Wednesday, October 29, 2025

यजुर्वेद

सामवेद  (1.11)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
PtSantoshBhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

अध्याय-2
ऋषि :- परमेष्ठी प्रजापति, देवल, वामदेव; देवता :- यज्ञ, अग्नि, विष्णु, इन्द्र, धावा, पृथ्वी, सविता, बृहस्पति, अग्निषों मौ, इंद्राग्नि, मित्रावरूणी विश्वदेवा, अग्निवायु, अग्नि सरस्वत्यौ प्रजापति, त्वष्टा, ईश्वर, पितर, आप; छन्द :- पंक्ति, लगती, त्रिदुष्प, गायत्री, ब्रहती अनुष्टप, उष्णिक।
हे ईश्वर! तुम हवन की लकड़ी हो। तुम कठोर वृक्ष से उत्पन्न हुई हो या आह्वानीय अग्नि में रहने वाले हो।
अग्नि में डालने हेतु मैं तुम्हें जल से धोकर शुद्ध करता हूँ। हे वेदी! तुम यज्ञ की नाभि कहलाती हो। तुम्हें कुश धारण हेतु अच्छी प्रकार से जल से साफ करता हूँ। हे दर्भ ! तुम कुशों का समूट होने से सक्ष्म हो। तुम्हें तीन स्त्रुवों के सहित रुकना है, इसलिए मैं तुम्हें जल से स्वच्छ करता हूँ। हे प्रोक्षण से शेषजल ! तुम इस वेदी रूप पृथ्वी को सींचते हो। हे कुशाओं! तुम यज्ञ की शिखा के समान हो। हे वेदी! तुम ऊन की तरह बहुत ही कोमल हो। मैं तुम्हें देवताओं के सुखपूर्वक बैठने का स्थान बनाने हेतु कुशाओं से ढकता हूँ। यह हवि भूवपति देवों के लिए प्रदान की है। यह हवि भुवनपति देवता के लिए प्रदान की गई है। यह हवि भूतों के स्वामी भोले शंकर को अर्पण करता हूँ।
हे परिधि ! विश्वावसु नामक गन्र्धव सभी विघ्नों की शांति हेतु तुम्हें सभी ओर से स्थापित करें और तुम केवल अग्नि की ही सीमा न होकर राक्षसों और शत्रुओं से सुरक्षा करने वाली, यजमान की भी सीमा बन जाओ। तुम पश्चिम दिशा में अटल रहो। आह्वानीय अग्नि के पहले भाई भुवपति नामक अग्नि रूप यज्ञ से प्रकट हो। हे दक्षिणी परिधि ! तुम इन्द्रदेव की दक्षिणी भुजा रूप रहो। संसार की बाधाओं को दूर करने के लिए तुम यजमान की रक्षक बनो। तुम आह्वानीय के दूसरे भाई भुवनपति की यज्ञ आदि से वन्दना की गई है। हे उत्तर परिधि ! मित्रावरुण! पवन और आदित्य तुम्हें उत्तर दिशा में स्थित करें। तुम आह्वानीय रूप से संसार की बाधाओं को दूर करने हेतु और लोक कल्याण हेतु यजमान की रक्षा करो। आह्वानीय के तीसरे भाई भूतपति यज्ञ आदि कार्य द्वारा वंदित हो।
हे क्रांतदर्शी ! अग्नि देव ! तुम पुत्र एवं पौत्र आदि प्रदान करने वाले, धन से सम्पन्न करने वाले, यज्ञ के फल रूप में सुख समृद्धि को भी प्रदान करने वाले शक्तिशाली और महान हो। हम ऐसे कार्यों के द्वारा आपको नमन करते हैं। हे इहम ! तुम अग्नि देवता को भली-भाँति प्रदिप्त करते हो। हे आह्वानीय सूर्य! पूर्व में कोई विघ्न आए तो उससे हमारी रक्षा करो। हे कुश ! तुम दोनों, सविता देव की भुजाओं के समान हो। हे कुशाओं! तुम ऊन के समान कोमल हो, मैं तुम्हें देवताओं के सुखपूर्वक बैठने हेतु ऊँचे स्थान पर बिछाता हूँ। तीनों लोकों के माननीय देवता वसुगण, रुद्रगण और मरुदगण सब ओर से हे कुशाओं! तुम पर विराजमान हों। हे जूहू! तुम घृत से पूर्ण होकर देवताओं के प्रिय उस घृत के साथ इस पाषाण रूप आसन पर बैठ जाओ। हे उपभृत! तुम घृत से पूर्ण होने वाले हो। इस समय देवताओं के प्रिय घी से युक्त होकर पाषाण रूप इस आसन पर बैठो। हे ध्रुवा ! तुम हमेशा घी द्वारा सिंचित हो। इस समय देवताओं के प्रिय इस घृत से पूर्ण होकर तुम प्रस्तर रूप इस आसन पर विराजमान हो जाओ। हे हव्य ! तुम घी के साथ स्नेहपूर्वक इस पर स्थित हो जाओ। हे विष्णु ! फल की प्रप्ति के लिए सत्यरूप यज्ञ के स्थान में जो हव्य स्थित है, उसकी रक्षा करो और साथ ही साथ हव्य की ही नहीं अपितु समस्त यज्ञ की और यज्ञ की रक्षा करने वाले यजमान की भी रक्षा करो। हे प्रभु! हे परमपिता परमेश्वर ! मुझे यज्ञ कार्य करने की भी रक्षा करो।
हे अन्नजेता अग्ने ! तुम अनेक अन्नों को उत्पन्न करने वाले हो। अतः अन्नोत्पति में होने वाली बाधाओं की शान्ति हेतु मैं तुम्हारा शोधन करता हूँ। जो देवगण मेरे इस अनुष्ठान में अनुकूल हुए हैं, मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। जो पितर गण मेरे इस अनुष्ठान में कृपा करते हैं, मैं उन पितरों को नमस्कार करता हूँ। हे जुहू ! हे उप भृत ! तुम दोनों मेरे इस कार्य में सतर्क रहो जिससे घी न बिखरे, इस प्रकार घी को धारण करो।
हे विष्णु ! मैं अपने पैरों से तुम पर क्रोधित नहीं होता हूँ। इस वेदी पर पैर रखने से पाप का मैं भागीदार न बनूँ। हे अग्नि ! मैं तुम्हारी परछाई के समान निकट ही भूमि पर बैठता हूँ। हे वसुमति ! तुम यज्ञ के स्थान रूप हो। इस देव यज्ञ के स्थान से उठकर शत्रु का वध करने के लिए बल को धारण करते हुए इन्द्र के लिए ही यह यज्ञ उत्पन्न हुआ है। हे अग्नि ! तुम होता के कर्म को और दैत्य-कर्म को अवश्य जानो। स्वर्ग और पृथ्वी तुम्हारी रक्षा करें और तुम भी उन दोनों की रक्षा करो और इन्द्र हमारी दी हुई हवि द्वारा देवताओं सहित संतुष्ट हो। वे हम पर प्रसन्न होकर हमारा यह अनुष्ठान बिना किसी बाधा के पूरा करें।
इन्द्रदेव इस प्रकार की वीरता को मुझ यजमान में स्थापित करें। दिव्य और पार्थिव सभी प्रकार के धन हमारे समक्ष आएँ। हमारी सर्व मनोकामना पूरी हो और हमारी अभिलाषाएँ सत्य फल प्रदान करने वाली हों। जो यह पृथ्वी पूजनीय है, वह संसार को निर्मित करने वाली है। यह माता के रूप समान धरा मुझे हविशेष के भक्षण करने की आज्ञा प्रदान करें। हे माता! अग्नि में आहुति अर्पित करने से मेरी जठराग्नि अत्यन्त दीप्त हो उठी हैं, अतः मैं उस हिस्से को अग्नि रूप से भक्षण करता हूँ।
सविता देव हमारे पालक पिता हैं, वे मुझे हविशेष के भक्षण की आज्ञा प्रदान करें। हे पिता ! अग्नि में आहुति देने से जठराग्नि (शरीर की ऊर्जा) बिल्कुल कम हो गई है। उसकी संतुष्टि के लिए मैं इसका भक्षण (प्रयोग) करता हूँ। हे प्राशित्र ! सविता देव की प्ररेणा से अश्विनी कुमार की भुजाओं से और पूषा देवता के हाथों से हे मध्यम परिधि ! मैं तुम्हें वसुओं का यज्ञ करने के लिए घृत-सिक्त करता हूँ। हे दक्षिण परिधि ! मैं तुम्हें रुद्रों का यज्ञ करने के लिए घृत-सिक्त करता हूँ। हे उत्तर परिधि ! मैं तुम्हें आदित्यों का यज्ञ करने के लिए घृताक्त करता हूँ। हे धावा पृथ्वी ! इसे स्वीकार कर पाषाण को तुम भली-भाँति जानो। हे पाषाण सखा वरुण, वायु और सूर्य तथा प्राणापान तुम्हें जल वर्षा की गति से बचाएँ। घृत-सिक्त प्रस्तर का आस्वाद करते हुए अंतरिक्ष में विचरण करने वाले देवता आदि छन्दों के सहित प्रस्तर लेकर विचरण करें। हे प्रस्तर ! अंतरिक्ष में मरुद्गण की दिव्य गति को तुम अपनाओ। तुम सूक्ष्म देह वाली स्वाधीन गौ होकर विचरण करो। स्वर्ग में जाकर हमारे लिए वर्षा को
मैं तुम्हें ग्रहण करता हूँ। हे प्राशित्र ! मैं तुम्हें अग्नि देव के मुख द्वारा भक्षण (प्रयोग) करता हूँ। हे सर्वगुण सम्पन्न सविता देव! इस शुभ कार्य की यजमान तुम्हारे लिए करते हैं और तुम्हारी प्रेरणा से यज्ञ के लिए बृहस्पति जी को देवताओं का गुरु मानते हैं। अतः इस यज्ञ और मेरी दोनों की रक्षा करो।
बृहस्पति इस यज्ञ को स्वीकार करें। वे इस यज्ञ को निर्विघ्न सम्पूर्ण करें। सभी देवगण हमारे यज्ञ से प्रसन्न हो। इस प्रकार पार्थिव सविता देव यजमान के प्रति अनुकूल हो। हे अन्नि देव ! यह समिधा तुम्हें प्रदीप्त करने वाली है। तुम इस समिधा के द्वारा उन्नति को प्राप्त हो और हम सबकी उन्नति करो। तुम्हारी इस प्रकार की कृपा से हम सुदृढ़ बनेंगे और जब तुम प्रसन्न हो जाओगे, तब हम अपने पुत्र, पशु आदि से भी सम्पन्न हो जाएंगे। हे अन्न पर विजय पाने वाले अग्निदेव ! तुम अन्न की उत्पत्ति के लिए जाते हो। मैं तुम्हें शुद्ध करता हूँ। द्वितीय पुराडोश के स्वामी अग्नि सोम ने इस विघ्न रहित हवियों को ग्रहण कर लिया है। इस कारण मैं अच्छी विजय को प्राप्त कर पाया हूँ। पुरोडाश और जुहू उपभृत आदि ने मुझ यजमान को इस कार्य करने हेतु उत्साहित किया है। जो राक्षस आदि शत्रु हमारे इस शुभ कार्य को नष्ट करने के लिए शत्रुता रखते हैं, उन्हें अग्नि और सोमदेव नष्ट कर दें। पुरोडाश आदि के देवता की आज्ञा पाकर मैं हवि के बिना किसी बाधा से स्वीकार किए जाने के कारण इन दोनों का त्याग करता हूँ।
हे मध्यम परिधि ! मैं तुम्हें वसुओं का यज्ञ करने के लिए घृत-सिक्त करता हूँ। हे दक्षिण परिधि ! मैं तुम्हें रुद्रों का यज्ञ करने के लिए घृत-सिक्त करता हूँ। हे उत्तर परिधि ! मैं तुम्हें आदित्यों का यज्ञ करने के लिए घृताक्त करता हूँ। हे धावा पृथ्वी ! इसे स्वीकार कर पाषाण को तुम भली-भाँति जानो। हे पाषाण सखा वरुण, वायु और सूर्य तथा प्राणापान तुम्हें जल वर्षा की गति से बचाएँ। घृत-सिक्त प्रस्तर का आस्वाद करते हुए अंतरिक्ष में विचरण करने वाले देवता आदि छन्दों के सहित प्रस्तर लेकर विचरण करें। हे प्रस्तर ! अंतरिक्ष में मरुद्गण की दिव्य गति को तुम अपनाओ। तुम सूक्ष्म देह वाली स्वाधीन गौ होकर विचरण करो। स्वर्ग में जाकर हमारे लिए वर्षा को मैं तुम्हें ग्रहण करता हूँ। हे प्राशित्र! मैं तुम्हें अग्नि देव के मुख द्वारा भक्षण (प्रयोग) करता हूँ। हे सर्वगुण सम्पन्न सविता देव! इस शुभ कार्य की यजमान तुम्हारे लिए करते हैं और तुम्हारी प्रेरणा से यज्ञ के लिए बृहस्पति जी को देवताओं का गुरु मानते हैं। अतः इस यज्ञ और मेरी दोनों की रक्षा करो।
बृहस्पति इस यज्ञ को स्वीकार करें। वे इस यज्ञ को निर्विघ्न सम्पूर्ण करें। सभी देवगण हमारे यज्ञ से प्रसन्न हो। इस प्रकार पार्थिव सविता देव यजमान के प्रति अनुकूल हो। हे अन्नि देव ! यह समिधा तुम्हें प्रदीप्त करने वाली है। तुम इस समिधा के द्वारा उन्नति को प्राप्त हो और हम सबकी उन्नति करो। तुम्हारी इस प्रकार की कृपा से हम सुदृढ़ बनेंगे और जब तुम प्रसन्न हो जाओगे, तब हम अपने पुत्र, पशु आदि से भी सम्पन्न हो जाएंगे। हे अन्न पर विजय पाने वाले अग्निदेव ! तुम अन्न की उत्पत्ति के लिए जाते हो। मैं तुम्हें शुद्ध करता हूँ। द्वितीय पुराडोश के स्वामी अग्नि सोम ने इस विघ्न रहित हवियों को ग्रहण कर लिया है। इस कारण मैं अच्छी विजय को प्राप्त कर पाया हूँ। पुरोडाश और जुहू उपभृत आदि ने मुझ यजमान को इस कार्य करने हेतु उत्साहित किया है। जो राक्षस आदि शत्रु हमारे इस शुभ कार्य को नष्ट करने के लिए शत्रुता रखते हैं, उन्हें अग्नि और सोमदेव नष्ट कर दें। पुरोडाश आदि के देवता की आज्ञा पाकर मैं हवि के बिना किसी बाधा से स्वीकार किए जाने के कारण इन दोनों का त्याग करता हूँ।
लाने वाले बनो।
हे अग्नि ! जब तुम राक्षसों से घिरी हुई थीं तब तुमने उनके विनाश के लिए जिस परिधि (सीमा) को पश्चिम दिशा में स्थापित किया था, तुम्हारी उस परिधि को मैं तुम्हें वापिस करता हूँ। यह परिधि तुमसे अलग न रहे। हे दक्षिण-उत्तर परिधि तुम अग्नि की प्रिय पात्र हो। तुम प्रयोग किए जाने वाले अन्न को ग्रहण करो।
हे विश्वे देवो ! तुम इस द्रव रूप घी या घृतयुक्त अन्न के भक्षण करने वाले होने से महान बने हो। तुम परिधि से रक्षित पत्थर पर विराजमान होते हो। तुम सभी मेरे वचन को ग्रहण करो कि यह यजमान भली प्रकार यज्ञ करता है। इस प्रकार सभी से कहते हुए हमारे यज्ञ में आकर सन्तुष्टि को प्राप्त होओ। यह आहुति भली प्रकार स्वीकार हो।

