Sunday, August 12, 2012

VARNASHRAM DHARM वर्णाश्रम धर्म

VARNASHRAM DHARM

वर्णाश्रम धर्म
(CASTE SYSTEM & FOUR STAGES OF LIFE
 जाति व्यवस्था और जीवन के चार चरण)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
Accomplishment is attained by an individual worshiping the Almighty, from whom all the organisms have evolved and by whom the entire universe is pervaded, through his natural, instinctive, prescribed, Varnashram related deeds. One should pray to the Almighty from whom the entire Universe has evolved, who operates the world, who is the creator, producer, founder and illuminator, administrator, organiser; who alone is complete amongest all–who was present before creation of infinite universes and who will remain after assimilation of infinite universes in him and who is pervaded in infinite universes, is worshipped automatically if the individual performs his natural, prescribed, Varnashram duties. Performance of the prescribed, Varnashram duties assigned to the individual, itself is worship of the God.
ARY आर्य :: श्रेष्ठ, सभ्य, सुसंस्कृत, कुलीन; 
Brahmans are made
to do the jobs
pertaining to
sweeping, cleaning,
scavenging due
to reservations.
cultured, educated, civilised, well behaved and God fearing, who's Varn, caste & lineage are known.

आर्य प्रगतिशील और श्रेष्ठ है। ऋग्वेद में इसकी व्याख्या की गई है। संस्कार, कर्मकांड, तंत्र-मंत्र, यज्ञ-कर्म, श्राद्ध-तर्पण, अतिथि सत्कार आध्यात्म,  दर्शन (ब्राहृ, आत्मा, विश्व, मोक्ष आदि) और नीति (सामान्य, विशेष आदि) अंग हैं। 
ARY is a person who is cultured, educated, civilised, well behaved and devoted to God. He believed in ethics, virtues, piousness, righteousness, honesty, piousity.
ANARY अनार्य :: दस्यु, यवन और मल्लेच्छ; Dasyu, Yavans and the Mallechchh are Anary.
(अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति ओबामा सहित अन्य अँग्रेज कुत्ते घूमाने ले जाते हैं और रास्ते में उनकी टट्टी भी उठाते हैं। हिन्दुस्तान में इन्सान का मल उठाने वाले को हरिजन कहा जाने लगा;  यही है मल्लेच्छ और हिन्दु का फर्क) ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों को भी कुत्ते की टट्टी, सरे आम उठाते देखा। 
अनार्यमार्यकर्माणमार्यं चानार्यकर्मिणम्।
सम्प्रधार्याब्रवीद्धाता न समौ नासमाविति
आर्य और अनार्य का कार्य करने वाले इन दोनों के विषय में विधाता ने कहा कि वे न तो समान हैं न असमान ही हैं।[मनु स्मृति 10.73] 
The creator considered the duties performed by both the Ary and Anary and said that they are neither equal nor unequal.
In the present scenario the caste does not count-matters much, its the work one does. The impact of clan-high Varn-caste may be there, but environment rules.  Modi is a Teli-oil extractor, a lower caste, but he is the prime Minister of India and till today he has proved that in free India since independence, he is the best Prime Minister. In some matters is much better than the Brahmans like me. 
Maya Wati is a Chamari (a cobbler, one who deals in the skin of dead animals) and still she possess al the traits of her ancestors. She is neither a good person nor a good administrator. She morally, socially corrupt. She is connected with numerous scandals.
Sonia-Rahul are Mallechchh, & mixed breed from Muslim & Christian families. Both of them proved to be worst as a human being and politician. They are grossly corrupt. 
ब्राहृणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:।
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां शूद्रोऽजायत॥
ब्रह्मा जी के मुख से ब्राह्मण, बाहु से राजन्य-क्षत्रिय, ऊरु-जँघा से वैश्य और पद-चरण से शूद्र की उत्पत्ति हुई।[ऋक्संहिता 10.90.22]
The four Varn evolved out of Brahma Ji in virtual form and purely descriptive in nature. Brahman from the mouth, Kshatriy from the hands, Vaeshy from the thighs and the Shudr from the foot. 
These Varn just describe the traits, qualities, characters possessed by the humans. All humans were born out of the wives of Mahrishi Kashyap. So, by birth initially all were Brahmans but later they acquired the specific titles by virtue of their trades, profession, deeds. Other than these Dasyu and Yavans were also born. Yet another term is used for them Mallechchh.
Dasyu, Yavans and the Mallechchh are Anary (अनार्य).
Please refer to :: MANU SMRATI (10) मनु स्मृतिsantoshkipathshala.blogspot.com
मित्राय पञ्च येमिरे जना अभिष्टिशवसे। स देवान्विश्वान्विभर्ति
निषाद को लेकर पाँचों वर्ण शत्रु जयक्षम और बल विशिष्ट मित्र के उद्देश्य से हव्य प्रदान करते हैं। वे मित्र देव अपने स्वरूप से समस्त देवगणों को धारित करते हैं।[ऋग्वेद 3.59.8]
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा निषाद यह पाँचों वर्ण शत्रुओं को विजय करने की क्षमता वाले सखा के प्रति सम्मान को प्रदर्शित करें। वे सखा अपने स्वरूप द्वारा ही समस्त देवों का पोषण करते हैं।
Let the 5 Varn :- Brahman, Kshatriy, Vaeshy, Shudr & Nishad honour-revere make offerings for Mitr Dev, who wins over the enemy. He support-nourish the demigods-deities with his powers.
व्यास और युधिष्ठिर संवाद-ब्राह्मण की सिद्धि ::
तपो यज्ञस्तथा विद्या भैक्ष्यमिन्द्रियसंयम।
ध्यानमेकान्तशीलत्वं तुष्टिर्ज्ञानं च शक्तित:।
ब्राह्मणानां महाराज चेष्टा: संसिद्धिकारिका:॥
तप, यज्ञ, विद्या, भिक्षा, इन्द्रिय-संयम, ध्यान, एकान्तवास का स्वभाव, सन्तोष और यथाशक्ति शास्त्रज्ञान, ये समस्त गुण तथा चेष्टाएं ब्राह्मणों के लिए सिद्धि देने वाली हैं।[महा.शान्तिपर्व 9.15]
KILLING BRAHMAN ब्राह्मण वध :: There is no sin as great as killing, slaying, murdering a Brahmn. Therefore, the king never resort to killing a Brahmn.
Maha Nand killed Chanak-the father of Achary Chanaky and his empire was reduced to zero. Killing of Bhagwan Parshu Ram's father father led to the elimination of Kshatriy clans 21 times from the earth.
Dev Raj Indr-king of heaven, too was spared for killing Vrata Sur a Brahmn by birth. 
Bhagwan Ram himself took to penances for killing Ravan.
Pandavs too were made to undergo penances by Bhagwan Shri Krashn for killing Achary Dron.
ब्राह्मण सम्पूर्ण पृथ्वी का स्वामी है। शुक्राचार्य को पृथ्वी का स्वामी माना जाता है। परशुराम जी ने 21 बार क्षत्रियों का विनाश करके धरती ब्राह्मणों को प्रदान की; परन्तु ब्राह्मणों ने भूमि पुनः-पुनः क्षत्रियों को दे दी। क्षत्रिय या शासक ब्राह्मण के प्रतिनिधि के रूप में राज्य करता है। ब्राह्मणों को नाराज-नाखुश करके शासक अपना सर्वनाश कर लेता है। ब्राह्मण किसी का नहीं खाता। दान देना और लेना उसका हक-अधिकार है। 
Brahman own this earth. He is the master of this universe and he has given this earth to the Kshatriy to manage-rule-maintain law and order on his behalf. Shukrachary is master of this earth. Bhagwan Shri Parshu Ram Ji eliminated the Kshatriys 21 times, due to the arrogance-atrocities they inflicted over the Brahmns. Brahmans repeatedly granted this earth to the Kshatriys to rule. One who displease-angers the Brahmn digs his own grave.
पतित ब्राह्मण का भी वध नहीं करना चाहिए और आताताइयों को मार ही डालना चाहिए।[श्री मद् भागवत 1.7.53]
One must not kill-murder the scholars, Brahmns-Pandits, philosophers, but kill the invaders, intruders, attackers, terrorists, those who poison, fire the houses, snatch the earnings, property, wealth, belongings, farms and the women folk and the one who possess the weapons with bad-ulterior intentions-motives.
आताताई :: आग लगाने वाला, जहर देने वाला, बुरी नीयत से हाथ में शस्त्र ग्रहण करने वाला, धन लूटने वाला, खेत और स्त्री को छीनने वाला। 
मूँड़ देना, धन छीन लेना और स्थान से बाहर निकाल देना, यही ब्रह्मणाधमों (अधम-नीच) का वध है, उनके लिए इसके अतिरिक्त शारीरिक वध का विधान नहीं है।[श्री मद् भागवत 1.7.58] 
Shaving of head, snatching the money-wealth-property-belongings, removing from state-region-country is equivalent to death-execution for the Brahmns. 
जो उच्छृंखल राजा अपने कुकृत्यों से ब्राह्मण कुल को कुपित कर देते हैं, वह कुपित ब्राह्मण कुल उन राजाओं को सपरिवार शोकाग्नि में डालकर शीघ्र ही भस्म कर देता है।[श्री मद् भागवत 1.7.48] 
The unrestrained-uncontrolled king, ruler, emperor, politician, who vanish (torture, punish) innocent Brahmns and anger them is wiped off from the earth along with his descendants, clan-hierarchy.
परशुराम जी ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन किया। चाणक्य ने नन्द कुल का नाश किया। वर्तमान काल में ब्राह्मणों का तिरस्कार-अपमान किया जा रहा है, जो कि नेताओं के लिए चेतावनी है!
Parshu Ram Ji wiped off the Kshatriy-marshal caste from the earth 21 times. Chanky vanished the Nand dynasty. The leaders-Netas-politicians who are insulting, torturing the Brahmns, depriving them off suitable jobs are bound to be doomed-marooned-destroyed for their irrational behaviour.
ब्रह्महत्या :: ब्राह्मण की हत्या एक जघन्य अपराध और पाप है। ऐसा करने वाले को ब्रह्म हत्या लग जाती है जो उसे नर्क यातना प्रदान करती है। देवराज इन्द्र को ब्रह्म हत्या लगने पर अपने पद से च्युत होना पड़ा और भयंकर कष्ट भोगने पड़े। 
Brahman's murder is the worst possible sin and place the murderer in hells from where he is released after millions of years to become insect. Brahm Hatya led Dev Raj Indr to remove him from his seat in the heaven and suffering.
पूर्व काल में वृत्रासुर और इन्द्र में 11,000 वर्ष तक युद्ध हुआ, जिसमें इन्द्र की हार हुई और वे भगवान् शिव के शरणागत हुए। इन्द्र को वरदान प्राप्त हुआ और उन्होंने प्रभु कृपा से, वृत्रासुर का वध किया, जो ब्राह्मण पुत्र था। इस लिये उन्हें ब्रह्म हत्या लग गई। वे ब्रह्मा जी की शरण में गये। ब्रह्महत्या ने इन्द्र के शरीर से हटने के लिये अन्य स्थान माँगा, तो उन्होंने उसे 4 भागों में बाँट दिया। 
पहला भाग अग्नि देव को मिला। जो कोई प्रज्वलित अग्नि में बीज, औषध, तिल, फल, मूल, समिधा और कुश की आहुति नहीं डालेगा, ब्रह्महत्या अग्नि को छोड़ कर उसे लग जायेगी।
दूसरा भाग वृक्ष, औषध और तृण को मिला। जो कोई व्यक्ति मोह वश अकारण, इन्हें काटेगा या चीरेगा, ब्रह्म हत्या, इन्हें छोड़ कर उसे लग जायेगी।
तीसरा भाग अप्सराओं को मिला। जो कोई व्यक्ति रजस्वला स्त्री से मैथुन करेगा, यह तुरन्त उसे लग जायेगी। 
चौथा भाग जल ने गृहण किया। जो व्यक्ति अज्ञानवश जल में थूक, मल-मूत्र डालेगा, वही ब्रह्म हत्या का निवास बन जायेगा। 
प्राचीन काल से ही कोई भी न्यायाधीश, इस भय से ब्राह्मण को प्राण दण्ड नहीं देता था।
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते। 
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे॥
सतयुग में तपस्या, त्रेतायुग में ज्ञान, द्वापरयुग में यज्ञ और कलियुग में दान प्रधान धर्म माना गया है।[मनु स्मृति 1.86] 
The principal tenant of Dharm in Sat Yug is asceticism-austerities, in Treta Yug it is enlightenment, in Dwapar Yug it is Yagy-sacrifices in holy fire and during Kali Yug it is donation-charity.
कलियुग में भगवन्नाम का जप करने से भी मनुष्य-प्राणी का उद्धार सम्भव है।
सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्य्र्थं स महाद्द्युतिः। 
मुखबाहूरूपज्जानां प्रथक्कर्माण्यकल्पयत्॥
महातेजस्वी ब्रह्मा जी ने इस सम्पूर्ण विश्व के रक्षार्थ मुख, बाहू, जँघा और पाँव से उत्पन्न होने वाले जीवों के अलग-अलग कर्मों की कल्पना की है।[मनु स्मृति 1.87] 
Brahma Ji assigned different duties-roles to different humans beings born out of his different organs-parts of his body i.e., mouth, hands-arms, thighs and the feet for the protection, survival, perpetuation of this universe.
ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबन्धुमनामयम्। 
वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च॥
ब्राह्मण से कुशल, क्षत्रिय से निरामय (आरोग्य, स्वास्थ्य) कुशलक्षेम, वैश्य से क्षेम (Well-being, Security, Prosperity, Easy or comfortable state) और शूद्र से आरोग्यता साक्षात्कार होने पर पूछे।[मनु स्मृति 2.127]
One should ask about the well being (whether he has sufficient money to live comfortably-survive) to the Brahman, about his health-might to the Kshatriy-warriors, pertaining to business, security, prosperity to the Vaeshy, traders-businessmen and the Shudr should be asked about his state of health as and when one meets them.
This is in accordance with the duties assigned to them by the scriptures.
निरामय :: जिसे कोई रोग न हो, निरोग, स्वस्थ, निर्मल, सकुशल, आरोग्य; Free from illness, Pure, Untainted, Free from disease.
क्षेम :: कुशल-मंगल, सुख-चैन, ख़ैरियत, Safety, well-being.
अवाच्यो दीक्षितो नाम्ना यवियानपि यो भवेत्। 
भोभवत्पूर्वकं त्वेनमभिभाषेत धर्मवित्॥
दीक्षा प्राप्त यदि अपने से छोटा हो तो भी उसका नाम नहीं लेना चाहिये, धर्मात्मा पुरुष भो: अथवा भवन शब्द कहकर उसके साथ बातचीत करे। हे तात्शि, ष्य-प्रिय! आदि सम्बोधनों का प्रयोग किया जा सकता है।[मनु स्मृति 2.128] 
One who has been baptised-initiated into education (celibate, Brahmchari)  should not be addressed by name, even if he younger to one and call him as Bho: or Bhuvan. He may be addressed Hey, dear-child! which indicates love & affection like a father or mother.
परपत्नी तु या स्त्री स्यादसम्बन्धा च योनित:।
तां ब्रूयाद्भवतीत्येवं सुभगे भगिनीति च॥
जो दूसरे की स्त्री हो और जिससे किसी प्रकार का सम्बन्ध (रिश्ता) नहीं हो उसे भवति (आप), सुभगे अथवा भगिनी कहकर बातचीत करना चाहिये।[मनु स्मृति 2.129] 
One should talk respectfully-honourably to the woman who is not related  to him or is not a blood-relation, as Lady, sister, Subhge etc.
मातुलांश्र्च पित्रवयांश्र्च श्र्वशुरानृत्विजो गुरुन्। 
असावहमिति ब्रूयात्प्रत्युत्थाय यवियस:॥
मामा, चाचा, श्वसुर, पुरोहित और गुरुजन (वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध) यदि अपने से छोटे हों, तब भी उठकर इतना कहे कि यह मैं हूँ।[मनु स्मृति 2.130] 
One should get up from his seat and welcome the visitors like maternal uncle, uncle, father in law, Gurus (elders, enlightened-learned) even if they are younger to him and introduce himself by spelling his name.
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥
चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) को उनके गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक; मेरे द्वारा रचा गया है। उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी को तुम अकर्ता ही जानो। मुझे कर्मों के फल की कामना नहीं है, इसलिए कर्म मुझे लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो तत्त्व से मुझे जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।[श्रीमद्भागवत गीता 4.13-14]
The Almighty who is imperishable, all pervading, creator of this universe has created the four castes along with their characteristics and functions. In spite of being the creator, HE remains unattached with this action, detached like a non performer. HE is not inclined to the reward (fruit, result, outcome) of HIS actions. So, those actions do not involve-absorb HIM. 
इस चराचर में समस्त प्रणियों का उद्भव उनके प्रारब्ध-पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार सत्व, रज और तम गुणों के अनुरूप होता है। पृथ्वी पर मनुष्यों सहित समस्त जीवधारी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति के गुणों से अविभूत हैं। पशु, पक्षी, सर्प, वृक्ष आदि अपने गुणों के अनुसार उपरोक्त चारों गुणों के अनुरूप वर्णों में बँटे हुए हैं। इतना ही नहीं देवता, दानव आदि भी अपने पूर्व जन्म और प्रारब्ध के अनुरूप ही हैं। समस्त प्राणियों का कर्तव्य है कि अपने कर्तव्य कर्मों का नियम-धर्म के अनुरूप पालन करें। यह पूजा का एक रूप ही है। इन सब की उत्पत्ति करने का-कर्तापन का अभिमान-स्पृहा भगवान् को नहीं है। इस सब में परमात्मा का कुछ भी व्यय नहीं रहता अर्थात पूर्ववत ही रहता है, क्योकि सभी प्राणियों में उसका अंश उपस्थित है। शरीर प्रकृति का अंश है और प्रकृति में ही विलय हो जायेगा। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि इस शरीर के अंग-अंश हैं और नष्ट प्रायः हैं, यद्यपि उनका परिमाण भी यथावत रहता है। धन-सम्पत्ति, नाते-रिश्तेदार इस शरीर से सम्बन्ध रखते हैं और कर्म, कर्तव्य और कर्मफल के हेतु हैं। जो भी मनुष्य कर्म करते हुए भी कर्म फल की इच्छा से मुक्त है, वो दिव्यगुण सम्पन्न हो जाता है। भगवान्  भी अपने किये गए कर्तव्य-कर्म से असम्बद्ध हैं। मनुष्य का ध्यान जब तक कामनाओं, वासनाओं, ममता, आसक्ति, फलेच्छा में रहेगा, तब तक वह संसार सागर में गोते खाता, डूबता-उतराता रहेगा। इस सबसे  दूर हटने से वह मलिनता से मुक्त होकर दिव्य आचरण वाला हो जायेगा। जो कुछ उसे मिला है, वही उसे निष्काम भाव से परहित-परमार्थ में अर्पण कर देना है। 
कर्म में कर्तव्याभिमान शामिल है। वह क्रिया, जिसमें कर्तव्याभिमान ना हो, फलदायक भी ना हो और जो फलेच्छा से रहित कर्तव्याभिमान से मुक्त दिव्य है, वो लीला है। सांसारिक मनुष्यों द्वारा कर्म होता है, मुक्त पुरुषों द्वारा क्रिया होती तथा भगवान् के द्वारा लीला होती है।
Each and every organism is tied with his destiny, which is the outcome of deeds in previous births depending upon the three basic characteristics: Satv, Raj and Tam. The Almighty created four basic (fundamental) groups of human, Varn-castes on the basis of the actions (performances, functions, duties) in this universe. A total of 84,00,000 species exist in this universe in the form of animal, birds, snakes, reptiles, trees and all other categories etc. Various other divine species like giants, demons, demigods, deities, Rakshas, Yaksh, Gandarbh too were evolved through this basis fundamental rule of nature. What is common in them is the soul-a component of the Almighty HIM SELF. Its the responsibility of each and every organism to act according to the functions allotted to him. Deviation from them bring impurity resulting in cycles of birth and death. Carrying out of these functions as per the Varnashram Dharm is a form of prayer. The body will vanish after a certain pre decided period of time. The sense organs will help the individual in discharging-performing according to the sanctioned duties, depending upon the individuals desires, motives, qualities. The wealth-accumulations will help him in redeeming his status as a divine entity, if it is utilised for the sake of helping the ones, in need (the poor, needy). Relatives, wealth are concerned with the body and are the means of action, duties and the desire for the reward. One's concern, clamour  for the desires, motives, wants will keep him struck with the world and he will continue drowning and rising up and down, in the ocean of births and rebirths. The moment he isolate himself from desires, motives, sensuality, lust, wishes he qualifies for the divinity and freedom from births and deaths. Its his pious-revered duty to invest his belongings for the service of humanity, man kind, social welfare.
The Almighty is free from the ego of having done it and so should an individual be. Nothing is lost in the creations by the God and similar is the story when an individual perform for the sake, service of mankind, society or others selflessly, relentlessly, free from motives.
Karm, deeds, action by an individual is associated with ego, action free from ego is pure if it is not turning into output, while the Karm which is free from the desire of reward and ego is divine.
Humans perform deeds, the detached make pure actions, while actions of the Almighty are divine.
The Muslims, Europeans and Neo Buddhists made concerted efforts to demolish Hinduism. After independence people like Gandhi, Ambedkar, Nehru (a Muslims posing as Hindu) made efforts to wipe of Varnashram Dharm. They have succeeded partially. The politicians are doing their best to scrape the caste system unsuccessfully. New castes are emerging polluting the society beyond limits.
ब्रूहीति ब्राह्मणं पृच्छेत्सत्यं ब्रूहीति पार्थिवम्। 
गोबीजकाञ्चनैर्वैश्यं शूद्रं सर्वैस्तु पातकैः॥
ब्राह्मण गवाह से केवल इतना कहे कि कहो, क्षत्रिय से कहे कि सत्य कहो, वैश्य से गौ, बीज और सोना चुराने की शपथ करावे और शूद्र से सब पापों की शपथ कराकर साक्ष्य देने को कहे।[मनु स्मृति 8.88] 
The Brahmn who has appeared as witness may just be asked to speak, the Kshatriy should be asked to reveal the truth, the Vaeshy should be asked to witness under oath of cow, seeds and the bearing of sin pertaining to the theft of gold; while the Shudr should be under oath of commitment of all sins if he do not reveal the truth.
It reveals the basic nature of the four communities and the traits acquired by them as a matter of habit, practice and passed on from one generation to another.
It helps in distinguishing the characterises of the four Varn.
परामप्यापदं प्राप्तो ब्राह्मणान्न प्रकोपयेत्। 
ते ह्येनं कुपिता हन्युः सद्यः सबलवाहनम्॥
अत्यन्त विपत्ति आने पर भी राजा ब्राह्मणों को कुपित न करे। यदि ब्राह्मण कुपित हो जायें तो सेना और वाहन के साथ उसका नाश कर देते हैं।[मनु स्मृति 9.313] 
The king should never anger-provoke the Brahmns under any-most difficult (intricate, typical) circumstances. Infuriated Brahmans can crush-destroy him along with his army and the carriers-vehicles.
One after another regimes lost their empire due to the anger of Brahmans. Recently the Muslim regime of Nehru dynasty was unseated. Now, its the turn of another party BJP, which has indulged in harming the Swarn especially the Brahmans.
Failure to help & support the rightful demands of teachers led to BJP's downfall in Delhi, although the Kejriwal government is more harmful to them.
यैः कृतः सर्वभक्ष्योऽग्निरपेयश्च महोदधिः। 
क्षयी चाप्यायितः सोमः को न नश्येत् प्रकोप्य तान्॥
जिन्होंने (ब्राह्मणों ने) अग्नि को सर्वभक्षी, समुद्र को अपेय और चन्द्रमा को क्षय होने वाला बना दिया, भला उनके कुपित हो जाने पर कौन नष्ट नहीं होगा!?[मनु स्मृति 9.314] 
Who would escape unhurt-unharmed, by provoking-angering the Brahmns who made Agni Dev eater of every thing (whether good or bad), made ocean water unfit for drinking and made Moon with continuous loosing and gaining shine.
The Brahman has the strength due to his Tapasya-asceticism, self imposed suffering of surviving with minimum needs-requirements, facing extreme heat, cold and showers and worst ever social conditions as are prevailing at present. He is taunted, tortured, harassed, blasphemed by the Shudr.

लोकानन्यान्सृजेयुर्ये लोकपालांश्च कोपिताः।
देवान् कुर्युरदेवांश्च कः क्षिण्वंस्तान्समृध्नुयात्॥
कुपित होने पर जो अन्य लोकों की और लोकपालों की रचना कर सकते हैं और देवताओं को मनुष्य बना सकते हैं, उनको छेड़कर कौन समृद्धिशाली हो सकता है?![मनु स्मृति 9.315] 
Who can either prosper or retain his glory & wealth by disturbing-teasing the Brahmns, who are capable of creating new universes and appoint the governors-guardians of all directions?!
The manner, the impact of the remaining three cosmic era remain in a specific era, Brahmans with might, power Mantr Shakti remain in every era. The Sapt Rishis, Bhagwan Parshu Ram, Bhagwan Ved Vyas are still present over this earth. 88,000 Rishis are also meditating in the deep caves of Himalay, over laden with ice.
यानुपाश्रित्य तिष्ठन्ति लोका देवाश्च सर्वदा। 
ह्म चैव धनं येषां को हिंस्यात्ताञ्जिजीविषुः॥
जिनके आश्रय से लोक और देवता सदा रहते हैं, जिनका ब्रह्म ही धन है, उनको जीने की इच्छा वाला कौन सतायेगा?![मनु स्मृति 9.316] 
Who would trouble the Brahman desirous of life; who solely depends upon the God and whose support is essential for the universe to survive and existence of demigods?!

अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्। 
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाऽग्निर्दैवतं महत्॥
जिस प्रकार वैदिक और अवैदिक रीति से स्थापित की हुई अग्नि महान देवता है, उसी तरह ब्राह्मण पंडित हो या मूर्ख, महान देवता है।[मनु स्मृति 9.317] 
The manner in which the fire is a great deity irrespective of its ignition through Vaedic (meant for oblations) or non Vaedik means (for cooking, burning the dead or waste); in the same manner the Brahmn too is a great demigod whether he is a Pandit (educated, scholar, learned, enlightened) of fool (uneducated, ignorant, imprudent, moron, duffer, idiot).

श्मशानेष्वपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति। 
हूयमानश्च यज्ञेषु भूय एवाभिवर्धते॥
श्मशान में भी तेजस्वी अग्नि दूषित नहीं होती और हवन करने से तो वह बढ़ती ही है।[मनु स्मृति 9.318] 
The fire in funeral pyre remain uncontaminated and become brilliant by carrying out Hawan.
Cremation through Vaedik procedures-means a process carried just like Agnihotr, Hawan, holy sacrifices with pure deshi ghee, wood, barley, honey etc.
Yagy-Hawan are the deeds-processes which cleanse the environment by killing germs, bacteria, viruses, microbes. 
एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तन्ते सर्वकर्मसु। 
सर्वथा ब्राह्मणाः पूज्याः परमं दैवतं हि तत्॥
उसी प्रकार सभी प्रकार के अपवित्र कार्यों में संलग्न रहने पर भी ब्राह्मण पूजनीय है, क्योंकि वह परम् देवता है।[मनु स्मृति 9.319] 
In this manner the Brahmn is revered in spite of engaging in impure activities (mean occupations, service) since he is the Ultimate demigod.
Circumstances may compel the Brahman to accept patty jobs for the sake of survival which do not degenerate-lower his status, since he is still busy with prayers, worship, devotion to the Almighty undertaking fasting, meditation, Yog, ascetics.

क्षत्रस्यातिप्रवृद्धस्य ब्राह्मणान्प्रति सर्वशः। 
ब्राह्मैव संनियन्तृ स्यात्क्षत्रं हि ब्रह्मसम्भवम्॥
सब प्रकार से अत्यंत उत्कट रूप से ब्राह्मणों को पीड़ा देने वाले क्षत्रिय का शासन ब्राह्मण ही कर सकता है, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मण से उत्पन्न हुआ है।[मनु स्मृति 9.320] 
Only a Brahman can restrain-control, punish-discipline, the Kshatriy-ruler who torture-tease the Brahmans in all possible manner; since the Kshatriy has his origin in the Brahman.
अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम्। 
तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति॥9.321॥ 
जल अग्नि, ब्राह्मण से क्षत्रिय और पत्थर से लोहा उत्पन्न हुआ है। उनका तेज सर्वत्र व्याप्त होने पर भी अपने उत्पत्ति स्थान में वे शान्त हो जाते हैं।[मनु स्मृति 9.321] 
Fire has evolved from water, Kshatriy has evolved from Brahman and iron has evolved from stone. In spite their might spreaded over the entire space they become quite when they meet their origin.

नाब्रह्म क्षत्रंमृध्नोति नाक्षत्रं ब्रह्म वर्धते। 
ब्रह्म क्षत्रं च सम्पृक्तमिह चामुत्र वर्धते॥
बिना ब्राह्मण के क्षत्रिय की वृद्धि नहीं होती है और क्षत्रिय के बिना ब्राह्मण की उन्नति नहीं होती। यदि ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों परस्पर मिले रहें तो यहाँ और परलोक दोनों जगह, दोनों की वृद्धि होती है।[मनु स्मृति 9.322] 
The Kshatriy can not progress prosper without Brahmans, Brahmans can not rise-prosper without Kshatriy. If both of them remain united they progress in this world and the next abode-incarnation.
The Kshatriy has valour, bravery, might and the Brahmn has intelligence, prudence, diplomacy, power to administer without lust-greed. This combination is enough to increase the boundaries of state and keep the populace-subjects happy.

दत्त्वा धनं तु विप्रेभ्यः सर्वदण्डसमुत्थितम्।
पुत्रे राज्यं समासृज्य कुर्वीत प्रायणं रणे॥
सभी प्रकार के दण्डों से पाये हुए धन को ब्राह्मण के सुपुर्द करके, अपने पुत्र को राज्य का दायित्व प्रदान कर राजा रण-युद्ध भूमि में प्रयाण करे।[मनु स्मृति 9.323] 
The king should depart for battle after handing over the responsibility of treasury (income & expenditure, arrivals-accruals through fines & punishments to Brahmans and handing over charge of day today affairs to his son-heir (since there a chance of death during the war).
The heir apparent must be trained in administration, judiciary and war fare. He should be made courageous and ready to fight as well. He should be given chance-opportunity to fight in wars and battle as well, under protection of the worthy Guru. 
वापीकूपतडागानामारामसुखश्वनाम्।
उच्छेदने निराशंङ्क स विप्रो म्लेच्छ उच्यते॥11.17॥
जो ब्राह्मण तालाब, कुँए, पोखर, बाग-बग़ीचे, सामान्य जनों के दैनिक उपयोग की वस्तुओं यथा सड़क, नाली, विधालय, पुस्कालय और मंदिर को नष्ट करता है, वह मलेच्छ है।[चाणक्य नीति 11.17]  
The Brahman who destroy water bodies, ponds, wells, reservoirs, orchards, gardens, parks, public utilities, with out fear-shamelessly is described as a Mallechhe (i.e., Muslims & Christians) a category much much below the Shudr-Chandal & Nishad.
There is no place for destructive minds-people in Brahmnical culture-Hinduism. Such people are called out caste. They were made to stay out of the village.
Chanky observed Romans destroy farmers crops, house, looting their property, abducting men and women for slavery, destroying-spoiling temples and poisoning rivers and water bodies. Muslims proved to be more dreaded followed by Britishers.
Nehru a Muslim, called-titled himself a Pandit and befooled the entire nation-country. He did every thing to destroy Hinduism in associations with the communists.
12 योनियों के धर्म CHARACTERISTIC OF 2 LEGGED SPECIES :: इस लोक और परलोक में धर्म ही कल्याणकारी है। 
(1). देवता :: शाश्वत परम धर्म सदा यज्ञादि कार्य, स्वाध्याय, वेदज्ञान और विष्णु पूजा में रति।
(2). दैत्य ::  बाहुबल, ईर्ष्या भाव, युद्धकार्य, नीतिशास्त्र का ज्ञान और हर भक्ति।
(3). सिद्ध :: श्रेष्ठ योग साधन, वेदाध्यन, ब्रह्म विज्ञान, तथा विष्णु और शिव में अचल भक्ति। 
(4). गन्धर्व :: ऊँची उपासना, नृत्य और वाद्य का ज्ञान तथा सरस्वती के प्रति निश्चल भक्ति। 
(5). विद्याधर :: अद्भुत विद्या का धरना करना, विज्ञानं, पुरुषार्थ की बुद्धि और भवानी के प्रति भक्ति। 
(6). किम्पुरुष :: गन्धर्व विद्या का ज्ञान, सूर्य के प्रति अटल भक्ति और समस्त शिल्प कलाओं में कुशलता। 
(7). पितृ :: ब्रह्मचर्य अमानित्व (अभिमान से बचना), योगाभ्यास में दृढ़प्रीति एवं सर्वत्र इच्छानुसार भ्रमण। 
(8). ऋषि :: ब्रह्मचर्य, नियताहार, जप, आत्मज्ञान, और नियमानुसार धर्मज्ञान। 
(9). मानव :: स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, दान, यज्ञ, उदारता, विश्रान्ति, दया, अहिंसा, क्षमा, दम, जितेँद्रियता, शौच, मांगल्य, तथा विष्णु, शिव, सूर्य, और दुर्गा देवी में भक्ति (सामान्य गुण धर्म)। 
(10). गुह्य :: धन का स्वामित्व, भोग, स्वाध्याय, शिव पूजा, अहंकार और सौम्यता। 
(11). राक्षस :: पर स्त्रीगमन, दूसरे के धन में लोलुपता, वेदाध्यन और शिव भक्ति। 
(12). पिशाच :: अविवेक, असत्यता एवं सदा माँस भक्षण की प्रवृति।[श्री वामन पुराण]
पृथिवीपालको राजा इतरे क्षत्रिया मताः। 
धान्यादिक्रयवान्वैश्य इतरो वणिगुच्यते
ब्रह्मक्षत्रियवैश्यानां शुश्रूषः शूद्र उच्यते। 
कर्षको वृषलो ज्ञेय इतरे चैव दस्यवः
इसी तरह क्षत्रियों में भी जो पृथिवी का पालन करता है, वह राजा है। दूसरे लोग राजत्वहीन क्षत्रिय माने गये हैं। वैश्यों में भी जो धान्य आदि वस्तुओं का क्रय-विक्रय करता है, वह वैश्य है; दूसरों को वणिक् कहते हैं। जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों की सेवा में लगा रहता है, वह शूद्र कहलाता है। जो शूद्र हल जोतने का काम करता है, उसे वृषल समझना चाहिये। शेष शूद्र दस्यु कहलाते हैं।[श्रीशिवमहापुराण माहात्म्य विद्येश्वर संहिता 13.4-5]    
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वर्ण्येऽब्रवीन्मनुः
अहिंसा (किसी को भी मन, वाणी और शरीर से दुःख न देना) सत्य बोलना, चोरी न करना, पवित्रता और इन्द्रियों का निग्रह करना; यह संक्षेप में चारों वर्णों का धर्म मनु जी ने कहा है।[मनु स्मृति 10.63]
Manu has doctrined that non violence (not to harm anyone with mentally-thinking, speech-words or physically), speaking the truth, not to steal, purity-piousness and controlling the sense organs (non indulgence in moral turpitude, passions, sexuality, sensuality, lust, sex, vulgarity, lasciviousness) are the Dharm duties of the four Varn-Hindus. 
It does not means that one should not protect either  himself, his family or the society. Sacrificing life for the protection of others is the highest sacrifice. Raise arms against the intruders, terrorist, criminals, attackers and vanish them.
प्राणियों के कल्याण के लिये अहिंसा तथा प्रेम से ही अनुशासन करना श्रेष्ठ है। धर्म की इच्छा करने वाले शासक को सदा मधुर तथा नम्र वचनों का प्रयोग करना चाहिये। जिसके मन, वचन, शुद्ध और सत्य है, वह वेदान्त में कहे गये मोक्ष आदि फलों को प्राप्त करता है। आर्त होनेपर भी ऐसा वचन कभी न कहे जिससे किसी की आत्मा दु:खी हो और सुनने वालों को अच्छा न लगे।  दूसरे का अपकार करने की बुद्धि नहीं करनी चाहिये। पुरुष को जैसा आनंद मीठी वाणी से मिलता है, वैसा आनंद न चन्द्र किरणों से मिलता है, न चंदन से, न शीतल छाया से और न शीतल जल से। 
यस्माद् बीजप्रभावेण तिर्यग्जा ऋषयोऽभवन्।
पूजिताश्च प्रशस्ताश्च तस्माद् बीजं प्रशस्यते
जिस कारण से बीज के प्रभाव से तिर्यक जाति उत्पन्न होने पर भी ऋषि होकर पूजित हुए, इसलिए बीज ही प्रधान है।[मनु स्मृति 10.72] 
The root cause is seed, since its the seed due to which  person turn into to a sage even after taking birth in a cross breed-contaminated family, hybrid woman.
Bhagwan Ved Vyas born out of Saty Wati who took birth from a fish and nourished by a boats man, was the son of Rishi Parashar. He retained the qualities of his father. Ravan born out of Kakas-a demoness, was the son of Rishi Vishrava (grandson of Bhagwan Brahma Ji) who retained the qualities of his father and became a noted scholar, great astrologer and a great warrior along with being a author in diplomacy.
It shows the dominance of the sperm, genes, chromosomes derived out of the father and transmuted to the mother in determining the caste of the off spring. 
त्रयो धर्मा निवर्तन्ते ब्राह्मणात्क्षत्रियं प्रति।
अध्यापनं याजनं च तृतीयश्च प्रतिग्रहः
ब्राह्मण से क्षत्रिय तीन धर्मों अध्ययन, याजन और तीसरा प्रतिग्रह (दान लेना से रहित है।[मनु स्मृति 10.77] 
The Kshatriy is distinguished from the Brahmans by way of not teaching, performing Yagy for others and not accepting Dan-Dakshina.
वैश्यं प्रति तथैवैते निवर्तेरन्निति स्थितिः।
न तौ प्रति हि तान् धर्मान्मनुराह प्रजापतिः
उसी प्रकार वैश्य भी इन तीन धर्मों से निवृत्त है, यही तथ्य है, क्योंकि प्रजापति मनु ने इन लोगों के प्रति ये धर्म नहीं कहे हैं।[मनु स्मृति 10.78] 
The Vaeshy should also discard these three as professions, since Prajapati Manu has not prescribed these for them as well.
शस्त्रास्त्रभृत्त्वं क्षत्रस्य वणिक्पशुकृषिर्विश:।
आजीवनार्थं धर्मस्तु दानमध्ययनं यजिः
क्षत्रिय को हथियार धारण करना और वैश्य को पशु-पालन, खेती और जीविका के लिये व्यापार करना चाहिये। इनका  दान-धर्म देना, अध्ययन और यज्ञ करना है।[मनु स्मृति 10.79] 
The Kshatriy should wear arms and the Vaeshy should attend to animal husbandry (rearing and dairy farming) and farming for subsistence they should adopt trading. Their Dharm-duty is giving away alms (donations, charity, gifts), learning and performance of Yagy.
वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य क्षत्रियस्य च रक्षणम्।
वार्ता कर्मैव वैश्यस्य विशिष्टानि स्वकर्मसु
ब्राह्मण को वेदाभ्यास, क्षत्रिय को प्रजा की रक्षा और वैश्य को व्यापार करना, ये ही उनके विशेष कर्म हैं।[मनु स्मृति 10.80]
The Brahmn should specialise-attain expertise in Veds (learning understanding, interpretation-explanation and how to put them to practical use), the Kshatriy in protecting the public and the Vaeshy should be an expert in trading-business. 
अजीवंस्तु यथोक्तेन ब्राह्मणः स्वेन कर्मणा।
जीवेत्क्षत्रियधर्मेण स ह्यस्य प्रत्यनन्तरः
यदि ब्राह्मण अपने यथोक्त कर्म से जीविका न करे तो क्षत्रिय धर्म से जीविका चलावे, क्योंकि क्षात्र धर्म ही उसके निकट धर्म है।[मनु स्मृति 11.81] 
If the Brahman is unable to maintain his family through teaching, performing Yagy for others, he may adopt Kshatriy Dharm of saving-protecting others, i.e., he may join army or forces.
Dronachary, Krapachary and Ashwatthama were great warriors unmatched. Parshu Ram made the earth free from the atrocities of Kshatriy 21 times. Dronachary sacrificed his life in Maha Bharat war but remaining three are still alive.
The Brahmans provided training in warfare to the Kshatriy which necessitated expertise in warfare on their part. They had expertise in arms and ammunition as well. The scriptures describe use of fire arms-weapons at length which needed expertise on the part of the teacher.
उभाभ्यामप्यजीवंस्तु कथं स्यादिति चेद्भवेत्।
कृषिगोरक्षमास्थाय जीवेद्वैश्यस्य जीविकाम्
यदि दोनों प्रकार की जीविका से ब्राह्मण अपनी जीविका न चला सके तो उसकी जीविका कैसे हो!? ऐसी स्थिति में खेती और गौ रक्षा को करके वैश्य वृत्ति से अपनी जीविका चलाये।[मनु स्मृति 11.82]
In case the Brahman is unable to survive through the two means discussed earlier, he may resort to agriculture and rearing of cows, which is the profession of the Vaeshy.
After the onset of Buddhism, the Brahmns suffered a lot and engaged themselves in agriculture and rearing of cattle. Even after independence under successive regimes, their position has not changed. They are facing insult at the hands of scheduled castes who reach high positions in society without any talent, calibre, quality, just because they are scheduled castes. The irony is that most of these people do not deserve even low positions-cadre jobs like peon!
वैश्यवृत्त्याऽपि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्षत्रियोऽपि वा।
हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत्
वैश्य की वृत्ति से जीवन यापन करता हुआ ब्राह्मण या क्षत्रिय हिंसा वाली पराधीन कृषि को यत्न पूर्वक त्याग दे।[मनु स्मृति 11.83] 
The Brahmns and Kshatriy should reject the services meant for the Vaeshy involving violence adopted by them for survival.
The Brahman should continue with regular prayers, worship, Yagy in spite of all odds.
कृषिं साध्विति मन्यन्ते सा वृत्तिः सद्विगर्हिताः।
भूमिं भूमिशयांश्चैव हन्ति काष्ठमयोमुखम्
कृषि कर्म श्रेष्ठ है, ऐसा कोई-कोई मानते हैं, किन्तु सज्जनों ने कृषि की निन्दा की है, क्योंकि खेती के औजार (फरसा, फार, हल) से भूमि और भूमि और भूमि में रहने वाले जीवों का नाश होता है।[मनु स्मृति 11.84] 
Some people believe agriculture to be an excellent trade-profession but  gentleman opines that its not a noble profession meant for the Brahmns, since it involves tilting-ploughing the fields and killing of insects etc. by the agricultural appliances.
A Brahman engaged in farming should resort to regular fasts on Amavashya-no moon night. He should pledge donations-alms to the beggars-needy, as well. He should reward the low castes associated with him in farming, as well.
इदं तु वृत्तिवैकल्यात्त्यजतो धर्मनैपुणम्।
विट्पण्यमुद्धृतोद्धारं विक्रेयं वित्तवर्धनम्
जिन ब्राह्मण या क्षत्रियों ने अपनी निज वृत्ति से जीविका असंभव समझकर अपने धर्म नैपुण्य का त्याग किया हो, वे वैश्यों के व्यापार पदार्थों को छोड़कर अन्य वस्तुओं का व्यापार अपने धन को  बढ़ाने के लिये करें।[मनु स्मृति 11.85] 
The Brahman or Kshatriy who have deserted their own Varn Dharm after finding it impossible to survive by continuing it, should resort to trading-business but in those commodities only in which the Vaeshy are not dealing, to boost their income.
During the current era Kali Yug people from all walks of life, castes-Varn are resorting to those jobs which were not meant for them, causing chaos. Brahmans are seen working as hair dressers, beauticians, dry cleaners, sanitary inspectors. The worst has happened, the Brahmans from noble families resort to cleaning streets to survive.
क्षत्रियो बाहुवीर्येण तरेदापदमात्मनः।
(तद्धि कुर्वन्य यथाशक्ति प्राप्नोति परमां गतिम्।) 
धनेन वैश्यशूद्रौ तु जपहोमैर्द्विजोत्तमः
विपत्ति को क्षत्रिय बाहुबल द्वारा पर करे। वैश्य और शूद्र धन से तथा ब्राह्मण जप-तप, तपस्या और होम से विपत्ति को टाले।[मनु स्मृति 11.34] 
The Kshatriy should tide over the difficulty by using his physical strength-muscle power, the Vaeshy & Shudr over come trouble by means of their money while a Brahmn should resort to asceticism, recitation of sacred hymns, holy scarifies in holy fire to swim over the difficult phase.
Misfortunes are cyclical in life. One should never loose heart and keep on striving to come out of it. He should work hard and side by side keep on remembering the Almighty. Sitting for the luck to turn is foolishness.
दक्षिणेन मृतं शूद्रं पुरद्वारेण निर्हरेत्। 
पश्चिमौत्तरपूर्वैस्तु यथायोगं द्विजन्मनः॥
मृत शूद्र को नगर के दक्षिण द्वार से, वैश्य को पश्चिम द्वार से, क्षत्रिय को उत्तर और ब्राह्मण को पूर्व द्वार से श्मशान ले जाया जाता है।[मनु स्मृति 5.92] 
The dead remains-corpses of a Shudr are taken to cremation ground through South gate, that of Vaeshy from West, that of a Kshatriy through North and the dead body of the Brahmn has to be carried to cremation place through East Gate.
CHARACTERISTICS OF BRAHMANS  ब्राह्मण गुणधर्म :: Duties assigned to Brahmns are :- Acquiring knowledge-learning and training for self, educating others, performing Yagy-sacrifices, accepting and making donations-charity, piousness-purity, performing natural deeds, Satvik food habits. All of his movements should be directed towards the service of the four Varn and the mankind, in whom the Almighty is pervaded. He has to perform all his duties happily, with pleasure and devotion to God as per his dictates, with wisdom.
सदाचारयुतो विद्वान् ब्राह्मणो नाम नामतः। 
वेदाचारयुतो विप्रो ह्येतैरेकैकवान्द्विजः
अलपाचारोल्पवेदश्च क्षत्रियो राजसेवकः। 
किञ्चिदचारवान्वैश्यः कृषिवाणिज्यकृत्तथा
शूद्रब्राह्मण इत्युक्तः स्वयमेव हि कर्षकः। 
असूयालुः परद्रोही चण्डालद्विज उच्यते
सदाचार का पालन करनेवाला विद्वान् ब्राह्मण ही, वास्तव में ब्राह्मण नाम धारण करने का अधिकारी है। जो केवल वेदोक्त आचार का पालन करनेवाला है, उस ब्राह्मण की विप्र संज्ञा होती है। सदाचार, वेदाचार तथा विद्या-इनमें से एक-एक गुण से युक्त होने पर उसे द्विज कहते हैं। जिसमें स्वल्प मात्रा में ही आचार का पालन देखा जाता है, जिसने वेदाध्ययन भी बहुत कम किया है तथा जो राजा का सेवक (पुरोहित, मन्त्री आदि) है, उसे क्षत्रिय ब्राह्मण कहते हैं। जो कृषि तथा वाणिज्य कर्म करनेवाला है और कुछ-कुछ ब्रह्मणोचित आचार का पालन करता है, वह वैश्य ब्राह्मण है तथा जो स्वयं ही खेत जोतता है-हल चलाता है, उसे शूद्र ब्राह्मण कहा गया है। जो दूसरों के दोष देखने वाला और परद्रोही है, उसे चाण्डाल द्विज कहते हैं।[श्रीशिवमहापुराण विद्येश्वर संहिता 13.2-4]  
अध्यापनमध्ययनं यजन तथा। 
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥
ब्राह्मणों के लिये पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना दान देना, दान लेना, ये 6 कर्म निश्चित किये गये हैं।[मनु स्मृति 1.88] 
6 deeds have been fixed-assigned for the Brahmans namely learning, teaching-educating, performance of holy sacrifices, helping in performing holy sacrifices in fire, accepting donation and donating to others. In narrow terms learning stands for reading, writing, grasping, practicing, thinking, analysing, interpreting, teaching Veds. But in practice learning has 64 openings and then each opening may have further 64 tracts for comprehensive learning. 
विधाता शासिता वक्ता मैत्रो ब्राह्मण उच्यते।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्
विधाता (शास्त्रोक्त कर्मों को करने वाला), शासिता (शिष्यादिक  शासन करने वाला), वक्ता (प्रायश्चितादि का आदेश देने वाला), मैत्र (सबसे मित्रता करने वाला) ब्राह्मण कहा जाता है। उस ब्राह्मण को किसी को भी अनिष्ट वचन या रुखा वचन नहीं कहना चाहिये।[मनु स्मृति 11.35] 
The Brahman is Vidhata (one who perform the deeds as per doctrine of the scriptures), Shasita (one who governs the disciple-students, society), Vakta (who asks to ascertain penances), Maetr (one who has friendly relations with all, each & every one). The Brahmn should never attar such words which are indecent, painful, harsh, intolerable or curse any one.
अग्निहीनो देहदृाष्टं मंत्रहीनस्तु ऋत्विज:
दीक्षितं दक्षिणाहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपु:
अन्न हीन अर्थात जिस यज्ञ में अन्न न दिया जाये, वह यज्ञ राष्ट्र का, मंत्रहीन ऋत्विज-ब्राह्मणों का और दक्षिणा से हीन यज्ञ यजमान का नाश करता है। यज्ञ के बराबर कोई शत्रु नहीं है। 
The Yagy conducted by the king which is not followed by offering of food grain-cooked food, destroys the nation-country, state; the priest performing Yagy if he is not well versed with procedure, suitable Mantr and the one who is conducting it for lack of sufficient Dakshina-fees. The Yagy turns into a dreaded enemy if its not conducted through proper procedures, methodology & enchanting of Mantrs.
अग्निहोत्र्यपविध्याग्नीन् ब्राह्मणः कामकारतः।
चान्द्रायणं चरेन्मासं वीरहत्यासमं हि तत्
ब्राह्मण अपनी इच्छा से यदि प्रातः और सायंकालिक अग्निहोत्र के हवन को न करे तो एक मास तक चान्द्रायण व्रत करे, क्योंकि अग्निहोत्र न करना पुत्र हत्या का समान है।[मनु स्मृति 11.41] 
If a Brahman do not perform Agnihotr in the morning and evening out of his own will he should conduct Chandrayan Vrat-penances pertaining to appease Moon, for a month, since this failure for him is comparable to murder of son.
ये शूद्रादधिगम्यार्थमग्निहोत्रमुपासते।
ऋत्विजस्ते हि शूद्राणां ब्रह्मवादिषु गर्हिताः
जो शूद्रों से धन लेकर यज्ञ करते हैं, वे शूद्रों के ऋत्विज-ब्राह्मण और वेदों में निन्दित कहे गए हैं।[मनु स्मृति 11.42]
The Brahman, who conduct Yagy by obtaining money from the Shudr, is titled the Priest of the Shudr and has been censured in Veds.
अकारं चाप्युकारं  मकारं च प्रजापतिः। 
वेदत्रयान्नीरदुहद् भूर्भुवःस्वरितीति च॥
ब्रह्मा जी ने अकार (अ a), उकार (उ u) और मकार (म m) तथा भू: र्भुवः स्व: इन तीन व्याह्रतियों (व्यय-ह्रास को रोकने वाले) को तीनों वेदों से लिया गया है।[मनु स्मृति 2.76] 
Praja Pati Brahma Ji has milked-extracted the three Vaedic, the Primordial  sounds A-अ , U-उ and M-म; constituents of Om-ॐ i.e., Pranav and the Vyahratis Bhur, Bhuvah &  Svah which checks-reduces the degradation-loss.
तीन व्याह्रतियाँ :: सृष्टि से पूर्व ब्रह्मा जी ने स्वयं ज्ञान देह से "भू: र्भुवः स्वः" कहा-इसलिए यह ब्रह्म स्वरूप है। इसी कारण 'ऊँ' के पश्चात् गायत्री मन्त्र के आदि में ही इन्हें लगाया जाता है। 
(1). गायत्री मन्त्र में ऊँकार के पश्चात् भूः भुवः स्वः क्रमशः यह तीन व्याह्रतियाँ आती हैं। व्याह्रतियों का यह त्रिक् अनेकों बातों की ओर संकेत करता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीन उत्पादक, पोषक, संहारक शक्तियों का नाम भूः भुवः स्वः है। सत, रज, तम इन तीन गुणों को भी त्रिविध गायत्री कहा गया है। भूः को ब्रह्म, भुवः को प्रकृति और स्वः को जीव भी कहा जाता है।
(2). अग्नि, वायु और सूर्य इन तीन प्रधान देवताओं का भी प्रतिनिधित्व यह तीन व्याह्रतियाँ करती हैं। तीनों लोकों का भी इनमें संकेत है। एक ऊँ की तीन संतान हैं :- भूः भुवः स्वः।
(3). व्याह्रतियों में से तीनों वेदों का आविर्भाव हुआ। इस प्रकार के अनेकों संकेत व्याह्रतियों के इस त्रिक् में भरे हुये हैं । उन संकेतों का सार मनुष्य को सत्य, प्रेम और न्याय ही प्रतीत होता है।
(4). भूः विष्णु भगवान हैं तथा भुवः लक्ष्मी जी हैं, उन दोनों का दास स्वः रूपी जीव है।
(5). वेदों का सार उपनिषद है। उपनिषदों का सार गायत्री, गायत्री का सार "भू: र्भुवः स्वः" ये तीन व्याह्रतियाँ हैं। 
(6). त्रिदेव रूपी परब्रह्म की शक्तियों का मनुष्य को ध्यान रखना चाहिए। उनके द्वारा पदार्थों को एक रूप में नहीं रहने दिया जाता। समस्त विश्व की सभी चीजें प्रतिक्षण बदलती रहती हैं। "चरम परिवर्तन का नाम मृत्यु" है।
(7). पदार्थों का परिवर्तन एवं नाश होना स्वाभाविक है, इसीलिए उनसे मोह नहीं करना चाहिए, केवल उनके सदुपयोग का ध्यान रखना चाहिए।
(8). सत, रज और तम इन तीनों गुणों से संसार बना है। इन तीनों स्वभावों के प्राणी और पदार्थ इस विश्व में रहते हैं। मनुष्यों के लिये उनमें से अनेक उपयोगी और लाभदायक हैं और अनेकानेक हानिकारक अनुपयोगी हैं। मनुष्य को क्रमशः नीचे से ऊपर की ओर चलना चाहिए। अनुपयोगिता से बचते हुए उपयोगिता को अपनाना है। तम से रज की ओर और रज से सत की ओर कदम बढ़ाना है।
(9). अग्नि, वायु और जल की उपासना का अर्थ है, तेजस्विता, गतिशीलता और शान्तिप्रियता का मन में स्थापित होना। इस त्रिविध सम्पत्ति को अन्दर धारण करके, जीवन को सर्वांगीण सुःख-शान्तिमय बनाया जा सकता है।
(10). ईश्वर, जीव,प्रकृति के गुन्थन की गुत्थी को तीन व्याह्रतियाँ ही सुलझाती हैं। भूः :- धरती,  भुवः :- स्वर्ग एवं स्वः :- पाताल  यद्यपि तीन लोक विशेष भी हैं; परन्तु अन्तःकरण, शरीर और संसार यह तीन क्षेत्र भी सूक्ष्म लोक हैं, जिनमें स्वर्ग एवं नरक की रचना मनुष्य अपने आप करता है। सत, रज, तम इन तीनों का ठीक प्रकार उपयोग हो तो यह बन्धन न रहकर मुक्ति के सहायक एवं आनन्द के उपकरण बन जाते हैं।
त्रिभ्य एव तु वेदेभ्यः पादं पादमदूदुत्। 
तदित्यरचोSस्या: सावित्र्या: परमेष्ठी प्रजापतिः॥
परमेष्ठी ब्रह्मा जी ने तीनों वेदों में से क्रमशः सावित्री के एक-एक पाद करके तीन पाद को प्राप्त किया है।[मनु स्मृति 2.77] 
Brahma Ji who dwells in the Brahm Lok the uppermost abode, selected the three stanzas of Savitri Mantr from the three Veds one by one.
एतदक्षरमेतां च जपन् व्याह्रतीपूर्विकाम्। 
संध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेदपुण्येन युज्यते॥
ओङ्कार पूर्वक तीन पादों वाली व्याह्रती पूर्वक सावित्री का जप दोनों संध्याकाल में करने वाला वेदज्ञ ब्राह्मण सम्पूर्ण वेद पाठ किये हुए, पुण्य से युक्त होता है।[मनु स्मृति 2.78] 
The Brahmn who learnt the Veds and perform both evening & morning Sandhyas prayers with the recitation of ॐ (Omkar) as prefix with the three Vyahraties (भू:, भूव:, स्व:) becomes virtuous.
जप्येनैव तु संसिध्येद् ब्राह्मणो नात्र संशयः। 
कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते॥
ब्राह्मण जप, मात्र करने से ही सिद्ध होता है, इसमें सन्देह नहीं है। अन्य यज्ञादि को करे या न करे, उतने ही से ब्राह्मण "मन्त्र" कहलाता है।[मनु स्मृति  2.87] 
There is no doubt that a Brahmn becomes perfect by uttering-reciting the sacred rhymes silently in a lonely place. Whether he performs the other ritualistic sacrifices in holy fire or not is immaterial, since its enough to make him perfect-PURE.
SEVEN VYAHRATI सात व्याह्रतियाँ  :: ब्रह्मा जी ने ॐ बीज मंत्र से वर्ण माला उत्पन्न की। उन्होंने ही ॐ बीज मंत्र से यज्ञ के लिए भू:, भूव:, स्व:, महा, जन, तप, सत्यम सात व्याह्रती उत्पन्न कीं।
सहस्त्रकृत्वस्त्वभ्यस्य बहिरेतत्त्रिकं द्विजः। 
महतोSप्येनसो मासात्तवचेवाहिर्विमुच्यते॥
द्विज इन तीनों (प्रणव, व्याहृत और सावित्री) को बाहर (एकांत में) एकाग्र चित्त से एक मास पर्यन्त नित्य एक हजार जप करे तो बड़े भारी पाप से मुक्त हो जाता है, जैसे साँप केंचुली से मुक्त होता है।[मनु स्मृति 2.79] 
The Brahmn can get rid of the gravest-heavy, weighty sins by the recitation of the three i.e., Pranav-Om, Vyahrati and the Savitri-Sandhya, evening & morning prayers with deep concentration; 1,000 times every day for one month, by sitting alone in an isolated place, just as a snake get rid of his slough (exo-skin, exuviate, moulting).
एतचर्याविसंयुक्तः काले च क्रियया स्वया। 
ब्रह्मक्षत्रियविट्योनिर्गर्हणां याति साधुषु॥
संध्या से भिन्न समय पर इस सावित्री के जप को और हवनादि करने वाला द्विज ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैष्णवों के साधु-मण्डल (सज्जनों) में निंदित है।[मनु स्मृति 2.80] 
One who perform the recitation of the Savitri & the Agnihotr-Hawan etc. at an hour other than the prescribed i.e., morning or evenings, is rebuked-condemned by the Brahmn, Kshtriy, the Vaeshnavs-those who worship Bhagwan Vishnu & the descent-enlightened, learned, virtuous person.
पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमार्कदर्शनात्। 
पश्चिमां तु समासीन: सम्यगृक्षविभावनात्॥
प्रातः संध्या में पूर्व की ओर मुँह करके खड़े होकर सूर्य दर्शन पर्यन्त सावित्री का जप करे। संध्याकालीन संध्या में पश्चिम की ओर मुँह करके बैठ कर जब तक तारे न दिखाई पड़ें तब तक गायत्री का जप करे।[मनु स्मृति 2.101] 
One should stand facing east in the morning and recite the Savitri Mantr till the Sun rises and in the evening he should sit facing west and recite the Gayatri Mantr till the stars-constellations  appear.
This process begins quite early in the morning in the Brahm Muhurt, around 4 AM during summers and 6 AM during winters.
पूर्वां संध्यां जपन्तिष्ठन्नैशमेनो व्यपोहति। 
पश्चिमां तु समासीनो मलं  हन्ति दिवाकृतम्॥
प्रातः संध्या में खड़े होकर (गायत्री) जप करने वाला रात के पाप को नष्ट करता है और सांय-संध्या के समय बैठकर जप करने वाला दिन के पाप को नष्ट करता है।[मनु स्मृति 2.102] 
Recitation of the Gayatri Mantr in the morning while standing removes the sins-guilt committed at night, while the recitation of the Mantr while sting in the evening removes the sins of the day.
न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्र्च पश्चिमाम्। 
स शूद्रवद् बहिष्कार्य: सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥
जो प्रातः और सांय संध्याओं को नहीं करता, उसे सभी द्विज कर्मों से शूद्र की तरह बहिष्कृत के देना चाहिये।[मनु स्मृति 2.103] 
One (Brahman-Celibate-disciple), who does not perform the evening and morning prayers-Sandhya, should be expelled from the community-society like a Shudr.
अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः। 
सावित्रीमप्यधीयीत  गत्वाSरण्यं समाहितः॥
निर्जन स्थान में जल के समीप जाकर अपनी नित्य क्रियाओं को कर, स्थिर चित्त होकर, गायत्री का जप करना चाहिए।[मनु स्मृति 2.104] 
One should move to an isolate place near a water body, pond, lake, river & perform the daily routine of freshness and then he should recite the Gayatri Mantr with full concentration-devotion.
वेदोपकरणे चैव स्वध्याये चैव नैत्यके। 
नानुरोधोSसत्यन्ध्याये होममन्त्रेषु चैव हि॥
वेद के उपकरण (व्याकरणादि) नित्य का स्वाध्याय (वेदपाठादि), हवन, मन्त्रों का जप ये सभी कार्य अनध्याय में भी करने चाहियें।[मनु स्मृति 2.105] 
Different components of Veds like grammar, Hawan, Mantr needs regular-daily practice-self study even if it is not required for some specific purpose, even during forbidden-prohibited days.
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। 
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलल्॥
नित्य बड़ों की सेवा और प्रणाम करने वाले पुरुष की आयु, विद्या, यश और बल ये चार चीजें बढ़ती हैं।[मनु स्मृति 2.121]  
One who regularly serve his elders-those who deserve respect and salutes-honour them gains longevity, education-knowledge, name & fame and power-strength.
अभिवादात्परं विप्रो ज्यायांसमभिवादयन्। 
असौ नामा हम समीतिं स्वं नाम परिकीर्तयेत्॥
ब्राह्मण को, गुरुजनों को अभिवादन करने के बाद अपना नाम भी बता देना चाहिये।[मनु स्मृति 2.122]  
After paying obeisance-due respect to Brahmn, elders, seniors, one should reveal his identity to him-disclose i.e., his name (in case he is not known to him). 
नामधेयस्य ये केचिदभिवादं न जानते। 
तं प्राज्ञोSह्रमिति ब्रूयात्स्त्रीय: सर्वास्तथैव च॥
अभिवादन करने में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ को यदि कोई वृद्ध न जानते हों तो उन्हें (मैं प्रणाम करता हूँ) ऐसा कहकर अभिवादन करे तथा स्त्रियाँ भी ऐसा ही करें।[मनु स्मृति 2.123]  
If an elderly person do not know the meaning of the etiquette words used for wishing-saluting, then one should demonstrate by saying, "I salutes you, welcome-honour you" and bow to him with folded hands. The women too are advised to do so.
Touching of feet, prostrating before the enlightened is extreme form of honour. In today's times people just do this for show off, though in fact-reality, do not respect one, before whom they are bending.
भो:शब्दं कीर्तयेदन्ते स्वस्य नाम्नोSभिवादने। 
नाम्नां स्वरूपभावो हि भोर्भाव ऋषिभि: स्मृत:॥
अभिवादन करने में अपने नाम के अंत में (भो:, वाचक) शब्द कहना चाहिये (जैसे श्लोक 122 में कहा गया है) प्रणाम किये जाने वाले के स्वरूप का द्योतक (भो:) शब्द है ऐसा ऋषियों ने कहा है।[मनु स्मृति 2.124]
The saints-sages have said that the word Bho: represent one who is saluting the elderly-respected, honourable person. Therefore, it should be added to later segment-suffix of the name.
आयुष्मान्भव सौम्येति वाच्यो विप्रोSभिवादने। 
अकारच्श्रास्य नाम्नोSन्ते वाच्य: पूर्वाक्ष:प्लुत:॥
ब्राह्मण प्रणाम किये जाने पर आयुष्मान्भव सौम्य (तुम दीर्घजीवी हो) ऐसा कहें, यदि प्रणाम करने वाले के नाम के आदि में आकर हो तो उसे प्लुत उच्चारण करना चाहिये।[मनु स्मृति 2.125]  
The Brahman should bless one who has greeted-honoured, respected him by saying "live long", O gentle one!' and the vowel 'a' must be added at the end of the name of the person being blessed.
यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्। 
नाभिवाद्य: स विदुषा यथा शुद्रस्तथैव सः॥
जो विप्र अभिवादन करने का पत्यभिवादन करना नहीं जानता हो, उसे पण्डितों को अभिवादन नहीं करना चाहिये, क्योंकि जैसे शूद्र है, वैसे ही वह भी है।[मनु स्मृति 2.126]  
The Brahman who do not return wishes (Nameste नमस्ते, Namaskar नमस्कार, Pranam-salute प्रणाम, touching the feet चरण स्पर्श; should not wish the scholars, Pandits, Guru-elderly since he is his behaviour is like the Shudr.
Those who just wish without feelings-respect too come under this category. There are those who just bow-bend to touch the feet but remain till the knees, too are also the fellow of this category.
Trillions of Shloks, rhymes, hymns, holy verses appeared with the onset of life in the universe and Bhagwan Shri Hari Vishnu transferred all that to Bhagwan Brahma Ji. In due course of time this knowledge was classified and divided into various texts for specific purposes. It can be summarised like 64 fields of arts and sciences. Each of these fields may again be sub divided into 64 fields. Agni Hotr, Hawan are associated with holy sacrifices and chanting of Mantr.

