Thursday, July 14, 2016

SHRIMAD BHAGWAD GEETA (15) श्रीमद्भगवद्गीता :: पुरुषोत्तम योग

पुरुषोत्तम योग
 SHRIMAD BHAGWAD GEETA (15) श्रीमद् भगवद्गीता
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com  bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com 
santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com palmistryencylopedia.blogspot.com
santoshvedshakti.blogspot.com
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
श्रीभगवानुवाच ::
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।  छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥15.1॥ 
ऊपर की ओर मूल वाले तथा नीचे की ओर शाखा वाले, जिस संसार रुप अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष को प्रवाह रुप से अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसार वृक्ष को जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदों को जानने वाला है।
One who knows the universe (world, cosmos) as an imperishable tree (Ashvtth-tree or fig-Peepal tree) with its roots in the upper direction and branches in the downward direction, the Veds-scriptures constituting its leaves, knows the Veds completely, in To-To.
Image result for images god krishna 7 arjunजड़ का कार्य पोषण ग्रहण करना है। संसार रुपी अश्वत्थ वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर होने का तात्पर्य यह है कि यह पोषण ऊपर से अर्थात परमात्मा से ग्रहण करता है। इसकी शाखाएँ नीचे की तरफ हैं अर्थात यह ब्रह्मा जी इसकी प्रधान शाखा हैं। ब्रह्मलोक भगवद्धाम से नीचे है। संसाररुपी वृक्ष की उत्पत्ति परमात्मा से ही हुई है। शाखाएँ नीचे की ओर उन अनेकानेक योनियों को बताती हैं, जिनमें प्राणी अपने कर्मों के अनुरुप गति करता है। अश्वत्थ वृक्ष से तात्पर्य नष्ट प्रायः क्षण भंगुर संसार से है। अश्वत्थ वृक्ष पीपल भी है, जिसे परमात्मा का रुप और परम् पवित्र माना जाता है। इस संसार रुपी अश्वत्थ वृक्ष से सुख लेने की अपेक्षा, इसकी सेवा करनी चाहिये। संसार वृक्ष अव्यय-अविनाशी इस तरह है कि निरंतर परिवर्तन के बावजूद, इसका अस्तित्व बना रहता है। सृष्टि उत्पन्न होती है और नष्ट होती है और यह कर्म बना रहता है। जिस प्रकार समुद्र का जल वाष्प बनकर उड़ता है और फिर नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुँच जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी और सृष्टि का क्रम कायम रहता है। वेद इस संसार रुपी वृक्ष के पत्तों के समान है। सुख भोग चाहने वाले सकाम पुरुष वेदों के माध्यम से अनुष्ठान करते हैं। सुख भोग के बाद पुण्य कर्म समाप्त हो जाते हैं और चक्र बना रहता है। जगत, जीव और परमात्मा तीनों ही भगवान् वासुदेव का स्वरुप ही हैं, जिसको यहाँ संसार वृक्ष के रुप में कहा गया है। 
The Almighty described the universe as an imperishable tree which gets its nourishment from HIM. This tree is inverted with roots in upper direction and the branches in downward-lower direction. The abode of the God is Ultimate-uppermost and the abode of Brahma Ji is lower than it. Brahma Ji constitute the trunk of this imperishable tree. The branches illustrate the various species (84,00,000) which evolve throughout the universe in the 14 abodes. These species move from one form to another and gets an opportunity to assimilate in the Almighty by becoming a human being. The three characteristics make him move from upper to lowest abode and species (& vice versa). The Veds constitute the leaves of this Ashvtth tree and helps one in acquiring the upper abodes, with the certainty to come back, once the reward for the pious acts is over. The Almighty says that this world gets its nourishment from HIM and is imperishable and cyclic in nature, like the water evaporating from the ocean and returning to it in the form of rivers. Ashvtth tree stands for imperishable fig-Peepal tree. Peepal tree is considered to be a form of the God and the most revered tree over the earth. Bhagwan Vasudev-Krashn constitute the universe, the human being and the Almighty, termed as Ashvtth-inverted tree. 
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥15.2॥
उस संसार वृक्ष की गुणों (सत्त्व, रज और तम) के द्वारा बढ़ी हुई तथा विषय रुपी कोपलों वाली शाखाएँ नीचे, मध्य में और ऊपर सभी ओर फैली हुई है। लोक में कर्मों के अनुसार बाँधने वाले मूल भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त  हैं। 
The branches of that cosmos tree are elongated through the three characteristics (Satv, Raj and Tam) in the form of twigs-sprouts of desires, comforts, consumption and are spreading in down ward, middle and upward directions thoroughly. The binding deeds are stretched-spreaded in all abodes in downward and upward directions.
इस संसार रूपी वृक्ष का मुख्य तना ब्रह्मा जी हैं तथा इसका विस्तार ऊर्ध्व लोकों से पाताल तक है। इनमें रहने वाले प्राणी इसकी शाखाएँ हैं, जिनका विस्तार सत्त्व, रज और तम गुणों के कारण हो रहा है। इस वृक्ष की नई-नई कोंपलें इच्छाओं, कामनाओं, वासनाओं, मोह, भोग आदि कारण फूटती रहती हैं। अंतिम समय में जिस योनि का चिंतन मनुष्य करता है, उसी को प्राप्त हो जाता है। यदि मनुष्य चाहे तो दृढ़ता पूर्वक काम-वासनाओं को रोक सकता है। ऊर्ध्य लोक स्वर्गादि उच्च लोक हैं, मध्य में मनुष्य लोक-पृथ्वी है और नीचे पाताल और नरक आदि लोक हैं। मानव जाति के अलावा अन्य सभी योनियाँ भोग योनियाँ हैं। मनुष्य योनि बाँध भी सकती है और मोक्ष प्रदान भी कर सकती है।
Brahma Ji constitute the trunk of this cosmos tree which has its spread in all the abodes; the upper, earth and the lower ones. Tied with the deeds as a consequence of the interaction of three characteristics the organisms are the twigs-branches of this tree. The twigs grow into new branches due to the desires, consumption, attractions, allurements, passions, comforts etc. One will get the new incarnation as per his thoughts, at the time of death depending upon his mode of living and deeds. A human being is capable of restraining-controlling, over powering his desires with firm determination. He may swing between the upper and lower abodes (Nether world & hells) depending upon his auspicious and inauspicious, virtuous and wicked deeds. Its only the human species which is capable-meant for prayers, worship, meditation, equanimity, human welfare, charity, etc. Rest of the species including demigods & demons are just to go through the outcomes of their deeds as a human being. The opportunity one has got as a human being can be utilised to attain Salvation, i.e., reach the root of this inverted tree, which is the centre of the infinite universes and abode of Almighty.
