CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
PtSantoshBhardwaj
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सामवेद सूक्त (1) :: ऋषि :- भारद्वाज, मेधातिथि, उशना, सुदीति पुरुमीढ़ा-वाङ्गिरसौः, वामदेव; देवता :- अग्नि; छन्द :- गायत्री।हे अग्नि देक्ता हमारी वंदना से हवि प्राप्त करने हेतु आकर देवताओं को हवि पहुँचाने हेतु, उनके आह्वान हेतु विराजमान हों। हे अग्ने ! आप सभी यज्ञों को पूर्ण करने वाले हो। आप देवताओं का आह्वान करने वाले ऋषियों द्वारा वंदना सहित प्रतिष्ठित किए जाते हो। हम देवताओं के आह्वानकर्त्ता, सर्वज्ञाता, धनपति, वर्तमान यज्ञ को सम्पन्न करने वाले अग्नि देव की प्रार्थना करते हैं। धन एवं दान के इच्छुक उपासकों को उनके द्वारा प्रकाशित अग्नि प्रार्थना से प्रसन्न हों और दुष्टों व अंधकार रूपी अज्ञान का नाश करें। हे अग्ने ! साधकों को धनदाता होने के कारण मित्र समान हर्षिता को प्रदान करने वाले पूजनीय मेरी प्रार्थना से प्रसन्न होइए। हे अग्ने ! आप हमें धन सम्पत्ति और ऐश्वर्य देते हुए हमारे शत्रुओं से हमारी रक्षा करो। हे अग्ने ! मेरे द्वारा भली प्रकार से उच्चारित प्रार्थनाओं को आकर सुनो और सोम रस से वृद्धि करो। हे अग्ने! मैं तुम्हें अपने कल्याण हेतु पृथ्वी पर आकर्षित करता हूँ। हे अग्ने! अथर्वा ने मूर्धा के समान सम्पूर्ण संसार के धारणकर्त्ता, आपको अंणियों से मथकर प्रकट किया है। हे अग्ने ! आप हमारी रक्षा के हेतु सूर्य आदि लोकों को सम्पन्न करो क्योंकि आप अत्यन्त प्रकाशमान दिखाई देते हो।[सामवेद 1.1-1]
सामवेद सूक्त (2) :: ऋषिः :- आयुङ्ख्वाहिः, वादेमर्वोगौतमः प्रयोगो भार्गवः, मधुच्छन्दाः शनुःशेषः, मेधातिथि, वत्स; देवता :- अग्नि; छन्द :- गायत्री।
हे अग्नि देव ! शक्ति की इच्छा करने वाले मनुष्य आपको प्रणाम करते हैं। इसलिए मैं भी आपको प्रणाम करता हूँ। आप अपनी शक्ति द्वारा हमारे शत्रुओं का विनाश करो। हे अग्नि देव ! आप यज्ञ के साधन रूप हवियों को ले जाने वाले और देवताओं के दूत रूप समान हो। मैं आपको वाणी रूप वंदना के द्वारा प्रसन्न और प्रवृद्ध करता हूँ। हे अग्नि देव ! भगनियों के समान साधक की प्रार्थनाएँ तुम्हारी सेवा में जाती हैं और आपको वायु के सहयोग से और अधिक प्रज्जवलित करती हैं। हे अग्नि देव ! हम आपके आराधक दिन रात नित्य ही अपनी महान बुद्धि के साथ आपकी सेवा में उपस्थित होते हैं। हे अग्नि देवता! आप प्रार्थना द्वारा प्रचण्ड होते हो। अत- सभी साधकों पर उपकार व यज्ञ को पूर्ण करने के लिए इस हमारे यज्ञ मंडप में प्रवेश करो। यह साधक आपके रुद्र के दर्शन करने के लिए आपकी वंदना कर रहा है। हे अग्नि देवता ! इस महान यज्ञ की ओर दृष्टि डालकर सोम को पीने के लिए आप बार-बार पुकारे जाते हो। अतः देवों के इस यज्ञ में प्रस्थान करो। हे अग्नि देवता! आप यज्ञों के अधिपति के रूप में प्रसिद्ध एवं पूँछ वाले अश्व के समान हो। हम वंदनाओं द्वारा आपको नमस्कार करने हेतु आतुर हैं। भृगु के समान ज्ञानी, कर्म करने वाले तथा बड़वानल रूप से समुद्र में वर्तमान महान अग्नि देवता को मैं नमन करता हूँ। अग्नि को प्रज्जवलित करने वाले मनुष्य अपनी हार्दिक भावनाओं सहित ऋषियों के सहयोग से अग्नि देवता को उत्पन्न करें। यह अग्नि जब स्वर्ग के ऊपर सूर्य रूप से प्रकाशित होती है, तब सब प्राणधारी उन लगातार घूमने वाले और शरणरूपी सूर्य के तेज का दर्शन करते हैं।[सामवेद 1.1-2]
सामवेद सूक्त (3) :: ऋषि :- प्रयोगो, भारद्वाज, वामदेव, वशिष्ठ, विरूप, शनुशेष, गोपवन, प्रस्कण्व, मेधातिथि, सिन्धुद्वीप आम्बरीष, त्रितआत्योवा, उशना; देवता :- अग्नि; छन्द :- गायत्री।
हे ऋत्विजो! तुम हिंसा न करने वाले और यज्ञ करने वालों के भाई बलशाली तथा ज्वालाओं से युक्त अग्नि देवता की सेवा में जाओ। हे अग्ने! अपनी तीक्ष्ण लपटों से सब असुरों और बाधाओं को दूर करो। यह अग्नि हम अर्चना करने वालों को सब तरह का ऐश्वर्य प्रदान करे। हे अग्नि देव ! तुम बहुत अधिक गतिमान और महान हो। हमें सुख प्रदान करो। आप देवताओं के दर्शनार्थ पूजकों के पास घास रूपी आसन पर विराजने के लिए आते हो। हे अग्नि देवता! पाप से हमारी रक्षा करो। हे अद्भुत तेज वाले अग्नि देव! आप अजर अमर हो। हमारी हिंसा करने की अभिलाषा करने वाले शत्रुओं को अपने संतापक तेज से नष्ट कर दो।
हे अग्नि देवता! तुम्हारे अति तीव्र गति वाले अश्व आपके रथ को भली-भाँति ले जाते हैं। उन अश्वों को अपने पूजक के यहाँ आने के लिए रथ में जोड़ो। हे अग्नि देवता ! आप धन के स्वामी, असंख्य यजमानों द्वारा आहूत हुए एवं आराधना के स्वामी हो। आप तेजस्वी की वंदना करने पर समस्त प्रकार के सुख देते हो। हमने आपको यहाँ विद्यमान किया है। स्वर्ग के सभी महान देवताओं में बड़े और पृथ्वी के राजा अग्नि जल के जीवों का जीवन प्रदान करते हैं। हे अग्नि देव ! हमारे इस हवि रत्न और नवीन वंदनाओं को देवताओं के सम्मुख विनतीगत करो। हे अग्नि देव! आपको वंदना रूप से आह्वान करते हैं। आप शोधन और समस्त स्थानों में जाने में समर्थ हो, हमारे इस आह्वान की तरफ ध्यान दो। क्रांतदर्शी, अन्नों के मालिक और हविदाता यजमान को रत्न आदि धन प्रदान करने वाले अग्निदेव हवियों को विद्यमान करते हैं। समस्त प्राणियों के दर्शनों के लिए सूर्य की किरणें प्रसिद्ध तथा तेजस्वी सूर्य की अग्नि को उन्नतशील करते हो। हे वंदनाकारियों! हमारे इस यज्ञ में क्रांतदर्शी, सत्य धर्म वाले, तेजस्वी और शत्रुओं का पतन करने वाले अग्नि देव की सेवा में प्रार्थना करो। हमारा कल्याण हो, देवीय जल हमारे यज्ञ के पूर्ण होने के लिए अंग बने और यह जल हमारे पीने के योग्य बने। जल हमारे सभी तरह के रोगों का नाश करने में समर्थ बने तथा जो रोग अभी तक उत्पन्न नहीं हुए हैं उन्हें भविष्य में भी उत्पन्न न होने दें। यह जल हमारे ऊपर अमृत बनकर बहे। हे सत्यरक्षक अग्नि देव ! आप इस समय किसके कार्य को वहन कर रहे हो? किस कर्म से आपकी वंदनाएँ गौओं को ग्रहण कर रही होंगी?[सामवेद 1.1-3]
सामवेद सूक्त (4) :: ऋषि :- शयुर्वाहस्पत्य, भर्ग, वशिष्ठ, प्रस्कण्व, काण्व; देवता :- अग्नि; छन्द :- बृहती।
हे श्रोतागणों! तुम सब भी अग्नि देव के लिए प्रार्थना करो। उन अविनाशी मित्र, सभी के चिरपरिचित और प्रिय अग्नि देव की हम भली प्रकार प्रार्थाना एवं वंदना स्तुति करते हैं। हे अग्नि देव ! आप अपनी एक वंदना और दूसरी वंदना से हमारी रक्षा करो। हे तरुणतम अग्नि देव ! आप उच्च गुण से सम्पन्न और शुद्ध करने वाले हो। अपने उज्जवल तेज से भारद्वाज के लिए प्रकाशित होने वाले तेजस्वी और ऐश्वर्यवान बनकर हमारे लिए भी प्रकाशित होओ। हे अग्नेि देव! आप यजमानों द्वारा आहुत हुए धन से युक्त और दानशील बनकर हमारे लिए गौएँ प्रदान करते हो। आप वंदना करने वालों से स्नेह करने वाले बनो। हे अग्नेि देव ! आप समस्त प्राणियों के स्वामी, पूजनीय और असुरों का विनाश करने वाले हो। हे गृहस्वामी अग्नि देव! आप पूजनीय यजमान के यहाँ सदैव वास करने वाले और स्वर्ग के रक्षक हो। इस यजमान के यहाँ भी हमेशा स्थिर रहो। हे अग्नेि देव! आप सब जीवों को जानने वाले और अमरणशील (अजर अमर) हो, इस हविदाता यजमान के लिए उषादेव द्वारा प्राचीन शरणयुक्त दित्यघनों को लेकर उपस्थित होओ और उषाकाल में जाने वाले देवताओं को भी यहाँ पर बुलवाओ। हे अग्नि देव ! आप दर्शनीय एवं विशाल हो। हमारे लिए अपने रक्षा के साधनों को धन सहित प्रेरणा दो क्योंकि आप इस लोक को धन की प्रेरणा देते हो। हमारे पुत्र को भी अतिशीघ्र सम्मान दिलाओ।
हे अग्नि देव! आप कष्टों को समाप्त करने वाले, क्रान्तादर्शी, सत्य स्वरूप श्रेष्ठ हो। आप समिधाओं द्वारा प्रज्जवलित होने वाले प्रतापी अग्निदेव की हम प्रार्थनाकारी आराधना करते हैं। हे पवित्र अग्निदेव ! अन्न की वृद्धि करने वाले प्रशंसित धन के साथ हमारे लिए पधारो। हे घृत के निकट उपस्थित रहने वाले अग्नि देव ! अपनी उच्च नीति के द्वारा हमारे लिए भी प्रसिद्धि रूपी धन को प्रदान करो। जो अग्निदेव आनन्दप्रदायक और होता रूप से यजमानों को सभी तरह का धन प्रदान करने वाले हैं उन अग्नि के लिए प्रसन्नतादायक सोम के मुख्य पात्र के समान श्लोक हमें ग्रहण हो।[सामवेद 1.1-4]
सामवेद सूक्त (5) :: ऋषि :- वशिष्ठ, भर्ग, मनु सुदिति पुरुर्मा दौ, प्रस्कण्व मेघातिथि-मेध्यातिथिश्च, विश्वामित्र, कण्व; देवता :- अग्नि, इन्द्र; छन्द :- बृहती।
शक्ति के पुत्र, हमारे प्रिय, उच्च ज्ञान वाले स्वामी समस्त देवों के दूत के रूप में सम्मानित एवं अविनाशी अग्नि देव को मैं प्रणाम करते हुए आहुति प्रदान करता हूँ। हे अग्निदेव ! आप वनों में पृथ्वीभूता अरणियों से युक्त हो। यज्ञ करने वाले आपको समिधाओं से प्रज्ज्वलित करते हैं, तब आप निरालस्य और प्रबुद्ध होकर यजमान की हवि को देवों के नजदीक वहन करते हो। फिर आप देवताओं के मध्य विराजमान होकर सुशोभित होते हो। जिस अग्नि के द्वारा यजमानों ने कर्म किए हैं उन मार्गों को जानने वाले अग्नि देव को देखने योग्य रूप में प्रकट हुए, उन उच्च वर्ण वाले अग्नि के लिए हमारी वंदना रूप वाणियाँ प्रस्तुत हों। उक्थ परिपूर्ण अहिंसित यज्ञ में यह अग्नि ऋत्विजों द्वारा वेदी में विद्यमान हुए जैसे सोभाभिषेक फलक कुशा पर आगे रखे जाते हैं। हे मरुद्गण ! हे ब्रह्मणस्पते ! ऋचा रूप वंदनाओं के द्वारा आपकी सेवा में उपस्थित हुआ मैं आपकी वरणीय सुरक्षा को माँगता हूँ। हे स्तोता! इन विशाल ज्वालाओं वाले अग्नि देव की रक्षा और धन की इच्छा से वंदना के द्वारा खुश करो। इनकी कीर्ति को जानकर अन्य मनुष्य भी इनकी प्रार्थना करते हैं, वे अग्नि मुझ यजमान को घर प्रदान करें। हे समर्थवान कानों वाले अग्निदेव ! हमारी प्रार्थना सुनो। मित्र और अर्चना देवता प्रातःकाल यज्ञ में प्रस्थान करने वाले देवताओं से युक्त तथा अग्नि की तरह रूप गति वाले वहिन देवता से युक्त इस यज्ञ में कुशाओं पर विराजमान हों। देवताओं के उपासकों द्वारा आहुत की गई इन्द्रात्मक अग्नि सब लोकों की आश्रय रूप पृथ्वी को देवताओं के लिए आहुति ले जाने वाले सहायता करते हैं। यजमान इन्हें बलपूर्वक पुकारते हैं। इस कारण यह अपने स्थान नक्षत्रों से जगमगाते हुए यहाँ आकर मेरे शरीर और वाणी में प्रवेश कर प्रचंड हों। उच्च कर्मवाले इन्द्र आप हमारे मनुष्यों को फलों से परिपूर्ण करो। हे अग्नि देव! वनों की जिज्ञासा करके भी उन्हें छोड़कर आप मातृरूप जलों को ग्रहण हुए हों। इसलिए आपका निवर्तन भी असहाय हो जाता है। आप अप्रकट होने पर इन अरणियों के द्वारा सब दिशाओं से प्रकट होते हो। हे अग्नि देव! आप ज्योति का स्वरूप हो। यजमानों के लिए आपको प्रजापति ने योग स्थान में स्थापित किया था। यज्ञ के लिए प्रकट और आहुतियों से तृप्त आप कण्व ऋषि के लिए प्रज्ज्वलित हुए थे। इसी तरह सब प्राणी आपको नमस्कार करते हैं।[सामवेद 1.1-5]
सामवेद सूक्त (6) :: ऋषि :- वशिष्ठ, कण्व, सौभरि, उत्कील, विश्वामित्र; देवता :- अग्नि, ब्रह्मणस्पति यूप; छन्द :- बृहती।
धन-सम्पत्ति प्रदान करने वाले अन्न देव आहुति से सम्पन्न और सब ओर से पोषित तुम्हारी स्त्रुक की भी इच्छा करें और होता के चमस को सोम से सम्पन्न करें। फिर वे अग्निदेव तुम्हारी आहुतियों का हवन करें। ब्रह्मणस्पति देवता प्राप्त हों। सत्य और प्रिय वाणी ग्रहण हो। समस्त देव हमारे शत्रुओं को समाप्त करें। मनुष्यों की भलाई करने वाले यज्ञ का सामिप्य हमें प्राप्त हो। हे अग्नि देव ! उन्नत होकर हमारी रक्षा के लिए सुप्रतिष्ठित होओ। सविता के समान उन्नत होकर हमारे लिए अन्नदाता बनो। हम ऋषियों के साथ आपको आहुति देते हैं। हे महान वास रूप अग्नि देव ! धन की इच्छा करने वाला जो आराधक आपको प्रसन्न करता है, जो व्यक्ति आपके लिए हवि देने की कामना करता है, वह उक्त आचरण करने वाला हजारों का पोषण करने वाले पुत्र को प्राप्त करता है। देवताओं का आश्रय प्राप्त अनेक प्राणियों पर कृपा हेतु सूक्त रूप वंदनाओं से महान अग्निदेव की उपासना करते हैं। उस अग्नि को अन्य ऋषियों ने भी भली प्रकार प्रकाशित किया है। यह यजनीय अग्नि सुन्दर सामर्थ्य से परिपूर्ण सौभाग्य के स्वामी हैं। गौ आदि पशु, संतान तथा धन आदि के स्वामी हैं। यह वृत्र रूप शत्रुनाशकों के भी स्वामी हैं। हे अग्निदेव ! आप हमारे इस यज्ञ में गृहस्वामी और होता रूप हो। आप ही होता संज्ञक ऋषि हो अतः उच्च आहुति का यजन करो और हमारी इच्छाओं को पूर्ण करो। हे अग्निदेव ! आप हमारे मित्र हो। महान कर्म करने वाले हम मनुष्यों को आसानी से ग्रहण होने वाले हो। हम अपनी रक्षा हेतु अहिंसनशील आपको सादर वरण करते हैं।[सामवेद 1.1-6]
सामवेद सूक्त (6) :: ऋषि :- श्यावाश्ववामदेवो, उपस्तुतो बार्हिष्टव्य, बृहदुक्थ कुत्स भारद्वाज, वामदेव, वशिष्ठ, त्रिशिरास्त्वाष्ट्र; देवता :- अग्नि; छन्द :- त्रिष्टुप, जगती, गायत्री।
हे ऋत्विजो ! अग्नि देवता को आहुति प्रदान करो। उन्हें आहुति से प्रसन्न करो। पृथ्वी को उत्तर वेदी में गृहस्वामी और होता रूप इस अग्नि की स्थापना करो। जिस अग्नि को हमने नमस्कार किया है उसे यज्ञ मण्डप में स्थापित करो। शिशु रूप एवं तरुण अग्नि का हवि वहन कार्य महान है। जो अग्नि भूभूता धावा धरा के स्तनपान को ग्रहण नहीं होता, उस अग्नि को यह संसार प्रकट करें। उत्पन्न होने पर यह श्रेष्ठतम दौत्य कर्म वाले अग्नि वहन करते हैं। हे मृत पुरुष ! यह अग्नि तुम्हारा एक अंग है। तुम उस अंग के सहित बाह्य अग्नि में सम्मिलित हो और वायु तेरा अंग है। उसके साथ बाह्य वायु में मिल आदित्य (सूर्य) रूप तेज से अपनी आत्मा को मिला। शरीर की प्राप्ति के लिए मंगल रूप होकर देवताओं के पिता सूर्य में प्रवेश कर। उत्पन्न जीवों के ज्ञाता और पूजनीय अग्नि के निर्मित इस स्तोत्र को सुसंस्कृत करते हैं। हमारी महान बुद्धि इस अग्नि की सेवा करने वाली हो। हे अग्निदेव ! हम तुम्हारे मित्र बनकर किसी के द्वारा संतृप्त न हो। स्वर्ग के मूर्द्धा रूप, पृथ्वी के राजा, कान्तदर्शी, कर्म के साधन रूप, सृष्टि के आरम्भ काल में उत्पन्न निरन्तर गतिमान देवताओं के मुख रूप वैश्वानर अग्नि को ऋषियों ने हमारे यज्ञ में अरणियों द्वारा प्रकट किया। हे अग्निदेव ! स्तोत्रों उक्थों के द्वारा अपनी अभिलाषाओं को तुम्हारे सामने प्रकट करते हैं। तुम वंदनाओं के संग वर्तमान रहने वाले को जैसे घोड़े युद्ध को अपने वशीभूत कर लेते हैं। वैसे ही वंदनाएँ अपने वशीभूत कर लेती हैं। ऋत्विजों ! यज्ञ के स्वामी होता रुद्र रूप पार्थिव अन्नों के देने वाले, हिरण रूप वाले इन अग्नि की मृत्यु से पहले ही आहुति द्वारा उपासना करो। तेजस्वी अग्नि नमस्कार युक्त ज्योतिर्मय होता है। जिन अग्नि का रूप घृत आहुति परिपूर्ण होता है और मनुष्य जिसकी वन्दना रुकावटों के उपस्थित होने पर करते हैं, वह अग्नि उषाकाल में सबसे पहले प्रज्ञ्जवलित होती है। अत्यन्त ज्ञान वाले अग्नि द्यावा को पृथ्वी को प्राप्त होकर देवताओं के आह्वान के समय वृषभ के समान ध्वनि करते हैं। अंतरिक्ष के पास प्रकाशवान सूर्य रूप होकर फैलते हैं और जलों के मध्य विद्युत रूप से प्रबुद्ध होते हैं। अत्यन्त यशस्वी, दूरस्थ दर्शनीय, घर रक्षक एवं हाथों से रचित किए अग्नि को ऋत्विग्गण उँगलियों से प्रकट करते हैं।[सामवेद 1.1-7]
सामवेद सूक्त (8) :: ऋषि :- बुधगविष्ठि, वत्सप्रिर्भालन्दन, भरद्वाज, विश्वामित्र, वशिष्ठ; देवता :- वायु, अग्नि, पूषा। छन्द :- त्रिष्टुप।
यह अग्नि समिधाओं से प्रकाशित होकर जैसे गाय के लिए प्रातःकाल उठते हैं उसी प्रकार प्रातःकाल में सावधानी के साथ गाते हुए उनकी ज्वालाएँ, शाखाओं वाले वृक्ष के समान अपने स्थान को छोड़ते हुए आसमान तक अच्छी तरह से फैल जाती हैं। हे स्तोता ! यह श्रेष्ठतम अग्नि असुरों पर विजय पाने वाले मेधावियों को धारण करने वाले पुरों के रक्षक हैं। इस अग्नि की वंदना करने की सामर्थ्य ग्रहण करो। वे अग्नि वंदनाओं से आराधना योग्य, कवच के समान रूप लपटों वाले, हरी मूँछ वाले और हर्षित स्तोत्र वाले हैं, उनकी प्रार्थना करो। हे पृषन ! एक तुम्हारा उजला रंग दिन के रूप में और दूसरा श्याम रंग रात्रि के रूप में हैं, इस प्रकार तुम विभिन्न रूप वाले हो और सूर्य की तरह प्रकाश वाले हो। तुम अन्नवान होकर समस्त प्राणियों का भरण पोषण करते हो, आपका दिया दान हमारा कल्याण करें। हे अग्निदेव ! असंख्य कामधेनु को प्रदान करने वाली इड़ा देव का निरन्तर यजन करने वाले मुझ यजमान का कार्य सम्पन्न करो। आपकी महान बुद्धि हमारी ओर हो और हम पुत्र-पौत्रादि से सम्पन्न हों। विद्युत रूप से अन्तरिक्ष में वर्तमान अग्नि ही इस यज्ञ में है। वे महान अंतरिक्ष के ज्ञाता आहुति को धारण करने वाले तुम अपने पूजक के लिए अन्न धन प्रेरित करो और शरीर के रक्षक हों। मनुष्य के अर्चनीय और इन्द्रात्मक शक्तिशाली अग्नि के महान और सुशोभित रूप की वंदना करो और उनके उत्कृष्ठ कार्यों का वर्णन करो। सब प्राणियों के जानकार अग्नि गर्भ के रूप समान अरणियों द्वारा ग्रहण किए गए हैं। वे आहुतियुक्त अग्नि अनुष्ठान आदि में जाग्रत होकर नित्य स्तुत होते हैं। हे अग्निदेव ! आप हमेशा से असुरों की रुकावट रहे और असुर तुम्हें युद्धों में परास्त नहीं कर सके। तुम ऐसे मायवी असुरों को अपने तेज से नष्ट करो। यह तुम्हारी ज्वालाओं से बच न सकें।[सामवेद 1.1-8]
सामवेद सूक्त (9) :: ऋषि :- गय; आत्रेय, वामदेव, भारद्वाज, मृक्तवाहा, द्वित, बसूयव, गोपवन, पुरुरात्रेय, वामदेव, कश्यपो वा मारीचो मनुर्वा वैवस्वत उभौवा; देवता :- अग्नि, छन्द :- अनुष्टुप।
हे अग्नि देव! आप हमें ओजयुक्त धन प्रदान करें। आपकी गति कभी नहीं रुकती। आप हमें उपासना रूपी धन से सम्पन्न करो। अन्न के रास्ते को प्रगाढ़ करो। पुत्रों के जन्म के समय व्यक्ति अग्नि को प्रज्वलित करें और हवियों द्वारा यजन करें। तब वह अद्भुत कल्याणकारी मार्ग को भोगने में समर्थवान होगा।
उज्जवल प्रकाश अंतरिक्ष में फैलता है और तेज रूप हो जाता है। हे पावक! सूर्य की समान वाली उपासना से प्रसन्न हुए तुम अपनी ज्योति से सुशोभित होते हो। हे अग्निदेव ! आप मित्र देवों के समान शुष्क काष्ठ युक्त अन्न को ग्रहण करते हो और सबके द्रष्टा होते हुए यजमान के घर में अन्न की वृद्धि करते हो। धन के धारणकर्त्ता, अनेकों मनुष्यों के प्रिय, अतिथि की तरह अग्नि की प्रातःकाल स्तुति की जाती है। उस अमर अग्नि में ही सब व्याक्ति आहुति डालते हैं। हे दीप्ति रूप अग्नि देव! आपके निमित्त महान श्लोक उच्चारित किया जाता है। आप ही अपरिमित अन्न प्रदान करो। असंख्य आराधक आपसे श्रेष्ठतम धनों को ग्रहण करते हैं। हे यजमानों! अग्नि की इच्छा करते हुए तुम सभी के प्रिय अग्नि देव की सेवा करो। मैं भी तुम्हारे लिए लाभदायी अग्नि की सुख प्राप्ति के लिए मंत्र रूप वाणी से वंदना करता हूँ। यज्ञ में ज्योतिर्मय हुए अग्नि हेतु हविरत्न दिया जाता है। इसलिए हे यजमानों! मनुष्यगण जिस अग्नि की मित्र के रूप समान वंदना करते हैं, उस अग्नि के लिए तुम भी हवि रत्न प्रदान करो। दुःखनाशक, मनुष्य हितैषी अग्नि को हम प्राप्त हुए वे अग्नि ऋक्ष के पुत्र श्रुतर्वन के लिए ज्वालाओं के रूप में प्रकट हुए। वे अग्नि ऋक्ष के पुत्र श्रुतर्वन हेतु लपटों के रूप में प्रकट हुए। हे अग्नि देव! आप महान कर्मों द्वारा रचित हुए हो। तुम ऋत्विजों के संग भू में निवास करते हो, तुम्हारे पिता कश्यप, माता श्रद्धा और स्तोता मनु हुए।[सामवेद 1.1-9]
सामवेद सूक्त (10) :: ऋषि :- अग्निस्तापस, वाम देव, काश्यपोऽसितो देवलोवा, सोमाहुतिर्भार्गवः, पायु, प्रस्कण्व; देवता :- विश्वे देव, अंगिरा, अग्नि; छन्द :- अनुष्टुप।
हम राजा सोम को वरुण, अग्नि, विष्णु, सूर्य, ब्रह्मा और बृहस्पति की रक्षा हेतु आह्वान करते हैं। जिस रास्ते से यह हवि सम्पन्न आंगिरस स्वर्गलोक को गए तथा जिस प्रकार मनुष्यगण मार्गों पर चलते हैं वैसे ही यह अग्निदेव ऊपर जाते हुए स्वर्ग की पीठ पर चढ़ गए। हे अग्निदेव! आपको महान धर्मों के निमित्त प्रज्वलित करते हैं। आप सेंचन समर्थ हो। इसलिए होम के निमित्त द्यावा पृथ्वी की स्तुति करो। इस यज्ञ में वंदनाकारी स्तोत्र का उच्चारण करते हैं और यह अग्नि उन ऋत्विजों के सब कार्यों को जानते हुए चक्र के समान सभी को अपने आधीन रखते हैं। हे अग्निदेव ! अपने तेज से असुरों के सब तरफ फैले हुए बल को समाप्त करो और उनके पराक्रम को सब तरफ से नष्ट कर डालो। हे अग्निदेव! इस कार्य में आप वसुओं, रुद्रों, आदित्यों और महान यज्ञ वाले प्रजापित द्वारा रचित जल सेंचन समर्थ देवता की आराधना करो।[सामवेद 1.1-10]
सामवेद सूक्त (11) :: ऋषि :- वामदेव, देवता :- सविता; छन्द :- जगति।
हे इन्द्र देव और श्री हरी विष्णु! मैं यह स्तोत्र और हवन आपके लिए प्रेरित करता हूँ। इसके बाद आप यज्ञ का सेवन करो। आप हमें उचित मार्ग से ले जाते हो। इसलिए हमें धन प्रदान करो। हे इन्द्रदेव और विष्णु जी ! आप वंदनाओं के कारण रूप समान हो। आपको वंदनाएँ स्वीकार हों। हे इन्द्र देव और श्री हरी विष्णु! आप सोमों के गुरु हो। तुम धन का दान करते हुए सोमों के सामने आज स्तोत्र, उक्थों के साथ तुम्हें बढ़ाएँ। हे इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु! हिंसकों को पराजित करने वाले अश्व तुम्हें वहन करें। तुम वंदनाओं का सेवन करते हुए मेरी विनती पर ध्यान दो। हे इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु! सोम के पैदा होने पर आप प्रदक्षिणा करते हो। आपने आसमान का निर्माण किया है। हमारे जीवन के लिए लोकों का निर्माण किया है। हे इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु! आप सोम से प्रवृद्ध होते हो। यजमान आपको नमस्कार सहित हव्य प्रदान करते हैं। इसलिए आप हमें धन प्रदान करो। आप कलश के और समुद्र के रूप समान पूर्ण हो। हे इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु! आप सोम पान करके अपना पेट भरो। आपके पास खुशी प्रदान करने वाला सोम है। गमन करो। आप मेरी प्रार्थनाओं को सुनो। हे इन्द्र देव और श्री हरी विष्णु! आप दोनों अजेय हो, आपमें से कभी कोई हारा नहीं है। आपने जिस पदार्थ हेतु असुरों से युक्त किया, वह अपमानित होते हुए भी तुम्हें ग्रहण हो गया।[सामवेद 1.1-11]
अध्याय (2.1) :: ऋषि :- दीर्घतमा, विश्वामित्र, गौतम, त्रित, इरिम्बिठिः, विश्वमना, वैयश्व, ऋजिस्वा भारद्वाज; देवता :- अग्नि, पवमान, अदिति, विश्वदेवा; छन्द :- उष्णिक।
हे अग्निदेव! मैं आपका सेवक आपकी शरण में आया हूँ। मैं आपसे अपरिमित धन, पुत्र आदि की प्रार्थना करता हूँ। हे याज्ञिकों! उच्च आयोजनों द्वारा प्राप्त तेज को संसार के कारण रूप एवं शरीर को ले जाने वाली अग्नि के लिए दीर्घ श्लोकों द्वारा यज्ञ को पूरा करो। हे अग्निदेव! तुम शक्ति से सम्पन्न होने वाले, गौओं से सम्पन्न अन्न के स्वामी हो, अतः हे जातवेदा अग्ने ! हमें असीमित महान अन्न प्रदान करो। हे अग्निदेव ! आप इन देवताओं के पूजन वाले, यज्ञ में देवताओं के उपासक यजमान के लिए यज्ञ कर्म पूरे करो। तुम होता रूप से यजमान को सुखी करने वाले और शत्रुओं को अपमानित एवं तिरस्कृत करने वाले होकर सुशोभित होते हो। यह अग्निदेव ! दृढ़ धनों को ग्रहण करने वाले हैं। यह लपट रूप सात जिह्वाओं युक्त प्रकट होकर कर्म का विधान करने वाले सोम को सेवा कर्म में प्रेरित करते हैं। वंदना योग्य अदिति देवी अपने रक्षा साधनों सहित हमारे पास आएँ और सुख शांति प्रदान करती हुई हमारे शत्रुओं को दूर करें। शत्रुओं के विपरित रहने वाली अग्नि की वंदना करो। उन अग्नि का धूम सर्वत्र भ्रमणशील है तथा उनकी ज्योति को असुर बहिष्कृत नहीं कर सकते। उन सर्व रचित जीवों के ज्ञाता अग्नि का पूजन करो। आहुतिदाता यजमान अग्नि को आहुति देता है। उसका शत्रु जादू की सहायता से भी उस पर विजय हे स्तोताओं। आप सब कल्याणकारी, दानवों को पराजित करने वाले, सोमरस का पान करके नहीं कर सकता। हे अग्निदेव! आप उस कुटिल, हिंसक और दुराचारी शत्रु को बहुत दूर फेंक दो। हे सत्य के पोषक ! हमारे लिए सुख की प्राप्ति को सरल बनाओ। हे शत्रु का विनाश करने वाले और उपासकों के रक्षक अग्निदेव ! मेरे इस अभिनव स्तोत्र को सुनकर मायावी असुरों को अपने महान तेज से भस्म कर दो।
