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अध्याय-2
ऋषि :- परमेष्ठी प्रजापति, देवल, वामदेव; देवता :- यज्ञ, अग्नि, विष्णु, इन्द्र, धावा, पृथ्वी, सविता, बृहस्पति, अग्निषों मौ, इंद्राग्नि, मित्रावरूणी विश्वदेवा, अग्निवायु, अग्नि सरस्वत्यौ प्रजापति, त्वष्टा, ईश्वर, पितर, आप; छन्द :- पंक्ति, लगती, त्रिदुष्प, गायत्री, ब्रहती अनुष्टप, उष्णिक।
हे ईश्वर! तुम हवन की लकड़ी हो। तुम कठोर वृक्ष से उत्पन्न हुई हो या आह्वानीय अग्नि में रहने वाले हो।
अग्नि में डालने हेतु मैं तुम्हें जल से धोकर शुद्ध करता हूँ। हे वेदी! तुम यज्ञ की नाभि कहलाती हो। तुम्हें कुश धारण हेतु अच्छी प्रकार से जल से साफ करता हूँ। हे दर्भ ! तुम कुशों का समूट होने से सक्ष्म हो। तुम्हें तीन स्त्रुवों के सहित रुकना है, इसलिए मैं तुम्हें जल से स्वच्छ करता हूँ। हे प्रोक्षण से शेषजल ! तुम इस वेदी रूप पृथ्वी को सींचते हो। हे कुशाओं! तुम यज्ञ की शिखा के समान हो। हे वेदी! तुम ऊन की तरह बहुत ही कोमल हो। मैं तुम्हें देवताओं के सुखपूर्वक बैठने का स्थान बनाने हेतु कुशाओं से ढकता हूँ। यह हवि भूवपति देवों के लिए प्रदान की है। यह हवि भुवनपति देवता के लिए प्रदान की गई है। यह हवि भूतों के स्वामी भोले शंकर को अर्पण करता हूँ।
हे परिधि ! विश्वावसु नामक गन्र्धव सभी विघ्नों की शांति हेतु तुम्हें सभी ओर से स्थापित करें और तुम केवल अग्नि की ही सीमा न होकर राक्षसों और शत्रुओं से सुरक्षा करने वाली, यजमान की भी सीमा बन जाओ। तुम पश्चिम दिशा में अटल रहो। आह्वानीय अग्नि के पहले भाई भुवपति नामक अग्नि रूप यज्ञ से प्रकट हो। हे दक्षिणी परिधि ! तुम इन्द्रदेव की दक्षिणी भुजा रूप रहो। संसार की बाधाओं को दूर करने के लिए तुम यजमान की रक्षक बनो। तुम आह्वानीय के दूसरे भाई भुवनपति की यज्ञ आदि से वन्दना की गई है। हे उत्तर परिधि ! मित्रावरुण! पवन और आदित्य तुम्हें उत्तर दिशा में स्थित करें। तुम आह्वानीय रूप से संसार की बाधाओं को दूर करने हेतु और लोक कल्याण हेतु यजमान की रक्षा करो। आह्वानीय के तीसरे भाई भूतपति यज्ञ आदि कार्य द्वारा वंदित हो।
हे क्रांतदर्शी ! अग्नि देव ! तुम पुत्र एवं पौत्र आदि प्रदान करने वाले, धन से सम्पन्न करने वाले, यज्ञ के फल रूप में सुख समृद्धि को भी प्रदान करने वाले शक्तिशाली और महान हो। हम ऐसे कार्यों के द्वारा आपको नमन करते हैं। हे इहम ! तुम अग्नि देवता को भली-भाँति प्रदिप्त करते हो। हे आह्वानीय सूर्य! पूर्व में कोई विघ्न आए तो उससे हमारी रक्षा करो। हे कुश ! तुम दोनों, सविता देव की भुजाओं के समान हो। हे कुशाओं! तुम ऊन के समान कोमल हो, मैं तुम्हें देवताओं के सुखपूर्वक बैठने हेतु ऊँचे स्थान पर बिछाता हूँ। तीनों लोकों के माननीय देवता वसुगण, रुद्रगण और मरुदगण सब ओर से हे कुशाओं! तुम पर विराजमान हों। हे जूहू! तुम घृत से पूर्ण होकर देवताओं के प्रिय उस घृत के साथ इस पाषाण रूप आसन पर बैठ जाओ। हे उपभृत! तुम घृत से पूर्ण होने वाले हो। इस समय देवताओं के प्रिय घी से युक्त होकर पाषाण रूप इस आसन पर बैठो। हे ध्रुवा ! तुम हमेशा घी द्वारा सिंचित हो। इस समय देवताओं के प्रिय इस घृत से पूर्ण होकर तुम प्रस्तर रूप इस आसन पर विराजमान हो जाओ। हे हव्य ! तुम घी के साथ स्नेहपूर्वक इस पर स्थित हो जाओ। हे विष्णु ! फल की प्रप्ति के लिए सत्यरूप यज्ञ के स्थान में जो हव्य स्थित है, उसकी रक्षा करो और साथ ही साथ हव्य की ही नहीं अपितु समस्त यज्ञ की और यज्ञ की रक्षा करने वाले यजमान की भी रक्षा करो। हे प्रभु! हे परमपिता परमेश्वर ! मुझे यज्ञ कार्य करने की भी रक्षा करो।
