RAMESHWARAM TEMPLE
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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Rameshwaram Temple is located in Tamil Nadu, Thirukoil. Bhagwan Shiv is worshipped as Ram Nath Swamy or Rameshwaram. It is also one of the twelve Jyotir Ling temples, where Shiv is worshipped in the form of a Jyotirlingam ( pillar of light). It is one of the 274 Pedal Patr Sthal, where the three of the most revered Nayanars (Shaevite saints), Appar, Sundarar and Tirugnan Sambandar, have glorified the temple with their songs. The temple was expanded during the 12th century by Pandy Dynasty and its principal shrines sanctum were renovated by Jeyaveera Cinkaiariyan and his successor Gunaveera Cinkaiariyan of the Jaffna kingdom. The temple has the longest corridor among all Hindu temples in India. The temple is located in Rameshwaram, an island town in South India, considered a holy pilgrimage site for Shaevites, Vaeshnavites and Smarths. The presiding deity, the Lingam of Ram Nath Swamy, is believed to have been established and worshipped by Bhagwan Ram, an avatar of Bhagwan Shri Hari Vishnu, to absolve the sins created during the war at Shri Lanka.

The primary deity of the temple is Ram Nath Swamy (Bhagwan Shiv) in the form of Lingam. There are two lingams inside the sanctum, one built by Maa Sita, from sand, residing as the main deity, Ram Lingam and the other brought by Hanuman Ji from Kailash called Vishw Lingam. Bhagwan Shri Ram instructed that Vishw Lingam should be worshipped first since it was brought by Hanuman Ji- the tradition continues even today.
There is a high compound wall on all four sides of the temple premises measuring about 865 feet furlong (220 yards) from east to west and one furlongs of 657 feet from north to south with huge towers (Gopurams) at the east and west and finished gate towers on the north and south. The temple has striking long corridors in its interior, running between huge colonnades on platforms above five feet high.

The outer set of corridors is reputed to be the longest in the world being about 6.9 m height, 400 feet in each in the east and west and about 640 feet in north and south and inner corridors are about 224 feet in east and west and about 352 feet each in north and south. Their width varies from 15.5 feet to 17 feet in the east and west about 172 feet on the north and south with width varying 14.5 feet to 17 feet.
The total length of those corridors is thus 3850 feet. There are about 1212 pillars in the outer corridor. Their height is about 30 feet from the floor to the center of the roof. The main tower or Raj Gopuram is 53 m tall. Most pillars are carved with individual composition. At the beginning, Ram Nath Swamy Temple was a thatched shed. The present structure was the work of many individuals spread over more than 17,50,000 years. The pride of place in the establishment for the Temple goes to the Setu Patis of Ram Nath Puram. In the seventeenth century, Dalavai Setu Pati built a portion of the main eastern Gopuram. In late eighteenth century, the world famous third corridor was constructed by Muttu Ram Ling Setupati who lived for forty nine years and ruled between 1763 and 1795. The corridor was called Chokkatan Mandapam. The Mukhy Pradhani (Chief Minister) was Muthuirullappa Pillai and the Chinna Prodhani (Deputy Chief Minister) was Krishna Iyengar. The Setu Pati’s statue and those of his two Pradhanis (ministers) can be seen at the western entrance to the third corridor.
There are separate shrines for Ram Nath Swami and Goddess Parvat Vardhini separated by a corridor. There are separate shrines for Goddess Visa Lakshi, Parvat Vardhini, Utsav idol, Shayan Grah, Perumal and Maha Ganpati. There are various halls inside the temple, namely Anuppu Mandapam, Shukr Var Mandapam, Setu Pati Mandapam, Kalyan Mandapam and Nandi Mandapam.