शूद्रावेदी पतत्यत्रेरुतथ्यतनयस्य च। 
शौनकस्य सुतोत्पत्तया तदत्पतया भृगो:॥
शूद्रा से व्याह करने वाला ब्राह्मण पतित होता है, यह अत्रि और उतथ्य पुत्र गौतम का मत है। शूद्रा से पुत्रोत्पन्न होने पर क्षत्रिय क्षत्रित्व से गिर जाता है, यह शौनक का मत है, इसी प्रकार शूद्रा से सन्तान होने से वैश्य भी पतित होता है ऐसा भृगु का मत है।[मनु स्मृति 3.16]  
In the opinion of Atri-Brahma Ji's son and Gautom-son of Utthy, a Brahman is degraded when he marries a lower caste woman. Shaunak Ji opined that likewise a Kshatriy losses his might, strength and valour, when he marries Shudr woman. Bhragu too opined pertaining to Vaeshy that he will be degraded if he marries a Shudr woman.
These sages were walking store house of knowledge, renowned scientists and technocrats, much more capable than the fastest computer, of storing information in their brain-memory. They were legendary personalities capable of analysing and synthesising information. Darwin, Lamarckism,  Mandlism etc. have grossly failed to describe human origin and evolution. Latest research has achieved the growth of living cells in the laboratory proving-confirming a-z, said in the epics.
शूद्रां शयनमारोप्य ब्राह्मणो यात्यधोगतिम्। 
जनयित्वा सुतं तस्यां ब्राह्मन्यादेव हीयते॥
ब्राह्मण शूद्रा के साथ शयन करके अधोगति-नरक को जाता है और उससे पुत्र उत्पन्न करके ब्राह्मणत्व से भी रहित हो जाता है।[मनु स्मृति 3.17] 
A Brahmn moves to hells just by sleeping with a lower cast-Shudr woman and by producing a son from her, he losses his status as a Brahmn.
दैवपित्र्यातिथेयानि तत्प्रधानानि यस्य तु। 
नाश्नन्ति पितृदेवावास्तन्न च स्वर्गं स गच्छति॥
विवाहित शूद्रा के हाथ का बनाया हुआ हव्य-कव्य देवता, पितर ग्रहण नहीं करते। शूद्रापति ऐसे आथित्य से स्वर्ग भी नहीं पाता।[मनु स्मृति 3.18]  
The demigods & manes do not accept the offerings cooked-prepared by such woman. The Brahmn having married her is devoid of the heaven, he had been craving for. His lust-passion leaves him to take birth in low castes, species.
वृषलीफेनपीतस्य नि:श्र्वासोपहतस्य च। 
यस्यां चैव प्रसूतस्य निष्कृतिर्न विधीयते॥
जो शूद्रा के अधर-रस का पान करता है, उसके नि:श्र्वास से अपने प्राणवायु को दूषित करता है और उससे सन्तान उत्पन्न करता है, उसके निस्तार का कोई उपाय नहीं है।[मनु स्मृति 3.19]  
One who kisses the lips of the Shudr woman, contaminate his respiratory system and produces children; has no way out to escape expiation-the harmful results.
EXPIATION :: expiation atonement, redemption, redress, reparation, restitution, recompense, requital, purgation, penance, amends.
The Shudr woman who was born and brought up in polluted-impure surrounding, has her whole body adjusted according to that ecosystem. The culture, atmosphere, behaviour, way of talking etc. are different. Low moral-no virtues are associated with her.
षडानुपूर्व्या विप्रस्य क्षत्रस्य चतुरोSवरान्। 
विट्शूद्रयोस्तु तानेव विद्याद्धर्म्यानराक्षसान्॥
ब्राह्मण को आदि से 6 प्रकार के विवाह, क्षत्रिय को असुरादि क्रम से 4 प्रकार के, वैश्य शूद्र को राक्षस रहित 3 प्रकार के विवाह धर्मानुकूल कहे गये हैं।[मनु स्मृति 3.23]  
The Brahman may marry through 6 methods-means (systems, ceremonies, procedures) according to the order given above, the Kshatriy in 4 ways, the Vaeshy & Shudr can marry in 3 manners; except the Rakshas tradition of marriage, in accordance with the Dharm-established religious procedures.
चतुरो ब्राह्मणस्याद्यान्प्रशस्तान्कवयो  विदुः। 
राक्षसं क्षत्रियस्यैकमासुरं वैश्यशूद्रयो:॥
ब्राह्मण के लिये 4 विवाह (ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापात्य) क्षत्रिय के लिये केवल राक्षस और वैश्य तथा शूद्र के लिये आसुर विवाह को पण्डित गण श्रेष्ठ समझते हैं।[मनु स्मृति 3.24]  
The scholars recommend 4 types of marriage for the Brahman i.e., Brahm, Daev, Arsh and Prajapaty, Rakshas tradition for the Kshatriy and the Asur tradition for the Vaeshy & Shudr to be excellent.
पञ्चानां तु त्रयो धर्म्या द्वावधर्म्यौ स्मृता विह। 
पैशाचच्श्रासुरश्र्चैव न कर्त्तव्यौ कदाचन॥
प्राजापत्य आदि 5 विवाहों में 3 :- प्राजापात्य, गान्धर्व और राक्षस, धर्मानुकूल और दो :- आसुर और पैशाच, अधर्म युक्त कहे गये हैं। इसलिये ब्राह्मण को किसी भी अवस्था में आसुर या पैशाच विवाह नहीं चाहिये।[मनु स्मृति 3.25]
Out of the 5 Prajapaty etc. marriages 3 :- Prajapaty, Gandharv & Rakshas, are as per tenets of the scriptures i.e., in accordance with the recommendation of the religion and 2 :- Asur & Paeshach, are against the set traditions-against the scriptures. Therefore, a Brahmn should never enter into matrimonial alliance through Asur-demonic (barbarians) or Paeshach procedures.
अद्भिरेब द्विजाग्रायाणां कन्यादानं विशिष्यते।
इतरेषां तु वर्णाना मितरेतरकाम्ययाम्॥
ब्राह्मण को जलदान पूर्वक कन्यादान करना श्रेष्ठ है। क्षत्रिय आदि वर्णों को परस्पर की इच्छा मात्र से (दाता-ग्रहीता के वचन मात्र से) कन्यादान हो सकता है।[मनु स्मृति 3.35]  
Donation-gifting of a daughter by the Brahman associated with libation of water is excellent kind of marriage. Remaining Varn-castes like Kshatriy is a matter of mutual consent between the acceptor and the donor.
अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम्। 
दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसंततिम्॥
हजारों अविवाहित ब्रह्मचारी ब्राह्मण वंश वृद्धि के लिये पुत्र का उत्पादन न करके भी स्वर्गलोक को गए हैं।[मनु स्मृति 5.159] 
Thousands of unmarried Brahman following chastity have gone to Heaven without having a son.
So, the widow can also attain heaven just by following virtuous-pious routine, without remarrying or having a son.
मृते भर्तरि साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता। 
स्वर्गं गच्छत्यपुत्रापि यथा ते ब्रह्मचारिणः॥
जो पतिव्रता स्त्री पति के मरने के बाद ब्रह्मचर्य में स्थिर रहती है, वह पुत्रहीना होने पर भी ब्रह्मचारी पुरुषों की भांति स्वर्गलोक को जाती है।[मनु स्मृति 5.160] 
The woman who has been devoted to her husband and observes chastity even after his death reaches the heaven, like the chaste males in spite of being issue less or delivering a son.
चतुर्भिरपि चैवैतैर्नित्यमाश्रमिभिर्द्विजैः। 
दशलक्षणको धर्मः सेवितव्यः प्रयत्नतः॥
इन ब्रह्मचारी और चारों आश्रमी द्विजों को सदा यत्नपूर्वक दश विध धर्मों का सेवन करना चाहिये।[मनु स्मृति 6.91]
The Brahman undergoing the four stages of life along with the first i.e., the celibate; should adopt to the ten rules practices describes here.
in  fact any one any where, belonging to any faith should follow these tenets to reach the Ultimate abode.
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। 
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
संतोष, क्षमा, मन को दबाना, अन्याय से किसी की वस्तु को न लेना, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियों का निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, क्रोध न करना; ये धर्म के दस लक्षण हैं।[मनु स्मृति 6.92]
Contentment, forgiveness, suppression of mind-self control, abstention from unrighteous appropriating anything (not to snatch, loot, belongings of others), purity-cleaning of the body, coercion of the organs (sensuality, sex, lust), wisdom-prudence, knowledge (learning, enlightenment, Tatv Gyan-Gist of the Supreme Soul), truthfulness and abstention from anger, form the ten tenets, rules for an auspicious life.
दश लक्षणानि धर्मस्य ये विप्राः समधीयते। 
अधीत्य चानुवर्तन्ते ते यान्ति परमां गतिम्॥
जो ब्राह्मण इन दस विध धर्मों को समझने का यत्न करते हैं और समझकर उनका अनुष्ठान करते हैं, उनको परम् गति प्राप्त होती है।[मनु स्मृति 6.93]
The Brahmn (in fact any human being) who understand these rules and follow them in day to day life, gets the Ultimate abode.
दशलक्षणकं धर्ममनुतिष्ठन्समाहितः। 
वेदान्तं विधिवत्श्रुत्वा संन्यसेदनृणो द्विजः॥
एकाग्र चित्त होकर दस-विध धर्मों का अनुष्ठान करता हुआ, विधिपूर्वक वेदान्त सुनकर ऋणमुक्त द्विज संन्यास ग्रहण करे।[मनु स्मृति 6.94]
The Brahmn should follow these tenets of the Gist of the Ved-Vedant, get rid of all loans-debts (pertaining to father, mother and the demigods-deities) prescribed by the Ved-scriptures & adopt himself to the life of a hermit (ascetic, recluse, wanderer) .
संन्यस्य सर्वकर्माणि कर्मदोषानपानुदन्। 
नियतो वेदमभ्यस्य पुत्रैश्वर्ये सुखं वसेत्॥[मनु स्मृति 6.95]
सब कर्मों को छोड़कर, प्राणायाम आदि द्वारा कर्मदोषों का भी नाश करता हुआ नियत चित्त से उपनिषदों का अभ्यास कर, अपने भोजनादि का भार पुत्र को सौंपकर, आप निश्चिन्त हो  सुख से घर पर रहे; (यह वेद सन्यास है)।
The Brahmn should relieve himself from all duties-responsibilities-acts, perform Pranayam to vanish all impurities-defects, penetrating into the Upnishad (Veds, scriptures, Purans, Itihas etc.,) handover the responsibility of his food, shelter etc to his son and live with comfort in his house.
This is an alternative form of Yog (ascetic practice) for the Salvation seeker. The author has adopted himself to this life style but still keep writing these texts pertaining to the Almighty for the benefit of the masses. Let the Almighty bless the readers with prudence, love & devotion to the God.
एवं संन्यस्य कर्माणि स्वकार्यपरमोऽस्पृहः। 
संन्यासेनापहत्यैनः प्राप्नोति परमां गतिम्॥[मनु स्मृति 6.96]
इस प्रकार कर्मों को त्यागकर, विषय-वासना से रहित हो, आत्मज्ञान के साधन में लगा पुरुष संन्यास के द्वारा पापों का नाश करके परमगति (मोक्ष) पाता है।
In this manner one attains the Ultimate abode of the Almighty from which return is not possible to any incarnation, destroying all of his sins, misdeeds, mal functions, guilt.
One is trying, practicing and striving for the Ultimate under HIS patronage without clamouring the result. But being selfish, wish to have the love & affection  added with Ultimate devotion to HIM. Its immaterial whether it take millions or infinite births but desire to remain aloof from sins.
एकाहारेण सन्तुष्टः षड्कर्मनिरतः सदा।
ऋतुकालेऽभिगामी च स विप्रो द्विज उच्यते
सही मायने में ब्राह्मण वही है जिसके 16 संस्कार हुए हों, दिन में एक बार भोजन करे, दिन में समागम न करे, महीने में केवल एक बार और केवल अपनी पत्नी के साथ ही समागम करे और वह भी महवासी की समाप्ति के बाद।
[चाणक्य नीति 11.12] 
In reality one is a Brahman whose 16 rites have been performed, if he survives over just one meal in a day, mates with his wife only, once in a month, after the menstrual cycles, during nights only. 
The Brahman who takes single meal to keeps the body fit-fine, tuned to maintain the purity-piousness of brain-mind, do his duties, rituals, prayers, Agnihotr-Hawan, Yagy regularly and mates with his wife only for producing children without lust, not as an object of sex. 
A Dwij is born twice, first from the womb and then through Janeu-sacred thread ceremony-education and 16 purification rites.
Its really difficult for the Brahman to follow the code of conduct meant for him in recent times. In the Kali Yug its quiet impossible. Still, exceptions are always there. Brahmans are Brahmans only for the name sake these days. They have started eating meat, drinking wine, smoking, trading and other acts which were taboo hither to, for them. One may find them indulging in all sorts of wretched deeds as criminals, politicians, policemen and even in judiciary.
The Brahman (Pandit, scholar, philosopher, learned, enlightened) used to survive over the fruits, bulbous roots grown over uncultivated land not meant for farming-agriculture, in the jungle-forest and make offerings every day for his ancestors-Pitres, were designated as Rishi.
Rishi, Brahm Rishi, Mahrishi, Dev Rishi are titles of the Brahmans who are engaged in asceticism, meditation, devout-profound meditation. Some depend over leaves of plants, others over fruits, bulbs, roots or simply air. Kshatriy (marshal castes in India) too undertake rigorous asceticism, meditation, fasting for the cleansing of body-mind and soul. Fasting is very common practice in India. Almost every mature Hindu believes in it, including the Shudr.
अकृष्ट फलमूलानि वनवासरतः सदा।
कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्यते
बिना जोते हुए स्थान के फल, मूल खाने वाला (अर्थात ईश्वर की कृपा से प्राप्त हर भोजन से संतुष्ट होने वाला), निरन्तर वन से प्रेम रखने वाला और प्रतिदिन श्राद्ध करने वाला ब्राह्मण ऋषि कहलाता है।[चाणक्य नीति 11.14] 
The Brahman who solely depend over the fruits and roots of uncultivated lands having love-affection for the forests performing Shraddh (prayers, rites) pertaining to the Manes-Pitre is termed a Rishi-sage.
The sage, hermit, wanderer survives over the food he receives by the grace of God through alms, begging only once a day or the fruits, rhizomes & bulbs recovered-digged from the ground.
लाक्षादितैलनीलानां कौसुम्भमधुसर्पिषाम्।
विक्रेता मद्यमांसानां स विप्रः शुद्र उच्यते
जो ब्राह्मण लाख, तेल, नील, रंगरेजी-वस्त्रादि, शहद, घी, शराब, माँस, मछली, अण्डा आदि के कारोबार में लगा है, वह शूद्र है।
[चाणक्य नीति 11.15]
The Brahman who engage himself in trading of lac (shellac, sealing wax), oil, Neel (blue), cloth colouring (dying, printing, weaving, tailoring), honey, Ghee, wine, meat (egg, fish) etc. is termed as Shudr (lowest caste, Varn, segment in Hinduism).
This is how Brahmans lower down, degrade them selves in caste hierarchy. People often quote Manu Smrati as the propagator of caste system in India which clearly says the caste is determined by the deeds of one's profession-job. One can see how the caste system is formed due to the greed, needs, requirements of individuals. Its a fact that once a person adopted lower caste, he never went back to Brahmnical practices.
Millions of people were converted to Islam by the Muslim traitors. They still continue with the their caste hierarchy. Thousands of Brahmans were converted to Islam and forced to do the job of scavengers-sweepers. These people still work as Chudha-Bhangi but retain the title of their ancestors. If they make efforts they can easily turn into Brahmans again.
परकार्यविहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।
छलीद्वेषी मदुक्रूरो मार्जार उच्यते
वह ब्राह्मण जो दूसरों के काम में अड़ंगे डालता है, दम्भी है, स्वार्थी है, धोखेबाज है, दूसरों से घृणा करता है और बोलते समय मुँह में मिठास और ह्रदय में क्रूरता रखता है, वह एक बिल्ली के समान है।
[चाणक्य नीति 11.16] 
The Brahman who thwarts-spoils works (virtuous efforts, pious endeavours, good projects) of others, is an hypocritical (impostor, dissembling, hypocrite, heretic), busy in own selfish motives, like a sharp knife-weapon from inside, cheat-envy others, but shows off as polite (soft-quiet) while speaking mildly, cherishes cruelty in his heart is termed as a male cat.
One should be careful-cautious with such people, having realised-identified them. One should remain at an arm's length-away from them. They are cunning-deceiving people. Cruelty lies in their brain.
Almost all politicians of today are made up of this stuff.
CHARACTRICES OF HINDUS :: 
SHUM-TRANQUILITY शम :: Enlightenment-dedication of all faculties-intellect in the divinity through absence of passions-peace of mind, quiet, rest. Channelize all of one's efforts, energy, power to assimilate in the Eternal-Ultimate. Intentional cultivating an inner attitude of tranquillity, peace of mind or contentment is a foundation on which the other practices can rest. 
निन्दा, पराजय, आक्षेप, हिंसा, बन्धन और वध को तथा दूसरों के क्रोध से उत्पन्न होने वाले दोषों को सह लेना, बुद्धि की निर्मलता। 
दया :: अपने दुःख में करुणा तथा दूसरों के दुःख में सौहार्द पूर्ण सहानुभूति जो कि धर्म का साक्षात साधन है। 
विज्ञान :: छहों अंग, चारों वेद, मीमांसा, विस्तृत न्याय शास्त्र, पुराण और धर्म शास्त्र। धर्म की वृद्धि, विधि पूर्वक विद्याद्ययन करके धन का उपार्जनकर धर्म-कार्य का अनुष्ठान। 
सत्य :: सत्य से मनुष्य  इस लोक पर विजय पाता है। यह परम पद है। 
DAM TRAINING DISCIPLINE दम :: Training of the senses (Indriy, इन्द्रिय संयम) means the responsible use of the senses in positive, useful directions, both in our actions in the world and the nature of inner thoughts we cultivate. Controlling sense organs, sensuality, lust, passions. Restraint of the senses, sensuality, passions-mortification-subduing feelings; शरीर की उपरामता। 
सदा आत्म चिन्तन :: अक्षर-अविनाशी पद को अध्यात्म समझना-जहां जाकर मनुष्य शोक में नहीं पड़ता।
ज्ञान :: जिस विद्या से षड्विध ऐश्वर्य युक्त परम देवता साक्षात भगवान् हृषिकेश का ज्ञान होता है। 
Barring a few exceptions majority of Brahmans are blessed with certain characteristics which differentiate them with the other Varn.
COMMON TRAITS OF 4 VARNS OF HUMANS चारों वर्ण के लिए समान धर्म :: किसी भी प्राणी को हिंसा न करना, कष्ट न पहुँचाना, मधुर वचन बोलना, सत्य भाषण करना, बाहर और भीतर से पवित्र रहना एवं शौचाचार का पालन करना, दीनों के प्रति दया भाव रखना तथा क्षमा (निन्दा आदि को सह लेना)- ये चारों वर्णों तथा आश्रमों के सामान्य धर्म कहे गये हैं।[राम नीति, अग्नि पुराण, 239.10-121/2
Donation-charity; दान पुण्य। 
Holding of short duration Hawan, Agni Hotr, Sacrifices in Fire;
हवन, अग्नि-होत्र, यज्ञ,धूप बत्ती, अगर बत्ती, लोबान, शुद्ध देशी घी-सरसों के तेल का दीया जलाना, आरती करना-उतारना, पूजा-पाठ करना। 
Visiting Holi places; तीर्थ स्थलों की यात्रा करना। 
Bathing in Holi rivers; पवित्र नदियों में नहाना। 
Honouring the deserving and the deities;
योग्य, आदरणीय-पूजनीय व्यक्तिओं व  देवी देवताओं का सम्मान। 
Earning money for dependants; अपने पर निर्भर व्यक्तियों हेतु धन कमाना। 
Sex with own wife and that is too during ovulation;
केवल अपनी पति के साथ-केवल ऋतु कल में संतान हेतु मैथुन-गर्भाधान, पशुओं से मैथुन न करना। 
Kindness pity towards all creatures; सभी प्राणियों पर दया करना। 
Truth; सत्य।  
Avoidance of extreme labour; अत्यधिक कठिन श्रम न करना।  
Friendship; सभी से मित्रता पूर्ण व्यवहार। 
Cleanliness; शुद्धि, साफ सफाई। 
Doing of work without desires, इच्छा-कामना-चाहत रहित कार्य-कर्म। 
Not to see-find faults with others; 
किसी के कार्य में कमी, गलती, बुराई न देखना-निकालना। 
Lack of miserliness; कंजूसी न करना। 
TRAITS OF BRAHMAN :: 
कुछ अपवादों को छोड़ कर अधिकतर ब्राह्मण अपने स्वाभाविक गुणों के आधार पर पहचाने जाते हैं।
Highly developed brain power; अत्यधिक विकसित मस्तिष्क, मानसिक शक्ति।
Study  and teaching of Purans, Veds, epics, scriptures; पुराणों, वेदों, शास्त्रों, रामायण-महाभारत आदि का पढ़ना और पढ़ाना।  
Courage, साहस, पौरुष।
Stout body and muscle power; मजबूत शरीर व माँसपेशियाँ-बाहुबल।
Learning, educating, meditation, prayers, Bhakti; पढ़ना-पढाना, स्वाद्ध्याय, चिंतन भक्ति।
Fair colour; गौर वर्ण।
Non consumption of meat-meat products-fish-eggs; माँस, मच्छी, अंडा  न खाना।
Non consumption of narcotics-drugs-wine; धुम्रपान-बीडी, सिग्रेट न पीना, किसी भी प्रकार के नशे-शराब से दूर रहना।
Not to think of other women; अपनी पत्नी के अलावा अन्य स्त्री के बारे में न सोचना।
Not to harm or trouble any one; किसी को भी न सताना परेशान तंग न करना-हानि न पहुँचाना।
Tolerance-not to become angry; क्रोध न करना-मन को काबू में रखना।
Regular bathing, performance of rights, rituals, prayers; दैनिक स्नान पूजा पाठ प्रार्थना।
Making offerings to God, deities, ancestors; भगवान् देवी देवताओं पूर्वजों को भेंट चढ़ाना।
Earning money through honest-righteous pure means; शुद्ध सात्विक साधनों द्वारा धन कमाना।
To keep own needs to the barest possible minimum; अपनी आवश्कताओं को न्यूनतम स्तर पर सीमित  रखना।
Devotion for the development, growth, upliftment of society Poor, down trodden); समाज के उत्थान-विकास का प्रयास।
Harmonious relations-cordial relations with all creatures; सभी प्राणियों में सामंजस्य।
Weighs stones, gems and jewels equally; धन, जवाहरात, गहनों व पत्थरों को समान समझना।
Inclination to sex with own wife only and that is too, during the ovulation period, during night only, avoidance of Rahu Kalam and eclipse; अपनी पत्नी के अलावा अन्य स्त्री से गर्भाधान न करना, वह भी केवल ऋतुकाल में-रात्रि में व ग्रहण में नहीं।
Pure vegetarian food descent behaviour; शुद्ध सात्विक आचार व्यवहार, निरामिष  भोजन, सदाचार। 
Tendency not to store for future; संग्रह की  प्रवृत्ति  का अभाव।
TRAITS OF KSHATRIY क्षत्रिय गुणधर्म :: 
Stout-muscular body, bravery, valour, protection of all castes & the country, knowledge of arm & ammunition, अस्त्र-शास्त्रों  ज्ञान और अभ्यास।
The Kshatriy have been assigned the 5 tasks namely protecting the people, donations, performance of Yagy, learning-education, to remain away from music-dance-passions, sensuality, sexuality, lust. Learning for warriors-Kshatriy stands mainly warfare, weapon systems, administration, protection of populations.
TRAITS-CHARACTERISES OF VAESHY वैश्य गुणधर्म :: हिन्दु धर्म में वैश्य समुदाय की विशिष्ट भूमिका है। खेती बाड़ी, पशु पालन, व्यापार उनके प्रमुख कार्य हैं। वे ब्राह्मणों को यज्ञ, हवन, प्रार्थना, शादी, सामाजिक कार्यों धन प्रदान करते हैं। राज कोष में कर जमा करते हैं। धर्मशाला अस्पताल विद्यालय मंदिर का निर्माण, तालाब-झील  का खुदवाना, पेड़ लगवाना व अन्य सामाजिक कार्य करवाना। ग़रीबों-जरुरतमंदों ब्राह्मणों को दान देना। धार्मिक ग्रंथों-शास्त्रों  को पढ़ना। 
Vaeshy community constitute the 3rd  Varn in Hinduism. It's major traits-characteristics include trading, agriculture, business and animal husbandry. They offer money to the Brahmns for helping in Yagy, Hawan, prayers, marriages, rituals, social activities. They contribute to exchequer through taxes. Building hospitals, inns, temples, digging ponds & lakes, laying roads, tree plantations and all sorts of socially useful works. Donate money to poor, needy and Brahmns. Learning scriptures-Shastr. 
TRAITS OF THE SHUDR शूद्रों के गुणधर्म :: 
Service of the Brahman, Kshatriy & the Vaeshy.
Ability-expertise in various crafts.
Brahma Ji-the creator fixed just one duty for the Shudr & that was the service of the mankind-humans of the earlier three divisions-castes-categories i.e., Brahmn, Kshatriy & Shudr.
RENUNCIATION :: The religious or philosophical concept that the soul or spirit, after biological death, begins a new life in a new body that may be human, animal or spiritual depending on the moral quality of the previous life's actions.
BRAHMAN ब्राह्मण :: ब्रह्मा जी के मस्तिष्क से प्रकट हुए दैवीय सृष्टि के मनुष्य, ब्राह्मण कहलाये। ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों से ही सृष्टि की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। कश्यप जी से पृथ्वी लोक व अन्य लोकों के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। मनु स्मृति के अनुरुप जिन मनुष्यों ने जप-तप, शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की, वे ही ब्राह्मण हैं। जन्म से सभी शूद्र हैं और जो कोई भी वेतन-वृत्ति लेकर सेवा-नौकरी आदि कार्य करता है, वह शूद्र है।  
पूर्वकाल में ब्राह्मण होने के लिए मनुष्य को शिक्षा, दीक्षा और कठिन तप करना होता था। इसके बाद ही उस मनुष्य को ब्राह्मण कहा जाता था। गुरुकुल की अब वह परंपरा नहीं है। जिन लोगों ने ब्राह्मणत्व अपने प्रयासों से हासिल किया था उनके कुल में जन्मे लोग भी खुद को ब्राह्मण समझने लगे। ऋषि-मुनियों की वे संतानें खुद को ब्राह्मण मानती हैं, जबकि उन्होंने न तो शिक्षा ली, न दीक्षा और न ही उन्होंने कठिन तप किया। वे जनेऊ का भी अपमान करते देखे गए हैं।
आजकल के तथाकथित ब्राह्मण लोग शराब पीकर, माँस खाकर और असत्य वचन बोलकर भी खुद को ब्राह्मण समझते हैं। उनमें से कुछ तो धर्म विरोधी हैं, कुछ धर्म जानते ही नहीं, कुछ गफलत में जी रहे हैं, कुछ ने धर्म को धंधा बना रखा और कुछ पोंगा-पंडित और कथावाचक बने बैठे हैं।
जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर किसी अन्य को नहीं पूजता वह ब्राह्मण। ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है।
जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है और जो कथा बाँचता है वह ब्राह्मण नहीं कथा वाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता, वह ब्राह्मण नहीं है।
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥
ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है। कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, वही ब्राह्मण है। 
One does not become a Brahman just by growing long hair, family title-Gotr or by birth. One who is a possessor of truth, Dharm and piousness, righteousness, honesty is Brahman. One who does not not involve in comforts, Lasciviousness, sexuality, passions, sensuality just like the drop of water over lotus leaf or a mustard seed over saw is a Brahman.
तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे।
जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं॥
जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस्त है, कौन स्थावर है और मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, वही  ब्राह्मण है।
One who is aware of the organism in need and always willing to help, is not stationary-fixed at a place i.e., who roams continuously to help others and never harm any one with his mentality-psyche, words or physique, never involve in violence of his own (but repels the attacker) is a Brahmn.
न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥
सिर मुँडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता। ओंकार का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। केवल जंगल में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता। वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी नहीं बन जाता।
One does not become an ascetic by shaving off head, reciting om does not convert one into a Brahmn, stay in a forest-isolation does not qualify one as a hermit-Sadhu, Muni and just by wearing leaves or bark one does not become a Tapasvi-engaged in remembering God.
शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च॥
पौण्ड्रकाशचौण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः भवनाः शकाः।
पारदाः पहल्वाश्चीनाः किरताः दरदाः खशाः॥[मनुसंहिता 1.43-44]
ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पोण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक, पारद, पहल्व, चीनी किरात, दरद व खश ये सभी क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गईं।
उध्र्वं नाभेर्मेध्यतरः पुरुषः परिकीर्तितः। 
तस्मान्मेध्यतमं त्वस्य मुखमुक्तं स्वयंमुवा॥[मनु स्मृति 1.92]
नाभि से ऊपर पुरुष-मनुष्य अत्यन्त पवित्र माना गया है, उससे भी पवित्र (शरीर के सभी अंगों की तुलना में) ब्रह्मा जी ने मुख को ही माना है। 
Brahma Ji considered the upper part of the body of a man-humans, above naval; to be the purest & amongest them the mouth is purest compared to other parts of the body.
उत्तमाङ्गोद्भवज्ज्यैष्ठयाद् ब्राह्मणच्श्रैव धारणात्। 
सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मण: प्रभु:॥[मनु स्मृति 1.93]
उत्तमाङ्ग-मुख से उत्पन्न होने और वेद को धारण करने के कारण इस सम्पूर्ण संसार का स्वामी धर्म से ब्राह्मण ही है। 
Brahmn is the master-owner of the universe since he has evolved from the mouth and bears the Veds in accordance with the Dharm-religion.
तं हि स्वयंभू: स्वादास्यात्तप्त्वावादितो सृजत्। 
हव्यकव्याभिवाह्याय सर्वस्यास्य च गुप्तये॥[मनु स्मृति 1.94]
ब्रह्मा जी ने तपस्या करके सबसे पहले देवता और पितरों को हव्य-कव्य पहुँचाने के लिये और सम्पूर्ण संसार की रक्षा करने के हेतु अपने मुख से ब्राह्मण को उत्पन्न किया। 
Brahma Ji resorted to asceticism, austerities-Tapasya & created the Brahmns first, so that the offerings-food reach the demigods & the Manes; for the sake of the protection of the universe.
यस्यास्येन सदाश्नन्ति  हव्यानि त्रिदिवौकसः। 
कव्यानि चैव पितर: किं भूतमधिकं ततः॥[मनु स्मृति 1.95] 
जिस ब्राह्मण के मुख से देवगण हव्य और पितृगण कव्य कहते हैं उससे कौन प्राणी श्रेष्ठ हो सकता है। 
What can be superior to the mouth of the Brahmn through which the demigods receive their food, offerings (sacrificial viands, खाद्य-पदार्थ) in the sacrificial fire and the manes gets the fairings (उपहार)!?
भूतानां प्राणिन: श्रेष्ठा: प्राणिनां बुद्धजीविनः। 
बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा: नरेषु ब्राह्मणा: स्मृता:॥[मनु स्मृति 1.96]
भूतों (स्थावर, जङ्गम रूप पदार्थों) में (कीटादि) श्रेष्ठ हैं, प्राणियों में बुद्धि से व्यवहार करने वाल पशु श्रेष्ठ हैं, बुद्धि रखने वाले जीवों में मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मनुष्यों में ब्राह्मण (यज्ञ-यागादि कर्मों से श्रेष्ठ होते हैं)।  
Out of the whole immovable creations the insects are superior, among the organisms, animals, creations-living being which have intelligence; humans are superior and the Brahmans are superior amongest all the humans, since they perform sacrifices in fire-Hawan, Agnihotr, ascetic practices. 
A Brahmn is supposed to perform rites, rituals, prayers, Pooja-Path, ascetic practices, fasts, worshipping the God, purity, piousity, cleanliness, Tapasya, austerities, honesty etc, which is really very difficult for a human being these days. So, the Brahmns of today are for the name sake only. There are people who use Sharma as suffix but do every thing wicked, vice-vicious, sinful.      
ब्राह्मणेषुन् च विद्वान्सो विद्वत्सु कृतबुद्धय:। 
कृतबुद्धिषु कर्तार: कर्तृषु  ब्रह्मवेदिन:॥[मनु स्मृति 1.97]
ब्राह्मणों में विद्वान्, विद्वानों में कृत बुद्धि (शात्रोक्त अनुष्ठानों में उत्पन्न कर्तव्य बुद्धि वाले) इनसे कर्म करने वाले और इनसे ब्रह्मज्ञानी श्रेष्ठ हैं। 
Brahmns too are categorised in order of their performances-excellence. Amongest the Brahmns by birth, the enlightened is superior, to him one who perform according to the scriptures-Veds is superior, then the one who perform, does work-is active and is earning his livelihood and then the uppermost strata is occupied by the one who has realised the Brahm. 
One who claims himself to be a Brahman, since he is born in a Brahman family is mistaken. He has to learn Veds, scriptures and the various combinations of arts and sciences listed in groups of 64, is essential and only then he is called a Dwij-born twice. One who eats meat, use narcotics, consume wine, has illicit relations with other women, tells lies or is a criminal can not claim to be a Brahman.
Learning is incomplete unless-until its grasped-understood, applied in life. Rote memory-cramming was never advocated. Utilisation of memory, wisdom & prudence was essential, which made the Brahm occupy the apex in hierarchy.
उतपत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शास्वती। 
स हि धर्मार्थ मुतपन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥[मनु स्मृति 1.98]
ब्राह्मण की उत्पत्ति धर्म की शास्वत मूर्ति है। ब्राह्मण धर्म के ही लिये उत्पन्न होता है। इसलिये यह मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ होता है। 
The Brahmn is the eternal creation of Dharm-religion, duty and is created by Brahma Ji to perpetuate religiosity in the humans-populations. He is capable of achieving Salvation, Liberation-Assimilation in the Almighty.
Salvation is not solely meant for the Brahmns. Any one who is pure-uncontaminated can achieve it, just by following the tenants set for him by the creator-Brahma Ji. The Shudr is specifically to be mentioned; since its easiest job for him. Just by serving the masters, he is granted Salvation.
ब्राह्मणों जायमानो हि पृथिव्यामधिजायते। 
ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये॥मनु स्मृति 1.99॥
इस पृथ्वी पर ब्राह्मण ही सबसे श्रेष्ठ और उन्नत होता है, वह सभी प्राणियों के धर्मकोश की  रक्षा करने में समर्थ होता है। 
In this universe only the Brahmn is ultimate (excellent and developed) in various living beings-organisms and is devised to protect the Dharm of all other organisms including the humans.
सर्वं स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किञ्चिज्जगतीगतम्।
श्रेष्ठ्येनाभिजनेनेदं सर्वं वै ब्राह्मणोंऽर्हति॥मनु स्मृति 1.100॥
इस संसार में जो कुछ है वह सब धर्म ब्राह्मणों का है क्योंकि सबसे श्रेष्ठ उत्पत्ति होने के कारण वह ब्राह्मण ही इसका अधिकारी है। 
Everything in this universe belongs to the Brahmns, since they are the ultimate & are entitled for this status.
स्वमेव ब्राह्मणों भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च। 
आनृशंस्याद् ब्राह्मणस्य भुञ्जते हीतरे जना:॥मनु स्मृति 1.101॥
ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है और अपना ही दान देता है (अर्थात दूसरे का अन्न, वस्त्रादि सब ब्राह्मण का ही होता है)। ब्राह्मण ही की कृपा से अन्य लोग पदार्थों को भोगते हैं। 
The Brahmn enjoys his own food, wears his own dresses and donates his own wealth, since everything possessed by others belongs to him. Its the Brahmn who's generosity-benevolence  let's enjoy others.
The scriptures says that the earth belongs to Shukrachary-the Guru of demons & a Brahman. Bhagwan Parshu Ram Ji annihilated the earth of the Kshatriys 21 times and handed over it to the Brahmans who repeatedly handed over it the Kshatriys. Thus the ruler is just a lessee, not the master. Bhagwan Brahma created the universe and so he is the master making the Brahmns the master of the earth, none other person except them.
तस्य कर्म विवेकार्थं शेषाणामनु पूर्वशः। 
स्वायंभुवो मनुर्धीमानिदं शास्त्रमकल्पयत्॥
उसके (ब्राह्मण) और अन्य वर्णों के कर्मों के जानने के लिये ही बुद्धिमान् स्वायंभुव मनु ने इस शास्त्र की रचना की।[मनु स्मृति 1.102] 
Swayambhuv Manu (He who evolved himself without parents) created this treatise to describe the duties of the other  (Four major castes, divisions of humans beings based on genetic structure-material i.e., genes & chromosomes).
विदुषा ब्रह्मणेनेदमध्येतव्यं प्रयत्नतः। 
शिष्येभ्यश्च देहजैर्नित्यं कर्मदोषैर्न लिप्यते॥मनु स्मृति 1.103॥
विद्वान् ब्राह्मण इस शास्त्र को अच्छी तरह पढ़ें और यत्न पूर्वक शिष्यों को भी पढावें तथा किसी अन्य को न पढावें। 
The learned-enlightened prudent Brahmn, who has thoroughly grasped, understood, this treatise should teach this to his disciples-students with deep interest, carefully explaining their queries-doubts (प्रश्नों, सवाल, शंका, संदेह) and deter from teaching this to any one else i.e., those who do not deserve.
This treatise is very-very intricate and requires genius person to understand. This is explaining the social structure, culture, scientific principles and various aspects of life.
इदं शास्रमधीयानो ब्राह्मणः शंसितव्रतः। 
मनोवाग् देहजैर्नित्यं कर्मदोषैर्न लिप्यते॥मनु स्मृति 1.104॥
इस शास्त्र के अध्ययन करने वाला और इसके अनुसार अनुष्ठान करने वाला ब्राह्मण मन, वचन, आत्मा और शरीर से होने वाले कर्मों के दोषों से रहित होता हैं। 
The Brahman who studies-grasps & acts in accordance with the principles-tenets of this treatise becomes free from defects, sins & troubles of body, mind, soul and speech. 
Mere reading is useless. Meditation after studying it, is essential. Then one should prepare himself to face the rigours associated with it & only then he should continue with it. Learning involves understanding and proper application.
नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्रं हि तत्स्मृतम्। 
ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यमनध्यायवषट्कृतम्॥मनु स्मृति 2.106॥
नित्य कर्म में अनध्याय नहीं होते, क्योंकि उसे ब्रह्मयज्ञ-नित्य कर्म कहते हैं। ब्रह्म यज्ञ में वेदाध्याय ही आहुति है और अनध्याय में भी होने वाला वेदघोष (वषट्कार) पुण्य है। 
Daily routine is not prohibited during Andhyay (forbidden days), since it is called Brahm Yagy. Self study of Veds serves as the sacrifice-oblation and the auspicious sounds pronounced during this is called Brahm Ghosh. Brahm Yagy has the power of rewarding auspiciousness-purity.
यः स्वाध्यायमधीतेSब्दं विधिना नियतः शुचि:। 
तस्य नित्यं क्षरत्येषु पयो दधि घृतं मधु॥मनु स्मृति 2.107॥
जो स्थिर चित्त से पवित्र होकर विधि पूर्वक एक वर्ष तक वेदाध्याय करता है, उसको नित्य ही दूध, दही, घी और मधु पूर्वोक्त अनध्याय से प्राप्त होता है,  जिससे वह देवता और पित्तरों को तृप्त करता है। 
One who study  the Veds with deep concentration, after becoming pure (daily routine of bathing etc.) with pure heart, gets milk, curd, clarified butter and honey-goods essential to make body strong and healthy, for one year, even during the forbidden days, which he can utilise to satisfy the diseased ancestors-Manes.
One should read, understand and follow the gist of the Veds in real life to get emancipation (उद्धार, मोक्ष, दास्य-बन्धन मुक्ति, absoluteness, absolution, salvation, freedom, deliverance).
अनध्याय, (Andhyay) :: Forbidden days-period.
अग्नीन्धनं भैक्षचर्यामधःशय्यां गुरोर्हितम्। 
आसमावर्तनात् कुर्यात् कृतोपनयनो द्विजः॥मनु स्मृति 2.108॥
उपवीत द्विज को समिधाओं से हवन, भिक्षा माँगना, पृथ्वी पर सोना, गुरु की सेवा (वेदाध्ययन) पर्यन्त करना चाहिये। 
The Brahman celibate-Brahmchari, who has been initiated into education should perform Hawan with the various kinds of dry wood collected from the jungle, beg alms, sleep over the ground and perform services of the educator-Guru, till he lives in the Ashram to complete learning of various arts & sciences desired by him, described in the Veds at length.
नारुंतुद: स्यादार्तोSपि न परद्रोहकर्मधी:। 
यस्यास्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत्॥मनु स्मृति 2.161॥
स्वयं दुःखी होते हुये भी किसी का जी न दुखाए, पर द्रोह (दूसरे से शत्रुता) का भाव भी न रखे और ऐसे वचन भी न बोले जो किसी को कष्ट कारक हों ताकि वह परलोक में कष्ट न पाए। 
One should not humiliate-torture, develop enmity and speak harsh words which may cause resentment, displeasure, pain to others; to avoid suffering in the next abodes, even though suffering, undergoing pain, torturing himself.
सन्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव। 
अमृतस्येव चाकाङ्क्षेद्वमानस्य सर्वदा॥मनु स्मृति 2.162॥
ब्राह्मण विष की तरह हमेशा सम्मान से निरपेक्ष रहे और हमेशा अमृत के समान अपमान की इच्छा रखे।
A Brahman should always be neutral to reverence, felicitation, regard, honour or scorn, insult i.e., he should not expect others to grace him and should always tolerate the bad behaviour by others, since the disgraceful behaviour will prove to be elixir, nectar for him making him absolute.
जिसने अपमान सह लिया-विष पी लिया वह शिव हो गया। 
सुखं ह्यवमत: शेते सुखं च प्रतिबुध्यते। 
सुखं चरति लोकेSस्मिन्नवमन्ता विनश्यति॥[मनु स्मृति 2.163] 
अपमानित पुरुष सुख से सोता और जागता है तथा सुख से ही संसार में विचरता किन्तु किसी भी बेकसूर का अपमान करने वाला नष्ट हो जाता है। 
One who has been scorned-insulted sleeps & rises with comfort-ease; while the person who has insulted perishes.
अनेन कर्मयोगेन संस्कृतात्मा द्विज: शनै:। 
गुरौ वसन्सञ्चिनुयाद ब्रह्माधिगमिकं तप:॥[मनु स्मृति 2.164]
इस प्रकार से संस्कृत होकर द्विज-ब्राह्मण गुरु के साथ रहकर वेद ज्ञान की प्राप्ति के तप को धीरे-धीरे सञ्चय करे। 
Having acquired virtues-austerities the upper caste-Brahmn should acquire the gist of the Veds and accumulate the asceticism gradually.
तपो विशेषैर्विविधैर्व्रतैश्र्च विधिचोदितै। 
वेद: कृत्स्नोSधिगन्तव्य: सरहस्यो द्विजन्मना॥[मनु स्मृति 2.165]
अनेक प्रकार के विशेष तप और अनेक प्रकार के विधिवत व्रतों के अनुष्ठानादि से  द्विजों को उपनिषद् के सहित सम्पूर्ण वेद का अध्ययन करना चाहिये। 
The Dwij should acquire the complete knowledge of Veds along with Upnishads aided by organisation of various kinds of asceticism-i.e., Pranayam, Yog, fasts, Pilgrimage.
गोरक्षकान्वाणिजिकांस्तथा कारुकुशीलवान्। 
प्रेष्यान्वार्धुषिकांश्चैव विप्रान् शूद्रवदाचरेत्॥
व्यापार की इच्छा से गौ पलने वाले, वाणिज्य-व्यापार करने वाले, बाँस की टोकरी आदि बनाकर बेचने वाले, नाचने-गाने वाले, सेवा वृत्ति वाले और सूद पर पैसे से जीने वाले ब्राह्मणों की गवाही लेते समय न्यायकर्ता इनके साथ शूद्र जैसा बर्ताव-व्यवहार  करे।[मनु स्मृति 8.102] 
One who is Brahman by birth but resort to other professions like cow breeding-rearing for the sake of business-trade (buying-selling), trading, making bamboo baskets and selling them (dealing in bamboo trade in any form), dancing & singing, serving others for money; the judge should deals with them just like the Shudr.
This postulate clearly states that no one is a Brahman by birth. He has to undergo various Sanskars-purification, to become a Brahman after getting birth in a Brahman family. Daksh Prajapati and his wife both were evolved out of the toes of Brahma Ji and thus they were not Brahmans. Shudr evolved out of the toes-feet of Brahma Ji, but they were divine creations like Narad Ji as a Divine Brahmn, who evolved from the forehead of Brahma Ji. Daksh Prajapati adopted to the Kshatriy traditions. His daughters were married to various sages and thus entire human race was evolved from Mahrishi Kashyap.
ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ये स्वकर्मण्यवस्थिताः।
ते सम्यगुपजीवेयुः षट् कर्माणि यथाक्रमम्
जो ब्राह्मण अपने कर्म में संलग्न और ब्रह्मनिष्ठ हैं, वे आगे कहे हुए छः कर्मों का भली भाँति अनुष्ठान करें।[मनु स्मृति 10.74] 
Those Brahmns who are devoted to their prescribed and mandatory duties and are absorbed in contemplating Brahm or the oneself (own Spirit) should resort to the six acts which follows.
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माण्यग्रजन्मनः
अध्यापन, अध्ययन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह; ये छः कार्य ब्राह्मणों के हैं।[मनु स्मृति 10.75] 
Teaching, learning-studying, performing Yagy (Hawan, sacrificing in holy fire, Agnihotr) for self & others, giving & accepting donations-charity are the six deeds listed for the Brahmans.
षण्णां तु कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका।
याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच्च प्रतिग्रहः
इन छः कर्मों में तीन काम याजन (यज्ञ कराना), अध्यापन और विशुद्ध दान लेना ब्राह्मणों की जीविका है।[मनु स्मृति 10.76]  
Out of the six deeds, three deeds viz. teaching, performing Yagy for others and accepting donations as fee-Dakshina, earned through pure means by the host, constitute the means of survival, earning, subsistence of the Brahmns.
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
समं पश्यन्नात्मयाजी स्वाराज्यमधिगच्छति
सभी प्राणियों में अपने को और सभी प्राणियों को अपने में देखता हुआ ब्राह्मण (साधक, जातक) अवराज्य-ब्रह्मत्व को पाता है।[मनु स्मृति 12.91]  
One who identifies himself in all other organisms and all other organism in himself attains equanimity and achieves the Brahmatv i.e., assimilation in the God-Almighty.
यथोक्तान्यपि कर्माणि परिहाय द्विजोत्तमः।
आत्मज्ञाने शमे च स्याद्वेदाभ्यासे च यत्नवान्
द्विजोत्तम यथोक्त-शास्त्रोक्त कर्मों को छोड़कर भी आत्मज्ञान, इन्द्रिय निग्रह और वेदाभ्यास में यत्नशील रहे।[मनु स्मृति 12.92]   
The enlightened Brahmn-who excels amongest the community of Brahmns, should continue endeavours in self realisation, controlling senses and practice of Veds, even if he misses the duties prescribed by the scriptures.
एतद्धि जन्मसाफल्यं ब्राह्मणस्य विशेषतः।
प्राप्यैतत्कृतकृत्यो हि द्विजो भवति नान्यथा
विशेषकर ब्राह्मण के जन्म लेने की सफलता इसी में है। इसको पाकर द्विज कृत-कृत्य होता है, अन्यथा नहीं।[मनु स्मृति 12.93]  
The success of birth as a Brahman lies in the fulfilment of obligations prescribed by the scriptures. Sole purpose of reincarnation as a Brahman is achieved, for which one should be grateful to the God.
Birth as a Brahman is the best possible opportunity granted by the God to a human being-soul, to get Salvation.
Please refer to :: HINDU PHILOSOPHY (4.9) हिंदु दर्शन :: अक्षरारम्भ-विद्यारम्भ संस्कारsantoshkipathshala.blogspot.com 
जाति का आधार :: जाति के आधार पर तथाकथित ब्राह्मणों के हजारों प्रकार हैं। उत्तर भारतीय ब्राह्मणों के प्रकार अलग तो दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों के अलग प्रकार। उत्तर भारत में जहाँ सारस्वत, सरयुपा‍रि, गुर्जर गौड़, सनाठ्य, औदिच्य, पराशर आदि ब्राह्मण मिल जाएंगे तो दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के तीन संप्रदाय हैं- स्मर्त संप्रदाय, श्रीवैष्णव संप्रदाय तथा माधव संप्रदाय। इनके हजारों उप संप्रदाय हैं।
भगवान् विष्‍णु के नाभि कमल से ब्रह्मा हुए, ब्रह्मा के ब्रह्मर्षि नामक पुत्र के वंश में पारब्रह्म नामक पुत्र हुआ, उससे कृपाचार्य हुए, कृपाचार्य के दो पुत्र हुए, उनका छोटा पुत्र शक्ति था। शक्ति के 5 पुत्र हुए।
उसमें से प्रथम पुत्र पाराशर से पारीक बना, दूसरे पुत्र सारस्‍वत के सारस्‍वत, तीसरे ग्‍वाला ऋषि से गौड़, चौथे पुत्र गौतम से गुर्जर गौड़, पांचवें पुत्र श्रृंगी से शिखवाल, छठे पुत्र दाधीच से दायमा या दाधीच। सप्तऋषियों की संतानें हैं, ब्राह्मण। 
ब्राह्मण के 8 भेद ::  ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को है चाहे वह किसी भी जाति, प्रांत या संप्रदाय से हो। लेकिन ब्राह्मण बनने के लिए बेहद कठिन नियमों का पालन अनिवार्य है। मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि इनके 8 वर्ग-भरद हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊँचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।
(1). मात्र :: ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं, लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं, उन्हें मात्र कहा गया है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता। बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं, तो वैसे मात्र हैं। उनमें से कुछ तो यह भी नहीं हैं। वे बस शूद्र हैं। वे तरह के तरह के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और रा‍त्रि के क्रियाकांड में लिप्त रहते हैं। वे सभी राक्षस धर्मी हैं।
(2). ब्राह्मण :: ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्यवादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गए हैं। तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि, पुराणिक, वेदसम्मत आचरण करता है, वह ब्राह्मण है।
(3). श्रोत्रिय :: स्मृति अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह श्रोत्रिय कहलाता है।
(4). अनुचान :: कोई भी व्यक्ति वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पाप रहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह अनुचान माना गया है।
(5). भ्रूण :: अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण कहा गया है।
(6). ऋषि कल्प :: जो कोई भी व्यक्ति सभी वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है, उसे ऋषि कल्प कहा जाता है।
(7). ऋषि :: ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं, उस सत्य प्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है।
(8). मुनि :: जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध है, ऐसे ब्राह्मण को मुनि कहते हैं।
किसी वेदपाठी परम्परा में यदि कोई बालक-बालिका जन्म ले तो उसके ब्राह्मणत्व को प्राप्त होने की सम्भावना बढ़ जाती हैं। 
लेकिन इसका इसका ये मतलब नहीं हैं कि ऐसा बालक-बालिका ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हो ही जाए। इसीलिए कहते हैं :-
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्‌ भवेत द्विजः। 
वेद पाठात्‌ भवेत्‌ विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः॥ 
व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है। अतएव वर्ण निर्धारण मनुष्य के गुण और कर्म के आधार पर ही तय होता हैं न कि जन्म या वंश परम्परा से।[निरुक्त शास्त्र के प्रणेता यास्क मुनि, स्कन्द पुराण-नागर खण्ड अध्याय 239  श्लोक 31]
ब्राह्मण :: 
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। 
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥
अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों को वश में करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर, लोक-परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा, वेद आदि में आस्था रखना, ये सब के सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।[श्रीमद्भागवत गीता18.42]   
Equanimity, serenity, self control-restraint, peace loving, tolerance (bearing of pain, difficulty, suffering, inconvenience, hardship, torture, righteous or devout conduct to carry-out religious faith-duties), purity-austerity and cleansing (internal and external), faith in eternity, forgiveness, honesty, uprightness-simplicity of body and mind, wisdom-knowledge of Ved, Puran, Upnishad, Itihas (History) Brahmns are the natural duties-qualities of the Brahmns.
ब्रह्म कर्म, सत्वगुण की प्रधानता, ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण-लक्षण हैं। इनमें उसको परिश्रम नहीं करना पड़ता। 
शम :: मन को जहाँ लगाना हो लग जाये और जहाँ से हटाना हो वहां से हट जाये।
दम :: इन्द्रियों को वश में रखना।
तप :: अपने धर्म का पालन करते हुए जो कष्ट आये, उसे प्रसन्नतापूर्वक सहन करना।
शौच :: मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर, खान-पान, व्यवहार को पवित्र रखना। सदाचार का पालन। क्षान्ति-बिना क्षमा माँगे ही क्षमा करना। आर्जवन-शरीर, मन, वाणी व्यवहार, छल, कपट, छिपाव, दुर्भाव शून्य हों। ज्ञान-वेद, शास्त्र, इतिहास, पुराण का अध्ययन, बोध, कर्तव्य-अकर्तव्य की समझ। विज्ञान-यज्ञ के विधि-विधान, अवसर, अनुष्ठान का उचित-समयानुसार प्रयोग। आस्तिकता-परमात्मा, वेद, शास्त्र, परलोक आदि में आस्था-विश्वास, सच्ची श्रद्धा और उनके अनुसार ही आचरण। 
जो समस्त दोषों से रहित, अद्वितीय, आत्मतत्व से युक्त है, वह ब्राह्मण है। चूँकि आत्मतत्व सत्, चित्त, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है, इसलिए इस ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्य को ही (सच्चा) ब्राह्मण कहा जा सकता है।[वज्रसूचिका उपनिषत्]
ब्राह्मक्षत्रियवैष्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव प्रधान इति वेदवचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम्।तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं ज्ञानं किं कर्म किं धार्मिक इति॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं। इन वर्णों में ब्राह्मण ही प्रधान है, ऐसा वेद वचन है और स्मृति में भी वर्णित है। 
मृगी से श्रृंगी ऋषि की, कुश से कौशिक की, जम्बुक से जाम्बूक की, वाल्मिक से वाल्मीकि की, मल्लाह कन्या (मत्स्यगंधा) से वेदव्यास की, शशक पृष्ठ से गौतम की, उर्वशी से वसिष्ठ की, कुम्भ से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति वर्णित है। इस प्रकार पूर्व में ही कई ऋषि बिना (ब्राह्मण) जाति के ही प्रकांड विद्वान् हुए हैं, इसलिए केवल कोई जाति विशेष भी ब्राह्मण नहीं हो सकती है। 
जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त ना हो; जाति गुण और क्रिया से भी युक्त न हो; षड उर्मियों और षडभावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो; सत्य, ज्ञान, आनंद स्वरुप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला, अशेष कल्पों का आधार रूप, समस्त प्राणियों के अंतस में निवास करने वाला, अन्दर-बाहर आकाशवत संव्याप्त; अखंड आनंद्वान, अप्रमेय, अनुभवगम्य, अप्रत्येक्ष भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला; काम-रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला; शम-दम आदि से संपन्न; मात्सर्य, तृष्णा, आशा, मोह आदि भावों से रहित; दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है; ऐसा श्रुति, स्मृति-पूरण और इतिहास का अभिप्राय है। इस (अभिप्राय) के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता। आत्मा सत्-चित और आनंद स्वरुप तथा अद्वितीय है। इस प्रकार ब्रह्मभाव से संपन्न मनुष्यों को ही ब्राह्मण माना जा सकता है।[उपनिषद]
विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्। 
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥
विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जायें वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, पूज्य नहीं हो सकता।[पतंजलि भाष्य 51.115]
जो जन्म से ब्राह्मण है किन्तु कर्म से ब्राह्मण नहीं है। उसे शूद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो।[महाभारत]
जो निष्कारण (कुछ भी मिले ऐसी आसक्ति का त्याग कर के) वेदों के अध्ययन में व्यस्त हे और वैदिक विचार संरक्षण और संवर्धन हेतु सक्रीय हे वही ब्राह्मण  है; महर्षि याज्ञवल्क्य व पराशर व वशिष्ठ। [ शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल 10, पराशर स्मृति]
शम, दम, करुणा, प्रेम, शील (चरित्रवान), निस्पृही जैसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण है।[श्रीमद भगवतगीता]
ब्राह्मण वही हे जो “पुंस्त्व” से युक्त हे. जो “मुमुक्षु” हे. जिसका मुख्य ध्येय वैदिक विचारों का संवर्धन है। जो सरल है, जो नीतिवान है, वेदों पर प्रेम रखता है, जो तेजस्वी है, ज्ञानी है, जिसका मुख्य व्यवसाय वेदोका अध्ययन और अध्यापन कार्य है, वेदों, उपनिषदों, दर्शन शास्त्रों का संवर्धन करने वाला ही ब्राह्मण है।[जगद्गुरु शंकराचार्य]
कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है। 
(1). ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की। ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है। 
(2). ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे। जुआरी और हीन चरित्र भी थे। परन्तु बाद मेंउन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। [ऐतरेय ब्राह्मण 2.19]
(3). सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे, परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। 
(4). राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।[विष्णु पुराण 4.1.14]
(5). राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया।[विष्णु पुराण 4.1.13]
(6). धृष्ट नाभाग के पुत्र थे, परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया।[विष्णु पुराण 4.2.2]
(7). भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए। 
(8). विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने। 
(9). हारित क्षत्रिय पुत्र से ब्राह्मण हुए।[विष्णु पुराण 4.3.5]
(10). क्षत्रिय कुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया।[विष्णु पुराण 4.8.1]
वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए। इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य इसके उदाहरण हैं।
(11). मातंग चांडाल पुत्र से ब्राह्मण बने। 
(12). ऋषि पुलस्त्य के पौत्र, जन्म से ब्राह्मण रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण राक्षस हुए। 
(13). राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ। 
(14). त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे। 
(15). विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया। विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे, परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया। 
(16). विदुर दासी पुत्र थे, तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया। 
वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हों या ना हों लेकिन ऋषियों को व्याख्या में वह ब्राह्मण नहीं है। 
ब्राह्मण का सम्मान :: ममः नियम में आबद्ध ब्राह्मण-वर्ग अपनी निरंतर उपासना व त्यागवृत्ति, सात्त्विकता एवं उदारता के कारण ईश्वरतत्त्व के सर्वाधिक निकट रहते हैं। धर्मशास्त्र, कर्मकांड के ज्ञाता एवं अधिकारी विद्वान होने के कारण परंपरागत मान्यता अनुसार पूजा-पाठ करने का अधिकार उन्हें ही है।
दैवाधीनं जगत्सर्वं, मंत्राधीनं देवता। 
ते मंत्रा विप्रं जानंति, तस्मात् ब्राह्मणदेवताः॥ 
यह सारा संसार विविध देवों के अधीन है। देवता मंत्रों के अधीन हैं। उन मंत्रों के प्रयोग-उच्चारण व रहस्य को विप्र भली-भांति जानते हैं। इसलिये ब्राह्मण स्वयं देवता तुल्य होते हैं। निरंतर प्रार्थना, धर्मानुष्ठान व धर्मोपदेश कर के ब्राह्मण सर्वाधिक सम्मानित होता है। ब्राह्मण का सम्मान परंपरागत लोक-व्यवहार में सदा सर्वत्र होता आया है।
Please refer to BRAHMAN VANSH ब्राह्मण वंश परम्परा bhartiyshiksha.blogspot.com
ब्राह्मण द्वारा समाज का गठन ::  आज पूरे देश में ढोंगियों, धर्म विरोधियों और ब्राह्मण विरोधी भ्रष्ट लोगों का वर्चस्व है। वो मुसलमान होकर भी सोमनाथ में जनेऊ दिखाकर वोट ले लेते हैं और अज्ञानी लोग उन्हें वोट दे देते हैं। ऐसे लोग जो ब्राह्मण नहीं हैं, धर्म की दुकान मजे में चला रहे हैं और हिन्दुओं को गुमराह कर रहे हैं। कोई ब्राह्मणवाद तो कोई मनुवादी व्यवस्था को गाली देता है, जबकि ब्राह्मणवाद जैसी कोई चीज है ही नहीं। रही मनुवादी व्यवस्था, इसको समझने के लिये बुद्धि और ज्ञान चाहिये जो कि इन अज्ञानियों के पास है ही नहीं। ब्राह्मण द्वारा बनाई गई व्यवस्था में ही :- दलित स्त्री द्वारा बनाये गये चूल्हे पर ही सभी शुभाशुभ कार्य होते हैं। धोबन के द्वारा दिये गये जल से ही कन्या सुहागन रहेगी, ऐसा विधान किया गया है। कुम्हार द्वारा दिये गये मिट्टी के कलश पर ही देवताओं का पूजन होता है। मुसहर के बनाए गये पत्तल, दोनों से देवताओं का पूजन सम्पन्न होता है। कहार के द्वारा दिये गये जल से देवताओं का पूजन होता है। बिश्वकर्मा-बढ़ई के द्वारा बनाये गये आसन-चौकी पर ही बैठकर वर-वधू देवताओं का पूजन करते हैं। जो हिन्दु भय या अज्ञान वश मुसलमान बन गये थे, उनके द्वारा सिले हुये वस्त्रों (जामे-जोड़े) को ही पहनकर, विवाह सम्पन्न होता है। हिन्दु से मुस्लिम बनीं औरतों के द्वारा पहनाई गयी चूडियाँ ही, वधू को सौभाग्यवती बनाती हैं। धारीकार के द्वारा बने डाल और मौरी को दुल्हे-दुल्हन के सर पर रख कर द्वार चार कराया जाता है। उसके द्वारा बनाये गये उपहारों के बिना देवताओं का आशीर्वाद नहीं मिलता। डोम, जो गंदगी साफ और मैला ढोने का काम किया करते थे, मरणोंपरांत उनके द्वारा ही प्रथम मुखाग्नि दी जाती है। 
इस तरह समाज के सभी वर्ग जब आते थे तो घर की महिलायें मंगल गीत का गायन करते हुये, उनका स्वागत करती हैं और पुरस्कार सहित दक्षिणा देकर बिदा करती हैं। समाज के हर वर्ग की उपस्थिति हो जाने के बाद ब्राह्मण नाई से पूछता था कि क्या सभी वर्गो की उपस्थिति हो गयी है, तो नाई के हाँ कहने के बाद ही ब्राह्मण मंगल-पाठ प्रारम्भ करते हैं।
BRAHMANS TODAY वर्तमान में ब्राह्मण :: 
यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्मयो मृगः। 
यश्र्च विप्रोSनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति॥
जैसे लकड़ी का बना हाथी और खाल मढ़कर बनाया गया हिरण नकली-केवल नाम के होते हैं, उसी प्रकार अनपढ़ ब्राह्मण केवल नाम का होता है असल में नहीं।[मनु स्मृति 2.157]
An illiterate-ignorant Brahmn is just like the toy elephant made of wood or the deer made out of  skin-leather filled with straw, for the name sake.
यथा षण्ढोSफलः स्त्रीषु यथा गौर्गवि चाफला। 
यथा चाज्ञेSफलं दानं तथा विप्रोSनृचोSफलः॥
जैसे स्त्रियों में नपुंसक निष्फल होता है, जैसे गौवों में गौ निष्फल होती है, जैसे मूर्ख को दिया दान निष्फल होता है, वैसे ही वेद की ऋचाओं को न जानने वाल ब्राह्मण निष्फल होता है।[मनु स्मृति 2.158] 
A Brahmn who lacks the knowledge-wisdom of Veds is useless, un-prolific like an eunuch with women, cow amongest the cows and the charity-favour done to an idiot.
PROLIFIC :: उर्वर, उपजाऊ, फलदार, फलवान, बहुत से बच्चे जननेवाला, अनुकूल, विशाल, परिमाण में रचना करनेवाला, बहुफल दायक; fertile, genial, rich, fat, fruitful, productive,  seminal, suited, favourable, compatible, congruent, congenial.
Most difficult thing to do is studies. Even more difficult is the study of scriptures. To understand and apply the scriptures in life is the toughest job to do. This is what a Brahmn is supposed to do! It's very-very difficult, rather impossible to follow-observe the self imposed restrictions, prohibitions, dictates in the life of a Brahmn. It's clearly the reason behind the evolution of the other tree Varn, caste, creed in Hindu religion-society.
One is free to become a Brahmn just by following the long-long list of do's and don'ts. No one there to obstruct you from becoming a Brahmn.
Daksh Prajapati, who was born out of the right foot-toe of Brahma Ji, may be treated as a Shudr (born out of the feet of Brahma Ji). If Daksh was a Shudr born out of the foot toe of Brahma Ji, then what is Maa Parwati or Bhagwan Shiv! 
His 13 daughters, who were married to Kashyap-a Brahmn,  followed the dictates of Shashtr; gave birth to all life forms of life on earth.
Sanctity, righteousness, asceticism, virtuousness, religiosity, truthfulness, purity, piousity, poverty, donations, charity, kindness, fasting, contentedness, satisfaction, teaching and learning (Purans, Veds, Epics, Shashtr), harmony (peace, soft spoken, decent behaviour, tolerance), highly developed (fertile, creative brain), excellent memory (power to retention, grasp), not to envy, anger, greedy, perturbed, tease are synonyms to a Brahmn. 
