Saturday, June 14, 2014

FIRST HAIR DRESSING चूड़ा करण-मुण्डन संस्कार :: HINDU PHILOSOPHY (4.8) हिंदु दर्शन

 FIRST HAIR DRESSING 
चूड़ा करण-मुण्डन संस्कार
HINDU PHILOSOPHY (4.8) हिंदु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
"चूड़ा क्रियते अस्मिन" 
इस संस्कार के द्वारा बालक का चूड़ा अर्थात शिखा धारण करना है। इसे मुण्डन संस्कार भी कहा जाता है। इसमें मुख्य अनुष्ठेय कार्य शिशु का केशों का मुण्डन कराना है। यह संस्कार शिशु को बल, आयु और तेज प्रदान करता है। जन्म के पहले अथवा तीसरे साल में चूड़ाकर्म करना चाहिये। 
चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः। 
प्रथमेSब्दे तृतीये वा कर्तव्यं श्रुतिचोदनात्॥
सभी द्विजातियों का धर्म के लिये पहले या तीसरे वर्ष में मुण्डन करना चाहिये, ऐसा वेद कहते हैं।[मनु स्मृति 2.35] 
The Veds directs to tonsure the head of the child either in the first or the third year of the birth, for the three upper castes.
पारस्कर ग्रह सूत्र [2.1.1-2] में भी यही व्यवस्था है।
महर्षि आश्वलायन, वृहस्पति एवं देवर्षि नारद इस संस्कार को तीसरे, पाँचवें, दसवें और ग्यारहवें वर्ष में करने की छूट देते हैं। 
"चूड़ा कार्यां यथाकुलम्"
कहीं-कहीं पाँचवें वर्ष में अथवा यज्ञोपवीत संस्कार के साथ भी चूड़ाकरण संस्कार किया जाता है।[याज्ञवलक्य]  
चूड़ाकरण संस्कार में गर्भकालीन बालों को काट कर शिखा-चुटिया रखी जाती है, जिसकी उपयोगिता  इस प्रकार है :- 
सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च। 
विशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम्॥
द्विजों को सदा यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये और सदा शिखा में गाँठ-ग्रंथि लगाये रहना चाहिये। शिखा और यज्ञोपवीत के बिना वह जो कर्म करता है, वह निष्फल होता है।[कात्यायन] 
स्नाने दाने जपे होमे संध्यायां देवतार्चने। 
शिखाग्रन्थिं सदा कुर्यादित्येतन्मनुरब्रबीत्
स्नान, दान, जप, होम, सन्ध्या, देवपूजन आदि समस्त नित्य-नैमित्तिक कर्मों में शिखा में ग्रंथि लगी होनी चाहिये। 
यदि रोग या वृद्धावस्था के कारण शिखास्थान के बाल उड़ गए हों तो उस स्थान पर तिल, कुशपात्र, दूर्वा या चावल रखने का विधान है। 
"दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे शिखायै वषट्" 
शिखा तेज को बढ़ाती है, दीर्घ आयु तथा बलवर्धक भी है। इसीलिए जपादि, पाठादि के पूर्व शिखा का स्पर्श करके न्यास किया जाता है। शिखा ज्ञान शक्ति में वृद्धि करने के साथ-साथ मनुष्य को चैतन्य बनाती है। शिखा का स्थान सिर पर सहस्त्रार चक्र का केंद्र है। बुद्धि चक्र एवं ब्रह्मरंध्र के ऊपर सहस्त्र दल कमल का अधिष्ठान है। जब जातक चिन्तन, मनन आदि करता है या ध्यानलीन होता है; तब ध्यान से उत्पन्न अमृत तत्व सहस्रदल कर्णिका में प्रविष्ट करके सिर से बाहर निकलने का प्रयत्न करता है। इस समय यदि शिखा में ग्रंथि नहीं लगी होतो अमृत तत्व शरीर में ही रह कर जातक का कल्याण करता है। यही शिखा की महत्ता है। शिखा के नीचे पीयूष ग्रन्थि या पीयूषिका (Pituitary gland) जो कि एक अंत:स्रावी ग्रंथि है का निवास है। 
यह शरीर को हृष्ट-पुष्ट तथा मस्तिष्क को विकसित करती है। इसकी सुरक्षा  शिखा बन्धन जरूरी है। 
It is located in the brain, between the hypothalamus and the pineal gland, just behind the bridge of the nose. It is about the size of a pea and is attached to the brain by a thin stem of blood vessels and nerve cell projections. The frontal lobe is the biggest part of the pituitary.
