Wednesday, December 16, 2015

ENDEAVOURS & RENUNCIATION YOG कर्म संन्यास योग :: SHRI MAD BHAGWAD GEETA (5) श्रीमद्भगवद्गीता

कर्म संन्यास योग
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
अर्जुन उवाच ::
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥5.1॥
हे कृष्ण! पहले आप कर्मों का स्वरूप से त्याग करने को कहते हैं और फिर कर्म योग की प्रशंसा करते हैं। इन दोनों साधनों में से जो निश्चित रूप से श्रेष्ठ और कल्याणकारी हो वह मुझे स्पष्ट करें।
Hey Krashn! First you described (discussed, praised) the renunciation from actions and then praised their Yog abidance (performance). Tell me conclusively which of the two is the better.
उद्धव जी के प्रश्न करने पर भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि अलग-अलग मनुष्य अलग-अलग परिस्थितियों, समय और काल में उनके कथन का अलग-अलग अर्थ, तात्पर्य, मतलब, अपनी सुविधा के अनुरूप निकालते हैं। अर्जुन को युद्ध रूप कर्म के त्याग की बात का अर्थ यह समझ में आया कि भगवान् कर्मों का स्वरूप से त्याग करने को कह कर, तत्वज्ञान प्राप्त करने को कह रहे हैं। भगवान् ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों की प्रशंसा कर रहे हैं। उन्होंने कर्मयोग की व्याख्या भी की है। उन्होंने निष्काम, निर्मम और नि:संताप होकर युद्ध करने के लिये कहकर अपने धर्म का पालन करने की शिक्षा दी। कर्मयोग को श्रेष्ठ बताया। कर्मयोग के बिना साँख्य योग की साधना भी कठिन है, यह भी कहा है। कर्मयोगी का बन्धन मुक्त होना तय है, यह भी कहा। अर्जुन का मुख्य प्रश्न अपने (साधक, योगी, भक्त) के कल्याण से जुड़ा है। भगवान् का मत है कि जिन साधकों में तीव्र वैराग्य की साधना-इच्छा नहीं है, वे भी कर्मयोग के अधिकारी हैं
Bhagwan Shri Krashn's cousin Udhav Ji asked him a question pertaining to different meanings-interpretations attributed to his words in Veds. Bhagwan said that different people in different situations at different points of time, take his words differently according to their own needs, situation, without going into the merit of his dictates. This is a common human tendency. Its very rare that a person tries to find the gist of knowledge. Arjun thought that he had to summarily reject the deed's motive (intention, provocation) and respond to the call for the war. He had to understand the gist of Karm-action :- "Do it without attachment, desire for reward, outcome". The discussion involved Gyan Yog (enlightenment, Sankhy Yog) along with Karm Yog. Karm Yog is essential in all types of means-paths adopted for Parmarth (benefit, welfare), Salvation. Arjun had been directed to fight without any discrimination (obsession, attachment, unperturbed), since his dedication to perform without the desire of reward will not contaminate-smear, blot him with sins. This will automatically lead him to Liberation. Bhagwan Shri Krashn stresses that one who has not developed a strong desire for renunciation can also attain Assimilation in HIM, by virtue of Karm Yog.
One has to perform his duties-Varnashram Dharm with dedication, righteousness and leave rest to the God.
For Gyan (knowledge, learning, enlightenment) one has to do labour-Karm.
श्रीभगवानुवाच :-
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥5.2॥
श्री कृष्ण भगवान कहते हैं :- कर्म संन्यास (साँख्य योग) और कर्म योग, ये दोनों ही परम कल्याण के कराने वाले हैं, पर इन दोनों में भी कर्म योग कर्म-संन्यास (साँख्य योग) से (करने में सुगम होने के कारण) श्रेष्ठ है।
Bhagwan Shri Krashn asserted that Renunciation and pursuance of action both lead to the highest bliss; but of the two, pursuance of Karm Yog awards the Ultimate pleasure-bliss.
Karm-Sanyas Yog has been described in great detail by Kapil Muni (an incarnation of the Almighty Bhagwan Krashn) to his mother.
कर्म योग किसी वर्ण विशेष, आश्रम या सम्प्रदाय के लिए नहीं है। साँख्य योग को कोई भी व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति में स्वतंत्रता पूर्वक ज्ञान प्राप्त करके अपना कल्याण कर सकता है। साँख्य योग में विवेक-विचार की प्रधानता बनी रहती है। विवेक जनित तीव्र वैराग्य के बिना यह साधना सफल नहीं हो सकती। इस साधना में संसार की स्वतंत्र सत्ता का अभाव होने से एकमात्र परमात्म तत्व पर दृष्टि रहती है। राग मिटे बिना संसार की स्वतंत्र सत्ता का अभाव कठिन है। देहाभिमानियों के लिए यह साधन क्लेश युक्त है। कर्म योग का आश्रय लिए बिना संन्यास की साधना कठिन है। राग हटाने के लिए कर्म योग सुगम उपाय है। कर्म योग में प्रत्येक कर्म को निष्काम भाव से दूसरों के हित का चिन्तन करते हुए करना, बगैर फल की इच्छा के करना है। इससे कर्मों से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है।
फिर भी दोनों ही साधन कल्याणकारी हैं। साँख्य योग में कर्मों का स्वरूप से त्याग किया भी जा सकता है और नहीं भी। साँख्य योग के लिए तत्वज्ञ ज्ञानी महापुरुष का मिलना, उसमें श्रद्धा होना, उसके पास जाकर निवास करना आवश्यक है, जो कि सामान्य परिस्थिति में संभव नहीं है। यह भी जरूरी कि तत्वज्ञ शिष्य को स्वीकार कर ले। साँख्य योग में कर्म योग की आवश्यकता है परन्तु कर्मयोग में साँख्य योग की आवश्यकता नहीं है। कर्मयोगी का अहम् शीघ्र तथा सुगमता से छूट जाता है जबकि साँख्य योगी का अहम् दूर तक पीछा नहीं छोड़ता। कर्म योगी में ममता और सुख का भाव ना होने से कर्तव्य की इति हो जाती है।
असत् का ज्ञान (चिन्तन) नर्क में ले जा सकता है। ज्ञान योगी केवल अपने लिए ही उद्धार के लिए प्रयत्न करता है। फल में कर्म योग और ज्ञान योग एक हैं। साधन में कर्म योग और भक्ति योग एक हैं। कर्म करने में कर्मी और कर्म योगी एक हैं। तत्वज्ञ महापुरुष और भगवान् भी कर्म करने में साथ हैं। कर्मी, ज्ञानयोगी, भक्तियोगी और भगवान् चारों के साथ कर्म योगी एक हो जाता है।
Karm Yog is not meant for any special category of cast, creed, Varn, Ashram-stage of life and community, religion, nation. It is for all without distinction. Sankhy-Gyan Yog lays stress over prudence (intelligence, thinking, meditation, concentration-penetration) and allows every one to utilise it, without discrimination. Still Gyan Yog involves detachment (relinquishment, retirement, equanimity) aided with concentration in the Almighty. One discards-eliminates the world from his thought process and meditate over the gist of the Almighty, only. Unless-until one detach himself from the bonds (ties, affections, clutches), it's not possible to achieve Gyan Yog. Karm Yog wants the practitioner to dedicate himself to the welfare of others (selfless service, society, universe) without the desire of rewards (honour, outcome). This detach him from the ties with the deeds.
Still both of these are meant for the welfare of the practitioner-devotee. Sankhy Yog is peculiar due to its ability to detach from the deeds or to remain involved. Sankhy Yog needs the Tatv Gyani (enlightened, Guru, Pandit, scholar) and reverence-respect by the disciple, his stay with the Guru, Guru's service; while its not essential for the Guru to accept him as the disciple-follower. Karm Yog is an essential component of Sankhy Yog, while Karm Yog is performed independent of Sankhy Yog. Even a person of low intelligence-origin can practice this. Sankhy Yogi has ego component which he may not be able to reject, while Karm Yogi evolves out of ego just by rejecting affections (bonds, desire) for pleasure.
Gyan-knowledge is not essentially virtuous (righteous, pious). It is contaminated with all sorts of defects, (negativity) negativizes-slur which is sufficient to take the thinker to hells. Gyan Yogi works for his own benefit-welfare only. As far as the result is concerned, they both leads one to the Ultimate (Liberation, Assimilation) in the Almighty-Salvation.
As far as the performance is considered the practitioner and the Karm Yogi are alike, enlightened, Tatvagy-one who knows the gist of the Almighty and the Almighty himself are associated in performing with the Karm Yogi. The performer, Gyan Yogi, Bhakti Yogi and the Almighty become one in the performance of Karm Yog.
Please refer to :: KAPIL MUNI कपिल मुनि-THE NARRATOR OF SANKHY YOG साँख्य शास्त्र-ज्ञान योग के प्रतिपादक santoshkathasagar.blogspot.com
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥5.3॥
हे महाबाहो अर्जुन! जो न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, उस कर्म योगी को सदा संन्यासी ही जानना चाहिए, क्योंकि (राग, द्वेष आदि) द्वंद्वों से रहित पुरुष सुख पूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है।
O mighty Maha Baho Arjun! The Karm Yogi, who is free from envy-malice and desires, should be known as a renouncer of actions (hermit). One who is free from malice & desires, liberates easily from the worldly bondage-liabilities.
भगवान् ने अर्जुन को महाबाहु कहा क्योंकि वे बड़ी भुजाओं से सम्पन्न, शक्तिशाली, बलवान और शूरवीर थे। भगवान् श्री कृष्ण उनके मित्र और भाई अजातशत्रु धर्मराज युधिष्टर थे। तात्पर्य यह कि सेवा करना उनकी सामर्थ में था। ऐसा व्यक्ति सुगमता से कर्म योग का निर्वाह कर सकता है। कर्म योगी सबकी सेवा भलाई हेतु अहंकार-अभिमान से मुक्त होकर कार्य-कर्म करता है, विशेषतः अपने से द्वेष रखने वाली की भलाई के लिये। आकांक्षा-कामना का त्याग करने से वह निष्काम हो जाता है। युद्ध से बचकर भागना सन्यास नहीं है, अपितु कायरता है। अगर राग, द्वेष, बन्धन ही नहीं रहे तो युद्ध में कौन मरा, कौन बचा, यह अर्थ हीन है। कर्मयोग के बिना सन्यास-साँख्य योग संभव हैं ही नहीं और राग-द्वेष नहीं हैं तो अलग से सन्यास की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
परमात्म तत्व की प्राप्ति का साधक यदि सत्संग, स्वध्याय, विचार करके भी मन, इन्द्रिय संयम, न करके भोग संग्रह में रूचि रखता है, तो वह निद्वंद नहीं रहा। वह सुख, आराम, भोग, संग्रह की चेष्टा (प्रवृति, अभिलाषा) से दूर है तो केवल शेष रहा, सत्, चित्, आनन्दस्वरूप परमात्मा और यही मुक्ति है। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग में साधक का निर्द्वंद होना परमावश्यक है।
Maha Baho stands for one who has long arms, is mighty, strong and victorious. Arjun was blessed with the friendship of the Almighty and a brother like Yudhishtar who had no enemies and stood for justice (equality, truth, piousity, honesty, righteousness). He had the capability to serve and it was easy for him to follow-practice Karm Yog. A Karm Yogi serves without ego (pride, conflicts, envy, malice). He qualifies for and becomes recipient of the Ultimate by rejecting the desires-attachments. Not to fight is cowardice, escape from duties (responsibilities, liabilities) Karm. Who dies, who survives is immaterial for him. Sankhy Yog-enlightenment is not possible without Karm Yog. One performs from the very first breath to his last. If there is no malice (envy, conflict, attachment, desire) there is no need to retire.
One who attends religious functions (conferences, meetings, gatherings, sermons), listens to the philosophers (scholars, enlightened, Pandits, learned Brahman, Guru), resort to self study. meditate-analyse, thinks and still dances to the tunes of his heart-desires, is unable to control senses, resorts to accumulation, pleasure, leisure; fails to meet the Ultimate. He is surrounded by problems (malice, conflicts, envy) etc. If he rejects such motives, he is left with the Parmanand (bliss, the Ultimate). Freedom from malice (envy, conflicts) is essential for Karm Yog, Gyan Yog as well as Bhakti Yog.