अध्याय (2.2) :: ऋषि :- प्रयोगोः, भार्गव, सौभरिः, काण्वः, विश्वमना वैयश्वः; देवता :- अग्नि; छन्द :- उष्णिक।
हे स्तोताओं ! तुम सत्य यज्ञ वाले महान तेजस्वी अग्नि के लिए श्लोक पाठ करो। हे अग्निदेव! आप जिस यजमान से मित्रता करते हो, वह तुम्हारी महान संतान तथा अन्नशक्ति आदि से सम्पन्न रक्षाओं के द्वारा वृद्धि को ग्रहण होता है। हे स्तोता ! उन हव्यवाहक अग्निदेव की वंदना करो, जिन दान आदि गुण वाले देवता की मेधाजीवनी स्तुति करते हैं और जो देवताओं को आहुतियाँ पहुँचाते हैं। हे ऋत्विजों! हमारे यज्ञ से मेहमान समान अग्नि को न ले जाओ क्योंकि वे अग्नि ही देवों का आह्वान करने वाले महान याज्ञिक, वंदना और निवासप्रद हैं। आहुतियों द्वारा तृप्तता प्राप्त करने वाले अग्नि देव हमारा मंगल करें। हे धनेश ! हमें कल्याणकारक धन प्राप्त हो। उच्च यज्ञ और मंगलमयी वंदनाएँ प्राप्त हों। हे अग्निदेव ! महान याज्ञिक, देववाहक, दानशील, अविनाशी और इस यज्ञ को सम्पन्न करने वाले हो। हम आपकी वंदना करते हैं। हमें यश प्रदान करो। यज्ञ के स्थान पर आने वाले भक्षक असुरों तथा दुष्ट बुद्धि वाले शत्रुओं का और उनके क्रोध का नाश करो। समस्त प्राणधारी के रक्षक और हवियों द्वारा दीप्त अग्नि जब व्यक्तियों के घर में रहकर हर्षित होते हैं तब वे सारे असुरों आदि को नष्ट कर डालते हैं।
अध्याय (2.3) :: ऋषि :- शयुर्वार्हस्पत्यः श्रुतकक्षः, हर्यतः, प्रागाथः, इन्द्रमातरोः, देवाजमयः, गोपूक्त्यश्व सूक्तनौ, मेधातिथिराङ्गिरसः, प्रियमेधः, काण्वश्चः; देवता :- इन्द्र ; छंद :- गायत्री।
हे स्तोताओं! सोमाभिषव होने पर अनेकों यजमानों द्वारा आहुत हुए धनदाता इन्द्र के लिए उस श्लोक का गान करो जो इन्द्र के लिए गव्य के समान सुख प्रदान करने वाला है। हे शतकर्मा इन्द्रदेव ! आपके निमित यह बहुत ही तेजस्वी सोम हमने अभिषुत किया है। इसका पान कर संतुष्ट होओ और फिर हमें धन आदि से सम्पन्न करो। हे गौओं! तुम महावीर के प्रति महान हो। इस महावीर के कानों में स्वर्ण व चाँदी के दो गहने हैं। अध्ययन-शील स्तोता! इन्द्रदेव के दानरूप, घोड़ा, गाय और घर आदि की प्राप्ति के लिए महान स्तोत्र का पाठ करो। वे इन्द्र दुःखहर्त्ता और महान हैं। वे हमें धन प्रदान करें, हम उन्हें प्रसन्न करते हैं। हे इन्द्रदेव! आप अपने साहस, शक्ति और ओज के द्वारा ख्याति को ग्रहण हुए हो। आप ही महान फलों की वर्षा करने वाले श्रेष्ठ देवता हो। यज्ञ ने ही इन्द्रदेव की वृद्धि की है। फिर उन इन्द्र ने वर्षा को बादलों में सुदृढ़ किया है और पृथ्वी को जलवृद्धि द्वारा सम्पूर्ण किया है। हे इन्द्रदेव! जैसे एक मात्र आप ही समस्त धनों के स्वामी हो, वैसे ही मैं और मेरा स्तोता गौओं से सम्पन्न हों। हे सोमाभिषभ कर्त्ताओं! पराक्रमी इन्द्र के लिए इस प्रशंसा के सोग्य सोम को अर्पण करो। हे इन्द्रदेव! इस अभिषुत सोम का पान करो, जिससे आपके उदर की पूर्ति हो। हे निर्भय इन्द्रदेव! हम आपके लिए महान सोमरस अर्पण करते हैं।
अध्याय (2.4) :: ऋषि :- सुकक्षश्रुतकक्षौ भरद्वाज, मधुच्छन्दा, त्रिशोकः, वशिष्ठ; देवता :- इन्द्र; छंद :- गायत्री।
हे सूर्यात्मक इन्द्रदेव! तुम हमें धन देने योग्य और प्रसिद्ध हो। इसलिए धन की वर्षा और प्राणियों का भला करने वाले तुम कृपालु होते हुए समस्त दिशाओं को उज्जवल करते हो। हे दुःखहर्त्ता सूर्यात्मक इन्द्रदेव! आज जिन पदार्थों को उन्नतशील दशा में प्रकाशमय किया है, वे सब पदार्थ आपके वश में हों। तुर्वश और यदु को जब शत्रुओं ने दूर कर दिया था, तब उन्हें वहाँ से इन्द्रदेव ही लौटाकर लाए थे। ऐसे युवावस्था वाले इन्द्र हमारे मित्र हों। हे इन्द्रदेव! समस्त ओर आयुध फेंकने वाले और सब स्थानों में भ्रमणशील असुर रात्रियों में हमारे सम्मुख उपस्थित न हों यदि उपस्थित हों तो उन्हें हम आपके अनुग्रह से समाप्त कर डालें। हे इन्द्रदेव ! भली-भाँति भोगने योग्य तथा बैरियों को जीतने वाले, साहसपूर्ण धनों को हमारी सुरक्षा के लिए प्रदान करो। कम धन वाले हम बहुत साधन पाने के लिए वृत्र रूप राक्षसों को नष्ट करने के लिए वज्रधारी इन्द्र को आहुति देते हैं। इन्द्रदेव ने कद्रु के निष्पन्न सोम रस का पान कर सहस्त्रबाहु का पतन किया, उस समय इन्द्रदेव का पराक्रम दर्शनीय हुआ। हे काम्यवर्षक इन्द्र ! हम तुम्हारी इच्छा करते हुए तुम्हें बार-बार नमस्कार करते हैं। हे सर्वव्यापक इन्द्र ! तुम हमारी भक्ति को जानों जो याज्ञिक अग्नि को दीप्तीमान करते हैं तथा जिनके सखा इन्द्रदेव हैं, वे क्रमपूर्वक शत्रुओं को आच्छादित करते हैं। हे इन्द्रदेव! वैर करने वाले सब शत्रु सेनाओं को तितर-बितर कर दो। विनाशकारी युद्धों को समाप्त करो और फिर उन पर खर्च धन को हमारे पास ले आओ।
अध्याय (2.5) :: ऋषि :- कण्वो घोरः, त्रिशोकः, वत्सः, काण्वः, कुसीदी काण्वः, मेधातिथिः, श्रुतकक्षः, श्यावाश्वः, प्रगाथ काण्वः, इरिम्बिठिः; देवता :- इन्द्र; छंद :- गायत्री।
मरुद्गणों के हाथों में विराजित चाबुकों की ध्वनि को मैं सुनता हूँ। युद्ध क्षेत्र में वह ध्वनि वीरता को प्रोत्साहन देती है। हे इन्द्रदेव! जैसे पात्र ग्रहण कर पशु अपने स्वामी की ओर देखता है उसी प्रकार हमारे ये पुरुष आंपकी ओर देख रहे हैं। जैसे नदियाँ नीचे कर ओर बहती हुई समुद्र की ओर जाती हैं। उसी प्रकार सभी प्रजा इन्द्रदेव के क्रोध और भय से स्वयं झुक जाती है और उन्हीं के अनुसार चलती है। हे देवगण! आपकी महिमाप्रद रक्षाएँ प्रार्थनीय हैं, उन रक्षाओं की हम अपने लिए प्रार्थना करते हैं। हे ब्रह्मणस्पते ! तुम मुझ सोम का अभिषेक करने वाले को उशिज के पुत्र कक्षीवान के समान ही तेजस्वी करो। जिनके लिए सोमाभिषव किया जाता है, जो हमारी अभिलाषाओं के ज्ञाता हैं और जो युद्ध क्षेत्र में शत्रुओं को समाप्त करने में समर्थ हैं, वह दुःखहर्त्ता इन्द्रदेव हमें अपत्ययुक्त धन प्रदान करें और दुःस्वप्न के समान दुःख देने वाली दरिद्रता को हमसे दूर रखें। वे इन्द्रदेव काम्यवर्षक, युवा, लम्बी गर्दन वाले तथा किसी के सामने न झुकने वाले हैं। वे इन्द्रदेव! इस समय कहाँ हैं ? कौन-सा स्तोता उनकी उपासना करता है। पर्वतीय भूमि पर और संगम स्थल पर बुद्धिपूर्वक की गई वंदना को सुनने के लिए मेधावी इन्द्रदेव शीघ्र ही प्रकट होते हैं। भली-भाँति विद्यमान स्तोत्रों द्वारा प्रशंसनीय शत्रु बहिष्कारक और श्रेष्ठतम दानी इन्द्रदेव की उपासना करो।
अध्याय (2.6) :: ऋषि :- श्रुतकक्षः, मेधातिथिः, गौतमः, भारद्वाज, बिन्दुः पूतदक्षौ वा, श्रुतकक्षः, सुकक्षो वाः, वत्सः काण्वः, शनुःशेषः वामदेवो वा; देवता :- इन्द्र; छंद :- गायत्री।
सुन्दर ठोड़ी वाले इन्द्रदेव ने देवताओं को आहुति देने में कुशल याज्ञिक द्वारा जौं के साथ परिपक्व सोमरस अन्न के पकते हुए रस का पान किया। हे श्रेष्ठतम धनिक इन्द्रदेव! हमारी ये वन्दनाएँ तुम्हारी ओर उसी प्रकार निरन्तर विचरण करती हैं जिस तरह गौएँ अपने बछड़ों की ओर जाती हैं। इस चलायमान चन्द्रमा में त्वष्टा का जो प्रकाश समाहित है वहाँ प्रकाश सूर्य की किरणें हैं। अब अत्यधिक वर्षक इन्द्रदेव वृद्धि जलों को इस लोक में प्रेरित करते हैं तो पूषा देव उनकी सहायता करते हैं। ऐश्वर्यवान मरुद्गण को माता गौ, अन्न की इच्च्छा करती हुई अपने पुत्रों का पालन करती है। हे सोमाधिपति इन्द्रदेव! तुम अपने हर्यश्वों के द्वारा निष्पन्न सोम का पान करने हेतु हमारे यज्ञ में प्रस्थान करो। हमारे यज्ञ में सात होताओं ने आहुतियों से इन्द्र को प्रकट किया है और तेज से सम्पन्न होकर यज्ञांत तक आहुति दी। पोषणकर्त्ता और सत्य स्वरूप इन्द्रदेव की महान मति को मैंने ही प्राप्त किया है, इस कारण सूर्य के समान दीप्त करता प्रकट हुआ हूँ। हम अन्नवान मनुष्य जिन गौओं से खुश होते हैं हमारी वे गायें इन्द्र की प्रसन्नता प्राप्त होने पर दूध, घी इत्यादि से युक्त और शक्तिवान हों। देवताओं के रथ पर सवार होने वाले सूर्य इन्द्रदेव के निमित्त महानकर्मा व्यक्तियों द्वारा दी गई आहुतियों को जानें।
अध्याय (2.7) :: ऋषि :- श्रुतकक्षः, वशिष्ठ, मेधातिथिप्रितमेधौः, इरिम्बिठिः, मधुच्छन्दाः, त्रिशोक, कुसीदी शनुः शेपौ; देवता :- इन्द्र; छंद :- गायत्री।
हे ऋत्विजों ! शत्रुओं का तिरस्कार करने वाले, हजारों कर्म वाले मनुष्यों को महान धन देने वाले, सोमपायी इन्द्र की स्तुति को आज भली प्रकार गाओ। हे मित्रो! हर्यश्व और सोमपायी इन्द्रदेव को हर्षित करने वाले स्तोत्र का पाठ करो। हे इन्द्र! हम तुम्हारे मित्र तुम्हें अपना बनाने की इच्छा से तुम्हारी ही वंदना करते हैं। हमारे पुत्र सभी कण्ववंशी उक्थों द्वारा तुम्हारा यश गाते हैं। प्रसन्न हृदय वाले इन्द्रदेव के लिए निष्पन्न सोम रस की, हमारी वाणी सदैव प्रशंसा करे और सभी की उपासना के योग्य सोम की हम उपासना करें। हे इन्द्रदेव! आपके लिए यह वेदी स्थित कुशों पर निष्पन्न किया हुआ रखा है। तुम इस सोम के सम्मुख आकर इस यज्ञ स्थान में ग्रहण करो। नित्यप्रति जैसे महान दुग्धवाली गौओं को पुकारते हैं, वैसे ही सुन्दर कार्य वाले इन्द्रदेव को हम अपनी सुरक्षा के लिए प्रतिदिन पुकारते हैं। हे काम्यवर्षक इन्द्र ! सोमाभिषव के पश्चात् आपके ग्रहण करने के लिए तुम्हारी प्रार्थना करता हूँ। यह सोम अत्यधिक शक्ति-दायक है। तुम इसका रुचिपूर्वक पान करो। हे इन्द्रदेव ! यह निष्पन्न सोमरंस चमस पात्रों से भरा हुआ तुम्हारे लिए ही रखा है। हे स्वामिन ! इस सोमरस का अवश्य ही पान करो। यज्ञादि अनुष्ठानों के आरम्भ में ही अथवा युद्ध उपस्थित होने पर हम मित्र उपासक अपनी रक्षा के लिए अति पराक्रमी इन्द्र को आहुति देते हैं। हे स्तोत्रवाहक सखा रूप ऋत्विजों! तुम शीघ्र आकर बैठो और इन्द्रदेव की समस्त प्रकार से वंदना करो।
अध्याय (2.8) :: ऋषि :- विश्वामित्रः, मधुच्छंदाः, कुसीदी काण्वः, प्रियमेधः, वामदेवः, श्रुतकक्ष मेधातिथि, बिंदु पूतदक्षोः; देवता :- इन्द्र, ससस्पतिः, मरुतः; छंद :- गायत्री।
हे ऐश्वर्यवान इन्द्र ! इस ओज सम्पन्न और निष्पन्न सोम का शीघ्र पान करो। हमारे इन्द्र श्रेष्ठ हैं। यह महान गुण वाले, वज्रधारी की महिमा स्वर्ग के रूप समान महान हो और इनकी शक्ति की अत्याधिक प्रशंसा हो। हे इन्द्र! तुम महान भुजाओं वाले हो। हमें देने के लिए प्रशंसनीय, अद्भुत ग्रहणीय धन को अपने रक्षक हाथ से उठाकर इसी समय प्रदान करो। यह इन्द्रदेव गायों के स्वामी सत्योत्पन्न और सत्य के पोषण करने वाले हैं। इनकी वंदना युक्त अर्चना करो, जिससे ये हमें भली प्रकार जानें। अद्भुत गुणवाले प्रबुद्ध और मित्र इन्द्र किस श्रेष्ठ कर्म से हमारे सामने हो ? वे किस अनुष्ठान से हमारे सम्मुख आएँ? हे स्तोता! तुम असंख्यों का बहिष्कार करने वाले और स्तोता में वृद्धित हुए उन इन्द्रदेव को ही हमारी सुरक्षा हेतु अभिमुख करो। अद्भुत कर्म वाले, इन्द्र के प्रिय इच्छा के योग्य धन देने वाले सद्सम्पत्ति देवता की शरण में उच्चबुद्धि की प्राप्ति के लिए उपस्थित हुआ हूँ। हे इन्द्रदेव! जो मार्ग स्वर्ग के नीचे है तथा जिन रास्तों से मैं संसार में आया हूँ, वह मार्ग वंदना योग्य है। यजमान हमारे उस मार्ग वाली जगह को सुनें। हे सत्यकर्मा इन्द्र ! हमें अत्यन्त कल्याणकारी धन प्रदान करो। हमें शक्ति से पूर्ण अन्न और सुख प्रदान करो। यह सोम मरुद्गण द्वारा अभिषुत किया गया है। अतः अपने बल से तेजस्वी हुए मरुद्गण प्रातःकाल उस सोम का पान करते हैं और अश्विद्वय भी सवेरे ही सोमपान करते हैं।
अध्याय (2.9) :: ऋषि :- देवजामयः, इन्द्रमातरः, गोधा, दध्यऽ.डाथर्वणः, प्रस्कण्व, गौतम, मधुच्छंदा, वामदेव, वत्स, शनुःशेप वातायान उलः।
अपने कर्म की इच्छा करती हुई और रुद्र को प्राप्त होती हुई माताएँ उत्पन्न हुए इन्द्र की परिचर्चा करती है और श्रेष्ठ धन को इन्द्रदेव से प्राप्त करती हैं। हे देवताओं ! हम तुम्हारे लिए कोई उल्टे कर्म नहीं करते बल्कि मंत्रों में वर्णित तुम्हारे मार्ग पर चलते हैं। हे वृहद सोम के गायक, प्रकाशपथ के पथिक आथर्वण! ऋषियों या यजमान को भूल से लगे दोष को दूर करने के लिए तुम सविता की वंदना करो। यह प्रत्यक्ष हुई प्रसन्नता देने वाली उषा स्वर्गलोक से आकर रात्रि के अंधकार को दूर करती है। हे अश्विद्वय ! मैं तुम्हारे लिए बृहद स्तुति करता हूँ। अनुकूल ध्वनि वाले इन्द्रदेव ने दधीचि की अस्थियाँ ले आठ सौ दस असुरों को समाप्त किया। हे इन्द्रदेव! हमारे अनुष्ठान में आगमन कर सोम रूप अन्न ग्रहण द्वारा सन्तुष्ट होओ, फिर बल से अत्यन्त शक्तिशाली बनकर शत्रुओं का विनाश करो। हे वृत्रहन्ता इन्द्रदेव! तुम हमारे निकट आगमन करो। तुम अपनी महती रक्षाओं के साथ आकर सुरक्षा करो। इन्द्र का प्रसिद्ध तेज बढ़ गया। उसी ओज के द्वारा यह इन्द्र द्यावा पृथ्वी को चर्म के समान लपेट लेते हैं। हे इन्द्रदेव ! यह सोम तुम्हारे लिए सुसंस्कृत किया है। तुम इस सोम को और हमारी वंदना रूपी वाणी को भली-भाँति ग्रहण होते हो। हमारे हृदय के लिए कल्याणकारी सुखदाता औषधि की वायु हमें प्राप्त कराएँ जिससे हमारी आयु में वृद्धि हो।
अध्याय (2.10) :: ऋषि :- कण्वः, वत्स, श्रुतकक्षः, मधुच्छंदा, वामदेव, इरिम्बठिः, वारुणि, सत्यधृति; देवता :- इन्द्र; छंद :- गायत्री।
जिस यजमान की मेधावी वरुण, मित्र, अर्यमा रक्षा करते हैं उस यजमान को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता। हे इन्द्रदेव! जैसे हमारे पूर्व यज्ञ में तुमने धन-दान के लिए प्रस्थान किया था वैसे ही हमें गौ, अश्व, रथ और प्रतिष्ठामय धन प्रदान करने हेतु अब भी प्रस्थान करो। हे इन्द्रदेव! तुम्हारी यह सत्यरूप यज्ञ के पालन करने वाल उच्च रंग की गायें घी और दूध से हमारे पात्रों को भरती हैं। हे अनेक नाम वाले, अनेकों के द्वारा वंदनीय इन्द्रदेव! तुम मेरे प्रत्येक सोम याग में जब सोमपान के लिए पधारो, तब मैं अपने लिए गायों की अभिलाषा वाली गति से सम्पन्न हो जाऊँ। अन्नवती, पवित्र करने वाली, धन को देन वाली सरस्वती, दान योग्य अन्नों के सहित हमारे यश की करती हुई आएँ और हमारे यज्ञ को उम्पन्न करें। मनुष्यों में कौन ऐया है जो इन्द्रदेव को सन्तुष्ट कर सके। वे इन्द्रदेव यज्ञ में पधारकर संतुष्ट हों और धन का दान करें। हे इन्द्रदेव! यहाँ पधारो। हमने आपके लिए यह सोम निर्मित किया है। आप इस सोम का पान करो और वेदी पर बिछे हुए इस घास के आसन पर विराजमान हों। सखा, वरुण और अर्थमा की महती रक्षाएँ हमारी सुरक्षा करने वाली बनें। हे इन्द्रदेव! आप बहुत वैभवशाली हो। कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करते हो। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव हमें अपना ही समझो।
अध्याय (2.11) :: ऋषि :- वामदेवः; देवता :- उषाः; छंद :- गायत्री।
ऋषियों ने जिन उषाओं को मिलाकर चमस बनाए थे, वे पुरानी उषाएँ कब की और कहाँ हैं? प्रकाशवान नवीन सुन्दर रूपवाली उषाएँ जब उज्जवल प्रकाश करती हैं, तब वे एक रूप रहती हैं। उस समय वे पर्याप्त समय पहले की हैं या नवीन, यह बात पहचानने में नहीं आती है। यज्ञ करने वाले यजमान जिन उषाओं का स्तोत्रों द्वारा उपासना करते हुए धन ग्रहण करते हैं, वे उषाएँ कल्याण करने वाली हैं। वे प्राचीन समय से आने वाली उषाएँ यजमान को धन प्रदान करें। वे यज्ञ के समय प्रकट हुई हैं। वे उषाएँ हमेशा सत्य फल देने वाली हैं। हे इन्द्रदेव! तुम हमें समस्त प्रकार का धन प्रदान करो तथा विशाल संख्या में गौएँ प्रदान करो। हम सुखपूर्वक रह सकें, राक्षसादि होकर, हमें अपना आशीर्वाद प्रदान करो। हमारा अहित न कर सकें, इसलिए हम आपकी वंदना करते हैं। तुम हम पर प्रसन्न
अध्याय (3.1) :: ऋषि :- प्रगाथ, विश्वामित्र, वामदेव, श्रुतकक्ष, अंगिरस, मधुच्छंदा गृत्समदः, भारद्वाज; देवता :- इन्द्र; छंद :- गायत्री।
हे इन्द्रदेव! यह सोम आपको प्रसन्न करे। हे वर्जिन ! आप धन प्रदान करो। ब्राह्म के शत्रुओं का विनाश करो। हे स्तुत्य ! हमारे द्वारा अभिषुत इस सोम का पान करो। प्रसन्नतादायक सोम की धाराओं द्वारा सिंचित होते हो। हे इन्द्रदेव! हमारे सम्मुख तुम् द्वारा दिया गया अन्न ही रहता है। हे यजमानों! यह इन्द्र तुम्हें यज्ञ के आयोजन के प्रेरित करते हैं। यह वीर इन्द्रदेव हमारे द्वारा वरण किए गए हैं। हे इन्द्रदेव! नदियाँ समुद्र को ग्रहण होती हैं, उसी प्रकार हमारा सोम आपको ग्रहण हो। अतः हे इन्द्र अन्य कोई देवता आपसे बढ़कर नहीं है। साम गायक अपने बृहत्साम से वंदना हैं और सामवेद रूपवाणी के द्वारा वन्दना करते हैं। हमारे द्वारा वंदनीय इन्द्रदेव श्रेष ऋभु को हमें अन्न के लिए ग्रहण करावें। हे बलशाली इन्द्र ! अग्नि प्रा लिए बलवान छोटे भाई को हमें दो। स्थिर मन वाले, विश्व को देखने वाले इन्ड भय का हनन करने वाले हैं। हे स्तुत्य इन्द्रदेव! प्रत्येक सोभाभिषव पर हमारी गायों के बछड़ों के निकट पहुँचने के समान ही तुम्हें ग्रहण हों। हम इन्द्र और आज ही मित्रता के लिए तथा अन्न और जल की प्राप्ति के हेतु बुलाते हैं। हे इन्द्रदेव! आपसे बढ़कर और कोई देवता नहीं है, आपसे महान भी कोई न
अध्याय (3.2) :: ऋषि :- त्रिशोक, मधुच्छंदा, वत्स, सुकक्ष, वामदेव, विगोषुक्त्यश्वसूक्तिनौ, श्रुतकक्ष, सुकक्षो वाः; देवता :- इन्द्र; छंद :- गायत्री
है मनुष्यों! संतान आदि के पालन करने वाले शत्रुओं को त्रासप्रद पशुओं से सम्पन्न तथा अन्न देने वाले इन्द्र की मैं हमेशा स्तुति करता हूँ। हे इन्द्रदेव! मैंने आपके लिए स्तोत्र की उत्पत्ति की है। वह स्तोत्र स्वर्ग में स्थित काम्यवर्षक, सोमपायी तुम्हारे सम्मुख गए और तुमने उन्हें ग्रहण किया। जिस यजमान की द्रोह रहित मरुद्गण या अर्थमा या मित्र देवता रक्षा करते हैं, वह यजमान उच्च यज्ञ वाला होता है। इसे सब जानते हैं। हे इन्द्रदेव! आपने जो धन दृढ़ पुरुष में विद्यमान किया है, उसी इच्छा योग्य धन को हमें प्रदान करो। प्रसिद्ध वृत्रहन्ता एवं गतिवान इन्द्र को प्रसन्न करके सोम रूप अन्न अर्पित करता हूँ। हे शूरवीर इन्द्रदेव! हम आपकी कीर्ति सुनने को उत्सुक हों। हे शुक्र ! तुम्हारे समान देव की कीर्ति को भी हम सुने। हे इन्द्र ! जौं और दूध युक्त सत्तू और पुरोडाश से युक्त प्रशंसित हमारे सोमरस का प्रातःकाल में पान करें। शत्रुओं की समस्त सेनाओं पर इन्द्रदेव ने जब विजय प्राप्त की, तब नमुचि नाम के असुर का सिर जल के फेन स्वरूप झागों से निर्मित अस्त्र द्वारा विच्छेद कर दिया। हे इन्द्रदेव! यह सोम आपके लिए ही सिद्ध किए गए हैं। जो सोम अब सिद्ध किए जाएँगे वे भी तुम्हारे ही होंगे। आप उन सब सोमों का पान कर तृप्ति प्राप्त करो। हे ऐश्वर्यवान इन्द्रदेव! आपके लिए सोम सिद्ध किए गए हैं। कुशा का आसन बिछा हुआ है, आप इस पर विराजमान होइए और सोमपान से सन्तुष्ट होकर हमें सुखी करो।
अध्याय (3.3) :: ऋषि :- शनुःशेषः, श्रुतकक्षः, त्रिशोक, मेधातिथि, गौतम, ब्रह्मातिथि, विश्वामित्र, जमदग्नि प्रस्कण्व; देवता :- इन्द्र; छंद :- गायत्री।
हे अन्न की इच्छा रखने वाले पुरुषों! यह इन्द्र सैंकड़ों कार्य करने वाले एवं महान हैं। जिस प्रकार कृषि को जल से सींचते हैं उसी प्रकार आप इन्हें सोमरस से भली-भाँति सींचों। हे इन्द्रदेव ! स्वर्ग से सैकड़ों तरह के शक्तिशाली हजारों अन्न और रसों से युक्त हमारे यज्ञ में पधारो। इन्द्रदेव ने उत्पन्न होते ही बाण को ग्रहण किया और अपनी माता से पूछा कि कौन-कौन से पराक्रमी इस विश्व में प्रसिद्धि को प्राप्त वाले चुके हैं। लोक रक्षा हेतु फैले हुए हाथ वाले, समस्त कार्यों को सिद्ध करने वाले इन्द्रदेव का हम स्मरण करते हैं। मित्र और वरुण ये मेधावी देवता हमें सरल विधि से इच्छित फल प्राप्त कराएँ और अन्य देवताओं के समान प्रीति वाले अर्यमा देवता भी हमें सरलता से मार्ग पर लाएँ। दूरस्थ से निकट आने वाले उषा देव जब अपना प्रकाश विस्तृत करते हैं। तब उनकी ज्योति अनेक तरह की होती है। हे श्रेष्ठकर्मा मित्रावरुण हमारे संगठन को घृत से युक्त दूध से भली प्रकार सिंचित करो और पारलौकिक धाम को भी मधुर रस से सम्पन्न करो। ध्वनि रूपी वाणी के रचित करने वाले मरुतों ने यज्ञ के लिए जलों का उत्कर्ष किया और जल को प्रवाहित कर प्यास के कारण रम्भाती हुई गायों को घुटने के बल झुककर जल पीने की शिक्षा दी। भगवान विष्णु ने इस संसार को लाँघते हुए तीन पाद स्थापित किए। श्री विष्णुजी के धूलियुक्त पाँव में समस्त संसार अच्छी तरह से समा गया।
अध्याय (3.4) :: ऋषि :- मेधातिथि, वामदेव, मेधातिथिप्रियमेद्यौ, विश्वामित्र कौत्सोः, दुर्मित्र सुमित्रो वा विश्वामित्रो, गाथिनोऽमीपाद् उदलो वाः, श्रुत कक्षः; देवता :- इन्द्र; छंद :- गायत्री।
हे इन्द्रदेव! जो उपासक क्रोधपूर्वक अभिषव करे उसे त्यागकर उस स्थान पर श्रेष्ठ अभिषव करने वाले को भेजो और इस यजमान के यज्ञ में निष्पन्न हुए सोम का पान करो। उन महान प्रतापी इन्द्रदेव के लिए हमारा स्तोत्र यथार्थ रूप में न होने पर भी स्वीकार हो। क्योंकि इस स्तोत्र से भी यजमान की वृद्धि सम्भव है। इन्द्रदेव उपासना न करने वाले के शत्रु हैं और याज्ञिकों द्वारा पठित श्लोक को भी जानते हैं, वे साम गायक साम को भी जानते हैं। अतः हम उन्हीं इन्द्र का स्तवन करते हैं। अन्नों में महान अन्न के स्वामी, हर्यश्ववान इन्द्रदेव होताओं द्वारा उच्चारित स्तोत्रों से प्रसन्न होकर सोम से मित्र के समान प्रेम करें। हे इन्द्रदेव! हमारे अभिषुत सोम को ग्रहण करो। दूसरों के हविस्न से प्रीति न करो। हे सर्वव्याप्त इन्द्रदेव ! हमारी वंदना की अभिलाषा करने वाले तुम कृत्रिम नदी के समान रस रूप जल प्रदान करने हेतु और निष्पन्न होमों को कब रोकोगे ? हे इन्द्रदेव! देवताओं के बाद ब्रह्मात्मक धन वाले पात्र से सोम का पान करो। देवताओं से आपकी अटूट मित्रता है। हे वन्दना योग्य इन्द्रदेव! हम आपकी वंदना करने वाले हों। हे सोमपायी ! आप हमें सब प्रकार से सन्तुष्ट करने वाले हो। हे इन्द्रदेव! हमारे शरीर के अंगों में शक्ति स्थापित करो क्योंकि आप महान शक्तिशाली हो। यज्ञ के द्वारा वश में होने वाले तुम हमें हितकारी फल प्रदान करो। हे इन्द्रदेव ! आप युद्ध क्षेत्र में शक्तिशाली शत्रुओं का वध करते हो। आप पराक्रमी और स्थिर रहो। आपकी हृदय वंदनाओं से आकृष्ट करने के योग्य हो।
अध्याय (3.5) :: ऋषि :- वशिष्ठ, भारद्वाज, बहिस्पत्य, प्रस्कण्व, नोधा, कलि, प्रगाथः मेधातिथि, भर्ग, कण्व; देवता :- इन्द्र, मरुत; छंद :- बृहती।
