नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस् तामसः परिकीर्तितः॥18.7॥
नियत कर्म का त्याग करना उचित नहीं है। उसका मोह पूर्वक त्याग तामस कहा गया है।
तामस त्याग सर्वथा निकृष्ट है। नियत कर्मों को मूढ़ता पूर्वक, बिना विचार किये, विवेक हीनता के साथ छोड़ना तामस त्याग है। मोह में उलझ जाना तामस पुरुष का स्वभाव है। सामान्य स्वरूप से कर्मों को छोड़ देना त्याग नहीं है। बाहरी रूप से त्याग को असली त्याग माना जाये तो मरने वाले का कल्याण हो जाना चाहिये, क्योंकि मरते ही उसके सारे दायित्व, बन्धन, धन, जमीन-जायदाद, संबन्धी, नातेदार-रिश्तेदार, शरीर छूट गया। असल में ऐसा नहीं है। जो लोग आत्म हत्या कर लेते हैं, उनको तो घोर पाप लगता है।
आज के जमाने में अधिसंख्यक लोग अपने नियत कार्य को बेहद लापरवाही-नासमझी से करते हैं। हाजरी लग गयी हो गई नौकरी, फिर दिन भर कहीं घूमो-फिरो, मौज-मस्ती करो। यही प्रवृति उन्हें नर्क में पहुँचाने के लिए काफी है। ऊपर से रिश्वत लेना-रिश्वत लेकर भी काम लटकाना, बेकसूर को जेल में सड़ाना, नरक का द्वार खोल देता है। अगर ड्यूटी 9 घंटे की है तो पूरे 9 घण्टे मेहनत, ईमानदारी, निपुणता, कुशलता पूर्वक कार्य निर्वाह करो अन्यथा जानते ही हो ना "नरक का दरवाजा कामचोर, काहिल-ज़ाहिल, बेईमान, हरामखोर, बेपरवाह के लिये हमेशां खुला रहता है"।
Renouncing of prescribed-obligatory duties (Yagy, daily routine, rituals and prayers, offering food to the hungry, guests, Brahman, helping one in dire need, grant of doles, morning-evening prayers etc.) is improper and inappropriate. Renunciation of such activities due to illusion is called Tamsik Tyag (Rejection-abandonment due to darkness-imprudence & ignorance).
Never help the terrorists, criminals, Muslims even if they are dying. Helping a snake, lion invite uncalled for trouble.
Prescribed duties constitutes of Vihit Karm and Nihit Karm. It’s not possible for an individual to conform to the Vihit Karm (Duties, guidelines or directions provided in scriptures-the Shashtr). But one must conform to Nihit Karm (compulsory, fixed, mandatory duties), which are components of Vihit Karm, as per Varn Dharm, Ashram Dharm, Dharm-occasional duties, which becomes essential or unavoidable as per need of the difficult situation or circumstances.
Renouncing of essential duties due to illusion, ignorance, allurement or fascination is Tamsik Tyag.
Renouncing essential duties for the sake of pleasure, rest or comfort makes them Rajsik Tyag.
Performance of essential duties by renouncing desire for comforts, rewards and attachments make it Satvik Tyag.
Performance of duties by Nish Kam Bhav (by avoiding desires, expectations, illusion, pleasure, comforts) is the natural tendency of a Satvik person. Satvik nature breaks the bonds of Karm and Karmfal.
The devotee has to accept the Satvik Tyag and reject the Rajsik and Tamsik Tyag. Satvik Tyag is believed to be the real Tyag, as compared to the Rajsik and Tamsik. Rajsik and Tamsik have been referred to illustrate the significance of Satvik Tyag. Nihit Karm makes the devotee closer to Satvik Tyag as compared to Vihit Karm.
Renunciation of duties fixed by the Niyati (Brahma-Vidhata) due to illusion is Tamsik Tyag, leading to evil. In the present day World (Kali Yug) people are not performing the Nihit Karm, leading to disorder and chaos, which is Tamsik in nature, the result of which is descent i.e., birth and rebirth in lower life forms and species.
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥18.8॥
जो कुछ कर्म है वह सब दुःख रूप ही है, ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता।
राजस स्वभाव का व्यक्ति यज्ञ, दान, शास्त्रीय और नियत कर्मों का त्याग यह सोचकर करता है कि इनमें सिवाय कष्ट, खर्च, दुःख और समय की बरबादी के कुछ नहीं है तो इसका कारण उसका परलोक, शास्त्र, शास्त्र विहित कर्म और इनके परिणाओं पर विश्वास का न होना है। उसे गुरुजन, वर्णाश्रम धर्म, मालिक आदि की आज्ञा पालन करने में पराधीनता और दुःख का अहसास-अनुभव होता है। कर्तव्य-जनित कर्म त्याज्य नहीं हैं। इनके त्याग से आलस्य, प्रमाद और अतिनिद्रा उत्पन्न होते है जो कि पतन का कारण बनते है। शुभ कर्मों के त्याग से शांति नहीं मिलती, अपितु मनुष्य दण्ड का भागी हो जाता है।
One who considers Karm (duty, work) to be a form of unhappiness and renounce-abandon it due to the fear of physical labour and discomfort, makes Rajsik Tyag-sacrifice and is not entitled to the fruit-reward of renunciation.
If a person who escapes-skips Karm due to the thought that Karm is a form of unhappiness and pain, will be deprived from the fruits of renunciation, being Rajsik Tyag. Performing Yagy, Dan-donation and Shastr-scriptures prescribed duties, pinches the individual, since he has to spend money. The individual feels pain in such expenditures, because of lack of faith in birth and rebirth, Shastr, duties listed in Shastr and the outcome of the Karm. It’s difficult for him to obey orders-dictates of Shastr, which troubles him. He keeps finding ways and means to obtain easy money. The individual must continue with the prescribed duties, discarding indulgence in pleasures, to settle for Vaeragy-detachment.
Finding faults and pain with the pleasures will drift him away from them, for his own welfare. Finding faults with the prescribed duties, will drift him away from Karm, which is bound to lead him to descent.
Result of both Rajsik and Tamsik (laziness, too much sleep, intoxication) Tyag is identical, leading to descent. Rajsik Tyag too turns into Tamsik Tyag.
Deserting, leaving, cutting the domestic, social, emotional bonds for the sake of asceticism or praying the God, is neither Rajsik nor Tamsik, since renunciation-assimilation in God is sole goal of birth in human form. None can get peace by Rajsik Tyag made for the sake of comfort and pleasures, which is prevalent in lower life forms as well.
Both Rajsik and Tamsik Tyag leads to pain, torture and vivid punishments.
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः॥18.9॥
हे अर्जुन! आसक्ति और फल का त्याग करके किया गया शास्त्र विहित कर्म, कर्तव्य मानकर करना ही, सात्त्विक त्याग है।
जो कर्म विशुद्ध कर्तव्य मान कर जी-जान से किया जाता है, जिसमें फलासक्ति नहीं है, कोई स्वार्थ नहीं है, क्रियाजन्य सुखभोग भी नहीं है, तो उससे सम्बन्ध विच्छेद तो स्वतः हो गया। इससे कोई बन्धन नहीं होगा। शास्त्र कर्मों में देश, काल, वर्ण, आश्रम और परिस्थिति के अनुसार, जो भी कर्म किये गए, वे सभी नियत कर्म हैं।
संग के त्याग का अर्थ है, कर्म और उसके उपकरण-साधन आदि में आसक्ति, प्रेम, ममता का न होना।
फल के त्याग का अर्थ है कर्म के परिणाम के साथ संबन्ध न होना अर्थ फल की इच्छा न होना।
कर्म और फल में आसक्ति तथा कामना का त्याग करने से कर्तव्य मात्र समझकर किया गया काम करने से वह कार्य सात्विक हो जाता है। यहाँ कर्मों का स्वरूप से किया गया त्याग नहीं अपितु, सावधानी, तत्परता से विधि पूर्वक, निष्काम भाव से किया गया त्याग; कर्म और कर्मफल स्वरूप शरीर-संसार से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। सत्वगुण में ना तो मूढ़ता है और ना स्वार्थ बुद्धि।
Duty performed by considering it as obligatory, by renouncing-abandoning all attachment and desire to Karmfal (the fruit-reward of action) is called Satvik (Pious, Virtuous, Righteous) Tyag.
One must do his duty without the motive of reward, excitement, joy or pleasure, in its performance. With this just by carrying out the assignments, the individual detaches himself from the deeds. This type of Karm does not create bonds with the world. Bonds are formed only when, there is attachment with the Karm and Karmfal. One must not have attachment with deeds (whatever he does) or the tools, instruments for doing; like affection, liking etc. and there should not be any relation with the reward for the industry i.e., rejection of reward. There should not be any desire for Karm or Karmfal. One must reject desire for attachments and desire to selfishness.
The Karm performed by losing the attachments and desire becomes Satvik. Satvik Tyag detaches both, the Karm and Karmfal, from the performer.
Satvik Karms performed secretly, carefully, readily along with set procedures, leads to detachment.
Rajsik and Tamsik Tyag merely show detachment from the doer, from outside, in reality, attachments remain. Departure from Karm due to the fear of pain and discomfort to the body, continues the relationship between Karm and pleasure. Similarly, when the individual depart from Karm with illusion, the Karm is deserted but attachments remain.
If the Karm is lost bodily, it still lead to attachments, while if it is done with procedures, methodically, the same leads to Salvation.
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥18.10॥
जो मनुष्य अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता, वह शुद्ध सत्व गुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है तथा अपने स्वरूप में स्थित है।
जो भी शास्त्र विहित शुभ कर्म फलेच्छा से किया जायेगा, वो पुनर्जन्म कारक होगा। शास्त्र निषिद्ध पाप कर्म नीच योनियों या नर्क में ले जायेगा। ये कर्म अकुशल कर्म कहलाते हैं और इनका त्याग द्वेष रहित भाव से करना चाहिये। द्वेष, फलेच्छा से अथवा अकुशल कर्म दोनों से ज्यादा भयंकर फलदायक है। शास्त्र विहित वर्णाश्रम धर्म व परिस्थिति जन्य कर्म जो आसक्ति व फलेच्छा का त्याग करके किये जाते हैं, वे कुशल कर्म मुक्ति दायक हैं।
कुशल कर्म करने में जिसका राग नहीं व अकुशल कर्मों के त्याग में जिसका द्वेष नहीं है, जो निर्लिप्त है, वही असली त्यागी है और योगारूढ़ है। तत्व भाव में अविछन्न भाव से स्थित रहने के कारण उसमें किसी प्रकार के संदेह की गुंजाईश नहीं रहती।
आसक्ति आदि का त्याग होने से, उसकी अपने स्वरूप में, चिन्मयता (All Consciousness, Pure Consciousness) में स्वतः स्थिति हो जाती है।
जिसके सम्पूर्ण कार्य सांगोपांग, संकल्प और विकल्प, कामना से रहित तथा ज्ञान रूप अग्नि ने जिसके सम्पूर्ण कर्मों को जला दिया है वह मेधावी, विद्वान, पण्डित कहा जाता है।
The renouncer, who has no bias (envy, grudge) against inauspicious, evil, unfavourable, useless or unprofitable Karm; is unattached and wise (intelligent, enlightened, learned, prudent), free from doubts and suspicions-pervaded by wisdom, is entrenched-stabilised in his own self i.e., Salvation.
Generally, auspicious, religious ceremonies, rituals, pilgrimages are undertaken with the motive-desire to improve next birth. Inauspicious, anti social, evil, inhuman, misdeeds are sufficient to place the doer in hell or lower life forms; even if they are rejected, without bias. One becomes detached, if he stops the Karm with bias, but develops a relationship with bias-which is even more harmful and dangerous than the auspicious and inauspicious ventures.
Certain deeds performed as per scriptures, especially according to Varnashram Dharm-duties or circumstantially, without any desire, leading to renunciation, are termed as useful or profitable, if the performer do not get attached to them. One, who has no attachment for useful ventures and has no bias against evils, is a real renouncer. He should not be affected by either of these, if so, he leads to Yog-assimilation in God.
One who performs and yet remains unaffected, is wise and becomes free from doubts or suspicions (about the cause and effect of birth and rebirth and the Almighty), which arise only when there is confusion in the mind.
With the loss of attachments and desires, the devotee attains his own self or innerself (freedom from distortions, birth, death and defects) i.e., becomes an independent component of the Almighty, the Brahm.
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥18.11॥
शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का त्याग किया जाना सम्भव नहीं है, इसलिए जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है, यह कहा जाता है।
It’s not possible for the embodied human beings to renounce, abandon, discard the entire Karm, therefore the one, who renounces the Karmfal, is the ultimate Tyagi–the renouncer.
मनुष्यों के द्वारा कर्मों का पूर्ण रूप से त्याग करना संभव नहीं है, क्योंकि शरीर प्रकृति का अंग है। मनुष्य यज्ञ, तप, दान, तीर्थ, जैसे कर्मों को भले ही छोड़ दे; परन्तु खाना-पीना, उठना-बैठना, चलना-फिरना, सोना-जागना आदि नहीं छोड़ सकता। ये बाहरी सम्बन्ध नहीं छूट सकते। सम्बन्ध अन्दर से-मन से छोड़ना है। कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता-योग निष्ठा भी प्राप्त नहीं होती और कर्मों का त्याग करने मात्र से, साँख्य निष्ठा भी प्राप्त नहीं होगी।
जब तक प्राणी-मनुष्य जिन्दा है, उसके साँस चल रही है, ह्रदय धड़क रहा है, वह कर्म कर रहा है।
पुरुष चेतन, निर्विकार, एकरस तथा प्रकृति विकारी, परिवर्तनशील है। जब तक पुरुष प्रकृति के साथ तादात्म्य मानता रहेगा, उसका कर्मों से सम्बन्ध बना रहेगा। पुरुष ने प्रकृति से सम्बन्ध जोड़ा है ना कि प्रकृति ने पुरुष से। स्वयं को शरीर मानने से अहंता और शरीर को अपना मानने से ममता होती है। अहंता-ममता की घनिष्ठता देहधारी को कर्मों से मुक्त नहीं होने देती। इससे आसक्ति, कर्मासक्ति, फलासक्ति होती है, मगर विवेक उसे निर्विकार बनाता है, अभिमान नहीं आने देता और विवेकी-निराभिमानी अंतःकरण से कर्म व कर्मफल समाप्त कर देता है।
One who develops rapport with his body can’t renounce the Karm Fal completely, since the body is a component of nature, which is always active.
If one develops rapport with the body, he can’t desert action. He may desert Yagy, Dan-donation, Tap-ascetics, pilgrimage etc. But he can’t cease to move, excrete, respire or food intake, unless the innerself detaches itself with the Karm, one can’t detach himself from Karm.
It’s not possible to attain the status of Nish Karmanyta (a state of life free from actions), unless one starts working. Just by rejection of deeds, one can’t attain accomplishment (Siddhi-capability to grant, fulfil, boons, certain desire).
Once it’s decided to renounce the Karm Fal, all deeds automatically turns to benefit the mankind.
Prudence-intelligence never let the doer suffer from ego, due the rejection of Karm Fal (reward of industry). In fact, the Karm (task), which has been completed, keeps no relation with the doer, as well as the Karm Fal (reward), which once utilised vanishes forever, maintaining no relation with him.
Man is attached with the nature; nature is not attached with him. This is always a one sided affair (relation).
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्॥18.12॥
कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो इष्ट :- अच्छा, बुरा :- अनिष्ट और मिश्रित :- मिला-जुला; ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग करने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता; वह मुक्त हो जाता है।
The individual, who has not renounced, under goes-accrues the Karm Fal of desired, undesired and a combination of these two, after the death, in his next incarnations, but a person who has renounced the Karm Fal, will never face their impact.
हकीकत यह है कि ज्यादातर मनुष्यों को मिश्रित कर्मफल की प्राप्ति ही होती है। ये सभी उन लोगों को मिलते हैं, जिन्होंने कर्म और कर्मफल का त्याग नहीं किया है। कर्म प्रकृति का रूप है अर्थात शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, परिस्थिति जन्य हैं। जब जीवात्मा स्वयं को उनसे जोड़ लेता है, तो परिणाम अपेक्षित ही है। जो त्यागी-सन्यासी है, उसे इहलोक या परलोक कहीं भी कर्मफल भुगतना नहीं पड़ता, क्योंकि वह अपने लिए कुछ भी नहीं करता। कर्म योगी का भाव यह है कि अपना कुछ नहीं है, अपने लिए कुछ नहीं चाहिये और अपने लिए कुछ नहीं करना। साँख्य योगी का भाव यह है कि अपना कुछ नहीं है और अपने लिए कुछ नहीं चाहिये।
Karmfal is composed of auspicious and inauspicious, desired and the undesired. No activity can be performed in isolation or water tight compartments. It always has strings attached with it, as a result of which the Karm Fal also appears in composed manner i.e., comfort-discomfort, pleasure-pain, joy-worries. Pleasures, the desired, are accompanied by undesired worries, pain, fears, sorrow, grief, anxiety, unease etc. Karm Fal simultaneously works, in the present incarnation as well.
The Sanyasi, merely experiences the remaining (left over) Karm Fal of his previous births quietly, neutrally, passively, without reacting to them, prudently. His conscience and the innerself, guides him. He makes no efforts for acquisition or accumulation. All his actions are directed towards the benefit and welfare of the mankind and the various life forms, without establishing any relationship with them, prudently. His efforts are directed towards stabilising the innerself, only.
He does not establish any relation with Karm, deserts affections, rejects the pride of having done; which automatically terminates individuality, paving path to assimilation in God. He makes no bonds with the ever changing nature or the world, detaches himself from the differentiating nature and its functions as well. The Karm Yogi does not experience the need for self, do not own anything and does nothing for self.
Here the concept of Sankhy Yog too comes into picture, with the determination of :- "nothing belongs to me, nothing is needed for self". Sankhy Yogi has no relation either with the nature or its functions. So, he does nothing for self. The detachment provided by Sankhy Yog comes by renouncement i.e., Karm Yog.Ved attaches one with the nature while Geeta attaches one with the Almighty.
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
साँख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥18.13॥
हे महाबाहो! साँख्य-शास्त्र में कर्मों का अंत करने वाले, सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिये ये पाँच हेतु-कारण बताये गए हैं; उनको तू मुझ से भली भाँति जान।
Philosophy of Sankhy (Gyan, enlightenment Yog), which eliminates all Karm, has described five means (motives, reasons) for the successful performance of duties.
कर्म शास्त्र विहित है या शास्त्र निषद्ध, शारीरिक हो या मानसिक अथवा वाचिक, स्थूल हो या सूक्ष्म, इन सबके 5 हेतु बताये गए हैं। इन कर्मों में कर्तव्य-कर्तव्याभिमान रहने पर कर्म सिद्धि और कर्म संग्रह दोनों होते हैं। जब इन कर्मों में कर्तव्य नहीं रहता, तब कर्म सिद्धि तो होती है, मगर कर्म संग्रह नहीं होता। अपितु क्रिया में अधिष्ठान, करण, चेष्टा और दैव; ये 4 हेतु ही रह जाते हैं।
साँख्य सिद्धान्त में विवेक-विचार की प्रधानता है। क्षत्रिय होने के नाते युद्ध अर्जुन का कर्तव्य-कर्म है। साँख्य योग में अहंता (मैं पन) का त्याग मुख्य है, जिससे ममता (मेरा पन) का त्याग स्वतः हो जाता है। अहंता में भी ममता होती है।
Attainment of God has two main divisions :: (1). DIVINE-ALOUKIK अलौकिक :- The divine or Akshar, which is a component of the Almighty and constitutes of imperishable soul, the one which never vanishes and the other (2). LOUKIK-WORLDLY लौकिक :- It pertains to Human, which is Ksher or perishable. Together, they constitute of three paths to Salvation :- (1.1). Alokik (Divine, Eternal) Bhakti, (2.1). Loukik (Worldly), Sankhy Yog i.e., Gyan Yog and (2.2). Loukik :- Karm Yog.
The path of Aloukik Bhakti is available and open to all :- the deities, demons and humans. Human beings are the only ones, blessed with all the three paths. Human body is capable of performing Gyan Yog as well as Karm Yog. Salvation is Mukti :- Sayujy, Sarupy, Salok, Samipy. Bhakti is considered superior to it i.e., Salvation. Bhakti associated by Mukti is still better.
मोक्ष-मुक्ति के 4 प्रकार ::
(1). सालोक्य :- इससे भगवद् धाम की प्राप्ति होती है। वहाँ सुख-दु:ख से अतीत, अनंत काल के लिए है, अनंत असीम आनंद है।
(2). सामीप्य :- इसमें भक्त भगवान् के समीप, उनके ही लोक में रहता है।
(3). सारूप्य :- इसमें भक्त का रूप भगवान् के समान हो जाता है और वह भगवान् के तीन चिन्ह :- श्री वत्स, भृगु-लता और कोस्तुभ मणी, को छोड़कर शेष चिन्ह शंख, चक्र, गदा और पद्म आदि से युक्त हो जाता है।
(4). सायुज्य :- इसका अर्थ है एकत्व। इसमें भक्त भगवान् से अभिन्न हो जाता है। यह ज्ञानियों को प्राप्त होती है।
सार्ष्टि भी मोक्ष का ही एक अन्य रूप है, जिसमें भक्त को परम धाम में ईश्वर के समान ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता हैं। सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य, ये सभी भक्त को प्राप्त हो जाते हैं। केवल संसार की उत्पत्ति व संहार करना भगवान् के आधीन रहता है, जिसे भक्त नहीं कर सकता।
GYAN-SANKHY YOG :: It utilises knowledge, understanding, prudence, intelligence, consciousness and practice to achieve the Almighty. It’s initiated with :- I have nothing. I don’t need anything. I have nothing to do for me. It requires detachment on the part of the doer. Thought behind Sankhy can be grasped by understanding it in depth, through conscience, prudence and meditation. Ego (pride, glory) is major hurdle in it’s path.
KARM YOG :: The body, it's various organs, senses, systems and the devotee’s efforts, actions, gestures constitutes this methodology. When devotee seeks help from the God or is patronised by the God, in his efforts as major contributor, then everything turns divine, including his faith. It does not consider anyone to be bad. Don’t have ill will for anyone. Don’t do evil of others.
Elimination of Karm is related to egotism, which has four purposes :- Abode, Implementation, Attempt and the Destiny.Whether an act is prescribed, determined or prohibited by scriptures (treatise, Shashtr), it has five motives behind accomplishment :- Physical, mental, oral-verbal, micro, macro. When a person undertakes them, he accumulates them. When these actions are free from desires; accomplishment is there but no accumulation. When intention is lost behind these actions, it leads to success without accumulation. Actions, constituting sins or virtues, free from accumulation, are not binding.
The imprudent, who considers the natural vital activities and functions as having been done by him, becomes the reason or cause behind accomplishment of motives. Either acceptance or rejection of Karm or Karm Fal are not the vehicles (means, causes) of welfare. Neither the acceptance nor renouncement, are the motives of welfare. Means of welfare is break up of soul with nature. Karm Yog stands for renouncement of belongingness (affections) and the Karm Fal. Loss of belongingness automatically leads to loss of ego (I, My, Me, Mine). Ego has a component of belongingness. Rejection of ego cuts the bonds of affections or belongingness It’s the egotism that pertains to the feeling of having done it, which leads to accomplishment of Karm and accumulation as well. In Karm Yog, loss of affections eliminates ego i.e., renouncement through detachment with reward.
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥18.14॥
इस विषय में अर्थात कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान (जिसके आश्रय कर्म किए जाएँ, उसका नाम अधिष्ठान है) और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण (जिन-जिन इंद्रियादिकों और साधनों द्वारा कर्म किए जाते हैं, उनका नाम करण है) एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव (पूर्व कृत शुभाशुभ कर्मों के संस्कारों का नाम दैव-संस्कार है) है।
Accomplishment of Karm involves five motives (factors): The abode (seat), the doer (performer), the impliers (various performers), the endeavour (attempts of various sorts) and the divinity.
सिद्धि के पाँच हेतु :: अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव।
शरीर और वह देश जहाँ यह शरीर मौजूद है, अधिष्ठान हैं। समस्त क्रियाएँ समष्टि हो या व्यष्टि, प्रकृति के द्वारा ही होती हैं। अहंकार से मोहित अविवेकी, जिसे जड़ और चेतन का ज्ञान नहीं है, स्वयं को कर्ता मान लेने से कर्ता बन जाता है और कर्मों की सिद्धि में हेतु बनता है।
तेरह करण ::बहि:करण :- (5 कर्मेन्द्रियाँ और 5 ज्ञानेन्द्रियाँ) और
अन्तःकरण :- मन, बुद्धि, अहँकार।
5 कर्मेन्द्रियाँ ::
पाणी-हाथ :- कार्य करना-लेना देना, पाद-पैर :- चलना-फिरना, वाक्-जीभ, होंठ और मुँह :- बोलना, उपस्थ-लिंग :- मूत्र त्याग, पायु-गुदा :- मल त्याग,
5 ज्ञानेन्द्रियाँ ::
श्रोत्र-कान :- सुनना, चक्षु-आँखें :- देखना, रसना-जीभ :- स्वाद-चखना, त्वक्-खाल :- स्पर्श-महसूस करना, घ्राण-नाक :- सूँघना,
3 अन्तःकरण :: मन, बुद्धि, अहँकार।
मन :- इच्छा, बुद्धि :- सोच-विचार, सोचना-समझना, निश्चय करना, सही गलत की पहचान, विवेक, याददाश्त आदि,
अहँकार :- मैं पन, घमण्ड, अभिमान। चेष्टा, प्रयास, कोशिश।
कर्मों की सिद्धि में 5 वाँ हेतु दैव है। कर्म के अनुसार अन्तःकरण पर प्रभाव-संस्कार पड़ता है। ये संस्कार शुभ-अशुभ हो सकते हैं।
अहँकार अपरा प्रकृति है और जीव परा प्रकृति है। जीव का सम्बन्ध परमात्मा से है, मगर वह स्वयं को अहंकार से जोड़ कर स्वयं को कर्ता मान लेता है।
The human body and its location constitute the abode.
The nature is the doer. An individual, who is illusioned by ego, behaves as if he is the performer, achiever or loser.
13 impliers ::
5 external :- hands, feet, tongue, pennies and anus, 5 internal :- ears, eyes, skin, tongue, nose and the 3 :- rests inside the mind Man-innerself, Intelligence and the Ego.
Coordinated efforts of (1). Hands :- giving, taking, exchange, (2). Feet :- walk, run, movement, (3). Tongue :- Speech, (4). Pennies :- Reproduction, urination, (5). Anus :- Excretion, (6). Ears :- Hearing, (7). Eyes :- Seeing, (8). Skin :- Touch, (9). Tongue :- taste, (10). Nose :- Smell, (11). Man (innerself) :- Desires, attachment, (12). Mind (Intelligence) :- Thoughts, Decision, Behaviour and (13). Ego :- Pride, glory.
First 10 perform externally and the remaining 3 lies inside and together make endeavours-efforts. The divine depends upon the auspicious, virtuous, righteous and inauspicious, sins, unrighteous activities of the doer, affecting the inner self, laying the foundation of destiny.
शरीरवाङ्मनोभिर्यत् कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥18.15॥
मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है; उसके ये पाँचों (अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव) कारण हैं।
वाणी और शरीर मन-मस्तिष्क के आधीन हैं।
Auspicious or inauspicious (right or wrong) actions are performed through the body, speech and man (innerself, a combination of heart & mind), by the individual, which has these five motives (purposes, causes, interests).
शरीर (कायिक), वाणी (वाचिक) और मन (मानसिक) :- ये तीनों ही समस्त कार्यों का प्रतिपादन करते हैं। इन तीनों में ही अशुद्धि आने से बन्धन होता है। मनुष्य यदि शास्त्र विहित कर्मों को करता है, तो वह तप के बराबर है।
निष्काम भाव से किया गया तप सात्विक और बन्धन मुक्त करने वाला है। राजस और तापस तप बाँधने वाले हैं। साधक को चाहिए कि वह कर्म योग के आधीन विवेक का आश्रय ग्रहण करे और शरीर (कायिक), वाणी (वाचिक) और मन (मानसिक :- राग, द्वेष, हर्ष, शोक); तीनों से ही सम्बन्ध तोड़ ले और कर्तव्याभिमान से मुक्त हो जाये।
Creeping of defects in the Physical, Verbal-Spoken or Mental deeds (actions), leads to bonds (Rag, attachments, bonds, ties). If the Karm is performed as per directives of Shashtr, it becomes auspicious and ascetic. The Satvik Karm breaks the bonds.
Attachments, prejudices, pleasures and sorrow (pains) are mental Karm (imaginary, illusive activities).
The thought of ownership of body, speech and mind create defects in the deeds. Detachment of bonds from these by Karm Yog or Gyan Yog leads to liberation from the nature. Man-innerself constitute of mind-brain (psyche, gestures, thoughts, mental projections), heart and soul. It’s the seat of perception and feelings, wish, inclination, temperament, characters, will-desires and purpose.
Speech-expressions & the body are governed-controlled by the brain-innerself.
तत्रैवं सति कर्तारमात् मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान् न स पश्यति दुर्मतिः॥18.16॥
परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में, यानी कर्मों के होने में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलीन बुद्धि (उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है, अपितु उसमें विवेक का अभाव है) वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता।
With the presence of these five motives or purposes the individual, who considers-the soul (himself) to be the doer, due to imprudence, does not perceive the reality.
