Sunday, March 15, 2015

HINDU BELIEF धार्मिक मान्यताएँ :: HINDU PHILOSOPHY (13) हिंदु दर्शन

HINDU BELIEF 
धार्मिक मान्यताएँ 
HINDU PHILOSOPHY (13) हिंदु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।   
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
चरणामृत :: 
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥
भगवान् श्री हरी विष्णु के चरण का अमृत रूपी जल समस्त पाप-व्याधियों का शमन करने वाला है तथा औषधी के समान है।
जो चरणामृत पीता है उसका पुनः जन्म नहीं होता। जल तब तक जल ही रहता है जब तक भगवान के चरणों से नहीं लगता, जैसे ही भगवान् के चरणों से लगा तो अमृत रूप हो गया और चरणामृत बन जाता है।
जब भगवान् श्री हरी विष्णु का वामन अवतार हुआ और वे राजा बलि की यज्ञ शाला में दान लेने गए तब उन्होंने तीन पग में तीन लोक नाप लिए जब उन्होंने पहले पग में नीचे के लोक नाप लिए और दूसरे में ऊपर के लोक नापने लगे तो जैसे ही ब्रह्म लोक में उनका चरण गया तो ब्रह्मा जी ने अपने कमंडलु में से जल लेकर भगवान् श्री हरी विष्णु के चरण धोए और फिर चरणामृत को वापस अपने कमंडल में रख लिया। 
वह चरणामृत माँ गंगा बन गया, जो आज भी सारी दुनिया के पापों को धोती हैं। 
भगवान् श्री राम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।
चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है। चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है।
तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है। उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते।
इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है।
तुलसी के पत्ते पर जल इतने परिमाण में होना चाहिए कि सरसों का दाना उसमें डूब जाए ।
ऐसा माना जाता है कि तुलसी चरणामृत लेने से मेधा, बुद्धि,स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।
भगवान्  का चरणामृत औषधी के समान है। यदि उसमें तुलसी पत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधीय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है। कहते हैं सीधे हाथ में तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से हर शुभ का या अच्छे काम का जल्द परिणाम मिलता है।
इसीलिए चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से लेना चाहिये।
चरणामृत लेने के बाद अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे अपना हाथ सिर पर फेरते हैं। 
चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना अच्छा नहीं माना जाता है।
इससे विचारों में सकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती है।
हजामत बनवाना-करना :: पूर्व या उत्तर की ओर मुँह करके हजामत बनवानी चाहिए। इससे आयु की वृद्धि होती है। हजामत बनवाकर बिना नहाये रहना, आयु की हानि करने वाला है।[महाभारत, अनुशासन पर्व]
मंगलवार और गुरुवार को छोड़कर हाथ-पैर के नाखून नियमित रूप से काटते रहना चाहिये। 
संध्या काल में नींद, स्नान, अध्ययन और भोजन करना निषिद्ध है। 
अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को बुधवार व शुक्रवार के अतिरिक्त अन्य दिनों में बाल नहीं कटवाने चाहिए।
सोमवार को बाल कटवाने से शिव भक्ति की हानि होती है। पुत्रवान को इस दिन बाल नहीं कटवाने चाहिए। मंगलवार को बाल कटाना मृत्यु का कारण भी हो सकता है। बुधवार को बाल, नख काटने-कटवाने से धन की प्राप्ति होती है। गुरुवार को बाल कटवाने से लक्ष्मी और मान की हानि होती है। शुक्रवार लाभ और यश की प्राप्ति कराने वाला है। शनिवार मृत्यु का कारण होता है। रविवार तो सूर्य देव का दिन है, इस दिन क्षौर कराने से धन, बुद्धि और धर्म की क्षति होती है।
मलिन दर्पण में मुँह न देखे। उत्तर व पश्चिम की ओर सिर करके कभी न सोये, पूर्व या दक्षिण दिशा की ओर ही सिर करके सोये।[महाभारत, अनुशासन पर्व]
शरीर पर तेल मालिश नहाने से पहले ही करें, बाद में नहीं। सिर पर तेल लगानि के बाद उसी हाथ से दूसरे अंगों का स्पर्श नहीं करना चाहिए।[महाभारत, अनुशासन पर्व]
पुस्तकें खुली छोड़कर न जायें। उन पर पैर न रखें और उनसे तकिये का काम न लें। धर्मग्रन्थों का विशेष आदर करते हुए स्वयं शुद्ध, पवित्र व स्वच्छ होने पर ही उन्हें स्पर्श करना चाहिए। उँगली मे थूक लगाकर पुस्तकों के पृष्ठ न पलटें।
हाथ-पैर से भूमि कुरेदना, तिनके तोड़ना, बार-बार सिर पर हाथ फेरना, बटन टटोलते रहना; ये बुरे स्वभाव-परेशानी, दाँतों से नाख़ून काटते रहना, उलझन के चिह्न हैं। अतः ये सर्वथा त्याज्य हैं।
आसन को पैर से खींचकर या फटे हुए आसन पर न बैठे। रात्रि में स्नान न करे। स्नान के पश्चात तेल आदि की मालिश न करे। भीगे कपड़े न पहने।[महाभारत, अनुशासन पर्व]
सत्संग से उठते समय आसन नहीं झटकना चाहिए। ऐसा करने वाला अपने पुण्यों का नाश करता है।
जिसके गोत्र और प्रवर अपने ही समान हों तथा जो कन्या नाना के कुल में उत्पन्न हुई हो, जिसके कुल का पता न हो, उसके साथ विवाह नहीं करना चाहिए। अपने से श्रेष्ठ या समान कुल में विवाह करना चाहिए।[महाभारत, अनुशासन पर्व]
