forms, which involved evolution through sexual means, in addition to creations made by Brahma Ji through his body-rejecting it again and again, were created depending upon their nature/characters in their previous innumerable incarnations-births, having these major divisions: Prakret-3, Vaikret-5 and Komary Sarg-1.
PRAKRAT SARG (प्राक्रत सर्ग) :: Initially, it evolved out of the brain of Brahma Ji’s intelligence-brain-mind-prudence, which was further sub divided into; Adi Sarg (आदि सर्ग), Bhoot Sarg (भूत सर्ग) and Aendrik Sarg, (ऐन्द्रिक सर्ग).
(1). Adi Sarg (stage) Mahatatv-Brahm Sarg :: Presence of defects-differentiation in Satvik, Rajsik and Tamsik characters, is its significance. It constitutes mainly of Vaikarik-Temo Guni-Tamsik characters :- Yaksh, Rakshash, Asur-Demons were created out of the defects of Brahm. They were the ones to evolved first, as result-consequence of ignorance, defect and disorder. They represent darkness, shadow, sinners, cruelty, brutality, imprudence, lack of virtues, lack of sympathy and Avidya (-absence of enlightenment, tendency to act in an opposite direction). They were meat eaters, blood thirsty, desirous of sex and alcoholic.
Avidya-Ignorance has 5 categories ::
(1.i). Tamistr-represent shadow :: The ones, whose soul, mind and heart are full of darkness.
(1.ii). Andh-Tamistr :: Possess eyes but behaves as-like blind. Their soul, mind, heart and body are full of darkness.
(1.iii). Tam :: Darkness, represent lack of enlightenment.
(1.iv). Moh :: Attachment, desires, sexuality and sensuality.
(1.v). Maha Moh :: Unlimited desires, extreme Moh. Hunger-thirst for power, possessions, lack of thoughtfulness and feelings, are the basic components of their nature. Their constitution reflected darkness. Yaksh Rakshash and Asurs constituted this category.
(2). Bhotic (Physical)-Bhoot Sarg :: It's dependent upon past 5 basic characteristics namely- shape, extract (-juice), smell, touch and sound. Bhoot (-past) Adi Sarg : Constitutes of those who have departed.
(3). Vaikarik (-distorted, disordered, defective) Aendrik Sarg :: It involves creation of senses and sense organs.
Vaikret: 5 main divisions
(4). Mukhy (main) Stationary-Stable or fixed :: Mountains-Hills, Trees Plants-Shrubs-Straws-Thickets (under growth).
(5). Triyak Strota-Taiyarg Yoni (movement) :: Animals and birds. They constitute of 28 categories. They are without the knowledge of time period. Excess of Temo gun shows of in sexual behaviour eating and drinking and sleep only. Movement of food in their stomach takes place in curved path. They can identify the materials by smelling. They are devoid of thinking and farsightedness.
Two hoofs :: Cow, goat, bullock, deer, antelope, pig, sheep, camel etc.
Single hoof :: Donkey, horse, pony, gaur, shraf, chamry-yak etc.
Five claws :: Animals-Dog, wolf, tiger, cat, rabbit, lion, monkey, elephant, tortoise, goh-lizard-dinosaurs, crocodile, sahi (-porcupine) etc. Birds-vultures, crow, owl, crane, peacock, duck, swan etc.
(6). Dev Sarg-Urdh Strota (Demi Gods-Deities) with Satvik Nature :: Movement of food constituting of offerings by humans takes place from bottom to top. Don’t consume material form of food, truthful, extremely comfort providing.
(7). Arwak Strota-Humans :: Movement of food takes place from top to bottom, exhibit dominance of Rajsik- passionate characters. Satvik and Tamsik characters are also present, though in lesser quantity. They are devoted to Karm and pleasure in passions-sensuality which yield pain-sorrow-grief.
(8). Anugrah Sarg :: Associated with both Satvik and Tamsik tendencies.
(9). Komary Sarg :: Constitutes of both Prakrat (-natural) and Vaikret. Prakrat was created out of Intelligence-brain-mind-prudence.
Kashyap produced the above mentioned organisms from his wives as listed below:
(1). Aditi (Dev Mata) had 12 sons known as Adity-Sun in addition to Demigods.
(2). Surbhi (Gau Mata) produced all quadrupeds-horses, cows, buffaloes.
(3). Dity (Daity Mata-mother of demons) gave birth to Demons named Hirany Kashpu and Hiranyaksh, 49 Maruts.
(4). Danu (Daity Mata) produced Danav-giants-demons.
(5). Sursa gave birth to Rakshash-demons.
(6). Muni-Aristha is the mother of Gandharv-divine singers and Apsra-divine dancers.
(7). Vinitay (Daity Mata) had Arun-Sun's chariot driver, Garud Ji-Bhagwan Vishnu's carrier-a bird & daughters who became the mothers of all birds.
(8). Kadru (Daity Mata) became the mother of all servants-snakes-Bhagwan Shash Nag, Vasuki, Takshak etc.
(9). Khasa produced ugly demigods and companions of Kuber, named after Yaksh and Rakshash.
(10). Sursa produced Rakshash-demons.
(11). Ira-Ila gave birth to all types of trees, creepers, shrubs, bushes herbs.
(12). Krodhvasa created Ghosts and Pishachs.
(13). Tandra became the mother of wild animals and
(14). Pitre had all dead ancestors and 10 Pralapati's as her sons.
यद्यपि वृक्ष ठोस जान पड़ते हैं तो भी उनमें आकाश है, इसमें संशय नहीं है, इसी से इनमें नित्य प्रति फल-फूल आदि की उत्पत्ति संभव है।
वृक्षों में जो ऊष्मा या गर्मी है, उसी से उनके पत्ते, छाल, फल, फूल कुम्हलाते हैं, मुरझाकर झड़ जाते हैं। इससे उनमें स्पर्श ज्ञान का होना भी सिद्ध है।
यह भी देखा जाता है कि वायु, अग्नि, बिजली की कड़क आदि होने पर वृक्षों के फल-फूल झड़कर गिर जाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वे सुनते भी हैं।
लता वृक्ष को चारों ओर से लपेट लेती है और उसके ऊपरी भाग तक चढ़ जाती है। बिना देखे किसी को अपना मार्ग नहीं मिल सकता। अत: इससे सिद्ध है कि वृक्ष देखते भी हैं।
पवित्र और अपवित्र गन्ध से तथा नाना प्रकार के धूपों की गंध से वृक्ष निरोग होकर फूलने लगते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वृक्ष सूंघते हैं।
वृक्ष अपनी जड़ से जल पीते हैं और कोई रोग होने पर जड़ में औषधि डालकर उनकी चिकित्सा भी की जाती है। इससे सिद्ध होता है कि वृक्ष में रसनेन्द्रिय भी हैं।
जैसे मनुष्य कमल की नाल मुंह में लगाकर उसके द्वारा ऊपर को जल खींचता है, उसी प्रकार वायु की सहायता से वृक्ष जड़ों द्वारा ऊपर की ओर पानी खींचते हैं।
अद्भुत ग्रंथ-पाराशर वृक्ष आयुर्वेद :: इस पुस्तक के 6 भाग हैं- (1). बीजोत्पत्ति काण्ड, (2). वानस्पत्य काण्ड, (3). गुल्म काण्ड, (4).वनस्पति काण्ड, (5). विरुध वल्ली काण्ड एवं (6) चिकित्सा काण्ड।
इस ग्रंथ के प्रथम भाग बीजोत्पत्ति काण्ड में आठ अध्याय हैं, जिनमें बीज के वृक्ष बनने तक का विवरण है। इसका, इसमें महर्षि पाराशर कहते हैं-
(1). बीजोत्पत्ति सूत्राध्याय :: पहले पानी जैली जैसे पदार्थ को ग्रहण कर न्यूक्लियस बनता है और फिर वह धीरे-धीरे पृथ्वी से ऊर्जा और पोषक तत्व ग्रहण करता है। फिर उसका आदि बीज के रूप में विकास होता है और आगे चलकर कठोर बनकर वृक्ष का रूप धारण करता है। आदि बीज यानी प्रोटोप्लाज्म के बनने की प्रक्रिया है जिसकी अभिव्यक्ति बीजत्व अधिकरण में की गई है।
(2). भूमि वर्गाध्याय :: इसमें मिट्टी के प्रकार, गुण आदि का विस्तृत वर्णन है।
(3). वन वर्गाध्याय :: इसमें 14 प्रकार के वनों का उल्लेख है।
(4). वृक्षांग सूत्राध्याय :: इसमें प्रकाश संश्लेषण यानी फोटो सिंथेसिस की क्रिया के लिए कहा है :- पत्राणि तु वातातपरञ्जकानि अभिगृहन्ति। यह स्पष्ट है कि वात कार्बन डाय आक्साइड, सूर्य प्रकाश और क्लोरोफिल से अपना भोजन वृक्ष बनाते हैं।
(5). पुष्पांग सूत्राध्याय :: इसमें कितने प्रकार के फूल होते हैं, उनके कितने भाग होते हैं, उनका उस आधार पर वर्गीकरण किया गया है। उनमें पराग कहाँ होता है, पुष्पों के हिस्से क्या हैं आदि का उल्लेख है।
(6). फलांग सूत्राध्याय :: इसमें फलों के प्रकार, फलों के गुण और रोग का वर्गीकरण किया गया है।
(7). वृक्षांग सूत्राध्याय :: इसमें वृक्ष के अंगों का वर्णन करते हुए पाराशर कहते है- पत्रं (पत्ते) पुष्प (फूल) मूलं (जड़) त्वक् (शिराओं सहित त्वचा) काण्डम् (स्टिम्) सारं (कठोर तना) सारसं र्नियासा बीजं (बीज) प्ररोहम्-इन सभी अंगों का परस्पर सम्बन्ध होता है।
(8). बीज से पेड़ का विकास :: पाराशर कहते हैं-
"रंजकेन पश्च्यमानात" किसी रंग देने वाली प्रक्रिया से यह पचता है-यानी फोटो सिंथेसिस। यह बड़ा महत्वपूर्ण है।
"उत्पादं-विसर्जयन्ति" पत्तियां फोटो सिंथेसिस से दिन में आक्सीजन निकालती हैं और रात में कार्बन डाय अक्साइड।
दिन में कार्बन डाय आक्साइड लेकर भोजन बनाती हैं। अतिरिक्त वाष्प का विसर्जन करती हैं, जिसे ट्रांसपिरेशन कहते हैं।
जब उसमें से वाष्प का विसर्जन होता है तब उसमें ऊर्जा उत्पन्न होती है, यानी श्वसन की क्रिया का वर्णन है। यह वर्णन बताता है कि किस प्रकार रस का ऊपर चढ़ना, पंक्तियों में जाना, भोजन बनाना, फिर श्वसन द्वारा ऊर्जा उत्पन्न करना होता है।
कुल मिलाकर ये चौबीस तत्व हैं।
जो अन्य तत्वों का उपादान कारण हो अर्थात् जो तत्वान्तरों को उत्पन्न करता है, उसे प्रकृति कहते हैं, जैसे मूल प्रकृति।
जो तत्वान्तरों को उत्पन्न करते हैं तथा स्वयं भी उत्पन्न होते हैं, वही प्रकृति विकृति है।
प्रकृति दो प्रकार की मानी गई है :- (3.1). मूल प्रकृति, (3.2). भूत प्रकृति।
मूल प्रकृति को अव्यक्त माना जाता है।
साँख्य दर्शन के अनुसार सत्व, रज, तम की साम्यावस्था ही प्रकृति है।
तीन प्रकार के पुरुषों में 24 तत्वात्मक पुरुष को ही कारण माना गया है।
अव्यक्त आत्मा अथार्त् चेतना धातु को कारण माना है, परन्तु केवल आत्मा किसी भी कार्य को करने में समर्थ नहीं होती, क्योंकि आत्मा को तब तक ज्ञान नहीं होता, जब तक वह 24 तत्वों से संयोग नहीं करता है।
तैजस अहंकार की सहायता से भूतादि अहंकार द्वारा पञ्च तन्मात्राएँ उत्पन्न होती है।
BEGINNING OF LIFE ON EARTH :: Physical-material creations became the inhabitants of earth. Brahma Ji evolved Manu from his right half and Shatrupa from his left half. Manavs-Humans took birth from them. Manu and Shatrupa had two sons-Priyvert & Uttan Pad and two daughters :- Akuti & Prasuti.
Prasuti was married to Daksh Praja Pati. They had 60 daughters of which 14 were married to Kashyap, from whom evolved the entire living population on earth.
In all 9 types of life forms, which involved evolution through sexual means, in addition to creations made by Brahma Ji through his body-rejecting it again and again, were created depending upon their nature/characters in their previous innumerable incarnations-births, having these major divisions: Prakret-3, Vaikret-5 and Komary Sarg-1.
PRAKRAT SARG (प्राक्रत सर्ग) :: Initially, it evolved out of the brain of Brahma Ji’s intelligence-brain-mind-prudence, which was further sub divided into; Adi Sarg (आदि सर्ग), Bhoot Sarg (भूत सर्ग) and Aendrik Sarg, (ऐन्द्रिक सर्ग).
(1). Adi Sarg (stage) Mahatatv-Brahm Sarg :: Presence of defects-differentiation in Satvik, Rajsik and Tamsik characters, is its significance. It constitutes mainly of Vaikarik-Temo Guni-Tamsik characters :- Yaksh, Rakshash, Asur-Demons were created out of the defects of Brahm. They were the ones to evolved first, as result-consequence of ignorance, defect and disorder. They represent darkness, shadow, sinners, cruelty, brutality, imprudence, lack of virtues, lack of sympathy and Avidya (-absence of enlightenment, tendency to act in an opposite direction). They were meat eaters, blood thirsty, desirous of sex and alcoholic.
Avidya-Ignorance has 5 categories ::
(1.i). Tamistr-represent shadow :: The ones, whose soul, mind and heart are full of darkness.
(1.ii). Andh-Tamistr :: Possess eyes but behaves as-like blind. Their soul, mind, heart and body are full of darkness.
(1.iii). Tam :: Darkness, represent lack of enlightenment.
(1.iv). Moh :: Attachment, desires, sexuality and sensuality.
(1.v). Maha Moh :: Unlimited desires, extreme Moh. Hunger-thirst for power, possessions, lack of thoughtfulness and feelings, are the basic components of their nature. Their constitution reflected darkness. Yaksh Rakshash and Asurs constituted this category.
(2). Bhotic (Physical)-Bhoot Sarg :: It's dependent upon past 5 basic characteristics namely- shape, extract (-juice), smell, touch and sound. Bhoot (-past) Adi Sarg : Constitutes of those who have departed.
(3). Vaikarik (-distorted, disordered, defective) Aendrik Sarg :: It involves creation of senses and sense organs.
Vaikret: 5 main divisions
(4). Mukhy (main) Stationary-Stable or fixed :: Mountains-Hills, Trees Plants-Shrubs-Straws-Thickets (under growth).
(5). Triyak Strota-Taiyarg Yoni (movement) :: Animals and birds. They constitute of 28 categories. They are without the knowledge of time period. Excess of Temo gun shows of in sexual behaviour eating and drinking and sleep only. Movement of food in their stomach takes place in curved path. They can identify the materials by smelling. They are devoid of thinking and farsightedness.
Two hoofs :: Cow, goat, bullock, deer, antelope, pig, sheep, camel etc.
Single hoof :: Donkey, horse, pony, gaur, shraf, chamry-yak etc.
Five claws :: Animals-Dog, wolf, tiger, cat, rabbit, lion, monkey, elephant, tortoise, goh-lizard-dinosaurs, crocodile, sahi (-porcupine) etc. Birds-vultures, crow, owl, crane, peacock, duck, swan etc.
(6). Dev Sarg-Urdh Strota (Demi Gods-Deities) with Satvik Nature :: Movement of food constituting of offerings by humans takes place from bottom to top. Don’t consume material form of food, truthful, extremely comfort providing.
(7). Arwak Strota-Humans :: Movement of food takes place from top to bottom, exhibit dominance of Rajsik- passionate characters. Satvik and Tamsik characters are also present, though in lesser quantity. They are devoted to Karm and pleasure in passions-sensuality which yield pain-sorrow-grief.
(8). Anugrah Sarg :: Associated with both Satvik and Tamsik tendencies.
(9). Komary Sarg :: Constitutes of both Prakrat (-natural) and Vaikret. Prakrat was created out of Intelligence-brain-mind-prudence.
Kashyap produced the above mentioned organisms from his wives as listed below:
(1). Aditi (Dev Mata) had 12 sons known as Adity-Sun in addition to Demigods.
(2). Surbhi (Gau Mata) produced all quadrupeds-horses, cows, buffaloes.
(3). Dity (Daity Mata-mother of demons) gave birth to Demons named Hirany Kashpu and Hiranyaksh, 49 Maruts.
(4). Danu (Daity Mata) produced Danav-giants-demons.
(5). Sursa gave birth to Rakshash-demons.
(6). Muni-Aristha is the mother of Gandharv-divine singers and Apsra-divine dancers.
(7). Vinitay (Daity Mata) had Arun-Sun's chariot driver, Garud Ji-Bhagwan Vishnu's carrier-a bird & daughters who became the mothers of all birds.
(8). Kadru (Daity Mata) became the mother of all servants-snakes-Bhagwan Shash Nag, Vasuki, Takshak etc.
(9). Khasa produced ugly demigods and companions of Kuber, named after Yaksh and Rakshash.
(10). Sursa produced Rakshash-demons.
(11). Ira-Ila gave birth to all types of trees, creepers, shrubs, bushes herbs.
(12). Krodhvasa created Ghosts and Pishachs.
(13). Tandra became the mother of wild animals and
(14). Pitre had all dead ancestors and 10 Pralapati's as her sons.
PLANT DIVERSITY :: अथर्ववेद में पौधों को आकृति तथा अन्य लक्षणों के आधार पर सात उपविभागों में बांटा गया, यथा- (1). वृक्ष, (2). तृण, (3). औषधि, (4). गुल्म, (5). लता, (6), अवतान और (7). वनस्पति।
पौधों में जीवन :: पौधे जड़ नहीं होते अपितु उनमें जीवन होता है। वे चेतन जीव की तरह सर्दी-गर्मी के प्रति संवेदनशील रहते हैं, उन्हें भी हर्ष और शोक होता है। वे मूल से पानी पीते हैं, उन्हें भी रोग होता है।यद्यपि वृक्ष ठोस जान पड़ते हैं तो भी उनमें आकाश है, इसमें संशय नहीं है, इसी से इनमें नित्य प्रति फल-फूल आदि की उत्पत्ति संभव है।
वृक्षों में जो ऊष्मा या गर्मी है, उसी से उनके पत्ते, छाल, फल, फूल कुम्हलाते हैं, मुरझाकर झड़ जाते हैं। इससे उनमें स्पर्श ज्ञान का होना भी सिद्ध है।
यह भी देखा जाता है कि वायु, अग्नि, बिजली की कड़क आदि होने पर वृक्षों के फल-फूल झड़कर गिर जाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वे सुनते भी हैं।
लता वृक्ष को चारों ओर से लपेट लेती है और उसके ऊपरी भाग तक चढ़ जाती है। बिना देखे किसी को अपना मार्ग नहीं मिल सकता। अत: इससे सिद्ध है कि वृक्ष देखते भी हैं।
पवित्र और अपवित्र गन्ध से तथा नाना प्रकार के धूपों की गंध से वृक्ष निरोग होकर फूलने लगते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वृक्ष सूंघते हैं।
वृक्ष अपनी जड़ से जल पीते हैं और कोई रोग होने पर जड़ में औषधि डालकर उनकी चिकित्सा भी की जाती है। इससे सिद्ध होता है कि वृक्ष में रसनेन्द्रिय भी हैं।
जैसे मनुष्य कमल की नाल मुंह में लगाकर उसके द्वारा ऊपर को जल खींचता है, उसी प्रकार वायु की सहायता से वृक्ष जड़ों द्वारा ऊपर की ओर पानी खींचते हैं।
सुखदु:खयोश्च ग्रहणाच्छिन्नस्य च विरोहणात्।
जीवं पश्यामि वृक्षाणां चैतन्यं न विद्यते॥
वृक्ष कट जाने पर उनमें नया अंकुर उत्पन्न हो जाता है और वे सुख, दु:ख को ग्रहण करते हैं। इससे स्पष्ट है कि वृक्षों में भी जीवन है। वे अचेतन नहीं हैं।
वृक्ष अपनी जड़ से जो जल खींचता है, उसे उसके अंदर रहने वाली वायु और अग्नि पचाती है। आहार का परिपाक होने से वृक्ष में स्निग्धता आती है और वे बढ़ते हैं।
तच्येतनावद् चेतनञ्च अर्थात् प्राणियों की भांति उनमें (वृक्षों में) भी चेतना होती है।[चरक]
अत्र सेंद्रियत्वेन वृक्षादीनामपि चेतनत्वम् बोद्धव्यम् अर्थात् वृक्षों की भी इन्द्रिय है, अत: इनमें चेतना है। इसको जानना चाहिए। [चरक]
वृक्षादय: प्रतिनियतभोक्त्रयधिष्ठिता: जीवनमरणस्वप्नजागरणरोगभेषज
प्रयोगबीजजातीयानुबन्धनुकूलोपगम प्रतिकूलापगमादिभ्य: प्रसिद्ध शरीरवत्। [उदयन-पृथ्वीनिरुपणम्]
अर्थात् वृक्षों की भी मानव शरीर के समान निम्न अनुभव निश्चित होते हैं। जीवन, मरण, स्वप्न, जागरण, रोग, औषधि प्रयोग, बीज, सजातीय अनुबन्ध, अनुकूल वस्तु स्वीकार व प्रतिकूल वस्तु का अस्वीकार।अद्भुत ग्रंथ-पाराशर वृक्ष आयुर्वेद :: इस पुस्तक के 6 भाग हैं- (1). बीजोत्पत्ति काण्ड, (2). वानस्पत्य काण्ड, (3). गुल्म काण्ड, (4).वनस्पति काण्ड, (5). विरुध वल्ली काण्ड एवं (6) चिकित्सा काण्ड।
इस ग्रंथ के प्रथम भाग बीजोत्पत्ति काण्ड में आठ अध्याय हैं, जिनमें बीज के वृक्ष बनने तक का विवरण है। इसका, इसमें महर्षि पाराशर कहते हैं-
आपोहि कललं भुत्वा यत् पिण्डस्थानुकं भवेत्। तदेवं व्यूहमानत्वात् बीजत्वमघि गच्छति॥
(2). भूमि वर्गाध्याय :: इसमें मिट्टी के प्रकार, गुण आदि का विस्तृत वर्णन है।
(3). वन वर्गाध्याय :: इसमें 14 प्रकार के वनों का उल्लेख है।
(4). वृक्षांग सूत्राध्याय :: इसमें प्रकाश संश्लेषण यानी फोटो सिंथेसिस की क्रिया के लिए कहा है :- पत्राणि तु वातातपरञ्जकानि अभिगृहन्ति। यह स्पष्ट है कि वात कार्बन डाय आक्साइड, सूर्य प्रकाश और क्लोरोफिल से अपना भोजन वृक्ष बनाते हैं।
(5). पुष्पांग सूत्राध्याय :: इसमें कितने प्रकार के फूल होते हैं, उनके कितने भाग होते हैं, उनका उस आधार पर वर्गीकरण किया गया है। उनमें पराग कहाँ होता है, पुष्पों के हिस्से क्या हैं आदि का उल्लेख है।
(6). फलांग सूत्राध्याय :: इसमें फलों के प्रकार, फलों के गुण और रोग का वर्गीकरण किया गया है।
(7). वृक्षांग सूत्राध्याय :: इसमें वृक्ष के अंगों का वर्णन करते हुए पाराशर कहते है- पत्रं (पत्ते) पुष्प (फूल) मूलं (जड़) त्वक् (शिराओं सहित त्वचा) काण्डम् (स्टिम्) सारं (कठोर तना) सारसं र्नियासा बीजं (बीज) प्ररोहम्-इन सभी अंगों का परस्पर सम्बन्ध होता है।
(8). बीज से पेड़ का विकास :: पाराशर कहते हैं-
बीज मातृका तु बीजस्यम् बीज पत्रन्तुबीजमातृकायामध्यस्थमादि।
पत्रञ्च मातृकाछदस्तु तनुपत्रकवत् मातृकाछादनञ्च कञ्चुकमित्याचक्षते॥
बीजन्तु प्रकृत्या द्विविधं भवति एकमातृकं द्विमातृकञ्च।
तत्रैकपत्रप्ररोहानां वृक्षाणां बीजमेकमातृकं भवति। द्वि पत्र प्ररोहानान्तु द्विमातृकञ्च।
मोनोकॉटिलिडेन और डायकॉटिलिडेन। यानी एकबीजपत्री और द्विबीजपत्री बीजों का वर्णन है। किस प्रकार बीज धीरे-धीरे रस ग्रहण करके बढ़ते हैं और वृक्ष का रूपधारण करते हैं। कौन सा बीज कैसे उगता है, इसका वर्गीकरण के साथ स्पष्ट वर्णन है। बीज के विभिन्न अंगों के कार्य अंकुरण (जर्मिनेशन) के समय कैसे होते हैं।[वृक्ष आयुर्वेद-द्विगणीयाध्याय]अंकुरनिर्विते बीजमात्रकाया रस: संप्लवते प्ररोहांगेषु। यदा प्ररोह: स्वातन्त्रेन भूम्या: पार्थिवरसं गृहणाति तदा बीज मातृका प्रशोषमा पद्यमे॥
वृक्ष रस ग्रहण करता है, बढ़ता है। जड़ बन जाने के बाद बीज मात्रिका यानी बीज पत्रों की आवश्यकता नहीं रहती, वह समाप्त हो जाती है। फिर पत्तों और फलों की संरचना के बारे में कहा है कि वृक्ष का भोजन पत्तों से बनता है। पार्थिव रस जड़ में से स्यंदिनी नामक वाहिकाओं के द्वारा ऊपर आता है। यह रस पत्तों में पहुंच जाता है। जहां पतली-पतली शिराएं जाल की तरह फैली रहती हैं। ये शिरायें दो प्रकार की हैं- "उपसर्प" और "अपसर्प"। वे रस प्रवाह को ऊपर भी ले जाती हैं और नीचे भी ले जाती हैं। दोनों रास्ते अलग-अलग हैं।"रंजकेन पश्च्यमानात" किसी रंग देने वाली प्रक्रिया से यह पचता है-यानी फोटो सिंथेसिस। यह बड़ा महत्वपूर्ण है।
"उत्पादं-विसर्जयन्ति" पत्तियां फोटो सिंथेसिस से दिन में आक्सीजन निकालती हैं और रात में कार्बन डाय अक्साइड।
दिन में कार्बन डाय आक्साइड लेकर भोजन बनाती हैं। अतिरिक्त वाष्प का विसर्जन करती हैं, जिसे ट्रांसपिरेशन कहते हैं।
जब उसमें से वाष्प का विसर्जन होता है तब उसमें ऊर्जा उत्पन्न होती है, यानी श्वसन की क्रिया का वर्णन है। यह वर्णन बताता है कि किस प्रकार रस का ऊपर चढ़ना, पंक्तियों में जाना, भोजन बनाना, फिर श्वसन द्वारा ऊर्जा उत्पन्न करना होता है।
इस सारी क्रमिक क्रिया से पेड़ बनता है। इसके अतिरिक्त आज भी कोई दूसरी प्रक्रिया वृक्षों के बढ़ने की ज्ञात नहीं है।
TOTAL NUMBER OF SPECIES EVOLVED FROM MAHRISHI KASHYAP
There are 8.4 million species of living beings in the whole of creation.
900,000 species of aquatic
2,000,000 species of plants
1,100,000 species of insects
1,000,000 species of birds
3,000,000 species of beasts
400,000 species of human beings
Not all these species are present on this planet.