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥15.3॥
इस संसार वृक्ष का जैसा रुप देखने में आता है, वैसा यहाँ विचार करने पर मिलता नहीं है, क्योंकि इसका न तो आदि है, न अन्त है और न स्थिति ही है। इसलिये इस दृढ़ मूलों वाले संसार रुप अश्वत्थ वृक्ष को दृढ़ असंगता रुप शस्त्र के द्वारा  काट देना चाहिये। 
What one thinks of the universe, does not find it so on thinking-reasoning. This Ashvtth tree (ties, bonds, relations with the universe) has no beginning, end or stability-permanent position. One has to cut this Ashvtth tree which has strong roots with firmness & determination.
सकाम अनुष्ठान करने से लोक (पृथ्वी पर) और परलोक में सुख-भोग प्राप्त होते हैं। ऐसा जानकर और मानकर अज्ञानी मनुष्य को मनुष्य लोक और स्वर्गलोक में रमणीयता, स्थायीपन और सुख नजर आते हैं। हकीकत में ऐसा है नहीं। यह संसार नाशवान और दुःखों का घर है। इस संसार रुपी अश्वत्थ वृक्ष का आदि और अन्त नहीं है और न ही यह स्थाई ही है। इसके साथ लगाव, तादात्म्य, ममता बंधनकारी है। विवेक और बुद्धि बताते हैं कि यह जितना लुभवाना दिखता है, वास्तव में उसके ठीक विपरीत ही है। ये बन्धन इतने दृढ़ हैं कि इनका मोह खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। पहले इस बात को जानना जरूरी है और फिर इन बन्धनों को दृढ़ निश्चय से काटना आवश्यक है। 
The scriptures describe the various abodes including earth as very attractive and very comfortable. To attain these higher abodes one perform various acts of charity, social welfare, pilgrimage, ascetic practices, prayers etc. etc. from where return is sure & certain. The heavens are portrayed with great pleasure, even more joyful. One do not think of tortures, the pains and sorrow in hells as a result of various sinful acts. One looks to joy only, not the adversities arising as a result of greed, fulfilment of desires. Desires are binding often leading to various complexities, tensions, difficulties, displeasure, pain and sorrow. These desires are deeply rooted in the psyche of an individual. Its not easy to overcome, overpower them. However, the prudent, intelligent can cut the bonds, desires by understanding their futility. Reasoning helps one limiting the needs, desires-wants and to perform the duties assigned to him by the scriptures (Varnashram Dharm). The God present in one (soul present in the organism is a component of the God) too helps him when he looks to HIM for help, shelter, asylum, protection. Strong-firm determination is essential to cut the bonds of attraction & allurement and that is possible through devotion to the Almighty.
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥15.4॥
उसके बाद उस परम् पद-परमात्मा की खोज करनी चाहिये, जिसको प्राप्त हुए मनुष्य फिर लौटकर नहीं आते और जिससे अनादिकाल से चली आ रही यह सृष्टि विस्तार को प्राप्त हुई है। उस आदि पुरुष परमात्मा के ही साधक रहें। 
One should make efforts-endeavours to trace that Ultimate Abode-the Almighty, the source of evolution since the beginning, spreaded all over and seek HIS shelter, having attained WHOM; one do not come back. 
जब तक संसार से सम्बन्ध बना रहेगा परमात्मा की प्राप्ति मुश्किल है। अतः संसार से सम्बन्ध विच्छेद परमावश्यक है। जीव परमात्मा का अंश है, अतः उसे परमात्मा की ही खोज करनी चाहिये ताकि वो उसी में लीन और एकाकार हो सके। जप-तप, पूजा-पाठ, स्वाध्याय भी जरूरी है, मगर दृढ़ निश्चय के साथ मनुष्य का ध्येय परमपिता परमेश्वर ही होना चाहिये। जिसका कोई आदि-अन्त नहीं है, जिसका अंश आत्मा मनुष्य में स्थित है, उसी की शरण में रहना चाहिये। सृष्टि का विस्तार अनादिकाल से है और परमात्मा को प्राप्त मनुष्य, फिर लौटकर नहीं आते अर्थात उनका पुनर्जन्म नहीं होता। 
Its very difficult to attain the God until-unless one seek his shelter and detaches with the world. The organism is a component of the God as the soul residing in the body is HIS component. Prayers, worship, ascetic practices etc. are essential, since they keep one busy in tracing the God. Purity at heart, devotion, firmness in goal-the Ultimate; help one gradually move towards the Almighty. The Ashvtth tree with its roots in the abode of the Almighty can guide one through the elimination of the branches (surpassing them-the bonds, ties, affiliations), reaching the trunk and then help one in attaining the God. The process of evolution and destruction is on since the very beginning in a cyclic manner. Once the Ultimate abode is granted, one do not return back to the universe, i.e., he will not get rebirth.
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥15.5॥
जो मान और मोह से रहित हो गए हैं, जिन्होंने आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य-निरन्तर परमात्मा में ही लगे हुए हैं, जो अपनी दृष्टि से सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गए हैं, जो सुख-दुःख नाम वाले द्वन्दों से मुक्त हो गये हैं, ऐसे ऊँची स्थिति वाले, मोह रहित साधक भक्त उस अविनाशी परमपद-परमात्मा को प्राप्त होते हैं। 
The Almighty described the prerequisites that helps one in attaining HIM. Those who are free from pride and delusion, who have conquered the evils arising out of attachment, who are constantly dwelling in HIM, who have overpowered desires & passions, who are free from the fangs of pleasure and pain; such people who have attained peaks of devotion are detached, relinquished & equanimous, attains the highest-Ultimate abode.
जिस मनुष्य ने मैं पन और मोह का त्याग करके परमात्मा की ही शरणागती ग्रहण की है, आसक्ति, मोह-ममता, कामना को छोड़ दिया है, वह पूर्ण रुप से भगवान् को समर्पित है तथा संसार को अपना नहीं मानता। उसने स्वयं को शरीर, जाति-बिरादरी, ऊँच-नीच, लिंग भेद से दूर कर लिया है। उसका मन, बुद्धि, चिंतन, विवेक, अहम्, शरीर और इन्द्रियाँ केवल भगवान् में लगे हैं। वह सुख-दुःख, राग-द्वेष, हर्ष-शोक तथा अन्य द्वन्दों से पर है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में  एक सार रहता है। जो परमात्मा की सत्ता से ही संसार की सत्ता मानता है, वो संसार को अस्थाई मानता है। उसमें मूढ़ता नाम मात्र को भी नहीं है। इस प्रकार के आचरण वाले मनुष्यों ने परम् पद प्राप्त कर लिया है। 
Those who are eligible for the Ultimate abode of the Almighty are the devotees who have overpowered ego-pride and rejected the allurements, attachments. They are free from attachments, allurements, bonds-ties and desires. They have surrendered themselves to the God (attained asylum, shelter, refuge, protection under the God) and find the world to be perishable. For them the existence of the world is due to the God. They are above the distinctions of castes-creed, upper-lower, male-female, species or any other kind-type of distinctions. Their mind, intelligence, prudence, thinking, self, body and the senses are always dedicated to the God. They are always at par with each other and in every situation. They have discarded ignorance. Those devotees who have  adopted themselves to such practices, have achieved the Ultimate; from where no one ever returns to earth, i.e., gets rebirth.
