(निष्ठा, आहार, यज्ञ)
SHRIMAD BHAGWAD GEETA (17) श्रीमद् भगवद्गीता
SHRIMAD BHAGWAD GEETA (17) श्रीमद् भगवद्गीता
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥17.1॥
हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र विधि का त्याग करके श्रद्धा पूर्वक (देवता आदि का) पूजन करते हैं, उनकी निष्ठा फिर कौन सी है? सात्विकी है अथवा राजसी-तामसी।
Arjun put a quarry forward to Bhagwan Shri Krashn about the type of worship performed with faith-dedication, forgoing procedures-methods whether it is Satvik, Rajsik or Tamsik.
सात्विक निष्ठा दैवी सम्पत्ति तथा राजसी-तामसी निष्ठा आसुरी कहलाती है। कुछ मनुष्यों में श्रद्धा भक्ति तो होती है, परन्तु वे शास्त्र-विधि नहीं जानते। जहाँ आस्था, निष्ठा, प्रेम है, वहाँ विधि-विधान न भी हो तो भी परमात्मा उस भक्त को गले लगाते हैं। कलयुग में ऐसे लोगों की सँख्या बहुत ज्यादा होगी, जिन्हें शास्त्र का ज्ञान नगण्य-शून्य होगा। वर्तमान समय में ढोंगियों की सँख्या बहुत ज्यादा है। वे जनता-भक्तों को प्रवचन, चर्चा, सत्संग के नाम पर धोखा देते हैं।
सात्विक निष्ठा दैवी सम्पत्ति तथा राजसी-तामसी निष्ठा आसुरी कहलाती है। कुछ मनुष्यों में श्रद्धा भक्ति तो होती है, परन्तु वे शास्त्र-विधि नहीं जानते। जहाँ आस्था, निष्ठा, प्रेम है, वहाँ विधि-विधान न भी हो तो भी परमात्मा उस भक्त को गले लगाते हैं। कलयुग में ऐसे लोगों की सँख्या बहुत ज्यादा होगी, जिन्हें शास्त्र का ज्ञान नगण्य-शून्य होगा। वर्तमान समय में ढोंगियों की सँख्या बहुत ज्यादा है। वे जनता-भक्तों को प्रवचन, चर्चा, सत्संग के नाम पर धोखा देते हैं।
सच्चे, साधु महात्मा शहरों में नहीं घूमते और न ही घर-घर गली-गली जाकर भीख माँगते हैं। आजकल के बाबा लोग बड़े-बड़े पाण्डाल लगाकर लोगों को अनाप-शनाप बातें बताते हैं। उनकी आमदनी करोड़ों-खरबों में है। उनके चाहने, मानने वाले विदेशों में भरे पड़े हैं। भारत में भी ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है। ऐसे कई पाखण्डी कारागार पहुँच चुके हैं। प्रधानमंत्री तक वोटों की खातिर उनके आगे झोली फैलाये बैठे देखा जा सकता है। इसे धर्म को बेचना कहा जाता है। उनकी वृत्ति दूषित, तामसिक-आसुरी (पैशाचिक) है। फिर भी जो भक्त परमात्मा के प्रति अटूट आस्था लिए उनके भाषणों को सुनता है, उसे कुछ न कुछ अच्छा अवश्य मिलता है और ज्ञान अगर नीच के पास भी हो तो उसे ले लेने में कोई उज्र-परेशानी नहीं है। अगर कोई साधारण मनुष्य शास्त्र का ज्ञान नहीं भी रखता, तो भी उसकी भक्ति सात्विक ही है, क्योंकि वह सच्चे मन से प्रभु को याद करता है। शास्त्र विधि का त्याग अज्ञान, उपेक्षा अथवा विरोध वश किया जाता है। इसकी उपेक्षा या विरोध परेशानी का कारण बन सकता है। कृष्ण का अर्थ है, "खींचने वाला"। अर्जुन का प्रश्न यह है कि आप मनुष्य को किस ओर ले जायेंगे-खींचेंगे? व्यक्ति की वृत्ति भले ही कुछ भी क्यों न हो, परमात्मा उसे अपनी ओर ही खींचते हैं।
Arjun wanted to know if one performs prayers without rituals but with faith, regard, dedication to the Almighty, what would be the impact?! Its quite common now a days, specially during the current cosmic era. Its terribly difficult to find a true teacher, philosopher and guide. However, one can acquire enlightenment through self study of the scriptures & concerted effort. It grants gist of religion, dedication, through a number of write up over these blogs. Still the reader is requested to exercise his discrimination to reach the truth. True saints, sages do not roam in the cities or the by lanes of villages, begging alms. In India there are thousands of such people who are engaged in this business of Dharm-religion earning millions through their shops. A new trend has emerged which lures the masses to offer online offerings, which directly go to non deserving, cunning people even terrorists. Temples have become the source of huge earnings, which goes to the coffers of the people who do not understand the meaning of religion. Anyone who is pure at heart and prays to the God without rituals is better than these impostors. Krashn means attracting i.e., the Almighty is attracting the humans to HIM. One may be wretched, sinners, impostor; but the God is always willing to accept him to HIS fold, provided he surrenders himself to HIM. Impostors manage to have big stages, invite the big leaders, high and mighty and then starts a show, just to befool the masses. The Prime Minister, Chief Minister and the President too are found sitting in front of such crooks-thugs for the sake of votes. One who is righteous, pious, virtuous, honest, is sure to have his place by the side of God, even if he lacks rituals, rhymes procedure, methods and complicate-intricate terminology employed to recite-chant the Shloks, verses. There are the people who are ignorant, unaware of the terms and procedure, methodology; still they attain proximity of the God. But their are those who discard them due to their pride, ego, reluctant or opposition. Such people are sure to move to inferior species, abodes-hell.
श्रद्धा-गुण
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सात्विक आसुरी
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राजसी तामसी
श्रीभगवानुवाच ::
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥17.2॥
मनुष्यों की वह स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्विकी तथा राजसी और तामसी, तीन तरह की होती है, उसको तुम मुझ से सुनो। अर्जुन ने निष्ठा (devotion, fidelity, faith, loyalty, belief) सम्बन्धी प्रश्न पूछा, मगर उत्तर भगवान् ने श्रद्धा को लेकर दिया।
Bhagwan Shri Krashn replied to Arjun's query with respect to faith describing, it's three variants in the form of Satvik (Virtuous, righteous, pious, thruthfulness, Goodness), Rajsik (passion) and Tamsik (ignorance).
श्रद्धा तीन तरह की होती है। वह श्रद्धा कौन सी है तो वे कहते हैं कि स्वभावजा। सङ्गजा, शास्त्रजा या स्वभावजा अर्थात स्वभाव से उत्पन्न हुई स्वतः सिद्ध श्रद्धा (reverence, faith) है? वह न संग से उत्पन्न हुई न शास्त्रों से पैदा हुई है। वे मनुष्य स्वाभाविक रुप से इस प्रवाह में बहे जा रहे हैं और देवता आदि का पूजन करते हैं। स्वभावजा श्राद्ध तीन प्रकार की होती है :- सात्विकी तथा राजसी और तामसी। सात्विक दैवी सम्पदा है और राजसिक आसुरी सम्पत्ति है। भगवान् भी बन्धन की दृष्टि से राजसी और तामसी दोनों को आसुरी प्रवृति ही मानते हैं। राजस मनुष्य सकाम भाव से शास्त्र विहित कर्म करते हैं, जो उन्हें उच्च लोकों तक पहुँचाकर फिर वापस ले आती है। तामस मनुष्य शास्त्र विहित कर्म नहीं करते। अतः कामना और मूढ़ता के कारण अधम गति को प्राप्त होते हैं।
Arjun asked a broad & loose question, pertaining to faith-reverence. Almighty became specific describing the three types of faith. He said that the faith developed by virtue of one's own nature-tendency as one is moving further, is Natural-in born, automatic. It did not grow due to company or by reading the scriptures. The devotees are toeing it by virtue of their traits, qualities, characteristics. This is of 3 types. When discussed in the light of bonds-ties; it is of just 2 types. The first is Satvik (Pure, virtuous, righteous, pious or just divine, eternal). The second one is Demonic which again has two organs, Rajsik and Tamsik. Rajsik faith-devotion is associated with various types of procedures, donations, rituals, prayers and elevates one to the higher abodes-heavens & one is sure to return back to earth after enjoying the reward of his endeavour. There are others who are ignorant & desirous; who do not believe in scriptures (morals, virtues, ethics, honesty, mercy etc.) and perform all sorts of wretched-sinful acts, vices & land in hells.
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥17.3॥
हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा अन्तःकरण के अनुरुप होती है। क्योंकि मनुष्य श्रद्धामय है, इसलिए जो जैसी श्रद्धा वाला है, वैसा ही उसका स्वरुप-निष्ठा है।
Bhagwan Shri Krashn addressed Arjun as Bharat and clarified that the faith of one is in accordance with his own natural disposition that is governed by Karmic impressions (deeds).
प्रत्येक मनुष्य की श्रद्धा उसके अन्तःकरण के अनुरुप अर्थात पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुरूप होती है। जैसा स्वभाव-संस्कार :- सात्विक, राजसिक या तामसिक होता है, वैसी ही मनुष्य की श्रद्धा-निष्ठा होती है। मनुष्य पूर्व जन्म के भावों; जो उसकी आत्मा से जुड़े हैं, लेकर पैदा होता है, परन्तु वर्तमान में परिवार, समाज, संगी-साथियों, सहयोगियों के साथ मिलने-जुलने से भाव-संस्कार बदल भी सकते हैं। स्वाध्याय, मनन, चिन्तन, महापुरुषों, साधु-सन्तों के प्रवचन मनुष्य की दिशा परिवर्तन कर सकते हैं, जिस प्रकार गर्भ में प्रह्लाद जी को नारद जी के प्रवचन सुनने को क्या मिले, उनका स्वभाव दैवी सम्पदा वाला हो गया। उनके पौत्र राजा बाहुबली के संस्कार भी बदले; परन्तु इन दोनों में पूरा परिवर्तन अभी बाकि है। संगत के प्रभाव से हिंसक पशु भी अपना स्वभाव बदल लेते हैं। ऋषि-मुनियों के आश्रमों में शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते हैं, साँप और नेवला एक साथ खिलवाड़ करते हैं, कुत्ता और बिल्ली तथा बिल्ली और चूहा एक साथ प्रेम पूर्वक रहते हैं।
As a matter of fact one is born with his inborn traits, tendencies, qualities, characters which show up in due course of time. But the impact of family, company, self study, education, learning can not be ruled out. Devotion to God is due to the previous births, deeds, actions, company's impact over the soul. Those who enjoy an auspicious, virtuous, righteous company are lucky. Left over deeds of the previous births may show off their impact over one in the current birth. Therefore, the parents should try to impart auspicious-virtuous right learning, education to the child. A Hindu is lucky, since his culture is rich. India has millions of scriptures-books which guides one to achieve purity of action and rapport with God. Indian scriptures are full of scientific knowledge, Manners and Etiquette. The only need is to study them and follow them. Since, Hinduism is just a way of life-a trend, anyone can easily adopt it, without going through the rigours of changing faith-religion. A virtuous company like one in the Rishi's Ashrams, shows the presence of lion & goat, dog & cat, cat & rat, snake & mongoose (नेवला) playing together, without harming the other one. Prahlad Ji was born in a demons-giant's family but his characteristics changed in the womb due to the blessings & virtuous company of Narad Ji. King Bahu Bali his grand son, too got refined; but both of them have to change a bit more. The sermon, preaching-teaching of saints, sadhus, philosophers, enlightened, Guru, teacher can make an altogether different man.