जितने भी कर्म हैं, वे सभी अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव, इन 5 हेतुओं से हैं; अपने स्वरूप से नहीं। ऐसा होने पर भी जो पुरुष स्वयं को कर्ता मान लेता है, उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है। वह विवेक को महत्व नहीं देता; जड़-चेतन, प्रकृति-पुरुष का जो वास्तविक (स्वरूप) विवेक-अलगाव है, उस पर उसने ध्यान नहीं दिया। जिससे बुद्धि में दोष आ गया और उसने स्वयं को कर्ता मान लिया। अगर वह विवेक को जाग्रत करता है, तो दुर्मति-अशुद्ध बुद्धि नहीं होती। विवेक से अहंकार मिटता है और पुरुष का मोह खत्म हो जाता है। विवेक बुद्धि को शुद्ध कर्ता है। सब कारकों में कर्ता मुख्य है, क्योंकि इसके ऊपर चेतन का प्रभाव है। फिर भी कर्ता (प्रकृति) को जड़ ही माना जाता है। विवेकशील कर्ता स्वयं को भगवत भक्ति, शास्त्राध्ययन, तप, सेवा, ध्यान, साधना में लीन कर लेता है।
A prudent can see, (find, observe, understand) the difference between active and inactive, lifeless or alive, nature and man and does not consider himself to be the doer. His thoughts remain pure. An egoistic-imprudent considers himself, to be the doer.
In fact, the real doer is the nature itself. The prudent-sincere continues with the deeds meant for ascetics like recitation, reading-learning of scriptures devoted to the God, contemplation (meditation), Yog, absorbed meditation in the Ultimate.यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥18.17॥
जिस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब प्राणियों, मनुष्यों :- दुष्ट, आतंकी, आक्रमणकारी, हत्यारों, राक्षसों को युद्ध में मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है।
The Virtuous, who is free from egotism (unattached, unsmeared, unstained, unengrossed), whose intelligence is untangled in the fruits-rewards of actions, remains free from bonds-ties. Even though he kills the traitors, terrorists, tyrants, intruders, invaders, murderers, demons-Rakshas in a war, he remains unstained. जिसकी बुद्धि में अहंकृत भाव नहीं है, स्वार्थ परता नहीं है, उसके कृतत्व और भोक्तृत्व भाव नष्ट हो जाते हैं। हकीकत में प्रकृति ही क्रिया और फल में परिणित होती है। इस ज्ञान के अभाव में मनुष्य स्वयं को पुरुष, चेतन, कर्ता और भोक्ता मान बैठता है। उसमें मैं-कर्ता, भोक्ता भाव के आते ही अंहकारपूर्वक क्रियाएँ होने लगती हैं तथा कर्ता, करण और कर्म का समावेश कर्म संग्रह करने लगता है।
अगर कामना, स्वार्थ बुद्धि, ममता अहंकृत भाव नहीं है, तो हिंसा का प्रश्न ही नहीं होगा और फिर पाप कैसा और कहाँ? ज्ञान योग-विवेक अहंकृत भाव को नष्ट करता है और कर्म योग से बुद्धि की लिप्तता दूर होती है। इन दोनों में किसी एक के नष्ट होने पर दूसरा भी नष्ट हो जाता है। अहंकृत भाव भोग और मोक्ष की इच्छा पैदा करता है, जिसके मिटने से भोगेच्छा मिटती है, जिसका परिणाम मोक्ष की इच्छा का स्वतः पूर्ण होना है।
If desire, selfishness, affection, allurement, egotism is not there; there is no question of sin on the part of the doer. He has not committed a sin. Egotism vanishes by Gyan Yog. Karm Yog breaks the bonds of attachment, stains, sullies, engrosses, smears etc., while the doer, the purpose and the actions leads to accumulation of deeds-bondage, rebirth.
The traitors, terrorists, tyrants, intruders, invaders, murderers, rapist demons-Rakshas must be eliminated.
There is provision for penitence, remorse, penance, atonement for such actions described in scriptures.
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ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः॥18.18॥
ज्ञाता (जानने वाले का नाम ज्ञाता है), ज्ञान (जिसके द्वारा जाना जाये-ज्ञान) और ज्ञेय (जानने में आने वाली वस्तु-ज्ञेय), इन तीनों से कर्म-प्रेरणा होती हैं और कर्ता (कर्म करने वाला, कर्ता), करण (जिन साधनों से कर्म किया जाए, करण।) तथा क्रिया (करना, क्रिया), ये तीनों प्रकार का कर्म-संग्रह है।
Knowledge, theme (content of Knowledge) and the learned person (the scholar, philosopher, Pandit, enlightened, intellectual) is inspired for Karm and the Motive (instruments, objects), Karm and the doer, leads to acquisition of Karm.
ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता के होने पर ही कर्म की प्रेरणा होती है। कर्ता अनेक हो सकते हैं; परन्तु उन सबको जानने वाला एक ही रहता है, जिसे परिज्ञाता कहा गया है। कर्म संग्रह के 3 कारण हैं :- करण, कर्म और कर्ता। क्रिया करने के साधन करण, चेष्टाएँ कर्म और इन दोनों से संबंध जोड़ने वाला कर्ता है। कर्तापन होने से अहंकृत भाव होने से कर्म संग्रह होता है, अन्यथा नहीं।
अहंकार और लिप्सा-लिप्तता होने से ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता का संयोग कर्म प्रेरणा और संग्रह पाप-पुण्य का कारण बनता है।
The doer is responsible for acquisition of Karm (actions, deeds, endeavours, etc). The ego is the vehicle of acquisition in the doer. The tendency-inspiration takes place by ego. Attachment and the combination of knowledge, theme (contents-objects of knowledge) and the learned tends to fulfil the ambition (goals, target). Loss of Ego leads to vanishing of acquired Karm and ultimately Karm Fal.
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि॥18.19॥
गुणों का विवेचन करने वाले शास्त्र में गुणों के भेद से ज्ञान और कर्म तथा कर्ता तीन-तीन प्रकार के ही कहे गए हैं, उनको भी तुम मुझ से भली भाँति सुनो।
The Philosophy, scriptures, treatise (Sankhy Shastr, Gyan Yog, enlightenment), which analyses (investigate, evaluate, discriminate) the characteristics, finds Gyan (learning, knowledge), Karm and the doer are of three types (depending upon :- Satvik, Rajsik, Tamsik Karm-tendencies).
कर्म की प्रेरणा से पहले ज्ञान होता है। इसके बाद हो कर्म आरम्भ होता है। कर्म करने में कर्ता मुख्य है। ज्ञान, कर्ता और कर्म के सात्विक रहने से मनुष्य निर्लिप्त रहता है। ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता तथा कर्म, करण और कर्ता में बुद्धि-विचार, विवेक की प्रधानता है। सात्विकता कर्मों से संबन्ध विच्छेद करा कर परमात्म तत्व से मिलाने वाली है। राजस प्रवृति मनुष्य को जन्म-मृत्यु चक्र में उलझाती है और तामस प्रवृति उसे नर्क और नीच योनियों में ले जाती है।
Intelligence (depending upon inclination, needs, desires) is behind the choice-selection of work (profession). Fore sight (awareness) provides inspiration to do a certain job. Satvik combination of Gyan (insight+foresight), Karm and the Karta (doer) detaches the person from the worldly affairs and connects him with the Ultimate-God. Rajas Karm puts him in the cycle of birth and rebirth, while Tamsik Karm throws him into the hell or lower form of life–forms, species.
The enlightened devotee frees himself from attachments and prejudices, perceives (sees), the Pure, Defect less, Supreme Soul in differentiated, distinguished, divisible, destructible, possession, knowledge and behaviour. He rises above all and attains the essence of Supreme Soul God.
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥18.20॥
जिस ज्ञान से मनुष्य-साधक सम्पूर्ण विभक्त प्राणियों में (पृथक-पृथक सब भूतों में) एक अविनाशी परमात्म भाव को विभाग रहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तुम सात्त्विक ज्ञान समझो।
The Gyan (enlightenment, knowledge-understanding, prudence) through which the devotee perceives the undifferentiated Ultimate-the Almighty-God in the differentiated living organisms and the world is Satvik (virtuous).
जो कुछ भी दृश्य है, वह परमात्मा का प्रतीक-स्वरूप ही है। इनमें से किसी की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। यह सब कुछ हर पल हर घड़ी परिवर्तित हो रहा है। अज्ञान वश मनुष्य स्वयं को उनसे जोड़ लेता है, परन्तु समझ आने पर अविनाशी परमात्मा की उनमें सत्ता को मान लेता है। अलग-अलग वस्तु, व्यक्ति, ज्ञान, व्यवहार के होते हुए भी वह निर्विकार-अविनाशी तत्व को पहचान लेता है, जब उसके अन्तः करण में राग-द्वेष, मोह-ममता शेष नहीं रहते। यह ज्ञान सात्विक ज्ञान है।
जैसे साधारण मनुष्य अपने शरीर में स्वयं को व्याप्त मानता है; उसी प्रकार साधक परमात्मा को इस संसार में व्याप्त मानता है। जैसे शरीर और संसार एक हैं, उसी प्रकार स्वयं और परमात्मा भी एक हैं।
साधक की दृष्टि में प्राणियों की सत्ता के भी रहने के कारण यह ज्ञान सात्विक ज्ञान-विवेक कहलाता है। अगर उसकी दृष्टि में प्राणियों की सत्ता न रहे, तो यह गुणातीत तत्वज्ञान-ब्रह्म की प्राप्ति है।
Neither living nor nonliving has independent status. Everything is changing continuously. Imprudence makes the individual perceive his identity. Enlightenment directs the devotee that it’s only the Almighty who, is never changing and directs each and everyone. The enlightened is able to identify the one, who is defect less, pure-pious; since his innerself has become free from attachments and prejudices. This enlightenment associated with detachment, leads to realisation of the Almighty.
Satvik Gyan illustrates the differentiated, destructible, transforming goods and in itself is pure, pious and defect less. The way, an individual considers himself to be pervasive in the body, the devotee considers the God to be pervasive (व्यापक, व्याप्त) in the universe. The way the body and the world are one, in the same way the individual and the God are one. Significance given to the living ones by the devotee, is the Satvik Gyan (Enlightenment, Prudence). If he gives significance only to the God, he has realised the Tatv or Param Gyan, Ultimate knowledge (beyond which nothing is left to know, identify, understand) or to say he has realised the Brahm.
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्॥18.21॥
किन्तु जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण प्रणियों में (भूतों में) भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तुम राजस ज्ञान समझो।
The knowledge due to which an individual feel differently (observe, see, find, visualise, perceive) differentiate in all creatures, various entities of distinct kinds) towards different organism is Rajsik.
राग मनुष्य में आसक्ति, प्रियता, द्वेष आदि पैदा करता है। राजस स्वभाव वाला व्यक्ति मनुष्य, देवता, राक्षस, यक्ष, कीट-पतंग, वृक्ष-लता, चर-अचर प्रणियों की आकृति, स्वभाव, नाम, रूप, गुण आदि के अन्तर से एक ही अविनाशी परमात्मा को अलग-अलग समझता है। मनुष्य अलग-अलग शरीरों में अन्तःकरण, स्वभाव, इन्द्रियों, प्राण आदि के सम्बन्ध से प्राणियों को अलग-अलग मानता है। राजस ज्ञान में जड़-चेतन का विवेक नहीं होता। क्रिया और पदार्थ दोनों को सत्ता देकर उनसे राग पूर्वक सम्बन्ध जोड़ने से सब कुछ अलग-अलग दिखता है।
The Almighty (Permatma, God) exists in each and every organism as Atma (Soul). The organism is recognised by its shape, size, figure, name, nature, configuration, characteristics, nomenclature etc., by the individual. Significance to matter, actions and Pran-life, along with attachments, which develop attraction, repulsion, affection, prejudices etc., leads to discrimination among the organism. Perception of the same Almighty in different organism, differently on the basis of configuration and behavior is Rajsik. The knowledge which makes the individual perceive different organism, in his innerself differently, on the basis of nature or organs (work organs, sense organs) is Rajsik. Rajsik Knowledge does not discriminate between the living and the non living (immovable) for lack of prudence.
मनुष्यों में जाति, धर्म, देश आदि के आधार पर अन्तर करना और सभी जीव-जन्तुओं में परमात्मा को न देखना राजसिक ज्ञान है।
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन् कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्॥18.22॥
जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य एक कार्य रूप शरीर में ही पूरी तरह आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला, तात्त्विक-वास्तविक ज्ञान अर्थ से रहित और तुच्छ है, वह तामस कहा गया है।
The knowledge, which lets the individual completely involved in material body (clings to one single effect as if it were all), identified in actions and which is insignificant in the absence of logical real knowledge is Tamsik.
तामस उत्पन्न होने वाले और नष्ट होने वाले पाञ्च भौतिक शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है। ये मान्यता मूढ़ता के कारण ही होती है। उसकी मान्यता युक्ति, प्रमाण और शास्त्र प्रमाण के विरुद्ध होती है। वह और उसका शरीर अलग-अलग हैं, वह इस वास्तविक ज्ञान-विवेक से वंचित है। उसकी बुद्धि तुच्छता की प्राप्ति करने वाली है, इसलिए इसको ज्ञान कहने में भगवान् संकोच करते हैं। इसमें आसुरी गुण का प्रभाव होने से अज्ञान कहा गया है और पाशविक-पशु बुद्धि माना गया है।
Tamsik individuals are completely obsessed with the human body. The imprudent can’t see beyond this due to relations, possessions, affections etc. and consider himself to be supreme or better than others. His opinions are biased, against logic and evidence, presented by Shastr (scriptures). He does not recognise the difference between his innerself and the physical, material, perishable structure (body-world). His thoughts and actions are extremely narrow and dogmatic.
Tamsik knowledge is not recognised as knowledge by the Ultimate, Supreme, God. The thoughts of such individuals are animal thoughts, evil and demonic.
नियतं सङ्गरहितम रागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥18.23॥
जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले-फलेच्छा से रहित पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो, वह सात्त्विक कहा जाता है।
The deeds fixed (described) in the Shashtr-ordained and performed by an individual as per procedure-without attachment, free from the ego of having done it, without the desire for reward, attachments and prejudices is Satvik.
कोई भी कर्म जो वर्ण और शास्त्र के अनुसार किसी परिस्थिति में और जिस समय शास्त्रों ने जैसा करने के लिए कहा है, वह व्यक्ति के लिए नियत कर्म हो जाता है। शास्त्र निषिद्ध कर्म नहीं करना चाहिये। नियत कर्म कर्तव्याभिमान से रहित होकर किया जाना चाहिये। राग द्वेष से रहित होकर कर्म किया जाये। कर्म का त्याग द्वेष पूर्वक न हो। कर्म के साधन-शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदि से भी राग द्वेष रहित हो। कर्म भविष्य में मिलने वाले फल की इच्छा से रहित होकर किया जाये। पदार्थ से निर्लिप्त रहते हुए, असंगतापूर्वक किया गया कर्म सात्विक है। जब तक कि अति सूक्ष्म रूप से भी कर्म की प्रकृति के साथ संगता-सम्बन्ध है, वह सात्विक है; प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद होते ही वह कर्म अकर्म हो जाता है।
The Karm as per dictates of Varn, Ashram and situation is fixed for a person. One must not act against the Shastr. He should be free from ego. Physical growth, working of organs and systems takes place automatically, under the influence of nature. This realisation, detaches a person from various duties and responsibilities, eliminating ego.
Acceptance of duties, actions and responsibilities by a person and his innerself should be free from attachments, prejudices and devoid of actions. Any action performed without the desire of reward in future with detachment from actions and possessions is Satvik (Pure, pious). Satvik Karm is Satvik, till it is attached with nature even at microscopic level, otherwise it becomes Akarm-deed, action not performed.
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥18.24॥
परन्तु जो कर्म भोगों की इच्छा से अथवा अहंकार से और परिश्रम पूर्वक किया जाता है, वह राजस है।
The action (deed-labour) performed-done with the desire for rewards-returns in the form of pleasures, gratification, honours, enjoyment, sex, (suffering is not included in it) or due to vanity, ego, pride is Rajsik.
मनुष्य कर्म करेगा तो उसे पदार्थ-वस्तु, सुख-आराम, भोग की उपलब्धि होगी, आदर-सम्मान मिलेगा, बड़ाई होगी आदि-आदि फ्लेच्छा से किये गये कर्म हैं। कर्म योगी का शरीर में थोड़ा अभिमान रह भी जायेगा तो वह साँख्य योगी के समान ज्यादा बाधक नहीं होगा। कोई भी कर्म स्वयं के लिये न करने से उसे कर्तव्याभिमान नहीं होगा, क्योंकि वह उसने मात्र कर्तव्य पालन हेतु किया है। कार्य के पूरा होने पर वह कर्तृत्व-अभिमान उसी कार्य में लीन हो जायेगा।
(1). कोई कार्य करता हुआ देखे और तारीफ करे या अकेले में दूसरों की तुलना में अपने कार्य में श्रेष्टता, विलक्षणता-विशेषता हो तो अभिमान-अहंकार हो ही जाता है। यह अहंकार पूर्वक किया गया कर्म राजस है। (2). फलेच्छा से किया गया कर्म भी राजस है। (3). शरीर के सुखों की प्रधानता होने से फलेच्छा की अवहेलना हो जाती है और फलेच्छा की प्रधानता होने से सुखों की अवहेलना हो जाती है। अहंकार और परिश्रम पूर्वक फलेच्छा से किया गया कर्म राजस है। राजस व्यक्ति की जरूरतें ज्यादा, परिश्रम ज्यादा (झूँट, फ़रेब, बेईमानी, छल-छंद, कपट, आपराधिक प्रवृति, चंचलता आदि की अधिकता), राग द्वेष का बढ़ना, आराम-सुख की चाहत बढ़ती ही रहती है।
Ability to perform better, excellence at work, higher educational qualification, status, intelligence-genius, cleverness, honesty, honours, expectation of rewards in future or present associated with labour are Rajsik.
Enthusiasm in doing work by minimising rest, pleasures and comforts, overloading self with hard work, targets, goals etc. is associated with demand for pleasures, joy, luxuries, intimacy-sexual pleasures, physical comforts; may ultimately result in indifference, negligence and ignorance at work.
Such people increases their needs, requirements, possessions leading to more demand, in turn more labour, associated with attachments to the body and possessions-enhancing their need for rest-due to tiredness, fatigue and ultimately little labour appear to be too big for them.
अनुबन्धं क्षयं हिंसा मनवेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥18.25॥
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न देखकर केवल मोहपूर्वक-अज्ञानवश आरंभ किया जाता है, वह तामस है।
Actions-deeds undertaken without considering consequences, injury, ability, results, outcomes, losses, violence, destruction and own capacity-calibre out of delusion (allurement, ignorance) are Tamsik (darkness).
मूढ़ तामस की प्रधानता के कारण किसी भी कर्म और उसके परिणाम का विचार करता ही नहीं।
बिना विचार जो करे, सो पीछे पछताये;
काज बिगारे आपनो, जग में होय हँसाये।
मनुष्य को कोई भी कार्य करने से पहले यह देख लेना चाहिए कि इससे अपनी या दूसरों की कोई हानि तो नहीं हो रही है। धन-समय, अपमान-निन्दा, तिरस्कार, लोक-परलोक तो नहीं बिगड़ रहा? कहीं जीवों की हिंसा-हत्या तो नहीं हो रही? इन सबसे उसका अधोपतन तो नहीं हो रहा? उस कार्य को करने की मेरी क्षमता है कि नहीं? मेरी बुद्धि-बल, सामर्थ्य, समय, कला, ज्ञान, पौरुष पर्याप्त हैं अथवा नहीं? ये सब कुछ विवेकहीन कभी भी नहीं सोचता। बुरे से बुरा काम करके भी वह गर्व-बड़ाई का अनुभव करता है। दूसरों के काम में बाधा-अवरोध उत्पन्न करना उसका स्वभाव बन जाता है और उसको तमोगुणी होने के कारण घोर नर्क-हीन योनियों में जन्म लेना पड़ता है।
The Tamsik doer fails to weigh his own ability, capabilities, intelligence, knowledge, vigour-vitality, manly strength, courage, spirit before beginning with the work. He acts as per his own mood, whims, fancy, caprice, will, without prudence or reasoning. It’s a part of his nature to obstruct-bully others. He seldom understand, the destruction-loss caused to others by his action; automatically leading to his own downfall, Ultimately.
Satvik devotee automatically progress (moves towards Bhakti, Salvation), due to his innerself and nature.
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥18.26॥
जो कर्ता राग रहित, कर्तव्याभिमान से रहित धैर्य और उत्साह से युक्त तथा सिद्धि और असिद्धि में निर्विकार है (कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है), वह सात्त्विक है।
Doer who is free from attachments, pride and ego (feeling of having done or achieved something), possess patience and enthusiasm (zeal, morale), unstained by accomplishment (success, fulfilment, attainment) or failure is Satvik (Pious, virtuous, righteous).
साँख्य-ज्ञान योगी के समान सात्विक कर्ता में भी राग नहीं होता। सात्विक कर्ता का कामना-वासना, आसक्ति, स्पृहा, ममता आदि से सम्बन्ध न जोड़ने के कारण लिप्तता का अभाव रहता है। उसका आसुरी भावना से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसमें निर्विकार, त्यागी होने का अभिमान नहीं है। विध्न-बाधा आने पर भी उसमें धैर्य-धृति नित्य, निरन्तर, लगातार बनी रहती है। वह घृति और उत्साह से युक्त है। उसे पूरी शक्ति, ताकत, समझ, समय, सामर्थ्य लगाने पर भी काम पूरा हो या न हो पाये, सिद्धि-असिद्धि, प्रसन्नता-खिन्नता, हर्ष-शोक आदि में निर्विकार रहना है।
आसक्ति-अहंकार से रहित, धैर्य-उत्साह से युक्त, सिद्धि-असिद्धि में निर्विकार कर्ता सात्विक है।
The devotee should abstain from the feeling of having sacrificed, detached, being defectless or that he has no ego. Feeling of being special or something, due to possessions, ego or pride should be discarded by the doer with inner strength. He should maintain his patience (calm-cool) and should not deter in spite of obstacles in difficult situations, confrontation by failures, unexpected poor performances-results, obstructions, which is within his limits and reach. He should maintain his patience and Keep up his enthusiasm, zeal and morale in adverse situations-circumstances, without losing heart.
Accomplishments or failures in spite of whole hearted efforts never create pleasure or sadness in his innerself, which are divine and out of his control.
The Satvik never demonstrate his abilities, specialities or powers. Uninvolved-he just do it.
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥18.27॥
जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला-रागी और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने वाला-हिंसक, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है, वह राजस कहा गया है।
The doer who, is attached to the desire of reward, fruits of action, greed, with violent-cruel nature, impure and is passionate-associated with pleasure (happiness, pleasure, sexuality-sensuality, lasciviousness) and pains (worries, sorrow, sadness) is Rajsik.
राजस कर्ता रजोगुणी होने के कारण के रागी (कर्मों, कर्म फल, वस्तु, पदार्थ आदि में अभुरुचि रखने वाला) कहा गया है। उसे जो कुछ भी मिलता है, उसमें उसकी संतुष्टि नहीं होती और ज्यादा की चाहत बनी रहती है। वो हिंसक व्रती का, अपने स्वार्थ के लिए दूसरे का नुकसान करने वाला, दुःख देने वाला होता है। उसमें विवेक बुद्धि का अभाव होता है। वह जिन-जिन भोग पदार्थों का संग्रह करता है, वे सब अपवित्र हो जाती हैं। उसके आस-पास का वायुमण्डल-स्थान अपवित्र हो जाता है। वह सफलता-विफलता, अनुकूल-प्रतिकूल, परिस्थिति, घटनाक्रम, हर्ष-शोक, सुख-दुःख, राग-द्वेष में ही उलझा रहता है। इतना अवश्य है कि रजोगुणी में होश और सावधानी का पुट बना रहता है।
One who find attraction towards actions, performances and their rewards, desirous of possessions and affections, likes, attachments is Ragi (attached). All his actions are associated with the motive-desire of returns, gains, profits. He seeks more and more of all such things, which satisfy-gratify his ego, thirst, anxiety for honours, fame, money, respect. He has no regard or concern for the troubles, tensions losses, incurred by others due to his selfishness. It causes heart burns, envy, jealousy in the have not’s-the poverty stricken. He attacks, terrorise, invades, intrudes, loots, murder others and slaughter anyone and everyone, who dare obstruct him. The envious, depressed, oppressed do feel hurt, humiliated (physically, mentally, sentimentally, spiritually) and curses do affect him. His body, all his possessions, place where he lived, burnt-cremated, buried becomes impure-inauspicious. He keeps struggling with pains-pleasures, successes-failures or favourable-unfavourable happenings. Both Rajsik and Tamsik have a common characteristic of violence and cruelty. Rajsik is conscious, careful and absorbed while Tamsik has no sense or understanding.
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥18.28॥
जो कर्ता असावधान-अयुक्त, अशिक्षित-शिक्षा से रहित, ऐंठ-अकड़ वाला, जिद्दी, घमंडी, धूर्त, उपकारी का अपकार-बुरा करने वाला (दूसरों की जीविका का नाश करने वाला) तथा विषादी-शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है, वह तामस कहा जाता है।
A doer who is careless-lacks concentration, crude-uneducated, rigid-stiff, stubborn, malicious-injurious (offensive, harmful, hostile, inimical, censurable), to the beneficent (helpful, furthering, conducive), lazy, morose, depressed, procrastinate (Unsteady, vulgar, unbending, wicked, indolent, desponding and procrastinating) is Tamsik.
The Muslim terrorists of today and invaders of the past falls in this category. The Britishers who invaded and ruled India too comes under this category. Those who converted Hindus and are still busy with this nonsense too are imprudent-Tamsik.
(1). तामसी प्रवृति का मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार नहीं करता, क्योंकि वह मूढ़ है। (2). उसे शास्त्र, सतसंग, उपदेश, अच्छी-उचित शिक्षा की प्राप्ति नहीं हुई। (3). उसका मन, वाणी, शरीर में अकड़ है, जिसके कारण वह वर्णाश्रम के अनुसार अपने से बड़े-बूढ़ों, माता-पिता, गुरु-आचार्य, आदि के साथ आदर-सम्मान, विनम्र व्यवहार नहीं करता। (4). वह शठ-जिद्दी भी है। (5). वो प्रत्युपकार नहीं करता, उलटे बुरा करने का मनोविचार रखता है। (6). वह उचित कर्म नहीं करता, अपितु नींद-आलस में रहता है। (7). इन सब कारणों से उसे सफलता (मोक्ष, मुक्ति) की प्राप्ति नहीं होती, अतः उसे विषाद, क्रोध-आक्रोश बना रहता है। (8). अविवेकी होने के कारण, उसे हर काम को करने में अधिक समय लगता है और उसका कोई काम सुचारु रूप से चलता भी नहीं है। इन आठ लक्षणों वाला व्यक्ति तामस कहलाता है। तामस वृति का विवेक से विरोध है। अतः तामस मनुष्य अधिक विषादी होता है।
The Tamsik individual is incapable of analysing, thinking, decide what to do and what not to do or to appropriate, which makes him careless.
A person, who has not studied Shastr-scriptures, has not been in the association of virtuous people or attended congregations, is devoid of preaching, is crude, illiterate or uneducated, does not bow down in front of parents, elders, teachers, respected people or the mighty, has no manners, is not mild, courteous, humble, reverential, affable or submissive, is Tamsik.
He is wicked, vicious, deceitful and unprincipled, does not accept the good advice due to his stubbornness and considers-likes his own thoughts-fancy & caprice only. He is a person who do not mind harming the people who were helpful-conducive to him. He does not like work, keeps day dreaming, prefer sleep-laying down in the bed. He suffers from sadness, despair, melancholy, depression and is sullen, ill tempered and is unsocial.
It takes him long to finish a work. He is imprudent and do not try to find ways and means to minimise effort or to make the job easier and convenient-is unable to devise short cuts.
Putin, Kim, Zinping, Hamas, Iranis are some of the Tamsik people, today.
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय॥18.29॥
हे धनंजय! अब तू गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति के भी तीन प्रकार के भेद जो कि मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक, अलग-अलग कहे जा रहे हैं, सुन।
इन्द्रियों में बुद्धि की प्रधानता है। बुद्धि के निश्चय, विचारों को ठीक तरह-दृढ़ता से रखने, अपने लक्ष्य से विचलित न होने देने वाली धारण शक्ति को घृति कहा जाता है। किसी भी कार्य को करने में धैर्य की आवश्यकता है। सात्विक बुद्धि और घृति के उपयोग से साधक भगवान् को प्राप्त कर सकता है, जो कि वास्तविक धन है। राजस या तामस प्रवृति से नहीं। यद्यपि घृति, बुद्धि का ही अंग प्रतीत होती है, तथापि यह बुद्धि से अलग और विलक्षण है; क्योंकि घृति कर्ता में रहती है। घृति बुद्धि को ठीक तरह से कार्य करने में-स्थिर रखने में सहायता करती है। पारमार्थिक उन्नति में बुद्धि के अपने उद्देश्य पर स्थिर रहना जरूरी है, जो कि घृति का कार्य है। घृति के भेद और जानने योग्य बातों का वर्णन भगवान् करेंगे, जिनको जानने के बाद इस संदर्भ में और कुछ जानना शेष नहीं रहता।
O Dhanajay! Listen to the three types of divisions-distinctions of the characteristics of humans on the basis of characters, intelligence and patience (preservation, calm, resoluteness-The threefold division of intellect and firmness according to qualities), which has been explained by me in detail with perfection.