हे जुहू ! और उपभृत ! तुम घी से परिपूर्ण हो। शकट वाहक ! दोनों बैलों को घृताक्त करके उनकी रक्षा करो। हे सुख रूप ! तुम मुझे श्रेष्ठ सुख में स्थित करो। हे वेदी ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम प्रवृद्ध होओ। तुम इस अनुष्ठान कार्य में लगो जिससे यह यज्ञ सम्पूर्ण एवं श्रेष्ठ हो।

हे गार्हपत्य अग्ने ! तुम यजमान का मंगल करने आने और समस्त स्थानों में बसे हो। शत्रु द्वारा प्रेरित वज्र के समान रूप शस्त्र से तुम मेरी रक्षा करो। बन्धन कारण रूप पाश से बचाओ। विधि से प्रथक यज्ञ से मैं दूर रहूँ। कुत्सित भोजन न करूँ । विषयुक्त अन्न और जल से मेरी रक्षा करो। घर में रखे हुए अन्नादि खाद्य पदार्थ भी विष से बचे रहें। संवेश पति अग्नि के लिए आहुति स्वाहुत हो। विख्यात कीर्ति देने वाली वाग्देवी सरस्वती के लिए यह आहुति स्वाहुत हो। इसके फल-स्वरूप हम भी यशस्वी बनें।

हे कुश मुष्टि निर्मित पदार्थ! तुम वेद रूप हो। तुम सबके ज्ञाता हो। तुम जिस कारण वश सम्पूर्ण यज्ञ कर्मों के ज्ञाता हो और जिस कारण से तुम उसे देवताओं को बताते हो, उसी कारण से मुझे भी कल्याणकारी कार्य को बतलाओ। हे यज्ञ ज्ञाता देवताओं! तुम हमारे यज्ञ के वृतांत जानकर इस यज्ञ में आ जाओ। हे परमपिता.
परमेश्वर ! मैं इस यज्ञ को आपको सौंपता हूँ। तुम वायु देवता में इसकी स्थापना करो।

