Thursday, June 9, 2016

SHRIMAD BHAGWAD GEETA (14) श्रीमद्भगवद्गीता :: गुणत्रय विभाग योग

गुणत्रय विभाग योग
SHRIMAD BHAGWAD GEETA (14) श्रीमद्भगवद्गीता 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
श्रीभगवानुवाच ::
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्। 
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः॥14.1॥ 
Image result for bhagwan shri krishna & arjun in battlefieldसम्पूर्ण ज्ञानों में उत्तम और श्रेष्ठ ज्ञान को मैं फिर से कहूँगा, जिसको जानकर सब के सब मुनि जन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं। 
The Almighty assured Arjun that HE would discuss the Ultimate knowledge-enlightenment which led to the release of sages attaining the Ultimate accomplishment.
भगवान् श्री कृष्ण ने पिछले अध्याय में जिस ज्ञान-विवेक की बात कही थी, उसे वे इस अध्याय में वर्णन करने जा रहे हैं। लौकिक-पारलौकिक (अलौकिक), विद्या, कला, भाषा, इत्यादि की अपेक्षा प्रकृति-पुरुष का भेद समझकर परमात्मा प्राप्ति करने वाला ज्ञान सर्वोत्कृष्ट है। यह वो ज्ञान है, जिसको पाकर, तत्व का मनन करने वाले, शरीर को अपना न मानकर बड़े-बड़े मुनिजन मुक्त हो गये। उनके संसार के सब बन्धन कट गये। मोह, परवशता से छूट गये और उन्हें परमात्मा की प्राप्ति हो गई। परमात्म प्राप्ति की जो सिद्धि है, वो सर्वोत्कृष्ट है, क्योंकि इसे पाकर पुनर्जन्म नहीं होता।
Bhagwan Shri Krashn mentioned the enlightenment & prudence, which leads to release from reincarnations in the previous chapter. HE is elaborating it here. The knowledge which pertains to the world and beyond, education, arts, languages, sciences etc. are all inferior to it. The knowledge which explains the distinction between the Purush-Almighty & Prakrati-Mother nature is Ultimate knowledge. Those who attained it, were released-relinquished by cutting all bonds-ties, allurements, desires and dependence over any other person or faculty. Assimilation in the God, emancipation, Liberation is Ultimate success-attainment; since, having achieved this the soul never get rebirth or death again.
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥14.2॥
इस ज्ञान का आश्रय लेकर जो मनुष्य मेरी सधर्मता को प्राप्त हो गये हैं, वे महासर्ग में भी पैदा नहीं होते और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होते। 
Those who have taken refuge under enlightenment-transcendental knowledge (described by the Almighty, Bhagwan Shri Krashn) have attained association with the God and are neither born at the time of creation, nor afflicted at the time of dissolution.
AFFLICTED :: Stressed by some problem or illness, cause pain or trouble; affected adversely, troubled, bothered, burdened, distress, cause trouble to, cause suffering to, beset, harass, worry, oppress, annoy, vex, irritate, exasperate, strain, stress, tax.
सभी ज्ञानों से ऊपर परमात्मा और प्रकृति के भेद के जिस ज्ञान की महिमा का बखान परमात्मा ने किया है, उसको अनुभव करना ही उसका आश्रय लेना है। यह मनुष्य के सभी संशय मिटा देता है और वह ज्ञान स्वरूप हो जाता है। परमात्मा की सधर्मता का अर्थ है, कर्म और भोग की प्रवृत्ति का न होना। सदा निर्विकार और निर्लिप्त रहना। इस प्रकार के लोग महासर्ग में भी जन्म नहीं लेते। जो जन्म ही नहीं ले रहा, वो मरेगा भी नहीं। उसे महाप्रलय में संवर्तक अग्नि का सामना नहीं करना होगा, जिसमें पृथ्वी पर सभी प्राणी भस्म हो जाते हैं। पृथ्वी पानी-समुद्र में डूब जाती है। चौदह लोकों में हाहाकार मच जाता है और सभी प्राणी नष्ट हो जाते हैं। 
The Almighty explained the distinction between HIM and the nature-creations. This is deemed to be Ultimate knowledge. It results in removal of all doubts, confusions, distractions. Understanding it, following it with firm determination-resolve, leads one to association with the God. This is the state from which one will never fall. He becomes identical to the God and never takes reincarnations. He will never face the agony of death. One who has risen above deeds and consumption, comforts, rewards, outputs; who has become defectless (untainted, unsmeared, detached, relinquished), is not subjected to rebirth during next any-next cosmic era, even at the time of the evolution of Brahma Ji. He will not be subjected to the fire engulfing the entire earth, when the earth is burnt by the 12 Suns, leading to burning to all living beings and the drowning of the earth in water. None of the 14 abodes (heavens & the nether world) survives. All creatures-organisms perish.
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥14.3॥
हे भरत वंशोद्भव अर्जुन! मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्ति-स्थान है और मैं उसमें जीवरूप गर्भ का स्थापन करता हूँ। उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है। 
The Almighty called Arjun, the one who was promoting the glory to the Bhrat dynasty. HE said that HIS major creation was the nature, which acted like the womb from which  the organisms originated.
परमात्मा सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान से महान भी है। महतत्त्व (Mahatatv-significance, importance, Ultimate) अर्थात समष्टि बुद्धि और ब्रह्म अर्थात परमात्मा के बीच प्रकृति ही है। ब्रह्मा जी का प्रकट होना महासर्ग और 
लीन होना महाप्रलय है। जीवन्मुक्त का प्रकृति से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। संसार में सबसे बड़ी और व्यापक चीज मूल प्रकृति को योनि अर्थात अनन्त ब्रह्माण्डों का उद्गम माना गया है। प्रकृति के स्वामी भी परमात्मा हैं। परमात्मा कोई नया गर्भ स्थापना नहीं करते। आदि काल से ही जो जीव कर्म-संस्कारों से जकड़ा हुआ है, वही जन्म-मरण के चक्र में पड़ता रहता है। प्राणी जीव परमात्मा का अंश है, अतः उसकी सहधर्मिता परमात्मा के साथ है, मगर शरीर प्रकति का अंश है, अतः नश्वर है। जीव मुक्त होगा तो प्रकृति से सम्बन्ध भी नष्ट हो जायेगा। 
The Almighty is both minutest (micro) and the largest (macro), Ultimate, Eternal. It is the nature which exists between the Brahm-Creator and the Almighty. Appearance of Brahma Ji is evolution and disappearance is desolation-annihilation. Relinquished leaves no relation with the nature. The widest creation of the God is nature. The God has planted infinite wombs in it, leading to infinite universes. The plantation of wombs is not a new phenomenon, since the organism is vibrating-fluctuating between birth and rebirth, due to his desires-deeds and virtues-sins associated with the soul in previous births. The organism (soul) is a component of the God while his body-incarnation is a component of the nature. The soul remains, but the body perishes. Detachment-relinquishment of the organism will cease his relation with nature for ever.
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥14.4॥
हे कुंती नन्दन! सम्पूर्ण योनियों में प्राणियों के जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं बीज स्थापन करने वाला पिता हूँ। 
The God called Arjun Kunti Nandan-the son of Kunti! The way Kunti was his mother, the nature is the mother of all organisms and the Almighty is the father of all species, since HE is the one WHO sows the seeds of all life forms.
