FEEDING SOLID FOOD
अन्न प्राशन
HINDU PHILOSOPHY (4.7) हिंदु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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शिशु को पहली बार सात्विक पवित्र मधुरान्न खिलाना (प्राशन कराना) अन्न प्राशन संस्कार कहलाता है। बालक के जन्म क छटे मास में इस संस्कार को करना चाहिये।
"षष्ठे मासेऽन्नप्राशनम्" [पारस्कर गृह्यसूत्र 1.19.1]
"षष्ठे मासन्नमश्नीयात्" [व्यासस्मृति 1.18]
"षण्मासं चैनमन्नं प्राश्येल्लघु हितं च" [शुश्रुत० शारीर० 10.49]
बालिकाओं लिये भी अन्नप्राशन का यही समय निर्धारित किया गया है। यदि किसी परिस्थिति वश अन्नप्राशन छटे माह में न हो सके तो बालक के लिये आठवें, दसवें अथवा बारहवें मास में या फिर संवत्सर पूरा होने पर किया जाना चाहिये। बालिका के लिये यह समय पाँचवाँ, सातवाँ, नवाँ, ग्यारहवाँ अर्थात विषम मास में या संवत्सर पूरा होने पर करना चाहिये।
यदि अन्नप्राशन संस्कार छटे मास में ही करना हो तो गुरु तथा शुक्र के अस्त होने तथा मलमासादि का दोष नहीं होता।
"अन्नप्राशनानान्मातृ गर्भ मलशादपि शुद्धयति"
इस संस्कार को करने से माता के आहार से गर्भावस्था में मलिनता-भक्षणजन्य जो दोष, शिशु मेंआ जाता है, वह दूर हो जाता है अर्थात गर्भ के समय माता के द्वारा जो पवित्र-अपवित्र, शीत-उष्ण, मन्दाग्नि गुणयुक्त आहार लिया जाता है, उसी आहार से शिशु का पोषण होता है और उस कदन्न का दोष शिशु पर भी आ जाता है। दोष की निवृत्ति के हेतु पवित्र हविष्यान्न मधु, घी युक्त पायस बालक को दिया जाता है, जिसको ग्रहण करने से बालक का शरीर एवं अन्तःकरण दोषरहित होकर पवित्र है।[स्मृति संग्रह] छह महीने तक बालक की शारीरिक संरचना इस तरह की होती है कि वह केवल माँ का दूध ही पचा पाता है। फिर उसके दाँत निकलने लगते हैं और उसे ठोस आहार की आवश्यकता पड़ती है।
अन्नप्राशन के उपरान्त बालक के सामने पुस्तक, शस्त्र, लेखनी, वस्त्र,अन्न तथा शिल्प सम्बन्धी वस्तुएँ रखनी चाहियें। माता की गोद से उतरकर बालक जिस चीज को स्वेच्छा से सबसे पहले ग्रहण करता है, वही उसके भविष्य में जीविका को निर्धारित करता है।
कृतप्राशनमुत्सङ्गाद्धात्री बालं समुत्सृजेत्।
कार्य तस्य परिज्ञानं जीविकाया अनन्तरम्॥
देवताविन्यस्य शिल्पग्रेऽथ भाण्डानिसर्वश।
शस्त्राणि चैव शस्त्राणि ततः पश्येतु लक्षणम्॥
प्रथमं यतस्पृशेद् बालस्ततो भाण्डं स्वयं तदा।
जीविका तस्य बालस्य तेनैवेति भविष्यति॥
तदनन्तर आवाहित देवताओं का विसर्जन करके ब्राह्मणों को यथोचित दक्षिणा देकर, उन्हें भोजन कराके बन्धु-बान्धवों सहित स्वयं भी भोजन करे। इस प्रकार के मांगलिक कृत्यों द्वारा अन्नप्राशन कर्म सम्पन्न करना चाहिये।
ज्योतिर्विद के द्वारा निर्दिष्ट शुभ मुहूर्त में प्रातःकाल शौच, स्नान और शुद्धि के बाद, धुले हुए और साफ़, सफेद कपड़े पहनकर बालक के पिता पूर्वमुख शुद्ध आसन पर बैठकर, नवीन वस्त्रों से अलंकृत बालक और पत्नी को दक्षिण भाग में बैठाकर समग्र पूजा सामग्रियों को यथास्थान रख लें। दीपक प्रज्वलित करें। तदनन्तर अन्नप्राशन संस्कार करें।[पारस्कर ग्रह्य सूत्र 1.19.13 कारिका वचन]