हे अन्नजेता अग्ने ! तुम अनेक अन्नों को उत्पन्न करने वाले हो। अतः अन्नोत्पति में होने वाली बाधाओं की शान्ति हेतु मैं तुम्हारा शोधन करता हूँ। जो देवगण मेरे इस अनुष्ठान में अनुकूल हुए हैं, मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। जो पितर गण मेरे इस अनुष्ठान में कृपा करते हैं, मैं उन पितरों को नमस्कार करता हूँ। हे जुहू ! हे उप भृत ! तुम दोनों मेरे इस कार्य में सतर्क रहो जिससे घी न बिखरे, इस प्रकार घी को धारण करो।
हे विष्णु ! मैं अपने पैरों से तुम पर क्रोधित नहीं होता हूँ। इस वेदी पर पैर रखने से पाप का मैं भागीदार न बनूँ। हे अग्नि ! मैं तुम्हारी परछाई के समान निकट ही भूमि पर बैठता हूँ। हे वसुमति ! तुम यज्ञ के स्थान रूप हो। इस देव यज्ञ के स्थान से उठकर शत्रु का वध करने के लिए बल को धारण करते हुए इन्द्र के लिए ही यह यज्ञ उत्पन्न हुआ है। हे अग्नि ! तुम होता के कर्म को और दैत्य-कर्म को अवश्य जानो। स्वर्ग और पृथ्वी तुम्हारी रक्षा करें और तुम भी उन दोनों की रक्षा करो और इन्द्र हमारी दी हुई हवि द्वारा देवताओं सहित संतुष्ट हो। वे हम पर प्रसन्न होकर हमारा यह अनुष्ठान बिना किसी बाधा के पूरा करें।
इन्द्रदेव इस प्रकार की वीरता को मुझ यजमान में स्थापित करें। दिव्य और पार्थिव सभी प्रकार के धन हमारे समक्ष आएँ। हमारी सर्व मनोकामना पूरी हो और हमारी अभिलाषाएँ सत्य फल प्रदान करने वाली हों। जो यह पृथ्वी पूजनीय है, वह संसार को निर्मित करने वाली है। यह माता के रूप समान धरा मुझे हविशेष के भक्षण करने की आज्ञा प्रदान करें। हे माता! अग्नि में आहुति अर्पित करने से मेरी जठराग्नि अत्यन्त दीप्त हो उठी हैं, अतः मैं उस हिस्से को अग्नि रूप से भक्षण करता हूँ।
सविता देव हमारे पालक पिता हैं, वे मुझे हविशेष के भक्षण की आज्ञा प्रदान करें। हे पिता ! अग्नि में आहुति देने से जठराग्नि (शरीर की ऊर्जा) बिल्कुल कम हो गई है। उसकी संतुष्टि के लिए मैं इसका भक्षण (प्रयोग) करता हूँ। हे प्राशित्र ! सविता देव की प्ररेणा से अश्विनी कुमार की भुजाओं से और पूषा देवता के हाथों से हे मध्यम परिधि ! मैं तुम्हें वसुओं का यज्ञ करने के लिए घृत-सिक्त करता हूँ। हे दक्षिण परिधि ! मैं तुम्हें रुद्रों का यज्ञ करने के लिए घृत-सिक्त करता हूँ। हे उत्तर परिधि ! मैं तुम्हें आदित्यों का यज्ञ करने के लिए घृताक्त करता हूँ। हे धावा पृथ्वी ! इसे स्वीकार कर पाषाण को तुम भली-भाँति जानो। हे पाषाण सखा वरुण, वायु और सूर्य तथा प्राणापान तुम्हें जल वर्षा की गति से बचाएँ। घृत-सिक्त प्रस्तर का आस्वाद करते हुए अंतरिक्ष में विचरण करने वाले देवता आदि छन्दों के सहित प्रस्तर लेकर विचरण करें। हे प्रस्तर ! अंतरिक्ष में मरुद्गण की दिव्य गति को तुम अपनाओ। तुम सूक्ष्म देह वाली स्वाधीन गौ होकर विचरण करो। स्वर्ग में जाकर हमारे लिए वर्षा को
मैं तुम्हें ग्रहण करता हूँ। हे प्राशित्र ! मैं तुम्हें अग्नि देव के मुख द्वारा भक्षण (प्रयोग) करता हूँ। हे सर्वगुण सम्पन्न सविता देव! इस शुभ कार्य की यजमान तुम्हारे लिए करते हैं और तुम्हारी प्रेरणा से यज्ञ के लिए बृहस्पति जी को देवताओं का गुरु मानते हैं। अतः इस यज्ञ और मेरी दोनों की रक्षा करो।