RAMESHWARAM got its importance-significance in the Treta-Yug when Bhagwan Shri Ram built a Shiv Ling here and worshipped it to get the blessings of Bhagwan Shiv, before conquering Shri Lanka the abode of demon king Ravan. Bhagwan Ram himself was an incarnation of Bhagwan Vishnu. It is located in South in Tamil Nadu. It is situated in the Gulf of Mannar at the very tip of the Indian peninsula. This is the place where Bhagwan Shri Ram, built the bridge called Ram Setu-Adams bridge, 7,50,000 years ago connecting Shri Lanka with the main land. The Ram Nath Swamy Temple dedicated to Bhagwan Shiv occupies a major area of Rameshwaram. The temple is significant for the Hindus as a pilgrimage site, since pilgrimage to Banaras is incomplete without a pilgrimage to Rameshwaram. The presiding deity here is in the form of a Shiv Ling-one of the twelve Jyotir Lings. Brahma, Vishnu & Maheshwar-three forms of Almighty are here together all the time every place.

रामेश्वरम् :: यह हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ है। यह तमिल नाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है। यह तीर्थ हिन्दुओं के चार धामों में से एक है। इसके अलावा यहां स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है।भारत के उत्तर मे काशी की जो मान्यता है, वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है। रामेश्वरम चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण-पूर्व में है। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार द्वीप है। बहुत पहले यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि के साथ जुड़ा हुआ था, परन्तु बाद में सागर की लहरों ने इस मिलाने वाली कड़ी को काट डाला, जिससे वह चारों ओर पानी से घिरकर टापू बन गया। यहां भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व एक पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था, जिसपर चढ़कर वानर सेना लंका पहुँची व वहां विजय पाई। बाद में राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुष कोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था। आज भी इस 30 मील (48 कि.मी) लंबे आदि-सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं। यहां के मंदिर के तीसरे प्राकार का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा-रास्ता है।
रामेश्वरम पहुंचने वाला पुल :- जिस स्थान पर यह टापु मुख्य भूमि से जुड़ा हुआ था, वहां इस समय ढाई मील चौड़ी एक खाड़ी है। शुरू में इस खाड़ी को नावों से पार किया जाता था। बताया जाता है, कि बहुत पहले धनुष्कोटि से मन्नार द्वीप तक पैदल चलकर भी लोग जाते थे। लेकिन 1480 ई में एक चक्रवाती तूफान ने इसे तोड़ दिया। बाद में आज से लगभग चार सौ वर्ष पहले कृष्णप्पनायकन नाम के एक राजा ने उस पर पत्थर का बहुत बड़ा पुल बनवाया। अंग्रेजो के आने के बाद उस पुल की जगह पर रेल का पुल बनाने का विचार हुआ। उस समय तक पुराना पत्थर का पुल लहरों की टक्कर से हिलकर टूट चुका था। एक जर्मन इंजीनियर की मदद से उस टूटे पुल का रेल का एक सुंदर पुल बनवाया गया। इस समय यही पुल रामेश्वरम् को भारत से रेल सेवा द्वारा जोड़ता है। यह पुल पहले बीच में से जहाजों के निकलने के लिए खुला करता था। इस स्थान पर दक्षिण से उत्तर की और हिंद महासागर का पानी बहता दिखाई देता है। उथले सागर एवं संकरे जलडमरूमध्य के कारण समुद्र में लहरे बहुत कम होती है। शांत बहाव को देखकर यात्रियों को ऐसा लगता है, मानो वह किसी बड़ी नदी को पार कर रहे हों।
