Tuesday, October 28, 2025

#सामवेद (1-2) #Sam Ved

सामवेद  (1.11)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
PtSantoshBhardwaj

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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
सामवेद सूक्त (1) :: ऋषि :- भारद्वाज, मेधातिथि, उशना, सुदीति पुरुमीढ़ा-वाङ्गिरसौः, वामदेव; देवता :- अग्नि; छन्द :- गायत्री।
हे अग्नि देक्ता हमारी वंदना से हवि प्राप्त करने हेतु आकर देवताओं को हवि पहुँचाने हेतु, उनके आह्वान हेतु विराजमान हों। हे अग्ने ! आप सभी यज्ञों को पूर्ण करने वाले हो। आप देवताओं का आह्वान करने वाले ऋषियों द्वारा वंदना सहित प्रतिष्ठित किए जाते हो। हम देवताओं के आह्वानकर्त्ता, सर्वज्ञाता, धनपति, वर्तमान यज्ञ को सम्पन्न करने वाले अग्नि देव की प्रार्थना करते हैं। धन एवं दान के इच्छुक उपासकों को उनके द्वारा प्रकाशित अग्नि प्रार्थना से प्रसन्न हों और दुष्टों व अंधकार रूपी अज्ञान का नाश करें। हे अग्ने ! साधकों को धनदाता होने के कारण मित्र समान हर्षिता को प्रदान करने वाले पूजनीय मेरी प्रार्थना से प्रसन्न होइए। हे अग्ने ! आप हमें धन सम्पत्ति और ऐश्वर्य देते हुए हमारे शत्रुओं से हमारी रक्षा करो। हे अग्ने ! मेरे द्वारा भली प्रकार से उच्चारित प्रार्थनाओं को आकर सुनो और सोम रस से वृद्धि करो। हे अग्ने! मैं तुम्हें अपने कल्याण हेतु पृथ्वी पर आकर्षित करता हूँ। हे अग्ने! अथर्वा ने मूर्धा के समान सम्पूर्ण संसार के धारणकर्त्ता, आपको अंणियों से मथकर प्रकट किया है। हे अग्ने ! आप हमारी रक्षा के हेतु सूर्य आदि लोकों को सम्पन्न करो क्योंकि आप अत्यन्त प्रकाशमान दिखाई देते हो।[सामवेद 1.1-1] 
सामवेद सूक्त (2) :: ऋषिः :- आयुङ्ख्वाहिः, वादेमर्वोगौतमः प्रयोगो भार्गवः, मधुच्छन्दाः शनुःशेषः, मेधातिथि, वत्स; देवता :- अग्नि; छन्द :- गायत्री।
हे अग्नि देव ! शक्ति की इच्छा करने वाले मनुष्य आपको प्रणाम करते हैं। इसलिए मैं भी आपको प्रणाम करता हूँ। आप अपनी शक्ति द्वारा हमारे शत्रुओं का विनाश करो। हे अग्नि देव ! आप यज्ञ के साधन रूप हवियों को ले जाने वाले और देवताओं के दूत रूप समान हो। मैं आपको वाणी रूप वंदना के द्वारा प्रसन्न और प्रवृद्ध करता हूँ। हे अग्नि देव ! भगनियों के समान साधक की प्रार्थनाएँ तुम्हारी सेवा में जाती हैं और आपको वायु के सहयोग से और अधिक प्रज्जवलित करती हैं। हे अग्नि देव ! हम आपके आराधक दिन रात नित्य ही अपनी महान बुद्धि के साथ आपकी सेवा में उपस्थित होते हैं। हे अग्नि देवता! आप प्रार्थना द्वारा प्रचण्ड होते हो। अत- सभी साधकों पर उपकार व यज्ञ को पूर्ण करने के लिए इस हमारे यज्ञ मंडप में प्रवेश करो। यह साधक आपके रुद्र के दर्शन करने के लिए आपकी वंदना कर रहा है। हे अग्नि देवता ! इस महान यज्ञ की ओर दृष्टि डालकर सोम को पीने के लिए आप बार-बार पुकारे जाते हो। अतः देवों के इस यज्ञ में प्रस्थान करो। हे अग्नि देवता! आप यज्ञों के अधिपति के रूप में प्रसिद्ध एवं पूँछ वाले अश्व के समान हो। हम वंदनाओं द्वारा आपको नमस्कार करने हेतु आतुर हैं। भृगु के समान ज्ञानी, कर्म करने वाले तथा बड़वानल रूप से समुद्र में वर्तमान महान अग्नि देवता को मैं नमन करता हूँ। अग्नि को प्रज्जवलित करने वाले मनुष्य अपनी हार्दिक भावनाओं सहित ऋषियों के सहयोग से अग्नि देवता को उत्पन्न करें। यह अग्नि जब स्वर्ग के ऊपर सूर्य रूप से प्रकाशित होती है, तब सब प्राणधारी उन लगातार घूमने वाले और शरणरूपी सूर्य के तेज का दर्शन करते हैं।[सामवेद 1.1-2]
सामवेद सूक्त (3) :: ऋषि :- प्रयोगो, भारद्वाज, वामदेव, वशिष्ठ, विरूप, शनुशेष, गोपवन, प्रस्कण्व, मेधातिथि, सिन्धुद्वीप आम्बरीष, त्रितआत्योवा, उशना; देवता :- अग्नि; छन्द :- गायत्री।
हे ऋत्विजो! तुम हिंसा न करने वाले और यज्ञ करने वालों के भाई बलशाली तथा ज्वालाओं से युक्त अग्नि देवता की सेवा में जाओ। हे अग्ने! अपनी तीक्ष्ण लपटों से सब असुरों और बाधाओं को दूर करो। यह अग्नि हम अर्चना करने वालों को सब तरह का ऐश्वर्य प्रदान करे। हे अग्नि देव ! तुम बहुत अधिक गतिमान और महान हो। हमें सुख प्रदान करो। आप देवताओं के दर्शनार्थ पूजकों के पास घास रूपी आसन पर विराजने के लिए आते हो। हे अग्नि देवता! पाप से हमारी रक्षा करो। हे अद्भुत तेज वाले अग्नि देव! आप अजर अमर हो। हमारी हिंसा करने की अभिलाषा करने वाले शत्रुओं को अपने संतापक तेज से नष्ट कर दो।