हे इन्द्र ! तुम सर्वशक्तिमान हो। हवि वाले घी से कुशाओं को लिप्त करो। आदित्यगण, वसुगण, मरुद्गण और विश्वदेवो युक्त लिप्त करो। आदित्य रूप दीप्ति को वह बर्हि प्राप्त हो।
हे प्रणीता पात्र ! तुम्हारा कौन त्याग कर सकता है ? वह तुम्हें किस कारण से छोड़ता है। वह तुम्हें प्रजापति के संतोष के लिए तुम्हारा त्याग करता है। मैं तुम्हें यजमान के पुत्र-पौत्र आदि के पालन हेतु त्यागता हूँ। हे कणों! तुम राक्षसों के भाग रूप हो, इससे अपनी इच्छानुसार यात्रा करो।
हम आज ब्रह्म तेज से परिपूर्ण हों, दुग्धादि से सुसंगत हों। अनुष्ठान में सामर्थवान देह के अवयवों से परिपूर्ण हों, शांत कार्य से श्रद्धा से परिपूर्ण हृदय वाले हों। त्वष्टा देवता हमारे लिए धन ग्रहण कराएँ और मेरे शरीर में यदि कोई कमी हो तो उसे पूर्ण करें।

विष्णु जगती छन्द रूपी अपने चरणों से स्वर्ग पर विशेष रूप से सवार हैं। जो शत्रु हमसे द्वेष रखता है और हम जिससे शत्रुता रखते हैं, वे दोनों प्रकार के द्वेषी भाग से पृथक कर निकाल दिए गए। सर्वव्यापी ईश्वर ने अपनी त्रिष्टुप छन्द रूपी चरण से अन्तरिक्ष पर आक्रमण किया। जो शत्रु हमसे द्वेष रखते हैं वे और हम जिनसे वैर रखते हैं, वे दोनों प्रकार के शत्रु भाग से प्रथक कर निकाले गए, उन सर्वव्यापी भगवान से गायत्री छन्दरूपी चरण से धरा पर आक्रमण किया। जो द्वेषी हमसे शत्रुता करते हैं और हम जिससे शत्रुता करते हैं, वे दोनों प्रकार के द्वेषी भाग रहित धरा से निकाले गए। जो यह अन्न भाग देखा है, इस अन्न से वर्ग को हताश करते हैं। इस निकट दिखाई देने वाली यज्ञ भूमि को मान या सम्मान के निर्मित वर्ग को हताश किया। हम इस यज्ञ के फलस्वरूप पूर्व दिशा में उदित सूर्य के दर्शन करते हैं। आह्वानीय रूप प्रकाश से हम परिपूर्ण हुए हैं।