रामेश्वरम् से दक्षिण में कन्याकुमारी नामक प्रसिद्ध तीर्थ है। रत्नाकर कहलाने वाली बंगाल की खाडी यहीं पर हिंद महासागर से मिलती है। रामेश्वरम् और सेतु बहुत प्राचीन है। परंतु रामनाथ का मंदिर उतना पुराना नहीं है। दक्षिण के कुछ और मंदिर डेढ़-दो हजार साल पहले के बने है, जबकि रामनाथ के मंदिर को बने अभी कुल आठ सौ वर्ष से भी कम हुए है। इस मंदिर के बहुत से भाग पचास-साठ साल पहले के है।
रामेश्वरम का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है। यह उत्तर-दक्षिणमें 197 मी. एवं पूर्व-पश्चिम 133 मी. है। इसके परकोटे की चौड़ाई 6 मी. तथा ऊंचाई 9 मी. है। मंदिर के प्रवेशद्वार का गोपुरम 38. 4 मी. ऊंचा है। यह मंदिर लगभग 6 हेक्टेयर में बना हुआ है।
मंदिर में विशालाक्षी जी के गर्भ-गृह के निकट ही नौ ज्योतिर्लिंग हैं, जो लंकापति विभीषण द्वारा स्थापित बताए जाते हैं। रामनाथ के मंदिर में जो ताम्रपट है, उनसे पता चलता है कि 1173 ईस्वी में श्रीलंका के राजा पराक्रम बाहु ने मूल लिंग वाले गर्भगृह का निर्माण करवाया था। उस मंदिर में अकेले शिवलिंग की स्थापना की गई थी। देवी की मूर्ति नहीं रखी गई थी, इस कारण वह नि:संगेश्वर का मंदिर कहलाया। यही मूल मंदिर आगे चलकर वर्तमान दशा को पहुंचा है।
बाद में पंद्रहवीं शताब्दी में राजा उडैयान सेतुपति और निकटस्थ नागूर निवासी वैश्य ने 1450 ईस्वीं में इसका 78 फीट ऊंचा गोपुरम निर्माण करवाया था। बाद में मदुरई के एक देवी-भक्त ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। सोलहवीं शताब्दी में दक्षिणी भाग के द्वितीय परकोटे की दीवार का निर्माण तिरुमलय सेतुपति ने करवाया था। इनकी व इनके पुत्र की मूर्ति द्वार पर भी विराजमान है। इसी शताब्दी में मदुरई के राजा विश्वनाथ नायक के एक अधीनस्थ राजा उडैयन सेतुपति कट्टत्तेश्वर ने नंदी मण्डप आदि निर्माण करवाए। नंदी मण्डप 22 फीट लंबा, 12 फीट चौड़ा व 17 फीट ऊंचा है। रामनाथ के मंदिर के साथ सेतुमाधव का मंदिर आज से पांच सौ वर्ष पहले रामनाथपुरम् के राजा उडैयान सेतुपति और एक धनी वैश्य ने मिलकर बनवाया था।
सत्रहवीं शताब्दी में दलवाय सेतुपति ने पूर्वी गोपुरम आरंभ किया। 18 वीं शताब्दी में रविविजय सेतुपति ने देवी-देवताओं के शयन-गृह व एक मंडप बनवाया। बाद में मुत्तु रामलिंग सेतुपति ने बाहरी परकोटे का निर्माण करवाया। 1857–1904 के बीच मध्य देवकोट्टई से एक परिवार ने 126 फीट ऊंचा नौ द्वार सहित पूर्वीगोपुरम निर्माण करवाया। इसी परिवार ने 1907-1925 में गर्भ-गृह की मरम्मत करवाई। बाद में इन्होंने 1947 में महाकुम्भाभिषेक भी करवाया।
रामेश्वरम् का मंदिर भारतीय निर्माण-कला और शिल्पकला का एक सुंदर नमूना है। इसके प्रवेश-द्वार चालीस फीट ऊंचा है। प्राकार में और मंदिर के अंदर सैकड़ौ विशाल खंभें है, जो देखने में एक-जैसे लगते है ; परंतु पास जाकर जरा बारीकी से देखा जाय तो मालूम होगा कि हर खंभे पर बेल-बूटे की अलग-अलग कारीगरी है।
