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अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
अध्याय (1) :: ऋषिः :- परमेष्ठी प्रजापतिः ; देवता :- सविता, यज्ञ, विष्णु, अग्नि, प्रजापति, अप्सवितरो, इन्द्र, वायु, द्योविद्युतौ; छन्द :- बृहति, उष्णिक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, पंक्ति, गायत्री।हे शाखे! पलाश यज्ञ का फल जो वृष्टि के रूप में है, उसके हेतु मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ। हे शाखे ! रस और शक्ति की शक्ति हेतु मैं तुम्हें बिल्कुल सीधी और शुद्ध करता हूँ। हे गौ वत्से ! तुम खेल में लगी रहो। इसलिए तुम माता से प्रथक होकर विदेश में भी तीव्रगति वाली बनकर जाओ। वायुदेव तुम्हारी रक्षा करें। हे गौ माताओं! सभी को उपदेश प्रदान करने वाले, दिव्य गुणों से सम्पन्न, ज्योतिर्मान ईश्वर तुम्हें श्रेष्ठतम यज्ञ-कर्म के लिए, ऋण वाली गोचर पृथ्वी प्राप्त कराने में सहायक बने। हे अहिंसनीय गौओ ! तुम निर्मल हृदय से, बिना किसी भ्रम के तृण रूपी अन्न का भोजन करती हुई इन्द्रदेव के निर्मित अंश रूपी दूध को सभी प्रकार से बढ़ाओ। अपत्यरूपी रोगों का शमन करने वाली तुमको चोर इत्यादि दुष्ट हिंसित न करने पाएँ। व्याघ्र आदि भी तुम्हें न मार सकें। तुम इस यजमान की शरण में रहो।
तुम इस यजमान के आश्रम में ऊँचे स्थान पर बैठकर अपने स्वामी के सभी पशुओं की रक्षा करती रहो। हे दर्भ भयपवित्र ! तुम इन्द्र की इच्छापूर्ति के दूध का संरक्षण करने वाली हो, अतः तुम इसी जगह पर रहो। हे दुग्ध पात्र ! तुम वर्षा करने वाले स्वर्गलोक के ही रूप हो क्योंकि तुम्हारे द्वारा ही यजमान को स्वर्ग प्राप्त होता है। तुम मिट्टी के बने हो इसलिए तुम भूमि हो। हे मृतिका पात्र! तुम वायु का विचरण स्थान हो, इसलिए वायुमण्डल तुम्हारा स्थान है। इस कारण से तुम्हें अंतरिक्ष भी कहा
जाता है। संसार में समाए अनेक गुणों को धारण करने से तुम तीनों लोकों में महत्वपूर्ण हो। तुम दूध को धारण करने के कारण अधिक तेजस्वी हो। इस कारण से तुम्हें हमेशा अपनी स्थिति के अनुसार ही रहना चाहिए, क्योंकि तुम्हारी स्थिति में परिर्वतन से बाधा पैदा हो सकती है।
हे छन्ने! तुम शुद्ध कहलाते हो। तुम दूध का शुद्ध को शुद्ध करने वाले हो। तुम इस हाँडी पर हजारों धाराओं वाले दूध को स्वच्छ करो। हे दुग्ध ! इस हज़ारों धारवाले छन्ने के साथ तुम पवित्र हो जाओ। सभी के प्रेरक ईश्वर तुम्हें शुद्ध करें। हे दोहनकर्त्ता पुरुष! इन गौओं में से किस गाय को तुमने दुहा है।
मैंने जिस गाय के बारे में पूछा है और तुमने जिस गाय को दुहा है, वह गाय ऋषियों की उम्र बढ़ाने वाली है और यजमान की आयु में भी वृद्धि करने वाली है। वह गाय सभी कार्यों की सम्पादिका है, उसके द्वारा ही सभी क्रियाएँ (कर्म) सम्पन्न होती हैं। वह गाय समस्त यज्ञीय देवों का पोषण करने वाली कहलाती है। हे दुग्ध ! तुम इन्द्र का अंश हो। मैं तुम्हें दही का जामन लगाकर जमाता हूँ। हे ईश्वर! तुम सभी में लीन और सभी के रक्षक हो। यह हव्य रक्षा योग्य है इसलिए तुम इसके प्रहरी बनो।
हे यज्ञ सम्पादक अग्ने! तुम वास्तविक के पर्याय और सुख समद्धि सम्पन्न हो। मैं तुम्हारी कृपा दृष्टि पर ही इस अनुष्ठान को आरम्भ कर रहा हूँ। मैं इसे पूरा करने में समर्थ होऊँ। हमारा यह अनुष्ठान बिना किसी बाधा के सम्पन्न हो। मैं यजमान हूँ। मैंने असत्य को छोड़कर सत्य की शरण में आश्रय लिया है।
हे पात्र! इस जल में परमिता परमेश्वर विद्यमान हैं। तुम इसको धारण करने वाले हो। इस कार्य को पूरा करने के लिए तुम्हें किसने नियुक्त किया है ? तुम किस कारण से नियुक्त किए गए हो। समस्त कार्य भगवान की आराधना करने हेतु किए जाते हैं। इसलिए भगवान को खुश करने के लिए तुम्हें इस कार्य में लगाया गया है। हे शूर्प और अग्नि ! तुम्हें यज्ञ कार्य करने के लिए ही नियुक्त किया गया है। तुम्हें अनेक प्रकार के कार्य कराने हैं इसलिए मैं तुम्हें ग्रहण करता हूँ। शूर्प और हवन को तृप्त करने वाली अग्नि से दुष्ट राक्षसों द्वारा पैदा हुई बाधा सब भस्म हो गई है। शत्रु भी जलकर भस्म हो गए हैं। हवन, दान आदि कार्यों में बाधा उत्पन्न करने वाली बुरी आत्माएँ इस अग्नि में जलकर राख हो गई हैं। इस अग्नि के ताप से मन में उत्पन्न बुरे विचार, दुष्टआत्माएँ और शत्रु भी वश में हो गए हैं। मैं इस सौर-मण्डल में घूमता रहता हूँ। मेरी यात्रा के समय सभी प्रकार की बाधाओं का विनाश हो जाए।
हे अग्ने! तुम समस्त अवगुणों का पतन करते और अन्धकार को समाप्त कर मिटा देते हो। अतः पापियों और हिंसा करने वाले राक्षसों को समाप्त करो। जो दुष्ट यज्ञ में बाधा पैदा कर हमारी हिंसा करना चाहें, उसे भी तुम प्रताड़ित करो। जिसे हम ख़त्म करना चाहें, उसे मारो। हे शकट के ईषादण्ड! तुम देवताओं के सेवनीय पदार्थों का वहन करते हो और अत्यन्त स्थिर हव्यादि के लायक धानों से भरे हुए इस आपत्ति को उठाते हो। अतः तुम देवताओं के स्नेह के पात्र हो और देवताओं का आह्वान करने वाले हो।
हे ईषादण्ड! तुम तिरछे नहीं हो। तुम कठोर मत बनना और तुम्हारे यजमान भी कभी भटके नहीं। हे शकट! व्यापक यज्ञ पुरुष तुम पर सवार हुए। हे शकट! वायु के आगमन से तुम सूख जाओ। इस कारण मैं तुमको विस्तृत करता हूँ। यज्ञ में विघ्न डालने वाली बाधाएँ दूर हो गई हैं। हे उँगलियों! इस हवन सामग्री को एकत्र करके इस सूप में रख दो। हे हवन के पदार्थों! सविता देव की प्रेरणा से अश्विदम और पूषा के बाहुओं और भुजाओं के द्वारा मैं तुम्हें ग्रहण करता हूँ। इस सभी हवन की सामग्री को अग्नि के सम्मुख मैं स्वीकार करता हूँ। अग्नि देवता को अर्पित करने के लिए मैं इसे ग्रहण करता हूँ।
हे शकट स्थित ब्रीहिशेष! तुम्हें ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए प्राप्त किया गया है, संचित करने के लिए प्राप्त नहीं किया गया है। यज्ञ भूस्वर्ग ग्रहण का साधन रूप है। मैं इसे अच्छी तरह से देखता हूँ। धरा पर बना हुआ यज्ञ मंडप मज़बूत हो। मैं इस व्यापक क्षितिज में भ्रमण करता हूँ। दोनों तरह की बाधाएँ दूर हों। हे धान्य! मैं तुम्हें पृथ्वी की नाभिरूप वेदी में निर्मित करता हूँ। तुम इस भू-भूता वेदी की गोद में भली प्रकार व्यवस्थित हो जाओ। हे अग्ने ! यह देवों की हवन सामग्री है। तुम इस हविरूप धान्य की सुरक्षा करो, जिससे कोई बाधा उपस्थित न हो।
हे दो कुशाओं! तुम शुद्ध करने वाले हो। तुम यज्ञ से संबंधित हो। हे जलो ! सभी के प्रेरक सवितादेव की शिक्षा से तुम छिद्र रहित शुद्ध करने वाले वायु रूप से सूर्य का शोधक किरणों द्वारा मंत्र को अभिमंत्रित करके शोधन करता हूँ। हे जलो ! तुम भगवान के तप से तेजस्वी हो। आज तुम इस यज्ञ अनुष्ठान को विघ्न रहित पूरा करो क्योंकि तुम हमेशा नीचे की ओर विचरण करते रहते हो। तुम पहले शोधक हो। हमारे यज्ञकर्त्ता यजमान को फल प्राप्ति में सामर्थ्यवान बनाओ। यो यजमान दक्षिणादि के द्वारा यज्ञ कर्म का पालन करता है और हवि प्रदान करने की अभिलाषा करता है, उसे यज्ञ कर्म में संलग्न करो। उसकी उमंग भंग न हो।
हे जल देवता! इन्द्रदेव ने तुम्हें व्रत वध में लगते हुए सहायक रूप से स्वीकार करके तुम्हें व्रत और शुभ कार्यों में अपना सहयोग देकर इंद्र से मित्रता बना रखी है। हे जल ! तुम्हारे द्वारा सभी हवन की सामग्री को शुद्ध किया जाता है। अतः पहले तुम्हें ही शुद्ध किया जाता है। तुम अग्नि के प्रयोग में आते हो। हे हवि ! तुम अग्नि, सोम देवता के सेवनीय हो। मैं तुम्हें शुद्ध करता हूँ। हे ऊखल, मूसल आदि यज्ञ के पात्रों ! तुम भी इस देव कार्य में प्रयोग किए जाओगे, अतः इस शुद्ध जल के द्वारा तुम्हें भी शुद्ध कर रहा हूँ क्योंकि तुम्हारे निर्माण कर्त्ता बढ़ई आदि ने तुम्हें अपवित्र कर दिया है। हे कृष्णाजन ! तुम इस ऊखल को धारण करने के लिए हमेशा उपयुक्त ही हो। हे कृष्णाजन! (काले मृग चर्म) ये जो धूल, तिनके आदि मैल छिपा हुआ था वह सब दूर हो गया है। इस कार्य से यजमान के शत्रु भी परास्त हो गए हैं। हे कृष्णाजन! तुम इस पृथ्वी की त्वचा का ही रूप हो। अतः पृथ्वी तुम्हें अपनाती हुई अपनी त्वचा ही समझे। हे उलूखल! तुम्हें लकड़ी के द्वारा बनाए जाने पर भी तुम पत्थर के समान दिखाई देते हो। तुम्हारा मूल देश नितांत स्थूल है। हे उलूखल ! नीचे बिछाई गई काली मृग चर्म जो त्वचा रूप है वह तुम्हें स्वात्यभाव से मानें।
हे हवि रूप धान्य! जब तुम इस अग्नि कुण्ड में अर्पित किए जाते हो, तब अग्नि की ज्वालाएँ जगमग होती हैं। इसलिए तुम अग्नि के शरीर रूप ही माने गए हो। तुम अग्नि में अर्पित होते ही अग्नि रूप बन जाते हो। यह हवि यजमान द्वारा मौन त्याग करने पर वाों विसर्जन नाम्नी हो जाती है। मैं तुम्हें अग्नि आदि देवों के लिए प्राप्त करता हूँ। हे मूसल ! तुम काष्ठ निर्मित होते हुए भी पत्थर के समान अटल हो। तुम अग्नि आदि देवताओं की भलाई के लिए इसे ब्रीहि आदि हवि को भूसी आदि से अलग करो। चावलों में भूसी न रहे और वे अधिक टूटने न पाएँ। इस तरह से इस कार्य को पूरा करो। हे हवि प्रदान करने वाले ! तुम इधर आओ। हे हवि संस्कार करने वाले ! इधर विचरण करो। तुम इधर आओ (3 बार आह्वान करें)।
हे शम्यारूप यज्ञ के विशिष्ट अस्त्र! तुम राक्षसों के विरुद्ध घोर ध्वनि करते हो। ऐसा होकर भी तुम देवताओं के लिए मृदु ध्वनि करने वाले हो। हे अस्त्र ! तुम असुरों के मन को चीरने वाले यजमान को अन्न आदि ग्रहण करने वाली ध्वनि करो। तुम्हारी ध्वनि से यज्ञ के फलस्वरूप अन्न का भण्डार हो। हे शूर्प ! वर्षा के जल से वृद्धि करने वाली सींकों द्वारा तुम्हें बनाया गया है। हे तण्डुलरूप हव्य तुम वर्षा के जल से बढ़ते हो और यह शूर्प भी वर्षा के जल से ही वृद्धि को प्राप्त हुआ है। अतः यह तुम्हें अपना आत्मीय माने। तुम इसके संग संगति करा। भूसी आदि व्यर्थ द्रव्य और असुरादि भी दूर हो गए। हवि के द्वेषी प्रमादादि शत्रु भी चले गए। हव्यात्मक सभी रुकावटें दूर फेंक दी गई। हे तण्डुलों! शूर्प के चलने से उत्पन्न हुई हवा तुम्हें भूसी इत्यादि के सूक्ष्मतम कणों से अलग कर दें। हे तण्डुलो ! सर्व-प्रेरक सविता देवता स्वर्ण अलंकार से सुसज्जित और स्वर्णहस्त हैं। वे उंगलीयुक्त हाथों से तुम्हें प्राप्त करें।
हे उपवेश! तुम तेज़ अंगारों को जलाने में समर्थ और बुद्धिमान हो। हे आह्वानीय अग्नि! आमाद अग्नि को त्यागकर और द्रव्यादि अग्नि का विशेष रूप से त्याग करो। हे त्राहि पत्याग्न ! देवताओं के यज्ञ योग्य अपने तृतीय रूप को प्रकट करो। हे सिकोरे ! तुम भी खड़े हो जाओ। इस भूमि को दृढ़ करो। हवन सिद्धि के लिए तुम ब्राह्मणों के द्वारा ग्रहणीय, क्षत्रीय के द्वारा भी अपनाने के योग्य हो। समान कुल में उत्पन्न यजमान के जाति वालों के हव्य योग्य! शत्रु, राक्षस और पाप को नष्ट करने के लिए तुम्हें अंगारे पर स्थित करता हूँ।
हे शून्य स्थान में दृढ़ अग्ने! तुम हमारे महान यज्ञ अनुष्ठान को प्राप्त कर बाधा रहित करो। हे द्वितीय सिकोरो ! तुम पुरोडाश के ग्रहण करने वाले हो। इसलिए अन्तरिक्ष को अटल करो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य से स्वीकार योग्य पुरोडोश के सम्पादन के द्वारा और बैरी राक्षस, पाप आदि को नष्ट करने हेतु तुम्हें नियुक्त करता हूँ।
हे तृतीय कपाल! तुम परोडाश के धारक हो। स्वर्गलोक को तुम अटल करो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के द्वारा सम्पादित पुरोडाश के दिखाने वाली क्रियाओं और बाधाओं को दूर करने को मैं तुम्हें नियुक्त करता हूँ। हे चतुर्थ कपाल ! तुम सभी दिशाओं को स्थिर करने वाले हो। मैं तुम्हारी इसी कारण से स्थापना करता हूँ।
हे कपालो! तुम अलग कपाल को स्थिर करने वाले और अन्य कपालों का हित रखने वाले हो। हे समस्त कपालो! तुम भृगु और अंगिरा के कुल ऋषि के तप रूप अग्नि से तपो।
