CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।
श्रीभगवानुवाच ::
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥13.1॥
भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा :- हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! यह-रुप से कहे जाने वाले शरीर को क्षेत्र कहते हैं और इस क्षेत्र को जो जानता है, उसको ज्ञानी लोग "क्षेत्रज्ञ" के नाम से जानते हैं।
Bhagwan Shri Krashn addressed Arjun as Kunti Putr & said :- "This physical-human body represents the miniature universe called the Kshetr (region, field) or creation. One who knows the creation is called the Kshetragy (creator or Spirit) by the enlightened-scholars".
मनुष्य भौतिक-सांसारिक प्राणियों यथा वस्तु, पशु, पक्षी, मेरा, मैं आदि नामों से जानता-पुकारता है। उसके 3 प्रकार के शरीर :- स्थूल, सूक्ष्म और कारण भी इसी प्रकार पहचाने जाते हैं।
स्थूल शरीर :: अन्नमय कोश पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश से बना है, जो माता-पिता के रज-वीर्य से बने हैं। 5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ, 5 प्राण, मन और बुद्धि से यह सूक्ष्म शरीर-प्राणमय कोश बनता है। मन की प्रधानता से यह मनोमय कोश तथा बुद्धि की प्रधानता से यह विज्ञानमय कोश कहलाता है।
कारण शरीर :: मनुष्य को बुद्धि तक का ज्ञान होता है और इससे आगे का ज्ञान नहीं होता। अतः यह अज्ञान सम्पूर्ण शरीरों का कारण होने के कारण, कारण शरीर कहलाता है। इस कारण शरीर को स्वभाव, आदत और प्रकृति भी कहा जाता है। इसी को आनन्दमय कोश भी कह देते हैं। जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर की प्रधानता होती है और उसमें सूक्ष्म और कारण शरीर भी साथ रहता है। सुषुप्ति अवस्था कारण शरीर की होती है। सुषुप्ति अवस्था में दुःख का अनुभव नहीं होता; अतः इसे आनंदमय कोष कहते हैं।
सूक्ष्म शरीर :: मृत्यु के पश्चात् प्राप्त अभौतिक शरीर।
ये तीनों प्रकार के शरीर क्षेत्र इसलिए कहलाते हैं; क्योंकि इनका प्रतिक्षण नाश होता रहता है। शरीर खेत के समान है, जिसमें बीज बोने से फ़सल पैदा होती है, उसी प्रकार कर्मों के संस्कार फ़ल के रुप में प्रकट होते हैं। जीवात्मा इस शरीर को अपना मानता है, यद्यपि वह है परमात्मा का अंश। जिन्हें क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का का बोध हो चुका है, वे तत्वज्ञ इस जीवात्मा को क्षेत्रज्ञ कहते हैं।
स्थूल शरीर :: अन्नमय कोश पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश से बना है, जो माता-पिता के रज-वीर्य से बने हैं। 5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ, 5 प्राण, मन और बुद्धि से यह सूक्ष्म शरीर-प्राणमय कोश बनता है। मन की प्रधानता से यह मनोमय कोश तथा बुद्धि की प्रधानता से यह विज्ञानमय कोश कहलाता है।
कारण शरीर :: मनुष्य को बुद्धि तक का ज्ञान होता है और इससे आगे का ज्ञान नहीं होता। अतः यह अज्ञान सम्पूर्ण शरीरों का कारण होने के कारण, कारण शरीर कहलाता है। इस कारण शरीर को स्वभाव, आदत और प्रकृति भी कहा जाता है। इसी को आनन्दमय कोश भी कह देते हैं। जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर की प्रधानता होती है और उसमें सूक्ष्म और कारण शरीर भी साथ रहता है। सुषुप्ति अवस्था कारण शरीर की होती है। सुषुप्ति अवस्था में दुःख का अनुभव नहीं होता; अतः इसे आनंदमय कोष कहते हैं।
सूक्ष्म शरीर :: मृत्यु के पश्चात् प्राप्त अभौतिक शरीर।
ये तीनों प्रकार के शरीर क्षेत्र इसलिए कहलाते हैं; क्योंकि इनका प्रतिक्षण नाश होता रहता है। शरीर खेत के समान है, जिसमें बीज बोने से फ़सल पैदा होती है, उसी प्रकार कर्मों के संस्कार फ़ल के रुप में प्रकट होते हैं। जीवात्मा इस शरीर को अपना मानता है, यद्यपि वह है परमात्मा का अंश। जिन्हें क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का का बोध हो चुका है, वे तत्वज्ञ इस जीवात्मा को क्षेत्रज्ञ कहते हैं।
The humans recognise himself with the physical, material, worldly entities like matter-material objects, animals, birds, mine, my, I etc. The body has three different forms Physical-macro, micro-minutest and the causative leading to yet another birth.
The physical body is composed of 5 basic-root components :- Earth, Water, Air, Energy and the Sky-space. It's the result of the combination of the sperms and ovum of the parents. The body gets a soul with 5 sense organs, 5 work or functional organs, 5 kinds of airs, the mind (brain with heart, psyche, gestures, mood) and the intelligence.
The physical body is composed of 5 basic-root components :- Earth, Water, Air, Energy and the Sky-space. It's the result of the combination of the sperms and ovum of the parents. The body gets a soul with 5 sense organs, 5 work or functional organs, 5 kinds of airs, the mind (brain with heart, psyche, gestures, mood) and the intelligence.
The micro body is called the store house of soul. The significance of mind (innerself, brain & heart) makes it the store of mental capabilities-potentials and the superiority of the intelligence, makes it the store of scientific intellect. The human being is aware of what is known through intelligence. Mind is the limit. One is not aware of what is next?! The lack of further knowledge causes the next births. This is called as nature, self or habit. When one is awake, the material body is supreme which is associated by the logic-reason body and the micro body. Under the influence of unconscious state one do not feel-experience pain. This is the state of pleasure. These three kinds of bodies (space where the soul can be found) are called fields-Kshetr, since they undergo destruction every moment, like sowing and cutting of crops.
Micro body :: It's that state of the soul which is called spirit and takes the soul to Dharm Yam Raj (First deity of death, second Maha Kal, Ultimate Akskhay-imperishable Kal) to enter a new body, physical entity, incarnation. The body is like the field where the crops grow in the form of deeds, resulting in some sort of output leading to further births. The organism-human being considers this body as his own and identifies himself with it which in fact an organ-component of the God. One who has realized the gist of physique and the occupier, is enlightened.
Micro body :: It's that state of the soul which is called spirit and takes the soul to Dharm Yam Raj (First deity of death, second Maha Kal, Ultimate Akskhay-imperishable Kal) to enter a new body, physical entity, incarnation. The body is like the field where the crops grow in the form of deeds, resulting in some sort of output leading to further births. The organism-human being considers this body as his own and identifies himself with it which in fact an organ-component of the God. One who has realized the gist of physique and the occupier, is enlightened.
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥13.2॥
हे भरत वंशोद्भव अर्जुन! तू सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही समझ और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत में ज्ञान है।
Bhagwan Shri Krashn addressed Arjun as Bharat and asked him to consider HIM as soul-Kshetragy in all the bodies-Kshetr & stressed that the knowledge of both the soul-Kshetragy and Kshetr-bodies; is transcendental knowledge-enlightenment in HIS opinion.
सम्पूर्ण क्षेत्रों (शरीरों) में मैं (अहंभाव) क्षेत्र है और मैं पन (I my, me, id, ego, super ego) का ज्ञाता क्षेत्रज्ञ है अर्थात सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ वही हैं। किसी विषय का ज्ञान ज्ञेय है। उसे बाह्य करण कान और नाक आदि तथा अन्तःकरण मन, बुद्धि आदि से जाना जाता है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में अहंकार सबसे सूक्ष्म है, जिसे जानने वाला प्रकाश रुप क्षेत्रज्ञ परमात्मा स्वरुप है। परमात्मा का कहना है कि जिस प्रकार मनुष्य अपने को शरीर में मानता है और शरीर को अपना मानता है, उसी प्रकार वह स्वयं को परमात्मा में जाने और माने, क्योंकि उसने शरीर के साथ जो एकता मान रखी है, उसे छोड़ने को परमात्मा के साथ एकता माननी जरूरी है। शरीर की एकता संसार से है और क्षेत्रज्ञ-जीव की स्वाभाविक एकता परमात्मा से होते हुए भी जीव अपनी एकता शरीर से कर लेता है। प्रभु का यही आदेश है कि क्षेत्रज्ञ की एकता उनके साथ ही माननी चाहिये। हकीकत में क्षेत्रज्ञ के रुप में स्वयं ब्रह्म-परमात्मा ही मनुष्य-प्राणी में विद्यमान हैं। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का यही ज्ञान यथार्थ ज्ञान है। अनेक विद्याओं, भाषाओँ, लिपियों, कलाओं, तीनों लोकों और चौदह भुवनों का ज्ञान संसार से सम्बन्ध जोड़ने-भटकाने वाला होने के कारण, अज्ञान की श्रेणी में आता है।
The ego (I, my, me, mine, pride, arrogance) is present in all the bodies (organism, living beings)-Kshetr and the one who is aware of this defect is the Kshetragy, (Atma, Soul-a component of Brahm, The Almighty). In fact the Brahm is present in all the bodies as Kshetragy-the soul, a component of the God. The desired-deemed knowledge of any subject is obtained through external means like eyes and ears etc., while it is obtained through the internal faculties like mind (brain & heart) & intelligence, simultaneously. Ego is a component of the mind and intelligence & is deeply seated-rooted at micro level in the human beings. The God says that the manner in which the human being identifies himself with the body, due to ego, in the same manner, he should recognise-attach himself with the God. He should identify himself with the God & not with the body-universe. He has to desert oneness with the body to assimilate in the Almighty-Brahm. He should attach-align himself with the God-the Kshetragy. In fact the God HIMSELF is present in the creature-organism-humans etc. This understanding is enlightenment. Learning of various languages, arts, three abodes, 14 heavenly abodes is useless, since it repels the organism away from the God.
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु॥13.3॥
वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिससे जो पैदा हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मुझ से सुन।
The Almighty asked Arjun to listen to the characteristic of the Kshetr-creations, its defects and the origin of the produces and the creator-the Kshetragy his effects, impacts, powers in brief.
