Thursday, April 30, 2020

YOG-योग :: KUNDLINI AWEKNING कुण्डलिनी जागरण

KUNDLINI कुण्डलिनी
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
कुण्डलिनी जागरण :: बाह्य जगत की प्रतिकृति ये मानव शरीर भी एक ब्रह्माण्ड ही है और तदनुसार मानव शरीर में भी उत्तर और दक्षिण दो ध्रुव विराजमान हैं, जिनमें विद्युत और चुम्बकत्व की धनात्मक और ऋणात्मक शक्ति प्रवाहित रहती है, मष्तिष्क को उत्तरी ध्रुव और मूलाधार को दक्षिण ध्रुव माना गया है।
इन्हीं के मध्य मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार चक्र हैं अर्थात मूलाधार यदि एक छोर पर स्थित है, तो सहस्रार दूसरे छोर पर स्थित है और उस दिव्य शक्ति का आदान प्रदान मेरुदंड में स्थित सुषुम्ना सूत्र के द्वारा होता है।
सुषुम्ना पथ ही इन शक्तियों को परिष्कृत कर दोनों छोरों पर शक्ति का परस्पर आदान प्रदान करता है। ये 7 चक्र वस्तुतः सप्त ऋषियों के प्रतिनिधि हैं अर्थात् इन चक्रों में इन ऋषियों का ही तत्व-भाव प्रकाशित होता है। बाह्य दृष्टि से जो ऋषि हैं, वास्तव में वो सात शक्तियाँ और सात तत्व भाव हैं; जो जीवन के विभिन्न क्रिया कलापों को सुचारू रूप से संपन्न करने की क्षमता प्रदान करते हैं। 
ये भाव, ये तत्व सूर्य से ही प्राण को ग्रहण करते हैं, तभी उनमें जीवन की उपस्थिति हो पाती है। यह साधक के ऊपर निर्भर करता है कि वो उपरोक्त सप्त शक्तियों का (जो कि सूर्य से ही प्राणों का शोषण करते हैं और तदनुरूप साधक को दैदिप्यता और तेज प्रदान करते हैं) कितना अधिक प्रयोग कर पाता है। 
सप्तर्षि गण और प्रतीकात्मक शक्तियाँ :: 
वशिष्ठ :-  अग्नि तत्व-विवेक शक्ति, 
विश्वामित्र :- आकाश तत्व-इच्छा शक्ति, 
भरद्वाज :- चेतन तत्व-संकल्प शक्ति, 
गौतम :- वायु तत्व-विचार शक्ति, 
जमदग्नि :- तेज तत्व-क्रिया शक्ति, 
अत्री :- जल तत्व-वाणी शक्ति और 
कश्यप :- पृथ्वी तत्व-उत्थान शक्ति। 
प्रतीक रूप में ये सप्तर्षि ही मानव के वे सात शरीर या ब्रम्हांड के वे सात लोक हैं, जिन्हें भू, भुवः, स्वः, मन:, जनः, तपः और सत्य लोक कहा गया है। ये मानव शरीर में उपस्थित वो सात सम्भावनाएँ हैं जिनको की यदि चैतन्य कर लें तो, फिर मनुष्य लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रह जाता।
मानव शरीर में उपस्थित चेतना की ये सात परतें ही हैं, जो किसी भी असाध्य को साध्य कर देती हैं। यदि तंत्र का आश्रय लिया जाये तो निश्चित ही, चेतना के इन सातों स्तरों की प्राप्ति सहज हो जाती है। सूर्य विज्ञान के जिज्ञासुओं को या साधकों को इस रहस्य को आत्मसात कर सिद्ध हस्त होने के लिए तो पूरा एक साधना क्रम ही संपन्न करना पड़ता है। 
सामान्य क्रम अपनाकर भी मनुष्य कुंडलिनी के चक्रों को ना ही सिर्फ स्पंदित कर सकते हैं, अपितु सप्त ऋषियों की चेतना का ये स्पंदन अपने जीवन में उतार कर अपना भाग्य स्वतः ही लिख सकते हैं और दुर्भाग्य को पूरी तरह मिटाकर एक सौम्यता और तेजोमयता की प्राप्ति कर सकते हैं। 
रविवार से इस साधना को प्रारंभ किया जा सकता है और प्रातः काल स्नान कर सूर्य को जल समर्पित करते वक़्त जल पात्र की और दृष्टि-ध्यान केन्द्रित करके निम्न मंत्र का 108 बार उच्चारण किया जाये और तत्पश्चात सूर्य को “ॐ तेजस्विताय नमः” कहकर जल अर्पित करे या अर्घ्य चढ़ाया जाये। 
ॐ सूर्य सूर्याय सूर्य सप्तर्षिभ्यो सह
चैतन्य प्राप्तुम पूर्ण तेजस्विताय नम:।
कुण्डलिनी जागरण का अनुभव :- कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है जिससे सब जीव जीवन धारण करते हैं, समस्त कार्य करते हैं और फिर परमात्मा में लीन हो जाते हैं। यह कुण्डलिनी शक्ति सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शरीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार चक्र में स्थित होती है। जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक मनुष्य सांसारिक विषयों की ओर भागते रहते हैं।
परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जिसका एक छोर मूलाधार चक्र पर जुड़ा हुआ है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घूमता हुआ ऊपर उठ रहा है। यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है। यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है। जब कुण्डलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है। यह स्पंदन लगभग वैसा ही होता है जैसे कोई अंग फड़कता हो। फिर वह कुण्डलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुक जाती है। जिस चक्र पर जाकर वह रूकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों को वह स्वच्छ कर देती है, यानि उनमें स्थित नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर देती है।
इस प्रकार कुण्डलिनी जाग्रत होने पर मनुष्य सांसारिक विषय भोगों से विरक्त हो जाता है और ईश्वर प्राप्ति की उसका मन लग जाता है। उसकी कार्यक्षमता कई गुना बढ जाती है। वह कठिन कार्य भी आसानी और शीघ्रता से कर सकता है।
कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षण  :- ध्यान में ईष्ट देव का दिखाई देना या हूं हूं या गर्जना के शब्द करना, गेंद की तरह एक ही स्थान पर फुदकना, गर्दन का भाग ऊँचा उठ जाना, सर में चोटी रखने की जगह यानि सहस्रार चक्र पर चींटियाँ जैसे चलने की अनुभूति होना, कपाल ऊपर की तरफ तेजी से खिंच रहा है, ऐसा लगना, मुँह का पूरा खुलना और चेहरे की माँसपेशियों का ऊपर खींचना और ऐसा लगना कि कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है। 
एक से अधिक शरीरों का अनुभव होना :- कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है अर्थात स्थूल शरीर से सूक्ष्म-मनोमय शरीर और कारण शरीर का निकलना। साधक घबरा जाता है और साधना छोड़ सकता है। 
ध्यान की विधियाँ ::
(1). भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन संवाद :- शुद्ध एवं एकान्त  स्थान पर कुशा आदि का आसन बिछाकर सुखासन में बैठें। अपने मन को एकाग्र करें। मन व इन्द्रियों की क्रियाओं को अपने वश में करें, जिससे अंतःकरण शुद्ध हो। इसके लिए शरीर, सर व गर्दन को सीधा रखें और हिलायें-डुलायें नहीं। आँखें बंद रखें व साथ ही जीभ को भी न हिलाएं। अब आँख की पुतलियों को भी इधर-उधर नहीं हिलने दें और उन्हें एक दम सामने स्थिर रखें। एकमात्र ईश्वर का स्मरण करते रहें। ऐसा करने से कुछ ही देर में मन शांत हो जाता है और ध्यान आज्ञा चक्र पर स्थित हो जाता है और परम ज्योति स्वरुप परमात्मा के दर्शन होते हैं। 
जब तक मन में विचार चलते हैं; तभी तक आँख की पुतलियाँ इधर-उधर चलती रहती हैं और जब तक आँख की पुतलियाँ इधर-उधर चलती हैं तब तक हमारे मन में विचार उत्पन्न होते रहते हैं। जैसे ही मन में चल रहे समस्त विचारों रुक जाते हैं, आँखों की पुतलियाँ रुक जाती हैं।  इसी प्रकार यदि आँख की पुतलियों को रोक लें तो मन के विचार पूरी तरह रुक जाते हैं और मन व आँख की पुतलियों के रुकते ही आत्मा का प्रभाव ज्योति के रूप में दीख ने लगता है। [गीतोपदेश 6.12-15]
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥6.12॥
उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए, मन को एकाग्र करके, अन्तःकरण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करे।
On should comfortably occupy the seat, concentrate his mind, control the actions of the mind and the senses and practice Yog for the purification of innerself.
आसन आराम दायक हो, ताकि योगी लम्बे समय, लगभग 3 घण्टे तक हिले-डुले बगैर, शान्ति पूर्वक, सिद्धासन, पद्मासन या सुखासन में बैठे। इस दौरान मन, चित्त, इन्द्रियों, क्रियाओं को वश में रखे। मन को एकाग्र और शाँत रखते हुए परमात्मा का चिंतन-ध्यान करे। अन्तःकरण की शुद्धि ही ध्यान योग का मकसद-ध्येय है। 
The seat should be comfortable, so that the practitioner is able to devote long hours in one sitting say 3 hours. He can adopt Siddhasan, Padmasan or Sukhasan for sitting postures. This is the time when he has to isolate himself from the external-outer world and concentrate solemnly in the Ultimate. All his thoughts-ideas, energies should be channelised into the Almighty. He can form a mental image of the Almighty and keep concentrating in HIM. The sole aim is to penetrate into the God, by breaking the obstacles, barriers of this world-nature.
Image result for Images matsKUSH-MUNJ MAT-POOJA ASAN-SEAT :: Kush grass is sacred. Yogis-Sages often sit on Kush-Munj grass mats when they perform meditation.
A prayer mat is used as a Asan-Chatai or seat while performing Pooja, prayers, meditation, worship. It may be square-round or circular. It allows the Yogi to maintain that serene state of mind without being affected by the adversity of the environment surrounding him and cuts off his direct connection from the earth to check the flow of electric charges into the earth. It is also a remarkable insulator, both physically and metaphysically. 
Kush signifies sharpness or pointed ends. It emerges from the Almighty. Evil forces like, ghosts, spirits, demons, etc. keep away from the place, where it is used. This is considered to be the holiest of all the places of pilgrimage-Tirth Sthal (तीर्थ स्थल). The spot where Gautom Rishi finally secured Ganga on earth had Kush-Durv grass spreaded over there. Kush grass is considered purifying and rings woven of it are sometimes worn in worship to keep the hands ritually pure. Durvasa Rishi got his name from Durv, since he survived over the juice-extract of Durv grass, only.
वस्त्रासने दरिद्रयम् पाषाण रोग सम्भवः। 
मेदिनयम् दुःखमाप्नोति काष्ठे भवति निष्फलं 
Bhagwan Shiv reveals the malefic effects of ignorantly choosing the wrong Asan-the seat for meditation. Sitting on a seat of cloth leads one to misfortune, sitting on stone floor or on a rock brings diseases; do not sit on the ground directly as it brings sorrow and a seat made of wood is ineffective. All these seats are grounding energies, whereas a proper seat is one, that generates energy for Tapas (ascetics, penance for Liberation). With grounding energies, Tap Shakti-Ascetic Power (the power of meditation) will be drained away into earth. Whereas a proper Asan-a mat of Kush, retains energy, protects and retains the Guru Shakti (the soul power) in the practitioner.
When one sit for meditation (Dhyan) with the right resolution (Sankalp), seated on the right Asan & posture, his seat becomes a Shakti Peeth (Power Pedestal), as the Shakti-Kundlini (the Serpent Power in the spine) will start rising within him and the ascetic will become Sada Shiv.  
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥6.13॥
शरीर, सिर और गले को सीधा और स्थिर रखते हुए, अपनी नासिका के अग्रभाग को देखते हुए और अन्य दिशाओं को न देखते हुए, स्थिर होकर बैठे।
The Yogi-practitioner should keep his body, head and the neck straight-erect and still, fix his gaze on the tip of his nose, without looking around into the other directions and sit still.  
साधक को चाहिये कि वो अपने सर-मस्तिष्क, गर्दन और कमर-रीढ़ को स्थिर-अविचल रखे। इस अवस्था में मनुष्य की चिंतन शक्ति एक दम बढ़ जाती है और नींद भाग जाती है। चेतना का स्तर बढ़ जाता है। मन शान्त हो जाता है। किसी भी अन्य दिशा में देखने से एकाग्रता भंग हो जायेगी। नासिका के अग्र भाग को देखते हुए ध्यान केंद्रित करना है अर्थात परिदृश्य दृष्टिगोचर न हो। इस अवस्था में चिन्तन, मनन, ध्यान लगभग 3 घंटे तक कायम रखना चाहिये 
The practitioner has to maintain his head, neck and the backbone erect. This posture involves the tail point and the tip of the head, to be kept vertically erect. The mental capabilities of the devotee increase enormously in this posture. His thought process becomes very efficient and the level of concentration-meditation enhances-boosts many fold. The brain becomes calm and composed. As a matter of experience one loss his sleep. Enlightenment comes automatically after due practice. The head should face some distant point through the middle of eye brows, straight over the nose, so that nothing around is visible. He has to make mental image of the Almighty and recite his name quietly, repeatedly for around 3 hours at a stretch. This process is adopted to awake KUNDLINI by the Yogis.