साँख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥5.4॥
साँख्य (ज्ञान, कर्म संन्यास) और कर्मयोग को अज्ञानी अलग-अलग फल देने वाले कहते हैं न कि ज्ञानी पण्डित जन, क्योंकि दोनों में से एक साधन में भी ठीक प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के ही फल रूप परमात्मा को प्राप्त होता है।
The result of both Sankhy Yog & Karm Yog leads to the understanding of the self (the Almighty or the Brahm Gyan). Only the ignorant considers Gyan (Sankhy, Karm Sanyas Yog) to be different in terms of reward-result from Karm Yog, not the wise-enlightened. One can attain Salvation just by pursuing either of the two.
भगवान् श्री कृष्ण शरीर और शरीरी-आत्मा के भेद का विचार करके स्वरूप में स्थित होने को साँख्य कहते हैं और कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की आवश्यकता नहीं समझते। अर्जुन द्वारा जिस कर्म-सन्यास की बात की जा रहे है, वह भी साँख्य योग ही है। गुरु से सुनकर भी साधक शरीर और शरीरी के भेद का विचार करता है। जो लोग विद्वान होकर भी साँख्य योग और कर्म योग को अलग-अलग फल वाला मानते हैं, बे बालक के समान अबोध ही हैं। जो महापुरुष साँख्य योग और कर्म योग के तत्व को ठीक तरह से समझ पाये हैं, वो ही पण्डित बुद्धिमान हैं; क्योंकि वे साधन नहीं अपितु साध्य (फल, वास्तविक परिणाम) को देखते हैं, जो कि दोनों मार्गों में समान है। ज्ञान योग में विवेक और कर्म योग में पर हित क्रिया मुख्य उद्योग है। इन दोनों का फल आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान है जो कि नश्वर नहीं है।
Stabilisation in own self by considering the distinction between the soul and the body is termed as Sankhy (Gyan, Karm Sanyas Yog) by Yogeshwar Shri Krashn. It does not require, out right rejection of deeds in To-To. What has been stressed by Arjun too is a component of Sankhy Yog, which considers the distinction of soul and the body by listening to the Guru. Those scholars (philosophers, Pandits, enlightened), who considers the Ultimate to be different are ignorant as a child, since both of these means leads one to Salvation. Those scholars who could grasp the gist (nectar, elixir, theme, central idea) of the Gyan-Sankhy Yog and the Karm Yog are Pandits-authority on this subject, since they target the Ultimate not the means. Gyan Yog gives credence-weightage to intelligence-prudence and the Karm Yog leads one to Parmarth (Ultimate welfare, welfare of the poor, needy, masses, down trodden, distressed and the world as a whole).
Goal-target is important not the means-path be it Sankhy Yog or Karm Yog.
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स: पश्यति॥5.5॥
साँख्य-ज्ञान योगियों द्वारा जो तत्व-गति प्राप्त की जाती है, कर्म योगियों द्वारा भी वही प्राप्त की जाती है, इसलिए जो पुरुष ज्ञान योग और कर्म योग को एक ही अंतिम परिणाम-फल की दृष्टि से एक देखता है, वही ठीक देखता है।
One who perceives (visualises, finds) the gist (yield) of Gyan-Enlightenment Yog and the Karm Yog as one-the Ultimate; is right.
साधक का लक्ष्य परमात्म तत्व की उपलब्धि है; चाहे वो ज्ञान के माध्यम से हो या कर्म के माध्यम से। रास्ता कोई भी हो, फल (लक्ष्य, उपलब्धि) एक समान ही हैं। भगवान् का अभिप्राय यहाँ यह स्पष्ट करना है कि कर्म योग उपयोगी और कल्याणकारी है, जिसकी उपेक्षा कदापि नहीं की जा सकती। दोनों मार्गों का उद्देश्य एक है अर्थात क्रियाशील प्रकृति से सम्बन्ध विच्छेद। साँख्य योग विवेक से और कर्म योग सेवा के माध्यम से संसार से सम्बन्ध विच्छेद करते हैं। संसार विषम और परमात्मा सम है और मनुष्य का उद्देश्य है प्रभु से-प्राणियों से समता की प्राप्ति। मनुष्य कामना-आसक्ति त्याग दे, यह ज्ञान योग और साधनों-राग को दूसरों की निःस्वार्थ सेवा में उपयोग यह कर्म योग है।
किसी भी साधन की पूर्णता होने पर जीने की इच्छा, मरने का भय, पाने का लालच और करने का राग ये चारों ही सर्वथा मिट जाते हैं। जीने की इच्छा, मरने का भय; ज्ञान-विवेक द्वारा नष्ट होते हैं और पाने का लालच और करने का राग; कर्म-जरूरत मंद की सेवा-सहायता से मिट जाते हैं और मनुष्य में स्वार्थ-लालच नष्ट हो जाता है। वस्तुतः ज्ञान और कर्म योग दोनों ही लौकिक होने से एक ही हैं।
The target of the practitioner-devotee is the same, assimilation in the Almighty. Means may be either enlightenment or self less service, but the result is the Ultimate. Bhagwan Shri Krashn explained the importance of Karm which has been considered to be inferior by the enlightened. One may find great scholars (philosophers, Pandits, enlightened, thinkers) devoted to the service of man kind. Prudence detach one as an instrument of Gyan Yog, while selfless devotion to the cause of the genuine needy, as an instrument of Karm Yog. The living world is full of unevenness (troubles, difficulties, tensions), while the Almighty is even. The ultimate goal of incarnation as a human being is attainment of equanimity of the soul and the supreme. This is possible with the rejection of desires-attachments through prudence and greed-tendency to accumulate, through help of the needy through Karm Yog.
The Ultimate goal of both Sankhy Yog and Karm Yog is the same i.e., Salvation. Whatever means one adopt, he reaches the Almighty. Sankhy detaches one by making use of prudence-intelligence while Karm Yog detaches one through the service of mankind.
The perfection of the means (Gyan or Karm Yog) eliminates the desires to live, fear of death, tendency to gain-accumulate and do-achieve, are abolished completely, through the service (welfare of others, society). Desire to live or the fear of death are abolished through prudence and the greed to accumulation-storage and tendency to achieve do something, are removed through the service of mankind. In fact both Gyan Yog and Karm Yog are complementary and are universal, meant for those who take birth on this earth.
One should never hesitate in working till the last breath. He should acquire enlightenment as well. Its not good to expect others to come and serve him, if he is capable, alert. He should continue worship till his last breath.
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥5.6॥
परन्तु हे वीर अर्जुन! कर्म योग के बिना कर्म संन्यास-साँख्य योग सिद्ध होना कठिन है और कर्म योग में स्थित मुनि-मनन शील कर्म योगी परब्रह्म को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।
But, O mighty Arjun! It is difficult to attain Sankhy Yog i.e., Karm Sanyas Yog (enlightenment), without the aid, help, union of Karm Yog with it. One who has established him self in Karm Yog attain the Brahm-the Ultimate easily-quickly.
कर्म योग की सिद्धि साँख्य योग के बगैर संभव है, परन्तु साँख्य योग की सिद्धि बगैर कर्म योग के संभव नहीं है; क्योंकि साँख्य योगी का लक्ष्य परमात्म तत्व है, जो कि राग के रहते प्राप्त होना मुश्किल है। राग मिटाने के लिए परमार्थ-निःस्वार्थ सेवा अत्यावश्यक है। वह कर्मयोगी जो अपने निष्काम भाव का और दूसरों के हित का मनन करता है, मुनि कहा गया है। सेवा में भाव का बड़ा महत्व है। साधक सकाम भाव के उत्पन्न होते ही उसे बल पूर्वक मिटा देता है। साधक सोचता है कि पर हित-पर सेवा कैसे हो, उसमें राग किस प्रकार पैदा न हो? राग का अभाव होते ही परमात्म तत्व स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। देहाभिमानी मनुष्य सम्पूर्ण कर्मों का त्याग तो कर नहीं सकता, परन्तु उनके परिणाम-फल को तो स्वेच्छा से त्याग ही सकता है और यही भाव कर्म योग को सुगम-सरल बनाता है। कर्म योग तत्काल शान्ति-सुख प्रदान करता है। मनुष्य संसार बन्धन से सुख पूर्वक मुक्त हो जाता है। अतः कर्म योग का साधन सुगम-सरल, शीघ्र सिद्धि-फल दायक, स्वतंत्र रूप से परमात्म की प्राप्ति करने वाला है।
Karm Yog can be pursued without the help of Sankhy Yog but Sankhy Yog essentially need Karm Yog. The Sankhy Yogi targets Parmatm Tatv (gist of the Ultimate), which is difficult to realise when attachments (desires, motives) remain with the practitioner. For this the Yogi has to channelize, divert his efforts-energy for welfare of others without the motive of return, in any form. That practitioner who care for his service with devotion, without attachment (motive, return) and think of the welfare of others, is Muni-sage. Motive behind service is very important. The moment desire for favour-reward develops, in the mind of the practitioner, he immediately removes it, quickly (forcefully) with firm determination. When one thinks of the means of the welfare-service of others, attachments do not crop in his working-pursuance. He figure out the way to serve others without generating-evolving bonds (ties, attachments). The practitioner dissolves the attachment, the moment they creep in his mind. The reality remains that deeds can not be rejected out rightly, but their reward (outcome, favour, result) can be skipped voluntarily. That makes Karm Yog easy to purse-perform. Karm Yog grants immediate (quick peace, comfort, relief). The practitioner is relieved from the bonds (ties, attachments, allurements) with ease-happily. This shows that Karm Yog is easy to perform, independently, leading to assimilation in the Almighty quickly.
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥5.7॥
जिसकी इन्द्रियाँ, मन और शरीर अपने वश में हैं, अन्तःकरण निर्मल है, वह सभी प्राणियों को अपना आत्म रूप मानने वाला कर्मयोगी-जितेन्द्रिय, कर्म करता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता।
The Karm Yogi-practitioner, who's senses, body and mind (psyche, thoughts, ideas, gestures, mood) are under firm control and has a pure innerself, who consider all living beings as his own replica (incarnation) is not contaminated, slurred even after performing all his duties-deeds.
मनुष्य की इन्द्रियाँ और मन उसके काबू में हो राग-द्वेष से रहित हों तो साधक उन्हें आसानी से प्रभु की सेवा-सत्ता में अर्पित कर सकता है। अन्तःकरण की शुद्धि, कामना रहित निष्काम सेवा से हो जाती है। परमात्म प्राप्ति का एक दृढ उद्देश्य-संकल्प होने से अन्तःकरण निर्मल हो जाता है। शरीर के सुख-आराम, आलस्य-प्रमाद रहित होने से अनुष्ठान आसानी से जायेगा। उसके द्वारा समस्त संसार के प्राणियों को अपना स्वरूप मानने से अभिमान का त्याग सहज हो जाता है।
कर्मयोगी के द्वारा मर्यादा के अनुसार संसार में यथा योग्य व्यवहार किये जाने पर सब में अपनापन बना रहता है, जैसे शरीर के सभी अंगों के साथ अपनापन होता है। राग मिटाने के लिए सब प्राणियों में अपनी एकता मानना और उदारता बनाये रखना जरूरी है। साँख्य योगी जड़ता का त्याग करके चिन्मयता के साथ अपनी एकता मानता है और कर्मयोगी शरीर, मन, इन्द्रियाँ पदार्थ की एकता संसार के साथ मानता है, अपने लिए नहीं। इस अवस्था में उसके द्वारा किया गया कोई भी कार्य-उपकार जिससे वह दूसरों को सुख पहुँचाता है, उसमें अभिमान उत्पन्न नहीं करता।
If the senses (brain) are free from jealousy (envy, attachments) and are under control; one can easily offer them to the service of the mankind, which is the service of the God. Purity of thought-innerself, comes through self less devoted service. A firm determination for the achievement of the Almighty makes the soul, innerself pure & pious. When the practitioner rejects the comforts, laziness, intoxication; all his motives pertaining to the service of man kind, emancipation-assimilation in God becomes easy-effortless. He considers all organism of the world as his incarnations, which devoid him of false ego-pride.