It’s the brain, which perpetuates the body organs and systems. Will power-determination, firm decision, a component of brain power, controls decisions, maintains stability in thoughts and ideas, not to betray goal and targets. Intelligence and will power helps the devotee in rising above the world. Satvik intelligence and will power lead to real accomplishment and achievement, which is none other than the God. It’s only the will power which ensures the proper utilisation of intelligence. Patience is a must in accomplishment-completion of work, ensuring success i.e., liberation, assimilation, Salvation.
Excellence of will power stabilises and purifies the thoughts (intelligence), of the devotee in the means. Stability of thoughts in the achievements for the welfare of others-mankind and the world, is essential.
If the doer’s inclination, disposition, feelings, tendency are Satvik, his Karm too become Satvik. The Satvik doer makes his deeds and intelligence Satvik and experiences the Satvik pleasure-Permanand (Extreme-Ultimate pleasure, Bliss). He becomes a component of the Almighty.
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥18.30॥
हे पार्थ! जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति को, कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ पूर्वक जानती है, वह बुद्धि सात्त्विक है।
O Parth! The brain power-intelligence, which recognises, distinguishes, identifies the tendency (inclination, disposition, taste, conduct, behaviour) and release, escape (discontinuance, rebirth, abstinence, retirement, suspension) fear and pardon, protection, fearlessness and do’s and do not’s (what has to be done and what not to be done-rejected), attachments and Salvation, is Satvik.
साधक प्रवृति (कामना सहित काम-काज करना) और निवृति की (एकांत में वासना सहित भजन-कीर्तन करना) अवस्थाओं से गुजरता है, जो कि संसार में लगाये रखतीं हैं। परन्तु कामना रहित प्रवृति और वासना रहित निवृति उसे परमात्मा की और ले जाती हैं। जो भी कार्य शास्त्रों, वर्णाश्रम की मर्यादा के अनुरूप है, वह तो कार्य है, अन्यथा अकार्य। कार्य जीव के कल्याण हेतु होता है। कार्य इस प्रकार का हो, जिससे प्राणी भय मुक्त हो। अभय मनुष्य को परमात्म पद से मिला देता है। यदि यज्ञ, दान, तीर्थ, व्रत, स्वर्गादि की इच्छा से रहित हो के किये जाते हैं तो, बन्धन से मुक्ति का कारण बनते हैं। केवल परमात्मा से सम्बन्ध रखना मोक्ष है। जो बुद्धि प्रवृति-निवृति, कार्य-अकार्य, भय-अभय, बंधन-अबंधन मोक्ष के वास्तविक तत्व को जानती है, वही सात्विक है। वस्तुतः ये बातें सीखी जाती हैं।
To be busy with daily chores, routine, work, life, engagements with desires, is a general human tendency and to spare time for recitation of prayers, meditation, remembering God is, suspension or abstinence with desires, lust and attachment, constitute inclination in natural acts and worldly affairs. When the individual does work, without desires-motive and pray to God without attachments or lust, he zero’s into the God-becomes closer to HIM leading to assimilation, liberation or Salvation.
All those functions, tasks, duties carried out as per dictates of scriptures constitute deeds or actions (work done) and anything done against them by breaching limits, decorum, conventions, dignity is inaction (work not done). Anything done for the welfare of the community, society or the living organisms (world as a whole), constitutes the true work and such actions, which develop, create attachments and fear, are the functions, not do be under taken.
An action which develops or enhances the possibility of destruction of the mankind (world), constitute fear. Anything which is in favour of the mankind constitute, protection, pardon or fearlessness.
A person devoted to God is not afraid of anything. His fearlessness helps him in approaching the Almighty. Inner desire for higher abodes too fixes ties, bonds. Breaking all sorts of bonds attachments, desires is liberation.
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी॥18.31॥
हे पार्थ! जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ-ठीक तरह से नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है।
That intelligence (mentality, tendency, inclination-bent of mind), which is not capable of differentiation between Dharm (Religion, religiosity, virtues, duty, responsibility) and Adharm (Non religious, irreligiosity, wickedness, vices, deeds–actions pious & sins), ought to be discarded-rejected; what should be done and what should not be done is Rajsik.
शास्त्रों में बताया गया विधान-कर्म जो कि परलोक में सद्गति प्रदान करता है, वह धर्म है। माँ-बाप, बड़े-बूढ़े, दूसरों की सेवा करना-सुख पहुँचाना, अपने तन, मन, धन सामर्थ्य, योग्यता, पद, अधिकार, आदि को समाज सेवा में उपयोग करना धर्म है। कुँआ, तालाब, बाबड़ी, धर्मशाला, शिक्षण संस्थान,अस्पताल, प्याऊ-सदावर्त, निष्काम भाव सेवा, आवश्यकतानुसार उदारता पूर्वक खर्च करना और बिना लोभ, लाभ, लिप्सा, लालच, स्पृहा के इन कार्यों को करना आदि धर्म हैं। वर्णाश्रम धर्म और कर्तव्य का पालन धर्म है। जो बुद्धि धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य, भय-अभय, बन्ध-अबन्ध, बध्य-अबध्य, कार्य-अकार्य, राग-द्वेष,आदि के तत्व को सही तरीके से नहीं पहचान पाती, जिसमें विवेक का अभाव है, वो राजसी है।
DHARM :: Everything prescribed by the epics-scripters, leading to Sadgati (improvement of Perlok-next birth reincarnation, abode, leading to freedom from rebirth) by undertaking chastity, ascetic, righteous, auspicious, pious acts and rejecting inauspicious (wicked, vicious) acts. Whole hearted efforts, expenses made; devotion of body, innerself, mind and soul, physique, ability, status, rights, capabilities for the welfare of others (mankind, society, world), leading to the welfare of the doer is Dharm.
ADHARM :: Use of position-status for inauspicious acts, selfishness, teasing, paining others, cruelty, torture, terrorism, vices, wickedness, snatching others belongings, murder, rape etc. is Adharm. It creates bonds, ties and hurdles for the doer. Scriptures have prescribed-described the various acts an individual should do, depending upon Varnashram, Country, social decorum, convention, dignity and the situation.
Attachments create defects like favouritism, prejudices, biases, ties, unevenness, in the working of the Rajsik doer. He is unable to justify, judge, differentiate or choose the right action, as per need of the situation. Engagement with attachments and prejudices, create bonds with the world. One fails to understand the world. He should understand this & detach. Once association with the God is established, the devotee becomes his component. This association is generated by Gyan-prudence, enlightenment, love and knowledge. Rajsik mentality turns into Satvik, which identifies the do’s and do nots clearly through prudence. Prudence enables him, in the differentiation between Dharm-Adharm, do’s-don’s, bonds and Salvation.
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥18.32॥
हे अर्जुन! तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी धर्म मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत-उल्टा मान लेती है।
Thought (intelligence, idea, mentality) which accept Adharm (unrighteousness, irreligiosity, vices, wickedness, lack of virtues) as Dharm due to delusion, ignorance, illusion (darkness), imprudence and act differently-just in the opposite direction-perverted, is Tamsik.
ईश्वर की निंदा करना, शास्त्र, वर्णाश्रम धर्म और लोक मर्यादा के विरुद्ध काम करना, माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार करना, साधु-संत-महात्मा, गुरु-आचार्य, बुजर्गों को अपमान करना, झूँठ, कपट, बेईमानी, जालसाजी, अभक्ष्य भोजन, परस्त्री गमन, शास्त्र निषिद्ध-विरुद्ध पाप कर्मों को धर्म मानना ही तामसिक प्रवृति है। आत्मा को स्वरूप न मानकर शरीर को ही स्वरूप मानना, ईश्वर को न मानकर संसार-जगत को ही सच मानना, दूसरों को तुच्छ समझकर अपने को ही सबसे बड़ा मानना, दूसरों को मूर्ख और स्वयं को बुद्धिमान, पढ़ा-लिखा, विद्वान, समझदार समझना, साधु-महात्माओं की मान्यताओं से ऊपर अपनी बात को बल देना-प्रमाण मानना, संयोग जन्य सुख को ही सच्चा सुख समझना, वर्जित कार्यों को करना-कर्तव्य समझना, अपवित्र वस्तुओं को पवित्र मानना, समाज, दुर्भावनापूर्ण, विद्वेषपूर्ण व्यवहार, छल-कपट, छल-छंद, धर्म के विपरीत चलना आदि तामसिक बुद्धि के लक्षण हैं। अधोगति की ओर ले जाने वाली प्रवृति-बुद्धि तामसिक है। तामसी प्रवृति के लोगों को व्यवहार और परमार्थ में सब कुछ उल्टा-पलटा ही दिखाई देता है।
ऐसे तामसिक प्रवृति-बुद्धि वाले लोग पशु हत्या को माँस का उत्पादन, गर्भपात को परिवार कल्याण, स्त्री की स्वछँदता-अधोपतन को नारी मुक्ति, नैतिक पतन को उन्नति, धार्मिकता को सम्प्रदायिकता, धर्म विरुद्ध को धर्म निरपेक्ष, पशुता को सभ्यता औरतों के नौकरी-व्यवसाय, घर से बाहर निकलने को नारी की स्वाधीनता कहते हैं। "विनाशकाले विपरीत बुद्धि इसी को कहते हैं"।
One who accept prohibited acts like faithlessness, disrespect for the God, absurd talks about the God, use of abusive-foul language about the God, endeavours against the scripters, Varnashram, conventions and disregard-disrespect for them, ill treatment of elders, parents, teachers, saints, dignitaries, disregard-disrespect for parents and failure to serve-help them, treachery, disloyalty, portraying untruth as truth, speaking-telling lies, use of filthy-foul language, unnecessary-undesirable violence, cruelty, dishonesty, forgery, company of the wicked people-women, criminals, murderers, malicious, inimical, sinners etc. are some the Tamsik acts constituting Adharm.
Lack of faith in soul, consideration of the human body as supreme, questioning existence of God, athiest, considering material world as real, considering oneself as superior, intelligent, educated and scholarly as compared to others, luxuries and comforts as the real goal-purpose of life, imposing own self, thoughts-dictates on others, doing all such things-acts, which are socially, culturally, morally prohibited-taboo, are the Tamsik acts & are sufficient to lead the sinner-doer to Hells.
From the early childhood I found such an environment around that clearly matches with this description. It was traumatic. To come out of this was really a difficult exercise-task. I am still fighting this.
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी॥18.33॥
हे पार्थ! समता से युक्त जिस अव्यभिचारिणी धैर्य-धारण शक्ति-घृति (भगवद्विषय के सिवाय अन्य सांसारिक विषयों को धारण करना ही व्यभिचार दोष है, उस दोष से जो रहित है, वह अव्यभिचारिणी धारणा है) से मनुष्य ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं (मन, प्राण और इंद्रियों को भगवत्प्राप्ति के लिए भजन, ध्यान और निष्काम कर्मों में लगाने का नाम उनकी क्रियाओं को धारण करना है) को धारण करता है अर्थात संयम रखता है, वह धृति सात्त्विकी है।
Patience-will power (firmness, determination, resoluteness-दृढता), associated with evenness of mind (mental balance, cool) and Yog, which is unspoiled, unpolluted, uncorrupted the human being, holds Man (mind, mood, will and heart, innerself), Pran (sustainability of life, breath, respiration, the vital) and the organs (work-functional and sense organs), is Satvik Ghrati (steadfastness, patience, perseverance, resoluteness in difficult-adverse situations-facing disturbance-obstacles, tendency to maintain cool in difficult-adverse situation-circumstances).
सांसारिक लाभ-हानि, जय-पराजय, सुख-दुःख, आदर-निरादर, सिद्दी-असिद्धि, में साम्यावस्था-सम रहने को योग-समता कहा गया है। इस लोक तथा परलोक के सुख, भोग, वस्तु आदि में किंचित मात्र भी ध्यान-इच्छा ना रखना अव्याभिचार है। इस अव्याभिचार से युक्त घृति अव्याभिचारिणी-सात्विक घृति कहलाती है।
अपनी मान्यता, विचार, सिद्धान्त, लक्ष्य, भाव, क्रिया, वृत्ति आदि को दृढ, अटल रखने की शक्ति को घृति कहते है। समता-योग के द्वारा मनुष्य प्राण, मन, और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है। जिस घृति के द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों पर आधिपत्य-काबू हो जाये, वो घृति सात्विक है।
मन में राग द्वेष को लेकर चिंता से रहित होना, मन को काबू करना-विचलित न होने देना आदि को घृति के द्वारा धारण किया जाता है।
प्राणायाम करते हुए साँस-निश्वास, रेचक, पूरक, कुम्भक, आभ्यन्तर आदि का घृति के द्वारा प्राणों को धारण करना कहलाता है।
शब्द, रस, रूप, गंध, स्पर्श आदि को लेकर इन्द्रियों का काबू में रहना, विषयों में प्रवृत न होना-निवृत होना घृति के द्वारा इन क्रियों को धारण करना है।
A devotee who maintains equality-evenness, equanimity in insult and honour, pain and pleasure, victory and defeat, respect and disrespect, profit and loss, accomplishment and failure is a Yogi.
One who holds the desire to achieve the God is un corrupt, unspoiled, pure-pious.
Ghrati is a state of mind which maintains firmness of willpower in beliefs, principles, goals, targets ambitions, feelings, thoughts, ideas, tendencies etc. It helps the individual to hold Man-innerself, Pran and controls the sense organs. It’s the will power, that holds the Pran Vayu (air, vital, breathing and respiration). The Ghrati which is sovereign over the Man, Pran and sense organs is Satvik.
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी॥18.34॥
परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फल की इच्छा रखने वाला मनुष्य जिस धारण शक्ति-घृति के द्वारा अत्यंत आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धारण शक्ति-घृति राजसी है।
But Hey Pratha Nandan (Son of Pratha-Kunti)! One who has the desire of reward for attending to Dharm-duty, Arth (Wealth, money), Kam (desires, passions, sensuality, sexuality, sex, lust, lasciviousness etc.), deeds-actions; possesses a Ghrati which is Rajsik.
राजसी धारण शक्ति से युक्त व्यक्ति अपनी कामना पूर्ति के लिए ही धर्म का अनुष्ठान करता है, भोगों का सेवन करता है, धन का संग्रह करता है। धन एक ऐसी चीज है, जिसके बगैर किसी का काम नहीं चलता। यज्ञ-हवन, दान-पुण्य, शादी-विवाह, तीर्थ यात्रा, सुख-सामग्री सभी के लिए तो धन चाहिए। बगैर धन के धर्म कैसा? धर्म का अनुष्ठान धन के लिए और धन का व्यय धर्म के लिए किया जाये तो दोनों ही बढ़ते हैं। धर्म और धन दोनों ही मान-सम्मान बढ़ाने वाले हैं। राग-आसक्ति से युक्त होने के कारण राजस व्यक्ति शास्त्र की मर्यादा के अनुसार जो भी शुभ कर्म करता है, वो परलोक में मान-सम्मान, सुख-शान्ति, आराम, आदर-सत्कार, के लिए करता है और यह सब करने वाला, अत्यंत आसक्त और राजसी धारण शक्ति वाला कहलाता है।
Rajsik capabilities, powers, potentials are vowed, acquired and utilised for the fulfilment of desires pertaining to religious rites, observances, practices, collection of wealth, money, enjoyment, comforts, luxuries and sexual pleasures. Normally, religious activities are undertaken for fulfilment of desires for which money is essential. Religious activities performed for the sake of money and money utilised for religious purposes, leads to increase of both. On the contrary both are lost if utilised for the fulfilment of desires.
Extreme involvement and attachment of individual, with the desire of comforts, pleasure in the present and next abodes, makes his capabilities, powers-potentials Rajsik.
Rajsik stands for ruling, power, control, potential, capabilities.
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी॥18.35॥
हे पार्थ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारण शक्ति-घृति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दु:ख को तथा उन्मत्तता-घमण्ड को भी नहीं छोड़ता अर्थात धारण किए रहता है; वह धारण शक्ति तामसी है।
निद्रा, भय, शोक, प्रमाद, अभिमान, दम्भ, द्वेष, ईर्ष्या, हिंसा, दूसरों का अपकार करना, कष्ट देना, दूसरों के धन को छीनना, अन्यानेक दुराचारों से ग्रस्त और इन सब को ना छोड़ने वाली घृति तामसी है। ऐसा मनुष्य ज्यादा निद्रा, भय, चिंता, दुःख, घमण्ड में रचा-बसा रहता है। मृत्यु, बीमारी, अपयश, अपमान, स्वास्थ्य, धन आदि का भय, शोक, चिन्ता अनुकूल पदार्थों का ना मिलना और मिलने पर उसका घमण्ड, उसे ग्रस्त किये रहता है।
सात्विक घृति में कर्ता निर्लिप्त-कृत्याभिमान से रहित-मुक्त तथा राजसी और तामसी घृति कर्ता में उसी में रचा-बसा रहता है।
O Parth! Ghrati due to which the wicked, stupid, imprudent, ignorant is contained in dreams (sleep), fear, grief, worries, sorrow, pride, arrogance is Tamsik-leading to darkness (grief, pain, sorrow, birth in lower species and stay in hells.
A person with Tamsik mentality is possessed with excessive desires, fear, grief-worries and vanity. The villain seldom rejects them. One or the other problem keeps cropping-troubling him.
The prudent is not involved in Satvik or Rajsik Ghrati, prudence keeps him under the limits and maintains dignity, while the Tamsik Ghrati is devoid of prudence completely.
The devotee on the divine mission-path, with the desire of welfare of humanity-mankind; prudence and Satvik Ghrati are essential to help him to maintain-achieve the targets-goals. He should be worried for the welfare of mankind and worldly affairs, belongings or the associates. He should be consciously devoid of Rajsik-Tamsik feelings, thoughts, desires. Sole target, goal, aim of the Satvik should be the Almighty only and nothing else.
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥18.36॥
हे भरत श्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझ से सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अंत को प्राप्त हो जाता है, जो ऐसा सुख है, वह आरंभकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत (जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास मूढ़ता के कारण प्रथम विष के तुल्य भासता है, वैसे ही विषयों में आसक्ति वाले पुरुष को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनाओं का अभ्यास मर्म न जानने के कारण, पहले विष के तुल्य प्रतीत होता है) होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिए वह परमात्म विषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है।
Hey the Ultimate (Outstanding, excellent) amongest the descendants of Bharat! Out of the three types of comforts (pleasure, enjoyment, happiness, delight, amusement, dalliance), the one which an individual experiences (attains, achieves, gains) through practice and which terminates the grief (distress, pain, sadness, sorrow), is Satvik.
ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि घृति का ध्येय सुख प्राप्ति की है। राजस और तामस सुख यथा विषय, अभिमान, निद्रा, प्रशंसा जन्य सुख सभी प्राणियों को अच्छे लगते हैं। अर्जुन ने राजस और तामस सुखों, स्वर्ग में अप्सराओं को ठुकरा दिया और नींद पर भी विजय प्राप्त की। पारमार्थिक पथ पर चलने में अगर कुछ बाधक है तो, वह है सुख की चाहत। सात्विक सुख भी साधक की एकाग्रता में बाधक है, क्योंकि यह बाँधने वाला है। इतना ही नहीं एकाग्रता, ध्यान, समाधि का सुख भी बन्धनकारी हो सकता है। सात्विक सुख में अभ्यास की आवश्यकता तो है, परन्तु उनमें रमण-भोग उचित नहीं है, क्योंकि यह बाँधने वाला है। इसमें अभ्यास से ज्यों-ज्यों रूचि बढ़ती है त्यों-त्यों पापों और दुःखों का नाश होता है और मनुष्य गुणातीत हो जाता है। साँसारिक सुखों से उपरत होकर परमात्म तत्व में विलीन होने पर, जिस सुख का अनुभव होता है, वही सात्विक है। परमात्म तत्व का सुख अक्षय सुख है और स्वतः अनुभव किया जाता है।
Desire for comforts, create hurdles in the path of social workers-devotees, who follow the path of the service-welfare of mankind and wish to achieve the Ultimate. If, a devotee seeks comforts in profound meditation and concentration, complete restraint of senses and mind or complete absorption; they will also create hurdles-obstacles in the achievement of the Ultimate. The Ultimate pleasure “Permanand-Bliss” is experienced automatically by the Satvik, by eliminating comforts, which is durable and everlasting.
Whole life is wasted in culmination of Rajsik and Tamsik comforts by the ambitious, without recognising the existence of real Satvik comforts, which needs practice through listening, study, understanding, application, development of skill in scriptures, meditation and drifting away from Rajsik-Tamsik tendencies.
Enhancement of interest in Satvik practices terminates the grief to some extent and enhances the comforts and pleasures many fold, but it does not eliminate them completely. Practice is essential to detract the brain (thoughts, will, mood, psyche, innerself) from passions-degradation.
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्॥18.37॥
वह सुख जो प्रारम्भ में विष की तरह और परिणाम में अमृत की तरह होता है, वह सुख सात्विक कहा गया है।
मानव जन्म का ध्येय जो सात्विक सुख है, वह परोक्ष है और उसका कभी अनुभव नहीं हुआ। अतः सात्विक सुख प्रारम्भ में जहर की तरह उन्हीं लोगों को लगता है, जिनका राजस और तामस सुख में राग है। राजस और तामस सुख का अनुभव मनुष्य को है। इसलिए इसका त्याग करने में परेशानी होती है और यह जहर के समान लगता है।
Pleasures (generated through happiness and satisfaction of the mind), which appears to be poisonous in the beginning but turn out to be nectar-elixir ultimately is Satvik comfort.
जिन लोगों का सांसारिक भोगों से स्वाभाविक वैराग्य है, जिनकी पारमार्थिक शास्त्राध्ययन, सत्संग, कथा-कीर्तन साधन-भजन आदि में स्वाभाविक रूचि है और जिनके ज्ञान, कर्म, बुद्धि और घृति सात्विक हैं, उन्हें यह प्रारम्भ से ही अमृत के समान आनन्द देने वाला है। उनको इसमें कोई कष्ट, परिश्रम दिक्क़त नहीं होती।
सात्विक गुणों के आते ही इन्द्रियों और अन्तःकरण की स्वच्छता, निर्मलता, ज्ञान का प्रकाश, शान्ति, निर्विकारता, आदि गुण प्रकट होने लगते हैं। जो कि परिणाम में अक्षय सुख प्रदान करने वाले हैं। इनसे जड़ता समाप्त होती है और परमात्मा की प्राप्ति होती है।
Satvik pleasures are generated through devotion to the Almighty. Anything that has evolved, will perish. Therefore, it’s understood that comforts can’t terminate grief and one should not crave for them as well. One, who rises over Satvik pleasures achieves the termination of pains and becomes most virtuous. The spiritual, who solely rises above worldly detachable pleasures and dissolves himself in deep thoughts-meditation of the Almighty, is Satvik.
Satvik pleasure has neither been attained nor experienced and is only conceived as a goal; but Rajsik (passionate) and Tamsik (degradation-darkness) pleasures have been experienced, in previous births. The memory of Rajsik and Tamsik pleasures generate quick attachment for them. It’s therefore, difficult to alienate from them. That is the reason, why the Satvik is like poison in the beginning and nectar-elixir in the end. In fact Satvik is not like poison, it’s the rejection-detachment of Rajsik and Tamsik which appears like poison.
Those, who have detached from worldly pleasures and have interest in spirituality, whose knowledge, intelligence and Ghrati are Satvik; take it like elixir from the very beginning. They do not find any trouble, difficulty, labour, tension or pain in them. Efforts made by the devotee, are blessed with the generation of inner purity, purity of senses, peace, freedom from defects, wisdom, prudence, goodness of behaviour. Display of these characters is the elixir like result of imperishable Satvik pleasures. Satvik pleasure uplifts the devotee from Rajsik and Tamsik comforts, eliminating inertness-numbness, immorality-isolation with achievement of God and so it’s Satvik. Satvik dalliance is binding and rejection is vanishing of pains. All sorts of comforts lead to satisfaction of passions and ultimately downfall is certain. Rejection of all sorts of comforts is Yog-assimilation in Supreme Soul-the Almighty.
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्त दग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥18.38॥
जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले, आरम्भ-भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य (बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाश होने से विषय और इंद्रियों के संयोग से होने वाले सुख को परिणाम में विष के तुल्य) है, इसलिए वह सुख राजस कहा गया है।
Pleasure obtained by the combination of senses and sensuality (passions), appears to be elixir-nectar in the beginning and ends as poison (pain-sorrow, imprisonment, hells), is Rajsik.
The individual-organism experienced the pleasures associated with senses and sensuality in each and every birth, species or animate form. Rajsik comforts do not need any practice or training. They remain in the memory of the soul, from one birth to another. Its a continuous unbreakable process.
अनुभव किया हुआ राजस और तामस सुख जो अनेकानेक योनियों में भोगा है, त्याज्य है। सात्विक सुख जिसका अनुभव नहीं है-लक्षित है; वह जहर के समान उसी को प्रतीत होगा, जिसको राजस और तामस सुख के प्रति राग है और वो विवेक का उपयोग नहीं कर रहा। जिसको सांसारिक सुखों से वैराग्य है, भजन-कीर्तन, परमार्थ में रूचि है, शास्त्राध्ययन, सत्संग, साधना से लगाव है; जिनकी बुद्धि, घृति, गुण, कर्म, स्वभाव सात्विक हैं, उनको तो सात्विक सुख प्रारम्भ से ही अमृत के सदृश लगता है। सत्व गुण के आने पर इन्द्रयों, अन्तःकरण में निर्मलता, स्वच्छता, ज्ञान का प्रकाश, शांति, निर्विकारता आदि सद्भाव-सद्गुण प्रकट होने लगते हैं और इन्हीं का प्रकट होना सात्विक सुख को परिणाम में अमृत तुल्य बना देता है। सात्विक गुण जड़ता से सम्बन्ध विच्छेद कराकर परमात्मा जोड़ देता है।
Initially, expectation of comforts is more thrilling as compared to a situation, when they are obtained slowly and gradually, these comforts loss charm and attraction and a time comes when the capability to enjoy is either reduced considerably or lost completely. Then the strength, power, vigour potency vanishes and the disabled person do not obtain any charm or comfort from them, anymore and develops distaste and may looses interest. If, he still continues with them, they create pain, tensions, worries, sorrow and loss of mental peace and stability. Those who are in jail-prison or hell or taking birth after rebirth, have enjoyed the Rajsik pleasures, in one or the other life.
The poor-have not, is happy with whatever he has. Experience of poverty after being rich is painful. One is not sure whether his goals will be accomplished or not, but once accomplished, desire for more success develops. New desires, more wishes crop up in the mind of the individual, which are never ending. Unfulfilled desires always create uneasiness. They rattle the mind every now and then.
Rajsik comforts do not kill like poison, they recreate death in many births. Even if the person goes to paradise-heaven, there also he suffers due to envy-ego, pain and ultimately returns to earth. Interest-indulgence in sins begins the unending journey, cycles of births-rebirths, hell.
Satvik person looks to the results of comforts and the Rajsik person to immediate pleasure. Loss of interest in worldly affairs paves the path of liberation-Moksh through prudence, capacity to analyse, cause and effect, result and by not initiating the chain of pleasures-comforts.
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥18.39॥
निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होने वाला जो सुख आरम्भ-भोगकाल में तथा परिणाम में भी अपने को मोहित करने वाला है, वह सुख तामस कहा गया है।
Pleasures-comforts generated by sleep, laziness-drowsiness and intoxication-frenzy (indolence and heedlessness), which is delusive and Tamsik in the beginning and the result as well.
सीमा से अधिक बढ़ने पर राग तमोगुण धारण कर लेता है। राग से मोह, मोह से मूढ़ता और नींद अधिक आने लगती है। गहरी नींद ना आने से तन्द्रा-बेहोशी और फिर स्वप्न अधिक आने लगते हैं। तामसिक मनुष्य सोता ज्यादा है। यह उसे निकम्मा बनाता है और उसके इन्द्रियों में शिथिलता बढ़ती है। इससे चिंता, विषाद, शोक, दुःख अशान्ति आती है। उसमें प्रमाद उत्पन्न होता है जिससे दुर्व्यसन, दुराचार, बेईमानी, कपट, चोरी, डकैती, अभक्ष्य-भक्षण, व्याभिचार आदि शुरू हो जाते हैं। उसे इन्हीं में ही सुख मिलता है।
तमोगुणी मनुष्य में सत्व गुण, विवेक, ज्ञान ढँक जाते हैं। ऐसा व्यक्ति परिणाम नहीं देख पाता।
साधक लेटे हुए भी परमात्मा को स्मरण करता रहता है। वह काम करते, घूमते-फिरते, खाते-पीते, उठते-बैठते भी प्रभु को स्मरण करता रहता है।
Sleep is essential but too much-excessive sleep is dangerous-toxic, bad, leading to wastage of time and money. Laziness is always harmful, as it creates trouble-hurdles for the individual in all walks of life. A lazy person spends most of his time in rest and idling, which weakens his senses and organs. Such people tend to loose mental peace, solace and tranquillity. Their hearts are filled with sorrow, anxiety, worries and apprehensions.
