Monday, June 8, 2015

DEEDS DUTY कर्तव्य-धर्म :: कर्म (2)

DEEDS, DUTY, ENDEAVOURS 
कर्तव्य-धर्म :: कर्म (2)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
कर्म :: कार्य; deeds, task, action, work, endeavour, act, occupation, effort, act, function, sacrifice. 
कर्तव्य :: जिम्मेवारी, Duty, responsibility.
PRESCRIBED DUTIES विहित कर्म :: शास्त्र जिन कार्यों-कर्मों की आज्ञा देता है। यज्ञ-हवन-अग्निहोत्र, सांध्य और प्रातः कालीन संध्या-पूजा पाठ। अनुदान राज्य, धनी-मानी व्यक्तियों द्वारा आश्रम, शिक्षण संस्थाओं, हस्पताल को दी गई धन राशि, भेंट, सहायता, जो विधि के अनुसार या अनुरूप हों; Ordained, prescribed, proper, fit, determined, in order, fit, prescribed, ordained, valid. Yagy-Hawan, Holy sacrifices in fire, feeding the guests, Brahmans, grant of doles-gifts, morning & evening prayers. 
MANDATORY DUTIES निहित-नियत कर्म :: Nihit Karm are compulsory, fixed, mandatory. Varnashram Dharm & various physical activities taking place within the body as daily routine, which are a must for every one.  One can not neglect them out of ignorance, illusion, confusion or otherwise. There is no bar-restriction on performing-doing these. Till the body has the soul, it will continue with the functions such as respiration, excretion, etc. Its a component of Vihit Karm as per Varnashram Dharm, essential as per difficult situation are Nihit Karm. 
निहित :: गुण-वस्तु चीज जो अन्दर स्थित हो और बाहर न दे, प्रदत्त-सौंपा हुआ; inherent, implied, placed, kept, contained, latent, entrusted, vested.)
भाग्य और पुरुषार्थ :: भाग्य और पुरुषार्थ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कुछ व्यक्ति भाग्य के भरोसे रहते हैं और पुरुषार्थ पर विश्वास नहीं करते। कुछ लोग पुरुषार्थ पर ही विश्वास करते हैं, भाग्य के भरोसे नहीं रहते। भाग्य के भरोसे रहने वाला अपना वर्तमान और भविष्य दोनों को खराब करता है।
भगवान् का भरोसा करना चाहिये, परन्तु भगवान् तो स्वयं कर्म करने को कहते हैं। भगवान् कभी अकर्मण्य व्यक्तियों का सहयोगी नहीं हो सकता। कुछ व्यक्तियों को जीवन में कुछ उपलब्धियाँ भाग्य के कारण हासिल हुई दिखाई देती है, परन्तु वो तो उस व्यक्ति के प्रारब्ध, संचित और तात्कालिक कर्मों का नतीजा ही हैं। पुण्य और पाप कभी प्राणी का पीछा नहीं छोड़ते और उस वक्त तक भटकाते हैं जब तक कि वह समता हासिल नहीं कर लेता। दुर्भाग्य, हारी-बीमारी, सुख-दुःख, सफलता-विफलता इसी का परिणाम है। सत्कर्म करते रहो, ईश्वर की शरणागति करो, वर्णाश्रम धर्म का पालन करो और शेष मालिक पर छोड़ दो। 
पंच कर्म :: मोक्ष प्राप्ति के लिए पंच कर्म (सत्कर्मों) की उपयोगिता प्रत्येक मनुष्य-साधक की लिए है। इसमें धर्म, जाती, बिरादरी, वर्ण बीच में नहीं आते। इनकी विशद विवेचना धर्मसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में उपलब्ध है।
(1).  संध्योपासन  :- यद्यपि संध्या वंदन-मुख्य संधि पांच वक्त की होती है जिनमें प्रात: और संध्या की संधि का महत्व ज्यादा है। संध्या वंदन प्रार्थना और ध्यान के माध्यम से किया जा सकता है। यह सकारात्मकता प्रदान करतीं हैं, जीवन में उमंग, ऊर्जा पैदा करतीं हैं। 
(2).  उत्सव :- हर्ष, उल्लास, शादी-विवाह, जन्मोत्सव, तीज-त्यौहार, अनुष्ठान यह अवसर प्रदान करते हैं। ये परस्पर मधुर सम्बन्ध , सम्पर्क स्थापित करने में सहायक हैं। इनसे संस्कार, एकता और उत्साह का विकास होता है। पारिवारिक और सामाजिक एकता के लिए उत्सव जरूरी है। पवित्र दिन और उत्सवों में बच्चों के शामिल होने से उनमें संस्कार का निर्माण होता है वहीं उनके जीवन में उत्साह बढ़ता है। 
(3). तीर्थ यात्रा :- यह मनुष्य को पुण्य प्रदान करती है। पापों का नाश करती है। सामाजिकता का विकास करती है। 
(4).  संस्कार :- संस्कार मनुष्य को सभ्य-सामाजिक बनाते हैं। इनसे जीवन में पवित्रता, सुख, शांति और समृद्धि का विकास होता है। सोलह संस्कार जीवन के कर्म से जुड़े हैं और आवश्यकता के अनुरूप हैं। ये हैं :- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। 
(5).  धर्म :- धर्म का अर्थ है अपने वर्णाश्रम कर्तव्यों का पूरी निष्ठा-ईमानदारी से पालन। धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है। सेवा भावना, दया, दान आदि कर्तव्यों का पालन भी नियमित रूप से करते रहना चाहिए। (5.1). व्रत, (5.2). सेवा, (5.3). दान, (5.4). यज्ञ* और (5.5). कर्तव्य का पालन। यज्ञ के अंतर्गत वेदाध्ययन भी आता है जिसके अंतर्गत छह शिक्षा (वेदांग, सांख्य, योग, निरुक्त, व्याकरण और छंद) और छह दर्शन (न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, साँख्य, वेदांत और योग) शामिल हैं। व्रत से मन और मस्तिष्क सुदृढ़ बनता है वहीं शरीर स्वस्थ और बनवान बना रहता है। दान से पुण्य मिलता है और व्यर्थ की आसक्ति हटती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। सेवा से मन को शांति मिलती है और धर्म की सेवा भी होती है। सेवा का कार्य ही धर्म है।
इन सभी से ऋषि ऋण, ‍‍देव ऋण, पितृ ऋण, धर्म ऋण, प्रकृति ऋण और मातृ ऋण से उपरति होती है।
पाँच तरह के यज्ञ :- (5.4.1). ब्रह्मयज्ञ, (5.4.2). देवयज्ञ, (5.4.3). पितृयज्ञ, (5.4.4). वैश्वदेव यज्ञ तथा (5.4.5). अतिथि यज्ञ।
शास्त्रों के अनुसार कर्म तीन प्रकार के कर्म :- काम्य, निषिद्ध और नित्य। बिना कर्म के ईश्वर भी फल देने में समर्थ नहीं है। सभी कर्मों के परिणाम विधाता तय करता है जो मनुष्य को शुभ और अशुभ फल उसके जन्म-जन्मांतरों के कर्मों के अनुरूप प्रारब्ध के रूप में प्रकट करता है। पूर्व अर्जित कर्म ही शुभ-अशुभ, रोग-वैराग आदि के रूप में प्रकट होते है  और फल के उपरांत नष्ट हो जाते हैं। 
कर्म फल-परिणाम की दृष्टि से कर्म :: प्रारब्ध, संचित और वर्तमान-तत्काल फलदाई हो सकते हैं। प्रारब्ध को पूरी तरह बदला नहीं जा सकता, परन्तु उसमे सुधार-संशोधन अवश्य किया जा सकता है। संचित कर्म और तत्काल कर्म भविष्य को बदलने में कुछ-कुछ सहायक हो सकते हैं। 