हे इन्द्रदेव! आप अत्यन्त पराक्रमी, स्थावर जंगम के स्वामी और सबको देखने वाले हो। बिना दुही गई पयस्विनी गायों के समान सोम से पूर्ण चमस वाले हम आपको बारम्बार नमस्कार करते हैं। हे इन्द्रदेव! हम स्तोता अन्नदान हेतु आपकी ही बन्दना करते हैं। आप सत्य के रक्षक हो। आपको अन्य प्राणी रक्षा के लिए पुकारते हैं। अश्वरोहियों द्वन्द्व में भी आपको बुलाते हैं। अनेक वैभव वाले वे इन्द्रदेव हम स्तोताओं के लिए हजारों प्रकार के धन देते हैं। हे ऋत्विजों! शत्रु बहिष्कारक दर्शनीय, विद्यमान, सोमरूप अन्न से संतुष्ट होने वाले इन्द्रदेव को बछड़ों को देखकर ध्वनि करने वाली गायों के समान वंदनापूर्वक प्रणाम करते हैं। हे ऋत्विजों! वेगवान अश्वों वाले धनदाता इन्द्र की बाधा प्राप्त होने पर बहुत सोम द्वारा रक्षा के लिए उपासना करो। हमने अपने जिस यज्ञ में सोमाभिषव किया है, वहाँ पुत्र द्वारा पिता की सेवा करने के समान ही इन्द्रदेव का आह्वान करते हैं। युद्ध आदि में शीघ्रता वाला पराक्रमी पुरुष अपनी महान बुद्धि से अन्नों को यथा शीघ्र ग्रहण करता है। जैसे बढ़ई रथ चक्र की नेमि को कोमल करता है, उसी प्रकार मैं असंख्यों द्वारा आहूत इन्द्रदेव की वंदना करके तुम्हारे लिए सम्मुख बुलाता हूँ। हे इन्द्रदेव! हमारे द्वारा अभिषुत और गव्यादि से युक्त सोमरस का पान करो, तृप्त होओ और देवताओं को प्रसन्न करने वाले यज्ञ में हमारे मित्र रूप धनदाता होते हुए हमारी वृद्धि की इच्छा करो। आपकी कृपा बुद्धि हमारी रक्षा करने वाली हो। हे इन्द्रदेव! मैं गौ धन की अभिलाषा रखता हूँ। अतः मुझे गौ धन प्रदान करो। मैं अश्व भी चाहता हूँ। अतः मुझे अश्वों से भी पूर्ण करो। हे मरुद्गण ! तुमसे जो छोटे हैं उनको भी स्तोता वशिष्ठ उपासना से वंचित नहीं करते। तुम सब एकत्र होकर सोम के अभिषव होने पर सोम का पान करो। हे वंदनाकारियों ! इन्द्रदेव के श्लोक के अतिरिक्त अन्य श्लोक उच्चारित न करो। सोमाभिषव के बाद काम्यवर्षक इन्द्रदेव की वंदना करो।
अध्याय (3.6) :: ऋषि :- अंगिरस, तुरुहन्मा, मेधातिथिर्मेध्यातिथिश्चः, विश्वामित्र, गौतम, नृमेधपुरुमेधौ, मेधातिथि, देवातिथि, काण्डव; देवता :- इन्द्र; छंद :- बृहती।
हमेशा समृद्ध, पूज्य महान बलवाले अविहष्कृत और शत्रु को दबाने वाले इन्द्र को जो यजमान यज्ञादि कर्मों से अपने अनुकूल कर चुका है उसे कोई नहीं दबा सकता। हे इन्द्र ! बिना सामग्री ही ग्रीवाओं के जोड़ को रक्त निकलने से पूर्व ही जोड़ देते हैं तथा जो असंख्य धनों के मालिक हैं, वे इन्द्रदेव शरीर के कटे हुए हिस्से को दोबारा ठीक कर देते हैं। हे इन्द्रदेव! स्वर्णयुक्त हवियों वाले यज्ञ में सोमपान के लिए आएँ। हे इन्द्रदेव! पथिक जिस तरह मरुदेश को शीघ्र ही पार करते हैं, उसी प्रकार आप अपने मोर के समान रोगों वाले अश्वों से शीघ्र ही प्रसन्न करें और जैसे पक्षियों को व्याघ्र पकड़ता है वैसे ही तुम्हें कोई भी न रोक सके। हे प्रशंसनीय इन्द्र ! तुम अपने तेज से तेजस्वी बनकर अपने उपासक की प्रशंसा करते हो। आपसे अधिक अन्य कोई देवता सुख प्रदान नहीं कर सकता। अतः मैं यह स्तोत्र आपके लिए ही करता हूँ। हे इन्द्रदेव ! आप अत्यन्त यशस्वी शक्तियों के स्वामी और सत्य रूप सोम का पान करने वाले हो और तुम अत्यन्त विकराल असुरों को भी अकेले ही समाप्त कर देते हो। देवताओं के इस यज्ञ में हम इन्द्र की ही आहुति देते हैं। यज्ञ के अवसर पर हम इन्द्र को ही बुलाते हैं। यज्ञ की समाप्ति पर भी हम इन्द्र का ही आह्वान करते हैं। धन लाभ के लिए भी इन्द्र का ही आह्वान करते हैं। हे इन्द्रदेव! मेरी वंदनारूप वाणियाँ आपको प्रवृद्ध करें। अग्नि रूप समान तेज वाले तपस्वी ऋषि स्तोत्रों द्वारा आपकी वंदना करते हैं। शत्रु विजयी, धनपति, अक्षय, रक्षक हे इन्द्रदेव! जैसे अन्नप्राप्ति हेतु ग्थ इधर-उधर गमन करते हैं वैसे ही हमारे मधुर उच्च वंदनारूपी वचन तुम्हारे लिए कहे जाते हैं। जैसे प्यासा और हिरण जल से परिपूर्ण तालाब पर जाता है उसी प्रकार मित्रता होने पर हे इन्द्रदेव! आप हमारे निकट शीघ्र प्रस्थान करो और हम कण्वों द्वारा अभिषुत सोम कृपापूर्वक पान करो।
अध्याय (3.7) :: ऋषि :- भर्ग, रेभः, काश्यप, जमदग्नि, मेधातिथि, नृमेघपुरुमेधौ, वशिष्ठ, रेभः, भरद्वाज; देवता :- इन्द्र, मित्रवरुणादिव्याः; छंद :- वृत्ती।
हे शचिपति वीर इन्द्र! सब रक्षाओं सहित अभिष्ट फल हमें प्रदान करो। आप हमें सौभाग्ययुक्त धन प्रदान करने वाले हो, मैं आपकी ही आराधना करता हूँ। हे वीर इन्द्रदेव! आपने भोगने योग्य धनों को बली राक्षसों से उनकी से उनकी विजय कर ग्रहण किया है, अतः हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव! आप अपने दान द्वारा यजमान को समृद्धशाली बनाओ। हे याज्ञिकों! मित्र अर्यमा और वरुण को प्रसन्न करने वाले श्लोकों का उनके विराजित होने पर गान करो। हे इन्द्रदेव ! स्तोतागण सोमपान हेतु, समस्त देवताओं पूर्व आपकी वंदना करते हैं। रुद्रमरुतों ने भी तुम प्राचीन पुरुषों की वंदना की थी। हे स्तोताओं! अपने महान इन्द्रदेव के लिए अमृत रूप श्लोकों का गान करो। जिन इन्द्र को ऋषियों ने सोमगान के द्वारा सूर्य के तेज से आभूषित किया है। यह पापनाशक इन्द्र अपने सैकड़ों धार वाले वज्र से पापों को दूर करें। हे इन्द्रदेव ! हमें कर्मवान बनाओ। जैसे पिता पुत्र को धन प्रदान करता है, वैसे ही आप हमें धन प्रदान करो। हम प्रातःकाल प्रतिदिन सूर्य के दर्शन करें। हे इन्द्रदेव ! हम आहुतिदाताओं को त्योगो और हमारे लिए सुख देने वाले यज्ञ में सोम पीने के लिए आओ। हे इन्द्रदेव ! हमें अपनी सुरक्षा में रखो और हमारा त्याग न करो। हे इन्द्रदेव! निम्नगामी जल के रूप समान झुकते हुए हमें आपको सोम के अभिषव युक्त ग्रहण होते है तथा कुशा के आसन बिछाने बिछाने वाला स्तोता तुम्हारी कामना करते हैं। हे इन्द्रदेव! जो धन बल मनुष्यों में है तथा जो पार्थिव धन अत्यन्त तेजवान है, उसे हमें दो और सब महान बलों को भी हमें प्रदान करो।
अध्याय (3.8) :: ऋषि :- मेधातिथि, रेभ, वत्स, भारद्वाज, नृमेध, पुरोहन्मा, नृमेध पुरोमेधौ, वशिष्ठ, मेधातिथि र्मेध्यातिथिश्च, कलि; देवता :- इन्द्र; छंद :- बृहती।
हे विकराल कर्मा इन्द्र! तुम सत्य इच्छाओं की वर्षा करने वाले हो। तुम सोमाभिवषमकर्त्ता द्वारा आहुति प्रदान किए गए हमारे रक्षक और वरदाता कहे जाते हो। तुम पास में या दूर से भी अभीष्ट पूर्ण करने वाले माने जाते हो। हे इन्द्रदेव! जब आप स्वर्ग में या अंतरिक्ष में स्थित होते हो तब आपको महिमाप्रद कान्ति वाले घोड़ों के रूप समान वंदनाओं के द्वारा सोभाभिषवकर्त्ता अपने यज्ञ में आहूत करता है। हे उद्गाताओं ! सोम का अभिषव करते हुए तुम शत्रुओं का भयप्रद, शत्रु तिरस्कारक, मेधावी पूज्य और सर्वशक्तिमान इन्द्रदेव की वंदना करो। हे इन्द्रदेव! जाड़ा, धूप, वर्षा आदि से सुरक्षा करने वाला कल्याणप्रद धन परिपूर्ण घर मुझे और मेरे यजमानों को प्रदान करो। शत्रुओं द्वारा छोड़े गए अस्त्रों को इनके निकट से दूर करो। हे मनुष्यों ! जिस प्रकार आश्रय देने वाली किरणें सूर्य की सेवा करती हैं उसी प्रकार इन्द्रदेव के समस्त धनों का उपयोग करो। वे इन्द्र जिन धनों को अपने ओज से प्रकट करते हैं, उन धनों को हम पिता द्वारा प्रदान भाग के समान ही ग्रहण करें। हे दीर्घजीवी इन्द्रदेव! तुमसे प्रथक प्राणी उन विख्यात अन्न को नहीं प्राप्त करते जो इन्द्रदेव! यज्ञ में जाने हेतु अपने हर्यश्वों को योजित करते हैं, उनकी जो वंदना नहीं करता वह उन्हें स्वीकार नहीं होता। हे स्तोताओं! असुरों के साथ युद्ध उपस्थित होने पर जिन्हें अपनी रक्षा के लिए बुलाया जाता है। उन इन्द्रदेव के लिए हमारे यज्ञ में श्लोक उच्चारण करो। जो वृत्रहन्ता, शत्रुनाशी, प्रत्यञ्चा वाले हैं, उन इन्द्रदेव को तीनों कालों में स्तुतियों से अलंकृत करो। हे इन्द्रदेव! पार्थिव निम्न धन तुम्हारा ही है। स्वर्ण आदि मध्यम धन को आप ही पुष्ट करते हो। आप समस्त रत्नादि धनों के सम्राट हो, आप जब भी गवादि धन प्रदान करते हो, तब आपको कोई भी रोक नहीं सकता। हे इन्द्रदेव! कहाँ गए थे ? अब कहाँ गए हो ? आपका मन बहुतों की ओर जाता है। हे रणकुशल और असुरनाशक इन्द्रदेव! यहाँ आओ, हमारे चतुर उपासक तुम्हारो वंदना करते हैं। हम यजमान इन इन्द्रदेव को कल सोम द्वारा संतुष्ट कर चुके हैं। हे इन्द्रदेव! आज अभिषुत हुए इस सोम को प्राप्त करो। हे अध्वर्यो ! इस समय वंदना से उन्हें सुशोभित करो।
अध्याय (3.9) :: ऋषि :- पुरुहन्मा, भर्ग, इरिम्बिठि, जमदग्नि, देवातिर्थि, वशिष्ठ, भारद्वाज, मेध्य काण्व; देवता :- इन्द्र, सूर्य, इन्द्राग्नी; छंद :- बृहती।
रथ द्वारा गमन करने वाले इन्द्र मनुष्यों के स्वामी हैं। उनके समान गमनशील कोई नहीं। वह पाप नाशक और सेनाओं को पार लगाने वाले हैं। मैं उन महान इन्द्र की स्तुति करता हूँ। हे इन्द्रदेव! हम जिससे भय ग्रस्त हैं, उन हिंसाकारक के प्रति हमें अभय प्रदान करो क्योंकि आप अभयदान के बल वाले हो। हमारी रक्षाओं के लिए शत्रु को विजय करो और हमारी हिंसा की इच्छा वालों पर विजय प्राप्त करो। हे गृहपते ! गृह का आधार भूत स्तम्भ दृढ़ हो। हम सोमाभिषव करने वालों को देहरक्षक शक्ति की प्राप्ति हो। असुरों की पुरियों को तोड़ने वाले सोमपायी इन्द्र ऋषियों के सखा बनें। हे सूर्यात्मक इन्द्र देव! आप अत्यन्त तेजस्वी हो। हे आदित्य ! तुम श्रेष्ठ हो। वन्दनाकारी तुम्हारी कीर्ति की वन्दना करते हैं। सूर्य ! आप शक्ति में भी श्रेष्ठ हो। हे इन्द्रदेव! जो व्यक्ति आपका मित्र बन जाता है वह अश्वों, रथों और गायों वाला होकर उच्च रूप और अन्न धन प्राप्त करता है। फिर सबको सुख को देने वाले स्तोत्र वाला होकर श्रेष्ठ रूप और अन्न धन से सम्पन्न होता है। हे इन्द्रदेव ! सौ स्वर्ग भी तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकते। सौ धरा भी तुमसे अधिक नहीं हो सकती। हजारों सूर्य भी तुम्हें रोशनी नहीं दे सकते। कोई भी रचित पदार्थ और धावा धरा भी तुम्हें व्याप्त नहीं कर सकते। हे इन्द्रदेव! पूर्व दिशा में वर्तमान, पश्चिम या उत्तर में वर्तमान तथा निम्र दिशा में वर्तमान उपासकगण अपने राजा के हित के लिए प्रार्थना करते हैं। तुम तुर्वश द्वारा भी बुलाए गए थे। हे व्यापक इन्द्रदेव! आपकी प्रसिद्धि को कोई चुनौती नहीं दे सकता। तुम्हारे लिए जो श्रद्धा से परिपूर्ण यजमान हवि सम्पन्न होता है, वह सोमाभिषव के दिन हवि रत्न देने की इच्छा करता है। हे इन्द्राग्ने ! बिना पाँव वाली वह उषा पाँव वाली प्रजा से पहले आती है और प्राणियों के सिर को कंपित करके उनकी वाणी से ही बहुत अधिक आवाज करती है। यह उषा तुम्हारे प्रताप से ही एक दिन में तीस मुहूर्तों को पार करती है। हे इन्द्र देव! हमारे बिल्कुल नजदीक यज्ञशाला में महान बुद्धि और सुरक्षा युक्त आगमन करो। तुम अपनी कल्याणप्रद कामनाओं से युक्त होकर प्रस्थान करो। हे बंधो ! आप सुख प्रदायक उच्च पदों से युक्त होकर यहाँ पधारो ।
अध्याय (3.10) :: ऋषि :- नृमेध, वशिष्ठ भारद्वाज, परुच्छेप, वामदेव, मेधातिथि, भर्ग, मेधातिथिर्मेध्यातिश्च; देवता :- इन्द्र, अश्विनी; छंद :- बृहती।
हे मनुष्यों! तुम अजर, शत्रु विजेता, गतिमान, यज्ञ मंडप में जाने वाले रथियों में विशेष, अहिंसनीय, जल की वृद्धि करने वाले इन्द्र की रक्षा के लिए अपनी ओर आकर्षित करो। हे इन्द्रदेव! यजमान भी तुम्हें हमसे दूर स्थित न रखें। तुम दूर रहकर भी हमारे यज्ञ में शीघ्रता से प्रस्थान करके हमारी वंदनाओं को सुनो। हे प्राणियों ! सोमपायी वज्र धारणकर्त्ता इन्द्रदेव के लिए सोमाभिषव करो। इन्द्रदेव की तृप्ति हेतु पुरोडाशों को परिपक्व करो। यह इन्द्र यजमान को सुख देते हुए ही आहुति स्वीकार करते हैं। अतः आप भी इन्द्र को प्रसन्न करने वाला अनुष्ठान करो। जो इन्द्रदेव शत्रुओं का हनन करने वाले तथा सभी के द्रष्टा हैं, हम उन इन्द्रदेव को वन्दना द्वारा आहूत करते हैं। हे सैकड़ों तरह के आक्रोश करने वाले अनेक धनों से सम्पू सत्यधारक इन्द्रदेव ! आप युद्ध क्षेत्रों में भी हमारी वृद्धि करने वाले बनो। हे अश्विद्वय तुम हमारे द्वारा कृत कर्मों को ही धन मानते हो। हमारे यज्ञ रूप कर्म का दिन-रात फल प्रदान करो। तुम्हारा दिया हुआ धन उपेक्षा योग्य कभी नहीं होता। इसलिए हमारे दान की भी उपेक्षा न हो। जब कभी प्राणी वंदना, हविदाता यजमान हेतु वंदना करें, तब पापनाशक और विभिन्न कर्मों को धारण करने वाले वरुणदेव की रक्षा निर्मित्त वाणी से वंदना करें। हे इन्द्रदेव! मेध्यातिथे इसलिए सोम से तृप्त होकर तुम हमारी गौओं की रक्षा करो। जो इन्द्र अपने रथ में हर्यश्वों को जोतते हैं वे वज्रधारी स्वर्ण से बने रथ वाले हैं। श्लोक और अस्त्र दोनों तरह की वन्दनाओं को हमारे निकट आकर सुनें और हमारे अनुष्ठान को सम्पन्न करने वाली मति से परिपूर्ण एश्वर्यवान इन्द्रदेव सोमपान हेतु, यहाँ पर पधारें। हे वज्रिन ! मैं महान मूल्य मिलने पर भी तुम्हें नहीं बेच सकता। हजारों के लिए भी विक्रय नहीं करता। मैं अपरिमित धन के लिए भी नहीं बेचता। हे इन्द्रदेव! तुम मेरे पिताश्री से अधिक धन सम्पन्न हो। पोषण न भी करो, तो भी मेरे भाई से बढ़कर ही हो। मेरी माताश्री और आप एक समान हृदय वाले हो पर मुझे अन्न-धन से परिपूर्ण करो।
अध्याय (3.11) :: ऋषि :- वामदेव; देवता :- सविता; छंद :- जगती।
उषा आकाश से पूर्ण दिशा में फैलती हुई सब जगह जाती है। पूर्ण उषाएँ अनुष्ठान स्थान को लक्ष्य बनाती हुई किरणों के तुल्य अर्चित की जाती हैं। सभी उषाएँ एक ही रूप वाली होती हैं। समान, सुन्दर वर्णवाली, चमकदार तथा कांतिमयी हैं। अपने शरीर द्वारा प्रकाश देने वाली है और चारों ओर फैलकर अँधेरा समाप्त करती है। हे प्रकाशमयी सूर्य की बेटियों ! तुम हमें संतान और धन से युक्त करो। हम अपने सुख के लिए तुमसे प्रार्थना करते हैं, जिससे हम संतान से परिपूर्ण ऐश्वर्य के अधिपति बन सकें। हे प्रकाशवान सूर्य की बेटियों ! हम यज्ञ करके तुमसे प्रार्थना करते हैं कि हम समस्त मनुष्यों के मध्य में यश वाले और ऐश्वर्यशाली बनें।
अध्याय (4.1) :: ऋषि :- वशिष्ठ, वामदेव, मेधातिथिमेध्यातिथि, विश्वा मित्र, इत्ये मेधातिथि, बालखिल्प, नृमेध; देवता :- इन्द्र, बध्वः; छंद :- बृहती।
हे वज्रिन! दही मिश्रित यह सोम आपके हेतु ही तैयार किए थे। उन सोम सन्तुष्टि के लिए सोम को पीने के लिए हमारे यज्ञ में घोड़ों के द्वारा हमारे स उपस्थित होने की कृपा करें। हे इन्द्र देव! यह श्लोक सम्पन्न सोम तुम्हारी सन्तुि ही है। आप इसे पीते हुए हमारे यज्ञ के श्लोकों को सुनो। आप श्लोक में मग्न मुझ वंदनाकारी को इच्छित फल प्रदान करें। मैं अधिक दूध वाली, आराम जाने वाली, प्रशंसा के योग्य अनेक दुग्धधारा वाली, इच्छा के योग्य गौ के सुशोभित इन्द्र को आहुति देता हूँ। हे इन्द्र देव! बड़े-बड़े सुदृढ़ पहाड़ भी शक्ति को रोकने में असमर्थ हैं। मेरे समान जिस वंदनाकारी को आप धन करते हो, उस धन दान को कोई रोक नहीं सकता। अभिषुत सोम को ऋ साथ पान करने वाले इन्द्र सा ज्ञानी कौन है ? यह इन्द्र ही सोम से तृप्त हो परियों को अपनी ताकत से नष्ट कर डालते हैं। हे इन्द्रदेव! यज्ञ में विघ्न वालों को आप तुरन्त सजा देते हो। इसलिए हमारे अनुष्ठान के चारों तन डालने वालों को दूर करो और हमारे सोम की खूब बढ़ोतरी करो। त्व पर्जन्य, ब्राह्मणस्पते अपने पुत्रों और भाइयों के सहित अदिति हमारे यज्ञ में से वंदना रूपी वाणी की रक्षा करें। हे इन्द्रदेव! आप हिंसक वृत्ति वाले कभसकते। आप हविदाता के पास ऋत्विज को उत्साहित करते हो। हे इन्द्रदेव असंख्य दान हमें ग्रहण होता है। हे इन्द्र देव! अपने अश्वों को रथ में जोड़ों आप बहुत अधिक पराक्रमी हो। दर्शन योग्य मरुद्गण के सहित स्वर्ग से हमारे सम्मुख पधारो। हे वज्रिन! तुम्हें हविदाता यजमानों ने आज पहले सोमपान कराया था। आप हमारे अनुष्ठान में पधारकर हमारे वंदनकारी के श्लोकों को सुनने की कृपा करो।
अध्याय (4.2) :: ऋषि :- वशिष्ठ, अश्विनी, प्रस्कण्व, मेधातिथिर्मेध्यातिथि, देवातिथि, नृमेघ; देवता :- उषा, अश्विनी, इन्द्र; छंद :- बृहती।
अँधेरे को नष्ट करती हुई आने वाली उषा के सभी ने दर्शन किए वह घोर अंधकार को दूर कर अत्यन्त प्रकाश को करने वाली है। हे अश्विद्वय ! आप स्वर्ग की इच्छा रखने वालों के लिए पुकारता हूँ क्योंकि आप अपने वंदनाकारी के नजदीक पहुँचते हो। हे अश्विद्वय ! तुम स्वयं प्रकाशवान हो। कौन-सा पार्थिक देहधारी आपका प्रकाश है? आपके लिए सोमाभिषव करके भका हुआ यजमान राजा के समान ऐश्वर्यवान् होता है। हे अश्विद्वय! आपके साक्षात यह मधुर सोम अभिषुत हुआ है। पहले दिन निष्पन्न हुए मधुर सोम का पान करो और हविदाता को महान धन प्रदान करो। हे इन्द्रदेव ! सिंह के समान आपकी सोमरस के साथ वंदना करता हूँ और आपसे प्रार्थना करता हूँ। अपने स्वामी से कौन-सा मनुष्य प्रार्थना नहीं करता? हे अध्वर्यो! तुम सोम को उत्तरवेदी पर पहुँचाओ क्योंकि यह इन्द्रदेव सोमपान की इच्छा करते हैं। सारथी द्वारा योजित रथ में वत्र हन्ता इन्द्रदेव यहाँ आ गए। हे महान इन्द्र ! उस पार्थिव धन को सब ओर से लाकर दो। तुम अनेकों द्वारा प्रार्थना करने योग्य तथा युद्धों में बुलाए जाने योग्य हो। हे इन्द्रदेव ! आप जितने धन के स्वामी हो वह धन मेरा ही होगा। मैं अपने सोम गाता वंदनाकारी को धन प्रदान करने में समर्थ बनूँ। मैं बेकार समाप्त करने को धन का उपयोग न कर सकूँ। हे इन्द्र ! तुम सब युद्धों में शत्रुओं का दमन करते हो। तुम देवताओं के क्रोध से बचाते हो। तुम ही हमारे शत्रुओं को संकट देते हो और उन्हें नष्ट भी करते हो। जो दुष्ट व्यक्ति हमारे कार्य में बाधा डालते हैं, उन्हें भी नष्ट करते हो। हे इन्द्रदेव! आप स्वर्ग में महान स्थान को ग्रहण किए हुए हो। पृथ्वीलोक भी स्वर्ग से विशाल नहीं है। आप महान हैं। आप सभी का तिरस्कार करते हुए हमारी रक्षा करो।
अध्याय (4.3) :: ऋषि :- वशिष्ठ, गातु, पृथर्वेन्यः, सुप्तुगुः गौरिविति, वेनो भार्गव, बृहस्पतिर्नकुलो वा, सुहोत्र; देवता :- इन्द्र; छंद :- त्रिष्टुप।
हव्यादि से सुसंस्कृत सोम का हमने अभिषव किया है। इसके प्रति इन्द्र द्रेव स्वभाव से ही आकर्षित होते हैं। हे इन्द्र! हम आपको आहुतियों द्वारा प्रसन्न करते हैं। तुम सोम से प्रसन्न होकर हमारी वंदनाओं को सुनो। हे इन्द्रदेव! आपके बैठने के लिए यह स्थान बनाया गया है। आप असंख्य मनुष्यों के द्वारा आहूत हुए हो। मरुद्गण युक्त होकर अपने उस स्थान पर विराजमान होकर हमारे रक्षक तथा वृद्धिकारक बनो। हमें धन प्रदान करते हुए सोमों से संतुष्ट होओ। हे इन्द्रदेव! आपने जल युक्त मेघों को फाड़ डाला। मेघों में से जल निकलने के मार्गों को बनाया। जल रोकने वाले मेघों ने असुरों को नष्ट किया। हे इन्द्र देव! हम सोमाभिषवकर्त्ता आपकी वंदना करते हैं। आप धनदाता को पुरोडाश का भाग हो। अतः आप हमें धन जो अत्यन्त अभिलाषा के योग्य है, वही हमें प्रदान करो। आपके अनेक धनों को तो आपकी कृपा होने मात्र से ही प्राप्त कर लेते हैं। हे धनेश्वर ! हम आपके दाएँ हाथ को अपनी इच्छा से पकड़ते हैं। हे पराक्रमी इन्द्र देव! हम आपको गायों के स्वामी के रूप में जानते हैं। अतः हमें मनवांछित फल वाला धन प्रदान करो। हम युद्ध में सुरक्षा वाले कर्म को प्रयोग करते हैं, द्वन्द्व में इन्द्रदेव को रक्षार्थ बुलाते हैं, ऐसे इन्द्र हमारे द्वारा अन्न की विनती करने पर हमें पशुओं से सम्पन्न गृहवाला बनाओ। सुखदात्री, गतिमान, यज्ञ प्रिय दर्शनीय सूर्य की किरणें इन्द्रदेव को प्राप्त हुई हैं। हे इन्द्र ! तुम अंधकार का नाश करो। हमें दृष्टिवान करो। हमें पापों से मुक्त करो। हे वेन ! तुम महान वृद्धि करने वाले अंतरिक्ष में विचरणशील स्वर्ण पंखवाले, जल के अभिमानी देव वरुण के दूत यम के स्थान में पक्षी के रूप में स्थित और वर्षा आदि के द्वारा पालक हो। तुम्हारी इच्छा वाले वंदनाकारी अंतरिक्ष की ओर देखते हैं। वेन नामक गंधर्व ने आनन्द सूचक ध्वनि करते हुए श्र्वोत्पन्न ब्रह्मा को दर्शनीय तेज से युक्त किया है। उसी गंधर्व ने आदित्य आदि के तेज की स्थापना की। उसी से उत्पन्न हुए तथा भविष्य में उत्पन्न होने वाले प्राणियों के स्थान को बनाया। महान पराक्रमी, वीर, शीघ्रकर्मा, प्रबुद्ध और वज्रधारी उस इन्द्र के लिए स्तोतागण अत्यन्त सुखदायक एवं नवीन श्लोकों को कहते हैं।
अध्याय (4.4) :: ऋषि :- द्युतान, वृहदुक्य, वामदेव, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौरिवीति; देवता :- इन्द्र; छंद :- त्रिष्टुप।
दस हजार असुरों को लेकर आक्रमण करने के लिए कृष्णासुर अंशमती नदी पर पहुँचा। उन भयप्रद शब्द वाले असुरों के पास मरुद्गणों को लेकर इन्द्र पहुँचे। उन समान मन वाले देवताओं ने हिंसक असुरों की सेना का संहार कर डाला। हे इन्द्र देव! यह विश्व देव आपके सखा व मित्र थे। वे सभी वृत्रासुर के श्वास से भयग्रस्त होकर चारों ओर भागने लगे और आपका साथ छोड़ दिया परन्तु मरुदगण ने साथ नहीं छोड़ा। आप उन मरुतों से मित्रता बनाए रखो। आप इन शत्रुओं पर विजय कायम कर सकोगे। युद्ध क्षेत्र में बहुत से शत्रुओं को भगाने वाले वीर युवकों को भी इन्द्र की कृपा प्राप्त वृद्ध हरा देते हैं। जो वृद्व आज मरता है वह दूसरे दिन ही जन्म ले लेता है। इन्द्रदेव की यह सामर्थ्य महिमामयी है। हे इन्द्रदेव! आप अत्यन्त पराक्रमी होकर ही प्रकट होते हो। आपने ही सात असुरों के नगरों का पतन किया और अंधकार से ढकी द्यावा धरा को सूर्य से प्रकाशमान किया। हे इन्द्रदेव! आप शत्रुओं के बल को क्षीण करने वाले और हमें विजयी बनाने वाले हो। जैसे वर्षा कराने वाली वाणी की प्रार्थना की जाती है वैसे ही आप मेघों के प्रेरक, जलों के धारक, काम्यवर्षक दृढ़ वज्रधारी को स्तुति द्वारा प्रसन्न करता हूँ। हे ऋत्विजों! धन की वृद्धि कराने वाले श्रेष्ठ इन्द्र देव के लिए सोम अर्पण करो। वे इन्द्र देव परमज्ञानी है। उनकी उपासना करो। हे इन्द्रदेव! तुम इच्छा पूर्ण करने वाले हो, अतः हविदाता प्राणियों के निकट प्रस्थान करो। अन्न लाभ कराने वाले, विजय दिलाने वाले, युद्ध में विश्व के स्वामी इन्द्रदेव का हम आह्वान करते हैं। यह इन्द्रदेव शत्रुओं को भयभीत करने वाले असुरों के हननकर्त्ता शत्रु धन विजेता हैं। हे इन्द्र! इस प्रकार हम अपनी रक्षा के लिए तुम्हें आहुति प्रदान करते हैं। हे ऋषियों! इन्द्रदेव के लिए श्लोक और हवियों को अर्पण करो। अपने अनुष्ठान में इनकी उपासना करो। जो इन्द्रदेव सब लोकों को अपनी समृद्धि से वृद्धि करते हैं वे हमारे श्लोकों को सुनें। इन इन्द्रदेव का शस्त्र मेघ हनन के लिए आकाश में स्थित हुआ। उसी इन्द्रदेव के लिए जल को अपने आधीन किया। धरा में सींचित जल औषधियों में स्थित होता है।
अध्याय (4.5) :: ऋषि :- अरिष्टनेमिस्तार्थ्य, भारद्वाज, वसुकृद्धा वासुक्रः, वामदेव, विश्वामित्र, रेणु, गौतम; देवता :- तार्थ्य, इन्द्र, इन्द्रापर्वतौ; छंद :- त्रिष्टुप।
उन प्रसिद्ध अन्न वाले सोम के लिए प्रेरित रथों को युद्ध क्षेत्र में लाने वाले, शत्रु विजेता, द्रुतगामी तार्थ्य को कल्याण के लिए आहुति देते हैं। मैं रक्षक इन्द्रदेव का आह्वान करता हूँ। अभीष्टपूरक इन्द्रदेव का आह्वान करता हूँ। युद्ध क्षेत्रों में पुकारने योग्य इन्द्रदेव को आहूत करता हूँ। वे इन्द्रदेव हमारे दिव्य का पान करें। दाएँ हाथ में वज्रधारण करने वाले, अश्वों को रथ में जोड़ने वाले इन्द्र की हम पूजा करते हैं। सोमपान के पश्चात् दाढ़ी मूँछ को कम्पित करते हुए वे इन्द्र विभिन्न धनों को प्रदान करते हैं। हम वंदनाकारी, शत्रुहन्ता, बहिष्कारक, शत्रुओं को दूर करने वाले, काम्यवर्षक, वज्रधारी इन्द्र देव की वंदना करते हैं। वे इन्द्र वृत्रहन्ता, अन्नदाता और महान धनो को प्रदान करने वाले हैं। हमें हिंसित करने की इच्छा वाला, हम पर आक्रमण करने वाला, अपने को महान हुआ जो मनुष्य क्षीण करने वाले शस्त्रों को लेकर आक्रमण करता है, उसे हम भली प्रकार तिरस्कृत करें।
आक्रोशित मनुष्य जिसे बुलाते हैं, परस्पर हिंसा करने वाले पुरुष जिसे बुलाते हैं, जल की कामना से जिन्हें बुलाते हैं और मेघाजीवन जिन्हें हवि अर्पण करते हैं, वह और कोई नहीं, इन्द्रदेव हैं। हे इन्द्र देव और पर्वत! तुम महान् रथ द्वारा आकर प्रार्थना योग्य अन्न प्रदान करो। हमारे यज्ञों में आकर हवि का भ्रमण करो और उससे तृप्त होकर वंदनाओं से प्रसन्न होओ। निरन्तर उच्चारित जो वंदनाएँ इन्द्र द्वारा निर्माण की जाती हैं, उनसे वे जलों को आकर्षित करते हैं और धावा तथा स्वर्ग को रथ चक्र के समान स्थिर रखते हैं। हे इन्द्रदेव ! उपासकगण आपको उपासनाओं से आकर्षित करते हैं। आप उड़ते हुए अंतरिक्ष गामी हुए थे। हमारे अनुष्ठान में तेज से अत्यन्त दीप्तीमान हुए इन्द्रदेव मुझे पुत्र प्रदान करें। सत्य के ज्ञाता, इन्द्र के रथ में योजित तेजस्वी, आवेशयुक्त, इन्द्र को वहने करने वाले अश्वों के रथ-वहन की प्रशंसा करता है, वह चिरंजीवी होता है।