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः॥17.4॥
सात्विक मनुष्य देवताओं का पूजन करते हैं, राजस मनुष्य यक्षों तथा राक्षसों, तामस लोग प्रेतों और भूत गणों का पूजन करते हैं (कब्रों पर जाना)।
The virtuous, pious, righteous worship demigods-deities, those with desires for higher abodes and comforts worship Yaksh, Rakshas, demons, Giants & the ignorant with vicious desires worship ghosts and spirits (visiting graves).
भगवान् श्री कृष्ण ने देवान् शब्द का प्रयोग भगवान् विष्णु (राम और कृष्ण), भगवान् शंकर, गणेश जी महाराज, माँ शक्ति-पार्वती और सूर्य भगवान् के सन्दर्भ में किया है। इनके अलावा बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्वनी कुमारों की निष्काम पूजा का निर्देश दिया है। यक्ष और राक्षस भी देव योनि में आते हैं, मगर उनका पूजन राजस मनुष्यों द्वारा दूसरों के विनाश और कामना पूर्ति के लिए किया जाता है। तामस मनुष्य भूत-प्रेतों की पूजा-अर्चना करते हैं। प्रेत के अंतर्गत जो पितृ गण हैं, उनका निष्काम भाव से पूजन सात्विक माना गया है। शास्त्र विहित कर्म, नारायण बलि, गया श्राद्ध, प्रेत कर्मों को तामस नहीं माना गया है। कुत्ते और कौए को निष्काम भाव से रोटी देना भी सात्विक कर्म है। पति व्रत धर्म का पालन सास-श्वसुर की सेवा, ईष्ट की पूजा सात्विक कर्म और कल्याणकारी है।
The Almighty categorised the methods of worship into three. The first mode is purely virtuous which involves the prayers offered to Bhagwan Vishnu (Ram & Krashn), Bhagwan Shiv, Adi Maa Bhagwati, Shakti-Parwati, Ganesh Ji Maha Raj and Bhagwan Sury. Satvik Bhakti involves the prayers offered to 33 deities namely 12 Adity, 8 Vasu, 11 Rudr and 2 Ashwani Kumars. Yaksh and Rakshas too constitute divine category but are worshipped by those who are overridden by passions & desire-long for higher abodes. The ignorant worship the diseased in the form of Bhut-Pret (Ghosts, witches) & Pishach i.e., Ghosts-Dracula by visiting graves etc. However, the sacrifices offered to Bhagwan Narayan, diseased in the form of Pitr Gan performing Shraddh prayers at Gaya Bihar and the performance of rights at the time of death for the release of the diseased, are included in the list of Virtuous deeds. Feeding dogs and crows during Shraddh (homage to Manes, diseases ancestors, family members) period too is Satvik. Service of the husband, in laws by the women is Pious act. The Pitr-Manes Gan are considered to be divine. Manes are divine as well mortals who have passed away.
However, Mallechchh :- the Muslims and the Christians pray the graves and are sure to remain attached with the process of death & birth.
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥17.5॥
कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तः शरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्॥17.6॥
जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित घोर तप करते हैं; जो दुराग्रह-हठ, दम्भ और अहङ्कार से ग्रस्त-युक्त हैं; जो भोग पदार्थ, आसक्ति और हठ (persistence, stubbornness, obstinacy, perseverance, insistence) से युक्त हैं; जो शरीर में स्थित पाँच भूतों का अर्थात पाञ्च-भौतिक शरीर को तथा अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं; उन अज्ञानियों को तू आसुर निष्ठा वाले-आसुरी सम्पत्ति वाले समझ।
Those who are practicing asceticism without proper procedure-method, guide lines laid down in scriptures; who are full of hypocrisy, ego & pride; who are rich in comforts, passions, attachment and obstinacy; who senselessly torture the 5 basic elements of nature & the God present in them; such people are ignorant, vicious, evil nature and demonic.
आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्यों की शास्त्र में वर्णित विधि विधान, तौर-तरीकों में रुचि नहीं होती; अपितु वे मन माने ढंग से घोर तपस्या करने वाले होते हैं। वे शरीर को कष्ट देना ही तप मानते हैं। वैसे तो वे शास्त्र को मानते ही नहीं और अगर कोई उन्हें बता भी दे, तो वैसा करते भी नहीं हैं। वे केवल स्वयं को बुद्धिमान, चतुर, जानते-मानते ही नहीं, अपितु इसका दम्भ भी भरते हैं। उन्हें इस बात का अभिमान होता है कि वे लोगों को सही रास्ते पर ला सकते हैं। वे यह समझते हैं कि संसार में जितने भी लोग भजन, कीर्तन, ध्यान, स्वाध्याय, पूजा-पाठ करते हैं, वह सब झूठ, पाखण्ड, ढ़ोंग, दम्भ, दिखावा है। उनकी रुचि काम, वासना, राग, हठ, दुराग्रह में होती है। वे यह मानते हैं कि मानव शरीर केवल भोग-विलास, सुख-सम्पत्ति, काम-वासना की तृप्ति के लिए है। तप का अर्थ शरीर को कष्ट देना कतई नहीं है। वे शरीर में उपस्थित पञ्च-तत्वों को सुखाने के अलावा भगवान् को भी कष्ट पहुँचाते हैं। जो शास्त्र आज्ञा के अनुरुप चलता है, वो ज्ञानी और दैवी निष्ठा वाला है। शास्त्र के विपरीत तो राजसिक और तामसिक बुद्धि वाले आसुरी स्वभाव के व्यक्ति ही चलते हैं। इन सबसे भी नीच प्रवृति के लोग भी हैं, जिन्हें नास्तिक कहा जाता है। निष्काम सेवा, परोपकार, उचित जरुरतमंद व्यक्ति की सहायता, दान-धर्म, स्वाध्याय तप के समान ही हैं। निकृष्ट, निर्दयी, दुरूपयोग करने वालों को दिया गया दान हमेशाँ ही हीन योनियों में ले जाने वाला होता है।
वैसे यह कतई जरूरी नहीं कि नास्तिक गलत मार्ग पर चलने वाला ही हो। भले ही कोई भगवान् को न माने, परन्तु यदि वह समाज कल्याण, दूसरे की मदद को तत्पर है, अच्छा आदमी है, तो परमात्मा को वह भी ग्राह्य है।
यदि कोई व्यक्ति सच्चे मन से प्रभु की आराधना करता है, वेद-पुराण, शास्त्र के ज्ञान से रहित है, तो भी वह परमात्मा को ग्राह्य है।
One with demonic traits do not believe in the procedure, practice, methods, guide lines provided in the scriptures. Scriptures are the word of the God and meant for the well being of the humanity-community. The demonic person not only resist them but try to mislead others who follow them. They have their own interpretations of the epics, scriptures and the history. They consider themselves to be wise, thoughtful, intelligent and prudent. They believe that they can reform a mislead like the clerics. They believe that the birth as a human is to enjoy. They say that the human incarnation is just to satisfy lust, comforts, collection of wealth-property etc. They say that those who worship God, preform prayers, rituals, sacrifices in fire, are misled, misguided, impostors (hypocrite, ढ़ोंगी, पाखण्डी), though in reality they themselves need to be reformed. Asceticism never mean harming-torturing the body. Asceticism is a means to meditate, concentrate in the Almighty through regular practice, silently. Those who resort to straining themselves in the name of asceticism, in reality not only stress-torture the five basic elements in the body, but also tease the God, simultaneously. One who abides by the scriptures is blessed with divinity and the opposite moves to demonic, vicious, sinful demonic faith, moving ultimately to hell and low-inferior species. There is yet another category constituting of atheists, which is meant to take one to hells. Service of mankind-humanity without the desire for return, helping one in need-dire constraints, self study of epics, scriptures, donations-charity to the deserving is equivalent to asceticism.
Evils, cruelty, misuse of donations-charity funds is always sinful act directing one to hells. Akhilesh Yadav got funds from a big MNC and consumed them for the welfare of his party and his family. There are several charitable societies in India which get funds from abroad and use them to spread hatred towards Hindus, all over the world.
An atheist who has no faith in God and still helps the poor, needy, down trodden and willing to serve the society is far-far better than impostors.
One who is ignorant about the Veds, Puran or scriptures and still remember the God with love is far-far better than those who do prayers just to show off.
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥17.7॥
आहार भी सबको तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, तप, दान भी। तू उनके इस भेद को सुन।
The Almighty told Arjun that food liked by the people can be distinguished into 3 categories & likewise the Yagy (sacrifices, offerings), Tap (asceticism, austerity) and donation-charity too has 3 distinctions (types, kinds).
मनुष्य की निष्ठा की पहचान उसके आहार अर्थात खाने-पीने से भी होती है। मनुष्य का स्वभाव उसके द्वारा किये गए यज्ञ, तप, दान आदि से भी प्रकट होता है। शास्त्रीय कर्मों में भी गुणों के अनुसार 3 प्रकार की रुची :- सात्विक, राजसिक और तामसिक होती है। मनुष्य रुचि के अनुरूप ही खान-पान, रहन-सहन, मित्र-दोस्त, समाज आदि में होती है। तामसिक प्रवृति के व्यक्ति मूर्ख-अज्ञानी, नीच, शास्त्र विरोधी गतिविधियाँ करने वालों, माँस-मदिरा, नशा, परनारी का सेवन करने वाले, पैशाचिक कर्म करने वालों में होती है।
The food intake normally define the nature of a person. Similarly, his mode of prayers-worship too describes his personality. According to nature one adopts his interaction in the society like virtuous or vicious-evil. An ignorant prefers to roam with the morons, imprudent. The atheist too like to form a group (society, company) of his own. Ignorant always either avoid worship-prayers or take a negative route like offering sacrifices to ghosts, evil spirits (graves, Dargah etc.). A pious person is always busy in the discovery of the God. The Rajsik keep on performing activities which can elevate him to higher abodes, luxuries, comforts, satisfaction of desires, lust, passions. The deeds prescribed by the scriptures too are differentiated-categorised according to one's taste, choice, preferences. One with Tamsik-Demonic tendencies along with imprudent-ignorant, depraved and those who are against the scriptures (Veds, Puran, Upnishad, Itihas) enjoy meat, wine, narcotics, passions (sexuality, sensuality) and tend to do demonic deeds.
आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥17.8॥
आयु, सत्त्व गुण, बल, आरोग्य, सुख और प्रसन्नता बढ़ाने वाले, स्थिर रहने वाले, हृदय को शक्ति देने वाले रस युक्त तथा चिकने, ऐसे आहार अर्थात भोज्य पदार्थ सात्विक मनुष्य को प्रिय होते हैं।
The juicy nutritious, diet-foods composed of Ghee that promote longevity, virtue, strength, health, happiness and strengthens the heart are preferred by a virtuous, pious, righteous person.
परमात्मा ने सुपाच्य, रस युक्त, घी से बने शाकाहारी भोजन को सात्विक मनुष्य का भोजन कहा है। ऐसा भोजन सरलता से पच जाता है और शक्ति वर्धक होता है। रस युक्त आहार में दूध, दही, घी, शहद, फल भी आते हैं। तैलीय पदार्थों में मेवे-बादाम, काजू, किशमिश, नारियल, खाँड का समावेश रहता है। हमेशाँ ताजे और पके हुए फलों का सेवन करना चाहिए। इस प्रकार के भोजन हृदय को शक्ति प्रदान करने वाले होते हैं।
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The Almighty described the food-diet, which has to be consumed by a virtuous person. A virtuous person should use vegetarian food, which is free from garlic and onion. The food is prepared with pure Ghee or oils obtained from mustered, coconut or ground nut. The diet has to be rich in nutrients. One has to eat almonds, pistachio, dry fruits full of energy and strength. The food and its quantity, has to be altered according to season. Green vegetables, fruits and milk, curd should form the core of the food. The virtuous person has to do Yog, brisk walking or some exercise as well. One should avoid unripe fruits or the fruits ripen with chemical, ice or some artificial mode. Normally, one has to resort of fasting once or twice every week. Meals at night should be light and easily digestive.
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कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥17.9॥
अति कड़वे, अति खट्टे, अति नमकीन, अति गरम, अति रुखे, अति तीखे और अति दाहकारक आहार-भोजन के पदार्थ राजस मनुष्य को प्रिय होते हैं, जो कि दुःख, शोक और रोगों को देने वाले हैं।
One with Rajsik tendencies-traits likes the meals which are very bitter, sour, salty, hot, pungent, dry and burning that cause pain, grief and diseases.
कटु पदार्थ-यथा करेला, ग्वारपाठा, अम्लीय-इमली, अमचूर, नींबू, छाछ, सड़ाकर बनाया गया सिरका (vinegar) अर्थात खट्टे, तेज नमक वाले, तीक्ष्ण-जिनको खाने से नाक, आँख, मुँह और सिर से पानी आने लगे, लाल मिर्च जैसे बहुत तीखे, बहुत गर्म जिनसे भाप निकल रही हो, रुखे-जिनमें घी, दूध आदि का सम्बन्ध नहीं है यथा भुने चने, सत्तु, दाहकारक-राई आदि ऐसे भोज्य पदार्थ हैं, जिन्हें ज्यादा मात्रा में खाने से बीमारी का खतरा बना रहता है। बीमारी अपने साथ दुःख और शोक भी ला सकती है। इन भोज्य पदार्थों का अत्यधिक सेवन राजसिक प्रवृति का प्रतीक है। मिज़ाज गर्म और चिड़चिड़ा हो सकता है और मनुष्य को गुस्सा सामान्य से अधिक आता है।
Excess of every thing is bad. Too much food is too bad for health. Bitter gourd, aloe and Neem-Margosa-नीम are bitter in taste. They are used in Ayur Vedic medicines. One should avoid their regular use especially in large quantities. Non vegetarian and fast foods are too bad for both physical & mental health. Bitter Gourd should not be consumed during the months of Kwar (Aswin-the seventh month of the Hindu calendar, August & September). Avoid curd and milk butter during rainy season. Hot food cause soars-boils in mouth & is painful. Tea, coffee should be brought to a lower temperature before sipping. Too much tea and coffee are dangerous for health. Black tea and coffee should be avoided. A few drops of lemon are essential with food without seeds but large quantities are bad. Lemon seeds cause appendices. Vinegar is used in making pickles and reddish; onion are socked in it for tasty food but that should be restricted to 2-3 small pieces only. Chillies in small quantity are good for health (has vitamin "K" and prevent cancer) but slightly more quantity create burning sensation and sweat comes out of head instantaneously, nose start dropping water, sweat comes over the whole body. Nausea-nose bleeding may be caused. Butter milk is good for stomach and digestion but if it is sour, it will harm the user. Roasted gram and barley are good for health but in small quantities only. Mustered seeds are essential for preparing pickles but if they are soaked in water for long with black carrots, (for preparing Kanji, काँजी) they form pungent-sharp taste, which is not good for health. Those who use spicy food-vegetables suffer from gastric trouble, burning sensation in stomach and burps (डकार), slightly large doses cause soars in rectum and intestine, piles and blood in stools. The food should be accompanied with butter, milk, ghee and honey in mild quantities-doses. The use of any of these things listed above may generate passions, anger, blood pressure leading to various ailments, pain and sorrow.
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यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥17.10॥
जो भोजन सड़ा हुआ, रस रहित, दुर्गन्धित, बासी और जूठा है तथा जो बहुत ज्यादा अपवित्र (माँस, मछली, अंडा, शराब आदि) भी है, वह तामस मनुष्य को प्रिय होता है।
The Almighty has said that the stale food, food without extracts, juices, liquid content, left over by others, impure, stale, foul smelling, tasteless, putrid (सड़ा हुआ, दुर्गन्धित, उग्र गंध का, बदबूदार, गला हुआ) is liked by the person of Tamsik traits i.e., ignorant.
इस प्रकार के फल, सब्जियाँ जो कच्चे ही तोड़ लिए जाते हैं, ज्यादा पके-गले हुए हैं, फ़्रिज में रखने के बाद भी जिनमें से महक-बदबू आती हो, ऐसे रस हीन भोज्य पदार्थ, जिन्हें धूप या वाष्पीकरण तकनीकि से सुखा लिया गया है, सड़ाकर तैयार किये गए, कुम्भी, लहसुन तथा प्याज़ आदि तामसिक आहार हैं। नमक और पानी मिलाकर बने हुए भोजन, जिन्हें बने हुए रात बीत गई हो, भी तामसिक माने जाते हैं। केवल दूध, घी, शक़्कर मिलाकर अग्नि पर पकाये गए पदार्थ-मिठाई बासी नहीं माने जाते, यदि उनमें दुर्गन्ध पैदा न हुए हो। जिन पदार्थों में कवक-फंफूदी लग गई हो, उन्हें तो फैंक ही देना चाहिए। भोजन के बाद बर्तनों में जूठा छोड़ा गया खाना या वह भोजन जिसे कौआ, कुत्ता, बिल्ली आदि ने सूँघ लिया हो वो भी त्याज्य है। वर्णाश्रम धर्म के अनुसार मसूर, गाजर और शलजम को भी त्याज्य की श्रेणी में माना गया है। इस प्रकार के सभी भोजन तामसिक आहार माने जाते हैं, जो मनुष्य में विकार उत्पन्न करें यथा मंदिर, माँस, मछली, अँडा आदि। जो भोजन रागपूर्वक खाया जाये वो भी तामसिक या राजसिक हो जाता है। भिक्षा में प्राप्त अन्न को यदि भगवान् का भोग लगाकर थोड़ा-बहुत जीवन निर्वाह के हेतु ग्रहण कर लिया जाये तो वही सात्विक हो जाता है। भोजन बनाते वक्त शुद्धि का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिये। नहा धोकर, शुद्ध वस्त्र धारण करके बनाया गया खाना-अन्न ही ग्राह्य है। शुद्ध कमाई से ख़रीदा गया अन्न ही सात्विक फल देता है। भगवान् को भोग लगाकर ग्रहण किया गया, सात्विक भोजन ही ग्राह्य है। बनते हुए भोजन के क्षेत्र में पशुओं यथा गाय, कुत्ते का प्रवेश वर्जित है।
Absolute purity has been advocated for the food to be accepted by one. The grain, food bought with pious money and prepared after wearing neat and clean cloths, after bathing is acceptable. The women should not cook food during the periods-menstrual cycle.
The fruits and vegetables which are unripe for eating and processed mechanically or chemically are harmful. Cooked-stored food too is dangerous. Stale food is not good for health. Dried vegetables, fruits too are unfit for human consumption. Garlic, onions, Mushrooms, Masur Dal-lentil, carrots, turnip too are advised to be discarded, according to the age factor and foul smell. Sweets prepared with milk, ghee, sugar are good for use for a short period only, till they do not grow fungus or start smelling. Left over food should not be eaten. The food prepared within the approach of dog, crow and cat, should be rejected out right. Meat, fish, egg, wine are meant only for the demonic person. The food eaten in excess of the need, gives bad effect. The food obtained through begging should be accepted only after offering it to the God and only in small quantity, just to survive. The stale food is never good for health.
The Tamsik person is not very particular about food. He can eat anything, anywhere, from anyone. He do not follow any norms. In today's age most of the people are utilising packed, refrigerated, stored food items, which result in bad health. The food served in the hotels-restaurants contained too much spices and undesirable items. The impact of such food is studied and observed by the scientists and doctors as well. The junk food and fast food too comes in this category. The Almighty had alarmed the humanity much before this cosmic era-age, to follow a routine for good-proper health. If one asks them to be followed, most of those who believe in other faiths will out rightly reject by saying that it belongs to Hinduism. In short these practices are Tamsik i.e., adopted by the ignorant, imprudent, idiot etc.
As a matter of fact the vegetarian who happen to go abroad has to depend over bakery items free from egg. Most of the bakery goods prepared in western countries, Europe, America, Australia contain egg. Almost all stores sell non vegetarian food along with vegetarian food without isolation-segregation. Packed food items are always stale. Refrigerated food too is stale. Most of the drinks sold in the market are unfit for health. Yudhishtar had predicted this about 5,000 years ago.
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥17.11॥
यज्ञ करना ही कर्तव्य है, इस प्रकार मन में दृढ निश्चय के साथ किया गया, फलेच्छा रहित मनुष्यों द्वारा जो शास्त्र विधि से नियत यज्ञ किया जाता है, वह सात्विक है।
The Yagy performed without motive, desire, reward as a firm belief, conviction & duty-devotion to the Almighty associated with procedures-methods described in scriptures, is virtuous, pious, Satvik.