कर्म के 5  कारण :: अधिष्ठान, कर्ता, भिन्न-भिन्न करण, नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ तथा दैव। सब भूतों में एक परमात्मा का ज्ञान सात्विक, भेद ज्ञान राजस और अतात्विक ज्ञान तामस है। निष्काम भाव से किया कर्म सात्विक, कामना के लिए किया कर्म राजसिक तथा मोहवश किया गया कर्म तामस है। कार्य की सिद्धि-असिद्धि में सम (निर्विकार) रहने वाला सात्विक, हर्ष-शोक करने वाला राजस तथा शठ और आलसी कर्ता तामस कहलाता है। कार्य-अकार्य के तत्व को समझने वाली बुद्धि सात्विक, उसे ठीक-ठीक न जानने वाली बुद्धि राजसिक तथा विपरीत धारणा रखने वाली बुद्धि तामसिक मानी  गयी है।
One should understand-realise the essence-gist of pious-righteous actions, vices-wretched-immoral actions-sins and inaction because the effects-results-outcome of actions is hidden-deep.
Deeds-actions can be divided into three categories according to their impact over the inner self-thinking of the individual. (1). Basic : (1.1). Vested-latent-contained-entrusted & (1.2). Ordained, prescribed-proper-determined-fit, (2). Deeds not accomplished-undone-inaction (having no impact over the doer) & (3). Vices-sins-wretched-immoral acts. Any result oriented action performance is deed. Actions made-done without desire-motive turn into deed undone-not performed. Ordained, prescribed-proper-determined-fit performed with the desire-motive of harming others turn into sins. Any deed against the scriptures too is sin. Understanding of the fact that performances without involvement-attachment, is knowing the gist of deeds. Performances associated with equanimity, turn into deeds undone, how so ever intricate-horrific may they be. Understanding the gist of deeds undone and their summary rejection is essential. Its extremely difficult-intricate to know the orientation of the outcome-result of deeds due to the association of ego-pride and desire-motive for comforts-luxuries.[Shri Mad Bhagwat Geeta 4.16] 
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। 
शरीरयात्रापि च तेन प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥
तुम शास्त्र-विहित कर्मों को करो क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना ही श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तो तुम्हारा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।[श्रीमद्भागवद गीता 3.8] 
One must perform the prescribed duties-actions-deeds described-explained in scriptures, since its appreciable-better-superior to perform than not to do and its not possible to maintain the body if one fails to carry out routine-daily chores. 
दो प्रकार के कर्म :: (1). विहित कर्म (Ordained, prescribed, proper, fit, determined) :: व्रत, उपवास, उपासना और (2). निहित कर्म (Contained, latent, entrusted, vested) :: वर्णाश्रम, स्वभाव, परिस्थिति जन्य कर्म।
शास्त्र विहित कर्मों को पूरी तरह करना-निवाहना सरल नहीं है, परन्तु निषिद्ध कर्मों जैसे चोरी करना, झूठ बोलना, हिंसा आदि का त्याग सुगम है।
निहित कर्म के उदाहरण :: भोजन करना, व्यापार, घर बनवाना, रास्ता दिखाना आदि। क्षत्रिय होने के नाते वर्ण धर्म के अनुसार परिस्थिति वश प्राप्त युद्ध हिंसात्मक होते हुए भी घोर नहीं, अपितु नियत-स्वधर्म है। इन दोनों को विद्वान एक ही मानते हैं। यद्यपि युद्ध दुर्योधन के लिए भी नियत कर्म था, परन्तु उसमें अन्याय शामिल था।
दोषयुक्त होने पर पर भी नियत-सहज कर्म का त्याग न करके व्यक्ति को उसे अनासक्ति भाव से करना चाहिये क्योंकि यह कर्मों से सवर्था सम्बन्ध विच्छेद करा देता है। कर्म करते हुए ही कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेना चाहिये।
जैसे ज्ञान योग में विवेक के द्वारा सम्बन्ध विच्छेद होता है वैसे ही कर्म योग में कर्तव्य-कर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने से संसार से सम्बन्ध विछ्छेद हो जाता है।
निष्काम भाव से किया गया कर्म सकाम भाव से किये गए कर्म और ज्ञान योग से भी श्रेष्ठ है।
Scriptures have divided the duties-deeds-actions in two categories: (1). Ordained, prescribed, proper, fit, determined and (2). Contained, latent, entrusted, vested. Its not easy to carry out, perform the prescribed duties easily (properly) due to the procedural intricacies (difficulties, troubles, possible mistakes). But what one can do easily is to speak the truth, reject violence, animal slaughter, meat eating, murders, terrorism, abstain from stealing.
Examples of entrusted (vested duties, deeds) :: Eating, house building, business, showing (paving) the path. Being a warrior its one's duty to fight without indulgence negative attitude, even though it involves violence. Its essential for him. Its fixed-own duty. The learned consider these two to be the same (identical). Though war was an essential, compulsory, mandatory duty for Duryodhan as well, yet injustice was involved in it. In spite of being defective-smeared, one must not reject the prescribed duties. However, one should perform them without involvement or indulgence. A deed performed without motive or desire to harm others, detaches one from its negative outcome (bad impact, effect). One must perform,  keeping him self detached-unsmeared.
The way prudence detaches one from the world (impact of the deeds); Karm Yog detaches one from the out come-impacts of the endeavours (like killing the guilty, culprit, murderer, intruder, terrorist, attacker in war). There should be no guilty feeling.
A deed performed without attachment is appreciated and held superior to enlightenment and the duties (endeavours) under taken for the sake of benefit-profit-result-reward.