ब्रह्मा रचित सृष्टि में, देवी-देवता, यक्ष, राक्षस, दानव, गन्दर्भ, अप्सरा, भूत-प्रेत, पिशाच, पितर, ब्रह्म राक्षस, बालग्रह, स्थावर-जङ्गम, जलचर, नभचर, थलचर, जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज, स्वेदज, मनुष्य सहित पृथ्वी सहित ब्रह्माण्ड में 84,00,000 प्रजातियाँ जन्म लेती हैं। कोई भी एक प्राणी-प्रजाति दूसरे प्राणी से पूरी तरह समान नहीं है। ये सब प्रकृति से उत्पन्न होते हैं, जिसमें बीज-गर्भ की स्थापना स्वयं परमात्मा करते हैं। प्रकृति परमात्मा का ही एक अंग है। प्रकृति शरीर है, तो परमात्मा आत्मा हैं। प्रकृति माता है और परमात्मा पिता। 
All species-life forms in the 14 abodes are created by the Almighty. The nature is an inseparable component of the Almighty. All universes constitutes the nature. 84,00,000 life forms are there and none of the two organisms in any of the species resemble with another one. The Almighty has created the nature and sows the seeds in it, to grow numerous life forms. Body of the various life forms constitute the nature, while the soul-spirit constitutes the God. The nature is the mother and the God is the father. It should be endeavour of the human being to assimilate in the God from whom he has evolved.
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्॥14.5॥
हे महाबाहो! प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सत्व, रज और तम, ये तीनों गुण अविनाशी देही (जीवात्मा) को बाँध देते हैं।
The Almighty addressed Arjun as mighty and said that the three basic tributes (qualities, characterises) :- Satv-goodness (Purity, virtuousness, enlightenment), Raj-Action (Desires, action and passion) and Tam-Ignorance, (Ignorance-darkness, laziness and inertia); ties the imperishable self-soul, the eternal. 
सत्व, रज और तम आदि तीनों गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। इन तीनों गुणों के संयोग से अनन्त ब्रह्माण्ड और सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं। ये तीनों गुण अविनाशी देही-शरीरी आत्मा को देह-शरीर में बाँध देते हैं। शरीर को अपना समझना, मेरा, मैं, मेरे लिये ही प्राणी को जन्म-मरण के बन्धनों में जकड़ देते हैं। देह में तादात्म्य, ममता और कामना होने पर ही तीनों आत्मा-पुरुष को शरीर-प्रकृति में बाँधते हैं। 
The eternal soul is free from characteristics. The tree basic characteristics Satv (Goodness, Virtues), Raj (Actions, deeds, desires), Tam (Ignorance), inertia bounds-ties the soul with the body-nature and obstruct in its release-relinquishment. The infinite permutations & combinations results in the formation of galaxies, universes and their inhabitants. The soul is imperishable and free from any characteristics-qualities. But, its association with the tributes ties it with nature. I, my, me, mine, ego, pride, sticks it with the nature. Belongingness, affection, attachment with the body restricts the soul to body.
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ॥14.6॥
हे पाप रहित अर्जुन! उस गुणों में सत्त्व गुण निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है। वह सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से देही को बाँधता है। 
Bhagwan Shri Krashn called Arjun Sinless-free from sins! HE said that amongest the three characteristics the Satv Gun was free from vices-impurities, guiding-illuminating and defectless. The Satv Gun binds the soul with fetters (बेड़ी, जंजीर, shackle) of desire for comfort and enlightenment.
सत्त्व, रज और तम गुणों में सत्त्व गुण मल रहित है और परमात्म तत्व का ज्ञान कराने में सहायक है। यह प्रकाशक-मार्ग दर्शक है। प्रकृति का गुण होने से इसमें शुद्धता के साथ-साथ मलिन सत्त्व भी है, जिसका उद्देश्य सांसारिक भोग संग्रह है। शुद्ध तत्व परमात्मा की ओर ले जाता है। भोग और सग्रह मनुष्य को अहंकार, मान-बड़ाई, धन-सम्पत्ति आदि के द्वारा संसार से बाँध देते हैं। फिर भी क्योंकि यह परमात्म तत्व में सहायक है, इसलिए भगवान् ने इसे विकार रहित कहा है। अन्तःकरण में सात्विक वृत्ति से सुख और शान्ति मिलती है, जिसमें सुख और शान्ति के प्रति आसक्ति को, बाँधने वाला कहा गया है। सत्त्व गुण की अधिकता होने पर मनुष्य को सत्त्व, रज और तम की वृत्तियों, विकारों का स्पष्ट ज्ञान होने लगता है और साधक को ऐसी आश्चर्य जनक जानकारियाँ प्राप्त होने लगती हैं, जिनका ज्ञान या आभास उसे पहले नहीं था। तब उसे लगता है कि यह ज्ञान कायम रहे। ज्ञान के प्रति यह आसक्ति भी बाँधने वाली है। सुख-भोग और ज्ञान के प्रति यह आसक्ति रजोगुण है और बाँधने वाली है। अतः साधक का लक्ष्य सुख-भोग और ज्ञान नहीं है, अपितु ये केवल परमात्मा की प्राप्ति में सहायक हो सकते हैं। समयानुसार सतोगुणी को स्वयं ही सुख-भोग और ज्ञान के प्रति अरुचि होने लगती है और वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। 
Out of the 3 characteristics Satv, Raj and Tam, only the Satv is free form impurities-contamination. It helps in attaining the God. Being a component of nature, it is associated with some defects which lures one to comforts and enjoyment, which are binding. The Almighty labelled it defect free, since it guides-channelize one to HIM. Satv creates peace, tranquillity, solace and pleasure in the devotee, which is binding. Excess of Satv makes one visualise certain events, which otherwise he could never perceives. This ability enlightening him, too is binding since, he start looking for more & more such encounters. Instead of being habitual of comforts, pleasure and enlightenment, he should use them as the vehicle to Liberation. Gradually through practice, he dumps them as well and concentrate only over the God and achieves Salvation.
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्॥14.7॥
हे कुन्ती नन्दन! तृष्णा (अभिलाषा, उमंग, हवस, लालसा, कामना, आकांक्षा (Thirst, desire, craving, longing, greed) और आसक्ति को पैदा करने वाले रजोगुण को तुम राग स्वरूप समझो। वह कर्मों की आसक्ति से देही-जीवात्मा को बाँधता है। 
Bhagwan Shri Krashn addressed Arjun as Kunti Nandan and said that the Rajo Gun (mode of passion) is characterised by intense craving for sense gratification and is the source of material desire and attachments. It binds the living entity through attachments to the fruits-rewards of work-endeavour. 
रजोगुण व्यक्ति में वस्तु, स्थान, परिस्थिति, घटना, क्रिया आदि के प्रति तृष्णा, राग, आसक्ति उत्पन्न करता है। सत्त्व गुण गुणातीत होते हुए भी, सुख और ज्ञान के प्रति आसक्ति उत्पन्न करता है। आसक्ति बन्धनकारी है, सत्त्व गुण नहीं। अतः राग, संकल्प, कर्म ही रजोगुण के प्रमुख स्वरूप हैं। यह रजोगुण कर्मों के प्रति आसक्ति से देह से सम्बन्ध मानने वाले देही को बाँधता है। अतः मनुष्य को कर्तव्य कर्म निष्काम भाव से संग्रह, सुख भोग की आकांक्षा को त्याग कर, करने चाहिये।  
Rajo Gun creates attachment, lust, bonds with something, person, place, situation, event or the deed. Though, the Satv Gun is free from characteristics, yet it may generate allurements for comforts and enlightenment. In fact the Satv Gun does not create bonds but the desire, longing, greed creates ties. Attachments, allurements, ambitions and deeds are the true forms of Rajo Gun. Rajo Gun ties the soul with the body. Therefore, one should discharge his Varnashram duties without the desire for return, rewards, recognition and should abstain from accumulation and comforts. 