प्रतिज्ञा-संकल्प :: दाहिने हाथ में जल, पुष्प, अक्षत, द्रव्य, फल आदि लेकर निम्न संकल्प करें :-
ज्योतिर्विद के द्वारा निर्दिष्ट शुभ मुहूर्त में प्रातःकाल शौच, स्नान और शुद्धि के बाद, धुले हुए और साफ़, सफेद कपड़े पहनकर बालक के पिता पूर्वमुख शुद्ध आसन पर बैठकर, नवीन वस्त्रों से अलंकृत बालक और पत्नी को दक्षिण भाग में बैठाकर समग्र पूजा सामग्रियों को यथास्थान रख लें। दीपक प्रज्वलित करें। तदनन्तर अन्नप्राशन संस्कार करें।[पारस्कर ग्रह्य सूत्र 1.19.13 कारिका वचन]
प्रतिज्ञा-संकल्प :: दाहिने हाथ में जल, पुष्प, अक्षत, द्रव्य, फल आदि लेकर निम्न संकल्प करें :-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे क्षेत्रे...षष्टिसंवत्सराणां...मध्ये...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे.. . करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र: सपत्नीक:..शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं ममास्य शिशोर्मातृगर्भमलप्राशनविशुद्धयर्थ आन्नाद्यब्रह्मवर्चस्तेजायुर्बलेन्द्रियलक्षणफलसिद्धिपूर्वककबीजगर्भ-समुद्भववैनोनिर्बहणद्वाराश्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थमन्नप्राशनाख्यं कर्म करिष्ये। तदङ्गत्वेन स्वस्तिपुण्याहवाचनं मातृकापूजनं वसोर्धारापूजनमायुष्य मंत्रजपं सांङ्कपिकेन विधिना नान्दीश्राद्धं च करिष्ये। तत्रादौ निर्विघ्नतासिद्धयर्थं गणेशाम्बिकयोः पूजनं करिष्ये।
ऐसा कहकर संकल्प जल को छोड़ दें। तत्पश्चात श्री गणेश पूजन कर्म सम्पन्न करें।
वेदी निर्माण :: पंचांग पूजन के अनन्तर हवन कार्य के लिये बालू अथवा शुद्ध मिट्टी से एक हाथ लम्बी-चौड़ी, एक वेदी बनाये तथा निम्न विधि से उसका संस्कार करे :-
वेदी के पाँच संस्कार करें, तीन कुशों के द्वारा दक्षिण से उत्तर की ओर वेदी को साफ करें और उन कुशों को ईशान कोण में फेंक दें। गाय के गोबर तथा जल से वेदी को लीप दें। स्त्रुवा के मूल से वेदी के मद्य भाग में प्रादेश पात्र (अँगूठे से तर्जनी के बीच की दूरी) लम्बी तीन रेखाएँ पश्चिम से पूर्व की ओर खींचें। रेखा खींचने का क्रम दक्षिण से प्रारम्भकर उत्तर की ओर होना चाहिये। उन खींची गई तीनों रेखाओं से उल्लेखन-क्रम से अनामिका तथा अंगुष्ठ के द्वारा थोड़ी थोड़ी मिट्टी निकालकर बायें हाथ में रखते जायें। बाद में सारी मिट्टी दाहिने हाथ पर रखकर ईशानकोण की ओर फेंक दें। जल के छींटों से वेदी को सींच दें।
अग्नि स्थापना :: किसी मिट्टी (सकोरे), काँसे अथवा ताँबे में स्थित पवित्र अग्नि को वेदी के अग्नि कोण में रखें। इस अग्नि में से क्रव्यादाँश निकालकर नैऋत्य कोण में डाल दें। तदनन्तर अग्निपात्र को स्वाभिमुख करते हुए वेदी में स्थापित करें और उस समय निम्न मात्र का उच्चारण करें :-
चरूपाक :- धुले हुए चावलों में दूध डालकर हवन के लिये पायस चरु बना लें।