पीयूष ग्रन्थि का आकार एक मटर के दाने जैसा होता है और वजन 0.5 ग्राम होता है। यह मस्तिष्क के तल पर हाइपोथैलेमस (अध श्चेतक) के निचले हिस्से से निकला हुआ उभार है और यह एक छोटे अस्थिमय गुहा (पर्याणिका) में दृढ़तानिका-रज्जु (diaphragms sellae) से ढंका हुआ होता है। पीयूषिका खात, जिसमें पीयूषिका ग्रंथि रहता है, वह मस्तिष्क के आधार में कपालीय खात में जतुकास्थी में स्थित रहता है। इसे एक प्रमुख ग्रंथि माना जाता है। पीयूषिका ग्रंथि ग्रन्थिरस का स्राव करने वाले समस्थिति का विनियमन करता है, जिसमें अन्य अंत:स्रावी ग्रंथियों को उत्तेजित करने वाले ग्रन्थिरस शामिल होते हैं। कार्यात्मक रूप से यह हाइपोथैलेमस से माध्यिक उभार द्वारा जुड़ा हुआ होता है।
"मस्तकाभ्यन्तरोपरिष्टात् सिरासन्धिसन्निपातो रोमावर्तोऽधिपति:, 
तत्रापि सद्य एव मरणम्" 
शिखा स्थान शरीर के मर्म स्थलों में प्रधान है। यहाँ चोट लगने से मृत्यु भी हो सकती है। अतः लम्बी और मोटी चोटी मर्मस्थल की रक्षा करती है।[सुश्रुत संहिता 3.6.27]  
मनुष्य के दीर्घायु, बल और तेज के उन्नयन में शिखा की भूमिका है। यह ज्ञानशक्ति को चैतन्य रखते हुए, उसे सदा अभिवृद्धि की ओर अग्रसर करती है। 
शिखा सूर्य किरणों से प्राप्त प्रकाशिनि शक्ति को आकर्षित करने एवं सहस्र दल कर्णिका तक पहुँचाने में सम्प्रेषक का कार्य करती है। शिखा रखने एवं इसके नियमों के अनुशीलन से सद्बुद्धि, सद्वृत्ति, शुचिता एवं सद्विचारों में वृद्धि होती है। 
इस संस्कार में शिखा को छोड़कर अन्य बालों को उतार देने से त्वचा सम्बन्धी रोगों का प्रभाव नहीं होता। नए बाल नहीं झड़ते और बद्धमूल हो जाते हैं। मुण्डन करने के अनन्तर सिर में मलाई आदि की मालिश का विधान है, जिससे मस्तिष्क के मज्जा तन्तुओं को स्निग्धता, कोमलता, शीतलता तथा शक्ति प्राप्त होती है, जो आगे चलकर बुद्धि के विकास में सहायक होती है। सुस्वास्थ्य के लिये मस्तिष्क का शीतल रहना अनिवार्य है। 
माता के गर्भ में आये हुए बाल अशुद्ध होते हैं और वे झड़ते रहते हैं। उनके रहते हुए शिशु की वृद्धि सही तरीके से नहीं हो सकती। इसलिये उन बालों को मुँड़वाकर शिशु की शिखा रखी जाती है, ताकि वो कर्म के योग्य हो सके। प्रायः छटे मास से दाँत निकलने लगते हैं और तीन वर्षों तक यह क्रिया जारी रहती है। इस काल में बालक के मस्तिष्क में गर्मी बनी रहती है, जिससे उसे अनेक प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस दौरान उसे शारीरिक और मानसिक परेशानियों से बचाने, रोगों से उसकी रक्षा करने तथा शरीर की उष्णता दूर करने हेतु मुण्डन की प्रक्रिया पूरी होने पर सिर पर दही और मक्खन लगाया जाता है। 