रामनाथ की मूर्ति के चारों और परिक्रमा करने के लिए तीन प्राकार बने हुए है। इनमें तीसरा प्राकार सौ साल पहले पूरा हुआ। इस प्राकार की लंबाई चार सौ फुट से अधिक है। दोनों और पांच फुट ऊंचा और करीब आठ फुट चौड़ा चबूतरा बना हुआ है। चबूतरों के एक ओर पत्थर के बड़े-बड़े खंभो की लम्बी कतारे खड़ी है। प्राकार के एक सिरे पर खडे होकर देखने पर ऐसा लगता है मानों सैकड़ों तोरण-द्वार का स्वागत करने के लिए बनाए गये है। इन खंभों की अद्भुत कारीगरी देखकर विदेशी भी दंग रह जाते है। यहाँ का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है।रामनाथ के मंदिर के चारों और दूर तक कोई पहाड़ नहीं है, जहाँ से पत्थर आसानी से लाये जा सकें। गंधमादन पर्वत तो नाममात्र का है। यह वास्तव में एक टीला है और उसमें से एक विशाल मंदिर के लिए जरूरी पत्थर नहीं निकल सकते। रामेश्वरम् के मंदिर में जो कई लाख टन के पत्थर लगे है, वे सब बहुत दूर-दूर से नावों में लादकर लाये गये है। रामनाथ जी के मंदिर के भीतरी भाग में एक तरह का चिकना काला पत्थर लगा है। कहते है, ये सब पत्थर लंका से लाये गये थे।
रामेश्वरम् के विशाल मंदिर को बनवाने और उसकी रक्षा करने में रामनाथपुरम् नामक छोटी रियासत के राजाओं का बड़ा हाथ रहा। अब तो यह रियासत तमिल नाडु राज्य में मिल गई हैं। रामनाथपुरम् के राजभवन में एक पुराना काला पत्थर रखा हुआ है। कहा जाता है, यह पत्थर राम ने केवटराज को राजतिलक के समय उसके चिह्न के रूप में दिया था। रामेश्वरम् की यात्रा करने वाले लोग इस काले पत्थर को देखने के लिए रामनाथपुरम् जाते है। रामनाथपुरम् रामेश्वरम् से लगभग तैंतीस मील दूर है।
भगवान् ने पहले सागर से प्रार्थना की, कार्य सिद्ध ना होने पर धनुष चढ़ाया, तो सागर प्रकट हुए। माता सीता को छुड़ाने के लिए भगवान् श्री राम ने लंका पर चढ़ाई की थी। इस युद्ध में रावण और उसके सब साथी राक्षस मारे गये। रावण भी मारा गया; और अन्ततः माता सीता को मुक्त कराकर भगवान् श्री राम वापस लौटे। रावण पुलस्त्य महर्षि का नाती था। चारों वेदों का जानने वाला प्रकाण्ड पण्डित और दसों दिशाओं का ज्ञाता और भगवान् शिव का परम भक्त। इस कारण भगवान् श्री राम को उसे मारने के बाद बड़ा खेद हुआ। ब्रह्मा-हत्या का पाप उन्हें लग गया। इस पाप को धोने के लिए उन्होने रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना करने का निश्चय किया। यह निश्चय करने के बाद उन्होंने हनुमान को आज्ञा दी कि काशी जाकर वहाँ से एक शिवलिंग ले आऐं। हनुमान पवन-सुत थे। बड़े वेग से आकाश मार्ग से चल पड़े। लेकिन शिवलिंग की स्थापना की नियत घड़ी पास आ गई। हनुमान का कहीं पता न था। जब सीता जी ने देखा कि हनुमान के लौटने मे देर हो रही है, तो उन्होने समुद्र के किनारे के रेत को मुट्ठी में बांधकर एक शिवलिंग बना दिया। यह देखकर राम बहुत प्रसन्न हुए और नियम समय पर इसी शिवलिंग की स्थापना कर दी। छोटे आकार का सही शिवलिंग रामनाथ कहलाता है। हनुमान जी के आने पर पहले छोटे प्रतिष्ठित छोटे शिवलिंग के पास ही राम ने काले पत्थर के उस बड़े शिवलिंग को स्थापित कर दिया। ये दोनों शिवलिंग इस तीर्थ के मुख्य मंदिर में आज भी पूजित हैं। यही मुख्य शिवलिंग ज्योतिर्लिंग है