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥15.6॥
उस परम पद को न सूर्य, न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है और जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर संसार में नहीं आते, वही मेरा परम धाम है। 
One does not return to earth (or any other abode) after attaining the Ultimate abode of the Almighty, which can not be illuminated by Sun, Moon or fire.
परमात्मा का धाम अविनाशी है। इसे प्राप्त करने के पश्चात जीव लौटकर नहीं आते। सूर्य, चन्द्र और अग्नि परमात्मा से ही प्रकाशित हैं। अतः उस अविनाशी धाम को प्रकाशित करने में असमर्थ हैं, क्योंकि वे भी परमात्मा से ही तेज ग्रहण करते हैं। परमात्म तत्व चेतन और सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि, जड़-प्रकृति के अंग हैं। सूर्य, चन्द्र और अग्नि क्रमशः नेत्र, मन और वाणी को प्रकाशित करते हैं और ये तीनों भी जड़ प्रकति के अंग ही हैं। जड़ तत्व से चेतन तत्व की अनुभूति नहीं हो सकती। यहाँ सूर्य को देवता के रुप में नहीं, अपितु जड़ प्रकृति के प्रकाशक के रुप में देखा गया है, जिस प्रकार वासुदेव भगवान् नहीं अपितु वृष्णि वंश के श्रेष्ठ पुरुष के रुप में वर्णित हैं। जीव परमात्मा का अंश है और चेतन है। परम धाम स्वयं परमात्मा और उनके धाम को बताता है। 
The Almighty represents HIS abode as well. When one talks of Bhagwan Vasu Dev, he describes HIM as the head of Vrashni Vansh-clan. Similarly, when Sun, Moon and fire are discussed they are discussed as inertial objects (components of nature, material objects-entity) not as deities-demigods. As physical objects they represents nature capable of illuminating the universe. The eyes represents Sun, the Moon represents inner self-psyche and the fire represents speech in a human being as material objects. The Sun, Moon, fire and the nature gain their strength, power, energy from the Almighty and hence they are not capable of illuminating the Ultimate abode i.e., the abode of the God. Human body represents nature and the soul is undifferentiated component of the God. This soul matures and get assimilated in the God forever, not to return back to this world. One does not return to earth after attaining the Ultimate abode of the Almighty, which can not be illuminated by Sun, Moon or fire.
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥15.7॥
इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है; परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों का आकर्षित करता है अर्थात अपना मान लेता है। 
Soul, an eternal fraction of the God, in the form of an organism; under the influence of nature considers the innerself-consciousness and the 5 senses to be his own.
3 लोक और 14 भुवन (Other cosmological regions, abodes) में जीव जितनी भी योनियों में भ्रमण करता है, वे सभी प्रभु का सनातन अंश हैं। जीव केवल भगवान् का ही अंश मात्र है। शरीर धारण करने के उपरान्त प्रकृति के प्रभाव से वह शरीर को अपना मानने लगता है। उसका मन और पाँचों इन्द्रियाँ उसे भ्रमित करते हुए मोह जाल में फाँस देती हैं। प्रभु सदैव जीव के उपकार का चिन्तन करते रहते हैं। वे प्रत्येक जीव को जानते और पहचानते हैं। परमात्मा ने मनुष्य को शास्त्र, बुद्धि और विवेक-समझ के साथ-साथ ज्ञान भी दिया है, ताकि वह हकीकत को जानकर स्वयं को इस बन्धन से मुक्त कर, परमात्मा में लीन होने का सतत-निरन्तर, दृढ निश्चय के साथ, गम्भीर प्रयास करे।
The body is mortal & the soul is immortal. The soul is eternal fraction of the God. The God is conscious about the well being of the individual organism, which passes through 3 abodes; the Heaven, Earth and Nether world, in addition to the 14 other cosmological regions-abodes, through various species. Having attained the body, it considers only the body of its own, under the influence of ignorance and the 5 senses. He remains under the illusion till he is cautioned by the scriptures, intelligence, prudence, consciousness, psyche, innerself and enlightenment. The God is always thinking of the welfare of the individual organism, since he knows and recognise each and every living being. The individual has to make serious, dedicated efforts to come out of the illusion, cut the bonds and release himself to assimilate in HIM.
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहित्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥15.8॥
वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को ग्रहण करके ले जाती है, ऐसे ही शरीरादि का स्वामी बना हुआ जीवात्मा भी जिस शरीर को छोड़ता है, वहाँ से इन मन (पूर्व जन्म के संस्कारों) सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें चला जाता है। 
Just as the air takes away the smell from its source, likewise  the  soul which had been occupying  a body, carries the senses (habits, traits, good or bad qualities, characteristics) along with the innerself, psyche, consciousness and insert it, in the new body attained by it.
गन्ध वायु में व्याप्त हो जाती है और वह वायु जहाँ-जहाँ जाती है, वह भी वहीं चली जाती है। नई-नई गन्ध उसमें मिलती चली जाती हैं। ये विभिन्न प्रकार की गन्ध समयानुसार धीरे-धीरे स्वतः ही वायु से अलग हो जाती हैं। इसी प्रकार शरीर में स्थित आत्मा मनुष्य के स्वभाव, आदतों, अच्छाई और बुराइयों को अपने में समा लेती है। ये एकत्रित गुण-अवगुण नवीन शरीर में चले जाते हैं। अच्छी-बुरी सङ्गति, स्वाध्याय, शिक्षा-दीक्षा, पर्यावरण, समाज, घर-परिवार आदि के साथ मिलना-जुलना, सम्बन्ध, नातेदार-रिस्तेदार, मित्र आदि का प्रभाव उस पर जाने-अनजाने पड़ता है और उसके स्वभाव, मिज़ाज, व्यवहार का निर्धारण करता है। पिछले जन्मों के संसार वर्तमान जन्म में बदल सकते हैं।  
वायु संसार में सर्वाधिक स्वतः स्वच्छ होने-करने की प्रवृत्ति रखती है। धीरे-धीरे हवा स्वयं ही साफ़ हो जाती है। इसी प्रकार आत्मा नये पर्यावरण-परिवार में जाकर उसके गुणों-अवगुणों को ग्रहण कर सकती है। अतः अच्छे संस्कारों, सुसंगति के प्रभाव से मनुष्य परमात्मा की तरफ मुड़ भी सकता है। बस प्रयास, रास्ता दिखाने वाले की जरूरत है।
The air is capable of absorbing the smells, scents (pleasant or foul) of all sorts, gases, moisture, dust, smoke etc. and carries them off. Slowly and gradually these absorbed impurities are laid off or washed off in rain. The soul which is present in the body too carries off the good or bad habits, traits, qualities, characteristics to the new incarnation. The impact of previous deeds remains with the soul till it subsides-cleansed. One may acquire virtues or vices depending upon the company he keeps. A good company helps in reducing the burden of wickedness, vices & sins accumulated in innumerable previous births. Scriptures, history, preaching by the saints helps a lot in the purification of the soul. Just as the sweat and dirt (scum, smut, dirt, filth, rancour, offscourings, composite, grudge, grouse, rancour, dregs, feculent, (मैल, झाग, लुआब, मल, बदमाश, करखी का धब्बा, काजल का कलंक, गंदी बातचीत, गंदगी, मिट्टी, धूल, कीचड़, मैल, कचरा, पंक, धूलि, मलिनता, नीचता, विद्वेष, द्वेष, शत्रुता, धृणा, मालिन्य, तलछट, मिश्रण, मिलावट, असन्तोष, द्वेष, घृणा का कारण, ईर्षा, वैर का कारण, गुन-गुनाने वाला, बड़-बड़ाने वाला, विद्वेष, द्वेष, शत्रुता, धृणा, मालिन्य, गंदा, पंकिल, मटमैला, बदबूदार) present over the body are washed off, similarly the negative characteristics can be dropped in the present birth through good-virtuous, pious company. 