जूठे मुँह पढ़ना-पढ़ाना, शयन करना, मस्तक का स्पर्श करना कदापि उचित नहीं है।
दूसरे के पहने हुए कपड़े, जूते आदि न पहने। अगर कोई चारा न हो तो अच्छी तरह से धो लें। इससे दूसरे व्यक्ति का जीवद्रव्य अपने शरीर में प्रविष्ट होता है, जो कि अपने साथ दूसरे व्यक्ति की बीमारियाँ भी लेकर आता है। 
किसी अपवित्र मनुष्य के निकट या सत्पुरुषों के सामने बैठकर भोजन न करे। सावधानी के साथ केवल सवेरे और शाम को ही भोजन करें। बीच में कुछ भी खाना उचित नहीं है। भोजन के समय मौन रहना और आसन पर बैठना उचित है। निषिद्ध पदार्थ यथा माँस, मछली, अंडा, लहसुन, प्याज, गाजर और कुम्भी न खायें।
प्रतिदिन सूर्योदय से एक घँटा पहले जागकर धर्म और अर्थ के विषय में विचार करे। मौन रहकर दँत धावन करे। दँत धावन किये बिना देव पूजा व सँध्या न करे। देव पूजा व सँध्या किये बिना गुरु, वृद्ध, धार्मिक, विद्वान पुरुष को छोड़कर दूसरे किसी के पास न जाय। सुबह सोकर उठने के बाद पहले माता-पिता, आचार्य तथा गुरुजनों को प्रणाम करना चाहिए।
सूर्योदय होने तक कभी न सोये, यदि किसी दिन ऐसा हो जाय तो प्रायश्चित करें, गायत्री मंत्र का जप करे, उपवास करे या फलादि पर ही रहे।
स्नानादि से निवृत्त होकर प्रातः कालीन सँध्या करें। जो प्रातः काल की सँध्या करके सूर्य के सम्मुख खड़ा होता है, उसे समस्त तीर्थों में स्नान का फल मिलता है और वह सब पापों से छुटकारा पा जाता है।
सूर्योदय के समय ताँबे के लोटे में सूर्य भगवान को जल (अर्घ्य) देना चाहिए। इस समय आँखें बन्द करके भ्रूमध्य में सूर्य की भावना करनी चाहिए। सूर्यास्त के समय भी मौन होकर संध्योपासना करनी चाहिए। संध्योपासना के अंतर्गत शुद्ध व स्वच्छ वातावरण में प्राणायाम व जप किये जाते हैं।
नियमित त्रिकाल सँध्या करने वाले को रोजी-रोटी के लिए कभी हाथ नहीं फैलाना पड़ता, ऐसा शास्त्र वचन है। ऋषि गण प्रतिदिन सँध्योपासना से ही दीर्घ जीवी हुए हैं।
वृद्ध पुरुषों के आने पर तरुण पुरुष के प्राण ऊपर की ओर उठने लगते हैं। ऐसी दशा में वह खड़ा होकर स्वागत और प्रणाम करता है तो वे प्राण पुनः पूर्वावस्था में आ जाते हैं।
किसी भी वर्ण के पुरुष को परायी स्त्री से संसर्ग नहीं करना चाहिए। पर स्त्री सेवन से मनुष्य की आयु जल्दी ही समाप्त हो जाती है। इसके समान आयु को नष्ट करने वाला संसार में दूसरा कोई कार्य नहीं है। स्त्रियों के शरीर में जितने रोमकूप होते हैं उतने ही हजार वर्षों तक व्यभिचारी पुरुषों को नरक में रहना पड़ता है। रजस्वला स्त्री के साथ कभी बातचीत न करे।
अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्दशी और अष्टमी तिथि को स्त्री-समागम न करे। अपनी पत्नी के साथ भी दिन में तथा ऋतुकाल के अतिरिक्त समय में समागम न करे। इससे आयु की वृद्धि होती है। सभी पर्वों के समय ब्रह्मचर्य का पालन करना आवश्यक है। यदि पत्नी रजस्वला हो तो उसके पास न जाय तथा उसे भी अपने निकट न बुलाये। शास्त्र की अवज्ञा करने से जीवन दुःखमय बनता है।
दूसरों की निंदा, बदनामी और चुगली न करें, औरों को नीचा न दिखाये। निंदा करना अधर्म बताया गया है, इसलिए दूसरों की और अपनी भी निंदा नहीं करनी चाहिए। क्रूरता भरी बात न बोले। जिसके कहने से दूसरों को उद्वेग होता हो, वह रूखाई से भरी हुई बात नरक में ले जाने वाली होती है, उसे कभी मुँह से न निकाले। बाणों से बिंधा हुआ फरसे से काटा हुआ वन पुनः अंकुरित हो जाता है, किंतु दुर्वचन रूपी शस्त्र से किया हुआ भयंकर घाव कभी नहीं भरता।
हीनांग (अंधे, काने आदि), अधिकांग (छाँगुर आदि), अनपढ़, निंदित, कुरुप, धनहीन और असत्यवादी मनुष्यों की खिल्ली नहीं उड़ानी चाहिए।
नास्तिकता, वेदों की निंदा, देवताओं के प्रति अनुचित आक्षेप, द्वेष, उद्दण्डता, कठोरता आदि दुर्गुणों का त्याग कर देना चाहिए।
मल-मूत्र त्यागने व रास्ता चलने के बाद तथा स्वाध्याय व भोजन करने से पहले हाथ-पैर धो लेने चाहिए। भीगे पैर भोजन तो करे, शयन न करे। भीगे पैर भोजन करने वाला मनुष्य लम्बे समय तक जीवन धारण करता है।
परोसे हुए अन्न की निंदा नहीं करनी चाहिए। मौन होकर एकाग्रचित्त से भोजन करना चाहिए। भोजनकाल में यह अन्न पचेगा या नहीं, इस प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए। भोजन के बाद मन-ही-मन अग्नि का ध्यान करना चाहिए। भोजन में दही नहीं, मट्ठा पीना चाहिए तथा एक हाथ से दाहिने पैर के अँगूठे पर जल छोड़ ले फिर जल से आँख, नाक, कान व नाभि का स्पर्श करे।
पूर्व की ओर मुँह करके भोजन करने से दीर्घायु और उत्तर की ओर मुख करके भोजन करने से सत्य की प्राप्ति होती है। भूमि पर बैठकर ही भोजन करे, चलते-फिरते भोजन कभी न करे। किसी दूसरे के साथ एक पात्र में भोजन करना निषिद्ध है। न तो स्वयं जूठा खायें और न ही दूसरों को अपना जूठा खिलायें। 
जिसको रजस्वला स्त्री ने छू दिया हो तथा जिसमें से सार निकाल लिया गया हो, ऐसा अन्न कदापि न खायें जैसे :- तिलों का तेल निकाल कर बनाया हुआ गजक, क्रीम निकाला हुआ दूध, रोगन (तेल) निकाला हुआ बादाम आदि।
रात्रि के समय खूब डटकर भोजन न करें, दिन में भी उचित मात्रा में सेवन करे। तिल की चिक्की, गजक और तिल के बने पदार्थ भारी होते हैं। इनको पचाने में जीवन शक्ति अधिक खर्च होती है; इसलिए इनका सेवन स्वास्थ्य के लिए उचित नहीं है।
