HINDU PHILOSOPHY (4.3) हिन्दु दर्शन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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(सीमन्त + उन्नयन) सीमान्त का अर्थ है, स्त्री की माँग अर्थात सिर के बालों की विभाजन रेखा। विवाह संस्कार में इसी सीमन्त में वर के द्वारा सिन्दूर का दान होता है और वह विवाहिता, सौभाग्यशालिनी वधू सीमन्तिनी और सुमंगली कहलाती है। स्त्रियों का यह सीमन्त भाग अति संवेदनशील और मर्मस्थान है। पवित्र सिन्दूर के संयोग से जो विशिष्ठ भावनाएँ एवं संवेग उत्पन्न होते हैं, वे उसके अखण्ड दाम्पत्य जीवन के लिये अनुकूल और अभ्युदयकारी होते हैं। सीमन्तोन्नयन संस्कार में भी पति के द्वारा विशेष विधि से गर्भिणी स्त्री के सीमन्तभाग का संस्कार ही होता है। बालों को दो भागों में बाँटा जाता है (उन्नयन), जिसका प्रभाव उस स्त्री और उसकी भावी सन्तान पर भी पड़ता है।
"प्रथमगर्भे मासे षष्ठेSष्टमे वा"
सीमन्तोन्नयन संस्कार प्रथम गर्भ में ही कर लेना चाहिये। यह सस्कार छटे अथवा आठवें मॉस में करना चाहिये। इसको करने से भावी सन्तान के मस्तिष्क पर अच्छा-शुभ प्रभाव पड़ता है।[पारस्कर गृह्यसूत्र 1.15.3]
This process should be adopted for the first pregnancy during the sixth or eight month.
"पञ्च सन्धय: शिरसि विभक्ता: सीमान्ता नाम, तत्रोन्मादभयचित्तनाशैर्मरणम्"
सिर में विभक्त हुई पाँच सन्धियाँ सीमन्त कहलाती हैं। इन संधियों की उन्नती अथवा प्रकाशित होने से मस्तिष्क विकसित होता है और इसमें आघात होने से मृत्यु होती है। इस संस्कार को करने से गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क विकसित होता है। इससे भय, उन्माद, चित्त के उद्विघ्न होने और मृत्यु की सम्भावना नहीं रहती।[सुश्रुत संहिता]
गर्भवस्था में गर्भिणी को अच्छे ग्रंथों और सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। उसे सद्विचारों को सुनना और मनन करना चाहिये। वीणावादन के माध्यम से वीर-सत् पुरुषों यथा भगवान् श्री राम आदि के चरित्र का श्रवण करना चाहिये। घी युक्त सुपाच्य पौष्टिक खीर खानी चाहिये। सीमन्त का विभाजन गूलर आदि वनस्पतियों की सहायता से किया जा सकता है।
Division of hair locks into five divisions is called Seemant. They help in the development of the brain of the fetus. It protects the fetus from fear, mania, mental disturbances and possible death.
The pregnant woman should listen and read the scriptures depicting courage, politeness, good characters of the renounce people. She may hear such stories-verses along with the playing of Veena. She should adopt the qualities of Bhagwan Shri Ram and Maa Sita. It will help her if she eats pudding added with Pure desi Ghee once or twice in a week. The division of hair locks may be done with the help of vegetation like Ficus racemosa.
गूलर के औषधीय गुण :: यह शीतल, गर्भसंधानकारक, व्रणरोपक, रूक्ष, कसैला, भारी, मधुर, अस्थिसंधान कारक एवं वर्ण को उज्ज्वल करने वाला है। कफपित्त, अतिसार तथा योनि रोग को नष्ट करने वाला है। इसकी छाल अत्यंत शीतल, दुग्धवर्धक, कसैली, गर्भहितकारी और वर्णविनाशक है। इसका कोमल फल स्तम्भक, कसैला, हितकारी तथा तृषा, पित्त-कफ और रूधिरदोष नाशक है। इसका मध्यम कोमल फल स्वादु, शीतल, कसैला, पित्त, तृषा, मोहकारक एवं वमन तथा प्रदर रोग विनाशक है। इसका तरूण फल कसैला, रूचिकारी, अम्ल, दीपन, माँसवर्धक, रूधिरदोषकारी और दोषजनक है और पका फल कसैला, मधुर, कृमिकारक, जड, रूचिकारक, अत्यंत शीतल, कफकारक तथा रक्तदोष, पित्त, दाह, क्षुधा, तृषा, श्रम, प्रमेह शोक और मूर्छा नाशक है।
सीमन्तोन्नयन संस्कार प्रक्रिया :: गर्भ धारण के छटे या आठवें महीने में पुरुष संज्ञक नक्षत्र आदि शुभ तिथि में स्नानादि नित्य क्रिया सम्पन्न करके जातक पत्नी के साथ पवित्र आसन पर बैठ जाये और दीप प्रज्वलित कर ले। आचमन, प्राणायाम करके पवित्री धारण करे और दाहिने हाथ में त्रिकुश, जल, अक्षत लेकर निम्नलिखित संकल्प करे ::
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो-राज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे (यदि जातक काशी में हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकन्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे)...नगरे/ग्रामे क्षेत्रे...षष्टिसंवत्सराणां...मध्ये...संवत्सरे..अयने...ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...नक्षत्रे...योगे.. . करणे...वासरे...राशिस्थिते...सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगणविशिष्टे शुभमुहूर्ते...गौत्र: सपत्नीक:..शर्मा/गुप्त/राणा/गुप्तोSहं अस्या मम भार्याया: गर्भावयवेभ्य-स्तेजोवृद्ध्यर्थ क्षेत्रगर्भयोः संस्कारार्थ प्रतिगर्भसमुद्धवैनोनिबर्हणेन बीजकोप्टत्त्यतिशद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थ सीमन्तोन्नयनसंस्कार-कर्म करिष्ये। तत्पूर्वाङ्गत्वेन गणपतिसहित गौर्यादिषोडश मातृणां पूजनं स्वस्तिपुण्याहवाचनं वसोर्धारापूजनं आयुष्यमन्त्रजपं साङ्कल्पिकेन विधिना नान्दीश्राद्धं च करिष्ये।
IGNITING THE HOLY FIRE :: Fire placed in a vessel made up of either bronze or copper or clay called Sakora (This is the fire in the form of ignited wood or cow dung obtained from the site of holy sacrifices in fire, else where, temple etc.) be placed in the Agni Kon-South-east direction of the Vedi. A little bit bit of it is removed and place in North-east direction. Thereafter preparation are made to ignite the holy in front of the priest & the host-the performer with the recitation of he Mantr mentioned above.
Next to it another Mantr is recited with the spraying of flowers, rice scented goods (Hawan Samgri) given above.
ब्रह्मावरण संकल्प :: चन्दन, पान, वस्त्र तथा द्रव्य दक्षिणा आदि वरण की सामग्री हाथ में लेकर निम्न सङ्कल्प के साथ जातक ब्रह्मा (ब्राह्मण-पुरोहित) का वरण करें और वरण सामग्री उन्हें प्रदान करे।
यजमान कहें :- "यथाविहितकर्म कुरु"
ब्राह्मण कहें :- "ॐ यथा ज्ञानं करवाणि"
इसके बाद वेदी के दक्षिण की ओर शुद्ध आसन बिछाये और उसके ऊपर पूर्व की ओर अग्र भाग वाले तीन कुशा रखकर यजमान निम्न वाक्य कहे :-
इसके बाद अग्नि की परिक्रमा कराकर यजमान उस आसन पर ब्राह्मण को बैठाये।
The host should hold sandal wood or its paste, beetle leaves, cloths and gifts-cash for the Brahmn who has to perform the Sanskars-rites (rituals) and offer the goods with due respect to him, undertaking the due oath that is given above.
Both of them should alternatively exchange the dialogues given above.
The Brahman will accept the assignment and the host will confirm his priesthood. The Brahman-priest will agree to do the desired prayers for the host.
A clean cushion will be spread near the Vedi-sacrificial pot-place to its south. The host will utter the sentences given above, next to admittance by the host holding three Kush straw pointing to the east.
The Brahman will agree to it. Thereafter, the host will request the Brahman Purohit to circumambulate the holy fire and request him to occupy the auspicious seat.
कुशकण्डिका ::
प्रणीता पात्र स्थापन :- इसके पश्चात यजमान प्रणीता पात्र को आगे रखकर जल से भर दे और उसको कुशाओं से ढककर तथा ब्राह्मण का मुख देखकर अग्नि की उत्तर दिशा की ओर कुशाओं के ऊपर रखे।
Thereafter, a wooden pot is filled with water and is covered with the Kush, while visualising the priest in the North direction of fire place & placed over the Kush grass.