हे अग्नि देवता! तुम्हारे अति तीव्र गति वाले अश्व आपके रथ को भली-भाँति ले जाते हैं। उन अश्वों को अपने पूजक के यहाँ आने के लिए रथ में जोड़ो। हे अग्नि देवता ! आप धन के स्वामी, असंख्य यजमानों द्वारा आहूत हुए एवं आराधना के स्वामी हो। आप तेजस्वी की वंदना करने पर समस्त प्रकार के सुख देते हो। हमने आपको यहाँ विद्यमान किया है। स्वर्ग के सभी महान देवताओं में बड़े और पृथ्वी के राजा अग्नि जल के जीवों का जीवन प्रदान करते हैं। हे अग्नि देव ! हमारे इस हवि रत्न और नवीन वंदनाओं को देवताओं के सम्मुख विनतीगत करो। हे अग्नि देव! आपको वंदना रूप से आह्वान करते हैं। आप शोधन और समस्त स्थानों में जाने में समर्थ हो, हमारे इस आह्वान की तरफ ध्यान दो। क्रांतदर्शी, अन्नों के मालिक और हविदाता यजमान को रत्न आदि धन प्रदान करने वाले अग्निदेव हवियों को विद्यमान करते हैं। समस्त प्राणियों के दर्शनों के लिए सूर्य की किरणें प्रसिद्ध तथा तेजस्वी सूर्य की अग्नि को उन्नतशील करते हो। हे वंदनाकारियों! हमारे इस यज्ञ में क्रांतदर्शी, सत्य धर्म वाले, तेजस्वी और शत्रुओं का पतन करने वाले अग्नि देव की सेवा में प्रार्थना करो। हमारा कल्याण हो, देवीय जल हमारे यज्ञ के पूर्ण होने के लिए अंग बने और यह जल हमारे पीने के योग्य बने। जल हमारे सभी तरह के रोगों का नाश करने में समर्थ बने तथा जो रोग अभी तक उत्पन्न नहीं हुए हैं उन्हें भविष्य में भी उत्पन्न न होने दें। यह जल हमारे ऊपर अमृत बनकर बहे। हे सत्यरक्षक अग्नि देव ! आप इस समय किसके कार्य को वहन कर रहे हो? किस कर्म से आपकी वंदनाएँ गौओं को ग्रहण कर रही होंगी?[सामवेद 1.1-3]
सामवेद सूक्त (4) :: ऋषि :- शयुर्वाहस्पत्य, भर्ग, वशिष्ठ, प्रस्कण्व, काण्व; देवता :- अग्नि; छन्द :- बृहती।
हे श्रोतागणों! तुम सब भी अग्नि देव के लिए प्रार्थना करो। उन अविनाशी मित्र, सभी के चिरपरिचित और प्रिय अग्नि देव की हम भली प्रकार प्रार्थाना एवं वंदना स्तुति करते हैं। हे अग्नि देव ! आप अपनी एक वंदना और दूसरी वंदना से हमारी रक्षा करो। हे तरुणतम अग्नि देव ! आप उच्च गुण से सम्पन्न और शुद्ध करने वाले हो। अपने उज्जवल तेज से भारद्वाज के लिए प्रकाशित होने वाले तेजस्वी और ऐश्वर्यवान बनकर हमारे लिए भी प्रकाशित होओ। हे अग्नेि देव! आप यजमानों द्वारा आहुत हुए धन से युक्त और दानशील बनकर हमारे लिए गौएँ प्रदान करते हो। आप वंदना करने वालों से स्नेह करने वाले बनो। हे अग्नेि देव ! आप समस्त प्राणियों के स्वामी, पूजनीय और असुरों का विनाश करने वाले हो। हे गृहस्वामी अग्नि देव! आप पूजनीय यजमान के यहाँ सदैव वास करने वाले और स्वर्ग के रक्षक हो। इस यजमान के यहाँ भी हमेशा स्थिर रहो। हे अग्नेि देव! आप सब जीवों को जानने वाले और अमरणशील (अजर अमर) हो, इस हविदाता यजमान के लिए उषादेव द्वारा प्राचीन शरणयुक्त दित्यघनों को लेकर उपस्थित होओ और उषाकाल में जाने वाले देवताओं को भी यहाँ पर बुलवाओ। हे अग्नि देव ! आप दर्शनीय एवं विशाल हो। हमारे लिए अपने रक्षा के साधनों को धन सहित प्रेरणा दो क्योंकि आप इस लोक को धन की प्रेरणा देते हो। हमारे पुत्र को भी अतिशीघ्र सम्मान दिलाओ।
हे अग्नि देव! आप कष्टों को समाप्त करने वाले, क्रान्तादर्शी, सत्य स्वरूप श्रेष्ठ हो। आप समिधाओं द्वारा प्रज्जवलित होने वाले प्रतापी अग्निदेव की हम प्रार्थनाकारी आराधना करते हैं। हे पवित्र अग्निदेव ! अन्न की वृद्धि करने वाले प्रशंसित धन के साथ हमारे लिए पधारो। हे घृत के निकट उपस्थित रहने वाले अग्नि देव ! अपनी उच्च नीति के द्वारा हमारे लिए भी प्रसिद्धि रूपी धन को प्रदान करो। जो अग्निदेव आनन्दप्रदायक और होता रूप से यजमानों को सभी तरह का धन प्रदान करने वाले हैं उन अग्नि के लिए प्रसन्नतादायक सोम के मुख्य पात्र के समान श्लोक हमें ग्रहण हो।[सामवेद 1.1-4]
सामवेद सूक्त (5) :: ऋषि :- वशिष्ठ, भर्ग, मनु सुदिति पुरुर्मा दौ, प्रस्कण्व मेघातिथि-मेध्यातिथिश्च, विश्वामित्र, कण्व; देवता :- अग्नि, इन्द्र; छन्द :- बृहती।