जूठे मुँह पढ़ना-पढ़ाना, शयन करना, मस्तक का स्पर्श करना कदापि उचित नहीं है।
यमराज कहते हैं :- "जो मनुष्य जूठे मुँह उठकर दौड़ता और स्वाध्याय करता है, मैं उसकी आयु नष्ट कर देता हूँ। उसकी सन्तानों को भी उससे छीन लेता हूँ। जो अनध्याय के समय भी अध्ययन करता है, उसके वैदिक ज्ञान और आयु का नाश हो जाता है। जो सँध्या आदि अनध्याय के समय भी अध्ययन करता है, उसके वैदिक ज्ञान और आयु का नाश हो जाता है। भोजन करके हाथ-मुँह धोये बिना सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र इन त्रिविध तेजों की कभी दृष्टि नहीं डालनी चाहिए।[महाभारत, अनुशासन पर्व]
नास्तिक मनुष्यों के साथ कोई प्रतिज्ञा-वादा, निश्चय न करे। 
माता-पिता, गुरु के साथ कभी हठ नहीं ठानना चाहिए। गुरु प्रतिकूल बर्ताव करते हों तो भी उनके प्रति अच्छा बर्ताव करना ही उचित है। गुरु की निंदा मनुष्यों की आयु नष्ट कर देती है। महात्माओं की निंदा से मनुष्य का अकल्याण होता है।
सिर के बाल पकड़कर खींचना और मस्तक पर प्रहार करना वर्जित है। दोनों हाथ सटाकर उनसे अपना सिर न खुजलाये। विद्यार्थी को शारीरिक दण्ड न दें और न ही उसकी सार्वजनिक भर्त्सना ही करें। 
शयन, भ्रमण तथा पूजा के लिए अलग-अलग वस्त्र रखें। सोने की माला कभी भी पहनने से अशुद्ध नहीं होती।
सदा उद्योगी बने रहें, क्योंकि उद्योगी मनुष्य ही सुखी और उन्नतशील होता है। प्रतिदिन पुराण, इतिहास, उपाख्यान तथा महात्माओं के जीवन चरित्र का श्रवण करना चाहिए। इन सब बातों का पालन करने से मनुष्य दीर्घ जीवी होता है।
पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने सब वर्ण के लोगों पर दया करके यह उपदेश दिया था। यह यश, आयु और स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला तथा परम कल्याण का आधार है।
पूजा आराधना सम्बन्धी मान्यताएँ :: सुखी और समृद्धिशाली जीवन के लिए देवी-देवताओं की पूजा-आराधना की जाती है, जिसमें शास्त्रीय विधि-विधान का पालन किया जाता है।
(1). सूर्य भगवान्, गणेश जी महाराज, माँ दुर्गा, भगवान् शिव और भगवान् विष्णु; ये पंचदेव हैं, जिनकी पूजा सभी शुभ कार्यों में अनिवार्य रूप से की जाती है। प्रतिदिन पूजन करते समय इन पंचदेव का ध्यान करना चाहिए। माँ लक्ष्मी की कृपा और समृद्धि हेतु इनका ध्यान-पूजन नियमित रूप से किया जाना चाहिए।
(2). भगवान् शिव, गणेश जी और भैरव को तुलसी नहीं चढ़ाई जाती।
(3). माँ दुर्गा को दूर्वा (एक प्रकार की घास) नहीं चढ़ाई जाती। यह गणेश जी को विशेष रूप से अर्पित की जाती है।
(4). सूर्य भगवान् को शंख के जल से अर्घ्य नहीं दिया जाता।
(5). तुलसी का पत्ता बिना स्नान किए नहीं तोड़ना चाहिए। अशुद्ध स्त्री को कभी भी माँ तुलसी के समक्ष नहीं जाना चाहिए। रविवार, एकादशी, द्वादशी, संक्रान्ति तथा सँध्या काल में तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ना चाहिए। रविवार को तुलसी को जल भी नहीं दिया जाता। कोई भी पत्ता, फूल दिन ढ़लने के बाद नहीं तोड़ना चाहिये।
(6). देवी-देवताओं का पूजन दिन में पाँच बार करना चाहिए। सुबह 5 से 6 बजे तक ब्रह्म मुहूर्त में पूजन और आरती होनी चाहिए। इसके बाद प्रात: 9 से 10 बजे तक दूसरी बार का पूजन। दोपहर में तीसरी बार पूजन करना चाहिए। इस पूजन के बाद भगवान् को शयन करवाना चाहिए। शाम के समय चार-पाँच बजे पुन: पूजन और आरती। रात को 8-9 बजे शयन आरती करनी चाहिए। जिन घरों में नियमित रूप से पाँच बार पूजन किया जाता है, वहाँ सभी देवी-देवताओं का वास होता है और ऐसे घरों में धन-धान्य की कोई कमी नहीं होती है।सामान्य परिस्थियों में एक गृहस्थ के लिये यह सम्भव नहीं है, मगर मन्दिर में इसका पालन कठोरता से किया जाना चाहिये।
(7). प्लास्टिक की बोतल में या किसी अपवित्र धातु (एल्युमिनियम, लोहा, स्टील) के बर्तन में गँगाजल नहीं रखना चाहिए। गँगाजल ताँबे के बर्तन में रखा जा सकता है।
वर्तमान काल में प्लास्टिक का प्रचलन इतना ज्यादा है कि पीने के पानी के पाइप, बोतलें आदि सभी इसकी बनी होती हैं।
(8). यदि घर में स्त्रियाँ अपवित्र अवस्था में हों तो पुरुषों को शंख नहीं बजाना चाहिए। 
(9). मन्दिर और देवी-देवताओं की मूर्ति के सामने कभी भी पीठ दिखाकर नहीं बैठना चाहिए।
(10). केतकी का फूल शिवलिंग पर अर्पित नहीं करना चाहिए।
(11). किसी भी पूजा में मनोकामना की सफलता के लिए भेंट दक्षिणा अवश्य चढ़ानी चाहिए। ज्योतिषी, चिकित्सक, हस्तरेखा परीक्षक को अवश्य देनी चाहिए। 
(12). दूर्वा (एक प्रकार की घास) रविवार को नहीं तोड़नी चाहिए।
(13). माँ लक्ष्मी को विशेष रूप से कमल का फूल अर्पित किया जाता है। इस फूल को पाँच दिनों तक जल छिड़क कर पुन: चढ़ा सकते हैं।
(14). भगवान् शिव को प्रिय बिल्व पत्र छह माह तक बासी नहीं माने जाते हैं। इन्हें जल छिड़क कर शिवलिंग पर अर्पित किया जा सकता है।
(15). तुलसी के पत्तों को 11 दिनों तक बासी नहीं माना जाता है। इसकी पत्तियों पर हर रोज जल छिड़कर भगवान् को अर्पित किया जा सकता है।
