श्रीरंगजी के मंदिर के करीब श्री गोविंद देव जी का प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर संत व्रज नाभ द्वारा स्थापित है। यवन उपद्रव के समय यह मूर्ति यहाँ के शासकों द्वारा जयपुर भेजी गई थी और आज भी वहाँ के राजमहल में विराजमान है।
गोविन्द देव जी का मंदिर वृंदावन में स्थित वैष्णव संप्रदाय का मंदिर है। इसका निर्माण 1.590 ई. (तद. 1647 वि.सं.) में हुआ था। इस मंदिर के शिला लेख से यह जानकारी पूरी तरह सुनिश्चित हो जाती है कि इस भव्य देवालय को आमेर-जयपुर के राजा भगवान दास के पुत्र राजा मानसिंह ने बनवाया था। रूप गोस्वामी एवं सनातन गोस्वामी नामक दो वैष्णव संतों की देखरेख में मंदिर के निर्माण होने का उल्लेख भी मिलता है।

मंदिर का निर्माण पूरा होने में लगभग 10 वर्ष लगे और लगभग एक करोड़ रुपया ख़र्चा आया। अकबर ने भी मन्दिर निर्माण के लिए कुछ लाल पत्थर दिया। मन्दिर की निर्माण शैली पर हिन्दु (उत्तर-दक्षिण भारत), जयपुरी, मुग़ल, यूनानी और गोथिक का प्रभाव दिखाई देता है। इसका माप :- 105 x 117 फुट (200 x 120 फुट बाहर से) व ऊँचाई :- 110 फुट (पहले सात मंज़िल थीं)। 1,873 में इसका जीर्णोद्धार कराया गया था।
प्रासाद (गर्भगृह) के आगे बूढ़ मंडप, उसके आगे छ: चौकी, छ: चौकी के आगे रंग मंडप, रंग मंडप के आगे तोरणयुक्त मंडप मौजूद था। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता इसके मंडप में ही है। इसके खंड आपस में इस सुघड़ता के साथ गुंथे हुए हैं कि उनसे मंदिर के मुख्य जगमोहन की शोभा द्विगुणित हो जाती है। इसका व्यास 40 फुट है और लम्बाई चौड़ाई नियमानुसार है। इसकी छत चार कमानी दार आरों (शहतीर नुमा पत्थरों) से बनाई गयी है।
गोविंददेव, गोपीनाथ, जुगल किशोर और मदनमोहन जी के नाम से बनाये गये चार मन्दिरों की शृंखला है। ये मन्दिर नितान्त उपेक्षित और भग्नावस्था में विद्यमान हैं। गोविंददेव का मन्दिर इनमें से सर्वोत्तम तो था ही, सनातन-हिन्दु शिल्पकला का उत्तरी भारत में यह अकेला ही आदर्श था। बीच में भव्य गुम्बद है। चारों भुजायें नुकीलें महराबों से ढ़की हैं। दीवारों की औसत मोटाई दस फीट है।
मूलभूत योजनानुसार पाँच मीनारें बनवाई गयीं थीं, एक केन्द्रीय गुम्बद पर और चार अन्य गर्भगृह आदि, पर गर्भगृह पूरा गिरा दिया गया है। दूसरी मीनार कभी पूरी बन ही नहीं पायी। नाभि के पश्चिम की एक ताख के नीचे एक पत्थर लगा हुआ है जिस पर संस्कृत में लम्बी इबारत लिखी हुई है। इसका लेख बहुत बिगड़ा हुआ है। फिर भी इसका निर्माण संवत् 1,647 वि० पढ़ा जा सकता है और यह भी कि रूप और सनातन के निर्देशन में बना था। राजा पृथिवी सिंह जयपुर के महाराजा के पूर्वज थे। उसके सत्रह बेटे थे। उनमें से बारह को जागीरें दी गयीं थी। यह अम्बेर (आमेर-जयपुर) की बारह कोठरी कहलाती हैं। मन्दिर का संस्थापक राजा मानसिंह राव पृथ्वी सिंह का पौत्र था।
मूल मन्दिर 7 मंजला था। सातवीं मंजिल पर एक बड़ा सा दीपक जलता था जिसमे प्रतिदिन लगभग 50 किलो देशी घी से प्रयुक्त होता था। इसकी लौ आगरा से दिखाई पड़ती थी।औरंगजेब की नजर इस पर पड़ गई तो उसने इसके बारे में पता किया और इसको तुड़वाने का आदेश दे दिया।
भगवान् श्री कृष्ण ने सपने में पुजारी से कहा कि कल औरंगजेब यह मन्दिर तुड़वायेगा। इसके पहले ही तुम मेरे मूर्ति कहीं और स्थापित करा दो। इसके बाद वो मूर्ति राजस्थान के जयपुर जिले में दूसरी मंदिर में स्थापित करा दी गई, जो आज गोविंद वल्लभ मंदिर के नाम से मशहूर है।


The central part of the temple is surmounted by a dome of exceptionally elegant magnitudes with the four arms forming a cross like structure.