The Karm Yogi behaves with all his organs as equally important, which is synonymous to behaving with the organisms in this world as if they are his own-equally important. This concept help him in detachment. He becomes liberal with all of them attaining equanimity. Sankhy Yogi reject static-inertial world and identifies him self with pure consciousness. The Karm Yogi identifies his body, innerself-mind and the sense organs with the world. Any performance by him in this state does not contaminate-slur him and he remain free from ego-false pride.
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्‌ गच्छन्स्वपञ्श्वसन्॥5.8॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मि षन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥5.9॥
तत्व को जानने वाला साँख्य योगी देखते हुए, सुनते हुए, स्पर्श करते हुए, सूँघते हुए, खाते हुए, चलते हुए, सोते हुए, साँस लेते हुए, बोलते हुए, मल-मूत्र त्यागते हुए, ग्रहण करते हुए तथा आँखों को खोलते-बंद करते हुए भी, ऐसा माने कि सब इन्द्रियाँ ही अपने-अपने कार्यों में लगी हैं, मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता हूँ।
One who has attained the gist (essence, theme, central idea, extract) of the Ultimate, should consider that he is not performing-doing anything, but the senses are interacting amongest the sense organs and seeing, hearing, touching, smelling, eating, going, sleeping, breathing, speaking, excreting (urinating and defecating), taking, opening and closing of the eyes, are the activities of the sense objects and do not belong to him.
साँख्य योग का विवेकशील साधक अनुभव करता है कि शरीर में होने वाली समस्त क्रियाएँ प्रकृति के अधीन हैं और वह स्वतंत्र है। तत्वज्ञान होने से उसमें कर्तापन का अहंकार नहीं है। वह मन, बुद्धि, प्राण, शरीर, इन्द्रियाँ आदि के साथ वह अपनी एकता स्वीकार नहीं करता।
अज्ञानी समष्टि के क्षुद्र अंश व्यष्टि के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। साधक स्वयं को कभी भी कर्त्ता न माने। कर्त्ता पन का अभाव होने से स्वरूप का अनुभव हो जाता है। जिस प्रकार स्वप्न से जाग्रत अवस्था में आने पर द्रष्टा उससे सम्बन्ध नहीं रखता, उसी प्रकार तत्वविद् शरीरादि से होने वाली क्रियाओं से स्वयं को मुक्त रखता है। तत्वविद् पुरुष और प्रकृति को ठीक समझता है। गुण और क्रियाएँ प्रकृति के अंग हैं, पुरुष के नहीं। ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, अन्तःकरण, प्राण, उपप्राण प्रकृति के अंग हैं।
पुरुष-चेतन में भोक्तापन नहीं है। पुरुष (आत्मा, परमात्मा) अक्षर, अव्यय और निर्लिप्त है। वह एकरस और एकरूप ही रहता है। वह सुख-दुःख से परे है। चिन्मय सत्तामात्र में न करना है और न होना है।
The Sankhy Yogi uses his prudence to conclude that all activities are governed by the nature and the body is a component of the nature. He, as an entity-soul is free from the clutches of nature. He finds-understands that he is not the doer. He is free from the ego of being the doer. Urge for physical-mental activities arise cyclically, time and again. All these activities are occurring automatically by them self. He does not recognise himself with the desires-wishes, intelligence-motive, life force-the vital, body-physique and the sense organs. He do not consider himself as the doer.
The ignorant associates himself with the macro (large) as a micro (small-minute) entity as the doer-performer. The prudent practitioner does not consider him self to be the doer. Once the ego of being the doer is scrapped, one identifies himself-own self. One do not consider himself as the performer in the dreams. Likewise, the enlightened (wise, prudent) detaches himself from the physical activities going on in the body. One who has realised the essence (gist, extract) of the Ultimate knowledge is able to distinguish between the body and the soul. He understands that all functions are going within the body not the soul-a component of the Almighty. Organs of work, senses, life force-the vital are the components of nature not the Almighty.
The eternal-conscious is free from ego of being the consumer. The eternal is detached, indeclinable (invariable, imperishable). He is uniform and away from pleasure-pain. The conscious is neither a doer (performer) nor consumer.
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥5.10॥
जो पुरुष-भक्ति योगी, सम्पूर्ण कर्मों को परमात्मा-ब्रह्म में अर्पण करके, आसक्ति रहित होकर सब कर्मों को ब्रह्म (परमात्मा) द्वारा होने वाला जान कर करता है, वह पाप से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जैसे जल में डूबा हुआ कमल का पत्ता, गीला नहीं होता।
The Yogi who is detached and free from bonds-ties performs by offering all his deeds to the Almighty-the Par Brahm Parmeshwar, remains unstained-unsmeared by the sins, just like the lotus leaf which remains in water without becoming wet.
साधक-भक्त जब यह मान लेता है कि इन्द्रियाँ, मन, प्राण, बुद्धि, शरीर सभी भगवान् के हैं; उनके द्वारा होने वाली समस्त क्रियाएँ भी भगवान् के द्वारा ही हो रहें हैं और वह तो निमित्त मात्र है, तो वह पाप युक्त नहीं हो पाता।
सम्पूर्ण कार्यों को कर्म योगी संसार को, साँख्य योगी प्रकति को और भक्ति योगी भगवान् को अर्पित करता है। प्रकृति और संसार दोनों के ही स्वामी भगवान् हैं। अतः क्रियाओं और पदार्थों को भगवान् को अर्पण करना ही श्रेष्ठ है।
किसी प्राणी, प्रदत्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, क्रिया में किंचित मात्र भी राग, लगाव, आकर्षण, महत्व, खिंचाव, ममता, कामना आदि का न रहना, आसक्ति का सर्वता त्याग है। राग अज्ञान का मूल है और जन्म-मृत्यु का मुख्य कारण भी है। राग मिटा तो अज्ञान भी मिटा। राग या आसक्ति कामना पैदा करने वाली और सम्पूर्ण पापों की जड़ है। क्रिया जन्य सुख से फल में आसक्ति, अपने को महत्वपूर्ण (अच्छा, भला) कहलवाने की भावना आसक्ति ही है। जिस सुख से फलेच्छा-सुख पाने की ललक हो, वह कर्म अपना हो जाता है। अतः अपनी सुख-सुविधा, इच्छा का सर्वथा त्याग अति आवश्यक है। भक्ति योगी जल में खिले कमल की तरह है, जो कि जल में रहते हुए भी जल से निर्लिप्त है। भगवान् से विमुख होकर संसार की कामना सब पापों का मुख्य हेतु है। जिसने आशा, कामना, आसक्ति का त्याग कर दिया हो, उसे दोष-पाप नहीं लगता। सगुण ईश्वर ब्रह्म है, वह साकार, निराकार, निर्गुण भी है, क्योंकि वह समग्र है। अतः उससे विमुख भी नहीं होना चाहिए।
A little bit of inclination, attachment, attraction, importance, desire in the body, senses, mind, longevity, affection leads to reincarnations. Inclination-attachment is the root cause of ignorance. Detachment leads to loss of ignorance. Inclination (attachments, desires) give birth to sins. Desire for fame, comforts, recognition as good (gentle, great) is inclination-attachment. The deeds which have a motive become own, creating ties with the world i.e., birth and death. It is therefore, essential to reject the desire for comforts, riches, achievements. The Bhakti Yogi-devotee is comparable to the Lotus leaves which remains dry in spite of being in touch with water.
One who is indifferent-neutral towards the Almighty and desires all comforts (luxuries, wealth, riches) may turn into be a sinner. One who has rejected desires, motives remains untainted-unsmeared. The Almighty is complete-perfect in HIMSELF. HE is formless and with form-shape as well. HE has characteristics and HE is without characteristics as well. One should not be separable-detachable, neutral towards HIM.
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥5.11॥
कर्म योगी आसक्ति को त्याग कर केवल (ममता रहित) इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।
The Karm Yogi functions (performs, acts) without attachment through the body, mind, intellect and mere senses for the purification of their conscience.
जो योगी भगवदर्पण-बुद्धि से कर्म करते हैं, वे भक्ति योगी कहलाते हैं। जो योगी संसार के सेवा निष्काम भाव से करता है वह कर्मयोगी है। अपने कहलाने वाले शरीर, मन, इन्द्रियाँ और बुद्धि को भी परमार्थ में लगा देता है। ये चारों ही किसी भी दृष्टि से अपने नहीं हैं, क्योंकि वे भी नष्ट प्राय: हैं। उनके प्रति ममत्व पैदा करना बन्धन कारी है। इनके प्रति निर्मोही-निर्मम होने से आसक्ति और फलेच्छा मिटती है। एक ना एक दिन शरीर ने गिर जाना-नष्ट हो जाना है। यह हमेशां के लिए नहीं है। यह विचार शुद्धि करने वाले हैं, क्योंकि इनसे सूक्ष्म अपनापन भी दूर होता है।
The Yogi who performs while remembering the Almighty simultaneously, is a Bhakti Yogi. One who performs for the sake of others without attachment (motive, desire) for favour (reward) is Karm Yogi. He puts his body, intelligence, desires and the senses into the service of the man kind-humanity. These faculties are bound to perish sooner or later, since they do not belong to him. Nature created them and the nature will take them back. One should not develop affection (bonds, ties, rapport, relation) with them. Bonds with them leads to attachment and repeated incarnations. One should be neutral towards them, so that he becomes free. Detachment cuts the minute relationship-association with them helping one to be Liberated.
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥5.12॥
कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके सदा रहने वाली नैष्ठिकी शान्ति को प्राप्त होता है और सकाम पुरुष कामना करने के कारण उस कर्म के फल में आसक्त होकर बँधता है।
The Yogi who is steady-stable minded, discards (rejects, abandons) the fruit of his action and attains the permanent peace born out of it. One with unsteady mind and attached to the fruit of his action due to desire, gets firmly bound.
जिनका उद्देश्य समता है, वह साधक योगी है। जिसकी बुद्धि ने कर्मफल तज दिया है; सांसारिक कामनाओं से किनारा कर लिया है, वो कर्मयोगी है। कर्मफल का त्याग उसकी इच्छा के त्याग से होता है। पूर्व जन्म के संचित कर्मों के परिणाम स्वरूप प्रारब्ध का निर्धारण होता है, तात्कालिक, वर्तमान जन्म के और संचित कर्म उसकी शुद्धि करते हैं। कर्मफल दृष्ट तत्काल प्रत्यक्ष, अदृष्ट प्रारब्ध के अनुरूप, प्राप्त प्रारब्ध के अनुरूप प्राप्त शरीर, जाति, वर्ण, धन, सम्पत्ति, अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आदि तथा अप्राप्त प्रारब्ध कर्मफल जो भविष्य में अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति मिलने वाली है और न ही उसका फल चिरस्थाई हैं। परमार्थ, लोकार्थ कर्मों का लक्ष्य परमात्म तत्व है, जो कि चिरस्थाई है। ममता-कामना का त्याग मनुष्य को शांति प्रदायक है। आसक्ति का त्याग नैष्ठिकी शांति-परमात्म प्राप्ति प्रदायक है। व्यक्ति सकाम-सुद्देश्य कर्म करता है, वो बन्धनों में बंधता चला जाता है।
One who's target (aim, goal) is equanimity, is a Yogi. One who's intellect has rejected the desire-motive for reward-remuneration for deeds for himself, is a Karm Yogi. If one has rejected the desire for result-outcome for a deeds, he has rejected his desires. The deeds in previous 84,00,000 incarnations are responsible for the destiny in the current (present) birth-form. The out come of the deeds is visible immediately like satisfaction of hunger. The invisible outcome-output of deeds is according to the destiny in the form of birth in a specific regions, zone, caste, country, species etc. The obtained output is in the form of favourable or difficult situations, poverty or wealth etc. The out put-reward not received will determine the destiny of future. Neither the deeds nor the output is for ever. It comes, shows its impact and vanish. Those deeds which are meant for the service of the man kind, yield permanent happiness, peace. One who does not require anything for himself and surrenders every thing for the welfare of others-society, is freed from the repeated births-deaths and attains permanent abode with the Almighty, where there is nothing except bliss.