Air is the greatest cleanser. It cleans itself automatically depending upon the conditions, climate, environment. Similarly, the soul is cleansed by the pious, virtuous company with the help of the guru, guide, mentor.
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च। 
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥15.9॥ 
यह जीवात्मा मन का आश्रय लेकर ही श्रोत्र, नेत्र, त्वचा, रसना और घ्राण (इन 5 इन्द्रियों के द्वारा) विषयों का सेवन करता है। 
The living being uses the senses pertaining to hearing, sight, touch, taste, smell through the Man :-  the innerself, psyche, consciousness, mood.
जीवात्मा मन का सहारा लेकर ही इन्द्रिय सुख-दुःख, सुनना, देखना, स्पर्श, सूँघना, स्वाद आदि का अनुभव कर सकता है। पाँचों ज्ञानेद्रियों और कर्मेन्द्रियों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। पाँचों महाभूतों के मिले हुए सत्त्वगुण अंश से मन और बुद्धि, रजोगुण अंश से प्राण और तमोगुण अंश से शरीर बना है। जीवात्मा जिस प्रकार पहले शरीर में विषयों का सेवन करता था, उसी प्रकार दूसरे शरीर में जाने पर उनका सेवन करने  लगता है। इसी कारण से जीवात्मा बार-बार विषयों में आसक्तिवश विभिन्न ऊँच-नीच योनियों में भटकता रहता है। पूरी सृष्टि में केवल मानव शरीर रखकर ही प्राणी अपना उद्धार कर सकता है। 
 पञ्च महाभूत ELEMENT
सत्त्वगुण-अंश  
SATV GUN
रजोगुण-अंश 
RAJO GUN 
तमोगुण-अंश 
TAMO GUN 
 आकाश SKY
श्रोत्र  EARS
वाक्  SPEECH
शब्द  WORDS
 वायु AIR
त्वचा  SKIN
 हस्त HANDS
स्पर्श  TOUCH
 अग्नि FIRE
नेत्र  EYES
 पाद FEET
 रुप SHAPE
 जल WATER
रसना  TASTE
 उपस्थ PENNIES
रस  EXTRACTS-JUICES
 पृथ्वी EARTH
घ्राण  SMELL
 गुदा ANUS
गन्ध  SMELL
The living being make use of the Man-psyche, to experience the sensual pleasures-pains. The sensual and working organs are closely interlinked. The Satv Gun effects the psyche, Rajo Gun effects the life force and the Tamo Gun impacts the body. The soul experiences the pleasure-pain & passions in the body. The impact of these remain over the soul even after the death which is carried over to the next births. This process keep on going as usual, till the organism try to get rid of them and achieve Salvation which is possible through the human body only. Even the demigods & deities are spared by this rule.
श्रोत्र का वाणी से, नेत्र का पैर से, त्वचा का हाथ से, रसना का उपस्थ से और घ्राण का गुदा से अर्थात पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का कर्मेन्द्रियों से घनिष्ट सम्बन्ध है। जो जन्म से बहरा होता है, वह गूँगा भी होता है। पैर के तलवे की तेल मालिश का आँखों पर असर होता है। त्वचा के होने से ही हाथ का स्पर्श अनुभव होता है। रसनेंद्रिय के वश में होने से उपस्थेन्द्रिय भी वश में हो जाती है। घ्राण से गन्ध को ग्रहण करने तथा उससे सम्बंधित गुदा से गन्ध का त्याग होता है। 
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥15.10॥
शरीर को छोड़कर जाते या दूसरे शरीर में स्थित हुए अथवा विषयों को भोगते हुए भी गुणों से युक्त जीवात्मा के स्वरूप को मूढ़ मनुष्य नहीं जानते, ज्ञानरुपी नेत्रों वाले ज्ञानी मनुष्य ही जानते हैं। 
The ignorant do not know-understand the characteristics of the soul either departing from the body or staying in the other body or enjoying sensual pleasures; but  the enlightened having the vision-eyes of learning know it.
स्थूल शरीर को छोड़ते समय जीव, सूक्ष्म और कारण शरीर के साथ प्रस्थान करता है। हृदय की धड़कन बन्द होने के बाद भी मस्तिष्क के कार्यरत रहने तक प्राण वायु रहती है और जीव का प्रस्थान नहीं माना जाता। मृत्यु काल में मनुष्य जिस-जिस भाव के चिन्तन में लगा होता है, उसी आकर का सूक्ष्म शरीर बन जाता है और वही उसके कारण शरीर में अंकित हो जाता है। विषय वासनाओं से ग्रस्त मनुष्य भोगों से आगे भी कुछ है, यह सोचता ही नहीं। जीवात्मा पहले शरीर से, दूसरे में स्थानांतरण और विषय भोग में निष्क्रिय रहता है। गुणों से लिप्त दीखने पर भी निलिप्त  रहता है। आत्मा का गुणों से सम्बन्ध है ही नहीं। ज्ञानहीन-मूढ़ व्यक्ति इन बातों के बारे में न तो जानता ही है और ना ही सोचता है। अविवेकी गुणों से मोहित होकर राग, भोग में लगा रहता है। 
The soul departs the body with the micro body which it had been thinking of, at that moment and the third stage of the body-absolute body carries the features of the present body to next incarnation. Till the heart is functioning and the brain is working, one is said to be alive. Ignorant does not think beyond passions, sensual pleasure, comforts. Whole life goes waste in earning, feeding and fighting the problems. The soul present in the body remain inactive during survival, transition to other body and the interaction with the community-society throughout the life. The soul remain unconcerned, neutral, passive with the characteristics. The imprudent-ignorant is unaware of the soul, its characteristics and life after death. He is busy with his desires, motives, ambitions, targets, goals etc., only. 