परमात्मा ने मानव देह प्रदान की है, इसका शुक्रिया करना चाहिए। इस शरीर के साथ कर्तव्य और अधिकार दोनों जुड़े हैं, जो हर मनुष्य को शास्त्रोक्त विधि-विधान, वर्णाश्रम धर्म के अनुरुप करने ही चाहिये। यज्ञ-अनुष्ठान बगैर किसी कामना, इच्छा, स्वार्थ के करने चाहिये। लोक-परलोक में इससे क्या मिलेगा, क्या लाभ होगा; यह विचारणीय नहीं है। सत्व गुण प्रभु की और ले जाने वाले दैवी सम्पत्ति हैं। दैवी सम्पत्ति-सत्व गुण सम्पन्न व्यक्ति परमात्मा को तभी प्राप्त होगा, जब वह सत्व गुण से भी ऊँचा उठ जायेगा अर्थात उसके मन में परमात्मा के लोक प्राप्त करने की भी इच्छा नहीं होगी अर्थात गुणों से संग सर्वथा समाप्त हो जायेगा।
One is thankful to the God for providing human body so that he can perform virtuous, pious, righteous, jobs. One is bound with the duties connected with various functions, social obligations as a human being, from time to time; called Varnashram Dharm. God has provided various amenities, a perfect body to do various jobs, functions. Its a matter of firm faith-conviction to pray-worship HIM for what HE has given us. Whenever one goes to temples, pilgrimage, sacred places; he begs before the God to give this or that. But does not think of returning HIM a single bit of it. Thus Yagy, Hawans, Holy-Sacred sacrifices in Holy fire associated with rituals, sacred rhymes-verses are essential, as a duty without the desire to seek any return. This is Satvik Gun having virtues. Satvik Gun elevates one from humanity to the category of saints. Still one feels that he should not have any desires-motives, since this makes him tied with the rebirth. To cut these bonds he has to relinquish all bonds, desires. He should not nourish even the desire to obtain God's abode and he is free.
अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥17.12॥
परन्तु हे भरत श्रेष्ठ अर्जुन! जो फल की इच्छा को लेकर ही किया जाता है अथवा दम्भ-दिखावे के लिए किया जाता है, उस यज्ञ को तुम राजस समझो।
The Almighty recognised Arjun as the best in Bharat clan and said that the Yagy-sacrifices in holy fire to show off or to satisfy one's ego and for the purpose of seeking some sort of favours-reward from the God, is Rajas.
स्वार्थ-सिद्धि, फलेच्छा की सिद्धि के लिए किया गया यज्ञ राजस और जन्म-मरण के चक्कर में डालने वाला है। धन, सम्पत्ति, राज-पाठ मिल जाये, शत्रु मिट जाये, संसार-चारों दिशाओं में डंका बजे, नाम हो, स्त्री-सन्तान सुख प्राप्त हो, अमर हो जाऊँ इन इच्छा-कामनाओं को लेकर किया यज्ञ राजसी है। जो यज्ञ दिखावे, अहंकार की सन्तुष्टि के लिए जाये, वो विपरीत फल भी दे-देता है।
A sacrifice made for seeking vows, satisfaction of desires is purely for favours from the God. This type of tendency is bad & is harmful, since it puts the performer in infinite chain of birth & death. Wealth, kingdom, name-fame, lust for wife-son, immortality etc. are desired by everyone, instead of seeking Salvation, Almighty's love. The worship, prayer, sacrifice, pilgrimage, do provide relief desired; but occasionally it works in reverse gear as well. A worship devoid of demands from the God, with purity at heart, is always pious, virtuous, righteous and may lead to the release-relinquishment of the holy soul.
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥17.13॥
शास्त्र विधि से हीन, अन्न दान से रहित, बिना मन्त्रों के और बिना श्रद्धा के किये जाने वाले यज्ञ को तामस कहते हैं।
The sacrifices which are not accompanied by the guide lines of scriptures, without offering food grain, donations without faith-devotion and recitation of hymns-rhymes, Shloks, verses, chants are Tamas (function of ignorant).
शास्त्रों में यज्ञ विधि का विस्तृत वर्णन किया गया है। यज्ञ-हवन कुण्ड की स्थिति, स्त्रुवा आदि पात्र, बैठने का स्थान, आसन, दिशा आदि को ठीक तरह से समझना चाहिए और यज्ञ की विधि को जानकर ब्राह्मणों से ही यह शुभ कार्य सम्पन्न कराना चाहिये। भिन्न-भिन्न प्रकार की यज्ञ सामग्री, वस्त्र, देवताओं की स्थिति, आवाहन क्रम बद्ध तरीके से किया जाता है। ब्राह्मणों, गरीबों को अन्न, दान-दक्षिणा दी जाती है। शुद्धि का ख्याल रखा जाता है। ये सभी कार्य भक्ति भाव, श्रद्धा और मन से किये जाते हैं, दिखावा नहीं। मन्त्रों के उच्चारण की शुद्धि परमावश्यक है। जो भी आहुति दी जाती है, वो शुद्ध हो यह जरूरी है।
यज्ञ के अलावा सुपात्र गरीब, साधनहीन की मदद, सामाजिक कार्यों के हेतु धन प्रदान करना, गुप्त दान सात्विक है, यदि यह अँहकार, दिखावे-बनावट से रहित है।
This is understood-clear that the place-land has to selected very carefully as per instructions given in Shastr-scriptures. It should be thoroughly clean and pious, free from insects, pollutants. The direction has to be in accordance of Yagy-Hawan methodology, which has to be accurate and precise. The area has to be cordoned off and protected. It should be covered thoroughly. The Brahmans who are assigned this task should be experienced-matured and well versed. The offerings should be stored in advance near the actual site. Seats of the Ritviz, Brahmans-Priests, the host (person-organiser) and his family desirous of performing the sacrifices, guests should be marked. Things required for donation-charity :- cloths, cows, gold, money, food grain etc., should be ready. Ghee, fruits, flowers, coconuts, red cloth, Ganga Jal, Milk, Curd, Honey, Hawan Samgri (offerings in holy fire, हवन सामग्री) should be sufficient. The performer should be thoroughly soft, polite and pious at the moment. No one should be angered or displeased. Guests should be welcomed and honoured for obliging the host. No one should eat or drink before the Yagy is completed. While reciting Mantr-rhymes pronunciation should be very-very accurate & clear. No conversation should be there except pertaining to the Yagy. One should do all this happily-whole heartedly. The demigods-deities should be invited and place-seats for them should be allocated (marked, reserved) for them. Saints, sages, recluse and the like, should be welcomed, even though if they come uninvited to grace-bless the host. The beggars too, should be satisfied. Birds, crows, cows should be fed liberally.
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देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥17.14॥
देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और जीवन्मुक्त महापुरुष का यथा योग्य पूजन करना, शुद्धि रखना, सरलता, ब्रह्मचर्य का पालन और हिंसा न करना; यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है।
Worship-honouring the demigods-deities, Brahmans-priests, Guru-teacher, relinquished-enlightened, sages-saints, maintenance of purity, simplicity, celibacy and non violence are means of asceticism pertaining to body.
देवगणों में प्रमुख भगवान् विष्णु, भगवान् शिव, गणेश जी, माँ शक्ति और भगवान् सूर्य; ईश्वर स्तर के व 12 आदित्य, 11 रुद्र, 8 वसु तथा 2 अश्वनी कुमार पूज्य देवता हैं। द्विज ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिये प्रयुक्त हुआ है, मगर पूजा केवल योग्य ब्राह्मणों की ही की जाती है। माता-पिता, आचार्य, राजा जनक जैसे प्राज्ञ-जीवन्मुक्त व्यक्ति सम्मान-आदर के योग्य हैं।
शारीरिक, सामुदायिक, घर, वस्त्रों आदि की सफाई परमावश्यक है। व्यवहार में ऐंठ-अकड़, घमण्ड, कुटिलता, कड़वापन, कठोरता के स्थान पर सरलता प्रशंसनीय-आवश्यक है। ब्रह्मचर्य एक आवश्यक प्रक्रिया है, जो कि कम से कम 25 वर्ष की उम्र तक पूरी निष्ठा-लग्न से करनी चाहिये। उसके बाद भी मैथुन केवल संतानोतपत्ति के हेतु ही करना उचित है। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और सन्यास के दौरान तो, वीर्यपात कतई नहीं होना चाहिये। यही नियम स्त्रियों पर भी लागु होते हैं; विशेषकर विधवाओं के लिये। धर्म में अनावश्यक हिंसा-बलि के लिये कोई स्थान नहीं है; मगर हमलावर, आतंकी, आतताई, दुष्ट, घुसपैंठिये, बलात्कारी, हत्यारा आदि का प्रतिकार भी अत्यावश्यक है। शारीरिक तप में बड्डपन, आलस्य-प्रमाद के लिये कोई स्थान नहीं है।
शारीरिक, सामुदायिक, घर, वस्त्रों आदि की सफाई परमावश्यक है। व्यवहार में ऐंठ-अकड़, घमण्ड, कुटिलता, कड़वापन, कठोरता के स्थान पर सरलता प्रशंसनीय-आवश्यक है। ब्रह्मचर्य एक आवश्यक प्रक्रिया है, जो कि कम से कम 25 वर्ष की उम्र तक पूरी निष्ठा-लग्न से करनी चाहिये। उसके बाद भी मैथुन केवल संतानोतपत्ति के हेतु ही करना उचित है। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और सन्यास के दौरान तो, वीर्यपात कतई नहीं होना चाहिये। यही नियम स्त्रियों पर भी लागु होते हैं; विशेषकर विधवाओं के लिये। धर्म में अनावश्यक हिंसा-बलि के लिये कोई स्थान नहीं है; मगर हमलावर, आतंकी, आतताई, दुष्ट, घुसपैंठिये, बलात्कारी, हत्यारा आदि का प्रतिकार भी अत्यावश्यक है। शारीरिक तप में बड्डपन, आलस्य-प्रमाद के लिये कोई स्थान नहीं है।
There are 5 demigods of the level of God for worship. In addition to them 12 Aditiy, 11 Rudr, 8 Vasu and 2 Ashwani Kumars are also there for the purpose of prayers-worship. Upper castes in Hindus constitutes of Brahman, Kshatriy and Vaeshy; but only learned, scholars, enlightened, deserving Brahmans, ascetics should be worshipped-honoured; during holy sacrifices. Parents, teachers-Guru, detached-relinquished, saints-sages-recluse do deserve to be honoured during such an event.
Cleanliness of the body, house, cloths, environment is essential at all occasions. Simplicity of behaviour, is a desirable character-quality. Unnecessary diplomacy, cruelty, anger, strictness, foul-abusive language, ego, anger, pride should be completely discarded. Celibacy till the age of 25 years during studies and Vanprasth & Sanyas is essential. Sperms should not be allowed to discharge by avoiding such encounters-chances. During Grahasth Ashram, family way-house hold, one must restraint himself from discharge-ejection of sperms. Intercourse only for the sake of progeny is advised. Over indulgence in sex is always counter productive-dangerous. However, the needs of the husband & wife should be met at regular intervals. These rules are applicable to widows as well. The religion has no place for violence, animal-human sacrifice, murder. However, the terrorists, murderer, intruders, rapists, brutal, barbarians, attackers must be repelled, punished, killed. The physical asceticism involves the discard of superiority, laziness, intoxication.