If one is employed, he should get salary, since money is essential for performing all routines-duties as a household. He can perform all these functions without attachment.
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत॥14.8॥
और हे भरत वंशी अर्जुन! सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तुम अज्ञान से उत्पन्न होने समझो। वह प्रमाद, आलस्य और  निद्रा के द्वारा देह के साथ अपना सम्बन्ध मानने वालों को बाँधता है। 
The Almighty called Arjun as the one who had taken birth in the lineage of mighty King Bharat. The characteristics evolving out of Tam-ignorance (darkness) generates intoxication, laziness and sleep, ties those who consider themselves to have relation with it. 
सत्त्व, रजोगुण की अपेक्षा तमोगुण अत्यधिक निकृष्ट है। तमोगुण अज्ञान, नासमझी, मूर्खता से उत्पन्न होता है। समस्त देहधारी इससे मोहित हो जाते हैं। सत्-असत्, कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान उन्हें नहीं रहता। अविवेक उन्हें राजस सुख-भोग और संग्रह से भी दूर रखता है। सात्विक सुख तक ऐसा व्यक्ति पहुँचता ही नहीं है। मनुष्य के आलावा अन्य हीन प्राणी तो तमोगुण के प्रभाव से स्वाभाविक रूप से मोहित हैं। तामस गुण से प्रभावित मनुष्य अन्य 84,00,000 योनियों में विचरने वाले पशु-पक्षी, जीव-जन्तुओं के समान खा-पीकर सोने तक ही सीमित रह जाता है। तमोगुण प्रमाद, आलस्य और  निद्रा के द्वारा देह धारियों को बाँधता है, जिससे वे करने लायक शुभ काम नहीं करते और न करने लायक अशुभ कर्मों को करते हैं। आलस्य और नींद उसे घेरे रहते हैं। तमोगुण उसकी साँसारिक-भौतिक अथवा आध्यात्मिक उन्नति नहीं होने देता। 
Out of the three basic tributes of nature Tamo Gun is considered to be the worst. It evolves out of ignorance, imprudence and idiocy. All those who possess the body are influenced by it. Imprudence keeps them off-away from comforts and acquisition of wealth and essential commodities as well, which is the tendency of those who are under the impression of Rajo Gun. Baring a segment, humans too are under the influence of Tamo Gun, like the 84,00,000 species of living beings. They are limited-restricted to eating and sleeping. Tamo Gun binds the organism having a body, through ignorance (darkness), intoxication, stupidity, laziness and sleep, due to which they do not perform auspicious activities and keep themselves busy with vices, sins, inauspicious deeds. Laziness and sleep overpower them. Tamo Gun do not allow them to rise socially, materially or spiritually.
सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत॥14.9॥
हे भरत वंशोद्भव अर्जुन! सत्त्व गुण सुख में और रजोगुण कर्म में लगाकर मनुष्य पर विजय प्राप्त करता है। परन्तु तमोगुण ज्ञान को ढककर एवं प्रमाद में लगाकर मनुष्य पर विजय करता है। 
The Almighty addressed Arjun as the one, who had brought glory to the name of his ancestor, king Bharat! He told Arjun that the Satv Gun deployed the humans in comforts to win them and the Rajo Gun pushed them into some sort of endeavour to win them. The Tamo Gun over powers the humans through intoxication and inducing ignorance, stupidity, imprudence, idiocy in them.
सत्त्व गुण के दो विकार सुख और ज्ञान में आसक्ति होने पर साधक भगवान् की ओर नहीं बढ़ता। ज्ञान का अहंकार  ऐसा करने से रोकता है। मनुष्य सोचता है कि उसे जो चाहिये था, वो तो उसे मिल हो गया और अब हासिल करने को शेष बचा ही क्या है?! रजो गुण का विकार मनुष्य को कर्म और उसके फल की प्राप्ति में उलझा देता है। तमोगुण तो उसके ज्ञान नेत्र बन्द करके उसे अहंकार-प्रमाद और अज्ञान की दलदल में ढ़केल देता है। मनुष्य मूढ़ता, मूर्खता, अविवेक के आश्रय हो जाता है और सोचने-समझने की शक्ति भी खो बैठता है। वह आलस्य और नींद के अधीन हो जाता है।
Two defects of Satv Gun, comfort and enlightenment obstruct devotee's way to Salvation. He thinks that he has attained what he had to and there is nothing thereafter. As a matter of fact Satv Gun deeply involves him and he forgets his purpose-aim of life (Salvation-emancipation, devotion to the Almighty) as a human being. Enlightenment is to awake him not to generate ego and attachment for comforts. Rajo Gun which is mainly responsible for his rebirth-reincarnation generate the instinct to do work and seek result. He should discharge his Varnashram duties, helping others, relentlessly and continue to worship the God, side by side. Tamo Gun generate intoxication, ego, pride in him and push him into ignorance, stupidity, imprudence, idiocy-stupidity. He wastes his time-life in useless ventures and sleeping. Laziness overpower him. He losses his power to think, analyse or to see the truth and thus is leads him to hell, lower species and 84,00,000 incarnations repeatedly.
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा॥14.10॥
हे भरत वंशोद्भव अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण बढ़ता है, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है और वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है। 
Almighty called Arjun, the raiser of glory of Bharat Vansh! HE stated that suppression of Rajo Gun & Tamo Gun boosts Satv Gun, suppression of Satv Gun & Tamo Gun boosts Rajo Gun, while repression of Satv Gun and Rajo Gun boosts Tamo Gun.
रजो गुण की वृत्तियाँ 
Characterises of Rajo Gun :: लोभ, प्रवृत्ति, नये-नये कर्मों का आरम्भ, अशान्ति, स्पृहा (किसी अच्छे काम, चीज या बात की प्राप्ति अथवा सिद्धि के लिए मन में होने वाली अभिलाषा इच्छा या कामना, Ambition, craving, eagerness, desire, covetousness), चञ्चलता, सांसारिक भोग और संग्रह।
Greed, beginning of new ventures, endeavours, projects, targets, goals etc., loss of mental peace, attachment, instability, levity-flirtation, ambitions (craving, eagerness, desire, covetousness), passions, consumption-comforts and accumulation of wealth.
तमो गुण की वृत्तियाँ 
Characterises of Tamo Gun :: प्रमाद, आलस्य, अनावश्यक निद्रा, मूढ़ता।
Intoxication, laziness, unnecessary sleep, idiocy-foolishness.
सत्त्व गुण की वृत्तियाँ 
Characterises of Satv Gun :: ज्ञान, प्रकाश, वैराग्य, उदारता, स्वच्छता, निर्मलता, निवृत्ति, निस्पृहता।
Enlightenment-knowledge pertaining to virtues-Almighty, detachment, liberty, neatness-cleanliness, relinquishment, purity, righteousness, honesty etc.
The devotee makes efforts to suppresses-represses any of the two and the third one starts enhancing-boosting automatically. The human being-devotee has to upgrade himself to Satv Gun and discard the Rajo Gun & Tamo Gun. 
उपरोक्त किन्हीं दो गुणों को दबा देने से तीसरा गुण उभरने लगता है। प्रारम्भ में मनुष्य रजो गुण और तमो गुण पर काबू करे। तत्पश्चात वह सत्त्व गुण का निरन्तर अभ्यास करे। सत्त्व गुण के अभ्यास में सुख में न रमे और ज्ञान के अहंकार से सावधान रहकर आगे बढ़े और सामाजिक, सांसारिक दायित्वों-कर्तव्यों को निस्पृहता साथ निर्वाह करता रहे और अन्त में केवल और केवल अनन्य भक्ति में मन रमाये। 
Satv Gun too needs continuous practice. A stage will come when the devotee-practitioner will start enjoying Satv gun and obtain comfort-solace through it. He will have enlightenment too. But that is not his target. He has to look for unparalleled devotion to the God-Almighty. His aim is Salvation, Liberation and Assimilation in the God.