Today's Brahmans are Brahmans only for the name sake. They are just the carriers of the genes, chromosomes, DNA of their ancestors (Rishis, fore fathers). They are changing with the changing times and do not hesitate-mind, adopting any profession, trade, business, job for the sake of earning money for subsistence-survival, in the ever increasing race of fierce competition-in a world, which is narrowing down-shrinking, day by day, in an atmosphere of scientific advancement, discoveries, innovations, researches. However, which ever is the field, they work-choose, they assert their excellence-highly developed mental calibre (capabilities, capacities) and move ahead of others, facing-tiding over, all turbulence, difficulties, resistances. 
You will find Hippocrates all around. They go the Brahman for treatment, do not pay, go for tuitions do not want to pay, want to know future for free. Ask Brahmn to perform Pooja Path for free! How will he survive! You do not give job to his son even when he gets 80% to 90% but oblige a scheduled caste who secure just 24-32% marks! You allow a Mallechche family to rule India for 60 years just because it calls it self a Brahmn-Pandit and curse a Brahmn for all your troubles!
ब्राह्मण जनसँख्या :: (1). जम्मू कश्मीर :: 2 लाख + 4 लाख विस्थापित, (2). पंजाब :: 9 लाख, (3). हरियाणा :: 14 लाख, (4). राजस्थान :: 78 लाख, (5). गुजरात :: 60 लाख,  (6). महाराष्ट्र :: 45 लाख,  (7). गोवा :: 5 लाख,  (8). कर्णाटक :: 45 लाख,  (9). केरल :: 12 लाख,  (10). तमिलनाडु :: 36 लाख,  (11). आँध्रप्रदेश :: 24 लाख,  (12). छत्तीसगढ़ :: 24 लाख,  (13). उड़ीसा :: 37 लाख,  (14). झारखण्ड :: 12 लाख,  (15). बिहार :: 90 लाख,  (16). पश्चिम बंगाल :: 18 लाख,  (17). मध्य प्रदेश :: 42 लाख,  (18). उत्तर प्रदेश :: 2 करोड़,  (19). उत्तराखंड :: 20 लाख, (20). हिमाचल :: 45 लाख,  (21). सिक्किम : 1 लाख,  (22). आसाम :: 10 लाख,  (23). मिजोरम :: 1.5 लाख,  (24). अरुणाचल :: 1 लाख,  (25). नागालैंड :: 2 लाख,  (26). मणिपुर :: 7 लाख,  (27). मेघालय : 9 लाख,
(28). त्रिपुरा : 2 लाख। 
सबसे ज्यादा ब्राह्मण वाला राज्य :: उत्तर प्रदेश,
सबसे कम ब्राह्मण वाला राज्य :: सिक्किम,
सबसे ज्यादा ब्राह्मण राजनैतिक वर्चस्व :: पश्चिम बंगाल,
सबसे ज्यादा ब्राह्मण वाला राज्य :: उत्तराखंड में जनसँख्या के 20%,
अत्यधिक साक्षर ब्राह्मण राज्य :: केरल और हिमाचल,
सबसे ज्यादा अच्छी आर्थिक स्तिथि में ब्राह्मण :: आसाम,
सबसे ज्यादा ब्राह्मण पूर्व मुख्यमंत्री वाला राज्य :: राजस्थान,
सबसे ज्यादा ब्राह्मण विधायक वाला राज्य :: उत्तर प्रदेश,
लोकसभा में ब्राह्मण :: 48%, राज्यसभा में ब्राह्मण :: 36%, ब्राह्मण राज्यपाल :: 50%, ब्राह्मण कैबिनेट सचिव :: 33%, मंत्री सचिव में ब्राह्मण :: 54%, अतिरिक्त सचिव ब्राह्मण :: 62%, भारत में पर्सनल सचिव ब्राह्मण :- 70% यूनिवर्सिटी में ब्राह्मण वाईस चांसलर :: 51%, सुप्रीम कोर्ट में ब्राह्मण जज :: 56%, हाईकोर्ट में ब्राह्मण जज :: 40%, भारतीय राजदूत ब्राह्मण :: 41%, सार्वजनिक क्षेत्र में ब्राह्मण :: केंद्रीय स्तर :- 57%, राज्य स्तर :- 82%, बैंक में ब्राह्मण :: 57%, हवाई परिवहन में ब्राह्मण :: 61%, भारतीय प्रशासनिक सेवा में ब्राह्मण :: 72%, भारतीय पुलिस सेवा में ब्राह्मण :: 61%, दूरदर्शन कलाकार एवं फिल्म जगत :: 83%, केंद्रीय अन्वेक्षण ब्यूरो में ब्राह्मण :: 72%। 
ये पद ब्राह्मणों ने अपनी मेहनत, लगन, ईमानदारी से प्राप्त किये हैं; किसी के द्वारा दान, भीख, बख्शीश, खैरात या आरक्षण से प्राप्त नहीं किये हैं। 
ये आँकड़े अन्तिम या प्रामाणिक नहीं हैं और बढ़ा-चढ़ा कर दिखाए-प्रस्तुत किये गये हैं। इनको कहीं भी साक्ष्य के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। 
These figures appear to be grossly exaggerated-unreliable and can not be quoted as proof or reference. Still the effort is commendable.
कलियुग-वर्तमान में ब्राह्मणों की दुर्दशा :: ब्राह्मण भारत की सबसे गरीब-दरिद्र जाति है, जिसको पिछले 72 सालों  से सार्वजनिक तौर पर एक संपन्न, समृद्ध वर्ग के रूप में बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता रहा है। मगर असलियत इससे कोसों दूर है। 
दिल्ली में 50 सुलभ सार्वजनिक शौचालय (यह सार्वजनिक संस्था एक ब्राह्मण द्वारा शुरू की गई थी) हैं, उन सभी को साफ और स्वच्छ ब्राह्मणों के द्वारा किया जाता है। प्रत्येक सुलभ सार्वजनिक शौचालय में 5-6 ब्राह्मण काम कर रहे हैं, जो कि आठ से दस साल पहले आय के स्रोत की तलाश में दिल्ली आए थे। अपने गाँवों में वे एक अल्पसंख्यक के रूप में रहते थे। दलितों का एक समूह जो उत्तर प्रदेश और बिहार में है, ब्राह्मणों को नौकरियों दिलवाने में मदद करता है।
दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर कुली के रूप में अधिकाँश ब्राह्मण काम कर करते हैं? उनमें से एक कृपा शंकर शर्मा बताते है कि उसकी बेटी विज्ञान से स्नातक कर रही है और उसको कोई नौकरी मिल पायेगी या नहीं पता नहीं?
दिल्ली में अक्सर ब्राह्मण रिक्शा चलाते मिल जाते हैं। पटेल नगर में 50 फीसदी ब्राह्मण रोजगार के अवसरों की कमी के कारण और उनके गाँवों में कम शिक्षा के कारण शहर में रिक्शा चलाने को मजबूर है।
बनारस में रिक्शा चलाने बाले अधिकतर ब्राह्मण हैं।  
इस नौकरशाही और राजनीति में भी यही हाल है। तमिल वर्ग के बौद्धिक ब्राह्मण अधिकांश ब्राह्मण तमिलनाडु के बाहर पलायन कर चुके है। उत्तर प्रदेश और बिहार विधानसभा में संयुक्त रूप से 600 में से केवल 5 सीटें ब्राह्मणों (2,006) के पास बची थीं, बाकि सब यादवों -अहीरों हाथों में हैं।
कश्मीर घाटी के 4,00,000 ब्राह्मण (सम्मानीय कश्मीरी पण्डित) भयावह स्थिति में जम्मू और दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में अपने ही देश में शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं। उनके नगण्य वोट बैंक के कारण, किसी को इनकी चिंता नहीं है।
आंध्र प्रदेश 75 फीसदी ब्राह्मण घरेलू नौकर और रसोइयों का काम करते है।उनके बीच बेरोजगारी की दर 75 प्रतिशत के से अधिक है। ब्राह्मणों के सत्तर प्रतिशत अभी भी उनके वंशानुगत व्यवसाय पर भरोसा कर रहे हैं (दान सांख्यिकी विभाग के अनुसार) विभिन्न मंदिरों में सैकड़ों ब्राह्मण पुजारियों के रूप में प्रति माह केवल रु 500/- रुपए पर जी रहे हैं।आंध्र प्रदेश के ब्राह्मण समुदाय पर एक अध्ययन (Brahmans of India by J Radhakrishna, published by Chugh Publications), में आंध्र जिले में आज सभी पुरोहितों गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं।
इस अध्ययन के अनुसार वास्तव में ब्राह्मण छात्रों की सँख्या में एक भारी गिरावट आई है। ब्राह्मणों की औसत आय गैर ब्राह्मणों की तुलना में कम होने के कारण भारी सँख्या में ब्राह्मण छात्र 5-18 वर्ष आयु वर्ग में पूर्व मैट्रिक स्तर पर 36 फीसदी और प्राथमिक स्तर पर 44 फीसदी ब्राह्मण छात्र शिक्षा को छोड़ चुके है।
एक अध्ययन से यह भी पता चला हे कि 55 प्रतिशत ब्राह्मण 650 रुपये प्रति माह की एक प्रति व्यक्ति आय की गरीबी रेखा से नीचे रहते है। भारत की कुल आबादी का 45 फीसदी हिस्सा सरकारी आँकणों के अनुसार गरीबी रेखा के नीचे है और बेसहारा ब्राह्मणों का प्रतिशत अखिल भारतीय आँकड़ा से भी 10 फीसदी नीचे है।
देश के अन्य भागों में भी ब्राह्मणों की हालत अच्छी नहीं है।
कर्नाटक के वित्त मंत्री ने राज्य विधानसभा (2,006) में खुलासा किया था कि प्रदेश के विभिन्न समुदायों के प्रति व्यक्ति आय :- 
ईसाई रु. 1562/-, वोकलीगस रु. 914/-, मुसलमान रु.794/-, अनुसूचित जाति रु.680/-, अनुसूचित जनजाति रु. 577/- और ब्राह्मण रु. 537/- है।
भारत सरकार मस्जिदों में इमामों के वेतन के लिए 1,000 करोड़ रुपये (10 अरब डॉलर) और 200 करोड़ रुपये (2 अरब डॉलर) हज सब्सिडी के रूप में देती है। लेकिन ऐसी कोई मदद ब्राह्मण और ऊंची जातियों के लिए उपलब्ध नहीं है। नतीजतन, ब्राह्मणों, और अन्य ऊँ ची जातियों का मध्यम वर्ग, अत्यंत कष्ट में जीवन यापन कर रहा है।
Please refer to :: मानव अधिकार-हिंदू) http://www.hinduhumanrights.info/brahmins-one-of-the-poorest-and-maligned-castes-in-india/
ब्राह्मण संस्कार :: संस्कार का अभिप्राय उन धार्मिक कृत्यों से है, जो मनुष्य में अपने समुदाय का उपयोगी सदस्य बनाने के साथ-साथ उसके शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्रविकसित करके अभीष्ट गुणों को जन्म-विकास करते हैं। मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार संस्कारों से द्विजों के गर्भ और बीज के दोषादि की शुद्धि होती है।
कुमारिल के अनुसार मनुष्य दो प्रकार से समाज के योग्य-उपयुक्त बनता है :: (1). पूर्व जन्म के कर्म के दोषों को दूर करने से और (2). इस जन्म में नए सत् गुणों के विकास से। संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपनी सहज प्रवृतियों का पूर्ण विकास करके अपना और समाज दोनों का कल्याण होता है। संस्कार केवल वर्तमान ही नहीं अपितु अगले जन्मों-पारलौकिक जीवन को भी पवित्र बनाते हैं।
हिन्दु धर्म वैदिक संस्कृति में सोलह संस्कारों का वर्णन है। ऋग्वेद और अथर्ववेद में विवाह, गर्भाधान और अंत्येष्टि से संबंधित धार्मिक कृत्यों का वर्णन है। यजुर्वेद में श्रौत यज्ञों का उल्लेख है। गोपथ और शतपथ ब्राह्मणों में उपनयन, गोदान आदि संस्कारों के साथ अन्य धार्मिक कृत्यों का उल्लेख भी है। तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षा समाप्ति पर आचार्य की दीक्षांत शिक्षा मिलती है। 
गृहसूत्रों में विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जात-कर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्न-प्राशन, चूड़ाकर्म, उपनयन और समावर्तन संस्कारों का वर्णन किया गया है। अंत्येष्टि संस्कार का वर्णन अशुभ समझा जाता है। स्मृतियों के आचार प्रकरणों में संस्कारों का उल्लेख है और तत्संबंधी नियम दिए गए हैं। उपनयन संस्कार के द्वारा व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम और विवाह संस्कार के द्वारा गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है।
वैखानस स्मृति सूत्र में शरीर संबंधी संस्कारों और यज्ञों में स्पष्ट अंतर मिलता है। प्रत्येक संस्कार से पूर्व अग्निहोत्र-यज्ञ-हवन-होम किया जाता है।आहुतियों की संख्या, हव्यपदार्थों और मंत्रों के प्रयोग में अलग-अलग परिवारों में गृहसूत्र के अनुसार  भिन्न हो सकती है।
ब्राह्मण के तीन जन्म :: (1). माता के गर्भ से, (2). यज्ञोपवीत से व (3). यज्ञ की दीक्षा लेने  से। यज्ञोपवीत के समय गायत्री माता व और आचार्य पिता होते हैं। वेद की शिक्षा देने से आचार्य पिता कहलाता है। यज्ञोपवीत के बिना, वह किसी भी वैदिक कार्य का अधिकारी नहीं होता। जब तक वेदारम्भ न हो, वह शूद्र के समान है। जिस ब्राह्मण के 48 संस्कार विधि पूर्वक हुए हों, वही ब्रह्म लोक व ब्रह्मत्व को प्राप्त करता है। इनके बिना  वह शूद्र के समान है। 
गर्वाधन, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्न प्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, चार प्रकार के वेदव्रत, वेदस्नान, विवाह, पञ्च महायज्ञ (जिनसे पितरों, देवताओं, मनुष्यों, भूत और ब्रह्म की तृप्ति होती है), सप्तपाक यज्ञ, संस्था, अष्टकाद्वय, पार्वण, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री, शूलगव, आश्र्वयुजी, सप्तहविर्यज्ञ संस्था, अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्श-पौर्णमास, चातुर्मास्य, निरूढ-पशुबंध, सौत्रामणि, सप्त्सोम-संस्था-अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम। ये चालीस ब्राह्मण के संस्कार हैं। 
ब्राह्मण में 8 आत्म गुण :: 
अनसूया :: दूसरों के गुणों में दोष बुद्धि न रखना, गुणी  के गुणों को न छुपाना, अपने गुणों को प्रकट न करना, दूसरे के दोषों को देखकर प्रसन्न न होना। 
दया :: अपने-पराये, मित्र-शत्रु में अपने समान व्यवहार करना और दूसरों का  दुःख दूर करने की इच्छा रखना। 
क्षमा :: मन, वचन या शरीर से दुःख पहुँचाने वाले पर क्रोध न करना व वैर न करना। 
अनायास :: जिन शुभ कर्मों को करने से शरीर को कष्ट होता हो, उस कर्म को हठात् न करना। 
मंगल :: नित्य अच्छे कर्मों को करना और बुरे कर्मों को न करना। 
अकार्पन्य :: मेहनत, कष्ट व न्यायोपार्जित धन से, उदारता पूर्वक थोडा-बहुत नित्य दान करना।  
शौच :: अभक्ष्य वस्तु का भक्षण न करना, निन्दित पुरुषों का संग न करना और सदाचार में स्थित रहना। 
अस्पृहा :: ईश्वर की कृपा से थोड़ी-बहुत संपत्ति से भी संतुष्ट रहना और दूसरे के धन की, किंचित मात्र भी इच्छा न रखना। 
जिसकी गर्भ-शुद्धि हो, सब संस्कार विधिवत् संपन्न हुए हों और वर्णाश्रम धर्म का पालन करता हो, तो उसे मुक्ति अवश्य प्राप्त होती है।     
BRAHMN-DISCIPLE :: The student-Brahmchari will begin-receiving lessons-instructions only after the sacred thread is granted to him-Janeu (जनेऊ, sacred thread) ceremony. It's essential to accept the sacred knowledge of the Veds. He is asked to wear a chain, rosary, garland, string of beads, skin, stick, cloths, sacred thread, recommended for the purpose of education. He has to follow orders, dictates, sermons, rules-regulations, rituals-practices of his teacher-educator, Guru and remain  as an ascetic, like hermit. He has to become fresh every day by taking bath  and offering tributes to the deities, ancestors, saints. He has to collect flowers, fruits, water,  naturally dried wood, Kush-a grass with sharp edges, cow dung, pure clay, mud, earth and different type of wood for making huts-cottages etc. He should not accept wine, meat, fish, egg, meat products, scents, flower garland-beads, various juices-extracts and reject the company of the women. Violence of any kind, speaking-telling lies, blame (censure, scorn, abuse, defamation, slander, criticism, blasphemy), betting, company of women, sensuality (passions-sexual acts), greed, anger-envy are not allowed-have to be skipped. He has to remain alone-in solitude with control over himself and all of his faculties.
Begging, only as per need with self restraint, control over speech, tongue-utterances, from such families only, who have faith in demigod, Veds, Hawan, Agnihotr, is allowed. In case alums from such families are not available, he may go to the relative of his Guru-own relatives, acquaintances. He should ensure that the alums are not collected from  the same-one family every day, unless-until their is an emergency. Grain collected through begging should constitute  his main food. Dependence over begging for survival is like fasting. One should not beg before- in front of, from the sinners (wretched, wicked) people. Scriptures-Shashtr do not consider this type of collection of alums as begging.
Hawan has to be performed every day by collecting dried wood and sacrifices in the fire are made. 
The disciple should stand before the Guru with folded hands and sit over the ground only when he is asked to sit and that is too without the mat, cushion-seat in high esteem. He should wake up before the Guru and sleep only when the Guru has slept. He should not speak the name of the Guru and never mimic copy him. He should never criticise the teacher and speak slur against him. He should close his ears if some one is criticising him and moves away from that place. He should  always remain away-aloof from the company of such people.
The disciple-student, child should come down-out of the vehicle to pay regards-respect to elders, Guru, high and mighty. He should behave with the relatives of the Guru in a manner, similar to that he practices with the Guru. Wife of the Guru should be treated as the Guru himself, but touching her in any manner is inappropriate-prohibited. Never sit on the same cushion, seat, mat, bed, with sister, mother, daughter and the wife of the Guru, teacher, educator, master, revered, respected person
He should move-come out of the village before dawn and dusk. Morning and evening prayers, offerings, recitations have to be performed near a water source-body, reservoir, river, pond etc. Mother, father, parents-guardians, elders and brothers must be regarded and should not be betrayed during trouble, difficult times-periods.
Regular service of the parents-Guru ensures education, enlightenment, knowledge. He should not follow any other practices-service unless until ordered by them. He has to adhere to his own Dharm.
ब्राह्मण छात्र धर्म :: यज्ञोपवीत संपन्न हो जाने पर वटु (विद्यार्थी) को व्रत का उपदेश ग्रहण करना चाहिये और वेदाध्ययन करना चाहिये। यज्ञोपवीत के समय जो मेखला, चर्म, दंड, वस्त्र, यज्ञोपवीत आदि धारण करने को कहा गया है, उन्हीं को धारण करे। अपनी तपस्या हेतु ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होकर गुरु की सेवा में तत्पर रहे व नियमों का पालन करे। नित्य स्नान करके देवता, पितर और ऋषिओं का तर्पण करे। पुष्प, फल, जल, समिधा, मृतिका, कुश, और अनेक प्रकार के काष्ठों का संग्रह करे। मद्य, माँस, गंध,पुष्प माला, अनेक प्रकार के रस और स्त्रियों का परित्याग करे। प्राणियों की हिंसा, शरीर में उबटन लगाना, अंजन लगाना, जूता व छत्र धारण करना, गीत सुनना, नाच देखना, जुआ खेलना, झूँठ बोलना, निंदा करना, स्त्रियों के समीप बैठना, काम-क्रोध-लोभादि के वशीभूत होना, इत्यादि ब्रह्मचारी के लिए वर्जित हैं; निषिद्ध हैं। उसे संयम पूर्वक एकाकी रहना है। उसे जल, पुष्प, गाय का  गोबर, मृतिका और कुशा का संग्रह करे। 
आवश्कतानुसार भिक्षा नित्य लानी है। भिक्षा माँगते वक्त वाणी पर संयम रखे। जो ग्रहस्थी अपने कर्मों (वर्णाश्रम धर्म) में तत्पर हो, वेदादि का अध्ययन करे, यज्ञादि में श्रद्धावान हो उसके यहाँ से ही भिक्षा ग्रहण करे। इस प्रकार भिक्षा न मिलने पर ही, गुरु के कुल में व अपने बंधु-बांधव, पारिवारिक सदस्य-स्वजनों से भिक्षा प्राप्त करे। कभी भी एक ही परिवार से भिक्षा ग्रहण न करे। भिक्षान्न को मुख्य अन्न माने। भिक्षावृति से रहना, उपवास के बराबर माना गया है। महापातकियों से भिक्षा कभी स्वीकार न करे। इस प्रकार की भिक्षा को शास्त्र में भीख नहीं माना गया है। 
नित्य समिधा लाकर प्रतिदिन सायं काल व प्रात: काल हवन करे। 
ब्रह्मचारी गुरु के समक्ष हाथ जोड़कर खड़ा हो गुरु की आज्ञा से ही बैठे, परन्तु आसन पर नहीं। गुरु के उठने से पूर्व उठे व सोने के बाद सोये, गुरु के समक्ष बड़ी विनम्रता से बैठे, गुरु का नाम न ले, गुरु की नकल न करे। गुरु की निंदा-आलोचना न करे, जहाँ गुरु की निंदा-आलोचना  होती हो वहाँ से उठ जाये अथवा कान बंद कर ले।  गुरु निंदक-आलोचकों से  सदा दूर ही रहे। 
परिवादस्तथा निंदा गुरोर्यत्र प्रवर्तते। 
कर्णों तत्र पिश्चातव्यौ गन्तव्यं वा ततोऽन्यत:॥
वाहन पर चढ़ा हुआ गुरु का अभिवादन न करे अर्थात वाहन से उतरकर प्रणाम करे। गुरु के साथ एक वाहन, शिला, नौकायान आदि पर बैठ सकता है। गुरु के गुरु तथा श्रेष्ठ सम्बन्धीजनों एवं गुरु पुत्र के साथ गुरु के समान ही व्यवहार करे। गुरु की सवर्णा स्त्री को गुरु के समान ही समझे, परंतु गुरु पत्नी के उबटन लगाना, स्नानादि कराना, चरण दबाना आदि क्रियाएँ निषिद्ध हैं। माता, बहन या बेटी के साथ एक आसन पर न बैठे, क्योंकि बलवान इन्द्रियों का समूह विद्वान को भी अपनी ओर खींच लेता हैं। जिस प्रकार भूमि को खोदते-खोदते जल मिल जाता है, उसी प्रकार सेवा-शुश्रषा करते-करते गुरु से विद्या मिल जाती है। मुण्डन कराये हो, जटाधारी हो अथवा शिखी (बड़ी शिखा से युक्त) हो, चाहे जैसा भी ब्रह्मचारी हो उसको गाँव में रहते हुए सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं होना चाहिये अर्थात जल के तट अथवा निर्जन स्थान पर जाकर दोनों संध्याओं में संध्या-वंदन करना चाहिये। जिसके सोते-सोते सूर्योदय अथवा सूर्यास्त हो जाय वह महान पाप का भागी होता है और बिना प्रायश्चित (कृच्छ्रवत) के शुद्ध नही होता।[ब्राम्हपर्व 4.171]
माता, पिता, आचार्य की नित्य सेवा-शुश्रूषा करने से ही विद्या मिल जाती है। इनकी आज्ञा से ही किसी अन्य धर्म का आचरण करे अन्यथा नहीं। माता, पिता भाई और आचार्य का विपत्ति में भी अनादर न करें, सदा आदर करे। आचार्य ब्रह्मा की मूर्ति है, पिता प्रजापति की, माता पृथ्वी की तथा भाई आत्ममूर्ति है। इसलिये इनका सदा आदर करना चाहिये। प्राणियों की उत्पत्ति में तथा पालन-पोषन में माता-पिता को जो क्लेश सहन करना पड़ता है, उस क्लेश का बदला वे सौ वर्षों में भी सेवा करके नही चुका पाते। इसलिए माता-पिता और गुरु की सेवा नित्य करनी चाहिये। इन तीनों के संतुष्ट हो जाने से सब प्रकार के तपों का फल प्राप्त हो जाता है, इनकी शुश्रूषा ही परम तप कहा गया है। इन तीनों की आज्ञा के बिना किसी अन्य धर्म का आचरण नही करना चाहिये। ये ही तीनों लोक है, ये ही तीनों आश्रम हैं, ये ही तीनों वेद है और ये ही तीनों अग्रियाँ हैं। माता गार्हपत्य नामक अग्नि है, पिता दक्षिणाग्नि-स्वरुप है और गुरु आहवनीय अग्नि है। जिस पर ये तीनों प्रसन्न हो जायें, वह तीनों लोकों पर  विजय प्राप्त कर लेता है और दीप्यमान होते हुए देवलोक में देवताओं की भाँति सुख भोग करता हैं।
ब्राह्मण धर्म :: There are wrong notions about Brahmn Dharm due to gross misinterpretation of Purans, Manu Smrati and the Veds. These are the postulates of the prescribed duties for the Brahmn celibate-Brahmchari, only and are not applicable to any one else.
ब्राह्मण जाति को श्राप :: 
(1). नन्दीश्वर का दक्ष यज्ञ में श्राप :: भगवान् रुद्र से विमुख दुष्ट ब्राह्मण वेद के तत्व ज्ञान से शून्य हो जाये, ब्राह्मण सर्वदा भोगों में तन्मय रहें तथा क्रोध, लोभ और मद से युक्त हो निर्लज्ज भिक्षुक बने रहें, दरिद्र रहें। सर्वदा दान लेने में ही लगे रहे, दूषित दान ग्रहण करने के कारण वे सभी नरक-गामी हों, उनमें से कुछ ब्राह्मण ब्रह्म-राक्षस हों। 
(2). माता लक्ष्मी का श्राप :: भृगु ने भगवान् श्री हरी विष्णु के वक्ष स्थल पर लात मारी तो माता लक्ष्मी ने कुपित होकर पूरी ब्राह्मण जाति को श्राप दे दिया कि उनके घर में मेरा (लक्ष्मी का) वास नहीं होगा और वे दरिद्र बनकर इधर उधर भटकते रहेंगे।
(2.1). जो ब्राह्मण सूर्योदय के समय भोजन करता है, दिन में शयन करता है तथा दिन में मैथुन करता है उसके यहाँ लक्ष्मी नहीं रहती। जो ब्राह्मण आचारहीन, त्याज्य का दान ग्रहण करने वाला दीक्षा विहीन तथा मूर्ख है उसके भी घर से लक्ष्मी चली जाती हैं। जो भींगे पैर अथवा नग्न होकर सोता है तथा वाचाल की भांति निरंतर बोलता रहता है, उसके घर से भी साध्वी लक्ष्मी चली जाती हैं। जो व्यक्ति अपने सिर पर तेल लगाकर उसी हाथ से दूसरे के अंग का स्पर्श करता है और अपने किसी अंग को स्पर्श करता है और अपने किसी अंग को बाजे की तरह बजाता है उसके घर से रुष्ट होकर लक्ष्मी चली जाती हैं। जो ब्राह्मण व्रत उपवास नहीं करता, संध्या वंदन नहीं करता, सदा अपवित्र रहता है तथा भगवान् विष्णु की भक्ति से रहित है उसके यहाँ से हरि प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं। जो व्यक्ति ब्राह्मण की निंदा करता है, उससे सदा द्वेष करता है, जीवों की हिंसा करता है प्राणियों के प्रति दयाभाव नहीं रखता, जगत जननी लक्ष्मी उस व्यक्ति के घर से भी दूर चली जाती हैं। 
(3). माता पार्वती का श्राप :: भृगु ज्योतिष शास्त्र की रचना करके माता पार्वती के भवन में अहँकार वश बगैर अनुमति के जा घुसे और कहा कि ब्राह्मण जाति उनके द्वारा रचित ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन करके जीवन यापन कर लेगी। उनकी धृष्टता से कुपित होकर माता पार्वती ने श्राप दिया कि अपनी विद्या पर इतना ज्यादा घमंड करने की वज़ह से  तुम्हारी सारी भविष्यवाणी सच नहीं होंगी। 
महागुरु :: राजा शतानीक ने पूछा :: हे मुने! आपने उपाध्याय आदि के लक्षण बताये, अब महागुरु किसे कहते है ? यह भी बताने की कृपा करें। 
सुमन्तु मुनि बोले :– राजन! जो ब्राह्मण जयोपजीवी हो अर्थात अष्टादशपुराण, रामायण, विष्णुधर्म, शिवधर्म, महाभारत (भगवान् श्रीकृष्ण-द्वैपायन व्यास द्वारा रचित महाभारत जो पंचम वेद के नाम से भी विख्यात है) तथा श्रौत एवं स्मार्त-धर्म (विद्वान् लोग इन सभी को जय नाम से अभिहित करते हैं) का ज्ञाता हो, वह महागुरु कहलाता है। वह सभी वर्णों के लिये पूज्य है। जो शास्त्र द्वारा थोड़ा या बहुत उपकार करे, उसको भी उस उपकार के बदले गुरु मानना चाहिए। अवस्था में चाहे छोटा ही क्यों न हो, पढ़ाने से वह बालक वृद्ध का भी गुरु हो सकता है।  
राजन! इस विषय में एक प्राचीन आख्यान सुनो :– पूर्वकाल में अंगिरा मुनि के पुत्र वृहस्पति बाल्यावस्था से ही बड़े वृद्धों को पढ़ाते थे और पढ़ाने वक्त हे पुत्रो! पढ़ो कहते थे। देवताओं ने कहा :– पितृ गणों! उस बालक ने न्यायोचित बात ही कही हैं, क्योंकि जो अज्ञ हो अर्थात कुछ न जानता हो वही सच्चे अर्थ में बालक है, किंतु जो मंत्र को देने वाला है (वेदों को पढाने वाला है), उपदेशक है, यह युवा आदि होने पर भी गुरु-पिता होता है। अवस्था अधिक होने से, केश श्वेत होने से और बहुत वित्त तथा बन्धु-बाँधवों के होने से कोई बड़ा नही होता, बल्कि इस विषय में ऋषियों ने यह व्यवस्था की है कि जो विद्या में अधिक-विद्वान हो, वही सबसे महान-गुरु है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में क्रमशः ज्ञान, बाल, धन तह जन्म से बड़प्पन होता है। सिर के बाल श्वेत हो जाने से कोई वृद्ध नहीं होता, यदि कोई युवा भी वेदादि शास्त्रों का भली भाँति ज्ञान प्राप्त कर ले तो उसको महान समझना चाहिये।
जैसे काष्ठ से बना हाथी, चमड़े से मढ़ा मृग किसी काम का नहीं, उसी प्रकार वेद से हीन ब्राह्मण का जन्म निष्फल है। मूर्ख को दिया हुआ दान जैसे निष्फल होता है, वैसे ही वेद की ऋचाओं को न जानने वाले ब्राह्मण का जन्म निष्फल होता है। ऐसा ब्राह्मण नाम मात्र का ब्राह्मण होता है। वेदों का स्वयं कथन है कि जो हमें पढ़कर हमारा अनुष्ठान न करे, वह पढने का व्यर्थ क्लेश उठाता है, इसलिए वेद पढ़कर वेद में कहे हुए कर्मों का जो अनुष्ठान करता है अर्थात तदनुकूल आचरण करता है, उसी का वेद पढ़ना सफल है। जो वेदादि शास्त्रों को जानकार धर्म का उपदेश करते है, वही उपदेश ठीक है, किंतु जो मूर्ख वेदादि शास्त्रों को जाने बिना धर्म का उपदेश करते है, वे बड़े पाप के भागी होते है। शौच रहित (अपवित्र), वेद से रहित तथा नष्ट व्रत ब्राह्मण को जो अन्न दिया जाता है, वह अन्न रोदन करता है कि मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था जो ऐसे मूर्ख ब्राह्मण के हाथ पड़ा और वही अन्न यदि जयोपजीवी को दिया जाय तो प्रसन्नता से नाच उठता है और कहता है कि मेरा अहोभाग्य है, जो मैं ऐसे पात्र के हाथ आया। विद्या और तप के अभ्यास से सम्पन्न ब्राह्मण के घर में आने पर सभी अन्नादि ओषधियाँ अति प्रसन्न होती है और कहती हैं कि अब हमारी भी सद्गति हो जायगी। व्रत, वेद और जप से हीन ब्राह्मण को दान नहीं देना चाहिये, क्योंकि पत्थर की नाव नदी के पार नहीं उतार सकती। इसलिए श्रोत्रिय को हव्य-कव्य देने से देवता और पितरों की तृप्ति होती है। घर के समीप रहने वाले मूर्ख ब्राह्मण से दूर रहने वाले विद्वान ब्राह्मण को ही बुलाकर दान देना चाहिये। परंतु घर के समीप रहने वाला ब्राह्मण यदि गायत्री भी जानता हो तो उसका परित्याग न करे। परित्याग करने से रौरव नरक की प्राप्ति होती है, क्योंकि ब्राह्मण चाहे निगुर्ण हो या गुणवान, परंतु यदि वह गायत्री जानता है तो वह परमदेव-स्वरुप है। जैसे अन्न से रहित ग्राम, जल से रहित कूप केवल नाम धारक है, वैसे ही विद्याध्ययन से रहित ब्राह्मण भी केवल नाम मात्र का ब्राह्मण है। 
ब्राह्मण को चाहिये कि सम्मान की इच्छा को भयंकर विष के समान समझकर उससे डरता रहे और अपमान को अमृत के सामान स्वीकार करे, क्योंकि जिसकी अवमानना होती है, उसकी कुछ हानि नहीं होती, वह सुख ही रहता है और जो अवमानना करता है, वह विनाश को प्राप्त होता है। इसलिये तपस्या करता हुआ द्विज नित्य वेद का अभ्यास करे, क्योंकि वेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम तप है। 
त्रिपु तुष्टेषु चैतेषु प्रिंल्लोकाश्चयते गृही। 
दीप्यमान: स्ववपुषा देववददिवि मोदते॥
पिता की भक्ति से इहलोक, माता की भक्ति से मध्यलोक और गुरु की सेवा से इंदलोक प्राप्त होता है। जो इन तीनों की सेवा करता है, उसके सभी धर्म सफल हो जाते हैं और जो इनका आदर नहीं करता, उसकी सभी क्रियाएँ निष्फल होती हैं। जब तक ये तीनों जीवित रहते है, तब तक इनकी नित्य सेवा-शुश्रूषा और इनका हित करना चाहिये। इन तीनों की सेवा-शुश्रूषा रूपी धर्म में पुरुष का सम्पूर्ण कर्तव्य पूरा हो जाता है, यही साक्षात धर्म है, अन्य सभी उप धर्म कहे गये है।[ब्राह्म पर्व 4.201] 
उत्तम विद्या अधम पुरुष में हो तो भी उससे ग्रहण कर लेनी चाहिये। इसी प्रकार चाण्डाल से भी मोक्ष धर्म की शिक्षा, नीच कुल से भी उत्तम स्त्री, विष से भी अमृत, बालक से भी सुंदर उपदेशात्मक बात, शत्रु से भी सदाचार और अपवित्र स्थान से भी सुवर्ण ग्रहण कर लेना चाहिये। उत्तम स्त्री, रत्न, विद्या, धर्म, शौच, सुभाषित तथा अनेक प्रकार के शिल्प जहाँ से भी प्राप्त हो, ग्रहण कर लेने चाहिये। गुरु के शरीर-त्यागपर्यंत जो गुरु की सेवा करता है, वह श्रेष्ठ ब्रह्म लोक को प्राप्त करता है। पढने के समय गुरु को कुछ देने की इच्छा न करें, किंतु पढने के अनन्तर गुरु की आज्ञा पाकर भूमि, सुवर्ण, गौ, घोडा, छत्र, उपानह, धान्य, शाक तथा वस्र आदि अपनी शक्ति के अनुसार गुरु-दक्षिणा के रूपमें देने चाहिए। जब गुरु का देहान्त हो जाय, तब गुणवान गुरु पुत्र, गुरु की स्त्री और गुरु के भाइयों के साथ गुरु के समान ही व्यवहार करना चाहिये। इस प्रकार जो अविच्छिन्न-रूपसे ब्रह्मचारी-धर्मका आचरण करता है, वह ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है।  
सुमन्तु मुनि पुन: बोले :– हे राजन! इस प्रकार मैंने ब्रह्मचारी धर्म का वर्णन किया। ब्राह्मण का उपनयन वसन्त में, क्षत्रिय का ग्रीष्म में और वैश्य का शरद ऋतु में प्रशस्त माना गया है।[भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व 4.2]
This is conversation is from Bhavishy Puran. Almost same text is available in Veds & Manu Smrati.
ब्राह्येण विप्रस्तीर्थेन नित्यकालमुपस्पृशेत्। 
कायत्रैदशिकाभ्यां वा न पित्र्येण कदाचन॥
ब्राह्मण को हमेशां ब्राह्मतीर्थ या प्रजापति या देवतीर्थ से आचमन करना चाहिये; किन्तु पितृतीर्थ से कभी आचमन नहीं करना चाहिये।[मनु स्मृति 2.58]
The Brahmn should always conduct oblation with the help of Brahm Tirth or  Prajapati Tirth or Dev Tirth. He should never do it with Pitr Tirth.
Location of ब्राह्मतीर्थ, प्रजापति, देवतीर्थ, पितृतीर्थ on hand :: अंगुष्ठ मूल के नीचे ब्राह्म तीर्थ, कनिष्ठ मूल में प्रजापति तीर्थ, अंगुलियों के आगे के भाग में देवतीर्थ तथा अंगुष्ठ व तर्जनी के मध्य में पितृतीर्थ स्थित माना गया है। 
Most of the sacred rules are meant-made for the Brahmans only and they are supposed to have a pure, virtuous, righteous, pious conduct through out their life. Tirth stands for pilgrimage-auspicious, holy journeys.
ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ये स्वकर्मण्यवस्थिताः।
ते सम्यगुपजीवेयुः षट् कर्माणि यथाक्रमम्
जो ब्राह्मण अपने कर्म में संलग्न और ब्रह्मनिष्ठ हैं, वे आगे कहे हुए छः कर्मों का भली भाँति अनुष्ठान करें।[मनु स्मृति 10.74] 
Those Brahmns who are devoted to their prescribed and mandatory duties and are absorbed in contemplating Brahm or the oneself (own Spirit) should resort to the six acts which follows.
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माण्यग्रजन्मनः
अध्यापन, अध्ययन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह; ये छः कार्य ब्राह्मणों के हैं।[मनु स्मृति 10.75] 
Teaching, learning-studying, performing Yagy (Hawan, sacrificing in holy fire, Agnihotr) for self & others, giving & accepting donations-charity are the six deeds listed for the Brahmans.
यथा जातबलो वह्निर्दहत्यार्द्रानपि द्रुमान्।
तथा दहति वेदज्ञः कर्मजं दोषमात्मनः
जैसे तीव्र अग्नि हरे पेड़ों को भी जला देती है, उसी प्रकार वेदज्ञ अपने किये हुए कर्म के दोषों का भी नाश कर देता है।[मनु स्मृति 12.101]  
Vedagy, Brahman, one who is thoroughly-well versed with the Veds is capable of eliminating the impact of the defects of his deeds-sins just like the strong fire which engulfs & burns the green trees-jungles.
वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसन्।
इहैव लोके तिष्ठन्स ब्रह्मभूयाय कल्पते
वेद शास्त्र के अर्थ के तत्व को जानने वाला चाहे जिस आश्रम में बास करता हो, इस लोक में ही ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है। [मनु स्मृति 12.102] 
One who knows (understand & practice) the gist of the meaning-theme behind a certain verse-Veds is able to attain Brahmatv (Godhood-the title of Bhagwan) in the current birth irrespective of the stage of life (either Brahmchary, Grahasthashram, Vanprasth, Sanyas or Varn i.e., Brahman, Kshatriy, Vaeshy, Shudr) 
अज्ञेभ्योग्रन्थिनः श्रेष्ठा ग्रन्थिभ्यो धारिणो वराः।
धारिभ्यो ज्ञानिनः श्रेष्ठा ज्ञानिभ्यो व्यवसायिनः
मूर्खों से (की तुलना में) ग्रन्थ पढ़ने वाले श्रेष्ठ होते हैं। ग्रन्थ पढ़ने वालों से धारण करने वाले श्रेष्ठ, धारण करने वालों से ज्ञानी श्रेष्ठ और ज्ञानियों से भी निष्काम कर्म करने वाला श्रेष्ठ होता है।[मनु स्मृति 12.103]  
One who studies the Veds (scriptures, history, Puran, Upnishad, Ramayan, Mahabharat) is superior-distinguished to the fools (ignorant, idiots, stupid, imprudent, mindless or the one who fails to apply his brain), one who studies the scriptures and act accordingly, is superior to the one who has just read them without going into depth, the enlightened is superior to the one who grasped the gist of Veds and the one who perform the deeds without any motive after grasping the Veds, analysing them.
तपो विद्या च विप्रस्य निःश्रेयसकरं परम्।
तपसा किल्बिषं हन्ति विद्ययाऽमृतमश्नुते
तप और विद्या ब्राह्मण के लिये परम् कल्याणकारी है। तप सदा पाप का नाश करता है और विद्या मुक्ति दिलाती है। [मनु स्मृति 12.104] 
Ascetics &  learning of scriptures are meant for the ultimate benefit-welfare of the Brahmn. Ascetics removes all sins and learning grants Salvation, detachment from the world, reincarnations.
The Brahmn can easily achieve Supreme Bliss by resorting to austerities and learning of Veds.
प्रत्यक्षं चानुमानं च शास्त्रं च विविधागमम्।
त्रयं सुविदितं कार्यं धर्मशुद्धिमभीप्सता
धर्म शुद्धि की इच्छा रखने वाले को प्रत्यक्ष, अनुमान और अनेक प्रकार के आगम शास्त्र (सगुण ईश्वर की उपासना की व्याख्यान करने वाले शास्त्र); इन तीनों का अच्छी तरह ज्ञान कर लेना चहिये।[मनु स्मृति 12.105] 
The Brahmn who wish to purify-cleanse himself (Dharm Shuddhi-absolute purity) should be well versed with visible, guess and various kinds of Agam Shastr.
The three kinds of evidence, perception, inference and the sacred Institutes which comprise the tradition of many established schools, must be thoroughly understood & applied in life-day to day living by the Brahman who desires Ultimate purity.
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्। 
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥
शूरवीरता, तेज, धैर्य, राज्य संचालन की योग्यता और चतुराई और युद्ध में पीठ न दिखाना, दान देना, शासन करने का भाव और स्वामिभाव, ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म-गुण हैं।[श्रीमद्भागवत गीता 18.43] 
Velour, bravery, boldness, majesty (vigour, spirit, energy, strength), promptness-ability to rule-manage the state, patience (firmness-fortitude), tendency not to flee from battle field, resourcefulness, generosity (to donate freely without hesitation-miserliness, distribute among the needy-poor liberally), leadership (tendency to rule, are the duties of Kshatriy-marshal castes.
मन में अपने धर्म को पालन की तत्परता, धर्म युद्ध में जो कि परिस्थितिवश प्राप्त हुआ है, में बगैर इच्छा, विचार, स्वार्थ के शामिल होना शौर्य है। जिस प्रभाव या शक्ति के सामने पापी, दुराचारी, मर्यादा के विरुद्ध चलने वाले मनुष्य भी डरते हैं, वह तेज कहलाता है। विपरीत-कठिन परिस्थिति में शत्रु द्वारा धर्म और नीति के विरुद्ध अनुचित व्यवहार-सताए जाने पर भी धर्म नीति, मर्यादा के अनुरूप धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य, कार्य, वर्णाश्रम धर्म  का पालन करना या उस पर चलना, घृति है। प्रजा पर शासन करना, यथा योग्य  रखना, संचालन की विशिष्ट योग्यता रखना और चतुराई दक्षता, दाक्ष्य है। युद्ध में पीठ न दिखाना, मन में कभी हार स्वीकार न करना, युद्ध छोड़कर न भागना अपलायन है। बिना कंजूसी-लोभ के, उदारतापूर्वक-खुले हाथ से दान देना क्षत्रिय लक्षण है। ईश्वरीय भाव के रहते क्षत्रिय में सबको अपनी-अपनी मर्यादा में चलाने में अभिमान नहीं होता, अपितु नम्रता, सरलता बनी रहती है। जो प्रजा की दुःख-मसीबत में रक्षा करे वह क्षत्रिय का क्षात्र कर्म है। 
A Kshatriy has to be prepared-ready for the righteous war or internal disturbances, imposed upon-necessitated by the circumstances, fearlessly, bravely, happily, courageously, enthusiastically with zeal and high morale.
He possesses potential, might, majesty, spirit, energy, strength, vigour  ability to keep the people, population, society under control-disciplined.
Patience, self control during difficult periods, times, situations, attack by the enemy, oppression against righteous rules-regulations, policies, law-legislature, maintenance of cool-balance of mind, are inherent in him.
Ability to manage, administer, supervise, organise, rule, resourcefulness, unity, decision making for the subjects-dependants, are his worthy possessions.
Generosity, liberal donations, charity, gifts, providing timely help to the subjects-dependants, in difficult times, famine, scarcity, deficiency, non availability, war, flood, are his natural inclinations-tendencies, traits, qualities of a Kshatriy
He neither flees the battle field nor accepts defeat; always struggle for success and victory over opponents-enemy.
Presence of divine element, ability, qualities, Satvik tendency to lead the subjects, dependants, people on the righteous track-law and order, judicious implementations of rules-regulations, policies, maintenance of limits, decorum, conventions, dignity are divine gifts to him.
Readiness-willingness to consult the Brahmans, scholars, specialists, prudent, wise, intelligent, elderly, experienced, mature personnel in an hour of need, emergency, war, internal disturbances and accept their advise for the welfare of masses is an integral part of Kshatriy's duties. He acts as supreme authority to decide legal matters in consultation with the renounced people of the judiciary, his ministers, courtiers and the Brahmns.
Absence of ego, pride and prejudice, politeness, kindness, capability to stick to his word, promise, vow, to carry out his words-promises, simplicity, protection of subjects are the possessions of a Kshatriy in addition to prudence.
जीवेदेतेन राजन्यः सर्वेणाप्यनयं गतः।
न त्वेव ज्यायंसीं वृत्तिमभिमन्येत कर्हिचित्
इस प्रकार आपत्ति में फँसा हुआ क्षत्रिय अपनी जीविका चला सकता है, परन्तु कभी भी ब्राह्मण की वृत्ति का अबलम्बन न करे।
[मनुस्मृति 10.95] 
The Kshatriy facing hard ship-under distress, may earn his livelihood, but he should never follow the means of earning meant for the Brahmans.
सर्वेषां ब्राह्मणो विद्याद् वृत्त्युपायान् यथाविधि।
प्रब्रूयादितरेभ्यश्च स्वयं चैव तथा भवेत्
ब्राह्मण सबकी वृत्ति का उपाय यथाविधि जानकर, उसका सब लोगों को उपदेश करे और स्वयं भी अपनी जीविका का उपाय करे।[मनु स्मृति 10.2 
The Brahman should find out, search, analyse the ways and means of all Varn (& castes & sub castes) for survival-subsistence and guide-direct them accordingly and should make efforts for his own subsistence as well.
Begging or accepting charity, donations-gifts, doles should never be the goal of a Brahmn. He may earn through Priesthood, performance of Yagy, Hawan, Agnihotr for others, teaching, astrology, medicine etc. He may earn his livelihood through other respectable means as well in addition to worship, prayers, meditations, ascetic practices side by side.
Its better to survive of own endeavours in comparison to accepting doles, charity, bribe, I personally feel as a Brahman.
वैशेष्यात्प्रकृतिश्रैष्ठ्यान्नियमस्य च धारणात्।
संस्कारस्य विशेषाच्च वर्णानां ब्राह्मणः प्रभुः
अत्यन्त श्रेष्ठता, प्रकृति की श्रेष्ठता के कारण, नियमों को धारण करने में और संस्कारों की विशेषता से सभी वर्णों का स्वामी ब्राह्मण है।[मनु स्मृति 10.3  
On account of his excellence-pre-eminence, superiority of origin, subjecting himself to restrictions & observance of Sanskars (virtues, piousity, righteousness, honesty, truth, enlightenment, wisdom, prudence, intelligence, Mantr Shakti, valour, ethics, culture, sovereignty) the Brahman is Supreme and master-controller of all castes.
All Varn-castes have emerged out of the Brahmans depending upon nature, capability, capacity, traits, characters, mutations through various permutations & combinations of genes, chromosomes, DNA etc.
वैश्य धर्म :: 
पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च। 
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च॥
पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, रोजगार, सूद पर रुपया देना और कृषि करना ये वैश्यों के कर्म हैं।[मनुस्मृति 1.90] 
The Vaeshy had been assigned the duty of tending-caring-nurturing cattle, donations-charity, performing Yagy, studies-education (book keeping, accounting, business studies, commerce, trading, craftsmanship-opening factories etc.) employment in various jobs related to them, lending money and agriculture-cultivation of land.
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्। 
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया॥
ब्रह्मा जी ने उपयुक्त तीनों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और शुद्र) का गुणानुवाद (Eulogy, Relating or glorifying the virtues of Encomium) करते हुए सेवा करना; यह एक ही कर्म शूद्रों के लिए निश्चित किया है।[मनुस्मृति 1.91] 
Brahma Ji-the creator fixed just one duty for the Shudr & that was the service of the mankind-humans of the earlier three divisions-castes-categories i.e., Brahman, Kshatriy & Shudr.
Society needs service personnel of all categories. Brahma Ji distinguished between them on the basis of genes & chromosomes. No conflict occurs till each and every one performs his duty.
वैश्यस्तु कृतसंस्कारः कृत्वा दारपरिग्रहम्। 
वार्तायां नित्ययुक्तः स्यात्पशूनां चैव रक्षणे॥
वैश्य यज्ञोपवीत संस्कार के बाद विवाह करके खेती, व्यापार और पशुओं की रक्षा करने में तत्पर रहे।[मनु स्मृति 9.326] 
Having undergone the Janeu (sacred loin thread) ceremony the Vaeshy should get married and prepare himself for agriculture, business-trade and animal husbandry.
With the Janeu ceremony his education starts till the age of 25 years. Till then he has to be a celibate like Brahman & the Kshatriy. He has to acquire thorough knowledge of trade-business, industry, animal husbandry, taxes, charity, donations etc.
During this period any Tom & Harry tries to become a businessman. Such people have no moral-principles. Not only they over charge but tries to make super normal profits. They ditch the government at will and do not pay taxes like GST, Income Tax etc. They indulge in hoarding, money laundering, generating black money etc. 
प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून्।
ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वाः परिददे प्रजाः
ब्रह्मा जी ने सृष्टि करके वैश्यों को उसका भार दे दिया और ब्राह्मण तथा राजा को सभी प्रजाओं का भार सौंप दिया।[मनुस्मृति 9.327] 
Brahma Ji created the living beings and handed over (transferred, delegated) the responsibility to feed-maintain them to the Vaeshy and delegated the responsibility of protection, administration, justice and support to Brahmns and the Kshatriy.
Harmony is maintained in the society till all the four Varn keep on performing their duties responsibly. Deviation, disturbance, distraction from the liabilities create unrest, disorderliness, lawlessness.
न च वैश्यस्य कामः स्यान्न रक्षेयं पशूनिति।
वैश्ये चेच्छति नान्येन रक्षितव्याः कथं चन
वैश्य को कभी यह इच्छा नहीं करनी चाहिये कि में पशुओं की रक्षा न करूँ और वैश्य जब तक पशुपालन की इच्छा करे तब तक दूसरे से कभी भी पशु की रक्षा न कराये।[मनुस्मृति 9.328] 
A Vaeshy must never conceive the wish that he would not maintain-protect the cattle and as long as he is desirous of serving the cattle he should perform the job himself.
मणिमुक्ताप्रवालानां लोहानां तान्तवस्य च।
गन्धानां च रसानां च विद्यादर्घबलाबलम्
मणि-मोती, मूँगा, लोहा, वस्त्र, गन्ध और रसों के भाव में कमी वेशिका ज्ञान वैश्य  हमेशां रखना चाहिये।[मनुस्मृति 9.329] 
The Vaeshy should be aware of rise & fall in the prices of jewels (gems, pearls, coral), metals Gold, Iron, Silver, alloys etc,.) cotton-cloths, scents-perfumes and condiments (extracts oils, juices).
He should never indulge in over pricing or hoarding of goods with the motive of profits as is taught through demand & supply theory in economics. He should always try to maintain the supply line and should always be vigilant in this regard.
बीजानामुप्तिविच्च  स्यात्क्षेत्रदोषगुणस्य च।
मानयोगं च जानीयात्तुलायोगांश्च सर्वशः
बीजों के बोने और खेतों के दोष और गुण का ज्ञान भी रखना चाहिये।[मनुस्मृति 9.330]
The Vaeshy is ought to have the knowledge of sowing seeds, quality of soils of the fields.
The soil may have different components which may not support a particular crop. The soil should be mixed with manures, fertilisers of different types as per the need of the crop. The proper timing for sowing a specific variety of seed-crop is essential. Ability to know the quantum of rain fall is too desirable. Wells, ponds, reservoirs should be digged and maintained for irrigation throughout the year and lean season.
सारासारं च भाण्डानां देशानां च गुणागुणान्।
लाभालाभं च पण्यानां पशूनां परिवर्धनम्
 भृत्यानां च भृतिं विद्याद्भाषाश्च विविधा नृणाम्।
द्रव्याणां स्थानयोगांश्च क्रयविक्रयमेव च
प्रत्येक वस्तु के गुण-अवगुण की पहचान, प्रत्येक देश की सस्ती और महँगी चीजों का ज्ञान, विक्रय की जाने वाली वस्तुओं से हानि-लाभ का ज्ञान, पशुओं की वृद्धि के उपाय, नौकरों के मासिक देने का ज्ञान, मनुष्यों की अनेक भाषाओँ का ज्ञान, वस्तुओं के सुरक्षित रखने वाले स्थानों का ज्ञान और खरीद-बिक्री का ज्ञान रखना चाहिये।[मनुस्मृति 9.331-332] 
The trader-Vaeshy should be aware of the qualities of goods to be sold & purchased, prices prevailing in other countries, knowledge of profit & loss by selling or buying a commodity, ways & means of rearing and maintaining cattle and increasing their numbers, knowledge of the proper-adequate salaries-wages of the servants prevailing at that time, knowledge of various languages spoken by the humans where he has to deal-trade, ways and means of safe storage and knowledge of the intricacies of buying and selling.
At present there are companies which pay extremely high wages to their employees by making phenomenal-too high profits. This is sin. The owners-founders not only pocket whole profit but they show themselves as the employees as chief executive officer or directors and fix unimaginable inflated salaries for themselves which is pure cheating and misappropriation of funds. They take money from the banks but prefer to forget to repay. Sooner or later such business empire are sure to become history. More over the businesses are run by those who do not value virtues, with the sole motive of profit.
धर्मेण च द्रव्यवृद्धावातिष्ठेद्यत्नमुत्तमम्।
दद्याच्च सर्वभूतानामन्नमेव प्रयत्नतः
धर्म से द्रव्य की वृद्धि के लिये उत्तम यत्न करना चाहिये और प्रयत्न करके सभी प्राणियों को अन्न देना चाहिये।[मनुस्मृति 9.333] 
The earnings should be purely as per directive of scriptures and the Vaeshy should ensure supplies of food grain to each and every person.
The Vaeshy (Trader-Businessman) should adhere to maximum profit norms to be earned at a maximum of 16%. Cut throat competition should always be avoided. A portion of profits should be utilised for social service, promotion of schools, colleges, universities, hospitals to be run purely on charitable basis-lines unlike today's hospitals operated like butcher's shop.
प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून्। 
ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वाः परिददे प्रजाः॥
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्। 
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥
खेती, गोपालन और व्यापार, ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म-गुण हैं तथा चारों वर्णों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।[श्रीमद्भागवत गीता 18.44]    
Agriculture, protection of cows-animal husbandry and trade are the natural professions-duties of Vaeshy and the service of the four Varn is the natural duty of the Shudr. 
क्रय-विक्रय, सत्य व्यवहार, वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी या खराब वस्तु मिलाकर देना अथवा अच्छी ले लेना तथा नफा, आढ़त और दलाली ठहराकर उससे अधिक दाम लेना या कम देना तथा झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती से अथवा अन्य किसी प्रकार से दूसरों के हक को ग्रहण कर लेना, इत्यादि दोषों से रहित, जो सत्यता पूर्वक पवित्र वस्तुओं का व्यापार है, उसका नाम सत्य व्यवहार है। लोगों के हित की भावना से जहाँ से भी कोई वस्तु मिलती हो, उसे लाकर, आयात-निर्यात कर अभाव की पूर्ति करना, ताकि लोगों को कष्ट न हो शुद्ध व्यवहार है। 
भगवान् श्री कृष्ण ने नन्द बाबा को वैश्य माना है। गाय से प्राप्त दूध, दही, घी, मक्खन, गोबर, मूत्र आदि सभी कुछ उपयोगी है। गाय के दूध की तुलना माँ के दूध से की जाती है। 
प्राणी को मानव योनि रजोगुण की प्रधानता से मिलती है, जो कि कर्म प्रधान है। तमोगुण की मुख्यता उसे अधोगति: नर्क, कीट-पतंग-पशु-पक्षी-पेड़-पौधे के रूप में नर्क से मुक्ति के बाद जन्म, प्रदान करती है। अज्ञान, प्रमाद, आलस्य, निद्रा, अप्रकाश, अप्रवर्ति और मोह ये सात अवगुण तमोगुणी हैं और कम-ज्यादा, हर एक मनुष्य में होते हैं। शूद्र में विवेक की कमी और आज्ञापालन की प्रधानता होती है जो कि उसका स्वभाविक गुण है। उच्च वर्ण में उत्पन्न मनुष्यों को नीच हरकतें करते देखा जा सकता है और निम्न वर्ण में उत्पन्न लोगों में साधु प्रवृति-सतगुण देखे जा सकते हैं। ऋणानुबंध, श्राप, वरदान, सङ्ग आदि भी ऊँच-नीच वर्णों में जन्म के कारण बनते हैं। हकीकत ये है कि वर्ण कर्मों के अनुरूप होता है और वर्णों का बदलना देखा भी जा सकता है।   
Agriculture, protection and breeding of cows, honest trade, industry, business, manufacture, maintenance of supplies for the benefit-welfare from surplus to deficient regions, distribution of merchandise uniformly, to root out scarcity, earning just profit margins (16%), receiving interest on loans, made to the needy, are essential features of the Vaeshy community.
Vaeshy makes donations to Brahmns, pays tax to Kshatriy and wages-salary to the Shudr. He should be capable to accumulate and preserve wealth without the knowledge of others.
Cow products milk, curd, butter, dung and urine are extremely useful for good health, vigour and vitality of human race. It’s a tradition to donate cows for prevention from hells. Vaeshy makes donations, help the poor, build temples, ponds, schools, roads inns, plant trees for the protection of mankind out of the profits made by him 1/6th part of his profits should be spent on such functions.
वैश्योऽजीवन्स्वधर्मेण शूद्रवृत्त्याऽपि वर्तयेत्।
अनाचरन्नकार्याणि निवर्तेत च शक्तिमान्
यदि वैश्य अपनी जीविका से जीवन निर्वाह न कर सके तो शूद्र वृत्ति से जीविका का निर्वाह करे और शक्तिशाली हो जाने पर उसे छोड़ दे।[मनुस्मृति 10.98] 
If a Vaeshy  is unable to subsist through his profession, he may temporarily adopt the jobs done by Shudr but should desert them as soon as he gains strength and revert to his own profession of business and harvesting, dairy farming.
This is applicable to the all the three Swarn castes-Varn.
Shudr provide services to all the four Varn. Dedicated service to all the four Varn in itself becomes God worship, added with worship, his assimilation in God becomes easier and quicker. Services provided with grace, honour, regard, respect, gratefulness, happily, leads the employee to liberation–closeness to God. It creates happiness in his heart and gives pleasure in his innerself. His feelings and devotion to work, grows his potential to provide services and achieve God as compared to Dwij Jati-Upper castes. His motto is, "Work is worship". It’s comparatively easier for him to attain Salvation during Kal Yug as compared to Upper castes. In fact each and every one who is earning his livelihood by virtue of service is a Shudr.
Higher the Varn, more difficult it is, for the person, to achieve the Almighty.
Anyone who has accepted a job-service, is in fact a Shudr and hence there should be no reservation in services.
CHARACTERISES OF SHUDR शूद्रों के गुण धर्म :: ब्रह्मा जी के पैरों से दैवीय उदय। दक्ष प्रजापति का जन्म ब्रह्मा जी के दायें पैर के अंगूठे से हुआ। उनकी 13 पत्निओं का विवाह कश्यप जी से हुआ, जिससे सभी प्राणियों का उदभव हुआ। द्विजातियों की सेवा, दस्कारी, वस्तुओं का आदान प्रदान बिक्री, उच्च-उत्तम व्यवहार व नम्रता, ईमानदारी के साथ अपने स्वामी की सेवा,  मन्त्र रहित यज्ञ करना-ताकि अशुद्ध उच्चारण से अनिष्ट न हो, माँस मीट मदिरा धुम्रपान के लिए स्वतंत्र। ब्राह्मणों की रक्षा। कोई भी व्यक्ति जो कि नौकरी कर रहा है, अपने कार्यकाल में शुद्र कहलायेगा। 
अशक्नुवंस्तु शुश्रूषां शूद्रः कर्तुं द्विजन्मनाम्।
पुत्रदारात्ययं प्राप्तो जीवेत्कारुककर्मभिः
यदि द्विजातियों की सेवा करने में शूद्र असमर्थ हो और उसके बीबी-बच्चे अन्नादि का कष्ट पा रहे हों तो वह कारीगरी का काम करके जीविका चला कर सबका भरण-पोषण करे।[मनुस्मृति 10.99] 
In case the Shudr is unable to subsist his family by the service the upper castes, he may resort to skilled jobs-handicrafts to support his family.
During British rule millions of farmers suffered due to Britishers atrocities. Their land, belongings and houses were snatched, burnt or looted. Millions died of hunger famine and epidemic. Those who survived moved to Kolkata and joined factories owned by the British to survive. Today majority of the people living in villages are lured by the city life and they are migrating to cities. They forget their caste structures and engage them selves in dirty-pitiable jobs. Millions are moving to developed countries where they have to do such jobs which they would not have dreamt of or had done in their senses in India or their native place.
यैः कर्मभिः प्रचरितैः शुश्रूष्यन्ते द्विजातयः।
तानि कारुककर्माणि शिल्पानि विविधानि च
जिन प्रचलित कार्यों द्वारा द्विजातियों की सेवा की जा सकती है वे अनेक प्रकार के शिल्प और कारीगरी के काम हैं।[मनुस्मृति 10.100] 
The technical-mechanical jobs which can be practices-adopted for serving the upper caste are crafts and artisans.
Initially evolved out of the feet of Brahma Ji as a divine creation. Daksh Prajapati, too evolved out of the feet (from the right toe) of Brahma Ji. His 13 daughters got married to Kashyap and entire Sharashti-evolution (life on earth or in our universe, else where) is the out come of his sexual intercourse-endeavours with his wives. Earning livelihood through the services of Dwijatis. Craftsmanship as a profession.  Barter-sale of goods-merchandise. High domicile and polite behaviour. Honestly serving the masters. 
Performance of Yagy without the recitation of Mantr (to protect from the ill effects of incorrect pronunciation). Free to eat anything-wine consumption-smoking etc. Protection of Brahmns. Anyone who has adopted service as a profession, is like a Shudr  till he does not adopt-revert back to the Nihit and Vihit Karm-duties of Dwijatis
 प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः॥
क्षत्रियों के लिये संक्षेप से प्रजाओं की रक्षा, दान, यज्ञ करना, पढ़ना, विषयों (गीत-नृत्यादि) में आसक्त न होना, ये 5 कर्म निश्चित किये गए हैं।[मनुस्मृति 1.89] 
The Kshatriy have been assigned the 5 tasks namely protecting the people, donations, performance of Yagy, learning-education, to remain away from music-dance-passions, sensuality, sexuality, lust. Learning for warriors-Kshtriy stands mainly warfare, weapon systems, administration, protection of populations.
पृथक्पृथग्वा मिश्रौ वा विवाहौ पूर्वचोदितौ। 
गान्धर्वो राक्षसश्र्चैव धर्म्यौ क्षत्रस्य तौ स्मृतौ॥
पूर्व कथित गान्धर्व और राक्षस, दोनों विवाह पृथक-पृथक अथवा दोनों एक दूसरे से मिले हुए क्षत्रिय के लिये धर्मानुकूल हैं।[मनुस्मृति 3.26] 
Two systems of marriage Gandharv and Rakshas, whether separately or mixed together, are appropriate-suitable for the Kshtriy.
समोत्तमाधमै राजा त्वाहूतः पालयन्प्रजाः। 
न निवर्तेत सङ्ग्रामात्क्षात्रं धर्ममनुस्मरन्॥
प्रजा का पालन करता हुआ क्षात्र धर्म के अनुसार सम बल, अधिक बल या कम बल वाले राजा से युद्धार्थ बुलाये जाने पर युद्ध से मुँह न मोड़े।[मनु स्मृति 7.87] 
The king should accept the invitation for war made by the other kings equal, less or more powerful-strong than him serving his citizens-populace according to the duties of a Kshatriy-marshal caste. 
He should neither deny nor remain neutral to the call for a war as a part of some treaty or aggression-invasion.
सङ्ग्रामेष्वनिवर्तित्वं प्रजानां चैव पालनम्। 
शुश्रूषा ब्राह्मणानां च राज्ञां श्रेयस्करं परम्॥
युद्ध में पीठ नहीं दिखाना, प्रजाओं का पालन और ब्राह्मणों की सेवा, ये राजाओं के लिये परम कल्याण कारी हैं।[मनु स्मृति 7.88] 
Its most auspicious for the king not to show his back-retreat, in the war, serve the populace and the Brahmns. 
आहवेषु मिथोऽन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः। 
युध्यमानाः परं शक्त्या स्वर्गं यान्त्यपराङ्-मु खाः॥
युद्ध में परस्पर एक दूसरे को मारने की इच्छा करने वाले और सम्पूर्ण शक्ति लगाकर लड़ने वाले राजा युद्ध में पीठ न दिखाकर सीधे स्वर्ग जरते हैं।[मनु स्मृति 7.89] 
The kings who fight with the desire to kill each other and fight with their entire capability-power, goes to the heaven if they do not retreat-turn their back.
न कूटैरायुधैर्हन्याद्युध्यमानो रणे रिपून्। 
न कर्णिभिर्नापि दिग्धैर्नाग्निज्वलिततेजनैः॥
युद्ध में लड़ते हुए शत्रुओं को कूट शस्त्रों से कर्णिका के आकार सदृश फलक वाले, विष से बुझे हुए और अग्नि दीप्त बाणों से न मारे।[मनु स्मृति 7.90] 
Either sides is not supposed to hit the opponent with hidden arms, arrows laced with poison or arrows with fire arms-ammunition heads.
SHUDR शूद्र :: Shudr should perform his prescribed, natural duties-instinctive services to worship the God, inclusive of consumption of food, sleep-awakening with the realisation of presence of God in all of the four Varn. Any one who is getting paid for the job performed by him, is considered as a Shudr.
  एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्। 
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया॥
ब्रह्मा जी ने उपयुक्त तीनों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) का गुणानुवाद (Eulogy, Relating or glorifying the virtues of Encomium) करते हुए सेवा करना; यह एक ही कर्म शूद्रों के लिए निश्चित किया है।[मनु स्मृति 1.91] 
Brahma Ji-the creator fixed just one duty for the Shudr & that was the service of the mankind-humans of the earlier three divisions-castes, categories i.e., Brahman, Kshatriy & Vaeshy.
Society needs service personnel of all categories. Brahma Ji distinguished between them on the basis of genes & chromosomes. No conflict occurs till each and every one performs his duty.
शूद्रस्तु वृत्तिमाकाङ्क्षन्क्षत्रमाराधयेद्यदि।
धनिनं वाप्युपाराध्य वैश्यं शूद्रो जिजीविषेत्
ब्राह्मण सेवा करते हुए यदि शूद्र का जीवन निर्वाह न हो तो क्षत्रिय की सेवा करे, यदि उससे भी पेट न भरे तो धनिक वैश्य की सेवा कर जीवन निर्वाह करे।[मनु स्मृति 10.121] 
If the Shudr is unable to subsist by serving a Brahmn, he may opt to serve the Kshatriy and then shift to a rich Vaeshy to have funds as per his satisfaction.
स्वर्गार्थमुभयार्थं वा विप्रानाराधयेत्तु सः।
जातब्राह्मणशब्दस्य सा ह्यस्य कृतकृत्यता
वह शूद्र स्वर्ग या दोनों स्वार्थ और परमार्थ के लिये ब्राह्मणों की ही सेवा करे। इस शूद्र की सेवा ब्राह्मण स्वीकार करता है, ऐसी प्रसिद्धि होना ही उसके लिये कृत कृत्यता है।[मनु स्मृति 10.122]
The Shudr should serve the Brahman if he wish to attain either heaven or has a selfish motive & doing some thing for others. His fame as the person being accepted by a virtuous-worthy Brahman, will liberate him from worldly bonds, ultimately leading him to Liberation from cycles of birth & death.
विप्रसेवैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म कीर्त्यते।
यदतोऽन्यद्धि  कुरुते तद्भवत्यस्य निष्फलम्
ब्राह्मण की सेवा करना ही शूद्र का विशिष्ट कर्म कहा गया है। इस कार्य से भिन्न वह जो कुछ भी करता है, वह उसके लिये निष्फल होता है।[मनु स्मृति 10.123]
The scriptures have assigned service of Brahmans as the main task for the Shudr. If he does anything else other than that, it will turn null & void.
During the present environment the opposite is happening. Brahmans are made to serve the Shudr. Satish Sharma is serving political interests of Maya Wati. Maya Wati wish to slap the Brahmans with four shoes. 
Khadge wish to abolish Sanatan Dharm from India. Rahul-son of a Muslim & a Christian declares that Congress is a party of Muslims & that he support them, is opposing the building of Ram temple in Ayodhya. Hundreds of thousands of Brahmns can be seen serving Rahul Gandhi who himself is a Muslim-Mallechchh, mush lower than the Shudr, in caste structure. 
Thakre wish to remove North Indians from Mumbai but wish to build Ram Temple in North India. 
This all dirty politics emerging out of polluted dirty minds who have no understanding of Dharm-duty.