Intoxication-frenzies makes a person sit idle, avoid essential work and duties. Such people waste their time in unlawful, antisocial, anti people, criminal activities like smoking, drinking, theft, conceit, dishonesty, wickedness, adultery, addiction, vices, lies, even torturing others-terrorise and what not!
Intoxication covers prudence, wisdom, ability to think and take proper decisions. Tamsik nature of the individual fills him with sleep, laziness and intoxication. One must sleep, but he must not be unconscious. Deep sleep relaxes him from tiredness after hard work-labour. The devotee, who is close to approach the Almighty, obtains rest in a state of trans or meditation. One can recite HIS names-verses while working or even laying down. Rest regenerates energy, vigour and vitality of the individual. A healthy person may sleep from 5-8 hours in a day. Timely nap reduces tiredness and fatigue. It should be avoided during the day. It has curative effect during illness as it relives pain and discomfort. Arjun-incarnation of Nar (incarnation of Vishnu), had won (overcome) sleep.
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः॥18.40॥
पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी वह वस्तु (ऐसी कोई भी) नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो।
There is no place or object in unending, limitless, infinite Universes, which is free from these three characteristics; the Earth-including lower abodes, the heavens-including higher abodes and the deities-including all organisms.
त्रिलोकी और अनन्त ब्रह्माण्डों में तथा उनमें पाई जाने वाली कोई भी वस्तु या प्राणी ऐसा नहीं है जो कि प्रकृति से उत्पन्न, इन तीन गुणों (सत्, रज, तम) से रहित हो। मुक्ति के इक्षुक को प्रकृति और उसके तीनों गुणों से सम्बन्ध विच्छेद करना पड़ता है। प्रकृति से सम्बन्ध जुड़ते ही अहंकार उत्पन्न होने लगता है। अहँकार से पराधीनता आसक्ति, कामना, मोह पैदा होते हैं। प्रकृति जन्य इन गुणों में से रजो गुण और तमो गुण की वृद्धि करने वाले लक्षणों का त्याग करके सतोगुण को प्रसन्नता, विवेक, ज्ञान के माध्यम से बढ़ाना है। सात्विक ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, घृति और सुख को सावधानी पूर्वक बढ़ाना है। ध्यान भगवान् के श्री चरणों में केन्द्रित करके सत् को बढ़ाना है और असत् का त्याग करना है।
Three characteristics (Sat, Raj, Tam) are associated with the organism irrespective of place-location. Association with them leads to formation of bonds, ties, association, attachments and breaking of these, brings the individual close to liberation.
One should isolate-drift away, himself from Rajo (Rajsik-passions) Gun and Temo (Tamsik) Gun (characters) and associate with the Satv Gun. Satv Gun has the features of happiness and prudence. A person with Satv Gun should have no inclination towards comforts and knowledge (wisdom), since they are binding forces.
The devotee has to choose-select his path by utilising Satvik knowledge, deeds, endeavours, intelligence, Ghrati and comforts for establishing his life and carefully rejecting Rajsik & Tamsik characters. A Satvik respects and praises others and not himself. Satvik elements are a must for detachment from nature. The prudent observes both Sat (virtues, divinity, piousness, worthiness) and Asat (perishable, wickedness, devilish, evil, vicious, demonic behaviour, monstrosity) but sets his eyes only on the God, by neglecting Asat (असत्).
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥18.41॥
हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं।
O Parantap! The deeds-duties of Brahman, Kshatriy, Vaeshy and Shudr are differentiated on the basis of the three characteristics (qualities, abilities, traits) generated-evolved from their nature possessed by them through various births carried over with the soul.
Professional behaviour (nature of work) one is performing, comes through their accumulated deeds evolved out of destiny. There duties are divided according to the qualities-three characteristics born out of nature.
द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) और शूद्रों के वर्णाश्रम धर्म अलग-अलग हैं। मनुष्यों में उनके पूर्व जन्मों के संस्कार उनके वर्तमान जन्म में किसी जाति-विशेष में जन्म का कारण बनते हैं। सत्व, रज और तम ही संस्कारों का निर्माण करते हैं। ऊँच-नीच योनि में जन्म और भोगों का मिलना, ये पूर्व जन्मों के शेष कर्मों का परिणाम मात्र हैं। मनुष्य को अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से घबराना नहीं चाहिए, अपितु उनके आधार पर अपने अगले जन्मों को सुधारने का प्रयास करना चाहिए। इसमें बुद्धि, विवेक, संगति, आचार, विचार, स्वाध्याय सहायक सिद्ध होते हैं। आज जो ब्राह्मण है, कल को वो ही व्यक्ति अपने दुष्कर्मों के परिणाम स्वरूप अति निकृष्ट कीट, पशु, पक्षी योनि में भी जा सकता है और एक शूद्र मात्र स्वकर्म को सुचारू रूप से अँजाम देकर देव योनि अथवा मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। जातिगत अभिमान व्यक्ति को नर्क में भी पहुँचा सकता है।
Brahman, Kshatriy and Vaeshy are termed as Dwij Jati (upper cast, Swarn) and Shudr belong to lower castes, labour-service class. Four divisions in the population have been created on the basis of characters (Gun) and nature of work. Nature of work is differentiated on the basis of the three characteristics, earth, heaven, nether world and the deities. Birth in any of the four Varn (Caste) takes place as a result of the performances in the previous births, while the present and previous births will decide the next births, in India (Bharat, Hindustan, Aryavart). Elsewhere, differentiation like black-white, rich-poor, high-low, upper caste-lower caste, masters-slaves, rich-poor, capitalist-communists etc. are also based on the basis of deeds in previous births.
Innerself of the human being is affected by his rites, actions, company, environment, which lays down the foundation of his nature and behaviour. Nature and behaviour in previous births, develop the Satv, Rajo or Temo Gun (tendencies, characters, qualities) in him, which decide his present birth in Brahman, Kshatriy, Vaeshy, Shudr or Nishad families. His actions too depend upon inborn characteristics-tendencies, which develop his mentality. Birth in higher or lower species-animate, is the result of destiny, on the basis of performances in previous births, pleasure & pains are associated with them accordingly.
One should not be proud of being a Brahman and the Shudr should not be shy-depressed, demoralised for being so, since the Varn is not a permanent feature of the soul.
Brahman, Kshatriy, Vaeshy, Shudr & Nishad too have further sub divisions making them higher or lower as compared to the other one. Animals too have distinctions like revered-hated, good-bad, honourable or taboo like the cow is revered and a pig is discarded.
No one can be purely pious-virtuous or a sinner. Those with higher composition of Satvik Gun, goes to heavens, one with higher content of Rajsik Gun, will inhabit the earth and with excess of Tamsik gun one is moved to lower species, abodes and the hell. Anyone who over come his traits and keep on worshiping-praying the God, perform virtuous, righteous, pious activities is sure to reach the abode of the Almighty. His Salvation-Moksh is sure & certain.
More of Satv Gun creates a Brahman, dominance of Rajo Gun over recessive Satv gun, forms a Kshatriy and the dominance of Rajo Gun and depression of Temo Gun creates a Vaeshy, while excessive Temo Gun leads to birth in a Shudr family.
Similarly, such distinction, hierarchy is present in the inhabitants, occupants of the three abodes (heavens, earth, nether world) as well, like caste, position, status, situation etc.
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥18.42॥
अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों को वश में करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर, लोक-परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा, वेद आदि में आस्था रखना, ये सब के सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।
Equanimity, serenity, self control-restraint, peace loving, tolerance (bearing of pain, difficulty, suffering, inconvenience, hardship, torture, righteous or devout conduct to carry-out religious faith-duties), purity-austerity and cleansing (internal and external), faith in eternity, forgiveness, honesty, uprightness-simplicity of body and mind, wisdom-knowledge of Ved, Puran, Upnishad, Itihas (History) Brahmans are the natural duties-qualities of the Brahmans.
ब्रह्म कर्म, सत्वगुण की प्रधानता, ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण-लक्षण हैं। इनमें उसको परिश्रम नहीं करना पड़ता।
शम :: मन को जहाँ लगाना हो लग जाये और जहाँ से हटाना हो वहाँ से हट जाये।
दम :: इन्द्रियों को वश में रखना।
तप :: अपने धर्म का पालन करते हुए जो कष्ट आये, उसे प्रसन्नतापूर्वक सहन करना।
शौच :: मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर, खान-पान, व्यवहार को पवित्र रखना। सदाचार का पालन। क्षान्ति-बिना क्षमा माँगे ही क्षमा करना। आर्जवन-शरीर, मन, वाणी व्यवहार, छल, कपट, छिपाव, दुर्भाव शून्य हों। ज्ञान-वेद, शास्त्र, इतिहास, पुराण का अध्ययन, बोध, कर्तव्य-अकर्तव्य की समझ। विज्ञान-यज्ञ के विधि-विधान, अवसर, अनुष्ठान का उचित-समयानुसार प्रयोग। आस्तिकता-परमात्मा, वेद, शास्त्र, परलोक आदि में आस्था-विश्वास, सच्ची श्रद्धा और उनके अनुसार ही आचरण।
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आजकल के ब्राह्मण में कलयुग का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है और कुछ को छोड़ कर शेष नाममात्र के ब्राह्मण हैं। केवल ब्राह्मण कुल में जन्म लेने मात्र से ही कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता; उसे ब्राह्मण उसके माँ-बाप, गुरु जनों द्वारा शिक्षा-दीक्षा से बनाया जाता है।
A Brahman is deemed to have self control over his senses, organs and the mind in order to fix and channelise the brain and energies as per his own will and desire. It enables him to utilise, divert or restraint his capabilities in best possible manner for the service of mankind, humanity and society.
He is capable of bearing with pain, insult, torture, difficulty, suffering, inconvenience, hardship and wretchedness, while carrying out righteous or devout conduct, duties. He restrains himself, though capable of repelling wickedness and improper conduct.
During the current cosmic era-Kali Yug the Brahman is the most deprived lot. He has to accept various jobs for his survival in addition to performing his traditional duties, Pooja-Path (Prayers associated with enchantment of verse (Mantr, Shloks, Strotr, Stuties) devoted to the Almighty), Yagy, Hawan, Agni Hotr (Holy sacrifices in holy fire), study of Veds, scriptures and guiding, motivating the public to seek Moksh.
He has to ascertain purity of body, mind and soul, senses, organs; purity of food, drinks and behaviour. Maintenance of good habits of excretion, bathing are essential for him, in daily routine. He should ad-hare to pious behaviour, virtuous and ethical conduct. He should be always soft and polite and uses decent, dignified, distinguished language. He should never use harsh words or language.
Those who migrate to other countries forget all these things and adopt them selves to those circumstances-situations. Millions of Brahmans were subjected to convert to Christianity, Islam and Sikhism, till today they are unable to return to their Dharm. Still the prudent never forget these and seek guidance from learned, enlightened.
He forgives, without being asked happily, though cable to punish with the strength, power and might possessed by him. He is immune to defamation, back biting and insult.
He bears simple cloths. He is simple, honest and open. He is free from cheating, cunningness, trickery, fraud, deceit, deceiving, ill will etc.
He studies and learns Ved, Puran, Upnishad, Brahman, Ramayan, Mahabharat, Geeta and History; acquires the knowledge of various other scriptures to understand, accept and act in accordance with them. He has the understanding and experience of do’s and do not’s of performing Vedic rites, sacrifices and scientific methods.
He has firm faith and belief in God, Ved, other Abodes (life after death, rebirth) and respects and honour them. A Brahman is not burdened to act in accordance with them, since he is born in such families, where purity of blood has been maintained. He has the natural Brahmanical genetic tendencies (DNA, chromosomes, genes) in him due to the atmosphere, company and association. Importance is not given to the means of livelihood-earning for living due to the presence of Satvik characters, practice, company, self study. It’s for the society to take care of him, since he is the real owner of the earth and all means of livelihood.
A Brahman has to be an ideal person with high moral character, values, virtues and dignity. He should command respect in the society. He should purify and sanctifies himself every day, in the morning by bathing, prayers and rituals. He is a devotee of the God with simple living and high thinking. He learns and acquires the knowledge of various Vedic literature He himself accepts donations and distributes the surplus, among the ones who are in need of them. He teaches and guides the students and disciples. He is free from ill will, anger, envy and prejudices. He is always soft and polite, with graceful-refined decent tone, language and behaviour. He is revered in the society in high esteem and is ready to help anyone and everyone. He is simple and down to earth, in behaviour and practice. He observes fast on festivals. He is away from wine, woman, narcotics, drugs, meat, fish and meat products. He adhere to ascetic practices and performs Hawan, Yagy, prayers and religious ceremonies as per calendar, on the prescribed dates auspicious occasions and schedule. He has conquered his desires.
Brahmans have originated from the forehead of Brahma. They are the mouth of the community and the store house of knowledge and wisdom. Teaching, educating, showing the right direction and preaching the four Varn are the pious duties of a Brahman. Anyone who is a Brahman by birth, but do not possess the Brahmanical qualities, characters, virtues, morals, wisdom is not considered to be a Brahman. The Brahmans who are corrupt in respect of food, habits, behaviour, devoid of Bhakti, devotion to God are considered to be inferior to lower castes.
Anyone who insults, misbehaves a Brahman and invite his wrath, has his abode in the hells. His life is cursed and all sorts of pains-sorrow, tortures, insults comes to him uninvited.
COMMON CHARACTER ICES OF ALL VARNS-CASTES :: (1). दान पुण्य, (2). हवन, अग्नि-होत्र, यज्ञ करना, (3). धूप बत्ती, अगर बत्ती, लोबान, शुद्ध देशी घी या सरसों के तेल का दीया जलाना, आरती करना-उतारना, पूजा-पाठ करना, (4). तीर्थ स्थलों की यात्रा करना, (5). पवित्र नदियों, तालाबों, झीलों यथा मन सरोवर में नहाना, (6). योग्य, आदरणीय-पूजनीय व्यक्तिओं व देवी-देवताओं का सम्मान, (7). केवल अपनी पति के साथ-केवल ऋतु कल में संतान हेतु मैथुन-गर्भाधान, (8). सभी प्राणियों पर दया करना, (9). सत्य बोलना, आचरण, (10). अत्यधिक कठिन श्रम न करना, (11). अपने पर निर्भर व्यक्तियों हेतु धन कमाना, (12). सभी से मित्रता पूर्ण व्यवहार, (13). शरीर, मन, आत्मा की शुद्धि, साफ- सफाई, (14). इच्छा रहित कार्य-कर्म, समाज के भले-हित के लिये कार्य-अनुसंधान, (15). किसी के कार्य में कमी, गलती, बुराई न देखना-निकालना, (16). कंजूसी न करना इत्यादि।
(1). Donation-charity, (2). Performing Hawan, Agni Hotr-Sacrifices in Fire, Yagy, (3). Burning Dhoop, incense sticks, Loban-Banzoin, wick lamps of mustard, Deshi Ghee, Arti, Pooja-Path, (4). Visiting Holi places-pilgrimages, (5). Bathing in Holi rivers, ponds, lakes like Man Sarovar, (6). Honouring the deserving and the deities, (7). Sex-mating-intercourse with own wife only and that is too, during ovulation for the sake of progeny only, (8). Kindness-pity towards all creatures, (9). Truthfulness, (10). avoidance of extreme-too much, painful, excessive labour, (11). earning money for dependent, (12). Friendly behaviour with every one-organism creature, (13). Cleanliness of the body, mind and the soul, (14). Doing of work without desires, performing for the welfare of the society others, (15). Not to see-find faults with others, (16). Lack of miserliness, etc,
CHARACTERISTICS OF BRAHMNS ब्राह्मण गुण धर्म :: कुछ अपवादों को छोड़ कर अधिकतर ब्राह्मण अपने स्वाभाविक गुणों के आधार पर पहचाने जाते हैं। (1). शुद्ध सात्विक आचार-व्यवहार, निरामिष भोजन, सदाचार। (2). अत्यधिक विकसित मस्तिष्क, मानसिक शक्ति। (3). वेदों, पुराणों, शास्त्रों, रामायण, महाभारत इतिहास आदि का पढ़ना और पढ़ाना। (4). साहस, पौरुष। (5). मजबूत शरीर व माँस पेशियाँ-बाहुबल। (6). पढ़ना-पढाना, स्वाद्ध्याय, चिंतन भक्ति। (7). गौर वर्ण। (8). माँस, मच्छी, अँडा, माँसाहार न करना। (9). धुम्रपान, बीड़ी-सिग्रेट न पीना; नशाखोरी, शराब से दूर रहना। (10). अपनी पत्नी के अलावा अन्य स्त्री के बारे में न सोचना। (11). किसी को भी न सताना, परेशान तंग न करना, हानि न पँहुचाना। (12). सहन शक्ति, क्रोध न करना-काबु रखना। (13). दैनिक स्नान पूजा पाठ प्रार्थना। (14). भगवान देवी देवताओं पूर्वजों-पितरों को भेंट चढ़ाना। (15). शुद्ध सात्विक साधनों द्वारा धन कमाना। (16). अपनी आवश्कताओं को न्यूनतम स्तर पर सीमित रखना। (16). संग्रह की पृव्रति का अभाव। (17). समाज के उत्थान-विकास का प्रयास। (18). सभी प्राणियों से सामंजस्य बनाये रखना। (19). धन, जवाहरात, गहनों व पत्थरों को समान समझना (20). अपनी पत्नी के अलावा अन्य स्त्री से गर्भाधान न करना, वह भी केवल ऋतू काल में, केवल रात्रि में, राहु-कालम व ग्रहण में कतई नहीं।
परम्परा के अनुसार ब्राह्मण वैद्य, चिकित्सक, ज्योतिषी, हस्त रेखा परीक्षक, मन्दिर के पुजारी और यज्ञ कर्ता, सेना के सचालक, राजा के परामर्शदाता, न्यायाधीश होते थे। यदि किसी स्त्री का पति असमर्थ होता था तो संतानोत्पत्ति में उसके परिवार की सहमति से संतानोत्पत्ति यज्ञ की संसाधना भी करते थे। 64 विद्याओं, विधाओं का ज्ञान प्रदान करना, ऋषिकुल की स्थपना-विश्वविद्यालय और संचालन। समस्त ऋषियों का नाम वैज्ञानिक के रूप में भी पाया जाता है।
ईर्षालु आलोचक, मूर्ख, अविवेकी, नासमझ, अनपढ़, विधर्मी, इसे धर्म का नाम देते यद्यपि इस तरह की किसी चीज का शास्त्रों में कहीं भी कोई भी वर्णन नहीं है। यह मात्र भ्राति के अलावा कुछ भी नहीं है। कोई भी योग्य, काबिल, विवेकी व्यक्ति ब्राह्मण बन सकता है यदि उसमें क्षमता है।
Barring a few exceptions majority of Brahmans are blessed with certain characteristics which differentiate them with the other Varns. (1). Pure vegetarian food descent behaviour. (2). Highly developed brain power, Study and teaching of Veds, (3). Purans, epics, scriptures, (4). Courage, valour, bravery, (5). Stout body and muscle power, (6). Learning, educating, meditation, prayers, Bhakti worship-devotion to God, (7). fair colour-complexion, (8). Non consumption of meat-meat products, fish, eggs, (9). Non consumption of narcotics, drugs, wine, (10). Not to think of other women, (11). Not to harm or trouble anyone, (12). Tolerance-not to become angry, (13). Regular bathing, performance of rights-rituals-prayers, (14). making offerings to God-deities-ancestors, (15). Earning money through honest-righteous pure means, (16). To keep own needs to the barest possible minimum, (17). Tendency not to store-accumulate for future, (18). Should be devoted to the development, growth, upliftment of society, (19). Harmonious relations-cordial relations with all creatures, (20). Weighs stones, gems and jewels equally, (21). Inclination towards sex with own wife only and that is too, during the ovulation period, during night only, avoidance of Rahu Kalam and eclipse.
Traditionally the Brahmans used to be physicians-doctors (Vaedy), astrologers, Palmists, teachers, ministers, king's adviser, judges. State administrations and army management were their primary duties. They helped women whose husbands were functionally impotent, with the consent of their family. Providing education in 64 faculties. Establishment of universities and maintenance.
Please refer to :: EDUCATION IN ANCIENT INDIA प्राचीन भारतीय शिक्षाbhartiyshiksha.blogspot.com
Some ignorant critics, communists, seculars, envious, incapable, imprudent, idiots call it Brahman Dharm (Brahmanical Practices), though nothing like exists in the scriptures. Its purely a deceptive notion. However, anyone is free to become a Brahman if he has calibre, capability, capacity.
BRAHMANS TODAY वर्तमान में ब्राह्मण :: It's very-very difficult, rather impossible to follow-observe the self imposed restrictions, prohibitions, dictates in the life of a Brahmn. It's clearly the reason behind the evolution of the tree of Varn, caste-creed in Hindu religion-society.
One is free to become a Brahmn just by following the long-long list of do's and don'ts.
Daksh Prajapati, who was born out of the right foot-toe of Brahma Ji, may be treated as a Shudr (born out of the feet of Brahma Ji).
His 13 daughters, who were married to Kashyap-a Brahman, followed the dictates of Shashtr; gave birth to all life forms on including Rakshas, Demons, Giants, Yaksh, Shudr, Mallechchh (Christians & Muslims) earth.
Sanctity, righteousness, asceticism, virtuousness, religiosity, truthfulness, purity, piousity, poverty, donations, charity, kindness, fasting, contentedness, satisfaction, teaching and learning Veds, Purans, Epics, Shashtr, harmony, peace, soft spokenness, decent behaviour, tolerance, highly developed fertile creative brain, excellent memory-power to retention-grasp, not to envy, anger, greedy, perturbed, tease are synonyms to a Brahmn.
Today's Brahmns are Brahmns only for the name sake. They are just the carriers of the genes, chromosomes, DNA of their ancestors, Rishis, forefathers. They are changing with the changing times and do not hesitate-mind, adopting any profession, trade, business, job for the sake of earning money for survival, in the ever increasing race of fierce competition-in a world, which is narrowing down-shrinking, day by day, in an atmosphere of scientific advancement, discoveries, innovations, researches. However, whichever is the field, they work-choose, they assert their excellence-highly developed mental calibre, capabilities, capacities and move ahead of others, facing-tiding over, all turbulence, difficulties, resistances. What ever a Brahmn does, he should resort-revert back to prayers, devotion to God as and when he has time.
BRAHMANICAL VIRTUES ब्राह्मण संस्कार ::
ब्राह्मण के तीन जन्म :: (1). माता के गर्भ से, (2). यज्ञोपवीत से व (3). यज्ञ की दीक्षा लेने से। यज्ञोपवीत के समय गायत्री माता व और आचार्य पिता होते हैं। वेद की शिक्षा देने से आचार्य पिता कहलाता है। यज्ञोपवीत के बिना, वह किसी भी वैदिक कार्य का अधिकारी नहीं होता। जब तक वेदारम्भ न हो, वह शूद्र के समान है।
जिस ब्राह्मण के 48 संस्कार विधि पूर्वक हुए हों, वही ब्रह्म लोक व ब्रह्मत्व को प्राप्त करता है। इनके बिना वह शूद्र के समान है।
चालीस ब्राह्मण के संस्कार :: गर्वाधन, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्न प्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, चार प्रकार के वेदव्रत, वेदस्नान, विवाह, पञ्च महायज्ञ (जिनसे पितरों, देवताओं, मनुष्यों, भूत और ब्रह्म की तृप्ति होती है), सप्तपाक यज्ञ-संस्था-अष्टकाद्वय, पार्वण, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री, शूलगव, आश्र्वयुजी, सप्तहविर्यज्ञ-संस्था-अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्श-पौर्णमास, चातुर्मास्य, निरूढ-पशुबंध, सौत्रामणि, सप्त्सोम-संस्था-अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम।
ब्राह्मण में 8 आत्म गुण ::
अनसूया :: दूसरों के गुणों में दोष बुद्धि न रखना, गुणी के गुणों को न छुपाना, अपने गुणों को प्रकट न करना, दूसरे के दोषों-अवगुणों को देखकर प्रसन्न न होना।
दया :: अपने-पराये, मित्र-शत्रु में अपने समान व्यवहार करना और दूसरों का दुःख दूर करने की इच्छा रखना, प्रयास करना।
क्षमा :: मन, वचन या शरीर से दुःख पहुँचाने वाले पर क्रोध न करना व वैर न करना।
अनायास :: जिन शुभ कर्मों को करने से शरीर को कष्ट होता हो, उस कर्म को हठात् न करना।
मंगल :: नित्य अच्छे कर्मों को करना और बुरे कर्मों को न करना।
अकार्पन्य :: मेहनत, कष्ट व न्यायोपार्जित धन से, उदारता पूर्वक थोड़ा-बहुत नित्य दान करना।
शौच :: अभक्ष्य वस्तु का भक्षण न करना, निन्दित पुरुषों का संग न करना और सदाचार में स्थित रहना।
अस्पृहा :: ईश्वर की कृपा से थोड़ी-बहुत संपत्ति से भी संतुष्ट रहना और दूसरे के धन की, किंचित मात्र भी इच्छा न रखना।
जिसकी गर्भ-शुद्धि हो, सब संस्कार विधिवत् संपन्न हुए हों और वर्णाश्रम धर्म का पालन करता हो, तो उसे अवश्य मुक्ति प्राप्त होती है।
BRAHMAN AS A DISCIPLE :: The student-Brahmchari will begin-receiving lessons-instructions only after the sacred thread is granted to him-Janeu (जनेऊ, यज्ञोपवीत, loin cord, sacred thread) ceremony. It's essential to accept the sacred knowledge of the Veds. He is asked to wear a chain, garland, string of beads, skin, stick, cloths, sacred thread, recommended for the purpose of education. He has to follow orders, directives, dictates, sermons, rules-regulations, rituals, practices of his teacher, educator, Guru and remain as an ascetic, like a hermit. He has to become fresh every day by taking bath and offering tributes to the deities, Pitr-Manes ancestors, saints. He has to collect flowers, fruits, water, naturally dried wood, Kush-a grass with sharp edges, cow dung, pure clay, mud, earth and different type of wood for making thatched hut etc. He should not accept wine, meat, fish, egg, meat products, scents, flower garland-beads, various juices-extracts and reject the company of the women. Violence of any kind, speaking-telling lies, blame, censure, scorn, abuse, defamation, slander, criticism, blasphemy, betting, company of women, sensuality, passions, sexual acts, greed, anger-envy are not allowed-have to be skipped. He has to remain alone-in solitude with control over himself and all of his faculties (during Van Prasth or Sanyas).
Begging, only as per need with self restraint, control over speech-tongue, utterances, from such families only, who have faith in God, Veds, Hawan, Agnihotr, is allowed. In case alums from such families are not available, he may go to the relative of his Guru, own relatives, acquaintances. He should ensure that the alums are not collected from the same-one family every day, unless-until their is an emergency. Grain collected through begging should constitute his main food. Dependence over begging for survival is like fasting. One should not beg before-in front of, from the sinners, wretched, wicked people. Scriptures-Shashtr do not consider this type of collection of alums as begging.
Hawan has to be performed every day by collecting dried wood and sacrifices in the fire are made.
The disciple should stand before the Guru with folded hands and sit over the ground only when he is asked to sit and that is too without the mat, cushion, seat in high esteem. He should wake up before the Guru and sleep only when the Guru has slept. He should not speak the name of the Guru and never mimic copy him. He should never criticise the teacher and speak slur against him. He should close his ears if someone is criticising him and moves away from that place. He should always remain away-aloof from the company of such people-critics.
The disciple, student, child should come down-out of the vehicle to pay regards-respect to elders, Guru, high and mighty. He should behave with the relatives of the Guru in a manner, similar to that he practices with the Guru. Wife of the Guru should be treated as the Guru himself, but touching her in any manner is prohibited. Never sit on the same cushion, seat, mat, bed, with sister, mother, daughter and the wife of the Guru, teacher, educator, master, revered, respected person
He should move-come out of the village before dawn and dusk. Morning and evening prayers, offerings, recitations have to be performed near a water source-body. Mother, father, parents-guardians, elders and brothers must be regarded and should not be betrayed during trouble-difficult times, periods.
Regular service of the parents-Guru ensures education, enlightenment, knowledge. He should not follow any other practices-service unless until ordered by them. He has to adhere to his own Dharm.