योगी हृदय की धड़कन बंद करके जहाँ-तहाँ शूक्ष्म शरीर के साथ भ्रमण करते हैं। उनका मानव शरीर यथावत रहता है, मगर दिल की धड़कन न्यूनतम हो जाती है। उनका शरीर गर्म बना रहता है। 
Yogis are found to move with their micro body from one place to another just by thinking of it. Their body normally remain warm, heart beat becomes minimum but the brain keeps working.
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥15.11॥
यत्न करने वाले योगी अपने आप में स्थित परमात्म तत्व का अनुभव करते हैं। परन्तु जिन्होंने अपना अन्तःकरण शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अविवेकी मनुष्य यत्न करने पर भी इस तत्व का अनुभव नहीं करते। 
The Yogis successfully make efforts to experience the gist of the God present in themselves. The imprudent who's psyche, innerself, consciousness is impure-contaminated can not experience the presence of the Almighty in himself, in spite of making efforts.
योगी (साधक, तपस्वी) का एक मात्र उदेश्य परमात्मा की प्राप्ति है। वह अपने अन्तःकरण को शुद्ध करने का सतत-निरन्तर प्रयास करता रहता है। उसका विवेक जाग्रत रहता है। उसे मालूम है कि परमात्मा तो उसके अन्दर ही विराजमान है, जो कि उसे निरन्तर निरख-परख रहा है। उसका संसार के प्रति मोह-लगाव नहीं है। उसे इस बात का अहसास है कि एक ना एक दिन यह शरीर नष्ट हो ही जायेगा। उसका मैं-पन खत्म हो चुका है। धीरे-धीरे उसमें और परमात्मा में द्वैत भाव खत्म हो जाता है। परमात्मा को इन्द्रियों, मन, बुद्धि से नहीं जाना जा सकता है। निरपेक्षता आने पर स्वतः ही परमात्म तत्व प्रकट होने लगता है। अन्तःकरण के शुद्ध होने पर योगी को परमात्म तत्व का अनुभव होने लगता है।
The Yogi has only one aim, i.e., the God. He is anxious, curious, willing to see (find, discover) HIM. However, its essential to become pure, pious, righteous, honest, virtuous, equanimous. He always make determined efforts in this direction. He knows that the God is present in himself, who is continuously watching-weighing him. He has no love-affection for the world. He is sure that one day or the other, this body will be lost (fall). His ego which stresses over ownership (I, my, me, mine, pride, arrogance) goes away with the realisation that this body will have no existence after a certain period. He has achieved oneness with the God. The Almighty can not be identified with the help of senses, psyche or the intelligence. Its the prudence which makes him close to the God. As soon as one approaches equanimity, his innerself becomes pure-uncontaminated and he starts visualising the Almighty present in himself. His duality with the Almighty goes away with it.
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥15.12॥
सूर्य को प्राप्त हुआ जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है और जो तेज चन्द्रमा में है तथा अग्नि में है, उस तेज को मेरा ही जान। 
The energy (aura, brilliance, brightness, light, illumination) present in the Sun, which illuminates the universe, the energy in the Moon and the fire are by virtue of the Almighty. They shine due to the power of the God.
जो सूर्य पूरे ब्रह्माण्ड को प्रकशित करता है, उसमें जो तेज है, वह परमात्मा से प्राप्त है। सूर्य नेत्रों के अधिष्ठात्र देवता हैं। सूर्य में प्रकाश और ज्वलन शक्ति, चंद्र में शीतलता, मधुरता, प्रकाश और पोषण शक्ति, अग्नि में प्रकाश और दहन शक्ति
परमात्मा से प्राप्त हैं। चन्द्रमा मन के अधिष्ठात्र देवता हैं। अग्नि वाणी के अधिष्ठात्र देवता हैं। कहने का अर्थ यह है कि परमात्मा, सूर्य, चन्द्र और अग्नि सहित प्राणी सभी एक श्रंखला में जुड़े हैं। सभी परमात्मा के अंश हैं। सभी में तेज, प्राण और संवेदन परमात्मा से हैं। किसी में अपना स्वयं का कुछ नहीं है।
The Sun illuminates the whole universe with the energy-aura granted by the God. He is the deity of the eyes as well. One can not see anything in the absence of eyes (light). The Moon gets its energy, calmness-cool, brightness and capacity to nourish from the God. He is the deity of the innerself, mind, brain, thoughts, memory etc. Fire is the deity of speech. Its empowered to burn everything and digest the food. The fact remains that each one of them gets its energy from the Almighty. They have no existence without the God. Their brightness-aura fades in front of the God. The energy, soul and sensation in them is by virtue of the God, including the organism-living being. None has anything of its own. Therefore, its the pious duty of one to worship  the Almighty, in order to assimilate in HIM. It means that one has to perform his duties religiously, with dedication, concentration, without laziness, carefully honestly, piously, righteously, virtuously.
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा। 
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥15.13॥ 
मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ और मैं ही रस स्वरुप चन्द्रमा होकर समस्त औषधियों को पुष्ट हूँ। 
The Almighty said that HE supported life with HIS strength, power, energy, by entering-occupying the earth and by becoming the sap, elixir, nectar, ambrosia of the moon & nourishes all the medicinal plants.
जिस प्रकार समस्त देवगण परमात्मा से शक्ति प्राप्त कर संसार का पालन-पोषण करते हैं, उसी प्रकार प्रभु ने पृथ्वी को अपनी शक्ति से सम्पन्न करके, इसे प्राणियों को धारण करने योग्य बना रखा है। सभी जगहों पर धारण शक्ति परमात्मा से ही है। पृथ्वी में अन्न उत्पन्न करने की शक्ति, गुरुत्वाकर्षण भी प्रभु से ही है। जो आँखों से दिखाई देता है, वह चन्द्र मण्डल है, उससे भी दूर आँखों की परिधि से बाहर चन्द्र लोक है, जो सूर्य से भी ऊपर है। चन्द्रमा पृथ्वी को प्रकाश के साथ-साथ पोषण करने की शक्ति भी प्रदान करता है। शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की किरणों के साथ अमृत वर्षा होती है, जो कि वनस्पतियों और गर्भ स्थित शिशुओं का पोषण करती हैं। 
All demigods and deities function by the strength provided by the God. Without HIS power the demigods & deities are like ordinary beings. The earth is supported by the God to stay in its orbit round the Sun and bear the living beings. The gravitational pull is due to the God's strength. Capacity-capability of the earth to feed and support life is due to the Almighty. Quantum of water is far more as compared to body mass, yet it remains free to support life. The Moon nourishes the medicinal plants and nurture the child in the womb. The Moon visible to us is a material object and the Chandr Lok-abode is situated much above the Sun. The Moon reflects the light over the earth which carries a sap, nectar, elixir, ambrosia essential for nourishment of plants both for food and medicines.