Breathing-respiration, eating, drinking, excretion, heart beating-pulse, movements are the activities-Karm one keep on performing till he is alive. Karm may be categorised as voluntary and involuntary, prescribed and mandatory as well.
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥
प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि काल में यज्ञ-कर्तव्य कर्मों के विधान सहित मनुष्यों (प्रजाओं) को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि करो और यह कर्तव्य-कर्म रूपी यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग-आवश्यक सामग्री प्रदान करने वाला हो।[श्रीमद्भगवद्गीता कर्म योग 3.10]
At the beginning of his day Brahma Ji created the Humans & specified their duties as well. He issued direction to perform deeds-Yagy etc. to attain the desired-essential goods to survive.
प्रजापति ब्रह्मा जी ने श्रष्टि की रचना की और समस्त प्राणियों के कर्तव्य कर्मो का निर्धारण  किया। इन सब में केवल मनुष्य मात्र ही कर्म करने में सक्षम हैं। शेष योनियाँ भोग योनियाँ हैं। कर्म यज्ञ को निरूपित करता है। द्रव्य, तप, योग, वर्णाश्रम धर्म, निहित और विहित कर्म  केवल लौकिक और पारलौकिक उन्नति के हेतु हैं। मनुष्य जन्म का मूल कारण आत्मा की शुद्धि और परमात्मा में विलय है।
Amongest the various creations of the creator-Brahma Ji, its only the human being who has been blessed with the capability of performing various activities for relinquishing to assimilate in the Almighty. All other organisms, including the divine once are meant for experiencing the outcome, reward or punishment of their deeds, accumulated, by virtue of destiny and the present ones. The deeds have special significance in the charter of Brahma Ji. Deeds described in the scriptures are meant for salvation-purification. One can make efforts to improve his present and future. The reason behind human incarnation is to grant opportunity to achieve assimilation in God.
The stress is over purity of means for earning livelihood for subsistence. All duties, functions including prayers, worship are covered under it.
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥
विवेकशील बुद्धि के द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा मुझ में अर्पण करके आशा-कामना रहित, ममता रहित और सन्ताप रहित होकर (तुम) युद्ध रूपी कर्तव्य-कर्म करो।[श्रीमद्भागवद गीता 3.30
One should renounce all action in  the Almighty by concentrating in HIM only and perform-discharge his duties, without motive-free from desires (affections, selfishness), with fervour devoid of worries (grief, sorrow).
मनुष्य को चाहिए कि वह सम्पूर्ण कर्मों को अध्यात्म चित्त (विवेक, विचार युक्त, अन्तः करण) से परमात्मा को समर्पित कर दे। इससे बंधन नहीं रहेगा। साधक का उद्देश्य आध्यात्मिक होना चाहिए, लौकिक नहीं। कामना अनित्य तत्व-विनाश शील हैं। अविवेक से विनाश शील संसार-शरीर अपना दिखाई पड़ता है। विवेक से देखने पर अविनाशी परमात्म तत्व दिखाई देगा। आध्यात्मिकता नित्य तत्व है। राग-द्वेष, काम-क्रोध, ज्वर-संताप हैं। कौटुम्बिक स्नेह से संताप कष्ट-दुःख की संभावना है। भगवान् ने इसीलिए निष्काम, निर्मम और नि:संताप होकर समभाव से युद्ध-घोर क्रूर कर्म-यज्ञ करने की आज्ञा दी है। यदि कल्याण-श्रेय की इच्छा है, तो युद्ध से बचो-डरो मत। 
One should perform all his prescribed and entrusted duties & then  surrender them to the Almighty to detach himself from bonds-ties. Imprudence compels the individual to the worldly affairs. One's motive should be spirituality, which is continuous, never ending, all pervading, for ever. Worldly affairs & objects are periodic (impermanent, temporary), like a phase, perishing. Prudence guides one to the Almighty. The Almighty asks one-Arjun, to perform the cruel (tough task) of war. War can save one from dreaded pains (sorrow, grief) if fought with equanimity for the welfare. The prime motive should be welfare.
The society is full of goons, antisocial, demonic, brute, barbarians, terrorists. By the time one toes their line, bows in front of them; they will continue exploiting, inflicting injuries, tortures. So wake up, unite and pounce upon them. Sooner or later one has to die. Control them, eliminate them and live peacefully. 
The law enforcing agencies will wake up late and by that time you will be finished. In today's scenario the law makers, police are all sold off. You have prepare your own to protection shield.
While performing duties, situation comes when one indulges in personal enmity. It should always be avoided.
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥
कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसका निर्णय करने में बुद्धिमान भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए, मैं तुमसे वह कर्म-तत्व कहूँगा जिसे जानकर तुम अशुभ (कर्म, संसार बंधन) से मुक्त हो जाओगे।[श्रीमद्भागवद गीता 4.16
One, the wise, enlightened too, get deluded in understanding the nature of action (work, function, endeavour, deed) and inaction? Therefore, the Almighty decided to explain-elaborate the gist of action, which liberates one  from the inauspicious (bondage from actions).
भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि केवल शरीर ही नहीं अपितु मन, वाणी के द्वारा होने वाली क्रियाएँ (विचार) भी कर्म हैं। कर्म का भाव जैसा होगा वैसा ही स्वरूप वह ले लेगा जायेगा :- सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक, यद्यपि देखने में वे  एक से ही लगते हैं। उपासना, साधना सात्विक है, परन्तु यदि उसे कामना पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया जाये, तो वही राजसिक तथा किसी के नाश के लिए किया जाये तो वही तामसिक हो जाती है। प्रवृति अथवा निवृति मार्ग दोनों ही मुक्ति के साधन बन जाते हैं। वही कर्म, अकर्म हो जाता है, यदि कर्ता में फलेच्छा (आसक्ति, राग, द्वेष, ममता) नहीं है, यह निर्लिप्तता है। इस बात को समझना कि ये दोनों ही मुक्ति के मार्ग हैं, कर्म-तत्व को जानना है। कर्म जीव को बाँधता है और अकर्म (पारमार्थिक) मुक्ति दाता है। सात्विक त्याग में कर्म करना भी अकर्म है। कर्म और अकर्म की विभाजन रेखा इतनी बारीक-महीन है कि शास्त्रों का ज्ञाता, अच्छे से अच्छा अनुभवी और तत्वज्ञ-विद्वान भी मोहित हो जाता है। कर्मयोग और त्याग में विवेक की प्रधानता से ये पारमार्थिक कर्म ही किये जाते हैं। कर्म तत्व के इस रहस्य को समझने के बाद मनुष्य भव सागर के पार उतर जाता है।
Bhagwan Shri Krashn explained to Arjun that its not only the body which perform, but the brain (thoughts, ideas and speech) too works. It is the motive (idea, concept) behind actions, which makes them Satvik-pure, Rajsik-desirous & Tamsik (contaminated, stained, slurred, polluted) by the desire of harming some one. The prayers too turn to Satvik, Rajsik or Tamsik according to the thinking of the individual. Intentional or otherwise, both type of deeds turn into zero, leading one to freedom from reincarnations, if there is no desire, attachment, allurement, enmity. Both of these are modes of Liberation if intentions are pure for the sake of improving the society-helping others. The line drawn between Karm-work and Akarm-no work is so fine that, it often confuses the most intelligent (enlightened, wise) knowing the gist, understanding of scriptures, Varnashram Dharm. Karm Yog and renunciation associated with prudence becomes devotional for the society as a whole. The purity of theme (gist, central idea) behind the thoughts is sufficient to sail through the ocean, called living world.