अध्याय (4.6) :: ऋषि :- मधुछन्दा जेता, माधुच्छंदस, गौतम, अत्रिः, तिरश्चीरंगिरस काण्वो, नीपातिथि, विश्वामित्र, शंपुर्बाहस्पत्य; देवता :- इन्द्र; छंद :- अनुष्टुप।
हे इन्द्र! उद्गाता आपकी स्तुति करते हैं। मंत्रोच्चारण करने वाले हविदाता तुम्हारी उपासना करते हैं। जैसे बाँस की नोंक पर नाचने वाले नट आदि बाँस को ऊँचा करते हैं, उसी प्रकार हम तुम्हें उच्च आसन पर प्रतिष्ठित करते हैं। समुद्र के समान श्रेष्ठ रथियों में महारथी, अन्नों के स्वामी इन्द्रदेव की हमारी समस्त वंदनाओं ने वृद्धि की। हे इन्द्र देव! इस अत्यन्त प्रशंसनीय तृप्तिप्रद अभिषुत सोम का पान करो। यज्ञ मंडप में स्थित इस उज्जवल सोम की धाराएँ तुम्हारे अभिमुख गमन करती हैं। हे इन्द्रदेव ! तुम दिव्य शक्ति वाले, वज्रधारी, मेधावी और व्याप्त हो। आपका जो देय धन इस संसार में नहीं है उसको अपने दोनों हाथों से लाकर हमें प्रदान करो। हे इन्द्रदेव! जो तुम्हारी हवियों की उपासना करता है वह मैं ही निश्चय तुम्हारी प्रार्थना करता हूँ। उसे सुनकर मुझे श्रेष्ठ अपत्य गवादि पशु और सब प्रकार का धन देकर परिपूर्ण करो क्योंकि आप महान हो। हे इन्द्रदेव ! सोम आपके लिए सम्पादित हुआ है। आप अत्यन्त बलशाली और शत्रुओं का बहिष्कार करने वाले हो। हमारे इस अनुष्ठान में प्रस्थान करो। सूर्य द्वारा अंतरिक्ष को रश्मियों से पूर्ण किए जाने के समान आपको सोम की शक्ति पूर्ण करें। हे इन्द्रदेव अपने अश्वों पर आरूढ़ होकर मुझ कण्व की श्रेष्ठ स्तुति के प्रति आओ। जब आप स्वर्गलोक का शासन करते हो तब हम प्रसन्न होते हैं। हमारे कर्म की समाप्ति पर स्वर्ग को भेजो। हे वंदनामय इन्द्रदेव! सोमाभिषव के पश्चात् हमारी वाणियों, रथ के युद्ध में पहुँचने के समान आपके सामने शीघ्र ही पहुँचती है। हे इन्द्रदेव ! हमारी वाणियाँ गौएँ जैसे बछड़ों के पास ध्वनि करती हुई जाती हैं, वैसे ही जाती हुई आपकी वंदना करती हैं। शीघ्र पहुँचकर शोधित सोम के द्वारा और शुद्ध करने वाले उकथ्य के द्वारा पवित्र हुए इन इन्द्र की वंदना करें। पापमुक्त होकर वृद्धि को प्राप्त हुए इन्द्र को श्लोकों द्वारा गौ-दूध आदि में सुसंस्कृत हुआ यह सोम हर्ष देने वाला है। हे इन्द्रदेव! जो सोम अत्यन्त सुख प्रदान करने वाला है और अपने प्रकाश से अत्यन्त तेज वाला है, वह सोम आपके भक्तों को धन देने वाला हो। हे स्वाधिपति इन्द्र देव! यह निष्पन्न हुआ सोम आपको प्रसन्नता प्रदान करने वाला होता है।
अध्याय (4.7) :: ऋषि :- भारद्वाज, वामदेव, शाकपूतोवा, प्रियमेघः, प्रगाथ, श्यावश्व, आत्रेय, शंयु, वामदेवा, जेता माथुच्छन्दस; देवता :- इन्द्र, मरुत, दधिक्रा वा; छंद :- अनुष्टप।
हे यज्ञ कर्म में नेता उध्वर्युओ! सोमपान की कामना वाले, सबके ज्ञाता, यज्ञों में जाने वाले और आगे जाने वाले इन्द्र के लिए सोम अर्पित करो। हे इन्द्रदेव! तुम हमारे मित्र हो। असंख्य गुफाओं में वर्तमान हमारे सोम को लाकर पहले ही जगत के स्थित हमारे भयानक मानवी संकल्प का पतन करो यानि हमारे मनुष्य जन्म को नष्ट कर हमें देवता बना दो। हे इन्द्र ! रक्षा के लिए जैसे रथ को घुमाते हो वैसे ही तुम अत्यन्त बली शत्रु तिरस्कारक और सत्य रक्षक इन्द्र को हम भ्रमण कराते हैं। वे इन्द्र अपने प्रमुख आराधक यजमानों के अनुष्ठानों द्वारा उनकी हवियों की अभिलाषा करते हुए आते हैं। उस इन्द्रदेव की प्राप्ति वाले अनुष्ठानों को देवों के पोषक प्राणी पाते हैं। हे इन्द्र ! जिस रथ में जुड़े वाहन तुम्हें अभिमुख करते हैं। उस अनुष्ठान में मधु रूप एवं हर्षकारक सोम का भक्षण करते हुए तुम अन्न के लिए वर्षा करने वाले, शक्ति के रक्षक, बैरी बहिष्कारक कार्यों में स्थित, विश्वरूप धन वाले इन्द्रदेव की तुम्हारे लिए वदंना करता हूँ। घोड़े के समान गति वाले विजयशील अग्नि की आराधना करता हूँ। यह अग्नि हमारे मुख आदि को सशक्त करे और हथियारों की वृद्धि करें। यह इन्द्रदेव शत्रु नगरों के विध्वंसक, नित्ययुवा, क्रांतिदर्शी अत्यन्त ओजस्वी, विश्वकर्मारूप को धारण करने वाले वज्रहस्त और असंख्यों द्वारा पूजनीय है।
अध्याय (4.8) :: ऋषि :- प्रियमेध, वामदेव, मधुच्छंदा, भारद्वाज, अत्रि, प्रस्कण्व, आप्त्यस्त्रित; देवता :- इन्द्र, उषा, विश्वेदेवा; छंद :- अनुष्टप।
हे अध्वर्यो! तुम त्रिष्टुप से युक्त अन्न को वीरों के प्रशंसक इन्द्र के प्रति निवेदित करो। वे इन्द्र अनुष्ठान के लिए अत्यन्त ज्ञान वाले कर्म का सेवन करते हैं। इन्द्र के घोड़ों के समस्त कार्य अनुष्ठान के लिए हैं। अनुष्ठान में आने के लिए ही योजित किए जाते हैं, यह बात स्वर्ग ज्ञाता पुरुष कहते हैं। हे अध्वर्यो ! इन्द्रदेव का पूजन करो। यज्ञ कर्म से प्रेम करने वाले पूजकों ! इन अभिष्ट और शत्रु तिरस्कारक का बारम्बार पूजन करो। शत्रु-नाशक इन्द्र के लिए वृद्धि के समान रूप उक्थ प्रशंसनीय है। इससे प्रसन्न हुए इन्द्रदेव हमारे पुत्र इत्यादि तथा हम मित्रों में वर्तमान होकर प्रसन्नता के शब्द करें। हे मरुद्गण! आपके सहित वैश्वानर न झुकने वाले बल के स्वामी इन्द्रदेव को अपने सैनिकों और रथों के जाने के समय में रक्षा के लिए आहुति देता हूँ। शांत हृदय से अपने कार्य में लगे हुए मनुष्यों में अद्भुत गुणयुक्त वंदना करने वाला पुरुष वंदनाकारी आपकी रक्षाओं से रक्षित होकर, शत्रुओं को पाप के समान पार करता है। हे शतकर्मा इन्द्र! आपका महान धन वाला दान बहुत है। इसलिए आप महान दानी हो। आप हमें धन प्रदान करो। हे उषे! आपकी रोशनी फैलाने वाले प्रस्थान पर प्राणी, पशु और पक्षी सभी अपनी इच्छानुसार भ्रमण करते हैं। हे देवताओं ! आप सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होने पर आकाश में स्थित हो। आपके श्लोक से सम्बन्धित सत्य और असत्य कहाँ हैं? आपकी पुराने समय की आहुति कौन-सी है ? जिन श्लोक आदि के द्वारा होता और उद्गाता यज्ञ कर्म करते हैं, उन ऋचा और सोम से हम अनुष्ठान करते हैं। वह ऋचाएँ श्लोक से सुसज्जित होती हैं और यज्ञीय हिस्से को देवताओं को ग्रहण कराती हैं।
अध्याय (4.9) :: ऋषि :- रेभ, सुवेदा, शैलूषि, वामदेव, सव्य आंगिरस, विश्वामित्र, कृष्ण आंगिरस, भारद्वाज, मेधातिथि, कुत्स; देवता :- इन्द्र, द्यावा-पृथ्वी; छंद :- जगती, महापंक्ति।
आक्रमण करने वाली सब ओर फैली हुई सेना एक होकर शत्रु तिरस्कारक युद्ध में इन्द्र को हथियार प्रदान करती हैं और उपासक उन ऐश्वर्यवान इन्द्रदेव को यज्ञ में प्रकट करते हैं। वे सत्य कर्म के लिए शत्रुहंता तेजस्वी इन्द्र की धन लाभार्थ उपासना करते हैं। हे इन्द्रदेव! मैं आपके मुख्य आवेश को आस्था से देखता हूँ। उस आवेश से आपने असुरों को प्रताड़ित किया और बादलों में छिपे जलों को इस संसार में भेजा है। जब द्यावा धरा तुम्हारे आश्रय में होते हैं तब विशाल अंतरिक्ष भी आपकी शक्ति से डरता है। हे प्राणियों! स्वर्ग और शक्ति के स्वामी इन्द्रदेव को श्लोक और आहुति द्वारा प्राप्त होओ। जो एकांकी हो यजमानों में अतिथि की तरह पूज्य होते हैं, वे पूज्य मनुष्य इन्द्र शत्रु जय की कामना वाले स्तोता को विजय पथ पर अग्रसर करते हैं। हे असंख्य प्राणियों द्वारा वंदित और अत्यन्त समृद्धि वाले इन्द्र देव! हम आपकी शरण में होकर ही अनुष्ठान में प्रवृत होते हैं। हमारी वंदनाओं को आपसे अलग कोई भी प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे धरा अपने में रचित समस्त प्राणधारियों को शरण प्रदान करती है वैसे ही हमारे श्लोक को शरण प्रदान करो। हे आराधकों! वदना रूपी वाणी के अभीष्ट योद्धा, ऐश्वर्यवान, प्रशंसनीय अनेकों द्वारा पूज्य इन्द्र का गान करो। स्त्रियाँ जैसे बलवान पति की रक्षा के लिए अभिलाषा करती है, उसी प्रकार स्वर्ग में संगठित होने वाली अभिलाषा पूर्ण नदियाँ इन्द्रदेव की वंदना करती हैं। शत्रुओं से युद्ध के लिए आतुर, यजमानों द्वारा आहुत धनों के निवास स्थान इन्द्रदेव के कार्य सूर्य रश्मियों के समान मनुष्यों का भला करने वाले होते हैं। उन मेधावी और महान इन्द्रदेव का सुख के लिए पूजन करो। जिनके साथ भू ग्रहण होती है, उन शत्रुस्पर्धी धनदाता, रथ के समान गन्तव्य स्थान को ग्रहण करने वाले, घोड़े के समान द्रतुगामी इन्द्रदेव की रक्षार्थ आराधना करो और वन्दनायुक्त सौ प्रदक्षिणा करो। द्यावापृथ्वी जल वाले प्राणियों के निवास के योग्य है। यह जल को प्रेरित करने वाले वरुण की शक्ति से ठहरे हुए और महान वीर्य वाले हैं। हे इन्द्र ! जैसे उषा अपने प्रकाश से समस्त संसार को पूर्ण करती है, वैसे ही आप द्यावाधरा को अपने तेज से पूर्ण करते हो। इस तरह से तुम विशाल से विशाल प्राणियों के स्वामी इन्द्रदेव को अदिति ने निर्मित किया। इस कारण वह माताओं में महान बनीं। हे ऋत्विजों! इन्द्र के निमित्त हवियुक्त उपासना का उच्चारण करो। जिसने ऋषियों को साथ लेकर कृष्णासुर को स्त्रियों सहित नष्ट कर डाला, उन अभीष्ट वर्णक वज्रधारी मित्रभूत इन्द्र का आह्वान करते हैं।
अध्याय (4.10) :: ऋषि :- नारद, गोपूक्त्यश्वसूक्तिनौः, पर्वत, विश्वमना, वैयश्व, नृमेघ, गौतम। देवता :- इन्द्र; छंद :- उष्णिक।
हे इन्द्र! सोमाभिषव होने पर उसका बल लाभ के लिए ग्रहण और अपने पूजक को पवित्र करते हो, ऐसे तुम अत्यन्त ही महान हो। हे प्रार्थना करने वालों! असंख्यों द्वारा पुकारे गए, असख्यों से वंदित उन इन्द्रदेव की बारम्बार वंदना करो। वे इन्द्रदेव श्रेष्ठ हैं, उनकी मंत्रों से उपासना करो। हे वज्रिन! तुम्हारे उन अभीष्ट वर्षी युद्धों में, शत्रु तिरस्कारक, लोकों के रचियता और हर्यश्वों से सेवनीय सोम से उत्पन्न हुए आनन्द की प्रशंसा करते हैं। हे इन्द्र देव! विष्णुजी के प्रस्थान पर तुम उनके संग अन्न यज्ञ में सोम का भक्षण करते हो। आपके पुत्र त्रित के अनुष्ठान में भी तुम सोम का भक्षण करते हो। मरुद्गण के पधारने पर उनके साथ भी सोम पीते हो, फिर भी हमारे इन महान सोमों से खुशी को ग्रहण करो। हे अध्वर्यो! हर्षदाता सोम के आनन्ददाय रस को इन्द्र के लिए सिंचित करो। यह समर्थ इन्द्र ही श्लोक आदि के द्वारा पूजित होते हैं। हे ऋत्विजों! इस महान सोम को इन्द्र देव के लिए ही सींचो। फिर इन्द्रदेव इस रस का पान करें और वंदनाकारियों को अपनी समृद्धि से महान अन्न को अपरिमित रूप से प्रदान करें। हे सखा भूत ऋत्विजों? तुम शीघ्र ही प्रस्थान करो और सभी के स्वामी इन्द्र देव की वन्दना करो। वे इन्द्रदेव सभी शत्रु सेनाओं को स्वयं ही वशीभूत करते हैं। हे उद्गाताओं! मेधावी महान अन्न के उत्पन्न करने वाले तथा वंदना की इच्छा करने वाले इन्द्र के लिए बृहत्साम का गान करो। अकेले ही जो इन्द्र आहुतिदाता यजमान को धन देते हैं, वे इन्द्र देव सम्पूर्ण संसार के स्वामी हैं। हे ऋत्विजों! हम वज्रधारी इन्द्र देव के लिए वंदना करते हैं। तुम सभी के लिए शत्रु बहिष्कृत इन्द्र देव की मैं वन्दना करता हूँ।
अध्याय (5.1) :: ऋषि :- प्रगाथ, भारद्वाज, नृमेध, पर्वत, इरिम्बिठि, विश्वमना, वशिष्ठ; देवता :- इन्द्र, आदित्य; छंद :- उष्णिक, विराडुष्णिक।
हे इन्द्र! आपके श्रेष्ठ बल के लिए एवं यज्ञ हेतु आपको वंदना करता हूँ। आप अपनी शक्ति से वृत्र का नाश करते हो। हे इन्द्रदेव! जिस सोम पान द्वारा खुशी होने पर आपने दिवोदास के शत्रु शम्बरासुर का नाश किया उस सोम का तुम्हारे लिए अभिषव किया गया है, आप उसका पान करो। हे इन्द्रदेव! आप शत्रुओं को नष्ट करने वाले, शत्रुओं पर विजय पाने वाले, सबके प्रिय स्वर्ग के अधिपति और पर्वतों की तरह महान हो। आप हमारे समीप आओ। हे सोमपायी इन्द्रदेव! आपका सोमपान जनित खुशी वृत्र वध आदि कार्य को जानने वाला है। आप उस शक्ति से असुरों को नष्ट करते हो। हम आपकी उस शक्ति की वंदना करते हैं। हे आदित्य ! हमारे पुत्र पौत्रों को दीर्घ आयु प्रदान करो। हे वज्रिन ! बाधा उपस्थित करने वालों को दूर करने का काम आप ही जानते हो। सूर्योदय के समय कर्मशील ब्राह्मण नित्यप्रति शुद्ध होते हैं और सूर्य उदय होने पर पक्षी सभी दिशाओं में विचरण करते हैं, उसी प्रकार आपकी शक्ति के उदय होने पर शत्रु भी भाग जाते हैं। हे आदित्य ! हमसे रोगों को दूर रखो। बाधा उत्पन्न करने वाले शत्रु को हमारे पास से दूर रखो। जो हमें दुःख देने की इच्छा करे उसे दूर हटाओं और हमें पापों से दूर रखो। हे इन्द्रदेव! सोमपान करो ! यह सोम आपको प्रसन्नता प्रदान करने वाला बने। अश्वों के समान ग्रहित सोमभिवव प्रस्तर ने तुम्हारे लिए सोम को संस्कृत किया है।
अध्याय (5.2) :: ऋषि :- सोभरि, नृमेध; देवता :- इन्द्र, मरुत, ककुप।
हे इन्द्रदेव! आप जन्म से ही बाँधवरहित, शत्रुरहित और प्रभुत्व कारक से रहित हो। जब आप अपने किसी पूजक की सुरक्षा करना चाहते हो तब आप उसके मित्र बन जाते हो। हे मित्रों! जिन इन्द्रदेव ने इस महान सम्पत्ति को हमें अधिक मात्रा में पहले ही प्रदान किया था, उसी धन वाले इन्द्रदेव की तुम्हारे धन-लाभ और रक्षा हेतु वंदना करता हूँ। हे मरुद्गण ! हमारे पास आओ, हमें हानि न पहुँचाओ। आप दृढ़ पर्वत आदि को भी नियम में रखते हो इसलिए हमारा त्याग न करो। हे अश्वों, गौओं और अन्नवत्ती धरा के स्वामी इन्द्रदेव! आपके लिए यह सोम प्रस्तुत है, आप यहाँ आकर इसका पान करो। हे अभिष्टवर्षी इन्द्रदेव ! गौ आदि पशु वाले यजमान के स्थान में श्वास लेते हुए शत्रु को आपकी कृपा से ही हम उत्तर दे सकते हैं। हे मरुद्गण गौएँ भी समान जाति होने के कारण बाँधव युक्त हुई और दिशाओं में जाकर परस्पर स्नेह करती है। हे शतकर्मा इन्द्रदेव! आप हमें ओज और धन प्रदान करें। आप अपनी शक्ति से शत्रु की सेनाओं को नष्ट करते हो। हम आपका आह्वान करते हैं। हे इन्द्रदेव! हम इच्छित पदार्थों को अपने आप स्नेह वाले तुम्हारे दूध और घृत मिश्रित सोम के निकट संगठित हुए हम आपको तुम्हें बारम्बार नमस्कार करते हैं। हे वज्रिन ! सोम से तुम्हें पुष्ट करने वाले हम अपनी रक्षा के लिए आपको पुकारते हैं। जिस तरह अधिक गुणवान व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को बुलाते हैं।
अध्याय (5.3) :: ऋषि :- गौतम, त्रित, अवस्यु; देवता :- इन्द्र, विश्वेदेवा, अश्विनौ; छन्द :- पंक्ति।
सब यज्ञों में निष्पन्न होने वाले रस युक्त मधुर सोम का सफेद रंग वाली गायें पान करती हैं। ये गायें भी अभीष्टवर्धक इन्द्र का अनुसरण करती हुई सुखी होती हैं और दूध पीती हैं और अपने स्वामी के राज्य में निवास करती हैं। हे वज्रिन! इस प्रकार तुम्हारे सोम प्राप्त करने पर वंदना करने वाले आनन्द देने की विनती करता है, तब तुम अपने साम्राज्य में दृढ़ होकर वृत्र पर शासन करते हो। हे वृत्रहन् शक्ति के लिए बल, बल के लिए याज्ञिकों द्वारा प्रबुद्ध किए तुम सभी छोटे-बड़े युद्धों में बुलाए जाते हो। हमारे द्वारा आहुत इन्द्र युद्धादि में हमारी उत्तम प्रकार से रक्षा करें। हे व्रजिन! तुम्हारी शक्ति किसी से बहिष्कृत नहीं हुई है। उसी शक्ति से तुमने अपना प्रभुत्व दिखाते हुए माया व हिरण रूप वृत्र को अपनी माया से समाप्त कर दिया। हे इन्द्र ! जल्दी से आक्रमण कर शत्रुओं को पकड़ो क्योंकि तुम्हारा बल शत्रुओं द्वारा रोका नहीं जा सकता। तुम्हारे बल के सामने सभी झुकते हैं। इस कारण हमने प्रमुख को प्रकट करने वाले तुम उस सूत्र को मारकर जलों को जीतो। युद्ध के उपस्थित होने पर जो बैरी को जीतता है उसे ही धन मिलता है। हे इन्द्रदेव ! ऐसे युद्धों में रिपु के घमंड का पतन करने वाले अपने घोड़ों को योजित करो और अपने बैरी को मारो, अपने अराधक के धन में स्थापित करो। हे इन्द्रदेव! तुम्हारे दिए हुए अन्न का यजमानों ने पान किया और उसके महान स्वाद को कहने में असमर्थ रहने के कारण हर्ष ने सिर हिलाया। फिर तेजस्वी हुए विप्रों ने अभिनव श्लोक से प्रार्थना की। अतः अपने हर्यश्वों को योजित करो। हे इन्द्र ! हमारे समीप आकर हमारी वंदनाओं को भली प्रकार सुनो। तुम हमें सत्यवाणी से सम्पन्न कब करोगे ? तुम हमारी प्रार्थनाओं को सदा ही स्वीकार करते रहे हो। अतः अपने अश्वों को जोड़कर शीघ्र ही आओ। अंतरिक्ष के जल सहित मंडल में वर्तमान सूर्य की किरणें ! तुम स्वर्ग के सामने नोंक वाली हो, तुम्हारे चरण रूप अग्रभाग को मेरी सारी इन्द्रियाँ पकड़ नहीं सकती। हे धावा-धरा! तुम मेरी प्रार्थना को जानों। हे अश्विद्वय! तुम्हारे फलवर्षक और हवि ले जाने वाले रथ को उपासक ऋषि श्लोकों से सजाता है। अतः हे मधुविद्या के ज्ञाताओं! इस बात को सुनो।
अध्याय (5.4) :: ऋषि :- वसुश्रुत, विमदः, सत्यश्रवा, गौतम, अंहोमुग्वाम-देव्य; देवता :- अग्नि, उषा, सोम, इन्द्र, विश्वेदेवा; छंद :- पंक्ति, बृहती।
हे अग्ने! तुम ज्योतिर्मान और अजर हो। हम आपको भली-भाँति प्रकाशित करते हैं। तुम्हारी स्तुति योग्य ज्योति स्वर्ग में भी दमकती है। आप हम उपासकों को अन्न प्रदान करो। हे अग्नि देव ! अपने द्वारा की गई प्रार्थना से देव आह्वान को सिद्ध करने बाले अनुष्ठानों में जिसके लिए कुशाएँ बिछाई गई हैं। ऐसे सर्वत्र विशाल तथा पवित्रता सहित ज्योति वाले तुम्हारे लिए सोम जनित प्रसन्नता के लिए प्रार्थना करते क्योकि आप श्रेष्ठ हो। हे उषे! आज इस यज्ञ के दिन हमें असीमित धन के लिए प्रकाश दो। इसी प्रकार तुमने पहले भी प्रकाश दिया था। हे सत्य रूप वाली उषा ! मुझे वय के पुत्र सत्यश्रवा पर कृपा करो। हे सोम ! तुम श्रेष्ठ हो। विशिष्ट मद वाले होकर तुम हमारे हृदय, अन्तरात्मा और कर्म को कल्याणप्रद करो। यह प्रार्थना करने बाला आपका मित्र बने, जैसे गौएँ घास को मित्र बना लेती हैं। कर्म से महान शत्रुओं को भय प्रदान करने वाले इन्द्रदेव सोमपान के पश्चात् अपनी शक्ति को प्रकट करते है। फिर वे श्रेष्ठ नासिका वाले, हर्यश्ववान इन्द्र अपने हाथों से लोह वज्र को समृद्धि लाभ के लिए ग्रहण करते हैं। हे अभीष्टवर्षक, गौएँ ग्रहण कराने वाले, रथारूढ़ इन्द्रदेव! आपका जो रथ पूर्ण पात्र को प्रकट करता है, अपने उस रथ में हर्यश्वों को योजित करो। उपासकों से धन रूप घर के समान आश्रय रूप जिन अग्नि को गौएँ तृप्त करती हैं और द्रतुगामी अश्व जिनको प्राप्त होते हैं तथा उपासक यजमान जिनके समक्ष हवि लेकर जाते हैं, मैं उन्हीं अग्नि की उपासना करता हूँ। हे अग्नि देव ! हम उपासकों को अन्न प्रदान करो। हे देवगण ! शत्रुओं को दण्ड देने वाले अर्यमा, सखा, वरुण शत्रुओं को बाँधकर जिसकी उन्नति करते हैं, उस प्राणी को कोई दोष और उसका फल विस्तृत नहीं करता है।
अध्याय (5.5) :: ऋषि :- धिष्ण्या ऐश्वरयोऽग्वन्य, त्र्यरुणत्रसदस्यु वशिष्ठ, वामदेवा; देवता :- पवनाम, मरुत, वाजिन; छन्द :- पंक्ति, उष्णिक्, इत्यादय।
हे सोम ! आपका रस अत्यन्त सुस्वादु है। आप इन्द्र के लिए, मित्र के लिए, पूषा के लिए और भग देवता के लिए सब पात्रों में स्त्रवित होओ और साहसपूर्वक शत्रुओं पर आक्रमण करो। आप हमारे कर्जों को नष्ट करने के लिए शत्रुओं का अपमान करते हो। हे सोम ! आप श्रेष्ठ प्रवाहमान सभी के पोषक और देवों के सभी धामों के पात्रों को युक्त करते हो। हे सोम ! तुम घोड़े के समान जलों से प्रक्षालित होकर वेगवान होते हो। अतः महान बल और धन के लिए पात्रों को पूर्ण करें। यह कल्याणकारी सोम महानमति द्वारा सेवनीय प्रसन्नता के लिए जलों के मध्य क्षरित होता है। हे सोम ! तुम्हारा अभिषव होने पर हम आपकी वंदना करते हैं। हे पवमान ! आप मनुष्यों के साथ राष्ट्र की रक्षा हेतु शत्रुओं से युद्ध करते हो। प्रभुत्व सम्पन, कान्तिमय, समान जगह वाले, मनुष्य हितैषी और महान अश्वों वाले ऐसे कौन हैं जो दीन वन्दना करने वालों के लिए अपने बन जाते हैं। हे अग्ने ! तुम कल्याण रूप अश्व के समान हविवाहक और इन्द्रादि देवताओं को प्राप्त कराने वाले हो। आज हम ऋषित्व तुम्हें स्तोत्रों द्वारा प्रबुद्ध करते हैं। प्राणियों की भलाई करने वाले प्रकाश से परिपूर्ण हवि ग्रहण वाले देवों सविता देव द्वारा संपादित अन्न रूप सोम को ग्रहण किया। अतः हे यजमानों स्वर्ग पर विजय ग्रहण करो। हे सोम! तुम अन्नयुक्त, प्राचीन, महान, सुन्दर, धाराओं वाले और क्रमपूर्वक संपादित होने वाले हो।
अध्याय (5.6) :: ऋषि :- त्रसदस्यु, संवर्त आंगिरस; देवता :- इन्द्र, विश्वेदेवा, उषा; छन्द :- द्विपदा, विराट।
हे शत्रुनाशक और उपासक को धन देने वाले इन्द्र! तुम हमें सब प्रकार के अभिष्ट धन प्रदान करो। तुम अत्यन्त सामर्थ्य वाले हो, अतः हम तुमसे ही प्रार्थना करते हैं। बसन्त आदि ऋतुओं में प्रकट होने वाले जो इन्द्रदेव अपने नाम से प्रसिद्ध हैं, मैं उन्हीं इन्द्रदेव की प्रार्थना करता हूँ। राक्षसों को नष्ट करने के लिए प्रशंसनीय श्लोकों से पूज्य करने वाले ब्राह्मण, इन्द्र को प्रबुद्ध करते हैं। हे इन्द्र देव! तुम्हारे रथ की शरीरधारियों और देवताओं ने उत्पत्ति की है। तुम असंख्यों के द्वारा बुलाए गए और विश्वकर्मा ने तुम्हारे वज्र को तेजस्वी बनाया। आहुतिदाता यजमान सुख, पदवी और धन को प्राप्त करते हैं और इन्द्र के लिए कर्म न करने वाला आदमी दान आदि करने में समर्थ नहीं होता और अपने अभिष्ट धन का भी स्पर्श नहीं कर सकता। इन्द्रदेव के आश्रय में जाने वाले सदैव स्वच्छ और पोषण बल तथा दानादि गुण वाले और निष्याप होते हैं। हे उषे ! इच्छा योग्य तेज के सहित आओ। प्रातःकाल की किरणें रथ की ले जाती हैं। वे सर्वसम्पन्न हैं। हे इन्द्रदेव! सम्राट द्वारा बनवाए चमस में से मधुरता सहित महान अन्न को हम आपके लिए समक्ष आकर परोसते हुए तुम्हारा विचार करते हैं। उच्च स्तोत्र वाले पूजक पूजनीय इन्द्र का आहुतियों और श्लोकों से पूजन करते हैं। वे युवा और उच्च इन्द्र उनके शत्रुओं का हनन करते हैं। ब्राह्मणों! वृत्रहन्ता इन्द्रदेव के लिए उस श्लोक का गुणगान करो, जिससे इन्द्रदेव हर्षित होते हैं।
अध्याय (5.7) :: ऋषि :- पृषघ्घ्र , बन्धु, संवर्त, भुवन आप्त्य, भारद्वाज, इत्यादय; देवता :- अग्नि, इन्द्र, उषा, विश्वेदेवा; छन्द :- द्विपदा, विराट, एकपदा।
अत्यन्त मेधावी, हवियों से युक्त एवं आहुति ग्रहण करने वाले अग्निदेव आहुति दाता को भली प्रकार जानते हैं। हे अग्ने ! सेवा करने से अनुकूल तुम हमारे बिल्कुल पास होकर रक्षक और कल्याणकारी बन जाओ। सूर्य के समान अद्भुत महान अग्नि याजिकों को श्रेष्ठ धन प्रदान करते हैं। यह अग्नि देव समस्त शत्रुओं को नष्ट करने वाले हैं। वह इस अनुष्ठान स्थान में पूर्व दिशा में स्थित होकर अर्चना करते हैं। यह उषा अपनी भगिनी रूप रात्रि के अँधकार को अपने प्रकाश से दूर कर देती है और रथ पर भी अपना उत्तम प्रकाश पहुँचाती है। इन दर्शनीय लोकों की सुख प्राप्ति हेतु शीघ्र ही वश में करता हूँ। इन्द्र देव और समस्त देवगण मुझ पर खुश होकर मेरे कार्य को सिद्ध करें। हे इन्द्रदेव! जैसे राजमार्ग से छोटे-छोटे मार्ग निकलते हैं वैसे ही तुम्हारे दान हमें प्राप्त हों। हम इद्रदेव के दान को इस वंदना के प्रभाव से भोगने वाले हों। महान पुत्रों वाले हम सौ हेमन्तों तक सुखी रहें। हे इन्द्र देव! हे मित्रा-वरुण! आप हमें बलप्रदान करने वाला अन्न प्रदान करो। हमारे अन्न को अपरिमित करो। इन्द्र देव ही समस्त संसार के स्वामी हैं।
अध्याय (5.8) :: ऋषि :- गृत्समद, गौराङ्गिवरस, परुच्छेपो, रेभ, एवयाम-रुदात्रेय, अनानत, पारुच्छेपि, नकुल; देवता :- इन्द्र, सूर्य, विश्वेदेवा, मरुत, पवमान, सविता, अग्नि; छन्द :- अष्टि, अत्यष्टि, अतिजगती।