बृहस्पति इस यज्ञ को स्वीकार करें। वे इस यज्ञ को निर्विघ्न सम्पूर्ण करें। सभी देवगण हमारे यज्ञ से प्रसन्न हो। इस प्रकार पार्थिव सविता देव यजमान के प्रति अनुकूल हो। हे अन्नि देव ! यह समिधा तुम्हें प्रदीप्त करने वाली है। तुम इस समिधा के द्वारा उन्नति को प्राप्त हो और हम सबकी उन्नति करो। तुम्हारी इस प्रकार की कृपा से हम सुदृढ़ बनेंगे और जब तुम प्रसन्न हो जाओगे, तब हम अपने पुत्र, पशु आदि से भी सम्पन्न हो जाएंगे। हे अन्न पर विजय पाने वाले अग्निदेव ! तुम अन्न की उत्पत्ति के लिए जाते हो। मैं तुम्हें शुद्ध करता हूँ। द्वितीय पुराडोश के स्वामी अग्नि सोम ने इस विघ्न रहित हवियों को ग्रहण कर लिया है। इस कारण मैं अच्छी विजय को प्राप्त कर पाया हूँ। पुरोडाश और जुहू उपभृत आदि ने मुझ यजमान को इस कार्य करने हेतु उत्साहित किया है। जो राक्षस आदि शत्रु हमारे इस शुभ कार्य को नष्ट करने के लिए शत्रुता रखते हैं, उन्हें अग्नि और सोमदेव नष्ट कर दें। पुरोडाश आदि के देवता की आज्ञा पाकर मैं हवि के बिना किसी बाधा से स्वीकार किए जाने के कारण इन दोनों का त्याग करता हूँ।
हे मध्यम परिधि ! मैं तुम्हें वसुओं का यज्ञ करने के लिए घृत-सिक्त करता हूँ। हे दक्षिण परिधि ! मैं तुम्हें रुद्रों का यज्ञ करने के लिए घृत-सिक्त करता हूँ। हे उत्तर परिधि ! मैं तुम्हें आदित्यों का यज्ञ करने के लिए घृताक्त करता हूँ। हे धावा पृथ्वी ! इसे स्वीकार कर पाषाण को तुम भली-भाँति जानो। हे पाषाण सखा वरुण, वायु और सूर्य तथा प्राणापान तुम्हें जल वर्षा की गति से बचाएँ। घृत-सिक्त प्रस्तर का आस्वाद करते हुए अंतरिक्ष में विचरण करने वाले देवता आदि छन्दों के सहित प्रस्तर लेकर विचरण करें। हे प्रस्तर ! अंतरिक्ष में मरुद्गण की दिव्य गति को तुम अपनाओ। तुम सूक्ष्म देह वाली स्वाधीन गौ होकर विचरण करो। स्वर्ग में जाकर हमारे लिए वर्षा को मैं तुम्हें ग्रहण करता हूँ। हे प्राशित्र! मैं तुम्हें अग्नि देव के मुख द्वारा भक्षण (प्रयोग) करता हूँ। हे सर्वगुण सम्पन्न सविता देव! इस शुभ कार्य की यजमान तुम्हारे लिए करते हैं और तुम्हारी प्रेरणा से यज्ञ के लिए बृहस्पति जी को देवताओं का गुरु मानते हैं। अतः इस यज्ञ और मेरी दोनों की रक्षा करो।
बृहस्पति इस यज्ञ को स्वीकार करें। वे इस यज्ञ को निर्विघ्न सम्पूर्ण करें। सभी देवगण हमारे यज्ञ से प्रसन्न हो। इस प्रकार पार्थिव सविता देव यजमान के प्रति अनुकूल हो। हे अन्नि देव ! यह समिधा तुम्हें प्रदीप्त करने वाली है। तुम इस समिधा के द्वारा उन्नति को प्राप्त हो और हम सबकी उन्नति करो। तुम्हारी इस प्रकार की कृपा से हम सुदृढ़ बनेंगे और जब तुम प्रसन्न हो जाओगे, तब हम अपने पुत्र, पशु आदि से भी सम्पन्न हो जाएंगे। हे अन्न पर विजय पाने वाले अग्निदेव ! तुम अन्न की उत्पत्ति के लिए जाते हो। मैं तुम्हें शुद्ध करता हूँ। द्वितीय पुराडोश के स्वामी अग्नि सोम ने इस विघ्न रहित हवियों को ग्रहण कर लिया है। इस कारण मैं अच्छी विजय को प्राप्त कर पाया हूँ। पुरोडाश और जुहू उपभृत आदि ने मुझ यजमान को इस कार्य करने हेतु उत्साहित किया है। जो राक्षस आदि शत्रु हमारे इस शुभ कार्य को नष्ट करने के लिए शत्रुता रखते हैं, उन्हें अग्नि और सोमदेव नष्ट कर दें। पुरोडाश आदि के देवता की आज्ञा पाकर मैं हवि के बिना किसी बाधा से स्वीकार किए जाने के कारण इन दोनों का त्याग करता हूँ।
लाने वाले बनो।