शक्ति के पुत्र, हमारे प्रिय, उच्च ज्ञान वाले स्वामी समस्त देवों के दूत के रूप में सम्मानित एवं अविनाशी अग्नि देव को मैं प्रणाम करते हुए आहुति प्रदान करता हूँ। हे अग्निदेव ! आप वनों में पृथ्वीभूता अरणियों से युक्त हो। यज्ञ करने वाले आपको समिधाओं से प्रज्ज्वलित करते हैं, तब आप निरालस्य और प्रबुद्ध होकर यजमान की हवि को देवों के नजदीक वहन करते हो। फिर आप देवताओं के मध्य विराजमान होकर सुशोभित होते हो। जिस अग्नि के द्वारा यजमानों ने कर्म किए हैं उन मार्गों को जानने वाले अग्नि देव को देखने योग्य रूप में प्रकट हुए, उन उच्च वर्ण वाले अग्नि के लिए हमारी वंदना रूप वाणियाँ प्रस्तुत हों। उक्थ परिपूर्ण अहिंसित यज्ञ में यह अग्नि ऋत्विजों द्वारा वेदी में विद्यमान हुए जैसे सोभाभिषेक फलक कुशा पर आगे रखे जाते हैं। हे मरुद्गण ! हे ब्रह्मणस्पते ! ऋचा रूप वंदनाओं के द्वारा आपकी सेवा में उपस्थित हुआ मैं आपकी वरणीय सुरक्षा को माँगता हूँ। हे स्तोता! इन विशाल ज्वालाओं वाले अग्नि देव की रक्षा और धन की इच्छा से वंदना के द्वारा खुश करो। इनकी कीर्ति को जानकर अन्य मनुष्य भी इनकी प्रार्थना करते हैं, वे अग्नि मुझ यजमान को घर प्रदान करें। हे समर्थवान कानों वाले अग्निदेव ! हमारी प्रार्थना सुनो। मित्र और अर्चना देवता प्रातःकाल यज्ञ में प्रस्थान करने वाले देवताओं से युक्त तथा अग्नि की तरह रूप गति वाले वहिन देवता से युक्त इस यज्ञ में कुशाओं पर विराजमान हों। देवताओं के उपासकों द्वारा आहुत की गई इन्द्रात्मक अग्नि सब लोकों की आश्रय रूप पृथ्वी को देवताओं के लिए आहुति ले जाने वाले सहायता करते हैं। यजमान इन्हें बलपूर्वक पुकारते हैं। इस कारण यह अपने स्थान नक्षत्रों से जगमगाते हुए यहाँ आकर मेरे शरीर और वाणी में प्रवेश कर प्रचंड हों। उच्च कर्मवाले इन्द्र आप हमारे मनुष्यों को फलों से परिपूर्ण करो। हे अग्नि देव! वनों की जिज्ञासा करके भी उन्हें छोड़कर आप मातृरूप जलों को ग्रहण हुए हों। इसलिए आपका निवर्तन भी असहाय हो जाता है। आप अप्रकट होने पर इन अरणियों के द्वारा सब दिशाओं से प्रकट होते हो। हे अग्नि देव! आप ज्योति का स्वरूप हो। यजमानों के लिए आपको प्रजापति ने योग स्थान में स्थापित किया था। यज्ञ के लिए प्रकट और आहुतियों से तृप्त आप कण्व ऋषि के लिए प्रज्ज्वलित हुए थे। इसी तरह सब प्राणी आपको नमस्कार करते हैं।[सामवेद 1.1-5]
सामवेद सूक्त (6) :: ऋषि :- वशिष्ठ, कण्व, सौभरि, उत्कील, विश्वामित्र; देवता :- अग्नि, ब्रह्मणस्पति यूप;  छन्द :- बृहती।
धन-सम्पत्ति प्रदान करने वाले अन्न देव आहुति से सम्पन्न और सब ओर से पोषित तुम्हारी स्त्रुक की भी इच्छा करें और होता के चमस को सोम से सम्पन्न करें। फिर वे अग्निदेव तुम्हारी आहुतियों का हवन करें। ब्रह्मणस्पति देवता प्राप्त हों। सत्य और प्रिय वाणी ग्रहण हो। समस्त देव हमारे शत्रुओं को समाप्त करें। मनुष्यों की भलाई करने वाले यज्ञ का सामिप्य हमें प्राप्त हो। हे अग्नि देव ! उन्नत होकर हमारी रक्षा के लिए सुप्रतिष्ठित होओ। सविता के समान उन्नत होकर हमारे लिए अन्नदाता बनो। हम ऋषियों के साथ आपको आहुति देते हैं। हे महान वास रूप अग्नि देव ! धन की इच्छा करने वाला जो आराधक आपको प्रसन्न करता है, जो व्यक्ति आपके लिए हवि देने की कामना करता है, वह उक्त आचरण करने वाला हजारों का पोषण करने वाले पुत्र को प्राप्त करता है। देवताओं का आश्रय प्राप्त अनेक प्राणियों पर कृपा हेतु सूक्त रूप वंदनाओं से महान अग्निदेव की उपासना करते हैं। उस अग्नि को अन्य ऋषियों ने भी भली प्रकार प्रकाशित किया है। यह यजनीय अग्नि सुन्दर सामर्थ्य से परिपूर्ण सौभाग्य के स्वामी हैं। गौ आदि पशु, संतान तथा धन आदि के स्वामी हैं। यह वृत्र रूप शत्रुनाशकों के भी स्वामी हैं। हे अग्निदेव ! आप हमारे इस यज्ञ में गृहस्वामी और होता रूप हो। आप ही होता संज्ञक ऋषि हो अतः उच्च आहुति का यजन करो और हमारी इच्छाओं को पूर्ण करो। हे अग्निदेव ! आप हमारे मित्र हो। महान कर्म करने वाले हम मनुष्यों को आसानी से ग्रहण होने वाले हो। हम अपनी रक्षा हेतु अहिंसनशील आपको सादर वरण करते हैं।[सामवेद 1.1-6]