Those who find difficulty in learning may also adopt this posture for better memory understanding of the text.
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥6.14॥
जिसका अन्तःकरण शाँत है, जो भय रहित है और जो ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित है, ऐसा सावधान ध्यान योगी मन का संयम करके, मेरे में चित्त लगाता हुआ, मेरे परायण होकर बैठे।
The serene-cautious Dhyan Yogi, who has attained peace, solace, tranquillity in his heart & mind-innerself, is fearless and devoted to celibacy, should concentrate in the Almighty while retaining his stillness. 
राग-द्वेष से रहित शुद्ध चित्त-अन्तःकरण वाले ध्यान योगी को रिद्धि-सिद्धि, हर्ष-शोक कामनाएँ परेशान नहीं करतीं। अतः वो शान्त है। शरीर के प्रति मैं या मेरे पन की भावना उसमें नहीं है, इसलिए वो भय रहित है। शरीर रहे या जाये, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर रक्खा है। विषय-भोग, कामनाएँ-वासनाएँ, मान-सम्मान, शब्द, रूप, रस, गन्ध में उसकी भोग बुद्धि नहीं, अपितु निर्वाह बुद्धि है। सब तरफ से ध्यान हटाकर वो केवल परमात्मा की लीलाएँ, गुण, प्रभाव, महिमा, कथा-कहानियाँ आदि का ही चिंतन करता है। इस प्रक्रिया के दौरान वह अत्यंत-अत्यधिक सावधान और जाग्रत है। उसका उद्देश्य केवल मात्र परमपिता परमात्मा ही है। मन से बार-बार किसी वस्तु का मनन किया जाता है और चित्त से केवल एक ही वस्तु-ध्येय का चिन्तन किया जाता है। 
The Dhyan Yogi-ascetic devoted to meditation, is free from attachments-enmity. Accomplishments-failures, pleasure-pain do not hurt-disturb him. It makes him quite-peaceful. He has no inclination for the body in the form of ego, pride or arrogance (I, My, Me, id, ego, super ego). Whether the body survives or perish does not affect him. He is fearless. He has withdrawn himself from the activities of the living world. He practices celibacy. Sex, sensualities, lust, passions, immorality, lasciviousness do not over power him. Comforts, honours, pleasing-hurting words, pleasing essence-scents, smells, extracts, concerts-functions do not allure-attract him. He is neutral to them. He observes-sees them, but remain isolated-unattached from them. He pulls out his attention from the world and put it into the Almighty, solemnly. He remembers the glory, stories, characteristics, effects-impacts of the God only and discards every thing other then them in his memory. Events of the past do not haunt him. He is very attentive-awake in this state of devotion-meditation, to the God. He has only one thing in his mind and that is the Ultimate. Only one thing is left in his thoughts and that is nothing other than the Almighty.
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥6.15॥
नियंत्रित मन वाला योगी इस प्रकार मन को निरंतर मुझ में लगाता हुआ, मुझ में सम्यक स्थिति वाली जो निर्वाण परम आनंदरूपी शान्ति है, को प्राप्त होता है।
The Yogi-devotee, who has controlled his gestures-mind and always keeps it aligned-fixed with the Almighty, attains the Ultimate peace, solace, tranquillity (the blissful peace of Liberation).
साधक को चाहिए कि वो स्वयं को धर्म, जाति-पाँति, गृहस्थ आदि विषयों से मुक्त कर, स्वयं को केवल ध्यान योगी ही माने। वह केवल परमात्मा से अपना सम्बन्ध माने। अपना उद्देश्य ऋिद्धि-सिद्धि से ऊपर तय करे। इस प्रकार अन्तःकरण और बहिःकरण की स्वाभाविक प्रवृति हो जायेगी। योगी निरंतर-सतत् अभ्यास जारी रखे। ध्यान योग में निर्विकल्प में स्थिति और बोध को प्राप्त करे। यही परम् निर्वाण प्रदायक शाँति-नैष्ठिक शाँति उसे प्राप्त हो जाएगी।  
One has to elevate himself above the religion, Varn, caste-structure, regional, country status as a house holder-family dweller and align all his energies with the Ultimate. He should consider his relation with the God only. He should not restrict himself up to the attainment of Riddhi and Siddhi-accomplishment (prosperity, wealth, opulence, attainment of enlightenment & super natural powers). This will turn him into a practitioner having achieved purification of innerself and outer manifestations. His inborn inclination towards the Almighty will evolve, with which he should continue uninterrupted-continuously. This will lead him to the Ultimate peace, solace, tranquillity. Thereafter, its only bliss and assimilation in the Ultimate.
(2). भगवान् शिव ने माँ पार्वती से कहा :- एकान्त  स्थान पर सुखासन में बैठ जाएँ। मन में ईश्वर का स्मरण करते रहें। अब तेजी से साँस अन्दर खींचकर फिर तेजी से पूरी साँस बाहर छोड़कर रोक लें। श्वास इतनी जोर से बाहर छोड़ें कि इसकी आवाज पास बैठे व्यक्ति को भी सुनाई दे। इस प्रकार साँस बाहर छोड़ने से वह बहुत देर तक बाहर रुकी रहती है। उस समय श्वास रुकने से मन भी रुक जाता है और आँखों की पुतलियाँ भी रुक जाती हैं और आज्ञा चक्र पर दबाव पड़ता है, जिससे वह खुल जाता है। श्वास व मन के रुकने से अपने आप ही ध्यान होने लगता है और आत्मा का प्रकाश दिखाई देने लगता है। यह विधि आज्ञा चक्र को जाग्रत कर देती है।[नेत्र तंत्र]
(2.1). भगवान् शिव ने माँ पार्वती से कहा :- रात्रि में ध्वनि रहित, अँधकार युक्त, एकान्त स्थान पर बैठें। तर्जनी अँगुली से दोनों कानों को बंद करें। आँखें बंद करें। हाथों की अँगुलियों से आँखों की पुतलियों को दबाएँ। कुछ ही समय के अभ्यास से अग्नि प्रेरित शब्द सुनाई देगा। इसे शब्द-ब्रह्म कहते हैं। यह शब्द या ध्वनि नौ प्रकार की होती है। इसको सुनने का अभ्यास करना शब्द-ब्रह्म का ध्यान करना है। इससे सँध्या के बाद खाया हुआ अन्न क्षण भर में ही पच जाता है और संपूर्ण रोगों तथा ज्वर आदि बहुत से उपद्रवों का शीघ्र ही नाश करता है। इस प्रकार दबाने से तारे-सितारे दिखाई देंगे। कुछ देर दबाये रखें फिर धीरे-धीरे अँगुलियों का दबाव कम करते हुए छोड़ दें तो सूर्य के सामान तेजस्वी गोला दिखाई देगा। इसे तैजस ब्रह्म कहते हैं। इसे देखते रहने का अभ्यास करें। कुछ समय के अभ्यास के बाद खुली आँखों से भी आकाश में देख सकते हैं। इसके अभ्यास से समस्त विकार नष्ट होते हैं, मन शांत होता है और परमात्मा का बोध होता है।[शिव पुराण, उमा संहिता]
यह शब्द ब्रह्म न ॐकार है, न मंत्र है, न बीज है, न अक्षर है। यह अनाहत नाद है (अनाहत अर्थात बिना आघात के या बिना बजाये उत्पन्न होने वाला शब्द)। इसका उच्चारण किये बिना ही चिंतन होता है। यह नौ प्रकार का होता है :-
(2.1.1). घोष नाद :- यह आत्मशुद्धि करता है, सब रोगों का नाश करता है व मन को वशीभूत करके अपनी और खींचता है। 
(2.1.2). कांस्य नाद :- यह प्राणियों की गति को स्तंभित कर देता है। यह विष, भूत, ग्रह आदि सबको बाँधता है। 
(2.1.3). श्रृंग नाद :- यह अभिचार से सम्बन्ध रखने वाला है। 
(2.1.4). घंट नाद :- इसका उच्चारण साक्षात् शिव करते हैं। यह सभी देवताओं को आकर्षित कर लेता है, महासिद्धियाँ देता है और कामनाएं पूर्ण करता है। 
(2.1.5). वीणा नाद :- इससे दूर दर्शन की शक्ति प्राप्त होती है। 
(2.1.6). वंशी नाद :- इसके ध्यान से सम्पूर्ण तत्त्व प्राप्त हो जाते हैं। 
(2.1.7). दुन्दुभी नाद :- इसके ध्यान से साधक जरा व मृत्यु के कष्ट से छूट जाता है। 
(2.1.8). शंख नाद :- इसके ध्यान व अभ्यास से इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्ति प्राप्त होती है।
(2.1.9). मेघनाद :- इसके चिंतन से कभी विपत्तियों का सामना नहीं करना पड़ता। 
इन सबको छोड़कर जो अन्य शब्द सुनाई देता है वह तुंकार कहलाता है। तुंकार का ध्यान करने से साक्षात् शिवत्व की प्राप्ति होती है।[शिव पुराण, उमा संहिता]
(3). भगवान् श्री कृष्ण ने उद्धव जी से कहा :- शुद्ध व एकान्त में बैठकर अनन्य प्रेम से ईश्वर का स्मरण करें और प्रार्थना करें कि हे प्रभु! प्रसन्न होइए! मेरे शरीर में प्रवेश करके मुझे बंधन मुक्त करिये। इस प्रकार प्रेम और भक्ति पूर्वक ईश्वर का भजन करने से ईश्वर भक्त के हृदय में प्रकट हो जाते हैं। भक्त को भगवान् का वह स्वरुप अपने हृदय में कुछ-कुछ दिखाई देने लगता है। इस स्वरुप को सदा हृदय में देखने का अभ्यास करना चाहिए। 
सगुण स्वरुप के ध्यान से भगवान् हृदय में विराजमान होते ही हृदय की सारी वासनाएं संस्कारों के साथ नष्ट हो जाती है और जब उस भक्त को परमात्मा का साक्षात्कार होता है तो उसके हृदय की गाँठ टूट जाती है और उसके सारे संशय दूर हो जाते हैं और काम-वासनाएं सर्वथा क्षीण हो जाती हैं। [श्रीमदभगवत महापुराण 11.20.27-30]
ध्यान में होने वाले अनुभव :- भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर पहले काला और फिर नीला रंग दिखाई देता है। फिर पीले रंग की परिधि वाले नीला रंग भरे हुए गोले एक के अन्दर एक विलीन होते हुए दिखाई देते हैं। एक पीली परिधि वाला नीला गोला घूमता हुआ धीरे-धीरे छोटा होता हुआ अदृश्य हो जाता है और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है। नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है। नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है। पीला रंग आत्मा का प्रकाश है, जो जीवात्मा के आत्मा के भीतर होने का संकेत है।
गोले के आकार दिखना, आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण है। इससे भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों प्रत्यक्ष दिखने लगते है और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास भी होने लगता हैं और मनुष्य के मन में आत्मविश्वास जाग्रत होता है।
नाड़ी : नाड़ी सूक्ष्म शरीर की वाहिकाएँ हैं, जिनसे होकर प्राणों का प्रवाह होता है। इनका मुख्य कार्य शरीर के विभिन्न अंगों से सन्देश को ग्रहण करके मस्तिष्क में तथा मस्तिष्क से आज्ञा-आदेश को प्राप्त कर अंगों तक पहुँचाना है। इनसे प्राणों का संचार होता है। शरीर के ऊर्जा‌-कोष, जिसे प्राणमय कोष कहा जाता है, में 72,000 नाड़ियाँ होती हैं, जो कि निम्न तीन मुख्य नाड़ियों यथा  सुषुम्ना, बाईं (इड़ा-चन्द्र) नाड़ी, दाहिनी (पिंगला-सूर्य) नाड़ी से निकलती हैं। 
इड़ा का अधिष्ठाता देवता चंद्रमा और पिंगला का सूर्य है। इड़ा-चन्द्र नाड़ी और पिंगला-सूर्य नाड़ी मेरुदंड के दोनों ओर स्थित (sympathetic & para sympathetic system) के तद्नुरूप हैं।  
इड़ा और पिंगला जीवन की बुनियादी द्वैतता की प्रतीक हैं। इस द्वैत को परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं अथवा इसे पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं। इनके माध्यम से  तर्क-बुद्धि और सहज-ज्ञान हो सकते हैं। यदि इड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय है, तो मनुष्य में स्त्रियोचित गुणों के प्रभाव होगा। यदि आपकी पिंगला अधिक सक्रिय है, तो पुरुषोचित गुण हावी हो सकते हैं।
इड़ा और पिंगला के बीच संतुलन मनुष्य को प्रभावशाली बनाता है। 
कबहु इडा स्वर चलत है कभी पिंगला माही। 
सुष्मण इनके बीच बहत है गुर बिन जाने नाही॥ 
मनुष्य के रोगी और निरोगी रहने में श्वासों का अत्यधिक महत्व है। इसके लिए इड़ा और पिंगला नाड़ी के साथ-साथ सुषुम्ना को भी सक्रिय करना होता है। दोनों नाड़ियों के सक्रिय रहने से किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं सताता। प्राणायाम के माध्यम से मनुष्य सुषुम्ना को सक्रिय कर सकता है। श्वास-प्रश्वास की उचित विधि मनुष्य को स्वस्थ, सुंदर और दीर्घजीवी बनाकर उसे सिद्ध पुरुष बनाकर ईश्वरानुभूति करा सकती है।