अग्नि वेदी के चारों तरफ कुश आच्छादन-कुश परिस्रण :- इक्यासी कुशों को ले (यदि इतने कुश उपलब्ध न हों तो तेरह कुशों को ग्रहण करना चाहिये। उनके 3-3 के 4 भाग करे। कुशों के सर्वथा अभाव में दूर्वा से भी काम चलाया जा सकता है।) इनको 20-20 के चार भाग में बाँटे। इन चार भागों को अग्नि के चारों ओर फैलाया जाये। ऐसा करते वक्त हाथ कुश से खाली नहीं रहना चाहिये। प्रत्येक भाग को फैलाने पर हाथ में एक कुश बच रहेगा। इसलिये पहली बार में 21 कुश लेने चाहिये। कुश बिछाने का क्रम :- कुशों का पहला हिस्सा (20 +1) लेकर पहले वेदी के अग्नि कोण से प्रारम्भ करके ईशान कोण तक उन्हें उत्तराग्र बिछाये। फिर दूसरे भाग को ब्रह्मासन से अग्निकोण तक पूर्वाग्र बिछावे। तदनन्तर तीसरे भाग को नैर्ऋत्य कोण से वायव्य कोण तक उत्तराग्र बिछावे और चौथे भाग को वायव्य कोण से ईशान कोण तक पूर्वाग्र बिछावे। पुनः दाहिने खाली हाथ से वेदी के ईशानकोण से प्रारम्भकर वामावर्त ईशानकोण पर्यन्त प्रदक्षिणा करे।
81 Kush pieces are taken and grouped in to blocks of 3-3 and subsequently divided into 4 parts. These 4 segments have to be spreaded around the fire place. The hand should not be empty while doing so. On taking 21 pieces, 20 will be placed and one will still be there in the hand. The first group of Kush grass should be kept till the Ishan Kon i.e., North-East direction beginning from the South-East direction till the North front. The second group should be laid starting from the seat of the Priest till the South-West direction keeping the Eastern section in front. The third group has to be placed towards West-South till North-West direction facing North and the fourth group should be placed from North-West till North-East facing east wards. Now, he should circumambulate from right hand side (keeping the hand empty), beginning from North-East to North-East i.e., reaching the same point yet again, anti-clock wise.
यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ पात्र ::
(1). स्रुवा :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में घी की आहुति दी जाती है।
(2). प्रणीता :- इसमें जल भरकर रखा जाता है। इस प्रणीता पात्र के जल में घी की आहुति देने के उपरान्त बचे हुए घी को "इदं न मम" कहकर टपकाया जाता है। बाद में इस पात्र का घृतयुक्त होठों एवं मुख से लगाया है जिसे संसव प्राशन कहते हैं।
(3). प्रोक्षिणी :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में वसोर्धारा (घी की धारा) छोड़ी जाती है। यही क्रिया स्रुचि के माध्यम से भी की जाती है।
(4). स्रुचि :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में मिष्ठान की पूर्णाहुति दी जाती है। मिष्ठान की इस आहुति को स्विष्टकृत होम कहते हैं। यह क्रिया यज्ञ अथवा हवन में न्यूनता को पूर्ण करने के लिए की जाती है।
(5). स्फ़्य :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन की भस्म धारण की जाती है।
पात्रासादन (यज्ञपात्रों को यथास्थान या यथाक्रम रखना) :: हवन कार्य में प्रयोक्तव्य सभी वस्तुओं तथा पात्रों यथा-समूल तीन कुश उत्तराग्र (पवित्रक बनाने वाली पत्तियों को काटने के लिये), साग्र (आदि से लेकर आरंभ तक-पूरा, सब, कुल, समग्र) दो कुशपत्र (बीच वाली सींक निकाल कर पवित्रक (धार्मिक अनुष्ठानों में देवताओं की छवियों का स्नान और बड़ों पर पवित्र कारी पानी डालने का यंत्र) बनाने के लिये), प्रोक्षणी पात्र (अभाव में दोना या मिट्टी का स्कोरा), आज्य स्थाली (घी रखने के लिये पात्र), पाँच सम्मार्जन (सम्मार्जित झाड़ना बुहारना, साफ करना, स्नानादि मूर्ति का स्रुवा के साथ काम आनेवाला कुश या मुट्ठा, झाड़ू) कुश, सात उपनयन कुश, तीन समिधाएँ (प्रादेश मात्र लम्बी) स्त्रुवा, आज्य (घृत), यज्ञीय काष्ठ (पलाश आदि की लकड़ी), 256 मुट्ठी चावलों से भरा पूर्ण पात्र, चरु पाक के लिये तिल और मूँग से भरा पात्र आदि को पश्चिम से पूर्व तक उत्तराग्र अथवा अग्नि के उत्तर की ओर पूर्वाग्र रख लें।
उनके आगे वीणा वादन करने वाले गायकों को बैठायें।
वहाँ प्रादेश मात्र अग्रभाग सहित पीपल काष्ठ की कील तथा शल्लकी का काँटा, पीला सूत लपेटा हुआ एक तकुआ (spindle, चरखे-spinning wheel, में लगी लम्बी-पतली लोहे की लगभग एक फुट की छड़) जिस पर कता हुआ सूत लिपटता जाता है तथा कुशाओं की तीन पिंजूलिका (तेरह कुशाओं को लपेटकर एक पिंजूलिका बनती है) बनाकर स्थापित करनी चाहिये। ऐसी तीन पिंजूलिका स्थापित करें। गूलर के नवीन पत्ते की डाली, जिनके दोनों तरफ फल लगे हुए हों, सुवर्ण के तारयुक्त सूत्र, पुष्प, बिल्वफल सहित अन्यान्य मांगलिक पदार्थ स्थापित करें।
All goods meant for the holy sacrifices in fire should be arranged in proper order. They are :- Kush-Uttragr, two Kush leaves without middle thread for making Pavitrak, Dona or Sakora may be used if Pavitrak is not available, Pot for keeping Ghee-clarified butter, Five Kush meant for ritualistic cleaning, Seven Kush for Upnayan-Janeu (sacred loin thread), Three pieces of wood meant for burning in sacred fire, Struva, Ghee, Wood of Palash-Dhak meant for the Hawan, A pitcher to keep 256 fistfuls of rice, A pot filled with Til-Sesame & Mung) meant for Charu Pak. These goods should be kept ready either moving from West to East or North of fire place facing East.
Two singers who plays Veena should be seated in front of them.
A Nail made of wood from fig tree, a thorn of Shallki, Yellow cotton thread. A spindle rod, Three Pinjulika-role made of Kush-one Pinjulika is formed by spinning 13 Kush one over each other, A branch of Gular tree having new leaves with new fruits on both sides, A thread having gold spined with it, Flowers, Bilv fruits and all other relevant goods used for auspicious rituals-occasions.
पवित्रक निर्माण :: दो कुशों के पत्रों को बायें हाथ में पुवाग्र रखकर इनके ऊपर उत्तराग्र तीन कुशों को दायें हाथ से प्रादेश मात्र दूरी छोड़कर मूल की ओर रख दें। तदनन्तर कुशों के मूल को पकड़कर कुशत्रय को बीच में लेते हुए दो कुश पत्रों को प्रदिक्षण क्रम से लपेट लें, फिर दायें हाथ से तीन कुशों को मोड़कर बायें हाथ में लें तथा दाहिने हाथ से कुश पत्रद्वय पकड़कर जोर से खींच लें। जब दो पत्तों वाला कुश कट जाये तब उसके अग्रभाग वाला प्रादेश मात्र दाहिनी ओर से घुमाकर गाँठ लगा दें, ताकि दो पत्र अलग-अलग न हों। इस तरह पवित्रक बन जायेगा। शेष सबको-दो पत्रों के कटे हुए भाग तथा काटने वाले तीनों कुशों को, उत्तर दिशा में फेंक दें।
MAKING OF PAVITRAK :: Two leaves of Kush should be kept in left hand eastwards and they should be covered with three Kush northward, keeping a distance of slightly-roughly equal to the distance between the thumb & the index finger with the right hand towards the root. Then hold the roots of Kush keep the three Kush in between and tie them clockwise. Now, Bind-turn the three Kush with the right hand and pull the three Kush cutting the two leaved Kush, tie it so that the two leaved Kush are not separated. This will form the Pavitrak. Through the remaining part as useless northward.
