Sunday, November 3, 2013

SIX ORGANS OF HINDU PHILOSOPHY षड्दर्शन :: HINDU PHILOSOPHY (3) हिन्दु दर्शन शास्त्र

षड्दर्शन 
SIX ORGANS OF PHILOSOPHY
 HINDU PHILOSOPHY (3) हिन्दु दर्शन शास्त्र
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
Aim of Philosophy is to relieve one from pain, sorrow, ignorance and induce prudence, enlightenment in him, leading to emancipation.
The Almighty is supreme and the nature is just a component of HIM.
Yog is a means to join, connect associate the individual with the God.
One will attain Salvation when he under goes rewards and punishments for his virtuous acts and the sins and seek asylum under he Almighty. As such the outcome of his deeds should become zero. At this level he meditate, concentrate in HIM and ultimately-finally attain HIM.
Soul is the smallest component of the God and present in each and every living being life forms.  It merges with the God once it becomes pure, free from all defects. For this one-devotee has to detach himself from the nature. 
Ignorance, illusion, ties, bonds, love & affections keep him attached with the worldly affairs, making it difficult for him to achieve Moksh.
Sanatan Dharm-the eternity, suggests various methods-procedures for relinquishment, detachment.
The basic Treatise for this is the Ved. Ved was transferred to the humanity through a chain starting from Bhagwan Shri Hari Vishnu, to Brahma Ji, Braham Ji to Dev Raj Indr and then to Brahaspati, Bhardwaj, Maharshi Ved Vyas etc.
Maharshi Ved Vyas divided this into four segments :- Rig, Yajur, Atharv and Sam Ved. He himself wrote the Purans followed by Upnishads. Later thousands of Treatises sprung up in the form of Brahmans, Aranyak, Smrati, Vedant etc.
All these constitutes the core and conceptualisation of Hindu Philosophy.
पुरूष और प्रकृति दोनों की स्वतंत्र सत्ता है, परन्तु तात्विक रूप में पुरूष की सत्ता ही सर्वोच्च है। पुरूष चैतन्य एवं अपरिणामी है, किन्तु अविद्या के कारण पुरूष जड़ एवं परिणाम चित्त में स्वयं को आरोपित कर लेता है। पुरूष और चित्त के संयुक्त हो जाने पर विवेक जाता रहता है और पुरूष स्वयं को चित्त रूप में अनुभव करने लगता है। यह अज्ञान ही मनुष्य के समस्त दुःखों, क्लेशों का कारण हैं। दर्शन का उद्देश्य मनुष्य को दुःख से, अज्ञान से, मुक्त कराना है। सैद्धान्तिक रूप से दर्शन में मनुष्य को हेय, हेय-हेतु, हान और हानोपाय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन चार क्रमों में मनुष्य मनुष्य दुःखों से मुक्ति पाता है, इसलिये योग में इसे 'चतुर्व्यूह वाद' कहा गया है एवं इस चतुर्व्यूह से मुक्त होना ही योग का परम उद्देश्य है। चतुर्व्यूह वाद की विवेचना में ही, दर्शन में मनुष्य-पुरूष, पुरूषार्थ और पुरूषार्थ शून्यता का दर्शन प्रकट होता है। पुरूष अविद्या ग्रस्त होने पर संसार-चक्र में पड़ता है और पुरूषार्थ शून्यता की अवस्था को प्राप्त करता है। पुरूष का परम लक्ष्य कैवल्य की प्राप्ति है। योग में पुरूष को आत्मा का पर्याय माना गया है। अतः आत्मा, जो कि सँख्या में असँख्य है, उसकी कैवल्य प्राप्ति तभी हो सकती है जब चतुर्व्यूह का पुरूषार्थ साधन कर दुःख के त्रिविध रूपों का सामाधान कर लिया जाय। पुरूषार्थ शून्यता आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक त्रितापों से ऊपर की अवस्था है। पुरूषार्थ शून्यता के पश्चात् ही मनुष्य की अपने स्वरूप में  स्थिति होती है। यही कैवल्य अथवा मोक्ष है।
Ved are self-proven, being gospel-word of the God.
Soul is different from the body, mind etc. & is inconsequential.
God is Ultimate source of all souls and is omnipresent, infinite intellect, omnipotent.
One has to undergo the result, reward, outcome, punishment of his deeds (virtues, sins). 
The visible universe is the product-embodiment of the Prakrati (Mother Nature, Maa Bhagwati).
The reason of the bondage of the soul is its ignorance-illusion.
Each & Every individual has its own unique soul.
Soul can never become a God, it has its own unique existence, till it finally assimilate in the Almighty. It may merge into the deity who is worshipped by a devotee-practitioner.
सनातन धर्म में ब्रह्म, परमात्मा, ईश्वर, परमेश्वर को जानने के लिए कई तरह के मार्गों का उल्लेख किया गया है। वेदों का मूल है, ब्रह्म। यह भारतीय दार्शनिक एवं धार्मिक विचारों के मंथन का परिपक्व परिणाम है, जो युग-युगान्तरों (अरबों, खरबों वर्षों से) मनुष्य के चिन्तन से उतरा और हिन्दु (वैदिक) दर्शन के नाम से प्रचलित हुआ। इन्हें आस्तिक दर्शन भी कहा जाता है। 
वेद को श्रु‍ति ग्रंथ कहा जाता है अर्थात जिन्होंने इसे सुना। वेद को छोड़कर सभी अन्य ग्रंथों को स्मृति ग्रंथ कहा जाता है अर्थात सुनी हुई बातों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्मरण रखना और उसे समय तथा काल के अनुसार ढालना। श्रु‍ति ग्रंथ वेद अपरिवर्तनशील है, क्योंकि इनकी रचना मूल छंद और काव्य के रूप में इस तरह के विशेष ध्वनि शब्दों से हुई है जिसके कारण इनमें संशोधन या परिवर्तन करना असंभव है।
वेद ज्ञान को समझने व समझाने के लिए दो प्रयास हुए :-
दर्शन शास्त्र और ब्राह्यण और उपनिषदादि ग्रन्थ।
ब्राह्यण और उपनिषदादि ग्रन्थों में अपने-अपने विषय के आप्त ज्ञाताओं द्वारा अपने शिष्यों, श्रद्धावान व जिज्ञासु लोगों की मूल वैदिक ज्ञान को सरल भाषा में विस्तार से समझाया गया है। वेद ज्ञान को तर्क से समझाने के लिए ही ये छः दर्शन शास्त्र लिखे गये। सभी दर्शन मूल वेद ज्ञान को तर्क से सिद्ध करते है। प्रत्येक दर्शन शास्त्र का अपना-अपना विषय है। दर्शन शास्त्र सूत्र रूप में लिखे गये है। प्रत्येक दर्शन अपने लिखने का उद्देश्य अपने प्रथम सूत्र में ही लिख देता है तथा अन्त में अपने उद्देश्य की पूर्ति का सूत्र देता है। वैदिक ज्ञान की अद्वितीय पुस्तक भगवद्गीता के ज्ञान का आधार वेद, उपनिषद और दर्शन शास्त्र ही है।
वैदिक ज्ञान को अच्छे तरीके से षड्दर्शन और स्मृतियों के माध्यम से समझाया गया है। वेदों का सार या कहें कि निचोड़ उपनिषद है। उपनिषदों की सँख्या 1,000 से ज्यादा है। उपनिषदों का सार और निचोड़ ‘ब्रह्मसूत्र’ है।
ब्रह्मसूत्र का भी सार और निचोड़ गीता है। सभी तरह की स्मृतियाँ, सूत्र, उपवेद आदि सभी वेदों को अच्छे से समझने और समझाने वाले ग्रंथ हैं। पुराण, रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ इतिहास को प्रकट करते हैं। 
श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते। 
तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृति‌र्त्वरा॥ 
जहाँ कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहाँ वेद की बात ही मान्य होगी अर्थात वेद ही प्रमाण हैं।[वेदव्यास]
वेदों के आधार पर ही षड्दर्शन का विकास हुआ है। (1). न्याय-गौतम, (2). वैशेषिक-कणाद, (3). साँख्य-कपिल, (4). योग-पतञ्जलि, (5). पूर्व मीमांसा-जैमिनी और (6). उत्तर मीमांसा यावेदांत-वादरायण। वेद और उपनिषद को जान-समझकर ऋषियों ने इनकी समीक्षा-दर्शन की, रचना की। ये धर्म के मार्ग दर्शक सिद्धान्त हैं। ब्रह्म दर्शन को समझकर सभी तरह के विचार, संदेह, शंकाएं मिट जाती हैं।
वैशेषिक Vaesheshik :: It asserts the existence of a universe formed by a God out of atoms of earth, air, fire and water, as well as out of space, time, ether, mind, and soul, all conceived as substances coexisting eternally with the Almighty.
उक्त 6 को वैदिक दर्शन (आस्तिक-दर्शन) तथा (7). चार्वाक, (8). बौद्ध, (9). जैन इन 3 को 'अवैदिक दर्शन' (नास्तिक-दर्शन) कहा है। वेद को प्रमाण मानने वाले आस्तिक और न मानने वाले नास्तिक हैं, इस दृष्टि से उपर्युक्त न्याय-वैशेषिकादि षड्दर्शन को आस्तिक और चार्वाकादि दर्शन को नास्तिक कहा गया है।
(1). न्याय :: यह एक आस्तिक दर्शन है, जिसमें ईश्वर कर्म-फल प्रदाता है। इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय प्रमाण है। न्याय दर्शन में आघ्यात्मवाद की अपेक्षा तर्क एवं ज्ञान का आधिक्य है। इसमें तर्क शास्त्र का प्रवेश इसलिए कराया गया, क्योंकि स्पष्ट विचार एवं तर्क-संगत प्रमाण परमानन्द की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।
महर्षि गौतम द्वारा प्रतिपादित इस मार्ग-दर्शन में पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है। पदार्थों के तत्व ज्ञान से मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति होती है। फिर अशुभ कर्मो में प्रवृत्त न होना, मोह से मुक्ति एवं दुखों से निवृत्ति होती है। इसमें परमात्मा को सृष्टि कर्ता, निराकार, सर्वव्यापक और जीवात्मा को शरीर से अलग एवं प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि का उपादान कारण माना गया है और स्पष्ट रूप से त्रैत वाद का प्रतिपादन किया गया है। इसमें न्याय की परिभाषा के अनुसार न्याय करने की पद्धति तथा उसमें जय-पराजय के कारणों का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।
दु:खजन्मप्रवृति दोष मिथ्यामानानाम उत्तरोत्तरापाये तदनंन्तरा पायायदपवर्ग:।
दु:ख, जन्म, प्रवृति (धर्म, अधर्म), दोष (राग, द्वेष) और मिथ्या ज्ञान। इनमें से उत्तरोतर नाश द्वारा इसके पूर्व का नाश होने से अपवर्ग अर्थात् मोक्ष होता है।
प्रमेय के तत्व-ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है और प्रमाण आदि पदार्थ उस ज्ञान के साधन है। युक्ति तर्क है जो प्रमाणों की सहायता करता है। पक्ष-प्रतिपक्ष के द्वारा जो अर्थ का निश्चय है, वही निर्णय है। दूसरे अभिप्राय से कहे शब्दों का कुछ और ही अभिप्राय कल्पना करके दूषण देना छल है।
आत्मा का अस्तित्व :: आत्मा, शरीर और इन्द्रियों में केवल आत्मा ही भोगने वाला है। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दु:ख और ज्ञान उसके चिह्म है जिनसे वह शरीर से अलग जाना पड़ता है। उसके भोगने का घर शरीर है। भोगने के साधन इन्द्रिय है। भोगने योग्य विषय (रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श) रूपी, ये अर्थ हैं। उस भोग का अनुभव बुध्दि है और अनुभव कराने वाला अंत:करण मन है। सुख-दु:ख का कारण कर्म फल है और अत्यान्तिक रूप से उससे छूटना ही मोक्ष है।
"नीयते अनेन इति न्यायः" 
न्याय वह साधन-प्रक्रिया है जिसकी सहायता से मनुष्य किसी प्रतिपाद्य विषय की सिद्ध या किसी सिद्धान्त का निराकरण होता है और किसी नतीजे-निर्णय पर पहुँच सकता है। अत: न्याय दर्शन में अन्वेषण अर्थात् जाँच-पड़ताल के उपायों का वर्णन किया गया है।
न्याय प्रक्रिया में संज्ञान लेने के लिए चार चीजों का होना आवश्यक है :- (1.1.1). प्रमाता अर्थात्‌ ज्ञान प्राप्त करने वाला, (1.1.2). प्रमेय अर्थात्‌ जिसका ज्ञान प्राप्त करना अभीष्ट है, (1.1.3). ज्ञान और (1.1.4). प्रमाण अर्थात ज्ञान प्राप्त करने का साधन।
चार विभाग :: (1.2.1). सामान्य ज्ञान की समस्या का निराकरण, (1.2.2). जगत की समस्या का निराकरण, (1.2.3). जीवात्मा की मुक्ति एवं (1.2.4). परमात्मा का ज्ञान।
इन चारों गंभीर उद्देश्यों को लक्ष्य बनाकर प्रमाण आदि 16 पदार्थ उनके तार्किक समाधान के माने गये है, किन्तु इन सबमें प्रमाण ही मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। किसी विषय में यथार्थ ज्ञान पर पहुँचने और अपने या दूसरे के अयथार्थ ज्ञान की त्रुटि ज्ञात करना ही, इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य है। दु:ख का अत्यन्तिक नाश ही मोक्ष है।
मुक्ति के लिए इन समस्याओं का समाधान आवश्यक है, जो 16 पदार्थों के तत्व ज्ञान से होता है। इनमें प्रमाण और प्रमेय भी है। तत्व ज्ञान से मिथ्या ज्ञान का नाश होता है। राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके यही मोक्ष दिलाता है। सोलह पदार्थों का तत्व ज्ञान मोक्ष का हेतु बनता है।
न्याय दर्शन की अन्तिम दीक्षा यही है कि केवल ईश्वरीयता ही वांछित है, ज्ञातव्य है और प्राप्य है; यह संसार नहीं।
न्यायदर्शन में अन्वेषण अर्थात् जाँच-पड़ताल के उपायों का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ में 5 अध्याय है तथा प्रत्येक अध्याय में दो-दो आह्रिक हैं तथा  कुल सूत्रों की सँख्या 539 हैं। इसमें अन्वेषण अर्थात् जाँच-पड़ताल के उपायों का वर्णन किया गया है। 