परमात्मा श्री कृष्ण ने अर्जुन को उस क्षेत्र का स्वरूप, स्वभाव, प्रकृति तथा वह जिससे वह पैदा हुआ है, उस क्षेत्रज्ञ का वर्णन उसका स्वरूप, प्रभाव आदि सब प्रकार का वर्णन संक्षेप में सुनने कहा।
The Almighty desired to narrate in brief the creation (universe & the human body) with its configuration, nature, form and Who has produced it with its configuration, effects-characteristic.
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः॥13.4॥
यह क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों के द्वारा बहुत विस्तार से कहा गया है तथा वेदों की ऋचाओं द्वारा बहुत प्रकार से विभाग पूर्वक कहा गया है और युक्ति-युक्त एवं निश्चित किये हुए ब्रह्म सूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है।
The sages, seers, ancient scholars, authors have separately described the gist of creation and the creator (Soul & the Almighty) in various ways-forms in great detail, in the Vedic hymns and also in very logical, conclusive and convincing verses of Brahm Sutr (formulae discussing step by step in very-very precise, accurate manner) & other scriptures.
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का यह ज्ञान-भेद सबसे पहले भगवान् श्री हरी विष्णु ने ब्रह्मा जी को और फिर वैदिक मन्त्रों के द्रष्टा अन्यानेक ऋषियों-मुनियों के द्वारा अपने-अपने शास्त्र-स्मृतियों सहित वेदों (ऋक्, यजुः, साम और अथर्व) की संहिता और ब्राह्मणों के भागों के मन्त्रों के अन्तर्गत सम्पूर्ण उपनिषद्, शास्त्रों, स्मृतियों पुराणों और ग्रन्थों में जड़-चेतन, सत्-असत्, शरीर-शरीरी, देह-देही, नित्य-अनित्य आदि शब्दों में बहुत विस्तार और बेहद युक्ति-युक्त तरीके से समझाया है।
Bhagwan Vishnu first passed on the knowledge of the difference of Kshetr-the creation & Kshetragy-the creator to Brahma Ji, who in turn transferred in depth knowledge to the sages, seers, virtuous scholars, philosophers through the treatises, verses, hymns of the 4 Veds (Rik, Yajur, Sam and Atharv), Brahmans (scriptures sub dividing and elaborating the intricate details step by step in order to make the meaning, absolutely clear; in the form of formulae-various permutations & combinations), Upnishads, Purans, Vedant memories-Smratis and various other sub titles from time to time, explaining the intricacies of living & non living, pious-virtuous & vices, body & soul, embodied & without body, existent & non existent in very logical and orderly sequences.
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः॥13.5॥
मूल प्रकृति और समष्टि बुद्धि (महत्तत्व), समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत और दस इन्द्रियाँ, एक मन तथा पाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय-यही 24 तत्वों वाला क्षेत्र है।
The Kshetr (human body) constitutes of nature and macro intelligence, ego (I, my, me, mine; Id, ego, super ego) five basic elements, ten organs, mind, five sense objects; in total 24 elements.
अव्यक्त मूल प्रकृति है। समष्टि बुद्धि से अहंकार उत्पन्न होता है। पञ्च महाभूत का कारण होने से यह प्रकृति है और विकृति भी है। 5 महाभूत पृथ्वी, जल, तेज़, वायु और आकाश हैं। दस इन्द्रियों में 5 ज्ञानेन्द्रियाँ श्रोत्र (कान), त्वचा (खाल-स्पर्श), नेत्र (आँखें), रसना (जीभ) और घ्राण (नाक) हैं। 5 कर्मेन्द्रियाँ वाक् (बोलना), पाणि, पाद (पैर), उपस्थ और पायु हैं। अपञ्चिकृत महाभूतों से पैदा होने के कारण और स्वयं किसी का भी कारण ने होने से मन केवल विकृति ही है। शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गन्ध 5 ज्ञानेन्द्रियों के 5 विषय हैं।
The human body constitutes of 24 basic elements-components which are obtained from nature along with intelligence, ego, 5 basic physical components earth, water, air, energy and the sky. There are 10 organs constituting of 5 sense organs including ears, skin, eyes, tongue and nose with 5 functional organs i.e., organs of work speech-tongue, hands, feet, reproduction organs and the organs of excretion. The mind (innerself, will, gestures, desires, mood, thoughts, imagination etc.) represent defects. Sound, speech, beauty (shape, figure), extracts-juices and scent are the 5 motives of sense organs.
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्॥13.6॥
इच्छा, द्वेष, सुःख, दुःख, संघात (stroke, heap, striking, impact, striking down, a group, a heavy blow, collection, quantity, mass, blow, multitude), चेतना (प्राण शक्ति) और घृति; इन विकारों सहित यह क्षेत्र संक्षेप से कहा गया है।
This entire body (field, Kshetr, creation) has been briefly described with its transformations as the one constituting of desire, envy-hatred, pleasure, pain, the physical body, consciousness and resolve.
इच्छा मूल विकार है। समस्त पाप, दोष और दुःख इच्छाओं से ही पैदा होते हैं। कामना और अभिमान में बाधा उत्पन्न होने पर क्रोध पैदा होता है, जो कि द्वेष, डाह (जलन-ईर्ष्या) का सूक्ष्म रुप है। अनुकूल परिस्थितियाँ मन में सुःख पैदा करती हैं। प्रतिकूल, मन-इच्छा के विपरीत परिस्थितियाँ दुःखदाई होती हैं। 24 तत्वों से बने शरीर समूह को हानि-कष्ट पहुँचने को संघात कहा गया है। शरीर का उत्पन्न होकर सत्ता रूप में दिखना और उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहना भी विकार है। प्राण शक्ति (dynamia, elan vital, life force) को चेतना कहा गया है, जो कि परिवर्तनशील है, क्योंकि यह निरन्तर नष्ट होती-घटती रहती है। प्राणमय शरीर को चेतन और निष्प्राण को अचेतन माना गया है। धैर्य-धारणा शक्ति (patience, resolve, endurance, fortitude, courage, boldness) को घृति कहा गया है। धैर्य का कम ज्यादा होना भी विकार है। इसी प्रकार समष्टि और व्यष्टि शरीर के एकता लिये हुए, विकार हैं। शरीर के साथ तादात्म्य होने पर जो ये विकार होते हैं, उनको ज्ञान के द्वारा मिटाया जा सकता है।
The desire-wants constitute the main defect with the human beings. All sins-defects are the outcome of desires-longing. Obstacles-obstructions in the fulfilment of desires generate-create anger (ego, pride), which gives rise to envy-feeling of revenge, reciprocate-strike back. Favourable conditions generate pleasure while anti-opposite conditions generate pain. The group of 24 entities called body-Kshetr (heap, group, collection, quantity, mass, multitude) is harmed due to strike (blow, stroke, impact). Creation & appearance of the body is a defect in itself. The dynamia, elan vital, life force is called consciousness which too is slowing down-receding every moment, thus a defect. The body with soul is called conscious, (alive, living) and the one without soul is called unconscious (non living, dead). The capability to bear-tolerate is patience, which too is diminishing or increasing, making it a defect. The micro or macro status of the body which are generated with the development of rapport with the body, are defects in themselves, which can be controlled (reduced, minimised) by making use of knowledge-enlightenment.
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥13.7॥
अपने में श्रेष्ठता का भाव न होना, दिखावटीपन न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, स्थिरता और मन का वश में होना।
One ought to have qualities like humility, modesty, nonviolence, forgiveness, simplicity-honesty, service of elders-Guru, internal & external purity of thought, (in word and deed) steadfastness, self restraint-control in him.
मनुष्य में किसी भी प्रकार से बड़प्पन-श्रेष्ठता का भाव-अहंकार नहीं होना चाहिये। साधक में अहम् भाव कम होने से वह चिन्मयता (pervaded or permeated by pure consciousness) की ओर तेज़ी से बढ़ेगा। मनुष्य के द्वारा अपने से श्रेष्ठ पुरुषों, तत्वज्ञों, अपने से बड़ों की संगत-दूसरों की विशेषता का सम्मान करने से, मान (गरूर, घमण्ड, अहंकार) श्रेष्ठता का भाव उत्पन्न नहीं होगा। ज्ञान मार्ग में भय का अभाव होने से तत्व ज्ञानी सभी जगह प्रभु को ही देखता है। मानीपन का अभाव स्वतः हो जाता है। वह शरीर से एकता नहीं मानता। परमात्मा को सभी जगह देखने से उसमें अभय हो जाता है। दम्भ बनावटी पन-दिखावटी पन की निशानी और दुर्गुण है। इससे साधक में स्थिलता आ जाती है। मनुष्य में किसी भी प्रकार की हिंसा (अपने द्वारा, किसी अन्य से करवाकर या अनुमोदित-समर्थन करके) नहीं होनी चाहिये। साधक को सबके हित सुख, सेवा में ही अपना भला देखना चाहिए। साधक में क्षमा, सामर्थ होते हुए भी दण्ड न देने, बदले की भावना नहीं होनी चाहिये तथा उसमें सहनशीलता होनी चाहिये। मनुष्य में अकड़-ऐंठ, न होना, कपट, ईर्ष्या, द्वेष, छल, व्यंग, निंदा, चुगली न करना, अपमानजनक शब्द न बोलना सरलता की निशानी हैं। अपने से बड़े, ज्ञानी, विद्वान, बुजुर्ग आदि के प्रति सेवा, आदर-सत्कार, समर्पण का भाव होना चाहिये। शिष्य का कर्तव्य है गुरु की सेवा और गुरु का कर्तव्य है, शिष्य का कल्याण। मनुष्य में अन्तःकरण और वाह्य दोनों प्रकार की शुद्धि होनी ज़रूरी है। भगवान् के प्रति दृढ़ विश्वास, विचलित न होना, भोगों और संग्रह के प्रति अनासक्ति, शास्त्र व संतों के वचनों के प्रति विश्वास, होने से साधक में स्थिरता आ जायेगी। राग-द्वेष को छोड़ना मन को काबू-वश में करना आत्म-निग्रह है।
One who is dedicated to the Almighty should be free from ego-pride of any kind. Absence-discarding of ego (I, my, mine, me) helps him moving towards pure, pervaded, permeated consciousness. Company of the enlightened, scholars, philosophers, saints, elders, Guru will eliminate the feeling of being big, greater than others (greater, inferior etc. are relative terms). Being enlightened or having attained the gist of the God, will make him see the God, everywhere in each and everyone. He does not recognise himself with the body, discarding attachment with the world. Having witnessed Almighty everywhere, will make him fearless-bold. Showing off-demonstrative behaviour is a bad habit-omen, which makes the practitioner still, static, inertial, lethargic, retarding his movement towards the Ultimate. He should discard violence and forgive the guilty in spite of being capable of punishing him. He should not support violence of any kind-nature. He should be devoted to the service of the mankind, poor, needy, human welfare. He should be tolerant. He should not indulge in vices or abusing or insulting others, in any way-means. He should not be deceptive, envious and abstain from backbiting or making fun of others. He should serve the elders, saints, enlightened, scholars, philosophers and they should reciprocate him through well wishes-blessings. His internal and external faculties should be pure. He should have firm faith in the God-eternity. He should discard comforts, collection of goods and commodities. He would gain confidence through these means leading to steadfastness, self restraint-control in him. He should discard enmity with others. He will be able to control-stabilise himself.
