धर्माचरण COMMANDMENTS
HINDU PHILOSOPHY (14) हिंदु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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मानव का वैश्विक आचार धर्माचरण पर निर्भर करता है। इनके अनुशरण द्वारा ही मनुष्य विश्व में कीर्ति प्राप्त करता है और अंततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति करता है।
सनातन धर्म के 30 लक्षण ::
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्॥[श्रीमद्भागवत 7.11.8]
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्॥[श्रीमद्भागवत 7.11.9]
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव॥[श्रीमद्भागवत 7.11.10]
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्॥[श्रीमद्भागवत 7.11.11]
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति॥[श्रीमद्भागवत 7.11.12]
महात्मा विदुर द्वारा प्रतिपादित धर्म के आठ अंग :: इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ। इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है।[महाभारत]
धर्म के 9 लक्षण ::
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्॥
अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति। [याज्ञवल्क्य स्मृति 1.122]
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
संतोष, क्षमा, मन को दबाना, अन्याय से किसी की वस्तु को न लेना, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियों का निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, क्रोध न करना; ये धर्म के दस लक्षण हैं।[मनु स्मृति 6.92]
धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच (पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह, ज्ञान, विद्या, सत्य, क्रोध का त्याग ये धर्म के दस लक्षण हैं। मानव के लिये इन दस वैश्विक आचार का पालन करना अनिवार्य है। मानव किसी भी वर्ण तथा आश्रम में हो सभी को सभी आचारों का पालन करना चाहिये। स्मृतियों में वैश्विक आचार की विशद् व्याख्या की गई है।
Contentment, forgiveness, suppression of mind-self control, abstention from unrighteous appropriating anything (not to snatch, loot, belongings of others), purity-cleaning of the body, coercion of the organs (sensuality, sex, lust), wisdom-prudence, knowledge (learning, enlightenment, Tatv Gyan-Gist of the Supreme Soul), truthfulness and abstention from anger, form the ten tenets, rules for an auspicious life.
तुलसीदास जी द्वारा वर्णित धर्मरथ ::
सुनहु सखा, कह कृपानिधाना, जेहिं जय होई सो स्यन्दन आना।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।
बल बिबेक दम पर-हित घोरे, छमा कृपा समता रजु जोरे।
ईस भजनु सारथी सुजाना, बिरति चर्म संतोष कृपाना।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा, बर बिग्यान कठिन कोदंडा।
अमल अचल मन त्रोन सामना, सम जम नियम सिलीमुख नाना।
कवच अभेद बिप्र-गुरुपूजा, एहि सम बिजय उपाय न दूजा।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें, जीतन कहँ न कतहूँ रिपु ताकें।
महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होई दृढ़, सुनहु सखा मति-धीर। [लंका काण्ड]
पद्मपुराण ::
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ॥
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत॥
ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥
धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।[पद्मपुराण, शृष्टि 19.357-358]
सनातन धर्म में चार पुरुषार्थ :: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः स धर्म।
(जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है।[गौतम ऋषि ]
जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये, यह धर्म की कसौटी है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्॥
धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो। अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये।
महाभारत ::
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥
मरा हुआ धर्म मारने वाले का नाश और रक्षित धर्म रक्षक की रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले।[महाभारत वनपर्व 313.128]
जो व्यक्ति धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है। और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए।
मानव के लिए धर्म मनसा, वाचा, कर्मणा होता है। यह केवल क्रिया या कर्मों से सम्बन्धित नहीं है बल्कि धर्म चिन्तन और वाणी से भी संबंधित है।[वात्स्यायन]
मनु, याज्ञवल्क्य, बृहस्पति, आपस्तम्ब आदि सभी स्मृतिकारों ने देशकाल एवं अवसर की परवाह किये बिना वैश्विक आचार का पालन करने के लिये कहा है। वैश्विक आचार वे आचार हैं जिनका किसी भी परिस्थिति में, सभी वर्णों तथा आश्रमों के व्यक्तियों द्वारा किया जाना अनिवार्य है। सभी स्मृतिकारों, दार्शनिकों, ब्राह्मणों, उपनिषदों, धर्मशास्त्रों का सारभूत आचार यही हैं।
वैश्विक आचार-आचरण के 12 नियम ::
(1). धृति (धैर्य) :: मेधातिथि के अनुसार धनादि का नाश होने पर धैर्य रखना चाहिये। प्रारम्भ किये हुए कर्म में बाधा तथा दुःख आने पर भी विचलित न होना धृति है। संतोष धृति है। अपने धर्म से स्खलित न होना धृति है। बिना विचलित हुये कर्तव्य का पालन करना धृति है। अतः इससे प्रतीत होता है कि व्यक्ति को विपत्तिकाल में भी धैर्यपूर्वक कार्य करना चाहिये। धैर्यपूर्वक कार्य में ही व्यक्ति फलीभूत होता है।
(2). क्षमा :: मन, वचन या शरीर से दुःख पहुँचाने वाले पर क्रोध न करना व वैर न करना। क्षमाशील व्यक्ति महान माना जाता है। मेधातिथि तथा गोविन्दराज के अनुसार दूसरे के अपराध को सह लेना क्षमा है। क्रोध आने पर भी क्रोध न करना क्षमा है। किसी के अपकार पर बदला न लेना क्षमा है। क्षमा के द्वारा ही विद्वान शुद्ध होता है। अपना अपमान सह लेना क्षमा है। अपमान को प्राप्त व्यक्ति सुख पूर्वक विचरण करता है तथा अपमान करने वाला नष्ट हो जाता है। इस लोक तथा परलोक में सुख प्राप्त करने का एकमात्र साधन क्षमा है क्षमावान् मनुष्य को व्यक्ति मूर्ख विचारते हैं, यद्यपि वह स्वयं मूर्ख-अज्ञानी होते हैं। क्षमाशील व्यक्ति ही संतोष प्राप्त कर सकता है। यदि कोई अपराध करें तब क्षमा द्वारा ही स्वयं सुख प्राप्त होता है तथा अपराधी अपराध बोध से ग्रसित हो जाता है। यही उसके अपराध की सजा है। इस प्रकार भूलों से बचने वाला व्यक्ति बुद्धिमान कहलाता है तथा भूलों पर प्रायश्चित्त कर मन को निर्मल करने वाला व्यक्ति आत्म विजय का पथिक होता है। क्षमा का सभी धर्मों में गुणगान किया गया है। क्षमा की यह भावना भारतीय संस्कृति के प्राणों में बसी है। शान्ति ही जीवन के सुख की तुला है तथा यह शान्ति क्षमा भाव के द्वारा प्राप्त होती है। अतः मानव एक दूसरे से क्षमा माँगकर तथा देकर विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
(2). क्षमा :: मन, वचन या शरीर से दुःख पहुँचाने वाले पर क्रोध न करना व वैर न करना। क्षमाशील व्यक्ति महान माना जाता है। मेधातिथि तथा गोविन्दराज के अनुसार दूसरे के अपराध को सह लेना क्षमा है। क्रोध आने पर भी क्रोध न करना क्षमा है। किसी के अपकार पर बदला न लेना क्षमा है। क्षमा के द्वारा ही विद्वान शुद्ध होता है। अपना अपमान सह लेना क्षमा है। अपमान को प्राप्त व्यक्ति सुख पूर्वक विचरण करता है तथा अपमान करने वाला नष्ट हो जाता है। इस लोक तथा परलोक में सुख प्राप्त करने का एकमात्र साधन क्षमा है क्षमावान् मनुष्य को व्यक्ति मूर्ख विचारते हैं, यद्यपि वह स्वयं मूर्ख-अज्ञानी होते हैं। क्षमाशील व्यक्ति ही संतोष प्राप्त कर सकता है। यदि कोई अपराध करें तब क्षमा द्वारा ही स्वयं सुख प्राप्त होता है तथा अपराधी अपराध बोध से ग्रसित हो जाता है। यही उसके अपराध की सजा है। इस प्रकार भूलों से बचने वाला व्यक्ति बुद्धिमान कहलाता है तथा भूलों पर प्रायश्चित्त कर मन को निर्मल करने वाला व्यक्ति आत्म विजय का पथिक होता है। क्षमा का सभी धर्मों में गुणगान किया गया है। क्षमा की यह भावना भारतीय संस्कृति के प्राणों में बसी है। शान्ति ही जीवन के सुख की तुला है तथा यह शान्ति क्षमा भाव के द्वारा प्राप्त होती है। अतः मानव एक दूसरे से क्षमा माँगकर तथा देकर विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
(3). दम :: दम का तात्पर्य है - DAM TRAINING DISCIPLINE-Training of the senses (Indriy, इन्द्रिय संयम) means the responsible use of the senses in positive, useful directions, both in our actions in the world and the nature of inner thoughts we cultivate. Controlling sense organs, sensuality, lust, passions. Restraint of the senses, sensuality, passions-mortification-subduing feelings; शरीर की उपरामता।मन को दुष्ट विषयों से धारण करना दम है। तपस्या करते हुए कष्ट को सह लेना दम है। मन में विकार होने पर भी मन को रोके रखना, मन को निर्विकार रखना दम है। मनुष्य का अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना दम है। ब्रह्मचारी जब वन में निवास करे तब वर्षाऋतु में आकाश के नीचे खुले स्थान में, जाड़ों में जल में शयन करें, ग्रीष्मऋतु में अग्नि के समीप निवास करना दम है। मनुष्य को सदा सुख-दुःख, ठंडा-गर्म, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों का सहन करना चाहिये। ब्राह्मण का दम दान, क्षत्रिय का दम प्रजा तथा आर्तका रक्षण, वैश्य का दम खेती व्यापार तथा पशुपालन आदि तथा शूद्र का दम ब्राह्मण की सेवा करना है। अर्थात् दम द्वारा मनुष्य सभी सांसारिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर मोह, माया, दुःख आदि अवज्ञान के बन्धनों से मुक्त होकर मोझ की प्राप्ति कर लेता है यही मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है। शरद, ग्रीष्म, वर्षा सभी ऋतुओं में एक जैसा जीवन जीने की कला है। सभी वर्णों के स्वधर्म ही उनका दम है। अपनी सभी इन्द्रियों पर विजय पाना मनुष्य का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिये।
(4). ASTEY अस्तेय :: Self restraint from stealing-theft-burglary is desirable. Stealing leads to hells. One must not steal. Stealing, storing stolen goods, selling-buying them are equivalent and leads to punishment as greatest sins.