केशकर्तन पौष्टिक, आयुष्यवर्धक एवं मल रूप पाप का निवारक माना जाता है। इसी कारण प्रायः पहले और तीसरे वर्ष में मुण्डन संस्कार किया जाता है। समन्त्रक चूड़ाकरण से आयु वृद्धि और जठराग्नि सन्दीपन होती है। बल, बुद्धि तथा सौभाग्यबल बढ़ता है। चोटी को हिन्दु की पहचान के रूप में भी देखा जाता था। वर्तमान में तो चोटी रखने वालों की सँख्या नगण्य ही है। 
पौष्टिकं वृष्यमायुष्यं शुचि रूपविराजनम्।
केशश्म श्रुनखादीनां कल्पनं सम्प्रसाधनम्
केश, श्मश्रु-दाढ़ी और नख आदि के काटने से शरीर पुष्ट होता है, शक्ति में वृद्धि होती है, जातक दीर्घायु होता है, पाप का अपनोदन होता है और सौन्दर्य में वृद्धि होती है।[चरकo सूत्रस्थान 5.99] 
केशाधिवासन :: स्नानादि से निवृत्त चूड़ाकरण किये जाने वाले बालक के सिर के बालों को संकल्पित जल से विधि पूर्वक भिगोकर तथा जूड़ा बनाकर, कपड़े से बाँधकर, आच्छादित करने का कर्म अधिवासन कहलाता है। यह कर्म प्रायः चूड़ाकरण के पहले दिन रात्रि में किया जा सकता है। यदि पहले दिन सम्भव नहीं हो तो चूड़ाकरण के दिन भी प्रारम्भ में किया जा सकता है। इसमें नए पीले वस्त्र के द्वादश खण्ड करके प्रत्येक में गन्ध, अक्षत, दूर्वा, पीली सरसों तथा हल्दी (गाँठवाली) छोड़कर त्रिगुणित सूत के द्वारा बाँधकर बारह पोटलियाँ बना लेनी चाहियें। इन पोटलिकाओं को "गणाधिपं नमस्कृत्य" आदि मन्त्रों से प्रतिष्ठित करके एक पोटलिका के द्वारा बालक की शिखा के स्थान वाले बालों को दृढ़तापूर्वक बाँध लेना चाहिये। तदनन्तर बालक के दाहिने ओर के बालों की तीन चुटिया बनाकर एक-एक पोटलिका से उन्हें बाँध देना चाहिये। इसी प्रकार सिर के पीछे तथा फिर बायीं ओर भी तीन-तीन चुटिया बनाकर उन्हें एक-एक पोटली से बाँध देना चाहिये। इस प्रकार बालक के सिर में बालों के दस जूड़े बनेंगे। इस प्रकार जूड़ा बनाकर किसी कपड़े अथवा पगड़ी के द्वारा बालक के सिर को अच्छी तरह से ढँक देना चाहिये। शेष दो पोटलिकाओं में से एक छुरे-चाकू में तथा एक कैंची में बाँध देनी चाहिये।  
चूड़ाकरण के दिन बालक सहित पिता तथा माता दोनों स्नानादि से निवृत्त हो धुले हुए वस्त्रों को धारण करके आसन पर पूर्वाभिमुख बैठ जायें। पिता आचमन, प्राणायाम आदि करके सर्वप्रथम चूड़ाकरण संस्कार के दाहिने हाथ में जलादि लेकर निम्न संकल्प करे :-  
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे/ क्षेत्रे...षष्टिसंवत्सराणां...मध्ये...संवत्सरे... अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे...करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...
राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र: सपत्नीक:..शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं 
... नाम्न: अस्य कुमारस्य बीजगर्भसमुद्भवै नोनिबर्हणायुर्वर्चोऽभिवृद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं चूड़ाकरणसंस्कारं करिष्ये। तदङ्गत्वेन स्वस्तिपुण्याहवाचनं मृातकापूजनं वसोर्धारापूजनमायुष्यमन्त्रजपं साङ्कल्पिकेन विधिना नान्दीश्राद्धं च करिष्ये। तत्रादौ कर्मणः निर्विघ्नतासिध्यर्थं गणेशाम्बिकयो: पूजनं करिष्ये। 
कहकर हाथ का संकल्पादि जल छोड़ दें। तत्पश्चात गणेशाम्बिकादि पूजन कर्म करें।
ब्राह्मण भोजन संकल्प :: तदनन्तर तीन ब्राह्मणों को भोजन करने के लिए दाहिने हाथ में जल, अक्षत, द्रव्य (नकदी आदि) लेकर निम्न संकल्प करें :-  
ॐ अद्य...शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहमस्य कुमारस्य चूड़ाकरण संस्कार पूर्वाङ्गतया त्रीन् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये। 
ब्राह्मणों को भोजन करायें अथवा निष्क्रय द्रव्य प्रदान करें। 
वेदी निर्माण :: पंचांग पूजन के अनन्तर हवन कार्य हेतु बालू अथवा शुद्ध मिट्टी से एक हाथ लम्बी-चौड़ी वेदी बनायें तथा उसका संस्कार करें। 
तीन कुशों के द्वारा दक्षिण से उत्तर की ओर वेदी को साफ़ करें और उन कुशों को ईशान कोण में फेंक दें। गाय के गोबर तथा जल से उस वेदी को लीप दें। स्त्रुवा के मूल से वेदी के मध्य भाग में प्रादेश मात्र (अँगूठे से तर्जनी के बीच की दूरी) लम्बी तीन रेखाएँ पश्चिम से पूर्व की ओर खींचें। रेखा खींचने का क्रम दक्षिण से प्रारम्भ करके उत्तर दिशा में होना चाहिए। तीनों रेखाओं का उल्लेखन क्रम से अनामिका तथा अँगूठे से थोड़ी-थोड़ी मिटटी निकलकर बायें हाथ में रखते जायें। सारी मिट्टी दाहिने हाथ से थोड़ी-थोड़ी निकालकर बायें हाथ में रखते जायें। बाद में सारी मिट्टी दाहिने हाथ पर रखकर ईशान कोण  की ओर फेंक दें। जल के छीटों से वेदी को सींच दें।
अग्नि स्थापना :: काँस्य या ताम्र पात्र में या नये मिट्टी के बर्तन (सकोरे) में स्थित पवित्र अग्नि को वेदी के अग्नि कोण में रखें और इस अग्नि में से क्रव्यादाश निकालकर नैऋत्यकोण में रखें। तदनन्तर अग्नि पात्र को स्वाभिमुख करते हुए वेदी में स्थापित करें और बोलें :-
ॐ सभ्यनामागन्ये सुप्रतिष्ठितो वरदो भव।
तदनन्तर "ॐ सभ्यनामागन्ये नमः" का जप करते हुए गन्ध, अक्षत और पुष्पादि से अग्नि की पूजा करें। 
कुश कण्डिका :: ब्राह्मण-पुरोहित का वरण करने के बाद प्रणीता पात्र को जल से भर दें और उसे कुशों से ढँककर ब्राह्मण का मुँख देखते हुए अग्नि के उत्तर की ओर कुशों को रख दें। कुश परिस्रण कर लें और निम्न रीति से पात्रा सादन करें :-
पात्रा सादन :: हवन कार्य में प्रयोग में आने वाली सभी वस्तुओं तथा पात्रों को पश्चिम से पूर्व तक उत्तराग्र अथवा अग्नि से उत्तर की ओर रख लें। 
चूड़ाकरण की विशेष सामग्री :: चूड़ाकरण में प्रयुक्त होने वाली विशिष्ट वस्तुओं यथा शीतल जल, मक्खन, दही अथवा घी का पिंड (मुण्डन के बाद सिर में लगाने के लिये), त्र्येणी, शल्लकी, सेही का काँटा (बनाये गए बालों के जुड़े को सुलझाने के लिये), 27 हरित कुश, ताँबे से शोधित लोहे का उस्तरा (बालों को काटने के लिये), बैल के गोबर का पिण्ड (कटे हुए बालों को रखने के लिये) यथास्थान रख लें। कुशल नाई को भी बैठा लें।