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥13.8॥
साधक का इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य होना, अहंकार का न होना और जन्म, मृत्यु वृद्धावस्था तथा व्याधियों में दुःख रूप दोषों को बार-बार देखना चाहिये।
The practitioner should evolve aversion towards sense objects, absence of ego, constant reflection on pain and suffering inherent in birth, old age, disease and death.
साधक को जीवन-निर्वाह के लिये विषयों का सेवन करते हुए भी उनके प्रति राग, आसक्ति या लगाव नहीं होना चाहिये। विवेक का सहारा लेकर अहंकार-अभिमान, दम्भ का त्याग कर देना चाहिये। मनुष्य जब जन्म-मृत्यु, वृद्धावस्था और बार-बार होने वाली व्याधि-बीमारियों के बारे में विचार करता है, तो उसका उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थों में राग कम हो जाता है और वो भोगों से वैराग्य की ओर मुड़ जाता है। शरीर आदि जड़ पदार्थों के प्रति उसका मोह भंग हो जाता है। नाशवान-नश्वर वस्तुओं में सुख की खोज ही दुःख-परेशानी का कारण है।
The devotee-practitioner should continue to utilise the commodities, faculties meant for survival without attaching-devoting himself to them. Whosoever has born, has to go one day or the other. Attachment and pride due to the availability of perishable-mortal goods, titles is the cause of pain. Prudence helps one in detaching with the ego. He should consider (see, find) the cause of pain in birth, death, old age & illness-disease in comforts, consumption and attachment with the material-perishable world. The human body is material-perishable. Desire to trace pleasure in it and the worldly objects causes pain-sorrow.
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥13.9॥
आसक्ति रहित होना, पुत्र, स्त्री, घर आदि में एकात्मता (घनिष्ठ) सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलता प्राप्ति में चित्त का नित्य सम रहना।
One should perform his Varnashram duties as a house hold carefully, with devotion-perfection, neutrally without attachment, involvement-fondness (avoidance of close affinity, which becomes an obstacle in Liberation) with son, wife, home & to maintain unfailing equanimity towards attainment of the desirable and the undesirable.
संसार और उसके प्राणियों, परिवार, घटनाक्रम, परिस्थिति के प्रति आसक्ति मुक्ति में बाधक है, क्योंकि मनुष्य इनमें सुख देखता है, जो कि संयोग से प्राप्त होता है, जबकि वास्तविक सुख संयोग से वियोग है। उसे अपने वर्णाश्रम धर्म-कर्तव्यों का पालन निष्ठा और ईमानदारी के साथ, बगैर लिप्त हुए करना चाहिये। वह सुख-दुख, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति सम भाव रखे। मन को शान्त-विकारहीन रखे। इससे ऊँचा उठकर परमात्म तत्व में ध्यान लगाने से साधक का चित्त इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में स्वतः सम रहेगा।
Involvement in the worldly activities-affairs, family, incidents-events, occasions, favourable or difficult situations, make it difficult for the practitioner to attain emancipation (Liberation, assimilation in God, Salvation) in the Almighty. One finds pleasure-bliss in family, son, wife, home etc., which is bound to come by virtue of destiny. One should perform his Varnashram Dharm-duties with dedication-honestly without being involved. He should be neutral-isolated to pleasure & pain, keep the cool of mind and maintain equanimity with the desirable and undesirable. He should rise above the physical-material world & meditate in the God, which will keep him free from indulgence in material world.
Please refer to :: ASHTAWAKR GEETA santoshkipathshala.blogspot.com
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥13.10॥
मुझ में अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और जन समुदाय में प्रीति का न होना।
The Almighty explained that one should have and unswerving, undivided faith, devotion in HIM through single-minded contemplation, habit of living in remote (isolated, solitude, away from the public-hustle & bustle i.e., distaste for social-public gatherings, gossips) to concentrate-meditate in HIM.
परमात्मा ने बताया कि देहाभिमान, तत्व ज्ञान और भक्ति में बाधक है। अनन्य योग अर्थात केवल प्रभु की शरण के द्वारा मनुष्य सरलता से देहाभिमान से मुक्त हो सकता है। साधक तत्व ज्ञान से भक्ति की प्राप्ति कर सकता है। कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों ही मार्ग परमात्मा की प्राप्ति में सहायक हैं। ज्ञान योग में भाव और विवेक दोनों ही सहयोगी क्रियाएँ हैं। एकान्त-निर्जन में मनुष्य का ध्यान नहीं बँटता और स्वाभाविक रुप से साधना सम्पन्न हो जाती है।
The ego of being an entity, something, obstruct in realising the gist (nectar, elixir) of enlightenment and devotion. One can free himself from this defect of ego of having the human incarnation, by taking shelter under the God. Gist of enlightenment helps in undivided-single minded contemplation-devotion. Three routes Karm Yog, Gyan Yog and the Bhakti Yog to Ultimate are helpful in realising the God. Gyan Yog has temperament, essence, gesture and prudence which helps in the realisation of God. Solitude helps one in concentrating in the Almighty.
ईश्वर हमें परम, अव्यय, विकार रहित, अद्वितीय, अनन्य, अक्षर, अनन्त, प्रेममयी सात्विक भक्ति प्रदान करें।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥13.11॥
अध्यात्म ज्ञान में नित्य-निरन्तर रहना, तत्व ज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा को सब जगह देखना, ये (पूर्वोक्त बीस साधन समुदाय) तो ज्ञान है और जो इसके विपरीत है, वह अज्ञान है, ऐसा कहा गया है।
It has been said that the 20 postulates of enlightenment explained in earlier 10 verses constitute the core of knowledge i.e., the Tatv Gyan-the gist of the Almighty and the rest is ignorance & one should be steadfast in acquiring the knowledge of Spirit-Soul and seeing the omnipresent Supreme Being everywhere.
इसके पहले के 10 श्लोकों में 20 साधन कहे गए हैं, जो साधक की मुक्ति में सहायक हैं और जिनके अतिरिक्त शेष सब अज्ञान है। वे परमात्म तत्व को स्पष्ट करते हैं। साधक हर वक्त परमात्मा का चिन्तन करें और समझे कि यह संसार नित्य-निरन्तर नहीं है और निस्सार है, जबकि परमात्मा नित्य निरन्तर है और उसके सिवाय किसी अन्य की कोई सत्ता नहीं है। मनुष्य तत्वज्ञ महापुरुषों से तत्व ज्ञान और दर्शन सम्बन्धी मार्ग दर्शन ग्रहण करे। उसका लक्ष्य केवल मात्र परमात्मा हो और कुछ नहीं। साधक बुद्धि-विवेक का सहारा लेकर दुर्गुणों का त्याग करे और समता, वैराग्य को ग्रहण करे। क्षेत्र-शरीर और क्षेत्रज्ञ-आत्मा (परमात्मा) को अलग-अलग समझे और उसके अनुरुप व्यवहार करते हुए देहाभिमान से मुक्त हो जाये।
The practitioner should understand the message given in earlier 10 verses in the form of 20 ideals-guide lines and try to understand the gist of the Almighty through meditation-concentration and ultimately penetration. These 20 postulates constitute the core of knowledge-enlightenment and the rest is mere ignorance. He should realise that the world is non entity. It is perishable. Its advantageous to the devotee in the form of the place which can be used for the achievement of the God. Its a means, not the goal. Except the God everything is perishable, meaning less, nonexistent in due course of time. He should seek guidance from the saints, sages, priests, philosophers, scholars, epics, scriptures and think of the reality behind creation, its purpose-motive which is nothing except preparation of the devotee to assimilate in the God. His sole goal is Almighty and nothing else. He should know the creation as body and the creator as the God and decide his course in future.
Please refer to :: ULTIMATE KNOWLEDGE ब्रह्म ज्ञान-परमात्म तत्व ALMIGHTY-THE GOD (2) GIST-EXTRACT santoshsuvichar.blogspot.com
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादि मत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥13.12॥
अनादि मत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥13.12॥
जो ज्ञेय (पूर्वोक्त ज्ञान से जानने योग्य) है, उस (परमात्म-तत्व) को मैं अच्छी तरह कहूँगा, जिसको जानकर (मनुष्य) अमरता का अनुभव कर लेता है। वह (ज्ञेय-तत्व) अनादि वाला (और) परम ब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है (और) न असत् (non existent, unfounded, illusory, untruth, falsehood, unreal) ही (कहा जा सकता है)।
Bhagwan Shri Krashn asserted that he would fully describe the Parmatm-Tatv (the gist of the Ultimate knowledge, ought to be known) object of knowledge, by knowing which one experiences immortality. The immortal-imperishable is Par Brahm-Supreme Being, who can not be called either existent-eternal or non-existent-temporal.
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि वे उस ज्ञेय-जानने योग्य परमात्म-तत्व को स्पष्ट करेंगे, जिसकी प्राप्ति के लिये मानव शरीर प्राप्त हुआ है। परमात्म-तत्व को जानने के बाद मनुष्य अमरता का अनुभव करता है। उस आदि अन्त रहित, परमात्मा से ही संसार उत्पन्न होता है और उसी में विलीन हो जाता है। वह आदि, मध्य और अन्त में यथावत रहता है। उस परमात्मा को ही परम ब्रह्म कहा गया है। उसके सिवाय अन्य कोई दूसरा व्यापक (comprehensive, pervasive), निर्विकार (immutable, invariable, unchanged, without defect), सदा रहने वाला तत्व नहीं है। उसे न सत् और न ही असत् कहा जा सकता है, क्योंकि वह बुद्धि का विषय नहीं है। वह ज्ञेय तत्व मन, वाणी और बुद्धि से सर्वथा अतीत है। उसका शब्दों में वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।
Bhagwan Shri Krashn told Arjun that HE would make clear the concept (gist) of the Ultimate knowledge to him, for achieving which human incarnation is obtained. Having recognised the Parmatm Tatv (the gist, nectar, elixir of the Almighty) the practitioner-devotee experiences immortality. The universe takes birth in that endless-perennial (चिरस्थायी, forever) Almighty and vanishes in HIM. HE remains as such in the beginning, middle and at the end. That God is called-termed as Par Brahm. Nothing other than HIM is comprehensive, defect less and for ever. HE is neither existent-eternal nor non-existent-temporal, since HE is beyond the limits of brain-intellect. HE is the only one who ought to be known; is beyond imagination, thought, intelligence and speech. Its not possible to describe HIM in words.