हे अग्नि ! जब तुम राक्षसों से घिरी हुई थीं तब तुमने उनके विनाश के लिए जिस परिधि (सीमा) को पश्चिम दिशा में स्थापित किया था, तुम्हारी उस परिधि को मैं तुम्हें वापिस करता हूँ। यह परिधि तुमसे अलग न रहे। हे दक्षिण-उत्तर परिधि तुम अग्नि की प्रिय पात्र हो। तुम प्रयोग किए जाने वाले अन्न को ग्रहण करो।
हे विश्वे देवो ! तुम इस द्रव रूप घी या घृतयुक्त अन्न के भक्षण करने वाले होने से महान बने हो। तुम परिधि से रक्षित पत्थर पर विराजमान होते हो। तुम सभी मेरे वचन को ग्रहण करो कि यह यजमान भली प्रकार यज्ञ करता है। इस प्रकार सभी से कहते हुए हमारे यज्ञ में आकर सन्तुष्टि को प्राप्त होओ। यह आहुति भली प्रकार स्वीकार हो।
हे जुहू ! और उपभृत ! तुम घी से परिपूर्ण हो। शकट वाहक ! दोनों बैलों को घृताक्त करके उनकी रक्षा करो। हे सुख रूप ! तुम मुझे श्रेष्ठ सुख में स्थित करो। हे वेदी ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम प्रवृद्ध होओ। तुम इस अनुष्ठान कार्य में लगो जिससे यह यज्ञ सम्पूर्ण एवं श्रेष्ठ हो।
हे गार्हपत्य अग्ने ! तुम यजमान का मंगल करने आने और समस्त स्थानों में बसे हो। शत्रु द्वारा प्रेरित वज्र के समान रूप शस्त्र से तुम मेरी रक्षा करो। बन्धन कारण रूप पाश से बचाओ। विधि से प्रथक यज्ञ से मैं दूर रहूँ। कुत्सित भोजन न करूँ । विषयुक्त अन्न और जल से मेरी रक्षा करो। घर में रखे हुए अन्नादि खाद्य पदार्थ भी विष से बचे रहें। संवेश पति अग्नि के लिए आहुति स्वाहुत हो। विख्यात कीर्ति देने वाली वाग्देवी सरस्वती के लिए यह आहुति स्वाहुत हो। इसके फल-स्वरूप हम भी यशस्वी बनें।
हे कुश मुष्टि निर्मित पदार्थ! तुम वेद रूप हो। तुम सबके ज्ञाता हो। तुम जिस कारण वश सम्पूर्ण यज्ञ कर्मों के ज्ञाता हो और जिस कारण से तुम उसे देवताओं को बताते हो, उसी कारण से मुझे भी कल्याणकारी कार्य को बतलाओ। हे यज्ञ ज्ञाता देवताओं! तुम हमारे यज्ञ के वृतांत जानकर इस यज्ञ में आ जाओ। हे परमपिता.
परमेश्वर ! मैं इस यज्ञ को आपको सौंपता हूँ। तुम वायु देवता में इसकी स्थापना करो।
हे इन्द्र ! तुम सर्वशक्तिमान हो। हवि वाले घी से कुशाओं को लिप्त करो। आदित्यगण, वसुगण, मरुद्गण और विश्वदेवो युक्त लिप्त करो। आदित्य रूप दीप्ति को वह बर्हि प्राप्त हो।
हे प्रणीता पात्र ! तुम्हारा कौन त्याग कर सकता है ? वह तुम्हें किस कारण से छोड़ता है। वह तुम्हें प्रजापति के संतोष के लिए तुम्हारा त्याग करता है। मैं तुम्हें यजमान के पुत्र-पौत्र आदि के पालन हेतु त्यागता हूँ। हे कणों! तुम राक्षसों के भाग रूप हो, इससे अपनी इच्छानुसार यात्रा करो।
हम आज ब्रह्म तेज से परिपूर्ण हों, दुग्धादि से सुसंगत हों। अनुष्ठान में सामर्थवान देह के अवयवों से परिपूर्ण हों, शांत कार्य से श्रद्धा से परिपूर्ण हृदय वाले हों। त्वष्टा देवता हमारे लिए धन ग्रहण कराएँ और मेरे शरीर में यदि कोई कमी हो तो उसे पूर्ण करें।
विष्णु जगती छन्द रूपी अपने चरणों से स्वर्ग पर विशेष रूप से सवार हैं। जो शत्रु हमसे द्वेष रखता है और हम जिससे शत्रुता रखते हैं, वे दोनों प्रकार के द्वेषी भाग से पृथक कर निकाल दिए गए। सर्वव्यापी ईश्वर ने अपनी त्रिष्टुप छन्द रूपी चरण से अन्तरिक्ष पर आक्रमण किया। जो शत्रु हमसे द्वेष रखते हैं वे और हम जिनसे वैर रखते हैं, वे दोनों प्रकार के शत्रु भाग से प्रथक कर निकाले गए, उन सर्वव्यापी भगवान से गायत्री छन्दरूपी चरण से धरा पर आक्रमण किया। जो द्वेषी हमसे शत्रुता करते हैं और हम जिससे शत्रुता करते हैं, वे दोनों प्रकार के द्वेषी भाग रहित धरा से निकाले गए। जो यह अन्न भाग देखा है, इस अन्न से वर्ग को हताश करते हैं। इस निकट दिखाई देने वाली यज्ञ भूमि को मान या सम्मान के निर्मित वर्ग को हताश किया। हम इस यज्ञ के फलस्वरूप पूर्व दिशा में उदित सूर्य के दर्शन करते हैं। आह्वानीय रूप प्रकाश से हम परिपूर्ण हुए हैं।