सत्य की खोज के लिए सोलह तत्व :: इनके द्वारा किसी भी पदार्थ की सत्यता (वास्तविकता) का पता-परीक्षण किया जा सकता है। (1.3.1). प्रमाण, (1.3.2). प्रमेय, (1.3.3). संशय, (1.3.4). प्रयोजन, (1.3.5). दृष्टान्त, (1.3.6). सिद्धान्त, (1.3.7). अवयव, (1.3.8). तर्क, (1.3.9). निर्णय, (1.3.10). वाद, (1.3.11). जल्प, (1.3.12). वितण्डा, (1.3.13). हेत्वाभास, (1.3.14). छल, (1.3.15). जाति और (1.3.16). निग्रह स्थान। इन सबका वर्णन न्याय दर्शन में है और इस प्रकार इस दर्शन शास्त्र को तर्क करने का व्याकरण कह सकते हैं। वेदार्थ जानने में तर्क का विशेष महत्व है। अत: यह दर्शन शास्त्र वेदार्थ करने में सहायक है।
"तत्त्वज्ञानान्नि: श्रेयसाधिगम:" 
इन सोलह तत्वों के ज्ञान से निश्रेयस् की प्राप्ति होती है अर्थात सत्य की खोज में सफलता प्राप्ति होती है।
(2). वैशेषिक दर्शन :: महर्षि कणाद द्वारा प्रतिपादित इस दर्शन में धर्म के सच्चे स्वरूप का वर्णन किया गया है, जो कि मनुष्य योनि को बेहतर और लोकोत्तर बनाने के साथ मोक्ष का साधन हो। दर्शन परिमण्डल, पंच महाभूत और भूतों से बने सब पदार्थों का वर्णन करता है, इसलिए वैशेषिक दर्शन विज्ञान-मूलक है। 
मूल पदार्थ :- परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति का वर्णन तो ब्रह्यसूत्र में है। ये तीन पदार्थ ब्रह्य कहाते है। प्रकृति के परिणाम अर्थात् रूपान्तर दो प्रकार के हैं। महत् अहंकार, तन्मात्रा तो अव्यक्त है, इनका वर्णन साँख्य दर्शन में है। परिमण्डल पंच महाभूत तथा महाभूतों से बने चराचर जगत् के सब पदार्थ व्यक्त पदार्थ कहलाते हैं। इनका वर्णन वैशेषिक दर्शन में है।
यह सांसारिक उन्नति तथा निश्श्रेय सिद्धि के साधन को धर्म मानता है। मानव के कल्याण हेतु धर्म का अनुष्ठान करना परमावश्यक होता है। इसमें द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छ: पदाथों के साधम्र्य तथा वैधम्र्य के तत्वाधान से मोक्ष प्राप्ति मानी जाती है। साधम्र्य (साम्य, सदृश्य, समानता, समरूपता)  तथा वैधम्र्य (भेद, व्यतिरेक, विरोध) ज्ञान की एक विशेष पद्धति है, जिसको जाने बिना भ्रांतियों का निराकरण करना सम्भव नहीं है। इसके अनुसार जिस प्रकार चार पैर होने से गाय-भैंस एक नहीं हो सकते। उसी प्रकार जीव और ब्रह्म दोनों ही चेतन हैं। किंतु इस साधम्र्य से दोनों एक नहीं हो सकते। साथ ही यह दर्शन वेदों को, ईश्वरोक्त होने को परम प्रमाण मानता है।
यतोम्युदय निश्रेयस सिद्धि: स धर्मः। 
न्याय दर्शन जहाँ अन्तर जगत और ज्ञान की मीमांसा को प्रधानता देता है, वहीं वैशेषिक दर्शन बाह्य जगत की विस्तृत समीक्षा करता है। इसमें आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए इसे अजर, अमर और अविकारी माना गया है।
न्याय और वैशेषिक दोनों ही दर्शन परमाणु (micro, minutest) से संसार की शुरुआत मानते हैं। इनके अनुसार सृष्टि रचना में परमाणु उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। इसके अनुसार जीवात्मा विभु और नित्य है तथा दुखों का खत्म होना ही मोक्ष (Liberation, assimilation in Almighty which is grant of bliss, परमानन्द) है।
मूल पदार्थ-परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति का वर्णन तो ब्रह्यसूत्र में है। ये तीन पदार्थ ब्रह्य कहलाते हैं। प्रकृति के परिणाम अर्थात् रूपान्तर दो प्रकार के हैं। महत् अहंकार, तन्मात्रा तो अव्यक्त है, इनका वर्णन सांख्य दर्शन में है। परिमण्डल पंच महाभूत तथा महाभूतों से बने चराचर जगत् के सब पदार्थ व्यक्त पदार्थ कहलाते हैं। इनका वर्णन वैशेषिक दर्शन में है।
वैशेषिक दर्शन के प्रथम दो सूत्र हैं :- 
अथातो धर्म व्याख्यास्याम:॥ 
यतोSभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म:॥
जिससे इहलौकिक और पारलौकिक (नि:श्रेयस) सुख की सिध्दि होती है, वह धर्म है।
कणाद के वैशेषिक दर्शन की गौतम के न्याय-दर्शन से भिन्नता इस बात में है कि इसमें 26 के बजाय 7 ही तत्वों का विवेचन है। जिसमें विशेष पर अधिक बल दिया गया है।
वैशेषिक दर्शन बहुत कुछ न्याय दर्शन के समरूप है और इसका लक्ष्य जीवन में सांसारिक वासनाओं को त्याग कर सुख प्राप्त करना और ईश्वर के गंभीर ज्ञान-प्राप्ति के द्वारा अंतत: मोक्ष प्राप्त करना है। न्याय-दर्शन की तरह वैशेषिक भी प्रश्नोत्तर के रूप में ही लिखा गया है। जगत में पदार्थों की संख्या केवल छह है। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समन्वय। क्योंकि इस दर्शन में विशेष पदार्थ सूक्ष्मता से निरूपण किया गया है। इसलिए इसका नाम वैशेषिक दर्शन है।
धर्म विशेष पसूताद द्रव्यगुणकर्म सामान्य विशेष समवायानां।
 पदार्थांना सधम्र्यवैधम्र्याभ्यिं तत्वज्ञानान्नि: श्रेयसम्॥ 
धर्म-विशेष से उत्पन्न हुए पदार्थ यथा, द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समन्वय-रूप पदार्थों के सम्मिलित और विभक्त धर्मो के अघ्ययन-मनन और तत्व ज्ञान से मोक्ष होता है। ये मोक्ष विश्व की अणुवीय प्रकृति तथा आत्मा से उसकी भिन्नता के अनुभव पर निर्भर कराता है।[वैशेषिक 1.1.8]
वैशेषिक दर्शन में पदार्थों का निरूपण निम्नलिखित रूप से हुआ है :- (2.1.1). जल :- यह शीतल स्पर्श वाला पदार्थ है, (2.1.2). तेज :- उष्ण स्पर्श वाला गुण है, (2.1.3). काल :- सारे कायो की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होता है, (2.1.4). आत्मा :- इसकी पहचान चैतन्य-ज्ञान है, (2.1.5). मन :- यह मनुष्य के अभ्यन्तर में सुख-दु:ख आदि के ज्ञान का साधन है, (2.1.6). पंच भूत :- पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश, (2.1.7). पंच इन्द्रिय :- घ्राण, रसना, नेत्र, त्वचा और श्रोत्र, (2.1.8). पंच-विषय :- गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द, (2.1.9). बुध्दि :- ये ज्ञान है और केवल आत्मा का गुण है, (2.1.10). ज्ञान :- नया ज्ञान अनुभव है और पिछला स्मरण, (2.1.11). सँख्या :- सँख्या, परिमाण, पृथकता, संयोग और विभाग। ये आदि गुण: सारे गुण द्रव्यों में रहते हैं, (2.1.12). अनुभव :- यथार्थ (प्रेम, विद्या) एवं अयथार्थ, (अविद्या), (2.1.13). स्मृति :- पूर्व के अनुभव के संस्कारों से उत्पन्न ज्ञान, (2.1.14). सुख :- इष्ट विषय की प्राप्ति जिसका स्वभाव अनुकूल होता है। अतीत के विषयों के स्मरण एवं भविष्यत में उनके संकल्प से सुख होता है। सुख मनुष्य का परमोद्देश्य होता है, (2.1.15). दु:ख: :- इष्ट के जाने या अनिष्ट के आने से होता है जिसकी प्रकृति प्रतिकूल होती है, (2.1.16). इच्छा :- किसी अप्राप्त वस्तु की प्रार्थना ही इच्छ है जो फल या उपाय के हेतु होती है। (2.1.17). धर्म, अधर्म या अदृष्ठ :- वेद-विहित कर्म जो कर्ता के हित और मोक्ष का साधन होता है, धर्म कहलाता है। अधर्म से अहित और दु:ख होता है जो प्रतिषिद्ध कर्मो से उपजता है। अदृष्ट में धर्म और अधर्म दोनों सम्मिलित रहते हैं।
वैशेषिक दर्शन के मुख्य पदार्थ :: (2.2.1). द्रव्य :- द्रव्य गिनती में 9 है। 
पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।
[विशैषिक 1.1.5]  
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन।  
(2.2.2). गुण :- गुणों की संख्या चौबीस मानी गयी है, जिनमें कुछ सामान्य ओर बाकी विशेष कहलाते हैं। जिन गुणो से द्रव्यों में विखराव न हो उन्हें सामान्य (सँख्या, वेग, आदि) और जिनसे बिखराव (रूप, बुध्दि, धर्म आदि) उन्हें विशेष गुण कहते है, 
(2.2.3). कर्म :- किसी प्रयोजन को सिद्ध करने में कर्म की आवश्यकता होती है, इसलिए द्रव्य और गुण के साथ कर्म को भी मुख्य पदार्थ कहते हैं। चलना, फेंकना, हिलना आदि सभी कर्म। मनुष्य के कर्म पुण्य-पाप रूप होते हैं। 
(2.2.4). सामान्य :- मनुष्यों में मनुष्यत्व, वृक्षों में वृक्षत्व जाति सामान्य है और ये बहुतों में होती है। दिशा, काल आदि में जाति नहीं होती क्योंकि ये अपने आप में अकेली है। 
(2.2.5). विशेष :- देश काल की भिन्नता के बाद भी एक दूसरे के बीच पदार्थ जो विलक्षणता का भेद होता है वह उस द्रव्य में एक विशेष की उपस्थिति से होता है। उस पहचान या विलक्षण प्रतीति का एक निमित्त होता है :- यथा गौ में गौत्व जाति से, शर्करा में मिठास से, 
(2.2.6). समभाव :- जहाँ गुण व गुणी का संबंध इतना घना है कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता एवं 
(2.2.7). अभाव :- इसे भी पदार्थ माना गया है। किसी भी वस्तु की उत्पत्ति से पूर्व उसका अभाव अथवा किसी एक वस्तु में दूसरी वस्तु के गुणों का अभाव (ये घट नहीं, पट है) आदि इसके उदाहरण है।
(3). साँख्य :: भगवान् विष्णु के अवतार कपिल मुनि ने साँख्य को प्रतिपादित किया। इसमें सत्कार्यवाद के आधार पर इस सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति को माना गया है। इसका प्रमुख सिद्धांत है "अभाव से भाव या असत् से सत् की उत्पत्ति कदापि संभव नहीं है"। सत् कारणों से ही सत् कार्यो की उत्पत्ति हो सकती है। साँख्य प्रकृति से सृष्टि रचना और संहार के क्रम को विशेष रूप से मानता है और साथ ही इसमें प्रकृति के परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित कार्य पदाथों का स्पष्ट वर्णन करता है। इसमें पुरुष तत्व माना गया है, जो प्रकृति का विकार नहीं है। इस प्रकार प्रकृति समस्त कार्य पदाथों का कारण तो है, परंतु प्रकृति का कारण कोई नहीं है, क्योंकि उसकी शाश्वत सत्ता है। पुरुष चेतन तत्व है, तो प्रकृति अचेतन। पुरुष प्रकृति का भोक्ता है, जबकि प्रकृति स्वयं भोक्ती नहीं है।
विश्व प्रपंच के प्रकृति और पुरुष दो मूल तत्व हैं। विश्व की आत्मायें सँख्यातीत हैं जिनमें चेतना तो है पर गुणों का अभाव है। पुरुष चेतन तत्व है और प्रकृति जड़। पुरुष से ही प्रकृति की उत्त्पत्ति हुई है, पुरुष गौलोक वासी भगवान् श्री कृष्ण हैं और प्रकृति भगवती माँ राधा जी हैं। पुरूष में स्वयं आत्मा का भाव है, जबकि प्रकृति-जड़ पदार्थ और सृजनात्मक शक्ति की जननी है। जगत का उपादान तत्व प्रकृति है। प्रकृति मात्र तीन गुणों :- सत्व, रज तथा तमस के समन्वय से बनी है। प्रकृति की अविकसित अवस्था में यह गुण निष्क्रिय होते हैं पर परमात्मा के तेज सृष्टि के उदय की प्रक्रिया प्रारम्भ होते ही प्रकृति के तीनों गुणो के बीच का समेकित संतुलन टूट जाता है। जब इन तीनों गुणों की साम्यावस्था भंग हो जाती है और उसके गुणों में क्षोम उत्पन्न होता है, तब सृष्टि आरम्भ होती है।
प्रथमतः महतत्त्व, अहंकार और पंच तन्मात्राओं को मिलाकर सात तत्व उत्पन्न होते हैं। अहंकार का गुणों के साथ संयोग होने से ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन तथा आकाश इन पाँच महाभूतों की उत्पत्ति होती है।
साँख्य सृष्टि रचना की व्याख्या एवं प्रकृति और पुरूष की पृथक-पृथक व्याख्या करता है। यह पौराणिक दर्शन है। महाभारत (श्रीमद्भगवद्गीता), पुराणों, उपनिषदों, चरक संहिता और मनु संहिता में साँख्य के विशिष्ट उल्लेख हैं। इसके पारंपरिक जन्मदाता भगवान् विष्णु के अवतार कपिल मुनि थे। इसमें 6 अध्याय और 451 सूत्र है।
साँख्य  के अनुसार 24 मूल तत्व होते हैं, जिसमें प्रकृति और पुरूष पच्चीसवाँ है। प्रकृति का स्वभाव अन्तर्वर्ती और पुरूष का अर्थ व्यक्ति-आत्मा है। विश्व की आत्माएं सँख्यातीत है। ये सभी आत्मायें समान है और विकास की तटस्थ दर्शिकाएं हैं। प्रकृति से लेकर स्थूल-भूत पर्यन्त सारे तत्वों की सँख्या की गणना किये जाने से इसे साँख्य दर्शन कहते है। साँख्य, सँख्या का द्योतक है। 
आत्माएँ किसी न किसी रूप में प्रकृति से संबंधित हो जाती है और उनकी मुक्ति इसी में होती है कि प्रकृति से अपने विभेद का अनुभव करे। जब आत्माओं और गुणों के बीच की भिन्नता का गहरा ज्ञान हो जाये तो इनसे मुक्ति मिलती है और मोक्ष संभव होता है।
भूतादि अहंकार एक स्थान पर (न्यूयादि संख्या में) एकत्रित हो जाते है तो भारी परमाणु-समूह बीच में हो जाते है और हल्के उनके चारो ओर घूमने लगते है। दार्शनिक भाषा में इन्हें परिमण्डल कहते हैं। परिमण्डलों के समूह पाँच प्रकार के हैं। इनको महाभूत कहते हैं।
(1). पार्थिव, (2). जलीय, (3). वायवीय, (4). आग्नेय और (5). आकाशीय। 
साँख्य का प्रथम सूत्र :-
"अथ त्रिविधदुख: खात्यन्त: निवृत्तिरत्यन्त पुरूषार्थ:"
साँख्य का उद्देश्य तीनों प्रकार के दु:खों की निवृत्ति करना है। तीन दु:ख निम्न हैं :- 
आधिभैतिक :- यह मनुष्य को होने वाली शारीरिक दु:ख है जैसे बीमारी, अपाहिज होना इत्यादि।
आधिदैविक :- यह देवी प्रकोपों द्वारा होने वाले दु:ख है जैसे बाढ़, आँधी, तूफान, भूकंप इत्यादि के प्रकोप।
आध्यात्मिक :- यह दु:ख सीधे मनुष्य की आत्मा को होते हैं, जैसे कि कोई मनुष्य शारीरिक व दैविक दु:खों के न होने पर भी दुखी होता है। उदाहरणार्थ :- कोई अपनी संतान, कोई अपने माता-पिता के बिछुड़ने पर अथवा कोई अपने समाज की अवस्था को देखकर दु:खी होता है।
प्रकृति मूल रूप में सत्व, रजस्, तमस की साम्यावस्था है। तीनों आवेश परस्पर एक दूसरे को नि:शेष (neutralise) कर रहे होते हैं। जैसे त्रिकंटी की तीन टाँगें एक दूसरे को नि:शेष करती हैं।