पवित्रक कार्य एवं प्रोक्षणी पात्र का संस्कार :: पूर्वस्थापित प्रोक्षणी को अपने सामने पूर्वाग्र रखें। प्रणीता में रखे जल का आधा भाग आचमनी आदि किसी पात्र द्वारा प्रोक्षणी पात्र में तीन बार डालें। अब पवित्री के अग्र भाग को बायें हाथ की अनामिका तथा अँगुष्ठ से और मूल भाग को दाहिने हाथ की अनामिका तथा अँगुष्ठ से पकड़कर, इसके मध्य भाग के द्वारा प्रोक्षिणी के जल को तीन बार उछालें (उत्प्लवन)। पवित्रक को प्रोक्षणी पात्र में पूर्वाग्र रख दें। प्रोक्षणी पात्र को बायें हाथ में रख लें। पुनः पवित्रक के द्वारा प्रणीता के जल से प्रोक्षणी को प्रोक्षित करें। तदनन्तर इसी प्रोक्षणी के जल से आज्य स्थाली, स्त्रुवा आदि सभी सामग्रियों तथा पदार्थों का प्रोक्षण करें अर्थात उन पर जल के छींटे डालें (अर्थवत्प्रेाक्ष्य)। इसके बाद उस प्रोक्षणी पात्र को प्रणीता पात्र तथा अग्नि के मध्य स्थान (असंचर देश) में पूर्वाग्र रख दें।
RITES PERTAINING TO PAVITRAK & PROKSHNI :: The Prokshani which was installed earlier should be kept in front. Half of the water kept in Pranita should be transferred to Prokshani vessel with the help of Achmani thrice. Now, hold the front of Pavitri with the third-Sun finger and the thumb of the left hand & root-base of of Pavitri with the third-Sun finger and the thumb of right hand and spill the water thrice kept in the Prokshani, with its middle segment. Pavitrak should be kept in the Prokshani with its front in forward direction. Again spill the water from the Pranita with Pavitrak over the Prokshani. Thereafter, spill the water from the Prokshani over Ajy Sthali, Struva and all other goods kept there for the purpose of Hawan. Thereafter, keep the Prokshani between Pranita and the fire place keeping it forward.
घी को आज्य स्थाली में निकालना :: आज्य पात्र से घी कटोरे में निकालकर उस पात्र को वेदी के दक्षिण भाग में अग्नि-आग पर रख दें।
WITHDRAWING GHEE FROM THE AJY STHALI :: Keep the Ghee in a bowl and place it over the fire in the South of the fire place-Vedi.
चरूपाक विधि :: फिर आज्य स्थाली में घी डालें और चरु बनाने के लिये तिल, चावल तथा मूँग मिलायें और उनको प्रणीता पात्र के जल से तीन बार धोयें। इसके बाद किसी बर्तन में पानी भरकर उसमें तिल, चावल और मूँग डाल दें। तत्पश्चात यजमान उस चरुपात्र को हाथ में लेकर ब्राह्मण-पुरोहित से घी को ग्रहण कराकर वेदी स्थित अग्नि के उत्तर की ओर चरु को रखें और पुरोहित के हस्त स्थित घी को दक्षिण की ओर स्थापित करा दें। (ब्राह्मण-पुरोहित इन सब कार्यों को स्वतः विधि पूर्वक सम्पन्न करने में प्रशिक्षित होने चाहियें)। जिस समय चरु सिद्ध हो जाये अर्थात पक जाये, तब एक जलती हुई लकड़ी को लेकर चरुपात्र के ईशान भाग से प्रारम्भ कर ईशान भाग तक दाहिनी ओर घुमाकर अग्नि में डाल दें। फिर खाली बायें हाथ को बायीं ओर घुमाकर ईशान भाग तक ले आयें। यह क्रिया पर्यग्नि करण कहलाती है।
ऐसा कहकर संकल्प जल को छोड़ दें।
पंचाग पूजन के अनन्तर बहि:शाला में हवन सम्पन्न करें। सबसे पहले एक हाथ लम्बी चौड़ी वेदी निम्न संस्कारों के साथ बनायें :-
During the sixth or eight month of pregnancy one should select a date in a constellation representing male, auspicious date, fresh himself along with his wife and seated over a pure-clean cushion and ignite the lamp. Perform sprinkling of pure water-Ganga Jal, perform Pranayam-deep breathing and bear Kush grass in his Sun finger, contain three Kush grasses-straw, water and rice grains in his right hand and take a vow as described above.
Thereafter, he should release the water in hands over the ground.
Panchang should be prayed and an auspicious square structure (measuring 1 X 1 hands) called Hawan Kund should be made out side he house for ritualistic holy sacrifices in fire, adopting-following the procedures described below :-
पंच भूसंस्कार ::
(1). परिसमूहन :- "त्रिबहिर्दर्भै: परिसमुह्य तान् कुशानैशान्यां परित्यज्य"
तीन कुशों के द्वारा उत्तर की ओर वेदी को साफ़ करे और उन कुशों को ईशान कोण में छोड़ दें।
The space in the north of the Peeth-Hawan Kund should be cleaned with the help of three pieces of Kush straw and thrown in North-East direction.
(2). उपलेपन :: "गोमयोदके नोपलिप्य"
गाय के गोबर और पानी से से वेदी को लीप दे।
लीपना :: पोतना, आवरण, लेप करना; smear, coat, slake.
The paste prepared from cow dung should used to coat the Hawan Kund-Yagy Vedi.
(3). उल्लेखन या रेखाकरण :: "स्फ्येन स्त्रुवमूलेन कुशमूलेन वा त्रिरुल्लिख्य"
स्त्रुवा के मूल से वेदी के मध्य भाग में प्रादेश मात्र (अँगूठे से तर्जनी के बीच की दूरी) लम्बी तीन रेखाएँ पश्चिम से पूर्व की ओर खींचें। रेखा खींचने का क्रम दक्षिण से प्रारम्भ करके उत्तर की ओर होना चाहिये।
Three lines have to be drawn in the middle of the Yagy Vedi-Site of Hawan with the distance of opening of the thumb & the index finger between them, from west to east. The sequence of lines has to be from south to north with the root of Struva.
(4). उद्धरण :: "अनामिकाङ्गुष्ठभ्यां मृदमुद्धृत्य"
उन खींची हुई तीनों रेखाओं से उल्लेखन-क्रम से अनामिका तथा अँगुष्ठ के द्वारा थोड़ी-थोड़ी मिट्टी निकालकर बायें हाथ पर रखते जायें। बाद में उस मिट्टी को ईशानकोण की ओर फेंक दें।
Some sand-clay should be picked from these lines with the help of the Sun finger & the thumb, kept over the left hand-palm and thrown in the North-East direction i.e., Ishan Kon.
(5). अभ्युक्ष्रण या सेचन :: "जलेनाभ्युक्ष्य"
तदनन्तर गंगा आदि पवित्र नदियों के जल के छींटों से वेदी को पवित्र करें।
Thereafter, purify the Yagy Vedi by sprinkling holy-pious water from the holy rivers Ganga etc. (Ganga, Yamuna, Saraswati, Sindhu, Narmada, Kaveri, Godavari).
अग्निस्थापना :: किसी कांस्य अथवा ताम्र पात्र या नये मिट्टी के पात्र (सकोरे) में स्थित पवित्र अग्नि को वेदी के अग्निकोण में रखें और इस अग्नि में से क्रव्यादांश निकालकर नेर्ऋत्य कोण में डाल दें। तदनन्तर अग्निपात्र को स्वाभिमुख करते हुए अग्नि को स्थापित करें। उस समय यह मन्त्र पढ़ें :-
(3). उल्लेखन या रेखाकरण :: "स्फ्येन स्त्रुवमूलेन कुशमूलेन वा त्रिरुल्लिख्य"
स्त्रुवा के मूल से वेदी के मध्य भाग में प्रादेश मात्र (अँगूठे से तर्जनी के बीच की दूरी) लम्बी तीन रेखाएँ पश्चिम से पूर्व की ओर खींचें। रेखा खींचने का क्रम दक्षिण से प्रारम्भ करके उत्तर की ओर होना चाहिये।
Three lines have to be drawn in the middle of the Yagy Vedi-Site of Hawan with the distance of opening of the thumb & the index finger between them, from west to east. The sequence of lines has to be from south to north with the root of Struva.
(4). उद्धरण :: "अनामिकाङ्गुष्ठभ्यां मृदमुद्धृत्य"
उन खींची हुई तीनों रेखाओं से उल्लेखन-क्रम से अनामिका तथा अँगुष्ठ के द्वारा थोड़ी-थोड़ी मिट्टी निकालकर बायें हाथ पर रखते जायें। बाद में उस मिट्टी को ईशानकोण की ओर फेंक दें।
Some sand-clay should be picked from these lines with the help of the Sun finger & the thumb, kept over the left hand-palm and thrown in the North-East direction i.e., Ishan Kon.