हे सूर्य ! तुम स्वयं धरा हो। सबसे उत्तम, किरणों वाले और हिरण्यगर्भ हो। तुम
जिस कारण से तेज को प्रदान करते हो, मेरे लिए भी उसी तेज को प्रदान करो। मैं सूर्य देव को यह आहुति प्रदान करता हूँ। है गृहपति अग्नि ! मैं तुम्हें गृह स्वामिनी के रूप में स्थापित करता हूँ। मैं एक उत्तम गृहपति बनूँ। हे अग्नि ! मुझ गृहपति द्वारा तुम भी श्रेष्ठ गृहपति बन जाओ। हम दोनों के परस्पर संयोग से स्त्री-पुरुष द्वारा किए गए कर्म सौ वर्ष तक होते रहें। मैं सूर्य देव को नमस्कार करता हूँ।
हे अग्ने ! तुम सभी व्रतों के स्वामी हो। यह जो यज्ञानुष्ठान किया है, उसे तुम्हारी कृपा दृष्टि से ही सम्पन्न करने में समर्थवान हुआ हूँ। मेरे उस कार्य को तुमने ही सिद्ध किया है। मैं जैसा मनुष्य पूर्व में था, वैसा ही मनुष्य अब भी हूँ।
पितर सम्बन्धी हव्य को कव्य (कर्ज) कहते हैं। उस कव्य को सहन करने वाले अग्नि के समक्ष पितरों को अर्पित करते हैं। यह आहुति स्वीकार हो। पितरों को मोक्ष प्राप्ति के लिए और सोम देवता के लिए यह अग्नि में आहुति स्वीकार हो। इस यज्ञ वेदी में जो असुर और राक्षस बैठे हों उन्हें वेदी से बाहर निकाल दिया जाए।
पितरों के अन्न का भक्षण करने की कामना से अपने रूपों को पितरों के रूप के समान बनाकर असुर पितृयज्ञ की जगह में विचरण करते हैं तथा जो स्थूल शरीर वाले राक्षस सूक्ष्म शरीर धारण कर अपना असुरतत्व ढकना चाहते हैं, उन असुरों को उस स्थान से अग्नि दूर कर दे।
हे पितरों तुम इन कुशाओं पर बैठकर प्रसन्न होओ। जैसे वृषभ अपनी इच्छा के अनुसार भोजन प्राप्त करके तृप्त हो जाता है, वैसे ही हवि रूप में अपने-अपने भागों को प्राप्त करते हुए तुम सब भी संतुष्ट हो जाओ। जिन पितरों से यह भाग स्वीकार करने की प्रार्थना है वे पित्रगण बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने भाग को ग्रहण कर संतुष्ट हों।
हे पितरो ! तुम्हारे सम्बन्धित रूप रस बसंत ऋतु को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित ग्रीष्म ऋतु को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित प्राण-धारियों के प्राण रूप वर्षा ऋतु को भी नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित स्वधा रूप बसंत ऋतु को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित, प्राणी मात्र को कठिन हेमन्त ऋतु
को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित, प्राणी मात्र को कठिन हेमन्त ऋतु को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित आक्रोश रूप शिशिर ऋतु को नमस्कार है। हे छः ऋतु के रूप समान वाले पितरों तुम्हें नमस्कार है। तुम हमें पत्नी पुत्रादि से परिपूर्ण घर दो। हम तुम्हारे लिए यह देय वस्तु देते हैं। हे पितरों! यह सूत्र रूप परिधेय तुम्हारे लिए वस्त्र के रूप समान हो जाएँ।
हे पितरों! जैसे इस ऋतु में देवता या पितर मनुष्यों को अपने मनवांछित फल वाले हों, वैसा ही करो। अश्विनी कुमारों के समान सुन्दर और स्वस्थ पुत्र प्राप्त कराओ।