परमात्मा का तेज परमाणु (त्रित) की साम्यावस्था को भंग करता है और असाम्यावस्था आरंभ होती है। रचना-कार्य में यह प्रथम परिवर्तन है।
इस अवस्था को महत् कहते है। यह प्रकृति का प्रथम परिणाम है। मन और बुध्दि इसी महत् से बनते हैं। इसमें तत्व की तीन शक्तियाँ बर्हिमुख होने से आस-पास के परमाणुओं को आकर्षित करने लगती हैं। अब परमाणु के समूह बनने लगते है। तीन प्रकार के समूह देखे जाते है। एक वे है जिनसे रजस् गुण शेष रह जाता है। यह तेजस अहंकार कहलाता है। 
दूसरा परमाणु-समूह वह है जिसमें सत्व गुण प्रधान होता है वह वैकारिक अहंकार कहलाता है। 
तीसरा परमाणु-समूह वह है जिसमें तमस् गुण प्रधान होता है। यह भूतादि अहंकार है।
इन अहंकारों को वैदिक भाषा में आप: कहा जाता है। ये (अहंकार) प्रकृति का दूसरा परिणाम है।
तदनन्तर इन अहंकारों से पाँच तन्मात्राएँ (रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द) पाँच महाभूत बनते हैं अर्थात् तीनों अहंकार जब एक समूह में आते हैं तो वे परिमण्डल कहलाते हैं।
साँख्य का अन्य सूत्र  :-
सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृति: प्रकृतेर्महान, महतोSहंकारोSहंकारात् पंचतन्मात्राण्युभयमिनिन्द्रियं तन्मात्रेभ्य: स्थूल भूतानि पुरूष इति पंचविंशतिर्गण:॥ 
सत्व, रजस और तमस की साम्यावस्था को प्रकृति कहते है। साम्यावस्था भंग होने पर बनते हैं: महत् तीन अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ, 10 इन्द्रियाँ और पाँच महाभूत। पच्चीसवाँ गुण है, पुरूष। 
"यद्वा तद्वा तदुच्छिति: परमपुरुषार्थः "
पुरुष और प्रकृति-मन के इस कृत्रिम संयोग का उच्छेद करना परम पुरुषार्थ हैं।
(4). योग :: पतंजलि को कपिल द्वारा बताया गया साँख्य दर्शन ही अभिमत है। पुरुष के सान्निध्य से प्रकृति में परिवर्तन होने लगते हैं। वह क्षुब्ध हो उठती है। पहले उसमें महत्‌ या बुद्धि की उत्पत्ति होती है, फिर अहंकार की, फिर मन की। अहंकार से ज्ञानेंद्रियों और कर्मेद्रियों तथा पाँच तन्मात्राओं अर्थात्‌ शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध की, अंत में इन पाँचों से आकाश, वायु, तेज, अप और क्षिति नाम के महाभूतों की। यही सृष्टि का क्रम है। प्रकृति में परिवर्तन भले ही हो परंतु पुरुष (ईश्वर-आत्मा, शरीरी) ज्यों का त्यों रहता है। 
जैसे श्वेत स्फटिक के सामने रंग बिरंगे फूलों को लाने से उस पर उनका रंगीन प्रतिबिंब पड़ता है, इसी प्रकार मन पर प्राकृतिक विकृतियों के प्रतिबिंब पड़ते हैं। क्रमश: वह बुद्धि से लेकर क्षिति तक से रंजित प्रतीत होता है, अपने को प्रकृति के इन विकारों से संबद्ध मानने लगता है। 
प्रकृति, पुरुष के स्वरुप के साथ ईश्वर के अस्तित्व को मिलाकर मनुष्य जीवन की आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक उन्नति के लिये दर्शन का एक बड़ा व्यावहारिक और मनोवैज्ञानिक रुप योग दर्शन में प्रस्तुत किया गया है। इसका प्रारम्भ पतञ्जलि के योग सूत्रों से होता है, जिनकी सम्पूर्ण सूत्र सँख्या 194 है। योग सूत्रों की व्याख्या भगवान् वेद व्यास द्वारा लिखित व्यास भाष्य में प्राप्त होती है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार मनुष्य अपने मन (चित) की वृत्तियों पर नियन्त्रण रखकर जीवन में सफल हो सकता है और अपने अन्तिम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त कर सकता है।
इसमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। इसके अलावा योग क्या है, जीव के बन्धन का कारण क्या है? चित्त की वृत्तियाँ कौन सी हैं? इनके नियंत्रण के क्या उपाय हैं, इत्यादि यौगिक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार परमात्मा का ध्यान आंतरिक होता है। जब तक मनुष्य की इन्द्रियाँ बहिर्गामी हैं, तब तक ध्यान कदापि सम्भव नहीं है। इसके अनुसार परमात्मा के मुख्य नाम ओ३म्-प्रणव का जाप न करके अन्य नामों से परमात्मा की स्तुति और उपासना अपूर्ण ही है। इसमें व्यवहारिक और आध्यात्मिक उपयोगिता सर्वमान्य है, क्योकि योग के आसन एवं प्राणायाम का मनुष्य के शरीर एवं उसके प्राणों को बलवान एवं स्वस्थ्य बनाने में महत्वपूर्ण योगदान है।
ब्रह्म प्रणव संयानं, नादों ज्योतिर्मय: शिव:। 
स्वयमाविर्भवेदात्मा मेयापायेऽशुमानिव॥
प्रणव के अनुसंधान से, ज्योतिर्मय और कल्याणकारी नाद उदित होता है। फिर आत्मा स्वयं उसी प्रकार प्रकट होता है, जेसे कि बादल के हटने पर चंद्रमा प्रकट होता है। 
"अथ योगानुशासनम्" 
योग की शिक्षा देना इस शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है। 
"योगश्चित्तवृत्ति निरोध:"
चित्त या मन की स्मरणात्मक शक्ति की वृत्तियों को सब बुराई से दूर कर, शुभ गुणों में स्थिर करके, परमेश्वर के समीप अनुभव करते हुए मोक्ष प्राप्त करने के प्रयास को योग कहा जाता है।
योग जीवात्मा का सत्य के साथ संयोग अर्थात् सत्य-प्राप्ति का उपाय है। ज्ञान की प्राप्ति मनुष्य-जीवन का लक्ष्य है और ज्ञान बुध्दि की श्रेष्ठता से प्राप्त होता है।
एवं बूद्धे: परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
बुध्दि से परे आत्मा को जानकर, आत्मा के द्वारा आत्मा को वश में करके अपने पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा पर नियंत्रण बुध्दि द्वारा, यह योग दर्शन का विषय है। [श्रीमद्भगवतगीता] 
तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:॥
तप (निरंतर प्रयत्न), स्वाध्याय (अध्यात्म-विद्या का अध्ययन) और परमात्मा के आश्रय से योग सम्भव है।[योगदर्शन 2.1] 
यह दर्शन  निम्न चार  पादों में विभक्त है,
समाधिपाद :: चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना। 
साधनपाद :: यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन।
विभूतिपाद :: धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियाँ समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं।
कैवल्यपाद :: कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च-सर्वोच्च अवस्था है, जहाँ एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।
"योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः" 
योग चित्त की वृत्तियों का संयमन है। चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में अष्टांग योग साधन का निम्न उपदेश-संक्षिप्त परिचय दिया :-
(4.1). यम :- कायिक, वाचिक तथा मानसिक इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी न करना, ब्रह्मचर्य जैसे अपरिग्रह आदि पाँच आचार विहित हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं।
(4.2). नियम :- मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करने हेतु नियमों का विधान किया गया है। इनके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान का समावेश है। शौच में बाह्य तथा  आन्तरिक दोनों ही प्रकार की शुद्धि समाविष्ट है।
(4.3). आसन :- स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधित हठयोग प्रतीपिका, घरेण्ड संहिता तथा योगाशिखोपनिषद् में विस्तार से वर्णन मिलता है।
चित्त को वश में करने में एक चीज से सहायता मिलती है। यह साधारण अनुभव की बात है कि जब तक शरीर चंचल रहता है, चित्त चंचल रहता है और चित्त की चंचलता शरीर को चंचल बनाए रहती है। शरीर की चंचलता नाड़ी संस्थान की चंचलता पर निर्भर करती है। जब तक नाड़ी संस्थान संक्षुब्ध रहेगा, शरीर पर इन्द्रिय ग्राह्य विषयों के आधात होते रहेंगे। उन आधातों का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ेगा जिसके फलस्वरूप चित्त और शरीर दोनों में ही चंचलता बनी रहेगी। चित्त को निश्चल बनाने के लिये योगी वैसा ही उपाय करता है, जैसा कभी-कभी युद्ध में करना पड़ता है। किसी प्रबल शत्रु से लड़ने में यदि उसके मित्रों को परास्त किया जा सके तो सफलता की संभावना बढ़ जाती है। योगी चित्त पर अधिकार पाने के लिए शरीर और उसमें भी मुख्यत: नाड़ी संस्थान, को वश में करने का प्रयत्न करता है। शरीर भौतिक है, नाड़ियाँ भी भौतिक हैं। इसलिये इनसे निपटना सहज है। जिस प्रक्रिया से यह बात सिद्ध होती है उसके दो अंग हैं: आसन और प्राणायाम। आसन से शरीर निश्चल बनता है। बहुत से आसनों का अभ्यास तो स्वास्थ्य की दृष्टि से किया जाता है। 
"स्थिर सुखमासनम्‌" [पतंजलि] 
जिस पर देर तक बिना कष्ट के बैठा जा सके वही आसन श्रेष्ठ है। आसन सिद्धि के लिये स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों का पालन भी आवश्यक है। 
(4.4). प्राणायाम :- योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।
योगी को इस बात का प्रयत्न करना होता है कि वह अपने प्राण को सुषुम्ना में ले जाय। सुषुम्ना वह नाड़ी है जो मेरुदंड की नली में स्थित है और मस्त्तिष्क के नीचे तक पहुँचती है। यह कोई गुप्त चीज नहीं है। आँखों से देखी जा सकती है। करीब-करीब कनष्ठाि उँगली के बराबर मोटी होती है, ठोस है, इसमें कोई छेद नहीं है। प्राण का और साँस या हवा करने वालों को इस बात का पता नहीं है कि इस नाड़ी में हवा के घुसने के लिये और ऊपर चढ़ने के लिये कोई मार्ग नहीं है। प्राण को हवा का समानार्थक है। साँस पर नियंत्रण रखने से नाड़ी संस्थान को स्थिर करने में निश्चय ही सहायता मिलती है, परंतु योगी का मुख्य उद्देश्य प्राण का नियंत्रण है, साँस का नहीं। प्राण वह शक्ति है जो नाड़ी संस्थान में संचार करती है। शरीर के सभी अवयवों को और सभी धातुओं को प्राण से ही जीवन और सक्रियता मिलती है। जब शरीर के स्थिर होने से ओर प्राणायाम की क्रिया से, प्राण सुषुम्ना की ओर प्रवृत्त होता है तो उसका प्रवाह नीचे की नाड़ियों में से खिंच जाता है। अत: ये नाड़ियाँ बाहर के आधातों की ओर से एक प्रकार से शून्यवत्‌ हो जाती हैं।
(4.5). प्रत्याहार :- इन्द्रियों  को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इन्द्रियाँ  मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।
(4.6). धारणा :- चित्त को एक स्थान विशेष पर केन्द्रित  करना ही धारणा है। धारण पुष्ट होकर ध्यान का रूप धारण करती है और उन्नत ध्यान ही समाधि कहलाता है। तीनों को सम्मिलित रूप से संयम कहा है। धारणा से चित्त को एकाग्र करने में सहायता मिलती है। 
(4.7). ध्यान :- जब ध्येय वस्तु का चिन्तन  करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो, उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
(4.8). समाधि :- यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।
समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं :- सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।
योग-क्रियाओं का लक्ष्य है बुद्धि का  विकास। 
ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा। श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात्॥ 
योग से प्राप्त बुध्दि को ऋतंभरा कहते है और इन्द्रियों से प्रत्यक्ष तथा अनुमान से होने वाला ज्ञान सामान्य बुध्दि से भिन्न विषय अर्थ वाला हो जाता है।
इसका अभिप्राय यह है कि जो ज्ञान सामान्य बुध्दि से प्राप्त होता है, वह भिन्न है और ऋतंभरा (योग से सिद्ध हुई बुध्दि) से प्राप्त ज्ञान भिन्न अर्थ वाला हो जाता है।
इससे ही अध्यात्म-ज्ञान की प्राप्ति होती है जिससे मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
Please refer to :: YOG (1-12) jagatgurusantosh.wordpress.com
(1). YOG (1) योग  jagatgurusantosh.wordpress.com
(2). YOG (2) योग :: पतञ्जलि योगसूत्र  jagatgurusantosh.wordpress.com
(3). YOG (3) योग :: MEDITATION ध्यान (समाधि, चिंतन)  jagatgurusantosh.wordpress.com
(4). YOG (4) योग :: KARM YOG, GYAN YOG, BHAKTI YOG  कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग   jagatgurusantosh.wordpress.com
(5). YOG (5) योग :: KAM YOG काम योग  jagatgurusantosh.wordpress.com
(6). YOG (6) योग :: YOG POSTURES योगाभ्यास मुद्राएँ   bhartiyshiksha.blogspot.com jagatgurusantosh.wordpress.com
(7).  YOG (7) योग :: पंचकोशी साधना   jagatgurusantosh.wordpress.com
(8). YOG (8) योग :: SECRETS OF KUNDLINI कुण्डलिनी रहस्य  bhartiyshiksha.blogspot.com jagatgurusantosh.wordpress.com
(9). YOG (9) योग :: लययोग और राजयोग bhartiyshiksha.blogspot.com 
(5). पूर्व मीमांसा (Purv Mimansa by Rishi Jaemini) :: Virtues and morals are discussed in detail. The concept of this darshan-philosophy is Dharm, duty, devotion. Dharmi, the devotee, doer (one who possess Dharm), Yagy (Sacrifice) & the duties (deeds, functions) & duties not performed of the mankind range from family life to national service. They are described at length, through which the extreme development of the entire nation is possible.