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥5.13॥
जिसकी इन्द्रियाँ और अन्तःकरण (मन) वश में हैं, ऐसा देहधारी पुरुष सब कर्मों को मन से, विवेक पूर्वक त्याग कर, उन्हें न करते हुए और न करवाते हुए ही, नौ द्वारों वाले शरीर रूपी घर में योगी सुख पूर्वक रहे।
The Sankhy Yogi controls (reins) senses and desires (innerself, gestures, mood, psyche, Man), renounce all actions through mind prudently, neither doing nor getting them done, lives happily in the nine gated fort (his body).
साँख्य योगी की इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि में ममता-आसक्ति न रहने से ये सर्वथा उसके वश में रहते हैं। वह 9 छिद्र वाले शरीर से किंचित मात्र भी सम्बन्ध नहीं रखता। वह विवेक पूर्वक कर्त्ता पन को त्याग देता है। कर्त्ता पन शरीर में है, अपने में नहीं। न तो वह स्वयं करने वाला है और न ही करवाने वाला। वह किसी क्रिया का प्रेरक भी नहीं है। यध्यपि मनुष्य की स्वरूप में स्वाभाविक स्थिति है, तथापि वह शरीर, बुद्धि, मन, प्राण, इन्द्रियों में इसको मान लेता है। साँख्य योगी को स्वरूप में निरन्तर स्वाभाविक स्थिति का अनुभव होता रहता है। स्वरूप में सुख, सदा-सर्वदा अखण्ड, एकरस, परिच्छिन्नता से रहित है। स्वरूप की पहचान जिस तत्व की सत्ता को प्रकट कर रही है, वही सभी आधारों का आधार है। सभी उत्पन्न तत्व उस अनुत्पन्न तत्व के आश्रित हैं। उस सर्वाधिष्ठान तत्व को किसी आधार की आवश्यकता नहीं है। तत्व प्राप्ति में करने का भाव ही बाधक है, जो कि प्रकृति से जोड़ता है। स्वरूप करने अथवा न करने दोनों से ही रहित निरपेक्ष तत्व है। गुणों के संग से प्राणी अवश-पराधीन है। ज्ञान योग से अवशता मिट जाती और जीव स्वाधीन-निरपेक्ष हो जाता है।
Sankhy Yogi is free from attachments-affections which provides him control over his senses and the mind. Though, he occupies the body but does not find any inclination for it. He deserts all performances prudently. The ego of having done rests in the body-mind, not the self. He is neither the doer nor pursuer. He does not pursue any action. Although the human is a component of the Supreme-self, yet he assumes himself to be the body. Sankhy Yogi keep on enjoying in himself. The enjoyment-bliss is for ever, uniform, unilateral, undivided, imperishable. The self is identified with the gist of the Ultimate, the root-base of every thing (event, commodity, time). The Ultimate does not need any one or anything for support. The feeling is main hurdle in achieving the gist of the Ultimate, since it connects one with the nature. Own self is absolute (neutral, free from the feeling of performer or non performer, doer). Attachment of characteristics make him dependent over the nature. Gyan Yog (Sankhy Yog, enlightenment) removes this dependence, setting him free to assimilate in his real form-the Almighty.
स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर :: जिस प्रकार मनुष्य स्थूल शरीर की स्वस्थता का लाभ समझते हुए उसे सुस्थिर बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रहता है, उसी प्रकार उसे सूक्ष्म और कारण शरीर की सुरक्षा एवं समर्थता के लिए सदैव सचेष्ट रहना चाहिए।
(1). स्थूल शरीर :- जिसमें पाँच ज्ञानेंद्रिय (आँख, कान, जीभ, नाक, त्वचा), पाँच कर्मेन्द्रिय (वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ, पायु), पंच तन्मात्र (धरती, अग्नि, जल, वायु, आकाश) होते हैं। पञ्च भूत से निर्मित हाड़ :- अस्थि, मज्जा, माँस, रक्त का बना शरीर ही स्थूल शरीर है। कर्मेन्द्रियों से शरीर-चर्या एवं लोक व्यवहार के विविध विधि क्रिया-कलाप चलते हैं, इनसे बना शरीर ही स्थूल शरीर है। स्थूल और सूक्ष्म का अन्तर प्रत्यक्ष है। स्थूल शरीर पंचतत्वों के सूक्ष्म घटकों से बना है। उन्हें तत्वों, आदि के रूप में देखा जा सकता है। कर्मेन्द्रियों से शरीर-चर्या एवं लोक व्यवहार के विविध विधि क्रिया-कलाप चलते हैं। स्थूल शरीर में शरीरी का निवास है। शरीरी-आत्मा सूक्ष्म शरीर में मौजूद है। स्थूल शरीर निर्जीव है, यदि उसमें आत्मा न हो। योगी स्थूल शरीर को सुरक्षित रख कर जहाँ-तहाँ विचरता रहता-भ्रमण करता है। स्थूल के ऊपर है, सूक्ष्म शरीर। सूक्ष्म शरीर को भी पार करेंगे तो वह उपलब्‍ध होगा, जो नहीं है, अशरीरी-जो आत्‍मा है। मृत्‍यु के समय सिर्फ स्‍थूल शरीर गिरता है, सूक्ष्‍म शरीर नहीं।
अनाहत चक्र (हृदय में स्थित चक्र) के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो शरीरों का अनुभव होता ही है। कई बार साधकों को लगता है, जैसे उनके शरीर के छिद्रों से गर्म वायु निकल कर एक स्थान पर एकत्र हुई और एक शरीर का रूप धारण कर लिया, जो बहुत शक्तिशाली है। उस समय यह स्थूल शरीर जड़ पदार्थ की भांति क्रियाहीन हो जाता है। इस दूसरे शरीर को सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर कहते हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह सूक्ष्म शरीर हवा में तैर रहा है और जीवित अवस्था में वह शरीर स्थूल शरीर की नाभी से एक पतले तंतु से जुड़ा हुआ है।
कभी ऐसा भी अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बाहर निकल गया अर्थात जीवात्मा शरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी। ऐसा विचार आते ही योगी उस सूक्ष्म शरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं, परन्तु यह बहुत मुश्किल कार्य मालूम देता है। स्थूल शरीर मैं ही हूँ, ऐसी भावना करने से व ईश्वर का स्मरण करने से वह सूक्ष्म शरीर शीघ्र ही स्थूल शरीर में पुनः प्रवेश कर जाता है।
हठ योगी शरीर को छोड़कर पुनः प्रवेश कर सकता है। शरीर को छोड़ने पर भी वह सूक्ष्म शरीर धारण किये रहता है। अक्सर योगी-संतजन एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं, ऐसा उस सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही संभव होता है, स्थूल यहाँ और सूक्ष्म वहाँ। सूक्ष्म शरीर के लिए कोई आवरण-बाधा नहीं है, वह सब जगह आ जा सकता है। जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, वो स्थूल शरीर हैं। प्याज की परतों के समान ही इसकी अन्य दो परतें हैं :- सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर।
(2). सूक्ष्म शरीर :- जिसमें बुद्धि, अहंकार और मन होता है, वह सूक्ष्म शरीर पंच प्राणों का बना है। उनके प्रतीक पाँच शक्ति केन्द्र हैं, जिन्हें पंचकोश भी कहते हैं। अन्नमय-कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय-कोश, आनन्दमय कोश के रूप में इनकी पहचान की जाती है। इन पंच प्राणों का समन्वय महाप्राण के रूप में समझा जाता है। जीवन चेतना यही है। इसके रूप में पृथक् हो जाने पर सूक्ष्म शरीर भी नष्ट हो जाता है।
सूक्ष्‍म से योगी परिचित होता है और योग के भी जो ऊपर उठ जाते है, वे उससे परिचित होते है, जो आत्‍मा है। सामान्‍य आँखे नहीं देख पाती हैं, इस शरीर को। योग-दृष्‍टि, ध्‍यान से ही दिख पाता है, सूक्ष्‍म शरीर। लेकिन ध्‍यानातित, बियॉंड योग, सूक्ष्‍म के भी पार, उसके भी आगे जो शेष रह जाता है, उसका तो समाधि में अनुभव होता है। ध्‍यान से भी जब व्‍यक्‍ति ऊपर उठ जाता है, तो समाधि फलित होती है और उस समाधि में जो अनुभव होता है, वह परमात्‍मा का अनुभव है। साधारण मनुष्‍य का अनुभव शरीर का अनुभव है, साधारण योगी का अनुभव सूक्ष्‍म शरीर का अनुभव है, परम योगी का अनुभव परमात्‍मा का अनुभव है। परमात्‍मा एक है, सूक्ष्‍म शरीर अनंत है, स्‍थूल शरीर अनंत है। सिद्ध योगी सूक्ष्म शरीर से परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं। सूक्ष्म शरीर का मुख्य स्थान मस्तिष्क माना गया है।
(3). कारण शरीर :- सद्भावना सम्पन्न व्यक्ति, जिन्होंने उच्च आदर्शों के अनुरूप अपनी निष्ठा परिपक्व की है, उनका कारण शरीर परिपुष्ट होता है। स्वर्ग, मुक्ति, शान्ति से लेकर आत्म साक्षात्कार और ईश्वर दर्शन तक की दिव्य विभूतियाँ, इस कारण शरीर की समर्थता पर ही निर्भर हैं।
कारण शरीर ने सूक्ष्म शरीर को घेर के रखा है। इसमें आत्मा के संस्कार, भाव, विचार, कामनाऐं, वासनाऐं, इच्‍छाऐं, अनुभव, ज्ञान बीज रूप में रहते हैं। यह विचार, भाव और स्मृतियों का बीज रूप में संग्रह कर लेता है। वही जीव को आगे की यात्रा कराता है। जिसके सारे दोष नष्‍ट हो गए, जिस मनुष्‍य की सारी वासनाएँ क्षीण हो गई, जिस मनुष्‍य की सारी इच्‍छाऐं विलीन हो गई, जिसके भीतर अब कोई भी इच्‍छा शेष न रही, उस मनुष्‍य को जाने के लिए कोई जगह नहीं बचती, जाने का कोई कारण नहीं रह जाता। जन्‍म की कोई वजह नहीं रह जाती। मृत्यु के बाद स्थूल शरीर कुछ दिनों में ही नष्ट हो जाता है और सूक्ष्म शरीर विसरित होकर कारण की ऊर्जा में विलिन हो जाता है। यही कारण शरीर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है।
मोक्ष :: मोक्ष के समय स्‍थूल, सूक्ष्‍म और कारण शरीर भी गिर जाता है। फिर आत्‍मा का कोई जन्‍म नहीं होता। फिर वह आत्‍मा विराट पुरुष में लीन हो जाती है।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥5.14॥
परमात्मा मनुष्य के न तो कर्त्ता पन की, न कर्मों की और न कर्म फल के साथ संयोग की रचना करता है, अपितु इसमें मनुष्य का स्वभाव (प्रकृति) ही कारण है।
The God does not create the actions, union with their results and the sense of doer ship in man. But it his own nature alone, that does it.