हे सूर्य ! तुम स्वयं धरा हो। सबसे उत्तम, किरणों वाले और हिरण्यगर्भ हो। तुम
जिस कारण से तेज को प्रदान करते हो, मेरे लिए भी उसी तेज को प्रदान करो। मैं सूर्य देव को यह आहुति प्रदान करता हूँ। है गृहपति अग्नि ! मैं तुम्हें गृह स्वामिनी के रूप में स्थापित करता हूँ। मैं एक उत्तम गृहपति बनूँ। हे अग्नि ! मुझ गृहपति द्वारा तुम भी श्रेष्ठ गृहपति बन जाओ। हम दोनों के परस्पर संयोग से स्त्री-पुरुष द्वारा किए गए कर्म सौ वर्ष तक होते रहें। मैं सूर्य देव को नमस्कार करता हूँ।
हे अग्ने ! तुम सभी व्रतों के स्वामी हो। यह जो यज्ञानुष्ठान किया है, उसे तुम्हारी कृपा दृष्टि से ही सम्पन्न करने में समर्थवान हुआ हूँ। मेरे उस कार्य को तुमने ही सिद्ध किया है। मैं जैसा मनुष्य पूर्व में था, वैसा ही मनुष्य अब भी हूँ।
पितर सम्बन्धी हव्य को कव्य (कर्ज) कहते हैं। उस कव्य को सहन करने वाले अग्नि के समक्ष पितरों को अर्पित करते हैं। यह आहुति स्वीकार हो। पितरों को मोक्ष प्राप्ति के लिए और सोम देवता के लिए यह अग्नि में आहुति स्वीकार हो। इस यज्ञ वेदी में जो असुर और राक्षस बैठे हों उन्हें वेदी से बाहर निकाल दिया जाए।
पितरों के अन्न का भक्षण करने की कामना से अपने रूपों को पितरों के रूप के समान बनाकर असुर पितृयज्ञ की जगह में विचरण करते हैं तथा जो स्थूल शरीर वाले राक्षस सूक्ष्म शरीर धारण कर अपना असुरतत्व ढकना चाहते हैं, उन असुरों को उस स्थान से अग्नि दूर कर दे।
हे पितरों तुम इन कुशाओं पर बैठकर प्रसन्न होओ। जैसे वृषभ अपनी इच्छा के अनुसार भोजन प्राप्त करके तृप्त हो जाता है, वैसे ही हवि रूप में अपने-अपने भागों को प्राप्त करते हुए तुम सब भी संतुष्ट हो जाओ। जिन पितरों से यह भाग स्वीकार करने की प्रार्थना है वे पित्रगण बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने भाग को ग्रहण कर संतुष्ट हों।
हे पितरो ! तुम्हारे सम्बन्धित रूप रस बसंत ऋतु को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित ग्रीष्म ऋतु को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित प्राण-धारियों के प्राण रूप वर्षा ऋतु को भी नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित स्वधा रूप बसंत ऋतु को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित, प्राणी मात्र को कठिन हेमन्त ऋतु
को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित, प्राणी मात्र को कठिन हेमन्त ऋतु को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित आक्रोश रूप शिशिर ऋतु को नमस्कार है। हे छः ऋतु के रूप समान वाले पितरों तुम्हें नमस्कार है। तुम हमें पत्नी पुत्रादि से परिपूर्ण घर दो। हम तुम्हारे लिए यह देय वस्तु देते हैं। हे पितरों! यह सूत्र रूप परिधेय तुम्हारे लिए वस्त्र के रूप समान हो जाएँ।
हे पितरों! जैसे इस ऋतु में देवता या पितर मनुष्यों को अपने मनवांछित फल वाले हों, वैसा ही करो। अश्विनी कुमारों के समान सुन्दर और स्वस्थ पुत्र प्राप्त कराओ।
हे जल ! तुम सभी प्रकार के स्वादिष्ट सार रूप, फूलों के सार रूप, व्याधि नाशक, बन्धनों से दूर करने और दूध को धारण करने वाले हो। तुम पितरों के लिए हविरूप हो अतः मेरे पितरों को संतुष्ट करो।
यजुर्वेद (3) :: ऋषि :- अंगिरस, सुश्रुत, भरद्वाज, प्रजापति, सर्पराज़ी, कडू, गौतम, विरूप, देवात, भरतों, मावदेव, अवत्सार, याज्ञवल्लक्य, मधुच्छंदा, सुबन्धु, श्रुतबन्धु, विप्रबन्धु, मेधातिथि, सत्यद्युति वारुणि, विश्वामित्र, नारायण; देवता :- अग्नि, सूर्य, इन्द्राग्नि, आपः, विश्वेदेवा, बृहस्पति ब्रह्मणस्पति, आदित्य, इन्द्र, सविता, प्रजापति, वास्तुरग्नि, वास्तुपतिरग्नि, वास्तुपति, मरूत, यज्ञ, मन, रुद्र; छन्द :- गायत्री, बृहति, पंक्ति, त्रिदुष्प, जगति, उष्णिक, अनुस्टप।
हे ऋत्विजो! विधि के द्वारा अग्नि की सेवा करो। इन आतिथ्य कार्य वाले अग्नि को घी द्वारा प्रज्वलित करो और अनेक तरह की हवन सामग्री को यज्ञ में डालते हुए उन्हें प्रकाशमय बनाओ। हे ऋषियों! भली प्रकार से प्रज्वलित होने के लिए अग्नि को शुद्ध और स्वच्छ घृत प्रदान करो। हे अग्नि ! तुम्हें समिधाओं और घृत की आहुतियों के द्वारा प्रबुद्ध करते हैं। तुम सदा जवान रहने वाले हो। अतः वृद्धि को प्राप्त होते हुए प्रदीप्ति धारण करो।
हे अग्नि ! हवि युक्त (हवन सामग्री) एवं घी में लिप्त यह समिधा तुम्हें प्राप्त हो। तुम तेजस्वी को मेरी ये समिधाएँ स्नेहपूर्वक सेवनीय हो।
हे अग्ने ! तुम भूलोक, अंतरिक्ष लोक और स्वर्गलोक में सब जगह स्थापित हो। हे पृथ्वी ! तुम देवताओं के यज्ञ योग्य हो। तुम्हारी पीठ पर श्रेष्ठतम अन्न की सिद्धि के लिए अन्न भक्षक गार्हपत्यादि अग्नि को विद्यमान करता हूँ। फिर जैसे स्वर्गलोक नक्षत्र आदि से पूर्ण है, वैसे ही मैं भी सभी धनों से पूर्ण हो जाऊँ। अनेकों को शरण देने वाली धरा के समान रूप शरणदाता बनूँ। यह अग्नि समस्त वस्तुओं को पवित्र करने वाली होने से सर्वश्रेष्ठ हैं।
यह अग्नि दृश्यमान रूप है। यजमान ने इन्हें यज्ञ को पूर्ण करने के लिए घर में गमनशील अद्भुत ज्वाला रूप बनाया और सभी प्रकार से आह्वान की हुई गृहपत्नी (दक्षिण अग्नि) के स्थानों में पाद विक्षेप किया तथा पूर्ण दिशा में पृथ्वी को प्राप्त किया। इस अग्नि का तेज प्राणों को पार करता हुआ शरीर के मध्य में गमन करता है। यह अग्नि ही शरीर में जीवन का रूप है। इस प्रकार वायु और सूर्य संसार पर अनुग्रह करने वाले अग्नि देवता यज्ञ अनुष्ठान के लिए प्रकाशित होते हैं।
जो वाणी तीस मुहूर्त रूप जगहों में सुसज्जित होती है, वही पूजनीय वाणी अग्नि के लिए उच्चारण की जाती है। वह नित्य प्रति की वंदना रूप वाली वाणी यज्ञादि श्रेष्ठतम कार्यों में अग्नि की वन्दना करती है, किसी अतिरिक्त की वंदना नहीं करती।
यह अग्नि ही दृश्यमान प्रकाश स्वरूप ब्रह्म ज्योति है और यह दृश्यमान ज्योति ही अग्नि है। इन ज्योति स्वरूप अग्नि के लिए हवि ग्रहण की गई है। यह सूर्य की ज्योति है और यह ज्योति ही सूर्य है। उन सूर्य के लिए हवि प्रदान करता हूँ। जो अग्नि ब्रह्मतेज से सम्पन्न है, उनकी ज्योति ही ब्रह्मतेज वाली है। उन अग्नि के लिए हवि देता हूँ। जो सूर्य है, वही ब्रह्मतेज है और जो ज्योति है वह भी ब्रह्मतेज है, उन सूर्य के लिए हवि देता हूँ। ज्योति ही सूर्य है, जो सूर्य है वही ब्रह्म ज्योति है। उसके लिए हवि प्रदान करता हूँ।
सर्वप्रेरक सूर्य ईश्वर के संग समान रूप स्नेह वाले जिस रात देव के देवता इन्द्र हैं, वह रात्रि देव और हम पर दया करने वाले अग्नि भी इन्हें जानें। यह आहुति इन अग्नि के लिए ही प्रदान करता हूँ। सर्वप्रेरक सविता देव के संग समान स्नेह वाली जिस उषा के देवता इन्द्र हैं, वह उषा और समान स्नेह वाले सूर्य इस आहुति को प्राप्त करें।