Its the intention which makes the motive Satvik, Rajsik or Tamsik. Good intention is Satvik and bad intention is Tamsik.
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥
कर्म का तत्व-स्वरूप भी जानना चाहिए और विकर्म का तत्व-स्वरूप भी जानना चाहिए तथा अकर्म का तत्व-स्वरूप भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्मों की गति गहन-छिपी हुई-कठिन है।[श्रीमद्भागवद गीता 4.17
One should understand-realize the essence-gist of pious-righteous actions, vices (wretched, immoral actions, sins) and inaction because the effects, results, outcome of actions is hidden-deep. 
अन्तःकरण के भाव से कर्म के तीन भेद हैं। कर्म, अकर्म और विकर्म। सकामभाव से की गई कोई भी क्रिया कर्म बन जाती है। फलेच्छा, ममता, आसक्ति से रहित परमार्थ कर्म अकर्म बन जाता है। विहित कर्म यदि अहित की भावना अथवा दुःख पहुँचाने के भाव-इच्छा से किया गया तो वह भी विकर्म-पाप बन जायेगा तथा शास्त्र निषिद्ध कर्म तो विकर्म है ही। निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना ही अकर्म के तत्व को जानना है। कामना से कर्म होते हैं और कामना बढ़ जाने से विकर्म। समतापूर्वक किया गया विकर्म भी अकर्म बन जाता है।विकर्म के तत्व को जानना है, उसका और कामना का स्वरूप से त्याग करना है। 
कर्म की गति को कर्तव्याभिमान और फलेच्छा-सुखेच्छा के रहते जानना-समझना बेहद कठिन (क्लिष्ठ, मुश्किल) है।
Deeds-actions can be divided into three categories according to their impact over the inner self-thinking of the individual. (1). Basic: (1.1). Vested (latent, contained, entrusted) & (1.2). Ordained, prescribed (proper, determined, fit), (2). Deeds undone (inaction, having no impact over the doer) & (3). Vices (sins, wretched, criminal offences, immoral acts). Any result oriented action performance is deed. Actions made (done without desire, motive turn into deed undone, not performed). Ordained, prescribed (proper, determined, fit) performed with the desire-motive of harming others, turn into sins. Any deed against the scriptures too is  a sin. Understanding of the fact that performances without involvement-attachment, is knowing the gist of deeds. Performances associated with equanimity, turn into deeds undone, how so ever intricate-horrific may they be. Understanding the gist of deeds undone and their summary rejection is essential. Its extremely difficult-intricate to know the orientation of the outcome-result of deeds due to the association of ego-pride and desire-motive for comforts-luxuries.
One has to perform till he is alive. His actions should be free from desires, motives, own benefit if he wish to attain Salvation. The deeds may be virtuous in one situation and yet a sin in another. 
कर्मण्यकर्म यः पश्येद-कर्मणि च कर्म यः। 
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥
जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी सभी कर्मों को करने वाला है।[श्रीमद्भागवद गीता 4.18 
One who sees (finds, perceives, observes) inaction in action and action in inaction, he is wise-enlightened among humans. He is a Yogi-established and is the doer-performer of all actions; nothing remains to be done by him.
जब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है, कर्म करना अथवा न करना दोनों ही कर्म हैं। कोई भी कर्म करते हुए अथवा न करते हुए उससे निर्लिप्त रहना, यानि कि प्रवृति अथवा निवृति न रखना, मनुष्य को बन्धन मुक्त रखता है। यह योगी का लक्षण है। निर्लिप्तता स्वयं के लिये और कर्म संसार-प्रकृति के लिये हैं, धर्म स्वरुप हैं। परिवर्तन शील प्रकृति और निवृति का आरम्भ और अंत होता है, मगर परम निवृत तत्व-अपने स्वरूप का अन्त नहीं होता। जो बुद्धिमान है, वह इस कर्म तत्व को समझ लेता है अर्थात उसने सब कुछ जान लिया। फल की इच्छा न रखने से राग उत्पन्न नहीं होता और परमार्थ-हित करने से साधक वीतराग हो जाता है और सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। कर्म योगी सिद्धि और असिद्धि में सम रहता है। वह फलेच्छा, ममता और आसक्ति का त्याग करके केवल दूसरों के लिये कर्तव्य-कर्म करता है। करना, जानना और पाना शेष न रहने से वह कर्मयोगी अशुभ संसार बंधन से मुक्त हो जाता है। 
By the time one has relation with the nature i.e., he is alive; whether he does any thing or not, he is continuously working (functioning, performing). Whether one does any thing or not his indifference (detachment, dissociation) keeps him free from bonds-ties. Neither he intends to do nor desires to detach to remain aloof. This is the characteristics of a Yogi. Detachment is for himself and performances are for the nature i.e., for others. The nature and intentions-tendencies to detach have a beginning and end, but the own self (inner self, soul) has no end. The intelligent-prudent, grasp the gist (extract, theme) of this concept. Understanding of this concept means that he has understood every thing. Loss of desire to have the reward of deeds creates detachment and he start functioning in the interest of others-society which relinquishes him and he weighs the work and no work equally. 
He, the Karm Yogi has acquired equanimity in achievements and failures-no success. He rejects the desires for reward, affections, attachments, allurements and performs for the service-as a duty, for the sake of others, in need. The Karm Yogi has nothing to do, know or receive and this makes him free from the inauspicious bonds (clutches, ties) in this  world-universe.