Cleanliness of the body, house, cloths, environment is essential at all occasions. Simplicity of behaviour, is a desirable character-quality. Unnecessary diplomacy, cruelty, anger, strictness, foul-abusive language, ego, anger, pride should be completely discarded. Celibacy till the age of 25 years during studies and Vanprasth & Sanyas is essential. Sperms should not be allowed to discharge by avoiding such encounters-chances. During Grahasth Ashram, family way-house hold, one must restraint himself from discharge-ejection of sperms. Intercourse only for the sake of progeny is advised. Over indulgence in sex is always counter productive-dangerous. However, the needs of the husband & wife should be met at regular intervals. These rules are applicable to widows as well. The religion has no place for violence, animal-human sacrifice, murder. However, the terrorists, murderer, intruders, rapists, brutal, barbarians, attackers must be repelled, punished, killed. The physical asceticism involves the discard of superiority, laziness, intoxication.
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥17.15॥
जो किसी को भी उद्विघ्न न करने वाला, सत्य और प्रिय तथा हित कारक भाषण, स्वाध्याय और वेदाभ्यास (भगन्नाम उच्चारण, जप आदि) भी वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है।
Use of non-offensive, truthful, pleasant, beneficial speech, soothing words-conversation; regular self study of scriptures and recitation of Almighty's names-prayers is austerity-asceticism of voice-speech.
ऐसे शब्द, वार्तालाप जो किसी के मन को उद्विघ्न, परेशान, दुःखी न करें बोलने चाहियें। जैसा शास्त्रों में पढ़ा गया, देखा, सुना और निश्चित किया गया हो, वैसे का वैसा अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके दूसरों को समझाने के लिए कह देना सत्य है।
"ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय;
औरन कू शीतल करे, आपहुँ शीतल होय"।
कड़वा सच किसी को अच्छा नहीं लगता। ऐसा सच जो किसी निर्दोष को मुसीबत में डाल दे, नहीं बोलना चाहिये। मनुष्य के लिए ज्ञान के अलावा मार्ग दर्शक ग्रंथों यथा गीता, महाभारत, रामायण, पंचतंत्र का स्वाध्याय लाभप्रद है। भगवान् सम्बन्धी प्रेरणाप्रद साहित्य मन को सही रास्ते पर ले जाता है। परनिंदा, श्रृंगार रस, कामोत्तेजना उत्पन्न करने वाले साहित्य-किताबों को न पढ़ना ही श्रेयकर है। दूसरों के दोष न निकालना, बुराई-चुगली न करना, क्रोध न करना, व्यर्थ की बकवास से दूर रहना, कम बोलना, मौन व्रत रखना, ज़रुरत के अनुरुप ही बातचीत करना आदि-आदि वाणी का तप है।
Control over tongue is essential. What has to be spoken, should be premeditated, precise & according to the occasion! Such words, which excite-perturbs others, should be avoided as far as possible. Learning & elaboration of scriptures, reporting should always be truthful, concise, to the point, without motive-selfishness and should not be aimed at aggravating the situation. One should douse the fire instead of pouring oil in it. One should be polite, peaceful, calm and authentic, while speaking. A truth which is there to harm the innocents, must not be spoken. Bitter truth is not appreciated by any one. Diplomacy should be discarded in normal-routine talks. One should endeavour to learn, understand, appreciate and then apply to his life, the tenants of Geeta, Maha Bharat and Ramayan, as far as possible. Geeta & Maha Bharat provides a guide to interact, during the present cosmic era called Kali Yug. Panch Tantr, Hitopdesh, Jatak Kathaen, Aesop's Fables, Tales of Vikram & Baetal over santoshkathasagar.blogspot.com too guide one to austerity and a pious life-way of living. These constitute useful treatises in the present world. One should refrain from pointing out other's mistakes, misdeeds unnecessarily. Sometimes others ask you to point out their mistakes and when you point them out they become angry with you. Anger, obsession, too much inclination is not good. Reading of books which incite passions, sexuality, sensuality is dangerous-disastrous. The internet poisons the youth and people of all ages by showing porn, illicit, dangerous material. One must refrain from all these, especially porn. Silence is golden. Not to speak without logic and only when it is essential is Godly. Its a kind of ascetic practice. Unnecessary gossip is harmful and deserve to be avoided.
During the last two weeks, students of Jamia, Nehru university and Deb Band, News papers-channels, media have generated & fanned undue unwanted-warranted unrest under the patronage of Mamata and Priyanka.[26.12.2019]
During the last two weeks, students of Jamia, Nehru university and Deb Band, News papers-channels, media have generated & fanned undue unwanted-warranted unrest under the patronage of Mamata and Priyanka.[26.12.2019]
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥17.16॥
मन की प्रसन्नता, सौम्य भाव, मननशीलता, मन का निग्रह और भावों की भली-भाँति शुद्धि-इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है।
Control of mind (balanced headedness) is essential for austerity-asceticism involving mind with the happiness-serenity of mind, gentleness, equanimity, self control-restraint and the purity of thought & ideas. Its ascetics of the innerself.
मन की प्रसन्नता तब पैदा होती है, जब जातक अशान्ति, हलचल, राग-द्वेष, स्वार्थ-अभिमान से मुक्त है। दया, क्षमा, उदारता आदि भाव उसके मन-अन्तःकरण में हैं। वह सदा दूसरों का हित चिंतन करता है। परमात्मा को सदैव स्मरण करता है। दुर्गुण-दुराचार उसके मन-बुद्धि को कभी प्रभावित नहीं करते। वह काम-वासना, पर स्त्री का चिन्तन नहीं करता। कम खाना, कम बोलना, कम सोना और जरुरत के अनुरुप और यथासम्भव कम घूमना उसके नियम हैं। उसके मन में कुटिलता, हिंसा, क्रूरता, असहिष्णुता, द्वेष का कोई स्थान नहीं है। वह शरीर के लिए हितकर एवं नियमित भोजन करता है। किसी के पूछने पर उसके हित की बात कह देता है। वह अपने प्रति तिरस्कार, व्यर्थ के दोषारोपण, अनुचित व्यवहार की परवाह नहीं करता। किसी से वैर भाव नहीं रखता। धन, मान-सम्मान, महिमा आदि की हानि से कभी परेशान, दुःखी, विचलित नहीं होता। मन की मूढ़, क्षिप्त और विक्षिप्त वृत्तियों का त्याग करता है। उसने अपने मन को वश में कर रखा है। वह शास्त्र की मर्यादा के अनुकूल जीवन निर्वाह करता है। उसके भाव शुद्ध हैं। उसे भगवान् पर विश्वास है और वह स्वयं को उसी के आसरे-सहारे रखता है। इस प्रकार की क्रियाएँ होने पर वह मानसिक तपस्वी है।
An ascetic remains happy in adverse conditions, circumstances & place. His heart & mind are free from all sorts of disturbances, enmity, selfishness, ego-pride, distortions, distractions. He do not nurse ill will for anyone. His heart is full of pity-pardon, liberty, compassion for others. He is kind hearted. He always thinks of other's welfare. He is always busy remembering the God. Foul deeds, characters, passions never affect him. He never thinks of lust, sexuality-sensuality or the women belonging to others & is free from lasciviousness. He eats little, just to survive, do not loiter-roam aimlessly or stalk anyone. He sleeps for around 6-8 hours a day. He takes a balanced diet. He advises only when asked for. His heart is pure-free from enmity, violence, conspiracy, wickedness, cruelty, intolerance, crookedness. He do not mind falls-baseless accusations, slight, (तिरस्कार, scorn, contempt, taunt, ignominy), improper behaviour. He does not enter into rivalry-enmity, anguish with anyone. Loss of wealth, respect-honour, galore do not create tension-distortions in his mind. He has rejected ignorance-stupidity, insanity, instability in him. His mind and heart i.e., innerself are under his firm control. He lives according to the guidelines of scriptures. He has firm faith in the God. He has surrendered himself to the asylum, shelter of God. These are some of the qualities, traits, characteristics associated with the mental ascetic.
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥17.17॥
परम श्रद्धा से युक्त फलेच्छा रहित मनुष्यों द्वारा जो तीन प्रकार (शरीर, मन और वाणी) का तप किया जाता है, उसको सात्विक तप कहते हैं।
Threefold Ascetic Practices-Austerity (of thought, speech-voice and physique) by devotees with supreme faith, without a desire for the fruit, reward, outcome, is said to be Satvik :- Pious, Virtuous, Righteous, goodness, purity.
परम श्रद्धा के साथ साधक के द्वारा शरीर-शारीरिक, मन-मानसिक और वाणी-वाचिक; त्रिविधि तप सात्विक है। यही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है। सदगुण-सदाचार को साङ्गोपाङ्ग व्यवहार में लाकर मनुष्य निष्काम भाव से कर्तव्य का पालन करे।
शरीरिक तप के 3 लक्षण :- शौच, आर्जव (1). ऋजु होने की अवस्था, गुण या भाव। ऋजुता, सीधापन, भोलापन, (2). सरलता, सुगमता, (3). व्यवहार आदि की सरलता या साधुता (no attachment, simple-honest behaviour-dealings) और अहिंसा।
मन के तप के 2 लक्षण :- मौन और आत्मनिग्रह।
वाचिक तप के 2 लक्षण हैं :- सत्य और स्वाध्याय।
One should observe asceticism with great care-precaution while performing it through physique, mentally-meditation and speech-words with ultimate devotion. Physical purity involves purity, non violence & state forwardness. The psyche-brain has to be controlled with regards to silence and self control. One should speak the truth and resort to self study. He should perform without the desire for rewards of his endeavours. This is the Satvik mode of ascetic practices meant for the humans. Tamsik or Rajsik mode do not have the mention of humans.
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥17.18॥
जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिये तथा दिखाने के भाव से भी किया जाता है, वह इस लोक में अनिश्चित और नाशवान फल देने वाला राजस तप कहा गया है।
The austerities-ascetic practices performed for gaining respect, honour, reverence, prominence and for the demonstrative purposes yields uncertain and temporary results & is named Rajas-passionate of asceticism.