पवित्रक बना लें तथा प्रोक्षणी पात्र संकल्प करें। घी को आज्य स्थली में निकालकर वेदी के दक्षिण भाग में आग पर रख दें। स्त्रुवा का समार्जन कर लें। घी के बर्तन को यथास्थान रख दें। घी में यदि कोई वस्तु पड़ गई हो तो उसे निकाल दें। ब्राह्मण-पुरोहित का स्पर्श करते हुए बायें हाथ में उपनयन (सात) कुशों को लेकर हृदय-छाती पर बायाँ हाथ लगाकर, तीन समिधाओं को घी में डुबोकर मन से प्रजापति देवता का ध्यान करते हुए, खड़े होकर मौन रहते हुए, अग्नि में डाल दें और बैठ जायें। 
अग्नि के ईशानकोण से ईशानकोण तक प्रदक्षिणा क्रम से जलधारा प्रवाहित करें। तदनन्तर हवन करें। 
आधार-आज्य भाग संज्ञक हवन :: तत्पश्चात निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए घी की आहुति दें, स्त्रुवा में बचे हुए घी को "न मम" कहकर प्रोक्षणी पात्र में छोड़ें। 
ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। 
ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदं इदमिन्द्राय न मम। 
ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम। 
ॐ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम। 
भूरादि नौ आहुतियाँ (प्रायश्चित होम) :: पुनः घी के साथ निम्न आहुतियाँ दें :-
ॐ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम॥1॥ 
ॐ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम॥2॥ 
ॐ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम॥3॥ 
ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्टा:। 
यजिष्ठो वहिनतमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाँसि प्र मुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा॥  
इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम॥4॥  
ॐ स त्वं नो अग्नेवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। 
अव यक्ष्य नो वरुणँ रराणो वीहि मृडीकँ सुहवो न एधि स्वाहा॥ 
इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम॥5॥   
ॐ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञ वहास्यया नो धेहि भेषजँ स्वाहा॥ इदमग्नये य्से न मम॥6॥  
ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्त्रं यज्ञिया: पाशा वितता महान्त:। तेभिर्नो ऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्का: स्वाहा॥ इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्य: स्वर्केभ्यश्च न मम॥7॥  
ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमँ श्रथाय। 
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा 
इदं वरुणायादित्यादितये न मम॥8॥
तदनन्तर प्रजापति देवता का ध्यान करके मन में निम्न मंत्र का उच्चारण करके हुए (मौन रहकर) आहुति दें :-
ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम॥9॥   
स्विष्टकृत् आहुति :: तत्पश्चात पुरोहित-पण्डित जी द्वारा कुश से स्पर्श किये जाते हुए निम्न मंत्र से घी द्वारा स्विष्टकृत् आहुति दें :- 
ॐ अग्नये स्विष्टकृत् स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृत् न मम।
संस्रव प्राशन :: हवन पूरा होने पर प्रोक्षणी पात्र से दाहिने हाथ में घी लेकर थोड़ा प्राशन करना चाहिये। फिर हाथ धोकर शुद्ध जल से आचमन करें।
मार्जन :: पवित्र कुशा से प्रणीता पात्र के जल से निम्न मंत्र बोलते हुए मार्जन करें :-   
ॐ सुमित्रिया न आप ओषधय: सन्तु। 
इसके बाद निम्न मंत्र से जल नीचे छोड़ें :- 
ॐ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः। 
पवित्र प्रतिपत्ति :: पवित्रक को अग्नि में छोड़ दें।   
पूर्ण पात्र दान :: 
ॐ अद्य कृतैतच्चूडाकरणहोमकर्मणि कृताकृतवेक्षणरूप ब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदं पूर्णपात्र सदक्षिणाकं प्रजापतिदैवतं ... गोत्राय... शर्मणे ब्रह्मणे भवन्तमहं सम्प्रददे। 
कहकर संकल्प के जल सहित पूर्ण पात्र पण्डित जी को दे दें। 