EVOLUTION (5) उत्पत्ती-सृष्टि रचना :: SEQUENCE OF EVOLUTION (2.4) सृष्टि का विकास क्रम यह कार्य ईश्वर के कार्य करने की इच्छा से होता है। इसका प्रारंभिक क्रम यह है कि यह परमाणुओं में प्रारंभ होती है। स्वतंत्र अवस्था में रहने के लिये परमाणु द्रव्य का अंतिम अवयव है तथा परमाणु नित्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु परमाणुओं के संयोग से बने हैं। सर्वप्रथम इन्हीं परमाणुओं से क्रिया होती है और दो परमाणुओं के संयोग से द्वयणुक उत्पन्न होते हैं। ऐसे ही तीन द्वयणुकों के संयोग से त्रयणुक बनता है, तत्पश्चात् चतुरणुक आदि क्रम से महती पृथ्वी, महत् आकाश, महत् तेज तथा महत् वायु उत्पन्न होता है।
ईश्वर जगत् का साक्षी है जिसके सन्निधान मात्र से प्रकृति संसार की रचना में प्रवृत्त होती है। ज्ञः साक्षीप्युच्यते नाज्ञः साक्षी ह्यात्मा यतः स्मृतः।
सवेर् भावा हि सवेर्षां भूतानामात्मसाक्षिकाः॥च.शा.1.83॥
प्रकृति और पुरुष के संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति होती है, पुरुष (परमात्मा) का संयोग ही सृष्टि के उदय और संयोग निवृत्ति ही सृष्टि प्रलय का कारण है।
रजस्तमोभ्यां युक्तस्य संयोगोऽयमनन्तवात्। ताभ्यां निराकृताभ्यां तु सत्ववृद्धया निवतर्ते॥च.शा.1.36॥
रजोगुण और तमोगुण के योग से यह चतुर्विंशति राशि रूप संयोग अनन्त है, सत्वगुण की वृद्धि तथा रजोगुण और तमोगुण की निवृत्ति से पुरुष रूप यह संयोग निवतिर्त होकर मोक्ष हो जाता है।
(1). अव्यक्त से महान्, महान् से अहंकार, अहंकार से पञ्चतन्मात्रा, पञ्चतन्मात्रा से पंच महाभूत एवं एकादश इन्द्रियाँ इस प्रकार सभी तत्वयुक्त सृष्टि के आदि में पुरुष उत्पन्न होता है। प्रलयकाल में अव्यक्त रूप प्रकृति में बुद्धयादि तत्व लय को प्राप्त हो जाते है। इस प्रकार अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त का क्रम रजोगुण और तमोगुण से मुक्त होकर पुनः-पुनः उदय प्रलय रूप में चक्र की भाँति घूमता रहता है। यही सृष्टि के विकास अर्थात् उदय महाप्रलय और मोक्ष का क्रम है।
सर्ग क्रम :- महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि के प्रारंभ में सवर्प्रथम 'अव्यक्त' तत्व पुनः उसे ''बुद्धि तत्व'' बुद्धि तत्व से ''अहंकार'' उत्पन्न होता है। इसी प्रकार अहंकार से जो त्रिविध होता है, पञ्चतन्मात्राएँ और एकादश इन्द्रियाँ उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण सर्वाङ्ग की उत्पत्ति आदि सृष्टि के आरंभ काल में अभ्युदित होती है।
यथा-जायते बुद्धिरव्याक्ताद् बुद्धयाऽहमिति मन्यते। परं खादीन्यहङ्कारादुत्पद्यन्ते यथाक्रमम्।
ततः सम्पूणर्सवार्ङ्गो जातोऽभ्यदित उच्यते॥च.शा.1.66॥
अव्यक्त :- पुरुष संसृष्ट अव्यक्त नाम मूल प्रकृति,
अहंकार :- महान् व बुद्धितत्व,
सूक्ष्म पञ्चमहाभूत :- पञ्चतन्मात्राएँ,
पञ्चमहाभूत :- एकादश इन्द्रियाँ
इन्द्रियाँ :- पञ्चमहाभूत से युक्त पाञ्चभौतिक हैं।
(2). अव्यक्त नाम की प्रकृति है। मूल प्रकृति इसका अपर पर्याय है। सभी प्राणियों का कारण स्वयं अकारण (कारण रहित सत्व, रज, तम स्वरूप आठों रूपों वाला :- अव्यक्त, महान्, अहंकार और पंचतन्मात्रारूप ) सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति का कारण अव्यक्त नाम की प्रकृति है। यह अनेक क्षेत्रज्ञ कर्म पुरुष का अधिष्ठान उसी प्रकार है; जिस प्रकार एक समुद्र अनेक नदियों का स्थान है।
उस अव्यक्त से उन्हीं लक्षणों वाला अर्थात् सत्व, रज, तम स्वरूप महान कार्य उत्पन्न होता है। उस महान अर्थात् महत् तत्व से सत्व, रज, तम लक्षणों वाला अहंकार उत्पन्न होता है।
(2.1). अंहकार तीन प्रकार का होता है :- (2.1.1). वैकारिक (सत्विक), (2.1.2). तेजस (राजस), तथा (2.1.3). भूतादि (तामस)।
(2.2). इनमें वैचारिक अंहकार तथा तेजस अंहकार की सहायता से, इन्हीं लक्षणों वाली (सात्विक+राजस) एकादश इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं।
ज्ञानेन्द्रियॉँ :- (2.2.1). श्रोत, (2.2.2). त्वक्, (2.2.3). चक्षु, (2.2.4). रसन एवं (2.2.5). घ्राण।
कर्मेन्द्रियाँ :- (2.2.6). वाक् (वाणी), (2.2.7). हस्त, (2.2.8). उपस्थ, (2.2.9). गुदा एवं (2.2.10). पाद (पैर)।
(2.2). मन :- यह ज्ञानेन्द्रि एवं कर्मेन्द्रि दोनों है और ज्ञानेन्द्रियोँ तथा कर्मेन्द्रियोँ का आश्रय पाकर मनुष्य के कार्य-कलापों को सम्पादन करता रहता है।
तामस और राजस, अहंकार की सहायता से इन्हीं लक्षणों से युक्त पञ्चतन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। शब्द, स्पर्श, रूप एवं गंध तन्मात्रा। इन तन्माओं के क्रमशः आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी ये पाँच महाभूत उत्पन्न हुए।कुल मिलाकर ये चौबीस तत्व हैं।
अतः अव्यक्त, महान्, अहंकार तथा पञ्चतन्मात्राएँ ये कुल आठ प्रकृति और शेष षोडश विकार कहे गये हैं।
अव्यक्त :- मूल प्रकृति एक एवं त्रिगुणात्मक महान अहंकार, वैकारिक (सात्विक), तेजस (राजस), भूतादि (तामस) की सहायता से 1 मन, 5 ज्ञानेन्दि्रयाँ, 5 कमेर्न्दि्रयाँ, 5 तन्मात्राअर्थात एकादश इन्द्रियाँ और पंच महाभूत।
(3). प्रकृति एवं पुरुष :: सतवरजस्तमस्यां साम्यावस्था प्रकृतिः। [सा.द.1.61]
सत्व, रज और तम की साम्यावस्था प्रकृति है। प्रकृति से ही महान्, महान् से अहंकार, अहंकार से पञ्चतन्मात्राएँ एवं दोनों प्रकार की इन्द्रियाँ एवं मन तथा तन्मात्राओं से स्थूल महाभूत इस प्रकार ये 24 तत्व उत्पन्न होते हैं। पच्चीसवाँ तत्व पुरुष है, जो प्रकृति का कारण है। जो प्रकृति के संयोग से ही बनता है।
सृष्टि के विकास क्रम में प्रकृति एवं पुरूष का संयोग सर्व प्रथम साँख्य दर्शन में वर्णित है। इन दोनों तत्वों प्रकृति एवं पुरूष को अव्यक्त नाम से एक तत्व माना है। मूल प्रकृति सदैव अव्यक्त रहती है और सभी का उत्पादक कारण इसलिए इसे अपरा प्रकृति भी कहा जाता है।
प्रक्ररोरीति प्रकृतिः; तत्वान्तरोपादानत्व प्रकृतित्वम्।
सत्व रजसतमसां साम्यावस्था प्रकृतिः; मूल प्रकृति विकृतिः॥
जो किसी वस्तु को उत्पन्न करने वाला हो, परन्तु उसका कोई उत्पादक कारण न हो उसे प्रकृति या मूल प्रकृति कहते हैं।जो अन्य तत्वों का उपादान कारण हो अर्थात् जो तत्वान्तरों को उत्पन्न करता है, उसे प्रकृति कहते हैं, जैसे मूल प्रकृति।
जो तत्वान्तरों को उत्पन्न करते हैं तथा स्वयं भी उत्पन्न होते हैं, वही प्रकृति विकृति है।
प्रकृति दो प्रकार की मानी गई है :- (3.1). मूल प्रकृति, (3.2). भूत प्रकृति।
मूल प्रकृति को अव्यक्त माना जाता है।
सर्वभूतानां कारणं कारण सत्वरजस्तमो, लक्षणमष्टरूपस्य अखिलस्य जगतः, संभवहेतुरव्यक्तं नाम। (सु०)
इसमें मूल प्रकृति अव्यक्त ही रहती है तथा भूत प्रकृति स्थावर और जंगम भूत द्रव्यों को उत्पन्न करने वाली होती है।साँख्य दर्शन के अनुसार सत्व, रज, तम की साम्यावस्था ही प्रकृति है।
मूल प्रकृतिविकृतिमर्हदाद्या प्रकृति विकृतयः सप्त। षोडकस्तु विकारो न प्रकृतिनर् विकृतिः पुरुषः॥ [सा.का.3]
(4). भगवान् श्री कृष्ण ने प्रकृति, विकृति एवं पुरुष को चार भागों में विभक्त कर वर्णन किया है :- (4.1). प्रकृति, (4.2). प्रकृति व विकृति, (4.3). केवल विकृति तथा (4.4). न प्रकृति न विकृति।मूल प्रकृति जिसे अपर माना जाता है और जो हमेशा अव्यक्त रूप में रहती है वही प्रधान प्रकृति कही जाती है। यह किसी से उत्पन्न न होने के कारण विकार रहित होती है, इसीलिए यह समस्त संसार का कारण है। इसी से महदादि 23 तत्वों की उत्पत्ति होती है। 1 महान्, 1 अहंकार तथा 5 पंच तन्मात्राएँ; ये सातों तत्व प्रकृति, विकृति उभय रूप हैं।
(5). साँख्य दशर्न सम्मत पञ्चविंशति तत्व :-महान्, अव्यक्त से उत्पन्न होता है और अहंकार को उत्पन्न करता है तथा तन्मात्राएँ अहंकार से उत्पन्न होती हैं तथा महाभूतों को उत्पन्न करती हैं। 1 मन, 5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेद्रियाँ तथा 5 महाभूत, ये 16 विकार हैं तथा पच्चीसवाँ तत्व पुरुष है जो न प्रकृति है न विकृति है अर्थात् पुरुष न किसी को उत्पन्न करता है और न किसी से उत्पन्न ही होता है। यह कार्य कारण रहित है।
(5.1). अव्यक्त नाम मूल प्रकृति जो कि केवल एक है।
(5.2). महान् विकृति, प्रकृति अहंकार अभय रूप, सात पञ्चतन्मात्रा।
(5.3). पञ्च ज्ञानेन्दि्रय, पञ्च कर्मेन्द्रियाँ, उभयात्मकं मन, केवल विकृति सोलह पञ्च महाभूत।
(5.4). पुरुष :- प्रकृति व विकृति दोनों से भिन्न एक है।
समस्त अव्यक्त आदि एकत्व का जो वर्ग होता है वह अचेतन है। पुरुष पच्चीसवाँ तत्व है। वह पुरुष कार्यस्वरूप मूल प्रकृति से संयुक्त होकर अचेतन कर्म का चैतन्य कारक होता है। अचेतन होते हुए भी मूल प्रकृति की प्रवृत्ति पुरुष (व्यक्ति) के मोक्ष के लिए होती है। क्योंकि चैतन्य युक्त पुरुष और प्रकृति के संयोग से उससे उत्पन्न हुए सभी तत्व चेतनायुक्त हो जाते हैं। जब तक प्रकृति पुरुष से अधिष्ठित नहीं होती, तब तक उससे महदादि तत्व उत्पन्न नहीं होते। पुरुष सचेतन होते हुए भी निष्क्रय और प्रकृति क्रियावर्ती होते हुए भी अचेतन, के कारण दोनों संयुक्त हुए बिना स्वतंत्र रूप से सर्गोत्पत्ति नहीं कर सकते हैं।
सृष्टि का कार्य सचेतन पुरुष और जड़ प्रकृति के संयोग से ही प्रारंभ होता है।
प्रकृति-पुरुष का साधर्म्य-वैधर्म्य :- समान धर्म अर्थात् एक जैसे गुण एवं समानताएँ साधर्म्य कही जाती है तथा विपरीत एवं विभिन्न गुण असमान धर्म वैधर्म्य कहा जाता है।
पुरुष और प्रकृति की समानता एवं असमानता ::
साधर्म्यः :- प्रकृति एवं पुरुष दोनों अनादि, अनन्त, निराकार, नित्य, अपर तथा सर्वगत एवं सर्वव्यापक हैं।
''न विद्यते अपरो याभ्यां तौ अपरौ''
वैधर्म्यः :- प्रकृति एक अचेतन त्रिगुणात्मिका सत्वरजस्तमोरुप, बीजधर्मिणी, प्रसवधर्मिणी तथा अमध्यस्थधर्मिणी है।
बीजधर्मिणी :- सभी महदादि विकारों के बीजभाव से अवस्थित अर्थात् ''बीजस्यधर्मो बीजधर्म सोऽस्या अस्तीति बीजधमिर्का।'' बीज में जैसे वृक्षोस्पत्ति का धर्म होता है, ठीक उसी प्रकार सगोर्त्पत्ति का धर्म जिसमें हो वैसी प्रकृति है।
प्रसवधर्मिणी :- महदादि तत्वों की समस्त चराचर सृष्टि को जन्म देने का धर्म जिसमें उपस्थित हो उसी तरह प्रकृति होती है।
अमध्यस्थ धर्मिणी :- अर्थात् सत्व आदि गुणों की राशि सुखादि रूप से सुख की अभिलाषा करती हुई एवं दुःख से द्वेष करती हुई अमध्यस्थ होती है । प्रकृति सत्वादि रूप होने से मध्यस्थ नहीं है ।
पुरुषः (परमात्मा) :- पुरुष शब्द से महदादि कृत सूक्ष्म लिङ्ग शरीर कहा जाता है, जो योगियों को ही दृश्य है, उस पुर अथार्त् शरीर में सोने से ही पुरुष कहा जाता है। पुरुष बहुत चेतनावान, अणुठा, अबीज, धर्मा, अप्रसवधर्मा तथा अमध्यस्थधर्मा और निविर्कार होता है। "निविर्कारः परस्त्वात्मा सत्वभूत गुणेण्दि्रयैः"। पुरुष अनुमान ग्राह्य है। वे परम सूक्ष्म चैतन्यस्वरूप तथा नित्य हैं। पञ्चभौतिक शुक्रशोणित संयोग में प्रकट होते हैं। इसी कारण सूक्ष्म पुरुष और पञ्च महाभूत का संयोग ''पञ्चमहाभूत शरीरिसमवाय पुरुष'' कहा गया है। अनादि परमात्मा का प्रभव (कारण) कोई नहीं है, अर्थात् जब उसका कारण हो जाएगा, तो उसे अनादि नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसके पहले कारण वतर्मान रहेगा। अतः राशि पुरुष -मनुष्य, मोह, इच्छा, द्वेष कर्म से उत्पन्न होता है।
''पुरुषो राशिसंज्ञस्तु मोहेच्छादुषकमर्जः ॥च.शा.1.53॥
(6). पुरूष के प्रकार ::
(6.1). चेतना धातुज, (6.2). षड्धातुज, (6.3). चतुर्विंशति तत्त्वात्मक।
षड्धातुज और चतुर्विंशति तत्त्वात्मक को एक ही माना जाता है, जिसे राशि पुरुष कहते हैं, सकारण होता है। परन्तु चेतना धातु पुरुष जिसे परमात्मा कहते हैं, वह नित्य अनादि होता है। और जो अनादि है, उसका कोई कारण नहीं होता।
''सवर्भूतानां कारणमकारणं सत्वरजस्तमो लक्षणं।'' [सुश्रुत शरीर स्थान]
अव्यक्त को सबका कारण और उसका कोई कारण नहीं, ऐसा माना है। अव्यक्त शब्द से प्रकृति और पुरुष दोनों को ग्रहण किया है।
सूक्ष्म पुरुष और पञ्चमहाभूतों का संयोग ही आयुर्वेद में 'षड्धातुज' पुरुष कहा गया है। यही कर्म पुरुष है, जो कर्मफल भोगता है। यही चिकित्साधिकृत है, अर्थात् इसी की चिकित्सा होती है और यही चिकित्सित कर्मफल को प्राप्त करता है।
''शरीरादिव्यतिरिक्तिः पुमान्'' (सां.द.1.139]
शरीर, (मन) बुद्धि से पुरुष भिन्न है।'अधिष्ठानच्येति' [सा.द. 1.142]
पुरुष देहादि पर अधिष्ठाता है। अधिष्ठाता होने से भी वह देहादि से भिन्न है। वह भोक्ता होने तथा देह छोड़कर मोह की इच्छा करने से देहादि पर अधिष्ठाता है, अतः वह स्वयं भिन्न है।''जन्मादि व्यवस्थातः पुरुषबहुत्वम्'' (सा.द.1.149]
पुरुष-जीव-प्राणी के जन्म-मरण से एक शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर में जाने से यह सिद्ध होता है कि 'पुरुष' एक विभु सर्वव्यापक होता है, तो देह से निकलना, आना-जाना आदि व्यवस्था न होती। इससे यह सिद्ध होता है कि पुरुष अनेक है, एक नहीं।
''पुरुष बहुत्वम् व्यवस्थातः'' [सा.द.6.45]
अतः व्यवस्था से पुरुष का बहुत होना सिद्ध है । यदि पुरुष एक होता तो जन्म-मरण व्यवस्था दृष्टिगोचर न होती । किन्तु व्यवस्था तो ऐसी है कि कोई जन्म लेता है, तो कोई मृत्यु को प्राप्त होता है । इससे पुरुष का बहुत होना पाया जाता है।
इस प्रकार जितने भी पुरुष तथा उसकी सत्ता है, उन सभी में श्रेष्ठ या चिकित्साधिकृत पुरुष-राशि पुरुष ही है, जिसे आधार माना गया है तथा इसी 24 तत्त्वों के संयोग से जो पुरुष बनता है, उसे राशि पुरुष कहा गया है।
राशि पुरुष के 24 तत्व- बुद्धि, इंद्रिय (अथार्त पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कमे) इनके योग (संयोग अर्थात मिलाप) को धारण करने वाले को 'पर' जानना चाहिए, इस चतुर्विंशति तत्त्व की राशि को पुरुष कहते हैं।
बुद्धीन्दि्रयमनोऽथार्नां विद्याद्योगधरं परं। चतुर्विंशतिको हेष राशिः पुरुषसंज्ञकः॥च.शा.1.35॥
इसमें पुरुष को 24 तत्वों की राशि बताई है, परन्तु मूल में 24 तत्व स्पष्ट नहीं है । यहाँ बुद्धि से तात्पर्य महत् तत्व, अहंकार, पञ्चतन्मात्राएँ; ये 7 लिए जाते हैं। इंद्रिय से 5 ज्ञानेन्द्रिय, 5 कर्मेन्द्रिय तथा 1 मन। अर्थ से यहाँ विषय (शब्दादि) न लेकर 5 महाभूत लिए जाते हैं । 'पर' शब्द से अव्यक्त लिया गया है। इसप्रकार बुद्धि से 7+मन सहित 11 इंद्रियाँ, 5 महाभूत, 1 अव्यक्त, ये सब मिलाकर 24 तत्व का यह राशि पुरुष माना जाता है।
इस राशि पुरुष की परम्परा अनन्त है। रज एवं तम से संयुक्त पुरुष का यह बुद्धि, इंद्रिय, मन और अर्थ का संयोग अथवा 24 तत्वों का संयोग अनन्तवान् होता है। अर्थात् इस संयोग का कभी अंत नहीं होता। रज और तम हट जाने पर और सत्वगुण के बढ़ जाने से तो मोक्ष हो जाता है। सभी कर्मादि का आधार राशि पुरुष ही है। इसलिए :-
सत्वमात्मा शरीरं च त्रयमेतत्त्रिण्डवत्। लोकस्तिष्ठति संयोगात तत्र सर्व प्रतिष्ठितम्॥
पुरुष को प्रकृति का कारण माना जाता है । यदि कर्त्ता और ज्ञाता पुरुष न हो तो 'भा' (प्रतिभा), तम (मोह), सत्य-असत्य, वेद, शुभ- अशुभ कर्म नहीं होंगे । यदि पुरुष को न माना जायगा, तो न आश्रय (आत्मा का आश्रय शरीर), न सुख, न अर्ति (दुःख), न गति (स्वगर् या मोक्ष को प्राप्त करना), न आगति, न पुनर्जन्म, वाक् विज्ञान, जन्म-मृत्यु, बंधन, न ही मोक्ष होगा। इसलिए पुरुष को कारण बताया गया है।तीन प्रकार के पुरुषों में 24 तत्वात्मक पुरुष को ही कारण माना गया है।
अव्यक्त आत्मा अथार्त् चेतना धातु को कारण माना है, परन्तु केवल आत्मा किसी भी कार्य को करने में समर्थ नहीं होती, क्योंकि आत्मा को तब तक ज्ञान नहीं होता, जब तक वह 24 तत्वों से संयोग नहीं करता है।
यथाः- ''आत्मा ज्ञः करणैयोर्गाज्ज्ञ्नं त्वस्य प्रवतर्ते''।
(7). पंचमहाभूत :: (7.1). वैकारिक, (7.2). तैजस, (7.3). भूतादि।तैजस अहंकार की सहायता से भूतादि अहंकार द्वारा पञ्च तन्मात्राएँ उत्पन्न होती है।
भूतादेरपि तैजसहायात् तल्लक्षणान्येव पञ्चतन्मात्राणि उत्पद्यन्ते। [सु.शा.1]
भूतादि अहंकार से ही पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति हुई इसीलिए उनकी संज्ञा भूत हुई। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये क्रमशः महाभूतों के गुण हैं। इन्हें ही पञ्चतन्मात्रा भी कहा जाता है। पञ्चतन्मात्रा का दूसरा नाम अविशेष या सूक्ष्मभूत है।महाभूतानि रवं वायुरग्निरापः क्षितिस्तथा, शब्द स्पशर्श्च रूपं च रसो गन्धश्च तद्गुणाः।॥च.शा.1॥
पञ्चमहाभूतों की रचना एवं गुणोत्पत्ति ::
आकाश (व्यापक) :- शब्द = 1 तन्मात्रा।
वायु :- शब्द + स्पर्श = 2 तन्मात्रा।
अग्नि :- शब्द +स्पर्श + रूप = 3 तन्मात्रा।
जल :- शब्द + स्पर्श + रूप + रस = 4 तन्मात्रा एवं
पृथ्वी :- शब्द + स्पर्श + रूप + रस + गंध = 5 तन्मात्रा।
इस प्रकार सूक्ष्म महाभूत अर्थात् तन्मात्राओं से पहले तत्वों की एक मात्रा अपने तत्वों के दो भाग से आकाश आदि स्थूल महाभूतों की क्रमशः उत्पत्ति होती है। यह त्रिवृत्तिकरण दार्शनिकों का 'अणु' है ।
यह समस्त विश्व पञ्चमहाभूतों की ही खेल है। इन पञ्चमहाभूतों का जो इन्द्रियग्राह्य विषय नहीं है, वही तन्मात्रा महाभूत है और जो इन्द्रियग्राह्य हैं, वे ही भूत हैं। आत्मा, आकाश अव्यक्त तत्व हैं और शेष व्यक्त तत्त्व हैं।
सृष्टि भूतों का समुदाय है। पृथ्वी में गति वायु से तथा अवयवों का मेल एवं संगठन जल से और उष्णता अग्नि से आई। पृथ्वी अंतिम तत्त्व है, अर्थात् उससे किसी नये तत्त्व की उत्पत्ति नहीं होती है।
तेषामेकगुणं पूर्वो गुणवृद्धि परे परे, पूर्वः पूवर्गुणश्चैव क्रमशो गुणिषु स्मृतः॥च.शा.1.28॥
इनमें प्रथम भूत आकाश गुण वाला अर्थात् शब्द। आकाश का केवल एक ही गुण होता है शब्द और पिछले प्रत्येक भूत में अपने पूर्व भूत के गुणों के प्रवेश से गुण की वृद्धि रहती है।
सृष्टि के आदि में आकाश स्वयं सिद्ध रहता है। जिस प्रकार आकाश को नित्य माना जाता है उसी प्रकार शब्द भी नित्य है।
'आकाशद्वायुः' :- आकाश से वायु की उत्पत्ति होती है, तो उसमें अपना गुण स्पर्श एवं आकाश का शब्द रहता ही है जिससे वायु में शब्द एवं स्पर्श दो गुण हो जाते हैं।
'वायोरग्नि' :- तो वायु से अग्नि की उत्पत्ति। इसमें-शब्द, स्पर्श, रूप, तीन गुण हुए।
'अग्नेराप' :- अग्नि से जल की उत्पत्ति- शब्द, स्पर्श, रूप, रस 4 गुण हुए ।
'अद्भयः पृथ्वी' :- जल से पृथ्वी की उत्पत्ति जिसमें-शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पाँच गुण होते हैं ।
इस प्रकार महाभूतों की क्रमशः उत्पत्ति और तदनुसार उनमें क्रमशः गुणवृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त महाभूतों में कुछ अन्य गुण भी पाए जाते हैं, जिनका ज्ञान स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा होता है।
(8). महाभूतों के गुण :- गंधत्व, द्रवत्व, उष्णत्व, चलत्व गुण क्रमशः पृथ्वी, जल, तेज और वायु के होते हैं।
आकाश का गुण अप्रतिघात (प्रतिघात=रुकावट) होता है।
शरीर में सूक्ष्म महाभूतों के गुणों को चिह्न ही निदेर्श किया है।
गुणाः शरीरे गुणिनां निदिर्ष्टश्चिह्नमेव च् (च.शा.)