पूरे भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के कई देशों में हर साल दशहरे पर और राम के जीवन पर आधारित सभी तरह के नृत्य-नाटकों में सेतु बंधन का वर्णान किया जाता है। राम के बनाए इस पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी श्री राम के नल सेतु का जिक्र आया है। कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। अनेक पुराणों में भी श्रीरामसेतु का विवरण आता है। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में इसे एडम्स ब्रिज के साथ-साथ राम सेतु कहा गया है।नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है। इसी पुल को बाद में एडम्स ब्रिज का नाम मिला। यह सेतु तब पांच दिनों में ही बन गया था। इसकी लंबाई 100 योजन व चौड़ाई 10 योजन थी। इसे बनाने में उच्च तकनीक का प्रयोग किया गया था
रामेश्वरम् शहर और रामनाथजी का प्रसिद्ध मंदिर इस टापू के उत्तर के छोर पर है। टापू के दक्षिणी कोने में धनुषकोटि नामक तीर्थ है, जहां हिंद महासागर से बंगाल की खाड़ी मिलती है। इसी स्थान को सेतुबंध कहते है। लोगों का विश्वास है कि श्रीराम ने लंका पर चढाई करने के लिए समुद्र पर जो सेतु बांधा था, वह इसी स्थान से आरंभ हुआ। इस कारण धनुष-कोटि का धार्मिक महत्व बहुत है। यही से कोलम्बो को जहाज जाते थे। अब यह स्थान चक्रवाती तूफान में बहकर समाप्त हो गया है।
रामेश्वरम् शहर से करीब डेढ़ मील उत्तर-पूर्व में गंधमादन पर्वत नाम की एक छोटी-सी पहाड़ी है। हनुमानजी ने इसी पर्वत से समुद्र को लांघने के लिए छलांग मारी थी। बाद में राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए यहीं पर विशाल सेना संगठित की थी। इस पर्वत पर एक सुंदर मंदिर बना हुआ है, जहां श्रीराम के चरण-चिन्हों की पूजा की जाती है। इसे पादुका मंदिर कहते हैं।
रामेश्वरम् की यात्रा करनेवालों को हर जगह राम-कहानी की गूंज सुनाई देती है। रामेश्वरम् के विशाल टापू का चप्पा-चप्पा भूमि राम की कहानी से जुड़ी हुई है। किसी जगह पर राम ने सीता जी की प्यास बुझाने के लिए धनुष की नोंक से कुआं खोदा था, तो कहीं पर उन्होनें सेनानायकों से सलाह की थी। कहीं पर सीताजी ने अग्नि-प्रवेश किया था तो किसी अन्य स्थान पर श्रीराम ने जटाओं से मुक्ति पायी थी। ऐसी सैकड़ों कहानियां प्रचलित है। यहां राम-सेतु के निर्माण में लगे ऐसे पत्थर भी मिलते हैं, जो पानी पर तैरते हैं। मान्यता अनुसार नल-नील नामक दो वानरों ने उनको मिले वरदान के कारण जिस पाषाण शिला को छूआ, वो पानी पर तैरने लगी और सेतु के काम आयी।रामेश्वर के मंदिर में जिस प्रकार शिवजी की दो मूर्तियां है, उसी प्रकार देवी पार्वती की भी मूर्तियां अलग-अलग स्थापित की गई है। देवी की एक मूर्ति पर्वतवर्द्धिनी कहलाती है, दूसरी विशालाक्षी। मंदिर के पूर्व द्वार के बाहर हनुमान की एक विशाल मूर्ति अलग मंदिर में स्थापित है। रामेश्वरम् का मंदिर है तो शिवजी का, परन्तु उसके अंदर कई अन्य मंदिर भी है। सेतु माधव का कहलानेवाले भगवान विष्णु का मंदिर इनमें प्रमुख है। रामनाथ के मंदिर के अंदर और परिसर में अनेक पवित्र तीर्थ है। इनमें प्रधान तीर्थो (जल कुण्ड) की संख्यां चौबीस थी, किंतु दो कुंड सूख गए हैं और अब बाइस शेष हैं। ये वास्तव में मीठे जल के अलग-अलग कुंए है। ‘कोटि तीर्थ’ जैसे एक दो तालाब भी है। इन तीर्थो में स्नान करना बड़ा फलदायक पाप-निवारक समझा जाता है। इन तीर्थो में अलग-अलग धातुओं के स्वास्थ्यवर्धक रसायन मौजूद हैं जिससे उनमें नहाने से शरीर के रोग दूर हो जाते है और नई ताकत आ जाती है। बाईसवें कुण्ड में पहले 21 कुण्डों का मिला-जुला जल आता है। रामेश्वरम् से करीब तीन मील पूर्व में एक गांव है, जिसका नाम तंगचिमडम है। यह गांव रेल मार्ग के किनारे ही बसा है। वहाँ स्टेशन के पास समुद्र में एक तीर्थकुंड है, जो विल्लूरणि तीर्थ कहलाता है। समुद्र के खारे पानी बीच में से मीठा जल निकलता है।