पण्डित जी कहें :- ॐ स्वस्ति। 
प्रणीता विमोक :: इसके बाअद प्रणीता पात्र को ईशानकोण में उलटकर रख दें। 
मार्जन :: निम्न मंत्र से उपनयन कुशों के द्वारा उलटकर रखे गए प्रणीता के जल से अपने मस्तिष्क पर मार्जन करें :-
ॐ आप: शिवा: शिवतमा: शान्ता: शान्ततमाभिस्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्। 
उपनयन कुशों को अग्नि में छोड़ दें। 
बर्हिहोम :: कुशकण्डिका में जिस क्रम से कुश बिछाये गये थे, उसी क्रम से उन कुशों को उठायें और फिर उनको घी में भिगोकर निम्न मंत्र हुए अग्नि में डाल दें :- 
ॐ देवा गातुविदो गातुं  वित्वा गातुमित। 
मनस्समत इमं देव यज्ञँ स्वाहा वाते धा: स्वाहा 
कुश में लगी ब्राह्मण ग्रन्थि खोल दें। 
चूड़ाकरण संस्कार विधि :: बालक के काटे जाने वाले बालों को संस्कार के लिए जल से साफ़ करें-धोयें। पहले से स्थापित किये गए ठंडे पानी में गर्म पानी निम्न मंत्र बोलते हुए मिलायें :- 
ॐ उष्णेन  वाय उदकेनेह्यदिते केशान् वप। 
पुनः मौन होकर उस पानी में थोड़ा मठ्ठा-छाछ डालकर पूर्व स्थापित घी, दही या मख्खन के पिण्ड में से भी छोटा सा पिण्ड बनाकर पानी में डाल दें। 
दाहिने भाग का केश संस्कार :: 
बालों का भिगोना :: उसके बाद उत्तर की ओर मुँह किये हुए बालक का पिता अपने बाँई तरफ बैठी हुई पत्नी के दक्षिण भाग में स्थित पूर्वाभिमुख बालक के दाहिने भाग में बाँधी हुई तीनों जूटिकाओं में से दक्षिण की ओर पहली जूटिका को निम्न मंत्र पढ़ते हुए शीतोदक, उष्णोदक, मट्ठा और दही मिश्रित पानी से भिगोयें :-
ॐ सवित्रा प्रसूता दैव्या आप उन्दन्तु ते तनूं दीर्घायुत्वाय वर्चसे।
कुशों का बन्धन :: इसके बाद दक्षिण दिशा की तरफ पहली जूटिका (जुड़े) को सेही के काँटे (कँघे का प्रयोग करें) से सुलझा लें। पूर्व स्थापित सत्ताईस कुशों में से तीन कुश लेकर उनके अग्र भाग को पहली जूटिका के साथ लगाकर (कुश का मूल भाग ऊपर किये हुए) निम्न मंत्र का उच्चारण कर्त्रे हुए बाँध दें :- 
ॐ ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैंनँ हिं सी:।  
उस्तरा ग्रहण :; इसके बाद कुश युक्त केशों को बाये हाथ से पकड़कर निम्न मंत्र बोलकर उस्तरे को दाहिने हाथ में ग्रहण करें (यह नाई का काम है, मंत्रोच्चारण पण्डित जी करेंगे) :-
शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा हिं सी:। 
उस्तरे द्वारा बालों का स्पर्श :: तदनन्तर निम्न मंत्र को पढ़ते हुए उस्तरे को पहली जूटिका (लट) के बालों में लगायें :-
ॐ नि वृत्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय। 
जूटिका छेदन :: पुनः निम्नलिखित मंत्र से कुशों सहित बालों की पहली जूटिका काटें:-
ॐ येनावपत्सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्। तेन ब्रह्माणों वपतेदमस्यायुष्यं जरदष्टिर्यथाऽसत्॥ 
केश स्थापन :: इसके बाद पिता उन कुश सहित कटे हुए बालों के अग्रभाग को आगे की ओर करता हुए बालक की माँ को दे दे और माँ काँस्य पात्र में रखे हुए उत्तर की ओर स्थापित बैल के गोबर पर उन्हें रख दे। पिता कटे हुए केशों का स्पर्श होने से जल का स्पर्श करे। 
इसके बाद दाहिनी ओर की दोनों जूटिकाओं का पूर्वोक्त रीति से जल द्वारा भिगोना, सेही के काँटे द्वारा बालों को सुलझाना, जुड़े में कुशों को बाँधना, बालों से उस्तरे का स्पर्श कराना तथा बालों को काटना और उन्हें गोमयपिण्ड पर रखना आदि सभी कार्य बिना मंत्र पढ़े (अमन्त्रक) पूर्ववत् सम्पन्न करे। 
पिछले भाग का केश संस्कार :: इसके बाद पिछले भाग की जूटिका का संस्कार निम्न मंत्रों से करे। 
केशों का उन्दन :: सर्वप्रथम पिछले भाग की जूटिका में से दाहिनी ओर की पहली जूटिका को निम्न मंत्र से भिगोये :- 