यज्ञ स्थान की ओर जाते हुए हम दूर या पास में अग्नि के श्लोक उच्चारण करते हुए अभिष्ट फलदाता के श्लोकों को सुनते हैं। यह अग्नि आकाश में सबसे ऊँचे स्थान पर मुख्य है। जैसे सिर सबसे ऊपर रहता है, वैसे ही यह अपने तेज से आकाश के सर्वोच्च स्थान सूर्यमण्डल के ऊपर रहते हैं या जिस प्रकार वृषभ का कंधा ऊँचा होता है वैसे ही अग्नि का स्थान ऊँचा है। इस प्रकार संसार के महान कारण यही हैं। पृथ्वी के पालक और जलों के सार भाग को पुष्ट करने वाले हैं।
हे इन्द्राग्ने ! मैं तुम दोनों को आहूत करने की इच्छा करता हूँ। तुम दोनों को हविरूप अन्न से हर्षित करने का अभिलाषी हूँ। क्योंकि तुम दोनों ही अन्न, धन और जल के देने वाले हो। मैं अन्न और जल की इच्छा से तुम्हारा आह्वान करता हूँ।
हे अग्नि ! विशेष ऋतु में प्राप्त यह ग्रहिपत्य अग्नि तुम्हारा जन्म स्थान है। सवेरे सायं काल तुम आह्वानीय स्थान में उत्पन्न होते हो। ऐसे तुम यज्ञादि कार्यों में प्रज्जवलित होते हो। हे अग्ने ! अपने इस गार्हपत्य को जानते हुए कार्य की सिद्धि दक्षिणी वेदी में प्रतिष्ठित होओ और हमारे यज्ञ में धन की भली-भाँति वृद्धि करो।
यह अग्नि ! देवताओं के आह्वान करने वाले और पवित्र यज्ञ में स्थित होता है। यह सोम यज्ञ आदि में सन्तजनों द्वारा उच्चारित किए हुए श्लोक कर्मवानों द्वारा स्थापित किए जाते हैं। यज्ञ कर्म के ज्ञाता भृगुओं ने विविध कार्यों से अग्नि को मनुष्य के लिए निर्माण कराया है। संस्कारों के माध्यम से शुद्ध हुए और सब प्रकार योग्य होकर सब विद्याओं को प्राप्त कराने वाले संतजन ने इस अग्नि का आह्वान करके गाय के द्वारा अनेक कार्यों में उपयोगी दूध, दही आज्य-रूप हवन सामग्री के दूध को निकाला है।
हे अग्ने ! तुम स्वभाव से ही यज्ञकर्त्ताओं के शरीर की रक्षा करने वाले हो। जठराग्नि रूप से शरीर के पालन करने वाले हो। अतः मेरे शरीर की सुरक्षा करो। हे अग्ने ! तुम आयु प्रदान करने वाले हो, अतः मेरी असमय मृत्यु को दूर कर पूर्ण आयु प्रदान करो। हे अग्नि ! तुम ब्रह्मवर्चस के देने वाले हो। अतः मुझे भी तेजस्वी करो। यदि मेरे शरीर में कोई न्यूनता (कमी) हो तो उसे पूरा करो।
हे अग्नि ! हम तुम्हारी कृपा दृष्टि से तेजस्वी, अन्न सम्पन्न और बलदायक हुए हैं। हम यजमान किसी के भी द्वारा हिंसित न हों। हम इसी प्रकार के गुणों से परिपूर्ण होकर तुम्हें सौ वर्ष तक बराबर प्रज्वलित करते रहें।
हे अग्नेि ! रात्रि के समय तुम सूर्य के तेज से सुसंगत हुई हो। तुम मुनियों के श्लोकों से उच्चारित हुई हो। तुम्हारी कृपा दृष्टि से मैं भी अकाल मृत्यु के दोष से बचकर पूर्ण आयु से ब्रह्मतेज से, पुत्र पौत्र तथा धन से सम्पन्न हो जाऊँ। हे गौओं ! तुम क्षीरादि (दुग्ध) को उत्पन्न करने से अन्न रूप हो। अतः मैं भी तुम्हारे दूध, घी आदि का प्रयोग करूँ। तुम पूजा करने योग्य हो, अतः मैं भी तुम्हारे जैसी महानता को प्राप्त करूँ। तुम बल रूप हो, तुम्हारे आशीर्वाद से मैं भी बलवान हो जाऊँ। तुम धन को बढ़ाने वाली हो। अतः मैं भी तुम्हारी कृपा से धन प्राप्त कर सकूँ। हे धनवती गौओं! इस यज्ञ स्थान में दूध निकालने के बाद गोष्ठ (गौशाला) में और यजमान के घर में सदा उत्तम भाव से विराजमान रहो। तुम इस गृह से अलग न होओ।
हे गौ ! तुम अद्भुत रूप वाली, दूध घी देने के लिए यज्ञ कर्मों से सुसंगत होती है। तुम अपने क्षीर आदि के द्वारा मुझमें प्रवेश हो जाओ। हे अग्नि ! तुम रात्रि में भी क्रमशः वास करने वाली हो। हम यजमान नित्यप्रति श्रद्धा से परिपूर्ण हृदय से तुम्हें नमस्कार करते हुए हवि प्रदान करते हैं और तुम्हारी ओर प्रस्थान करते हैं। अग्नि ज्योतिर्मान है। हम उन यज्ञों के सुरक्षक, सत्यनिष्ठ, प्रवृद्ध अग्नि के निकट सम्मिलित होते हैं।
हे अग्नि ! उपर्युक्त गुण वाले तुम हमें सुखपूर्वक ग्रहण करो। पुत्र ठीक जैसे पिता के सम्मुख सुख से पहुँच जाता है जैसे ही हमें तुम ग्रहण करते हुए हमारे मंगल के लिए यज्ञ कार्य में संलग्न रहो।
हे अग्नेि ! तुम निर्मल स्वभाव वाली हो। तुम वस्तुओं के लिए आह्वान रूप गमन करती हो। तुम धन देने के कारण यशस्वी हो। तुम हमारे पास रहने वाले रक्षक, पुत्र आदि की हितैषी हो। तुम हमारे यज्ञ अनुष्ठान में जाओ और हमें अत्यन्त तेजस्वी धन प्रदान करो। हे अग्नि ! तुम अत्यन्त प्रकाश वाली, सबको प्रकाश देने वाली, गुणी मित्रों के धन और कल्याणकारी रूप हो। हम तुमसे अपने मित्रों का उपकार करने की प्रार्थना करते हैं। तुम हम सभी उपासकों को जानो और हमारी प्रार्थना को सुनो। सभी पापों और शत्रुओं से हमारी रक्षा करो। हे गौ ! तुम पृथ्वी के समान पालन करने वाली हो। तुम यहाँ पर आने की कृपा करो। तुम अदिति माता के समान देवताओं को घी आदि के द्वारा पालन करने वाली हो। तुम इस यज्ञ स्थान में पधारो। हे गौओं ! तुम सबको मनवांछित फल प्रदान करने वाली हो, इसलिए इस यज्ञ स्थान में पधारो। आपने हमारे लिए जो फल धारण किया है वह फल मुझ अनुष्ठान करने वाले को भी प्राप्त हो। हे बृह्मणस्पते ! मुझे सोमभिषव करने वाले शब्द से सम्पन्न करो। जैसे उशिज पुत्र कक्षीवान को तुमने सोमयाग से स्तुति रूप वाणि से सम्पन्न किया था, उसी प्रकार मुझे भी सम्पन्न करो।
जो ब्रह्मणस्पति ! सर्व धनों के मालिक हैं जो संसार के सभी भय रोगादि के नाशक हैं और जो सभी धन आदि के ज्ञानी और पुष्टि की वृद्धि करने वाले हैं, जो क्षण मात्र में सभी कुछ करने में सक्षम हैं, वे ब्रह्मणस्पति हम सभी को उपर्युक्त सभी कल्याणों से परिपूर्ण करें।
हे ब्रह्मणस्पते! जो यज्ञ विमुख मनुष्यों, देवताओं या पितरों के लिए कभी कोई कर्म नहीं करते, ऐसे मनुष्य के हिंसामय विरोध हमें कष्टमय न करें, तुम हमारी सभी. तरह से सुरक्षा करो।
मित्र, अर्यमा और वरुण ये तीनों देव अपने से सम्बन्धित कांतिमय स्वर्ण आदि धनों से परिपूर्ण महिमा के द्वारा हमारी सुरक्षा करें। उनकी महिमा को तिरस्कृत करने की शक्ति किसी में नहीं है। हम तीनों द्वारा रक्षित देवों की आराधना करते हैं। उन ईश्वर देव को घर, मार्ग, घोर वन और संग्राम भूमि में भी कोई रोक नहीं सकता। यजमान का कोई भी शत्रु उसे हिंसित करने में सक्षम नहीं होता।
मित्र अर्यमा और वरुण देव माता अदिति के पुत्र हैं। वे इस मृत्युलोक में यजमान को अपना अखंड तेज और लम्बी आयु प्रदान करते हैं। हे इन्द्र ! तुम हिंसक नहीं हो। हविदाता (आहुति) देने वाले यजमान की हवि ! (आहुति) को शीघ्र ग्रहण करते हो। हे मधवन ! तुम बहुत ही तेजस्वी हो। यजमान तुम्हारे दान को शीघ्र प्राप्त करता