(5). अभ्युक्ष्रण या सेचन :: "जलेनाभ्युक्ष्य"
तदनन्तर गंगा आदि पवित्र नदियों के जल के छींटों से वेदी को पवित्र करें।
Thereafter, purify the Yagy Vedi by sprinkling holy-pious water from the holy rivers Ganga etc. (Ganga, Yamuna, Saraswati, Sindhu, Narmada, Kaveri, Godavari).
अग्निस्थापना :: किसी कांस्य अथवा ताम्र पात्र या नये मिट्टी के पात्र (सकोरे) में स्थित पवित्र अग्नि को वेदी के अग्निकोण में रखें और इस अग्नि में से क्रव्यादांश निकालकर नेर्ऋत्य कोण में डाल दें। तदनन्तर अग्निपात्र को स्वाभिमुख करते हुए अग्नि को स्थापित करें। उस समय यह मन्त्र पढ़ें :-
"ॐ मङ्गलनामाग्नये सुप्रतिष्ठितो वरदो भव"
तदनन्तर "ॐ मङ्गलनामाग्नये नमः" इस मन्त्र से गन्ध पुष्पाक्षत आदि से अग्नि का पूजन करें।IGNITING THE HOLY FIRE :: Fire placed in a vessel made up of either bronze or copper or clay called Sakora (This is the fire in the form of ignited wood or cow dung obtained from the site of holy sacrifices in fire, else where, temple etc.) be placed in the Agni Kon-South-east direction of the Vedi. A little bit bit of it is removed and place in North-east direction. Thereafter preparation are made to ignite the holy in front of the priest & the host-the performer with the recitation of he Mantr mentioned above.
Next to it another Mantr is recited with the spraying of flowers, rice scented goods (Hawan Samgri) given above.
ब्रह्मावरण संकल्प :: चन्दन, पान, वस्त्र तथा द्रव्य दक्षिणा आदि वरण की सामग्री हाथ में लेकर निम्न सङ्कल्प के साथ जातक ब्रह्मा (ब्राह्मण-पुरोहित) का वरण करें और वरण सामग्री उन्हें प्रदान करे।
ॐ अद्य कर्तव्यसीमन्तोन्नयनहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्मकर्तुम्...गोत्रम् ...शर्माणं ब्राह्मणमेभी: पुष्पचन्दनताम्बूलयज्ञोपवीतवासोभिर्ब्रह्मत्वेन भवन्त महं वृणे।
ब्राह्मण उस सामग्री को अपने हाथ में लेकर कहें :- "वृतोSस्मि" यजमान कहें :- "यथाविहितकर्म कुरु"
ब्राह्मण कहें :- "ॐ यथा ज्ञानं करवाणि"
इसके बाद वेदी के दक्षिण की ओर शुद्ध आसन बिछाये और उसके ऊपर पूर्व की ओर अग्र भाग वाले तीन कुशा रखकर यजमान निम्न वाक्य कहे :-
"अस्मिन सीमन्तोन्नयन होम कर्मणि भवान् मे ब्रह्मा भव"
ब्राह्मण कहे :- "ॐ भवानि"इसके बाद अग्नि की परिक्रमा कराकर यजमान उस आसन पर ब्राह्मण को बैठाये।
The host should hold sandal wood or its paste, beetle leaves, cloths and gifts-cash for the Brahmn who has to perform the Sanskars-rites (rituals) and offer the goods with due respect to him, undertaking the due oath that is given above.
Both of them should alternatively exchange the dialogues given above.
The Brahman will accept the assignment and the host will confirm his priesthood. The Brahman-priest will agree to do the desired prayers for the host.
A clean cushion will be spread near the Vedi-sacrificial pot-place to its south. The host will utter the sentences given above, next to admittance by the host holding three Kush straw pointing to the east.
The Brahman will agree to it. Thereafter, the host will request the Brahman Purohit to circumambulate the holy fire and request him to occupy the auspicious seat.
कुशकण्डिका ::
प्रणीता पात्र स्थापन :- इसके पश्चात यजमान प्रणीता पात्र को आगे रखकर जल से भर दे और उसको कुशाओं से ढककर तथा ब्राह्मण का मुख देखकर अग्नि की उत्तर दिशा की ओर कुशाओं के ऊपर रखे।
Thereafter, a wooden pot is filled with water and is covered with the Kush, while visualising the priest in the North direction of fire place & placed over the Kush grass.
अग्नि वेदी के चारों तरफ कुश आच्छादन-कुश परिस्रण :- इक्यासी कुशों को ले (यदि इतने कुश उपलब्ध न हों तो तेरह कुशों को ग्रहण करना चाहिये। उनके 3-3 के 4 भाग करे। कुशों के सर्वथा अभाव में दूर्वा से भी काम चलाया जा सकता है।) इनको 20-20 के चार भाग में बाँटे। इन चार भागों को अग्नि के चारों ओर फैलाया जाये। ऐसा करते वक्त हाथ कुश से खाली नहीं रहना चाहिये। प्रत्येक भाग को फैलाने पर हाथ में एक कुश बच रहेगा। इसलिये पहली बार में 21 कुश लेने चाहिये। कुश बिछाने का क्रम :- कुशों का पहला हिस्सा (20 +1) लेकर पहले वेदी के अग्नि कोण से प्रारम्भ करके ईशान कोण तक उन्हें उत्तराग्र बिछाये। फिर दूसरे भाग को ब्रह्मासन से अग्निकोण तक पूर्वाग्र बिछावे। तदनन्तर तीसरे भाग को नैर्ऋत्य कोण से वायव्य कोण तक उत्तराग्र बिछावे और चौथे भाग को वायव्य कोण से ईशान कोण तक पूर्वाग्र बिछावे। पुनः दाहिने खाली हाथ से वेदी के ईशानकोण से प्रारम्भकर वामावर्त ईशानकोण पर्यन्त प्रदक्षिणा करे।
81 Kush pieces are taken and grouped in to blocks of 3-3 and subsequently divided into 4 parts. These 4 segments have to be spreaded around the fire place. The hand should not be empty while doing so. On taking 21 pieces, 20 will be placed and one will still be there in the hand. The first group of Kush grass should be kept till the Ishan Kon i.e., North-East direction beginning from the South-East direction till the North front. The second group should be laid starting from the seat of the Priest till the South-West direction keeping the Eastern section in front. The third group has to be placed towards West-South till North-West direction facing North and the fourth group should be placed from North-West till North-East facing east wards. Now, he should circumambulate from right hand side (keeping the hand empty), beginning from North-East to North-East i.e., reaching the same point yet again, anti-clock wise.
यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ पात्र ::
(1). स्रुवा :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में घी की आहुति दी जाती है।
(2). प्रणीता :- इसमें जल भरकर रखा जाता है। इस प्रणीता पात्र के जल में घी की आहुति देने के उपरान्त बचे हुए घी को "इदं न मम" कहकर टपकाया जाता है। बाद में इस पात्र का घृतयुक्त होठों एवं मुख से लगाया है जिसे संसव प्राशन कहते हैं।
(3). प्रोक्षिणी :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में वसोर्धारा (घी की धारा) छोड़ी जाती है। यही क्रिया स्रुचि के माध्यम से भी की जाती है।
(4). स्रुचि :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में मिष्ठान की पूर्णाहुति दी जाती है। मिष्ठान की इस आहुति को स्विष्टकृत होम कहते हैं। यह क्रिया यज्ञ अथवा हवन में न्यूनता को पूर्ण करने के लिए की जाती है।
(5). स्फ़्य :- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन की भस्म धारण की जाती है।
सकोरा |
वीणा |
वहाँ प्रादेश मात्र अग्रभाग सहित पीपल काष्ठ की कील तथा शल्लकी का काँटा, पीला सूत लपेटा हुआ एक तकुआ (spindle, चरखे-spinning wheel, में लगी लम्बी-पतली लोहे की लगभग एक फुट की छड़) जिस पर कता हुआ सूत लिपटता जाता है तथा कुशाओं की तीन पिंजूलिका (तेरह कुशाओं को लपेटकर एक पिंजूलिका बनती है) बनाकर स्थापित करनी चाहिये। ऐसी तीन पिंजूलिका स्थापित करें। गूलर के नवीन पत्ते की डाली, जिनके दोनों तरफ फल लगे हुए हों, सुवर्ण के तारयुक्त सूत्र, पुष्प, बिल्वफल सहित अन्यान्य मांगलिक पदार्थ स्थापित करें।
चरखा |
Two singers who plays Veena should be seated in front of them.