चोरी एक ऐसा अपराध है, जो मनुष्य को नर्क ले जाता है और वहाँ से मुक्ति के तदुपरान्त हीन योनियों में जन्म प्रदान करता है। चोरी करने वाला, चोरी का माल खरीदने वाला, बेचने वाला बराबर के अपराधी हैं।
अस्तेय का अर्थ चोरी न करना है। अन्याय से किसी दूसरे का धन ग्रहण नहीं करना चाहिये। देवर्षि नारद ने अस्तेय के तीन भेद बताये हैं :- क्षुद्र, मध्यम, उत्तम। साधारण वस्तु की चोरी क्षुद्र, मध्यम वस्तु की चोरी मध्यम, तथा बहुमूल्य वस्तु की चोरी करना उत्तम साहस कहलाता है। मिट्टी से बने पात्र, आसन-कुर्सी, चैकी आदि, खाट पलंग, शैया, अस्थि, गज की अस्थि अथवा अस्थि से निर्मित माला आदि, चन्दन, देवदार आदि की काष्ठ, सिंह, व्याग्र सर्प तथा मृग आदि की खाल, बहुमूल्य प्रकार की घास-फूस शमी वृक्ष की लकड़ी, धान्य तथा पका भोजन क्षुद्र पदार्थों की परिगणित हैं। मूल्यवान सूती तथा ऊनी वस्त्र, गाय को छोड़कर अन्य पशु, स्वर्ण को छोड़कर अन्य धातु तथा धान जौ आदि मध्यम अस्तेय के अन्तर्गत आते हैं। स्वर्ण, रत्न, कौशेय (रेशमी) वस्त्र, स्त्री, पुरुष (दास), गाय, गज, अश्व आदि पशु, देवता, ब्राह्मण अथवा राजा को देय द्रव्य (धन) अथवा पदार्थ सामग्री आदि उत्तम अस्तेय के अन्तर्गत आते हैं। जिस राजा के राज्य में चोरों का निग्रह होता है, उस राज्य के यश की वृद्धि होती है। मनुष्य स्त्री, खेत, घर, कुँएं तथा बावड़ी का सम्पूर्ण जल चोरी करने पर चान्द्रायण व्रत करे। इससे प्रतीत होता है कि चोरी एक दैहिक कर्म है। चोरी करने से मनुष्य पाप की तथा अग्रसित है। चोरी करने से वस्तु सुलभता से प्राप्त तो हो जायेगी मगर व्यक्ति सुकर्मों की ओर अग्रसित नहीं हो पाता। इसलिए चोरी निषेध है तथा समाज को भी क्षति पहुँचाती है। ब्राह्मण के घर से धान्य, अन्न आदि धन को ज्ञानपूर्वक चुराये तो प्राजापत्य व्रत करने से शुद्ध होता है। चुराई हुई वस्तु वापस कर देने पर सान्तपन कृच्छ्र व्रत होता है। भक्ष्य, भोज्य, सवारी, शय्या, आसन, फूल, मूल तथा फल चुराने पर पञ्चगव्य पीना चाहिये तभी पाप की निवृत्ति होती है। मनुस्मृति झूठे वचन बोलने वाले को भी चोर मानती है।
(5). शौच :: अभक्ष्य वस्तु का भक्षण न करना, निन्दित पुरुषों का संग न करना और सदाचार में स्थित रहना। शौच दो प्रकार का होता है :- वाह्य शौच मिट्टी तथा जल से होता है, किन्तु आन्तरिक शौच लोभादि पापों के बचने से होती है। आन्तरिक शौच से जो मनुष्य शुद्ध है वही शुद्ध है दूसरा नहीं। जिन पुरुषों का अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता है, वह पुरुष हजार बार मिट्टी से तथा सौ घड़ जल से भी शुद्ध नहीं हो सकते। मिट्टी तथा जल यत्न पूर्वक प्राप्त होता है; अतः वाह्य शौच के प्रति प्रमाद नहीं करना चाहिये। शौचावस्था में जिस कर्म को दिन में करने के लिये कहा है, उससे आधा रात्रि में तथा रुग्णावस्था में उसका आधा करे तथा मार्ग में शूद्र के समान आचरण करे। मार्ग में शूद्र के समान आचरण करने के लिए इसलिए कहा है कि मार्ग में शुद्ध होने के लिए सम्भव है, मिट्टी तथा जल अप्राप्य हो। शौचाचार के पश्चात् अशौचार से भी मनुष्य की शुद्धि होती है। अशौचार तीन प्रकार का होता है :- जन्म, मरण, जीवनपर्यन्त। सद्यः शौच, एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन, छः दिन, दस दिन, बारह दिन, पन्द्रह दिन तथा एक मास तक तथा मृत्युपर्यन्त तक अशौचार होता है। यदि जन्म समय में मरण-सूतक तथा मरण-सूतक में जन्म-सूतक हो जाये तो दोनों की शुद्धि मरण-सूतक के अशौचार द्वारा होती है। यज्ञ के समय में, विवाह में, देवपूजन में तथा अग्निहोत्र में अशौचार तथा सूतक दोनों नहीं होते हैं। वाह्य शुद्धि से सभी आचार निष्फल हो जाते हैं। अन्तःकरण की शुद्धि से सभी आचार फलवती होते हैं।
(4). ASTEY अस्तेय :: Self restraint from stealing-theft-burglary is desirable. Stealing leads to hells. One must not steal. Stealing, storing stolen goods, selling-buying them are equivalent and leads to punishment as greatest sins.