 
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
skbhardwaj1951@gmail.com

Tuesday, October 28, 2025

#सामवेद (1.11) #Sam Ved

सामवेद  (1.11)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
PtSantoshBhardwaj

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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
सामवेद सूक्त (1) :: ऋषि :- भारद्वाज, मेधातिथि, उशना, सुदीति पुरुमीढ़ा-वाङ्गिरसौः, वामदेव; देवता :- अग्नि; छन्द :- गायत्री।
हे अग्नि देक्ता हमारी वंदना से हवि प्राप्त करने हेतु आकर देवताओं को हवि पहुँचाने हेतु, उनके आह्वान हेतु विराजमान हों। हे अग्ने ! आप सभी यज्ञों को पूर्ण करने वाले हो। आप देवताओं का आह्वान करने वाले ऋषियों द्वारा वंदना सहित प्रतिष्ठित किए जाते हो। हम देवताओं के आह्वानकर्त्ता, सर्वज्ञाता, धनपति, वर्तमान यज्ञ को सम्पन्न करने वाले अग्नि देव की प्रार्थना करते हैं। धन एवं दान के इच्छुक उपासकों को उनके द्वारा प्रकाशित अग्नि प्रार्थना से प्रसन्न हों और दुष्टों व अंधकार रूपी अज्ञान का नाश करें। हे अग्ने ! साधकों को धनदाता होने के कारण मित्र समान हर्षिता को प्रदान करने वाले पूजनीय मेरी प्रार्थना से प्रसन्न होइए। हे अग्ने ! आप हमें धन सम्पत्ति और ऐश्वर्य देते हुए हमारे शत्रुओं से हमारी रक्षा करो। हे अग्ने ! मेरे द्वारा भली प्रकार से उच्चारित प्रार्थनाओं को आकर सुनो और सोम रस से वृद्धि करो। हे अग्ने! मैं तुम्हें अपने कल्याण हेतु पृथ्वी पर आकर्षित करता हूँ। हे अग्ने! अथर्वा ने मूर्धा के समान सम्पूर्ण संसार के धारणकर्त्ता, आपको अंणियों से मथकर प्रकट किया है। हे अग्ने ! आप हमारी रक्षा के हेतु सूर्य आदि लोकों को सम्पन्न करो क्योंकि आप अत्यन्त प्रकाशमान दिखाई देते हो।[सामवेद 1.1-1] 
सामवेद सूक्त (2) :: ऋषिः :- आयुङ्ख्वाहिः, वादेमर्वोगौतमः प्रयोगो भार्गवः, मधुच्छन्दाः शनुःशेषः, मेधातिथि, वत्स; देवता :- अग्नि; छन्द :- गायत्री।
हे अग्नि देव ! शक्ति की इच्छा करने वाले मनुष्य आपको प्रणाम करते हैं। इसलिए मैं भी आपको प्रणाम करता हूँ। आप अपनी शक्ति द्वारा हमारे शत्रुओं का विनाश करो। हे अग्नि देव ! आप यज्ञ के साधन रूप हवियों को ले जाने वाले और देवताओं के दूत रूप समान हो। मैं आपको वाणी रूप वंदना के द्वारा प्रसन्न और प्रवृद्ध करता हूँ। हे अग्नि देव ! भगनियों के समान साधक की प्रार्थनाएँ तुम्हारी सेवा में जाती हैं और आपको वायु के सहयोग से और अधिक प्रज्जवलित करती हैं। हे अग्नि देव ! हम आपके आराधक दिन रात नित्य ही अपनी महान बुद्धि के साथ आपकी सेवा में उपस्थित होते हैं। हे अग्नि देवता! आप प्रार्थना द्वारा प्रचण्ड होते हो। अत- सभी साधकों पर उपकार व यज्ञ को पूर्ण करने के लिए इस हमारे यज्ञ मंडप में प्रवेश करो। यह साधक आपके रुद्र के दर्शन करने के लिए आपकी वंदना कर रहा है। हे अग्नि देवता ! इस महान यज्ञ की ओर दृष्टि डालकर सोम को पीने के लिए आप बार-बार पुकारे जाते हो। अतः देवों के इस यज्ञ में प्रस्थान करो। हे अग्नि देवता! आप यज्ञों के अधिपति के रूप में प्रसिद्ध एवं पूँछ वाले अश्व के समान हो। हम वंदनाओं द्वारा आपको नमस्कार करने हेतु आतुर हैं। भृगु के समान ज्ञानी, कर्म करने वाले तथा बड़वानल रूप से समुद्र में वर्तमान महान अग्नि देवता को मैं नमन करता हूँ। अग्नि को प्रज्जवलित करने वाले मनुष्य अपनी हार्दिक भावनाओं सहित ऋषियों के सहयोग से अग्नि देवता को उत्पन्न करें। यह अग्नि जब स्वर्ग के ऊपर सूर्य रूप से प्रकाशित होती है, तब सब प्राणधारी उन लगातार घूमने वाले और शरणरूपी सूर्य के तेज का दर्शन करते हैं।[सामवेद 1.1-2]
सामवेद सूक्त (3) :: ऋषि :- प्रयोगो, भारद्वाज, वामदेव, वशिष्ठ, विरूप, शनुशेष, गोपवन, प्रस्कण्व, मेधातिथि, सिन्धुद्वीप आम्बरीष, त्रितआत्योवा, उशना; देवता :- अग्नि; छन्द :- गायत्री।
हे ऋत्विजो! तुम हिंसा न करने वाले और यज्ञ करने वालों के भाई बलशाली तथा ज्वालाओं से युक्त अग्नि देवता की सेवा में जाओ। हे अग्ने! अपनी तीक्ष्ण लपटों से सब असुरों और बाधाओं को दूर करो। यह अग्नि हम अर्चना करने वालों को सब तरह का ऐश्वर्य प्रदान करे। हे अग्नि देव ! तुम बहुत अधिक गतिमान और महान हो। हमें सुख प्रदान करो। आप देवताओं के दर्शनार्थ पूजकों के पास घास रूपी आसन पर विराजने के लिए आते हो। हे अग्नि देवता! पाप से हमारी रक्षा करो। हे अद्भुत तेज वाले अग्नि देव! आप अजर अमर हो। हमारी हिंसा करने की अभिलाषा करने वाले शत्रुओं को अपने संतापक तेज से नष्ट कर दो।
हे अग्नि देवता! तुम्हारे अति तीव्र गति वाले अश्व आपके रथ को भली-भाँति ले जाते हैं। उन अश्वों को अपने पूजक के यहाँ आने के लिए रथ में जोड़ो। हे अग्नि देवता ! आप धन के स्वामी, असंख्य यजमानों द्वारा आहूत हुए एवं आराधना के स्वामी हो। आप तेजस्वी की वंदना करने पर समस्त प्रकार के सुख देते हो। हमने आपको यहाँ विद्यमान किया है। स्वर्ग के सभी महान देवताओं में बड़े और पृथ्वी के राजा अग्नि जल के जीवों का जीवन प्रदान करते हैं। हे अग्नि देव ! हमारे इस हवि रत्न और नवीन वंदनाओं को देवताओं के सम्मुख विनतीगत करो। हे अग्नि देव! आपको वंदना रूप से आह्वान करते हैं। आप शोधन और समस्त स्थानों में जाने में समर्थ हो, हमारे इस आह्वान की तरफ ध्यान दो। क्रांतदर्शी, अन्नों के मालिक और हविदाता यजमान को रत्न आदि धन प्रदान करने वाले अग्निदेव हवियों को विद्यमान करते हैं। समस्त प्राणियों के दर्शनों के लिए सूर्य की किरणें प्रसिद्ध तथा तेजस्वी सूर्य की अग्नि को उन्नतशील करते हो। हे वंदनाकारियों! हमारे इस यज्ञ में क्रांतदर्शी, सत्य धर्म वाले, तेजस्वी और शत्रुओं का पतन करने वाले अग्नि देव की सेवा में प्रार्थना करो। हमारा कल्याण हो, देवीय जल हमारे यज्ञ के पूर्ण होने के लिए अंग बने और यह जल हमारे पीने के योग्य बने। जल हमारे सभी तरह के रोगों का नाश करने में समर्थ बने तथा जो रोग अभी तक उत्पन्न नहीं हुए हैं उन्हें भविष्य में भी उत्पन्न न होने दें। यह जल हमारे ऊपर अमृत बनकर बहे। हे सत्यरक्षक अग्नि देव ! आप इस समय किसके कार्य को वहन कर रहे हो? किस कर्म से आपकी वंदनाएँ गौओं को ग्रहण कर रही होंगी?[सामवेद 1.1-3]
सामवेद सूक्त (4) :: ऋषि :- शयुर्वाहस्पत्य, भर्ग, वशिष्ठ, प्रस्कण्व, काण्व; देवता :- अग्नि; छन्द :- बृहती।
हे श्रोतागणों! तुम सब भी अग्नि देव के लिए प्रार्थना करो। उन अविनाशी मित्र, सभी के चिरपरिचित और प्रिय अग्नि देव की हम भली प्रकार प्रार्थाना एवं वंदना स्तुति करते हैं। हे अग्नि देव ! आप अपनी एक वंदना और दूसरी वंदना से हमारी रक्षा करो। हे तरुणतम अग्नि देव ! आप उच्च गुण से सम्पन्न और शुद्ध करने वाले हो। अपने उज्जवल तेज से भारद्वाज के लिए प्रकाशित होने वाले तेजस्वी और ऐश्वर्यवान बनकर हमारे लिए भी प्रकाशित होओ। हे अग्नेि देव! आप यजमानों द्वारा आहुत हुए धन से युक्त और दानशील बनकर हमारे लिए गौएँ प्रदान करते हो। आप वंदना करने वालों से स्नेह करने वाले बनो। हे अग्नेि देव ! आप समस्त प्राणियों के स्वामी, पूजनीय और असुरों का विनाश करने वाले हो। हे गृहस्वामी अग्नि देव! आप पूजनीय यजमान के यहाँ सदैव वास करने वाले और स्वर्ग के रक्षक हो। इस यजमान के यहाँ भी हमेशा स्थिर रहो। हे अग्नेि देव! आप सब जीवों को जानने वाले और अमरणशील (अजर अमर) हो, इस हविदाता यजमान के लिए उषादेव द्वारा प्राचीन शरणयुक्त दित्यघनों को लेकर उपस्थित होओ और उषाकाल में जाने वाले देवताओं को भी यहाँ पर बुलवाओ। हे अग्नि देव ! आप दर्शनीय एवं विशाल हो। हमारे लिए अपने रक्षा के साधनों को धन सहित प्रेरणा दो क्योंकि आप इस लोक को धन की प्रेरणा देते हो। हमारे पुत्र को भी अतिशीघ्र सम्मान दिलाओ।