ॐ सवित्रा प्रसूता दैव्या आप न्दन्तु ते तनूं दीर्घायुत्वाय वर्चसे।  
कुशों का बन्धन :: तदन्तर केशों को बिना मंत्र बोले सेही के काँटे-कँघे से अलग-अलग करके पूर्वोक्त रीति से तीन कुशों को निम्न मंत्र से जूटिका में बाँधें :- 
ॐ ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनं हि सी:।  
उस्तरा ग्रहण :: निम्न मंत्र से ताँबे से शोधित लोहे का उस्तरा ग्रहण करें :- 
ॐ शिवो नामाऽसि स्वधि तिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा ही सीः
बालों का उस्तरे से स्पर्श :: उस्तरे को निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ बालों में लगायें :- 
ॐ नि वर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय  प्रजननाय रासस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय।
जूटिका छेदन :: निम्न मंत्र से केशों का वपन-छेदन करें :- 
ॐ त्र्यायुषं जमदग्ने: कश्यपस्य त्र्यायुषम्। ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नोस्तु त्र्यायुषम्॥ 
केशस्थापन :: जल का स्पर्श करें। इस प्रकार पिछले भाग की जूटिका का छेदन करके उन बालों को पहले की तरह माँ के द्वारा गोमय पिण्ड पर रखवा दें। 
तदनन्तर पिछले भाग की बची हुई दो जटाओं की भी दो बार बिना मंत्र पढ़े सभी क्रियाएँ करें यथा केशों को भिगोना, कँघे द्वारा अलग-अलग करना, उसमें कुशों को बाँधना, उस्तरे द्वारा स्पर्श करते हुए बालों को काटकर गोमय पिण्ड-गोबर में रखवाना आदि। 
बाँये भाग का केश संस्कार :: इसके बाद बाँये भाग की तीन जटाओं का संस्कार करना चाहिये। 
केशों का उन्दन :: सबसे पहले दाहिनी ओर की पहली जटा-लट, को निम्न मंत्र का उच्चारण कर्त्रे हुए पानी में भिगोयें :- 
ॐ सवित्रा प्रसूता दैव्या आप उन्दन्तु ते तनूं दीर्घायुत्वाय वर्चसे। 
कुशों का बन्धन :: उसके बाद कँघे से मौन रहते हुए, बालों को काटें और उनके बीच में निम्न मंत्र से पूर्वोक्त रीति से तीन कुशों को बाँधें :-
ॐ ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैन  ँ ् हि  ँ ् सीः।
उस्तरा पकड़ना :: निम्न मंत्र के उच्चारण के   में पकड़ें :- 
ॐ शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा हि  ँ ् सीः। 
उस्तरे के साथ बालों को छूना :: उसके बाद निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ उस्तरे को बालों के बीच में लगायें (पण्डित जी मंत्रोच्चारण करेंगे और नाई बालों को काटेगा) :- 
ॐ नि वर्त्तयाम्ययुषेन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय। 
जूटिका छेदन :: निम्न मंत्र से केशों का वपन-छेदन करें :- 
ॐ येन भूरिश्चरा दिवं ज्योक्च पश्चाद्धि सूर्यम्। तेन ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय सुश्लोक्याय स्वस्तये। 
उसके बाद जल का स्पर्श करें। 
केश स्थापन :: इसके बाद काटे गये बालों को पूर्ववत् माता के द्वारा गोमयपिण्ड पर रखवा दें। इसी प्रकार पुनः बची हुई जटाओं को काटने की प्रक्रिया मंत्र उच्चारण के बगैर पूरा करें यथा बालों को भिगोना, कँघे से अलग करना, बालों के बीच में तीन कुषाएँ रखना, उस्तरे को हाथ में लेना, उस्तरे को बालों के बीच में लगाना, बालों का काटना, पानी का छूना और कटे हुए बालों को गोबर पर रखवाना।
इस प्रकार कुल नौ बार पिता या आचार्य शिशु के बाल कटवाने की प्रक्रिया पूरी करें। 
क्षुर भ्रमण :: उसके बाद उस्तरे को सिर के चारों ओर निम्न मंत्र से प्रदक्षिणा क्रम से तीन बार घुमायें। पहली बार समन्त्रक तथा दो बार अमन्त्रक। पहली बार निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ उस्तरा घुमायें :- 