एक बार चढ़ाये गये नैवेद्य, प्रसाद, फल-पुष्पों, मालाओं को पुनः पूजा के लिए प्रयोग न करें। 
(16). फूलों को किसी पवित्र पात्र में रखकर देवी-देवताओं को अर्पित करना चाहिए।
(17). ताँबे के बर्तन में चन्दन, घिसा हुआ चन्दन या चन्दन का पानी नहीं रखना चाहिए।
(18). यथासम्भव दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलते हैं, वे रोगी होते हैं। 
(19). बुधवार और रविवार को पीपल के वृक्ष में जल अर्पित नहीं करना चाहिए।
(20). पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखकर करनी चाहिए। यदि सम्भव हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में पूजा अवश्य करें।
(21). पूजा करते समय आसन मूँज, बाघ या काले हिरण की चर्म, ऊनी हो तो श्रेष्ठ रहेगा।
(22). घर के मन्दिर में सुबह एवं शाम को दीपक अवश्य जलायें। एक दीपक घी का और एक दीपक सरसों के तेल का जलाना चाहिए।
(23). पूजन-कर्म और आरती पूर्ण होने के बाद उसी स्थान पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएं अवश्य करनी चाहिए।
(24). भगवान् के श्री चरणों की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान् के समस्त अंगों की कम से कम सात बार आरती करनी चाहिए।
पूजा आराधना सम्बन्धी मान्यताएँ :: सुखी और समृद्धिशाली जीवन के लिए देवी-देवताओं की पूजा-आराधना की जाती है, जिसमें शास्त्रीय विधि-विधान का पालन किया जाता है।
(1). सूर्य भगवान्, गणेश जी महाराज, माँ दुर्गा, भगवान् शिव और भगवान् विष्णु; ये पंचदेव हैं, जिनकी पूजा सभी शुभ कार्यों में अनिवार्य रूप से की जाती है। प्रतिदिन पूजन करते समय इन पंचदेव का ध्यान करना चाहिए। माँ लक्ष्मी की कृपा और समृद्धि हेतु इनका ध्यान-पूजन नियमित रूप से किया जाना चाहिए।
(2). भगवान् शिव, गणेश जी और भैरव को तुलसी नहीं चढ़ाई जाती।
(3). माँ दुर्गा को दूर्वा (एक प्रकार की घास) नहीं चढ़ाई जाती। यह गणेश जी को विशेष रूप से अर्पित की जाती है।
(4). सूर्य भगवान् को शंख के जल से अर्घ्य नहीं दिया जाता।
(5). तुलसी का पत्ता बिना स्नान किए नहीं तोड़ना चाहिए। अशुद्ध स्त्री को कभी भी माँ तुलसी के समक्ष नहीं जाना चाहिए। रविवार, एकादशी, द्वादशी, संक्रान्ति तथा सँध्या काल में तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ना चाहिए। रविवार को तुलसी को जल भी नहीं दिया जाता। कोई भी पत्ता, फूल दिन ढ़लने के बाद नहीं तोड़ना चाहिये।
(6). देवी-देवताओं का पूजन दिन में पाँच बार करना चाहिए। सुबह 5 से 6 बजे तक ब्रह्म मुहूर्त में पूजन और आरती होनी चाहिए। इसके बाद प्रात: 9 से 10 बजे तक दूसरी बार का पूजन। दोपहर में तीसरी बार पूजन करना चाहिए। इस पूजन के बाद भगवान् को शयन करवाना चाहिए। शाम के समय चार-पाँच बजे पुन: पूजन और आरती। रात को 8-9 बजे शयन आरती करनी चाहिए। जिन घरों में नियमित रूप से पाँच बार पूजन किया जाता है, वहाँ सभी देवी-देवताओं का वास होता है और ऐसे घरों में धन-धान्य की कोई कमी नहीं होती है। सामान्य परिस्थियों में एक गृहस्थ के लिये यह सम्भव नहीं है, मगर मन्दिर में इसका पालन कठोरता से किया जाना चाहिये।
(7). प्लास्टिक की बोतल में या किसी अपवित्र धातु (एल्युमिनियम, लोहा, स्टील) के बर्तन में गँगाजल नहीं रखना चाहिए। गँगाजल ताँबे के बर्तन में रखा जा सकता है।
वर्तमान काल में प्लास्टिक का प्रचलन इतना ज्यादा है कि पीने के पानी के पाइप, बोतलें आदि सभी इसकी बनी होती हैं।
(8). यदि घर में स्त्रियाँ अपवित्र अवस्था में हों तो पुरुषों को शंख नहीं बजाना चाहिए। 
(9). मन्दिर और देवी-देवताओं की मूर्ति के सामने कभी भी पीठ दिखाकर नहीं बैठना चाहिए।
(10). केतकी का फूल शिवलिंग पर अर्पित नहीं करना चाहिए।
(11). किसी भी पूजा में मनोकामना की सफलता के लिए भेंट दक्षिणा अवश्य चढ़ानी चाहिए। ज्योतिषी, चिकित्सक, हस्तरेखा परीक्षक को अवश्य देनी चाहिए। 
(12). दूर्वा (एक प्रकार की घास) रविवार को नहीं तोड़नी चाहिए।
(13). माँ लक्ष्मी को विशेष रूप से कमल का फूल अर्पित किया जाता है। इस फूल को पाँच दिनों तक जल छिड़क कर पुन: चढ़ा सकते हैं।
(14). भगवान् शिव को प्रिय बिल्व पत्र छह माह तक बासी नहीं माने जाते हैं। इन्हें जल छिड़क कर शिवलिंग पर अर्पित किया जा सकता है।
(15). तुलसी के पत्तों को 11 दिनों तक बासी नहीं माना जाता है। इसकी पत्तियों पर हर रोज जल छिड़कर भगवान् को अर्पित किया जा सकता है।
एक बार चढ़ाये गये नैवेद्य, प्रसाद, फल-पुष्पों, मालाओं को पुनः पूजा के लिए प्रयोग न करें। 
(16). फूलों को किसी पवित्र पात्र में रखकर देवी-देवताओं को अर्पित करना चाहिए।
(17). ताँबे के बर्तन में चन्दन, घिसा हुआ चन्दन या चन्दन का पानी नहीं रखना चाहिए।
(18). यथासम्भव दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलते हैं, वे रोगी होते हैं। 
(19). बुधवार और रविवार को पीपल के वृक्ष में जल अर्पित नहीं करना चाहिए।
(20). पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखकर करनी चाहिए। यदि सम्भव हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में पूजा अवश्य करें।