एक बार माता सीता को बड़ी प्यास लगी। पास में समुद्र को छोड़कर और कहीं पानी न था, इसलिए भगवान् राम ने अपने धनुष की नोक से यह कुंड खोदा था।
तंगचिडम स्टेशन के पास एक जीर्ण मंदिर है। उसे ‘एकांत’ राम का मंदिर कहते है। इस मंदिर के अब जीर्ण-शीर्ण अवशेष ही बाकी हैं। रामनवमी के पर्व पर यहां कुछ रौनक रहती है। बाकी दिनों में बिलकुल सूना रहता है। मंदिर के अंदर श्रीराम, लक्ष्मण, हनुमान और सीता की बहुत ही सुंदर मूर्तिया है। धुर्नधारी राम की एक मूर्ति ऐसी बनाई गई है, मानो वह हाथ मिलाते हुए कोई गंभीर बात कर रहे हो। दूसरी मूर्ति में राम सीताजी की ओर देखकर मंद मुस्कान के साथ कुछ कह रहे है। ये दोनों मूर्तियां बड़ी मनोरम है। यहां सागर में लहरें बिल्कुल नहीं आतीं, इसलिए एकदम शांत रहता है। शायद इसीलिए इस स्थान का नाम एकांत राम है।रामेश्वरम् के टापू के दक्षिण भाग में, समुद्र के किनारे, एक और दर्शनीय मंदिर है। यह मंदिर रमानाथ मंदिर पांच मील दूर पर बना है। यह कोदंड ‘स्वामी को मंदिर’ कहलाता है। कहा जाता है कि विभीषण ने यहीं पर राम की शरण ली थी। रावण-वध के बाद राम ने इसी स्थान पर विभीषण का राजतिलक कराया था। इस मंदिर में राम, सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां देखने योग्य है। विभीषण की भी मूर्ति अलग स्थापित है। रामेश्वरम् को घेरे हुए समुद्र में भी कई विशेष स्थान ऐसे बताये जाते है, जहां स्नान करना पाप-मोचक माना जाता है। रामनाथजी के मंदिर के पूर्वी द्वार के सामने बना हुआ सीताकुंड इनमें मुख्य है। कहा जाता है कि यही वह स्थान है, जहां सीताजी ने अपना सतीत्व सिद्व करने के लिए आग में प्रवेश किया था। सीताजी के ऐसा करते ही आग बुझ गई और अग्नि-कुंड से जल उमड़ आया। वही स्थान अब ‘सीताकुंड’ कहलाता है। यहां पर समुद्र का किनारा आधा गोलाकार है। सागर एकदम शांत है। उसमें लहरें बहुत कम उठती है। इस कारण देखने में वह एक तालाब-सा लगता है। यहां पर बिना किसी खतरें के स्नान किया जा सकता है। यहीं हनुमान कुंड में तैरते हुए पत्थर भी दिखाई देते हैं।रामेश्वरम् से सात मील दक्षिण में एक स्थान है, जिसे ‘दर्भशयनम्’ कहते है; यहीं पर राम ने पहले समुद्र में सेतु बांधना शुरू किया था। इस कारण यह स्थान आदि सेतु भी कहलाता है। रामेश्वरम् के समुद्र में तरह-तरह की कोड़ियां, शंख और सीपें मिलती है। कहीं-कहीं सफेद रंग का बड़ियास मूंगा भी मिलता है। रामेश्वरम् केवल धार्मिक महत्व का तीर्थ ही नहीं, प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से भी दर्शनीय है। मद्रास से रेल-गाड़ी यात्रियों को करीब बाईस घंटे में रामेश्वरम् पहुंचा देती है। रास्ते में पामबन स्टेशन पर गाड़ी बदलनी पड़ती है।

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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)