A Nail made of wood from fig tree, a thorn of Shallki, Yellow cotton thread. A spindle rod, Three Pinjulika-role made of Kush-one Pinjulika is formed by spinning 13 Kush one over each other, A branch of Gular tree having new leaves with new fruits on both sides, A thread having gold spined with it, Flowers, Bilv fruits and all other relevant goods used for auspicious rituals-occasions.
पवित्रक निर्माण :: दो कुशों के पत्रों को बायें हाथ में पुवाग्र रखकर इनके ऊपर उत्तराग्र तीन कुशों को दायें हाथ से प्रादेश मात्र दूरी छोड़कर मूल की ओर रख दें। तदनन्तर कुशों के मूल को पकड़कर कुशत्रय को बीच में लेते हुए दो कुश पत्रों को प्रदिक्षण क्रम से लपेट लें, फिर दायें हाथ से तीन कुशों को मोड़कर बायें हाथ में लें तथा दाहिने हाथ से कुश पत्रद्वय पकड़कर जोर से खींच लें। जब दो पत्तों वाला कुश कट जाये तब उसके अग्रभाग वाला प्रादेश मात्र दाहिनी ओर से घुमाकर गाँठ लगा दें, ताकि दो पत्र अलग-अलग न हों। इस तरह पवित्रक बन जायेगा। शेष सबको-दो पत्रों के कटे हुए भाग तथा काटने वाले तीनों कुशों को, उत्तर दिशा में फेंक दें।
MAKING OF PAVITRAK :: Two leaves of Kush should be kept in left hand eastwards and they should be covered with three Kush northward, keeping a distance of slightly-roughly equal to the distance between the thumb & the index finger with the right hand towards the root. Then hold the roots of Kush keep the three Kush in between and tie them clockwise. Now, Bind-turn the three Kush with the right hand and pull the three Kush cutting the two leaved Kush, tie it so that the two leaved Kush are not separated. This will form the Pavitrak. Through the remaining part as useless northward.
पवित्रक कार्य एवं प्रोक्षणी पात्र का संस्कार :: पूर्वस्थापित प्रोक्षणी को अपने सामने पूर्वाग्र रखें। प्रणीता में रखे जल का आधा भाग आचमनी आदि किसी पात्र द्वारा प्रोक्षणी पात्र में तीन बार डालें। अब पवित्री के अग्र भाग को बायें हाथ की अनामिका तथा अँगुष्ठ से और मूल भाग को दाहिने हाथ की अनामिका तथा अँगुष्ठ से पकड़कर, इसके मध्य भाग के द्वारा प्रोक्षिणी के जल को तीन बार उछालें (उत्प्लवन)। पवित्रक को प्रोक्षणी पात्र में पूर्वाग्र रख दें। प्रोक्षणी पात्र को बायें हाथ में रख लें। पुनः पवित्रक के द्वारा प्रणीता के जल से प्रोक्षणी को प्रोक्षित करें। तदनन्तर इसी प्रोक्षणी के जल से आज्य स्थाली, स्त्रुवा आदि सभी सामग्रियों तथा पदार्थों का प्रोक्षण करें अर्थात उन पर जल के छींटे डालें (अर्थवत्प्रेाक्ष्य)। इसके बाद उस प्रोक्षणी पात्र को प्रणीता पात्र तथा अग्नि के मध्य स्थान (असंचर देश) में पूर्वाग्र रख दें।
RITES PERTAINING TO PAVITRAK & PROKSHNI :: The Prokshani which was installed earlier should be kept in front. Half of the water kept in Pranita should be transferred to Prokshani vessel with the help of Achmani thrice. Now, hold the front of Pavitri with the third-Sun finger and the thumb of the left hand & root-base of of Pavitri with the third-Sun finger and the thumb of right hand and spill the water thrice kept in the Prokshani, with its middle segment. Pavitrak should be kept in the Prokshani with its front in forward direction. Again spill the water from the Pranita with Pavitrak over the Prokshani. Thereafter, spill the water from the Prokshani over Ajy Sthali, Struva and all other goods kept there for the purpose of Hawan. Thereafter, keep the Prokshani between Pranita and the fire place keeping it forward.
घी को आज्य स्थाली में निकालना :: आज्य पात्र से घी कटोरे में निकालकर उस पात्र को वेदी के दक्षिण भाग में अग्नि-आग पर रख दें।
WITHDRAWING GHEE FROM THE AJY STHALI :: Keep the Ghee in a bowl and place it over the fire in the South of the fire place-Vedi.
चरूपाक विधि :: फिर आज्य स्थाली में घी डालें और चरु बनाने के लिये तिल, चावल तथा मूँग मिलायें और उनको प्रणीता पात्र के जल से तीन बार धोयें। इसके बाद किसी बर्तन में पानी भरकर उसमें तिल, चावल और मूँग डाल दें। तत्पश्चात यजमान उस चरुपात्र को हाथ में लेकर ब्राह्मण-पुरोहित से घी को ग्रहण कराकर वेदी स्थित अग्नि के उत्तर की ओर चरु को रखें और पुरोहित के हस्त स्थित घी को दक्षिण की ओर स्थापित करा दें। (ब्राह्मण-पुरोहित इन सब कार्यों को स्वतः विधि पूर्वक सम्पन्न करने में प्रशिक्षित होने चाहियें)। जिस समय चरु सिद्ध हो जाये अर्थात पक जाये, तब एक जलती हुई लकड़ी को लेकर चरुपात्र के ईशान भाग से प्रारम्भ कर ईशान भाग तक दाहिनी ओर घुमाकर अग्नि में डाल दें। फिर खाली बायें हाथ को बायीं ओर घुमाकर ईशान भाग तक ले आयें। यह क्रिया पर्यग्नि करण कहलाती है।
MAKING-COOKING OF CHARU :: Pour Ghee in its pot and mix Til-sesame, rice and Mung pulse with it and wash them thrice with the water in water pot. Now, take some water in a cooking pot and put the Til, rice along with Mung pulse in it. Thereafter, the host performing Yagy-Hawan should place the pot containing Charu in the North direction of fire place, after handing over Ghee to the Brahman-Purohit who would place the Ghee in South direction. The Priest should be well versed-trained and skilled in these routine jobs. As soon as the Charu is cooked a piece of burning wood should be moved in North-East direction reaching the same spot-point and put the wood over the Vedi-fire place. Then the left hand should be moved from from left to the North-East direction of the fire place. This process is termed as Pary Agni Karan.
स्त्रुवा का सम्मार्जन (झाड़ना–बुहारना, साफ़ करना) :: जब घी कुछ पिघल जाये तब दायें हाथ में स्त्रुवा को पूर्वाग्र तथा अधोमुख होकर आग पर गर्म करें। पुनः स्त्रुवा को बायें हाथ में पूर्वाग्र ऊर्ध्वमुख रखकर दायें हाथ से सम्मार्जित कुश के अग्र भाग से स्त्रुवा के अग्रभाग का, कुश के मध्य भाग से स्त्रुवा के मध्य भाग का कुश के मूलभाग से स्त्रुवा के मूलभाग का स्पर्श करें अर्थात स्त्रुवा का सम्मार्जन करें। उसके बाद सम्मार्जित कुशों को अग्नि में डाल दें।
स्त्रुवा का सम्मार्जन (झाड़ना–बुहारना, साफ़ करना) :: जब घी कुछ पिघल जाये तब दायें हाथ में स्त्रुवा को पूर्वाग्र तथा अधोमुख होकर आग पर गर्म करें। पुनः स्त्रुवा को बायें हाथ में पूर्वाग्र ऊर्ध्वमुख रखकर दायें हाथ से सम्मार्जित कुश के अग्र भाग से स्त्रुवा के अग्रभाग का, कुश के मध्य भाग से स्त्रुवा के मध्य भाग का कुश के मूलभाग से स्त्रुवा के मूलभाग का स्पर्श करें अर्थात स्त्रुवा का सम्मार्जन करें। उसके बाद सम्मार्जित कुशों को अग्नि में डाल दें।
CLEANING OF STRUVA :: After melting of Ghee, warm the Struva over the fire by keeping it in right hand. Now, keep the Struva in the left hand, lean forward and touch the middle & terminal segment of Struva with the Kush grass's middle segment with the middle and the last segment with the last-terminal segment. After that put the Kush used in the process, in fire.