प्रकल्प्या तस्य तैर्वृत्तिः स्वकुटुम्बाद्यथार्हतः।
शक्तिं चावेक्ष्य दाक्ष्यं च भृत्यानां च परिग्रहम्
सेवा कर रहे शूद्र को शक्ति, कार्य कुशलता और भृत्यों का परिग्रह (उनके कुटुम्ब के भरण-पोषण का खर्च) देखकर ब्राह्मण अपने कुटुम्ब से यथार्थ प्रबन्ध करे।[मनु स्मृति 10.124] 
The Brahmn should manage-provide for the expanses (salary, maintenance) of the Shudr and the servants according to their efficiency, devotion, capability, devotion with a consideration of own family liabilities.
As a matter of fact its a myth that the Brahmn will ever have so much money to afford servants. One who himself is supposed to survive over the food grain collected from the harvested fields, can not think of being over burdened by servants. Still, its possible when he is supported by the state. In that case this postulate is applicable. 
During the last 70 years of independence troubles, tensions, tortures over the Brahmns have increased tremendously. They never faced such insult-neglect during even during Buddhist, Muslim and the British regime. In spite of hard labour, their children are deprived off the jobs they deserve. Their jobs are continuously going to non deserving, incapable people.
उच्छिष्टमन्नं दातव्यं जीर्णानि वसनानि च।
पुलाकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदाः
उस शूद्र को जूठा अन्न, पुराना वस्त्र, सारहीन अन्न, पुराना, ओढ़ना और बिछौना देना चाहिये।[मनु स्मृति 10.125]  
The servants, Shudr should be given left over food, cloths to cover the body, beds etc. 
In Australia and America its found that people dump useful goods in working condition outside their homes once in a week. Normally, needy people take them away. But in general, council collect them and convert them into waste material. Earlier such goods were accepted by China, but saturation has come there as well. What is puzzling is that the goods which can be improvised, used profitably are thrown away, discarded, might be because of flourishing people.
China is such a rouge country that it convert the left over, partially eaten stale, waste food items in hotels, restaurants into material which looks like rice grain and pass it on the India for selling, in addition to developed countries where people eat it without knowing, what they are consuming.
Shiploads of old, discarded cloths passed over for charity, reach developing & poor countries and sold there.
The scriptures recognise these people living in advanced countries as Mallechchh-much lower over caste lines than the Shudr. Chanky said that 1,000 Yawan are more depraved than just one Chandal.
न शूद्रे पातकं किञ्चिन्न च संस्कारमर्हति।
नास्याविकारो धर्मेऽस्ति न धर्मात्प्रतिषेधनम्
शूद्र को बचा-खुचा खाने से पातक-बीमारी नहीं होती, वह संस्कार हीन है। वह धर्म कार्य से च्युत है। उसको धर्म कार्य का न तो अधिकार न निषेध।[मनु स्मृति 10.126]
The Shudr easily digest the left over food, without being affected by sin-illnesses. He has not been undergone-enrolled into rites. He is neither prohibited nor compelled to undergo sacred rites.
शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्यो धनसञ्चयः।
शूद्रो हि धनमासाद्य ब्राह्मणानेव बाधते
धन सञ्चय करने में समर्थ होता हुआ भी शूद्र धन का संग्रह न करे, क्योंकि धन को पाकर शूद्र ब्राह्मण को सताता है (और नर्क का भागी होता है)।[मनु स्मृति 10.129] 
In spite of being capable of accumulating wealth the Shudr should avoid doing so, since as a result of it he will become arrogant and torture the Brahmans, paving his way to hells.
The low caste people are becoming arrogant day by day having obtained jobs by virtue of reservation and insult upper caste time and again. The upper castes are compelled to punish them. The low castes who are not eligible even for the post of a peon are working as ministers and spoiling the nation. Obviously, they are destined to hells and low species like insects worm.
The upper caste Swarn are definitely ignorant. Even though capable of throwing away the reservationists, they keep on voting in their favour. 
The time is ripe to abolish reservation and reservationists.
(1). तपसे शुद्रम... 
बहुत परिश्रमी, कठिन कार्य करने वाला, साहसी और परम उद्योगों को करने वाले आदि पुरुष का नाम शुद्र हैं।[यजुर्वेद 30.5] 
The Shudr do hard labour, tough jobs-duties manually, perform such deeds which involve patience and bravery.
(2). नमो निशादेभ्य... 
शिल्प-कारीगरी विद्या से युक्त जो शूद्र, निषाध आदि परिश्रमी जन हैं, उनको नमस्कार अर्थात उनका सत्कार करें।[यजुर्वेद 16.27] 
Those who render services, tough manual jobs, physical labour should be respected-cared for.
(3). वारिवस्कृतायौषधिनाम पतये नमो...
वारिवस्कृताय अर्थात सेवन करने हारे भृत्य का (नम) स्वागत-सत्कार करो।[यजुर्वेद 16.19]
Let the labourers be welcomed at work.
(4). रुचं शुद्रेषु... 
जैसे ईश्वर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से एक समान प्रीति करते हैं, वैसे ही विद्वान लोग भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से एक समान प्रीति करे।[यजुर्वेद 18.48]
The enlightened should treat Brahmn, Kshatriy, Vaeshy and the Shudr alike.
(5). पञ्च जना मम... 
पाँचों प्रकार के मनुष्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र एवं निषाद) मेरे यज्ञ को प्रीतिपूर्वक सेवें। पृथ्वी पर जितने मनुष्य हैं, वे सब ही यज्ञ करें।[ऋग्वेद]
All those who are born as humans should perform the duties (Yagy, Varnashram Dharm) assigned to them.
Yagy, Yog, Meditation requires one to follow certain rules and intricate rules-regulations, procedure to be followed-adopted to avoid reverse results.
(6). इस रामायण के पढ़ने से (स्वाध्याय से) ब्राह्मण बड़ा सुवक्ता ऋषि होगा, क्षत्रिय भूपति होगा, वैश्य अच्छा लाभ प्राप्त करेगा और शूद्र महान होगा। [वाल्मीकि रामायण, प्रथम अध्याय अंतिम श्लोक]
रामायण को श्रवण करने का वैश्यों और शूद्रों दोनों के समान अधिकार का वर्णन है।[अयोध्या कांड 63.50-51, 64.32-33]
Any one, any where is free to learn the Hindu scriptures, mythology, Veds following purity-piousness rules.
(7). 
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। 
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
हे प्रथानन्दन अर्जुन! जो भी पाप योनि वाले हों तथा अन्य व्यक्ति यथा स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र हों, वे भी सर्वथा मेरी शरण में आकर निसंदेह परम गति को प्राप्त हो जाते हैं।[श्रीमद् भगवद्गीता 9.32]  
Hey Arjun, the son of Pratha! The worst possible sinner, those placed in species pertaining to sinners and other categories of individuals like women, businessmen or the untouchables attain the Ultimate abode as and when they surrender before ME, with loving devotion, the Almighty said. 
जो पापी हैं और वो दुराचारी (licentious, irreligious, villain, wicked, of bad conduct, wicked person) भी, जो अपने पूर्वजन्मों के परिणाम स्वरूप पापयोनियों (असुर, राक्षस, पशु, पक्षी भूत-प्रेत, पिशाच, नाग आदि तथा मनुष्यों में यवन, हूण, खस और अरब-सहारा क्षेत्र के वासी) में भटक रहे हैं, भी भगवत्भक्ति के अधिकारी हैं। भगवान् से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए किसी योग्यता की आवश्यकता नहीं है। पवित्रता भगवान् से जुड़ने से और अपवित्रता प्रकृति से जुड़ने-भगवान् से विमुख होने से आती है। जिस प्रकार माँ अपने बच्चे को आर्त होने, रोने पर उठा लेती है, उसी प्रकार भगवान् पापी से पापी आर्त व्यक्ति को, याद करने पर अपनी शरण में ले लेता है। भगवान् के दरबार में स्त्री, वैश्य, शूद्र आदि का कोई भेदभाव नहीं है। देवहूति, शबरी, कुन्ती, द्रौपदी, गोपियाँ, कर्माबाई, फुलीबाई, करमैती, मीरा परमात्मा की परम भक्ति को प्राप्त हुईं। समाधि, तुलाधार, वैश्य थे तथा निषाद, गुह, विदुर, संजय शूद्र थे, जो परम भक्ति को प्राप्त हुए। पशुओं में गजेन्द्र, जटायु सम्पाती आदि परम भक्त हुए हैं। वैसे देखा जाये तो पूर्वजन्म की अपेक्षा वर्तमान जन्म का पापी विशेष दोषी होता है।  
The worst possible sinner-wicked too is acceptable to the Almighty, if he surrenders before HIM with love & affection. There is no qualification for connecting oneself to the God. This is like the mother who picks up crying child. The Almighty supports one, who seeks shelter, asylum, protection, refuse under HIM, without discrimination. The sins of the previous births are not that serious-dangerous as compared to those committed in the present birth. There are numerous examples, when the God granted HIS Ultimate abode to those who were from inferior castes, segment of society. Even the animals too attained the Ultimate abode, when they sought refuse under the Almighty.
UPLIFTMENT TO HIGHER VARN OR DEGRATION TO LOWER CASTE :: 
(8). यह शूद्र वर्ण पूषण अर्थात पोषण करने वाला हैं और साक्षात् इस पृथ्वी के समान हैं क्योंकि जैसे यह पृथ्वी सबका भरण-पोषण करती हैं, वैसे शूद्र भी सबका भरण-पोषण करता हैं।[बृहदारण्यक उपनिषद् 1.4.13] 
The Shudr-low caste supports the whole world to survive like the legs support the body.
(9). व्यक्ति गुणों से शूद्र अथवा ब्राह्मण होता हैं नाकि जन्म गृह से। 
One is either a Brahmn or Shudr by Virtue of his deeds either in this birth or the previous births. 
सत्यकाम जाबाल जब गौतम गोत्री हारिद्रुमत मुनि के पास शिक्षार्थी होकर पहुँचा तो मुनि ने उसका गोत्र पूछा। उन्होंने उत्तर दिया कि मेरी माँ ने बताया था कि युवावस्था में मैं अनेक व्यक्तियों की सेवा करती रही। उसी समय तेरा जन्म हुआ, इसलिए मैं नहीं जानती की तेरा गोत्र क्या हैं। मेरा नाम सत्यकाम हैं। इस पर मुनि ने कहा :- जो ब्राह्मण न हो वह ऐसी सत्य बात नहीं कर सकता।[छान्दोग्य उपनिषद् 3.4]
(10). यक्ष-युधिष्ठिर संवाद :: व्यक्ति कुल, स्वाध्याय व ज्ञान से द्विज नहीं बनता, अपितु केवल आचरण से बनता हैं।[महाभारत 313.108-109]
Dharm Raj Yudhishtar said that one becomes a Brahmn through his deeds not just by virtue of birth in a Brahmn family, self study or learning.
धर्म शास्त्र स्पष्टतया कहते कि वैदिक हिन्दु काल में शूद्रों को द्विजों के जितने अधिकार प्राप्त थे। 
न चापि शूद्रः पततीति निश्चयो नचापि संस्कारमिहार्हतीति वा। 
श्रुतिप्रवृत्तं न च धर्ममाप्नुते न चास्य धर्म प्रतिषेधनं कृतम्॥
यह निश्चय है कि शूद्र पतित नहीं होता तथा वह उपनयन आदि संस्कार का भी उसे आवश्यकता नहीं है। उसे वैदिक अग्निहोत्र आदि कर्मों के अनुष्ठान की भी आवश्यकता नहीं है। उपर्युक्त सामान्य धर्मों का उसके लिये निषेध भी नहीं किया गया है।[महाभारत]
हालांकि, शुद्र किसी भी वैदिक नियमो से बँधा हुआ नहीं है, जिस तरह ब्राह्मण क्षत्रिय बँधे हैं। लेकिन अगर शुद्र वैदिक धर्म का पालन करना चाहे, तो वह निषिद्ध भी नहीं है। शूद्र चाहे, तो वैदिक कर्मों एवं नियमों का पालन वह स्वयं भी कर सकता है।
वैदेह कं शूद्रमुदाहरन्ति द्विजा महाराज श्रुतोपपन्नाः। 
अहं हि पश्यामि नरेन्द्र देवं विश्वस्य विष्णुजगतःप्रधानम्॥ 
वेद-शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न द्विज शूद्र को प्रजापति के तुल्य बताते हैं (क्योंकि वह परिचर्या द्वारा समस्त प्रजा का पालन करता है); परन्तु नरेन्द्र! मैं तो उसे सम्पूर्ण जगत के प्रधान रक्षक भगवान् विष्णु के रूपमें देखता हूँ (क्योंकि पालन कर्म विष्णु का ही है और वह अपने उस कर्म द्वारा पालनकर्ता श्री हरि की आराधना करके उन्हीं को प्राप्त होता है)।  
यहां स्पष्ठ कहा गया है, बुद्धिमान व्यक्ति सदैव शुद्र का सम्मान करता है, शुद्र को प्रजापति के तुल्य मानता है ।। लेकिन पराशर जी जो कि ब्राह्मण है, वह कहते है, की मैं तो शुद्र को भगवान विष्णु के तुल्य मानता हूं, क्यो की शुद्र एवं भगवान विष्णु दोनो ही संसार का पालन करते है ।
(11). कर्ण ने सूत पुत्र होने के कारण स्वयंवर में अयोग्य ठहराये जाने पर कहा था, "जन्म देना तो ईश्वर अधीन हैं, परन्तु पुरुषार्थ के द्वारा कुछ का कुछ बन जाना मनुष्य के वश में है"।
Karn said that its the endeavour which determines one's caste not the birth.
(12). जिस प्रकार धर्म आचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम उत्तम वर्ण को प्राप्त होता हैं जिसके वह योग्य हो। इसी प्रकार अधर्म आचरण से उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे वर्ण को प्राप्त होता हैं।[आपस्तम्ब धर्म सूत्र 2.5.11.10-11] 
One who follows the doctrines of Dharm is elevated to higher caste and the one acts against them is reverted to a lower caste.
(13). 
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्। 
क्षत्रियाज् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात् तथैव च॥
जो व्यक्ति शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ब्राह्मण के गुण-कर्म, स्वभाव वाला हो; वह ब्राह्मण बन जाता है। उसी प्रकार ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर भी जिसके गुण-कर्म, स्वभाव शूद्र के सदृश हों वह शूद्र हो जाता है।[मनु स्मृति 10.65] 
One becomes a Brahmn having the traits, nature, deeds, characterises of a Brahmn even though born in a Shudr family. Similarly, one who possess the  traits, nature, deeds, characterises of a Shudr even after taking birth in a Brahmn (or Kshatriy or Vaeshy) family becomes a Shudr.
(14). नारद मुनि ने कहा, " श्री राम श्रेष्ठ, सबके साथ समान व्यवहार करने वाले और सदा प्रिय दृष्टी वाले हैं।[वाल्मीकि रामायण बाल कांड 1.16] 
Dev Rishi Narad said the Shri Ram is the ultimate human who is equanimous with all, looking with love at them.
(14.1). भगवान् श्री राम महाराज ने वनवास काल में निषाद राज द्वारा लाये गए भोजन को ग्रहण किया।[वाल्मीकि रामायण बाल कांड 1.37-40]
Bhagwan Shri Ram accepted the food served by Nishad Raj, one who was of lower rank-caste than a Shudr.
(14.2). श्री रामचंद्र जी महाराज वन में शबरी से मिलने गए जो कि सिद्ध जनों से सम्मानित तपस्वनी थी।[वाल्मीकि रामायणअरण्यक 74.10]
Bhagwan Shri went to meet Shabri who was respected-honoured by the ascetics for her piousity and a Bheel by caste; lower than Shudr under caste echelon.
(14.3). भगवान् श्री राम ने शबर (कोल-भील) जाति की शबरी  जूठे बेर खाये।[वाल्मीकि रामायण, अरण्यक कांड 74.7]
Bhagwan Shri Ram ate the berry offered by Shabri, belonging to Bheel-Kol community after tasting them.
(15). चारों वेदों का विद्वान, किन्तु चरित्रहीन ब्राह्मण शूद्र से निकृष्ट होता हैं, अग्निहोत्र करने वाला जितेन्द्रिय ही ब्राह्मण कहलाता है।[महाभारत वन पर्व 313.111]
One who has studied the four Veds but is depraved-wicked is worst than a Shudr. Only that one who has attained equanimity & control over his senses (sensuality, passions, sexuality) and performs holy sacrifices in fire, is a Brahmn.
(15.1). ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी तपस्या के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं।[महाभारत अनुगीता पर्व 91.37]
Tapasya, asceticism leads Brahmns, Kshtriy, Vaeshy or Shudr to attain Heaven. If a Mallechchh like Akbar or British viceroy can attain heaven why not a Shudr?!Heaven is not the final abode. One has to come back to earth after enjoying the destined their.
(15.2). सत्य, दान, क्षमा, शील अनृशंसता, तप और दया जिसमें हो वह ब्राह्मण हैं और जिसमें यह न हों वह शूद्र होता हैं।[महाभारत वन पर्व 180.21-26] 
One who has qualities like truth, charity, pardon, piousity, self control, asceticism and pity in him, is a Brahman otherwise a Shudr. 
People prefer to be called Shudr for monetary gains like today's politicians and millions of those, who are enjoying reservations on the strength of fake scheduled caste certificate, even though grossly inefficient, incapable.
Any one who engages himself in manual labour is Shudr by definition. Its not easy to get work from the labour these days. They resort in arm twisting, strikes, violence etc. However, one should not be too harsh with them and behave normally as a human being. One who evades or avoid work may be removed. One who speaks too much, make noise, disturb work, argues with the owner-master deserve to be removed. One who steals goods must be removed at once or may be handed over to police with proof. Its essential to be extremely careful if the labourer is a Muslim. He may return at night and commit burglary or plan a dacoity and kill the house owner in this act.
विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्। 
शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैश्रेयसः परः॥
वेद को जानने वाले ब्राह्मणों की और यशस्वी गृहस्थों की सेवा करना ही शूद्र को स्वर्ग देने वाला परम धर्म है।[मनु स्मृति 9.334]
The Ultimate duty of the Shudr is to serve the Brahmans enlightened by the Veds and those households who are virtuous, pious, righteous, honest, dedicated-devoted to the God; which lets him attain Heaven just by serving them whole heartedly.
Its a peculiar character of Kali Yug-present cosmic era that the Shudr who serves as per this doctrine gets Heaven automatically without an effort, for which the desirous perform unlimited Yagy, Hawan, Agni Hotr, under take pilgrimages, resort to donations-charity etc. etc.
The person who happens to be a Brahman by caste and lacks merits is just like a Shudr. Such idiots, morons, ignorant do not deserve service by the Shudr. As a matter of fact these days almost every one is running for having a job-the main act of Shudr and is like a Shudr.  
शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मृदुवागनहङ्कृतः। 
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥
यत्न और वाणी से पवित्र रहने वाले, श्रेष्ठ जातियों की सेवा करने वाला, मीठा बोलने वाला, अहंकार रहित और ब्राह्मण के आश्रित रहने वाला शूद्र अपने से उत्कृष्ट जाति पाता है।[मनु स्मृति 9.335]
The Shudr who keeps himself pure-pious with effort and speech, depending upon the upper castes, speaking sweet-refined, pleasing words, free from ego, attains higher castes than his present caste.
The Shudr who has these traits, automatically gets Heaven and after returning from the Heaven gets birth in higher castes-Varn.
This tenet is not applicable to present day Shudr who are involved in politics and keep on cursing higher castes, even after gaining undue privileges through reservations. Their down fall further, is predicted through this tenet. These politicians keep on blaspheming Manu Smrati even though they have neither read this nor are they going to read this. Even if they have heard the tenets by chance interpreted-translated by the ignorant, British, biased, myopic its no use explaining it to them.
चाण्डाल :: 
देवद्रव्यं गुरुद्रव्यं परदाराभिमर्षणम्।
निर्वाहः सर्वभूतेषु विप्रश्चाण्डाल उच्यते
जो भगवान् की मूर्ति, मन्दिर की सम्पदा (धन-सम्पत्ति) चुराता है दूसरे की पत्नी के साथ समागम करता है और जो गुजारा करने के लिए कुछ भी खा-पी लेता है, वह चाण्डाल है।[चाणक्य नीति 11.18] 
One who steals the wealth of deities (from the temples, donations, charity) and Brahmans (cheating, snatching, looting), have intercourse-sex, cohabits with the woman of others, eats, lives-survives with all animals (pigs, donkeys, snakes etc.) is termed as a Chandal-lowest category of castes in Hinduism.
The money offered to the deities, temples, Brahmans is in return for the protection-release from sins (pains, grief, sorrow, illness) one has been suffering-undergoing. Even the Pujari (Brahman performing prayers at the temples) are afraid of taking it, as it results in untold miseries-troubles. Those who snatched-looted temples wealth from the temples in India had to face disasters be it intruders, barbarians, Ghauri, British.
This is clearly seen in Afghanistan and Britain these days.
Smugglers, thieves are active in India stealing the wealth of temples, statues of God, deities and demigods. These valuables earn billions to them, leading them to lead a luxurious life, unaware of the fact that they have earned untold miseries for themselves and their families-dependants, leading them to hells for thousands of years and rebirth as insects & worms. Those who buy them and place these figurines in museums too turn sinners.
सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्य्र्थं स महाद्द्युतिः। 
मुखबाहूरूपज्जानां प्रथक्कर्माण्यकल्पयत्॥
महातेजस्वी ब्रह्मा जी ने इस सम्पूर्ण विश्व के रक्षार्थ मुख, बाहू, जँघा और पाँव से उत्पन्न होने वाले जीवों के अलग-अलग कर्मों की कल्पना की है।[मनुस्मृति 1.87] 
Brahma Ji assigned different duties-roles to different humans beings born out of his different organs-parts of his body i.e., mouth, hands-arms, thighs and the feet for the protection-survival-perpetuation of this universe.
प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च। 
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः॥
क्षत्रियों के लिये संक्षेप से प्रजाओं की रक्षा, दान, यज्ञ करना, पढ़ना, विषयों (गीत-नृत्यादि) में आसक्त न होना, ये 5 कर्म निश्चित किये गए हैं।[मनुस्मृति 1.89] 
The Kshatriy have been assigned the 5 tasks namely protecting the people, donations, performance of Yagy, learning-education, to remain away from music-dance-passions, sensuality, sexuality, lust. Learning for warriors-Kshtriy stands mainly warfare, weapon systems, administration, protection of populations.
ब्रह्मा जी ने सृष्टि करके वैश्यों को उसका भार दे दिया और ब्राह्मण तथा राजा को सभी प्रजाओं का भार सौंप दिया।[मनु स्मृति 9.327] 
Brahma Ji created the living beings and handed over (transferred, delegated) the responsibility to feed-maintain them to the Vaeshy and delegated the responsibility of protection, administration, justice and support to Brahmans and the Kshatriy.
Harmony is maintained in the society till all the four Varn keep on performing their duties responsibly. Deviation, disturbance, distraction from the liabilities create unrest, disorderliness, lawlessness.