मनुष्य के दोनों नासिका छिद्रों में श्वास-प्रश्वास कभी एक साथ नहीं चलती। यह कभी वह बाएं तो कभी दाएं नासिका छिद्र में स्थानांतरित होती रहती है। प्राय: मनुष्य उतनी गहरी श्वास नहीं लेता और छोड़ता है जितनी कि एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए जरूरी होती है। प्राणायाम एक ऐसी विधि है जिससे मनुष्य ज्यादा गहरी और लंबी श्वास ले और छोड़ सकता है। अनुलोम-विलोम प्राणायाम** की विधि से दोनों नासिका छिद्रों से बारी-बारी से वायु को भरा और छोड़ा जाता है। अभ्यास करते-करते एक समय ऐसा आ जाता है, जब चंद्र और सूर्य नाड़ी से समान रूप से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होने लगती है। उस अल्पकाल में सुषुम्ना नाड़ी से श्वास प्रवाहित होने की अवस्था को ही योग कहा जाता है।
** Please refer to :: YOG योग santoshkipathshala.blogspot.com
इड़ा का प्रवाह बाई नासिका से होता है तथा इसकी प्रकृति शीतल है। चंद्र नाड़ी से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होने पर यह मस्तिष्क अनावश्यक ऊर्जा का निष्कासन करके शीतलता प्रदान करती है। इस प्रवाह में व्यक्ति को साधारण कार्य करना चाहिए। शांत चित्त से जो सहज कार्य किए किए जा सकते हैं, उन्हीं में उस समय व्यक्ति को लगना चाहिए। इड़ा में तमस की प्रबलता होती है।
पिंगला दाहिनी नासिका से प्रवाहित होती है तथा इसकी प्रकृति गरम है। जब सूर्य नाड़ी से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होती है तो शरीर को ऊष्मा प्राप्त होती है यानी गर्मी पैदा होती है। सूर्य नाड़ी से धनात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है। दाहिनीं नासिका से जब श्वांस चलती है तो उस समय पिंगला नाड़ी क्रियाशील रहती है। उस समय व्यक्ति को कठिन कार्य :- जैसे व्यायाम, खाना, स्नान और परिश्रम वाले कार्य करना चाहिए। इसी समय सोना भी चाहिए। क्योंकि पिंगला की क्रियाशीलता में भोजन शीघ्र पचता है और गहरी नींद आती है। पिंगला में रजस प्रभावशाली होता है।
प्राणायाम प्राणों का विस्तार करने की विधि है। दीर्घ श्वास-प्रश्वास से प्राणों का विस्तार होता है। एक स्वस्थ मनुष्य को 1 मिनट में 15 बार साँस लेनी चाहिए। इस तरह 1 घंटे में उसके श्वासों की संख्या 900 और 24 घंटे में 21,600 होनी चाहिए। चंद्र और सूर्य नाड़ी से श्वास-प्रश्वास के जरिए कई तरह के रोगों यथा उच्च या निम्न रक्तचाप, हाई ब्लड प्रेशर को चंद्र नाड़ी के संतुलित श्वास-प्रश्वास को प्रवाहित करके, सामान्य किया जा सकता है। 
सुषुम्ना नाड़ी :: सभी नाड़ियों में श्रेष्ठ सुषुम्ना नाड़ी है। मूलाधार (Basal plexus) से आरंभ होकर यह सिर के सर्वोच्च स्थान पर अवस्थित सहस्रार तक आती है। सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं। इड़ा को गँगा, पिंगला को यमुना और सुषुम्ना को सरस्वती कहा गया है। इड़ा या पिंगला के प्रभाव में मनुष्य बाहरी स्थितियों को देखकर प्रतिक्रिया करते हैं। लेकिन एक बार सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाए, तो वह एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं। मूल रूप से सुषुम्ना गुणहीन होती है, उसकी अपनी कोई विशेषता नहीं होती। वह एक तरह की शून्‍यता या खाली स्थान है। अगर शून्‍यता है तो उससे आप अपनी मर्जी से कोई भी चीज बना सकते हैं। सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश होते ही, आपमें वैराग्‍य आ जाता है। 
सुषुम्ना के क्रियाशील होते ही मनुष्य आन्तरिक-अंदरूनी संतुलन का आभास करता है। इस अवस्था में मनुष्य रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है। दोनों नासिका से साँस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।
इन तीन ना‍ड़ियों का पहला मिलन केंद्र मूलाधार कहलाता है। इसलिए मूलाधार को मुक्त त्रिवेणी (जहाँ से तीनों अलग-अलग होती हैं) और आज्ञाचक्र को युक्त त्रिवेणी (जहाँ तीनों आपस में मिल जाती हैं) कहते हैं।
चक्र :: मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार, मूलत: सात चक्र हैं। मेरु रज्जु (spinal card, back bone) में प्राणों के प्रवाह के लिए सूक्ष्म नाड़ी है, जिसे सुषुम्ना कहा गया है। इसमें अनेक केंद्र हैं। जिसे चक्र अथवा पदम कहा जाता है। कई ना‍ड़ियों के एक स्थान पर मिलने से इन चक्रों अथवा केंद्रों का निर्माण होता है। गुह्य रूप से इसे कमल के रूप में चित्रित किया गया है, जिसमें अनेक दल हैं। ये दल एक नाड़ी विशेष के परिचायक हैं तथा इनका अपना एक विशिष्ट स्पंदन होता है जिसे एक विशेष बीजाक्षर के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है।
इस प्रकार प्रत्येक चक्र में दलों की एक निश्चित सँख्‍या, विशिष्ट रंग, इष्ट देवता, तन्मात्रा (सूक्ष्म तत्व) और स्पंदन का प्रतिनिधित्व करने वाला एक बीजाक्षर हुआ करता है। कुंडलिनी जब चक्रों का भेदन करती है तो उस में शक्ति का संचार हो उठता है, मानों कमल पुष्प प्रस्फुटित हो गया और उस चक्र की गुप्त शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं।
कुँडलिनी योग का अभ्यास :: सेवा और भक्ति के द्वारा साधक को सर्वप्रथम अपनी चित्त शुद्धि करनी चाहिए। आसन, प्राणायाम, बंध, मुद्रा और हठयोग की क्रियाओं के अभ्यास से नाड़ी शुद्धि करना भी आवश्यक है। साधक को श्रद्धा, भक्ति, गुरु सेवा, विनम्रता, शुद्धता, अनासक्ति, करुणा, प्रेरणा, विवेक, मानसिक ‍शांति, आत्मसंयम, निर्भरता, धैर्य और संलग्नता जैसे सद्गुणों का विकास करना चाहिए।
उसे एक के बाद दूसरे चक्र पर ध्यान करना आवश्यक है। जैसा कि पूर्व पृष्ठों में बताया गया है उसे एक सप्ताह तक मूलाधार चक्र और फिर एक सप्ताह तक क्रमश: स्वाधिष्ठान इत्यादि चक्रों पर ध्यान करना चाहिए।
विभिन्न विधियाँ ::  कुँडलिनी जागरण की विभिन्न विधियाँ हैं। राजयोग में ध्यान-धारणा के द्वारा कुंडलिनी जाग्रत होती है। भक्त भक्ति से, ज्ञानी, चिंतन, मनन और ज्ञान से तथा कर्मयोगी मानवता की नि:स्वार्थ सेवा से कुँडलिनी जागरण करता है। कुँडलिनी मनुष्य की अध्यात्मिक प्रगति का माप है। साधना का चाहे कोई मार्ग क्यों न हो, कुँडलिनी अवश्य जाग्रत होती है। साधना में प्रगति के साध कुँडलिनी सुषम्ना नाड़ी में अवश्य चढ़ती है। कुँडलिनी का सुषुम्ना में ऊपर चढ़ने का अर्थ है, चेतना में अधिकाधिक विस्तार। प्रत्येक केंद्र साधक को प्रकृति के किसी न किसी पक्ष पर नियंत्रण प्रदान करता है। उसे शक्ति और आनंद की प्राप्ति होती है। कुँडलिनी जागरण के लिए कुँडलिनी प्राणायाम, अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध होते हैं। कुँडलिनी जब मूलाधार का भेदन करती है, तो व्यक्ति अपने निम्न स्वरूप से ऊपर उठ जाता है। अनाहत चक्र के भेदन से योगी वासनाओं (सूक्ष्म कामना) से मुक्त हो जाता है और जब कुँडलिनी आज्ञाचक्र का भेदन कर लेती है तो योगी को आत्मज्ञान हो जाता है। उसे परमानंद अनुभव होता है।
KUNDLINI कुण्डलिनी ::
 Its a form of SHAKTI-the corporeal energy. It’s described as a religious-spiritual tradition, as an indwelling spiritual energy that can be awakened in order to purify the subtle system ultimately, to bestow the state of Yog or Divine Union-association, upon the seeker-desirous of truth, the Ultimate. 
Kundlini means circular, annular, a snake (in coiled state forming ringlets). Tantr Sadbhav (तन्त्र सदभाव)  uses the term Kundlini (ring, bracelet, coil of a rope). Kundlini has been used as a name of Maa Durga-Shakti  in Tantrism, Shaktism, Sharada Tilak (शारदा तिलक), Hath Yog, Yog Upnishad, as the dormant potential in the humans. It is one of the components of an esoteric description of the subtle body, which consists of Nadis-nerves, carriers of messages to the brain and back to all cells, organs, systems (energy systems), Chakr (psychic centres), Pran (subtle energy) and bindu (drops of essence). The description of the location can vary slightly, from the rectum to the navel. Kundlini is based in the triangular shaped sacrum bone in three and a half coils. The image given is that of a serpent coiled three and a half times around a smoky grey Lingam. Each coil is said to represent one of the three gun-characterises, with the half coil signifying transcendence Kundlini awakening. 
The Yog Upnishad describes Kundlini as a coil at the base of the spine, like a sleeping serpent, waiting to be unwind, release, awakened. This may be called an unconscious, instinctive or libidinal force. It provides solution to the physical or psychological problems arising out of experiences traditionally associated with Kundlini awakening. Kund stands for a water body, a bowl-water pot, ring, bracelet and/or a coil (of a rope). KUNDAL is another word close to KUNDLINI, meaning ear ring. 
There are two nerve currents in the spinal column, called Pingala and Ida around the hollow canal called Sushumna, running through the spinal cord. Lower end of the spinal cord constitutes the "Lotus of the Kundlini-नाभि कमल," where it is coiled up, in a triangular form constituting the power center.  The uncoiled energy moves up step by step, layer after layer, reaching the brain, ultimately. At this juncture mind opens up and ultimate vision along with wonderful powers, come to the Yogi, leading to detachment from the body and mind; setting the soul free. Kundlini awakening is just the beginning of actual spiritual experience-divinity.
Kundlini-awakening of the soul, through Yog, results in deep meditation, enlightenment and bliss-PERMANAND. It involves the movement of Kundlini-प्राण वायु, up to the central channel of the nervous system, to reside within the Sahasrar Chakr over the head. This movement of Kundlini is felt either by the presence of a cool or a warm gush of air, across the palms or the soles. Kundlini is a sensation like electric current, running along the spine.
KUNDLINI may be awakened by Shakti Path, spiritual transmission by a Guru-teacher or through spiritual practices like Yog or meditation. It may be that the Kundlini has awakened spontaneously as the result of practices in previous births. On being awakened, it rises up from the Mooladhar Chakr (मूलाधार चक्र) through the central Naadi, called Sushumna, inside or alongside the spine and reaching the top of the head. The progress of Kundlini through the different Chakr-cycles leads to different levels of awakening and mystical experience, until Kundlini finally reaches the top of the head, Sahasrar or crown Chakr, producing an extremely profound mystical experience.
One has to sit with crossed legs over a cushion (mat, carpet, tiger or black deer skin), comfortably. Eyes should be focused through the brow point. Hold the hands together in prayer posture at the center of the chest or Gyan Mudra over the knees.
One may keep receiving the different names of the Almighty regularly so that the breath continues without interruption. It involves deep breathing alternately: sucking, holding and releasing the air in three cycles of duration of 24, 48 or 72 seconds. What the practitioner is supposed to do is to assimilate himself with the divinity.
One should consciously remember and experience the link between himself and the Creator. He has to think of the God and nothing else, as far as possible. This brings the soul and the body in unison with the Ultimate. The process is called Yog (+) i.e., summation, adding, connecting, merging with the Almighty. The abstract, theme, extract, nectar lies in sounding (resonating, vibrating rhythmically-continuously) for some time (OM ॐ), this is the sound produced by the newly born child, while crying, without connecting it to any specific religion.