हे अग्नि देव! आप कष्टों को समाप्त करने वाले, क्रान्तादर्शी, सत्य स्वरूप श्रेष्ठ हो। आप समिधाओं द्वारा प्रज्जवलित होने वाले प्रतापी अग्निदेव की हम प्रार्थनाकारी आराधना करते हैं। हे पवित्र अग्निदेव ! अन्न की वृद्धि करने वाले प्रशंसित धन के साथ हमारे लिए पधारो। हे घृत के निकट उपस्थित रहने वाले अग्नि देव ! अपनी उच्च नीति के द्वारा हमारे लिए भी प्रसिद्धि रूपी धन को प्रदान करो। जो अग्निदेव आनन्दप्रदायक और होता रूप से यजमानों को सभी तरह का धन प्रदान करने वाले हैं उन अग्नि के लिए प्रसन्नतादायक सोम के मुख्य पात्र के समान श्लोक हमें ग्रहण हो।[सामवेद 1.1-4]
सामवेद सूक्त (5) :: ऋषि :- वशिष्ठ, भर्ग, मनु सुदिति पुरुर्मा दौ, प्रस्कण्व मेघातिथि-मेध्यातिथिश्च, विश्वामित्र, कण्व; देवता :- अग्नि, इन्द्र; छन्द :- बृहती।
शक्ति के पुत्र, हमारे प्रिय, उच्च ज्ञान वाले स्वामी समस्त देवों के दूत के रूप में सम्मानित एवं अविनाशी अग्नि देव को मैं प्रणाम करते हुए आहुति प्रदान करता हूँ। हे अग्निदेव ! आप वनों में पृथ्वीभूता अरणियों से युक्त हो। यज्ञ करने वाले आपको समिधाओं से प्रज्ज्वलित करते हैं, तब आप निरालस्य और प्रबुद्ध होकर यजमान की हवि को देवों के नजदीक वहन करते हो। फिर आप देवताओं के मध्य विराजमान होकर सुशोभित होते हो। जिस अग्नि के द्वारा यजमानों ने कर्म किए हैं उन मार्गों को जानने वाले अग्नि देव को देखने योग्य रूप में प्रकट हुए, उन उच्च वर्ण वाले अग्नि के लिए हमारी वंदना रूप वाणियाँ प्रस्तुत हों। उक्थ परिपूर्ण अहिंसित यज्ञ में यह अग्नि ऋत्विजों द्वारा वेदी में विद्यमान हुए जैसे सोभाभिषेक फलक कुशा पर आगे रखे जाते हैं। हे मरुद्गण ! हे ब्रह्मणस्पते ! ऋचा रूप वंदनाओं के द्वारा आपकी सेवा में उपस्थित हुआ मैं आपकी वरणीय सुरक्षा को माँगता हूँ। हे स्तोता! इन विशाल ज्वालाओं वाले अग्नि देव की रक्षा और धन की इच्छा से वंदना के द्वारा खुश करो। इनकी कीर्ति को जानकर अन्य मनुष्य भी इनकी प्रार्थना करते हैं, वे अग्नि मुझ यजमान को घर प्रदान करें। हे समर्थवान कानों वाले अग्निदेव ! हमारी प्रार्थना सुनो। मित्र और अर्चना देवता प्रातःकाल यज्ञ में प्रस्थान करने वाले देवताओं से युक्त तथा अग्नि की तरह रूप गति वाले वहिन देवता से युक्त इस यज्ञ में कुशाओं पर विराजमान हों। देवताओं के उपासकों द्वारा आहुत की गई इन्द्रात्मक अग्नि सब लोकों की आश्रय रूप पृथ्वी को देवताओं के लिए आहुति ले जाने वाले सहायता करते हैं। यजमान इन्हें बलपूर्वक पुकारते हैं। इस कारण यह अपने स्थान नक्षत्रों से जगमगाते हुए यहाँ आकर मेरे शरीर और वाणी में प्रवेश कर प्रचंड हों। उच्च कर्मवाले इन्द्र आप हमारे मनुष्यों को फलों से परिपूर्ण करो। हे अग्नि देव! वनों की जिज्ञासा करके भी उन्हें छोड़कर आप मातृरूप जलों को ग्रहण हुए हों। इसलिए आपका निवर्तन भी असहाय हो जाता है। आप अप्रकट होने पर इन अरणियों के द्वारा सब दिशाओं से प्रकट होते हो। हे अग्नि देव! आप ज्योति का स्वरूप हो। यजमानों के लिए आपको प्रजापति ने योग स्थान में स्थापित किया था। यज्ञ के लिए प्रकट और आहुतियों से तृप्त आप कण्व ऋषि के लिए प्रज्ज्वलित हुए थे। इसी तरह सब प्राणी आपको नमस्कार करते हैं।[सामवेद 1.1-5]
सामवेद सूक्त (6) :: ऋषि :- वशिष्ठ, कण्व, सौभरि, उत्कील, विश्वामित्र; देवता :- अग्नि, ब्रह्मणस्पति यूप;  छन्द :- बृहती।
धन-सम्पत्ति प्रदान करने वाले अन्न देव आहुति से सम्पन्न और सब ओर से पोषित तुम्हारी स्त्रुक की भी इच्छा करें और होता के चमस को सोम से सम्पन्न करें। फिर वे अग्निदेव तुम्हारी आहुतियों का हवन करें। ब्रह्मणस्पति देवता प्राप्त हों। सत्य और प्रिय वाणी ग्रहण हो। समस्त देव हमारे शत्रुओं को समाप्त करें। मनुष्यों की भलाई करने वाले यज्ञ का सामिप्य हमें प्राप्त हो। हे अग्नि देव ! उन्नत होकर हमारी रक्षा के लिए सुप्रतिष्ठित होओ। सविता के समान उन्नत होकर हमारे लिए अन्नदाता बनो। हम ऋषियों के साथ आपको आहुति देते हैं। हे महान वास रूप अग्नि देव ! धन की इच्छा करने वाला जो आराधक आपको प्रसन्न करता है, जो व्यक्ति आपके लिए हवि देने की कामना करता है, वह उक्त आचरण करने वाला हजारों का पोषण करने वाले पुत्र को प्राप्त करता है। देवताओं का आश्रय प्राप्त अनेक प्राणियों पर कृपा हेतु सूक्त रूप वंदनाओं से महान अग्निदेव की उपासना करते हैं। उस अग्नि को अन्य ऋषियों ने भी भली प्रकार प्रकाशित किया है। यह यजनीय अग्नि सुन्दर सामर्थ्य से परिपूर्ण सौभाग्य के स्वामी हैं। गौ आदि पशु, संतान तथा धन आदि के स्वामी हैं। यह वृत्र रूप शत्रुनाशकों के भी स्वामी हैं। हे अग्निदेव ! आप हमारे इस यज्ञ में गृहस्वामी और होता रूप हो। आप ही होता संज्ञक ऋषि हो अतः उच्च आहुति का यजन करो और हमारी इच्छाओं को पूर्ण करो। हे अग्निदेव ! आप हमारे मित्र हो। महान कर्म करने वाले हम मनुष्यों को आसानी से ग्रहण होने वाले हो। हम अपनी रक्षा हेतु अहिंसनशील आपको सादर वरण करते हैं।[सामवेद 1.1-6]
सामवेद सूक्त (6) :: ऋषि :- श्यावाश्ववामदेवो, उपस्तुतो बार्हिष्टव्य, बृहदुक्थ कुत्स भारद्वाज, वामदेव, वशिष्ठ, त्रिशिरास्त्वाष्ट्र; देवता :- अग्नि; छन्द :- त्रिष्टुप, जगती, गायत्री।
हे ऋत्विजो ! अग्नि देवता को आहुति प्रदान करो। उन्हें आहुति से प्रसन्न करो। पृथ्वी को उत्तर वेदी में गृहस्वामी और होता रूप इस अग्नि की स्थापना करो। जिस अग्नि को हमने नमस्कार किया है उसे यज्ञ मण्डप में स्थापित करो। शिशु रूप एवं तरुण अग्नि का हवि वहन कार्य महान है। जो अग्नि भूभूता धावा धरा के स्तनपान को ग्रहण नहीं होता, उस अग्नि को यह संसार प्रकट करें। उत्पन्न होने पर यह श्रेष्ठतम दौत्य कर्म वाले अग्नि वहन करते हैं। हे मृत पुरुष ! यह अग्नि तुम्हारा एक अंग है। तुम उस अंग के सहित बाह्य अग्नि में सम्मिलित हो और वायु तेरा अंग है। उसके साथ बाह्य वायु में मिल आदित्य (सूर्य) रूप तेज से अपनी आत्मा को मिला। शरीर की प्राप्ति के लिए मंगल रूप होकर देवताओं के पिता सूर्य में प्रवेश कर। उत्पन्न जीवों के ज्ञाता और पूजनीय अग्नि के निर्मित इस स्तोत्र को सुसंस्कृत करते हैं। हमारी महान बुद्धि इस अग्नि की सेवा करने वाली हो। हे अग्निदेव ! हम तुम्हारे मित्र बनकर किसी के द्वारा संतृप्त न हो। स्वर्ग के मूर्द्धा रूप, पृथ्वी के राजा, कान्तदर्शी, कर्म के साधन रूप, सृष्टि के आरम्भ काल में उत्पन्न निरन्तर गतिमान देवताओं के मुख रूप वैश्वानर अग्नि को ऋषियों ने हमारे यज्ञ में अरणियों द्वारा प्रकट किया। हे अग्निदेव ! स्तोत्रों उक्थों के द्वारा अपनी अभिलाषाओं को तुम्हारे सामने प्रकट करते हैं। तुम वंदनाओं के संग वर्तमान रहने वाले को जैसे घोड़े युद्ध को अपने वशीभूत कर लेते हैं। वैसे ही वंदनाएँ अपने वशीभूत कर लेती हैं। ऋत्विजों ! यज्ञ के स्वामी होता रुद्र रूप पार्थिव अन्नों के देने वाले, हिरण रूप वाले इन अग्नि की मृत्यु से पहले ही आहुति द्वारा उपासना करो। तेजस्वी अग्नि नमस्कार युक्त ज्योतिर्मय होता है। जिन अग्नि का रूप घृत आहुति परिपूर्ण होता है और मनुष्य जिसकी वन्दना रुकावटों के उपस्थित होने पर करते हैं, वह अग्नि उषाकाल में सबसे पहले प्रज्ञ्जवलित होती है। अत्यन्त ज्ञान वाले अग्नि द्यावा को पृथ्वी को प्राप्त होकर देवताओं के आह्वान के समय वृषभ के समान ध्वनि करते हैं। अंतरिक्ष के पास प्रकाशवान सूर्य रूप होकर फैलते हैं और जलों के मध्य विद्युत रूप से प्रबुद्ध होते हैं। अत्यन्त यशस्वी, दूरस्थ दर्शनीय, घर रक्षक एवं हाथों से रचित किए अग्नि को ऋत्विग्गण उँगलियों से प्रकट करते हैं।[सामवेद 1.1-7]