हे कृष्णाजिन! तुम शिला धारण करने में समर्थ हो। इस कृष्णाजिन (काले मृगचर्म) में जो धूल और तिनका रूपी मैल छिपा था, वह सब दूर हो गया। इस काम के द्वारा इस यजमान के शत्रु भी नष्ट हो गए हैं। हे शिले ! तुम पीसने का कार्य करती हो, तुम पर्वत के खण्ड से बनाई गई हो और बुद्धि को धारण, करने वाली हो। यह मृगचर्म पृथ्वी की त्वचा के समान हो, तुम पृथ्वी का अस्थि रूप हो। हे शम्या ! तुम स्वर्गलोक को धारण करने वाली हो। तुम इन सभी कार्यों को करने में समर्थ हो। हे शिललोढ़े ! तुम पीसने के व्यापार में कुशल हो और तुम पहाड़ से उत्पन्न शिल के पुत्री रूप हो। अतः यह शिल तुम्हें माता के समान होती हुई पुत्र भाव से अपने हृदय से धारण करें।
हे हव्य! तुम वृष्टि प्रदान करने वाले हो। अतः अग्नि देवाताओं को हर्षित करो। हे हवि ! जो प्राण मुख में हमेशा सतर्क रहता है, उस प्राण की प्रसन्नता के लिए मैं तुम्हें चूर्ण करता हूँ। हे हवि ! ऊँची जगह में प्रयास करने वाले उदान की बढ़ोतरी के लिए में तुम्हें चूर्ण करता हूँ।
हे हवि! सभी शरीर में स्थित होकर सतर्क रहने वाले ब्यान की बढ़ोतरी के लिए मैं तुम्हें चूर्ण करता हूँ। हे हवि! अविच्छिन्न कार्य को स्मृति में रखकर यजमान की आयु की वृद्धि हेतु मैं तुम्हें कृष्णाजिन पर रखता हूँ। सर्व प्ररेक और हिश्यपाणि सविता देव तुम्हें धारण करें। हे हवि! यजमान के नेत्रेन्द्रिय के श्रेष्ठ होने के लिए मैं तुम्हें देखता हूँ। हे घृत ! तुम गौदुग्ध (गाय के दूध से निर्मित होने के कारण) ही हो।
हे पिष्टी! सर्व-प्रेरक सविता देव की शिक्षा से अश्विद्वय की बाजुओं से और पूषा देव के हाथों से तुमको कलश में दृढ़ करता हूँ। हे उपसर्जनी भूत जल! तुम इन पिसे हुए चावलों से भली प्रकार से मिल जाओ। यह जल औषधियों का रस है और इसमें जो रेवती नामक जल अंश हैं, वह इस पिष्टी में भला प्रकार मिश्रित हो जाए।
इसमें जो मधुमति नामक जल का अंश है, वह भी पिष्टी के माधुर्य से मिले। हे उपसर्जनी भूत जल और पिष्ट संगठन ! तुम दोनों को पुरोडाश निर्मित करने के लिए भली-भाँति से मिश्रित करता हूँ। यह भाग अग्नि से सम्बन्धित हो। यह हिस्सा अग्नि-सोम नामक देवों का है। हे आज्य देवों को अन्न पेश करने के लिए मैं तुम्हें सिकोरे में रखता हूँ। हे पुरोडाश! तुम इस पर चमकते हो। इस कार्य के द्वारा हमारा यजमान दीर्घकाल तक जीवित रहे। हे पुरोडाश ! तुम स्वभावतः व्यापक हो, अतः तुम इस कपाल में भी भली प्रकार से विशाल बनो और तुम्हारा यह यजमान पुत्र, पशु से सम्पन्न होकर कीर्तिमान बने। हे पुरोडाश पाक क्रिया से उत्पन्न हव्य का उपद्रव्य जल छूने से शान्त हो जाए। हे पुराडाश! सर्वप्रेरक सविता देव तुम्हें अत्यन्त समृद्ध स्वर्गलोक में अटल नाक नामक दिव्य अग्नि में दृढ़ करें।
हे पुरोडाश! तुम डरो मत। तुम चंचल मत बनो स्थिर ही रहो, यज्ञ के कारण रूप पुरोडश राख को ढकने से बचें। इस प्रकार यजमान की संतान आदि भी कभी दुःखी न हों। उँगली प्रक्षालन से छने हुए जल ! मैं तुम्हें त्रित नामक देवता की तृप्ति के लिए प्रदान करता हूँ। मैं तुम्हें द्वित्त नाम एवं एकत्र देवता की तृप्ति के लिए निमित्त कर देता हूँ। हे खुरपी-कुदाली! सविता देव की प्रेरणा से अश्विनी कुमारों की भुजाओं से और पूषा देवता के हाथों से मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ। देवताओं की प्रसन्नता के लिए इस यज्ञ में तुम्हें वेदी खोदने का कार्य करना है। हे खुरपे! तुम इन्द्र की दाईं भुज के समान बलवान तथा हजारों शत्रुओं और राक्षसों के विनाश करने में सम्पन्न बनो तुम वायु की तरह चलते हो। वायु जिस तरह अग्नि से मिलकर उसकी ज्वालाओं क तीव्र कर देती है, उसी प्रकार से ही यह खुरपा खोदने का कार्य तीव्रता से करता है और शुभ कार्यों से घृणा करने वाले असुरों का नाश कर देता है।
हे धरा! तुम देवताओं के यज्ञ के योग्य हो। तुम्हारी प्रियतम संतान रूप औषधि के तृण, मूल आदि को मैं समाप्त नहीं करता हूँ। हे पुरीष! तुम गायों के रहने की जगह गोष्ठ (घर) को प्राप्त हो जाओ। हे वेदी तुम्हारे लिए स्वर्गलोक के अभिमानी देवता सूर्य जल की वर्षा करें। वर्षा से खनन द्वारा उत्पन्न कष्ट की शांति हो। हे सबके प्रेरक सवितादेव! जो आदमी हमसे शत्रुता करे या हम जिससे शत्रुता रखें, ऐसे दोनों प्रकार के शुत्रओं का तुम इस पृथ्वी की अनन्त सीमा रूपी नरक में डालों और सैंकड़ों बन्धनों में जकड़ लो। उसकी उस नरक से कभी मुक्ति न हो।
धरा में दृढ़ देवों के यज्ञ वाली जगह वेदी से बाधाकारी अररू नामक असुर को बाहर निकालकर समाप्त करता हूँ। हे पुरीष! तुम गायों के गोष्ठ को प्राप्त हो जाओ। हे वेदी! तुम्हारे लिए सूर्य जल वर्षा करें, जिससे तुम्हारा खननकालीन दुःख दूर हो सके। हे सवितादेव! जो हमसे शत्रुता करे या हम जिससे शत्रुता करें, ऐसे शत्रुओं को नरक में पहुँचाओ और सैकड़ों पाशों से बाँधों। वे उस नरक से कभी छूट न पाएँ। हे अररो ! यज्ञ के फलस्वरूप स्वर्गलोक जैसे श्रेष्ठतम जगह को तुम नहीं जाना। हे वेदी ! तुम्हारा धरा रूप में उपजाऊ नामक रस स्वर्गलोक में न जाने पाए। हे पुरुीष! तुम गायों के गोष्ठ (गोशाला) में जाओ। हे वेदी! सूर्य तुम्हारे लिए जल की वर्षा करे, जिससे तुम्हारी खुदाई की पीड़ा शांत हो। हे सविता देव! जो हमसे शत्रुता करे और हम जिससे शत्रुता करें, ऐसे शत्रु नरक के सैकड़ों बन्धनों में जकड़े रहें। वे उस घोर नरक से कभी मुक्त न होने पाएँ।
हे सर्वव्यापक विष्णु! जप करने वाले की, रक्षा करने वाले की, रक्षा करने वाले गायत्री छंद से प्रसन्न होने वाले मैं तुम्हें तीनों दिशाओं में ग्रहण करता हूँ। हे विष्णु! मैं तुम्हें त्रिष्टुप श्लोक से स्वीकार करता हूँ। मैं तुम्हारा जगती श्लोक से ध्यान करता हूँ। हे वेदी ! तुम पाषाणों में से निकलकर सुन्दर बन गई हो और अररू जैसे असुरों के मिट जाने से तुम शान्ति रूप हो गई हो। हे वेदी ! तुम सुख देने वाली और देवताओं के वास करने योग्य हो। हे वेदी! तुम अन्न, रस से परिपूर्ण हो जाओ। हे विष्णु ! तुम यज्ञ स्थान पर तीन वेदों के रूप में अनेक श्लोक पढ़े जाने वाले हो। तुम हमारी इस बात को विनयपूर्वक सुनो। प्राचीनकाल में देवताओं ने प्राणियों को धारण करने वाली पृथ्वी को ऊँचा उठाकर वेदों के साथ चन्द्रलोक में स्थापित कर दिया था। धर्म को मानने वाले उसी पृथ्वी के दर्शन से यज्ञ इत्यादि कार्य किया करते थे। हे आग्नीघ्र ! वेदी एक सी हो गई है। अब इसे जिनके द्वारा जल सिंचा जाता है, उसे लाकर वेदी में स्थापित करो। हे सफ्य ! तुम शत्रुओं का विनाश करने वाले हो, हमारे शत्रु का भी विनाश कर दो। इस ताप द्वारा राक्षस आदि सभी तरह की बाधाओं का विनाश हो गया है। इस अग्नि के द्वारा यहाँ पर उपस्थित सभी बाधाएँ, राक्षस और शत्रु सब जलकर भस्म हो गए। हे स्त्रुव ! तुम्हारी धार बेकार नहीं है। परन्तु तुम शत्रुओं को कमज़ोर करने वाले हो। इस यज्ञ द्वारा यह अन्न से परिपूर्ण हो। इसलिए मैं तुम्हारा आह्वान करता हूँ जिससे यज्ञ प्रकाशयुक्त हो। इस ताप के द्वारा सभी शत्रु व बाधाएँ दूर हो गईं हैं। सभी जलकर भस्म हो गए हैं।
हे सुक्त्रय! तुम्हारा प्रहार तीक्ष्ण नहीं है परन्तु तुम शत्रुओं को कमज़ोर करने वाले हो। इस यज्ञ के द्वारा यह देश अन्न से भरपूर हो। इसलिए मैं तुम्हें प्रक्षालन करता हूँ, जिससे यज्ञ प्रकाश से परिपूर्ण हो। इस ताप के द्वारा सब बाधाएँ और शत्रुगण नष्ट हो गए। इस ताप से यहाँ उपस्थित रुकावट और शत्रु आदि सब भस्मी भूत हो गए। हे सुक्त्रय ! तुम तीक्ष्ण वार वाले न होने पर भी शत्रु का पतन करने में सामर्थ्यवान हो। यह राज्य अन्न से सम्पन्न हो, इसलिए तुम्हारा प्रक्षालन करता हूँ।
हे योक! तुम भूमि की मेखला के समान हो। हे दक्षिण पाश! तुम इस सर्वव्यापी यज्ञ को करने में समर्थ हो। हे आज्य ! उत्तम रस की प्राप्ति की इच्छा से मैं तुम्हें द्रव्य रूप में करता हूँ। हे आज्य! करुणामयी दृष्टि से नीचा मुँह करके देखता हूँ। तुम अग्नि के जीभरूप हो और भली प्रकार देवताओं का आह्वान करने वाले हो। अतः मेरे इस यज्ञ फल की सिद्धि के योग्य तथा रस यज्ञ कार्य की सम्पन्नता के योग्य बन जाओ।
हे आज्य! मैं सवितादेव की शिक्षा से तुम्हें छिद्र रहित पवन के रूप समान पवित्र और सूर्य की किरणों के तेज से शुद्ध करता हूँ। हे प्रोक्षणी ! मैं सविता देव की शिक्षा से छिद्र रहित, हवा और सूर्य रश्मियों के तेज से तुम्हें शुद्ध करता हूँ। हे आज्य! तुम चमकीले शरीर वाले होने से तेजस्वी हो। स्निग्ध (शान्त) होने से प्रकाशमान हो और अमृत के समान अटल और निर्दोष हो। हे आज्य ! तुम देवों के मन स्थल हो। तुम उन्हें आनन्द प्रदान करने वाले हो। तुम्हारा नाम देवों के सम्मुख पुकारा जाता है। तुम देवताओं के स्नेह पात्र हो। सारयुक्त होने से तुम तिरस्कार के योग्य नहीं होते। तुम इस देव यज्ञ के प्रमुख स्थान हो। इस कारण मैं यजमान तुम्हें प्राप्त करता हूँ।
अध्याय (2) :: ऋषि :- परमेष्ठी प्रजापति, देवल, वामदेव; देवता :- यज्ञ, अग्नि, विष्णु, इन्द्र, धावा, पृथ्वी, सविता, बृहस्पति, अग्निषों मौ, इंद्राग्नि, मित्रावरूणी विश्वदेवा, अग्निवायु, अग्नि सरस्वत्यौ प्रजापति, त्वष्टा, ईश्वर, पितर, आप; छन्द :- पंक्ति, लगती, त्रिदुष्प, गायत्री, ब्रहती अनुष्टप, उष्णिक।
हे ईश्वर! तुम हवन की लकड़ी हो। तुम कठोर वृक्ष से उत्पन्न हुई हो या आह्वानीय अग्नि में रहने वाले हो।
अग्नि में डालने हेतु मैं तुम्हें जल से धोकर शुद्ध करता हूँ। हे वेदी! तुम यज्ञ की नाभि कहलाती हो। तुम्हें कुश धारण हेतु अच्छी प्रकार से जल से साफ करता हूँ। हे दर्भ ! तुम कुशों का समूट होने से सक्ष्म हो। तुम्हें तीन स्त्रुवों के सहित रुकना है, इसलिए मैं तुम्हें जल से स्वच्छ करता हूँ। हे प्रोक्षण से शेषजल ! तुम इस वेदी रूप पृथ्वी को सींचते हो। हे कुशाओं! तुम यज्ञ की शिखा के समान हो। हे वेदी! तुम ऊन की तरह बहुत ही कोमल हो। मैं तुम्हें देवताओं के सुखपूर्वक बैठने का स्थान बनाने हेतु कुशाओं से ढकता हूँ। यह हवि भूवपति देवों के लिए प्रदान की है। यह हवि भुवनपति देवता के लिए प्रदान की गई है। यह हवि भूतों के स्वामी भोले शंकर को अर्पण करता हूँ।
हे परिधि ! विश्वावसु नामक गन्र्धव सभी विघ्नों की शांति हेतु तुम्हें सभी ओर से स्थापित करें और तुम केवल अग्नि की ही सीमा न होकर राक्षसों और शत्रुओं से सुरक्षा करने वाली, यजमान की भी सीमा बन जाओ। तुम पश्चिम दिशा में अटल रहो। आह्वानीय अग्नि के पहले भाई भुवपति नामक अग्नि रूप यज्ञ से प्रकट हो। हे दक्षिणी परिधि ! तुम इन्द्रदेव की दक्षिणी भुजा रूप रहो। संसार की बाधाओं को दूर करने के लिए तुम यजमान की रक्षक बनो। तुम आह्वानीय के दूसरे भाई भुवनपति की यज्ञ आदि से वन्दना की गई है। हे उत्तर परिधि ! मित्रावरुण! पवन और आदित्य तुम्हें उत्तर दिशा में स्थित करें। तुम आह्वानीय रूप से संसार की बाधाओं को दूर करने हेतु और लोक कल्याण हेतु यजमान की रक्षा करो। आह्वानीय के तीसरे भाई भूतपति यज्ञ आदि कार्य द्वारा वंदित हो।
हे क्रांतदर्शी ! अग्नि देव ! तुम पुत्र एवं पौत्र आदि प्रदान करने वाले, धन से सम्पन्न करने वाले, यज्ञ के फल रूप में सुख समृद्धि को भी प्रदान करने वाले शक्तिशाली और महान हो। हम ऐसे कार्यों के द्वारा आपको नमन करते हैं। हे इहम ! तुम अग्नि देवता को भली-भाँति प्रदिप्त करते हो। हे आह्वानीय सूर्य! पूर्व में कोई विघ्न आए तो उससे हमारी रक्षा करो। हे कुश ! तुम दोनों, सविता देव की भुजाओं के समान हो। हे कुशाओं! तुम ऊन के समान कोमल हो, मैं तुम्हें देवताओं के सुखपूर्वक बैठने हेतु ऊँचे स्थान पर बिछाता हूँ। तीनों लोकों के माननीय देवता वसुगण, रुद्रगण और मरुदगण सब ओर से हे कुशाओं! तुम पर विराजमान हों। हे जूहू! तुम घृत से पूर्ण होकर देवताओं के प्रिय उस घृत के साथ इस पाषाण रूप आसन पर बैठ जाओ। हे उपभृत! तुम घृत से पूर्ण होने वाले हो। इस समय देवताओं के प्रिय घी से युक्त होकर पाषाण रूप इस आसन पर बैठो। हे ध्रुवा ! तुम हमेशा घी द्वारा सिंचित हो। इस समय देवताओं के प्रिय इस घृत से पूर्ण होकर तुम प्रस्तर रूप इस आसन पर विराजमान हो जाओ। हे हव्य ! तुम घी के साथ स्नेहपूर्वक इस पर स्थित हो जाओ। हे विष्णु ! फल की प्रप्ति के लिए सत्यरूप यज्ञ के स्थान में जो हव्य स्थित है, उसकी रक्षा करो और साथ ही साथ हव्य की ही नहीं अपितु समस्त यज्ञ की और यज्ञ की रक्षा करने वाले यजमान की भी रक्षा करो। हे प्रभु! हे परमपिता परमेश्वर ! मुझे यज्ञ कार्य करने की भी रक्षा करो।