ब्राह्मण छात्र धर्म :: यज्ञोपवीत संपन्न हो जाने पर वटुक (विद्यार्थी) को व्रत का उपदेश ग्रहण करना चाहिये और वेदाध्ययन करना चाहिये। यज्ञोपवीत के समय जो मेखला, चर्म, दंड, वस्त्र, यज्ञोपवीत आदि धारण करने को कहा गया है, उन्हीं को धारण करे। अपनी तपस्या हेतु ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होकर गुरु की सेवा में तत्पर रहे व नियमों का पालन करे। नित्य स्नान करके देवता, पितर और ऋषिओं का तर्पण करे। पुष्प, फल, जल, समिधा, मृतिका, कुश, और अनेक प्रकार के काष्ठों का संग्रह करे। मद्य, मांस, गंध,पुष्प माला, अनेक प्रकार के रस और स्त्रियों का परित्याग करे। प्राणियों की हिंसा, शरीर में उबटन लगाना, अंजन लगाना, जूता व छत्र धारण करना, गीत सुनना, नाच देखना, जुआ खेलना, झूंठ बोलना, निंदा करना, स्त्रियों के समीप बैठना, काम-क्रोध, लोभादि के वशीभूत होना-इत्यादि ब्रह्मचारी के लिए वर्जित है-निषिद्ध है। उसे संयम पूर्वक एकाकी रहना है। उसे जल, पुष्प, गाय का गोबर, मृतिका और कुशा का संग्रह करे।
आवश्कतानुसार भिक्षा नित्य लानी है। भिक्षा माँगते वक्त वाणी पर संयम रखे। जो ग्रहस्थी अपने कर्मों (वर्णाश्रम धर्म) में तत्पर हो, वेदादि का अध्ययन करे, यज्ञादि में श्रद्धावान हो उसके यहाँ से ही भिक्षा ग्रहण करे। इस प्रकार भिक्षा न मिलने पर ही, गुरु के कुल में व अपने बंधु-बांधव, पारिवारिक सदस्य-स्वजनों से भिक्षा प्राप्त करे। कभी भी एक ही परिवार से भिक्षा ग्रहण न करे। भिक्षान्न को मुख्य अन्न माने। भिक्षावृति से रहना, उपवास के बराबर माना गया है। महापातकियों से भिक्षा कभी स्वीकार न करे। इस प्रकार की भिक्षा को शास्त्र में भीख नहीं माना गया है।
नित्य समिधा लाकर प्रतिदिन सायं काल व प्रात: काल हवन करे।
ब्रह्मचारी गुरु के समक्ष हाथ जोड़कर खड़ा हो गुरु की आज्ञा से ही बैठे, परन्तु आसन पर नहीं। गुरु के उठने से पूर्व उठे व सोने के बाद सोये, गुरु के समक्ष बड़ी विनम्रता से बैठे, गुरु का नाम न ले, गुरु की नक़ल न करे। गुरु की निंदा-आलोचना न करे, जहाँ गुरु की निंदा-आलोचना होती हो वहाँ से उठ जाये अथवा कान बंद कर ले। गुरु निंदक-आलोचकों से सदा दूर ही रहे।
वाहन से उतर कर गुरु को अभिवादन-प्रणाम करे। वह एक ही वाहन, शिला, नौका आदि पर गुरु के बैठ सकता है। गुरु के गुरु, श्रेष्ठ सम्बन्धी, गुरु पुत्र के साथ गुरु के समान ही व्यवहार करे। गुरु की सवर्णा स्त्री को गुरु के समान ही समझे, परन्तु पैर दवाना, उबटन लगाना, स्नान कराना निषिद्ध हैं। बहन, बेटी, माता के साथ कभी भी एक ही आसन पर न बैठे।
गाँव में सूर्योदय व सूर्यास्त न होने दे-जल के निकट-निर्जन स्थान पर दोनों संध्याओं में संध्या-वंदन करे।
माता, पिता, आचार्य व भाई का विपत्ति में भी अनादर न करे, सदा आदर करे।
माता, पिता,आचार्य की नित्य सेवा-शुश्रूषा करने से ही विद्या मिल जाती है। इनकी आज्ञा से ही किसी अन्य धर्म का आचरण करे अन्यथा नहीं।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥18.43॥
शूरवीरता, तेज, धैर्य, राज्य संचालन की योग्यता और चतुराई और युद्ध में पीठ न दिखाना, दान देना, शासन करने का भाव और स्वामिभाव, ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म-गुण हैं।
Velour, bravery, boldness, majesty (vigour, spirit, energy, strength), promptness-ability to rule-manage the state, patience (firmness-fortitude), tendency not to flee from battle field, resourcefulness, generosity (to donate freely without hesitation-miserliness, distribute among the genuine needy-poor liberally), leadership (tendency to rule, are the duties of Kshatriy-marshal castes.
मन में अपने धर्म को पालन की तत्परता, धर्म युद्ध में जो कि परिस्थिति वश प्राप्त हुआ है, में बगैर इच्छा, विचार, स्वार्थ के शामिल होना शौर्य है। जिस प्रभाव या शक्ति के सामने पापी, दुराचारी, मर्यादा के विरुद्ध चलने वाले मनुष्य भी डरते हैं, वह तेज कहलाता है। विपरीत-कठिन परिस्थिति में शत्रु द्वारा धर्म और नीति के विरुद्ध अनुचित व्यवहार-सताए जाने पर भी धर्म नीति, मर्यादा के अनुरूप धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य, कार्य, वर्णाश्रम धर्म का पालन करना या उस पर चलना, घृति है। प्रजा पर शासन करना, यथा योग्य रखना, संचालन की विशिष्ट योग्यता रखना और चतुराई दक्षता, दाक्ष्य है। युद्ध में पीठ न दिखाना, मन में कभी हार स्वीकार न करना, युद्ध छोड़कर न भागना, अपलायन है। बिना कंजूसी-लोभ के, उदारतापूर्वक-खुले हाथ से उचित पात्र को दान देना, क्षत्रिय लक्षण है। ईश्वरीय भाव के रहते क्षत्रिय में सबको अपनी-अपनी मर्यादा में चलाने में अभिमान नहीं होता, अपितु नम्रता, सरलता बनी रहती है। जो प्रजा की दुःख-मसीबत में रक्षा करे वह क्षत्रिय का क्षात्र कर्म है।
A Kshatriy has to be prepared-ready for the righteous war or internal disturbances, imposed upon-necessitated by the circumstances, fearlessly, bravely, happily, courageously, enthusiastically with zeal and high morale.
He possesses potential, might, majesty, spirit, energy, strength, vigour ability to keep the people, population, society under control-disciplined.
Patience, self control during difficult periods, times, situations, attack by the enemy, oppression against righteous rules-regulations, policies, law-legislature, maintenance of cool-balance of mind, are inherent in him.
Ability to manage, administer, supervise, organise, rule, resourcefulness, unity, decision making for the subjects-dependants, are his worthy possessions.
Generosity, liberal donations to deserving, charity, gifts, providing timely help to the subjects-dependants, in difficult times, famine, scarcity, deficiency, non availability, war, flood, are his natural inclinations-tendencies, traits, qualities of a Kshatriy
He neither flees the battle field nor accepts defeat; always struggle for success and victory over opponents-enemy.
Presence of divine element, ability, qualities, Satvik tendency to lead the subjects, dependants, people on the righteous track-law and order, judicious implementations of rules-regulations, policies, maintenance of limits, decorum, conventions, dignity are divine gifts to him.
Readiness-willingness to consult the Pandits-Brahmans, scholars, skilled, experts, specialists, prudent, wise, intelligent, elderly, experienced, mature personnel, philosophers in an hour of need, emergency, war, internal disturbances and accept their advise for the welfare of masses is an integral part of Kshatriy's duties. He acts as supreme authority to decide legal matters in consultation with the renounced people of the judiciary, his ministers, courtiers (intelligent, prudent, learned) and the Brahmans.
Absence of ego, pride and prejudice, politeness, kindness, capability to stick to his word, promise, vow, to carry out his words-promises, simplicity, protection of subjects are the possessions of a Kshatriy in addition to prudence.
CHARACTERISES OF KSHATRIY क्षत्रिय गुण धर्म :: मजबूत शरीर, बाहु बल, साहस, पौरुष बहादुरी, हिम्मत। शस्त्र धारण करना, समाज सेवा-रक्षा। अपने पर निर्भर की रक्षा सहायता। सेना, फौज, शस्त्र बल में शामिल होना, युद्ध करना। अपराधियों, चोर, उच्क्कों, बदमाशों, उठाई गीरों को दंड देना। ब्राह्मणों को खुले हाथ से दान देना। शास्त्रों का अध्ययन करना। हवन, अग्नि होत्र, यज्ञ, प्रार्थना धार्मिक-सामाजिक कार्यों का आयोजन। ब्राह्मण, साधु पुरुष, संत महात्मा आदि का पालन पोषण करना।
Stout strong muscular body, physical strength bears-carries, armours-weapons for the protection of community, poor, down trodden. Protection and safety of dependants. Joins army-forces as job-profession. Punishment of out laws-criminals. Donates liberally to Brahmans. Studies Shashtr-scriptures. Organise Yagy Hawan, Agnihotr, prayers, religious ceremonies. Nourishment-nurture of saints, Holi people, Brahmans.
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥
खेती, गोपालन और व्यापार, ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म-गुण हैं तथा चारों वर्णों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.44]
Agriculture, protection of cows-animal husbandry and trade are the natural professions-duties of Vaeshy and the service of the four Varn is the natural duty of the Shudr.
क्रय-विक्रय, सत्य व्यवहार, वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी या खराब वस्तु मिलाकर देना अथवा अच्छी ले लेना तथा नफा, आढ़त और दलाली ठहराकर उससे अधिक दाम लेना या कम देना तथा झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती अथवा अन्य किसी प्रकार से दूसरों के हक को ग्रहण कर लेना, इत्यादि दोषों से रहित, जो सत्यता पूर्वक पवित्र वस्तुओं का व्यापार है, उसका नाम सत्य व्यवहार है। लोगों के हित की भावना से जहाँ से भी कोई वस्तु मिलती हो, उसे लाकर, आयात-निर्यात कर अभाव की पूर्ति करना, ताकि लोगों को कष्ट न हो शुद्ध व्यवहार है।
भगवान् श्री कृष्ण ने नन्द बाबा को वैश्य माना है। गाय से प्राप्त दूध, दही, घी, मक्खन, गोबर, मूत्र आदि सभी कुछ उपयोगी है। गाय के दूध की तुलना माँ के दूध से की जाती है।
प्राणी को मानव योनि रजोगुण की प्रधानता से मिलती है, जो कि कर्म प्रधान है। तमोगुण की मुख्यता उसे अधोगति :- नर्क, कीट-पतंग-पशु-पक्षी-पेड़-पौधे के रूप में नर्क से मुक्ति के बाद जन्म, प्रदान करती है। अज्ञान, प्रमाद, आलस्य, निद्रा, अप्रकाश, अप्रवर्ति और मोह ये सात अवगुण तमोगुणी हैं और कम-ज्यादा, हर एक मनुष्य में होते हैं। शूद्र में विवेक की कमी और आज्ञापालन की प्रधानता होती है जो कि उसका स्वभाविक गुण है। उच्च वर्ण में उत्पन्न मनुष्यों को नीच हरकतें करते देखा जा सकता है और निम्न वर्ण में उत्पन्न लोगों में साधु प्रवृति-सतगुण देखे जा सकते हैं। ऋणानुबंध, श्राप, वरदान, सङ्ग आदि भी ऊँच-नीच वर्णों में जन्म के कारण बनते हैं। हकीकत ये है कि वर्ण कर्मों के अनुरूप होता है और वर्णों का बदलना देखा भी जा सकता है।
Agriculture, protection and breeding of cows, honest trading, industry, business, manufacture, maintenance of supplies for the benefit-welfare from surplus to deficient regions, distribution of merchandise uniformly, to root out scarcity, earning just profit margins (16%), receiving interest on loans, made to the needy, are essential features of the Vaeshy community.
Vaeshy makes donations to Brahmans, pays tax to Kshatriy and wages-salary to the Shudr. He should be capable to accumulate and preserve wealth without the knowledge of others.
Cow products milk, curd, butter, dung and urine are extremely useful for good health, vigour and vitality of human race. It’s a tradition to donate cows for prevention from hells. Vaeshy makes donations, help the poor, build temples, ponds, schools, roads inns, plant trees for the protection of mankind out of the profits made by him 1/6th part of his profits should be spent on such functions.
Shudr provide services to all the four Varn. Dedicated service to all the four Varns in itself becomes God worship, added with worship, his assimilation in God becomes easier and quicker. Services provided with grace, honour, regard, respect, gratefulness, happily, leads the employee to liberation–closeness to God. It creates happiness in his heart and gives pleasure in his innerself. His feelings and devotion to work, grows his potential to provide services and achieve God as compared to Dwij Jati-Upper castes. His motto is, "Work is worship". It’s comparatively easier for him to attain Salvation during Kali Yug as compared to Upper castes. In fact each and every one who is earning his livelihood by virtue of service is a Shudr.
Higher the Varn, more difficult it is, for the person, to achieve the Almighty-Salvation, Moksh.
Anyone who has accepted a job-service, is in fact a Shudr and hence there should be no reservation in services.
CHARACTERISES OF VAESHY वैश्य गुणधर्म :: हिन्दु धर्म में वैश्य समुदाय की विशिष्ट भूमिका है। खेती बाड़ी, पशु पालन, व्यापार उनके प्रमुख कार्य हैं। वे ब्राह्मणों को यज्ञ, हवन, प्रार्थना, शादी, सामाजिक कार्यों धन प्रदान करते हैं। राज कोष में कर जमा करते हैं। धर्मशाला अस्पताल विद्यालय मंदिर का निर्माण, तालाब-झील का खुदवाना, पेड़ लगवाना व अन्य सामाजिक कार्य करवाना। ग़रीबों-जरुरतमंदों ब्राह्मणों को दान देना। धार्मिक ग्रंथों-शास्त्रों को पढ़ना।
Vaeshy community constitute the 3rd Varn in Hinduism. It's major traits-characteristics include trading, agriculture, business and animal husbandry. They offer money to the Brahmns for helping in Yagy, Hawan, prayers, marriages, rituals, social activities. They contribute to exchequer through taxes. Building hospitals, inns, temples, digging ponds & lakes, laying roads, tree plantations and all sorts of socially useful works. Donate money to poor, needy and Brahmns. Learning scriptures-Shastr.
CHARACTERISES OF SHUDR शूद्रों के गुण धर्म :: ब्रह्मा जी के पैरों से दैवीय उदय। दक्ष प्रजापति का जन्म ब्रह्मा जी के दायें पैर के अंगूठे से हुआ। उनकी 13 पत्निओं का विवाह कश्यप जी से हुआ, जिससे सभी प्राणियों का उदभव हुआ। द्विजातियों की सेवा, दस्कारी, वस्तुओं का आदान प्रदान बिक्री, उच्च-उत्तम व्यवहार व नम्रता, ईमानदारी के साथ अपने स्वामी की सेवा, मन्त्र रहित यज्ञ करना-ताकि अशुद्ध उच्चारण से अनिष्ट न हो, माँस मीट मदिरा धुम्रपान के लिए स्वतंत्र। ब्राह्मणों की रक्षा। कोई भी व्यक्ति जो कि नौकरी कर रहा है, अपने कार्यकाल में शुद्र कहलायेगा।
Initially evolved out of the feet of Brahma Ji as a divine creation. Daksh Prajapati, too evolved out of the feet (from the right toe) of Brahma Ji. His 13 daughters got married to Kashyap and entire Sharashti-evolution (life on earth or in our universe, else where) is the out come of his sexual intercourse-endeavours with his wives. Earning livelihood through the services of Dwijatis. Craftsmanship as a profession. Barter-sale of goods-merchandise. High domicile and polite behavior. Honestly serving the masters.
Performance of Yagy without the recitation of Mantr (to protect from the ill effects of incorrect pronunciation). Free to eat anything-wine consumption-smoking etc. Protection of Brahmans. Anyone who has adopted service as a profession, is like a Shudr till he does not adopt-revert back to the Nihit and Vihit Karm-duties of Dwijatis.
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥
अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में प्रीति पूर्वक, तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य, जिस प्रकार से कर्म करके परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन।[श्रीमद्भागवत गीता 18.45]
Listen-understand the means, method, procedure by following which, a person engage-perform his duties affectionately, religiously, piously, attains accomplishment-the Ultimate, as described by the Almighty himself.
मनुष्य को सिद्धि स्वतः ही प्राप्त हो सकती है, अगर वो अपने लिए उलझन, राग-द्वेष पैदा न करे। प्राकृतिक कर्मों को स्वार्थ-फलेच्छा को त्यागकर, तत्परतापूर्वक आचरण करने से आसक्ति का वेग पैदा नहीं होता और निर्लिप्तता उत्पन्न होती है। इससे परमात्मा की तरफ स्वाभाविक आकर्षण पैदा हो जाता है। कर्म परमात्मा से ही उत्पन्न हुए हैं और उसमें ही विलीन हो जाते हैं। अतः मनुष्य को अपने शास्त्रोचित कर्तव्य का प्रेम पूर्वक, आदर पूर्वक, नि:स्वार्थभाव से करना चाहिये। किसी भी कर्म में भाव की प्रधानता है। एक ही कर्म भाव के पृथक होने से सुखदायक अथवा दुःखदायक बन जाता है।
It’s evident that accomplishment is a natural gift to a person, who continues with his prescribed Varnashram, Righteous duties, obligations, provided, he do not create hurdles for himself through attachment, prejudices, vices etc. He should carry out all functions-obligations by discarding selfishness and involvement, happily, eagerly-earnestly, intently, readily, willingly, enthusiastically without the desire of rewards. His motto should be to help others-humanity and seek pleasure in such activities.
Performances, without attachments, lust, prejudice, desire for rewards, quenches his thirst for further natural activities and the person realises self (the God within him) automatically, generating attraction towards the Almighty, leading him to Salvation. At this stage all performances merge into one single stream, increasing the momentum for Salvation.
The human being should act just like a component of a machine which performs in unison with various other components without the feeling-thought of being higher-lower, big-small or greater-inferior, since all components are equally important and the machine cannot function if smallest of small of them, goes out of order. Purity of thoughts, disposition, intentions, ideas and understanding of the importance of each organ of the society, paves the way-path to assimilation in God i.e., Salvation-Moksh (emancipation, assimilation in God, liberation).
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके, मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.46]
Accomplishment is attained by an individual by worshiping the Almighty, from whom all the universes, organisms, nature have evolved and by whom all the universes are pervaded, through his natural, instinctive, prescribed, Varnashram related deeds.
जिस परमात्मा से संसार पैदा-उत्पन्न हुआ है और संचालित है, जो सबका उत्पादक आधार और प्रकाशक है, जो सबमें परपूर्ण है अर्थात जो अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था, उनके रहते हुए भी जो रहता है और जो उनके लीन होने के बाद भी रहेगा तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है, उसी परमात्मा का अपने-अपने, स्वभावज-वर्णोचित स्वभाविक कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिए।
लौकिक और पारलौकिक कर्मो के द्वारा परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, परन्तु उनके करणों-उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि उनमें ममता होते ही वे वस्तुएँ अपवित्र हो जाती हैं। सिद्धि को प्राप्त करने का अर्थ है कि मनुष्य अपने कर्मों से परमात्मा की पूजा करने से प्रकृति से असंबद्ध होकर स्वतः अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। उसका प्रभु में स्वतः अनन्य प्रेम जाग्रत हो जाता है। अब उसको पाने-हासिल करने के लिए कुछ भी शेष नहीं है। किसी भी जाति, सम्प्रदाय (हिन्दु, बौद्ध, ईसाई, पारसी, यहूदी, मुसलमान), वर्ग से व्यक्ति क्यों न हो वह परमात्मा के पूजन का अधिकारी है। भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के इस संवाद :- श्रीमद्भागवत गीता का जो अध्ययन करेगा (पढ़ना, समझना, जीवन में अपनानां) उसके द्वारा परमात्मा ज्ञान से पूजित होंगे। कर्म योगी और ज्ञान योगी अन्त में एक हो जाते हैं, क्योंकि दोनों में जड़ता का त्याग किया गया है। इसी प्रकार भक्ति मार्ग भी जड़ता को मिटाता है।
One should pray to the Almighty from whom the entire Universe has evolved, who operates the world, who is the creator, producer, founder and illuminator, administrator, organiser; WHO alone is complete amongest all; WHO was present before creation of infinite universes and WHO will remain after assimilation of infinite universes in HIM and WHO is pervaded in infinite universes, is worshipped automatically if the individual performs his natural, prescribed, Varnashram duties. Performance of the prescribed-Varnashram duties assigned to the individual, itself is worship of the God.
Duties assigned to Brahmans are :- Acquiring knowledge-learning and training for self, educating others, performing Yagy-sacrifices, accepting and making donations-charity, piousness-purity, performing natural deeds, Satvik food habits. All of his movements should be directed towards the welfare-benefit, service of the four Varn and the mankind, in whom the Almighty is pervaded. He has to perform all his duties happily, with pleasure and devotion to the God as per his dictates, with wisdom.
Kshatriy has five natural, instinctive duties :- Protecting the people, bravery, spirited, majestic actions, donations, Yagy, studies, consumption of food, leading to worship of God pervaded in all communities, automatically.
Vaeshy worship the God by his natural instincts, such as Yagy, studies, donations, accepting interest, agriculture, protection of cows (animal husbandry) and trade-business.
Shudr should perform his prescribed, natural duties-instinctive services to worship the God, inclusive of consumption of food, sleep-awakening with the realisation of presence of God in all of the four Varn. Anyone who is getting paid for the job performed by him is considered as a Shudr.
One should not develop love, affection, attachment for the services, while performing them, though these are divine-devotional, pertaining to worship through them. He just has to act as an instrument. Love, affection, attachment for worldly possessions, services, instincts, make them impure-unfit for offerings for worship.
Creation of unlimited Bliss-Ultimate love (Permanand) for God is accomplishment and nothing is left to be acquired thereafter.
Both Karm Yog and Gyan Yog merge into one single stream Bhakti Yog-devotion, by eliminating immovability-inertness through service and worship enabling detachment, resulting in immersion in Supreme Power.
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥
अच्छी प्रकार अनुष्ठान किये हुए-आचरण किए हुए परधर्म-दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म (हिन्दु-सनातन धर्म) श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य, पाप को नहीं प्राप्त होता। इसके अलावा सभी अधर्म हैं।[श्रीमद्भागवत गीता 18.47]
हिन्दु धर्म सनातन शाश्वत है। सूर्य का पूर्व से निकलना शाश्वत है। गीता का ज्ञान पूरे विश्व-जनता के लिये शाश्वत है। राधा और कृष्ण का प्रेम शाश्वत है। आयु और शरीर का सम्बन्ध शाश्वत है और जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु शाश्वत है।
Inherent prescribed, Varnashram Dharm, functions, duties, associated with virtues-excellence, are better than those belonging to others-carried out methodically with perfection, since carrying out of own righteous, natural deeds keeps the doer-performer, free-untainted from sins, vices, wickedness, wretchedness.
स्वधर्म वर्णाश्रम धर्म और उपरोक्त वर्णित सम्प्रदाय (यहाँ हिन्दु धर्म) को ही मानें-समझें। अपना धर्म अगर दूसरे से निम्न-निकृष्ट मानेंगे, तो ही समस्या होगी। अगर आप शूद्र को वैश्य से निकृष्ट समझकर अपने को हीन समझेंगे तो समस्या उत्पन्न होगी ही। अतः अपने धर्म में स्थापित-व्यवस्थित रहें और भगवत् आराधना करते रहें, शेष मालिक-भगवान् पर छोड़ दें। आपात काल में कोई भी किसी भी वर्ण धर्म का आलम्बन लेकर जीविका अर्जित-उपार्जित कर सकता है; परन्तु हालत सामान्य होते ही, स्वधर्म का आचरण करें। पूर्वजों ने दबाब, लालच, जान जाने के भय से अगर अन्य धर्म को अपना लिया था; तो भी कोई बात नहीं। अगर आज हालत सुधर गए हैं, परिस्थिति अनुकूल है, तो घर वापस आ जाओ, तुम्हारा स्वागत है। आसुरी शक्तियों, दस्यु समुदाय, बुरे लोगों की संगति को भी त्याग दो। पाप कर्म, अन्याय, स्वार्थ, अभिमान को त्याग दो। डरो मत। अच्छाई का परिणाम अन्ततोगत्वा, अच्छा ही होता है। निहित-विहित कर्म करो, निषिद्ध को त्याग दो। दुर्गुण-दुराचार से बचो। विवेक, सदाचार, सतसंग, शास्त्र का आलम्बन ग्रहण करो, सब कुछ ठीक हो जायेगा। यह कभी मत भूलो कि तुम मनुष्य हो, समर्थ हो, सबल हो, तुम्हारा जन्म ही मुक्ति के लिए ही हुआ है।
Natural duties-professions fixed-decided by birth, constitute the inherent tendencies. It’s better to stick to own-ancestral profession which may be full of difficulties and stress, as compared to that of others which is easy, simple, great or virtuous. Own prescribed duties should be accepted with grace and dignity, while that of others, should be discarded as prohibited and below dignity. However, during emergencies, services, jobs-works done under stress-duress, for survival, may be treated as own, for the time being only. One should revert to his Varnashram Dharm-duties, as soon as he comes out of distress-trauma. Those who were converted through deceit, threat to life, greed have the opportunity to revert back to own-ancestors faith-religion. They are welcome home. Work, task-assignment is over as soon as it is carried out, but its impressions remain over the mind & soul.
Each and every one is capable, free and has the right to modify, improve, strengthen himself by divine-virtuous characters and reject the ones which are satanic, demonic, monstrous depending upon need, nature, situation and demand. Certain common functions like simplicity, self control, restraint, soft-polite, pleasing, refined, soothing, affectionate, polished tone, language and behaviour are considered to be natural for Brahmans, may be observed by all the four Varn. Individual suffering from inborn demonic experiences, impressions can easily overcome them through prudent, pious, virtuous, righteous, company-association, interest (religious gatherings) in holy literature (scriptures) sanctifying-purifying rites, blessed with divine desire.
Human body has been gifted for seeking, approaching, culminating the Supreme Soul. All divine characters are to be observed by all the four Varn as righteous duties and all demonic, monstrous, satanic defects-duties and vices-wickedness, guilt’s, have to be rejceted-discarded as Adharm (irreligiosity, impiety).
Righteous-prescribed duties and the ones performed for survival without involvement, devoid of selfishness and ego for the benefit-help of the society-mankind do not taint the doer with sin or guilt.
All unnatural acts are sinful. The individual must not do-commit an act which he forbids for self. The actions associated with selfishness in a fit of revenge, rage, anger with ego, desires deserve to be rejected, since they are the root cause of crime, sin, birth & rebirth.
Different activities by different people in different situations, circumstances, conditions, atmosphere, carried out for attainment of Supreme Power Almighty-Permanand are free from sins. One should be alert to maintain natural acts free from defects.
Results of sins are numerous including hell, birth as plant, animal, insect or as a human being in a particular class, caste, creed, more, place, community, belief, religion.
The individual preaching divine characters should be aware of modifying, his own habits, behaviour, working, life style, activities for which he is quite capable and eligible. Human body has been gifted to the soul to sanctify-purify. So, every attempt has to be made for progress in the right direction i.e., the Almighty.
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥
अतएव हे कुन्ती पुत्र! दोष युक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं।[श्रीमद्भागवत गीता 18.48]
O The son of Kunti! Innate, natural, instinctive duties should not be given up by the individual, since all deeds are associated with defects, just as fire is accompanied with smoke.
प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्म रूप स्वाभाविक कर्म हैं, उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज कर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म इत्यादि नामों से कहा गया है। जो सहज कर्म हैं, उनमें भी कोई दोष आ जाये तो भी वे त्याज्य नहीं हो सकते, क्योंकि, सभी कर्मों में कुछ ना कुछ दोष अवश्य है, जैसे प्रकार अग्नि में धुआँ।
परमात्मा का अंश आत्मा-शरीरी, प्रकृति के आधीन शरीर में होने के कारण परतंत्र हो जाता है, जो कि स्वयं में एक दोष है। कर्म में कहीं न कहीं हिंसा हो ही जाती है। कर्म किसी के अनुकूल तो किसी के प्रतिकूल होता है और प्रतिकूल होना दोष है। प्रमाद आदि दोषों के चलते विधि-विधान में कमी रह सकती है, जो कि दोष है। विहित कर्म भी दोष पूर्ण हो सकते हैं, परन्तु कामना, सुख बुद्धि, भोग बुद्धि के त्याग देने से दोष नहीं लगता।
दोषों से मुक्ति निष्काम भाव से कर्म करने से होती है। दोष-पाप का लगना या ना लगना कर्ता की नीयत-भाव पर निर्भर करता है।
The Almighty and HIS incarnations are independent, while the nature and the human body-physical component of nature are not independent. Incarnations of God loses their independence under the control of nature. Actions carried out through the human body and the assumption of having done them by the person-self is loss of independence-freedom. Dependence over nature in itself is a great defect.
Every action is associated with inherent, consequential, incidental, connected, concomitant, essential defects, such as violence. The action will either favour to one person or disfavour to the other person or it may go against any other person. Defects like intoxication-frenzy evolve defects in deeds. There may be defects due to errors, in procedures, methods, working, performances.
Inherent activities of Brahmans are placid and mild, as compared to that of Kshatriy, Vaeshy or Shudr. Still, the Kshatriy, Vaeshy and Shudr remain free from defects. On the contrary, they are benefited by observing them, since they are according to their nature, prescribed and easy to do and in line with scriptures. Even the mandatory sins associated with violence, do not affect them.
Inherit, innate, instinctive performances are not obstruction to liberation, if they are free from desires-motives, irrespective of the defects by virtue of dependence over place, time, situation, incident, opposition to, by others. Bonds created by ego, desires, attachments, selfishness etc., results in sins.
Prescribed duties do not involve labour or practice, since they are inherent and devoid of desires, pleasures, comforts, gratification and are not tainted, even though associated with defects. Selfless performances with social service, welfare, benefit, benevolence, at heart results in acquiring pious, sacred, auspicious, virtuous, characters to help in next births.