चोरी एक ऐसा अपराध है, जो मनुष्य को नर्क ले जाता है और वहाँ से मुक्ति के तदुपरान्त हीन योनियों में जन्म प्रदान करता है। चोरी करने वाला, चोरी का माल खरीदने वाला, बेचने वाला बराबर के अपराधी हैं।
अस्तेय का अर्थ चोरी न करना है। अन्याय से किसी दूसरे का धन ग्रहण नहीं करना चाहिये। देवर्षि नारद ने अस्तेय के तीन भेद बताये हैं :- क्षुद्र, मध्यम, उत्तम। साधारण वस्तु की चोरी क्षुद्र, मध्यम वस्तु की चोरी मध्यम, तथा बहुमूल्य वस्तु की चोरी करना उत्तम साहस कहलाता है। मिट्टी से बने पात्र, आसन-कुर्सी, चैकी आदि, खाट पलंग, शैया, अस्थि, गज की अस्थि अथवा अस्थि से निर्मित माला आदि, चन्दन, देवदार आदि की काष्ठ, सिंह, व्याग्र सर्प तथा मृग आदि की खाल, बहुमूल्य प्रकार की घास-फूस शमी वृक्ष की लकड़ी, धान्य तथा पका भोजन क्षुद्र पदार्थों की परिगणित हैं। मूल्यवान सूती तथा ऊनी वस्त्र, गाय को छोड़कर अन्य पशु, स्वर्ण को छोड़कर अन्य धातु तथा धान जौ आदि मध्यम अस्तेय के अन्तर्गत आते हैं। स्वर्ण, रत्न, कौशेय (रेशमी) वस्त्र, स्त्री, पुरुष (दास), गाय, गज, अश्व आदि पशु, देवता, ब्राह्मण अथवा राजा को देय द्रव्य (धन) अथवा पदार्थ सामग्री आदि उत्तम अस्तेय के अन्तर्गत आते हैं। जिस राजा के राज्य में चोरों का निग्रह होता है, उस राज्य के यश की वृद्धि होती है। मनुष्य स्त्री, खेत, घर, कुँएं तथा बावड़ी का सम्पूर्ण जल चोरी करने पर चान्द्रायण व्रत करे। इससे प्रतीत होता है कि चोरी एक दैहिक कर्म है। चोरी करने से मनुष्य पाप की तथा अग्रसित है। चोरी करने से वस्तु सुलभता से प्राप्त तो हो जायेगी मगर व्यक्ति सुकर्मों की ओर अग्रसित नहीं हो पाता। इसलिए चोरी निषेध है तथा समाज को भी क्षति पहुँचाती है। ब्राह्मण के घर से धान्य, अन्न आदि धन को ज्ञानपूर्वक चुराये तो प्राजापत्य व्रत करने से शुद्ध होता है। चुराई हुई वस्तु वापस कर देने पर सान्तपन कृच्छ्र व्रत होता है। भक्ष्य, भोज्य, सवारी, शय्या, आसन, फूल, मूल तथा फल चुराने पर पञ्चगव्य पीना चाहिये तभी पाप की निवृत्ति होती है। मनुस्मृति झूठे वचन बोलने वाले को भी चोर मानती है।
(5). शौच :: अभक्ष्य वस्तु का भक्षण न करना, निन्दित पुरुषों का संग न करना और सदाचार में स्थित रहना। शौच दो प्रकार का होता है :- वाह्य शौच मिट्टी तथा जल से होता है, किन्तु आन्तरिक शौच लोभादि पापों के बचने से होती है। आन्तरिक शौच से जो मनुष्य शुद्ध है वही शुद्ध है दूसरा नहीं। जिन पुरुषों का अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता है, वह पुरुष हजार बार मिट्टी से तथा सौ घड़ जल से भी शुद्ध नहीं हो सकते। मिट्टी तथा जल यत्न पूर्वक प्राप्त होता है; अतः वाह्य शौच के प्रति प्रमाद नहीं करना चाहिये। शौचावस्था में जिस कर्म को दिन में करने के लिये कहा है, उससे आधा रात्रि में तथा रुग्णावस्था में उसका आधा करे तथा मार्ग में शूद्र के समान आचरण करे। मार्ग में शूद्र के समान आचरण करने के लिए इसलिए कहा है कि मार्ग में शुद्ध होने के लिए सम्भव है, मिट्टी तथा जल अप्राप्य हो। शौचाचार के पश्चात् अशौचार से भी मनुष्य की शुद्धि होती है। अशौचार तीन प्रकार का होता है :- जन्म, मरण, जीवनपर्यन्त। सद्यः शौच, एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन, छः दिन, दस दिन, बारह दिन, पन्द्रह दिन तथा एक मास तक तथा मृत्युपर्यन्त तक अशौचार होता है। यदि जन्म समय में मरण-सूतक तथा मरण-सूतक में जन्म-सूतक हो जाये तो दोनों की शुद्धि मरण-सूतक के अशौचार द्वारा होती है। यज्ञ के समय में, विवाह में, देवपूजन में तथा अग्निहोत्र में अशौचार तथा सूतक दोनों नहीं होते हैं। वाह्य शुद्धि से सभी आचार निष्फल हो जाते हैं। अन्तःकरण की शुद्धि से सभी आचार फलवती होते हैं।
(6). इन्द्रिय निग्रह :: कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना आचार है। कान, चर्म, नेत्र, जीभ, नाक, गुदा लिंग हाथ, पैर तथा वाणी दस इन्द्रियां कही गयी हैं। इसमें श्रोत, त्वचा, नेत्र, रसना तथा नासिका ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा गुदा, लिंग, हाथ, पैर, वाणी ये पाँ कर्मेंन्द्रियाँ हैं। मन को ग्यारहवाँ इन्द्रिय माना है जो उभयात्मक है। विद्वान व्यक्ति को इन्द्रियों के विषय में आसक्त नहीं होना चाहिए। इन्द्रियों के स्वतन्त्र होने से दुःख तथा उनको वश में करने से सुख प्राप्त होता है। इन्द्रियों का सारथी मन को जब तक वशीभूत नहीं किया जाता तब तक मनुष्य राग-द्वेष आदि दोष मन से दूर नहीं होता तथा मनुष्य शुभ कर्मों को प्रेरित नहीं होता। इन्द्रियों को नित्य ज्ञान के माध्यम से रोका जा सकता है अपितु इन्द्रियों का सेवन न करने से नहीं रोका जा सकता है। जो व्यक्ति अपनी निन्दा सुनकर, कोमल वस्त्र धारण कर, सुरूप या कुरूप देखकर, सरस या नीरस खाकर, सुगन्ध या दुर्गन्ध को सूंघकर मन में किसी प्रकार की हर्ष या विषाद न हो उसे जितेन्द्रिय कहा जाता है। यदि किसी एक भी इन्द्रिय को छूट दे दी तो उस व्यक्ति की बुद्धि चर्म के पात्र से जल के समान नष्ट हो जाती है। इन्द्रिय संयम का महत्त्व बताते हुए मनु कहते हैं कि - इन्द्रियों को वश करके, मन को संयमित करते हुए योग द्वारा शरीर को सुरक्षित रखता हुआ व्यक्ति सभी प्रयोजनों को सिद्ध कर लेता है। जो मनुष्य इन्द्रियों को संयमित कर लेता है उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। महर्षि दक्ष ने इन्द्रियों को वश में करने वाले मनुष्य को योगी कहा है। प्रणायाम, ध्यान, प्रत्याहार, धारणा, तर्क, समाधि ये योग के छः अग् हैं। इन्द्रिय संयम का महत्त्व बतलाते हुए कहते हैं - ‘‘जो बलपूर्वक दूसरे राज्यों को जीत लेता है वह शूर नहीं कहलाता है, परन्तु वास्तव में वही शूर है जिसने इन्द्रिय रूपी ग्राम को जीत लिया। सर्व बर्हिमुख इन्द्रियों को अन्तर्मुख करके, फिर उन इन्द्रियों को मन में युक्त करके, मन को आत्मा में समायोजित करे तथा सब भावों से रहित क्षेत्रज्ञ को ब्रह्म में मिलावे इसी का नाम ध्यान तथा ज्ञान है। अतः इससे प्रतीत होता है कि इन्द्रिय संयम महत्त्वपूर्ण कर्म है। इन्द्रियों को जीतने वाला जीवन पर विजय प्राप्त कर मोक्षत्त्व को प्राप्त होता है।