कुशकण्डिका :: ब्रह्मा का वरण करने के अनन्तर प्रणीता पात्र को जल से भर दें और उसे कुशों से ढँककर ब्रह्मा (ब्राह्मण पुरोहित) का मुख देख्ग्ते हुए अग्नि के उत्तर की ओर कुशों के ऊपर रख दें। कुश परिस्तरण कर लें। तदनन्तर निम्न रीति से पात्रासादन करें।
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पात्रासादन :- हवन कार्य में प्रयोग में आने वाली सभी विशिष्ट वस्तुओं तथा पात्रों को पश्चिम से पूर्व तक उत्तराग्र अथवा अग्नि के उत्तर की ओर रख लें।
अन्नप्राशन कर्म में प्रयुक्त होने वाली विशिष्ट वस्तुओं यथा :- बालक को प्राशन कराने के लिये मधुर रसों से युक्त विविध व्यंजन, मधु, घी, उद्धरण पात्र, गीता, रामायण आदि पुस्तक, लेखनी, शस्त्र, सुवर्ण, बर्तन आदि को भी यथास्थान रख लें।
पवित्रक का निर्माण तथा प्रोक्षणी पात्र का संस्कार कर लें और घी को आज्य स्थाली में निकालकर वेदी के दक्षिण भाग में अग्नि पर रख दें। स्त्रुवा का समार्जन कर लें। घी और चरु के बर्तनों को यथास्थान रख लें। घी में कोई वस्तु आदि पड़ गई हो तो उसे निकाल दें। ब्रह्मा का स्पर्श करते हुए बायें हाथ में उपनयन (सात) कुशों को लेकर हृदय में बाँया लगाकर तीन समिधाओं को घी में डुबोकर मन से प्रजापति देवता का ध्यान करते हुए मौन होकर अग्नि में दल दें।। तदनन्तर बैठ जायें।
अग्नि के ईशान कोण से ईशान कोण तक प्रदक्षिणा क्रम से जलधारा प्रपाहित करें। तदनन्तर हवन करें।
आधार-आज्य भाग संज्ञक हवन :: इसके बाद निम्न मंत्र बोलते हुए स्वाहा का उच्चारण करते हुए अग्नि में घी की आहुति दें। स्त्रुवा में बचे हुए घी को "न मम" कहकर प्रोक्षणी पात्र में छोड़ें।
वेदी निर्माण :: पंचांग पूजन के अनन्तर हवन कार्य के लिये बालू अथवा शुद्ध मिट्टी से एक हाथ लम्बी-चौड़ी, एक वेदी बनाये तथा निम्न विधि से उसका संस्कार करे :-
वेदी के पाँच संस्कार करें, तीन कुशों के द्वारा दक्षिण से उत्तर की ओर वेदी को साफ करें और उन कुशों को ईशान कोण में फेंक दें। गाय के गोबर तथा जल से वेदी को लीप दें। स्त्रुवा के मूल से वेदी के मद्य भाग में प्रादेश पात्र (अँगूठे से तर्जनी के बीच की दूरी) लम्बी तीन रेखाएँ पश्चिम से पूर्व की ओर खींचें। रेखा खींचने का क्रम दक्षिण से प्रारम्भकर उत्तर की ओर होना चाहिये। उन खींची गई तीनों रेखाओं से उल्लेखन-क्रम से अनामिका तथा अंगुष्ठ के द्वारा थोड़ी थोड़ी मिट्टी निकालकर बायें हाथ में रखते जायें। बाद में सारी मिट्टी दाहिने हाथ पर रखकर ईशानकोण की ओर फेंक दें। जल के छींटों से वेदी को सींच दें।
अग्नि स्थापना :: किसी मिट्टी (सकोरे), काँसे अथवा ताँबे में स्थित पवित्र अग्नि को वेदी के अग्नि कोण में रखें। इस अग्नि में से क्रव्यादाँश निकालकर नैऋत्य कोण में डाल दें। तदनन्तर अग्निपात्र को स्वाभिमुख करते हुए वेदी में स्थापित करें और उस समय निम्न मात्र का उच्चारण करें :-
ॐ शुचिनामाग्नये सुप्रतिष्ठतो वरदो भव।
तदनन्तर "ॐ नमः शुचिनामाग्नये नमः" इस मंत्र से गन्धाक्षत पुष्प से अग्नि पूजन करें। चरूपाक :- धुले हुए चावलों में दूध डालकर हवन के लिये पायस चरु बना लें।