हे अन्नजेता अग्ने! तुम अनेक अन्नों को उत्पन्न करने वाले हो। अतः अन्नोत्पति में होने वाली बाधाओं की शान्ति हेतु मैं तुम्हारा शोधन करता हूँ। जो देवगण मेरे इस अनुष्ठान में अनुकूल हुए हैं, मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। जो पितर गण मेरे इस अनुष्ठान में कृपा करते हैं, मैं उन पितरों को नमस्कार करता हूँ। हे जुहू ! हे उप भृत ! तुम दोनों मेरे इस कार्य में सतर्क रहो जिससे घी न बिखरे, इस प्रकार घी को धारण करो।
हे विष्णु ! मैं अपने पैरों से तुम पर क्रोधित नहीं होता हूँ। इस वेदी पर पैर रखने से पाप का मैं भागीदार न बनूँ। हे अग्नि! मैं तुम्हारी परछाई के समान निकट ही भूमि पर बैठता हूँ। हे वसुमति ! तुम यज्ञ के स्थान रूप हो। इस देव यज्ञ के स्थान से उठकर शत्रु का वध करने के लिए बल को धारण करते हुए इन्द्र के लिए ही यह यज्ञ उत्पन्न हुआ है। हे अग्नि ! तुम होता के कर्म को और दैत्य-कर्म को अवश्य जानो। स्वर्ग और पृथ्वी तुम्हारी रक्षा करें और तुम भी उन दोनों की रक्षा करो और इन्द्र हमारी दी हुई हवि द्वारा देवताओं सहित संतुष्ट हो। वे हम पर प्रसन्न होकर हमारा यह अनुष्ठान बिना किसी बाधा के पूरा करें।
इन्द्रदेव इस प्रकार की वीरता को मुझ यजमान में स्थापित करें। दिव्य और पार्थिव सभी प्रकार के धन हमारे समक्ष आएँ। हमारी सर्व मनोकामना पूरी हो और हमारी अभिलाषाएँ सत्य फल प्रदान करने वाली हों। जो यह पृथ्वी पूजनीय है, वह संसार को निर्मित करने वाली है। यह माता के रूप समान धरा मुझे हविशेष के भक्षण करने की आज्ञा प्रदान करें। हे माता! अग्नि में आहुति अर्पित करने से मेरी जठराग्नि अत्यन्त दीप्त हो उठी हैं, अतः मैं उस हिस्से को अग्नि रूप से भक्षण करता हूँ।
सविता देव हमारे पालक पिता हैं, वे मुझे हविशेष के भक्षण की आज्ञा प्रदान करें। हे पिता ! अग्नि में आहुति देने से जठराग्नि (शरीर की ऊर्जा) बिल्कुल कम हो गई है। उसकी संतुष्टि के लिए मैं इसका भक्षण (प्रयोग) करता हूँ। हे प्राशित्र ! सविता देव की प्ररेणा से अश्विनी कुमार की भुजाओं से और पूषा देवता के हाथों से हे मध्यम परिधि ! मैं तुम्हें वसुओं का यज्ञ करने के लिए घृत-सिक्त करता हूँ। हे दक्षिण परिधि ! मैं तुम्हें रुद्रों का यज्ञ करने के लिए घृत-सिक्त करता हूँ। हे उत्तर परिधि ! मैं तुम्हें आदित्यों का यज्ञ करने के लिए घृताक्त करता हूँ। हे धावा पृथ्वी ! इसे स्वीकार कर पाषाण को तुम भली-भाँति जानो। हे पाषाण सखा वरुण, वायु और सूर्य तथा प्राणापान तुम्हें जल वर्षा की गति से बचाएँ। घृत-सिक्त प्रस्तर का आस्वाद करते हुए अंतरिक्ष में विचरण करने वाले देवता आदि छन्दों के सहित प्रस्तर लेकर विचरण करें। हे प्रस्तर! अंतरिक्ष में मरुद्गण की दिव्य गति को तुम अपनाओ। तुम सूक्ष्म देह वाली स्वाधीन गौ होकर विचरण करो। स्वर्ग में जाकर हमारे लिए वर्षा को मैं तुम्हें ग्रहण करता हूँ। हे प्राशित्र! मैं तुम्हें अग्नि देव के मुख द्वारा भक्षण (प्रयोग) करता हूँ। हे सर्वगुण सम्पन्न सविता देव! इस शुभ कार्य की यजमान तुम्हारे लिए करते हैं और तुम्हारी प्रेरणा से यज्ञ के लिए बृहस्पति जी को देवताओं का गुरु मानते हैं। अतः इस यज्ञ और मेरी दोनों की रक्षा करो।
बृहस्पति इस यज्ञ को स्वीकार करें। वे इस यज्ञ को निर्विघ्न सम्पूर्ण करें। सभी देवगण हमारे यज्ञ से प्रसन्न हो। इस प्रकार पार्थिव सविता देव यजमान के प्रति अनुकूल हो। हे अन्नि देव ! यह समिधा तुम्हें प्रदीप्त करने वाली है। तुम इस समिधा के द्वारा उन्नति को प्राप्त हो और हम सबकी उन्नति करो। तुम्हारी इस प्रकार की कृपा से हम सुदृढ़ बनेंगे और जब तुम प्रसन्न हो जाओगे, तब हम अपने पुत्र, पशु आदि से भी सम्पन्न हो जाएंगे। हे अन्न पर विजय पाने वाले अग्निदेव ! तुम अन्न की उत्पत्ति के लिए जाते हो। मैं तुम्हें शुद्ध करता हूँ। द्वितीय पुराडोश के स्वामी अग्नि सोम ने इस विघ्न रहित हवियों को ग्रहण कर लिया है। इस कारण मैं अच्छी विजय को प्राप्त कर पाया हूँ। पुरोडाश और जुहू उपभृत आदि ने मुझ यजमान को इस कार्य करने हेतु उत्साहित किया है। जो राक्षस आदि शत्रु हमारे इस शुभ कार्य को नष्ट करने के लिए शत्रुता रखते हैं, उन्हें अग्नि और सोमदेव नष्ट कर दें। पुरोडाश आदि के देवता की आज्ञा पाकर मैं हवि के बिना किसी बाधा से स्वीकार किए जाने के कारण इन दोनों का त्याग करता हूँ।
हे मध्यम परिधि! मैं तुम्हें वसुओं का यज्ञ करने के लिए घृत-सिक्त करता हूँ। हे दक्षिण परिधि! मैं तुम्हें रुद्रों का यज्ञ करने के लिए घृत-सिक्त करता हूँ। हे उत्तर परिधि! मैं तुम्हें आदित्यों का यज्ञ करने के लिए घृताक्त करता हूँ। हे धावा पृथ्वी ! इसे स्वीकार कर पाषाण को तुम भली-भाँति जानो। हे पाषाण सखा वरुण, वायु और सूर्य तथा प्राणापान तुम्हें जल वर्षा की गति से बचाएँ। घृत-सिक्त प्रस्तर का आस्वाद करते हुए अंतरिक्ष में विचरण करने वाले देवता आदि छन्दों के सहित प्रस्तर लेकर विचरण करें। हे प्रस्तर! अंतरिक्ष में मरुद्गण की दिव्य गति को तुम अपनाओ। तुम सूक्ष्म देह वाली स्वाधीन गौ होकर विचरण करो। स्वर्ग में जाकर हमारे लिए वर्षा को मैं तुम्हें ग्रहण करता हूँ। हे प्राशित्र! मैं तुम्हें अग्नि देव के मुख द्वारा भक्षण (प्रयोग) करता हूँ। हे सर्वगुण सम्पन्न सविता देव! इस शुभ कार्य की यजमान तुम्हारे लिए करते हैं और तुम्हारी प्रेरणा से यज्ञ के लिए बृहस्पति जी को देवताओं का गुरु मानते हैं। अतः इस यज्ञ और मेरी दोनों की रक्षा करो।
बृहस्पति इस यज्ञ को स्वीकार करें। वे इस यज्ञ को निर्विघ्न सम्पूर्ण करें। सभी देवगण हमारे यज्ञ से प्रसन्न हो। इस प्रकार पार्थिव सविता देव यजमान के प्रति अनुकूल हो। हे अन्नि देव! यह समिधा तुम्हें प्रदीप्त करने वाली है। तुम इस समिधा के द्वारा उन्नति को प्राप्त हो और हम सबकी उन्नति करो। तुम्हारी इस प्रकार की कृपा से हम सुदृढ़ बनेंगे और जब तुम प्रसन्न हो जाओगे, तब हम अपने पुत्र, पशु आदि से भी सम्पन्न हो जाएंगे। हे अन्न पर विजय पाने वाले अग्निदेव ! तुम अन्न की उत्पत्ति के लिए जाते हो। मैं तुम्हें शुद्ध करता हूँ। द्वितीय पुराडोश के स्वामी अग्नि सोम ने इस विघ्न रहित हवियों को ग्रहण कर लिया है। इस कारण मैं अच्छी विजय को प्राप्त कर पाया हूँ। पुरोडाश और जुहू उपभृत आदि ने मुझ यजमान को इस कार्य करने हेतु उत्साहित किया है। जो राक्षस आदि शत्रु हमारे इस शुभ कार्य को नष्ट करने के लिए शत्रुता रखते हैं, उन्हें अग्नि और सोमदेव नष्ट कर दें। पुरोडाश आदि के देवता की आज्ञा पाकर मैं हवि के बिना किसी बाधा से स्वीकार किए जाने के कारण इन दोनों का त्याग करता हूँ।
हे अग्नि! जब तुम राक्षसों से घिरी हुई थीं तब तुमने उनके विनाश के लिए जिस परिधि (सीमा) को पश्चिम दिशा में स्थापित किया था, तुम्हारी उस परिधि को मैं तुम्हें वापिस करता हूँ। यह परिधि तुमसे अलग न रहे। हे दक्षिण-उत्तर परिधि तुम अग्नि की प्रिय पात्र हो। तुम प्रयोग किए जाने वाले अन्न को ग्रहण करो।
हे विश्वे देवो ! तुम इस द्रव रूप घी या घृतयुक्त अन्न के भक्षण करने वाले होने से महान बने हो। तुम परिधि से रक्षित पत्थर पर विराजमान होते हो। तुम सभी मेरे वचन को ग्रहण करो कि यह यजमान भली प्रकार यज्ञ करता है। इस प्रकार सभी से कहते हुए हमारे यज्ञ में आकर सन्तुष्टि को प्राप्त होओ। यह आहुति भली प्रकार स्वीकार हो।
हे जुहू! और उपभृत ! तुम घी से परिपूर्ण हो। शकट वाहक! दोनों बैलों को घृताक्त करके उनकी रक्षा करो। हे सुख रूप ! तुम मुझे श्रेष्ठ सुख में स्थित करो। हे वेदी ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम प्रवृद्ध होओ। तुम इस अनुष्ठान कार्य में लगो जिससे यह यज्ञ सम्पूर्ण एवं श्रेष्ठ हो।
हे गार्हपत्य अग्ने ! तुम यजमान का मंगल करने आने और समस्त स्थानों में बसे हो। शत्रु द्वारा प्रेरित वज्र के समान रूप शस्त्र से तुम मेरी रक्षा करो। बन्धन कारण रूप पाश से बचाओ। विधि से प्रथक यज्ञ से मैं दूर रहूँ। कुत्सित भोजन न करूँ । विषयुक्त अन्न और जल से मेरी रक्षा करो। घर में रखे हुए अन्नादि खाद्य पदार्थ भी विष से बचे रहें। संवेश पति अग्नि के लिए आहुति स्वाहुत हो। विख्यात कीर्ति देने वाली वाग्देवी सरस्वती के लिए यह आहुति स्वाहुत हो। इसके फल-स्वरूप हम भी यशस्वी बनें।
हे कुश मुष्टि निर्मित पदार्थ! तुम वेद रूप हो। तुम सबके ज्ञाता हो। तुम जिस कारण वश सम्पूर्ण यज्ञ कर्मों के ज्ञाता हो और जिस कारण से तुम उसे देवताओं को बताते हो, उसी कारण से मुझे भी कल्याणकारी कार्य को बतलाओ। हे यज्ञ ज्ञाता देवताओं! तुम हमारे यज्ञ के वृतांत जानकर इस यज्ञ में आ जाओ। हे परमपिता. परमेश्वर! मैं इस यज्ञ को आपको सौंपता हूँ। तुम वायु देवता में इसकी स्थापना करो।
हे इन्द्र! तुम सर्वशक्तिमान हो। हवि वाले घी से कुशाओं को लिप्त करो। आदित्यगण, वसुगण, मरुद्गण और विश्वदेवो युक्त लिप्त करो। आदित्य रूप दीप्ति को वह बर्हि प्राप्त हो।
हे प्रणीता पात्र ! तुम्हारा कौन त्याग कर सकता है ? वह तुम्हें किस कारण से छोड़ता है। वह तुम्हें प्रजापति के संतोष के लिए तुम्हारा त्याग करता है। मैं तुम्हें यजमान के पुत्र-पौत्र आदि के पालन हेतु त्यागता हूँ। हे कणों! तुम राक्षसों के भाग रूप हो, इससे अपनी इच्छानुसार यात्रा करो।
हम आज ब्रह्म तेज से परिपूर्ण हों, दुग्धादि से सुसंगत हों। अनुष्ठान में सामर्थवान देह के अवयवों से परिपूर्ण हों, शांत कार्य से श्रद्धा से परिपूर्ण हृदय वाले हों। त्वष्टा देवता हमारे लिए धन ग्रहण कराएँ और मेरे शरीर में यदि कोई कमी हो तो उसे पूर्ण करें।
विष्णु जगती छन्द रूपी अपने चरणों से स्वर्ग पर विशेष रूप से सवार हैं। जो शत्रु हमसे द्वेष रखता है और हम जिससे शत्रुता रखते हैं, वे दोनों प्रकार के द्वेषी भाग से पृथक कर निकाल दिए गए। सर्वव्यापी ईश्वर ने अपनी त्रिष्टुप छन्द रूपी चरण से अन्तरिक्ष पर आक्रमण किया। जो शत्रु हमसे द्वेष रखते हैं वे और हम जिनसे वैर रखते हैं, वे दोनों प्रकार के शत्रु भाग से प्रथक कर निकाले गए, उन सर्वव्यापी भगवान से गायत्री छन्दरूपी चरण से धरा पर आक्रमण किया। जो द्वेषी हमसे शत्रुता करते हैं और हम जिससे शत्रुता करते हैं, वे दोनों प्रकार के द्वेषी भाग रहित धरा से निकाले गए। जो यह अन्न भाग देखा है, इस अन्न से वर्ग को हताश करते हैं। इस निकट दिखाई देने वाली यज्ञ भूमि को मान या सम्मान के निर्मित वर्ग को हताश किया। हम इस यज्ञ के फलस्वरूप पूर्व दिशा में उदित सूर्य के दर्शन करते हैं। आह्वानीय रूप प्रकाश से हम परिपूर्ण हुए हैं।
हे सूर्य! तुम स्वयं धरा हो। सबसे उत्तम, किरणों वाले और हिरण्यगर्भ हो। तुम जिस कारण से तेज को प्रदान करते हो, मेरे लिए भी उसी तेज को प्रदान करो। मैं सूर्य देव को यह आहुति प्रदान करता हूँ। है गृहपति अग्नि ! मैं तुम्हें गृह स्वामिनी के रूप में स्थापित करता हूँ। मैं एक उत्तम गृहपति बनूँ। हे अग्नि ! मुझ गृहपति द्वारा तुम भी श्रेष्ठ गृहपति बन जाओ। हम दोनों के परस्पर संयोग से स्त्री-पुरुष द्वारा किए गए कर्म सौ वर्ष तक होते रहें। मैं सूर्य देव को नमस्कार करता हूँ।