These vibrations are called NAAD (नाद)  having different octaves of creative impact. This rhythm may take one to the most subtle realm of creativity. It awakens the Kundlini, the abstract-Ultimate, hidden present within one, that energise the whole creation. It awakens awareness and empowers the sense of the subtle body and the Aura. This practice of meditation gives intuition and the ability to heal. When one performs this earnestly, through consciousness and grace, he starts receiving the message from the Ultimate. This is one of the healers capable of reducing the impact of sins of innumerable previous births and rebirths. This is in fact a mechanism which elevates one, makes him closer to the God. If the opportunity comes by the grace of God accept it, welcome it with open heart. This is something, which is a component of the technique which may make you, able to become unattached, leading to Salvation.
तंत्र-मंत्र, शक्ति साधना, हठ योग में इसका प्रचुर उपयोग होता रहा है। यह नाभि कमल से ऊपर स्थित है। इसकी अनुभूति एक ऐसे सर्प के रूप में भी की जा सकती है, जो शिव लिंग के ऊपर साड़े तीन (31/2 three and a half) कुण्डली मार कर बैठा है। 
MOOLADHAR CHAKR मूलाधार चक्र (Mool-Root, Origin, Essence, ADHAR-Basis, Foundation) :: It constitutes the starting point for the spiritual development of the devotee. It lies at the lowest point of the vertebral column below the Coccyx. 
Kundlini is in a stationary-static state, which has to be awakened for Self-Realisation. 
Yog Nidra-the conscious sleep of the Yogi, provides pleasure  at a higher level of consciousness. It is one of the techniques of  relaxation. 
One should look into a distant point in space, completely detached and relieved, making the practitioner super conscious, filling him with Bliss-the Ultimate pleasure-PARMANAND, THE ETERNAL.
The Omniscient Bhagwan Shiv revealed the procedure-methodology called Yog, to unite with the Ultimate. Bhagwan Shri Krashn narrated-elaborated it in Shri Mad Bhagwat Geeta.
The memories of our past lives-births-deeds are stored in Mooladhar Chakr, like the server of net working site. It protects all  information pertaining to our present life (Prarabdh-destiny), till the out come of previous deeds has been experienced-exhausted by the individual soul. Our past, present, future births are just the permutations and combinations of our deeds by virtue of destiny, due to previous births, accumulated deeds of present birth and the current deeds. Though tied with the destiny yet one has some liberty to improve the future.
The Mooladhar Chakr is the seat of the unconscious, like a sleeping serpent who appears to be peaceful and harmless, but dreaded, fierce, menacing and dangerous, when awake. In an active state it may demonstrate rage, passion, desires, anger, freedom, joy, harmony and closeness to God. As soon as one identifies himself with the help of enlightenment, devotion, asceticism, the whole world change for him at once.
One is eager for spiritual development through purification (piousness, virtuousness, righteousness, honesty, devotion, dedication), shelter (patronage, asylum) under the Almighty. All obstacles-blockades are removed and one progresses to realisation. Guidance-patronage of the Guru makes the task easier. Confidence-faith in the Mentor-Guru (Shraddha, Bhakti, Vishwas, Astha, Nishtha, Prem) is  essential for success.
It's represented by an elephant having seven trunks-a symbol of prosperity and wisdom. The seven trunks of the elephant represent the seven minerals and the seven precious gems found on the earth and symbolizes the seven levels of consciousness :- Unconsciousness, subconsciousness, dream consciousness, waking consciousness, astral consciousness, supreme consciousness and cosmic consciousness.
Its a good omen to see oneself riding an elephant, in dreams. The innerself (psyche, mood, gestures, मन-mind & heart) and sense organs  are also compared with an elephant, who is kept under control by the goad-the ankush (अंकुश) with the help of Mantr & discipline.
The Beej Mantr-basic enchant of Mooladhar Chakr is "लां" LAM, the sound of spiritual awakening. It releases tensions and removes blockages in this Chakr and activates energy. Thus the process of awakening the dormant powers, within us and raising them into consciousness, begins. Pleasant or worrying experiences emerge from the past guiding, inspiring and helping one to decide his path-journey. One may face disappointment and painful disillusionment. One should not loose heart and continue with all sorts of evil-wicked experiences. In such situations Agya Chakr will come to the rescue of the ascetic-practitioner, guiding him in the attainment of spirituality.
Manan मनन :: Rational repeated thinking, analysing, clarity of visions, Sankalp (resolutions, संकल्प) i.e., determination-decision pertaining to right intentions, Vikalp (विकल्प, options, choices, alternatives) to clear doubts and discard false-vague ideas  & Atm Chintan (आत्म चिन्तन, introspection) i.e., remembering the Almighty at every moment;  helps one in attaining the Ultimate.
The roots of Lotus Blossom (Mool Kamal) has four petals depicting the four directions and represent the four fundamental psychic functions of mind, intellect, consciousness and ego-whose roots do lie in  Mooladhar Chakr. The four petals also symbolise the four methods of evolution on this planet :- Vegetative-from the body; from sweat, eggs and sexual intercourse. Shiv and Shakti are behind all creations. 
SHIV LING is the astral symbol for creativity, creative power and consciousness. Snake winds the Shiv Ling three and a half times. The three rotations of the serpent represent the first three levels of consciousness-unconscious, subconscious and conscious; while the half turn refers to the awakened super-consciousness. 
The awakening-evolution of consciousness is connected with time and the snake represents phase-KALA (कला, crescent, time, past and death or past, present and future). 
Alternate sign of the Mooladhar Chakr is an inverted triangle-pyramid. The down ward tip shows one at the thrash hold of spiritual development; while the sides that points upwards and outwards, show the direction of the growing consciousness.
It's affiliated with the smell. It leads to a heightening of sensory perceptions, especially the refinement of the senses of smell and hearing, so that we become aware of aromas and sounds that are not perceptible to others. Some people can see auras or feel the thoughts and moods of others.
The colour associated with Mooladhar Chakr is RED, which illustrates energy and vitality. It illustrates  the presence of  energy connected to the earth (Tatv, तत्व). 
One must be a protector not the destroyer. The destroyer remains with animal instincts at the lowest level of consciousness, far-far below the Mooladhar Chakr.
The growth of human consciousness begins in the Mooladhar Chakr to the “thousand-petalled Lotus” of the Sahasrar Chakr.
SVADHISTHAN CHAKR स्वाधिस्ठान चक्र (Sva स्व: Own, Self; Adhisthan :- Master, Seat, Place and Residence) :: The Svadhisthan Chakr lies slightly over the Mooladhar Chakr, between the coccyx and the sacrum. It represents the second stage of evolution. Kundlini Shakti used to be present in this Chakr, during the earlier cosmic eras. During Kal Yug-present cosmic era, spiritual energy has moved down to the Mooladhar Chakr i.e., unconsciousness level due to pragmatic-materialistic and egoistic behaviour of human beings.
ORANGE is the colour assigned to Svadhisthan Chakr representing fire, Sun rise and blooming flowers. It symbolizes purification, activity, joy, hope and self-confidence in addition to cheerfulness, faith, self-confidence and vigour. It is correlated to autumn and Sun set, as well depicting with drawl of nature and inward consciousness. It may provide solutions to destiny related inquisitiveness.
Activation of previous deeds and their outcome-fruit, materialise in the Svadhisthan Chakr, with the opportunity to purify-cleanse them, providing control over various instincts-their transformation and transcend.
SUB CONSCIOUSNESS :- Its a stage between sleeping and waking is related to Svadhisthan Chakr.  Things look vague, without clear perception. Subconscious mind observes the events quietly, without intervening with the already fixed schedules and subtle track (संस्कार, Sanskar), by virtue of destiny.
One may penetrate into subconscious or the ready made-inbuilt programming in the brain, through meditation, Yog, Dhyan and modify it. 
Kundlini is found to awake occasionally and rising to the Svadhisthan Chakr. Envy, desire, jealousy, rage, anonymity, hatred, violence, passions, arrogance, lethargic, greed blocks the energy, turning the awakening back to Mooladhar Chakr. Wisdom (enlightenment-Gyan) will help in over powering these tendencies. One would be filled with pleasure if he is able to isolate himself from fear and complexes. Ego should not come between the truth and wickedness. Svadhisthan Chakr helps in fighting ego. One has to control his emotions simultaneously. Chanting of Mantr continuously do help in concentration and control over fluctuations.
WATER is the basic component of the Svadhisthan Chakr. Frozen water is hard and rigid; which becomes fluid on heating further. The energy which was trapped in Mooladhar Chakr if frozen begins to flow on reaching higher level of the Svadhisthan Chakr. And now it becomes important to purify the thoughts, ideas, qualities, potentials diverting them, into the right direction.
CROCODILE symbolizes Svadhisthan Chakr. It's lazy and lethargic, but once it becomes active it yield enormous power and speed, making it dangerous. 
VAM "वां" constitutes the Beej Mantr of the Svadhisthan Chakr. 
PRAJAPTI BRAHMA and MAA BHAGWATI SARASWATI are the deities of Svadhisthan Chakr.
One should make use of ICHCHHA SHAKTI (इच्छा शक्ति, willpower) and KRIYA SHAKTI (क्रिया शक्ति, vigour-drive), aided by PRERNA SHAKTI (प्रेरणा शक्ति, life-vital force) DHARNA SHAKTI, धारणा शक्ति, power of concentration & CHETNA SHAKTI (चेतना शक्ति, power of consciousness).
MANI PUR CHAKR मणिपुर (Mani :-  Jewel,  Pur :- Place, City) :: This constitutes the 3rd level of Kundlini Shakti. One can attain the goal of Supreme Consciousness through regular practice and guidance. Mooladhar Chakr regulates the unconscious mind while Svadhisthan Chakr regulate the sub consciousness. Energy from the Manipur Chakr cleanse the Svadhishthan and Mooladhar Chakr. 
LOCATION :- Manipur Chakr lies is in the middle of the abdomen, behind the navel.
IMPACT :- Clarity of vision, wisdom, self-confidence and well being are closely associated with it. It commands the Anahat Chakr as well. Feelings of love, devotion and happiness evolve in Manipur Chakr. Passions are converted to selfless love-through the light of wisdom, prejudice,  aversions are changed to respect and understanding, envy and insatiable greed are changed to good will along with healthy moderation. Self-confidence, pride and jealousy are changed to modesty and generosity, ignorance changes into clarity, laziness converts into focused, consistent effort.
Gut-feelings generated in the Manipur Chakr may often intuitively be correct, helping in correct decisions. But they may be distorted by strong emotions, making the decisions irrational. Judgements totally based on intellect, might lack complete and integrated vision. Manipur Chakr in association with the Agya Chakr, is important for clarity of vision; right feelings, analysis, guidance-thoroughly examined-justified by Vivek (discrimination). 
Manipur Chakr, awards awareness associated with self-confidence. Blockade of  Manipur Chakr may lead to constant fears, being closely connected to the psyche, it may affect digestive system. Fear or stressful situations may lead to abdominal pain or diarrhoea-loose motions.
TEJ (energy, fire) constitutes the Tattv (element) of the Manipur Chakr. It controls the energies from the digestive system leading to good health and good constitution. The Fire Element manifests within the body as body heat. It provides opening for numerous astral powers and therefore its called the cosmic door.  HARA-power center bestows one with balance, stability, strength and activity.
FIRE associated with the Manipur Chakr stands for aggression, passion, inner suffocation, choking, oppressiveness, sultriness and restlessness aided by purification and refinement. It provides relief from bad qualities and habits, doubts, weaknesses, anger, envy, blockages, tension and pain. Fire represent Pingala Naadi and Ida Naadi represents the holy river Ganga constituting the nerve channels, which run along the right and left sides of the body. The Pingala is activated through the breath in the right nostril. Its energy is warming like the light of the Sun. Ida Naadi is activated through the breath in the left nostril. The experience is like that of the soft and cool light of the moon.
Fire has the tendency to burn every thing without distinction-discrimination. The energy produces in the Manipur Chakr beyond control may reduce the energy produced in the Bindu Chakr, basically the nectar (elixir, extract, gist) of life giving force. Bindu Chakr enhances-boosts the life giving force, anti ageing, youthfulness, power to enjoy considerably.
Obstruction in the Manipur Chakr often paralyses and destroys one's energy and triggers diverse physical and psychic problems. It results in numerous problems like diabetes, skin diseases, cardiac-vascular diseases, Gout, Arthritis, rheumatic diseases, migraines, allergies including disturbed digestive system.
Following Mantr are capable of keeping the Kundlini awake if recited with faith-concentration, before meals, after bathing.

(1). अन्नपूर्णे सदा पूर्णे शंकर प्राण वल्लभे। 
ज्ञान वैराग्ये सिद्धार्थे भिक्षाम् देहि च पार्वती॥ 
OM ANNAPURNE SADA PURNE SHANKAR PRAN-VALLABHE; GYAN-VAERAGY-SIDDHARTHE BHIKSHAM DEHI CH PARWATI.
O! Mother Parvati, you are Annapurna-the bestower of food, full of abundance, the lifeline of Bhagwan Shiv; through this sacred food, bless us with the boons of wisdom (Gyan, enlightenment, learning) and renunciation (Vaeragy).