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत॥14.11॥
जब इस मनुष्य शरीर में सब इन्द्रियों और अन्तःकरण में, प्रकाश (स्वच्छता) और विवेक प्रकट हो जाता है, तब यह जानना चाहिये कि सत्त्व गुण बढ़ा हुआ है। 
When all the sense organs and the innerself in the body are illuminated by enlightenment and prudence, one should know that the Satv Gun has become predominant-pronounced.
प्रकाश का अर्थ है निद्रा, आलस्य और प्रमाद का न रहना। विवेक का अर्थ है सही-गलत, सत्-असत्, कर्तव्य-अकर्तव्य, लाभ-हानि, हित-अहित, ग्राह्य-अग्राह्य का यतार्थ ज्ञान हो जाना। मनुष्य  के अन्दर त्रिगुण प्रकृति के रूप में मौजूद रहते हैं। इन तीनों में से जब सत्त्व गुण बढ़ जाता है तो रजो गुण और तमो गुण दब जाते हैं और मनुष्य के सभी अंगों और अन्तःकरण में ज्ञान का प्रकाश और विवेक जाग्रत हो जाता है। मनुष्य को सही-गलत, सत्-असत्, कर्तव्य-अकर्तव्य, लाभ-हानि, हित-अहित का यतार्थ ज्ञान होने लगता है। मन में निर्मलता, अन्तःकरण की स्वच्छता और विवेक शक्ति का प्रकट होना केवल मानव शरीर में ही संभव है, अन्य शरीरों में नहीं। इस स्थिति में साधक को यह अहसास रहना चाहिये कि उसमें ज्ञान का अहंकार न आये। वो सत्त्वगुण के कार्य प्रकाश और ज्ञान को अपना गुण कभी न माने। उसे स्वयं को सात्विक न समझकर सर्वथा निर्विकार, अपरिवर्तनशील मानना चाहिये। मनुष्य के सभी अंगों और अन्तःकरण में ज्ञान का प्रकाश और विवेक जाग्रत होने पर राग स्वतः दूर हो जाता है और वैराग्य प्रकट हो जाता है। अशान्ति का स्थान शान्ति ले लेती है। लोभ की जगह उदारता आ जाती है। मनुष्य निष्काम हो जाता है। भोग-संग्रह के लिए प्रयास बन्द हो जाते हैं। सभी कार्य सुचारु रूप से होने लगते हैं। 
The three characterises in a human being are the components of nature. With the rise of one, the other two are suppressed. Rise of Satv Gun eliminates the unnecessary sleep, intoxication and laziness. Rise of prudence makes one distinguish between right-wrong, truth-fake (false), profit-loss, virtuous performances and the sins, acceptable and non acceptable. Enlightenment and prudence are possible only in the human body-incarnation. At this juncture one should be aware that he is not intoxicated-over powered by the ego-pride of knowledge. He should consider enlightenment and prudence to be the gift of God not his own creations or entity. He should now become defectless, pure, uncontaminated and should realise that he (as the soul residing in the body) can not be subjected to change. Attachments-allurements automatically perish and relinquishment takes their place. Peace-solace and tranquillity comes. He becomes liberal in stead of having greediness-miserliness. He performs without the motive-desire for rewards, praise or recognition. He stops hoarding-accumulating for future. He do not find interest in passions, luxuries, comforts. All his deeds, duties are performed properly-smoothly, without much efforts-endeavours. He becomes equanimous. 
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ॥14.12॥
हे भरत वंशियों  में श्रेष्ठ अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवत्ति, कर्मों का आरम्भ, अशांति और स्पृहा (किसी अच्छे काम, चीज या बात की प्राप्ति अथवा सिद्धि के लिए मन में होने वाली अभिलाषा-इच्छा या कामना, Ambition, craving, eagerness, desire, covetousness) आदि वृत्तियाँ पैदा होती हैं। 
The Almighty asserted that Arjun was the best person born in the Bharat hierarchy-clan! He said that with the rise of Rajo Gun tendencies like greed, inclination to new ventures, restlessness, new desires-ambitions are strengthened.  
आवश्यकता से अधिक किसी भी चीज को इक्कट्ठा करने-संग्रह करने की प्रवृति लोभ है। राग-द्वेष रहित होकर किसी कार्य में लगना सामान्य मनुष्य की प्रवर्ति नहीं है। राग-द्वेष, सुख की चाह, आराम, धन-सम्पदा को जरूरत से ज्यादा एकत्र-संग्रह करना दोष पूर्ण प्रवर्ति है। संसार में भोग-संग्रह, नाम, इज्जत, मान, प्रशंसा, धन की कामना के साथ कोई नया कार्य, उद्यम आरम्भ करना प्रवर्ति है। मनुष्य जन्म में परमात्मा प्राप्ति ही उद्देश्य होना चाहिये। कामना और संकल्प के साथ कोई कार्य नहीं होना चाहिये। कर्म आसक्ति रहित हो। इच्छा से युक्त कर्म की असफलता से अशान्ति प्राप्ति होती है। किसी भी कार्य, चीज या बात की प्राप्ति अथवा सिद्धि के लिए मन में होने वाली अभिलाषा-इच्छा या कामना स्पृहा है, जिसका त्याग आवश्यक है। रजो गुण के बढ़ने पर प्रवृतियाँ, अभिलाषाएँ, कामनाएँ बढ़ती हैं और इनकी पूर्ति न होने पर अशान्ति पैदा होती है। मनुष्य को इन वृत्तियों को या तो सर्वथा मिटा देना चाहिये अथवा इनके प्रति उदासीन हो जाना चाहिये। 
Greed gives rise to collection-accumulation of commodities, money, wealth beyond a limit. Performance without attachment, envy is not bad. One should not intend to accumulation for the sake of show off, comfort, fame, glory, name or competition. Unnecessary deposition, collection is a wrong instinct-tendency. Beginning of new ventures, projects for such purposes is vague, wasteful, useless. One should opt for Liberation, for which he is born, 
instead of accumulation. There should be no venture for satisfaction of ego, desires. Failure to achieve success leads to pain, dissatisfaction, displeasure and loss of mental peace. One should perform without the desire for rewards, gains, profit. One should reject the call for such performances which are binding, leading to rebirth. With the increase of Rajo Gun one intends to earn, invest, gain as much as possible. For this purpose he goes beyond limits and uses such tactics (ways & means) which are sinful-painful acts. Unable to attain his motives he becomes restless-frustrated and losses his mental balance-harmony. One should be neutral to such vague desires. His sole motive as a human being is Liberation.
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन॥14.13॥
हे कुरु नन्दन! तमोगुण के बढ़ने पर अप्रकाश, अप्रवृत्ति तथा प्रमाद और मोह आदि वृतियाँ भी पैदा होती हैं। 
Arjun was addressed as Kuru Nandan (a distinguished person from Kuru dynasty-clan, hierarchy) by the Almighty! He said that when Tamo Gun becomes predominant; ignorance, inactivity, intoxication and attachments-allurements arise. 