क्षर होना, द्रव होना, चंचल होना, उष्ण होना, इनका ज्ञान त्वचा से ही होता है।
महाभूतों का सत्व, रज और तम से भी घनिष्ठ संबंध है।
(8.1). सत्वबहुलमाकाशम् :- सत्व गुण की अधिकता वाला आकाश होता है।
(8.2). रजोबहुलोवायुः :- रजो गुण की अधिकता वाला वायु होता है।
(8.3). सत्वोरजो बहुलोऽग्निः :- सत्व और रजोगुण की अधिकता वाला अग्नि महाभूत होता है।
(8.4). सत्वतमोबहुलाऽऽपः :- सत्व और तमोगुण की अधिकता वाला जल महाभूत होता है।
(8.5). तमोबहुला पृथिवीति :- तमोगुण की प्रधानता वाला पृथ्वी होती है।
इस प्रकार आकाशादि पञ्चमहाभूतों में सत्वादिगुण विद्यमान रहते हैं।
पञ्चमहाभूतों से द्रव्यों की उत्पत्ति के ज्ञान हेतु इसकी तीन अवस्थाएँ होती है -
(9). भूत, महाभूत और दृश्यभूत :- भूत या तन्मात्रा की अवस्था में आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी में उनके शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध; ये गुण अव्यक्तावस्था में रहते हैं, यह परमाणुक अथवा सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म अवस्था होती है। यह स्थिति प्रलय की है ।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार प्रलय की स्थिति में जब परमात्मा को सृष्टि निर्माण की इच्छा हुई, तब आकाश महाभूत के दो परमाणुओं में परस्पर आकषर्ण के द्वारा संयोग होने लगा । द्वयणुक की रचना हुई तथा तीन द्वयणुक के मिलने से त्रसरेणुकी निर्मित हुई । द्वयणुक तक गुणों में सूक्ष्मता तथा भूत में अव्यक्तावस्था रहती है, तथा त्रसरेणु में यह (भूत) प्रत्यक्षयोग्यता तथा महत् परिमाण वाला हो जाता है । महत्त्व या स्थूलत्व आ जाने के कारण ही इनको महाभूत कहते हैं ।
महाभूतों के गुण ::
खरद्रवचलोष्णत्वं भूजलानिलतेजसाम्आकाशस्याप्रतिघातो दृष्टं लिङ्गं यथाक्रमम्।(च.शा.1.29)
महाभूतों की उपयोगिता ::
(9.1). गर्भविकास एवं पञ्चमहाभूत, (9.2). शरीरावयव एवं पञ्चमहाभूत, (9.3). त्रिदोष एवं महाभूत, (9.4). देह प्रकृति एवं पञ्चमहाभूत, (9.5). षड्रस एवं पञ्चमहाभूत एवं (9.6). भूताग्नि एवं पञ्चमहाभूत।
संसार के स्थूल से स्थूल तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म द्रव्य की निष्पत्ति पञ्चमहाभूत से ही होती है; किन्तु पञ्चभौतिक होते हुए भी जिस महाभूत का प्राधान्य जिस द्रव्य में होगा उसकी अभिव्यक्ति उसी महाभूत के गुणों के द्वारा होती है तथा महाभूत की अधिकता के अनुसार ही आकाशीय वायव्य तैजस या आग्नेय आदि कहा जाता है।
अजन्मा, व्यक्त और अव्यक्त-अप्रकट, साकार-निराकर, सगुण-निर्गुण परमात्मा से गौलोक वासी व्यक्त-मूर्त रूप से प्रकट हुए-भगवान् श्री कृष्ण का उद्भव हुआ। वह परमात्मा ही समस्त आत्माओं का आश्रय है अर्थात समस्त चराचर, आत्माएँ उसी से प्रकट होती हैं और उसी में महाप्रलय के होने पर समा जाती हैं। भगवान् श्री कृष्ण (पुरुष) से ही देवी भगवती स्त्री (चिन्मयी शक्ति) प्रकट हुईं। देवी माँ भगवती की जिव्हा से से देवी सरस्वती प्रकट हुईं। माँ सरस्वती के दायें भाग से माँ राधा प्रकट हुईं और दायें भाग से देवी माँ लक्ष्मी प्रकट हुईं। उनका शरीर श्री कृष्ण और शक्ति राधा जी हैं। भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा जी के समागम से उनकी दीर्घ स्वांस-साँस चलने लगी। यह समागम की प्रक्रिया 10 मन्वन्तरों तक चलती रही। जिससे पवन की उत्पत्ति हुई। भगवान् श्री कृष्ण (द्विभुज) और 100 मन्वन्तरों तक गर्भ धारण करने के उपरांत राधा जी से विराट पुरुष उत्त्पन्न हुए। भगवान् श्री कृष्ण और माँ देवी भगवती राधा जी से उत्पन्न पुत्र विराट पुरुष कहलाते हैं। समस्त ब्रह्मांडों की उत्पत्ति उन्हीं से हुई है। यही महा विष्णु (चतुर्भुज) हैं। उनके शरीर पर जितने भी रौंम हैं उनसे उतने ही ब्रह्माण्ड उत्तपन्न हुए।
भगवान् सदाशिव उन्हीं से प्रकट हुए। पवन देव का विभाजन दो रूपों में हो गया :- पहला वे स्वयं व दूसरी उनकी पत्नी। इन दोंनो के 5 पुत्र (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) हुए। समागम कल में जो द्रव पसीने के रूप में उत्पन्न हुआ, वो जल में बदल गया और उसके देवता वरुण देव हैं। वरुण देव का विभाजन भी दो भागों में हो गया वे स्वयं और उनकी पत्नी।
भगवान् श्री कृष्ण ने स्वयं को दो भागों में व्यक्त किया और वाम अंग से माँ भगवती प्रकट हुईं। माँ भगवती की जिव्हा से माँ सरस्वती प्रकट हुईं। माँ सरस्वती से माँ राधा और माँ लक्ष्मी प्रकट हुईं।
भगवान् श्री कृष्ण ने अपने शरीर पुनः द्विभाजित किया और उनके बायें भाग से भगवान् श्री हरी विष्णु प्रकट हुए।
भगवान् कृष्ण द्विभुज और भगवान् श्री हरी विष्णु चतुर्भुज हैं।
भगवान् श्री कृष्ण ने महाविष्णु को वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और माँ देवी भगवती लक्ष्मी को उन्हें सौंप दिया। माँ भगवती सरस्वती देवी भी उन्हीं को प्राप्त हुईं।तत्पश्चात देवी माँ भगवती सरस्वती ने स्वयं को द्विभाजित किया और एक भाग से ब्रह्मा जी के साथ जी के साथ ब्रह्म लोक में प्रतिष्ठित हुईं।
भगवान श्री कृष्ण और राधा जी ने गौलोक में निवास किया। राधा जी को प्रकृति, माया, महाशक्ति आदि नामों से भी जाना जाता है।
गौलोक समस्त ब्रह्माण्डों के केंद्र है। पद गरिमा से गौलोक और बैकुण्ठ का स्तर समान है। भगवान् श्री कृष्ण से माँ दुर्गा प्रकट हुईं।
उनके साथ चतुर्मुखी ब्रह्मा जी, ब्रह्माणी और भगवान् सदाशिव प्रकट हुए। ब्रह्मा जी और ब्रह्माणि को भगवान् श्री कृष्ण ने ब्रह्म लोक प्रदान किया। माँ सरस्वती का एक अंग ब्रह्मा जी के साथ ब्राह्मण लोक में संयुक्त हुआ।
भगवान् सदाशिव और देवी दुर्गा को शिवलोक प्राप्त हुआ। माँ भगवती दुर्गा भगवान् सदाशिव के साथ शिव लोक में प्रतिष्ठित हुईं। कालरूपी ब्रह्म सदाशिव ने ही शक्ति के साथ शिवलोक नामक क्षेत्र का निर्माण किया। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर विहार करने वाले सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्री अंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। भगवान् सदाशिव की पराशक्ति प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकार रहित हैं। माँ शक्ति, अम्बिका (पार्वती या सती नहीं), प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिभुवन जननी, नित्या और मूल कारण भी हैं। उनकी 8 भुजाएँ हैं। पराशक्ति जगत जननी माँ भगवती नाना प्रकार की गतियों से संपन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र शक्ति धारण करती हैं। एकाकिनी होने पर भी वह माया शक्ति संयोगवशात अनेक हो जाती है। शक्ति की देवी ने ही लक्ष्मी, सावित्री और पार्वती के रूप में अवतार ग्रहण किया और ब्रह्मा, विष्णु और महेश की अर्धांगनी हुईं। तीन रूप होकर भी वह अकेली रहीं।
वह परम ब्रह्म भगवान् सदाशिव भी है। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर विहार करने वाले उस सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्री अंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। सदाशिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है।
भगवान् शिव के संगीत का आनंद लेते हुए भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी अचानक गौलोक में लय हो गए और देवी भगवती गँगा के रूप में प्रकट हुए। तत्पश्चात भगवान् शिव के आग्रह पर पुनः भूलोक में पधारे।
देवी भगवती गंगा को भगवान् श्री कृष्ण ने वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और वे भगवान श्री हरी विष्णु के पास चली गईं।
भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा जी से उत्पन्न विराट पुरुष से उतने ही ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुए जितने उनके शरीर पर रोंये-रोम थे।
गौ लोक समस्त ब्रह्मांडों का केंद्र है। गौ लोक और वैकुण्ठ लोक का लय समस्त लोकों के उपरांत होता है। समस्त ब्रह्माण्ड पुनः अव्यक्त-निर्गुण, साकार-निराकर, सम परमात्मा में विलीन हो जाते हैं।
भगवान् श्री कृष्ण और माँ राधा के मिलन से स्वेद प्रकट हुआ और वह वरुण देव के रूप में प्रकट हुआ। संयोजन में मिलन से माँ राधा और भगवान् श्री कृष्ण के स्वांस से वायु प्रकट हुई और पवन देव अस्तित्व में आये। उनके 10,000 दिव्य वर्षों के संयोजन से विराट पुरुष प्रकट हुए जिन्हें माँ राधा ने अपने से अलग कर दिया। विराट पुरुष रोने लगे तो भगवान् श्री कृष्ण ने उन्हें शांत किया और बताया कि वही उनके नियन्ता हैं। विराट पुरुष को महा विष्णु के दर्जा प्राप्त हुआ। उनके शरीर पर जितने रोम थे उतने ही ब्रह्माण्ड उनसे प्रकट हुए। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष प्रकट हुए जिनका स्तर उस लोक के भगवान् विष्णु के समान था। क्षुद्र विराट पुरुष से ही स्वेत्लोक वासी पालनकर्त्ता भगवान् विष्णु प्रकट हुए।
प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष हैं। उनसे ही त्रिदेव : ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति होती है।
क्षुद्र विराट पुरुष के बायें भाग से चतुर्भुज भगवान विष्णु श्वेत द्वीप में प्रकट हुए। उनके नाभि कमल से ब्रह्मा जी प्रकट हुए। ब्रह्मा जी के मस्तक से भगवान् शिव प्रकट हुए। भगवान् शिव-महेश का निवास कैलाश पर्वत पर है। त्रिदेव परमपिता पर ब्रह्म परमेश्वर के अभिन्न अंग हैं जो पृथ्वी लोक को धारण किये हुए ब्रह्मांड में उपस्थित हैं।
ब्रह्म लोक में देवो सावित्री और देवी गायत्री उनकी पत्नियों के रूप में विराजमान हैं।
श्वेतद्वीप निवासी भगवान् विष्णु की पत्नी के रूप में देवी लक्ष्मी विराजमान हैं।
माँ पार्वती, माँ सती की अवतार कैलाश धाम में भगवान शिव की पत्नी के रूप में विराजमान हैं।
कालरूप सदाशिव की अर्धांगिनी हैं, माँ दुर्गा। उनका उत्तम लोक-क्षेत्र काशी है। भगवान् शिव ने 10,000 मन्वन्तर पर्यन्त तपस्या करके यह मोक्ष का स्थान प्राप्त किया है। यहाँ शक्ति और शिव अर्थात कालरूपी ब्रह्म सदाशिव और दुर्गा यहाँ पति और पत्नी के रूप में निवास करते हैं। इस मनोरम स्थान काशी पुरी को प्रलयकाल में भी शिव और शिवा ने अपने सान्निध्य से कभी मुक्त नहीं किया था। इस आनंद रूप वन में रमण करते हुए एक समय शिव और शिवा को यह इच्छा उत्पन्न हुई कि किसी दूसरे पुरुष की सृष्टि करनी चाहिए, जिस पर सृष्टि निर्माण (वंशवृद्धि आदि) का कार्यभार रखकर हम निर्वाण धारण करें। ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित परमेश्वर रूपी सदाशिव ने अपने वामांग पर अमृत मल दिया। वहाँ से एक पुरुष प्रकट हुआ। शिव ने उस पुरुष से संबोधित होकर कहा, "वत्स! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु विख्यात होगा"। इस प्रकार भगवान् विष्णु के माता और पिता कालरूपी सदाशिव और पराशक्ति दुर्गा हैं।
भगवान् ब्रह्मा जी ने भगवान् शिव से सृष्टि रचना का आग्रह किया तो उन्होंने 10 रुद्रों की उत्त्पत्ति की। उन्हें दसों दिशाओं का दिक्पाल नियुक्त किया गया। भगवान् शिव ने सृष्टि रचना में अपनी असमर्थता जाहिर की। ब्रह्मा जी के मस्तक से देवऋषि नारद प्रकट हुए।
पुनर्जन्मों के कारण बहुत प्रकार के तमोगुण से आवेष्टित ये स्थावर जीवन जब वह परमात्मा जागकर सृष्टि उत्पत्ति आदि की इच्छा करता है, तब यह समस्त संसार चेष्टायुक्त होता है और जब यह शान्त आत्मावाला सभी कार्यों से शान्त होकर सोता है अर्थात् इच्छा रहित होता है, तब यह समस्त संसार प्रलय को प्राप्त होता है। सृष्टि से निवृत्त हुए उस परमात्मा के सोने पर, श्वास प्रश्वास चलना-फिरना आदि को करने का जिनका स्वभाव है, वे देहधारी जीवन अपने-अपने कर्मों से निवृत्त हो जाते हैं और सब इंद्रियों समेत मन भी ग्लानि की अवस्था को प्राप्त करता है।
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः। अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः॥
परमात्मा की जब बहुत होने की इच्छा हुई तब वे उठे तथा अण्ड के अधिभूत, अध्यात्म तथा अधिदैव ये तीन खण्ड किये। उन परमात्मा के आंतरिक आकाश से इन्द्रिय, मनः तथा देह शक्ति उत्पन्न हुई। साथ ही सूत्र, महान् तथा असु नामक तीन प्राण भी उत्पन्न हुए। उनके खाने की इच्छा के कारण अण्ड से मुख निकला जिसके अधिदैव वरुण तथा विषय रसास्वादन हुआ। इसी प्रकार बोलने की इच्छा के कारण वाक् इन्द्रिय हुई जिसके देव अग्नि तथा भाषण विषय हुआ। उसी तरह नासिका, नेत्र, कर्ण, चर्म, कर, पाद आदि निकला। यह परमात्मा का साकार स्थूल रूप है, जिनका नमन वेद पुरुष सूक्त से किये हैं।
नाभिपद्म से उत्पन्न ब्रह्मा जी पंकज कर्णिका पर आसीन थे। कल्प के आदि में, ब्रह्मा जी भगवान विष्णु के नाभि से उत्पन्न हुए पद्म पर विराजमान थे, उन्होंने उस समय सम्पूर्ण जगत को जलमग्न देखा। वे सोचने लगे कि, वे कौन हैं, किसने उन्हें जन्म दिया हैं तथा उनके जन्म का क्या उद्देश्य हैं। वे कमलनाल के सहारे जल में प्रविष्ट हुए तथा सौ दिव्य वर्ष तक निरंतर खोज करने पर भी कोई प्राप्त नहीं हुआ। अंत में वे पुनः यथास्थान बैठ गए। वहाँ हजारों दिव्य वर्षों तक समाधिस्थ रहे और घोर तपस्या की। तदनंतर पुरुषोत्तम भगवान श्री हरी विष्णु ने उन्हें दर्शन दिये।
ब्रह्मा जी ने भगवान् श्री हरी विष्णु की स्तुति की :-
ज्ञातोऽसि मेऽद्य सुचिरान्ननु देहभाजां, न ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम्।
नान्यत्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धं, मायागुणव्यतिकराद्यदुरुर्विभासी॥[श्रीमद्भागवत]
चिरकाल से मैं आपसे अंजान था, आज आपके दर्शन हो गए। मैंने आपको जानने का प्रयास नहीं किया, यही हम सब का सबसे बड़ा दोष है क्योंकि समस्त ब्रह्माण्ड में आप ही जानने योग्य हैं। अपने समीपस्थ जीवों के कल्याणार्थ आपने सगुण रूप धारण किया, जिससे मेरी उत्पत्ति हुई। निर्गुण भी इससे भिन्न नहीं।
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जितने ब्रह्मांड हैं, उतने ही भगवान् ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। पृथ्वीलोक जिस ब्रह्माण्ड में स्थित है, उसमें भगवान् शिव की आयु 8 परार्ध, भगवान् विष्णु की आयु 4 परार्ध और ब्रह्मा जी की आयु 2 परार्ध है। ब्रह्मा जी की आयु पूर्ण होने के बाद महाप्रलय हो जाता है और समस्त जीवधारी भगवान् श्री नारायण-विष्णु में समाहित हो जाते हैं। यह क्रम माला के मनकों की तरह है जो 108 तक घूमकर फिर पहले पर पहुँच जाता है और यही सृष्टि का क्रम है। पुराणों में मन्वन्तरों के अनुरूप सृष्टि के प्रकट होने का क्रम दिया गया है। यद्यपि घटनाक्रम कमोबेश वही रहता है, परन्तु पात्रों के नामों और गुणों में अन्तर स्वाभाविक है।
सूखी धरती पर जलावृष्टि हुई और यह धरती पूर्ण रूप से जल से भर गई। संपूर्ण धरती जलमग्न हो गई। जब धरती ठंडी होने लगी तो उस पर बर्फ और जल का साम्राज्य हो गया। तब धरती पर जल ही जल हो गया। इस जल में ही जीवन की उत्पत्ति हुई। आत्मा ने ही खुद को जलरूप में व्यक्त किया। इस जलरूप ने ही करोड़ों रूप धरे। जल का यह रूप हिरण्यगर्भ (क्षूद्र विराट पुरुष) में जन्मा अर्थात जल के गर्भ में जन्मा।
सबसे पहले नार-जल की उत्पत्ति हुई। आप-जल को ही नार एवं परमात्मा को तनु कहते हैं। नार-जल में क्षूद्र विराट पुरुष की उत्पत्ति हुई। जब उस सर्वव्यापक परमात्मा ने आँखें खोलीं तो नेत्रों से सूर्य की और हृदय से चंद्रमा की उत्पत्ति हुई। फिर उसमें बीज डाला गया।
पहले स्वयं समर्थ अर्थात् स्वयं भूत और स्थूल में प्रकट न होनेवाला अर्थात् अव्यक्त इस महाभूत आकाशादि को प्रकाशित करने वाला परमात्मा इस संसार को प्रकटावस्था में लाते हुए प्रकट हुआ और फिर उस परमात्मा ने अपने आश्रम से ही महत नामक तत्त्व को और महतत्त्व से मैं हूँ (Presence of the Almighty in the form of Soul.) ऐसा अभिमान करने वाले सामर्थ्यशाली अहंकार नामक तत्त्व (Status, by virtue of left over impact of deeds) को और फिर उनसे सब त्रिगुणात्मक (Satv, Raj and Tam) पंचतन्मात्राओं तथा आत्मोपकारक मन इन्द्रिय को और विषयों को ग्रहण करने वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों को यथाक्रम से उत्पन्न कर प्रकट किया।
उन तत्त्वों में से अनन्त शक्ति वाले छहों तत्त्वों के सूक्ष्म अवयवों को उनके आत्मभूत तत्त्वों के कारणों में मिलाकर सारे पाँच महाभूतों की सृष्टि की।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥3.10॥
प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि काल में यज्ञ-कर्तव्य कर्मों के विधान सहित मनुष्यों (प्रजाओं) को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि करो और यह कर्तव्य-कर्म रूपी यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग-आवश्यक सामग्री प्रदान करने वाला हो।
At the beginning of his day Brahma Ji created the Humans & specified their duties as well. He issued direction to perform deeds-Yagy etc. to attain the desired-essential goods to survive.
प्रजापति ब्रह्मा जी ने श्रष्टि की रचना की और समस्त प्राणियों के कर्तव्य कर्मो का निर्धारण किया। इन सब में केवल मनुष्य मात्र ही कर्म करने में सक्षम हैं। शेष योनियाँ भोग योनियाँ हैं। कर्म यज्ञ को निरूपित करता है। द्रव्य, तप, योग, वर्णाश्रम धर्म, निहित और विहित कर्म केवल लौकिक और पारलौकिक उन्नति के हेतु हैं। मनुष्य जन्म का मूल कारण आत्मा की शुद्धि और परमात्मा में विलय है।
Amongest the various creations of the creator-Brahma Ji, its only the human being who has been blessed with the capability of performing various activities for relinquishing to assimilate in the Almighty. All other organisms, including the divine once are meant for experiencing the outcome, reward or punishment of their deeds: accumulated, by virtue of destiny and the present ones. The deeds have special significance in the charter of Brahma Ji. Deeds described in the scriptures are meant for salvation-purification. One can make efforts to improve his present and future. The reason behind human incarnation is to grant opportunity to achieve assimilation in God.
The stress is over purity of means for earning livelihood for subsistence. All duties, functions including prayers, worship are covered under it.(श्रीमद्भगवद्गीता :: कर्म योग santoshkipathshala.blogspot.com)
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सोSभिध्याय शरीरात्सवत्सिसृक्षुविरविधा: प्रजा:।
अप एव ससर्जाSSदौ तासु बीजमवासृजत्॥मनुस्मृति 1.8॥
परमेश्वर ने अपने संकल्प से सृष्टि रचना-समस्त जीवधारियों की उत्तपत्ति का निर्णय लिया और सर्व प्रथम जल की सृष्टि-रचना की। तत्पश्चात उसमें अपना अंश प्रवाहित-स्थापित किया।
The Almighty desired-wished to produce beings, creatures, organism-species of many kinds from his own self, through his brain power and thus created the water and placed his seed in it.
तदण्डमभवध्दैमं सहत्राम्शुसम्प्रभम्।
तस्मिञ्जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः॥मनुस्मृति 1.9॥
यह बीज सूर्य के समान चमकीले एक स्वर्ण अंड में परिवर्तित हो गया और उसमें से सभी लोकों को उत्पन्न करने वाले स्वयं ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए।
The component of the Almighty as seed turned into a golden egg as bright as the Sun and Brahma Ji the creator of all abodes evolved from it.
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।
ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणं स्मृत:॥मनुस्मृति 1.10॥
नर (भगवान्) से जल की उत्पत्ति हुई है, इसलिये जल को नार कहते हैं। वह नार जिसका पहले अयन (प्रथम स्थान) हुआ है; इसलिये उसका नाम नारायण हुआ। पर ब्रह्म परमेश्वर-सनातन परमात्मा (नारायण-भगवान् विष्णु के रूप में) इससे प्रकट हुए।
The offspring (fluid-Nar-water) evolved first (Ayan) and thus the Almighty appeared as Narayan and led to the evolution of the Par Brahm Parmeshwar HIMSELF; the progenitor of the universe in the form of Bhagwan Shri Hari Vishnu.
Water (जल, नार) is made up of two basic elements hydrogen and oxygen. Molecular Hydrogen is composed of 2 Protons. In atomic state its very reactive. Deuterium & Tritium are the two isotopes of hydrogen. Deuterium forms heavy water with oxygen. All other elements are formed by the various permutations & combinations of Protons, Electrons and Neutrons. Neutron breaks up into Protons and Electrons. The science can prove that all life forms evolved through this process.
The scientists have discovered God particle in addition to more than 43 subatomic particles with duel nature i.e., particle and wave simultaneously.
The cause behind creation-evolution of universe, who is indiscernible, eternal and is both real and unreal (formless & with form), evolved HIMSELF and is known as Brahma Ji.
The Almighty resided in that egg shell for one year according to HIS own calculations of time & then divided the shell into two components with the help of HIS psyche-thought.
Out of those two halves Brahma Ji created sky-space, earth and heaven in the middle, eight directions and place for eight oceans.
यत्तकारणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम्।
तद्विसृष्ट: स पुरुषो लोके ब्रम्होति कथ्यते॥मनुस्मृति 1.11॥
सम्पूर्ण सृष्टि के कारण, अव्यक्त, नित्य, सत्-असत् स्वरुप जो पुरुष [वह परब्रह्म परमात्मा जो अगोचर, (अप्रत्यक्ष, अभिन्न, अदृश्य), सनातन तथा साकार और निराकार है] उससे उत्पन्न हुआ और उसे संसार में ब्रह्मा जी के नाम से जाना जाता है।The cause behind creation-evolution of universe, who is indiscernible, eternal and is both real and unreal (formless & with form), evolved HIMSELF and is known as Brahma Ji.
तस्मिन्नण्डे स भगवानुषित्वा परिवत्सरम्।
स्वयमेवाSSत्मनो ध्यानात्तद्दण्डमकरोद् द्विधा॥मनुस्मृति 1.12॥
अपने दिनादि के मान से परमात्मा ने उस स्वर्ण अण्ड में एक वर्ष तक स्थिर रहकर स्वयं अपने ही ध्यान से उस अण्डे को दो भागों में विभाजित कर लिया।The Almighty resided in that egg shell for one year according to HIS own calculations of time & then divided the shell into two components with the help of HIS psyche-thought.
ताभ्यां स शकलाभ्यां च दिवं निर्ममे।
मध्ये व्योम दिशच्श्राष्टावपां स्थानञ्च शाश्र्वतम्॥
ब्रह्मा जी ने दोनों खंडों से क्रमशः आकाश, पृथ्वी और मध्य में स्वर्ग, आठों दिशाएँ और आठ समुद्र जल के स्थान बनाये।[मनुस्मृति 1.13] Out of those two halves Brahma Ji created sky-space, earth and heaven in the middle, eight directions and place for eight oceans.
उद्वबर्हाSSत्मनच्श्रेव मनः सदसदात्मकम्।
मनसच्श्राप्यहङ्कारमभिमन्तारमीश्र्वरम्॥
फिर सत्-असत् स्वरूप परमात्मा से ही आत्मा, मन, बुद्धि और अहंकार प्रकट हुए।[मनुस्मृति 1.14]
Thereafter, Sat & Asat (real & unreal, truth & falsehood) both of which represents the Almighty, the soul, psyche (mind, innerself, mood, gestures, self consciousness, intelligence) and the ego appeared.
महान्तमेव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च।
विषयाणां ग्रहीत्रणी शनैः पंचेन्द्रियाणि च॥
फिर परमात्मा ने आत्मस्वरूप ज्ञानार्थ मनुष्य के शरीर में (आत्मा के साथ-साथ), बुद्धि, त्रिगुण (सत्त्व, रज और तम), विषयग्राही पाँचों इन्द्रियाँ को बनाया।[मनुस्मृति 1.15]
Thereafter, the Almighty created intelligence to understand-realise the self, the 3 characteristics-qualities (Satv, Raj and Tam) and the five sense organs in the body-physique along with the soul. Various organism were composed by using different proportions of these basic components by the Almighty.
Then he developed all living beings by using these highly energetic six components-elements, synthesising within themselves, through their extremely small-microscopic defects-, properties-characteristics. Slightest variation in the 6 basic proportions create a new living being-organism.
तेषां त्ववयवान्सूक्ष्मान् षण्णामप्यमितौजसाम्।
सन्निवेश्याSSत्ममात्रासु सर्वभूतानि निर्ममे॥
फिर अत्यन्त तेजस्वी इन छहों तत्वों के सूक्ष्म अवयवों को उन्हीं के सूक्ष्म विकारों में न्यास करके सभी प्राणियों की रचना की।[मनुस्मृति 1.16] Then he developed all living beings by using these highly energetic six components-elements, synthesising within themselves, through their extremely small-microscopic defects-, properties-characteristics. Slightest variation in the 6 basic proportions create a new living being-organism.
यन्मूत्र्यव्यवा: सूक्ष्मास्तस्येमान्याश्रयन्ति षट्।
तस्माच्छरीरत्मियाहुस्तस्य मूर्तिं मनीषिणः॥1.17॥
इस (ब्रह्मा) मूर्ति को ये छहों सूक्ष्म अवयव आश्रय कहते हैं। इसी कारण से महात्मा लोग इस ब्रह्ममूर्ति को शरीर कहते हैं।
Brahma is the shelter-asylum, protector of these 6 minute components. Thus Brahm is called body-physique by the enlightened sages. Human body is a replica of the Brahm-Almighty-God.
तदाविशन्ति भूतानि महान्ति सह कर्मभिः।
मनच्श्रावयवै: सूक्ष्मै: सर्वभूतकृदव्ययम्॥1.18॥
ब्रह्म में आकाशादि महाभूत अपने-अपने कर्मों के साथ उत्पन्न होते हैं। उस अहंकार रुप ब्रह्म में सभी प्राणियों का निमित्त और अनैश्वर मन अपने सूक्ष्म रूपों के साथ उत्पन्न होता है।
The Brahm evolves with the Panch Maha Bhut & Ahankar (basic residual characters, qualities, traits, properties) according to their previous deeds. The Brahm evolves in the form of Ahankar which contains the reason and the psyche in their minutest form, micro-seedling. They contain their functions allotted to them, according to their previous births and the inherent desires. Ahankar, here represents the remaining impact of deeds over the psyche (मन, ह्रदय और मस्तिष्क) of the Karan Sharir-reason or causative body of the previous births at the time of Pralay-Vast devastation-end of Brahma's day-called Kalp.
तेषामिदं तु सप्तानां पुरुषाणां महौजसाम्।
सूक्ष्माभ्यो मूर्तिमात्राभ्य: सम्भवत्यव्यायद् व्ययम्॥1.19॥
इन परम तेजस्वी (महत्तत्त्व, अहंकार और पञ्चतन्मात्रा) सात तत्वों के, शरीर बनने वाले भागों से यह नश्वर संसार अव्यव से उत्पन्न होता है।
The perishable world-universe is composed of the 7 basic components, called Mahatt-Tatv, Ahankar and Panch Tan Matra. These 7 components again have various finer components.
महत्त-तत्व Mahatt-Tatv :: प्रकृति का पहला विकार (defect) या कार्य (function), पहले-पहल जब तक जगत सुषुप्तावस्था से उठा, या जागा था, तब सबसे पहले इसी महत्तत्त्व का आविर्भाव हुआ था, इसी को दार्शनिक परिभाषा में बुद्धि-तत्त्व भी कहते हैं, सात तत्वों में से सबसे अधिक सूक्ष्म तत्त्व है, यह जीवात्मा।
This is the most important component of evolution. This is called Jeevatma-Soul, something which is essential for life. This has the mechanism called intelligence which govern every thing, every event. This is minutest of the 7 basic components.
पञ्चतन्मात्रा (Panch Tan Matra) :: शब्द :- word-sound-speech, created by mouth, स्पर्श :- touch, experience through skin, रूप :- shape, size-form perceived through eyes, रस :- juice-extract experience through tongue, गंध :- smell-scent, experienced through nose; का विशेष महत्व उल्लेखित है और इसे इन्द्रियों का विषय माना गया है।
आद्याद्यस्य गुणं त्वेषामवाप्नोति पर: पर:।
यो यो यावतिथच्श्रेषां स स तावद् गुण: स्मृत:॥1.20॥
इन पंच महाभूतों (आकाश, वायु, तेज़, जल और पृथ्वी), के पाँचों गुण क्रमशः उत्तरोत्तर एकाधिक होता है (अर्थात आकाश में एक शब्द गुण, वायु में शब्द और स्पर्श) इसी प्रकार रुप, रस, गन्ध उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार पंच महाभूतों के सँख्यानुसार ही उनमें गुणों की सँख्या भी उतनी ही अधिक होती है।
Characteristics of these 5 basic ingredients of nature preserved in the past, goes on increasing by one successively. Akash (Sky, space, ether) shows single character, Vayu (Air-wind) shows two, Tej (Aura-light-energy) shows three, Jal (Water) shows four and Prathvi (Earth-celestial bodies-objects) shows five characters.
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक्-पृथक्।
वेदशब्देभ्य एवाSSदौ प्रथक्संस्थाच्श्र निर्ममे॥1.21॥
सृष्टि के आदि में ही ईश्वर ने उन सबके नाम और कर्म, वेद के अनुसार ही नियत कर, उनकी अलग-अलग सँख्याएँ बना दीं।
At the on set of evolution, (in the beginning, at the time of evolution) the Almighty fixed the names & assigned their functions, deeds, actions of all beings and their numbers according to the Veds (as per the remaining deeds of the creatures in their previous births, prior to vast devastation).
कर्मात्मनां च देवानां सोSसृजत्प्राणि प्रभु:।
साध्यानां च गणं सूक्ष्मं यज्ञन् चैव सनातनम्॥1.22॥
उस ब्रह्मा ने देवताओं और सभी जीवों की यथा साध्य गणों की सृष्टि की और (ज्योतिष्टोमादि) सनातन यज्ञों को भी बनाया।
Brahma Ji-the creator, created the demigods (another category of demigods was created by Mahrishi Kashyap) and all organisms, living beings, creatures like Sadhy Gan and various Yagy, holy, eternal sacrifices in fire.
अग्निवायुर्विभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्मा सनातनम्।
दुदोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजु: सामलक्षणम्॥मनुस्मृति 1.23॥
ब्रह्मा जी ने यज्ञादि करने के लिये अग्नि, वायु और सूर्य से सनातन (नित्य) ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद को दोहन कर प्रकट किया।
Brahma Ji (read Brahm-the God, Almighty; since Brahma Ji is just a component of HIM) extracted Rig Ved, Yajur Ved and Sam Ved from Agni-Holy fire, Air-wind and Sury-Sun for Holi sacrifices.
वेद ईश्वर की वाणी है। वेदों को भगवान् श्री हरी विष्णु ने ब्रह्मा जी को दिया। ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद को वेदत्रयी भी कहा जाता है। इस वाणी को सर्वप्रथम क्रमश: निम्न 4 ऋषियों ने सुना :- (1). अग्नि, (2). वायु, (3). अंगिरा और 4. आदित्य।
परंपरागत रूप से इस ज्ञान को स्वयम्भुव मनु ने अपने कुल के लोगों को सुनाया, फिर स्वरोचिष, फिर औत्तमी, फिर तामस मनु, फिर रैवत और फिर चाक्षुष मनु ने इस ज्ञान को अपने कुल और समाज के लोगों को सुनाया। बाद में इस ज्ञान को वैवश्वत मनु ने अपने पुत्रों को दिया। इस तरह परंपरा से प्राप्त यह ज्ञान गुरु संदीपन के माध्यम से भगवान् श्री कृष्ण और बलराम तक पहुँचा।
कालं कालविभक्तिंश्च नक्षत्राणि ग्रहांस्तथा।
सरितः सागराच्छैलान्समानी विषमाणि च॥1.24॥
इसके बाद समय के विभाग (दिन मासादि), नक्षत्र, ग्रह, नदी, समुद्र, पर्वत, समतल और विषम भूमि की रचना की।
Thereafter, the Almighty undertook the formation of division of time into days, the lunar mansions, months, constellations, planets and rivers, plains, uneven turfs and the land over the earth.
Santosh MAHA DEV, Vyas Peeth, Noida |
तपो वाचं रतिं चैव कामं च क्रोधमेव च।
सृष्टिं सर्ज चैवेमां स्रष्टुमिच्छन्निमा:॥1.25॥
पूर्वोक्त देवादिकों को बनाने की इच्छा से तप (पूजा इत्यादि), वाणी, चित्त का परितोष (Delight, Satisfaction, Fulfilment, Full satisfaction, Contentedness, Pleasure, Gratification) इच्छा, चित्त का विकार (क्रोध) को उत्पन्न करके सृष्टि की रचना की।
To produce the demigods and deities-divine creations; Brahma Ji desired to create asceticism (prayers, austerity, worship, rituals etc.), speech, happiness-pleasure & defects of psyche-mood i.e., anger.
कर्मणां च विवेकार्थं धर्माधर्मौ व्यवेचयत्द्व।
न्व्दैरयोजयच्चेमा: सुखदुःखादिभि: प्रजा:॥1.26॥
धर्म (यज्ञादि), अधर्म (ब्रह्महत्यादि) इनके कर्तव्या-कर्तव्य के विचार लिये धर्म और अधर्म को और दोनों के फल क्रम से सुख, दुःख को प्रजा के साथ जोड़ दिया।
In order to distinguish between virtues and sins the outcome of the duties (do's, & actions, deeds, activities, ventures, manoeuvres, targets, ambitions, practices etc.) and unwanted deeds (do not's, prohibited actions, misdeeds, undesirable activities leading to sin, evil); the humans-populations were linked to pain and pleasure.
अण्व्यो मात्रा विनाशिन्यो दशर्धानां तु या: स्मृता:।
ताभि: सार्धमिदं सम्भवत्यनुपूर्वशः॥1.27॥
पञ्च महाभूत की नष्ट होने वाली पञ्च तन्मात्राओं (रूप, रस, गंध, घ्राण, स्पर्श) के साथ ही यह सारा संसारी (सूक्ष्म से स्थूल, स्थूल से स्थूलतर) उत्पन्न होता है।
This Eternal-Panch Maha Bhut, evolves with the perishable five senses viz. shape, juice, scent, smell and touch & the universe evolves and becomes simple to complex gradually.
It has infinite number permutations and combinations. A new species may evolves and an existing may eliminate-extinct.
यं तु कर्मणि यस्मिन् स न्ययुक्त प्रथमं प्रभु:।
स तदेव स्वयं भेजे सृज्य मान: पुनः॥1.28॥
पहले ब्रह्मा जी ने जिस जीव की जिस कार्य में नियुक्त किया, वह बारम्बार उत्पन्न होकर भी अपने पूर्व ही कर्म को करने लगा।
The living being stated performing the same job again and again in successive rebirths which was assigned to him by Brahma Ji, initially.
It means that one who had the result of some remaining-left over deeds to be experienced; continues with them in new births-incarnations.
ब्रह्मा जी ने विभिन्न जीवों को उनके पूर्व जन्मों के शेष कर्मों के अनुरूप उन्हें विभिन्न जिम्मेवारियाँ-कार्य सौंपे।
चींटी से लेकर हाथी अथवा व्हेल तक सभी प्राणियों का जीव श्रंखला में अपना महत्व है।
Brahma Ji assigned the particular trade-work to the creatures according to their remaining deeds in previous births.
From ant to whale all organisms have their significance-importance in the life cycle.
हिंस्त्राहिंस्रे मृदु क्रूरे धर्माधर्मा वृतानृते।
यद्यस्य सोSदधात्सर्गे तत्तस्य स्वयमाविशत्॥1.29॥
हिंस्र (predatory, murderous, carnivorous, violent) और अहिंस्त्र (non violent, harmless), कोमल और क्रूर (ruthless), धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य; इनमें से जिसको जिस कार्य में नियुक्त किया, वह उसमें प्रवेश करने लगा।
Newly created organisms starting entering the species to which they were appointed in opposite pairs-traits like violent & non violent, harmless-soft and brute-ruthless, those abiding by the Dharm-dutiful and irresponsible-non abiding by Dharm (those who believed in scriptures and the others who discarded scriptures) truth and falsehood-fake.
Most of the actions appear as action & reaction, positive & negative, good & bad, pious & impure, virtues & sins. Every thing appears in couple, pair having opposite characters.
यथर्तुं लिङ्गान्य्रतव: स्वयमेवर्तुपर्यये।
जिस प्रकार ऋतु के अवसान में दूसरी ऋतु अपने विशेष चिन्ह को धारण करती है, उसी प्रकार जीव स्वयं अपने-अपने कर्मों को जन्म से ही प्राप्त करते हैं।
The manner in which the next season shows its signs before the termination of the earlier season, like wise the organism-living being bears the deeds of their earlier births in advance.