हे जल ! तुम सभी प्रकार के स्वादिष्ट सार रूप, फूलों के सार रूप, व्याधि नाशक, बन्धनों से दूर करने और दूध को धारण करने वाले हो। तुम पितरों के लिए हविरूप हो अतः मेरे पितरों को संतुष्ट करो।
यजुर्वेद (3) :: ऋषि :- अंगिरस, सुश्रुत, भरद्वाज, प्रजापति, सर्पराज़ी, कडू, गौतम, विरूप, देवात, भरतों, मावदेव, अवत्सार, याज्ञवल्लक्य, मधुच्छंदा, सुबन्धु, श्रुतबन्धु, विप्रबन्धु, मेधातिथि, सत्यद्युति वारुणि, विश्वामित्र, नारायण; देवता :- अग्नि, सूर्य, इन्द्राग्नि, आपः, विश्वेदेवा, बृहस्पति ब्रह्मणस्पति, आदित्य, इन्द्र, सविता, प्रजापति, वास्तुरग्नि, वास्तुपतिरग्नि, वास्तुपति, मरूत, यज्ञ, मन, रुद्र; छन्द :- गायत्री, बृहति, पंक्ति, त्रिदुष्प, जगति, उष्णिक, अनुस्टप।
हे ऋत्विजो! विधि के द्वारा अग्नि की सेवा करो। इन आतिथ्य कार्य वाले अग्नि को घी द्वारा प्रज्वलित करो और अनेक तरह की हवन सामग्री को यज्ञ में डालते हुए उन्हें प्रकाशमय बनाओ। हे ऋषियों! भली प्रकार से प्रज्वलित होने के लिए अग्नि को शुद्ध और स्वच्छ घृत प्रदान करो। हे अग्नि ! तुम्हें समिधाओं और घृत की आहुतियों के द्वारा प्रबुद्ध करते हैं। तुम सदा जवान रहने वाले हो। अतः वृद्धि को प्राप्त होते हुए प्रदीप्ति धारण करो।
हे अग्नि ! हवि युक्त (हवन सामग्री) एवं घी में लिप्त यह समिधा तुम्हें प्राप्त हो। तुम तेजस्वी को मेरी ये समिधाएँ स्नेहपूर्वक सेवनीय हो।
हे अग्ने ! तुम भूलोक, अंतरिक्ष लोक और स्वर्गलोक में सब जगह स्थापित हो। हे पृथ्वी ! तुम देवताओं के यज्ञ योग्य हो। तुम्हारी पीठ पर श्रेष्ठतम अन्न की सिद्धि के लिए अन्न भक्षक गार्हपत्यादि अग्नि को विद्यमान करता हूँ। फिर जैसे स्वर्गलोक नक्षत्र आदि से पूर्ण है, वैसे ही मैं भी सभी धनों से पूर्ण हो जाऊँ। अनेकों को शरण देने वाली धरा के समान रूप शरणदाता बनूँ। यह अग्नि समस्त वस्तुओं को पवित्र करने वाली होने से सर्वश्रेष्ठ हैं।
यह अग्नि दृश्यमान रूप है। यजमान ने इन्हें यज्ञ को पूर्ण करने के लिए घर में गमनशील अद्भुत ज्वाला रूप बनाया और सभी प्रकार से आह्वान की हुई गृहपत्नी (दक्षिण अग्नि) के स्थानों में पाद विक्षेप किया तथा पूर्ण दिशा में पृथ्वी को प्राप्त किया। इस अग्नि का तेज प्राणों को पार करता हुआ शरीर के मध्य में गमन करता है। यह अग्नि ही शरीर में जीवन का रूप है। इस प्रकार वायु और सूर्य संसार पर अनुग्रह करने वाले अग्नि देवता यज्ञ अनुष्ठान के लिए प्रकाशित होते हैं।
जो वाणी तीस मुहूर्त रूप जगहों में सुसज्जित होती है, वही पूजनीय वाणी अग्नि के लिए उच्चारण की जाती है। वह नित्य प्रति की वंदना रूप वाली वाणी यज्ञादि श्रेष्ठतम कार्यों में अग्नि की वन्दना करती है, किसी अतिरिक्त की वंदना नहीं करती।
यह अग्नि ही दृश्यमान प्रकाश स्वरूप ब्रह्म ज्योति है और यह दृश्यमान ज्योति ही अग्नि है। इन ज्योति स्वरूप अग्नि के लिए हवि ग्रहण की गई है। यह सूर्य की ज्योति है और यह ज्योति ही सूर्य है। उन सूर्य के लिए हवि प्रदान करता हूँ। जो अग्नि ब्रह्मतेज से सम्पन्न है, उनकी ज्योति ही ब्रह्मतेज वाली है। उन अग्नि के लिए हवि देता हूँ। जो सूर्य है, वही ब्रह्मतेज है और जो ज्योति है वह भी ब्रह्मतेज है, उन सूर्य के लिए हवि देता हूँ। ज्योति ही सूर्य है, जो सूर्य है वही ब्रह्म ज्योति है। उसके लिए हवि प्रदान करता हूँ।