तमोगुण के बढ़ने के साथ ही अन्तःकरण और इन्द्रियाँ मलिन हो जाते हैं और व्यक्ति में सोचने समझने, विचार करने की शक्ति प्रायः लुप्त हो जाती है और विवेक नहीं रहता। काम करने के स्थान पर खाली पड़े-निठ्ठला रहना अच्छा लगता है। समय व्यर्थ की बातों में गंवाना, अहङ्कार का बढ़ना, व्यर्थ की तकरार आदि दुर्गुण मनुष्य में स्वतः आ जाते हैं।अपने आपसे, घर से, नींद से और आलस्य से मनुष्य लिप्त हो जाता है। धन को व्यर्थ करना, नशा, गलत सङ्गति में रहने के साथ-साथ मूढ़ता भी आ जाती है। राग से क्रोध और मोह की वृत्ति  पैदा होती है और मनुष्य का अधो पतन हो जाता है।
Enhancement of Tamo Gun corrupts the innerself and the senses. One looses his ability to think and analyse. Prudence is lost. One starts wasting time in useless sitting, idling-wasting, passing time, lying over the bed or gossiping. Ego replaces reasoning, attachment with home, sleeping, laziness overpowers him. Unnecessary & frequent argumentation, quarrels, frequent anger, use of drugs-narcotics, dubious-bad company, wastage of money, idiocy takes over the brain of such a person. His fall becomes certain-emmittent to hell and thereafter birth-rebirth in lower species like insects.
IDLING :: आलस्य, सुस्ती, निष्क्रियता; lethargy, parasitism, stolidity, melancholy, idleness, laziness, sloth, idle, inactivity, inaction, quiescence, indolence, quiescence.
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते॥14.14॥
जिस समय सत्त्व गुण बढ़ा हो, उस समय यदि देहधारी मनुष्य मर जाता है, तो वह उत्तम वेत्ताओं के निर्मल लोकों में जाता है। 
One who dies during the dominance of Satv Gun, goes to the pious-pure abodes of the enlightened-those who acquired virtues, righteousness, piousity in their life time.
निर्मल प्रवृत्ति के व्यक्तियों में सत्त्व गुण लगातार बढ़ता रहता है। सत्कार्य, सदाचार, पुण्य कार्य, समाज सेवा, दीन-दुःखी की मदद्, परमात्मा की भक्ति, वर्णाश्रम धर्म का पालन, तीर्थ यात्रा इत्यादि ऐसे कार्य हैं, जिनसे मनुष्य की निवृत्ति होती है। ऐसे वक़्त यदि देहान्त होता है, तो मनुष्य को उत्तम-निर्मल लोकों की प्राप्ति होती और वहाँ से लौटने पर पुण्यात्माओं के घर जन्म मिलता है। विवेकवान पुरुष उत्तम वेत्ता है। सत्त्व गुण को अपना मानकर उसमें रमण न करे और भगवान् की सम्मुखता रहे, तो सात्विक गुण से भी असंग-गुणातीत होकर भगवान् के परमधाम को चला जायेगा, अन्यथा सत्त्व गुण का सम्बन्ध रहने पर वह ब्रह्म लोक तक के ऊँचे लोकों को चला जायेगा। ब्रह्म लोक तक के लोकों में तो सापेक्ष निर्मलता है, परन्तु भगवान् के परम धाम में निरपेक्ष निर्मलता है। 
The Satv Gun keep on increasing in those people who perform pious, righteous, virtuous jobs. They keep on doing their Varnashram Dharm-duties assigned by the Shastr-scriptures. He helps the needy, poor, down trodden, visits pious-religious places, undertake pilgrimages, perform charity, attains equanimity-treats all organism at par. These activities enhances the Satv Gun in him and at this stage if one dies, he attains the highest abodes inhabited by the enlightened. But, one has to return from the highest abode and take birth in pious families on earth. If one do not involve himself in the Satv Gun as well and keep himself devoted to the Almighty, he is sure to attain the Ultimate. The Ultimate abode of the Almighty is absolute-beyond compare and no one returns from there. All abodes till Brahm Lok are meant for enjoying the output of the pious deeds, performed with motive, just like the heaven.
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते॥14.15॥
रजोगुण के बढ़ने पर मरने वाला मनुष्य कर्म संगी मनुष्य योनि में जन्म लेता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरने वाला मूढ़ योनियों में जन्म लेता है। 
When one dies during the dominance of Rajo Gun, he is bound to take birth as a human being in association with performances, deeds, actions etc. One who depart with the enhanced Tamo Gun gets birth in inferior species as lower creatures.
मरते समय मनुष्य में यदि रजो गुण यथा :- लोभ, स्पृहा, अशान्ति, प्रवृत्ति आदि बढ़े हुए हैं, तो उसे कर्मों में आसक्ति रखने वाली मनुष्य योनि में ही जन्म मिलेगा। शुभ कर्म करने वाला, अच्छे संसार वाला व्यक्ति फिर से उन्हीं संस्कारों के साथ जन्म लेगा। इस स्थिति में उसे विवेक की प्राप्ति भी होती है, जिससे वह सत्संग, स्वाध्याय कर सकता है। यदि मनुष्य में मरते वक्त तमो गुण की प्रधानता यथा :- प्रमाद, अप्रकाश, मोह है, तो वह कीट-पतंग, पशु-पक्षी, वृक्ष-लता, आदि हीन योनियों में पहुँचेगा। इसीलिये मनुष्य को अपने जीवन का अन्तिम समय भगवत भक्ति, भजन-कीर्तन, प्रभु का चिन्तन-मनन, ध्यान-समर्पण, सत्कार्यों में लगाना चाहिये। 
One who dies with enhanced Rajo Gun like greed, disturbances, displeasure etc. is sure to get rebirth as a human being associated with numerous deeds. One who had been performing virtuous deeds is sure to get rebirth in virtuous families. His virtues in the previous birth will accompany him in this birth as well. In addition to that the God will grant him prudence as well. He would be able to perform prayers, rituals, self study etc. However, a wicked person will have the imprints of his misdeeds carried forward in this birth as well. Therefore, one should adopt auspicious-virtuous company and avoid the company of notorious people (criminals, outlaws, sinners). Those who dies in a state of intoxication, ignorance, laziness etc. are sure to get rebirth as insects, animals, birds, trees etc. If someone is thinking of an animal at the time of (deserting earth) his death, he is sure to move to that species, though temporarily. Therefore, it is advised that one should think, meditate, concentrate in the God only, at the time of his death. He should discard the attachments, allurements, anonymity, rivalry etc. One who thinks of revenge is sure to move to the species of venomous snakes. One should pardon-forgive every one for his own betterment. He should stop thinking of recovery of debts, loans etc. He should surrender to the Almighty, think of HIM, recite HIS names, perform-recite prayers.
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्॥14.16॥
विवेकी पुरुषों ने शुभ कर्म का फल सात्विक निर्मल, राजस कर्म का फल दुःख और तामस कर्म का फल अज्ञान-मूढ़ता और दुःख बताया है। 
The outcome of pious Karm-deeds is Satvik, virtuous (joy, happiness, pleasure), result of Rajas Karm is pain toil & sorrow and the impact of Tamas Karm is ignorance, idiocy, foolishness (rebirth in lower species & hell).