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥13.13॥
वे (परमात्मा) सब जगह हाथों और पैरों वाले, सब जगह नेत्रों, सिरों और मुखों (तथा) सब जगह कानों वाले हैं। वे संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं।
The Almighty has HIS hands, feet, eyes, head, mouth and ears everywhere, because HE is all-pervading and omnipresent.
परमेश्वर के हाथ, पैर, नेत्र, सिर, मुख तथा कान सब जगह हैं, क्योंकि वो समस्त संसार में व्याप्त है। वो भक्तों की भेंट स्वीकार करने और मदद करने को हर जगह मौजूद है। संकट में (सच्चे हृदय और समर्पण भाव से) पुकारने पर वो तुरन्त पहुँच जाते हैं। भगवान् को प्रसन्न करने को भक्त पूजा-पाठ, नृत्य आदि जो कुछ भी करता है, वो उसको देखते रहते हैं। भक्त जहाँ कहीं भी, उन्हें भोग लगाता है, वो उसे ग्रहण कर लेते हैं। प्रत्येक भक्त के पास, वे हर वक्त मौजूद हैं। भक्त उन्हें फल, फूल, चन्दन, अगर, इत्र, फुलेल-खुशबू, दीप माला आदि जो कुछ भी अर्पित करता है, उसे वह मस्तक पर धारण करते हैं। वे देश, काल, वस्तु, आदि की सीमा में नहीं बँधे हैं। अनन्त सृष्टियाँ, बृह्माण्ड, ऐश्वर्य परमात्मा के अन्तर्गत हैं। उसके सिवाय अन्य कहीं कुछ भी नहीं है।
The Almighty has HIS hands, feet, eyes, head, mouth and ears everywhere. HE is all-pervading and omnipresent. HE accepts the offerings of the devotees and reaches everywhere to help them. He reaches the devotee as and when he remembers-calls HIM with pure heart & love, while under grave trouble-distress. HE stand by the devotee in an hour of need-trouble and rescues them. HE continuously watches the prayers, worship and dance-music performed by the devotee to appease HIM. HE accepts the eatables by the devotee. HE is present with the devotee at all places-situations, country, time. HE is not bound by the boundaries of any place. HE accepts the fruits, flowers, sandal wood paste, scents, incense-aloe, fragrance perfumes offered by the devotee with love. Infinite universes, creations, comforts are under the control of the Almighty. There is nothing else except HIM anywhere.
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥13.14॥
वे (परमात्मा) सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को प्रकाशित करने वाले हैं; आसक्ति रहित हैं और सम्पूर्ण संसार का भरण-पोषण करने वाले हैं तथा गुणों से रहित हैं और सम्पूर्ण गुणों के भोक्ता हैं।
The Almighty who creates the objects of sensuality & senses is free from sensual organs, is detached-free from bonds-ties, allurements, affections, sustains the entire world, free from characteristics, traits, qualities, distinctions, along with the receptor-consumer of all of them.
परमात्मा प्रकृति को अपने अधीन करके अवतार ग्रहण करते हैं। वे गुणातीत हैं। परमात्मा की किसी के प्रति आसक्ति नहीं हैं। सभी प्रकार की इन्द्रियों से रहित होकर भी समस्त प्राणियों का पालन-पोषण करते हैं। सम्पूर्ण गुणों से रहित होकर भी, वे समस्त गुणों के भोक्ता हैं। समग्र परमात्मा ही ज्ञेय तत्व है। सबसे रहित और सबके सहित वही है।
The Almighty takes incarnations by controlling the nature. HE is free from all types-sorts of characteristics, traits, qualities, distinction. HE do not possess sense or functional organs and yet HE performs all deeds. In spite being free from all characters HE possesses all the characteristics. The God is the only one who should be known to be the ONE WHO has given birth to all living & non living. HE is away from all and still stands by all.
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥13.15॥
वे (परमात्मा) सम्पूर्ण प्रणियों के बाहर-भीतर (परिपूर्ण हैं) और चर-अचर (प्राणियों के रुप में) भी (वे ही हैं) एवं दूर से दूर तथा नजदीक से नजदीक भी (वे ही हैं) और वे अत्यन्त सूक्ष्म होने से जानने में नहीं आते।
HE is present-pervaded both inside as well as outside of all creatures, organisms, living beings, animate and inanimate. HE is incomprehensible because of HIS subtlety and because of HIS omnipresence, HE is very near, residing in one's innerself, psyche; as well as far away in the Supreme Abode. HE remain unrecognised being extremely small.
सम्पूर्ण चर-अचर प्राणियों के समुदायों और उनके बाहर-भीतर परमेश्वर विराजमान है अर्थात संसार में परमात्मा के अलावा, अन्य कुछ भी नहीं है। सभी कुछ तो परमात्मा के द्वारा, परमात्मा से ही बना हुआ है। वो ईश्वर दूर से दूर और पास से भी पास है। पहले से भी पहले, वे ईश्वर थे और पीछे से भी पीछे वे परमेश्वर ही रहेंगे और अब वर्तमान में भी वे परमेश्वर हैं। सम्पूर्ण वस्तुओं के पहले भी वे ही परमात्मा हैं, वस्तुओं के अन्त में भी वे ही परमात्मा हैं और वस्तुओं के रुप में भी वे ही परमात्मा हैं। उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थों के संग्रह और सुख-भोग की इच्छा रखने वालों के लिये, तत्वतः समीप होते हुए भी, परमेश्वर उनसे दूर हैं। जो भगवान् का भक्त है, उनकी छत्र-छाया में है, परमात्मा हर दम, हर वक्त उसके करीब-साथ हैं। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण परमात्मा इन्द्रियों, मन और बुद्धि से अनुभव नहीं जा सकते, क्योंकि वे इनकी पहुँच से परे हैं। जीवों के अज्ञान के कारण ही परमात्मा उनके द्वारा नहीं जाने जाते अर्थात अज्ञेय हैं। इन्द्रियों, मन, बुद्धि से न जाने से वे अविज्ञेय हैं। सर्वत्र परिपूर्ण-आच्छादित परमात्मा को जानने की लिये साधक-भक्त दृढ़ता पूर्वक यह स्वीकार कर ले कि वे सर्वव्यापी हैं।
The God is present-pervade both inside and out side the organism. There is nothing except the Almighty. Everything is made-composed of the God. The God is far, as well as near-close to the organism. HE was present initially, will be present at the termination (of this era) and is present now. HE was present before all material objects, will be present at their devastation and is present in the form of material objects-commodities. The Almighty is away-far from those who possess wants-desires of consumption, comforts, accumulation, passions. Though in gist, HE is close to all, yet away from those who are not free from desires. HE is too small to be perceived through the senses, intelligence or will-desire. HE is out of the influence of will, brain and the senses. HE can not be identified through the senses, mind or imagination. The Almighty pervades all yet remains out of reach from those who do not recognise HIS existence. Lack of knowledge, enlightenment, learning (awakening, wisdom), makes it difficult for the individual to know, identify, recognise HIM. To know HIM the devotee-individual should have firm conviction that HE is omnipresent and always with him.
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च॥13.16॥
वे परमात्मा स्वयं विभाग रहित होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियों में विभक्त की तरह स्थित है और वे जानने योग्य परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाले तथा उनका भरण-पोषण करने वाले और संहार करने वाले हैं।
The Almighty though free from division, yet HE is present in all the living beings as a fraction. The Almighty should be known as the creator (Bhagwan Brahma), nurturer (Bhagwan Vishnu) and destroyer (Bhagwan Shiv-Mahesh).
The Almighty though free from division, yet HE is present in all the living beings as a fraction. The Almighty should be known as the creator (Bhagwan Brahma), nurturer (Bhagwan Vishnu) and destroyer (Bhagwan Shiv-Mahesh).
परमात्मा स्वयं विभाग रहित होते हुए भी समस्त प्राणियों में मौजूद हैं अर्थात समस्त प्राणियों में वह स्वयं उपस्थित हैं। वो ही प्राणियों को उत्पन्न करने, पालन-पोषण करने और संहार करने वाले हैं। रजोगुण की प्रधानता से वे भगवान् ब्रह्मा, सतोगुण की प्रधानता से भगवान् श्री हरी विष्णु और तमो गुण की प्रधानता से वे भगवान् शिव-महेश हैं। सृष्टि रचनादि कार्यों के लिये भिन्न-भिन्न गुणों को स्वीकार करने पर भी वे उन गुणों के वशीभूत नहीं होते और गुणों पर उनका पूर्ण आधिपत्य बना रहता है। उत्पन्न करने वाले भी और उत्पन्न होने वाले भी; वे स्वयं परमात्मा ही हैं। वे एक होते हुए भी अनेक और अनेक होते हुए भी एक हैं।
The Almighty is not divisible in fragments (parts, units, components). HIS presence in the living beings illustrates-shows HIM as an absolute-single entity. (Water irrespective of source, container, form, shape, size, state is water H2O.) HE creates, nurtures and then destroys the organism according to their deeds. HE is present in the form of the trinity of Bhagwan Brahma, Bhagwan Shri Hari Vishnu and Bhagwan Mahesh-Shiv, with Rajsik, Satvik and Tamsik tendencies respectively. For creating, maintaining and destroying the living beings HE accepts various characteristics (qualities, traits) without being controlled-over powered by them. HE is in the drivers seat, with full control over them. HE evolves and get evolved. HE presents HIMSELF in multiple forms in spite of multiplicity, HE is one.
Dev Rishi Narad compelled by his habit of poking his nose in other's affairs, visited the palaces of one after another queen (16,009) of Bhagwan Shri Krashn including the court. He found Bhagwan Shri Krashn present every where.
During Maha Ras too HE illustrated his multiple forms.
Bhagwan Brahma Ji took away all Gwal Bal to Brahmn Lok and found that all of them present over the earth as well in Mathura. He realised that the Almighty had appeared in numerous incarnations as Gwal Bal.