(2). माता च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः।
बान्धवाः शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्॥
MATA CH PARWATI DEVI PITA DEVO MAHESHWARAH;
BANDHAVAH SHIV BHAKTASHCH SVADESHO BHUVNATRAYAM.
(3). ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
OM PURNAMIDAH PURNMIDAM PURNAT PURNMUDACHYATE; PURNASY PURNAMADAY PURNMEVAVASHISHYATE.
(4). शुभं करोति कल्याणमारोग्यं धनसंपदा।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते॥
SHUBHAM KAROTI KALYANAM AROGYAM DHAN SAMPADAH; SHATRU-BUDDHIR-VINASHAY DEEP-JYOTIR-NAMO’STUTE.
(5). दीप दर्शन शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा। शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते॥ 
दीपो ज्योति परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः। 
दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तु ते॥
OM DEEP JYOTI PAR BRAHM DEEPAM SARVE MOHANAM;
DEEPANAM SAJATE SARVAM SANDHY DEEPAM SARV SATYAM.
(6). ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। 
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥4.24॥ 
OM BRAHMARPANAM BRAHM HAVIR BRAHMGNAU BRAHMAN HUTAM; BRAHMAEV TEN GANTAVYAM BRAHMA-KARM-SAMADHIN.
(7). OM SHANTIH SHANTIH SHANTIH.
(8). OM NAMAH PARWATI PATAYE, HAR HAR MAHA DEV HARE.
Manipur Chakr possesses sacred powers. It is the Agnihotr of life, into which the Yogi sacrifices not only his food, but also his conscious breathing (Pranayam). 
FUNCTIONING :- The functioning of the Manipur Chakr monitors the functioning of Pancreas. Imbalance of Pancreas may disturb Manipur Chakr.  Shift in its position leads to different disorders like headache, migraine, diarrhoea, abdominal pains, energy or anxiety.
PRAN :- Ten-petalled Lotus blossom, the petals of which represent the ten Pran (currents and energy vibrations) are regulated by the Manipur Chakr. Pran a component of the Almighty is the all-pervading energy that fills the entire Universe-the Cosmic Mother nature, who nourishes one's soul. One is said to be alive till the PRAN is present in the body. PRAN constitute the life force, vitality. The ten Pran, are divided into five Pran-Vayu and five Up Pran. They regulate the five Karmendri (कर्मेन्द्री, the organs of action) and the five Gyanendri (ज्ञानेन्द्री, the organs of knowledge-perception).
The five Pran Vayu :- PRAN (प्राण), APAN (अपान), UDAN (उदान), SAMAN (समान) and VYAN (व्यान). Pran is responsible for inhalation, Apan for exhalation, Udan for ingestion of food, Saman for digestion and Vyan for circulation and nervous system. 
The five Apan Pran :- NAG (नाग), KURM (कूर्म), DEV DUTT (देव दत्त), KRIKAL (क्रिकाल and DHANANJAY. Nag controls the function of burning, Kurm the movement of the eyelids, Dev Dutt yawning, Krikal sneezing and Dhananjay nourishes & strengthens the body and stabilises the function of the organs.
RAM is the the animal symbol of the Manipur Chakr.
INVERTED TRIANGLE too symbolise of Manipur Chakr. 
LAXMI NARAYAN-BHAGWAN VISHNU and MAA LAKSHMI, are the deities who reside in the Manipur Chakr. Laxmi is the “celestial counterpart of Maya-illusion. She symbolizes the rising spiritual energy and Maya diverts the consciousness towards the material world. Shri Hari Vishnu personifies the progress, consciousness, spiritual growth and creativity. Bhagwan Shri Hari Vishnu is the protector. Just as a mother protects and nourishes her child, the Manipur Chakr safeguards and supports our life.
Manipur Chakr has YELLOW-ORANGE colour, with GREEN radiations; complimented by the red. It has the colour of burning fire engulfing all impurities, while providing heat and light. 
NAD constitute the rhythm which is the pulse beat of the Universe and is felt in the navel and perceived as a subtle sound during meditation. SO HAM-OM, also makes one experience same sound of drum beat, rhythmically.
RAM is the Beej Mantr of the Manipur Chakr.
Manipur Chakr has the seat of sound, voice-speech. The air present in the lungs rises to the larynx and manifests as sound from the lips through oscillations. One may recite Shanti Mantr or just OM SHANTI-OM. It pulsates within one as life force (Pran).
Activation of Manipur Chakr is associated with release of energy. Relaxation of Manipur Chakr automatically relaxes the Mooladhar and Svadhishthan Chakr. 
Harmoniously flow of energy within Manipur Chakr generates the feeling of well being smoothing-soothing the devotee-practitioner, his body, mind and psyche. 
ANAHAT CHAKR अनाहत चक्र :: अनाहत चक्र, कुण्डलिनी क्रम में मणिपुर चक्र से आगे चतुर्थ स्थान पर है। इस चक्र में 12 कमल दल हैं। यह चक्र योग तथा तंत्र दोनों में ही महत्वपूर्ण है। यह 12 दल या पंखुड़ी से बना हुआ पद्म है, जो कि 12 प्रकार के भावों  को नियंत्रित करता है। यह चक्र मणिपुर से ऊपर ह्रदय के पास स्थित है। चित्त स्थान में स्थित होने के कारण अनाहत चक्र का धर्म के रहस्यवाद में प्रमुख स्थान है। चित की स्थिरता, प्रेम, समर्पण इसी से नियंत्रित होते हैं। चित्त के एकाग्र होने पर व्यक्ति काल के किसी भी आयाम में जा सकता है और त्रिकाल दर्शी हो जाता है। ह्रदय, समर्पण तथा प्रेम का स्थान होने के कारण इस चक्र के जागरण होने पर भक्त को ईष्ट का दर्शन लाभ होता है। 
भक्ति मार्ग का अनुसरण करने वाला ईष्ट दर्शन का लाभ प्राप्त कर सकता है। ईष्ट के प्रति समर्पण, अनन्य प्रेम भाव के द्वारा अनाहत चक्र चैतन्य हो जाता है। इसकी जागृति में संगीत, गायन, भजन, कीर्तन, प्रार्थना भी प्रभावशाली हैं।
यह चक्र  नाद से भी जुड़ा है। अनहत नाद का वह स्थान है, जहाँ से निरंतर की ध्वनि गुंजारित होकर शरीर को उर्जा प्रदान करती है। नाद को सुनना योग की उच्चावस्था है, जो नाद सिद्धि कहलाती है। इस चक्र के पूर्ण विकास के बाद साधक मणिपुर चक्र से सबंधित कारण शरीर से आगे बढ़ जाता है तथा महाकारण शरीर-हंस को प्राप्त करता है। यह चक्र पञ्च इन्द्रियों (पंचेन्द्रियों) में स्पर्श का नियंत्रण तथा संचार करता है। 
इस चक्र के विकसित होने पर पर योगी कालंजयी बन जाता है और अपने ह्रदय की धडकनों, रक्त के संचार को इच्छा शक्ति के माध्यम से नियंत्रित करने लगता है। 
यह चक्र वायु तत्व पर पूर्ण नियंत्रण तथा वायु गमन जैसी सिद्धियाँ प्रदान करता है। 
इस चक्र की अधिष्ठात्री-शक्ति देवी काकिनी हैं। जिनके तिन भाव से युक्त तिन रूप इस चक्र में स्थापित है। इस चक्र में पवन देव, ईश्वर व पराप्रकृति का वास भी है।
यह चक्र वायु तत्व से सबंधित है तथा 27 वायु तत्व रुपी शिव तथा इन शिवों के संचार के लिए 27 शक्तियाँ मिल कर कुल 54 वायु तत्वों का नियंत्रण इसी चक्र के माध्यम से होता है। इस चक्र का बीज मंत्र है ‘यं’  तथा इसके 12 दल में क्रमशः कँ, खँ, गँ, घँ, ङँ, चँ, छँ, जँ, झँ, ञँ, टँ, और ठँ बीज अंकित हैं। यह 12 बीजाक्षर 12 भावों का नियंत्रण और संचार करते हैं।
ANAHAT NAAD ::  Unlimited, continuous, infinite, uninterrupted (resonating) sound.
Anahat Chakr is the 4th Chakr in Kundlini, followed by Manipur Chakr. This Chakr which has 12 petals & is significant to both Yog and Tantr Vidya. This lotus is made up of 12 petals which controls 12 feelings. This Chakr is situated above Manipur Chakr close to the heart. Anahat Chakr is important for the mystic, being the seat of Chitt-psyche.  It provides control over stability of the Chitt and all the aspects related to heart along with feelings. With the concentration of Chitt, one can see through past present and future, becoming a TRI CALL DARSHI ((Pt. Santosh Bhardwaj).
LOCATION :- It is located in the region of the heart, in the center of the chest, due to this reason it is regarded as the seat of love and devotion. It represents love and dedication. Love has no boundaries-limits and depends over the depth of the relationship. Divine love is infinite. True, it helps one in realisation of self and the Almighty, side by side. Love connects the Atma-Soul (smallest unit of the Almighty, Parmatma, Bhagwan, God), which can exist independently) to the Ultimate the Almighty.
Naad-the repeated, (resonating sound) continuous sound beats of drum, representing SO HAM-OM that's me, in the form of  subtle rhythmic melody, similar to a heartbeat, which is much softer and wonderful which keeps on pouring energy. After full development of this Chakr, One Sadhak-practitioner move ahead to Maha Karan (ultimate, main reason) body from Karan Body belonging to Manipur Chakr. This Maha Karan body is also called the-HANS. This Chakr controls and maintains the sense of touch  among five senses. Continuous contemplation connected with very fine conscious awareness is essential, for receiving these vibrations. These vibrations may fill one with pleasant-delightful experiences. How ever, one with impure-misleading thoughts ideas, feelings, complexes may suffer. At this stage, one may be able to counter with the memories of the past, depending over his previous deeds, resting in the subconscious. Its good to revert back to normal situation-state if the encounter with the past is pinching. Here the healing comes through the enlightenment, knowledge, Gyan, wisdom, making use of discriminatory powers by using Agya Chakr.
Emerging feelings can be analysed and controlled by Vivek (discrimination, prudence) and Buddhi (intelligence) with loving understanding and insight, which heal and resolve avoiding harsh criticism or reproaches. Anahat Chakr allows the feelings to be extended infinity, while the Agya Chakr raise them to a higher level of consciousness.
Anhat Chakr can be opened  in the spiritual sense, by the realisation of all-embracing divine love, free from the capriciousness of worldly emotions. Parmanand (bliss), experienced by the devotee has Sat (truth, reality) and Chit (consciousness). One is able to perceive  inner reality and the beauty of the Self, in the heart, but is unable to maintain this state permanently. In these fleeting moments of bliss one is always conscious and still has not reached goal. However, one should not be disheartened as the day will certainly come when he will be permanently established in the divine Self, then he will not be frightened or hurt.
One encounter worldly attachment and dependency in the Anahat Chakr. One can  recognize whether his feelings express dependency or genuine love? Love brings joy, not sadness, love shows understanding and does not provoke arguments, love provides security and makes no demands, love grants freedom and knows no jealousy.
Self-centred affection, feelings of resentment and revenge depicts attachment, which do not disappear and binds one for several births and rebirths. Moh-Mamta (illusion-attachment) is a strong, binding force that pulls one towards desires and expectations. Mamata clings one and sucks  his spiritual power. Its companions are ASHA (hope, expectation) and TRASHNA (unquenched thirst, desperate desire, longing). Vaeragy-renunciation is a tool for detachment, which liberates one from desires, expectations, fear and sorrow.
One find a Lotus with twelve petals in the Anahat Chakr. The petals represent the five Pran and the five Up Pran (the five Gyanendri-senses and the five Karmendri-organs), together with Man & Buddhi.  Man denotes the disposition and Buddhi the intellectual capacity.
The twelve petals of the Lotus depict the twelve  qualities that one should develop in the heart center: Joy, peace, love, harmony, bliss, clarity, purity, compassion, understanding, forgiveness, patience and kindness. One must cultivate  these twelve qualities within himself.
Anahat Chakr is also known as CHINTA MANI because it bestows upon one the gift of expressing thoughts and feelings in touching words, pictures or melodies. When one is in the Anahat Chakr his perceptions become finer and more comprehensive. Artistic talents and creative abilities, through which one is able to touch the hearts of others, are awakened. Poetry, stories, pictures and sounds that one create from the heart allow the most beautiful chords to be struck within people. Activation of Anahat Chakr  contribute in the acquisition of the knowledge of music & Tantr through dedication in the Isht-deity.
Anahat Chakr belongs to the heart aspects and complete dedication & feeling of love; one will have the glimpses of the Isht. These rediscovered treasures awaken infinite love and the desire to open and communicate with others.  This is because of love-the language of the heart and the call of God.
SHIV and SHAKTI are the divinities of the Anahat Chakr. Shiv (the Purush) represents pure consciousness that steers us towards goodness and the Supreme Self. Kakini-Shakti (Prakrati, nature) the Divine power which  manifests consciousness, with her three incarnations is established in the Chakr. Apart from her, Pawan Dev is also situated in this Chakr and God-Ishwar (Nity Ishwar) is also believed to be present in this Chakr.