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः। 
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे॥
कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्म मात्र दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं।[श्रीमद्भागवद गीता 18.3
आत्मा मनुष्य योनि में इसलिए आती है ताकि कुछ ऐसे कर्म कर सके, जिनसे उसे पुनर्जन्म से मुक्ति प्राप्त हो जाये। अतः वर्णाश्रम धर्म-कर्म का पालन पूर्ण रूप से शास्त्रोक्त है। मनुष्य को चाहिए कि तीसरी अवस्था-वानप्रस्थ और चौथी अवस्था-सन्यास में यह यज्ञ, दान और तप आदि भी करे। गृहस्थाश्रम में ये कार्य किये जा सकते हैं। पाप-बुराई दूसरों को कष्ट आदि से पूर्ण तया बचना चाहिये। मानवता की भलाई के लिये जो भी कुछ संभव हो बगैर किसी हिचक के करना चाहिये।
Many Philosophers say that all Karm (endeavours, goals, targets, actions, duties, deeds) should be abandoned-renounced as defects (evils) and many Scholars, philosophers, enlightened, learned-Pandits  say that Yagy (sacrifice in Holi fire), Dan (charity, donations, social welfare), austerity and Tap (asceticism), should not be renounced.
One must continue with these practices. This opinion is against the desertion of Yagy, Dan, Tap. But, in addition to these three :- Varn Dharm, Ashram Dharm, (Varnashram Dharm) Dharm as per the need of a difficult situation or unavoidable circumstances, must continue.
There are the duties which must not be renounced at any cost or under any circumstances : One must (1). perform daily routine like morning-evening prayers (Sandhya), (2). perform the duties pertaining to certain cause, motive, reason depending upon the current condition of their land, needs and time; (3). make efforts for protection from the evil, unforeseen, bad omens as per dictates of the divine procedures laid down in scripts like Markandays Puran, (4). be committed to penances in consultation with the enlightened-Priests, (5). perform essential duties to be alive and make living to survive like eating, drinking, sleeping, waking up etc., in addition to physical exercise-Yog.
In the opinion of the Almighty, these duties ought to be discharged, if one is not doing them. In addition to these fasting and pilgrimage, should also be under taken by forbidding the reward, outcome and attachment.
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥
यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अत्यावश्यक-जरूरी कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप, ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों-मनीषियों को पवित्र करने वाले हैं।[श्रीमद्भागवत गीता 18.5] 
नित्य, नैमित्तिक, जीविका सम्बन्धी, शरीर सम्बन्धी आदि जितने भी कर्तव्य कर्म बताये गए हैं, वे सभी अनिवार्य हैं। इतना ही नहीं, वे तो मनीषियों को पवित्र करने वाले भी हैं। दुर्गुण, दुराचार, पाप, मल को दूर करना महान आनन्द दायक है। मनीषी-विचारशील वे हैं, जो सम बुद्धि से युक्त होकर कर्मजन्य फल का त्याग कर देते हैं। यज्ञादि कर्म ऐसे मनीषियों को पवित्र करते हैं, जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं। जो लोग केवल सुख भोग के लिये यज्ञ, दान आदि करते हैं; उनको ये कर्म पवित्र नहीं कर पाते। अगर कोई कर्म अपनी भलाई और दूसरे का बुरा करने के लिए किया जाये, तो वो भी अपवित्र करने वाला, लोक-परलोक में भी महान दुःख देने वाला बन जाता है। 
Yagy (worship sacrifices in holy fire-Hawan), Dan (gifting, charity, donations, social welfare, helping the needy in distress) and Asceticism-austerity should not be renounced. Besides these the thoughtful (Karm Yogi, Enlightened, Wise, Prudent, Intellectuals, the Learned, Scholars, the Pandits, Brahmans, Philosophers), should continue to do them, since these three purify them.
Here the stress is over the ability of the performer. The individual should be a person who is capable to perform these activities. Yagy, Dan-donation requires money, desire and strong will power, while asceticism needs strong will power, desire, a bent of mind, dedication and deep faith in the Almighty. One should be blessed with the sense of submission, devotion and offer each and every possessions to HIM-the Almighty.
In addition to Yagy, Dan and Tap vital functions like teaching-learning, agriculture-business, eating-drinking, moving, sleeping-waking, interactions in the family- society etc. and essential functions, actions, duties arising out of a difficult situation, must be performed by renouncing both attachment and reward.
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च। 
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥
हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को आसक्ति और फलों की इच्छा का त्याग करके करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।[श्रीमद्भागवद गीता 18.6 
यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों साथ-साथ मनुष्य को पठन-पाठन, खेती-बाड़ी, जीविका हेतु तथा नित्य कर्म खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना आदि शारीरिक कर्म और परिश्थिति जन्य आवश्यक कर्तव्य-कर्मों को आसक्ति-फलेच्छा का त्याग करके जरूर करना चाहिये। 
अपनी कामना, ममता, और आसक्ति का त्याग करके कर्मों को केवल प्राणी मात्र के भले के लिए करने से कर्मों का प्रवाह संसार के लिए और योग का प्रवाह स्वयं के लिये हो जाता है। अपने हेतु किया गया कर्म बन्धन कारक हो जाता है और अपना व्यक्तित्व परमात्मा में विलय नहीं होने देता। 
O Parth! All these Karm (Yagy, Dan, Tap) and various other Karm (act, actions, functions, work, performances, duties, jobs) should be performed by renouncing the attachment and desire of the Karm Fal (reward, result, out come, out put); is the sole doctrine established by the Almighty HIMSELF.
The sole and absolute doctrine of the Almighty is in favour of performance of these three acts by renouncing the fruits of actions and attachment, with dedication. It’s not possible to renounce the Fal of all Karm, since one can’t survive by renouncing them. One must renounce both attachment and reward. What is renounced by one indeed-in reality, does not belong to him but is considered to be of his own by illusion.
Quantum of Karm depends upon the desire for industry. Karm Yog is detachment from the desires of reward of industry. Karm is meant for the satisfaction or fulfilment of Rag (deep attachment to desires and motives), as well as for the abolition of desires for the Rag-attachment itself. Performance for self, enhances the Rag, while working for the benefit, upliftment and progress of the entire mankind (society), by the Karm Yogi, paves the path for his Salvation. With the abolition of Rag, one attains Salvation automatically, which is the firm opinion of the Almighty.
One who reads, studies, learn-understand and utilises Geeta, in his day-today life, automatically qualifies for SALVATION. It should be revealed only to those who are eager, desirous, interested in listening, learning, understanding the text. The ignorant, indifferent, idiot should not be compelled to read or listen this sacred text.