स्त्रुवा का पुनः प्रतपन (गरम करना, गरमाहट पहुँचाना, तप्त करना, तपाना) :: अधोमुख स्त्रुवा को पुनः अग्नि में तपाकर अपने दाहिने ओर किसी पात्र, पत्ते या कुशों पर पूर्वाग्र रख दें।
स्त्रुवा का पुनः प्रतपन (गरम करना, गरमाहट पहुँचाना, तप्त करना, तपाना) :: अधोमुख स्त्रुवा को पुनः अग्नि में तपाकर अपने दाहिने ओर किसी पात्र, पत्ते या कुशों पर पूर्वाग्र रख दें।
HEATING OF STRUVA :: Now, leaning forward the Struva should be warmed and kept to the right over some pot, leaves or the Kush grass.
घृत पात्र तथा चरुपात्र की स्थापना :: घी के पात्र को अग्नि से उतारकर चरु के पश्चिम भाग से होते हुए पूर्व की ओर से परिक्रमा करके अग्नि (वेदी) के पश्चिम भाग में उत्तर की ओर रख दें। तदनन्तर चरुपात्र को भी अग्नि से उतार कर वेदी के उत्तर में रखी हुई आज्य स्थाली के पश्चिम से ल जाकर उत्तर भाग में रख दें।
PLACEMENT OF GHEE POT & STRUVA :: Now, remove the Ghee pot from the fire place-Vedi, move it from West to East around the fire place and place it over the ground. Thereafter, the Charu pot should also be removed from the Vedi moving round from West direction & keep it to the North of the Ajy Sthali.
घृत का उत्प्लवन :: घृतपात्र को सामने रख लें। प्रोक्षणी में रखी हुई पवित्री को लेकर उसके मूलभाग को दाहिने हाथ के अँगूठे तथा अनामिका से बायें हाथ के अँगुष्ठ तथा अनामिका से पवित्री के अग्र भाग को पकड़कर कटोरे के घी को तीन बार ऊपर उछालें। घी का अवलोकन करें और यदि घी में कोई विजातीय वस्तु हो तो उसे निकालकर फेंक दें। तदनन्तर प्रोक्षणी के जल को तीन बार उछालें और पवित्री को पुनः प्रोक्षणी पात्र में रख दें। स्त्रुवा से थोड़ा घी चरु में डाल दें।
EXUDATION OF GHEE :: The Ghee is thrown in an upward direction. The pot containing Ghee is kept in front. The Pavitri kept in the Prokshani should be held in the hand, at its base-handle, with the right hand thumb and the Sun-third finger & holding the front portion of the Pavitri with the third finger jump the Ghee upwards into the fire, thrice. Check the Ghee carefully & if anything unwanted-undesirable is present in it remove it. Keep the Pavitri again in the Prokshani. Transfer a bit of Ghee with Struva in the Charu.
तीन समिधाओं की आहुति :: ब्राह्मण-पुरोहित को स्पर्श करते हुए बायें हाथ में उपनयन (सात) कुशों को लेकर हृदय-छाती से बायाँ हाथ सटाकर, तीन समिधाओं को घी में डुबोकर मन से प्रजापति देवता का ध्यान करते हुए खड़े होकर, मौन हो, अग्नि में डाल दें और बैठ जायें।
PUTTING THREE PIECES OF WOOD IN FIRE :: Touch the priest, hold 7 Kush straw near the chest-heart with left hand, put the three pieces of wood in the Vedi-fire pot, remember the Prajapati demigod-Devta, silently and sit down.
पर्युक्षण (जलधारा को प्रवाहित करना) :: पवित्रक सहित प्रोक्षणी पात्र के जल को दक्षिण-उलटे हाथ की अंजलि में लेकर अग्नि के ईशान कोण से ईशान कोण तक प्रदक्षिणा क्रम से जल धारा का प्रवाह करें। पवित्रक को बायें-उलटे हाथ में लेकर फिर दाहिने खाली हाथ को उलटे-विपरीत अर्थात ईशान कोण से उत्तर होते हुए ईशान कोण तक ले आयें (इतरथावृत्ति:) और पवित्रक को दायें हाथ में लेकर प्रणीता में पूर्वाग्र रख दें। तदनन्तर हवन करें।
घृत पात्र तथा चरुपात्र की स्थापना :: घी के पात्र को अग्नि से उतारकर चरु के पश्चिम भाग से होते हुए पूर्व की ओर से परिक्रमा करके अग्नि (वेदी) के पश्चिम भाग में उत्तर की ओर रख दें। तदनन्तर चरुपात्र को भी अग्नि से उतार कर वेदी के उत्तर में रखी हुई आज्य स्थाली के पश्चिम से ल जाकर उत्तर भाग में रख दें।
PLACEMENT OF GHEE POT & STRUVA :: Now, remove the Ghee pot from the fire place-Vedi, move it from West to East around the fire place and place it over the ground. Thereafter, the Charu pot should also be removed from the Vedi moving round from West direction & keep it to the North of the Ajy Sthali.
घृत का उत्प्लवन :: घृतपात्र को सामने रख लें। प्रोक्षणी में रखी हुई पवित्री को लेकर उसके मूलभाग को दाहिने हाथ के अँगूठे तथा अनामिका से बायें हाथ के अँगुष्ठ तथा अनामिका से पवित्री के अग्र भाग को पकड़कर कटोरे के घी को तीन बार ऊपर उछालें। घी का अवलोकन करें और यदि घी में कोई विजातीय वस्तु हो तो उसे निकालकर फेंक दें। तदनन्तर प्रोक्षणी के जल को तीन बार उछालें और पवित्री को पुनः प्रोक्षणी पात्र में रख दें। स्त्रुवा से थोड़ा घी चरु में डाल दें।
EXUDATION OF GHEE :: The Ghee is thrown in an upward direction. The pot containing Ghee is kept in front. The Pavitri kept in the Prokshani should be held in the hand, at its base-handle, with the right hand thumb and the Sun-third finger & holding the front portion of the Pavitri with the third finger jump the Ghee upwards into the fire, thrice. Check the Ghee carefully & if anything unwanted-undesirable is present in it remove it. Keep the Pavitri again in the Prokshani. Transfer a bit of Ghee with Struva in the Charu.
तीन समिधाओं की आहुति :: ब्राह्मण-पुरोहित को स्पर्श करते हुए बायें हाथ में उपनयन (सात) कुशों को लेकर हृदय-छाती से बायाँ हाथ सटाकर, तीन समिधाओं को घी में डुबोकर मन से प्रजापति देवता का ध्यान करते हुए खड़े होकर, मौन हो, अग्नि में डाल दें और बैठ जायें।
PUTTING THREE PIECES OF WOOD IN FIRE :: Touch the priest, hold 7 Kush straw near the chest-heart with left hand, put the three pieces of wood in the Vedi-fire pot, remember the Prajapati demigod-Devta, silently and sit down.
पर्युक्षण (जलधारा को प्रवाहित करना) :: पवित्रक सहित प्रोक्षणी पात्र के जल को दक्षिण-उलटे हाथ की अंजलि में लेकर अग्नि के ईशान कोण से ईशान कोण तक प्रदक्षिणा क्रम से जल धारा का प्रवाह करें। पवित्रक को बायें-उलटे हाथ में लेकर फिर दाहिने खाली हाथ को उलटे-विपरीत अर्थात ईशान कोण से उत्तर होते हुए ईशान कोण तक ले आयें (इतरथावृत्ति:) और पवित्रक को दायें हाथ में लेकर प्रणीता में पूर्वाग्र रख दें। तदनन्तर हवन करें।
POURING WATER :: Hold the Prokshani with the Pavitrak and pour-immerse water by holding it in the left palm, from North-East direction of the Vedi-fire pot bringing it back, leading to immersion. Hold the Pavitrak in the left hand move the empty right hand in opposite direction i.e., North of North-East. Hold the Pavitrak in right hand and put the Pranita in the East. Now, get ready for the holy sacrifices in fire i.e., Hawan.
Please refer to :: santoshsuvichar.blogspot.com
हवन विधि :: पहली आहुति प्रजापति देवता के निमित्त होती है। उसके बाद इंद्र, अग्नि, तथा सोम देवता को आहुति देने का विधान है। इन चार आहुतियों में प्रथम दो आहुतियाँ आधार नाम वाली हैं और तीसरी-चौथी आहुति आज्य भाग नाम वाली होती है। ये चारों आहुतियाँ घी से दी जाती हैं। इन आहुतियों को देते वक्त ब्राह्मण-पुरोहित कुश के द्वारा हवन कर्ता के दाहिने हाथ का स्पर्श किये रहे। यह क्रिया ब्रह्मणान्वारब्ध कहलाती है।
First offering is made to the Prajapati, followed by offerings to Indr, Agni and Moon. These offerings are made with Ghee. The Brahman should hold the Kush continuously his right hand.