पाणिनि के अनुसार मीमांसा का अर्थ है, जिज्ञासा-जानने की लालसा। अत: पूर्व-मीमांसा शब्द का अर्थ है जानने की प्रथम जिज्ञासा। इस दर्शन में वैदिक यज्ञों में मंत्रों का विनियोग तथा यज्ञों की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। मनुष्य जब इस सँसार में अवतरित हुआ, उसकी प्रथम जिज्ञासा यही रही थी कि वह क्या करे?  इस दर्शन-चिंतन शैली का प्रथम सूत्र मनुष्य की इस इच्छा का प्रतीक है। इसके प्रवर्तक महर्षि जैमिनी है। इस ग्रन्थ में 12 अध्याय, 60 पाद और 2,631 सूत्र हैं।
"अथातो धर्मजिज्ञासा" 
यदि योग दर्शन अंत: करण शुद्ध का उपाय बताता है, तो मीमांसा दर्शन मानव के पारिवारिक जीवन से राष्ट्रीय जीवन स्तर तक के कत्तव्यों और अकत्तव्यों का वर्णन करता है, जिससे समस्त राष्ट्र की उन्नति हो सके। जिस प्रकार सम्पूर्ण कर्म काण्ड मंत्रों के विनियोग पर आधारित हैं, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन भी मंत्रों के विनियोग और उसके विधान का समर्थन करता है।
वेद अपौरूषेय, नित्य एवं सर्वोपरि है और वेद-प्रतिपादित अर्थ को ही धर्म कहा गया है। 
धर्म के लिए वेद ही परम प्रमाण हैं। उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विनियोग, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं समाख्या को मौलिक आधार माना जाता है।[जैमिनि]
धर्म की व्याख्या यजुर्वेद में की गयी है। वेद के प्रारम्भ में ही यज्ञ की महिमा का वर्णन है। वैदिक परिपाटी में यज्ञ का अर्थ देव-यज्ञ ही नहीं है, वरन् इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कार्यों-कर्म का समावेश हो जाता है।
शास्त्रोक्त प्रत्येक कार्य-कर्म यज्ञ ही है। सभी प्रकार के कर्मों की व्याख्या इस दर्शन शास्त्र में है।
धर्म करणीय कर्म के जानने की जिज्ञासा है। कर्म एक विस्तृत अर्थवाला शब्द है जिसके विषय में 16 अध्याय और 64 पादों वाले ग्रन्थ की रचना की गई है। 
ज्ञान उपलब्धि साधन :- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि। 
मीमांसा सिद्धान्त :: (5.1). अपरिहार्य विधि जिसमें उत्पत्ति, विनियोग, प्रयोग और अधिकार विधियाँ शामिल है। 
(5.2). अर्थवाद जिसमें स्तुति और व्याख्या की प्रधानता है।
(6). उत्तर मीमांसा :: वेदांत का अर्थ है वेदों का अंतिम सिद्धांत। भगवान् वेद व्यास द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है। इसको उत्तर मीमांसा भी कहते हैं। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म जगत का कर्ता-धर्ता व संहार कर्ता होने से जगत का निमित्त कारण है। उपादान अथवा अभिन्न कारण नहीं। ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आनंदमय, नित्य, अनादि, अनंतादि गुण विशिष्ट शाश्वत सत्ता है। साथ ही जन्म मरण आदि क्लेशों से रहित और निराकार भी है।
जब मनुष्य जीवन-यापन करने लगता है तो उसके मन में दूसरी जिज्ञासा जो उठती है, वह है ब्रह्म-जिज्ञासा। 
"अथातो ब्रह्म जिज्ञासा" 
ब्रह्म के जानने की लालसा। इस जिज्ञासा का चित्रण श्वेताश्वर उपनिषद् में भली-भाँति किया गया है। 
ब्रह्मवादिनों वदन्ति :-
किं कारणं ब्रह्म कुत: स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठा:। 
अधिष्ठिता: केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्॥ 
ब्रह्म का वर्णन करने वाले कहते हैं, इस जगत् का कारण क्या हैं? हम कहाँ से उत्पन्न हुए हैं? कहाँ और कैसे स्थित हैं? यह सुख-दु:ख क्यों होता है? ब्रह्म की जिज्ञासा करने वाले यह जानने चाहते हैं। यह सब क्या है, क्यों हैं? इत्यादि।
जिसे जानने की इच्छा है, वह ब्रह्म से भिन्न है, अन्यथा स्वयं को ही जानने की इच्छा कैसे हो सकती है। जीवात्मा अपने दुखों से मुक्ति का उपाय करती रही है। परंतु ब्रह्म का गुण इससे भिन्न है। 
वेदान्त के अद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि सम्प्रदाय समयानुसार विकसित हुए।
पहली जिज्ञासा कर्म धर्म की जिज्ञासा थी और दूसरी जिज्ञासा जगत् का मूल कारण जानने-ज्ञान की थी, जिसका उत्तर ही ब्रह्मसूत्र अर्थात् उत्तर मीमांसा है। चूँकि यह दर्शन वेद के परम ओर अन्तिम तात्पर्य का दिग्दर्शन कराता है, इसलिए इसे वेदान्त दर्शन के नाम से ही जाना जाता हैं :- 
"वेदस्य अन्त: अन्तिमो भाग ति वेदान्त:" 
यह वेद के अन्तिम ध्येय ओर कार्य क्षेत्र की शिक्षा देता है।
ब्रह्मसूत्र के प्रवर्तक महर्षि बादरायण है। इस दर्शन में चार अध्याय, प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद (कुल 16 पाद) और सूत्रों की संख्या 555 है। 
तीन ब्रह्म अर्थात् मूल पदार्थ  :: प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा। तीनों अनादि है। इनका आदि-अन्त नहीं। तीनों ब्रह्म कहलाते हैं और जिसमें ये तीनों विद्यमान है अर्थात् जगत् वह परम ब्रह्म है।
प्रकृति जो जगत् का उपादान कारण त्रिट :- तीन शक्तियों :-सत्व, राजस् और तमस् का गुट-समूह है। इन तीनों अनादि पदार्थों का वर्णन ब्रह्मसूत्र-उत्तर मीमांसा में है। जीवात्मा का वर्णन करते हुए जन्म-मरण के बन्धन में आने का वर्णन भी ब्रह्मसूत्र में है। साथ ही मरण-जन्म से छुटकारा पाने का भी वर्णन है। परमात्मा जो अपने शब्द रूप में तत्वों से संयुक्त होकर भासता है, परन्तु उसका अपना शुद्ध रूप नेति-नेति शब्दों से ही व्यक्त होता है। यह दर्शन भी वेद के कहे मन्त्रों की व्याख्या में ही है।
वेदांत :- महर्षि वादरायण जो संभवतः वेदव्यास ही हैं, का ब्रह्मसूत्र और उपनिषद वेदांत दर्शन के मूल स्रोत हैं। आदि शंकराचार्य ने ब्रह्म सूत्र, उपनिषद और श्रीमद्भगवद् गीता पर भाष्य लिख कर अद्वैत मत का जो प्रतिपादन किया उसके प्रभाव इन ग्रन्थों को ही प्रस्थान त्रयी के नाम से जाना जाने लगा। वेदांत दर्शन निर्विकल्प, निरुपाधि और निर्विकार ब्रह्म को ही सत्य मानता है।
"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" 
जगत की उत्पत्ति ब्रह्म से ही हुई है। 
"जन्माद्यस्य यतः"।[ब्रह्म सूत्र 2] 
उत्पन्न होने के पश्चात जगत ब्रह्म में ही मौजूद रहता है और आखिरकार उसी में लीन हो जाता है। जगत की यथार्थ सत्ता नहीं है। सत्य रूप ब्रह्म के प्रतिबिम्ब के कारण ही जगत सत्य प्रतीत होता है। जीवात्मा ब्रह्म से भिन्न नहीं है। अविधा से आच्छादित होने पर ही ब्रह्म जीवात्मा बनता है और अविधा का नाश होने पर वह उसमें तद्रूप होता है।
षड दर्शनों के अतिरिक्त अन्य दर्शन-जीवन शैलियाँ :: लोकायत तथा शैव एवं शाक्त दर्शन भी हिन्दू दर्शन के अभिन्न अंग हैं।
चार्वाक दर्शन :: यह मूल रूप से वेदविरोधी होने के कारण नास्तिक संप्रदाय के रूप में जाना जाता है। यह भौतिकवाद का प्रतिपादन करता है। वृहस्पति सूत्र के नाम से एक चार्वाक ग्रंथ के उद्धरण अन्य दर्शन ग्रंथों में मिलते हैं। चार्वाक मत एक प्रकार का यथार्थवाद और भौतिकवाद है। इसके अनुसार केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। 
यह नास्तिकता का प्रतिपादक है। इसके अनुसार अनुमान और आगम संदिग्ध होते हैं। प्रत्यक्ष पर आश्रित भौतिक जगत् ही सत्य है। आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग आदि सब कल्पित हैं। भूतों के संयोग से देह में चेतना उत्पन्न होती है। देह के साथ मरण में उसका अंत हो जाता है। आत्मा नित्य नहीं है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता। जीवनकाल में यथासंभव सुख की साधना करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
Its present versions are Realism, Pragmatism & Materialism. Basically it advocates atheistic. 