The shrine is entered through an eastern gateway and is nearly 80 meters in length, making it the largest temple constructed in north India since the 13th century. Another striking feature of the temple is the use of the Khurasanian vault design often used in Mughal buildings.
During the course of time the deities were lost due to climatic changes and wear & tear. It’s believed that once when Rup Goswami was tired of searching for Yog Pith (actual place where statue of Govind Ji was hidden), he sat down under a tree, resting and chanting the Bhajans of Bhagwan Shri Krashn near the bank of river Yamuna. Suddenly, he was approached by a small cowherd boy who told him that he had seen a cow who goes up a nearby hill everyday and pour its milk into a hole. There is some mystery behind that which Rup Goswami must see. Rup Goswami visited the place as described by cowherd boy and started digging the hole. There, he found the beautiful idol of Govind Ji in his threefold bent form. He being incapable of building a temple for Govind Ji, approached & requested Raja Man Singh of Jaipur to build the temple. Influenced by Rup Goswami, Raja Man Singh, who was the follower of Raghu Nath Bhatt built this magnificent temple dedicated to Bhagwan Shri Krashn in Samvat 1,647 i.e. A.D. 1,590. The altar of the temple was made from marble decorated with gold and silver. On the west end of the main temple is an inscription that is too much disfigured, but it reveals the fact that the temple was built in Samvat 1,647, i.e. 1,590 A.D. under the direction of Rup and Snatan Goswami by Raja Man Singh the son of Maharaj Bhagwan Das. Akbar had gifted some of the red sandstone which was brought for Red fort, to his then general & brother in Law, Raja Man Singh of Jaipur for completing this magnificent temple. During the tyrant attack of Aurangzeb on Vrandavan the temple was damaged removing upper 3 stories. In prior anticipation of this invasion, the temple idols were transferred to Jaipur secretly and since then the original idol of Bhagwan Govind Ji is worshipped there in Jaipur. During the British rule from 1,873-77 the main structure of the temple was repaired again and a new temple was built behind this temple where the Pratibhu Vigrah (replica) of Govind Dev is worshipped along with Radha Ji. This was the first statue of Radha Ji to be installed anywhere. It was sent by Purusottam, the son of king Pratap Rudr from Jagan Nath Puri to be installed by the side of Govind Ji. In the southern part of the temple there is a cave, where Rup Goswami used to meditate and the idol of Govind Ji was found. The statue of eight armed Devi Yog Maya sitting on a lion, is also present here. Earlier the idol of Vranda Devi was also installed in this temple which was later on moved to Kamyavan for safekeeping during Mughal attack.