दाहिना घुटना धरती पर लगाकर स्त्रुवा में घी लेकर, प्रजापति देवता का ध्यान लगाकर निम्न मन्त्र का मन से उच्चारण कर प्रज्वलित अग्नि में आहुति दें :-
Hold the right knee over the ground hold ghee in Struva, remember Prajapati and recite the following Mantr prior to making offering in the fire.
(1). "ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम" कहकर वेदी या कुण्ड के मध्य भाग में आहुति दें। स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी में छोड़ें।
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हवन विधि :: पहली आहुति प्रजापति देवता के निमित्त होती है। उसके बाद इंद्र, अग्नि, तथा सोम देवता को आहुति देने का विधान है। इन चार आहुतियों में प्रथम दो आहुतियाँ आधार नाम वाली हैं और तीसरी-चौथी आहुति आज्य भाग नाम वाली होती है। ये चारों आहुतियाँ घी से दी जाती हैं। इन आहुतियों को देते वक्त ब्राह्मण-पुरोहित कुश के द्वारा हवन कर्ता के दाहिने हाथ का स्पर्श किये रहे। यह क्रिया ब्रह्मणान्वारब्ध कहलाती है।
First offering is made to the Prajapati, followed by offerings to Indr, Agni and Moon. These offerings are made with Ghee. The Brahman should hold the Kush continuously his right hand.
दाहिना घुटना धरती पर लगाकर स्त्रुवा में घी लेकर, प्रजापति देवता का ध्यान लगाकर निम्न मन्त्र का मन से उच्चारण कर प्रज्वलित अग्नि में आहुति दें :-
Hold the right knee over the ground hold ghee in Struva, remember Prajapati and recite the following Mantr prior to making offering in the fire.
(1). "ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम" कहकर वेदी या कुण्ड के मध्य भाग में आहुति दें। स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी में छोड़ें।
Recite the Mantr and release offering in the middle of the Vedi-Hawan Kund. Release the remaining Ghee in the Struve in the Prokshani.
(2). "ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम" कहकर वेदी या कुण्ड के मध्य भाग में आहुति दें। स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी में छोड़ें।
(2). "ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम" कहकर वेदी या कुण्ड के मध्य भाग में आहुति दें। स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी में छोड़ें।
Recite the Mantr and release offering in the middle of the Vedi-Hawan Kund. Release the remaining Ghee in the Struve in the Prokshani.
(3). "ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम" कहकर वेदी या कुण्ड के उत्तर पूर्वार्ध भाग में आहुति दें। स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी में छोड़ें।
(3). "ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम" कहकर वेदी या कुण्ड के उत्तर पूर्वार्ध भाग में आहुति दें। स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी में छोड़ें।
Recite the Mantr and release the offering in the Upper half of the Vedi-Hawan Kund. Release the remaining Ghee in the Struve in the Prokshani.
(4). "ॐ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम" कहकर वेदी या कुण्ड के दक्षिण पूर्वार्ध भाग में आहुति दें। स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी में छोड़ें।
(4). "ॐ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम" कहकर वेदी या कुण्ड के दक्षिण पूर्वार्ध भाग में आहुति दें। स्त्रुवा में बचे हुए घी को प्रोक्षणी में छोड़ें।
Recite the Mantr and release offering in the forward part of Southward of the Vedi-Hawan Kund. Release the remaining Ghee in the Struve in the Prokshani.
इसके बाद घी मिलाकर स्थाली पाक का अर्थात पहले जो तिल, मुद्गमिश्रित चरु बनाया गया है, उससे स्त्रुवा द्वारा हवन करें। इन आहुतियों में भी शेष बचा हुआ घी आदि पूर्वत् प्रोक्षणी पात्र में डालते रहना चाहिए।
इसके बाद घी मिलाकर स्थाली पाक का अर्थात पहले जो तिल, मुद्गमिश्रित चरु बनाया गया है, उससे स्त्रुवा द्वारा हवन करें। इन आहुतियों में भी शेष बचा हुआ घी आदि पूर्वत् प्रोक्षणी पात्र में डालते रहना चाहिए।
Now, make the offerings with the Til-Sesame, Charu by addition remaining Ghee to it.
नवाहुति :-
नवाहुति :-
ॐ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम। ॐ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम। ॐ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम। ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठा:। यजिष्ठो वहिनतमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाँसि प्र मुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
(5). ॐ स त्वं नो अग्नेSवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। अव इक्ष्व नो वरुणँ रराणो वीहि मृडीकँ सुहवो न एधि स्वाहा। इदमग्नी वरुणाभ्यां न मम।
(6). ॐ अयाश्चाग्नेSस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमया असि।
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषजँ स्वाहा॥ इदमग्नये अयसे न मम।
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषजँ स्वाहा॥ इदमग्नये अयसे न मम।
(7). ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्त्रं याज्ञियाः पाशा वितता महान्त:।
तेभिर्नो Sअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्का: स्वाहा॥
इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्य: स्वर्केभ्यश्च न मम।
(8). ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्यदवाधमं वि मध्यमँ श्रथाय। अतः वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा॥ इदं वरुणायादित्यायादितये न मम।
तदनन्तर प्रजापति देवता का ध्यानकर मन में निम्न मन्त्र का उच्चारण करके आहुति दें।Thereafter, concentrate the mind in Praja Pati and recite the following Mantr :-
(9). ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।
स्विष्टकृत् आहुति :- इसके बाद घी और चरु, इन दोनों से ब्राह्मण द्वारा कुश से स्पर्श किये जाने की स्थिति में निम्न मन्त्र से स्विष्टकृत् आहुति दें। Have touch with the Priest and make offerings while reciting the following Mantr :-
ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।
हवन पूर्ण होने पर प्रोक्षणी पात्र से घी दाहिने हाथ में लेकर यत्किंचित् पान करें। हाथ धो लें।फिर आचमन करें। Having completed the offerings, take a bit of Ghee from the Prokshani & lick it and wash the hands.
मार्जन विधि :- इसके बाद निम्नलिखित मन्त्र द्वारा प्रणीता पात्र के जल से कुशों के द्वारा अपने सर पर मार्जन करें। Recite the following Mantr, take water drops from the Pranita with Kush and sprinkle-spray over the head :-
ॐ सुमित्रिया न आप ओषधय: सन्तु।
पवित्र प्रतिपत्ति :- पवित्रक को अग्नि में छोड़ दें। Drop the Pavitrak in fire.
पूर्ण पात्र दान :- पूर्व में स्थापित पूर्ण पात्र में द्रव्य-दक्षिणा रखकर निम्न संकल्प करके, दक्षिणा सहित पूर्ण पात्र ब्राह्मण को प्रदान करें। Now, keep the offerings, cash, gifts in a pot-vessel meant for the offerings and give it to the Priest with due respect, after touching his feet.
ॐ अद्य सीमन्तोन्नयनहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदं वृषनिष्क्रयद्रव्यसहितं पूर्णपात्रं प्रजापति दैवतं ... गोत्राय ... शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे।
ब्राह्मण स्वस्ति कहकर उस पूर्णपात्र को ग्रहण कर ले। The Priest will recite the above Mantr and accept the gifts, showing gratitude to the host.
प्रणीता विमोक :- प्रणीता पात्र को ईशान कोण में उलटकर रख गये प्रणीता के जल से निम्न मन्त्रोपचारण के साथ मार्जन करें। Spray the water all around, by pouring it in the Pranita first which had been kept in the North-East Pranita by erecting it, reciting the following Mantr side by side :-
ॐ आप: शिवा: शिवतमा: शान्ता: शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।
इसके बाद उपनयन कुशों को अग्नि में छोड़ दें। Now drop the Kush in fire.