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति॥
जिसकी बुद्धि सर्वत्र आसक्ति रहित है, जिसने शरीर को वश में कर रखा है, वह मनुष्य-पुरुष साँख्य योग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.49]One whose innerself is under control (thoughts, mind, psyche, mood, gestures and heart), is free from desires, ambitions and has acquired the best Naeshkarmay Siddhi-accomplishment, through Sankhy Yog (enlightenment, learning, gaining knowledge of the abstract), the supreme state of freedom from actions.
साँख्य योग भगवान् के अवतार कपिल मुनि द्वारा प्रतिपादित किया गया है। यह मनुष्य को ईश्वर की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग की शिक्षा देता है। ज्ञान-साँख्य योग के अधिकारी की बुद्धि आसक्ति रहित (देश, काल, घटना, परिस्थिति, वस्तु, क्रिया, में लिप्त नहीं) है। जिसने शरीर पर अधिकार कर लिया है, वह जितात्मा (आलस्य, प्रमाद आदि से शरीर वशीभूत नहीं होता) है। विगत स्पृहा (कुछ भी मिल जाये खा-पी लेगा, नहीं मिले तो कोई बात नहीं) अर्थात जीवन धारण करने के लिए जिन चीजों की जरूरत है, उनका नाम स्पृहा है, की कोई परवाह नहीं करता, मुक्त है, जड़ता का त्याग किये हुए है। उसमें स्वाभाविक स्वतः सिद्ध निष्कर्मता-निर्लिप्तता प्रकट हो जाती है। नैष्कर्म्य सिद्धि वह है जिसमें कर्म सर्वथा अकर्म हो जायें। कर्म योग से नैष्कर्म्य सिद्धि प्राप्त होती है। कर्मयोग और ज्ञान योग निष्ठा हैं। कर्म योग-ज्ञान योग की परानिष्ठा भक्ति से होगी। परम नैष्कर्म्य सिद्धि और परा निष्ठा दोनों ही भक्ति से प्राप्त होती हैं।
The thoughts, ideas, imaginations of a person, having qualified for Gyan-Sankhy Yog-enlightenment, become free from attachment, smear, engross, attains accomplishment. His innerself (body mind and soul), senses, sensuality, passions, sexuality are under control. He has conquered desires, needs, requirements for worldly possessions-positions.
A state is achieved, when all activities take place in nature, yet the individual, who remained involved-connected with actions-deeds, the actions or rewards-outcome do not affect him, natural, automatic detachment is revealed.
All performances-activities-deeds, by the devotee become-turns into Akarm i.e., deeds are not executed. No relationship remains between the devotee and executions, which are not smeared, engrossed, stained.
Attainment of self control blesses the Karm Yogi with Sankhy Yog and in turn Neshkarm Siddhi-the ultimate accomplishment, with faith through Bhakti, comes to him. Neshkarm does not mean inaction, since prescribed duties are essential for the devotee. Neshkarm Siddhi and ultimate faith (devotion, allegiance, reverence) are attained through Bhakti.
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥
हे कुन्ती पुत्र! नैष्कर्म्य सिद्धि-अंतःकरण की शुद्धि, को प्राप्त हुआ साधक ब्रह्म को जो कि ज्ञान योग की परा निष्ठा है, जिस प्रकार से प्राप्त होता है; उसे तुम मुझसे संक्षेप में सुनो।[श्रीमद्भागवत गीता 18.50] Hey Arjun, the son of Kunti! Listen to the ultimate attainment of Brahmn-Almighty attained by the devotee, who has attained accomplishment (purity of innerself), achieves the Sachidanand-Param Brahm, which is the Ultimate divine faith (knowledge and transcendence).
अन्तःकरण का इतना शुद्ध होना कि उसमें किञ्चित मात्र भी कामना, ममता और आसक्ति तथा किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि की जरूरत अर्थात साधक के लिए प्राप्त करने को कुछ भी बाकि-शेष न रहे, सिद्धि कहलाता है। मन चाही चीज-वस्तु का मिलना सिद्धि नहीं है। जिस सिद्धि के मिलने से कामना बढ़ती है, वह सिद्धि कदापि नहीं है; प्रत्युत बंधन है। अन्तःकरण की सिद्धि को प्राप्त हुआ साधक ब्रह्म को प्राप्त होता है। ज्ञान-साँख्य योग में क्रिया और सामग्री की प्रधानता नहीं है। इसकी अंतिम स्थिति से बढ़कर साधक की कोई स्थिति नही हो सकती, क्योंकि वह ज्ञान की परा निष्ठा है।
कर्म, ज्ञान और भक्ति योग तीनों ही साधन और साध्य दोनों ही हैं।
Devotee, whose innerself has attained ultimate purity (which involves prudence-a component of Gyan Yog), who has no desires, attachments, possessions, person, situation or incidence, for whom nothing is left to be acquired-achieved, is the one who has achieved accomplishment.
Fulfilment of desires, possessions, acquisitions are binding. They create bonds, not accomplishment. Sankhy Yog does not subscribe to actions or possessions. It gives importance to the understanding of the Ultimate. Last stage of the Sankhy Yogi, is the divine Ultimate faith, no other stage-state can be superior to this.
Karm Yog, Gyan Yog-Sankhy Yog and Bhakti Yog, are the means as well as goals of accomplishment. As means, these three are different from one another. As a goal of accomplishment they are one.
बुद्ध्या विशुद्ध्या युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
विशुद्ध-सात्विक बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के द्वारा-धैर्य पूर्वक अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भली-भाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यान योग के परायण रहने वाला, ममता रहित और शांति युक्त पुरुष, सच्चिदानन्द घन ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित होने का पात्र होता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.51-53]
जो ज्ञानी-साँख्य योगी परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है, उसकी बुद्धि विशुद्ध और सात्विक हो, ताकि वह जड़ता का त्याग कर दे। साँख्य योगी का आश्रय वैराग्य है। लौकिक और पारलौकिक भोगों से उसका वैराग्य है। उसकी निर्लिप्तता कायम है। उसमें एकांत सेवन, सिद्धि असिद्धि में साम्यावस्था, अन्तःकरण, मन की निर्मलता, बनी रहती है।
वह केवल उतना ही शुद्ध-पवित्र भोजन करता है, जितना कि शरीर के निर्वाह के लिए आवश्यक है। दुनिया के प्रलोभन उसे त्रस्त नहीं कर पाते। उसकी घृति शुद्ध सात्विक है। उसकी इन्द्रियाँ नियमित-काबू-मर्यादा में हैं। शरीर, मन, वाणी संयत हैं और वह वृथा नहीं घूमता।वह असत्य भाषण, निंदा, चुगली से बचे। मन से राग पूर्वक संसार का चिंतन न करके केवल परमात्मा का ही चिंतन करे। ध्यानावस्था में शब्द, रस, स्पर्श, रूप, गन्ध विषय रूप-संयोग जन्य सुखों का त्याग करे। राग-द्वेष से बचे। नित्य ही ध्यान योग परायण रहे। अहंकार-हठ, बल, दर्प, मनमानी, घमण्ड, भोग-काम, स्वार्थ-अभिमान के परिग्रह-संग्रह से बचे-त्याग करे। अपने शरीर, वस्तु, प्रिय, उपयोगी-चीजों के बने रहने की इच्छा न रखे अर्थात उनके प्रति निर्मम बने। अशांति, जड़ता, हलचल से असम्बद्ध हो जाये। ममता रहित, शांत, असत् को त्यागने वाला मनुष्य ब्रह्मप्राप्ति-परमात्म प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है।
Endued with pure intelligence (prudence, reason), associated with Satvik-Pious, strong patience-firm determination, the devotee should set aside all attachments, hatred-prejudices and control-stabilise his innerself and sensuality (abandoning sound and other objects and laying aside love & hatred).
Sankhy Yogi-the devotee, who wishes to attain the essence of Almighty, should have clear-clean, pure intelligence (mind). The prudence essential for Sankhy Yogi, appears through intelligence-meditation, by rejecting stability-immovability.
Possession of strong Satvik patience, does not allow the Sankhy Yogi to move away from the essence of Almighty. During meditation, he controls-rejects all allurements, attachments, prejudices, sensuality by stabilising-fixing his innerself in the memory, recitation,, meditation, remembering God. Repulasion-detachment with the worldly possessions, development of attachment-love for meditation-concentration bring him close to the Almighty.
Sankhy Yogi (devotee), prefers to live alone in solitude (isolated, away from worldly hustle and bustle), engaged in transcendental meditation, he consumes little Satvik food essential for survival, controls body, mind and speech, assert himself in profound meditation, through detachment.
He intends to remain aloof, undisturbed by the presence of people or the noises. His innerself is firmly under his control. Isolation helps him in concentration and meditation, producing happiness-bliss in him. He does not crave for appreciation from the people for his solitude, lack of sleep or comforts. He is not disheartened by the absence of comforts-luxuries. Absence of disturbances is of immense help to him.
During meditation, devotee accepts pure Satvik, light, regular food, suitable & sufficient for the body, neither in excess nor deficient, sufficient for survival, like a medicine-to satisfy hunger in such a manner that do not obstruct meditation.
It’s essential to control body, mind and speech. He should not romp purposelessly and avoid unnecessary travel. He should not utter senseless-useless words, refrain from back biting and abusive-foul language. He should speak the truth. He should speak only when it’s essential. His mind should be free from worldly affairs-problems, during meditation. He should remember the God and all of his energies should be channelised into the Almighty only. He should be cautious and aware that nothing is independent, except the God HIMSELF.
Devotee, who rejects egotism, pride, boastfulness, sensuality, force, arrogance-anger, worldly comforts-luxuries, pain, becomes calm-quite, solitude, devoid of attachments, enables-qualifies himself to sustain-realisation of Brahm.
Development of feelings of speciality-excellence regarding own characters, forcing others to own egoistic dictates, sex (passions, sensuality, sensuality, lasciviousness) anger-greed, worldly possessions acquisitions, comforts, luxuries, favourable conditions-situations, tendency to harm others, when own selfishness-egotism are struck is arrogance, which must be rejected.
One should not exert ownership in worldly acquisitions, body, senses, organs and means. With peace in the innerself, absence of disturbances, attachments, hatred and by breaking of immovability, the devotee enables-qualifies himself for realisation of Brahm.
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मन वाला योगी-साधक न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला योगी मेरी पराभक्ति को (जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता, वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.54]
Devotee, who attains Almighty, associated with happiness neither experience grief nor desire anything, having achieved equanimity, he asserts himself in the Supreme Soul-divine Bhakti (devotion) to the Almighty.
अन्तःकरण में विनाशशील वस्तुओं, अहंकार-घमण्ड, ममता, सुख-भोग आदि की आवश्यकता न रहने-त्याग करने से, ज्ञान-साँख्य योगी में स्वाभाविक शान्ति आ जाती है। असत् से ऊपर उठने पर साधक ब्रह्म प्राप्ति का पात्र बन जाता है। असत् वस्तुओं का महत्व समाप्त होने से चित्त में प्रसन्नता और परमात्म तत्व का भाव अटल हो जाता है। वह शोक-चिंता से मुक्त हो जाता है। परिस्थितियों से उसे परेशानी का अनुभव नहीं होता। वह परमात्मा से अभिन्नता का अनुभव करने लगता है। सभी वस्तुओं-स्थितियों से समभाव-समता उत्पन्न होती है। उसे परमात्मा की ओर विलक्षण आकर्षण, खिंचाव, अनुराग अनुभव होता है, जो पराभक्ति है।
Loss of appetite-greed, for destructible, perishable goods, worldly possessions, nullifies the tendencies like arrogance-pride in the innerself of the devotee. Having sacrificed all desires, allurements, bonds, attachment he remains commuted-committed to the God, only. Peace comes in his innerself, with the detachment from comforts-luxuries. He stops collecting-storing them.
Rising above unnatural, virtual, non virtuous possessions, qualifies him for closeness with the God. He automatically attains-experiences the state of divinity. Desire for unnatural-worldly, non virtuous goods, do not disturbs his innerself and mental peace, solace, tranquillity comes to him automatically. Loss of desires for such objects, brings natural happiness to the Sankhy (enlightened) Yogi, stabilising the component of God in him.
Misfortunes, mis happenings, biggest losses, loss of position, property, status, do not unnerve him. He realises the natural-existing equanimity with the Supreme Soul and his creations. He experiences extra ordinary attraction, love for the Almighty, which is Divine–Devotion.
Gyan-Sankhy Yogi having seeds of divinity, never stresses his route of faith, never considers detachment from the world as Supreme, do not dishonour divinity, is not satisfied with detachment. He is blessed with extreme pleasure-Bliss, Permanand. Once divinity is attained, he is ready for immersion in HIM, close to HIM, associated with HIM, the Supreme Divinity.
Gyan Yog stress over loss of stability, through prudence-momentum gained, raises him above worldly materials-acquisitions of love for God, enables him to find God in each and every one including material objects. Love is developed through faith and divine blessings. He craves for infinite-extreme happiness i.e., Bliss-Permanand.
Karm Yog provides peace, solace, happiness through detachment, Gyan Yog through realisation of self and Bhakti Yog through equanimity with God, HIS creations-each and every particle of this universe to the devotee-Sankhy Yogi.
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥
उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा का वैसा तत्व से जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझे तत्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.55]
The Devotee, who understands and recognises-identifies, the essence, spirit, gist of the Supreme Spirit, through divine devotion, with all his powers and spread, in depth, assimilates in HIM, with the help of the ultimate knowledge, enlightenment, gist.
परमात्म तत्व में अनुराग होने पर साधक उसके प्रति समर्पित होकर उससे अभिन्न हो जाता है; उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं रहता, अहंभाव नष्ट हो जाता है और प्रेम स्वरूप, प्रेम भक्ति प्राप्त हो जाती है। यह भक्ति परमात्म तत्व का वास्तविक बोध है। संसार से सम्बन्ध मिट जाता है। परमात्मा का आश्रय लेने से साधक जन्म-मरण से मुक्ति पाकर ब्रह्म, अध्यात्म, निर्गुण विषय, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ सहित सम्पूर्ण सगुण-विषय का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसे यह ज्ञान हो जाता है कि परमात्मा अनेक रूपों, आकृतियों, शक्तियों के साथ, भिन्न-भिन्न समुदायों में, अनेक इष्ट-देवों के रूप में प्रकट होता है। इस तत्व को जानकर उसका विलय परमात्मा में हो जाता है।
जीव का परमात्मा से सम्बन्ध, आकर्षण, प्रेम (रति, प्रीति, आकर्षण) स्वाभाविक है और यही उसको परमात्मा से जोड़ता है। परमात्मा से विमुख व्यक्ति संसार में आकृषित होता-जुड़ा रहता है और वासना, स्पृहा, कामना, आशा, तृष्णा आदि का शिकार हो जाता है।
ब्रह्मभूत अवस्था होने पर राग-द्वेष, हर्ष-शोक, मिट जाते हैं और समता की प्राप्ति होती है, सम होने पर पराभक्ति जो कि वास्तविक प्रीति है, मिलती है और परमात्मा के संग अपने स्वरूप का बोध हो जाता है। इस बोध के होते ही साधक परमात्म तत्व में लीन हो जाता है। तपस्वी, ज्ञानी, कर्मी से भी श्रेष्ठ समता वाले योगी को माना गया है।
Having achieved the attraction and love for the essence of God, the devotee completely surrenders to God and become undistinguished-inseparable from HIM. His arrogance is lost completely and Bhakti-devotion associated with love is attained, which helps him, in identifying the Parmatm Tatv (essence of God).
At this stage though attachment is lost completely, yet a segment of ego-I am defect less, I am Brahm, I am quite, I am pure, I have achieved some thing, remains! Once dependence over nature is overcome-lost, with the help of divine devotion, this ego is also lost and comprehensibility prevails, thereafter.
One who is infatuated with the God-who solely depends upon HIM, inalienably-exclusively recognises HIM. Those who want to get rid of ageing-death, reincarnations solely take refuge (shelter, asylum) in HIM. Such people-devotee recognises-understands all aspects of HIM, including HIS various incarnations. HE reveals HIMSELF through various incarnations, deities, angels, maintaining HIS unique identity in different religions, societies.
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥
मेरा आश्रय लेने वाला भक्त-कर्म योगी सदा संपूर्ण कर्मों को करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन-शाश्वत अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.56]
The Devotee, who is under the protection-patronage of God, attains the supreme eternal imperishable status, Ultimate abode, with the grace of the Almighty, while performing all of his Varnashram duties.
जो व्यक्ति सर्वथा भगवान् के परायण-शरणागत हो जाता है, अपना स्वतंत्र कुछ नहीं समझता, ऐसे भक्त का उद्धार स्वयं परमात्मा कर देते हैं। उसको अपने जीवन निर्वाह के लिए किसी बात-चीज की कमी नहीं होती। जिस धर्म परायण साँख्य योगी ने शरीर, वाणीं और मन का संयमन कर लिया है और एकांत में रहकर सदा ध्यान योग में लगा रहता है, उसको जिस पद की प्राप्ति होती है, वह लौकिक, पारलौकिक, सामाजिक, शरीरिक आदि सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को हमेशा करते हुए, प्रभु का आश्रय लेने वाला भक्त उनकी कृपा से प्राप्त कर लेता है। स्वतः सिद्ध परम पद की प्राप्ति अपने कर्मों, अपने पुरुषार्थ से अथवा अपने साधनों से नहीं, अपितु केवल भगवत्कृपा से होती है। यह परम पद भक्ति मार्ग से परम धाम, सत्य लोक, वैकुण्ठ लोक, गौलोक, साकेत लोक और ज्ञान मार्ग में विदेह, कैवल्य मुक्ति, स्वरूप स्थिति कहलाता है। उसके नाम अलग-अलग हैं। जहाँ भगवान् हैं; वहीं उनका लोक है। जब भक्त की अनन्य निष्ठा सिद्ध हो जाती है तब, परिच्छिन्नता का अत्यंत अभाव हो जाता है और वही लोक उसके सामने प्रकट हो जाता है अर्थात उसे जीते जी ही दिव्य लोक की दिव्य लीलाओं का अनुभव होने लगता है। अगर भक्त की धारणा यह है कि दिव्य लोक एक परम विशिष्ठ स्थान-जगह है तो, उसकी प्राप्ति तो मृत्यु के बाद ही होगी, जब भगवान् के पार्षद या स्वयं भगवान् उसे लेने के लिए आयेंगे।
भक्त महज अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन सब विहित कर्मों को सदा करते हुए भी भगवत्कृपा को प्राप्त कर लेता है।
The Devotee, who has surrendered to the Almighty, is totally under his shelter, is salvaged by the God.
A meditating Sankhy-Gyan Yogi, who has controlled his body, mind, speech, heart, senses and sensuality is concentrating over the Almighty in solitude (deep woods, remote caves, high altitude tough terrains-mountains), attains the imperishable, eternal status, position, prominence, abode.
He should continue physical, social, worldly, divine functions under the refuge of God. More he depend over the God, more he experiences the divine bliss, grace, kindness-blessings. Close proximity-imperishable abodes are the result of the mercy, will, desire of the Almighty.
The God is present everywhere. His abodes too, are present everywhere. Attainment of undistinguished faith results in loss of differentiation-multiplicity of abodes. The Devotee feels the presence of the Supreme Soul all around him with the physical-material body.
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥
चित्त से सब कर्मों को मन से मुझ में अर्पण करके तथा समबुद्धि-समता का आश्रय, अवलंबन लेकर मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो।[श्रीमद्भागवत गीता 18.57]
The Devotee should offer, renounce, incline, all his deeds to the God, mentally with the help of equanimity, under the patronage of God and repose-faith, in the God, along with his consciousness.
मनुष्य चित्त में दृढ़तापूर्वक यह दृढ निश्चय कर ले कि मन, इन्द्रियाँ, शरीर, बुद्धि आदि तथा संसार के व्यक्ति, पदार्थ, घटनाएँ, परिस्थिति सभी कुछ परमात्मा द्वारा नियंत्रित किया जाता है; उसका ही है। ये किसी के व्यक्तिगत नहीं हैं, अपितु उसने मनुष्य को इनका केवल सदुपयोग करने का अधिकार दिया है। मनुष्य को चाहिए कि यह सब कुछ भी वह अपनेपन (मैंपन) का अहँकार का त्याग करके स्वयं को भगवान् को समर्पित कर दे और अनन्यभाव से भगवत्परायण हो जाये। मनुष्य सुख-दुःख, हानि-लाभ, अनुकूल-विपरीत परिस्थिति में भी एक समान रहे अर्थात समता (बुद्धियोग) को प्राप्त हो। जब वह स्वयं को पूर्ण रूप से भगवान् के चरणों में अर्पित कर देगा, तो उसका चित्त भी भगवान् में रम जायेगा और भगवान् उसके चित्त में समा जायेंगे।
The devotee should dedicate, entrust, offer, all his deeds to the Almighty. He should devote himself to the God. He should detach himself from the world, with the help of equanimity. He should develop strong unbreakable rapport-bonds with the God, through meditation.
He has to grow a feeling in him that the mind, intelligence, senses, organs, body, life, material objects, happenings, adverse situations are the creations of the Creator-God and belong to HIM. It’s HE, who is the master of all; nothing is personal for the humans. God has just permitted the use of these facilities-faculties, only. Even this permission, deserve to be returned politely-with grace, offered back to the Creator. Prudence does not allow the devotee to imagine-feel belongingness, ownership for these, too. To become unalienable is to seek refuge under HIM only. One should not become slave-habitual of a commodity, condition, commotion.
Feeling of oneness, move the God to take care of the devotee HIMSELF. The God, HIMSELF approaches the devotee and obliges him with the fulfilment of desires. HE HIMSELF comes to take the devotee to HIS abode. HE HIMSELF grants Salvation to the devotee.
Equanimity developed by the devotee, grows Buddhi-enlightenment Yog (Gyan-Sankhy Yog, assimilation through intelligence, mental capabilities, brain power, prudence). One should always practice for mental balance, mental equilibrium and calmness, through in depth thinking-meditation. He must remember that favourable or adverse situations never prolong; they just come and go. Those who maintain cool, patience, calm-composed and mental balance in difficult situations, sail through them easily-swim across the vast ocean of difficulties, pains, sorrow, trouble, torture, grief etc. The God HIMSELF, salvage them.
The way a person develops, his hold over worldly possessions-the same way, he can put his foot forward to divinity. It’s too easy. The only thing required for this is good intention and firm determination. Just think of HIM and keep thinking. Equanimity will automatically arise.
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥
उपर्युक्त प्रकार से मुझ में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से तू समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा-तेरा पतन हो जायेगा।[श्रीमद्भागवत गीता 18.58]
One who channelize-concentrate, his thoughts-brain power (psyche, gestures, mood, consciousness, innerself), energies in the Supreme Soul-Almighty, can overcome, all his difficulties-troubles, with the grace-mercy of the Supreme Power, failing to pay heed to the dictates-desires of the Almighty, due to his arrogance, egotism, pride, his down fall is certain-imminent.
जिसका चित्त परमात्मा में लग जाता है, वो सम्पूर्ण विघ्न, बाधा, शोक, दुःख, आदि से तर जाता है। अगर विधि-विधान कर्म में कुछ दोष-अहंकार रह भी गया, तो वह भी प्रभु की कृपा से दूर हो जायेगा। प्रकृति से विमुख होकर मनुष्य परमात्मा के सम्मुख हो जाता है। जीव स्वयं परमात्मा का अंश होने के कारण जब उसकी तरफ चलता है, तब उस पर कोई ऋण :- देव, ऋषि, प्राणी, माता-पिता, आप्तजन, दादा-परदादा और पित्रादि, शेष नहीं रहता। जो व्यक्ति अज्ञानता-अहंकार वश प्रभु की आज्ञा-वचनों का पालन नहीं करता, उसका पतन निश्चित है। भगवान् से विमुख व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो पाता। परमात्मा की प्राप्ति मनुष्य का स्वाभाविक धर्म होना चाहिए। कर्म योगी, समता युक्त पुरुष वर्तमान जीवन में ही पुण्य-पाप, कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है।
One, who seek asylum in God-attaches his mental faculties-brain power, with the God, overcome, all of his troubles, pains, grief, tensions. A person free from arrogance, under the shadow (asylum, shelter, protection) of the Protector-God need not worry, about the procedural mistakes-deficiencies, since the Almighty covers them up. The only restraint is, his connection with worldly affairs. He should establish connection-rapport with the divinity. Once this restraint is lost, rest is for the God-the Protector to accomplish.
Detachment from nature raises the soul above prescribed-Varnashram responsibilities. One is supposed to compensate for his ancestors, fore fathers, deities, ascetics, parents, grandparents, life chains etc. Prudence breaks all these bonds, except the one which has been established with the Creator.
The God himself provides help to the devotees, who engage in social work, peace and harmony, humanity, upliftment of mankind, through devotion, whole heartily, honestly. The Almighty persuades them, guides them, shows them the way, harness them, reduces their burden and difficulties, raise them above all, protects them from down fall, i.e., reincarnations-birth and rebirth, provided, they discard arrogance and subject themselves to HIS dictates. Equanimity will free them from sins, while surviving, breaking all bonds of deeds-duties and granting freedom from rebirth.
No sin, no attachment, extremely pure, virtuous devotee, achieves the Supreme Abode.
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥
अहंकार का आश्रय लेकर तू जो यह मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तो तेरा यह निश्चय मिथ्या-झूठा है, क्योंकि तेरा स्वभाव-क्षात्र धर्म तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा।[श्रीमद्भागवत गीता 18.59]
Under the cover of arrogance-ego, the disheartened Arjun-individual resort to incorrect decision of non struggle-surrender to evil, but his inborn tendency compels him to fight back (engage in war fare, resist the evil). Arjun would be compelled due to his inborn tendency to fight back (engage in war fare), being a Kshatriy, into war.
प्रकृति से महत्तत्त्व और महत्तत्त्व से अहंकार पैदा हुआ है। शरीर उस अहंकार का ही एक विकृत अंश-अंग है। प्रकृति हर वक्त क्रियाशील है और बदलने वाली है। इसके आश्रित रहने वाला कोई भी पुरुष कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता। परन्तु जिसने भगवान् का आश्रय ग्रहण कर लिया है, उसे कर्म करने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता। अर्जुन ने पहले तो यह कहा कि मैं आपकी शरण मैं हूँ, परन्तु फिर कहा कि युद्ध नहीं करूँगा, तो वे अहंकार के अधीन हुए, न कि परमात्मा के। अब भगवान् ने स्पष्ट कर दिया कि अंततोगत्वा अर्जुन को अपने क्षत्रिय स्वभाव के कारण युद्ध में कूदना ही पड़ेगा। जब अर्जुन यह निर्णय-निश्चय स्पष्ट करते हैं, तो वो अवास्तविक अर्थात मिथ्या प्रकृति के अधीन हो गए हैं। हाँ अगर अर्जुन प्रकृतिवश क्षात्र धर्म के अनुगत, युद्ध में बाद में प्रवर्त होते हैं, तो पाप की जिम्मेवारी उनकी होगी, भगवान् की नहीं।
Nature has created ambitions (tendency to achieve significance, high position, authority, glory, importance, achievement), which in turn develops arrogance. Distorted component of this ego is always present in humans. An individual having seeds of ego in nature, is always active, just like the nature itself. One under seize of nature, is obsessed with work, even when he pretend to be inactive, unless until he detaches himself from nature and comes under refuge of the Protector-the Almighty.
A person under the refuge of the Almighty may retract, under the impression of egotism, even if he tries to retract, the divinity pushes him to struggle-fight back the evil, devil, anti social, anti humanity, the terrorist-Muslims, the traitor, the pirates, draconian forces, the unrighteous, repression and the demonic.
Struggle under the control of nature is counterproductive, while under the influence of the God, its divine bliss, nectar, the Elixir of life. Arjun was under divine protection being himself NAR RISHI.
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥
हे कुन्ती पुत्र! अपने स्वभावजन्य कर्म से बँधा हुआ मोह के कारण, जिस युद्ध को तू नहीं करना चाहता, उसको भी तू क्षात्र प्रकृति-प्रवृति के परवश होकर करेगा।[श्रीमद्भागवत गीता 18.60] Hey The son of Kunti! By virtue of your nature due to attachment-illusion, you are unwilling-not ready to fight the war; but you will be compelled by your Kshatr Dharm-duty as a warrior to fight. Individual skipping-escaping war (struggle), due to delusion (blood relation, affection, respect), does it, involuntarily under compulsion-control of habitual-natural duties.