अत्यन्त शक्तिशाली, पूजनीय इन्द्र ने ज्योति, गाय और आयु वाले दिनों में अभिषुत सोम का विष्णु के साथ इच्छानुसार पान किया। उस सोम ने वृत्रहनन कर्मों में इन महिमामय इन्द्र को हर्षयुक्त आहूत किया। यह टपकाता हुआ उच्च सोम इन इन्द्रदेव में रमण करे। हजारों मानवों वाले, दर्शनीय प्रतापी, विधाता एवं दीप्तिस्वरूप यह सूर्य अंधकार रहित इन उषाओं को प्रेरित करते हैं। तब यह दीप्तियुक्त चन्द्रमा आदि भी दिन के प्राप्त होने पर सूर्य के तेज के कारण आभाहीन हो जाते हैं। हे इन्द्रदेव! दूर देश से हमारे निकट आगमन करो। जैसे यह अग्नि और संस्कृत सोम प्राप्त हुए हैं, जैसे सत्यपालक, यजमान यज्ञ भूमि में आया है। जैसे चन्द्रमा अपने लोक को प्राप्त होता है। उसी प्रकार हम यजमान आपके सम्मुख आकर आह्वान करते हैं, जैसे अन के लिए पिता पुत्र और पुत्र पिता को पुकारते हैं, वैसे ही युद्ध में विजय पाने के लिए हम आपको पुकारते हैं। उग्र धनवान बलधारक जो शत्रु द्वारा न रुक सके ऐसे इन्द्रदेव को बारम्बार आहुत करता हूँ। वे श्रेष्ठतम इन्द्र हमारी प्रार्थनाओं के प्रति अभिमुख हो रहे हैं। वे वज्रधारी हमें धन प्राप्त होने वाली राहों को आसान बनाओ।
हे इन्द्र देव! उत्तरवेदी के अग्रभाग में आह्वानीय अग्नि को मैंने धारण किया। हम उन अग्नि की पूजा करते हैं। इन्द्र और वायु की प्रार्थना करते हैं। यह सब यजमान के लिए देवयज्ञ वाले स्थान में एकत्र होकर अभीष्ट पूर्ण करते हैं। हमारे सभी कर्म आपको प्राप्त होते हैं। एवया मरुत नामक ऋषि की वन्दना मरुत्वान और भगवान विष्णु सहित इन्द्रदेव को ग्रहण हो। यह अनुष्ठान योग्य अलंकृत बलशाली मरुद्गण की शक्ति को भी ग्रहण हो। पवित्रकर्त्ता सोम अपनी हरित वर्ण वाली धारा से सूर्य अंधकार को नष्ट करता है। वैसे ही समस्त शत्रुओं को नष्ट करता है। उस सोम की धारा तेजस्वी होती है, यही सोम अपने तेजों से सब रूपों को व्याप्त करता है। सर्वज्ञ, सत्यप्रेरक, धनदाता, प्रिय, वंदनायोग्य उन सविता देव की अर्चना करता हूँ। उन सविता देव की ज्योति ऊँची उठकर धावा धरा में चमकती हैं। महान कर्म सविता देव कृपा पूर्वक स्वर्ग के लिए सोमपान करते हैं। समस्त देवताओं में अग्रहोता, अधिक धनदाता, बल के पुत्र, सर्वज्ञाता अग्नि देवता यज्ञ का भली प्रकार निर्वाह करते हैं। वे देवता जाते हुए घृत को स्वीकार करते हैं। हे सर्वप्रेरक इन्द्रदेव! आपका प्राचीन प्राणी-हितेषी कर्म स्वर्ग में प्रशंसनीय है। आपने अपनी शक्ति से असुर के प्राणों का पतन किया और उसके द्वारा अवरुद्ध जलों को खोल दिया। ऐसे ही हे इन्द्रदेव! अपनी शक्ति से असुरों को बहिष्कृत करो। आप शक्ति और हवि रूप अन्न को ग्रहण करो।
अध्याय (5.9) :: ऋषि :- अमहीयु, मधुच्छन्दा, भृगुर्वारुणि, त्रित, कश्यप, जमदग्नि, दृढ़च्युत, आगस्त्य, काश्यपोऽसित; देवता :- पवमान, सोम; छन्द :- गायत्री।
हे सोम! तुम्हारा रस उत्पन्न हुआ। हम स्वर्ग में विद्यमान उन कल्याणकारी और महिमामय अन्न को प्राप्त करते हैं। हे सोम ! आप इन्द्रदेव के पानार्थ सुसंस्कृत हुए हो। अतः अत्यन्त स्वादवाली हर्षकारक धारयुक्त होकर क्षरित हो जाओ। हे सोम! आप पूजकों के लिए अभीष्टवर्धक होते हुए कलश में आगमन करो और मरुत्वान इन्द्रदेव के लिए सब धनों को धारण कर प्रसन्न होओ। हे सोम! तुम्हारा रस देवों द्वारा इच्छित किया हुआ, राक्षस हन्ता और अत्यन्त हर्षमय है। उस रस के युक्त कलश में आगमन करो। तीन वेदों की वाणी गायें रंभाती हैं। तब हरे वर्ण का सोमरस शब्द करता हुआ कलश में गमन करता है। हे सोम! तुम बहुत ही मृदु हो। इस यज्ञ स्थान में इन्द्र देव के लिए कलश में स्थित हो जाओ। पर्वत में उत्पन्न सोम शक्ति के लिए अभिषुत किया गया जलों में बढ़ता है। श्येन जैसे अपने स्थान को प्राप्त होता है। वैसे ही यह सोम अपने स्थान पर स्थित होता है। हे सोम ! खुशी और शक्ति के साधन रूप हो। इन्द्र आदि देवों के पाने हेतु तथा मरुद्गण के लिए कलश में स्थित हो जाओ। यह सोम पवित्र कलश में स्थित हुआ है। हे सोम ! तुम पर्वत पर उत्पन्न होने वाले हो। अभिषुव होने पर सब कामनाओं को पूर्ण करने वाले हो। बुद्धि की वृद्धि करने वाला सोम अभिषवण फलक में स्थित होकर स्वर्ग विचरण में स्नेह करने वालों को ग्रहण होते हो।
अध्याय (5.10) :: ऋषि :- श्यावाश्व, त्रित, अमहीयु, भृगु, कश्यप, निधुवि काश्यप, काश्यपोऽसित; देवता :- पवमान, सोम; छन्द :- गायत्री।
हर्ष प्रदायक सोम अभिषुत होने पर हमारे हवियुक्त यज्ञ में अन्न और यज्ञ के लिए पात्रों में स्थित होता है। बुद्धिवर्द्धक यह सोम जल की लहरों के समान तथा पशुओं के वन में जाने के समान पात्रों में जाता है। हे अभिषुत सोम ! तुम इच्छाओं को पूर्ण करने वाले होकर धाराओं सहित पात्र में स्थित होओ और हमें यश से संपन्न करो तथा समस्त शत्रुओं को समाप्त करो। हे सोम ! तुम अभिष्टवर्धक हो। हे पवमान सोम ! तुम सर्वदृष्टा को हम अनुष्ठान में आहुत करते हैं। चैतन्यप्रद देव प्रिय यम सोम ऋत्विजों की स्तुतियों के सहित पात्रों में एकत्र होता है। बलवान भाग्यशाली सोम गौओं, अश्वों और पुत्रों की इच्छा से ऋत्विजों द्वारा पवित्र होता है। हे दिव्य गुण वाले सोम ! पात्रों में स्थित होओ और हर्षकारी रस इन्द्र को प्राप्त हो। तुम दिव्य रूप से वायु को प्राप्त होओ। सोम ने वैश्वानर नामक दीप्ति को स्वर्ग के दिव्य वज्र के समान प्रकट किया। अमृत रूप सोम निचोड़े जाते हुए धारा रूप से देवताओं के हर्ष के लिए छन्ने से नीचे टपकते हैं। मेधावी समुद्र की लहरों की शरण में, स्पृहणीय प्रार्थना करने वालों को धारण करने वाला सोम पात्र में सींचित होता है।
अध्याय (6.1) :: ऋषि :- अमहीयु, आङ्गिरस, बृहन्मति, जमदग्नि, प्रभुवसु, मेध्यातिथि, निधुवि, कश्यप, उचथ्य; देवता :- पवमान, सोम; छन्द :- गायत्री।
अच्छी तरह उत्पन्न हुए जल प्रेरित शत्रुनाशक, गौ घृत आदि से मिश्रित सोम की देवता ग्रहण करते हैं। जो इष्ट सोम शत्रु सेनाओं पर आक्रमण करता है, उस सोम को शुद्धियों से सुशोभित करते हैं। कलश में प्रविष्ट हुआ निष्पन्न सोम समस्त धन की वर्षा करता हुआ इन्द्र के लिए स्थित होता है। रथ के अश्वों को जैसे छोड़ देते हैं, वैसे हीअभिषवण फलकों में अभिषुत सोम छन्ने में छोड़े जाने पर गतिवाला होकर द्वन्द्वों में आक्रमण करने वाला होता है। प्रकाशवान और गतियोग्य सोम यज्ञ में उसी प्रकार जाते हैंजैसे गायें गौशाला में जाती हैं। हे सोम ! तुम खुशी देने वाले हो, हिंसक शत्रुओं को समाप्त करने वाले हो। तुम पात्रों में दृढ़ रहने वाले होकर देव विरोधी असुरों को दूर रखो। हे सोम! मनुष्यों के हितैषी जलों को प्रेरित करते हुए तुम अपनी जिस धार से सूर्य को प्रकाशित करते हो उसी धार से पात्र में जाओ। हे सोम ! तुम जलों के रोकने वाले वृत्र के हनन करने वाले इन्द्रदेव की रक्षा करो और धारा से कलश को पूर्ण करो। हे सोम ! इन्द्रदेव की सेवा के लिए अपने रूप से कलश में स्थित हो। आपके रस ने ही राक्षसों की 99 पुरियों को नष्ट कर दिया था। देव धनों को यह सोम हमें अन्न के सहित प्रदान करें। हे सोम! तुम छानते समय कलश में टपको।
अध्याय (6.2) :: ऋषि :- अमहीयु, आङ्गिरस, बृहन्मति, जमदग्नि, प्रभुवसु, मेध्यातिथि, निध्रुवि, कश्यप, उचथ्य; देवता :- पवमान, सोम; छन्द :- गायत्री।
अभीष्टवर्धक, हरित वर्ण वाली, पूजनीय, मित्र के समान और दर्शनीय सोम जो अभिषेक काल में शब्द करता है। वह सूर्य के साथ ही प्रकाशित होता है। हे सोम ! हम याजिक तुम्हारी शक्ति की विनती करते हैं। वह शक्ति सुखमय धन ग्रहण कराने वाला, रक्षक और असंख्यों द्वारा अभिलाषित किया गया है। हे अध्वर्युओं। पत्थरों द्वारा कूटकर निकाले गए सोमरस को छन्ने में डालो और इन्द्र के पीने के लिए पवित्र बनाओ। निष्पन्न सोम की धार से जो आराधक इन्द्र को हर्ष प्रदान करता है वह पाप से लांघते हुए ऊपर गति को प्राप्त करता है। हे सोम! तुम हजारों संख्या वाले धन की वृष्टि करो और हममें अन्नों को स्थापित करो। प्राचीन और विचरणशील सोमों ने नवीन पट का आक्रमण किया और ज्योति के लिए सूर्य के समान तेजस्वी हुए। हे सोम ! तुम अत्यन्त तेजस्वी और बार-बार ध्वनि करने वाले हो। इस यज्ञ मंडप में आओ। हे सोम ! तुम काम्यवर्षक और तेजस्वी हो। हे वर्षणशील ! तुम कर्मों के स्वीकार करने वाले हो। ऋषियों द्वारा शोभित हुए अन्नलाभ के लिए धाराओं सहित स्त्रवित होओ और अन्न रूप गाय आदि पशुओं को प्राप्त करो। हे सोम ! काम्यवर्षक, देवों, द्वारा इच्छित तुम हमारी सुरक्षा करो और छन्ने में धारा रूप से टपको। इस श्रेष्ठ कर्म द्वारा महान होते हुए तुम देवताओं के लिए वृद्धि को प्राप्त होते हो। तुम खुशी देते हुए बैल के समान शब्द करते हो। चैतन्यप्रद शुद्ध पात्र में स्थित यह सोम जल में रचित अन्न को प्रदान करता हुआ जाता है। हे सोम ! तुम हमारे धन के लिए कलश में प्राप्त होते हो, तुम्हारी तरंगों को धारण करने वाले विप्र पूजन के लिए गमन करता है। इस सोम ने बैरियों की ओर आदानशीलो को मारा। यह इन्द्र देव के स्थान को ग्रहण होने वाले सोम धारा रूप में क्षरित होता है।
अध्याय (6.3) :: ऋषि :- भारद्वाज, कश्यप, गौतमोऽर्चिविश्वामित्र, जमदग्निवशिष्ठ; देवता :- पवमान, सोम; छन्द :- बृहती।
हे सोम! तुम अच्छादक हो। धारा रूप के कलश में जाते हो। रत्न आदि धन के दाता, यज्ञ स्थान में स्थित होने वाले दिव्य सोम देवों के लिए हितकारी होते हैं। जो सोम देवों के लिए श्रेष्ठतम हवि है, वह मनुष्यों का हितैषी सोम जलों में जाता है। उस सोम को पत्थरों से कूटकर जलों में सिंचित करो। हे सोम ! प्रस्तर द्वारा कूटे जाने पर तुम छन्ने को लांघते हुए कलश में जाते हो। जैसे नगर में मनुष्य होता है वैसे ही सोम लकड़ी के पात्रों में पहुँचाता है। हे सोम ! देवताओं के पानार्थ सिन्धु के समान बसतीवरी जलों के वर्षों को ग्रहण हुए तुम अपने अंशों से युक्त मृदुरस सहित कलश को ग्रहण होते हो। निचोड़ा जाता हुआ सोम शुद्ध होकर कलश में जाता है। यह सोम हरे रंग की धारा से आनन्ददायक होता हुआ प्राप्त होता है। हे सोम ! मैं नित्य प्रति तुम्हारे मित्र भाव में रहूँ। जो असंख्य राक्षस मेरे कर्म में विघ्न डालते हैं, उन्हें तुम समाप्त करो। हाथों से भली सुसंस्कृत हुए सोम ! तुम आवाज करते हो और अनेकों द्वारा इच्छित स्वर्ण धन का पूजकों को लाभ कराते रहो। हे ज्ञानी, विचरणशील, हर्षदायक, रस सिंचत करने वाले सोम ! तुम अपने रस को कलश के ऊपर सभी ओर निकालते हो। हे सोम ! तुम चैतन्ययुक्त प्रिय और पवित्र होते हुए छन्ने से टपकते हो। पितरों के नेता और बुद्धि बढ़ाने वाले हो, तथा हमारे यज्ञ को अपने मधुर रस से सिंचित करते हो। हर्ष प्रदान करने वाले से सुसंस्कृत सोम मरुत्वान इन्द्रदेव के लिए कलश में पूर्ण होता अपनी धाराओं से छन्ने में टपकता है। ऋत्विज उसे पवित्र करते हैं। तुम सब स्तोत्रों के द्वारा अन्नलाभ वाले होकर आओ और देवताओं के लिए हर्षप्रद और तृप्तिकारक होते हुए टपको। मरुद्गण युक्त इन्द्रदेव की प्रिय प्रार्थनाओं और अन्नों को लक्ष्य बनाते हुए वंदनाकारियों के अन्न लाभ के लिए यह सोम छन्ने से निकालते हैं।
अध्याय (6.4) :: ऋषि :- उशना, काव्य, वृषणों, वशिष्ट, पाराशर, शाक्यत्य, वशिष्ठों मैत्रावरुणि, प्रतर्दनो देवोदासि, प्रस्कण्व, काण्व; देवता :- पवमान, सोम; छन्द :- त्रिष्टुप।
हे सोम! तुम शीघ्र आकर कलश में विराजमान होओ। ऋत्विजों द्वारा पवित्र किए गए, इस यजमान को आप अन्न प्रदान करो। आपको अश्व के समान शुद्ध करते हुए ब्राह्मण यज्ञ में पहुँचाते हैं। उशना के समान प्रार्थना करने वाला इन्द्रदादि देवों के प्राकट्य का वर्णन करता हूँ। तेजस्वी, व्रती और पापशोधन घ्वनि करता हुआ पात्रों को भर देता है। आहुतिदाता यजमान तीनों वेदों की वाणी का पाठ करता है। सोम की सत्य और कल्याणदायी वंदना करता है। अभीष्ट की प्रार्थना वाले उपासक सोम की उपासना के लिए जाते हैं। स्वर्ण के द्वारा शुद्ध किया गया सोम अपने रस को देवों में मिलाता है। यह अभिषुत सोम ध्वनि करता हुआ छन्ने में पहुँचता है, जैसे होता पशुओं से भरे गृह में जाता है। विद्वानों को प्रकट करने वाला स्वर्ग, पृथ्वी अग्नि, आदित्य और इन्द्र को प्रकट करने वाला विष्णु को भी बुलाने वाला सोम कलश में स्थित है। तीनों काल वाले, काम्यवर्षक का अन्नदाता, ध्वनिवान सोम की अभिलाषा वाणी करती है। यह जलों में स्थित हुआ गतिमान सोम वंदना करने वालों को वरुण के समान धन प्रदान करता है। जलवर्षक, यज्ञ पालक, काम्यवर्षक, सुसंस्कृत सोम जल के धारणकर्त्ता आकाश में प्रजाओं को प्रकट करता हुआ सबको पार कर जाता है। समस्त ओर से परिस्त्रुत हरि सोम ध्वनि करता हुआ शोधा जाता है और द्रोण कलश में जाता है। यह अपने को दुग्धादि मिश्रित करता हुआ कलश में पहुँचता है। प्रार्थना करने वाले इस सोम के लिए हवि सहित श्लोक करें। हे काम्यवर्षक इन्द्र ! यह मधुर सोम तुम्हारे लिए सींचने वाला होता हुआ छनने से टपकता है। वह हजारों-सैकड़ों धन के स्वामी धन को लेने वाला अत्यन्त प्राचीन यज्ञ में विद्यमान हुआ। हे सोम ! तुम माधुर्यप्रद हो। वसतीवरी जलों को आच्छादित करते हुए छनने में गिरते हो। फिर अत्यन्त हर्षप्रदान करने वाले होकर द्रोण कलश में स्थिर होते हैं।
अध्याय (6.5) :: ऋषि :- प्रतर्दन पाराशर, शाक्त्य इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठ, वशिष्ठो, मैत्रवरुणि, कर्ण श्रद्धासिष्ठ, नोधा गौतम, कण्वौ धौर, मर्युर्वासिष्ठ, कुत्स, आंङ्गिरस, कश्यपो मारिच, प्रस्कण्व काण्व; देवता :- प्रबमान सोम; छन्द :- त्रिष्टुप।
सेनाओं में अग्रणी शत्रुओं के लिए बाधक सोम, गौ आदि की कामना करता हुआ रथों के आगे विचरता है। उस सोम से परिपूर्ण सेना प्रसन्न होती है। यह सोम इन्द्र के आह्वानों को मंगलमय करता हुआ इन्द्र के आगमन के लिए दुग्ध आदि को ग्रहण करता है। हे सोम! आपकी मधुप्रद धारायें प्रसन्नकारक होती हैं। वसतीवरी जलों में जब तुम पवित्र होते हो और छन्ने से निकलते हो तब गौ दुग्ध को देखकर क्षरित होते ही फिर विख्यात होकर सूर्य को अपने तेज से पूर्ण करते हो। हे उपासकों ! सोम की भली प्रकार वंदना करो। हम देवताओं की पूजा करते हैं। सोम का अभिषेक करो। वह सोम रस छन्ने से क्षरित होकर द्रोण कलश में विराजित हो। अध्यर्युओं से प्रेरित द्यावा धरा को प्रकट करने वाला, अन्न प्रदान करता हुआ तथा अस्त्रों को तीक्षण करता हुआ सोम हमें देने के लिए हाथों में धन प्राप्त करता हुआ ग्रहण होता है। उपासक की वाणी उसे संस्कृत करती है। तब यज्ञ में देवताओं को प्रसन्नता देने वाले सबके पोषक, कलश स्थित सोम की इच्छा करती हुई गाएँ अपने दूध को मिश्रित करती हैं। कर्म करती हुई अंगुलियाँ सोम का अभिषव करती हैं, तब वह हरित सोम रस सब दिशाओं में जाता हुआ घोड़े के समान गति से कलश में स्थित होता है। सूर्य में जिस तरह किरणों उदित होती हैं, वैसे ही सोम का संस्कार करने वाली दसों उंगलियाँ उपस्थित होती हैं। तब वह जलों को ढकता हुआ सोम उपासकों की इच्छा करता हुआ गौ पालक के गोष्ठ में जाने की तरह कलश में जाता है। क्षरणशील, विचरणशील, बलशाली यह इन्द्रदेव के लिए प्रेरित होता है। यह यजमान को धन लाभ कराने वाले सम्म्राट को इन्द्रदेव के बल को देने के लिए स्रवित होता है। वही असुरों को समाप्त करता और शत्रुओं को रोकता है। हे सोम ! धन से परिपूर्ण धारा के सहित सिंचित होओ। तुम वसतीवरी जलों में मिलकर कलश में जाओ, तब आदित्य और वायु के समान प्रेरकगति को ग्रहण कर इन्द्र को प्राप्त होओ। श्रेष्ठतम सोम ने बहुत से कर्म किए हैं। जलों के गर्भ रूप इस सोम ने देवों का यजन किया और इन्द्रदेव ने सोमपान से रचित शक्ति को धारण किया। इसी सोम ने सूर्य में तेज की स्थापना की। जिस सोम में देवताओं के मन रम रहे हैं वह शब्द करने वाला सोम यज्ञ में स्तुति के साथ अश्वों के समान जोड़ा गया। दस उँगलियाँ सोम को उच्च स्थान रूप छन्ने में प्रेरित करती हैं। जल की शीघ्घ्र कर्मा तरंगों के समान कर्म में शीघ्रता करने वाले ऋत्विज वंदनाओं को सोम के प्रति प्रेरित करते हैं। नमस्कार सहित वंदनाएँ इस सोम को देवों के सम्मुख पहुँचाती हुई प्रविष्ट होती हैं।
अध्याय (6.6) :: ऋषि :- अन्धीगु, श्यावाश्वि, नहुषो मानव, ययातिर्नाहुष मनु सांवरण, ऋजिण्वा भारद्वाजश्च रेभूसूनू काश्यपौ, प्रजापति-र्वाच्यो वा; देवता :- पवमान, सोम; छन्द :- अनुष्टुप, बृहती।
हे मित्रो! सोम के अभिसिक्त रस की रक्षा के लिए लम्बी जीभ वाले कुत्ते को दूर कगे। यह सेवनीय सोम छन्ने में पवित्र होकर कलश में जाता हुआ समस्त प्राणधारियों का पालक होता है और अपने तेज से धावा धरा को प्रकाशमान करता है। रसयुक्त हर्षदायक निष्पन्न सोम छन्ने में होता हुआ पात्र में टपकता है। हे सोम ! तुम्हारा हर्षकारी रस देवताओं के पास पहुँचे। महान मार्ग के ज्ञाता, देवों के मित्र, पाप रहित सोम तेजस्वी होकर प्रस्थान करते हैं। हे सोम ! सैकड़ों द्वारा इच्छा करने और हजारों द्वारा भरण करने वाले अन्न यश वाले तेजस्वी और शक्तिदाता अपत्य हमें प्राप्त कराओ। गौएँ जिस प्रकार बछड़ों को चाटती हैं, वैसे ही वसतीवरी जल इन्द्र देव के प्रिय सोम से मिलते हैं। सबके द्वारा इच्छित शत्रु तिरस्कारक सोम के लिए प्रत्यंचा के समान फैले हुए छन्ने को अध्वर्युमण आच्छादित करते हैं। सबके स्पृहणीय हरे सोम का छन्ने में छानते हैं। वह सोम इन्द्रादि देवों को अपनी हर्षकारक धाराओं से युक्त ग्रहण होता है। सोम के शब्द को कर्म में बाधा डालने वाले सुनें। हे स्तोताओं! अपने पूर्वकाल में जैसे दक्षिणा रहित मुख को भृगुओं ने दूर किया था, वैसे ही श्वान को दूर हटाओ।
अध्याय (6.7) :: ऋषि :- कविर्भार्गव, सिकता निवावरी, रेणुर्वेश्वामित्र, वेनोभार्गव, वसुर्भारद्वाज, वत्सप्री, गृत्समद, शौनक, पवित्र, आंगिरस; देवता :- पवमान, सोम; छन्द :- जगती।
भक्ष्य हितकारी सोम संसार को तृप्त करने वाले जल को प्राप्त होता है। फिर यह बुद्धि को प्राप्त हुआ सोम सूर्य के विचरण करने वाले रथ पर विश्वद्रष्टा होकर आरूढ़ होता है। अप्रेरित, पापनाशक, सिद्ध सोम देवों वाले अनुष्ठान में आवें। अदानशील शत्रु अन्न की अभिलाषा करके भी भोजन ग्रहण न करें। हमारे श्लोक देवों को ग्रहण हों। इन्द्र के वज्र के समान यह बीजवपन कर्त्ता सोम द्रोण कलश में जाता हुआ ध्वनि करता है। हमारी फलवृष्टि करने वाली जलमयी धाराएँ दुधारू गौओं के समान शब्द करती हुई प्राप्त होती हैं। यह सोम इन्द्र के उदर में जाकर उन्हें प्रसन्न करता है। वह वसतीवरी जलों से मिलकर छन्ने से छनता हुआ द्रोण कलश में जाता है। सबका धारण शोधनीय, बलदाता हरे वर्ण का स्तुत्य सोम छन्नों में आता जाता सप्त प्राणियों द्वारा शुद्ध किया जाता है। वह बिना प्रसन ही अश्व के समान वसतीवरी जल में अपने वेग को करता है। काम्यवर्षक, द्रष्टा, दिन, उषा और आदित्य की वृद्धि करने वाला संस्कारित सोम वंदनाओं द्वारा प्रेरित होकर मन में प्रवेश करने की कामना से कलशों में जाता हुआ ध्वनि करता है। यज्ञ में स्थित सोम के लिए इक्कीस गौएँ दुही जाकर दुग्ध पात्रों को भरती हैं। तब यह सोम यज्ञों द्वारा वृद्धि को प्राप्त होता हुआ शुद्ध जल के सोधन हेतु मंगल रूप हो जाता है। हे सोम! तुम प्रसिद्ध होकर इन्द्रदेव के लिए रस सींचो। व्याधि और राक्षस को दूर करो, वे तुम्हारे रसपान का आनन्द ग्रहण न करें। इस अनुष्ठान में तुम्हारे रस हमारे लिए धन से सम्पन्न हों। काम्यवर्षक हरित सोम सिद्ध होकर राजा के समान तेजस्वी होता है। वह रस निकलने के समय शब्द करता हुआ पवित्र होता है तथा छन्ने से टपकता है। मधुमय सोम देवताओं के लिए पात्र में जाता है। गौएँ जैसे अपने बछड़े बछियों को देखकर दूध टपकाती हैं। वैसे ही यज्ञ में रंभाती हुई गाय सब ओर से टपकने वाले अमृत इन्द्र के लिए धारण करती है। ऋत्विज सोम को दूध से मिश्रित करते हैं। देवगण इस भली-भाँति मिलाए गए सोम का आस्वादन करते हैं। वह सोम गौ घृत से मिलाया जाता है। वही सोम जल के आधार भूत अंतरिक्ष में उठाया गया होकर सुवर्ण से शुद्ध किया जाता हुआ ग्रहणीय होता है। हे ब्राह्मणस्पते ! हे सोम ! तुम्हारे अंग सर्वत्र फैले हुए हैं। तुम पान करने वाले शरीर में व्याप्त हो। व्रत आदि से जिसका शरीर तेजस्वी नहीं हुआ है वह अमृत पीने में समर्थ नहीं होता। परिपक्व देह वाला तेजस्वी ही इसमें समर्थ होता है।
अध्याय (6.8) :: ऋषि :- अग्निश्चाक्षुष, चक्षुर्मानव, पर्वतनारदौ, त्रित आप्त्य मनुराप्सव, द्वित आप्त्य; देवता :- पवमान, सोम; छन्द :- उष्णिक।
शीघ्र सुसंस्कृत पात्रों में स्रावित होते हुए सर्वत्र हरित वर्ण के यह सोम काम्य वर्णक इन्द्र को प्राप्त हो। हे सोम! इस पात्र में आओ। इन्द्रदेव के लिए सभी ओर से सिंचित हो जाओ। शत्रुओं का हनन करने वाले स्वर्ग प्रापक शक्ति को हमें प्रदान करो। हे मित्रो ! प्रार्थनाओं के लिए तैयार हो जाओ। शोधे जाते हुए इस सोम के प्रति सोम की स्तुति को गाओ। जिस प्रकार एक पिता अपनी संतान को अलंकारों से सजाता है उसी प्रकार सोम को समृद्धि के लिए तैयार करो। हे सखाओ ! तुम देवताओं की खुशी के लिए सोम की प्रार्थना करो। हवियों की प्रार्थनाओं से सुस्वादु बनाओ। यज्ञ को सम्पन्न करने वाला पूज्य जलों वाला सोम यज्ञ को व्यक्त करने वाले रस को प्रेरित करता हुआ, सब हवियों को व्याप्त करता हुआ, स्वर्ग और पृथ्वी पर स्थित है। हे सोम ! देवों के सेवन के लिए शक्ति के साथ पात्र में पहुँची और रस युक्त होकर द्रोण कलश में स्थित हो जाओ। पवित्र स्तोता से आगे बार-बार शब्द करने वाला सोम अपनी धारा से छन्ने में जाता है। छन्ने से छनते हुए प्रार्थना करो। इन वन्दनाओं से हर्षित होने वाले के लिए अधिकता से वन्दना करो। हे सोम तुम सुसंस्कृत होकर गाय और अश्वों सहित धन प्रदान करो। फिर मैं तुम्हारे पवित्र रस को गोरस में मिला होने पर अधिक प्राप्त करूं। हे सोम ! तुम धन वाले हो। हमारी वाणियाँ धन लाभ के लिए तुम्हारी प्रार्थना करती हैं तथा हम तुम्हारे रस को गौ-दूध आदि से आच्छादित करते हैं। हरे रंग का सोम छन्ने से निकलता है। हे सोम ! तुम स्तोताओं को उपयुक्त यश प्रदान करो। वह सुसंस्कृत होता हुआ सोम अपने मधु रस को कलश में पहुँचाता है। सोम का ऋषियों की सत्य वाणियाँ स्तवन करती हैं।
अध्याय (6.9) :: ऋषि :- गौरवीति, शाक्त्य, उर्ध्वसद्मा आङ्गिरस, ऋजिश्वा, भारद्वाज, कृतयशा आंङ्गिरस, ऋणञ्चय, शक्तिर्वासिष्ठ, उरुरांगिरस; देवता :- पवमाना, सोम; छन्द :- ककुप, यवमध्या गायत्री।
हे सोम! अत्यन्त मधुर कर्म वाले, पूज्य और हर्षप्रद तुम इन्द्र को हर्ष प्रदान करने वाले हो। हे सोम ! हम आपकी पूजा करते हैं। आप हमें बहुत-सा अन्न प्रदान करो और अतंरिक्ष स्थित मेघ को वर्षा के लिए खोलो। हे ऋत्विजो ! अश्व के समान वेगवान, स्तुत्य, जलों के प्रेरक, तेज प्रेरक, पात्रों में फैले हुए सोम का अभिषव करते हुए बसतीबरो जलों से सींचित करो। देवों की अभिलाषा वाले ऋत्विजो ने बलप्रदायक हजारों धार वाले, धन धारक सोम का दोहन किया। जो धनों का, गायों का, धरती का और मनुष्य को लाने वाला है, वह सोम ऋषियों द्वारा अभिषुत हुआ है। हे सोम ! तुम अत्यन्त ज्योति सहित देवों को जानते हो। उनके अमृत तत्व के लिए ध्वनि उत्पन्न करते हो। अत्यन्त आनन्ददायक इधर-उधर जाता हुआ अभिषुत अमृत छन्ने से धार बनकर कलश में टपकता है। यह सोम अंतरिक्ष में बादलों के भीतर असुरों के रोके हुए प्रवाहमय जलों की अपनी शक्ति से छिन्ने भिन्न करता है। असुरों द्वारा चुराई गर्नु गौओं और घोड़ों को यह सोम सब ओर से विस्तार करता है। हे सोम! इन राक्षसों को नष्ट करो।
अध्याय (6.10) :: ऋषि :- भरद्वाज, वशिष्ठ, वामदेव, शनु शेष, गृत्समद, अमहीयु, आत्मा; देवता :- इन्द्र, वरुण, पवमान, सोम, विश्वेदेवा, अन्नम्; छन्द :- बृहती, त्रिष्टुप, गायत्री, जगती।