हे अग्ने ! तुम सभी व्रतों के स्वामी हो। यह जो यज्ञानुष्ठान किया है, उसे तुम्हारी कृपा दृष्टि से ही सम्पन्न करने में समर्थवान हुआ हूँ। मेरे उस कार्य को तुमने ही सिद्ध किया है। मैं जैसा मनुष्य पूर्व में था, वैसा ही मनुष्य अब भी हूँ।
पितर सम्बन्धी हव्य को कव्य (कर्ज) कहते हैं। उस कव्य को सहन करने वाले अग्नि के समक्ष पितरों को अर्पित करते हैं। यह आहुति स्वीकार हो। पितरों को मोक्ष प्राप्ति के लिए और सोम देवता के लिए यह अग्नि में आहुति स्वीकार हो। इस यज्ञ वेदी में जो असुर और राक्षस बैठे हों उन्हें वेदी से बाहर निकाल दिया जाए।
पितरों के अन्न का भक्षण करने की कामना से अपने रूपों को पितरों के रूप के समान बनाकर असुर पितृयज्ञ की जगह में विचरण करते हैं तथा जो स्थूल शरीर वाले राक्षस सूक्ष्म शरीर धारण कर अपना असुरतत्व ढकना चाहते हैं, उन असुरों को उस स्थान से अग्नि दूर कर दे।
हे पितरों तुम इन कुशाओं पर बैठकर प्रसन्न होओ। जैसे वृषभ अपनी इच्छा के अनुसार भोजन प्राप्त करके तृप्त हो जाता है, वैसे ही हवि रूप में अपने-अपने भागों को प्राप्त करते हुए तुम सब भी संतुष्ट हो जाओ। जिन पितरों से यह भाग स्वीकार करने की प्रार्थना है वे पित्रगण बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने भाग को ग्रहण कर संतुष्ट हों।
हे पितरो ! तुम्हारे सम्बन्धित रूप रस बसंत ऋतु को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित ग्रीष्म ऋतु को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित प्राण-धारियों के प्राण रूप वर्षा ऋतु को भी नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित स्वधा रूप बसंत ऋतु को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित, प्राणी मात्र को कठिन हेमन्त ऋतु
को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित, प्राणी मात्र को कठिन हेमन्त ऋतु को नमस्कार है। हे पितरों! तुमसे सम्बन्धित आक्रोश रूप शिशिर ऋतु को नमस्कार है। हे छः ऋतु के रूप समान वाले पितरों तुम्हें नमस्कार है। तुम हमें पत्नी पुत्रादि से परिपूर्ण घर दो। हम तुम्हारे लिए यह देय वस्तु देते हैं। हे पितरों! यह सूत्र रूप परिधेय तुम्हारे लिए वस्त्र के रूप समान हो जाएँ।
हे पितरों! जैसे इस ऋतु में देवता या पितर मनुष्यों को अपने मनवांछित फल वाले हों, वैसा ही करो। अश्विनी कुमारों के समान सुन्दर और स्वस्थ पुत्र प्राप्त कराओ।
हे जल! तुम सभी प्रकार के स्वादिष्ट सार रूप, फूलों के सार रूप, व्याधि नाशक, बन्धनों से दूर करने और दूध को धारण करने वाले हो। तुम पितरों के लिए हविरूप हो अतः मेरे पितरों को संतुष्ट करो।
यजुर्वेद (3) :: ऋषि :- अंगिरस, सुश्रुत, भरद्वाज, प्रजापति, सर्पराज़ी, कडू, गौतम, विरूप, देवात, भरतों, मावदेव, अवत्सार, याज्ञवल्लक्य, मधुच्छंदा, सुबन्धु, श्रुतबन्धु, विप्रबन्धु, मेधातिथि, सत्यद्युति वारुणि, विश्वामित्र, नारायण; देवता :- अग्नि, सूर्य, इन्द्राग्नि, आपः, विश्वेदेवा, बृहस्पति ब्रह्मणस्पति, आदित्य, इन्द्र, सविता, प्रजापति, वास्तुरग्नि, वास्तुपतिरग्नि, वास्तुपति, मरूत, यज्ञ, मन, रुद्र; छन्द :- गायत्री, बृहति, पंक्ति, त्रिदुष्प, जगति, उष्णिक, अनुस्टप।
हे ऋत्विजो! विधि के द्वारा अग्नि की सेवा करो। इन आतिथ्य कार्य वाले अग्नि को घी द्वारा प्रज्वलित करो और अनेक तरह की हवन सामग्री को यज्ञ में डालते हुए उन्हें प्रकाशमय बनाओ। हे ऋषियों! भली प्रकार से प्रज्वलित होने के लिए अग्नि को शुद्ध और स्वच्छ घृत प्रदान करो। हे अग्नि ! तुम्हें समिधाओं और घृत की आहुतियों के द्वारा प्रबुद्ध करते हैं। तुम सदा जवान रहने वाले हो। अतः वृद्धि को प्राप्त होते हुए प्रदीप्ति धारण करो।
हे अग्नि ! हवि युक्त (हवन सामग्री) एवं घी में लिप्त यह समिधा तुम्हें प्राप्त हो। तुम तेजस्वी को मेरी ये समिधाएँ स्नेहपूर्वक सेवनीय हो।
हे अग्ने ! तुम भूलोक, अंतरिक्ष लोक और स्वर्गलोक में सब जगह स्थापित हो। हे पृथ्वी ! तुम देवताओं के यज्ञ योग्य हो। तुम्हारी पीठ पर श्रेष्ठतम अन्न की सिद्धि के लिए अन्न भक्षक गार्हपत्यादि अग्नि को विद्यमान करता हूँ। फिर जैसे स्वर्गलोक नक्षत्र आदि से पूर्ण है, वैसे ही मैं भी सभी धनों से पूर्ण हो जाऊँ। अनेकों को शरण देने वाली धरा के समान रूप शरणदाता बनूँ। यह अग्नि समस्त वस्तुओं को पवित्र करने वाली होने से सर्वश्रेष्ठ हैं।
यह अग्नि दृश्यमान रूप है। यजमान ने इन्हें यज्ञ को पूर्ण करने के लिए घर में गमनशील अद्भुत ज्वाला रूप बनाया और सभी प्रकार से आह्वान की हुई गृहपत्नी (दक्षिण अग्नि) के स्थानों में पाद विक्षेप किया तथा पूर्ण दिशा में पृथ्वी को प्राप्त किया। इस अग्नि का तेज प्राणों को पार करता हुआ शरीर के मध्य में गमन करता है। यह अग्नि ही शरीर में जीवन का रूप है। इस प्रकार वायु और सूर्य संसार पर अनुग्रह करने वाले अग्नि देवता यज्ञ अनुष्ठान के लिए प्रकाशित होते हैं।
जो वाणी तीस मुहूर्त रूप जगहों में सुसज्जित होती है, वही पूजनीय वाणी अग्नि के लिए उच्चारण की जाती है। वह नित्य प्रति की वंदना रूप वाली वाणी यज्ञादि श्रेष्ठतम कार्यों में अग्नि की वन्दना करती है, किसी अतिरिक्त की वंदना नहीं करती।
यह अग्नि ही दृश्यमान प्रकाश स्वरूप ब्रह्म ज्योति है और यह दृश्यमान ज्योति ही अग्नि है। इन ज्योति स्वरूप अग्नि के लिए हवि ग्रहण की गई है। यह सूर्य की ज्योति है और यह ज्योति ही सूर्य है। उन सूर्य के लिए हवि प्रदान करता हूँ। जो अग्नि ब्रह्मतेज से सम्पन्न है, उनकी ज्योति ही ब्रह्मतेज वाली है। उन अग्नि के लिए हवि देता हूँ। जो सूर्य है, वही ब्रह्मतेज है और जो ज्योति है वह भी ब्रह्मतेज है, उन सूर्य के लिए हवि देता हूँ। ज्योति ही सूर्य है, जो सूर्य है वही ब्रह्म ज्योति है। उसके लिए हवि प्रदान करता हूँ।
सर्वप्रेरक सूर्य ईश्वर के संग समान रूप स्नेह वाले जिस रात देव के देवता इन्द्र हैं, वह रात्रि देव और हम पर दया करने वाले अग्नि भी इन्हें जानें। यह आहुति इन अग्नि के लिए ही प्रदान करता हूँ। सर्वप्रेरक सविता देव के संग समान स्नेह वाली जिस उषा के देवता इन्द्र हैं, वह उषा और समान स्नेह वाले सूर्य इस आहुति को प्राप्त करें।
यज्ञ स्थान की ओर जाते हुए हम दूर या पास में अग्नि के श्लोक उच्चारण करते हुए अभिष्ट फलदाता के श्लोकों को सुनते हैं। यह अग्नि आकाश में सबसे ऊँचे स्थान पर मुख्य है। जैसे सिर सबसे ऊपर रहता है, वैसे ही यह अपने तेज से आकाश के सर्वोच्च स्थान सूर्यमण्डल के ऊपर रहते हैं या जिस प्रकार वृषभ का कंधा ऊँचा होता है वैसे ही अग्नि का स्थान ऊँचा है। इस प्रकार संसार के महान कारण यही हैं। पृथ्वी के पालक और जलों के सार भाग को पुष्ट करने वाले हैं।
हे इन्द्राग्ने ! मैं तुम दोनों को आहूत करने की इच्छा करता हूँ। तुम दोनों को हविरूप अन्न से हर्षित करने का अभिलाषी हूँ। क्योंकि तुम दोनों ही अन्न, धन और जल के देने वाले हो। मैं अन्न और जल की इच्छा से तुम्हारा आह्वान करता हूँ।
हे अग्नि ! विशेष ऋतु में प्राप्त यह ग्रहिपत्य अग्नि तुम्हारा जन्म स्थान है। सवेरे सायं काल तुम आह्वानीय स्थान में उत्पन्न होते हो। ऐसे तुम यज्ञादि कार्यों में प्रज्जवलित होते हो। हे अग्ने ! अपने इस गार्हपत्य को जानते हुए कार्य की सिद्धि दक्षिणी वेदी में प्रतिष्ठित होओ और हमारे यज्ञ में धन की भली-भाँति वृद्धि करो।
यह अग्नि ! देवताओं के आह्वान करने वाले और पवित्र यज्ञ में स्थित होता है। यह सोम यज्ञ आदि में सन्तजनों द्वारा उच्चारित किए हुए श्लोक कर्मवानों द्वारा स्थापित किए जाते हैं। यज्ञ कर्म के ज्ञाता भृगुओं ने विविध कार्यों से अग्नि को मनुष्य के लिए निर्माण कराया है। संस्कारों के माध्यम से शुद्ध हुए और सब प्रकार योग्य होकर सब विद्याओं को प्राप्त कराने वाले संतजन ने इस अग्नि का आह्वान करके गाय के द्वारा अनेक कार्यों में उपयोगी दूध, दही आज्य-रूप हवन सामग्री के दूध को निकाला है।
हे अग्ने ! तुम स्वभाव से ही यज्ञकर्त्ताओं के शरीर की रक्षा करने वाले हो। जठराग्नि रूप से शरीर के पालन करने वाले हो। अतः मेरे शरीर की सुरक्षा करो। हे अग्ने ! तुम आयु प्रदान करने वाले हो, अतः मेरी असमय मृत्यु को दूर कर पूर्ण आयु प्रदान करो। हे अग्नि ! तुम ब्रह्मवर्चस के देने वाले हो। अतः मुझे भी तेजस्वी करो। यदि मेरे शरीर में कोई न्यूनता (कमी) हो तो उसे पूरा करो।
हे अग्नि ! हम तुम्हारी कृपा दृष्टि से तेजस्वी, अन्न सम्पन्न और बलदायक हुए हैं। हम यजमान किसी के भी द्वारा हिंसित न हों। हम इसी प्रकार के गुणों से परिपूर्ण होकर तुम्हें सौ वर्ष तक बराबर प्रज्वलित करते रहें।
हे अग्नेि ! रात्रि के समय तुम सूर्य के तेज से सुसंगत हुई हो। तुम मुनियों के श्लोकों से उच्चारित हुई हो। तुम्हारी कृपा दृष्टि से मैं भी अकाल मृत्यु के दोष से बचकर पूर्ण आयु से ब्रह्मतेज से, पुत्र पौत्र तथा धन से सम्पन्न हो जाऊँ। हे गौओं ! तुम क्षीरादि (दुग्ध) को उत्पन्न करने से अन्न रूप हो। अतः मैं भी तुम्हारे दूध, घी आदि का प्रयोग करूँ। तुम पूजा करने योग्य हो, अतः मैं भी तुम्हारे जैसी महानता को प्राप्त करूँ। तुम बल रूप हो, तुम्हारे आशीर्वाद से मैं भी बलवान हो जाऊँ। तुम धन को बढ़ाने वाली हो। अतः मैं भी तुम्हारी कृपा से धन प्राप्त कर सकूँ। हे धनवती गौओं! इस यज्ञ स्थान में दूध निकालने के बाद गोष्ठ (गौशाला) में और यजमान के घर में सदा उत्तम भाव से विराजमान रहो। तुम इस गृह से अलग न होओ।
हे गौ! तुम अद्भुत रूप वाली, दूध घी देने के लिए यज्ञ कर्मों से सुसंगत होती है। तुम अपने क्षीर आदि के द्वारा मुझमें प्रवेश हो जाओ। हे अग्नि ! तुम रात्रि में भी क्रमशः वास करने वाली हो। हम यजमान नित्यप्रति श्रद्धा से परिपूर्ण हृदय से तुम्हें नमस्कार करते हुए हवि प्रदान करते हैं और तुम्हारी ओर प्रस्थान करते हैं। अग्नि ज्योतिर्मान है। हम उन यज्ञों के सुरक्षक, सत्यनिष्ठ, प्रवृद्ध अग्नि के निकट सम्मिलित होते हैं।
हे अग्नि ! उपर्युक्त गुण वाले तुम हमें सुखपूर्वक ग्रहण करो। पुत्र ठीक जैसे पिता के सम्मुख सुख से पहुँच जाता है जैसे ही हमें तुम ग्रहण करते हुए हमारे मंगल के लिए यज्ञ कार्य में संलग्न रहो।
हे अग्नेि! तुम निर्मल स्वभाव वाली हो। तुम वस्तुओं के लिए आह्वान रूप गमन करती हो। तुम धन देने के कारण यशस्वी हो। तुम हमारे पास रहने वाले रक्षक, पुत्र आदि की हितैषी हो। तुम हमारे यज्ञ अनुष्ठान में जाओ और हमें अत्यन्त तेजस्वी धन प्रदान करो। हे अग्नि ! तुम अत्यन्त प्रकाश वाली, सबको प्रकाश देने वाली, गुणी मित्रों के धन और कल्याणकारी रूप हो। हम तुमसे अपने मित्रों का उपकार करने की प्रार्थना करते हैं। तुम हम सभी उपासकों को जानो और हमारी प्रार्थना को सुनो। सभी पापों और शत्रुओं से हमारी रक्षा करो। हे गौ ! तुम पृथ्वी के समान पालन करने वाली हो। तुम यहाँ पर आने की कृपा करो। तुम अदिति माता के समान देवताओं को घी आदि के द्वारा पालन करने वाली हो। तुम इस यज्ञ स्थान में पधारो। हे गौओं! तुम सबको मनवांछित फल प्रदान करने वाली हो, इसलिए इस यज्ञ स्थान में पधारो। आपने हमारे लिए जो फल धारण किया है वह फल मुझ अनुष्ठान करने वाले को भी प्राप्त हो। हे बृह्मणस्पते ! मुझे सोमभिषव करने वाले शब्द से सम्पन्न करो। जैसे उशिज पुत्र कक्षीवान को तुमने सोमयाग से स्तुति रूप वाणि से सम्पन्न किया था, उसी प्रकार मुझे भी सम्पन्न करो।
जो ब्रह्मण स्पति! सर्व धनों के मालिक हैं जो संसार के सभी भय रोगादि के नाशक हैं और जो सभी धन आदि के ज्ञानी और पुष्टि की वृद्धि करने वाले हैं, जो क्षण मात्र में सभी कुछ करने में सक्षम हैं, वे ब्रह्मणस्पति हम सभी को उपर्युक्त सभी कल्याणों से परिपूर्ण करें।