सामवेद सूक्त (6) :: ऋषि :- श्यावाश्ववामदेवो, उपस्तुतो बार्हिष्टव्य, बृहदुक्थ कुत्स भारद्वाज, वामदेव, वशिष्ठ, त्रिशिरास्त्वाष्ट्र; देवता :- अग्नि; छन्द :- त्रिष्टुप, जगती, गायत्री।
हे ऋत्विजो ! अग्नि देवता को आहुति प्रदान करो। उन्हें आहुति से प्रसन्न करो। पृथ्वी को उत्तर वेदी में गृहस्वामी और होता रूप इस अग्नि की स्थापना करो। जिस अग्नि को हमने नमस्कार किया है उसे यज्ञ मण्डप में स्थापित करो। शिशु रूप एवं तरुण अग्नि का हवि वहन कार्य महान है। जो अग्नि भूभूता धावा धरा के स्तनपान को ग्रहण नहीं होता, उस अग्नि को यह संसार प्रकट करें। उत्पन्न होने पर यह श्रेष्ठतम दौत्य कर्म वाले अग्नि वहन करते हैं। हे मृत पुरुष ! यह अग्नि तुम्हारा एक अंग है। तुम उस अंग के सहित बाह्य अग्नि में सम्मिलित हो और वायु तेरा अंग है। उसके साथ बाह्य वायु में मिल आदित्य (सूर्य) रूप तेज से अपनी आत्मा को मिला। शरीर की प्राप्ति के लिए मंगल रूप होकर देवताओं के पिता सूर्य में प्रवेश कर। उत्पन्न जीवों के ज्ञाता और पूजनीय अग्नि के निर्मित इस स्तोत्र को सुसंस्कृत करते हैं। हमारी महान बुद्धि इस अग्नि की सेवा करने वाली हो। हे अग्निदेव ! हम तुम्हारे मित्र बनकर किसी के द्वारा संतृप्त न हो। स्वर्ग के मूर्द्धा रूप, पृथ्वी के राजा, कान्तदर्शी, कर्म के साधन रूप, सृष्टि के आरम्भ काल में उत्पन्न निरन्तर गतिमान देवताओं के मुख रूप वैश्वानर अग्नि को ऋषियों ने हमारे यज्ञ में अरणियों द्वारा प्रकट किया। हे अग्निदेव ! स्तोत्रों उक्थों के द्वारा अपनी अभिलाषाओं को तुम्हारे सामने प्रकट करते हैं। तुम वंदनाओं के संग वर्तमान रहने वाले को जैसे घोड़े युद्ध को अपने वशीभूत कर लेते हैं। वैसे ही वंदनाएँ अपने वशीभूत कर लेती हैं। ऋत्विजों ! यज्ञ के स्वामी होता रुद्र रूप पार्थिव अन्नों के देने वाले, हिरण रूप वाले इन अग्नि की मृत्यु से पहले ही आहुति द्वारा उपासना करो। तेजस्वी अग्नि नमस्कार युक्त ज्योतिर्मय होता है। जिन अग्नि का रूप घृत आहुति परिपूर्ण होता है और मनुष्य जिसकी वन्दना रुकावटों के उपस्थित होने पर करते हैं, वह अग्नि उषाकाल में सबसे पहले प्रज्ञ्जवलित होती है। अत्यन्त ज्ञान वाले अग्नि द्यावा को पृथ्वी को प्राप्त होकर देवताओं के आह्वान के समय वृषभ के समान ध्वनि करते हैं। अंतरिक्ष के पास प्रकाशवान सूर्य रूप होकर फैलते हैं और जलों के मध्य विद्युत रूप से प्रबुद्ध होते हैं। अत्यन्त यशस्वी, दूरस्थ दर्शनीय, घर रक्षक एवं हाथों से रचित किए अग्नि को ऋत्विग्गण उँगलियों से प्रकट करते हैं।[सामवेद 1.1-7]
सामवेद सूक्त (8) :: ऋषि :- बुधगविष्ठि, वत्सप्रिर्भालन्दन, भरद्वाज, विश्वामित्र, वशिष्ठ;  देवता :- वायु, अग्नि, पूषा। छन्द :- त्रिष्टुप।
यह अग्नि समिधाओं से प्रकाशित होकर जैसे गाय के लिए प्रातःकाल उठते हैं उसी प्रकार प्रातःकाल में सावधानी के साथ गाते हुए उनकी ज्वालाएँ, शाखाओं वाले वृक्ष के समान अपने स्थान को छोड़ते हुए आसमान तक अच्छी तरह से फैल जाती हैं। हे स्तोता ! यह श्रेष्ठतम अग्नि असुरों पर विजय पाने वाले मेधावियों को धारण करने वाले पुरों के रक्षक हैं। इस अग्नि की वंदना करने की सामर्थ्य ग्रहण करो। वे अग्नि वंदनाओं से आराधना योग्य, कवच के समान रूप लपटों वाले, हरी मूँछ वाले और हर्षित स्तोत्र वाले हैं, उनकी प्रार्थना करो। हे पृषन ! एक तुम्हारा उजला रंग दिन के रूप में और दूसरा श्याम रंग रात्रि के रूप में हैं, इस प्रकार तुम विभिन्न रूप वाले हो और सूर्य की तरह प्रकाश वाले हो। तुम अन्नवान होकर समस्त प्राणियों का भरण पोषण करते हो, आपका दिया दान हमारा कल्याण करें। हे अग्निदेव ! असंख्य कामधेनु को प्रदान करने वाली इड़ा देव का निरन्तर यजन करने वाले मुझ यजमान का कार्य सम्पन्न करो। आपकी महान बुद्धि हमारी ओर हो और हम पुत्र-पौत्रादि से सम्पन्न हों। विद्युत रूप से अन्तरिक्ष में वर्तमान अग्नि ही इस यज्ञ में है। वे महान अंतरिक्ष के ज्ञाता आहुति को धारण करने वाले तुम अपने पूजक के लिए अन्न धन प्रेरित करो और शरीर के रक्षक हों। मनुष्य के अर्चनीय और इन्द्रात्मक शक्तिशाली अग्नि के महान और सुशोभित रूप की वंदना करो और उनके उत्कृष्ठ कार्यों का वर्णन करो। सब प्राणियों के जानकार अग्नि गर्भ के रूप समान अरणियों द्वारा ग्रहण किए गए हैं। वे आहुतियुक्त अग्नि अनुष्ठान आदि में जाग्रत होकर नित्य स्तुत होते हैं। हे अग्निदेव ! आप हमेशा से असुरों की रुकावट रहे और असुर तुम्हें युद्धों में परास्त नहीं कर सके। तुम ऐसे मायवी असुरों को अपने तेज से नष्ट करो। यह तुम्हारी ज्वालाओं से बच न सकें।[सामवेद 1.1-8]