सर्वप्रेरक सूर्य ईश्वर के संग समान रूप स्नेह वाले जिस रात देव के देवता इन्द्र हैं, वह रात्रि देव और हम पर दया करने वाले अग्नि भी इन्हें जानें। यह आहुति इन अग्नि के लिए ही प्रदान करता हूँ। सर्वप्रेरक सविता देव के संग समान स्नेह वाली जिस उषा के देवता इन्द्र हैं, वह उषा और समान स्नेह वाले सूर्य इस आहुति को प्राप्त करें।
यज्ञ स्थान की ओर जाते हुए हम दूर या पास में अग्नि के श्लोक उच्चारण करते हुए अभिष्ट फलदाता के श्लोकों को सुनते हैं। यह अग्नि आकाश में सबसे ऊँचे स्थान पर मुख्य है। जैसे सिर सबसे ऊपर रहता है, वैसे ही यह अपने तेज से आकाश के सर्वोच्च स्थान सूर्यमण्डल के ऊपर रहते हैं या जिस प्रकार वृषभ का कंधा ऊँचा होता है वैसे ही अग्नि का स्थान ऊँचा है। इस प्रकार संसार के महान कारण यही हैं। पृथ्वी के पालक और जलों के सार भाग को पुष्ट करने वाले हैं।
हे इन्द्राग्ने ! मैं तुम दोनों को आहूत करने की इच्छा करता हूँ। तुम दोनों को हविरूप अन्न से हर्षित करने का अभिलाषी हूँ। क्योंकि तुम दोनों ही अन्न, धन और जल के देने वाले हो। मैं अन्न और जल की इच्छा से तुम्हारा आह्वान करता हूँ।
हे अग्नि ! विशेष ऋतु में प्राप्त यह ग्रहिपत्य अग्नि तुम्हारा जन्म स्थान है। सवेरे सायं काल तुम आह्वानीय स्थान में उत्पन्न होते हो। ऐसे तुम यज्ञादि कार्यों में प्रज्जवलित होते हो। हे अग्ने ! अपने इस गार्हपत्य को जानते हुए कार्य की सिद्धि दक्षिणी वेदी में प्रतिष्ठित होओ और हमारे यज्ञ में धन की भली-भाँति वृद्धि करो।
यह अग्नि ! देवताओं के आह्वान करने वाले और पवित्र यज्ञ में स्थित होता है। यह सोम यज्ञ आदि में सन्तजनों द्वारा उच्चारित किए हुए श्लोक कर्मवानों द्वारा स्थापित किए जाते हैं। यज्ञ कर्म के ज्ञाता भृगुओं ने विविध कार्यों से अग्नि को मनुष्य के लिए निर्माण कराया है। संस्कारों के माध्यम से शुद्ध हुए और सब प्रकार योग्य होकर सब विद्याओं को प्राप्त कराने वाले संतजन ने इस अग्नि का आह्वान करके गाय के द्वारा अनेक कार्यों में उपयोगी दूध, दही आज्य-रूप हवन सामग्री के दूध को निकाला है।
हे अग्ने ! तुम स्वभाव से ही यज्ञकर्त्ताओं के शरीर की रक्षा करने वाले हो। जठराग्नि रूप से शरीर के पालन करने वाले हो। अतः मेरे शरीर की सुरक्षा करो। हे अग्ने ! तुम आयु प्रदान करने वाले हो, अतः मेरी असमय मृत्यु को दूर कर पूर्ण आयु प्रदान करो। हे अग्नि ! तुम ब्रह्मवर्चस के देने वाले हो। अतः मुझे भी तेजस्वी करो। यदि मेरे शरीर में कोई न्यूनता (कमी) हो तो उसे पूरा करो।
हे अग्नि ! हम तुम्हारी कृपा दृष्टि से तेजस्वी, अन्न सम्पन्न और बलदायक हुए हैं। हम यजमान किसी के भी द्वारा हिंसित न हों। हम इसी प्रकार के गुणों से परिपूर्ण होकर तुम्हें सौ वर्ष तक बराबर प्रज्वलित करते रहें।
हे अग्नेि ! रात्रि के समय तुम सूर्य के तेज से सुसंगत हुई हो। तुम मुनियों के श्लोकों से उच्चारित हुई हो। तुम्हारी कृपा दृष्टि से मैं भी अकाल मृत्यु के दोष से बचकर पूर्ण आयु से ब्रह्मतेज से, पुत्र पौत्र तथा धन से सम्पन्न हो जाऊँ। हे गौओं ! तुम क्षीरादि (दुग्ध) को उत्पन्न करने से अन्न रूप हो। अतः मैं भी तुम्हारे दूध, घी आदि का प्रयोग करूँ। तुम पूजा करने योग्य हो, अतः मैं भी तुम्हारे जैसी महानता को प्राप्त करूँ। तुम बल रूप हो, तुम्हारे आशीर्वाद से मैं भी बलवान हो जाऊँ। तुम धन को बढ़ाने वाली हो। अतः मैं भी तुम्हारी कृपा से धन प्राप्त कर सकूँ। हे धनवती गौओं! इस यज्ञ स्थान में दूध निकालने के बाद गोष्ठ (गौशाला) में और यजमान के घर में सदा उत्तम भाव से विराजमान रहो। तुम इस गृह से अलग न होओ।