THYMUS GLAND is related with the Anhat Chakr. It is located between the collarbones in the center of the chest. 
BLACK ANTELOPE represents the Anahat Chakr, along with six cornered STAR & NEW MOON. 
LIGHT BLUE denotes Anahat Chakr. 
PAWAN-VAYU represents the Tattv-element of the Anahat Chakr. One may receive accomplishment like Vayu Gaman-walking through air, in the sky, on being successful in his venture.
BHAKTI-devotion-love for the Almighty forms the basis of Anhat Chakr. Love and devotion manifest as understanding, acceptance, forgiveness, compassion and helpfulness.  Harmony, love and consideration reign supreme everywhere.
Dev Rishi Narad, described the nine elements of Bhakti Yog in his Bhakti Sutr, as follows ::
SAT SANG (Auspicious, virtuous, righteous Company) :- To cultivate and maintain contact with people who speak of God and truth.
HARI KATHA (Stories pertaining to God) :- To be inspired by the Holy Scriptures, epics, Shastr and the life stories of saints.
SHRADDHA (Devotion, Faith) :- To have faith in the Holy Scriptures and the Master-Lord and to accept and take to heart their words and teachings.
ISHWAR BHAJAN (ईश्वर भजन, Prayers, enchants, rituals) :- To sing God’s praises. To sing spiritual songs which praise the glory of God.
MANTR JAP :- Repetition of Mantr 108, 1008, …times at a stretch. To inwardly repeat the Mantr at all times and under all circumstances.
SHAM DAM-Internal and External Control-restraint :- To be the Master of the senses and not allow temptation to overwhelm us and to discipline thought, word and deed.
SANTOUN KA ADAR (आदर, respect, honour all Holy Virtuous people) :- To respect and honour all people who have dedicated their life to God, no matter to which religion they belong.
SANTOSH (contentment, satisfaction) :- To be thankful for and content with everything that God gives.
ISHWAR PRANIDHAN (devotion to God) :- To love God with a pure heart without egoistic expectations and complete surrender to Divinity.
YAM is the Mantr of the Anhat Chakr, meaning, to let go, to liberate, to give. 
It refers to the five ethical principles of Raj Yog :- AHINSA (अहिंसा, non violence), SATY-truthfulness, ASTEY-not to steal, BRAHM CHARY-chastity, pure way of life, APARIGRAH (non accumulation).
Ajap is one of the excellent Mantr. Sing, SO HAM-OM and realise SAT, CHIT, ANAND in the heart. Through Ajap the Antah Karan (innerself अन्तः करण) is completely purified.
On the day when one no longer needs to practice Ajap he will be victorious. Ajap-Jap penetrates body, heart, mind and soul.
Until the Anhat Chakr opens up, it's not possible for the Agya Chakr-the center of mental energy and power of thought, to develop its full potential. Every action, every word, all feelings and thoughts should be filtered through the Anhat Chakr and be enlightened by Bhakti (devotion) and Gyan (knowledge, enlightenment, Wisdom). Gyan is unable to experience anything without Bhakti and Bhakti is blind without Gyan. Where love, devotion and knowledge work together, there is completeness. Understanding and kindness leads us directly to God.
At the level of the Anhat Chakr one understand and forgive all. Bhagwan Krashn stresses the importance of  forgiveness. One should treat friend and foe alike and weigh regards, respect, honour and abuse, praise and censure, joy and pain equally. Forgiving is the greatest virtue and sacrifice.
The VISHNU GRANTHI, the source of Parmanand-bliss, is located in the Anhat Chakr. The purer the Anhat Chakr, the deeper the feelings of joy, warmth and happiness and unity with God, is experienced even more intensively. When the Vishnu Granthi within the heart opens, the desire to help other living beings arises spontaneously. With the help of the Anhat Chakr one is able to understand and resolve problems with other people easily. The greater and deeper our love for God, the stronger one's love for Nature and all of Nature’s manifestations.
The Anhat Chakr constitute the opening through which one attains Sahasrar Chakr, where knowledge of one's true Self is revealed. Divine consciousness streams from the door to the Supreme (Brahm Randhr) to the Anhat Chakr through the Brahm Nadi. With this the circle closes. Consciousness is filled with love and love is enlightened by consciousness.
This Chakr belongs to the Air element and 27 Shiv in the form of Air and 27 Shakti for the flow of these Shiv total 54 air elements are controlled with the medium of this Chakr only. Beej mantra of this Chakr is ‘Yam’. And in 12 petals viz. Kam (कँ), Kham (खँ), Gam (गँ), Gham (घँ), Ngam (ङँ), Cham (चँ), Chham (छँ), Jam (जँ), Jham (झँ), Nyam (ञँ), Tam (टँ) and Tham (ठँ) Beej are established. These 12 Beej controls twelve different of feelings and their flow. True love is eternal and unites forever. In the Anhat Chakr one finds Divine Love and infinite bliss-PARMANAND.
VISHUDDHI CHAKR विशुद्धि चक्र (Vish विष:, Impurity, poison; Shuddhi शुद्धि: Purification) :: Vishuddhi Chakr is very close to the Larynx. It provides physical and spiritual purity. Vishuddhi Chakr raises our consciousness to a higher level. It is the border line between the physical and astral levels, between consciousness and super consciousness. When we rise over it, the ascent to the realm of wisdom and clarity of consciousness opens up. 
Neel Kanth Bhagwan Shiv swallowed the poison obtained from the Sagar Manthan-churning in his throat constituting the Vishuddhi Chakr turning it into a useful commodity, by using Ujjapi Pranayam and Jalandhar Bandh. Virtues, understanding, compassion, mercy, love, devotion and wisdom make a man Godly-divine, while wickedness-evil are demonic, comparable to poison.
Vishuddhi Chakr relieves us from the toxins and impurities, present within us. Udan Pran present in the throat helps one in digestion of food and maintenance of proper-good health, along with detoxification. It affects our psyche and consciousness. Pernicious tendencies, discord, rivalry, envy and resentment are reduced considerably through this Chakr. Our problems too are resolved.
Deep breathing-Pranayam (Prerna Shakti) in the Vishuddhi Chakr eliminates the harmful thoughts, ideas, thoughts emotions, from both the consciousness and subconscious, leading to purification and harmony.
MEDITATION provides an opportunity for self introspection-analysis through various levels of consciousness. What one observes, is the sum total of his bad and good deeds of the past. Piousness, virtuousness, honesty, devotion, dedication and evil-wickedness exists side by side in the unconscious mind. Having come across the darker side of his past one has the opportunity to wash off the sins and make efforts to assimilate in the Almighty. This will relieve one from complexions-fears, haunting him due the past.
Vishuddhi Chakr provides an opportunity to protect oneself from mistakes, sins and to find out the cause and effect relationship pertaining to his failures and success. One must realise that he does not blame others for his drawbacks-weaknesses.
Unconscious has its seat in Mooladhar Chakr; the subconscious is placed in the Svadhishthan Chakr. The consciousness begins to rise from the Manipur Chakr and unfolds in the Anahat Chakr, so that it can express and manifest Vishuddhi Chakr.
Anhat Chakr, portraits consciousness with a Lotus blossom, floating over the surface of water. Till this Lotus lies inside the surface of water, it is not affected much, by the waves-disturbances, as it is affected by the disturbances, when it is over the surface of water. The point here is that the channelisation of energy is between Mooladhar Chakr and the Anahat Chakr, which is more subconscious as compared to conscious and the oscillations-impact over thoughts is not harmful. Emotions find an opportunity to expand and grow when there is gap between the ideas-thoughts. Anahat Chakr and Vishuddhi Chakr provide sufficient opportunity for his process.
Unfolding of Anahat Chakr leads to flooding of emotions into the consciousness. Vishuddhi Chakr too acts in the same fashion, exposing the problems to the root cause and their solutions. Here one gets an opportunity to weed out the problem for ever. Let the unconscious mind be cleared with the help of enlightenment-realisation. Let the innerself & inner most be cleared of all difficulties, tensions, troubles through meditation (Manan, चिन्तन, मनन, विचार) repeatedly hitting the problem and finding ways and means to resolve it. Though, it appears to be intricate, yet possible through practice. One should be ready to accept the reality uncovered by the Vishuddhi Chakr.
AMRAT (अमृत, निचोड़, मूल तत्व, extract, elixir-nectar of immortality), has a special significance between the Vishuddhi Chakr & Bindu Chakr. Concentration through meditation, into the Almighty leads to penetration into the mysteries providing support to health, vigour, vitality. This immortality is condensed into the Manipur Chakr and further distributed uniformly to Vishuddhi Chakr.
AKASH (sky, space) related to speech constitutes the basic element of the Vishuddhi Chakr.
ASTRAL BODY :: Astral body seated in the Vishuddhi Chakr leaves the physical body. Astral journeys are undertaken by the individual through dreams leading to spontaneous separation from the mortal-material. Consciousness never separates from the astral and mortal. There are people who just detach the astral from the material and take journeys through the cosmos.
ISHT DEV (Deity worshipped by one), GURU is always there to help the inquisitive mind, providing unconditional support. Ganpati is the Isht Dev.
WHITE ELEPHANT a symbol of luck, wealth, power, wisdom, purity and clarity, constitute the symbol of the Vishuddhi Chakr. The elephant head Ganesh is worshipped before any auspicious deed-venture is undertaken to overcome obstacles and difficulties. 
SPEECH, VOICE, WORDS develop with the help of lungs-present in the chest, throat and the lips with the help of tongue. The seat of sound, voice, speech, lies in the Manipur Chakr. Fire is the basic element of speech through which the energy of fire, i.e., the sound manifests in space of the Vishuddhi Chakr and is articulated as words with the help of the lips. Larynx controls words and the lips aided by the tongue, form them. As soon as there is cause in the form of emotions, there is a word reflected through the throat-in the Vishuddhi Chakr. One should make use of Yog and purification techniques for establishing perfect control over the speech. One must control the tongue, speech, words and avoid speaking that may hurt the sentiments-innerself of others. One should never insult, torture, tease others.
Subconscious may shows off in reddening of the face, itchy rash eyes, frequent colds (sore throat and hoarseness), abdominal cramp and digestive problems. Suppressed emotions may express, as outburst of rage or tears. Here patience comes into picture, which can govern the aptitude, reactions, thoughts, emotions, as a component of Pranayam-Yog.
Manipur Chakr controls the proper-appropriate utilisation of words. One should prefer to speak less-which is valuable asset. The role of Vishuddhi Chakr is important before one opts for speaking. One should make it a habit to speak pleasant-polished words even with the opponents. Silence (मौन, keeping mum, moun) is golden.
VAK SIDDHI वाक सिद्धि, is present in the Vishuddhi Chakr. With the activation of the Vishuddhi Chakr and practising of the Hath Yog (concentration at a point), one’s words and glances become effective and persuasive. Vishuddhi Chakr has its impact over the writers, poets, journalists, teachers, politicians, actors, singers etc.
VIOLET, the colour of wisdom and spirituality is assigned to Vishuddhi Chakr.
The Lotus blossom in the Vishuddhi Chakr has 16 petals. These represent the 16 Siddhis (supernatural powers) that a person can acquire through practicing Yog; out of the 24 Siddhis (capable of bringing the dead to life). One is not supposed to either demonstrate or illustrates the impact of these divine powers. This number has close relation to the half cycle of Moon as well, who is the King-provider of all medicines and nourishment. The practitioner of Kundlini is not supposed to crave for these super natural powers, since they will drag him to life not Salvation.
Please refer to :: 
ACCOMPLISHMENTअष्ट सिद्धयाँ व नव निधियाँsantoshsuvichar.blogspot.com
HAM constitutes the Beej Mantr-Basic hymn-enchant. Here we start with self-realisation.
AGYA-GURU CHAKR आज्ञा-गुरु चक्र (आज्ञा-order, command) :: It’s based-housed at the upper end of the spinal cord-vertebral column, at the point of transition, from the spine to the brain. Development of one's wisdom and humanity is completed here, bridging the divine consciousness. Its energy is experienced in the center of the forehead between the eyebrows, just over the nose.
Guru Tattv evolves consciousness. Bhagwan Shiv is the source of all knowledge to the humans and is the master of masters (Guru, teacher, preacher, philosophers, scholars, learned). It moves one out of darkness, ignorance, passion, wickedness to knowledge and from death to immortality-Salvation. It’s connected to clarity, wisdom (enlightenment, knowledge, Gyan), ability to discriminate between truth and untruth-falsehood, reality and illusion-mirage, development of rationality (विवेक, prudence).
Agya Chakr, anchors-controls, one's ideas, motives, thoughts, which keep on oscillating between Mooladhar, Svadhishthan, Manipur, Anahat and Vishuddhi Chakr. It helps one, in taking right decisions at the right moment, through prudence, analysis, comparison, discrimination.
Moral (ethical, spiritual, pious, virtuous, honesty, righteousness) is the problem one usually experience in life, which needs wisdom to counterbalance emotions, leading to pleasure and loss of grief, pain, sorrow.
Agya Chakr masters clairvoyance, intuition, telepathy and transmission of knowledge through time-past, present and future.