सामवेद सूक्त (9) :: ऋषि :- गय; आत्रेय, वामदेव, भारद्वाज, मृक्तवाहा, द्वित, बसूयव, गोपवन, पुरुरात्रेय, वामदेव, कश्यपो वा मारीचो मनुर्वा वैवस्वत उभौवा; देवता :- अग्नि, छन्द :- अनुष्टुप।
हे अग्नि देव! आप हमें ओजयुक्त धन प्रदान करें। आपकी गति कभी नहीं रुकती। आप हमें उपासना रूपी धन से सम्पन्न करो। अन्न के रास्ते को प्रगाढ़ करो। पुत्रों के जन्म के समय व्यक्ति अग्नि को प्रज्वलित करें और हवियों द्वारा यजन करें। तब वह अद्भुत कल्याणकारी मार्ग को भोगने में समर्थवान होगा।
उज्जवल प्रकाश अंतरिक्ष में फैलता है और तेज रूप हो जाता है। हे पावक! सूर्य की समान वाली उपासना से प्रसन्न हुए तुम अपनी ज्योति से सुशोभित होते हो। हे अग्निदेव ! आप मित्र देवों के समान शुष्क काष्ठ युक्त अन्न को ग्रहण करते हो और सबके द्रष्टा होते हुए यजमान के घर में अन्न की वृद्धि करते हो। धन के धारणकर्त्ता, अनेकों मनुष्यों के प्रिय, अतिथि की तरह अग्नि की प्रातःकाल स्तुति की जाती है। उस अमर अग्नि में ही सब व्याक्ति आहुति डालते हैं। हे दीप्ति रूप अग्नि देव! आपके निमित्त महान श्लोक उच्चारित किया जाता है। आप ही अपरिमित अन्न प्रदान करो। असंख्य आराधक आपसे श्रेष्ठतम धनों को ग्रहण करते हैं। हे यजमानों! अग्नि की इच्छा करते हुए तुम सभी के प्रिय अग्नि देव की सेवा करो। मैं भी तुम्हारे लिए लाभदायी अग्नि की सुख प्राप्ति के लिए मंत्र रूप वाणी से वंदना करता हूँ। यज्ञ में ज्योतिर्मय हुए अग्नि हेतु हविरत्न दिया जाता है। इसलिए हे यजमानों! मनुष्यगण जिस अग्नि की मित्र के रूप समान वंदना करते हैं, उस अग्नि के लिए तुम भी हवि रत्न प्रदान करो। दुःखनाशक, मनुष्य हितैषी अग्नि को हम प्राप्त हुए वे अग्नि ऋक्ष के पुत्र श्रुतर्वन के लिए ज्वालाओं के रूप में प्रकट हुए। वे अग्नि ऋक्ष के पुत्र श्रुतर्वन हेतु लपटों के रूप में प्रकट हुए। हे अग्नि देव! आप महान कर्मों द्वारा रचित हुए हो। तुम ऋत्विजों के संग भू में निवास करते हो, तुम्हारे पिता कश्यप, माता श्रद्धा और स्तोता मनु हुए।[सामवेद 1.1-9]
सामवेद सूक्त (10) :: ऋषि :- अग्निस्तापस, वाम देव, काश्यपोऽसितो देवलोवा, सोमाहुतिर्भार्गवः, पायु, प्रस्कण्व; देवता :- विश्वे देव, अंगिरा, अग्नि; छन्द :- अनुष्टुप।
हम राजा सोम को वरुण, अग्नि, विष्णु, सूर्य, ब्रह्मा और बृहस्पति की रक्षा हेतु आह्वान करते हैं। जिस रास्ते से यह हवि सम्पन्न आंगिरस स्वर्गलोक को गए तथा जिस प्रकार मनुष्यगण मार्गों पर चलते हैं वैसे ही यह अग्निदेव ऊपर जाते हुए स्वर्ग की पीठ पर चढ़ गए। हे अग्निदेव! आपको महान धर्मों के निमित्त प्रज्वलित करते हैं। आप सेंचन समर्थ हो। इसलिए होम के निमित्त द्यावा पृथ्वी की स्तुति करो। इस यज्ञ में वंदनाकारी स्तोत्र का उच्चारण करते हैं और यह अग्नि उन ऋत्विजों के सब कार्यों को जानते हुए चक्र के समान सभी को अपने आधीन रखते हैं। हे अग्निदेव ! अपने तेज से असुरों के सब तरफ फैले हुए बल को समाप्त करो और उनके पराक्रम को सब तरफ से नष्ट कर डालो। हे अग्निदेव! इस कार्य में आप वसुओं, रुद्रों, आदित्यों और महान यज्ञ वाले प्रजापित द्वारा रचित जल सेंचन समर्थ देवता की आराधना करो।[सामवेद 1.1-10]
सामवेद सूक्त (11) :: ऋषि :- वामदेव, देवता :- सविता; छन्द :- जगति।