हे ब्रह्मणस्पते! जो यज्ञ विमुख मनुष्यों, देवताओं या पितरों के लिए कभी कोई कर्म नहीं करते, ऐसे मनुष्य के हिंसामय विरोध हमें कष्टमय न करें, तुम हमारी सभी. तरह से सुरक्षा करो।
मित्र, अर्यमा और वरुण ये तीनों देव अपने से सम्बन्धित कांतिमय स्वर्ण आदि धनों से परिपूर्ण महिमा के द्वारा हमारी सुरक्षा करें। उनकी महिमा को तिरस्कृत करने की शक्ति किसी में नहीं है। हम तीनों द्वारा रक्षित देवों की आराधना करते हैं। उन ईश्वर देव को घर, मार्ग, घोर वन और संग्राम भूमि में भी कोई रोक नहीं सकता। यजमान का कोई भी शत्रु उसे हिंसित करने में सक्षम नहीं होता।
मित्र अर्यमा और वरुण देव माता अदिति के पुत्र हैं। वे इस मृत्युलोक में यजमान को अपना अखंड तेज और लम्बी आयु प्रदान करते हैं। हे इन्द्र ! तुम हिंसक नहीं हो। हविदाता (आहुति) देने वाले यजमान की हवि! (आहुति) को शीघ्र ग्रहण करते हो। हे मधवन! तुम बहुत ही तेजस्वी हो। यजमान तुम्हारे दान को शीघ्र प्राप्त करता है। उन सर्वप्रेरक सविता देव का हम ध्यान करते हैं। वे सबके द्वारा पूजनीय सभी पापों का नाश करने वाले, सत्य, ज्ञान, आनन्द आदि तेज सम्पन्न हैं। वे हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ कार्यों में लगाएँ। हे अग्नि ! तुम्हारा स्वच्छगति वाला रथ सभी दिशाओं में हमारे लिए स्थित हो। उसी रथ के द्वारा तुम यजमान की रक्षा करती रहो। हे अग्नेि ! मैं तुम्हारी कृपा से श्रेष्ठ अच्छे कार्यों से अच्छी भृत्यादि (पत्नी) पाकर प्रजापालक कहलाऊँ। जिस कारण सभी गुणों से सम्पन्न पुत्र प्राप्त करूँ। उसी कारण से ही श्रेष्ठ पिता भी कहलाऊँ और सभी प्रकार की सम्पत्ति पाकर ऐश्वर्यवान बनूँ। हे गार्हपत्याग्नि ! मेरे पुत्रों आदि की तुम रक्षा करना। तुम यज्ञ आदि कार्यों के द्वारा बारम्बार पूजा करने के योग्य हो। तुम मेरे पशुओं की रक्षा करो। हे दक्षिणाग्नि ! तुम निरन्तर गतिशील हो। मेरे पिता की रक्षा करो। हे अग्नेि ! तुम भली-भाँति से प्रकाशमान हो। हम तुम्हारी सेवा के लिए यहाँ आए हैं। तुम सब कार्यों की ज्ञाता हो।
तुम हमारे घर के विषय में सब कुछ जानने वाली हो। तुम हमें अपरिमित धन ग्रहण कराती हो। हे समृद्धि ! सम्पन्न अग्निदेव ! तुम अन्न, धन और शक्तियुक्त यहाँ प्रस्थान करो और हममें इन सभी की स्थापना करो।
यह दक्षिणाग्नि! पशुओं की भलाई करने वाले और पुष्टि की वृद्धि कराने वाले हैं। मैं उनकी वन्दना करता हूँ। हे दक्षिणाग्नि ! तुम हमें धन और शक्ति को सभी ओर से प्रदान करो।
हे घर के अधिष्ठाता देवताओं! तुम भयग्रस्त न बनो। कम्पित भी मत होओ। जिस कारण शक्ति को धारण करने वाले और क्षय प्रथक घर के स्वामी तुम्हारे निकट आए हैं, उस कारण तुम भी शक्ति से परिपूर्ण बनो। मैं श्रेष्ठतम मति, उत्कृष्ट हृदय से और हर्षित होता हुआ घरों में प्रवेश करूँ।
परदेश जाता हुआ यजमान जिन घरों की कुशल मंगल की इच्छा करता है और जिन घरों में अत्यन्त स्नेह है, हम उन घरों का आह्वान करते हैं। वे गृह के अधिष्ठातृ देव हमारे हित को ज्ञान में रखते हुए प्रस्थान करें और हमको किसी प्रकार अपकृत न मानें।
हे गायों! हमारे गोष्ठरूप (गौशाला) में सुखपूर्वक निवास करो। हे बकरियों और भेड़ों ! तुम भी हमारी आज्ञा से सुखपूर्वक यहाँ रहो। जिससे हमारे घर में अन्न और अनेक गुणों वाला रस हमें प्राप्त होता रहे, ऐसी मेरी आपसे प्रार्थना है। हे ग्रहों! मैं अपने धन की रक्षा के लिए, कल्याण के लिए और अनर्थ कार्य करने की शान्ति के लिए तुम्हारे पास आया हूँ। सब सुखों की कामना करने वाले मुझ यजमान का भी कल्याण करो। मैं परलोक में भी सुख की प्राप्ति करूँ। मैं दोनों लोकों में सुख को प्राप्त करूँ। हे मरुद गणों! तुम शत्रु के द्वारा प्रेरित विरोध का नाश करने वाले, तथा दही व सत्तू से प्रेम करने वाले हो। हे पापों का नाश करने वाले ! हवन सामग्री का भोग करने वाले मरुतों! हम तुम्हारा आह्वान करते हैं। गाँव में रहकर हमने जो पाप किया, वन में रहकर पशुओं को सताया एवं सभा में असत्य बोलकर तथा अपनी इन्द्रियों का गलत उपयोग कर जो पाप किया है उन सब पापों को नष्ट करने हेतु यह आहुति देता हूँ। पापनाशक देवता को यह आहुति स्वीकार हो।
हे इन्द्र देव! तुम शक्तिसम्पन्न हो। तुम मरुदगणों से युक्त हम सखाओं को युद्धों में समाप्त मत करो। तुम हमारी भली-भाँति रक्षा करो। तुम्हारा यज्ञीय भाग अलग स्थित है। तुम वर्षा द्वारा समस्त संसार को सिंचित करने वाले हो। समस्त यजमान तुम्हारा अर्चन करते हैं। हमारी वाणी तुम्हारे सखा मरुद्गणों को नमस्कार करती है।
ऋषियों ने सुख समान रूप वंदना के संग अनुष्ठान को पूरा किया है। हे ऋत्विजो! तुमने जो यज्ञ देवताओं के लिए किया है, अब उसके पूर्ण होने पर अपने गृह को प्रस्थान करो।
हे मन्दगति जलाशय अवभूथ नामक यज्ञ ! तुम अत्यन्त भ्रमणशील होते हुए भी इस जगह पर मंद चाल वाले बनो। मैंने अपनी शिक्षा में जो देवताओं के प्रति पाप किया है, उसे इस जलाशय में बहा दिया था या ऋत्विजों द्वारा यज्ञ देखने को पधारें, मनुष्यों की जो अवज्ञा होने से जो पाप आदि लगा है, उस पाप को भी इस जलाशय में बहा दिया है। हे यज्ञ ! वह पाप आपको न लगे और तुम विरुद्ध फल वाली हिंसा से हमें बचाओ।
हे काष्ठ ! आदि द्वारा निर्मित पात्र ! तुम पूर्ण स्थली के निकट से अन्न को प्राप्त करो और पूर्ण होकर इन्द्रदेव की ओर प्रस्थान करो। फिर फल से पूर्ण होकर हमारे निकट लौट आओ। हे सैकड़ों कर्म वाले इन्द्रदेव! हमारे और तुम्हारे बीच परस्पर क्रय-विक्रय जैसा आचरण सम्पन्न हो। अर्थात् मुझे हमेशा हविर्दान का फल प्राप्त होता रहे।
हे यजमान मुझे इन्द्र के लिए हवि (सामग्री) दो, फिर मैं तुझे यजमान को धन आदि दूँगा। तुम मुझे इन्द्र के निमित्त प्रथम हव्य सामग्री पूर्ण करो। फिर मैं तुम्हें उसका फल दूँगा। हे इन्द्र! मूल्य से क्रय योग मुझे दो। हम तुम्हें उसका मूल्य अर्पण कर रहे हैं, यह आहुति स्वीकार हो। इसे पितरों के हेतु कार्य में पितरों ने हवन सामग्री के रूप में अपने अन्न का भोग कर लिया है। उससे प्रसन्न होकर हमारी भक्ति से तृप्त होकर सिर हिलाते हुए उन महान पितरों ने हमारी प्रशंसा की। उसी प्रकार हे इन्द्र ! तुम भी इन पितरों से मिलने के उद्देश्य से बड़े हर्ष के साथ अपने रथ को यहाँ लाओ और पितरों के साथ तृप्त हो जाओ।
हे इन्द्र देव! तुम अत्यन्त समृद्धिशाली हो। तुम उत्तम दर्शन के योग्य या सभी को वन्दनापूर्वक देखने वाले हो। हम तुम्हारी वन्दना करते हैं। तुम हमारे द्वारा श्लोकों से प्रसन्न होकर अवश्य ही प्रस्थान करोगे। हे इन्द्रदेव! तुम हमारे अभिष्टों के पूरक हो, अतः अपने रथ में हर्यश्व योजित कर प्रस्थान करो।
हम मनुष्यों सम्बन्धी श्लोकों से और पितरों के इच्छित श्लोकों से हृदय के अधिष्ठाता का आह्वान करते हैं। यज्ञ अनुष्ठान हेतु, कार्य में उमंग हेतु लम्बी आयु के लिए तथा चिरकाल तक सूर्य दर्शन करते रहने के लिए हमारा हृदय हमें प्राप्त हो।
हे पितरों! तुम्हारी आज्ञा से दिव्य पुरुष हमारे मन और कर्म को श्रेष्ठ कर दें। इस प्रकार के कार्य करते हुए हम तुम्हारी कृपा से जीवित रहें और पुत्र व पौत्रों का सुख प्राप्त हो। हे सोम! हम यजमान तुम्हारे व्रत आदि कार्य को करते हुए और तुम्हारे शरीर के अंगों (मन) को धारण करते हुए और तुम्हारी कृपा से पुत्र-पौत्र वाले होकर सदा तुम्हारी कृपा के पात्र बनें रहें। हे रुद्रा भगिनि अम्बिका! के सहित हमारे द्वारा प्रदत्त पुरोडाश ग्रहण करने योग्य हैं, अतः तुम उनका सेवन करो। पापियों को संतप्त करने वाले, तीन नेत्र वाले अथवा जिनके नेत्र से तीनों लोक प्रकाशमान होते हैं। हे शत्रुओं को जीतने वाले प्राणियों! ये आत्मा के रूप में विराजमान और रुद्र को अन्य देवताओं ये अलग अथवा श्रेष्ठ समझकर उन्हें यज्ञ भाग प्रदान करते हैं। वे हमें समान मनुष्यों से अच्छे बनाएँ और हमें श्रेष्ठ कर्मों में लगाएँ। इसलिए हम उनको जपते हैं।
हे रुद्रदेव! तुम सभी व्याधियों को औषधि के समान रूप पतन करते हो। अतः हमारे गौओं, घोड़ों, पुत्र-पौत्र आदि के लिए सर्व रोग नाशक औषधि प्रदान करो। हमारे पशुओं के रोग-नाश के लिए भी श्रेष्ठ औषधि को अभिव्यक्त करो।
दिव्य महक से परिपूर्ण मनुष्यों को दोनों लोक का फल देने वाले, धन-धान्य से पुष्टि करने वाले, जिन त्रिनेत्र रुद्र देव की हम अर्चना करते हैं, वे रुद्रदेव हमें अकाल मृत्यु आदि से सुरक्षा करें। ठीक जैसे पका हुआ फल टूटकर पृथ्वी पर गिर जाता है वैसे ही इन रुद्रदेव की कृपा दृष्टि से हम जन्म-मृत्यु के पाश से स्वतंत्र हों और स्वर्ग रूप सुख से पृथक न हों। मुझे दोनों लोकों का फल प्राप्त हो।
हे रुद्रदेव ! तुम्हारा यह हविशेष नामक भोजन है। इसके साथ तुम हमारे शत्रुओं का दमन करने पर प्रत्यंचा उतारे हुए धनुष को वस्त्र में ढककर मूजवान नामक पर्वत के परवर्ति भाग पर जाओ। हे रुद्र! जैसे जमदग्नि और कश्यप ऋषियों के बाल, युवा और वृद्धावस्था है और देवताओं की अवस्था के जैसे चरित्र हैं, वे तीनों अवस्थाएँ मुझ यजमान को प्राप्त हों।
हे लोहक्षुरा (उस्तरे )! तुम अपने नाम से ही कल्याण करने वाले हो और वज्र तुम्हारा रक्षक है। मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम मुझे हिंसित (घायल) मत करना। हे यजमान इस क्रिया के कारण आयु के लिए अन्नादि के भक्षणार्थ बहु संतान और अपरिमित धन की पुष्टि के लिए तथा उत्तम शक्ति के लिए मैं तुम्हें मूंडता हूँ।
अध्याय (4) :: ऋषि :- प्रजापति, आत्रेय, आंगिरस, वत्स, गौतम; देवता :- अम्बोषध्वौ, आपःमेद्यः, परमात्मा, यज्ञ, अग्न्य ब्बृहस्पतयः, ईश्वर, विद्वान, अग्नि, वाग्विद्युत, सविता, वरुणः, सूर्यविद्वांसौ, यजमानः सूर्य; छन्द :- जगती, त्रिष्टुप, पंक्ति, अनुष्टुप, उष्णिक्, बृहति, शक्करी, गायत्री।
हम इस पृथ्वी पर देवताओं के यज्ञ वाले स्थान पर आए हैं। जिस देव यज्ञ स्थान में विश्व के सभी देवता प्रसन्नतापूर्वक बैठे हैं। वहाँ ऋक, साम और यजुर्वेद के मंत्रों से सोम करते हुए हम धन की वृद्धि और अन्न आदि के द्वारा सम्पन्न हों। मेरे लिए यह दिव्य जल अवश्य ही कल्याण करने वाला हो। हे कुश तरुण देव ! इस छोटे से यजमान की भली प्रकार रक्षा करो। हे क्षुर ! इस यजमान को घायल मत करना। माता के समान पालन करने वाले जल हमें पवित्र करें। क्षरित जलों से हम पवित्र हों। यह जल सभी पापों को अवश्य ही दूर करते हैं। मैं स्नान और आचमन द्वारा बाहर-भीतर से पवित्र होकर इस जल द्वारा उत्थान करता हूँ। हे क्षोभ वस्तु! तुम शिक्षा देने वाले और तप वाले दोनों प्रकार के यज्ञों के अवयव रूप हो। तुम सुख से स्पर्श होने योग्य और कल्याणकारी हो। मैं मंगलमयी क्रांति को प्रणाम करता हुआ तुम्हें धारण करता हूँ।
हे नवनीत (मक्खन )! तुम गौ के दूध से बने हो। तुम तीव्र सम्पादन करने वाले हो, अतः मुझे ब्रह्मतेज से सम्पन्न करो। हे अंजन ! तुम वृत्रासुर के नेत्र की कनीनिका हो। तुम नेत्रों के उत्कर्ष में साधन से रूप समान हो। अतः मेरे नेत्रों की ज्योति की बढ़ोतरी करो।
हे हृदय के अधिष्ठातृ देव ! तुम अछिद्र वायु (हवा) रूप छन्ने के द्वारा और सूर्य की किरणों से मुझ यजमान को पवित्र करो। वाणी के अधिष्ठातृ-देवता, वायु और सूर्य मुझे शुद्ध करें। सविता देव मुझे शुद्ध करें। हे परमात्मदेव ! मैं तुम्हारे द्वारा शुद्ध हुआ हूँ। अब मेरी इच्छाएँ पूरी करो। जिस इच्छा के लिए मैं शुद्ध हुआ हूँ, उसे तुम्हारी कृपा दृष्टि से प्राप्त करूँगा।
हे देवगण! यह यज्ञ शुरू हुआ है, तुम्हारे निकट जो वरणीय यज्ञ फल है उसके युक्त पधारो। हम तुम्हारी भली-भाँति वंदना करते हैं। हे देवगण ! यज्ञ के फलों को लाने के लिए हम तुम्हारा आह्वान करते हैं।
हम अपने हृदय द्वारा यज्ञ कार्य में शामिल हुए हैं और विशाल अन्तरिक्ष से स्वाहा करते हैं, स्वर्गलोक और धरालोक से स्वाहा करते हैं। हमारे द्वारा शुरू किया गया यह अनुष्ठान सम्पूर्णता को प्राप्त हो।