कुशकण्डिका :: ब्रह्मा का वरण करने के अनन्तर प्रणीता पात्र को जल से भर दें और उसे कुशों से ढँककर ब्रह्मा (ब्राह्मण पुरोहित) का मुख देख्ग्ते हुए अग्नि के उत्तर की ओर कुशों के ऊपर रख दें। कुश परिस्तरण कर लें। तदनन्तर निम्न रीति से पात्रासादन करें।
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पात्रासादन :- हवन कार्य में प्रयोग में आने वाली सभी विशिष्ट वस्तुओं तथा पात्रों को पश्चिम से पूर्व तक उत्तराग्र अथवा अग्नि के उत्तर की ओर रख लें।
अन्नप्राशन कर्म में प्रयुक्त होने वाली विशिष्ट वस्तुओं यथा :- बालक को प्राशन कराने के लिये मधुर रसों से युक्त विविध व्यंजन, मधु, घी, उद्धरण पात्र, गीता, रामायण आदि पुस्तक, लेखनी, शस्त्र, सुवर्ण, बर्तन आदि को भी यथास्थान रख लें।
पवित्रक का निर्माण तथा प्रोक्षणी पात्र का संस्कार कर लें और घी को आज्य स्थाली में निकालकर वेदी के दक्षिण भाग में अग्नि पर रख दें। स्त्रुवा का समार्जन कर लें। घी और चरु के बर्तनों को यथास्थान रख लें। घी में कोई वस्तु आदि पड़ गई हो तो उसे निकाल दें। ब्रह्मा का स्पर्श करते हुए बायें हाथ में उपनयन (सात) कुशों को लेकर हृदय में बाँया लगाकर तीन समिधाओं को घी में डुबोकर मन से प्रजापति देवता का ध्यान करते हुए मौन होकर अग्नि में दल दें।। तदनन्तर बैठ जायें।
अग्नि के ईशान कोण से ईशान कोण तक प्रदक्षिणा क्रम से जलधारा प्रपाहित करें। तदनन्तर हवन करें।
आधार-आज्य भाग संज्ञक हवन :: इसके बाद निम्न मंत्र बोलते हुए स्वाहा का उच्चारण करते हुए अग्नि में घी की आहुति दें। स्त्रुवा में बचे हुए घी को "न मम" कहकर प्रोक्षणी पात्र में छोड़ें।
ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।
ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम।
ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम।
ॐ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम।
घी की आहुति :: निम्न मंत्रों से अनन्वारब्ध पूर्वक घी की आहुति पहले दें।
ॐ देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति। सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु स्वाहा। इदं वाचे न मम।
ॐ देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति। सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु।
ॐ वाजो नो अद्य प्र सुवाति दानं वाजो देवाँ ऋतुभि: कल्पयाति। वाजो हि मा सर्ववीरं जजान विश्वा आशा वाजपतिर्जयेयँ स्वाहा। इदं वाचे वाजाय न मम।
चरु होम :: तत्पश्चात पायस चरु में थोड़ा सा घी डालकर उस चरु के द्वारा निम्नलिखित मंत्रों से एक-एक आहुति दें :-
ॐ प्राणेनान्नमशीय स्वाहा। इदं प्राणाय न मम।
ॐ अपानेन गन्धानशीय स्वाहा। इदपानाय न मम।
ॐ चक्षुषा रुपाण्यशीय स्वाहा। इदं चक्षुषे न मम।
ॐ श्रोत्रेण यशोऽयशीय स्वाहा। इदं श्रोत्राय न मम।
भूरादि नौ आहुति :: तदनन्तर घी से नौ आहुतियाँ दें। प्रत्येक आहुति के अनन्तर स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी पात्र में डालें:-
ॐ भूः स्वाहाः, इदमग्नये न मम।