कर्म जिस भावना से किया गया है, वो वही रुप ले लेगा। स्वच्छ, निर्मल परोपकार की भावना से किया गया कार्य जिसके पीछे स्वार्थ और फलेच्छा नहीं है, सात्विक फल प्रदान करता है। रागात्मकता से ग्रस्त कार्य, भोग-विलास, संचय आदि की प्रवृत्ति से ग्रस्त होते हैं। इनमें से कुछ कर्म स्वर्ग की लालसा से किये जाते हैं। अन्ततोगत्वा इनका परिणाम सिवाय दुःख के कुछ नहीं होता। तमोगुण मोह से लिप्त है, जिसकी परिणति हिंसा, हानि, पाप, हीन योनियों में जन्म लेना है। सात्विक कर्म से कभी दुःख पैदा नहीं होता, राजसिक कर्म से सुख पैदा नहीं होता और तामसिक मनोवृति कभी विवेक जाग्रत नहीं होने देती। जिसकी मनोवृत्ति और भावना जैसी होगी मनुष्य जीवन के अवसान काल में उसके अनुरुप ही चिंतन करेगा और उसके अनुसार ही जन्म अथवा मुक्ति प्राप्त करेगा।
Its the mentality, thinking which matters while performing a job, work, deed. The tendency will give it the shape of Satvik, Rajsik or Tamsik deeds. Any deed performed with pure heart, honestly for the welfare of others, society, without any selfishness-motive, expectation of output, reward, benefit will lead to virtuousness, righteousness, piousness. One is sure to get the love and affection of the Almighty. The tendency of performing with the desire of gains, accumulation, satisfaction of passions, comforts is binding and is sure to make the doer suffer. Some pious deeds performed for seeking higher abodes will certainly materialise and elevate the devotee to higher abodes but one who rises, falls as well. It may lead to pain, sorrow, displeasure. One is happy when he gain and weep when he is a looser. Ignorance, imprudence, stupidity, idiocy is sure to indulge one in anti social, criminal, offences, terrorism which is sure to make one move to inferior species. Depending upon the sins earned; one is sure to wander (भटकना) in 84,00,000 species. Still, one is sure to get the abode-birth according to his remembrances at his last moment. Satvik Karm never generate pain-sorrow. Rajsik Karm never lead to bliss. Tamsik Karm never let the prudence rise.
Aggression-attack over Ukraine by Russia-Putin is surely-just imprudence  leading to misery, pain sorrow and millions of years in hells. Its an act of terrorism.
सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
 प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥14.17॥
सत्त्व गुण से ज्ञान और रजो गुण से लोभ आदि ही उत्पन्न होते हैं। तमो गुण से प्रमाद, मोह एवं अज्ञान भी उत्पन्न होते हैं। 
Satv Gun induces Gyan (Understanding, knowledge, prudence, enlightenment) and Rajo Gun generates greed, passions etc. The Tamo Gun produces ego, imprudence, ignorance, negligence, delusion and idiocy. 
सत्त्व गुण से ज्ञान-विवेक जाग्रत होता है, जो मनुष्य को सुकृत, सत्कर्म करने को प्रेरित करता है, जिनके परिणाम स्वरूप वह सात्विक और निर्मल हो जाता है। ऐसे मनुष्य को परमात्मा के गुणातीत स्वरूप का बोध हो जाता है। रजो गुण लोभ पैदा करता है, जिससे मनुष्य को दुःखों की प्राप्ति होती है। तमो गुण से प्रमाद-नींद और आलस्य, मोह एवं अज्ञान उत्पन्न होते हैं, जो विवेक का नाश करने वाले हैं। जरुरत से ज्यादा सोना आलस्य को जन्म देता है और निषिद्ध है। 
Satv Gun initiates righteous, pious, virtuous tendencies in the practitioner. It leads to Gyan-prudence, which enables him in understanding and realising the gist of the Almighty. He gradually becomes Satvik and pure. Rajo Gun produces greed which further induce tendencies in him binding with the world-rebirth. Tamo Gun induces intoxication, ego, laziness, sleep and destruction of prudence. Imprudence snatches the power to think and rationalise, which is the worst possible trait to have.
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः। 
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥14.18॥ 
सत्त्व गुण में स्थित मनुष्य ऊर्ध्व लोकों जाते हैं, रजोगुण में स्थित मनुष्य मृत्यु लोक में जन्म लेते हैं और निंदनीय तमोगुण की वृत्ति में स्थित तामस मनुष्य अधोगति में जाते हैं। 
Those who are established in Satv Gun move to higher abodes-heavens; those who are involved in Rajo Gun reborn in the mortal world and those who had been practicing Tamo Gun move to insipid (फीका, बेस्वाद, रसहीन, मंद, नीरस, स्‍वादहीन), torturous, painful hells & lower species. 
जीवन यापन, रहन-सहन में सत्त्व गुण की प्रधानता होने से प्राणी स्वर्ग, ब्रह्म लोक जैसे उच्च लोकों में जाता है। धर्म का पालन, तीर्थ, जप-तप, दान-पुण्य, लोगों की निस्वार्थ सहायता, कर्म में फलेच्छा न रखना आदि सत्त्व गुण के अन्तर्गत आते हैं। संग्रह, भोग, ऐशो-आराम, स्वार्थ, ममता-कामना, फलेच्छा मनुष्य को पृथ्वी लोक में पुनर्जन्म प्रदायक हैं। अशुद्ध आचरण, निंदनीय कर्म, आराम तल्वी, जरूरत से ज्यादा सोना, दूसरों को दुःख देना, चोरी, डकैती, हत्या, कपट, धोखा-धड़ी, झूँठ, आतंक पैदा करना आदि प्राणी को स्वतः नर्क और अधोगति देते हैं। मनुष्य मरकर भी मुक्त न होकर भूत-प्रेत, पिशाच, नर्क, हीन-निंदनीय योनियों में, इसी कारण पहुँचता है और अत्यधिक कष्ट पाता है। उसकी मुक्ति में अनेकों वर्ष और युग तक व्यतीत हो जाते हैं। फिर भी यदि मृत्यु के वक्त यदि वह मनुष्य योनि का चिन्तन कर रहा होगा तो उसे मनुष्य योनि में जन्म लेकर भयंकर, दुःख-दर्द, पीड़ा, हारी-बीमारी का सामना करना पड़ेगा। अतः मनुष्य को सात्विक भोजन, सात्विक आचार-विचार-मंत्रोपचार, शुद्ध स्थान-संगति का पालन करना चाहिये। 
Purity in life style, mode of living, truth, virtuous behaviour, uplift the man to higher abodes-heavens. One should resort to pilgrimage and perform pious acts there. He should do charity, donations and help the needy-poor. He may feed the beggars, cows, dogs, birds etc. He should perform his duties like helping others, social service, community welfare without the desire for reward, name, fame-honour. One who is busy in accumulation of wealth, selfishness, allurements, desires, comforts is supposed to come back to earth. Those who are busy in nefarious acts, thefts, looting, terrorism, cheating, murders are sure to reach hells and lower species. Still, if they are busy thinking of human life at the time of their death, they will get rebirth on the earth as human being, but would be subjected to pain, torture, sorrow, diseases-illness etc. One may become a ghost as well and lead a painful life. Those who are sent to hells, inferior species, ghosts life are supposed to reside there for thousands of years and some times various Yugs (cosmic era) and Kalps.
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥14.19॥
जब विवेकी, विचारवान व कुशल, व्यक्ति तीनों गुणों के अलावा अन्य किसी को कर्ता के रुप में नहीं देखता और अपने को गुणों से परे-दूर अनुभव करता है, तब वह ईश्वर के सत्स्वरूप को प्राप्त होता हो जाता है। 
The Almighty said that when a prudent visionaries perceive himself as the non performer and considers that all actions are due to the three modes-characterises of nature, he attains HIM.