(7). धी :: धी का तात्पर्य बुद्धि है। मेधातिथि के अनुसार सम्यक् ज्ञान, प्रतिपक्ष के संशय को दूर करना ‘धी’ है। शास्त्र आदि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति ‘धी’ है। मनुष्य बुद्धि के माध्यम से गुण तथा अवगुण को भलीभांति समझता है तथा विषयों से होने वाले राग-द्वेष को भलीभांति आकलन करके परिणाम भी निकालता है तत्पश्चात् गुण को ग्राह्य करके द्वेष का त्याग कर देता है। बुद्धि सुख, दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय में व्यक्ति को अपने कत्र्तव्य से विचलित नहीं करती है। विवेक के द्वारा ही मनुष्य जीवन के महत्त्वपूर्ण कर्तव्य-अकर्तव्य में भेद करने में सक्षम होता है। जिस प्रकार युद्ध न करने पर भी ब्राह्मण के शरीर से रक्त गिरने पर दुख होता है उसी प्रकार शास्त्राज्ञान न होने पर मनुष्य मरने पर बहुत भारी दुःख पाता है। मनुष्य को विपत्ति काल में विवेक द्वारा ही कार्य करना चाहिये।
(8). विद्या :: विद्या के अन्तर्गत ज्ञान तथा विज्ञान दोनों का समावेश होता है। ज्ञान के द्वारा मनुष्य जीवन के उद्देश्यों, परम लक्ष्य का निर्धारण करता है तथा उसी के अनुसार अपनी क्रियाओं तथा वृत्तियों का निर्धारण करता है। ऋग्वेद में विद्या को ऐश्वर्य शाली होने का कारण माना गया है। दर्शन, धर्म तथा कला के अर्थों में विद्या का प्रयोग होता है। दर्शन में विद्या का अर्थ तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली विद्या है। धर्म के अनुसार विद्या का अर्थ त्रयी (तीन वेद), धर्मशास्त्र तथा सामाजिक शास्त्र। पौराणिक तथा तान्त्रिक धर्म में विद्या का प्रयोग महादेवी दुर्गा अथवा शक्ति के मन्त्र अर्थ में होता है। कला के अर्थ में विद्या का प्रयोग कलाओं तथा शिल्पों के अर्थ में किया जाता है।
चार विद्यायें ::
(8.1). आन्वीक्षकी (तर्क अथवा दर्शन), (8.2). त्रयी (तीन वेद), (8.3). वार्ता (आधुनिक अर्थशास्त्र) (8.4). दण्डनीति (राजनीति)[ कौटिल्य]
मनु ने भी तीन विद्याओं का उल्लेख किया है।
मनु ने भी तीन विद्याओं का उल्लेख किया है।
विद्या के चौदह स्थान :: पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, षङ्ग सहित चारों वेद।[याज्ञवल्क्य]
64 विद्या :: तर्कशास्त्र, साङ्ख्य, योग, लोकायत (नास्तिक दर्शन) आन्वीक्षिकी के अन्तर्गत आते हैं। पाप-पुण्य एवं काम मोक्ष की बातें त्रयी के अन्तर्गत आते हैं।[वात्सायन]
वार्ता का तात्पर्य उस शास्त्र से है जिसके अध्ययन से लोक व्यवहार का ज्ञान प्राप्त होता है। सूदखोरी, खेती व्यापार तथा गोपालन को व्यापार कहते हैं। वार्ता शास्त्र का भली-भाँति ज्ञान रखने वाले को जीविका सम्बन्धी भय कभी नहीं होता है।
दण्डनीति से सुःशासन-दुःशासन का ज्ञान होता है। विद्या की रक्षा के उपाय बताते हुए मनु कहते हैं :- विद्या ब्राह्मण के पास आकर बोली, ‘‘मैं तुम्हारी सम्पत्ति हूँ, इसलिए मेरी रक्षा करो। मुझे असूया करने वाले व्यक्ति को प्रदान नहीं करना, जिससे मैं वीर्यशालिनी बन सकूँ"।
दण्डनीति से सुःशासन-दुःशासन का ज्ञान होता है। विद्या की रक्षा के उपाय बताते हुए मनु कहते हैं :- विद्या ब्राह्मण के पास आकर बोली, ‘‘मैं तुम्हारी सम्पत्ति हूँ, इसलिए मेरी रक्षा करो। मुझे असूया करने वाले व्यक्ति को प्रदान नहीं करना, जिससे मैं वीर्यशालिनी बन सकूँ"।
विद्या का उपदेश उस स्थान पर नहीं करना चाहिए, जिस स्थान पर धर्म तथा अर्थ न हो अथवा उस प्रकार की समर्पित सेवा न हो; क्योंकि ऐसे स्थान पर विद्या (उपदेश देना) बंजर भूमि में रोपे बीज के समान कभी फलवती नहीं होती है। पवित्र, संयमी, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, आलस्य रहित ब्राह्मण को वेद रक्षा के लिए विद्या का उपदेश देना चाहिए।
विद्या द्वारा प्राप्त धन अर्जनकर्ता का होता है, किन्तु जो मनुष्य अनपढ़ होते हुए भी धन संचित करते हैं, उस धन में सभी बराबर के हिस्सेदार होते हैं।[मनु]
जिस पुरुष के आचरण में विद्या तथा तपस्या दोनों होते हैं, वही श्रेष्ठ पात्र होता है। सभी वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ माने गये हैं; किन्तु श्रेष्ठ ब्राह्मण वही है, जिसे अध्यात्म तत्व का ज्ञान है। वेद विद्या का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति देव योनि में जन्म पाता है। विद्या को सर्वश्रेष्ठ धन है, क्योंकि विद्या विनय प्रदान करती, विनय से सुपात्रता, सुपात्रता से धन, धन से धर्म तथा धर्म से सुख की प्राप्ति होती है। विद्या के द्वारा ही इहलोक तथा परलोक दोनों में सुन्दर गति प्राप्त होती है। विद्या व्यक्तिगत आचार के साथ-साथ वैश्विक आचार का भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है।[याज्ञवल्क्य]
विद्या ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद् धर्मः ततः सुखम्॥
(9). सत्य :: जिसकी सत्ता है, जिसकी विद्यमानता है, वह सत् है तथा उसी सत् के भाव को सत्य कहा जाता है। सत्य ही सबसे बड़ा दान है, सत्य ही बड़ा तप है, सत्य ही सबसे बड़ा धर्म है। ‘‘सत्य को देव कहा गया है, मनुष्य को सत्य कहा गया है। यही उसका देवत्व है जिसका सत्य में बुद्धि हो"। सत्य से बड़ा धर्म नहीं है, असत्य से बड़ा कोई पातक नहीं तथा साक्षी धर्म के रूप में सत्य बोले (जैसा देखा वैसा कहे)। प्रत्यक्ष देखने या सुनने से सत्य सिद्ध होता है। अतः साक्षी को सत्य बोलना चाहिये साक्षी की धर्म तथा अर्थ विषयक हानि नहीं होती है। जो मनुष्य असत्य कहता है तो वह उल्टे मुँह नरक में जाता है तथा मरकर स्वर्ग से पतित होता है। सत्य बोलने वाले मनुष्य को इस लोक में उत्तम कीर्ति तथा मरने पर उत्तम लोकों को प्राप्त करता है। असत्य बोलने वाला व्यक्ति वरूण के पाशों द्वारा अत्यधिक बाँधा जाता है, जलोदर से सौ वर्षों जन्मों तक ग्रसित रहता है, इसलिए साक्षी को सदैव सत्य बोलना चाहिए। मनुष्य जो भी पुण्य सञ्चित करता है, असत्य बोलने से वे सभी पुण्य नष्ट हो जाते हैं। जिस असत्य से किसी निर्दोष व्यक्ति के प्राणों की रक्षा हो रही हो, उसे बोलने में कोई पाप नहीं है। मनुष्य सदैव सत्य बोले, प्रिय बोले; अप्रिय सत्य न बोले तथा प्रिय असत्य भी न बोले, यही सनातन धर्म है। जो व्यक्ति अधार्मिक तथा असत्य ही बोलता है, वह इस संसार में सुख एवं समृद्धि नहीं प्राप्त कर सकता है। राजा का कर्तव्य है कि सत्य की सावधानी पूर्वक रक्षा करे। असत्य बोलने वाला मनुष्य मृग तथा पक्षी की योनि में जन्म लेता है। सत्यवादी मनुष्य को देवलोक की प्राप्ति होती है। सत्य का मनुष्य के जीवन में महत्त्व स्वयं सिद्ध है। नैतिक आधार पर सत्य सर्वश्रेष्ठ आचार है, जिससे सम्पूर्ण समाज या राष्ट्र का कल्याण होता है।