जीव के जन्म से पहले ही उसका वर्तमान जन्म में उसका कार्य-कलाप पूर्व जन्मों के परिणाम स्वरूप नियत हो जाता है।
The destiny of the organism is fixed in advance according to its deeds in earlier births.
लोकानां तु विवृद्धयर्थं मुखबाहूरुपादत:।
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्त्तर्यत्॥1.31॥
संसार की वृद्धि के लिये मुख, बाहू, जंघा और चरण से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र को उत्पन्न किया।
For the growth of the universe Brahmn, Kshatriy, Vaeshy and Shudr were created from the mouth, arms-hands, thighs, and the feet, respectively.
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी ने जिन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र को उत्पन्न किया था वे दैवी सृष्टि के अंग थे। संसार की अभिवृद्धि के लिये महृषि कश्यप ने जिन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को उत्पन्न किया वे मैथुनी सृष्टि के अंग थे।
These diverse creations were there at the on set of evolution and were divine in nature, according to the initial need. Later when Mahrishi Kashyap created the humanity through sexual intercourse these divisions (Brahmns, Kshatriy, Vaeshy & Shudr) were already there.
द्विधा कृत्वाSSत्मनो देहमर्धेन पुरुषोSभवत्।
अर्धेन नारी तस्यां स विराजम सृजत्प्रभु:॥1.32॥
ब्रह्मा ने अपने शरीर के दो भाग करके आधे से पुरुष और आधे से स्त्री बनाकर उसमें विराट पुरुष की (मैथुन कर्म से) सृष्टि की।
Brahma Ji divided his body into two segments as male and female and then created Virat Purush, through sexual reproduction.
विराट पुरुष भी दैवी सृष्टि के ही अंग थे।
Till this end the creation is divine.
Virat Purush-Maha Vishnu was created by the mating of Bhagwan Shri Krashn & Radha Ji in Gau Lok. All universes evolved out of him through infinite hairs over his body.
तपस्तप्त्वा Sसृजद्यं तु स स्वयं पुरुषो विराट्।
तं मां वित्तास्य स्त्रष्टारं द्विज सत्तमा:॥1.33॥
हे द्विजश्रेष्ठ! उस विराट पुरुष ने स्वयं तपस्या करके, जिसे (इस सम्पूर्ण संसार को बनाने वाले को) उत्पन्न किया वो में हूँ।
Manu addressed the Guest Brahmans as Dwij Shreshth-Ultimate in the category of learned-enlightened and said the Virat Purush-large form of the human, himself resorted to toughest asceticism-austerities and created Manu-the host.
अहं प्रजा: सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुच्श्ररम्।
पतीन् प्रजानामसृजं महर्षी नादितो दश॥1.34॥
मैंने सृष्टि की इच्छा से अत्यन्त कठिन तपस्या करके प्रजाओं के पति दस-महर्षियों को उत्पन्न किया।
Manu himself resorted to tough asceticism-austerities and produced the 10 Mahrishi-Ultimate amongest the ascetics.
Manu represent the first half of Brahma Ji who divided himself into two segments to produces living beings through sexual reproduction.
प्रचेतसं वशिष्ठन् च भृगुं नारदमेव च॥1.35॥
मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वशिष्ठ, भृगु और नारद ये दस महऋषि हैं।
The Mahrishis created by Manu were :: Marichi, Atri, Angira, Pulasty, Pulah, Kratu, Pracheta, Vashishth, Bhragu and Narad.
Virat Purush is Maha Vishnu & the son of Bhagwan Shri Krashn & Maa Radha Ji while and Manu is incarnations, fraction-form of Brahma Ji, adopted by him for evolution.
एवमेतैरिदंसर्वं मन्नियोगान्महात्मभि:।
यथाकर्म तपोयोगात्स्रष्टं स्थावरजङ्गमम्॥1.41॥
मेरी आज्ञा से महऋषियों ने अपने तपोबल से कर्मानुसार स्थावर और जङ्गम प्राणियों की सृष्टि की।
Mahrishi-the great saints, created the living beings of both the immovable and the movable species, by means of their ascetic powers-austerities and by accepting his command, depending over the results of the left over deeds of the creatures in their previous birth, in a systemic order-i.e., one by one.
येषां तु यादृशं कर्म भूतानामिह कीर्तितम्।
तत्तथाSभिस्यामि क्रमयोगं च जन्मनि॥1.42॥
सृष्टि में जिस प्राणी का जैसा कर्म कहा गया है और जन्म के क्रम योग को आपसे कहुँगा।
Birth & order of the birth of the organism was determined by the actions-deeds of their previous births.
पशवश्च मृगाच्श्रेव व्यालाच्श्रोभयतोदत:।
रक्षांसि च पिशाचाश्च जरायुज:॥1.43॥
ऊपर-नीचे दाँत वाले पशु, मृग और हिंसा करने वाले जीव, राक्षस, पिशाच और मनुष्य; ये जरायुज (गर्भ से उत्पन्न होने वाले) हैं।
Thereafter, the cattle, deer, carnivorous beasts with two rows of teeth (with the upper and lower jaws), Rakshas-Demons-Giants, Pishach and humans born from the womb (placenta) were created.
अण्डजा: पक्षिणः सर्पा नक्रा मत्स्याश्च कच्छपा:।
यानि चैवं प्रकाराणी स्थलजान्यौदकानि च॥1.44॥
पक्षी, सर्प, मगर, मछली, कछुआ इस तरह से जितने स्थल और जल के जीव हैं, वे सभी अंडज (अण्डे से) उत्पन्न होने वाले हैं।
Birds, snakes, crocodile-alligators, tortoise and other living beings, which lives over the land-similar terrestrial and water aquatic (animals) are born out of egg.
This provides sufficient inputs to prove Darwin and Lamarck wrong.
Darwinism or Darwin's theory of biological evolution states that all species of organisms arise and develop through the natural selection of small, inherited variations that increase the individual's ability to compete, survive and reproduce. It originally included the broad concepts of transmutation of species or of evolution.
Lamarckism says that an organism can pass on characteristics that it has acquired during its lifetime to its offspring (also known as inhabitability of acquired characteristics or soft inheritance).
The principle of use and disuse is sufficient to dumped-discarded.
One should remember that mixing of sperms of various species generate new species, which is just reorientation of chromosomes and genes. It might prove disastrous as well.
स्वेदनजं दंशमशकं यूकामाक्षिकमत्कुणम्।
उष्मणच्श्रोपजायन्ते यच्चान्यत्किंञ्चिदीदृशम्॥1.45॥
डंस, मच्छर, मक्खी, खटमल और अन्य जो इस प्रकार के जीव जिनकी उत्पत्ति गर्मी से होती है, उन सभी को स्वेदज कहते हैं।
The insects that sting, mosquitoes, lice, flies, bugs and those creatures which evolves through heat & sweat are called Swedaj-produced out of sweat (salty, colourless liquid excreted through the skin).
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितृभ्यो देवमानवाः।
देवेभ्यस्तु जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥
ऋषियों से पितर, पितरों से देवता और मनुष्य उत्पन्न हुए हैं। देवताओं से यह सारा चराचर जगत् क्रम से उत्पन्न हुआ है।[मनुस्मृति 3.201] The Pitre-manes evolved from the sages-Rishis, the demigods and the humans evolved from the Manes and the entire universe then evolved from the demigods sequentially, (both the movable and the immovable in due order).
अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्य मुपतिष्ठते।
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नन् तत: प्रजा:॥
अग्नि में भली-भाँति दी गई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है। सूर्य से ही वर्षा होती है, वर्षा से अन्न उपजता है, जिससे प्रजा का पालन-पोषण होता है।[मनुस्मृति 3.76]
Procedural-methodical offerings-oblations into the holy fire are received by the Sun which results into rains, rains lead to growth of food grains, which support life.
It has been proved beyond doubt that some methodical sacrifices in holy fire can produce rains. Sun not only gives energy to earth, it accepts energy side by side, thus completing the energy cycle.
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भगवान् नारायण-नार से उत्पन्न, अण्ड (हिरण्य गर्भ) को स्वर्ग और पृथ्वी में विभक्त कर दिया गया। इसके बीच आकाश बना और भगवान के द्वारा ही दशों दिशाओं को धारण किया गया।
सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ-अंडे से एक मुख प्रकट हुआ। मुख से वाक् इन्द्री, वाक् इन्द्री से ‘अग्नि’ उत्पन्न हुई। तदुपरांत नाक के छिद्र प्रकट हुए। नाक के छिद्रों से ‘प्राण’ और प्राण से ‘वायु’ उत्पन्न हुई। फिर नेत्र उत्पन्न हुए। नेत्रों से चक्षु (देखने की शक्ति) प्रकट हुए और चक्षु से ‘आदित्य’ प्रकट हुआ। फिर ‘त्वचा’, त्वचा से ‘रोम’ और रोमों से वनस्पति-रूप ‘औषधियाँ’ प्रकट हुईं। उसके बाद ‘हृदय’, ‘हृदय’ से ‘मन, ‘मन से ‘चन्द्र’ उदित हुआ। तदुपरांत नाभि, नाभि से ‘अपान’ और अपान से ‘मृत्यु’ का प्रादुर्भाव हुआ। फिर ‘जननेन्द्रिय, ‘जननेन्द्रिय से ‘वीर्य’ और ‘वीर्य’ से ‘आप:’ (जल या सृजनशीलता) की उत्पत्ति हुई। यहाँ वीर्य से पुन: ‘आप:’ की उत्पत्ति कही गई है। यह आप: ही सृष्टिकर्ता का आधारभूत प्रवाह है। वीर्य से सृष्टि का ‘बीज’ तैयार होता है। उसी के प्रवाह में चेतना शक्ति पुन: आकार ग्रहण करने लगती है। सर्वप्रथम यह चेतना शक्ति हिरण्य पुरुष-क्षूद्र विराट पुरुष के रूप में सामने आई।
उस ‘आदित्य’ सविता देवता, सूर्य का जो तेज अण्ड के तोड़ने से उत्पन्न हुआ उसने जल को सुखा दिया। तेज से जल को सोखे जाने पर शेष जल कलल आकृति में बदल गया। कलल से बुदबुद हुआ और उसके बाद यह कठोर हो गया और भूतों को धारण करनेवाली धरणी, धरती, पृथ्वी बन गया।
जिस स्थान पर यह अण्ड स्थित था, वहीं संनिहित-सांनिहत्य नाम का सरोवर कुरुक्षेत्र में स्थित है। कुरुक्षेत्र में स्थाणु तीर्थ-स्थाणुवट-संनिहित नाम का सरोवर ही वो स्थान है, जहाँ वो स्वर्ण अण्ड उत्पन्न हुआ और भगवान श्री नारायण प्रकट हुए। उन्हीं से ब्रह्मा जी और ब्रह्मा जी से महेश उत्पन्न हुए। महेश को ही आदि देव कहा जाता है।
क्षूद्र विराट पुरुष स्वयं को दो भागों विभाजित किया। वाम भाग से उत्पन्न भगवान् श्री हरी विष्णु उत्पन्न हुए और स्वेतद्वीप में सृष्टि के पालनहार बनकर स्थान ग्रहण किया। उनमें और क्षूद्र विराट पुरुष में कोई अन्तर नहीं है।
भगवान् श्री नारायण शेष शैय्या पर निद्रालीन थे। उनके शरीर में संपूर्ण प्राणी सूक्ष्म रूप से विद्यमान थे। केवल काल शक्ति ही जागृत थी, क्योंकि उसका कार्य जगाना था। काल शक्ति ने जब जीवों के कर्मों के लिए उन्हें प्रेरित किया तब उनका ध्यान लिंग शरीर आदि सूक्ष्म तत्व पर गया-वही कमल के रूप में उनकी नाभि से निकला। भगवान् विष्णु के नाभि कमल से भगवान् ब्रह्मा जी प्रकट हुए। अत: स्वयंभू कहलाये। भगवान् ब्रह्मा जी विचारमग्न हो गये कि वे कौन हैं, कहाँ से आये, कहाँ हैं, अत: कमल की नाल से होकर विष्णु की नाभि के निकट तक चक्कर लगाकर भी वे भगवान् विष्णु को नहीं देख पाये। योगाभ्यास से ज्ञान प्राप्त होने पर उन्होंने शेषशायी विष्णु के दर्शन किये।
भगवान् विष्णु, अविकारी, शुद्ध परमात्म, शाश्वत, सर्वव्यापक, अजन्मा, हिरण्यगर्भ हरि, शंकर और वासुदेव-अनेक नामों से जाने जाते हैं और क्षूद्र विराट पुरुष से उत्पन्न इसी ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की रचना की है। (सृष्टि रचना के रूप में वह तेजस्वी ब्रह्म है, जिसके द्वारा पहले महत् तत्त्व उत्पन्न हुआ। उससे अहंकार, फिर अहंकार से पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई। पंच महाभूतों से अनेक भेदा भेद पैदा हुए।)
भगवान् ब्रह्मा जी ने स्वयं को भगवान् विष्णु का पिता कहा। इससे विवाद उत्पन्न हो गया। उसी समय महादेव की ज्योतिर्मयी मूर्ति-ज्योतिर्लिंग उन दोनों के मध्य प्रकट हुआ, साथ ही आकाशवाणी हुई कि जो उस मूर्ति का अंत देखेगा, वही श्रेष्ठ, पिता-जनक माना जायेगा।
भगवान् विष्णु नीचे की चरम सीमा तथा भगवान् ब्रह्मा ऊपर की अंतिम सीमा देखने के लिए बढ़े। भगवान् विष्णु तो शीघ्र लौट आये। भगवान् ब्रह्मा बहुत दूर तक भगवान् शिव की मूर्ति का अंत देखने गये। उन्होंने लौटते समय सोचा कि अपने मुँह से झूठ नहीं बोलना चाहिए।अत: गधे का एक मुँह (जो कि ब्रह्मा का पाँचवाँ मुँह कहलाता है) बनाकर उससे बोले, ‘हे विष्णु! मैं तो शिव की सीमा देख आया।’ तत्काल शिव और विष्णु के ज्योतिर्मय स्वरूप एक रूप हो गये।
तभी आकाशवाणी ने उन्हें तपस्या करने को कहा। तपस्या से निवृति के तदोपरांत दोनों ने भगवान् सदाशिव से पूछा, "प्रभो! सृष्टि आदि 5 कर्तव्यों के लक्षण क्या हैं? यह हम दोनों को बताइए"। तब ज्योतिर्लिंग रूप काल ने कहा, "पुत्रो! तुम दोनों ने तपस्या करके सृष्टि (जन्म) और स्थिति (पालन) नामक दो कृत्य प्राप्त किए हैं"।
भगवान् सदाशिव कहते हैं, "ये (रुद्र और महेश) मेरे जैसे ही वाहन रखते हैं, मेरे जैसा ही वेश धरते हैं और मेरे जैसे ही इनके पास हथियार हैं। वे रूप, वेश, वाहन, आसन और कृत्य में मेरे ही समान हैं"।
इसी प्रकार मेरे विभूति स्वरूप रुद्र और महेश्वर ने दो अन्य उत्तम कृत्य संहार (विनाश) और तिरोभाव (अकृत्य) मुझ से प्राप्त किए हैं, परंतु अनुग्रह (कृपा करना) नामक दूसरा कोई कृत्य पा नहीं सकता। रुद्र और महेश्वर दोनों ही अपने कृत्य को भूले नहीं हैं। इसलिए मैंने उनके लिए अपनी समानता प्रदान की है।
कालरूपी सदाशिव कहते हैं कि मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है, क्योंकि सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार अर्थात ‘ॐ’ प्रकट हुआ। ओंकार वाचक है, मैं वाच्य हूँ और यह मंत्र मेरा स्वरूप ही है और यह मैं ही हूँ।प्रतिदिन ओंकार का स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है। मेरे पश्चिमी मुख से अकार का, उत्तरवर्ती मुख से उकार का, दक्षिणवर्ती मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से बिन्दु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ। यह 5 अवयवों से युक्त (पंचभूत) ओंकार का विस्तार हुआ।
सृष्टि-कर्ता ब्रह्मा :: समस्त जीवों के पितामह, अपने ज्ञान से ब्रह्माण्ड के प्रत्येक स्थूल तथा परा जीव तथा वस्तुओं का निर्माण करने वाले पितामह ब्रह्मा जी हैं। वही संसार या ब्रह्माण्ड के निर्माणकर्ता, तमो गुण सम्पन्न, सृजन कर्ता हैं।
पालन-कर्ता विष्णु :: सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के पालन-हार, पालन-पोषण के कर्त्तव्य या दायित्व का निर्वाह करने वाले, सत्व गुण सम्पन्न 'श्री हरि विष्णु' हैं। सृजन के पश्चात् तीनों लोकों के प्रत्येक तत्व तथा जीव का पालन-पोषण करने वाले भी वही हैं।
संहार-कर्ता शिव :: तीनों लोकों में विघटन या विध्वंस के प्राकृतिक लय के अधिष्ठाता, तमो गुण सम्पन्न 'शिव' हैं। वह शक्ति जो ब्रह्माण्ड के प्रत्येक जीवित तथा निर्जीव तत्व के विघटन के कार्यभार का निर्वाह करती हैं।
ब्रह्मा की झूठी वाणी, वाणी नामक नदी के रूप में प्रकट हुई। उन दोनों को आराधना से प्रसन्न करके वह नदी सरस्वती नदी के नाम से गंगा से जा मिली और तब वह शाप मुक्त हुई।
सरस्वती नदी के उत्तर की ओर पृथुदक नामक तीर्थ के पास ब्रह्म योनि तीर्थ है, जहाँ पृथुदक में स्थित होकर अव्यक्त जन्मा ब्रह्मा जी, चारों वर्णों की सृष्टि के लिये आत्म ज्ञान में लीन हुए थे। सृष्टि के विषय में चिंतन करने पर उनके मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, दोनों उरुओं से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। [श्री वामन पुराण]
भगवान् विष्णु की प्रेरणा से ब्रह्मा जी ने तप करके, भगवत ज्ञान अनुष्ठान करके, सब लोकों को अपने अंत:करण में स्पष्ट रूप से देखा। तदनंतर भगवान् विष्णु अंतर्धान हो गये और ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की।
सरस्वती उनके मुँह से उत्पन्न पुत्री थी, उसके प्रति काम-विमोहित हो, वे समागम के इच्छुक थे। प्रजापतियों की रोक-टोक से लज्जित होकर उन्होंने उस शरीर का त्याग कर दूसरा शरीर धारण किया। त्यक्त शरीर अंधकार अथवा कुहरे के रूप में दिशाओं में व्याप्त हो गया।
उन्होंने अपने चार मुँह से चार वेदों को प्रकट किया।
अपने एवं विश्व के कारण परम पुरुष का दर्शन करके ब्रह्मा जी को विशेष प्रसन्नता हुई और उन्होंने भगवान् विष्णु की स्तुति की। भगवान् विष्णु ने ब्रह्माजी से कहा कि अब आप तप शक्ति से सम्पन्न हो गये हैं और आपको मेरा अनुग्रह भी प्राप्त हो गया है। भगवान् विष्णु की प्रेरणा से माँ भगवती सरस्वती ने ब्रह्मा जी को सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान कराया। भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा जी को सृष्टि के विस्तार का आदेश दिया।
ब्रह्मा जी ने सौ दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या की जिसके परिणाम स्वरूप प्रलयकालीन वायु के द्वारा जल तथा कमल दोनो आंदोलित हो उठे। ब्रह्मा जी ने तप की शक्ति से उस वायु को जल सहित पी लिया।
उस परमात्मा के सब पदार्थों के नाम, जैसे ‘गौ’, ‘अश्व’ आदि और उनके भिन्न-भिन्न कर्म जैसे ब्राह्मण का वेद पढ़ना, क्षत्रिय का रक्षा करना आदि-आदि कार्य निर्धारित किए तथा पृथक-पृथक विभाग या व्यवस्थायें सृष्टि के आरम्भ में वेद के शब्दों के आधार पर ही बनाए। इस प्रकार उस परमात्मा ने कर्मात्मना सूर्य, अग्नि, वायु आदि देवों, मनुष्य पशु पक्षी आदि सामान्य प्राणियों के और साधक कोटि के विशेष विद्वानों के समुदायों को तथा सृष्टिकाल से प्रलय काल तक निरन्तर चले आ रहे सूक्ष्म संसार को रचा।
ब्रह्मा जी ने जगत के सब रूपों के ज्ञान के लिए अग्नि, वायु और रवि से ऋक् यजुः साम रूप त्रिविध ज्ञान वाले नित्य वेदों को दुहकर प्रकट किया। तब आकाशव्यापी कमल से ही चौदह लोकों की रचना हुई। फिर काल और मास, ऋतु अयन आदि काल विभागों को कृत्तिका आदि नक्षत्रों, सूर्य आदि ग्रहों को और नदी समुद्र पर्वत तथा ऊँचे नीचे स्थानों को बनाया।
फिर इन प्रजाओं की सृष्टि के इच्छायुक्त ब्रह्मा जी ने तपों को, वाणी को, रति को, इच्छा को, क्रोध को रचा और फिर कर्मों के विवेचन के लिए धर्म अधर्म का विभाजन किया। इन प्रजाओं को सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से जोड़ा।
तब जल में एक इंद्रिय और एक रंगी जीवों की उत्पत्ति हुई और साथ-साथ असँख्य पौधों और लताओं की उत्पत्ति हुई। मेरू पर्वत से जब कुछ जल हटा तो यही एक इंद्रिय जीव जहाँ-तहाँ फैलकर तरह-तरह के रूप धरने लगे और जीवन क्रम विकास के क्रम में शामिल हो गए। यह सब ब्रह्मा जी की घोर तपस्या और अथक प्रयास से संभव हुआ।
प्रजाओं की समृद्धि के लिए ब्रह्मा जी ने मुख बाहु जंघा और पैर की तुलना के अनुसार क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण को निर्मित किया। ब्रह्मा जी ने प्रजा की सृष्टि करने की इच्छा से कठिन तप करके पहले दस प्रजापति महर्षियों को उत्पन्न किया। इन दस महर्षियों ने ब्रह्मा जी की आज्ञा से बड़ा तप किया और फिर जिसका जैसा कर्म है, तदनुरूप देव, मनुष्य तथा पशु-पक्षी आदि योनियों को उत्पन्न किया। इस संसार में जिन मनुष्यों का जैसा कर्म वेदों में कहा गया है, उसे वैसे ही और उत्पन्न होने में जीवों का एक निश्चित प्रकार रहता है।
काल दृष्टि से दस प्रकार की सृष्टि ::
प्राकृतिक सर्ग :: (1). महत्तत्व, (2). अहंकार, (3). तन्मात्राएँ, (4). इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता सहित, (5). पञ्च-पर्वा, (6). अविद्या (तम, मोह, महामोह, तामिस्र, अन्धतामिस्र) की सृष्टि की।
तीन वैकृतिक सर्ग :: (7). स्थावर, (8). तिर्यक्, (9). दिव्य मानव को उत्पन्न किया।
इन सृष्टियों से ब्रह्मा जी को संतुष्टि न मिली तब उन्होंने मन में भगवान् नारायण श्री हरी विष्णु,का ध्यान कर मन से दशम सृष्टि सनकादि मुनियों की थी, जो साक्षात् भगवान ही थे।
दशम सृष्टि कौमार सर्ग :: (10). सनकादि मुनि, त्रिभुवन रचयिता ब्रह्मा जी के चार मानस संतान।
ब्रह्मा जी ने एक ऐसे जीव की उत्पत्ति करने की सोची, जो अन्य जलचर, थलचर और नभचर जीवों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान हो अर्थात खुद ब्रह्मा जी की तरह हो। यह सोचकर उन्होंने पहले 4 सनत कुमारों को उत्पन्न किया। परन्तु वे चारों तपस्या में लीन हो गए।
कौमार सर्ग में चार ब्राह्मणों के रूप में अवतार ग्रहण करने वाले, चारों कुमार सनक (पुरातन), सनन्दन (हर्षित), सनातन (जीवंत) तथा सनत् (चिर तरुण) के नाम में ‘सन’ शब्द हैं, इसके अलावा चार भिन्न प्रत्ययों हैं। पूर्व चाक्षुष मन्वंतर के प्रलय के समय जो वेद-शास्त्र प्रलय के साथ लीन हो गए थे, इन चार कुमारों के उन वेद-शास्त्र, ब्रह्म ज्ञान, गूढ़ विद्या को भगवान् के हंस अवतार से प्राप्त किया। इन चारों ने बहुत कठिन अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया। ये महर्षि,मुनि या ऋषि के नाम से भी जाने जाते हैं। इनकी आयु सदैव पाँच वर्ष की रहती है। ये चारों ही ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं। ब्रह्मा जी नें उन बालकों से कहा कि पुत्र जाओ सृष्टि करो। सनकादि मुनियों नें ब्रह्मा जी से कहा "पिताश्री! क्षमा करें। हमारे हेतु यह माया तो अप्रत्यक्ष है, हम भगवान् की उपासना से बड़ा किसी वस्तु को नहीं मानते। उनके अनुसार भगवान् श्री हरि विष्णु की भक्ति-आराधना से अधिक और कोई कार्य उनके लिए उपयुक्त नहीं था। नारद जी को इन्होंने भागवत सुनाया था तथा उन्होंने स्वयं भगवान् शेष से भागवत श्रवण किया था। ये जितने छोटे दिखते हैं, उतनी ही विद्याकंज हैं। ये चारों वेदों के ही रूप कहे जा सकते हैं। वे चारों जहाँ पर भी जाते थे, सर्वदा ही भगवान विष्णु का भजन करते थे, सर्वदा ही भगवान् नारायण के भजन कीर्तन में निरत-निमग्न रहते थे। ये सर्वदा उदासीन भाव से युक्त हो, भजन-साधन में मग्न रहते थे। इन्हीं चारों कुमारों ने उदासीन भक्ति, ज्ञान तथा विवेक का मार्ग शुरू किया, जो आज तक उदासीन अखाड़ा के नाम से चल रहे हैं। उसका प्रथमोपदेश अपने शिष्य देवर्षि नारद को किया था। नारद मुनि को इन्होंने ही समस्त वेद-शास्त्रों से अवगत करवाया, तदनंतर नारद जी से अन्य ऋषियों ने यह ज्ञान प्राप्त किया। इन्हें आत्मा तत्व का पूर्ण ज्ञान था, वैवस्वत मन्वंतर में इन्हीं बालकों ने, सनातन धर्म ज्ञान प्रदान किया और निवृति-धर्म के प्रवर्तक आचार्य हुए। ये सर्वदा ही दिगंबर भेष धारण किये रहते थे। संसार में रहते हुए भी, ये कभी किसी भी बंधन में नहीं बंधे। केवल मात्र हरि भजन ही इनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था। ये चारों कुमार परम सिद्ध योगी हैं, अपने परम ज्ञान तथा सिद्धियों के परिणामस्वरूप ये सर्वदा ही सिद्ध बाल योगी से जान पड़ते हैं। ज्ञान प्रदान तथा वेद-शास्त्रों के उपदेश, भगवान् विष्णु की भक्ति और सनातन धर्म हेतु इन कुमारों ने तीनों लोकों में भ्रमण किया। इन्होंने भगवान् विष्णु को समर्पित कई स्त्रोत लिखे।
बुद्धि को अहंकार से मुक्ति का उपाय सनकादि से अभिहित हैं, केवल चैतन्य ही शाश्वत हैं। चैतन्य मनुष्य के शरीर में चार अवस्थाएँ जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय या प्राज्ञ विद्यमान रहती हैं। इस कारण मनुष्य देह चैतन्य रहता हैं। इन्हीं चारों अवस्थाओं में विद्यमान रहते के कारण चैतन्य मनुष्य को सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत् से संकेतित किया गया हैं। ये चारों कुमार किसी भी प्रकार की अशुद्धि के आवरण से रहित हैं, परिणाम स्वरूप इन्हें दिगंबर वृत्ति वाले जो नित्य नूतन और एक समान रहते हैं “कुमार” कहा जाता हैं। तत्त्वज्ञ (तत्व ज्ञान से युक्त), योगनिष्ठ (योग में निपुण), सम-द्रष्टा (सभी को एक समान देखना तथा समझना अर्थात सभी प्राणियों में समता), ब्रह्मचर्य से युक्त होने के कारण इन्हें ब्राह्मण (ब्रह्मानन्द में निमग्न) कहा जाता हैं।
तत्पश्चात प्रजापति ब्रह्मा जी ने 10 मानस पुत्रों को उत्पन्न किया (वशिष्ठ, कृतु, पुलह, पुलस्य, अंगिरा, अत्रि और मरीचि आदि) और उनसे कहा कि आप मानव जीवन की उत्पत्ति करें, उनको शिक्षा दें और परमेश्वर का मार्ग बताएँ।
ब्रह्मा जी मानसिक संकल्प से प्रजापतियों को उत्पन्न कर उनके द्वारा सम्पूर्ण प्रजा की सृष्टि करते हैं। इसलिये वे प्रजापतियों के भी पति कहे जाते हैं। मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष तथा कर्दम; ये दस मुख्य प्रजापति हैं। भगवान् रुद्र भी ब्रह्मा जी के ललाट से उत्पन्न हुए।
बहुत काल तक जब ये ऋषि तपस्या में ही लीन रहे। ब्रह्मा जी को ‘क’ कहते हैं, उन्हीं से विभक्त होने के कारण शरीर को काम कहते हैं। उन दोनों विभागों से स्त्री-पुरुष एक-एक जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष मनु तथा स्त्री शतरूपा कहलायी। उन दोनों की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि प्रजापतियों की सृष्टि का सुचारू विस्तार नहीं हो रहा था। मानव-सृष्टि के मूल महाराज मनु उनके दक्षिण भाग से उत्पन्न हुए और वाम भाग से शतरूपा की उत्पत्ति हुई। उन्होंने इन दोनों को मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति और उसके विस्तार का आदेश दिया और कहा कि आप सभी धर्म सम्मत वेद वाणी का ज्ञान दें। स्वायम्भुव मनु और महारानी शतरूपा से मैथुनी सृष्टि प्रारम्भ हुई।
मनु और शतरूपा से वीर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वीर की पत्नी कुर्दम-पुत्री काम्या से प्रियव्रत और उत्तानपाद उत्पन्न हुए। इनके साथ सम्राट कुक्षि, प्रभु और विराट-पुट पैदा हुए। पूर्व प्रजापति अत्रि ने उत्तानपाद को गोद ले लिया। इसकी पत्नी सुनृता थी। उससे चार पुत्र हुए, इनमें एक ध्रुवनामधारी हुआ।