यज्ञ करने के लिए बलवती इच्छा से प्ररेणाप्रद अग्नि के लिए आहुति देता हूँ। मेधा के निमित, मन के प्रवर्तक अग्नि के लिए यह आहुति देता हूँ। यह आहुति वाग्देवी, सरस्वती, पूषा और अग्नि के लिए देता हूँ। हे जल ! तुम उज्जवल, महान और विश्व के सब प्राणियों को आनन्द देने वाले हो। हे स्वर्ग, पृथ्वी और अंतरिक्ष ! तुम्हारे लिए हम यज्ञ करते हैं, बृहस्पति देवता को भी हवि देते हैं। सांसारिक मनुष्यों को कर्मों के अनुसार फल प्राप्त कराने वाले नेता, दान आदि गुणों से सम्पन्न, सर्वप्रेरक, सविता देव की मित्रता के लिए वंदना करो। वे पुष्टि (वृद्धि) के लिए अन्न प्रदान करें। सभी प्राणी उनसे कामना पूर्ति हेतु उनकी वंदना करते हैं। उनके लिए आहुति स्वीकार हो। हे कृष्णाजिन द्वय की कृष्ण शुक्ल रेखा। तुम ऋक साम के मंत्रों के अधिष्ठा देवों की कर्म कुशलता के परिणाम रूप हो। मैं तुम्हारा स्पर्श करता हूँ। तुम इस यज्ञ के सम्पूर्ण होने तक मेरी रक्षा करो। हे कृष्णाजिन तुम शरण देने वाले हो, अतः मुझे शरण प्रदान करो। मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम मुझे दुःखी मत करना।
हे मेखले! तुम आंगिरस वाली और अन्न रस से युक्त हो। तुम उनके समान रूप मीठा स्पर्श हो। मुझ यजमान में अन्न रस स्थित करो! हे मेखले ! तुम सोमदेव के लिए हे जलो! मेरे द्वारा पान किए जाने पर तुम शीघ्र ही जीवन को प्राप्त हो और हम पीने वालों के पेट को सुख देने वाले हों। यह जल यक्ष्मारहित अन्य रोगों का नाश करने वाले, प्यास को शान्त करने वाले यज्ञ में वृष्टि करने के लिए दिव्य अमृत के समान हो। हे यज्ञ पुरुष ! यह पृथ्वी ही तुम्हारा यज्ञ स्थान है। इस कारण इस मिट्टी के ढेले को ग्रहण करता हूँ। मैं भू प्रत्याग करता हूँ। हे मूत्र रूप जल तुम अपिवत्र रूप हो। यज्ञ करते समय तुम्हें स्वाहा रूप से ग्रहण किया था परन्तु अब तुम विकार रूप वाले हो, अतः हमारे शरीर से निकलकर पृथ्वी में प्रविष्ट करो। हे भृतिके ! तुम पृथ्वी में समाहित हो जाओ। हे अग्नेि ! तुम सावधान हो जाओ। हम सुखपूर्णक विश्राम करें। तुम सब ओर से हमारी रक्षा करो और फिर हमें कार्य में प्रेरित करो। मुझ यजमान का मन-शयन काल में विलीन पुनः मेरे पास आ गया है। मेरी आयु स्वप्न में नष्ट जैसी होकर फिर प्राप्त हो गई है। वे प्राण पुनः प्राप्त हो गए हैं। जीवात्मा, दर्शनशक्ति, सुनने की शक्ति आदि मुझे दोबारा प्राप्त हो गई है। हमारे शरीरों के प्रिय हो, हमारे लिए नए रूप में हो जाओ। हे उष्णीय! तुम इस अत्यन्त व्यापक रूप वाले यज्ञ में मंगल रूप समान वाली हो। अतः मुझ यजमान का समस्त प्रकार से कल्याण करो। हे कृष्ण विषाण! तुम जिस प्रकार इन्द्रदेव के स्थान पर स्थित हो, वैसे ही मेरे लिए बनो। हे कृष्णविषाण ! तुम हमारे राज्य को उत्तम अन्न से सम्पन्न करो। इसलिए मैं पृथ्वी को खोदता हूँ। हे वनस्पति से उत्पन्न दण्ड ! तुम उन्नत बनो और इस यज्ञ की पूर्णता तक मुझे पाप से बचाओ।
हे ऋत्विजो ! दुग्ध का दोहना आदि कार्य करो। यह यज्ञाग्नि तीनों वेदों का रूप है तथा यज्ञ का साधन है। यज्ञ योग्य वनस्पति भी यज्ञ रूप ही है। अनुष्ठान की सिद्धि के लिए, देवताओं के कार्य में संलग्न होने वाली, श्रेष्ठतम मंगल प्रदान करने वाली तेजस्विनी यज्ञ निर्वाहिका मति की हम वंदना करते हैं। ऐसी सर्व प्रशंसनीय मति हमें प्राप्त हो। हृदय से उत्पन्न, हृदय से परिपूर्ण, श्रेष्टतम वचन वाले नेत्रादि इन्द्रिय रूपी प्राण, यज्ञानुष्ठान की बाधाओं को दूर कर हमारा सभी प्रकार से पोषण करें। यह हवि प्राण रूप समान देव के लिए स्वाहुत हो।
पालनकर्त्ता और सब पर उपकार करने वाले हमें दुष्कर्मों से बचाएँ।
हे अग्ने! तुम दिव्य रूप हो। तुम यज्ञ अनुष्ठानों के रक्षक हो। सभी यज्ञों में तुम्हारी वंदना की जाती है। तुम देवों और मनुष्यों को व्रतों का पालन कराते हो। हे सोम ! तुम हमें बारम्बार धन प्रदान करो। धन प्रदान करने वाले सविता देव हमें पहले ही धन दे चुके हैं। अतः तुम भी हमें बारम्बार धन प्रदान करो।
हे अग्नि! तुम उज्जवल रंग वाली हो। यह घी तुम्हारे शरीर के समान रूप है। इस घी में पड़ा हुआ स्वर्ण तुम्हारा तेज है। तुम इस घी रूप समान शरीर को एकाकार को प्राप्त होओ और फिर स्वर्ग की कांति को प्राप्त करो। हे वाणी ! तुम वेग वाली हो। तुम हृदय के द्वारा किए गए यज्ञ कर्म को सिद्ध करने के लिए स्नेह से सम्पन्न हो।
तुम्हारी उस सत्य वाणी के अनुरूप ही हम शरीर को प्राप्त हों। यह घृताहुति स्वीकार हो। हे सुवर्ण! तुम कांति वाले चन्द्रमा के समान अविनाशी और विश्वेदेवो से संबंधित हो।
हे वाणी रूप सोम क्रयणी ! तुम चित्त रूप वाली तथा मन रूप वाली हो। बुद्धि रूप और दक्षिण रूप भी हो। सोम क्रम साधन में क्षत्रिय और यज्ञ की पात्र हो। तुम अदिति के रूप वाली, दो सिर वाली, हमारे यज्ञ में पूर्व और पश्चिम में मुख हो। तुम्हें देवता दक्षिणपाद में बाँधें और यज्ञपति इन्द्र की प्रसन्नता के लिए पूषा देवता तुम्हारी मार्ग में रक्षा करें।
हे गौर्या! सोम लाने के कार्य में संलग्न तुम्हारे माता-पिता आदेश दें। भाई, मित्र, वत्स आदि भी आदेश करें। हे सोम क्रयणी ! तुम इन्द्र देव के लिए सोमदेव को ग्रहण के लिए प्रस्थान करो। सोम प्राप्त करने पर तुम्हें रुद्रदेव हमारी ओर प्रस्थान करवाएँ। तुम सोमयुक्त हमारे यहाँ कुशलता पूर्वक फिर लौट आओ।
हे सोम क्रयणी ! तुम वसुदेव के बल हो। अदिति रूपिणी हो। आदित्यों के रूप समान और चन्द्रमा के रूप समान हो। बृहस्पति तुम्हें सुखी करें। रुद्रदेव और वसुगण भी तुम्हारी रक्षा करें।
अखिण्डता धरा के शिररूप, देवयाग के श्रेष्ठ स्थान में हे घृत! मैं तुम्हें सींचता हूँ। है यज्ञ स्थान! तुम गौ के चरण रूप हो, मैं उस चरण को घृत से परिपूर्ण करने को आहुति प्रदान करता हूँ। हे सोमक्रमणी के चरण चिह्न ! हम तुम्हारे भाई के तुल्य हैं। हे यजमान! इस पद रूप से तुम में धन दृढ़ हो, यह मेरे समद्धि रूप हैं। हम ऋत्विगण समृद्धि से रहित न हों। समृद्धि, पशु-पद रूप समान से इस वंश वधु में दृढ़ हो।
हे सोम क्रमणी! तुम दिव्य यज्ञ में मुख्य दक्षिणा के योग्य, विशाल दर्शन वाली और हमें अपनी प्रकाशित बुद्धि से भली प्रकार देखने वाली हो। मेरी आयु को कम मत करो, मैं तुम्हारे दर्शन के फलस्वरूप उत्तम पुत्र को प्राप्त करने वाला बनूँ।
हे अध्वर्यों! सोम से मेरी इस प्रार्थना को कहो कि हे सोम ! तुम्हारा यह भाग गायत्री से संबंधित है। तुम्हारा क्रय गायत्री छन्द के लिए ही है। हे अध्वर्यो ! सोम से कहो कि तुम्हारा यह भाग त्रिटुष्प छंद वाला है। हे अध्वर्यों! सोम से कहो कि तुम्हारा यह भाग जगती छंद वाला है। हे अध्वर्यो ! तुम सभी छंदों के अधिकारी हो, यह बात सोम से कहो। हे सोम ! तुम क्रय द्वारा प्राप्त होकर हमारे हुए हो। यह शुक्र तुम्हारे लिए गृहणीय है। ये सभी विद्वान तुम्हारे सार और असार अंश को जानते हैं। तुम्हारे सारासार भाग विचार कर संचय किया जाता है।
उन क्षितिज धरा में स्थित, दिव्य, मतिदाता, सत्य, शिक्षा देने वाले, रत्नों के धाम, समस्त प्राणधारियों के प्रिय, क्रान्तदर्शी सवितादेव को भली-भाँति उपस्थित करता हूँ। जिनकी अपरिमित ज्योति क्षितिज में सर्वोच्च प्रतिष्ठित है जिनकी दीप्ती से नक्षत्र भी प्रकाशमय हैं। वे हिरण्यपाणि और स्वर्ग के रचनाकार हैं। मैं उन्हीं की उपासना करता हूँ। हे सोम ! तुम्हारे दर्शन मात्र से प्रजा सुख भोगे, इसलिए मैं तुम्हें बन्धन युक्त करता हूँ। हे सोम ! साँस लेती हुई समस्त प्रजा तुम्हारे मार्ग के अनुसार जीवित रहें और तुम भी श्वासवान प्रजाओं का ध्यान करो।
हे सोम! तुम अमृत रस के समान तेजस्वी और आह्लादकारक हो। मैं तुम्हें अविनाशी, दीप्तीमान और आह्लादक स्वर्ण से खरीदता हूँ। हे सोम-विक्रेता ! तुम्हारे सोम के बदले में जो गायें तुम्हें दी गई थीं, वह गौ लौटाकर दोबारा यजमान के गृह में दृढ़ हो परन्तु स्वर्ग तेरे पास ही रहे। हे सोम-विक्रेता! तुम्हें जो स्वर्ग दिया गया है वह हमारेनिकट आए। तुम्हारी गायें ही कीमत रूप में हों। हे अजे! तुम पुण्य के शरीर हो, अतः बंदना के लायक हो। हे सोम! इस उत्तम विशेषता वाले अजा नामक पशु द्वारा तुम क्रय किए जा रहे हो। तुम्हारी कृपा दृष्टि से मैं पुत्र पशु आदि की हजारों पुष्टियों वाला हो जाऊँ।
हे सोम ! तुम मित्र बनकर हम उत्तम कार्यों के मित्रों का पालन करने वाले बनें। तुम हमारी तरफ आ जाओ। हे सोम ! तुम परम् ऐश्वर्यशाली इंद्र की सोम कामना वाली, मंगलकारी दक्षिण जांघ में स्थित हो जाओ। उपदेश देने वाले, प्रकाशमान, पाप का नाश करने वाले, संसार का सुन्दर हाथों से पालन करने वाले सदा प्रसन्न रहने वाले, कमज़ोर को विजय दिलाने वाले, सोम रक्षक सात देव तुम्हारे इस सोम-क्रय द्वारा प्राप्त पदार्थ के रक्षक हो। तुम्हें शत्रु भी दुःखी न कर सकें।
हे अग्नि! मेरे पापों को सब ओर से दूर कर दो। मैं कभी पाप में संलग्न न हो सकूँ। मुझ यजमान को पुण्य कर्म में ही विद्यमान रखो। मैं सबसे उत्तम लम्बे जीवन वाली आयु से और सुन्दर दान आदि से परिपूर्ण आयु से सोम आदि देवों को देखता और उनका साथ करता हुआ उन्नति करता रहूँ।
हम सुखपूर्वक यात्रा करने योग्य, पाप और बाधाओं के बिना इस मार्ग पर चलते रहें। उस मार्ग पर जाने वाला व्यक्ति चोरी आदि दुष्कर्मों को रोकता हुआ धन को प्राप्त करने में सक्ष्म होता है।
हे कृष्णाजिन ! तुम इस संकट में पृथ्वी की त्वचा के रूप समान हो। हे सोम ! तुम इस जगह में भली-भाँति दृढ़ हो जाओ। श्रेष्ठ वरुणदेव ने स्वर्ग और अन्तरिक्ष को दृढ़ किया और धरा को विस्तरित किया, वह वरुणदेव सारे संसार में स्थित हुए। संसार के निर्माण आदि समस्त कार्य वरुणदेव ने ही किए हैं।
वरुणदेव ने वन में प्राप्त हुए जल को आकाश में विस्तीर्ण किया है। उन्होंने घोड़ों में बल को बढ़ाया, पुरुषों में पराक्रम को बढ़ाया, गायों में दूध की वृद्धि की, हृदय में उत्तम विचारों वाले मन का विस्तार किया। प्रजा में जठराग्नि को स्थित किया, स्वर्ग में सूर्य को और पर्वतों में सोम की स्थापना की।
हे कृष्णाजिन! तुम अपने पेट में सोम को रखते हो। तुम सूर्य की दृष्टि में ऊपर उठो और अग्नि की दृष्टि में भी ऊपर उठो। इन दोनों की ज्योति से अग्नि द्वारा प्रकाशयुक्त होकर सूर्य के अश्वों द्वारा गमन करते हैं।
हे अनड्वालों! तुम शकट-धूलि को धारण करने में सक्षम हो। तुम शकट वहन के दुःख से दुःखी मत होना। तुम अपने सींगों द्वारा बालकों को न मारने वाले और ब्राह्मण को यज्ञ-कार्य में प्रेरित करने वाले हो। तुम इस शकट में जुत कर शुभ मुहूर्त में यजमान के घर में प्रवेश करो। हे सोम ! तुम हमारा कल्याण करने वाले हो। तुम भूमि के स्वामी हो और सब जगहों पर समान वेग से जा सकते हो। चारों ओर घूमने वाले चोर तुम्हें न जान सकें और यज्ञ के विरोधी भी तुम्हें न जान सकें। तुम्हें हिंसक भेड़िया या पाप करने वाले मार्ग में न मिलें। तुम तीव्रगति के साथ यजमान के घर को जाओ। उन घरों में ही तुम्हारा उपयुक्त स्थान है। मित्र और वरुण देवता के तेज से प्रकाशमान, सब प्राणियों को दूर से ही देखने वाले, परबह्म से उत्पन्न, तीनों लोकों के पालक हैं। उनको और सूर्य को नमस्कार करता हूँ। हे ऋषियों! तुम भी सूर्य के लिए यज्ञ करो और उनकी वंदना करो।
हे काष्ठ-दण्ड ! तुम वरुणदेव को स्नेह हेतु इस संकट में व्यवहृत होते हो। हे शम्ये! तुम दोनों वरुणदेव की रोधकारिणी हो। मैं तुम्हें वरुण के स्नेह लिए स्वतंत्र करता हूँ। हे आसन्दी! तुम वरुणदेव के स्नेह के लिए यज्ञ प्राप्ति को जगह रूप तथा सोमदेव की सुरक्षा के लिए आधार रूप हो। हे कृष्णाजिन! तुम वरुण देव के यज्ञ के लिए स्थान रूप हो। मैं वरुण देव! के स्नेह हेतु ही तुम्हें लाया हूँ और आसन्दी पर बिछाता हूँ। हे सोम देव! तुम वरुण देव के स्नेह हेतु लाए गए हो। तुम इस उपवेशन स्थान रूप चौकी पर सुखपूर्णक बैठो।