हे गौ ! तुम अद्भुत रूप वाली, दूध घी देने के लिए यज्ञ कर्मों से सुसंगत होती है। तुम अपने क्षीर आदि के द्वारा मुझमें प्रवेश हो जाओ। हे अग्नि ! तुम रात्रि में भी क्रमशः वास करने वाली हो। हम यजमान नित्यप्रति श्रद्धा से परिपूर्ण हृदय से तुम्हें नमस्कार करते हुए हवि प्रदान करते हैं और तुम्हारी ओर प्रस्थान करते हैं। अग्नि ज्योतिर्मान है। हम उन यज्ञों के सुरक्षक, सत्यनिष्ठ, प्रवृद्ध अग्नि के निकट सम्मिलित होते हैं।
हे अग्नि ! उपर्युक्त गुण वाले तुम हमें सुखपूर्वक ग्रहण करो। पुत्र ठीक जैसे पिता के सम्मुख सुख से पहुँच जाता है जैसे ही हमें तुम ग्रहण करते हुए हमारे मंगल के लिए यज्ञ कार्य में संलग्न रहो।
हे अग्नेि ! तुम निर्मल स्वभाव वाली हो। तुम वस्तुओं के लिए आह्वान रूप गमन करती हो। तुम धन देने के कारण यशस्वी हो। तुम हमारे पास रहने वाले रक्षक, पुत्र आदि की हितैषी हो। तुम हमारे यज्ञ अनुष्ठान में जाओ और हमें अत्यन्त तेजस्वी धन प्रदान करो। हे अग्नि ! तुम अत्यन्त प्रकाश वाली, सबको प्रकाश देने वाली, गुणी मित्रों के धन और कल्याणकारी रूप हो। हम तुमसे अपने मित्रों का उपकार करने की प्रार्थना करते हैं। तुम हम सभी उपासकों को जानो और हमारी प्रार्थना को सुनो। सभी पापों और शत्रुओं से हमारी रक्षा करो। हे गौ ! तुम पृथ्वी के समान पालन करने वाली हो। तुम यहाँ पर आने की कृपा करो। तुम अदिति माता के समान देवताओं को घी आदि के द्वारा पालन करने वाली हो। तुम इस यज्ञ स्थान में पधारो। हे गौओं ! तुम सबको मनवांछित फल प्रदान करने वाली हो, इसलिए इस यज्ञ स्थान में पधारो। आपने हमारे लिए जो फल धारण किया है वह फल मुझ अनुष्ठान करने वाले को भी प्राप्त हो। हे बृह्मणस्पते ! मुझे सोमभिषव करने वाले शब्द से सम्पन्न करो। जैसे उशिज पुत्र कक्षीवान को तुमने सोमयाग से स्तुति रूप वाणि से सम्पन्न किया था, उसी प्रकार मुझे भी सम्पन्न करो।
जो ब्रह्मणस्पति ! सर्व धनों के मालिक हैं जो संसार के सभी भय रोगादि के नाशक हैं और जो सभी धन आदि के ज्ञानी और पुष्टि की वृद्धि करने वाले हैं, जो क्षण मात्र में सभी कुछ करने में सक्षम हैं, वे ब्रह्मणस्पति हम सभी को उपर्युक्त सभी कल्याणों से परिपूर्ण करें।
हे ब्रह्मणस्पते! जो यज्ञ विमुख मनुष्यों, देवताओं या पितरों के लिए कभी कोई कर्म नहीं करते, ऐसे मनुष्य के हिंसामय विरोध हमें कष्टमय न करें, तुम हमारी सभी. तरह से सुरक्षा करो।
मित्र, अर्यमा और वरुण ये तीनों देव अपने से सम्बन्धित कांतिमय स्वर्ण आदि धनों से परिपूर्ण महिमा के द्वारा हमारी सुरक्षा करें। उनकी महिमा को तिरस्कृत करने की शक्ति किसी में नहीं है। हम तीनों द्वारा रक्षित देवों की आराधना करते हैं। उन ईश्वर देव को घर, मार्ग, घोर वन और संग्राम भूमि में भी कोई रोक नहीं सकता। यजमान का कोई भी शत्रु उसे हिंसित करने में सक्षम नहीं होता।
मित्र अर्यमा और वरुण देव माता अदिति के पुत्र हैं। वे इस मृत्युलोक में यजमान को अपना अखंड तेज और लम्बी आयु प्रदान करते हैं। हे इन्द्र ! तुम हिंसक नहीं हो। हविदाता (आहुति) देने वाले यजमान की हवि ! (आहुति) को शीघ्र ग्रहण करते हो। हे मधवन ! तुम बहुत ही तेजस्वी हो। यजमान तुम्हारे दान को शीघ्र प्राप्त करता
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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