The Almighty descended over the earth to vanish the evil, vices, cruelty, wretchedness, sins to relinquish the earth on her request; as an incarnation known as Bhagwan Shri Krashn (Complete incarnation). HE had all other  incarnations like  of Bhagwan Vishnu-Narayan as well composed in HIM. Bhagwan Shri Hari Vishnu himself is a component of the Almighty. HE entered into conversation with Arjun (incarnation of Nar) to set him free from the illusion to eliminate the evil. The conversation dictated by Bhagwan Ved Vyas was inked by Ganesh Ji Maharaj for the benefit of entire mankind. This is extremely beneficial-useful during Kali Yug the present cosmic era. Chapter-18 of this conversation has great significance, as it leads the devotee to Salvation. The Param Pita Per Brahm Parmeshwar emerged with all of his powers and incarnations (Bhagwati, Sada Shiv, Maha Vishnu, Maha Brahm, Nar-Narayan etc.) through Shri Krashn showing his Virat Roop-ULTIMATE EXPOSURE. This incarnation is cants.
इष्ट और पूर्त कर्म ::
श्रद्धयेष्टं च पूर्तं च नित्यं कुर्यादतन्द्रितः। 
श्रद्धाकृते ह्यक्षये ते भवतः स्वागतैर्धनैः॥
इसलिये इष्ट (अग्निहोत्र, पूर्णमास, चातुर्मास) और पूर्त दोनों कर्मों को सदा आलस्य रहित होकर श्रद्धा पूर्वक करना चाहिये। न्यायोचित धन से श्रद्धा द्वारा किये गए ये दोनों शुभ कार्य मोक्ष के कारण होते हैं। [मनुस्मृति 4.226]
Veds have described two types of Karm which one should do with faith-devotion without laziness. The first is Isht Karm that includes Yagy as daily  routine, monthly practice and after the completion of 4 months. Purt Karm are social-religious activities pertaining to digging of wells, water bodies for storage etc. However, one should utilise the money by earning it through honest, virtuous, pious means and offer happily with faith in the Almighty. These two practices leads one to Salvation-assimilation in the God-Moksh-freedom from rebirth.
दानधर्मं निषेवेत नित्यमैष्टिकपौर्तिकम्। 
परितुष्टेन भावेन पात्रमासाद्य शक्तितः॥
यज्ञ और पूर्त सम्बन्धी दान धर्म सत्पात्र को पाकर सदा प्रसन्न मन से यथाशक्ति करना चाहिये।[मनुस्मृति 4.227] 
One should donate freely-open heartedly-happily as per his ability for sacrifices in holy fire i.e., Yagy-Hawan-Agnihotr or construction of garden, inn, temple, roads, hospitals, water reservoirs, community center or some religious activity if he finds a suitable-deserving person performing that job, etc.
पूर्त :: पूरी तरह से भरा हुआ, छाया या ढका हुआ, आवृत्त, पालित, रक्षित, पूर्णता,  खोदने अथवा निर्माण करने का कार्य; पुष्करिणी, सभा, वापी, बावली, देवगृह, आराम बगीचा, सड़क, देवगृह, वापी आदि का बनवाना जो धार्मिक दृष्टि से उत्तम कर्म माना गया है; construction of garden, inn, temple, roads, hospitals, water reservoirs, community center etc. for religious purpose.
यत्किञ्चिदपि दातव्यं याचितेनानसूयया। 
उत्पत्स्यते हि तत्पात्रं यत्तारयति सर्वतः॥
किसी के याचना करने पर जो कुछ हो सके उसे श्रद्धा पूर्वक देना चाहिये, क्योंकि दानशील पुरुष के पास किसी दिन ऐसा पात्र-अतिथि भी आ जाता है, जो उसका सब पापों से उद्धार कर देता है।[मनुस्मृति 4.228] 
One should oblige-donate happily on being requested by some one-needy, since occasionally someone comes to the person who donates happily, who can liberate him from all sins.
शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसंभवम्।
कर्मजा गतयो नॄणामुत्तमाधममध्यमः
शुभाशुभ फल देने वाले कर्म का उत्पत्ति स्थान मन, वाणी और देह हैं। कर्म से ही मनुष्यों की उत्तम, मध्यम और अधम गति होती है।[मनुस्मृति 12.3]
The source of bad or good outcome (reward & punishment) are innerself (psyche, gesture, mind, mood), speech and the body. Karms-deeds yield the Ultimate, normal or worst outcome-result, impact to the organism-creature.
तस्येह त्रिविधस्यापि त्र्यधिष्ठानस्य देहिनः।
दशलक्षणयुक्तस्य मनोविद्यात्प्रवर्तकम्॥
उस शरीर सम्बन्धी त्रिविध (तीनों उत्तम, मध्यम, अधम) और दस लक्षण से युक्त तीनों (मन, वाणी, शरीर) अधिष्ठानों के आश्रय में रहने वाले धर्मों का प्रवर्तक मन ही होता है।[मनुस्मृति 12.4] 
The innerself constituting of ten characteristics of the three organs (innerself, speech & body) is the regulator of all the Dharm-deeds (things ought to be done) through the body, experiencing the three kinds of impact-output (excellent, average and the poor-worst). 
पुरुष मन से जो विचार करता है, वही वाणी से बोलता है और जो वाणी से बोलता है वही कर्म करता है। [तैतिरीय उपनिषद]
The humans speak what they think and implement their ides through the body.
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसाऽनिष्टचिन्तनम्।
वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्
दूसरे का धन अपहरण करना, अन्याय करना-चित्त में दूसरे के अनिष्ट का चिंतन करना, मिथ्या अभिनिवेश (स्वर्ग नहीं है, जो कुछ है वह शरीर ही है) करना; ये तीनों प्रकार के अशुभ फल देने वाले मानस कर्म हैं।[मनुस्मृति 12.5] 
Planning to snatch other's (1). belongings (property, wealth, money etc.), (2). harming & that (3). there is nothing other than this body i.e., life after death does not exist, whatever is there is just the body, nothing else; are the three kinds of mental sins which award inauspicious yield-results-punishments.
Harming, teasing others in anyway, mentally or physically, adherence to false doctrines-notions, are sinful mental action. An atheist, who consider that the God does not exist and he is free to do any thing, is also equally sinful.
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः।
असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्
कठोर और झूँठ बोलना, दूसरे के दोषों को बताना और बिना अभिप्राय के वचन बोलना ये चार प्रकार के अशुभ फ़ल देने वाले वाणी के कर्म हैं।[मनुस्मृति 12.6] 
Speaking plain truth-harsh words and telling lies, describing other's faults and speaking anything without motive i.e., useless talk-gossip, which may not be liked by others, are the four kinds of words which leads to inauspicious results.
Abusive language and talking idly are verbal evils-action.
अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।
परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम्
किसी की (न दी हुई) वस्तु को बल पूर्वक ले लेना-छीन लेना, बिना विधान के हिंसा करना और पर स्त्री का सेवन; ये तीनों शारीरिक दुष्कर्म हैं।[मनुस्मृति 12.7] 
Snatching others belongings by force, undue-unnecessary violence and raping other's women-wife are physical crimes-sins.