समस्त क्रियाएँ गुणों के परस्पर क्रिया करने से ही होती हैं। गुणों के अलावा अन्य कोई कर्ता है ही नहीं। ये गुण जिससे प्रकाशित होते हैं, वह तत्त्व, गुणों से परे-दूर है। गुणों से अलग होने के कारण वह कभी इनमें लिप्त नहीं होता और क्रियाओं का उस पर कोई असर नहीं होता। जो व्यक्ति इस तथ्य को विचार-मनन के द्वारा जान-समझ लेता है, वह अपने आपको गुणों से पर-अतीत, असम्बद्ध, निर्लिप्त अनुभव करता है। गुण परिवर्तन शील है और स्वयं-आत्मा में कभी कोई परिवर्तन होता ही नहीं। जो इस तथ्य को मान लेता है, वो भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
All actions-activities are the result of the interaction of the three modes-characterises amongest themselves. The factor which illuminates them is not mixed with them. He is not affected by them. He is always neutral-equanimous. The prudent, thinker, enlightened, who has understood this gist, always finds himself alienated from the characterises. These characterises are changeable, while the soul always remains the same. One who has understood this and acts accordingly attains the God, never to reborn.
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥14.20॥
देहधारी-विवेकी मनुष्य, देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था रुप दुःखों से रहित हुआ, अमरता का अनुभव करता है। 
The enlightened-prudent rises above the three characterises of nature, which produce the body and experiences immortality having freed from the pains of birth, old age and death. 
देह-शरीर की उत्पत्ति प्रकृति के त्रिगुण से ही होती है। विचार शील मनुष्य इन गुणों का अतिक्रमण करके देह से अपना सम्बन्ध नहीं मानता। शरीर धारी होने से ही उसे देही कहा गया है। जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था शरीर के गुण हैं। जब विचारशील व्यक्ति शरीर से ही सम्बन्ध नहीं मानता, तो दुःख कैसा? जो गुणों से निर्लिप्तता का अनुभव कर लेता है, उसे अमरता का अहसास हो जाता है। देही-आत्मा अमर है, देह-शरीर नहीं। 
The body is composed of the three characterises of nature. The enlightened, learned, scholar, philosopher, visionary crosses this hurdle and disown the body. Birth, old age and death are the features of the body. The soul is for ever, since ever. One who has discarded the body feels free and experiences immortality, the characterises of soul-spirit, which is a component of the Almighty.
अर्जुन उवाच :- 
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते॥14.21॥
हे प्रभो! इन तीनों गुणों से अतीत हुआ मनुष्य किन लक्षणों से युक्त है और इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कैसे किया जा सकता है ? 
Arjun asked Bhagwan Shri Krashn to narrate the features of the man who had transcended-won over the three characteristics of nature and explain how to overpower them.
अर्जुन ने भगवान् श्री कृष्ण से पूछा कि जो व्यक्ति प्रकृति जनित गुणों का अतिक्रमण कर चुका है, उसके लक्षण क्या हैं, उसमें क्या विलक्षणता पैदा हुई है? उसका आचरण, व्यवहार, खान-पान, रहन-सहन, उठना-बैठना कैसा होता है, उसकी दिन चर्या कैसी होती है? इन तीनों गुणों को अतिक्रमण करने का उपाय क्या है?
Arjun became curious to know about those who had overcome, overpowered the three characteristics of nature. Their mode of living & interaction with others. He wanted to find out the speciality acquired by them in their behaviour & their daily routine. He desired to know the methods-procedures which enabled them to cross the barriers of the three obstacles in the path of Liberation-emancipation.
श्रीभगवानुवाच :-
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥14.22॥
हे पाण्डव! प्रकाश और प्रवृति तथा मोह, ये सभी अच्छी तरह से प्रवृत्त हो जाएँ तो भी गुणातीत मनुष्य, इनसे द्वेष नहीं करता और ये सभी निवृत्त हो जाएँ तो इनकी इच्छा नहीं करता। 
Bhagwan Shri Krashn addressed Arjun as Pandav and said, "The enlightened never has envy-hate for the three characteristics viz. Satv, Raj and the Tam, in spite of being associated with them and does not long for them, when they are no more". 
इन्द्रियों और अन्तःकरण की स्वच्छता, निर्मलता ही प्रकाश है। इन्द्रियों के द्वारा शब्दादि विषयों का ज्ञान होता है, मन से मनन होता है और बुद्धि से निर्णय  होता है। सत्व गुण में प्रकाश वृत्ति ही मुख्य है, क्योंकि जब तक इन्द्रियों और अन्तःकरण में प्रकाश नहीं आता, स्वच्छता-निर्मलता नहीं आती और तब तक विवेक जाग्रत नहीं होता। रजोगुण के साथ सम्बन्ध लोभ, प्रवृत्ति, राग पूर्वक कर्मों का प्रारंभ होना, अशान्ति और स्पृहा पैदा करता रहता है। गुणातीत मनुष्य में रजोगुण प्रभावहीन हो जाता है, यद्यपि वह आसक्ति, कामना रहित प्रवृति, निष्काम भाव से नित्यकर्म और अन्य क्रियाएँ करता रहता है। राग और क्रिया में राग दुःखों का कारण है। गुणातीत व्यक्ति में राग भी खत्म हो जाता है। गुणातीत मनुष्य में सत्त-असत्त, नित्य-अनित्य, कर्तव्य-अकर्तव्य का मोह तो रहता ही नहीं है। तथापि व्यवहार में गलती-भ्रम हो सकता है। सत्त्व गुण का प्रकाश, रजो गुण की प्रवृत्ति और तमो गुण का मोह; इन तीनों से अच्छी तरह प्रवृत्त होने पर भी गुणातीत व्यक्ति, इनसे द्वेष नहीं करता और इनसे निवृत्त होने पर इनकी इच्छा नहीं करता। साधक वृत्तियों को अच्छा, बुरा या अपने में न माने, क्योंकि ये तो आने-जाने वाली हैं, जबकि स्वयं, आत्मा-देही निरन्तर है। वृत्तियों का सम्बन्ध प्रकृति के साथ और मनुष्य-आत्मा का सम्बन्ध परमात्मा के साथ है। 
Purity-piousness of the organs and the innerself is illumination-enlightenment. It grows prudence in the devotee-practitioner. The sense organs help him in recognition-identification and the innerself help in thinking, meditation, analysis. The decision is taken by the intelligence, thereafter. Satv Gun grants purity, enlightenment and prudence. The Rajo Gun create tendencies to work with greed, resulting in pain, disturbance and attachment. The detached remains unaffected by Rajo Gun, though he continues performing essential activities for survival. He is free from attachments, bonds, ties, allurements and performs without the desire for name, fame, honour or financial-monetary gains. Out of the two, attachment and action, attachment leads to pain-sorrow. The detached is free from the distinction or hate and love for pure or contaminated, regular or perishable, action or inertial (inaction). Still, he may commit mistakes. The detached do not envy-hate the illumination of Satv Gun, tendency of Rajo Gun and the attachment of Tamo Gun, in spite of being involved with them. When he overcome-overpower them, he do not crave for them. He generate equanimity, equanimous behaviour-attitude towards them. The devotee-practitioner should not recognise these three characteristics in himself, since they are not permanent. They may increase-decrease, eliminate or evolve again. The soul-self is for ever being a component of the Almighty.
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥14.23॥
जो गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, इस भाव से जो अपने स्वरूप  स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता वह उदासीन की तरह स्थित है।  
One is stable with equanimity and can not be disturbed by the characteristics and remains neutral, being aware that the characteristics are interacting amongest them selves, do not make any attempt of his own.