सामवेद सूक्त (8) :: ऋषि :- बुधगविष्ठि, वत्सप्रिर्भालन्दन, भरद्वाज, विश्वामित्र, वशिष्ठ;  देवता :- वायु, अग्नि, पूषा। छन्द :- त्रिष्टुप।
यह अग्नि समिधाओं से प्रकाशित होकर जैसे गाय के लिए प्रातःकाल उठते हैं उसी प्रकार प्रातःकाल में सावधानी के साथ गाते हुए उनकी ज्वालाएँ, शाखाओं वाले वृक्ष के समान अपने स्थान को छोड़ते हुए आसमान तक अच्छी तरह से फैल जाती हैं। हे स्तोता ! यह श्रेष्ठतम अग्नि असुरों पर विजय पाने वाले मेधावियों को धारण करने वाले पुरों के रक्षक हैं। इस अग्नि की वंदना करने की सामर्थ्य ग्रहण करो। वे अग्नि वंदनाओं से आराधना योग्य, कवच के समान रूप लपटों वाले, हरी मूँछ वाले और हर्षित स्तोत्र वाले हैं, उनकी प्रार्थना करो। हे पृषन ! एक तुम्हारा उजला रंग दिन के रूप में और दूसरा श्याम रंग रात्रि के रूप में हैं, इस प्रकार तुम विभिन्न रूप वाले हो और सूर्य की तरह प्रकाश वाले हो। तुम अन्नवान होकर समस्त प्राणियों का भरण पोषण करते हो, आपका दिया दान हमारा कल्याण करें। हे अग्निदेव ! असंख्य कामधेनु को प्रदान करने वाली इड़ा देव का निरन्तर यजन करने वाले मुझ यजमान का कार्य सम्पन्न करो। आपकी महान बुद्धि हमारी ओर हो और हम पुत्र-पौत्रादि से सम्पन्न हों। विद्युत रूप से अन्तरिक्ष में वर्तमान अग्नि ही इस यज्ञ में है। वे महान अंतरिक्ष के ज्ञाता आहुति को धारण करने वाले तुम अपने पूजक के लिए अन्न धन प्रेरित करो और शरीर के रक्षक हों। मनुष्य के अर्चनीय और इन्द्रात्मक शक्तिशाली अग्नि के महान और सुशोभित रूप की वंदना करो और उनके उत्कृष्ठ कार्यों का वर्णन करो। सब प्राणियों के जानकार अग्नि गर्भ के रूप समान अरणियों द्वारा ग्रहण किए गए हैं। वे आहुतियुक्त अग्नि अनुष्ठान आदि में जाग्रत होकर नित्य स्तुत होते हैं। हे अग्निदेव ! आप हमेशा से असुरों की रुकावट रहे और असुर तुम्हें युद्धों में परास्त नहीं कर सके। तुम ऐसे मायवी असुरों को अपने तेज से नष्ट करो। यह तुम्हारी ज्वालाओं से बच न सकें।[सामवेद 1.1-8]
सामवेद सूक्त (9) :: ऋषि :- गय; आत्रेय, वामदेव, भारद्वाज, मृक्तवाहा, द्वित, बसूयव, गोपवन, पुरुरात्रेय, वामदेव, कश्यपो वा मारीचो मनुर्वा वैवस्वत उभौवा; देवता :- अग्नि, छन्द :- अनुष्टुप।
हे अग्नि देव! आप हमें ओजयुक्त धन प्रदान करें। आपकी गति कभी नहीं रुकती। आप हमें उपासना रूपी धन से सम्पन्न करो। अन्न के रास्ते को प्रगाढ़ करो। पुत्रों के जन्म के समय व्यक्ति अग्नि को प्रज्वलित करें और हवियों द्वारा यजन करें। तब वह अद्भुत कल्याणकारी मार्ग को भोगने में समर्थवान होगा।
उज्जवल प्रकाश अंतरिक्ष में फैलता है और तेज रूप हो जाता है। हे पावक! सूर्य की समान वाली उपासना से प्रसन्न हुए तुम अपनी ज्योति से सुशोभित होते हो। हे अग्निदेव ! आप मित्र देवों के समान शुष्क काष्ठ युक्त अन्न को ग्रहण करते हो और सबके द्रष्टा होते हुए यजमान के घर में अन्न की वृद्धि करते हो। धन के धारणकर्त्ता, अनेकों मनुष्यों के प्रिय, अतिथि की तरह अग्नि की प्रातःकाल स्तुति की जाती है। उस अमर अग्नि में ही सब व्याक्ति आहुति डालते हैं। हे दीप्ति रूप अग्नि देव! आपके निमित्त महान श्लोक उच्चारित किया जाता है। आप ही अपरिमित अन्न प्रदान करो। असंख्य आराधक आपसे श्रेष्ठतम धनों को ग्रहण करते हैं। हे यजमानों! अग्नि की इच्छा करते हुए तुम सभी के प्रिय अग्नि देव की सेवा करो। मैं भी तुम्हारे लिए लाभदायी अग्नि की सुख प्राप्ति के लिए मंत्र रूप वाणी से वंदना करता हूँ। यज्ञ में ज्योतिर्मय हुए अग्नि हेतु हविरत्न दिया जाता है। इसलिए हे यजमानों! मनुष्यगण जिस अग्नि की मित्र के रूप समान वंदना करते हैं, उस अग्नि के लिए तुम भी हवि रत्न प्रदान करो। दुःखनाशक, मनुष्य हितैषी अग्नि को हम प्राप्त हुए वे अग्नि ऋक्ष के पुत्र श्रुतर्वन के लिए ज्वालाओं के रूप में प्रकट हुए। वे अग्नि ऋक्ष के पुत्र श्रुतर्वन हेतु लपटों के रूप में प्रकट हुए। हे अग्नि देव! आप महान कर्मों द्वारा रचित हुए हो। तुम ऋत्विजों के संग भू में निवास करते हो, तुम्हारे पिता कश्यप, माता श्रद्धा और स्तोता मनु हुए।[सामवेद 1.1-9]
सामवेद सूक्त (10) :: ऋषि :- अग्निस्तापस, वाम देव, काश्यपोऽसितो देवलोवा, सोमाहुतिर्भार्गवः, पायु, प्रस्कण्व; देवता :- विश्वे देव, अंगिरा, अग्नि; छन्द :- अनुष्टुप।
हम राजा सोम को वरुण, अग्नि, विष्णु, सूर्य, ब्रह्मा और बृहस्पति की रक्षा हेतु आह्वान करते हैं। जिस रास्ते से यह हवि सम्पन्न आंगिरस स्वर्गलोक को गए तथा जिस प्रकार मनुष्यगण मार्गों पर चलते हैं वैसे ही यह अग्निदेव ऊपर जाते हुए स्वर्ग की पीठ पर चढ़ गए। हे अग्निदेव! आपको महान धर्मों के निमित्त प्रज्वलित करते हैं। आप सेंचन समर्थ हो। इसलिए होम के निमित्त द्यावा पृथ्वी की स्तुति करो। इस यज्ञ में वंदनाकारी स्तोत्र का उच्चारण करते हैं और यह अग्नि उन ऋत्विजों के सब कार्यों को जानते हुए चक्र के समान सभी को अपने आधीन रखते हैं। हे अग्निदेव ! अपने तेज से असुरों के सब तरफ फैले हुए बल को समाप्त करो और उनके पराक्रम को सब तरफ से नष्ट कर डालो। हे अग्निदेव! इस कार्य में आप वसुओं, रुद्रों, आदित्यों और महान यज्ञ वाले प्रजापित द्वारा रचित जल सेंचन समर्थ देवता की आराधना करो।[सामवेद 1.1-10]
सामवेद सूक्त (11) :: ऋषि :- वामदेव, देवता :- सविता; छन्द :- जगति।
हे इन्द्र देव और श्री हरी विष्णु! मैं यह स्तोत्र और हवन आपके लिए प्रेरित करता हूँ। इसके बाद आप यज्ञ का सेवन करो। आप हमें उचित मार्ग से ले जाते हो। इसलिए हमें धन प्रदान करो। हे इन्द्रदेव और विष्णु जी ! आप वंदनाओं के कारण रूप समान हो। आपको वंदनाएँ स्वीकार हों। हे इन्द्र देव और श्री हरी विष्णु! आप सोमों के गुरु हो। तुम धन का दान करते हुए सोमों के सामने आज स्तोत्र, उक्थों के साथ तुम्हें बढ़ाएँ। हे इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु! हिंसकों को पराजित करने वाले अश्व तुम्हें वहन करें। तुम वंदनाओं का सेवन करते हुए मेरी विनती पर ध्यान दो। हे इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु! सोम के पैदा होने पर आप प्रदक्षिणा करते हो। आपने आसमान का निर्माण किया है। हमारे जीवन के लिए लोकों का निर्माण किया है। हे इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु! आप सोम से प्रवृद्ध होते हो। यजमान आपको नमस्कार सहित हव्य प्रदान करते हैं। इसलिए आप हमें धन प्रदान करो। आप कलश के और समुद्र के रूप समान पूर्ण हो। हे इन्द्रदेव और श्री हरी विष्णु! आप सोम पान करके अपना पेट भरो। आपके पास खुशी प्रदान करने वाला सोम है। गमन करो। आप मेरी प्रार्थनाओं को सुनो। हे इन्द्र देव और श्री हरी विष्णु! आप दोनों अजेय हो, आपमें से कभी कोई हारा नहीं है। आपने जिस पदार्थ हेतु असुरों से युक्त किया, वह अपमानित होते हुए भी तुम्हें ग्रहण हो गया।[सामवेद 1.1-11]



 
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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