सृष्टि रचना का कार्य सर्व समर्थ, सबके शासक और नियामक सगुण परमात्मा स्वयं करते हैं, तथापि वे अकर्ता हैं। कर्म के कर्तापन का सम्बन्ध मनुष्य का रचा हुआ है। सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के द्वारा किये जाते हैं और मनुष्य अज्ञानवश उससे तादात्म्य कर लेता है और कर्मों का कर्ता बन जाता है। क्योंकि यह सम्बन्ध मनुष्य का बनाया हुआ है, वह इसे त्याग सकता है। परमात्मा ऐसा विधान भी नहीं करते कि किस कर्म शुभ या अशुभ का फल किस जीव को भुगतना पड़ेगा। जीव जैसा कर्म करेगा, वैसा फल-परिणाम, उसे भोगना होगा। सुख-दुःख उसी की परिणति हैं। सुख-दुःख में सम और निष्काम भाव की रचना मनुष्य के द्वारा होती है। ऊर्ध्वगति अथवा अधोगति शुभ या अशुभ कर्मों का परिणाम मात्र है। प्रारब्ध भी मनुष्य के द्वारा रचित ही है। जैसे-जैसे प्राणी कर्मों की निवृति करता जाता है, वैसे-वैसे ही उसकी मुक्ति का मार्ग प्रबल होता जाता है। कर्तापन, कर्म और कर्म फल तीनों मनुष्य की अपनी प्रकृति-स्वभाव के अनुरूप ही हैं। अतः इनका त्याग निर्लिप्तता, परतन्त्रता से मुक्ति है।
Almighty performs the job of the evolution-creation. HE is absolute-capable possessor of characteristics of creation without being involved. The ego-relation of performing-doing is created by the man himself. Everything in the universe is done by the nature. All functions-creations are performed by the nature and the man unknowingly considers himself to be the doer, due to ignorance (lack of knowledge, stupidity, imprudence). The God has not prescribed the bearing of the output (result, reward-punishment of the deeds) by the doer. It is the human being who has to bear what he has done. (As you so shall you reap.) Pleasure-pain are just the turn over of his endeavours. He may become neutral to the sorrow or the comforts acquiring equanimity or detachment. Gain of higher abodes-heavens or downfall into lower abodes-hells is his own creation. He himself wrote his destiny. Gradually, one becomes neutral by undergoing the outcome of his deeds and the road to his freedom is smoothed. Ego-pride of being the doer, deeds and the output are in accordance with his own nature. Rejection of these (detachment, relinquishment, equanimity) paves way for his freedom-Liberation.
Poverty-riches, reward-punishment, honour-defame, sorrow-happiness, pleasure-pain, bravery-timidness are one's own creation. One should never curse his destiny-luck for this. He should wake up due to the difficulties faced by him and improve his deeds & destiny.
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥5.15॥
सर्वव्यापी परमात्मा न तो किसी के पाप कर्म और न ही किसी के शुभ कर्म को ग्रहण करता है, यह ज्ञान-अज्ञान द्वारा ढके होने से सब मनुष्य मोहित हो रहे हैं।
The knowledge (truth, gist), that the Almighty is not involved in either pious or vicious (vices, wretchedness, sins), deeds of the individuals is pervaded by ignorance, which deluded all mortals.
पूर्व पद में परमात्मा को प्रभु (संप्रभुता संपन्न) और इस पद में विभु, (जो शाश्वत, सनातन है) नित्य सम्बोधित किया गया है। कर्म फल का भागीदार कर्ता और करवाने वाला दोनों ही होते हैं। परमात्मा न तो किसी से कोई कर्म करवाता है और न ही इसमें सहायक है। अतः वो फल का भागीदार भी नहीं है। मनुष्य कर्म-अच्छा या बुरा, करने को स्वतन्त्र है। जो स्वयं को कर्म का कर्ता या भोक्ता मान लेता है, वो बन्धन में पड़ता है और जो स्वतंत्रता का सदुपयोग करके कर्म और कर्म फल भगवान् को अर्पण कर देता है, वो मुक्त हो जाता है-छूट जाता है। मनुष्य जानता है कि शरीर और शरीर को चलाने वाला अलग-अलग हैं। शरीर को चलवाने वाला स्वरूप है। मगर अज्ञानवश मनुष्य उसी की अवहेलना कर देता है। इस अज्ञान-मूढ़ता का नाश मनुष्य विवेक द्वारा कर सकता है। जो व्यक्ति विवेकहीन है, वो पशु के सदृश्य है। इन्द्रियों और बुद्धि को ज्ञान-अनुभव होता है। परन्तु वह ज्ञान विपरीत-उलटी बुद्धि द्वारा ढँका-आच्छादित-आवरण में रहता है। परमात्मा को अपने से अलग और शरीर को अपना मान लेना अज्ञान, भ्रम, भूल है।
आत्मा परमात्मा का और शरीर प्रकृति के अंग हैं।
In earlier para the Almighty was addressed as Prabhu-Sovereign and in this para HE is addressed as Vibhu-Eternal. In either sense, HE is neither involved in the deeds nor the out come of the deeds of the doer, who is free to perform as per his own will-desire. One who by virtue of ignorance-ego considers himself to be the doer, is struck with bondage. One who utilise this freedom to act in pious (righteous, honest, truthful, virtuous) deeds and offers them to the Almighty honestly, is freed from the clutches of the destiny-reincarnations. He is aware that the body is driven by some thing else, but due to ignorance, he is unable to identify himself-a component of the Almighty. This ignorance can be over come by utilising intelligence-prudence. Senses and the intelligence of the doer-individual knows (experience, receives the knowledge of right or wrong), but discards it due to stupidity (imprudence, adverse direction of the intelligence). The concept that one is the body and the Almighty is different, is his ignorance (foolishness, mistake).
Soul is immortal component of Almighty & the body is a perishable component of nature.
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥5.16॥
परन्तु जिन्होंने वह अज्ञान, अपने ज्ञान के द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस परमतत्व, परमात्मा को तुरन्त प्रकाशित कर देता है।
Those who have destroyed the ignorance by enlightenment-wisdom, their learning illuminates the gist (nectar, elixir) of the Ultimate like Sun in them, instantly.
अपनी सत्ता-स्वयं को शरीर से अलग मानना ज्ञान और दोनों को एक मानना अज्ञान है। शरीर बाल पन से वृद्धावस्था तक परिवर्तनों से गुजरता रहता है, परन्तु उस शरीर को धारण करने वाला आत्म अपरिवर्तनीय है। शरीर के प्रति मैं पन (मैं, मेरे का भाव) विवेक के द्वारा त्यागा जा सकता है। विवेक से अपने स्वरूप का बोध होता है। यह बोध सर्वत्र परिपूर्ण परमात्म तत्व को प्रकाशित कर देता है और उसके साथ अपनी अभिन्नता भी प्रकट हो जाती है। जिस प्रकार सूर्योदय से अंधकार से आच्छादित वस्तुएँ प्रकाशमान हो जाती है और दिखाई देने लगती हैं उसी प्रकार मनुष्य को अपने अन्दर निहित परमात्म तत्व दृष्टि गोचर होने लगता है। विवेक सूर्य के प्रकाश के सदृश-अनुरूप है।
Body and soul are two separate entities. Body represents nature and the soul is a component of the Almighty. Wisdom (enlightenment, learning) illuminates the innerself of the individual, which removes the ignorance in him. Prudence helps one in shedding off the shroud of Avidya-ignorance (or any thing which lure one to sensualities, attachments, desires) in him just like the Sun which brightens the objects all around. These material goods were already present but one could not see them. Sun light makes them visible. Similarly, the aura of prudence removes the misconceptions-wrong notions and helps one in identifying the self like the gist (nectar, elixir) of the Ultimate.
तद्‌बुद्धयस्तदात्मानस्त न्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥5.17॥
जिनका मन तत् (ब्रह्म या आत्म) रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तत् (ब्रह्म) रूप हो रही है और जो निरंतर तत् (ब्रह्म) में ही निष्ठा वाले हैं, ऐसे ज्ञान द्वारा निष्पाप हुए पुरुष अपुनरावृत्ति (परम गति) को प्राप्त करते हैं। परमात्म तत्व का अनुभव विवेक के द्वारा असत् का त्याग और सत् का निरंतर-अनवरत चिन्तन करने से प्राप्त हो।
One who's thoughts (emotions, mind) are transformed like the Tat, intelligence-brilliance is transforming like the Tat (Brahm, Almighty) and is devoted to the Tat, becomes sinless (pure, pious) through enlightenment to gain momentum-assimilation in the Supreme (Ultimate, the Almighty), never to return i.e., no rebirth, no incarnation.
साधक बुद्धि के द्वारा यह मनन (विचार, निश्चय, निर्णय) करे कि सब तरफ परमात्म तत्व ही परिपूर्ण है; सृष्टि के आदि, प्रवाह-वर्तमान और अन्त में भी परमात्मा विराजमान हैं, थे और रहेंगे अर्थात उनकी सत्ता अटल है। इस चिन्तन से संसार की सत्ता स्वतः ही नष्ट हो जाती है। इस स्थिति में साधक स्वयं को परमात्मा में लीन अनुभव करता है। साधक द्वारा स्वयं की एकता परमात्मा में अनुभव करने से अह्मभाव मिट जाता है। ज्ञान से सत्-असत् का भान-विवेक होता है जो असत्त की निवृति कर देता है। यह परिणति (पराकाष्ठा, चरम बिंदु, पराकोटि) पाप-पुण्य की समाप्ति और सम्बन्ध विच्छेद देती है, जिससे पुनरावर्ती-पुनर्जन्म नहीं होता।
One experiences the gist (nectar, elixir) of the Par Brahm-Almighty with the help of prudence by rejecting the impure (tainted, smeared, fake) and continuously thinking (meditating, concentrating) in the pure (pious, just, truth). The practitioner should decide-convince himself that the Almighty is pervading the whole life and was present in the beginning, middle and will remain at the termination (of the present cycle of creation) of it. The God was there, HE is there and will remain there for ever. The practitioner is a component of the God. The evolution of this thought process will perish the prominence of life-living world and he will find himself connected with the Supreme (Ultimate, the Almighty). Ego-individuality is lost by experiencing oneness with the God. Gyan-awakening helps in distinguishing between true-false, right-wrong, perishable-imperishable, Sat-Asat (Fair-foul, right-wrong, sinful-virtuous) & virtues & sins. This culmination automatically detaches all bonds and rebirth-incarnation does not repeat-occur.
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥5.18॥
ज्ञानी महापुरुष विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी और कुत्ते को समान देखते हैं।
The enlightened do not differentiate-distinguish between a learned Brahman possessed with humility, a Chandal-low caste, a cow, an elephant or a dog.
जो ब्राह्मण विद्वान् और विनम्र है, वो अहंकार से मुक्त और पूर्ण है। पूजा ब्राह्मण की, की जाती है, न कि चाण्डाल की। दूध गाय का पीया जाता है, न की कुतिया का और सवारी हाथी की, की जाती कि कुत्ते की। इनमें व्यवहार की समता सम्भव न होने पर भी तत्वतः सबमें परमात्म तत्व परि पूर्ण है। महापुरुष उस परमात्म तत्व को प्रधानता देते हैं, न कि उनकी शरीरिक रचना पर। उनकी दृष्टि विषम नहीं हो सकती। सर, पैर, हाथ और गुदा हमारे अपने हैं, मगर मनुष्य व्यवहार की दृष्टि से उन्हें भिन्न पाते हैं। हाथ-पैर की उँगलियों और अँगूठे के प्रति मनुष्यों के व्यवहार में भी अन्तर है। इनमें मनुष्यों का व्यवहार भले ही अलग-अलग हो, आत्मीयता एक समान है। सबमें दर्द-पीड़ा का अनुभव मनुष्यों को ही होता है। इसी प्रकार प्राणियों में खान-पान, शरीरिक रचना, गुण, आचरण, जाति गत भेद-अन्तर होता है और उसके अनुरूप ही व्यवहार भी किया जाता है। उन प्राणियों के प्रति महापुरुष के प्रेम, आत्मीयता, हित दृष्टि, दया की भावना समान बनी रहती है। उसके अन्तःकरण में राग-द्वेष, ममता, आसक्ति, अभिमान, पक्षपात, विषमता आदि का सर्वथा अभाव होता है। ऐसे पुरुष समदर्शी कहे गए हैं। अद्वैत भाव में होना चाहिए क्रिया-व्यवहार में नहीं।
A learned Brahman who possess humility is complete and deserve prayer, since he is free from ego-pride. One prays a Brahman but not the Chandal. He drinks milk of the cow not the bitch and rides an elephant not the the dog. He distinguishes between them practically but treat them as living beings, having the same soul-a component of the Almighty. The gist is that they too have the same spirit. The great souls-people give importance-credence to the presence of the Ultimate in them, not the physical configuration-structure. One has the head, mouth, hands-legs and the anus present in the same body. As far the practicality is there, his behaviour-treatment with them is different. He bears shoes in the feet and never keep them over the head. Mouth is to eat and not the anus. There is distinction between the fingers and the toes of the hands and the feet too. Still, when it pinches-pains, he gives equal importance-care to them. Distinction by virtue of eating habits, physique, caste, characters, behaviour remains but pity, desire to help and benefit, affection prevails equally. His heart is free from attachment, distinctions, pride, partiality. Such people are described as impartial-equanimous. Equanimity is there in feelings-sympathy not in practice-actions.