ध्रुव ने पाँच वर्ष की अवस्था में ही तप करके अनेक देवताओं को प्रसन्न किया और पत्नी से श्लिष्ट तथा भव्य नाम के दो पुत्र पैदा हुए। श्लिष्ट ने सुच्छाया से रिपु, रिपुंजय, वीर, वृकल, वृकतेजा पुत्र उत्पन्न किए।
इसके बाद वंश विकास के लिए रिपु ने चक्षुष को जन्म दिया, चक्षुष से चाक्षुष मनु हुए और मनु ने वैराज और वैराज की कन्या से-कुत्सु, पुरु, शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवाक्, कवि, अग्निष्टुत, अतिराम, सुद्युम्न, अभिमन्यु-ये दस पुत्र हुए।
फिर इसकी परम्परा में अंग और सुनीथा से वेन नाम पुत्र की उत्पत्ति हुई। वेन के दुष्ट व्यवहार के कारण ऋषियों ने उसे मार डाला। किन्तु उसकी मृत्यु से शासन की समस्या उठ खड़ी हुई।
राज्य को सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए प्रजा को आतताइयों के निरंकुश हो जाने की आशंका को देखते हुए मुनियों ने वेन के दाहिने हाथ का मंथन किया। इससे धनुष और कवच-कुंडल सहित पृथु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
इस तेजस्वी यशस्वी और प्रजा के कष्टों को हरने वाले पृथु ने अपने राज्यकाल में सर्वत्र अपनी कीर्ति फैला दी। राजसूय यज्ञ करके चक्रवर्ती सम्राट का पद पाया। परम ज्ञानी और निपुण सूत और मागध इस पृथु की ही संतान हुए। राजा पृथु ने पृथ्वी को अपने परिश्रम से अन्नदायिनी और उर्वरा बनाया। इसके इस परिश्रम और प्रजाहित भाव के कारण ही उसे लोग साक्षात् विष्णु मानने लगे।
राजा पृथु के दो पुत्र उत्पन्न हुए, अन्तर्धी और पाती। ये बड़े धर्मात्मा थे। इसमें अन्तर्धी का विवाह सिखण्डिनी के साथ हुआ जिससे हविर्धान और इनसे धिष्णा के साथ छः पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें प्राचीन बर्हि प्रजापति हुए जिन्होंने समुद्र-तनया से विवाह करके दस प्राचेतस उत्पन्न किए। इनकी तपस्या से वृक्ष आरक्षित हो गए।
तप, तेज न सह पाने के कारण प्रजा निश्तेज हो गई। समाधि टूटने पर जब मुनियों ने स्वयं को चारों दिशाओं में असीमित बेलों ओर झाड़ियों से घिरा पाया तो रुष्ट होकर समूची वनस्पतियों को अपनी क्रोधाग्नि से दग्ध करना शुरू कर दिया। इस विनाश को देखकर सोम ने अपनी मारिषा नाम की पुत्री को प्रचेताओं के समक्ष भार्या रूप में प्रस्तुत करने का प्रस्ताव किया। फलस्वरूप मुनियों का क्रोध शान्त हो गया।
सभी देवता ब्रह्मा जी के पौत्र माने गये हैं, अत: वे पितामह के नाम से प्रसिद्ध हैं।
सृष्टि की रचना और विकास के क्रम में प्रजापति दक्ष भगवान् ब्रह्मा के दक्षिणा अंगुष्ठ से उत्पन्न हुए। सृष्टा की आज्ञा से वे प्रजा की सृष्टि करने में लगे।
सर्वप्रथम इन्होंने दस सहस्त्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया।
दूसरी बार एक सहस्त्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गये। दक्ष को रोष आया। उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया कि तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे। भगवान् ब्रह्मा ने प्रजापति को शान्त किया। अब मानसिक सृष्टि से वे उपरत हुए।
उन्होंने अपनी पत्नी असिक्नी के गर्भ से 66 कन्याएँ पैदा कीं। इन कन्याओं में से 13 कन्याएँ ऋषि कश्यप की पत्नियाँ बनीं। इन्हीं कन्याओं से मैथुनी सृष्टि का विकास हुआ और कश्यप सृष्टिकर्ता कहलाए। कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से भगवान् विष्णु के श्रापग्रस्त द्वारपाल जय और विजय को असुर हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्रों के रूप में जन्म प्रदान किया। इनके सिंहिका नामक एक बहन भी थी।
ब्रह्मा जी के पुत्र :: ब्रह्मा जी के 17 पुत्र और एक पुत्री शतरुपा का जन्म हुआ। ब्रह्मा जी के उक्त 17 पुत्रों के अलावा भी उनके भिन्न-भिन्न परिस्थिति वश पुत्रों का जन्म हुआ। विश्वकर्मा, अधर्म, अलक्ष्मी, आठ वसु, चार कुमार, 14 मनु, 11 रुद्र, पुलस्य, पुलह, अत्रि, क्रतु, अरणि, अंगिरा, रुचि, भृगु, दक्ष, कर्दम, पंचशिखा, वोढु, नारद, मरिचि, अपान्तरतमा, वशिष्ठ, प्रचेता, हंस, यति आदि मिलाकर कुल 59 पुत्र थे।
ब्रह्मा जी के प्रमुख पुत्र :: (1). मन से मारिचि, (2). नेत्र से अत्रि, (3). मुख से अंगिरस, (4). कान से पुलस्त्य, (5). नाभि से पुलह, (6). हाथ से कृतु, (7). त्वचा से भृगु, (8). प्राण से वशिष्ठ, (9). अंगुष्ठ से दक्ष, (10). छाया से कंदर्भ, (11). गोद से नारद, (12). इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार, (13). शरीर से स्वायंभुव मनु और (14). ध्यान से चित्रगुप्त।
मानस पुत्रों की सृष्टि के बाद भगवान शिव और फिर उसके बाद सनत्कुमार उत्पन्न हुए। इस सात ऋषियों से ही शेष प्रजा का विकास हुआ। इनमें रुद्रगण भी सम्मिलित हैं। फिर बिजली, वज्र, मेघ, धनुष खड्ग पर्जन्य आदि का निर्माण हुआ। यज्ञों के सम्पादन के लिए वेदों की ऋचाओं की सृष्टि हुई। साध्य देवों की उत्पत्ति के बाद भूतों का जन्म हुआ।
दशों दिशाओं के बाद काल, मन, वाणी और काम, क्रोध तथा रति की रचना हुई। फिर प्रजापतियों की रचना हुई। इसमें-मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य पुलह कृतु और वसिष्ठ के नाम हैं। ये ऋषि मानस सृष्टि के रूप में उत्पन्न किये गए।
ब्रह्मा जी के प्रमुख पुत्र :: (1). मन से मारिचि, (2). नेत्र से अत्रि, (3). मुख से अंगिरस, (4). कान से पुलस्त्य, (5). नाभि से पुलह, (6). हाथ से कृतु, (7). त्वचा से भृगु, (9). अंगुष्ठ से दक्ष, (10). छाया से कंदर्भ, (11). गोद से नारद, (12). इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार, (13). शरीर से स्वायंभुव मनु और शतरुपा तथा (14). ध्यान से चित्रगुप्त।
ब्रह्मा जी के मस्तिष्क से भगवान् महेश (शिव, रूद्र) प्रकट हुए।
11 रुद्र भगवान शंकर के अंशावतार माने जाते हैं। भगवान शंकर ने महर्षि कश्यप की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपने अंशावतार के पिता होने का वरदान दिया था। वे हैं :- कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुधन्य, शम्भू, चंड एवं भव।
भगवान् शिव-महेश ने ब्रह्मा के पुत्र दक्ष की बेटी सती से विवाह किया और भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु की बेटी माता लक्ष्मी से विवाह किया। तदोपरांत ब्रह्मा जी ने देव, दैत्य, दानव, राक्षस, मानव, किन्नर, वानर, नाग, मल्ल आदि हजारों तरह के जीवों की रचना की।उसके पूर्व की यही सृष्टि दैविक सृष्टि थी।
स्वयम्भुव मनु के कुल में भगवान् विष्णु के अवतार भगवान् ऋषभदेव हुए। भगवान् ऋषभदेव स्वयम्भुव मनु से 5वीं पीढ़ी में स्वयम्भुव मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और फिर ऋषभ। ऋषभदेव ने प्रजा को जीवन के निर्वाह हेतु असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या, शिल्प आदि की शिक्षा दी। इनका नंदा व सुनंदा से विवाह हुआ। इनके भरत व बाहुबली आदि 100 पुत्र हुए। राजा भरत के नाम पर आर्यवर्त भारत कहलाया। शेष 99 पुत्र भगवान् ऋषभदेव के आदेशानुसार ऋषि हो गए।
ब्रह्मा जी के पहले पुत्र मरीचि :: महर्षि मरीचि ब्रह्मा के अन्यतम मानसपुत्र और एक प्रधान प्रजापति हैं। इन्हें द्वितीय ब्रह्मा ही कहा गया है। ऋषि मरीचि पहले मन्वंतर के पहले सप्तऋषियों की सूची के पहले ऋषि है। यह दक्ष के दामाद और भगवान् शंकर के साढू थे।
इनकी पत्नि दक्ष-कन्या संभूति थी। इनकी दो और पत्नियां थीं :- कला और उर्णा। उर्णा को ही धर्मव्रता भी कहा जाता है जो कि एक ब्राह्मण कन्या थी। दक्ष के यज्ञ में मरीचि ने भी भगवान् शंकर का अपमान किया था। इस पर भगवान् शंकर ने इन्हें भस्म कर डाला था।
इन्होंने ही भृगु को दण्ड नीति की शिक्षा दी है। ये सुमेरु के एक शिखर पर निवास करते हैं और महाभारत में इन्हें चित्र शिखण्डी भी कहा गया है। ब्रह्मा जी ने पुष्कर क्षेत्र में जो यज्ञ किया था उसमें ये अच्छावाक् पद पर नियुक्त हुए थे। दस हजार श्लोकों से युक्त ब्रह्म पुराण का दान पहले-पहल ब्रह्मा जी ने इन्हीं को किया था। वेद और पुराणों में इनके चरित्र का चर्चा मिलती है।
वैवस्वत मनु के दस पुत्र :: (1). इल, (2).इक्ष्वाकु, (3). कुशनाम, (4).अरिष्ट, (5). धृष्ट, (6). नरिष्यन्त, (7). करुष, (8). महाबली, (9). शर्याति और (10).पृषध।
तार्क्ष्य कश्यप ने विनीता कद्रू, पतंगी और यामिनी से विवाह किया था। कश्यप ऋषि ने दक्ष की सिर्फ 13 कन्याओं से ही विवाह किया था।
इक्ष्वाकु के पुत्र और उनका वंश :: मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु के तीन पुत्र हुए :- (1). कुक्षि, (2). निमि और (3). दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। भगवान राम इक्षवाकु कुल में ही जन्में।
ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु :: वेद-पुराणों में भगवान् ब्रह्मा के मानस पुत्रों का वर्णन है। वे दिव्य सृष्टि के अंग थे। महाप्रलय, भगवान् ब्रह्मा जी के दिन-कल्प की शुरुआत में उनका उदय होता है। वेदों, पुराणों इतिहास को वे ही पुनः प्रकट करते हैं। ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु का श्रुतियों में विशेष स्थान है। उनके के बड़े भाई का नाम अंगिरा था। अत्रि, मरीचि, दक्ष, वशिष्ठ, पुलस्त्य, नारद, कर्दम, स्वायंभुव मनु, कृतु, पुलह, सनकादि ऋषि इनके भाई हैं। उन्हें भगवान् विष्णु के श्वसुर और भगवान् शिव के साढू के रूप में भी जाना जाता है। महर्षि भृगु को भी सप्तर्षि मंडल में स्थान प्राप्त है।
भृगु की तीन पत्नियाँ :: ख्याति, दिव्या और पौलमी। पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो दक्ष कन्या थी। ख्याति से भृगु को दो पुत्र दाता और विधाता (काव्य शुक्र और त्वष्टा-विश्वकर्मा) तथा एक पुत्री श्री लक्ष्मी का जन्म हुआ। घटनाक्रम एवं नामों में कल्प-मन्वन्तरों के कारण अंतर आता है।[देवी भागवत के चतुर्थ स्कंध, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद् भागवत] लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान् विष्णु से कर दिया था।
आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया।
दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं जिससे नाराज होकर श्री हरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया।
दूसरी पत्नी पौलमी :: उनके ऋचीक व च्यवन नामक दो पुत्र और रेणुका नामक पुत्री उत्पन्न हुई। भगवान् परशुराम महर्षि भृगु के प्रपौत्र, वैदिक ऋषि ऋचीक के पौत्र, जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे। रेणुका का विवाह विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) से किया।
जब महर्षि च्यवन उसके गर्भ में थे, तब भृगु की अनुपस्थिति में एक दिन अवसर पाकर दंस (पुलोमासर) पौलमी का हरण करके ले गया। शोक और दुख के कारण पौलमी का गर्भपात हो गया और शिशु पृथ्वी पर गिर पड़ा, इस कारण यह च्यवन (गिरा हुआ) कहलाया। इस घटना से दंस पौलमी को छोड़कर चला गया, तत्पश्चात पौलमी दुख से रोती हुई शिशु (च्यवन) को गोद में उठाकर पुन: आश्रम को लौटी। पौलमी के गर्भ से 5 और पुत्र बताए गए हैं।
भृगु पुत्र धाता के आयती नाम की स्त्री से प्राण, प्राण के धोतिमान और धोतिमान के वर्तमान नामक पुत्र हुए। विधाता के नीति नाम की स्त्री से मृकंड, मृकंड के मार्कण्डेय और उनसे वेद श्री नाम के पुत्र हुए।
भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशना, च्यवन आदि। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है। भार्गवों को अग्निपूजक माना गया है। दाशराज्ञ युद्ध के समय भृगु मौजूद थे।
शुक्राचार्य :: शुक्र के दो विवाह हुए थे। इनकी पहली स्त्री इन्द्र की पुत्री जयंती थी, जिसके गर्भ से देवयानी ने जन्म लिया था। देवयानी का विवाह चन्द्रवंशीय क्षत्रिय राजा ययाति से हुआ था और उसके पुत्र यदु और मर्क तुर्वसु थे। दूसरी स्त्री का नाम गोधा (शर्मिष्ठा) था जिसके गर्भ से त्वष्ट्र, वतुर्ण शंड और मक उत्पन्न हुए थे।
च्यवन ऋषि :: मुनिवर ने गुजरात के भड़ौंच (खम्भात की खाड़ी) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया। भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिण में पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ-भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा।
सुकन्या से च्यवन को अप्नुवान नाम का पुत्र मिला। दधीच इन्हीं के भाई थे। इनका दूसरा नाम आत्मवान भी था। इनकी पत्नी नाहुषी से और्व का जन्म हुआ। [और्व कुल का वर्णन ब्राह्मण ग्रंथों में, ऋग्वेद में 8.10.2-4 पर, तैत्तरेय संहिता 7.1.8.1, पंच ब्राह्मण 21.10.6, विष्णुधर्म 1.32 तथा महाभारत अनु. 56 आदि में प्राप्त है]
ऋचीक :: पुराणों के अनुसार महर्षि ऋचीक, जिनका विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ हुआ था, के पुत्र जमदग्नि ऋषि हुए। जमदग्नि का विवाह अयोध्या की राजकुमारी रेणुका से हुआ जिनसे परशुराम का जन्म हुआ।
विश्वामित्र :: गाधि के एक विश्वविख्यात पुत्र हुए जिनका नाम विश्वामित्र था जिनकी गुरु वशिष्ठ से प्रतिद्वंद्विता थी। परशुराम को शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक, पिता जमदग्नि तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने पिता के मामा राजर्षि विश्वामित्र और भगवान् शंकर से प्राप्त हुई। च्यवन ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया।
मरीचि के पुत्र कश्यप की पत्नी अदिति से भी एक अन्य भृगु उत्त्पन्न हुए जो उनके ज्येष्ठ पुत्र थे। ये अपने माता-पिता से सहोदर दो भाई थे। आपके बड़े भाई का नाम अंगिरा ऋषि था। इनके पुत्र वृहस्पति जी हुए, जो देवगणों के पुरोहित-देव गुरु के रूप में जाने जाते हैं।
भृगु ने ही भृगु संहिता, भृगु स्मृति, भृगु संहिता-ज्योतिष, भृगु संहिता-शिल्प, भृगु सूत्र, भृगु उपनिषद, भृगु गीता आदि की रचना की।
दक्ष प्रजापति :: प्रजापति दक्ष भगवान् ब्रह्मा के दक्षिणा अंगुष्ठ से उत्पन्न हुए। सृष्टा की आज्ञा से वे प्रजा की सृष्टि करने में लगे।
सर्वप्रथम इन्होंने दस सहस्त्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया।
दूसरी बार एक सहस्त्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गये। दक्ष को रोष आया। उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया कि तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे। भगवान् ब्रह्मा ने प्रजापति को शान्त किया। अब मानसिक सृष्टि से वे उपरत हुए।
प्रजापति दक्ष की पत्नियाँ :: उनका पहला विवाह स्वायंभुव मनु की तृतीय पुत्री प्रसूति से हुआ। उन्होंने प्रजापति वीरण की कन्या असिकी-वीरणी दूसरी पत्नी बनाया।
प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएँ। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियाँ थीं। इनमें 10 धर्म को, 13 महर्षि कश्यप को, 27 चंद्रमा को, एक पितरों को, एक अग्नि को और एक भगवान् शंकर को ब्याही गयीं। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएँ कही जाती हैं। समस्त दैत्य, गंधर्व, अप्सराएं, पक्षी, पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई। दक्ष की ये सभी कन्याएँ, देवी, यक्षिणी, पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है।
प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियाँ और उनके पति :: (1). श्रद्धा (धर्म), (2). लक्ष्मी (धर्म), (3). धृति (धर्म), (4). तुष्टि (धर्म), (5). पुष्टि (धर्म), (6). मेधा (धर्म), (7). क्रिया (धर्म), (8). बुद्धि (धर्म), (9). लज्जा (धर्म), (10). वपु (धर्म), (11). शांति (धर्म), (12). सिद्धि (धर्म), (13). कीर्ति (धर्म), (14). ख्याति (महर्षि भृगु), (15). सती (रूद्र), (16). सम्भूति (महर्षि मरीचि), (17). स्मृति (महर्षि अंगीरस), (18). प्रीति (महर्षि पुलत्स्य), (19). क्षमा (महर्षि पुलह), (20). सन्नति (कृतु), (21). अनुसूया (महर्षि अत्रि), (22). उर्जा (महर्षि वशिष्ठ), (23). स्वाहा (अग्नि), (24). स्वधा (पितृस)।
पुत्रियों के पति के नाम :- इसके बाद ख्याति का विवाह महर्षि भृगु से, सती का विवाह रुद्र (भगवान् शिव) से, सम्भूति का विवाह महर्षि मरीचि से, स्मृति का विवाह महर्षि अंगीरस से, प्रीति का विवाह महर्षि पुलत्स्य से, सन्नति का कृत से, अनुसूया का महर्षि अत्रि से, ऊर्जा का महर्षि वशिष्ठ से, स्वाहा का अग्नि से और स्वधा का पितृस से हुआ।
इसमें सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध रुद्र-भगवान् शिव से विवाह किया। माँ पार्वती और भगवान् शंकर के दो पुत्र और एक पुत्री हैं। पुत्र-गणेश, कार्तिकेय और पुत्री वनलता।
भगवान् शंकर से विवाद करके दक्ष ने उन्हें यज्ञ में भाग नहीं दिया। पिता के यज्ञ में रुद्र के भाग न देखकर माता सती ने योगाग्नि से शरीर छोड़ दिया। भगवान् शंकर पत्नी के देहत्याग से रुष्ट हुए। उन्होंने वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र ने दक्ष का मस्तक दक्षिणाग्नि में हवन कर दिया। देवताओं की प्रार्थना पर तुष्ट होकर भगवान् शंकर ने सद्योजात प्राणी के सिर से दक्ष को जीवन का वरदान दिया। बकरे का मस्तक तत्काल मिल सका। तबसे प्रजापति दक्ष ‘अजमुख’ हो गए।
वीरभद्र के रोम-कूपों से अनेक रौम्य नामक गणेश्वर प्रकट हुए थे। वे विध्वंस कार्य में लगे हुए थे। दक्ष की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने अग्नि के समान ओजस्वी रूप में दर्शन दिये और उसकी मनोकामना जानकर यज्ञ के नष्ट-भ्रष्ट तत्त्वों को पुन: ठीक कर दिया।
दक्ष ने एक हज़ार आठ नामों (शिव सहस्त्र नाम स्तोत्र) से भगवान् शिव की आराधना की और उनकी शरण ग्रहण की। भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उसे एक हज़ार अश्वमेध यज्ञों, एक सौ वाजपेय यज्ञों तथा पाशुपत् व्रत का फल प्रदान किया।
वीरणी से दक्ष की 60 पुत्रियाँ और उनके पति :- (1). मरुवती (धर्म), (2). वसु (धर्म), (3). जामी (धर्म), (4). लंबा (धर्म), (5). भानु (धर्म), (6). अरुंधती (धर्म), (7). संकल्प (धर्म), (8). महूर्त (धर्म), (9). संध्या (धर्म), (10). विश्वा (धर्म), (11). अदिति (महर्षि कश्यप), (12). दिति (महर्षि कश्यप), (13). दनु (महर्षि कश्यप), (14). काष्ठा (महर्षि कश्यप), (15). अरिष्टा (महर्षि कश्यप), (16). सुरसा (महर्षि कश्यप), (17). इला (महर्षि कश्यप), (18). मुनि (महर्षि कश्यप), (19). क्रोधवषा (महर्षि कश्यप), (20). तामरा (महर्षि कश्यप), (21). सुरभि (महर्षि कश्यप), (22). सरमा (महर्षि कश्यप), (23). तिमि (महर्षि कश्यप), (24). कृतिका (चंद्रमा), (25). रोहिणी (चंद्रमा), (26). मृगशिरा (चंद्रमा), (27). आद्रा (चंद्रमा), (28). पुनर्वसु (चंद्रमा), (29). सुन्रिता (चंद्रमा), (30). पुष्य (चंद्रमा), (31). अश्लेषा (चंद्रमा), (32). मेघा (चंद्रमा), (33). स्वाति (चंद्रमा), (34). चित्रा (चंद्रमा), (35). फाल्गुनी (चंद्रमा), (36). हस्ता (चंद्रमा), (37). राधा (चंद्रमा), (38). विशाखा (चंद्रमा), (39). अनुराधा (चंद्रमा), (40). ज्येष्ठा (चंद्रमा), (41). मुला (चंद्रमा), (42). अषाढ़ (चंद्रमा), (43). अभिजीत (चंद्रमा), (44). श्रावण (चंद्रमा), (45). सर्विष्ठ (चंद्रमा), (46). सताभिषक (चंद्रमा), (47). प्रोष्ठपदस (चंद्रमा), (48). रेवती (चंद्रमा), (49). अश्वयुज (चंद्रमा), (50). भरणी (चंद्रमा), (51). रति (कामदेव), (52). स्वरूपा (भूत), (53). भूता (भूत), (54). स्वधा (अंगिरा प्रजापति), (55). अर्चि (कृशाश्वा), (56). दिशाना (कृशाश्वा), (57). विनीता (तार्क्ष्य कश्यप), (58). कद्रू (तार्क्ष्य कश्यप), (59). पतंगी (तार्क्ष्य कश्यप) और (60). यामिनी (तार्क्ष्य कश्यप)।
कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी को नक्षत्र कन्या भी कहा जाता है। हालांकि अभिजीत को मिलाकर कुल 28 नक्षत्र माने गए हैं। उक्त नक्षत्रों के नाम इन कन्याओं के नाम पर ही रखे गए हैं। चन्द्र-सोम के साथ नक्षत्र नाम की पत्नियों से वंश क्रम में आपस्तंभ मुनि, धुव से काल, ध्रुव से हुतद्रव्य, अनिल से मनोजव और अनल से कार्तिकेय, प्रत्यूष से क्षमावान तथा प्रभात से विश्वकर्मा का जन्म हुआ।
सती का विवाह भगवान् शिव से हुआ। भगवान् शंकर से विवाद करके दक्ष ने उन्हें यज्ञ में भाग नहीं दिया। पिता के यज्ञ में रुद्र के भाग न देखकर माता सती ने योगाग्नि से शरीर छोड़ दिया। भगवान् शंकर पत्नी के देहत्याग से रुष्ट हुए। उन्होंने वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र ने दक्ष का मस्तक दक्षिणाग्नि में हवन कर दिया। देवताओं की प्रार्थना पर तुष्ट होकर भगवान् शंकर ने सद्योजात प्राणी के सिर से दक्ष को जीवन का वरदान दिया। बकरे का मस्तक तत्काल मिल सका। तबसे प्रजापति दक्ष ‘अजमुख’ हो गए।
वीरभद्र के रोम-कूपों से अनेक रौम्य नामक गणेश्वर प्रकट हुए थे। वे विध्वंस कार्य में लगे हुए थे। दक्ष की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने अग्नि के समान ओजस्वी रूप में दर्शन दिये और उसकी मनोकामना जानकर यज्ञ के नष्ट-भ्रष्ट तत्त्वों को पुन: ठीक कर दिया।
दक्ष ने एक हज़ार आठ नामों (शिव सहस्त्र नाम स्तोत्र) से भगवान् शिव की आराधना की और उनकी शरण ग्रहण की। भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उसे एक हज़ार अश्वमेध यज्ञों, एक सौ वाजपेय यज्ञों तथा पाशुपत् व्रत का फल प्रदान किया।
वह विष्णु, अविकारी, शुद्ध परमात्म, शाश्वत, सर्वव्यापक, अजन्मा, हिरण्यगर्भ हरि, शंकर और वासुदेवआदि अनेक नामों से जाता है। इसी ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की रचना की है। सृष्टि रचना के रूप में वह तेजस्वी ब्रह्म है जिसके द्वारा पहले महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ। उससे अहंकार, फिर अहंकार से पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई। पंचमहाभूतों से अनेक भेदाभेद पैदा हुए।
SEXUAL REPRODUCTION (मैथुनी सृष्टि) :: महर्षि कश्यप ब्रह्मा जी के मानस पुत्र मरीचि के पुत्र थे। इस प्रकार वे ब्रह्मा जी के पोते हुए। मरीचि ने कला नाम की स्त्री से विवाह किया और उनसे उन्हें कश्यप नामक एक पुत्र मिला। कश्यप की माता कला कर्दम ऋषि की पुत्री और ऋषि कपिल देव की बहन थी। कश्यप ने ब्रह्मा जी के दूसरे पुत्र दक्ष की 13 पुत्रियों से विवाह किया। मुख्यत इन्हीं कन्याओं से मैथुनी सृष्टि का विकास हुआ और कश्यप सृष्टिकर्ता कहलाए। संसार की सारी मैथुनी सृष्टि महर्षि कश्यप की इन्ही 13 पत्नियों की संतानें मानी जाति है। कश्यय पत्नी अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्ठा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सरमा और तिमि। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएं कही जाती हैं।
इस लोक और परलोक में दो पैरोँ पर चलने वाली 12 प्रजातियाँ, जो कि कश्यप ऋषि की पत्नियों के गर्भ से उत्पन्न हुईं :
(1). देवता : शाश्वत परम धर्म सदा यज्ञादि कार्य, स्वाध्याय, वेदज्ञान और विष्णु पूजा में रति।
(2). दैत्य : बाहुबल, ईर्ष्या भाव, युद्धकार्य, नीतिशास्त्र का ज्ञान और हर भक्ति।
(3). सिद्ध : श्रेष्ठ योग साधन, वेदाध्यन, ब्रह्म विज्ञान, तथा विष्णु और शिव में अचल भक्ति।
(4). गन्धर्व : ऊँची उपासना, नृत्य और वाद्य का ज्ञान, तथा सरस्वती के प्रति निश्चल भक्ति।
(5). विद्याधर : अद्भुत विद्या का धरना करना, विज्ञानं, पुरुषार्थ की बुद्धि और भवानी के प्रति भक्ति।
(6). किम्पुरुष : गन्धर्व विद्या का ज्ञान, सूर्य के प्रति अटल भक्ति और समस्त शिल्प कलाओं में कुशलता।
(7). पितृ : ब्रह्मचर्य अमानित्व (अभिमान से बचना), योगाभ्यास में दृढ़प्रीति एवं सर्वत्र इच्छानुसार भ्रमण।
(8). ऋषि : ब्रह्मचर्य, नियताहार, जप, आत्म ज्ञान और नियमानुसार धर्म ज्ञान।
(9). मानव : स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, दान, यज्ञ, उदारता, विश्रान्ति, दया, अहिंसा, क्षमा, दम, जितेँद्रियता, शौच, मांगल्य, तथा विष्णु, शिव, सूर्य, और दुर्गा देवी में भक्ति (सामान्य गुण धर्म)।
(10). गुह्य : धन का स्वामित्व, भोग, स्वाध्याय, शिव पूजा, अहंकार और सौम्यता।
(11). राक्षस : पर स्त्रीगमन, दूसरे के धन में लोलुपता, वेदाध्यन और शिव भक्ति।
(12). पिशाच : अविवेक, असत्यता एवं सदा माँस भक्षण की प्रवृति। [श्री वामन पुराण]
Kashyap, the son of Marichi (Brahma's son); produced the above mentioned organisms from his wives through intercourse as listed below:
(1). ADITI (DEV MATA) अदिति से आदित्य देवता :: She had 12 sons known as Adity-Sun in addition to Demigods. When they come together around the earth, all life forms perish and the earth start looking like the shell of a tortoise.
(1). Their names were :- (1). Vivaswan, (2). Aryma, (3). Poosha, (4). Twasta, (5). Savita, (6). Bhag, (7). Dhata, (8). Vidhata, (9). Varun, (10). Mitr, (11). Indr and (12). Tri Vikram (Bhagwan Vaman, Incarnation of Bhagwan Shri Hari Vishnu).
उनकी पत्नियों और उनसे उत्पन्न संतानों का वर्णन इस प्रकार है:अदिति : आदित्य (देवता)। ये 12 कहलाते हैं। ये हैं अंश, अयारमा, भग, मित्र, वरुण, पूषा, त्वस्त्र, विष्णु, विवस्वत, सावित्री, इन्द्र और धात्रि या त्रिविक्रम (भगवान् वामन)। कश्यप के अदिति से 12 आदित्य पुत्रों का जन्म हुए जिनमें विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वत मनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। राजा इक्ष्वाकु के कुल में जैन और हिन्दू धर्म के महान तीर्थंकर, भगवान, राजा, साधु महात्मा और सृजनकारों का जन्म हुआ है।
(2). DITY (DAETY MATA-THE MOTHER OF DEMONS) दिति से दैत्य :: She gave birth to Demons named Hirany Kashpu and Hiranyaksh, 49 Maruts.