चन्द्रमा की किरणें शुक्ल पक्ष में पृथ्वी पर अपनी किरणों से वनस्पतियों को सींचतीं हैं और फिर कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा स्वयं पृथ्वी से पोषण ग्रहण करता है। सूर्य अपने प्रकाश से पृथ्वी पर उजाला करता है और पोषण करता है साथ-साथ अपना पोषण भी करता है। इस प्रकार आदान-प्रदान की क्रिया साथ-साथ चलती है। 
The Moon nourishes the vegetation over the earth during the bright phase and sucks essentials for it during dark phase. The Sun illuminates the earth and side by side sucks the essentials for it. In this manner a two way process, cyclic in nature continues. This is an intricate process which shows interdependence between the Sun, earth & the Moon.
The scientists are unable to decode this process so far. They just know that the hydrogen burns to form helium and release energy through fusion of protons. However, the process of recycle continues every where in the universe. The water present over the earth breaks into hydrogen and oxygen & then further subdivision takes place into another set of micro particles & energy forms which move to Sun. Recently scientists claim to have discovered God particle.
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥15.14॥
प्राणियों के शरीर में रहने वाला मैं प्राण-अपान से युक्त वैश्वानर-जठराग्नि होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ। 
The Almighty is present in the body of the organism in the form of combustion power to digest 4 kinds of food grains in association with 5 kinds of air. HE has said that HE is the power behind fire to burn. Without HIM fire is not capable to burn anything.
अग्नि से प्रकाश भी उत्पन्न होता है और यह दहन का कार्य भी करती है। प्राणी के शरीर में यही अग्नि भोजन को पचाने का कार्य करती है। इस अग्नि का नाम जठराग्नि है और यह 5 प्रकार की वायु (प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान) के सहयोग से 4 प्रकार के अन्नों को पचाती है। इन 5 प्रधान वायु के अलावा 5 उपप्रधान वायु :- नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय भी हैं। जठराग्नि के द्वारा पचाये गये भोजन को प्राण वायु शरीर के समस्त अंगों तक पहुँचाती है तथा अपान वायु अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने का कार्य करती है।
The fire present in the form of digestive power in the stomach breaks the food particles into juices and then carries them to various organs, systems, tissues and cells. The food particles are then utilised through oxidation and the wastes are excreted out of the body. The digestive power (fire) has 5 main and 5 sub divisions. Each one has specific purpose.
पञ्च प्राण या प्राण वायु :: 
(1). प्रधान वायु :-
(1.1). प्राण :- निवास स्थान-ह्रदय, श्र्वास को बाहर निकालना, खाये हुए अन्न को पचाना। 
(1.2). अपान :- निवास स्थान-गुदा; श्र्वास को अंदर ले जाना, मल-मूत्र को बाहर निकालना, गर्भ को बाहर निकालना। 
(1.3). समान :- निवास स्थान-नाभि; पचे हुए भोजन को समस्त अंगो, ऊतकों, कोशिकाओं तक ले जाना। 
(1.4). उदान :- निवास स्थान-कण्ठ; भोजन के गाढ़े और तरल भाग को अलग-अलग करना, सूक्ष्म शरीर को बाहर निकालना, दूसरे शरीर या लोक में ले जाना। 
(1.5). व्यान :- निवास स्थान-सम्पूर्ण शरीर; शरीर के सम्पूर्ण अंगों को सिकोड़ना और फैलाना। 
(2). उप प्रधान वायु :- 
(2.1). नाग :- कार्य-डकार लेना। 
(2.2). कूर्म :- कार्य-नेत्रों को खोलना और बन्द करना। 
(2.3). कृकर :- कार्य-छींकना। 
(2.4). देवदत्त :- कार्य-जम्हाई लेना।  
(2.5). धनंजय :- कार्य-मृत्यु के बाद शरीर को फुलाना।
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। 
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥15.15॥ 
मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ तथा मुझ से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन-संशय आदि दोषों का नाश होता है। सम्पूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। वेदों के तत्त्व का निर्णय करने वाला और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ। 
The God is seated in the heart & mind, innerself-psyche of all beings. The memory, knowledge-understanding and the removal of doubts and wrong notions come from HIM. HE is the entity who in  reality (वास्तव में, सचमुच, verily, indeed, virtually, practically) deserve to be known through the study of all the Veds. HE is indeed, the one who interprets-decides the correct meaning-gist of the Veds and who knows them.
परमात्मा स्वयं प्राणी के हृदय में विद्यमान हैं। सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होते हुए भी उनका स्थान हृदय ही है। जड़ता से सम्बन्ध समाप्त होते ही, परमात्म तत्व का अहसास हो जाता है। जड़ता से सम्बन्ध-विच्छेद सत्-कर्म, सत्-चर्चा और सत्-चिन्तन के माध्यम से हो सकता है। जड़ता (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर का आश्रय) असत् का आश्रय है। भगवान् से विमुख प्राणी संसार से सम्बन्ध मानने लगता है अर्थात उसकी परमात्मा सम्बन्धी स्मृति नष्ट हो गई है। जीव में निष्काम भाव (कर्म योग), स्वरूप बोध (ज्ञान योग) और भगवत्प्रेम (भक्ति योग) आदि काल से विद्यमान होते हुए भी उनकी विस्मृति हो गई है। सम्पूर्ण ज्ञान का स्त्रोत स्वयं भगवान् ही हैं। ज्ञान सापेक्ष है और बुद्धि, विवेक, चिन्तन की सहायता से ही इसको सही तरीके से जाना जा सकता है। संशय, भ्रम, विपरीत भाव, तर्क-वितर्क, सत्य-असत्य आदि का ज्ञान भी भगवत कृपा से ही  होता है। वेद परमात्मा से ही प्रकट हुए हैं, अतः वे परमात्मा को जानने में सहायक हैं। वेदों का सही अर्थ, भाव, उद्देश्य केवल परमात्मा से ही निर्धारित होता है। अन्य सभी व्यक्ति उनका अर्थ अपने अनुकूल लगाते हैं। पुराण, उपनिषद, ब्राह्मण आदि ग्रन्थ वेदों का सही अर्थ प्रकट करने का प्रयास मात्र ही हैं। इसीलिए भगवान्, वेद व्यास के रुप में अवतार ग्रहण करते हैं, ताकि उनकी सही-उचित व्याख्या हो सके।
The seat of the Almighty is present in the heart of the living being. The God covers the whole body, yet heart is HIS main location-seat. As soon as one departs from inertia-lethargy, he experiences the presence of the God in him. Inertia (ignorance) is the seat of falsehood, embodiment-body formation, micro & reason body formation-carrier to other abodes-species. Attachment with the body departs one from the God. It shows that the memory granted to him pertaining to service, enlightenment, devotion is lost. However, when one is connected to HIM, it reappears, not to be lost again. The Almighty is the source of all knowledge. One can reach reality-truth, by making use of intelligence, prudence and meditation with the mercy of the God. All doubts-wrong notions are lost with the mercy of the God. The Veds appeared from the God and were transferred to humanity through Brahma Ji and his sons. Purans, Upnishads and Brahmans are the treatises meant to explain the gist-meaning of Veds. The God says that everyone has his own interpretation of the Veds, suiting him. However, the God took incarnation as Ved Vyas to clear ambiguity and give the correct meaning-interpretation of the Veds for the betterment of the humanity. After Bhagwan Ved Vyas, numerous treatises explaining the Veds, have appeared and are still available. 