हे व्रज हस्त! श्रेष्ठ ठोड़ी वाले इन्द्र देव! जिस अन्न की हम इच्छा करते हैं उसे द्यावा भूमि पूर्ण करती है। उस अत्यन्त बलप्रद प्रशंनीय और तृप्तिकारक अन्न को हमें दो। जो इन्द्र देव समस्त प्राणधारियों के भगवान् और सब प्रकार के पार्थिव धनों के स्वामी हैं, वह दानशील यजमान को समस्त प्रकार के धनों को प्रदान करते हैं। वही इन्द्रदेव हमारी तरफ सब तरह के धनों को प्रेरित करें। जिन तेजस्वी इन्द्र की छाया स्तोत्र वाली है वह दानशील इन्द्र यजमान से बने स्वर्ग के कामना के योग्य हैं, इसलिए इन्द्र का दान बहुत ही अच्छा और अपरिमित है। हे वरुण देव! सिर पर बंधे पाश को उर्ध्व और पाँवों में बँधे पाश को नीचे की तरफ और मध्यम पाश को पृथक करके ढीला करो। फिर हम तुम्हारे कर्म के कारण कष्ट रहित और अपराध रहित हों। हे सोम ! छन्ने से छनते हुए तुम रणक्षेत्र में भी सहायक हो। मित्र वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी और स्वर्ग हमें धन आदि से पूर्ण करें। मुझे फलवर्षक क्रिया वाला बनाओ। हे सोम ! तुम हमें धनग्रहण कराने वाले हो। हमारे अर्चनीय इन्द्रदेव वरुण और मरुद्गण के लिए धारयुक्त क्षरित हो जाओ। इस सोम के द्वारा सब अन्नों को पाकर हम उचित ढंग से बाँटते हैं। मैं अन्न देवता, अन्य देवों से तथा सत्यस्वरूप ब्रह्म से भी पूर्व जन्मा हूँ। जो मुझ अन्न को मेहमानों को देता है, वही समस्त प्राणधारियों की सुरक्षा करता है। जो कंजूस दूसरों को नहीं खिलाता, मैं अन्नदेव उस कंजूस का अपने आप भक्षण कर लेता हूँ।
अध्याय (6.11) :: ऋषि :- श्रुतकक्ष, पवित्र, मधुच्छन्दा, वैश्वामित्र, प्रथः गृत्समद, नृमेधपुरु मेधो; देवता :- इन्द्र, पवमान, विश्वेदेवा, वायु; छन्द :- गायत्री, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप।
हे इन्द्र! काले, लाल तथा विचित्र रंग वाली गायों में चमकते हुए सफेद दूध को तुमने स्थित किया है। यह तुम्हारा ही सामर्थ्य है। उषाकाल और आदित्य से सम्बन्धित सोम अपने आप प्रकाशमान होता है और वर्षाकारक मेघ रूप से शक्ति और अन्न दान की अभिलाषा से ध्वनि करता है। देवों ने अपनी महान बुद्धि से इसे रचित किया है। इन्द्र अपने रथ में योजित हर्यश्वों को एकत्र करने वाले वज्रधारी और स्वर्ण के आभूषणें से सुशोभित रहते हैं। हे इन्द्र देव! तुम अत्यन्त शक्तिशाली होने के कारण किसी का प्रभुत्व नहीं मानते। हमको अपनी महान सुरक्षाओं से हजारों धन लाभवाले द्वन्द्वों में रक्षित करो। वशिष्ठ पुत्र पथ और भारद्वाज पुत्र सप्रथ है मुझे वशिष्ठ ने अनुष्टुप छन्द हवि की और रथन्तर सोम की धाता देवता से और तेजस्वी विष्णु से प्राप्त किया। हे वायों! तुम अपने वाहनों पर सवार होकर प्रस्थान करो। यह सोम तुम्हारे लिए प्राप्त किया है क्योंकि तुम सोमाभिषवभर्ता यजमान के समक्ष जाते हो। अपूर्व और धनयुक्त इन्द्र ! जब वृत्र हनन के लिए प्रकट हुए, तुमने पृथ्वी को दृढ़ किया और स्वर्ग को भी स्थिर किया।
अध्याय (6.12) :: ऋषि :- वामदेवो गौतम, मधुच्छन्दा, गृत्समद, भरद्वाजौ बहिस्पत्य, ऋजिश्वा, हिरण्यस्तप, विश्वामित्र; देवता :- प्रजापति, पवमान, सोम, अग्नि, रात्रि, अपान्नपात, विश्वेदेवा, लिङ्गक्ता, इंद्र, आत्मा वैश्वानर; छन्द :- अनुष्टुप, त्रिष्टुप, गायत्री, जगती, पंक्ति।
परमेष्ठी स्वर्ग के तेज के समान मेरे शरीर में ब्रह्मा तेज की वृद्धि करें और यज्ञ संबंधी हवि को बढ़ाएँ। हे शत्रुनाशक सोम! तुम दुग्ध और हविरन्न ग्रहण हों। तुम अपने अमरत्व के लिए वृद्धि हुए स्वर्ग में हमारे सेवनीय अन्नों को धारण करते हो। हे सोम! तुमने धरती पर स्थित सब औषधियाँ उत्पन की, तुमने वृष्टि जल और गऊ इत्यादि पशुओं को पैदा किया। तुमने आकाश का विस्तार किया और प्रकाश से अंधकार को नष्ट किया। अनुष्ठान के पंडित-संज्ञक होता और रत्नों के धारण करने वाली अग्नि की मैं वंदना करता हूँ। हे अग्ने! तुम्हारी पूजा करने वाले आंगिरसों ने स्तुति साधक शब्दों को वाणी में जाना इक्कीस स्तोता रूप छन्दों को भी जाना। उन स्तुतियों को जानती वर्षा जलधरा में गिरते हैं और भू के जल में मिश्रित हो जाते हैं तब वह नदी रूप होकर समुद्र में दृढ़ बड़वानल को संतुष्ट करते हैं। जलों के पौत्र अग्नि के पास सभी पवित्र जल ग्रहण होते हैं। कल्याणमयी रात पास आ रही है। वह चन्द्रमा की रोशनी के साथ भले प्रकार सम्बन्ध स्थापित करती हुए संसार को सुलाने वाली होती है। हे वैश्वानर तुम्हारा तेज अभिष्टवर्धक हवि रत्न वाला ज्योर्तिमान है। मैं उस तेज की प्रार्थना करता हूँ। उन सर्वज्ञाता अग्नि के लिए प्रार्थना करने वालों को शुद्ध करने वाली मंगलमय वंदना सोम के समान निकल जाती है। देवता मेरे यज्ञ को स्वीकार करें। अपान्न पाँच अग्नि और द्यावा पृथ्वी मेरी प्रार्थना पर ध्यान दें। मैं देवताओं में त्याज्य वचनों को नहीं करता हूँ। श्रेष्ठ स्तोत्र का ही उच्चारण करता हूँ। अत हम तुम्हारे प्रदत्त कल्याण में ही आनन्द पाएँ। हे देव! मुझ वंदना करने वाले को द्यावा धरा की कीर्ति ग्रहण हो। इन्द्र, बृहस्पति और आदित्य संबंधी कीर्ति को भी मैं ग्रहण करूँ। मैं इस कीर्ति से हीन हो जाऊँ। मैं सदैव महानता पूर्वक बोलने वाला बनूँ। मैं इन्द्र के महान पराक्रमों को बताता हूँ। उन्होंने बादलों को भेदकर जल गिराया और पर्वतों से बहने वाली नदियों के तटों को बनाया। मैं अग्नि जन्म से ही सर्वज्ञाता हूँ। घी मेरा नेत्र हैं और अमृत रूप से मेरे मुख में है। मैं जगत का उत्पत्तिकर्ता प्राण हूँ। मैं तीन रूपसे विद्यमान हूँ और अंतरिक्ष का मालिक हूँ। आदित्य भी मैं हूँ। अग्नि में हूँ और हव्यवाहक या देना वाला भी मैं हूँ। जन्म लेते ही ज्ञानी हूँ। अग्नि पृथ्वी के मुख स्थान की रक्षा करते हैं। सूर्य के मार्ग अंतरिक्ष की भी रक्षा करते हैं। मरुद्गण और यज्ञ की भी अग्नि रक्षा करते हैं।
अध्याय (6.13) :: ऋषि :- वामदेव, नारायण; देवता :- अग्नि, पुरुष, द्यावा पृथिवी, इन्द्र, गौ; छन्द :- पंक्ति, अनुष्टुप, त्रिष्टुप।
हे अग्निदेव! आपकी जीभ रूपी ज्वालाएँ हवि भक्षण करती हैं। हे धन प्राप्त कराने वाली अग्नि। तुम हमें अन्न के साथ जरूरत के धन और तेज प्राप्त कराओ। बसन्त ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर समस्त ऋतुएँ रमणीय होती हैं। विराट पुरुष, अनेक सिर, अनेक चक्षु और अनेक पैर वाले हैं। वह पृथ्वी को सब ओर से लपेटकर दशांगुल रूप हृदय में स्थित है। वही विराट पुरुष संसार के गुणदोषों से अलग रहता हुआ एक पाद को निरन्तर प्रकट करता है, फिर वह अनेक रूप से विस्तृत होकर संसार में बस जाता है। वह विश्व पुरुष है। उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होने वाले जगत पुरुष ही है। सब प्राणी इस पुरुष का चौथा रूप हैं। इसके तीन रूप अविनाशी और प्रकाश के रूप में स्थित होता है। इस पुरुष की शक्ति ही संसार का आधार स्तम्भ है। यह अपने आप में इस गुणगान से भी श्रेष्ठ है। इससे यह समस्त देवत्व का स्वामी हुआ है क्योंकि वह प्राणधारियों के कर्म फल भोग के लिए कारण अवस्था का अतिक्रमण कर प्रत्यक्ष संसार के रूप में रचित हुआ है। उस आदि पुरुष से विराट की उत्पत्ति हुई। उससे देहाभिमानी देवता रूप जीव उत्पन्न हुआ। वही विराट पुरुष शरीर के रूप में प्रकट हुआ है। फिर पृथ्वी और प्राणियों के शरीर का विकास हुआ है। हे धावा-धरा! तुम पालन करने वाले को मैं जानता हूँ। तुम सब ओर से अपरिमित धन आदि की बढ़ोतरी करो। हमारे लिए कल्याणरूपी होकर हमें पापों से रहित करो। हे इन्द्रदेव! तुम्हारी मूंछें हरे रंग की हैं। आपके अश्वों का भी हरा रंग है। प्रतापी मनुष्य तुम्हारी भली प्रकार से वंदना करते हैं। जो तेज स्वर्ण में निहित है, जो तेज गौओं में सत्य की तरह समाया है, हम उसी तेज से सम्पन्न होने की कामना करते हैं। हे इन्द्र देव! हमें उन शत्रुओं का सर्वनाश करने वाला बल प्रदान करो। क्योंकि तुम श्रेष्ठ शक्ति के स्वामी हो। हमारे लिए सत्य के समान धन और बल प्रदान करते हुए हमारे शत्रुओं को तुम शत्रुरूप वाला होकर वृषभों और गौ के बच्चों सहित प्रातःकाल और सांयकाल में वृद्धि करो। यह विश्व तुम्हारे रहने योग्य हो और जल तुम्हारे पीने योग्य हो।
अध्याय (6.14) :: ऋषि :- शतंवैखनसा, विभ्राट, कुत्स, सार्पराज्ञी, प्रस्कण्व, काण्वा; देवता :- अग्नि, पवमान, सूर्य; छन्द :- गायत्री, जगती, त्रिष्टुप।
हे अग्ने! तुम हमारे अन्नों की वृद्धि करते हो। अतः हमारे लिए भोजन और बल की व्यवस्था करो। पूजा के समय दुष्ट स्वभाव वाले राक्षसों को हमसे दूर रखो। अत्यन्त तेजस्वी सूर्य ने यजमान में रुकावट रहित अन्न की स्थापना की वह सूर्य सोमयुक्त मधुपान करे। सूर्य ही पवन द्वारा प्रेरित होकर अपनी किरणों से जगत को छूते हैं और वृष्टि आदि से प्राणियों को संतुष्ट करते हैं। देवों के तेज, सखा, वरुण, अग्नि, आदि देवों के नेत्ररूपी सूर्य उदायाचंल में पहुँचे। उन्होंने धावाधारा और अंतरिक्ष को पूर्ण किया। वही स्थावर जङ्गम के जीवात्मा है। गमनशील यह सूर्व उदयाचल की परिक्रमा पूरी कर सब प्राणियों की माता पृथ्वी, पिता स्वर्ग और आकाश को प्राप्त होता है। इन सूर्य की ज्योति आयु को ऊपर ले जाकर अधोमुख करती हुई देह में प्राणरूप से वास करती है। ऐसे तेज वाला सूर्य अंतरिक्ष को प्रकाशमान करता है। दिन की तीस घड़ी तक सूर्य रोशनी से भरा होता है। तब देवों की वाणी सूर्य के निमित्त सब मुखों में धारण की जाती है। सभी के प्रकाशक सूर्य के उदय होने पर तारागण रात्रियों के युक्त चोरों के समान अस्त हो जाते हैं। आग की तरह किरणों वाले सूर्य की दिखने वाली रोशनी सब प्राणियों को एक साथ देखती है। हे सूर्य ! तुम अराधकों को तारते हुए समस्त प्राणधारियों को देखते हो। तुम चन्द्रमा आदि दीप्तियों को ज्योति देते हो, अतः हे सूर्य ! तुम जगत को प्रकाशमान करते हुए शोभायमान होते हो। हे सूर्य ! तुम देवताओं के अभिमुख होकर निकलते हो और दर्शन के लिए, हे पवित्र करने वाले सूर्य ! तुम सब प्राणियों को स्वस्थ रखते हो और लोक को उजाला देते हो। हम तुम्हारे उसी प्रकाश की वंदना करते हैं। हे सूर्य ! तुम दिनों को, रात्रियों से नाप तोलते हुए और देहधारियों को प्रकाशमान करते हुए स्वर्ग और अंतरिक्ष को भी विस्तृत करते हो। सूर्य ने शुद्ध करने वाली, रथ को गिरने न देने वाली, सात किरणों को अपने रथ में योजित किया। उन रश्मियों द्वारा ही यज्ञ से प्राप्त होते हैं। है सूर्य! यह सात किरणें तुम्हें वहन करती हैं। तुम रथ पर सवार का ही तेज ही केश के समान होता है।
अध्याय (6.15) :: ऋषि :- कण्व, विश्वामित्र; देवता :- सूर्य, इन्द्र आदि; छन्द :- जगती, त्रिष्टुप।
हे इन्द्र देव! आप सब कुछ जानते हो। इसलिए मार्गदर्शन पर दिशाओं को बताओ। हे सम्पूर्ण शक्तिशाली ! समस्त प्रजाओं में बसने बसाने वाले, हमें उपदेश दो। हे तीनों लोकों के स्वामी! हे चैतन्य! परम् आनन्द को प्रेरित करने वाली किरणों के समान वंदनाओं द्वारा अभिष्ट धन प्रदान करो। हे सामर्थ्यवान दाता और पूज्य ! तुम धन, ज्ञान, शांति, तेज, बल तथा अन्न के लिए हमको समर्थ करो और स्वयं आनन्दमय बनो। हे तीनों लोकों के स्वामी! महान धन के लिए हमें समर्थवान करो। तुम ज्ञान और धन के स्वामी, अर्चनीय और समर्थ हो। सब ऐश्वर्यवानों में सबसे बड़ा दाता वह सूर्य के समान कांतिवान है। हे सर्वज्ञ! ज्ञान और बल लिए मनुष्य उसी की स्तुति करते हैं। वह परमेश्वर ही सर्व समर्थ है। उस सर्व विजयी की सुरक्षा हेतु स्मरण करते हैं। वह द्वेष भावों का विनाशक, ज्ञान कर्म, शक्ति सम्पन्न, सत्य स्वरूप और श्रेष्ठ है। उस अपराजित को ऐश्वर्य के लिए स्मरण करें। वह हमारे शत्रुओं का नाश करने वाला है। हे अखण्ड ज्ञान रूप पूर्व से तुम्हारी रश्मियाँ परमानन्दमय हैं। हे सभी को निवास प्रदान करने वाले! हमें सुख प्रदान करो। तुम्हारा पालनरूप प्रशंसित है। हे समर्थ! तुम सभी को वशीभूत करने वाले हो। हे पूजनीय! मैं आपकी वंदना करता हूँ। हे विघ्नों के नाश करने वाले ! हम तुम्हारा स्तवन करते हैं। हे वीर! तुम हमारी आत्मा के मित्र और सेवा करने के योग्य, अद्वितीय हो। हे इन्द्र देव! तुम इस प्रकार परम्पिता हो। हे अग्ने! तुम ज्योति रूप हो। हे सर्वेश्वर सहित! तुम निश्चय ही ऐश्वर्यवान हो। हे पूषन! तुम पालक हो। हे सर्वदेव ! अद्भुत गुण सम्पन्न पदार्थों! तुम ईश्वरीय गुणों से परिपूर्ण, ऐसे ही हो। हे इन्द्रदेव! सवितादेव शक्तिशाली एवं प्रतापी हैं। हम उनसे वरण करने योग्य अर्चनीय धन की विनती करते हैं, उस धन को वे हविर्दान करने वाले यजमान को अपनी स्वेच्छा से प्रदान करें। क्षितिज तथा समस्त लोकों को धारण करने वाले प्राणधारियों को ज्योति और वृष्टि आदि द्वारा पोषण करने वाली प्रतापी सविता देव स्वर्ण कवच को धारण करते हुए अपने तेज से जगत को भली-भाँति परिपूर्ण करते और हर्षिता के योग्य महान सुख प्रकट करते हैं। वे सविता देव अपने तेज से क्षितिज और धरा को युक्त करते हुए अपने उत्तम कर्मों द्वारा प्रशंसा को ग्रहण करते हैं। वे नित्य प्रति जगत को कार्य की ओर प्रेरित करते तथा सृष्टि के निर्माण कार्य के लिए अपनी भुजा को फैलाते हैं। वे सवितादेव अहिंसा भावना युक्त जगतों को प्रकाशमान करते और वचनों का पालन करते हैं। वे समस्त लोकों में रहने वाले प्राणधारियों की सुरक्षा के लिए अपनी भुजाओं को व्याप्त करते हैं।
अध्याय (7.1) :: ऋषि :- असित, काश्येपा देवलो वा, कश्यपो, मारीच, शर्त-वैखानसा, भारद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, इरिम्बिठि, विश्वामित्रो गाथिन, अमीहीयुरांगिरस, सप्तर्ष, उशना काव्य, वशिष्ठ वामदेव, नोद्या, गौतम कलि, प्रगाथ, मधुच्छंदा, गौरवीतिः, अग्निश्चाक्षुष, अंधीगुः, श्यावाश्चि, कविर्भार्गव, शुयुर्वार्हस्पत्य, सौभारि नृमेद्यः; देवता :- पवमान, सोम, अग्नि, मित्रावरुणो इन्द्र, इंद्राग्नि; छन्द :- गायत्री, पादनिवृत्त, प्रगाथ, त्रिष्टुप, काकुभ, प्रगाथ, उष्णिक, अनुष्टप जगती।
हे मनुष्यों! देवों के लिए यज्ञों का आयोजन करो। पात्र में गिरते हुए शुद्ध सोम रस की स्तुति गाओ। हे दिव्य गुण वाले देवताओं! अपने अभिलाषित इस पोषक रस को साधक गौ के दूध के साथ मिलाकर पीते हैं। हे ज्योतिर्मान ईश्वर ! आप हमारे लिए गाय आदि धन, प्रजाजन, अश्वों आदि सेवा, के अंगों व प्रताप धारक पदार्थों और औषधियों से प्रफुल्लित करो। अत्यन्त तेजस्वी कान्ति से ध्वनियुक्त धारा से शुद्ध हुआ सोम गौ-दुग्ध से मिलाया जाता है। साधकों द्वारा प्रयत्न पूर्वक प्राप्त शक्तिशाली सोम हितकारी होकर प्राप्त हुआ है जैसे संघर्ष के लिए शूरवीर युद्ध भूमि में रहते हैं। हे उज्जवल सोम ! तुम उन्नत होते हुए कल्याण हेतु अंतरिक्ष से गिरते हो। हे क्रांतदर्शी सोम! शुद्ध करते समय तुम्हारी कामना करने वालों को सम्पन्न करना ही इच्छार्थी तेरी धाराएँ अश्वों के अस्तबल से निकलने के समान वेगवान होती हैं। मृदु रस टपकाए जाने वाले कलश में उंगलियाँ सोम को बारम्बार पवित्र करती हैं। टपके हुए सोम ग्स कलश में जाते हैं। जैसे दुधारु गौ अपने स्थान पर जाती है वैसे ही यह सोम अनुष्ठान के स्थान को प्राप्त होते हैं। हे अग्नि देव! तुम अजान आदि का रसपान करने तथा ज्ञान की ज्योति फैलाने के लिए अनुष्ठान को ग्रहण होओ। अद्भुत गुणों के प्रदाता तुम मेरे मन मन्दिर में बैठो। हे सुन्दर अग्नि देव! पूर्व में कहे गए गुणों से सम्पन्न तुम्हें समिधा और घृत से प्रकाशित करते हैं। हे तरुण! तुम अधिक प्रकाशवान बनो। हे अग्नि देव! तुम महान एवं समर्थ हो। हमको भी सुनने योग्य सुन्दर ज्ञान प्राप्त कराने वाले बनो। हे मित्र वरुण ! हमारी इन्द्रियों की घर रूपी देह को प्रकाश युक्त ज्ञान रस से सींचो, उत्तम रस से सींचों और उत्तम रस से हमारे पारलौकिक स्थानों को भी सिंचित करो। अत्यन्त शुद्ध कर्म वाले मित्र वरुण! आप विविध हर्षित होने के योग्य हवि रूप अन्न से महती वंदनाओं द्वारा अपने तेज से प्रकाशमान हो। दृढ़ संकल्प वाली अग्नि को अंतः करण में प्रज्जवलित करने वाले ज्ञानियों से पूज्य तुम सत्य स्थान में विराजमान होओ। हे कर्मफल प्रदान करने वाले मित्र वरुण! तुम हमारे द्वारा सिद्ध किए गए इस सोम रस का पान करो। हे इन्द्र देव! मेरे अनुष्ठान को ग्रहण होओ। मैंने सोम को सिद्ध किया है इसे पान करते हुए मन रूपी आसन पर विराजमान होओ। हे इन्द्रदेव! मंत्र रूप अश्व तुम्हें वहन करें और तुम हमारे अनुष्ठान को ग्रहण होकर श्लोकों पर ध्यान आकृष्ट करो। हे इन्द्र ! हम ब्रह्मज्ञान वाले सोम रस को सिद्ध कर तुम सोमपान करने वाले को प्रार्थनाओं द्वारा बुलाते हैं। हे इन्द्रदेव और अग्निदेव ! सिद्ध किए हुए सोम के लिए हमारी वंदनाओं से ग्रहण हो जाओ और हमारे भक्ति भाव से विनतीमय इस सोम रस का पान करो। हे इन्द्रदेव और अग्नि देव ! आप पूजक को मुक्ति प्राप्त कराने में सहायक हो। तुम्हें इन्द्रियों को जागृत रखने वाला यज्ञ साधक सोम प्राप्त होता है। हमारी वंदनाओं से आकर्षित हुए तुम इस शुद्ध सोम का पान करो। इस अनुष्ठान साधक सोम से प्रेरित अभीष्टदाता इन्द्रदेव और अग्नि की अर्चना करता हूँ। वे मेरे सोम यज्ञ से तृप्त हों। हे सोम ! तुम उच्च रसों का उत्पादक, आकाश में स्थित बल युक्त आनन्द स्वरूप बहुत अन्नों से युक्त यजमानों द्वारा ग्रहण किया जाता है। हे ऐश्वर्यदाता सोम! तुम हमारे लिए काम्य हो। तुम इन्द्र, वरुण, मरुद्गण हेतु स्रवित हो। हे सोम! मनुष्यों को प्राप्त इन सर्वज्ञ साधनों को सरलता से प्राप्त करते हुए आपकी सेवा के लिए स्तवन करते हैं। हे पवित्र किए गए सोम! तुम अपनी तरलता से पात्र में जाते हो। तुम समृद्धिदाता, तरल, शुद्ध, स्वर्ण के समान चमकते हुए अनुष्ठान स्थान में स्थित होओ। हर्षदाता, आह्लादक, स्वर्गीय आनन्द रस को टपकाता हुआ सोम हृदय रूप आकाश को प्राप्त होओ। फिर तुम ऋषियों द्वारा धोए हुए कर्मवान यजमानों को प्राप्त कराओ। हे सोम! हमारे यज्ञ में शीघ्र पधारकर द्रोण कलश में विराजमान होताओं द्वारा शोधित हविरूप अन्न को ग्रहण होओ। स्नान से पवित्र हुए अश्व के समान अपनी लम्बी उंगलियों से ऋत्विज तुम्हें पवित्र करते हैं। उत्तम अस्त्र से युक्त असुरों का विनाशक विघ्नों से रक्षा करने वाला बलवान आकाश पृथ्वी धारक, सोम! सिद्ध किया जाता है। मतिवान यज्ञकर्त्ता परमज्ञानी, साधक ऋषि ही इन इन्द्रियों में स्थित जो परमानन्द रूप दुग्ध है उसे प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करता है। हे वीरेश्वर इन्द्रदेव! जैसे बिना दुही गाएँ बछड़ों या बछियों की ओर रम्भाती है, वैसे ही हम विश्व के स्वामी तुम सर्वज्ञ को बार-बार प्रणाम करते हैं। हे इन्द्रदेव! तुम्हारे समान अन्य कोई अनोखा संसार या पृथ्वीलोक का स्वामी नहीं है, न कभी हुआ है और न कभी होगा। अश्वगवादि की अभिलाषा वाले हम आपका आह्वान करते हैं। सतत् वृद्धि को प्राप्त इन्द्र, किस तृप्ति कारक पदार्थ अथवा किस प्रयत्न या अनुष्ठान से अब हमारे मित्र हो। आनंदमय पदार्थों में कौन-सा पदार्थ उत्तम है ? इन्द्रदेव को आनन्दमय में रमाने वाला सोमरस शत्रु के ऐश्वर्य को समाप्त करने वाला है। हे इन्द्रदेव! तुम मित्र साधकों की रक्षा करने वाले हमें सैकड़ों को पुकारती हुई गायों के समान हैं। ऋत्विज यजमानों! सूर्य के समान प्रकाशित शत्रुओं को भगाने वाले सोमपात्र से आनन्दित इन्द्र का यशगान करो? सन्तुष्ट पोषक इन्द्र से संतान और समृद्धि, सैकड़ों गाय आदि अन्न धन माँगते हैं। हे इन्द्र ऋषियों ! तुम सोम यज्ञ में वेग वाले अश्वों से युक्त ऐश्वर्य प्रदान करने वाले इन्द्र की रक्षा के लिए उपासना स्वीकार करो। जैसे बालक अपने अभिभावक को पुकारता है, वैसे ही मैं साधक अपने हित करने वाले इन्द्र को बुलाता हूँ। सुन्दर चिबुक और नासिका वाले इन्द्रदेव को द्वन्द्व में दुष्ट ग्रहण नहीं कर सकते। वह इन्द्रदेव सोम के आनन्द हेतु सोम सिद्ध करने वाले साधक को समृद्धि प्रदान करता है, हम उस इन्द्रदेव की वंदना करते हैं। हे सोम ! तुम इन्द्रदेव के लिए सिद्ध किया गया सुस्वादिष्ट आनन्ददायिनी धारा से टपको। रोग व्याधि रूप राक्षसों का शोषणकर्त्ता सोम स्वर्ण कलश में पवित्र किया हुआ रखा है। हे इन्द्रदेव! तुम अत्याधिक ऐश्वर्य एवं विभिन्न पदार्थों को देने वाला है। शत्रुओं से धन प्राप्त कराओ। हे सोम! अत्यन्त मृदुरस प्रदान करने वाले तुम अर्चनीय, उज्जवल और सुखवर्द्धक हो। इन्द्रदेव के लिए इस पात्र में दृढ़ होओ। हे सोम ! अभिष्ट वर्धक इन्द्रदेव तुम्हें पीते हुए बलशाली बन जाते हैं। तुम्हारी शक्ति से वह शत्रुओं के धन को अपने आधीन कर लेते हैं। जैसे अश्व शीघ्रता से युद्ध भूमि को ग्रहण होते हैं। शीघ्रता से निकलकर पात्रों में टपकता हुआ सोम इस अभीष्टवर्धक इन्द्र को प्राप्त होओ। शक्ति के लिए सेवनीय और संस्कारित यह सोम इन्द्रदेव के लिए पात्रों में संगठित हुआ विजयेच्छुक इन्द्रदेव को चेतना प्रदान करता है जैसे वह इन्द्रलोकों को चैतन्य करता है। इस सोम के आनन्द में रमा हुआ इन्द्र धनुष को ग्रहण करता हुआ जलवर्षक अभीष्ट देता है। हे वंदना करने वाले! जिनकी सेवा करने से विजय निश्चित होती है ऐसे सोम के लिए प्रसन्न बना देने वाले सिद्धस्थ रस से कुत्ते और अनके समान लोभियों को भगाओ। सुसंस्कृत, कर्म साधक सोम पाप शोधक, धाराओं से ऐसे प्रवाहित होता है जैसे अश्व के साथ भागता है। हे मनुष्यों ! दोषों को जलाने वाले सोम का सर्वकार्यों को सिद्ध करने वाली वृद्धि से अनुष्ठान के लिए सम्मान करो। हितकर सोम जगत को तृप्त करने वाले मनुष्यों को सिद्ध करने वाला है। यह आकाश में स्थित जल से बढ़ता और सूर्य के रथ पर चढ़ा हुआ सबको देखता है। सत्य रूप अनुष्ठान में प्रमुख प्रवक्ता के समान ध्वनि करने वाला सोम अद्भुत अव्यक्त रूप को प्राप्त करता है। दीपयुक्त सोम संस्कारित हुआ करते हैं। वह यज्ञ को प्रकाशित करते हैं। हे प्रार्थना करने वालो। तुम अनुष्ठान में दीप्तिमान हुए अग्नि की वंदना करो। हम भी उन अविनाशी सर्वज्ञ अग्नि की सखा के रूप समान प्रशंसा करें। अन्न बल से पुत्र अग्नि की प्रार्थना करें। यह अग्नि मनोरथ पूर्ण करने वाली, संग्राम रक्षक, वृद्धि करने वाली हमारी संतानों की रक्षक बने। हे अग्निदेव ! इन अति उत्तम प्रकार से उच्चारित प्रार्थनाओं को सुनो तथा अन्य देवों की वंदनाओं को सुनते हुए भी सोमरस से शक्तिशाली बनो। हे अग्ने ! तुम्हारा मन जिस यजमान के प्रति आकर्षित है, उसके यहाँ उत्तम अन्न बल धारण करते हो। हे अग्ने ! तुम्हारे तेज से नेत्रों की दीप्ति समाप्त न हो। तुम यजमानों के रक्षक हो। अतः उनके द्वारा की हुई सेवाओं को प्राप्त करो। हे अग्ने ! तुमको सोम से तुष्ट करते हुए हम रक्षा के लिए तुम्हें बुलाते हैं, उसी प्रकार जैसे ऐश्वर्य प्रदाता गुण वाले को सब बुलाया करते हैं। हे इन्द्रदेव! हमारी सुरक्षा के लिए हम आपकी शरण में उपस्थित हैं। आप शत्रुओं को पछाड़ने वाले युवा रूप से आकर उत्साह बढ़ाओ। आप सभी के रक्षक हो। हम मित्र रूप से तुम्हारे आराधक हैं। हे स्तुत्य इन्द्रदेव! तुमसे सभी अभिष्ट पदार्थ याचना करते हुए प्राप्त होते हो। उसी प्रकार जैसे अंजलि से जल उछालते हुए व्यक्ति समीप वालों को खेल-खेल में भिगो देते हैं। हे वज्रिन ! हे शूरवीर ! जैसे नदियों के जल से ही समुद्र श्रेष्ठ बनता है, वैसे ही प्रार्थना करने वाले अपने श्लोकों से ही तुम्हें वृद्धि कराते हैं। उस गतिमान इन्द्र के रथ में वचन मात्र से ही अश्व उड़ जाते हैं। इन्द्र के स्थान को द्रुतगति से जाते हुए अश्वों की प्रार्थना करने वाले अपने श्लोकों से उत्साहित करते हैं।
अध्याय (7.2) :: ऋषि :- श्रुतकक्ष, वशिष्ठ, मेधातिथिप्रेमैधौ, इरिम्बिठि कुशीदी काण्व, त्रिशोक, कण्व, विश्वामित्र, मधुच्छन्दा, शनुः शेप नारदः, अवत्सार, मेध्यातिथि असित काश्यपो, देवलो वा अमहीयुरांङ्गिरस, त्रित आपत्य, भरद्वाजादय. सप्तऋषय, श्यावाश्य, अग्निश्चाक्षुष, प्रजापतिर्वेश्वामित्रो, वाच्योवा; देवता :- इन्द्र, अग्नि, उषा अश्विन, पवमान, सोम; छन्द :- प्रगाथ, गायत्री, उष्णिक, बृहति, प्रगाथ, अनुष्टुप।