न च वैश्यस्य कामः स्यान्न रक्षेयं पशूनिति। 
वैश्ये चेच्छति नान्येन रक्षितव्याः कथं चन॥
वैश्य को कभी यह इच्छा नहीं करनी चाहिये कि में पशुओं की रक्षा न करूँ और वैश्य जब तक पशु पालन की इच्छा करे, तब तक दूसरे से कभी भी पशु की रक्षा न कराये।[मनु स्मृति 9.328]
A Vaeshy must never conceive the wish that he would not maintain-protect the cattle and as long as he is desirous of serving the cattle he should perform the job himself.

मणिमुक्ताप्रवालानां लोहानां तान्तवस्य च। 
गन्धानां च रसानां च विद्यादर्घबलाबलम्॥
मणि-मोती, मूँगा, लोहा, वस्त्र, गन्ध और रसों के भाव में कमी वेशिका ज्ञान वैश्य हमेशां रखना चाहिये।[मनु स्मृति 9.329] 
The Vaeshy should be aware of rise & fall in the prices of jewels (gems, pearls, coral), metals Gold, Iron, Silver, alloys etc,.) cotton-cloths, scents-perfumes and condiments (extracts oils, juices).
He should never indulge in over pricing or hoarding of goods with the motive of profits as is taught through demand & supply theory in economics. He should always try to maintain the supply line and should always be vigilant in this regard.

बीजानामुप्तिविच्च स्यात्क्षेत्रदोषगुणस्य च। 
मानयोगं च जानीयात्तुलायोगांश्च सर्वशः॥
बीजों के बोने और खेतों के दोष और गुण का ज्ञान भी रखना चाहिये।[मनु स्मृति 9.330] 
The Vaeshy is ought to have the knowledge of sowing seeds, quality of soils of the fields.
The soil may have different components which may not support a particular crop. The soil should be mixed with manures, fertilisers of different types as per the need of the crop. The proper timing for sowing a specific variety of seed-crop is essential. Ability to know the quantum of rain fall too is desirable. Wells, ponds, reservoirs should be digged and maintained for irrigation throughout the year and lean season.
विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्।
शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैश्रेयसः परः
वेद को जानने वाले ब्राह्मणों की और यशस्वी गृहस्थों की सेवा करना ही शूद्र को स्वर्ग देने वाला परम धर्म है।[मनुस्मृति 9.334] 
The Ultimate duty of the Shudr is to serve the Brahmans enlightened by the Veds and those households who are virtuous, pious, righteous, honest, dedicated-devoted to the God; which lets him attain Heaven just by serving them whole heartedly.
Its a peculiar character of Kali Yug-present cosmic era that the Shudr who serves as per this doctrine gets Heaven automatically without an effort, for which the desirous perform unlimited Yagy, Hawan, Agni Hotr, under take pilgrimages, resort to donations-charity etc. etc.
शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मृदुवागनहङ्कृतः।
ब्राह्मणाद्याश्रयो  नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते
यत्न और वाणी से पवित्र रहने वाले, श्रेष्ठ जातियों की सेवा करने वाला, मीठा बोलने वाला, अहंकार रहित और ब्राह्मण के आश्रित रहने वाला शूद्र अपने से उत्कृष्ट जाति पाता है।[मनुस्मृति 9.335] 
The Shudr who keeps himself pure-pious with effort and speech, depending upon the upper castes, speaking sweet words, free from ego, attains higher castes than his present caste.
The Shudr who has these traits, automatically gets Heaven and after returning from the Heaven gets birth in higher castes-Varn. 
This tenet is not applicable to present day Shudr who are involved in politics and keep on cursing higher castes, even after gaining undue privileges through reservations. Thieu down fall further, is predicted through this tenet. These politicians keep on blaspheming Manu Smrati even though they have neither read this nor are they going to read this. Even if they have heard the tenets by chance interpreted-translated by the ignorant, British, biased, myopic its no use explaining it to them.

सर्वेषां ब्राह्मणो विद्याद् वृत्त्युपायान् यथाविधि।
प्रब्रूयादितरेभ्यश्च स्वयं चैव तथा भवेत्
ब्राह्मण सबकी वृत्ति का उपाय यथाविधि जानकर उसका सब लोगों को उपदेश करे और स्वयं भी अपनी जीविका का उपाय करे।[मनुस्मृति 10.2] 
The Brahman should find out, search, analyse the ways and means of all Varn for survival-subsistence and guide-direct them accordingly and should make efforts for his own subsistence as well.
Begging or accepting charity, donations-gifts, doles should never be the goal of a Brahman. He may earn through Priesthood, performance of Yagy, Hawan, Agnihotr for others, teaching, astrology, medicine etc. He may earn his livelihood through other respectable means as well in addition to worship, prayers, meditations, ascetic practices side by side.
Its better to survive of own endeavours in comparison to accepting doles, charity, bribe.
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः।
चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन्हीं तीन वर्णों को द्विजाति कहते हैं, चौथा एक जाति वर्ण शूद्र है। पाँचवाँ कोई नहीं है।[मनुस्मृति 10.4] 
Brahman, Kshtriy and Vaeshy constitute the Dwi Jati Varn; the fourth is Ek Jati i.e., single Varn. Fifth Varn does not exist.
सर्ववर्णेषु तुल्यासुं पत्नीष्वक्षतयोनिषु।
आनुलोम्येन संभूता जात्या ज्ञेयास्त एव ते
सभी वर्णों में सजातीय अक्षतयोनि वाली स्त्रियों से अनुलोम विधि से जो सन्तान होगी, वह उसी वर्ण की होगी जैसे ब्राह्मण से ब्राह्मण में उत्पन्न पुत्र ब्राह्मण ही होगा।[मनुस्मृति 10.5] 
The child born out of a virgin of the same caste will belong to caste of the father.
स्त्रीष्वनन्तरजातासु द्विजैरुत्पादितान्सुतान्।
सदृशानेव तानाहुर्मातृदोषविगर्हितान्
व्यवधान रहित अपने से निम्न वर्ण की स्त्रियों में द्विजातियों से उत्पन्न हुए पुत्र माता के हीन जातीय होने से निन्दित और पिता के सदृश होते हैं।[मनुस्मृति 10.6] 
The son born out of a relation between an upper caste male and lower caste woman is depraved and like the father. 
Hindu Dharm do not advocate inter religion or inter caste marriages. Marriages amongest the same title-surname-Gotr should never be solemnised  and sub divisions should be checked-traced, like Main title Bhardwaj, Branches :- Gaur, Sandily, Sub branches : Dubey, Chobe etc. then Shasan and Nikas.
Ravan was the son of a Brahman Rishi Vishrava, from a demon woman-Kaekasi, Mahrishi Ved Vyas is the son of Mahrishi Parashar born out of Saty Wati a woman born out of a fish nourished by a Mallah-boats man. These are the two cases of divine interventions. Ved Vyas is titled Bhagwan, an incarnation of Bhagwan Vishnu and Ravan was Jay, his care taker-gate keeper in Vaekunth Lok. 
अनन्तरासु जातानां विधिरेष सनातनः।
द्वयेकान्तरासु जातानां धर्म्यं विद्यादिमं विधिम्
यह व्यवधान रहित अपने से हीन जाति की स्त्रियों से उत्पन्न पुत्रों की यह सनातन विधि कही। अब दो अथवा एक वर्ण के अन्तर वाली स्त्रियों उत्पन्न यह नियम है।[मनुस्मृति 10.7] 
The uninterrupted procedure continuing ever since (eternal) for producing sons from the women of lower Varn-castes has been described. Now the rule for the sons obtained from the women belonging to castes lower by one or two Varns. 
ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्ठो नाम जायते।
निषादः शूद्रकन्यायां यः पारशव उच्यते
ब्राह्मण से वैश्य कन्या से उत्पन्न पुत्र को अम्बष्ठ कहते हैं और शूद्र कन्या से उत्पन्न पुत्र को निषाद या पार्शव कहते हैं।[मनुस्मृति 10.8] 
The son produced by a Brahman from Vaeshy woman is termed Ambashth and the one produced from a Shudr woman is called Nishad or Parshav.
क्षत्रियात्शूद्रकन्यायां क्रूराचारविहारवान्।
क्षत्रशूद्रवपुर्जन्तुरुग्रो नाम प्रजायते
क्षत्रिय से शूद्र कन्या में उत्पन्न पुत्र क्रूर आचार और विहार करने वाला होता है। उसकी प्रकृति क्षत्रिय और शूद्र दोनों के जैसी होती है और उसे उग्र कहते हैं।[मनुस्मृति 10.9] 
The son produced by a Kshatriy from a Shudr woman is ferocious & cruel. His nature is a combination of both the Kshtriy and Shudr and is termed as Ugr.
विप्रस्य त्रिषु वर्णेषु नृपतेर्वर्णयोर्द्वयोः।
वैश्यस्य वर्णे चैकस्मिन् षडेतेऽपसदाः स्मृताः
ब्राह्मण से अन्य तीन वर्णवाली (क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) स्त्रियों से उत्पन्न पुत्र और वैश्य से केवल शूद्र वर्ण की स्त्री से उत्पन्न पुत्र, ये छः प्रकार के पुत्र अपसद कहलाते हैं।[मनुस्मृति 10.10] 
The six category of sons born out of the Kshatriy, Vaeshy & Shudr women by a Brahmn and the ones born out of Shudr woman by a Vaeshy are termed Apsad.
क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां सूतो भवति जातितः।
वैश्यान्मागधवैदेहौ राजविप्राङ्गनासुतौ
ब्राह्मण की कन्या से क्षत्रिय द्वारा उत्पन्न हुए पुत्र की जाति सूत होती है। क्षत्रिय और ब्राह्मण की कन्या से वैश्य द्वारा उत्पन्न हुए पुत्र क्रमशः मागध और वैदेह जाति के होते हैं।[मनुस्मृति 10.11] 
The sons born out of Kshatriy and Vaeshy women by a Brahman belong to Sut caste and the sons born out of a Kshtriy woman by a Vaeshy are Called Magadh and those born out of Brahmn woman by a Vaeshy are termed Vaedeh.
शूद्रादायोगवः क्षत्ता चण्डालश्चाधमो नृणाम्।
वैश्यराजन्यविप्रासु जायन्ते वर्णसङ्कराः
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की कन्या से शूद्र द्वारा उत्पन्न हुए लड़के क्रम से अयोगव, क्षत्ता, और अधम चाण्डाल, वर्णसंकर होते हैं।[मनुस्मृति 10.12] 
The son born out of a Brahman woman by a Shudr is called Ayogav, a son born out of a Kshatriy woman by a Shudr is called Kshatta and the son born out of a Vaeshy woman by a Shudr is called Adham Chandal and are Varn Sankar i.e., hybrid.
एकान्तरे त्वानुलोम्यादम्बष्ठोग्रौ यथा स्मृतौ ।
क्षत्तृ वैदेहकौ तद्वत्प्रातिलोम्येऽपि जन्मनि
अनुलोम से एकान्तर में जैसे अम्बष्ठ और उग्र हैं वैसे ही प्रतिलोम रीति से एकान्तर वर्ण में उत्पन्न क्षत्ता और वैदेह हैं।[मनुस्मृति 10.13] 
The manner in which Ambashth & Ugr are born through Anulom process in Ekantar, similarly by the Pratilom-reverse process Kshatta & Vaedeh are born in Ekantar Varn.
पुत्रा येऽनन्तरस्त्रीजाः क्रमेणोक्ता द्विजन्मनाम्।
ताननन्तरनाम्नस्तु मातृदोषात्प्रचक्षते
द्विजातियों के अनन्तर स्त्रियों से जो सन्तानें पैदा होती हैं, वे माता के दोष से (अर्थात माता से भिन्न जाति होने से) उसी जाति के पुकारे जाते हैं।[मनुस्मृति 10.14] 
The children born out of lower castes by the upper castes man, are addressed by the lower caste to which the woman belongs to.
Such cross breeds-hybrids are titled by the names of their mother's titles.
ब्राह्मणादुग्रकन्यायामावृतो नाम जायते।
आभीरोऽम्बष्ठकन्यायामायोगव्यां तु धिग्वणः
उग्र कन्या (क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न कन्या को उग्रा कहते हैं) में ब्राह्मण से उत्पन्न बालक को आवृत, अम्बष्ठ (ब्राह्मण से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) कन्या में ब्राह्मण से उत्पन्न पुत्र आभीर और आयोगवी कन्या (शूद्र से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) से उत्पन्न पुत्र को धिग्व्रण कहते हैं।[मनुस्मृति 10.15] 
The son born out of a Ugra (the girl born out of relation between a Kshtriy and a Shudr woman) by a Brahman is termed as Avrat, the son born out of a Ambashth girl (born out of a relation between a Brahmn and Vaeshy woman) by a Brahmn is called Abhir and the son born out of a girl called Ayogwati (the girl born out of a relation between a Shudr and Vaeshy woman) by a Brahman is called Dhigvran.
शूद्रायां ब्राह्मणाज् जातः श्रेयसा चेत् प्रजायते।
अश्रेयान् श्रेयसीं जातिं गच्छत्या सप्तमाद् युगात्
ब्राह्मण से यदि शूद्रा (शूद्र जाति से उत्पन्न कन्या) से उत्पन्न कन्या, ब्याही जाये और आगे भी यही क्रम जारी रहे तो वह अपनी सातवीं पीढ़ी में नीच योनि से उद्धार पाकर ब्राह्मण हो जाती है। [मनुस्मृति 10.64]
If a girl born out of a Shudra gets married with a Brahman and the sequence continues for seven generations the progeny born out of such relations-marriage will be Brahmns.
This inverse relation explains the strengthening of dominant genes resulting in purity of race.
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात् तथैव च
जैसे शूद्र ब्राह्मणत्व को और ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न शूद्र भी क्षत्रियत्व और वैश्यत्व प्राप्त होते हैं।[मनुस्मृति 10.65] 
The manner-process in which Shudr become Brahman and Brahman becomes a Shudr works for the Kshatriy and Vaeshy as well leading to gaining the Kshatriy or Vaeshy title by a Shudr. 
This is purely scientific process resulting in purity of Varn-race.
अनार्यायां समुत्पन्नो ब्राह्मणात् तु यदृच्छया।
ब्राह्मण्यामप्यनार्यात्तु श्रेयस्त्वं क्वेति चेद्भवेत्
जातो नार्यामनार्यायामार्यादार्यो भवेद् गुणैः।
जातोऽप्यनार्यादार्यायामनार्य इति निश्चयः
ब्राह्मण से अपनी इच्छा से क्वारी अनार्य कन्या में और अनार्य से ब्राह्मण कन्या से उत्पन्न पुत्रों में कौन श्रेष्ठ है; ऐसी शंका होने पर ब्राह्मण से अनार्य कन्या से उत्पन्न पुत्र श्रेष्ठ है, यह समझना चाहिये, क्योंकि वह पाकादि गुणों से युक्त होता है। अनार्य से ब्राह्मण कन्या में उत्पन्न पुत्र हीन-अप्रशस्त है, उसके प्रतिलोमज होने के कारण यही निश्चय समझना चाहिये।[मनुस्मृति 10.66-67] 
If the question arise about the superiority of a son born out of an Anary girl who willingly married to a Brahman and the son produced by an Anary with a Brahmn girl, the set rule is that Anary being inferior to the Brahman and he produces son in an inverse relation, therefore the son of a Brahman will be superior having the traits-genes of a Brahman. 
The Brahman has the Virtues (qualities-traits) of all four Varn while the next has one less. The Anary-Mallechchh being a symbol of impurity, brutality, his genes are contaminated. This has been proved by the Muslim and British when they invaded India and inflicted tortures, brutalities, barbarianism over the civilised, peace loving Hindus.
ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ये स्वकर्मण्यवस्थिताः।
ते सम्यगुपजीवेयुः षट् कर्माणि यथाक्रमम्
जो ब्राह्मण अपने कर्म में संलग्न और ब्रह्मनिष्ठ हैं वे आगे कहे हुए छः कर्मों का भली भाँति अनुष्ठान करें।[मनुस्मृति 10.74] 
Those Brahmans who are devoted to their prescribed and mandatory duties and are absorbed in contemplating Brahma or the one self (own Spirit) should resort to the six acts which follows.
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माण्यग्रजन्मनः
अध्यापन, अध्ययन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह ये छः कार्य ब्राह्मणों के हैं।[मनुस्मृति 10.75] 
Teaching, learning-studying, performing Yagy (Hawan, sacrificing in holy fire, Agnihotr) for self & others, giving & accepting donations-charity are the six deeds listed for the Brahmans.
षण्णां तु कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका।
याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच्च प्रतिग्रहःमनुस्मृति 10.76॥
इन छः कर्मों में तीन काम याजन (यज्ञ कराना), अध्यापन और विशुद्ध दान लेना ब्राह्मणों की जीविका है। 
Out of the six deeds, three deeds viz. teaching, performing Yagy for others and accepting donations as fee-Dakshina, earned through pure means by the host, constitute the means of survival, earning, subsistence of the Brahmans.
त्रयो धर्मा निवर्तन्ते ब्राह्मणात्क्षत्रियं प्रति।
अध्यापनं याजनं च तृतीयश्च प्रतिग्रहः
ब्राह्मण से क्षत्रिय तीन धर्मों अध्ययन, याजन और तीसरा प्रतिग्रह (दान लेना से रहित है।[मनुस्मृति 10.77] 
The Kshatriy is distinguished from the Brahmans by way of not teaching, performing Yagy for others and not accepting Dan-Dakshina.
वैश्यं प्रति तथैवैते निवर्तेरन्निति स्थितिः।
न तौ प्रति हि तान् धर्मान्मनुराह प्रजापतिः
उसी प्रकार वैश्य भी इन तीन धर्मों से निवृत्त है, यही तथ्य है, क्योंकि प्रजापति मनु ने इन लोगों के प्रति ये धर्म नहीं कहे हैं।[मनुस्मृति 10.78] 
The Vaeshy should also discard these three as professions, since Prajapati Manu has not prescribed these for them as well.
शस्त्रास्त्रभृत्त्वं क्षत्रस्य वणिक्पशुकृषिर्विश:।
आजीवनार्थं धर्मस्तु दानमध्ययनं यजिः
क्षत्रिय को हथियार धारण करना और वैश्य को पशुपालन, खेती और जीविका के लिये व्यापार करना चाहिये। इनका धर्म दान देना, अध्ययन और यज्ञ करना है।[मनुस्मृति 10.79] 
The Kshatriy should wear arms and the Vaeshy should attend to animal husbandry (rearing and dairy farming) and farming for subsistence they should adopt trading. Their Dharm-duty is giving away alms (donations, charity, gifts), learning and performance of Yagy.
वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य क्षत्रियस्य च रक्षणम्।
वार्ता कर्मैव वैश्यस्य विशिष्टानि स्वकर्मसु
ब्राह्मण को वेदाभ्यास, क्षत्रिय को प्रजा की रक्षा और वैश्य को व्यापार करना, ये ही उनके विशेष कर्म हैं। [मनुस्मृति 10.80]
The Brahman should specialise-attain expertise in Veds (learning understanding, interpretation-explanation and how to put them to practical use), the Kshatriy in protecting the public and the Vaeshy should be an expert in trading-business. 
अजीवंस्तु यथोक्तेन ब्राह्मणः स्वेन कर्मणा।
जीवेत्क्षत्रियधर्मेण स ह्यस्य प्रत्यनन्तरः
यदि ब्राह्मण अपने यथोक्त कर्म से जीविका न करे तो क्षत्रिय धर्म से जीविका चलावे, क्योंकि क्षात्र धर्म ही उसके निकट धर्म है।[मनुस्मृति 10.81] 
If the Brahman is unable to maintain his family through teaching, performing Yagy for others he may adopt Kshatriy Dharm of saving-protecting others, i.e., he may join army or forces.
Dronachary, Krapachary and Ashwatthama were great warriors unmatched. Parshu Ram made the earth free from the atrocities of Kshatriy 21 times. Dronachary sacrifices his life in Maha Bharat war but remaining three are still alive.
The Brahmns provided training in warfare to the Kshatriy which necessitated expertise in warfare on their part. They had expertise in arms and ammunition as well. The scriptures describe use of fire arms at length which needed expertise on the part of the teacher.