It appears that the versions of Veds which are available are truncated-edited and vital information has been concealed. In fact Veds are infinite and so are the Upnishads illustrating-explaining their meaning. However, the virtuous might be capable of attaining them.
It has been observed that Muslims and Sikhs in Gurudwara give their own interpretation of scriptures. There are numerous instances where Manu Smrati has been misquoted, misinterpreted, giving wrong-distorted versions, suiting their own interest to be fool, misguide their followers or to convert Hindus. Christians are not far behind. Sharia is a distorted form of Manu Smrati. Several translations in English appears over the internet which are either biased or intentionally written to malign Hinduism-Hindutv.
The Jains, Buddhist, Sikhs, Kabir Panthi, Raedasi and now Lingayats portrait them selves as separate entity i.e., different from Hinduism which is purely governed by the desire of some motivated people to rule-control others & politics. The Sikhs have forgotten the meaning of Sikh-Shishy & Guru and say that they have nothing to do with Ram or Krashn. Their Ram and Krashn are different.
Whenever a person other than a Brahman community start preaching, he shows adverse-wrong direction to the society, be he a Kshatriy (Buddh & Mahavir), Vaeshy (Nanak), Govind Singh (Kayasth). Almost all Babas-preachers (imposters, rouge) of today are from other communities & indulgence anti social activities to be caught red handed.
Its easy for these people to mislead-convert ignorant, illiterates or idiots.
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥15.16॥
इस संसार में क्षर-नाशवान और अक्षर-अविनाशी, ये दो प्रकार की रचनायें हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर क्षर और जीवात्मा अक्षर कहा जाता है। 
There are two types of entities in this world-cosmos :- perishable and imperishable. The bodies of living beings are perishable (लौकिक, अस्थायी, temporal, temporary, changeable, mutable) and the soul, eternal, spirit is imperishable.
प्रत्यक्ष दिखने वाले शरीरादि पदार्थ जड़, नाशवान, लौकिक अर्थात क्षर हैं। जगत और जीव दोनों ही लौकिक हैं। कर्म योग और ज्ञान योग भी लौकिक हैं, परन्तु भक्ति योग अलौकिक है। अपरा प्रकृति को क्षर और परा प्रकृति को अक्षर कहा गया है। जीवात्मा निर्विकार, अविनाशी अक्षर है। क्षर और अक्षर दोनों को ही पुरुष कहा गया है। प्राणियों के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को भूत अर्थात नाशवान कहा गया है। जीवात्मा को कूटस्थ कहा गया है, क्योंकि वह हमेशां एक जैसा, ज्यों का त्यों रहता है; क्योंकि वह अलौकिक-अपरा है।
Everything which is visible, inertial, perishable, worldly is Kshar. The world and the living being both are perishable. Karm Yog and Gyan Yog, both are perishable. The nature which leads to creation is Para and is perishable. The eternity, soul & the Almighty are imperishable-Akshar. Bhakti Yog too is imperishable. The 3 types of bodies acquired by the soul are perishable, but the soul is for ever, unchangeable & divine-Apara.
जीव दो प्रकार के होते हैं :- क्षर (च्युत, नश्वर, लौकिक) और अक्षर (अच्युत, अनश्वर, अलौकिक)। क्षर को जन्म, वृद्धि, अस्तित्व, प्रजनन, क्षय तथा विनाश के परिवर्तनों से गुजरना पड़ता है। जो भी जीव क्षुद्र चींटी से लेकर ब्रह्मा जी तक भौतिक प्रकृति के संसर्ग में आता है, वो नाशवान है। जो अक्षर है, उसका न जन्म होता है, न जरा-वृद्धावस्था है और न ही मृत्यु। अक्षर सदैव मुक्त और एकावस्था में बने रहते हैं।
The living beings are of two types :- Perishable and imperishable. One who comes in contact with the worldly entities from an ant to Brahma Ji-the creator, is perishable. The perishable has to pass through 6 phases :- Birth, growth, existence, regeneration, decay and destruction-death. The imperishable remains as such, in the same state, like the child of 14 years. The physique  of Bhagwan Shri Krashn remained as such, like a child of 14 years, till he left earth. Imperishable does not pass through birth, ageing and death, maintaining the same free state of the body for ever. The imperishable has attained parity with the God. However, the God is over & above these two categories of beings.
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥15.17॥
उत्तम पुरुष तो अन्य (विलक्षण,अलौकिक, असाधारण, अद्भुत, अनोखा, विशिष्ट) ही है, जो परमात्मा नाम से कहा गया है। वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है। 
Over and above the perishable and imperishable beings; stands the Almighty, who is with distinguishing (strange, unique, fantastic, astonishing, remarkable, extra-ordinary) qualities, traits, features-characteristics. He enters the three abodes and sustains-nurtures their living beings. 
क्षर और अक्षर प्राणियों से भी ऊपर परमात्मा है जो, पुरुषोत्तम-सर्वोत्तम है। वही तीनों लोकों में व्याप्त होकर प्राणियों का भरण-पोषण करता है और उनको बगैर भेद-भाव के कर्मों के अनुरुप फल प्रदान करता है। प्राणी व्यर्थ ही यह मान बैठता है कि वह किसी का पालन-पोषण  है। 
The Ultimate, imperishable Almighty enters the three abodes and support, sustain, nurture the living beings without distinctions as per their deeds in previous births. HE is impartial-neutral, equanimous. In performing these functions HE neither lose nor gain any thing. The Human being's unreasonably nurture the ego that they are sustaining-supporting any one.
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥15.18॥
कारण कि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ। 
The Almighty asserted that HE is famous as Purushottam, since HE is far beyond, above perishable (Kshar), temporal & excelled (उत्कृष्ट, अग्रगण्य, सर्वश्रेष्ठ, अति विशिष्ट; surpass, dominate) the Akshar, immortal, imperishable, eternal in this abode-world and the Veds. 