SHIV LING represents consciousness led by the intellect and ego in lower Chakr, whereas when guided by Bhakti-devotion and Vivek-prudence, it moves to upper Chakr and the Soul-Atma.
Colour of Shiv Ling is black in Mooladhar Chakr, milky-white or smoky colour-cloudy dark in Agya Chakr.
Lotus Blossom in Agya Chakr has two petals which stand for GU (darkness, ignorance, wickedness) and RU (enlightenment, learning, awakening knowledge). They include the Mantr HAM and KSHAM representing the Sun (masculine) and the moon (feminine) principles, Shiv (Purush-Soul, consciousness) and Shakti (Prakrati-Mother Nature). Ida and Pingala and the central Naadi-Sushmana, represents the Divine Consciousness.
Agya Chakr is the place of sangam (junction-meeting point of the three holy rivers :- Ganga, Yamuna and Saraswati); the Kumbh Mela for the devotee-Yogi. Ganga, Yamuna and Saraswati correspond to the main Nadis :- Ida, Pingala and Sushmana. The Agya Chakr, where these three strong energy currents meet in the human body, is also known as TRIKUTI (त्रिकुटि). Other terms for the Agya Chakr are TRIVENI (त्रिवेणी) and BHRAKUTI (भृकुटि, center of eyebrows over nose over the fore head).
With the purification of the three Naadi through concentration, meditation and Pranayam, the Yogi is able to keep his consciousness in the Agya Chakr. With the merger of these three currents of energy in the Sahasrar Chakr, he attains Samadhi-the highest level of consciousness.
ASTO MA SAT GAMAY :- Lead us from unreality-Tam-darkness to reality, virtuousness, piousness, righteousness. 
TAMSO MA JYOTIR GAMAY :- Lead us from darkness to light.
The Agya Chakr is formless, colourless and devoid of qualities. It is the destination of purity and unity, the site of Parmanand-bliss. Soul unfolds here from the illusion-Maya and moves to the Thousand-petalled Lotus-Sahasrar Chakr.
Agya Chakr has three aspects :-  
(1). AKASH, SPACE, SHUNY, (2). CHITT-consciousness and (3). PARMANAND-bliss.
OM (A "अ" ब्रह्मा, U "उ " विष्णु, M "म "महेश) which is the voice of the Supreme and the original sound of creation; constitutes the Mantr-holy enchant of  Agya Chakr and the Sahasrar Chakr. It represents the beginning, middle and the end of whole creation. During meditation, when one is absorbed in this Beej Mantr, he is able to perceive the omnipresent, divine sound of creation.
During meditation concentrate over the Agya Chakr with the Mantr OM or Guru Mantr and visualise a divine image-symbol. Through Bhakti-devotion and Gyan-wisdom, one will experience the ultimate. This is Para Vidya, complete knowledge; being unchanging, unlimited and eternal. Through intellect, one merely gain Apara Vidya, which is incomplete knowledge; changeable, limited and bound by time.
The awakening of the Agya Chakr is an essential and fundamental step in our development. It helps one to cope with all problems and resolve psychic problems like depression, Schizophrenia or changeable emotions. 
VAERAGY (renunciation) is a prerequisite for the attainment of Gyan, enlightenment, true knowledge-the eternal. Vaeragy is the extinction of our wishes and desires, which leads one to new deeds-Karm. Vaeragy can be achieved through concentration over the Agya Chakr with harmony and balance between heart and intellect, without ignoring either of them. One's goal is to harmonise and unite both and not to suppress either of them.
MEDHA SHAKTI-BRILLIANCE मेधा शक्ति :: Inexhaustible stream of energy called MEDHA SHAKTI or brilliance (mental power, intelligence and memory), can be released-radiated from the Sahasrar Chakr.
It is quickly exhausted by excitement, stress, hustle and bustle, sexual intercourse-masturbation, strong emotions-passions and empty chatter-useless talks, crying, shouting, brooding and worrying. Anger, hate, jealousy, unresolved conflict, feelings of revenge and resentment also weaken and destroy it.
One can strengthen it, through relaxation of body and mind, quietening our thoughts, trust in God, inner peace, joy and contentment. All Yogic exercises exert a positive influence over the human body, mind and soul, leading to overall balancing and calming down.
Inverted postures such as Shirshasan (शीर्षासन), Sarvang Asan (सर्वांग आसन) Vipreet Karni Mudra (Energy Regeneration Pose), Yog Mudra (Forward Bend sitting on heels) and Shashank Asan (शशांक) are particularly beneficial. Agnisar  Kriya (अग्निसार क्रिया), Pranayam, concentration and meditation do strengthen Medha  Shakti.
The mental and spiritual power is supported by prayers, recitation of Mantr, reading of Holy Scriptures, singing Bhajans, Satsang, Pooja, pilgrimage and Sewa-social serve, helping Genuine  needy, positive thoughts, speech and actions.
Medha Shakti is strengthened through MAUN (silence) leading to perfect inner peace and helps us reach deep meditation, even Trans.
Asceticism-chastity does help in boosting brilliance.
Soak 1 to 2 unpeeled almonds overnight in a water-filled pottery bowl. Chew them till they do not turn into paste. Take milk along with it.
Brahmi Booti is extremely useful in enhancing brilliance, in addition to preventing ageing.
Peppermint leaves minced in a mortar, added with one spoonful of honey and water may also help. 
Medha Shakti is evoked as and when, one offers water-oblations to Shiv Ling, while perform Pooja.
BINDU CHAKR बिंदु (point, dot) चक्र :: It is the seat of eternal youth, vitality and health, which is the mysterious and remarkable energy center of human body. It lies beneath the cowlick at the back of one's head, where the bones of the back and sides of the skull meet (occiput and the parietal). One, who possesses two cowlicks, is blessed with exceptional vitality and creativity, associated with hyperactivity and extreme nervousness. In an inactive state, it's similar to a dot. On being awakened, energy start flowing. It improves physical, psychic-mental health and spirituality. It heals sentiments, controls emotions and brings harmony and well-being. Hunger-appetite and thirst are regulated, improving eating habits.
Concentration over the Bindu Chakr can also be beneficial for depression, nervousness, anxiety, oppressive feelings within the heart; can be assuaged just by pressuring the location of Bindu Chakr providing instant-spontaneous feeling of happiness. Children may be relaxed by gently massaging the Bindu Chakr with soft circular movements for a few minutes-making them sleep. Bindu Chakr is associated with AMRAT-the nectar-elixir of immortality.
Shanti Mantr is associated with the activation of Pineal Gland-located in the brain. This gland secretes the hormone which rejuvenates body and mind. That is why it is called Amrat (अमृत elixir-nectar) of life-immortality. 
असतोमा सद्गमय। तमसोमा ज्योतिर्गमय। 
मृत्योर्मामृतं गमय॥ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः॥ 
ASTO MA SAD GAMAY, TAMSO MA JYOTIR GAMAY; 
MRATYOR MAMRATAM GAMAY. Om Shanti Shanti Om. 
O! GOD Lead us from unreality, fiction, falsehood, fake, illusion-mirage to reality-truth, 
Lead us from darkness to light, enlightenment, prudence, 
Lead us from death to immortality. 
OM Shanti Shanti OM. 
NONE IS IMMORTAL. ANYONE, WHO IS BORN, WILL VANISH ONE DAY OR THE OTHER.
Sanjivini Booti is associated with miraculous power of reviving, which functions through the activation of the sleepy-dead nerves and brain cells. Yogis survive over this nectar from the Bindu Chakr. This chemical drips down to the Manipur Chakr activating digestive power (जठराग्नि Jathragni) and is lost. However, some Yogic practices one can retain this nectar in the Vishuddhi Chakr-responsible for the purification and detoxification of the body, supplying it further to the body.  
The Sun is present in the navel and the moon is located in the head [Gherand Sanhita 28-30]. The nectar that flows from the moon, is utilized by the Sun and the life giving force is gradually enhanced. Moon represents the Bindu Chakr and the Sun stands for the Manipur Chakr. Since, the nectar from the Bindu Chakr is continuously destroyed by the fire of Manipur Chakr one's body is susceptible to illness and deterioration with ageing.
Immortal Atma-soul is present in the human-mortal body. This fragile body is the center-source for the spiritual realisation-Liberation (Moksh). The Yogi make endeavours to keep the body functioning as long as possible, to enable him to complete the spiritual abode-journey. 
Sages, ascetics, Rishis, Yogis, found ways and means to control the flow of elixir with the help of the Vishuddhi Chakr and the tongue. The tongue possesses subtle energy centres, each of which connects to a specific part of the body or organ. Udan Pran, one of the five main Pran (vital forces), works within the Vishuddhi Chakr and this Pran Vayu activates the muscles in the throat which controls the swallowing-engulfing the food. Udan Pran directs energy to the head, as well. Elixir-nectar firmly held in the Vishuddhi Chakr-influenced by Udan Pran, shows its effect.
Hath Yog Pradipika and Khechri Mudra helps in the working-collection of this elixir-nectar through the tongue. Tongue is rolled as far back as possible till the tongue reaches the Pharyngeal cavity. Khechri Mudra, Ujjayi Pranayam and Jalandhar Bandh (Chin Lock), Viparitkarni Mudra, helps in preventing the burning-loss of this commodity in Manipur Chakr.
MOON is the symbol of Bindu Chakr, so it’s known as Chandr Chakr, as well. The radiation transmitted by it, is identical to the ones generated by Sahasrar Chakr, appearing like the slender crescent of the new moon. With the awakening of Bindu Chakr it opens and shines brightly with a silvery sheen, like that of Full Moon. The moon is a symbol of perfection, nectar and energy. It is responsible for the growth of herbal medicines, Somras (Rig Ved IX, santoshvedshakti.blogspot.com), plants, shrubs on earth. Moon is present in the locks of Bhagwan Shiv.
AMRATAM is the Mantr of Bindu Chakr.
MAHA MRATUNJAY MANTR 
(For longevity, good health & overcoming illness-death.) 
(1). ॐ मृतुंज्याय महादेवाय नमोस्तुते। 
Om Mratunjayay Maha Devay Namostute. 
(2). ॐ त्रयम्बकं य़जामहे सुगंधिम पुष्टि वर्ध्नम। 
उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्यो मुक्षीय मामृतात्॥ 
ॐ Trayabkam Yeja Mahe Sugandhim Pusti Vardhnamur; Urvaruk Miv Bandhnan Mratyo Mukshi Mamrtat.
ॐ the adored One, the three-eyed Bhagwan Shiv, you are omnipresent 
May you nurture us and bless us with health.
May your blessings liberate us and lead to immortality. 
Let the blessings of Bhagwan Shiv fill-illuminate our consciousness. Let the nectar of immortality spread through the humans and expand through inner space (Chidakash). This Chakr brings all Chakr into harmony by utilising the nectar. Fear, sadness, anger, resentment and other disease-producing emotions are removed by the healing-protective divine vibration of this Mantr. Let it spread fragrance, melodiousness, love, happiness and contentment into the world.
Please refer to :: MAHA MRATUNJAY MANTR महामृत्युंजय मंत्र santoshsuvichar.blogspot.com
SAHASRAR (thousand) CHAKR सहस्रार चक्र :: It is located over the crown of the head, beneath the Fontanelle, visible in a new-born child, known as the Thousand-petalled Lotus. Brahm Randhr present here, is the escape route for the soul (vital opening, escape route to Brahm, opening for the Pran-soul to be released by the Yogi, to assimilate in the Almighty) associated with the enlightenment-learning (cosmic, divine-supernatural illumination comparable to the Sun in brightness).
It’s devoid of colour, characterises or quality. The energy from all Nadis condenses here, like the water which comes from all rivers to the ocean.
The basic-root element, of the Sahasrar Chakr is the ADI TATTV-the ADI ANANDI or the ISHWAR TATTV; which is behind all creations-evolution. ADI stands for the phenomenon-root cause, which has no origin or beginning; which is there, which was there and which will be there. ANANDI stands for the ULTIMATE BLISS-PERMANAND, which is endless-without termination-infinite. With the assimilation of this Tattv with quality-characteristics (Gun), it becomes finite, bound, limited. Prathvi-earth, Akash-sky, Jal-water, Vayu (Pawan, Air), Agni (Tej, fire, energy) are the cosmic manifestations of it.
The awakening of the Sahasrar Chakr leads to revelation of the Divine Splendour and attainment of Supreme Consciousness. It is the seat of Bhagwan Shiv, present in the Mooladhar Chakr as Pashupati Nath, the Bhagwan-God of the Animals, in the Mooladhar and Agya Chakr as the symbol of the Shiv Ling and the Sahasrar Chakr as Adi Anandi, Supreme Divine Consciousness and original foundation of the Universe.
At the occasion of evolution Bhagwan Shri Hari Vishnu evolve first, followed by  Brahma Ji and Shiv is already present there. Age of Brahma Ji is 2 Prardh, that of Bhagwan Vishnu is 4 Prardh while its 8 Prardh for Bhagwan Shiv. So, Adi Shiv is the uncreated-unborn creator (Swayambhu) of the Cosmos. He represents Anand (bliss), Purush (pure consciousness) and Moksh (Liberation, assimilation in the Ultimate, Salvation, emancipation). He is perfect, eternal and divine and radiant, luminous-shinning, aurous like millions of Suns. No Karm-deeds ever affect Him. All impurities, evils, wickedness, sins melt and burn in his proximity. Only purity, piousness, virtuousness, righteousness, clarity, light, love and truth emanate from HIM.