दैत्य और मरुतों की उत्पत्ति दिति से हुई। दिति के पहले दो पुत्र हुए: हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप। उससे सिंहिका नामक एक पुत्री भी हुई। इन दोनों का संहार भगवान् विष्णु ने क्रमशः वराह और नरसिंह अवतार लेकर कर दिया।
कश्यप मुनि की अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, खसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, कोचवषा इला, कद्रू और मुनि पत्नियां हुईं। इनमें अदिति के द्वारा 12 पुत्र उत्पन्न हुए और दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष दो पुत्र तथा सिंहिका नाम की पुत्री उत्पन्न हुई। इस कन्या ने विप्रचित के वीर्य से रौहिकेय को जन्म दिया।
हिरण्यकशिपु के यहां ह्लाद अनुह्लाद प्रहलाद और संह्लाद चार पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें प्रह्लाद अपनी देव-प्रवृत्तियों के कारण अधिक प्रसिद्ध हुआ। इसके पुत्र विरोचन के बलि आदि क्रम में बाण, धृतराष्ट्र, सूर्य, चन्द्रमा, कुंभ, गर्दभाक्ष और कुक्षि आदि एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए।
बाण बलशाली और शिवभक्त था, उसने प्रथम कल्प में शिवजी को प्रसन्न करके उनके पक्षि भाग में विचरण करने का वरदान मांगा। हिरण्याक्ष के भी अत्यन्त बलशाली और तपस्वी सौ पुत्र हुए। अनुह्लाद के मुक और तुहुण्ड पुत्र हुए। संह्लाद के तीन करोड़ पुत्र हुए। इस तरह दिति के वंश ने विकास किया। महर्षि कश्यप की पत्नी दनु के गर्भ से दानव, केतु आदि उत्पन्न हुए।
इनमें विप्रचित प्रमुख था। ये सभी दानव बहुत बलशाली हुए और उन्होंने अपने वंश का असीमित विस्तार किया। कश्यपजी ने सृष्टि रचना करते हुए ताम्रा से छः, क्रोचवशा से बाज, सारस, गृध्र तथा रुचि आदि पक्षी जलचर और पशु उत्पन्न किए।
विनता से गरुड़ और अरुण, सुरसा से एक हजार सर्प कद्रू से काद्रवेय, सुरभि से गायें, इला से वृक्ष, लता आदि, खसा से यक्षों और राक्षसों तथा मुनि ने अप्सराओं और अरिष्टा ने गन्धर्वों को उत्पन्न किया। यह सृष्टि अपनी अनेक योनियों में फैलती हुई आगे बढ़ती रही।
देवताओं और दानवों में संघर्ष होने लगा और प्रतिस्पर्द्धा इतनी बढ़ी कि दानव नष्ट होने लगे। दिति ने अपने वंश को इस प्रकार नष्ट होते देख कश्यपजी को प्रसन्नकर इन्द्र आदि देवों को दंडित करने वाले की याचना से गर्भ धारण किया।
देवराज इन्द्र ने दिति के इस मनोरथ को खंडित करने के भाव से किसी न किसी प्रकार दिति के व्रत को तोड़ने का संकल्प किया, क्योंकि कश्यपजी ने यह वरदान दिया था कि गर्भवती दिति यत्नपूर्ण पवित्रता से नियम पालन करते हुए आचरण करेगी तो उसका मनोरथ अवश्य पूरा होगा।
अवसर ही खोज में लगे देव राज इन्द्र ने एक बार संयम के बिना हाथ धोए ही सोई दिति की कोख में प्रवेश कर लिया। वह उसके गर्भ के सात टुकड़े कर दिये जिनसे सात मरुतों का जन्म हुआ।
उन खंडों ने जब इन्द्र से उनके प्रति किसी प्रकार की शत्रुता न रखने का अनुरोध किया तो इन्द्र ने उन्हें छोड़ दिया। वे खंड ही मरुद्गण नाम के देव कहलाए और इन्द्र के सहायक हुए।इनमे से 4 इन्द्र के साथ, एक ब्रम्ह्लोक, एक इन्द्रलोक और एक वायु के रूप में विचरते हैं।कश्यपजी ने दाक्षायणी से विवस्वान नाम पुत्र को जन्म दिया।
त्वष्टा की पुत्री संज्ञा से विवस्वान का विवाह हुआ जिसमें श्रद्धादेव और यम नामक दो पुत्रों और यमुना नाम की पुत्री को जन्म दिया। संज्ञा विवस्वान के तेज को न सह सकी और अपनी सखी छाया को प्रतिमूर्ति बनाकर और अपनी संतानें उसे सौंपकर अपने पिता के पास चली गयी।
पिता ने उसके इस प्रकार आगमन को अनुचित कहते हुए उसे वापस लौटा दिया। वापस लौटने पर अश्वी का रूप धारण कर संज्ञा वन में विचरने लगी। विवस्वान ने छाया पत्नी से सावर्णि मनि और शनैश्चर नाम के दो पुत्र उत्पन्न किए।
वह अपने इन नवजात पुत्रों को इतना प्रेम करती थी कि संज्ञा से उत्पन्न यम आदि इसे सौतेला व्यवहार अनुभव करने लगे और प्रतिक्रिया स्वरूप यम ने छाया को लंगड़ी हो जाने का शाप दिया। विवस्वान ने जब यह जाना तो माता के प्रति ऐसा व्यवहार न करने का आदेश दिया।
दूसरी और जब संज्ञा रूपी छाया से इस पक्षपात का कारण पूछा तो उन्हें स्थिति का ज्ञान हो गया। संज्ञा की खोज में जब विवस्वान त्वष्टा मुनि के आश्रम में गया तो वहां उसे संज्ञा का अश्वी के रूप में उसी आश्रम में निवास का पता चला।
अपने तेज को शांत कर यौगिक क्रिया द्वारा रूप प्राप्त करके उसने अश्व का रूप धारण कर संज्ञा से मैथुन की चेष्टा की। संज्ञा पतिव्रता थी, वह पर पुरुष के साथ समागम कैसे कर सकती थी ?
किन्तु जब उसे सत्य का पता चला तो विवस्वान द्वारा स्खलित वीर्य को उसने नासिका में ग्रहण कर लिया। जिसके फलस्वरूप नासत्य और दस्र नाम के दो अश्वनीकुमार जन्मे। छाया के त्याग से प्रसन्न होकर विवस्वान ने सावर्णि को लोकपाल मनु का और शनैश्चर को ग्रह का पद प्रदान किया।
यह सावर्णि ही आगे चलकर सूर्य-वंश का स्वामी बना। सावर्णि के वंश में इक्ष्वाकु, नाभाग आदि नौ पुत्र हुए जिनके, जन्म पर मित्रावरुणों का पूजन किया गया। फलस्वरूप उत्पन्न इला नाम की कन्या से मनु ने अपनी अनुगमन करने को कहा। मित्रावरुण द्वारा प्रसन्न होकर प्राप्त वर के फलस्वरूप मनु से इला द्वारा सुद्युम्न नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
इला से मार्ग में लौटते हुए बुध ने रति की कामना की जिसके वीर्य से पुरुरवा का जन्म हुआ। इसने ही सुद्युम्न का रूप धारण किया। जिसके आगे उत्कल, गय और विनिताश्व पुत्र हुए। इन्होंने उत्कला, गया और पश्चिमा को क्रमशः अपनी राजधानी बनाया।
मनु ने अपने श्रेष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु को पृथ्वी के दस भागों में मध्य भाग सौंप दिया। इस प्रकार मनुपुत्रों का विकास और प्रसार हुआ। ब्रह्मलोक का प्रभाव इतना अद्भुत होता है कि वहां रुग्णता, व्याधि, चिन्ता, जरा, शोक, क्षुधा अथवा प्यास आदि के लिए कोई स्थान नहीं।
यहां ऋतुएं भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं पैदा करतीं। मनु के पुत्र प्रांश के वंश में रैवत बड़े कुशल और बलशाली हुए हैं। इनके बारे में यह कहा जाता है कि इनके स्वर्ग सिधारने पर राक्षसों ने उत्पात करना शुरू कर दिया था और इनके राज्य पर अधिकार कर लिया था। इनके भाई बन्धु इनके आतंक से घबराकर इधर-उधर बिखर गये थे।
इन्हीं से शर्याति क्षत्रियों की वंश परम्परा आगे बढ़ी। इनमें रिष्ट के दो पुत्रों ने पहले वणिक धर्म अपनाया बाद में ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया। पृषध्न ने अनजाने में गौहत्या के अपराध से शूद्रत्व प्राप्त किया।
(3). DANU (DAETY MATA) दनु :: उससे दानव जाति उत्पन्न हुई। ये कुल 61 थे पर प्रमुख चालीस माने जाते हैं। वे हैं विप्रचित्त, शंबर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केशी, दुर्जय, अयःशिरी, अश्वशिरा, अश्वशंकु, गगनमूर्धा, स्वर्भानु, अश्व, अश्वपति, घूपवर्वा, अजक, अश्वीग्रीव, सूक्ष्म, तुहुंड़, एकपद, एकचक्र, विरूपाक्ष, महोदर, निचंद्र, निकुंभ, कुजट, कपट, शरभ, शलभ, सूर्य, चंद्र, एकाक्ष, अमृतप, प्रलब, नरक, वातापी, शठ, गविष्ठ, वनायु और दीघजिह्व। इनमें जो चंद्र और सूर्य नाम आए हैं, वे देवता चंद्र और सूर्य से भिन्न हैं।She produced Danav-giants.
(4). KASHTHA काष्ठा :: उससे अश्व और अन्य खुर वाले पशु उत्पन्न हुए। She produced horses, ass, pony etc. all single hoofed animals.
(5). ARISTHA अरिष्ठा :: She produced Gandharv-divine male singers & dancers who performed in heaven. गन्धर्व जाति। ये उपदेवता माने जाते हैं, जिनका स्थान राक्षसों से ऊपर होता है। ये संगीत के अधिष्ठाता भी माने जाते हैं। गन्धर्व काफी मुक्त स्वभाव के माने जाते हैं और इस जाति में विवाह से पहले संतान उत्पत्ति आम मानी जाती थी। गन्धर्व विवाह (Live in relation. Living together without marriage. This is common in Christians, America, Australia and entire Europe) राक्षसों और यक्षों में बहुत आम थी, जिसके लिए कोई कर्मकांड की आवश्यकता नहीं होती थी। प्रसिद्ध गन्धर्वों या यक्षों में कुबेर और चित्रसेन के नाम बहुत प्रसिद्ध है।
(6). SURSA सुरसा :: सुरसा से राक्षस जाति उत्पन्न हुई जो विधि-विधान और मैत्री में विश्वास नहीं रखती और चीजों को हड़प करने वाली मानी जाति है। दैत्य, दानव और राक्षस जातियाँ एक सी लगती जरुर हैं, लेकिन उनमे अंतर था। दैत्य जाति अत्यंत बर्बर और निरंकुश थी। दानव लोग लूटपाट और हत्याएँ कर अपना जीवन बिताते थे तथा मानव माँस खाना इनका शौक होता था। राक्षस इन दोनों जातियों की अपेक्षा अधिक संस्कारी और शिक्षित होते थे। रावण जैसा विद्वान् इसका उदाहरण है। राक्षस जाति का मानना था कि वे रक्षा करते हैं। एक तरह से राक्षस जाति इन सब में क्षत्रियों की भाँति थी और इनका रहन सहन, जीवन और ऐश्वर्य दैत्यों और दानवों की अपेक्षा अधिक अच्छा होता था। She gave birth to Rakshash-demons.
(7). ILA इला :: उससे वृक्ष, वृक्ष और समस्त वनस्पति हुए। She gave birth to all types of, trees, creepers, shrubs, bushes herbs.
(8). MUNI मुनि :: मुनि से अप्सराएँ। ये स्वर्गलोक की नर्तकियाँ कहलाती थीं, जिनका काम देवताओं का मनोरंजन करना और उन्हें प्रसन्न रखना था। उर्वशी, मेनका, रम्भा एवं तिलोत्तमा इत्यादि कुछ मुख्य अप्सराएँ हैं। She produced nymphs-divine dancers in heaven.
(9). KRODHVASA क्रोधवशा :: सर्प जाति, बिच्छू और अन्य विषैले जीव और सरीसृप। She created Ghosts and Pishachs.
(10). TAMRA ताम्रा :: श्येन-गृध्र (गीध), बाज और अन्य शिकारी पक्षी। She produces all vultures, kites and hunter birds.
(11). SURBHI (GAU MATA) सुरभि :: सुरभि से सम्पूर्ण गोवंश (गौ-गाय, भैंस-महिष, बैल इत्यादि) उत्पन्न हुए। She produced all quadrupeds-horses, cows, buffaloes.
कश्यपजी द्वारा सुरभि से एकादश रुद्र भी उत्पन्न हुए।
(12). सरमा :: श्वापद (हिंस्त्र पशु)-हिंसक और शिकारी पशु, कुत्ते इत्यादि।
(13). तिमि :: यादोगण (जलजंतु), मछलियाँ और अन्य समस्त जलचर।
PROGENY FROM OTHER WIVES ::
(1). VINITA विनीता :: गरूड़ और अरुण की माता। अरुण सूर्य के सारथि बन गए और गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन। She gave birth to Arun-Sun's chariot driver, Garud Ji-Bhagwan Vishnu's carrier-a bird & daughters who became the mothers of all birds.
(2). KADRU कद्रू :: नाग माता। कद्रू से समस्त नाग जाति, जिसमें1,000 नागों की जातियों का जन्म हुआ। इनमें आठ मुख्य नागकुल चले। वे थे वासुकी, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंख, चूड, महापद्म और धनञ्जय। सर्प जाति और नाग जाति अलग अलग थी। सर्पों का मतलब जहाँ सरीसृपों की जाति से है, वहीँ नाग जाति उपदेवताओं की श्रेणी में आती है जिनका उपरी हिस्सा मनुष्यों की तरह और निचला हिस्सा सर्पों की तरह होता था। ये जाति पाताल में निवास करती है और सर्पों से अधिक शक्तिशाली, लुप्त और रहस्यमयी मानी जाती है। She became the mother of all servants, snakes-Bhagwan Shash Nag, Vasuki, Takshak etc.
(3). KHASA :: She produced ugly demigods and companions of Kuber, named after Yaksh and Rakshash.
(4). TANDRA तंद्रा :: became the mother of wild animals and
(5). Pitre had all dead ancestors and 10 Pralapati's as her sons.
(6). PATANGI पतंगी :: पक्षियों की समस्त जाति।
(7). YAMINI यामिनी :: शलभ, कीट पतंगों की समस्त जाति।
इसके अलावा महर्षि कश्यप ने वैश्वानर की दो पुत्रियों पुलोमा और कालका के साथ भी विवाह किया। In addition to these Kashyap married two daughters of Vaeshwanar called Puloma and Kalka.
(8). PULOMA पुलोमा :: उस से पौलोम नमक दानव वंश चला।
(9). KALKA कालका :: उससे 60,000 दैत्यों ने जन्म लिया, जो कालिकेय कहलाये। रावण की बहन शूर्पनखा का पति विद्युत्जिह्य भी कालिकेय दैत्य था, जो रावण के हाथों मारा गया।
4 TYPES OF REPRODUCTION ::
गर्भज-जरायुज GARBHAJ-JRAYUJ :: गर्भ से उत्पन्न; born out of placenta, viviparous, mammalian.
पशु, मृग, व्याघ्र, दोनों ओर दाँत वाले राक्षस, पिशाच और मनुष्य, ये सब जरायुज अर्थात् झिल्ली से उत्पन्न होने वाले हैं।
अंडज ANDAJ :: अण्डे उत्पन्न; Taking birth through the egg.
पक्षी, साँप, मगर, मछली तथा कछुए और अन्य जो इस प्रकार के स्थल में उत्पन्न होने वाले और जल में उत्पन्न होने वाले जीव हैं, वे अण्डज अर्थात् अण्डे में से उत्पन्न होते हैं।
स्वेदज SWEDAJ :: स्वेद-पसीने से उत्पन्न; Taking birth through contact by means of sweat.
मच्छर, जुँ, मक्खी, खटमल और जो भी इस प्रकार के कोई जीव हों जैसे भुनगे आदि वे सब सीलन और गर्मी से उत्पन्न होते हैं, उनको अर्थात् पसीने से उत्पन्न होने वाले कहा जाता है।
उद्भिज्ज UDBHIJJ :: वनस्पति-शरीर से उत्पन्न; Vegetative, sprouting, germinating.
बीज के बोने तथा डालियों के लगाने से उत्पन्न होने वाले सब स्थावर जीव वृक्ष आदि उद्भिज भूमि को फाड़कर उगने वाले कहलाते हैं।
औषधि :: जिस उद्भिज में फलों के पकने पर सूख जाने वाले और जिन पर बहुत फल फूल लगते हैं, औषधि कहलाते हैं।
वृक्ष :: जिस उद्भिज पर बिना फूल आये ही फल लगते हैं वे बड़, पीपल आदि वनस्पति कहलाते हैं और फूल तथा उसके बाद फल लगने वाले जीव वृक्ष कहलाते हैं।
झकड़ा जड़ वाले :: अनेक प्रकार के जड़ से ही गुच्छे के रूप में बनने वाले झाड़ आदि, एक जड़ से अनेक भागों में फूटने वालों ईख आदि तथा उसी प्रकार घास की सब जातियां बीज और शाखा से उत्पन्न होने वाले उगकर फैलने वाले दूब आदि और बेलें से सब भी उद्भिज ही कहलाते हैं।
At least 26 subatomic particles (including the God particle recently discovered) are known to us, there may be even more, to be identified sooner or later. We may soon, come across such elements which have never been heard of, on our earth. The periodic table which is based on physical and chemical properties, might soon be switched redrafted on the basis of nuclear properties, sooner or later. Electron and Positron are two such sub-atomic particles, which combine to produce Gamma-rays pure energy form. Neutrons break down to produce one proton and one electron. Photons, the light particles and electrons, identified as fastest moving particles, have dual nature: particle and wave. It has been reported that particles-rays have been found which have speeds much higher than photons-light.
न वस्तुनो वस्तुसिद्धिः॥1.43॥[कपिल मुनि-साँख्य शास्त्र]
Nothing can be created from space-zero state, unless until the basic components are already present-available. Law of conservation of matter states that “matter can neither be created nor be destroyed, as a result of any physical or chemical change, but it can be transformed from one state to another”. The law is incomplete without considering nuclear reactions, which change the basic configuration of atom or the molecule. Einstein Principle states that “Energy can be converted to mass and mass can be converted to energy".
Energy leads to the formation of protons-Hydrogen, particles. Hydrogen fuses to produce Helium isotopes. The chain once began leads to the formation of oxygen, Carbon, Nitrogen, Sulphur, Uranium of course intermediaries like Lead. In nascent state (newly born), both hydrogen and oxygen are extremely reactive. They produce water most essential for living organisms. The process of formation of new atoms and molecules does not stop here. More and more complex molecules are formed, the process is never ending. Meteors, Asteroids, Planets, Sun, Solar-System, Galaxies, Super Galaxies, Constellations, tail star were all formed in this manner. The make and break process is still on and is likely to continue infinitely. Gau Lok and Vaikunth Lok are the only exceptions, since they will last longer than the others.
Vast oceans are reservoirs of water, on earth, moon, Venus, Mars or the Saturn. Mountain cliffs-caps, laden with ice, rivers, lakes, ponds, streams, wells, underground currents of water, tap water: are all different sources of water.
Each and every molecule of water irrespective of its source has absolutely same properties. Solid-ice, Liquid-water, Gaseous: steam or vapours, Ionic or Plasmic do represent one and the same thing i.e. water. It’s capable of taking the shape and size of the container. The soul present in different creatures is absolutely the same as the God himself.
Water keeps evaporating from reservoirs, gets mixed with air in the form of moisture and takes the shape of clouds, forms monsoon, which moves over to the land and converts into rain. At places, it takes the shape of hails-hail storms or start falling as snow. On the top of the mountain, the snow hardens and it takes the shape of mountain cliff. During summers, the ice melts and takes the shape of streams, rivers, lakes etc. Monsoon showers, on the land, houses, water bodies, produce different channels or pools of water. Water from these sources is either evaporated or consumed in different manners. This water is contaminated in various ways. Water is recycled and put to use again and again. Often the treated water is used for agriculture purposes and harvesting. Water is distilled to 100% purity, for chemical-nuclear purposes. It exhibits various physical states in addition to Heavy water which is used in nuclear reactors, for nuclear research and energy purposes.
Similarly, The soul keep revolving from one species to another, one abode to another, from one universe to another, from one deity to another, unless until it becomes free from all sins or virtues, to merge into the Almighty for ever.
In its purest form-molecular state, water constitutes of two atoms of Hydrogen and one atom of Oxygen. Hydrogen has three isotopes i.e., Hydrogen, Deuterium, Tritium. Similarly, Oxygen does exhibit isotopes. In molecular state, Hydrogen has two atoms and Oxygen too has two in normal state and three as Ozone. In addition to this, both Hydrogen and Oxygen have nascent states in which, they are very reactive and can’t exist freely in nature. Plasma states of Hydrogen and Oxygen are one of the biggest reservoirs of energy. Release of tremendous amount of energy by Hydrogen, through nuclear fusion is well known. Source of energy on the Sun is also a case of nuclear fusion. Two atoms of hydrogen combine to form Hydrogen molecule and two atoms of oxygen combine to form, Oxygen molecule. Two molecules of hydrogen and one molecule of oxygen combine to form a water molecule.
Each and every molecule has the properties of its parent substance-the molecule. An atom has all the properties of the parent element. We are the molecules, God is the parent substance-compound, if we are atoms and God is the parent element.
Hydrogen is the basic element, which through various permutations and combinations, produces larger-heavier elements. Larger molecules of the same element, having four or more atoms, are found in nature, like Tetra-Nano Carbon. The process of hydrogen formation and release of energy are cyclic and reversible in nature.
Photon, a component of light from the Sun, which breaks water into hydrogen, which further breaks down into plasmic state. The energy released, travels back to the Sun, with the help of some particle, providing a never ending source of power. Piousity, virtues, welfare of living beings, charity, donations, high moral character, good deeds offered to the God, strengthen the Demigods to take care of the humans.
A soul is the single-smallest unit of life form, which can exist in either material-divine bodies or even freely without a body. Two or more souls having same orientation can fuse together into one. The living being may be both: Material as well as Divine.
It may constitute of a soul or a quantum of souls. Soul is like the driver of the body of the creature-the organism. Body is dead without it, a lump of clay, mound, dust particle. All souls have their origin in Brahma Ji and they merge into him at the time of destruction.
The way a molecule of water moves from the oceans to air and reaches back, after passing through various cycles of nature. The soul having born out of the God meets him again and again, after attaining Salvation ultimately, to depart again since nothing is permanent, constant, stationary i.e., for ever. Still, there are the souls, which never depart after assimilation in The Almighty.
No one is Ajar or Amar (Indestructibility, permanent, for ever), how so ever, high or mighty he be, he has to go, one day or the other. A dust particle becomes earth after falling over it. A drop of water, becomes ocean after falling in it. The soul becomes Permatma-the Almighty, after assimilation in it.
ONLY THOSE SOULS WHICH MERGE WITH THE ALMIGHTY NEVER TAKES BIRTH AGAIN.
HUMAN मानव-मनुष्य योनि :: Humans are the best creations of the Almighty far-far better than the demigods, deities, demons, giants; since its only when the soul gets the incarnation as a human being, it can perform-do some activity to get rid of the sins or perform virtuous jobs. One becomes a human being only after traversing through 84,00,000 species. Its the only species-race, which willingly perform Tapasya, asceticism, welfare of others & chastity. However, some exceptions are always there. Purity-piousness leads to higher abodes and vices, wretchedness, evils throw the sinner in hells. On completion of the reward of virtuous activities one will return back to earth to take birth in some honourable-respectable family. On release from the hell the sinner will acquire the lower species of insects, gradually moving from one to another higher forms of living beings like fish, reptiles, birds, animals, tree etc. Thereafter, he goes to the families of the Mallechh (Muslims, Yawan, Jews, Christians), Shudr, Vaeshy, Kshatriy and the Brahmn, ultimately. However, he may keep wriggling from one race to another, one species to another, depending upon the outcome of deeds like the game of snake and ladder. One is elevated from a lower caste-Varn to higher directly without going to the middle ranks depending upon his meritorious virtuous activities. He slides to lower forms as and when he perform evils. The last-final, The Ultimate abode from where the soul is not expected to return is Gau Lok-the abode of Bhagwan Shri Krashn-the Almighty Par Brahm Parmeshwar. It happens only after Moksh-Salvation (assimilation in God, Liberation).
CREATION OF LIFE सृष्टि रचना :: वे परमात्मा जो निराकार हैं उन्होंने लीलार्थ 24 तत्वों के अण्ड का निर्माण किया। उस अण्ड से ही वे परमात्मा साकार रूप में बाहर निकले। उन्होंने जल की रचना की तथा हजारों दिव्य वर्षों तक उसी जल में शयन किया अतः उनका नाम नारायण हुआ।
HUMAN मानव-मनुष्य योनि :: Humans are the best creations of the Almighty far-far better than the demigods, deities, demons, giants; since its only when the soul gets the incarnation as a human being, it can perform-do some activity to get rid of the sins or perform virtuous jobs. One becomes a human being only after traversing through 84,00,000 species. Its the only species-race, which willingly perform Tapasya, asceticism, welfare of others & chastity. However, some exceptions are always there. Purity-piousness leads to higher abodes and vices, wretchedness, evils throw the sinner in hells. On completion of the reward of virtuous activities one will return back to earth to take birth in some honourable-respectable family. On release from the hell the sinner will acquire the lower species of insects, gradually moving from one to another higher forms of living beings like fish, reptiles, birds, animals, tree etc. Thereafter, he goes to the families of the Mallechh (Muslims, Yawan, Jews, Christians), Shudr, Vaeshy, Kshatriy and the Brahmn, ultimately. However, he may keep wriggling from one race to another, one species to another, depending upon the outcome of deeds like the game of snake and ladder. One is elevated from a lower caste-Varn to higher directly without going to the middle ranks depending upon his meritorious virtuous activities. He slides to lower forms as and when he perform evils. The last-final, The Ultimate abode from where the soul is not expected to return is Gau Lok-the abode of Bhagwan Shri Krashn-the Almighty Par Brahm Parmeshwar. It happens only after Moksh-Salvation (assimilation in God, Liberation).