(21). पूजा करते समय आसन मूँज, बाघ या काले हिरण की चर्म, ऊनी हो तो श्रेष्ठ रहेगा।
(22). घर के मन्दिर में सुबह एवं शाम को दीपक अवश्य जलायें। एक दीपक घी का और एक दीपक सरसों के तेल का जलाना चाहिए।
(23). पूजन-कर्म और आरती पूर्ण होने के बाद उसी स्थान पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएं अवश्य करनी चाहिए।
(24). भगवान् के श्री चरणों की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान् के समस्त अंगों की कम से कम सात बार आरती करनी चाहिए।
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दिशा शूल :: पूर्व दिशा में सोमवार और शनिवार, पश्चिम दिशा में रविवार और शुक्रवार तथा दक्षिण दिशा में गुरुवार को त्याज्य है। बुधवार तो सर्वथा त्याज्य है।अत्यावश्यक होने पर रविवार को पान या घी खाकर, सोमवार को दर्पण देखकर या दूध पीकर, मंगल को गुड़ खाकर, बुधवार को धनिया या तिल खाकर, गुरुवार को जीरा या दही खाकर, शुक्रवार को दही पीकर और शनिवार को अदरक या उड़द खाकर प्रस्थान किया जा सकता है। यदि एक दिन में गंतव्य स्थान पर पहुँचना और फिर वापस आना निश्चित हो तो दिशाशूल विचार की आवश्यकता नहीं है।
AFTER VISITING THE TEMPLE SIT OVER THE STAIRS AND RECITE THIS VERSE :: After darshan in the temple, sit down on the stairs-platform outside for a while. 
Tradition is that after visiting any temple, we come out and sit for a while on the foot of the temple. 
Quietly sitting on the foot of the temple, one should recite the following Shlok.
अनायासेन मरणम्, बिना देन्येन जीवनम्।
देहान्त तव सानिध्यम्, देहि मे परमेश्वरम्॥
अनायासेन मरणम् Anayasen Maranam :- We should die with ease, without any trouble and never fall sick and be confined  to the bed, don't die by suffering but let our lives go as we go about daily life.
बिना देन्येन जीवनम् Bina denyen jeevanam :- There should be no life of dependency. Never have to be with anyone for support. Just as a person becomes dependent on others when he is paralysed, do not be paralysed or helpless. By the grace of Thakur Ji,  (Krashn Ji) life can be lived without being dependent and begging.
देहान्त तव सानिध्यम् Dehante tav sanidhyam :- Whenever death comes, let it be in God’s presence. As at the time of death of Bhishm Pitamah, Thakur (Krashn Ji) himself stood in front of him. Let life be released while having this darshan. 
देहि मे परमेश्वरम् Dehi mey Parmeshwaram :- O God! grant us such a boon.
Recite the above verse while praying to God. Do not ask for job, car, bungalow, boy, girl, husband, wife, house, money etc. (i.e., worldly things), this God himself gives you according to your eligibility.  That is why one must sit and pray this prayer after having darshan. This is a prayer, not a solicitation or begging. Prayer is not for worldly things like for home, business, job, son, daughter, worldly pleasures, wealth or other things, whatever is requested like this is begging.
The word prarthana means :- Para means special, best, highest and arthna means request. Prayer thus means ‘special and highest request’.
The darshan of God in the temple should always be done with open eyes. Some people stand there with their eyes closed. Why close our eyes, when we have come to see?  Open your eyes and look at the form of God, nij-swarup, of the divine feet, of the lotus face, of the shrangar, take full enjoyment, fill your eyes with the beautiful nij-swarup.
When you then sit outside after darshan, then meditate on the form you have seen with your eyes closed. Meditate on your own soul within, closing your eyes and if God does not appear in meditation, then go back to the temple and have darshan again.
गाय, कौए चीटी, कुत्ते आदि को भोजन प्रदान करना :: प्रत्येक घर में जब भोजन बनता है तो पहली रोटी गाय के लिए और अंतिम रोटी कुत्ते के लिए होती है। भोजन करने के पूर्व अग्नि को उसका कुछ भाग अर्पित किया जाता है, जिसे अग्निहोत्र कर्म कहते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति को भोजन करते वक्त थाली में से 3 ग्रास (कोल) निकालकर अलग रखना होता है। यह तीन कोल ब्रह्मा, विष्णु और महेश के लिए या मन कथन के अनुसार गाय, कौए और कुत्ते के लिए भी रखा जा सकता है। यह भोजन का नियम है। फिर अंजुली में जल भरकर भोजन की थाली के आसपास दाँए से बाँए गोल घुमाकर अंगुली से जल को छोड़ दिया जाता है। अंगुली से छोड़ा गया जल देवताओं के लिए और अंगूठे से छोड़ा गया जल पितरों के लिए होता है। प्रतिदिन भोजन करते वक्त सिर्फ देवताओं के लिए जल छोड़ा जाता है।