हे इन्द्र देव और श्री हरी विष्णु! मैं यह स्तोत्र और हवन आपके लिए प्रेरित करता हूँ। इसके बाद आप यज्ञ का सेवन करो। आप हमें उचित मार्ग से ले जाते हो। इसलिए हमें धन प्रदान करो। हे इन्द्रदेव और विष्णु जी ! आप वंदनाओं के कारण रूप समान हो। आपको वंदनाएँ स्वीकार हों। हे इन्द्र देव और श्री हरी विष्णु! आप सोमों के गुरु हो। तुम धन का दान करते हुए सोमों के सामने आज स्तोत्र, उक्थों के साथ तुम्हें बढ़ाएँ। हे इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु! हिंसकों को पराजित करने वाले अश्व तुम्हें वहन करें। तुम वंदनाओं का सेवन करते हुए मेरी विनती पर ध्यान दो। हे इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु! सोम के पैदा होने पर आप प्रदक्षिणा करते हो। आपने आसमान का निर्माण किया है। हमारे जीवन के लिए लोकों का निर्माण किया है। हे इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु! आप सोम से प्रवृद्ध होते हो। यजमान आपको नमस्कार सहित हव्य प्रदान करते हैं। इसलिए आप हमें धन प्रदान करो। आप कलश के और समुद्र के रूप समान पूर्ण हो। हे इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु! आप सोम पान करके अपना पेट भरो। आपके पास खुशी प्रदान करने वाला सोम है। गमन करो। आप मेरी प्रार्थनाओं को सुनो। हे इन्द्र देव और श्री हरी विष्णु! आप दोनों अजेय हो, आपमें से कभी कोई हारा नहीं है। आपने जिस पदार्थ हेतु असुरों से युक्त किया, वह अपमानित होते हुए भी तुम्हें ग्रहण हो गया।[सामवेद 1.1-11]
अध्याय (2.1) :: ऋषि :- दीर्घतमा, विश्वामित्र, गौतम, त्रित, इरिम्बिठिः, विश्वमना, वैयश्व, ऋजिस्वा भारद्वाज; देवता :- अग्नि, पवमान, अदिति, विश्वदेवा; छन्द :- उष्णिक।
हे अग्निदेव! मैं आपका सेवक आपकी शरण में आया हूँ। मैं आपसे अपरिमित धन, पुत्र आदि की प्रार्थना करता हूँ। हे याज्ञिकों! उच्च आयोजनों द्वारा प्राप्त तेज को संसार के कारण रूप एवं शरीर को ले जाने वाली अग्नि के लिए दीर्घ श्लोकों द्वारा यज्ञ को पूरा करो। हे अग्निदेव! तुम शक्ति से सम्पन्न होने वाले, गौओं से सम्पन्न अन्न के स्वामी हो, अतः हे जातवेदा अग्ने ! हमें असीमित महान अन्न प्रदान करो। हे अग्निदेव ! आप इन देवताओं के पूजन वाले, यज्ञ में देवताओं के उपासक यजमान के लिए यज्ञ कर्म पूरे करो। तुम होता रूप से यजमान को सुखी करने वाले और शत्रुओं को अपमानित एवं तिरस्कृत करने वाले होकर सुशोभित होते हो। यह अग्निदेव ! दृढ़ धनों को ग्रहण करने वाले हैं। यह लपट रूप सात जिह्वाओं युक्त प्रकट होकर कर्म का विधान करने वाले सोम को सेवा कर्म में प्रेरित करते हैं। वंदना योग्य अदिति देवी अपने रक्षा साधनों सहित हमारे पास आएँ और सुख शांति प्रदान करती हुई हमारे शत्रुओं को दूर करें। शत्रुओं के विपरित रहने वाली अग्नि की वंदना करो। उन अग्नि का धूम सर्वत्र भ्रमणशील है तथा उनकी ज्योति को असुर बहिष्कृत नहीं कर सकते। उन सर्व रचित जीवों के ज्ञाता अग्नि का पूजन करो। आहुतिदाता यजमान अग्नि को आहुति देता है। उसका शत्रु जादू की सहायता से भी उस पर विजय हे स्तोताओं। आप सब कल्याणकारी, दानवों को पराजित करने वाले, सोमरस का पान करके नहीं कर सकता। हे अग्निदेव! आप उस कुटिल, हिंसक और दुराचारी शत्रु को बहुत दूर फेंक दो। हे सत्य के पोषक ! हमारे लिए सुख की प्राप्ति को सरल बनाओ। हे शत्रु का विनाश करने वाले और उपासकों के रक्षक अग्निदेव ! मेरे इस अभिनव स्तोत्र को सुनकर मायावी असुरों को अपने महान तेज से भस्म कर दो।
अध्याय (2.2) :: ऋषि :- प्रयोगोः, भार्गव, सौभरिः, काण्वः, विश्वमना वैयश्वः; देवता :- अग्नि; छन्द :- उष्णिक।
हे स्तोताओं ! तुम सत्य यज्ञ वाले महान तेजस्वी अग्नि के लिए श्लोक पाठ करो। हे अग्निदेव! आप जिस यजमान से मित्रता करते हो, वह तुम्हारी महान संतान तथा अन्नशक्ति आदि से सम्पन्न रक्षाओं के द्वारा वृद्धि को ग्रहण होता है। हे स्तोता ! उन हव्यवाहक अग्निदेव की वंदना करो, जिन दान आदि गुण वाले देवता की मेधाजीवनी स्तुति करते हैं और जो देवताओं को आहुतियाँ पहुँचाते हैं। हे ऋत्विजों! हमारे यज्ञ से मेहमान समान अग्नि को न ले जाओ क्योंकि वे अग्नि ही देवों का आह्वान करने वाले महान याज्ञिक, वंदना और निवासप्रद हैं। आहुतियों द्वारा तृप्तता प्राप्त करने वाले अग्नि देव हमारा मंगल करें। हे धनेश ! हमें कल्याणकारक धन प्राप्त हो। उच्च यज्ञ और मंगलमयी वंदनाएँ प्राप्त हों। हे अग्निदेव ! महान याज्ञिक, देववाहक, दानशील, अविनाशी और इस यज्ञ को सम्पन्न करने वाले हो। हम आपकी वंदना करते हैं। हमें यश प्रदान करो। यज्ञ के स्थान पर आने वाले भक्षक असुरों तथा दुष्ट बुद्धि वाले शत्रुओं का और उनके क्रोध का नाश करो। समस्त प्राणधारी के रक्षक और हवियों द्वारा दीप्त अग्नि जब व्यक्तियों के घर में रहकर हर्षित होते हैं तब वे सारे असुरों आदि को नष्ट कर डालते हैं।