सद्यः पतति मांसेन लाक्षया लवणेन च।
त्र्यहेण शूद्रो भवति ब्राह्मणः क्षीरविक्रयात्
माँस, लाख और नमक बेचने से ब्राह्मण शीघ्र ही पतित हो जाता है और दूध बेचने से तीन ही दिन में शूद्र हो जाता है।[मनुस्मृति 10.92] 
By selling meat, Lac and salt the Brahmn falls from grace-his status soon and by selling milk he turns into a Shudr within three days.
इतरेषां तु पण्यानां विक्रयादिह कामतः।
ब्राह्मणः सप्तरात्रेण वैश्यभावं नियच्छति
इतर पदार्थों (माँसादि को छोड़कर) को स्वेच्छा से बेचने पर ब्राह्मण सात रात में ही वैश्यत्व को प्राप्त करता है।[मनुस्मृति 10.93]
The Brahman turns into a Vaeshy within seven nights by selling low quality, base, forbidden goods.
रसा रसैर्निमातव्या न त्वेव लवणं रसैः।
कृतान्नं चाकृतान्नेन  तिला धान्येन तत्समाः
रस को रस से बदल सकते हैं, किन्तु नमक अन्य रसों से नहीं बदला जा सकता। पक्वान्न कच्चे अन्न और तिल, धान से दोनों बराबर-बराबर तौलकर बदला जा सकता है।[मनुस्मृति 10.94] 
Extracts-Condiments may be bartered for condiments, but salt can not be bartered-exchanged for juices-condiments; cooked food may be exchanged for raw grains & sesame can be exchanges with paddy in equal quantities.
जीवेदेतेन राजन्यः सर्वेणाप्यनयं गतः।
न त्वेव ज्यायंसीं वृत्तिमभिमन्येत कर्हिचित्
इस प्रकार आपत्ति में फंसा हुआ क्षत्रिय अपनी जीविका चला सकता है, परन्तु कभी भी ब्राह्मण की वृत्ति का अबलम्बन न करे।[मनुस्मृति 10.95] 
The Kshtriy facing hard ship-under distress, may earn his livelihood, but he should never follow the means of earning meant for the Brahmns.
यो लोभादधमो जात्या जीवेदुत्कृष्टकर्मभिः।
तं राजा निर्धनं कृत्वा क्षिप्रमेव प्रवासयेत्
जो अधम जाति, मोह से उत्तम वृत्ति से जीवन निर्वाह करता हो, उसको राजा निर्धन करके शीघ्र ही देश से निकाल दे।[मनुस्मृति 10.96] 
One belonging to a lower caste who adopts the prescribed jobs meant for the upper caste by virtue of greed, should be turned out of the state after taking away-acquiring all of his belongings by the king.
At present judges from lower castes, scheduled castes, Christianity, Muslims are appointed who never do justice as per norms discussed in scriptures leading to large scale corruption, nepotism, injustice and anguish.
वरं स्वधर्मो विगुणो न पारक्यः स्वनुष्ठितः। 
परधर्मेण जीवन्हि सद्यः पतति जातितः
अपना धर्म यदि किसी प्रकार खण्डित हो तो भी श्रेष्ठ है, किन्तु दूसरे का धर्म सर्वाङ्ग सम्पन्न होते हुए भी श्रेष्ठ नहीं है; क्योंकि दूसरे के बल पर जीने वाला शीघ्र ही जाति से पतित हो जाता है।[मनुस्मृति 10.97] 
Performance of one's own duties, responsibilities, liabilities is superior to following-doing, practicing others mode of worship, performance, even if one's own practices suffer draw backs compered to others mode of service-worship. Those who indulge in such practices degrade-lower themselves form caste structure and turn into depraved, degraded lot.
Those who converted themselves to Christianity or Islam are degraded people either to to greed or fear. Those who claim others jobs-professions are unable to discharge them properly-sincerely and pave their way to hell. 
वैश्योऽजीवन्स्वधर्मेण शूद्रवृत्त्याऽपि वर्तयेत्।
अनाचरन्नकार्याणि निवर्तेत च शक्तिमान्
यदि वैश्य अपनी जीविका से जीवन निर्वाह न कर सके तो शूद्र वृत्ति से जीविका का निर्वाह करे और शक्तिशाली हो जाने पर उसे छोड़ दे।[मनुस्मृति 10.98] 
If a Vaeshy  is unable to subsist through his profession, he may temporarily adopt the jobs done by Shudr but should desert them as soon as he gains strength and revert to his own profession of business and harvesting, dairy farming.
This is applicable to the all the three Swarn castes-Varn.
अशक्नुवंस्तु शुश्रूषां शूद्रः कर्तुं द्विजन्मनाम्।
पुत्रदारात्ययं प्राप्तो जीवेत्कारुककर्मभिः
यदि द्विजातियों की सेवा करने में शूद्र असमर्थ हो और उसके बीबी-बच्चे अन्नादि का कष्ट पा रहे हों तो वह कारीगरी का काम करके जीविका चला कर सबका भरण-पोषण करे।[मनुस्मृति 10.99] 
In case the Shudr is unable to subsist his family by the service the upper castes, he may resort to skilled jobs-handicrafts to support his family.
During British rule millions of farmers suffered due to Britishers atrocities. Their land, belongings and houses were snatched, burnt or looted. Millions died of hunger famine and epidemic. Those who survived moved to Kolkata and joined factories owned by the British to survive. Today majority of the people living in villages are lured by the city life and they are migrating to cities. They forget their caste structures and engage them selves in dirty-pitiable jobs. Millions are moving to developed countries where they have to do such jobs which they would not have dreamt of or had done in their senses in India or their native place.
आचारः परमो धर्म: श्रुत्युक्त: स्मार्त एव च। 
तस्मादस्मिन् सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् द्विजः॥
श्रुति (वेद) और स्मृति में कहा हुआ आचार ही परम् धर्म है, इसलिये अपनी आत्मोन्नति चाहने वाले ब्राह्मण को हमेशां आचार से युक्त रहना चाहिये।[मनुस्मृति 10.108] 
The emphasis is over the code, conduct, moral, character, behaviour of the Brahmn who is supposed to guide-lead the society in the right direction. The Brahman should strictly follow the tenets of Shruti-Veds (received through hearing by one person to the next, with aide by memory. Rote memory or cramming have to be discarded.) & Smrati-memory. For him & the remaining three Varn the principle guidelines incorporated in the Veds constitute the Dharm-religion. The Brahman who wish to uplift himself spiritually should adhere to these strictly.
आचार्यद्विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते। 
आचारेण तु संयुक्त: सम्पूर्णफलभाग्भवेत्॥
हीन आचार वाले ब्राह्मण को वेद का फल प्राप्त नहीं होता तथा  धर्माचार से युक्त ब्राह्मण को वेद का सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है।[मनुस्मृति 10.109]  
The outcome-reward of the adherence to Veds to the virtuous, righteous, pious, honest, truthful Brahmn is Dharm (Ability to discharge one's duties with ease), Arth (Earning of wealth, honour, respect), Kam (Satisfaction of passions, sensuality, sexuality) & Moksh (Salvation, Liberation and Assimilation in the God-Almighty). The sinner, wicked, viceful (One practicing or habitual  of evil, degrading or immoral, smoker, drunkard, depraved conduct or habits; corrupt, sharpers, desperadoes, pirates and criminals, dishonest etc.) Brahmn never gains the benefits of Veds and leads to lower-inferior species in next births or he is sent to hells.
मानव जीवन के 4 उद्देश्य :: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
FOUR STAGES OF LIFE-ASHRAMS आयु के 4 चरण :: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष एक दूसरे के पूरक हैं। धर्म से मोक्ष और अर्थ से काम साध्‍य माना गया है। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ जीवन में धर्म, अर्थ और काम का महत्व है। वानप्रस्थ और संन्यास में त्याग तथा मोक्ष का महत्व माना गया है।
The 4 stages of life are called Ashrams-the spiritual shelter from cradle to grave-cremation. These Ashrams are the stages to fulfil the goals in life named Dharm Arth, Kam and Moksh. The Ashram system along with caste system is losing its hold during the present cosmic era-Kal Yug.
Early child hood constitutes the first stage in the life as a Brahmchari-celibate. The child is supposed to be with his family, till he acquires an age of 5 years. He in initiated into education by performing Janeu (sacred loin thread) ceremony and sent to Gurukul (School, university) for education. He was provided education according to intelligence and taste in religion, philosophy, martial arts, astrology, medicine, dance-music, animal husbandry etc., depending upon his caste-Varn. Stress was laid over self-discipline, righteousness, piousness, virtuousness.
गुरुकुल व आश्रमों में अध्यापन-शिक्षण-विद्या अध्ययन-वेदाध्यन का प्रावधान होता था। सत्य, तर्क, दर्शन, विज्ञान, धर्म आदि 64 विषयों की शिक्षा का प्रावधान इन गुरुकुलों में होता था।  
ब्रह्मचर्य आश्रम का निर्वाह गुरुकुल में होता था। ये शिक्षा के साथ धर्म के केंद्र भी थे। शुद्ध मन-मस्तिष्क, बुद्धि, चित्त, हृदय, प्राण, ध्यान, जिव्हा संयम, चेतना, पुष्‍ट शरीर, प्रखर-सुसंस्कृत बुद्धि, प्रबुद्ध प्रज्ञा प्राप्त कर स्नातक ग्रहस्थ जीवन में प्रवेश करता था। विवाह सम्पन्न कर सामाजिक दायित्व का व संतानोत्पत्ति कर पितृऋण-पितृ यज्ञ का निर्वाह-सम्पादन करता था।
वैदज्ञ मानते हैं कि ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम में रहकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का ज्ञान प्राप्त करते हुए व्यक्ति को 50 वर्ष की उम्र के पश्चात वानप्रस्थ आश्रम में रहकर धर्म और ध्यान के साथ मोक्ष की अभिलाषा सहित मुमुक्ष हो चाहिए।
प्रत्येक गुरुकुल व आश्रमों की अपनी व्यवस्था-नियम होते हैं। आश्रम शिक्षा, धर्म और ध्यान व तपस्या के केंद्र थे। राज्य व समाज आश्रमों को आर्थिक सहायता प्रदान करते थे। मंदिर में पुजारी-पुरोहित, मठ-आश्रम में मठाधीश-महंत, गुरुकुल में कुलपति, प्राचार्य व आचार्य होते थे। राज्य को अनुशाषित रखने  में इनकी अहम् भूमिका होती थी। राज्य, समाज, मंदिर, गुरुकुल और आश्रम मिलकर धर्म संघ का निर्माण करते थे।
कलियुग में व्यक्ति की उम्र 100 वर्ष मानकर  ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास, 4 आश्रमों में बाँटा गया है।
BRAHMCHARY ASHRAM-CELIBACY (ब्रह्मचर्य आश्रम) :: 25 वर्ष तक की आयु में शरीर, शिक्षा, मन और ‍बुद्धि का विकास।
This period is divided into various stages i.e., Shaeshwawstha (शैश्वावस्था, 0-2 years), Balyawastha (बाल्यावस्था, 3-12) years, Koumaryawastha (कौमार्यावस्था, 12-18 years), Kishorawastha-Trunawastha (किशोरावस्था, तरुणावस्था, 18-25 years). This is the period for celibate and simple living, free from sense of pleasure and material allurement, serving the guru (teacher), collection of alms, study (understand, assimilate) the Veds in addition to normal trades, develop appropriate qualities: humility, discipline, simplicity, purity of thought, cleanliness, soft-heartedness etc. 
GRAHASTH ASHRAM-HOUSE HOLD-FAMILY (गृहस्थ आश्रम, 25-60) years) :: 25 से 50 वर्ष की आयु। विवाह कर पति-पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह, व्यवसाय नौकरी करते हुए अर्थ और काम का सम्पादन।
It constitutes of married-family life as a household. Youvan (यौवन), normally continue till 35-40 years. One earns sufficient money for his family and looks after day today needs. Thereafter, one turn into a Proudh-mature and this stage is termed as Proudhavastha (प्रौढ़ावस्था), the stage of maturity continues till 60 years of age. There after its Vraddhawastha-old age.
This is the period for earning and accumulating for the lean season, enjoy sensual pleasure according to ethical principles, performing and observing sacrifices, religious rituals, protection  and nourishment of  family members (wife, children and elders), educating children spiritual-ethical values-norms, charity-donations according to capacity-capability and feed holy people, Brahmns, the poor and animals.
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने वाला व्यक्ति, यथाविधि विद्या अध्ययन करके, सत्कर्मों द्वारा धन का उपार्जन करने के उपरांत ही, सुंदर लक्षणों से युक्त कन्या से शास्त्रोक्त विवाह करे। घर में भूख से तरसते बच्चे, पत्नी, माँ-बाप, चिथड़ों में लिपटे परिवार के सदस्यों को देखना किसे अच्छा लगता है!? अगर ग्रह्स्वामी का दिल इससे भी विचलित नहीं होता तो वह वज्र के समान कठोर है और उसका जीवन   व्यर्थ है। धन के बगैर गृहस्थ जीवन बेमानी है। धन, स्त्री व संतान, त्रिवर्ग :: धर्म, अर्थ और काम में सहायक हैं। स्त्री विहीन पुरुष के सभी धर्म कार्य असफल ही रहतें हैं। विवाह व परामर्श, हमेंशा समान कुल (शील, धन और विद्या) में ही उचित है। इसी में प्रेम, स्नेह, मित्रता रहती है। धनवान व्यक्ति को विद्या, कुल, शील आदि गुणों से युक्त माना जाता है। शास्त्र, शिल्प, कला या कोई भी कैसा भी कर्म-उद्यम क्यों न हो, धन से ही संभव है। धन से ही पुण्य अर्जित होते हैं। धन व पुण्य  एक दूसरे के कारक-पूरक हैं।
स्नातक के सामान्य नियम :: स्नातक आचार्य के मुख से गृहस्थ जीवन के लिये पालनीय नियमों को श्रद्धापूर्वक सुने। पारस्कर गृह्य सूत्र के "स्नातकस्य वमान्वक्ष्याम:", में स्नातक को अनुसरण करने हेतु नियमों दिये गये हैं।
(1).  नाचने-गाने तथा बजाने का काम न स्वयं करे और न ही दूसरों द्वारा अनुष्ठित ऐसे कार्यों में भाग ले। 
(2). यदि सब कुछ ठीक हो तो रात्रि में दूसरे गाँव में न जायें और न अनावश्यक दौड़ें। 
(3). कुँए में न झाँके, पेड़ पर न चढ़े, कच्चे फल तोड़कर न गिराये, सन्धि वेला में यात्रा न करे और जीर्ण द्वार से गमन न करे तथा परस्पर मैत्री में भेद उपस्थित न करे, नग्न होकर स्नान न करे, ऊबड़-खाबड़ भूमि को न लाँघे, लज्जा जनक अमंगलकर तथा निष्ठुर वाक्यों को न बोले, सन्धि वेला में सूर्य दर्शन न करे, समावर्तन के बाद भिक्षाटन न करे। 
(4). जल में अपनी परछाईं न देखे। 
(5). अपने बछड़े को दूध पिलाती हुई गाय के बारे में दूसरे से न कहे। 
(6). उर्वर भूमि या बंजर भूमि पर खड़े होकर या कूद-कूद कर मल-मूत्र का त्याग न करे। 
(7). अपवित्र एवं निषिद्ध वस्त्र न पहने। 
(8). निष्ठापूर्वक अपने व्रत नियम का पालन करे  तथा हिंसा से अपनी तथा दूसरों की भी रक्षा करे। 
(9). सर्वतोभावेन अपनी रक्षा करे। 
(10). सभी के साथ मित्रवत व्यवहार करे। 
(11). स्नातक को समावर्तन संस्कार से तीन दिन तक व्रत रखना चाहिये। 
(12). माँस न खाये तथा मिट्टी के बर्तन में जल न पीये। 
(13). मरणाशौच से युक्त व्यक्तियों का, शूद्र का तथा जननाशौच वाले लोगों का अन्न नहीं खाना चाहिये। 
(14). धूप में मल-मूत्र का त्याग न करे। 
(15). रात्रि में दीपक जलाकर ही भोजन करे, अंधकार में भोजन न करे। 
(16). सदा सत्य बोले, मिथ्या भाषण न करे। 
गृहस्थाश्रम एवं धर्म :: गृहस्थाश्रम सबसे श्रेष्ठ है; Family way-life (house hold) is superior to the other Ashram Dharm.
धर्म से ही अर्थ और काम उत्पन्न होते हैं; Dharm generates Arth-money as well as Kam-passions.
मोक्ष भी धर्म से ही उत्पन्न होता है; Salvation (emancipation, liberation, assimilation) in God too is generated through Dharm.
धर्म, अर्थ और काम, क्रमश: सत्व, रज, तम के द्योतक हैं; Dharm, Arth, Kam represent Satv, Raj and Tam respectively.
जिस व्यक्ति में धर्म से समन्वित अर्थ और काम व्यवस्थित रहते हैं, वह मोक्ष को  प्राप्त करता है; One who achieves equanimity with Dharm by systematic balancing Arth and Kam attains the Ultimate-the Almighty.
धर्म का तात्पर्य  है, अपने कर्तव्य का भली भाँति निर्वाह।
मोक्ष प्राप्ति का सबसे सुगम उपाय :: अपने कर्तव्य को मेहनत, ईमानदारी, भरोसे के साथ, धर्म समझ कर पालन करना।
मनुष्य को चाहिये कि वह अपने कर्तव्य से भागे नहीं-विमुख न हो। उसका पूरी निष्ठा से पालन करे। 
गृहस्थ धर्म का पालन सन्यास से भी उत्तम है। 
यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः। 
तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते आश्रमाः॥
जैसे वायु के आश्रय सभी प्राणी जीते हैं, वैसे ही सब आश्रम गृहस्थाश्रम से जीते हैं।[मनु स्मृति 3.77] 
The way all creatures depend over air for their survival, all stages of life depend over the house hold for their continuance-subsistence-survival.
यस्मात्र्योSप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम्। 
गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही॥
तीनों आश्रम (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्यास) गृहस्थों के द्वारा नित्य वेदार्थज्ञान की चर्चा और अन्नदान से उपकृत होते है, इस कारण सभी आश्रमों में गृहस्थाश्रम बड़ा होता है।[मनु स्मृति 3.78] 
The family way-house hold, is superior to the remaining 3 stages of life viz. Brahmchary-till 25 years, Van Prasth 50-75 years and Sanyas 75-100 years of age; since its only the Grahasth Ashram which supports them by attending to the discussion of Veds and provision for food grain for them.
Its not advisable to renounce the world-house hold responsibilities i.e., running away from responsibilities to become a recluse or wanderer, since relinquishment is not possible unless-until one fulfils his responsibilities-discharges his duties-liabilities. Kapil Muni and Adi Shankra Chary were reverted to house hold to deliver their liabilities of marriage, progeny and their settlement in life. Guru Gorakh Nath's father turned into a Sanyasi and later reverted to family life. A youth does not become Sanyasi just by wearing saffron robs. He is not entitled to become head of a religious sect or seat. One has to be a Brahman by virtues-deeds to head a sect or seat. He can not join politics. He can not head a government. Relinquished-Videh Raja Janak lived in the palace and ruled the country. He fulfilled all his responsibilities as a father & house hold. He lived the life of a sage-saint but never poses to be a Sanyasi.
स सन्धार्य: प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता। 
सुखं चेहेच्छता नित्यं योSधार्यो दुर्बलेन्द्रियः॥
अक्षय स्वर्ग पाने की इच्छा वाले को और इस लोक में भी सुख चाहने वाले को यत्नपूर्वक ऐसे गृहस्थाश्रम का पालन करना चाहिये। गृहस्थाश्रम का धारण करना दुर्बल इन्द्रियोँ से नहीं होता।[मनु स्मृति 3.79]  
One who want to settle in the heaven for ever and wants comforts over the earth as well; should make endeavours to fulfil-discharge his duties as a house hold. Its not possible to sustain the duties of the house hold with weak senses.
One has to be firm to serve his family, city and the country and thereafter think of serving the entire world. 
Fulfilment of obligations towards family is essential to become a recluse, saint, sage, Sanyasi.
ऋषयः पितरो देवा भूतान्यतिथयस्तथा। 
आशासते कुटुम्बिभ्यस्तेभ्यः कार्यं विजानता॥
ऋषि, पितर, देवता, जीव-जन्तु और अतिथि, ये कुटुम्बियों-गृहस्थों से पाने की आशा रखते हैं, शास्त्रज्ञ पुरुष उन्हें सन्तुष्ट रखे।[मनु स्मृति 3.80]  
The sages, Sadhus, saints, recluse, wanderers, the Manes, the demigods & deities, the insects, creatures, animals etc. and the guests-who reach the door of the house hold without intimation or invitation expect the family person to give them some thing  to eat. 
The demigods and the deities do visit the house hold in disguise as beggars to ask for their share of the earnings by the house hold. The house hold should separate 1/6th of his earning for the purpose of charity-donations. One can give food, clothing, money as per his capacity. 
When Dharm Raj visited a poor Brahman's house begging for food in disguise, the whole family preferred to remain hungry but serve the visitor. The family was hungry for several days and had collected the food grain from the fields left over by the farmers. Yam Raj-Dharm Raj was very much pleased with them and granted them place in the heavens.
स्वाध्यायेनार्चतर्षीन्होमैर्देवान्यथाविधि। 
पितृश्राद्धैश्र्च नृनन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा॥मनु स्मृति 3.81॥
वेदाध्ययन से ऋषियों का, होम से देवताओं का, श्राद्ध और तर्पण से पितरों का, अन्न से अतिथियों का और बलिकर्म से प्राणियों का सत्कार करना चाहिये।[मनु स्मृति 3.81]   
The host-house hold should welcome-honour the sages by studying-reciting the Veds, the demigods-deities by making offerings in the holy fire, the manes by offerings, prayers and charity, the guests by offering food and the creatures by sacrifices.
कुर्यादहरह: श्राद्धमन्नाध्येनोदकेन वा। 
पयोमूलफलैर्वाSपि  पितृभ्यः प्रीतिमावहन्॥
अन्नादि से या जल से या दूध से या फल-फूलों से पितरों की प्रसन्नार्थ नित्य श्राद्ध करे।[मनु स्मृति 3.82]  
One should perform daily rites-offerings with the help of food grains, water, milk, fruits, flowers, with either anyone of them or all of them, as per his ability for the appeasement-happiness of the Manes.
This is just pay off the debt over us for the Manes who brought the humans to this world to perform righteous, virtuous, pious acts, so that the humans could attain Salvation. 
एकमप्याशयेद्विप्रं पित्रर्थे पञ्चयज्ञिके। 
न चैवात्रशयेत्किंञ्चिद्वैश्र्वदेवं प्रति द्विजम्॥
पंचयज्ञ के अन्तर्गत पितृ के निमित्त एक ब्राह्मण को अवश्य भोजन करावे, पर वैश्य देव के निमित्त ब्राह्मण को भोजन कराने की आवश्यकता नहीं है।[मनु स्मृति 3.83]   
Under the procedure of Pitr Yagy, the household must offer food to one Brahmn for the satisfaction of the Manes. For the sake of Vaeshy Dev there is no such compulsion.
वैश्यदेवस्य सिद्धस्य गृह्येSग्नौ विधिपूर्वकम्। 
आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥मनु स्मृति 3.84॥
वैश्य देव के लिये पकाए अन्न से, ब्राह्मण गार्हपत्य अग्नि में, आगे कहे हुए देवताओं के लिये प्रति दिन हवन करे।[मनु स्मृति 3.84]  
The Brahman should perform Hawan as per description that follows, into the Garhpaty Agni, for Vaeshy Dev with the cooked food grains, for the sake-satisfaction, appeasement of deities, demigods.
गार्हपत्य अग्नि का एक प्रकार है। अग्नि तीन प्रकार की है :- (1). पिता गार्हपत्य अग्नि हैं, (2). माता दक्षिणाग्नि मानी गयी हैं और (3). गुरु आहवनीय अग्नि का स्वरूप हैं॥ वेद॥ 
Garhpaty Agni is a type of fire. Veds describe fire by the name of father, mother and the Guru-teacher.
अग्ने: सोमस्य चैवादौ तयोच्श्रैव समस्तयो:। 
विश्रेव्भ्यच्श्रैव  देवोभ्यो धन्वन्तरय एव च॥
पहले अग्नि और सोम को फिर दोनों को एक साथ "अग्निसोमाभ्यां स्वाहा:" कहकर आहुति दे, तदनन्तर विश्वदेव और धन्वंतरीको आहुति दे।[मनु स्मृति 3.85]   
First offering should be made to fire and the next to Som (Moon-Luna) followed by a joint offering to both by spelling "Agnisomabhyaan Svaha:", thereafter offering should be made to Vishw Dev and then to Dhanvantri.
Dhanvantri is demigods physician.
कुह्वै चैवानुमत्यै  च प्रजापतय एव च। 
सहद्यावापृथिव्योश्र्च तथा स्विष्टकृतेSन्तपः॥
फिर कुहू को, अनुमति को, प्रजापति को आहुति दे, द्यो: पृथिवी को एक साथ आहुति दे। अन्त में स्विष्टकृत् अग्नि को आहुति दे।[मनु स्मृति 3.86]   
The household should sacrifice offerings in holy fire for the sake of Kuhu, Anumati, Prajapati, the earth and the fire form Swishtkrat it self.
कुहू :: कोयल की कूक या बोली, मोर की केका-ध्वनि, अमावस्या की अधिष्ठात्री देवी या शक्ति, अमावस्या की रात, छलना, प्रवञ्चना;  The goddess-deity of the no moon night.
स्विष्टकृत् अग्नि :: The fire which performs the sacrifice well.
अनुमति :: आज्ञा, हुकुम, कोई काम करने से पहले उसके संबंध में अधिकारी से मिलने या ली जानेवाली स्वीकृति, अनुज्ञा, पूर्णिमाकीअधिष्ठात्री देवी या शक्ति; Sanction, assent, counsel, decree, advice, permission, The goddess-deity of the full-moon night.
एवं सम्यग्धविर्हुत्वा सर्वदिशु प्रदक्षिणम्। 
इन्द्रान्तकाप्पतीन्दुभ्यः सानुगेभ्यो बलिं हरेत्॥
इस प्रकार होम करके सारी दिशाओं में दक्षिण क्रम से इन्द्र, यम, वरुण और सोम को तथा साथ ही साथ उनके अनुयायियों को बलि देनी चाहिये।[मनु स्मृति 3.87]   
यथा पूर्व दिशा में इन्द्राय नमः इंद्रपुरुषेभ्यो नमः, दक्षिण में यमाय नमः यमपुरुषेभ्यो नमः, पश्चिम में वरुणाय नमः वरुणपुरुषेभ्यो नमः, उत्तर दिशा में सोमाय नमः सोमपुरुषेभ्यो नमः। 
Having performed the holy sacrifices in fire the household should recite the holy Mantr-verses directed to Indr-the King of heaven, facing east  as :- Om Indray Namh Om Indr Purushebhyo Namh, to Yum-the deity of death, religion and deeds facing south as :- Om Yamay Namh Om Yum Purushebhyo Namh, to Varun-the deity of water facing west as :: Om Varunay Namh Varun Purushebhyo Namh and then to Moon-the king of Brahmns as :- Om Somay Namh Om Som Purushebhyo Namh.
मरुद्भ्य इति तु द्वारि क्षिपेदप्स्वद्भ्य इत्यपि।
वनस्पतिभ्य इत्येवं मुसलोलूखले हरेत्॥
मरुत को द्वार पर, आप-जल को जल में, वनस्पति को मूसल और उलूखल में बलि दे।[मनु स्मृति 3.88]   
Offerings to Marut-air be made at the entrance-door, to Varun in water, to plantation-vegetation in Musal or Ulukhal made of wood.
मूसल :: Muller, (pestle, plunger, ponder, flail, pestle and the mortar) is made of wood and used to separate chaff from grain.
उलूखल :: A mortar for crushing or cleaning rice, grinding ingredients.
उच्छीर्षके श्रियै कुर्याद्भद्रकल्यै च पादत:। 
ब्रह्म वास्तोष्पतिभ्यां तु वास्तुमध्ये बलिं हरेत्॥
वास्तु पुरुष के शीर्ष भाग (उत्तर-पूर्व दिशा) में लक्ष्मी को, पद प्रदेश (दक्षिण-पश्चिम) में भद्र काली को, ब्रह्मा और वास्तुपति को वास्तु के मध्य भाग में बलि दे।[मनु स्मृति 3.89]   
Offerings to Maa Lakshmi should be made at the top segment of Vastu Purush (North East direction), to Maa Bhadr Kali offering should be made at the lowest segment-foot of the Vastu Purush while offering to Brahma Ji and the Vastu Pati himself be made at the centre of the Vastu Purush.
विश्वेदेवश्र्चैव देवेभ्यो बलिमाकाश उत्क्षिपेत्। 
दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नक्तञ्चारिभ्य एव च॥
वैश्यदेव को आकाश में और दिन चर प्राणी को दिन में रात्रि चर प्राणी को रात में बलि दे।[मनु स्मृति 3.90]   
Offerings for sake of the micro or divine creatures, including ghosts or the diseased be made in the sky, for the sake of the living beings it should be made during the day and offerings for the sake of the goblins that walk at night be made during the night only.
वैश्यदेव :: पंच महायज्ञों मे से भूतयज्ञ नाम का चौथा महायज्ञ। सूक्ष्म, दिव्य जितने भी प्राणी या देव, सबों को तृप्त करने की भावना से भोज्य सामग्री की हवि प्रदान करना ही भूत या वैश्यदेव यज्ञ है। इससे व्यक्ति का हृदय और आत्मा विशाल होकर अखिल विश्व के प्राणियों के साथ एकता सम्मिलित का अनुभव करने में होता है।
पृष्ठवास्तुनि कुर्वीत बलिं सर्वात्मभूतये। 
पितृभ्यो बलिशेषं तु सर्वं दक्षिणतो हरेत्॥
वास्तु के पृष्ठभाग में सर्वात्मभूत को और बचे हुये अन्न को लेकर वास्तु के दक्षिण भाग में पितरों को बलि दें।[मनु स्मृति 3.91]   
Let be sacrifices be offered in front of the Vastu Purush to the one who is the past of every one  and then rest of the food be put behind the back of the Vastu Purush for the sake of manes.
सर्वात्मभूत :: Common originator of every one.
भूत :: ghost, a spirit, goblin.
शुनां च पतितानां श्र्वपचां पापरोगिणाम्। 
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि॥
कुत्तों, पतितों, श्र्वपचों, पाप रोगियों, कौओं और कीड़े-मकोड़ों के लिये धरती पर धीरे से बलि रखे। [मनु स्मृति 3.92]  
The offerings meant for the dogs, downtrodden-low castes, shrvapach and those infected with diseases, crows, insects-worms be placed over the earth gently-with honour.
Never waste the food. The food offered to the needy must be handed over with due respect-honour.
एवं यः सर्वभूतानि ब्राह्मणों नित्यमर्चति। 
स गच्छति परं स्थानं तेजोमूर्ति पथर्जुना॥
इस प्रकार जो ब्राह्मण सब प्राणियों का नित्य पूजन करता है, वह सीधे रास्ते से तेजोमय परमस्थान को जाता है।[मनु स्मृति 3.93]   
The Brahm who undertake the worship of all animals-beings every day, goes to the Ultimate bright-glowing abode, though a straight path.
कृत्वैतद् बलिकर्मैवमतिथिं पूर्वमाशयेत्। 
भिक्षां च भिक्षवे दद्याद्विधिवद् ब्रह्मचारिणे॥
इस प्रकार बलि वैश्र्वदेव कर्म करके पहले अतिथि को भोजन करावे और सन्यासी तथा ब्रह्मचारी को उचित रीति से भिक्षा दे।[मनु स्मृति 3.94]   
One should feed the guests, provide sufficient Dakshina-fee to the sages-ascetics and the celibates-Brahmchary with due procedure, after completion of the offerings to the deceased, ghosts, spirits, goblins etc.  
यत्पुण्यफलमाप्नीति गां दत्त्वा विधिवद् गुरो:। 
तत्पुण्यफलमाप्नीति भिक्षां दत्त्वा द्विजो गृही॥
गुरु को विधिपूर्वक गौ देने से जो पुण्य फल प्राप्त होता है, वह गृहस्थ भिक्षा देने से प्राप्त करता है।[मनु स्मृति 3.95]   
The household receives the same auspicious reward by giving alms, which is available to him by donating a cow to his Guru-priest with due procedure.
भिक्षाम्पयुदपात्रं वा सत्कृत्य विधिपूर्वकम्। 
वेदतत्वार्थविदुषे ब्राह्मणायोपपादयेत्॥
गृहस्थ अधिक अन्न के अभाव में थोड़ा सा भी पवित्र अन्न या जल विधिपूर्वक सत्कार करके वेद के तत्वार्थ जानने वाले ब्राह्मण को दे।[मनु स्मृति 3.96]   
The house hold should make it convenient to make offerings to the enlightened Brahmn who knows the gist of the Veds to his capability, in the absence of sufficient food grain or just offer water.
नश्यन्ति हव्यकव्यानि नराणामविजानताम्। 
भस्मीभूतेषु विप्रेषु मोहाद्दत्तानि दातृभि:॥
दाता विद्याध्ययन रहित निस्तेज ब्राह्मणों को अज्ञानवश जो हव्य-कव्य देवादि के तृप्त्यर्थ देता है, वह निष्फल हो जाता है।[मनु स्मृति 3.97]   
The donor do not get reward-return for the oblation made to the Brahmns-who are not versed with Veds, for the satisfaction of demigods and the Manes,  due to his ignorance.
विद्यातपः समृद्धेषु हुतं विप्रमुखाग्निषु। 
निस्तारयति दुर्गाच्च महतश्र्चैव किल्विषात्॥
विद्वान और तपस्वी ब्राह्मणों को मुखाग्नि में दिया हुआ हव्य-कव्य (इस लोक में) अनेक प्रकार के संकटों से और (परलोक में) महान् पाप से बचाता है।[मनु स्मृति 3.98]   
Offerings made to the learned-scholar Brahmns for eating i.e., food; protects one from troubles in the current birth and from the sins in the following births.
संप्राप्ताय त्वतिथये प्रदद्यादासनोदके। 
अन्नन् चैव यथाशक्ति सत्कृत्य विधिपूर्वकम्॥
स्वयं आये हुए अतिथि को पहले आसन और जल देना चाहिये। तदनन्तर सत्कार पूर्वक यथाशक्ति व्यञ्जनादि से युक्त अन्न खिलाना चाहिये।[मनु स्मृति 3.99]   
The household should offer cushion-seat and water to drink, to the guest; who has arrived uninvited by himself and thereafter he should be served with delicacies-food as per one's capability.
One should be extremely cautious in handling the guests these days. The guest may harm the house holder very easily. One should remember the story of the abduction of Maa Sita by Ravan. Friendly entry into the house is proving deadly these days. Such people commit all sorts of crime like loot, abduction, dacoity, rape, murder etc., before they decamp with the booty.
शिलानप्युञ्छतो नित्यं पञ्चाग्नीनपि जुह्वत:। 
सर्वं सुकृतमादत्ते ब्राह्मणोंSनर्चितो वशन्॥
फसल कटने पर खेत में गिरे हुए अन्न को चुनकर निर्वाह करने वाला और नित्य पंचाग्नि सेवन करने वाले व्यक्ति-ब्राह्मण के यहाँ भी अतिथि सत्कार न हो तो, वह अतिथि उसका सारा पुण्य ले लेता है।[मनु स्मृति 3.100]   
The uninvited-untimely guest who is not honoured by one-Brahman who survives-lives over the food grain collected by him from the ground-field left over by the farmers, snatches all the merit gains by the household-Brahman.
तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता। 
एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदाचन॥
अतिथि-ब्राह्मण के लिये तृणासन, ठहरने की जगह, पैर धोने के लिये पानी और मधुर और सत्य वाणी, इन चारों का अभाव तो सज्जनों के यहाँ कभी नहीं होता।[मनु स्मृति 3.101]  
A decent house hold has no scarcity of cushion made of straw, place to live-gust room, water for washing legs-feet and lovely-sweet words for the Brahmn who has honoured him by becoming his guest. However, food is an essential item.
Munshi Prem Chand wrote a story of a poor villager named Shankar who borrowed one Ser of wheat floor to feed a sage and lived a life of a bonded labour throughout his life. His children too became bonded labour for not repaying the debt of one handful of wheat floor. Remember, not to go beyond capacity in honouring a guest.
Indian System Vs British System Metric System ::
1 Tola  ≈ 0.375 t oz 11.66375 g
1 Ser (80 Tola) 2.5 t lb ≈ 2.057 lb ≈ 2 lb 1 oz 0.93310 kg
1 Maund (40 Ser) 100 troy lb 37.324 kg
Indian System Vs Metric System ::
1 Tola = 11.664 g
1 Ser (80 Tola) = 933.10 g
1 Maund (40 Ser) = 37.324 kg
The Hindu always try to improve his next birth and forgets to correct the drawbacks in the current birth. Dharm-Karm is alright but one must not ignore the house hold duties-chores. One should never shirk work. Prayers are a must but they too need money and just earnings.
एकरात्रं तु निवसन्न तिथिर्ब्राह्मण: स्मृत:। 
अनित्यं हि यस्मात्तस्मादतिथिरुच्यते॥
दूसरे के घर एक रात जो ब्राह्मण निवास करे वह अतिथि है। उसका रहना नित्य नहीं होता, इसी से वह अतिथि कहलाता है।[मनु स्मृति 3.102]  
The Brahman who spends one night in other's home is an untimely-uninvited guest i.e., ATITHI. He is Atithi-guest since he has to spend just one night in other's home. One who visits without appointment and stays at host's house, is Atithi. (Tithi-date, Atithi-without appointment-fixed time, schedule.)
नैकग्रामीणमतिथिं विप्रं सांङ्गतिकं तथा। 
उपस्थितं गृहे विद्याद्भार्या यत्राग्नयोSपि वा॥
उसी गाँव में रहने वाला, विचित्र कथाओं से अपनी जीविका चलाने वाला कोई मनुष्य यदि (वैश्वदेव कर्म के समय भी) अतिथि बनकर घर पर उपस्थित हो, सपत्नीक अग्निहोत्री गृहस्थ उसे अतिथि न जाने।[मनु स्मृति 3.103]  
The house hold who is performing sacrifices in holy fire pertaining to Vaesh Dev along with his wife, should not consider-entertain a person to be his guest, who lives in the same village and earns his lively hood by telling strange, quirky, freakish stories.
उपासने ये गृहस्था: परपाकमबुद्धय:। 
तेन ते प्रेत्य पशुतां व्रजन्त्यन्नादिदायिनाम्॥मनु स्मृति 3.104॥
जो गृहस्थ अज्ञान वश दूसरे का अन्न खाते फिरते हैं, वे इस कारण-दोष से जन्मान्तर में अन्नदाताओं के पशु होते हैं। 
The ignorant house hold who venture eating food of others, get rebirth as animals of those who fed them.
CATION :: One should avoid burdening the household unnecessarily by frequent visits. As far as possible, one should desist from accepting any sort of gratification, unless-until its a matter of survival, from any one, even from the government, in the form of subsidies, stipends, scholarships etc. One should support himself and his family through the earnings, obtained through virtuous, righteous, pious, honest means only.
अप्रणोद्योSतिथि: सायं सूर्योढो गृहमेधिना। 
काले प्राप्तस्त्वकाले वा नास्यानश्नन्गृहे वसेत्॥मनु स्मृति 3.105॥
सूर्यास्त के समय यदि कोई अतिथि-अभ्यागत, घर पर आ जाये तो उसे नहीं टालना चाहिए। अतिथि समय पर आये या असमय उसे भोजन अवश्य करा दे। 
The Atithi-guest who reaches the house should not be turned away by the house hold. He may reach in proper time or other wise (odd hours), must be served with food.
न श्रीवै स्वयं तदयादतिथिं यन्न भोजयेत्। 
धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं  वाSतिथि पूजनम्॥मनु स्मृति 3.106॥
जो पदार्थ स्वयं न खाये उसे अतिथि को न भी परोसे। स्वयं अतिथि पूजन से धन, यश और आयु की वृद्धि होती है तथा जन्मान्तर में स्वर्ग सुख प्राप्त होता है। 
The house hold should not serve the food which he himself is not willing to take-eat. Serving the guest-Atithi grants wealth, fame and longevity in the present birth and ensures all comforts-bliss in the next births.
DAINTY :: मिठाइयाँ, ललित, शिष्ट, स्वादिष्ट, सजीला, नुकताचीन, सूक्ष्म, सुरूप, मज़ेदार, तुनुकमिज़ाज, सुशोभन, नकचढ़ा, रुचिर, प्रसाद, सुहावना, स्वादिष्ट वस्तु, सभ्य; sweetmeats, sweet stuff, pastry, candy, fine, genteel, bijou, delectable, pretty, elegant, suave, urbane, decorous, courteous, tasty, yummy, palatable, nice, stylish, plushy, swanky, posh, meticulous, finicky, carping, snappish, subtle, meticulous, minute, scrupulous, sensitive, decent, civilised, civil, polite, recherche, ornate, soigne, silk-stocking, beautiful, shapely, good-looking, silk-stocking, nutty, toothsome, jumpy, spitfire, choleric, finicky, pettish, choosy, squeamish, finical, delicious, delectable, prasad, lucidity, delightful, set fair.
आसनावसथौ शय्यामनुव्रज्यामुपासनाम्। 
उत्तमेषुत्तमं कुर्याद्धीने हीनं समे समम्॥मनु स्मृति 3.107॥
आसन, विश्राम स्थान, शय्या, अनुगमन और परिचर्य्या-ये अतिथियों की योग्यता देखकर करे, जैसे व्यक्ति हो उसके साथ वैसा ही व्यवहार करे अर्थात बड़े-छोटे का ख्याल न रखकर उनके सम्मान की व्यवस्था करे। 
The household should arrange for the seats, rest room, bedding, follow up their needs and give due-proper respect while departing, according to one's ability-status. However, he should not discriminate between them on the basis of their age.
वैश्वदेव तु निर्वृत्ते यद्यन्योSतिथिराव्रजेत्। 
तस्याप्यन्नन् यथाशक्ति प्रदद्यान्न बलिं हरेत्॥मनु स्मृति 3.108॥
बलि वैश्वदेव कर्म समाप्त होने पर यदि दूसरा अथिति आवे तो उसे भी पुनः पाक करके यथाशक्ति भोजन करावे। पर उस अन्न की बलि न करे।
If yet another guest turn up after the completion of the Vaeshv Dev sacrifices, the house hold should prepare the food yet again; but he should not make sacrifices with it.
Some misguided people draw the meaning of BALI-sacrifice as human or animal sacrifices and butcher horse, buffalo, cows, goats, hens etc. which is not permissible in scriptures. The Veds do not permit consumption of meat or sacrificing of animals.
न भोजनार्थ स्वे विप्र: कुलगोत्रे निवेदयेत्। 
भोजनार्थ हि ते शंसन्वान्ताशीत्युच्यते बुधै:॥मनु स्मृति 3.109॥
भोजन के लिये ब्राह्मण किसी से अपने कुल गोत्र में निवेदन न करे, क्योंकि ऐसा करने वाले ब्राह्मण को पण्डितजन वमन भोक्ता कहते हैं। 
A Brahman should request the households in his own clan for food, since he will be called a Vaman (vomited) Bhokta (consumer) one who eats the vomited.
न ब्राह्मणस्य त्वतिथिर्गृहे राजन्य उच्यते। 
वैश्यशूद्रौ सखा चैव ज्ञातयो गुरुरेव च॥मनु स्मृति 3.110॥
यदि ब्राह्मण के घर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र , मित्र, बिरादरी के लोग और गुरु आवें तो अतिथि नहीं कहे जाते। 
Kshatriy, Vaesh, Shudr, friends, people of the community and Guru are not covered under the category of Atithi if they visit the house of Brahmn.
यदि त्वतिथिधर्मेण क्षत्रियो गृहमाव्रजेत्। 
भुक्तवत्सु च विप्रेषु कामं तमपि भोजयेत्॥मनु स्मृति 3.111॥
यदि कोई क्षत्रिय अतिथि-रूप से घर पर आ जाये तो अतिथि ब्राह्मणों को भोजन कराके गृहस्थ उसे भी भोजन करा दे। 
The household should serve food to the Kshtriy after serving the Atithi, if he visits home as a guest-Atithi.
वैश्यशूद्रावपि प्राप्तौ कुटुम्बेSतिथिधर्मिणौ। 
भोजयेत्सह भृत्यैस्तावानृशंस्यं  प्रयोजयन्॥मनु स्मृति 3.112॥
यदि वैश्य या शूद्र अतिथि रूप में ब्राह्मण के घर आ जायें तो उन्हें दया-धर्म पूर्वक भृत्यों के साथ भोजन कराना चाहिये। 
If a Vaeshy or a Shudr reaches the house of a Brahmn, he should be served meals along with the servants with compassionate disposition.
Normally, one from trading community-a Vaeshy does not accept meals from the Brahmns family. However, a Shudr has the right to receive meals from the Brahmns. It has been seen that the Brahmns engaged in farming used to pay the Shudr-servants in the form of farm proceeds,  before carrying it to their home.
इतरानपि सख्यादीन्सम्प्रीत्या गृहमागतान्। 
प्रकृत्यान्नन् यथाशक्ति भोजयेत्सहभार्यया॥मनु स्मृति 3.113॥
क्षत्रियादिकों के अतिरिक्त अन्य, बाँधवों को भी प्रेम से अपने यहाँ आये हों तो पत्नी के साथ भोजन के समय यथाशक्ति उत्तम भोजन करना चाहिये। 
If the Kshtriy-people from marshal castes have turned up as Atithi-guests, the Brahmn should serve him meals along with the relatives and family members, with the help of his wife.
सुवासिनी: कुमारीश्च रोगिणो गर्भिणी: स्त्रिय:। 
अतिथिभ्योSग्र एवैतान्भोजयेदविचारयन्॥मनु स्मृति 3.114॥
नई बहू, कन्या, रोगी और गर्भिणी स्त्रियाँ, इन सबको अतिथियों के पहले बिना विचारे भोजन करा दे। 
The house hold should serve food prior to the Atithi-guest, to the kids-infants, newly wed daughter in law, daughters-girls, patients-sick-ill and the pregnant women, without giving a second thought.
अदत्त्वा तु य एतेभ्य: पूर्वं भुङ्क्तेSविचक्षण:। 
स भुञ्जानो जानाति श्र्वगृध्रैर्जग्धिमात्मनः॥मनु स्मृति 3.115॥
जो अज्ञानी इन सबको न खिलाकर पहले स्वयं खाता है, वह यह नहीं जानता कि मरने के बाद उसके शरीर को कुत्ते और गीध नोंच-नोंच कर खायेंगे। 
The ignorant who eats-crams himself without feeding these people is subjected to eating of his body by the dogs & vultures.
CRAMS ::  ठूँस-ठूँस कर खाना; eating without restriction. 
भुक्तवत्स्वथ विप्रेषु भृत्येषु चैव हि। 
भुञ्जीयातां ततः पश्चादवशिष्टं तु दम्पती॥मनु स्मृति 3.116॥
पहले ब्राह्मणों और अपने भृत्यों को भोजन कराकर पीछे जो अन्न बचे, पति-पत्नी उसका भोजन करें। 
The husband & wife constituting  the house hold should accept the remaining food only after feeding the Brahmns and the servants.
देवनृषीन्  मनुष्यांश्र्च पित्रृन् गृह्याश्र्च देवता:। 
पूजयित्वा तत: पश्चाद् गृहस्थ: शेषभुग्भवेत्॥मनु स्मृति 3.117॥
देवता, ऋषि, मनुष्य और गृह देवताओं का अन्नादि से पूजन करके पीछे बचा हुआ अन्न गृहस्थ भोजन करे। 
The household accept the remaining food as Prasad, only after performing rites-sacrifices-worship of the demigods, sages, humans,  family deity-manes.
अधं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात्। 
यज्ञशिष्टाशनं ह्येतत्सतामन्नं विधीयते॥मनु स्मृति 3.118॥
जो केवल अपने ही लिये भोजन बनाकर खाता है, वह अन्न न खाकर केवल पाप खाता है। सज्जनों के लिये तो यज्ञावशिष्ट अन्न ही भोजन प्रशस्त है। 
Preparing and food for self, eating it alone is a sin. For the virtuous the food left over after the Yagy is sufficient, taken as Prasad.
राजत्विर्क्स्नातकगुरून्प्रियश्र्वशुरमातुलान्। 
अर्हयेन्मधुपर्केण परिसंवत्सरात् पुनः॥मनु स्मृति 3.119॥
राजा, यज्ञपुरोहित, स्नातक, गुरु, जँवाई, ससुर और मामा लोग जब एक वर्ष के बाद घर आयें, तो मधुपर्क से इनकी पूजा करनी चाहिये, यज्ञतिरिक्त समय में नहीं। 
The household should welcome-honour the king, priest, celibate-scholar, son in law, father in law and the maternal uncle by offering them Madhu park-a mixture of honey and milk if they happen to arrive after the completion of one year at the occasion of Yagy-sacrifices but not at other occasions.
मधुपर्क :: पूजा के लिए बनाया गया शहद और दूध का मिश्रण; mixture of honey, respectful offering to a guest or to the bridegroom on his arrival at the door of the father of the bride, offering of honey and milk, respectful offering to a guest, ceremony of receiving a guest with it. 
राजा च श्रोतियश्र्चैव यज्ञकर्मण्युपस्थितौ। 
मधुपर्केण सपूज्यौ न त्वयज्ञ इति स्थिति:॥मनु स्मृति 3.120॥
राजा और श्रोत्रिय वैदिक यज्ञ कर्म में उपस्थित हों तो मधुपर्क से पूजा करनी चाहिये, यज्ञातिरिक्त समय में नहीं। 
If the king and the Shrotriy (the scholar who has learnt Veds, is civilised, cultured, sober, well educated) are present in the Yagy-sacrifices they must be honoured with the Madhu Park-mixture of honey & milk, but not at any occasions. 
श्रोत्रिय :: वह वेदज्ञ, ब्राह्मण-विद्वान जो छन्द आदि कंठस्थ करके उनका अध्ययन और अध्यापन करे, वेद-वेदांग में पारंगत, सभ्य, शिष्ट, सुसंस्कृत हो; ब्राह्मण समाज में एक कुलनाम।   
प्राचीनकाल में ज्ञानार्जन का जरिया श्रौतकर्म अर्थात श्रवण, मनन और चिन्तन ही था।
ब्राह्मणों के चिर-परिचित उपनामों में श्रोत्रिय का शुमार भी है। विद्याव्यसन और अध्यापन से ही जुड़ा हुआ शब्द है श्रोत्रिय जिसका अर्थ है श्रुति अथवा वेदों का अध्ययन करनेवाला ब्राह्मण। 
"जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते। 
वेदाभ्यासी भवेद् विप्रः श्रोत्रियस्त्रिभिरेव च"॥ 
वह जन्म से ब्राह्मण जाना जाता है, संस्कारों से द्विज, वेदाभ्यास करने से विप्र होता है और तीनों से श्रोत्रिय है। पुराणों में कल्प के साथ एक वैदिक शाखा अथवा छह वेदांगों के साथ वैदिक शाखा का अध्ययन कर षट्कर्मों लगे ब्राह्मण को श्रोत्रिय कहा गया है। पुराणों में श्रोत्रिय ब्राह्मणों के कर्तव्यों और अधिकारों का उल्लेख है। यही नहीं राजा के प्रमुख कर्तव्यों में यह ध्यान रखना भी शामिल था कि उसके राज्य में कोई श्रोत्रिय बेसहारा न रहे। श्राद्ध आदि कर्मों में श्रोत्रिय निष्णात होते थे। श्रोत्रिय के श्रोती, सोती, स्रोती जैसे रूप भी प्रचलित हैं।
श्रोत्रिय शब्द बना है "श्रु" धातु से जिसमें मूलतः सुनने का भाव है। इससे ही बना है "श्रुत" अर्थात सुना हुआ, ध्यान लगा कर सुना हुआ, समझा हुआ, जिसे हृदयंगम किया गया हो, जाना हुआ, समझा हुआ, किसी का नाम लेकर पुकारा हुआ उच्चारण आदि। श्रुति भी इसी मूल से आ रहा है। 
श्रुति कन्या का नाम भी होता है इसका अर्थ है सुनना। चूँकि कानों से सुना जाता है, इसलिए कान को भी श्रुति कहते हैं। अफवाह, सुनी-सुनाई, मौखिक बात अथवा अन्य समाचार भी श्रुति के दायरे में आते हैं। वेदों को भी श्रुति कहते हैं क्योंकि इनका ज्ञान सुनकर ही हुआ। इसी तरह वेद मंत्र भी श्रुति कहलाते हैं। संगीत में भी श्रुति का बड़ा महत्व है। एक स्वर का चतुर्थांश श्रुति कहलाता है अर्थात यह स्वर का कण होता है। "श्रु" का रिश्ता ही श्रवण अर्थात सुनने की क्रिया से भी है। पुराणों में श्रवणकुमार की कथा भी आती है जो अपने दृष्टिहीन माता-पिता के अत्यंत सेवाभावी थे। राजा दशरथ के तीर से उनकी मृत्यु हो गई थी।
"श्रु" धातु से ही बना है श्रोता शब्द जो बोलचाल में इस्तेमाल होता है। जो "श्रुत" करने की क्रिया से गुजर रहा है वही "श्रोता" है। दिलचस्प बात यह कि श्रोता में शिष्य या विद्यार्थी का भाव भी है। श्रोता बना है संस्कत के श्रोतृ से जिसका भावार्थ है छात्र।  वेद-वेदांगों के ज्ञान में पारंगत हो चुके ब्राह्मण को श्रोत्रिय कहा जाता।
सायं त्वन्नस्य सिद्धस्य पत्न्यमन्त्रं बलिं हरेत्। 
वैश्वदेवं हि नामेतत्सायं प्रातर्विधीयते॥
सायंकाल स्त्री बिना मन्त्र सिद्धान्न की बलि दे। वैश्वदेव नामक कर्म गृहस्थ को सांय-प्रातः करना चाहिये।[मनु स्मृति 3.121] 
The wife of the household should make sacrifices in the evening with the grain-food which has not been treated with the recitation of Mantr, sacred-holy rhymes. The household (both husband and wife) should perform the sacred deed called Vaeshv Dev both in the evening and morning.
पितृयज्ञं तु निर्वत्र्य विप्रश्र्चेन्दुक्षयेSग्निमान्।
पिण्डान्वाहार्यकं श्राद्धं कुर्यान्मासानुमासिकम्॥
अग्निहोत्री ब्राह्मण अमावस्या तिथि में पितृयज्ञ करके प्रत्येक मास पिण्डान्वाहार्यक श्राद्ध करे।[मनु स्मृति 3.122] 
The Brahman committed to sacrifices in holy fire, should perform Pindanvaharyak Shraddh on the no Moon night, every month. It is a sacrifices related to the diseased-manes. 
अन्वाहार्य श्राद्ध :: अन्वाहार्य  श्राद्ध पिण्डपितृयज्ञ के उपरान्त उसी दिन सम्पादित होता है।[गोभिल गृह्य सूत्र 196] 
पिण्ड-पितृ यज्ञ के सम्पादन के उपरान्त वह ब्राह्मण जो अग्निहोत्री अर्थात् आहिताग्नि है, प्रति मास उसे अमावास्या के दिन पिण्डान्वाहार्यक श्राद्ध करना चाहिए।[मनु. 198] 
पितृणां मासिकं श्राद्धमन्वाहार्यं विदुर्बुधा:। 
तच्चामिशेण कर्तव्यं प्रशस्तेन प्रयत्नतः॥
पण्डित गण पितरों के इस मासिक श्राद्ध को अन्वाहार्य कहते हैं जो कि यत्न पूर्वक करना चाहिये।[मनु स्मृति 3.123] 
This monthly Shraddh-homage is called Anvahary, by the Pandits-scholars. It should be associated with meals, gifts and fee; to the learned Brahmns for performing the rites.
अन्वाहार्य :: अन्वाहार्य मासिक श्राद्ध यज्ञ में पुरोहित को दी जाने वाली दक्षिणा या भोजन। 
तत्र ये भोजनीया: स्युर्ये च वर्ज्या द्विजोत्तमा:।
यावन्तश्र्चैव यैश्र्चानैस्तान् प्रव क्ष्याम्यशेषत:॥
उस श्राद्ध में खिलाने योग्य और न खिलाने योग्य ब्राह्मणों को किन अन्नों से कितने ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये, इत्यादि कहता हूँ।[मनु स्मृति 3.124] 
I shall describe the grains-food-eatables and their quantum to be served to Brahmns who are eligible and the ones who are not eligible for serving meals, during anniversary-homage ceremony.
द्वौ दैवे पितृकार्ये त्रीनेकैकमुभयत्र वा। 
भोजयेत् सुसमृद्धोSपि न प्रसज्जेत विस्तरे॥
देवकार्य में 2, पितृकार्य में 3 या दोनों में एक-एक ब्राह्मण को भोजन करावे। अधिक ब्राह्मण भोजन कराने का सामर्थ्य हो तो भी इस सँख्या को न बढ़ावे।[मनु स्मृति 3.125] 
One should feed 2 Brahmans in Dev Kary sacrifices devoted to Demigods & 3 Brahmns in Pitr Kary-sacrifices to the Manes or else one-one in each category. Even if one is capable of feeding more Brahmns, he should not increase the number beyond this figure.
सत्क्रियां देशकालौ च शौचं ब्राह्मण सम्पद:। 
पञ्चैतान्विस्तरो हन्ति तस्मान्नेहेत विस्तरम्॥
ब्राह्मणों की इस सँख्या को बढ़ाने से संस्कार, देश, काल, पवित्रता और ब्राह्मणत्व श्राद्ध के इन पाँचों आवश्यक अंगों को साधने में बाधा पड़ती है। इसलिये सँख्या नहीं बढ़ानी चाहिये।[मनु स्मृति 3.126] 
Increasing the number of Brahmans for meals beyond 2-3 or 1-1 hinders in virtues, country-immediate space-place meant for the job, time-auspicious occasion, purity-piousity and the homage meant for the gaining of Brahman rank-title. Therefore, the number should not be increased.
Brahman is the ultimate for purity in human society. But its really very-very difficult to trace such Brahmns. Soon after the advent of Mahatma Budh, Brahmns lost their significance-cult and adopted to other professions. Since, all the 4 stages of Kal-cosmic era :- Saty Yug, Treta Yug, Dwapar Yug and Kali Yug co-exist; enlightened, scholarly, devoted-devout, pious, righteous, virtuous, honest Brahmns do exist, but they do not reveal them selves.
प्रथिता प्रेतकृत्यैषा पित्र्यं नाम विधुक्षये। 
तस्मिन् युक्तस्यैति नित्यं प्रेतकृत्यैव लौकिकी
अमावस्या में जो पितृश्राद्ध किया जाता है, उसे प्रेत कृत्य-पितृ क्रिया कहते हैं। उस कर्म में जो तत्पर रहता है, उसको नित्य लौकिकी प्रेत कृत्या प्राप्त होती है अर्थात उसके पुत्र पौत्रादि और धन की वृद्धि होती है।[मनु स्मृति 3.127] 
The homages & charity performed-carried out, on No moon-dark night is termed Pret Karm (oblations-charity meant for the purpose of the deceased in the family). One who is ready to perform such deeds is blessed with progeny and grand children in addition to accumulation of money.
Traditionally, a devout Hindu spend money for the welfare of the enlightened Brahmns on day falling on No Moon nights. Such charity carries significance for the welfare of one in current as well next births.
श्रौत्रियायैव देयानि हव्यकव्यानि दातृभि:। 
अर्हत्तमाय विप्राय तस्मै दत्तं महाफलम्
दाता को वेदाभ्यासी ब्राह्मण को ही हव्य-कव्य अर्पित करना चाहिये, क्योंकि ऐसे पूज्यतम ब्राह्मण को देवान्न या श्राद्धान्न देने से ही समुचित फल प्राप्त होता है। 
Oblations in the form of food grains-gifts to the demigods-Manes should be offered to only such honourable Brahmans who practice Veds for attaining maximum favourable output.[मनु स्मृति 3.128]
One is free to offer food, money to the needy, poor but deserving person. Help extended to non deserving goes waste & on the contrary leads one to sin as well.
एकैकमपि विद्वांसं दैवे पित्र्ये च भोजयेत्। 
पुष्कलं फलमाप्रोति नामन्त्रज्ञान् बहूनपि
देवकर्म और पितृकर्म में एक भी विद्वान् ब्राह्मण भोजन कराने से जो विशेष फल प्राप्त होता है, वह विद्या से विहीन बहुत सारे ब्राह्मणों को खिलाने से भी प्राप्त नहीं होता।[मनु स्मृति 3.129] 
One do not obtain the piousity-rewards by feeding several uneducated-illiterate Brahmns who are not well versed with the Veds, which he obtain by  feeding just one enlightened Brahmn, during Prayers to demigods or the Manes-Homages to the Manes-Pitre. 
दूरादेव परीक्षेत बाह्मणं वेदपारगम्।
तीर्थ तद्धव्यकव्यानां प्रदाने सोSतिथिः स्मृतः॥
वेद निष्णात ब्राह्मण को दूर से अर्थात उसकी वंश परमपरा को और उसकी पवित्रता को जाँच ले, क्योंकि हव्य-क़व्यों का पात्र और दान लेने के लिये उसे अथिति के तुल्य पवित्र कहा गया है।[मनु स्मृति 3.130] 
The family tree-hierarchy of the Brahman expert in Veds should be tested-verified, since he is equated with the Atithi (uninvited guest, a person who visits at odd hours without notice-invitation) for giving gifts, Dakshina, eatables etc.
Its a social obligation to support the Brahmns who have attained expertise in the Veds. Their conduct is always for the welfare of the society. Prayers, worship, rites, rituals, Yagy, Hawan conducted by them, are always for the welfare whole world not for the individual. Such Brahmans maintain ultimate purity, piousity in their day to day life.
सहस्त्रं हि सहस्त्राणामनृचां यत्र भुञ्जते। 
एकस्तान् मन्त्रवित् प्रीतः सर्वानर्हति धर्मतः॥
जिस श्राद्ध में वेदविहीन दस लाख ब्राह्मण भोजन करते हों, उनमें यदि वेद जानने वाला एक ही ब्राह्मण प्रसन्न होकर भोजन करे तो वह अकेला ही सम्पूर्ण ब्राह्मण भोजन के दान का फल देता है।[मनु स्मृति 3.131]  
A single Brahmn, expert in Veds, equalises the rewards which is gained by serving millions of ignorant-illiterate, imprudent  Brahmans, during the feast organised for the homage of Manes-Pitr. 
ज्ञानोत्कृष्टाय देयानि कव्यानि च हवींषि च। 
न हि हस्तावसृग्दिग्धौ रुधिरेणैव शुद्ध्यत:॥
जो विद्या में बड़ा हो, उसी को हव्य (देवान्न) और कव्य (पिन्नन्न) देना चाहिये, क्योंकि लहू से भीगे हुए हाथ लहू से शुद्ध नहीं होते।[मनु स्मृति 3.132]  
The house hold should offer food, gifts, Dakshina to the Brahmn who is superior by virtue of his knowledge-learning, enlightenment as compared to others, since hands, smeared with blood, cannot be washed-cleansed with blood.
यावतो ग्रसते ग्रासन् हव्यकव्येष्वमन्त्रवित्। 
तावतो ग्रसते प्रेत्य दीप्तशूलष्ठर्य्-योगुडान्॥
वेद विद्या रहित ब्राह्मण हव्य कव्यों में श्राद्ध कर्ता के मरने के जितने कौर खाते हैं, उतने ही आगे तपाये शूलर्ष्टि नाम के लोहे के गोले खाने पड़ते (मरने के बाद, नर्क, परलोक में)।[मनु स्मृति 3.133]  
One who has organised the homage to Manes-demigods should be cautious in serving the food to those Brahmns only, who have learnt the Veds. The Brahman who has not learnt-grasped Veds will have to eat-swallow red hot iron balls equal in number to the bites of food he ate.
ज्ञाननिष्ठा द्विजाः केचित्तपोनिष्ठास्तथाSपरे। 
तपः स्वाध्यायनिष्ठाश्र्च कर्मनिष्ठास्तथाSपरे॥
कोई ब्राह्मण ज्ञानी, विद्वान्, कोई तपस्वी, कोई वेद व्रतनिष्ठ और कोई क्रियानिष्ठ होते हैं।[मनु स्मृति 3.134]  
The Brahmans may be categorised into learned, ascetic, devoted to practices described in Veds and practicality-deeds. 
ज्ञाननिष्ठेषु कव्यानि प्रतिष्ठाप्यानि यत्नतः। 
हव्यानि तु यथान्यायं सर्वेष्वेव चतुर्ष्वपि॥
ज्ञाननिष्ठों को यत्नपूर्वक कव्य-श्राद्धान्न और शेष चारों ब्राह्मणों को यथायोग्य हव्य देना चाहिये।[मनु स्मृति 3.135] 
The household should make efforts to give gifts, Dakshina-fee and the food grains to the learned-enlightened Brahmns and make offerings to the rest 4 categories of Brahmans as per his capacity.
The stress is over maintaining the learned-enlightened Brahmans.
अश्रोत्रियो पिता यस्य पुत्रः स्याद्वेदपारागः। 
अश्रोत्रियो वा पुत्रः स्यात् पिता स्याद्वेदपारागः॥
जिसका पिता वेद न जानता हो और पुत्र वेदपारङ्गत हो अथवा बाप वेदपारङ्गत हो, बेटा वेद न जानता हो। ब्राह्मण की गुणवत्ता तय करने में वेद ही एकमात्र पैमाना और सहायक हैं।[मनु स्मृति 3.136]  
When it comes to decide who is more virtuous-revered, one has to find out if the invited Brahman's father is a scholar of Veds or not. Then, father may be ignorant but the son might have attained expertise in the Veds or else the father is an expert of Veds but the son is ignorant. Recension of Veds is decisive factor in Brahman's quality.
RECENSION :: पाठ, गुण-दोष-निरूपण, पाठान्तर, शुद्ध किया हुआ मूल ग्रन्थ; the revision of a text. 
ज्यायांसमनयोर्विद्याद्यस्य स्याच्छ्रोत्त्रिय: पिता। 
मन्त्र सम्पूजनार्थं तु सत्कारमितरोSर्हति॥
दोनों में बड़ा वही है जिसका पिता-बाप वेदविज्ञ है, किन्तु दूसरा केवल वेद पड़ने के कारण सम्मान-सत्कार पाने योग्य है।[मनु स्मृति 3.137]  
Out of the two invited Brahmans one whose father is a learned-expert of Veds is more venerable. However, the other one too deserves respect-is worthy of honour, because respect is due to the study of Ved.
Mere reading of Veds do not qualify one to be respected. He should understand, analyse and apply it the life. He should be able to interpret it correctly. Most of the treatises-commentaries available on Veds are grossly distorted, vague and incorrect.
न श्राद्धे भोजयेन्मित्रं धनैः कार्योSस्य संग्रहः। 
नारिन् न मित्रं यं विद्यात्तं श्राद्धे भोजयेद् द्विजम्॥
श्राद्ध में मित्र को न खिलावे, किन्तु अन्य सत्कारों से मैत्री की रक्षा करे। जो शत्रु और मित्र न हो उसी ब्राह्मण को श्राद्ध में भोजन करावे।[मनु स्मृति 3.138]  
One should not serve food to his friend meant for homage-anniversary, to the Manes-diseased but maintain his friendship through other means of welcome, honour. The Brahman who receives food for the Shraddh should neither be a friend nor a foe.
यस्य मित्रप्रधानानि श्राद्धानि च हवींषि च। 
तस्य प्रेत्य फलं नास्ति श्राद्धेषु च हविःषु च॥
जिनके श्राद्ध और हव्य में मित्र ही प्रधान होते हैं, उन्हें मरने पर हव्य-कव्य नहीं मिलता।[मनु स्मृति 3.139]  
Those who invite their friends, relatives for performing the funeral rites of their diseased for paying anniversary-homage and serving meals, are deprived off the offerings by their descendent after their death. Such people have to remain in Pret Yoni for quite a long period of time.
These chapters have no concern with Hinduism-which is a way of life-life style. Its just a treatise describing the facts-realities of human life-birth, incarnations. One should follow these tenets irrespective of his faith. Other faiths emerged just a few hundred years ago, while civilisation persisted for trillions-trillions of years. Sufficient proofs are scattered all over the earth. Excavations and scientific studies-data retrieved clearly shows the evidence.
Hindu is since ever, for ever. No one can crush it even after concerted efforts.