CREATION OF LIFE सृष्टि रचना :: वे परमात्मा जो निराकार हैं उन्होंने लीलार्थ 24 तत्वों के अण्ड का निर्माण किया। उस अण्ड से ही वे परमात्मा साकार रूप में बाहर निकले। उन्होंने जल की रचना की तथा हजारों दिव्य वर्षों तक उसी जल में शयन किया अतः उनका नाम नारायण हुआ।
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः॥
परमात्मा की जब बहुत होने की इच्छा हुई तब वे उठे तथा अण्ड के अधिभूत, अध्यात्म तथा अधिदैव ये तीन खण्ड किये। उन परमात्मा के आंतरिक आकाश से इन्द्रिय, मनः तथा देह शक्ति उत्पन्न हुई। साथ ही सूत्र, महान् तथा असु नामक तीन प्राण भी उत्पन्न हुए। उनके खाने की इच्छा के कारण अण्ड से मुख निकला, जिसके अधिदैव वरुण तथा विषय रसास्वादन हुआ। इसी प्रकार बोलने की इच्छा के कारण वाक् इन्द्रियँ प्रकट हुईं, जिसके देव अग्नि तथा भाषण विषय हुआ। उसी तरह नासिका, नेत्र, कर्ण, चर्म, कर, पाद आदि निकला। यह परमात्मा का साकार स्थूल रूप है, जिनका नमन वेद पुरुष सूक्त से किये हैं।
प्रलय काल में भगवान् शेष पर शयन कर रहे थे। वे आदिमध्यान्तहीनाय निर्गुणाय गुणात्मने हैं। अतः शेष जो सबके बाद भी रहते हैं, वही उनकी शैया हैं। सृष्टि की इच्छा से जब उन्होंने आँखें खोलीं तो देखा कि सम्पूर्ण लोक उनमें लीन है। तभी रजोगुण से प्रेरित परमात्मा की नाभि से कमल अंकुरित हो गया, जिससे सम्पूर्ण जल प्रकाशमय हो गया। नाभिपद्म से उत्पन्न ब्रह्मा जी पंकज कर्णिका पर आसीन थे। कल्प के आदि में, ब्रह्मा जी भगवान् विष्णु के नाभि से उत्पन्न हुए पद्म पर विराजमान थे, उन्होंने उस समय सम्पूर्ण जगत को जल मग्न देखा। वे सोचने लगे कि, वे कौन हैं, किसने उन्हें जन्म दिया हैं तथा उनके जन्म का क्या उद्देश्य हैं। वे कमलनाल के सहारे जल में प्रविष्ट हुए तथा सौ दिव्य वर्ष तक निरंतर खोज करने पर भी कोई प्राप्त नहीं हुआ। अंत में वे पुनः यथास्थान बैठ गए। वहाँ हजारों दिव्य वर्षों तक समाधिस्थ रहे और घोर तपस्या की। तदनंतर पुरुषोत्तम भगवान् श्री हरी विष्णु ने उन्हें दर्शन दिये। ब्रह्मा जी ने भगवान् श्री हरी विष्णु की स्तुति की ::
ज्ञातोऽसि मेऽद्य सुचिरान्ननु देहभाजां, न ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम्।
नान्यत्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धं, मायागुणव्यतिकराद्यदुरुर्विभासी॥[श्रीमद्भागवत]
चिरकाल से मैं आपसे अंजान था, आज आपके दर्शन हो गए। मैने आपको जानने का प्रयास नहीं किया, यही हम सब का सबसे बड़ा दोष है, क्योंकि समस्त ब्रह्माण्ड में आप ही जानने योग्य हैं। अपने समीपस्थ जीवों के कल्याणार्थ आपने सगुण रूप धारण किया जिससे मेरी उत्पत्ति हुई। निर्गुण भी इससे भिन्न नहीं।
उनके अंदर ब्रह्मा जी ने अथाह सागर तथा कमल पर आसीन स्वयं को भी देखा। भगवान् शेषनाग में शयन कर रहे प्रभु का नीलमणि के समान देह अनेक आभूषणों से आच्छादित था तथा वन माला और कौस्तुभ मणि स्वयं को भाग्यवान मान रहे थे। श्री भगवान् ने कहा "मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, जाओ सृष्टि करो। प्रलय से जो प्रजा मुझ में लीन हो गई उसकी पुनः उत्पत्ति करो"। भगवान् श्री विष्णु ने जल प्रलय के परिणामस्वरूप नष्ट हुए सम्पूर्ण जगत, उन समस्त प्रजा तथा तत्वों को पुनः उत्पन्न करने का ब्रह्मा जी को निर्देश दिया तथा वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए। ब्रह्मा जी ने सौ दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या की जिसके परिणाम स्वरूप प्रलयकालीन वायु के द्वारा जल तथा कमल दोनो आंदोलित हो उठे। ब्रह्मा जी ने तप की शक्ति से उस वायु को जल सहित पी लिया। तब आकाशव्यापी कमल से ही चौदह लोकों की रचना हुई। ईश्वर काल के द्वारा ही सृष्टि किया करते हैं।
इन सृष्टियों से ब्रह्मा जी को संतुष्टि न मिली तब उन्होंने मन में भगवान् नारायण श्री हरी विष्णु,का ध्यान कर मन से दशम सृष्टि सनकादि मुनियों की थी, जो साक्षात् भगवान ही थे। कौमार सर्ग में चार ब्राह्मणों के रूप में अवतार ग्रहण करने वाले, चारों कुमार सनक (पुरातन), सनन्दन (हर्षित), सनातन (जीवंत) तथा सनत् (चिर तरुण) के नाम में ‘सन’ शब्द हैं, इसके अलावा चार भिन्न प्रत्ययों हैं। पूर्व चाक्षुष मन्वंतर के प्रलय के समय जो वेद-शास्त्र प्रलय के साथ लीन हो गए थे, इन चार कुमारों के उन वेद-शास्त्र, ब्रह्म ज्ञान, गूढ़ विद्या को भगवान् के हंस अवतार से प्राप्त किया। इन चारों ने बहुत कठिन अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया। ये महर्षि,मुनि या ऋषि के नाम से भी जाने जाते हैं। इनकी आयु सदैव पाँच वर्ष की रहती है। ये चारों ही ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं। ब्रह्मा जी नें उन बालकों से कहा कि पुत्र जाओ सृष्टि करो। सनकादि मुनियों नें ब्रह्मा जी से कहा "पिताश्री! क्षमा करें। हमारे हेतु यह माया तो अप्रत्यक्ष है, हम भगवान् की उपासना से बड़ा किसी वस्तु को नहीं मानते। उनके अनुसार भगवान् श्री हरि विष्णु की भक्ति-आराधना से अधिक और कोई कार्य उनके लिए उपयुक्त नहीं था। नारद जी को इन्होंने भागवत सुनाया था तथा उन्होंने स्वयं भगवान् शेष से भागवत श्रवण किया था। ये जितने छोटे दिखते हैं, उतनी ही विद्याकंज हैं। ये चारो वेदों के ही रूप कहे जा सकते हैं। वे चारों जहाँ पर भी जाते थे, सर्वदा ही भगवान् विष्णु का भजन करते थे, सर्वदा ही भगवान् नारायण के भजन कीर्तन में निरत-निमग्न रहते थे। ये सर्वदा उदासीन भाव से युक्त हो, भजन-साधन में मग्न रहते थे। इन्हीं चारों कुमारों ने उदासीन भक्ति, ज्ञान तथा विवेक का मार्ग शुरू किया, जो आज तक उदासीन अखाड़ा के नाम से चल रहे हैं। उसका प्रथमोपदेश अपने शिष्य देवर्षि नारद को किया था। नारद मुनि को इन्होंने ही समस्त वेद-शास्त्रों से अवगत करवाया, तदनंतर नारद जी से अन्य ऋषियों ने यह ज्ञान प्राप्त किया। इन्हें आत्मा तत्व का पूर्ण ज्ञान था, वैवस्वत मन्वंतर में इन्हीं बालकों ने, सनातन धर्म ज्ञान प्रदान किया और निवृति-धर्म के प्रवर्तक आचार्य हुए। ये सर्वदा ही दिगंबर भेष धारण किये रहते थे। संसार में रहते हुए भी, ये कभी किसी भी बंधन में नहीं बंधे। केवल मात्र हरि भजन ही इनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था। ये चारों कुमार परम सिद्ध योगी हैं, अपने परम ज्ञान तथा सिद्धियों के परिणाम स्वरूप ये सर्वदा ही सिद्ध बाल योगी से जान पड़ते हैं। ज्ञान प्रदान तथा वेद-शास्त्रों के उपदेश, भगवान् विष्णु की भक्ति और सनातन धर्म हेतु इन कुमारों ने तीनों लोकों में भ्रमण किया। इन्होंने भगवान् विष्णु को समर्पित कई स्त्रोत लिखे।
बुद्धि को अहंकार से मुक्ति का उपाय सनकादि से अभिहित हैं, केवल चैतन्य ही शाश्वत हैं। चैतन्य मनुष्य के शरीर में चार अवस्थाएँ :- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय या प्राज्ञ विद्यमान रहती हैं। इस कारण मनुष्य देह चैतन्य रहता हैं। इन्हीं चारों अवस्थाओं में विद्यमान रहते के कारण चैतन्य मनुष्य को सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत् से संकेतित किया गया हैं। ये चारों कुमार किसी भी प्रकार की अशुद्धि के आवरण से रहित हैं, परिणाम स्वरूप इन्हें दिगंबर वृत्ति वाले जो नित्य नूतन और एक समान रहते हैं “कुमार” कहा जाता हैं। तत्त्वज्ञ (तत्व ज्ञान से युक्त), योगनिष्ठ (योग में निपुण), सम-द्रष्टा (सभी को एक समान देखना तथा समझना अर्थात सभी प्राणियों में समता), ब्रह्मचर्य से युक्त होने के कारण इन्हें ब्राह्मण (ब्रह्मानन्द में निमग्न) कहा जाता हैं।
जय विजय को श्राप :: एक समय चारों सनकादि कुमार भगवान् विष्णु के दर्शनार्थ वैकुण्ठ जा पहुंचे। वे वहाँ के सौंदर्य को देखकर बड़े प्रसन्न हुए। वहाँ स्फटिक मणि के स्तंभ थे, भूमि पर भी अनेकों मणियाँ जड़ित थीं। भगवान् के सभी पार्षद नन्द, सुगन्ध सहित वैकुण्ठ के पति का सदैव गुणगान किया करते हैं। चारों मुनि छः ड्योढ़ियाँ लाँघकर जैसे ही सातवीं ड्योढ़ी पर चढ़े उनका दृष्टिपात दो महाबलशाली द्वारपाल जय तथा विजय पर हुआ। कुमार जैसे ही आगे बढ़े दोनों द्वारपालों ने मुनियों को धृष्टतापूर्वक रोक दिया। यद्यपि वे रोकने योग्य न थे, इस पर सदा शाँत रहने वाले सनकादि मुनियों को भगवत् इच्छा से क्रोध आ गया। वे द्वारपालों से बोले "अरे! बड़ा आश्चर्य है। वैकुण्ठ के निवासी होकर भी तुम्हारा विषम स्वभाव नहीं समाप्त हुआ? तुम लोग तो सर्पों के समान हो। तुम यहाँ रहने योग्य नहीं हो, अतः तुम नीचे लोक में जाओ। तुम्हारा पतन हो जाये।" इस पर दोनो द्वारपाल मुनियों के चरणों पर गिर पड़े। तभी भगवान् का आगमन हुआ। मुनियों नें भगवान् को प्रणाम किया। श्री भगवान् कहते हैं "हे ब्रह्मन्! ब्राह्मण सदैव मेरे आराध्य हैं। मैं आपसे मेरे द्वारपालों द्वारा अनुचित व्यवहार हेतु क्षमा प्रार्थी हूँ।" उन्होंने द्वारपालों से कहा "यद्यपि मैं इस श्राप को समाप्त कर सकता हूँ; परंतु मैं ऐसा नहीं करुँगा क्योंकि तुम लोगों को ये श्राप मेरी इच्छा से ही प्राप्त हुआ है। तुम लोग इसके ताप से तपकर ही चमकोगे, यह परीक्षा है, इसे ग्रहण करो। एक बात और, तुम मेरे बड़े प्रिय हो। द्वारपालों ने श्राप को ग्रहण किया। मुनियों ने कहा "प्रभु! आप तो हमारे भी स्वामी हैं और सब ब्राह्मणों का आदर करते हुए सभी लोग मुक्ति को प्राप्त करें यह सोचकर हमें आदर प्रदान करते हैं। प्रभु आप धन्य हैं। सदैव हमारे हृदय में वास करें और द्वारपालों की मुक्ति आपके कर कमलों से ही होगी"।भगवान् ने द्वारपालों को कहा "द्वारपालों तुम तीन जन्म तक राक्षस योनि में जाओगे तथा मैं तुम्हारा उद्धार करुँगा"। इसी श्राप के कारण ये दोनों द्वारपाल तीन जन्मों तक राक्षस बने। प्रथम जन्म में ये दोनों ही हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकश्यपु बनें, द्वितीय में रावण तथा कुम्भकर्ण तथा तृतीय जन्म में ये ही शिशुपाल तथा दन्तवक्र बने।
सृष्टि कर्ता भगवान् ब्रह्मा जी :: अव्यक्त-निराकार परम पिता परम ब्रह्म परमेश्वर ने स्वयं को व्यक्त-साकार रूप से प्रकट करने का निश्चय किया और गौलोक की रचना करके भगवान् श्री कृष्ण के रूप में प्रकट हुए। उनसे ही भगवती माँ दुर्गा और भगवान् सदाशिव उत्पन्न हुए। कालरूपी ब्रह्म सदाशिव ने ही शक्ति के साथ शिवलोक नामक क्षेत्र का निर्माण किया। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर विहार करने वाले भगवान् सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्री अंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। भगवान् सदाशिव की पराशक्ति प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकार रहित हैं। माँ शक्ति, अम्बिका (माँ पार्वती या सती नहीं), प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिभुवन जननी, नित्या और मूल कारण भी हैं। उनकी 8 भुजाएँ हैं। पराशक्ति जगत जननी माँ भगवती नाना प्रकार की गतियों से संपन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र शक्ति धारण करती हैं। एकाकिनी होने पर भी वह माया शक्ति संयोगवशात अनेक हो जाती है। शक्ति की देवी ने ही लक्ष्मी, सावित्री और पार्वती के रूप में अवतार ग्रहण किया तथा ब्रह्मा, विष्णु और महेश की अर्धांगनी हुईं। माँ भगवती तीन रूप होकर भी वह अकेली रह गई थी।
कालरूप सदाशिव की अर्धांगिनी हैं माँ दुर्गा।उनका उत्तम लोक-क्षेत्र काशी है। वह मोक्ष का स्थान है। यहाँ शक्ति और शिव अर्थात कालरूपी ब्रह्म सदाशिव और दुर्गा यहाँ पति और पत्नी के रूप में निवास करते हैं। इस मनोरम स्थान काशी पुरी को प्रलयकाल में भी शिव और शिवा ने अपने सान्निध्य से कभी मुक्त नहीं किया था। इस आनंद रूप वन में रमण करते हुए एक समय शिव और शिवा को यह इच्छा उत्पन्न हुई कि किसी दूसरे पुरुष की सृष्टि करनी चाहिए, जिस पर सृष्टि निर्माण (वंशवृद्धि आदि) का कार्यभार रखकर हम निर्वाण धारण करें। ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित परमेश्वर रूपी सदाशिव ने अपने वामांग पर अमृत मल दिया। वहाँ से एक पुरुष प्रकट हुआ। शिव ने उस पुरुष से संबोधित होकर कहा, ‘वत्स! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु विख्यात होगा।’ इस प्रकार भगवान् विष्णु के माता और पिता कालरूपी सदाशिव और पराशक्ति दुर्गा हैं।
भगवान् श्री हरी विष्णु को उत्पन्न करने के बाद सदाशिव और शक्ति ने पूर्ववत प्रयत्न करके ब्रह्मा जी को अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया और तुरंत ही भगवान् विष्णु के नाभि कमल में डाल दिया। इस प्रकार उस कमल से पुत्र के रूप में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का जन्म हुआ। ब्रह्मा जी ने उस कमल के सिवाय दूसरे किसी को अपने शरीर का जनक या पिता नहीं जाना। मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरा क्या कार्य है, मैं किसका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ हूँ और किसने इस समय मेरा निर्माण किया है ? इस प्रकार के संशय ब्रह्मा जी के मस्तिष्क में उत्पन्न हुए। उन्होंने अपने नेत्रों को चारों ओर घुमाकर शून्य में देखा। इस चेष्टा से चारों दिशाओं में उनके चार मुख प्रकट हो गये। दीर्घ काल तक तप करने के बाद ब्रह्मा जी को शेष शय्या पर सोये हुए भगवान् विष्णु के दर्शन हुए। वो स्वयं को उनका पिता-जनक समझने लगे। ब्रह्मा और विष्णु में इसको लेकर विवाद हुआ कि कौन पिता है? तभी बीच में कालरूपी एक प्रकाश स्तंभ आकर खड़ा हो गया। उन दोनों ने उसका ओर-छोर ढूँढना चाहा तो वह उनको नहीं मिला तो वे निराश होकर वापस आये। तभी आकाशवाणी ने उन्हें तपस्या करने को कहा। तपस्या से निवृति के तदोपरांत दोनों ने भगवान् सदाशिव से पूछा-‘प्रभो, सृष्टि आदि 5 कर्तव्यों के लक्षण क्या हैं ? यह हम दोनों को बताइए।’ तब ज्योतिर्लिंग रूप काल ने कहा-‘पुत्रो, तुम दोनों ने तपस्या करके सृष्टि (जन्म) और स्थिति (पालन) नामक दो कृत्य प्राप्त किए हैं।
इसी प्रकार मेरे विभूति स्वरूप रुद्र और महेश्वर ने दो अन्य उत्तम कृत्य संहार (विनाश) और तिरोभाव (अकृत्य) मुझ से प्राप्त किए हैं, परंतु अनुग्रह (कृपा करना) नामक दूसरा कोई कृत्य पा नहीं सकता। रुद्र और महेश्वर दोनों ही अपने कृत्य को भूले नहीं हैं। इसलिए मैंने उनके लिए अपनी समानता प्रदान की है।’
भगवान् सदाशिव कहते हैं :- ‘ये (रुद्र और महेश) मेरे जैसे ही वाहन रखते हैं, मेरे जैसा ही वेश धरते हैं और मेरे जैसे ही इनके पास हथियार हैं। वे रूप, वेश, वाहन, आसन और कृत्य में मेरे ही समान हैं।’
कालरूपी सदाशिव कहते हैं कि मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है, क्योंकि सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार अर्थात ‘ॐ’ प्रकट हुआ। ओंकार वाचक है, मैं वाच्य हूं और यह मंत्र मेरा स्वरूप ही है और यह मैं ही हूं। प्रतिदिन ओंकार का स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है। मेरे पश्चिमी मुख से अकार का, उत्तरवर्ती मुख से उकार का, दक्षिणवर्ती मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से बिन्दु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ। यह 5 अवयवों से युक्त (पंचभूत) ओंकार का विस्तार हुआ।
अपने एवं विश्व के कारण परम पुरुष का दर्शन करके ब्रह्मा जी को विशेष प्रसन्नता हुई और उन्होंने भगवान् विष्णु की स्तुति की। भगवान् विष्णु ने ब्रह्माजी से कहा कि अब आप तप:शक्ति से सम्पन्न हो गये हैं और आपको मेरा अनुग्रह भी प्राप्त हो गया है। अत: अब आप सृष्टि करने का प्रयत्न कीजिये।
भगवान् विष्णु की प्रेरणा से माँ भगवती सरस्वती ने ब्रह्मा जी को सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान कराया।
ब्रह्मा जी मानसिक संकल्प से प्रजापतियों को उत्पन्न कर उनके द्वारा सम्पूर्ण प्रजा की सृष्टि करते हैं। इसलिये वे प्रजापतियों के भी पति कहे जाते हैं। मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष तथा कर्दम, ये दस मुख्य प्रजापति हैं। भगवान् रुद्र भी ब्रह्मा जी के ललाट से उत्पन्न हुए। मानव-सृष्टि के मूल महाराज मनु उनके दक्षिण भाग से उत्पन्न हुए और वाम भाग से शतरूपा की उत्पत्ति हुई। स्वायम्भुव मनु और महारानी शतरूपा से मैथुरी-सृष्टि प्रारम्भ हुई। सभी देवता ब्रह्मा जी के पौत्र माने गये हैं, अत: वे पितामह के नाम से प्रसिद्ध हैं।
ब्रह्मा जी देवता, दानव तथा सभी जीवों के पितामह हैं, फिर भी वे विशेष रूप से धर्म के पक्षपाती हैं। देवासुरादि संग्रामों में पराजित होकर देव गण ब्रह्मा के पास जाते हैं तो ब्रह्मा जी धर्म की स्थापना के लिये भगवान् विष्णु को अवतार लेने के लिये प्रेरित करते हैं। भगवान् विष्णु के प्राय: चौबीस अवतारों में ये ही निमित्त बनते हैं।
शैव और शाक्त आगमों की भाँति ब्रह्मा जी की उपासना का भी एक विशिष्ट सम्प्रदाय है, जो वैखानस सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है। इस वैखानस सम्प्रदाय की सभी सम्प्रदायों में मान्यता है। पुराणादि सभी शास्त्रों के ये ही आदि वक्ता माने गये हैं। ब्रह्मा जी की प्राय: अमूर्त अपासना ही होती है। सर्वतोभद्र, लिंगतोभद्र आदि चक्रों में उनकी पूजा मुख्य रूप से होती है, किन्तु मूर्तरूप में मन्दिरों में इनकी पूजा पुष्कर-क्षेत्र तथा ब्रह्मार्वत-क्षेत्र (विठुर) में देखी जाती है। माध्व सम्प्रदाय के आदि आचार्य भगवान् ब्रह्मा ही माने जाते हैं। उडुपी आदि मुख्य मध्वपीठों में इनकी पूजा-आराधना की विशेष परम्परा है। देवताओं तथा असुरों की तपस्या में प्राय: सबसे अधिक आराधना इन्हीं की होती है। विप्रचित्ति, तारक, हिरण्यकशिपु, रावण, गजासुर तथा त्रिपुर आदि असुरों को इन्होंने ही वरदान देकर अवध्य कर डाला था। देवता, ऋषि-मुनि, गन्धर्व, किन्नर तथा विद्याधर गण, इनकी आराधना में निरंतर तत्पर रहते हैं। ब्रह्मा जी के चार मुख हैं। वे अपने चार हाथों में क्रमश: वरमुद्रा, अक्षरसूत्र, वेद तथा कमण्डलु धारण किये हैं। उनका वाहन हंस है। उनका पाँचवाँ सिर भगवान् शिव ने काट दिया और कापालिक कहलाये।
भगवान् ऋषभदेव :: जब सब कुछ प्रलय के कारण नष्ट हो गया तो धरती लाखों वर्ष तक अंधकार में रही। फिर सूखी धरती पर जलावृष्टि हुई और यह धरती पूर्ण रूप से जल से भर गई। संपूर्ण धरती जलमग्न हो गई। जल में भगवान् विष्णु की उत्पत्ति हुई। जब उन्होंने आंखें खोलीं तो नेत्रों से सूर्य की और हृदय से चंद्रमा की उत्पत्ति हुई।
जल से भगवान् विष्णु की उत्पत्ति होने के कारण उन्हें हिरण्याभ भी कहते हैं। हिरण्य अर्थात जल और नाभ अर्थात नाभि यानी जल की नाभि। इस नाभि से कमल की उत्पत्ति हुई और कमल जब जल के ऊपर खिला तो उसमें से भगवान् ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई।
उनके मस्तिष्क से भगवान् महेश-शिव-रूद्र प्रकट हुए। भगवान् विष्णु ने उनको सृष्टि के विस्तार का आदेश दिया। जल में एक इंद्रिय और एक रंगी जीवों की उत्पत्ति हुई और साथ-साथ असंख्य पौधों और लताओं की उत्पत्ति हुई। मेरू पर्वत से जब कुछ जल हटा तो यही एक इंद्रिय जीव जहाँ-तहाँ फैलकर तरह-तरह के रूप धरने लगे और जीवन क्रम विकास के क्रम में शामिल हो गए। यह सब ब्रह्मा जी की घोर तपस्या और अथक प्रयास से संभव हुआ। ब्रह्मा जी ने एक ऐसे जीव की उत्पत्ति करने की सोची, जो अन्य जलचर, थलचर और नभचर जीवों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान हो अर्थात खुद ब्रह्मा जी की तरह हो। यह सोचकर उन्होंने पहले 4 सनतकुमारों को उत्पन्न किया। परन्तु वे चारों तपस्या में लीन हो गए। तत्पश्चात प्रजापति ब्रह्मा जी ने 10 मानस पुत्रों को उत्पन्न किया (वशिष्ठ, कृतु, पुलह, पुलस्य, अंगिरा, अत्रि और मरीचि आदि) और उनसे कहा कि आप मानव जीवन की उत्पत्ति करें, उनको शिक्षा दें और परमेश्वर का मार्ग बताएं।
बहुत काल तक जब ये ऋषि तपस्या में ही लीन रहे तो स्वयं ब्रह्मा जी अपने शरीर से स्वयम्भुव मनु (पुरुष, नर) और शतरूपा (स्त्री, मादा) को जन्म दिया। उन्होंने इन दोनों को मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति और उसके विस्तार का आदेश दिया और कहा कि आप सभी धर्मसम्मत वेदवाणी का ज्ञान दें।
वेद ईश्वर की वाणी है। इस वाणी को सर्वप्रथम 4 क्रमश: ऋषियों ने सुना- (1). अग्नि, (2). वायु, (3). अंगिरा और (4). आदित्य। परंपरागत रूप से इस ज्ञान को स्वयम्भुव मनु ने अपने कुल के लोगों को सुनाया, फिर स्वरोचिष, फिर औत्तमी, फिर तामस मनु, फिर रैवत और फिर चाक्षुष मनु ने इस ज्ञान को अपने कुल और समाज के लोगों को सुनाया। बाद में इस ज्ञान को वैवश्वत मनु ने अपने पुत्रों को दिया। इस तरह परंपरा से प्राप्त यह ज्ञान भगवान् श्री कृष्ण तक पहुँचा। भगवान् शिव-महेश ने ब्रह्मा के पुत्र दक्ष की बेटी सती से विवाह किया और भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु की बेटी माता लक्ष्मी से विवाह किया। तदोपरांत ब्रह्मा जी ने देव, दैत्य, दानव, राक्षस, मानव, किन्नर, वानर, नाग, मल्ल आदि हजारों तरह के जीवों की रचना की। उसके पूर्व की यही सृष्टि दैविक सृष्टि थी।
स्वयम्भुव मनु के कुल में भगवान् विष्णु के अवतार भगवान् ऋषभदेव हुए। भगवान् ऋषभदेव स्वयम्भुव मनु से 5वीं पीढ़ी में :- स्वयम्भुव मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और फिर ऋषभ। ऋषभदेव ने प्रजा को जीवन के निर्वाह हेतु असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या, शिल्प आदि की शिक्षा दी। इनका नंदा व सुनंदा से विवाह हुआ। इनके भरत व बाहुबली आदि 100 पुत्र हुए। राजा भरत के नाम पर आर्यवर्त भारत कहलाया। शेष 99 पुत्र भगवान् ऋषभदेव के आदेशानुसार ऋषि हो गए।
ऋषि कश्यप, हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष :: संपूर्ण धरती पर जल-जल ही था। जल जब हटा तो धरती का सर्वप्रथम हिस्सा जो प्रकट हुआ, वह मेरू पर्वत के आसपास का क्षेत्र था। यह पर्वत हिमालय के बीचों बीच का हिस्सा है। यहीं पर कैलाश पर्वत है। मरीचि के पुत्र और ब्रह्मा जी के पौत्र महृषि कश्यप की तपोभूमि है कश्मीर। सुर-असुरों के मूल पुरुष ऋषि कश्यप का आश्रम मेरू पर्वत के शिखर पर था, जहाँ पर वे परब्रह्म परमात्मा के ध्यान में लीन रहते थे। समस्त देव, दानव एवं मानव ऋषि कश्यप की आज्ञा का पालन करते थे।
सृष्टि की रचना और विकास के क्रम में प्रजापति ब्रह्मा जी से ही दक्ष प्रजापति उत्पन्न हुए। उन्होंने अपनी पत्नी असिक्नी के गर्भ से 66 कन्याएं पैदा कीं। इन कन्याओं में से 13 कन्याएं ऋषि कश्यप की पत्नियां बनीं। इन्हीं कन्याओं से मैथुनी सृष्टि का विकास हुआ और कश्यप सृष्टिकर्ता कहलाए। कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से भगवान् विष्णु के श्रापग्रस्त द्वारपाल जय और विजय को असुर हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्रों के रूप में जन्म प्रदान किया। इनके सिंहिका नामक एक बहन भी थी। हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे :- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। अदिति के पुत्र सुर-देवगणों और दिति के पुत्र असुरों में त्रिलोकी के अधिपत्य को लेकर देवासुर संग्राम हुआ।
हिरण्याक्ष भयंकर दैत्य था। वह तीनों लोकों पर अपना अधिकार चाहता था। हिरण्याक्ष ने तपस्या करके ब्रह्मा जी से युद्ध में अजेय रहने का वरदान प्राप्त किया और निरंकुश हो गया। उसने वेदों को चुरा लिया और पृथ्वी को भी जल में छुपा दिया। भगवान् विष्णु ने वराह रूप धारण करके पृथ्वी को अपने थूथन पर धारण करके जल से बाहर निकाला और हिरण्याक्ष का वध करके वेदों को मुक्त किया। भगवान् विष्णु ने नील वराह का अवतार लिया फिर आदि वराह बनकर हिरण्याक्ष का वध किया इसके बाद श्वेत वराह का अवतार नृसिंह अवतार के बाद लिया।
हिरण्यकश्यप ने अपने भाई की मौत का बदला लेने के लिए कठोर तपस्या की और ब्रह्मा जी से वरदान किया। उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान् विष्णु का परम भक्त था। हिरण्य कश्यप को यह अच्छा नहीं लगता था। हिरण्याक्ष की तरह वह चाहता था कि संपूर्ण धरती के देव, दानव और मानव उसे ईश्वर मानें। भगवान् विष्णु ने नृसिंह का अवतार लेकर उसका वध किया। ब्रह्मा जी सहित सभी देवताओं ने उनकी आराधना की तो भी वे शान्त नहीं हुए तब ब्रह्मा जी के आदेश पर प्रह्लाद ने उनकी स्तुति की और वे शाँत हो गए। भक्त प्रह्लाद के विरोचन जैसे दानवीर पुत्र हुए और उनके ही पुत्र राजा बाहु बली हुए।सहस्त्रबाहु जो कि भगवान् शिव के परम भक्त थे उन्हीं की पुत्र थे। भगवान् श्री कृष्ण ने सहस्त्रबाहु की भुजाओं को काटा। भगवान् शिव ने उसे बताया कि उनमें और भगवान् कृष्ण में अंतर नहीं है।
ब्रह्मा जी के पहले पुत्र मरीचि :: महर्षि मरीचि ब्रह्मा के अन्यतम मानसपुत्र और एक प्रधान प्रजापति हैं। इन्हें द्वितीय ब्रह्मा ही कहा गया है। ऋषि मरीचि पहले मन्वंतर के पहले सप्तऋषियों की सूची के पहले ऋषि है। यह दक्ष के दामाद और भगवान् शंकर के साढू थे।
इनकी पत्नि दक्ष कन्या संभूति थी। इनकी दो और पत्नियां थीं :- कला और उर्णा। उर्णा को ही धर्मव्रता भी कहा जाता है जो कि एक ब्राह्मण कन्या थी। दक्ष के यज्ञ में मरीचि ने भी भगवान् शंकर का अपमान किया था। इस पर भगवान् शंकर ने इन्हें भस्म कर डाला था।
इन्होंने ही भृगु को दण्ड नीति की शिक्षा दी है। ये सुमेरु के एक शिखर पर निवास करते हैं और महाभारत में इन्हें चित्र शिखण्डी भी कहा गया है। ब्रह्मा जी ने पुष्कर क्षेत्र में जो यज्ञ किया था उसमें ये अच्छावाक् पद पर नियुक्त हुए थे। दस हजार श्लोकों से युक्त ब्रह्म पुराण का दान पहले-पहल ब्रह्मा जी ने इन्हीं को किया था। वेद और पुराणों में इनके चरित्र का चर्चा मिलती है।
मरीचि ने कला नाम की स्त्री से विवाह किया और उनसे उन्हें कश्यप नामक एक पुत्र मिला। कश्यप की माता ‘कला’ कर्दम ऋषि की पुत्री और ऋषि कपिल देव की बहन थी। ब्रह्मा के पोते और मरीचि के पुत्र कश्यप ने ब्रह्मा के दूसरे पुत्र दक्ष की 13 पुत्रियों से विवाह किया। मुख्यत इन्हीं कन्याओं से मैथुनी सृष्टि का विकास हुआ और कश्यप सृष्टिकर्ता कहलाए।
कश्यय पत्नी :- अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्ठा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सरमा और तिमि। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएं कही जाती हैं। इन माताओं को ही जगत जननी कहा जाता है।
कश्यप की पत्नी अदिति से आदित्य (देवता), दिति से दैत्य, दनु से दानव, काष्ठा से अश्व आदि, अरिष्ठा से गंधर्व, सुरसा से राक्षस, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरागण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि, सुरभि से गौ और महिष, सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु) और तिमि से यादोगण (जलजंतु) की उत्पत्ति हुई।
कश्यप के अदिति से 12 आदित्य पुत्रों का जन्म हुए जिनमें विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वत मनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। राजा इक्ष्वाकु के कुल में जैन और हिन्दु धर्म के महान तीर्थंकर, भगवान, राजा, साधु महात्मा और सृजनकारों का जन्म हुआ है।
वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे :- (1). इल, (2). इक्ष्वाकु, (3). कुशनाम, (4). अरिष्ट, (5). धृष्ट, (6). नरिष्यन्त, (7). करुष, (8). महाबली, (9). शर्याति और (10). पृषध।
तार्क्ष्य कश्यप ने विनीता कद्रू, पतंगी और यामिनी से विवाह किया था। कश्यप ऋषि ने दक्ष की सिर्फ 13 कन्याओं से ही विवाह किया था।
इक्ष्वाकु के पुत्र और उनका वंश :- मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु के तीन पुत्र हुए:- (1). कुक्षि, (2). निमि और (3). दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। भगवान राम इक्षवाकु कुल में ही जन्में।
ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु :: वेद-पुराणों में भगवान् ब्रह्मा के मानस पुत्रों का वर्णन है। वे दिव्य सृष्टि के अंग थे। महाप्रलय, भगवान् ब्रह्मा जी के दिन-कल्प की शुरुआत में उनका उदय होता है। वेदों, पुराणों इतिहास को वे ही पुनः प्रकट करते हैं। ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु का श्रुतियों में विशेष स्थान है। उनके बड़े भाई का नाम अंगिरा था। अत्रि, मरीचि, दक्ष, वशिष्ठ, पुलस्त्य, नारद, कर्दम, स्वायंभुव मनु, कृतु, पुलह, सनकादि ऋषि इनके भाई हैं। उन्हें भगवान् विष्णु के श्वसुर और भगवान् शिव के साढू के रूप में भी जाना जाता है। महर्षि भृगु को भी सप्तर्षि मंडल में स्थान प्राप्त है।
भृगु की तीन पत्नियाँ :- ख्याति, दिव्या और पौलमी। पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो दक्ष कन्या थी। ख्याति से भृगु को दो पुत्र दाता और विधाता (काव्य शुक्र और त्वष्टा-विश्वकर्मा) तथा एक पुत्री श्री लक्ष्मी का जन्म हुआ। घटनाक्रम एवं नामों में कल्प-मन्वन्तरों के कारण अंतर आता है। [देवी भागवत के चतुर्थ स्कंध, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद् भागवत] लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान् विष्णु से कर दिया था।
आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया।
दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं जिससे नाराज होकर श्री हरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया।
दूसरी पत्नी पौलमी :- उनके ऋचीक व च्यवन नामक दो पुत्र और रेणुका नामक पुत्री उत्पन्न हुई। भगवान् परशुराम महर्षि भृगु के प्रपौत्र, वैदिक ऋषि ऋचीक के पौत्र, जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे। रेणुका का विवाह विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) से किया।
जब महर्षि च्यवन उसके गर्भ में थे, तब भृगु की अनुपस्थिति में एक दिन अवसर पाकर दंस (पुलोमासर) पौलमी का हरण करके ले गया। शोक और दुख के कारण पौलमी का गर्भपात हो गया और शिशु पृथ्वी पर गिर पड़ा, इस कारण यह च्यवन (गिरा हुआ) कहलाया। इस घटना से दंस पौलमी को छोड़कर चला गया, तत्पश्चात पौलमी दुख से रोती हुई शिशु (च्यवन) को गोद में उठाकर पुन: आश्रम को लौटी। पौलमी के गर्भ से 5 और पुत्र बताए गए हैं।
भृगु पुत्र धाता के आयती नाम की स्त्री से प्राण, प्राण के धोतिमान और धोतिमान के वर्तमान नामक पुत्र हुए। विधाता के नीति नाम की स्त्री से मृकंड, मृकंड के मार्कण्डेय और उनसे वेद श्री नाम के पुत्र हुए।
भृगु के और भी पुत्र थे जैसे :- उशना, च्यवन आदि। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है। भार्गवों को अग्निपूजक माना गया है। दाशराज्ञ युद्ध के समय भृगु मौजूद थे।
शुक्राचार्य :- शुक्र के दो विवाह हुए थे। इनकी पहली स्त्री इन्द्र की पुत्री जयंती थी, जिसके गर्भ से देवयानी ने जन्म लिया था। देवयानी का विवाह चन्द्रवंशीय क्षत्रिय राजा ययाति से हुआ था और उसके पुत्र यदु और मर्क तुर्वसु थे। दूसरी स्त्री का नाम गोधा (-शर्मिष्ठा) था जिसके गर्भ से त्वष्ट्र, वतुर्ण शंड और मक उत्पन्न हुए थे।
च्यवन ऋषि :- मुनिवर ने गुजरात के भड़ौंच (-खम्भात की खाड़ी) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया। भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिण में पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ-भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा।
सुकन्या से च्यवन को अप्नुवान नाम का पुत्र मिला। दधीच इन्हीं के भाई थे। इनका दूसरा नाम आत्मवान भी था। इनकी पत्नी नाहुषी से और्व का जन्म हुआ। [और्व कुल का वर्णन ब्राह्मण ग्रंथों में, ऋग्वेद में 8. 10.2.4 पर, तैत्तरेय संहिता 7.1.8.1, पंच ब्राह्मण 21.10.6, विष्णुधर्म 1.32 तथा महाभारत अनु. 56 आदि में प्राप्त है]
ऋचीक :- पुराणों के अनुसार महर्षि ऋचीक, जिनका विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ हुआ था, के पुत्र जमदग्नि ऋषि हुए। जमदग्नि का विवाह अयोध्या की राजकुमारी रेणुका से हुआ जिनसे परशुराम का जन्म हुआ।
विश्वामित्र :- गाधि के एक विश्वविख्यात पुत्र हुए जिनका नाम विश्वामित्र था जिनकी गुरु वशिष्ठ से प्रतिद्वंद्विता थी। परशुराम को शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक, पिता जमदग्नि तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने पिता के मामा राजर्षि विश्वामित्र और भगवान् शंकर से प्राप्त हुई। च्यवन ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया।
मरीचि के पुत्र कश्यप की पत्नी अदिति से भी एक अन्य भृगु उत्त्पन्न हुए जो उनके ज्येष्ठ पुत्र थे। ये अपने माता-पिता से सहोदर दो भाई थे। आपके बड़े भाई का नाम अंगिरा ऋषि था। इनके पुत्र बृहस्पतिजी हुए, जो देवगणों के पुरोहित-देव गुरु के रूप में जाने जाते हैं।
भृगु ने ही भृगु संहिता, भृगु स्मृति, भृगु संहिता-ज्योतिष, भृगु संहिता-शिल्प, भृगु सूत्र, भृगु उपनिषद, भृगु गीता आदि की रचना की।
दक्ष प्रजापति :: प्रजापति दक्ष भगवान् ब्रह्मा के दक्षिणा अंगुष्ठ से उत्पन्न हुए। सृष्टा की आज्ञा से वे प्रजा की सृष्टि करने में लगे।
सर्वप्रथम इन्होंने दस सहस्त्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया।
दूसरी बार एक सहस्त्र शबलाश्व (-सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गये। दक्ष को रोष आया। उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया कि तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे। भगवान् ब्रह्मा ने प्रजापति को शान्त किया। अब मानसिक सृष्टि से वे उपरत हुए।
प्रजापति दक्ष की पत्नियां :- उनका पहला विवाह स्वायंभुव मनु की तृतीय पुत्री प्रसूति से हुआ। उन्होंने प्रजापति वीरण की कन्या असिकी-वीरणी दूसरी पत्नी बनाया। प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां थीं। इनमें 10 धर्म को, 13 महर्षि कश्यप को, 27 चंद्रमा को, एक पितरों को, एक अग्नि को और एक भगवान् शंकर को ब्याही गयीं। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएँ कही जाती हैं। समस्त दैत्य, गंधर्व, अप्सराएं, पक्षी, पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई। दक्ष की ये सभी कन्याएं, देवी, यक्षिणी, पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है।
अदिति से आदित्य (देवता), दिति से दैत्य, दनु से दानव, काष्ठा से अश्व आदि, अरिष्ठा से गंधर्व, सुरसा से राक्षस, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरागण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि, सुरभि से गौ और महिष, सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु) और तिमि से यादोगण (जलजंतु) आदि उत्पन्न हुए।
प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियां :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि, कीर्ति, ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा।
पुत्रियों के पति के नाम :- पर्वत राजा दक्ष ने अपनी 13 पुत्रियों का विवाह धर्म से किया। ये 13 पुत्रियां हैं- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि और कीर्ति। धर्म से वीरणी की 10 कन्याओं का विवाह हुआ। मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या और विश्वा।
इसके बाद ख्याति का विवाह महर्षि भृगु से, सती का विवाह रुद्र (भगवान् शिव) से, सम्भूति का विवाह महर्षि मरीचि से, स्मृति का विवाह महर्षि अंगीरस से, प्रीति का विवाह महर्षि पुलत्स्य से, सन्नति का कृत से, अनुसूया का महर्षि अत्रि से, ऊर्जा का महर्षि वशिष्ठ से, स्वाहा का अग्नि से और स्वधा का पितृस से हुआ।
इसमें सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध रुद्र-भगवान् शिव से विवाह किया। माँ पार्वती और भगवान् शंकर के दो पुत्र और एक पुत्री हैं। पुत्र-गणेश, कार्तिकेय और पुत्री वनलता।
वीरणी से दक्ष की साठ पुत्रियां :- मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या, विश्वा, अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवषा, तामरा, सुरभि, सरमा, तिमि, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी, रति, स्वरूपा, भूता, स्वधा, अर्चि, दिशाना, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी।
चंद्रमा से 27 कन्याओं का विवाह :- कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी। इन्हें नक्षत्र कन्या भी कहा जाता है। हालांकि अभिजीत को मिलाकर कुल 28 नक्षत्र माने गए हैं। उक्त नक्षत्रों के नाम इन कन्याओं के नाम पर ही रखे गए हैं।
9 कन्याओं का विवाह :- रति का कामदेव से, स्वरूपा का भूत से, स्वधा का अंगिरा प्रजापति से, अर्चि और दिशाना का कृशश्वा से, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी का तार्क्ष्य कश्यप से।
इनमें से विनीता से गरूड़ और अरुण, कद्रू से नाग, पतंगी से पतंग और यामिनी से शलभ उत्पन्न हुए।
भगवान् शंकर से विवाद करके दक्ष ने उन्हें यज्ञ में भाग नहीं दिया। पिता के यज्ञ में रुद्र के भाग न देखकर माता सती ने योगाग्नि से शरीर छोड़ दिया। भगवान् शंकर पत्नी के देहत्याग से रुष्ट हुए। उन्होंने वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र ने दक्ष का मस्तक दक्षिणाग्नि में हवन कर दिया। देवताओं की प्रार्थना पर तुष्ट होकर भगवान् शंकर ने सद्योजात प्राणी के सिर से दक्ष को जीवन का वरदान दिया। बकरे का मस्तक तत्काल मिल सका। तबसे प्रजापति दक्ष ‘अजमुख’ हो गए।
वीरभद्र के रोम-कूपों से अनेक रौम्य नामक गणेश्वर प्रकट हुए थे। वे विध्वंस कार्य में लगे हुए थे। दक्ष की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने अग्नि के समान ओजस्वी रूप में दर्शन दिये और उसकी मनोकामना जानकर यज्ञ के नष्ट-भ्रष्ट तत्त्वों को पुन: ठीक कर दिया।
दक्ष ने एक हज़ार आठ नामों (शिव सहस्त्र नाम स्तोत्र) से भगवान् शिव की आराधना की और उनकी शरण ग्रहण की। भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उसे एक हज़ार अश्वमेध यज्ञों, एक सौ वाजपेय यज्ञों तथा पाशुपत् व्रत का फल प्रदान किया।
REBIRTH-REINCARNATION & PASSING THROUGH 84,00,000 SPECIES :: मनुष्य योनि में जन्म 84,00,000 योनियों*1 से गुजरने के बाद ही प्राप्त होता है। इसके बाद भी साँप-सीढ़ी के खेल के समान पाप-पुण्य, सही-गलत के अनुरूप व्यक्ति अगली योनियों में तब तक आता-जाता रहता है, जब तक उसे मोक्ष की उपलब्धि नहीं होती।
*184 लाख योनियों में भटकना :: जीवात्मा 84 लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य जन्म पाता है।
योनि :- मादा के जिस अंग से जीवात्मा का जन्म होता है, उसे हम योनि (Species) कहते हैं। इस तरह पशु योनि, पक्षी योनि, कीट योनि, सर्प योनि, मनुष्य योनि आदि। मुख्य योनियाँ 84 लाख ही हैं, मगर इनमें अन्यानेक उप योनियाँ विभाजन-भेद भी होते हैं।
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान्। तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥
विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई और इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ, परन्तु उससे उस चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई, अत: मनुष्य का निर्माण हुआ, जो उस मूल तत्व ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकता था।[श्रीमद्भागवतपुराण 11.9.28]
All life forms have originated from Maharshi Kashyap. Each species is recognised on the basis of genes it possess. There is always a possibility of interaction amongest various other species leading to the formation of new sub group-new species. Starting from amoeba the largest living being is subjected to variations due to change in atmosphere, radiation level, mutations etc. etc.