One who has acquired equanimity is relinquished.
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥5.19॥
जिनका मन-अन्तःकरण सम भाव में स्थित है, उन्होंने इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार को जीत लिया है। वे जीवन्मुक्त हो गए हैं (उनके द्वारा यहाँ संसार में ही लय-मुक्ति को प्राप्त कर लिया गया है); क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिए वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।
Those who's mind-innerself is established in equanimity, have over come all hurdles in the path of Liberation on this earth, itself. As the Brahm is faultless and homogeneous, indeed they have assimilated in the Brahm (Ultimate, the Almighty).
परमात्म तत्व अथवा स्वरूप में स्वाभाविक स्थिति का अनुभव होने पर मन-बुद्धि में राग-द्वेष, कामना, विषमता आदि का सर्वथा अभाव हो जाता है। मन-बुद्धि में स्वतः स्वाभाविक समता आ जाती है, लानी नहीं पड़ती। महापुरुषों के अन्तःकरण में निरन्तर समता, निर्दोषता, शान्ति आ जाती है। सभी मनुष्य परमात्म तत्व की प्राप्ति कर सकते हैं और जीते जी वर्तमान में ही संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता हैं। मनुष्य इन्द्रियों, मन, ममता, कामना, शरीर, बुद्धि, परिस्थितियों, घटना, स्पृहा, तृष्णा, वासना, सुख, प्रलोभन, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि के अधीन बना रहता है। परन्तु ज्ञान, विवेक, समता के साधन से इन सब पर विजय प्राप्त कर लेता है। परमात्म तत्व दोष, विकार, स्पृहा, विकार, विषमताओं से मुक्त और निर्लिप्त सम अवस्था में रहना मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति में सहायता करता है।
When one attains the gist-basic element of the Ultimate, he is blessed with loss of defects like attachments-bonds, enmity, desires, irrationality etc. Natural equanimity occurs in his innerself automatically, without efforts-practice. All humans can achieve the gist of the Ultimate in their life time and detach from the world. Man is under the control of body, mind, desires, affection, greed, favourable or against situations, lust, comforts, events, wish-ambitions, fantasy etc. But enlightenment, prudence, equanimity helps in over powering these hurdles. The gist-element of the Almighty is free from defects. One who overcome these defects leads to Liberation in their life time.
Prudence, enlightenment, equanimity, self satisfaction, realising the self helps one in attaining emancipation & the Almighty.
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः॥5.20॥
जो प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं होता और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न नहीं होता, वह स्थिर बुद्धि, संशय रहित, ब्रह्म को जानने वाला पुरुष, पर ब्रह्म में नित्य स्थित है।
One who neither rejoice on obtaining the pleasant, nor grieve on obtaining the unpleasant; is with a steady mind, without any doubts, identifies the Brahm-Almighty in himself, knows the Brahm-GOD and rests in HIM.
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सिद्धान्त, सम्प्रदाय, शास्त्र आदि के अनुकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि की प्राप्ति प्रिय और इनके प्रतिकूल-विपरीत अप्रिय है। प्रिय अथवा अप्रिय किसी की भी प्राप्ति साधक के अन्तःकरण में हर्ष या विषाद पैदा करने वाली नहीं होनी चाहिए। इनका ज्ञान-भान होना, दोष, राग, द्वेष युक्त होना और उनका अन्तःकरण के ऊपर असर-प्रभाव होना, दोनों ही बातें भिन्न हैं। प्रिय अथवा अप्रिय होने पर हर्षित, उद्विग्न कर्ता होता है। यह अहंकार है, जो उसे कर्तापन से मोहित करता है। जो तत्व वेत्ता है, जिसका मोह अहंकार दूर हो चुका है, समझता है कि गुणों में गुण ही बरत रहे हैं और वो हर्षित या उद्विग्न नहीं होता। स्वरूप का ज्ञान स्वयं के द्वारा स्वयं को होता है। इसमें ज्ञाता और ज्ञेय का भाव नहीं है। यह ज्ञान करण-निरपेक्ष है। इसकी दृढ़ता से विकल्प, सन्देह, विपरीत भावना-विचार, असंभवता आदि नहीं होते। इसलिए साधक स्थिर बुद्धि कहा गया है। उसमें इस मूढ़ता का अभाव कि परमात्मा सदा-सर्वत्र नहीं है और उत्पत्ति-विनाश असत्य हैं। यह विचार-भावना साधक को ज्ञानी बनता है। परमात्मा से अलग होकर परमात्मा का अनुभव असंभव है। उसे जानने वाला उससे अभिन्न है। जो व्यक्ति शरीर मन, बुद्धि आदि में अपनी ही स्थिति मानता-समझता है, उसको ब्रह्म का अनुभव हो ही नहीं सकता। ब्रह्म का अनुभव होने पर सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म रह जाता है।
Favourable attainments with respect to body, mind, intelligence, community, ideals-principles pertaining to any incident-situation, object, person according to his liking or disliking, does not please or displease the practitioner. They do not either disturb (irritate, annoy) him or give pleasure-happiness to him. He is free from the ego-pride of being the doer. He is out of illusion-enchantment. He is aware that its nothing but the interaction of the characters-properties (qualities, traits) within themselves. One who has understood-felt the gist-essence of the Almighty, is neither worried nor happy. He is neutral to these situations. He has realised the self and identified himself with IT-GOD. He is free from the feeling-dispensation of being enlightened-learned or have identified himself as a component of the Almighty. His mind do not distract or create doubts, opposite-anti feelings, uncertainties-impossibility etc. and is therefore, considered to be stable. He is free from the feeling (obsession, thoughts) that the Almighty is not present every where, in every one. He do not consider the evolution and destruction to be reality. These thought-ideas make the practitioner enlightened-learned. Its impossible to know-identify one with the Almighty, by keeping himself alienating (separate, away) from HIM. One who knows HIM is inseparable from HIM. One who considers himself as body, mind and intelligent can not achieve HIM. The moment one experiences the presence-essence of Brahm in himself, its only the Brahm for him every where, in each and every soul-living being, particle-commodity.
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मासुखमक्षयमश्नुते॥5.21॥
बाह्य स्पर्श में आसक्ति रहित अन्तःकरण वाला साधक जो सुख प्राप्त करता है, वही अक्षय सात्विक सुख-परमानन्द ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित मनुष्य अनुभव करता है।
The practitioner who has abandoned-rejected the pleasure in external touch-experiences, obtains the inexhaustible joy-Bliss (Ultimate pleasure, Parmanand); which an inseparable devotee immersed in the Almighty-contemplated in the Brahm, experiences.
अभिन्न साधक वह है, जो परमात्मा के अतिरिक्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, आदि में स्पर्श, शब्द आदि के संयोग जन्य सुख में आसक्ति मिटा चुका है। इसके अतिरिक्त वह साधक जिसका दृढ़ निश्चय और उद्देश्य आसक्ति मिटाने का हो चुका है, को भी आसक्ति रहित माना जा सकता है। बाह्य स्पर्श से अनासक्त होकर साधक प्रिय को पाकर हर्षित और अप्रिय को प्राप्त करके उद्विग्न नहीं होता। बाह्य पदार्थों से सम्बन्ध-विच्छेद हुए बिना सुख संभव नहीं है। नींद वह नियमित प्रक्रिया है, जिसमें मनुष्य पदार्थों, संसार, चिन्ता, मोह, प्रेम, विषाद से मुक्त होता है और जगने के बाद सुख, ताजगी, बल, निरोगता, निश्चिन्ता का अनुभव करता है। बाह्य पदार्थों से सम्बन्ध अवास्तविक और परमात्मा से सम्बन्ध वास्तविक है। बाह्य पदार्थों से सम्बन्ध मिटने पर सात्विक-आत्मिक सुख मिलता है। बाह्य पदार्थों का सुख राजसिक और क्षणिक है। शरीर से अलग होना (रागों, मोह, ममता, कामना, इच्छाएँ) मिटना और ब्रह्म में स्थित होना, परमात्म तत्व की प्राप्ति और अनुपम-असीम सुख कारक है। परमात्म तत्व की प्राप्ति भोगों से विरक्ति, अहंम् का नाश करने वाली है। परमात्म तत्व मनुष्य में परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न करता है।
The inseparable practitioner is one who has rejected all joys-pleasures obtained through the body, senses, mind & heart, intelligence and the soul. (He has lost interest in sex-physical relations.) One who has firmly committed himself to the rejection of external pleasures, too deserves the Ultimate pleasure. Such devotees neither feel joy by achieving the wealth (luxuries, comforts) nor feel pain at the loss of loved ones. He is unconcerned-unperturbed in all situations. This state provides him Ultimate relaxation-delight. One finds that after a good-sound sleep he feels fresh, active, energetic, healthy. Sleep is a state, when one has lost all concern for the possessions (relations, happenings) and even his own existence. In this state he is detached. This indifference (neutrality, equanimity) with the world attaches him with the Almighty. His connection with the body, external world-nature is unreal and that with the souls-God is real-permanent. Pleasures obtained through the worldly possessions are perishable, impermanent-momentary being Rajsik in nature form. Detachment from the body, desires, affectations, motives leads to attainment of the gist (essence, nectar, elixir, theme, extract) of the Ultimate. This is the permanent (ever lasting, Ultimate pleasure, bliss). The ego is lost and the love for the God (The Creator, the Nurturer & the Destroyer) is generated.
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेयन तेषु रमते बुधः॥5.22॥
क्योंकि हे कुन्ती नन्दन! इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सभी भोग-सुख, दुःख उत्पन्न करने वाले ही हैं। इसलिए इन आदि-अन्त वाले अनित्य भोगों में, विवेकशील-बुद्धिमान पुरुष नहीं लिप्त होते।
Hey Kunti Nandan! Delights (joy, pleasure) born due to contact of sense organs and their objects, ultimately result in pain (sorrow, distraction). So, the wise do not rejoice in such delights with a beginning and an end.
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध से प्राप्त होने वाला सुख, भोग कहलाता है। सुख-सुविधा, मान, प्रशंसा मिलने से प्रसन्न होना, भोग है। परमात्मा के अतिरिक्त जितने भी प्रकृतिजन्य पदार्थ, प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, अवस्थाएँ आदि जो सुख प्रदान करती हैं, वह भी भोग हैं। शास्त्र निषिद्ध भोग तो सर्वथा त्याज्य हैं, शास्त्र विहित भोग भी परमात्म प्राप्ति में बाधक होने से त्याज्य हैं। परमात्म प्राप्ति के लिए जड़ता से सम्बन्ध विच्छेद करना आवश्यक है, क्योंकि जड़ता का भोग से सीधा सम्बन्ध है। भोग अनित्य, परिवर्तनशील हैं। वे कभी एक रूप, एक रस रह ही नहीं सकते। पदार्थ-भोग जड़ हैं और स्वयं (आत्मा, शरीरी) चेतन है। भोग विकारी और स्वयं निर्विकार है। भोग आदि-अंत वाले हैं, जबकि स्वयं अनन्त-अन्तहीन है। स्वयं को भोगों से सुख मिल ही नहीं सकता। परमात्मा का अंश होने से जीव को उसे परमात्मा से ही अक्षय सुख मिल सकता है। भोग आने-जाने वाले हैं। सम्बन्ध जन्य सुख-दुःख के उत्पति स्थल हैं और भोगी दुखों का घर है। विवेकी पुरुष के लिए परिणाम, ताप और सँस्कार से उत्पन्न दुःख भोग की परिणति ही हैं। भोगों की प्राप्ति में प्रारब्ध की प्रधानता अपनी परतन्त्रता है। भोगों की प्राप्ति सदा के लिए और सबके लिए नहीं होती। परमात्मा की प्राप्ति हर युग में सबके लिए सुलभ है। भोग निःसंदेह और निश्चित रूप से दुःख का कारण हैं। सामान्य व्यक्ति जिन भोगों को सुख समझता है, विवकी उन्हीं को दुःख का कारण मानते हैं। विवेकी पुरुष को इस बात का ज्ञान है कि दुःख, सन्ताप, पाप, नरक, आदि संयोग जन्य सुख की इच्छा पर आधारित हैं। विवेकी पुरुष भोगों में रमण नहीं करता। वो जानता है कि अनन्त सृष्टि में कोई भी वस्तु उसके लिए नहीं है। उसका मात्र उद्देश्य परमात्म की प्राप्ति है।
The pleasure, delight attained through hearing, listening, smelling, beauty-seeing are termed as consumption. Luxuries, comforts, appreciation, honour too are consumption-utilisation. Everything evolved out of the nature deserve to be rejected, since it pertains to consumption. Its only the God who is not covered by consumption. The pleasures prescribed-granted by the scriptures too, deserve to be rejected. Every thing which is consumed, is sure to vanish one day or the other, leading to pain-sorrow. Material objects, worldly pleasures are static-inertial by nature and obstruct in the assimilation in God. Consumption varies from time to time, depending upon availability, situation, circumstances, while the self is conscious for ever. Its ever lasting. Consumption is full of variants and defects, while conscious is defect less (pure, pious, righteous, virtuous). Consumption has a limit (end, termination), while conscious is endless-perpetuating. Conscious can not attain comfort-pleasure from the worldly material objects. The conscious in human, is a segment of the Almighty and can attain pleasure in HIM only. The self-conscious can not get comfort from consumption. The pleasure evolved out of inter relations, are the breeding ground of pains. For the prudent, the sorrow evolved out of the outcome, experience and habits is the climax of the consumption-involvement. Consumption is decided by the destiny-fate and one has to bear with it. Consumption is not meant for ever and for every one. The Almighty is available to each and every one in every cosmic era, at all times. Consumption is sure to bring pain (torture, difficulty).