हे सोम देव! यह मुनिगण तुम्हें प्रातः सवानादि में प्राप्त कर तुम्हारे रस से यज्ञ पुरुष को पूजते हैं, तुम्हारे वे सब स्थान तुम्हारे आश्रित रहें। तुम घर की वृद्धि करने वाले, यज्ञ को सफल करने वाले वीरों का पालन करने वाले हो। तुम हमारे पुत्र-पौत्र आदि से सम्पन्न इस यज्ञ में आगमन करो।
अध्याय (5) :: ऋषि :- गौतम, मेधातिथि, वशिष्ठ, औतथ्यो दीर्घतमा, मधुच्छन्दा, आगत्य; देवता :- विष्णुयज्ञं, यज्ञ, अग्नि, विद्युत, सोम, वाक्, सविता, सूर्य विद्वांसो, ईश्वर सभाध्यक्षौ, सौमस, वितारौ; छंद :- ब्रहती, गायत्री, त्रिटुष्प, पंक्ति, उष्णिक, ब्रहती, जगती।
हे सोम! तुम अग्नि देवता के शरीर हो। मैं तुम्हें विष्णु भगवान की प्रीति हेतु काटता हूँ। तुम सोम नामक देवता के प्रतिनिधि त्रिदुष्प छंद के अधिष्ठाता को खुश करने वाले शरीर हो। मैं तुम्हें विष्णु भगवान की प्रीति हेतु टुकड़े-टुकड़े करता हूँ। हे सोम! तुम यज्ञ में आए अतिथि को अतिथि स्वागत द्वारा सन्तुष्ट करने वाले हो। मैं तुम्हें विष्णु भगवान की प्रीति हेतु तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े करता हूँ। हे सोम ! धन से वृद्धि करने वाले अग्नि संरक्षक सोम के दूत अनुक्त छन्द के अधिष्ठाता अग्नि की प्रीति हेतु और भगवान विष्णु की प्रीति के लिए तुम अपने टुकड़े-टुकड़े करते हो।
हे वृक्ष खण्ड! तुम अग्नि देवता को पैदा करने वाले हो। कुशद्वय ! तुम अरिणी रूप कष्ट को दबाकर अग्नि को उत्पन्न करने की शक्ति प्रदान करते हो। हे अधरारणि ! हमने तुम्हें अग्नि को उत्पन्न करने के लिए नारी भाव से कल्पना करके तुम्हारा नाम उर्वशी रख दिया है। हे स्थाली में अटल भाज्य ! तुम दो अरणियों से उत्पन्न अग्नि की आयु रूप समान हो। हे उत्तर अरिणी ! अग्नि को उत्पन्न करने के कारण हम तुम्हें उत्तर रूप में कल्पना करते हैं। तुम पुरूरवा नामक वाली हुई हो। हे अग्नि! गायत्री छंद के अधिष्ठाता अग्नि की शक्ति से मैं तुम्हें पैदा करता हूँ। हे अग्नि! जगती छंद के अधिष्ठाता विश्वे देवों की शक्ति से मैं तुम्हारा मंथन करता हूँ।
हे अग्नेि! तुम हमारे कर्मों को सिद्ध करने के लिए एकाग्र हृदय और समान चित से, हमारे द्वारा अपराध होने पर भी क्रोध न करने वाली बनो। तुम हमारे यज्ञ को समाप्त मत करना। यज्ञपति यजमान को पीड़ित न करना। तुम हमारे लिए कल्याणकारी बनो।
ऋत्विजों के पुत्र रूप या अभिशाप से रक्षक मथित आह्वानीय अग्नि में विद्यमान हुए हवि (सामग्री) का भोग करते हैं। हे अग्नेि ! ऐसे तुम्हारे लिए कल्याण रूप बनकर आलस्य को छोड़कर इस स्थान में हमेशा इंद्रादि देवताओं के लिए यज्ञ करो। तुम्हारे लिए घी की आहुति अर्पित है।
हे भाज्य! वायु देवता उत्तम चाल वाले, शक्तिशाली क्षितिज के पुत्र, समस्त कार्यों में सक्ष्म, आत्मा के पौत्र और सर्वज्ञ हो। मैं तुम्हें उन्हीं के लिए प्राप्त करता हूँ। हे भाज्य ! मुझे प्राण के स्नेह हेतु अनिष्ट उपाय की इच्छा कर, रक्षक हृदय की स्नेह भावना हेतु मैं तुम्हें प्राप्त करता हूँ। शरीर को निष्प्राण न करने वाली जठराग्नि के लिए उन्हें प्राप्त करता हूँ। हे आज्य ! तुम अतिरस्कृत, आगे भी अतिरस्कार योग्य हो। सभी तुम्हें पूजनीय मानते हैं। तुम देवताओं के लिए सार पदार्थ हो और हमारी निन्दा आदि अपयश से सुरक्षा करने वाले हो। इसलिए हे आज्य ! तुम वेद मार्ग के द्वारा मोक्ष ग्रहण कराने में मित्र हो। हम तुम्हें सत्य अन्तःकरण द्वारा छूते हैं। तुम हमें उत्तम यज्ञ अनुष्ठान में संलग्न कराओ।
हे अनुष्ठान आदि कार्यों के पालन करने वाले अग्नि देव! तुम हमारे कार्य की रक्षा करो। तुम्हारा कर्म रक्षक रूप मुझे प्राप्त हो। जो मेरा शरीर है, वह तुम में हो। हे अनुष्ठान कर्म ! हम अग्नि और यजमान से संगति (मित्रता) करें, सोम मेरी दीक्षा को और उपसद् रूप को तप माने। हे सोम ! तुम्हारे सभी अवयव और गाँठ धन को प्राप्त कराने वाले हो। तुम इन्द्र की प्रीति के लिए जन्मे हो। तुम्हारे प्रयोग के द्वारा इंद्र सभी प्रकार की वृद्धि को प्राप्त हो और तुम इन्द्र के पान के लिए वृद्धि को प्राप्त हो। मित्र के समान हम संतों को धन-दान एवं मेधा को प्राप्त करें। हे सोम ! तुम्हारे कारण हमारा कल्याण हो, मैं तुम्हारी दया से अभिषेक क्रिया को सम्पन्न कर जाऊँ। हे हे वेदी! तुम शेरनी के रूप समान विकराल बनकर शत्रुओं को पराजित करने वाली हो। तुम देवताओं की भलाई के लिए उत्तर वेदी के रूप में स्थापित होओ। हे उत्तरवेदी ! तुम शेरनी के समान शत्रुओं का बहिष्कार करने वासली और देवताओं के स्नेह के लिए पत्थर आदि से पृथक होकर सुसज्जित हुई हो।
हे उत्तर वेदी! इन्द्र अष्ट वसुओं के सहित तुम्हारी पूर्व दिशा में रक्षा करें। वरुण रुद्रगण के साथ पश्चिम दिशा में तुम्हारी रक्षा करें। हे वेदी! मन के समान वेगवान यमराज पितरों के साथ दक्षिण दिशा में तुम्हारी रक्षा करें। विश्वेदेवा ! द्वादस (बारह) आदित्यों के सहित उत्तर दिशा में तुम्हारी रक्षा करें। राक्षसों का विनाश करने के लिए मैंने जिस जल से प्रोक्षण किया था, वह जल उग्र रूप धारण करने को है। मैं इसे वेदी से बाहर फेंकता हूँ।
हे वेदी! तुम शेरनी के समान होकर असुरों का पतन करने में संलग्न होती रहो। यह हवि तुम्हारे लिए है। हे वेदी ! तुम आदित्यों की सेवा करने वाली शेरनी के रूप समान वाली हो। यह हवि तुम्हारे लिए है। हे वेदी ! तुम शेरनी के समान वीरता वाली और ब्राह्मण क्षत्रिय से स्नेह करने वाली हो। यह हवि तुम्हारे लिए है। हे वेदी! तुम शेरनी के रूप समान वीरता वाली हो। श्रेष्ठ प्रजा और धन को पुष्ट करने वाली हो। यह आहुति तुम्हारे लिए है। हे वेदी ! तुम शेरनी के रूप समान वीरता वाली हो। यजमान की भलाई के लिए देवों को यहाँ लाओ। समस्त प्राणियों के स्नेह के लिए तुम्हें वेदी पर प्राप्त करता हूँ।
हे मध्यम परिधि! तुम स्थिर होकर को दृढ़ करो। हे दक्षिण परिधि! तुम स्थिर होकर यज्ञ में रहती हो, अतः अंतरिक्ष को दृढ़ करो। हे उत्तर परिधि ! तुम अविनाशी यज्ञ में रहती हो, अतः आकाश को दृढ़ करो। हे सम्भार! तुम अग्नि के पूरक हो।
वेद पाठ से समृद्धि को प्राप्त, अद्भुत, बाह्मणों के सम्बन्धी ऋत्विज आदि, यज्ञ कर्म में लगे हुए, सभी के स्वभावों के ज्ञाताओं को उन एक ही ईश्वर ने रचा है। इसलिए सर्व-प्रेरक सविता देव की समृद्धि को श्रेष्ठ कहा गया है। यह हवि उन्हीं के लिए है।
सोम ! तुम हमारे अभीष्ट धन को प्रेरित करो। हमको महान ख्याति प्राप्त हो। द्यावा पृथ्वी को हम नमस्कार करते हैं। उनकी कृपा से हमारा कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो।
हे अग्ने! तुम्हारी जो देह लोहप्र में वास करने वाला देवों को काम्यफल वृष्टि करने वाला और राक्षसों को गर्त में धकेलने वाला है, तुम्हारा वह शरीर दैत्यों के कर्कश बन्धनों का नाशक है। इस प्रकार के उपकारी तुम अत्यन्त उत्तम को यह आहुति स्वाहुत हो। हे अग्ने ! तुम्हारा जो शरीर रजतपुर में निवास करने वाला है, वह देवताओं के लिए अभिष्ट प्लामदायक और वर्षाकारक है। राक्षसों को गर्त में धकेलकर उनके कठोर संकल्पों को समाप्त करता और आरोपों को भी दूर करता है। उन अपमारी अग्नि के लिए यह आहुति स्वाहुत हो। हे अग्ने ! तुम्हारी स्वर्णपुर निवासी देह देवताओं के लिए अभीष्ट वर्षी और असुरों को गर्त में धकेल कर्कश कठोर ध्वनियों को नष्ट करने वाला है। उस उपकारी अग्नि के लिए यह आहुति स्वाहुत हो।
हे पृथ्वी! तुम संतप्त और निर्धनों को शरण देने वाली हो। हे पृथ्वी ! तुम मेरे लिए अनेक रत्नों की खान हो। तुम धन के लिए निर्धन व्यक्ति को प्राप्त होने वाली हो। तुम्हारी कृपा से ही वह कृषि आदि कार्य करता है। हे पृथ्वी! मुझे इच्छित ऐश्वर्य देकर मेरी रक्षा करो। हम याचना करके निर्वाह न करें। हे पृथ्वी! मन की व्यथा से हमारी रक्षा करो। हम मनोवेदना से दुःखी न हों। हे मृतिके ! हम तुम्हें खोदते हैं। नभनामक अग्नि रस बात को जाने। कम्पनशील अग्नि! तुम इस स्थान में आयु रूप में होकर प्रवेश करो। हे पृथ्वी! तुम इस दृश्यमान पृथ्वी पर निवास करती हो। तुम्हारा जो रूप अतिरिक्त और यज्ञ के योग्य है उसी को तुम्हारे रूप में यज्ञ कार्य के निमित्त इस स्थान में प्रतिष्ठित करता हूँ। हे मृतिके! मैं तुम्हें खोदता हूँ। नभ नामक अग्नि इस बात को जाने। हे कम्पनशील अग्नेि ! तुम इस स्थान में आयु नाम से आगमन करो। हे पृथ्वी! तुम जिस कारण अंतरिक्ष में रहती हो उसी कारण से तुम्हें स्थापित करता हूँ। हे पृथ्वी! तुम धरा पर वास करती हो, मैं तुम्हारे यज्ञ योग्य रूप को स्थापित करता हूँ। हे भृति! हे भृतिके! देवताओं के लिए यज्ञ करने को उत्तर वेदी बनाई जाएगी। इसलिए मैं तुम्हें इस स्थान में लाकर स्थापित करता हूँ।
सर्वव्यापक विष्णु ने इस चराचर विश्व को विभक्त कर प्रथम पृथ्वी दूसरा अंतरिक्ष और तीसरा स्वर्ग में बाँट दिया है। इन विष्णु के पद में विश्व अंतर्भूत है। हम उन्हीं परमात्मा के लिए हवि देते हैं। हे द्यावा-पृथ्वी! इस यजमान का कल्याण करने के लिए तुम बहुत अन्न वाली, बहुत गायों वाली बहुत पदार्थ वाली, विज्ञान की वृद्धि करने वाली यज्ञ साधिका हो। हे विष्णों! तुमने इन दोनों को विभक्त कर स्तंभित किया है। तुमने अपने तेजों से ही इसे सब ओर से धारण किया है। हे शकट के धुरे ! तुम देवताओं में प्रमुख देवताओं से यजमान द्वारा यज्ञ करने की बात को ऊँचे स्वर से कहो। हे हविर्धान शकट तुम पूर्वाभिमुख होकर गमन करो। ऊर्ध्वलोक (स्वर्गलोक) वासी देवताओं को हमारा यह यज्ञ प्राप्त कराओ। सावधान ! तिरछे होकर पृथ्वी पर मत गिरना। हे शकट रूप देवद्वय ! अपने वाहक पशुओं के गोष्ठ में कहो। जब तक यजमान कर जीवन है, तब तक उसे पशु धन से हीन मत करो। यजमान के पुत्र आदि से दुष्ट (कठोर) वचन मत बोलो और यजमान की आयु में वृद्धि और संतान वृद्धि की इच्छा करो।
भगवान विष्णु के किन पराक्रमों का वर्णन करूँ। उनकी समृद्धि अपरिमित है। उन्होंने धरा, अन्तरिक्ष और स्वर्ग तथा समस्त प्राणधारियों और परमाणुओं की उत्पत्ति की है। वे तीनों लोकों में अग्नि, वायु और सूर्यरूप से स्थित होकर उत्तम मनुष्यों द्वारा वंदनीय हैं। उन्होंने स्वर्गलोक को श्रेष्ठ स्थान में स्तंभित किया है। हे स्थूल काष्ठ ! मैं तुम्हें भगवान विष्णु के स्नेह के लिए दबाता हूँ।
हे विष्णों! उस स्वर्गलोक से, पृथ्वी से और महान अंतरिक्ष से लाए गए धन द्वारा अपने दोनों हाथों को भर लो। तब उन दक्षिण और वाम हाथों द्वारा विभिन्न प्रकार के रत्न-धन दो। मैं तुम्हें विष्णु भगवान की प्रीति के लिए गाढ़ता हूँ।
वह पराक्रमी पवित्र करने वाले, पृथ्वी में रमे हुए, अंतर्यामी सिंह के समान भंयकर, सर्वव्यापी विष्णु स्तुतियों को प्राप्त करते हैं। उन्हीं के पाद प्रक्षेप वाले तीनों लोकों में सब प्राणी रहते हैं।
हे दर्भमालाधर वंश ! तुम विष्णु के ललाट रूप हो। हे राटी! तुम दोनों भगवान विष्णु के ओष्ठ-संधि हो। हे ब्रह्मसूची! तुम यज्ञ मण्डप की सूची हो, मण्डप को सीने वाली हो, हे ग्रन्थि ! तुम इस यज्ञ मंडप की गाँठ रूप हो, अतः बलवान बन जाओ। हे हविर्धान ! तुम भगवान विष्णु के लिए होने के कारण विष्णु रूप समान ही हो। अतः भगवान विष्णु के स्नेह के लिए मैं तुम्हें स्पर्श करता हूँ। हे अध्रि ! सविता देव के मार्ग दर्शन से, अश्विनी कुमार की भुजाओं से और पूषा देवों के हाथों से मैं तुम्हें प्राप्त करता हूँ। हे अग्नेि ! तुम हमारी भलाई करने वाली हो। मैं चार अवट समक्ष करने को चार परिलिखन करता हूँ, इसके द्वारा यज्ञ में बाधा उपस्थित करने वाले राक्षसों की गर्दन अलग करता हूँ। हे घोर ध्वनि करने वाले उपरव ! तुम श्रेष्ठ हो। तुम इन्द्रदेव के स्नेह के लिए उच्च ध्वनि वाली वाणी को कहो।