There are four methods of germination :- (1). Out of the secretions from the body-स्वेदज, (2). formation inside the stomach, womb-जरायुज, (3). from the egg-अंडज and (4). some part of the body like twig-branch of the plant-उद्भीज.
In case of humans, the egg-ova from the female, combines with the sperm from the male leading to fertilisation and zygote formation, leading to birth of the child after 9 months. In some cases premature births are also there.
चार प्रकार से जीवोतपत्ति होती है :- स्वेदज, जरायुज*2, अंडज और उद्भीज।
इसके लिये उसे वर्णाश्रम धर्म के अनुरूप धर्म, अर्थ, काम सृजन और मोक्ष प्राप्ति हेतु सतत प्रयास करना चाहिये।
*2अण्ड और शुक्राणु के संयोग से निषेचन क्रिया होती है, भ्रूण बनता है और माता के गर्भ में पलता है। उचित समय पर बच्चा पैदा होता है। मनुष्यों में यह समय 9 मास है।
गर्भ में बालक बिंदु रूप से शुरू होकर अंत में मनुष्य का बालक बन जाता है अर्थात वह 83 प्रकार से खुद को बदलता है। बच्चा जब जन्म लेता है, तो पहले वह पीठ के बल पड़ा रहता है अर्थात किसी पृष्ठ वंशीय जन्तु की तरह। बाद में वह छाती के बल सोता है, फिर वह अपनी गर्दन वैसे ही ऊपर उठाता है, जैसे कोई सर्प या सरीसृप जीव उठाता है। तब वह धीरे-धीरे रेंगना शुरू करता है, फिर चौपायों की तरह घुटने के बल चलने लगता है। अन्त में वह संतुलन बनाते हुए मनुष्य की तरह चलता है। भय, आक्रामकता, चिल्लाना, अपने नाखूनों से खरोंचना, ईर्ष्या, क्रोध, रोना, चीखना आदि क्रियाएं सभी पशुओं की हैं, जो मनुष्य में स्वत: ही विद्यमान रहती हैं। यह सब उसे क्रम विकास में प्राप्त होता है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
जो पैदा हुआ है, उसे मरना भी पड़ेगा। जन्म-मृत्यु एक शृंखला-चक्र के अनुरूप हैं। तब तक पुनर्जन्म होगा, जब तक प्राणी प्रभु की परम्, अव्यय, अनन्त, अनन्य, अक्षय प्रेममयी सात्विक भक्ति प्राप्त नहीं कर लेता।
मानव देह प्रभु की एक अद्वितीय रचना है जिसके लिये देवगण भी लालायित रहते हैं क्योंकि इसी योनि में प्राणी भक्ति हेतु प्रयास कर्म, यज्ञ, योग, तपस्या आदि उद्यम कर सकता है।
उसे प्रारब्ध के अनुरूप अपने अच्छे-बुरे संचित कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा। क्योंकि वह मनुष्य है, ईश्वर ने उसे प्रारब्ध में संशोधन की शक्ति भी है। प्रारब्ध सुख-दुःख, परेशानी, बीमारी, अकाल मृत्यु जैसे अवसर उत्पन्न करता है और उद्धयमी उन्हें सरलता-सहजता पूर्वक पार कर जाता है।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
कर्म फल ही प्राणी-आत्मा को विभिन्न योनियों में जन्म जाते हैं। पाप कर्म पशु-पक्षी, कीट-पतंग और तिर्यक् योनि तथा प्रेत-पिशाचादि योनियों में ले जाते है। पुण्य कर्म मनुष्य, देव आदि उच्च योनियों में ले जाते हैं। मनुष्य योनि में जीव को विवेक-बुद्धि सत्संग प्राप्त होता है।
3 तरह की गतियाँ :: (1). उर्ध्व गति, (2). स्थिर गति और (3). अधो गति। प्रत्येक जीव की ये 3 तरह की गतियाँ होती हैं। उर्ध्व गति से देवलोक, स्थिर गति पुनः मानव योनि प्राप्ति और अधोगति से हीन योनियाँ यथा पशु योनि प्राप्त होती है। घोर पापी, नीच, दुराचारियों को नरक और तिर्यक योनियों गुजरना पड़ता है।
शास्त्रों यथा वेदों, उपनिषदों और गीता के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा की 8 तरह की गतियाँ मानी गई हैं। ये गतियाँ ही आत्मा की दशा या दिशा तय करती हैं। इन 8 तरह की गतियों को मूलत: 2 भागों में बाँटा गया है :- (1). अगति, (2). गति।
अधो गति में गिरना अर्थात फिर से कोई पशु या पक्षी की योनि में चला जाना, एक चक्र में फँसने जैसा है।
(1). अगति :- अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता है और उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है।
(2). गति :- गति में जीव को किसी लोक में जाना पड़ता है।
अगति के 4 प्रकार :-
(1). क्षिणोदर्क :- क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन: पुण्यात्मा के रूप में मृत्युलोक में आता है और संतों-सा जीवन जीता है।
(2). भूमोदर्क :- भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता है।
(3). अगति :- अगति में नीच या पशु जीवन में चला जाता है।
(4). दुर्गति :- गति में वह कीट-कीड़ों जैसा जीवन पाता है।
गति के अंतर्गत 4 लोक :- (1). ब्रह्मलोक, (2). देवलोक, (3). पितृलोक और (4). नर्कलोक। जीव अपने कर्मों के अनुसार उक्त लोकों में जाता है।
पुराणों के अनुसार आत्मा 3 मार्गों के द्वारा उर्ध्व या अधोलोक की यात्रा करती है। ये 3 मार्ग हैं :- (1). अर्चि मार्ग, (2). धूम मार्ग और (3). उत्पत्ति-विनाश मार्ग।
(1). अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक :- अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए है।
(2). धूममार्ग पितृलोक :- धूममार्ग पितृलोक की यात्रा के लिए है। सूर्य की किरणों में एक अमा नाम की किरण होती है जिसके माध्यम से पितृगण पितृ पक्ष में आते-जाते हैं।
(3). उत्पत्ति-विनाश मार्ग :- उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है। यह यात्रा बुरे सपनों की तरह होती है।
जब भी कोई मनुष्य मरता है और आत्मा शरीर को त्यागकर उत्तर कार्यों के बाद यात्रा प्रारंभ करती है तो उसे उपरोक्त 3 मार्ग मिलते हैं। उसके कर्मों के अनुसार उसे कोई एक मार्ग यात्रा के लिए प्राप्त हो जाता है।
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥
क्योंकि शुक्ल और कृष्ण, ये दोनों ही गतियाँ अनादिकाल से ही जगत्-प्राणी मात्र के साथ सम्बन्ध रखने वाली मानी गई हैं। इनमें से एक गति से जाने वालों को लौटना नहीं पड़ता, जबकि दूसरी गति से जाने वालों को पुनः लौटना पड़ता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.26] Movement of the soul through bright or the dark passage is continuing from the beginning-onset of life. First of these passage is safe, since one is not supposed to return back to earth while the return-reincarnation is certain from the second-dark path. The former grants Salvation and the latter leads to rebirth as human beings.
शुक्ल मार्ग पर गए प्राणी का लय ब्रह्मा जी के हो जाता है, उसे वापस आना नहीं पड़ता; जबकि कृष्ण मार्ग पर गए हुए को वापस लौटना ही पड़ता है। यही जगत का शास्वत नियम है, जो कि अनादिकाल से चला आ रहा है। भगवत्कृपा प्राणी को कभी भी किसी भी योनि में प्राप्त हो सकती है, क्योंकि उसे अपने बचे हुए पुण्य और पापों का क्षय होने तक ऊर्ध्वगति, मध्यगति या अधोगति के भोग के इन मार्गों का अनुसरण करना ही होता है। मनुष्य जन्म बहुत विशेष है, क्योंकि यहीं पर रहकर प्राणी कर्म, योग, मुक्ति-मोक्ष, भक्ति का उद्यम कर सकता है।
The bright-illuminated passage leads to assimilation in the creator, ensuring assimilation in the Almighty at the occurrence of Ultimate devastation, deluge-annihilation. The dark path is called so, since the organism has left over desires, affections, allurements, alienation (अलगाव, दुराव, अन्य संक्रामण, हस्तांतरण, विराग, dispassion, disfavour), which are sure to bring him back to the earth to restart yet again. This is the law of nature-eternity; followed by the divinity. However, one may be able to attain Salvation-freedom in inferior species as well, since he had been able to undergo the remaining punishments in that form. One should not be proud of being a Brahmn, enlightened, scholar, rich or a noble, since that phase might be going to be over as soon as the reward of the leftover pious deeds has been encashed. Movement to higher, middle order or the lower abodes depends upon the deeds of the organism as a human being and some times in inferior species like primates, as well. One must keep it in mind that he has been able to get the opportunity of being a human being due to some left over pious deeds which he should not miss to attain the Ultimate abode-the abode of the Almighty.
शुक्ल मार्ग पर गए प्राणी का लय ब्रह्मा जी के हो जाता है, उसे वापस आना नहीं पड़ता; जबकि कृष्ण मार्ग पर गए हुए को वापस लौटना ही पड़ता है। यही जगत का शास्वत नियम है, जो कि अनादिकाल से चला आ रहा है। भगवत्कृपा प्राणी को कभी भी किसी भी योनि में प्राप्त हो सकती है, क्योंकि उसे अपने बचे हुए पुण्य और पापों का क्षय होने तक ऊर्ध्वगति, मध्यगति या अधोगति के भोग के इन मार्गों का अनुसरण करना ही होता है। मनुष्य जन्म बहुत विशेष है, क्योंकि यहीं पर रहकर प्राणी कर्म, योग, मुक्ति-मोक्ष, भक्ति का उद्यम कर सकता है।
The bright-illuminated passage leads to assimilation in the creator, ensuring assimilation in the Almighty at the occurrence of Ultimate devastation, deluge-annihilation. The dark path is called so, since the organism has left over desires, affections, allurements, alienation (अलगाव, दुराव, अन्य संक्रामण, हस्तांतरण, विराग, dispassion, disfavour), which are sure to bring him back to the earth to restart yet again. This is the law of nature-eternity; followed by the divinity. However, one may be able to attain Salvation-freedom in inferior species as well, since he had been able to undergo the remaining punishments in that form. One should not be proud of being a Brahmn, enlightened, scholar, rich or a noble, since that phase might be going to be over as soon as the reward of the leftover pious deeds has been encashed. Movement to higher, middle order or the lower abodes depends upon the deeds of the organism as a human being and some times in inferior species like primates, as well. One must keep it in mind that he has been able to get the opportunity of being a human being due to some left over pious deeds which he should not miss to attain the Ultimate abode-the abode of the Almighty.
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥
हे प्रथानन्दन अर्जुन! इन दोनों मार्गों को जानने वाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। अतः हे अर्जुन! तू हर समय योग युक्त समता को प्राप्त कर।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.27] The Almighty stressed that the Yogi-one, who is aware of the two routes-paths after the death; first leading to Salvation and the other leading to reincarnation, is not enchanted-illusioned. He asked Arjun to attain equanimity aided with Yog and establish himself in it.
योगी-साधकों-तपस्वियों की दो गतियों :- कृष्ण मार्गी साधक सुख-भोग, उच्च लोकों में जाने की इच्छा रखते हैं, किन्तु शुक्ल मार्गी परमात्मा-ब्रह्म में लीन होना चाहते हैं। इन दोनों को जानकर जो व्यक्ति कृष्ण मार्ग का त्यागकर देता है और निष्काम हो कर समता हासिल कर लेता है और दृढ़ प्रतिज्ञ हो जाता है कि उसे तो केवल परमात्म तत्व की उपलब्धि ही करनी है, वो मोहित-पथभ्रष्ट नहीं होता और अन्ततोगत्वा परमात्मा को प्राप्त कर ही लेता है।
There are two paths after the death one may follow. The second one is that of comforts, sensuality, enjoyment, pleasure and the first one is to liberate from the repeated cycles of birth and death. The enlightened, aware of these two has to attain equanimity and practice for Liberation, emancipation, Salvation with firm determination. He is not illusioned or enchanted. He rejects all allurements, desires and devote himself whole heartedly, to the Almighty.
योगी-साधकों-तपस्वियों की दो गतियों :- कृष्ण मार्गी साधक सुख-भोग, उच्च लोकों में जाने की इच्छा रखते हैं, किन्तु शुक्ल मार्गी परमात्मा-ब्रह्म में लीन होना चाहते हैं। इन दोनों को जानकर जो व्यक्ति कृष्ण मार्ग का त्यागकर देता है और निष्काम हो कर समता हासिल कर लेता है और दृढ़ प्रतिज्ञ हो जाता है कि उसे तो केवल परमात्म तत्व की उपलब्धि ही करनी है, वो मोहित-पथभ्रष्ट नहीं होता और अन्ततोगत्वा परमात्मा को प्राप्त कर ही लेता है।
There are two paths after the death one may follow. The second one is that of comforts, sensuality, enjoyment, pleasure and the first one is to liberate from the repeated cycles of birth and death. The enlightened, aware of these two has to attain equanimity and practice for Liberation, emancipation, Salvation with firm determination. He is not illusioned or enchanted. He rejects all allurements, desires and devote himself whole heartedly, to the Almighty.
धर्मराज-यमराज जी कहते हैं कि अपने-अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार शास्त्र, गुरु, संग, शिक्षा, व्यवसाय आदि के द्वारा सुने हुए भावों के अनुसार मरने के पश्चात कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं, वे मनुष्य का और जिनके पुण्य कम तथा पाप अधिक होते हैं, वे पशु-पक्षी का शरीर धारण कर उत्पन्न होते हैं और कितने ही जिनके पाप अत्यधिक होते हैं, स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात वृक्ष, लता, तृण आदि जड़ शरीर में उत्पन्न होते हैं।[कठोपनिषद 2.2.7]
पुनर्जन्म में मुख्य रूप से दो प्रकार की योनियाँ :- पहला योनिज तथा दूसरा आयोनिज अर्थात 2 जीवों के संयोग से उत्पन्न प्राणी योनिज कहे गए और जो अपने स्वतः एक कोशीय जीवों (germs virus, bacteria, fungus, microbes) की तरह विकसित होते हैं, उन्हें आयोनिज कहा गया।
स्थूल रूप से प्राणियों की 3 श्रेणियाँ ::
(1). जलचर :- जल में रहने वाले सभी प्राणी।
(2). थलचर :- पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी प्राणी।
(3). नभचर :- आकाश में विहार करने वाले सभी प्राणी।
84 लाख योनियों के प्रमुख 4 वर्ग ::
(1). जरायुज :- माता के गर्भ से जन्म लेने वाले मनुष्य, पशु जरायुज कहलाते हैं।
(2). अंडज :- अंडों से उत्पन्न होने वाले प्राणी अंडज कहलाते हैं।
(3). स्वदेज :- मल-मूत्र, पसीने आदि से उत्पन्न क्षुद्र जंतु स्वेदज कहलाते हैं।
(4). उदि्भज :- पृथ्वी से उत्पन्न प्राणी उदि्भज कहलाते हैं।
जलज नव लक्षाणी, स्थावर लक्ष विम्शति, कृमयो रूद्र संख्यक:।
पक्षिणाम दश लक्षणं, त्रिन्शल लक्षानी पशव:, चतुर लक्षाणी मानव:॥
जलचर 9 लाख, स्थावर अर्थात पेड़-पौधे 20 लाख, सरीसृप, कृमि अर्थात कीड़े-मकौड़े 11 लाख, पक्षी-नभचर 10 लाख, स्थलीय-थलचर 30 लाख और शेष 4 लाख मनुष्य, देवगण, राक्षस, यक्ष, गन्दर्भ आदि; कुल 84 लाख।[पद्मपुराण 78.5]
शरीर रचना के आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण :-
(1). एक शफ (एक खुर वाले पशु) :- खर (गधा), अश्व (घोड़ा), अश्वतर (खच्चर), गौर (एक प्रकार की भैंस), हिरण इत्यादि।
(2). द्विशफ (दो खुर वाले पशु) :- गाय, बकरी, भैंस, कृष्ण मृग आदि।
(3). पंच अंगुल (पाँच अंगुली) नखों (पंजों) वाले पशु :- सिंह, व्याघ्र, गज, भालू, श्वान (कुत्ता), श्रृंगाल आदि।[प्राचीन भारत में विज्ञान और शिल्प]
Video link :: https://youtu.be/tiWqHFpuWLE भगवान् श्री कृष्ण ने अपने शरीर पुनः द्विभाजित किया और उनके बायें भाग से भगवान् श्री हरी विष्णु प्रकट हुए। भगवान् श्री कृष्ण ने महाविष्णु को वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और माँ देवी भगवती लक्ष्मी को उन्हें सौंप दिया। माँ भगवती सरस्वती देवी भी उन्हीं को प्राप्त हुईं। भगवान श्री कृष्ण और राधा जी ने गौलोक में निवास किया। राधा जी को प्रकृति, माया, महाशक्ति आदि नामों से भी जाना जाता है। देवी दुर्गा का उदय भगवान् श्री कृष्ण से हुआ। उनके साथ चतुर्मुखी ब्रह्मा जी, ब्रह्माणी और भगवान् सदाशिव प्रकट हुए। ब्रह्मा जी और ब्रह्माणि भगवान् को श्री कृष्ण ने ब्रह्म लोक प्रदान किया। माँ भगवती दुर्गा भगवान् सदाशिव शिव लोक में प्रतिष्ठित हुईं। वह परम ब्रह्म भगवान् सदाशिव भी है। तत्पश्चात देवी माँ भगवती सरस्वती ने स्वयं को द्विभाजित किया और एक भाग से ब्रह्मा जी के साथ ब्रह्म लोक में प्रतिष्ठित हुईं। भगवान् शिव के संगीत का आनंद लेते हुए भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी अचानक गौलोक में लय हो गए और देवी भगवती गँगा के रूप में प्रकट हुए। तत्पश्चात भगवान् शिव के आग्रह पर पुनः भूलोक में पधारे। देवी भगवती गँगा को भगवान श्री कृष्ण ने वैकुण्ठ लोक प्रदान किया और वे भगवान श्री हरी विष्णु के पास चली गईं। गौ लोक समस्त ब्रह्मांडों का केंद्र है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष हैं। उनसे ही त्रिदेव :- ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति होती है। क्षुद्र विराट पुरुष के बायें भाग से चतुर्भुज भगवान विष्णु श्वेत द्वीप में प्रकट हुए। उनके नाभि कमल से ब्रह्मा जी प्रकट हुए। ब्रह्मा जी के मस्तक से भगवान् शिव प्रकट हुए। भगवान् शिव-महेश का निवास कैलाश पर्वत पर है। त्रिदेव परमपिता पर ब्रह्म परमेश्वर के अभिन्न अंग हैं जो पृथ्वी लोक को धारण किये हुए ब्रह्मांड में उपस्थित हैं। ब्रह्म लोक में देवी सावित्री और देवी गायत्री उनकी पत्नियों के रूप में विराजमान हैं। श्वेतद्वीप निवासी भगवान् विष्णु की पत्नी के रूप में देवी लक्ष्मी विराजमान हैं। माँ पार्वती, माँ सती की अवतार कैलाश धाम में भगवान शिव की पत्नी के रूप में विराजमान हैं। सृष्टि के पूर्व में संपूर्ण विश्व जल प्लावित था। जल में एक स्वर्ण अण्ड प्रकट हुआ। इससे भगवान् विष्णु प्रकट हुए। इस अंडे को भगवान् नारायण ने स्वर्ग और पृथ्वी में विभक्त कर दिया गया। इसके बीच आकाश बना और भगवान के द्वारा ही दशों दिशाओं को धारण किया गया। उनके नाभि कमल से भगवान् ब्रह्मा जी प्रकट हुए। ब्रह्मा जी से उनके 59 पुत्र उत्पन्न हुए :- विष्वकर्मा, अधर्म, अलक्ष्मी, आठ वसु, चार कुमार, 14 मनु, 11 रुद्र, पुलस्य, पुलह, अत्रि, क्रतु, अरणि, अंगिरा, रुचि, भृगु, दक्ष, कर्दम, पंचशिखा, वोढु, नारद, मरिचि, अपान्तरतमा, वशिष्ट, प्रचेता, हंस, यति आदि। ब्रह्मा जी के प्रमुख पुत्र :- (1). मन से मारिचि, (2). नेत्र से अत्रि, (3). मुख से अंगिरस, (4). कान से पुलस्त्य, (5). नाभि से पुलह, (6). हाथ से कृतु, (7). त्वचा से भृगु, (8). प्राण से वशिष्ठ, (9). अंगुष्ठ से दक्ष, (10). छाया से कंदर्भ, (11). गोद से नारद, (12). इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन और सनत कुमार, (13). शरीर से स्वायंभुव मनु और शतरुपा, (14). ध्यान से चित्र गुप्त। ब्रह्मा ने मैथुनी सृष्टि करने का विचार किया और स्वयं के दो भाग किये। दक्षिणी वाम भाग से पुरुष और स्त्री की सृष्टि हुई। इनके प्रारम्भिक नाम मनु और शतरूपा रखे थे। तत्पश्चात ब्रह्मा जी पुत्र मरीचि के पुत्र महर्षि कश्यप से मैथुनी सृष्टि शुरुआत हुई।
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समुद्रादर्वादधि संवत्सरों अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी॥
उस जल परिपूर्ण समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात संवत्सर अर्थात क्षण, मुहुर्त, प्रहर आदि काल उत्पन्न हुआ। सबको वश में रखने वाले, सारे ब्रह्माण्ड के नियामक और व्यवस्थापक परमेश्वर ने सहज स्वभाव से जगत के रात्रि, घटिका, पल और क्षण आदि रचे।[ऋग्वेद 10.190.2]
सुर्यचन्द्रमसौ दाता यथापूर्वमकल्पयत।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्व:॥
सब जगत को धारण और पोषण करने वाले, सब जगत को वश में रखने वाले, उसी ज्ञानमय प्रभु ने अपने अनन्त सामर्थ्य से सूर्य और चन्द्रमा को; द्युलोक, पृथ्वी लोक और आन्तरिक लोक को; मध्यवर्ती लोक-लोकान्तरों को और उन लोकों में सुख विशेष के पदार्थों को पूर्व कल्प के अनुसार रचा है अर्थात जैसा उसके सर्वज्ञ विज्ञान में जगत रचने का ज्ञान था, पूर्वकल्प में जगत की जैसी रचना की थी और जीवों के पाप-पुण्य थे, उन्हीं के अनुसार परमेश्वर ने मनुष्य आदि प्राणियों के देह बनाए।[ऋग्वेद 10.190.3]Contents of these above mentioned blogs are covered under copy right and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS ARE RESERVED WITH THE AUTHOR.
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