बाबा लोगों द्वारा आजकल जो हो रहा है, वह मात्र दिखावा, ढोंग, ढकोसला, पाखण्ड है। बड़े-बड़े आडम्बर युक्त आयोजन किये जाते हैं; ताकि बड़ी तादाद में लोग इकट्ठे हो सकें और आयोजकों का गुणगान कर सकें। भगवा कपड़ा पहन कर लोग भाषण, योग-सर्कस, प्रवचन करते हैं और अपनी जय-जयकार करवाते हैं। इन आयोजनों में राज नेता, रईस, फ़िल्मी हस्तियाँ, जाने-माने लोग भाग लेते हैं। मोदी का मन्दिरों में जाना और योगी का भगवा पहनना मात्र पाखण्ड है।
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सुबह के वक्त प्रभात फेरियाँ निकाली जाती हैं। लाउड स्पीकर का प्रयोग किया जाता है। वह सब कुछ महज छलावा-दिखावा है और राजस प्रवृत्ति-प्रकृति का है, जिसका फल अनिश्चित और नाशवान है। ये व्यक्ति निश्चित रुप से जन्म-मरण और 84,00,000 योनियों के चक्कर में उलझे रहेंगे।
It has been observed that large scale organisations and Yagy-Hawn etc. are done to show power, affect over the masses to gain political wisdom. The saffron clad or the one's in religious attire attract huge crowds in the name of providing remedies for diseases, trouble and attainment. Political bosses are invited over the stage to convert the show into vote banks-mega event, successfully. Yagy-Hawan, holy sacrifices too are conducted. Huge sums of money are spent. Huge donations are collected. Jugglery, Yog-circus show, mesmerising masses are evident. Such practices influence the common man (ignorant, idiots, duffers, feeble mind) too easily. These shows are sure to result into passionate effects, moving the organisers & participants into birth & rebirth in 84,00,000 species continuously. These practices are Rajsik in nature and may provide temporary gains, relief, solution.
The Hippocrates have in-filtered the political parties. Modi had been a RSS worker, opposed to Gandhi and his plans-programmes. Now, this fellow is asking the Indian to follow his ideals. In fact Gandhi do not command any respects in the minds of common people. On the other hand he is hated by both majority and minorities. Earlier the court of the Indian kings used to have learned, qualified scholars, Pandits, enlightened; but at present the the parliament is full of these Hippocrates, criminals, illiterates, uncultured and idiots.
Jharkhand results shows that 54% of the legislators are dreaded criminals.[27.12.2019]
Jharkhand results shows that 54% of the legislators are dreaded criminals.[27.12.2019]
Jharkhand is slowly and gradually turning into a state in which Muslims in majority. Its an abode of the cyber criminals. Ministers have been found to have millions of unaccounted money.
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥17.19॥
जो तप मूढ़ता पूर्वक हठ से अपने आप को पीड़ा देकर अथवा दूसरों को कष्ट देने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।
The ascetic practices-Austerity performed under the influence of ignorance with foolish stubbornness with self-torture or for harming others are Tamsik.
तामस तप में मूढ़ता पूर्ण आग्रह है, जो स्वयं को पीड़ा देकर किया जाता है। मूढ़ मनुष्य शरीरिक कष्ट को ही तपस्या मानता है। ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों को कष्ट देने के लिए तप करते हैं। वे मन माने ढंग से उपवास करते हैं, सर्दी, गर्मी, वर्षा को सहन करते हैं। जिस तप का उद्देश्य ही दूसरों को कष्ट-पीड़ा पहुँचाना है, वह पूरी तरह तामसिक है।
राक्षस और राक्षसी वृत्ति के लोग तामसिक तप करते हैं। हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, रावण, कुम्भकर्ण की तपस्या पूर्ण रूप से तामसिक थी।
राक्षस और राक्षसी वृत्ति के लोग तामसिक तप करते हैं। हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, रावण, कुम्भकर्ण की तपस्या पूर्ण रूप से तामसिक थी।
The ignorant stresses over self inflicting pains-tortures. He believes that straining the body is austerity-asceticism. His object is to trouble the others, at his own cost. He observe fasts in his own way-manner. He bear extreme cold, heat, rains and rough weather. His aim is to tease others, inflict injuries over others and hence this mode is Tamsik-demonic.
Asceticism adopted by Hiranyaksh, Hiranykashipu, Ravan and Kumbh Karan was totally Tamsik.
Asceticism adopted by Hiranyaksh, Hiranykashipu, Ravan and Kumbh Karan was totally Tamsik.
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥17.20॥
दान देना कर्तव्य है-ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर अनुकारी को अर्थात निष्काम भाव से दिया जाता है, वह दान सात्विक कहा गया है।
Satvik-pious donation is one which has been made without the desire for returns, made as a matter of duty, to a deserving person, at the right time-occasion & place.
प्रत्येक मनुष्य को अपनी सात्विक, गाढ़े खून-पसीने की मेहनत की कमाई का छठा भाग दान-धर्म के निमित्त निकाल देना चाहिये। इसे प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्तव्य समझना चाहिये। दान के बदले में परमात्मा या किसी अन्य से कोई लाभ या प्रत्युपकार की भावना नहीं होनी चाहिये। दान का महत्व देश, स्थान, तीर्थ, अवसर से बढ़ जाता है। दान लेने वाले की पात्रता मुख्य चीज है। वेदपाठी ब्राह्मण, सदगुणी-सदाचारी भिक्षुक या कोई भी सुपात्र-व्यक्ति जिसे सहायता की आवश्यकता है, उपयुक्त है। आजकल जिस प्रकार अंधाधुंध दान की रकम संस्थाओं के नाम पर वसूलकर, आतंकियों, धर्म परिवर्तन करने वालों, व्याभिचारियों को दी जा रही है, वो सिवाय दुःख-पाप के कुछ और नहीं देती। भारत में ही लाखों की तादाद में ऐसे लोग हैं, जो देश-विदेश से दान प्राप्तकर मौज-मस्ती में उड़ा रहे हैं। जिस प्रकार दान का फल दस गुना होता है, उसी प्रकार निकृष्ट और अनुपयुक्त व्यक्ति को दिया गया दान दस गुना पाप उत्पन्न करता है। अनुपयुक्त व्यक्ति भी उस दान के धन को दुरूपयोग करने के कारण घोर नर्क प्राप्त करता है। दान केवल और केवल ईमान की कमाई का फलता है। मन्दिर को प्राप्त हुई दान की राशि को तुरन्त समाज कल्याण में लगा देना चाहिये, अन्यथा गजनी, खिलजी, गौरी जैसे मुसलमान और अँग्रजों जैसे लुटेरों का खतरा बना ही रहता है और इन लुटेरों का जो हाल होता है वह सर्वविदित है। मन्दिर के धन को जो लोग व्यक्तिगत उपयोग में लाते हैं, उनकी सद्गति नहीं होती।
The scriptures have clearly mentioned that everyone should set aside one sixth of his pious earnings for the sake of donations-charity to the deserving, disabled, needy or one in difficulty, downtrodden, poor. The Shastr advocates donations to the learned-enlightened Brahmans, scholars, Pandits and the students getting education in Ashrams, Guru Kuls, which do not have any source of earnings. The society should take care of the insane, widows, disabled, fragile-sick, aged. India has traditionally saw the farmers, the rich, the traders, the kings extending help to the poor, down trodden and the lower segments of the society.
I remember my grandfather who did not carry grain to home, until-unless the wheat was distributed amongest the regular workers, poor and the needy.
Huge sums of money are pouring into non deserving hands in India, now a days. The money is used for conversion to Islam or Christianity. Most of the receivers are enjoying with this money. A lot of money is falling into the hands of separatists-terrorists. Money received by Pakistan, Arab countries & from America is utilised for terrorist activities. Wahabis are using ill gotten money to spread unrest in Kashmir. Paupers in Kashmir involved in anti national activities, have become multimillionaires with such funds. Their own children are studying in Europe & America, but the poor for whom the transactions were made are still living in extreme poverty. The temples should immediately utilise this money for social cause and upliftment of poor. Their is always the danger of invaders like Ghajni, Muslims and the Britishers who did not spare even the temples. One finds that the Pujaries-Priests of a famous temple (Kalka Devi) in Delhi use the donations entirely for their person use. The scriptures clearly mention that such people will definitely move to lower species like dogs, in their next birth. Donations made at shrines, pilgrim sites, holy rivers-reservoirs on auspicious dates and specific places like Haridwar, Kashi, Dwarka, Rameshwaram, Maha Kal-Ujjain, Tri Veni Sangam Allahabad (Pryag Raj), Nasik, Badri Nath etc. are more rewarding. However, one must not donate with the desire for returns. The donations with pious, honest money provides ten times benefits. Donations made with ill gotten money generate ten times sins and the person moves to undefined hells for millions of years.
Gurudwaras abroad (Germany, Britain, Australia) and Mosques-Madarsas within the country are busy sowing the seeds of discord-hatred for other communities, specifically Hindus. They collect billions as donation and pass over for terrorist activities in India. Their sole aim is power.
Please refer to :: santoshsuvichar.blogspot.com
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यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥17.21॥
किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक और प्रत्युपकार के लिये अथवा फल प्राप्ति का उद्देश्य बनाकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा जाता है।
Rajas mode of charity-donations are the once made by the desirous people looking for returns, favours, rewards, higher abodes & are made unwillingly or to settle some previous deal or obligations.
राजस दान वह है जो कि प्रत्युपकार के हेतु किया जाये। दान लेने वाले नातेदार-रिस्तेदार, जानकर, पूर्व परिचित, पुरोहित, चिकित्सक आदि इसी श्रेणी में आते हैं। जिस दान को उच्च लोकों की उपलब्धि के लिये व्रत, त्यौहार, तीर्थ, विशिष्ट तिथि, अवसर, स्थान पर किया जाये वह भी इसी श्रेणी में आ जाता है। क्लेशपूर्वक दिया गया दान जो मजबूरी में किया गया हो, भी ऐसा ही फल देता है।
Rajas mode of charity-donations involves the desire for higher abodes. For this purpose people visit temples, undertake pilgrimage, bathes in holy rivers and sacred reservoirs. In fact its typical Indian-Hindu mentality to improve the future at the cost of present. Austerities undertaken have the sole purpose to get rid of the sins of the previous births. Hindus undertake fasting, pilgrimages and even donations, which have desires associated with them. If one is aware of the futility of such purposes, he might switch over to helping others without motive-desires, which is virtuous, righteous, auspicious. Donations which involve return of the previous receipts, hitch, pain, unwillingness too becomes Rajas. Money that goes to relatives, friends, doctors, astrologers, Priests (Purohits, Pandits, Vaedic Brahmans) ritualism too takes the form of Rajas charity, since hidden motives-desires are always there that if "I am helping some one, I too will be helped in return". So, the donations-austerities which are made just to help others, needy, one in destitute, poverty stricken, sick, diseased without the intention of any fruit, reward, return grant auspiciousness.
Still one should avoid donations to Muslims.
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥17. 22॥
जो दान बिना सत्कार के तथा अवज्ञापूर्वक अयोग्य देश और काल में कुपात्र को दिया जाता है, वह दान तामस है।
Charity made at wrong place and time, to unworthy persons or without due respect-regards to the receiver or with ridicule, is Tamas.