A common man considers the consumption (comforts, pleasures) to be the source of delight but the prudent rejects them being the source of distraction-trouble. The prudent knows that sins, hells, pains-sorrow, tortures-troubles are dependent over the availability-fulfilment of occasional desires for comforts. Prudent do not involve himself in pleasure-comforts, since he is aware that none of the worldly goods are meant for him. His sole aim is assimilation in the Almighty.
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमो क्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥5.23॥
जो मनुष्य इस शरीर का नाश होने से पूर्व ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही योगी है और वही सुखी है।
One who has controlled the sexual impulse-desire and anger-furore (rampage, alarms and excursions, maelstrom, excitement, stimulation, excitation, aggravation, anger, rage, fury, ire, bate) within his life time is a Yogi and is relaxed (comfortable, blessed).
मनुष्य योनि में विवेक की प्रधानता-प्रबलता है। मानव शरीर इस गुण से व्याप्त है। परन्तु जो मनुष्य भोग-संग्रह में लिप्त है, उसमें विवेक दबा, ढँका, आच्छादित रहता है। विवेकी व्यक्ति राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकारों को काबू में रखकर उन पर विजय प्राप्त कर लेता है। भोगों से उपरति प्रणियों में सामंजस्य भाव, समता की क्षमता उत्पन्न कर सकते हैं। काम-क्रोध मन में अशांति, उत्तेजना, संघर्ष जैसे भावनाएँ उत्पन्न करने लगते हैं। काम-क्रोध का वेग सहन करने वाला सुखी है। अच्छी संगत, सुविचार, संस्कार, सद्भाव, धर्मोपदेश, शास्त्र का ज्ञान, धर्माचार काम-क्रोध के वेग को थामते हैं। काम-क्रोध का वेग, अपने से शक्तिशाली के भय से भी रुक जाता है। राज्य-कानून का भय भी इसको रोकता है। कुछ लोग बदनामी के भय से भी इसे काबू में रखते हैं।
जो आत्म नियन्त्रण स्वतः संकल्प से पैदा होता है, वह मनुष्य को योगी, नर, शूरवीर बना देता है।
काम-क्रोध, राग-द्वेष की ही परिणति हैं और प्रकृति के विकार हैं, स्वरूप के नहीं। काम-क्रोध, पशु-पक्षियों तक में अशांति, चंचलता, संघर्ष जैसे दोष-भाव पैदा करते हैं।
Its only human who is awarded with the prudence. Even the residents of heaven lack this faculty, since they have gone there to enjoy. Lower species too do not have this feature in their brain. Prudence remain masked in those humans, who are engaged in sensuality, sexuality, consumption, collection. One who discards sensuality-sexuality, develops equanimity with the other species, controls the urge successfully. Desire for sex develop anger, imbalance, excitation, tussle, unrest. One who tolerate-controls this flow, is happy. Good virtuous company, thought, ideas, virtues, religious sermons, scriptures, learning of epics teachings of the noble (enlightened, Pandits, scholars, philosopher) helps in over powering this desire-urge. The fear of the mighty, state-law and legislature too keep one under control. Fear of defamation too restrict this faculty.
One who has exercised self control is a true human, great person, a true Yogi.
Attachment, hate, desires generate lust and sexuality. These are the natural defects of body not the true self. Lust, sexual desire create anguish, in the animals as well, leading to tussle (quarrel, rift, dissatisfaction, disappointment) in them, as well.
One must control his sense organs and the innerself-Man, to achieve the Almighty.
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्त थान्तर्ज्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥5.24॥
जो योगी केवल अन्तरात्मा में ही सुख वाला, केवल अन्तरात्मा में ही रमण करने वाला, केवल परमात्मा में ज्ञान-प्रकाश वाला है, वह ब्रह्म में अपनी स्थिति का अनुभव करने वाला (ब्रह्म रूप बना हुआ) साँख्य योगी निर्वाण-ब्रह्म को प्राप्त होता है।
The Sankhy Yogi who finds joy (bliss, Parmanand) within, contemplate within, enlightenment within only, experiences-identifies himself with the Brahm-Almighty and attains Salvation.
अन्तःसुख-आत्मिक सुख केवल परमात्मा के श्री चरणों में ही उपलब्ध है। इस सुख का आधार बाह्य सुख नहीं है। ऐसा साँख्य योगी केवल परमात्म तत्व में ही रमण करता है, भोगों में नहीं। उसे आत्म राम कहा गया है। इन्द्रिय, सांसारिक और बुद्धि जन्य आदि ज्ञान का आधार परमात्म तत्व ही है। जिसे अंतः ज्योति कहा गया है। परमात्म तत्व का न आदि है और न अन्त। वह नित्य-निरन्तर, परिपूर्ण और स्वतः स्वाभाविक है। ऐसा साधक-योगी ब्रह्म में अपनी स्थिति का अनुभव करता है। वह शान्त है और निर्वाण को प्राप्त करने वाला है।
Inner peace (tranquillity, solace), is available under the asylum, (shelter, patronage) of the Almighty-Brahm. This extreme pleasure (Parmanand, bliss) has no external factor, since its within the enlightened-the Sankhy Yogi. The enlightened interacts within self and not the sensualities (sexuality, consumption). He is Atm Ram-one who interacts within self-eternity. He has achieved the Parmatm Tatv (gist of the Almighty), the source of the knowledge of the sense organs, worldly learning and the identification through the intelligence. This is termed as Antah Jyoti-inner consciousness. The gist of the Almighty is endless and lacks beginning, like the Almighty himself. It is for ever-perpetuating, complete and inborn. The devotee-practitioner realises the Brahm in himself. He is quite and attains Salvation-freedom from incarnations.
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥5.25॥
जिनका शरीर, मन-इन्द्रियों और बुद्धि सहित वश में हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके सम्पूर्ण दोष मिट-नष्ट हो गए हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण (ब्रह्म) को प्राप्त होते हैं।
The prudent devotee-practitioner, whose physique, innerself-sense organs and the intelligence are under his firm control-resolve, who is devoted to the welfare of all living beings, whose all doubts have been cleared; attains the Almighty.
जिस साधक का दृढ निश्चय और लक्ष्य सत्य तत्व की प्राप्ति है, उसके मन में कोई दुविधा (संशय, विकल्प, भ्रम) शेष नहीं है और उसका शरीर मन-इन्द्रियों और बुद्धि सहित स्वतः वश में हो जाता है। साधक उन्हें अपना नहीं मानता। उसमें निर्विकारता आ जाती है और उसके राग-द्वेष नष्ट हो जाते हैं और उसकी प्रत्येक क्रिया-चेष्टा दूसरों का भला करने में रहती है। उसमें व्यक्तित्व का अहम् भी नहीं है। अतः वो सभी प्राणियों में एकता-समानता का अनुभव करता है। ज्ञान-विवेक को महत्व देने वाले साधक-ऋषि गण गृहस्थ में रहते हुए भी परमात्म तत्व को प्राप्त कर लेते हैं। ब्रह्म तो सदा-सर्वदा अपने में मौजूद रहता है, परन्तु शरीर में अपनी सत्ता मानने के कारण मनुष्य को उसका अनुभव नहीं हो पाता। जिस प्रकार समुद्र, उसकी लहरें तथा जल भेद रहित है; उसी प्रकार निर्वाण, ब्रह्म, आत्मा और परमात्मा के भेद से रहित है।
The devotee-practitioner, who is firm in his resolve to attain the Truth-Ultimate, is free from all doubts. His body along with mind-intelligence and the senses, is under his firm control. He is free from defects and has lost all attachments, conflicts, confrontations. He is rational. All his efforts are meant for the betterment (service, help of others). He is free from the personality defect-the ego of being a human. He equates every organism with himself. The ancient sages-Rishis attained the Almighty, while remaining in the family through prudence and enlightenment. Brahm is always present within one-the devotee. The manner the ocean, its waves and the water are undifferentiated, the soul and the Almighty too are undifferentiated; like the water and waves of the ocean. In the same manner Salvation, Brahm, soul and the Almighty are undifferentiated. One does not recognise himself due to his arrogance and ego of being an independent entity as a human being.
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥5.26॥
काम-क्रोध से रहित, जीते हुए मन-चित्त वाले, आत्म-साक्षात्कार किए हुए योगियों के लिए सब ओर से (शरीर के रहते हुए अथवा शरीर छूटने के बाद) निर्वाण, ब्रह्म परिपूर्ण है।
Yogis, who are free from sensualities, passions, desire and anger, who have over come their mental faculties (imaginations, assumptions, thoughts, ideas) and have identified the Self, with the Brahm; who exists everywhere for them (whether it is during life time or after wards).
जीवन्मुक्त सिद्ध महापुरुषों में काम-क्रोध लेश मात्र भी नहीं रहते। उत्पत्ति-विनाशशील असत् के साथ उनका अन्तःकरण सहित सम्बन्ध नहीं रहता। सत् के साथ तादात्म्य होने पर कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं। कामना न होने से क्रोध पैदा ही नहीं होता। काम-क्रोध का वेग, आवर्ती धीरे-धीरे कम होने लगती है। भोगासक्ति मिटने लगती है। अन्तःकरण शुद्ध होने लगता है। कोई उसकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करे, उसकी अवहेलना करे, तंग करे तो, वह परेशान-क्रोधित नहीं होता। मन-चित्त वश में हो जाते हैं और उनका भटकना बन्द हो जाता है। जिस कारण से शरीर प्राप्त हुआ है, उसका ज्ञान-बोध होने से, उसे स्वरूप की अनुभूति-प्राप्ति हो जाती है। शरीर रहो या न रहो वह शाँत ब्रह्म में स्थित-लीन हो चुका है।
जिस तत्व-ब्रह्म को ज्ञान योगी और कर्म योगी प्राप्त करते हैं, उसी को ध्यान योगी भी कर लेता है। जप-तप, ध्यान-सत्संग और स्वाध्याय प्रत्येक साधक के लिए उपयोगी और अत्यावश्यक हैं, क्योंकि ये ब्रह्म प्राप्ति की सहगामी प्रक्रियाएँ हैं।
The detached (accomplished, great soul, practitioner), has lost all desires, which results in loss of anger. His innerself has no connection with the virtual (fake, illusory, mirage). He has developed a rapport with the real-eternal, leading to loss of desires and the anger, thereafter. The intensity-frequency of desires (sexuality, sensuality, passions, lasciviousness), start receding gradually. No attachment is left with lust. The innerself start becoming pure (pious, righteous, virtuous). He is not perturbed, if someone disobey, neglect, ignore, reject him. His mind is concentrated in the Almighty and self control is attained and exercised. He has realised the purpose of his incarnation as a human being. The wisdom-enlightenment makes him stable in the Brahm. He stops wavering. He has reached that stage, where the physique is meaningless-immaterial. Its immaterial, whether he has the body or not. The body is insignificant-unimportant, at this stage. He has attained peace (solace, tranquillity) and is stable with the Par Brahm Parmeshwar.