Both of them-Narad Ji & Brahma Ji, immediately realised that the Almighty had appeared over the earth HIM SELF.
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥13.17॥
वे परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियों के भी ज्योति और अज्ञान से अत्यन्त परे कहे गए हैं। वे ज्ञान स्वरूप, जानने योग्य, ज्ञान से प्राप्त करने योग्य और सबके हृदय में विराजमान हैं।
Almighty-the main source of all lights (all sorts of learning, knowledge), is said to be beyond ignorance. HE is the embodiment of all sorts of enlightenment-knowable, which can be achieved through enlightenment-learning and HE is seated in the hearts (soul, mind, senses) of all living beings.
परमात्मा से ही सम्पूर्ण ज्ञान उदय-प्रकट हुआ है। वे ही समस्त ज्ञान की ज्योति हैं अर्थात चराचर में सम्पूर्ण ज्ञान के स्त्रोत और आधार वही हैं। जहाँ वे उपस्थित हैं, वहाँ अज्ञान-अन्धकार नहीं है। वे ज्ञान स्वरूप ही जानने योग्य, ज्ञान से प्राप्त करने योग्य-ज्ञेय और सबके हृदय में विराजमान हैं। वे ही सात्विक, राजसिक और तामसिक ज्ञान हैं। यद्यपि वे विभाजित नहीं हैं, तथापि विभाजित नज़र आते हैं।
All learning has emerged from the God. HE is the source of all knowledge. Entire knowledge is sourced from HIM. Enlightened, scholars, philosophers acquire a fraction of enlightenment pertaining to HIM, who is the only one to be known. HE is present in the innerself, psyche-mind & heart of all living beings. All forms of learning :- Satvik, Rajsik and Tamsik are HIS forms. They appear to be different but have the same origin. The God appears divided-distinguished but in reality HE is unique, one and only one. Bhagwan Shri Hari Vishnu, Brahma Ji and Bhagwan Shiv-Mahesh in addition to Bhagwan Ved Vyas, Ganpati, Maa Saraswati different-different scholars, who wrote various treatises on various subjects, arts are all HIS replica-forms.
Any thing excellent, beyond compare-parallel is HIS form.
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते॥13.18॥
इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और ज्ञेय को संक्षेप से कहा गया है। मेरा भक्त इसको तत्व से जानकर मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है।
In this manner the Almighty discussed the creation (body and the universe) as well as the knowledge and HIMSELF. God's devotee assimilates in HIM, having grasped the gist (Tatv Gyan) of enlightenment.
पाँचवें और छटे श्लोक में क्षेत्र (शरीर और विश्व, उत्पत्ति), सातवें से ग्यारहवें तक ज्ञान और बारहवें से सत्रहवें श्लोक में ज्ञेय-परमात्मा का संक्षिप्त वर्णन है। जो भी भक्त-मनुष्य इन तीनों को तत्व से जान लेता है, वो परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। क्षेत्र (शरीर, प्रकृति) को ठीक तरीके से जान लेने पर उससे सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। ज्ञान होने से देहाभिमान नष्ट हो जाता है। ज्ञेय-परमात्मा को जान लेने पर उसकी प्राप्ति हो जाती है।
In this chapter Shlok-verses 5-6 describes the creation of human body, universe and the evolution, verses 7-11 discuss enlightenment-knowledge and verses 12-17 describes the God. One who has grasped the gist of all these; sails through the perishable world easily and assimilate in the Almighty, ultimately. Having understood these things, one should act with firm determination and pave his way to salvation, ultimate bliss. Understanding of the body, detaches one from it. Enlightenment eliminates the ego and the gist of the Ultimate makes him one with the God i.e., no birth after that.
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्॥13.19॥
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥13.20॥
प्रकृति और पुरुष दोनों को ही तुम अनादि समझो और विकारों तथा गुणों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न समझो। कार्य और करण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही जाती है और सुख-दुःखों के भोक्तापन में पुरुष हेतु कहा जाता है।
The Almighty said that the nature and the God are free from origin-beginning. They are forever and since ever. All defects and characteristics emerge from nature. Prakrati-the mother nature is the cause of production of actions, deeds, manifestations due to organs and action. Purush-the God is behind the cause, consumption, experiencing pleasures and pains in the form of soul in an individual.
ज्ञेय तत्व (परमात्मा) और पुरुष (क्षेत्रज्ञ) दोनों एक ही हैं। सम्पूर्ण क्षेत्र (जगत) की कारण रूप मूल प्रकृति ही है। सात प्रकृति-विकृति (पञ्च महाभूत, अहंकार और महत्त्वत्व) तथा सोलह विकृति (दस इन्द्रियाँ, मन और पाँच विषय), ये सभी प्रकृति के मूल कार्य हैं और प्रकृति इन सबकी मूल कारण हैं। जिस प्रकार परमात्मा का अंश यह पुरुष जीवात्मा है, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुष अनादि हैं। प्रकृति में गुण हैं और पुरुष गुण रहित है। प्रकृति में विकार होता है, पुरुष में नहीं। प्रकृति जगत का कारण बनती है, पुरुष किसी का कारण नहीं बनता। पुरुष और प्रकृति अलग-अलग हैं, यद्यपि दोनों ही की उत्पत्ति परमात्मा से ही हुई है। इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात चेतना और घृति ये सात विकार तथा सत्त्व, रज और तम ये गुण प्रकृति से उत्पन्न हैं। पुरुष में विकार और गुण नहीं हैं। साधक गुणों से अपना सम्बन्ध न मानकर ही गुणों से छूट सकता है। आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ये दस महाभूत और विषय कार्य हैं। श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण, वाणी, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा तथा मन, बुद्धि और अहंकार ये तेरह करण हैं; इनके द्वारा क्रियाऍं होती हैं और उनको उत्पन्न करने में प्रकृति ही हेतु है। जो उत्पन्न होता है, वो कार्य है और जिससे कार्य की सिद्धि होती है, वो करण है। प्रकृति का कार्य बुद्धि-महत्त्वत्व है और बुद्धि का कार्य अहंवृति-अहंकार है तो बुद्धि का कार्य, परन्तु इसके साथ तादात्म्य करके स्वयं बुद्धि का मालिक बन जाता है अर्थात कर्ता और भोक्ता बन जाता है। जब तत्व का बोध हो जाता है, तब स्वयं न कर्ता बनता है और न भोक्ता। अन्तःकरण और बहि:करण के द्वारा सभी क्रियाएं प्रकृति के द्वारा ही होती हैं। जड़ प्रकृति में सुख-दुःख की सामर्थ (सामर्थ्य) नहीं है। इनके भोक्तापन में पुरुष हेतु है। इनका असर चेतन पर होता है और वह सुख-दुःख से मुक्ति चाहता है। विकृति मात्र जड़ प्रकृति में है, चेतन में नहीं। वास्तव में सुख-दुःख चेतन का धर्म नहीं है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ व्यष्टि हैं और प्रकृति-पुरुष समष्टि हैं। शरीर-क्षेत्र और शरीरी-क्षेत्रज्ञ को एक मानना ही बन्धन है और इन दोनों को अलग-अनुभव करना ही मुक्ति है।
The factor ought to be known-the Almighty and the Purush-Kshetragy (occupier, Soul) are the same. The main cause-reason behind creation are 24 characters-ingredients which constitute the basic jobs-functions of nature.
Five Sense organs (Gyan, knowledge) :- Ear-hearing, Skin-touch, Eye-see, Tongue-taste, Nose-smell.
Five work organs (Karm-Karmandry) :- Anus-excretion, Pennies & vegina (urination & reproduction), Hand-work, Legs (walk, movement), Mouth (Eating & speech).
Five components of Man (has all the characteristics of sense and work organs, mind and heart together leads to decide, what one should to do or not to do) :- Prakrati (Nature-doer), Purush (devotee, doer), Mahatatv (significance, importance, Ultimate), Ahankar (Id, ego, super ego, I, My, Me, pride), Panchtanmatra (Jal, Vayu, Aakash, Prathvi, Tej).
There are 13 impliers constituting of 5 external (hands, feet, tongue, pennies, and anus), 5 internal (ears, eyes, skin, tongue, nose) and the remaining 3 rests inside the mind (Man, Intelligence Prudence and the Ego). Coordinated efforts of (1). Hands :- giving, taking, exchange, (2). Feet :- walk, run, movement, (3). Tongue :- Taste & Speech, (4). Pennies :- Reproduction, urination, (5). Anus :- Excretion, (6). Ears :- Hearing, (7). Eyes :- Seeing-watching, viewing, (8). Skin :- Touch, (9). Tongue :- Taste, (10). Nose :- Smell, (11). Man (innerself, Mind & heart) :- Desires, accomplishments, (12). Mind (Intelligence) :- Thoughts, Decision, Behaviour and (13). Ego :- Pride, glory.
The nature is the fundamental reason behind them. The soul is the fraction-component of the Almighty and the Almighty along with nature, since ever. They coexist. The nature has characteristics but the Almighty is free from characterises. Nature has defects-impurities but the God is pure-defect free. Nature is behind creation but the God is not. The God and nature are separate-differentiated. Evolution-creation is a function and one which helps in performance is the motive-implement. Nature evolves intelligence which gives rise to ego and the doer becomes performer-doer, due to this false pride. He becomes doer and the consumer side by side. When he realises the futility of both, he discards them. All performance :- inner or external are guided-motivated by the inertial-static nature. This inertial nature has no faculty-capacity to feel pleasure or pain. For this purpose, the soul is essential. It affects the conscious. But in reality, pleasure and pain are not the characterises of consciousness, as well. Defect-impurity lies with nature not with the conscious. The combination of soul and body exists at micro level, while at macro level, its the Almighty and the nature. To consider them both as one, is a hurdle (bond, tie), which obstructs Liberation-salvation. To experience the difference between the two is freedom, Liberation, emancipation, assimilation in the God.
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥13.21॥
प्रकृति में स्थित पुरुष (जीव) ही प्रकृति जन्य गुणों का भोक्ता बनता है और गुणों का संग ही इसके ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है।
The Purush-organism present in the nature-world, becomes the consumer of the qualities-traits associated with it and its association with them leads to birth-reincarnation in higher or lower species.