मनुष्य में अपने पूर्व जन्म-प्रारब्ध, घर-परिवार, माता-पिता, समाज, विद्यालय, अख़बार, इंटरनेट, टी.वी, संगति आदि के माध्यम से स्वभाव का निर्माण होता है। स्वभाव में शास्त्र का पालन, बड़े-बूढ़ों, गुरुजनों की आज्ञा पालन भी आता है। (कलयुग में इनका ह्रास हो रहा है) जिन कर्मों को मनुष्य मूढ़ता वश-मोह वश करने से इंकार करता हैं, उनको भी वह स्वभाव वश करता है। अर्जुन स्वभाविक क्षात्र धर्म-कर्म के पर वश, युद्ध में प्रवृत हो जायेंगे, जिसका फल-परिणाम अर्जुन के हित में नहीं होता, ऐसा भगवान् को ज्ञात था। शास्त्र अथवा भगवान् की आज्ञा से कर्म करने पर राग, द्वेष, बन्धन टूट जाता है और यही कल्याणकारी है। इससे मनुष्य का चित्त परम शुद्ध, निर्मल हो जाता है।
Nature-habits of a person are sum total of his characters and deeds in previous births, behaviour-learning due to interaction in the family (up to 04 years, child remains free from external influences, between 04-08 years, he used to be is under the mother's impact-influence and 08-12 years, under father's influences. But this is not true these days, since the parents give tablets, laptops, mobiles to the infants to see and parents, followed by inter mixing with society-environment (friend circle, media, internet, films, peer group, school etc.). A person born in the family of warriors may hesitate to counter measures momentarily, due to respect, love, affection, age of the people, creating trouble for him for the time being, only. On being pressed too hard, he will be left with no alternative except to attack, take revenge, revolt, punish them.
By nature the HINDU is peace loving and bound by his culture & virtues, that is why barbarians, invaders, terrorists, Muslims over powered him. He should rise and face the situation and reply so that the enemy is not able to dare touch-disturb him again in future, at any point of time.
The Muslims kept cows in front of their army and the Hindus surrendered-lost. Now, the same thing is being repeated by these cowards who's great grand fathers surrendered to the invaders-Muslims by keeping women in the front row, each getting Rs. 500/= per day for this, at Shaheen Bagh, Delhi. The Supreme Court & the Police are not willing to take action against them. Let these people loose their right to stay in India & suffer.[03.03.2020]
We should counter people like Kejriwal, Mulayam, Mamta Sharad, Chandr Shekhar Rao etc. who are close to terrorists, anti nationals.
Ensure defeat of the Muslims & those who favour them in elections, if you want to survive.
His prescribed duties show him the way not to delay and to act in time. These deeds are ordered-directed by Shastr-scriptures, Saints, elderly, experienced, mature, dignitaries. Actions carried out under divine sanction are purified-sanctified and absolves the doer of sins, qualifying him for higher abodes.
Humans can improve-mould their behaviour as per the advice of saints. Carrying out of orders of parents, masters, elderly absolve him of prejudices, attachments, sins. Performances carried out according to prescribed-Varnashram Dharm, do not taint, stain, engross him. His efforts-energies, should be for the purification of his soul, for which he is quite capable and independent. He can’t block all together, but change the flow-direction of his indecent actions and gradually amend them for future.
Surrendering own self to the God, cuts the bonds of attachment-prejudices leading to automatic improvement in habits-behaviour, making him an ideal-virtuous person free from ego, pride, arrogance.
With changing times the impact of pear group, creche, nursery, the attendants-servants is more over the personality of the child. He learns all sorts of nuisance from them. He acquires bad habits and may become psychic for wants of parental care. Generally, the infants and children acquire the habits of the maid servants and other servants with whom they spend most of their time. The asses to internet, films is spoiling the children.
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥
हे अर्जुन! ईश्वर सभी प्रणियों के हृदय में रहता है और अपनी माया से शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को उनके कर्मों-स्वभाव के अनुसार भ्रमण कराता है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.61]
Hey Arjun! The supreme Soul-Almighty is present in the hearts (innerself-soul) of the all humans, animate, creature and moves them through various incarnations-abodes (worlds, universes), according to their deeds-nature, with enchantment-illusion, his illusory power.
ईश्वर सबका शासक, नियामक, भरण-पोषण करने वाला और निरपेक्ष रूप से संचालक है। वह अपनी शक्ति-माया से उन सब प्राणियों को घूमाता है, जिन्होंने शरीर को अपना मान रखा है और मैं और मेरा करते रहते हैं। मैं और मेरा पन राग-द्वेष उत्पन्न करता है। प्रारब्धवश जैसा शरीर प्राणी को मिलता है, वह वैसा-उसके अनुरूप व्यवहार करने लगता है। सज्जन मनुष्य श्रेष्ठ और दुर्जन निकृष्ट क्रियाएँ करते हैं, जो कि उन पर ही निर्भर हैं। मनुष्य को अपना आचार-व्यवहार सुधारने की पूरी आजादी है। अहंकार, मैं पन, अहंता परमात्मा से दूर करता है और प्रेम जोड़ता है। इसके परिणाम स्वरूप मनुष्य को परमात्मा का आभास ह्रदय में होता है, यद्यपि वह सारे शरीर और सब जगह व्याप्त है। परमात्मा की शरण में गया हुआ प्राणी, उससे विशेष प्रेम करने लगता है और अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।
Nothing can move without the permission-desire of the Almighty. He is the Creator-Protector and Destroyer (Brahma, Vishnu & Mahesh). Those in whom, ego is Supreme, associated with imprudence, ignorance are the ones, forced by the might of the Almighty, to undergo unending cycles of life-death, regression, rebirth, reincarnations. Human body is a mechanical device occupied by the soul to experience the reward-suffering, as per its own doings-Karm, in previous incarnations, till they vanish completely. Having escaped earlier, does not mean pardon-freedom from the reward or punishment. One is freed only when, he detaches from nature, ego, arrogance, attachments, bonds, prejudices, contaminated (wicked, vicious) deeds.
Soul is driver driving the chariot-vehicle. Without a driver no program functions in a computer.
Different species occur, exist, develop, grow or take birth, due to the differences in their nature. The creature-human being, acts as per his deeds, having impetus, urge, incitement from God.
Good or bad performances depend over the nature of the person not the God. He is free to act according to his own nature, mind (psyche, gestures, tendencies, innerself, moods, whims, caprice), heart, soul. It’s only the human being, who is capable of moulding-improving his future and nature. None of the creatures, animals, birds, Demigods, demons, giants etc., is free-empowered to improve his nature, behaviour, tendencies, temperament, destiny except the humans. The fact remains that human incarnation is superior to demigods, demons etc., who are mightier than humans.
Soul is just like the air which acquires different smells foul-pleasant, impurities, pollutants at different places but reject them at the very first opportunity.
Human body is gifted to the Soul to improve its deeds & destiny. No one should waste this opportunity. The God provide chance and freedom to work. He does not compel the individual to toe, follow, dictate, his line of action. Those, who take refuge, protection, shelter, asylum in HIM, are sympathetically, shown the divine path by the Almighty, HIMSELF.
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
हे भारत! तू सर्वभाव-सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में ही चला जा। उसकी कृपा से तू परम शान्ति (संसार से सर्वथा उपरति) को और अविनाशी परम पद-सनातन परम धाम को प्राप्त हो जायेगा।[श्रीमद्भागवत गीता 18.62]
Hey Bharat! You should solely-solemnly seek refuge in the Almighty by virtue of whose grace, kindness, mercy, you-the devotee will attain the highest, never ending-vanishing Supreme and Eternal abode.
लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर एवं शरीर और संसार में अहंता, ममता से रहित होकर एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भाव से अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेम पूर्वक निरंतर भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिन्तन करते रहना एवं भगवान् का भजन, स्मरण करते हुए ही, उनकी आज्ञा अनुसार कर्तव्य कर्मों का निःस्वार्थ भाव से केवल परमेश्वर के लिए आचरण करना, यह सब प्रकार से परमात्मा के ही शरण होना है।
शरीर से किंचित मात्र भी मैं-मेरापन न रखकर मनुष्य को ईश्वर की शरण में ही जाना चाहिए। मन से, शरीरिक क्रियाओं से, प्रेम पूर्वक, उसके प्रत्येक विधान में श्रद्धा रखते हुए उसका ध्यान करना चाहिए। इससे मनुष्य परमपद, पराशान्ति-शाश्वत पद को प्राप्त होता है। भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि अगर वे उनकी शरण में नहीं आना चाहते तो उस सर्वव्यापी परमात्मा की शरण में ही चले जाएँ, जो कि वे स्वयं हैं।
A stage comes in the life of a person, when he is extremely confused, unable to take decisions. He is not in a position to decide what, when, how to do. The wise man in such condition-situation, seek the advice of elder, experienced, mature people. If the solution does not come, he should adopt solitude, meditate and seek asylum in the God-leaving everything up to HIM.
Dependence over worldly-nature oriented perishable goods, person, incidences and situations results in utter confusion and indecisiveness. Nature in itself is a component of the God and dependent over the God. Then, why don’t rely over the God!? Concentration of mind, heart, body, soul and channelisation of efforts into the God, reciting his name again and again, continuance of prescribed duties, can ease most of the difficult situations. Difficulties, troubles, pains become boon-God gift as they force the individual to move to the Almighty to seek shelter in HIM. If remembrance of God occurs, at a time when the doer is happy, prosperous, hail & hearty; trouble will not dare touch him. If the human being remember God, the God too remember him. Confusions, tensions, troubles remind the human being of the existence of God. Seeking refuge solace-peace, under him, results in divine assistance and Ultimate abode. Neutrality to situations, pain, sorrow, grief, happiness brings the person out of confusion-leading him to the Supreme Lord, relieving him of all attachments-bonds.
The God is unborn, immortal, never ending, infinite, un-vanishing, embodied, without body The Creator, The Protector & The Destroyer. All Yagy, sacrifices, offerings, ascetics, prayers, meditations are directed in to HIM. HE lives in all creatures, through HIS component-the soul, occupying heart.
One, who does not respond to the call made by the God, finds himself in the hell. God provides opportunity to each and every one, alerts them to come to HIS refuge-fold for absolute peace and highest position-status. It’s up to the human being to say yes or ignore the call. Every wish or desire is associated with its side effects as well, so beware of them, to avoid repentance later.
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥
इस प्रकार यह गुह्य से भी गुह्यतर (गोपनीय से भी अति गोपनीय) शरणागति रूप ज्ञान मैंने तुम से कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भली-भाँति विचार कर, जैसे चाहता है, वैसे ही कर।[श्रीमद्भागवत गीता 18.63]
Having revealed, the wisdom-most confidential, intricate, complicated, secret, difficult to understand and grasp, connected with the patronage of Almighty, its left up to you-the devotee to contemplate upon it, deeply and act on the direction-advice of his inner voice-innerself.
कर्मयोग गुह्य है और अन्तर्यामी परमात्मा की शरणागति गुह्तर है। भगवान् अर्जुन से कह रहे हैं कि गुह्य से भी गुह्तर शरणागति ज्ञान और भक्ति सम्बन्धी जो भी बातें उन्होंने बताई थीं, उन पर अर्जुन सोच-विचार कर लें। अगर अर्जुन विशेषता से अत्यधिक कृपालुता की गुढ़ाभिसन्धि की बातों पर विशेषता से ध्यान देंगे, तो वे गूढ़ तत्व को समझ जायेंगे और भगवान् से (युद्ध से) विमुख नहीं होंगे। भगवान् अर्जुन को पूरा आख्यान सोच-विचार कर अपनी मर्जी से, जैसा वे उचित समझें, वैसा करने को कह रहे हैं, जिसमें उनकी दयालुता, आत्मीयता, कृपालुता और हितैषिता दृष्टि गोचर होती है। इस पूरे प्रकरण में भगवान् द्वारा अर्जुन को समझाने, डाँटने, फटकारने में प्रेम, अपनापन, विशेष, अत्यधिक कृपा, आत्मीयता दिखाई देती है। अर्जुन को यह महसूस हुआ कि भगवान् श्री कृष्ण उनका साथ छोड़ सकते हैं, तो उनको घबराहट हुई और वे दु:खी हो गए। भगवान् का तात्पर्य अर्जुन (मनुष्य) को सगुण-साकार की ओर खींचना है, ताकि वे समग्र की प्राप्ति से अधूरे न रह जायें। निराकार में साकार नहीं आता, जबकि साकार में निराकार आता है।
It’s a general tendency to avoid learning, especially higher learning. Very few people-pupils crave for advance stage of learning (especially, Ved, Puran, Upnishad, Vedant, Brahmans, Maha Bharat, Ramayan, Geeta). Extremely rare people are found to opt for the study of scriptures, literature, history and evolution. Selected few are found to visit religious places and congregations whole heartily with devotion. Both learning and religion need devotion, time, sacrifice, concentration, practice, money and meditation, which a common (ignorant, imprudent, unconcerned, illiterate) man, generally, do not undertake. Learning and studies involve, knowledge, thinking, understanding, application, skill, ability, interest, appreciation, aptitude and further advancement. Most of the people get struck with 3 R’s :- Reading, writing & arithmetic. How can one think beyond this and bread, clothing and housing, especially when most of the people in the society use just 2% of their brain?
The feeble mind, ignorant will never find-feel interested in these things. They just believe in converting humans to their fold like Islam or Christianity, then quarrel-fight and vanish, as is seen these days in Syria, Turki, Afghanistan where America and Russians (Christians) are pouring oil in burning fire. Russia is bent upon pushing the world in war by invading Ukraine. China is bent upon invading Taiwan. Pakistan is attacking India for he last 75 years. Iran is bent upon destroying Israel.
Such secrets can be revealed to only those, who are worthy, competent, capable, devoted to God and are under his shelter and not to the common masses or the people who seldom remember God or the Atheists. Even if these revelations are made before them, they are not prepared to accept them, being out of the reach of their grasping power and lack of interest.
People like Maya Wati, Communists, Seculars are busy cursing Manu Smrati and ancient treatises pertaining to Dharm-duty.
Christian Missionaries are busy converting the innocent-ignorant to Christianity but what for?! A man who could not protect himself from Crucification will he protect his followers, after his miserable death?!
The Face Book and wordpress.com have blocked my blogs due to this reason only!
Initially, Karm Yog is discussed, which is quite easy to understand and does not require stress on mind followed by Gyan Yog which needs knowledge associated with understanding and meditation, without illusion, ego-arrogance and imprudence. Bhakti Yog needs only devotion, detachment and God’s patronage. In fact Karm Yog, Gyan Yog & Bhakti Yog are inseparable and keep on going side-side, hand in hand.
In a world of opportunism, pragmatism, materialism, there is no place for idealism-ascetics. Bhakti Yog is inter woven with the essence of enchantment, inner voice, innerself, devotion, patronage of God, the training of mind, senses, sensuality, faith, relentless practice, charity and service of mankind. If, all this is not possible, just recite HIS names.
Individual having attained Bhakti, experiences closeness, intimacy, love and is under the refuge of God. For his betterment the God has revealed the most intricate and confidential secrets, so that the doer is absolved of the burden of sin and liabilities and attains Mukti (freedom from attachments, bonds, sins, liabilities) and ultimately rebirth, Bhakti and Atm Shuddhi (cleanliness, purity of mind, speech, body, heart and the Soul).
This text is not the copy right of Hindus. Anyone, anywhere anytime is free to learn, practice and attain devotion to the God, Almighty, Allah, Rab, Khuda or whatever he may call him.
सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥
संपूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय मेरे परम रहस्य युक्त वचन-सर्वोत्कृष्ट वचन को तू फिर भी सुन। तू मेरा अतिशय प्रिय मित्र-सम्बन्धी (बहन सुभद्रा का पति) है, इसलिये यह विशेष-परम हितकारक वचन मैं तुझ से कहूँगा।[श्रीमद्भागवत गीता 18.64]
The God narrated the extremely confidential and secret knowledge for the benefit of the devotee-Arjun, since the devotee is considered to be a friend and it’s for his welfare to divulge the text and confide in him.
परमात्मा का आदेश है कि उनके द्वारा प्रदत्त यह ज्ञान हर व्यक्ति के सामने कहने-प्रकट करने का नहीं है, अपितु केवल सहिष्णु और भक्त के समक्ष व्यक्त करने का है। मनुष्य धर्म की गति-व्याख्या करने में असमर्थ-अकुशल है। अतः उसे यह कार्य परमात्मा के सुपुर्द कर देना चाहिए और उसके आदेशों का पालन करना चाहिए। मनुष्य जब भगवान् की शरणा गति ग्रहण कर लेता है तो उसे पुण्य-पाप की चिंता-मीमांसा करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। क्योंकि यह ज्ञान गुह्यतम-महत्वपूर्ण है; अतः भगवान् ने इसकी पुनरावृति-व्याख्या की। जब साधक-भक्त शरण में आ जाता है, तब प्रभु स्वयं उसकी चिंता, फिक्र, देखभाल करने लगते हैं। अर्जुन ने यह पहले ही कह दिया था कि वे भगवान् की शरण में हैं।
No one ever narrated the piece of knowledge divulged by the God, for whom the welfare of devotee is supreme. What has been said is meant for the worthy devotee and a capable person. Such descriptions are not meant for those who have no faith in God or are not willing to hear them. Confidential-secret matters are discussed, with the reliable and potential person ready to accept and carry out the desired.
One can not press even his own progeny to listen to him or to follow. Mohammad was the son of a Brahman priest worshiping Bhagwan Shiv but he turned out to a vagabond and did not listen to reason and later become the founder of Muslim-Islam sect, the worst ever, anti humanity barbarian & anti religion. Daya Nand who was Mool Shankar, too could not understand the logic behind idol worship and became the founder of Ary Samaj. At present at least 543 branches of Islam are there and each of them is busy spreading hate and killing, murdering, raping innocent, abducting women and performing all sorts of anti social activities in the name of Jihad including terrorism. Let them first understand the meaning of Religion. Their end will come just like those 1,25,000 Indonesian Muslims who were negotiating for their own women, daughters, sisters for prostitution and engulfed by tsunami.
Attempt has been made to elaborate and make the concept more clear, since it has been said earlier as well, though masked, when asked to impart knowledge as a disciple pertaining to duties of a devotee. It’s not essential to be admitted under patronage of the master. He always tests, whether one deserves to be a protected person or he has the calibre to understand as a follower or not-he has the potential to do as directed or not. A teacher is true friend, philosopher and guide. Since, one has qualified himself as a friend-proved his potential and might, he is righteous to seek, accept and realise the desired.
The God is always under the control of devotee. God always gives him more importance as compared to the deities. The Almighty has vowed to protect the ones who come under his refuge, asylum, shelter, protection with pure heart. Either way, the devotee is always benefited. None except the God gives top priority to the welfare of the devotee. It’s only the God who is stable and capable of stabilising the devotee. It’s only HE, who provides refuge and treats the devotee as a friend as well.
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
हे अर्जुन! तू मुझ में मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझ को प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझ से सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.65]
Hey Arjun! This is my true and solemn promise made to you-the devotee, who worships, offers obeisance and has fixed his mind in ME-the Almighty, to accept you-him being dear, in MY-HIS abode.
साधक को चाहिए कि वह अहंता (मैं पन) से मुक्ति प्राप्त करे। अपितु यह ध्यान करे कि मैं भगवान् का हूँ। इससे उसका मन प्रभु के गुण, लीला, प्रभाव का चिंतन करेगा और भगवत्नाम, जप में लगेगा। जैसे-जैसे भक्त का भगवान् में मन दृढ़तापूर्वक लगेगा त्यों-त्यों, उसमें सेवा-भाव, पूजा-अर्चना की वृद्धि होगी। पूरी तरह से समर्पण का भाव आने से भगवान् उसको अपना लेंगे। वह परम शुद्ध हो जायेगा। उसका प्रकृति से सम्बन्ध टूट जायेगा और वह मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ हो जायेगा।
The Devotee, who got rid of his ego-arrogance, dropped his allegiance with the perishable world, finds belongingness and love for the God, in his innerself. He begins with chanting the names-titles of God, which illustrate various actions-performances of the God, to relieve the mankind of the pains, troubles and difficulties. The God vows, promises and grants highest abodes to the devotee, who offers him prayers-thinks of HIM-chants HIS names-glory.
The devotee has to set his mind in the God. As one thinks, so he becomes (As you sow, so shall you reap). Concentration of mind and meditation, absolves him of sins and awards austerity. Paying of obeisance, initiates rapport with the Almighty, which gradually grow. He penetrates the reason behind the happenings, occurrences, birth, rebirth. His intimacy, closeness, friendship with the God grows and metamorphosis takes place. He realises that difficulties, challenges, pains, grief are there to cleanse him of the sins and inauspicious deeds, leading him to extreme-absolute purification and piousness of mind, body, speech, action and soul.
The soul of the creature-devotee belongs to the Supreme soul. It’s utter most endeavour of the Almighty to purify the soul, which has under gone 84,00,000 incarnations in different species & is still suffering due to his ignorance. God’s love for the devotee, starts guiding him towards spirituality and attainment of the God HIMSELF.
With his birth, one start developing allegiance to perishable worldly possessions, in the always changing world, pushes him away from the Almighty, who loves him the most. Realisation of his mistake and reconciliation, opens opportunities of Supreme pleasure and love.
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
संपूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर (संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझ में त्याग-समर्पण कर) तू केवल मेरी (मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर) शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, तू चिंता-शोक मत कर।[श्रीमद्भागवत गीता 18.66]
To bring the devotee out of confusion, the Almighty asserts that he should immerse all his prescribed, ordained, Varnashram duties in HIM and come to HIS fore, refuge, shelter, asylum and that HE will take care of the devotee, asks him not to worry, bother, grieve as, HE will liberate, relieve him of all sins.
जब व्यक्ति किंकर्तव्य विमूढ़ हो कुछ सुझाई न दे रहा, बुद्धि कुंठित हो जाये, हो तो उसे स्वयं को परमात्मा की शरण में अर्पित कर देना चाहिये। वर्णाश्रम धर्म-कर्तव्य कर्म का त्याग स्वरूप से करने के लिये नहीं कहा गया है। धर्म-कर्तव्य का निर्धारण भगवान् के विचार का विषय है, मनुष्य का नहीं। मनुष्य यदि अनेकों लोगों से सलाह-मशवरा करेगा तो वो उसे अलग-अलग तरह की सलाह देेंगे और वो अनिर्णय की स्थिति में आ जायेगा। भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग में मुख्य साधन शरणागति है। मनुष्य की बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ, विचार शरीर सभी कुछ प्रभु के अधीन होने पर पाप-भटकाव का डर नहीं रहता। वह निर्भय, नि:शोक, निश्चिंत, निःशंक हो जाता है। उसे चाहिए कि वह इस बात की परीक्षा न करे कि उसके अन्दर क्या परिवर्तन हुआ और न ही ऐसी कोई धारणा बनाये कि वह भगवान् का नहीं है। इनसे उसे अनन्त रस की प्राप्ति होगी जो कि केवल शरणागति से ही संभव है।
Confusion forces the individual to seek advice and protection from the ones, who are superior (experienced, mature, enlightened) to him, who assure him to forget everything and get relieved. When a person fails to decide, what is right and what is wrong or what to do what not to do, it’s better for him to either surrender to the situation or the God. He may survive the situation, but surrender to God will ensures protection, added with well being.
Dharm-Religion i.e., Varnashram Dharm is synonym to duties assigned to a person by the God. Some of them are part of his natural tendencies, while the others are meant for his survival. No one is advised to give up work (endeavours, earning, spending, donation etc.). Rejection of prescribed, Varnashram duties, work-labour for survival leads to nowhere. It’s not possible to be without work, since the body, organs, senses, mind, heart never rests, they continue working till the bearer is alive. Excellence is attained by controlling senses, sensuality, righteous duties, essential functions. Carrying out of duties, does not create bonds, as it’s obligatory to perform them, both for humans and Demigods-deities, for well being-welfare. Continuance of work (both prescribed & mandatory duties) till the last breath, relives the person of the sins. One should not be selfish; he should work for his family, society, country & the world-humanity as a whole.
अयं बन्धुरयं नेतिगणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।[महोपनिषद्, 4.71]
Nature perpetuates due to performance of duties, which ultimately leads to Salvation, if made without attachment. Wise people too work-perform their duties unlike ignorant people. The wise should get work accomplished by the ignorant people, properly.
The Almighty assures the confused devotee, that offering, immersing, submission of deeds in HIM, will absolve him of all responsibilities, as the God HIMSELF has taken over possession, of them for accomplishment. The one who submits himself-surrenders, with all his deeds, ensures his liberation, since the God HIMSELF is goal, as well as means. Whatever, deficiency remains, will be compensated by the God, HIMSELF for the weaknesses of the devotee. Refuge under the God, provides infinite divine elixir of love-pleasure, BLISS that’s why it is the excellent-best possible means to Salvation."वसुधैव कुटुम्बकम्" सनातन धर्म का मूल मंत्र, संस्कार तथा विचारधारा है; जो महा उपनिषद सहित कई ग्रन्थों में लिपि बद्ध है। इसका अर्थ है :- धरती ही परिवार है (वसुधा एव कुटुम्बकम्)।
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥
तुझे यह सर्व गुह्यतम, अत्यन्त गोपनीय, रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में अतपस्वी-तपरहित, अभक्त, जो सुनना नहीं चाहता तथा जो परमात्मा में दोष दृष्टि रखता है, को भी नहीं कहना-सुनाना चाहिये।[श्रीमद्भागवत गीता 18.67] (वेद, शास्त्र, परमेश्वर, महात्मा और गुरुजनों में श्रद्धा, प्रेम और आदर का भाव भक्ति का द्योतक है)
This most confidential, intricate, text-doctrine pertaining to refuge in God, should not be discussed, divulged, revealed, disclosed to one, who is devoid of austerities, non ascetic, non austere, atheist-non devoted, to those who do not want to listen and to those who find faults in God (envious-prejudiced of HIM) at any period of time i.e., the ones who are not entitled, authorised, capable, deserving.
इस ज्ञान को गुह्यतम, गोपनीय, रहस्यमय माना गया है, क्योंकि यह गूढ़ और आसानी से समझ में आने वाला नहीं है। पात्रता की बात इसलिए कही गयी है, क्योंकि ग्रहण करने वाले में क्षमता, बुद्धि, विद्वता, विवेक, अभ्यास अनिवार्य है अन्यथा वह अर्थ का अनर्थ कर देगा।
जो व्यक्ति तपस्वी-सहनशील-सहिष्णु नहीं है अर्थात जो विपरीत परिस्थिति-कष्ट सहने की क्षमता से रहित है, वह इस ज्ञान का अधिकारी नहीं है। राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख, मान-अपमान, निंदा-स्तुति, काम, क्रोध, मद, लोभ, द्वेष आदि के वेगों से रहित, दूसरों की महिमा सुनकर अपने मत में सन्देह न करने-उद्विघ्न न होने वाला, अपने में योग्यता, अधिकार, पद, त्याग, तपस्या आदि में कमी हो, तो भी दूसरों की योग्यता, अधिकार आदि की प्रशंसा सुनकर, अपने में विकार उत्पन्न न करने वाला सहिष्णु है। अतः परमात्मा भक्त को कहते हैं कि वह उनकी शरण में आ जाये, ताकि अगर ऐसा कुछ हो भी तो वे उसे सुधार लें, भक्त का पतन न हो। अब यह मानना कि मैं तो शरणागत हूँ, मैं चिंता क्यों करूँ; अब तो सब कुछ भगवान् ही देखेंगे, भी पूर्ण तया गलत-मूर्खतापूर्ण है और ऐसे सोचने वाला कुपात्र माना जायेगा। जो व्यक्ति श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, आस्था-निष्ठां, प्रेम से रहित है, वो भी सुपात्र नहीं है। जो इसके सुनने-सुनाने में रूचि नहीं रखता, दोष निकालता है, तिरस्कार करता है, वह भी इसका अधिकारी नहीं है।
एक बात तो निश्चित और स्पष्ट है कि किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, आस्था को मानने वाला क्यों न हो, अगर वो इसे पढ़ता, समझता, अमल में लाता है, तो उसका कल्याण भी निश्चित ही है। इस ज्ञान का प्रकाश कलियुग में पथ प्रदर्शक सूर्य के समान है।
Adverse situations, difficulties arise, while discharging duties. Those who are not disturbed by them, maintain their cool and tolerate them, are rich in penance, are ascetic, become pious by overcoming-facing such situations, boldly are capable to accept it.
One who is intolerant, suffers from attachments, prejudices, grief, pleasure, comforts, pain, sorrow, abuse, criticism, request-prayer; fails to control sex, lust, lasciviousness, anger, greed, envy-prejudice; doubts his own judgements-opinions and is disturbed by the opinion of others; lets defects creep in his personality by other's potency, qualifications, ability, position, might, power, ascetic fervour, donations, charity, capabilities, qualities; will lead to down fall by the disrespect, anti divine attitude, growth of defects, as a reaction to the refuge in divinity.
Those who do not wish to purify, update, cleanse their morale, feelings, aptitude, behaviour, will presume that they are free to become vagabonds, cruel, notorious, torturous, just by subjecting themselves to God, will sow seeds of disaster and will become liability for the divinity.
There are the people, who do not have faith in God and HIS systems, may consider the God to be selfish, out spoken-self centred or the one who can’t do good of others. Creation of such ill-will, will dethrone them-sending them to hell. Non deserving, unwilling, disinterested, faithless listener, will react the other way round, which in itself is a crime. He can’t gain from this text. Let him be like that. The person who finds fault with others, has a poisoned brain, his innerself is dark, he will malign God for blasphemy, short sightedness too deserve to be prohibited from this text. Those who suffer from id, ego, super ego, imprudence, ignorance, proud should be avoided for such discussions, discourses, for their own sake benefit-welfare in their interest, only.
Even after subjecting himself to Almighty’s refuge, openness to good ideas, attitude, intentions purity of thoughts, worship helps-detaches the person from vices, sins, defects, sending him to higher abodes.