ब्रह्मसूत्र :: ब्रह्म सूत्र को वेदान्तशास्त्र अथवा उत्तर (ब्रह्म) मीमांसा का आधार ग्रन्थ माना जाता है। इसके रचयिता बादरायण हैं। बादरायण से पूर्व भी वेदान्त के आचार्य हो गये हैं, सात आचार्यों के नाम तो इस ग्रन्थ में ही प्राप्त हैं। इसका विषय है :- 
"ब्रह्म विचार"
इसके प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। इस प्रकार ब्रह्मसूत्र में सोलह पाद हैं। फिर प्रत्येक पाद में कई अधिकरण हैं। अधिकरण का तात्पर्य एक विशेष समस्या या विषय का विवेचन है। ये वस्तुत: अवान्तर प्रकरण हैं। अधिकरण के पांच अवयव होते हैं :- विषय, संशय, पूर्वपक्ष, उत्तरपक्ष और निर्णय। अधिकरण के इस स्वरूप से स्पष्ट है कि ब्रह्मसूत्रकार अपने विषय का प्रतिपादन करने के अनन्तर उस पर संशय करते हैं और उस संशय को उत्पन्न करने के लिए पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हैं। अन्त में वे उत्तरपक्ष में पूर्वपक्ष का खंडन करते हैं और फिर अपने निर्णय को रखते हैं। स्पष्टत: यह प्रणाली विशुद्ध आलोचनात्मक है। ब्रह्मसूत्र की दार्शनिक प्रणाली तार्किक है। प्रत्येक अधिकरण का विवेचन एक या अनेक सूत्रों में किया गया है। कुछ अधिकरणों के विवेचन एक ही सूत्र में हैं और कुछेक के विवेचन आठ-आठ, नव-नव या दस-दस सूत्रों में हैं। सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त प्रकर्थन हैं।
ब्रह्मसूत्र का महत्त्व :: सने उपनिषदों को एक दर्शन का रूप प्रदान किया। यह वेदान्त का संस्थापक बन गया। इसे वेदान्त का न्याय प्रस्थान कहा जाता है। यह वेदान्त की प्रस्थान त्रयी में अन्यतम है। यह सर्वशास्त्रीय ब्रह्मसूत्र है। काशकृत्स्न आदि के ब्रह्मसूत्र एक शाखीय थे और कुछ समय पश्चात् काल-कवलित हो गये। इसने बौद्ध धर्म और दर्शन के आक्रमणों से वैदिक दर्शन की रक्षा की। यह सर्वमान्य और सर्व प्रामाणिक है। शंकराचार्य (630 ई.), भास्कर (8वीं शती), यादव प्रकाश (11वीं शती), श्रीपति (14वीं शती), वल्लभ (14वीं शती), विज्ञानभिक्षु (16वीं शती) तथा बलदेव (18वीं शती) ने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे।
11वीं शती से अठारहवीं शती तक ब्रह्मसूत्र का महत्त्व वैदिक या औपचारिक दर्शन की कसौटी के रूप में हो गया। जो दर्शन इस कसौटी पर खरा उतरे वह वैदिक दर्शन माना जाने लगा। इस कसौटी का तात्पर्य है कि ब्रह्मसूत्र के अनुसार होना ही किसी दर्शन की प्रामाणिकता है। उन्नीसवीं शती में रामानन्द सम्प्रदाय के अनुसार भी ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे गए, जिनमें आनन्द भाष्य, जानकी भाष्य तथा वैदिक भाष्य मुख्य हैं। वैदिक भाष्य की विशेषता यह है कि इसमें ब्रह्मसूत्र को वेद मंत्रों का संयोजन या समन्वय करने वाला सिद्ध किया गया है, न कि उपनिषद वाक्यों का। इनके अतिरिक्त आर्यमुनि (20वीं शती), हरप्रसाद (20वीं शती), राधाकृष्णन (20 वीं शती) आदि ने भी ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे। ब्रह्मसूत्र के रचना काल से लेकर आज तक लगभग प्रत्येक शताब्दी में इस पर वृत्ति या भाष्य लिखे जाते रहे हैं। इन भाष्यों से ब्रह्मसूत्र का महत्त्व और अधिक बढ़ गया है।
ब्रह्मसूत्र छः दर्शनों का एक अंग है। इसके रचयिता बादरायण हैं। इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर-मीमांसा सूत्र, शारीरक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि के नामों से भी जाना जाता है। वेदान्त के तीन मुख्य स्तम्भ हैं :- उपनिषद्, भगवदगीता एवं ब्रह्मसूत्र। इन तीनों को प्रस्थान त्रयी कहा जाता है। इसमें उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं। ब्रह्म सूत्रों को न्याय प्रस्थान कहने का अर्थ है कि ये वेदान्त को पूर्णतः तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है। 
ब्रह्मसूत्र पर सभी वेदान्तीय सम्प्रदायों के आचार्यों ने भाष्य, टीका व वृत्तियाँ लिखी हैं। इनमें गम्भीरता, प्रांजलता, सौष्ठव और प्रसाद गुणों की अधिकता के कारण शांकर भाष्य सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता है। इसका नाम शारीरक भाष्य है।
ब्रह्म ही सत्य है। "एकं एवं अद्वि‍तीय" अर्थात वह एक है और दूसरे की साझेदारी के बिना है :- यह "ब्रह्मसूत्र" कहता है। वेद, उपनिषद और गीता ब्रह्मसूत्र पर कायम है। ब्रह्मसूत्र का अर्थ वेद का अकाट्‍य वाक्य, ब्रह्म वाक्य। ब्रह्मा को आजकल ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा कहा जाता है। 
"एकं ब्रह्म द्वितीय नास्ति नेह ना नास्ति किंचन"
एक ही ईश्वर है दूसरा नहीं है। उस ईश्वर को छोड़कर जो अन्य की प्रार्थना, मंत्र और पूजा करता है वह अनार्य है, नास्तिक है या धर्म विरोधी है यथा :- जो एक ब्रह्म को छोड़कर तरह-तरह के देवी-देवताओं की प्रार्थना करता है, एक देवता को छोड़कर दूसरे देवता को पूजता रहता है अर्थात एक को छोड़कर अनेक में भटकने वाले लोग, जो मूर्ति या समाधि के सामने हाथ जोड़े खड़ा है, जो नक्षत्र तथा ज्योतिष विद्या में विश्वास रखने वाला है, जो सितारों और अग्नि की पूजा करने वाला है, जो सूअर, गाय, कुत्ते, कव्वे और साँप का माँस खाने वाला है, जो एक धर्म से निकलकर दूसरे धर्म में जाने वाली विचारधारा का है, जो शराबी, जुआरी और झूठ वचन बोलकर खुद को और दूसरों को गफलत में रखने वाला है, खुद के कुल, धर्म और परिवार को छोड़, दूसरों से आकर्षित होने वाले और झुकने वाले। नास्तिकों के साथ नास्तिक और आस्तिकों के साथ छद्म आस्तिक बनकर रहने वाले, जो जातियों में खुद को विभाजित रखता है और अपने ही लोगों को नीचा या ऊँचा समझता है, जो वेद और धर्म पर बहस करता है और उनकी निंदा करता है, वेदों की बुराई करने वाले और वेद विरुद्ध आचरण करने वाले, जो नग्न रहकर साधना करता है और नग्न रहकर ही मंदिर की परिक्रमा लगाता है, जो रात्रि के कर्मकांड करता है और भूत या पितरों की पूजा-साधना करता है इत्यादि।
निंबार्क संप्रदाय :: निम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैत का दर्शन प्रतिपादित किया। निम्बार्क का प्रादुर्भाव 3096 ईसापूर्व (आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व) हुआ था। निम्बार्क का जन्म स्थान वर्तमान आँध्र प्रदेश में है। निम्बार्क का अर्थ है :- नीम पर सूर्य। मथुरा में स्थित ध्रुव टीले पर निम्बार्क संप्रदाय का प्राचीन मन्दिर बताया जाता है। इस संप्रदाय के संस्थापक भास्कराचार्य एक संन्यासी थे। इस संप्रदाय का सिद्धान्त 'द्वैताद्वैतवाद' कहलाता है। इसी को 'भेदाभेदवाद' भी कहा जाता है। भेदाभेद सिद्धान्त के आचार्यों में औधुलोमि, आश्मरथ्य, भतृ प्रपंच, भास्कर और यादव के नाम आते हैं। इस प्राचीन सिद्धान्त को 'द्वैताद्वैत' के नाम से पुन: स्थापित करने का श्रेय निम्बार्काचार्य को जाता है। उन्होंने 'वेदान्त पारिजात-सौरभ', वेदान्त-कामधेनु, रहस्य षोडसी, प्रपन्न कल्पवल्ली और कृष्ण स्तोत्र नामक ग्रंथों की रचना भी की थी। वेदान्त पारिजात सौरभ ब्रह्मसूत्र पर निम्बार्काचार्य द्वारा लिखी गई टीका है। इसमें वेदान्त सूत्रों की सक्षिप्त व्याख्या द्वारा द्वैताद्वैतव सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। 
सम्बन्धित दर्शन :: चंद्रकीर्ति, निम्बार्काचार्य, निंबार्क संप्रदाय, प्रमुख मीमांसक आचार्य, प्रस्थानत्रयी, बल्देव विद्याभूषण, बादरायण, भामती, भारत में दर्शनशास्त्र, भारतीय दर्शन, भाष्य, मध्वाचार्य, राधा कृष्ण, रामभद्राचार्य, शिवानन्द गोस्वामी, श्रीमद्भगवद्गीता, सांख्य दर्शन, संस्कृत ग्रन्थों की सूची, सूत्र, हिन्दू दर्शन, हिन्दू धर्मग्रन्थों का कालक्रम, हिंदू धर्म में कर्म, जगद्गुरु रामभद्राचार्य ग्रंथसूची, जैमिनि, वाचस्पति मिश्र, विज्ञानभिक्षु, वेदान्त दर्शन, आदि शंकराचार्य, आदि शंकराचार्य की कृतियाँ, अद्वैत वेदान्त, अध्यास, अप्पय दीक्षित, उत्तरमीमांसा, उपनिषद्।
बादरायण  :: बादरायण वेदान्त के न्याय-प्रस्थान के प्रवर्तक ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र के रचयिता थे।  वाचस्पति मिश्र के समय में  उन्हें व्यास की उपाधि दी गई। ब्रह्मसूत्र ने उपनिषदों को एक दर्शन का रूप प्रदान किया। वह वेदान्त का संस्थापक बन गया। ब्रह्मसूत्रों का अध्ययन करने से पता चलता है कि बादरायण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द या श्रुति को प्रमाण मानते थे।
इसको वेदान्त सूत्र या शारीरिक मीमांसा सूत्र भी कहा जाता है। इस समय जो ब्रह्म सूत्र उपलब्ध है, उसमें शंकराचार्य के अनुसार कुल 555 सूत्र हैं। 
उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में जैमिनि, बादरि, काशकृत्स्न, कार्ष्णाजिनि, औडुलोमि, आश्मरथ्य तथा आत्रेय का उल्लेख किया है। ये सभी ब्रह्मसूत्रों के रचयिता थे। किन्तु इनके ब्रह्मसूत्र अब अनुपलब्ध हैं। इनमें से काशकृत्स्न का उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में भी मिलता है। आश्वलायन तथा कात्यायन के श्रौतसूत्रों में तथा बोधायन और भरद्वाज के गृह्यसूत्रों में भी इनमें से कुछ आचार्यों के नाम उल्लिखित हैं।
जैमिनि ने मीमांसासूत्र में तथा शाण्डिल्य ने भक्तिसूत्र में बादरायण का नामोल्लेख किया है।
उन्होंने साँख्यमत, मीमांसामत, योगमत, वैशेषिकमत, बौद्ध सर्वास्तिवाद, बौद्ध विज्ञानवाद या शून्यवाद, जैनमत, पाशुपत मत तथा पांचरात्र मत का खंडन किया है। इससे निश्चित है कि वे बुद्ध के परवर्ती हैं। 
उनके ब्रह्मसूत्र पर उपवर्ष ने जो पाणिनि के गुरु थे तथा बौधायन ने जिनकी परम्परा का उद्धार रामानुज ने किया था, वृत्तियाँ लिखी थीं, किन्तु ये वृत्तियाँ अब उपलब्ध नहीं है। उनके कुछ अंश परवर्ती वेदान्त और मीमांसा के साहित्य में उपलब्ध हैं।
गरुड़पुराण, पद्मपुराण, मनुस्मृति तथा हरिवंशपुराण में भी वेदान्तसूत्र का उल्लेख तथा संदर्भ है।
बादरायण नाम से स्पष्ट है कि वे बदर गोत्र में उत्पन्न हुए थे। बदर के ही गोत्र में बादरि भी उत्पन्न हुए थे। अत: कुछ लोग बादरि तथा बादरायण को अभिन्न समझते हैं। किन्तु स्वयं ब्रह्मसूत्र में ही बादरायण ने अपना नामोल्लेख बादरि से भिन्न करके किया है। 
बादरायण का दर्शन :: इस समय बादरायण के ब्रह्मसूत्र पर अद्वैतमत, वैष्णवमत, शैवमत, शाक्तमत, तथा आर्य समाज मत के भाष्य उपलब्ध हैं। यही बात शैवमत के भाष्यों के बारे में भी निश्चयपूर्वक कही जा सकती है। वैष्णवमत के भाष्य बादरायण के मत के अनुसार नहीं हैं, क्योंकि बादरायण ब्रह्मवादी थे, न कि ईश्वरवादी (ब्रह्म और ईश्वर एक ही हैं)। वैष्णवमत ने विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैतवाद, द्वैतवाद या भेदाभेदवाद और अचित्य भेदाभेदवाद के दर्शनों का विकास किया है। इन भाष्यों में प्राय: शंकराचार्य के भाष्य के खंडन की प्रवृत्ति ही अधिक  है (निम्बार्क के भाष्य को छोड़कर)। यादव प्रकाश का भाष्य और शुकभाष्य अनुपलब्ध है। भास्कर का भाष्य भी भेदाभेदवादी है। बादरायण का दर्शन अद्वैतवाद, भेदाभेदवाद और विशिष्टाद्वैतवाद में से ही एक है। 
शंकराचार्य का भाष्य ही बादरायण के अभिमतों के सर्वाधिक निकट है। उनका दर्शन उपनिषदों के 'एकमेवाद्वितीय' सत् या ब्रह्म का ही प्रतिपादन करता है। शंकराचार्य के इस कथन को सभी भाष्यकार मानते हैं कि ब्रह्मसूत्रों का मुख्य प्रयोजन उपनिषद के वाक्यों को संग्रथित करना है। अत: बादरायण अद्वैतवादी थे।
ब्रह्म ::
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा :- अब, इस प्रकार ब्रह्म जिज्ञासा करना है।
जन्माद्यस्य यत :- ब्रह्म वह है, जिससे इस जगत् का जन्म होता है, जिसमें इसकी स्थिति होती है तथा जिसमें इसका लय होता है।
शास्त्रयोनित्वात् :- ब्रह्म का ज्ञान शास्त्र से होता है।
तत्तु समन्वयात् :- वह ब्रह्मज्ञान शास्त्र के समन्वय से होता है। शास्त्र का समन्वय धर्म ज्ञान में नहीं है।
ईक्षतेनशिब्दम् :- ब्रह्म चेतन है। अत: वेदबाह्य प्रमाण अर्थात् प्रत्यक्ष तथा अनुमान से जगत् के आदि कारण की जो मीमांसा की जाती है, वह सत्य नहीं है।
अपबृंहणात् ब्रह्म :- जो फैलता जाता है उसे ब्रह्म कहते है। 
बादरायण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द या श्रुति को प्रमाण मानते थे। किन्तु वे श्रुति विरोधी प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान को ग़लत समझते थे। अत: वे मुख्यत: श्रुतिवादी या वेदवादी थे। उनके अनुसार श्रुति अनुगृहीत तर्क ही मुख्य प्रमाण हैं, जिसके द्वारा ब्रह्म की जिज्ञासा की जानी चाहिए। दर्शन का स्वरूप मीमांसा है। श्रुतियों की तर्क संगत मीमांसा करना ही दर्शन है। दर्शन ब्रह्मविद्या है, क्योंकि श्रुतियों की मीमांसा का समन्वय उसी में है। पहले गुरु से ब्रह्म का श्रवण करना है, फिर उस श्रवण पर मनन करना है। मनन से ब्रह्मविद्या का निश्चय हो जाता है और अन्य दर्शनों का खंडन हो जाता है। अन्त में इस मनन पर निदिध्यासन करना है। निदिध्यासन आत्म साक्षात्कार रूप होता है। उसका अन्त आत्म त्याग में होता है। यही आत्म त्याग ब्रह्म प्राप्ति है।आत्मा ही ब्रह्म है। जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है।
(1). समन्वय) :: इसमें अनेक प्रकार की परस्पर विरुद्ध श्रुतियों और उपनिषद के वाक्यों का समन्वय किया गया है।
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।[ब्रह्मसूत्र 1.1.1]
जन्माद्यस्य यतः।[ब्रह्मसूत्र 1.1.2]
शास्त्रयोनित्वात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.3] 
तत् तु समन्वयात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.4] 
ईक्षतेर् नाशब्दम्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.5] 
गौणश् चेन् नात्मशब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.6] 
तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.7]
हेयत्वावचनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.1.8] 
प्रतिज्ञाविरोधात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.9] 
स्वाप्ययात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.10] 
गतिसामान्यात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.11]
श्रुतत्वाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.1.12] 
आनन्दमयोऽभ्यासात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.13] 
विकारशब्दान् नेति चेन् न प्राचुर्यात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.14] 
तद्धेतुव्यपदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.1.15] 
मान्त्रवर्णिकमेव च गीयते।[ब्रह्मसूत्र 1.1.16]
नेतरोऽनुपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 1.1.17]
भेदव्यपदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.1.18] 
कामाच् च नानुमानापेक्षा।[ब्रह्मसूत्र 1.1.19] 
अस्मिन्न् अस्य च तद्योगं शास्ति।[ब्रह्मसूत्र 1.1.20]
अन्तस् तद्धर्मोपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.21] 
भेदव्यपदेशाच् चान्यः।[ब्रह्मसूत्र 1.1.22]
आकाशस् तल्लिङ्गात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.23] 
अत एव प्राणः।[ब्रह्मसूत्र 1.1.24]
ज्योतिश् चरणाभिधानात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.25]
छन्दोऽभिधानान् नेति चेन् न तथा चेतोऽर्पणनिगदात् तथा हि दर्शनम्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.26]
भूतादिपादव्यपदेशोपपत्तेश् चैवम्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.27]
उपदेशभेदान् नेति चेन् नोभयस्मिन्न् अप्य् अविरोधात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.28]
प्राणस् तथानुगमात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.29] 
न वक्तुर् आत्मोपदेशाद् इति चेद् अध्यात्मसंबन्धभूमा ह्य् अस्मिन्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.30] 
शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.31] 
जीवमुख्यप्राणलिङ्गान् नेति चेन् नोपासात्रैविध्यादाश्रितत्वाद् इह तद्योगात्।[ब्रह्मसूत्र 1.1.32] 
सर्वत्र प्रसिद्धोपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.1] 
विवक्षितगुणोपपत्तेश् च। [ब्रह्मसूत्र 1.2.2] 
अनुपपत्तेस् तु न शारीरः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.3] 
कर्मकर्तृव्यपदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.4]
शब्दविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.5] 
स्मृतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.6] 
अर्भकौस्त्वात् तद्व्यपदेशाच् च नेति चेन् न निचाय्यत्वाद् एवं व्योमवच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.7]
संभोगप्राप्तिर् इति चेन् न वैशेष्यात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.8] 
अत्ता चराचरग्रहणात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.9]
प्रकरणाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.10]
गुहां प्रविष्टाव् आत्मानौ हि तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.11] 
विशेषणाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.12]
अन्तर उपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.13]
स्थानादिव्यपदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.14] 
सुखविशिष्टाभिधानाद् एव च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.15]
अत एव च स ब्रह्म।[ब्रह्मसूत्र 1.2.16]
श्रुतोपनिषत्कगत्यभिधानाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.17]
अनवस्थितेर् असंभवाच् च नेतरः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.18] 
अन्तर्याम्यधिदैवाधिलोकादिषु तद्धर्मव्यपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.19] 
न च स्मार्तम् अतद्धर्माभिलापाच् छारीरश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.20] 
उभयेऽपि हि भेदेनैनम् अधीयते।[ब्रह्मसूत्र 1.2.21]
अदृश्यत्वादिगुणको धर्मोक्तेः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.22]
विशेषणभेदव्यपदेशाभ्यां च नेतरौ।[ब्रह्मसूत्र 1.2.23] 
रूपोपन्यासाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.24] 
वैश्वानरः साधारणशब्दविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.25]
स्मर्यमाणम् अनुमानं स्याद् इति।[ब्रह्मसूत्र 1.2.26]
शब्दादिभ्योऽन्तःप्रतिष्ठानाच् च नेति चेन् न तथा दृष्ट्युपदेशाद् असम्भवात् पुरुषमपि चैनम् अधीयते।[ब्रह्मसूत्र 1.2.27]
अत एव न देवता भूतं च।[ब्रह्मसूत्र 1.2.28] 
साक्षाद् अप्य् अविरोधं जैमिनिः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.29] 
अभिव्यक्तेर् इत्य् आश्मरथ्यः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.30] 
अनुस्मृतेर् बादरिः।[ब्रह्मसूत्र 1.2.31]
संपत्तेर् इति जैमिनिस् तथा हि दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 1.2.32] 
आमनन्ति चैनम् अस्मिन्।[ब्रह्मसूत्र 1.2.33]
द्युभ्वाद्यायतनं स्वशब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.1] 
मुक्तोपसृप्यव्यपदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.2] 
नानुमानम् अतच्छब्दात् प्राणभृच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.3]
भेदव्यपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.4] 
प्रकरणात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.5] 
स्थित्यदनाभ्यां च। [ब्रह्मसूत्र 1.3.6]
भूमा संप्रसादाद् अध्युपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.7] 
धर्मोपपत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.8] 
अक्षरम् अम्बरान्तधृतेः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.9] 
सा च प्रशासनात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.10]
अन्यभावव्यावृत्तेश्च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.11]
ईक्षतिकर्मव्यपदेशात् सः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.12] 
दहर उत्तरेभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.13] 
गतिशब्दाभ्यां तथा हि दृष्टं लिङ्गं च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.14]
धृतेश् च महिम्नोऽस्यास्मिन्न् उपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.15] 
प्रसिद्धेश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.16] 
इतरपरामर्शात् स इति चेन् नासंभवात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.17] 
उत्तराच् चेद् आविर्भूतस्वरूपस् तु।[ब्रह्मसूत्र 1.3.18]
अन्यार्थश् च परामर्शः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.19] 
अल्पश्रुतेर् इति चेत् तद् उक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.20] 
अनुकृतेस् तस्य च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.21] 
अपि च स्मर्यते।[ब्रह्मसूत्र 1.3.22] 
शब्दाद् एव प्रमितः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.23] 
हृद्यपेक्षया तु मनुष्याधिकारत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.24]
तदुपर्य् अपि बादरायणः संभवात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.25] 
विरोधः कर्मणीति चेन् नानेकप्रतिपत्तेर् दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.26] 
शब्द इति चेन् नातः प्रभवात् प्रत्यक्षानुमानाभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.27] 
अत एव च नित्यत्वम्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.28]
समाननामरूपत्वाच्चावृत्तावप्यविरोधो दर्शनात् स्मृतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.29] 
मध्वादिष्व् असंभवाद् अनधिकारं जैमिनिः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.30] 
ज्योतिषि भावाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.31] 
भावं तु बादरायणोऽस्ति हि।[ब्रह्मसूत्र 1.3.32]
शुगस्य तदनादरश्रवणात् तदाद्रवणात् सूच्यते हि।[ब्रह्मसूत्र 1.3.33]
क्षत्रियत्वगतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.34] 
उत्तरत्र चैत्ररथेन लिङ्गात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.35] 
संस्कारपरामर्शात् तदभावाभिलापाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.36] 
तदभावनिर्धारणे च प्रवृत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.37]
श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.38] 
स्मृतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.3.39] 
कम्पनात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.40] 
ज्योतिर् दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.41] 
आकाशोऽर्थान्तरत्वादिव्यपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 1.3.42] 
सुषुप्त्युत्क्रान्त्योर् भेदेन।[ब्रह्मसूत्र 1.3.43] 
पत्यादिशब्देभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 1.3.44] 
आनुमानिकम् अप्य् एकेषाम् इति चेन् न शरीर-रूपक-विन्यस्त-गृहीतेर् दर्शयति च।[ब्रह्मसूत्र 1.4.1] 
सूक्ष्मं तु तदर्हत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.2] 
तदधीनत्वाद् अर्थवत्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.3] 
ज्ञेयत्वावचनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.4.4] 
वदतीति चेन् न प्राज्ञो हि प्रकरणात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.5] 
त्रयाणाम् एव चैवम् उपन्यासः प्रश्नश् च।[ब्रह्मसूत्र 1.4.6] 
महद्वच् च। [ब्रह्मसूत्र 1.4.7] 
चमसवदविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.8]
ज्योतिरुपक्रमा तु तथा ह्य् अधीयत एके। [ब्रह्मसूत्र 1.4.9] 
कल्पनोपदेशाच् च मध्वादिवदविरोधः।[ब्रह्मसूत्र 1.4.10]
न संख्योपसंग्रहादपि ज्ञानाभावाद् अतिरेकाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.4.11] 
प्राणादयो वाक्यशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.12] 
ज्योतिषैकेषाम् असत्यन्ने।[ब्रह्मसूत्र 1.4.13]
कारणत्वेन चाकाशादिषु यथाव्यपदिष्टोक्तेः। [ब्रह्मसूत्र 1.4.14]
समाकर्षात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.15] 
जगद्वाचित्वात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.16] 
जीवमुख्यप्राणलिङ्गान् नेति चेत् तद्व्याख्यातम्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.17] 
अन्यार्थं तु जैमिनिः प्रश्नव्याख्यानाभ्याम् अपि चैवम् एके।[ब्रह्मसूत्र 1.4.18] 
वाक्यान्वयात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.19]
प्रतिज्ञासिद्धेर् लिङ्गम् आश्मरथ्यः।[ब्रह्मसूत्र 1.4.20]
उत्क्रमिष्यत एवं भावाद् इत्य् औडुलोमिः।[ब्रह्मसूत्र 1.4.21] 
अवस्थितेर् इति काशकृत्स्नः।[ब्रह्मसूत्र 1.4.22] 
प्रकृतिश् च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधात्।  [ब्रह्मसूत्र 1.4.23]
अभिध्योपदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 1.4.24] 
साक्षाच् चोभयाम्नानात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.25]
आत्मकृतेः।[ब्रह्मसूत्र 1.4.26]
परिणामात्।[ब्रह्मसूत्र 1.4.26] 
योनिश् च हि गीयते।[ब्रह्मसूत्र 1.4.27]
एतेन सर्वे व्याख्याता व। 
(2). अविरोध :: इसमें स्पष्ट किया गया है कि ब्रह्मवाद का विरोध किसी भी शास्त्र या शास्त्र वाक्य से नहीं है। इसके प्रथम पाद में स्वमत प्रतिष्ठा के लिए स्मृति-तर्कादि विरोधों का परिहार किया गया है। इसमें विरुद्ध मतों के प्रति दोषारोपण किया गया है।
इसके द्वितीय अध्याय में, विशेषत: प्रथम दो पक्षों में, तो खंडन ही मुख्य हैं। द्वितीय अध्याय का प्रथमपाद स्मृतिपाद कहा जाता है और द्वितीय अध्याय का द्वितीयपाद तर्कपाद। स्मृतिपाद में वेदान्त विरोधी स्मृतियों का खंडन है और तर्कवाद में वेदान्त विरोधी दर्शनों का। इन दर्शनों में सांख्य, वैशेषिक, जैनमत, बौद्ध सर्वास्तिवाद, बौद्ध विज्ञानवाद, पाशुपत और पांचरात्र हैं। इस प्रकार परमत निराकरण के द्वारा स्वमत स्थापन की प्रवृत्ति बादरायण में विशेष रूप से देखी जाती है। 'तु', 'न', 'चेत्' आदि शब्दों के द्वारा बादरायण पक्षपाती थे, न कि रूढ़िवादी दर्शन के। उनका वेदान्त पूर्ण आलोचनात्मक दर्शन है। याज्ञवल्क्य और काशकृत्स्न के पश्चात् वे ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वेदान्ती हुए हैं।
स्मृत्यनवकाशदोषप्रसङ्ग इति चेन् नान्यस्मृत्यनवकाशदोषप्रसङ्गात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.1]
इतरेषां चानुपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.2] 
एतेन योगः प्रत्युक्तः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.3]
न विलक्षणत्वाद् अस्य तथात्वं च शब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.4]
अभिमानिव्यपदेशस् तु विशेषानुगतिभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.5] 
दृश्यते तु।[ब्रह्मसूत्र 2.1.6]
असद् इति चेन् न प्रतिषेधमात्रत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.7]
अपीतौ तद्वत्प्रसङ्गाद् असमञ्जसम्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.8]
न तु दृष्टान्तभावात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.9] 
स्वपक्षदोषाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.1.10] 
तर्काप्रतिष्ठानाद् अपि।[ब्रह्मसूत्र 2.1.11] 
अन्यथानुमेयम् इति चेद् एवम् अप्य् अनिर्मोक्षप्रसङ्गः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.12] 
एतेन शिष्टापरिग्रहा अपि व्याख्याताः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.13]
भोक्त्रापत्तेर् अविभागश् चेत् स्याल् लोकवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.14] 
तदनन्यत्वम् आरम्भणशब्दादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.15] 
भावे चोपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.16] 
सत्वाच् चापरस्य।[ब्रह्मसूत्र 2.1.17]
असद्व्यपदेशान् नेति चेन् न धर्मान्तरेण वाक्यशेषाद्युक्तेः शब्दान्तराच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.1.18] 
पटवच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.1.19]
यथा च प्राणादिः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.20] 
इतरव्यपदेशाद् धिताकरणादिदोषप्रसक्तिः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.21] 
अधिकं तु भेदनिर्देशात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.22] 
अश्मादिवच् च तदनुपपत्तिः।[ब्रह्मसूत्र 2.1.22]
उपसंहारदर्शनान् नेति चेन् न क्षीरवद् धि।[ब्रह्मसूत्र 2.1.23] 
देवादिवद् अपि लोके।[ब्रह्मसूत्र 2.1.24]
कृत्स्नप्रसक्तिर् निरवयवत्वशब्दकोपो वा।[ब्रह्मसूत्र 2.1.25] 
श्रुतेस् तु शब्दमूलत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.27] 
आत्मनि चैवं विचित्राश् च हि। [ब्रह्मसूत्र 2.1.28]
स्वपक्षदोषाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.1.29] 
सर्वोपेता च तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.30] 
विकरणत्वान् नेति चेत् तद् उक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.31] 
न प्रयोजनवत्त्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.32] 
लोकवत् तु लीलाकैवल्यम्।[ब्रह्मसूत्र 2.1.33] 
वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात् तथा हि दर्शयति। [ब्रह्मसूत्र 2.1.34]
न कर्माविभागाद् इति चेन् नानादित्वाद् उपपद्यते चाप्य् उपलभ्यते च।[ब्रह्मसूत्र 2.1.35]
सर्वधर्मोपपत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.1.36] 
रचनानुपपत्तेश् च नानुमानं प्रवृत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.2.1]
पयोऽम्बुवच् चेत् तत्रापि।[ब्रह्मसूत्र 2.2.2] 
व्यतिरेकानवस्थितेश् चानपेक्षत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.3] 
अन्यत्राभावाच् च न तृणादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.4] 
पुरुषाश्मवद् इति चेत् तथापि।[ब्रह्मसूत्र 2.2.5] 
अङ्गित्वानुपपत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.2.6]
अन्यथानुमितौ च ज्ञशक्तिवियोगात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.7]
अभ्युपगमेऽप्य् अर्थाभावात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.8]
विप्रतिषेधाच् चासमञ्जसम्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.9] 
महद्दीर्घवद् वा ह्रस्वपरिमण्डलाभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.10]
उभयथापि न कर्मातस्तदभावः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.11]
समवायाभ्युपगमाच् च साम्याद् अनवस्थितेः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.12] 
नित्यम् एव च भावात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.13]
रूपादिमत्त्वाच् च विपर्ययो दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.14]
उभयथा च दोषात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.15]
अपरिग्रहाच् चात्यन्तम् अनपेक्षा।[ब्रह्मसूत्र 2.2.16]
समुदाय उभयहेतुकेऽपि तदप्राप्तिः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.17]
इतरेतरप्रत्ययत्वाद् उपपन्नम् इति चेन् न सङ्घातभावानिमित्तत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.18] 
उत्तरोत्पादे च पूर्वनिरोधात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.19]