अध्याय (2.3) :: ऋषि :- शयुर्वार्हस्पत्यः श्रुतकक्षः, हर्यतः, प्रागाथः, इन्द्रमातरोः, देवाजमयः, गोपूक्त्यश्व सूक्तनौ, मेधातिथिराङ्गिरसः, प्रियमेधः, काण्वश्चः; देवता :- इन्द्र ; छंद :- गायत्री।
हे स्तोताओं! सोमाभिषव होने पर अनेकों यजमानों द्वारा आहुत हुए धनदाता इन्द्र के लिए उस श्लोक का गान करो जो इन्द्र के लिए गव्य के समान सुख प्रदान करने वाला है। हे शतकर्मा इन्द्रदेव ! आपके निमित यह बहुत ही तेजस्वी सोम हमने अभिषुत किया है। इसका पान कर संतुष्ट होओ और फिर हमें धन आदि से सम्पन्न करो। हे गौओं! तुम महावीर के प्रति महान हो। इस महावीर के कानों में स्वर्ण व चाँदी के दो गहने हैं। अध्ययन-शील स्तोता! इन्द्रदेव के दानरूप, घोड़ा, गाय और घर आदि की प्राप्ति के लिए महान स्तोत्र का पाठ करो। वे इन्द्र दुःखहर्त्ता और महान हैं। वे हमें धन प्रदान करें, हम उन्हें प्रसन्न करते हैं। हे इन्द्रदेव! आप अपने साहस, शक्ति और ओज के द्वारा ख्याति को ग्रहण हुए हो। आप ही महान फलों की वर्षा करने वाले श्रेष्ठ देवता हो। यज्ञ ने ही इन्द्रदेव की वृद्धि की है। फिर उन इन्द्र ने वर्षा को बादलों में सुदृढ़ किया है और पृथ्वी को जलवृद्धि द्वारा सम्पूर्ण किया है। हे इन्द्रदेव! जैसे एक मात्र आप ही समस्त धनों के स्वामी हो, वैसे ही मैं और मेरा स्तोता गौओं से सम्पन्न हों। हे सोमाभिषभ कर्त्ताओं! पराक्रमी इन्द्र के लिए इस प्रशंसा के सोग्य सोम को अर्पण करो। हे इन्द्रदेव! इस अभिषुत सोम का पान करो, जिससे आपके उदर की पूर्ति हो। हे निर्भय इन्द्रदेव! हम आपके लिए महान सोमरस अर्पण करते हैं।
अध्याय (2.4) :: ऋषि :- सुकक्षश्रुतकक्षौ भरद्वाज, मधुच्छन्दा, त्रिशोकः, वशिष्ठ; देवता :- इन्द्र; छंद :- गायत्री।
हे सूर्यात्मक इन्द्रदेव! तुम हमें धन देने योग्य और प्रसिद्ध हो। इसलिए धन की वर्षा और प्राणियों का भला करने वाले तुम कृपालु होते हुए समस्त दिशाओं को उज्जवल करते हो। हे दुःखहर्त्ता सूर्यात्मक इन्द्रदेव! आज जिन पदार्थों को उन्नतशील दशा में प्रकाशमय किया है, वे सब पदार्थ आपके वश में हों। तुर्वश और यदु को जब शत्रुओं ने दूर कर दिया था, तब उन्हें वहाँ से इन्द्रदेव ही लौटाकर लाए थे। ऐसे युवावस्था वाले इन्द्र हमारे मित्र हों। हे इन्द्रदेव! समस्त ओर आयुध फेंकने वाले और सब स्थानों में भ्रमणशील असुर रात्रियों में हमारे सम्मुख उपस्थित न हों यदि उपस्थित हों तो उन्हें हम आपके अनुग्रह से समाप्त कर डालें। हे इन्द्रदेव ! भली-भाँति भोगने योग्य तथा बैरियों को जीतने वाले, साहसपूर्ण धनों को हमारी सुरक्षा के लिए प्रदान करो। कम धन वाले हम बहुत साधन पाने के लिए वृत्र रूप राक्षसों को नष्ट करने के लिए वज्रधारी इन्द्र को आहुति देते हैं। इन्द्रदेव ने कद्रु के निष्पन्न सोम रस का पान कर सहस्त्रबाहु का पतन किया, उस समय इन्द्रदेव का पराक्रम दर्शनीय हुआ। हे काम्यवर्षक इन्द्र ! हम तुम्हारी इच्छा करते हुए तुम्हें बार-बार नमस्कार करते हैं। हे सर्वव्यापक इन्द्र ! तुम हमारी भक्ति को जानों जो याज्ञिक अग्नि को दीप्तीमान करते हैं तथा जिनके सखा इन्द्रदेव हैं, वे क्रमपूर्वक शत्रुओं को आच्छादित करते हैं। हे इन्द्रदेव! वैर करने वाले सब शत्रु सेनाओं को तितर-बितर कर दो। विनाशकारी युद्धों को समाप्त करो और फिर उन पर खर्च धन को हमारे पास ले आओ।
अध्याय (2.5) :: ऋषि :- कण्वो घोरः, त्रिशोकः, वत्सः, काण्वः, कुसीदी काण्वः, मेधातिथिः, श्रुतकक्षः, श्यावाश्वः, प्रगाथ काण्वः, इरिम्बिठिः; देवता :- इन्द्र; छंद :- गायत्री।
मरुद्गणों के हाथों में विराजित चाबुकों की ध्वनि को मैं सुनता हूँ। युद्ध क्षेत्र में वह ध्वनि वीरता को प्रोत्साहन देती है। हे इन्द्रदेव! जैसे पात्र ग्रहण कर पशु अपने स्वामी की ओर देखता है उसी प्रकार हमारे ये पुरुष आंपकी ओर देख रहे हैं। जैसे नदियाँ नीचे कर ओर बहती हुई समुद्र की ओर जाती हैं। उसी प्रकार सभी प्रजा इन्द्रदेव के क्रोध और भय से स्वयं झुक जाती है और उन्हीं के अनुसार चलती है। हे देवगण! आपकी महिमाप्रद रक्षाएँ प्रार्थनीय हैं, उन रक्षाओं की हम अपने लिए प्रार्थना करते हैं। हे ब्रह्मणस्पते ! तुम मुझ सोम का अभिषेक करने वाले को उशिज के पुत्र