तामस दान असत्कार, अवज्ञा, तिरस्कार पूर्वक किया जाता है। तामस दान में शास्त्र विधि-विधान को महत्व नहीं दिया जाता। इसमें पात्रता का ध्यान नहीं रक्खा जाता। दान लेने वाले के प्रति दान देने वाले को उचित मान-सम्मान, आदर-सत्कार दिया जाना चाहिये। दान लेने वाले ने दान लेकर कृतार्थ कर दिया, यह विचार मन में बनाना चाहिये। तामस दान देने वाले की अधो गति होती है। दान का उचित समय, काल और मुहूर्त भी होता है, जिसका ध्यान रखना चाहिये। अन्न, जल, वस्त्र और औषधि का दान देने में पात्र-कुपात्र, देश, काल के स्थान पर लेने वाले की जरुरत मुख्य है। कुपात्र को अन्न, जल उतनी ही मात्रा में दें; जितने से वो पुनः हिंसा या पाप में प्रवत्त न हो पाये। कलियुग में दान का महत्व बहुत बढ़ गया है, क्योंकि यज्ञ, तप, व्रत, आदि-आदि के लिये उचित पात्र, अवसर मिलना बेहद कठिन है।
आतंकवादियों, मुस्लिम धर्म प्रचारकों, समृद्ध लोगों को दिया गया दान अवनति का कारण बनता है।
आतंकवादियों, मुस्लिम धर्म प्रचारकों, समृद्ध लोगों को दिया गया दान अवनति का कारण बनता है।
Donations should be free from slight, disobedience, disregard, affront to the recipient. The recipient deserves due honour, respect and the one who is distributing alms should be humble, polite and sympathetic to the recipient. Due regard-weightage should be given to the time, place and the recipient's ability (necessity, requirement) to get donations. One should not nurse any grudge towards the recipient. One should feel obliged that his charity has been accepted with grace. Donations made to the those, who are involved in anti social-anti religious activities, sinners, criminals, terrorists, those inclined to conversion of other's faith (Hinduism to Christianity or Islam); always yield negative results, including stint in hells. Christian missionaries indulging in conversions in the name of charity are covered in this category. Politicians, trusts, NGO's receiving funds for charity, do come under the list of negative categories. There are several Muslim organisations which are receiving aid-donations to fan terrorism in India and abroad, from Muslim countries specially Saudi Arabia, need to be curbed with firm action and determination by the world community. However, it has been found that some institutions and temples are offering free education, food, clothing, residence in India. They deserve whole hearted appreciation. In one case more than 50,000 free meals are distributed on a single day. The volume rises to 1,25,000 on specific occasions-festivals. One educational Institution is offering free meals and education to more than 12,500 needy children up to graduation level in Orissa. Donations made to them are pious, virtuous & righteous. Eligibility of the recipients matters a lot. You will find drunkards, beggars having millions in their coffers, healthy people in the disguise of sick or disabled; awards negative results to the donors.
Pot belly Mahants, Pandits, Brahmans, Purohits roaming in silk dresses, cars, living in palatial buildings, do not deserve either sympathy or charity. Most of the trusts, schools, hospitals in India are registered under charitable category to receive land at cheaper rates, but they do not serve the poor at all. They are purely commercial in nature. They charge exorbitant heavy tuition fees in additions of hundreds of other charges levied from time to time. The worst possible aspect of it is the charging of capitation fee-donation money by the schools, colleges.
Pot belly Mahants, Pandits, Brahmans, Purohits roaming in silk dresses, cars, living in palatial buildings, do not deserve either sympathy or charity. Most of the trusts, schools, hospitals in India are registered under charitable category to receive land at cheaper rates, but they do not serve the poor at all. They are purely commercial in nature. They charge exorbitant heavy tuition fees in additions of hundreds of other charges levied from time to time. The worst possible aspect of it is the charging of capitation fee-donation money by the schools, colleges.
Donations made in the form of food, clothing, medicine water to the needy may be made without hitch-hesitation. Food-fodder offered to cows, dogs, crows, birds is always rewarding made with sympathy to them. Indians do not hesitate in offering milk to snakes, though dangerous. Kali Yug, the present cosmic era has high value-importance of charity.
Teesta Setalvad and her organisation is an example of misusing funds. Separatists in Jammu & Kashmir are fanning terrorism and anti India sentiments. The government should stop wasting money over the students of JNU, Aligarh & Jamia Millia universities. All aids facilitates to Deo Band must be curbed.
The educational institutions compel parents to shell out money in millions for admission and fees, which is not donation. It is purely extortion, exploitation. Almost all political parties in India and every where in the world collect huge sums in the name of donations.
The educational institutions compel parents to shell out money in millions for admission and fees, which is not donation. It is purely extortion, exploitation. Almost all political parties in India and every where in the world collect huge sums in the name of donations.
Modi government has been granting aid to Bangla Desh, Afghanistan, Shri Lanka, Maldives etc. This is dangerous. These are snakes which are ready to bite the master. Aid given to Pakistan by European countries and America do come under this category.
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥17.23॥
ॐ, तत्, सत्, इन तीन प्रकार के नामों से जिस परमात्मा का निर्देश (संकेत) किया गया है, उसी परमात्मा से सृष्टि के आदि में वेदों तथा ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना हुई है।
The manner in which the three names of the Almighty :- ॐ, Tat, Sat; emerged, is the same as the creation of Veds, Brahmans and Holy sacrifices in fire in the beginning of Eternity.
ॐ, तत्, सत् :- ये परमात्मा के तीन नाम हैं, निर्देश हैं। परमात्मा ने पहले वेद, ब्राह्मण और यज्ञों को बनाया। विधि वेद बताते हैं, अनुष्ठान ब्राह्मण करते हैं और क्रिया के लिये यज्ञ है। यज्ञ, तप और दान में किसी प्रकार की कमी रह जाये तो, परमात्मा का नाम स्मरण करें, उससे कमी पूरी हो जायेगी। "ॐ तत् सत्," इस मन्त्र से गृहस्थ अथवा उदासीन (साधु) जो भी कर्म आरम्भ करता है, उसको अभीष्ट की प्राप्ति होती है। जप, होम, प्रतिष्ठा, संस्कार आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ, इस मन्त्र से सफल हो जाती हैं, इसमें सन्देह नहीं है।
ॐ, Tat & Sat are the 3 names-directives of the God, which fulfils all the desires of the worshipper, if he spell them in the beginning of the Holy sacrifices, endeavours, rituals, prayers. The Almighty created the Veds & Brahmans, followed by Holy sacrifices in fire for the benefit of the humanity. The Veds describe the methods for the sacrifices, rituals, prayers, worships, asceticism etc. Prayers, Yagy, Hawan are carried out by the Brahmans by following the procedures laid down in the Veds & scriptures. The Yagy, Hawan, Agnihotr, Holy sacrifices in fire are there to make successful all the endeavours, projects, desires, ambitions of the individuals. In case there is any draw back-lacuna in the Yagy, Tap or Dan remember the God through these three names and the weakness-deficiency is overcome.
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥17.24॥
इसलिये वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरुप क्रियाएँ सदा "ॐ" इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं।
Those who have faith in Vaedic principles begin the Yagy associated with the procedures mentioned in the scriptures, donations-charity and ascetic practices by uttering-spelling OM (Ameen or Allah are merely translation of Om); the name of God.
समस्त वैदिक क्रियाएँ, यज्ञ, हवन, आहुति, मंत्र प्रार्थनाएँ सर्वप्रथम "ॐ" का उच्चारण करके ही प्रारम्भ की जाती हैं। दान, तप भी इसके बगैर अधूरे-फल हीन हैं। सृष्टि की रचना-उत्पत्ति में सबसे पहले प्रणव शब्द "ॐ" ही प्रकट हुआ। प्रणव की तीन मात्राएँ हैं, जिनसे त्रिपदा गायत्री प्रकट हुई और त्रिपदा गायत्री से ऋक, साम और यजु :- यह वेद त्रयी प्रकट हुई।
All Vaedic rituals, Mantr, Yagy-Holy sacrifices in fire, offerings in fire, prayers begin with the pronunciation of OM. This is prefix. All Vaedic procedures remain incomplete in the absence of OM. Donations, ascetic practices remain fruitless in the absence of OM. OM appeared at the auspicious occasion of the formation of the universe-life. Three syllables of OM (ओ३म्) form the Gayatri Mantr and the three Veds :- Rig Ved, Sam Ved & Yajur Ved appeared from Gayatri.
जब श्रवणेन्द्रियों की शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस "ॐ" कार को, इसके समस्त अर्थों को प्रकाशित करने वाले स्फोट तत्व को जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओं में सबके अभाव को जानता है, वही परमात्मा का विशुद्ध स्वरूप है। वही ॐ कार परमात्मा से हृदयाकाश में प्रकट होकर वेदरूपा वाणी को अभिव्यक्त करता है। ॐ कार अपने आश्रय परमात्मा परब्रह्म का साक्षात् वाचक है। "ॐ" कार ही सम्पूर्ण मंत्र, उपनिषद और वेदों का सनातन बीज है।
अ, उ और म ॐ कार के तीन वर्ण हैं। ये तीनों ही सत्त्व, रज, तम :- इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम :- इन तीन नाम; भूः, भुवः, स्वः :- इन अर्थों और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति :- इन तीन वृत्तियों के रूप में तीन-तीन की सँख्या वाले भावों को धारण करते हैं।
ॐ कार से ही ब्रह्मा जी ने अन्तःस्थ (य, र, ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (अ से औ तक), स्पर्श (क से म तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणों से युक्त अक्षर-समान्माय अर्थात वर्णमाला की रचना की।
इसी वर्णमाला द्वारा उन्होंने अपने चार मुखों से होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा-इन कगार ऋत्विजों के कर्म बतलाने के लिये ॐ कार और व्याहृतियों के सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र मरीचि आदि को वेदाध्ययन में कुशल देखकर वेदों की शिक्षा दी।[श्रीमद्भागवत 12.6.3-45]
अ, उ और म ॐ कार के तीन वर्ण हैं। ये तीनों ही सत्त्व, रज, तम :- इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम :- इन तीन नाम; भूः, भुवः, स्वः :- इन अर्थों और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति :- इन तीन वृत्तियों के रूप में तीन-तीन की सँख्या वाले भावों को धारण करते हैं।
ॐ कार से ही ब्रह्मा जी ने अन्तःस्थ (य, र, ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (अ से औ तक), स्पर्श (क से म तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणों से युक्त अक्षर-समान्माय अर्थात वर्णमाला की रचना की।
इसी वर्णमाला द्वारा उन्होंने अपने चार मुखों से होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा-इन कगार ऋत्विजों के कर्म बतलाने के लिये ॐ कार और व्याहृतियों के सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र मरीचि आदि को वेदाध्ययन में कुशल देखकर वेदों की शिक्षा दी।[श्रीमद्भागवत 12.6.3-45]
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥17.25॥
तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिये-निमित्त ही सब कुछ है; ऐसा मानकर मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों द्वारा फल की इच्छा से रहित होकर, अनेक प्रकार के यज्ञ और तप रुप क्रियाएँ तथा दान रूप क्रियाएँ की जाती हैं।
Those who want freedom from reincarnation-salvation, perform various Yagy-sacrifices, ascetic practices and donations, charity, austerity for the sake of the God, who is addressed as TAT, without the desire of any reward.