गुणातीत मनुष्य-साधक उदासीन है, वह किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं है। वह इस संसार को और परमात्मा को एक ही दृष्टि से देखता है। संसार की स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं। यह संसार ईश्वर की सत्ता से ही चालित है। वह साधक अपने अन्तःकरण में सत्त्व, रज और तम गुणों वाली वृत्तियों से विचलित नहीं होता, क्योंकि परमात्म तत्व का प्रभाव उसे निरंतर जाग्रत रखता है। वह जानता है कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं अर्थात समस्त क्रियाएँ गुणों के परस्पर मिलने से होती हैं। यह जानकर ही वह अपने स्वरूप में निर्विकार भाव से स्थित है। गुणातीत व्यक्ति स्वयं कोई चेष्टा नहीं करता। 
The relinquished-detached is equanimous. He is neither in favour or against any one. He visualise the Almighty and the world alike. The world lacks independent existence. It is due to the God and operate by his might. The gist of the God is so profound in him that he is not motivated or disturbed by the characteristics. The impact of the Almighty always keeps him awake-alert. He is aware that the characteristics are interacting amongest themselves (there are infinite permutations & combinations leading to next births). All actions, activities materialise when the characteristics mix up. Thus neutral and untainted, he is idling (निष्क्रिय) in himself. He never make any attempt by himself, of his own.
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥14.24॥
 मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते॥14.25॥
जो धीर मनुष्य दुःख-सुख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढ़ेले, पत्थर और सोने में सम रहता है; जो प्रिय-अप्रिय में सम रहता है, जो अपनी निंदा-स्तुति में सम रहता है; जो मान-अपमान में सम रहता है; जो मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है और जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।
The patient-courageous-steadfast, who remains equanimous (indifferent, neutral) in pleasure & pain and stabilised in himself; weighs gold, like a lump of clay and stone equally; remains unaffected towards likes & dislikes; neutral towards insult & honour (censure and in praise); maintains normal relations with both friends and foes; has rejected new ventures since beginning; is relinquished, detached, renounced, transcended.
नित्य-अनित्य, सार-असार, आदि के तत्व को जानकर स्वतः सिद्ध स्वरूप में स्थित होने से गुणातीत मनुष्य धैर्यवान (Patient) कहलाता है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ ही सुख-दुःख हैं। जो इन्द्रियों, शरीर और मन के अनुकूल है, वह सुख है। गुणातीत मनुष्य दोनों स्थितियों में सम-तटस्थ बना रहता है। वह सदैव अपने स्वरूप (आत्मभाव ) में स्थित रहता है। स्वर्ण, मिट्टी का ढेला, पत्थर या पारस उसके लिए समान हैं। सोने और पारस का ज्ञान होते हुए भी वह इनके प्रति उदासीन बना रहता है। सिद्धि-असिद्धि या उनका तात्कालिक प्रभाव उसके लिए बेमानी है। कोई उसकी बुराई करे या बड़ाई उसे फर्क नहीं पड़ता। उसे निन्दकों-आलोचकों से द्वेष और प्रसंशा करने वालों के प्रति राग नहीं होता। मान-अपमान में वह शांत-प्रतिक्रिया रहित बना रहता है। मित्र या शत्रु जैसे शब्द उसके लिए नहीं हैं, क्योंकि वह सभी से तारतम्य, समान व्यवहार करता है। जो मनुष्य प्रकृति जन्य गुणों से दूर-उदासीन-सम-तटस्थ है, वह गुणातीत है। 
One who has alienated (अलग-थलग) himself from the characteristics of nature, having understood gist of momentary and forever, mortal & immortal; is stabilised in himself. He is patient and courageous. He remains neutral in both favourable or adverse conditions-situations, circumstances. For him pain & pleasure are alike. Favourable conditions gives pleasure to senses, organs, body, mood and the psyche. He do not worry about the favourable or against. He weighs a lump of gold and a mould equally. The Philosopher's Stone and an ordinary stone are alike for him. He treats the jewels like dust. Achievement or failure carries no weight  for him. He neither feel happy nor pained in case of rejection or success. He do not care for his appreciation or criticism. For him insult & honour; censure or praise are alike. He do not feel attached towards those who favour, appreciate, honour him. He is not bothered by friends or foes. He maintains a balanced-equanimous relation-behaviour with all. He is beyond the characteristics of nature.
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते। 
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥14.26॥ 
और जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्ति योग के द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है। 
One who worship the Almighty with the help of pure-pious Bhakti Yog qualifies for the unswerving devotion-Salvation & transcends the three modes-characteristics  of material Nature. 
भगवान् ने गुणातीत (निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति) होने का उपाय भक्ति बताया है। साधक को यदि ज्ञान योग अथवा कर्म योग का सहारा न भी हो तो भी वह मात्र भक्ति योग से परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। केवल भगवान् का ही आश्रय, सहारा, सम्बल, आशा, बल, विश्वास, भक्ति मार्ग ही साधक के लिए पर्याप्त है। जो साधक अनन्य भाव से प्रभु की शरण में है, उसे गुणों के अतिक्रमण का प्रयास नहीं करना पड़ता, प्रभु स्वयं ही उसका मार्ग सरल-निष्कंटक बना देते हैं। 
The Almighty propounded (प्रतिपादित, स्थापित) the means of the attainment of Brahm through Bhakti Yog. Devotion to the God automatically cuts the bonds of three characteristics of material nature-world. The devotee-practitioner can achieve the Ultimate through devotion without the help of Gyan Yog-enlightenment and Karm Yog performances as per the directives of scriptures. Shelter, asylum, seeking protection under the God, faith and one point-single mind devotion are enough for attaining Brahm-Liberation. One is not supposed to cross the barrier of the material characteristics. The Almighty HIMSELF makes his path clear.
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥14.27॥
क्योकिं ब्रह्म का और अविनाशी अमृत का तथा शाश्वत धर्म का और ऐकान्तिक सुख आश्रय मैं ही हूँ। 
The Almighty declared that HE is the basis-support of Brahm, Ambrosia-Amrat, everlasting cosmic order (Dharm) and absolute bliss. 
परमात्मा ने स्पष्ट किया कि ब्रह्म के आधार वही हैं अर्थात निराकार परमात्मा और साकार ब्रह्म वही हैं। भगवान् श्री कृष्ण ही परमात्मा और ब्रह्म हैं। अविनाशी अमृत भी वही हैं, क्योंकि जो अनंत है, वह परमात्मा का रुप ही है। सनातन धर्म-हिन्दु धर्म स्वयं प्रभु हैं। ऐकान्तिक सुख भी परमात्मा ही हैं। जिस प्रकार एक ही जल बर्फ, तरल, द्रव्य, ठोस, वाष्प, बादल, नदी, समुद्र, कुँए के रुप में दिखता है, वैसे ही परमात्मा भी ब्रह्म, अमृत, ऐकान्तिक सुख स्वरुप हैं।
The Almighty made it absolutely clear to Arjun that HE is the Brahm-God, Ambrosia-Amrat, the eternal religion-Sanatan Dharm, i.e., Hindu Dharm and the Ultimate  Bliss. The manner in which water is seen as ocean, river, glacier, well, cloud, vapours, mist, ice, fog; the God too is seen in various other forms time and again to perpetuate the humanity.
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे। 
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥14॥
इस प्रकार ॐ तत् सत्-इन भगवन्नामों के उच्चारण पूर्वक ब्रह्म विद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरुप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में "गुणत्रय विभाग योग" नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। 
In this manner the chapter pronouncing-describing Om, Tat, Sat is completed, in the form of a conversation between the Almighty Shri Krashn and Arjun. It describes the need to overcome the three basic characteristics of material nature, i.e., futility of the characteristics of nature.
The revision of this chapter has been completed today at Gledswood Hills, NSW, Sydney, Australia on 26.03.2018 with the grace of the Almighty, Ganesh Ji Maharaj & Maa Saraswati. Its devoted to the virtuous readers. Let Bhagwan Ved Vyas give me strength to continue with the work without disturbances.
Thorough revision of this  chapter has been completed today i.e., 21.03.2024, at Noida.
    
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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