YOG POSTURES षट्कर्म और योग मुद्राएँ
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अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद् भगवद्गीता 2.47]
षट्कर्म षट्और कर्म से मिलकर बना है। षट् का अर्थ है छह और कर्म का अर्थ है, क्रियाएँ। आयुर्वेद में कर्म का अर्थ है, शोधन जिसे आयुर्वेदिक पद्धति में पंचकर्म चिकित्सा कहते हैं। षट्कर्म में शुद्धिकरण क्रियाएँ शरीर को भीतर से स्वच्छ एवं साफ करने और योग साधक को उच्च योग क्रियाएँ करने के लिए तैयार करने हेतु बनाई गई हैं। षट्कर्म शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य दोनों के लिए लाभप्रद है।
षट्कर्म क्रियाओं की शरीर से विषैले पदार्थ को निकालने में, शरीर की विभिन्न प्रणालियों को सशक्त करने में, उनकी कार्य क्षमता बढ़ाने में तथा व्यक्ति को विभिन्न रोगों से मुक्त रखने में विशिष्ट भूमिका है।
6 षट्कर्म :: धौति, वस्ति, नेति, त्राटक, नौली और कपालभाति। [हठप्रदीपिका]
षट्कर्म के लाभ ::
षट्कर्म या शोधन क्रिया शरीर को शुद्ध करने में अहम् है।
शुद्धि क्रिया योग शरीर में एकत्र हुए विकारों, अशुद्धियों एवं विषैले तत्वों को दूर कर शरीर को भीतर से स्वच्छ करती है।[हठयोग]
योग साधना की दिशा में यह एक पहला चरण है।
शुद्धिकरण योग शरीर, मस्तिष्क एवं चेतना पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान करने में सहायक है।
जब शरीर में वात, पित्त तथा कफ का असंतुलन हो तो प्राणायाम और योगासन से पूर्व षट्कर्म करना चाहिए।
प्राणायाम साधना आरंभ करने से पूर्व सबसे पहले नाड़ी शुद्ध होनी चाहिए जो षट्कर्म द्वारा करनी चाहिए।
इससे मस्तिष्क को शाँत रखने एवं बेचैनी, सुस्ती, नकारात्मक विचारों तथा भावनाओं को दूर करने में सहायता मिलती है। जब मस्तिष्क शाँत एवं सतर्क होता है तो जागरुकता का स्तर सरलता से बढ़ाया जा सकता है।
यह तनाव से मुक्त होने एवं स्वास्थ्य सुधारने में विश्राम प्रदान कर तनाव कम करते हैं।
धौति (कुंजल एवं वस्त्रधौति) क्रिया संपूर्ण पाचन का शोधन करती है और साथ ही साथ यह अतिरिक्त पित्त, कफ, विष को दूर करती है तथा शरीर के प्राकृतिक संतुलन को वापस लाती है।
वस्ति, शंखप्रक्षालन तथा मूलशोधन से आंतें पूरी तरह स्वच्छ हो जाती हैं, पुराना मल एवं कृमि दूर हो जाते हैं और पाचन विकारों का उपचार होता है।
नियमित रूप से नेति क्रिया करने पर कान, नासिका एवं कंठ क्षेत्र से गंदगी निकालने की प्रणाली ठीक से काम करती है तथा यह सर्दी एवं कफ, एलर्जिक राइनिटिस, ज्वर, टॉन्सिलाइटिस आदि दूर करने में सहायक होती है। इससे अवसाद, माइग्रेन, मिर्गी एवं उन्माद में यह लाभदायक होती है।
नौली क्रिया उदर की पेशियों, तंत्रिकाओं, आंतों, प्रजनन, उत्सर्जन एवं मूत्र संबंधी अंगों को ठीक करती है। अपच, अम्लता, वायु विकार, अवसाद एवं भावनात्मक समस्याओं से ग्रस्त व्यक्ति के लिए लाभदायक है।
त्राटक नेत्रों की पेशियों, एकाग्रता तथा मेमोरी के लिए लाभप्रद होती है। इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव मस्तिष्क पर होता है।
कपालभाति बीमारियों से दूर रखने के लिए राम बाण माना जाता है। यह बलगम, पित्त एवं जल जनित रोगों को नष्ट करती है। यह सिर का शोधन करती है और फेफड़ों एवं कोशिकाओं से सामान्य श्वसन क्रिया की तुलना में अधिक कार्बन डाईऑक्साइड निकालती है। कहा जाता है कि कपालभाति प्रायः हर रोगों का इलाज है।
षट्कर्म क्रियाओं की शरीर से विषैले पदार्थ को निकालने में, शरीर की विभिन्न प्रणालियों को सशक्त करने में, उनकी कार्य क्षमता बढ़ाने में तथा व्यक्ति को विभिन्न रोगों से मुक्त रखने में विशिष्ट भूमिका है।