(10). अक्रोध :: क्रोध आने पर भी क्रोध न करना, उसको रोकने का प्रयास करना अक्रोध है। क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। ‘‘चुगलखोरी, दुःसाहस करना, द्रोह करना, ईर्ष्या करना, गुणों में दोष दृष्टि रखना, दूसरे का धन हड़पने की आकांक्षा रखना, कर्कश वाणी का उच्चारण तथा कठोरतापूर्वक आचरण करना ये सब क्रोध के उत्पत्ति स्थान माने गये हैं। मनु क्रोध का उत्पत्ति स्थान लोभ को मानते हैं। क्रोध उत्पन्न होने पर मनुष्य दण्ड, वचन तथा कष्टपूर्ण आचरण द्वारा उसकी अभिव्यक्ति करता है। पुत्र तथा शिष्य के लिए दूसरे के ऊपर दण्ड न उठावे, न ही क्रुद्ध होकर मारे, न ही शिक्षा प्रदान करने को छोड़कर दोनों को प्रताडि़त करे।
ब्राह्मण को मारने की इच्छा से केवल दण्ड उठाने वाला द्विजाति भी तामिस्त्र नामक नरक में सौ वर्षों तक घूमता रहता है। क्रोध के कारण सोच-समझकर तिनके के द्वारा मारने पर वह इक्कीस जन्म पर्यन्त तक पाप योनियों में उत्पन्न होता है। विद्वान व्यक्ति किसी भी ब्राह्मण पर दण्ड न उठावे, न तिनके से भी मारे, न ही उसके शरीर से रक्त बहावे। मनुष्य सुख तथा समृद्धि के लिए क्रोध का त्याग करे। जिस प्रकार कच्चे घड़े में पानी नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार क्रोधी मनुष्य के यज्ञ, होम, पूजा नष्ट हो जाते हैं। क्रोध शरीर को नष्ट करने वाला है, अतः क्रोध का नाश कर देना चाहिए। मनु के दस वैश्विक आचार के अन्तर्गत मानव जीवन के लक्ष्य का सारगर्भित रूप परिलक्षित है। याज्ञ, अत्रि आदि स्मृतिकारों ने भी मनु द्वारा प्रतिपादित इन दस वैश्विक आचार को स्वीकार किया है। याज्ञवल्क्य, लज्जा, अत्रि, अनसूया, अनायास मंगल, अकार्पण्य (दान) को अतिरिक्त आचार मानते हैं।
(11). अहिंसा :: अहिंसा का सामान्य अर्थ हिंसा न करना अर्थात् किसी के प्राण न लेना। अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है, अहिंसा परम तप है, अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा परम फल है, अहिंसा परम मित्र है, अहिंसा परम सुख है। मनु ने ‘‘अहिंसा परमो धर्मः’’ अहिंसा को सभी आचार का मूल माना है। इसका यह अर्थ नहीं है कि व्यक्ति अत्याचार बर्दाश्त करे। उसे मौंका देखते हुए, स्वयं को सुरक्षित महसूस करने पर, प्रतिकार अवश्य करना चाहिये। धर्म की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को अहिंसा द्वारा ही अनुशासन करना चाहिए। अहिंसा द्वारा तपस्वी लोग इस संसार में ब्रह्मपद को प्राप्त कर लेते हैं।
गृहस्थ द्वारा सर्वदा पाँच हत्याऐं होती हैं :- चूल्हा, चक्की, झाड़ू, ओखली तथा जल का घड़ा के द्वारा की गई हत्याओं की पाप निवृत्ति के लिये पंचयज्ञकर्म का प्रतिपादन किया गया है। मनु ने आठ प्रकार के हिंसा का उल्लेख किया है। ‘‘अनुमन्ता (अनुमति देनेवाला), विशसिता (शस्त्र से मरे हुए प्राणियों के अगें को काटने वाला), निहन्ता (मारने वाला), विक्रेता (माँस बेचने वाला), क्रेता (माँस को खरीदने वाला), संस्कत्र्ता (माँस को पकाने वाला), उपहत्र्ता (उपहार रूप में माँस को देने वाला), खादक (माँस खाने वाला); ये सभी घातक हिंसक होते हैं"। मधुपर्क, यज्ञ (ज्योतिष्टोम आदि), पितृ कार्य (श्राद्ध), देव कार्य में हिंसा करने की अनुमति, इनकी रक्षा हेतु दी गई है जो कि वेद सम्मत है (अन्यत्र कहीं नहीं)। आपत्ति काल में भी अनावश्यक हिंसा न करने की आज्ञा दी गई है। अहिंसक जीवों की हत्या करने का निषेध करते हुये कहा गया है कि ‘‘जो अहिंसक जीवों का अपने सुख (जिव्हा स्वाद, शरीर पुष्टि आदि) की इच्छा से वध करता है, वह इह लोक तथा पर लोक में सुख पूर्वक उन्नति नहीं कर सकता अर्थात मोक्ष मार्ग को प्राप्त नहीं कर सकता है। जो देवता तथा पितरों को बिना तृप्त किये दूसरे (जीवों) के माँस से अपने शरीर के माँस को बढ़ाना चाहता है, उससे बड़ा दूसरा कोई पापी नहीं है। माँस त्याग का फल सौ अश्वमेध यज्ञ के फल के बराबर है। माँस भक्षण में छूट देते हुए मनु कहते हैं कि मदिरा सेवन तथा मैथुन करने माँस भक्षण करने में दोष नहीं है यहाँ माँस शब्द का अर्थ मिठाई, मधुर पदार्थ हैं न कि पशुओं का मृत शरीर)। शरण में आये बालक तथा स्त्री की हिंसा करने वालों का प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होने पर भी उनके साथ कोई व्यवहार नहीं रखना चाहिये। अन्न के अभाव में या रोग में माँस के बिना प्राण बचना कठिन हो, श्राद्ध में, प्रोक्षण नाम के (श्रौत संस्कार) में देवताओं की आहुति से अवशिष्ट, ब्राह्मण के भोजन या देवता तथा पितर के लिये बनाये गये माँस को देवता तथा पितरों की अर्चना करके खाने वाला पाप का दोषी नहीं होता है (यह छूट केवल आपात काल में प्राण रक्षा हेतु ही है, अन्यंत्र नहीं)।
अत्रि मुनि ने हिंसा करने वाले मनुष्य के लिये प्रायश्चित का भी विधान किया है। जो मनुष्य काष्ठ, ढेला आदि से गौ को मारता है, वह ‘‘कृच्छ’’ व्रत करे तथा जिसने गौ हत्या मिट्टी के द्वारा की है वह ‘‘अतिकृच्छ’’ व्रत करें। शम्भ ऊँट, अश्व, हाथी, सिंह, व्याघ्र वा गर्दभ की हत्या करने वाले शूद्र की हत्या के समान प्रायश्चित्त करे। बिल्ली, गोह, नेवला, मेंढक वा पक्षी को मारने वाला तीन दिन तक दुग्ध पान कर फिर पादकृच्छ्र प्रायश्चित करे। मूर्ख ब्राह्मण को मारने पर शूद्र की हत्या का प्रायश्चित्त करे। जो मनुष्य शिल्पी, कारीगर, शूद्र तथा स्त्री को मारता है वह दो प्राजापत्य प्रायश्चित करके ग्यारह बैलों का दान करे तब उसकी शुद्धि होती है। निरपराधी वैश्य या क्षत्रिय की हिंसा करने वाला मनुष्य दो अति कृच्छ्र व्रत कर बीस गौ दक्षिणा में देने से शुद्ध होता है। जो मनुष्य अधर्मी वैश्य, शूद्र तथा कुकर्मी ब्राह्मण को मारता है, उसकी शुद्धि चांद्रायण व्रत के करने तथा तीस गौवें दान करने से होती है। यदि ब्राह्मण ने चाण्डाल की हिंसा की तो वह कृच्छ्र तथा प्राजापत्य व्रत कर दो गौवें दक्षिणा में देकर शुद्ध होता है। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा किसी अन्य जाति ने यदि चांडाल की हिंसा की हो तो वह अर्द्धकृच्छ्र व्रत करने से शुद्ध हो जाता है। आत्मरक्षा के निमित्त हिंसा करने पर पाप नहीं लगता है। वशिष्ठ जी ने छः प्रकार की हिंसक मनुष्यों का उल्लेख किया है। अग्नि लगाने वाला, विष देने वाला, जिसके हाथ में शस्त्र हो, धन का चुराने वाला, खेत चुराने वाला तथा स्त्री की चोरी करने वाला। स्मृतियों में हिंसा तथा अहिंसा दोनों के यथास्थिति प्रयोग करने की आज्ञा दी गई है। मनुष्य को हिंसा करने का अधिकार विशेष आपत्तिकाल परिस्थितियों में दिया गया है अन्यथा नहीं। अहिंसा की भावना प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी है। इसके बिना मानव जाति सहित समस्त प्राणियों के बीच सुख, शान्ति, स्थापित होना असम्भव है। प्राणी की हिंसा करना पाप माना गया है।