जो भी शास्त्र सम्मत योग, यज्ञ, हवन, तप, दान, तीर्थ, व्रत, स्वाध्याय, ध्यान, समाधि, शुभ कर्म आदि क्रियाएँ परमात्मा की प्रसन्नता लिये की जायें, उनमें फल की इच्छा किञ्चित मात्र भी नहीं होनी चाहिये, क्योंकि वे अपने लिये नहीं हैं। जिन साधनों से ये क्रियाएँ की जाती हैं; वे शरीर, इन्द्रियाँ अन्तः करण परमात्मा के ही हैं। कुटुम्ब, घर, मकान, सम्पत्ति भी परमात्मा का ही दिया हुआ है। समझ-ज्ञान, बुद्धि, सामर्थ्य स्वयं मनुष्य भी परमात्मा का ही है। इस भाव को लेकर समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये। प्रत्येक कर्म-क्रिया शुभ-अशुभ, निहित-विहित, निषिद्ध तथा कर्म फल का प्रारम्भ और समाप्ति भी होती है। अतः उसकी इच्छा कतई नहीं होनी चाहिये। परमात्मा की सत्ता नित्य-निरन्तर है, अतः मनुष्य को उसकी स्मृति रहनी ही चाहिये। जो संसार प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है, उसका तो निराकरण करना ही है तथा जो अप्रत्यक्ष है, उस तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का अनुभव भी करना है, जो नित्य-निरन्तर है। परमात्मा के भक्त राम, कृष्ण, गोविन्द, नारायण, वासुदेव, शिव आदि का सम्बोधन उस तत् स्वरूप भगवान् के लिये करके, समस्त क्रियाएँ शुरू करते हैं। तत् शब्द (वह, उस) अलौकिक परमात्मा के लिये ही आया है, जो कि श्रद्धा-विश्वास का विषय है, विचार का नहीं।
Tat (HE, THAT) has been used for the Almighty. Existence of God is a matter of faith not of argument, logic or discussion. HE is eternal-divine, beyond the limits of the human intelligence, vision or thought. All prayers start by remembering HIM as Ram, Krashn, Hari, Govind, Shiv, Vasudev, Narayan etc. by the devotees or simply God, Allah, Khuda, Rab, Bhagwan etc. Whatever pious, virtuous, righteous deed-endeavour is there, should be undertaken, for HIS happiness, pleasing HIM. Sacrifices in Holy fire, Yagy, Hawan, ascetic practices, Pilgrimage, bathing in Holy river-reservoirs are meant for HIS happiness, pleasing HIM, since HE has created the man. The tools of offerings, donations, wealth, body, organs, belongs to HIM. The man, his intelligence, body, thoughts, family, property, strength, capability, power are created by HIM and thus belongs to HIM, only. All deeds, habitual or compulsory, pious or evil, begins and terminates but the Almighty remains as such without any change-modification, before, after and now. One should feel HIS presence everywhere, in each & every particle, action-activity.
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते॥17.26॥
हे पार्थ! सत् :- ऐसा यह परमात्मा का नाम सत्ता मात्र में और श्रेष्ठ भाव में प्रयोग किया जाता है तथा प्रशंसनीय कर्म के साथ सत् शब्द जोड़ा जाता है।
The Almighty addressed Arjun as Parth! HE said that HIS name Sat represents HIS authority and is used as a prefix with those works-events which are superb, excellent, appreciable.
Sat represents :- Truth, Reality, Goodness, An auspicious act, Purity, Virtuousness, Righteousness.
किसी के प्रति अच्छा भाव व्यवहार रखना, सद्भाव, दया, क्षमा, साधु भाव, परमात्मा का प्रतीक है अर्थात जो व्यक्ति इन गुणों से युक्त है, उसमें भगवान् का अंश प्रकट हो रहा है। इसी प्रकार दैवी गुण, सत्य, त्याग, सत्-तत्व, सद् गुण भी अच्छाई का प्रतीक हैं। जो भी अच्छा कार्य, आचरण है यथा शास्त्र विधि के अनुरूप यज्ञ, यग्योपवीत, विवाह, संस्कार, अन्नदान, भूमिदान, गोदान, मन्दिर बनवाना, बगीचा लगवाना, कुँआ-बाबड़ी खुदवाना, धर्मशाला बनवाना श्रेष्ठ कार्य हैं।
सत्कर्म, सत्सेवा, सद् व्यवहार, आदि परमात्मा के ही रूप हैं।
Any virtuous act-quality, event, action shows Almighty's presence in the doer. Divine characteristics, donations-charity, visiting holy shrines, pilgrimages, fasting relinquishment, asceticism is Godly. Building temples, wells, reservoirs, gardens-parks, inns for the welfare of others-masses is Godly behaviour-act. Social welfare, helping poor-one in destitute, ill-diseased is Godly act. Marriage according to scriptures and its maintenance by both spouses, helping the aged-elders, weak, donation of food grain or food, land for hospital, school, Brahmans is Godly. Donation of milk yielding cows with the calf is Godly act. Speaking the truth is Godly act.
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥17.27॥
यज्ञ तथा तप और दान रूप क्रिया में जो स्थित (निष्ठा रखता है) है वह भी सत् कहा जाता है और उस परमात्मा के निमित्त किया जाने वाला कर्म भी सत् कहा जाता है।
The performer of Yagy-Holy sacrifices in fire, Tap-ascetic practices and Dan (donations, charity) and the one who has faith in these practices do represent Sat (Purity, Austerity, Truth) and the deeds (performances, practices) selfless service for the sake-cause of the Almighty do represent Sat (Purity).
यज्ञ तथा तप और दान करना और उनमें निष्ठा, विश्वास, आस्था रखना भी सत् है। लौकिक, पारमार्थिक और दैवी सम्पदा सत् स्वरूप और मोक्ष प्रदायक हैं। मानव मात्र के कल्याण के लिये निष्काम भाव से किया गया कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं जाता। जो परमात्मा को चाहता है, वो अपना कल्याण और मुक्ति चाहता है। भक्ति चाहने वाला भी भगवान् के हेतु ही कर्म करता है। ये सभी कर्म-क्रियाएँ सत् स्वरूप हैं।
Faith in Yagy, Tap-ascetics and Dan-charity is Sat. Anything done for the sake of the God is also Sat. Pure deeds, service of the mankind without any motive-desire for return, divine activities like devotion to God, prayers of deities-demigods as a form-representative of the God-Ultimate, do grant Salvation (emancipation, Assimilation in the God, Liberation). Selfless service of the man kind, never goes waste. One who loves God, loves Salvation. One who loves devotion, do perform for the sake of the God. These pure, uncontaminated, pious, righteous, virtuous performances-deeds meant for the God's cause, do grant Salvation.
Salvation is the Ultimate goal of the human life.
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥17.28॥
हे पार्थ! अश्रद्धा से किया हुआ हवन, दिया हुआ दान और तपा हुआ तप तथा और भी जो कुछ किया जाय वह सब असत्, ऐसा कहा जाता है। उसका फल न तो यहाँ होता है और न मरने के बाद ही होता है अर्थात उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता।
The Almighty addressed Arjun as Parth and told him that any auspicious activity like Holy sacrifices in fire, donations or ascetic practices done without faith-reverence, yield negative results. It do not grant the desired reward either in this world or the other world after the death.
कोई भी धर्मिक-पुण्य कार्य बगैर श्रद्धा, दिखावे, ढोंग-पाखण्ड के लिये किया जाता है, तो वह लौकिक अथवा अलौकिक संसार में चाहा गया फल नहीं देता। अक्सर इसका परिणाम उल्टा ही होता है। प्रकृति में कार्य और कारण जुड़े हुए हैं। अगर कुछ किया गया है तो, उसका परिणाम उसके अनुरूप अवश्य ही होगा। यज्ञ, तप तथा दान पूरी श्रद्धा, भक्ति और विश्वास के साथ किया जाना चाहिये।
किसी भी प्रकार का दिखावा, ढोंग इसके असर को कम-नष्ट कर देता है।
किसी भी प्रकार का दिखावा, ढोंग इसके असर को कम-नष्ट कर देता है।
One should perform austerities with faith, devotion and reverence to the God without demonstrative modes. While performing ascetic practices, holy sacrifices in fire, prayers, worship, donations; one must be pure at heart. What ever act has been done, it is always going to yield results according to the tendency of the doer, in the present birth or the next births.
Any Pomp & Show, use of loud speakers wipes off the impact of austerities. Visiting temples with the camera focused over the politicians is bound to yield adverse results. Ruhul, Priyanka, Mamta and even Modi do this.
Any Pomp & Show, use of loud speakers wipes off the impact of austerities. Visiting temples with the camera focused over the politicians is bound to yield adverse results. Ruhul, Priyanka, Mamta and even Modi do this.
SHRIMAD BHAGWAD GEETA (17) श्रीमद् भगवद्गीता :: श्रद्धात्रय विभाग योग
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ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे;
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्यायः॥17॥
इस प्रकार ॐ तत् सत्-इन भगवन्नामों के उच्चारण पूर्वक ब्रह्म विद्या और योग शास्त्र मय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरुप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में श्रद्धात्रय विभाग योग नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।
In this manner the seventeenth chapter pronouncing-describing Om, Tat, Sat is completed, in the form of a conversation between the Almighty Shri Krashn and Arjun. It describes the faith & its impact over the human beings for performing austerities.
I feel that this text has nothing to do with Hinduism-Hindutv in broad sense, since it is aimed at the welfare of humanity. With the grace of the God, one is able to complete this treatise on Shri Mad Bhagwat Geeta in spite of all hurdles; today i.e., 20.10. 2016. This work is dedicated to the readers who wish to attain Salvation. I request you to kindly ignore if there is any thing in it, which might hurt your sentiments and feelings and pardon the commentator. All efforts have been made to concentrate over the gist, nectar, elixir, theme, central idea of the HOLY TEXT, texted by Bhagwan Ved Vyas over the instructions of the Almighty Bhagwan Shri Krashn with the help of Ganpati. Hari Om Tat Sat. As a matter fact I started with the treatise from chapter eighteen and covered this chapter in the end.
I again praise my son Prashant Bhardwaj for bringing the detailed text for me to read and understand. The cooperation of my wife Shri Mati Mithilesh Bhardwaj is tremendous all through these years, in spite of her illness and being bed ridden. Let the God give me opportunity to serve the masses with full dedication!
I have the commentaries by Prabhu Pad Ji Maharaj, Maha Bharat-Geeta Press, Bhagwat Geeta-Geeta Press, Gorakh Pur and Shri Arvind. When ever I get an opportunity to read further, I begin with it again.
The thorough revision of this chapter has been completed today by the grace of the God and the virtuous readers i.e., 19.04.2018 at Gledswood Hills, NSW, Sydney, Australia.
Today i.e., 03.06.2024; the text has been revised again, at Noida.
Today i.e., 03.06.2024; the text has been revised again, at Noida.
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