कुत्ता :: कुत्ते को भैरव महाराज का सेवक माना जाता है। कुत्ते को भोजन देने से भैरव महाराज प्रसन्न होते हैं और हर तरह के आकस्मिक संकटों से वे भक्त की रक्षा करते हैं। मान्यता है कि कुत्ते को प्रसन्न रखने से वह आपके आसपास यमदूत को भी नहीं फटकने देता है। कुत्ते को देखकर हर तरह की आत्माएं दूर भागने लगती हैं।
कुत्ता एक ऐसा प्राणी है, जो भविष्‍य में होने वाली घटनाओं और ईथर माध्यम (सूक्ष्म जगत) की आत्माओं को देखने की क्षमता रखता है। कुत्ता कई किलोमीटर तक की गंध सूँघ सकता है। कुत्ते को हिन्दू धर्म में एक रहस्यमय प्राणी माना गया है, लेकिन इसको भोजन कराने से हर तरह के संकटों से बचा जा सकता है।
कुत्ता एक वफादार प्राणी होता है, जो हर तरह के खतरे को पहले ही भाँप लेता है। प्राचीन और मध्‍य काल में पहले लोग कुत्ता अपने साथ इसलिए रखते थे ताकि वे जंगली जानवरों, लुटेरों और भूतादि से बच सके। बंजारा जाति और आदिवासी लोग कुत्ते को पालते थे ताकि वे हर तरह के खतरे से पहले ही सतर्क हो जाएं। भारत में जंगल में रहने वाले साधु-संत भी कुत्ता इसीलिए पालते थे ताकि कुत्ता उनको खतरे के प्रति सतर्क कर दे। आजकल लोग घर में कुत्ता इसलिए पालते हैं कि वह उनके घर की चोरों से रक्षा कर सके। लेकिन कुत्ता पालना खतरनाक भी हो सकता है और फायदेमंद भी इसलिए कुत्ता पालने से पहले किसी धर्मज्ञ और लाल किताब के विशेषज्ञ से सलाह जरूर ले लें। कुत्ता आपको राजा से रंक और रंक से राजा बना सकता है।
ब्राह्मण को कभी भी कुत्ता नहीं पालना चाहिये। 
कुत्ते के भौंकने और रोने को अपशकुन माना जाता है। कुत्ते के भौंकने के कई कारण होते हैं उसी तरह उसके रोने के भी कई कारण होते हैं, लेकिन अधिकतर लोग भौंकने या रोने का कारण नकारात्मक ही लेते हैं।
अपशकुन शास्त्र के अनुसार श्वान का गृह के चारों ओर घूमते हुए क्रंदन करना अपशकुन या अद्‍भुत घटना कहा गया है और इसे इन्द्र से संबंधित भय माना गया है।
सूत्र-ग्रंथों में भी श्वान को अपवित्र माना गया है। इसके स्पर्श व दृष्टि से भोजन अपवित्र हो जाता है। इस धारणा का कारण भी श्वान का यम से संबंधित होना है।
शुभ कार्य के समय यदि कुत्ता मार्ग रोकता है तो विषमता तथा अनिश्चय प्रकट होते हैं।
कुत्ते को प्रतिदिन भोजन देने से जहाँ दुश्मनों का भय मिट जाता है, वहीं व्यक्ति निडर हो जाता है।
कुत्ता पालने से लक्ष्मी आती है और कुत्ता घर के रोगी सदस्य की बीमारी अपने ऊपर ले लेता है।
यदि संतान की प्राप्ति नहीं हो रही हो तो काले कुत्ते को पालने से संतान की प्राप्ति होती है।
कुत्ता केतु का प्रतीक है। कुत्ता पालने या कुत्ते की सेवा करने से केतु का अशुभ प्रभाव समाप्त हो जाता है। पितृ पक्ष में कुत्तों को मीठी रोटी खिलानी चाहिए।
कौआ :: कौए को अतिथि-आगमन का सूचक और पितरों का आश्रम स्थल माना जाता है। इसने अमृत का स्वाद चख लिया था, इसलिए मान्यता के अनुसार इस पक्षी की कभी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती। कोई बीमारी एवं वृद्धावस्था से भी इसकी मौत नहीं होती है। इसकी मृत्यु आकस्मिक रूप से ही होती है।
जिस दिन किसी कौए की मृत्यु हो जाती है उस दिन उसका कोई साथी भोजन नहीं करता है। कौआ अकेले में भी भोजन कभी नहीं खाता, वह किसी साथी के साथ ही मिल-बांटकर भोजन ग्रहण करता है।
कौआ लगभग 20 इंच लंबा, गहरे काले रंग का पक्षी है जिसके नर और मादा एक ही जैसे होते हैं। कौआ बगैर थके मीलों उड़ सकता है। कौए को भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पहले से ही आभास हो जाता है।
श्राद्ध पक्ष में कौओं का बहुत महत्व माना गया है। इस पक्ष में कौओं को भोजन कराना अर्थात अपने पितरों को भोजन कराना माना गया है। कोई भी क्षमतावान आत्मा कौए के शरीर में स्थित होकर विचरण कर सकती है।
भादौ महीने के 16 दिन कौआ हर घर की छत का मेहमान बनता है। ये 16 दिन श्राद्ध पक्ष के दिन माने जाते हैं। कौए एवं पीपल को पितृ प्रतीक माना जाता है। इन दिनों कौए को खाना खिलाकर एवं पीपल को पानी पिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है।
श्राद्ध पक्ष में कौए को भक्ति और विनम्रता से यथाशक्ति भोजन कराना चाहिये। कौए को पितरों का प्रतीक मानकर श्राद्ध पक्ष के 16 दिनों तक भोजन कराया जाता है। माना जाता है कि कौए के रूप में हमारे पूर्वज ही भोजन करते हैं। कौए को भाजन कराने से सभी तरह का पितृ और कालसर्प दोष दूर हो जाता है।[विष्णु पुराण]
शनि को प्रसन्न करना हो तो कौवों को भोजन कराना चाहिए।
घर की मुंडेर पर कौवा बोले तो मेहमान जरूर आते हैं।
कौवा घर की उत्तर दिशा में बोले तो घर में लक्ष्मी आती है।
पश्चिम दिशा में बोले तो मेहमान आते हैं।
पूर्व में बोले तो शुभ समाचार आता है।
दक्षिण दिशा में बोले तो बुरा समाचार आता है।
कौवे को भोजन कराने से अनिष्ट व शत्रु का नाश होता।
गाय :: गाय का थलचर जंतुओं में सबसे ऊँचा स्थान है। पुराणों के अनुसार गाय में सभी देवताओं का वास माना गया है। गाय को किसी भी रूप में सताना घोर पाप माना गया है। उसकी हत्या करना तो नर्क के द्वार को खोलने के समान है, जहाँ कई जन्मों तक दुख भोगना होता है।