These three kinds of wicked actions are performed through the body.
मानसं मनसैवायमुपभुङ्क्ते शुभाशुभम्।
वाचा वाचा कृतं कर्म कायेनैव च कायिकम्
मन से किये हुए कर्म का फल मन से, वाणी से किया हुआ वचन से, देह से किया हुआ कर्म का फल देह को भुगतना-भोगना पड़ता है।[मनुस्मृति 12.8] 
One has to bear the outcome of thoughts through the innerself, that of speech-words through the promises-vows, listening and those performed physically through the body.
शरीरजैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः।
वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम्
शरीर से उत्पन्न कर्म दोषों के फलों से मनुष्य स्थावरता, वाचिक दोषों से पक्षी और मृगत्व को और मानस दोषों से चाण्डालादि जाति-योनि को प्राप्त होता है।[मनुस्मृति 12.9]  
One moves to fixed species (trees, plants, shrubs etc.) due to the wrong deeds performed bodily, to birds or deer like species due to the evil deeds done verbally-speech and to the birth as a Chandal for the ill deeds performed mentally.
वाग्दण्डोऽथ मनोदण्डः कायदण्डस्तथैव च।
यस्यैते निहिता बुद्धौ त्रिदण्डीति स उच्यते
वाग्दण्ड, मनोदण्ड और देहदण्ड ये जिसके बुद्धि में स्थित हैं, उसको त्रिदण्डी कहते हैं अर्थात जो बुद्धि, मन, वचन और शरीर से दुष्कर्मों से अलग रहता है।[मनुस्मृति 12.10]  
One who controls his tongue-speech, thoughts-Man and the body is called Tridandi. He do not indulge in sins pertaining to speech-words, intelligence-prudence and the body.
त्रिदण्डमेतन्निक्षिप्य सर्वभूतेषु मानवः।
कामक्रोधौ तु संयम्य ततः सिद्धिं नियच्छति
जो मनुष्य काम-क्रोध का संयम करके सभी प्राणियों के साथ इस त्रिदण्ड (बुद्धि, मन, वचन और शरीर से दुष्कर्मों से अलग रहना) का व्यवहार करता है, वह सिद्धि को प्राप्त होता है।[मनुस्मृति 12.11]   
One who controls-subdues his sensualities-passions and the anger-aggression and behaves with all the creatures-organism according to Tridand attains complete accomplishment-success. 
योऽस्यात्मनः कारयिता तं क्षेत्रज्ञं प्रचक्षते।
यः करोति तु कर्माणि स भूतात्मोच्यते बुधैः
जो व्यक्ति शरीर का ज्ञाता है, उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं और जो कर्मों को करता है, उसको पण्डित लोग भूतात्मा कहते है।[मनुस्मृति 12.12]   
One who aware of his body and makes it perform deeds is called Kshetragy and the one who perform deeds is termed Bhutama.
असंख्या मूर्तयस्तस्य निष्पतन्ति शरीरतः।
उच्चावचानि भूतानि सततं चेष्टयन्ति याः
उस परमात्मा के शरीर से असँख्य मूर्तियाँ निकलती हैं जो छोटे-बड़े सभी जीवों को सत्कर्म में प्रवृत करती हैं।[मनुस्मृति 12.13]   
Innumerable forms (of the almighty) moves out of the Almighty which impel the organisms from small to large organisms in pious deeds.
यदि तु प्रायशोऽधर्मं सेवते धर्ममल्पशः।
तैर्भूतैः स परित्यक्तो यामीः प्राप्नोति यातनाः
यदि वह जीव अधिक पाप और कम धर्म-कर्म करता है तो उन भूतों से परित्यक्त होकर यम यातना भोगता है।[मनुस्मृति 12.21]   
If the organism performs more evil (impious, wretched) deeds as compared to Dharm-pious (virtuous, righteous, honest, truthful) deeds, he is made to suffer by the tortures, pain inflicted by Yam the deity of death & Dharm (in hells & lower species).
साधन पंचकम् :: 
वेदो नित्यमधीयताम्, तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां, 
तेनेशस्य विधीयतामपचितिकाम्ये मतिस्त्यज्यताम्।
पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोSनुसंधीयतां, 
आत्मेच्छा व्यवसीयतां निज गृहात्तूर्णं विनिर्गम्यताम्॥1॥ 
वेदों का नियमित अध्ययन करें, उनमें कहे गए कर्मों का पालन करें, उस परम प्रभु के नियमों का पालन करें, व्यर्थ के कर्मों में बुद्धि को न लगायें। समग्र पापों को जला दें, इस संसार के सुखों में छिपे हुए दुखों को देखें, आत्म-ज्ञान के लिए प्रयत्नशील रहें, अपने घर की आसक्ति को शीघ्र त्याग दें। 
Learn the Veds regularly, follow their tenets, follow the regulations of the God (perform your duties) and do not waste energy (never learn undesirable things) in useless jobs. Get rid of the sins, recognise the hidden pains, sorrow, troubles, intricacies in this universe (& detach from them), prepare your self for enlightenment rejecting the attachment for your home (the Soul should be ready to desert the body without attachment).
संगः सत्सु विधीयतां भगवतो भक्ति: दृढाऽऽधीयतां,
 शान्त्यादिः परिचीयतां दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम्।
सद्विद्वानुपसृप्यतां प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां, 
ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रुतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्॥2॥ 
सज्जनों का साथ करें, प्रभु में भक्ति को दृढ़ करें, शाँति आदि गुणों का सेवन करें, कठोर कर्मों का परित्याग करें, सत्य को जानने वाले विद्वानों की शरण लें, प्रतिदिन उनकी चरण पादुकाओं की पूजा करें, ब्रह्म के एक अक्षर वाले नाम ॐ के अर्थ पर विचार करें, उपनिषदों के महावाक्यों को सुनें। 
Enjoy the company of pious people (learned, enlightened, scholars, Pandits, Philosophers, Sages, Saints), be devoted to the Almighty with firm determination, reject tough tasks (murdering, crime, torturing others, sacrifices), prefer silence, solitude, isolation, shelter-protection under the Almighty-i.e., never speak unnecessarily or utter painful words, look to those who have identified the truth, take part in the sermons, discourses, speeches, preaching by the enlightened, meditate-concentrate in Om  and listen (understand, practice, analyse) the dictates-guide lines of Upnishads.