यः सङ्गतानि कुरुतें मोहाच्छ्राद्धेन मानवः। 
स स्वर्गाच्च्यवते लोकाच्छ्राद्धमित्रो द्विजाधम:॥
जो मनुष्य अज्ञान से श्राद्ध द्वारा किसी के साथ मैत्री जोड़ता है, वह श्राद्धमित्र द्विजाधम स्वर्गलोक से वंञ्चित होता है।[मनु स्मृति 3.140]  
One who enters into an alliance-friendship for obtaining the sacred food meant for the Manes, diseased, demigods for homage-anniversary rites, is deprived from the heavens.
Shraddh is one of the most sacred acts and only the virtuous, learned, enlightened Brahmans should accept the offerings. Any unauthorised recipient has to face the consequences. Once the sacred rites are over, the household may distribute-serve food to anyone, who is willing to accept. It helps both, the household as well as the recipient.
Halloween festival is a distorted form of the Shraddh-homages to the Pitre-manes observed in Western World, America & Australia etc.

विघसाशी भवेन्नित्यं वाSमृतभोजनः। 
विघसो भुक्तशेषं तु तथाSमृतम्॥
नित्य विघसाशी हो या नित्य अमृत भोजी हो अतिथि ब्राह्मणों को खिलाकर जो अन्न बचे उसे विघस कहते हैं और यज्ञावशिष्ट अन्न को अमृत कहते हैं। गृहस्थी को चाहिए कि वह प्रतिदिन ‘विघस’ भोजन को खाने वाला होवे अथवा ‘अमृत’ भोजन को खाने वाला होवे।[मनु स्मृति 3.285]   
विघस :: अतिथि, मित्रों आदि सभी व्यक्तियों के खा लेने पर बचा भोजन को ‘विघस’ कहा जाता है; The remainder food after serving the guests, friends and all invites is called Vighas. 
अमृत :: यज्ञ में आहुति देने के बाद बचा भोजन ‘अमृत’ कहलाता है; The left over food after offerings in the holy fire is called Amrat, ambrosia, nectar, elixir.
The house hold should make it a habit of consuming food after serving to all; the left over food after the performance of sacrifices in holy fire. The remainder food after serving the guests, friends and all invites is called Vighas, while that left over after offerings in the holy fire is called Amrat-ambrosia-nectar-elixir.
एवं गृहाश्रमे स्थित्वा विधिवत् स्नातको द्विजः। 
वने वसेत् तु नियतो यथावद् विजितैन्द्रियः॥
इस प्रकार स्नातक द्विज विधिवत गृहधर्म का पालन करे, पश्चात जितेन्द्रिय होकर नियमपूर्वक धर्म का अनुष्ठान करता हुआ वन में निवास करे।[मनु स्मृति 6.1] 
In this manner the learned Brahman should follow the tenets of household duties prescribed in the scriptures and thereafter he should control all his sense organs and live forests-jungles, in isolation away from human settlements.
This will help him analyse his previous deeds and help him concentrate in the Almighty. He should resort to Yog and meditation. He may eat the fruits, roots or the other suitable nourishing eatable vegetation available there.
अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम्। 
तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति॥9.321॥ 
जल अग्नि, ब्राह्मण से क्षत्रिय और पत्थर से लोहा उत्पन्न हुआ है। उनका तेज सर्वत्र व्याप्त होने पर भी अपने उत्पत्ति स्थान में वे शान्त हो जाते हैं।[मनु स्मृति 9.321] 
Fire has evolved from water, Kshatriy has evolved from Brahman and iron has evolved from stone. In spite their might spreaded over the entire space they become quite when they meet their origin.

नाब्रह्म क्षत्रंमृध्नोति नाक्षत्रं ब्रह्म वर्धते। 
ब्रह्म क्षत्रं च सम्पृक्तमिह चामुत्र वर्धते॥
 बिना ब्राह्मण के क्षत्रिय की वृद्धि नहीं होती है और क्षत्रिय के बिना ब्राह्मण की उन्नति नहीं होती। यदि ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों परस्पर मिले रहें तो यहाँ और परलोक दोनों जगह, दोनों की वृद्धि होती है।[मनु स्मृति 9.322] 
The Kshtriy can not progress prosper without Brahmans, Brahmans can not rise-prosper without Kshatriy. If both of them remain united they progress in this world and the next abode-incarnation.
The Kshatriy has valour, bravery, might and the Brahmn has intelligence, prudence, diplomacy, power to administer without lust-greed. This combination is enough to increase the boundaries of state and keep the populace-subjects happy.

दत्त्वा धनं तु विप्रेभ्यः सर्वदण्डसमुत्थितम्। 
पुत्रे राज्यं समासृज्य कुर्वीत प्रायणं रणे॥
सभी प्रकार के दण्डों से पाये हुए धन को ब्राह्मण के सुपुर्द करके, अपने पुत्र को राज्य का दायित्व प्रदान कर राजा रण-युद्ध भूमि में प्रयाण करे।[मनु स्मृति 9.323] 
The king should depart for battle after handing over the responsibility of treasury (income & expenditure, arrivals-accruals through fines & punishments to enlightened-learned Brahmans and handing over charge of day today affairs to his son-heir (since there a chance of death during the war).
The heir apparent must be trained in administration, judiciary and war fare. He should be made courageous and ready to fight as well. He should be given chance-opportunity to fight in wars and battle as well, under protection of the worthy Guru. 
एषोऽखिलः कर्मविधिरुक्तो राज्ञः सनातनः। 
इमं कर्मविधिं विद्यात्क्रमशो वैश्यशूद्रयोः॥
यह राजाओं की सनातन कर्मविधि है। अब क्रम से वैश्य और शूद्रों की कर्मविधि को जानिये।[मनु स्मृति 9.325]  
The eternal mode of functioning-duties of the kings has been described. Now let us know the mode-method of the working-duties of Vaeshy & the Shudr.
वैश्यस्तु कृतसंस्कारः कृत्वा दारपरिग्रहम्। 
वार्तायां नित्ययुक्तः स्यात्पशूनां चैव रक्षणे॥
वैश्य यज्ञोपवीत संस्कार के बाद विवाह करके खेती, व्यापार और पशुओं की रक्षा करने में तत्पर रहे।[मनु स्मृति 9.326]  
Having undergone the Janeu (sacred loin thread) ceremony the Vaeshy should get married and prepare himself for agriculture, business-trade and animal husbandry.
With the Janeu ceremony his education starts till the age of 25 years. Till then he has to be a celibate like Brahmn & the Kshatriy. He has to acquire thorough knowledge of trade-business, industry, animal husbandry, taxes, charity, donations etc.
During this period any Tom & Harry tries to become a businessman. Such people have no moral-principles. Not only they over charge but tries to make super normal profits. They ditch the government at will and do not pay taxes like GST, Income Tax etc. They indulge in hoarding, money laundering, generating black money etc. 
प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून्।
ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वाः परिददे प्रजाः॥
ब्रह्मा जी ने सृष्टि करके वैश्यों को उसका भार दे दिया और ब्राह्मण तथा राजा को सभी प्रजाओं का भार सौंप दिया।[मनु स्मृति 9.327]  
Brahma Ji created the living beings and handed over (transferred, delegated) the responsibility to feed-maintain them to the Vaeshy and delegated the responsibility of protection, administration, justice and support to Brahmns and the Kshatriy.
Harmony is maintained in the society till all the four Varn keep on performing their duties responsibly. Deviation, disturbance, distraction from the liabilities create unrest, disorderliness, lawlessness.

न च वैश्यस्य कामः स्यान्न रक्षेयं पशूनिति। 
वैश्ये चेच्छति नान्येन रक्षितव्याः कथं चन॥
वैश्य को कभी यह इच्छा नहीं करनी चाहिये कि में पशुओं की रक्षा न करूँ और वैश्य जब तक पशु पालन की इच्छा करे, तब तक दूसरे से कभी भी पशु की रक्षा न कराये।[मनु स्मृति 9.328]  
A Vaeshy must never conceive the wish that he would not maintain-protect the cattle and as long as he is desirous of serving the cattle he should perform the job himself.
मणिमुक्ताप्रवालानां लोहानां तान्तवस्य च। 
गन्धानां च रसानां च विद्यादर्घबलाबलम्॥
मणि-मोती, मूँगा, लोहा, वस्त्र, गन्ध और रसों के भाव में कमी वेशिका ज्ञान वैश्य हमेशां रखना चाहिये।[मनु स्मृति 9.329]  
The Vaeshy should be aware of rise & fall in the prices of jewels (gems, pearls, coral), metals Gold, Iron, Silver, alloys etc,.) cotton-cloths, scents-perfumes and condiments (extracts oils, juices).
He should never indulge in over pricing or hoarding of goods with the motive of profits as is taught through demand & supply theory in economics. He should always try to maintain the supply line and should always be vigilant in this regard.

बीजानामुप्तिविच्च स्यात्क्षेत्रदोषगुणस्य च। 
मानयोगं च जानीयात्तुलायोगांश्च सर्वशः॥9.330॥ 
बीजों के बोने और खेतों के दोष और गुण का ज्ञान भी रखना चाहिये। 
The Vaeshy is ought to have the knowledge of sowing seeds, quality of soils of the fields.[मनु स्मृति 9.330]  
The soil may have different components which may not support a particular crop. The soil should be mixed with manures, fertilisers of different types as per the need of the crop. The proper timing for sowing a specific variety of seed-crop is essential. Ability to know the quantum of rain fall too is desirable. Wells, ponds, reservoirs should be digged and maintained for irrigation throughout the year and lean season.

सारासारं च भाण्डानां देशानां च गुणागुणान्। 
लाभालाभं च पण्यानां पशूनां परिवर्धनम्॥
भृत्यानां च भृतिं विद्याद्भाषाश्च विविधा नृणाम्।
द्रव्याणां स्थानयोगांश्च क्रयविक्रयमेव च॥
प्रत्येक वस्तु के गुण-अवगुण की पहचान, प्रत्येक देश की सस्ती और महँगी चीजों का ज्ञान, विक्रय की जाने वाली वस्तुओं से हानि-लाभ का ज्ञान, पशुओं की वृद्धि के उपाय, नौकरों के मासिक देने का ज्ञान, मनुष्यों की अनेक भाषाओँ का ज्ञान, वस्तुओं के सुरक्षित रखने वाले स्थानों का ज्ञान और खरीद-बिक्री का ज्ञान रखना चाहिये।[मनु स्मृति 9.331-2]   
The trader-Vaeshy should be aware of the qualities of goods to be sold & purchased, prices prevailing in other countries, knowledge of profit & loss by selling or buying a commodity, ways & means of rearing and maintaining cattle and increasing their numbers, knowledge of the proper, adequate salaries, wages of the servants prevailing at that time, knowledge of various languages spoken by the humans where he has to deal-trade, ways and means of safe storage and knowledge of the intricacies of buying and selling.
At present there are companies which pay extremely high wages to their employees by making phenomenal-too high profits. Earning of profits beyond 16% is a grave sin. The owners-founders not only pocket whole profit but they show themselves as the employees as chief executive officer or directors and fix unimaginable inflated salaries for themselves which is pure cheating and misappropriation of funds. They take money from the banks but prefer to forget to repay. Sooner or later such business empire are sure to become history. More over the businesses are run by those who do not have values-virtues. Their sole motive is profit by fair or foul means.

धर्मेण च द्रव्यवृद्धावातिष्ठेद्यत्नमुत्तमम्। 
दद्याच्च सर्वभूतानामन्नमेव प्रयत्नतः॥9.333॥ 
धर्म से द्रव्य की वृद्धि के लिये उत्तम यत्न करना चाहिये और प्रयत्न करके सभी प्राणियों को अन्न देना चाहिये।[मनु स्मृति 9.333]   
The earnings should be purely as per directive of scriptures and the Vaeshy should ensure supplies of food grain to each and every person.
The Vaeshy (Trader-Businessman) should adhere to maximum profit norms to be earned at a maximum of 16%. Cut throat competition should always be avoided. A portion of profits should be utilised for social service, promotion of schools, colleges, universities, hospitals to be run purely on charitable basis-lines unlike today's hospitals & schools operated like butcher's shop.

विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्। 
शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैश्रेयसः परः॥
वेद को जानने वाले ब्राह्मणों की और यशस्वी गृहस्थों की सेवा करना ही शूद्र को स्वर्ग देने वाला परम धर्म है।[मनु स्मृति 9.334]  
The Ultimate duty of the Shudr is to serve the Brahmns enlightened by the Veds and those households who are virtuous, pious, righteous, honest, dedicated-devoted to the God; which lets him attain Heaven just by serving them whole heartedly.
Its a peculiar character of Kali Yug-present cosmic era that the Shudr who serves as per this doctrine gets Heaven automatically without an effort, for which the desirous perform unlimited Yagy, Hawan, Agni Hotr, under take pilgrimages, resort to donations-charity etc. etc.
The person who happens to be a Brahman by caste and lacks merits is just like a Shudr. Such idiots, morons, ignorant do not deserve service by the Shudr. As a matter of fact these days almost every one is running for having a job-the main act of Shudr and is like a Shudr.  
It’s during Saty Yug that the Dharm (Virtuousness, righteousness, Piousity, honesty) is present with its full strength. The humans live for 400 years. The strength of Dharm reduces by ¼ in Treta, ¼ in Dwapar and becomes just 25% of Saty Yug in Kali Yug, when the maximum age of humans is just 100 years at the most. During Saty Yug the humans have the capability of discarding the body after the fourth stage of life. Its therefore, but natural that the tenets of Manu Smrati had full relevance with Saty Yug. There is a continuous fall in standards, moral values & change in culture, ethics, life style, social values, norms; but tenets of rites, rituals, Dharm remains as such. All the four segments of cosmic era are present in each cosmic era i.e., Yug.
शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मृदुवागनहङ्कृतः। 
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥
यत्न और वाणी से पवित्र रहने वाले, श्रेष्ठ जातियों की सेवा करने वाला, मीठा बोलने वाला, अहंकार रहित और ब्राह्मण के आश्रित रहने वाला शूद्र अपने से उत्कृष्ट जाति पाता है।[मनु स्मृति 9.335]  
The Shudr who keeps himself pure-pious with effort and speech, depending upon the upper castes, speaking sweet-refined, pleasing words, free from ego, attains higher castes than his present caste.
The Shudr who has these traits, automatically gets Heaven and after returning from the Heaven gets birth in higher castes-Varn. 
This tenet is not applicable to present day Shudr who are involved in politics and keep on cursing higher castes, even after gaining undue privileges through reservations. Their down fall further, is predicted through this tenet. These politicians keep on blaspheming Manu Smrati even though they have neither read this nor are they going to read this. Even if they have heard the tenets by chance interpreted-translated by the ignorant, British, biased, myopic its no use explaining it to them.
वानप्रस्‍थ और संन्‍यास आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन :: भीष्‍म पितामह कहते हैं :- बेटा युधिष्ठिर! मनीषी पुरूषों द्वारा जिसका विधान एवं आचरण किया गया है, उस गृहस्‍थ वृत्ति का मैंने तुमसे वर्णन किया। तदनन्‍तर व्‍यासजी ने अपने महात्‍मा पुत्र शुकदेव से जो कुछ कहा था, वह सब बताता हॅू, सुनो। वत्‍स! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। गृहस्‍थी‍ की इस उत्तम तृतीय वृत्ति की भी उपेक्षा करके सह धर्मिणी के संयोग से किये जाने वाले व्रत नियमों द्वारा जो खिन्‍न हो चुके हैं तथा वानप्रस्‍थ आश्रम को जिन्‍होंने अपना आश्रय बना लिया है, सम्‍पूर्ण लोक और आश्रम जिनके अपने ही स्‍वरूप हैं, जो विचार पूर्वक व्रत और नियमों में प्रवृत्त हैं तथा पवित्र स्‍थानों में निवास करते हैं, ऐसे वन वासी मुनियों का जो धर्म है, उसे बताता हॅू, सुनो! गृहस्‍थ पुरूष को जब अपने सिर के बाल सफेद दिखायी दें, शरीर में झुर्रियाँ पड़ जायें और पुत्र को भी पुत्र प्राप्ति हो जाये तो अपनी आयु का तीसरा भाग व्‍यतीत करने के लिये वन में जाय और वानप्रस्‍थ आश्रम में रहे। वह वानप्रस्‍थ आश्रम में भी उन्‍हीं अग्नियों का सेवन करे, जिनकी गृहस्‍थाश्रम में उपासना करता था। साथ ही वह प्रति दिन देवाराधन भी करता रहे। वानप्रस्‍थी पुरूष नियम के साथ रहे, नियमानुकूल भोजन करे। दिन के छठे भाग अर्थात तीसरे पहर में एक बार अन्‍न ग्रहण करे और प्रमाद से बचा रहे। गृहस्‍थाश्रम की ही भाँति अग्निहोत्र, वैसी ही गौ सेवा तथा उसी प्रकार यज्ञ के सम्‍पूर्ण अंगों का सम्‍पादन करना वानप्रस्‍थ का धर्म है। वनवासी मुनि बिना जोती हुई पृथ्‍वी से पैदा हुआ धान, जौ, नीवार तथा विघस (अतिथियों को देने से बचे हुए) अन्‍न से जीवन निर्वाह करे। वानप्रस्‍थ में भी पंचमहायज्ञों में हविष्‍य वितरण करे। वानप्रस्‍थ आश्रम में भी चार प्रकार की वृत्तियॉ मानी गयी हैं। कोई उतने ही अन्‍न का संग्रह करते हैं कि तुरंत बना-खाकर बर्तन को धो माँज कर साफ कर लें अर्थात वे दूसरे दिन के लिये कुछ नहीं बचाते। कुछ दूसरे लोग वे हैं, जो एक महीने के लिये अनाज का संग्रह करते हैं। कोई वर्ष भर के लिये और कोई बारह वर्षों के लिये अन्‍न का संग्रह करते हैं। उनका यह संग्रह अतिथि सेवा तथा यज्ञ कर्म के लिये होता है। वे वर्षों के समय खुले आकाश के नीचे और सर्दी में पानी के भीतर खडे़ रहते हैं। जब गर्मी आती है, तब पंचाग्नि से शरीर को तपाते है और सदा स्‍वल्‍प भोजन करने वाले होते है। वानप्रस्‍थी महात्‍मा जमीन पर लोट-पोट करते, पंजों के बल खडे़ होते, एक स्‍थान पर आसन लगाकर बैठते तथा तीनों काल स्‍नान और संध्‍या करते हैं। कोई दॉतों से ही ओखली का काम लेते हैं अर्थात् कच्‍चे अन्‍न को चबा-चबाकर खाते हैं। दूसरे लोग पत्‍थर कूटकर भोजन करते हैं और कोई-कोई शुक्‍लपक्ष या कृष्‍ण पक्ष में एक बार जौ का औटाया हुआ माँड़ पीकर रह जाते हैं अथवा समयानुसार जो कुछ मिल जाय वही खाकर जीवन निर्वाह करते हैं। वानप्रस्‍थ धर्म का आश्रय लेकर कोई कन्‍दमूल से और कोई-कोई दृढ़ व्रत का पालन करते हुए फूलों से ही धर्मानुकूल जीविका चलाते हैं।[महाभारत शान्ति-मोक्ष धर्म पर्व, अध्याय 244, श्लोक 1-13]
संत्यज्य ग्राम्माहारं सर्वं चैव परिच्छदम्। 
पुत्रेषु भार्यां निक्षिप्य वनं गच्छेत् सहैव वा॥
ग्राम्य आहार (चावल, आटा आदि) और वस्त्र, अलंकारादि को त्याग कर स्त्री को पुत्र के सुपुर्द कर अथवा अपने साथ ले वन में जाये।[मनु स्मृति 6.3]  
This is the third stage of life in which one has to hand over all responsibilities of the house hold-family to his son, reject food grains, depend over fruits and vegetation, reject clothing and ornaments and move to forests along with his wife. However, he may leave his wife behind to be looked after by the sons.
The life in solitude in a thatched hut with barest possible needs, leaves a plenty of time to meditate for Salvation, the only goal of life, for which the Almighty has granted this incarnation to one. His body will adopt itself to wear the environmental changes and ultimately, he will leave this body for heavenly abode. If he survives; the fourth stage of life will begin as a recluse-wanderer.
वानप्रस्थ और संन्यासी के धर्म :: भगवान श्री कृष्ण कहते हैं :- प्रिय उद्धव! यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ आश्रम में जाना चाहे, तो अपनी पत्नी को पुत्रों के साथ सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फिर शान्त चित्त से अपनी आयु का तीसरा भाग वन में ही रहकर व्यतीत करे। उसे वन के पवित्र कन्द-मूल और फलों से ही शरीर-निर्वाह करना चाहिये; वस्त्र की जगह वृक्षों की छाल पहिने अथवा घास-पात और मृगछाला से ही काम चला ले। केश, रोएँ, नख और मूँछ-दाढ़ी रुप शरीर के मल को हटावे नहीं। दातुन न करे। जल में घुसकर त्रिकाल स्नान करे और धरती पर ही पड़ा रहे। ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि तपे, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहकर वर्षा की बौछर सहे। जाड़े के दिनों में गले तक जल में डूबा रहे। इस प्रकार घोर तपस्यामय जीवन व्यतीत करे। कन्द-मूलों को केवल आग में भूनकर खा ले अथवा समयानुसार पके हुए फल आदि के द्वारा ही काम चला ले। उन्हें कूटने की आवश्यकता हो तो ओखली में या सिलपर कूट ले, अन्यथा दाँतों से ही चबा-चबाकर खा ले। वान प्रस्थाश्रमी को चाहिये कि कौन-सा पदार्थ कहाँ से लाना चाहिये, किस समय लाना चाहिये, कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं :- इन बातों को जानकर अपने जीवन-निर्वाह के लिये स्वयं ही सब प्रकार के कन्द-मूल-फल आदि ले आवे। देश-काल आदि से अनभिज्ञ लोगों से लाये हुए अथवा दूसरे समय के संचित पदार्थों को अपने काम में न लें। नीवार आदि जंगली अन्न से ही चरु-पुरोडाश आदि तैयार करे और उन्हीं से समयोचित आग्रयण आदि वैदिक कर्म करे। वानप्रस्थ हो जाने पर वेद विहित पशुओं द्वारा मेरा यजन न करे। वेदवेत्ताओं ने वानप्रस्थी के लिये अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास और चातुर्मास्य आदि का वैसा ही विधान किया है, जैसा गृहस्थों के लिये है। इस प्रकार घोर तपस्या करते-करते माँस सूख जाने के कारण वानप्रस्थी की एक-एक नस दीखने लगती है। वह इस तपस्या के द्वारा मेरी आरधना करके पहले तो ऋषियों के लोक में जाता है और वहाँ से फिर मेरे पास आ जाता है; क्योंकि तप मेरा ही स्वरुप है। प्रिय उद्धव! जो पुरुष बड़े कष्ट से किये हुए और मोक्ष देने वाले इस महान् तपस्या को स्वर्ग, ब्रम्हलोक आदि छोटे-मोटे फलों की प्राप्ति के लिये करता है, उससे बढ़कर मूर्ख और कौन होगा? इसलिये तपस्या का अनुष्ठान निष्काम भाव से ही करना चाहिये। प्यारे उद्धव! वानप्रस्थी जब अपने आश्रमोंचित नियमों का पालन करने में असमर्थ हो जाये, बुढ़ापे के कारण उसका शरीर काँपने लगे, तब यज्ञाग्नियों को भावना के द्वारा अपने अन्तःकरण में आरोपित कर ले और अपना मन मुझमें लगाकर अग्नि में प्रवेश कर जाय। (यह विधान केवल उनके लिये है, जो विरक्त नहीं हैं)। यदि उसकी समझ में यह बात आ जाय कि काम्य कर्मों से उनके फलस्वरूप जो लोक प्राप्त होते हैं, वे नरकों के समान ही दुःखपूर्ण हैं और मन में लोक-परलोक से पूरा वैराग्य हो जाय तो विधिपूर्वक यज्ञाग्नियों का परित्याग करके संन्यास ले ले।[श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टदशोऽध्यायः श्लोक 1-12 11.18.1-12]
अग्निहोत्रं समादाय गृह्यं चाग्निपरिच्छदम्। 
ग्रामादरण्यं निःसृत्य निवसेन्नियतेन्द्रियः॥
घर की होमाग्नि और उसके उपकरण (स्रुक् स्त्रुवा आदि) को लेकर गाँव से निकल संयतेन्द्रिय होकर वन में निवास करे।[मनु स्मृति 6.4]  
One who has entered the third stage of life and is willing to move away from humans settlements in isolation (forests, caves, mountains) should carry sacred fire from the existing Agnihotr; implements for carrying out Hawan, Agnihotr, Yagy and control his senses, while staying there.
One automatically gains control over the sense organs, once he is away from the hustle-bustle of the society and stop thinking-imagining the social life. He has to channelize his energies and focus them in the God, WHO is always with him.
मुन्यन्नैर्विविधैर्मेध्यैः शाकमूलफलेन वा। 
एतानेव महायज्ञान्निर्वपेद्विधिपूर्वकम्॥
वानप्रस्थ होने पर वन में मुनियों के अन्न (नीवार-जंगली अनाज आदि) से अथवा शाक, फल, मूलों से विधि पूर्वक पञ्च महायज्ञों को करे।[मनु स्मृति 6.1]  
Those who have deserted the family way after attaining middle age and have adopted the life of sears in the forest-jungles have to survive till they breath last, over the food grains which grow by themselves without cultivating the soil and fruits, rhizomes-roots, leaves performing the five sacred sacrifices in holy fire.
नीवार :: जंगल-वन में स्वयं उत्पन्न होने वाले अनाज; Food grains which grow by them selves without cultivation.
वसीत चर्म-चीरं वा सायं स्नायात्प्रगे तथा।
जटाश्च बिभृयान्नित्यं श्मश्रुलोमनखानि च॥
मृगचर्म या बल्कल पहने, प्रातः और साँयकाल स्नान करे। जटा, दाढ़ी, मूँछ और नख इनको नित्य धारण करे।[मनु स्मृति 6.6]  
The migrant to forest life should wear the skin of the black deer (who dies himself) or plant leaves, bathe twice, in the morning & in the evening. He should maintain locks, beard, moustache and nails.
There are people in this world who copy the saints by keeping beard, locks and moustache but act in entirely different manner. They eat meat, drink wine and indulge in sinister crimes like murders-terrorism, rape, extortion, trafficking. Both of these are living in India. They plan to thwart the legally installed governments and get money from abroad from the interest quarters. 
यद्भक्ष्यं स्यात्ततो दद्याद् बलिं भिक्षां च शक्तितः। 
अप्मूलफलभिक्षाभिरर्चयेदाश्रमागतान्॥
आश्रम के जो विहित भोजन हों, उसी में से यथा शक्ति बलि और भिक्षा दे। आश्रम में आये हुए अतिथि को जल, मूल, फल की भिक्षा से पूजित करे।[मनु स्मृति 6.7] 
One should welcome the guests to the Ashram, hermitage, monasteries (dwellings, a secluded place in the jungle, where the retired people could stay.) and offer them water, fruits, alms and material for sacrifices in holy fire.
There is always a chance for someone to visit the remote place, having lost the way, track. In that case the person leading a retired life should share whatever eatables he has collected for the day. He should willingly offer alms according to the stock, he has.
There was a provision for the retired people to live in a group by building a colony in the jungle away from the normal human reach. The constituted the ashram.