The Truth-gist of the Ultimate achieved by the Gyan Yogi and the Karm Yogi is the same as the one achieved by the Dhyan Yogi, who concentrate his mind in the Almighty and penetrate into HIM. Jap-recitation, Tap-asceticism, Dhyan (meditation, concentration) in the Almighty, pious (virtuous, righteous) company and self study (reading, learning) the scriptures, Ved, Puran, epics, Itihas-history are essential and useful for all practitioners and goes side by side, simultaneously.
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्च क्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥5.27॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥5.28॥
बाह्य विषयों को न अनुभव करते, नेत्रों की दृष्टि को दोनों भौहों के बीच में स्थिर करके, नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके; जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि वश में हैं, जो केवल मोक्ष परायण है तथा जो इच्छा, भय और क्रोध से सर्वथा रहित है, वह मुनि सदा मुक्त ही है।
The sage (ascetic, practitioner, Muni, Yogi), who is not experiencing the external influences, fixing his sight between the eyebrows (contemplating in the eternal), modulating (balancing, regulating) the breaths-moving in and out, through the nostrils (inhaling Pran-pure air, holding it for a while & exhaling, Apan-impure air), who's sense organs, mind mood-impulses and the intellect are under firm his control, who is dedicated to Liberation-Assimilation in the Almighty and who is free from desires, fear and anger, is verily liberated.
मनुष्य के लिए परमात्मा के सिवाय अन्य समस्त पदार्थ बाह्य हैं अर्थात मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और मेरे लिए नहीं है। इनका त्याग कर्म योग में सेवा और ज्ञान योग में विवेक के द्वारा किया जाता है। ध्यान योग में मात्र प्रभु के चिन्तन करने से विमुखता प्राप्य है। बाह्य पदार्थों के प्रति राग बन्धन कर्ता है, जिसका त्याग करना है।
साधना के दौरान नेत्र बन्द रखने से नींद और खुला रहने से सम्मुख परिदृश्य से बाधा उत्पन्न होती है। अतः आँखों को दोनों भौंहों के बीच केन्द्रित करने के लिए कहा गया है। इस दौरान प्राण और अपान वायु को प्राणायाम की विधाओं से संयत किया जाता है।
मानव मस्तिष्क के दो भाग हैं, जो कि इन्द्रियों से अर्जित ज्ञान और बुद्धि के बीच सामन्जस्य स्थापित करते हैं। मन की गति इन दोनों के संयोग से निर्धारित होती है। इन्द्रियाँ संयोग-सुख देखती है और बुद्धि परिणाम। जिसके मन पर इन्द्रिय जनित सुख का प्रभाव है, वह केवल भोग और अतृप्त वासनाओं का खिलौना मात्र है। ज्ञान-विवेक से संचालित बुद्धि परिणाम को देखकर मन को मुक्ति की ओर अग्रसर करती है। इन दोनों के बीच सामन्जस्य स्थापित करना मन का कार्य है। जो व्यक्ति-साधक, मुनि इस संसार को असत्य मानता है, वो मोक्षमार्ग का अनुयायी है। कर्म योग, ज्ञान योग, ध्यान योग, भक्ति योग तथा अन्यानेक मोक्ष मार्गों में दृढ निश्चय-विश्वास नितान्त आवश्यक है। मनुष्य दैनिक-घरेलू, गृहस्थ जीवन में इस विधाओं का आश्रय एक साथ ग्रहण कर सकता है।
अपने से बलवान से भय और निर्बल पर क्रोध आता है। इन्द्रियाँ ताकतवर और बुद्धि-विवेक निर्बल हैं, तो साधक की साधना छलावा (निरर्थक, व्यर्थ) है। मृत्यु को बलवान मानना, साधना में बाधक है। सुख की आकांक्षा, अतृप्त कामनाएँ, मृत्यु का भय जन्म-मरण के चक्र में बाँधे रखता है। इच्छाओं का अभाव और समता प्रतिक्रियाओं से मुक्त करता है और क्रोध से मुक्ति हो जाती है। मनुष्य को जीने की इच्छा से मुक्ति प्राप्त हो जाती है और वो जीते जी अमर हो जाता है।
जो मुक्त है, उस पर किसी प्रकार की घटना, परिस्थिति, निंदा-स्तुति, अनुकूलता-प्रतिकूलता, जीवन-मरण आदि का किञ्चित मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता। वो स्वरूप से मुक्त हो जाता है। संसार से माना हुआ सम्बन्ध मिटते ही, मनुष्य को स्वतः सिद्ध मुक्ति का अनुभव हो जाता है।
Everything-entity except the God is external for the practitioner-Yogi. I am not the body, body does not belong to me and is not meant for me. Rejection of these is done through service of mankind in Karm Yog, prudence and wisdom-enlightenment in Gyan Yog and through the thoughts (ideas, concentration, meditation, mentally immersing) in the Almighty in Dhyan Yog. Attachment for the external goods-entities, creates ties-bonds, which have to be broken (eliminated, rejected).
Closing of eyes during meditation brings sleep, opening or closing the eyes brings the whole arena in front and concentrating the eyes between the two eye brows over a point (OM, one forms mental image of the Almighty), helps in meditation. During this period the Dhyan Yogi has to follow the Pranayam for balancing his breath. Intake-inhaling, holding for a while, discarding-exhaling the air has to be balanced. A rhythm is created.
Please refer to :- YOG (6) योग :: YOG POSTURES योगाभ्यास मुद्राएँ santoshkipathshala.blogspot.com
Human brain has two halves which keeps a balance between the sense organs-sensualities and the intelligence. The balance between the two makes the desires (moods, impulses) function. The sense organs looks to pleasure-consumption and the intelligence looks to result. One who's mind is under the influence of the sense organs looks to pleasure only, while one who is inclined to the Almighty looks forward to Liberation-Assimilation in HIM. The brains which are under the intoxication of the pleasures provided by the sense organs never achieve satisfaction. Saturation never comes. The wisdom-prudence helps one in deciding his future course of action, whether he has to bear the brunt of reincarnations or to seek asylum under the Almighty, where there is bliss-Ultimate pleasure and nothing else. The practitioner who understands that the world is nothing other than illusion-mirage moves ahead to Salvation. Karm Yog, Gyan Yog, Dhyan Yog, Bhakti Yog and all other means of Salvation leads one to the God for which firmness is essential-a must. Its possible to move-follow all these paths together while in family life, simultaneously.
One is afraid of the mighty and shows anger towards weaker to him. If the senses are stronger and intelligence, prudence are weak, meditation is useless for the practitioner. Unfulfilled desire for pleasure-comforts fear of death keeps one moving from one species-birth to another. Rejection of desires and equanimity relieves one from reactions-prejudices and ultimately from fear. Discarding the desire for longevity-survival relieves one from the clutches-fangs of death and one acquires immortality during lifetime it self.
One who is free, is not affected by any incident (occurrence, situation, slur, prayer, favourable or difficult situation, environment), life or death. He has freed himself (inner soul, own self, innerself). The moment relation with the world is discarded, one start experiencing freedom automatically.
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥5.29॥
मेरा भक्त मुझे सब यज्ञ और तपों का भोक्ता-भोगने वाला, सभी लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर और सभी प्राणियों का सुहृद् (स्वार्थ रहित, दयालु और प्रेमी) जान कर परम् शान्ति को प्राप्त होता है।
My devotee on having recognised ME, as the receiver-consumer of all sacrifices and austerities, the master of all abodes, the friend (without motive-grudge, kind hearted and lovable) of all beings-creatures, attains Ultimate peace.
मनुष्य जो भी शुभ कर्म, पूजा पाठ, दयालुता करता है, वह सीधे तौर पर प्रभु को प्राप्त होते हैं। जिन साधनों-शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ और प्राण से शुभ कर्म किये गए, वो भी भगवान् के ही हैं। उनको अपना मानना भूल है। उनको अपना मानकर शुभ कर्म करने से मनुष्य स्वयं भोक्ता हो जाता है। तात्पर्य यह कि शुभ कर्म मनुष्य परमात्मा को अर्पित कर दे। ऐसा करने से वह उन कर्मों का फलदायी नहीं बनेगा और कर्मों से सम्बन्ध विच्छेद हो जायेगा। कामना ही समस्त अशुभ कर्मों को पैदा करती है। कामना का त्याग करने से अशुभ कर्म तो स्वरूप से ही नहीं होंगे और शुभ कर्म परमात्मा को अर्पित कर दिए तो परम शान्ति अवश्य प्राप्त होगी।
जैसा कि सृष्टि रचना से स्पष्ट है अनन्त ब्रह्माण्ड हैं; उनके नियामक-ईश्वर ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी हैं और उन सभी ब्रह्माण्डों का ईश्वर अर्थात ईश्वरों का भी ईश्वर गौ लोक वासी स्वयं भगवान् श्री कृष्ण ही हैं। वे ही कारण रहित प्राणी का उद्धार (भला, हित, रक्षा) करने वाले हैं। वे परम हितैषी-रक्षक और प्रेमी हैं। उस परम सुहृदय के होते हुए भी, चिंता, उद्वेग अशांति किस लिए!? जीव का अकारण हित करने वाले भगवान् और उनके भक्त हैं। भक्त भी अपने लिए कुछ नहीं चाहता। वह सबका हितचिंतक और सुहृदय है। उसमें यह प्रवृति भी परमात्मा की ही देन है। परमात्मा ही सम्पूर्ण यज्ञों और तपों के भोक्ता हैं, वो ही सम्पूर्ण लोकों के स्वामी-नियामक और सुहृदय हैं।
Universes are the creation of the Almighty. Bhagwan Shri Krashn and Radha Ji's in Gou Lok, produced a son called Maha Virat Purush and all-infinite universes emerged out of him. Bhagwan Shri Krashn is the Sole protector-benefactor of all creatures-living beings. One should not be bothered, troubled as long as he is devoted to HIM. He will receive the Ultimate peace under HIS asylum (shelter, protection).
Every pious (virtuous, righteous) deed, prayers, acts of pity-generosity are accepted by the God, since they are performed by the body, senses, will-motive, intelligence (prudence, enlightenment), material objects and the innerself-a component of the Almighty HIMSELF. By offering of pious deeds to the Almighty, one leads to detachment. This relieves him of the results-outcome of the deeds. Desires are the mother of all deeds. Relinquishment from desires has already moved him away from sins (vices, wretchedness, evils, criminality). One has achieved that state, where there is nothing to suffer-confront. This is the state when he is relieved and attains Ultimate peace. Its only the God, who is willing to help the humanity without any reason-cause. HIS devotees too are prepared-ready to help the needy being inspired by the Almighty. Its the God who is the controller-regulator of all universes and the worlds. All prayers (charity, ascetic practices) meet in HIM.
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥5॥
ॐ तत् सत्! इस प्रकार ब्रह्मविद्या का योग करवाने वाले शास्त्र, श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषत् में भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद रूपी कर्म-संन्यास योग नाम वाला पाँचवां अध्याय सम्पूर्ण हुआ।
HARI OM TAT SAT. 
Om Tat is Truth! This completes the fifth chapter of Shri Mad Bhagwad Gita, an Upanishat to unify one with the Almighty. This fifth chapter depicts the conversation between Bhagwan Shri Krashn and Arjun and is named as Yog of Renunciation from Action-deeds.
Revision one the text has been completed today i.e., 23.12.2018 at Paramatta, Sydney, Australia, by the grace of the God and is presented to the virtuous readers, devotees of the Almighty. One who learns this text and practice, it attains Salvation. 
Review completed today i.e., 25.05.2023 at Noida, UP, INDIA.
    
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 संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ 
(बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)

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