6 षट्कर्म :: धौति, वस्ति, नेति, त्राटक, नौली और कपालभाति। [हठप्रदीपिका]
षट्कर्म के लाभ ::
षट्कर्म या शोधन क्रिया शरीर को शुद्ध करने में अहम् है।
शुद्धि क्रिया योग शरीर में एकत्र हुए विकारों, अशुद्धियों एवं विषैले तत्वों को दूर कर शरीर को भीतर से स्वच्छ करती है।[हठयोग]
योग साधना की दिशा में यह एक पहला चरण है।
शुद्धिकरण योग शरीर, मस्तिष्क एवं चेतना पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान करने में सहायक है।
जब शरीर में वात, पित्त तथा कफ का असंतुलन हो तो प्राणायाम और योगासन से पूर्व षट्कर्म करना चाहिए।
प्राणायाम साधना आरंभ करने से पूर्व सबसे पहले नाड़ी शुद्ध होनी चाहिए जो षट्कर्म द्वारा करनी चाहिए।
इससे मस्तिष्क को शाँत रखने एवं बेचैनी, सुस्ती, नकारात्मक विचारों तथा भावनाओं को दूर करने में सहायता मिलती है। जब मस्तिष्क शाँत एवं सतर्क होता है तो जागरुकता का स्तर सरलता से बढ़ाया जा सकता है।
यह तनाव से मुक्त होने एवं स्वास्थ्य सुधारने में विश्राम प्रदान कर तनाव कम करते हैं।
धौति (कुंजल एवं वस्त्रधौति) क्रिया संपूर्ण पाचन का शोधन करती है और साथ ही साथ यह अतिरिक्त पित्त, कफ, विष को दूर करती है तथा शरीर के प्राकृतिक संतुलन को वापस लाती है।
वस्ति, शंखप्रक्षालन तथा मूलशोधन से आंतें पूरी तरह स्वच्छ हो जाती हैं, पुराना मल एवं कृमि दूर हो जाते हैं और पाचन विकारों का उपचार होता है।
नियमित रूप से नेति क्रिया करने पर कान, नासिका एवं कंठ क्षेत्र से गंदगी निकालने की प्रणाली ठीक से काम करती है तथा यह सर्दी एवं कफ, एलर्जिक राइनिटिस, ज्वर, टॉन्सिलाइटिस आदि दूर करने में सहायक होती है। इससे अवसाद, माइग्रेन, मिर्गी एवं उन्माद में यह लाभदायक होती है।
नौली क्रिया उदर की पेशियों, तंत्रिकाओं, आंतों, प्रजनन, उत्सर्जन एवं मूत्र संबंधी अंगों को ठीक करती है। अपच, अम्लता, वायु विकार, अवसाद एवं भावनात्मक समस्याओं से ग्रस्त व्यक्ति के लिए लाभदायक है।
त्राटक नेत्रों की पेशियों, एकाग्रता तथा मेमोरी के लिए लाभप्रद होती है। इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव मस्तिष्क पर होता है।
कपालभाति बीमारियों से दूर रखने के लिए राम बाण माना जाता है। यह बलगम, पित्त एवं जल जनित रोगों को नष्ट करती है। यह सिर का शोधन करती है और फेफड़ों एवं कोशिकाओं से सामान्य श्वसन क्रिया की तुलना में अधिक कार्बन डाईऑक्साइड निकालती है। कहा जाता है कि कपालभाति प्रायः हर रोगों का इलाज है।
योग मुद्राएँ ::
ज्योतिष विद्या के अनुसार बारहों राशियों का स्थान प्रत्येक उँगली के तीन पोरों (गाँठों) में इस प्रकार होता है :-
कनिष्का :– मेष, वृष, मिथुन;
ज्योतिष विद्या के अनुसार बारहों राशियों का स्थान प्रत्येक उँगली के तीन पोरों (गाँठों) में इस प्रकार होता है :-
कनिष्का :– मेष, वृष, मिथुन;
अनामिका :– कर्क, सिंह, कन्या;
मध्यिका :– तुला, वृश्चिक, धनु;
तर्जनी :– मकर, कुंभ, मीन।
शरीर का निर्माण पाँच तत्वों से हुआ है :- अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और जल। इसका भी निवास क्रमशः अँगूठा, तर्जनी, मध्यिका, अनामिका एवं कनिष्ठा में माना जाता है।
दो या दो से अधिक उँगलियों के मेल से जो यौगिक क्रियाएँ संपन्न की जाती हैं, उन्हें योग मुद्रा कहा जाता है, जो इस प्रकार हैं-
(1). वायु मुद्रा :- यह मुद्रा तर्जनी को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।
(2). शून्य मुद्रा :- यह मुद्रा बीच की उँगली मध्यिका को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।
(3). पृथ्वी मुद्रा :- यह मुद्रा अनामिका को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।