गरुड़ गोविन्द स्तोत्र ::
बहुलाश्वः परिपपच्छः सर्व शास्त्र विशारदम॥1॥
श्रीमद गरुड़ गोविन्द स्तोत्रं कथयामे प्रभो।
एतब्दी ज्ञान मात्रेण भुक्ति मुक्ति प्रजायते॥2॥
गर्गोवाच :-
श्रणु राजन प्रवक्ष्यामि गुह्यादी गुह्यतरं परम।
एतब्दी ज्ञान मात्रेण सर्व सिद्धि प्रजायते॥3॥
गोविन्दो गरुदोपेतो गोपालो गोप बल्लभ।
गरुड़गामी गजोद्धारी गरुड़वाहन ते नमः॥4॥
गोविन्दः गरुडारूद गरुड़ प्रियते नमः।
|गरुड़ त्रान कारिस्ते गरुड़ स्थितः ते नमः॥5॥
गरुड़ आर्त हरः स्वामी ब्रजबाला प्रपूजकः।
विहंगम सखा श्रीमान गोविन्दो जन रक्षकः॥6॥
गरुड़ स्कंध समारुड भक्तवत्सल! ते नमः।
लक्ष्मी गरुड़ सम्पन्नः श्यामसुन्दर ते नमः॥7॥
द्वादशभुजधारी च द्वादश अरण्य नृत्य कृत।
रामावतार त्रेतायां द्वापरे कृष्ण रूप ध्रक॥8॥
शंख चक्र गदा धारी पद्म धारी जगत्पति।
क्षीराब्धि तनया स्नेह पूर्णपात्र रस व्रती॥9॥
पक्शिनाम लाल्पमानाय स व्यपाणीतले नहि।
पुनः सुस्मित वक्राय नित्यमेव नमो नमः॥10॥
ब्रजांगना रासरतो ब्रजबाला जन प्रियः।
गोविन्दो गरुडानंदो गोपिका प्रणपालकः॥11॥
गोविन्दो गोपिकानाथो गोचारण तत्परः।
गोविन्दो गोकुलानान्दो गोवर्धन प्रपूजकः॥12॥
श्रीमद गरुड़ गोविन्दः संसार भय नाशनः।
धर्मार्थ काम मोक्षानाम खल्विदं साधनं महत॥13॥
ध्यानं गरुड़ गोविन्दस्य सदा सुखदम न्रनाम।
रोग क्लेशादीहारिः श्री धनधान्य प्रपद्यकः॥14॥
श्रीमद गरुड़गोविन्द स्मार्कानामयम स्तवः।
पुत्र पौत्र कलत्रानाम धन धान्य यशस्कर॥15॥
गोविन्द! गोविन्द! विहंगयुक्त! नमोस्तुते द्वादश बाहू युक्त।
गोविप्र रक्षार्थ अवतार धारम,लक्ष्मीपते नित्यमथो नमस्ते॥16॥
वृन्दावन विहारी च रासलीला मधुव्रतः।
राधा विनोद कारिस्ते राधाराधित ते नमः॥17॥
गोलोक धाम वास्तको वृषभानु सुता प्रियः।
विहंगोपेंद्र नामे दंता पत्रे विनाशनम॥18॥
गरुड़ अभिमान हर्ता च गरुड़ आसन संस्थितः।
वेणु वाद्यमहोल्लास वेणुवाहन तत्परः॥19॥
भक्त्स्यानंदकारी स्वभक्त प्रियते नमः।
माधव गरुड़ गोविन्द करूणासिन्धवे नमः॥1॥
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु द्वादशाक्षर मंत्रकम।
अथवा गरुड़ गायत्री धयात्वा सम्पुटमेव हि॥20॥
श्रीमद गरुड़ गोविन्द नाम मात्रेण केवलं।
अपस्मार विष व्यालं शत्रु बाधा प्रनश्यती॥21॥
अधुना गरुड़ गोविन्द गायत्री कथयाम्यहम :-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्पुरुषाय विद्महे गरुड़ गोविन्दाय
धीमहि तन्नो गोविन्द प्रचोदयात॥22॥
गरुड़ गायत्री ::
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्पुरुषाय विद्महे स्वर्ण पक्षाय धीमहि तन्नो गरुड़ प्रचोदयात॥23॥
द्वादशाक्षर मंत्र ::
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
इति श्रीमद गरुड़ गोविन्द स्तोत्र।
मेरे लड़के को जब भी मौंका मिलता है, वह बाँके बिहारी जी के वृन्दावन स्थित मन्दिर में दर्शन के लिये जाता है। इस बार भी हम 10.11.2019 को वहाँ गये; मगर गली में भारी भीड़ को देखकर, उसने इरादा बदल दिया और हम वापस घर चलने लगे। गाड़ी के सामने जाने पर हमारी निगाह रंगजी मन्दिर पर पड़ी और हम वहाँ पहुँच गये। मन्दिर वाकई बेहद सुन्दर बना है। खम्बों पर भगवान् की लीलाओं का अति सुन्दर चित्रण है। तालाब भी बेहद खूबसूरत और आकृषक है। सोने का खम्बा लुभावना है। दीवारों पर बेहद खूबसूरत चित्रकारी है। आरती का समय 11 बजे है; अतः हमें दर्शन का लाभ भी प्राप्त हो गया। मन्दिर के शिखर अति सुन्दर और दर्शनीय हैं। मगर मन्दिर के देखभाल भारत के अन्य मन्दिरों के समान ही है। आगे बढ़ने पर गोविन्द जी के इस मन्दिर को देखा।

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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)