प्रकृति के तादात्म्य स्थापित होने पर प्राणी-मनुष्य में, मैं-मेरा, सुख-दुःख की भावना बनती है और उसे प्रकृति जन्य गुणों का भोक्ता बनाती है। जिन योनियों में सुख की बहुलता होती है, उनको सत्-योनि कहते हैं। जिन योनियों में दुःख की बहुलता होती है, उन्हें असत्-योनि कहते हैं। सत्-असत् योनियों में जन्म लेने का कारण गुणों का संग ही है। सत्त्व, रज और तम, ये तीनों गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। इन तीनों गुणों से ही सम्पूर्ण पदार्थों और क्रियाओं की उत्पत्ति होती है। प्रकृतिस्थ पुरुष जब इन गुणों के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब ये ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बन जाते हैं। यदि वह अपने स्वरूप में स्थित रहे, अहंता-ममता न रखे, तो वह सम हो जाता है। प्रकृति से सम्बन्ध से वह परतंत्र हो जाता है। प्रकृति के साथ सम्बन्ध अज्ञान है।
Rapport of the organism with the nature is responsible for ego. It creates the sense of ownership resulting in pain or pleasure. The species in which the soul experience mostly pleasure is virtuous-Sat one and in which it experiences mostly pain is wicked-foul (Asat), full of vices. The birth in Sat or Asat species is the association of the soul with good or bad, virtuous or wicked deeds. Satv, Raj or Tam; the 3 attributes of deeds, are born out of nature. Interaction with these three results in the acquisition of all material objects and performances-deeds. When the person considers himself to be related to nature i.e., a fraction of it, these attributes overpower him, resulting in his rebirth in good or bad, superior or inferior species.
If he maintains his status of equanimity with the three attributes and perform his deeds without attachment, affection or desires, he will be free from the impact of nature & ultimately attain emancipation, salvation-freedom from reincarnations. Influence of nature makes him bonded-a slave. His association with the nature is ignorance.
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥13.22॥
यह पुरुष शरीर के साथ सम्बन्ध रखने से उपद्रष्टा (spectator), उसके साथ मिलकर सहमति, अनुमति देने से अनुमन्ता (approver), अपने को उसका भरण-पोषण करने वाला मानने से भर्ता (supporter), उसके साथ संग से सुख-दुःख भोगने से भोक्ता और अपने को उसका स्वामी मानने से महेश्वर बन जाता है। परन्तु स्वरूप से यह पुरुष परमात्मा नाम से कहा-जाना जाता है। यह इस देह में रहता हुआ भी देह से सर्वथा सम्बन्ध रहित ही है।
The fraction of the Almighty who lives in the body as spirit-soul has been called Purush. HE witnesses, guides, supports, enjoys and controls it.
शरीर में रहने वाला यह पुरुष स्वरूप से नित्य, सब जगह परिपूर्ण, स्थिर, अचल, सदा रहने वाला है, परन्तु जब यह प्रकृति और उसके कार्य शरीर की तरफ दृष्टि डालता है अर्थात उसके साथ सम्बन्ध मानता है, तो उपद्रष्टा (निगाह, ध्यान, नज़र रखने वाला, spectator, witness, observer, viewer) हो जाता है। यह हरेक कार्य के करने में सम्मति, अनुमति देता है, अतः अनुमन्ता (व्यवस्थापक, नियंत्रक, approver, advisor-one presides and directs, one who promotes-permits-supports-allows) है। यह एक व्यष्टि शरीर के साथ मिलकर उसका भरण-पोषण करता हैं, शीत-उष्ण में उसका संरक्षण करता है, अतः भर्ता (protector, nurturer) है। शरीर के साथ मिलकर अनुकूल परिस्थिति में स्वयं को सुखी और प्रतिकूल परिस्थिति में दुःखी मानने से भोक्ता (भोगने, शासन करने वाला, enjoyer, user, consumer, occupant, occupier) है। अपने को शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि तथा धन-सम्पत्ति आदि का मालिक मानने से महेश्वर कहलाता है। पुरुष सर्वोत्कृष्ट, परम आत्मा है, अतः परमात्मा कहलाता है। देह में रहते हुए भी देह के साथ सम्बन्ध से स्वतः रहित है। यह शरीर में रहता हुआ भी न कर्ता (doer) है और न लिप्त होता है।
That fraction-constituent of the Almighty who lives in the body is forever, pervading all, static and forever. When it perceives-sees the nature and its constituent body, it forms a relationship-bond with it and becomes a witness-an observer. It becomes its promoter-advisor and promotes, permits, supports, allows, guides, presides & directs in every affair-matter. It supports, nurtures, protects the body from hunger, heat and cold. It becomes the consumer, enjoyer, user, when it experiences pain or pleasure with it. When it considers itself as the body, organs, intelligence, mind, brain, owner of wealth & property, it is termed Maheshwar-the destroyer. Purush is the Ultimate soul-spirit and hence called the God. In spite of residing in the body, it is detached, relinquished, unconcerned and unsmeared.
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते॥13.23॥
इस प्रकार पुरुष (परमात्मा) को और गुणों के सहित प्रकृति (माँ भगवती) को जो मनुष्य अलग-अलग जानता है, वह सब तरह का बर्ताव करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता।
On who distinguishes between the Purush-Soul and the characteristics associated with the Mother Nature, does not take rebirth-reincarnation in spite of behaving differently in different conditions-situations.
जिसका मनुष्य का विवेक जागृत हो गया है, वह अपने को देह के सम्बन्ध से रहित अनुभव करता है और गुणों के सहित प्रकृति को अपने से अलग अनुभव करता है। वह आसक्त मनुष्य की तरह सब प्रकार का व्यवहार करते हुए भी निर्विकार रहता है। उसमें असत् वस्तुओं की कामना पैदा हो ही नहीं सकती। कामना नहीं होने से उसके द्वारा निषिद्ध आचरण (misconduct-moral turpitude-improper behaviour, taboo) होना असम्भव है। साधक जब अपने आपको अकर्ता जान लेता है, तब उसका कर्तापन का अभिमान स्वतः नष्ट हो जाता है। कर्ता न होने के कारण वह भोक्ता भी नहीं होता। उसमें क्रिया की फलासक्ति भी नहीं रहती। फिर भी शास्त्र विहित क्रियाएँ स्वतः होती रहती हैं। गुणातीत होने के कारण वह पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता। प्रेम और बोध दोनों में ही गुणों का संग नहीं रहता। बोध में तो जन्म-मरण से मुक्ति प्राप्त होती है, परन्तु प्रेम में मुक्ति के साथ भगवान् से अभिन्नता होती है।
Growth of prudence makes one feel differently-distinguished from the physical-material relationship with the body (nature). He finds himself separated from the nature having characteristics. Though, he behaves like the indulged, enamoured, addicted, yet he remains unsmeared-detached. Desire of worldly goods cannot grow in him. Absence of desires dissociate him from vices (misconduct, moral turpitude improper behaviour). Having known-recognised himself as the non performer, the ego of being the doer is lost automatically. Since, he is not the doer, he is not the consumer as well. He is free from the desire for obtaining rewards for his deeds-endeavour. The essential acts pertaining to the body keep on performing by themselves. Since, he has freed himself from the clutches of the tributes-three basic characters of nature i.e., Satvik, Rajsik & Tamsik; he will not get rebirth. Attainment of affection-bonding with the Almighty, equanimity and realisation cuts the bonds-ties with the tributes-characteristics. Realisation grants him freedom from birth & rebirth, while love with the God makes him inseparable with HIM.
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥13.24॥
कई मनुष्य ध्यान योग के द्वारा, कई साँख्य योग के द्वारा और कई कर्म योग के द्वारा अपने-आप से अपने-आप में परमात्म तत्व का अनुभव करते हैं।
Various people experience the gist of the Almighty by themselves, in themselves through Dhyan Yog-Meditation, Sankhy Yog-Enlightenment and various others through Karm Yog-selfless performance without the desire of rewards, respectively.
ध्यान योग :: परमात्मा के मूर्त और अमूर्त रूप का चिंतन-स्मरण; meditation, concentration in the Almighty.
पाँचवें अध्याय के श्लोक 27 और 28, छटे अध्याय के श्लोक 10 से 28 तथा आठवें अध्याय के श्लोक 8 से 14 सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, सगुण-साकार और निर्गुण-निराकार आदि ध्यान के रूपों का वर्णन है। ध्यान योगी मन-चित्त को एकाग्र करके ध्यान-समाधि में साधक अपने-आप से अपने-आप में परमात्म तत्व का अनुभव करते हैं।
दूसरे अध्याय के श्लोक 11 से 30, चौथे अध्याय के श्लोक 33 से 39, पाँचवें अध्याय के 8, 9 तथा 13 से 26, बारहवें अध्याय के श्लोक 4 और 5 में वर्णित साधन साँख्य योग के माध्यम से साधक, अपने-आप से अपने-आप में विवेक के द्वारा परमात्म तत्व का अनुभव करते हैं।
दूसरे अध्याय के 47 से 53, तीसरे अध्याय के 7 से 19, चौथे अध्याय के 16 से 32 तथा पाँचवें अध्याय के श्लोक 6 और 7 में वर्णित कर्मयोग के माध्यम से साधक अपने-आप से अपने-आप में परमात्म तत्व का अनुभव करते हैं।
ध्यान योग से छटे अध्याय के श्लोक 28, साँख्य योग से दूसरे अध्याय के श्लोक 15 तथा कर्मयोग के माध्यम से दूसरे अध्याय के श्लोक 71 में परमात्म प्राप्ति के स्वतंत्र साधन बताये गये हैं।
The gist of the Almighty can be achieved through the practice of meditation with the help of Shlok 27 & 28 of chapter 5, Shlok 10-28 of chapter 6 and Shlok 8-14 of chapter 8 by concentrating in the God with HIS, with form & characterises, without forms & without characterises images.
Please refer to :: ALMIGHTY-THE GOD (2) GIST-EXTRACT ब्रह्म ज्ञान-परमात्म तत्व santoshsuvichar.blogspot.com
Enlightenment helps through the use of prudence & through the practice of Shlok 11 to 30 of chapter 2, Shlok 33 to 39 of chapter 4, Shlok 8 & 9 and Shlok 13 to 26 of chapter 5 and Shlok 4 & 5 of chapter 12, in achieving the God.
Performing own duties and Varnashram Dharm for the welfare of the society and helping others through the practice of Karm Yog described in Shlok 47 to 53 of chapter 2, Shlok 7 to 19 of chapter 3, Shlok 16 to 32 of chapter 4 and Shlok 6 & 7 of chapter 5, helps one experience the gist of the Almighty by them selves, in them selves.