गाय ही व्यक्ति को मरने के बाद वैतरणी नदी पार कराती है। भारत में गाय को देवी का दर्जा प्राप्त है। गाय के भीतर देवताओं का वास माना गया है। दिवाली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा के अवसर पर गायों की विशेष पूजा की जाती है और उनका मोर पंखों आदि से श्रृंगार किया जाता है।
"धेनु सदानाम रईनाम" अर्थात गाय समृद्धि का मूल स्रोत है। गाय समृद्धि व प्रचुरता की द्योतक है। वह सृष्टि के पोषण का स्रोत है। वह जननी है। गाय के दूध से कई तरह के प्रॉडक्ट (उत्पाद) बनते हैं। गोबर से ईंधन व खाद मिलती है। इसके मूत्र से दवाएं व उर्वरक बनते हैं।
गाय इसलिए पूजनीय नहीं है कि वह दूध देती है और इसके होने से हमारी सामाजिक पूर्ति होती है, दरअसल मान्यता के अनुसार 84 लाख योनियों का सफर करके आत्मा अंतिम योनि के रूप में गाय बनती है। गाय लाखों योनियों का वह पड़ाव है, जहां आत्मा विश्राम करके आगे की यात्रा शुरू करती है।
गाय का कोई अपशकुन नहीं होता। जिस भू-भाग पर मकान बनाना हो, वहाँ 15 दिन तक गाय-बछड़ा बाँधने से वह जगह पवित्र हो जाती है। भू-भाग से बहुत-सी आसुरी शक्तियों का नाश हो जाता है।
गाय में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार होता है।
गाय का मार्ग रोकना शुभ कहा गया है।
गाय-बछड़े के एकसाथ दर्शन सफलता का प्रतीक है।
घर के आसपास गाय होने का मतलब है कि आप सभी तरह के संकटों से दूर रहकर सुख और समृद्धिपूर्वक जीवन जी रहे हैं।
गाय के समीप जाने से ही संक्रामक रोग कफ, सर्दी-खांसी व जुकाम का नाश हो जाता है।
अचानक गाय का पूंछ मार देना भी शुभ है। काली चितकबरी गाय का ऐसा करना तो और भी शुभ कहा गया है।
पंचगव्य :- पंचगव्य कई रोगों में लाभदायक है। पंचगव्य का निर्माण गाय के दूध, दही, घी, मूत्र, गोबर द्वारा किया जाता है। पंचगव्य द्वारा शरीर की रोग निरोधक क्षमता को बढ़ाकर रोगों को दूर किया जाता है। ऐसा कोई रोग नहीं है जिसका इलाज पंचगव्य से न किया जा सके।
चींटी :: हर समय हम चींटियों को नजर अंदाज करते हैं, उन्हें पैरों तले कुचल देते हैं और उन्हें काटने वाले दुष्टों से अधिक कुछ नहीं समझते। किंतु चींटी बहुत ही मेहनती और एकता से रहने वाली जीव होती है। सामूहिक प्राणी होने के कारण चींटी सभी कार्यों को बाँटकर करती है। इसमें नर चींटी की कोई भूमिका नहीं होती है।
विश्वभर में चींटियों की लगभग 14,000 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। ये 1 मिलीमीटर से लेकर 4 सेंटीमीटर तक की लंबाई की होती हैं। जिन चींटियों को हम सबसे अधिक पहचानते हैं, उनमें हैं काली चींटी, मकोड़ा। पेड़ों पर रहने वाली लाल चींटी, जो काटने के लिए मशहूर है और छोटी काली चींटी, जो गुड़ आदि मीठी चीजों की ओर अद्भुत आकर्षण दर्शाती है।
चींटी के बारे में वैज्ञानिकों ने कई रहस्य उजागर किए हैं। चींटियां आपस में बातचीत करती हैं, वे नगर बनाती हैं और भंडारण की समुचित व्यवस्था करना जानती हैं। हमारे इंजीनियरों से कहीं ज्यादा बेहतर होती हैं ‍चींटियां। चींटियों का नेटवर्क दुनिया के अन्य नेटवर्क्स से कहीं बेहतर होता है। ये मिलकर एक पहाड़ को काटने की क्षमता रखती हैं। चींटियां शहर को स्वच्छ रखने में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। चींटियां खुद के वजन से 100 गुना ज्यादा वजन उठा सकती हैं। मानव को चींटियों से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।
चींटी का मुख्य कार्य है, वृक्ष तथा झाड़ी आदि के आसपास मरे हुए छोटे-छोटे जीवों को खाकर उन्हें समाप्त करना, गंदगी को दूर करना, उनके द्वारा हो सकने वाली बीमारी के भय के कारण को खत्म करना। यह कार्य इतना सूक्ष्म है कि इसे और कोई प्राणी नहीं कर सकता।
चींटियां दो प्रकार की होती हैं, लाल और काली। इनमें से लाल को अशुभ और काली को शुभ माना गया है। दोनों ही तरह की चींटियों को आटा डालने की परंपरा प्राचीनकाल से ही विद्यमान है। चींटियों को शकर मिला आटा डालते रहने से व्यक्ति हर तरह के बंधन से मुक्त हो जाता है। हजारों चींटियों को प्रतिदिन भोजन देने से वे चींटियां उक्त व्यक्ति को पहचानकर उसके प्रति अच्छे भाव रखने लगती हैं और उसको वे दुआ देने लगती हैं। चींटियों की दुआ का असर आपको हर संकट से बचा सकता है।
लाल चींटियों की कतार मुंह में अंडे दबाए निकलते देखना शुभ है। सारा दिन शुभ और सुखद बना रहता है।
जो चींटी को आटा देते हैं और छोटी-छोटी चिड़ियों को चावल देते हैं, वे वैकुंठ जाते हैं।
कर्ज से परेशान लोग चींटियों को शकर और आटा डालें। ऐसा करने पर कर्ज की समाप्ति जल्दी हो जाती है।
गाय को खिलाने से घर की पीड़ा दूर होगी। कुत्ते को खिलाने से दुश्मन दूर रहेंगे। कौए को खिलाने से पितृ प्रसन्न रहेंगे। पक्षी को खिलाने से व्यापार-नौकरी में लाभ होगा। चींटी को खिलाने से कर्ज समाप्त होगा और मछली को खिलाने से समृद्धि बढ़ेगी।
BIRTHDAY CELEBRATION :: अक्सर ऐसा देखा जाता है कि लोग अपना जन्मदिन 12 बजे यानि निशीथ काल ( प्रेत काल) में मनाते हैं। निशीथ काल रात्रि को वह समय है जो समान्यत: रात 12 बजे से रात 3 बजे की बीच होता है। सामान्य व्यक्ति इसे मध्यरात्रि या अर्ध रात्रि काल कहते हैं। यह समय अदृश्य शक्तियों, भूत व पिशाच का काल होता है। इस समय में यह शक्ति अत्यधिक रूप से प्रबल हो जाती हैं।