वाक्यार्थश्च विचार्यतां श्रुतिशिरःपक्षः समाश्रीयतां, 
दुस्तर्कात् सुविरम्यतां श्रुतिमतस्तर्कोऽनुसंधीयताम्।
ब्रम्हास्मीति विभाव्यतामहरहर्गर्वः परित्यज्यताम्, 
देहेऽहंमति रुझ्यतां बुधजनैर्वादः परित्यज्यताम्॥3॥ 
वाक्यों के अर्थ पर विचार करें, श्रुति के प्रधान पक्ष का अनुसरण करें, कुतर्कों से दूर रहें, श्रुति पक्ष के तर्कों का विश्लेषण करें, मैं ब्रह्म हूँ ऐसा विचार करते हुए "मैं रुपी अभिमान" का त्याग करें, "मैं शरीर हूँ", इस भाव का त्याग करें, बुद्धिमानों से वाद-विवाद न करें। 
Always concentrate over the theme, central idea, roots, gist (nectar, ambrosia) of the enlightenment, avoid unnecessary arguments-logic, contradictions, reject ego-pride by concentrating in the Almighty present in the inner self, never identify yourself with the body, never argue with the intelligent-prudent.
क्षुद्व्याधिश्च चिकित्स्यतां प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यतां, 
स्वाद्वन्नं न तु याच्यतां विधिवशात् प्राप्तेन संतुष्यताम्।
शीतोष्णादि विषह्यतां न तु वृथा वाक्यं समुच्चार्यतां, 
औदासीन्यमभीप्स्यतां जनकृपानैष्ठुर्यमुत्सृज्यताम्॥4॥ 
भूख को रोग समझते हुए प्रतिदिन भिक्षा रूपी औषधि का सेवन करें, स्वाद के लिए अन्न की याचना न करें, भाग्यवश जो भी प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहें। सर्दी-गर्मी आदि विषमताओं को सहन करें, व्यर्थ वाक्य न बोलें, निरपेक्षता की इच्छा करें, लोगों की कृपा और निष्ठुरता से दूर रहें। 
Consider hunger as an ailment, survive over the minimum possible food essential to live-subsistence using it as a medicine only, never eat for taste-too much, whatever is available use it-be satisfied with it, try to be neutral-absolute, equanimous, tolerate the perils of summer, winter, rain; never speak-utter useless words, avoid pity-kindness or cruelty of others.
एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयतां, 
पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम्।
प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिश्यतां, 
प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम्॥5॥
एकांत के सुख का सेवन करें, परब्रह्म में चित्त को लगायें, परब्रह्म की खोज करें, इस विश्व को उससे व्याप्त देखें, पूर्व कर्मों का नाश करें, मानसिक बल से भविष्य में आने वाले कर्मों का आलिंगन करें, प्रारब्ध का यहाँ ही भोग करके परब्रह्म में स्थित हो जाएँ। 
Prefer isolation, solitude, peaceful environment, concentrate in the Almighty, analyse the Brahm, see how HE pervades the universe, try to vanish the previous accumulated deeds, tolerate-bear the future endeavours (suffering or comforts without attachment or peril) bear the destiny and merge with the absolute-The Ultimate-The Almighty while in this world.
त्वं ह नु त्यददमायो दस्यूँरैकः कृष्टीरवनोरार्याय।
अस्ति स्विन्नु वीर्यं१ तत्त इन्द्र न स्विदस्ति तदृतुथा वि वोचः
हे इन्द्र देव! आप कर्म विहीन मनुष्यों को शीघ्र ही अपने वशीभूत करें। अकेले आपने ही कर्मानुष्ठानकारी आर्यों को पुत्र-दासादि प्रदान किया। हे इन्द्र देव! आप में इस प्रकार की पूर्वोक्त सामर्थ्य है अथवा नहीं? आप समय-समय पर अपने बल का विशेष परिचय देने के लिए कभी-कभी अपना पराक्रम प्रकट करें।[ऋग्वेद 6.18.3]
Hey Indr Dev control the humans who are unwilling to work (deeds, endeavours). You granted son, slaves, servants etc. to the Ary. Hey Indr Dev! Do you possess this type of capability or not!? You show your might time & again.
अनु द्यावापृथिवी तत्त ओजोऽमर्त्या जिहत इन्द्र देवाः।
कृष्वा कृत्नो अकृतं यत्ते अस्त्युक्थं नवीयो जनयस्व यज्ञैः
हे इन्द्र देव! द्यावा-पृथ्वी और अमर देव आपके बल को स्वीकार करते हैं। हे कर्मवीर इन्द्र देव! आप असम्पादित कार्यों का अनुष्ठान करें और उसके अनन्तर यज्ञ में अभिनव स्तोत्रों को इन्द्र देव कर्म करने की अपनी शक्ति के कारण पूजनीय हैं।[ऋग्वेद 6.18.15]
Hey Indr Dev! The earth & heavens accept your strength. Hey Karm Veer (one who perform) Indr Dev! Accomplish the unfinished jobs. During the Yagy Indr Dev is worshiped by virtue of his might.
आ संयतमिन्द्र णः स्वस्तिं शत्रुतूर्याय बृहतीममृध्राम्।
यया दासान्यार्याणि वृत्रा करो वज्रिन्त्सुतुका नाहुषाणि
हे इन्द्र देव! आप हम लोगों को महान्, अहिंसित, संगच्छमान और कल्याणयुक्त सम्पत्ति प्रदान करें, जिससे शत्रुगण वर्षण करने में समर्थ न हों। हे वज्रधर इन्द्रदेव! जिस कल्याण के द्वारा आपने कर्महीन मनुष्यों को कर्मयुक्त बनाया और मनुष्य सम्बन्धी शत्रुओं को शोभन हिंसा से युक्त किया।[ऋग्वेद 6.22.10]
संगच्छमान :: सुव्यवस्थित; well organized-managed.
Hey Indr Dev! Grant us that asset which is great, well organised, can not be attacked-snatched by the enemy, blessed with welfare. Hey wielder of Vajr, Indr Dev! You made the lazy-useless fellow work and hurt the enemies of humans.
सदस्य मदे सद्वस्य पीताविन्द्रः सदस्य सख्ये चकार।
रणा वा ये निषदि सत्ते अस्य पुरा विविद्रे सदु नूतनासः
सोमरस के पान से प्रसन्न होकर इन्द्र देव ने सुन्दर (शोभन) कार्यों को किया। सोमरस का पान करके उन्होंने सुन्दर कर्म किए। इसके साथ उन्होंने शुभ कार्य किए। जो प्राचीन और नवीन स्तुति करने वाले हैं, उन्होंने आपके द्वारा सत्कार्य ही प्राप्त किया।[ऋग्वेद 6.27.2]
Indr Dev did many new tasks on being pleased by drinking Somras. He performed virtuous deeds on drinking Somras. He did auspicious deeds. The old and new Stotas got virtuous, righteous, auspicious deeds through Indr Dev.
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)