(4). प्राण मुद्रा :- यह मुद्रा अँगूठे से अनामिका एवं कनिष्का दोनों के स्पर्श से बनती है।
(5). ज्ञान मुद्रा :- यह मुद्रा अँगूठे को तर्जनी से स्पर्श कराने पर बनती है।
(6). वरुण मुद्रा :- यह मुद्रा दोनों हाथों की उँगलियों को आपस में फँसाकर बाएँ अँगूठे को कनिष्का का स्पर्श कराने से बनती है। सभी मुद्राओं के लाभ अलग-अलग हैं।
दोनों हाथों को जोड़कर जो मुद्रा बनती है, उसे प्रणाम मुद्रा कहते हैं। जब ये दोनों लिए हुए हाथ मस्तिष्क तक पहुँचते हैं तो प्रणाम मुद्रा बनती है। प्रणाम मुद्रा से मन शाँत एवं चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न होती है।
शरीर का निर्माण पाँच तत्वों से हुआ है :- अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और जल। इसका भी निवास क्रमशः अँगूठा, तर्जनी, मध्यिका, अनामिका एवं कनिष्ठा में माना जाता है।
दो या दो से अधिक उँगलियों के मेल से जो यौगिक क्रियाएँ संपन्न की जाती हैं, उन्हें योग मुद्रा कहा जाता है, जो इस प्रकार हैं-
(1). वायु मुद्रा :- यह मुद्रा तर्जनी को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।
(2). शून्य मुद्रा :- यह मुद्रा बीच की उँगली मध्यिका को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।
(3). पृथ्वी मुद्रा :- यह मुद्रा अनामिका को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है।
(4). प्राण मुद्रा :- यह मुद्रा अँगूठे से अनामिका एवं कनिष्का दोनों के स्पर्श से बनती है।
(5). ज्ञान मुद्रा :- यह मुद्रा अँगूठे को तर्जनी से स्पर्श कराने पर बनती है।
(6). वरुण मुद्रा :- यह मुद्रा दोनों हाथों की उँगलियों को आपस में फँसाकर बाएँ अँगूठे को कनिष्का का स्पर्श कराने से बनती है। सभी मुद्राओं के लाभ अलग-अलग हैं।
दोनों हाथों को जोड़कर जो मुद्रा बनती है, उसे प्रणाम मुद्रा कहते हैं। जब ये दोनों लिए हुए हाथ मस्तिष्क तक पहुँचते हैं तो प्रणाम मुद्रा बनती है। प्रणाम मुद्रा से मन शाँत एवं चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न होती है।
पद्मासन का लक्षण :- दोनों ऊरु के ऊपर दोनों पादतल को स्थापित कर व्युत्क्रम पूर्वक (हाथों को उलट कर) दोनों हाथों से दोनों हाथ के अँगूठे को बींध लेने का नाम पद्मासन कहा गया है।
स्वस्तिकासन का लक्षण :- पैर के दोनों जानु और दोनों ऊरु के बीच दोनों पादतल को अर्थात दक्षिण पद के जानु और ऊरु के मध्य वाम पादतल एवं वामपाद के जानु और ऊरु के मध दक्षिण पादतल को स्थापित कर शरीर को सीधे कर बैठने का नाम स्वस्तिकासन है ।
विकटासन का लक्षण :- जानु और जंघाओं के बीच में दोनों हाथों को जब लाया जाए तो अभिचार प्रयोग में इसे विकटासन कहते हैं ।
कुक्कुटासन का लक्षण :- पहले उत्कटासन करके फिर दोनों पैरों को एक साथ मिलावें। दोनों घुटनों के मध्य दोनों भुजाओं को रखना कुक्कुटासन कहा गया है।
वज्रासन का लक्षण :- पैर के परस्पर जानु प्रदेश पर एक दूसरे को स्थापित् करें तथा हाथ की अँगुलियों को सीधे ऊपर की ओर उठाए रखे तो इस प्रकार के आसन को वज्रासन कहते हैं ।
भद्रासन का लक्षण :- सीवनी (गुदा और लिंग के बीचों-बीच ऊपर जाने वाली एक रेखा जैसी पतली नाड़ी है) के दोनों तरफ दोनों पैरों के गुल्फों को अर्थात वामपार्श्व में दक्षिणपाद के गुल्फ को एवं दक्षिण पार्श्व में वामपाद के गुल्फ को निश्चल रुप से स्थापित कर वृषण (अण्डकोश) के नीचे दोनों पैर की घुट्टी अर्थात वृषण के नीचे दाहिनी ओर वामपाद की घृट्टॆ तथा बाँई ओर दक्षिण पाद की घुट्टी स्थापित कर पूर्ववत् दोनों हाथों से बींध लेने से भद्रासन हो जाता है।
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