ॐ यत्क्षुरेण मज्जयता सुपेशसा वप्त्वा वा वपति केशांँश्छिन्धि शिरो मास्यायु: प्रमोषीः।
नाई को उस्तरा प्रदान करना :: तदनन्तर पहले के घी मिले ठंडे और गर्म पानी से सिर को भिगोकर सुखपूर्वक मुण्डन के लिये निम्न मंत्र बोलकर उस्तरा नाई को दे दें :-
ॐ अक्षण्वन् परिवप। 
इसके बाद नाई उत्तराभिमुख बैठकर पूर्वाभिमुख बालक के सर का पूर्वभाग से प्रारम्भ कर अथवा उत्तर भाग से आरम्भ कर बालों का मुण्डन करे तथा अपनी कुल परम्परा या गोत्र के अनुसार शिखा-छोटी रखे। 
केश स्थापन :: इसके बाद उन सभी कटे हुए बालों को गोबर में रखकर गौशाला, कीचड़ युक्त गड्ढे या नदी के समीप गाढ़ दें। 
तत्पश्चात स्नानकर करके शुद्ध होकर बालक माता-पिता, आचार्य आदि को प्रणाम करें। वे सभी बालक को आशीर्वाद प्रदान करें। तदनन्तर कुलाचार के अनुसार उसी दिन जलाशय अथवा कुँए का पूजन भी कर लेना चाहिये। 
भस्म धारण :: इसके बाद आसन पर बैठकर स्त्रुवा से अग्नि की भस्म लेकर दाहिने हाथ की अनामिका अँगुली से उस भस्म को निम्न विधि से धारण करें। 
ललाट पर :- ॐ त्र्यायुषं जमदग्ने:।  
गर्दन पर :- ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषम्। 
दक्षिण बहुमूल में :- ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषम्। 
हृदय-छाती पर :- ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम्। 
पुनः इसी रीति से बालक को भी भस्म लगानी चाहिये। 
नाई को मेहनताना-दान :: क्षौर करने के बाद नाई को घी और चावल तथा द्रव्य अथवा निष्क्रय द्रव्य देना चाहिये। 
आचार्य-पुरोहित को गौदान और दक्षिणा :: बालक का पिता दाहिने हाथ में जल और अक्षत लेकर आचार्य को देने के लिये गौदान का संकल्प करे :- 
ॐ अद्य...गोत्र:...शर्मा, वर्मा, गुप्तोऽहं चूड़ाकरणकर्मण: सांङ्गतसिद्धयर्थं  साद्गुण्यार्थं च मनसोदिष्टं गोनिष्क्रयभूतं द्रव्यं रजतं चन्द्रदैवतं दक्षिणाद्रव्यं च आचार्याय भवते सम्प्रददे। 
आचार्य द्रव्य ग्रहणकर बोलें :- ॐ स्वस्ति। 
ब्राह्मण भोजन का संकल्प :: इसके बाद ब्राह्मण भोजन कराने का संकल्प करें :-
ॐ अद्य कृतस्य चूड़ाकरणकर्मण: सांङ्गतसिद्धयर्थं  दशसंख्याकान् यथासंख्याकान् वा ब्राह्मणान् भोजयिष्ये।
भूयसी दक्षिणा संकल्प :: इसके बाद भूयसी दक्षिणा का संकल्प करें :-
ॐ अद्य कृतस्य चूड़ाकरणकर्मण: तन्मध्ये न्यूनातिरिक्तदोषपरिहारार्थं नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो यथोत्साहं भूयसीं दक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सृज्ये। 
विसर्जन :: इसके बाद आवाहित सभी देवताओं पर अक्षत-पुष्प समर्पित कर निम्न मंत्र के  उच्चारण के साथ विसर्जन करें :- 
यान्तु देवगणा: सर्वे पूजामादाय मामकीम्। 
इष्टकामसमृद्धय्र्थं पुनरागमनाय च॥ 
भगवत्स्मरण :: हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर भगवान् का ध्यान करते हुए समस्त कर्म उन्हें समर्पित करें :- 
ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। 
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥ 
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्  
यत्पादपङ्कज स्मरणात् यस्य नामजपादपि। 
न्यूनं कर्मं भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्
ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  ॐ विष्णवे नमः।  
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। ॐ साम्बसदाशियाय नमः। 
ॐ साम्बसदाशियाय नमः।
इसी प्रकार कन्या का भी चूड़ाकरण संस्कार अमन्त्रक करना चाहिये। 
    
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा

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