हे ऋत्विजों! सोमपान करते हुए इन्द्र की अनेक प्रार्थनाएँ करो। वह इन्द्र सब शत्रुओं का हननकत्र्त्ता, शतकर्मा, धनदाता होने से महान है। हे ऋत्विजों! अनुष्ठानों में असंख्यकों द्वारा पुकारे गए श्लोकों द्वारा वंदित असनातन देव का इन्द्रमान से कीर्तिगान करो। स्तोताओं के पशु धन दाता इन्द्र हमें ऐश्वर्यदाता हों। वह महान इन्द्र साक्षात ऐश्वर्य प्रदान करें। हे वंदना करने वाली! सोमपान करने वाले इन्द्रदेव के लिए आनन्दप्रद श्लोकों का विचरण करो। हे साधक! उत्तम दान और सत्य धन देने वाले इन्द्र के लिए सोम को समर्पण करने वाला अन्य व्यक्ति स्तोत्रों का उच्चारण करता है, वैसे ही तू भी हमारे साथ श्लोकों को गा। हे इन्द्र देव! तू हमको अन्न चाहने वाला होते हुए वीर, गवादि धन और स्वर्ण आदि के लिए सिद्धस्थ करो। हे इन्द्र! तुम्हें अपना समझने वाले मित्र प्रयोजनीय विषयों से तुम्हारी वंदना करते हैं। हमारी संतति भी तुम्हारी वंदना करती है। हे व्रजिन! तुम कर्मों के मालिक के लिए नवीन अनुष्ठान में अन्य श्लोकों को नहीं कहता। केवल तुम्हारी ही प्रार्थना करता हूँ। सोम शोधन करते हुए साधक रक्षा चाहते हैं। उसे स्वप्नावस्था से निकालकर जागृत करती है। इसलिए निरालस्य देवगण को शीघ्र प्राप्त कर लेते हैं। सोम रस चाहने वाले इन्द्रदेव के लिए संस्कृत सोम की हमारी वाणियाँ वंदना करें। फिर वंदना करने वाले उस सोम की अर्चना करें। जिस अधिक कांति वाले इन्द्र के लिए सात होता मंत्रों का उच्चारण करते हैं। सोम के सिद्ध होने पर हम उसका आह्वान करते हैं। अद्भुत इन्द्रियाँ, ज्योति और आयुवर्द्धक अनुष्ठान का जिससे विस्तार होता है। उसी अनुष्ठान को हमारी वंदनाएँ वृद्धि करें। हे इन्द्र! तुम्हारे लिए यह सोम वेदी पर बिछे कुशों पर शोधित किया है। तुम उस समय यहाँ आकर रस रूप सोम से जहाँ हवन होता है उसका पान करो।
विख्यात किरणों वाले अर्चनीय इन्द्र देव! तुम्हें आनन्दित करने हेतु यह सोम सिद्ध किया गया है। इसलिए हमारी उत्तम वंदनाओं से यहाँ पधारकर सोमपान करो। सर्वश्रेष्ठ सुख, वृष्टि रक्षक और आसानी से पान करने के योग्य सोम के प्रति इस अनुष्ठान में मन लगाओ। हे इन्द्र देव! महान भुजाओं वाले तुम हमारे अद्भुत धन को दाहिने हाथ से ग्रहण करो। हे इन्द्र! बहुत पराक्रमी देह, ऐश्वर्य वाले मान रक्षक साधक युक्त हम तुम्हें जानते हैं। हे पराक्रमी तुम दानशील को देवता या प्राणी कोई भी देने से रोकने वाला नहीं। उसी प्रकार जैसे वृषभ को घास भक्षण करने से कोई नहीं रोकता। हे इन्द्र! सोम के शुद्ध होने पर तुम्हें उसके पीने के लिए बुलाता हूँ। उससे तुम तृप्ति को प्राप्त हो। हे इन्द्रदेव! पोषण करने की अभिलाषा धूर्त तुम्हें दुःख न दें। व्यंग्य करने वाले ब्रह्मद्वेषियों से तुम अपनी सेवा न कराओ। हे इन्द्र! धन के निमित्त इस यज्ञ में तुम्हें गौदुग्ध युक्त सोमरस भेंटकर आनन्दित करें। तुम मृग द्वारा तालाब के जल पीने के समान उस सोम का पान करो। जिससे तुम्हारा पेट भी भरे। किसी से भय न रखने वाले तुम्हें यह सोम अर्पण है। ऋत्विजों ने तृण आदि दूर करके इसे सिद्ध किया है। यह पत्थरों से कूटकर निचोड़ा हुआ छानकर बल भावना से शोधन किया गया है। हे इन्द्र ! इस शोधित सोम की पुरोडाश के समान गौ दुग्धादि से मिश्रित करके तुम्हारे लिए सुस्वादु बनाया गया है। अतः इसको पान करने हेतु तुम्हें इस अनुष्ठान में पुकारता हूँ। हे इन्द्र ! तुम बलवान हुए क्रम से संस्कारित इस सोम का शीघ्र पान करो। हे इन्द्रदेव! जो सोम तुम्हारे लिए पत्थरों से पवित्र किया जाता है, उसके सिद्धस्थ होने पर अपनी देह को उसके लिए आकर्षित करो। उस सोम से तुम्हें आनंद ग्रहण हो। हे इन्द्र ! यह सोम तुम्हारे दोनों पार्श्वों में भली प्रकार रम जाए। तुम्हारे सिर आदि देह में व्याप्त हुआ। सोम धन के निमित्त तुम्हारी भुजाओं को समर्थ करें। हे प्रार्थना करने वाले मित्रों यहाँ प्रस्थान कर विराजमान हो और इन्द्रदेव के लिए सोम गुणगान द्वारा हर्षित करो। ऋत्विजों! सोम के संस्कार के योग देते हुए शत्रु नाशक इन्द्र को सब मिलकर मनाओ। वह इन्द्रदेव ज्ञान में समर्थ हुआ हमारे में पुरुषार्थ ग्रहण करवाएँ। वह धन प्राप्तिमती बढ़ोतरी में सहायक होता हुआ देय समद्धि के संग प्रकट हो। हम सभी मित्र प्रत्येक संघर्ष में विघ्नप्रहारक इन्द्र को अपनी रक्षा के लिए बुलाते हैं। सनातन स्थान में अनेकों को ग्रहण होने वाले इन्द्रदेव का आह्वान करता हूँ। हमारे पुरखों ने भी तुम्हारा आह्वान किया था। यह इन्द्र हमारी प्राथर्ना को सुनें तो स्वयं ही रक्षा साधनों एवं अन्नादि ऐश्वर्यों सहित हमारे पास आ जाएँ। हे इन्द्रदेव संस्कारित सोम को पीने पर तुम वृद्धि करने वाली शक्ति की प्राप्ति हेतु साधक को पवित्र करते हो। तुम निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ हो। वह इन्द्र रक्षक रूप से दिव्यताओं से स्थित हुआ बढ़ाने वाला, कर्म फलदायक विजेता है। उसी का हम आह्वान करते हैं। उसी इन्द्रदेव! का अन्नमय अनुष्ठान में आह्वान करता हूँ। हे इन्द्रदेव! तुम आनंद की अभिलाषा से हमारे निकट पधारकर बढ़ोतरी करके सखा के समान हो। हे ऋषिगण! तुम्हारे लिए इन प्रार्थनाओं से बल के पुत्र, चैतन्य, श्रेष्ठ यज्ञ कर्मों में संयुक्त दूत रूप अग्नि का आह्वान करता हूँ। यह संसार पालक, उत्तम अन्न वाला, अनुष्ठान योग्य श्रेष्ठतम कर्मा अग्नि देवों का आह्वान कराने वाला शीघ्र विचरण करें। साधना करने वालों की हवियाँ अग्नि को ग्रहण हों। सूर्य की उषा को आकर अंधकार मिटाते सबने देखा। वह अपने दर्शन से ही रात के अँधेरे को दूर कर देती है। प्राणियों को उत्तम प्रेरक उषा प्रकाश देने वाली है। सभी का प्रेरक, सूर्य रश्मियों को एक साथ आविभूर्त करता है। हे उषे! तेरे और सूर्य की ज्योति को ग्रहण कर हम अन्न से सम्पन्न हों। हे अश्विनी कुमारों! सूर्य के प्रकाश की इच्छुक यह प्रजाएँ तुम्हें बुलाती हैं। यह साधक भी रक्षा के निमित्त तुम्हारा आह्वान करता है। तुम सब स्तोताओं के निकट जाते रहे हो। हे अश्विनी कुमारों! तुम दिव्य धन-धारक हो। उस धन को साधकों के लिए प्रदान करो। उस कार्य को करते हुए सोम के मृदु रस का पान करो। सोम के सनातन रूपों का ध्यान कर सहस्त्रों मनोरथों को पूर्ण करने वाले पेय रस को ज्ञानी मनुष्य निचोड़ते हैं। यह सोम के समान सब कर्मों को देखता रहता है। यह तीस अहोरात्रों को प्राप्त आकाशस्थ सात प्रवाहों में व्याप्त होता है। पवित्र किया जाता हुआ सोम सूर्य के समान सभी भुवनों के ऊपर विद्यमान होता है। यह दिव्य सोम सनातन रीति से संस्कारित किया हुआ देवों के लिए प्रयुक्त हुआ दमकता है। पूर्ववत श्लोकों द्वारा साधित यह सोम अद्भुत गुणवाला आकाशीय बल सहित हुआ साधना करने वाला साधक द्वारा गुणों में वृद्धि करता है। पूर्ववत ही पात्रों को सोमरस से पूर्ण करता हुआ शब्दमान सोम इन्द्रादि को अपने निकट बुलाता है। हे सोम! हमारे अभिष्ट पदार्थों को हमारे सम्मुख लाओ। हमारे शत्रुओं को भयग्रस्त करो। शत्रुओं के धन को हमें ग्रहण कराओ। उत्तम प्रकार से उत्पन्न गौ दुग्ध आदि से संस्कारित सोम इन्दादि देवों को प्राप्त करता है। हे मनुष्यों! इन्द्रादि देवों की आराधना के इच्छुक यजमान के लिए इस शुद्ध किए जाते हुए सोम के गुणों का वर्णन करो। बुद्धि को प्राप्त मेधावी सोम बल को प्राप्त होते हैं। जैसे बड़े मृग धरि वन को प्राप्त होते हैं। धूलि ज्योर्तिमान सोम अमृत रूप धार से पात्रों में गिरता है। हे सोम! तुम इन्द्र, वायु, वरुण, विष्णु और मरुतों के लिए संस्कारित है। हे सोम! तुम देवताओं के पीने को, सिन्धु के जल के पूर्ण होने के समान पूर्ण होता है। तुम जागृत तत्वों से परिपूर्ण हुआ लता के अंशों से मृदुरस प्रवाहित करता कलश में जाओ। चाहने योग्य शिशु के समान श्वेत वर्ण का सोम दिखाई पड़ने पर सिद्ध किया जाता है। आनन्द प्रवाहित करने वाले सोम के पवित्र होने पर हमारे अन्न और यश के लिए अनुष्ठान में ग्रहण होता है। यह सोम हंस के समूह में गति से प्रवेश करने के समान सब साधनों की बुद्धि को नियंत्रित करता है। यह सोम गौ के घृत से युक्त किया जाता है। इस सोम को इन्द्र के पान करने योग्य होने को साधक की उंगलियाँ प्रेरित करती हैं। हे सोम ! दिव्य कामनाओं वाले तुम इस धार से टपकते हुए शब्दपूर्वक छानने के लिए प्रवृत्त होओ। तुम्हारी धाराएँ तरंगित करने वाली हो जाती हैं। अभिलाषा करने योग्य साधकों की संतान, कीर्ति प्राप्त हेतु गति से छनता हुआ निकलता है। शुद्ध किए जाते हुए सोम के शब्द को कर्मों में बाधा देने वाला न सुने। हे उपासकों! कर्म रहित लालची कुत्ते को यक्ष के पास न फटकने दो।
अध्याय (7.3) :: ऋषि :- जमदग्नि, हीयु कश्यप, भृगुर्वारुणिजमदग्नि-मेधातिथि काण्व, मधुच्छन्दा, वैश्वामित्र, वशिष्ठ, उपमन्युर्वाशष्ठ, शंयुबार्हस्पत्य, प्रस्कण्व, काण्व, नृमेद्य, नहुषोमानव, सिकतानिवावरी, पश्नियोऽना, श्रुतकक्ष, सुकक्षो वा आंगिरस जेता-माधुच्छन्दसा; देवता :- पवमान, सोम, अग्नि, मित्रावरुण, इन्द्र, इंद्राग्नि; छन्द :- गायत्री, त्रिष्टुप, बृहत्य, अनुष्टुप, जगती।
हे सोम! विभिन्न रक्षा साधनों सहित हमारी वंदना को सुनता हुआ उनके शब्दों पर ध्यान दो। हे सर्वद्रष्टा सोम ! तुम ध्वनि में प्रेरणा रचित करते हुए मन आनन्द रस से मिलो। हे सोम! तुम्हारी महिमा के निमित्त यह भवन स्थित है। देवताओं को तृप्त करने वाली गौएँ तुम्हारे लिए ही उपस्थित हैं। हे सोम! सिद्ध किए हुए तुम अभिष्टवर्षक हो। तुम शुद्ध होकर हमें यशस्वी बनाओ। समस्त शत्रुओं का पतन करो। हे सोम! तुम्हारे इस यज्ञ में मित्रभाव की प्राप्ति के लिए हम साधक एकत्र हुए हैं। जो युद्ध करना चाहते हैं हम उनको भगाएँ। हे सोम! अपने शत्रुनाशक अस्त्रों से शत्रु की निन्दा करते हुए हमारी सुरक्षा करो। हे सोम ! तुम अभीष्टवर्षक और तेजस्वी हो। हे सोम के स्वामी! तुम मनोकामनाओं को पूर्ण करते हुए मनुष्यों के भले के लिए कार्य करते हो। हे अभीष्टवर्षक सोम! तुम्हारी शक्ति और सुख वृष्टि सामर्थ्य से परिपूर्ण हैं। तुम सिद्धहस्त हुए सुखों की वर्षा करो। हे अश्व समान शब्द करता हुआ, पशुधन और ऐश्वर्य को देने वाला है। हे सोम ! तुम सचमुच ही अभीष्ट फलों के वर्षक हो। अतः हम समस्त देवों के दर्शन श्रवण के योग्य तेज से तेजस्वी हुए तुम्हें अनुष्ठानों में पुकारते हैं। हे ऋत्विजों के द्वारा सिद्ध किए जाते हुए सोम ! जब तुम्हें जलों से सींचते हैं तब तुम हृदय कलश में विद्यमान होते हो। हे उत्तम अस्त्र वाले सोम! तुम देवों को सुख प्रदान करते हुए हमें भी वीर पुत्र पौत्रों से परिपूर्ण कर हमारे इस अनुष्ठान में पधारकर शोभायमान करो। हे सोम! हम साधक तुम्हारे टपकते हुए मित्र भाव के लिए प्रार्थना करते हैं। हे सोम! तुम्हारी ये लहरें बहकर छानने के वस्त्र में उठती हैं, उनसे हमें आनन्दमय करो। हे सोम! विश्व का अधीश्वर होते हुए सिद्ध होकर तुम हमें अन्न, धन और वीरतायुक्त संतति प्रदान करो।
देवताओं की वंदना करने वाले सर्व समृद्धिवान इस अनुष्ठान के कारण भूत उत्तम कर्मा हविवाहक अग्नि की आराधना करते हैं। प्रजा रक्षक, हवि को देवताओं को प्राप्त कराने वाले, प्रिय विभिन्न रूप वाले अग्नि का साधकगण हमेशा आह्वान
करते हैं। हे अग्ने ! अरणियों से प्रकट तुम कुश पर विराजित यजमान पर कृपा दृष्टि करो। इस अनुष्ठान में हवि लेने वाले देवों को पुकारो। तुम हमारे लिए अर्चना के योग्य हो। हम स्तोता सोमपान करने को यज्ञ स्थान में प्रकट होने वाले मित्र और वरुण देव को बुलाते हैं। साधक पर कृपा दृष्टि करने वाले सत्य संकल्प से ग्रहण कर्मफल की वृद्धि करने वाली ज्योति के पोषणकर्त्ता उन सखा और वरुण को पुकारता हूँ। वरुण और मित्र सब रक्षा साधनों से युक्त हुए हमारे रक्षक हों। वे दोनों बहुत सा ऐश्वर्य दें। गान के योग्य बृहत साम से गायकों ने इन्द्रदेव का पूजन किया। होताओं ने मंत्र उच्चारण के द्वारा तथा अध्वर्युओं ने वाणियों से इन्द्रदेव को मनाया।
वज्र और सुवर्ण कांति से सुशोभित इन्द्र के वचन मात्र से कर्म रूपी अश्व ज्ञानेन्द्रिय से मिल जाते हैं। हे इन्द्रदेव! प्रबल तेजस्वी रक्षा साधनों से परिपूर्ण हुआ तू युद्धों में हमारा रक्षक हो। यह इन्द्र दर्शन के निमित्त सूर्य को उसके मंडल में प्रतिष्ठित करता है। उस सूर्य की रश्मियाँ मेघ को प्रेरित करती हैं। सुरक्षा हेतु तत्पर इन्द्रदेव अग्नि की वृद्धि करने वाला हवि और सुन्दर वन्दना को प्रेरित कर कर्मशील वाणियों से पूजन करते हैं। उन इन्द्र और अग्नि की रक्षा प्राप्त करने को ज्ञानीजन स्तुति करते हैं और क्लेशों में फँसे हुए पुरुष अन्न के लिए उन्हें मनाते हैं। धन की अभिलाषा से वंदना करना चाहते हुए हम अनुष्ठान के लिए हे इन्द्रदेव और अग्निदेव ! उन वंदनाओं द्वारा तुम्हें बुलाते हैं। हे सोम! तुम साधकों को अभिष्ट फल प्रदान करते हुए द्रोण कलश में धारा के रूप में प्रवेश करो। फिर सर्व समृद्धिदाता जिस इन्द्रदेव के मरुत मित्र हैं, उनको हम तुम्हें अर्पण करें तो आनन्द देने वाले बनो। हे सिद्ध हुए सोम! आकाश-पृथ्वी के धारक, सर्वदशकबली तुम्हें प्रेरित करता है। अन्न आदि ऐश्वर्य प्रदान करो।
हे सोम! मेरी उँगलियों के द्वारा संस्कारित तुम हरे रंग की धार से कलश में जाता हुआ सखा रूप इन्द्रदेव को युद्धों में आनन्द प्रदान करें। गौओं को देखकर शब्द करने वाले बैल के समान प्रार्थनाओं से लक्ष्य प्राप्त होता है। सुस्वादु गौ दुग्धादि से मिलकर मृदु हुआ सोम रस भाव को ग्रहण होता है। यह जलों से सिंचित, पवित्र, धार रूप में इन्द्रदेव के लिए स्वीकार्य है। हे हर्ष युक्त सोम ! टपकता हुआ, मेघ को वर्षा के लिए प्रेरित करता हुआ कलश में जा और श्वेत वर्ण धारण करता हुआ गौ दुग्ध की इच्छा करें। हे इन्द्र देव! हम प्रार्थना करने वाले अन्न प्राप्ति के लिए वंदनाओं द्वारा आपका आह्वान करते हैं। अन्य प्राणी भी आपको सुरक्षा हेतु पुकारते हुए संघर्ष उपस्थित होने पर ही बुलाते हैं। हे वज्रिन! शत्रुओं को प्रताड़ना देने वाले हम स्तवन करते हुए ऐश्वर्य माँगते हैं। पशु इत्यादि धनों से समृद्धिवान इन्द्रदेव, हम वंदना करने वालों को हजारों धन प्रदान करते हैं। उस इन्द्रदेव को जैसे तुमसे बने, वैसे उसका उत्तम प्रकार से पूजन करो। जिस प्रकार शक्तिशाली व्यक्ति शत्रु सेना पर हमला करता है उसी प्रकार इन्द्र यजमान को नष्ट करने वाले पर हमला करता हुआ उन्हें मारते हैं। परम् ऐश्वर्यशाली इन इन्द्र के लिए धन यजमानों के पास स्थाई रहते हैं। हे वज्रिन! आपको हवि प्रदान करने वाले यजमान सोमपान करते हैं। आप मेरे श्लोक को इस अनुष्ठान में सुनों। सुन्दरचिबुक वाले ! स्तुत्य इन्द्रदेव! आपकी सेवा करने वाले उपस्थित हैं। आप सोम रस से तृप्त हो जाओ। सोमों के शुद्ध होने पर अन्न प्राप्त हों। हे सोम ! देवों को काम्य और राक्षसों का पतन करने वाले तुम्हारा हर्ष कारक रस है उसके युक्त पात्र में प्रविष्ट होओ। हे सोम ! तुम शत्रुनाशक होते हुए संग्रामसेवी हो, अधिक दुग्ध की गौ अश्व आदि के प्रदाता हो। हे सोम ! तुम सुन्दर गौओं के दूध से मिश्रित, बाज के समान शीघ्रतम ही अपने कलश को ग्रहण होकर उज्जवल होते हो। सब पोषक, आराध्य, धनकारण, सोम शुद्ध हुआ, पात्र में स्थित हुआ, प्राणियों का पालक और आकाश पृथ्वी को अपने तेज से प्रकाशित करता है। परम प्रिय उत्कृष्ट स्पर्धा करती हुई वाणियों से प्रशंसित प्रसिद्ध पवित्र सोम रस टपकता रहता है। हे सोम ! इस शक्तिमान रस को दुग्ध आदि से मिलाने के लिए हमें दो जो रस चारों वर्णों को प्राप्य है। उससे हम धन माँगते हैं प्रार्थना करने वालों को अभिष्ट दाता, दिवस, उषाकाल, क्षितिज, जल अग्नि की वृद्धि और चेतना देने वाला प्रशंसित सोम इन्द्रदेव के मन में प्रविष्ट होने की अभिलाषा सें कलशों में स्थित रहता है। सनातन मेधावी सोम पवित्र होकर कलशों में जाने के लिए सब ओर प्रवाहित होता है। वह त्रैलोक्य व्याप्त जलों को उत्पन्न करता है और मित्र भाव की वृद्धि करता है। वह सुनता है। वर्षा कारक होने से संसार का कर्त्ता सोम पवित्र होता हुआ ऊपर को प्रकाशमान करता है और जलों से समृद्ध होता है। यह सोम मनस्थ होने को व्याकुल हुआ इन्द्रियों को दुहता हुआ मग्न करता है।
हे इन्द्र देव! संघर्ष काल में शत्रुओं को नष्ट करने की इच्छा वाला होता है। क्योंकि तुम वीर और धीर हो। अतः स्तुतियों से प्रसन्न करने योग्य हो। हे ऐश्वर्यवान इन्द्र देव! आप सब देवताओं को प्रसन्नता प्रदान करने वाले हो। इसलिए हम साधकों को भी अन्न, धन आदि देकर कर्मवान बनाइए। हे अन्न शक्ति के स्वामी इन्द्रदेव ! कर्म रहित प्रमादी ब्राह्मण की तरह आप मत बनो। इस शुद्ध गाय के दूध भवित अमृत के पात्र को पाकर सुखी होओ। हमारी सभी स्तुतियों में समुद्र के रूप समान विस्तृत, महान रथी, अन्नों के अधीश्वर, सत्यपथगामियों के रक्षक इन्द्रदेव की पुष्टि की। हे बल रक्षक इन्द्र ! आपके सत्यभाव में मग्न हम अन्न युक्त हों और शत्रुओं से भय न मानें। शुद्ध विजेता, अपराजित तुम्हें अभय प्राप्त करने के लिए मनाते हैं। इन्द्रदेव तो अनादिकाल से धन दान करते आए हैं। इसलिए यह यजमान भी ऋत्विजों को गौ अन्न धन दक्षिणा में देते हैं। तब इन्द्रदेव का रक्षक बल अनेक धन देकर भी कम नहीं होता।
अध्याय (7.4) :: ऋषि :- जमदग्नि, भृगुर्वारुणि जमदग्निर्भार्गवोवा, कवि- र्भार्गव, कश्यप मेधातिथि, काण्व, मधुच्छन्दा, वैश्वामित्र, भरद्वाज वार्हस्प्त्य, पराशर, पुरुहन्मा, मेध्यातिथि, काण्व, वशिष्ठ, त्रित, ययातिर्नाहुष, पवित्र, सौभरि काण्व, गौषूक्त्यश्व-सूक्तिर्नो काण्वायनो, तिरश्ची; देवता :- पवमान, सोम, अग्नि, मित्रावरुणोः, मरुत, इन्द्रश्च, इन्द्राग्नी, इन्द्र; छन्द :- गायत्री, प्रगाथ, त्रिष्टुप, वृहती, अनुष्टुप, जगती, काकुभ, प्रगाथ, उष्णिक।
छन्ने की ओर से वेग से जाता हुआ यह सोम सौभाग्यों के लिए ऋषियों द्वारा सुसिद्ध होता है। अन्न शक्ति का दाता सोम असंख्य दोषों को दूर करता हुआ हमारी संतानों और पशुओं को सुख प्रदान करता है। हमारी गायों के और हमारे लिए दृढ़ अन्न धन प्रदाता हुए सोम हमारी सुन्दर प्रार्थनाओं को सुनते हैं। मनुष्यों के यज्ञ कर्मों में तरल सोम वंदनाओं के संग ही ऊपर से कलश में गिरते हैं। हे सोम! आकाश में स्थित धनों को हमारे लिए धारण करते हुए तुमको कल्याण रूप में अति उत्तम कर्मों द्वारा चाहते हैं। उग्र व्याधिओं के नाशक प्रशंसनीय गुणों को प्रदान करने वाला, प्रसन्नता देने वाला, असंख्यों की उन्नति करने वाला सोम हमको हर्षित करें। हे श्रेष्ठकर्मी सोम! ऐश्वर्य को प्राप्त होने वाले तुम्हें आकाश तत्वों से बाधा रहित बनाकर पत्ते पर प्राप्त करते हैं। कर्म द्रष्टा, अभिष्टदायक सोम फल को प्रेरित करता हुआ श्रेष्ठगुण वाला होता है। जल प्रेरक यज्ञ रक्षक सब देवगण के लिए समान रूप से होने वाले सोम उत्तम पत्तों से प्राप्त हुए हो। ऋत्विजों द्वारा शोधित सोम! तुम हमारे लिए धार सहित हुआ पात्र में गिरता तथा पशुओं को भी ग्रहण हो। वाणी द्वारा स्तुत्य हरितवर्ण वाले सोम! दूध में डालकर शुद्ध किया जाता हुआ तू साधकों को अन्न धन प्राप्त कराने वाला बन। हे सोम! हवि धारक यजमानों से दीप्त अनुष्ठान के लिए पवित्र हुआ हितकारक आप इन्द्र देव के स्थान को ग्रहण करो। मेधावी ग्रहस्थ का रक्षक युवा हविवाहक अग्नि आह्वानीय अग्नि से मिलकर उत्तम प्रकार से प्रज्वलित होता है। हे अग्ने ! जो हविदाता देवों को हवि ग्रहण कराने वाले तुम्हारी आराधना करता है, तुम उसके अवश्य ही रक्षक हो। हे अग्ने ! जो देव यजन करने वाला हवियुक्त यजमान तुम्हारे पास आकर उत्तम कर्म करता है, उसे सुखी बनाओ। शक्ति वाले मित्र और हिंसकों के भक्षक वरुण का इस अनुष्ठान में हवि देने हेतु आह्वान करता हूँ। वे दोनों धरा पर जल पहुँचाने वाले कार्यों में सिद्धि प्राप्त हैं। हे सखा और मित्र वरुण! तुम सत्य और यज्ञ को पुष्ट करते हो। इस सांगोपांग सोम याग को तुम समय से पूर्ण करते हो। प्रतापी उपकार के लिए रचित यजमान के यहाँ स्थित सखा और वरुण हमारे कर्म और शक्ति को स्थिर करने वाले हैं। सदा प्रसन्न तेजस्वी मरुद्गण निडर इन्द्र के साथ सबको दर्शन दें। वर्षा ऋतु के पश्चात् होने वाले अन्न जल के लिए यज्ञ धारण मरुद्गण मेघों को पुनः प्रेरित करते हैं। हे इन्द्र अग्ने ! तुमने स्थिर स्थान को भेदने वाले वाहक मरुदगणों के संग गुफा में गौओं को ग्रहण किया। उन इन्द्र देव और अग्नि को पुकारता हूँ, जिनका पूर्व समय में किया हुआ पराक्रम ऋषियों द्वारा स्तुत्य है। वे दोनों साधकों के हिंसक नहीं है। इस कारण हमारी रक्षा करें। महाशक्तिशाली शत्रु नाशक इन्द्र देव और अग्नि को हम पुकारते हैं। वे हमें इस युद्ध में निरीक्षण करें। हे इन्द्र और अग्ने! तुम कर्म करने वालों के संकट को समाप्त करते हो। सत्य बोलने वालों की रक्षा करते हो। तुम कर्म न करने वाले उपद्रवों को शत्रुओं सहित नष्ट करते हो। गतिमान हृदय वाले, हर्ष प्रदान करने वाले, तरल सोम कलश के ऊपर छन्ने पर गिरकर रस निकालते हैं। शुद्ध होता हुआ अलौकिक सत्य रूप सोम की धारा बनकर कलश में जाता है और प्रेरित होता है। वह मित्र और वरुण के लिए निकलता है। ऋत्विजों द्वारा शुद्ध अभिलाषा करने योग्य, विशेष इष्ट अद्भुत अतंरिक्षस्थ सोम इन्द्रदेव के लिए पवित्र किया जाता है। यजमान सोम रूप तीन वाणियों को बोलता हुआ यज्ञ ग्रहण किए हुए सोम का भला करने वाली वाणी बोलता है। गाय, बछड़े को प्राप्त होने के स्थान पर सोम को दूध से बनाने के लिए प्राप्त होती है। तब अभिष्ट वाणी को साधक स्तवन करते हैं। संतुष्टिकारक धेनु सोम की अभिलाषा करती है। वंदना करने वाले सोम की प्रार्थना करते हैं। संस्कारित सोम ऋत्विज शुद्ध करते हैं। हमारे द्वारा बोले गए मंत्र की वृद्धि करते हैं। हे सोम! पात्रों में सींचे जाने वाले तुम हमारे कल्याण को हर्ष के रूप से इन्द्र के हृदय में पहुँचाओ। हे इन्द्र देव! क्षितिज धरा भी तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकते। हे वज्रिन ! सहस्त्रों सूर्य भी तुम्हारी ज्योति से बराबरी नहीं कर सकते। हे अभीष्ट पूरक इन्द्र ! तुम अपनी शक्ति से हमें पूरा करते हो, वज्र को धारण करने वाले हमारा पालन करो। हे इन्द्रदेव! जल के समान नम्र बने हुए आपको स्वीकृत करते हैं। हे व्यापक इन्द्रदेव ! सिद्ध हस्त सोम की प्राप्ति पर वंदना करने वाले तुम्हारी प्रार्थना उच्चारित करते हैं। सोम के लिए तृषित हुआ सुवर्ण धन और गाय आदि को हम तुमसे माँगते हैं। शीघ्रकर्मा मतिवान पुरुष कर्मों द्वारा अन्न स्वीकार करता है। असंख्यों द्वारा स्तुत्य इन्द्र देव को में उपयुक्त करता हूँ। धन देने वालों को बुरे शब्द नहीं बोले जाते। हमें उनकी प्रशंसा करनी चाहिए। वरना धन प्राप्त नहीं होता है। हे धनिक इन्द्र ! सोम संस्कार के समय देव धन की सुन्दर वंदना गाने वाले ही तुम्हें प्राप्त करते हैं।
अध्याय (7.5) :: ऋषि :- आंगिरस, विश्वामित्र, कण्वादि; देवता :- इन्द्राग्नि, सोम; छन्द :- जगती, अनुष्टुप, बृहती, गायत्री।