असति प्रतिज्ञोपरोधो यौगपद्यमन्यथा।[ब्रह्मसूत्र 2.2.20]
प्रतिसंख्याप्रतिसंख्यानिरोधाप्राप्तिर् अविच्छेदात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.21]
उभयथा च दोषात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.22]
आकाशे चाविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.23]
अनुस्मृतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.2.24] 
नासतोऽदृष्टत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.25] 
उदासीनानाम् अपि चैवं सिद्धिः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.26]
नाभाव उपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.27]
वैधर्म्याच् च न स्वप्नादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.28]
न भावोऽनुपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.29]
सर्वथानुपपत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.2.30]
नैकस्मिन्न् असम्भवात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.31] 
एवं चात्माकार्त्स्न्यम्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.32]
न च पर्यायाद् अप्य् अविरोधो विकारादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.33]
अन्त्यावस्थितेश् चोभयनित्यत्वाद् अविशेषः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.34] 
पत्युर् असामञ्जस्यात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.35] 
अधिष्ठानानुपपत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.2.36]
करणवच् चेन् न भोगादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.37]
अन्तवत्त्वम् असर्वज्ञता वा।[ब्रह्मसूत्र 2.2.38]
उत्पत्त्यसंभवात्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.39]
न च कर्तुः करणम्।[ब्रह्मसूत्र 2.2.40] 
विज्ञानादिभावे वा तदप्रतिषेधः।[ब्रह्मसूत्र 2.2.41] 
विप्रतिषेधाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.2.42]
न वियदश्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.1] 
अस्ति तु।[ब्रह्मसूत्र 2.3.2] 
गौण्यसंभवाच् छब्दाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.3]
स्याच् चैकस्य ब्रह्मशब्दवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.4]
प्रतिज्ञाहानिर् अव्यतिरेकात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.5]
शब्देभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.6]
यावद्विकारं तु विभागो लोकवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.7]
एतेन मातरिश्वा व्याख्यातः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.8]
असंभवस् तु सतोऽनुपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.9]
तेजोऽतस् तथा ह्य् आह।[ब्रह्मसूत्र 2.3.10]
आपः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.11] 
पृथिवी।[ब्रह्मसूत्र 2.3.12]
अधिकाररूपशब्दान्तरेभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.13] 
तदभिध्यानाद् एव तु तल्लिङ्गात् सः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.14] 
विपर्ययेण तु क्रमोऽत उपपद्यते च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.15]
अन्तरा विज्ञानमनसी क्रमेण तल्लिङ्गाद् इति चेन् नाविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.16]
चराचरव्यपाश्रयस् तु स्यात् तद्व्यपदेशो भाक्तस् तद्भावभावित्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.17]
नात्मा श्रुतेर् नित्यत्वाच् च ताभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.18]
ज्ञोऽत एव।[ब्रह्मसूत्र 2.3.19]
उत्क्रान्तिगत्यागतीनाम्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.20]
स्वात्मना चोत्तरयोः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.21]
नाणुरतच्छ्रुतेर् इति चेन् नेतराधिकारात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.22]
स्वशब्दोन्मानाभ्यां च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.23]
अविरोधश् चन्दनवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.24]
अवस्थितिवैशेष्याद् इति चेन् नाभ्युपगमाद् धृदि हि।[ब्रह्मसूत्र 2.3.25]
गुणाद्वा लोकवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.26]
व्यतिरेको गन्धवत् तथा हि दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 2.3.27]
पृथगुपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.28]
तद्गुणसारत्वात् तु तद्व्यपदेशः प्राज्ञवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.29]
यावदात्मभावित्वाच् च न दोषस् तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.30] 
पुंस्त्वादिवत् त्व् अस्य सतोऽभिव्यक्तियोगात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.31]
नित्योपलब्ध्यनुपलब्धिप्रसङ्गोऽन्यतरनियमो वान्यथा।[ब्रह्मसूत्र 2.3.32]
कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.33] 
उपादानाद् विहारोपदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.34] 
व्यपदेशाच् च क्रियायां न चेन् निर्देशविपर्ययः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.35]
उपलब्धिवदनियमः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.36]
शक्तिविपर्ययात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.37]
समाध्यभावाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.38]
यथा च तक्षोभयथा।[ब्रह्मसूत्र 2.3.39]
परात् तु तच्छ्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.40]
कृतप्रयत्नापेक्षस् तु विहितप्रतिषिद्धावैयर्थ्यादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.41]
अंशो नानाव्यपदेशाद् अन्यथा चापि दाशकितवादित्वम् अधीयत एके।[ब्रह्मसूत्र 2.3.42]
मन्त्रवर्णात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.43] 
अपि स्मर्यते।[ब्रह्मसूत्र 2.3.44]
प्रकाशादिवत् तु नैवं परः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.45]
स्मरन्ति च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.46]
अनुज्ञापरिहारौ देहसम्बन्धाज् ज्योतिरादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.47]
असन्ततेश् चाव्यतिकरः।[ब्रह्मसूत्र 2.3.48]
आभास एव च।[ब्रह्मसूत्र 2.3.49]
अदृष्टानियमात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.50] 
अभिसन्ध्यादिष्व् अपि चैवम्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.51]  
प्रदेशभेदाद् इति चेन् नान्तर्भावात्।[ब्रह्मसूत्र 2.3.52]
तथा प्राणाः।[ब्रह्मसूत्र 2.4.1] 
गौण्यसंभवात् तत्प्राक् श्रुतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.2]
तत्पूर्वकत्वाद् वाचः।[ब्रह्मसूत्र 2.4.3]
सप्त गतेर् विशेषितत्वाच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.4]
हस्तादयस् तु स्थितेऽतो नैवम्।[ब्रह्मसूत्र 2.4.5]
अणवश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.6]
श्रेष्ठश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.7]
न वायुक्रिये पृथगुपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 2.4.8]
चक्षुरादिवत् तु तत्सहशिष्ट्यादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 2.4.9]
अकरणत्वाच् च न दोषस् तथा हि दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 2.4.10]
पञ्चवृत्तिर् मनोवत् व्यपदिश्यते।[ब्रह्मसूत्र 2.4.11]
अणुश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.12]
ज्योतिर् आद्यधिष्ठानं तु तदामननात्प्राणवता शब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 2.4.13] 
तस्य च नित्यत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 2.4.14] 
त इन्द्रियाणि तद्व्यपदेशाद् अन्यत्र श्रेष्ठात्।[ब्रह्मसूत्र 2.4.15]
भेदश्रुतेर् वैलक्षण्याच् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.16]
संज्ञामूर्तिकॢप्तिस् तु त्रिवृत्कुर्वत उपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 2.4.17] 
मांसादि भौमं यथाशब्दमितरयोश् च।[ब्रह्मसूत्र 2.4.18]
वैशेष्यात् तु तद्वादस् तद्वादः।[ब्रह्मसूत्र 2.4.19]
 (3).  साधना  :: इसमें ब्रह्मप्राप्ति के उपाय और ब्रह्म से तत्वों की उत्पत्ति कही गयी है और जीव और ब्रह्म के लक्षणों का निर्देश करके मुक्ति के बहिरंग और अन्तरंग साधनों का निर्देश किया गया है।
तदन्तरप्रतिपत्तौ रंहति संपरिष्वक्तः प्रश्ननिरूपणाभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.1] 
त्र्यात्मकत्वात् तु भूयस्त्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.2] 
प्राणगतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 3.1.3] 
अग्न्यादिश्रुतेर् इति चेन् न भाक्तत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.4]
प्रथमेऽश्रवणाद् इति चेन् न ता एव ह्य् उपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.5] 
अश्रुतत्वाद् इति चेन् नेष्टादिकारिणां प्रतीतेः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.6] 
भाक्तं वानात्मवित्त्वात् तथा हि दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 3.1.7]
कृतात्ययेऽनुशयवान् दृष्टस्मृतिभ्यां यथेतमनेवं च।[ब्रह्मसूत्र 3.1.8]
चरणाद् इति चेन् न तदुपलक्षणार्थेति कार्ष्णाजिनिः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.9]
आनर्थक्यम् इति चेन् न तदपेक्षत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.10]
सुकृतदुष्कृते एवेति तु बादरिः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.11] 
अनिष्टादिकारिणाम् अपि च श्रुतम्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.12] 
संयमने त्व् अनुभूयेतरेषामारोहाव् अरोहौ तद्गतिदर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.13]
स्मरन्ति च।[ब्रह्मसूत्र 3.1.14]
अपि सप्त।[ब्रह्मसूत्र 3.1.15]
तत्रापि तद्व्यापारादविरोधः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.16] 
विद्याकर्मणोर् इति तु प्रकृतत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.17]
न तृतीये तथोपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.18]
स्मर्यतेऽपि च लोके।[ब्रह्मसूत्र 3.1.19] 
दर्शनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.1.20]
तृतीयशब्दावरोधः संशोकजस्य।[ब्रह्मसूत्र 3.1.21] 
तत्स्वाभाव्यापत्तिरुपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 3.1.22] 
नातिचिरेण विशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.23] 
अन्याधिष्ठिते पूर्ववदभिलापात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.24] 
अशुद्धम् इति चेन् न शब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.25]
रेतःसिग्योगोऽथ।[ब्रह्मसूत्र 3.1.26] 
योनेःशरीरम्।[ब्रह्मसूत्र 3.1.27]
सन्ध्ये सृष्टिराह हि।[ब्रह्मसूत्र 3.2.1]
निर्मातारं चैके पुत्रादयश् च।[ब्रह्मसूत्र 3.2.2]
मायामात्रं तु कार्त्स्न्येनानभिव्यक्तस्वरूपत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.3] 
पराभिध्यानात् तु तिरोहितं ततो ह्यस्य बन्धविपर्ययौ।[ब्रह्मसूत्र 3.2.4] 
देहयोगाद्वा सोऽपि।[ब्रह्मसूत्र 3.2.5]
सूचकश् च हि श्रुतेराचक्षते च तद्विदः।[ब्रह्मसूत्र 3.2.6]
तदभावो नाडीषु तच्छ्रुतेरात्मनि च।[ब्रह्मसूत्र 3.2.7]
अतः प्रबोधोऽस्मात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.8]
स एव तु कर्मानुस्मृतिशब्दविधिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 3.2.9] 
मुग्धेर्ऽधसंपत्तिः परिशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.10]
न स्थानतोऽपि परस्योभयलिङ्गं सर्वत्र हि।[ब्रह्मसूत्र 3.2.11]
भेदाद् इति चेन् न प्रत्येकमतद्वचनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.12]
अपि चैवम् एके।[ब्रह्मसूत्र 3.2.13]
अरूपवदेव हि तत्प्रधानत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.14]
प्रकाशवच्चावैयर्थ्यात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.15] 
आह च तन्मात्रम्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.16]
दर्शयति चाथो अपि स्मर्यते।[ब्रह्मसूत्र 3.2.17] 
अत एव चोपमा सूर्यकादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.18]
अम्बुवदग्रहणात् तु न तथात्वम्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.19] 
वृद्धिह्रासभाक्त्वमन्तर्भावादुभयसामञ्जस्यादेवं दर्शनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.2.20]
प्रकृतैतावत्त्वं हि प्रतिषेधति ततो ब्रवीति च भूयः।[ब्रह्मसूत्र 3.2.21] 
तदव्यक्तमाह हि।[ब्रह्मसूत्र 3.2.22]
अपि संराधने प्रत्यक्षानुमानाभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.23]
प्रकाशादिवच्चावैशेष्यं प्रकाशश् च कर्मण्यभ्यासात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.24]
अतोऽनन्तेन तथा हि लिङ्गम्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.25]
उभयव्यपदेशात्त्वहिकुण्डलवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.26]
प्रकाशाश्रयवद्वा तेजस्त्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.27]
पूर्ववद्वा।[ब्रह्मसूत्र 3.2.28]
प्रतिषेधाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.2.29]
परमतस्सेतून्मानसंबन्धभेदव्यपदेशेभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 3.2.30]
सामान्यात् तु।[ब्रह्मसूत्र 3.2.31]
बुद्ध्यर्थः पादवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.32]
स्थानविशेषात्प्रकाशादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.33]
उपपत्तेश् च।[ब्रह्मसूत्र 3.2.34]
तथान्यप्रतिषेधात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.35]
अनेन सर्वगतत्वमायामशब्दादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 3.2.36]
फलमत उपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 3.2.37]
श्रुतत्वाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.2.38]
धर्मं जैमिनिरत एव।[ब्रह्मसूत्र 3.2.39] 
पूर्वं तु बादरायणो हेतुव्यपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 3.2.40]
सर्ववेदान्तप्रत्ययं चोदनाद्यविशेषात् ।[ब्रह्मसूत्र 3.3.1]
भेदान् नेति चेद् एकस्याम् अपि।[ब्रह्मसूत्र 3.3.2] 
स्वाध्यायस्य तथात्वे हि समाचारेऽधिकाराच् च सववच् च तन्नियमः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.3] 
दर्शयति च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.4]
उपसंहारोर्ऽथाभेदाद्विधिशेषवत्समाने च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.5]
अन्यथात्वं शब्दाद् इति चेन् नाविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.6]
न वा प्रकरणभेदात् परोवरीयस्त्वादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.7]
संज्ञातश् चेत् तद् उक्तम् अस्ति तु तद् अपि।[ब्रह्मसूत्र 3.3.8]
व्याप्तेश् च समञ्जसम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.9]
सर्वाभेदादन्यत्रेमे।[ब्रह्मसूत्र 3.3.10]
आनन्दादयः प्रधानस्य।[ब्रह्मसूत्र 3.3.11]
प्रियशिरस्त्वाद्यप्राप्तिरुपचयापचयौ हि भेदे।[ब्रह्मसूत्र 3.3.12]
इतरे त्वर्थसामान्यात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.13]
आध्यानाय प्रयोजनाभावात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.14]
आत्मशब्दाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.15]
आत्मगृहीतिर् इतरवद् उत्तरात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.16]
अन्वयाद् इति चेत् स्याद् अवधारणात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.17]