आसुरी ताकतें जो दिखाई नहीं देतीं, बहुधा प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, जिससे जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है और जातक दिशाहीन हो जाते है। जन्मदिन की समारोह में अक्सर ऐसा होता है।  ऐसे प्रेत काल में केक काटना, मदिरा व माँस का सेवन करने से अदृश्य शक्तियाँ व्यक्ति की आयु व भाग्य में कमी करती हैं और दुर्भाग्य उसके द्वार पर दस्तक देता है। साल के कुछ दिनों को छोड़कर जैसे दीपावली, 4 नवरात्रि, जन्माष्टमी व शिवरात्रि पर निशीथ काल महानिशीथ काल बन कर शुभ प्रभाव देता है, जबकि अन्य समय में दूषित प्रभाव देता है।
यही सब कुछ new year celebration पर लागु होता है।
रात के समय दी गई शुभकामनाएं प्रतिकूल फल देती हैं।
अग्नि को बुझा कर उत्सव मनाना अंधेरे और असुरों को निमंत्रण देना है जो कि पुण्य कर्मों को क्षीण करता है।
शास्त्रों के अनुसार दिन की शुरुआत सूर्योदय के साथ ही होती है और यही समय ऋषि-मुनियों के तप का भी होता है। इसलिए इस काल में वातावरण शुद्ध और नकारात्मकता विहीन होता है।अतः सूर्योदय होने के बाद ही व्यक्ति को जन्म दिन की शुभकामनाएं देना चाहियें, क्योंकि रात के समय वातावरण में रज और तम  कणों की मात्रा अत्याधिक होती है और उस समय दी गई बधाई या शुभकामनाएं फलदायी ना होकर अनिष्टकारी बन जाती हैं।
अंधविश्वास, टोटके और लोक परंपरा :: यदि किसी घटना का साक्ष्य, प्रमाण, पुनरावर्ती अनेकानेक लोगों के समक्ष, विभिन्न स्थानों पर, परिस्थियों में, समय पर हो तो वह रिवाज बन जाती है, भले ही उसका कोई कारण ज्ञात न हो।
यदि काली बिल्ली बाएं से दायें रास्ता काट जाये, तो थोड़ी देर के लिए रुक जाना भला। 
यात्रा के लिए जाते समय अगर कोई पीछे से टोक दे तो थोड़ी देर के लिए रुक जाना भला। 
मंगलवार को हनुमान जी की आराधना का दिन होने और गुरुवार को वृहस्पति की पूजा का दिन होने से इन दोनों दिन बाल ना कटवाना और दाढ़ी न बनवाना। 
घर, वाहन या दुकान के बाहर नींबू-मिर्च लटकाना। 
अगर कोई आगे से छींक दे तो कार्य को थोड़ी देर के लिए टाल देना भला। 
घर से बाहर निकलते वक्त अपना दाँया पैर ही पहले बाहर निकालना चाहिए। 
जूते-चप्पल उल्टे नहीं रखने चाहिए। 
रात में किसी पेड़ के नीचे नहीं सोना चाहिए क्योंकि वे रात में कार्बन डाइ ऑक्साइड छोड़ते हैं। 
रात में बैंगन, दही, कढ़ी, चने, राजमा, अरबी, छोले, चावल और खट्टे पदार्थ नहीं खाने चाहिए क्योंकि ये बादी करते हैं-गैस बनाते हैं और अपच-एसिडिटी करते हैं। 
रात में झाडू इसलिए नहीं लगाते, क्योंकि रात्रि में निशाचर, वेश्याएँ दुष्ट शक्तियाँ मुखर होती हैं। खड़ी झाड़ू की सींक से दुर्घटना हो सकती है।
अंजुली से या खड़े होकर जल नहीं पीना चाहिए, क्योंकि इस प्रक्रिया से घुटने का दर्द हो सकता है। 
बाँस का प्रयोग काठी बनाने के लिए किया जाता है। बाँस जलने पर विस्फोटक की तरह कार्य करता है और दुर्घटना हो सकती है। 
मुर्दे की काठी को घर से बाहर निकालते वक्त पैर पहले बाहर निकलते हैं।
मूर्ति पूजा :: 
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। 
हिरण्यगर्भस इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान जात: इत्येष:॥ 
जिस परमात्मा की हिरण्यगर्भ, मा मा और यस्मान जात आदि मंत्रों से महिमा की गई है, उस परमात्मा (आत्मा) का कोई प्रतिमान नहीं। अग्‍नि‍ वही है, आदि‍त्‍य वही है, वायु, चंद्र और शुक्र वही है, जल, प्रजापति‍ और सर्वत्र भी वही है। वह प्रत्‍यक्ष नहीं देखा जा सकता है। उसकी कोई प्रति‍मा नहीं है। उसका नाम ही अत्‍यं‍त महान है। वह सब दि‍शाओं को व्‍याप्‍त कर स्‍थि‍त है। [यजुर्वेद 32]
मनुष्य जिस भी मूर्त या मृत रूप की पूजा, आरती, प्रार्थना या ध्यान कर रहे हैं, वह ईश्‍वर नहीं है, ईश्वर का स्वरूप भी नहीं है।[केनोपनिषद] 
जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है यथा :- मनुष्‍य, पशु, पक्षी, वृक्ष, नदी, पहाड़, आकाश आदि; जो कुछ भी श्रवण किया आज रहा है यथा संगीत, गर्जना आदि केवल इंद्रियों का विषय है, ईश्वरीय नहीं है। ईश्वर के द्वारा हमें देखने, सुनने और सांस लेने की शक्ति प्राप्त होती है। जानकार निराकार सत्य को मानते हैं, जो कि सनातन सत्य है। वेद के अनुसार ईश्‍वर की न तो कोई प्रति‍मा या मूर्ति‍ है और न ही उसे प्रत्‍यक्ष रूप में देखा जा सकता है।भक्त भी अच्छी तरह जनता है कि मूर्ति-प्रतिमा केवल माध्यम है, भगवान् नहीं है, बल्कि उसका काल्पनिक रूप-छवि है। यह केवल भक्त को ध्यान केंद्रित करने में सहायक है।
सती प्रथा :- Hinduism do not advocate woman self immolation with the dead body of her husband. Some instances are there which are purely voluntary. Mata Sati immolated her in Yogic-divine fire and her husband Bhagwan Shiv is still present. For further knowledge Please refer to :: SATI SYSTEM & WIDOW REMARRIAGE सती प्रथा और विधवा विवाह bhartiyshiksha.blogspot.com 
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