अमात्य आदि ने किसी कारण कुपित होकर अत्यंत गलत विचार से जो असिकेश आदि (हड्डी-बाल) मेरे बुरे के लिए गाड़े हैं, मैं उस अभिचार कर्म को बाहर निकालता हूँ। जिस किसी भी पुरुष ने यह कार्य किया है, उसे मैं बाहर करता हूँ। मेरे किसी रिश्तेदार, जानने वाले ने या किसी अनजान व्यक्ति ने मेरे अहित के लिए जो यह कार्य किया है, उसे मैं दूर करता हूँ। शत्रुओं ने हमारे अहित साधन के लिए जो कार्य स्थापित किया है उन सबको सभी स्थानों से बाहर निकालता हूँ।
हे प्रथम अवट! तुम अपने आप तेजस्वी और बैरियों को समाप्त करने वाले हो। तुम्हारी कृपा दृष्टि से हमारे शत्रु समाप्त हों। हे द्वितीय अवट ! तुम सत्रों में स्थित हो। हमारे प्रति घमंड भाव से बरतने वाले का तुम पतन करते हो। हम तुम्हारी कृपा दृष्टि से शत्रु से पृथक हों। हे तृतीय अवट ! तुम इन यजमान और ऋत्विज के सामने ज्योति से परिपूर्ण हो और असुरों का सर्वनाश करने वाले हो। हम तुम्हारी कृपा दृष्टि से शत्रुओं से प्रथक रहें। हे चतुर्थ अवट! तुम सभी के स्वामी और सर्वत्र ज्योति हित वास करते हो। तुम शत्रुओं का पतन करने में समर्थ हो। हमारे सभी शत्रु विनाश को प्राप्त हों।
हे गर्त्ता! तुम राक्षसों के नाशक बुरे कार्यों को निष्फल करने वाले भगवान विष्णु से संबंधित हो। मैं तुम्हें प्रोक्षण करता हूँ। तुम राक्षसों का वध करने वाले, अभिचार कर्मों को निष्फल करने वाले भगवान विष्णु से संबंधित हो। मैं तुम्हें सींचकर शेष बचे हुए जल को अलग करता हूँ।
मैं तुम्हें कुशाओं द्वारा ढकता हूँ। दोनों गर्तों पर, दो सोमाभिषवण फलक अलग-अलग स्थापित करता हूँ। मैं तुम दोनों पलकों को पर्युगहण करता हूँ। हे अभिवषण तुम विष्णु भगवान से संबंधित यन्न कार्य के मुख्य साधन हो। हे ग्रावक्षो ! तुम भगवान विष्णु से संबंधित यज्ञ की रक्षा करने वाले हो। हे अभ्र ! सविता देव की प्ररेणा से, अश्विनी कुमारों की भुजाओं से, पूषा के हाथ से तुम्हें ग्रहण करता हूँ। हे अभ्रे ! तुम हमारा हित करने वाली हो। मैं जो चार अवट प्रस्तुत करने को परिलिखन करता हूँ। उनसे यज्ञ में विघ्न करने वाले राक्षसों की गर्दन मरोड़ता हूँ। हे शस्य ! तुम जौ हो, इस कारण से हमारे शत्रु को हमसे दूर करो। हमारे शत्रुओं को भगाकर हमें सुख-सौभाग्य प्रदान करो। हे गूलर के अग्र भाग दिव्य कीर्ति के लिए प्रोक्षण करता हूँ। हे मध्यभाग! तुम्हें अंतरिक्ष की कीर्ति के लिए प्रोक्षिण करता हूँ। हे मूलभाग ! तुम्हें पृथ्वी प्रीति के लिए प्रोक्षित करता हूँ। जिन्हें पितर कहते हैं, वे इस जल से शुद्ध हों। हे कुशाओं! तुम पितरों के आसन हो। यहाँ पितर आदरपूर्वक बैठेंगे। हे औदुम्बरी ! तुम स्वर्गलोक को स्थापित करो। अतंरिक्ष (सौरमंडल) को पूर्ण करो। पृथ्वी को दृढ़ करो। हे औदुम्बरी! तेजस्वी मरुद्गण तुम्हें इस गर्त से प्रक्षिप्त करें तथा मित्रावरुण तुम्हारी आदि काल तक रक्षा करें। हे औदुम्बरी! तुम बाह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जाति द्वारा वंदना योग्य हो। मैं इस अवट में पयूँहण मृत्तिका डालकर तुम्हें स्थिर करता हूँ। हे औदुम्बरी! ब्राह्मण और क्षत्रिय को स्थिर करो। हमारी आयु और प्रजाओं को अटल करो।
हे औदुम्बरी! तुम इस जगह में अटल हो। यह यजमान अपने पुत्र-पौत्र आदि से युक्त सुख पाए और इस शरीर से दृढ़ता को ग्रहण हो। इस हवनीय घी द्वारा स्वर्ग और धरा युक्त हो। हे तृणमय चटाई ! तुम इन्द्रदेव की इस सभा मंडप से छिपाने वाली हो, इसलिए यजमान आदि समस्त के लिए छाया के रूप समान हो।
हे वन्दनाओं के योग्य इन्द्रदेव! यह प्रार्थना रूप सवन तुम्हें प्रवृद्ध करें। तुम इन वन्दनाओं को सब ओर से प्राप्त करो। यह वंदना मनुष्यों, यजमान आदि के लिए दीर्घआयु से परिपूर्ण करें। हमारी सेवा के द्वारा तुम हर्षित होओ।
हे रस्सी! तुम इन्द्र से संबंधित यज्ञ में सीवन (सिलाई) वाली हो, मैं तुम्हें सीवन के रूप में ग्रहण करता हूँ। हे गाँठ ! तुम इन्द्र से संबंधित होकर स्थिरता को प्राप्त हो। हे सभा ! तुम इन्द्र की प्रीति के लिए मेरे द्वारा बनाई गई हो। हे अग्निव ! तुम विश्व के देवताओं को आह्वान करने के स्थान हो।
हे अग्निघ्घ्रधिष्ण्य! सर्वप्रथम तुम पर ही अग्नि का स्थापन होता है। यही अग्नि क्रम से भ्रमणशील होगी। इस कारण ही अग्नि विविध रूप वाले और व्यापक हैं। तुम्हारे उत्तर दक्षिण में ऋत्विजो का आने जाने का रास्ता है। इसलिए तुम्हें प्रवाहण कहा जाता है। हे होतृधिष्ण्य ! तुम्हारे द्वारा अधिष्ठित अग्नि इस यज्ञ का निर्वाह करने वालों में मुख्य है। इसलिए तुम्हारा वहि नाम प्रसिद्ध है। सब देवताओं के लिए इस अग्नि में हवि दी जाती है। सब हवियों के वहन करने वाले होने से तुम्हें हव्यवाहन कहा गया है। हे मित्रावरुणधिष्ण्य ! तुम्हारे द्वारा विद्यमान अग्नि हमारे स्वाभाविक सखा है। इस कारण यह श्वात्र कहे जाते हैं और होता के दोषों को छिपाने वाले होने से यह ज्ञानी वरुणदेव के नाम से प्रसिद्ध हैं। हे विप्रशंसीधिष्ण्य! तुम इन विराजमान अग्नि के लिए प्रदक्षिणा के विभाजक हो। इसलिए तुम ! "तुथ" कहलाते हो। जिस ऋत्विज आदि को जो हिस्सा जिस प्रकार से ग्रहण हो, तुम सभी के ज्ञानी हो, इसलिए तुम्हें ! "विश्ववेद" कहते हैं।
हे होतृधिष्ण्य! तुम पर स्थापित यज्ञ अग्नि अधिक शोभायमान होने से कमनीम (सुन्दर) और क्रांतदर्शी है। हे नेष्टधिष्णय ! तुम पर प्रतिष्ठित यह अग्नि आपका नाश करने और सोम की रक्षा करने वाले हैं।
यह यजमान का पालन करने वाले हैं। हे अच्छावाकूधिष्ण्य! यह अग्नि पुरोडाश का भाग पाते हैं। यह पुरोडाश प्रधान हैं। अतः तुम्हारे दो नाम अन्न वाले और हवि वाले प्रसिद्ध हैं। हे हेधिष्ण्य ! यह अग्नि सब ऋत्विज आदि के शुद्ध करने वाले हैं। यह सब यज्ञ पात्र धोने और माँजने के कारण हैं। हे आह्वानीय अग्नि देव! तुम
देवताओं को संतुष्ट करने वाले हो। अतः भले प्रकार दीप्त और व्रतादि कर्मों के कारण दुर्बल शरीर वाले यजमान को अभीष्ट देते हो इसलिए कृशानु कहे जाते हो।
हे वहिप्पर्वन! तुम परिषदगण की आधार भूमि होने से परिषध कहे जाते हो। तुम्हारे आश्रम से सब शुद्ध होते हैं। इसलिए तुम पावमान कहे जाते हो। हे चत्वाल शून्यगर्भहोने से तुम नभ कहे जाते हो। तुम्हारी प्रदक्षिणा करते हुए ऋत्विगण आते जाते हैं। इससे तुम गमन रूप कहे जाते हो। शामित्र ! तुम्हारे द्वारा हव्य ! (हवन) सुस्वादु होता है। इसलिए तुम पवित्र कहलाते हो। तुम्हारे द्वारा पाक सिद्ध होता है। इसलिए तुम्हें पाचक कहते हैं। हे औदुम्बरि ! तुम उद्गाता के प्रमुख कार्य स्थान हो, इसलिए ऋत धाया कहे जाते हो। तुम उन्नत होने के कारण स्वर्ग का प्रकाश करने वाले होते हो।
हे ब्रह्मासन धिष्ण्य! तुम्हारे अधिष्ठाता बह्मा चारों वेदों के ज्ञाता और ज्ञान के सागर रूप हैं। इसलिए तुम ज्ञान के सागर कहलाते हो। समस्त ऋत्विजों के यज्ञ सम्बन्धी कार्य अकार्य के देखने से तुम्हें विश्ववर्चा कहते हैं। उसके कारण वेद भी यही विश्ववर्चा कहलाते हैं। इस योग्य जो हो वे यहाँ वास करें।
हे अग्नेि! तुम आह्वानीयरूप होकर यज्ञशाला में जाती हो। रक्षक, अजन्मा और जिनके एक चरण में समस्त संसार है, उस ब्रह्म को सन्तुष्ट करने वाले होने के कारण रूप तुम अज तथा एक पात कहे जाते हो। हे अग्नेि ! तुम अविनाशी हो। तुम मूल में होने वाले बुधन्य नाम से भी विख्यात हो। हे सदोमण्डप ! तुम वाणी हो, इन्द्रदेव का मुख्य स्थल होने से इन्द्रदेव रूप हो, ऋत्विजों का मुख्य सभा कर्म होने से तुम सभा हो। हे शाखे ! तुम यज्ञ के कपाट में स्थित हो। तुम मुझे किसी प्रकार पीड़ित न करना। हे सूर्य! तुम जिस मार्ग से जाओ, उन रास्तों के मध्य में भी मेरी बढ़ोत्तरी हो। इस देवयान मार्ग में मेरा कल्याण हो।
हे ऋत्विजो! मुझे मित्र के नेत्र रूप से देखो। मित्र के समान रूप इस कर्म को करो। हे धिष्ण्य में दृढ़ अग्नि ! तुम वन्दनीय होकर अपने उग्र मुख के द्वारा मेरी सुरक्षा करो या रुद्र मुख से मेरी सुरक्षा करो। मुझे समस्त धन धान्य आदि से समृद्ध करो। तुम्हारे लिए नमस्कार करता हूँ। मुझे किसी भी तरह प्रताड़ित करो।
हे आज्य! तुम अनेक आहुतियों के योग्य होने से संसार रूप, द्युतिमान और देवों के प्रकाशक हो। आज्य के भोजन द्वारा देव हर्षित होते हैं। उन देवताओं की संतुष्टि के लिए ही समिधा के आखिरी भाग को घृताक्त करता हूँ।
हे सोम ! हमारे विद्रोहियों द्वारा अभिप्रेरित असुरों या अनिष्ट साधनों को तुम दण्ड देने वाले बनो। हमारे लिए श्रेष्ठतम शक्ति के रूप हो। यह आहुति तुम्हारे लिए है। हे सोम ! मेरे द्वारा प्रदत्त आज्य का सेवन करो। हमारी इस आहुति को स्वीकृत करो।
हे अग्नि ! तुम सभी मार्गों के ज्ञाता और दिव्यगुणों से सम्पन्न हो। तुम हम अनुष्ठाताओं को श्रेष्ठ मार्गों द्वारा प्राप्त करो और हमारी कामनाओं को पूर्ण करने वाले कार्यों में विघ्न उपस्थित करने वाले पाप को दूर करो। हम तुम्हारे निमित्त आज्ययुक्त स्तुति को सम्पादित करते हैं।
यह अग्नि हमें धन प्रदान करें। यह अग्नि युद्ध क्षेत्र में आकर रिपु सेना को छिन्न भिन्न करें। शत्रु के आधीन अन्न को हमारे लिए जीत लो। अत्यन्त हर्षित होकर शत्रुओं को पराजित कर विजय प्राप्त करो। हमारी आहुति स्वीकृत करो। हे विष्णों! हमारे शत्रुओं को अपना भयानक पराक्रम दिखलाओ। अक्षीण्ता के लिए हमारी बढ़ोतरी करो। तुम घृत द्वारा प्रवद्ध होने वाले हो, अतः इस आहुति रूप समान घृत का रसपान करो। यजमान की बढ़ोतरी करो। यह आहुति तुम्हारे लिए है।
हे सर्वप्रेरक सविता देव! यह सोम दिव्य गुणों से युक्त है। इसे हम तुम्हारे लिए समर्पित करते हैं। तुम्हारी प्रेरणा से ही हमने इसे प्राप्त किया है। अतः तुम ही इसकी रक्षा करो। हे सोम-रक्षक ! यह किसी उपद्रव का लक्ष्य न बन पाए। इसकी रक्षा करो। हे सोम ! तुम दिव्य दृष्टि वाले हो। देवगणों को इस समय यहाँ लाओ। मैं यजमान, धन और पुष्टि के सहित अपने मनुष्यों के निमित्त यहाँ आया हूँ। देवताओं को सोम रूप अन्न देकर मैं वरुण देवता के बंधन से छूट गया हूँ।
हे अग्नि ! तुम समस्त कर्मों के पोषणकर्त्ता हो और अब भी तुम मेरे अनुष्ठान कार्य का पालन कर रहे हो। इस कार्य में वंदना करते समय तुमसे सम्बन्धित जो तेज मुझमें दृढ़ हुआ था, वही तेज मेरे इस शरीर में स्थापित हो। हे व्रतों का पालन करने
वाले अग्निदेव ! हमारे यज्ञ का संपादन करो। इस अग्नि ने मेरे दीक्षा सिद्धान्त को और तपस्या को स्वीकृत किया है।
हे विष्णों! हमारे शत्रुओं और विघ्नों के प्रति अपना पराक्रम करो। क्रम को प्रबुद्ध करो। तुम घृत से वृद्धि को प्राप्त होने वाले हो, अतः इस घृत का पान करो। यजमान की विस्तृत रूप से वृद्धि करो। हमारी यह घी की आहुति तुम्हारे निमित्त है।
हे यूपवृक्ष ! तुम्हारे अतिरिक्त अन्य अपूप्य वृक्षों को लांघकर मैं यहाँ उपस्थित हुआ हूँ। जो यूप पेड़ के अनुकूल नहीं थे, मैं उनके समक्ष नहीं गया। मैं तुम्हें दूर स्थित पेड़ों के निकट जानकर तुम्हारे समक्ष आया हूँ। हे वन प्रहरी देव-पेड़। हम देव यज्ञ के कर्म के लिए तुम्हें प्राप्त करते हैं, देवता भी तुम्हें इस कर्म के लिए स्वीकृत करें। हे यूप पेड़ ! तुम्हें भगवान विष्णु के यज्ञ के लिए प्राप्त करता हूँ। हे औषध ! कुल्हाड़ी से भयग्रस्त न हो और मेरी भी उससे रक्षा करो। हे कुल्हाड़ी! इस यूप के अतिरिक्त भाग पर प्रहार न करो। हे यूप वृक्ष ! मेरे स्वर्ग को हिंसित मत करो। अंतरिक्ष को हिंसित मत करो, धरा के साथ सुसंगत होओ। हे कटे हुए पेड़ ! अत्यन्त तेज यह कुल्हाड़ी श्रेष्ठदर्शन और आम यज्ञ के लिए तुम्हें यूप के रूप में ग्रहण करती है। हे वनस्पते ! तुम इस स्थान से शत बीज युक्त होकर उत्पन्न होओ। हम भी इस कार्य की शक्ति से पुत्र रूप सहस्त्रों शाखा वाले हों।
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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