स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद् दान्तो मैत्रः समाहितः। 
दाता नित्यमनादाता सर्वभूतानुकम्पकः॥
वेदाध्ययन में नित्य रहे, गर्मी को सहे, सबका उपकार करे, मन को वश में रखे, नित्य दान करे, पर प्रतिग्रह न ले और सब जीवों पर दया रखे।[मनु स्मृति 6.8]  
One should learn Veds-scriptures everyday as a routine, think-analyse its text and adopt himself according to the preaching's. He should bear he warm weather, help others, keep his mind under control, donate everyday and ensure that he himself do not need alms from others. He should take pity over all living beings.
Yog makes him capable of bearing the tortures of adverse weather conditions. Jungle too have tribal people, with whom he can share his daily collections. The atmosphere-environment in the Ashram is so peaceful that even the beasts start behaving in decent manner, gently.
वैतानिकं च जुहुयादग्निहोत्रं यथाविधि। 
दर्शमस्कन्दयन्पर्व पौर्णमासं च योगतः॥
अमावस्या और पूर्णिमा, दोनों, पर्वों के यज्ञों को न छोड़ता हुआ समय पर यथोक्त विधि से वैतानिक अग्निहोत्र  करे।[मनु स्मृति 6.9]  
One should perform the Yagy on each Amavasaya-Moonless night & Purnima-full Moon night, as per procedure described in the scriptures.
वैतानिक :: वह हवन या यज्ञ आदि जो श्रौत विधानों के अनुसार हो, वह अग्नि जिससे अग्निहोत्र आदि कृत्य किए जायें; holy-sacred sacrifices in fire as per procedure described in the scriptures. 
ऋक्षेष्ट्याग्रयणं चैव चातुर्मास्यानि चाहरेत्। 
तुरायणं च क्रमशो दक्षस्यायनमेव च॥
नक्षत्रेष्टी, आग्रयण, चातुर्मास, तुरायण और दाक्षायण, इन वेदकर्मों को क्रमशः करे।[मनु स्मृति 6.10] 
The inmates of the monastery, hermitage, Ashram in the deep woods should perform these 4 Yagy called Nakshatreshti, Agrayan, Chaturmas, Thuraya and Dakshayan. These Yagy have been listed as Ved Karm i.e., the duties prescribed to be performed by the retired people and the household as well.
नक्षत्रेष्टी यज्ञ :: ग्रह नक्षत्र शांति हेतु किया जाने वाला यज्ञ, Sacrifice to calm down constellations and planets. 
For more detail please refer to :: YAGY यज्ञ santoshsuvichar.blogspot.com 
तुरायण :: चैत्र शुक्ल पंचमी और वैशाख शुक्ल पंचमी को किया जाने वाला यज्ञ। आग्रयण :: नये अन्न से यज्ञ अथवा अग्निहोत्र, प्रतिवर्ष नया अन्न आने के बाद आग्रयण अवश्य होता है।
दाक्षायण :: दक्ष  प्रारंभ राजवंश। इस वंश के राजा संस्कार विशेष, के कारण, शतपथ ब्राह्मण के समय तक, समृद्ध जीवन व्यतित कर रहे थे [श. ब्रा.2.4.4.6]; अथर्ववेद एवं यजुर्वेद संहिताओं में, शतानीक सात्रजित ऋषि को दाक्षायणों ने स्वर्ण प्रदान करने का निर्देश प्राप्त है[अ.वे.1.35.1-2]; [वा.सं. 34.51-52]; [खिल.4.7.7.8]। दाक्षायण का प्रयोग स्वर्ण के लिये भी होता है [ऐ.ब्रा.3.40]। महाभाष्य में, पाणिनि को दाक्षायण कहा गया है; एक यज्ञ जो वैदिक काल में दक्ष प्रजापति ने किया था, a sacrifice. 
Please refer to :: YAGY यज्ञ santoshsuvichar.blogspot.com 
चातुर्मास :: श्रावण, भाद्रपद, आश्‍विन और कार्तिक। इसके प्रारंभ को देवशयनी एकादशी कहा जाता है और अंत को देवोत्थान एकादशी। यह काल व्रत, भक्ति और शुभ कर्मों के हेतु है। ध्यान और साधना के लिए भी यह उपयुक्त समय है। इस दौरान शारीरिक और मानसिक स्थिति तो सही होती ही है, साथ ही वातावरण भी स्वच्छ-अच्छा रहता है। इन चार महीनों में मनुष्य की पाचनशक्ति कमजोर पड़ती है तथा भोजन और जल में जीवाणुओं की तादाद भी बढ़ जाती है। इस काल में जमीन पर सोना और सूर्योदय से पहले उठना बहुत शुभ माना जाता है। उठने के बाद अच्छे से स्नान करना और अधिकतर समय मौन रहना चाहिए। ब्राह्मण और साधुओं के लिये ये नियम और अधिक कड़े होते हैं। दिन में केवल एक ही बार भोजन करना चाहिए। इस दौरान विवाह संस्कार, जातकर्म संस्कार, गृह प्रवेश आदि सभी मंगल कार्य निषेध माने गए हैं। इस व्रत में दूध, शकर, दही, तेल, बैंगन, पत्तेदार सब्जियां, नमकीन या मसालेदार भोजन, मिठाई, सुपारी, मांस और मदिरा का सेवन नहीं किया जाता। श्रावण में पत्तेदार सब्जियां यथा पालक, साग इत्यादि, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध, कार्तिक में प्याज, लहसुन और उड़द की दाल आदि का त्याग कर दिया जाता है।
वानप्रस्थ :: 50 से 75 तक की आयु से गृहस्थ भार से मुक्त होकर वन में निवास। धूप, ताप, बरसात, भूख को बर्दाश्त करना। 
Vraddhawastha (वृद्धावस्था, old age, 51-100) is associated with Vanprasth (वानप्रस्थ) and Sanyas Ashram (सन्यास आश्रम).
Once the children have matured and settled, one may gradually retire from family responsibilities-withdrawal from the world-hectic life, along with his wife and focus-train his mind on spiritual matters. One goes for pilgrimage, religious places, holy shrines, temples, holy rivers, accompanied by his wife. Sexuality-sensuality are forbidden-completely discarded. Vanprasth stands for forest-jungle abode. Wisdom, spirituality, ascetics dominate this stage. This stage begins when his duty as a householder comes to an end, having become a grandfather children are grown up, establishing themselves or becoming independent. All physical, material, sexual pleasures are forbidden. One retires from social and professional life, leaves his home and adopts forest asylum-shelter, spending his time in prayers. His wife accompanies him. The life is really harsh and full of rigours.  One devotes himself completely-whole heartedly to spirituality, austerity, penance, pilgrimage. 
संन्यास आश्रम :: 75 के बाद शेष आयु सब कुछ त्याग कर एक बार भिक्षा वृती द्वारा शेष जीवन का निर्वाह।
HERMIT-SANYAS :: Sanyas (religious, anchorite, solitairian, (यति) eremite, ascetic) is the path of renunciation as per Mundak Upnishad. A Sanyasi is one who has risen above the mundane ambitions of a householder and also the silence and penance of a recluse. It is relinquishment of actions arising from desires and Tyag is the relinquishment of fruit-reward, out put of all actions, according to Bhagwat Gita. The Sanyasi is eligible to pursue the path of knowledge, Gyan, enlightenment. He is not bound to perform ritual or tend the sacred fire-Agnihotr-Hawan.[अतएव चाग्निन्धनाद्यनपेक्षा, Brahm Sutr 3.4.25]
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति। 
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥
हे महाबाहो अर्जुन! जो न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, उस कर्म योगी को सदा संन्यासी ही जानना चाहिए, क्योंकि (राग, द्वेष आदि) द्वंद्वों से रहित पुरुष सुख पूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है।[श्रीमद्भागवत गीता 5.3] 
O mighty Maha Baho Arjun! The Karm Yogi, who is free from envy-malice and desires, should be known as a renouncer of actions (hermit).  One who is free from malice & desires, liberates easily from the worldly bondage-liabilities.
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। 
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥
इस प्रकार मुझे अर्पण करने से तू, कर्मबन्धन से और शुभ-विहित तथा अशुभ-निषिद्ध सहित सम्पूर्ण कर्मों के फलों से, मुक्त हो जायेगा। इस प्रकार अपने सहित सब कुछ मुझे अर्पण करके, सन्यास योग के माध्यम से सर्वथा मुक्त हुआ, तू मुझे प्राप्त हो जायेगा।[श्रीमद्भगवद्गीता 9.28]  
In this manner you will become free from the bondage of deeds and the good and bad impact of Karm-deeds by offering them to ME. Thus by offering everything to ME including yourself, you will be free from all liabilities attaining complete renunciation and Assimilate in ME.
समस्त क्रियाएँ और पदार्थ प्रभु को अर्पण कर देने से मनुष्य, अनन्त जन्मों के संचित शुभ और अशुभ कर्मों के फल से मुक्त हो जाता है। भगवदाज्ञा के अनुरूप किये गए कर्म शुभ ही होंगे, अशुभ नहीं। परिस्थिति वश या पूर्वाभ्यास के कारण यदि कुछ गलत हो भी जायेगा तो ह्रदय में विराजमान प्रभु उस कर्म को फल सहित नष्ट कर देंगे। मनुष्य का सुखी-दुखी होना पूर्वोक्त कर्मों का फल-परिणाम ही है और इन्हीं से ही कर्म बन्धन उत्पन्न होता है। सम्पूर्ण कर्मों को भगवान् को अर्पित करना सन्यास योग है, सन्यास योग का सम्बन्ध-प्रयोग साँख्य और भक्ति योग के प्रसंग में भी हुआ है। अपने संचित और तात्कालिक कर्मों को भगवान् को अपर्ण करना सन्यास योग है। सब कुछ अर्पित करके मनुष्य शुभ और अशुभ कर्मों के बन्धन-जंजाल से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। 
One becomes free by offering all his physical-worldly possessions and the deeds accumulated over previous incarnations to the Almighty. The deeds in accordance with the desire-directive of the Almighty have to be auspicious. If by virtue of mistake, situation or the practice any thing goes wrong, it is corrected by the Almighty HIMSELF. Pain-pleasure comes due to the destiny framed by the previous actions (including  accumulated deeds since birth and the spontaneous actions-momentary deeds) and they create bonds-ties with the living & non-living world. Offering of all deeds to the God is an act of asceticism-sages. Renunciation comes through rejection of belongings, enlightenment and devotion. Relinquishment-renunciation by submitting all to the God, detaches one from all troubles, bonds, ties and ultimately, he achieves Salvation-emancipation.
SANYASI-THE WANDERING ASCETIC, RECLUSE :: Human life is divided in four stages called Ashrams in Hinduism. Brahmchary (the life of a celibate), Grahasth (the life of a householder), Vanprasth (the life of retirement or a forest recluse) followed by Sanyas (sage, saint, hermit, sadhu, wanderer). One who adopts the Sanyas or renunciation leads very austere and ascetic life, without the desire for comforts-luxuries. He remembers the Almighty with barest possible needs preparing for the next birth. One discards ownership, doer-ship, renounces all desires, relationships, attachments-possessions and self preservation, ego, identity. Equanimity, selflessness are integral features of Sanyas. Pains, sufferings, ridicule and criticism have no place in this Ashram.
Renunciation, Relinquishing, Retirement seems to be synonymous. In the 3rd stage called Vanprasth (the Hermit), one withdraws him self from active life, leaving behind his family and household; goes to a forest or hermitage where he prepares himself for the hardships of the next stage, which is the life of renunciation and self-negation. It is said that he should opt for this after becoming grandfather. An individual spends his life in acquiring knowledge-1st stage: Brahmchary and becoming a household; Grahasth-2nd stage, performing obligatory duties towards himself, parents, family and the society.
Sanyas is the stage, which is like the preparation for Moksh (Salvation, Assimilation in God, Liberation). Desire for achievement-attainment of Salvation-in the Ultimate, too distract the devotee from the Almighty; since Bhakti Yog  weighs supreme to both to Karm Yog (performance-deeds) and Gyan Yog (enlightenment). One who has renounced shall not target-aim anything, how so ever high or valuable, it might be.
One, who enters this stage, is forbidden from maintaining any social or family contact. He is advised not to perform the sacrificial fire, Hawan, Agnihotr. One becomes Tapasvi-ascetic, an embodiment of fire-glow that manifests him as a radiant spiritual energy. One is also forbidden from the use of fire either for cooking, heating, warming or for ritualistic purposes. One is expected to subsist on whatever food he could find from begging, only once a day and also progressively reduce his intake of food to become free from the desire to live or survive.
The Vaeshy and Shudr communities are not bound-subjected to this obligation. In present times one cannot think of it either. It is however not compulsory for a person to become a Sanyasi only at this stage. While this is an ideal prescription in scriptures-Shashtr, there is no hard and fast rule for a person to enter the life of a Sanyasi. One can become Sanyasi at any stage in his life. One may seek guidance, advice, patronage from the enlightened, gurus, spiritual mentors, blessed with wisdom, enlightenment, prudence and ability. Their advice is useful-valuable for the ascetic life, leading to the spiritual path-journey.
The distinguished Brahmns generally follow this path to Salvation. One such may be found in one langoti-loin cloth or saffron robes. 
ऋषि-मुनि-त्यागी-निस्पृह-विरक्त-साधु वन में कुटी बनाकर, गुफाओं-कन्दराओं तथा पर्वतों पर रहते हैं, शहरों, गाँवों, घर-घर, गली-गली, मन्दिरों-मठों में मजमा नहीं लगाते। हाथी-घोड़ों की सवारी नहीं करते, शाही स्नान के लिये दँगा-फसाद, पहले मैं-पहले मैं करते। प्रभु आराधना, चित्त संयम, ध्यान, योग और तपस्या में उनका जीवन अर्पित होता है। 
SANYAS YOG संन्यास योग :: It refers to the astrological configuration of plants birth chart of the individual. is the planetary situations or combinations in certain nativities (horoscopes) indicating Sanyas Yog. This is an auspicious configuration in the birth chart. True Sanyas Yog is very rare. It arises when four or more strong planets combine in one house or sign, the nature or kind of Sanyas adopted depends upon the strongest planet in that particular group of planets.
DOMINANT SUN :: If the Sun be the strongest planet the possessor will be a person of high morals and intellectual prowess. He will choose severe and difficult practices in remote places.
DOMINANT MOON :: The possessor will remain in seclusion to study scriptures.
DOMINANT MERCURY :: One will be easily influenced by the philosophy-thoughts-mentality of others.
DOMINANT MARS :: The possessor would choose to wear saffron or yellow coloured clothes and struggle to control his temper.
DOMINANT JUPITER :: The possessor will have complete control over his senses and sense organs.
DOMINANT VENUS :: The individual will be a wandering mendicant.
DOMINANT SATURN :: One will opt for severe practices. 
The involvement of the lord of the 10th house in this conjunction of four or more planets is a stronger indicator of Sanyas.
SALVATION-MOKSH ::  If those four or more planets happen to conjoin in a Kendr-center or in a Trikon-triangle, then the person attains Moksh-Salvation.
YOG BHRASHT :: If they conjoin four or more planets in the 8th house there will be deviation from the path of Salvation-spirituality. i.e., there will be break in Yog-operation and fall from the final state of emancipation. If strongest of the conjoining planets is com-bust, then there will be no Sanyas and if it is defeated in planetary warfare, one returns to worldly life after taking Sanyas. 
Sanyas is also indicated when the Moon in a drekkan of Saturn is aspected by Mars and Saturn or is in a Navansh of Mars aspected by Saturn. A person takes to Sanyas if the dispositor-the planet which is the ruler of the sign or house that is occupied by any another sign or house lord; of the Moon is aspected by Saturn and not by any other planet or if aspected by all planets occupying a single house or sign or if Jupiter is in the 9th house and Saturn aspects the Lagn (Ascendant), the Moon and Jupiter, such a person will write on Shastr and found a school of philosophy and in case Saturn not aspected by any planet & is in the 9th house, then one will be born as a king, but turn to Sanyas.
IMPLICATIONS OF SANYAS YOG :: It is formed by benefice planets in dignity bless a person with an evolutionary elevation of the total personality and sublimation of primeval urges. When four or more planets combine in one house Sanyas Yog does arise. 
Mahatma Buddh had five planets situated in the 10th house  at the time of his birth, which included a weak Saturn occupying its sign of debilitation, or when the Ascendant lord is aspected by Saturn alone or Saturn aspects a weak Lagn lord or when the Moon in a dreshkan or drekkan (द्रेष्काण, द्रेक्काण)  of Saturn occupies a Navansh of Mars or Saturn and is aspected by Saturn in which situation according to Fal Deepika (फलदीपिका) if the lord of Lagn aspects a weak Moon, the Sanyasi-hermit-recluse will lead a very miserable life but if there be a Raj Yog obtaining, he will be venerated by rulers of the world. If the Sanyas Yog is afflicted by malefic influences then the person with that Sanyas Yog will take up Sanyas but prove a shame to that order being vulnerable to baser instincts and lowly conduct and acts.
Benefice planets in the 3rd or 6th house from Arudh (Moon) Lagn gives rise to Sadhu Yog which makes the native a saintly person undertaking pious activities. Research has also found that Parijat Yog can also act as Parivraj Yog, sometimes.
Four planets conjoining in the 10th house from the Lagn or four planets aspecting the 10th house or if the lord of the Lagn and the lord of the 10th join with any three planets any where, give Sanyas but if Saturn joins, there will be no Sanyas. And, in case the Moon and Jupiter join Mercury and Mars in the 10th or in Pisces sign, then Moksh becomes assured. If more than one planet is powerful out of four there will be no Sanyas Yog, when two planets are powerful then one takes Sanyas of the kind indicated by the more powerful one only to discard it to take up Sanyas of the kind indicated by the less powerful. One of the four or more planets conjoining must be very strong to confer Sanyas but if the Sanyas causing planet is com-bust or if it is defeated in Grah Yuddh (planetary warfare) and aspected by other planets there will be no Sanyas but the person will worship Sanyasis i.e., those who have taken up Sanyas.
SIGNIFICANCE OF SANYAS YOG :: Sanyas Yog compel a person to give up all wealth and material possessions; he then becomes a mendicant and begs for alms. These Yog are a class apart, they are Shubh-Yog (शुभ, auspicious Yog) and are not Av-Yog (अवयोग, evil Yog) indicating poverty. They compel a person to renounce the world and seek the Ultimate Truth. Raj Yog obtaining along with Sanyas Yog make a person a world-renowned Dikshit (दीक्षित) and may be a pious ruler who is widely worshipped. A weak Saturn casting its aspect on the weak lord of the Ascendant generally makes one take to the path of renunciation. If the lord of the Bhav in which the Sanyas Yog occurs is associated with Rahu or combines with Gulika in a cruel ansh or if benefice do not aspect the said lord, then that Sanyas Yog will be defunct. Changez Khan (चंगेज खान), the mighty Mongol warrior, was born at 1.30 A.M on 16.09.1186 A.D. with six planets combining in one sign and house i.e., in Virgo in the 3rd house from the Lagn which grouping included a strong Uchchabhilashi (उच्चाभिलाषी, strong-high desires) Saturn, he did not take to the path of renunciation. He was a ruthless warrior and a wandering conqueror as foretold by Saravali for this conjunction and a powerful ruler as ordained by Laghu Jatak Sarwasw vide Verse 537 which states that if all planets are in the 12th from the Moon and aspect the 6th house from the Moon then a Raj Yog is caused and the person lives for 68 years; Changez Khan lived for 68 years.
Varah Mihir states that if the Lagn falls in an even sign and the three natural benefice along with Mars are all powerful to do good then a woman becomes a famous Vedantin (वेदान्तिन) and if the 7th house is tenanted by a cruel planet and the 9th by mild benefice then she will embrace the kind of Sanyas as is indicated by the planet occupying the 9th house. In a Capricorn Lagn nativity that had Rahu in the 5th, Mars in the 6th, Saturn in the 7th, the Sun and the Moon in the 8th, Venus and Mercury in the 9th, Jupiter and Ketu in the 11th despite a powerful Bhagy (भाग्य, luck) Yog obtaining and all three natural benefice being placed ahead of the Sun and the Moon the lady did not receive Diksha (दीक्षा) because Saturn did not aspect the Moon or its dispositor and Mars did not aspect the 9th house.
Jatak Bharnam (जातक भरणम्) reiterates that if Jupiter is either in the 5th house or in the Lagn and the Moon is situated in the 10th house, then the person will be a Tapasavi (तपस्वी, ascetic) i.e., the one who has conquered his senses and who possesses the finest of intelligence, is persevering, hardworking and successful. This is a Yog of a very high order and gives excellent results provided both Jupiter and the Moon gain favourable Varg (वर्ग और नक्षत्र). and Nakshatr The significant factor in this Yog-formation is the lord of the sign of exaltation for Dev Guru Vrahaspati-Jupiter, occupying the all-important Karm Sthan-house of action.
गृहस्थस्तु यथा पश्येद् वलीपलितमात्मनः। 
अपत्यस्यैव चापत्यं तदाऽरण्यं समाश्रयेत्॥
गृहस्थ जब देखे कि अपने शरीर पर झुर्रियाँ पद गई हैं, केश श्वेत हो गए है और पुत्र के भी पुत्र हो चुके हैं, तब वन में निवास करे।[मनु स्मृति 6.2] 
The house hold should retire to forests when he has observes that he has become a grand father, his hair have turned grey and the face has wrinkles.
This is not feasible in today's context since the people dies before acquiring that age. They become so weak and fragile that they need some one to look after. At this age the sons and the grand children start ignoring him and treat him as a burden-liability. The children of today consider their parents to be a liability as soon as they get married. They move away in search of a job leaving their ageing parents behind, at a time when they needs help the most. The trend seems irreversible, though exceptions are always there, even in most developed countries, like America, Australia or Europe.
वानप्रस्‍थ और संन्‍यास आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन :: भीष्‍म पितामह कहते हैं :- बेटा युधिष्ठिर! मनीषी पुरूषों द्वारा जिसका विधान एवं आचरण किया गया है, उस गृहस्‍थ वृत्ति का मैंने तुमसे वर्णन किया। तदनन्‍तर व्‍यासजी ने अपने महात्‍मा पुत्र शुकदेव से जो कुछ कहा था, वह सब बताता हॅू, सुनो। वत्‍स! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। गृहस्‍थी‍ की इस उत्तम तृतीय वृत्ति की भी उपेक्षा करके सह धर्मिणी के संयोग से किये जाने वाले व्रत नियमों द्वारा जो खिन्‍न हो चुके हैं तथा वानप्रस्‍थ आश्रम को जिन्‍होंने अपना आश्रय बना लिया है, सम्‍पूर्ण लोक और आश्रम जिनके अपने ही स्‍वरूप हैं, जो विचार पूर्वक व्रत और नियमों में प्रवृत्त हैं तथा पवित्र स्‍थानों में निवास करते हैं, ऐसे वन वासी मुनियों का जो धर्म है, उसे बताता हॅू, सुनो! गृहस्‍थ पुरूष को जब अपने सिर के बाल सफेद दिखायी दें, शरीर में झुर्रियाँ पड़ जायें और पुत्र को भी पुत्र प्राप्ति हो जाये तो अपनी आयु का तीसरा भाग व्‍यतीत करने के लिये वन में जाय और वानप्रस्‍थ आश्रम में रहे। वह वानप्रस्‍थ आश्रम में भी उन्‍हीं अग्नियों का सेवन करे, जिनकी गृहस्‍थाश्रम में उपासना करता था। साथ ही वह प्रति दिन देवाराधन भी करता रहे। वानप्रस्‍थी पुरूष नियम के साथ रहे, नियमानुकूल भोजन करे। दिन के छठे भाग अर्थात तीसरे पहर में एक बार अन्‍न ग्रहण करे और प्रमाद से बचा रहे। गृहस्‍थाश्रम की ही भाँति अग्निहोत्र, वैसी ही गौ सेवा तथा उसी प्रकार यज्ञ के सम्‍पूर्ण अंगों का सम्‍पादन करना वानप्रस्‍थ का धर्म है। वनवासी मुनि बिना जोती हुई पृथ्‍वी से पैदा हुआ धान, जौ, नीवार तथा विघस (अतिथियों को देने से बचे हुए) अन्‍न से जीवन निर्वाह करे। वानप्रस्‍थ में भी पंचमहायज्ञों में हविष्‍य वितरण करे। वानप्रस्‍थ आश्रम में भी चार प्रकार की वृत्तियॉ मानी गयी हैं। कोई उतने ही अन्‍न का संग्रह करते हैं कि तुरंत बना-खाकर बर्तन को धो माँज कर साफ कर लें अर्थात वे दूसरे दिन के लिये कुछ नहीं बचाते। कुछ दूसरे लोग वे हैं, जो एक महीने के लिये अनाज का संग्रह करते हैं। कोई वर्ष भर के लिये और कोई बारह वर्षों के लिये अन्‍न का संग्रह करते हैं। उनका यह संग्रह अतिथि सेवा तथा यज्ञ कर्म के लिये होता है। वे वर्षों के समय खुले आकाश के नीचे और सर्दी में पानी के भीतर खडे़ रहते हैं। जब गर्मी आती है, तब पंचाग्नि से शरीर को तपाते है और सदा स्‍वल्‍प भोजन करने वाले होते है। वानप्रस्‍थी महात्‍मा जमीन पर लोट-पोट करते, पंजों के बल खडे़ होते, एक स्‍थान पर आसन लगाकर बैठते तथा तीनों काल स्‍नान और संध्‍या करते हैं। कोई दॉतों से ही ओखली का काम लेते हैं अर्थात् कच्‍चे अन्‍न को चबा-चबाकर खाते हैं। दूसरे लोग पत्‍थर कूटकर भोजन करते हैं और कोई-कोई शुक्‍लपक्ष या कृष्‍ण पक्ष में एक बार जौ का औटाया हुआ माँड़ पीकर रह जाते हैं अथवा समयानुसार जो कुछ मिल जाय वही खाकर जीवन निर्वाह करते हैं। वानप्रस्‍थ धर्म का आश्रय लेकर कोई कन्‍दमूल से और कोई-कोई दृढ़ व्रत का पालन करते हुए फूलों से ही धर्मानुकूल जीविका चलाते हैं।[महाभारत, शान्ति-मोक्ष, धर्म पर्व 244.1-13]
संत्यज्य ग्राम्माहारं सर्वं चैव परिच्छदम्। 
पुत्रेषु भार्यां निक्षिप्य वनं गच्छेत् सहैव वा॥
ग्राम्य आहार (चावल, आटा आदि) और वस्त्र, अलंकारादि को त्याग कर स्त्री को पुत्र के सुपुर्द कर अथवा अपने साथ ले वन में जाये।
[मनु स्मृति 6.3] 
This is the third stage of life in which one has to hand over all responsibilities of the house hold-family to his son, reject food grains, depend over fruits and vegetation, reject clothing and ornaments and move to forests along with his wife. However, he may leave his wife behind to be looked after by the sons.
The life in solitude in a thatched hut with barest possible needs, leaves a plenty of time to meditate for Salvation, the only goal of life, for which the Almighty has granted this incarnation to one. His body will adopt itself to wear the environmental changes and ultimately, he will leave this body for heavenly abode. If he survives; the fourth stage of life will begin as a recluse-wanderer.
वानप्रस्थ और संन्यासी के धर्म :: भगवान श्री कृष्ण कहते हैं :- प्रिय उद्धव! यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ आश्रम में जाना चाहे, तो अपनी पत्नी को पुत्रों के साथ सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फिर शान्त चित्त से अपनी आयु का तीसरा भाग वन में ही रहकर व्यतीत करे। उसे वन के पवित्र कन्द-मूल और फलों से ही शरीर-निर्वाह करना चाहिये; वस्त्र की जगह वृक्षों की छाल पहिने अथवा घास-पात और मृगछाला से ही काम चला ले। केश, रोएँ, नख और मूँछ-दाढ़ी रुप शरीर के मल को हटावे नहीं। दातुन न करे। जल में घुसकर त्रिकाल स्नान करे और धरती पर ही पड़ा रहे। ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि तपे, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहकर वर्षा की बौछर सहे। जाड़े के दिनों में गले तक जल में डूबा रहे। इस प्रकार घोर तपस्यामय जीवन व्यतीत करे। कन्द-मूलों को केवल आग में भूनकर खा ले अथवा समयानुसार पके हुए फल आदि के द्वारा ही काम चला ले। उन्हें कूटने की आवश्यकता हो तो ओखली में या सिलपर कूट ले, अन्यथा दाँतों से ही चबा-चबाकर खा ले। वान प्रस्थाश्रमी को चाहिये कि कौन-सा पदार्थ कहाँ से लाना चाहिये, किस समय लाना चाहिये, कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं :- इन बातों को जानकर अपने जीवन-निर्वाह के लिये स्वयं ही सब प्रकार के कन्द-मूल-फल आदि ले आवे। देश-काल आदि से अनभिज्ञ लोगों से लाये हुए अथवा दूसरे समय के संचित पदार्थों को अपने काम में न लें। नीवार आदि जंगली अन्न से ही चरु-पुरोडाश आदि तैयार करे और उन्हीं से समयोचित आग्रयण आदि वैदिक कर्म करे। वानप्रस्थ हो जाने पर वेद विहित पशुओं द्वारा मेरा यजन न करे। वेदवेत्ताओं ने वानप्रस्थी के लिये अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास और चातुर्मास्य आदि का वैसा ही विधान किया है, जैसा गृहस्थों के लिये है। इस प्रकार घोर तपस्या करते-करते माँस सूख जाने के कारण वानप्रस्थी की एक-एक नस दीखने लगती है। वह इस तपस्या के द्वारा मेरी आरधना करके पहले तो ऋषियों के लोक में जाता है और वहाँ से फिर मेरे पास आ जाता है; क्योंकि तप मेरा ही स्वरुप है। प्रिय उद्धव! जो पुरुष बड़े कष्ट से किये हुए और मोक्ष देने वाले इस महान् तपस्या को स्वर्ग, ब्रम्हलोक आदि छोटे-मोटे फलों की प्राप्ति के लिये करता है, उससे बढ़कर मूर्ख और कौन होगा? इसलिये तपस्या का अनुष्ठान निष्काम भाव से ही करना चाहिये। प्यारे उद्धव! वानप्रस्थी जब अपने आश्रमोंचित नियमों का पालन करने में असमर्थ हो जाये, बुढ़ापे के कारण उसका शरीर काँपने लगे, तब यज्ञाग्नियों को भावना के द्वारा अपने अन्तःकरण में आरोपित कर ले और अपना मन मुझमें लगाकर अग्नि में प्रवेश कर जाय। (यह विधान केवल उनके लिये है, जो विरक्त नहीं हैं)। यदि उसकी समझ में यह बात आ जाय कि काम्य कर्मों से उनके फलस्वरूप जो लोक प्राप्त होते हैं, वे नरकों के समान ही दुःखपूर्ण हैं और मन में लोक-परलोक से पूरा वैराग्य हो जाय तो विधिपूर्वक यज्ञाग्नियों का परित्याग करके संन्यास ले ले।
[श्रीमद्भागवत महापुराण11.18.1-12]
अधीत्य विधिवद्वेदान्पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः। 
इष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत्॥
विधि पूर्वक वेदों को पढ़कर, धर्म से पुत्रों को उत्पन्न कर, यथाशक्ति यज्ञों का अनुष्ठान करके तब चतुर्थ आश्रम-सन्यास में मन को लगावे।[मनु स्मृति 6.36] 
One should study the Veds with due respect & procedure (first stage as a celibate), gets married as per dictates of the scriptures (second stage) and perform sacred sacrifices in holy fire (third stage) to pay off the debts of the deities, Manes & parents,  before entering the fourth stage of life as a sage (sear, ascetic, wanderer, recluse) to seek Salvation.
Kapil Muni, Suck Dev Ji Maharaj and Adi Shankrachary had to marry and pull on with married life as per decree of the scriptures.
Parents of Guru Gorakh Nath too returned to family way-house hold life.

अनधीत्य द्विजो वेदाननुत्पाद्य तथा सुतान्।
अनिष्ट्वा चैव यज्ञैश्च मोक्षमिच्छन्व्रजत्यधः॥
जो द्विज वेदों को पढ़कर तथा पुत्रों की उत्पत्ति और यज्ञों का अनुष्ठान न कर (अकृत ऋषि ऋण, पितृ ऋण और देव ऋण से उऋण हुए बिना) सन्यास धारण करता है वह नीच गति को प्राप्त होता है।[मनु स्मृति 6.37] 
The Brahmn who adopts sage-hood without clearing off the three debts i.e., study of Veds, having a son and performing sacrifices in holy fire moves downwards into low species in next incarnations. 
The Brahmn has to study first by joining celibacy-chastity till the age of 25 years as a Brahmchari in the Ashram of the Guru. Thereafter, he has to get married and become a household and produce sons, discharging all responsibilities towards parents, elders, Guru, society, nation and only then he can retire from active life. Having discharged all his duties, responsibilities, he is free to move to Vanprasth-retired life i.e., life in the forests.
Kapil Muni, an incarnation of Bhagwan Shri Hari Vishnu had to return to family way to clear the 3 debts. Please refer to :: KAPIL MUNI कपिल मुनि :: THE NARRATOR OF SANKHY YOG साँख्य शास्त्र-ज्ञान योग के प्रतिपादकsantoshkathashagar.blogspot.com 
प्राजापत्यं निरुप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम्। 
आत्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद् गृहात्॥
प्राजापत्य यज्ञ (जिसमें सर्वस्व दक्षिणा दी जाती है) को शास्त्रोक्त विधि से पूरा करके अपने से अग्नि को समारोपित करके ब्राह्मण सन्यास ग्रहण करने के लिये घर से निकले।[मनु स्मृति 6.38] 
Prior to seeking sage hood the Brahmn should perform Prajapaty Yagy and donate  (transfer all his belonging-property & liabilites-responsibilites to his children) everything belonging to him, following all procedures described in the scriptures.
The Brahman can donate his personal goods, i.e., the goods meant for his personal use only, since he has already transferred all responsibilities to his sons along with his belongings-property etc. One is not supposed to donate at the cost of his family.
यो दत्त्वा सर्वभूतेभ्यः प्रव्रजत्यभयं गृहात्। 
तस्य तेजोमया लोका भवन्ति ब्रह्मवादिनः॥
जो सब प्राणियों को अभय देकर घर से सन्यास के लिये जाता है, उस ब्रह्मवादी को तेजोमय लोक में स्थान प्रपात होता है।[मनु स्मृति 6.39] 
The Brahm Vadi (one who follows the dictates of scriptures) Brahmn, who moves out of his home for sage hood, pardons all those who have committed one or the other grudge, crime, fault against him, achieves the abodes full of brightness-illumination, like Sury Lok.
Suck Dev Ji Maharaj, the renowned and renounced son of Mahrishi Ved Vyas achieved Sury Lok. He treated every one equally. He had attained equanimity.
अगारादभिनिष्क्रान्तः पवित्रोपचितो मुनिः। 
समुपोढेषु कामेषु निरपेक्षः परिव्रजेत्॥
घर से निकल कर दण्ड कमण्डलु आदि पवित्र पदार्थों को साथ में ले, किसी से वृथा भाषण ने करे और सुस्वादु भोज्य पदार्थों की भी इच्छा ने करके भ्रमण करे।[मनु स्मृति 6.41] 
After leaving the home (family life), one should keep a staff (baton) and a pot with handle and spout in his hands, should discard unnecessary-useless talk with anyone and should not crave for tasty food, while travelling (roaming) as a recluse (wanderer).
 एक एव चरेन्नित्यं सिद्ध्यर्थमसहायवान्। 
 सिद्धिमेकस्य संपश्यन्न जहाति न हीयते॥
मोक्ष की सिद्धि के लिये बगैर किसी की सहायता लिये, अकेला ही नित्य भ्रमण करे। वह न किसी को छोड़ कर और न किसी के द्वारा छोड़े जाने का दुःख करे।
[मनु स्मृति 6.42]  
For seeking Salvation, he should wander alone, without seeking help from anyone or being helped by anyone; free from the sorrow of departing anyone or being deserted by anyone.
अनग्निरनिकेतः स्याद् ग्राममन्नार्थमाश्रयेत्। 
उपेक्षकोऽसङ्कुसुको मुनिर्भावसमाहितः॥
अग्नि और गृह रहित होकर रहे। रोगादि की परवाह न करे। स्थिर बुद्धि और मौन होकर विशुद्ध भाव से ब्रह्म का मनन करता हुआ भोजन के लिये गाँव जाये।[मनु स्मृति 6.43]  
One should not have either a house or ignite-use fire. He should not care for illness. He should be stable and meditate-concentrate in the Almighty. He should continue meditation-remembering the Almighty-Par Brahm Parmeshwar, while visiting a village for food.
कपालं वृक्षमूलानि कुचेलमसहायता। 
समता चैव सर्वस्मिन्नेतत्मुक्तस्य लक्षणम्॥
खप्पर (भोजन के लिये), वृक्ष की जड़ सोने के लिये, मोटा-पुराना कपड़ा (कटा-फटा, जीर्ण-शीर्ण नहीं,पहनने के लिये), किसी सहायक का न रहना और सर्वत्र समभाव रखना, यह मुक्त पुरुष के लक्षण हैं।[मनु स्मृति 6.44]  
One who is relinquished keep broken earthen ware-potsherd (instead of an alms bowl) for food, sleeping at the root of the tree, wearing old thick-coarse cloths (which are not torn-worn out garments), abstaining from having a helper and equanimity in everything everywhere. These are the characterises, traits, qualities of detached who is seeking Liberation.
नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम्। 
कालमेव प्रतीक्षेत निर्वेशं भृतको यथा॥
न मरने की न जीने की चाहत करे। किन्तु जैसे सेवक अपने प्रभु की आज्ञा की प्रतीक्षा करता है, उसी प्रकार सन्यासी अन्त काल-मृत्यु की प्रतीक्षा करे।[मनु स्मृति 6.45] 
The wander-recluse (ascetic, sage) should not desire either death or longevity. He should just wait for the death, like a disciplined servant who wait for his master's orders and carry them out immediately.
There is every possibility of his meeting rowdies, anti social, indecent people. He should avoid, ignore them. He should not take their behaviour seriously.
अल्पान्नाभ्यवहारेण रहःस्थानासनेन च। 
ह्रियमाणानि विषयैरिन्द्रियाणि निवर्तयेत्॥
अल्पाहार और एकान्त निवास, इन दोनों उपायों से, विषयों द्वारा खींची जाने वाली इन्द्रियों को वश में करे।
[मनु स्मृति 6.59]  
The hermit should control (restrain) his senses by eating little and staying in solitude, which are dragged towards desires (comforts, allurements, lust etc.)
इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च। 
अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते॥
इन्द्रियों के नियंत्रण से और रागद्वेष के त्याग तथा प्राणियों की अहिंसा से संन्यासी मोक्ष पाता है।
[मनु स्मृति 6.60]   
The sage (sear, recluse) attain Salvation by restraining his senses, rejecting attachment & envy and non violence of creatures.
बलं विद्या च विप्राणां राजां सैन्यं बलं तथा।
बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां परिचर्यकम्॥
एक ब्राह्मण का बल तेज और विद्या है, एक राजा का बल उसकी सेना में है, एक वैश्य का बल उसकी दौलत में है तथा एक शूद्र का बल उसकी सेवा परायणता में है।[चाणक्य नीति 2.16] 
A Brahman's strength is Aura-energy & learning-enlightenment, a king's strength is in his army (war, battle), a Vaeshy's strength is in his finances (wealth, business, economy) and a Shudr's strength is in his attitude of service.
One survives with the help, strength of some force-support :- Brahman's strength is education, kings might lies in his forces, Vaeshy (businessman, trader) is supported by his wealth-possessions and the Shudr's capability stands in his tendency to serve whole heartedly.
Brahman has to seek (obtain, gain) and impart education. Education is a possession which can not be stolen and enhances by educating others. Kshatriy's-King's prime duty is to protect the residents-populace, citizens and provide them essentials which can be achieved by having an army of soldiers and other categories of dedicated employees. Vaeshy has to invest money in trade, business, loans and other activities of human welfare like charity, donations, building of inns, inns digging of ponds & wells, plantation of trees constructing roads, schools, hospitals etc. Shudr has to serve without hesitation. In short every one has to act according to his Varn Ashram Dharm.
At present no one perform his duties as per Varnashram Dharm. The Shudr are pushed into teaching, engineering, administration, politics, medicine, business and what not!? The results are obvious. Successive governments introduced work experience, socially useful work, tailoring, home science, crafts, basic education (spinning, making dolls, book binding) i.e., one or the other jobs performed by the scheduled castes earlier. Each and every scheme-programme failed.
Slowly and gradually the Muslims entered the fields so far the sole domain of Shudr. Protected by reservations the Shudr are made to occupy higher echelon of society. The results are sees clearly. They have firm grip over politics as well.
In fact these day all political parties are seeking the votes of Muslims and the Shudr leading to harassment of Upper castes.
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(1).  MANU SMRATI (10) मनुस्मृति :: santoshkipathshala.blogspot.com hindutv.wordpress.com
चला लक्ष्मीश्चला: प्राणाश्चले जीवित मन्दिरे।
चलाSचले हि संसारे धर्म एको हि निश्चल:॥
लक्ष्मी चंचल है, श्वास चंचल है, संसार भी चंचल है; केवल धर्म ही स्थिर-अटल है।[चाणक्य नीति 5.20] 
Lakshmi (wealth) is movable, breath is unsteady, the world is unstable, only the Dharm is stable-perpetual.
Maa Lakshmi is the deity of wealth-riches, fortune. 
Each and everything in this universe-world is perishable, expect Dharm (Truth lies at the core of Dharm). One is not supposed to be wealthy for ever. Single-shear stroke of luck demolishes the biggest citadels-business empires, dynasties. Who so ever is born is sure to die, one day or the other. Every thing in this world under goes transformation-transmutation, after the lapse of one day (including night) of the Brahma Ji's-ONE KALP.
The gist (essence, conclusion) is that one should do pious, righteous, virtuous acts, remain struck to the truth, remember the God, maintain equanimity in all livings beings, do his duty whole heartedly.
Keep on performing Varnashram duties regularly without fail, laziness, honestly with dedication.

वर्णाश्रम धर्म
कोई भी व्यक्ति माँ के पेट से धर्म, वर्ण अथवा जाति लेकर पैदा नहीं होता। उसमें घर, समाज, वर्ण, जाति के संस्कार विकसित किये जाते हैं। सभी मनुष्यों में 23 जोड़े गुण सूत्र होते हैं, जिन पर लाखों क्रोमोसोम्स होते हैं।  मनुष्य  का स्वभाव उन्हीं  से नियंत्रित होता है। कोई  व्यक्ति प्रयास करके दूसरे वर्ण को प्राप्त सकता है।भा 
द्विज का अर्थ है, संस्कार युक्त। शास्त्र कहते हैं :- 
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते।
वेदाभ्यास भवति विप्र ब्रह्मम जानति ब्राह्मणः
जन्म से सभी एक ही जाति के हैं, हमारे कर्म-संस्कार हमें द्विज या श्रेष्ठ बनाते हैं।[स्कन्द पुराण, नगर काण्ड  239.31-34]
ब्राहृणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:।
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां शूद्रोऽजायत॥
ब्रह्मा जी के मुख से ब्राह्मण, बाहु से राजन्य-क्षत्रिय, ऊरु-जँघा से वैश्य और पद-चरण से शूद्र की उत्पत्ति हुई।[ऋक्संहिता 10.90.22]
सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्य्र्थं स महाद्द्युतिः। 
मुखबाहूरूपज्जानां प्रथक्कर्माण्यकल्पयत्॥
महातेजस्वी ब्रह्मा जी ने इस सम्पूर्ण विश्व के रक्षार्थ मुख, बाहू, जँघा और पाँव से उत्पन्न होने वाले जीवों के अलग-अलग कर्मों की कल्पना की है।[मनु स्मृति 1.87]
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥
चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) को उनके गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक; मेरे द्वारा रचा गया है। उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी को तुम अकर्ता ही जानो। मुझे कर्मों के फल की कामना नहीं है, इसलिए कर्म मुझे लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो तत्त्व से मुझे जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।[श्रीमद्भागवत गीता 4.13-14]
मित्राय पञ्च येमिरे जना अभिष्टिशवसे। स देवान्विश्वान्विभर्ति
निषाद को लेकर पाँचों वर्ण शत्रु जयक्षम और बल विशिष्ट मित्र के उद्देश्य से हव्य प्रदान करते हैं। वे मित्र देव अपने स्वरूप से समस्त देवगणों को धारित करते हैं।[ऋग्वेद 3.59.8]
वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य क्षत्रियस्य च रक्षणम्।
वार्ता कर्मैव वैश्यस्य विशिष्टानि स्वकर्मसु
ब्राह्मण को वेदाभ्यास, क्षत्रिय को प्रजा की रक्षा और वैश्य को व्यापार करना, ये ही उनके विशेष कर्म हैं।[मनु स्मृति 10.80]
अध्यापनमध्ययनं यजन तथा। 
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥
ब्राह्मणों के लिये पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना दान देना, दान लेना, ये 6 कर्म निश्चित किये गये हैं।[मनु स्मृति 1.88]
चतुर्भिरपि चैवैतैर्नित्यमाश्रमिभिर्द्विजैः। 
दशलक्षणको धर्मः सेवितव्यः प्रयत्नतः॥
इन ब्रह्मचारी और चारों आश्रमी द्विजों को सदा यत्नपूर्वक दश विध धर्मों का सेवन करना चाहिये।[मनु स्मृति 6.91]
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। 
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
संतोष, क्षमा, मन को दबाना, अन्याय से किसी की वस्तु को न लेना, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियों का निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, क्रोध न करना; ये धर्म के दस लक्षण हैं।[मनु स्मृति 6.92]
 
चारों वर्ण के लिए समान धर्म :: किसी भी प्राणी को हिंसा न करना, कष्ट न पहुँचाना, मधुर वचन बोलना, सत्य भाषण करना, बाहर और भीतर से पवित्र रहना एवं शौचाचार का पालन करना, दीनों के प्रति दया भाव रखना तथा क्षमा (निन्दा आदि को सह लेना), ये चारों वर्णों तथा आश्रमों के सामान्य धर्म कहे गये हैं।[राम नीति, अग्नि पुराण, 239.10-121/2
दान पुण्य। 
हवन, अग्नि-होत्र, यज्ञ, धूप बत्ती, अगर बत्ती, लोबान, शुद्ध देशी घी-सरसों के तेल का दीया जलाना, आरती करना-उतारना, पूजा-पाठ करना। 
तीर्थ स्थलों की यात्रा करना। 
पवित्र नदियों में नहाना। 
योग्य, आदरणीय-पूजनीय व्यक्तिओं व  देवी देवताओं का सम्मान। 
अपने पर निर्भर व्यक्तियों हेतु धन कमाना। 
केवल अपनी पति के साथ-केवल ऋतु कल में संतान हेतु मैथुन-गर्भाधान, पशुओं से मैथुन न करना। 
सभी प्राणियों पर दया करना। 
सत्य।  
अत्यधिक कठिन श्रम न करना।  
सभी से मित्रता पूर्ण व्यवहार। 
शुद्धि, साफ सफाई। 
इच्छा, कामना-चाहत रहित कार्य-कर्म। 
किसी के कार्य में कमी, गलती, बुराई न देखना-निकालना। 
कंजूसी न करना। 
ब्राह्मणों गुण :: कुछ अपवादों को छोड़ कर अधिकतर ब्राह्मण अपने स्वाभाविक गुणों के आधार पर पहचाने जाते हैं।
अत्यधिक विकसित मस्तिष्क, मानसिक शक्ति।
पुराणों, वेदों, शास्त्रों, रामायण-महाभारत आदि का पढ़ना और पढ़ाना।  
साहस, पौरुष।
मजबूत शरीर व माँसपेशियाँ-बाहुबल।
पढ़ना-पढाना, स्वाद्ध्याय, चिंतन भक्ति।
गौर वर्ण।
माँस, मच्छी, अंडा  न खाना।
धुम्रपान-बीडी, सिग्रेट न पीना, किसी भी प्रकार के नशे-शराब से दूर रहना।
अपनी पत्नी के अलावा अन्य स्त्री के बारे में न सोचना।
किसी को भी न सताना परेशान तंग न करना-हानि न पहुँचाना।
क्रोध न करना-मन को काबू में रखना।
दैनिक स्नान पूजा पाठ प्रार्थना।
भगवान् देवी देवताओं पूर्वजों को भेंट चढ़ाना।
शुद्ध सात्विक साधनों द्वारा धन कमाना।
अपनी आवश्कताओं को न्यूनतम स्तर पर सीमित  रखना।
समाज के उत्थान-विकास का प्रयास।
सभी प्राणियों में सामंजस्य।
धन, जवाहरात, गहनों व पत्थरों को समान समझना।
अपनी पत्नी के अलावा अन्य स्त्री से गर्भाधान न करना, वह भी केवल ऋतुकाल में-रात्रि में व ग्रहण में नहीं।
शुद्ध सात्विक आचार व्यवहार, निरामिष  भोजन, सदाचार। 
संग्रह की  प्रवृत्ति  का अभाव।
क्षत्रिय गुणधर्म :: अस्त्र-शास्त्रों  ज्ञान और अभ्यास, राज्य संचालन, शासन व्यवस्था।
वैश्य गुणधर्म :: हिन्दु धर्म में वैश्य समुदाय की विशिष्ट भूमिका है। खेती बाड़ी, पशु पालन, व्यापार उनके प्रमुख कार्य हैं। वे ब्राह्मणों को यज्ञ, हवन, प्रार्थना, शादी, सामाजिक कार्यों धन प्रदान करते हैं। राज कोष में कर जमा करते हैं। धर्मशाला, अस्पताल, विद्यालय, मंदिर का निर्माण, तालाब-झील  का खुदवाना, पेड़ लगवाना व अन्य सामाजिक कार्य करवाना। ग़रीबों-जरुरत मंदों ब्राह्मणों को दान देना। धार्मिक ग्रंथों-शास्त्रों  को पढ़ना। 
शूद्रों के गुणधर्म :: सभी वर्णों की सेवा करना। 
मानव जीवन  अवस्थाएँ :: ब्रह्म चर्य (0-25), गृहस्थ (26-50), वानप्रस्थ (51-75), सन्यास (76-100).
गुणों भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम्।
सिद्धिर्भुषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम्॥
रूप की शोभा गुणों से होती हैं, कुल की शोभा शील-अच्छे आचरण से होती हैं, विधा की शोभा धन प्राप्ति से होती हैं, इसी प्रकार धन की शोभा उसके भोगने-सदुपयोग से होती हैं।[चाणक्य नीति 8.13]
The beauty is adorned by good qualities, high birth (upper caste-Swarn) is recognised by one's virtuous, moral-good conduct, the skill-ability is recognised if it yield money and the wealth is appreciated when put-subjected to proper use.
A woman who is beautiful but devoid of grace, manners, shame, good character is not respected in the society. People of high origin-noble families are expected to show stable-balanced behaviour, conduct with the common man. Learning (education, skills, knowledge) is useful only when it helps one in earning livelihood; bread and butter. Wealth-money is of no use if is not subjected to further earning, utilisation, meeting the daily needs-essentials and helping the poor.
धन पर साँप बन कर कुण्डली मार कर बैठना उचित नहीं है। इसके सदुपयोग होना ही चाहिये। कहते हैं, जोड़-जोड़ मर जायेंगे, माल जमाई खायेंगे।
One must not sit on wealth like a snake. There are people-misers, who keep on earning through out the life and their wealth is wasted by sons in law.
बलं विद्या च विप्राणां राजां सैन्यं बलं तथा।
बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां परिचर्यकम्॥
एक ब्राह्मण का बल तेज और विद्या है, एक राजा का बल उसकी सेना में है, एक वैश्य का बल उसकी दौलत में है तथा एक शूद्र का बल उसकी सेवा परायणता में है।[चाणक्य नीति 2.16]
A Brahman's strength is Aura-energy & learning-enlightenment, a king's strength is in his army (war, battle), a Vaeshy's strength is in his finances (wealth, business, economy) and a Shudr's strength is in his attitude of service.
One survives with the help, strength of some force-support :- Brahman's strength is education, kings might lies in his forces, Vaeshy (businessman, trader) is supported by his wealth-possessions and the Shudr's capability stands in his tendency to serve whole heartedly.
Brahman has to seek (obtain, gain) and impart education. Education is a possession which can not be stolen and enhances by educating others. Kshatriy's-King's prime duty is to protect the residents-populace, citizens and provide them essentials which can be achieved by having an army of soldiers and other categories of dedicated employees. Vaeshy has to invest money in trade, business, loans and other activities of human welfare like charity, donations, building of inns, inns digging of ponds & wells, plantation of trees constructing roads, schools, hospitals etc. Shudr has to serve without hesitation. In short every one has to act according to his Varn Ashram Dharm.
At present no one perform his duties as per Varnashram Dharm. The Shudr are pushed into teaching, engineering, administration, politics, medicine, business and what not, in spite of being low scorers!? The results are obvious. Successive governments introduced work experience, socially useful work, tailoring, home science, crafts, basic education (spinning, making dolls, book binding) i.e., one or the other jobs performed by the scheduled castes earlier. Each and every scheme-programme failed.
Slowly and gradually the Muslims entered the fields so far the sole domain of Shudr. Majority of following trades are controlled by them :- vehicle repair,
AC service, scrap, fruit-vegetable selling, welding, etc. etc. 
Protected by reservations the Shudr are made to occupy higher echelon of society. The results are sees clearly. They have firm grip over politics as well. Modi, Maya, Nitish, Stalin, Murmu are all alike-grossly inefficient.
In fact these day all political parties are seeking the votes of Muslims and the Shudr leading to harassment of Upper castes.


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