बर्हिहोम :: तदनन्तर पहले बिछाये हुए कुशों को जिस क्रम से बिछाया गया था, उसी क्रम से उठाकर घी में भिगोयें और निम्न मन्त्र से स्वाहा उच्चारण करते हुए अग्नि में डाल दें। Now pick up the Kush in the same order in which they were placed, drop them in Ghee and insert them in the fire along with reciting the following Mantr :-
सीमन्त के उपनयन की प्रक्रिया :: इसके बाद नये कपड़े पहने हुए गर्भवती महिला को हवन वेदी के पश्चिम की ओर कोमल आसन पर बैठायें। फिर शल्लकी (सेही या वनसूकर) का काँटा, पीपल की कील (पतली डाली), पीले डोरे-धागे से लिपटा हुआ तकुआ तथा तीन कुशा की पिंजूलिका और गूलर की दो फलयुक्त डालियाँ; इन पाँचों पदार्थों से पति अपनी पत्नी के बालों को ललाट से ऊपर सिर के पिछले भाग तक अलग करे अर्थात सीमन्त-मॉंग में रेखा बनाये, बालों को दो भागों में बाँटे। उस समय निम्न मन्त्र पढ़े।
बर्हिहोम :: तदनन्तर पहले बिछाये हुए कुशों को जिस क्रम से बिछाया गया था, उसी क्रम से उठाकर घी में भिगोयें और निम्न मन्त्र से स्वाहा उच्चारण करते हुए अग्नि में डाल दें। Now pick up the Kush in the same order in which they were placed, drop them in Ghee and insert them in the fire along with reciting the following Mantr :-
ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्वा गातुमित मनसस्पत इमं देव यज्ञँ स्वाहा वाते धाः स्वाहा।
इसके पश्चात कुश में लगी ब्रह्म ग्रन्थि को खोल दें। Now, untie the Brahm Granthi-knot from the Kush.सीमन्त के उपनयन की प्रक्रिया :: इसके बाद नये कपड़े पहने हुए गर्भवती महिला को हवन वेदी के पश्चिम की ओर कोमल आसन पर बैठायें। फिर शल्लकी (सेही या वनसूकर) का काँटा, पीपल की कील (पतली डाली), पीले डोरे-धागे से लिपटा हुआ तकुआ तथा तीन कुशा की पिंजूलिका और गूलर की दो फलयुक्त डालियाँ; इन पाँचों पदार्थों से पति अपनी पत्नी के बालों को ललाट से ऊपर सिर के पिछले भाग तक अलग करे अर्थात सीमन्त-मॉंग में रेखा बनाये, बालों को दो भागों में बाँटे। उस समय निम्न मन्त्र पढ़े।
Now, the pregnant woman, dressed in new cloths should be seated to the West of the Hawan Vedi over a soft cushion. Thereafter, the husband will put Sindur-vermilion in the middle line of the head dividing the hair into two segments one after another in the sequence given next. Shallki, Peepal, Takua (6-8 inches long about 3-5 mm thick iron nail, sharpened at the two ends covered with yellow thread), three roles of Kush grass and the branches of Gular tree bearing fruits. Recite the following Mantr while performing the pious job :-
तदनन्तर सुवासिनी वृद्धा ब्राह्मणियों सेआशीर्वाद दिलाना चाहिये। This should be followed by blessing seeking from the old-aged Brahmn women who have their surviving husbands.
वीणागायकों द्वारा गाया जाने वाला मन्त्र :- उस समय वीणा वादक-गायक किसी सात्विक-धर्म मार्ग पर चलने वाले राजा अथवा वीर पुरुष का यश गायन करें। यथा Let the musicians playing Veena, be asked to recite verses pertaining to some virtuous king, righteous, honest person or the religious entities like the following Shlok-verse :-
ॐ भुर्विनयामि। ॐ भुवर्विनयामि। ॐ स्वर्विनयामि।
तदनन्तर आगे दिये मन्त्र से गूलर के फलादि सहित धागे-डोरे को वधू-पत्नी की चोटी में बाँध दे। Thereafter, the husband should tie the Gular fruits with the hair lock of the wife, along with the fruits, reciting this Mantr :-
ॐ अयमुर्जावतो वृक्ष उर्जीव फलिनी भव।
अर्थात तुम इस ऊर्ज स्वल उदुम्बर-गूलर के वृक्ष के समान ऊर्जस्वला बनो। You should become strong-powerful like this Gular tree.तदनन्तर सुवासिनी वृद्धा ब्राह्मणियों सेआशीर्वाद दिलाना चाहिये। This should be followed by blessing seeking from the old-aged Brahmn women who have their surviving husbands.
वीणागायकों द्वारा गाया जाने वाला मन्त्र :- उस समय वीणा वादक-गायक किसी सात्विक-धर्म मार्ग पर चलने वाले राजा अथवा वीर पुरुष का यश गायन करें। यथा Let the musicians playing Veena, be asked to recite verses pertaining to some virtuous king, righteous, honest person or the religious entities like the following Shlok-verse :-
सोम एव नो राजेमा मानुषी: प्रजा: अविमुक्तचक्रे आसीरंस्तीरे तुभ्यमसौ।
नदियों के नाम का उच्चारण :: इसके बाद जिस नगर या ग्राम में यजमान का घर हो, उसके समीप बहने वाली नदी का नाम पत्नी से कहलवायें। यथा Thereafter, the name of the nearest holy river be pronounced by the wife of the host. Like :-
गँगायै नमः, यमुनायै नमः, सरस्वत्यै नमः,
नर्मदायै नमः, गोदावर्य्यै नमः, कावेर्य्यै नमः।
भस्म धारण विधि :: इसके बाद बैठकर स्त्रुवा से कुण्ड-वेदी के ईशान कोण से भस्म निकालकर दाहिने हाथ की अनामिका अँगुली से स्त्रुवा में लगी हुई भस्म लेकर निम्न मन्त्रों के उच्चारण के साथ अपने शरीर पर लगायें। Now, the cooled ashes from the Vedi be smeared over the body with the help of the Sun-third finger of the right hand with the help of Struva.
माथे पर :- ॐ त्रयायूषं जमदग्ने:। Recite this Mantr while pasting ashes over the head.
गले पर :- ॐ कश्यपस्य त्रयायूषम्।Recite this Mantr while pasting ashes over the neck.
दक्षिण बाहुमूल :- ॐ यद्देवेषु त्रयायूषम्। Recite this Mantr while pasting ashes over the left arm pit.
हृदय पर :- ॐ तन्नो अस्तु त्रयायूषम्। Recite this Mantr while pasting ashes over the chest-heart.
दक्षिणा-दान संकल्प :: इसके पश्चात आचार्य और पुरोहित-ब्राह्मण को दक्षिणा प्रदान करें, भोजन करायें और निम्न संकल्प करें Now, the host should provide for the alms and food to the Priest & other invited Brahmns, along with the invitees.:-
विसर्जन :: इसके बाद स्थापित अग्नि, देवताओं तथा मात्रगणों का निम्नलिखित मन्त्र बोलते हुए पुष्प-अक्षत छोड़कर विसर्जन Here comes the opportunity to give thanks to the demigods, goddess, deities by offering flowers & rice by reciting the following Mantr.:-
ॐ अद्य ... गोत्र: ... शर्मा/वर्मा/गुप्त सीमन्तोन्नयनकर्मनिमित्तकहोमकर्मण: साङ्गफलप्राप्तये साद्गुण्याय च अग्निदैवत्यं सुर्वण सुवर्णनिष्क्रयभूतद्रव्यं वा आचार्याय ब्रह्मणे अन्येभ्य: भूयसीं दक्षिणां च सम्प्रददे। यथासंख्याकान् ब्राह्मणांश्च भोजयिष्ये।
यदि दक्षिणा में सुवर्ण देना हो तो "सुवर्णनिष्क्रयभूतद्रव्यम्" नहीं बोलना चाहिये। यदि सुवर्ण के स्थान पर उसका निष्क्रिय देना हो तो सुवर्णम् न बोलकर "सुवर्णनिष्क्रयभूतद्रव्यम्" बोलना चाहिये। If the alms are in the forms of Gold one should not take oath for giving away Gold. Instead if he has to give money he may substitute the stanza "सुवर्णनिष्क्रयभूतद्रव्यम्" with "सुवर्णनिष्क्रयभूतद्रव्यम्" .विसर्जन :: इसके बाद स्थापित अग्नि, देवताओं तथा मात्रगणों का निम्नलिखित मन्त्र बोलते हुए पुष्प-अक्षत छोड़कर विसर्जन Here comes the opportunity to give thanks to the demigods, goddess, deities by offering flowers & rice by reciting the following Mantr.:-
गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थाने परमेश्वर। यत्र ब्रह्मादयो देवास्तत्र गच्छ हुताशन॥
यान्तु देवगणा: सर्वे पूजामादाय मामकीम्।
इष्टकामसमृद्ध्यर्थ पुनरागमननाय च॥
भगवत्स्मरण :: इसके बाद पुष्प लेकर हाथ जोड़कर भगवान् का स्मरण करते हुए निम्न मन्त्रों का पाठ करें। Now hold flowers in both palms, pray to the God-Almighty and recite the following Mantrs. :-
प्रसादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्।
स्मरणादेव तद् विष्णो: सम्पूर्ण स्यादिति श्रुति:॥
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्॥
यत्पाद पङ्कज स्मरणाद् यस्य नामजपादपि।
न्यूनं कर्म भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्॥
ॐ विष्णवे नमः। ॐ विष्णवे नमः। ॐ विष्णवे नमः।
ॐ साम्बसदाशिवाय नमः। ॐ साम्बसदाशिवाय नमः। ॐ साम्बसदाशिवाय नमः।
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा
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