प्रकृति जड़, प्रतिक्षण परिवर्तन शील और क्षर-नाशवान है; जबकि परमात्मा नित्य-निरन्तर निर्विकार, अविनाशी हैं, अतः क्षर से अतीत हैं। आत्मा अक्षर है, परन्तु वह परमात्मा का एक अति लघुतम अंश-इकाई है। प्रकृति से सम्बन्ध मान लेने से उस पर जड़ता का प्रभाव आ जाता है, जबकि प्रभु चेतन हैं और मोह-ममता से परे-ऊपर हैं। वे प्रकृति को अपने अधीन करके अवतार ग्रहण करते हैं और सदैव निर्लिप्त हैं। अतः वे  अक्षर पुरुष से भी श्रेष्ठ हैं। क्षर और अक्षर की स्वतंत्र सत्ता नहीं है, यद्यपि परमात्मा की स्वतंत्र सत्ता है। इन्हीं कारणों से परमात्मा को इस लोक और वेदों में पुरुषोत्तम कहा गया है। 
The nature is inertial, continuously variable-changeable and lifeless entity. The soul acquires its characteristics after coming in its contact with nature having acquired the physical-material body. The God is superior to it, being forever, uncontaminated-pure. The soul is the minutest unit of the Almighty-God. The nature is without consciousness, while the God is conscious. The God is beyond bonds & affections. He takes incarnations after bringing the nature under HIS control. HE is never attached. HE is over and above both types of living beings. HE is independent. This is why, HE is called Purushottam-Ultimate, in the world and the Veds.
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥15.19॥
हे भरतवंशी अर्जुन! इस प्रकार जो मोह रहित मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ सब प्रकार से मेरा ही भजन करता है। 
The Almighty addressed Arjun as Bharat Vanshi-born in Bharat Clan and said that the enlightened (prudent, wise) who recognised HIM as the Ultimate, worship HIM only, whole heartedly through all possible means. 
परमात्मा का सनातन अंश जो जीवात्मा परमात्मा के तत्व को जान-समझ गया 
है, उसका कल्याण स्वतः हो जाता है। वह और सभी गतिविधियों को सुचारु रुप से चलाते हुए अपने कर्तव्य का निर्वाह करता है। वह परमात्मा को पुरुषोत्तम के रुप में जानकर अपनी शक्ति-ऊर्जा का प्रयोग भगवत्भक्ति में करता है और अपने संसाधनों, इन्द्रियों को अविचलित हुए भगवत भजन में लगा देता है। उसकी दृष्टि में सिवाय भगवान् के अन्य कुछ है ही नहीं। 
The Soul is eternal and a component of the God. One who has understood this, channelize his energies for the worship of the God. He has grasped the gist of the Ultimate. He performs all his activities in accordance with the scriptures (Ved, Puran Upnishad, Geeta, Ramayan, Maha Bharat etc.) and fulfil all his worldly responsibilities-duties to his best. He utilises all his resources for the betterment of the society and elevation of the poor-down trodden. He utilises his spare time in religious activities like pilgrimage, reading-listening to epics, Veds, Purans, Hari Katha, singing God's names, recitation of prayers devoted to the God, meditation-concentration in the God. He perform charity and donate according to his capability only for the sake of the deserving one. He treats all beings at par. He is equanimous. He finds God in each and every one. In this way he prays to the God through all possible means known to him.
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्‌बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥15.20॥
हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया है। हे भरतवंशी अर्जुन! इसको जानकर मनुष्य ज्ञानवान तथा कृत-कृत्य हो जाता है। 
The Almighty called Arjun Bharat Vanshi & sinless and said that HE had transferred-narrated the most secret-confidential and intricate, transcendental & Absolute knowledge to him for the benefit of the masses. One who learns, follows, practices, adopts this knowledge in life, accomplishes his duties, becomes enlightened and paves the pay for his relinquishment, detachment and assimilation, Salvation-Moksh in HIM.
भगवान् ने अर्जुन को निष्पाप कहा, क्योंकि उनके अन्दर अपने विरोधियों के लिए भी द्वेष, क्रोध, रोष आदि नहीं थे। उनकी दृष्टि दोष रहित थी। ज्ञान कभी भी अयोग्य, कुपात्र, दोष-दृष्टि युक्त व्यक्ति के लिए नहीं होता, इस कारण से ही इसे अत्यंत गोपनीय कहा गया है। वर्तमान काल में ढोंगी, पाखण्डी, आडम्बर करने वाले भी अपने आप को ज्ञानी साधु-महात्मा के रुप में प्रस्तुत करते हैं और सामान्यजन उनके झाँसे में आ जाते हैं। केवल सुनने, पढ़ने से ही कल्याण सम्भब नहीं है। आचरण में शुद्धि, चिंतन-मनन और भक्ति भी नितान्त जरूरी है। इसका अर्थ केवल तभी समझ में आता है, जब मनुष्य की बुद्धि शुद्ध, चेतन और विवेक पूर्ण हो। किसी के प्रति रोष, घृणा, दुराव आदि के भाव ना हों। 
Please refer to :: SAFFRON CLAD-IMPOSTORS पाखण्डी-ढ़ोंगीbhartiyshiksha.blogspot.com
The God addressed Arjun as sinless, since only the sinless is qualified to understand and apply this most confidential-secret and intricate knowledge in real life. This knowledge is for the masses who wish to relinquish. The Almighty selected Arjun as the right person bearing all the desired qualities. HE took incarnation in the form of Mahrishi Ved Vyas as well, in advance, to prepare ground for transfer of knowledge, to the common masses, who deserved and desired emancipation & for the benefit of the humanity during Kali Yug.
This is a very crucial period in which impostors, cunning, hypocrites, fraudulent people deceive the public behaving as the messenger of the God. This has been happening for the last 2,000 years. Public is misled, misguided and cheated. Hundreds of new faiths are emerging  every day. Its not all; politicians are using religion-faith as tool to attain-achieve power. One finds people wearing saffron robs in the corridors of power and even eyeing ministerial berths. Ashrams, Math (मठ), Monasteries, hermitages crop up to lure the people and collect immense wealth & power successfully. One who listen, read, meditate, understand, analyses Geeta, sooner or later become pure (righteous, virtuous, pious). One should follow & practice this treatise in life. 
Please refer to :: SALVATION मोक्षSALVATION: मोक्ष साधनाsantoshsuvichar.blogspot.com
SHRIMAD BHAGWAD GEETA (15) श्रीमद्भगवद्गीता :: पुरुषोत्तम योग santoshkipathshala.blogspot.com
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुन संवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः॥15॥
इस प्रकार ॐ तत् सत्-इन भगवन्नामों के उच्चारण पूर्वक ब्रह्म विद्या और योग शास्त्र मय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरुप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में पुरुषोत्तम योग नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। 
In this manner the chapter "PURUSHOTTAM YOG" pronouncing-describing Om, Tat, Sat is completed, in the form of a conversation between the Almighty Shri Krashn and Arjun. It describes the Almighty as the Ultimate and imperishable; over and above the perishable and imperishable living beings.
The revision of this chapter has been completed today i.e., 12.04.2024, at Mayfield, Wentworth villi, NSW, Sydney, Australia with the blessings of Ganesh Ji Maha Raj, Bhagwan Ved Vyas Maa Saraswati and the Almighty's grace for the benefit of the righteous readers.
Contents of these above mentioned blogs are covered under copy right and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS ARE RESERVED WITH THE AUTHOR.
संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा

No comments:

Post a Comment