ॐ भुवः स्वाहाः, इदं वायवे न मम।
ॐ स्वः स्वाहाः, इदं सूर्याय न मम।
ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाँसि प्र मुमुग्ध्यत्स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
ॐ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुणँरराणो वीहि मृडीकँ सुहवो न एधि स्वाहा इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
ॐ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषजँ स्वाहा। इदमग्नये ऽयसे न मम।
ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्त्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिर्नो ऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्का: स्वाहा॥ इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम।
ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमँ श्रथाय। अधा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा॥ इदं वरुणायादित्यायादितये न मम।
तदनन्तर प्रजापति देवता का ध्यान करते हुए मन में निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए आहुति दें :-
ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।
स्विष्टकृत् आहुति :: इसके बाद घी चरु को मिलाकर निम्न मंत्रों के साथ ब्राह्मण के द्वारा कुश से स्पर्श किये जाने स्थिति में स्विष्टकृत् आहुति दें :-
ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।
संस्त्रवप्राश्न :- हवन पूर्ण होने पर प्रोक्षणी पात्र से घी दाहिने हाथ में लेकर यत्किंचित् पान करें। हाथ धो लें और आचमन करें।
मार्जन विधि :- इसके बाद निम्नलिखित मंत्र के द्वारा प्रणीता पात्र के जल से कुशों के द्वारा अपने सिर पर मार्जन करें।
ॐ सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु।
इसके बाद निम्न मंत्र से जल नीचे छोड़े :-
ॐ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्म:।
पवित्र प्रति पत्ति :: पवित्रक को अग्नि में छोड़ दें।
पूर्ण पात्र दान :: पूर्व में स्थापित पूर्णपात्र में द्रव-दक्षिणा रखकर निम्न संकल्प करके दक्षिणा सहित पूर्णपात्र ब्राह्मण-पुरोहित को प्रदान करें।
ॐ अद्य अन्नप्राशनहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्म कर्मप्रतिष्ठार्मिदं वृषनिष्क्रयद्रव्यसहितं पूर्णपात्रं प्रजापतिदैवतं...गोत्राय...शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे।
ब्राह्मण-पुरोहित "स्वस्ति" कहकर उस पूर्णपात्र को ग्रहण कर लें।
प्रणीता विमोक :: प्रणीता पात्र को ईशान कोण में उलटकर रख दें।
मार्जन :: पुनः कुशा द्वारा निम्न मंत्र से उलटकर रखे गये प्रणीता के जल से मार्जन करें :-
ॐ आप: शिवा: शिवतमा: शान्ता: शान्ततमस्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।
उपनयन कुशों को अग्नि में छोड़ दें।
बर्हीहोम :: तदनन्तर पहले बिछाये हुए कुशाओं को जिस क्रम से बिछाया गया था, उसी क्रम में उठाकर घी में भिगोयें और निम्न मंत्र से स्वाहा का उच्चारण करते हुए अग्नि को अर्पित कर दें :-
ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित।
मनसस्पत इमं देव यज्ञ: स्वाहा वाते धाः स्वाहा।
कुश में लगी ब्रह्मग्रन्थि को खोल दें।
अग्नि प्राशन की विधि :: हवन कार्य सम्पन्न हो जाने के अनन्तर सभी रसों (भोज्य, लेह्य, चोष्य तथा पेय) आदि, सभी प्रकार के अन्नों को जो घर में बनाये गए हों, उन सबमें से थोड़ा-थोड़ा एक उत्तम पात्र में परोसकर मधु तथा घी से संयुक्त करके भगवान् का भोग लगाकर स्नान पूर्वक शुद्ध नवीन वस्त्र पहनाये हुए शिशु को खिलाना चाहिये। माता की गोद में अथवा अपनी गोद में स्थित वस्त्राभूषणों से अलंकृत पूर्वाभिमुख स्थित शिशु को मंगल घोष पूर्वक सोने की चम्मच या चाँदी के चम्मच से एक बार पहले "हन्त" इस मंत्र से खिलाना चाहिये। तदनन्तर थोड़ा-थोड़ा पॉंच बार मौन होकर अमन्त्रक ही खिलाना चाहिये। इसके बाद स्वच्छ जल से शिशु का मुँह तीन बार धोना चाहिये।
कन्या का अन्नप्राशन :: कन्या के अन्नप्राशन में भी उपयुक्त सभी विधि-विधानों को बिना मंत्र उच्चारण के किया जाता है।
कन्या का अन्नप्राशन :: कन्या के अन्नप्राशन में भी उपयुक्त सभी विधि-विधानों को बिना मंत्र उच्चारण के किया जाता है।
शिशु की जीविका का परीक्षण :: इसके बाद शिशु भूमि पर बैठाकर उसके सामने अस्त्र-शस्त्र, पुस्तक, कलम, सहित कला सामग्री रखनी चाहिये। अपनी इच्छा से बालक जिस चीज को स्पर्श करे; वही भविष्य में वही उसकी जीविका का साधन होगा, ऐसा माना जाता है। कृतप्राशनमुत्ङ्गाद्धात्री बालं समुत्सृजेत्। कार्यं तस्य परिज्ञानं जीविकाया अनन्तरम्॥ देवताग्रेऽथ विन्यस्य शिल्पभण्डानि सर्वशः। शास्त्राणि चैव ततः पश्येतु लक्षणम्॥
प्रथम यत्स्पृशेद् बालसत्तो भाण्डं स्वयं तदा।
जीविका तस्य बालस्य तेनैवेति भविष्यति॥ [पारस्कर ग्रह सूत्र 1.19 कारिका वचन]
दक्षिणा-दान :: अन्नप्राशन जाने पर आचार्य को दक्षिणा प्रदान करें और हाथ में जल और अक्षत लेकर संकल्प करें :-
ॐ अद्य कृतस्यान्नप्राशनकर्मण: साङ्गतासिद्ध्यर्थं न्यूनातरिक्तदोषपरिहार्थञ्च नानानामगोत्रेभ्यो ब्रह्मणेभ्यो भूयसीदक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सृज्ये।
इसके बाद मातृकाओं, अग्नि तथा आवाहित देवों पर अक्षत-पुष्प छोड़ते हुए निम्न मंत्र बोलकर विसर्जन करें :-
यान्तु देवगणा: सर्वे पूजामादाय मामकीम्।
इष्ट कामसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च॥
भगवत्स्मरण :: हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर भगवान् का ध्यान-स्मरण हुए समस्त कर्म उन्हें समर्पित करें :-
ॐ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्।
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्॥
यत्पादपङ्कज स्मरणात् यस्य नामजपादपि।
न्यूनं कर्मं भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्॥
ॐ विष्णवे नमः। ॐ विष्णवे नमः। ॐ विष्णवे नमः।
ॐ साम्बसदाशियाय नमः। ॐ साम्बसदाशियाय नमः।
ॐ साम्बसदाशियाय नमः।
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा
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