कार्याख्यानादपूर्वम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.18]
समान एवं चाभेदात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.19]
सम्बन्धादेवमन्यत्रापि।[ब्रह्मसूत्र 3.3.20]
न वा विशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.21] 
दर्शयति च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.22] 
संभृतिद्युव्याप्त्यपि चातः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.23]
पुरुषविद्यायामपि चेतरेषामनाम्नानात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.24]
वेधाद्यर्थभेदात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.25]
हानौ तूपायनशब्दशेषत्वात् कुशाच्छन्दस्स्तुत्युपगानवत्तदुक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.26]
सांपराये तर्तव्याभावात् तथा ह्य् अन्ये।[ब्रह्मसूत्र 3.3.27]
छन्दत उभयाविरोधात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.28]
गतेर् अर्थवत्त्वम् उभयथान्यथा हि विरोधः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.29]
उपपन्नस् तल्लक्षणार्थोपलब्धेर् लोकवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.30]
यावदधिकारम् अवस्थितिर् आधिकारिकाणाम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.31]
अनियमस्सर्वेषामविरोधश्शब्दानुमानाभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.32] 
अक्षरधियां त्ववरोधस्सामान्यतद्भावाभ्यामौपसदवत्तदुक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.33]
इयदामननात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.34]
अन्तरा भूतग्रामवत्स्वात्मनोऽन्यथा भेदानुपपत्तिर् इति चेन् नोपदेशवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.35]
व्यतिहारो विशिंषन्ति हीतरवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.36]
सैव हि सत्यादयः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.37]
कामादीतरत्र तत्र चाऽयतनादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.38]
आदरादलोपः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.39]
उपस्थितेऽतस्तद्वचनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.40]
तन्निर्धारणानियमस्तद्दृष्टेः पृथग्घ्यप्रतिबन्धः फलम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.41] 
प्रदानवदेव तदुक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.42]
लिङ्गभूयस्त्वात्तद्धि बलीयस्तदपि।[ब्रह्मसूत्र 3.3.43] 
पूर्वविकल्पः प्रकरणात्स्यात् क्रियामानसवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.44]
अतिदेशाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.45] 
विद्यैव तु निर्धारणाद्दर्शनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.46]
श्रुत्यादिबलीयस्त्वाच् च न बाधः। [ब्रह्मसूत्र 3.3.47]
अनुबन्धादिभ्यः प्रज्ञान्तरपृथक्त्ववद्दृष्टश् च तदुक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.48] 
न सामान्यादप्युपलब्धेर्मृत्युवन्न हि लोकापत्तिः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.49]
परेण च शब्दस्य ताद्विध्यं भूयस्त्वात् त्व् अनुबन्धः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.50]
एक आत्मनः शरीरे भावात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.51]
व्यतिरेकस्तद्भावभावित्वान्न तूपलब्धिवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.52] 
अङ्गावबद्धास्तु न शाखासु हि प्रतिवेदम्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.53]
मन्त्रादिवद्वाविरोधः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.54] 
भूम्नः क्रतुवज्ज्यायस्वं तथा हि दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 3.3.55]
नाना शब्दादिभेदात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.56]
विकल्पोऽविशिष्टफलत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.57] 
काम्यास्तु यथाकामं समुच्चीयेरन्न वा पूर्वहेत्वभावात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.58]
अङ्गेषु यथाश्रयभावः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.59]
शिष्टेश् च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.60]
समाहारात्।[ब्रह्मसूत्र 3.3.61]
गुणसाधारण्यश्रुतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.62]
न वा तत्सहभावाश्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 3.3.63]
दर्शनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.3.64]
पुरुषार्थो ऽतः शब्दाद् इति बादरायणः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.1] 
शेषत्वात्पुरुषार्थवादो यथान्येष्व् इति जैमिनिः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.2] 
आचारदर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.3]
तच्छ्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.4]
समन्वारम्भणात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.5] 
तद्वतो विधानात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.6] 
नियमात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.7]
अधिकोपदेशात् तु बादरायणस्यैवं तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.8]
तुल्यं तु दर्शनम्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.9]
असार्वत्रिकी।[ब्रह्मसूत्र 3.4.10] 
विभागः शतवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.11]
अध्ययनमात्रवतः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.12] 
नाविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.13] 
स्तुतयेऽनुमतिर्वा।[ब्रह्मसूत्र 3.4.14] 
कामकारेण चैके।[ब्रह्मसूत्र 3.4.15]
उपमर्दं च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.16]
ऊर्ध्वरेतस्सु च शब्दे हि।[ब्रह्मसूत्र 3.4.17]
परामर्शं जैमिनिरचोदनाच्चापवदति हि।[ब्रह्मसूत्र 3.4.18]
अनुष्ठेयं बादरायणस्साम्यश्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.19]
विधिर् वा धारणवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.20]
स्तुतिमात्रम् उपादानाद् इति चेन् नापूर्वत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.21]
भावशब्दाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.22]
पारिप्लवार्था इति चेन् न विशेषितत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.23] 
तथा चैकवाक्योपबन्धात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.24] 
अत एव चाग्नीन्धनाद्यनपेक्षा।[ब्रह्मसूत्र 3.4.25]
सर्वापेक्षा च यज्ञादिश्रुतेर् अश्ववत्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.26]
शमदमाद्युपेतस् स्यात् तथापि तु तद्विधेस् तदङ्गतया तेषाम् अप्य् अवश्यानुष्ठेयत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.27] 
सर्वान् नानुमतिश् च प्राणात्यये तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.28]
अबाधाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.29]
अपि स्मर्यते।[ब्रह्मसूत्र 3.4.30]
शब्दश् चातोऽकामकारे।[ब्रह्मसूत्र 3.4.31]
विहितत्वाच् चाऽश्रमकर्मापि।[ब्रह्मसूत्र 3.4.32]
सहकारित्वेन च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.33]
सर्वथापि त एवोभयलिङ्गात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.34]
अनभिभवं च दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 3.4.35]
अन्तरा चापि तु तद्दृष्टेः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.36]
अपि स्मर्यते।[ब्रह्मसूत्र 3.4.37]
विशेषानुग्रहश् च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.38]
अतस् त्व् इतरज्ज्यायो लिङ्गाच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.39] 
तद्भूतस्य तु नातद्भावो जैमिनेर् अपि नियमात् तद्रूपाभावेभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.40]
न चाधिकारिकम् अपि पतनानुमानात् तदयोगात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.41] 
उपपूर्वम् अपीत्य् एके भावमशनवत् तद् उक्तम्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.42]
बहिस् तूभयथापि स्मृतेर् आचाराच् च।[ब्रह्मसूत्र 3.4.43]
स्वामिनः फलश्रुतेर् इत्य् आत्रेयः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.44]
आर्त्विज्यम् इत्य् औडुलोमिः तस्मै हि परिक्रीयते।[ब्रह्मसूत्र 3.4.45]
सहकार्यन्तरविधिः पक्षेण तृतीयं तद्वतो विध्यादिवत्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.46]
कृत्स्नभावात् तु गृहिणोपसंहारः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.47]
मौनवद् इतरेषाम् अप्य् उपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.48]
अनाविष्कुर्वन्न् अन्वयात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.49]
ऐहिकम् अप्रस्तुतप्रतिबन्धे तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 3.4.50] 
एवं मुक्तिफलानियमस् तदवस्थावधृतेस् तदवस्थावधृतेः।[ब्रह्मसूत्र 3.4.51]
 (4).  फल  :: फल अध्याय में ब्रह्मज्ञान का फल अर्थात् स्वर्ग और मोक्ष का विवेचन है। चतुर्थ पाद में भूतविषयक श्रुतियों का विरोधपरिहार किया गया है।
चतुर्थ अध्याय का नाम 'फल' है। इसमें जीवन्मुक्ति, जीव की उत्क्रान्ति, सगुण और निर्गुण उपासना के फलतारतम्य पर विचार किया गया है। इस सूत्र में पूर्व मीमांसा शास्त्र का खंडन है 
आवृत्तिर् असकृदुपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.1] 
लिङ्गाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.1.2]  
आत्मेति तूपगच्छन्ति ग्राहयन्ति च।[ब्रह्मसूत्र 4.1.3]
न प्रतीके न हि सः।[ब्रह्मसूत्र 4.1.4]
ब्रह्मदृष्टिर् उत्कर्षात्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.5] 
आदित्यादिमतयश् चाङ्ग उपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 4.1.6]
आसीनः संभवात्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.7] 
ध्यानाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.1.8]
अचलत्वं चापेक्ष्य।[ब्रह्मसूत्र 4.1.9]
स्मरन्ति च।[ब्रह्मसूत्र 4.1.10]
यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.11]
आप्रयाणात् तत्रापि हि दृष्टम्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.12]
तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोर् अश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.13] 
इतरस्याप्य् एवम् असंश्लेषः पाते तु।[ब्रह्मसूत्र 4.1.14]
अनारब्धकार्ये एव तु पूर्वे तदवधेः।[ब्रह्मसूत्र 4.1.15]
अग्निहोत्रादि तु तत्कार्यायैव तद्दर्शनात्।[ब्रह्मसूत्र 4.1.16]
अतोऽन्यापि ह्य् एकेषाम् उभयोः।[ब्रह्मसूत्र 4.1.17]
यद् एव विद्ययेति हि।[ब्रह्मसूत्र 4.1.18]
भोगेन त्व् इतरे क्षपयित्वाथ संपद्यते।[ब्रह्मसूत्र 4.1.19]
वाङ्मनसि दर्शनाच् छब्दाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.2.1]
अत एव सर्वाण्यनु।[ब्रह्मसूत्र 4.2.2]
तन्मनः प्राण उत्तरात्।[ब्रह्मसूत्र 4.2.3]
सोऽध्यक्षे तदुपगमादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 4.2.4]
भूतेषु तच्छ्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 4.2.5]
नैकस्मिन् दर्शयतो हि।[ब्रह्मसूत्र 4.2.6]
समाना चासृत्युपक्रमाद् अमृतत्वं चानुपोष्य।[ब्रह्मसूत्र 4.2.7]
तदापीतेः संसारव्यपदेशात्।[ब्रह्मसूत्र 4.2.8]
सूक्ष्मं प्रमाणतश् च तथोपलब्धेः।[ब्रह्मसूत्र 4.2.9]
नोपमर्देनातः।[ब्रह्मसूत्र 4.2.10]
अस्यैव चोपपत्तेर् ऊष्मा।[ब्रह्मसूत्र 4.2.11]
प्रतिषेधाद् इति चेन् न शारीरात् स्पष्टो ह्येकेषाम्।[ब्रह्मसूत्र 4.2.12] 
स्मर्यते च।[ब्रह्मसूत्र 4.2.13]
तानि परे तथा ह्य् आह।[ब्रह्मसूत्र 4.2.14]
अविभागो वचनात्।[ब्रह्मसूत्र 4.2.15]
तदोकोग्रज्वलनं तत्प्रकाशितद्वारो विद्यासामर्थ्यात् तच्छेषगत्यनुस्मृतियोगाच्।[ब्रह्मसूत्र 4.2.16]
रश्म्यनुसारी।[ब्रह्मसूत्र 4.2.17]
निशि नेति चेन् न सम्बन्धस्य यावद्देहभावित्वाद् दर्शयति च।[ब्रह्मसूत्र 4.2.18]
अतश् चायनेऽपि दक्षिणे।[ब्रह्मसूत्र 4.2.19]
योगिनः प्रति स्मर्येते स्मार्ते चैते।[ब्रह्मसूत्र 4.2.20]
अर्चिरादिना तत्प्रथितेः।[ब्रह्मसूत्र 4.3.1] 
वायुमब्दादविशेषविशेषाभ्याम्।[ब्रह्मसूत्र 4.3.2] 
तटितोऽधि वरुणः संबन्धात्।[ब्रह्मसूत्र 4.3.3] 
आतिवाहिकास् तल्लिङ्गात्।[ब्रह्मसूत्र 4.3.4] 
वैद्युतेनैव ततस् तच्छ्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 4.3.5]
कार्यं बादरिरस्य गत्युपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 4.3.6]
विशेषितत्वाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.3.7] 
सामीप्यात् तु तद्व्यपदेशः।[ब्रह्मसूत्र 4.3.8]  
कार्यात्यये तदध्यक्षेण सहातः परम् अभिधानात्।[ब्रह्मसूत्र 4.3.9]
स्मृतेश् च।[ब्रह्मसूत्र 4.3.10]
परं जैमिनिर् मुख्यत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 4.3.11]
दर्शनाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.3.12]
न च कार्ये प्रत्यभिसन्धिः।[ब्रह्मसूत्र 4.3.13]
अप्रतीकालम्बनान् नयतीति बादरायण उभयथा च दोषात् तत्क्रतुश् च।[ब्रह्मसूत्र 4.3.14]
विशेषं च दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 4.3.15]
संपद्याविर्भावः स्वेन शब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.1]
मुक्तः प्रतिज्ञानात्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.2] 
आत्मा प्रकरणात्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.3]
अविभागेन दृष्टत्वात्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.4] 
ब्राह्मेण जैमिनिर् उपन्यासादिभ्यः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.5]
चितितन्मात्रेण तदात्मकत्वाद् इत्य् औडुलोमिः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.6] 
एवम् अप्य् उपन्यासात् पूर्वभावाद् अविरोधं बादरायणः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.7] 
संकल्पाद् एव तच्छ्रुतेः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.8]
अत एव चानन्याधिपतिः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.9]
अभावं बादरिर् आह ह्य् एवम्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.10]
भावं जैमिनिर् विकल्पामननात्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.11]
द्वादशाहवद् उभयविधं बादरायणोऽतः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.12]
तन्वभावे सन्ध्यवद् उपपत्तेः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.13]
भावे जाग्रद्वत्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.14] 
प्रदीपवदावेशस् तथा हि दर्शयति।[ब्रह्मसूत्र 4.4.15] 
स्वाप्ययसंपत्योर् अन्यतरापेक्षम् आविष्कृतं हि।[ब्रह्मसूत्र 4.4.16]
जगद्व्यापारवर्जं प्रकरणाद् असंनिहितत्वाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.4.17]
प्रत्यक्षोपदेशाद् इति चेन् नाधिकारिकमण्डलस्थोक्तेः।[ब्रह्मसूत्र 4.4.18]
विकारावर्ति च तथा हि स्थितिम् आह।[ब्रह्मसूत्र 4.4.19]
दर्शयतश् चैवं प्रत्यक्षानुमाने।[ब्रह्मसूत्र 4.4.20]
भोगमात्रसाम्यलिङ्गाच् च।[ब्रह्मसूत्र 4.4.21] 
अनावृत्तिः शब्दाद् अनावृत्तिः शब्दात्।[ब्रह्मसूत्र 4.4.22]
बादरायण की प्रणाली में तर्क का महत्त्व इतना अधिक है कि ब्रह्मसूत्र मुख्यत: एक खंडन वाला ग्रन्थ प्रतीत होता है। पांचवें सूत्र में साँख्य शास्त्र का खंडन है। 
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा

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