कक्षीवान के समान ही तेजस्वी करो। जिनके लिए सोमाभिषव किया जाता है, जो हमारी अभिलाषाओं के ज्ञाता हैं और जो युद्ध क्षेत्र में शत्रुओं को समाप्त करने में समर्थ हैं, वह दुःखहर्त्ता इन्द्रदेव हमें अपत्ययुक्त धन प्रदान करें और दुःस्वप्न के समान दुःख देने वाली दरिद्रता को हमसे दूर रखें। वे इन्द्रदेव काम्यवर्षक, युवा, लम्बी गर्दन वाले तथा किसी के सामने न झुकने वाले हैं। वे इन्द्रदेव! इस समय कहाँ हैं ? कौन-सा स्तोता उनकी उपासना करता है। पर्वतीय भूमि पर और संगम स्थल पर बुद्धिपूर्वक की गई वंदना को सुनने के लिए मेधावी इन्द्रदेव शीघ्र ही प्रकट होते हैं। भली-भाँति विद्यमान स्तोत्रों द्वारा प्रशंसनीय शत्रु बहिष्कारक और श्रेष्ठतम दानी इन्द्रदेव की उपासना करो।
अध्याय (2.6) :: ऋषि :-  श्रुतकक्षः, मेधातिथिः, गौतमः, भारद्वाज, बिन्दुः पूतदक्षौ वा, श्रुतकक्षः, सुकक्षो वाः, वत्सः काण्वः, शनुःशेषः वामदेवो वा; देवता :- इन्द्र; छंद :- गायत्री।
सुन्दर ठोड़ी वाले इन्द्रदेव ने देवताओं को आहुति देने में कुशल याज्ञिक द्वारा जौं के साथ परिपक्व सोमरस अन्न के पकते हुए रस का पान किया। हे श्रेष्ठतम धनिक इन्द्रदेव! हमारी ये वन्दनाएँ तुम्हारी ओर उसी प्रकार निरन्तर विचरण करती हैं जिस तरह गौएँ अपने बछड़ों की ओर जाती हैं। इस चलायमान चन्द्रमा में त्वष्टा का जो प्रकाश समाहित है वहाँ प्रकाश सूर्य की किरणें हैं। अब अत्यधिक वर्षक इन्द्रदेव वृद्धि जलों को इस लोक में प्रेरित करते हैं तो पूषा देव उनकी सहायता करते हैं। ऐश्वर्यवान मरुद्गण को माता गौ, अन्न की इच्च्छा करती हुई अपने पुत्रों का पालन करती है। हे सोमाधिपति इन्द्रदेव! तुम अपने हर्यश्वों के द्वारा निष्पन्न सोम का पान करने हेतु हमारे यज्ञ में प्रस्थान करो। हमारे यज्ञ में सात होताओं ने आहुतियों से इन्द्र को प्रकट किया है और तेज से सम्पन्न होकर यज्ञांत तक आहुति दी। पोषणकर्त्ता और सत्य स्वरूप इन्द्रदेव की महान मति को मैंने ही प्राप्त किया है, इस कारण सूर्य के समान दीप्त करता प्रकट हुआ हूँ। हम अन्नवान मनुष्य जिन गौओं से खुश होते हैं हमारी वे गायें इन्द्र की प्रसन्नता प्राप्त होने पर दूध, घी इत्यादि से युक्त और शक्तिवान हों। देवताओं के रथ पर सवार होने वाले सूर्य इन्द्रदेव के निमित्त महानकर्मा व्यक्तियों द्वारा दी गई आहुतियों को जानें।
अध्याय (2.7) :: ऋषि :- श्रुतकक्षः, वशिष्ठ, मेधातिथिप्रितमेधौः, इरिम्बिठिः, मधुच्छन्दाः, त्रिशोक, कुसीदी शनुः शेपौ; देवता :- इन्द्र; छंद :- गायत्री।
हे ऋत्विजों ! शत्रुओं का तिरस्कार करने वाले, हजारों कर्म वाले मनुष्यों को महान धन देने वाले, सोमपायी इन्द्र की स्तुति को आज भली प्रकार गाओ। हे मित्रो ! हर्यश्व और सोमपायी इन्द्रदेव को हर्षित करने वाले स्तोत्र का पाठ करो। हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र तुम्हें अपना बनाने की इच्छा से तुम्हारी ही वंदना करते हैं। हमारे पुत्र सभी कण्ववंशी उक्थों द्वारा तुम्हारा यश गाते हैं। प्रसन्न हृदय वाले इन्द्रदेव के लिए निष्पन्न सोम रस की, हमारी वाणी सदैव प्रशंसा करे और सभी की उपासना के योग्य सोम की हम उपासना करें। हे इन्द्रदेव! आपके लिए यह वेदी स्थित कुशों पर निष्पन्न किया हुआ रखा है। तुम इस सोम के सम्मुख आकर इस यज्ञ स्थान में ग्रहण करो। नित्यप्रति जैसे महान दुग्धवाली गौओं को पुकारते हैं, वैसे ही सुन्दर कार्य वाले इन्द्रदेव को हम अपनी सुरक्षा के लिए प्रतिदिन पुकारते हैं। हे काम्यवर्षक इन्द्र ! सोमाभिषव के पश्चात् आपके ग्रहण करने के लिए तुम्हारी प्रार्थना करता हूँ। यह सोम अत्यधिक शक्ति-दायक है। तुम इसका रुचिपूर्वक पान करो। हे इन्द्रदेव ! यह निष्पन्न सोमरंस चमस पात्रों से भरा हुआ तुम्हारे लिए ही रखा है। हे स्वामिन ! इस सोमरस का अवश्य ही पान करो। यज्ञादि अनुष्ठानों के आरम्भ में ही अथवा युद्ध उपस्थित होने पर हम मित्र उपासक अपनी रक्षा के लिए अति पराक्रमी इन्द्र को आहुति देते हैं। हे स्तोत्रवाहक सखा रूप ऋत्विजों ! तुम शीघ्र आकर बैठो और इन्द्रदेव की समस्त प्रकार से वंदना करो।




 
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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