Independent means have been described in chapter 6 of Shlok 28 through Dhyan Yog-meditation, through enlightenment-Sankhy Yog of chapter 2 in Shlok 15 and Karm Yog in chapter 2 in Shlok 71 to attain Salvation.
Karm Yog, Sankhy Yog, Dhyan Yog or Bhakti Yog, all leads to Salvation.
Karm Yog, Sankhy Yog, Dhyan Yog or Bhakti Yog, all leads to Salvation.
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः॥13.25॥
दूसरे मनुष्य जो इस प्रकार (ध्यान योग, साँख्य योग, कर्म योग आदि साधनों को) नहीं जानते, पर दूसरों से (जीवन्मुक्त महापुरुषों से) सुनकर ही उपासना करते हैं, ऐसे वे सुनकर आचरण करने वाले मनुष्य भी मृत्यु को तर जाते हैं।
Other human beings who do not have a chance of understanding or knowing the various faculties of Yog (Dhyan Yog, Gyan Yog, Bhakti Yog or Karm Yog), do cross, sail, transcend (पार करना, अतिक्रमण करना, surpass, excel, exceed, beat, trump, top, cap, outdo, outstrip, leave behind, outrank, outshine, eclipse, overstep, overshadow, up stage death) through the ocean of death, by listening to others-devoted, who are learned, enlightened, scholars, philosopher, sages, saints or those who have gone deeply-thoroughly through the scriptures, understood them and follow them.
संसार में अधिकांश व्यक्ति ऐसे हैं, जो ध्यान योग, साँख्य योग, कर्म योग, भक्ति योग हठ योग, लय योग आदि को न जानते हैं और न इनके बारे में कभी सुना है। ऐसे व्यक्ति भी जीवन्मुक्त महापुरुषों, साधु, संत महात्मा, विद्वानों, तत्वज्ञानियों, तत्वदर्शियों कथा वाचकों आदि को सुनकर अथवा शास्त्रों आदि का अध्ययन करके अपने जीवन को इस प्रकार ढ़ाल लेते हैं कि संसार सागर को पार कर जायें। केवल तत्वज्ञ, जीवन्मुक्त महापुरुषों की आज्ञा पालन से ही मनुष्य तर जाता है। इसी प्रकार गीता का अध्ययन करने-सुनने और आचरण करने से ही मनुष्य का कल्याण हो जाता है।
Majority of humans in this world constitutes of those who never had the opportunity to listen, understand or follow the scriptures, Karm Yog, Gyan Yog, Dhyan Yog, Lay Yog, Hath Yog or Bhakti Yog; still they do sail through the sea of death by listening to the enlightened, learned-scholars, relinquished, detached. One who is reading-listening and understanding the tenants of Geeta and adopting them in his life, is bound to sail through the tortures-pangs (कष्ट, यातनायाँ, suffering, pain, gripe, misery, hardships) of death.
Saty Kam, the son of Jvala, met Gautom Rishi for a transcendental learning. He was asked to look after a herd of cows, in the forest. When the number of cows crossed 1,000 as per the directive of the Guru, a bull requested him to return to the Ashram-abode of the Guru. The bull preached the first stanza of Brahm Gyan. On his way back Agni Dev enlightened him with the second stanza. A Hans-Swan then gave him the knowledge of the third step and thereafter, a bird called Madgu preached him the fourth step of Brahm Gyan. Having learnt the Brahm Gyan, he reached the Guru and requested the Guru to elaborate it, through his own mouth. The guru Gautom Rishi obliged him, which set him free from the clutches of death, just by following the orders of the Guide-Guru.
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यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥13.26॥
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥13.26॥
हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! स्थावर और जंगम जितने भी प्राणी पैदा होते हैं, उनको तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ (प्रकृति और परमात्मा) के संयोग से उत्पन्न हुआ समझो।
The Almighty addressed Arjun as the Ultimate amongest the Bharat Vanshi's (belonging to a certain dynasty, caste, clan, hierarchy) and said that who so ever was born was the result of interaction between the soul and the matter (The Almighty & the Nature) in animate or inanimate form.
परमात्मा ने स्पष्ट किया कि स्थावर और जंगम, सभी प्राणी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न होते हैं। उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थ क्षेत्र है और जो क्षेत्र का जानने वाला, उत्पत्ति-विनाश रहित एवं सदा एकरस रहने वाला है, वो क्षेत्रज्ञ है। उस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का शरीर के साथ अपने पन (मैं, मेरा) का सम्बन्ध, इन दोनों का संयोग है। इस शरीर के साथ अपनेपन का मानना ही पुनर्जन्म का कारण है।
The Almighty explained that all the movable and fixed living beings are created by virtue of the interaction-combination of the body and the soul. The body evolves and perish but the soul does not evolve or perish. Soul is forever, unique and unilateral component of the God. The conception of ownership of the body, results in birth and rebirth of the organism.
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥13.27॥
जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियों में परमेश्वर को नाश रहित और समरुप से स्थित देखता है, वही वास्तव में सही देखता है।
One who perceives-watches, sees the Almighty as immortal and equanimous in the perishable-mortal organisms, watches, perceives truly-rightly.
परमात्मा सभी प्राणियों में एक समान, एक सार समरुप में उपस्थित हैं। सभी प्राणी उत्पत्ति, स्थित और प्रलय, ऊँच-नीच गतियों में, योनियों में जाते हैं और अस्थिर हैं; परन्तु परमात्मा उन सब में नित्य-निरन्तर एक रुप से स्थित हैं। जो व्यक्ति विनाशशील प्राणियों में स्थित परमात्मा-क्षेत्रज्ञ को निर्विकार देखता है, वही सही देखता है। जो मनुष्य परिवर्तन शील शरीर-क्षेत्र के साथ स्वयं को देखता है, वह गलत देखता है।
The Almighty is present in all beings and is equanimous. The organism moves from one species to another and gets rebirth repeatedly. He passes through 84,00,000 species to take birth as a human being. The organisms are unstable, perishable and face evolution, temporary stability and destruction. They may move from highest to lowest species-form. The God is present in all of them, as one uniform-stable entity. One who identifies the same defectless, pure, unique Almighty in all living beings is correct. One who identifies himself with the perishable body is incorrect.
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्॥13.28॥
क्योंकि सब जगह समरुप से स्थित ईश्वर को समरुप से देखने वाला मनुष्य अपने आपसे अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिये वह परम गति को प्राप्त हो जाता है।
One who perceives the equanimous God present everywhere equally; abstains from violence (i.e., torturing, straining himself) and attains the final abode-the Almighty, after which he do not get rebirth.
जो व्यक्ति स्थावर-जङ्गम, जड़-चेतन, ऊँच-नीच, तीनों लोकों में परमात्मा को समान रुप, भाव, अभिन्नता से विराजमान पाता है, वो अपनी हत्या नहीं करता अर्थात वो हिंसा नहीं करता। शरीर का जन्मना और शरीर का मरना, अपना जन्मना या मरना नहीं है। अपनी हत्या नहीं करने का तात्पर्य जन्म-मरण के बन्धन में नहीं पड़ना है। जब उसने परमात्मा के साथ अभिन्नता का अनुभव कर लिया है, तो वह परम गति अर्थात मोक्ष को प्राप्त हो जायेगा।
One who finds the God present in stationary and movable organisms, living as well as non living, higher or low born, the three abodes-earth, heaven and the hell, has achieved equanimity and freedom from rebirth. The God is equanimous and one too has attained equanimity breaking all bonds, strings, ties. Now, he is undifferentiated-undistinguished from the God. He will reach the final abode from where no one returns, i.e., he will attain Salvation-emancipation.
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति॥13.29॥
जो सम्पूर्ण क्रियाओं को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही की जाती हुई देखता है और अपने आपको अकर्ता देखता-अनुभव करता है, वही यतार्थ देखता है।
One who perceives all deeds to have been performed by the nature and finds himself as the non performer finds-experiences the reality.
चेतन तत्व स्वतः-स्वाभाविक निर्विकार, सम और शान्त रुप से स्थित है। उस चेतन तत्व-परमात्मा की शक्ति प्रकृति, स्वतः-स्वाभाविक क्रियाशील है। उसमें नित्य-निरन्तर क्रिया होती रहती हैं। इस क्रियाशील प्रकृति के साथ जब यह पुरुष सम्बन्ध जोड़ लेता है, तब शरीर द्वारा होने वाली स्वाभाविक क्रियाएँ, तादात्म्य के कारण, अपने में प्रतीत होने लगती हैं। प्रकृति और उसके कार्य स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर में खाना-पीना, चलना-फिरना, उठना-बैठना, हिलना-डुलना, सोना-जागना, समाधिस्थ होना आदि जो भी क्रियाएँ हैं, वे सभी प्रकृति के द्वारा होती हैं, स्वयं के द्वारा नहीं, क्योंकि स्वयं (soul, spirit) में कोई क्रिया नहीं होती। ऐसा जो देखता, मानता, अनुभव करता है, वही वास्तव सही देखता है। ऐसा करने से वह स्वयं में अकर्तापन का अनुभव करता है। क्रियाओं का प्रकृति, गुणों, इन्द्रियों के द्वारा होना ही सत्य है।
The unsmeared, equanimous, quite conscious is centred (present, based) in the body. The conscious element is Almighty's component and mother nature is his active power. The nature is always at work. When one connects himself with these activities, he starts feeling them to be happening within himself. Nature and its activities both micro and macro (small & large-voluminous), in all the three types of bodies acquired by soul, like eating-drinking, moving-racing, sitting-standing, sleeping-awakening, staunch meditation etc. are being performed by the nature occupying-governing the body & not the soul by itself. One who believes-feels this, detaches himself from these actions-deeds and considers himself as the non performer. Performance of deeds by nature, characteristics, organs is the sole-ultimate truth.
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा॥13.30॥
जिस काल में साधक प्राणियों के अलग-अलग भावों को एक प्रकृति में ही स्थित देखता है और उस प्रकृति से ही उन सबका विस्तार देखता है, उस काल में वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।
The period in which the devotee perceives the different-different modes of the various organisms in one nature and observes their extensions from that nature, during that period; he attains the Brahm-Almighty.