(11). दान :: दान को ही स्मृतियों में इष्ट तथा पूर्त भी कहा गया है। इष्टाचार अग्निहोत्रादि यज्ञों से सम्बन्धित कहे गये हैं तथा पूर्त धर्म के अन्तर्गत दान एवं उत्सर्ग का समावेश होता है। इष्ट का तात्पर्य यज्ञ तथा दक्षिणा तथा पूर्त का तात्पर्य दान तथा उत्सर्ग है। यम ने दान को गृहस्थ का परम धर्म बतलाया है। इष्ट का तात्पर्य (मण्डप के भीतर यज्ञादि का कार्य) तथा पूर्त का तात्पर्य (वापी, कूप, तड़ाग आदि का निर्माण) करवाना है। इष्ट के माध्यम से स्वर्ग तथा पूर्त के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति होती है। कलियुग में दान को ही श्रेष्ठ माना गया है। जो दान स्वयं जाकर दिया जाता है, वह उत्तम है, बुलाकर जो दान दिया जाता है वह मध्यम है, दान याचना करने पर दिया जाता है, वह निकृष्ट है तथा जो सेवा करा कर दान दिया जाता है, वह निष्फल है। अशिक्षित तथा तप से हीन व्यक्ति को दान देने से दाता नरक को प्राप्त करता है। यथा शक्ति प्रतिदिन गौ दान देना चाहिए। (सूर्य या चन्द्रग्रहण) जैसे अवसरों पर विशेष रूप से यथाशक्ति दान देना चाहिए। गोदान द्वारा मनुष्य स्वर्ग की प्राप्ति करता है। वेद का दान (केवल द्विजाति को) सभी दानों में श्रेयस्कर है, इसका दान देने वाला ब्रह्म लोक में अचल होकर सतत निवास करता है। दान इतना ही देना चाहिए, जिससे अपने कुटुम्ब के भरण पोषण में कठिनाई न हो। पुत्र तथा स्त्री को दान में नहीं देना चाहिए। भूमि दान सबके लिये सार्थक है। अन्न तथा वस्त्र का दाता परलोक में निवास करता है। सुवर्णदान, गोदान तथा पृथ्वी दान करने वाला मनुष्य सभी पापों से मुक्ति पा लेता है। कन्या दान करके प्राप्त फल कभी भी नष्ट नहीं होता है। श्राद्ध दान देने वाला व्यक्ति दीर्घायु, सन्तान, धन, विद्या, मोक्ष, सुख तथा राज्य को प्राप्त करते हैं। कुल में दानी पुरुषों की अधिकता हो, ऐसी प्रार्थना ईश्वर से करनी चाहिए। बिना माँगे जो मिले उसे अमृत तथा माँगने पर जो मिले उसे मृत समझना चाहिये। शास्त्रोक्त दान के द्वारा प्राप्त धन धर्मयुक्त कहा गया है। अतः मनु जी के द्वारा कथित धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध वैश्विक आचार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मनु जी ने अहिंसा तथा दान को दस धर्म के लक्षण के अन्तर्गत नहीं माना है तथापि अहिंसा तथा दान अन्य आचारों में परिलक्षित होते हैं। पुरुषार्थ चतुष्ट्य (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) सभी व्यक्तियों के लाभ हेतु है। मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है। अतः वेदों को मनुष्य का प्राण धारक माना जाता है, क्योंकि वेद ही जीवन का मार्ग प्रशस्त करते हैं। वेद कर्म धारक, उपनिषद् उपासना तथा ब्राह्मण ज्ञान विषय ग्रन्थ है। वेद की शिक्षाएं उदात्त तथा महान हैं। वेदों में दार्शनिक ज्ञान ही नहीं, अपितु जीवन के प्रत्येक अंग का ज्ञान है। वेद के वचन जीवन को उन्नति की ओर अग्रसर करते हैं। वैदिक संहिताओं में अनेकों विषयों की भांति आचारिक विषयों का भी वर्णन किया गया है। वस्तुतः हृदय के विचार ही आचार के प्राण स्वरूप है। आचार क्षणिक सुख का हेतु अधिक नहीं है, जितना सम्पूर्ण जीवन को एक ठोस आधार देना है। वैदिक आचार पद्धति में ऋत के अनुरूप संसार के सारे कार्य सुचारू रूप से चलते हैं। चराचर लोक की सृष्टि, संवर्धन तथा संहार के नियामक ऋत की प्रतिष्ठा सामाजिक जीवन में की गई। वेदों, उपनिषदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, पुराणों, वेदागें आदि के जीवन दर्शन का उल्लेख स्मृतियों में किया गया।
भूमि दान की महिमा महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में भूमि दान की महिमा का वर्णन हुआ है। भगवान् श्री कृष्ण भूमि दान की महिमा का वर्णन करते हुए कहा, पाण्डुनन्दन! अब मैं सबसे उत्तम भूमि दान का वर्णन करता हूँ। जो मनुष्य रमणीय भूमिका दक्षिणा के साथ श्रोत्रिय अग्निहोत्री दरिद्र ब्राह्मण को दान देता है, वह उस समय सभी भोगों से तृप्त, सम्पूर्ण रत्नों से विभूषित एवं सब पापों से मुक्त हो सूर्य के समान देदीप्यमान होता है। वह महा यशस्वी पुरुष प्रात:कालीन सूर्य के समान प्रकाशित, विचित्र ध्वजाओं से सुशोभित दिव्य विमान के द्वारा मेरे लोक में जाता है। क्योंकि भूमि दान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है और भूमि छीन लेने से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है। कुरुश्रेष्ठ! दूसरे दानों के पुण्य समय पाकर क्षीण हो जाते हैं, किंतु भूमिदान के पुण्य का कभी भी क्षय नहीं होता। राजन! पृथ्वी का दान करने वाला मानो सुवर्ण, मणि, रत्न, धन, और लक्ष्मी आदि समस्त पदार्थों का दान करता है। भूमि-दान करने वाला मनुष्य मानों समस्त समुद्रों को, सरिताओं को, पर्वतों को, सम-विषम प्रदेशों को, सम्पूर्ण गन्ध और रसों को देता है। पृथ्वी का दान करने वाला मनुष्य मानों नाना प्रकार के पुष्पों और फलों से युक्त वृक्षों का तथा कमल और उत्पलों के समूहों का दान करता है। जो लोग दक्षिणा से युक्त अग्निष्टोम आदि यज्ञों के द्वारा देवताओं का यजन करते हैं, वे भी उस फल को नहीं पाते, जो भूमि दान का फल है। जो मनुष्य श्रोत्रिय ब्राह्मण को धान से भरे हुए खेत की भूमि दान करता है, उसके पितर महाप्रलय काल तक तृप्त रहते हैं। राजेन्द्र! ब्राह्मण को भूमि दान करने से सब देवता, सूर्य, शंकर और मैं, ये सभी प्रसन्न होते हैं, ऐसा समझो। युधिष्ठर! भूमि दान के पुण्य से