ऋषियों के द्वारा तीन वेद वाणियों को बोला जाता है। दूध देने वाली गाय रंभाती है। हरे रंग का सोम शब्द करता हुआ कलशों में प्रवेश करता है। यज्ञों का निर्माण करने वाली वंदना आकाश से शिशुरूप से सोम को पवित्र करती हुई लाती है। हे सोम ! धन वाले चारों पदार्थों को हमारे लिए दो तथा अनेक अभिष्टों को सिद्ध करो। अत्यन्त मधुर, हर्ष परिपूर्ण, संस्कारित सोम इन्द्रदेव के लिए ग्रहण होते हैं। हे सोम ! तुम्हारे रस इन्द्रादि को ग्रहण हों। इन्द्र देव के लिए सोम कलशों में गिरता है। वंदनाकारी कहते हैं कि प्रार्थना पालक, बलिष्ठ, विश्वेश्वर सोम प्रार्थनाओं से अर्चन किया जाता है। वंदना प्रेरक धनेश, इन्द्र का सखा रूप हजारों धार वाला सोम कलश में जाता है। हे मंत्रेष! तेरा शोधित अंग विशाल है। तू देह को ग्रहण होता है। व्रतों से न तपा हुआ शरीर विस्तृत नहीं होता। परिपक्व होने पर ही वह तुम्हारा स्वाद लेता है। शत्रु-तापक सोम का पवित्र अंग उच्चता को प्राप्त होता है। दूसरी ज्योति असंख्यों प्रकार से स्थित होती है। इसका शीघ्र प्रभाव कारक रस यजमान का रक्षक होता है। उषा काल वाला सूर्य प्रकाश से भरा हुआ होता है। बल से पूर्ण बादल सब लोकों में वर्षा करता हुआ अन्न को चाहता है। रचने वाले इस सोम शक्ति से संसार का निर्माण करता हुआ मनुष्यों का द्रष्टा पालक पितरों द्वारा गर्भ में धारण करता है। हे स्तोताओं! तुम परमदान देने वाले, यज्ञ करने वाले, महान तेज रखने वाले, अग्नि की प्रार्थना करो। धन, अन्न वाले यश को प्राप्त करने वाले प्रदीप्त अग्नि-पुत्र रखने वाले अन्न को यजन कर्त्ता को देता है। इस अग्नि द्वारा हम सुमति को प्राप्त करें। हे वज्रिन तुम्हारे अभीष्टपूरक, शत्रु नाशक, संसार के रचियता रूप और होम पीने से रचित आह्लाद की सभी प्रशंसा करते हैं। हे इन्द! जिस बल से तुमने उम्र वाले वैवस्वत मनु के लिए सूर्यादि के तत्वों को प्रकाशमान किया है। उसी बल से प्रशंसित हुए तुम शोभायमान होते हो। हे इन्द्र! तुम्हारे विख्यात पराक्रम की मंत्र ज्ञाता ऋषि प्रशंसा करते हैं। तुम जलों के प्रति बादलों को अपने आधीन रखने वाले हो। तुमको हवि देकर वंदना करने वाले ऋषि के आह्वान को सुनो और हे इन्द्र! हमको उत्तम पुत्र तथा गाय आदि पशु युक्त धन देकर पूरा करो क्योंकि आप महान हो। जो बार-बार अत्यन्त नूतन वंदना को तुम्हारे लिए बनाते हैं। उस पूजा को स्तवन सत्य से बढ़ाने को प्राप्त हुई वृद्धि दो। हम पूर्वोक्त इन्द्र का ही स्तवन करते हैं। जिस इन्द्र की वृद्धि का कारण हमारी वंदना है उसके अनेक पराक्रमों की वंदना करते हुए हम आपकी पूजा करते हैं। तीनों आकाश और पृथ्वी को तथा अग्नि, वायु और आदित्य को व्याप्त करते हैं। तीनों व्रत ही अपने हमारी अपनी कृपापूर्वक रक्षा करें। जो कर्मों का निर्राधरण करते हैं जो महान ऐश्वर्य को अपने पास रखते हैं, जो सभी जानना चाहते हैं तथा सब प्राणियों को अपने वश में रखने वाले हो, वे सविता देव हमारे सभी तरह के कष्टों को दूर करें और तीनों लोकों में रहते हुए भी अपार सुख प्रदान करने वाले हो। वे प्रकाशवान सविता देव ऋतुओं द्वारा विश्व का पालन करते हैं। वे हमारे वैभव को बढ़ाएँ। हमें सन्तान का सुख प्रदान करें। हर समय हम पर कृपा दृष्टि रखें। वे हमें पुत्र और पौत्रों से युक्त ऐश्वर्य प्रदान करें।
अध्याय (8.1) :: ऋषि :- अकृष्टा, भाषा अमहीयु, मेध्यातिथि, बृहन्मति, भृगुवारुणि-जमदग्नि भार्गवो वा, सुतंभर, आत्रेय, गृत्सभदौ, गौतमौ, राहुगण, वशिष्ठ, दृढच्युत आगस्त्य, सप्तर्षय, रेभ, काश्यप, पुरुहन्मा, असित, काश्यपो, देवलो वा, शक्ति उरु, अग्निश्चाक्षुष प्रतर्दनो, देवोदासि, प्रयोगो, भार्गव, अग्निर्वा, पावको बार्हस्पत्य, ग्रहपतिपविष्ठौ सहस सुतोतयोर्वान्यतर, भृगु; देवता :- पवमान, सोम, अग्नि, मित्रावरुणौ, इन्द्र, इन्द्राग्नि; छन्द :- जगती, गायत्री, प्रगाथ, अनुष्टुप, बृहती, काकुम, प्रगाथ, उष्णिक, त्रिष्टुप।
हे सोम! तुम्हारी तृप्त करने वाली धाराएँ दूध से मिलकर कलश को प्राप्त होती हैं। ऋषियों द्वारा सेवा होने पर तुम्हें जो ऋषि शुद्ध करते हैं वह तुम्हारी धाराओं को ऊपर से पात्रों में डालते हैं। संस्कारित सोम की किरण चारों ओर फैलती है। जब वह पवित्र किया जाता है तभी पात्रों में भरा जाता है। हे सर्वद्रष्टा सोम ! तुम्हारी बलवान किरणें सब देवताओं को प्रकाश से भर देती है। हे व्यापक स्वभाव वाले ! तुम रस निकलने पर पवित्र होते हो। पवित्र हुआ सोम वैश्वानर दीप्ती को क्षितिज के समान प्रकट करने वाला है। हे उज्जवल तरल रूप सोम ! तेरा रस दुष्टों के लिए वर्जित है। वह शुद्ध हुआ पात्रों को पूरा करता है। हे सोम ! पवित्र किए जाने पर तुम शक्ति प्रद उज्जवल रस से परिपूर्ण हो और विस्तृत तेज को देखने की शक्ति प्रदान करने वाले हो। जलों के समान वेगवान, उज्जवल, तेजगति, काले धब्बे वाली त्वचा को हटाते समय जो सोम पात्रों में स्थित हुए उनका हम पूजन करते हैं। सुन्दर रूप से ग्रहण हुए सोम को असुरों के बंधन से बचने हेतु ग्रहण होते हैं। हम कर्म युक्त दुष्टों के दमन में समर्थ बनें। वर्षा के शब्द के समान संस्कृत सोम का शब्द रस गिरने के समय सुनाई देता है। उस शक्तिशाली सोम का प्रकाश आकाश में चारों तरफ घूमता है। हे पात्र स्थित सोम ! तुम गौएँ, अश्वों, संतान और स्वर्ण वाले अनेक से धनों को प्रदान करने वाले होओ। हे विश्वदृढ़ता सोम! अपने रस से आकाश, पृथ्वी को भर दो। जैसे सूर्य के जलों में प्रविष्ट कर सर्वत्र प्रवाहमान करो। हे महती बुद्धि वाले सोम ! देव प्रिय धार रूप से इन्द्रादि के निकट शीघ्र प्राप्त होओ। संस्कार रहित यजमान को संस्कारित करता हुआ उसे अन्न प्राप्त कराने वाली वर्षा के कारणभूत हो। अद्भुत संसार में मंदगति वाला सोम ऊपर से डाला जाकर पवित्र होता हुआ जल रूप से टपकता है। सिद्ध सोम उज्जवल हुआ सर्वदर्शक बनकर देवताओं को दीप्त करता हुआ बल सहित प्राप्त होता है। सिद्ध सोम दूर और पास के देवताओं को रस पिलाता हुआ मधु की तरह छाना जाता है। कर्म प्रेरणा वाली बन्धुबान्धव से मिली हुई अंगुलियाँ सोम को पवित्र करने की अभिलाषा वाली हुई सोम को पात्रों में भरती है। तेज से दमकते हुए सोम ! तुम देवों के लिए पवित्र किया गया हमको बहुत-सा धन दिलाने वाला हो। हे सोम ! उत्तम पूजनीय वर्षा को देव परिचर्या के ग्रहण कराओ। हमें अन्न ग्रहण कराने को भली प्रकार से वर्षा करो। यजमान की रक्षा करने वाला, महाबली, अग्निलोक कल्याण के लिए प्रकट हुआ फिर घर से प्रदीप्त आकाशगामी तेज से युक्त ऋषियों के लिए प्रकाशवान हुआ। हे अग्ने ! ऋषिगण गुफाओं में वृक्षों द्वारा तुम्हें प्राप्त करते हैं। तुम मथे जाने पर प्रकट हुए बल को पुत्र कहा जाता है। कर्म करने वाले, ऋषियों, यजमानों द्वारा अग्नि किए अग्नि को तीन स्थानों में प्रज्वलित करते हैं। फिर वह अग्नि देवताओं का आह्वान करने वाला यज्ञ के लिए प्रतिष्ठित किया जाता है। सत्य की बढ़ोतरी करने वाले सखा और वरुण देवों के लिए यह सोम सिद्ध किया है। अतः वे इस अनुष्ठान में पधारे। प्रभु के अनुगत सखा और वरुण हजार आधार वाले उत्तम सभामंडप में पधारें। सभी के शासक, घृतभोजी अच्छे विचार वाले इन्द्र ने दधिचि की अस्थियों के वर्ष से नब्बे संघर्षों में आठ सौ दस राक्षसों को मारा। पर्वतों में रहने वाले दधिचि की अस्थि की कामना करते हुए इये समझा और उस राक्षस को खत्म किया। चन्द्रमा में सूर्य की किरणें हैं। वे छिपी हुई है। रात्रि के समय दिखाई देती हैं। वह इन्द्र जानता है। हे इन्द्रदेव और अग्नि ! तुम्हार लिए बादल के समान यह प्रमुख वंदनाएँ करने वालों ने रचना की। हे इन्द्रदेव और अग्ने ! वंदना करने वालों की वंदना पर ध्यान आकृष्ट करो। तुम भगवान रूप होते हुए हमारे कर्मों का फल प्रदान करो। हे कर्म की प्रेरणा करने वाले इन्द्रदेव और अग्ने! हमें दीन मत बनाओ, वैरी द्वारा हिंसा के लिए और मेरी निंदा हेतु मुझ पर अधिकार न करो। हे पाप नाशक सोम ! तुम बल और हर्ष को पैदा करने वाले देवताओं के लिए पात्र में जाओ। कामनाओं का वर्णक उज्जवल स्थान को तृप्त प्राप्त कर सिद्ध सोम देवताओं तृप्तिदायक होता हुआ सुशोभित होता है। हे सोम ! हमारी अँगुलियों से सिद्ध हुआ तू शब्द के साथ वायुवेग से पात्र में जा। हे स्त्रवित सोम ! तुम्हारे मित्र भाव में लगा हुआ मैं यह चाहता हूँ कि तुम्हारे सख्य भाव को प्राप्त हुए अनेक दैत्य बाधक हो गए है। उनका नाश करो। हे सोम ! मैं दिन-रात आपकी मित्रता की अभिलाषा करता रहता हूँ। मैं तुम ज्योर्तिमान को ग्रहण करूँ। संस्कार किया जाता सोम हिंसकों को प्रबल होता है। हम उनकी प्रार्थना करते हैं। साथ के कलश में दृढ़ होने पर अभीष्ट इन्द्रदेव शोधित सोम को ग्रहण करता है। हे पात्र में प्रवेश करने वाले सोम ! शीघ्र ही बहुसंख्यक धन को प्रदान करें। हे इन्द्रदेव! सोमपान करो, वह आपके लिए आनन्दायक हो। पत्थरों द्वारा निष्पन्न सोम तुम्हें आनंदित करें। हे इन्द्रदेव! तुम्हारे योग्य हर्षप्रदायक सोम ! जिसे पीकर राक्षसों का संहार करते हो तुम्हारे आनन्द से परिपूर्ण हो। हे इन्द्र ! उत्तम जितेन्द्रिय पुरुष तुम्हारी जिस स्तुति रूप वाणी को कहता है, उस वाणी को स्वीकार कर यज्ञशाला में अन्न के रूप में हवि ग्रहण करो। सभी संघर्षों को मिटाने वाले इन्द्र को साधकगण एकत्रित हुए, वंदना द्वारा सूर्य रूप इन्द्र का हम आह्वान कर विघ्न और शत्रुओं के विनाश के लिए उस महाबली इन्द्र का गुणगान करते हैं। हे प्रार्थना करने वालों! किसी से भी द्वेष न करने चले तेजस्वी तुम वंदना और कर्म करने वाले हो, अतः इन्द्रदेव की श्रेष्ठ विधि से 60 बंदना करो। सोमपान के लिए प्रार्थना करने वाले इन्द्रदेव की वंदना करते हैं। जब वह वृद्धि करने की अभिलाषा करता है तब रक्षा साधनों से पर्ण होता है। प्राणियों के स्वामी इन्द्रदेव के वेग को कोई नहीं रोक सकता। मैं उस बैरी-नाशक का पूजन करता हूँ। हे शत्रुनाशक इन्द्रदेव की आराधना करने वाले यजमान ! सुरक्षा के लिए इन्ददेव को हवि प्रदान करो। वह शत्रु के प्रति तेज और तुम पर भी अनुग्रह करने वाला श्रेष्ठ है। कर्म साधक बुद्धि को देने वाला तेजस्वी सोम प्राचीन काल से निष्पन्न अध्वर्युओं द्वारा प्राप्त है। सब हवियों में उत्तम सोम यज्ञ की वृद्धि करने वाला विश्वनियंता सूर्य मण्डल और पृथ्वी को प्रकाशित करता है। हे सोम ! बिना ईर्ष्या के पूजक द्वारा मनुष्य के सेवन के लिए पर्याप्त तुम वंदना के लिए यहाँ आओ। हे दिव्य सोम ! तुम शीघ्र शब्दवान होकर अमर तत्व को प्राप्त कराने वाले हो। श्रेष्ठ ऋषि जिस सोम से यज्ञ के द्वार खोलता है। ऋषि जिस सोम इन्द्र और आदि देवताओं को सुख प्रदान करता है, वह सोम उत्तम जल से पूर्ण, अन्न को यजमान प्राप्त कराए। सिद्ध होता हुआ सोम अब छन्ने में धार से जाता हुआ श्लोक को प्राप्त हुआ ध्वनि करता है। ऋत्विजगण जल में खेलते हुए सोम को उंगलियों से पवित्र करते हैं और कलश में जाते हुए सोम की प्रार्थनाओं द्वारा प्रशंसा करते हैं। यजमानों को अन्न की अभिलाषा करने बाला सोम द्वद्व में छोड़े जाने वाले अश्व के समान छोड़ा गया, ध्वनि करता हुआ पात्रों में दृढ़ होता है। बुद्धि का जनक, क्षितिज का प्रकाश इन्द्रदेव और विष्णु को भी प्रकट करने वाला सोम पात्रों में जाता है। ऋत्विज महान ब्रह्मा परम बुद्धि से योजना करने वाले सोम को ध्वनि करते हुए छानते हैं। प्रवाहमान नदी जैसे ध्वनि संगठन को प्रेरित करती है, उसके समान सोम हृदय की प्रिय ध्वनियों से शिक्षा देता है। वह विजय के ज्ञान वाला पराक्रम को ग्रहण करता है। हे ऋत्विजों! बलवानों के मित्र लपटों से वृद्धि को प्राप्त हो अग्नि को प्राप्त करो। बढ़ई जैसे अपने कार्यों के अनुसार लकड़ियों को प्राप्त होता है उसी प्रकार यह अग्नि हमको प्राप्त हो और हम इस अग्नि के विज्ञाता हों तेजस्वी बनें। सब देवताओं में यह अग्नि ही मनुष्य के वैभव को प्राप्त होती है। वह अग्नि हमें अन्नों के साथ मिले। हे इन्द्र देव! आनन्द देने वाले प्रशंसनीय, जो अन्य मादक द्रव्यों के समान अहितकर नहीं है। ऐसे पवित्र सोम का पान करो। यज्ञशाला में स्थित सोम की उज्जवल धाराएँ तुम्हें पाने के लिए झुकती हैं। हे इन्द्र देव! तुम्हारे समान अन्य कोई रथी नहीं है। तुम्हारे रूप समान बलशाली नहीं है। श्रेष्ठ अश्व पालक भी तुम्हारी बराबरी भी कोई नहीं कर सकता। हे ऋत्विजों! इन्द्र देव की शीघ्र अर्चना करो, श्रेष्ठ मन्त्रोच्चार द्वारा यह पवित्र सोम इन्द्रदेव के लिए आनन्द प्रदान करने वाला बनें, फिर इस अत्यन्त प्रशंसित इन्द्र को प्रणाम करो। हे वीर्यवान इन्द्रदेव! मेरे द्वारा दी गई हवियों को आकर प्राप्त करो। तुम आनन्द ग्रहण की अभिलाषा करते हुए इस संस्कारित, चेतनाप्रदान करने वाले सोम का पान करो। हे इन्द्र देव! इस संस्कारित मधुर सोम के स्तुत्य दिव्य गुण और आह्लाद तुम्हारे पास हैं। तुम स्वर्ग तुल्य अपने उदर को इससे भर लो। हे युद्धधीर इन्द्र! मित्र के समान शत्रु का संहार करते हुए दुष्टों के बल को हटाते हुए सोम की तरंग में साहसी कर्म करने वाले हैं।
अध्याय (8.2) :: ऋषि :- (अकृष्टा भाषादय) त्रय ऋषय, कश्यप, असित काश्यपो देवलो वा, अवत्सार, जमदग्नि, अरुणो, वैतहव्य, उरुचक्रिरोत्रेय, कुरुसुति काण्व, भरद्वाजो बार्हस्त्य, भृगुर्वारुणि-र्जमदग्नि भार्गवो वा, सप्तर्षय, गौतमो राहूगण, ऊर्ध्वसद्द्मा, कृतयश, त्रित, रेभू सून, काश्यपौ, मन्युर्वासिष्ठ वस्रुन्श्रुत आत्रेय, नृमेध; देवता :- पवमान, सोम, मित्रावरुणौ, इन्द्र, इन्द्राग्नि; छन्द :- जगती, गायत्री, बृहती, षड्ङ्क्ति, काकुत्र, प्रगाथ, उष्णिक, अनुष्टुप, त्रिष्टुप।
हे सोम! तुम गाय धन सोने को प्राप्त कराने वाला, धारक जलों में स्थित पात्र में प्रविष्ट हो। तुम वीर संसार का ज्ञान रखने वालों की यह ऋषि से पूजा करते हैं। हे सिद्ध होते हुए अभिष्टवर्षक सोम ! तुम समस्त संसारों में प्राणी का, साक्षी रूप सर्वत्रलीन हो, हमारे लिए टपको। हम ऐश्वर्य सहित जीवन धारण करने में समर्थ हों। हे सोम! तुम सबके स्वामी बनकर सब भुवनों को प्राप्त होते हो। तुम्हारे मधुर दीप्त जल को प्राप्त कर तुम्हारे कर्म में स्थित हों। हे विश्व दृष्टा सोम! शोधित हुए तेरी धाराएँ सूर्य किरणों जैसे चमकती हैं। हे सोम! रसवाहक तुम चेतना प्रदान करने के लिए हमारे समस्त रूपों को शुद्ध करता हुआ विभिन्न धनों को देने वाला है। हे सोम! प्रकाशित सूर्य के समान रचित तुम शुद्ध स्थान में जाकर ध्वनि को प्रेरित करते हो। हे दीप्त तरल सोम ! ग्रहण हुआ गाय के दूध से मिलकर जलों में स्त्रावित होते हो। नीचे की ओर हुए गतिमान जलों के समान छन्ने को प्राप्त हो शुद्ध होकर इन्द्र को तृप्त करते हो। हे संस्कारित सोम ! तुम इन्द्रदेव के लिए आह्लादक बनकर शुद्धि में पहुँचकर और ऋत्विजों द्वारा प्राप्त किए जाते हो। तब इन्द्रदेव के पेट को भरने वाले होते हो। हे सोम! प्राणियों को आनन्दमय तुम संस्कारित होकर पूजा के योग्य बनो। हे सोम! मंत्रों द्वारा वंदित शुद्धतादायक और श्रेष्ठ हो। शत्रु के नाश में भी प्रसिद्ध हो। प्रसिद्ध मृदु सोम अपने आप पवित्र और अन्यों के भी शोधक हो। देवताओं को संतुष्ट करने वाला वह पाप और राक्षसों के पतन करने वाला बताया जाता है। देवताओं के पीने योग्य सोम छन्ने को प्राप्त हुआ शत्रुओं को सहने वाला संघर्षों और हिंसा करने वालों का प्रतिकार करता है। संस्कारित सोम उपासकों को गाय अन्नों आदि को देन वाले हैं। हे सोम ! हवि देने वाले हम साधकों की यज्ञ, धन और अन्न प्रदान करो। अनुष्ठान निर्वाहक, संस्कारित, श्रेष्ठ, सुकर्मा सोम भगवान के समान हमारी वंदना को सुनता है। अनुष्ठान निर्वाहक वह सोम जल भावना से संस्कारित किया गया पात्रों में रखा जाता है। हे सोम! अनुष्ठान के समान दान का इच्छुक तुम वंदना करने वाले को पराक्रम प्रदान करते हुए छन्ने पर गिरते हो। हे सोम ! हमें बार बार सिद्ध हुई धार से युक्त कर और सब सौभाग्यों के प्रदाता बनो। हे सोम! तुम्हारा अन्न रूप पूजन तुम्हारे लिए ही उत्पन्न हुआ है। तुम हमारे यज्ञ में तृप्त करने वाले बनो। हे सोम!हमको गाय, अश्य दिलाने वाले अत्यन्त शीघ्र अन्न रूप द्वारा नहीं जीता जाता। वह तुम धारायुक्त वर्षा करो। हे सोम! तुम्हारी मृदु रसवाली धाराएँ सुरक्षा के लिए बनाकर रचित की जाती हैं। उन धारों से छन्ने में गिरो। हे सोम! तुम गिरते हुए छन्ने में जाते हो. अतः इन्द्रदेव के लिए पेय पदार्थ बनो। हे परम स्वादिष्ट सोम! हमको अभीष्ट धन प्रदान करने वाले तुम अंग-अंग को अद्भुत निर्मित करने के लिए दूध के समान सार रूप से बरसो। हे अग्ने! जब तुम धान, जौं आदि और कण्ठादि को अपने मुख में भक्षणार्थ ग्रहण करते हो तब तुम्हारी दिव्यताएँ, वर्षक मेघों के समान और उषा के प्रकाश के समान लगती हैं। हे अग्ने ! वायु के योग से कम्पित हुए तुम जब वनस्पतियों में व्यापते हो तब भस्म करने वाले गुण से युक्त तुम्हारा रज रथियों के समान विचित्र सा लगता है। मतिकर्त्ता, अनुष्ठान साधक, देवदूत, शत्रु, ताड़क, प्रेरक अग्नि की हम पूजा करते हैं। वह तुम्हें कम या अधिक हवि के भक्षण करने को मनाते हैं। इस कार्य के लिए अन्य किसी देवता की वंदना नहीं करते हैं। हे मित्र और वरुण! तुम दोनों ही सुरक्षा करने वाले हो। मैंने तुम्हारी कृपा पूर्वक गति की उपयुक्त व्यवस्था की है। हम वंदना करने वाले तुम दोनों द्वेष न करने वालों का पूजन करें। हम तुम्हारी मित्रता प्राप्त करें। उत्तम अन्न तथा निवास करने वाले हो। मित्र और वरुण! तुम हमारी रक्षा करो और श्रेष्ठ पदार्थों से पोषण करो। हम पुत्र-पौत्र आदि से युक्त हुए शत्रुओं को वश में करें। हे इन्द्रदेव! तुम पात्र में सुरक्षित सोम का पान कर शक्ति से उन्नतिशील हुआ चिबुक को कम्पायमान करो। स्पर्धा युक्त इन्द्रदेव! शत्रु के पतन में तुम्हें तैयार समझकर क्षितिज और पृथ्वी दोनों तुम से प्रसन्न होते हैं। चारों दिशा, चारों कोण और आकाश इन नौ स्थानों में व्यापक होने वाले को बढ़ाने वाली प्रार्थना आदि न्यून हो तो उसे मैं पूरा करता हूँ। हे इन्द्र और अग्नि ! यह स्तोता तुम्हारे प्रशंसक हैं। हे सुखदाताओं! इस सिद्ध किए गए सोम का पान करो। प्रेरणा वाले इन्द्र और अग्ने ! तुम हवि देने वाले यजमान के लिए प्रकट हुए हो। उसके हवि रूप अश्वों पर चढ़कर यज्ञ स्थान में पधारो। प्रेरणा वाले इन्द्रदेव और अग्ने ! इस सिद्ध सोम का भक्षण करने को उन घोड़ों पर सवार होकर जाओ। हे सोम! अत्यन्त तेजवान तुम अपने ही लिए पर्वतों पर उत्पन्न होते हो। तुम शब्द पार हुए कलशों की ओर जाओ। जलों में प्राप्त सोम, इन्द्र, वायु, वरुण, मरुदगण, विश्वव्यापी, विष्णु के लिए पात्र को प्राप्त होता है। हे सोम ! तुम हमारे पुत्र को और हमें अन्न, धन आदि के प्रदाता बनो। सिद्ध कर्त्ता ऋत्विजों द्वारा निष्पन्न होता हुआ सोम कलश में टपकता हुआ ग्रहण होता है। यह सोम बल और प्रसन्ता के लिए निष्पन्न होता है। हे सोम ! समस्त प्रकार प्रशंसित पार्थिव एवं अद्भुत धन है। उसे शुद्ध करता हुआ हमें दो। प्रजाओं की आयु को शुद्ध करता हुआ अभीष्ट वर्षक, शब्दवान हुआ सोम कुशों पर अपने स्थान को प्राप्त हो। हे सोम ! हे इन्द्र ! तुम दोनों ही सबके अधीश्वर गाय का पालन करने वाले वैभव के स्वामी हुए कर्मों के पोषक हो।
हे बैरी नाशक इन्द्रदेव! खुशी और शक्ति के लिए प्रार्थना करने वालों के द्वारा अधिक पुष्ट किए गए तुम्हें बड़े द्वन्द्वों में अपनी सुरक्षा के लिए पुकारते हैं। हे रण कुशल इन्द्र देव! तू अकेला ही असंख्य सेना के समान है। अतः बैरियों के धन का अपहारक है। वंदना के धन को वृद्धि करने वाला सोम निष्पन्नकर्त्ता का धन प्रदात है। संघर्ष उपस्थित होने पर हे इन्द्र! तुम अपने मदमत्त घोड़े को जोड़कर अपने विद्वेष्ष को नष्ट करो। अपने उपासक को धन में स्थित कराओ। सुस्वाद मधुर सोम रस व सफेद गाय पीकर इन्द्र के साथ शोभित होती है। अभीष्टवर्षक इन्द्र के साथ प्रसन्न से अनुगत हुई। इन्द्र के पेय सोम में अपना दूध मिलाती है। इससे पुष्ट और शर्शा संपन्न हुआ इन्द्र शत्रुओं पर वज्र चलाने में समर्थ होता है। उत्तम गाय इन्द्र के परान को अपने दूध से पुष्ट करती है। युद्ध में शत्रुओं को इन्द्र वीरता बनाने के वीर का ज्ञान प्रेरित करते हैं। पर्वतों रचित सोम बल और प्रसन्नता के लिए पवित्र जाता है और बाज के वेग से समान अपने स्थान को ग्रहण करता है। देवता प्रार्थना, सुन्दर, अन्न रूप जलों में धोए हुए सोम को वे गौएँ सुस्वाहु निर्मित कर फिर इस सोम रस को अमरतत्व ग्रहण कराने के लिए ऋत्विज उपयुक्त क उसी प्रकार जैसे रणक्षेत्र को अश्व सुशोभित करते हैं। हे स्तुत्य सोम! देवता काम्य हवि रूप अपने रस को नीचे गिरा और आकाश से मेघों को वर्षा हेतु प्रेरित करो। हे बली सोम! पात्रों में छाना हुआ तू पूजा धारक गुण वाला यजमान के लिए कर्मों की प्रेरणा कर और आकाश से बादल वर्षा कर सचेष्ट सोम अपने धारक रस को प्रेरित करता हुआ प्रिय हवियों में व्याप्त आकाश और भूमण्डलों में स्थित होता है। जब पत्थर के समान दृढ़ फलकों में सोम को ग्रहण किया तब गायत्री आदि सात छन्दों द्वारा ऋत्विज उनकी वंदना करते हैं। सोम अपनी धार से सोम गानों में धनदाता इन्द्रदेव को प्रेरित करें। उत्तम कर्म वाला याज्ञिक इन्द्रदेव की पूजा करता है। हे सोम! पवित्र हुआ तू इन्द्र, विष्णु तथा अन्य देवगण के लिए अत्यन्त मृदु हुआ, पुष्टि के लिए टपक। हे तरल सोम ! तुम्हें वस्त्र से छानने के लिए अँगुलियाँ उसी प्रकार स्पर्श करती हैं जैसे नवजात बछड़े-बछिया को गायें चाटती हैं। हे साधक सोम ! तुम पृथ्वी और आकाश के धारक हो। शुद्ध होता हुआ कवच रूप है। धुतिमान रस रूप सोम इन्द्र को बल की प्रेरणा करता हुआ सुखपूर्वक स्त्रावित होता है। सोम याज्ञिकों को धन देता हुआ शत्रुओं को नष्ट करता है। पाषाणों से निष्पन्न किया जाता सोम हर्ष प्रदायक धार से निकलता है। इन्द्र के प्रति सख्य भाव वाला इन्द्र के लिए ही बरसता है। धारक व्रती, तरल सोम क्लश में गिरता और इन्द्रादि देवों को पुष्ट करता है। हे अग्ने! तुम अजर अमर को हम दीप्तिमय करते हैं, जब तुम्हारी ज्योति क्षितिज में लीन होती है तब तुम हमको अन्न प्रदान करते हो। हे श्रेष्ठ, सुख देने वाले, शत्रुओं का हनन करने वाले, संसार पोषक, हवि वाहक अग्नि के लिए हवि को होमते हैं। हे अग्ने ! हमें वन्दना करने वालों को अन्न प्रदान करो। कलेश पालक इन्द्र ! हवि युक्त नदियों को पचा लेने वाले तुम यज्ञों में हमें फलों से पूर्ण करते हो, हमको अन्न प्रदान करो। हे स्तोताओं! वर्षा द्वारा अन्न के कर्त्ता और वंदना से प्रसन्न होने वाले इन्द्र की सोम गान द्वारा वंदना करो। हे इन्द्रदेव! हे शत्रुओं के बहिष्कारक ! हे सूर्य को अपने तेजों से तेजस्वी बनाने वाले ! तुम संसार रूप अद्भुत रूप वाले और सर्वश्रेष्ठों में भी श्रेष्ठ हो। हे इन्द्रदेव! तुम अपने तेज से सूर्य को प्रकाशमान करते हो। तुम्हारे तेज से ही अद्भुत लोक भी दीप्तिमान हैं। समस्त देव तुम्हारे मित्र भाव की अभिलाषा करते हैं। हे इन्द्रदेव! तुम्हारे लिए ये सोम शुद्ध किया रखा है। हे पराक्रम वाले! तुम शत्रु को वश में करने वाले इस यज्ञशाला में पधारो। सूर्य द्वारा आकाश को पूर्ण करने के समान तुम्हें सोमपान द्वारा उत्पन्न सामर्थ्य पूर्ण करें। हे इन्द्र ! हमारे मंत्रों में जुड़े हुए अश्वों वाले रथ पर चढ़ो। सोम निष्पन्न करने जमान है ने धार श्री आलिनाले पाषाण अपने आकर्षण शब्द से तेरे मन को हमारी ओर प्रेरित करे। जो किसी रता है हैं। तुम पूर्व अनुष्ठान में महान साधन रूप अमरत्व सोम के महान भाव को प्रकट याँ उपपत्र, पौत्रादि के क्रम से प्राणियों को लंबी आयु प्रदान करो। हे सविता देव! अज्ञानवश के द्वारा तिरस्कृत न हो सके। ऐसे इन्द्र की ऋषियों की स्तुतियाँ यज्ञ स्थान में पहुँचाती हुआ करो। हे सविता देव! आप हविदाता यजमान को ज्योति से परिपूर्ण करो और पिता, या धन के लोभ में प्रमादी होकर या शक्ति और कुटुम्ब के अहं द्वारा हमने आपका अथवा अन्य देवगणों और विद्वान प्राणियों का कोई अपराध किया हो तो आप । सोम हमको इस अनुष्ठान में उसके पाप से मुक्त करो।
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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