जिस काल में साधक सम्पूर्ण प्राणियों के अलग-अलग भावों :- जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज और स्वेदज, उनके स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को एक प्रकृति में स्थित देखता है, उस काल में वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। त्रिलोकी के स्थावर-जङ्गम प्राणियों के शरीर, नाम, रुप, आकृति, मनोवृति, गुण, विकार, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदि सब एक प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृति में स्थित रहते हैं और प्रकृति में ही लीन हैं। इस प्रकार देखने, सोचने, मानने, समझने वाला प्रकृति से अतीत स्वतः सिद्ध अपने स्वरुप परमात्म तत्व-ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। हक़ीकत में तो वह पहले से ही प्राप्त था, किन्तु प्रकृति जन्य पदार्थों के साथ अपना सम्बन्ध मानने से, उसको अपना स्वरुप अनुभव नहीं होता था। जैसे-जैसे वो सबको प्रकृति में ही स्थित और प्रकृति से ही उत्पन्न देखता है, उसको अपने स्वतः सिद्ध स्वरुप का अनुभव हो जाता है।
The period in which the devotee perceives the different-different modes of the various organisms i.e., Andaj (अंडज, taking birth through the egg), Swedaj (स्वेदज, taking birth through contact by means of sweat), Udbhijj (उद्भिज्ज, vegetative), sprouting, germinating, Garbhaj (गर्भज), Jarayuj (जरायुज, born out of placenta), viviparous, mammalian and their three modes of bodies; in one nature during that period, he absorbs in the Ultimate-the Almighty. When he observes all organism of the three abodes :- earth, heaven & nether world, moving or stable, their bodies, names, shapes, tendency, qualities, traits, characteristics, defects, vices, evolution and termination, beginning in the nature, stabilising in the nature and merging with the nature; he absorbs in his real form i.e., the Ultimate. In fact, he is a component of the God but still refuses to accept so, due to his ego, imaginative relation bond-ties with the nature. As soon he realises the fact, he merges himself with the Brahm-the Almighty.
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥13.31॥
हे कुन्ती नन्दन! यह पुरुष (आत्मा) स्वयं अनादि होने से और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्म स्वरुप ही है। यह शरीर में रहता हुआ भी न कुछ करता है और न लिप्त होता है।
The Almighty addressed Arjun as Kunti Nandan! The Purush-Soul present in the body being timeless entity, free from characteristics, is a replica of the God. Though it resides in the body, yet it does nothing and remains uncontaminated, unsmeared, unconcerned and remains uninvolved (neutral, equanimous).
क्योंकि आत्मा परमात्मा का अंश है, यह शरीर में निवास करते हुए भी प्रकृति से अप्रभावित रहता है। यह अनादि-अनन्त और गुणातीत है। सात्विक, राजसिक और तामसिक आदि गुण-विकार इसमें कदापि नहीं हैं। यह शरीर में रहते हुए कोई कर्म नहीं करता और निलिप्त-निर्विकार है। इसमें कर्तव्य और भोक्तृत्व है ही नहीं। यह असंग और अविनाशी है।
The soul is a component of the God. In spite of residing in the body, it remains free from the nature which has characters. It is since ever and is forever. Satvik, Rajsik and the Tamsik characters do not affect it. It remains uncontaminated-unsmeared. Though it resides in the body, yet it does not perform. It is imperishable and detached.
मनुष्य की मृत्यु के पश्चात् उसके गुण-दोष कारण शरीर के साथ अगले जन्म में चले जाते हैं। आत्मा उस चुम्बक की तरह है, जिससे लोह तत्व चुपक जाते हैं। कर्म आत्मा से जुड़ जाता है और फल भोग के उपरान्त ही कर्म खत्म होते है अर्थात आत्मा उनसे मुक्त होती है।
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥13.32॥
जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा भी देह में लिप्त (indulged, smeared, absorbed, involved, stained, engrossed, deeply attached) नहीं होती।
The manner in which the all pervading sky-space remains unindulged, being too thin, minute, microscopic-subtlety (सूक्ष्मता), the soul too remains unindulged by residing in the body.
मनुष्य जो कुछ भी करता है, उसके पीछे फल, सिद्धि, भोक्तृत्व, लिप्तता ही होती है, जिसका त्याग करने से कर्तृत्व का त्याग स्वतः हो जाता है। पृथ्वी, तेज़, जल और वायु आकाश में व्याप्त-व्याप्य हैं तथा आकाश के अंतर्गत हैं, परन्तु आकाश इनके अंतर्गत नहीं है। आकाश की अपेक्षा ये स्थूल हैं और आकाश इनकी अपेक्षा सूक्ष्म-विरल है। ये चारों सीमित हैं, मगर आकाश असीम है। इन चारों में विकार है, परन्तु आकाश में विकार नहीं है। जिस प्रकार आकाश इन चारों भूतों में रहता हुआ भी लिप्त-विकृत नहीं होता, उसी प्रकार शरीर में रहते हुए भी आत्मा लिप्त नहीं होती। आत्मा स्वयं नित्य, सर्वगत, स्थाणु, अचल, अविनाशी, सनातन, अव्यक्त, अचिन्त्य, निर्लिप्त और अविकारी है। इस अविनाशी आत्मा से यह संसार व्याप्त है।
A man is guided by motive. He works for the sake of reward, gain, output, result etc. If he discard the desire for the reward-fruit of his endeavour, he is automatically drifted away from desires, motives, attachments. The earth, energy, air and water are held by the space-sky which remains unsmeared in spite of holding them. These four are under of the influence of space which remains out of their influence, effect, impact. These are material objects (heavy), while space is thin, minute, microscopic. These four have defects but the space-sky is free from defects. The manner in which the space remains uncontaminated, in spite of holding them, the Soul too remain unsmeared-unindulged while residing in the body. Soul is forever, always, minute, imperishable, undefined, beyond imagination, defectless, eternal and all pervading.
लिप्त :: किसी कार्य में लीन, डूबा हुआ, लीन; Indulged, smeared, absorbed, involved, stained, engrossed, deeply attached, spread over, sullied.
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥13.33॥
हे भरत वंशोद्भव अर्जुन! जैसे एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण संसार को प्रकाशित करता है, वैसे ही क्षेत्रज्ञ-आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र-शरीर को प्रकाशित करता है।
The manner in which the Sun illuminates the whole world; in the same manner the Soul-Spirit illuminates the body existing in material-physical forms (mental and reason).
सूर्य के प्रकाश से पूरा संसार-बृह्माण्ड प्रकाशित होता है और उसमें समस्त क्रियाएँ होती रहती हैं। 14 लोक-भुवन, चन्द्रमा, तारे, मणि, अग्नि, जड़ी-बूटी आदि सभी में जो प्रकाश है, वो सूर्य का ही है। सारे संसार में जो क्रियाएँ हो रही हैं, उनके करने-करवाने में, क्षेत्री-सूर्य कारण नहीं बनता। सूर्य केवल स्थूल को ही प्रकाशित नहीं करता अपितु स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों क्षेत्रों को प्रकाशित करता है तथा उसके प्रकाश में स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर क्रियाएँ करते हैं। सूर्य में सबको प्रकाशित करने का भेद उत्पन्न नहीं होता और न ही कर्तृत्व का अभिमान ही होता है। वह सदा निर्लिप्त, असंग रहता है। कोई भी क्रिया तथा वस्तु बिना आश्रय के नहीं होती और कोई भी ज्ञान बिना प्रकाश के नहीं होता। क्षेत्री सम्पूर्ण क्रियाओं, वस्तुओं और प्रतीतियों का आश्रय और प्रकाशक है। समस्त क्रियाओं के सूर्य के प्रकाश में होने के बावजूद सूर्य स्वयं इनमें सक्रिय नहीं होता। इसी प्रकार आत्मा प्राणी-मनुष्य के स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर में सक्रिय भूमिका नहीं निभाता।
All activities in the universe take place in the Sun light without the active participation of the Sun himself. All 14 abodes, stars, moons, planets, jewels, herbs (which emit light) have the light from the Sun. The Sun is not responsible for the events all over the world. It not only illuminates the physical-material body but also lights the micro (shape-region acquired by the soul after death of the organism) and reason (causative) bodies-forms attained by the soul (the soul gains this shape before acquiring new incarnation). The Sun does not feel proud for doing this. He do not discriminate between those who receive light from him. He is always equanimous, neutral, unattached, unsmeared, untainted by them. No activity can be performed without help from the Sun independently. No knowledge is there without the help of the Sun. Sun helps in observing-performing all activities-actions and the physical-material formations. Similarly, the soul remains equanimous, while residing in any of the three forms material, micro & the reason of the body-organism.
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्॥13.34॥
इस प्रकार जो व्यक्ति-साधक ज्ञान रूपी नेत्रों से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग को तथा कार्य-कारण सहित प्रकृति से स्वयं को अलग मानते हैं, वे परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं।
In this manner, those people who identify the creation-body and the creator-soul; through enlightenment-prudence along with the cause and effect (deeds and their impact), they detach-isolate themselves from the nature and assimilate in the Almighty.
सत्-असत्, नित्य-अनित्य, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अलग-अलग जानना (मानना, समझना) ज्ञान चक्षु-विवेक है। क्षेत्र विकारी है और कभी एकसा नहीं रहता। इस क्षेत्र में रहने वाला क्षेत्रज्ञ सदा एकरूप रहता है। यह समझना क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, विभाग, अन्तर, भेद को जानना है। यह ज्ञान-बोध होने पर प्रकृति के कार्य और प्रकृति से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। प्रकृति से अपने अलगाव का ठीक अनुभव होने पर साधक को परमात्म तत्व की प्राप्ति हो जाती है।
Growth of enlightenment, wisdom, prudence helps one in distinguishing between virtues and vices, body and soul, perishable & imperishable. The Kshetr-body, creation is defective and perishable while the Kshetragy-soul which resides in it, is forever-imperishable. Realisation of this helps one, in dissociating from the nature. Having understood the distinction one attains the gist of the Almighty leading to Salvation.
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥13॥
इस प्रकार ॐ तत् सत्-इन भगवन्नामों के उच्चारण पूर्वक ब्रह्म विद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरुप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में "क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग" नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।
In this manner the chapter pronouncing-describing Om, Tat, Sat is completed, in the form of a conversation between the Almighty Shri Krashn and Arjun. It describes the distinction between the body & the soul.
The revision of this chapter has been completed at Gledswood Hills, NSW, Sydney, Australia for the benefit of the virtuous learners with the kind blessings of the Almighty, Ganesh Ji Maha Raj and Maa Bhagwati Saraswati today i.e., 17.03.2018.
Review has been completed today i.e., 22.02 2024 at Noida, UP, INDIA.
Review has been completed today i.e., 22.02 2024 at Noida, UP, INDIA.
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