In practice-reality Atma and Parmatma are one and the same. Though Atma possesses divine consciousness, yet it’s limited to a specific region-the human body, until it has been liberated. But Parmatma is unlimited-infinite, impersonal, Universal, Supreme Self-all pervading. With the consciousness of the Jivatma attaining Adi Shiv in the Sahasrar Chakr and merging with Adi Shiv, it’s illuminated and liberated from all shackles and limitations-boundaries. Ignorance is gone with the opening of the Sahasrar Chakr. One may attain this state through Kriya Yog, meditation and Guru Krapa-blessings. The soul may try to attain the Ultimate with awakening of Kundlini.
Shakti (power-might) is present in Mooladhar Chakr while Shiv (Almighty) is located in Sahasrar Chakr. There is a gap between the two, which is considered as a dark zone representing ignorance. This gap is generally blocked by sins (evils, wickedness, ego, anger, negative characters, suffering, loneliness, sadness, bitterness, fear, doubt, lasciviousness), etc etc. This is overcome through strong will power, continuous efforts and guidance. This gap is filled with the stream of energy, in the two main Nadi, Ida and Pingala, combining and rising through the Sushmana Naadi. Realisation of the Atma-self, takes place only when a simultaneous awakening of the Anahat Chakr and the Sahasrar Chakr occurs. Sahasrar Chakr and Anahat Chakr gets connected through the Brahm Nadi (Gyan Naadi) is established. Blockade of Anahat Chakr, obstruct the flow of Bhakti and love-devotion, in the Sahasrar Chakr as well.
With the awakening of the Anahat Chakr Atma-soul, rise from the heart and reach the level of Divine Consciousness through the Brahm Randhr. Brahm Gyan (Gist of Almighty) the thousand-petalled Lotus unfolds and the Ultimate Power-Param Shakti start unfolding. Jivatma experiences the eternal, the Divine existence. It merges with the Supreme Self. Pure-ultimate consciousness is explored. Parmanand-the eternal divine bliss :- SAT CHIT ANAND SWARUP ATMA is realized. Brahm Rishis reach this level of consciousness automatically, while others have to do practice to attain the bliss, which is beyond the scope of glossary-words.
Root of the Lotus represents Adi Shakti-Maa Parwati, the original-divine power, located in the Mooladhar Chakr. The Blossom in the Sahasrar Chakra is Adi Shiv :- the Divine Consciousness and Supreme Self.
Atma of liberated Yogis departs through the tenth door-Brahm Randhr of the Sahasrar Chakr.
As soon as one reach the goal, he forget difficulty, torture, pain, in reaching this point. Now, there is bliss everywhere. 
Spiritual practices, Satvik Bhakti, love, devotion, Atm Chintan (constantly thinking about the Parmatma), Mantr and meditation leads to automatic awakening of Kundlini.
शिखा ::
"दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे शिखायै वषट्"
शिखा तेज को बढ़ाती है, दीर्घ आयु तथा बलवर्धक भी है। इसीलिए जपादि, पाठादि के पूर्व शिखा का स्पर्श करके न्यास किया जाता है। शिखा ज्ञान शक्ति में वृद्धि करने के साथ-साथ मनुष्य को चैतन्य बनाती है। शिखा का स्थान सिर पर सहस्त्रार चक्र का केंद्र है। बुद्धि चक्र एवं ब्रह्मरंध्र के ऊपर सहस्त्र दल कमल का अधिष्ठान है। जब जातक चिन्तन, मनन आदि करता है या ध्यानलीन होता है; तब ध्यान से उत्पन्न अमृत तत्व सहस्रदल कर्णिका में प्रविष्ट करके सिर से बाहर निकलने का प्रयत्न करता है। इस समय यदि शिखा में ग्रंथि नहीं लगी होतो अमृत तत्व शरीर में ही रह कर जातक का कल्याण करता है। यही शिखा की महत्ता है। शिखा के नीचे पीयूष ग्रन्थि या पीयूषिका (Pituitary gland) जो कि एक अंत:स्रावी ग्रंथि का निवास है। 
यह शरीर को हृष्ट-पुष्ट तथा मस्तिष्क को विकसित करती है। इसकी सुरक्षा शिखा बन्धन जरूरी है।
Pituitary gland is located in the brain, between the hypothalamus and the pineal gland, just behind the bridge of the nose. It is about the size of a pea and is attached to the brain by a thin stem of blood vessels and nerve cell projections. The frontal lobe is the biggest part of the pituitary.
पीयूष ग्रन्थि का आकार एक मटर के दाने जैसा होता है और वजन 0.5 ग्राम होता है। यह मस्तिष्क के तल पर हाइपोथैलेमस (अध श्चेतक) के निचले हिस्से से निकला हुआ उभार है और यह एक छोटे अस्थिमय गुहा (पर्याणिका) में दृढ़तानिका-रज्जु (diaphragms sellae) से ढंका हुआ होता है। पीयूषिका खात, जिसमें पीयूषिका ग्रंथि रहता है, वह मस्तिष्क के आधार में कपालीय खात में जतुकास्थी में स्थित रहता है। इसे एक प्रमुख ग्रंथि माना जाता है। पीयूषिका ग्रंथि ग्रन्थिरस का स्राव करने वाले समस्थिति का विनियमन करता है, जिसमें अन्य अंत:स्रावी ग्रंथियों को उत्तेजित करने वाले ग्रन्थिरस शामिल होते हैं। कार्यात्मक रूप से यह हाइपोथैलेमस से माध्यिक उभार द्वारा जुड़ा हुआ होता है।
मनुष्य के दीर्घायु, बल और तेज के उन्नयन में शिखा की भूमिका है। यह ज्ञान शक्ति को चैतन्य रखते हुए, उसे सदा अभिवृद्धि की ओर अग्रसर करती है।
शिखा सूर्य किरणों से प्राप्त प्रकाशिनि शक्ति को आकर्षित करने एवं सहस्र दल कर्णिका तक पहुँचाने में सम्प्रेषक का कार्य करती है। शिखा रखने एवं इसके नियमों के अनुशीलन से सद्बुद्धि, सद्वृत्ति, शुचिता एवं सद्विचारों में वृद्धि होती है।
RELATION BETWEEN POSTURES AND KUNDLINI CHAKR
1. Pranamasan Exhale Anahat Third eyeॐ ह्रां OM HRAM
2. Hast Uttan Asan Inhale Vishuddhi Throatॐह्रीं OM HRIM
3. Hast Padasan Exhale Swadhisthan Sacrumॐ ह्रूं OM HRUM
4. Ek Pad Prasarasan Inhale Agya Third eyeॐ ह्रैं OM HRAEM
5. Adho Mukh Svanasan-
Parvatasan
Exhale Vishuddhi Throatॐ ह्रौं
OM HRAUM
6. Ashtang
Namaskar
 Suspend
Manipur Solar plexusॐ ह्रः OM HRAH
7. Bhujangasan Inhale Swadhisthan Sacrumॐ ह्रां OM HRAM
8. Adho Mukh Svanasan Exhale Vishuddhi Throatॐ ह्रीं OM HRIM
9. Ashw
Sanchalanasan
Inhale AgyaThird eyeॐ ह्रीं OM HRIM
10. Uttanasan Exhale Swadhisthan Sacrumॐ ह्रैं OM HRAEM
11. Hast-Uttanasan Inhale Vishuddhi Throatॐ ह्रौं OM HRAUM
12. Pranamasan Exhale Anahat Heartॐ ह्रः OM HRAH
कुण्डलिनी जागरण का अनुभव ::  कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है जिससे सब जीव जीवन धारण करते हैं, समस्त कार्य करते हैं और फिर परमात्मा में लीन हो जाते हैं। यह कुण्डलिनी शक्ति सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शरीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार चक्र में स्थित होती है। जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक मनुष्य सांसारिक विषयों की ओर भागते रहते हैं।
परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जिसका एक छोर मूलाधार चक्र पर जुडा हुआ है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घूमता हुआ ऊपर उठ रहा है। यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है। यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है। जब कुण्डलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है। यह स्पंदन लगभग वैसा ही होता है जैसे कोई अंग फड़कता हो। फिर वह कुण्डलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुक जाती है। जिस चक्र पर जाकर वह रूकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों को वह स्वच्छ कर देती है, यानि उनमें स्थित नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर देती है। 
इस प्रकार कुण्डलिनी जाग्रत होने पर मनुष्य सांसारिक विषय भोगों से विरक्त हो जाता है और ईश्वर प्राप्ति की ओर उसका मन लग जाता है। उसकी कार्यक्षमता कई गुना बढ जाती है। कठिन कार्य भी वह आसानी और शीघ्रता से कर सकता है। 
कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षण  :- ध्यान में ईष्ट देव का दिखाई देना या हूं हूं या गर्जना के शब्द करना, गेंद की तरह एक ही स्थान पर फुदकना, गर्दन का भाग ऊँचा उठ जाना, सर में चोटी रखने की जगह यानि सहस्रार चक्र पर चींटियाँ जैसे चलने की अनुभूति होना, कपाल ऊपर की तरफ तेजी से खिंच रहा है, ऐसा लगना, मुँह का पूरा खुलना और चेहरे की माँसपेशियों का ऊपर खींचना और ऐसा लगना कि कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है। 
एक से अधिक शरीरों का अनुभव होना :- कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है अर्थात स्थूल शरीर से सूक्ष्म-मनोमय शरीर और कारण शरीर का निकलना। साधक घबरा जाता है और साधना छोड़ सकता है।
कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥
जो सर्वज्ञ, अनादि, सब पर शासन करने वाला, सूक्ष्म से अत्यन्त सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करनेवाला, अज्ञान से अत्यन्त परे, सूर्य की तरह प्रकाश-स्वरूप अर्थात ज्ञान स्वरूप-ऐसे अचिन्त्य स्वरूप का चिन्तन करता है। वह भक्ति युक्त मनुष्य अन्त समय में अचल मन से और योग बल के द्वारा भृकुटि के मध्य में प्राणों को अच्छी तरह से प्रविष्ट करके (शरीर छोड़ने पर) उस परम दिव्य पुरुष-परब्रह्म परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।[श्रीमद्भगवद्गीता 8.9-10]
One who meditates of the Almighty as the omniscient, the ancient, the administer-controller, minute than the minutest, nurturer-sustainer of everyone, the inconceivable, luminous-bright like the Sun and transcendental-beyond the material reality; at the time of death with steadfast mind and devotion by making the flow of bio-impulses rise up to the middle of the eye brows by the power of Yogic practices; attains HIM-the Ultimate.
सम्पूर्ण प्राणियों को और उनके सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों को जानने वाले परमात्मा को कवि अर्थात सर्वज्ञ कहते हैं। सबका आदि होने के कारण उन्हें पुराण कहा गया है। नेत्रों के ऊपर मन, मन के ऊपर बुद्धि, बुद्धि के ऊपर अहम् और जो अहम् के भी ऊपर शासन करते है, उन्हें अनुशासित करते है, वह परमात्मा हैं। परमात्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म मन-बुद्धि की सीमा से परे-ऊपर है। वह समस्त-अनंतकोटि ब्रह्माण्डों को धारण करने वाला है। वह अज्ञान से दूर अर्थात उसका नाश करने वाला है। वह सूर्य के समान प्रकाश करने वाला अर्थात मन-बुद्धि को प्रकाशित-अनुशासित करने वाला है। वह सगुण-निर्गुण परमात्मा सब कुछ याद रखने वाला है। उस परमात्मा को मनुष्य निरंतर-याद करे उसका चिंतन करे। 
मनुष्य भक्ति-प्राणायाम अर्थात योगबल द्वारा मन को उस परमात्मा में लगाये-अचल करे और दोनों भ्रुवों के मध्यभाग में स्थित जो द्विदल चक्र है, उसमें स्थित सुषुम्ना नाड़ी में प्राणों का अच्छी तरह प्रवेश करके, वह शरीर छोड़कर दसवें द्वार से दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करे। 
The Almighty is aware of each and every activity of the organism. HE is eternal-ancient beyond the limits of time, since ever-forever. The mind lies over the eye brows, (mind controls-perceives what is seen by the eyes), intelligence rules the head, mind, brain; intelligence is ruled by the ego and the Almighty regulates even this ego. HE disciplines every one-everything. HE is minutest-much smaller than the atom and holds the infinite number of universes. HE abolishes ignorance and provides enlightenment-prudence. HE is shinning-bright like the Sun and destroys darkness-lack of knowledge-ignorance. The formless-characteristics less Almighty remembers everything, event, person, soul. The human should always think of HIM-continuously.
One should make use of the Yogic power and strength of devotion to concentrate his mind in the Almighty and focus between the two eye brows. This constitutes the 10th opening of the human body. The Sushmana Nadi (the Central Nadi-nerve in the spine which conducts the Kundlini or spiritual force from Mooladhar Chakr to Sahasrar Chakr) has to be invoked to release the soul through this opening to assimilate in the Ultimate.

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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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