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥
जो व्यक्ति मुझ में परा भक्ति-परम प्रेम करके इस परम गोपनीय-रहस्य युक्त संवाद-गीता शास्त्र को मेरे भक्तों को सुनायेगा-समझायेगा, वह मुझ को ही प्राप्त होगा-इसमें कोई संदेह नहीं है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.68]
One with Supreme devotion and extreme love for the God, who reveals-narrates this most confidential, intricate, sacred-ultimate conversation-piece of knowledge, enlightenment, to the devotees of the God, will ultimately assimilate, merge in the Almighty, the Supreme Soul, i.e., will be blessed with Salvation, Liberation, emancipation, Assimilation, in the Almighty.
यह ऐसा ज्ञान है, जिसको सामान्य व्यक्ति सुनने-समझने की इच्छा नहीं रखता। जबर्दस्ती किसी को कुछ भी पढ़ाया-समझाया नहीं जा सकता। जो व्यक्ति इसे भक्ति भाव से इसे पढ़ने, समझने, उपयोग करने की इच्छा रखता हो, उसे यह ज्ञान अवश्य ही प्रदान करना चाहिये। अगर कहीं कथा-श्रवण चल रहा हो और उसमें कोई अश्रद्धालु भी आकर बैठ जाये तो भी कथा-प्रकरण चालू रहना चाहिये। राजा बाहुबली पूर्वजन्म में इसी प्रकार शुद्धि के मार्ग पर आरूढ़ हुए थे। इस ज्ञान को प्राप्त करने से किसी को रोकना उचित नहीं है। कलियुग में मोक्ष का द्वार खोलने में यह सक्षम है।
One who has inclination for the welfare of the people-is a devotee of the God, analyse, explains, clear the doubts, help in grasping the massage-the verses recited by the God, to the people, relieves the masses of their grief, sorrow, pain, with supreme devotion and love; enhance-boosts his divinity. This process identifies the devotee with Brahm-the Creator and the Divinity. Recollection of his connection with the Supreme Soul, from the time immemorial, reappears in his innerself. Emergence of divinity rejects his craze for appreciation, felicitations, respect, honours, praise etc.
Devotee has to be eager to listening, reading, learning, understanding, practicing, utilising-analysing the text. Readiness for deep thinking, penetration, understanding, meditation by the devotee, too are required. The narrator should explain in depth, without being disturbed by the presence of non devotees, atheist, non believer or the ones who comes and attends the conversation should be allowed to continue sitting & listening. Devotee's mind should be centred in the Almighty during the discourse-preaching.
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मा दन्यः प्रियतरो भुवि॥
उसके समान मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वी पर उससे बढ़कर मेरा दूसरा कोई प्रियतर होगा भी नहीं।[श्रीमद्भागवत गीता 18.69]
One who narrates, delivers, reveals this sacred divine conversation–message of refuge, to those who are eager-desirous to listen-understand and accept; in God with submission of deeds, is dearer to the Almighty amongest all the human beings, on this earth at present and future as well.
पराभाक्ति के अंतर्गत वही आ सकता है, जिसको लौकिक-पारलौकिक प्राकृत पदार्थों की महत्ता, लिप्सा या आवश्यकता नहीं है। उसे मान, बड़ाई, तारीफ की इच्छा-स्वार्थ कतई नहीं है। व्यक्ति वह उपाय करे जिनसे अधिक से अधिक मनुष्य और समाज लाभान्वित हो। इस उपदेश को देश, आश्रम, अवस्था, क्रिया का समाज के हित में परिमार्जन करने के हेतु प्रयोग करने के लिए आग्रह किया गया है। वाचक इसे उन्हीं लोगों के समक्ष प्रस्तुत करे, जिनको इसमें रूचि, आग्रह, निवेदन है। जो व्यक्ति भगवान् को प्यारा है, उसे कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्ति योग तीनों ही प्राप्त हो जाते हैं।
Human beings subjected to hardships, often find out such people in whom they can confide-who not only provides them solace-support, but pulls them out of trouble as well, though very rare. Help extended with the expectation of appreciation, honours, awards, rewards, returns, nullifies the impact of the good deed. Such helping hands avoid publicity and wish to remain unidentified-anonymous, under the impact of divinity-divine messages. They may inspire others to follow course, though secretly.
Welfare means for the genuine needy are loved by the God. Secret help, charity, donations make these people dear to the God. They become dearer by praising, practicing, submission of all deeds in the feet of the Almighty.
Indiscriminate help should be made-without differentiation of caste, creed, language, religion, community, place of birth, country to the deserving-genuine user, needy. However, it must be ascertained that the help is provided to genuine person and it reaches him and the dolls-help will not be misused-wasted or used for evil purposes-against the community, humanity.
The human being can keep himself unattached, in spite of being surrounded by all sorts of comforts, luxuries, honours, vices, prejudices, just by making use of prudence, rejecting arrogance, annoyance, anxieties, nervousness, rivalry, enmity, hatred etc., just like the tongue surrounded by 32 teeth.
Films, television-serials, books, stage, news papers, magazines, do give publicity to the message-conversation of the Almighty. This message has been spread far and wide and translated into almost every language of the world. The motive here, in some cases, appears to be translation of the sacred text, into money-not the service of mankind or social welfare.
Certain people adopt the role of God fathers, God man-mafia for a section, sect, segment of society. They help one section of society by harming the others, often they harm, torture, trouble, tease the down to earth respectable people or even one under dire circumstances-need. How so ever high or mighty they may become-their down fall and movement to hells, is certain-emmittent.
People are found around arranging discourses, conventions, seminars, camps, divine missions, Yog centres, lectures, art of living, enjoyment, pleasure, God’s mercy (Krapa), meditation centres etc. and what not!, are nothing more than business men, business houses, earning impious-unjust money and reserving their seat in the hells, since they are just making fun-mockery of religion and divine message, along with divinity.
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥18.70॥
जो व्यक्ति हम दोनों के इस धर्ममय संवाद (गीता शास्त्र) का अध्ययन करेगा उसके द्वारा भी मैं ज्ञान यज्ञ से पूजित होऊँगा-ऐसा मेरा वायदा है।
The Almighty has assured-promised that anyone, who studies this pious, righteous, sacred, holy text, would have worshipped him, through Gyan Yog, the holy sacrifice of wisdom and knowledge, enlightenment.
यह संवाद धर्ममय विलक्षण तथा अलौकिक; शास्त्रों, सिद्धान्तों के साररूप है। जब मनुष्य परेशान, दुःखी संकट ग्रस्त होता है, तब वह समस्या का समाधान प्राप्त करने के लिये साधन, उपयुक्त व्यक्ति ढूँढता है और ऐसा व्यक्ति मिलने पर अपनी उत्कण्ठा-जिज्ञासा व्यक्त करता है। अर्जुन की उत्कण्ठा का हल एक साधारण मनुष्य की समस्या का समाधान है। जैसे-जैसे कोई शंकालु इसे पढ़ेगा, समझेगा, आचरण में लायेगा, अन्यानेक भक्ति भाव रखने वाले साधकों को इसे स्पष्ट करेगा, उसका और श्रद्धालुओं का कल्याण होता जायेगा। इस संवादरूपी अमृत का अध्ययन भगवान् की पूजा-अर्चना ही है, यह मानकर चलना चाहिये। यह वस्तुतः ज्ञान यज्ञ है। भगवान् ने ज्ञान यज्ञ को द्रव्य मय यज्ञ से भी श्रेष्ठ माना है।
इसके पाठ को सुनते ही परमात्मा श्री कृष्ण के हृदय में विशेषता से ज्ञान, प्रेम, दया आदि का प्रवाह होने लगता है और गीतोपदेश की याद में वे सराबोर हो गये। भक्त तो महज पाठ करता है, मगर भगवान् उससे पूजित हो जाते हैं, यानि उसे ज्ञान यज्ञ का फल मिल जाता है।
This conversation constitutes of the nectar (elixir, extract, theme, central idea, concept) of scriptures, religious, principles, philosophy. Opportunity for such conversation occurs, with the consent and desire of the divinity, which is extremely rare.
Boredom, disenchantment, restlessness, indecisiveness, eagerness, keenness, quarries in the life of a person results in curiosities-inquisitiveness, behind these. A person is ready, willing, prepared, to discharge his duty but he is unable to find ways, means, solutions, for his welfare. He loses interest in the people, situation, opportunities and conditions around him, just to find answers to his quarries, difficulties, doubts, tensions. He traces and focuses, on all possible means, persons around him for guidance, may discover one. Having found one, who can satisfy his curiosity, he prays to him-explains to him-opens his heart, takes refuge in him and becomes his follower-disciple.
The disturbed person is eager with tormented desire and keenness. His mind is filled with astonishing, strange, extra ordinary questions, resulting in peculiar, remarkable, solutions, answers, replies from the enlightened person, speaker, preacher.
This conversation titled Geeta is remarkable treatise, since it contains the extract, nectar, gist, theme, central idea, basics of Ved, Puran, Upnishad and the true version-explanation of what the Almighty mean-said, since every one offers different explanation to the sacred texts, as per his own ability, wisdom-bent of mind, which may be twisted and incorrect.
Bearing the true opinion of the God in heart, the devotee can easily attain the goal of his birth (freedom from vicious cycles of birth and death, reincarnations) as a human being. He is not disturbed by the worst possible, adverse situations, respects them, faces them, bear them with smile-utilise this opportunity, rejects the desire for favourable conditions, since the adverse has happened to cure the sins already committed by him. It arises to prepare the devotee not to expect favourable conditions in future. More he desires for favourable conditions-more difficult the situation become. This sacred text will eliminate desire and attachment for favours and remove the threat-fear of the adverse, leading to equanimity-the true Yog.
Reading writing, learning, assimilation, remembering, practice, bearing the deep meaning, thoughts, theme, central idea, will grow curiosity, understanding, wisdom, more understanding, more solutions, more clarity, removal of doubts, increasing interest, utilisation in life-reflection in behaviour, manners, attitude expressions of the practitioner.
The in depth thinking-allows the devotee to think-grasp the central idea-theme, the real-true knowledge and wisdom. He is filled with piousness, pity, love, pleasure in his mode of living-life style.
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुया दपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान् प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥18.71॥
श्रद्धावान और दोष दृष्टि से रहित जो मनुष्य इस गीता शास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी मनुष्य शरीर छूटने पर पुण्य कार्य कर्ताओं के शुभ, अक्षय, श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा।
Person who has faith in God and who do not find fault with others, will attain higher abodes of the pious people, just by reading-listening to the sacred text of Shri Mad Bhagwat Geeta narrated by the Almighty Shri Krashn to his friend, associate, incarnation, follower, Arjun-Nar, after his death. श्रद्धावान मनुष्य इस हितोपदेश को सुन भी ले तो वह पुण्यकारी शुभ लोकों का अधिकारी हो जाता है। इसका निष्काम भाव से गान करने वाला, पढ़ने वाला, अध्ययन करने वाला भी उच्च लोकों का अधिकारी हो जाता है। यह माना जाता है कि गीता को घर में रखना भी शुभ फलकारी है। ऐसे अनगिनित लोग हैं, जिनको संस्कृत भाषा का ज्ञान नहीं है, फिर भी वे इसका हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद पढ़कर ही पुण्य अर्जन कर लेते हैं। इसका विश्व की लगभग समस्त भाषों में अनुवाद हो चुका है और उसमें भी अनगिनित अशुद्धियाँ हैं। इन अशुद्धियों के बावजूद यह शुभ फलदायी है। भगवान् भाव देखते हैं भाषा या अशुद्धि नहीं।
One who just heard, listened the sacred-holy divine text, who do not search, trace, find faults with others can attain higher abodes-what to talk of those who studied, understood, grasped and benefited others through convention, personally, by preaching, explaining, unfolding the secrets-mysteries, of the text, free-without charging fee, anything in return.
Human being, the orator, the one, who speaks, talks, explains, may suffer from inborn defects. He himself may not be clear-certain, of what is being said, spoken by him. He may be under the illusion of being perfect. One who speaks has to be clear, cautious, careful, alert with respect to the subject. He should be free from laziness, neglect, neutrality and carelessness. He should be ready, prompt to make the text extremely clear to the best of his ability, knowledge and capability, as far as possible. Greed, desire for money-wealth, honours, praise, respect, comforts, enjoyment, pleasure, worldly-divine favours in return for his lectures, should not touch or intoxicate his brain.
He should possess the ability to control-balance, his senses, sensuality, mind, intelligence, speech, while speaking in front of audiences. Vyas-the person, who narrates, explains, give replies to the questions-quarries of the devotees, should pray to Goddess Maa Bhagwati Saraswati, Shri Ganesh and Bhagwan Ved Vyas before starting the lecture-sermon on this divine text-gospel.
GOSPEL :: सिद्धान्त, सुसमाचार, इंजील, ईसाई धर्म, ईसा चरित, सुवार्ता, सुविशेष धर्म सिद्धान्त, सत्यता, सिद्धांत।
His seat must be lower than the images, idols, statues of the deities, Gods, Goddesses, Demigods and the Almighty, at the place of convention.
Listeners, followers, devotees, respect, touch the feet of the Vyas-narrator. He should not feel proud-intoxicated by such acts, since the honour is meant for the God and not him personally, being just a medium only.
The visitors, listeners devotees should offer flowers, garlands, fruits, sweets, milk, cloths, valuables and money to pay back and keep the Vyas free from financial worries, so that he concentrates in the divine discourses and social welfare.
It is believed that the presence of Geeta in the house has preservative, protective, curative effects on the inhabitants.
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनंजय॥18.72॥
हे पार्थ! क्या इस (गीता शास्त्र) को तूने एकाग्र चित्त से श्रवण किया? और हे धनञ्जय! क्या तेरा अज्ञान जनित मोह नष्ट हो गया?
O Parth! Did you listen to this treatise with devotion, attention-concentration of mind and O Dhananjay! Your delusion-illusion due to ignorance, lack of knowledge been lost or not?!
जो भी व्यक्ति श्रद्धा पूर्वक दोष दृष्टि से रहित, ध्यान पूर्वक गीता के इस उपदेश को पढ़ता, सुनता, समझता है, उसका मोह, अज्ञान, बन्धन मिट जाता है। यह लौकिक और पारलौकिक दोनों ही मार्गों का सहायक-पथ प्रदर्शक है। यही तत्व ज्ञान है।
Who so ever studies-go through this holy text, may find that the text does not suit his life style-it’s different from what is happening all around, these days. It’s different from what has been studied, taught, understood, experienced-seen, observed by him. He may find that it’s contradictory to his way of life, philosophy, ideology, psychology, sociology. In the preliminary, first reading; doubts may strike the mind, the innerself-consciousness, of the reader, but they will not last long. As soon as the learner goes deep, in depth, penetrates the core idea, theme, the inter woven links, will become clear one by one, one after another, automatically.
Vyas, the preacher-narrator may question the audience and reply to their questions in brief or detail as per the need, time limit and the situation, systematically. But he should not deviate from the main text-point at the moment. Both the Vyas and the listener have to restraint, discipline, control, tame themselves and show patience and respect to quarries. One should not jump to conclusions. If need be, other learned scholars may be consulted-invited. Satisfaction will come automatically, in the innerself, with the quench of thirst-clarity of vision, a ray of hope, enlightenment, will appear, which the learner will realise himself, in his innerself (mind, heart & soul).
अर्जुन उवाच ::
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥18.73॥
अर्जुन बोले, "हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा"।
Arjun said Hey Achyut! Due to your mercy, grace, kindness, my ignorance (illusion, misunderstanding, imprudence) has been lost & I have regained my memory of the previous births (which describes the gist, elixir, nectar of enlightenment), along with mental stability, my doubts are over (clear, lost, vanished) and I surrender-present myself to YOUR divine dictates, orders, commands.
भगवान् के अच्युत सम्बोधन इसलिए है, क्योंकि जीव तो च्युत-अपने स्वरूप भगवान् से विमुख हो जाता है, परन्तु वे कभी उससे अलग नहीं होते। वे आदि, मध्य और वर्तमान या अन्त में भी एक रस बने रहेंगे। अब अर्जुन ने कहा कि उनका मोह नष्ट हो गया है और उन्हें तत्व की अनादि स्मृति प्राप्त हो गई है। तत्व की विस्मृति नहीं होती, अपितु विमुखता होती है। उन्होंने कहा कि उन्हें स्मृति भगवद्कृपा से ही उपलब्ध हुई है। मोह से स्मृति का नाश होता है। स्मृति नष्ट होने से बुद्धि का नाश होता है, जो कि पतन का कारण बनता है।
The creature might divert himself away from the God, but the Almighty never forgets him. All activities, deeds, good or bad are under the lens. The Almighty always reminds the animate of his presence, powers, association, with him.
The devotee who studies, learns, meditates this text, recovers his memory of several previous births-his good or bad deeds, rewards and punishments, heaven or hell, which stabilises him, helps him in losing illusion. Loss of illusion helps in clearing doubts-making his vision even more clear. Once, this state is reached, he unequivocally accepts the divine refuge and submits himself to the divine dictates, orders, commands, desire.
Recollection of the memory of previous births, energies-revokes the prudence of the devotee. He becomes capable of understanding, finding and analysing the reasons of his present birth. He has been going up and down, high and low, from one extreme to another, of pains and pleasures, in repeated births, like the game of snake & ladder. He might have acquired the knowledge of the Supreme, he might have penetrated the worldly and divine mysteries. He might have attained closeness with the God in form, shape, abode, nearness, association. He might be an icon of spirituality and along with this comes the realisation of the reasons-causes for their loss-disgrace.
In fact, he has no identity of his own except that, he is a soul, as a component, of the Supreme Soul and he has to merge-assimilate himself in the Almighty only, ultimately.
सञ्जय उवाच ::
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौष मद्भुतं रोमहर्षणम्॥18.74॥
संजय बोले :- इस प्रकार मैंने भगवान् श्री वासुदेव कृष्ण और प्रथानन्दन महात्मा अर्जुन के इस रोमान्चित करने वाले अद्भुत रहस्य युक्त संवाद को सुना।
Sanjay said :- Thus I, have been able to asses, witness, learn, peep into this divine (wonderful, thrilling, enchanting, ecstatic, exiting), gospel-wonderful dialogue, revealing the divine mysteries, between the Almighty Bhagvan Shri Krashn-Vasudev and the sage Arjun-Parth.
यह संवाद-वार्तालाप अत्यंत अद्भुत, विलक्षण और हर्ष से रोमांचित करने वाला है। संसार से निवृति के लिए मनुष्य का पारमार्थिक मार्ग पर चलने के लिए कोई भी स्थिति, अवस्था, धटना, काल, देश क्यों न हो कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। आसक्ति, बन्धन, राग-द्वेष, मिटाने में परमार्थ हेतु मनुष्य का अपना कर्तव्य करना मात्र ही पर्याप्त है। अर्जुन को महात्मा कहना उचित ही है, क्योंकि इस सम्भाषण के बाद उनका मोह भंग हो गया।
This text is wonderful and thrilling because it exposes the capabilities of the human brain. Everything has been explained in a very systematic and precise manner. Effort has been made to diagnose the root cause of birth-rebirth. Stress has been laid over the potentialities (capabilities, resourcefulness, treasure trove) possessed by the soul, which is masked, hidden, unused and concealed. It has been illustrated that the individual can utilise this text, for his betterment and Salvation. Having read, understood & followed the text, the devotee can shape his life-destiny, so as to attain Ultimate pleasure, Bliss-Parmanand.
Presence of such people in & around, near, evolve happiness automatically. They give direction and relief to the suffering masses.
व्यासप्रसादाच्छ्रुत वानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात् साक्षात्कथयतः स्वयम्॥18.75॥
भगवान् वेद व्यास जी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर मैंने स्वयं इस परम गोपनीय योग (गीता) को अर्जुन से कहते हुए साक्षात् योगेश्वर भगवान् श्री कृष्ण से सुना।
By the grace of Bhagwan Ved Vyas (the sage and incarnation of God), who gifted divine power to visualise-see, the battle field, sitting far away from the scene of war, I (Sanjay-the chariot driver & a minister of king Dhrastrastr), could see, hear & narrate, the secrets-mysteries of Geeta, directly to the king as spoken by Bhagwan Shri Krishan to Arjun.
समस्त योगों में श्रेष्ठ और गोपनीय गीता शास्त्र योग शास्त्र है, जिसे संजय ने भगवान् वेद व्यास की कृपा से सुना और धृतराष्ट्र को सुनाया। उन्होंने कहा के यह संवाद मैंने परम्परा से नहीं अपितु स्वयं भगवान् को स्वयं कहते सुना।
योग की विविध विधाओं में कर्म, ज्ञान, भक्ति और ध्यान योग आदि-आदि हैं, जिनका प्रयोग करके प्राणी-मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। बस केवल संकल्प-दृढ़ निश्चय और अथक प्रयास की आवश्यकता है।
Bhagwan Shri Krashn is recognized as Yogeshwer-Almighty. Yog stands for addition, summation, assimilation in God. Karm Yog, Gyan Yog, Bhakti Yog, Dhyan Yog are various means-modes to reach and assimilate in HIM forever. Bhagwan Ved Vyas and his son Suk Dev Ji Maha Raj are considered to be incarnations of the God (Bhagwan), who possessed divine-super natural powers. Maha Bharat and other holy books, scriptures, Shashtr narrated by him and scripted by Shri Ganesh Ji Maha Raj are sufficient to prove this belief.
The conversation between the Almighty and Arjun (Nar) was heard by Gods (Bhagwan Brahma, Vishnu & Mahesh), Goddesses, Demigods-Deities, Sages and various worthy persons including Bhagwan Ved Vyas.
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः॥18.76॥
हे राजन! भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।
Who so ever, has heard, learnt, understood, this divine-doctrine, which is pious, holy, wonderful, mystic-divine, pertaining to the welfare of the human being remembering it, rejoicing it, again and again, finds the Ultimate Pleasure-Bliss (Permanand) in it.
यह अलौकिक, विलक्षण संवाद है जिसमें रहस्य व्याप्त है। इसके द्वारा घोर से घोर युद्ध करते हुए भी पारमार्थिक सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। इसके माध्यम से मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में अपना कल्याण-उद्धार कर सकता है। इस अलौकिक अटलयोग की महिमा अपरंपार है। इसका तत्व ज्ञान हरेक वर्ण, जाति, वर्ग, आश्रम, सम्प्रदाय, वय के मनुष्य का कल्याण करने में समर्थ है।
Priorities of human beings, begins with Dharm-carrying out prescribed, essential, personal, social, religious, national duties-sacrifices. Arth-earning money to back up self, family, society, donations, charity, sacrifices, nation etc., as means of living by a person. Kam is sexual need-desire possessed and satisfied by each and every creature, in almost every species and every birth. Moksh is Salvation-assimilation in God, liberation, emancipation, freedom from birth-rebirth, reincarnations. Mukti is freedom from desires, attachments, vices, sins, evils. Bhakti is worship of the God-the wise do not crave for Salvation, his sole-solemn desire is God worship. Permanand-bliss is the Ultimate-Divine pleasure, which can be attained with, through the human body only.
Arjun listened and modified his behaviour but Dhratrashtr continued with his basic instincts.
Russia preferred to ban it and is now engaged in useless tyranny in Ukraine.
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः॥18.77॥
हे राजन्! श्रीहरि (जिसका स्मरण करने से पापों का नाश होता है, उसका नाम 'हरि' है) के उस अत्यंत विलक्षण विराट रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।
The Ultimate Virat Swroop (Unending Extreme Ultimate Shape, Exposure), of the Almighty is wonderful and repeatedly rejoicing, thrilling, exciting, gives pleasure to the one, who is lucky enough of having availed this opportunity with devotion.
भगवान् श्री कृष्ण का विराट रूप अत्यन्त अद्भुत है। उन्हें महायोगेश्वर कहा गया है। श्री हरी ने रामावतार में माँ कौशल्या को, कृष्णावतार में माँ यशोदा को और कौरवों के दरबार में अपने विराट रूप का प्रदर्शन किया था, परन्तु दाढ़ों से युक्त रूप केवल कुरुक्षेत्र में अर्जुन को दिखाया। यहाँ यह समझने वाली बात यह है कि दुर्भावना ग्रस्त लोगों को उनका दर्शन करके भी मुक्ति प्राप्त नहीं हुई। यही स्थिति रामावतार में राक्षस सेना के साथ हुई। "जाकी रही भवन जैसी प्रभु मूरत देखि तीन तैसी"।
One can read the text again and again but it may not be possible for him to see the God. What was seen by Arjun and others, was just a fragment of the Almighty. Before that, HIS broad unending Swroop-exposure was seen by Maa Kaushalya in Ramavtar, Maa Yashoda and the courtiers of Dhrastrastr. The opportunity came to hundreds of people-but they could not be benefited because of burden of sins and lack of Bhakti in their hearts.
Divy Drashti (Super vision, divine vision, insight, far sightedness, intuition) vision is granted to the devotees only, none other. Those who offer prayers, show gratitude become eligible for higher abodes and the ones with envious hearts, evils in mind secure their berth in hell.
The Almighty had infinite incarnations in the past followed by infinite in future. HE is capable of appearing simultaneously, at several places, at the same moment.यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
जहाँ योगेश्वर भगवान् श्री कृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री (समृद्धि, धन, दौलत, सद्बुध्दि, विवेक), विजय, विभूति और अचल नीति हैं।[श्रीमद्भागवत गीता 18.78]
Presence of Almighty and his incarnations, Bhagwan Shri Krashn along with Arjun (Narayan and Nar) ensures victory, opulence, might, power, polity, domination, supremacy, glory, grandeur wealth and prosperity.
भगवान् श्री कृष्ण महायोगेश्वर तथा योगेश्वर हैं। समस्त योग, ज्ञान उन्हीं से प्रतिपादित है। जहाँ धर्म है, वहांँ वे हैं। जब-जब धरती पर अधर्म बढ़ेगा, वे किसी न किसी रूप में उसे मिटाने के लिये आते ही रहेंगे। जब भी कोई सच्चे मन-श्रद्धा भक्ति, विश्वास के साथ उन्हें याद करेगा, वे उसको सहायता देने अवश्य पहुँचेंगे। जो भी व्यक्ति इस आख्यान का पारमार्थिक भावना के साथ प्रचार-प्रसार करेगा, उसका कल्याण अवश्य होगा।
हरी ॐ तत्सत।
Bhawan Shri Krashn has been described as Maha Yogeshwar. All Yogs, Gyan, Knowledge, enlightenment streams out of HIM. HE is the source of all doctrines, philosophies, mythology, mysticism. Nothing is beyond HIM. HE is all pervading, present everywhere ascertaining that the Dharm, Virtues, Righteousness, Piousity, honesty are present. When ever and where ever the Adharm-vices, wickedness, Shaetan, devil are there, HE will come and vanish-eliminate, crush them. Whenever and wherever one calls HIM with purity of heart and dedication, HE will reach-present HIMSELF there. Who so ever spread this message with the desire-feeling of helping others will certainly be blessed by the Almighty.
HARI OM TAT SAT.
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः॥18॥
इस प्रकार ॐ, तत्, सत्-इन भगवन्नामों के उच्चारण पूर्वक ब्रह्म विद्या और योग शास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्री कृष्णार्जुन संवाद में मोक्ष संन्यास योग नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
This is how the 18th (last-Ultimate) chapter of Shri Mad Bhagwat Geeta constituting of Om, Tat-Sat :- describing Brahmn Vidya and Yog in the form of the dialogue-conversation between Bhagwan Shri Krashn and Arjun has been concluded. SHRIMAD BHAGWAD GEETA (18) श्रीमद्भागवत गीता
santoshkipathshala.blogspot.com
The feat has been accomplished today, i.e., Wednesday, 09.05.2012 (May, 09) with the blessings of Ganesh Ji Maharaj, Maa Bhagwati Saraswati and Bhagwan Ved Vyas.
Prashant Bhardwaj–my son gifted me a copy of Shri Mad Bhagwat Geeta and a lap top. One day, he said that I have not written any thing on my blog for a number of days. Actually, I was busy in writing a book titled A Treatise on Palmistry, which will prove to be the most comprehensive and illustrative work on the subject for making accurate predictions, which has been completed and published over my blog bhartiyshiksha.blogspot.com I am still looking for some worthy publisher who can assess the true worth of the work.
Hari Om Tat Sat.
Since then, I Have completed my most comprehensive & illustrious book on Palmistry and posted this over bhartiyshiksha.blogspot.com and santoshhastrekhashastr.wordpress.com which is capable to guiding the pious readers in shaping their destiny.
Today, at 5.38 AM, Australian time, at Gledswood Hills, the final revision of the Treatise on LIBERATION HAS BEEN CONCLUDE WITH THE GRACE OF ALMIGHTY, Ganesh Ji Maha Raj, Maa Saraswati and Bhagwan Ved Vyas. I will remain indebted to them for granting this opportunity and the worthy readers who supported me comprehending this text.
This treatise on Dharm is dedicated to the pious, virtuous, righteous readers for their dedication, devotion in the feet of the Almighty & my parents along with grand parents. Let them all be blessed with name, fame, good health & prosperity by HIM.[22.10.2022]Revision completed today i.e., (19.08.2024)
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
skbhardwaj1951@gmail.com
ॐ
भगवान् श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश रविवार, एकादशी को कुरुक्षेत्र में लगभग 45 मिनट तक दिया।