पवित्र चित्त हुआ दाता मेरे परम धाम में निवास करता है, इसमें विचार करने की कोई बात नहीं है। मनुष्य जीविका के अभाव में जो कुछ पाप करता है, उससे गोकर्ण मात्र भूमि दान करने पर भी छुटकारा पा जाता है। एक महीने तक उपवास, कृच्छ और चान्द्रायण व्रत का अनुष्ठान करने से जो पुण्य होता है, वह गोकर्ण मात्र भूमि दान करने से हो जाता है। ब्राह्मण को भूमि दान करने का पुण्य और सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करने से जो पुण्य होता है, वह सारा पुण्य गोकर्ण मात्र भूमि का दान करने से प्राप्त हो जाता है। युधिष्ठिर ने कहा, देवेश्वर कृष्ण! आपको नमस्कार है। सुरेश्वर! मुझे गोकर्ण मात्र भूमि का दान ठीक-ठीक माप बतलाने की कृपा कीजिये। भगवान् श्री भगवान, नृपश्रेष्ठ पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर! गोकर्ण मात्र भमि का प्रमाण सुनो। पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण चारों ओर तीस-तीस दण्ड नापने से जितनी भूमि होती है, उसको भूमि के तत्व को जानने वाले पुरुष गोकर्ण मात्र भूमि का माप बताते हैं। कुरुश्रेष्ठ! जितनी भूमि में खुली हुई सौ गौं, बैलों और बछड़ों के साथ सुख पूर्वक रह सकें, उतनी भूमि को भी गोकर्ण कहते हैं। भूमि का दान करने वाले पुरुष के पास यमराज के दूत नहीं फटकने पाते। मृत्यु के दण्ड, दारुण कुम्भी पाक, भयानक वरुण पाश, रौरव आदि नरक, वैतरणी नदी और कठोर यम यातनाएं भी भूमि दान करने वालों को नहीं सतातीं। चित्रगुप्त, कलि, काल, कृतान्त मृत्यु और साक्षात भगवान यम भी भूमि का दान करने वाले का आदर करते हैं। राजन! रुद्र, प्रजापति, इन्द्र, देवता, ऋषिगण और स्वयं मैं, ये सभी प्रसन्न होकर भूमि दाता का आदर करते हैं। नरश्रेष्ठ! जिसके कुटुम्ब के लोग जीविका के अभाव से दुर्बल हो गये हों, जिसकी गौएं और घोड़े भी दुबले-पतले दिखाई देते हों तथा जो सदा अतिथि-सत्कार करने वाला हो, ऐसे ब्राह्मण को भूमि दान देना चाहिये; क्योंकि वह परलोक के लिये खजाना है। नरेश्वर! जिसके कुटुम्बीजन कष्ट पा रहें हों, ऐसे श्रोत्रिय, अग्निहोत्री, व्रतधारी, एवं दरिद्र ब्राह्मण को भूमि देनी चाहिये। जैसे धाय अपना दूध पिलाकर पुत्र का पालन पोषण करती है, उसी प्रकार दान में दी हुई भूमि दाता पर अनुग्रह करती है। जैसे गौ अपना दूध पिलाकर बछड़े का पालन करती है, वैसे ही सर्वगुण सम्पन्न भूमि अपने दाता का कल्याण करती है। भूपाल! जिस प्रकार जल से सीचें हुए बीज अंकुरित होते हैं, वैसे ही भूमि दाता के मनोरथ प्रतिदिन पूर्ण होते रहते हैं। जैसे सूर्य का तेज समस्त अन्धकार को दूर कर देता है, उसी प्रकार यहाँ भूमि दान मनुष्य के सम्पूर्ण पापों का नाश कर डालता है। कुरुश्रेष्ठ! जो भूमि दान की प्रतिज्ञा करके नहीं देता अथवा देकर फिर छीन लेता है, उसे वरुण के पाश से बाँधकर पीब और रक्त से भरे हुए नरक कुण्ड में डाला जाता है। जो अपने या दूसरे की दी हुई भूमि का अपनहरण करता है, उसके लिये नरक से उद्धार पाने का कोई उपाय नहीं है। जो श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भूमि का दान करके उसी से अपनी जीविका चलाता है, वह दुष्टात्मा मूर्ख इक्कीस नरकों में गिरता है। फिर नरकों से निकलकर कुत्तों की योनि को प्राप्त होता है। जिसमें हल से जोतकर बीज बो दिये गये हों तथा जहाँ हरी-भरी खेती लहलहा रही हो, ऐसी भूमि दरिद्र ब्राह्मण को देनी चाहिये अथवा जहाँ जल का सुभीता हो, वह भूमि दान में देनी चाहिये। राजन! इस प्रकार प्रसन्नचित्त होकर मनुष्य यदि पृथ्वी का दान करे तो वह सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त करता है। बहुत से राजाओं ने इस पृथ्वी को दान में दिया है और बहुत से अभी दे रहे हैं। यह भूमि जब जिसके अधिकार में रहती है, उस समय वही उसे दान में देता है और उसके फल का भागी होता है।
जो व्यक्ति श्रद्धा पूर्वक अतिथि-सत्कार करता है, वह मनुष्यों में महान धनवान, श्रीमान, वेद-वेदांग का पारदर्शी, सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थ और तत्त्व का ज्ञाता एवं भोग सम्पन्न ब्राह्मण होता है। जो मनुष्य धर्मपूर्वक धन का उपार्जन करके भोजन में भेद न रखते हुए एक वर्ष तक सब का अतिथि-सत्कार करता है, उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। नरेश्वर! जो सत्यवादी जितेन्द्रिय पुरुष समय का नियम न रखकर सभी अतिथियों की श्रद्धापूर्वक सेवा करता है, जो सत्य प्रतिज्ञ है, जिसने क्रोध को जीत लिया है, जो शाखा धर्म से रहित, अधर्म से डरने वाला और धर्मात्मा है, जो माया और मत्सरता से रहित है, जो भोजन में भेद-भाव नहीं करता तथा जो नित्य पवित्र और श्रद्धा सम्पन्न रहता है, वह दिव्य विमान के द्वारा इन्द्र लोक में जाता है। वहाँ वह दिव्यरूप धारी और महा यशस्वी होता है। अप्सराएं उसके यश का गान करती हैं। वह एक मन्वन्तर तक वहीं देवताओं से पूजित होता है और क्रीड़ा करता रहता है। उसके बाद मनुष्य लोक में आकर भोग सम्पन्न ब्राह्मण होता है’।
भूमि-दान, तिल-दान और उत्तम ब्राह्मण की महिमा ::
श्री भगवान् ने कहा :- पाण्डुनन्दन! अब मैं सबसे उत्तम भूमि दान का वर्णन करता हूँ। जो मनुष्य रमणीय भूमिका दक्षिणा के साथ श्रोत्रिय अग्निहोत्री दरिद्र ब्राह्मण को दान देता है, वह उस समय सभी भोगों से तृप्त, सम्पूर्ण रत्नों से विभूषित एवं सब पापों से मुक्त हो सूर्य के समान देदीप्यमान होता है। वह महा यशस्वी पुरुष प्रात: कालीन सूर्य के समान प्रकाशित, विचित्र ध्वजाओं से सुशोभित दिव्य विमान के द्वारा मेरे लोक में जाता है, क्योंकि भूमि दान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है और भूमि छीन लेने से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है। कुरुश्रेष्ठ! दूसरे दानों के पुण्य समय पाकर क्षीण हो जाते हैं, किंतु भूमिदान के पुण्य का कभी भी क्षय नहीं होता। राजन! पृथ्वी का दान करने वाला मानों सुवर्ण, मणि, रत्न, धन, और लक्ष्मी आदि समस्त पदार्थों का दान करता है। भूमि-दान करने वाला मनुष्य मानों समस्त समुद्रों को, सरिताओं को, पर्वतों को, सम-विषम प्रदेशों को, सम्पूर्ण गन्ध और रसों को देता है।
पृथ्वी का दान करने वाला मनुष्य मानो नाना प्रकार के पुष्पों और फलों से युक्त वृक्षों का तथा कमल और उत्पलों के समूहों का दान करता है। जो लोग दक्षिणा से युक्त अग्निष्टोम आदि यज्ञों के द्वारा देवताओं का यजन करते हैं, वे भी उस फल को नहीं पाते, जो भूमि-दान का फल है। जो मनुष्य श्रोत्रिय ब्राह्मण को धान से भरे हुए खेत की भूमि दान करता है, उसके पितर महाप्रलय काल तक तृप्त रहते हैं। राजेन्द्र! ब्राह्मण को भूमि-दान करने से सब देवता, सूर्य, शंकर और मैं, ये सभी प्रसन्न होते हैं, ऐसा समझो। युधिष्ठर! भूमि-दान के पुण्य से पवित्र चित्त हुआ दाता मेरे परम धाम में निवास करता है, इसमें विचार करने की कोई बात नहीं है। मनुष्य जीविका के अभाव में जो कुछ पाप करता है, उससे गोकर्ण मात्र भूमि-दान करने पर भी छुटकारा पा जाता है। एक-एक महीने तक उपवास, कृच्छ और चान्द्रायण व्रत का अनुष्ठान करने से जो पुण्य होता है, वह गोकर्ण मात्र भूमि-दान करने से हो जाता है।
(12). चरण स्पर्श :: हिन्दू धर्म मे अपने से बड़े के अभिवादन के लिए चरण स्पर्श उत्तम माना गया है। चरण स्पर्श से आपको सामने वाला व्यक्ति आयु, बल, यश, ज्ञान का आशीर्वाद देता है। सभी वस्तुएँ गुरूत्वाकर्षण के नियम से बँधी हैं और गुरूत्व भार सदैव आकर्षित करने वाले की तरफ जाता है, मानव शरीर पर भी यही नियम लागू होता है। सिर को उत्तरी ध्रुव और पैरों को दक्षिणी ध्रुव माना जाता है अर्थात् गुरूत्व ऊर्जा या चुंबकीय ऊर्जा या विद्युत चुंबकीय ऊर्जा सदैव उत्तरी ध्रुव से प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव की ओर प्रवाहित होकर अपना चक्र पूरा करती है। इसका आशय यह हुआ कि मनुष्य के शरीर में उत्तरी ध्रुव (सिर) से सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव (पैरों) की ओर प्रवाहित होती है और दक्षिणी ध्रुव पर यह ऊर्जा असीमित मात्रा मे स्थिर हो जाती है | यहाँ ऊर्जा का केंद्र बन जाता है, यही कारण है कि व्यक्ति सैकड़ों मील चलने के पश्चात् भी मनुष्य भी जड़ नहीं होता वो आगे चलने की हिम्मत रख सकता है।
ऐसा पैरों में संग्रहित इस ऊर्जा के कारण ही पाता है। शरीर क्रिया विज्ञानियों ने यह सिद्ध कर लिया है कि हाथों और पैरों की अँगुलियों और अँगूठों के पोरों (अंतिम सिरा) में यह ऊर्जा सर्वाधिक रूप से विद्यमान रहती है तथा यहीं से आपूर्ति और माँग की प्रक्रिया पूर्ण होती है। पैरों से हाथों द्वारा इस ऊर्जा के ग्रहण करने की प्रक्रिया को ही चरण स्पर्श करना कहते हैं।
शरीर का धर्म :: दान, परित्राण, परिचरण (दूसरों की सेवा करना)।
शरीर का अधर्म :: हिंसा, अस्तेय, प्रतिसिद्ध मैथुन।
बोले और लिखे गये शब्दों द्वारा धर्म :: सत्व, हितवचन, प्रियवचन, स्वाध्याय (self study)।
शरीर का अधर्म :: हिंसा, अस्तेय, प्रतिसिद्ध मैथुन।
बोले और लिखे गये शब्दों द्वारा धर्म :: सत्व, हितवचन, प्रियवचन, स्वाध्याय (self study)।
बोले और लिखे गये शब्दों द्वारा अधर्म :: मिथ्या, परुष, सूचना, असम्बन्ध।
मन का धर्म :: दया, स्पृहा (disinterestedness) और श्रद्धा।
मन का अधर्म :: परद्रोह, परद्रव्याभिप्सा (दूसरे का द्रव्य पा लेने की इच्छ), नास्तिक्य (denial of the existence of morals and religiosity)।
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ
(बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
आचरण :: (1). व्यवहार, आचार, चर्या, कार्यालाप, (2). चरित्र, (3). चाल, (4). नियम, (5). शुद्धि। व्यवहार ही किसी व्यक्ति की वेश-भूषा, आकृति और उसके बोलने का ढंग, खान-पान की आदतें, रहन-सहन, प्रकृति, स्वभाव और आचार-विचार प्रतीक है। बर्ताव, चाल चलन, चाल ढाल, चरित्र, स्वभाव, गुण, कीर्ति, व्यवहार, ढंग, नैतिकता, मर्यादा, महात्म्य, उच्चपद, conduct, behaviour, character, dealings, demeanour, moral, commandments, religious observance, custom, rule or norm of conduct.
कुत्ता पालना ::
(1). जिसके घर में कुत्ता होता है, उसके यहाँ देवता हविष्य (भोजन) ग्रहण नहीं करते।
(2). यदि कुत्ता घर में हो और किसी का देहांत हो जाए तो देवताओं तक पहुँचने वाली वस्तुएं देवता स्वीकार नहीं करते, अत: यह मुक्ति में बाधा हो सकता है।
(3). कुत्ते के छू जाने पर द्विजों के यज्ञोपवीत खंडित हो जाते हैं, अत: धर्मानुसार कुत्ता पालने वालों के यहाँ ब्राह्मणों को नहीं जाना चाहिए।
(4). कुत्ते के सूंघने मात्र से प्रायश्चित्त का विधान है, कुत्ता यदि हमें सूंघ ले तो हम अपवित्र हो जाते हैं।
(5). कुत्ता किसी भी वर्ण के यहाँ पालने का विधान नहीं है, कुत्ता प्रतिलोमाज वर्ण संकरों (अत्यंत नीच जाति जो कुत्ते का मांस तक खाती है) के यहाँ ही पलने योग्य है।
(6). और तो और अन्य वर्ण यदि कुत्ता पालते हैं तो वे भी उसी नीचता को प्राप्त हो जाते हैं।
(7). कुत्ते की दृष्टि जिस भोजन पर पड़ जाती है वह भोजन खाने योग्य नहीं रह जाता और यही कारण है कि जहाँ कुत्ता पला हो वहाँ जाना नहीं चाहिए।
कुत्ते के साथ व्यवहार के कारण तो युधिष्ठिर को भी स्वर्ग के बाहर ही रोक दिया गया था।
महाभारत में महाप्रस्थानिक/स्वर्गारोहण पर्व का अंतिम अध्याय, इंद्र, धर्मराज और युधिष्ठिर संवाद में इस बात का उल्लेख है।
जब युधिष्ठिर ने पूछा कि मेरे साथ साथ यंहा तक आने वाले इस कुत्ते को मैं अपने साथ स्वर्ग क्यो नही ले जा सकता, तब इंद्र ने कहा :-
हे राजन कुत्ता पालने वाले के लिए स्वर्ग में स्थान नही है। ऐसे व्यक्तियों का स्वर्ग में प्रवेश वर्जित है। कुत्ते से पालित घर में किये गए यज्ञ और पुण्य कर्म के फल को क्रोधवश नामक राक्षस उसका हरण कर लेते है और तो और उस घर के व्यक्ति जो कोई दान, पुण्य, स्वाध्याय, हवन और कुवा बावड़ी इत्यादि बनाने के जो भी पुण्य फल इकट्ठा होता है, वह सब घर में कुत्ते की उपस्थित और उसकी दृष्टि पड़ने मात्र से निष्फल हो जाता है।
इसलिए कुत्ते का घर मेपालना निषिद्ध और वर्जित है।
कुत्ते का संरक्षण होना चाहिए, उसे भोजन देना चाहिए, घर की रोज की एक रोटी पे कुत्ते का अधिकार है। इस पशु को कभी प्रताड़ित नहीं करना चाहिए और दूर से ही इसकी सेवा करनी चाहिए परंतु घर के बाहर, घर के अंदर नहीं।
अवारा कुत्तों को दूध रोटी डालने से राहु, केतु शांत होते हैं व जातक की परेशानी दूर होती है।
अतिथि और गाय, घर के अंदर, कुत्ता, कौवा, चींटी घर के बाहर, ही फलदाई होते हैं।
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